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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
तात्पर्य किसी ठोस द्रव्य से नहीं है अपितु चेतन और अचेतन में होने वाले परस्पर सम्बन्धों की कारणकार्यशृंखला से है जो बौद्ध दर्शन में बतलाए गए चार आर्यसत्यों के ही समान हैं । बौद्धदर्शन में आत्म-अनात्मविषयक कोई भेद नहीं है और न उनकी परमार्थ सत्ता है | अतः उन आर्यसत्यों में चेतन और अचेतन का सन्निवेश नहीं किया गया है । परन्तु यहाँ पर आत्म-अनात्मविषयक भेद उतना ही परमार्थसत्य है जितने अन्य सत्य क्योंकि आत्म-अनात्म को परमार्थसत्य स्वीकार किए बिना किसे बन्धन, किसे मुक्ति, किससे बन्धन और किससे मुक्ति मानी जाएगी ? अतः ग्रन्थ में जीवादि परमार्थसत्यों में विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहा गया है । इस सम्यग्दर्शन शब्द एक और अर्थ निहित है । वह हैसत् - दृष्टि को प्राप्त करना । सत्-दृष्टि प्राप्त करने का अर्थ हैपरमार्थ में स्थित होना । अतः सम्यग्दर्शन को रत्नत्रय का उपलक्षण मानकर रत्नत्रयधारी को सम्यग्दष्टि कहा गया है । बौद्धदर्शन में भी मुक्ति के साधनभूत प्रज्ञा, शील और समाधि के पूर्व इस सत्-दृष्टि को स्वीकार किया गया है जो बौद्धदर्शन में 'आर्य अष्टाङ्गमार्ग' के नाम से प्रसिद्ध है । ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के जो १० भेद गिनाए गए हैं वे उसकी उत्पत्ति की निमित्तकारणतारूप उपाधि की अपेक्षा से हैं क्योंकि सत्दृष्टि का प्राप्त करना या परमार्थसत्यों में विश्वास करना सर्वत्र अपेक्षित है ।
यहाँ मैं एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला 'दर्शन' गुण - विशेष श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन नहीं है क्योंकि श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का प्रतिफल है, न कि दर्शनावरणीय कर्म के क्षय का परिणाम | दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला 'दर्शन' गुण - विशेष ज्ञान की पूर्वावस्था है अर्थात् विषय और विषयी के सन्निपात होने पर जो सर्वप्रथम निराकार सामान्यबोध होता है उसे 'दर्शन' कहते हैं और दर्शन के बाद (विषय-विषयी के सन्निपात के उत्तरकाल में ) होने वाले साकार ( विशेष ) बोध को 'ज्ञान' कहते हैं । इस तरह 'दर्शन' गुण का अर्थ है 'निराकारात्मक सामान्य ज्ञान' और सम्यग्दर्शन शब्द का अर्थ है 'परमार्थभूत सत्यों
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