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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन परमाणु का यद्यपि चक्षु से प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं होता है फिर भी उस में रूपादि का अभाव नहीं है। यदि उसमें रूपादि का अभाव मान लिया जाएगा तो उसमें पुद्गल का सामान्यलक्षण ही घटित नहीं होगा तथा अनेक परमाणुओं के संयोग होने पर भी स्कन्ध में कभी भी रूपादि की प्रतीति नहीं होगी क्योंकि सर्वथा असत् से सत् कभी भी उत्पन्न नहीं होता है । परमाण के अतिसूक्ष्म होने के कारण हमें उसके रूपादि की प्रतीति नहीं होती है।
पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश (अतिसूक्ष्म स्थान) में और पुद्गल स्कन्ध आकाश के बहुत प्रदेश (अधिक स्थान) में ठहरता है। इस तरह सामान्यतौर से पुद्गल-स्कन्ध अधिक-स्थान (बहुप्रदेश) को घेरता है परन्तु कुछ स्कन्ध ऐसे भी हैं जो अपने गुणविशेष के कारण एकप्रदेश में भी ठहर जाते हैं। इसी प्रकार व्यक्ति की अपेक्षा से परमाणु के एकप्रदेशी होने पर भी शक्ति की अपेक्षा से उसमें भी बहुप्रदेशीपना माना गया है। अत: पुदगल-द्रव्य की स्थिति एक से अधिक प्रदेश में होने के कारण इसे जैनदर्शन में 'अस्तिकाय' कहते हैं ।२ अस्तिकाय का अर्थ है-जो बहुत प्रदेश में ठहरे। धारा-प्रवाह की अपेक्षा से ये स्कन्ध और परमाणु १. एगत्तेण पुहुत्तेण खंधा य परमाणु य ।। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा. ते उ खेत्तओ ।।
-उ० ३६.११. अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणनामेकप्रदेशास्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः।
-पंचास्तिकाय-तत्त्वदीपिका टीका, पृ० १३. २. जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेव आयासं । अत्थितम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहंता ॥
-पंचास्तिकाय, गाथा ४.
ते चेव अस्थिकाया"""
-पंचास्तिकाय, गाथा ६.
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