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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
१. छिन्न विद्या ( वस्त्र व काष्ठ आदि के छेदने की विद्या ), २. स्वर विद्या (संगीत के स्वरों का ज्ञान ), ३. भूकम्प विद्या, ४. अन्तरिक्ष विद्या, ५. स्वप्न विद्या, ६. लक्षण विद्या ( स्त्री व पुरुष के चिह्नों एवं रेखाओं का ज्ञान ), ७. दण्ड विद्या (लाठी के पर्वों का ज्ञान ), ८. वास्तु विद्या ( प्रसाद - सम्बन्धी विद्या), ६. अंगविचार विद्या ( अंग - स्फुरण का ज्ञान ), १०. पशु-पक्षी के स्वरों की विद्या, ११. कौतुक विद्या ( कौतूहल उत्पन्न करनेवाली विद्या), १२... कुहेक विद्या ( आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली विद्या ) और १३. निमित्त विद्या (त्रिकाल में शुभाशुभ फल बतलानेवाली विद्या ) । इनके अतिरिक्त अभीष्ट सिद्धि के लिए मन्त्र तथा भूतिकर्म ( भस्म का लेप ) का भी प्रयोग किया जाता था । इन्हें मन्त्र-तन्त्र या जादू-टोना की शक्ति कहा जा सकता है । इनकी सिद्धि तपादि के प्रभाव से होती थी । अतः साधु को तप के प्रभाव से सिद्ध होनेवाली शक्तियों की ओर से निःस्पृह रहने को कहा गया है।
इस तरह इन विविध रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के साथ उद्योग व्यापार आदि का भी पता चलता है । किसी भी समाज व संस्कृति की ठीक-ठीक स्थिति के जानने में इन रीति-रिवाजों और प्रथाओं का प्रमुख स्थान होता है ।
राज्य-व्यवस्था व मानव
प्रवृत्तियाँ
'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत प्रायः सभी जानते हैं । साथ ही यह भी सभी जानते हैं कि देशकाल की परिस्थिति के अनुकूल जनसामान्य की प्रवृत्तियाँ भी बदलती रहती हैं और जनसामान्य की प्रवृत्तियाँ बदलने पर तत्कालीन राज्य-व्यवस्था के साथ धार्मिक व दार्शनिक सम्प्रदायों पर भी प्रभाव पड़ता है । प्रकृत ग्रन्थ में राज्य-व्यवस्था आदि के विषय में जो संकेत मिलते हैं वे इस प्रकार हैं :
१. मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे परंजंति ।
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- उ० ३६.२६५.
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