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३६० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है। यह अवस्था करीब-करीब सांख्यदर्शन के मुक्तपुरुष की तरह है जो अचेतन ( प्रकृति ) के प्रभाव से सर्वथा रहित है।' ___ जीवन्मुक्तों को व्यवहार की दृष्टि से मुक्त कहा गया है क्योंकि वे अभी पूर्ण मुक्त नहीं है परन्तु शीघ्र ही नियम से मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं। मानव का कल्याण तथा विश्वबन्धुत्व की भावना का प्रसार इन्हीं के द्वारा सम्भव है। ये संसार में रहने वाले आप्तपुरुष ( महापुरुष ) हैं। जीव के स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक सभी घातिया कर्मों को नष्ट कर देने के कारण इनकी मुक्ति अवश्यंभावी है । अतः अघातिया ( निष्क्रिय ) कर्मों का सद्भाव रहने पर भी इन्हें जीवन्मुक्त कहा गया है। केवलज्ञान से युक्त ( सर्वज्ञ ) होने के कारण इन्हें 'केवली' कहा गया है। ये जीवन्मुक्त सयोगी और अयोगी के भेद से दो प्रकार के हैं। जब तक ये मन, वचन एवं काय की क्रिया से युक्त रहते हैं तब तक 'सयोगी' तथा मन, वचन एवं काय की क्रिया से रहित हो जाने पर 'अयोगी' कहलाते हैं। अयोगकेवली की स्थिति विदेहमुक्तों की तरह ही है क्योंकि वे भी विदेहमुक्तों की तरह मन-वचन-काय की क्रिया से रहित हैं । यद्यपि ग्रन्थ में सामान्य साधुओं के लिए भी जीवन्मुक्त का व्यवहार हुआ है परन्तु यह कथन मुक्ति के मार्ग में प्रवेश करलेने के कारण व्यवहार की अपेक्षा से है। अत: सभी साधु जीवन्मुक्त नहीं हैं अपितु जिन्होंने समस्त मोहनीय कर्म का समूल विनाश कर दिया है और जो सर्वज्ञ हो चुके हैं वे ही वास्तव में जीवन्मुक्त हैं।
इस तरह ग्रन्थ में मुक्ति की जो अवस्था चित्रित की गई है वह एक अलौकिक अवस्था है। वहां न तो स्वामी-सेवकभाव है
और न कोई इच्छा। इसे प्राप्त कर लेने पर जीव कभी भी संसार में वापिस नहीं आता है । वह कर्मबन्धन से पूर्ण मुक्त हो जाता है । यह आत्मा के निर्लिप्त स्व-स्वरूप की स्थिति है । यहाँ सब प्रकार के सांसारिक बन्धनों का हमेशा के लिए अभाव हो जाने के कारण इसे मुक्ति कहा गया है ।
१. देखिए-सांख्यकारिका, ६५.
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