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२०६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वाले) से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। इस तरह जो ज्ञान संसार के विषयसुखों की ओर ले जाता है वह मिथ्या है तथा जो मुक्ति की ओर अभिमुख करता है वह सत्य है। इसका कारण है कि सांसारिक विषयभोग व तज्जन्य सुख अनित्य व आभासमात्र (मिथ्या) हैं जबकि मुक्ति व जीवादि नवतथ्य त्रिकालसत्य हैं। ज्ञान के प्रमुख पाँच प्रकार : __ ज्ञान के आवरक पाँच प्रकार के कर्मों के स्वीकार करने से तत्तत् आवरक कर्मों के उदय में न रहने रूप पाँच प्रकार के ज्ञान स्वीकार किए गए हैं । जैसे : १. शास्त्रज्ञान (श्रुतज्ञान), २. इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान (आभिनिबोधिकज्ञान-मतिज्ञान), ३. कुछ सीमा को लिए हुए रूपी पदार्थ विषयक प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (अवधिज्ञान), ४. दूसरे व्यक्ति के मन के विकल्पों में चिन्तनीय रूपीपदार्थ को जानने वाला रूपी-पदार्थविषयक प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (मनःपर्यायज्ञान। और ५. त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों का पूर्ण व असीम प्रत्यक्षात्मक दिव्यज्ञान (केवलज्ञान)। '
इनमें अन्त के तीन ज्ञान क्रमशः उच्च, उच्चतर और उच्चतम दिव्यज्ञान की अवस्थाएँ हैं तथा इन तीनों ज्ञानों में इन्द्रियादि की सहायता आवश्यक नहीं होती है। यद्यपि ग्रन्थ में इनके स्वरूपादि का विशेष विचार नहीं किया गया है तथापि इनके विषय में कुछ संकेत अवश्य मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं :
१. श्रुतज्ञान-इसका सामान्य अर्थ है- शब्दजन्य शास्त्रज्ञान । परन्तु सम्यक श्रुतज्ञान वही है जो जिनोपदिष्ट प्रामाणिक शास्त्रों से होता है। जिनोपदिष्ट प्रामाणिक ग्रन्थ अङ्ग (प्रधान) और अङ्गबाह्य (अप्रधान) के भेद से दो प्रकार के हैं। अतः श्रुतज्ञान भी जैनदर्शन में प्रथमतः दो प्रकार का माना गया है। अङ्ग १. पापसुयपसंगेसु
-उ० ३१.१९. २. तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभि निबोहियं । ओहिनाणं तु तइयं मणनाणं च केवलं ।।
-उ० २८. ४. .
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