________________
प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ १८१ पापास्रव को समझा जाता है। ग्रन्थ में भी पापास्रव के पाँच भेदों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और धन-सञ्चय ) का संकेत किया गया है। परन्तु पापास्रव की तरह पुण्यास्रव भी मुक्ति के लिए त्याज्य है।
६. बन्ध-चेतन के साथ अचेतन कर्म-परमाणओं का सम्बन्ध होना।
७. संवर-पुण्य और पापरूप कर्मों को चेतन के पास आने (आस्रव) से रोकना । सामान्यतया पापास्रव को रोकना संवर का कार्य समझा जाता है । ग्रन्थ में इसके भी पापास्रव विरोधी पाँच भेदों का संकेत है। फल-प्राप्ति की अभिलाषा के बिना किए जाने वाले सत्कर्म संवररूप होते हैं। जब जीव अहिंसादि सत्कार्यों में प्रवृत्त होकर फलप्राप्ति की कामना करता है तो वे पुण्यास्रव होकर बन्ध के भी कारण हो जाते हैं। जैसे पूर्वभव में फलाभिलाषा से युक्त (निदानसहित) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और फलाभिलाषा से रहित चित्तमुनि के द्वारा किए गए एक समान अहिंसादि पुण्य-कर्म अगले भव में अलग-अलग फलवाले हुए।" इस तरह फलाभिलाषा (निदान) १. देखिए-पृ० १६६, पा० टि० १; उ० १६. ६४; २०.४५; २६.११. २. अज्झत्यहे निययस्स बंधो संसार हेउं च वयंति बन्छ ।
-उ० १४.१६. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।
-त० सू० ८. १-२. - आत्मकर्मणोरन्योऽन्य प्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्धः ।
-सर्वार्थसिद्धि, पृ० १४. ३. आस्रवनिरोधः संवरः ।
-त० सू० ६.१. ४. सुसंवुडा पंचर्हि संवरेहि।
-उ० १२.४२. ५. कम्मा नियाणपगडा तुमे राय ! विचितिया। तेसि फलविवागेण विप्पओगमुवागया।
-उ० १३.८. तथा देखिए-उ.१३.१,२८-३०.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org