________________
प्रकरण ३.रत्नत्रय
[१८९
तप को सदाचार से पृथक् गिनाया गया है। अन्यथा तप सदाचार से पृथक् अन्य कारण नहीं है। इसके अतिरिक्त यहाँ ज्ञान और दर्शन को मोक्षमार्ग का लक्षण बतलाया गया है जिससे स्पष्ट है कि ज्ञान और दर्शन के अभाव में किया गया सदाचार अभीष्ट साधक नहीं है।
३. रथनेमी अध्ययन में जब अरिष्टनेमी दीक्षा ले लेते हैं तो वासुदेव कहते हैं-'हे जितेन्द्रिय ! तू शीघ्र ही अभीष्ट मनोरथ को प्राप्त कर। ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, क्षमा और निर्लोभता से वद्धि को प्राप्त कर ।१ यहाँ तप, क्षमा और निर्लोभता ये भी चारित्र के ही अंश हैं।
४. जब मृगापुत्र सिद्धगति को प्राप्त करता है तो उस समय ग्रन्थ में कहा गया है-'इस तरह ज्ञान, सदाचार, विश्वास, तप और विशुद्ध भावनाओं के द्वारा अपनी आत्मा को परिशुद्ध करके, बहुत वर्षों तक साध-धर्म का पालन करके तथा एक मास का उपवास करके उसने अनुत्तर सिद्ध -गति को प्राप्त किया।२ यहाँ साध-धर्म का पालन, भावनाओं का चिन्तन, उपवास आदि रत्नत्रय की ही वृद्धि में सहायक अङ्ग हैं।
५. 'बोधिलाभ' को भगवान की स्तुति का फल बतलाते हए कहा गया है- 'ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधिलाभ से युक्त होकर जीव या तो संसार के आवागमन का अन्त करने वाले स्थान मोक्ष) को प्राप्त करता है या कल्पविमानवासी देव-पद को प्राप्त करता है। इसी तरह सर्वगुणसम्पन्नता (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) का फल अपुनरावृत्तिपद (मोक्ष) की प्राप्ति बतलाया गया है। १. वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं ।
इच्छियमणोरहे तुरियं पावेसू तं दमीसरा ।। नाणेणं दंसणणं च चरित्तेण तहेव य ।। . खंतीए मुत्तीए नड्ढमाणो भवाहि य ॥
- -उ० २२.२५-२६. २. उ० १६.६५-६६. ३. उ० २६.१४. ४. सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावित्ति जणयइ । अपुणरावित्ति पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणंदुक्खाणं नो भागी भवइ ।
-उ० २६.४४,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org