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प्रास्ताविक : जैन आगमों में उत्तराध्ययन-सूत्र [४३ • ३. सुभाषित'-धर्म-प्रधान ग्रन्थ होने से इसमें स्वाभाविकरूप से सुभाषितों का प्रयोग हुआ है। उपमा और प्रतीकात्मक-रूपक अलंकारों के प्रयोग में सुभाषितों की झलक अधिक मिलती है। .. ४. पुनरुक्ति-लोगों की प्रवृत्ति विषय-भोगों के प्रति अधिक होने से तथा धर्म के प्रचार का प्रारम्भिक काल होने से प्रतिपाद्य विषय के स्पष्टीकरण में पुनरुक्ति का होना स्वाभाविक है। कहीं एक चरण में, कहीं दो चरणों में, कहीं तीन चरणों में तथा कहीं-कहीं सम्पूर्ण गाथा ज्यों की त्यों पुनरुक्त है।२ शब्द और अर्थ की यह पुनरुक्ति दोषजनक नहीं है क्योंकि विषय के स्पष्टीकरण के लिए इस प्रकार की शैली का प्रयोग वेदों और बौद्ध त्रिपिटक-ग्रन्थों में भी बहतायत से पाया जाता है।
५. कथा एवं संवाद-कथा-विभाग में गिनाए गए अध्ययनों में कथा एवं संवादों के द्वारा धार्मिक और दार्शनिक विषयों को
१. उ० १. २-५, ७, २८-२६, ३७-३६, ४४-४५; २. १६-१७; ३. .१, ५, ७-१२; ४. ३-६, ६-१३; ५. ५, ६-१०, १४-१६, २१-२२,
२४; ६. ३, ६.१६, ७. ४, ७, ६, ११-१२; ८ २, ५-६, ६; ६.६-१०, १२-१३, १५-१६, ३४.३६, ४८, ५३; १०.१-२, २८ २६, ३३; ११. १४-१६; १२. २६-२७; १३. २२,२५, ३०-३१; १४. १६, २३-२४, २६, ३४, ३६, ४१-४४; १५. १५; १७. २०, २१; १८ १३; १६. १८, २१-२४, ३४, ३७, २०. ४४, ४७; २१. २०;
२५. ४१-४३, ३१. ३३; ३२. १६-१७ आदि । २. 'तं वयं बूम माहणं' यह चरण २५. १६-२६, ३४ में तथा 'समयं
गोयम मा पमायए' यह चरण १०. १-३६ में ज्यों का त्यों पुनरुक्त है। 'जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले' ये दोनों चरण ३१. ७-२० में पुनरुक्त हैं । 'एयमझें निसामित्ता हेऊकारण चोइउ । तउ नमि रायरिसिं देविन्दो इण महबवी' (६. ११, १७ आदि) यह इन्द्र की उक्ति और 'एयमढ़ निसामित्ता०' (. ८, १३ आदि) यह नमि की उक्ति (चारों चरण सहित) नौ-नौ बार पुनरुक्त हैं। ऐसे __ अन्य कई स्थल हैं जिन्हें यहां दिखलाना सम्भव नहीं है ।
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