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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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सुरक्षित रख सकता है । अतः इस दृष्टि से भी इन्हें 'प्रवचनमाता' कहना उचित है । संयम में प्रवृत्ति और असंयम से निवृत्ति इनका ( समिति और गुप्ति का ) मूल-मन्त्र है। रागद्वेष से होनेवाली मन, वचन और काय-सम्बन्धी स्वच्छन्द-प्रवृत्ति को सम्यक्रूप से रोकना संयम है तथा संसार के विषयों में होनेवाली स्वच्छन्द प्रवत्ति को होने देना असंयम है। संयम में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करने से तथा सब प्रकार की असंयमित प्रवत्तियों को रोकने से पाँचों महाव्रतों की रक्षा होती है । अतः महाव्रतों की रक्षा के लिए समिति
और गुप्तिरूप प्रवचनमाताओं का पालन करना आवश्यक है । ___ अब यहां यह विचार करना है कि साधु के आचार के प्रसङ्ग में जिन अन्य नियमों का वर्णन किया गया है उनमें किस प्रकार एवं कहां तक उपयुक्त पाँच नैतिक महाव्रतों की भावना निहित है ? ___ साधु के पास न तो कोई निजी वस्तु होती है और न उसे किसी भी वस्तु से ममत्व होता है, फिर भी जीवन-निर्वाह एवं संयम का पालन करने के लिये वह कुछ उपकरणों को अपने पास में रखता है तथा भिक्षान्न का भक्षण करता है। साध के पास जो भी वस्त्र, पात्र आदि उपकरण होते हैं वे सब गृहस्थ के द्वारा दिए गए होते हैं और बहुत ही सस्ते होते हैं ताकि उनके गुम जाने से दुःखादि न हो। इससे साधु की अपरिग्रह-भावना सुरक्षित रहती है। साध इन उपकरणों की प्राप्ति के लिये किसी प्रकार का क्रय-विक्रय या उत्पादन आदि नहीं करता है जिससे हिंसादि दोषों की भी संभावना नहीं रहती है । इसके अतिरिक्त साधु गहस्थ को इन उपकरणों को देने के लिए न तो बाध्य करता है और न अपने निमित्त से तैयार किए गए उपकरणों को ही ग्रहण करता है, अपितु आवश्यकता पड़ने पर गृहस्थ के द्वारा स्वेच्छा से देने पर ही उन्हें ग्रहण करता है। अतः हिंसादि दोषों की संभावना नहीं रहती है। आहारप्राप्ति के विषय में जिन दोषों को बचाने तथा जिन नियमों का पालन करने का उल्लेख किया गया है वे सब वस्त्रादि उपकरणों की प्राप्ति के विषय में भी लागू होते हैं। आहार के विषय में स्पष्ट रूप से बतलाया है कि साधु संयम एवं जीवन-निर्वाह के लिए ही आहार ग्रहण करे। जिस आहार में हिंसादि दोषों को जरा भी संभावना
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