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मरण का भी अनुभव किया । फलतः उस प्राणदाता तत्त्व को ढूंढ निकालने का विचार मनुष्य के मन में उत्पन्न हुआ । जैन तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मा ( जीव ) को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्थिर किया । यह तत्त्व हर प्राणी में मूलतः एक ही प्रकार का - समान गुणों वाला प्रतीत हुआ। हर प्राणी के जीव के साथ दूसरे द्रव्य का जो सम्बन्ध रहा हुआ था उसके कारण बाहरी फर्क सामने आता रहा । वह दूसरा द्रव्य रूपी अचेतन पुद्गल है । उसके लक्षण हैं शब्द, अन्धकार, प्रकाश, कान्ति, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और आकार । वायु, जल, आग और पृथ्वी भी पुद्गल हैं । वर्तमान विज्ञान के Matter और Energy भी पुद्गल हैं । रागद्वेष के कारण मनुष्य और अन्य प्राणियों द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्म भी पुद्गल हैं ।
मिश्रित धातुओं को असल या शुद्ध रूप में लाने के लिए अनेक विधियों और साधनों से विशुद्ध करते हैं । उसी प्रकार मनुष्य के जीव तत्त्व को मिश्रित अजीव तत्त्व से अलग या स्वतन्त्र रूप में लाने के लिए अर्थात् मुक्त करने के लिए विधिपूर्वक प्रयत्न जरूरी है । उत्तराध्ययन सूत्र का यह विषय है । इस ग्रन्थ के निर्माता ने उस विषय का सरल, स्वाभाविक भाषा में सुन्दर वर्णन किया है।
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रघुवीर के शब्दों में जैन तत्त्ववेत्ताओं ने Godless Spiritua lity (निरीश्वर अध्यात्मवाद) का विकास किया है । प्राणी मात्र से मैत्री का व्यवहार करना उसका निश्चित मत है । परस्पर मैत्री कर सकने का आधार उन्होंने स्वयं पर संयम रखना बताया है । उसी आचार के विकास का सर्वप्रथम नियम अहिंसा से आरम्भ किया गया है ।
जीव किस प्रकार अजीव से पृथक् किया जा सकता है, उन साधारण और विशेष उपायों का साध्वाचार के दो प्रकरणों और रत्नत्रय में विस्तृत निर्देश है । इनके अलावा मुक्ति और उसकी अलौकिकता की चर्चा भी ग्रन्थ में है ।
इस प्रकाशन का खर्च श्री मुनिलाल और भाई लोकनाथ ने अपने पिता श्री लाला लद्दामल की पुण्यस्मृति में किया है ।
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