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८६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन स्वतः कोई आकार-प्रकार आदि के न होने से शरीर के सम्बन्ध के कारण उसे स्वदेह-परिमाणवाला माना है। जीव के स्वदेहपरिमाणवाला होने से वह न तो व्यापक है और न अणुरूप ही है। अपितु छोटे या बड़े शरीर में जितना स्थान पाता है उतने में ही विस्तार या संकोच को प्राप्त करके रह जाता है। यदि उसे स्वदेह-परिमाण न मानकर व्यापक माना जाता तो उसे शरीर के बाहर भी संवेदन होना चाहिए था। यदि अणुरूप माना जाता तो पूरे शरीर में संवेदन नहीं होना चाहिए था। हमें शरीर-प्रदेशमात्र में ही संवेदन होता है, न तो शरीर के एक-प्रदेश में और न शरीर के बाहर। इसीलिए आत्मा को शरीर-परिमाण वाला माना है। यहां एक प्रश्न है कि मुक्त-जीवों के शरीररूपी बन्धन न होने से उन्हें समस्त-लोक में व्याप्त हो जाना चाहिए। यहाँ मालूम पड़ता है कि मुक्त-जीवों के व्यापक मानने पर शरीर-प्रमाण वाले सिद्धान्त से विरोध होता है । अतः उन्हें भी व्यापक न मानकर पूर्वजन्म के शरीर-प्रमाण की अपेक्षा 3 भाग न्यून क्षेत्रप्रमाण माना है।' पूर्वजन्म के शरीर की अपेक्षा 3 भाग न्यून मानने का कारण है कि शरीर में कुछ छिद्र भाग रहते हैं और मुक्त-जीवों के शरीर न होने से उनके आत्म-प्रदेश सघन हो जाते हैं। अतः पूर्व जन्म के शरीर की अपेक्षा भाग न्यून क्षेत्र माना है। बन्धन का अभाव होने से तथा उसमें संकोच-विकास स्वभाव होने से मुक्त-जीव को या तो अणुरूप या व्यापक हो जाना चाहिए था। उसका अभाव माना नहीं जा सकता क्योंकि सत का कभी विनाश नहीं होता है।
४. जीव कर्ता-भोक्ता तथा पूर्ण स्वतन्त्र है-स्वयं के उत्थान और पतन में जीव को पूर्ण स्वतन्त्र, कर्ता एवं भोक्ता माना है। १. वही। २. अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ।।
-उ० २०. ३६-३७.
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