SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन उपर्युक्त सभी गुणों का एकत्र समावेश करते हुए संक्षेप में ग्रन्थ में विनीत शिष्य का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-'गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला, उनके समीप रहनेवाला तथा उनके मनोगतभाव व कायचेष्टा (इङ्गिताकार) को जाननेवाला विनयी कहलाता है। अर्थात् गुरु के मनोगतभावों को जानकर नम्रभाव से सदाचार में प्रवृत्ति करते हुए अध्ययन करने वाला शिष्य विनयी कहलाता है। ___ अविनीत विद्यार्थी के दोष-जो विनीत शिष्य के गुणों से रहित है वह 'अविनयो' कहलाता है। अतः ग्रन्थ में अविनयी शिष्य का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-- 'गुरु की आज्ञानुसार न चलनेवाला, उनके समीप न रहनेवाला, विपरीत आचरण करनेवाला तथा विवेकहीन (जागरूक न रहनेवाला) अविनयी कहलाता है।२ अर्थात् गुरु के हादिक-भावों को न जानकर उनके विपरीत आचरण करते हुए स्वच्छन्द विचरण करनेवाला अविनीत शिष्य कहलाता है। बहुश्रुत अध्ययन में अविनीत शिष्य के १४ दुगुण गिनाए हैं : १. बार-बार क्रोध करना, २. क्रोध को चिरस्थायी रखना, ३ मित्रता को त्यागना, ४. अपने ज्ञान का घमण्ड करना, ५. दूसरे के दोषों को खोजना और अपने दोषों को छिपाना, ६. मित्रों पर क्रोध करना, ७. प्रिय मित्र की परोक्ष में निन्दा १. आणानिद्दे सकरे गुरूगमुवबायक! रए । इंगियागारसंपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई ।। -उ० १.२. २. आणाऽनिद्दे सकरे गुरूणमणववायकारए । अडिणीए असंबुद्धे सेविणीए ति वुच्चई ।। -उ० १.३. ३. अह चउद्दसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ निव्वाणं च न गच्छइ ॥ पइन्नवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अनिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते अविणीए त्ति वच्चई ।। '-उ० ११.६-६.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy