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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन से बना है। इससे सिद्ध होता है कि जो रत्नत्रय की रक्षा करता है वह गुप्तिवाला है। रत्नत्रय की रक्षा के लिए आवश्यक है कि अशूभाचार को रोककर शुभाचार में प्रवत्ति की जाए। इस तरह गुप्तियाँ अशुभ अर्थों से निवर्तक तथा शुभ-अर्थों में प्रवर्तक भी हैं। शुभ मन, वचन एवं काय के व्यापाररूप बत्तीस प्रकार के योगसंग्रहों के विषय में ग्रन्थ में यत्नवान् होने का विधान किया गया है। इससे भी प्रतीत होता है कि ये गुप्तियाँ मुख्यरूप से अशुभअर्थों से निवृत्ति करानेवाली हैं। इसी दृष्टि से ग्रन्थ में गुप्तियों को अशुभ-अर्थों से निवर्तक बतलाया गया है। ___ ग्रन्थ में मनोगुप्ति आदि का पृथक्-पृथक् फल बतलाते हुए लिखा है-मनोगुप्ति से जीव चित्त को एकाग्र करके संयम का आराधक हो जाता है । वचनगुप्ति से निर्विकारता को प्राप्त करके चित्त की एकाग्रता (अध्यात्मयोग) को प्राप्त कर लेता है और कायगुप्ति से सब प्रकार के पापास्रवों को रोककर संवरवाला हो जाता है।'3 इससे प्रतीत होता है कि गुप्तियों का प्रधान कार्य अशुभ-अर्थों में प्रवृत्त मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को रोकना है। इस तरह जब अशुभात्मक प्रवत्तियों का निरोध हो जाता है तो फिर रत्नत्रयरूप शुभ-अर्थों में प्रवृत्ति को करता हुआ साधक धीरेधीरे आयू के अन्तिम समय में शुभ-अर्थों में प्रयुक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों का भी निरोध करके मुक्त हो जाता है। अतः ग्रन्थ में गुप्ति का फल कर्मक्षय के बाद संसार से मुक्ति बतलाया गया है। यदि परमार्थरूप से विचार किया जाए तो सब १. 'योगे' त्ति सूचकत्वात् सूत्रस्य योगसङ ग्रहा यैः योगाः शुभमनोवाक्कायव्यापारः सङ गृह्यन्ते--स्वीक्रियन्ते, ते च द्वात्रिंशद् ।
-उ० ने० वृ०, पृ० ३५०. तथा देखिए-समवायाङ्ग, समवाय ३२; श्रमणसूत्र, पृ० १६६. २. उ० ३१.२०. ३. उ० २६.५३-५५. ४. चारित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविहकम्मगंठि निज्जरेइ ।
-उ० २६.३१.
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