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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
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है अपितु उसमें विश्वास व चारित्र भी अपेक्षित है । अतः रत्नत्रय त्रिपुटी को जो मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है वह उचित ही है । इन तीनों का सम्मिलित नाम 'धर्म' भी है और यह धर्म शब्द पहले प्रकरण में वर्णित 'धर्मद्रव्य' से पृथक् है । यह पुण्यकर्म का भी वाचक नहीं है क्योंकि पुण्यकर्म बन्धन का कारण है । यह धर्म शब्द निष्काम एवं शुद्ध सदाचार के अर्थ का वाचक है । चूँकि पूर्ण एवं शुद्ध सदाचार बिना विश्वास एवं सत्यज्ञान के संभव नहीं है अतः यहाँ पर धर्म शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपरक माना गया है। जो इस प्रकार के धर्म से युक्त हैं वे ही 'सनाथ' एवं 'धार्मिक' हैं और जो इस प्रकार के धर्म से रहित हैं वे 'अनाथ' एवं 'अधार्मिक' हैं । इस तरह यह धर्म शब्द मीमांसादर्शन के यज्ञ-यागादिक्रियारूप धर्म शब्द से भी भिन्न है । गीता का यह उपदेश कि 'श्रद्धावान् ही पहले ज्ञान प्राप्त करता है और फिर संयतेन्द्रिय बनता है" यहाँ पूर्णरूप से लागू होता है ।
रत्नत्रय में पहला स्थान सम्यग्दर्शन का है जो भक्ति (श्रद्धा) स्थानापन्न है । बिना श्रद्धा के कोई भी व्यक्ति किसी भी क्रिया में प्रवृत्त नहीं हो सकता है । यदि प्रवृत्त होता भी है तो उसमें दृढ़ता का अभाव होने से पतित होने की सम्भावना रहती है । अतः • आवश्यक था कि ज्ञान और चारित्र के पूर्व श्रद्धा को उत्पन्न करने वाले सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया जाए । यह मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए प्रथम सीढ़ी है तथा ज्ञान और चारित्र की आधार - शिला भी है। सृष्टिकर्ता ईश्वर को स्वीकार न करने के कारण तथा अपने ही कर्म से जीव में उत्थान और पतन की शक्ति को मानने के कारण यद्यपि श्रद्धा व भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं थी परन्तु ज्ञान और चारित्र में प्रवृत्ति बिना श्रद्धा के सम्भव न होने से सम्यग्दर्शन का अर्थ 'ईश्वर भक्ति' न करके जिनप्रणीत & परमार्थ सत्यों में विश्वास किया गया है। जैनदर्शन में 'जिनेन्द्रभक्ति' को जो सम्यग्दर्शन का अंग माना जाता है उसका कारण है कि उससे जिनप्रणीत तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न होती है । यहाँ परमार्थसत्य से
१. गीता ४.३६.
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