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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
१. क्षुधा-वेदना को शान्ति के लिए यद्यपि साधु के लिए क्षुधापरी-षहजय का विधान किया गया है परन्तु ऐसा विधान तप करते समय तथा निदुष्ट आहार न मिलने की अवस्था के लिए है, अन्यथा क्षधा की वेदना से न तो मन स्थिर हो सकता है और न देखने, सुनने व ध्यान आदि के करने की सामर्थ्य ही प्राप्त हो सकती है। अतः क्षुधा-वेदना की शान्ति के लिए आहार करना चाहिए।
२. गुरु आदि की सेवा करने के लिए-गुरु की सेवा करना एक प्रकार का तप है। यदि शरीर में सामर्थ्य नहीं होगा तो. गरु की सेवा आदि कार्य नहीं हो सकते हैं। अतः गुरु की सेवा करने के लिए आहार ग्रहण करना चाहिए।
३. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए- भोजन न करने पर आँखों की ज्योति क्षीण हो जाती है। ऐसी स्थिति में गमनागमन करते समय सावधानी कैसे वर्ती जा सकती है ? अतः गमनादि क्रिया करते समय ईर्यासमिति का पालन करने के लिए भी भोजन करना आवश्यक है।
४. संयम की रक्षा के लिए-संयम के होने पर ही सब प्रकार के व्रतों को धारण किया जा सकता है और सब प्रकार के उपसर्गों ( कष्टों) को सहन किया जा सकता है। अतः साधु को संयम में दृढ़ होकर ही भिक्षा में प्रवृत्त होने का आदेश है। वस्तुतः साधु को भोजन संयमपालन करने के लिए ही करना चाहिए। ___५. जीवनरक्षा के लिए - जीवन के वर्तमान रहने पर ही संयम आदि का पालन करना संभव है तथा जीवन (प्राण) आहार के बिना ठहर नहीं सकता है। अत: साधु को जीवनरक्षा के लिए नीरस भोजन ही करने का विधान है।
६. धर्मचिन्तन के लिए-शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन आदि धार्मिक-क्रियाओं को करने के लिए आवश्यक है कि शरीर सुस्थिर रहे तथा क्षुधा आदि की वेदना न हो क्योंकि शरीर के शिथिल रहने पर या क्षुधा से व्याकुल होने पर कोई भी चिन्तन आदि धार्मिक-क्रिया नहीं की जा सकती है। अतः धार्मिकक्रियाओं के करने के लिए भी आहार आवश्यक है।
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