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प्रकरण २ : संसार बुद्धं ने भी अपने चार आर्यसत्यों में प्रथम सत्य 'संसार की दुःखरूपता' को ही स्वीकार किया है।' दुःखरूप संसार की कारण-कार्य-परम्परा : ___ उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि इस संसार में दुःख ही सत्य है। इसमें जो सूखानुभति होती है वह मानसिक, क्षणिक, कल्पनाप्रसूत या आभासमात्र है। चूंकि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता है अतः इन दुःखों का भी कारण अवश्य होना चाहिए। इन दुःखों के कारणों पर विचार करते हए ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार से इसकी कारण-कार्यशृंखला का प्रतिपादन किया गया है जिसके प्रतिपादन में विभिन्नता होने पर भी एक इकाई और सामञ्जस्य है । वह कारण-कार्य-परम्परा इस प्रकार है : ___ जन्म-मरण-संसार में जो दुःख हैं उनका कारण है-जन्म-मरण को प्राप्त होना ।२ यदि जीव का जन्म न हो तो रोगादिजन्य पीड़ा भी न हो क्योंकि जन्म होने पर दुःख एवं मृत्यु आदि अवश्यंभावी हैं। अतः ग्रन्थ में रोगादिजन्य दुःख के समान जन्म को भी दुःखरूप कहा गया है। __शुभाशुभ-कर्मबन्धन-इस जन्म-मरणरूप संसार का भी कारण है-व्यक्ति के द्वारा किया गया शुभाशुभ-कर्म (अदृश्य-भाग्य) ।" जब जीव अहिंसा, दया, दान आदि अच्छे कार्य करता है तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्गादि में जन्म लेता है। जब हिंसा, झूठ, चोरी आदि
१..देखिए-प्रकरण ३. २. रागो य दोसो वि य कम्मवीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । - कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयंति ।
-उ० ३२.७. ३. देखिए-पृ० १३४, पा० टि० ४. ४. देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २; -उ० ३.२, ५-६; ४.२; ७.८-६;
१०.१५; १३. १६-२०; १४.२, १६; १८.२५; १६.१६-२०,२२,५६,५८, २०.४७; २१.२४; २५.४१; ३२.३३, ३३.१.
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