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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[६७ भेदों के साथ संयोग करने पर (५४२०) १०० भेद रस-सम्बन्धी बनते हैं। गन्ध के दो भेदों का तदितर रूपादि के तेईस भेदों के साथ संयोग करने पर (२४ २३ ) ४६ भेद गन्धसम्बन्धी बनते हैं। स्पर्श के आठ भेदों का तदितर रूपादि के सत्रह भेदों के साथ संयोग करने पर ( ८ x १७ ) १३६ भेद स्पर्श-सम्बन्धी बनते हैं।' संस्थान के पाँच भेदों का तदितर रूपादि के बीस भेदों के साथ संयोग करने पर ( ५४२० ) १०० भेद संस्थान-सम्बन्धी बनते हैं। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वजातीय का स्वजातीय के साथ संयोग नहीं होगा क्योंकि जो कृष्णवर्ण वाला होगा वह श्वेतवर्ण वाला नहीं होगा। ग्रन्थ में रूपादि के जो ये ४८२ भेद गिनाए हैं वे सामान्य अपेक्षा से गिनाए हैं अन्यथा रूपादि के तरतमभाव की अपेक्षा लेकर यदि उपर्युक्त प्रकार से भेदों की कल्पना की जाएगी तो रूपादि के अनेक भेद हो जाएंगे।
वाय आदि में रूपादि की सिद्धि-रूपादि के आपस के सम्बन्ध को देखने से पता चलता है कि जिसमें कोई भी रूप होगा उसमें कोई न कोई रस, गन्ध, स्पर्श और आकार भी अवश्य होगा। इसी तरह जिसमें कोई रस या गन्ध या स्पर्श या आकार होगा उसमें तदितर अन्य गुण भी किसी न किसी मात्रा में अवश्य होंगे। ऐसा कोई भी रूपीद्रव्य नहीं होगा जिसमें रूप तो हो परन्तु रस-गन्ध आदि न हों, या गन्ध तो हो किन्तु रूप-रस आदि न हों। यह संभव है कि अन्य रसादि गुणों की स्पष्ट प्रतीति न हो। अतः किसी पुद्गल विशेष में किसी गुण विशेष का सर्वथा अभाव नहीं है। इस तरह इस सिद्धांत से वैशेषिकों द्वारा परिकल्पित वायु का यह लक्षण कि 'जो रूपरहित १. प्रज्ञापना-सूत्र की वृत्ति में स्पर्श के १८४ भेद (भङ्ग) गिनाए हैं। वह
इस आधार पर कि कर्कश स्पर्शवाला तद्विरोधी मृदुस्पर्श को छोड़कर अन्य स्वजातीय स्पर्शवाला भी हो सकता है। इसी प्रकार अन्य स्पर्शवाला भी तद्विरोधी स्पर्श को छोड़कर अन्य स्पर्शवाला हो सकने से स्पर्श के (२३ ४ ८) १८४ भेद संभव है।
-उ० आ० टी०, पृ० १६५५.
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