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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ २३६ अन्तरङ्ग-शुद्धि के अभाव में बाह्य-शुद्धि (बाह्यलिङ्ग) पोली-मुट्ठी, खोटी-मुहर और काँच की मणि की तरह सारहीन है।' जिसप्रकार पान किया गया अतितीव्र विष, उलटा पकड़ा हुआ अस्त्र और अवशीकृत मन्त्रादि का प्रयोग स्वयं का विघातक होता है उसी प्रकार दिखावटी साध कंठ का छेदन करने वाले शत्रु से भी अधिक स्वयं का अनर्थ करके पश्चात्ताप को प्राप्त होता हुआ नर• कादि योनियों में जन्म-मरण प्राप्त करता है ।२ अतः ग्रन्थ में कहा है कि संयमहीन साधु की अपेक्षा संयमी गृहस्थ श्रेष्ठ है ।' - इस तरह गृहस्थ का सम्पूर्ण आचार साध्वाचार की प्रारम्भिकअवस्था के रूप में है। गृहस्थ गृहस्थी में रहकर सामाजिक कार्यों को करता हआ अहिंसादि उन सभी नियमों का स्थलरूप से पालन करता है जिनका साधु विशेषरूप (सूक्ष्मता) से पालन करता है।
9ানুহীন इस प्रकरण में संसार के दुःखों से निवृत्ति पाने का एवं अविनश्वर सुख की प्राप्ति के आध्यात्मिक-मार्ग का वर्णन किया गया है। जिस
१. पुल्लेव मुट्ठी जह से असारे अयंतिए कूडकहावणे वा । . राढामणी वेरुलियप्पगासे अमहग्घए होइ हु जाणएसु ।।
-उ० २०.४२. २. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो वि धम्मो विसोववन्नो हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।
-उ०२०. ४४. न तं अरि कंठछित्ता करेइ ज से करे अप्पणिया दुरप्पा। . से नाहिई मच्चु मुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥
-उ० २०.४८. ३. नाणासीला अगारत्था विसमसीला य भिक्खुणो ।
-उ० ५.१६ संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा।
-उ०५.२०.
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