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________________ ३२६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । हो उसे ग्रहण न करे। यद्यपि आहारादि की उत्पत्ति में गृहस्थ के द्वारा कुछ सूक्ष्म हिंसा होती है परन्तु उस हिंसा का भागी साघ नहीं होता है क्योंकि उस सूक्ष्म हिंसा को गहस्थ अपने निमित्त से करता है, साधु के निमित्त से नहीं । अतः ग्रन्थ में स्पष्ट कहा गया है कि साधु उस आहार।दि को ग्रहण न करे जिसे उसके निमित्त से बनाया गया हो या चोरी आदि अन्य अनैतिक उपायों से उत्पन्न किया गया हो। इसके अतिरिक्त उसे जो भी रूखा-सूखा आहारादि मिले उसमें उपेक्षाभाव ( समभाव ) रखते हुए ग्रहण करे। साधु को जो मन्त्रादि शक्तियों के प्रयोग का निषेध किया गया है उसके भी मूल में अहिंसा व अपरिग्रह की भावना निहित है क्योंकि मन्त्रादि शक्तियों का जीवन-निर्वाह के लिये प्रयोग करने पर साध क्रय-विक्रय करने वाला गृहस्थ हो जाएगा और तब वह साधु क्रय. विक्रय से होने वाले सभी हिंसादि दोषों का भागी भी हो जाएगा। अतः आवश्यक है कि साधु आहारादि को ग्रहण करते समय अहिंसादि व्रतों को ध्यान में रखते हुए ही प्रवृत्ति करे। इस तरह वस्त्रादि उपकरण एवं आहारादि के विषय में जो भी नियम और उपनियम हैं उन सब के मूल में अहिंसादि पाँच नैतिक व्रतों की ही भावना निहित है। अरण्य आदि एकान्त स्थान में निवास इसलिए आवश्यक है कि नगर में निवास करने से धर्म-साधना निविघ्न नहीं होती है क्योंकि नगर में नाना प्रकार के हिंसादि कार्य होते रहते हैं तथा स्त्रियों के नाना प्रकार के हाव-भाव दृष्टिगोचर होते रहते हैं जिससे संयम में स्थिर रहना कठिन हो जाता है। गृहस्थ के घर में चोरी आदि के होने पर साधु को भी संशय में पकड़ा जा सकता है । अतः महाव्रतों की रक्षा के लिए साधु को स्त्री आदि के आवागमन से रहित अरण्य आदि एकान्त स्थान में निवास करने का विधान किया गया है । चित्त की एकाग्रतारूप तपादि भी एकान्त स्थान में ही संभव हैं। साधु को एक स्थान पर निवास न करके देश-देशान्तर में बिहार करना इसलिए आवश्यक बतलाया गया है कि जिससे साध किसी एक स्थान-विशेष स मोहवश चिपका न रहे। वकाल में चुंकि क्षुद्र-जीवों की काफी मात्रा में उत्पत्ति हो जाती है अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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