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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रये [ २१७ वैयावत्य में यत्नवान रहना', १३. दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनकर अभिमान न करते हुए और अधिक नम्रीभूत हो जानाजैसे नमिराजर्षि इन्द्र के द्वारा स्तुति किए जाने पर और अधिक नम्रीभूत हो गये २, “१४. क्षुद्र -जनों का संसर्ग व उनके साथ हास्यादि क्रीड़ा न करना, १५. गुरु की अपेक्षा निम्न आसन ग्रहण करना-गुरु की बराबरी से, आगे, दृष्टि से ओझल होकर, अंग स्पर्श करते हुए, अधिक समीप, पैर फैलाकर, दोनों भुजाओं को जांघों पर रखकर, जांघों पर वस्त्र लपेटकर, अति समीप, अति दूर एवं अन्य इसी प्रकार के अविनय-सूचक आसनों से गुरु के पास न बैठना, इसके अतिरिक्त जिस आसन पर वह बैठे वह चूं-चूं करने वाला, चलायमान एवं अस्थिर न हो", १६. आसन पर बैठे हुए निष्प्रयोजन न उठना, हाथ-पैर न चलाना तथा उत्तरप्रत्युत्तर न करना अपितु आवश्यकता होने पर उठकर के गुरु से वार्तालाप करना६, १७. शिक्षा-प्राप्ति के बाद उनके उपकार की कृतज्ञता को स्वीकार करते हुए विनयभाव से स्तुति करना आदि । १. उ० ३०.३२-३४. २. नमी नमेई अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ। -उ० ६.६१. ३. खडडेहिं सह सेसग्गिं हासं कीडं च वज्जए । -उ० १.६.. ४. न पक्खओ न पुरओ नैव किच्चाण पिट्रिओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरु सयणे नो पडिस्सुणे ।। नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिण्डं च संजए । पाए पसारिए वावि न चिठे गुरुणंतिए ॥ -उ० १.१८-१९. तथा देखिए-उ० २०.७. ५. आसणे उचिट्ठज्जा अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जप्पकुक्कुए ॥ -उ० १.३०. ६. वही। ७. उ० २०.५४-५६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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