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________________ २३८ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन जन्म से लेकर देव और मुक्त अवस्था को भी प्राप्त कर सकता है।' गृहस्थ और साधु के आवार में भेद का कारण वीतरागतागृहस्थधर्म पालन करने का फल जो मुक्ति बतलाया गया है वह साक्षात-फल संभव नहीं है क्योंकि ऐसा सिद्धान्त है कि जबतक पूर्ण वीतरागता नहीं होगी तबतक मुक्ति नहीं मिल सकती है। यह संभव है कि गृहस्थ मृत्यु के समय संसार के विषयों से पूर्ण वीतरागी होकर मुक्ति प्राप्त कर लेवे परन्तु जब गृहस्थ पूर्ण वीतरागी हो जाएगा तो वह वस्तुतः गृहस्थ नहीं रहेगा।२ अतः ग्रन्थ में साधु का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जो बालभाव को छोड़कर अबालभाव को धारण करते हैं वे साध हैं। जो संसारासक्त हैं वे बाल (मख) हैं और जो निरासक्त हैं वे अबाल (पण्डित) हैं। केवल शिर मुड़ाने से श्रमण, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण, जंगल में रहने से मुनि और कुशा आदि धारण करने से तपस्वी नहीं कहलाते हैं अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप करने से तपस्वी कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त १. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया। उति माणसं जोणि कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥ -उ० ७. २०० तथा देखिए-उ० ५. २४; पृ० २३५, पा० टि० १-२. २. विशेष के लिए देखिए-प्रकरण ७. ३. तुलिया ण बालभावं अबालं चेव पंडिए । चइऊण बालभाव अबालं सेवए मुणि । -उ० ७. ३०. न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होई तवेण होइ तावसो । -उ० २५.३१-३२. जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं न तं सुइठं कुसला वयंति । -उ०.१२ ३८. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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