Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 12 Gyatadharmkatha Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजामा नमो नमो निम्मलसणस्स म पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 12 आगम - ६ 'ज्ञाताधर्मकथा' मूलं एवं वृत्ति: आजम आजम आजमाआजमा आजसा आजमा मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ਸ਼ਬਦ ਸ਼ਕਲ पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से । 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा OFILE OREOELHINisosions outela ~ 2 ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाम आजम आग नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता SaniKINERAL RA DHA - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] THANK Heaei प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 19825306275 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਚਲ ਜਨਤਕ ਰਸ ਹੁਲ ਦਰ ਦਰ ਹਾਲ ਰਹੀ ਅਕਸ ਹਸ ਕਵਲ ਸ ਸ आगम साला वाचना शताब्दी वर्ष ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ ਹ ਕ : * 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-१२] श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं वृत्ति: मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्ति:] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-12 श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति | : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर | पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें । अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था । • सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव “सागरजी"... ___......मुनि दीपरत्नसागर... | . - .. - .. - .. - .. - .. - . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त । पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् । | आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी | संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, । • वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। | ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी | नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो : गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... | पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ। : आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो दवारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णनअनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। - मुनि दीपरत्नसागर... . - . . - . . ~74 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ उद्धार कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु • संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीनअर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्रवांचनमें भी रूचि रखते है । समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटेछोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है। दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयों में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई | : ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है | मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं ) अजातशत्रु, स्वाध्याय- रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ मुनि दीपरत्नसागर ~8~ *** Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १६५ + ५७ 'ज्ञाताधर्मकथाङ्ग'-सुत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: २४१ मलाक: पृष्ठांक: पृष्ठाक રૂકર पृष्ठांक: ५०२ ०११ १६५ १९१ २०२ श्रुतस्कन्ध: अध्ययन ००१-०१- उत्क्षिप्तज्ञातं ०४२- | ०२- संघाटकं ०५५- ०३- अंड: ०६२- | ०४-कर्म: ०६३- | ०५- शेलक: ___०७४- | ०६- तम्बक: ०७५- | ०७- रोहिणी ०७६- | ०८- मल्ली ११०. | ०९- माकंदी १४१- १०- चन्द्रमा श्रुतस्कन्ध: मूलांक: । अध्ययन १४२- ११-दावद्रव: १४३- | १२- उदकज्ञात: १४५- | १३- दर्दरक: १४८- १४- तैतलिपुत्रं १५७ | १५- नंदिफलं १५८- १६- अपरकंका १८४- १७- अश्व: २०८- १८- सुसूमा २१३-२२० | १९- पुण्डरीक: ५१२ ५१३ श्रुतस्कन्ध: २ मूलांक: वर्ग: २२०. ०१- चमरेन्द्र अग्रमहिषि | ०२-बलिन्द्र अग्रमहिषि । २२६- ०३- धरणादि अग्रमहिषि २२७- | ०४- भूतानंदादि अग्रमहिषि २२८- | ०५- पिशाचादि अग्रमहिषि २३४- ०६- महाकाल अग्रमहिषि । २३५- | ०७- सूर्य अग्रमहिषि २३६- ०८- चन्द्र अग्रमहिषि २३७- ०९- शक्र अग्रमहिषि २३८-२४१ | १०- ईशान अग्रमहिषि २०६ ३९५ ५१३ २३६ २३९ २५१ ३२१ ३४९ ५१४ ५१४ ५१४ ५१५ ४७९ ४९४ ५१५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['ज्ञाताधर्मकथा' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र" के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है। उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस 1 दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन एवं उद्देशक लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१२ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । ......मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः शा. घ. Kissesses अईम् । नवाङ्गीवृत्तिकारक श्री मदभयदेवसूविरविहित्तवृत्तियुतं गणभृत्पादप्रणीतं श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । ॥ नत्वा श्रीमन्महावीरं, प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षितः । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्यानुयोगः कथिदुच्यते ॥ १ ॥ तत्र च फलमङ्गलादि चर्चः स्थानान्तरादवसेयः केवलमनुयोगद्वार विशेषस्योपक्रमस्य प्रतिभेदरूपप्रक्रान्तशास्त्रस्य वीरजिनवरेन्द्रापेक्षयाऽर्थतः आत्मागमत्वं तच्छिष्यं तु पञ्चमगणधरं सुधर्मखामिनमाश्रित्यानन्तरागमखं सच्छिष्यं च जम्बूखामिनमपेक्ष्य परम्परागमतां प्रतिपिपादयिषुः | अथवा अनुगमारूयस्य तृतीयस्यानुयोगद्वारस्य भेदभूताया उपोद्घातनिर्युक्तेः प्रतिभेदभूतनिर्गमद्वारखभावं प्रस्तुत ग्रन्थस्वार्थतो महावीर निर्गतखमभिधित्सुः सूत्रकारः- 'तेणं काले 'मित्यादिकमुपोद्यात ग्रन्थं तावदादावाह ॐ नमः सर्वज्ञाय । ते णं काले णं ते णं समए णं चंपानामं नयरी होत्था वण्णओ ॥ (सूत्रं १ ) तत्र योऽयं शब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, ते इत्यत्र च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो यथा 'करेमि भंते!' इत्यादिषु ततोऽयं वाक्यार्थो जातः - तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी, अथ कालसमययोः कः प्रति For Parts Only ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -1, ---------- -------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: |१उत्क्षि प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म- विशेषः १, उच्यते, काल इति सामान्यकालः अवसपिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः समयस्तु तद्विशेषो यत्र सा नगरी स राजा कथाङ्गम्. सुधर्माखामी च बभून, अथवा तृतीयवेयं, ततस्तेन कालेन-अवसर्पिणीचतुर्थारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन-तविशेषभूतेन । साध्य हेतुना 'चंपा नाम नपरी होत्थति अभवत् आसीदित्यर्थः, ननु चेदानीमपि सास्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले , तत्कथ- चम्पावर्ण॥१॥ मुक्तमासीदिति ?, उच्यते, अवसर्पिणीत्वात् कालस्य वर्णकान्थवर्णितविभूतियुक्ता तदानीमासीद् इदानीं नास्तीति 'वपणओ'ति चम्पानगर्या वर्णकग्रन्थोऽत्रावसरे वाच्यः, स चार्य-कद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धा-भवनादिभिर्वद्धिमुपगता स्तिमिता-भय18 वर्जितत्वेन स्थिरा समृद्धा धनधान्यादियुक्ता ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः प्रमोदकारणवस्तूनां | सद्भावाअना:-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाच-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदितजनजानपदा 'आइण्णजणम-10 णुस्सा' मनुष्यजनेनाकीणों-संकीणों, मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तं, 'हलसयसहस्स-18 संकिट्टवियट्ठलट्ठपन्नत्तसेउसीमा' हलाना-लाङ्गलानां शतैः सहस्रैश्च शतसहा -लक्षैः संकृष्टा-विलिखिता विकृष्ट-दरं यावदविकृष्टा वा-आसना लष्टा-मनोज्ञा कपकाभिमतफलसाधनसमर्थखात् 'पण्णत्ते'ति योग्या कृता बीजवपनस्य सेतुसीमा-12 मार्गसीमा यस्याः सा तथा, अथवा संकृष्टादिविशेषणानि सेतूनि-कुल्याजलसेक्यक्षेत्राणि सीमासु यस्याः सा तथा, अनेन तजनIS पदस्थ लोकबाहुल्य क्षेत्रबाहुल्य चोक्तं 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुकुटा:-ताम्रचूडा पाण्डेयाः-पण्डपुत्रकाः पण्डा एव तेषां ग्रा. ॥ १ ॥ |मा:-समूहास्ते प्रचुरा:-प्रभूता यस्यां सा तथा, अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडार्थ कुकुटान् पोषयति पण्डांच करोतीति, 'उच्छुजवसालिकलिया' अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तं, नोवंप्रकारवस्त्वभावेन प्रमोदो जनस्स स्यादिति, अनुक्रम चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं - -------- ------ मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 'गोमहिसगवेलगप्पभूया' गवादयः प्रभूता:-प्रचुरा यस्यामिति वाक्यं गवेलका-उरभ्राः 'आयारवंतचेयजुबइविविहसपिणविट्ठबहुला' आकारवन्ति-सुन्दराकाराणि यानि चैत्यानि-देवतायतनानि युवतीनां च-तरुणीनां पण्पतरुणीमामिति हदयं यानि विविधानि संनिविष्टानि संनिवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि-बहुनि यस्यां सा तथा 'उक्कोडियगायगंठिमेय-19 भिडतकारखंडरक्खरहिया' उक्कोडा उत्कोटा-लश्चेत्यर्थः तया ये व्यवहरन्ति ते उत्कोटिकाः गात्रान्-मनुष्यशरीरावयव विशेषान् कव्यादेः सकाशाद्रन्थिकार्षापणादिपोहलिका भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदा भटाः-चारभटा बलात्कारप्रवृत्तयः तस्कराः-तदेव-चौर्य कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तस्कराः खण्डरक्षा-दण्डपाशिकाः शुल्कपाला पा एभी रहिता या सा तथा, अनेन 18 तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह, 'खेमा' अशिवाभावात् 'निरुवहुवा' निरुपद्रुता अविद्यमानराजादिकतोपद्रवेत्यर्थः, 'सुमिक्षा सुष्टु-मनोज्ञा प्रचुरा भिक्षा भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा, अत एव पाखण्डिकानां गृहस्थानां च 'वीसत्यमुहावासा' विश्व-13 | स्तानां निभेयानामनुत्सुकाना वा सुखा-सुखखरूपः शुभो वा आवासो यस्यां सा तथा, 'अणेगकोडीकोटुंबियाइण्णनि-2 वुयमुहा' अनेकाः कोटयो द्रव्य संख्यायां खरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेककोटयः ते कौटुम्बिकै:-कुटुम्बिभिवाकीणों-T संकुला या सा तथा सा चासो निर्वता च-संतुष्टजनयोगात् संतोपवतीति कर्मधारयोऽत एव सा चासौ सुखा च शुभा च. वेति कर्मधारयः, 'नडनद्दगजल्लमल्लमुट्ठियवेलंवगकहकपवकलासकआइक्खयलंखमंखतूणहल्लतुंबवीणियअणेग-15 तालाचराणुचरिया' नटा-नाटकानां नाटयितारो नर्चका-ये नृत्यन्ति अंकोल्ला इत्येके जल्ला-वरत्राखेलकाः राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्ला:-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिमिः प्रहरन्ति विडम्बका-विदूषका: कथकाः-प्रतीताः प्लवका-ये अनुक्रम Halaunciarary.org चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -1, ----------- ----- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १ उत्क्षिमाध्य.. चम्पावणेनं. सू.१ ज्ञाताधर्म उत्प्लवन्ते नधादिकं वा तरन्ति लासका ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः आख्यायिका-ये शुभा- कथानम्. शुभमाख्यान्ति लड्डा-महावंशानखेलका महा:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाका: तूणइल्ला-तूणाभिधानवाचविशेषवन्तः तुम्बवी- |णिका-वीणावादका अनेके च ये तालाचरा:-तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिता-आसे विता या सा तथा, 'आरामुज्जाण- ॥२॥ अगडतलायदीहियवप्पिणगुणोववेया' आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामा उद्यानानि-पुष्पा- दिमदृक्षसंकुलान्युत्सवादी बहुजनभोग्यानि, 'अगड'त्ति अवटा:-कूपास्तडागानि प्रतीतानि दीर्घिकाः-सारण्यः, 'वप्पिण'त्ति केदाराः एतेषां ये गुणा-रम्यतादयस्तैरुपपेता-युक्ता या सा तथा, उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवतीति, 'उबिद्धविपुलगंभीरखायफलिहा' उद्विद्ध-उण्डं विपुलं-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम्-उपरि विस्तीर्ण अधः संकटं परिखा च अध उपरि च समखातरूपा यस्खाः सा तया, 'चक्कगयमुसुंडिओरोहसयग्घिजम-16 लकवाडघणदुप्पषेसा' चक्राणि-अरघट्टयत्रिकाचक्राणि गदाः-प्रहरणविशेषाः, मुसुण्ख्योऽप्येवं, अवरोध:-प्रतोलीद्वारेष्ववान्तर-18 प्राकारः संभाव्यते, शतभ्यो-महायाप्यो महाशिलामय्यः याः पातिताः शतानि पुरुषाणां पन्ति यमलानि-समसंस्थितद्वयरूपाणि 18 यानि कपाटानि धनानि च-निच्छिद्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा तथा, 'धणुकुटिलवंकपागारपरिखिता' धनु:-कुटिलं-18 कुटिलधनुः, ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिता या सा तथा, 'कविसीसयवट्टरइयसंठियविरायमाणा' कपिशीर्षकैवृत्तरचितैः चर्तुलकृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्थानवनिर्विराजमाना-शोभमाना या सा तथा 'अहालयचरिषदारगोपुरतोरणउन्न- यसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालका:-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः चरिका-अटहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वाराणि अनुक्रम ॥२॥ चम्पा-नगर्या: वर्णनम् ~14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [१] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः भवनदेवकुलादीनां गोपुराणि - प्राकारद्वाराणि तोरणानि प्रतीतानि उन्नतानि - गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा तथा, सुविभक्ताविविक्ता राजमार्ग यस्यां सा तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला' छेकेन - निपुणेनाचार्येणशिल्पिना रचितो दृढो बलवान् परिघः-अर्गला इन्द्रकीलच - गोपुरावयव विशेषो यस्यां सा तथा 'विवणिवणिछे त्तसिप्पियाइपण निव्वयसुहा' विषणीनां वणिक्पथानां हट्टमार्गाणां वणिजां च-वाणिजकानां क्षेत्रं स्थानं या सा तथा शिल्पिभिः - कुम्भकारादिभिराकीर्णा सुनिर्वृतैः सुखैश्च सुखिभिर्या राजदन्तादिदर्शनात् सा तथा 'सिंघाडगतिगचक्कचचरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया' शृङ्गाटकं-त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलकः चखरं- बहुरध्यापातस्थानं पणितानि भाण्डानि तत्प्रधाना आपणा - हट्टा : विविधवस्तूनि अनेकविधद्रव्याणि एभिः परिमण्डिता या सा तथा 'सुरम्मा' अतिरमणीया 'नरवइपविन्नमहिवहपहा' नरपतिना राज्ञा प्रविकीर्णो- गमनागमनाभ्यां व्याप्तः महीपतिपथो - राजमार्गो यस्यां सा तथा, अथवा नरपतिना प्रविकीर्णा विक्षिप्ता निरस्ता शेषमहीपतीनां प्रभा यस्यां सा तथा, 'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकर सीय संदमाणी आइन्नजाणजुग्गा' अनेकैर्वरतुरगैर्मत्तकुञ्जरैः 'रहपहयर ति रथनिकरैः शिक्षिकाभिः स्यन्दमानाभिराकीर्णा व्याप्ता यानैर्युग्यैश्व या सा तथा, तत्र शिविका:- कूटाकारेण छादिता जम्पानविशेषा स्यन्दमानिका:पुरुषप्रमाण जम्पानविशेषाः यानानि शकटादीनि युग्यानि - गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति, 'विमजलनवनलिणिसोभियजला' विमुकुलाभिः - विकसितकमलाभिर्नवाभिर्नलिनीभिः पद्मिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा, 'पंडुरवरभवणसन्निमहिया' पाण्डुरैः - सुधाधवलैर्वरभवनैः - प्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महिता Education Internation चम्पा नगर्याः वर्णनम् For Parts Only ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -1, ---------- -------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥३ ॥ ज्ञाताधर्म । पूजिता या सा तथा, 'उत्ताणनयणपेच्छणिज्जा' सौभाग्यातिशयादुत्तान:-अनिमिषैर्नयनैः-लोचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा १ उरिक्षकथानम्. पासाईया' चित्तप्रसत्तिकारिणी 'दरिसणिज्जा' यां पश्यञ्चक्षुः श्रमं न गच्छति, 'अभिरूपा' मनोज्ञरूपा 'पडिरूवा' साध्य प्रतिरूपा द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथेति। पूर्णभद्रवतीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था। वण्णओ (सूत्रं ३) I र्णनं सू.२ तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिको नाम राया होत्था वण्णओ । (सूत्रं ३) कोणिकवतस्या णमित्यलारे चम्पाया नगा 'उत्तरपुरस्थिति उत्तरपौरस्त्ये उत्तरपूर्वायामित्यर्थः 'दिसीभाए'त्ति दिग्रभागेर्णनं सू.३ पूर्णभद्रं नाम चैत्य-व्यन्तरायतनं, 'वण्णओ'त्ति चैत्यवर्णको वाच्यः, स चाय-चिराइए पुवपुरिसपत्नत्ते' चिर:-चिर-1 काल आदि:-निवेशो यस तचिरादिक, अत एवं पूर्वपुरुषैः-अतीतनरैः प्रज्ञप्त-उपादेयतया प्रकाशितं पूर्व पुरुषप्रज्ञप्तं 'पुराणेति चिरादिकखात् पुरातने 'सदिए' शब्द:-प्रसिद्धिः स संजातो यस्य तच्छब्दितं 'वित्तए' विर्त-द्रव्यं तदस्ति यस्य तद्वित्तिकं वृति वा आश्रितलोकानां ददाति यत्तद्वचिदं 'नाए' न्यायनि यकखात न्यायः ज्ञात वा-शातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन लोकेनेति,1% 'सच्छते सज्झए सघंटे सपडागाइपडागर्मडिए' सह पताकया वर्तत इति सपताकं एका पताकामतिक्रम्य या पताका सातिपताका तया मण्डितं यत्चत्तथा तच्च तच्चेति कर्मधारयः, 'सलोमहत्थे लोममयप्रमार्जनकयुक्तं 'कयवेयय(दि)ए' कृतं ॥ ३ ॥ वितर्दिक-रचितवेदिक 'लाउल्लोइयमहिए' लाइयं यद्भूमेश्छगणादिनोपलेपनं उल्लोइयं-कुड्यमालाना सेटिकादिभिः संमृष्टीकरण ततस्ताभ्यां महितमिव महितं-पूजितं यत्तत्तथा, 'गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिन्नपंचंगुलितले' गोशीर्षण-सरसरक्तचन्दनेन अनुक्रम कोणिक-राज्ञ: वर्णनं ~16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम [२,३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------- अध्ययनं [-], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Ea च दर्दरेण चहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पंचाङ्गुलास्तला - हस्तकाः यत्र तत्तथा, 'उबचियचंदणकलसे' उपचिता- निवेशिताः चन्दनकलशा - मङ्गल्यघटा यत्र तत्तथा, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागे' चन्दनघटा सुष्ठु कृतास्तोरणानि च द्वारदेशभार्ग प्रति यसिंस्तच्चन्दन घटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागं, देशभागाश्व देशा एव, 'आसत्तोससविपुलवद्वबग्घारियमल्लदामकलावे' आसक्तो भूमौ संबद्धः उत्सक्त उपरि संबद्धः विपुलो- विस्तीर्णः वृसो-वर्तुलः 'बग्घारिय'सि प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो यत्र तत्तथेति 'पंचवण्णसुरभिमुकपुप्फपुञ्जवयारकलिए' पंचवर्णेन सुरभिणा मुक्तेनक्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण पूजया कलितं यत्तत्तथा 'कालागरुपवरकुंदुरुक्कतु रुकधूव मघमघंतगंधुद्धयाभिरामे' कालागरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूत उद्भूतस्तेनाभिरामं यत्तत्तथा तत्र कुंदुरु-चीडा तुरुकं सिल्हकं 'सुगं| ववरगंधगंधिए सद्गन्धा ये वरगन्धा - वासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा 'गंधवट्टिभूए' सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पमित्यर्थः 'नडनकजल्ल मल्लमुट्ठिय वेलंब गपवककहकलासक आइक्खयलंखमख तूण इल्लववीणिय भुयगमागहपरिगए' पूर्वबन्नवरं भुजगा-भोगिन इत्यर्थः भोजका वा तदचका मागधा - मट्टा: 'बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए' बहो र्जनस्य पौरस्य जानपदस्य च - जनपदभवलोकस्य विश्रुतकीर्त्तिकं प्रतीतख्यातिकं, 'बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे आहोतुःदातुः आहवनीयं- संप्रदानभूतं 'पाहुणिज्जे' प्रकर्षेण आहवनीयमिति गमनिका 'अच्चणिज्जे' चन्दनगन्धादिभिः 'वंदणिले' सुतिभिः 'प्रय णिज्जे' पुष्पैः 'सकारणिज्जे' वस्त्रेः 'सम्माणणिज्बे' बहुमानविषयतया 'कल्लाणं मंगल देवयं चेहयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे' कल्याणमित्यादिधिया विनयेन पर्युपासनीयं 'दिवे' दिव्यं प्रधानं 'सच्चे' सत्यं सत्यादेशनात् 'सचोवाए'' कोणिक-राज्ञः वर्णनं For Parts Only ~17~ andrary org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [-], ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: eroecemes ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम २,३] सत्यावपातं 'सत्यसेवं सेवायाः सफलीकरणात् 'सन्निहियपाडिहेरे' विहितदेवताप्रातिहार्य 'जागसहस्सभागपडिच्छए' उत्क्षिकथाङ्गम्यागाः-पूजाविशेषा ब्रामणप्रसिद्धास्तत्सहस्राणां भागम्-अंशं प्रतीच्छति आभाव्यखात् यत्तत्तथा 'बहुजणो अचेइ आगम्म पुण्णभई चेइ। से णं पुण्णभद्दे चेहए एकेणं महया वणसंडेण सबओ समंता संपरिखिते' सर्वतः-सर्वदिक्षु सम-18 पूणभद्रव॥४॥ तात-विदिक्ष च 'से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे कृष्णावभासः-कृष्णप्रभः कृष्ण एव वायभासत इति कृष्णावभासः,18 |र्णनं सू.२ नीले नीलोभासे प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे प्रदेशान्तर एव, तत्र नीलो मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् , हरिता-1 कोणिकवलाभ इति वृद्धवाः, 'सीए सीओभासे' शीतः स्पर्शापेक्षया वयाद्याक्रान्तखादिति बृद्धाः, 'निद्धे निद्धोभासे स्निग्धो न तु र्णनं सू.३ रूक्षः, 'तिबे तिबोभासे' तीवो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् , 'किण्हे किण्हच्छाए' इह कृष्णशब्द: कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति || न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवं 'नीले नीलकछाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए निद्धे निच्छाए तिचे तिवच्छाए घणकडियकडिच्छाए' अन्योऽन्य शाखानुप्रवेशादहलनिरन्तरच्छायः 'रम्मे महामेह निकुरवभूए' महामेघवृन्दकल्पे इत्यर्थः, 'ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो' कन्दो-मलानासुपरि 'खंधमंतो' स्कन्धः-स्थुडं 'तयामंतो' सालमंतो शाला-शाखा पवालमंतो' प्रवाल:-पल्लवाङ्करः, पित्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो वीयमंतो' 'अणुपुषसुजायरुइलवभावपरिणया' आनुपूपेण-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता रुचिराः वृत्त-18 भावं च परिणता येते तथा 'एक्कखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखाप्रशाखो विटपस्तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो येषां ते तथा 'अणेगणरवामसुप्पसारियअगेज्झधणविपुलवद्दखंधा' अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो| ॥ ४ ॥ REaratiharana G unctionary.com पूर्णभद्र-चैत्यस्य वर्णनं ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं - ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२,३] नो-निविडो विपुलो-विस्तीर्णो वृत्तश्च स्कन्धो येषां ते तथा 'अच्छि द्दपत्ता' नीरन्ध्रपर्णा 'अविरलपत्ता' निरन्तरदलाः 'अवा-18 ईणपत्ता' अवाचीनपत्रा:-अधोमुखपलाशाः अवातीनपत्रा वा-बातोपहतबहः 'अणईइपत्ता' ईतिविरहितच्छदाः, 'निद्धयजरठपंडुरयपत्ता' अपगतपुराणपाण्डरपत्राः, 'नवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिज्जा' नवेन हरितेन 'भिसन्त'त्ति दीप्यमानेन पत्रमारेण-दलसंचयेनान्धकारा-अन्धकारवन्तः अत एव गम्भीराव दृश्यन्ते ये ते तथा 'उवनिग्ग यनवतरुणपत्तपल्लवकोमलउजलचलंत किसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा उपनिर्गतैनवतरुणपत्रपल्लचसारिति-अभिनवपत्रगुच्छै तथा कोमलोज्ज्वलैबलदिः किशलय:-पत्रविशेषस्तथा मुकुमालप्रवालैः शोभितानि वरागुराण्यग्र-18 शिखराणि येषां ते तथा, इह चाकुरप्रवालकिशलयपत्राणां अल्पवहुबहुतरादिकाल कृतावस्थाविशेषाद् विशेषः संभाव्यत इति, |'निच्चं कुसुमिया निचं माइया' मयूरिताः 'निचं लवडया' पल्लविताः 'निचं थवइया' स्तबकवन्त: 'निचं गुल्लइया' गुल्मवन्तः, 'निचं गोच्छिया' जातगुच्छाः, यद्यपि स्तबकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह विशेषो भावनीयः, निचं जमलिया' यमलतया समश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'निचं जुयलिया' युगलतया स्थिताः 'निचं विणमिया' विशेषेण IS फलपुष्पभारेण नताः, 'निचं पणमिया' तथैव नन्तुमारब्धाः, 'निच्छ कुसुमियमाझ्यलवइयथवइयगुलइयगोच्छियज मलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवडेंसगधरा' केचित् कुसुमिताये कैकगुणयुक्ताः अपरे तु समस्तISI गुणयुक्तास्ततः कुसुमिताश्च ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ता-विविक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्ड्यो-लुम्ब्यः मञ्जयश्च प्रती-| तास्ता एवावतंसकाः-शेखरकारखान् धारयन्ति ये ते तथा, 'मुपवरहिणमयणसालकोइलकोभंडकभिंगारककोमलक-18 sesesecesesect eroenesese दीप अनुक्रम २,३] पूर्णभद्र-चैत्यस्य वर्णनं ~19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -], ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२,३] दीप अनुक्रम २,३] ज्ञाताधर्म- जीवंजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खगकारंडचक्कवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसहुण्णइयमहर-18|१ उत्क्षिकथाङम. सरनाइए' शुकादीनां सारसान्तानां अनेकेषां शकुनगणानां मिथुनविरचितं शब्दोन्नतिक च-उन्नतशब्दकं मधुरखरं साध्य नादित-लपितं यसिन् स तथा, वनखण्ड इति प्रकृतं 'सुरम्मे संपिडियदरियभमरमहकरिपहकरपरिलिंतमत्तर- पूर्णभद्रवप्पयकुसुमासबलोलमहुरगुमगुर्मितगुंजंतदेसभागे' संपिण्डिता दृप्तभ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव 'पहकर'त्ति निकराशन सू.२ यत्र स तथा तथा परिलीयमाना-अन्यत आगत्य लयं यान्तो मचषट्पदाः कुसुमासवलोला:-किञ्जल्कलम्पटाः मधुरं गुमगु- कोणिकवIR मायमानाः गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेष विदधानाः देशभागेषु यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः, 'अम्भितरपुप्फफला बाहिर- 1णेनं सु.३ पत्तुच्छन्ना पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छन्न पलिच्छन्ना' अत्यंतमाच्छादिता इत्यर्थः, एतानि पुनर्वृक्षाणां विशेषणानि 'साउ-18 | फले मिट्टफले' इत्यतो वनषण्डस्य भूयो विशेषणानि 'निरोयए' रोगवर्जितः, 'नाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिए विचि-I त्तमुहकेउभूए' विचित्रान्-शुभान केतून-ध्वजान् भूतः-प्राप्तः, 'वाविपुक्खरिणीदीहियासुनिवेसियरम्मजालहरए TRI वापीपु-चतुरखासु पुष्करिणीपु-वृत्तासु पुष्करवतीषु वा दीपिकासु-ऋजुसारणीषु सष्ठ निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि | यत्र स तथा 'पिडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं महया गंधद्धार्ण' भयंता पिंडिमनिहोरिमा पुद्गलसमूहरूपां। दूरदेशगामिनी च सद्गन्धि-सुगन्धिका शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च महता मोचन-8॥५॥ प्रकारेण विभक्तिव्यत्ययात् महतीं वा गन्ध एव प्राणहेतुखाद-वृप्तिकारिखाद्गन्धध्राणिस्तां मुश्चन्त इति वृक्षविशेषणमेवमितो-IN Isन्यान्यपि 'नाणाविहगुफछगुम्ममंडवकघरकसुहसेउकेउबहुला' नानाविधाः गुच्छा गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च रिटseseeeeseces Saintainta mana पूर्णभद्र-चैत्यस्य वर्णनं -~-20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -1, ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [२३] दीप अनुक्रम २,३] का येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवश्व-ध्वजा-बहुला-बहवो येषां ते तथा, ततः कर्म धारयः, 'अणेगरहजाणजोग्गसिबियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामघोऽतिविस्तीर्णखात् प्रविमोचनं येषु ते तथा 'सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एके असोगवरपायये पण्णत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले' कुशा-दर्भा विकुशा-वल्वजादयस्तैर्विशुद्ध-विरहितं वृक्षा-18| नुरूपं मूलं-समीपं यस्य स तथा, 'मूलमंते' इत्यादिविशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत् 'पडिरूचे, सेणं असोगवरपायवे अन्नेहिं बहहिं तिलएहिं लउएहिं छत्तोएहि सिरिसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धबेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं निहिं कुडएहिं कलंबेहिं सत्वेहि फणसेहिं दाडिमेहिं सालहिं तालेहिं तमालेहिं पिएहिं पियंगूहिं पुरोवएहिं रायरुक्खेहिं नंदिरुक्खेहि सबओ समंता संपरिक्वित्ते, ते णं तिलया लउया जाव नंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो' इत्यादि पूर्ववत् , यावत्, 'पडिरूवा, ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहहिं पउमलयाहिं नागलयाहि असोगलयाहिं चंपयलयाहिं चूयलयाहिं वणलयाहि वासंतियलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमलयाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ, तस्स णं असोगवरपायचस्स हेढा ईसिखंधंसमल्लीणे' स्कन्धासन्नमित्यर्थः, 'एत्थ णं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते' 'एत्थ णं'तिशब्दोऽशोकवरपादपस्य यदधोत्रेत्येवं संबन्धनीयः, 'विक्खंभायाममुप्पमाणे किण्हे अंजणकवाणकुवलयहलहरकोसेज आगासकेसकज्जलंगीखंजणसिंगभेयरिद्वयजंबूफलअसणकसणबंधणनीलुप्पलपत्तनिकर REaurandaland पूर्णभद्र-चैत्यस्य आदि-वर्णनं ~21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [-], ----------------- मूलं [२,३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक र्णनं सू.२ २,३ दीप अनुक्रम २,३] ESCORacheeeee अयसिकुसमप्पपासे नील इत्यर्थः अञ्जनको-नस्पतिः हलधरकोशेयं-बलदेववखं कजलाङ्गी- कजलगृहं शृङ्गभेदो-महि १ उरिक्षपादिविषाणच्छेदः रिष्ठक-रलं असनको-पियकाभिधानो बनस्पतिः सनबन्धन-सनपुष्पवृन्तं 'मरकतमसारकलित्तनयण साध्य कीयरासिवन्ने' मरकत-रलं मसारो-मसणीकारका पाषाणविशेषः 'कडित'ति कडित्रं कृत्तिविशेषः नयनकीका नेत्रमध्यतारा पूर्णभद्रवतद्राशिवर्णः काल इत्यर्थः, ' निघणे' स्निग्धधनः 'अट्ठसिरे' अष्टशिराः अष्टकोण इत्यर्थः, 'आर्यसतलोवमे सुरम्मे ईहामिगउसभतुरगनरमगरवालगकिन्नररुरुसरभचमरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते' हामृगाः-वृकाः व्यालका:-श्वापदाःकोणिका भुजगा वा 'आईणगरुयबूरणवणीयतूलफासे आजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रूतं प्रतीतं बूरो-वनस्पति विशेषः तूलम्-अर्कतूलं 'सीहासणसंठिए पासाईए जाव पडिरूवेति । इह ग्रन्थे वाचनाद्वयमस्ति, तत्रैकां बृहत्तरी व्याख्यास्यामो, द्वितीया || तु प्रायः सुगमैच, यच तत्र दुरवगर्म तदितरच्याख्यानतोऽवबोद्धव्यमिति । 'कूणिए नाम राय'त्ति कणिकनामा श्रेणिकराज-18 पुत्रो राजा 'होत्थ'त्ति अभवत् । 'वन्नओ'त्ति तद्वर्णको वाच्यः, स च 'महया हिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे। इत्यादि 'पसंतर्डिबडमरं रज पसासेमाणे विहरति' इत्येतदन्तः, तत्र महाहिमयानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलय:पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुमहेन्द्रः-शक्रादिदेवराजस्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा, तथा प्रशान्तानि डिम्बानि-विमाः डम-15 राणि-राजकुमारादिकृतविद्वरा यसिस्तत्तथा 'प्रसाधयन्' पालयन् 'विहरति आस्ते मेति, समग्रं पुनरने व्याख्यास्यामः। ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मे नाम धेरे जातिसंपन्ने ॥६॥ कुलसंपपणे बलरूवविणयणाणदंसणचरित्तलाघवसंपण्णे ओयंसी तेयंसी वर्चसी जसंसी जियकोहे जिय पूर्णभद्र-चैत्यस्य आदि-वर्णनं, सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं - -------- ----- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: माणे जियमाए जियलोहे जियइं दिए जियनिद्दे जियपरिसहे जीवियासमरणभविष्पमुके तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं करणचरणनिग्गह णिच्छय अज्जवमद्दवलाघवखंतिगुत्तिमुत्ति १०विजामंतबंभवयनयनियमसचसोयणाणदंसण २० चारित्त० ओराले घोरे घोरखए घोरतबस्सी घोरवंभवेरवासी उच्छृढ शरीरे संखितविउलतेयल्लेसे चोदसपुषी च उणाणोवगते पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुडे पुवागुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूतिजमाणे सुहंमुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभदे चेतिए तेणामेव उवागच्छह उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । (सूत्रं ४) 'थेरेति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः, 'जातिसंपन्न' इति उत्तममातृकपक्षयुक्त इति प्रतिपचव्यमन्यथा मातृकपक्षसंपन्नलं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति नासोत्कर्षः कश्चिदुक्तो भवेद, उत्कर्षाभिधानार्थ चास्य विशेषणकलापोपादानं चिकीर्षितमिति, एवं कुलसंपन्नोऽपि, नवरं कुलं-पैतृका पक्षः तथा बल-संहननविशेषसमुत्थः प्राणः रूपम्-अनुत्तरसुररूपादनंतगुगं शरीरसौन्दर्य विनयादीनि प्रतीतानि नवरं लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवायत्यागः एभिः संपनो यः स तथा, 'ओयंसित्ति ओजोमानसोऽवष्टम्भस्तद्वानोजखी तथा तेजस्वी तेजा-शरीरप्रभा तद्वांस्ते जखी वचो-वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्ति स वचस्वी अथवा वर्च:-तेजः प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी यशस्वी ख्यातिमान् , इह विशेषणचतुष्टयेऽपि अनुखारःप्राकृतखात्, जितक्रोध इत्यादि तु विशेषणसप्तकं प्रतीतं, नवरं क्रोधादिजय उदयप्राप्तकोधादि विफलीकरणतोऽवसेयः, तथा जीवितस्य-प्राणधारणस्थाशा-वाभ्छा मरणाच यद्यं ताभ्यां विप्रमुक्तः जीवितासामरणभयविषमुक्तस्तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः, तथा तपसा प्रधान-उत्तमः शेषमुनिजना हा.व.२ सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं -, ----------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाइम्. ॥ ७ ॥ पेक्षया तपो वा प्रधान यस्य स तपःप्रधानः, एवं गुणप्रधानोऽपि, नवरं गुणाः संयमगुणाः, एतेन च विशेषणद्वयेन तपासंयमौ चम्पाया | पूर्ववद्धाभिनवयोः कर्मणोनिर्जरणानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयावुपदर्शिती, गुणप्राधान्ये प्रपञ्चार्थमेवाह-एवं करणे श्रीसुधर्मात्यादि, यथा गुणशब्देन प्रधानशब्दोत्तरपदेन तस्य विशेषणमुक्तमेवं करणादिमिरेकविंशत्या शब्दैरेकविंशतिविशेषणान्यध्येयानि, Kगमनं सू.४ तद्यथा-करणप्रधानश्चरणप्रधानो यावच्चरित्रप्रधानः, तत्र करणं-पिण्डविशुस्यादिः, यदाह-"पिंडविसोही समिह भावणे"त्यादि. चरण-महावतादि, आह च-'वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं चेत्यादि, निग्रहः-अनाचारप्रवृत्तनिषेधनं निश्चयः-तच्चानां निर्णयः, विहितानुष्ठानेषु वाऽयव्यंकरणाभ्युपगमः आर्जवं-मायानिग्रहो मार्दवं-माननिग्रहो लापर्व-क्रियासु दक्षत्वं शान्ति:-क्रोधनिग्रहः। | गुप्तिमनोगुप्त्यादिका, मुक्तिनिर्लोभता, विद्या:-प्रज्ञत्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्दी, मत्रा-हरिणेगमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्याः ससाधनाः साधनरहिता मन्त्रा ब्रह्म-ब्रह्मचर्य सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानं वेदः-आगमो लौकिकलोकोत्तरकुमावचनिकभेदः नया-नैगमादयः सप्त प्रत्येकं शतविधाः नियमा-विचित्रा अभिग्रहविशेषाः सत्यं-वचनविशेष शौच-द्रव्यतो निलेपता| | भावतोऽनवद्यसमाचारता शान-मत्यादि दर्शन-चक्षुर्दर्शनादि सम्यक्त्वं वा चारित्रं-बाह्यं सदनुष्ठान, यह करणचरणग्रहणेऽपि आर्जवादिग्रहणं तदार्जवादीनां प्राधान्य ख्यापनार्थ, ननु जितक्रोधस्वादीनां आर्जवादीनां च को विशेषः', उच्यते, जितक्रोधादि विशेषणेषु तदुदयविफलीकरणमुक्तं मार्दवप्रधानादिषु तु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादिरत एव क्षमादिप्रधान || इत्येवं हेतुहेतुमदावाद विशेषः, तथा ज्ञानसंपन्न इत्यादी ज्ञानादिमच्च मात्रमुक्तं ज्ञानप्रधान इत्यादी तु तद्वता मध्ये तस्य प्राधान्यमित्येवमन्यत्राप्यपौनरुत्यं भावनीयं, तथा 'ओराले'त्ति भीमो भयानका, कथम् -अतिकष्टं तपः कुर्वन् पाश्चैवर्तिनामल्पस-1 ॥ ७ ॥ JMER सुधर्मस्वामिन: वर्णनं ~24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं - -------- -------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक चानां भयानको भवति, अपरस्त्वाह 'उराले'ति उदारः-प्रधानः 'घोरिति घोरो निघृणः परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां ॥ विनाशे कर्तव्ये, अन्ये खात्मनिरपेक्ष घोरमाहुः, तथा 'घोरबऐत्ति घोराणि-अन्यैर्दुरनुचराणि व्रतानि-महाव्रतानि यस्य स तथा, घोरैस्तपोभिस्तपस्वीच, तथा घोरं च तमचर्य चाल्पसच्चैर्दुःखं यदनुचर्यते तस्मिन् घोरवनचर्ये वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी 18'उच्दशरीरें 'उच्छ्डै ति उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन स तत्सत्कारं प्रति निःस्पृहत्वात् , तथा 'संखिसति संक्षिप्ता शरी-1 रान्तर्वतिनी विपुला अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलन्धिविषयप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्या, तथा चतुर्दशपूर्वीति वेदप्रधान इत्येतस्यैव विशेषाभिधानं, चतुर्ज्ञानोपगतः केवलवजेज्ञानयुक्त इत्यर्थः, अनेन च ज्ञानप्रधान हस्येतस्य विशेषोऽभिहितः, पञ्चभिरनगारशतैः-साधुशतैः 'साई' सह समन्तात्परिकरित इत्यर्थः, तथा 'पुषाणुपुषिन्ति पूर्वानुपूर्ध्या न पथानुपूर्ध्या अनानुपूर्व्या वेत्यर्थः, क्रमेणेति हृदयं, 'चरन्' संचरन् , एतदेवाह-'गामाणुगामं दूइज्जमाणे'त्ति प्रामश्चानुग्रामश्च विवक्षितग्रामानन्तरग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन्-गच्छन् एकस्मादामादनन्तरं प्राममनुल्लङ्ग्यन्तित्यर्थः, अनेनाप्यप्रतिबद्धविहारमाह, तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह, तथा 'सुहंसुहेणं विहरमाणे'त्ति अत एव सुर्खसुखेनशरीरखेदाभावेन संयमबाधाऽभावेन च विहरन्-स्थानात् स्थानान्तरं गच्छन् प्रामादिषु वा तिष्ठन् 'जेणेव ति यस्मिन्नेव देशे चम्पा नगरी यस्मिन्नेव च प्रदेशे पूर्णभद्रं चैत्य 'तेणामेवेति तस्मिन्नेव देशे उपागच्छति, कचिद्राजगृहे गुणसिलके इति दृश्यते, स चापपाठ इति मन्यते, उपागत्य च यथाप्रतिरूप-यथोचितं मुनिजनस्य अवग्रहम्-आवासमवगृह्य-अनुज्ञापनापूर्वकं गृहीला | संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् विहरति-आस्ते स। अनुक्रम सुधर्मस्वामिन: वर्णनं -~-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [4] + गाथा: दीप अनुक्रम [५-८] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [-], · मूलं [५] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ८ ॥ तपूर्ण चंपानयरीए परिसा निग्गया कोणिओ निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समयेणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेट्टे अंतेवासी अजजंबू णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं से अजजंबूणामे जायस जायसंसए जायको हल्ले संजातसङ्के संजातसंसए संजायको उहले उप्पन्नसडे उत्पन्नसंसए उत्पन्नको हल्ले समुप्पन्नस समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न कोउहले उडाए उट्ठेति उठाए उद्वित्ता जेणामेव अजसुहम्मे घेरे तेणामेव उवागच्छति २ अजसुहम्मे थेरे तिकखुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेइ २ बंदति नम॑सति वंदिता नर्मसित्ता अजसुहम्मस्स घेरस्स णचासने नातिदूरे सुस्समाणे णर्मसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं पञ्जवासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेण तित्थग० सयंसंबु० पुरिसु० पुरिससी० पुरिसव० पुरिसवरगं॰ लोगु० लोगनाहे० लोगहिएणं लोगप० लोग पलोय० अभयद० सरणद० चक्खुद० मग्गद० बोहिद० धम्मंद० धम्मदे ० धम्मना० धम्मसा० धम्मवरचा० अप्पडिह० दंसणध० वियहछ० जिणेणं जाणएणं तिनेणं तार• बुद्धेणं बोहरणं मुत्तेणं मोअगेणं सङ्घण्णणं सबद० सिवम यलमरुतमर्णतमक्खयमद्दाबाहमपुणरावित्तियं सासयं ठाणमुवगतेणं पंचमस्स अंगस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छस्स णं अंगस्स भंते! याधम्मकहाणं के अहे पं०१, जंबूत्ति तरणं अज्जसुहम्मे घेरे अज्जजंबूणामं अणगारं एवं व० जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: For Pernal Use On ~26~ जम्बूखामिप्रश्नः अध्ययनो देश: सू. ५ ॥ ८ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं -1, ----------------- मूलं [५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा: एवं खलु जंबू समणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयखंधा पन्नत्ता, तंजहाणायाणि य धम्मकहाओ य, जति णं भंते ! समणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं छहस्स अंगस्स दो सुयखंधा पं०२०-णायाणि य धम्मकहाओ य, पदमस्स णं भंते! सुयकखंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं कति अज्झयणा पन्नत्ता ?, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पं०, तं०-उखित्तणाए १संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे य४ सेलगे ५। तुंचे य ६ रोहिणी ७ मल्ली८, मायंदी ९चंदिमा इय १० ॥१॥ दावद्दवे ११ उदगणाए १२, मंडके १३ तेयलीविय १४ । नंदीफले १५ अवरकका १६, अतिने १७ सुसुमा इय १८॥२॥ अवरे य पुंडरीयणायए १९ एगुणवीसतिमे। (सूत्रं ५) 'तए 'ति ततोऽनन्तरं णमित्यलंकारे चम्पाया नगर्याः परिषत्-कूणिकराजादिका निर्गता-निःसृता सुधर्मस्वामिवन्दनार्थ,18 "जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगए'ति यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आविर्भूता आगता इत्यर्थः तामेव || दिशं प्रतिगतेति । तस्मिन् काले तसिन् समये आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूनामानगारः काश्यपगोत्रेण 'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तोच्छ्यो यावत्करणादिदं दृश्यं "समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे" कनकस्स-सुवर्णस्य 'पुलगति यः पुलको लवस्तस्य यो निकषा-कषपट्टे रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'त्ति पयगर्भस्तदत गौरो यः18 स तथा, युद्धच्याख्या तु कनकस्य न लोहादेयः पुलका-सारो वर्णातिशयः तत्प्रधानो यो निकपो-रेखा तस्य यत्पक्ष्मबहुलत्वं तद्वयो गौरः स कनकपुलकनिकषपक्ष्मगौरः, तथा 'उग्रतपा' उग्रम्-अप्रधृष्यं तपोऽस्येतिकता, तथा 'तत्ततवे' तप्त-तापितं तपो दीप अनुक्रम [५-८] जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [4] गाथा: दीप अनुक्रम [५-८] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], · मूलं [५] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि- रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथानम्. ॥९॥ Education Inte येन स तप्ततपाः, एवं तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्मापि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, तथा महातपाः प्रशस्ततपा बृहत्तपा वा, तथा दीप्तं तपो यस्य स दीसतपाः दीप्तं तु हुताशन इव ज्वलत्तेजः कम्र्मेन्धन दाहकत्वात्, तथा "उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूढसरी रे संखित्तविउलतेयले से” इति पूर्ववत् एवंगुणविशिष्टो जम्बूस्वामी भगवान् आर्यसुधर्म्मणः स्यविरस्य 'अदूरसामंते न्ति दूरं विप्रकर्षः सामन्तं समीपं उभयोरभावोऽदूरसामन्तं तस्मिन्नातिदूरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः, कथं ? - 'उजाणू' इत्यादि शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्र हि कनिषद्याभावाच्च उत्कटुकासनः समपदिश्यते ऊर्द्ध जानुनी यस्य स ऊर्द्धजानुः 'अधः शिराः' अधोमुखो नोर्द्ध तिर्यय वा विक्षिप्तदृष्टिः किं तु नियतभूभाग नियमितदृष्टिरिति भावना, 'झाणकोडोवगए'ति ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्णं भवत्येवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रिय मन स्थिधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः, संयमेन-संवरेण तपसा ध्यानेनात्मानं भावयन्- वासयन् विहरति तिष्ठति । 'तए णं से' इत्यादि, तत इत्यानन्तर्ये तस्मात् ध्यानादनन्तरं णमित्यलंकारे, 'स' इति पूर्व प्रस्तुतपरामर्शार्थः तस्य तु सामान्योक्तस्य विशेषावधारणार्थ आर्य जम्बूनामेति, स च उत्तिष्ठतीति संबन्धः किम्भूतः सन्नित्याह- 'जायसद्धे' इत्यादि, जाता- प्रवृत्ता श्रद्धा- इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः, क ?-वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तत्त्वपरिज्ञाने स तथा जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, संशयस्त्वनिर्द्धारितार्थ ज्ञानमुभयववंशावलम्बितया प्रवृत्तं स खेवं तस्य भगवतो जातः यथा भगवता श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिना त्रिभुवनभवनप्रका शप्रदीपकल्पेन पञ्चमस्यांगस्य समस्तवस्तु स्तोमव्यतिकराविर्भावनेनार्थोऽभिहित एवं पष्ठस्याप्युक्तोऽन्यथा वेति, तथा 'जातकुतू जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: For Parts Only ~28~ जम्बूस्वा मिप्रश्नः अध्ययनो देशः सू. ५ ॥ ९॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) ཙྩཡྻོཝཱ ཝཱ + ཝལླཱ ཡྻ अनुक्रम [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः · मूलं [५] + गाथा: हलो' जातं कुतूहलं यस्य स तथा, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, विश्वस्यापि विश्वव्यतिकरस्य पञ्चमाङ्गे प्रतिपादितत्वात्पष्ठाङ्गस्य कोम्योऽर्थो भगवताऽभिहितो भविष्यतीति, संजातश्रद्ध इत्यादौ समुत्पन्नश्रद्ध इत्यादी च संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, तथा उत्पन्नश्रद्धः प्रागभूता उत्पन्ना श्रद्धा यस्येत्युत्पन्न श्रद्धः, अथोत्पन्नश्रद्धवस्य जातश्रद्धत्वस्य च कोऽर्थभेदो, न कविदेव, किमर्थं तत्प्रयोगः १, हेतुखप्रदर्शनार्थं, तथाहि उत्पन्नश्रद्धत्वाज्जातश्रद्धः प्रवृत्तश्रद्ध इत्यर्थः, अपरस्वाह-जाता श्रद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः, कथं जातश्रद्धो ?, यस्माज्जातसंशयः, षष्ठाङ्गार्थः पश्चमाङ्गार्थवत् प्रज्ञतः उतान्यथेति कथं संशयोऽजनि ?, यस्मात् जातकुतूहलः कीदृशो नाम पष्ठाङ्गस्यार्थो भविष्यति कथं च तमहमवभोत्स्ये । इति तावदवग्रहः, एवं संजातोत्पन्नसमुत्पद्मश्रद्धादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या इति, 'बढाए उट्ठेइति उत्थानमुत्था-ऊर्ध्वं वर्त्तनं तथा उत्थया उत्तिष्ठति उत्थाय च 'जेणे'त्यादि प्रकटं, 'अज्जसुहम्मे थेरे' इत्यत्र पछ्पर्थे सप्तमीति 'तिखुत्तो'त्ति त्रिकृलखीन् वारान् 'आदक्षिणप्रदक्षिणा' दक्षिणपार्श्वादारभ्य परिभ्रमणतो दक्षिणपाश्रप्राप्तिरादक्षिणप्रदक्षिणा तां 'अनसुहम्मं थेरं' इत्यत्र पाठान्तरे आदक्षिणात्प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववर्ती यः स तथा तं 'करोति' विदधाति बन्दते वाचा स्तौति नमस्यति कायेन प्रणमति नात्यासने नातिदूरे उचिते देशे इत्यर्थः 'सुस्स्समाणे 'प्ति श्रोतुमिच्छन् 'नमसमाणे 'ति नमस्यन् प्रणमन् अभिमुखः 'पंजलिउडे' ति कृतप्राञ्जलिः विनयेन प्रणमति-उक्तलक्षणेन 'पज्जुवासमाणे 'ति पर्युपासनां विदधानः 'एव' मिति वक्ष्यमाणप्रकारं 'वदासि न्ति अवादीत् यदवादीत् तदाह - 'जई'त्यादि प्रकटं, नवरं यदि भदन्त ! भ्रमणेन पञ्चमाङ्गस्यायमर्थः - अनन्तरोदितखेन प्रत्यक्षः प्रज्ञप्तस्ततः षष्ठाङ्गस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्त इति प्रश्नवाक्यार्थः, अथोतरदानार्थ 'जम्बूनामे'न्ति हे जम्बू ! इति एवंप्रकारेणाम श्रणवचसाऽऽमन्य आर्य सुधर्मा स्थविरः आर्यजम्बूनामानं अनगारमेवम Education Internationa जंबूस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न: For Park Use Only ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५] गाथा: दीप अनुक्रम [५-८] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [५] + गाथा: श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ १० ॥ वादीत् 'नायाणि 'ति ज्ञातानि - उदाहरणानीति प्रथमः श्रुतस्कन्धः 'धम्मकहाओ' त्ति धर्म्मप्रधानाः कथाः धर्मकथा इति द्वितीयः 'उकखित्ते' त्यादि लोकद्वयं सार्द्धं तत्र मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे वर्तमानेन यः पाद उत्क्षिप्तस्तेनोत्क्षिप्तेनोपलक्षितं मेघकुमारचरितमुत् क्षिप्तमेवोच्यते, उत्क्षिप्तमेव ज्ञातम् उदाहरणं विवक्षितार्थसाधनमुक्षिप्तज्ञातं ज्ञातता चास्यैवं भावनीया - दयादिगुणवन्तः सहन्त एव देहकष्टं, उत् क्षिमेकपादो मेघकुमारजीव हस्ती वेति एतदर्थाभिधायकं सूत्रमधीयमानत्रादध्ययनमुक्तमेवं सर्वत्र १। तथा संघाटकः श्रेष्ठिचौरयोरेकचन्धनबद्धसमिदमप्यभीष्टार्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमेव, एवमौचित्येन सर्वत्र ज्ञातशब्दो योज्यः, यथायथं च ज्ञातखं प्रत्यध्ययनं तदर्थावगमादवसेयमिति २ | नवरं अण्डकं मयूराण्डं ३ । कूर्म्मच कच्छपः ४ । शैलको राजर्षिः ५। तुम्बं च अलाबुः ६ | रोहिणी श्रेष्ठिवधूः ७ । मल्ली - एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पन्ना तीर्थकरी ८ । माकन्दी नाम वणिक तत्पुत्रो माकन्दीशब्देनेह गृहीतः ९ । चंद्रमा इति च १० । 'दावदवे'न्ति समुद्रतटे वृक्षविशेषाः १९ । उदकं नगरपरिखाजलं तदेव ज्ञातम् उदाहरणं उदकज्ञातं १२ । मण्डूकः नन्दमणिकारश्रेष्ठिजीवः १३ । 'तेपली इय'त्ति तेतलि सुताभिधानोऽमात्य इति च १४ । 'नंदीफल 'ति नन्दिवृक्षामिधानतरुफलानि १५ । 'अवरकंका' धातकीखण्डभरतक्षेत्रराजधानी १६ । 'आइण्णो' त्ति आकीर्णा - जात्याः समुद्रमध्यवर्त्तिनोऽश्वाः १७ । 'संसुमा इयत्ति सुसुमाभिधाना श्रेष्ठदुहिता १८ । अपरं च पुण्डरीकज्ञातमेकोनविंशतितममिति १९ । Education Internationa जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणं एगूणवीसा अज्ज्ञपणा पं० तं० उकखित्तणाए जाव पुंडरीएसि य, पढमस्स णं भंते! अज्ज्ञयणस्स के अट्ठे पन्नन्ते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं २ जंबुस्वामिन: वर्णनं एवं प्रश्न, अध्ययनानि नामानि अथ अध्ययन - १ - "उत्क्षिप्त" आरब्धः For Parts Only ~30~ जम्बूस्वामिप्रश्नः अध्ययनो देश: सू.५ ॥ १० ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [६,७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६,७] इहेव जंबूहीवे दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे रायगिहे णामं नयरे होत्था, वण्णओ, चेतिए वन्नओ, तत्य णं रायगिहे नगरे सेणिए नाम राया होत्था महताहिमवंत. वन्नओ, तस्स णं सेणियस्स रनो नंदा नाम देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया वण्णओ (सूत्रं. ६) तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था अहीण जाव सुरूवे सामदंडभेयउवप्पयाणणीतिमुप्पउत्तणयविहिन्नू ईहावूहमग्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए उप्पत्तियाए वेणयाए कम्मियाए पारिणामिआए चउबिहाए वुद्धिए उववेए सेणियस्स रपणो बहुमु कजेसु य कुडुबेसु य मंतेसु च गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणं आहारे आलंवर्ण चक्खू मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंषणभूए चकखूभूए सबकज्जेसु सबभूमियासु लद्धपच्चए विदण्णवियारे रजधुरचिंतए पावि होत्था, सेणियस्स रन्नो रजं च रहूंच कोसं च कोहागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च सयमेव समुवेक्खमाणे २ विहरति (सूत्रं. ७) यदि प्रथमथुतस्कन्धस्यैतान्यध्ययनानि भगवतोक्तानि ततः प्रथमाध्ययनस्य कोऽर्थों भगवता प्रज्ञात इति शास्त्रार्थप्रस्तावना ॥ अथैवं पृष्टवन्तं जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामी यथाश्रुतमर्थ वक्तुमुपक्रमते मेति । एवं' मित्यादि सुगम, नवरं 'एव मिति वक्ष्यमाणप्रकारार्थः प्रज्ञप्त इति प्रक्रमः, खलुक्यालङ्कारे जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणे 'इहैवेति देशतः प्रत्यक्षासने न पुनरसंख्येयवान् । जम्बूद्वीपानामन्यत्रेतिभावः भारते वर्षे-क्षेत्रे 'दाहिणडभरहे'त्ति दक्षिणार्धभरते नोत्तरार्द्धभरते 'देवी'ति राजभार्या 'वण्णओं दीप अनुक्रम [९,१०] SHREILLEGunintaliratna अभयकुमारस्य वर्णनं ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६,७] दीप अनुक्रम [९,१०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) -------- अध्ययनं [१], मूलं [६,७ ] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ११ ॥ न्ति वर्णको वाध्यः, स च वक्ष्यमाणधारिण्या इव दृश्यः, 'अत्तर'त्ति आत्मज: अङ्गज इत्यर्थः, 'अहीण जाव सुरु'ति इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं 'अहीणपंचिंदियसरी रे' अहीनानि - अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा पञ्चापीन्द्रियाणि यसिंस्तत्तथाविधं शरीरं यस्य स तथा, 'लकवणवंजणगुणोववेप लक्षणानि - खस्तिक चक्रादीनि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि तेषां यो गुणः- प्रशस्तता तेनोपपेतो-युक्तो यः स तथा उप अप इत इति शब्दप्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेत इति स्यात्, 'माणुम्माणपमाणपडिपुण्ण सुजाय सवंगसुंदरंगे' तत्र मानं जलद्रोणप्रमाणता कथं ? - जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानं अर्द्धभारप्रमाणता, कथं १, तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्द्धभारं तुलति तदा स उन्मानप्राप्त इत्युच्यते, प्रमाणं-खाकुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयता, ततब मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि - अभ्यूनानि सुजातानि - सुनिष्यन्नानि सर्वाणि अङ्गानि शिरःप्रभृतीनि यस्मिन् तत्तथाविधं सुन्दरमंगं शरीरं यस्य स तथा, 'ससिसोमाकारे कंते पियदसणे' शशिवत् सौम्याकारं कान्तं कमनीयमत एव प्रियं द्रष्टॄणां दर्शनं रूपं यस्य स तथा, अत एव 'सुरू' न्ति सुरूप इति, तथा सामदण्डभेद उपप्रदानलक्षणा या राजनीतयः तासां सुष्ठु प्रयुक्तं प्रयोगो व्यापारणं यस्य स तथा, नयानां नैगमादीनां उक्तलक्षणनीतीनां च या विधा- विधयः प्रकारास्तान् जानाति यः स तथा पञ्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः, तत्र परस्परोपकारप्रदर्शन गुणकीर्तना दिना शत्रोरात्मवशीकरणं साम, तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः, विजिगीषतशत्रु परिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः, गृहीतधनप्रतिदानादिकमुपप्रदानं नयविधयस्तु सप्त नैगमादयो नयाः प्रत्येकं शतभेदा, नीतिभेदास्तु सामनीतेः पञ्च दण्डस्य त्रयः भेदस्य उपप्रदानस्य च पश्च कामन्दकादिप्रसिद्धा इति, अभयकुमारस्य वर्णनं For Parts Only ~32~ श्रेणिका भयकुमारयोर्वर्णनं सू. ६-७ ॥ ११ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६,७] दीप अनुक्रम [९,१०] | तथा ईहा प-स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिचेष्टा अपोहच-स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्चयः मार्गणं च-दह वल्युत्सर्पणादयः स्थाणुधमो एव प्रायो घटन्ते इत्यायन्वयधर्मालोचनरूपं गवेषणं च-इह शरीरकण्ड्यनादयः पुरुषधोः प्रायो न घटन्त इति व्यतिरेकधर्मालोचनरूपं ईहाव्यूहमार्गणागवेषणानि तैरर्थशास्त्रे-अर्थोपायव्युत्पादग्रंथे कौटिल्यराजधानीत्यादौ या Sमतिर्बोधस्तया विशारदः-पण्डितो यः स ईहान्यूहमार्गणगवेषणार्थशास्त्रमतिविशारदः, तथौत्पत्तिक्यादिकया बुढ्या उपपेतो-युक्तः, तत्रौत्पनिकी अष्टाश्रुताननुभूतार्थविषयाऽऽकसिकी वैनयिकी गुरुविनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्या कर्मजा कृषिवाणिज्या-IS दिकर्माभ्यासप्रभवा पारिणामिकी-प्रायो चयोविपाकजन्या, तथा श्रेणिकस्य राज्ञः बहुषु कार्येषु च-भक्तसेवकराज्यादिदानलक्षणकृत्येषु विषयभूतेषु तथा कुटुम्बेषु च-खकीयपरकीयेषु विषयभूतेषु ये मत्रादयो निश्चयान्तास्तेषु आप्रच्छनीयः, तत्र मन्त्रामन्त्रणानि पर्यालोचनानि तेषु च गुहानीव गुद्यानि-लजनीयव्यवहारगोपितानि तेषु च रहस्यानि-एकान्तयोग्यानि तेषु निश्चयेषु वा-इत्थमेवेदं विधेयमित्येवरूपनिर्णयेषु अथवा स्वतन्त्रेषु कार्यादिषु पटसु विषयेषु चकाराः समुच्चयार्थाः आप्रच्छनीयः-सकृत् । प्रतिप्रच्छनीयो द्वित्रिकृतः, किमिति ?-यतोऽसौ मेढि'त्ति खलकमध्यवर्तिनी स्थूणा यस्यां नियमिता गोपंक्तिर्धान्यं गाहयति तद्वद्यमालम्ब्य सकलमश्रिमडलं मन्त्रणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति सा मेढी, तथा प्रमाण-प्रत्यक्षादि तद्वयः तदृष्टाथानामव्यभि-18| |चारिलेन तथैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरखात् स प्रमाण, तथा 'आधारे' आधारस्पेव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारिला तथा 'आलं-1 बन' रज्ज्वादि तद्वदापद्गादिनिस्तारकलादालम्बनं तथा चक्षुः-लोचनं तल्लोकस्य मध्यमात्यादिविविधकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्ति| विषयप्रदर्शकसाचक्षुरिति, एतदेव प्रपश्चयति-'मेढिभूए'इत्यादि भूतशब्द उपमार्थः सर्वकार्येषु-सन्धिविग्रहादिषु सर्वभूमिका अभयकुमारस्य वर्णनं ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [६,७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक ॥१२॥ [६,७]] दीप अनुक्रम [९,१०] सु-मत्रिअमात्यादिस्थानकेषु लब्धः-उपलब्धः प्रत्ययः-प्रतीतिरविसंवादिवचनं च यस्य स तथा 'विइण्णवियारे'त्ति विती!- धारण्या राज्ञाऽनुज्ञातो विचार:--अवकाशो यस्य विश्वसनीयतात् असौ वितीर्णविचारः सर्वकार्यादिष्विति प्रकृतं, अथवा 'विष्णवियारे वर्णनं सू. विज्ञापिता राज्ञो लोकप्रयोजनानां निवेदयिता, किंबहुना ?-राज्यधुरश्चिन्तकोऽपि-राज्यनिर्वाहकश्चाप्यभूत, एतदेवाह-श्रेणि-18 मेघदोहकस्य राज्ञो राज्यं च-राष्ट्रादिसमुदायात्मकं राष्ट्रं च-जनपदं कोशं च-भाण्डागारं कोष्ठागारं च-धान्यगृहं बलं च-हस्त्यादि- दः सू.९ सैन्यं वाहनं च-बेसरादिकं परं च-नगरमन्तःपुरं च-अवरोधनं खयमेव-आत्मनैव समुत्प्रेक्षमाणो-निरूपयन् समुत्प्रेक्षमाणो वा-व्यापारयन् इह च द्विवेचनमाभीक्ष्ण्येऽवसेयं, 'विहरति आस्ते स । तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था। जाव सेणियस्स रन्नो हट्ठा जाव विहरइ । (सूत्रं.८) तए णं सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि छक्कट्ठकलट्ठमट्ठसंठियखंभुग्गयं पवरवरसालभंजियउज्जलमणिकणगरतणभूमियबिटकजालद्धचंदणिजहकतरकणयालिचंदसालियाविभत्तिकलिते सरसच्चाऊवलवण्णरहए बाहिरओ दूमियघट्ठमढे अम्भितरओ पत्तसुविलिहियचित्तकम्मे जाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोहिमतले पउमलयाफुल्लवल्लिवरपुष्फजातिउल्लोयचित्तियतले वंदणवरकणगकलससुविणिम्मियपडिपुंजियसरसपउमसोहंतदारभाए पयरगालंचंतमणिमुत्तदामसुविरइयदारसोहे सुगं ॥१२॥ धवरकुसुममउयपम्हलसयणोवयारे मणहियपनिवइयरे कप्परलवंगमलयचंदनकालागुरुपवरकंदरुकतरुकधूवडजसंतसुरभिमघमघतगंधुदुयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवधिभूते मणिकिरणपणासियंधकारे किं Salasa9a9racass9900 SAREarattinintamational अभयकुमारस्य वर्णनं, राजी-धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं ~34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) -------- अध्ययनं [3], मूलं [८,९] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः बहुणा ?, जुइगुणेहिं सुरवरविमाणवेलंबियवरघरए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवद्दिए उभओ बोयणे दुहओ उन्नए मजेणयगंभीरे गंगापुलिनवालुयाउद्दालसालिसए उयचियखोमदुगुल पट्टपडिच्छपणे अच्छरयमलयनयतयकुसत्तलिंबसीह के सरपत्थए सुविरश्यपत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणगख्यवरणवणीयतुल्लफासे पुवरत्तावर त्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ एगं महं सत्तुस्सेहं रयकूडसन्निहं नहयलंसि सोमं सोमागारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमतिगयं गयं पासित्ताणं पडिबुद्धा । तते साधारिणी देवी अयमेयारूवं उरालं कलाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठा चित्तमानंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबपुceive समूससियरोमकूवा तं सुमिणं ओगिण्हइ २ सयणिज्जाओ उट्ठेति २ पायपीढातो पथोरुहइ पञ्चोरुहइत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गतीए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छह उवागच्छत्ता सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहिं हिययगमणिजाहिं हिययपल्हायणिजाहिं मियमहुररिभि गंभीरसस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी २ पडिबोहेर पडिबोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अन्भणुन्नाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसीयति २त्ता आसत्था विसत्या सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु सेणियं रायं एवं बदासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Penal Use Only ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [८,९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. धारिण्याः स्वामःसूत्र प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सालिंगणवहिए जाव मियगवयणमहवयंत गयं सुमिणे पासित्ता में पडिबुद्धा, ते एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेंसे भविस्सति ।। (सू.१०) 'धारणी नाम देवी होत्था जाव सेणियस्स रनो इट्टा जाव विहरई' इत्यत्र द्विर्यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्य 'मुंकुमालपाणिपाया अहीणपंचेंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणसुजायसंघर्गसुदरंगी ससिसो-| माकारा कंतापियदसणा सुरूवा करतलपरिमिततिवलियबलियमज्झा' करतलपरिमितो-मुष्टियाधखिवलीको-रेखात्रयो। पेतो बलितो-पलवान मध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा, 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुन्नसोमवयणा' कौमुदीरजनीकरवत्कार्तिकीचन्द्र इव विमल-प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा 'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता-घृष्टा गण्डलेखाः-कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्याः सा तथा 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गारस्य-रसविशेषस्थागारमिवागारं अथवा |शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः तत्प्रधानः आकार:-आकृतियेस्याः सा तथा, चारुषो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा, ततः कर्मधारयः, तथा 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला' संगता उचिता गतहसितभणितवि| हितविलासा यस्खाः सा तथा, तत्र विहितं-चेष्टितं, विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संलापा:-परस्परभापणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ता-संगता ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'पासाईया' चित्तप्रसादजनिका 'दरिसणिज्जा' यां पश्यञ्चक्षुर्न श्राम्यति, 'अमिरूपा' मनोजरूपा 'पडिरूवा SARERatininemarana ...अत्र यत् (सू. १०) लिखितं तत् मुद्रण-दोष: वर्तते, (सू. ९ स्थाने सू. १० मुद्रित) राजी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [८,९] श्रुतस्कन्ध: [१] -------- अध्ययनं [3], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथा, 'सेणियस्स रन्नो इहा वल्लभा' कांता काम्यत्वात् प्रिया प्रेमविषयत्वात् मणुना सुन्दरत्वात् 'नामघेज्ञा' नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः नाम वा धार्यं हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा, 'बेसासिया' विश्वसनीयलात् 'सम्मया' तत्कृतकार्यस्य सम्मतसाद्बहुमता - बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशान्मता बहुमता बहुमानपात्र वा 'अणुमया' विप्रियकरणस्यापि पञ्चात्मता अनुमता 'भंडकरंडगसमाणा' आभरणकरण्डकसमानोपादेयत्वात् 'तेलकेला इव सुसंगोबिया' तैलकेला - सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः स च मङ्गभयालोच (ठ) नभयाच्च सुष्ठु संगोप्यते एवं साऽपि तथोच्यते 'चेलपेडा इव सुसंपरिगिद्दीया' वस्त्रमषेवेत्यर्थः, 'रयणकरंडगीविव सुसारविया' सुसंरक्षितेत्यर्थः कुत इत्याह, 'मां णं सीयं मा णं उन्हं मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाला मां णं चोरा मा णं वाइयपित्तियसंभियसन्निवायविविहरोगायका फुसंतुतिकड सेणिएणं रन्ना सद्धिं विउलाई भोगमोगाई भुंजमाणा विहरति माशब्दा निषेधार्थः, शंकारा वाक्यालङ्कारार्थाः, अथवा 'माण'ति मैनामिति प्राकृतात्, व्याला:श्रपदभुजगाः रोगाः - कालसहाः आतङ्काः सद्योघातिनः, इतिकटु-इतिकृला इतिहेतोर्भोग भोगान्- अतिशयवद्भोगा निति, 'तए 'ति ततोऽनन्तरं 'तंसि तारिसयसि ति यदिदं वक्ष्यमाणगुणं तस्मिंस्तादृशके यादृशमुपचितपुण्यस्कन्धानामङ्गिनामुचितं 'वरघर' त्ति संबन्ध: वासभवने इत्यर्थः, कथंभूते ?- 'षट्काष्टक' गृहस्य बाह्यालन्दकं पदारुकमिति यदागमप्रसिद्ध द्वारमित्यन्ये स्तम्भविशेषणमिदमित्यन्ये, तथा लष्टा - मनोज्ञा मृष्टा-मसृणाः संस्थिता - विशिष्टसंस्थानवन्तो ये स्तम्मास्तथा उद्धता-ऊर्द्धगता स्तम्भेषु वा उद्गता-व्यवस्थिताः स्तम्भोगताः प्रवराणां वराः प्रवरवराः - अतिप्रधानां याः शालभञ्जिकाः पुत्रिकास्तथा Education Internation राज्ञी - धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं For Parts Only ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [८,९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८,९] दीप IS उज्ज्वलानां मणीनां चंद्रकान्तादीनां कनकस्य रवानां-कर्केतनादीनां या स्तूपिका-शिखरं, तथा विटङ्कः-कपोतपाली वरण्डि- धारिण्याः कथानम. काधोवती अस्तरविशेषः जालं-सच्छिद्रो गवाक्षविशेषः, अर्द्धचन्द्र:-अर्द्धचन्द्राकारं सोपानं नियूहक-द्वारपाश्चेविनिर्गतदारु अंत-1 स्वप्नःसूत्रए -अस्तरविशेष एव पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्यद् व्यपदिश्यते नियूहकद्वयस्य यान्यन्तराणि तानि वा निहकान्तराणि कणकाली॥ १४ ॥ अस्तरविशेषश्चन्द्रसालिका च-गृहोपरि शाला एतेषां गृहाशानां या विभक्तिः-विभजनं विविक्तता तया कलितं-युक्तं यत्तत्तथा तसिन् , 'सरसच्छवाडवडंबसरइए'त्ति स्थाप्यं, कैश्चित् पुनरेवं संभावितमिदं-'सरसच्छचाउवलवन्नरइए'त्ति तत्र सरसेनअच्छेन धातूपलेन-पाषाणघातुना गैरिकविशेषेणेत्यर्थः बों रचितो यत्र तत्तथा 'चाहिरओ दूमियघट्ठमडे'ति दमित-धवलितं घृष्ट-कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्ट-मसणं यत्तत्तथा तसिन् , तथा अभ्यन्तरतः प्रशस्त-खकीय २ कर्मच्यावृतं शुचि-पवित्रं लिखितं चित्रकर्म यत्र तत्तथा तस्मिन् , तथा नानाविधानां जातिभेदेन पञ्चवर्णानां मणिरलानां सत्कं कुट्टिमतलं-मणिभूमिका यसिंस्तत्तथा तत्र, तथा पौः-पद्माकाररेवं लताभिरशोकलताभिः पद्मलताभिर्वा मृणालिकाभिः पुष्पचल्लीभिः-पुष्पप्रधानाभिः पत्रवल्लिभिः तथा वराभिः पुष्पजातिभिः-मालतीप्रभृतिभिरित्रितमुल्लोकतलं-उपरितनभागो यस्मिन् तत्तथा तत्र, इह च प्राकतखेन 'उल्लोयचित्तियतले' इत्येवं विपर्ययनिर्देशो द्रष्टव्य इति, अथवा पनादिभिरुल्लोकस्य चित्रितं तलं-अधोभागो यसिन्निति, | तथा वन्यन्त इति वन्दना-मङ्गल्याः ये चरकनकस्य कलशाः सुष्टु-'निम्मिय'ति न्यस्ताः प्रतिपूजिता:-चन्दनादिचर्चिताः ॥१४॥ | सरसपमाः-सरसमुखस्थगनकमलाः शोभमाना द्वारभागेषु यस पाठान्तरापेक्षया चन्दन वरकनककलशेः सुन्यस्तैस्तथा प्रतिपुञ्जितैःपुजीकृतैः सरसपत्रैः शोभमानाद्वारभागा यस्य तत्तथा तसिन् , तथा प्रतरकाणि-खणोदिम या आभरणविशेषास्तत्प्रधानमणिमुक्तानां अनुक्रम [११,१२] राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्न ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [८,९] श्रुतस्कन्ध: [१] ------ अध्ययनं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः दामभिः - स्रग्भिः सुष्ठु विरचिता द्वारशोभा यस्य तत्तथा तस्मिन् तथा सुगन्धिवरकुसुमैर्मृदुकस्य मृदोः पक्ष्मलस्य च - पक्ष्मवतः शयनस्य- तूल्यादिशयनीयस्य यः उपचारः--पूजा उपचारो वा स विद्यते यस्मिन् मण इत्यस्य मत्वर्थीयत्वात् तत् सुगन्धिवरकुसुममृदुपक्ष्मलशयनीयोपचारवतच यद् हृदयनिर्वृतिकरं च मनःस्वास्थ्यकरं तत्तथा तस्मिन् तथा कर्पूरव लवङ्गानि चफलविशेषाः मलयचन्दनं च पर्वतविशेषप्रभवं श्रीखण्डं कालागुरु कृष्णागरुः प्रवरकुन्दुरुक्कं च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्य विशेषः तुरुष्कं च- सिल्हकं धूपश्च गन्धद्रव्यसंयोगज इति द्वन्द्वः, एतेषां वा संबन्धी यो धूपः तस्य दद्यमानस्य सुरभिर्यो मघमघायमान:- अतिशयवान् गन्धः उद्भूतः उद्भूतः तेनाभिरामम् - अभिरमणीयं यत्तत्तथा तस्मिन् तथा सुष्ठु गन्धवराणां - प्रधानचूर्णानां गन्धो यस्मिन् अस्ति तत् सुगन्धवरगन्धिकं तस्मिन् तथा गंधवतिः - गन्धद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद्गुटिका गन्धवर्त्तिस्तद्भूते-सौरभ्यातिशयात्चत्कल्पे, तथा मणि किरणप्रणाशितान्धकारे, किं बहुना वर्णकेन ?, वर्णकसर्वस्वमिदं त्या गुणैश्च सुरवरविमानं विडम्बयति जयति यद्वरगृहकं तत्तथा तत्र तथा तस्मिन् तादृशे शयनीये सहालिङ्गनवर्या-शरीरप्रमाणोपधानेन यतत्सालिङ्गनवर्त्तिकं तत्र, 'उभओ विषोयणे' ति उभयतः उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य 'विद्योयणेति उपधाने यत्र तत्तथा तस्मिन्, 'दुहओ'ति उभयतः उन्नते मध्ये नतं च तनिम्नताद्गभीरं च महत्त्वान्नतगम्भीरं अथवा मध्येन च भागेन तु गम्भीरे-अवनते गङ्गापुलिनबालुकायाः अवदात:- अवदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन 'सालिसए' ति सदशकमतिनम्रखाद्यत्तत्तथा तत्र दृश्यते च हंसतुल्यादिष्वयं न्याय इति । तथा 'उयचिय'त्ति परिकर्मितं यत् क्षौमं दुकूलं कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य युगलापेक्षया यः पट्टः एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम्- आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र तथा आस्त Education Internation राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Parts Only ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [८,९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् प्रत सूत्रांक ॥ १५॥ [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] beneedees रको मलको नवतः कुशक्तो लिम्बः सिंहकेसरश्चैते आस्तरणविशेषास्तैः प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं यत्तत्तथा, इह चास्तरको लोक- धारिण्या: प्रतीत एव मलककुंशक्तौ तु रूढिगम्यौ नवतस्तु ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यते, लिम्बो-बालोरभ्रस्वोर्णायुक्ता कृतिः स्वमसूत्रर सिंहकेसरो-जटिलकम्बला, तथा सुष्टु विरचितं शुचि वा रचितं रजखाण-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां यसिस्तत्तथा तत्र, रक्तांशुकसंवृते- मशकगृहाभिधानवखाते सुरम्ये तथा आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च खभावादतिकोमलो भवति | तथा रूत-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-प्रक्षण एभिस्तुल्यः स्पर्शो यस्य, तूलं वा-अर्कतूलं तत्र पक्षे एतेषामिव ।। स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र, पूर्वरात्रश्वासावपररात्रश्च पूर्वरात्रापररात्रः स एव काललक्षण: समयः न तु सामाचारादिलक्षणः पूर्वरा-1 त्रापररात्रकालसमयस्तत्र, मध्यरात्रे इत्यर्थः, इह चार्षेलादेकरेफलोपेन 'पुवरत्तावरसे'त्युक्तं, अपर]रात्रशब्दो वाऽयमिति, सुप्त-181 जागरा-नातिमुप्ता नातिजाग्रती, अत एवाह 'ओहीरमाणी'त्ति वारं वारमीपन्निद्रां गच्छन्तीत्यर्थः, एक महान्तं सप्तोत्सेधमि-IN त्यादिविशेषणं मुखमतिगतं गजं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धेति योगः, तत्र सप्लोत्सेधं सप्तसु कुम्भादिषु स्थानेधूनतं सप्तहस्तोच्छ्रितं वा 'रययंति रूप्यं 'नहयलंसित्ति नभस्तलान्मुखमतिगतमिति योगः, वाचनान्तरे खेवं दृश्यते-जाव सीहं सुविणे पासित्ता || पडिबुद्धा' तत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं 'एकं च णं महंत पंडरं धवलयं सेयं' एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुलताख्या |॥१५॥ पनार्थ, एतदेवोपमानेनाह-संखउलविमलदहियणगोखीर (विमल) फेणरयणिकरपगासं' शंखकुलस्येव विमलदभ इच धनगोक्षीरस्येव विमलफेनस्येव रजनीकरस्येव प्रकाश:-प्रभा यस्य स तथा तं, अथवा 'हाररजतखीरसागरदगरयमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजदरिसणिज्ज' हारादिभ्यः पाण्डुरतरो यः स तथा, इह च महाशैलो-महाहिमवान् तथा उरु:-विस्तीर्ण: रम-18 राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [८,९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८,९] दीप णीयो-रम्योऽत एव दर्शनीय इति पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्तं, तथा 'थिरलट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडवियमुह स्थिरौ-अप्रकम्पो लष्टौ-मनोज्ञो प्रकोष्ठौ-कूर्पराग्रेतनभागौ यस्य स तथा, तथा पीवराः-स्थूला सुश्लिष्टा:-अविसर्वरा विशिष्टा-मनोहरास्तीक्ष्णा या दंष्ट्रास्ताभिः कृता 'विडंविर्य'ति विवृतं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयस्तं, तथा परिकम्मियजचकमलकोमलमाईयसोहंतलहउटुं' परिकम्मित-कृतपरिकर्मा 'माइय'ति मात्रावान् परिमित इत्यर्थः, शेष प्रवीतं, तथा रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीह रक्तोत्पलपत्रमिव मृदुकेभ्यः सुकुमारमतिकोमलं तालु च निलोलिताना-प्रसारितामा जिहा च यस्य स तथा तं, तथा 'महुरगुलियभिसंतपिंगलच्छं'मधुगुटिकेव-क्षौद्रवर्ति-11 रिव 'भिसंतति दीप्यमाने पिङ्गले-कपिले अक्षिणी यस्य स तथा तं, तथा 'मूसागयपवरकणयतावियआवत्तायंतवदृतडियविमलसरिसनयणं मूषागतं-मृन्मयभाजनविशेषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमग्निधमनात् 'आवत्तायंत'त्ति आव | कुर्वत् तद्वत् तथा वृत्ते च तदिते -विवृत्ते विमले च सरशे च-समाने नयने यस्य स तथा ते, अत्र च बहतह' इत्येतावदेव पुस्तके दृष्ट संभावनया तु वृत्तदित इति व्याख्यातमिति, पाठान्तरेण तु 'वपडिपुण्णपसत्यनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं' स्फुटबाय पाठा, तथा 'विसालपीवरभमरोरुपडिपुण्णविमलखंध विशालो-विस्तीर्णः पीबरो-मांसलः 'भ्रमरोरुः' भ्रमरा-रोमावर्ता उरवी-विस्तीर्णा यत्र स तथा परिपूर्णो विमलश्च स्कन्धो यस्य स तथा तं, अथवा 'पडिपुण्णसुजायखधं तथा 'मिदुविसदसुहमलक्खणपसस्थविच्छिन्नकेसरसई' मृब्यो विशदा-अविमूढाःमूक्ष्मा लक्षणप्रशस्ताः-प्रशस्तलक्षणा विस्तीर्णाः केसरसटा:-स्कन्धकेशरजटा यस्य स तथा तं, अथवा 'निम्मलवरकेसरधरं' तथा 'ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगू अनुक्रम [११,१२] weredturary.com राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [८,९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] ज्ञाताधर्म- लं'उच्छ्रितम्-ऊर्द्धनीतं सुनिर्मितं सुष्टु भंगुरतया न्यस्तं सुजातं सद्गुणोपपेततया आस्फोटितं भुवि लाजुलं-पुच्छं येन स तथा धारिण्या: कथाक्रम.सतं, सौम्य-उपशान्तं सीम्याकार शान्ताकृति, 'लीलायंतंति लीलां कुर्वन्तं 'जंभायंतं' विजृम्भमाणं शरीरचेष्टाविशेषं विदधानं स्वनःसूत्रए 'गगणतलाओ ओवयमाणं सीहं अभिमुहं मुहे पविसमाणं पासित्ता पडिबुद्ध'त्ति 'अयमेयारूवंति इमं महास्वप्नमिति संबंधः, एतदेव-वर्णितस्वरूपं रूपं यस्य स्वप्नस्य न कविकृतमूनमधिकं वा स तथा तं, 'उरालं'ति उदारं प्रधानं कल्याण-कल्याणानां शुभसमृद्धि विशेषाणां कारणखात् कल्ये वा-नीरोगखमणति-गमयति कल्याणं तहेतुखात्, शिवम् उपद्रवोपशमहेतुखात् धन्यं 6 धनावहसात् 'मंगल्यं' मङ्गले दुरितोपशमे साधुखात्सश्रीक-सशोभनमिति 'समाणी'त्ति सती दृष्टतुष्टा अत्यर्थ तुष्टा अथवा हृष्टा-विस्मिता तुष्टा-तोषवती, 'चित्तमाणंदिय'त्ति चित्तेनानन्दिता आनन्दितं वा चित्तं यस्याः सा चित्तानन्दिता, मकारः प्राकृतखात् , प्रीतिमनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः, 'परमसोमणस्सिया' परमं सौमनस्यं संजातं यस्याः सा परमसौमनस्थिता, हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सर्वाणि प्राय एकाथिकान्येतानि पदानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनाथेखाव स्तुतिरूपलाच न दुष्टानि, आह च-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनास्तथा स्तुवनिन्दन् । यत्पदमसकृद्याचत्पुनरुक्तं न दोषाय | ॥१॥ इति, 'पचोरुहइत्ति प्रत्यवरोहति, अखरितं मानसौत्सुक्याभावेनाचपलं कायत: असंभ्रान्त्याऽस्स्वलन्त्या अविलम्बितया-अविच्छिन्नतया 'राजहंससरिसीए'त्ति राजहंसगमनसदृश्या गत्या 'ताहिं'ति या विशिष्टगुणोपेतास्ताभिगीभिरिति संबन्धः, इष्टाभिः तस्य वल्लभाभिः कान्ताभिः-अभिलषिताभिः सदैव तेन प्रियाभि:-अद्वेष्याभिः सर्वेषामपि मनो ॥१६॥ वाभि:-मनोरमाभिः मन:प्रियाभिश्चिन्तयापि उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारादियुक्ताभिः कल्याणाभिः-समृद्धिकारिकाभिः weredturary.com राज्ञी-धारिणी एवं तस्या: स्वप्नं ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [८,९] दीप अनुक्रम [११,१२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) -------- अध्ययनं [3], मूलं [८,९] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः | शिवाभिः - गीर्दोषानुपद्रुताभिः धन्याभिः - धनलम्भिकाभिर्मङ्गल्याभिः मङ्गलसाध्वीभिः सश्रीकाभिः - अलङ्कारादिशोभावद्भिः | हृदयगमनीयाभिः - हृदये या गच्छन्ति कोमलखात् सुबोधलाच्च तास्तथा ताभिः, हृदयग्रहादिकाभिः हृदयग्रह्लादनीयाभिः आह्लादजनकाभिः 'मितमधुररिभितगंभीरसश्रीकाभिः मिता:-वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिताः मधुराः स्वरतः रिभिताः-स्वरघोलनाप्रकारवत्यः गम्भीराः - अर्थत शब्दतश्च सह श्रिया - उक्तगुणलक्ष्म्या यास्तास्तथा ततः पदपञ्चकस्य कर्मधारयस्ततस्ताभिः गीर्भिः वाग्भिः संलपन्ती पुनः पुनर्जल्पन्तीत्यर्थः नानामणिकनकरत्लानां भक्तिभिः - विच्छित्तिभिचित्रं विचित्रं यत्तत्तथा तत्र भद्रासने-सिंहासने आश्वस्ता गतिजनितश्रमापगमात् 'विश्वस्ता संक्षोभाभावात् अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगय'त्ति सुखेन शुभे वा आसनवरे गता स्थिता या सा तथा, करतलाभ्यां परिगृहीतः - आत्तः करतलपरिगृहीतस्तं शिरस्यावर्त्त आवर्त्तनं परिभ्रमणं यस्य स तथा शिरसावर्त्त इत्येके, शिरसा अप्राप्त इत्यन्ये, तमंजलि मस्तके कृत्वा एवमवादीत् 'किं मने' इत्यादि, को मन्ये कः कल्याणफलवृत्तिविशेषो भविष्यति, इह मन्ये वितर्कार्थी निपातः, 'सोच'चि थुला श्रवणतः निशम्य - अवधार्य हृष्टतुष्टो यावद्विसर्पहृदयः । तथा वाचनान्तरे पुनरिह राज्ञीवर्णके चेदमुपलभ्यते । सेणि राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ट जाब हियये धाराहयनीवसुरभिकुसुमचुंचुमालइयतणुऊस सियरोमकृवे तं सुमिणं उग्गिण्हइ उग्गिण्हइत्ता ईहं पविसति २ अप्पणी साभाविएणं मइपुषएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेति २ धारणिं देवीं ताहिं जाव हिययपहाय णिज्जाहिं मिड महुररि भियगंभीरसस्सिरियाहिं वग्गृहिं अणुवहेमाणे २ एवं वयासी-उराले णं Educator Internationa राज्ञी - धारिणी एवं तस्याः स्वप्नं For Parts Only ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१०,११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. स्वमकथनं फलादेशः प्रत सूत्रांक [१०,११] ॥१७॥ तुमे देवाणुप्पिएं ! सुमिणे दिढे कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दिहे सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए सुमिणे दिहे आरोग्गतुहिदीहाउयकल्लाणमंगल्लकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिखे अत्यलाभों ते देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो ते देवा. रजलाभो भोगसोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण य रादिदियाणं विइकंताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपवयं कुलवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलणंदिकरं कुलजसकर कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं पयाहिसि, सेवि य णं दारए उम्मुकवालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकंते विच्छिन्नविपुलवलवाहणे रज्जवती राया भविस्सइ, तं उराले णं तुमे देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणकारए णं तुमे देवी! सुमिणे दिखेत्तिकट्ठ भुजो २ अणुव्हेइ । (सू.१०)तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं बुत्ता समाणी हुतुहा जीव हियया करतलपरिग्गहियं जाव अंजलि कट्ट एवं वदासी एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमयं इच्छियमेयं दे० पडिच्छियमयं इच्छियपडिच्छियमेयं सचे गं एसमढे जं णं तुझे बदहसिकहु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छइत्ता सेणिएक रन्ना अन्मणुण्णाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुढेइ अन्भुढेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छहरसा संयंसि सयणिजसि निसीयह निसीयइत्ता एवं वदासी-मा मे से उत्समे पहाणे मंगल्ले mesesevedeceaeserpercernet दीप अनुक्रम [१३,१४] IM॥१७॥ स्वप्न-फल कथन ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१०,११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०,११] दीप अनुक्रम [१३,१४] सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहमिहित्तिकट्ठ देवयगुरुजणसंवद्धाहिं पसत्याहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी विहरह (स. ११) 'धाराहयनीयसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुऊसवियरोमकूवेति तत्र नीय:-कदम्बः धाराहतनीयसुरभिकुसुममिव 'चंचुमालइय'त्ति पुलकिता तनुर्यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?-'ऊसवियति उत्मृता रोमकूपा-रोमरन्ध्राणि यस्य स तथा, तं स्वप्नमवगृह्णाति अर्थावग्रहतः ईहामनुप्रविशति-सदर्थप्रर्यालोचनलक्षणां ततः 'अप्पणोति आत्मसंबन्धिना स्वाभाविकेनसहजेन मतिपूर्वेण-आभिनिबोधिकप्रभवेन बुद्धिज्ञानेन-मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन अर्थावग्रह-स्वमफलनिश्चयं करोति, ततोऽवादीन् 'उराले णमित्यादि, अर्थलाभ इत्यादिषु भविष्यतीति शेषो दृश्यः, एवं उपबृंहयन-अनुमोदयन् 'एवं खलु'ति एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वप्नात् दारकं प्रजनिष्यसीति संबन्धः, 'बहुपडिपुण्णाणं'त्ति अतिपूर्णेषु षष्ठयाः | 2 सप्तम्यर्थखात अर्द्धमष्टमं येषु तान्यष्टिमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु-अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, कुलकेसादीन्येकादश पदानि, तत्र केतु-1% चिई ध्वज इत्यर्थः केतुरिख केतुरद्भुतखात् कुलस केतुः कुलकेतुः, पाठान्तरेण 'कुलहेड' कुलकारणं एवं दीप इव दीपः प्रकाश-1 कसात् पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयसाधम्यात् अवतंसा-शेखरः उत्तमखात्तिलको विशेषक: भूषकवात् कीर्तिकर:-ख्यातिकरः, कचिद्वृत्तिकरमित्यपि दृश्यते, वृत्तिश्च-निर्वाहा, नन्दिकरो-वृद्धिकरः यशः सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषस्तत्करः पादपोवृक्ष आश्रयणीयच्छायखात् विवर्द्धन-विविधैः प्रकारवृद्धिरेव तत्करं 'विण्णायपरिणयमेत्तेति विज्ञकः परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते, तथा शूरो दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा वीरः संग्रामतः विक्रान्तो भूमण्डलाक्रमणतः विस्तीर्णे विपुले-18 स्वप्न-फल कथन ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१०,११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [१०,११] ॥१८॥ दीप अनुक्रम [१३,१४] अतिविस्तीर्णे बलवाहने-सैन्यगवादिके यस्य स तथा, राज्यपती राजा स्वतत्र इत्यर्थः । 'त'मिति यसाद तसादुदारादि विशे को- नमित्तिपणः खमः 'तुमेति खया दृष्ट इति निगमनं । 'एवमेतदिति राजवचने प्रत्ययाविष्करणम् , एतदेव स्फुटयति-तहमेय'ति काहानं तथैव तयथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति, अनेनान्वयतस्तद्वचनसत्यतोक्ता 'अवितहमेयं ति अनेन व्यतिरेकभावतः 'असंदिद्धमेय- सू. १२ मित्यनेन संदेहाभावतः 'इच्छियंति इष्ट ईप्सितं वा 'पडिच्छियंति प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतमित्यर्थः, इष्टप्रतीष्टम् ईप्सितप्रतीप्सितं वा धर्मद्वययोगात् , अत्यन्तादरख्यापनाय चैवं निर्देशः, 'इतिकटु'त्ति इति भणिवा 'उत्तम'चि खरूपतः 'पहाणे'त्ति फलतः, एतदेवाह-मंगल्ले'ति मंगले साधुः खप्त इति 'सुमिणजागरिय'ति खमसंरक्षणार्थ जागरिका ता 'प्रति-11 जाग्रती प्रतिविदधती। तए णं सेणिए राया पचूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सदावेह सदावइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! पाहिरियं उवट्ठाणसालं अज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्तसुइयसंमजिओवलितं पंचवनसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवडज्झंतमघमतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूतं करेह य कारवेह यर एवमाणसिय पचप्पिणह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं धुत्ता समाणा हहतुट्ठा जाव पचप्पिणंति, तते णं सेणिए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगपगासर्किसुयसुयमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपा रावयचलणनयणपरहुपसुरत्तलोयणजामुयणकुसुमजलियजलणतवणिजकलसहिंगुलयनिगररूवाइरंगरेह ॥१८॥ स्वप्न-फल कथन, ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा न्तसस्सिरीए दिवागरे अहकमेण उदिए तस्स दिण [कर] करपरपरावयारपारळूमि अंधयारे बालातवकुंकुमेण स्वइयव जीवलोए लोयणविसआणुआसविगसंतविसददंसियंमि लोए कमलागरसंडबोहए उद्वियंमि सूरे सहस्सरसिमि दिणयरे तेयसा जलंते सयणिज्जाओ उद्वेति २ जेणेव अणसाला तेणेव उवागच्छद २ अणसालं अणुपविसति २ अणेगवायामजोगवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपाहिं सहस्सपागेहिं सुगंधचरतेल्लमादिपहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिज्जेहिं बिहणिज्जेहिं सबिंदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभंगएहिं अन्भंगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं निउणसिप्पोवगतेहिं जियपरिस्समेहि अभंगणपरिमणुषलणकरणगुणनिम्माएहि अडिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चाउपिहाए संथाहणाए संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अणसालाओ पडिनिक्खमह पडिनिक्खमइत्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता मज्जणघरं अणुपविसति अणुपविसित्ता समंत (मुत्त) जालाभिरामे विचित्तमणिरयणकोहिमतले रमणिजे पहाणमंडपंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहनिसन्ने सुहोदगेहिं पुष्फोदएहिं गंधोदएहिं सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाईयलूहियंगे अहतसुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगते सुइमालावन्नग दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. endrasaera सूत्रांक १ उत्क्षिसाध्ययने स्वमफलम् सू. १२ [१२] ॥१९॥ गाथा विलेवणे आविद्धमणिमुवन्ने कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंयमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेवजे अंगुलेलगल लियंगल लियकयाभरणे णाणामणिकडगतुडियथंभियभुए अहियरुवसस्सिरीए कुंडलुजोइयाणणे मउदित्तसिरए हारोत्थयमुकतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्सरिजे मुछियापिंगलंगुलीए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिह निउणोवियमिसिमिसंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसस्थआविद्धवीरवलए, किं बहुणा, कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगलजयसहकयालोए अणेगगणनायगदंडणायगराईसरतलवरमाइंबियकोटुंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमचचेडपीहमदनगरणिगमसेडिसेणावइसत्यवाहदयसंधिवाल सद्धिं संपरिबुडे धवलमहामेह निग्गएषिव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मझे ससिव पियदसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उचागच्छद उवागच्छइत्ता सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने । तते णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अट्ट भहासणाई सेयवत्वपच्चुत्थुयाति सिद्धस्थमंगलोचयारकतसंतिकम्माई रयावेई रयावित्सा णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्यवरपहणुग्गयं सहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं ईहामियउसमतुरयणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवरपेरंतदेसभागं अम्भितरियं जवणियं अंछावेइ अंछावइत्ता दीप a eeeraries अनुक्रम [१५-१७]] ॥१९॥ स्वप्न-फल कथन ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा". श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा अच्छरगमउअमसूरगउच्छाइयं धवलवत्वपचत्धुयं विसिटुं अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भहासणं रयावेइ रयावइत्ता कोडुंबियपुरिसे सदाचेइ सहावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंगमहानिमित्तसुत्तस्थपाढए विचिहसत्थकुसले सुमिणपाढए सद्दावेह सदावहत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणह । तते णं ते कोटुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कडु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगति २ सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छति उवागरिछत्ता सुमिणपाढए सदावेति । तते णं ते सुमिणपादगा सेणियस्स रनो कोइंबियपुरिसहिं सद्दाविया समाणा हट्ट २ जाव हियया पहाया कयवलिकम्मा जाय पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा हरियालियसिद्धत्वयकयमुद्धाणा सतेहिं सतेहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति २रायगिहस्स मज्झमझेणं जेणेव सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छंति २ एगतओ मिलयंति २ सेणियस्स रन्नो भवणव.सगढुवारणं अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं बद्धाति, सेणिएणं रन्ना अचिय बंदिय पूतिय माणिय सकारिया सम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुबन्नत्येसु भद्दासणेसु निसीयंति, तते णं सेणिए राया जवणियंतरियं धारणी देवीं ठवेइ ठवेत्ता पुप्फफलप BeegR66टलटलटलर दीप अनुक्रम [१५-१७] Waturasurare.org स्वप्न-फल कथन ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. सूत्रांक उत्क्षिसाध्ययने स्वप्नफलम् सू. १२ ॥20॥ जबलरsnesesemerce [१२] डिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणीदेवी अज्ज तंसि तारिसयंसि सयणिजंसि जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिबिसेसे भविस्सति, तते णं ते सुमिणपाडगा सेणियस्स रन्नो अंतिए एपम8 सोचा णिसम्म हट्ट जाव हियया तं सुमिणं सम्मं ओगिण्हति २ई अणुपविसंति २ अन्नमन्नेण सद्धिं संचालेंति संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्स रन्नो पुरओ सुमिणसत्थाई उचारेमाणा २ एवं वदासी-एवं खलु अम्हं सामी! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणाबावत्तरि सबसुमिणा दिट्ठा, तस्थ णं सामी! अरिहंतमायरो वा चक्कवद्दिमातरो वा अरहंतसि वा चक्कवाहिसि वा गम्भं वकममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिणाणं इमे चोदस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, तंजहा-गयउसभसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झर्य कुंभं । पउमसरसागरविमाणभवणरयणुच्चय सिंहिं च ॥१॥ वासुदेवमातरो वा वासुदेवंसि गन्भं वकममाणंसि एएसिं चोद्दसह महासुमिणाणं अन्नतरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुजझंति, बलदेवमातरो वा बलदेवंसि गम्भं चकममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुमिणाणं अण्णतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताण पडिबुझंति, मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गन्भं वकममाणंसि एएर्सि चोहसहं महासुमिणाणं अन्नतरं एग महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुज्झंति, इमेय णं सामी! धारणीए देवीए गाथा दीप ॥२०॥ अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा एगे महामुमिणे दिडे, तं उराले णं सामी! धारणीए देवीए सुमिणे दिढे, जाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे, अस्थलाभो सामी! सोक्खलाभो सामी! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो, रजलाभो एवं खलु सामी! धारिणीदेवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं पयाहिसि, सेवि यणं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोवणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकंते विच्छिन्नविउलषलवाहणे रजवती राया भविस्सइ अणगारे वा भावियप्पा, तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिहे, जाव आरोग्गतुढिजावदितॄत्तिक? भुजो २ अणुबूहेंति । तते णं सेणिए राया तेसि समिणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हह जाब हियए करयल जाव एवं वदासीएवमेयं देवाणुपिया। जाव जन्नं तुन्भे बदहत्तिकटुतं सुमिणं सम्म पडिच्छति २ते सुमिणपाढए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं बस्थगंधमल्लालंकारेण य सकारेति सम्माणेति २ विपलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति २ पडिविसलेह । तते णं से सेणिए राया सीहासणाओ अन्भुढेति २ जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता धारिणीदेवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा जाव एग महासुमिणं जाव भुज्जो २ अणुवूहति, तते णं धारिणीदेवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ट जाव हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छति २ जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छति २ पहाया कयबलिकम्मा जाव विपुलाहिं जाब विहरति (सूत्रं १२) दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२१॥ [१२] गाथा ज्ञाताधर्म-RI 'पचूसेत्यादि प्रत्यूषकाललक्षणो यः समय:-अवसरः स तथा तत्र कौटुम्बिकपुरुषान्-आदेशकारिणः 'सद्दावेइति १ उत्क्षिकथाङ्गम् शब्दं करोति शब्दयति 'उपस्थानशाला' आस्थानमण्डपं 'गन्धोदकेने त्यादि गन्धोदकेन सिक्ता शुचिका-पवित्रा संमार्जिता |प्ताध्ययने किचवरापनयनेन उपलिप्ता छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्य, स्वमफलम् I सिक्तायनन्तरभाविखाच्छुचिकखस्य, तथा पञ्चवर्णः सरसः सुरभिश्च मुक्त:-क्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्षणो यः उपचार:-पूजा तेन18। कलिता या सा तथा तां, 'काले'त्यादि पूर्ववत् , 'आणत्तियं पञ्चप्पिणहति आज्ञप्तिम्-आदेशं प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत, 'कल्ल'मित्यादि 'कल्लमिति श्वः प्रादुः-प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लोल्पलकमलकोमलोन्मी-RI लितं' फुल्लं-विकसितं तच तदुत्पलं च-प- फुल्लोत्पलं तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः फुल्लोत्पलकमलौ तयोः कोमलम्-अकठो-II रमुन्मीलितं-दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तसिन् , अथ रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-शुक्ले प्रभाते-उपसि रत्तासोगे'त्यादि रक्ताशोकस्य प्रकाशः-प्रभा स च किंशुकं च-पलाशपुष्पं शुकमुखं च गुञ्जा-फलविशेपो रक्तकृष्णस्तदर्थ बंधुजीबकं च-बन्धुकं पारापतः-पक्षिविशेषः तच्चलननयने च परभृतः-कोकिलः तस्य सुरक्तं लोचनं च 'जासुमिण इति जपा वनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं च ज्वलितज्वलनच तपनीयकलशश्च हिङ्गलको-वर्णकविशेषस्तत्रिकरन-राशिरिति इन्द्रा, तत एतेषां यद्रूपं ततोऽतिरेकेण-आधिक्येन रहंत'ति शोभमाना वा खकीया श्री:-वर्णलक्ष्मीर्यस्य स तथा तसिन्, 'दिवाकरेगा ॥२१॥ IIMआदित्ये अथ-अनन्तरं क्रमेण-रजनीक्षयपाण्डुरप्रभातकरणलक्षणेन 'उदिते' उद्गते 'तस्स दिण[कर करपरंपरावयारपारदमि अंधकारे'सि तस्स-दिवाकरस दिने दिवसे अधिकरणभूते दिनाय वा यः करपरम्परायाः-किरणप्रवाहसावतार:-18 दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा अवतरणं तेन प्रारब्धम्-आरब्धमभिभवितुमिति गम्यते अपराद्धं वा-विनाशितं दिनकरपरम्परावतारपारब्धं तसिन् सति, हा च तस्येति सापेक्षत्वेऽपि समासः, तथा दर्शनादन्धकारे-तमसि तथा बालातप एव कुलमं तेन खचिते इव जीवलोके सति। तथा लोचनविषयस्य-दृष्टिगोचरस्य योऽणुयासोत्ति-अनुकाशो विकाशः प्रसर इत्यर्थस्तेन विकसंचासौ वर्द्धमानो विशदश्चस्पष्टः स चासो दर्शितश्चेति लोचनविषयानुकाशविशददर्शितस्तसिन् , कस्मिनित्याह-लोके अयमभिप्रायः-अन्धकारस्य क्रमेण हानौ लोचनविषयविकाशः क्रमेणैव भवति स च विकसन्तं लोकं दर्शयत्येव, अंधकारसद्धावे दृष्टेरप्रसरणे लोकस्य संकीणसेव प्रतिभासनादिति, तथा कमलाकरा-इदादयस्तेषु षण्डानि-नलिनीषण्डानि तेषां बोधको यः तस्मिन् उत्थिते-उदयानन्तरावस्थावाले 'सरे आदित्ये किंभूते-सहस्ररश्मी तथा 'दिनकरें दिनकरणशीले तेजसा ज्वलति सतीति । 'अणसालति | अट्टनशाला व्यायामशालेत्यर्थः, अनेकानि यानि व्यायामानि योग्या च-गुणनिका वल्गनं च-उल्ललन च्यामर्दनं च-परस्परेण बाहाधगमोटनं मल्लयुद्धं च-प्रतीतं करणानि च-बाहुभङ्गविशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धानि तैः श्रान्तः सामान्येन परिश्रान्तो अङ्गप्रत्यङ्गा| पेक्षया सर्वतः शतकृयो यत्पकं शतेन वा कार्याषणानां यत्पकं तच्छतपकमेवमितरदपि सुगन्धिवरतैलादिभिरभ्मंगैरिति योगः आदिशब्दात घृतकर्पूरपानीयादिग्रहः किम्भूतैः-'प्रीणनीयैः रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिदीपनीयैः-अग्निजननैः दर्प-18 राणीयैः-बलकरैः मदनीयैः-मन्मथबृहणीयैर्मासोपचयकारिभिः सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयैः अभ्यंगैः-स्नेहनैः अभ्यंगः क्रियते || यस सोऽभ्यङ्गितः सन् , ततस्तैलचर्मणि-तैलाभ्यक्तस्य संबाधनाकरणाय यचर्म तत्तैलचर्म तमिन् संवाहिते 'समाणे त्ति योगः, | कैरित्याह ?-पुरुषैः, कथम्भूतैः ?-प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमालकोमलानि-अतिकोमलानि तलानि-अधोभागा येषां ते दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् | सूत्रांक [१२] ॥२२॥ गाथा टिकटकर 68cleedeoटट तथा तैः, छक:-अबसर.विसप्ततिकलापण्डितैरिति च वृद्धवाः, दक्षैः-कार्याणामविलम्बितकारिभिः प्रष्टैः-वाग्मिभिरिति वृद्ध- उत्क्षिव्याख्या, अथवा प्रष्टैः-अग्रगामिभिः कुशल:-साधुभिः संचाधनाकर्मणि मेधाविभिः-अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठैः निपुणैः- साध्ययने क्रीडाकुशलैनिपुणशिल्पोपगतैः-निपुणानि-मूक्ष्माणि यानि शिल्पानि-अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथास्वमफलम् तैर्जितपरिश्रमैः, व्याख्यान्तरं तु छेकः-प्रयोग दक्षैः-शीघ्रकारिभिः 'पत्तद्देहिंति प्राप्ताङ्करधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः कुशलैः- सू. १२ आलोचितकारिभिः मेधाविमिः-सकृच्छृतदृष्टकर्मज्ञैः निपुणैः-उपायारम्भिभिः निपुणशिल्पोपगतैः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितैरिति, अभ्यङ्गनपरिमर्दनोद्वलनानां करणे ये गुणास्तेषु निर्मातेः, अस्थां सुखहेतुसादस्थिसुखा तया 'संवाहनयेति विश्रामणया अप-18 गतपरिश्रमः 'समंतजालाभिरामे'त्ति समन्तात्-सर्वतो जालकैर्विच्छित्तिभिः छिद्रवहावयव विशेषैरभिरामो-रम्यो यः स्नानमण्डपः स तथा, पाठान्तरे 'समत्तजालाभिरामेति तत्र समस्तैर्जालकैरमिरामो यः स तथा, पाठान्तरेण 'समुत्तजाला-1 भिरामें सह मुक्ताजालयों वततेभिरामश्च स तथा तत्र, शुभोदकैः पवित्रस्थानाहृतैः गन्धोदकैः-श्रीखण्डादिमिरैः पुष्पोदकैः-पुष्परसमिः शुद्धोदकैश्च खाभाविक, कथं मजित इत्याह-तत्र' स्नानावसरे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि तैः 'पक्ष्मले'त्यादि पक्ष्मला-पक्ष्मवती अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना कापायिका कषायरक्ता शाटिका तया लूपितमहं यस्य स तथा, अहत-मलमूषिकादिभिरनुपढतं प्रत्यग्रमित्यर्थः, मुमहार्य दृष्यरतं-प्रधानवसं तेन सुसंवृतः-परिगतस्तद्वा मुटु संवृतं परि-11 9 ॥२२॥ [हितं येन स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला च-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कमादि विलेपनं यस्य स तथा, आवि-16 द्वानि-परिहितानि मणिसुवणानि येन स तथा, कल्पितो-विन्यस्तो हारः-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिक: त्रिसरिकं च दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा प्रतीतमेव यस्य स तथा, पालम्बो-झुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिमूत्रेण-कव्यामरण विशेषेण मुष्ठ कृता शोभा यस्य स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथवा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा, तथा पिनद्धानि-परिहितानि |ग्रैवेयकाहुलीयकानि येन स तथा, तथा ललिताङ्गके अन्यान्यपि ललितानि कृतानि-न्यस्तानि आमरणानि यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः, तथा नानामणीनां कटकत्रुटिक:-हस्तवाहाभरणविशेषबहुसात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, अधिकरूपेण सश्रीका-सशोभो यः स तथा, कुण्डलोयोतिताननः मुकुटदीप्तशिरस्क: हारेणावस्तृतम्-आच्छादितं तेनैव सुष्ठ। कृतरतिकं वक्षः-उरो यस्खासौ हारावस्तृतसुकृतरतिकवक्षाः, मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलीक:-मुद्रिका-अङ्गल्याभरणानि ताभिः पिङ्गला:-1 कपिला अङ्गुलयो यस्य स तथा, प्रलम्बेन-दीपेण प्रलम्बमानेन च सुष्टु कृतं पटेनोत्तरीयम्-उत्तरासको येन स तथा, नानामणि-10 || कनकरवैविमलानि महाहाणि-महा_णि निपुणेन शिल्पिना 'उविय'ति परिकर्मितानि 'मिसिमिसंतति दीप्यमानानि यानि | विरचितानि-निर्मितानि सुश्लिष्टानि सुगन्धीनि विशिष्टानि-विशेषवन्त्यन्येभ्यो लप्टानि-मनोहराणि संस्थितानि प्रशस्तानि च आषिद्धानि-परिहितानि वीरवल यानि येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसौ मा विजित्य IS मोचयत्वेतानि बलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते, किंबहुना, वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष इव || सुष्ठु अलङ्कतो विभूषितश्च फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलङ्कतो विभूपितस्तु वस्त्रादिभिरिति, सह कोरण्टकाKधानर्माल्यदामभिर्यच्छत्रं तेन नियमाणेन, कोरण्टकः-पुष्पजातिः, तत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभार्थ दीयन्ते, मालायै हितानि-16 माल्यानि-पुष्पाणि दामानि-माला इति, चतुर्णा चामराणां प्रकीर्णकानां वालैवीं जितमङ्गं यस्येति वाक्यं, मालभूतो जयशब्दः दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: कथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [१२]] गाथा कृत आलोके-दर्शने लोकेन यस्य स तथा, तथा अनेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तरा दण्डनायकाः-तत्रपाला राजामोमाण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानो मतान्तरेणाणिमायैश्वर्ययुक्ताः तलवरा-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टवन्धविभूषिता: राजस्था-18 साध्ययने शनीयाः माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मत्रिणः प्रतीताः महाम- स्वमफलम् श्रिणो-मत्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः गणका-गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति वृद्धाः दीवारिका:प्रतीहाराः राजद्वारिका या अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेटा:-पादमलिकाः पीठमा आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्याः इत्यर्थः 'नगरं नगरवासिप्रकृतयो निगमा:-कारणिकाः श्रेष्ठिन:--श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोसमाङ्गा: सेनापतया-नृपतिनिरूपिताधतुरासैन्यनायकाः सार्थवाहा:-सार्थनायकाः दूता:-अन्येषां गखा राजादेशनिवेदकाः सन्धि-18 पाला-राज्यसन्धिरक्षकाः एषा द्वन्द्वः ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह, न केवलं तत्सहितखमेवापि तु तैः समिति-समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मजनगृहात्प्रतिनिष्कामतीति संवन्धः, किंभूतः -प्रियदर्शनः, क इव - धवलमहामेघनिर्गत इव शशी, तथा 'ससिष'त्ति वत्करणसान्यत्र संबन्धस्ततो ग्रहगणदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये हव वन-1 |मान इति । सिद्धार्थकप्रधानो यो मङ्गलोपचारतेन कृतं शान्तिकर्म-विनोपशमकर्म येषु तानि तथा । 'णाणामणी'त्यादि. 18 यवनिकामाञ्छयतीति संबन्धः, अधिक प्रेक्षणीयं रूपं यस्यां रूपाणि वा यस्यां सा तथा तां, महार्षा चासौ वरपत्तने-परवखो-18॥२३॥ त्पत्तिस्थाने उद्गता च-च्यूता तां श्लक्ष्णानि बहुभक्तिशतानि यानि चित्राणि तेषां स्थानं, तदेवाह-ईहामृगाः-धूकाः ऋषभाः[वृषभाः तुरगनरमगरविहगाः प्रतीता: व्याला:-श्वापदभुजगाः किन्नरा-व्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः सरभा-आट दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] गाथा व्याः महाकायपशवः पराशरेतिपर्यायाः चमरा-आटव्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता-अशोकादिलताः पद्मलता:पबिन्यः एतासां यका भक्तयो-विपिछत्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा तां, सुष्टु खचिता-मण्डिता बरकनकेन प्रवरपर्यन्तानाम्अश्चलकर्णवर्तिलक्षणानां देशभागा-अवयवा यस्यां सा तथा तां, आभ्यन्तरिकी-आस्थानशालाया अभ्यन्तरभागवर्तिनी यवनिकां-काण्डपट 'अंछावेईत्ति आयतां कारयति, आस्तरकेण प्रतीतेन मृदुकममूरकेण च प्रतीतेनावस्तृतं यत्तत्तथा, धवलवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम् आच्छादितं विशिष्टं-शोभनं अङ्गस्य सुखः स्पर्शो यस्य तत्तथा, अष्टाङ्गम्-अष्टभेदं दिव्योत्पातान्तरिक्षादिभेदं यन्महानिमित्तं-शाखविशेषः तस्य सूत्रार्थपाठका ये ते तथा तान् “विणयेण वयणं पडिमुणेति'त्ति प्रतिभृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति वचनं, विनयेन किम्भूतेने त्याह-'एव'मिति यथैव यूयं भणथ तथैव 'देवो'त्ति हे देव ! 'तहत्ति'ति नान्यथा आज्ञया-भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचकपदचतुष्टयभणनरूपेणेति जाव हिययत्ति'हरिसवसविसप्पमाणहियया' स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः खगृहदेवतानां ते तथा 'जाच पायच्छित्तति 'कयकोउय-18|| मंगलपायच्छित्ता' तत्र कृतानि कौतुकमंगलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःखमादिविघातार्थमवश्यकरणीयखाद्यैस्ते तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मंगलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतर्वाङ्कुरादीनि हरितालिका-दूबो सिद्धार्थका अक्षताश्च कृता मूर्द्धनि | यैस्ते तथा कचित् 'सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा' एवं पाठः, स्वकेभ्य आत्मीयेभ्य इत्यर्थः । 'जएणं विजएणं वद्धान्ति जयेन विजयेन च बर्द्धख खमित्याचक्षत इत्यर्थः, तत्र जयः-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु-18 परेषामभिभव इति, अर्चिताः-चर्चिताश्चन्दनादिना वन्दिताः-सद्गुणोत्कीर्तनेन पूजिता:-पुष्पैर्मानिता-दृष्टिप्रणामतः सत्का-18 दीप अनुक्रम [१५-१७]] स्वप्न-फल कथन ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) སྐྲ + ཀྑལླཱ སྶ [१५-१७] अध्ययनं [१], मूलं [१२] + गाथा: श्रुतस्कन्धः [१] ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥ २४ ॥ [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) रिताः फलवस्त्रादिदानतः सन्मानितास्तथाविधया प्रतिपच्या 'समाण'ति सन्तः, 'अण्णमण्णेण सद्धि'ति अन्योऽन्येनं सह इत्येवं 'संचालेति'ति संचालयन्ति संचारयन्तीति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः लब्धार्थाः स्वतः पृष्टार्थाः परस्परतः गृहीतार्थाः पराभिप्रायग्रहणतः तत एव विनिश्चितार्थाः अत एव अभिगतार्था अवधारितार्था इत्यर्थः, 'गर्भ वक्कममाणंसि'ति गर्भे 'व्युत्क्रामति' उत्पद्यमाने, अभिषेक इति- श्रियाः संबन्धी, विमानं यो देवलोकादवतरति तन्माता पश्यति यस्तु नरकादुद्धृत्योत्पद्यते तन्माता भवनमिति चतुर्दशैव खमाः, विमानभवनयेोरेकतरदर्शनादिति । 'विष्णायपरिणयमेत्ते' विज्ञातं विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स तथा कचिद्विष्णय'ति पाठः स च व्याख्यात एव, 'जीवियारिहं ति आजन्मनिर्वाहयोग्यं Education Internation तते णं सीसे धारिणीए देवीए दोस मासेसु बीतिकंतेसु ततिए मासे वहमाणे तस्स गन्भस्स दोहलका लसमयंसि अयमेधाख्वे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ कयपुन्नाओ कयलक्खणाओ कयविहवाओ सुलद्धे णं तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं मेहेसु अन्भुग्गतेसु अब्भुज्जुएसु अन्मुन्नतेसु अम्भुट्टिएस सगfree fare सफुसिएस सथणिएस वंतधोतरुप्पपट्ट अंक संखचंद कुंद सालिपिहरासिसमप्पभेसु चिउरहरियाल मेयचं पण सणकोरंटसरिसयपडमरयसमप्यमेसु लक्खारस सरसरत्तकिंसुयजासुमणरत्तवंधुजीवगजातिहिंगुलघसरसकुंकुमउरब्भससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु वरहिणनीलगुलियसुगचासपिच्छभिंगपत्तसासगनीलुप्पलनियरनवसिरीसकुसुमणवसद्दल समप्पभेसु जयंजणभिंगभेयरिगभमरावलिग अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) For Par Use Only ~58~ १ उत्क्षि सज्ञाते मेधदोहदः सु. १३ ॥ २४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ---- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 200arada [१३] दीप वलगुलियकज्जलसमप्पभेसु फुरंतविजुतसगजिएसु वायवसविपुलगगणचवलपरिसकिरेसु निम्मलवरवारिधारापगलियपर्यडमारुयसमाहयसमोत्थरंतउवरिउवरितुरियवासं पवासिएसु धारापहकरणिवायनिवाविय मेइणितले हरियगणकंचुए पल्लविय पायवगणेसु वल्लिवियाणेसु पसरिएसु उन्नएसु सोभग्गमुवागएसु नगेसु नएमु चा वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्केसु उज्झरेसु तुरियपहावियपलोहफेणाउलं सकलुसं जलं वहंतीसु गिरिनदीसु सजज्जुणनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएसु उववणेसु मेहरसियहढतुद्दचिट्ठिय हरिसबसपमुक्तकंठककारवं मुयंतेसु बरहिणेसु उउयसमयजणियतरुणसहयरिपणचितेसु नवसुरभिसिलिंधकुडयकंदलकलंबगंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु परहुयरुयरिभितसंकुलेसु उद्दार्यतरत्तईदगोवयथोवयकारुनविलवितेसु ओणयतणमंडिएसु दहुरपयंपिएमु संपिंडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमधुरगुंजतदेसभाएसु उववणेसु परिसामियचंदसूरगहगणपणट्ठनक्खत्ततारगपहे इंदाउहबद्धचिंधपसि अंबरतले उड्डीणयलागपंतिसोभंतमेहविंदे कारंडगचकवायकलहंसउस्सुयकरे संपत्ते पाउसंमि काले पहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ किं ते बरपायपत्तणेउरमणिमेहलहाररहयकडगखुड्डयविचित्तवरवलयर्थभियभुयाओ कुंडलउज्जोवियाणणाओ रयणभूसियंगाओ नासानीसासवायवोझ चक्खुहरं वपणफरिससंजुत्तं हयलालापेलवाइरेयं धवलकणयखचियन्तकम्म आगासफलिहसरिसप्पभं अंसुयं पवर परिहियाओ दुगलसुकुमाल उत्तरिजाओ सबोउयसुरभिकुसुमप अनुक्रम [१८ | अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ---- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक ॥ २५ ॥ [१३] दीप वरमल्लसोभितसिराओ कालागरूधूषधूवियाओ सिरिसमाणसाओ सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ उत्क्षिप्तसमाणीओ सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं घरिजमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडसंखकुंददगरयअमय- ज्ञाताध्य. महियफेणपुंजसन्निगासचउचामरवालवीजितंगीओ सेणिएणं रखा सद्धिं हत्थिर्खधवरगएणं पिट्ठओ सम- अकालमे णुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेणाए महता हयाणीएणं गयाणिएणं रहाणिएणं पायत्ताणीएणं सबड्डीए घदोहदः सबज्जुइए जाव निग्घोसणादियरवेणं रायगिहं नगरं सिंघाडगतियचजकचबरच उम्मुहमहापहपहेसु सू.१३ आसित्तसित्तसुचियसंमनिओवलितं जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टीभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं अभिणंदिजमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मवल्लिगुच्छओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सबओ समंता आहिंडेमाणीओ २ दोहलं विणियंति, तं जइ णं अहमवि मेहेसु अन्भुवगएमु जाव दोहलं विणिज्जामि ( सूत्रं १३) 'दोहलो पाउम्भवित्थति दोहदो-मनोरथः प्रादुर्भूतवान् , तथाहि-धनं लब्धारो धन्यास्ता या अकालमेघदोहदं विनयन्तीति योगः "अम्मयाओ'त्ति अम्बाः पुत्रमातरः, त्रिय इत्यर्थः, संपूर्णाः-परिपूर्णाः आदेयवस्तुभिः (सपुण्याः) कृताचीः-९॥ कृतप्रयोजनाः कृतपुण्या-जन्मान्तरोपात्तसुकृताः कृतलक्षणा:-कृतफलबच्छरीरलक्षणाः कृतविभवा:-कृतसफलसंपदः ॥२५॥ सुलब्धं तासां मानुष्यक-मनुष्यसंबन्धि जन्मनि-भये जीवितफलं-जीवितव्यप्रयोजनं जन्मजीवितफलं, सापेक्षतेऽपि च समासः छान्दसखात् , या मेघेषु अभ्युद्गतेषु-अङ्कुरवदुत्पनेषु सत्सु, एवं सर्वत्र सप्तमी योज्या, अभ्युद्यतेषु-बर्द्धितुं प्रवृत्तेषु अनुक्रम ब्लटहटाटese [१८] SARERatininemarana अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अभ्युन्नतेषु-गगनमण्डलव्यापनेनोन्नतिमत्सु अभ्युत्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगेषु सगर्जितेषु-मुक्तमहाध्वनिषु सविद्युत्केषु प्रतीत सफुसिएसुत्ति प्रवृत्तप्रवर्षणविन्दुषु सस्तनितेषु-कृतमन्दमन्दध्वनिषु ध्मातेन-अग्नियोगेन यो धौतः-शोधितो | रूप्यपदो-रजतपत्रकं स तथा अङ्को-रलविशेषः शचन्द्रौ-प्रतीतौ कुन्द:-पुष्पविशेषः शालिपिष्ठराशि:-श्रीहि विशेपचूर्णपुञ्ज एतत्समा प्रभा येषां ते तथा तेपु, शुक्लेष्वित्यर्थः, तथा चिकुरो-रागद्रव्यविशेष एव हरितालो-वर्णकद्रयं भेद-13 स्तद्गुटिकाखण्डं चम्पकसनकोरण्टकसर्षपग्रहणात्तत्पुष्पाणि गृह्यन्ते पद्मरजा-प्रतीतं तत्समप्रभेषु, वाचनान्तरे सनस्थाने काञ्चनं सर्पपस्थाने सरिसगोत्ति पठ्यते, तत्र चिकुरादिभिः सदृशाश्च ते परजःसमप्रभाधेति विग्रहोऽतस्तेषु पीतेष्वित्यर्थः, तथा | लाक्षारसेन सरसेन सरसरक्त किंशुकेन जपासुमनोमिः रक्तबन्धुजीवकेन, बन्धुजीवकं हि पश्चवर्ण भवतीति रक्तसेन विशिष्यते, जातिहिलकेन-वर्णकद्रव्येण, स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्या विशेषितः, सरसफलमेन, नीरसं हि विवक्षितवर्णोपेतं न भव-I तीति सरसमुक्तं, तथा उरभ्रा-ऊरणः शश:-शशकस्तयो रुधिरेण-रक्तेन इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समा प्रभा |येषां ते तथा तेषु रक्तपित्यर्थः, तथा वर्हिणो-मयूराः नीलं-रत्नविशेष: गुलिका-वर्णकद्रव्यं शुकचाषयोः पक्षिविशेषयोः पिच्छ पत्रं भृङ्ग:-कीटविशेषस्तस्य पत्रं-पक्षः सासको-बीयकनामा वृक्षविशेषः अथवा सामत्ति पाठः तत्र श्यामा-प्रियाः नीलो-| सपलनिकर:-प्रतीतः नवशिरीपकुसुमानि च नवशावलं-प्रत्यग्रहरितं एतत्समप्रभेषु नीलप्रभेषु नीलवर्णेवित्यर्थः, तथा जात्यं-प्रधानं यदानं-सौवीरकं भृङ्गभेद:-भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः विदलिताङ्गारो वा रिष्ठक-बविशेषः भ्रमरावलीप्रतीता गवलगुलिका महिपशृङ्गगोलिका कज्जलं-मषी तत्समप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः, स्फुरद्विद्युत्काश्च सगर्जिताच ये तेप, तथा अनुक्रम [१८] SARERainintamanna अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~614 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- -------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथानम् प्रत सूत्रांक [१३] ॥२६॥ दीप वातवशेन विपुले गगने चपलं यथा भवत्येवं 'परिसकिरसुत्ति परिवष्कितुं शीलं येषां ते तथा तेषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः (१उत्क्षिप्तप्रगलित:-क्षरितः प्रचण्डमारुतसमाहतः सन् 'समोत्धरंत'त्ति समवस्तृणश्च-महीपीठमाक्रामन् उपर्युपरि च सातत्येन सरितश्च- शीघ्रो यो वर्षा जलसमृहः स तथा ते प्रवृष्टेषु वर्षितुमारग्धेषु मेघेप्षिति प्रक्रमः, धाराणां 'पहकरोति निकरस्तस्य निपातः-16 अकालमेपतनं तेन निर्वापित-शीतलीकृतं यत्तत्तथा तस्मिन् , निर्वापितशब्दाच सप्तम्येकवचनलोपो रश्यः, कस्सिन्नित्याह-मेदिनीतले- घदोहदः भूतले, तथा हरितकानां-इखतृणानां यो गणः स एव कक्षुको यत्राच्छादकसात् तत्तथा तत्र, 'पल्लविय'ति इह सप्तमीच- सू. १३ हुवचनलोपो दृश्यः, ततः पल्लवितेषु पादपगणेषु तथा वल्लीवितानेषु प्रसूतेषु जातप्रसरेष्वित्यर्थः, तथोन्नतेषु भूप्रदेशेष्विति गम्यते सौभाग्यमुपगतेषु अनवस्थितजलसेनाकर्दमसात् पाठान्तरे नगेषु-पर्वतेषु नदेपुवा-हदेषु तथा वैभाराभिधानस्य गिरेः ये | प्रपाततटा:-भृगुतटाः कटकाच-पर्वतैकदेशास्तेभ्यो ये विमुक्ताः -प्रवृत्तास्ते तथा तेषु, केपु?-'उज्झरेसुचि निझरेष सरित-13 प्रधावितेन यः 'पल्लोह'त्ति प्रवृत्त-उत्पन्नः फेनस्तेन आकुल-व्याप्तं । 'सकलुसं'ति सकालुयं जलं वहन्तीपु गिरिनदीषु सर्जाजुननीपकुटजानां वृक्षविशेषाणां यानि कन्दलानि प्ररोहाः शिलन्ध्राश्च-छत्रकाणि तैः कलितानि यानि तानि तथा तेषु उपबनेषु, तथा मेघरसितेन हृष्टतुष्टा-अतिदृष्टाश्चेष्टिताश्च कृतचेष्टा ये ते तथा तेषु, इदं च सप्तमीलोपात् , हर्षवशात् प्रमुक्तो| मुत्कलीकृतः कण्ठो-गलो यसिन् स तथा स चासौ केकारवश्च तं मुश्चत्सु बहिणेषु-मयूरेप, तथा ऋतुवशेन-कालविशेषत्र- |॥२६॥ लेन यो मदस्तेन जनितं तरुणसहचरीभिः -युवतिमयरीभिः सह प्रनुत्तं प्रनर्तनं येषां ते तथा तेषु, पहिणेवित्यन्वयः, नवः सुर-11 |भिध यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलकदम्बलक्षणानां पुष्पाणां गन्धस्तेन या धाणिः-तृप्तिस्तां मुश्चत्सु गन्धोत्कर्षतां विदधानेवित्यर्थः । अनुक्रम [१८ अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [PC] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) -------- अध्ययनं [3], · मूलं [१३] श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः उपवनेषु भवनासभवनेषु तथा परभृतानां कोकिलानां यद्रुतं वो रिभितं खरघोलनावत्तेन संकुलानि यान्युपवनानि तानि तथा तेषु, 'उद्दाईत' चि शोभमाना रक्ता इन्द्रगोपकाः - कीटविशेषाः स्तोककानां चातकानां कारुण्यप्रधानं विलपितं च येषु तानि तथा तेषूपवनेष्वित्यन्वयः, तथा अवनततृणैर्मण्डितानि यानि तानि तथा तेषु, दर्दुराणां प्रकृष्टं जल्पितं येषु तानि तथा तेषु, संपिण्डिता मिलिताः हप्ता दर्पिताः भ्रमराणां मधुकरीणां च 'पहकरत्ति निकरा येषु तानि तथा, 'परिलिन्त'त्ति परिलीयमानाः संश्लिष्यन्तो मत्ताः पदपदाः कुसुमासवलोला:- मकरन्दलम्पटाः मधुरं कलं गुञ्जन्तः शब्दायमानाः देशभागेषु येषां तानि तथा ततः कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनेषु तथा परिश्यामिता:- कृष्णीकृताः सान्द्रमेषाच्छादनात् पाठान्तरेण परिभ्रामिताः कृतप्रभाभ्रंशाः चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन् प्रनष्टा च नक्षत्रतारकप्रभा यसिंस्तत्तथा तस्मिन्नम्बरतले इति योगः, इन्द्रायुधलक्षणो बद्ध व बद्धः चिह्नपट्टो-ध्वजपटो यसिंस्तत्तथा तत्राम्बरतले - गगने उहीनबलाकापक्किशोभमानमेघवृन्देऽम्बर| तले इति योगः, तथा कारण्डकादीनां पक्षिणां मानससरोगमनादि प्रत्यौत्सुक्यकरे संप्राप्ते उक्तलक्षणयोगेन समागते प्रावृषि काले, किंभूता अम्मयाओ ? इत्याह-'व्हायाओ' इत्यादि, किं ते इति किमपरमित्यर्थः, वरी पादप्राप्तनपुरौ मणिमेखलारत्नकाची हार यासां तास्तथा रचितानि - न्यस्तानि उचितानि - योग्यानि कटकानि - प्रतीतानि खुट्टकानि चअङ्गुलीयकानि यासां तास्तथा विचित्रैर्षरवलयैः स्तम्भिताविव स्तम्भितो भुजौ यासां तास्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । “कुंडलोज्योतितानना वरपायपत्तनेउर मणिमेहलाहार र इयउचियक डगखुड्डयएगावलिकंठमुरयतिसरयवरवलयहेमसूत्तकुंडलुजोवियाणणाओ" ति पाठान्तरं तत्र वरपादप्रासनपुरमणिमेखलाहारास्तथा रचितान्युचितानि तथा Eucation Intention अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) For Parts Only ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- -------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथानम् ॥२७॥ कटकानि च खुड़कानि च एकावली च-विचित्रमणिकृता एकसरिका कण्ठमुरजश्व-आभरणविशेषः त्रिसरकं च वरवलयानि उत्क्षिप्तच हेमसूत्रकं च-संकलकं यासां तास्तथा, तथा कुण्डलोद्योतिताननास्ततो वरपादप्राप्तनपुरादीनां कर्मधारयः रत्नविभूषितामः | ज्ञाताध्य. नासानिःश्वासवातेनोद्यते यल्लघुलात्तत्तथा चक्षुर्हरं दृष्ट्याक्षेपकलात्, अथवा प्रच्छादनीयाङ्गदर्शनाचक्षुहेरति धरति वा निवर्तयति | अकालमेयधुबलात्तत्तथा, वर्णस्पर्शसंयुक्त वर्णस्पर्शातिशायीत्यर्थः हयलालाया-अश्वलालायाः सकाशात् 'पेलब'लि पेलवलेन मृद- धदोहद: खलघुखलक्षणेनातिरेक:-अतिरिक्तख यस्य तत् तथा धवलं च तत् कनकेन खचितं-मंडितमन्तयोः-अञ्चलयोः कर्म वान- सू. १३ लक्षणं यस तत्तथा तच्चेति वाक्यं, आकाशस्फटिकस्य सदृशी प्रभा यस्य धवलसातत्तथा, अंशुकं-वखविशेष प्रवरमिहानुस्खारलोपो दृश्यः परिहिता:-निवसिताः दुकूलं च-वलं अथवा दुकूलो-वृक्षविशेषः तल्कलाज्जातं दुकूलं-वनविशेष एवं तत् सुकुमालमुत्तरीयम्-उपरिकायापछादनं यास तास्तथा, सर्वतकसुरभिकुसुमैः प्रवरैाल्पैश्च-प्रथितकुसुमैः शोभितं | |शिरो यासा तास्तथा, पाठान्तरे 'सर्वतकसुरभिकुसुमैः सुरचिता प्रलम्बमाना शोभमाना कान्ता विकसन्ती चित्रा माला यासा || तास्तथा, एवमन्यान्यपि पदानि बहुवचनान्तानि संस्करणीयानि, इह वर्णके बृहत्तरो वाचनाभेदः, तथा चन्द्रप्रभवैरवैडूर्य-19 विमलदण्डाः शकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशाश्च ये चबारश्चामराः-चामराणि तद्वालैर्वीजितमङ्गं यास तास्तथा, अयमेवार्थो वाचनान्तरे इत्थमधीतः 'सेयबरचामराहिं उद्धवमाणीहिं' २ 'सविड्डीए'चि छत्रादिराजचिहरूपया, 181 P ॥२७॥ इह यावत्करणादेवं द्रष्टव्यं 'सबज्जुइए' सर्वघुत्या-आभरणादिसंबन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा-उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया 'सर्वबलेन' सर्वसैन्येन 'सर्वसमुदायेन' पौरादिमीलनेन 'सर्वादरेण' सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सर्वविभूत्या' सर्वसंपदा अनुक्रम [१८ अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~644 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ---- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत EE 'सर्वविभूषया' समस्तशोभया 'सर्वसंभ्रमेण' प्रमोदकृतोत्सुक्येन सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारेण सर्वतूर्यशब्दसंनिनादेन तूर्यशब्दानां मीलनेन यः संगतो नितरां नादो-महान् घोषस्तेनेत्यर्थः, अल्पेष्वपि प्रत्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टा अत आह 'महया इड्डीए महया जुईए जुत्तीए वा महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं' 'यमकसमक' युगपत्, एतदेव विशेषेणाह-संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिडकमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्यो-10 सनाइयरइवेणं तत्र शङ्खादीनां नितरां घोषो निर्घोषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो नादितं-ध्वनिमात्रमेतद्वयलक्षणो यो खः स तथा तेन, 'सिंघाडे त्यादि, सिंघाडकादीनामयं विशेषः, सिंघाडकं-जलजबीजं फलविशेषः तदाकृतिपथयुक्तं । स्थानं सिंघाटकं, त्रिपथयुक्तं स्थानं त्रिकं चतुष्पथयुक्तं चतुष्कं त्रिपथमेदि चखरं चतुर्मुख देवकुलादि महापथो-राजमार्गः1॥ पथ:-पथमात्र, तथा आसिक्तं-गन्धोदकेनेपत्सितं सकूद्वा सिक्तं सिक्तं खन्यथा शुचिक-पवित्रं संमार्जितम्-अपहृत18कचवरं उपलितं च गोमयादिना यत्तत्तथा यावत्करणादुपस्थानशालावर्णकः पूर्वोक्त एव वाच्यः, एवंभूतं नगरमवलोकयन्त्यो। गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतीनां लताः सहकारादिलता वृक्षाः सहकारादयः गुल्मा वंशीप्रभृतयः वयः वपुष्यादिकाः एतासां ये 8 II गुच्छा:-पल्लवसमूहास्तै यत् 'ओच्छवियं ति अवच्छादितं वैभारगिरेयः कटकाः देशास्तेषां ये पादा-अधोभागास्तेषां यन्मूलं-18|| समीपं तत्तथा तत्सर्वतः समन्तात् 'आहिंडन्ति'त्ति आहिण्डन्ते, अनेन चैवमुक्तच्यतिकरभाजां सामान्येन स्त्रीणां प्रशंसाद्वा-1 रेणात्मविषयोऽकालमेघदोहदो धारिण्याः प्रादुरभूदित्युक्तं, वाचनान्तरे तु 'ओलोएमाणीओ २ आहिंडेमाणीओ २ डोहलं विणिति' विनयन्त्यपनयन्तीत्यर्थः, 'तं जति णं अहमवि मेहेसु अन्भुग्गएसु जाव डोहलं विणेजामि अनुक्रम [१८ अकाल मेघस्य दोहद (मनोरथ) ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- -------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक उत्क्षिप्तज्ञाताध्य. श्रेणिकागमः सू.१४ [१३]] ज्ञाताधर्म-IN| विनयेयमित्यर्थः, संगतश्चार्य पाठ इति । उक्तदोहदाप्राप्ती यत्तस्याः संपन्नं तदाहकथाङ्गम्. तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमा णियदोहला सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुबला किलंता ओमंथियवयणन॥२८॥ यणकमला पंडुइयमुही करयलमलियब चंपगमाला णित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचियपुष्पगंधमल्लालंकारहारं अणभिलसमाणी कीडारमणकिरियं च परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तते णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडीयाओ धारिणीं देवीं ओलुग्गं जाव झियायमाणि पासंति पासित्ता एवं वदासी-किण्णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि, तते णं सा धारणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहि अभितरियाहिं दासचेडियाहिं एवं बुत्ता समाणी नो आदाति णो य परियाणाति अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणिया संचिकृति, तते णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणी देवीं दोचपि तचंपि एवं बयासी-किन्नं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?, तते णं सा धारिणीदेवी ताहि अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं दोचंपि तचंपि एवं वुत्ता समाणी णो आदाति णो परियाणति अणाढायमाणा अपरियायमाणा तुसिणिया संचिट्ठति, तते णं ताओ अंगपडियारियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणादातिजमाणीओ अनुक्रम [१८ o raeoerae800 ॥२८॥ PATI ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] अपरिजाणिज्जमाणिओ तहेव संभंताओ समाणीओ धारणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ जेणेव सेणिए राया तेणेव उबागच्छंति २ करतलपरिग्गहियं जाव कटु जएणं विजएणं वद्धाति बद्धावइत्ता एवं व०-एवं खलु सामी! किंपि अन्ज धारिणीदेवी ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अदृझाणोवगया झियायति, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपाडियारियाणं अंतिए एयमह सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलं बेइयं जेणेव धारिणीदेवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता धारणी देवी ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अदृझाणोवगयं झियायमाणि पासइ पासित्ता एवं चदासी-किन्नं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अदृझाणोचगया झियायसि?, तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं खुत्ता समाणी नो आदाइ जाव तुसिणीया संचिट्टति. तते णं से सेणिए राया धारिणी देवी दोचंपि तचंपि एवं वदासी-किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ओलुग्गा जाब झियायसि ?, तते णं सा धारिणीदेवी सेणिएणं रना दोचंपि तचंपि एवं बुत्ता समाणी णो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीया संचिट्ठइ, तते णं सेणिए राया धारणिं देविं सवहसावियं करेइ २त्ता एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए? ताणं तुम ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सी करेसि, तते णं सा धारिपीदेवी सेणिएणं रन्ना सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए दीप अनुक्रम [१९-२४] For P OW ★ यहाँ से दूसरा सूत्र आरम्भ होता है। ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म सूत्रांक कथानम् उत्क्षिप्तज्ञाताध्य. श्रेणिकागमः सू.१४ [१४-१५] +[१४-R +१५-R] ॥२९॥ धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव वेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ डोहलं विणिति, तं जहणं अहमवि जाव डोहलं विणिज्जामि, तते णं हं सामी! अयमेयारूवंसि अकालदोहलंसि अविणिजमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि, एएणं अहं कारणेणं सामी! ओलुग्गा जाव अज्झाणोधगया झियायामि, तते णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढं सोचा णिसम्म धारिणि देवि एवं वदासी-माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं गंतहा करिस्सामि जहाणं तुन्भं अयमेयारुवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइत्तिक? धारिणी देवी इटाहिं कताहिं पियाहि भणुन्नाहिं मणामाहि बग्गहि समासासेह २ जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छहत्तासीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने धारिणीए देवीए एवं अकालदोहलं पहहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य परिणामियाहि य चविहाहि बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणे २ तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति (सूत्रं १४) तदाणतरं अभए कुमारे पहाते कयबलिकम्मे जाव सबालंकारविभूसिए पायवंदते पहारेत्थ गमणाए, तते गं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छह उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव पासइ २त्ता अयमेयारूवे अन्मस्थिए चिंतिए मणोगते संकप्पे समुप्पजित्था-अन्नया य ममं सेणिए राया एजमाणं पासति पास दीप अनुक्रम [१९-२४] Soceaeseseceoes ॥२९॥ se ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] इत्ता आढाति परिजाणति सकारेइ सम्माणेइ आलवति संलवति अद्धासणेणं अवणिमंतेति मत्वयंसि अग्घाति, इयाणि मर्म सेणिए राया णो आढाति णो परियाणइ णो सकारेइ णो सम्माणेइ णो इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं ओरालाहिं वग्गृहिं आलवति संलवति नो अद्भासणेणं उबणिमंतेति णो मत्थयंसि अग्घाति य किंपि ओहयमणसंकप्पे झियायति, तं भवियच णं एत्य कारणेणं, तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमद्वं पुच्छित्तए, एवं संपेहेइ २ जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धावेद वद्धावइता एवं वदासीतुम्भे गं ताओ! अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता आढाह परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्घायह आसणणं उवणिमंतेह, इयाणि ताओ! तुम्भे ममं नो आढाह जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह किंपि ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह तं भवियचं ताओ! एत्य कारणेणं, तओ तुम्भे मम ताओ! एवं कारणं अगृहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अप्पच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्ध एयमट्ठमाइक्खह, तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि, तते णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं बुत्ते समाणे अभयकुमारं एवं वदासी-एवं खलु पुत्ता! तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गम्भस्स दोसु मासेसु अइतेसु तइयमासे वहमाणे दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे दोहले पाउम्भवित्थाधन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियचं जाब विणिति, तते णं अहं पुत्ता धारिणीए ceneseseseserceloenese दीप अनुक्रम [१९-२४] ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म-18 सूत्रांक कथाङ्गम्. ॥३०॥ [१४-१७] +[१४-R +१५-R] Rश्वक्षिप्त ज्ञाताध्य. अभयप्रतिज्ञा देवाराधनं सू. १५ देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहिं जाव उत्पत्ति अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायामि तुम आगयंपि न याणामि तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता! ओहय जाव झियामि, तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ट जाब हियए सेणियं रायं एवं वदासी-मा णं तुम्भे ताओ! ओहयमण जाव झियायह अहण्णं तहा करिस्सामि जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवरस अकालडोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइत्तिक? सेणियं रायं ताहिं इट्टाहिं कंताहिं जाव समासासेइ, तते णं सेणिए राया अभयेणं कुमारणं एवं बुत्ते समाणे हहतुढे जाव अभयकुमारं सकारेति संमाणेति २ पडिविसज्जेति (सूत्रं १५) तते णं से अभयकुमारे सकारियसम्माणिए पडिविसजिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ २ जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ सीहासणे निसन्ने, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूवे अन्भथिए जाच समुप्पज्जित्था-नो खलु सका माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपतिं करेत्तए णन्नत्थ दिवेणं उवाएणं, अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुत्वसंगतिए देवे महिहीए जाच महासोक्खे, तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिमुवन्नस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्यमुसलस्स एगस्स अवीयस्स दन्भसंधारोवगयस्स अहमभत्तं परिगिणिहत्ता पुवसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए, तते णं पुत्वसं दीप अनुक्रम [१९-२४] ॥३०॥ ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] गतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु डोहलं विणेहिति, एवं संपेहेति २जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छति २ पोसहसालं पमञ्चति २ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ २ दम्भसंधारगं पडिलेहेइ २ डन्भसंधारगं दुरूहइ २ अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ२ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुवसंगतियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठा, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुषसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति, तते णं पुवसंगतिए सोहम्मकप्पन्नासी देवे आसणं चलियं पासति २ ओहि पउंजति, तते णं तस्स पुवसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अन्भस्थिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु मम पुवसंगतिए जंबूहीवे २ भारहे वासे दाहिणभरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिणिहत्ता णं मम मणसि करेमाणे २ चिट्ठति, तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए, एवं संपेहेद २ उत्तरपुरच्छिम दिसीभार्ग अवकमति २चेउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ संखजाई जोयणाई दंड निसिरति, तंजहा-पयणाणं १ वइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५हंसगम्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं८ जोइरसाणं ९अंकाणं १० अंजणाणं ११ रयणाणं १२ जायरूवाणं १३ अंजणपुलगाणं १४ फलिहाणं १५ रिहाणं १६, अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २ अहासुहमे पोग्गले परिगिण्हति परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुत्वभवजणियनेहपीइबहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपुंडरीयाओ रयणु दीप अनुक्रम [१९-२४] SEEM ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म सूत्रांक कथाङ्गम् उरिक्षप्तज्ञात पूर्वसंगतिकृदे वागमःसू. ॥३१॥ S [१४-१५] +[१४-R +१५-R] १४ समाओ धरणियलगमणतुरितसंजणितगमणपयारो वाधुण्णितविमलकणगपयरगवडिसगमउडकडाडोवदंसणिज्जो अणेगमणिकणगरतणपहकरपरिमंडितभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगजणियहरिसे खोलमाणवरललितकुंडलुबलियवयणगुणजनितसोमरूवे उदितोविव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगारउज्वलियमज्झभागत्थे णयणाणंदो सरयचंदो दिवोसहिपज्जलुजलियदंसणाभिरामो उजलकिछसमत्तजायसोहे पट्टगंधुदुयाभिरामो मेरुरिव नगवरो विगुवियविचितवेसे दीवसमुहाणं असंखपरिमाणनामघेजाणं मझंकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाते जीवलोगं रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पास उवयति दिवरूवधारी (सूत्रं १४) तते णं से देवे अंतलिक्खपडिबन्ने दसवन्नाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए एको ताव एसो गमो, अपणोऽवि गमो-ताए उकिट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए उद्ययाए जतिणाए छेयाए दिधाए देवगतीए जेणामव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जेणामेव दाहिणभरहे रायगिहे नगरेपोसहसालाए अभयए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २ अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सखिखिणियाई पवरवत्थाई परिहिए अभयं कुमारं एवं वयासी-अहन्नं देवाणुप्पिया! पुवसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महहिए जपणं तुम पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे चिट्ठसि तं एस गं देवाणुप्पिया! अहं इहं हवमागए, संदिसाहिणं देवाणुप्पिया! किं करेमि किं दलामि किं पय. च्छामि किंवा ते हियइच्छितं ?, तते णं से अभए कुमारे तं पुत्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवन्नं पासह TOS दीप अनुक्रम [१९-२४] Deseeeeeeo ॥३१॥ SAPERatininainarana अत्र यत् (सूत्रं १४) लिखितं एवं शिर्षक-स्थाने सूचितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] पासित्ता हट्टतुट्टे पोसहं पारेइ २ करयल० अंजलिं कटु एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउब्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुत्वगमेणं जाव विणिज्जामि, तन्नं तुम देवाणुप्पि० मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालडोहलं विणेहि. तते णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ अभयकुमारं एवं बदासीतुमण्णं देवाणुप्पिया! सुणिब्बुयधीसत्थे अच्छाहि, अहण्णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं डोहलं विणेमीतिकट्ठ अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति २ उत्तरपुरच्छिमेणं वेभारपचए वेउवियसमुग्घाएणं समोहण्णति २ संखेज्वाई जोयणाई दंडं निस्सरति जाव दोच्चंपि वेवियसमग्याएणं समोहणति २खिप्पामेव सगलतियं सविज्जुयं सफुसियं तं पंचवन्नमेहणिणाओवसोहियं दिवं पाउससिरि विउवेइ २ जेणेव अभए कुमारे लेणामेव उवागच्छद २ अभयं कुमारं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए तव पियट्टयाए सगजिया सफुसिया सविज्जुया दिवा पाउससिरी विउविया, तं विणेउ णं देवाणुप्पिया! तव चुल्लमाउया धारिणीदेवी अयमेयारूवं अकालडोहलं, तते णं से अभयकुमारे तस्स पुवसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हहतुढे सयातो भवणाओ पडिनिक्खमति २ जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति करयल० अंजलिं कटु एवं बदासी-एवं खलु ताओ ! मम पुवसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगजिता सवि दीप अनुक्रम [१९-२४] ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रांक ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥३२॥ उत्क्षिप्तज्ञाते दोह [१४-१५] +[१४-R +१५-R] ज्जुता पंचवन्नमेहनिनाओवसोभिता दिवा पाउससिरी विउविया, तं विणेउ णं मम चुल्लमाज्या धारिणी देवी अकालदोहलं । तते णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठ. कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ सदावइत्सा एवं बदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिह नपर सिंघाडगतियचउकचचर आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधवहिभूयं करेह य२ मम एतमाणसियं पचप्पिणह, तते णं ते कोडंबियपुरिसा जाव पचप्पिणति, तते णं से सेणिए राया दोचंपि कोटुंबियपुरिसे २ वदासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! हयगयरहजोहपयरकलितं चाउरंगिणिं सेनं सन्नाहेह सेयणयं च गंधहत्यि परिकप्पेह, तेवि तहेव जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से सेणिए राया जेणेव धारिणीदेवी तेणामेव उवागच्छति २ धारिणीं देवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सगजिया जाब पाउससिरी पाउन्भूता तण्णं तुम देवाणुप्पिए ! एयं अकालदोहलं विणेहि । तते णं सा धारणीदेवी सेणिएणं रन्ना एवं घुत्ता समाणी हदुतहा जेणामेव मजणघरे तेणेव उवागच्छति २ मजणघरं अणुपविसति २ अंतो अंतेउरंसि पहाता कतवलिकम्मा कतकोउयमंगलपायच्छित्ता किं ते बरपायपसणेउर जाव आगासफालियसमप्पभं असुयं नियत्था सेयणयं गंधहत्थि दूरूढा समाणी अमयमहियफेणपुंजसण्णिगासाहि सेयचामरबालवीयणीहि वीइज्जमाणी २ संपत्थिता, तते णं से सेणिए राया पहाए कयवलिकम्मे जाव सस्सिरीए हथिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचा दीप अनुक्रम [१९-२४] ॥३२॥ अत्र यत् (सूत्र १५) शिर्षक-स्थाने सूचितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१७] +[१४-R +१५-R] मराहिं वीइज्जमाणेणं धारिणीदेवी पिढतो अणुगच्छति, तते णं सा धारिणीदेवी सेणिपणं रना हत्थिखंघबरगएणं पिट्टतो पिट्ठतो समणुगम्ममाणमग्गा हयगयरहजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिषुए महता भडचडगरवंदपरिखित्ता सबिड्डीए सबजुइए जाच दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंघाडगतिगचउक्चचर जाव महापहेसु नागरजणेणं अभिनंदिनमाणा २ जेणामेव घेन्भारगिरिपवए तेणामेव उवागच्छति २ वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य चणेसु वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेसु य गुम्मेसु य लयासु य वल्लीसु य कंदरामु य दरीसु य चुण्डीसु य दहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेमु य विवरतेसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मजमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य पल्लवाणि य गिण्हमाणी य माणेमाणी य अग्घायमाणी य परिभुजमाणी य परिभाएमाणी य वेभारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सबतोसमंता आहिंडति, तते गं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुन्नदोहला संपन्नडोहला जाया याबि होत्था, तते णं से धारिणीदेवी सेयणयगंघहत्थिं दूरूढा समाणी सेणिएणं हस्थिखंधवरगएणं पिट्टओ २ समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाब रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छह २रायगिहं नगरं मज्झमझेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २त्ता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाई जाव विहरति (सूत्रं १५) तते णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ २ पुषसंगतियं देवं सकारेइ सम्माणेइ २ पडिविसज्जेति २, दीप अनुक्रम [१९-२४] STORacASSOSea SARERatininemarana अत्र यत् (सूत्रं १४) लिखितं तत् किञ्चित् मुद्रण-दोष: संभाव्यते ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४-R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ------ अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ३३ ॥ तते णं से देवे सगजियं पंचवन्नं मेहोवसोहियं दिवं पाउससिरिं पडिसाहरति २ जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगते (सूत्रं १६) तते णं सा धारिणीदेवी तंसि अकालदोहलसि विणीयंसि सम्माforesोहला तस्स गन्स अणुकंपणट्टाए जयं चिट्ठति जयं आसयति जयं सुवति आहारंपिय णं आहारेमाणी णाइतितं णातिकडुयं णातिकसायं णातिअंबिलं णातिमहुरं जं तस्स गन्भस्स हियं मियं पत्थर्य देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाइचिन्तं णाइसोगं णाइदेष्णं णाइमोहं णाभयं णाइपरितासं भोयणच्छायण गंधमलालंकारेहिं तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति । (सूत्रं १७ ) 'तए णमित्यादि, 'अविणिज्ज माणसित्ति दोहदे अविनीयमाने-अनपनीयमाने सति असंप्राप्तदोहदा मेषादीनामजातखात् असंपूर्णदोहदा तेषामजातलेनैवासंपूर्णत्वात् अत एव असन्मानितदोहदा तेषामननुभवनादिति, ततः शुष्का मनस्तापेन शोणितशोषात् 'भुक्ख'ति बुभुक्षाक्रान्तेव अत एव निर्मासा 'ओलुग्गति अवरुग्णा-जीर्णेव, कथमित्याह - 'ओलगति अवरुणमिव- जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा तथा, अथवा अवरुग्णा चेतसा अवरुग्णशरीरा तथैव प्रमलितदुर्बलास्नानभोजन त्यागात् क्लान्ता - ग्लानीभूता 'ओमंथिय'त्ति अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यथा तथा, पांडकितमुखी दीनास्येव विवर्णं वदनं यस्याः सा तथा, क्रीडा - जलक्रीडादिका रमणमक्षादिभिः तत्क्रियां च परिहापयन्ती दीना दुःस्खा दुःस्थं मनो यस्याः सा तथा यतो निरानन्दा उपहतो मनसः संकल्पः- युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा तथा, यावत्करणात् 'करतल पल्हत्थमुही अहज्झाणोवगया झियाइ'ति आर्त्तध्यानं ध्यायतीति, 'नो आढाइ'ति नाद्रियते नादरं करोति नो For Park Use Only ~76~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेघोपसंहारः सू. १६ गर्भपोषण सू. १७ ॥ ३३ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] परिजानाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तवात् , 'संभंता'त्ति आकुलीभूताः, शीघ्रमित्यादीनि चखार्यकार्थिकानि अतिसंभ्रमोपदर्शनार्थ 'जेणेवे' त्यादि यत्र धारिणी देवी तत्रोपागच्छति मागत्य चावरुग्णादिविशेषणां धारणी देवीं पश्यति, वाचनान्तरे तु 'जेणेव धारणीदेवी तेणेवेत्यतः पहारेत्थ गमणाएं' इत्येत दृश्यते, तत्र 'पहारस्थ' संप्रधारितवान्-विकल्पितवा| नित्यर्थः गमनाय-गमनार्थ, तथा 'तए णं से सेणिए राया जेणेच धारणीदेवी तेणेव उवागच्छति २ पासईति पश्यति सामान्येन ततोऽवरुग्णादिविशेषणां पश्यतीति, 'दोचंपि'त्ति द्वितीयामपि वारामिति गम्यते, 'सवहसाविय'त्ति शप-11 थान्-देवगुरुद्रोहिका भविष्यसि त्वं यदि विकल्पं नाख्यासीत्यादिकान् वाक्यविशेषान् आविता-श्रोत्रेणोपलम्भिता शपथैर्वा । |श्राविता शपथश्राविता शपथशापिता वा तां करोति, 'किण्हं किन्न मिति वा पाठो देवानुप्रिये ! एतस्यार्थस्थानहः श्रावणतायां। 'मणोमाणसिय'ति मनसि जातं मानसिक मनस्येव यद्वर्तते मानसिकं-दुःखं वचनेनाप्रकाशितखान्मनोमानसिकं रहस्थीकरोषि गोपयसीत्यर्थः, 'तिण्ह'मित्यादि त्रिषु मासेषु 'बहुपडिपुन्नाणं'ति ईषदूनेषु'जत्तिहामि'त्ति यतिष्ये कचित्करिष्यामीति पाठः, 'अयमेयारुवस्सति अस्सैवरूपस्य 'मणोरहसंपत्तीति मनोरथप्रधाना प्राप्तिर्यथा विचिन्तितेत्यर्थः, आयैः-लाभै-18 रीप्सितार्थहेतूनामुपायैः-अप्रतिहतलाभकारणैः आयं वा उवायं वा ठियं वा-स्थितं वा क्रमं वा स्थिरहेतुदोहदानां वेप्सितार्थस्य पाठान्तरे उत्पत्ति वा तस्यैवेत्यर्थः 'अविदमाणे'त्ति अलभमानः 'अयमेयारूबे'त्ति अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः-18 |आत्माश्रयः चिन्तितः-मरणरूपः प्रार्थितो-लब्धुमाशंसितः मनोगतः अबहिः प्रकाशितः संकल्पो-विकल्पः 'संपेहेति'त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति 'ताओ'त्ति हे तातेत्यामत्रणं 'एयं कारणं'ति अपध्यानहेतुं दोहदापूर्तिलक्षणमितिभावः, दीप अनुक्रम [१९-२४] SARERatunintamatkarma ~77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] ज्ञाताधर्म-IS कारणमिति कचिनाधीयत इति, एवं 'अग्रहमाणे ति अगोपायन्तः आकारसंवरेण अशङ्कमानाः-विवक्षितप्राप्तौ संदेहम- उत्क्षिप्तकथाङ्गम्. विदधतः अनिढुवाना-अनपलपन्ता, किमुक्तं भवति ?--अप्रच्छादयन्तः यथाभूतं यथावृत्तं अवितर्थ नखन्यथाभूतं असं- ज्ञाते मेघ दिग्धम्-असंदेहं 'एयम€'ति प्रयोजनं दोहदपूरणलक्षणमिति भावः 'अंतगमणं गमिस्सामिति पारगमनं गमिष्यामीति, दोहदः ॥३४॥ 'चुल्लमाउयाए'ति लघुमातुः 'पुबसंगइय'ति पूर्व-पूर्वकाले संगतिः-मित्रसं येन सह स पूर्वसंगतिकः महर्द्धिको विमान- सू. १७ परिवारादिसंपदुपेतबाधावत्करणादिदं दृश्य-महाद्युतिकः-शरीराभरणादिदीतियोमान्महानुभागो चक्रियादिकरणशक्तियु-10 तखात् महायशाः-सत्कीर्तियोगान्महाबल:-पर्वतायुत्पाटनसामोपेतखात् महासौख्यो विशिष्टसुखयोगादिति 'पोसह-1% सालाए'त्ति पौषधं-पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य शाला-गृहविशेषः पौषधशाला तस्यां पौषधिकस्य-कृतोपवासादेश व्यपगतमालावर्णकविलेपनस्य, वर्णकं-चन्दनं, तथा निक्षित-विमुक्तं शस्त्रं-क्षुरिकादि मुशलं च येन स तथा तस्स एकस्यआन्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात् अद्वितीयस्य तथाविधपदात्यादिसहाय विरहात, 'अट्ठमभत्तंति समयभाषयोपवासत्रय-11 मुच्यते, 'अट्ठमभत्ते परिणममाणे ति पूर्यमाणे परिपूर्णप्राय इत्यर्थः, 'उश्वियसमुग्घाएण'मित्यादि, वैक्रियसमुद्घातो क्रियकरणार्थों जीवव्यापारविशेषः, तेन समुपहन्यते-समुपहतो भवति समुपहन्ति वा-क्षिपति प्रदेशानिति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भवतीति भावः, तत्स्वरूपमेवाह-'संखेज्वाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्ड:-ऊर्ध्वाध आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशक S ॥३४॥ | मपुद्गलसमूहः, तत्र च विविधपुद्गलानादत्ते इति दर्शयन्नाह-तद्यथा-रत्नानां कर्केतनादीनां संबन्धिनः १ तथा वैराणां २ वैडूर्याणां |३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगल्लाणां ५हंसगर्भाणां ६ पुलकानां ७ सौगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानां ९ अङ्कानां १० अञ्जनानां ११ दीप अनुक्रम [१९-२४] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१४-१७] + [१४-R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ------ अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः रजतानां १२ जातरूपाणां १३ अञ्जनपुलकानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्ठानां १६, किमत आह-यथावादरान असारान् यथासूक्ष्मान-सारान् ततो वैक्रियं करोति, 'अभयकुमार मणुकंपमाणे 'ति अनुकम्पयन् हा तस्याष्टमोपवासरूपं कष्टं वर्त्तते इति विकल्पयन्नित्यर्थः, पूर्वभवे - पूर्वजन्मनि जनिता-जाता या स्नेहात्प्रीतिः प्रियखं न कार्यवशादित्यर्थः बहुमानश्च - गुणानुरागस्ताभ्यां सकाशात् जातः शोक:- चिचखेदो विरहसद्भावेन यस्य स पूर्वजनित स्नेहप्रीति बहुमानजातशोकः, वाचनान्तरे - 'पूर्वभव| जनित स्नेहप्रीति बहुमानजनितशो भस्तत्र शोभा - पुलकादिरूपा, तस्मात्स्वकीयात् विमानवरपुण्डरीकात्, पुण्डरीकता च विमानानां मध्ये उत्तमखात् 'रयणुत्तमाउ'ति रत्नोत्तमात् रचनोत्तमाद्वा 'धरणीतलगमनाय' भूतलप्राप्तये त्वरितः - शीघ्रं संजनितःउत्पादितो गमनप्रचारो-गतिक्रियावृत्तिर्येन स तथा वाचनान्तरे 'धरणीतलगमनसं जनितमनःप्रचार' इति प्रतीतमेव, व्याघूर्णितानि - दोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य प्रतरकाणि च प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि च कर्णपूरे मुकुटं चमौलिः तेषामुत्कटो य आटोपः स्फारता तेन दर्शनीयः- आदेयदर्शनो यः स तथा, तथा अनेकेषां मणिकनकरलानां 'पहकर 'चि निकरस्तेन परिमण्डितो - भक्तिभिचित्रो विनियुक्तकः-कट्यां निवेशितो 'मणु'ति मकारस्य प्राकृत शैलीप्रभवत्वात् योऽनुरूपो गुणः-कटिसूत्रं तेन जनितो हर्षो यस्य स तथा प्रेङ्खोलमानाभ्यां - दोलायमानाभ्यां वरललितकुण्डलाभ्यां यदुज्ज्वलितम्उज्ज्वलीकृतं वदनं मुखं तस्य यो गुणः - कान्तिलक्षणः तेन जनितं सौम्यं रूपं यस्य स तथा, वाचनान्तरे पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते "वान्नियविमलकणगपयरगवडेंस गपकंपमाणचललोलललियपरिलंबमाणनर मगरतुरगमुहसयविणिग्गग्गनपवस्म्मेत्तिय विराय माणमउडुकडा डोवदरिसणिजे" तत्र व्याघूर्णितानि चञ्चलानि विमलकन कप्रत रकाणि Education Internation For Parts Only ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक | [१४-१७] + [१४-R +१५-R] दीप अनुक्रम [१९-२४] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ------ अध्ययनं [१], मूलं [१४-१७] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि- रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ३५ ॥ च अवतंसके च प्रकम्पमाने चललोलानि - अतिचपलानि ललितानि - शोभावन्ति परिलम्बमानानि - प्रलम्बमानानि नरमकरतुरंगमुखशतेभ्यो- मुकुटाग्रविनिर्मित तन्मुखाकृतिशतेभ्यो विनिर्गतानि निःसृतानि उद्गीर्णानीव वान्तानीवोद्गीर्णानि यानि प्रवरमौक्तिकानि वरमुक्ताफलानि तैर्विराजमानं शोभमानं यन्मुकुटं तच्चेति इन्द्रः तेषां य उत्कट आटोपस्तेन दर्शनीयो यः स तथा, तथा 'अनेगमणिकणगरयण पहकरपरिमंडिय भागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणज णियपैखोलमाणवरललितकुंडलुज्जलिय अहियआभरणजणियसोभे' अनेकमणिकन कर लनिकरपरिमण्डितभागे भक्तिचित्रे विच्छित्तिविचित्रे विनियुक्ते - कर्णयोर्निवेशिते गमनगुणेन-गतिसामर्थ्येन जनिते कृते प्रेङ्खोलमाने चञ्चले ये वरललितकुंडले ताभ्यामुज्ज्वलितेनउद्दीपनेनाधिकाभ्यामाभरणाभ्यामुज्ज्वलिताधिकैर्वाऽऽभरणैश्च कुण्डलव्यतिरिक्तैर्जनिता शोभा यस्य स तथा, तथा "गयज| लमलविमलं दंसणविरायमाणरूवे" गतजलमलं- विगतमालिन्यं विमलं दर्शनम् - आकारो यस्य स तथा, अत एव विराजमानं रूपं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, अयमेवोपमीयते उदित इव कौमुदीनिशायां कार्त्तिकपौर्णमास्यां शनीश्वराङ्गारकयो:प्रतीतयोरुज्ज्वलितः- दीप्यमानः सन् यो मध्यभागे तिष्ठति स तथा नयनानन्दो - लोचनाह्लादकः शरचन्द्र इति, शनीबरांगार - कवत्कुण्डले चन्द्रवच तस्य रूपमिति, तथाऽयमेव मेरुणोपमीयते - दिव्यौषधीनां प्रज्वलेनेव मुकुटादितेजसा उज्ज्वलितं यद्दर्शनं रूपं तेनाभिरामो- रम्यो यः स तथा, ऋतुलक्ष्म्येव सर्वर्तुककुसुमसंपदा समस्ता- सर्वा समस्तस्य वा जाता शोभा यस्य स तथा प्रकृष्टेन गन्धेनोद्भूतेन - उद्गतेनाभिरामो यः स तथा मेरुरिव नगवर: विकुर्वित विचित्रवेषः सन्नसौ वर्तते इति, 'दीवसमुद्दाणं' ति द्वीपसमुद्राणां 'असंखपरिमाणनाम घेज्जाणं ति असंख्यं परिमाणं नामधेयानि च येषां ते तथा तेषां Education International For Parts Only ~80~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेषदोहदः सू. १७ ॥ ३५ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४-१५] +[१४-R +१५-R] मध्यकारेण' मध्यभागेन 'बीइवयमाणे ति व्यतिव्रजन् गच्छन् उद्योतयन् विमलया प्रभया जीवलोकं 'ओवयइत्ति अवपतति अवतरति, अन्तरिक्षप्रतिपन्न:-आकाशस्थः दशार्द्धवर्णानि सकिङ्किणीकानि-क्षुद्रघण्टिकोपेतानि एकस्तावदेष गमः पाठः, अन्योऽपि द्वितीयो गमो-वाचनाविशेषः पुस्तकान्तरेषु दृश्यते, 'ताए' तया उत्कृष्टया गत्या त्वरितया-आकुलया न खाभावि-श | क्या आन्तराकृततोऽप्येषा भवत्यत आह-चपलया कायतोऽपि चण्डया-रीद्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन सिंहया-तदादास्थैर्येण उद्धतया-दपोतिशयेन जयिन्या विपक्षजेतृलेन छेकया-निपुणया दिव्यया-देवगत्या, अयं च द्वितीयो गमो जीवाभिगम| सूत्रवृत्यनुसारेण लिखितः, "किं करेमिति किमहं करोमि भवदभिप्रेतं कार्य किं वा 'दलयामिति तुभ्यं ददामि, कि वा प्रयच्छामि भवत्संगतायान्यस्सै, किंवा ते हृदयेप्सित-मनोवाञ्छितं वर्तत इति प्रश्नः, 'सुनिव्वुयवीसत्थेत्ति सष्ठ निर्धतः| स्वस्थात्मा विश्वस्तो-विश्वासवान् निरुत्सुको वा यः स तथा, 'तातो चि हे तात! । 'परिकप्पेह'त्ति सन्नाहवन्तं कुरुत 'अंतो|अंतेउरंसिति अन्तरन्तःपुरस्थ "महयाभडचडगरवंदपरिखित्त"त्ति महाभटानां यबटकरप्रधान-विच्छईप्रधानं वृन्दं । तेन संपरिक्षिप्ता, वैभारगिरेः कटतदानि-तदेकदेशतटानि पादाच-तदासबलघुपर्वतास्तेषां यन्मूलं तत्र, तथा आरामेषु च | आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्या(दी)नि ते आरामास्तेषु पुष्पादिमद्वृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि उद्या|नानि तेषु च तथा सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि काननानि तेषु च नगरविप्रकृष्टानि वनानि तेषु च तथा वनखण्डेपुच-एकजातीयवृक्षसमूहेषु वृक्षेषु चैकैकेषु गुच्छेषु च-वृन्ताकीप्रभृतिषु गुल्मेषु च-वंशजालीप्रभृतिषु लतासु-च-सहकारलतादिषु बहीषु च-नागवल्लयादिषु च कन्दरासु च-गुहासु दरीषु च-ऋगालादिउत्कीर्णभूमिविशेषेषु 'धुंढीसु यत्ति | दीप अनुक्रम [१९-२४] wwrajastaram.org ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१४-१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म- कधाङ्गम्. ॥३६॥ [१४-१५] +[१४-R +१५-R] अखाताल्पोदकविदरिकासु यूथेषु च-बानरादिसम्बन्धिषु पाठान्तरेण हदेषु च कक्षेषु च गहनेषु च नदीषु च-सरित्सु संगमेषु उरिक्षप्तच-नदीमीलकेषु च विदरेषु च जलस्थानविशेषेषु 'अच्छमाणी योनि तिष्ठन्ती प्रेक्षमाणा च-पश्यन्ती दृश्यवस्तूनि मजन्ती ज्ञाते मेघच-स्मान्ती 'पल्लवाणि यति पल्लवान् किशलयानि 'माणेमाणी यत्ति मानयन्ती स्पर्शनद्वारेण 'विणेमाण ति दोहलं कुमारजविनयन्ती 'तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसित्ति अकालमेघदोहदे विनीते सति सम्मानितदोहदा पूर्णदोहदेत्यर्थः, न्म सू.१८ 'जयं चिट्ठइत्ति यतनया यथा गर्भवाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊर्द्धस्थानेन 'आसयइति आस्ते आश्रयति बा आसनं खपिति चेति हितं-मेधायुरादिवृद्धिकारणखान्मितमिन्द्रियानुकूलखाव पथ्यमरोगकारणलात 'नाइचिंत'ति अतीव चिन्ता यर्मिस्तदतिचिन्तं तथा यथा न भवतीत्येवं गर्भ परिवहतीति संबन्धः, नातिशोकं नातिदैन्यं नातिमोहं-नातिकामासक्ति नातिभय-18 मेतदेव संग्रहवचनेनाह--'व्यपगते'त्यादि, तत्र भयं-भीतिमात्र परित्रासोऽकस्मात् , ऋतुषु यथायथं भज्यमानाः सुखायेति 18 ऋतुभज्यमानसुखाः तैः। तते णं सा धारिणीदेवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणरातिदियाणं वीतिताणं अद्धरत्तका. लसमयंसि सुकुमालपाणिपादं जाव सवंगसुंदरंगं दारगं पयाया, तएणं ताओ अंगपडियारिआओ धारिणी देवीं नवण्डं मासाणं जाव दारगं पयायं पासन्ति २ सिग्धं तुरियं चवलं वेतियं जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति २ सेणियं रायं जएणं विजएण बद्धावति २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं पदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! धारिणीदेवी णवण्हं मासाणं जाव दारगं पयाया दीप अनुक्रम [१९-२४] For P OW मेघकुमारस्य जन्म ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-२८] तनं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेदेमो पियं भे भवउ, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एपमहूँ सोचा णिसम्म हहतुट्ठ ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य पुष्फगंधमल्लालंकारेणं सकारेति सम्माणेति २ मत्थयधोयाओ करेति पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेति २ पडिविसजेति। तते णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिहं नगरं आसिय जाव परिगयं करेह २ चारगपरिसोहणं करेह २त्ता माणुम्माणबद्धणं करेह २ एतमाणत्तियं पचप्पिणह जाव पचप्पिणंति । तते णं से सेणिए राया अट्ठारससेणीप्पसेणीओ सद्दावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुकं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुडंडिमं अधरिमं अधारणिजं अणुडयमुइंग अमिलायमल्लदामं गणियावरणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्की लियाभिराम जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह २ एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह तेवि करिति २ तहेव पञ्चप्पिणंति, तए णं से सेणिए राया बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने सइएहि य साहस्सिएहि यसयसाहस्सेहि य जाएहिं दाएहिं भागेहिं दलयमाणे २पडिच्छेमाणे २एवं च णं विहरति, तते णं तस्स अम्मापियरो पढमेदिवसे जातकम्मं करेंति २बितियदिवसे जागरियं करेंति २ ततिए दिवसे चंदसरदंसणियं करेंति २ एवामेव निवत्ते सुइजातकम्मकरणे संपत्ते वारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खातिमं सातिम उवक्त मेघकुमारस्य जन्म ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत श्उत्क्षिप्तज्ञाता०मेघकुमार जन्मकलागुहश्च सूत्रांक ॥३७॥ [१८-२१] ast दीप अनुक्रम [२५-२८] हाति २ मिसणातिणियमसयणसंबंधिपरिजणं बलं च बहवे गणणायग दंडणायग जाव आमन्तेति सतो पच्छा पहाता कयवलिकम्मा कपकोउय जाव सबालंकारविभूसिया महतिमहालयंसि भोयणमंडबसि तं विपुलं असणं पाणं खाइम सातिम मित्सनातिगणणायग जाव सर्द्धि आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परि जमाणा एवं च पं विहरति जिमितभुत्तुतरागतावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरितणगणणायगाविपुलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेंति सम्माणति २एवं वदासी-जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु होहले पाउन्भूतेतं होजणं अम्हं दारए मेहे नामणं मेहकुमारे, तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्फन नामजं करेंति, तए णं तते णं से मेहकुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तंजहा-खीरधातीए मंडणधातीए मजणधातीए कीलावणधातीए अंकधातीए अन्नाहि य बहहिं खुजाहिं चिलाइचाहिं वामणिवडभियन्वरिबाउसिजोणियपल्हविणइसिणियाचाघोरुगिणिलासियलउसियदमिलिसिंहलिभारविपुलिदिपक्कणियहलिमकंडिसवरिपारसीहिं णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगितत्रितियपस्थियवियाणियाहिं सदेसणेवत्वगहितसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचकवालवरिसधरकंचुइअमयरगवंदपरिखित्ते इत्थाओ हत्थं संहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिजमाणे चालिजमाणे उचलालिजमाणे रम्मंसि मणिकोहिमतलंसि परिमिजमाणे २ णिवायणिवाघायंसि गिरिकंदर ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप मल्लीणेच चंपगपाथवे मुहं सुहेणं बहुइ, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो अणुपुवेणं नामकरणं च पजेमणं च एवं चंकम्मणगं च चोलोवणयं च महता महया इट्टीसफारसमुदएणं करिंसु । तते णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ववासजातगं चेव गन्भट्ठमे वासे सोहणंसि तिहिकरणमुहुतंसि कलायरियस्स उवणेति, तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहाचेति सिक्खावेति तं०लेहं गणियं रूवं नई गीयं वाइयं सरम(ग)यं पोक्खरगयं समतालं जूयं १० जणवायं पासयं अट्ठावयं पोरेकच्चं दगमद्वियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं २० अजं पहेलियंमागहियं गाहं गीइयं सिलोयं हिरण्णजुतिं सुधन्नजुत्तिं चुन्नजुतिं आभरणविहिं ३० तरुणीपडिकम्मं इथिलक्खणं पुरिसलक्षणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं कुछुडलक्खणं छत्तलक्खणं डंडलक्खणं असिलक्षणं ४० मणिलक्ख ण कागणिलक्षणं वत्थुविज खंधारमाणं नगरमाणं वूहं परिवूहं चारं परिचारं चकबूहं ५० गरुलबूहं सगडयूहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धातिजुद्ध अहियुद्धं मुहियुद्धं बाहुयुद्धं लयाजुद्धं ईसत्थं ६० छरुप्पवायं धणुवेयं हिरन्नपार्ग सुवनपागं सुत्तखेर्ड वहखेडं नालियाखेड पत्तच्छेनं कइच्छेनं सज्जीचं ७० निजीवं सऊणरुयमिति (सूत्रं १७) तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहादीयाओ गणियप्पहाणाओ-सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्सरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओय करणओ य सिहावेति सिक्खावेइ सिहावेत्ता सिक्खा अम्मापिऊणं उप अनुक्रम [२५-२८] अत्र यत् सूत्र १७ लिखितं तत् मुद्रण-दोष: संभाव्यते (सूत्र १७, यह संख्या दुसरी दफ़ा छपी है, इसके पहले पृष्ठ ६९ (३३)पे भी सू.१७ हि लिखा था दवासप्तति-कलाया: नामानि ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाङ्गम. सूत्रांक ॥३८॥ उत्क्षिप्तज्ञाताम्मेयस्य कलाग्रहणं कलाचार्यसकारःप्रासादाश्चसू. १८-१९ [१८-२१] णेति, ततेणं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरोतं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति सम्माणति २त्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति २त्ता पडिविसति (सूत्रं१८) नते णं से मेहे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीइरई गंधवनकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे साहसिए बियालचारी जाते याचि होत्था, तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरिकलापंडितं जाव वियालचारी जायं पासंति २त्ता अट्ट पासातवडिंसए करेंति अन्भुग्गयमुसियपहसिए विव मणिकणगरयणभत्तिचित्ते वाउद्भूतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरें जालंतररयणपंजरुम्मिल्लियब मणिकणगधूभियाए वियसितसयपत्तपुंडरीए तिलयरयणद्धयचंदचिए नानामणिमयदामालंकित अंतो यहिं च सण्हे तवणिजरुइलवालयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीपरूवे पासादीए जाव पडिरूबे एगं च णं. महं भवणं करेंति अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलद्वियसालभंजियागं अन्भुग्गयसुकयवहरवेतियातोरणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठितपसत्यवेरुलियखंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभागं ईहामिय जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गयवयरवेड्यापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुयलजुत्तंपिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिम्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसंसुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणिरयणधूभियागं नाणाविहर्ष दीप अनुक्रम [२५-३०] ॥३८॥ ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] चवन्नघंटापडागपरिमंडियग्गसिरं धवलमिरीचिकवयं विणिम्मुपंतं लाउल्लोइयमहियं जाय गंघवहिभयं पासादीपं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं (सूत्रं१९) तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमार सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुरासि सरिसियाणं सरिसबयाणं सरित्तयाण सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयाणं सरिसएहितो रायकुलेहितो आणिअल्लियाणं पसाहणटुंगअविहवयाओवयणमंगलमुजंपियाहिं अहहिं रायवरकपणाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हार्विसु । तते णं तस्स मेहस्स अम्मापितरो इमं एतारूवं पीतिदाणं दलयइ अह हिरण्णकोडीओ अट्ट सुवण्णकोडीओ गाहाणुसारेण भावियवं जाव पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं घणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोजु पकामं परिभाएG, तते णं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति एगमेगं सुबन्नकोडिं दलपति जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं घणकणग जाव परिभाए दलयति, तते णं से मेहे कुमारे उप्पि पासातवरगते फुडमाणेहिं मुइंगमस्थएहिं वरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणे उ०२ उघलालित्रमाणे २ सहफरिसरसरूवगंधविउले माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरति (सूत्रं२०) तेणं कालेणं२ समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिए जाव विहरति, तते णं से रायगिहे नगरे सिंघा ~87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: घाताधर्म प्रत कथाजम् सूत्रांक १९॥ [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३० ROROSecessc0000000 ग. महया बहुजणसद्देति वा जाव वहये जग्गा भोगा जाव रायगिहरस नगरस्स मजनमजोणं एग उत्क्षिप्तदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छति इमं च णं मेहे कुमारे उर्षि पासातबरगते फुडमाणेहिं मुर्यगमत्थ- ज्ञाताम्मेएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे मुंजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे २ एवं च णं विहरति । तए णं से घवीवाहः मेहे कुमारे ते यहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासति पासिसा कंचुइज्जपुरिसं सू. २० सहावेति २ एवं वदासी-किन भो देवाणुप्पिया ! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा खंदमहेति वा श्रीवीराएवं रुद्दसिववेसमणनागजक्खभूपनईतलायरुक्खचेतियपचयउज्जाणगिरिजस्ताइ वा जओ णं यहवे उग्गा गमः सू. भोगा जाव एगदिर्सि एगाभिमुहा णिग्गच्छति,ततेणं से कंचुइजपुरिसे समणस्स भग०महावीरस्स गहिया IS २१ गमणपषत्तीए मेहं कुमार एवं वदासी-मो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति या जाव गिरिजत्साओ बा, जन्न एए जग्गा जाब एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छन्ति एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइकरे तित्थकरे इहमागते इह संपसे इह समोसहे इह चेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेहए अहापडि जाव विहरति । (सूत्रं २१). 'मत्थयधोयाति धौतमस्तकाः करोति अपनीतदासला इत्यर्थः पौत्रानुपुत्रिका पुत्रपौत्रादियोग्यामित्यर्थः 'वृति' जीविका कल्पयतीति । 'रायगिहं नगरं आसिय' इह यावत्करणादेवं दृश्य 'आसियसंमजिओषलित' आसिक्तमुदकच्छटेन 8 |संमार्जितं कचवरशोधनेन उपलिस गोमयादिना, केषु-सिंघाडगतिगचजकचचरचउमुहमहापहपहेसु' तथा सित्तमुह-18 ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३० यसंभट्टरत्यंतरावणधीहिय सिक्तानि जलेनात एव शुचीनि-पवित्राणि समृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्सराणि आपणवीयप-18 हट्टमार्गा यसिन् तत्तथा मंचालिमंचकलितं मचा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्र अतिमश्चा:-सेपामप्युपरि ये वैः कलितं । 'णाणाविहरागभूसियजयपडागमंडियं' नानाविधरागैः कुसुम्भादिमिभूषिता ये ध्वजाः सिंहगरुडादिरूपकोपलक्षितहपटरूषाः पताकाच तदितरास्ताभिर्मडितं 'लाउल्लोइयमहियं लाइयं-छगणादिना भूमौ लेपनं उल्लोइयं-सेटिकादिना कुड्यादिषु धवलनं ताभ्यां महितं-पूजितं ते एव वा महितं-पूजनं यत्र तत्तथा 'गोसीससरसरत्तचंदणददरदिन्नपंचंगुलितलं' गोशीर्षस्य-चन्दनविशेषस्य सरसस्य च-रक्तचन्दनविशेषखैव ददरेण-चपेटारूपेण दत्ता-ज्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यस्मिन् । कुड्यादिषु तत्तथा 'उबचियचंदणकलस उपचिता-उपनिहिता गृहान्त कृतचतुष्केषु चन्दनकलशा-मङ्गल्यघटाः यत्र तत्तथा चंदणघडमुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग' चंदनघटाः मुष्ठुकृताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वारस्य २ देशभागेषु यत्र तत्तथा 'आसत्तोसत्तविपुलवद्वग्धारियमल्लदामकलावं' आसक्तो-भूमिलनः उत्सतश्च-उपरिलमो विपुलो वृत्तो 'वग्धारियत्ति प्रलम्बो माल्यदानां-पुष्पमालानां कलापा-समूहो यत्र तत्तधा 'पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः-करप्रेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचार:-पूजा भूमेः तेन कलितं 'कालागरुपवर|कुंदुरुकतुरुकवूषडज्झतमघमघंतगंधुदुयाभिराम' कुंदुरुक-चीडा तुरुक-सिल्हकं 'सुगन्धवरगन्धियं गंधवडिभूयं नउनहगजल्लमल्लगमुट्टियवेलंबगकहकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायरपरिगीय' तत्र नटा-नाटकानां नाटयितारः नर्तका-ये नृत्यन्ति अंकिला इत्येके जल्ला-वरनाखेलका राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्ला: ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३० ज्ञाताधर्म- प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिमिः प्रहरन्ति विडम्बका:-विषकाः कथाकथका:-प्रतीताः प्लवका ये उत्प्लवन्ते श्रुविक्षकथानम्.18 नद्यादिकं वा तरन्ति लासका:-ये रासकान् गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमा- ज्ञाता. ख्यान्ति लक्षा-वंशखेलकाः मला:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः तूणइल्ला:-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणका-वीणावा | मेघवृ ॥४०॥ दकाः अनेके ये तालाचरा:-तालाप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः तेषां परि-समन्तागीत-ध्वनितं यत्र तत्तथा कुरुत खयं कारयता सू. २१ न्येस्तथा चारगशोधनं कुरुत कसा च मानोन्मानबर्द्धनं कुरुत, तत्र मान-धान्यमानं सेविकादि उन्मानं-तुलामानं कर्षादिकं । श्रेणय:-कुम्भकारादिजातयः प्रश्रेणयः-तत्प्रभेदरूपाः । 'उस्सुक्क मित्यादि, उच्छुल्का-उन्मुक्तशुल्कां स्थितिपतितां कुरुतेति संबन्धः, शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यं, उत्करां-उन्मुक्तकरी, करस्तु गवादीनां प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, अविद्यमानो भटानां-राजपुरुषाणां आशादायिना प्रवेशः कुटुम्बिमन्दिरेषु यस्यां सा तथा ताममटप्रवेशा, दण्डेन निवृत्तं । दण्डिम कुदण्डेन निवृतं कुदण्डिमं राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तामदंडिमकुदंडिमां , तत्र दण्डोऽपराधानुसारेण राजग्राय द्रव्यं कुदण्डस्तु कारणिकानां प्रज्ञाथपराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्रामं द्रव्यम् , अविद्यमानं 'धरिमति ऋणद्रव्यं| | यस्यां सा तथा तां, अविद्यमानो धारणीयः-अधमों यस्यां सा तथा तां, 'अणुद्धयमुइंग'चि अनुभृता-आनुरूप्येण वादनार्थ| मुत्क्षिप्ता अनुद्धता वा-वादनाथेमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा-मदेला यस्यां सा तथा तां, 'अ[म्मायमिलायमल्लदाम'न्ति अम्ला- ॥४॥ नपुष्पमालां गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैर्नाटकीयैः-नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा ता, अनेकतालाचरानुचरितां प्रेक्षाकारिविशेषैः सेवितां प्रमुदितैः-हृष्टैः प्रक्रीडितैश्च-क्रीडितुमारब्धैर्जनैरभिरामा या सा तथा तां, 'यथाहीं 98090090saeoeneseaon ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप यथोचितां 'स्थितिपतितां स्थिती-कुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता या प्रक्रिया पुत्रजन्मोत्सव संबन्धिनी सा स्थितिपतिता । ता, वाचनान्तरे 'दसदिवसियं ठियपडियन्ति दशाहिकमहिमानमित्यर्थः कुरुत कारयत वा, 'सएहिं ति शतपरिमाणैः, 'दायेहिं ति दानैः, वाचनान्तरे शतिकांश्चेत्यादि, यागान्-देवपूजाः दायान्-दानानि भागान्-लब्धद्रव्यविभागानिति प्रथमे दिवसे जातकर्म-प्रसवकर्म नालच्छेदननिखननादिकं द्वितीयदिने जागरिका-रात्रिजागरणं तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं उत्सवविशेष एत इति, पाठान्तरे तु प्रथमदिवसे स्थितिपतितां तृतीये चंद्रसूर्यदर्शनिका षष्ठे जागरिकां निवत्ते असुइजायकम्मकरणे'त्ति निवृत्ते-अतिक्रान्ते-अशुचीनां जातकर्मणा करणे 'निबत्ते सुइजायकम्मकरणे ति वा पाठान्तरं,8 तत्र निर्वृत्ते-कृते शुचीनां जातकर्मणा करणे 'वारसाहे दिवसेति द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा द्वादशानामहां समा-18 हारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येन द्वादशाहः पूर्यते तत्र तथा, मित्राणि-सुहृदः ज्ञातयो-मातापितृभ्रात्रादयः निजका:खकीयाः पुत्रादयः खजनाः-पितृल्यादयः संवन्धिन:-शुरपुत्रश्वशुरादयः परिजनो-दासीदासादिः पलं च-सैन्यं च गणनायकादयस्तु प्रागभिहिताः, 'महइमहालइति अतिमहति, आस्वादयन्तावास्वादनीय, परिभाजयन्ती अन्येभ्यो यच्छन्तौ । मातापितराविति प्रक्रमः, 'जेमिय'त्ति जेमिती भुक्तवन्तौ, 'भुत्तुत्तरत्ति भुक्तोत्तर-भुक्तोत्तरकालं 'आगय'ति आगताप-18] वेशनस्थाने इति गम्यते, 'समाणे ति सन्तो, किंभूतौ भूखेत्याह -आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चोक्षौ लेपसिक्थाद्यपनयनेन अत एव परमशुचिभूताविति, 'अपमेयास्वेत्ति इदमेतद्रूपं गौणं कोऽर्थो ?-गुणनिष्पन्न नामधेयं-प्रशस्तं नाम मेघ इति । क्षीरKधान्या-स्तन्यदायिन्या मण्डनधात्र्या-मण्डिकया मजनधान्या-सापिकया क्रीडनधात्र्या-क्रीडनकारिण्या अधात्र्या अनुक्रम [२५-३०] ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३० शाताधर्म-उत्सङ्गस्यापिकया कुनिकाभि:-चक्रजवाभिः चिलातीभि:-अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वामनाभि:-इखशरीरामिः वटभाभि:-18 उत्क्षिप्तकथाङ्गम् महत्कोष्ठामिः वर्षरीभिः चर्बरदेशसंभवाभिः बकुसिकाभिर्योनकाभिः पल्हविकामिः ईसिनिकाभिः घोरुकिनिकाभिः लासिकामिः ज्ञाता० लकुसिकाभिर्द्राविडीभिः सिंहलीभिः आरबीभिः पुलिन्द्रीभिः पकणीभिः बहलीभिः मुरुंडीभिः शबरीभिः पारसीमिः 'नाना- मेघवृत्तं देशीभिः' बहुविधाभिः अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाभिरि त्यर्थः विदेशः-खकीयदेशापेक्षया राजगृहनगरदेशस्तस्य परिमण्डिकामिः, इङ्गितेन-नयनादिचेष्टाविशेषेण चिन्तितं च-अपरेण हृदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्ताः तथा ताभिः, खदेशे यन्नेपथ्यं परिधानादिरचना तद्वद्गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः,निपुणानां मध्ये कुशलायास्तास्तथा ताभिः, अत एव । विनीताभिर्युक्त इति गम्यते,तथा चेटिकाचक्रवालेन अर्थात् खदेशसंभवेन वर्षधराणां वर्द्धितकरिंथनरुन्धनप्रयोगेण नपुंसकीकृताना-ISI मन्तःपुरमहलकानां 'कंचुइज्जति कंचुकिनामन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च-अन्तःपुरकायेचिन्त-131 कानां वृन्देन परिक्षिप्तो यः स तथा,हस्ताद्धस्तं-हस्तान्तरं सहियमाणः अङ्कादर-उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं, परिभोज्यमानः परिगीयमानः तथाविधवालोचितगीतविशेषैः उपलाल्यमानः क्रीडादिलालनया,पाठान्तरे तु 'उवणचित्रमाणे २उवगाइनमाणे २ उपलालि| जमाणे २ अवगृहिज्जमाणे' २ आलिङ्गामान इत्यर्थः, अवयासिज्जमाणे कथश्चिदालिममान एव, 'परिवंदिजमाणे २स्तूयमान इत्यर्थः, 'परिचुंविजमाणे २ इति प्रचुम्ब्यमानः चक्रम्यमाणः, निर्वाते-नियाघाते 'गिरिकन्दरे चि गिरिनिकुळे ISI॥४१॥ |आलीन इव चम्पकपादपः सुखसुखेन वर्द्धते स्मेति, प्रचक्रमणक-भ्रमणं चूडापनयन-मुण्डनं, 'महया इड्डीसक्कारसमुदएणीति महत्या ऋझ्या एवं सत्कारेण पूजया समुदयेन च जनानामित्यर्थः, अर्धत' इति व्याख्यानतः 'करणतः' प्रयोगतः 'सेहावर त्ति wwrajastaram.org ~92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ------ अध्ययनं [१], मूलं [१८-२१] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः सेधयति निष्पादयति शिक्षयति-अभ्यासं कारयति 'नवंगसुतपडिवोहिए' ति नवाङ्गानि द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिहेका लगेका मनचैकं सुप्तानीव सुप्तानि - बाल्यादव्यक्तचेतनानि प्रतिबोधितानि - यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहारभाष्ये- 'सोसाई नव सुत्ता' इत्यादि, अष्टादश विधिप्रकाराः प्रवृत्तिप्रकाराः अष्टादशभिर्वा विधिभिःभेदैः प्रचारः प्रवृत्तिर्यस्याः सा तथा तयां, देशी भाषायां देशभेदेन वर्णावलीरूपायां विशारदः पण्डितो यः स तथा, गीतिरतिर्गधर्वे - गीते नाट्ये च कुशलः, हयेन युध्यत इति हययोधी, एवं रथयोधी बाहुयोधी बाहुभ्यां प्रमुद्रातीति बाहुप्रमर्दी, साहसिकलाडिकाले चरतीति विकालचारी । 'पासायवर्डिसएत्ति अवतंसका इवावतंसकाः शेखराः प्रासादाथ तेऽवर्तसकाथ प्रासादावर्तसका प्रधानप्रासादा इत्यर्थः 'अन्भुग्गयमूसिय'त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितान् अत्युच्चानित्यर्थः, अत्र च द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्य:, 'पहसिएविव'त्ति प्रहसितानिव श्वेतप्रभाप्रबलपटलतया हसन्त इवेत्यर्थः, तथा मणिकनकरलानां भक्तिभिः - विच्छि 8 तिमिचित्रा ये ते तथा वातोडूता याः विजयसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि च तैः कलिता ये ते तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान्, तुङ्गान् कथमिव ? - गगनतलमभिलयच्छिखरान् 'जालंतररयणपंजरुमिल्लियषति जालान्तेषु| मत्तालम्बपर्यन्तेषु जालान्तरेषु वा-जालकमध्येषु रत्नानि येषां ते तथा ततो द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः पञ्जरोन्मीलितानि च-पृथकृकृतपञ्जराणि च प्रत्यग्रच्छायानि त्यर्थः, अथवा जालान्तररत्नप अरैः- तत्समुदाय विशेषैरुन्मीलितानीबोन्मीलितानि चोन्मी पितलोचनानि चेत्यर्थः, मणिकनकस्तूपिकानिति प्रतीतं विकसितानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च प्रतिरूपापेक्षया साक्षाद्वा येषु ते तथा तान्, तिलकैः पुण्डेः रत्नैः कर्केतनादिभिः अर्द्धचन्द्रः सोपानविशेषैः भित्तिषु वा चन्दनादिमयैरालेख्यैः Education Internationa For Personal Use Only ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] क्षिप्तज्ञाता मेघवृत्तं सू. २१ दीप अनुक्रम [२५-३० ज्ञाताधर्म- अचिंता येते तथा तान् , पाठान्तरेण 'तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रान्' नानामणिमयदामालङ्कतान् अन्तर्बहिश्च लक्षणान- कथाङ्गम्म मृणान् तपनीयस्स या रुचिरा वालुका तस्याः प्रस्तर:-प्रतरः प्राङ्गणेषु येषां ते तथा तान्, सुखस्पोन् सश्रीकाणि सशोभनानि रूपाणि-रूपकाणि येषु ते तथा तान्, प्रसादीयान्-चित्ताहादकान् दर्शनीयान-यान् पश्यच्चक्षुने श्राम्यति, ॥४२॥ अभिरूपान्-मनोज्ञरूपान् द्रष्टारं द्रष्टार प्रति रूपं येषां ते तथा तान् , एकं महद्भवनमिति, अथ भवनप्रासादयोः को विशेषः, उच्यते, भवनमायामापेक्षया किश्चितन्यनोच्छ्रायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छाय इति, अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यत्तत्तथा, लीलया स्थिताः शालभञ्जिका:-पुत्रिका यसिन् तत्तथा, अभ्युद्गता-सुकता वज्रस वेदिका-द्वारमुण्डिकोपरि वेदिका तोरणं च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभी रतिदाभिर्वा शालभजिकाभिः सुश्लिष्टाः संवद्धाः विशिष्टा लष्टाः संस्थिताः प्रशस्ताः वैडूर्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकनकरलैः खचितं च उज्ज्वलं च यत्तत्तथा ततः पदत्रयस्य | कर्मधारयः,'बहुसमति अतिसमः सुविभक्तो निचितो-निबिडो रमणीयश्च भूभागो यत्र तत्तथा, ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रमिति यावत्करणात् दृश्य, तथा स्तम्भोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वजस्य वेदिकया परिगृहीतं-परिवेष्टितमभिरामं च यत्तत्तथा 'विजाहरजमलजुयलजंतजुतं'ति विद्याधरयोर्यत् यमलंसमश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनैव यत्रेण-संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तं यत्तत्तथा आपसाचैवंविधः समास इति, तथा अर्चिषा- | किरणानां सहस्रर्मालनीयं-परिवारणीयं 'भिसमाणं ति दीप्यमानं 'भिन्भिसमा ति अतिशयेन दीप्यमानं चक्षुः कर्तृ लोकनेIS अवलोकने दर्शने सति लिशतीव-दर्शनीयखातिशयात् श्लिष्यतीव यत्र तत्तथा, नानाविधाभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाप्रधानपताकामिः ॥४२॥ Re ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप परिमण्डितमप्रशिखर यस्य तत्तथा धवलमरीचिलक्षणं कवचं-कङ्कटं तत्समूहमित्यर्थः विनिर्मुश्चन-विक्षिपन् सरशीनां शरीर-1 | प्रमाणतो मेपकुमारापेक्षया परस्परतो या सहगवयसां-समानकालकृतावस्थाविशेषाणां सहकत्वा -सशकवीनां सरशैला-1 वण्यरूपयौवनगुणैरुपपेताना, तत्र लावण्यं-मनोज्ञता रूपम्-आकृतियोवनं-युवता गुणाः-प्रियभाषित्वादयः, तथा प्रसाध-12 नानि च-मण्डनानि अष्टासु चाङ्गेषु अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिर्यदवपदन-प्रोजनकं तच मङ्गलानि च दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा सुजल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैरिति, इदं चासै प्रीतिदानं दचे स. तद्यथा-अष्टौ हिरण्यकोटीः हिरण्यं च-रूप्यं, एवं सुवर्णकोटी:, शेषं च प्रीतिदानं गाथाऽनुसारेण भणितव्यं यावत्प्रेक्षणकारिकाः, गाथाचेह नोपलभ्यन्ते, केवलं ग्रन्थान्तरानुसारेण लिख्यन्ते-"अहिरण्णसुवनय कोडीओ मउडकुंडला हारा । अट्टहार एका-1 वली उ मुत्तावली अट्ट ॥१॥ कणगावलिरयणापलिकडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा । वडजुगपहजुगाई दुकूलजुगलाई अद(बग्ग)ह ॥२॥ सिरिहिरिधिइकित्तीउ बुद्धी लच्छी य होंति अट्ठ । नंदा भद्दा य तला झय वय नाडाइं आसेव ॥ ३॥ इत्थी जाणा जुग्गा उ सीया तह संदमाणी गिल्लीओ। थिल्ली वियडजाणा रह गामा दास दासीओ ॥ ४ ॥ किंकरकंचुइ मयहर परिसधरे तिविह दीव थाले य । पाई थासग पल्लग कतिविय अवएड अवपक्का ॥५॥ पावीढ मिसिय करोडियाओं पल्लंकर य पडिसिजा । हंसाईहिं विसिट्टा आसणभेया उ अहह ॥६॥ हंसे १ इंचे २ गरुडे ३ ओणय ४ पणए ५ यदीह ६ भद्दे ७२ ।। पक्खे ८ मयरे ९ पउमे १० होइ दिसासोत्थिए ११ कारे ॥७॥ तेथे कोहसमुग्गा पचे चोए य तगर एला य । हरियाले 18| हिंगुलए मणोसिला सासव समग्गे ॥८॥ खुज्जा चिलाइ वामणि वहभीओ बव्वरी उ बसिपाओ । जोणिय पढवियाओ इसि अनुक्रम [२५-३० रहद ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप ज्ञाताधर्म-णिया घोरुइणिया यशालासिय लउसिय दमिणी सिंहलि तह आरबी पुलिंदी य । पकणि बहणि मुरंढी सबरीओ पारसीओ या उत्क्षिप्तकथाङ्गम् ॥१०॥ छत्तधरी चेडीओ चामरधरतालियंटयधरीओ । सकरोडियाधरीउ खीराती पंच धावीओ ॥११ ।।अटुंगमदियाओ उम्म- ज्ञाते श्रीदिगविगमंडियाओ य । वण्णयचुण्णय पीसिय कीलाकारी य दवगारी ॥१२॥ उच्छाविया उतह नाडइल्ल कोईविणी महाणसिणी वीरसम॥४३॥ भंडारि अजधारि पुष्कधरी पाणीयधरी या॥१३॥वलकारिय सेज्जाकारियाओं अभंतरी उवाहिरिया । पडिहारी मालारी पेसणकारीउ वसरणं अट्ट॥१४॥" अत्र चायं पाठक्रमः, खरूपंच-'अट्ट मउडे मउडपवरे अट्ट कुंडले कुंडलजोयप्पवरे, एवमौचित्येनाध्येयं, हारार्बुहारी-II. अष्टादशनवसरिकी एकावली-विचित्रमणिका, मुक्तावली-मुक्ताफलमयी, कनकावली-कनकमाणिकमयी, कटकानि-कलाचिकामरणानि योगो-युगलं तुटिका-माहुरक्षिका क्षौम-कासिक वटकं-बिसरीमयं पट्ट-पट्टसूत्रमयं दुकूल-दुकूलाभिधानवृक्षनिष्पन | बल्क-पक्षवल्कनिष्पनं, श्रीप्रभृतयः षट् देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां लोकतोऽर्थोऽयसेयः, अन्ये साहुः-नंद-वृत्तं लोहासन भर्द्र-शरासन, मूढक इति यत्प्रसिद्धं, 'तल'त्ति-अस्यैवं पाठः, "अट्ठ तले तलप्पवरे सबरयणामए नियगवरभवणकेऊ" वे च तालवृक्षाः संभाच्यन्ते, ध्वजाः-केतवो 'चए'त्ति गोकलानि दशसाहसिकेण गोत्रजेनेत्येवं व्यं 'नाडय'त्ति 'बत्तीसहबद्रेणं नाडगेण मिति दृश्य, द्वात्रिंशबर्द्ध-द्वात्रिंशत्पात्रबद्धमिति व्याख्यातार', 'आसे'ति 'आसे आसप्पवरे सवरयणामए सिरिघरपडिरूवे-श्रीगृहं भाण्डागारं, एवं हस्तिनोऽपि, यानानि-शकटादीनि युग्यानि-गोल्लविषये प्रसिद्धानि जम्पानानिद्विहस्तप्रमा, ॥४३॥ राणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि शिविका:कूटाकारणाच्छादिताः सन्दमानिकाः-पुरुषप्रमाणायामा जम्पानविशेषाः गिल्लयः-हस्तिन उपरि कोल्लररूपा मानुषं गिलन्तीवेति गिल्लया, लाटानां यानि अपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु विठीओ अनुक्रम [२५-३० ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] अभिधीयन्ते, वियडजाणत्ति अनाच्छादितानि वाहनानि रहत्ति-संग्रामिकाः परियानिकाश्चाष्टाष्ट, तत्र संग्रामस्थानां कटीप्रमाणाफलकवेदिका भवन्ति, वाचनान्तरे स्थानन्तरमश्वा हस्तिनश्चाभिधीयन्ते तत्र ते वाहनभूताः ज्ञेयाः, 'गाम'ति-दशकुलसाह सिको ग्रामः तिविहदीवत्ति-त्रिविधा दीपाः अवलंबनदीपाः शृङ्गलाबद्धा इत्यर्थः, उत्कम्पनदीपा:-ऊर्ध्वदण्डवन्तः पञ्जरदीपाIS अभ्रपटलादिपञ्जरयुक्ताः त्रयोऽप्येते विविधाः सुवर्णरूप्यतदुभयमयखादिति, एवं स्थालादीनि सौवर्णादिभेदात त्रिविधानि || |वाच्यानि, कविका कलाचिका अवएज इति तापिकाहस्तका 'अवपकति अवपाक्या तापिकेति संभाव्यते. मिसियाओ-R आसनविशेषाः करोटिकाधारिकाः स्थगिकाधारिकाः द्रवकारिकाः-परिहासकारिकाः, शेष रूढितोऽवसेयं, 'अन्नं चेत्यादि, विपुलं-प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदेन चतुर्विध कनकं च-सुवर्ण रनानि च कर्केतनादीनि स्वस्वजातिप्रधानवस्तूनि । वा मणयश्चन्द्रकान्ताया मौक्तिकानि च शङ्खाश्च प्रतीता एव शिलाप्रवालानि च-विद्रुमाणि अथवा शिलाश्व-राजपट्टा गन्धपेषणशिलाच प्रबालानि च-विट्ठमाणि रक्तरनानि च-पद्मरागादीनि एतान्येव 'संत'ति सत् विद्यमानं यत्सार-प्रधानं वाप-IS तेय-द्रव्यं तद्दन्तवन्ताविति प्रक्रमः, किंभूतं ?-'अलाहि नि अलं-पर्याप्त परिपूर्ण भवति 'यावति यावत्परिमाणं आसप्तमात् कुललक्षणे वंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात्सप्तमं पुरुष यावदित्यर्थः प्रकामं-अत्यर्थं दातुं-दीनादिभ्यो दाने एवं भोक्तुंखयं भोगे परिभाजयितुं-दायादादीनां परिभाजने तत्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतं, 'उपिति उपरि 'फुहमाणेहिं मुयंगमधएहि' स्फुटद्भिरिवातिरमसाऽऽस्फालनात् मृदङ्गमस्तकैः-मर्दल मुखपुटैः 'रायगिहे नगरे सिंघाडग' इत्यनेनालापका-18 शेनेदं द्रष्टव्यं-'सिंघाडगतिगचउकचञ्चरचउम्मुहमहापहपहेसु' 'मया जणसद्देइ वा इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'जणसमूहड़ वा ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कथाङ्गम. सूत्रांक [१८-२१] वाज णबोलेइ वा जणकलकलेह वा जणुम्मीइ वा जणुकलियाइ वा जणसभिवाएइ वा बहुजनो अन्नमवस्स एवमाइक्खइ एवं उरिक्षत पनवेइ एवं भासइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे ३ आइगरे तित्थगरे जाव संपाविउकामे पुवाणुशुचि चरमाणे ज्ञाते श्री गामाणुगामं दूइजमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्महं उग्गि-18 वीरसम॥१४॥ हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह-तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नाम-18वसरणं हा गोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपञ्जुवासणयाए, एमस्सपि आयरियस्स धम्मियस्सस. २१ सुवयणस्स सवणयाए किमंग पूण विउलस्स अट्ठस्स महणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समर्ण भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासामो एवं नो पेञ्चभवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए। अणुवामित्ताए भविस्सइत्तिककुत्ति 'बहवे उग्गा' इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं-उग्ग'चा भोगा भोगपुत्ता एवं राइना खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छाई अमेय बहवे राईसरतलवरमाडबियकोईवियइब्भसेडिसेणावहसत्यवाहप्पभियजओ अप्पेगइया बंदणवत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तियं एवं सकारखचियं सम्माणवत्तियं कोउहल्लवत्तिय असुयाई सुणिस्सामो सुबाई निस्संकियाई करिस्सामो अप्पे० मुंडे भविता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो अप्पे० पंचाणुबइयं सत्चसिक्खावइयं दुवालसषिदं गिदिधम्म पडिबज्जिस्सामो अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं अपेगइया जीयमेयंतिकट्ठ ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छिता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवन्ना कप्पियहारहारतिसरयपालंबपलंचमाणकडिसुत्तयमुकयसोभाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणीबलित्चगायसरीरा अप्पेगझ्या हयगया एवं गयरहसिवियासंदमाणिगया अप्पेगइया पायचिहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिखिता 8380902 दीप अनुक्रम [२५-३० ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: -अंगसूत्र-६ (मूलप्रवृत्ति प्रत सूत्रांक [१८-२१] महया उकिडिसीहणायबोलकलकलरवेणं समुदरवभूयंपिव करेमाणा रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेण ति अस्थायमर्थः-शाटिकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यमेवमाख्यातीति वाक्यार्थः, 'महया जणसद्देइ वत्ति महान् जनशब्दः-18 | परस्परालापादिरूपः इकारोवाक्यालङ्कारार्थ वाशब्द: पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः अथवा सद्देइ वत्ति इह संधिप्रयोगादितिशब्दो| | द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, यत्र महान् जनशब्द इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा तत्समुदाय इत्यर्थः, जनबोला-अव्यक्तवर्णो | धनिः कलकल:-स एवोपलभ्यमानवचनविभागः उम्मिा -संबाधः एवमुत्कलिका-लघुतरः समुदाय एवं समिपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं तत्र, बहुजनोऽन्योऽन्यस्याख्याति सामान्येन प्रज्ञापयति विशेषेण, एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाहभाषते प्ररूपयति चेति, अथवा आख्याति सामान्यतः प्रज्ञापयति विशेषतो बोधयति वा भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपयति उपपत्तितः 'इह आगए'ति राजगृहे 'इह संपत्ते'त्ति गुणशिलके 'इह समोसढे'ति साधूचितावग्रहे । एतदेवाह'हेष रायगिहे'इत्यादि 'अहापडिरूवं'ति यथाप्रतिरूपमुचितं इत्यर्थः, 'त'मिति तस्मात् 'महाफलं'ति महत्फलं-अर्थो। भवतीति गम्यं, 'तहारूवाण'ति तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः, 'नामगोयस्स'सि नानो-11 यादृच्छिकस्याभिधानकस्य गोत्रस-गुणनिष्पन्नस्य 'सवणयाए'चि श्रवणेन 'किमङ्ग पुण'ति किमङ्ग पुनरिति पूर्वो-11 तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अङ्गेल्यामत्रणे अथवा परिपूर्ण एवार्य शब्दो विशेषणार्थ इति, अभिगमनं-अभिमुखगमनंवन्दनस्तुतिः नमस्सन-प्रणमनं प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासनं-सेवा एतद्भावस्तत्ता तया, तथा एकस्याप्यायस्य आयेप्रणे-18 तकखात् धार्मिकस्य-धर्मप्रतिबद्धतात् चन्दामोचि-स्तुमो नमस्यामः-प्रणमामः सत्कारयामः-आदरं कुर्मो बनायचेनं दीप अनुक्रम [२५-३० ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], -------------- मूलं [१८-२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८-२१] ज्ञाताधर्म-18वा सन्मानयामः-उचितप्रतिपत्तिभिः कल्याण-कल्याणहेतुं मङ्गल-दुरितोपशमहेतु दैवत-दैवं चैत्यमिव चैत्यं पर्युपासयामः- उक्षिप्तकथानम्.16 सेवामहे, एतत् णो-अस्माकं प्रेत्यभये-जन्मान्तरे हिताय पथ्यानवत् सुखाय-शर्मणे क्षमाय-संगतखाय निःश्रेयसाय-मोक्षाय जाते श्री आनुगामिकखाय-भवपरम्परासुखानुबन्धिमुखाय भविष्यतीतिकृता-इतिहेतोबहव उग्रा-आदिदेवावस्थापितारक्षवंशजाः उग्रप- वीरसम॥४५॥ त्रा:-त एव कुमाराद्यवस्था एवं भोगा:-आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजावा: राजन्या-भगवद्वयस्यवंशजाः क्षत्रियाः-12वसरण सामान्यराजकुलीनाः भटाः-शौर्यवन्तो योधाः--तेभ्यो विशिष्टतरा मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते सू. २१ चेटकराजस्थाष्टादश गणराजानी नव मल्लकिनो नवलेच्छकिन इति, लेच्छइत्ति कचिद्वणिजी व्याख्याताः लिप्सव इति। | संस्कारेणेति, राजेश्वरादयः प्राग्वद्, 'अप्पेगइय'ति अप्येके केचन 'वंदणवत्तियति चन्दनप्रत्ययं वन्दनहेतोः शिरसा कण्ठे च कृता-धृता माला यैस्ते शिरसाकण्ठेमालाकृताः कल्पितानि हारा हारत्रिसरकाणि पालम्बध-प्रलम्बमानः कटिसूत्रकं च। येषां ते तथा, तथाऽन्यान्यपि सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, चन्दनाबलिप्तानि गात्राणि यत्र ततधाविधं शरीरं येषां ते तथा, पुरिसबग्गुरत्ति-पुरुषाणां वागुरेख वागुरा-परिकर च महया-महता उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः गम्भीरध्वनिः सिंहनादच बोलच-वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलच-व्यक्तवचनः स एव एतल्लक्षणो यो रखस्तेन समुद्रवभूतमिव-जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थो नगरमिति गम्यते फुर्वाणाः 'एगदिसि'ति एकया दिशा ॥ ४५ ॥ पूर्वोत्तरलक्षणया एकाभिमुखा-एक भगवन्तं अभि मुखं येषां ते एकाभिमुखा निर्गच्छन्ति, 'इमं च णं'ति इतश्च 'राय-18 | मन्गं च ओलोएमाणे एवं च णं विहरह, तते णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छ aeroeaeeeeees दीप अनुक्रम [२५-३० ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१८-२१] दीप अनुक्रम [२५-३०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ------ अध्ययनं [१], मूलं [१८-२१] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः माणे पासह पासित्ता' इत्यादि स्फुटं, इन्द्रमहः - इन्द्रोत्सवः एवमन्यान्यपि पदानि, नवरं स्कन्दः - कार्त्तिकेयः रुद्रः प्रतीतः शिवो-महादेवः वैश्रमणो- यक्षराष्ट्र नागो-भवनपतिविशेषः यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ चैत्यं सामान्येन प्रतिमा पर्वतः प्रतीत उद्यानयात्रा- उद्यानगमनं गिरियात्रा - गिरिगमनं 'गहियागमणपवित्तिए'त्ति परिगृहीतागमनप्रवृत्तिको गृहीतवार्त्त इत्यर्थः तसे हे ज्यपुरसस्स अंतिए एतमहं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठे कोडुंबिधपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उवहवेह, तहत्ति उवर्णेति, तते णं से मेहे हाते जाव सव्वालंकारविभूसिए चाउरघंटं आसरहं दूरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमा णं महया भडचडगरविंद परियाल संपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्जनं मज्मेणं निग्गच्छति २ जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छसातिछतं पडागातिपडागं विज्जाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति पासित्ता चाउरघंटाओ आसरहाओ पचोरुहति २ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए एगसाडियउत्तरासंगकरणेणं चक्ष्फासे अंजलिपग्गणं मणसो एगप्तीकरणेणं, जेणामेव समणे भ० महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ समणं ३ तिक्खुतो आदाहिणं पाहणं करेति २ वंदति णमंसह २ समणस्स ३ णच्चासन्ने नातिदूरे सुस्समाणे नर्मसमाणे अंजलियउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासति, तए णं समणे ३ मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहा Education Intention For Parts Only ~ 101 ~ www.rary or Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [... ३०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] -------- अध्ययनं [3], मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ४६ ॥ लियाए परिसाए मजझगए विचित्तं धम्ममातिक्खति जहा जीवा बसंति मुचंति जह य संकिलिस्संति धम्मका भाणियव्वा जाव परिसा पडिगया ( सू २२ ) 'ersic आसरहं'ति चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् स तथा अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः, युक्तमेव अश्वादिभिरिति, 'दूरूढे 'ति आरूढः 'महया इत्यादि महद् यत् भटानां चटकरं वृन्दं विस्तारवत्समूहस्तल्लक्षणो यः परिवारस्तेन संपरिवृतो यः स तथा । जृम्भकदेवास्तिर्यगूलोकचारिणः 'ओवयमाणे ति अवपततो- व्योमाङ्गणादवतरतः 'उप्पयंते' चि भूतलादुत्पततो दृष्ट्वा 'सचिते'त्यादि सचितानां द्रव्याणां पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरणयाए'ति व्यवसरणेन व्युत्सर्जनेनाचितानां द्रव्याणामलङ्कारवस्त्रादीनामव्यवसरणेन- अव्युत्सर्जनेन, कचिद्वियोसरणयेति पाठः, तत्र अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन - परि हारेण, उक्तं च- 'अवणेइ पंच ककुहाणि रायवरवसमधिभूयाणि । छत्तं खग्गोवाहण मउडं तह चामराओ य ॥ १ ॥ सि एका शाटिका यस्मिंस्तत्तथा तच तदुत्तरासङ्गकरणं च उत्तरीयस्य न्यासविशेषस्तेन, चक्षुःस्पर्शे-दर्शने अञ्जलिप्रग्रहेण - हस्तजो|टनेन मनस एकलकरणेन एकाग्रत्रविधानेनेति भावः कचिदेगसभावेति पाठः, अभिगच्छतीति प्रक्रमः 'महइमहालया 'ति महातिमहत्याः धर्म- श्रुतचारित्रात्मकं आख्याति, स च यथा जीवा बध्यन्ते कर्मभिः मिथ्याखादिहेतुभिर्यथा मुच्यन्ते तैरेव ज्ञानाद्यासेवनतः यथा संक्लिश्यन्ते अशुभपरिणामा भवन्ति तथा आख्यातीति इहावसरे धर्म्मकथा उपपातिकोक्ता भणितथ्या, अत्र च बहुर्व्रन्थ इति न लिखितः । तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिर धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठे समणं भगवं Ja Education International For Parts Only ~ 102 ~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मे घकुमारप्रतिबोध: सु. २२ ॥ ४६ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२३] श्रुतस्कन्धः [१] -------- अध्ययनं [3], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Education Internation महावीरं तिक्खुसो आदाहिणं पदाहिणं करेति २ वंदति नर्मसह २ एवं बदासी सद्दहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं एवं पत्तियामि णं रोएमि णं अब्भुमि णं भंते! निग्ार्थं पावयणं एवमेयं भंते । तहमेयं अवितहमेयं इच्छितमेयं पडिच्छियमेयं भंते । इच्छितपडिच्छ्रियमेयं भंते से जहेव तं तुम्भे वदह नवरं देवाप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं पञ्चस्सामि, अहासु देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे कुमारे समणं ३ वंदति नम॑सति २ जेणामेव चाउरघंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छति २ सा चाउरघंटं आसरहं दूरुहति २ महया भडचडगर पहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्iमज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उपागच्छति २ त्ता चाउरघंटाओ आसरहाओ पोहति २ जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छति २ ता अम्मापिकणं पायवडणं करेति २ एवं वदासी एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते सेवि य मे धम्मे इच्छिते परिच्छिते अभिकइए, तते णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वदासी - घन्नेसि तुमं जाया ! संपुनो० कयत्थो० कपलक्खणोऽसि तुमं जाया ! जनं तुमे समणस्स ३ अंतिए धम्मे सिंते सेवि य ते धम्मे इच्छिते परिच्छिते अभिरुइए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोचंपि तचंपि एवं यदासीएवं खलु अम्मयातो ! मए समणस्स ३ अंतिए धम्मे निसंते सेवि य मे धम्मे० इच्छियपडिच्छिए अभिरु तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुन्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए For Pass Use Only ~ 103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. प्रत सूत्रांक ॥४७॥ [२३] दीप मुंडे भवित्ताणं आगारातो अणगारियं पञ्चइत्तए, तते णं सा धारिणी देवी तमणिटुं अकंतं अप्पियं अम- उत्थितगुन्नं अमणामं असुयपुर्व फरुसं गिरं सोचा णिसम्म इमेणं एतारूवेणं मणोमाणसिएणं महया-पुसदुक्खणं ज्ञाते दीअभिभूता समाणी सेयागयरोमकूयपगलंतविलीणगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणवयणा शक्षानुमति याचना करयलमलियत्व कमलमाला तक्खणउलुगदुव्यलसरीरा लावन्नसुन्ननिच्छायगयसिरीया पसिढिलभूसणपडतखुम्मियसंचुनियधवलवलयपन्भट्ठउत्तरिजा सूमालविकिन्नकेसहत्था मुच्छावसणट्ठचेयगरुई परसुनियत्तव चंपकलया निवत्तमहिमच इंदलही विमुक्कसंधिबंधणा कोहिमतलंसि सवंगेहि धसत्ति पडिया, ततेणं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधाराए परिसिंचमाणा निधावियगायलट्ठी उक्खेवणतालबंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडतअंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणधिमणदीणा रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहं कुमार एवं वयासी-(सूत्रं २३) 'सदहामी'त्यादि, श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपये नैर्ग्रन्थं प्रवचन-जैन शासनं, एवं 'पत्तियामिति प्रत्ययं करोम्पत्रेति भावः ॥४७॥ रोचयामि करणरुचिविषयीकरोमि चिकीर्षामीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युपगच्छामीत्यर्थः, तथा एवमेवैतत् । यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः, तथैव तद्यथा वस्तु, किमुक्तं भवति :-अवितर्थ सत्यमित्यर्थः, अत 'इच्छिए'इत्यादि प्राग्वत् । अनुक्रम [३१] ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------- ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] दीप 'इच्छिए'ति इष्टः, 'पडिच्छिए'ति पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः अभिरुचितः-खादुभावमियोपगतः 'आगाराओ'ति। |गेहात निष्कम्यानगारिता-साधुतां प्रव्रजितुं मे, 'मणोमाणसिएणं ति मनसि भवं यन्मानसिकं तन्मनोमानसिकं तेन अबहिपाचिनेत्यर्थः, तथा स्वेदागता:-आगतस्वेदा रोमकूपा येषु तानि खेदागतरोमकूपाणि, तत एव प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि च-10 l निनानि गात्राणि यस्याः सा तथा शोकमरेण प्रवेपिताजी-कम्पितगात्रा या सा तथा, निस्तेजा, दीनस्व-विमनस इव वदनं ।। वचनं वा यस्खाः सा तथा, तत्क्षणमेव-प्रबजामीति वचनश्रवणक्षणे एव अवरुग्णं-म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या निश्छाया गतश्रीका च या सा तथेति, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः, दुर्बलखात प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा तथा, कशीभूतबाहुखात्पतन्ति-विगलन्ति खुम्मियत्ति-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चूर्णितानि च-भूपातादेव भन्नानि धवलवलयानि यस्याः सा तथा, प्रभ्रष्टमुत्तरीयं च यस्याः सा तथा, ततः पदत्रयस कर्मधारयः, सुकुमारोह विकीर्णः केशहस्त:-केशपाशो यस्याः सा तथा, मूविशानष्टे चेतसि सति गुर्वी अलघुशरीरा या सा तथा, परधुनिकृत्तेव 18 चम्पकलता कुद्धिमत्तले पतितेति संबन्धः, निवृत्तमहेवेन्द्रयष्टि:-इन्द्रकेतुर्वियुक्तसन्धिबन्धना-श्लथीकृतसन्धाना धसतीत्यनुकरणे ससंभ्रमं व्याकुलचित्ततया 'उवत्तियाए'ति अपवर्जितया क्षिप्तया बरित-शीघ्र काश्चनमृङ्गारमुख विनिर्गता या शीतलजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना निर्वापिता-शीतलीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा परिषिच्यमाननिर्वापितगात्रयष्टिः, उत्क्षेपको-18 वंशदलादिमयो मुष्टियाडो दण्डमध्यभागः तालवृन्तं तालाभिधानधृक्षपत्रचन्तं पत्तछोट इत्यर्थः, तदाकारं वा चर्ममयं वीजनक तु-वंशादिमयमेवान्तर्गझदण्ड एतैर्जनितो यो वातस्तेन 'सफुसिएणं' सोदकबिन्दुना अन्तःपुरजनेन समाश्वासिता सती मुक्ता अनुक्रम [३१] ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) -------- अध्ययनं [3], मूलं [२३] श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ४८ ॥ वलीसनिकाशा याः प्रपतन्त्योऽश्रुधारास्ताभिः सिञ्चन्ती पयोधरौ, करुणा च विमनाथ दीना च या सा तथा रुदन्ती-साधुपातं शब्दं विदधाना ऋदन्ती ध्वनिविशेषेण तेपमाना - स्वेदलालादि क्षरन्ती शोचमाना हृदयेन विलपन्ती-आर्सखरेण । तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुन्ने मणामे भेजे वेसासिए सम्म बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रणे रणभूते जीवियउस्सासय हिययाणंदजणणे उंवरपुष्कं व दुल्लभे सवणयाए किमंग पुणे पासणयाए ! णो खलु जाया । अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहितते तं भुंजाहि ताव जाया ! विपुले. माणुस्सएकामभोगे जाव ताव वयं जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगतेहिं परिणयवए Education Internation कुलवंतंतुकमि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारयं पद्मइस्ससि । तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं कुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं बदासीतहेब णं तं अम्मतायो । जहेब णं तुम्हे ममं एवं वदह तुमंसि णं जाया । अम्हं एगे पुते तं चैव जाब निरावयक्खे समणस्स ३ जाब पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसणसवहवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिचे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे संभरागसरिसे सुविणदंसणोवमे सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्स विष्पजहणिजे सेकेणं जाणति अम्मयाओ के पुर्वि गमणाए के पच्छा गमणाए ?, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुच्भेहिं अन्भणुन्नाते समाणे समणस्स भगवतो० जाव पञ्चतित्तए, तो णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो दीक्षा सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता- पितरः संवादः For Parts Only ~ 106~ १ उत्क्षिप्तज्ञाते दी क्षायां मातापितृरोधः सू. २४ ॥ ४८ ॥ war Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३२] एवं वदासी-जमातो ते जाया 1 सरिसियाओ सरिसत्सयाओ सरिसवपाओ सरिसलावन्नरूवजोधणगुणोवयाओ सरिसेहितो रायकुलेहितो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुजाहिणं जाया! एताहिं सद्धिं विपुले माणुस्सए कामभोगे तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स ३ जाव पवइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ! जन्नं तुम्भे ममं एवं वदह-इमाओतेजाया! सरिसियाओ जाव समणस्स ३ पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया चंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुकासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा नुरूपमुत्तपुरिसपूयबहुपडिपुन्ना उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्तमुक्कसोणितसंभवा अधुवा अणितिया असासया सडणपडणविद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा, से के णं अम्मयाओ! जाणंति के पुर्वि गमणाए के पच्छा गमणाए?, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! जाच पचतित्तए । तते णं तं मेहं कुमार अम्मापितरो एवं वदासी-इमे ते जाया! अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए सुबहु हिरने य सुवणे य कंसे य दूसे य मणिमोत्तिए य संखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतिजे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं पगामं भोतुं पकामं परिभाएउ तं अणुहोहि ताव जाब जाया! विपुलं माणुस्सगं इहिसकारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पक्षइस्ससि,तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ! जणं तं चवह इमे ते जाया! दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत उक्षिप्त ज्ञाते दीक्षायां मातापितृरोधः सुत्राक ॥४९॥ [२४] सू. २४ अजगपजगपि० जाव तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे पवइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! हिरन्ने य सुवण्णे य जाव सावतेने अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मचुसाहिए अग्गिसामन्ने जाव मधुसामने सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणइ अम्मयाओ! के जाव गमणाए तं इच्छामि णं जाव पचतित्तए । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहहिं बिसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सनवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे विसयपडिकुलाहिं सं. जमभउबेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वदासी-एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सये अणुत्तरे केवलिए पडिपुग्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निजाणमग्गे निवाणमग्गे सवदुक्खप्पहीणमग्गे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरो इव एर्गतधाराए लोहमया इव जवा चावेयवा वालुयाकवले इव निरस्साए गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए महासमुद्दो इव भुयाहि दुत्तरे तिक्खं चंकमियत्वं गरुअं लंबेयचं असिधारव संचरियर्ष, णो य खलु कप्पतिं जाया! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीयगडे वा ठवियए वा रइयए वा दुम्भिक्खभत्ते वा कतारभत्ते वा वद्दलियाभत्ते वा गिलाणभत्ते चा मूलभोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए चा, तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिए गालं सीयं णालं उण्हं णालं अनुक्रम [३२] ॥४९॥ दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] खुहं णालं पिवासं णालं वाइयपित्तियसिभियसन्निवाइयविविहे रोगायके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिने सम्मं अहियासित्तए, मुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे ततो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३ जाव पबतिस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव णं तं अम्मयाओ! जन्नं तुम्भे ममं एवं वदह एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सचे अणुत्तरे पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३ जाव पञ्चइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स णो चेव णं धीरस्स निच्छियस्स (च्छया) ववसियस्स एत्थं किं दुकर करणयाए ?, तं इच्छामि गं अम्मयाओ! तुन्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ० जाव पवइत्तए (सूत्रं २३) 'जाय'ति हे पुत्र! इष्टः इच्छाविषयखात् कान्तः कमनीयत्वात् प्रियः प्रेमनिवन्धनखात् मनसा ज्ञायसे उपादेयतयेति मनोज्ञः मनसा अम्यसे-गम्यसे इति मनोऽमः, खैर्यगुणयोगात स्थैर्यो वैश्वासिको-विश्वासस्थानं संमतः कार्यकरणे बहुमतः बहुष्वपि कार्येषु बहुर्याऽनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः, 'भाण्डकरण्डकसमानो' भाण्डं-आभरणं, | रत्नमिव रतं मनुष्यजातावुत्कृष्टलात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः रत्नभूतः-चिन्तामणिरत्नादिकल्पो जीवितमस्साकमुच्छासयसि-वर्द्धयसीति जीवितोच्छासः स एव जीवितोच्छासिकः, वाचनान्तरे तु जीविउस्सइएत्ति-जीवितस्योत्सव इव जीवितोत्सवः स एवं जीवितोत्सविका, हृदयानन्दजननः उदुम्बरपुष्पं बलभ्यं भवति अतस्तेनोपमान, 'जाव ताव अम्हेहिं जीवामोति इह भुज ताव-RI Eefactoresaerateल्या दीक्षा-सम्बन्धे मेघमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~109. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [२३-R] ॥५०॥ दीप अनुक्रम [३२] द्रोगान् यावद्वयं जीवाम इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत्शब्दस्योचारणं तद्भाषामात्रमेवेति, परिणतवया 'बढियकुल-18| उत्क्षिप्त| वंसतंतुकज्जमि' वर्द्धिते वृद्धिमुपागते पुत्रपौत्रादिभिः कुलवंश एव-संतान एव तंतुः दीर्घखसाधर्म्यात् कुलवंशतन्तुः स एव 8 कार्य-कृत्यं तस्मिन्, ततो 'निरवएक्खे'त्ति निरपेक्षः सकलप्रयोजनानां 'अधुवेति न ध्रुवः सूर्योदयवत् न प्रतिनियतकाले क्षायां माअवश्यंभावी, अनियतः ईश्वरादेरपि दरिद्रादिभावात् , अशाश्वतःक्षणविनश्वरखाद् व्यसनानि-यूतचौर्यादीनि तच्छतैरुपद्रवैः खप- तापितरसंभवैः सदोपद्रवैर्वाऽभिभूतो-व्याप्तः, शटन-कुष्ठादिना अगुल्यादेः पतनं-बाहादेः खड्गच्छेदादिना विध्वंसनं-क्षयः एते एवरोधः धमा यस्य स तथा, पश्चात-विवक्षितकालात्परतः 'पुरं चति पूर्वतश्च णमलंकृतो अवस्सविप्पजहणिज्जे' अवश्यत्याज्यः सू. २४ 'से के णं जाणइति अथ को जानाति , न कोऽपीत्यर्थः, अंबतातक! पूर्व-पित्रोः पुत्रस्य चान्योऽन्यतः गमनाय परलोके उत्सहते कः पवाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते इति, कः पूर्व को वा पश्चात्मियते इत्यर्थः । वाचनान्तरे मेघकुमारभार्यावर्णक एवमु-II पलभ्यते 'इमाओ ते जायाओ विपुलकुलबालियाओ कलाकुसलसवकाललालियसुहोइयाओ मद्दवगुणजुचनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ' पण्डिताना मध्ये विचक्षणाः पण्डितविचक्षणा अतिपण्डिता इत्यर्थः 'मंजुलमियमहुरभणियहसिय-| विप्पेक्खियगइविलासवद्वियविसारयाओ' मबुलं-कोमलं शब्दतः मितं-परिमितं मधुरं--अकठोरमर्थतो यद्रणितं तत्तथाऽव|सितं-विशिष्टस्थितिशेष कण्ठ्यं 'अविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकलससंताणतंतुबद्धणपगभुम्भवप्पभाविणीओ'-विशु- "५०॥ कुलवंश एवं सन्तानतन्तु:-विस्तारवत्चन्तुः तद्वर्द्धना ये प्रकृष्टा गर्भाः-पुत्रवरगर्भास्तेषां य उद्भवः-संभवस्तल्लक्षणो यः प्रभावो-माहात्म्यं स विद्यते यास ताः तथा 'मणोणुकूलहिययइच्छियायो'-मनोऽनुकूलाब ता हृदयेनेप्सितावेति कर्मधारयः | दीक्षा-सम्बन्धे मेघमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [२३] श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः अट्ठ तुज्झगुणवल्लहाओ-गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा 'भजाओ उत्तमाओ निचं भावापुरता सवंगसुंदरीओ'सि 'माणुस्सगा कामभोग'त्ति इह कामभोग ग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि अशुचयः अशुचिकारणत्वात् वान्तं वमनं तदाश्रवन्तीति वान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि, नवरं पित्तं प्रतीतं खेलो- निष्ठीवनं शुक्रं सप्तमो धातुः शोणितं रक्तं दूरूपाणि-विरूपाणि यानि मूत्रपुरीषपूयानि तैर्बहुप्रति पूर्णाः उच्चारः पुरीषं प्रस्रवणं-मूत्रं खेल:- प्रतीतः सिंघानी - नासिकामलः वान्तादिकानि प्रतीतान्येतेभ्यः संभवः- उत्पत्तिर्येषां ते तथा 'इमे य ते इत्यादि, इदं च ते आर्यकः पितामहः प्रार्थकः पितुः पितामहः पितृप्रार्थकः पितुः प्रपितामहः तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा अथवा आर्यकप्रार्यकपितॄणां यः पर्यायः परिपाटिरित्यनर्थान्तरं तेनागतं यत्तत्तथा, 'अग्गिसाहिए' त्यादि, अमेः खामिनचं साधारणं 'दाइय'त्ति दायादाः पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्थातिषारवश्यप्रतिपादनार्थ पर्यायान्तरेणाह - 'अग्गिसामण्णे' इत्यादि, घटनं वस्त्रादेरतिस्थगितस्य पतनं वर्णादिविनाशः विध्वंसनं च प्रकृतेरुच्छेदः धम्र्म्मो यस्य तत्तथा, 'जाहे नो संचाएति'त्ति यदा न शक्नुवन्तौ, 'बहूहिं विसए' त्यादि, बहीभिः विषयाणांशब्दादीनामनुलोमा:- तेषु प्रवृत्तिजनकलेन अनुकूला विषयानुलोमास्ताभिः आख्यापनाभित्र - सामान्यतः प्रतिपादनैः प्रज्ञापनाभिश्च - विशेषतः कथनैः संज्ञापनाभिश्च संबोधनाभिर्विज्ञापनाभिश्व-विज्ञप्तिकामिव सप्रणयप्रार्थनैः चकाराः समुच्चयार्थाः, आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा न शक्नुत इति प्रक्रमः 'ताहे'सि तदा विषयप्रतिकूलाभिः - शब्दादिविषयाणां परिभोगनिषेधकलेन प्रतिलोमाभिः संयमाद्भयमुद्वेगं च चलनं कुर्वन्ति यास्ताः संयम भयोद्वेगकारिकाः- संयमस्य दुष्करत्वप्रतिपादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्तौ एवमवादिष्टाम्- 'निग्गन्थे' त्यादि, निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषामिदं नैर्ग्रन्थं For Parts Only [nary or दीक्षा सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता- पितरः संवादः ...अत्र शीर्षक -स्थाने सू. २४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं तत् कारणात् मया २३ -२ निर्दिष्टम् ~ 111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- प्रत सूत्रांक [२३-R] ॥५१॥ दीप अनुक्रम [३२] प्रवचनमेव प्रावचनं सयो हितं सत्यं सद्भूतं वा नास्मादुत्तर-प्रधानतरं विद्यत इत्यनुत्तरं, अन्यदप्यनुत्तरं भविष्यतीत्याह-कैव- उत्क्षिप्तलिक-केवलं-अद्वितीय केवलिप्रणीतखाद्वा कैवलिक प्रतिपूर्ण-अपवर्गमापकैगुणैर्भूतं नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः ज्ञाते दीन्याये वा भवं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः संशुद्धं-सामस्त्येन शुद्धमेकान्ताकलङ्कमित्यर्थः शल्यानि-मायादीनि कुन्ततीति क्षायां माशल्यकर्तन सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिस्तन्मार्गः सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः-अहितकर्मविच्युतेरुषायः यान्ति तदिति यानं निरु- तापितृपमं यानं निर्याणं-सिद्धिक्षेत्रं तन्मार्गो निर्याणमार्गः एवं निर्वाणमार्गोऽपि नवरं निर्वाणं-सकलकर्मविरहज सुखमिति सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः-सकलाशर्मक्षयोपायः अहिरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टिः-धुद्धियस्मिन्निग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकं, अहि पक्षे आमिषग्रहणकतानतालक्षणा एकान्ता-एकनिश्चया दृष्टि:-दृक् यस्य स एकान्तदृष्टिकः, क्षुरन इव एकधारा द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभावात् पाठान्तरेण एकान्ता-एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा लोहमया इव यवाः पर्वयितव्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोहमययवचर्वणमिव दुष्करं चरणमिति भावः, वालुकाकवल इव निराखादं वैषयिकसुखाखादनापेक्षया प्रवचनं, गलेच महानदी प्रतिश्रोतसा गमन प्रतिश्रोतोगमनं तद्रावस्तचा तया, प्रतिथोतोगमनेन गङ्गेच दुस्तरं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, एवं समुद्रोपमानं प्रवचनमिति, तीक्ष्ण खनकुन्तादिकं चंक्रमितव्यं-आक्रमणीयं यदेतत्प्रवचनं तदिति, यथा खड्गादि क्रमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुकं महाशिलादिकं ॥५१॥ लम्बयितव्यं-अवलम्बनीयं प्रवचनं गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असिधारायां सश्चरणीयमित्येवं रूपं यद्बत-नियम-18 स्तदसिधारावतं चरितव्यं-आसेव्यं यदेतत्प्रवचनानुपालनं तद्वदेतदुष्करमित्यर्थः, कसादेतस्य दुष्करखमत उच्यते-'नो य | दीक्षा-सम्बन्धे मेघमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२३-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३-R] दीप अनुक्रम [३२] कप्पई 'त्यादि, 'रइए वत्ति औद्देशिकभेदस्तच्च मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया रचितं भक्तमिति गम्यते, दुर्भिक्षमतं यविक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते, एवमन्यान्यपि, नवरं कान्तारं-अरण्यं वईलिका-वृष्टिः ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्त, मूलानि पसिनाटिकादीनां कन्दाः-सूरणादयः फलानि-आम्रफलादीनि बीजानि-शाल्यादीनि हरितं-मधुरतणकटुभाण्डादि भोक्तुं वा पातुं वा नालं-न समर्थः शीताद्यधिसोडमिति योगः रोगा:-कुष्ठादयः आतङ्का:-आशुपातिनः शूलादयः उच्चाबचान् नानाविधान् । ग्रामकण्टकान्-इन्द्रियवर्गप्रतिकूलान् , 'एवं खलु अम्मयाओ!' इत्यादि, यथा लोहचर्वणायुपमया दुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैग्रन्थं | प्रवचनं भवद्विरुक्तमेवं-दुरनुचरमेव, केषां ?-क्लीवाना-मन्दसंहननानां कातराणां-चित्तावष्टम्भवार्जितानामत एव कापुरुषाणां-18 कुत्सितनराणां, विशेषणद्वयं तु कण्ठ्यं, पूर्वोक्तमेवार्थमाह-दुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैग्रन्थं प्रवचनमिति प्रकृतं, कस्येत्याह-प्राकृतजनस्य, एतदेव व्यतिरेकेणाह-'नो चेव णं' नैव धीरस्य-साहसिकस्य दुरनुचरमिति प्रकृतं, एतदेव बाक्यान्तरेणाह-निश्चितंनिश्चयवद् व्यवसितं-व्यवसायः कर्म यस स तथा तस्स, 'एत्थति अत्र नैग्रेन्थे प्रवचने किं दुष्करं, न किञ्चित् | दुरनुचरमित्यर्थः, कस्यामित्याह-'करणतायां करणाना-संयमव्यापाराणां भावः करणता तस्यां, संयमयोगेषु मध्ये इत्यर्थः तत्-तसादिच्छाम्यम्बतात! । तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पनबित्सए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वदासी-इच्छामो ताव जाया! एगदिवसमवि ते दीक्षा-सम्बन्धे मेघकुमारेण सह तस्य माता-पितरः संवादः ***अत्र शीर्षक-स्थाने सू.२४ मुद्रितं तत् सत्यम्, परन्तु सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम २३ मुद्रितं. तत् कारणात् मया २३R निर्दिष्टम् ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: . ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [२४] उत्क्षिप्तज्ञाते मेघस्य राज्याभिषेकदीक्षे सू. ॥५२॥ २४ रायसिरिं पासित्तए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तसे णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सहावेति २त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उबट्टवेह, तते णं ते कोडंबियपुरिसा जाव तेवि तहेव उवट्ठति, तते णं से सेणिए राया बहूर्हि गणणायगदंडणायगेहि य जाच संपरिचुडे मेहं कुमारं अट्ठसएणं सोवन्नियाणं कलसाणं एवं रुप्पमयाणं कलसाणं सुवन्नरुप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुवन्नमणिमयाणं० रुप्पमणिमयाणं० सुवन्नरुप्पमणिमयाणं० भोमेजाणं. सबोदएहिं सबमटियाहिं सबपुष्फेहिं सवगंधेहिं सवमल्लेहिं सवोसहिहि य सिद्धत्थएहि य सच्चिडीए सबजुईए सबबलेणं आव दुंदुभिनिग्घोसणादितरवेणं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति २ करयल जाव कटु एवं वदासी-जय जय गंदा! जय २ भद्दा! जय गंदा भई ते अ. जियं जिणेहि जियं पालयाहि जियमझे वसाह अजियं जिणेहि सत्तुपक्वं जियूं च पालेहि मित्सपक्खं जाव भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहर्ण गामागरनगरजाव सन्निवेसाणं आहेवचं जाव विहराहित्ति कटु जय २ सई परांजंति, तते णं से मेहे राया जाते महया जाव विहरति, तते णं तस्स मेहस्स रन्नो अम्मापितरो एवं वदासी-भण जाया! किं दलयामो किं पयच्छामो किंवा ते हियइच्छिए सामत्थे (मन्ते), तते णं से मेहे राया अम्मापितरो एवं वदासी-इच्छामि गं दीप हलकटक अनुक्रम [३३] ॥५२॥ For P OW मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] अम्मयाओ! कुत्सियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह कासवयं च सद्दावेह, तते णं से सेणिए राया कोडंबियपुरिसे सदावेति सहावेत्ता एवं वदासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! सिरिघरातो तिन्नि सयसहस्सार्ति गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियाषणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह सयसहस्सेणं कासवयं सदावह, तते णं ते कोडंघियपुरिसा सेणिएणं रना एवं बुत्ता समाणा हट्ठा सिरिघराओ तिमि सपसहस्सातिं गहाय कुत्तियावणातो दोहि सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च जवणेति सयसहस्सेणं कासवयं सहाति, तते णं से कासवए तेहिं कोटुंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हटे जाव हयहियए पहाते कतबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते मुद्धप्पावेसार्ति वत्थाई मंगलाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकितसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ सेणियं रायं करयलमंजलिं कट्ठ एवं वयासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज, तते णं से सेणिए राया कासवयं एवं वदासी-गच्छाहिणं तुम देवाणुप्पिया सुरभिणा गंधोदएणं णिके हत्थपाए पक्खालेह सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधेत्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि, तते णं से कासवए सेणिएणं रन्ना एवं बुत्ते समाणे हट्ट जाव हियए जाव पडिसुणेति २ सुरभिणा गंधोदएणं हत्धपाए पक्खालेति २ सुद्धवत्धेणं मुहं बंधति २त्ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलबल्ले णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पति, तते गं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलकखणेणं पड़ अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ५३ ॥ साडणं अग्गकैसे पडिच्छति २ सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचाआ दलयति २ सेयाए पोतीए बंधेति २ रयणसमुग्गयंसि पक्खिवति २ मंजूसाए पक्खिवति २ हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्ताबलिपगासाई अंसृई विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २ कंदमाणी २ बिलवमाणी २ एवं वदासी - एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अभुदएस य उस्सवेसु य पवेसु य तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु पवणीय अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइतिकड उस्सीसामूले ठवेति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो उत्तरावकमणं सीहासणं रयायेंति मेहं कुमारं दोचंपि तचंपि सेयपीयएहिं कलसेहिं पहावेति २ पहलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायातिं दहति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायातिं अणुलिंपति २ नासानीसासवायवोज्यं जाव हंसलकखणं पडगसाडगं नियंसेति २ हारं पिद्धति अहारं पिद्धति २ गावलिं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंबं पायपलंब कडगाई तुडिगाई राति अंगयातं दसमुद्दियाणंतयं कडिमुत्तयं कुंडलातिं चूडामणि रयणुक्कडं मडं पिद्धति २ दिवं सुमणदामं पिणर्द्धति २ दद्दुरमलयसुगंधिए गंधे पिणद्धति, तते णं तं मेहं कुमारं गंडिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण चउद्दिणं मल्लेणं कप्परुक्खर्गपिव अलंकितविभूसियं करेंति, तते णं से सेणिए राया कोईबियपुरि से सहावेति २ एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसन्निविद्धं लीलट्ठियसालभंजियागं ईहामिगाउसभतुरयनर मग रवि हगवालग किन्नर रुरुसर भचमरकुंजरवणलयप मलयभत्तिचित्तं घंटा मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Parts Only ~116~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेघस्य रा. ज्याभिषे कदीक्षे सू. २४ ॥ ५३ ॥ war Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] वलिमहरमणहरसरं सुभकंतदरिसणिज्जं निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिखितं अम्भुग्गयवइरवेतियापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजंतजुत्तंपिव अचीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिन्भिसमाणं चक्खुलोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरितं चवलं वेतियं पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उबट्टवेह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा हहतुट्टा जाव उवट्ठति, तते णं से मेहे कुमारे सीयं दूरूहति २त्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसक्ने, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाता कयवलिकम्मा जाय अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहति २ मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अंबधाती रयहरणं च पडिग्गहगं च गहाय सीयं दुरूहति २ मेहस्स कुमारस्स चामे पासे भद्दासणंसि निसीयति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठतो एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियभणियचेट्ठियविलाससलावुल्लाव निउणजुत्तोचयारकुसला आमेलगजमलजुयलवटियअब्भुन्नयपीणरतियसंठितपओहरा हिमरययकुंदेंदुप गासं सकोरेंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय सलीलं ओहारेमाणी २ चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे चरतरुणीओ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयं दूरूहंति २ मेहस्स कुमारस्स उभओ पासिं नाणामणिकणगरयणमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सुहुमवरदीहवालाओ संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ २ चिट्ठति, अनुक्रम [३३] BAD92 मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाश्रम. प्रत रिक्षतज्ञाते मेघस्य राज्याभिषेकदीक्षे सू. सूत्रांक ॥५४॥ सते णं लस्स मेहकुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारा जाव कुसला सीयं जाव दूरूहति २ मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरस्थिमे चंदप्पभवहरवेरुलियविमलदंड तालविटं गहाय चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एमा घरतरुणी जाच सुरूवा सीयं दूरूहति रमेहस्स कुमारस्स पुबदक्षिणे] सेयं रययामयं विमलसलिलपुत्रं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोईवियपुरिसे सदावेति २त्सा एवं बदासी-विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सरिसयाण सरिससयाणं सरिचयाणं एगाभरणगहितनिजोयाणं कोडंपियवरतरुणाणं सहस्सं सदावेह जाच सहावंति, तए णं को९वियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रन्नो कोटुंबियपुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्ठा पहाया जाव एगाभरणगहितणिज्जोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २ सेणियं रायं एवं वदासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया! जन्नं अम्हेहिं करणिज्जं, तते णं से सेणिए तं कोडुपियवरतरुणसहस्सं एवं वदासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं परिवहेह, तते गं तं कोढुंबियवरतरुणसहस्सं सेणिएणं रना एवं बुत्तं संतं हटें तुटुं सस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं परिवहति, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दूरुवस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुषीए संपविया, तं०-सोस्थिय सिरिवच्छ णंदियावत्स बद्धमाणग भद्दासण कलस मच्छ दप्पण जाव वहवे अस्थत्थिया आप ताहिं इहाहिं जाच अणवरयं अभिणवंता य अभिधुर्णता य एवं वदासी-जय १ गंदा! Saeeeeeaase अनुक्रम [३३] ॥५४॥ SHREILLEGtunintentmarana मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: रिट प्रत सूत्रांक [२४] जय २णंदा जय २ भहा ! भई ते अजियाइं जिणाहि इंदियाइं जियं च पालेहि समणधम्म जियविग्योऽषिय वसाहि तं देव ! सिद्धिमझे निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं घितिधणियबद्धकच्छे महाहि य अट्टकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो पावय वितिमिरमणुसरं केवलं नाणं गच्छ य मोक्ख परमपर्य सासयं च अयलं हंता परीसहचUणं अभीओ परीसहोवसग्गाणं धम्मे ते अविग्धं भवउत्तिकट्ठ पुणो २ मंगलजय २ सई पउंजंति, तते णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मजझमझेणं निग्गच्छति २ जेणेच गुलसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पचोरुभति (सूत्रं २४) 'महत्थंति महाप्रयोजनं महाघ-महामूल्यं महाई-महापूज्यं महतां वा योग्य राज्याभिषेक-राज्याभिषेकसामग्री उपस्थापयत| सम्पादयत, सौवर्णादीनां कलशानामष्टौ शतानि चतुःषष्यधिकानि "भोमेजाणं'ति भौमाना पार्थिवानामित्यर्थः, सर्वोदकैःसर्वतीर्थसंभवः एवं मृतिकाभिरिति । 'जय जयेत्यादि, जय जय सं-जयं लभस्व नन्दति नन्दयतीति वा नन्दा-समृद्धः। समृद्धिप्रापको वा तदामन्त्रणं हे नन्द, एवं भद्र-कल्याणकारिन् हे जगन्नन्द भद्रं ते भवखिति शेषः, इह गमे यावत्करणादिद। दृश्यं 'इन्दो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चन्दो इव ताराण'ति, 'गामागर' इह दण्डके यावत्करणादिदं |दृश्यं 'नगरखेडकब्बडदोणमुहमडंचपट्टणसंवाहसबिवेसाणं आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भत्तितं महत्तरगत आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहराहित्ति, तत्र करादिगम्यो ग्रामः आकरो-लवणाद्युत्पचिभूमिः अविधमानकरं नगरं धूलीप्राकारं खेटं कुनगरं कवटं यत्र | अनुक्रम [३३] wirectorary.com मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. प्रत । घदीक्षा सूत्रांक ॥५५॥ सातमहोत्सवः सू.२४ [२४] जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद् द्रोणमुखं यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्मडम्ब, पत्तनं द्विधा-जल- उरिक्षप्तपत्तनं स्थलपत्तनं च, तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यत्र तु स्वलेन तत् स्थलपत्ननं, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका ज्ञाते मेधान्यानि संवहन्ति स संवाहा, सार्थादिस्थान सनिवेशः, आधिपत्यं अधिपतिकर्म रक्षेत्यर्थः, 'पोरेव' पुरोवर्तिखमनेसरसमित्यर्थः खामिख-नायकसं भर्तृत्व-पोषकत्वं महत्तरकत्वं-उत्तमत्वं आज्ञेश्वरस्य--आज्ञाप्रधानस सतः तथा सेनापतेभावः आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् अन्यनियुक्तकः पालयन् खयमेव महता-प्रधानेन 'अहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धं नित्यानुबन्धं वार. यनाट्यं च-नृत्य गीतं च-गानं तथा वादितानि यानि तत्री च-वीणा तलौ च-हस्तौ तालव-कंसिका तुडितानि च वादि-18 त्राणि तथा घनस मानध्वनियों मृदङ्गः पडुना पुरुषेण प्रवादितः स चेति द्वन्द्वः ततस्तेषां यो बस्तेनेति, इतिकट्ठ-इतिकृत्वा एवमभिधाय जय २ शब्दं प्रयुते श्रेणिकराज इति प्रकृतं, ततोऽसौ राजा जातः, 'महया' इह यावत्करणात् एवं वर्णको वाच्यः"महयाहिमवन्त महतमलयमंदरमहिंदसारे अश्चतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पमूए निरंतरं रायलवखणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सत्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते' पित्रादिभिर्द्धन्यभिषिक्तत्वात् 'भाउपिउसुजाए दयपत्ते' दयावानित्यर्थः, सीमंकरे मर्यादाकारित्वात् सीमंधरे कृतमर्यादापालकत्वात, एवं खेमंकरे खेमंधरे, क्षेमं अनुपद्रवता, 'मणुरिंसदे जणवयपिया'। हितत्वात् 'जणवयपुरोहिए' शान्तिकारित्वात् सेउकरे-मार्गदर्शकः केउकरे अद्भतकार्यकारित्वात् केतुः-चिहं, 'नरपवरे' नराः ॥ ५५ ॥ प्रवराः यस्येतिकृत्वा, 'पुरिसवरे' पुरुषाणां मध्ये वरत्वात् , 'पुरिससीहे' शूरत्वात् , 'पुरिसबासीविसे' शापसमर्थत्वात् , 'पुरिसपुंडरीए' सेव्यत्वात् , 'पुरिसवरगंधहत्थी' प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् 'अड्डे' आय: दित्ते' दर्पवान् 'वि' प्रतीतः 'विच्छि अनुक्रम [३३] RELIGunintentATHREE मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] | अविउलभवणसवणासणजाणवाहणाइन विस्तीर्णविपुलानि-अतिविस्तीर्णानि भवनशयनासनानि यस्य स तथा यानवाहना-16 न्याकीर्णानि-गुणवन्ति यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, 'बहुधणबहुजायरूवरयए' बहु धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते यस्य स तथा, 'आयोगपयोगसंपउत्ते' आयोगस्य-अर्थलाभस्व प्रयोगा-उपायाः संप्रयुक्ता-व्यापारिता येन स तथा 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणे विच्छर्दिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसंभवात् संजातविछेद वा नानाविधभक्तिके भक्तपाने यस स] तथा 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए' बहुदासीदासश्चासौ गोमहिषीगवेलगप्रभूतश्चेति समासः, गवेलका-उरम्राः, 'पडि| पुण्णजंतकोसकोडागाराउहागारे' यत्राणि-पाषाणक्षेपय त्रादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागार-धान्यगृहं आयुधागारं-प्रहरण-| शाला, 'बलवं दुब्बलपचामिचे' प्रत्यमित्रा:-प्रातिवेशिकाः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं गलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटय कण्टका:प्रतिस्पर्द्धिनो गोत्रजाः उपहता विनाशनेन निहताः समृद्ध्यपहारेण गलिताः मानभङ्गेन उद्धृता देशनिर्वासनेन अत एवाकण्ट-15 कमिति, एवं 'उवहयसत्तु'मित्यादि, नवरं शत्रचो गोत्रजा इति, 'ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुकं खेम सिर्व सुभिक्खं पसंतपाठिंबडमरं' अन्वयन्यतिरेकाभिधानस शिष्टसंमतत्वात न पुनरुक्ततादोषोऽत्र 'रज पसाहेमाणे विहरइति । 'जाया इति हे जात! पुत्र 'किं दलयामोति भवतोऽनभिमतं किं विघटयामो विनाशयाम इत्यर्थः, अथवा भवतोऽभिमतेभ्यः किं दमः, तथा l भवते एव किं प्रयच्छामः', 'किंवा ते हियइच्छियसामत्थेति को वा तव हृदयवाञ्छितो मन्त्र इति 'कुत्तियावणाउ'ति|| देवताधिष्ठितत्वेन वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितय संभविवस्तुसंपादक आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः तस्मात् आनीतं काश्यपकं च-नापितं | शब्दितुं-आकारितुमिच्छामीति वर्तते, श्रीगृहात-भाण्डागारात् 'निकेत्ति सर्वथा विगतमलान् 'पोत्तियाइ'त्ति वस्त्रेण 'महरिहे। अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ५६ ॥ त्यादि, 'महरिहेणं'ति महतां योग्येन महापूजेन वा हंसस्येव लक्षणं-स्वरूपं शुक्लता इंसा वा लक्षणं-चिह्नं यस्य स तथा तेन शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोऽभिधीयत इति पटशाटकस्तेन 'सिंदुवारे'ति वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तर्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानि। 'एस नं'ति एतत् दर्शनमिति योगः णमित्यलंकारे, अभ्युदयेषु राज्यलाभादिषु उत्सवेषुप्रियसमागमादिमहेषु प्रसवेषु पुत्रजन्मसु तिथिषु मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु क्षणेषु इन्द्रमहादिषु यज्ञेषु नागादिपूजासु पर्वणीषु च - कार्त्तिक्यादिषु अपश्चिमं - अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थलात् पश्चिमं दर्शनं भविष्यति, एतत्केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघकुमारस्य यद्दर्शनं सर्वदर्शन पाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा न पश्चिममपश्चिमं - पौनःपुन्येन मेघकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शनेन भविष्यतीत्यर्थः । 'उत्तरावकमणं ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं - अवतरणं यस्मात्तदुत्तरापक्रमणं - उत्तराभिमुखं राज्याभिषेककाले पूर्वाभिमुखं तदासीदिति, 'दोबंपि' द्विरपि 'तचंपि' त्रिरपि 'श्वेतपीतैः' रजतसौवर्णै: 'पायपलं ति पादौ यावद् यः प्रलम्बतेऽलङ्कारविशेषः स पादप्रलम्बः, 'तुडियाई' ति बाहरक्षकाः, केयूराङ्गदयोर्यद्यपि नामकोशे बाहाभरणतया न विशेषः तथापीहाकारभेदेन भेदो दृश्यः, 'दशमुद्रिकानन्तक' हस्ताङ्गुलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं 'सुमणदामं ति पुष्पमालां पिनज्यतः- परिधत्तः दर्दर:- चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये 'मलय'त्ति मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्संबन्धिनः सुगन्धयोगन्धास्तान् पिनध्यतः, हारादिखरूपं प्राग्वत्, ग्रन्थिमं-यद्रथ्यते सूत्रादिना वेष्टिमं यथितं सद्वेष्यते यथा पुष्पलम्बूसकः गेन्दुक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयपञ्जरकादि कुर्यादि वा पूर्यते सांयोगिकं यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते अलङ्कृतंकृतालङ्कारं, विभूषितं जातविभूषं । 'सदावेह जाव सदाविति' 'एगा वरतरुणी त्यादि शृङ्गारस्यागारमिव शृङ्गारागारं अथवा Education International मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Parts Only ~122~ १ उत्क्षित ज्ञाते मे घदीक्षा महोत्सवः सू. २४ ॥ ५६ ॥ Contrary org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२४] श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः शृङ्गारप्रधान आकारो यस्याश्चारुच येषो यस्याः सा तथा, सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो-नेत्रविकारो, यदाह - "हावो मुखविकारः स्याद्भाववित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥ १॥" संलापो मिथो भाषा उल्लाप:- काकुवर्णनं, आह च--"अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं चचः । काका वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः ॥ १ ॥” इति । 'आमेलगति आपीड:- शेखरः स च स्तनः- प्रस्तावाच्चुचुकस्तत्प्रधानौ आमेलको वा परस्प रमीषत्सम्बद्धौ यमलौ-समश्रेणिस्थितौ युगलौ - युगलरूपौ द्वावित्यर्थः वर्त्तितौ वृत्ती अभ्युन्नतौ उच्चौ पीनो-स्थूलो रतिदौसुखप्रद संस्थितौ - विशिष्टसंस्थानवन्तौ पयोधरी - स्तनौ यस्याः सा तथा हिमं च रजतं च कुन्दथेन्दुश्चेति द्वन्द्वः, एषामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा, सकोरेण्टानि - कोरेण्टकपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा, धवलमातपत्र- छत्रं, नानामणिकनकरत्वानां महार्हस्य महार्घस्य तपनीयस्य च सत्कावुज्ज्वलौ विचित्रौ दण्डौ ययोस्ते तथा, अत्र कनकतपनीययोः को विशेषः १, उच्यते, कनकं पीतं तपनीयं रक्तं इति, 'चिल्लियाओ ति दीप्यमाने लीने इत्येके सूक्ष्मवरदीर्घवाले शङ्खकुन्ददकरजसां अमृतस्य मथितस्य सतो यः फेनपुंजस्तस्य च सन्निकाशे सदृशे ये ते तथा, चामरे चन्द्रप्रभवज्ज्रवैर्यविमलदण्डे, इह चन्द्रप्रमः- चन्द्रकान्तमणिः, तालवृन्तं व्यजन विशेषः मत्तगज महामुखस्य आकृत्या - आकारण समानः सदशो यः स तथा तं भृङ्गारं, 'ए'त्यादि, एक:- सदृश: आभरणलक्षणो गृहीतो निर्योगः - परिकरो यैस्ते तथा तेषां कौटुम्बिकवर तरुणानां सहस्रमिति 'तए णं ते कोडुंबिय वरत रुणपुरिसा सद्दाविय'त्ति शब्दिता: 'समाण'ति सन्तः, 'अट्टट्टमंगलय'त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्वचनं मङ्गलकानि - माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये साहुः- अष्टसंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति 'तप्पढमयाए' चि तेषां विवक्षितानां Eaton Intention मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For late Only ~ 123 ~ nary org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] सू. २४ हाता मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया 'बद्धमाणय'ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपश्चकमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्येाजक्षिप्तकथाजमादप्पण'ति आदर्शः, इह यावत्करणादिदं दृश्य-'तयाणंतरं च णं पुण्ण कलसभिंगारा दिवा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरइय-18 आलोइयदरिसणिज्जा वाउद्दयविजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबिए संपट्टिया, तयाणतरं च वेरुलियभिसं-18 घदीक्षातविमलदंडं पलंबकोटमालदामोक्सोहियं चंदमंडलनिभं विमलं आयवत्तं पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउयाजोयसमा-18 महोत्सवः उत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायनपरिखित्तं पुरओ अहाणुपुबिए संपट्टियं, तयाणंतरं च णं वहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहार धयग्गाहा चामरग्गाहा कुमरग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलयग्गाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडफग्गाहा पुरओ अहाणुपुबीए |संपट्ठिया, तयाणतरं च णं वहये दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो पिछिणो हासकरा डमरकरा चाइकरा कीडता य वार्यता य|| गायंता य नचंता य हासता य सोहिंता य साविता य रक्खंता य आलोयं च करेमाणा जयजयसई च पउंजमाणा पुरओ अहा-18 |णुपुबिए संपहिया, क्याणतरं च णं जच्चाणं तरमलिहायणाणं थासगअहिलाणाणं चामरगंडपरिमंडियकढीणं अट्ठसय वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुविए संपट्ठियं, तयाणतरं च णं इसिदन्ताणं इसिमत्ताणं ईसिउच्छंगविसालधवलदंताणं कंचणकोसिपविट्ठदंताणं| अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टियं, तयाणतरं च णं सछत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सनदिघोसाणं सखिखिणीजालपरिखित्ताणं हेममयचित्ततिणिसकणकनिज्जुत्तदारुयाण कालायससुकयनेमिजंतकम्माणं सुसिलिट्ट-18॥ ५ ॥ वित्तमंडलधुराण आइण्णवस्तुरगसंपउचाणं कुसलनरछेयसारहिसुसंपरिग्गहियाणं बत्तीसतोणपरिमंडियाणं सकंकडवडंसकाणं | सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपडियं, तयाणतरं च णं असिसचिकोततोमरसूल अनुक्रम [३३] मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] लउडभिंडिमालधणुपाणिसज पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं, तए णं से मेहे कुमारे हारोत्थयसुकयरइयवच्छे कुंडलुजोइयाणणे मउडदिचसिरए अन्भहियरायतयलच्छीए दिप्पमाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुबमाणी-18 हिं हयगयपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरओ महं आसा आसघरा उभओ पासे नागा नागधरा करिवरा पिट्टओ रहा रहसंगेली, तए णं से मेहे कुमारे अब्भागभिंगारे पग्गहियतालियंटे उसवियसेयरछत्ते पवीजियवालवियणीए सबिड्डीए सबजुईए सबबलेणं सबसमुदएणं सबा-18 दरेणं सबविभूईए सबविभूसाए सवसंभमेणं सवगंधपुष्फमलालंकारेणं सवतुडियसहसन्निनाएणं महया इड्डीए महया जुए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगषवाइएणं संखपणवपडहभेरिझहरिखरमुहि हुडुकमुरखमुइंगदुंदुभिनिग्धोसनाइयरवेणं रायगिहस्स नगरस्स मझमझेणं णिग्गच्छइ, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स रायगिहस्स नगरस्स मॉमजलेणं निग्ग च्छमाणस्स बहवे अत्थत्थिया कामस्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किदिबसिया करोडिया कारवाहिया संखिया चकिया लंगकालिया मुहमंगलिया पूसमाणवा बद्धमाणगा ताहिं इवाहि कंताहिं पियाहि मणुनाहि मणामाहिं मणाभिरामाहि हिययगमणि-18 आर्हि वगृहि'ति, अयमस्वार्थ:-सदनन्तरं च छत्रस्योपरि पताका छत्रपताका सचामरा-चामरोपशोभिता तथा दर्शनरतिदादृष्टिसुखदा आलोके-रष्टिविषये क्षेत्रे स्थिताऽत्युच्चतया दृश्यते या सा आलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, अथवा दशेने-- रष्टिपथे मेघकुमारस्य रचिता-धृता या आलोकदर्शनीया च या सा तथा, वातोश्ता विजयभूचिका च या वैजयन्ती-पताका-12 विशेषः सा तथा, सा च ऊसिया-उच्छ्रिता ऊकृता पुरत:-अग्रतः यथानुपूर्वी-क्रमेण सम्पस्थिता-प्रचलिता, 'भिसंत'त्ति अनुक्रम [३३] SHREILLEGunintentiational मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ५८ ॥ Jain Education दीप्यमानः, मणिरत्नानां सम्बन्धि पादपीठं यस्य सिंहासनस्य तत्तथा, स्वेन स्वकीयेन मेघकुमारसम्बन्धिना पादुकायुगेन समा युक्तं यत्तत्तथा, बहुभिः किङ्करैः किंकुर्वाणैः कर्मकरपुरुषैः पादातेन च पदातिसमूहेन शस्त्रपाणिना परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'कूय'ति कुतुपः 'हडप्फो'ति आभरणकरण्डकं 'मुंडिणो' मुण्डिताः 'छिडिणो' शिखावन्तः 'डमरकरा:' परस्परेण कलहविघायकाः 'चाटुकरा:' प्रियंवदा 'सोहंता यत्ति शोभां कुर्वन्तः 'सावंता य'त्ति श्रावयन्तः आशीर्वचनानि रक्षन्तः न्यायं आलोकं च कुर्वाणाः- मेघकुमारं तत्समृद्धिं च पश्यन्तः, जात्यानां काम्बोजादिदेशोद्भवानां तरोमल्लिनो - बलाधायिनो वेगाधायिनो वा हायनाः संवत्सरा येषां ते तथा तेषां अन्ये तु 'भायल'चि मन्यन्ते, तत्र भायला जात्यविशेषा एवेति गमनिकैवैषा, थासका दर्पणाकाराः अहिलाणानि च कविकानि येषां सन्ति ते तथा, मतुब्लोपात्, 'चामरगंडा' चामरदण्डात्तैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा तेषां ईषदान्तानां मनागू ग्राहितशिक्षाणामीषन्मत्तानां नातिमत्तानां ते हि जनमुपद्रवयन्तीति, ईषत् - मनागुत्सङ्ग: इवोत्सङ्गः - पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला - विस्तीर्णा धवलदन्ताच येषां ते तथा तेषां, कोशी-प्रतिमा, नन्दिघोष:तूर्यनादः, अथवा सुनंदी - सत्समृद्धिको घोषो येषां ते तथा तेषां, सकिङ्किणि समुद्रपण्टिकं यआलं-मुक्ताफलादिमयं तेन परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां तथा हैमवतानि हिमवत्पर्वतोद्भवानि चित्राणि तिनिशस्य वृक्षविशेषस्य सम्बन्धीनि कनकनियुकानि-हेमखचितानि दारूणि काष्ठानि येषां ते तथा तेषां कालायसेन- लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमेः- गण्डमालायाः यत्राणां च-रथोपकरणविशेषाणां कर्म्म येषां ते तथा तेषां सुलिष्टे विचचि-वत्रदण्डवत् मण्डले वृत्ते धुरौ येषां ते तथा तेषां, आकीर्णा- वेगादिगुणयुक्ताः ये वरतुरगास्ते संप्रयुक्ता - योजिता येषु ते तथा तेषां कुशलनराणां मध्ये ये छेकाः - दक्षाः सारथयस्तैः मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा For Penal Use Only ~126~ १ उत्क्षिष्ठ ज्ञाते मेघदीक्षामहोत्सवः सू. २४ ॥ ५८ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत cesercene सूत्रांक [२४] IS सुसंप्रगृहीता येते तथा तेषां, तोणत्ति-शरभखाः सह कण्टकैः-कवचैर्वशैश्च वर्तन्ते ये ते तथा तेषां, सचापा:-धनुर्युक्ता ये शराः। प्रहरणानि च-खगादीनि आवरणानि च-शीपेकादीनि तेर्ये भृता युद्धसआश्र-युद्धप्रगुणाच ये ते तथा तेषां, 'लउड'ति लकुटाः। अस्वादिकानि पाणौ हस्ते यस्य तत्तथा तच्च तत्सर्जच-प्रगुणं युद्धस्खेति गम्यते, पादातानीकं-पदातिकटकं हारावस्तृत सुकृतरतिकंविहितसुखं वक्षो यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्का, 'पहारेत्थ गमणयाए'ति गमनाय प्रधारितवान्-संप्रधारितवान्, 'मह'ति महान्तः अश्वाः, अश्वधराः ये अश्वान् धारयन्ति, नागा-हस्तिनः, नागधरा ये हस्तिनो धारयन्ति, कचिद्वरा इति पाठः, तत्रावा नागाश्च किंविधाः १-अश्ववरा अश्वप्रधानाः, एवं नागवराः, तथा रथा स्थसंगिणेल्ली-रथमाला कचित् रहसंगेल्लीति पाठः तत्र रथसङ्गेली-रथसमूहः । 'तए णं से मेहे कुमारे अभागभिंगारे इत्यादिवर्णकोपसंहारवचनमिति न पुनरुक्तं 'सबिड्डीए'त्यादि दोहदावसरे व्याख्यातं, शहः प्रतीतः, पणवो-भाण्डानां पटहः पटहस्तु प्रतीत एव भेरी-ढकाकारा झल्लरी-वलयाकारा खरमुही-1 काहला हुडका-प्रतीता महाप्रमाणो मईलो मुरजः स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः-भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां निर्घोषो-महाध्वानो नादितं च-घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी स तथा तद्ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रचस्तेन, अर्थाथिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिन:-शब्दरू-18 पार्थिनः भोगाधिनः-गन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनः-सामान्येन लाभेप्सवः किल्विपिका:-पातकफलवंतो निःखान्धपम्वादयः कारोटिका:-कापालिकाः करो-राजदेयं द्रव्यं तद्वहन्ति येते कारवाहिकाः करेण वा बाधिताः पीडिता येते करबाधिताः, शंखवादनशिल्पमेषामिति शालिकाः शङ्खो वा विद्यते येषां मङ्गल्यचन्दनाधारभूतः ते शासिकाः, चक्र प्रहरणमेपामिति पाकिका:--18 योद्धारः चक्र वाऽस्ति येषां ते चाक्रिका:-कुम्भकारतैलिकादयः चक्र वोपदय याचन्ते ये ते चाक्रिकाः चक्रधरा इत्यर्थः। 30092erar अनुक्रम [३३] RELIGunintentATHREE मेघकुमारस्य राज्याभिषेक एवं दीक्षा ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३३] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ॥ ५९ ॥ लाङ्गलिकाः- हालिकाः लाङ्गलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद्येषां ते लाङ्गालिकाः-कार्यटिकविशेषाः, मुखमङ्गलानि चाटुवचनानि ये कुर्वन्ति ते मुखमङ्गलिकाः, पुष्पमाणवा नन्नाचार्या वर्द्धमानकाः-स्कन्धारोपितपुरुषाः, 'इट्ठाही त्यादि पूर्ववत्' 'जियविग्घोविय साहित्ति इव सम्बन्धः, अपि च जितविनः त्वं हे देव ! अथवा देवानां सिद्धेश्व मध्ये वसआख, 'निहणाहित्ति विनाशय रागद्वेषौ मल्लौ, केन करणभूतेनेत्याह- तपसा - अनशनादिना किंभूतः सन् ? धृत्या-चित्तस्खास्थ्येन 'धणियं ति अत्यर्थ पाठान्तरेण बलिका-दृढा बद्धा कक्षा येन स तथा मल्लं हि प्रतिमल्लो मुख्यादिना करणेन वस्त्रादिदृढबद्धकः सन्निहन्तीति एवमुक्तमिति, तथा मर्दय अष्टौ कर्मशत्रून् ध्यानेनोत्तमेन - शुक्लेनाप्रमत्तः सन् तथा 'पावय'त्ति प्राप्नुहि | वितिमिरं- अपगताज्ञानतिमिरपटलं नासादुस्तरमस्तीति अनुत्तरं केवलज्ञानं, गच्छ च मोक्षं परं पदं शाश्वतमचलं चेत्येवं चकारस्य सम्बन्धः, किं कृसा ? - हत्वा परीषहचमूं परपहसैन्यं, णमित्यलंकारे अथवा किंभूतस्त्वं १-हन्ता-विनाशकः परीषहचसूनां । तणं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कट्टु जेणामेव समणे भगवं महावीरे णामेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आग्राहिणं पयाहिणं करेंति २त्ता वदति नर्मसंति२त्ता एवं बदासी एस णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुते इहे कंते जाव जीवियाउसासए हिययणंद्विजणए जंबरपुष्पंपित्र दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए ?, से जहा नामए उप्पलेति वा 'परमेति वा कुमुदेति वा पंके जाए जले संवड़िए नोवलिप्पड़ पंकरएणं णोवलिप्पड़ जलरएणं एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संबुड्ढे नोवलिप्पति कामरएणं नोवलिप्पति भोगरएणं, एस णं देवाणुपिया ! Educatuny Internationa मेघकुमारस्य दीक्षा For Parts Only ~ 128~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेघदीक्षा सू. २५ ।। ५९ ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा". श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप संसारभविगे भीए जम्मणजरमरणाणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चतित्सए, अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खंदलयामो, पडिच्छंतुणं देवाणुप्पिया! सिस्सभिक्खं, तते णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊएहिं एवं बुत्ते समाणे एयमहूँ सम्म पडिमुणेति, तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिमागं अवक्कमति २ त्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति, तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्षणेणं पडसाइएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति २हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासात अंमणि विणिम्मुयमाणी २ रोयमाणी २ कंदमाणी २विलवमाणी २ एवं वदासी-जतियवं जाया! घडियई जाया! परकमियवं जाया! अस्सि च णं अढे नो पमादेय अम्हंपि णं एमेव मग्गे भवउत्तिकट्ठ मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति २ जामेव दिसि पाउम्भूता तामेव दिसिं पडिगया (सत्र २५) 'एगे पुत्ते'इति धारिण्यपेक्षया, श्रेणिकस्स बहुपुत्रखात, जीवितोच्दासको हृदयनंदिजनकः, उत्पलमिति वा-नीलोत्पलं पद्ममिति वा-आदित्यवोध्यं कुमुदमिति वा चन्द्रबोध्यं । 'जइयवमित्यादि, प्राप्तेषु संयमयोगेषु यस कार्यों हे जात !-पुत्र घटितव्यं-अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या पराक्रमितव्यं च-पराक्रमः कार्यः, पुरुषखाभिमानः सिद्ध फलः कर्तव्य इति भावः, किमुक्तं KI भवति ?-एतसिन्नर्थे प्रवज्यापालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति । | तते णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति २ जेणामेव समणे ३ तेणामेव उवागच्छति २ अनुक्रम [३४] मेघकुमारस्य दीक्षा ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. श्वक्षिप्तज्ञाते श्रीवीरकृतः | शिक्षोपदे|शःसू.२६ ॥६ ॥ [२६, २६R] समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २ बंदति नमसति २ एवं वदासी-आलिते णं भंते ! लोए पलिते णं भंते ! लोए आलित्तपलिते णं भंते! लोए जराए मरणेण य, से जहाणामए के गाहावती आगारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवति अप्पभारे मोल्लगुरुए त गहाय आयाए एगंतं अवकमति एस मे णित्धारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति एवामेव ममवि एगे आयाभंडे इट्टे कंते पिए मणुन्ने मणामे एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति तंइच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पवावियं सयमेव मुंडा. वियं सेहावियं सिक्खावियं सयमेव आयारगोयरविणयवेणइयचरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं, तते णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेति सयमेव आयारजाव धम्ममातिक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतवं चिहितवं णिसीयचं तुयहियवं भुजियवं भासियचं एवं उठाए उठाय पाणेहिं भूतेहि जीवेहि सत्तेहिं संजमेणं संजमितवं अरिंस च णं अहे णो पमादेयचं, तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवजह तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमह (सूत्रं २६) जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पाइए तस्स णं दिवसस्स पुवावरण्डकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहारातिणियाए सेज्जासंधारएसु विभजमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले दीप अनुक्रम [३५,३६] मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (२६, २६R] सेजासंधारए जाए यावि होत्या, तते णं समणा णिग्गंधा पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परिपट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स य पासवणस्स य अगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघदृति एवं पाएहिं सीसे पोहे कार्यसि अप्पेगतिया ओलंडेति अप्पेगइया पोलंडेइ अप्पेगतिया पायरयरेणुगुंडियं करेंति, एवंमहालियं पण रयणी मेहे कुमारे णो संचाएति खण. मवि अछि निमीलित्तए, ततेणं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाय समुप्पजित्था-एवं खलु अहं सेणियस्स रनो पुत्ते धारिणीय देवीए अत्तए मेहे जाव समणयाए तं जया णं अहं अगारमझे वसामि तया णं मम समणा णिग्गंथा आहायति परिजाणंति सकारेंति सम्माणति अट्ठाई हेऊति पसिणातिं कारणाई वाकरणाई आतिकखंति इटाहिं कताहिं वग्गृहिं आलवेति संलवेंति, जप्पभितिं चणं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइए तप्पभितिं च णं मम समणा नो आढायंति जावनो संलवंति, अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि बायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं रत्ति नो संचाएमि अच्छि णिमिलावेसए, सेयं खलु मझं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते समण भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे वसित्तएत्तिकहु एवं संपेहेति २ अदुहवसमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेति २ कल्लं पाउप्पभायाए सुचिमलाए रयणीए जाव दीप अनुक्रम [३५,३६] SARERatunintenmarkand मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६, २६R] ज्ञाताधर्मतेयसा जलते जेणेव समणे भगवं० तेणामेव उवागच्छति २ तिखुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ २ वंदा । उत्क्षिप्ताकथाङ्गम्. नमसइ २ जाव पजुवासइ (सूत्रं २६) ध्यय.मेषआदीप्त ईषदीतः प्रदीप्त:-प्रकर्षण दीप्त आदीप्तप्रदीप्तोऽत्यन्तप्रदीप्त इति भावः, 'गाहावईत्ति गृहपतिः, 'झियायमाणंसिति स्यावधाव॥६१ ॥ ध्मायमाने भाण्डं-पण्यं हिरण्यादि अल्पभारं पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुक, 'आयाए'त्ति आत्मना 'पच्छा पुरा यत्ति पश्चादागामिनि काले पुरा च पूर्वमिदानीमेव लोके-जीवलोके अथवा पश्चाल्लोके-आगामिजन्मनि पुरालोके-इहैव जन्मनि, | सू. २७ पाठान्तरे 'पच्छाउरस्स'ति पश्चादमिभयोचरकाल आतुरस्य-बुभुक्षादिभिः पीडितखेति । 'एगे भंडे'सि एक-अद्वितीय भाण्डमिव भाण्डं 'सयमेवे'त्यादि स्वयमेव प्रब्राजितं वेषदानेन आत्मानं इति गम्यते भावे वा क्तः प्रत्ययः प्रजाजनमित्यर्थः मुण्डितं शिरो-12 लोचेन सेधितं-निष्पादित करणप्रत्युपेक्षणादिग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः, आचारो-शानादिविषयमनुष्ठान कालाध्यय-| नादि गोचरो-भिक्षाटनं विनयः-प्रतीतो पैनयिक-तत्फलं कर्मक्षयादि चरण-प्रसादि करणं-पिण्डविशुद्यादि यात्रा-संयम यात्रा मात्रा-तदर्थमेवाहारमात्रा ततो द्वन्द्वः तत एषामाचारादीनां धृतिः-वर्चनं यसिबसी आचारगोचरविनयवैनयिकचर-1|| कणकरणयात्रामात्रावृत्तिकस्तं धर्ममाख्यात-अभिहितं, ततः श्रमणो भगवान् महावीरः स्वयमेव प्रवाजयति यावत् धम्मेमा-18 ख्याति, कथमित्याह-एवं गन्तव्यं-युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः, 'एवं चिट्ठिय'ति शुद्धभूमौ ऊद्देस्थानेन स्थातव्यं, एवं निपीदितव्यं-उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः, एवं बग्वर्तितव्यं-शयनीयं सामायिकायुचारणापूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोर्चाहूपधानेन वामपार्श्वत इत्यादिना न्यायेनेत्यर्थः, भोक्तव्यं-वेदनादिकारणतो अमारा दीप अनुक्रम [३५,३६] Mal६१॥ weredturary.com मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२६, दीप अनुक्रम [३५,३६] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [२६,२६-R] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः दिदोषरहितमित्यर्थः भाषितव्यं हितमितमधुरादिविशेषणतः एवमुत्थायोत्थाय प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य २ प्राणादिषु विषयेषु संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यम् - संयतितव्यमिति, तत्र - "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पृश्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ।। १ ।।" किंबहुना ? - अस्मिन् प्राणादिसंयमे न प्रमादयितव्यमुद्यम एव कार्य इत्यर्थः । प्रत्यपराह्नकालसमयो-विकालः, 'अहाराइणियाए'त्ति यथारत्नाधिकतया यथाज्येष्ठमित्यर्थः, शय्या - शयनं तदर्थं संस्तारकभूमयः अथवा शय्यायां वसतौ संस्तारकाः शय्यासंस्तारकाः, वाचनायै वाचनार्थं धर्मार्थमनुयोगस्य - व्याख्यानस्य चिन्ता धम्मनुयोगस्य वा-धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगचिन्ता तस्यै अतिगच्छन्तः प्रविशन्तो निर्गच्छन्तचालयादिति गम्यते, 'ओलंडिंति'त्ति उल्लङ्घयति 'पोलंडेन्ति त्ति प्रकर्षेण द्विनिर्वोल्लघयंतीत्यर्थः, पादरजोलक्षणेन रेणुना पादरयाद्वा-तद्वेगात् रेणुना गुण्डितो यः स तथा तं कुर्वन्ति । 'एवंमहालियं च णं स्यणिन्ति इतिमहतीं च रजनीं यावदिति शेषः, मेघकुमारो 'नो संचाएति'ति न शक्नोति क्षणमप्यक्षि निमीलयितुं निद्राकरणायेति, आध्यात्मिकः- आत्मविषयचिन्तित ः- सरणरूपः प्रार्थितः - अभिलाषात्मकः मनोगतः - मनस्यैव वर्तते यो न बहिः स तथा सङ्कल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः आगारमध्ये - गेहमध्ये वसामि - अधितिष्ठामि, पाठान्तरतो अगारमध्ये आवसामि, 'आढति' आद्रियन्ते 'परिजानन्ति' यदुतायमेवंविध इति 'सकारयति सत्कारयन्ति च वस्त्रादिभिरभ्यर्चयन्तीत्यर्थः 'सन्मानयन्ति' उचितप्रतिपत्तिकरणेन, अर्थान-जीवादीन हेतून् तद्गमकानन्वयव्यतिरेकलक्षणान् प्रश्नान्पर्यनुयोगान् कारणानि उपपत्तिमात्राणि व्याकरणानि परेण प्रश्ने कृते उत्तराणीत्यर्थः, आख्यान्ति-ईषत् संलपन्ति-मुहुर्मुहुः, 'अदुत्तरं च णं'ति अथवा परं 'एवं संपेहेइ'त्ति संप्रेक्षते-पर्यालोचयति 'अट्टदुहहवसहमाणसगए ति आर्त्तेन-ध्यानवि Eucation Internationa मेघकुमारस्य दीक्षा एवं शिक्षा For Parts Only ~ 133 ~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२६,२६-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. सूत्रांक उत्क्षिप्तज्ञाते मेपूर्वभवोदितिः सू. [२६, २६R] दीप अनुक्रम [३५,३६] शेषेण दुःखार्त-दुःखपीडितं वशात-विकल्पवशमुपगतं यन्मानसं तद्गतः प्राप्तो यः स तथा, निरयप्रतिरूपिकां च-नरकसरशी दुःखसाधर्म्यात् ता रजनी क्षपयति-गमयति । तते णं मेहाति समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार एवं वदासी-से गुणं तुम मेहा ! राओ पुषरतावरत्तकालसमयंसि समणेहि निग्गंथेहि वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं राई णो संचाएमि मुहुत्तमवि अच्छि निमिलावेत्तए, तते णं तुभं मेहा! इमे एयारूवे अन्भस्थिए०समुपजित्था-जया णं अहं अगा. रमझे बसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायति जाच परियाणंति, जप्पभितिं च णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचयामि तप्पभितिं च णं मम समणा णो आढायंति जाव नो परियाणंति अदत्तरं च णं समणा निग्गंधा राओ अप्पेगतिया वायणाए जाच पायरयरेणुगुंडियं करेंति, तं सेयं खलु मम कलं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमझे आवसित्तएत्तिक? एवं संपेहेसि २ अहदुहवसहमाणसे जाव रयणी खवेसिरजेणामेव अहं तेणामेव हवमागए, से गूणं मेहा! एस अत्थे समढे ?, हंता अत्थे समढे, एवं खलु मेहा ! तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयङगिरिपायमूले वणपरेहि णिवत्तियणामधेजे सेते संखदलउज्जलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपतिहिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्टओ वराहे अतियाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे घणुपट्टागिइविसिट्ट sasaare ॥६२॥ मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [3], मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः seatsthes Education International | मेघकुमारस्य पूर्वभवा: अलीणपमाणजुत्तवट्टियापीवरगन्त्तावरे अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन्नसुचारुकुम्मचलणे पंडुरसुबिसुद्विरुिवर्विसतिणद्दे छते सुमेरुष्पभे नामं हत्थिराया होत्था, तत्थ णं तुमं मेहा! बहहिं हत्थीहि य हत्याह य लोएहि य लोहियाहि य कलभेहिय कलभियाहि य सद्धिं संपरिबुडे हत्थिसहस्सणायर देस पागट्टी पट्टए जूहबई बंदपरियहए अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेबचं जाव विहरसि तते गं तुम मेहा ! णिचप्पमसे सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्डे कामभोगतिसिए बहिस्थीह य जाव संपरिवुडे बेयगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निज्झरेसु य वियरपुमु य गद्दासु य पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडयेसु य कडयपल्ललेय तडीसु विडीय टंकेसु य कूडेसु य सिहरेसु य पन्नारेसु य मंचेसु य मालेमु य काणणेसु य वणे य संडेय वणराईस य नदीसु य नदीकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य चावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतिषासु य सरसरपंतियासु य वणयरएहिं दिन्नवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाब सद्धिं संपरिवुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए निरुविग्गे सुहंसुहेणं विहरसि । तते गं तुमं मेहा ! अन्नया कयाई पाउसवरिसारत्तसरयहेमंत वसंतेसु कमेण पंचसु उक्सु समतिर्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूलमासे पायवधंससमुट्ठिएणं सुकतणपत्तकयवर मारुत संजोगीवएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणद्वजाला संपलित्तेसु वर्णते धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं For Parts Only ~135~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: AGI ज्ञाताधर्मकथानम् प्रत सूत्रांक ॥६३॥ | ज्ञाते मेंघपूर्वभवोदितिः सू. २७ [२७] संघहिएम छिन्नजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसु अंतो २ झियायमाणेसु मयकुहितविणिविट्ठकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसु वर्णतेमु भिंगारकदीणकंदियरवेसु खरफरुसअणिहरिद्ववाहितविहुमग्गेसु दुमेसु तण्हावसमुकपक्खपयडियजिब्भतालुयअसंपुडिततुंटपक्खिसंघेसु ससंतेसु गिम्हउम्हउण्हवायखरफरुसचंडमारुयमुफतणपत्तकयवरवाउलिभमंतदित्तसंभंतसावयाउलमिगतण्हाबद्दचिण्हपहेसु गिरिचरेसु संवट्टिएसु तत्थमियपसबसिरीसिवेसु अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे महंततुंबइव पुन्नकन्ने संकुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगूले पीणाइयविरसरडियसदेणं फोडयंतेव अंबरतलं पायदहरएणं कंपयंतेव मेइणितलं विणिम्मुयमाणे य सीयारं सबतो समंता वल्लिवियाणाई छिंदमाणे रुक्खसहस्साति तस्थ सुबहूणि णोल्लायंते विणढरटेव णरवरिंदे वायाइद्धेव पोए मंडलवाएव परिभमंते अभिक्खणं २ लिंडणियरं पमुंचमाणेरबहहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइस्था, तत्थ णं तुम मेहा! जुम्ने जराजजरियदेहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलंते नहसइए मूढदिसाए सयातो जूहातो विपरणे वणवजालापारद्धे उण्हेण तण्हाए य छुहाए य परम्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उविग्गे संजातभए सबतो समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए खइन्नो, तत्थ गं तुम मेहा ! तीरमतिगते पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसने, तत्थ ण तुम मेहा! पाणियं पाइस्सामित्तिकटु हत्थं पसारेसि, सेवि य ते हत्थे उदगं न पावति, ततेणं तुमं मेहा ! अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] 20seesasaragrapa पुणरवि कार्य पद्धरिस्सामीतिकटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते । तते णं तुमे मेहा! अन्नया कदाइ एगे चिरनिज्जूढे गयवरजुवाणए सगाओ जूहाओ करचरणदंतमुसलप्पहारेहिं विपरद्धे समाणे तं चेव महदहं पाणीयं पादे समोयरेति, तते णं से कलभए तुमं पासति २२ पुषवरं समरति २ आसुरुते रहे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागछति २ तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्टतो उच्छुभति उफहभित्ता पुषवेरं निज्जाएति २ हहतुढे पाणियं पियति २ जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए, तते णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भवित्था उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरित्था । तते णं तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराईदियं वेयर्ण वेदेसि सवीसं वाससतं परमाउं पालहत्ता अहवसहदह कालमासे कालं किचा इहेब जंबुद्दीवे भारहे चासे दाहिणहभरहे गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहस्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिते, तते णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासंमि तुम पयाया, तते णं तुम मेहा! गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रनुप्पलरत्तसूमालए जासुमणारत्तपारिजत्तयलक्खारससरसकुंकुमसंझन्भरागवन्ने इहे णिगस्स जूहवइणो गणियायारकणेरुकोत्थहत्थी अणेगहस्थिसयसंपरिबुडे रम्मेमु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि । तते गं तुम मेहा! उम्मुक्कबालभावे जोवणगमणुपत्ते जूहब अनुक्रम [३७] SAREauratonintamarnama मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत उत्क्षिप्तज्ञाते मेपूर्वभवोदितिः सू. सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] इणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि, तते णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निवत्तियनामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्या, तत्थ णं तुम मेहा! सत्संगपइट्टिए तहेब जाव पडिरूवे, तत्थ णं तुम मेहा ! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेब जाव अभिरमेत्या, तते णं तुमं अन्नया कचाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले वणदवजालापलितेसु वर्णतेसु सुधूमाउलासु दिसामु जाच मंडलवाएव तते णं परिभमंते भीते तत्थे जाव संजायभए बहहिं हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिबुडे सघतो समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था, तते गं तव मेहा! तं वणवं पासित्ता अयमेयारूपे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था कहिणं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुवे?, तव मेहा ! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जातिसरणे समुपन्जित्था, तते णं तुम मेहा! एयमटुं सम्मं अभिसमेसि, एवं खलु मया अतीए दोचे भवग्गहणे इहेब जंबुरीये २ भारहे वासे वियद्दगिरिपायमूले जाव तत्वणं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूग, तते णं तुम मेहा! तस्सेव दिवसस्स पुत्वावरण्हकालसमयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था, तते णं तुम मेहा! सत्तुस्सेहे जाव स. निजाइस्सरण चाईते मेरुप्पमे माम हत्थी होत्था, तते गं तुझं मेहा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-तं सेयं खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गि ॥६४॥ मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] संताणकारणहा सएणं जूहेणं महालय मंडलं घाइत्तएत्तिकटु एवं संपेहेसि २ मुहंसुहेणं विहरसि, तते णं तुम मेहा! अन्नया कदाई पढमपाउसंसि महाबुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहिं संपरिबुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महतिमहालयं मंडलं घाएसि, जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंदए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सचं तिखुत्तो आहुणिय एगते एडेसि२पाएण उट्ठवेसि हत्थेणं गेण्हसि [२त्ता ततेणं तुम मेहावस्सेव मंडलस्स अदरसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरिपायमले गिरीस य जाव विहरसि, तते गं मेहा! अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महाविट्ठिकार्यसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २दोचंपि तपि मंडलं घाएसि २ एवं चरिमे वासारत्तसि महाबुद्धिकायंसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २ तचंपि मंडलघायं करेसि जं तत्थ तणं वा जाव सुहंसुहेणं विहरसि, अह मेहा! तुमं गइंदभावंमि वहमाणो कमेणं नलिणिवणविवहणगरे हेमंते कुंदलोद्धउद्धृततुसारपउरंमि अतिकते अहिणवे गिम्हसमयसि पत्ते वियदृमाणेसु वणेसु वणकरेणुविविहदिण्णकयपंसुघाओ तुम उउयकुसुमकयचामरकन्नपूरपरिमंडियाभिरामो मयवसविगसंतकडतडकिलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउसमत्तजणितसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसियतरुवरसिहर भीमतरदसणिज्जे भिंगाररवंतभेरवरवे गाणाविहपत्तकट्टतणकयवरुद्धतपइ अनुक्रम [३४] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाङ्गम. उत्क्षिप्तज्ञाते मे घपूर्वभवो दितिः सू. २७ सूत्रांक [२७] दीप मारुयाइद्धनहयलदुमगणे पाउलियादारुणतरे तण्हावसदोसदूसियभमतविधिहसावयसमाउले भीमदरिसणिज्जे बहते दारुणंमि गिम्हे मारुतवसपसरपसरियवियंभिएणं अन्भहियभीमभेरवरवप्पगारेणं महधारापडियसित्तउद्धायमाणधगधगधगतसहु एणं दित्ततरसफुलिंगेणं धूममालाजलेणं सावयसयंतकरणेणं अब्भहियवणदयेणं जालालोवियनिरुद्धधर्मधकारभीयो आयवालोयमहंततुंबड्यपुन्नकन्नो आकुंचियथोरपीवरकरो भयवसभर्यतदित्तनयणो वेगेण महामेहोव पवणोल्लियमहल्लरूषो जेणेव कओ ते पुरा दबग्गिभयभीयहियएणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोद्देसो दवग्गिसंताणकारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेल्थ गमणाए, एको ताव एस गमो । तते णं तुम मेहा! अन्नया कदाई कमेणं पंचसु ऊउसु समतिफतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायवसंघससमुट्टिएणं जाव संबटिएसु मियपसुपक्खिसिरीसिवे दिसो दिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहहिं हस्थीहि य सद्धिं जेणेव मंडले तेणेच पहारेथ गमणाए, तस्थ णं अण्णे बहवे सीहा य बग्घा य विगया दीविया अच्छा य तरच्छा य पारासरा य सरभा य सियाला विराला सुणहा कोला ससा कोकंतिया चित्ता चिल्लला पुचपविट्ठा' अग्गिभयविहुया एगयाओ बिलधम्मेणं चिट्ठति, तए णं तुम मेहा! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २त्ता तेहिं बहहिं सीहेहिं जाव चिल्ललएहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि, तते णं तुम मेहा! पाएणं गतं कंडहस्सामीतिकट्ठ पाए उक्खित्ते तंसिं च णं अंतरंसि अन्नेहिं बलवन्तेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमणे २ ससए अणुपबिढे । अनुक्रम [३७] ReceneReme "6५॥ मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [3], मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तणं तुमं मेहा! गायं कंडुइता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामित्तिकट्टु तं ससयं अणुपविद्धं पाससि २ पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपयाए सो पाए अंतरा चैव संधारिए, नो चेवणं णिक्खिते, तते गं तुमं मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकते माणुस्साउए निबद्धे, तते णं से वणदवे अहातिजाति रातिंदियाई तं वर्ण शामेह २ निट्टिए उबरए वसंत विज्झाए या होत्था, तते णं ते बहवे सीहा य जाब चिल्लला य तं वणदवं निद्वियं जाव विज्झायं पाति २त्ता अग्निभयविप्यमुक्का तन्हाए य छुहाए य परन्भाहया समाणा मंडलातो पडिनिक्वमंति२ सव्वतो समता विप्पसरित्था, [तए णं ते बहवे हत्थि जाव छुहाए य परन्भाया समाणा तओ मंडलाओ पढिनिक्खमति २ दिसो दिसिं विप्पसरित्था, ] तए णं तुमं मेहा! जुने जराजज्जरिय देहे सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते दुगले किलते जुंजिए पिवासिते अत्थामे अबले अपरकमे अचकमणो वाखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामित्तिकट्टु पाए पसारेमाणे बिज्जुहते विव रयतगिरिफमारे धरणितलंसि सङ्घगेहि य सन्निवइए, तते णं तब मेहा ! सरीरगंसि बेयणा पाउन्भूता उजला जाब दाहवकंतिए यावि विहरसि, तते गं तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे बिहरिता एवं वाससतं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणितस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए । (सूत्रं २७ ) Eucation internation मेघकुमारस्य पूर्वभवा: For Parts Only ~ 141 ~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ६६ ॥ 'हाइ' हे मेघ इति एवमभिलाप्य महावीरस्तमवादीत् । 'से णूण मित्यादि, अथ नूनं निश्चितं मेघ ! अस्ति एषोऽर्थः ?, 'हंते 'ति कोमलामन्त्रणे अस्त्येपोऽर्थ इति मेघेनोत्तरमदायि, वनचरकैः शचरादिभिः, 'संखे'त्यादि विशेषणं प्रागिव सत्तुस्सेहे - सप्तहस्तोच्छ्रितः, नवायतो-नवहस्तायतः, एवं दशहस्तप्रमाणः मध्यभागे सप्ताङ्गानि - पादकरपुच्छलिङ्गलक्षणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा समः - अविषमगात्रः सुसंस्थितो विशिष्टसंस्थानः पाठान्तरेण सौम्यसम्मितः तत्र सोम्यः - अरौद्राकारो नीरोगो वा सम्मितः - प्रमाणोपेताङ्गः, पुरतः - अग्रतः उदग्रः - उच्चः समुच्छ्रितशिराः शुभानि सुखानि वा आसनानि-स्कन्धादीनि यस्य स तथा पृष्ठतः पथाद्भागे बराह इव शूकर इव वराहः अवनतलात्, अजि काया इवोन्नतखात् कुक्षी यस्य स तथा अच्छिद्रकुक्षी मांसलतात् अलम्बकुक्षिरपलक्षणवियोगात् पलम्बलंबोयराहरकरेति-प्रलम्बं चलम्बौ च क्रमेणोदरं च जठरमधरकरौ च - ओष्ठहस्तौ यस्य स तथा पाठान्तरे []लम्बी लम्बोदरस्येवगणपतेरिव अधरकरों यस्य स तथा धनुःपृष्ठाकृति - आरोपितज्यधनुराकारं विशिष्ट प्रधानं पृष्ठ यस्य स तथा आलीनानिसुश्लिष्टानि प्रमाणयुक्तानि वर्त्तितानि वृत्तानि पीवराणि उपचितानि गात्राणि - अङ्गानि अपराणि वर्णितगात्रेभ्योऽन्यानि अपरभागगतानि वा यस्य "तथा, अथवा आलीनादिविशेषणं मात्रं- उरः अपरथ-पाद्भागो यस्य स तथा वाचनान्तरे विशेषणद्वयमिदं - अभ्युद्गता- उन्नता मुकुलमल्लिकेव- कोरकावस्थाविचक्किलकुसुमवद्भवलाय दन्ता यस्य सोऽभ्युद्भवमुकुलमल्लिकाघ| वलदन्तः आनामितं यच्चापं धनुस्तस्येव ललितं- विलासो यस्याः सा तथा सा च संवेल्लिता च संबेलन्ती सङ्कोचिता वा अग्रसुण्डा-सुण्डायं यस्य स आनामितचापललितसंवेल्लिताग्रसुण्डः, आलीनप्रमाणयुक्तपुच्छः प्रतिपूर्णाः सुधारवः कूर्म्मवच्चरणा यस्य स | मेघकुमारस्य पूर्वभवा: For Pasta Use Only ~ 142 ~ १ उत्क्षिप्त ज्ञाते मेपूर्वभवोदितिः सू. २७ ॥ ६६ ॥ www.ra Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] तथा पाण्डुरा:-शुक्लाः सुविशुद्धाः-निर्मलाः स्निग्धाः-कान्ता निरुपहताः स्फोटादिदोषरहिता विंशतिर्नखा यस्य स तथा. तत्र त्वं हे मेघ! बहुभिहस्त्यादिभिः सार्द्ध संपरिवृतः आधिपत्यं कुर्वन् विहरसीति सम्बन्धः । तत्र हस्तिन:-परिपूर्णप्रमाणाः लोट्टका:-कुमारकावस्थाः कलभाः-बालकावस्थाः हस्तिसहस्रस्य नायका-प्रधानः न्यायको वा-देशको हितमागादेः प्राकर्षीप्राकर्षको अग्रगामी प्रस्थापको-विविधकार्येषु प्रवर्तको यूथपति:--तत्स्वामी वृन्दपरिषद्धका-तद्वृद्धिकारकः 'सई पललिए'ति । सदा प्रललित:-प्रक्रीडितः कन्दर्परति:-केलिप्रियः मोहनशीलो-निधुवनप्रियः अवितृप्तो-मोहने एवानुपरतवान्छा, तथा सामान्येन कामभोगेऽतृषितः गिरिषु च-पर्वतेषु दरीषु च-कन्दरविशेषेषु कुहरेषु च-पर्वतान्तरालेषु कन्दरामु च-गुहासु उज्झरेषु च-उदकस्य प्रपातेषु निझरेषु च स्यन्दनेषु विदरेषु च-क्षुद्रनद्याकारेषु नदीपुलिनस्यन्दजलगतिरूपेषु वा गासु च-प्रतीतासु पल्बलेषु च-प्रहादनशीलेषु चिल्ललेषु च-चिक्खिल्लमिश्रेषु कटकेषु च-पर्वततटेषु कटकपल्वलेषु-पर्वततटब्यस्थितजलाशयवि| शेषेषु तटीषु च-नद्यादीनां तटेषु वितटीषु च-तास्वेव विरूपासु अथवा वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते, टङ्केषु च-एक| दिशि छिन्नेषु पर्वतेषु कुटकेषु च अधोविस्तीर्णधूपरि संकीर्णेषु वृत्तपर्वतेषु हस्त्यादिवन्धनस्थानेषु वा शिखरेषु च-पर्वतोपरिवर्चिकूटेषु प्रारमारेषु च-इंपदवनतपर्वतभागेषु मश्चेषु च-स्तम्भन्यस्तफलकमयेषु नबादिलानार्थेषु मालेषु च-श्वापदादिरक्षार्थपुर तद्विशेषेष्वेव मश्चमालकाकारेषु पर्वतदेशेष्वित्यन्ये काननेषु च-स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु बनविशेषेषु अथवा यत्परतः पर्वतोष्टवी वा भवति तानि काननानि जीर्णवृक्षाणि वा तेष वनेषु च-एकजातीयवृक्षेषु चनखण्डेषु च अनेकजाती-TRI यवृशेषु वनराजीषु च-एकानेकजातीयवृक्षाणां पटिषु नदीषु च-प्रतीतासु नदीकक्षेषु च तद्गहनेषु यूथेषु च वानरादियू अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् प्रत सूत्रांक ॥६७॥ [२७] थाश्रयेषु सङ्गमेषु च-नदीमीलकेषु वापीषु च-चतुरखासु पुष्करिणीषु च-वर्तुलासु पुष्करवतीषु वा दीर्घिकासु च-ऋजुसा- उत्क्षिप्तरिणीषु गुंजालिकासु च-वक्रसारिणीषु सरस्सु च-जलाशयविशेषेषु सरपत्रिकासु च-सरसा पद्धतिषु सर सर पत्रिकासु च-यास ज्ञाते मेसरपतिषु एकमात्सरसोऽन्यसिन्नन्यसादन्यत्रैवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुविधास्तरुपल्लवाः प्रचुराणि पानीय- पूर्वभवोतृणानि च यस भोग्यतया स तथा, निर्भयः शूरखात् , निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषयप्राप्तेः, सुखसुखेन-अकृच्छ्रेण । पाउसे त्यादि, दितिःसू, प्रावृद्-आषाढश्रावणौ वर्षारात्रो-भाद्रपदाश्वयुजौ शरत्-कार्चिकमार्गशीर्षों हेमन्तः-पोषमाघौ वसन्तः-फाल्गुनचैत्रौ एतेषु | पञ्चसु ऋतुषु समतिक्रान्तेषु, 'ज्येष्ठामूलमासे ति ज्येष्ठमासे पादपघर्षणसमुत्थितेन शुष्कतृणपत्रलक्षणं कचबरं मारुतश्च तयोः संयोगेन दीप्तो यः स तथा तेन 'महाभयंकरेण अतिभयकारिणा 'हतबहेन अग्निना यो जनित इति हृदयस्थं, 'वनदवो. बनामिः, तस्स ज्वालाभिः संप्रदीप्ता येते तथा तेषु च बनान्तेषु सत्सु अथवा 'पायवर्घससमुद्विएण'मित्यादिषु णकाराणां वाक्या-IST लङ्कारार्थवात्सप्तम्येकवचनान्तता व्याख्येया, तथा धूमाकुलामु दिक्षु, तथा महावायुवेगेन संघट्टितेषु छिन्नज्वालेषु-त्रुटित-IN ज्वालासमूहेषु आपतत्सु-सर्वतः संपतत्सु तथा 'पोल्लरुक्खेसु'त्ति शुषिरवृक्षेषु अन्तरन्त:-मध्ये मध्ये ध्मायमानेषु-दह्यमानेषु तथा मृतैर्मेगादिभिः कुथिता:-कोथमुपनीता विनष्टा:-विगतस्वभावाः किमिणकहमति कमिवत्कर्दमाः नदीनां विचर-10 काणां च क्षीणपानीयाः अन्ता:-पर्यन्ता येषु, कचित् 'किमवत्ति' पाठः तत्र मृतैः कुथिताः विनष्टकृमिकाः कर्दमाः-नदीवि- ॥६७ ॥ दरकलक्षणाः क्षीणा जलक्षयास्पानीयान्ता-जलाशया येषु ते तथा तेषु बनान्तेषु वनविभागेषु सत्सु, तथा भृङ्गारकाणां-1 पक्षिविशेषाणां दीनः क्रन्दितरवो येषु ते तथा तेषु बनान्तेष्विति वर्तते, तथा खरपरुष-अतिकर्कशमनिष्ट रिष्ठाना-काकानां च्या अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] हत-शब्दितं येषु ते तथा, विद्रुमाणीव-प्रवालानीच लोहितानि अग्नियोगात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्वमानास्ततः पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, ततस्तेषु द्रुमाग्रेषु वृक्षोत्तमेषु सत्सु, वाचनान्तरे खरपरुषरिष्ठव्याहृतानि विविधानि द्रुमाग्राणि येषु ते खरपरुषरिष्ठव्याहृत विविधद्रुमारास्तेषु वनान्तेष्विति, तथा तृष्णावशेन मुक्तपक्षा:-लथीकृतपक्षाः प्रकटितजिहातालुकाः असंघटिततुण्डाय-असंवृतमुखाः ये पक्षिसङ्कास्ते तथा तेषु 'ससंतसु'त्ति श्वसत्सु-श्वासं मुश्चत्सु, तथा ग्रीष्मस्य ऊष्मा च-उष्णता उष्ण|पातश्च-रविकरसन्तापः खरपरुषचण्डमारुतश्च-अतिकर्कशप्रबलवातः शुष्कतृणपत्रकचवरप्रधानवातोली चेति द्वन्द्वः ताभिभ्रेमन्तः-अनवस्थिता दृप्ताः संभ्रांता ये श्वापदाः-सिंहादयः तैराकुला येते तथा, मृगतृष्णा-मरीचिका तल्लक्षणो बद्धः चिह्नपट्टो येषु | |ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषु सत्सु, गिरिवरेषु-पर्वतराजेषु, तथा संवर्तकितेपु-संजातसंवर्तकेषु त्रस्ता-भीता ये मृगाश्च प्रसयाध-आटव्यचतुष्पदविशेषाः सरीसृपाश्च-गोधादयस्तेषु, ततश्चासौ हस्ती अवदारितवदनविवरो निलोलिताग्रजितश्च य इति कर्मधारयः 'महंततुंबइयपुण्णकपणे महान्तौ तुम्बकिती भयादरघट्टतुम्बाकारों कृतौ स्तब्धावित्यर्थः, पुण्यौ-व्याकुलतया शब्दग्रहणे प्रवणौ कौँ यस्य स तथा, संकृचितः 'थोर'त्ति स्थूलः पीबरो-महान् करो यस्य स तथा उच्छितलाकुलः 'पीणाइय'ति पीनाया-मडा तया निर्वृत्तं पैनायिकं तद्विधं यद्विरसं रटितं तल्लक्षणेन शब्देन स्फोटयनिवाम्बरतलं पादददरेण-16 पादपातेन कम्पयमिव मेदिनीतल'मित्यादि, कण्ठयं 'दिसो दिसिंति दिक्षुचापदिक्षु च विपलायितवान् , आतुरो-ग्याकुलः 'जु-II जिए'त्ति बुभुक्षितः दुर्बलः कान्तो ग्लानः नष्टश्रुतिको-मूढदिकः 'परम्भाहए'त्ति पराभ्याहतो बाधितो भीतो-जातभया प्रस्तोजातक्षोभः 'तसिए'ति शुष्क आनन्दरसशोषात उद्विमः-कथमितोऽनर्थान्मोक्ष्येऽहमित्यध्यवसायवान, किमुक्तं भवति ?-संजात sesese अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्कम् प्रत सूत्रांक ॥६८॥ भय:-सर्वात्मनोत्पन्नभयः आधावमान-ईषत् परिधावमानः-समन्तात् 'पाणियपाए ति पानं पायः पानीयस्य पायः पानी-18| उत्क्षिप्तयपायस्तस्मिन् , जलपानायेत्यर्थः, 'सेयंसि विसनेत्ति पङ्के निमग्नः, कार्य प्रत्युद्धरिष्यामीतिकृला कायमुद्धर्तमारन्ध इति शेषः, ज्ञाते में'बलियतरापंति गाढतरं । 'तए ण'मित्यादि, इहैवमक्षरघटना-खया हे मेघ ! एको गजवरयुवा करचरणदन्तमुशलप्रहारै-पापपूर्वेभवो[विप्रालब्धो विनाशयितुमिति गम्यते, विपराद्धो वा-इतः सन् अन्यदा कदाचित् खकाथात् चिरं 'निज्जूढे ति निर्धाटितो यः18 दितिः सू. स पानीयपानाय तमेव महाइदं समवतरति स्मति, 'आसुरुत्तेति स्फुरितकोपलिजः रुष्ट-उदितक्रोधः कुपिता-प्रवृद्धकोपोदयः चाण्डिक्यिता-संजातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः 'मिसिमिसीमाणे'त्ति क्रोधामिना देदीप्यमान इव, एकाथिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थ नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ वा, 'उच्छाई' अवष्टनाति विध्यतीत्यर्थः, 'निजाए'ति निर्यातयति समापयति, वेदना किंविधा ?-उज्ज्वला विपक्षलेशेनापि अकलङ्किता विपुला शरीरव्यापकलात् कचित्तितुलेत्ति पाठस्तत्र त्रीनपि । मनोवाकायलक्षणानर्थास्तुल यति जयति तुलारूढानिच वा करोतीति त्रितला कर्कशा-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टेत्यर्थः, प्रगाढा-प्रक-18 वती चण्डा-रोद्रा दुःखा-दुःखरूपा न मुखेत्यर्थः, किमुक्तं भवति -दरधिसबा, 'वाहवकंतीए'त्ति दाहो व्युत्क्रान्त-उत्पन्नो यस्य स तथा स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अहवसहदुहहे'त्ति आर्चवर्श-आध्यानवशतामृतो-गतो दुःखातेश्च यः स तथा, | 'कणरुपति करेणुकायाः 'रनुपल्ले त्यादि रक्कोत्पलबद्रक्तः सुकुमारकच यः स तथा जपासुमनश्च आरक्तपारिजातकश्च ॥६ ॥ | वृक्षविशेषों लाक्षारसब सरसकुमं च सन्ध्यारागश्चेति द्वन्द्वः एतेषामिव वर्णो यस्य स तथा, 'गणियार'ति गणिकाकारा:समकायाः करेणवस्तासां 'कोत्थंति उदरदेशस्तत्र हस्तो यस कामक्रीडापरायणलात् स तथा, इह चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः । अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: नाम मिल प्रत सूत्रांक [२७] 'कालधंमुण'चि काल:-मरणं स एव धर्मो-जीवपर्यायः कालधर्मः 'निवत्तियनामधेजो इह यावत्करणेन यद्यपि समग्र पूर्वोक्तो हस्तिवर्णकः सूचितस्तथापि श्वेततावर्णकवजों द्रष्टव्यः, इह रक्तस्य तस्य वर्णितखादत एवाग्रे 'सत्तुस्सेहे'इत्यादिकमतिदेशं वक्ष्यति यत् पुनरिह दृश्यते 'सत्तंगे'त्यादि तद्वाचनान्तरं, वर्णकापेक्षं तु लिखितमिति । 'लेसाहीत्यादि तेजोलेश्याधन्यतरलेश्यां प्राप्तयेत्यर्थः अध्यवसान-मानसी परिणतिः परिणामो-जीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्माणि-18 मतिज्ञानावरणीयभेदाः क्षयोपशमः-उदितानां क्षयोऽनुदितानां विष्कम्मितोदयलं ईहा-सदर्थाभिमुखो वितर्क इत्यादि प्राग्वत्, संज्ञिनः पूर्वजाति:-प्राक्तनं जन्म तस्या यत् स्मरणं तत्संक्षिपूर्वजातिस्मरणं व्यस्त निर्देशे तु संज्ञी पूर्वो भवो यत्र तत्संक्षिपूर्व संज्ञीति च विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थ, न बसंझिनो जातिविषयं स्मरणमुत्पद्यत इति, 'अभिसमेसिति अवबुध्यसे प्रत्यपराका-अपरातः, 'तए णमित्यादिको ग्रन्थो जातिस्मरणविशेषणमाश्रित्य वर्णितः, 'दवग्गिजायकारणह'त्ति दवानेः संजातस्य। कारणस्य-भयहेतोर्निवृत्तये इदं दवाग्निसंजातकारणार्थ, अर्थशब्दस्य निवृत्त्यर्थखात्, कचित् 'दवग्गिसंताणकारणट्ठति दृश्यते, तत्र दवाग्निसत्राणकारणायेति व्याख्येय, 'मंडलं घाएसि वृक्षाद्युपपातेन तत्करोतीत्यर्थः 'खुवेतयति वति क्षुवो-TAI इखशिखः शाखी 'आहुणिय'त्ति २ प्रकम्प्य चलयितेत्यर्थः, 'उहवेसित्ति उद्धरसि 'एडेसित्ति छईयसि, 'दोचंपि' द्वितीयं तस्यैव मण्डलस्य घातं, एवं तृतीयमिति, नलिनीवनविवधनकरे, इह विवधनं-विनाशः, 'हेमंते'ति शीतकाले कुन्दा:-पुष्पजातीयविशेषाः लोध्राश्च-वृक्षविशेषास्ते च शीतकाले पुष्प्यन्त्यतस्ते उद्धता:-पुष्पसमृद्ध्या उद्धरा इव यत्र | स तथा, तथा तुषारं-हिमं तत् प्रचुरं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः ततस्तत्र, ग्रीष्मे-उष्णकाले विवर्तमानो-विचरन् चनेषु बन अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: साधर्म- कथानम्. प्रत सूत्रांक ॥६९ [२७] करेणूना ताभिर्वा विविधा 'दिन्न'त्ति दत्ताः कजप्रसवैः-पद्मकुसुमैर्घाता:-प्रहारा येषु यस्य वा स तथा 'वणरेणुविविहदिन्न- उत्क्षिप्तकयर्पसुघाओ'त्ति पाठान्तरे तु वनरेणवो-वनपांशवो विविध-अनेकधा 'दिन'त्ति दत्ता दिक्ष्वात्मनि च क्रीडापरतया क्षिप्ता येन||ज्ञाते मे| स तथा, तथा कीडयैव कृताः पांशुधाता येन स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'तुमं ति त्वं, तथा कुसुमैः कृतानि यानि धपूर्वभवोचामरवत्कणेपूराणि तैः परिमण्डितोऽभिरामश्च यः स तथा, कचित् 'उउयकुसुमति पाठः, तत्र ऋतुजकुसुमेरिति व्याख्येयं, दितिः सू. तथा मदवशेन विकसन्ति कटतटानि-गण्डतटानि क्लिन्नानि-आकृतानि येन तत्तथा तच्च तद्गन्धमदवारि च तेन सुरभिजनित २७ | गन्धः-मनोज्ञ कृतगन्धः करेणुपरिवृतः ऋतुभिः समस्ता समाप्ता वा-परिपूर्णा जनिता शोभा यस्य स तथा, काले किंभूते ?-11 दिनकरः करप्रचण्डो यत्र स तथा तत्र, परिशोपिता:-नीरसीकृताः तरुवराः श्रीधरा:-शोभावन्तो येन परिशोषिता वा तरुवराणां श्रीः-संपद्धरायां-भुवि वा येन, पाठान्तरे परिशोषितानि तरुवरशिखराणि येन स तथा स चासौ भीमतरदर्शनीयश्चेति, तत्र, | भृङ्गाराणां-पक्षिविशेषाणां रुवता-वं कुर्वतां भैरवो-भीमो वः-शब्दो यस्मिन् स तथा तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्ठवणकच-1 वराण्युद्धतानि-उत्पाटितानि येन स तथा स चासौ प्रतिमारुतश्च-प्रतिकूलवायुस्तेन आदिग्धं व्याप्तं नभस्तल-व्योम ‘पडुम-18 माणे'त्ति पडुसादुपतापकारि यस्मिन् , पाठान्तरे उक्तविशेषणेन प्रतिमारुतेनादिग्धं नभस्तलं द्रुमगणश्च यस्मिन् स तथा, तत्र || बातोल्या-वात्यया दारुणतरो यः स तथा तत्र, तृष्णावशेन ये दोषा-वेदनादयस्तैोषिता-जातदोषा दूषिता वा भ्रमन्तो ॥६९। विविधा ये श्वापदास्तैः समाकुलो यः स तथा तत्र, भीमं यथा भवत्येवं दृश्यते यः स भीमदर्शनीयः तत्र वर्तमाने दारुणे ग्रीष्मे, केनेत्याह-मारुतवशेन यः प्रसर:-प्रसरणं तेन प्रस्तो विजृम्भितश्च-प्रबलीभूतो यः स तथा तेन, वनदवेनेति योगः, अभ्यधिक। अनुक्रम [३७] मेघकुमारस्य पूर्वभवा: ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ---------- अध्ययनं [3], मूलं [२७] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः यथा भवत्येवं भीमभैरवः- अतिभीष्मो स्वत्रकारो यस्य स तथा तेन, मधुधाराया यत्पतितं-पतनं तेन सिक्त उद्भावमानः- प्रबर्द्ध मानो धगधगायमानो - जाज्वल्यमानः स्पन्दोद्ध तथ- दह्यमानदारुस्पन्दप्रबलः पाठान्तरे शब्दोद्धतश्व यः स तथा तेन दीप्ततरो यः सस्फुलिङ्गय तेन, धूममालाकुलेनेति प्रतीतं, श्वापदशतान्तकरणेन तद्विनाश कारिणा ज्वालाभिरालोपितः कृताच्छादनो निरुद्धवविवक्षितदिग्गमनेन निवारितो धूमजनितान्धकाराद्भीतश्च यः स तथा, आत्मानमेव पालयतीत्यात्मपालः, पाठान्तरेण 'आयवालोय'ति तत्र आतपालोकेन - हुतवहतापदर्शनेन महान्तौ तुम्बकितौ स्तब्धतया अरघट्टतुम्बाकृती ससंभ्रमौ कर्णौ यस्य स तथा, आकुश्चितस्थूलपीवरकरः भयवशेन भजन्ती दिश इति गम्यते दीप्ते नयने यस्य स तथा 'आकुंचियथोरपीवर करा भोयस भयं तदित्त| नयणो 'ति पाठान्तरं तत्राभोगो-विस्तरः सर्वा दिशो भजन्ती दीप्ते नयने यस्येति वेगेन महामेघ इव वातेनोदितमहारूप:, किमित्याह-येन यस्यां दिशि कृतो विहितस्ते-खया पुरा - पूर्वं दवाग्निभयभीत हृदयेन अपगतानि तृणानि तेषामेव च प्रदेशामूलादयोऽवयवा वृक्षाश्च यस्मात्सोऽपगततृणप्रदेश वृक्षः कोऽसौ ?-वृक्षोदेश:- वृक्षप्रधानो भूमेरेकदेशो रूक्षोदेशो वा, किमर्थ :दवाभिसवाणकारणार्थं दवाभिसत्राणहेतुरिदं भवत्वित्येतदर्थं तथा येनैव-यस्यामेव दिशि मण्डलं तेनैव तत्रैव प्रधारितवान् गमनाय कथं बहुभिर्हस्त्यादिभिः सार्द्धमित्ययमे को गमः । यत् पुनः 'तए णं तुमं मेहा! अण्णया कयाई कमेण पंचसु' इत्यादि दृश्यते तद्गमान्तरं मन्यामहे, तच्च एवं द्रष्टव्यं 'दुचंपि मंडलघायं करेसि जाव सुहंसुहणं विहरसि, तए णं तुमं मेहा अनया कयाद पंचसु उऊसु अइकंतेसु' इत्यादि, यावत् 'जेणेव मण्डले तेणेव पहारेत्थ गमणाए 'ति, सिंहादयः प्रतीताः नवरं बुका-वरुक्षाः द्वीपिकाः- चित्रकाः अच्छति-रिक्षाः तरच्छा-लोकप्रसिद्धाः परासराः-शरमा शृगालविरालशु Education Internation मेघकुमारस्य पूर्वभवा: For Parts On ~ 149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२७] श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः १ उत्क्षिप्त कथाङ्गम्. ज्ञाते मे ॥ ७० ॥ घस्य संवेगमत्याग ज्ञाताधर्म- नकाः प्रतीताः कोला:- शूकराः शशकाः प्रतीताः कोकन्तिका लोमटकाः चित्राः चिह्नलगा - आरण्या जीवविशेषाः, एतेषां मध्येऽधिकृतवाचनायां कानिचित्र दृश्यन्ते, अग्निभयविद्रुताः - अग्निभयाभिभूताः 'एमओ'त्ति एकतो बिलधर्मेण - बिलाचारेण यथैकत्र बिले यावन्तो मर्कोटकादयः संमान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति एवं तेऽपीति, ततस्त्वया हे मेघ ! गात्रेण गात्रं कण्डूयिष्ये इतिॐ कृत्वा - इतिहेतोः पाद उत्क्षिप्तः उत्पादितः, तंसि च णं अंतरंसि तस्मिवान्तरे पादाक्रान्तपूर्वे अन्तराले इत्यर्थः । | 'पादं निक्खेविस्सामित्तिक' इह भुवं निरूपयमिति शेषः, 'प्राणानुकम्पये' त्यादि पदचतुष्टयमेकार्थे दयाप्रकर्षप्रतिपाद- ४ तिः सू. २८ नार्थ, 'निट्टिए 'ति निष्ठां गतः कृतस्वकार्यो जात इत्यर्थः उपरतोऽनालिङ्गितेन्धनाद् व्यावृत्तः उपशान्तो ज्वालोपशमात् विध्यातोऽङ्गारमुर्मुराद्यभावात् 'वापी'ति समुचये 'जीर्ण' इत्यादि शिथिला वलिप्रधाना या त्वक् तथा पिनद्धं गात्रं शरीरं यस्य स तथा अस्थामा शारीरखलविकलत्वात् अवलः - अवष्टम्भवर्जितत्वात् अपराक्रमो - निष्पादितस्वफलाभिमानविशेषरहितत्वात्, अचंक्रमणतो वा 'ठाणुखंडे 'ति ऊर्द्धस्थानेन स्तम्भितगात्र इत्यर्थः 'रययागिरिषभारेति इह प्राग्भार- ईषदवनतं खण्डं, उपमा चानेनास्य महत्तयैव, न वर्णतो, रक्तत्वात्तस्य, वाचनान्तरे तु सित एवासाविति । तणं तुमं मेहा! आणुपुवेणं गन्भवासाओ निक्खते समाणे उम्मुकबालभावे जोवणगमणुपते मम अंतिए मुंडे व आगाराओ अणगारियं पाइए, तं जति जाव तुमे मेहा ! तिरिक्खजोणिय भावमुषगएणं अपडिलद्वसंमत्तरपणलंभेणं से पाणे पाणाणुकंपथाए जाव अंतरा चैव संधारिते नो चेव णं निक्खित्ते मिंग पुणतुम मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुन्भवेणं निरुवयसरीरतलद्वपंचिंदिपूर्ण एवं उद्वाणबल Education Internationa मेघकुमारस्य पूर्वभवा: For Parts Only ~ 150 ~ ।। ७० ।। wor Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप वीरियपुरिसगारपरकमसंजुत्तेणं मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पवतिए समाणे समणाणं निग्गंधाणं राओ पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि चायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अतिगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्यसंघहणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुंडणाणि च नो सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि । तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतमझु सोचा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्नमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुछे जातीसरणे समुप्पन्ने, एतमढे सम्म अभिसमेति । तते णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुषजातीसंभरणे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदयंसुपुनमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबकं पिच समुस्ससितरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-अज्जप्पमिती णं भंते ! मम दो अच्छीणि मोत्तुणं अवसेसे काए समणार्ण णिग्गंधाणं निसहेत्तिकट्ठ पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! इयाणि सयमेव दोचंपि सयमेव पवावियं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममातिक्खह, तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ, एवं देवाणुप्पिया! गन्तवं एवं चिट्ठियचं एवं णिसीयचं एवं तुपहियवं एवं भुंजियवं भासियवं उट्ठाय २ पाणाणं भूयाणं जीवाणं 49397 अनुक्रम [३८] ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: GRA प्रत सूत्रांक [२८] ॥ ७१॥ दीप ज्ञाताधर्म- सत्ताणं संजमेणं संजमितवं, तते णं से मेहे समणस्स भगवतो महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं उत्क्षिप्तकधाझम. सम्म पडिच्छति २ तह चिट्ठति जाव संजमेणं संजमति, सते णं से मेहे अणगारे जाए ईरियासमिए अण ज्ञाते मेगारचन्नओ भाणियचो, तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतारूवाणं थेराणं घस्य संवेसामातियमातियाणि एक्कारस अंगाति अहिज्जति २त्ता बहहिं चउत्थछट्टहमदसमदुवालसे हिं मासद्ध गप्रत्यागमासखमणेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरति.तते गं स. भ. महावीरे राय गिहाओ नगराओ गुणसि- तिः सू.२८ लाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरति (सूत्रं २८) 'अपडिलद्धसंमत्तरयणलंभेणं ति अप्रतिलब्धः-असंजातः, 'विपुलकुलसमुन्भवेण मित्यादौ णकारा वाक्यालङ्कारे निरुपहतं शरीरं यस्य स तथा दान्तानि-उपशम नीतानि प्राकाले लब्धानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन स तथा, ततः कर्मधारयः, पाठान्तरे निरुपहतशरीरप्राप्तश्चासौ लब्धपश्चेन्द्रियश्चेति समासः, 'एवं मित्युपलभ्यमानरूपैरुत्थानादिभिः संयुक्तो यः स तथा, तत्र उत्थानं-चेष्टाविशेषः बल-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकार:-अभिमानविशेषः पराक्रमः स एव साधितफल इति । नो18|| | सम्यक सहसे भयामाचेन क्षमसे क्षोभाभावेन तितिक्षसे दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयसि अविचलितकायतया, एकार्थिकानि वैतानि || | पदानि, तस्य मेषस्थानगारस्प जातिसरणं समुत्पममिति सम्बन्धः, समूत्पन्ने च तत्र किमित्याह-एतमर्थ-पूर्वोक्तं वस्तु सम्यक ॥१॥ MIT'अभिसमेइति अभिसमेति अवगच्छतीत्यर्थः । 'संभारियपुत्बजाईसरणे ति संस्मारितं पूर्वजात्योः-प्राक्तनजन्मनोः | सम्बन्धि सरण-गमनं पूर्वजातिसरणं यस्य स तथा, पाठान्तरे संस्मारितपूर्वभवः, तथा प्राकालापेक्षया द्विगुण आनीतः संवेगो अनुक्रम (३८) ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप | यस्य स तथा, आनन्दाथुभिः पूर्ण भृतं प्लुतमित्यर्थों मुखं यस्य स तथा, 'हरिसवस'त्ति अनेन 'हरिसबसविसप्पमाणहियए'त्ति द्रष्टव्यं, धाराहतं यत्कदम्बकं-कदम्भपुष्प तद्वत् समुच्छ्रितरोमकूपो रोमाश्चित इत्यर्थः, 'निसट्टे'ति निःसृष्टो दत्तः । अनगारवर्णको वाच्यः, स चाय-'ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिं| घाणजल्लपरिद्वावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते ३' मनाप्रभृतीनां समितिः-सत्प्रवृत्तिः गुप्तिस्तु| निरोधः अत एव 'गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तभयारी' बझगुप्तिमिः चाई-सङ्गानां वण्णे लज्जू-रज्जुरिवावक्रव्यवहारात् लज्जालुवों संयमेन लौकिकलज्जया वा 'तबस्सी खंतिखमें क्षान्त्या क्षमते यः स तथा 'जिइंदिए सोही' शोधयत्यात्मपराविति शोधी शोभी वा 'अणिदाणे अप्पुस्मए' अल्पौत्सुक्योऽनुत्सुक इत्यर्थः, 'अवहिल्लेसे' संयमादबहिर्भूतचित्तवृत्तिः 'सुसामण्यारए इणमेव निग्गथं पावयणं पुरओत्तिकट्ठ विहरई' निर्गन्धप्रवचनानुमार्गेण इत्यर्थः । तते णं से मेहे अणगारे अन्नया कदाइ समणं भगवं वंदति नमसति २ एवं वदासी-इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाते समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपजित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा परिवन्धं करेह. तते णं से मेहे समणेणं भगवया० अन्भणुनाते समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपजित्ताणं विहरति, मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं० सम्मं कारणं फासेति पालेति सोभेति तीरेति किट्टेति सम्मं कारण फासेत्ता पालित्ता सोभेत्तातीरेत्ता किटेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन्नाते समाणे अनुक्रम enesseeeeeeeeee [३८] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. प्रत उत्क्षिप्तज्ञाते प्रतिSमावहनादि सू. २९ सूत्रांक ॥७२॥ SOOreeeeeeeeta दोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं बिहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा परिवन्धं करेह, जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासियाए पढमसत्तराईदियाए दोचं सत्सरातिदियाए तइयं सत्तरातिदियाए अहोरातिदियाएवि एगराईदियाएवि, तते णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्म कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता कित्ता पुणरवि वंदति नमसइ २ त्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अन्भणुझाए समाणे गुणरतणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जिता णं विहरित्तए, अहामुहं देवाणुप्पिया। मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे अणगारे पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुफुडए सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रसिं बीरासणेणं अवाउडएणं दोचं मासं छटुंछट्टेणं तचं मासं अहमंअट्टमेणं. चउत्थं मासं दसमं २ अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुकुहूए सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अपाउडएणं पंचमं मासं दुवालसमं २ अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुफएए सूराभिमुहे आयावणभूमिए आयावेमाणे रर्सि धीरासणेणं अवाउडतेणं, एवं खलु एएणं अभिलावेणं छठे चोद्दसम २ सत्तमे सोलसमं २ अट्ठमे अट्ठारसम २ नवमे वीसतिमं २ दसमे बावीसतिमं २ एकारसमे चउबीसतिम २ बारसमे छबीसतिनं २ तेरसमे अट्ठावीसतिम २ चोइसमे तीसहमं २ पंचदसमे बत्तीसतिम २ चउत्तीसतिम २ सोलसमे अनुक्रम [३९] ॥७२॥ मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ---------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुकडएणं सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रति वीरासणेण य अवाउडतेण य, तते णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुतं जाव सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोभे तीरेइ किहह अहासुतं अहाकप्पं जाव किमुत्ता समर्ण भगवं महावीर बंदति नर्मसति २ बहहिं छहमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति (सूत्रं २९) 'अहासुहंति यथासुखं सुखानतिक्रमेण मा पडिबन्धं विघातं विधेहि विवक्षितस्येति गम्यं, 'भिक्खुपडिम'ति अभि| ग्रहविशेषः, प्रथमा एकमासिकी एवं द्वितीयाचाः सप्तम्यन्ताः क्रमेण द्वित्रिचतुष्पश्चषट्सप्तमासमाना:, अष्टमीनवमीदशम्यः । प्रत्येक सप्ताहोरात्रमानाः एकादशी अहोरात्रमाना द्वादशी एकरात्रमानेति, तत्र 'पडिचजइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्तो।। पडिमाओ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुनाओ॥१॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असंपुष्णा । नवमस्स तइय वत्थू होइ जहन्नो सुयाहिगमो ॥२॥वोसट्टचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहिया भत्तं च अलेवर्ड | तस्स ॥ ३ ॥ दुस्सहत्थिमाइ तओ भएणं पयंपि नोसरह । एमाइ नियमसेवी विहरह जाऽखंडिओ मासो ॥ ४॥ [प्रतिपद्यते एताः संहननधृतियुतो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यग् गुरुणाऽनुज्ञातः॥१॥ गच्छ एव निमोतो यावत्पूवाणि दश भवन्ति असंपूणोनि नवमस तृतीयं वस्तु भवति श्रुताधिगमो जघन्यः ॥२॥ व्युत्सृष्टत्यक्तदेह उपसगेसहो यथे। जिनकल्पी एषणाभिग्रहयुता भक्तं चालेपकृत्तस्य ॥ ३ ॥ दुष्टाश्वहस्त्यादयः (आगग्छेयुः) ततो भयेन पदमपि नापसरति । एवमादि एन्टरकन्टन्छन्छन्थ्य अनुक्रम [३९] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३९] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [१], मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ७३ ॥ नियमसेवी विहरति यावदखण्डितो मासः ॥ ४ ॥ ] इत्यादिग्रन्थान्तराभिहितो विधिरासां द्रष्टव्यः । यचेह एकादशाङ्गविदोऽपि मेघानगारस्य प्रतिमानुष्ठानं भणितं तत्सर्ववेदिसमुपदिष्टवादनवद्यमत्रसेयमिति, 'यथासूत्रं' सूत्रानतिक्रमेण 'यथाकल्प' प्रतिमाचारानतिक्रमेण 'यथामार्ग' ज्ञानाद्यनतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा कायेन न मनोरथमात्रेण 'फासे 'ति उच्चितकाले विधिना ग्रहणात् 'पालयति' असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् 'शोभयति' पारणकदिने गुरुदत्तशेष भोजन करणाव १ शोधयति वा अतिचारपङ्कक्षालनात् 'तीरयति' पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात् 'कीर्त्तयति' पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः ४ | कृत्यं कृतमित्येवं कीर्त्तनात् । गुणानां निर्जराविशेषाणां रचना करणं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यसिंस्तत्तपो गुणरचनसं वत्सरं गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तपसि तद्गुणरत्नसंवत्सरमिति, इह च त्रयोदश मासाः सप्तदश दिनाधिकास्तपः कालः, त्रिसप्ततिश्व दिनानि पारणककाल इति, एवं चार्य- "पण्णरस वीस चडवीस चैव चडवीस पण्णचीसा य । चउवीस एकवीसा चडवीसा सतवीसा य ॥ १ ॥ तीसा तेत्तीसावि य चउवीस छवीस अट्ठावीसा य । तीसा बत्तीसावि य | सोलस मासेसु तवदिवसा ||२|| पनरसदसट्ट छप्पंच चउर पंचसु य तिष्णि तिष्णित्ति | पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा || ३ ||" इह च यत्र मासे अष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयान्यधिकानि चाग्रेतनमासे क्षेतव्यानीति । 'उत्थमित्यादि, चखारि भक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थ, इयं चोपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिरूपवासद्वयादेरिति, 'अणिक्खि तेणं'ति अविश्रान्तेन 'दिया ठाणुकुटुएणं' दिवा दिवसे स्थानं आसनमुत्कुटुकं आसनेषु पुवालगनरूपं यस्य स तथा आतापयन्- आतापनां कुर्वन् 'वीरासणेणं ति सिंहासनोपविष्टस्य भुवि न्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदव Ecation intention मेघकुमारस्य तपोमय- संयम जीवनं For Park Lise Only ~ 156 ~ १उत्क्षिप्तज्ञाते मेघकुमारस्य प्रतिभावनादिसू. ३९ ॥ ७३ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: मंगज-८ (मूल वृत्ति 06969 प्रत सूत्रांक [२९] स्थानं तद्वीरासनं तेन व्यवस्थित इति गम्यते । किंभूतेन अप्रावृतेन-अविद्यमानप्रावरणेन स एव वा अप्राकृतः, शंकारस्तु अलङ्कारार्थः । तते णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पागहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुके भुक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडियाभूए अढिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था, जीवं जीवेणं गच्छति जीवं जीवेणं चिट्ठति भासं भासिता गिलायति भासं भासमाणे गिलायति भासं भासिस्सामित्ति गिलायति से जहा नामए इंगालसगडियाइ वा कट्टसगडियाइ वा पत्तसगडियाइ वा तिलसगडियाइ वा एरंडकट्ठसगडियाइ वा उण्हे दिन्ना मुका समाणी ससई गच्छइ ससई चिट्ठति एवामेव मेहे अणगारे ससई गच्छह ससई चिट्ठइ उवचिए तवेणं अवचिते मंससोणिएणं हुयासणे इच भासरासिपरिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे २ चिट्ठति । तेणं.कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्वगरे जाव पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दुतिजमाणे मुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २त्ता अहापडिरूवं जग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं तस्स मेहस्स'अणगारस्स राओ पुषरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमे] अनुक्रम [३९] Auditurary.com मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~157. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्, (१क्षिप्त| ज्ञाते मे प्रत सूत्रांक [३०,३१] पकुमार ॥ ७४॥ स्यानशनं गतिश्च सू. ३०-३१ दीप एरdeceaeedeces उरालेणं तहेव जाव भासं भासिस्सामीति गिलामि तं अस्थि ता मे उहाणे कम्मे बले बीरिए पुरिसकारपरकमे सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले बीरिए पुरिसगारपरकमे सद्धा घिई संवेगे जाव इमे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरति ताव ताव मे सेयं कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सूरे समणं ३ वंदित्ता नमंसित्ता समणेणं भगगता महावीरेणं अन्भणुन्नायस्स समाणस्स सयमेव पंच महत्वयाई आकहित्ता गोयमादिए समणे निर्गधे निम्गंधीओ य खामेत्ता तहारूवेहि कडाईहिंधेरेहिं सद्धिं विउलं पचयं सणियं सणिर्ष दुरूहित्ता सयमेव मेघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता संलेहणाझूसणाए झुसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खितस्स पाओवगयस्स कालं अणवखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेति २ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते जेणेष समणे भगवं महावीरे तेणेच स्वागच्छति २ समणं ३ तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेह २त्ता वंदति नमसति २ नचासन्ने नातिदूरे सुस्सुसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियपुडे पज्जुवासति, मेहेति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वदासी-से पूर्ण तव मेहा! राओ पुवरसावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अजमस्थिते जाव समुपज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेच हवमागए, से शृणं महा अट्टे समडे, हता अस्थि, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह, तते णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया. अन्भणुनाए अनुक्रम [४०,४१] ॥७४॥ | मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवन ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: -गिसूत्र- (मूलम्वृति प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप Berderneseseaedeceae समाणे हट्ट जाव हियए उट्ठाइ उडेर २त्ता समणं ३ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २त्ता चंदर नमंसह २त्सा सयमेव पंच महच्वयाई आरुभेइ २त्ता गोयमाति समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य खामेति खामेत्ता य तहारूवेहि कडाई हिं धेरेहिं सद्धिं विपुलं पवयं सणियं २ दुरूहति २ सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहति २ उच्चारपासवणभूमि पडलेहति र दम्भसंधारगं संथरति २दन्भसंधारगं दुरूहति २ पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसने करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्ट एवं पदासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताण, णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तस्थगयं इहगए पासउ मे भगवं तत्थगते इहगतंतिकटु वंदति नमसह २त्ता एवं वदासी-पुर्विपिय णं मए समणस्स ३ अंतिए सधे पाणाइवाए पच्चक्खाए मुसावाए अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे पेजे दोसे कलहे अभक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरतिरति मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पञ्चक्खाते, इयाणिंपिणं अहं तस्सेव अंतिए सर्च पाणातिवायं पञ्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पथक्वामि, सर्व असणपाणखादिमसातिमं चउचिहंपि आहारं पचक्खामि जावजीवाए, जंपि य इमं सरीरं इदं कंतं पियं जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीतिकटु एयंपिय णं चरमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामित्तिकटु संलेहणाझूसणासिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरति, तते णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगा अनुक्रम [४०,४१] मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 कथाङ्गम् प्रत सूत्रांक [३०,३१] ॥ ७५|| १उत्क्षिप्त| ज्ञाते मेघकुमारस्थानशनं गतिश्च सू. ३०-३१ दीप रस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति । तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिन्जित्ता बहुपडिपुन्नाई दुवालस वरिसाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेता आलोतियपडिकते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते आणुपुषेणं कालगए, तते ण ते घेरा भगवंतो मेहं अणगारं आणुपुवेणं कालगयं पासेंति २ परिनिवाणवत्तियं काउस्सर्ग करेंति २ मेहस्स आयारभंडयं गेण्हंति २ विउलाओ पचयाओ सणियं २ पच्चोरहंति २जेणामेव गुणसिलए चेइए जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उबागच्छति २त्ता समणं ३ वदति नमसंति २त्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेबासी मेहे णामं अणगारे पगहभद्दए जाब विणीते से णं देवाणुप्पिएहिं अन्भणुनाए समाणे गोतमातिए समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य खामेसा अम्हहिं सद्धि विउल पवयं सणियं २ दुरूहति २ सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलं पट्टयं पडिलेहेति २ भत्तपाणपडियाइक्खित्ते अणुपुवेणं कालगए, एसणं देवाशुप्पिया मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए।(सूत्रं ३०) भंतेत्ति भगवं गोतमे समणं उ वंदति नमसति २ सा एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे णाम अणगारे से णं भंते ! मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ?. गोतमादि समणे भगवं महावीरे भगर्व गोयम एवं बयासीएवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी मेहे णामं अणगारे पगतिभद्दए जाच विणीए से गं तहारूवाणं अनुक्रम [४०,४१] ReceACROS ॥ ७५॥ मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप अनुक्रम [ ४०, ४१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १ ], मूलं [ ३०,३१] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्यातिं एक्कारस अंगातिं अहिजति २ वारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं कारणं फासेत्ता जाव कित्ता मए अन्भणुन्नाए समाणे गोयमाह थेरे खामेइ २ तहारू जाव बिलं पयं दुरूहति २ दब्भसंधारगं संधरति २ दम्भसंधारोवगए सयमेव पंच महत्रए उच्चारेह बारस वासातिं सामण्णपरिगायं पाउणित्ता मासियाए संदेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सद्धिं भप्तातिं अणसणाए छेदेत्ता आलोयपडिते उद्वियसले समाहिपत्ते कालमासे कालं किया उद्धं चंदिमसूरगहगणणक्ख सतारारूवाणं बहूई जोयणाई बहूई जोपणसपाई बहूई जोयणसहस्साइं बहूई जोयणसयसहस्साई बहू जोयणकोटीओ बहूइ जोअणकोडाकोडीओ उहं दूरं उप्परता सोहमीसाणसणकुमारमादिबं भलंतगमहासुक्कसहस्साराणयपाणयारणच्चुते तिष्णि य अट्ठारसुसरे गेवेज्जविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवताए उबवण्णे, तत्थ णं अस्थेगइयाणं देवाणं तेतीसं सागारोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं मेहस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमातिं ठिती पं०, एस णं भंते मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आक्खएणं टितिक्खएणं भवक्खएणं अनंतरं चयं चहप्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उवबज्जिहिति १, गो० ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुविहिति परिनिवाहिति सबदुक्खाणमंत काहिति । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालंभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अथमट्टे पन्नत्ते तिबेमि (सूत्रं ३१ ) पढमं अज्झयणं समत्तं । मेघकुमारस्य तपोमय- संयम- जीवनं For Parts Only ~ 161~ www.anibrary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप ज्ञाताधर्म-18 'उरालेण मित्यादि, उरालेन-प्रधानेन विषुलेन-बहुदिनखाद्विस्तीर्णेन सश्रीकेण-सशोभेन 'पयत्तेणं ति गुरुणा प्रदत्तेन प्रयल-18 कथाजमवता वा प्रमादरहितेनेत्यर्थः प्रगृहीतेन-बहुमानप्रकोंगृहीतेन कल्याणेन नीरोगताकरणेन शिवेन शिवहेतुखात् धन्येन धनावह-I ज्ञाते मे खात् मङ्गल्येन दुरितोपशमे साधुखात् उदग्रेण-तीवेण उदारेण-औदार्यवता निःस्पृहखातिरेकात् 'उत्तमेणं'ति ऊर्दू तमसः- घकुमारअज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन अज्ञानरहितेनेत्यर्थः महानुभागेन-अचिन्त्यसामर्थेन शुष्को नीरसशरीरखात, 'भुक्खे'त्ति बुभुक्षावशेन | स्थानशनं रूक्षीभूतत्वात् किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशेषः तां भूत:-प्राप्तो यः स तथा, अस्थीनि गतिश्च सू. चर्मणाऽवनद्धानि यस्य स तथा, कशो-दुर्वलो धमनीसन्तत:-नाडीव्याप्तो जातचाप्यभूत, 'जीवं जीवेणं गच्छति' जीवबलेन|8| ३०-३१ |शरीरबलेनेत्यर्थ: 'भासं भासित्ता इत्यादौ कालत्रयनिर्देश: 'गिलायति तिग्लायति ग्लानो भवति 'सेइति अथा: अपशब्दश्च || वाक्योपक्षेपार्थः यथा दृष्टान्तार्थः नामेति संभावनायां एवेति वाक्यालकारे अङ्गाराणां भृता शकटिका-गत्री अङ्गारशकटिका, एवं काष्टानां पत्राणां पणोंनां तिलनि तिलदण्डकानां, एरण्डशकटिका-एरण्डकाष्ठमयी, आतपे दत्ता शुष्का सतीति विशेषणद्वयं आद्रेकाष्ठपत्रभृतायाः तस्सा न (शब्दः) संभवति, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः वाशब्दा विकल्पार्थाः, सशब्दं गच्छति तिष्ठति वा, एवमेव मेघोऽनगारः सशब्दं गच्छति सशब्द तिष्ठति हुताशन इव भसाराशिप्रतिच्छन, 'तवेर्णति तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायो-यथा भसच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृत्या तेजोरहितोऽन्तच्या तु ज्वलति एवं मेघोजगारोऽपि बहिवृत्त्याऽपचितमांसादित्वानिस्तेजा ॥७६॥ अन्ततच्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति, उक्तमेवाह-तपस्तेजःश्रिया अतीवातीव उपशोभमानः २ तिष्ठतीति । 'तं अस्थि ता मेति तदेवमस्ति तावन्मे उत्थानादि न सर्वथा क्षीणं वदिति भावः तं जाव ता मेचि तत्-तस्मात् यावन्मेऽस्ति उत्थानादि अनुक्रम [४०,४१] | मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०,३१] दीप ता इति भाषामात्रेण यावच मे धर्माचार्यः 'मुहस्थीति पुरुषवरगन्धहस्ती शुभाः वा क्षायिकज्ञानादयो यस्य स तथा 'ताव | ताव'चि तावच तावचेति वस्तुद्वयापेक्षा द्विरुक्तिः 'कहाईहिंति कृतयोग्यादिभिः, 'मेहघणसन्निगासंति घनमेघसदृशं | कालमित्यर्थः, 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्सति प्रत्याख्यातभक्तपानस्य, कालं'ति मरणं 'जेणेव इहंति इहशब्दविषयं स्थान इदमित्यर्थः, संपलियंकनिसपणे ति पद्मासनसनिविष्टः पेज्जे ति अभिष्वङ्गमात्र दोस'त्ति अप्रीतिमात्र अभ्याख्यान-असदोषारो पणं पैशून्यं-पिशुनकर्म परपरिवादः-विप्रकीर्णपरदोषकथा अरतिरती धर्माधर्माङ्गेषु मायामृषा-वेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारणं 8 संलेखना-कषायशरीरकशतां स्पृशतीति संलेखनास्पर्शकः, पाठान्तरेण 'संलेहणाझूसणाझसिय'त्ति संलेखनासेवनाजुष्टः इत्यर्थः। 'मासियाए'ति मासिक्या मासपरिमाणया 'अप्पाणं झूसितेत्ति क्षपयित्वा पष्टिं भक्तानि 'अणसणाए'ति अनशनेन छिच्चा-व्यवच्छेद्य, किल दिने २ द्वे द्वे भोजने लोकः कुरुते एवं च त्रिंशता दिनैः पष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति, 'परिनियाणवत्तियति परिनिर्वाणमुपरतिर्मरणमित्यर्थः तत्प्रत्ययो-निमित्तं यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः मृतकपरिष्ठापनाकायोत्सर्ग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, 'आयारभंडगं'ति आचाराय-ज्ञानादिभेदभिनाय भाण्डकं-उपकरणं वर्षाकल्पादि आचारभाण्डक, 'पगइभद्दए'इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यं 'पगइउबसन्ते पगइपयणुकोहमाणमायालोमे मिउमद्दवसंपन्ने आलीणे मद्दए विणीए'त्ति तत्र प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव भद्रका-अनुकूलवृत्तिः प्रकृत्यैवोपशान्तः-उपशान्ताकारः, मृदु च तन्माईवं च मृदुमाईव-अत्यन्तमार्दवं इत्यर्थः, आलीन:-आश्रितो गुर्वननुशासनेऽपि सुभद्रक एवं यः स तथा 'कर्हि गए'ति कस्यां गतो गतःच देवलोकादौ उत्पनी ? जातः, विजयविमानमनुत्तरविमानानां प्रथमं पूर्वदिगभागवर्ति, तत्रोत्कृष्टादिस्थिते वादाह अनुक्रम [४०,४१] REmainalia मेघकुमारस्य तपोमय-संयम-जीवनं ~163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [३०,३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [३०,३१] ॥७७॥ 'तत्धे'त्यादि, आयुःक्षयेण-आयुर्दलिकनिर्जरणेन स्थितिक्षयेण-आयुःकर्मणः स्थितेर्वेदनेन भवक्षयेण-देवभवनिवन्धनभूतक-18 उत्क्षिप्त| मेणां गत्यादीनां निजेरणेनेति । अनन्तरं देवभवसम्बन्धिनं चर्य-शरीरं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा अथवा च्यव-पयवनं कृता सेत्स्यति ज्ञाते में| निष्ठितार्थतया विशेषतः सिद्धिगमनयोग्यतया महर्द्धिप्राप्त्या वा भोत्स्यते केवलालोकेन मोक्ष्यते सकलकोशः परिनिर्वास्थति-11 घकुमार खस्थो भविष्यति सकलकर्मकृतविकारविरहिततया, किमुक्तं भवति ?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति । 'एवं खल्वि'त्यादि। स्थानशनं निगमनं 'अप्पोपालंभनिमित्तं' आप्तेन हितेन गुरुणेत्यर्थः उपालम्मो-विनेयस्याविहितविधायिनः आलोपालम्भः स निमित्तं गतिश्च सू. यस्य प्रज्ञापनस तत्तथा । प्रथमख ज्ञाताध्ययनसायं-अनन्तरोदितः मेघकुमारचरितलक्षणोऽर्थोऽभिधेयः प्रज्ञप्त:-अभिहितः ।। १०-११ | अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य गुरुणा मार्गे स्थापनाय उपालम्भो देयो यथा भगवता दत्तो मेघकुमारायेत्येवमर्थ प्रथममध्ययनमित्य| भिप्रायः। इह गाथा-महुरेहिं निउणेहि वयणेहि चोययंति आयरिया । सीसे कहिचि खलिए जह मेहमुर्णि महावीरो ॥१॥1 [मधुरैनिपुणैर्वचनैः स्थापयन्ति आचार्याः। शिष्यं कचित् स्खलिते यथा मेघमुनि महावीरः ॥१॥] इतिशब्दः समाप्ती, अधीमीति-प्रतिपादयाम्येतदहं तीर्थकरोपदेशेन, न खकीयबुद्ध्या, इत्येवं गुरुवचनपारतव्यं सुधर्मखामी आत्मनो जम्बूखामिने | प्रतिपादयति, एवमन्येनापि मुमुक्षणा भवितव्यमित्येतदुपदर्शनार्थमिति । ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमं ज्ञातविवरणं मेघकुमार-RI७७ ॥ कथानकाख्यं समाप्तं । दीप अनुक्रम [४०,४१] SARERatininemarana wirectorary.com अत्र अध्ययन-१ परिसमाप्तम् ~164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [४२] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [३२] श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः अथ संघाटाख्यं द्वितीयं ज्ञाताध्ययनं व्याख्यायते ॥ अस्य च पूर्वेण सहा सम्बन्धः, पूर्वस्मिन्ननुचितप्रवृत्तिकस्य शिष्यस्य उपालम्भ उक्तः, इह वनुचितप्रवृत्तिकोचितप्रवृत्तिकयोरनर्थार्थप्राप्तिपरम्पराऽभिधीयते इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमुपक्षेपसूत्रं Education Internation जति णं भंते! समणेण भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नन्ते वितीयस्स णं भंते ! नायज्झयणस्स के अट्टे पनन्ते १, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्था नओ, तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेतिए होत्था नओ, तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिष्णुजाणे यावि होत्या विणदेवउले परिसडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिवच्छच्छाइए अणेगवालसपसंकणिज्जे यावि होत्था, तस्स णं जिलाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गनुबए यावि होत्था, तस्स णं भग्गनुवस्सं अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किन्हे किन्होभासे जाव रम्मे महामेहनिरंवभूते बहहिं रुक्स्खेहि य गुच्छेहि य गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य कुसेहि य खाणुरहि य संच्छन्ने पलिच्छन्ने अंतो सिरे बाहिं गंभीरे अणेगवालसयसंकणि यावि होत्था । (सूत्रं ३२ ) अथ अध्ययनं २ "संघाट: " आरभ्यते For Parts Only ~ 165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [३२] ज्ञाताधर्म- 'जइ णमित्यादि, कण्ठ्यं 'एवं खल्वि'त्यादि तु प्रकृताध्ययनार्थसूत्रं सुगमं चैतत्सर्व नवरं जीर्णोद्यानं चाप्यभूत , चापीति | संघाटकथाङ्गम्. समुच्चये अपिचेत्यादिवत् , विनष्टानि देवकुलानि परिसटितानि तोरणानि प्राकारद्वारदेवकुलसम्बन्धीनि गृहाणि च यत्र तत्तथा, ज्ञातं सू. नानाविधा ये गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मा वंशजालीप्रभृतयः लता:-अशोकलतादयः वल्या-त्रपुषीप्रभृतयः वृक्षाः-सह- २२ ॥७८॥ कारादयः तैः छादितं यत्तत्तथा, अनेकालशतैः-श्वापदशतैः शनीयं-भयजनकं चाप्यभूत, शङ्कनीयमित्येद्विशेषणसम्ब-18| न्धलाक्रियावचनस न पुनरुक्तता, 'मालुकाकच्छए'ति एकास्थिफलाः वृक्षविशेषाः मालुका: प्रज्ञापनाभिहितास्तेषां कक्षो-गहनं मालुकाकक्षा, चिटिकाकच्छक इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः । 'किण्हे किण्होभासे' इह यावत्करणा| दिदं दृश्य, "नीले नीलोभासे, हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे निद्धे निद्धोभासे तिचे तिबोभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीये सीयच्छाए निद्धे निद्धच्छाए तित्वे तिवच्छाए घणकडियडच्छाए"त्ति कृष्णः कृष्णवर्ण:अञ्जनव खरूपेण कृष्णवर्ण एवावभासते-द्रष्टणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, किल किश्चिद्वस्त खरूपेण भवत्यम्यादृशं प्रतिभासते तु सनिधानविप्रकषादेः कारणादन्यारशमिति, एवं कचिदसौनीलो मयूरग्रीवेव कचित हरितः शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धवाः, तथा शीतः स्पर्शतः वल्याचाक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः,स्निग्धो न रूक्षः तीब्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् तथा कृष्णः सन् वर्णतः कृष्णच्छायः, IS छाया च-दीप्तिरादित्यकरावरणजनिता वेति, एवमन्यत्रापि 'घणकडियइच्छाए'चि अन्योऽन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशात् घननि- ॥७८ ॥ रन्तरच्छायो रम्यो महामेघानां निकुरम्बः-समूहस्तद्वद् यः स महामेघनिकरम्बभूतः,वाचनान्तरे विदमधिकं पठ्यते-'पत्तिए पुफिए। ॥ फलिए हरियगरेरिजमाणे' हरितकथासौ रेरिजमाणेति-भृशं राजमानश्च यः स तथा "सिरीए अईव २ उपसोमेमाणे चिट्ठइति अनुक्रम [४२ । SARERainintenarana ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] cceserverececeaeseseseatree श्रिया-वनलक्ष्म्या अतीव २ उपशोममानस्तिष्ठति 'कुसेहि यति दभैः कचित् 'कूविएहि यचि पाठः तत्र कूपिकामिः लिङ्गव्यत्ययात् 'खाणुएहिन्ति स्थाणुभिश्च पाठान्तरेण खत्तएहिति खातेगतरित्यर्थः, अथवा 'कूविएहिंति चोरगवेषकैः खत्तएहिति खातकै क्षेत्रखेति गम्यते चौररित्यर्थः, अयमभिप्रायो-गहनत्वात् तस्य तत्र चौराः प्रविशन्ति तद्गवेषणार्थमितरे चेति, संछनो-व्याप्तः परिच्छन्नः-समन्तात् अन्तः-मध्ये शुषिरः सावकाशवात् बहिगंभीरो दृष्टेरप्रक्रमणात् । तत्थ णं रायगिहे नगरे धपणे नाम सत्यवाहे अहे दित्ते जाव विउलभत्तपाणे, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाणपडिपुनसुजातसवंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमझा कुंडलल्लिहियगंडलेहा कोमुदिरयणियरपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारवेसा जाव पडिरूवा वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था। (सूत्रं ३३) तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था सवंगसुंदरंगे मंसोवचिते बालकीलावणकुसले याषि होत्था, तते णं से घण्णे सत्यवाहे रायगिहे नयरे बहणं नगरनिगमसेडिसत्थवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणियप्पसेणीर्ण बहुसु कजेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य जाव चक्खुभूते यावि होत्था, नियगस्सवि य णं कुटुंबस्स बहुसु य कज्जेसु जाव चक्खुभूते याचि होत्था (सूत्रं ३४)तत्य रायगिहे नगरे विजए नामं तकरे होत्था, पावे चंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसियदित्तरत्तनयणे खरफरुसमहल्लविगयबीभत्थदाढिए असंपु अनुक्रम See [४२] | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३३-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [३३-३५] IS२ संघाट ज्ञाते ध. न्यपन्थकविजयाधि दीप अनुक्रम [४३-४५] डितउढे उदुधपइन्नलंयंतमुद्धए भमरराहुबन्ने निरणुकोसे निरणुतावे दारुले पइभर निसंसतिए मित्सुईये अहिव एगंतदिहिए खुरेव एर्गतधाराए गिद्धेव आमिसत्तल्लिच्छे अग्गिमिव सबभकखे जलमिव सहगाही उकंचणवंचणमायानियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुले चिरनगरविणट्टदुट्टसीलायारचरित्ते जूयषसंगी मज्जपसंगी भोजपसंगी मंसपसंगी दारुणे हिययदारए साहसिए संधिच्छेयए उवहिए विस्संभचाप्ती आलीयगतित्वमेयलहहत्यसंपउत्ते परस्स दवहरणमि निचं अणुबद्धे तिववेरे रायगिहस्स नगरस्स बहणि अइगमणाणि य निग्गमणाणि प दाराणि य अवदाराणिय छिडिओय खंडीओ य नगरनिद्धमणाणि य संवणाणि य निबद्दणाणि य जवखलयाणि य पाणागाराणि य वेसागाराणि य तद्दारहाणाणि प तकरहाणाणि य तकरचराणि य सिंगाडगाणि य तियाणि य चउकाणि य चचराणि य नागघराणिय भूपधराणि य जक्खदेउलाणि य सभाणि य पवाणि य पणिसालाणि य सुन्नघराणि य आभोएमाणे २ मग्नमाणे मवेसमाणे बहुजणस्स छिदेसु य विसमेसु य विहुरेसु व वरुणेसु य अन्भुदएमु य उस्सवेसु य पसवसु य तिहीसु य छणेसु य जनेमु य पदणीसु य मरापमसस्स व वक्वित्सस्स य वाजलस्स य सुहितस्स व दुषिवयस्स विदेसस्थस्स य विष्पवसिषस्स य मगं च छिदं च विरहं च अंतरं च मग्गमाणे गयेसमाणे एवं च विहरति, बहियादि य रायगिहस्स मगरस्स आरामेसु य अजाणेसुवावियीवखरणीदीहिषागुंजालियासरेसु प सरपंतिम व सरसरपंतियासु व जिष्णुज्यानेसु य भग्नकुमारसर ॥७९॥ धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३३-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३-३५]] ब मालुपाकच्छएस य सुसाणएमु व गिरिकंदरलेणचट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव एवं च णं विहरति (सून ३५) "अड्डे दिसे' इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं "विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइने बहुदासदासीमोमहिसमवेलायभूए । बहुधणबहुजावरूवरवए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियविउलमत्तपाणे"ति व्याख्या खख मेवकुमारराजवर्धकवल भद्राव कस्य तु धारिणीवर्णकवमवर 'करयल'त्ति अनेन करयलपरिमियतिवलियमझा इति एवं 'वंशत्ति अपत्यफलापेक्षया ! निष्फला 'अवियाउरिति प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फलतो बन्ध्या भवतीत्यत्त उच्यते-अवियाउरित्ति-अविजननशीला K अपत्यानामत एवाह-जानुकूपराणामेव माता-जननी जानुकूपरमाता, एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः सनौ स्पृशन्ति नापत्य मित्यर्थः, अथवा जानुकूपराण्येव मात्रा-परप्रणोदे साहाय्ये समर्थ उत्सङ्गानिवेशनीयो वा परिकरो बखान पुत्रलक्षणः सा जानुपरमात्रा । 'दासचेडे ति दासस्य-भृतकविशेषस्य चेट:-कुमारक: दासचेटः अथवा दासश्चासौ चेटश्चेति दासचेटः। Me 'सकरे'ति चौरः 'पापस्य' पापकर्मकारिणः चाण्डालस्येव रूप-स्वभावो यस स तथा, चण्डालकर्मापेक्षया भीमतराषि रौद्राणि कम्माणि यस्य स तथा, 'आरुसिय'ति आरुष्टस्पेव दीप्ले-रक्ते नयने यस्य स तथा, खरपरुषे-अतिकर्कशे महत्यौ विकृतेबीभत्से दंष्ट्रिके-उत्तरोष्टकेशगुच्छरूपे दशन विशेषरूपे वा यस्य स तथा, असंघटितौ असंवृतौ वा परस्परालामा तुच्छबादशनदीर्धसाब ओष्ठौ यस्य स तथा उद्भूता-वायुना प्रकीर्णा लम्बमाना मूर्द्धजा यस स तथा, प्रमरराहुवर्णः कृष्ण इत्यर्थः, निरउक्रोशो निर्दयो 'निरमुसाप: पाचापरहितः अत एव 'दारुणो' रौद्रः अत एव 'प्रतिभयो भयजनकः 'नि:संका दीप अनुक्रम [४३-४५] Geeta | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३३-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: झाताधर्म- कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [३३-३५]] ॥८ ॥ दीप अनुक्रम [४३-४५] यिका शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्याम्येवेत्येवंप्रवृत्तिकः पाठान्तरे 'निसंसेति नृन्-नरान् शंसति-हिनस्तीति नृशंसः निःशंसो संघात वा-विगतश्लाघः, 'निरणुकंपेति विगतप्राणिरक्षः निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स तथा, अहिरिव एकान्ता-प्रायमेवेदं मये-18ज्ञाते - त्येवमेवनिश्चया दृष्टियख स तथा 'खुरेव एगंतधाराए'त्ति एकत्रान्ते-वस्तुभागेऽपहतेव्यलक्षणे धारा परोपतापप्रधानवृत्ति-18ग्यपन्थक लक्षणा यस स तथा, यथा क्षुरप्रः एकधारः, मोषकलक्षणैकप्रवृश्चिक एवेति भावः, 'जलमिव सबगाहित्ति यथा जलं सर्व खवि-विजयाधि षयापनमभ्यन्तरीकरोति तथाऽयमपि सर्व गृहातीति भावः, तथा उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटैः सह योऽतिसंप्रयोगो- सू. ३३गाध्यं तेन बहुल:-प्रचुरो यः स तथा, तत्र ऊर्द्ध कश्चन मूल्याधारोपणार्थ उत्कञ्चनं हीनगुणस्य गुणोत्कर्षप्रतिपादनमित्यर्थः ३४-३५ |वश्चनं प्रतारणं माया-परवञ्चनबुद्धिः निकृतिः-यकवृपया गलकर्तकानामिवावस्थानं कूट-कार्षापणतुलादेः परवञ्चनार्थे न्यूना-ISH धिककरणं कपट-नेपथ्यभाषाविपयर्यकरणं एभिरुत्कश्चनादिभिस्सहातिशयेन यः संप्रयोगो-योगस्तेन योबहुलः स तथा, यदिवा सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगः, ततश्चोत्कञ्चनादिभिः सातिसंप्रयोगेण च यो बहुलः स तथा, उक्तं च सातिप्रयोगशब्दार्थाय-"सो होई साइजोगो दवं जं छुहिय अन्नदसु । दोसगुणा वयणेसु य अत्थविसंवायणं कुणइ ॥१॥" चि एकीय व्याख्यानं, व्याख्यानान्तरं पुनरेवं-उत्कोचनं उत्कोचः निकृतिः वश्चनप्रच्छादनार्थ कमें| साति:-अविश्रम्मः एतत्संप्रयोगे बहला, शेष तथैव, चिरं-बहकालं यावत् नगरे नगरस्य वा विनष्टो-विप्लुतः चिरनगरविनष्टः,II बहुकालीनी यो नगरविनष्टो भवति स किलात्यन्तं धूर्तो भवतीत्येवं विशेषितः, तथा दुष्टं शील-स्वभावः आकार:-आकृति १ स भवति सातियोगो यद् द्रव्यमन्यद्रव्येषु क्षिप्ता । दोषगुणान् बचनेषु च अर्थविसंवादनं करोति ॥१॥ SAREarattin international धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३३-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३-३५]] Coesses09200000000000 दीप अनुक्रम [४३-४५] अरित्रं च-अनुष्ठानं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, यूतप्रसङ्गी-धूतासक्तः एवमितराणि, नवरं भोज्यानि-खण्डखायादीनि, पुनर्दा-18 रुणग्रहणं हृदयदारक इत्यस्य विशेषणार्थेखान पुनरुक्तं, लोकानां हृदयानि दारयति-स्फोटयतीति हृदयदारकः, पाठान्तरेण जण-18 हियाकारए' जनहितस्याकर्तेत्यर्थः, 'साहसिका' अवितर्कितकारी 'सन्धिच्छेदका' क्षेत्रखानकः 'उपधिको' मायिलेन प्रच्छमचारी विश्रम्भघाती' विश्वासघातकः आदीपक:-अग्निदाता तीर्थानि-तीर्थभूतदेवद्रोण्यादीनि भिनत्ति-द्विधा करोति तद्रव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति तीर्थभेदः, लघुभ्यां-क्रियासु दक्षाभ्यां हस्ताभ्यां संप्रयुक्तो यः स तया, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, परस्प द्रव्यहरणे नित्यमनुषद्धः प्रतिबद्ध इत्यर्थः, 'तीववैर अनुबद्धविरोधः 'अतिगमनानि प्रवेशमार्गान् 'निर्ग-18॥ मनानि' निस्सरणमार्गान् 'द्वाराणि' प्रतोल्यः 'अपरद्वाराणि' द्वारिकाः 'छिण्डी' छिण्डीका:-वृत्तिच्छिद्ररूपाः 'खण्डी प्राकारच्छिद्ररूपाः नगरनिर्द्धमनानि-नगरजलनिर्गमक्षालान् 'संवर्तनानि मार्गमिलनस्थानानि 'निवर्तनानि' मार्गनिर्घटनस्था-11 | नानि 'यूतखलकानि' यूतस्थण्डिलानि 'पानागाराणि' मद्यगेहानि 'वेश्यागाराणि' वेश्याभवनानि 'तस्करस्थानानि' शून्यदेवकुलागारादीनि 'तस्करगृहाणि' तस्करनिवासान् शुझाटकादीनि प्राग् व्याख्यातानि सभाः-जनोपवेशनस्थानानि अपा:जलस्थानानि, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतखात्, 'पणितशालाः' हटान् शून्यगृहाणि-प्रतीतानि 'आभोगयन्' पश्यन् 'मार्गपन्' अन्वयधर्मपर्यालोचनतः 'गवेषयन्' व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनतः बहुजनस्य 'छिद्रेषु' प्रविरलपरिवारत्वादिषु चौरप्रवेशाव-18 काशेषु 'विषमेषु' तीव्ररोगादिजनितातुरत्वेषु 'विधुरेपु' इष्टजनबियोगेषु 'व्यसनेषु' राज्यायुपप्लवेषु तथा 'अभ्युदये। राज्यलक्ष्म्यादिलाभेपु 'उत्सवेषु' इन्द्रोत्सवादिषु 'प्रसवेषु' पुत्रादिजन्मसु 'तिथिषु' मदनत्रयोदश्यादिषु 'क्षणेषु' बहुलो | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३३-३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: कथानम् प्रत सूत्रांक [३३-३५] ॥८॥ दीप अनुक्रम [४३-४५] कभोजनदानादिरूपेषु यज्ञेषु' नागादिपूजासु 'पर्वणीषु कौमुदीप्रभृतिषु अधिकरणभूनासु मत्तः पीतमयतया बमत्तब-18 संघाटप्रमादवान् या स तथा तस्य बहुजनस्येति योगः, 'व्याक्षिप्तस्य प्रयोजनान्तरोपयुक्तस्य व्याकुलस्य च नानाविधकार्याक्षेपेण 8 ज्ञाते ध. सुखितस्प दुःखितस्य च विदेशस्वस्य च-देशान्तरस्थस्य विमोषितस्य च-देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्तस्य 'मार्ग च' पन्थानं निंन्यपन्थक ' अपद्वारं 'चिरहं च विजन अन्तरं च-अवसरमिति आरामादिपदानि प्राग्वत् 'सुसाणेसु यति श्मशानेषु 'गिरिकन्द- विजयाधि रेषु' गिरिरन्धेषु 'लयनेषु' गिरिवर्तिपाषाणगृहेषु 'उपस्थानेषु' तथाविधमण्डपेषु बहुजनस्य छिद्रवित्यादि पुनरावर्तनीयं सू. ३३यावद् एवं च विहरदचि । तते णं तीसे भाए भारियाए अनया कयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुडुबजागरियं जागरमाणीय अयमेपारूचे अजमथिए जाव समुपज्जित्था-अहं धपणेण सत्यवाहेण सद्धिं बहणि चासाणि सरफरिसरसगंधरूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाई पचणुभवमाणी विहरामि, नो चेच णं अहं दारगं वा दारिणं वा पवायामि, तं घनाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव मुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तार्सि सम्म याणं जार्सि मने जिगयकुच्छिसंभूयाति धणदुद्धलद्धयाति महरसमुल्लावगार्ति मम्मणवर्णपियार्मि थम मूलकखदेसभागं अभिसरमाणात मुद्धयाई थणयं पिवंति, ततो य कोमलकमलोचमेरि हत्थेहि मिचिहकर्म उच्छंगे निवेसियाई देति समुल्लापए पिए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पमणिते, तं अहन्नं अपना अनुमा अलक्षणा अकयपुन्ना एतो एगमवि न यता, तसेयं मम कहलं पापभायाए श्यणीए जाब जलंचे ॥८१।। धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ---------------- मूलं [३६-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप धण्णं तस्थवाहं आपुफिछत्ता धणेण सस्थवाहेणं अब्भणुनाया समाणी सुबहुं विपुलं असणाणकातिमसातिम वक्खडावेत्ता सुबहुं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारंगहाय वहहिं मित्तनानिमियगसपणसंबंधिपतिजणमहिलाहिं सद्धिं संपरिबुद्धा जाई इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया यागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणिय खंदाणि य रुहाणि य सेवाणि य वेसमणाणि य तत्थ णं बहूर्ण नागपडिमाण य जाव वेसपणपडिमाण य महरिहं पुष्फचणियं करेत्ता जाणुपायपडियाए एवं वइत्तए-जहणं अहं देवाणुप्पिया ! दारमं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं तुम्भं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुबहमित्ति कटु उचातिवं उवाइत्तए, एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलंते जेणामेव धपणे सत्यवाहे तेणामेव उवागच्छति उवागच्छिता एवं वदासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया तुम्भेहिं सद्धिं बहूई वासात जाव देति समुल्लावए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभणिते तणं अहं अहन्ना अपुन्ना अकयलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता, तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! तुम्भेहिं अभणुन्नाता समाणी विपुलं असणं ४ जाव अणुवढेमि उवाइयं करेसए, तते णं धपणे सस्थवाहे भई भारियं एवं वदासी-ममंपि य णं खलु देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे-कहं णं तुमं दारगं दारियं वा पयाएजसि ?, भद्दाए सस्थवाहीए एयमट्ठमणुजाणति, त्वते णं सा भद्दा सत्यवाही धपणेणं सत्यवाहेणं अन्भणुन्नाता समाणी हट्टतुट्ठ जाव हयहियया विपुलं असणपाणखातिमसातिम उवक्खडावेति २त्ता सुबहुं पुष्फगंधवत्थमल्लालंकारं गेहति २ सयाओ गिहाओ creelcersecticececececeiceaerstoersese अनुक्रम [४६-४७] Niralaunasuramom | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३६-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्मकथानम्. See प्रत सूत्रांक [३६-३७] ॥८२॥ २ संघाढज्ञाते भद्राकृतमुपयाचन सू. ३६ दारकजन्म सू.३७ दीप अनुक्रम [४६-४७]] निग्गच्छति २ रायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छति २त्ता जेणेव पोखरिणी तेणेव उवागच्छति २ पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फजावमल्लालंकारं ठवेइ २ पुक्खरिणिं ओगाहइ २ जलमजणं करेति जलकीडं करेति २ पहाया कयवलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाइं जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ २ पुक्खरिणीओ पचोरुहइ २ तं सुबहुं पुष्फगंधमल्लं गेण्हति २ जेणामेव नागघरए य जाव वेसमणधरए य तेणेव उवागच्छति २ तत्थ णं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ ईसिं पचुन्नमइ २ लोमहत्थग परामुसइ २ नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थेणं पमज्जति उदगधाराए अन्भुक्खेति २ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाईलूहेइ २ महरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेति २ जाव घूवं डहति २ जानुपायपडिया पंजलिउडा एवं वदासी-जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तो णं अहं जायं च जाव अणुबड्डेमित्ति कटु उचातियं करेति २ जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ विपुलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरति, जिमिया जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया अदुत्तरं च णं भद्दा सत्यवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिडपुनमासिणीसु विपुलं असण ४ उवक्खडेति २वहवे नागा यजाव वेसमणा य उवायमाणी जाव एवं च णं विहरति (सूत्र ३६)। ततेणंसा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइ केणति कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्या,तते णं तीसे भद्दाए सत्यवाहीए दोसु मासेसु बीतिकतेसु ततिए मासे वहमाणे Receaesese | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~174. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३६-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप इमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओणं ताओ अम्मयाओ जाओणं विउलं असणं ४ सुबहुयं पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं गहाय मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलियाहि य सर्द्धि संपरिवुडाओ रायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छंति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ पोक्खरिणी ओगाहिति २ पहायाओ कयबालिकम्माओ सघालंकारविभूसियाओ विपुलं असणं ४ आसाएमाणीओ जाव पडिभुंजेमाणीओ दोहलं विणेति एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलते जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ धपणं सत्यवाहं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तस्स गन्भस्स जाव विणेति तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अन्भणुन्नाता समाणी जाव विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडियधं करेह, तते णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्यवाहेणं अन्भणुन्नाया समाणी हहतुट्ठा जाव विपुलं असणं ४ जाव पहाया जाव उल्लपडसाडगा जेणेव नागघरते जाव धूवं दहति २ पणामं करेति पणामं करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ तते णं ताओ मित्तनाति जाव नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सवालंकारविभूसितं करेति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही ताहि मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणणगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं ४ जाव परिभुजमाणी य दोहलं विणेति २ जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया, तते णं सा भद्दा सत्यवाही संपुन्नडोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही अनुक्रम [४६-४७] AREauratonintamational | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३६-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [३६-३७] दीप णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अदमाण राइंदियाणं सुकुमालपाणिपादं जाव दारगं पयाया, तते गै र संघाटतस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति २ तहेव जाव विपुलं असणं ४ उवक्ख- ज्ञाते भडाति २ तहेव मित्तनाति भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोन्नं गुणनिष्फन्नं नामधेज़ करेंति जम्हा णं अम्हें द्राकृतमुइमे दारए बहण नागपडिमाण य जाच बेसमणपडिमाणा य उवाइयलद्धे णं ते होउ णं अम्हं पयाचन इमे दारए देवदिन्ननामेणं, तते णं तस्स दारगस्स अम्मायियरो नामधिज करेंति देवदिन्नेत्ति, सू. १६ तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुबड्डेति (सूत्र ३७) दारकजन्म 'कुटुंबजागरियं जागरमाणीए'ति कुटुम्बचिन्ताया जागरणं-निद्राक्षयः कुटुम्बजागरिका, द्वितीयायास्तृतीयार्थखात् सू. ३७ तया 'जाग्रत्या' विबुध्यमानया, अथवा कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्याः 'पयायामिति प्रजनयामि 'यासि मो' इत्यत्र तास सुलब्ध जन्म जीवितफलं अहं 'मन्ये' वितर्कयामि यासां निजककुक्षिसंभूतानीत्येवमक्षरघटना कायों, निजकृक्षिसंभूतानि | डिम्मरूपाणि इति गम्यते, स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमुल्लापकानि मन्मन-स्खलत्प्रजल्पितं येषां तानि तथा स्तनमूलात्कक्षादेशभागमभिसरन्ति-संचरन्ति स्तनजं पिबन्ति, ततश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गे निवेशितानि ददति । | समुल्लापकान् सुमधुरान् , 'एत्तो एगमवि न पस'त्ति इतः पूर्व एकमपि-डिम्भकविशेषणकलापादेकमपि विशेषणं न प्राप्ता, ॥८३॥ 'बहिया नागघराणि येत्यादि प्रतीतं, 'जण्णुपायवडियोति जानुभ्यां पादपतिता जानुपादपतिता जानुनी भुवि विन्यस्य | प्रणति गतेत्यर्थः । 'जायं वे'त्यादि, यागं-पूजा दाय-पर्वदिवसादौ दान भाग-लाभांश अक्षयनिधि-अव्ययं भाण्डागारं अक्ष अनुक्रम [४६-४७]] धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३६-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६-३७] यनिधि या-मूलधनं येन जीणीभूतदेवकुलस्योद्धारः करिष्यते अक्षीणिका वा प्रतीता चर्द्धवामि-पूर्वकाले अल्प सन्तं महान्त करोभीति भाषः 'उषघाइयं ति उपयाच्यते-मृन्यते स यत्तत् उपयाचितं-ईप्सितं वस्तु 'उपयाचितुं प्रार्थयितुं 'उल्लप-11 डसाइपति स्नानेनार्दै पटशाटिके-उत्तरीयपरिधानवखे यस्याः सा तथा 'आलोएति दर्शने नामादिप्रतिमानां प्रणाम करोति, तवः प्रत्युबमति, लोमहसं-प्रमार्जनीकं 'परामशप्ति' गृहाति, ततस्तेन साः प्रमार्जयति 'अम्मुक्खेइति अभिपिचति वखारोपणादीनि प्रतीतानि । 'चापसी'त्यादौ 'उदिहि'ति अमावस्या 'आवनसते ति आपत्र:-उत्पन्न सच्चो-जीवो मर्ने यस्याः सा तथा । ततेणं से पंधए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए, देव दिन्नं दारयं कडीए गेण्हति २ बहहि डिंभएहि य डिंभगाहि य दारएहि यदारियाहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे अभिरममाणे अभिरमति। ततेणंसा भद्दा सत्यवाही अन्नयाकयाई देवदिन्नं दारयंण्हायं कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सचालंकारभूसियं करेति पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसिदलयति,ततेणं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्यवाहीए हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडिए गिण्हतिर सयातो गिहाओ पडिनिक्खमतिर यहूहि डिभएहि य डिभियाहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिघुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ२ देवदिन्नं दारगं एगते ठावेति २ वहहिं डिंभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे पमत्ते यावि होत्था विहरति, इमं च णं विजए तकरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य अवदाराणि य तहेच जाच आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसे 303089easee दीप अनुक्रम [४६-४७] धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३८-३८R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म २ संघाटज्ञाते देव कधाङ्गम्. सूत्रांक दत्तापहारः सू. ३८ ॥८४॥ [३८ ३८R] माणे जेणेव देवदिने दारए तेणेच उवागच्छह २ देवदिन्नं दारगं सबालंकारविभूसियं पासति पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचे पमत्तं पासति २ दिसालोयं करेति करेत्ता देवदिन्नं दारगं गेण्हति २ कक्खंसि अल्लियावेति २ उत्तरिजेणं पिहेइ २ सिग्धं तुरियं चवलं चेतियं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छति २ जेणेव जिष्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छति २ देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेति २ आभरणालंकारं गेण्हति २ देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निशेट्ट जीवियविप्पजदं भग्गवए पक्विवति २ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति २मालयाकच्छयं अणुपविसति २ निचले निष्फंदे तुसिणीए दिवसं खिचेमाणे चिट्ठति (सूत्रं ३८) तते णं से पंथए दासचेडे तओ मुहुर्ततरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छति २ देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलयमाणे देवदिन्नदारगस्स सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेह र देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थह सुर्ति वा खुर्ति वा पउत्ति वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २धणं सत्यवाहं एवं वदासीएवं खलु सामी ! भद्दा सत्यवाही देवदिन्नं दारयं व्हायं जाव मम हत्थंसि दलयति तते गं अहं देवदिन्नं दारर्य कडीए गिण्हामि २ जाय मग्गणगवेसणं करेमि तं न णज्जति णं सामि! देवदिने दारए दीप अनुक्रम [४८-४९] ॥८४॥ ***अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८ ३८-R निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३८-३८R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८३८R] 7390890326 केणइ हते वा अवहिए वा अवखित्ते वा पायवडिए धष्णस्स सत्थवाहस्स एतमट्ट निवेदेति, तते णं से धपणे सत्यवाहे पंधयदासचेडयस्स एतमई सोचा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूते समाणे परसुणियत्तेव चंपगपायवे धसत्ति धरणीयलंसि सवंगेहिं सन्निवइए, तते णं से धपणे सत्यवाहे ततो मुहुर्ततरस्स आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेति देवदिन्नस्स दारगस्स कत्था सुई वा खुई वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छह २ महत्थं पाहुडं गेण्हति २ जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छति २तं महत्थं पाहुडं उवणति उवणतित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिने नाम दारए इढे जाव उंबरपुप्फपिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ?, तते णं सा भद्दा देवदिन्नं व्हायं सबालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलाति जाव पायवडिए तं मम निवेदेति, तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! देवदिन्नदारगस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं कयं । तए ण ते नगरगोत्तिया धपणेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणवदिया जाव गहियाउहपहरणा धणेणं सस्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बट्टणि अतिगमणाणि य जाव पवासु य मग्गणगवेसर्ण करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमंति २ जेणेव जिण्णुजाणे जेणेव भग्गवए तेणेव उवागच्छंति २ दीप अनुक्रम [४८-४९] roelese ***अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८ ३८-R निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३८-३८R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८ एमसू. ३८ ३८R] ज्ञाताधर्म- देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेदं जीवविप्पजढं पासंति २ हा हा अहो अकवमितिकड र संघाटकथानम्. देवदिन्नं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेंति २ घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थेणं दलयंति (सूत्रं ३८) ज्ञाते देव दत्तापहारः ॥८५॥ डिम्भदारककुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतो विशेषः मूच्छितो-मूढो गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः 'ग्रथितो लोभतन्तुभिः संदर्भितः 'गृद्ध' आकाडावान् 'अभ्युपपन्नः' अधिकं तदेकाग्रतां गत इति, शीघ्रादीनि एकाथिकानि शीघ्रतातिशयख्यापनार्थानि निष्प्राणं-उच्छासादिरहित निश्चेष्ट-व्यापाररहितं 'जीवविप्पजदंति आत्मना विप्रमुक्त निश्चलो-गमनागमनादिवर्जितः निष्पन्दो हस्ताद्यवयवचलनरहितः तूष्णीको-वचनरहितः क्षेपयन्' प्रेरयन् 'श्रुति' वार्तामात्र 'क्षुतं' तस्यैव संबन्धिनं शब्दं तच्चिदंवा |'प्रवृत्ति' व्यक्ततरवार्ता, नीतो मित्रादिना स्वगृहे अपहृतचौरेण आक्षिप्तः-उपलोभितः । 'परसुनियत्तेध'त्ति परशुना-कुठारेण निकृत्ता-छिन्नो यः स तथा तद्वत् 'नगरगोत्तिय'ति नगरस्य गुप्ति-रक्षां कुर्वन्तीति नगरगुप्तिका:-आरक्षकाः 'सन्नद्धबद्धव |म्मियकवय'त्ति सनद्धाः-संहननीभिः कृतसन्नाहाः बद्धाः-कसाबन्धनेन वर्मिताश्च-अङ्गरक्षीकृताः शरीरारोपणेन कवचाःIS कङ्कटा यस्ते तथा ततः कर्मधारयः, अथवा बर्मितशब्दः कचिन्नाधीयत एव, 'उप्पीलियसरासणपट्टिया' उत्पीडिता आक्रान्ता गुणेन शरासनं-धनुस्तल्लक्षणा पट्टिका यस्ते तथा, अथवा उत्पीडिता-बद्धा शरासनपष्टिका-बाहुपट्टको यैस्ते तथा, दृश्यते च धनुर्धराणां चाही चर्मपट्टबन्ध इति, इह स्थाने यावत्करणादिदं दृश्यं "पिणद्धगेवेजा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा"TRI पिनद्धानि-परिहितानि अवेयकाणि-प्रीवारक्षाणि पैस्ते तथा, बद्धो गाढीकरणेन आविद्धा-परिहितो मस्तके विमलो वरचितपट्टो दीप अनुक्रम [४८-४९] ***अत्र सूत्रान्ते मुद्रण-दोषात् अस्य सूत्रस्य क्रम ३८ द्वि-वारान् मुद्रितं. तत् कारणात् मया शिर्षक-स्थाने ३८ ३८-R निर्दिष्टम् धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३८-३८R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८३८R] यस्ते तथा ततः कर्मधारयः 'गहियाउहपहरणा' गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय-प्रहारदानाय यैस्ते तथा, अथवाऽऽयुधप्रहरणयोः। क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषः, 'ससक्खं ति ससाक्षि ससाक्षिणोऽध्यक्षान विधायेत्यर्थः । तते णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तकरस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति २ मालुयाकच्छयं अणुपविसंति २ विजयं तकरं ससक्ख सहोडं सगेवेनं जीवग्गाहं गिण्हंति २ अहिमुडिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमाहियगत्तं करेंति २ अवउडाबन्धणं करेंति २ देवदिन्नगस्स दारगस्स आभरणं गेहंति २ विजयस्स तकरस्स गीवाए बंधंति २ मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमंति २ जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छंति २ रायगिहं नगरं अणुपविसंति २ रायगिहे नगरे सिंघाडगतियचउकचचरमहापहपहेसु कसप्पहारे य लयप्पहारे य छिवापहारे य निवाएमाणा २छारं च धूलिं च कयवरंच उरि पकिरमाणा २ महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति-एस णं देवाणुप्पिया! विजए नामं तकरे जाच गिद्धे विव आमिसमक्खी पालधायए यालमारप, तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयस्स केति राया वा रायपुत्ते वा रायमचे वा अवरज्झति एवढे अप्पणो सयाति कम्माई अवरज्मंतित्तिकट्ठ जेणामेच चारगसाला तेणामेव उवागच्छति २ हडिबंधणं करेंति २ भत्तपाणनिरोहं करेंति २ तिसंझं कसप्पहारे य जाय निवाएमाणा २ विहरंति, तते णं से धपणे सत्यवाहे मित्तनातिनियगसपणसंबंधिपरियणेणं सद्धि रोयमाणे जाब विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगरस सरीरस्स महया इहीसकारसमुदएणं निह दीप अनुक्रम [४८-४९] धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [३९,४०] २ संघाटज्ञाते विजयस्य बन्धः सू. ३९ विजयतस्करसंवि दीप अनुक्रम [५०,५१] saeesemonese रणं करेंति २ बहुइं लोतियातिं मयगकिचाई करेंति २ केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था। (सूत्रं ३९)।तते णं से धपणे सत्यवाहे अन्नया कयाई लहसयंसि रायावराहसि संपलत्ते जाए यावि होत्था, तते णं ते नगरगुत्तिया धणं सत्यवाहं गेहंति २ जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छति २ चारगं अणुपवेसंति २ विजएणं तकरणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति । तते णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४ उवक्खडेति २ भोयणपिंडए करेति २ भोयणाई पक्खिवति लंछियमुद्दियं करेइ २ एगं च सुरभिवारिपडिपुन्नं दगवारयं करेति २ पंथयं दासचेडं सहावेति २ एवं वदासी-गच्छ णं तुम देवाणुप्पिया! इमं विपुलं असणं ४ गहाय चारगसालाए धण्णस्स सत्यवाहस्स उवणेहि,तते णं से पंधए भदाए सत्यवाहीए एवं वुत्तेसमाणे हद्वतुढे तं भोयणपिंडयं तं च सुरभिवरवारिपडिपुन्नं दगवारयं गेण्हति २ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति र रायगिहे नगरे मज्झमझेणं जेणेव चारगसाला जेणेव धन्ने सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ भोयणपिडयं ठावेति २ उल्लंछति २ ता भायणाई गेण्हति २ भायणाई घोवेति २ हत्यसोयं दलयति २ धणं सत्यवाहं तेणं विपुलेणं असण०४ परिवेसति, तते णं से विजए तकरे धणं सत्यवाहं एवं वदासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया! मम एयाओ विपुलातो असण०४ संविभागं करेहि, तते णं से घण्णे सत्यवाहे विजयं तकरं एवं वदासी-अवि याई अहं विजया! एवं विपुलं असणं ४ कायाणं वा सुणगाणं वा दलएजा उकुरुडियाए वा गं छड्डेजा नो चेव णं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमार भागः सू. ४० IN॥८६॥ For P OW Girajastaram.org धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९,४०] दीप गस्स अरिस्स वेरियस्स पडिणीयस्स पचामित्तस्स पत्तो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेजामि, तते णं से धण्णे सत्धवाहे तं विपुलं असणं ४ आहारेति २तं पंधयं पडिविसज्जेति, तते णं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हति २जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए, तते णं तस्स घण्णस्स सत्यवाहस्स तं विपुलं असणं ४ आहारियस्स समाणस्स उच्चारपासवणे णं उद्याहित्था, तते णं से धपणे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया! एगंतमवकमामो जेणं अहं उचारपासवर्ण परिहवेमि, तते णं से विजए सफरे धणं सत्यवाहं एवं वयासी-तुभं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा ममन्नं देवाणुप्पिया ! इमेहिं वहूहिँ कसप्पहारेहि यजाव लयापहारेहि यतण्हाए य छुहाए य परम्भवमाणस्स णधि केइ उच्चारे वा पासवणेघा तं देणं तुम देवाणुप्पिया ! एगते अवक्कमिसा उच्चारपासवणं परिदृवेति, तते णं से धण्णे सत्यवाहे विजएणं तकरणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं से धणे सत्यवाहे मुहुत्तरस्स बलियतराग उचारपासवणेणं उबाहिजमाणे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया ! जाव अवकमामो, तते णं से विजए धणं सत्यवाह एवं वदासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेहि ततोऽहं तुमेहिं सद्धिं एगतं अवकमामि, तते णं से धण्णे सत्यवाहे विजयं एवं बदासी-अहन्नं तुम्भं ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करिस्सामि, तते णं से विजए धण्णस्स सत्यवाहस्स एपमह पडिसुणेति, तते णं से अनुक्रम [५०,५१] धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: २ संघाद प्रत ज्ञाते विज सूत्रांक यस्य बन्धः ॥ ८ Bae ॥ [३९,४०] 18 सू. ३९ विजयतस्करसंविभागः सू. दीप शाताधर्म विजए धणेणं सद्धिं एगते अवकमेति उच्चारपासवणं परिहवेति आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं कधानम्- उघसंकमित्ता णं विहरति, तते णं सा भद्दा कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४ जाव परिवेसेति, तते णं से धपणे सत्थवाहे विजयस्स तक्करस्स ततो विपुलाओ असण०४ संविभागं करेति, तते णं से धण्णे सत्धवाहे पंधयं दासचेडं विसज्जेति, तते णं से पंधए भोयणपिडयं गहाय चारगाओ पडिनिक्खमति २ रायगिहं नगरं मझमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छह २ ता भई सस्थबाहिणि एवं चयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! धपणे सत्यवाहे तव पुत्तधायगस्स जाय पञ्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण०४ संविभागं करेति (सूत्रं ४०) 'सहोदति समोषं 'सगेवेजति सह प्रैवेयकेण-ग्रीवाबन्धनेन यथा भवति तथा गृहन्ति 'जीवग्गाहं गिण्हंति'त्ति जीवतीति जीवस्तं जीवन्तं गृह्णन्ति अस्थिमुष्टिजानुकूपरेस्तेषु वा ये प्रहारास्तैः संभग्न-मथितं मोटितं-जर्जरितं गात्रं-शरीरं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति 'अवउहगवंधणं'ति अवझोटनेन-अवमोटनेन कृकाटिकायाः बाहोष पश्चाद्धागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति 'कसप्पहारे यत्ति वर्धताडनानि 'छिचति लक्ष्णः कपः 'लता' कम्बा 'बालघातकः' प्रहारदानेन 'पालमावारकः' प्राणवियोजनेन । 'रायमचेति राजामात्यः 'अवरज्झाईचि अपराध्यति अनर्थ करोति नन्नत्यत्ति नत्वन्यत्रेत्यर्थः वाचनान्तरे खिदै नाधीयत एव, खकानि निरुपचरितानि नोपचारेणात्मनः सम्बन्धीनि 'लहुस्सगंसित्ति लघुः ख-आत्मा खरूपं यस्य स लघुखका-अल्पखरूपः राशि विषये अपराधो राजापराधस्तत्र 'संप्रलप्तः' प्रतिपादितः पिशुनैरिति गम्यते । अनुक्रम [५०,५१] Beedeses धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [३९,४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९,४०] । दीप अनुक्रम [५०,५१] 'भोयणपडियति भोजनस्थालाद्याधारभूत वंशमयं भाजन पिटकं तत् करोति, सञ्जीकरोतीत्यर्थः, पाठान्तरेण 'भरेह'ति पूरयति पाठान्तरेण भोजनपिटके करोति अशनादीनि 'लाञ्छितं' रेखादिदानतो मुद्रितं कृतमुद्रादिमुद्र 'खलंगति विग-18 तलाञ्छनं करोति 'परिवेशयति' भोजयति, 'आवि याई ति अपिः संभावने आईति भाषायां अरे:-शोर्वैरिणः-सानुबन्ध-18 शत्रुभावस्य प्रत्यनीकस्य-प्रतिकूलवृत्तेः प्रत्यमित्रस्य-वस्तु २ प्रति अमित्रस्य 'धण्णस्स'त्ति कर्मणि षष्ठी उच्चारप्रश्रवणं करें णमित्यलङ्कारे 'उच्चाहित्य'त्ति उद्बाधयति सा, 'एहि तावे'त्यादि, आगच्छ तावदिति भाषामात्रे हे विजय! एकान्त-विजन-1 मपक्रमामो-यामः 'जेणं ति येनाहमुच्चारादि परिष्ठापयामीति 'छदेणं'ति अभिप्रायेण यथारुचीत्यर्थः। तते णं सा भद्दा सत्यवाही पंचयस्स दासचेडयस्स अंतिए एयम सोचा आसुरुत्ता रहा जाब मिसिमिसेमाणा घण्णस्स सत्यवाहस्स पओसमावजति, तते णं से धणे सत्यवाहे अन्नया कयाई मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सएण य अस्थसारेण रायकज्जातो अप्पाणं मोयावेति २ चारगसालाओ पडिनिक्खमति २ जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २ अलंकारियकम्मं करेति २ जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ अह धोयमहियं गेण्हति पोखरिणी ओगाहति २ जलमजणं करेति २ पहाए कयवलिकम्मे जाव रायगिह नगरं अणुपविसति २रापगिहनगरस्स मज्झमजमेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पधारेत्थ गमणाए। तते णं तं धणं सत्यवाहं एजमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे पहवे नियगसेद्विसत्यवाहपभितओ आदति परिजाणंति सकारेंति सम्माणेति अन्भुढेति सरीरकुसलं पुच्छंति । तते णं seeDP धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म प्रत कधानम्. २ संघाटज्ञाते दृष्टातोपसंहार:सू.४१ सूत्रांक [४१] से धणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति २ जाविय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति तं०-दा- साति वा पेस्साति वा भियगाइ वा भाइल्लगाइ वा, सेवि य णं धपणं सत्यवाहं एजंतं पासति २ पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छंति, जावि य से तत्थ अन्भंतरिया परिसा भवति तं०-मायाइ वा पियाइ. वा भायाति वा भगिणीति वा, सावि य णं धणं सत्यवाहं एजमाणं पासति २ आसणाओ अन्भुतुति २ कंठाकंठियं अवयासिय पाहप्पमोक्खणं करेति, तते णं से धपणे सत्यवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छति, तते णं सा भद्दा धणं सत्ववाह एज्जमाणं पासति पासित्ता णो आढाति नो परियाणाति अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठति, तते णं से धपणे सत्यवाहे भई भारियं एवं वदासी-किन्नं तुन्भं देवाणुप्पिएन तुट्ठी वा न हरिसे वा नाणंदे वा जं मए सएणं अत्यसारेणं रायकजातो अप्पाणं विमोतिए, तते णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं वदासी-कहनं देवाणुप्पिया! मम तुही वा जाव आणंदे वा भविस्सति जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स जाव पञ्चामित्तस्स ततो विपुलातो असण०४ संविभागं करेसि, तते णं से धपणे भई एवं वदासी-नोखलु देवाणुप्पिए ! धम्मोसि वा तवोत्ति वा कयपडिकइया चा लोगजत्ताति वा नायएति वा घाडिएति वा सहाएति वा सुहितिवा ततो विपुलातो असण.४ संविभागे कर नन्नत्थ सरीरचिंताए, तते णं सा भद्दा घपणेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाव आसणातो अन्भुढेति कंठाठिं अवयासेति खेमकुसलं पुच्छति २ पहाया अनुक्रम [५२] ॥८८॥ | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक cenedeo [४१] दीप जाव पायच्छित्ता विपुलार्ति भोगभोगाई भुंजमाणी विहरति । तते णं से विजए तकरे चारगसालाए तेहिं बंधेहिं बहेहिं कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए य छुहाए य परन्भवमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने । से पं तत्थ नेरइए जाते काले कालोभासे जाव वेयणं पञ्चणुभवमाणे विहरह, से णं ततो उबहित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहिस्सति एवामेव जंबू। जेणं अम्हं निग्गंधो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचतिए समाणे विपुलमणिमुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुम्भति सेविय एवं चेव । (सूत्रं ४१) "अलंकारियसहन्ति यस्यां नापितादिभिः शरीरसत्कारो विधीयते अलङ्कारिककर्म-नखखण्डनादि दासा-गृहदा-1 सीपुत्राः प्रेष्या-ये तथाविधप्रयोजनेषु नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते भृतका-ये आबालखात्पोषिताः 'भाइल्लग'त्ति ये भागं लाभस्य लभन्ते ते, क्षेमकुशलं-अनर्थानुद्भवानर्थप्रतिधातरूपं, कण्ठे च कण्ठे च गृहीला कण्ठाकण्ठि, यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय | एवैवंविधोऽव्ययीभाव इष्यते तथापि योगविभागादिभिरेतस्य साधुशब्दता दृश्येति, 'अवयासिय'चि आलिङ्गय बाप्पप्रमो. क्षणं-आनन्दाश्रुजलप्रमोचनं । 'नायए 'त्यादि, नायका-प्रभुयायदो वा-न्यायदर्शी जातको वा स्वजनपुत्रक इतिरुपदर्शने | वा विकल्पे 'घाडिय'चि सहचारी सहायः-साहाय्यकारी सुहृद्-मित्रं । 'बंधेहि यत्ति बन्धो रज्ज्वादिबन्धनं 'वो' यल्पादिताडनं कशप्रहारादयस्तु तद्विशेषाः 'काले कालोभासे इत्यादि काल:-कृष्णवर्णः काल एवावभासते द्रष्टृणां कालो चाऽवभासोदीप्तिर्यस्य स कालावभासः, इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'गम्भीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णेण, से णं तत्थ निचं अनुक्रम [१२] धन्यसार्थवाहः एवं विजयस्तेनस्य कथा ~187 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] ज्ञाताधर्म-18 भीए निथं तत्थे निचं तसिए निचं परमसुहसम्बद्धं नरगति तत्र गम्भीरो-महान् रोमहर्पो-भयसंभूतो रोमाञ्चो यस्य यतो वा18 संघाटकथाङ्गम्. सकाशात् स तथा, किमित्येवमित्याह-'भीमो भीष्मः, अत एवोत्रासकारिखादुवासका, एतदपि कुत इत्याह-परमकृष्णो ज्ञाते दृष्टावर्णेनेति, परां-प्रकृष्टां अशुभसंबद्धां-पापकर्मणोपनीता 'अणाइयमित्यादि, अनादिकं 'अणवदग्गति अनन्तं 'दीहमद्धं' तितोपनयः ॥८९॥ दीर्घार्दू-दीर्घकाल दीर्घाध्वं वा-दीर्धमार्ग चातुरंत-चतुर्विभागं संसार एवं कान्तारं-अरण्यं संसारकान्तारमिति । इतोऽधिकृतं सू.४२-४३ ज्ञातं ज्ञापनीये योजयबाह-एवमेव-विजयचौरवदेव 'सारे 'ति सारे णमित्यलकारे करणे तृतीया वेयं, लुभ्यते-लोभी भवति, 'सेवि एवं चेव'ति सोऽपि प्रबजितो विजयवदेव नरकादिकमुक्तरूपं प्राप्नोति । .. तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतोजातिसंपन्ना २ जाव पुधाणुपुर्षि चरमाणे जाव जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेतिए जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति, परिसा निग्गया धम्मो कहिओ, तते तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एतमहूँ सोचा णिसम्म इमेतारूवे अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था-एवं खलु भगवंतो जातिसंपन्ना इहमागया इह संपत्ता तं इच्छामि णं थेरे भगवंते बंदामि नमसामि पहाते जाव सुद्धप्पावेसाति मङ्गल्लाई बधाई पवरपरिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिले चेतिए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २ ॥८९॥ वंदति नमसति। तते गं थेरा धष्णस्स विचितं धम्ममातिकवति, तते णं से धपणे सत्यवाहे धम्मं सोया एवं वदासी-सदहामि गंभंते ! निग्गंथे पावयणे जाव पचतिए जाव यहूणि वासाणि सामनपरियागं अनुक्रम | धन्यसार्थवाह: एवं विजयस्तेनस्य कथा ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४२,४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२,४३] दीप अनुक्रम [५३,५४] पाउणित्ता भत्तं पञ्चक्खातित्ता मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताई अणसणाए छेदेइ २ सा कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अस्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पन्नता, तत्थ णं धपणस्स देवस्स चत्तारि पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, से णं घण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठितीक्खएणं भवक्खएणं अर्णतरं चयं चइत्सा महाविदेहे वासे सिजिाहिति जाव सबदुक्खाणमंतं करेहिति (सूत्रं ४२) जहा णं जंबू! धपणेणं सत्थवाहेणं नो धम्मोत्ति वा जाव विजयस्स तकरस्स ततो विपुलाओ असण०४ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरसारक्खणहाए, एवामेव जंबू! जेणं अम्हं निग्गंधे वा २जाव पञ्चतिए समाणे ववगयण्हाणुम्मणपुष्पगंधमल्लालंकारविभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो बन्नहउँ वा रूवहे वा विसयहेउं वा असणं ४ आहारमाहारेति, नन्नस्थ णाणदसणचरित्ताणं बहणयाए, से णं इहलोए चेव बहूर्ण समणार्ण समणीणं सावगाण य साविगाण य अचणिजे जाव पज्जुवासणिजे भवति, परलोएवि य शं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कन्नच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य बसणुप्पाडणाणि य उलंबणाणि य पाविहिति अणातीयं च णं अणवदग्गं दीहं जाव वीतिवतिस्सति जहा व से धण्णे सत्यवाहे । एवं खलु जंबू! समणेणं जाव दोचस्स नायज्झयणस्स अयमढे पपणत्तेत्तिमि ॥ (सूत्रं ४३) वितीयं अज्झयणं समर्स ॥२॥ 'जहा णमित्यादिनाऽपि ज्ञातमेव ज्ञापनीये नियोजितं, 'नन्नत्व सरीरसारक्षणवाएं'चि न शरीरसंरक्षणार्थीदन्यत्र verse ~189 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४२,४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [४२,४३] तदर्थमेवेत्यर्थः 'जहा व से धपणे ति दृष्टान्तनिगमनं । इह पुनर्विशेषयोजनामिमामभिदधति बहुश्रुताः-इह राजगृहनगरखा-1||२ संघाटकथानम्. शनीयं मनुष्यक्षेत्रं धन्यसार्थवाहस्थानीयः साधुजीवः विजयचौरस्थानीयं शरीरं पुत्रस्थानीयो निरुपमनिरन्तरानन्दनिबन्धनलेनाज्ञात विशे संयमो, भवति यसत्प्रवृत्तिकशरीरात्संयमविघातः, आभरणस्थानीयाः शब्दादिविषयाः, तदर्थप्रवृत्रं हि शरीरं संयमविघाते | पोपनयः प्रवर्तते, हडिबन्धस्थानीय जीवशरीरयोरविभागेनावस्थानं राजस्थानीयः कर्मपरिणामः राजपुरुषस्थानीयाः कर्मभेदाः लघुखकापराधस्थानीया मनुष्यायुष्कबन्धहेतवः, मूत्रादिमलपरिस्थानीयाः प्रत्युपेक्षणादयो ग्यापाराः, यतो भक्तादिदानाभावे यथासौ विजयः प्रश्रवणादिव्युत्सर्जनाय न प्रवर्तितवान् एवं शरीरमपि निरशनं प्रत्युपेक्षणादिषु न प्रवर्तने, पान्धकस्थानीयो मुग्धसाधुः, सार्थवाहीस्थानीया आचार्याः, ते हि विवक्षितसाधुं भक्तादिभिः शरीरमुपष्टम्भयन्तं साध्वन्तरादुपश्रुत्योपालम्भयन्ति |8| विवक्षितसाधुनैव निवेदिते वेदनावैयावृत्यादिके भोजनकारणे परितुष्यन्ति चेति, पठ्यते च "सिवसाहणेसु आहारविरहिओ जन बट्टए देहो । तम्हा धण्णोद विजय साहू तं तेण पोसेजा।।" [शिवसाधनेषु आहारविरहितो यन्त्र प्रवर्तते देहः । तसात धन्य इव विजयं साधुस्तत् तेन पोषयेत् ॥१॥] 'एवं खल्वि'त्यादि निगमनं इतिशब्दः समाप्ती ब्रवीमीति पूर्ववदेवेति ॥ ज्ञाताधर्मकथायां विवरणतो द्वितीयमध्ययनं समाप्तमिति दीप अनुक्रम [५३,५४] ॥९ ॥ SINEKHA अत्र अध्ययन-२ परिसमाप्तम ~190 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] Her 1 अथ तृतीयमण्डकाख्यमध्ययन, तख च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने सामिष्यङ्गस्य निरभिष्वङ्गस्य च दोषगुणा नभिदधता चारित्रशुद्धिविधेयतयोपदिष्टा, इह तु शहितस्य निशकस्य च तानभिदधता संयमशुद्धेरेव हेतुभूता सम्यक्त्वशुद्धि विधेयतयोपदिश्यते इत्येवंसंबन्धस्यास्पेदमुपक्षेपसूत्र जतिणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोचस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयमढे पन्नत्ते तइअस्स अजायणस्स केअढे पण्णसे?, एवं खलु जंबतेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्था बन्नओ, तीसे गं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए समिभाए नाम उजाणे होत्था सबोउय सुरम्मे नंदणवणे इव सुहसुरभिसीपलच्छायाए समणुबद्धे, तस्स णं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उत्तरओ एगदेसंमि मालुयाककछए धन्नओ, तत्व णं एगा वरमऊरी दो पुढे परियागते पिट्डीपंडुरे निवणे निरुवहए भिन्नमुट्ठिप्पमाणे मऊरी अंडए पसबति २ सतेणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवमाणी संविट्ठमाणी विहरति, तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्यवाहदारगा परिवसंति तं०-जिणदत्तपुते य सागरदत्तपुत्ते य, सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमनमणुरत्तया अन्नमनमणुवयया अन्नमनच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियतिच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरन्ति (सूत्रं ४४) "जह ण'मित्यादि 'एवं खल्वि'त्यादि, प्रकृताध्ययनसूत्रं च समस्तं कण्ठ्यं नवरं 'सबोउए'ति सर्वे ऋतवो-वसन्तादयः | तत्संपाद्यकुसुमादिभावानां वनस्पतीनां समुद्भवात् यत्र तचथा, कचित् 'सबोउयति दृश्यते, तेन च 'सबोउयपुष्फफलसमिद्धे अनुक्रम (५५) उलट अथ अध्ययन-३"अण्ड:" आरभ्यते ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [२], ----------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सू.४४ २१॥ सूत्राक [४४] ज्ञाताधर्मइत्येतत्सूचितं, अत एव सुरम्यं नन्दनवनं-मेरोद्वितीयवनं तद्वत् शुभा सुखा वा सुरभिः शीतला च या छाया तया समनुबद्धं ३ अण्डककथाङ्गम्. व्याप्तं 'दो पुढे इत्यादि, द्वे-द्विसंख्ये पुष्टे-उपचिते पर्यायेण-प्रसवकालक्रमेणागते पर्यायागते प्राकृतखेन यकारलोपात् परि- ज्ञाते मित्रे यागएत्ति भणितं, पिष्टस्य-शालिलोदृस्य उण्डी-पिण्डी पिष्टोण्डी तद्वत् पाण्डुरे ये ते तथा, निव्रणे-अणकै रहिते निरुपहतेवातादिभिरनुपहते भिन्ना-मध्यशुषिरा या मुष्टिः सा प्रमाणं ययोः ते भिन्नमुष्टिप्रमाणे मयूर्या अण्डके मयूराण्डके न कुर्कुच्या संकेतः सू. | अण्डके प्रसूते-जनयति, संरक्षयन्ती-पालयन्ती सङ्गोपायन्ती-स्थगयन्ती संवेष्टयन्ती-पोषयन्ती, सहजाती जन्मदिन-III ४५ | कखात् सहबद्धौ-समेतयोद्धिमुपगतखात् सहपांशुक्रीडितको समानवालभावसात् सहदारदर्शिनी समानयौवनारम्भत्वात्। सहैव एकावसर एव जातकामविकारतया दारान्-खकीये २ भार्ये तथाविधदृष्टिभिर्देष्टवन्तौ अथवा सह-सहितौ सन्तौ | अन्योन्यगृहयोद्वारे पश्यतः तत्प्रवेशनेनेत्येवंशीलौ यौ तौ तथा, एतच्चानन्तरोक्तं खरूपमन्योऽन्यानुरागे सति भवतीत्याहअन्योऽन्यमनुरक्तौ-नेहवन्तौ अत एवान्योऽन्यमनुव्रजत इत्यन्योऽन्यानुव्रजी, एवं छन्दोऽनुवर्चको-अभिप्रायानुवर्जिनौ एवं हृदयेप्सितकारको 'किच्चाई करणीयाई ति कर्तव्यानि यानि प्रयोजनानीत्यर्थः अथवा कृत्यानि-नैत्यिकानि करणीयानि-कादा चित्कानि 'प्रत्यनुभवन्तौ' विदधानौ । RI तते णं तेसिं सत्यवाहदारगाणं अन्नया कयाई एगतओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविट्ठाण Q ॥११॥ इमेयारवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-जन्नं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पञ्चज्बा वा विदेसगमर्ण वा समुप्पजति तन्नं अम्हेहि पगयओ समेचा णित्थरियचंतिकट्ठ अन्नमन्त्रमेयारूवं संगारं पडिसुणेति अनुक्रम (५५) ~192 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५,४६] दीप अनुक्रम [५६,५७] २सकम्मसंपत्ता जाया यावि होत्था। (सूत्रं ४५)तस्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामंगणिया परिवसइ अड्डा जाव भत्तपाणा चउसटिकलापंडिया चउसहिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एकवीसरतिगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडियोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिय० ऊसियझया सहस्सलंमा विदिन्नछत्तचामरबालवियणिया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं जाव विहरति, तते णं तेसिं सत्यवाहदारंगाणं अन्नया कदाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरगयाणं समाणाणं आयन्ताणं चोक्खाणं परमसुतिभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था, तं सेयं खलु अम्हें देवाणुप्पिया ! कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्फगंधवस्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उजाणसिरिं पचणुभवमाणाणं विहरित्तएत्तिकटु अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति २ कलं पाउन्भूए कोडुबियपुरिसे सद्दावेंति २ एवं वदासी-च्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ उवक्खडेह २ तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्पं ग़हाय जेणेव सुभूभिभागे उजाणे जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणामेव उवागच्छह २ नंदापुक्खरिणीतो अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह २ आसितसम्मज्जितोवलितं सुगंध जाव कलियं करेह २ अम्हे पडिवालेमाणा रचिट्ठह जाच चिट्ठति, तए णं सत्थवाहदारगा दोचंपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति २ एवं वदासी-खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजो ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्मकथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [४५,४६] अण्डकज्ञाते देवदत्तासंगमः सू.४६ ॥ ९२॥ दीप अनुक्रम [५६,५७] तियं समखुरवालिहाणं समलिहियतिक्खग्गसिंगएहिं रययामयघंटमुत्तरज्जुपवरकंचणखचियणस्थपग्गहोवग्गहितेहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणबाणएहिं नाणामणिरयणकंचणघंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्खणोववेयं जुत्तमेव पवहर्ण उवणेह, तेऽवि तहेव उवणेति, तते णं से सत्यवाहदारगा पहाया.जाव सरीरा पवहणं दुरूहंतिरजेणेवदेवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छति २त्ता पवहणातो पचोरुहति२ देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेंति, तते णं सा देवदत्ता गणिया सत्यवाहदारए एजमाणे पासति २ हह २ आसणाओ अन्भुतुति २ सत्तट्ट पदाति अणुगच्छति २ते सत्यवाहदारए एवं वदासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमिहागमणप्पतोयणं, तते णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वदासी-छामो णं देवाणुप्पिए! तुम्हेहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्वाणसिरिं पञ्चणुन्भवमाणा विहरित्तए, तते णं सा देवदत्ता तेर्सि सत्यवाहदारगाणं एतमट्ठ पडिसुणेति २ण्हाया कयकिचा किं ते पवर जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्यवाहदारगा तेणेव समागया, तते गं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं दुरूहति २चपाए नयरीए मझमजोणं जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ पवहणातो पचोकहति २नंदापोक्खरिणी ओगाहिंति २ जलमजणं करेंति जलकीडं करेति हाया देवदत्ताए सद्धिं पचुत्तरंति जेणेव धूणामंडवे तेणेव उवागमति २थूणामंडवं अणुपविसंति २ सवालंकारविभूसिया आसस्था वीसस्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असणं ४ धूबपु ॥२२॥ ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५,४६] दीप अनुक्रम [५६,५७] फगंधवत्थं आसाएमाणा बीसाएमाणा परिभंजमाणा एवं च णं विहरंति, जिमिपभुत्तुत्तरागयाविय समाणा देवदत्ताए सद्धिं विपुलाति माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणा विहरति । (सूत्रं ४६) 'एगउ'त्ति कचिदेकस्मिन् देशे सहितयोः-मिलितयोः समुपागतयोरेकतरस गृहे सनिषण्णयोः-उपविष्टयोः संनिविष्टयोः-11 सिंहततया स्थिरसुखासनतया च व्यवस्थितयोमिधःकथा-परस्परकथा तस्यां समुल्लापो-जल्यो यः स तथा समुदपद्यत, "समे-11 चति समेत्य पाठान्तरे 'संहिचति संहत्य सह संभूय 'संगारंति सङ्केतं 'पडिसुणेति'त्ति अभ्युपगच्छतः । 'चउसट्ठीत्यादि, चतुःषष्टिकलाः गीतनृत्यादिकाः खीजनोचिता वात्स्यायनप्रसिद्धाः चतुःषष्टिगणिकागुणाः आलिङ्गनादिकानामटानां क्रियाविशेषाणां प्रत्येकमष्टभेदखात्, एतेऽपि वात्स्यायनप्रसिद्धाः, एवं विशेषादयोऽपि, 'नवंगसुसपडियोहियोति प्राग्वत् नवयौवनेति भावः 'संगयगयहसिय'इत्येनेनेदं मूचितं 'संगयगयहसियभणियविहिय विलाससललियसलावनिउणजुत्तोवयारकुसला' व्याख्या खस्स पूर्ववत्, वाचनान्तरे विदमधिकं सुंदरचणजघणवयणचरणनयणलावष्णरूवजोबणविलास-1 कलिया' उच्छ्रितध्वजा सहाव्या लाभो यस्याः सा तथा, वितीर्णानि राजा छत्रचामराणि वालवीजनिका च-चामरविशेषो यस्याः सा तथा, कीरथा-प्रवहणविशेषस्तेन प्रयातं-गमनं यस्याः सा तथा, कीरथो हि ऋद्धिमतां केषांचिदेव भवतीति सोपि तस्सा अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपिशब्द इति, स्घृणाप्रधानो वस्त्राच्छादितो मण्डपः स्घृणामण्डपः 'आहणहति निवेशयतेति भावः, 'लघुकरणे त्यादि, लघुकरणं गमनादिका शीघ्रक्रिया दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ता ये पुरुषास्तैोजितं-पत्र-18 यूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा प्रवहणमिति सम्बन्धः, पाठान्तरेण 'लहुकरणसिपहिति तत्र लघुकरणेन-दक्षत्वेन युक्ती ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४५,४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५,४६] दीप अनुक्रम [५६,५७] ज्ञाताधर्म-18योजिती यौ तौ तथा ताभ्यां, ककार इह स्वार्थिकः, गोयुवभ्यां युक्तमेव प्रवहणमुपनयतेति सम्बन्धः, समखुरवालधानौ-समानशफ-18 अण्डककथाङ्गम् पुच्छौ समे-तुल्ये लिखिते-शस्त्रेणापनीतवाह्यत्वके तीक्ष्णे शृङ्गे ययोस्तौ तथा, ततः कर्मधारयः, ताभ्यां, वाचनान्तरे 'जंबूण-ज्ञाते उद्यायमयकलावजुत्तपइपिसिट्ठएहि जम्बूनदमयौ-सुवर्णमयौ कलापो-कण्ठाभरणविशेषौ योके च-यूपेन सह कण्ठसंयमनरज्जू 8 नश्रीअनुप्रतिविशिष्टे ययोस्तौ च तथा ताभ्यां, रजतमयौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके कार्यासिकसूत्रदवरकमय्यौ बरक भवः सू. नकखचिते ये नस्ते-नासिकान्यस्तरज्जुके तयोः प्रग्रहण-रश्मिना अवगृहीतको-बद्धौ यो तथा ततः कर्मधारयोऽतः ताभ्या, [७ अण्डनीलोत्पलकृतापीडाभ्यां आपीड:-शेखरः, प्रवरगोयुवभ्यां, नानामणिरत्नकाशनघण्टिकाजालेन परिक्षिप्तं प्रवरलक्षणोपेतं, वाचना-18 कगुहः सू. न्तरेऽधिकमिदं 'सुजातजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मिय'ति तत्र सुजातं-सुजातदारुमयं युग-यूपः युक्तं-संगतं अजुक-सरल || ४८ प्रशस्त-शुभं सुविरचितं-सुघटितं निम्मित-निवेशितं यत्र तत्तथा, युक्तमेव-सम्बद्धमेव प्रवहणं-यानं परिदक्षगत्रीत्यर्थः 'किन्ते | जाब सिरी'त्यादि व्याख्यातं धारिणीवर्णके । तते णं ते सत्थवाहदारगा पुवावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सर्द्धि घृणामंडवाओ पहिनिक्खमंति २हत्यसंगेल्लीए सुभूमिभागे बहसु आलिघरएमु य कयलीघरेसु प लयाघरएसु य अच्छणघरएसु य पेच्छणघरएसु य पसाहणधरएसु य मोहणघरएसु य सालघरएमु य जालघरएमु य कुसुम- 8 ॥१३॥ घरएसु य उजाणसिरि पचणुभवमाणा विहरंति (सूत्रं ४७) तते गं ते सत्यवाहदारया जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेथ गमणाए, तते णं सावणमऊरी ते सत्यवाहदारए एजमाणे पासति २ भीया ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७-५०] दीप अनुक्रम [५८-६१] तत्था. महया २ सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी २ मालुयाकच्छाओ पडिनिक्खमति २ एगंसि रुक्खमालयंसि ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्टीए पेहमाणी २ चिट्ठति । तते णं ते सत्यवाहदारगा अण्णमन्नं सहावेंति २ एवं वदासी-जहाणं देवाणुप्पिया! एसा वणमऊरी अम्हे एज्जमाणा पासित्ता भीता तत्था तसिया उबिग्गा पलाया महता २ सदेणं जाव अम्हे मालुयाकच्छयं च पेच्छमाणी२ चिट्ठति तं भवियत्वमेध कारणेणंतिकट्ठ मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति २ तत्थ णं दो पुढे परियागये जाव पासित्ता अन्नमन्नं सहाति २ एवं वदासी-सेयं खलु देवागुप्पिया! अम्हे इमे वणमऊरीअंडए साणं जाइमंताणं कुकुडियाणं अंडएसु अ पक्खिवावेत्तए, तते णं ताओ जातिमन्ताओ कुकुडियाओ ताए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति, तते णं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मऊरपोयगा भविस्संतित्तिकटु अन्नमन्नस्स एतमहूं पडिसुणेति २सए सए दासचेड़े सद्दाति २ एवं वदासी-गच्छह गं तुम्मे देवाणुणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सगाणं जाइमंताणं कुकुडीणं अंडएसु पक्खियह जाव तेवि पक्खि-ति, तते णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जाणसिरि पचणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरुढा समाणा जेणेव चंपानयरीए जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति २ देवदत्ताए गिर्ह अणुपविसंति २ देवदत्ताए गणियाए विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दल ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. |३अण्डकज्ञाते सागरदत्तनिराशा सू.४९ प्रत सूत्रांक [४७-५०] ॥१४॥ दीप अनुक्रम [५८-६१] यंति २ सकारेंति २ सम्माणति २ देवदत्ताए गिहातो पडिनिक्खिमंति २ जेणेव सयाई २ गिहाई तेणेव उवागच्छंति सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था (सूत्रं ४८) तते णं जे से सागरदत्तपुत्से सत्यवाहदारए से णं कलं जाव जलते जेणेव से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति २ तंसि मऊरीइयंसि संकिते कंखिते वितिगिच्छासमावन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने किन्नं ममं एस्थ किलावणमऊरीपोयए भविस्सति उदाहु णो भविस्सइत्तिकट्ठ तं मउरीअंडयं अभिक्खणं २ उच्चत्तेति परियत्तेत्ति आसारेति संसारेति चालेति फंदेह घहेति खोभेति अभिक्खणं २ कन्नमूलसि टिहियावेति, तते णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं २ उपत्तिजमाणे जाव टिहियावेजमाणे पोचडे जाते यावि होत्या, तते णं से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाई जेणेव से मकर अंडए तेणेव उवागच्छति २ते मऊरीअंडयं पोचडमेव पासति २ अहोणं मम एस कीलावणए मऊरीपोयए ण जाएत्तिकटु ओहतमण जाव झियायति। एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा आयरियउवझयाणं अंतिए पबतिए समाणे पंचमहत्वएसु जाव छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे संकिते जाव कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिसणिजे गरहणिजे परिभवणिज्जे परलोएविय णं आगच्छति बहणि दंडणाणि य जाव अणुपरियहए (सूत्र ४९) तते णं से जिणदसपुते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेच उवागच्छति २तंसि मउरीअंडयंसि निस्संकिते,सुबत्तए णं मम एत्थ ॥१४॥ ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७-५० दीप कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सतीतिकटु तं मरीअंडयं अभिक्खणं २ नो उत्तेत्ति जाव नोटिहियावेति, तते णं से मउरीअंडए अणुबत्तिजमाणे जाव अटिहियाविजमाणे तेणं कालेणं रोणं समएणं उन्भिन्ने मऊरिपोयए एस्थ जाते, तते णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरपोययं पासति २ हह तुढे मऊरपोसए सहावेति २ एवं वदासी-तुम्भे गं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बरहिं मऊरपोसणपाउग्गेहि दवेहि अणुपुवेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवह नदुल्लगं च सिक्खावेह, तते णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एतमढे पडिमुणेति २तं मउरपोययं गेण्हति जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति २तं मयूरपोयगं जाव नठुल्लगं सिक्खावेति । तते णं से मऊरपोयए उम्मुक्कपालभावे विनाय० जोबणग० लक्खणर्वजण माणुम्माणप्पमाणपडिपुत्र पक्खपेहुणकलावे विचित्तपिच्छे सतचंदए नीलकंठए नचणसीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाति नडल्लगसयाति केकारवसयाणि य करेमाणे विहरति, तते णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोयग उम्मुक्कजाच करेमाणं पासित्ता २तं मऊरपोयगं गेहंति २ जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेति, तते णं से जिणदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए मउरपोयगं उम्मुक जाव करेमाणं पासित्ता हडतुडे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं जाव पडिविसज्जेह, तए णं से मऊरपोतए जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए गंगोलाभंगसिरोधरे सेयावंगे गिण्हइ अवयारियपदन्नपक्खे उक्खित्तचंदकातियकलावे केक्काइयसयाणि विमुच्चमाणे णञ्चइ, तते णं से जिणदत्तपुत्ते अनुक्रम [५८-६१] REnaminhiunnatana ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञासाधर्म कथाझम. प्रत सूत्रांक [४७-५०] ॥९५॥ सू. ५० दीप अनुक्रम [५८-६१] तेणं मउरपोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु सतिएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि ३अण्डकय पणिएहि य जयं करेमाणे विहरति । एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा पछ ज्ञाते जितिए समाणे पंचसु महबएसु छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्संकिते निकखिए निवितिगिच्छे शनदचस्या । से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाणं समणीणं जाव वीतिवतिस्सति । एवं खलु जंबू ! समणेणं णायाणं शापूर्तिः तबस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्ति बेमि (सूत्रं ५.)तचं नायज्झयणं समत्तं ॥३॥ 'हत्थसंगेल्लीए'त्ति अन्योऽन्य हस्तावलम्बनेन, आलिघरसु य कयलिघरएसुय' आलीकदल्यौ वनस्पतिविशेषौ, लताघरला ऐसय लता:-अशोकादिलता 'अच्छणधरएस य' अच्छणति-आसनं, पेच्छणधरएम य' प्रेक्षणं-प्रेक्षणक, पसाहणघरएसु॥ 'प्रसाधनं-मण्डनं, मोहणघरएसु यमोहनं-निधुवनं, सालघरएसुय'साला:-शाखाः अथवा शाला-पृक्षविशेषाः, जालघ|रएसुय' जालगृह-जालकान्वितं, 'कुसुमघरएसु य' कुसुमप्रायवनस्पतिगृहेष्वित्यथैः, कचित्कदलीगृहादिपदानि यावच्छब्देन मुच्यन्त इति, शङ्कितः-किमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान् कासिता-तत्फलाकाडावान् का निष्पत्स्यते इतो विवक्षि-18 |तं फलमियोत्सुक्यवानित्यर्थः विचिकित्सितः-जातेऽपीतो मयूरपोतेऽतः किं मम क्रीडालक्षणं फलं भविष्यति न वेत्येवं फलं || प्रति शङ्कावान् , किमुक्तं भवति !-भेदसमापन्नो मतेढेधाभाव प्राप्तः सद्भावासद्भावविषयविकल्पव्याकूलित इति भावः, कलु- ९५ ॥ |पसमापनो-मतिमालिन्यमुपगतः, एतदेव लेशत आह-'किन्न'मित्यादि, उद्वर्तयति-अधोदेशस्योपरिकरणेन परिवर्तयतितथैव पुनः स्थापनेन 'आसारयति' ईपत्स्वस्थानत्याजनेन 'संसारयति' पुनरीषत्स्वस्थानात् स्थानान्तरनयनेन चाल-1 edeoChore ~200 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७-५०] दीप अनुक्रम [५८-६१] यति स्थानान्तरनयनेन स्पन्दयति-किंचिचलनेन घट्टयति-हस्तस्पर्शनेन क्षोभयति-ईषभूमिमुत्कीर्य तत्प्रवेशनेन 'कपणमIS लंसि'चि स्वकीयकर्णसमीपे धृत्वा 'टिहियावेति' शब्दायमानं करोति 'पोचर्ड'ति असार, हीलनीयो गुरुकुलायुदहनतः निन्द-18 नीयः कुत्सनीयो-मनसा खिंसनीयो-जनमध्ये गर्हणीयः-समक्षमेव च परिभवनीयोऽनभ्युत्थानादिमिः, मयूरपोषका ये मयरान पुष्णन्ति । 'नटुल्लगं'ति नाटयं 'विनाये'त्यादौ 'विनायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते लक्खणवंजणगुणोववेए' इत्येवं । दृश्य, मानेन-विष्कम्भतः उन्मानेन-बाहल्यतः प्रमाणेन च-आयामतः परिपूर्णी पक्षौ 'पेहुणकलाविति मयूराङ्गकलापश्च यस्य स तथा, विचित्राणि पिच्छानि शतसंख्याच चन्द्रका यस्य स तथा, वाचनान्तरे विचित्रा:-पिच्छेष्ववसक्ताः संबद्धाचन्द्रका यस्य स विचित्रपिच्छावसक्तचन्द्रकः नीलकण्ठको नर्तनशीलकः चप्पुटिका-प्रतीता केकायितं-मयूराणां शब्दः एकस्या चापुटिकायां कृतार्या सत्यां 'गंगोलाभंगसिरोहरि ति लाङ्गुलाभगवत्-सिंहादिपुच्छवक्रीकरणमिव शिरोधरा--ग्रीवा यस्स 81 स तथा, स्वेदापनो-जातवेदः श्वेतापानी वा सितनेत्रान्तः अवतारिती-शरीरात्पृथकृती प्रकीर्णी-विकीर्णपिच्छौ पक्षौ। यस्य स तथा, ततः पदयस्य कर्मधारयः, उत्क्षिप्तः-ऊकृतश्चन्द्रकादिक:-चन्द्रकप्रभृतिकमयूराङ्गकविशेषोपेतचन्द्र के रचि-11 तैर्वा कलापा-शिखण्डो येन स तथा, केकायितशतं-शब्दविशेषशतं 'पणिएहि'ति पणितैः-व्यवहारोंदादिभिरित्यर्थः 'एवमेवेत्यादि उपनयवचनमिति, भवन्ति चात्र गाथा:-'जिणवरभासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइमं । नो कुञा संदेहं संदेहोणत्थहेउत्ति ॥१॥ निस्संदेहत्तं पुण गुणहेउं तो तयं कर्ज । एत्थं दो सिद्विसुया अंडयगाही उदाहरणं ॥२॥ तथा 'कत्थई मइदुबल्लेण तबिहायरियविरहओ वा वि । नेयमहणतणेणं नाणावरणोदएणं च ॥३॥ हेऊदाहरणासंभवे य Melinaulu ~ 2014 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [३], ----------------- मूलं [४७-५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्ब !!९६॥ कूर्मज्ञात सू.५१ प्रत सूत्रांक [४७-५०] seseserse सइ सुटु जे न बुझिज्जा । सबन्नुमयमवितहं तहावि इइ चिंतए महमं ॥ ४ ॥ अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्प- रा । जियरागदोसमोहा य णबहावाइणो तेण ॥ ५॥" [जिनवरभाषितेषु भावेषु भावसत्येषु भावतो मतिमान् । न कुर्याद संदेहं संदेहोऽनर्थहेतुरिति ॥१॥ निस्संदेहत्वं पुनर्गुणहेतुर्यचतस्तक कार्य अत्र द्वौ श्रेष्ठिसुतौ अण्डकग्राहिणाबुदाहरणं ॥२॥ कचित् मतिदौर्बल्येन तद्विधाचार्यविरहतो वापि । नेयगहनत्वेन ज्ञानावरणोदयेन च ॥३॥ हेतूदाहरणासंभवे च सति सुष्टु यन्न बुध्येत । सर्वत्रमतमवितथं तथापि इति चिन्तयेत् मतिमान् ॥ ४॥ अनुपकृतपरानुग्रहपरायणा यद् जिना जगत्प्र|पराः । जितरागद्वेषमोहाच नान्यथावादिनस्तेन ॥ ५॥ तृतीयमध्ययनं विवरणतः समाप्त ।। 29300अथ कूर्माभिधानं चतुर्थमध्ययनं विवियते, अस्य चाय पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्रवचनार्थेषु शकिताशकितयोः प्राणिनोर्दोषगुणावुक्ताविह तु पश्चेन्द्रियेषु गुप्तागुप्तयोस्तावेवाभिधीयते इत्येवंसम्बन्धस्यास्पेदमुपक्षेपादिसूत्र जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं नायाणं तबस्स नायज्झयणस्स अपमढे पन्नत्ते चउत्थस्स णं णायाण के अट्टे पन्नते, एवं खलु जंबू तेणं कालेणं २ वाणरसी नाम नयरी होत्था वन्नओ, तीसेणं वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरबहे नाम दहे होत्था, अणुपुषसुजायवप्पगंभीरसीयलजले अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने संयन्नपत्तपुप्फपलासे बहुउप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्ससहसपत्तकेसरपुष्फोवचिए पासादीए ४, तत्थ दीप अनुक्रम [५८-६१] a IGH९६॥ esesesese rauasaram.org अत्र अध्ययन-३ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं-४ "कूर्म:" आरभ्यते ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ----------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] Reseछन्ड णं बदणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य मुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सयसाहस्सियाण य जूहाई निन्भयाई निरुधिग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणगाति २ चिहरंति, तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए होत्था वन्नओ, तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति, पावा चंडा रोद्दा तल्लिच्छा साहसिया लोहितपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसपिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रतिं वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति. तते णं ताओ मयंगतीरहहातो अन्नया कदाई सूरियसि चिरत्यमियंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुबे कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं २ उत्तरंति, तस्सव मपंगतीरदहस्स परिपेरंतर्ण सवतो समंता परिघोलेमाणा २ वित्तिं कप्पमाणा विहरति. तयणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारस्थी जाब आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति २त्ता जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छति तस्सव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरतेणं परिघोलेमाणा २ वितिं कप्पेमाणा विहरंति, तते णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति २ जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति २ भीता तत्था तसिया उबिग्गा संजातभया हत्थे य पादे य गीवाए य सरहिं २ काएहि साहरंति २ निचला निष्फंदा तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छति २ ते कुम्मगा सबतो दीप अनुक्रम [६२] टलटलट wirelesaram.org ल ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [४], ----------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: M ज्ञाताधर्मकथानम्. कूर्मज्ञातं प्रत ॥९७॥ समन्ता उच्चतंति परियति आसारैति संसारेति चालेंति घटेति फंदेति खोभेति नहेहिं आलुपंत्ति दंतेहि आलपति वताह य अक्खोडेंति नो चेव णं संचाएंति तेसि कुम्मगाणं सरीरस्स आवाहं वा पवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, तते णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोचंपि तचंपि सघतो समंता उच्चतंति जाव नो चेवणं संचाएन्ति करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविना समाणा सणियं २ पचोसति एगंतमवकमंति निचला निष्फंदा तसिणीया संचिटुंति, तत्थ णं एगे कुम्मगे ते पावसियालए चिरंगते दूरंगए जाणित्ता सणियं २ एगं पायं निच्छुभति, तते णं ते पावसियाला तेणं कुम्मएणं सणियं २ एगं पायं नीणियं पासंति २ ताए उक्किटाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जतिणं वेगितं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति २ तस्सणं कुम्मगस्स तं पायं नहिं आलुंपति दंतेहिं अक्खोडेंति ततो पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति २ तं कुम्मगं सबतो समंता उच्चति जाव नो चेवणं संचाइन्ति करेत्तए ताहे दोघंपि अवकमंति एवं चत्तारिवि पाया जाव सणिर्घ २ गीवं जीणेति, तते णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति २ सिग्घं चवलं ४ नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडेंति २तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति २ मंसंच सोणियं च आहारेंति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा २ आयरियउबज्झायाणं अंतिए पचतिए समाणे पंच(से) इंदिया अगुत्ता भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ हीलणिज्जे परलोगेऽविय णं आगच्छति बढणं दंडणाणं जाव अणुपरि अनुक्रम [६२] ॥९७॥ ~204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ----------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: -अंगसूत्र- (मूलभवृत्ति चिता वत्ति: मन प्रत सूत्रांक [५१] । दीप यति, जहा से कुम्मए अगुत्तिदिए, तते ण ते पावसियालगा जेणेव से दोगए कुम्मए तेणेव उवागच्छति २तं कुम्मगं सघतो समंता उघतेति जाव दंतेहिं अक्खुडेति जाव करेत्तए, तते णं ते पावसियालगा दोचंपि तचंपि जाव नो संचाएन्ति तस्स कुम्मगस्स किंचि आवाहं वा विवाहं वा जाव छविच्छेयं वा करेत्तए ताहे संता तंता परितंता निविना समाणा जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया, तते णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं २ गी नेणेति २ दिसावलोयं करेइ २जमगसमगं चत्तारिवि पादे नीणेति २ताए उकिटाए कुम्मगईए वीइवयमाणे २ जेणेव मयंगतीरहहे तेणेव उवागच्छइ २ मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा२पंच से इंदियाति गुत्ताति भवंति जाव जहा उसे कुम्मए गुतिदिए । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति बेमि ॥ (सूत्र ५१) चउत्थं नायऽज्झयणं समत्तं ॥४॥ 'जई'त्यादि, सुगम सर्व, नवरं 'मयंगतीरद्दहे'त्ति मृतगङ्गातीरहदा मृतगङ्गा यत्र देशे मङ्गाजलं ध्यूढमासीदिति, 'आनुपूर्येण' परिपाट्या सुष्टु जाता वप्राः-तटा यत्र स तथा गम्भीरं-अगाधं शीतलं जलं यत्र स तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, कचिदिदमधिकं दृश्यते 'अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने' प्रतीतं नवरं भृतखात्प्रतिच्छन्न:-आच्छादितः कचित्तु 'संछन्नेत्यादि-16 सूचनादिदं दृश्यं 'संछन्नपउमपत्तभिसमुणाले' संछनानि-आच्छादितानि पझैः पौत्र-पभिनीदलैः विशानि-पमिनीमूलानि अनुक्रम [६२] seel थि ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ------------- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाकम्. सूत्रांक ॥ ९८॥ [५१] PS मृणालानि च नलिननालानि यत्र स तथा, कचिदेवं पाठः 'संघनपतपुष्पलासे' संछन्नैः पत्रैः-पभिनीदलैः पुष्पपलाशै- कर्मज्ञातं श्व-कुसुमदलैयः स तथा 'बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्सहस्सपचकेसरफुल्लोवइए' बहुभिरुत्प-18 सू.५१ लादिभिः केसरप्रधानः फुलै-जलपुष्परुपचितः-समृद्धो यः स तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानि-चन्द्रपोथ्यादीनि पुण्डरीकाणि-सितपमानि शेषाणि लोकरूढ्याऽवसेयानि 'छप्पयपरिभुजमाणकमले अच्छविमलसलिलपत्थपुषणे अच्छं च विमलं च यत्सलिलं-जलं पथ्यं-हितं तेन पूर्णः 'परिहत्यभमंतमच्छकच्छभअणेगसउणगणमिहुणपविचरिए। 'परिहत्थ'त्ति दक्षा भ्रमन्तो मत्स्याः कच्छपाश्च यत्र स तथा अनेकानि शकुनगणानां मिथुनानि प्रविचरितानि यत्र स तथा, ततः। पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' इति प्राग्वत् , 'पावेत्यादि, पापी पापकारितात् चण्डौ क्रोधनखात् रौद्री भीपणाकारतया तत्तद्विवक्षितं वस्तु लन्धुमिच्छत इति तल्लिप्मू साहसिकौ-साहसात् प्रवृत्तौ लोहितौ पाणी-अग्रिमी पादौ ययोस्ती तथा, लोहितपानं वा अनयोरस्तीति लोहितपानिनी, आमिष-मांसादिकमर्थयतः-प्रार्थयतो यौ तौ तथा, आमिपाहारौ-मांसादिभोजिनौ आमिषप्रियौ-बल्लभमांसादिको आमिषलोलो-आमिषलम्पटी आमिषं गवेषयमाणो सन्तौ रात्रीरजन्यां विकाले च सन्ध्यायां चरत इत्येवंशीली यौ तौ तथा, दिवा प्रच्छन्नं चापि तिष्ठतः । 'सूरिए'इत्यादि, सूर्ये-भास्करे| 'चिरास्तमिते' अत्यन्तास्त गते 'लुलितायाँ' अतिक्रान्तप्रायायां सन्ध्यायां 'पविरलमाणुस्ससि निसंतपडिनिसंतसिलि९८॥ कोऽर्थः-प्रविरलं किल मानुषं सन्ध्याकाले यत्र तत्र देशे आसीत् तत्रापि निशान्तप्रतिनिशान्ते-अत्यन्तं भ्रमणाद्विरते निशान्तेषु वा-गृहेषु प्रतिनिश्रान्ते-विश्रान्ते निलीने अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थः 'समाणंसित्ति सति आवाधा-ईपद्भाधां प्रबाधा-प्रकृष्टां व अनुक्रम [६२] ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [४], ----------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] बाधां व्याबाधा वा छविच्छेद-शरीरच्छेदं, श्रान्ती-शरीरतः खित्रौ तान्ती-मनसा परितान्ती-उभयतः, 'ताए उफिट्टाए' इह एवं दृश्य 'तुरिमाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्भुयाए जयणाए छेयाए'त्ति तत्र उत्कृष्टा-कूर्माणां यः स्वगत्युत्कर्षः तद्बती खरितत्वं मनस औत्सुक्यात् चपलखं कायस्य चण्डवं संरम्भारम्धसात् शीघ्रखं अत एव उद्धुतलं अशेषशरीरावयवकम्पनात्, जयनीलं शेषकूर्मगतिजेतृखात् छेकलमपायपरिहारनपुण्यादिति । ज्ञातोपनयनिगमने च कण्ठये, केवलं 'आयरियउबज्झायाणं |अंतिए पाइए समाणे' इत्यत्र विहरतीति शेषो द्रष्टण्या, विशेषोपनयनमेवं कार्य-दह कर्म स्थानीयौ साधू शृगालस्थानीयौ राग-12 द्वेषौ ग्रीवापञ्चमपादचतुष्टयस्थानीयानि पश्चेन्द्रियाणि पादग्रीवाप्रसारणस्थानीयाः शब्दादिविषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः शृगालप्राप्तिस्थानीयो रागद्वेषोद्भवः पादादिच्छेदकूर्ममरणस्थानीयानि रागादिजनितकर्मप्रभवानि तिर्यगनरनरकजातिभवेषु नानाविधदुःखानिश पादादिगोपनस्थानीया इन्द्रियसलीनता शृगालाग्रहणलक्षणा रागाद्यनुत्पतिः मृतगङ्गानदप्रवेशतुल्या निर्वाणप्राप्तिरिति । इह गाथा-'विसएम इंदिआई रंभता रागदोसनिम्मुका । पार्वति निवुइसुहं कुम्मुव मयंगदहसोक्खं ॥१॥ अवरे उ अणत्थपरंपरा उ पाति पापकम्मवसा । संसारसागरगया गोमाउग्गसियकुम्मोच ।। २॥" [विषयेभ्य इन्द्रियाणि रुन्धन्तो रागद्वेषविमुक्ताः। प्रागुवन्ति निवृतिसुखं कूर्म इव मृतगङ्गाहदसौख्यम् ॥१॥ अपरे त्वनर्थपरम्परास्तु प्राप्नुवन्ति पापकर्मवशाः । संसारसागर|गता गोमायुग्रस्त कूर्म इव ॥२॥] इति ज्ञातधर्मकथायां चतुर्थमध्ययनं विवरणतः समाप्तम् ॥ ४॥ दीप अनुक्रम [६२] अत्र अध्ययन-४ परिसमाप्तम् ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् ज्ञाते द्वा प्रत सूत्रांक [१२] रिकावर्णनं सू. ५२ दीप अथ पञ्चमं शैलकाख्यं ज्ञाताध्ययनं विवियते, अस्य च पूर्वेण सहार्य सम्बन्धः-पूर्वत्रासलीनेन्द्रियेतरयोरनार्थावुक्तौ इह तु पूर्वमसंलीनेन्द्रियो भूत्वाऽपि यः पश्चात्सलीनेन्द्रियो भवति तस्यार्थप्राप्तिरभिधीयत इत्येवंसम्बन्धस्थास्येदं सूत्र-. जतिणं भंते समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झणस्स अपमष्टे पन्नत्ते पंचमस्सणं भंते ! णायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ बारवती नामं नयरी होत्था पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविकिछन्ना नवजोयणविच्छिन्ना दुवालसजोयणायामा धणवइमतिनिम्मिया चामीयरपवरपागारणाणामणिपंचवनकविसीसगसोहिया अलयापुरिसंकासा पमुतियपक्की लिया पञ्चक्खं देवलोपभूता, तीसे णं वारवतीए नयरीए यहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पञ्चए होत्था तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे णाणाविहगुरुछगुम्मलयावल्लिपरिगते हंसमिगमयूरकोंचसारसचकवायमयणसालकोइलकुलोषवेए अ गतडकडगवियरउजारयपवायपन्भारसिहरपउरे अच्छरगणदेवसंघचारणविजाहरमिटुणसंविचिन्ने निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेलोकबलवगाणं सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे पासातीए ४, तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं गंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सबोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणयणप्पगासे पासातीए ४, तस्स णं उज्नाणस्स बहुमजादेसभाए सुरप्पिए नामं जक्खाययणे होत्या दिवे वन्नओ, तत्थ णं चारवतीए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसति, सेणं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्डं महावीराणं उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं अनुक्रम [६३] ॥१९॥ अथ अध्ययनं-५"शेलक: आरभ्यते ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 2005 प्रत सूत्रांक [२] ह दीप राईसहस्साणं पज्जुन्नपामोक्खाणं अदुट्ठाणं कुमारकोडीणं संवपामोक्खाणं सहीए दुईतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए वीरसाहस्सीर्ण महासेनपामोक्खाणं छप्पनाए बलबगसाहस्सीणं रुप्पिणीपामोक्खाणं वत्तीसाए महिलासाहस्सीणं अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं अनर्सि च बहूणं ईसरतलवर जाव सत्यवाहपभिईणं वेयङगिरिसायरपेरंतस्स य दाहिणड्डभरहस्स [य] वारवतीए नयरीए आहेबच्चं जाव पालेमाणे विहरति । (सूत्रं ५२) 'जह णमित्यादि, सर्व सुगम, नवरं 'धणवइमइनिम्माय'चि धनपतिः-वैश्रमणस्तन्मत्या निर्मापिता-निरूपिता अलकापुरी-वैश्रमणपुरी प्रमुदितप्रक्रीडिता तद्वासिजनानां प्रमुदितप्रक्रीडितखात् रैवतक:-उजयन्तः 'चकवाग'चि चक्रवाक: 'मयणसाल'ति मदनसारिका अनेकानि तदानि कटकाच-गण्डशैला यत्र स तथा, 'विअर'त्ति विवराणि च अवजाराचनिर्झरविशेषाः प्रपाताच-भृगवः प्रारभाराच-ईषदवनता गिरिदेशाः शिखराणि च-कूटानि प्रचुराणि यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः । अप्सरोगणैः-देवसङ्घः चारणैः-जङ्गाचारणादिभिः साधुविशेष विद्याधरमिथुनच 'संविचिण्णेति संविचरित| आसेवितो यः स तथा, 'नित्यं सर्वदा 'क्षणा' उत्सवा यत्रासौ नित्यक्षणिका, केषामित्याह-दशारा' समुद्रविजयादयः। तेषु मध्ये परास्त एव वीरा-धीरपुरुषा येते तथा 'तेलोकबलवगाणं त्रैलोक्यादपि बलवन्तोऽतुलबलनेमिनाथयुक्तत्वात् ये ते | तथा ते च ते चेति तेषां। | तस्स णं बारवईए नयरीए थावच्चा णामं गाहावतिणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूता,तीसे णं थावचाए अनुक्रम [६३] cenese Famurary.org ~209 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ---------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म erse प्रत शैतकजाते वामदेवनिर्वषः सू. ५३ सूत्रांक ॥१०॥ [५३] दीप गाहावतिणीए पुत्ते थावचापुत्ते णाम सत्यवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाप सुरूवे, तते णं सा थावचागाहावणी तं दारयं सातिरेगअहवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहिकरणणक्खत्तमुहतंसि कलायरियस्स एवणेंति, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इन्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेति बत्तीसतो दाओ जाव पत्तीसाए इन्भकुलबालियाहिं सद्धि विपुले सदफरिसरसरूपवन्नगंधे जाव भुंजमाणे विहरति । तेणं कालेणं २ अरहा अरिहनेमी सो चेव वण्णओ दसवणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे चत्तालीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे पुषाणुपुर्षि चरमाणे जाव जेणेव बारवती नगरी जेणेव रेवयगपचए जेणेव नंदणवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छद २ अहापडिरूवं जग्गहं ओगिहिसा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लट्टे समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदितं भेरि तालेह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कड-एवं सामी! तहत्ति जाव पडिसुणेति २ कण्हस्स वासदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति २ जेणेव सहा सुहम्मा जेणेच कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति तं मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदितं भेरि तालेति । अनुक्रम [६४] ॥१०॥ Ae ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: चिता वत्ति: प्रत सुत्रांक [५३] दीप अनुक्रम ततो निमहुरगंभीरपडिसुएणपिव सारइएणं बलाहएणंपिव अणुरसियं भेरीए, तसे णं तीसे कोमुदि. याए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवतीए नयरीए नवजोयणविच्छिन्नाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडगतियचउकचचरकंदरदरीए विवरकुहरगिरिसिहरनगरगोउरपासातदुवारभवणदेउलपडिसुयासयसहस्ससंकुलं साई करेमाणे बारवर्ति नगरि सम्भितरबाहिरियं सबतो समंता से सद्दे विपसरिस्था, तते ण बारवतीए नयरीए नवजोयणविच्छिन्नाए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दसद. सारा जाव गणियासहस्साई कोमुदीयाए भेरीए सई सोचा णिसम्म हतुट्टा जाच पहाया आविद्धवग्धारियमल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोक्किन्नगायसरीरा अप्पेगतिया हयगया एवं गयगया रहसीयासंदमाणीगया अप्पेगतिया पायबिहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखिसा कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था । तते णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउम्भवमाणे पासति पासित्ता हतु जाच कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरिंगिणीं सेणं सजेह विजयं च गंधहत्थिं उबट्टवेह, तेवि तहत्ति उवट्ठति,जाव पज्जुवासंति(मूत्रं५३) 'बत्तीसओ दाओ' द्वात्रिंशत्प्रासादाः द्वात्रिंशद्धिरण्यकोट्यः द्वात्रिंशत्सुवर्णकोट्य इत्यादिको दायो-दानं वाच्यो, यथा मेषकुमारस्य 'सो चेव वण्णओ'ति आइगरे तित्थगरे इत्यादिर्यो महावीरस्य अभिहितः । 'गवल'त्ति महिष्य गुलिकानीली गवलस्य वा गुलिका गवलगुडिका अतसी-मालवकप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'कोमुइयं ति उत्सववाद्यं वचित्सामुदा [६४] SARERainintunatural ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ५३ ] दीप अनुक्रम [६४] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५३ ] श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ॥१०१॥ दीक्षा सू. ज्ञाताधर्म - २ विकीमिति पाठः तत्र सामुदायिकी जनमीलकप्रयोजना | 'निद्धमहुरगंभीरपडिसु एणंपिव' ति स्निग्धं मधुरं गम्भीरं प्रति - ४५ शैलककथाङ्गम् श्रुतं प्रतिशब्दो यस्य स तथा तेनेव, केनेत्याह- 'शारदिकेन' शरत्कालजातेन 'बलाहकेन' मेघेनानुरसितं शब्दायितं भेर्याः, ज्ञाते स्थाशृङ्गाटकादीनि प्राम्बत्, गोपुरं नगरद्वारं प्रासादो- राजगृहं द्वाराणि प्रतीतानि भवनानि - गृहाणि देवकुलानि - प्रतीतानि तेषु पत्यापुत्रया: 'पडिय'ति प्रतिश्रुताः प्रतिशब्दकास्तासां यानि शतसहस्राणि लक्षास्तैः संकुला या सा तथा तां कुर्वन्, कामित्याह- द्वारकावर्ती नगरीं, कथंभूतामित्याह- 'सम्भितरबाहिरियं' ति सहाभ्यन्तरेण-मध्यभागेन बाहिरिकया च- प्राकाराद्रहिर्नगरदेशेन या सा तथा साभ्यन्तरवाहिरिका तां, 'से' इति स भेरीसम्बन्धी शब्द: 'विप्पसरित्थ'त्ति विप्रासरत 'पामोक्खाई'ति प्रमुखाः 'आविद्वबग्घारियमलदामकलावत्ति परिहितप्रलम्बपुष्पमालासमूहा इत्यादिर्वर्णकः प्राग्वत् 'पुरिसवग्गुरापरिखित्ता' वागुरा- मृगबन्धनं वागुरेव वागुरा समुदायः । ५४ धावचापुतेवि णिग्गए जहा मेहे तहेव धम्मं सोचा णिसम्म जेणेव थावचा गाहावतिणी तेणेव उवागच्छति २ पायरगहणं करेति जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा जाहे नो संचाएति विसयाणुलोमाहिय विसयपडकूलेहि य बहूहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवितए वा ४० ताहे अकामिया चैव धावचापुत्तदारंगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो, तर णं से धावद्यापुते तुसिणीए संचिवइ, तते णं सा थावच्चा आसणाओ अभुद्वेति २ महत्वं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हति २ मित्त जाव संपरिवडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर Eucation internationa थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Praise Only ~212~ ॥१०१॥ Cayra Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [६५] पडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छति २ पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागकछति २ करपलव्वद्धावेति २तं महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं उचणेइ २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए इढे जाव से णं संसारभयउबिग्गे इच्छति अरहओ अरिहनेमिस्स जाव पबतित्तए, अहण्णं निक्खमणसकारं करेमि, इच्छामि णं देवाणुप्पिया! धावचापुसस्स निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ य विदिन्नाओ, तते णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावतिणीं एवं बदासी-अच्छाहिणं तुम देवाणुप्पिए। सुनिब्बुया वीसस्था, अहणं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसकारं करिस्सामि, तते णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरुढे समाणे जेणेव थावचाए गाहावतिणीए भवणे तेणेष उवागच्छति २ थावच्चापुत्तं एवं वदासीमाणं तुमे देवाणुप्पिया! मुंडे भवित्ता पञ्चयाहि भुंजाहि णं देवाणुप्पिया ! विउले माणुस्सए कामभोए मम बाहुफछायापरिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहंणो संचाएमि वाउकार्य उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए, अपणे णं देवाणुप्पियस्स जे किंचिवि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति तं सर्व निवारेमि, तते णं से थावबापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! मम जीवियंतकरणं मधु एजमाणं निवारेसि जरं वा सरीरस्वविणासिणि सरीरं वा अइचयमाणि निवारेसि तते णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि, तते णं से कण्हे थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: OIL ५सलक प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक ज्ञातै स्थापत्यापुत्रदीक्षा सू. ॥१०२॥ [५४] ५४ दीप अनुक्रम [६५] वासुदेवे धावच्चापुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे थावचापुत्तं एवं वदासी-एए णं देवाणुप्पिया दुरतिकमणिना णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णन्नस्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अन्नाणमिच्छत्तअविरइकसायसंचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए, तते णं से कण्हे वासुदेवे धावचापुसेणं एवं बुत्ते समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया ! वारवतीए नयरीए सिंघाडगतियगचउक्कचच्चर जाव हत्थिर्खधवरगया महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ उग्घोसणं करेह-एवं खलु देवा. थावच्चापुत्ते संसारभउबिग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छति अरहतो अरिहनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पवइत्तए तं जो खलु देवाणुप्पिया! राया चा जुयराया वा देवी या कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोटुंबिय मांडविय० इन्भसेडिसेणावइसत्यवाहे वा थावचापुत्तं पदयंतमणुपचयति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणति पच्छातुरस्सविय से मित्तनातिनियगसंबंधिपरिजणस्स जोगखेम बहमाणं पडिवहतित्तिक घोसणं घोसेह जाच धोसंति, तते णं धावचापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं पहायं सवालंकारविभूसियं पत्तेयं २ पुरिससहस्सवाहिणीसु सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणातिपरिवुडं थांबचापुत्तस्स अंतियं पाउम्भूयं, तते णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउम्भवमाणं पासति २ कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासीजहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापीएहिं पहावेति २ जाव अरहतो अरिट्टनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं IN ॥१०॥ थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~2144 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [ ५४ ] दीप अनुक्रम [ ६५ ] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५४ ] श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः पडागातिपडागं पासंति २ विजाहरचारणे जाव पासित्ता सीबियाओ पचोरुहंति, तते णं से कण्हे वासुदेवे धावचापुत्तं पुरओ का जेणेव अरिहा अरिहनेमी सवं तं चैव आभरणं, तते णं से थावचागाहावरणी हंसलक्खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारे पडिच्छह हारवारिधारछिन्नमुत्तावलिप्पगासातिं अंसूणि विणिचमाणी २ एवं बदासी-जतियां जाया ! घडियां जाया ! परिक्कमियवं जाया । अस्सिंच णं अट्ठे णोपमादेवं जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया, तते णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति जाव पद्धतिए। तते णं से थावचापुत्ते अणगारे जाते ईरियासमिए भासासमिए जाव विहरति, तते णं से थावच्चापुत्ते अरहतो अरिनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयातिं चोदस पुवाई अहिज्जति २ बहूहिं जाव चउत्थेणं विहरति । तते णं अरिहा अरिनेमी थावचापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयति, तते णं से थावचापुते अन्ना कयाई अरहं अरिद्वनेमिं वंदति नम॑सति २ एवं बदासी - इच्छामि णं भंते! तुभेहिं अन्भणुनाते समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पि ! तते णं से धावद्यापुरते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं [उरालेणं] उग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरति । (सूत्रं ५४ ) free अप्पणी कम्म एणं ति न इति यदेतन्मरणादिवारणशक्तेर्निषेधनं तदन्यत्रात्मना कृतात् आत्मनो वा सम्ब थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Parts Only ~215~ www.ora Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [६५] ज्ञाताधर्म- न्धिनः कर्मक्षयात् , आत्मना क्रियमाणं आत्मीयं वा कर्मक्षयं वर्जयित्वेत्यर्थः, 'अज्ञाने'त्यादि 'अप्पणा अप्पणो वा कम्म- ५शैलककथानम्. क्खियं करित्तए'त्ति कर्मण इह पष्ठी द्रष्टव्या, 'पच्छाउरस्से'त्यादि, पश्चाद् असिन् राजादौ प्रबजिते सति आतुरस्यापि ज्ञाते स्था |च द्रव्याधभावाहुःस्थस्य 'से' तस्य तदीयस्खेत्यर्थः मित्रज्ञातिनिजकसम्बन्धिपरिजनस्य योगक्षेमवार्चमानी प्रतिवदति, वञ्चापुत्र. ॥१०॥ तत्रालब्धस्पेप्सितस्य वस्तुनो लामो योगो लब्धस्स परिपालनं क्षेमस्ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्च- दीक्षादि मानी ता-निर्वाहं राजा करोतीति तात्पर्य, 'इतिकट्ठ' इतिकृत्वा इतिहेतोरेवंरूपामेव वा घोपणां घोषयत-कुरुत, 'पुरिसस-18 हस्स' मित्यादि, इह पुरुषसहस्रं स्नानादिविशेषणं थावच्चापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भूतमिति सम्बन्धः । 'विजाहरचारणे'त्ति इह 'जंभए य देवे बीइवयमाणे इत्यादि द्रष्टव्यं, एवमन्यदपि मेषकुमारचरितानुसारेण पूरयिताऽध्येतव्यमिति । 'इरियास-12 मिए'इत्यादि, इह यावत्करणादिदं क्य, "एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए" आदानेन-ग्रहणेन सह भाण्डमा-। त्राया-उपकरणलक्षणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा-मोचनं तस्यां समितः-सम्यक्प्रवृत्तिमान् 'उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए' उच्चारः-पुरीप, प्रश्रवण-मूत्र, खेलो निष्ठीवनं, सिङ्गानो-नासामला, जल्ला-शरीरमला, मणसमिए वयसमिए । कायसमिए' चित्तादीनां कुशलानां प्रवर्तक इत्यर्थः, 'मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते' चित्तादीनामशुभानां निषेधकः, अत एवाह गुत्ते-योगापेक्षया गुत्तिदिए-इन्द्रियाणां विषयेष्वसत्प्रवृत्तिनिरोधात् 'गुत्तवंभचारी' बसत्यादिनवब्रह्मचर्यगुप्तियोगात् , | ॥१०॥ अकोहे ४, कथमित्याह-सन्ते-सौम्यमूर्तिवात् पसन्ते-कपायोदयस्य विफलीकरणात् उपसन्ते-कषायोदयाभावात् परिनिगुडेखास्थ्यातिरेकात् , अणासवे-हिंसादिनिवृत्तेः अममे ममेत्युल्लेखस्थाभिष्वङ्गतोऽप्यसनावात् , 'अकिंचणे' निद्रव्यखात्, छिमगथे-- थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~216 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४] दीप अनुक्रम [६५] 18 मिथ्याखादिभावग्रन्थिच्छेदात् निरुवलेवे-तथाविधबन्धहेलभावेन तथाविधकर्मानुपादानात् , एतदेवोपमानरुच्यते-'कसपाईव मुक| तोए' बन्धहेतुलेन तोयाकारस्थ स्नेहसाभावात् , 'संखो इच निरंजणे' रञ्जनस्य रागस्य कर्तुमशक्यखाव, 'जीवो विच अप्पडिहयगई सर्वत्रौचित्येनास्खलितविहारिखात् , 'गगणमिव निरालंबणे देशग्रामकुलादीनामनालम्बकत्वात् 'वायुरिव अपडिबढे' क्षेत्रादौ प्रतिबन्धाभावेनौचित्येन सततविहारित्वात् , 'सारयसलिलंब सुद्ध हियए' शाठ्यलक्षणगडुलत्ववर्जनात, 'पुक्खरपत्तंपिव निरुले। पथपत्रमिव भोगामिलापलेपाभावात 'कुम्मो इव गुत्तिदिए' कूर्म:-कच्छपः, 'खग्गिविसाणं व एगजाए खनि:-आरण्यः पशुविशेषः तस्य विषाण-ग्रज तदेकं भवति तद्वदेकीजातो योऽसंगतः सहायत्यागेन स तथा, 'विहग इव विष्पमुके' आलयाप्रतिबन्धेन । IT'भारंडपक्खीव अप्पमते भारण्डपक्षिणो हि एकोदराः पृथग्ग्रीवा अनन्यफलमक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकि तचित्ता भवन्तीति, 'कुंजरो इव सोंडीरे' कर्मशत्रुसैन्यं प्रति शूर इत्यर्थः 'वसभो इव जायथामे' आरोपितमहाबतभारवहन प्रति जातवलो निर्वाहकत्वात् , 'सीहो इव दुद्धरिसे' दुईपणीयः उपसर्गमृगैः, 'मंदरो इव निप्पकंपे' परीषहपवनैः, 'सागरो इव |गंभीरे' अतुच्छचित्तत्वात् , 'चंदो इव सोमलेसे' शुभपरिणामत्वात् , 'सूरो इव दित्ततेए परेषां क्षोभकत्वात् , 'जचकंचर्ण व जायसवे' अपगतदोषलक्षणद्रव्यत्वेनोत्पन्नस्वस्वभावः, 'वसुंधरा इव सबकासविसहो' पृथ्वीवत् शीतातपायनेकविधस्पर्शक्षमः, 'सुहृयहुयासणोच्च तेजसा जलते' घृतादितपितवैश्वानरवत प्रभया दीप्यमान:, 'नथि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पटिबंधो भवई' नास्त्ययं पक्षो यदुत तस्य (भगवतः) प्रतिबन्धो भवति से य पडिबंधे चउबिहे पण्णते, तंजहा-दवओ४, दवभो सचित्ताचित्तमीसेसु खेत्तओ गामे वा नगरे वारणे वा खले वा अंगणेवा, खलं-धान्यमलनादिस्थण्डिलं 'कालओ समए वा आवलियाए वा-असंख्यातसमयरूपायां, aa908Odeaeeeeee थावच्चापुत्रस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~217 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक शाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१०४॥ [१४] दीप अनुक्रम [६५] 'आणापाणूए वा उच्छ्वासनिश्वासकाले थोवे वा-सप्लोच्छ्वासरूपे खणे चा-बहुतरोच्छवासरूपे लवे वा-सप्तस्तोकरूपे मुहुर्ने वा-IIलकलवसप्तसप्ततिरूपे 'अहोरते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा' दक्षिणायनेतररूपे प्रत्येक षण्मासप्रमाणे संवत्सरे वा, 'अन्नतरे वाले दीहकालसंजोए' युगादौ । 'भानओ कोहे वा ४ भये वा हासे वा' हासे हर्षे वा, एवं तस्स न भवई' एवमनेकधा तस्य परिवाजप्रतिबन्धो न भवति, 'सेणं भगवं वासीचंदणकप्पे चास्यां चन्दनकल्पो यः स तथा, अपकारिणोऽप्युपकारकारीत्यर्थः, वासी वाकदीक्षा अछेदनप्रवृत्तां चन्दनं कल्पयति यः स तथा 'समतिणमणिलेटूकंचणे समसुहदुक्खे' समानि उपेक्षणीयतया खणादीनि यस्य RI लास.५५ स तथा, 'इहलोगपरलोगपडिबद्धे जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मनिग्घायणढाए अहिए एवं च णं विहरइ'त्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नाम नगरं होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया पउमावती देवी मंडप कुमारे जुबराया, तस्स णं सेलगस्स पंधगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था उत्पत्तियाए वेणायाए ४ उषवेया रजधुरं चिंतयंति । थावचापुत्ते सेलगपरे समोसढे राया णिग्गतो धम्मकहा, धर्म सोचा जहा देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरनं जाव पबहत्ता तहा णं अहं नो संचाएमि पचत्तिए, अहन्नं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुषइयं जाव समणोवासए जाव अहिंगयजीवाजीवे जाच अप्पाणं भावेमाणे विहरति, पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया, थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २ सोगंधिया नाम नपरी होत्था वन्नओ, नीला- ॥१०॥ सोए उजाणे वन्नओ, तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नगरसेट्ठी परिवसति अड्डे जाव अपरिभूते। Ramana थावच्चापुत्रस्य दिक्षायाः प्रसंग:, शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षाया: प्रसंग: ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] तेणं कालेणं २ सुए नाम परिवायए होत्या रिउच्वेयजजुधेयसामवेयअधवणवेयसद्वितंतकुसले संखसमए लद्धढे पंचजमपंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिचायगधम्मं दाणधम्मंच सोयधम्मच तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पन्नवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए तिदंडकुंडियउत्तग्लु(करोडियळपणाल)यंकृसपविसयकेसरीहत्थगए परिवायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिखुडे जेणेव सोगंधियानगरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छह २ परिवायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेइ २त्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं. सोगंधियाए सिंघाडग. बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु सुए परिवायए इह हवमागते जाव विहरद, परिसा निग्गया सुदंसणो निग्गए, तते णं से सुए परिवायए तीसे परिसाए सुदस्सणस्स य अन्नेसिं च यहूर्ण संखाणं परिकहेति-एवं खलु सुदसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नसे सेऽविय सोए दुविहे पं०, तं०-दवसोए य भावसोए य, धसोए य उदएणं महियाए य, भावसोए दन्भेहि य मंतेहि य, जन्नं अम्हं देवाणुप्पिया! किंचि असुई भवति तं सर्व सज्जो पुढवीए आलिप्पति ततो पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जति ततो तं अमुई सुई भवति, एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूपप्पाणो अविग्घेणं सगं गच्छति, तते णं से सुदंसणे सुथस्स अंतिए धम्मं सोचा हढे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्म गेण्हति २ परिवायए विपुलेणं असण ४ वत्थ पडिलाभेमाणे जाव विहरति । तते णं से सुए परिवायगे सोगंधियाओ नगरीओ निगच्छति २त्ता बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं seseeeeeeeees दीप अनुक्रम [६६-६८] For P OW wwwimararycom शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. सूत्रांक ५ शैलकज्ञाते शुकपरिव्राज| कदीक्षा ॥१०५| [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] कालेणं २ थावञ्चापुत्तस्स समोसरणं, परिसा निग्गया, सुदंसणोवि णीइ, थावच्चापुत्तं चंदति नमसति २ एवं वदासी-तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ,तते गं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं वदासी-सुदंसणा! विणयमूले धम्मे पन्नत्ते, सेविय विणदुविहे पं0 तं०-अगारविणए अणगारविणए य, तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुवयातिं सत्त सिक्खावयातिं एकारस उवासगपडिमाओ, तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महत्वयाई, तंजहा-सवातो पाणातिवायाओ वेरमणं सवाओ मुसावायाओ बेरमणं सत्वातो अदिनादाणातो बेरमणं सहाओ मेहुणाओ वेरमणं सपाओ परिग्गहाओ वेरमणं सबाओ राइभोयणाओ बेरमणं जाव मिच्छादंसणसल्लाओ बेरमणं, दसविहे पञ्चकम्वाणे बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुवेणं अट्ठकम्मपगंठीओ खपेत्ता लोधग्गपइट्टाणे भवंति, तते णं थावच्चापुत्ते सुर्वसणं एवं वदासी-तुब्भे णं सुदंसणा। किमूलए धम्मे पन्नत्ते', अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पत्ते जाव सग्गं गच्छति, तते णं थावचापुत्ते सुदंसणं एवं वदासी-सुदंसणा! से जहा नामए केइ पुरिसे एग महं रुहिरकर्य बत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा तते णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स बत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालिजमाणस्स अस्थि काइ सोही?, णो तिणट्टे समढे, एवामेव सुदंसणा! तुम्भंपि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही, सुदंसणा! see ॥१०५॥ शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] Chakram.ociatiseहिटलराटCA दीप अनुक्रम [६६-६८] से जहा णामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सजियाखारेणं अणुलिंपति २ पयणं आरुहेति २ पुण्हंगाहेइ २त्ता ततो पच्छा सुद्धेणं बारिणा धोवेजा, सेणूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स बत्थस्स सब्जियाखारेणं अणुलिसस्स पयर्ण आरुहियस्स उपहं गाहितस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स सोही भवति .हंता भवह, एवामेव सुदंसणा! अम्हंपि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लबेरमणेणं अधि सोही, जहा चीयस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि सोही, तत्थ णं से सुदंसगे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदति नमसति २ एवं वदासी-इच्छामि गंभंते ! धम्म सोचा जाणित्तए जाव समणोवासए जाते अहिगयजीवाजीवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु सुदंसणणं सोयं धम्मं विप्पजहाय विणयमूले धम्म पडिवन्ने, तंसेयं खलु मम सुदंसणस्स दिढि वामेत्तए. पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ परिवायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेच सोगंधिया नगरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छति २ परिचायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेति २ धाउरत्तवस्थपरिहिते पविरल परिवायगेणं सद्धिं संपरिबुडे परिवायगावसहाओ पडिनिक्खमति २ सोगंधियाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छति तते णं से सुदंसणे तं सुर्य एज्जमाणं पासति २ नो अब्भुट्टेति नो पबुग्गच्छति णो आढाइ नो परियाणाइ नो वंदति तुसिणीए संचिट्ठति तए णं से सुए परिवायए सुदंसणं अणभुद्वियं० पासित्ता एवं वदासी-तुमं णं सुदं SUREairahawand शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ ५ ], मूलं [५५,५६ ] श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१०६॥ सा! अन्नदा म एमाणं पासित्ता अन्भुद्वेसि जाव बंदसि इयाणिं सुदंसणा ! तुमं ममं एज्रमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि तं कस्स णं तुमे सुदंसणा ! इमेयारूवे विणयमूलधम्मे पडिवन्ने, तते णं से सुदंसणे सुपर्ण परिवारणं एवं कुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुट्ठेति २ करयल०सुर्य परिवायगं एवं बदासीएवं खलु देवाप्पिया ! अरहतो अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी धावञ्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए इह वेव नीलासोए उज्जाणे विहरति, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तते णं से सुए परिवायए सुदंसणं एवं वदासी-तं गच्छामो णं सुदंसणा ! तब घम्मायरियस्स धावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामो इमाई च णं एपारूवातिं अट्ठाई हेऊई पसिणातिं कारणातिं वागरणातिं पुच्छामो, तं जह णं मे से इमाई अातिं जाव बागरति तते णं अहं बंदामि नम॑सामि अह मे से इमार्ति अद्वातिं जाव नो से बाकरेति तते अहं एएहिं चेव अद्वेर्हि हेऊहिं निष्पट्टपसिणवागरणं करिस्सामि, तते णं से सुए परिवायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावचापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति २ सा थावचा एवं वदासी -जत्ता ते भंते! जवणिज्जं ते अधावापि ते फासूयं विहारं ते १, तते णं से थावचापुत्ते सुरणं परिवायगेणं एवं वृत्ते समाणे सुयं परिज्ञायगं एवं वदासी-सुया ! जत्तावि मे जवणिजंपि मे अवापि मे फासूयविहारंपि मे, तते णं से सुए थावचापुक्तं एवं वदासी- किं भंते! जन्ता !, सुया ! जन् मम णाणदंसणचरित्ततवसंजममातिएहिं जो एहिं जोयणा से तं जत्ता, से किं तं भंते! जवणिज 2, शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: For Park Use Only ~ 222~ ५ शैलकज्ञाते शुकपरिब्राजकदीक्षा स. ५५ ॥१०६॥ wor Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] ceaeeeee 'सुया ! जवणिजे दुविहे पं०, तं०-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिजे य, से कितं इंदियजवणिज!, सुया! जन्नं मम सोतिदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई घसे वहति से तं इंदियजवणिज,से किं तं नोइंदियजवणिजे ,सुया!जन्नं कोहमाणमायालोभा खीणा उवसंता नो उदयंति से तं नोइंदिपजवणिज्जे, से कितं भंते अबाबाहं,सुया जन्नं मम वातियपित्तियसिभियसन्निवाइया विविहा रोगातका णो उदीरेंति सेत्तं अवाबाहं, से किं तं भंते ! फासुयविहारं ?, सुया ! जन्नं आरामेसु सज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पचासु इत्थिपमुपंडगविचज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीठफलगसेज्जासंथारयं उग्गिणिहत्ताणं विहरामि सेतं फासुयविहारं । सरिसवया ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ?, सुया ! सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि, से केण?णं भंते! एवं बुचई-सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि, सुया! सरिसवया दुविहा पं०, तं०-मित्तसरिसवया धनसरिसवया य, तत्थ णं जे ते मित्तसरिसचया ते तिविहा पं०, तं०-सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं णिग्गाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसबया ते दुचिहा पं०, तं०-सत्थपरिणया य असत्यपरिणया य, तत्थ पंजे ते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंधाणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पं०, तं०-फासुगा य अफासुगा य, अफासुया णं सुया! नो भक्खेया, तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पं०, तं०-जातिया य अजातिया य, तत्थ णं जे ते अजातिया ते अभक्खेया, शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [५५,५६] ५ शैलकज्ञाते शुकपरिव्राजकदीक्षा सू. ५५ ॥१०७॥ दीप अनुक्रम [६६-६८] तत्य णं जे ते जाइया ते दुविहा पं०, तं०-एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य, तत्व णं जे ते अणेसणिज्जा । तेणं अभक्खया, तत्थ जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पं०, तं०-लद्धा य अलद्धा य, तत्थ णं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया, एएणं अट्ठणं सुया! एवं बुचतिसरिसवया भक्खयावि अभक्खेयावि, एवं कुलस्थावि भाणियबा, नवरि इमं णाणसं-इस्थिकुलत्था य धन्नकुलत्था य, इत्थिकुलत्था तिविहा पं०, तं०-कुलवधुया य कुलमाउया ह य कुलधूया इ य, धन्नकुलत्था तहेव, एवं मासावि, नवरि इमं नाणतं-मासा तिविहा पं०, तं०-कालमासा य अत्थमासा य धन्नमासा य, तत्थ णं जे कालमासा ते ण दुवालसविदा पं०, तंजहा-सावणे जाव आसादे, ते णं अभक्खेया, अस्थमासा दुविहा-हिरन्नमासा य सुवण्णमासा य, ते णं अभक्खेया धन्नमासा तहेव । एगे भवं दुवे भवं अणेगे भवं अक्खए भवं अवए भवं अवट्ठिए भवं अणेगभूयभावे भविएवि भवं?,सुया! एगेवि अहं दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं, से केणतुणं भंते ! एगेवि अहं जाव सुया ! दट्टयाए एगे अहं नाणदंसणट्टयाए दुवेवि अहं पएसट्टयाए अक्खएवि अहं अवएवि अहं अवढिएवि अहं उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभविएवि अहं, पत्थ णं से सुए संबुद्धे यावच्चापुत्तं वदति नमसति २ एवं वदासीइच्छामि णं भंते! तुम्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामिसए धम्मकहा भाणियबा, तए णं से सुए परिवायए धाचचापुत्तस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म एवं वदासी-इच्छामिण भंते ! परिचायगसहस्सेणं सद्धिं Decececene ॥१०७॥ शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] Saesasreeaanoosraeeerasa संपरिबुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पवइत्तए, अहासुहं जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे तिडंइयं जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेति २ सयमेव सिहं उप्पाडेति २ जेणेव थावच्चापुत्ते. मुंडे भवित्ता जाव पचतिए सामाइयमातियाई चोदस पुवाति अहिज्जति, तते णं थावचापुत्ते सुयस्स अणगारस्सहस्सं सीसत्ताए वियरति, तते णंथावचापुत्ते सोगंधियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिचुडे जेणेव पुंडरीए पचए तेणेव उवागच्छइ २ पुंडरीयं पञ्चयं सणियं २ दुरुहति २ मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्ट्यं जाव पाओवगमणं णुवन्ने, तते णं से धावच्चापुत्ते बहुणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताति अणसणाए जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता ततो पच्छा सिद्धे जाव पहीणे । (सूत्रं ५५) तते णं से सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नगरे जेणेव सुभूमिभागे उजाणे समोसरणं परिसा निग्गया सेलओ निग्गच्छति धम्मं सोचा जं नवरं देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खातिं पंच मंतिसयाति आपुच्छामि मण्डुयं च कुमारं रजे ठावेमि, ततो पच्छा देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अ. णगारियं पच्चयामि,अहासुह, ततेणं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसति २जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उचट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद २ सीहासणं सन्निसन्ने, तते णं से सेलए राया पंधयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेद सहावेत्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुपस्स अंतिए धम्मे णिसंते शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म ५ शैलक कथानम्. सूत्रांक राजदीक्षा [५५,५६] ॥१०८॥ सू.५६ दीप अनुक्रम [६६-६८] सेवि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुतिए अहं णं देवाणुप्पिया ! संसारभयउविग्गे जाव पक्वयामि, तुम्भेणं देवाणुप्पिया किं करेह किं ववसह किंवा ते हियइच्छति?, ततेणंत पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं वदासी-जहणं तुन्भे देवा० संसार जाव पचयह अम्हाणं देवाणुप्पिया! किमन्ने आहारे वा आलंबे वा अम्हेविय णं देवा० संसारभयाउविग्गा जाव पचयामो, जहा देवाणुप्पिया! अम्हं बहुसु कजेसु य कारणेसु य जाव तहाणं पचतियाणवि समाणाणं बहुसु जाव चक्खुभूते, तते णं से सेलगे पंधगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं व-जति णं देवाणु० तुम्भे संसार जाव पचयह तं गच्छह णं देवा० सएसु २ कुडंबेसु जेट्टे पुत्ते कुइंचमझे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउम्भवहत्ति, तहेय पाउन्भवति, तते णं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउम्भवमाणातिं पासति रहट्ठतुट्टे कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मंडयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उबट्ठयेह. अभिसिंचति जाव राया विहरति । तते णं से सेलए मंडयं रायं आपुच्छह, तते णं से मंडुए राया कोडंबियपुरिसे० एवं वदासी-खिप्पामेव सेलगपुरं नगरं आसित जाव गंधवधिभूतं करेह प कारवेह य २ एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तते णं से मंडुए दोचंपि कोडंपियपुरिसे सदावेइ २ एवं वदासी-खिप्पामेव सेलगस्स रनो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव णवरं पउमावतीदेवी अग्गकेसे पडिच्छति सदेवि पडिग्गहं गहाय सीयं दुरूहंति, अवसेसं तहेव ॥१८॥ शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] जाव सामातियमातियार्ति एकारस अंगाई अहिजति २षहहिं चउस्थ जाव विहरति,सए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथयपामोक्खाति पंच अणगारसयाई सीसत्ताए चियरति, तते णं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नगराओ सुभूमिभागाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति २त्ता पहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धि संपरिचुर पुवाणुपुर्षि घरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेच पोंडरीए पथए जाव सिद्धे (सूत्रं ५५) एवमीयोसमित्यादिगुणयोगेनेति । 'पंचाणुवइयं इह यावत्करणात् एवं दृश्य 'सत्चसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवञ्जिचए, अहामुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबधं काहि सि । तए णं से सेलए राया थापच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुबइयं जाव उवसंपञ्जा, तए णं से सेलए राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीये' इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'उबल-1 Sदपुण्णपाचे आसवसंवरनिअरकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसले' क्रिया-कायिक्यादिका अधिकरण-खगनिवेत्तेनादि, एतेन च ज्ञानितोक्ता, 'असहेज्जे' अविद्यमानसाहाय्यः कुतीर्थिकरितः सम्यक्सविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः, अत एवाह 'देवासुरनागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरुसगरुलगंधवमहोरगाइपहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अगतिकमणिले देवा-पैमानक-II ज्योतिष्काः शेषा भवनपतिव्यन्तरविशेषाः गरुडाः-सुवर्णकुमाराः एवं चैतवतो 'निम्गंधे पावयणे निस्संकिए' निःसंकया। निखिए-मुक्तदयोनान्तरपक्षपातो निश्चितिगिच्छे-फलं प्रति निःशः लद्धहे-अर्थश्रवणतः गहियट्टे-अोवधारणेन पुच्छिक 18 संशये सति अहिंगयटे-बोधात्, विणिच्छियढे-ऐदम्पर्योपलम्भात् अत एव अद्विमिजपेम्माणुरागरसेसि असीनि शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [५५,५६] ॥१०९॥ दीप अनुक्रम [६६-६८] aesecseesereeहरयड प्रसिद्धानि मिझा च-तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य५ शैलकस तथा, केनो लेखेनेत्याह-'अयमाउसो ! निग्गथे पावयणे अढे अयं परमढे सेसे अण्णडे' 'आउसो'ति आयुष्ममिति पुत्रादेरा- राजदीक्षा मन्त्रणं शेष-धनधान्यपुत्रदारराज्यकुप्रवचनादि, उस्सियफलिहे-उरिछूतं स्फटिकमिव स्फटिक-अन्तःकरणं यस्य स तथा, मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमना इत्यर्थः इति वृद्धव्याख्या, केचिचाहुः उच्छ्रिता-अर्गलास्थानादपनीय ऊवीकृतो न तिरश्चीन: कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः उत्सृतो वा-अपगतः परिधः-अर्गला गृहद्वारे यस्यासी उत्सृतपरिषः उच्छ्रितपरिघो वा औदार्यातिरेकादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, 'अवंगुयदुवारे' अप्रावृतद्वारः कपाटादिभि-21 भिक्षुकप्रवेशार्थमेव अस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः इत्येकीयं व्याख्यानं, वृद्धानां तु भावनावाक्यमेवं यदुत सदर्शनलोभेन करसाच्चित्पापण्डिकान बिभेति शोभनमार्गप्रतिग्रहेणोदघाटशिरास्तिष्ठतीति भावः, 'चियत्ततेउरघरदारप्पवेसे' चियचत्ति-नाप्रीतिकरः। अन्तःपुरगृहे द्वारेण प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीर्ष्यालुखं चास्यानेनोक्तं, अथवा चियचोत्ति-लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे गृहद्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशनीयखादिति 'चाउद्दसट्टमुद्दिद्वपुणिमासिणीम पडिपुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणे उद्दिष्टा-अमावास्या पौषध-आहारपौषधादिचतूरूपं 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणि-19 ॥१०॥ जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायछणेणं पतदहा-पात्रं पादप्रोञ्छनं-रजोहरणं 'ओसहमेसजेणं' भेषजं-10 पध्यं 'पाडिहारिएणं पीढफलगसे जासंथारएणं पडिलामेमाणे प्रातिहारिकेण-पुनःसमर्पणीयेन पीठ:-आसनं फलकम्-अवष्ट-13 म्भार्थ शय्या-वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुष्यते संस्तारको लघुतरः 'अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] भावमाणे विहरइ 'सुए परिचायगे'त्ति शुको-व्यासपुत्रः ऋग्वेदादयश्चखारो वेदाः षष्टितत्र-साङ्यमतं सांख्यसमये-सालयसमा-11 चारे लब्धार्थो, वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदमवगन्तव्यं ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्वणवेदानामितिहासपश्चमाना इतिहास:पुराणं 'निर्घण्टुषष्ठानां' निर्घण्टुः-नामकोशः साङ्गोपाङ्गानां' अङ्गानि-शिक्षादीनि उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः सरहस्साना-ऐदम्पर्ययुक्तानां सारक:-अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः सारको वा अन्येषां विस्मृतस्य सारणात् वारकोऽशुद्धपाठनिषेधकः पारगः-पारगामी पडङ्गवित् पष्टितत्रविशारदः पष्टितनं-कापिलीयशाख, पडनावेदकसमेव व्यनक्ति-सल्याने-गणितस्कन्धे । |'शिक्षाकल्ये शिक्षायां-अक्षरखरूपनिरूपके शास्त्रे कल्पे-तथाविधसमाचारप्रतिपादके व्याकरणे-शब्दलक्षणे छन्दसि-पद्यवचनलक्षणनिरूपके निरुक्त-शब्दनिरुक्तप्रतिपादके ज्योतिषामयने-ज्योतिःशास्ने अन्येषु च-ब्राह्मणकेषु शासेषु सुपरिनिष्ठित इति, वाचनान्तरं 'पश्चयमपञ्चनियमयुक्तः तत्र पञ्च यमा:-प्राणातिपातविरमणादयः नियमास्तु-शौचसंतोपतपःखाध्यायेश्वरप्रणि धानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद्दशप्रकारं, धातुरक्तानि वस्त्राणि प्रबराणि परिहितो यः स तथा, त्रिदण्डादीनि सप्त हस्ते लगतानि यस स तथा, तत्र कुण्डिका-कमण्डलूः, कचित्काचनिका करोटिका वाऽधीयेते ते च क्रमेण रुद्राक्षकतमाला मृनाजनं चोच्यते, छण्णालक-त्रिकाष्ठिका अङ्कशो-वृक्षपल्लवच्छेदार्थः पवित्रक-ताम्रमयमङ्गुलीयकं केसरी-चीचरखण्डं प्रमार्जनार्थ, 'संखाणं'ति सालमतं 'सज्जपुदयि'ति कुमारपृथिवी । 'पयणं आरुहेइ पाकस्थाने चुल्यादावारोपयति उष्माणं-उष्णत्वं || ग्राहयति 'दिढि वमित्तए' मतं वमयितुं त्याजयितुमित्यर्थः । 'अढाईति अर्थान् अर्यमाणखादधिगम्यमानखादित्यर्थः, माध्यमानखाद्वा याच्यमानखादित्यर्थाः, वक्ष्यमाणयात्रायापनीयादीन् , तथा तानेव 'हेऊई ति हेतून, अन्तर्सिन्यास्तदी 20830 शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] ज्ञाताधर्म-IS| यज्ञानसम्पदो गमकखात् , 'पसिणाईति प्रश्नान् पृच्छ्यमानत्वात् 'कारणाईति कारणानि विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि५ शैलककथाङ्गम्. 'वागरणाई'ति व्याकरणानि प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति, 'निप्पट्ठपसिणवागरणं ति निर्गतानि स्पष्टानि- राजदीक्षा स्फुटानि प्रश्नव्याकरणानि-प्रश्नोत्तराणि यस्य स तथा 'वीणा उवसंत'त्ति क्षयोपशममुपगता इत्यर्थः, एतेषां च यात्रादिप-18 सू. ५६ ॥११॥ दानामागमिकगम्भीरार्थत्वेनाचार्यस तदर्थपरिज्ञानमसम्भावयतापभाजनार्थ प्रश्नः कृत इति, 'सरिसवय'ति एकत्र सशवयसः-समानवयसः अन्यत्र सर्षपा:--सिद्धार्थकाः 'कुलस्थिति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलखाः, अन्यत्र कुलत्थाः धान्यवि-1 शेषाः, सरिसवयादिपदप्रश्नः छलग्रहणेनोपहासार्थ कृत इति । 'एगे भवंति एको भवान् इति, एकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते । मरिणा श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चास्मनोऽनेकतोपलब्ध्या एकत्वं दुपयिष्यामीतिबुद्धा पयेनुयोगः शुकेन कृतः, 'दुबे भवंति द्वौ भवानिति च, द्वित्वाभ्युपगमे अहमित्येकत्वविशिष्टस्वार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं पयिष्यामीतिमुख्या पर्यनुयोगो विहितः, अक्षयः अव्ययः अवस्थितो भवाननेन नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, अनेके भूता-अतीता भाषा:-सत्ताः परिणामा वा भव्याश्च-भाविनो यस्य स तथा, अनेन चातिक्रान्तभाविसत्ताप्रश्नेन अनित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, एकतरपरिग्रहे अन्यतरस्य दुषमायेति । तत्राचार्येण स्थाद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वातमवलम्योत्तरमदायि-एकोऽप्यह, कथं, द्रव्याथेतया जीवद्रव्यस-16 कत्वात्, न तु प्रदेशार्थतया, तथा बनेकत्वान्ममेत्यवयवादी (मश्रोत्राद्यवयवा) नामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कश्चित् स-18 ॥११०॥ |भावमाश्रित्यैकत्वसमाविशिष्टिस्यापि पदार्थस्य खभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धमित्यत उक्तं-द्रावयह शानदर्शनार्थ-| || तया, न चैकखभाये भेदोम दृश्यते, एको हि देवदनादिपुरुषः एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वपिन्यलमातुलत्वमा-II शुक्रपरिव्राजकस्य दिक्षायाः प्रसंग: ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५५,५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५,५६] दीप अनुक्रम [६६-६८] गिनेयत्वादीननेकान् स्वभावांल्लभत इति, तथा प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातान् प्रदेशानाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयामा-18 वाद, अव्ययः कियतामपि च व्ययाभावात् , किमुक्तं भवति ।-अवस्थितो नित्यः, असायप्रदेशता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यताभ्युपगमेऽपि न दोषः, उपयोगार्थतया-विविधविषयानुपयोगानाश्रित्य अनेकभूतभावभविकोऽपि, अतीतानाग|तयोहि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः कथंचिदभिन्नानामुत्पादाद्विगमाद्वानित्यपक्षो न दोषायेति । पुण्डरीकेण-आदि| देवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षितः पर्वतः तस्य तत्र प्रथमं निर्धतत्वात्पुण्डरीकपर्वतः-शत्रुनयः । तते णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालातिकतेहि य पमाणाइकतेहि य णिचं पाणभोयणेहि य पयइमुकुमालयस्स सुहोचियरस सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उज्जला जाव दुरहियासा कंडयदाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे याचि विहरति, तते णं से सेलए तेणं रोयायंकेण मुके जाए यावि होत्या, तते णं सेलए अन्नया कदाई पुराणुपुर्वि चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरति, परिसा निग्गया, मंडुओऽवि निग्गओ, सेलयं अणगारंजाव बंदति नम०२पज्जुवासति, तते णं से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुकं भुकं जाव सहावाहं सरोगं पासति २ एवं वदासी-अहं णं भंते! तुम्भं अहापवित्तेहिं तिगिच्छएहिं अहापवित्तेणं ओसहभेसजेणं भत्तपाणणं तिगिच्छं आउंटावेमि, तुम्भे गं भंते! मम शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. प्रत सूत्रांक [५७-६१] ५शैलक| ज्ञाते शैल कस्य पा|वस्थता ॥११॥ दीप अनुक्रम [६९-७३] जाणसालासु समोसरह फासुअंएसणिणं पीढफलगसेज्जासंथारगं ओगिहिसाणं विहरह, तते णं से सेलए अणगारे मंडयस्स रनो एयमढे तहत्ति पडिमुणेति, ततेणं से मंडुए सेलयं वंदति नमंसति २ जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए । तते णं से सेलए कहं जाव जलते सभंडमत्तोवगरणमायाए पंधयपामोक्खेहिं पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसति २ जेणेव मंटुयस्स जाणसाला तेणेव उवागच्छति २ फासुयं पीढ जाब विहरति, तते णं से मंडुए चिगिच्छए सद्दावेति २एवं वदासी-तुम्भे गं देवाणुप्पिया! सेलयस्स फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउद्देह, तते णं तेगिच्छया मंडुएणं रन्ना एवं बुत्ता हट्ट सेलयस्स अहापवित्तेहिं ओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति, मजपाणयं च से उबदिसंति, तते णं तस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मजपाणेण रोगार्यके उबसंते होत्या हे मलसरीरे जाते ववगयरोगायके, तते णं से सेलए तंसि रोयायकसि उवसंतंसि समाणंसि तंसि विपुलंसि असण ४ मजपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अजयोववन्ने ओसन्नो ओसन्नविहारी एवं पासत्धे २ कुसीले २ पमत्ते संसत्ते जयद्धपीढफलगसेवासंधारए पमत्ते यावि विहरति, नो संचाएति फासुएसणिज्ज पीढं पञ्चप्पिणित्ता मंडयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जाव (जणवयविहारं अब्भुजएण पवत्तेण पग्गहिएण) विहरित्तए (सूत्रं ५७) तते णं तेर्सि पंथयवजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाई एगपओ सहियाणं जाव पुषरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अन्भथिए जाच समुप्प ecerseseeeeeeeeeeeeeeeeeeserat ॥११॥ 3929 शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७-६१] सnee Breeeeeeeer दीप अनुक्रम [६९-७३] जित्था-एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पञ्चतिए, विपुलेणं असण ४ मज्जपाणए मुच्छिए नो संचाएति जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु देवा० अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीडफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंधयं अणगारं वेयावज्ञकरं ठवेत्ता बहिया अब्भुज्जएणं जाव विहरित्तए, एवं संपेहेंति २कलं जेणेव सेलए आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ० पचप्पिणति २ पंथयं अणगारं वेयावचकर ठावंति बहिया जाव विहरंति (सूत्रं ५८)तते णं से पंथए सेलयस्स सेज्जासंथारजञ्चारपासवणखेलसंघाणमत्तओसहभेसजभत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ, तते णं से सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असण. ४ आहारमाहारिए सुबटुं मजपाणयं पीए पुवावरण्हकालसमयंसि सुहप्पमुत्ते, तते णं से पंथए कत्तियचाउम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिकमणं पडिकते चाउम्मासियं पडिकमिउंकामे सेलयं रायरिर्स खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संघद्देइ, तते थे से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएमु संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उद्वेति २ एवं वदासीसे केस णं भो एस अप्पत्थियपस्थिए जाव परिवजिए जेणं ममं सुहपसुत्तं पाएमु संघद्देति ? सते णं से पंधए सेलएणं एवं बुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयल कट्ट एवं वदासी अहणं भंते। पंधए कयकाउस्सग्गे देवसिय परिकमणं पडिकते चाउम्मासियं पडिकते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणु Seceneseroecenticer शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [५७-६१] ॥११२॥ दीप अनुक्रम [६९-७३] See प्पियं बंदमाणे सीसेणं पापसु संघमि, तं खमंतु ण देवाणुप्पिया! खमन्तु मेऽवराहं तुमण्णं देवाणु- प्पिया! णाइभुजो एवं करणयाएत्तिकटु सेलयं अणगारं एतमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो २ खामेति, तते णं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं रजं च जाव ओसन्नो जाच उउवद्धपीढविहरामि, तं नो खलु कप्पति समणाणं णिग्गंधाणं अपसस्थाणं जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मे कल्लं मंडयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंधारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं पहिया अन्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए, एवं संपेहेति २ कल्लं जाव विहरति (सूत्र ५९) एवामेव समणाउसो ! जाव निग्गंथो बा २ ओसने जाव संधारए पमत्ते विहरति से णं इह लोए चेव बहणं समणाणं ४ हीलणिज्जे संसारो भाणियघो। तते णं ते पंथगवजा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लदहा समाणा अन्नमन्नं सदाति २ एवं वयासी-सेलए रायरिसी पंधएणं बहिया जाव विहरति, सेयं खलु देवा! अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, एवं संपेहेंति २त्ता सेलयं रायं पवसंपज्जित्ताणं विहरंति (सूत्र ६०) तते णं ते सेलयपामोक्खा पंच अणगारसया बहुणि वासाणि सामनपरियाग पाउणित्ता जेणेव पोंडरीये पवए तेणेव उवागच्छंति २ जहेव थावच्चापुत्ते तहेच सिद्धा । एवामेव समणाउसो! जो निग्गंधो वा २ जाव विहरिस्सति एवं ५ एकज्ञाते पन्ध| कवर्जानां विहारःस. ५८ शेलकबोधः सू. ५९ शेषसाध्वागमासू.६. | निर्वाणं सू,६१ ॥११॥ शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता, सद्बोधप्राप्ति:, सिद्धिः ~2344 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७-६१] दीप अनुक्रम [६९-७३] deceटीबहिटलर ep26 खलु जंबू ! समणेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमहे पण्णत्तेत्तिवेमि ॥ (सूत्रं ६१)॥ पंचमं नाय ज्झयणं समत्तं ॥ 'अंतेहि'इत्यादि, अन्तः-वडचणकादिभिः प्रान्तैः-तैरेव भुक्तावशेषैः पर्युषितैर्वा रुक्षः-निःस्नेहैस्तुच्छैः-अल्पैः अरसैः-हिमादिभिरसंस्कृतैर्विरसैः-पुराणताद्विगतरसैः शीतैः-शीतलैः उष्णैः-प्रतीतेः कालातिक्रान्तः-तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तः प्रमाणाति-II क्रान्तैः-पुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः, चकाराः समुचयार्थाः, एवंविधविशेषणान्यपि पानादीनि निष्ठुरशरीरस्य न भवन्ति । बाधायै अत आह-'प्रकृतिसुकुमारकस्य त्यादि, वेयणा पाउम्भूया इत्यस्य स्थाने रोगायंकेत्ति कचित् दृश्यते, तत्र रोगावासावातच कृच्छजीवितकारीति समासः, कण्डू:-कण्डूतिः दाहा-प्रतीतस्तत्प्रधानेन पित्तश्चरेण परिगतं शरीरं यस्य स तथा, 'तेइच्छं'ति चिकित्सां 'आउद्दावेमि'ति आवर्त्तयामि कारयामि । 'सभंडमत्तोवगरणमायाए'चि भाण्डमात्रापतद्ग्रहं परिच्छदव उपकरणं च-वर्षाकल्पादि भाण्डमात्रोपकरणं स्वं च-तदात्मीयं भाण्डमात्रोपकरणं च स्वभाण्डमात्रो-181 |पकरणं तदादाय-गृहीता, 'अभ्युद्यतेन' सोद्यमेन 'प्रदत्तेन' गुरुणोपदिष्टेन 'प्रगृहीतेन' गुरुसकाशादङ्गीकृतेन 'विहा-11 रेण' साधुवर्त्तनेन 'विहर्तुं' वर्तितुं पार्श्व-ज्ञानादीनां बहिस्तिष्ठतीति पार्श्वस्थः-गाढम्लानबादिकारणं विना शय्यातरा-1 भ्याहुतादिपिण्डभोजकत्वाचागमोक्तविशेषणः, स च सकृदनुचितकरणेनाल्पकालमपि भवति तत उच्यते-पाश्वेस्थानां यो। |विहारो-बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्त्तनं स पार्श्वस्तविहारः सोऽस्खास्तीति पार्श्वस्थ विहारी, एवमवसन्नादिविशेषणान्यपि, नव-11 REaratunmtammanana शैलकराजर्षे: पार्श्वस्थता, सद्बोधप्राप्ति:, सिद्धिः ~235 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [५], ----------------- मूलं [५७-६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्, प्रत सूत्रांक [५७-६१] रमवसन्नो-विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकखाध्यायप्रत्युपेक्षणाध्यानादीनामसम्यकारीत्यर्थः, कुत्सितशील: कुशील!- कालविनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः, प्रमत्तः पञ्चविधप्रमादयोगात् , संसक्तः कदाचित्सं- विनगुणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां सम्बन्धात् गौरवत्रयसंसजनाचेति, ऋतुबद्धेऽपि-अवर्षाकालेऽपि पीठफलकानि शय्या- संस्तारकार्थ यस्य स तथा 'नाइभुज्जो एवं करणयाए'ति नैवः भूयः-पुनरपि एवं-इत्थंकरणाय प्रवर्तिष्ये इति शेषः, 'एवमेवेत्यादिरुपनयः, इह गाथा-"सिढिलियसंजमकजापि होइउं उञ्जमंति जइ पच्छा । संवेगाओ तो सेलउब आराया होति ॥१॥" [शिथिलितसंयमकार्या अपि भूत्वोद्यच्छन्ति यदि पश्चात् । संवेगात् तर्हि शैलक इव ते आराधका भवन्ति ॥१॥ | इति पञ्चमशैलकज्ञातविवरणं समाप्तमिति ।। ५ शैलकज्ञातोपनय:तुम्बकज्ञातं सू. ॥११॥ दीप अनुक्रम [६९-७३] Recenesedesevemesesele पश्चमानन्तरं षष्ठं व्याख्यायते, तस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्रमादबतोऽप्रमादवतधानर्थेतरावुक्ती, इहापि तयोरेव तावेवीच्येते इत्येवसम्बद्धमिदम् - जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते छहस्स णं भंते! नायज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जनतेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २ समणस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती अदूरसामंते जाव सुक्कज्झा ॥११॥ FarPranaswamincom अत्र अध्ययनं-५ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं- ६ "तुम्बक:" आरभ्यते ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [६], ----------------- मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [७४] णोवगए विहरति, तते णं से इंदभूती जायसहे० समणस्स ३ एवं वदासी-कहपणं भंते! जीवा गुरुयत्तं वा राहुयत्तं वा हवमागच्छति', गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एग महं सुकं तु णिच्छिाई निरुवहयं दन्भेहिं कुसेहिं वेढइ २ मट्टियालेवेणं लिपति उण्हे दलयति २ सुकं समाणं दोचंपि दन्भेहि य कसेहि य वेढेति २ महियालेवेणं लिंपति २ उण्हे सुकं समाणं तचंपि दन्भेहि य कुसेहि य वेदेति २ मडियालेवेणं लिंपति, एवं खलु एएणुवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपेमाणे अंतरा सुकवेमाणे जाव अट्टहिं महियालेवेहिं आलिंपति, अत्याहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्षिवेजा, से पूर्ण गोयमा! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं महियालेवेणं गुरुययाए भारिययाए गुरुयभारिययाए उप्पिं सलिलमतिवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवति, एवामेव गोयमा! जीवावि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपगडीओ समजिणन्ति, तार्सि गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किचा धरणियलमतिवतित्ता अहे नरगतलपट्टाणा भवंति, एवं खलु गोयमा! जीचा गुरुयत्तं हवमागच्छंति । अहण्णं गोतमा! से तुंबे तंसि पढमिल्लुगंसि महियालेवंसि तिनंसि कुहियंसि परिसडियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठति, ततोऽणतरं च णं दोचंपि मटियालेवे जाब उप्पतिताणं चिट्ठति, एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेबेसु तिनेसु जाव विमुकबंधणे अहेवरणियलमइवइत्ता उपि सलिलतलपइट्ठाणे भवति, एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाति ~237 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [७४] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्ध: [१] ---------- अध्ययनं [६], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥ ११४ ॥ वातवेरमणेणं जाब मिच्छादंसणसलवेरमणेणं अणुपुवेणं अह कम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइसा उप्पिलोयग्गपतिद्वाणा भवंति, एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुपसं हवमागच्छंति । एवं खलु जंबू ! समपणेणं भगवया महावीरेण छस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्तेतिबेमि । ( सूत्रं ६२ ) छठ्ठे नाथयणं समत्तं ॥ ६ ॥ सर्व सुगमं, नवरं, निरुपहतं वातादिभिः दर्भैः- अग्रभूतैः कुशैः- मूलभूतैः, जात्या दर्भकुशभेद इत्यन्ये, 'अत्थाहंसि त्ति अस्थाघे अगाधे इत्यर्थः पुरुषः परिमाणमस्येति पौरुषिकं तनिषेधादपौरुषिकं मृल्लेपानां सम्बन्धात् गुरुकतया, गुरुकतैव कुतः १- भारिकतया, मृल्लेपजनितभारवच्येनेति भावः, गुरुकमारिकतयेति तुम्बकधर्मद्वयस्याप्यधोमज्जन कारणताप्रतिपादनायोक्तं, 'उप' उपरि 'अहवहता' अतिपत्यातिक्रम्प 'तिनंसि'त्ति स्तिमित आर्द्रतां गते ततः 'कुथिते' कोथमुपगते ततः 'परिसदिते' पतिते इति । इह गाथे- "जह मिउलेवालित्तं गरुयं तुंबं अहो वयइ एवं आसवकयकम्मगुरू जीवा वर्धति अहरगयं १ ॥ तं चैव विमुकं जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपट्टिया होंति ॥ २ ॥ " [ यथा मृल्लेपलितं गुरु तुम्बमधो व्रजति एवं आश्रवकृतकर्मगुरुला जीवा व्रजन्ति अधोगतिं ॥ १ ॥ तदेव तद्विमुक्तं जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावं । यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकाग्रे प्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ २ ॥ ] पष्ठतुम्बकज्ञातविवरण समाप्तमिति ॥ ६ ॥ Educationa अत्र अध्ययनं -६ परिसमाप्तम् For Parts Only ~ 238~ ५ शैलकज्ञातोपन यः ६ तुम्ब कज्ञातं सू. ६२ ॥ ११४ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] अथ सप्तमं विबियते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादिमतां कर्मगुरुताभावेनेतरेषां च लघुताभावेन अनर्थप्राप्तीतरे उक्ते, इह तु प्राणातिपातादिविरतिभञ्जकपरिपालकानां ते उच्यते, इत्येवंसम्बद्धम् जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छहस्स नायज्झयणस्स अयम पन्नत्ते सत्तमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अहे पन्नते ?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उजाणे, तत्थ णं रायगिहे नगरे धपणे नामं सत्यवाहे परिवसति, अड्डे०, भदा भारिया अहीणपंचदिया जाव सुरूवा, तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चशारि सत्यवाहदारया होत्था, तंजहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए, तस्स णं धण्णस्स सस्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तं-उज्झिया भोगवतिया रक्वतिया रोहिणिया, तते णं तस्स धष्णस्स अन्नया कदाई पुखरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खल्लु अहं रायगिहे यहणं ईसर जाव पभिईणं सयस्स कुटुंबस्स बहसु कज्जेसु य करणिज्जेसु कोडंवेसु य मंतणेसु य गुजसे रहस्से निच्छए ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढी पमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूते कज्जवावए, तं ण णजति जमए गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि वा भग्गंसि वा लुग्गंसि वा सडियंसि वा पडियंसि वा विदेसत्थंसि वा विष्पवसियंसि वा इमस्स कुटुंबस्स किं Peramrpermomeraeader20Rahe अथ अध्ययनं-७"रोहिणी" आरभ्यते ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. रोहिणीज्ञातं सत्राक ॥११५॥ [६३] दीप अनुक्रम [७५] मन्ने आहारे वा आलंये वा पडिबंधे वा भविस्सति ?,तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४ उवक्खडावेत्ता मित्तणाति० चउण्हं मुण्हाणं कुलघरवर्म आर्मतेत्तातं मित्तणाइणियगसपण य चउण्ह सपहाणं कलघरवग्गं विपुलेणं असणं ४ धुवपुष्फवस्थगंध जाव सकारेत्तासम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणातिक चण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउपहं सुण्हाणं परिक्षणट्ठयाए पंच २ सालिअक्खए दलइत्ता जाणामि ताव का किहं चा सारक्खेह वा संगोवेइ वा संबड्डेति वा ?, एवं संपेहेड २ कलं जाव मित्तणाति. चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ २ विपुलं असणं ४ उवक्खडावेह ततो पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासणमित्तणाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विपुलं असण ४ जाव सकारेति २ तस्सेव मित्तनाति० चउपह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेट्ठा सुण्हा उज्झितिया तं सहावेति २ एवं वदासी-तुम णं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि २ अणुपुवेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि, जया ऽहं पुत्ता! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएजा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएज्जासित्तिक? सुण्हाए हत्थे दलयति २ पडिविसजेति, तते णं सा उज्झिया धण्णस्स तहत्ति एयम8 पडिमुणेति २ धण्णस्स सस्थवाहस्स हत्याओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २ एर्गतमवकमति एर्गतमवकमियाए इमेयारूवे अभत्थिए-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीण पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया |॥११५|| ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सति तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ २तं पंच सालिअक्खए एगंते एडेति २ सकम्मसंजत्ता जाया यावि होत्था । एवं भोगवतियाएवि, णवरं सा छोल्लेति २अणुगिलति२ सकम्मसंजुत्ता जाया। एवं रक्खियावि, नवरं गेण्हति २ इमेयारूवे अम्भत्थिए०-एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो सद्दावेत्ता एवं वदासी-तुमण्णं पुत्ता मम हत्थाओ जाव पडिदिजाएजासितिक मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयति तं भवियवमेत्य कारणेणंतिकट्ट एवं संपेहेति २ ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधह २ रपणकरंडियाए पक्खिवेद २ ऊसीसामले ठावेह २ तिसंझं पडिजागरमाणी विहरइ । तए णं से धपणे सत्यवाहे तस्सेव मित्त जाव चउस्थि रोहिणीय सुण्हं सदावेति २ जाव तं भवियचं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्वए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संवढेमाणीएत्तिकटु एवं संपेहेति २कुलघरपुरिसे सहावेति २ एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! एते पंच सालिअक्खए गेण्हह २ पदमपाउसंसि महाबुट्टिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह २त्ता इमे पंच सालिअक्खए वावेह २ दोचंपि तचंपि उक्खयनिहए करेह २ वाडिपक्खेवं करेह २ सारक्खेमाणासंगोवेमाणा अणुपुत्वेणं संबड्डेह, तते णं ते कोडुबिया रोहिणीए एतम8 पडिमुणंति से पंच सालिअक्वए गेहंति २ अणुपुवेणं सारक्खंति संगोवंति विहरंति, तए णं ते SARERatun international For P OW ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म-ISH रोहिणीज्ञातं कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [६३] ॥११६॥ दीप अनुक्रम [७५] कोटुंबिया पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि णिवइयंसि समाणंसि खुडायं केदारं सुपरिकम्मियं करेंति २ ते पंच सालिअक्खए ववंति दुचंपि तपि उक्खयनिहए करैति २ वाडिपरिक्वेवं करेंति २ अणुपुवेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवढमाणा विहरंति, तते गं ते साली अणुपुषेणं सारक्खिज्जमाणा | संगोविजमाणा संवहिज्जमाणा साली जाया किण्हा किण्होभासा जाव निउरंबभूया पासादीया ४, तते णं साली पसिया पत्तिया गम्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरियपञ्चकंडा जाया यावि होत्या, तते णं ते कोटुंबिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं णवपजणएहिं असियएहि लुणति २ करयलमलिते करेंति २ पुणंति, तस्थ णं चोक्खाणं मूयाणं अक्खंडाणं अफोडियाणं घडछडापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए, तते गं ते कोटुंबिया ते साली णवएसु घडएसु पक्खिवंति २ उपलिंपति २ लंछियमुहिते करेंति २ कोट्ठागारस्स एगदेसंसि ठाति २ सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरंति, तते णं ते कोडंबिया दोचंमि वासारत्तंसि पढ़मपाउसंसि महावुट्टिकायंसि निवइयंसि खुडाग केयारं सुपरिकम्मियं करेंति ते साली धर्वति दीपि तच्चपि उक्खयणिहए जाच लुणेति जाव चलणतलमलिए करेंति २ पुणंति, तत्य णं सालीणं यहवे कुडवा(मुरला) जाव एगदेसंसि ठावेंति २ सारक्व० संगो विहरंति, तते णं ते कोडंबिया तचंसि वासारति॑सि महावुद्विकार्यसि बहवे केदारे सुपरि० जाव लुणेति २ संवहंति २ खलयं करति २ मलेति जाव बहवे कुंभा S ॥११६॥ ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] जाया, तते णं ते कोटुंबिया साली कोडागारंसि पक्खिवंति जाब विहरंति, चउत्थे वासारत्ते वहवे कुंभसया जाया। तते णं तस्स धणस्स पंचमयंसि संबच्छरंसि परिणममाणंसि पुषरतावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु मम इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउहं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच सालिअक्खता हत्धे दिन्ना त सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए जाव जाणामि ताव काए कि सारक्खिया वा संगोचिया वा संवड्डिया जावत्तिकटु एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलते विपुलं असण ४ मित्तनाय. चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्त० चउण्ह य मुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेढ उजिझयं सद्दावेइ २त्ता एवं बयासी-एवं खलु अहं पुत्ता! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मिस० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि जया णं अहं पुत्ता! एए पंच सालियअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएसित्तिकट्ठ तं हत्थंसि दलयामि, से नूर्ण पुसा! अस्थ समझे ?, हंता अस्थि, तन्नं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएहि, तते णं सा उज्झितिया एयम8 धषणस्स पडिसुणेति २ जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छति २ पल्लातो पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेणेव धपणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २ धणं एवं वदासी-एए णं ते पंच सालिअक्खएसिक? घण्णस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए वलयति, तते गंधण्णे उझियं सवहसावियं करेति २एवं बयासी ~2434 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म रोहिणीज्ञातं सू.६३ कथाङ्गम्. सत्रांक [६३] ॥११७॥ दीप अनुक्रम [७५]] किण्णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने ?, तते णं उज्झिया धणं सत्थवाहं एवं वयासीएवं खलु तुम्भे तातो! इओऽतीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त नाति चण्ह य कुल० जाव विहरामि, तते ऽहं सुम्भं एतम? पडिसुणेमि २ ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि एगंतमवकमामि तते णं मम इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि०सकम्मसंजुत्ता तं णो खलु ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए एए णं अन्ने, तते णं से घण्णे उज्झियाए अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झितियं तस्स मित्तनाति०चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्सय पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुझियं च छाणुझियं च कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मजिअं च पाउवदाई चण्हाणोवदाईच बाहिरपेसणकारिं ठवेति, एचामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधो वा २ जाव पचतिते पचं य से महवयाति उज्झियाई भवंति से णं इह भवे चेव यहणं समणाणं ४ जाव अणुपरियदृइस्सइ जहा सा उझिया । एवं भोगवइयावि, नवरं तस्स कंडिंतियं वा कोहतियं च पीसंतियं च एवं रुचंतियं रंधतियं परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभंतरियं च पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेंति, एवामेष समणाउसो! जो अम्हं समणो पंच य से महत्वयाई फोडियाई भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ जाव हील ४ जहा व सा भोगवतिया । एवं रक्खितियावि, नवरं जेणेव चासघरे तेणेव उवागच्छह २ मंजूसं विहाडेइ २ रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २ जेणेव धणे तेणेव उपा०२पंच सा semesteemesercecelesectrselperpec ॥११७॥ ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] 20rate लिअक्खए धण्णस्स हस्धे दलयति, तते णं से धपणे रक्खितियं एवं वदासी-किन्नं पुत्ता ते व ते पंच सालिअक्खया उदाहु अन्नेत्ति ?, तते णंरक्खितिया धणं एवं० ते चेव ताया! एए पंच सालिअक्खया णो भन्ने, कहन्नं पुत्ता!, एवं स्खलु ताओ! तुम्भे इओ पंचमंमि जाव भवियवं एत्य कारणेणंतिक? ते पंच सालिअक्खए सुद्धे बस्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी य विहरामि, ततो एतेणं कारणेणं ताओ! ते वेव ते पंच सालिअक्खए णो अन्ने, तते णं से धपणे रक्खितियाए अंतिए एयमटुं सोचा हट्टतुट्ठ तस्स कुलघरस्स हिरनस्स य कंसदूसविपुलधणजावसावतेजस्स य भंडागारिणिं ठवेति, एवामेव समणाउसो! जाव पंच य से महषयाति रक्खियाति भवंति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ अञ्चणिजे जहा जाव सा रक्खिया। रोहिणियावि एवं चेव, नवरं तुम्भे ताओ मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि जेणं अहं तुम्भं ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएमि, तते णं से धणे रोहिणि एवं वदासीकहणं तुम मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाइस्ससि ?, तते णं सा रोहिणी धणं एवं वदासी-एवं खलु तातो! इओ तुम्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ! तुम्भे ते पंच सालिअखए सगडसागडेणं निज्जाएमि, तते णं से धपणे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुवहुयं सगडसागडं दलयति, तते णं रोहिणी सुबहुं सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छद कोट्ठागारे विहाडेति २ पल्ले उम्भिदति २ सगडीसागडं भरेति २ रायगिई Recipergerceracotro ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाङ्गम्. रोहिणीज्ञातं सू. ६३ सत्राक ॥११८॥ [६३) नगरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव घण्णे सत्यवाहे तेणेव सपागच्छति, तते णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव पहजणो अन्नमन्त्र एवमातिक्खति०-धन्ने णं देवा! धणे सत्यवाहे जस्स णं रोहिणिया सुण्हा जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाएति, तते णं से धपणे सत्पते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाएतितेपासति २ हट्ट पडिच्छति रतस्सेव मित्तनाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरपुरतो रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कजेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिज जाव बहावितं पमाणभूयं ठावेति, एवामेव समणाउसो! जाव पंच महत्वया संवड्डिया भवंति से णं इह भवे चेव बटणं समणाणं जाव चीतीवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तियेमि ॥ (सूत्रं ६३)सत्तमं नायज्झयणं समत्तं ॥७॥ ec8ecenteerses दीप अनुक्रम [७५] ॥११८॥ O इदमपि सुगमम् , नवरं 'मए'त्ति मयि 'गयंसित्ति गते ग्रामादौ एवं 'च्युते' कुतोऽप्यनाचारात् खपदात् पतिते 'मृते परासुतां गते 'भग्ने' वाल्यादिना कुनखञ्जखकरणेनासमर्थीभूते 'लुग्गंसि वचि रुने जीर्णतां गते 'शटिते' व्याधिवि-1|| शेषापछीर्णतां गते 'पतिते' प्रासादादेर्मश्चके वा ग्लानभावात् 'विदेशस्थे' विदेश गला तत्रय स्थिते 'विप्रोषिते' खस्था ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: भाग जाप किया जाना (मुल पति प्रत सत्रांक [६३] दीप अनुक्रम [७५] ISI नचिनिर्गते देशान्तरगमनप्रवृत्ते आधार:-आश्रयो भूरिव आलम्बनं-वरत्रादिकमिव प्रतिबन्धः-प्रमानिकाशलाकादीनां लतादवरक इब कुलगृह-पितृगृहं तद्वर्गो मातापित्रादिः संरक्षति अनाशनतः सङ्गोपयति संवरणतः संवर्द्धयति बहुखकरणतः 'छोल्लेइति निस्तुपी-18 करोति 'अणुगिलहति भक्षयति, कचित्फोल्लेईत्येतदेव दृश्यते, तत्र च भक्षयतीत्यर्थः, 'पत्तिय'त्ति सञ्जातपत्राः 'वत्तियति बीहीणां पत्राणि मध्यशलाकापरिवेष्टनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति तत्ततया जातवृत्तत्वात्र्तिताः शाखादीनां वा समतया वृत्तीभूताः सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते, पाठान्तरेण 'तइया वत्ति सातत्वच इत्यर्थः, गर्भिता-जातगर्भा डोडकिता इत्यर्थः, प्रसूता:-कणिशानां पत्रगर्भेभ्यो विनिर्गमात् आगतगन्धा-जातसुरभिगन्धाः आयातगन्धा वा दूरयायिगन्धा 8 इत्यर्थः, क्षीरकिताः-सजातक्षीरकाः बद्धफलाः क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः, पका:-काठिन्यमुपगताः, पर्यायागताः पर्यायगता वा सर्वनिष्पन्नतां गता इत्यर्थः, 'सल्लइपत्तयत्ति सल्लकी वृक्षविशेषस्तस्या इव पत्रकाणि-दलानि कुतोऽपि साधम्यात् सजातानि येषां ते तथेति, गमनिकैवेयं पाठान्तरेण शल्यकिता:-शुष्कपत्रतया सञ्जातशलाकाः पत्रकिता:सञ्जातकुत्सितकाऽल्पपत्राः, हरियपचकंड'त्ति हरितानि-हरितालवर्णानि नीलानि पर्वकाण्डानि-नालानि येषां ते तथा, जाताधाप्यभूवन , 'नवपज्जाणएहिति नव-प्रत्ययं पायनं-लोहकारेणातापितं कुहितं तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां Kजले निबोलनं येषां तानि तथा तैः, 'असिएहिति दात्रैः, 'अखंडाणं'ति सकलानां अस्फुटिताना-असञ्जातराजीकाना | छड २ इत्येवमनुकरणतः सूपादिना स्फुटा:-स्फुटीकृता शोधिता इत्यर्थः स्पृष्टा वा पाठान्तरेण पूता वा ये ते तथा 18 तेषां 'मागहए पत्थए'ति "दो असईओ पसईदो पसइओ उ सेइया होइ । चउसेइओ उ कुडओ चउकुडओ पत्थओ छesesekesekeedekeeee ~2474 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति : प्रत सत्राक ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. [६३] ॥११९॥ दीप अनुक्रम [७५] नेउ ॥१॥"त्ति [हे अमृती प्रसूतिः प्रसूती तु सेतिका भवति । चतुःसेतिकः कुडवश्चतुष्कुडवः प्रस्थको ज्ञेयः॥१॥] रोहिणीअनेन प्रमाणेन मगधदेशव्यवहृतः प्रस्थो मागधप्रस्था, 'उपलिंपंति' घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना रन्ध्र |ज्ञातं भञ्जन्ति 'लिंपेंति' घटमुखं तत्स्थगितं च छगणादिना पुनर्ममणीकुर्वन्ति, लाञ्छितं रेखादिना, मुद्रितं मृन्मय मुद्रादानेन सू. ६३ तत्कुर्वन्ति, मुरलो-मानविशेषः, खलकं-धान्यमलनस्थण्डिल, चतुष्प्रस्थं आढकः आढकानां षष्ट्या जघन्यः कुम्भः अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति, क्षारोष्ट्रिका' भसपरिष्ठापिका 'कचवरोजिशकां' अवकरशोधिका "समुक्षिका' प्रात|गृहाङ्गणे जलच्छटकदायिका, पाठान्तरेण 'संपुच्छिय'त्ति तत्र सम्प्रोच्छिका पादादिलूपिका 'सम्मार्जिक' गृहस्वान्त-18 हिच बहुकरिकावाहिका 'पादोदकदायिका' पादशौचदायिका स्नानोदकदायिकां प्रतीता, वाद्यानि प्रेषणानि कर्माणि करोति या सा 'बाहिरपेसणगारियत्ति भणिया, 'कंडयंतिका मिति अनुकम्पिता कण्डयन्तीति-तन्दुलादीन उदूखलादौ क्षोदयन्तीति कंडयन्तिका तां, एवं 'कुट्टयन्तिका' तिलादीनां चूर्णनकारिको 'पेषयन्तिकां गोधूमादीनां घरट्टादिना पेप-16 णकारिका 'रुन्धयंतिका' यन्त्रके व्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुषत्वकारिका रन्धयन्तिकां' ओदनस्य पाचिका 'परिवेषय-18 [न्तिका' भोजनपरिवेषणकारिको परिभाजयन्तिका पर्वदिने खजनगृहेषु खण्डखाद्याः परिभाजनकारिकां महानसे || | नियुक्ता महानसिकी तां स्थापयति, 'सगडीसागडंति शकट्यश्च-गव्यः शकटानां समूह: शाकटं च शकटीशाकटं| ॥११॥ गडीओ गडिया यति उक्तं भवति, 'दलाह'त्ति दत्त प्रयच्छतेत्यर्थः, 'जाणंति येन 'ण' मित्यालङ्कारे, 'प्रतिनियोतयामि समर्पयामीति, अस्स च ज्ञातस्यैवं विशेषेणोपनयनं निगदति, यथा-'जह सेट्ठी तह गुरुणो जह णाइजणो तहा समणसंघो । JHNEmathrmstimattime F OR ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा". श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ---------- ---- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६३] दीप जह बहुया तह भवा जह सालिकणा तह वयाई ॥१॥ जह सा उज्नियनामा उज्शियसाली जहत्यमभिहाणा । पेसणगारितेणं | असंखदुक्खरखणी जाया ॥ २ ॥ तह भयो जो कोई संघसमक्खं गुरुविदिबाई । पडिबजिउं समुज्झइ महजयाई महामोहा ॥३॥ सो इह चेव भवमी जणाण धिकारभायणं होई । परलोए उ दुहत्तो नाणाजोणीसु संचरइ ॥४॥ उक्तं च-'धम्माओ भ?" वुत्तं, "इहेबऽहम्मो"युत्तं "जह वा सा भोगवती जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा । पेसणविसेसकारितणेण पत्ता दुई चेव ॥ ५॥ तह जो महावयाई उवर्भुजइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सचो चत्तो सिवसाहणिकछाए ॥६॥ सो एत्थ जहिच्छाए पावइ आहारमाइ लिंगिचि । विउसाण नाइपुलो परलोयम्मी दुही चेव ॥ ७॥ जह वा रक्खियवहुया रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा । परिजणमण्णा जाया भोगमुहाई च संपना ॥८॥ तह जो जीवो सम्म पडिवजिचा महबए पंच । पालेइ निरइयारे पमायलेसंपि बज्जेतो ॥९॥ सो अप्पहिएकरई इहलोयंमिवि विऊहिं पणयपओ । एगंतसुही जायइ परंमि मोक्खपि पावे ॥१०॥जह रोहिणी उ मुण्हा रोवियसाली जहत्वमभिहाणा । बड्डित्ता सालिकणे पत्ता सबस्ससामित्तं ॥११॥ तह जो भयो पाविय बयाई पालेइ अप्पणा सम्मं । अनेसिपि भवाणं देह अणेगेसि हियहेउं ।। १२ । सो इह संघपहाणो जुगप्पहाणेचि लहइ संसई । अप्पपरेसिं कल्लाणकारओ गोयमपहुच ।। १३ ॥ तित्थस्स चुट्टिकारी अक्खेवणो कृतिस्थियाईणं । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धिपि पावे ॥ १४ ॥"त्ति [यथा श्रेष्ठी तथा गुरखो यथा शातिजनस्तथा असणसंघः । यथा बध्वस्तथा भव्या यथा शालिकणास्तथा ब्रतानि ॥१॥ यथा सोज्झितनानी उज्झितशालियथार्थाभिधाना प्रेषणकर्तृत्वेनासंख्यदुःखखनिर्जाता ॥ २॥ तथा भव्यो यः कोऽपि संघसमक्ष गुरुवितीर्णानि प्रतिपय समुज्झति महानतानि महा अनुक्रम [७५] ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [७], ----------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. सत्राक ॥१२०॥ [६३] दीप अनुक्रम [७५] मोहात ॥३॥ स हौव भवे जनानां धिकारभाजनं भवति । परलोके तु दु:खाों नानायोनिषु संचरति ॥४॥ (अप्रत्यारोहिणीयदतिदिष्टं धम्माओ भटुं० इहेवऽहम्मो० इति वृत्तद्वयं तदप्रसिद्धखानोल्लिखितुं शक्यं)। यथा वा सा भोगवती यथार्थनानी ज्ञात उपभुक्तशालिकणा । प्रेषणविशेषकारिखेन प्राप्ता दुःखमेव ॥ ५॥ तथा यो महाप्रतानि उपचनक्ति जीविकेतिकृता पालयन् । आहारादिषु सक्तस्त्यक्तः शिवसाधनेच्छया ॥६॥ सोऽत्र यथेच्छं प्राप्नोत्याहारादि लिङ्गीति । विदुषां नातिपूज्यः परलोके दुःख्येव ॥ ७॥ यथा वा रक्षिता वध रक्षितशालिकणा यथार्थाख्या । परिजनमान्या जाता भोगसुखानि च संप्राक्षा ॥८॥ तथा यो जीकः सम्यक् प्रतिपद्य महाव्रतानि पञ्चैव पालयति निरतिचाराणि प्रमादलेशमपि वर्जयन् ।। ९|| स आत्महितैकरतिरिहलोकेऽपि विद्वत्प्रणतपादः। एकान्तसुखी जायते परसिन् मोक्षमपि प्राप्नोति ॥१०॥ यथा रोहिणी तु स्नुषा रोपितशालियथार्थाभिधाना वर्धयित्वा शालिकणान् प्राप्ता सर्वखखामि ॥११॥ तथा यो भव्यो ब्रतानि प्राप्य पालयति आत्मना सम्यक । अन्येषामपि भव्यानां ददात्यनेकेषां हितहेतोः ॥१२ ।। स इह संघप्रधानो युगप्रधान इति लभते संशब्दम् । आत्म-| परेषां कल्याणकारको गौतमप्रभुवत् ॥ १३ ॥ तीर्थस्व वृद्धिकारी आक्षेपकः कुतीथिकादीनां । विद्वन्नरसेवितक्रमः क्रमेण| सिद्धिमपि प्रामोति ॥१४॥] सप्तमरोहिणीज्ञाताध्ययनविवरणं समाप्तमिति ॥ . . ॥१२॥ अत्र अध्ययन-७ परिसमाप्तम् ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६४] गाथा: अथाष्टमं मयध्ययनम् । अथाष्टमं ज्ञात व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वमिन् महावतानां विराधनाविराधनयोरनार्थायुक्ती इह तु महावतानामेवाल्पेनापि मायाशल्येन पितानामयथावत्स्वफलसाधकलमपदयते इत्यनेन सम्बन्धेन सम्बद्धमिदम् जति णं भंते ! समणेण सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते अट्ठमस्स णं भंते । के अट्ठे पण्णते, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे दीवे महाविदेहे वासे २ मंदरस्स पव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं निसढस्स वासहरपघयस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणदीए दाहिणेणं सुहावहस्स वक्खारपवतस्स पबस्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं सलिलावती नामं विजए पन्नते, तत्थ णं सलिलावतीविजए वीयसोगा नामं रापहाणी पं०, नवजोयणविच्छिन्ना जाव पचक्वं देवलोगभूया, तीसे गं बीयसोगाए रायहाणीए उसरपुरच्छिमे दिसिभाए इंदकुंभे नाम उजाणे, तत्थ णं बीपसोगाए रायहाणीए बले नाम राया, तस्सेव धारणीपामोक्खं देविसहस्सं उवरोधे होस्था, तते णं सा धारिणी देवी अन्नया कदाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव महन्धले नाम दारए जाए उम्मुक जाव भोगसमत्थे, तते णं तं महन्धलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयार्ण एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेति, पंच पासापसया पंचसतो दातो जाव विहरति, घेरागमणं इंदकुंभे दीप अनुक्रम [७६-८०] एलररररर AREauratoninternational अथ अध्ययन-८ "मल्ली" आरभ्यते भगवती मल्ली तिर्थकर-चरित्रं ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथानम् माडीज्ञाते महीजिनपूर्वभवः सू.६४ ६४) ॥१२॥ गाथा: साणे समोस परिसा निग्गया, पलोवि निग्गओ धम्म सोचा णिसम्म जं नवरं महन्यलं कुमारं रख्ने ठावेति जाव एकारसंगची बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपए मासिएणं भत्तेणं सिद्धे, तते णं सा कमलसिरी अन्नदा सीहं सु० जाव पलभद्दो कुमारो जाओ, जुबराया यावि होत्या, तस्स णं महब्बलस्स रक्षो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होस्था, तंजहा-अर्यले धरणे पूरणे वसं वेसमणे अभिचंदे सहजायया जाव संहिचाते णित्थरियवेत्तिकटु अन्नमनिस्सेयमझु पडिसुगति तेणं कालेणं २इंदकुंभे उजाणे घेरा समोसढा, परिसा महम्बले णं धम्मं सोचा जं नवरं छप्पिय बालवयंसए आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छति, तते गं ते छप्पिय० महब्बलं रायं एवं वदासी-जति णं देवाणुप्पिया! तुम्भे पचयह अम्हं के अन्ने आहारे वा जाव पचयामो, तते णं से महब्बले राया ते छप्पिय० एवं०-जति णं तुन्भे मए सद्धिं जाव पवयह तो णं गच्छह जेट्टे पुत्ते सएहि २ रज्जेहि ठावेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा जाव पाउन्भवति, तते णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूते पासति २ हट्ट० कोटुंबियपुरिसे बलभदस्स अभिसेओ, आपुच्छति, तते णं से महब्बले जाव महया इड्डीए पञ्चतिए एकारस अंगाई बहहिं चउत्थ जाव भावेमाणे विहरति, तते णं तेर्सि महब्बलपामोक्खाणं सत्तहं अणगाराणं अन्नया कयाइ एणयओ सहियाणं इमेयासवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-जपणं अम्हं देवाणुक एगे तवोकम्मं उबसं दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२॥ भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभव: ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६४] गाथा: पजिता विहरति तणं अम्हे हिं सोहिं तवोकम्म उवसंपबित्ताणं विहरित्तएत्तिफट्ट अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति २ बहूहिं चउत्थ जाव विहरति, तते णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इस्थिणामगोयं कम्म निव्वत्तेसु-जति णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपजिसाणं विहरंति ततो से महब्बले अणगारे छ8 उपसंपञ्जित्ता णं विहरइ, जति णं ते महब्बलवज्जा अणगारा छ8 उवसंपज्जित्ता णं विहरंति ततो से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति, एवं अट्टमं तो दसम अह दसमं तो दुवालसं, इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेवियबहुलीकरहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निबत्तिसु, तं०-"अरहंत १सिद्ध २ पवयण ३ गुरु ४ थेर ५ बहुस्सुए ६तवस्सीमुं७॥ वच्छल्लया यतेसि अभिक्ख णाणोवओगे य८॥१॥दसण ९विणए १० आवस्सए य ११ सीलबए निरइयारं १२ । खणलव १३ तव १४ चियाए १५ वेयावचे १६ समाही य १७ ॥२॥ अप्पुबणाणगहणे १८ सुयभत्ती १९ पवयणे पभावणया २० । एएहिं कारणेहिं तित्ययरत्तं लहइ जीओ ॥३॥" [ अहत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपखिवत्सलता अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥ १ ॥ दर्शनं विनय आवश्यकानि च शीलवतं निरतिचारं क्षणलवः तपः त्यागः वैयावृस्य समाधिश्च ॥२॥अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना एतैः कारणैः तीर्थकरवं लभते जीवः ॥शा] तए ण ते महाबलपामोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरति जाब एगराइयं उव०, तते णं ते मह POS दीप अनुक्रम [७६-८०] For P OW wireluctaram.org भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पूर्वभवः, २०-स्थानक्स्य नामानि ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत शाताधर्मकथाङ्गम्. मल्लीज्ञाते मल्लीजिनपूर्वभवः ६४) ॥१२२॥ गाथा: ब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुट्टागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं उपसंपजित्ताणं विहरंति, तं०-घउत्थं करेंति २ सबकामगुणियं पारंति २ छटुं करत्ति २ चउत्थं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ छटुं करेंति २ दसमं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ दसमं करेंति २ चाउद्दसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ चोइसम करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २सोलसमं करेंति २वीसइमं करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २ बीसइमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ अट्ठारसमं करेंति २ चोद्दसमं करेंति २ सोलसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ चाउद्दसमं करेंति २ दसमं करेंति २ दुवालसमं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ दसमं करेंति २ छटुं करेंति २ अट्ठमं करेंति २ चउत्थं करेंति २ण्टुं करेंति २ चउक० सवत्थ सबकामगुणिएणं पारेंति, एवं खलु एसा खुडागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासहि सत्साह य अहोरत्तेहि य अहामुत्ता जाव आराहिया भवह, तयाणतरं दोचाए परिवाडीए चउत्थं करैति नवरं विगइवज्जं पारति, एवं तचावि परिवाडी नवरं पारणए अलेवार्ड पारेंति, एवं चउत्थावि परिवाडी नवरं पारणए आयंबिलेण पारंति, तए णं ते महन्यलपामोक्खा सत्स अणगारा खुदागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं दोहिं संवच्छरहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि अहामुत्तं जाव आणाए आराहेत्ता जेणेव धेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति २ घेरे भगवंते बंदंति नमसंति २ एवं बयासी-इच्छामो णं भंते। महालयं सीहनिकीलियं तहेव जहा खुडागं नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२॥ Janataram.org भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभवः, तपस: वर्णनं ~254 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६४] गाथा: एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं महारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति, सबंपि सीहनिझीलियं छहिं वासेटिं दोहि य मासेहि वारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति, तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्स अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव येरे भगवंते तेणेव उवागच्छति २ थेरे भगवंते वंदति नमसंति २ बहणि चउत्थ जाब विहरंति, सते णं ते महन्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का मुक्खा जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपवयं दुरूहति २ जाव दोमासियाए. संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चतुरासीति वाससयसहस्सातिं सामण्णपरियागं पाउणति २ चुलसीर्ति पुत्वसयसहस्साति सबाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववना (सूत्रं ६४) सर्व सुगम, नवरं शीतोदायाः पश्चिमसमुद्रगामिन्या दक्षिणे कुले सलिलावतीति यदुक्तमिह तद्ग्रन्थान्तरे नलिनावतीस्यु-18 च्यते, चक्रवर्चिविजयं-चक्रवर्तिविजेतव्यं क्षेत्रखण्डं, 'इमेणं कारणेणं ति अनेन वक्ष्यमाणेन हेतुनाऽन्यथाप्रतिज्ञायान्यथा करणलक्षणेन, मायारूपत्वादस्य, माया हि खीखनिमित्तं तत्र श्रूयते, तस्य चैतदन्यथाभिधानान्यथाकरणं किल कुतोऽपि मिथ्याभिमानादह नायक एते खनुनायकाः इह च को नायकानुनायकाना विशेषो यद्यहमुत्कृष्टतरतया न भवामीत्येवमादेस्सम्भाव्यते, 'इत्थीनामगोयन्ति स्त्रीनामः-खीपरिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद्भवति गोत्रं-अभिधानं यस्य तत् स्त्रीनामगोत्रं अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्यं नामकर्म गोत्रं च तत् खीनामगोत्र कर्म निवर्तितवान, तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान् , खीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिप्रत्ययस्वात, 'आसेवियबहुलीकएहिति आसेवितानि सत्करणात् बहुलीकतानि दीप अनुक्रम [७६-८०] Picturary.com भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभवः, तपस: वर्णनं ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथानम्. [६४ ॥१२॥ गाथा: बहुशः सेवनात् यानि तैः, 'अरहंतगाहा' अर्हदादीनि सप्त पदानि, तत्र प्रवचन-श्रुतज्ञानं तदुपयोगानन्यखाद्वा सः गुरवो- दमलीज्ञाधर्मोपदेशकाः स्थविराः जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नास्तत्र जातिस्थविरः पष्टिवर्षः श्रुतस्थविरः समवायधरः पर्यायस्थविरो विंशतिवर्ष- ते मल्लीजिपयायः बहुश्रुताः परस्परापेक्षया तपखिन:-अनशनादिविचित्रतपोयुक्ताः सामान्यसाधवो वा, इह च सप्तमी पष्टयर्थे द्रष्टव्या, नपूर्वभवः ततोऽईसिद्धपचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपखिनां वत्सलतया-वात्सल्येनानुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनानुरूपोपचारलक्षणया तीर्थ- सू. ६४ करनामकम्मे बद्धवानिति सम्बन्धः, 'तेर्सि'ति ये एते जगद्वन्दनीया अहंदादयस्तेपा,अभीक्ष्ण-अनवरतं ज्ञानोपयोगे च सति तद | वध्यते इत्यष्टौ, 'दसण'गाहा, दर्शन-सम्यक्त ९, विनयो ज्ञानादिविषयः, तयोनिरतिचास संस्तीर्थकरसं बद्धवान् १०, आवश्यकअवश्यकत्र्तव्यं संयमव्यापारनिष्पन्न तसिंध निरतिचारः सन्निति ११ तथा शीलानि च-उत्तरगुणा बतानि च-मूलगुणास्तेषु पुननिरतिचार इति १२, क्षणलवग्रहण कालोपलक्षण, क्षणलवादिषु संवेगभावनाध्यानासेवनतत्र निर्वर्जितवान् १३ तथा तपस्त्यागयो। |सतो निवेचितवान्, तत्र तपसा चतुर्थादिना १४ त्यागेन च यतिजनोचितदानेनेति १५, तथा वैयावृत्ये सति दशविधे|8 निर्वनितवान् १६ समाधौ च गुर्वादीनां कार्यकरणद्वारेण चिचस्वास्थ्योत्पादने सति निर्तितवान् १७, द्वितीयगाथायां नव, "अवगाहा' अपूर्वज्ञानग्रहणे सति निर्वर्तितवान् १८ श्रुतभक्तियुक्ता प्रवचनप्रभावना श्रुतभक्तिप्रवचनप्रभावना तया च निवेतितवान् श्रुतबहुमानेन १९ यथाशक्ति मार्मदेशनादिकया च प्रवचनप्रभावनयेति भावः २०, तीर्थंकरखकारणतायामुक्ताया हेतु-| विशतेः सर्वजीवसाधारणतां दर्शयन्नाह-एतैः कारणैस्तीर्थकरखं अन्योऽपि लभते जीव इति, पाठान्तरे तु 'एसोति एप महा-1 बलो लब्धवानिति 'जाव एगराय'ति इह यावत्करणात् 'दोमासियं तेमासियं चउम्मासियं पंचमासियं छम्मासियं सचमा दीप अनुक्रम [७६-८०] भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभव:, तपस: वर्णनं, विंशति: स्थानक्स्य अर्थाः ~256 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक सियं पढमसत्तराईदियं चीयसत्तराईदियं तच्चसत्तराईदियं अहोराईदिय'ति द्रष्टव्य मिति, 'सीहनिकी लिय'ति सिंहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं, सिंहो हि विहरन् पश्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र प्राक्तनं तप आवयोंत्तरोतरं तद् विधीयते तत्तपः सिंहनिष्क्रीडितं, तच्च द्विविध-महत् क्षुद्रक चेति, तत्र क्षुल्लकमनुलोमगतौ चतुर्भक्कादि विंशतितमपर्यन्त प्रतिलोमगतौ तु विंशतितमादिकं चतुर्थान्त, उभयं मध्येऽष्टादशकोपेतं, चतुर्थषष्ठादीनि तु एकैकवृद्धस कोपवासादीनि, स्थापना चेयं भवति [६४] गाथा: दीप अनुक्रम [७६-८०] इह चखारि २ चतुर्थादीनि त्रीण्यष्टादशानि द्वे विंशतितमे तदेवं चतुष्पश्चाशदधिकं शतं तपोदिनानां त्रयविंशच पारणकदिनानामेवमेकखां परिपाट्यां पण्मासाः सप्तरात्रिन्दिवाधिका भवन्ति, प्रथमपरिपाट्यां च पारणकं सर्वकामगुणिक, सर्वे काम-18 गुणाः-कमनीयपर्याया विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, द्वितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामलेपकारि चतुषामायामाम्ल| मिति, प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतुर्गुणं सर्वप्रमाणं भवतीति । महासिंहनिष्क्रीडितमप्येवमेव भवति, नवरं चतुर्थादि। चतुखिंशत्पर्यन्तं प्रत्यावृत्तौ चतुर्विंशादिकं चतुर्थपर्यन्तं मध्ये द्वात्रिंशोपेतं सर्व खयमूहनीयं, स्थापना चास्य ११RRI|३५| |बाजा१111१1१२११/११२१४१५/१५, १४१६ ||२|१||२|४ | ५| | १.111१११ १ १११४/१/१५/१४/१ भगवती मल्ली तिर्थंकर-चरित्रं, मल्लिजिनस्य पुर्वभवः, तपस: वर्णनं ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् ॥१२॥ ८ मल्लीज्ञाते माल्लीजिनजन्म ६४) गाथा: खंदओं'त्ति भगवत्यां द्वितीयशते इहैव वा यथा मेघकुमारो वर्णितस्तथा तेऽपि, नवरं 'थेर'त्ति स्कन्दको महावीरमापृष्टवानेते तु स्थविरानि त्यर्थः, प्रतिदिनं द्विभॊजनस्य प्रसिद्धखात् मासद्वयोपवासे विंशत्युत्तरभक्तशतविच्छेदः कृतो भवतीति, जयन्तविमानं अनुत्तरविमानपश्चके पश्चिमदिग्बति । तत्थ णं अत्गतियाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, तत्थ णं महब्बलवजाणं छपहं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, महब्बलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीसं सागरोचमाई ठिती। तते णं ते महब्बलवजा छप्पिय देवा ताओ देवलोगाओ आउखएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चहता इहेब जंबुद्दीचे २ भारहे वासे विमुद्धपितिमातिवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं २ कुमारत्ताए पचायायासी, तंजहा-पडिबुद्धी इक्खागराया चंदच्छाए अंगराया संखे कासिराया रुप्पी कुणालाहिवती अदीणसत्तू कुरुराया जितसत्तू पंचालाहिवई, तते णं से महन्यले देवे तीहिं णाणेहि समग्गे उचट्ठाणट्ठिएसु गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइतेसु सउणेसु पयाहिणाणुकलंसि भूमिसपिसि मारुतंसि पवायसि निप्फन्नसस्समेहणीयसि कालंसि पमुहयपक्की लिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्व फग्गुणसुद्धे तस्स णे फग्गुणसुद्धस्स चउत्धिपक्वेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीसं सागरोवमट्टितीयाओ अर्णतरं चयं चइत्ता इदेव जंबुरीचे २ भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभा दीप अनुक्रम [७६-८०] ॥१२४॥ भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक न [६५] दीप वतीए देवीए कुछिसि आहारवतीए सरीरवकंतीए भवयकतीए गम्मत्ताए वकंते, तरयर्णि च णं चोइस महासुमिणा बन्नओ, भत्तारकहणं सुमिणपाढगपुच्छा जाब विहरति । तते णं तीसे पभावतीए देवीए तिहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलधलपभासुरप्पभूएणं वसद्धवनेणं मल्लेणं अत्यपचत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसनाओ सण्णिवन्नाओ य विहरति, एगं च महं सिरीदामगंड पाडलमल्लियचंपयअसोगपुनागनागमरुयगदमणगअणोजकोजयपरं परमसुहफासदारसणिज्ज महया गंधद्धणि मुयंतं अग्घायमाणीओ डोहलं विणेति, तते णं तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउन्भूतं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय. जाव दसद्धवन्नमलं कुंभग्गसो य भारग्गसो य कुंभगस्स रन्नो भवणंसि वा० साहरंति, एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव मुयंत उवणेति, तए णं सा पभावती देवी जलथलय जाव मल्लेणं डोहलं विणेति, तए णं सा पभावतीदेवी पसस्थडोहला जाव विहरइ, तए णं सा पभावतीदेवी नवहं मासाणं अद्धहमाण य रतिदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोचे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्स f० एकारसीए पुचरत्ताचरत्त० अस्सिणीनक्खत्तेणं उच्चट्ठाण जाव पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु आरोयाऽऽरोयं एकूणवीसतिमं तित्थयरं पयाया (सूत्रं ३५) 'इक्खागराय'त्ति इक्ष्वाकूणां-इक्ष्वाकुवंशजाना अथवा इत्वाकुजनपदस्य राजा, सच कोशलजनपदोऽप्यभिधीयते यत्र अनुक्रम [८१] AREauratonintharana भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म- कथाङ्गम प्रत मलीज्ञाते मल्लीजिनजन्म सू. ६५ सत्राक ॥१२५॥ [६५] दीप अनुक्रम अयोध्या नगरीति, 'अंगराय'त्ति अङ्गा-जनपदो यत्र काम्पिल्य (चम्पा) नगरी, एवं काशीजनपदो यत्र वाराणसी नगरी, कुलाणा यत्र श्रावस्ती नगरी, कुरुजनपदो यत्र हस्तिनागपुरं नगरं, पाश्चाला यत्र काम्पिल्यं नगरं, 'उच्चट्ठाणहिएसुचि उच्चस्था- नानि ग्रहाणामादित्यादीनां मेषादीनां दशादिषु त्रिंशांशकेप्वेवमवसेयानि-'अजवृषमृगाङ्गनाकर्कमीनवणिजोंऽशकेष्विनाथुचाः । दश १० शिख्य ३ ष्टाविंशति २८ तिथि १६ इन्द्रिय ५ विघन २७ विशेषु २० ॥१॥" इति, 'सोमासु' इत्यादि, 'सौम्यासु' दिग्दाहायुत्पातवर्जितासु 'वितिमिरासु' तीर्थकरगर्भाधानानुभावेन गतान्धकारासु 'विशुद्धासु' अरजस्खलत्वादिना 'जयिकेषु राजादीनां विजयकारिषु शकुनेषु यथा 'काकानां श्रावणे द्वित्रिचतुः शब्दाः शुभावहा' इति, प्रदक्षिणः प्रदक्षिणावर्त मान त्वात् अनुकूलश्च यः सुरभिशीतमन्दत्वात् स तथा तत्र 'मारुते' वायौ 'प्रवाते वातुमारब्धे निष्पन्नशस्सा मेदिनी-भूयंत्र काले, अत एव प्रमुदितप्रक्रीडितेपु-उष्टेषु कीडावत्सु च जनपदेषु-विदेहजनपदवास्तव्येषु जनेषु, 'हेमंताण'ति | शीतकालमासानां मध्ये चतुर्थो मासः अष्टमः पक्षः, कोऽसावित्याह-फाल्गुनस्य शुद्धः-शुक्ला-द्वितीय इत्यर्थः, तस्य फाल्गुनशुद्धस्य पक्षस्य या चतुर्थी तिथिस्तस्याः पक्षः-पाश्र्थोऽर्द्धरात्रिरिति भावः, तत्र 'ण'मित्यलकारे, वाचनान्तरे तु गिम्हार्ण पढमे इत्यादि दृश्यते तत्रापि चैत्रसितचतुया मार्गशीषसितैकादश्यां तज्जननदिने नव सातिरेका मासाः अभिवद्भुितमासकल्पनया भवन्तीति तदपि सम्भवति, अतोच तत्वं विशिष्टज्ञानिगम्यमिति, 'अणंतरं चयं चइत्तति अव्यवहितं च्यवनं कृत्वेत्यर्थः, अथवा अनन्तरं चर्य-शरीरं देवसम्बन्धीत्यर्थः 'चहत्ता' त्यक्त्वा 'आहार'त्यादि आहारापकान्त्या-देवाहारपरित्यागेन भवापकान्त्या-1 देवगतित्यागेन शरीरापक्रान्त्या वैक्रियशरीरत्यागेन अथवा आहारव्युत्क्रान्त्या-अपूर्वाहारोत्पादेन मनुष्योचिताहारग्रहणेणेत्यर्थः, wevercene [८१] ॥१२५॥ भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~260 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६५] एवमन्यदपि पदद्वयमिति, गर्भतया व्युत्कान्तः-उत्पन्नः, 'मल्लेणं'ति मालाभ्यो हितं माल्यं-कुसुमं जातावेकवचनं 'अस्थ-IST यपच्चत्ययंसिति आस्तते-आच्छादिते प्रत्यवस्तुते पुनः पुनराच्छादिते इत्यर्थःशयनीये निषण्णा निवना:-सुप्ताः, 'सिरिदामगंड"ति श्रीदाम्ना-शोभावन्मालानां काण्ड-समूहः श्रीदामकाण्ड, अथवा गण्डो-दण्डः तद्वद्यत्तद् गण्ड एवोच्यते, श्रीदानां गण्डः श्रीदाममण्डः, पाटलाधाः पुष्पजातयः प्रसिद्धाः, नवरं मल्लिका-विचकिलः मरुवक:-पत्रजातिविशेषः 'अणोज्ज'त्ति अनवद्यो- निषः कुब्जक:-शतपत्रिकाविशेषः एतानि प्रचुराणि यत्र तत्तथा, परमशुभदर्शनीयं परमसुखदर्शनीयं वा 'महया गंधद्धणि मुयंतंति महता प्रकारेण गंधध्राणि-सुरभिगन्धगुणं तृप्तिहेतुं पुद्गलसमूहं मुश्चत् आजिघ्रन्त्यःउत्सिहन्त्यः, 'कुंभग्गसो यति कुम्भपरिमाणत: 'भारग्गसो यत्ति भारपरिमाणतः, 'आरोग्गारोग्गं'ति अनाबाधा माता अनाबाधं तीर्थकरम् । तेणं कालेणं २ अहोलोगवस्थवाओ अट्ट दिसाकुमारीओ मयहरीयाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सवं नवरं मिहिलाए कुंभयरस पभावतीए अभिलाओ संजोएको जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा, तया णं कुंभए राया बहुर्हि भवणवति ४ तित्थयर जाव कस्मं जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसयणिजंसिरोहले विणीते तं होउणं णामेणं मल्ली, जहा महाबले नाम जाव परिवडिया -सा वद्धती भगवती दियलोयचुता अणोवमसिरीया। दासीदासपरिबुडा परिकिन्ना पीढमहि॥१॥असियसिरया सुनयणा वियोढी धवलदंतपंतीया । वरकमलकोमलंगी फुल्लुप्पलगंधनीसासा ॥२शा" (सूत्र ६६) दीप अनुक्रम [८१] | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: दमल्लीज्ञा ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१२६॥ प्रत सूत्रांक [६६-६७] स्वमूर्ति दीप तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव स्वेण जोवणेण य लावन्नेण य अतीव २ सकिहा उफिट्टसरीरा जाया यावि होस्था, तते णं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपु- IN ते जन्ममलेण ओहिणा आभोएमाणी२ विहरति, तं०-पडिबुद्धिं जाव जियसत्तुं पंचालाहिवई, तते णं सा मल्ली होत्सवः को९वि० तुन्भे गं देवा० असोगवणियाए एग महं मोहणघरं करेह अणेगखंभसयसन्निविडं, तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्मदेसभाए छ गन्भघरए करेह, तेसि णं गम्भघरगाणं बहुमझदेसभाए जालघरयं करेह, तस्स णं जालघरयस्स बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह २जाव पचप्पिणंति,तते णं मल्ली मणिपे कारणं सू. ढियाए उरि अप्पणो सरिसियं सरित्तयं सरिचयं सरिसलावन्नजोवणगुणोववेयं कणगमई मत्थयच्छिई पउमुप्पलप्पिहाणं पडिम करेति २जं विपुलं असणं ४ आहारेति ततो मणुन्नाओ असण ४ कल्लाकर्लि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामतीए मत्थयछिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी २ विहरति, तते णं तीसे कणगमसीए जाव मच्छयनिहाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे २ ततो गंधे पाउम्भवति, से जहा नामए अहिमडेत्ति वा जाव एत्तो अणिढ़तराए अमणामतरए (सूत्रं ६७) "अहोलोयवस्थवाओ'त्ति गजदन्तकानामधः अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिकुमारीमहत्तरिका, इद्द चावसरे यदभिधेयं | ॥१२६॥ तन्महतो ग्रन्थस विषय इतिकृत्वा सङ्केपार्थमतिदेशमाह-'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सर्वति यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञस्यां सामान्यतो जिनजन्मोक्तं तथा मल्लीतीर्थकृतो जन्मेति-जन्मवक्तन्यता सर्वा वाच्येति, नवरमिह मिथिकायां नगर्यो कुम्भस्य | अनुक्रम [८२-८५]] भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं, पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्ति: ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] टाटाहटललsicceटस्टारहरहरु दीप राज्ञः प्रभावत्या देव्याः इत्ययमभिलापः संयोजितव्यो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यां तु नाय विद्यते इति, किंपर्यवसानं जन्म वक्तव्यमित्याह-यावन्नन्दीश्वरे 'महिमति अतिदिष्टग्रन्थश्वार्थत एवं द्रष्टव्यो, यथा अष्टौ दिकुमारीमहत्तरिकाः भोगराप्रभृतयस्तत्समयमुपजातसिंहासनप्रकम्पाः प्रयुक्तावधिज्ञानाः समवसितकोनविंशतितमतीर्थनाथजननाः ससम्भ्रममनुष्ठितसमवायाः समस्तजिननायकजन्मसु महामहिमविधानमस्माकं जीतमिति विहितनिश्चयाः स्वकीयस्थकीयाभियोगिकदेवविहितदिव्यविमानारूढाः सामानिकादिपरिकरवृताः सर्वेयो मडिजिनजन्मनगरीमागम्य जिनजन्मभवनं यानविमानैखिः प्रदक्षिणीकृत्य उत्तरपूर्वेस्यां दिशि यानविमानानि चतुर्भिरझुलैर्भुवमप्राप्तानि व्यवस्थाप्य जिनसमीपं जिनजननीसमीपं च गत्वा निः प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्राञ्जलिपुटा इदमवादिषुः-नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके! नमोऽस्तु ते जगत्प्रदीपदायिक वयमधोलोकवास्तव्या दिकुमार्यों जिनस्य जन्ममहिमानं विधास्यामः अतो युष्माभिन भेतव्यमिति अभिधाय च विहितसंवर्गवाताः जिनजन्मभवनस्य समन्तायोजनपरिमण्डलक्षेत्रस्य तृणपत्रकचवरादेरशुचिवस्तुनोऽपनयनेन विहितशुद्ध्योर्जिनजनन्योरदूरतो जिनखासाधारणमगणितगुणगणमागायन्त्यस्तस्थुः, एचमेवोध्ये लोकवास्तव्या नन्दनवन कूटनिवासिन्य इत्यर्थः अष्टौ दिकुमारीमहतरिकास्तथैवागत्य विरचिताभ्रवद्देलिकाः आयोजनमानक्षेत्र गन्धोदकवर्षे पुष्पवर्ष धूपघटीय कृखा जिनसमीपमागत्य परिगायन्त्य आसांचाः, तथा पौरस्त्यरुचकवास्तव्या रुचकाभिधा-| नख त्रयोदशस्य द्वीपस्य मध्यवर्तिनः प्राकाराकारेण मण्डलव्यवस्थितखोपरि पूर्वदिग्व्यवस्थितेष्वष्टासु कूटेषु कृतनिवासा इत्यर्थः । आगत्य तथैवादशेहस्ता गायन्त्यस्तस्थुः, एवं दक्षिणरुचकवास्तब्धा जिनस्य दक्षिणेन भृङ्गारहस्ताः पश्चिमरुचकवास्तव्या जिनस्य | | पश्चिमेन तालवृन्तहस्ता उत्तररुचकवास्तव्याधामरहस्ता जिनस्य उत्तरेण, एवं चतस्रो रुचकरप विदिवास्तच्या आगत्य दीपिका अनुक्रम [८२-८५] | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम् प्रत सूत्रांक [६६-६७] ॥१२७॥ एलय दीप Pene हस्ता जिनस्य चतसए विदिक्ष तथैव तस्थुः, मध्यमरुचकवास्तव्या रुचकद्वीपस्याभ्यन्तरार्द्धवासिन्य इत्यर्थः चतस्रस्तास्तथैवागत्या दमल्लीताजिनख चतुरनुलवर्जनाभिनालच्छेदनं च विवरखननं च नाभिनालनिधानं च विवरस्य रत्नपूरणं च तदुपरि हरितालिकापीठबन्धं ते जन्ममच पश्चिमावर्जदिकाये कदलीगृहत्रयं च तन्मध्येषु चतुःशालभवनत्रयं च तन्मध्यदेशे सिंहासनत्रयं च दक्षिणे सिंहासने जिनजन-1181 होत्सवः न्योरुपवेशनं च शतपाकादितैलाभ्यङ्गानं च गन्धद्रव्योदनं च पुष्पोदकं च पूर्वत्र पुष्पोदकगन्धोदकशुद्धोदकमजनं च सर्वालङ्कार-11 सू. ५५ विभूषणं च उत्तरत्र गोशीर्षचन्दनकाष्ठेचधुज्ज्वलनं चाग्निहोमं च भूतिकर्म च रक्षापोट्टलिकां च मणिमयपाषाणद्वयस्य जिनक-18 स्वमूर्तिगाभ्यणे प्रताडनं च भवतु भगवान् पर्वतायुरिति भणनं च पुनः समानुकजिनस्स वभवननयनं च शय्याशायनं च चक्रुः कारणं सू. कृखा च गायन्त्यस्तस्थुरिति । सौधर्मकल्पे च शक्रख सहसा आसनं प्रचकम्पे अवधि चासौ प्रयुयुजे तीर्थकरजन्म चालुलोके| ६७ ससंभ्रमं च सिंहासनादुत्तस्थौ पादुके च मुमोच उत्तरासङ्गं च चकार सप्ताष्टानि च पदानि जिनाभिमुखमुपजगाम भक्तिभरनिभैरो यथाविधि जिनं च ननाम पुनः सिंहासनमुपविवेश हरिणेगमेषीदेवं पदात्यनीकाधिपति शब्दयांचकार तं चादिदेश यथा सुधमाया सभायां योजनपरिमण्डला सुघोषाभिधानां घण्टां त्रिस्ताडयन्नुद्घोषणां विधेहि, यथा-भो भो देवा! गच्छति शक्रो जम्बूद्वीपं तीर्थकरजन्ममहिमानं कर्तुमतो यूयं सर्वसमृद्ध्या शीघ्रं शक्रयान्तिके प्रादुर्भवतेति, स तु तथैव चकार, तस्यां च ॥१२७॥ घण्टायां ताडितायामन्यान्येकोनद्वात्रिंशद्धण्टालक्षाणि समकमेव रणरणारवं चक्रुः, उपरते च घण्टारवे घोषणामुपश्रुत्य यथादिष्टं | देवाः सपदि विदधुः, ततो पालकाभिधानाभियोगिकदेवविरचिते लक्षयोजनप्रमाणे पश्चिमावर्जदिक्त्रयनिवेशिततोरणद्वारे नानामणिमयूखमञ्जरीरञ्जितगगनमण्डले नयनमनसामतिप्रमोददायिनि महाविमानेऽधिरूढः सामानिकादिदेवकोटीभिरने अनुक्रम [८२-८५] | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~264 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप काभिः परिवृतः पुर प्रवर्तितपूर्णकलशभृङ्गारच्छत्रपताकाचामराधनेकमङ्गल्यवस्तुस्तोमः पश्चवर्णकुडभिकासहस्रपरिमण्डितयोजनसहस्रोच्छित्तमहेन्द्रध्वजप्रदर्शितमार्गो नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वे रतिकरपर्वते कृतावतारो दिव्यविमानद्धिंमुपसंहरन् मिथिला नगरीमाजगाम, विमानारूढ एव भगवतो जिनस्य जन्मभवनं त्रिः प्रदक्षिणीकृतवान् , उत्तरपूर्वस्यां दिशि चतुर्भिरङ्गुलैर्भुवमप्राप्त विमानमवस्थापितवान् , ततोऽवतीर्य भगवन्तं समातृकं दिक्कुमारीवदभिवन्ध जिनमातरमवखाप्य जिनप्रतिबिम्ब तत्सबिधी विधाय पञ्चधाऽऽस्मानमाधाय एकेन रूपेण करतलपल्लवावधृतजिनः अन्येन जिननायकोपरिविकृतच्छत्रः अन्याभ्यां करचा-| ललितप्रकीर्णकः अन्येन च करकिशलयकलितकुलिशः पुरः प्रगन्ता सुरगिरिशिखरोपरिवर्तिपण्डकवनं गखा तद्व्यवस्थिताति पाण्डुकम्बलाभिधानशिलासिंहासने पूर्वाभिमुखो निषण्णः, एवमन्ये ईशानादयो वैमानिकेन्द्रायमरादयो भवनपतीन्द्राः कालादयो व्यन्तरेन्द्राः चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्काः सपरिवाराः मन्दरेऽवतेरुः, ततश्वाच्युतदेवराजो जिनाभिषेकमत्याऽऽभियोगि|कदेवानादिदेश, ते चाटसहस्रं सौवणिकानां कलशानामेवं रूप्यमयानां मणिमयानां एवं द्विकसंयोगवतां त्रीण्यष्टसहस्राणि । त्रिसंयोगवतामष्टसहस्रं भोमेयकानां च तथाऽटसहसं चन्दनकलशानां भृङ्गाराणामादर्शानां स्थालानामन्येषां च विविधानामभियेकोपयोगिनां भाजनानामष्टसहसं २ विचक्रुः, तेश्च कलशादिभाजनैः क्षीरोदस्य समुद्रस्य पुष्करोदस्य च मागधादीनां च तीथानां |गलादीनां च महानदीनां पद्मादीनां महादानामुदकमुत्पलादीनि मुक्तिकां च हिमवदादीनां च वर्षधराणां वत्तेल विजयाद्धानां च पर्वतानां भद्रशालादीनां च वनानां पुष्पाणि गन्धान् सर्वोषधीः तूबराणि सिद्धार्थकान् गोशीर्षचन्दनं चानिन्युः, ततोऽसा-18 वच्युतदेवराजोऽनेकैः सामानिकदेवसहस्रैः सह जिनपतिमभिषिषेच, अभिषेके च वर्तमाने इन्द्रादयो देवाः छत्रचामरकल अनुक्रम [८२-८५] BIRainrary.org | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [६६-६७] दीप Sशधपकडच्छकपुष्पगन्धापनेकविधाभिषेकद्रव्यव्यग्रहस्ताः वज्रशूलाधनेकायुधसम्बन्धवन्धुरपाणयः आनन्दजललवप्लुतगण्ड- दमलीज्ञाकथाङ्गम्. स्थलाः ललाटपट्टयटितकरसम्पुटा जयजयारवमुखरितदिगन्तराः प्रमोदमदिरामन्दमदवशविरचित विविधचेष्टाः पर्युपासांचक्रिरे, ते जन्मम तथा केचित् चतुर्विधं वाद्य वादयामासुः केचिच्चतुर्विधं गेयं परिजगुः केचिचातुर्विध नृत्तं ननृतुः केचिचतुर्विधमभिनयमभिनिन्युः होत्सवः ॥१२८॥ केचिद् द्वात्रिंशद्विधं नाव्यविधिमुपदर्शयामासुरिति, ततो गन्धकापायिकया गावाण्यलूपयन् , ततश्चाच्युतेन्द्रो मुकुटादिभिर्जि- म.६६ | नमलञ्चकार, ततो जिनपतेः पुरतो रजतमयतन्दुरुर्दपणादीन्यष्टाष्टमङ्गलकान्यालिलेख पाटलादिबहलपरिमलकलितकुसुमनिकरं स्वमूर्तिव्यकिरत् शुभसुरभिगन्धवन्धुरं धूपं परिददाह, अष्टोचरेण वृत्तशतेन च सन्तुष्टस्तुष्टाव-नमोऽस्तु ते सिद्ध ! बुद्ध! नीरजः कारणं सू. श्रमण ! समाहित समस्त सम! योगिन् शल्यकर्तन ! निर्भय! नीरागद्वेष ! निर्मम ! निःशल्य ! निःसङ्गमानमूरणागण्यगुणरत। शीलसागर ! अनन्ताप्रमेयभव्यधर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तु तेऽहते नमोऽस्तु ते भगवते इत्यभिधाय वन्दते स्म, ततो नातिदरे खितः पर्युपासांचके, एवं सर्वेऽप्यभिषिषेचुः, केवलं सर्वान्ते शक्रोऽभिषिक्तवान् , तदभिषेकावसरे च ईशानः शक्रव दात्मानं पञ्चधा विधाय जिनस्योत्सङ्गधरणादिक्रियामकरोत, ततः शक्रो जिनस्स चतुर्दिशि चतुरो धवलवृपभान् विचकार, तेषां च शृङ्गाग्रेभ्योऽष्टौ तोयधारा युगपद्विनिर्ययुः वेगेन च वियति समुत्पेतुः एकत्र च मिलन्ति स भगवतो मूर्द्धनि च निपेतुः, शेषमच्युतेन्द्रवदसावपि चकार, ततोऽसौ पुनर्विहितपञ्चप्रकारात्मा तथैव गृहीतजिनश्चतुर्निकायदेवपरिवृतः तूर्यनि-II नादापूरिताम्बरतलो जिननायकं जिनजनन्याः समीपे स्थापयामास, जिनप्रतिविम्बमवस्खापं च प्रतिसञ्जहार, क्षोमयुगलं कुण्डयुगलं ॥१२८॥ |च तीर्थकरस्योच्छीर्षकमूले स्थापयति स्म श्रीदामगण्डकं च नानामणिमयं जिनस्सोल्लोके दृष्टिनिपातनिमिचमतिरमणीयं निचिक्षेप, अनुक्रम [८२-८५] | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७]] दीप ततः शक्रो वैश्रमणमवादी-भो देवानुप्रिय! द्वात्रिंशद्धिरण्यकोटीत्रिंशत्सुवर्णकोटीय जिनजन्मभवने यथा संहरेति, तदादेशाच जुम्भका देवास्तथैव चा:शक्रः पुनर्देवैर्जिनजन्मनगर्या त्रिकादिष्वेवं घोषणं कारयामास, यथा-हन्त ! भुवनवास्थादिदेवाः 118 शृण्वन्तु भवन्तो यथा यो जिने जिनजनन्यां वाऽशुभं मनः सम्प्रधारयति तस्यार्जकमारीव सप्तधा मूद्धा स्फुटतु, ततो देवा नन्दीश्वरे महिमानं विदधुः, खस्थानानि च जम्मुरिति । मालायै हितं तत्र वा साध्विति माल्य-कुसुमं तद्गतदोहदपूर्वकंजन्म-18 त्वेनान्वर्धतः शब्दतस्तु निपातनात् मल्लीति नाम कृतं, यस्तु स्त्रीखेपि तस्याईजिनस्तीर्थकर इत्यादिशब्दव्यपदेशः सोऽहंदादि18| शब्दानां बाहुल्येन पुंस्खेत्र प्रवृत्तिदर्शनादिति, 'यथा महाबल इति भगवत्यां महावलोऽभिहित इहेब वा यथा मेषकुमार इति, 8'सा वहुए भगवती'त्यादि गाथाद्वयं आवश्यकनियुक्तिसम्बन्धि ऋषभमहावीरवर्णकरूपं बहुविशेषणसाधयोदिहाधीतं न पुनर्गाथाद्वयोक्तानि विशेषणानि सर्वाणि मल्लिजिनस्य घटन्त एव, तच दर्शयिष्यामः, ततः सा वर्द्धते-वृद्धिमुपगच्छति स भगवती ऐश्वर्यादिगुणयोगात् देवलोकारच्युता अनुत्तरविमानावतीर्णखात् अनुपमश्रीका--निरुपमानशोभा दासीदासपरिवृतेति प्रतीतं,18 परिकीर्णा-परिकरिता पीठमर्दै:-चयस्वैरिति, एतकिल प्रायः स्त्रीणामसम्भवि, वयस्विकानामेव तासां सम्भवात् , अथवा अलौ-15 किकचरितखेन पीठमईसम्भयेऽपि निर्दपणलेन भगवत्या नेदं विशेषणं न सम्भवति,असितशिरोजा-कालकुन्तला सुनयना-सुलोचना विम्बोष्ठी-पकगोल्हाभिधानफलविशेषाकारोष्ठी धवलदन्तपट्टिका पाठान्तरेण धवलदन्तश्रेणिका वरकमलगर्भगौरीत्येतद्विशे. पणं न सम्भवति तस्याः कमलगर्भस्य सुवर्णवर्णवात् भगवत्याश्च महयाः प्रियङ्गवर्णवेन श्यामलाद्, उक्तं च-"पउमाभ वासुपुज्जा रचा ससिषुप्फदंत ससिगोरा । सुब्बयनेमी काला पासो मल्ली पियंगाभा ॥१॥" इति, अथवा वरकमलस-प्रधान अनुक्रम [८२-८५] Halasaram.org | भगवती मल्लिजिनस्य जन्मन: वर्णनं ~267 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [६६-६७] ॥१२९॥ दीप हरिणस्य गर्भ इव गों जठरसम्भूतखसाधात् वरकमलगर्भ:-कस्तूरिका तद्वद् गौरी-अवदाता बरकमलगर्भगौरी श्याम-18मलीज्ञावर्णखात्, कस्तूरिकाया इव श्यामेत्यर्थः, पाठान्तरेण वरकमलगर्भवर्णा, तत्रापि श्यामवणेत्यर्थः, वाचनान्तरेण वरकमलको-18 ते जन्मममलाङ्गीत्यनवद्यमेव, फुलं-विकसितं यदुत्पलं-नीलोत्पलादि तस यो गन्धस्तद्वन्निःश्वासो गन्धसाधाद्यस्याः सा तथा होत्सवः सुरभिनिःश्वासेत्यर्थः, पाठान्तरेण 'पउमुष्पलुप्पलगंधनीसास'त्ति वत्र पद्म-शतपत्रादि गन्धद्रव्यविशेषो वा उत्पल- सू. ६६ नीलोत्पलमित्यादि उत्पलकुष्ठं च-गन्धद्रव्यविशेष इति, 'विदेहरायवरकन्न'त्ति विदेहा-मिथिलानगरीजनपदस्तस्था राजा स्वमूर्तिकुम्भकस्तस्य वरकन्या या सा तथा, 'उकिट्ठा उकिडसरीरति रूपादिभिरुत्कृष्टा, किमुक्तं भवति ?-उत्कृष्टशरीरेति, 'देसू- कारणं सू, णवाससयजाय'ति देशोनं वर्षशतं जाताया यस्याः सा तथा, 'मोहणधरय'ति सम्मोहोत्पादकं गृह रतिगृह वा 'गम्भघरए'ति मोहनगृहस्स गर्भभूतानि वासभवनानीति केचित् 'जालघरगति दा दिमयजालकमायकुयं यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहिःस्थितैदृश्यते, 'से जहा नामए अहिमडे इय'ति स गन्धो यथेति दृष्टान्तोपन्यासे यारश इत्यर्थः नामए| इस्खलङ्कारे अहिमृते-मृतसप्पे सर्पकलेवरस गन्ध - इत्यर्थः, अथवा अहिमृत-सर्पकलेवरं तस यो गन्धः सोऽप्युपचारात तदेव, इतिरुपदर्शने वा विकल्पे अथवा 'से जह'चि उदाहरणोपन्यासोपक्षेपार्थः, 'अहिमडे इवति अहिमृतकस्व अहि-18 मृतकमिव वेति, यावत्करणादिदं दृश्य-'गोमडेइ वा सुणगमडेइ वा दीवगमडेइ वा मज्जारमडेइ वा मणुस्स-18 ॥१२९॥ मडेइ वा महिसमडेइ वा मूसगमडेह वा आसमडेइ वा हत्थिमडेइ वा सीहमडेइ वा बग्घमडेति वा विगमडेइ वा दीबियमडेइ वा,' द्वीपिक:-चित्रका, किंभूते अहिकडेवरादौ किंभूतं वा तदित्याह--'मयकहियविणदुरभिवावण्णदुभिगंधे मृतं अनुक्रम [८२-८५] SAREauraton international पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्ति: ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६६,६७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६६-६७] easee दीप जीवविमुक्तमात्रं सत् यत् कुथितं-कोथमुपगतं तत् मृतकुथितमीषदुर्गन्धमित्यर्थः, तथा विनष्टं-उच्छ्नखादिभिर्विकारः स्वरूपादपेतं सत् यदुरभि-तीव्रतरदुष्टगन्धोपेतं तत्तथा व्यापन-शकुनिभृगालादिभिर्भक्षणाद्विरूपां विभत्सामवस्था प्राप्तं सघद् दुरभिगन्धतीब्रतमाशुभगन्धं तत्तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तत्र तदेव वा 'किमिजालाउलसंसत्ते' कृमिजालैराकुलैःव्याकुलैः आकुलं वा सङ्कीर्ण यथा भवतीत्येवं संसक्तं सम्बद्धं यत्र तत्था, तत्र तदेव वा 'असुइविलीणविगयविभच्छदरिसणिज्जे' अशुचि-अपवित्रमस्पृश्यखात् विलीन-जुगुप्सासमुत्पादकखात् विकृत-विकारवचात् बीभत्स द्रष्टुमयोग्यखात् एवंभूतं दृश्यते इति दर्शनीयं, ततः कर्मधारयः, तत्र तदेव वा 'भवेतारूवे सिया' यादृशः सर्षादिकलेवरे गन्धो भवेत् | यादर्श वा सादिकलेवरं गन्धेन भवेत् एतदूपस्तद्रूपो वा स्वाद्-भवेत्तस्स भक्तकवलस्य मन्ध इति सूत्रकारस विकल्पोल्लेखः, 'नो इणढे समझे' नायमर्थः समर्थः-सङ्गत इत्ययं तु तस्यैव निर्णयः, निीतमेव गन्धस्वरूपमाह-एत्तो अणिढ़तराए चेव' इत:-अहिकडेवरादिगन्धात् सकाशादनिष्टतर एव-अभिलापस्याविषय एव अकान्तरका-अकमनीयतरस्वरूपः अप्रिय-1 | तरः-अप्रीत्युत्पादकलेन अमनोजतरका-कथयाऽप्यनिष्टलात् अमनोजतरश्चिन्तयाऽपि मनसोऽनभिगम्य इत्यर्थः । तेणं कालेणं २ कोसला नाम जणवए, तस्थ णं सागेए नाम नयरे तस्लणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए, एत्ध णं महं एगे णागघरए होस्था दिवे सच्चे सचोवाए संनिहियपाडिहरे, तत्थ णं नगरे पडिवुद्धिनाम इक्खागुराया परिवसति पउमावती देवी सुवुद्धी अमचे सामदंड, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाई अनुक्रम [८२-८५] SAREastatininternational पुर्वभवस्य मित्राणां प्रतिबोधार्थे मल्लिजिनस्य युक्ति: ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाम प्रत ॥१३॥ मल्लीज्ञाते मिथिलाया प्रतिबुद्धिनपस्यागमन सू.६८ [६८) दीप अनुक्रम नागजन्नए यावि होत्या, तते णं सा पउमावती नागजन्नमुवट्टियं जाणित्ता जेणेव पडिवुद्धिकरयल एवं वदासी-एवं खलु सामी! मम कलं नागजन्नए यावि भविस्सति तं इच्छामि णं सामी ! तुम्भेहिं अन्भगुन्नाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुन्भेऽविणं सामी ! मम नागजनयंसि समोसरह, तते णं पडिबुद्धी पउमावतीए देवीए एयमढे पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा रन्ना अन्भणुन्नाया हट्ट कोटुंबिय० सद्दावेति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम कल्लं नागजपणए भविस्सति तं तुम्भे मालागारे सद्दावेह २ एवं बदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कलं नागजन्नए भविस्सइ तं तुम्भे गं देवाणुप्पिया! जलथलय० दसद्धवन्नं मलं णागधरयंसि साहरह एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह, ततेणं जलथलय दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुचिरइयं हंसमियमउरकोंचसारसचळवायमयणसालकोइलकुलोववेयं ईहामियजावभत्तिचित्तं महग्धं महारिहं विपुलं पुष्फमंडवं विरएह, तस्स णं यहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंड जाव गंधद्धणि मुयंतं उल्लोयंसि ओलंबेह २ पउमावतिं देवि पडिवालेमाणा २ चिट्ठह, तते णं ते कोडुंबिया जाव चिट्ठति, तते गं सा पउमावती देवी कल्लं कोडंपिए एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! सागेयं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसितसम्मज्जितोवलितं जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं सा पउमावती दोचपि कोडेविय०खिप्पामेव लहुकरणजुत्तं जाव जुत्तामेव उवट्ठवेह, तते गं तेऽवि तहेच उचट्ठावेंति, तते णं सा पउमावती अंतो अंतेउरंसि पहाया जाव [८६] aeeeeeeese ॥१३॥ प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धिः , तस्य वर्णनं ~270 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६८) दीप अनुक्रम धम्मियं जाणं दूरूढा, तए णं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिबुडा सागेयं नगर मझमोणं णिजति २ जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छति २ पुक्खरणिं ओगाहह २ जलमजणं जाच परमसहभूपा उल्लपडसाडया जाति तत्थ जप्पलातिं जाव गेण्हति २ जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्य गमणाए, तते णं पउमावतीए दासचेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्थगयाओ धूवकटुच्छुगहधगयाओ पिट्ठतो समणुगच्छंति, तते णं पउमावती सविड़िए जेणेच नागघरे तेणेव उवागच्छति २ नागघरयं अणुपविसति २ लोमहत्वगं जाय धूवं डहति २ पडिबुद्धिं पडिवालेमाणी २ चिट्ठति, तते णं पडिवदी पहाए हस्थिखंधवरगते सकोरंट जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहजोहमयाभडगचडकरपहकरेहिं साकेयनगरं० णिग्गच्छति २ जेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छति २ हस्थिखंधाओ पचोरुहति २ आलोए पणामं करेइ २ पुष्पमंडवं अणुपविसति २पासतितं एग महं सिरिदामगड, तएणं पडिबुद्धीतं सिरिदामगंड सुहरं कालं निरिक्खइ २ तंसि सिरिदामगंडसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमचं एवं बयासी-तुमनं देवाणुप्पिया! मम दोचेणं बहूणि गामागर जाव सन्निवेसाई आहिंडसि बहूणि रायईसर जाव गिहार्ति अणुपविससि तं अस्थि णं तुमे कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्टपुचे जारिसए णं इमे पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे ?, तते णं सुवुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी! अहं अन्नया कयाई तुभं दोघेणं मिहिलं रायहाणि गते तत्थ णंमए कुंभगस्स रन्नोधूयाए पमावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छ [८६] प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धिः , तस्य वर्णनं ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्, प्रत ॥१३॥ [६८) दीप अनुक्रम रपडिलेहणगंसि दिये सिरिदामगंडे विट्ठपुचे तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावतीए सिरिदामगंडे REमलीज्ञासयसहस्सतिम कलं ण अग्धति, तते णं पडिवुद्धी सुबुदि अमचं एवं वदासी-करिसिया णं देवा- ते मिथिणुप्पिया! मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावतीए लायां प्रदेवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिमंपि कलं न अग्धति ?, तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं इक्खागुरायं एवं तिबुद्धिनवदासी-विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्ठियक्रमुन्नयचारुचरणा बन्नओ, तते णं पडिबुद्धी सुवुद्धिस्स अमञ्चस्स पस्यागमन अंतिए सोचा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दयं सद्दावेइ २ एवं व०-गच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिया! मिहिलं रायहार्णि तत्थ णं कुंभगस्स रन्नो ध्यं पभावतीए देवीए अत्तियं मल्लिं विदेहवररायकण्णगं मम भारियत्ताए बरेहि जतिविय णं सा सयं रजसुंका, तते णं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हद्द० पडिसुणेति २ जेणेव सए गिहे जेणेव चाउग्धंटे आसरहे तेणेव उवागच्छति २ चाउग्घंटे आसरह पडिकप्पावेति २ दुरुढे जाव हयगयमहयाभडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छति २ जणव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं ६८) ॥१३॥ 'नागघरएति उरगप्रतिमायुक्तं चैत्यं 'दिवे'त्ति प्रधानं 'सच्चे ति तदादेशानामवितथचात् , 'सच्चोवाए'त्ति सत्यावपातं सफ- लसेवमित्यर्थः 'संलिहियपाडिहेरेति सन्निहितं-विनिवेशितं प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म तथाविधव्यन्तरदेवेन यत्र तत्तथा देवा [८६] 26ee प्रथम-मित्र प्रतिबुध्धि:, तस्य वर्णनं ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [६८) धिष्ठितमित्यर्थः, 'नागजण्णए'चि नागपूजा नागोत्सव इत्यर्थः, 'सिरिदामगंड'मित्यादौ यावत्करणात् 'पाडलमल्लि' इत्यादिणको दृश्या, 'दोघेणं ति दौत्येन दूतकर्मणा, 'अस्थियाईति इह आइंशब्दो भाषायां 'संवच्छरपडिलेहणKगंसित्ति जन्मदिनादारभ्य संवत्सरः प्रत्युपेक्ष्यते-एतावतिथः संवत्सरोऽध पूर्ण इत्येवं निरूप्यते महोत्सवपूर्वकं यत्र दिने तत्संवत्सरप्रत्युपेक्षणकं, यत्र वर्ष वर्ष प्रति सङ्ख्याज्ञानार्थ ग्रन्धिबन्धः क्रियते यदिदानीं वर्षग्रन्थिरिति रूढं, तस्येत्यादेरयमर्थः-18 मल्लीश्रीदामकाण्डस्य पद्मावतीश्रीदामकाण्डं शतसहस्रतमामपि कलां-शोभाया अंशं नाति-न प्राप्नोति, कूर्मोन्नतचारुचरणा इत्यादिखीवर्णको जम्बूद्वीपप्रज्ञयादिप्रसिद्धो मल्लीविषये अध्येतव्यः, 'सिरिदामगंडजणियहासे'त्ति श्रीदामकाण्डेन | जनितो हर्ष:-प्रमोदोऽनुरागो यस्य स तथा, 'अत्तियन्ति आत्मजां 'सयं रजसुंकत्ति खयं-आत्मना स्वरूपेण निरुपमचरि-18 ततयेतियावत् राज्यं शुल्क-मूल्यं यस्याः सा तथा, राज्यप्रात्येत्यर्थः, तथापि वृष्विति सम्बन्धः, 'चाउग्घंटेति चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतश्च यस्य स तथा अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः 'पडिकप्पावेईचि सञ्जयति 'पहारेत्थ गमणाएति प्रधारितवान् -विकल्पितवान् गमनाय-गमनार्थम् ।। तेणं कालेणं २ अंगानाम जणवए होत्था, तत्थ णं चंपानामे णयरी होत्या, तस्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था, तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा यहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया, सते णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होस्था अहिगयजीवाजीवे वन्नओ, तते णं तेर्सि अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एययओ दीप अनुक्रम [८६] For Ow अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [६९,७०] मल्लीज्ञाते मिथिलायामङ्गच्छायनृपागमःसू. ॥१३२॥1 दीप सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पजित्था-सेयं खलु अम्हं गणिमं धरिमं च मेजं च पारिच्छेज च भंडगं गहाय लवणसमुदपोतवहणेण ओगाहित्तएत्तिकट्ट अन्नमन्नं एयम पडिसुणति २ गणिमं च ४ गेहंति २ सगडिसागडियं च सल्लेति २ गणिमस्स ४ भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति २ सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहत्तंसि विपुलं असण ४ उचक्खडावेंति मित्तणाइभोअणवेलाए मुंजावेंति जाव आपुच्छंति २ सगडिसागडियं जोयंति २ चंपाए नयरीए मझमझेणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवा०२ सगडिसागडियं मोयंति २ पोयवहणं सजेति २ गणिमस्स य जाव चउविहस्स भंडगस्स भरति तदुलाण य समितस्स य तेल्लयस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयरस य उदयभायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अन्नेसिं च बहूर्ण पोयवहणपाउग्गाणं दवाणं पोतवणं भरेंति, सोहणंसि तिहिकरणनक्षत्समुहुर्ससि विपुलं असण ४ उवक्खडावेति २ मित्तणाति आपुच्छंति २ जेणेव पोतट्ठाणे तेणेव उवागच्छति । तते णं तेसिं अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणो जाव तारिसेहिं वग्गू हिं अभिणंदंता य अभिसंधुणमाणा य एवं वदासी-अज्ज ताय भाय माउल भाइणजे भगवता समुद्देणं अनभिखिज्जमाणा २. चिरं जीवह भदं च मे पुणरवि लट्ठ कयकजे अणहसमग्गे नियगं घरं हवमागए पासामोत्तिकटु ताहि सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति तओ समाणिएसु अनुक्रम [८७,८८] ॥१३॥ अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] SECRUGeo पुष्फवलिकम्मेसु दिनेसु सरसरत्तचंदणदएरपंचंगुलितलेसु अणुक्खित्तंसि धूवंसि पूतिएसु समुहवाएसु संसारियासु वलयबाहासु फसिएम सिएसु झयग्गेसु पडुप्पवाइएसु तूरेसु जइएसु सबसउणेसु गहिएसु रायवरसासणेसु महया उकिडिसीहणाय जाव रवेणं पक्खुभितमहासमुद्दरवभूयंपिव मेहाण करेमाणा एगदिसिं जाच वाणियगा णावं दुरूढा, ततो पुस्समाणवो बकमुदाहु-हं भो! सवेसिमवि अत्थसिद्धी उबविताई कल्लाणाई पडिहयाति सपपाबाई जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयं देसकालो, ततो पुस्समाणएणं बके मुदाहिए हहतुढे कुकिछधारकन्नधारगन्भिजसंजत्ताणावावाणियगा चाचारिंसु तं नावं पुनुच्छंग पुण्णमुहिं बंधणेहितो मुंचंति, तते णं सा नावा विमुफबंधणा पवणवलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुबई गंगासलिलतिक्खसोपवेगेहि संखुग्भमाणी २ उम्मीतरंगमालासहस्साई समतिच्छमाणी २ कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुई अणेगार्ति जोयणसतातिं ओगाढा, तते णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्तानावावाणियगाणं लवणसमुई अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूति उप्पातियसतार्ति पाउन्भूयाई, तंजहा-अकाले गजिते अकाले विज्जुते अकाले थणियसदे, अभिक्खणं २ आगासे देवताओ नचंति, एर्ग च णं महं पिसायरूवं पासंति, तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहि मसिमसगमहिसकालगं भरियमेहचन्नं लंबोदृ निग्गयग्गदंतं निल्लालियजमलजुयलजीहं आऊसियवयणगंडदेसं चीणचिपिटनासियं विगयभुग्गभग्गभुमयं दीप अनुक्रम [८७,८८] अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः जाताधर्म कथाम प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१३॥ चन्द्र च्छायनृपस्थागमः अरहन्नकवृत्तं च सू. दीप स्वजोपगविसमक्स्युराग उसासमणं विसालापाच्य विसालयि पलंपाधि पहसिपपयालिवाधिक गतं पणचमाणं अफोडतं अभिषयंत अभिगजन बहुसो २ अट्टहासे विणिम्मुयंतं नीस्लुष्पलगवला लिपञ्जयसिकुसुमागास खुरधार असि गहाय अभिमुहमाषयमाणं पासंति। तते णं ते अरहणम बाजा संजुत्ताणावाचाणियमा पगं च णं महं लालपिसायं पासंति तालजंचं दि गयाहिं बाहास्पिटसिरं भमरणिगरपरमासरासिमहिसकालगं मरियमेहवन सुप्पणहं फालसरिसजीहं संपोर्ट अवलवा असिलिट्ठतिक्सथिरपीणकुडिलदाढोषगूढवयणं विकोसियधारासिजुयलसमसरिसतणुयचंचलगलंतरसलोलचवलफुस्फुरतमिल्लालियागजीहं अवयच्छियमहल्लविगयबीभत्सलालपगलंतरसतालुषं हिंगुलुपसगब्भकंदरबिलंव अंजणगिरिस्स अम्गिजालुग्मिलंतवयणं आऊसियअक्खचम्मउगंडदेख चीणचिपिडवंकभग्गणसं रोसागयधम्मधर्मतमारुतनिहरखरफरुसमुसिरं ओमुग्गणासियपुडं घाइभरायभीसणमुहं उबमुहकन्नसकुलियमहंतविगयलोमसंखालगलबंतचलियकन्नं पिंगलदिप्पंतप्लोयर्ण भिजितडियनिडालं नरसिरमालपरिणवचिद्धं विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अपहोलंतपुप्फुयायंतसप्पविच्छुयगोधुंदरनउलसरडविरक्ष्यविचिसयच्छमालियामं भोगकूरकपहसप्पधमघतलंचंतकनपूरं मजारसियाललइयर्खधं दित्तघुथुयंतवूयकयकुंतलसिरं घंटास्वेणभीमं भयंकरं कायरजणहिययफोडणं दित्तमहङ्कहासं विर्णिम्मुयंतं क्सारुहिरपूपमंसमलमलिणपोयडतणुं उत्तासणयं विसालवच्छं पेच्छता भित्रणहमुह अनुक्रम [८७,८८] ॥१३॥ F OR अद ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] नयणकनवरवग्यचित्तकत्तीगिवसणं सरसरूहिस्मयचम्म विततऊसपियवाजुजुबलं त्वहिप स्वच्या असिणिअणिढदित्तअमुभअप्पिय [अमणुन्न ] अक्तवरहि य तज्जयंत पासंतिलालपिसा यरूवं एजमाणं पासंति २ भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंमेमाणा २ करणं इंदाण य खंदाण य रुद्दसिक्वेसमणणागाणं भूयाण य जक्खाण य अजकोहकिरियाण य बहणि उपाइयसयागि ओवातियमाणा चिट्ठति, तए णं से अरहनाए समणोवासए तं दिवं पिसायरूवं एजमाणं पासति २ अभीते अतल्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुविग्गे अभिन्नमुहरागणयाचो अदीणषिमणमाणसे पोयवहणस्स एयदेसंसि वत्थंतेणं भूमि पमजति २ठाणं ठाइ २ करयलओ एवं वयासि-बमोऽत्धु णं अरहताण जाव संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गातो मुंचामि तो मे कप्पत्ति पारिसए अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पञ्चक्खाएयवेत्तिकटु सागारं भत्तं पचखाति, तते से पिसापरूवे जेणेच अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवा०२ अरहन्नगं एवं वदासी-भो! अरहलगा अपत्थियपस्थिया जाव परिवजिया णो खलु कप्पति तव सीलवयगुणवेरमणपचक्खाणे पोसहोववासाति चालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा खंडित्तए का भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिचइत्तए वा, तं जति णं तुम सीलवयं जाव ण परिचयसि तो ते अहं एयं पोतवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि २ सत्तद्रुतलप्पमाणमेत्ताति उडुं वेहासं उबिहामि२ अंतोजलंसि णिच्छोलेमि जेणं तुमं अदृदुहवसहे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवि @ @ ceo अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म कधानम्. प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१३४॥ | अरहनक दीप याओ ववरोविजसि, तते णं से अरहन्नते समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वदासी-अहं णं मल्यभ्यदेवाणु 1 अरहन्नए णाम समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सका केणइ देवेण वा जाव INयने चन्द्रनिग्गंधाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा तुम णं जा सद्धा तं करे- I च्छायनृपहित्तिकङ अभीए जाव अभिन्नमुहरागणयणचन्ने अदीणविमणमाणसे निचले निष्फंदे तुसिणीए धम्म- स्यागमः जहाणोवगते विहरति, तए णं से दिवे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासगं दोचंपि तचपि एवं वदासीहं भो अरहन्नगा!० अदीणविमणमाणसे निच्चले निष्फंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरति, तते णं वृत्तं च सू. से दिवे पिसायरूबे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासति २ पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हति २ सत्तद्वतलाई जाव अरहन्नगं एवं वदासी-हं भो अरहन्नगा!- अप्पत्थियपत्थिया णो खलु कप्पति तव सीलवय तहेव जाच धम्मज्झाणोवगए विहरति, तते णं से पिसायरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ०चालित्तए वाताहे उवसंते जाव निबिन्ने त पोयवहणं सणियं २ उरि जलस्स ठवेति २तं दिवं पिसायरूवं पडिसाहरइ २ दिवं देवरूवं विउबह २ अंतलि. क्खपडिबन्ने सखिखिणियाई जाव परिहिते अरहन्नगं स. एवं वयासी-हं भो! अरहन्नगा! धन्नोऽसि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले जस्स णं तव निग्गंथे पावणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा ॥१३॥ पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया! सके देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसए अनुक्रम [८७,८८] अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] विमाणे सभाए सुहम्माए धरणं देवाणं ममगते महया सद्देणं आतिक्खति ४ एवं खलु जंबूद्दीवेरभारहे वासे चपाए नपरीए अरहाए सम० अहिगयजीवाजीवे नो खलु सका केणति देवेण वा दाणवण वा णिग्गंधाओं पावयणाओ चालित्सए वा जाव विपरिणामेत्तए था, तते णं अहं देषाणु ! सकस्स णो एयमई सहहामि तते णं मम इमेयारूवे अन्भथिए ५ गच्छामिण अरहन्नयस्स अंतियं पाउन्भवामि जाणामि ताव अहं अरहन्नगं किंपियधम्मे णो पियधम्मे ? दधम्मे नो दढधम्मे? सीलवयगुणे किं चालेति जाव परिचपति णो परिपचयतित्तिकट्ट, एवं संपेहेमि २ ओहिं पउंजामि २ देवाणु ! ओहिणा आभोएमि २ उत्तरपुरच्छिमं २ उत्तरविउत्वियं० ताए उकिटाए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उबागच्छामि २ देवाणु उबसग्गं करेमि, नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा०, तं जपणं सके देविंद देवराया वदति सचेणं एसमढे तं दिट्टेणं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे जाव परकमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए तं खामेमि गं देवाणु खमंतु मरहंतु णं देवाणुप्पिया! णाइभुजो २ एवंकरणयाएत्तिकह पंजलिउडे पायवडिए एयमढविणएणं भुजो २ खामेह २ अरहन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयति २ जामेव दिसिं पाउम्भूए तामेव पडिगए (सूत्रं १९) तते णं से अरहन्नए निरुवसग्गमितिकट्ठ पडिम पारेति, तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा जाच वाणियगा दक्खिणाणुकलेणं चारणं जेणेच गंभीरए पोयपणे तेणेव उवागच्छति २ पोयं लंबेंति २सगडसागर्ड सज्जेंति २तं गणिर्म ४ सगडि. SAREastatinintennational अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म टमड्यध्य कथानम्. यने चन्द्र प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१३५॥ च्छायनृपस्थागमा अरहनक वृत्तं च सू दीप अनुक्रम [८७,८८] संकामेति २ सगडी. जोएंति २ जेणेव मिहिला तेणेव उवा २ मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणंसि सगडीसगडं मोएइ २ मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महम्यं महरिहं विउल रायरिहं पाहुडं कुंडलजुपलं च गेण्हंति २ अणुपषिसंति २ जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२ करयल० तं महत्वं विषं कुंडलजुयलं उवणेति २ तते गं कुंभए तेसिं संजसगाणं जाव पहिच्छाइ २ मल्ली विदेहवररायक सहावेतिरतं दिवं कुंडलजुपलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिणद्धति २ पडिविसबेति, लते णं से कुंभए राया ते अरहनगपामोक्खे जाव वाणियगे विपुलेणं असणवस्थगंध जाव खस्सुणी पियरति २ रायमग्गमोगादेइ बाबासे वियरति पडिविसजेति, लते णं अरहन्नगसंजत्तगा जेणेकरापमम्ममोगाडे आवासे तेणेव उबागच्छति र अंडक्वहरणं करेंति २ पडिभंडं गेहति २ समडी भरेंति जेणेब बंभी रए पोयपट्टणे तेषेव २ पोतवहणं सशति २ भंडं संकामेति दक्षिणाणु० जेणेव चंपा पोयटाणे तेणेव पोपं लंबेतिर सगडी सति २ तं गणिम ४ सगही संकामेति र जाक महत्थं पाहुडं दिवं च कुंडलजुयल मेण्हंति २जेणेक चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवा तं महत्थं जाव उवणेति, लते णं चंदगाए अंपराया तं विश्वं महत्थं च कुंडलजुयलं पद्धिच्छति २ ते अरहन्नमपामोक्खे एवं वदासी-तुम्भे गं देवा! यहूणि मामामार जाब आहिंडह लवणसमुई च अभिक्खणं २पोयवहणेहिं ओगाहेह गाहहतं अस्थियाईभे केइ कहिंचि अच्छेरए विद्वपुबे, तसे णं से बरहापा ॥१३५॥ अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अंगमूत्र-८ (मूलं वृत्ति. प्रत सूत्रांक [६९,७०] मोक्खा चंदच्छापं अंगरायं एवं क्वासी-एवं सालु सामी! अम्हे इहेक पाए स्वरीए अमहापायोक्खा वह संजत्तगा गावाचाणियमा परिवसामो, तसे णं अम्हे अन्नया कयाई गचिमं च ४ तहेव अहीगमतिरिसं आप कुंभमस्स रखो उवणेमो, तते से कुंभए मल्लीए विदेहरायबरकाए तं दिवं कुंडलजुयलं पिणद्वेति २ पडिविसजेति, तं एस णं सामी ! अम्हेहिं कुंभरायभक्यसि मल्ली क्देिहे अच्छेरए दिहे तं नो स्खलु अचा काकि तारिसिया देवकला वा जाव जारिसिया यं मल्लीविदेहा, तते गं चंदच्छाए ले अरहमपामोक्खे सकारेति सम्माति २ पडिक्सति, तो पं चंदच्छाए वाणि| यमजस्णयहासे दूतं सहावेति जाय जइक्यि गं सा सयं रजसुका, तते णं ते दूते हढे जाय पहारेत्य सम गाए २(सत्र ७०) 'संजत्ताणावावाणियगा' सता या देशान्तरसमन संयाका तत्याना नौकाथिजका:-पोतवाणिजः संवाजानौवाणिजकाः 'अरहपणगे समणोवासने आदि होत्थति न केवलमात्यादिगुणयुक्तः श्रमणोपासकबाप्पभूत, 'गणि 'त्यादि, मणिमं-नालिकेरपूगीफलादि यन् गणितं सत् म्पबद्वारे प्रविशति, परिमं यत्तुलाधृतं सत् व्यवहियते, मेर्ययत्सेतिकापल्यादिना मीयते, परिच्छेद्य-पद् गुणतः परिच्छेद्यते-परीक्ष्यते वस्त्रमण्यादि, 'समियस्स यति कणिकायाश्च 'ओसहाणं'ति त्रिकटुकादीनां मेसज्जाण य'त्ति पथ्यानामाहारविशेषाणां अथवा ओपधानां-एकद्रव्यरूपाणां भेषजानाद्रव्यसंयोगरूपाणां आवरणानां अङ्गारक्षकादीनां बोधिस्थप्रक्षराणां च 'अजेयादि, आर्य! हे पितामह ! तात! हे पितः। दीप अनुक्रम [८७,८८] eceme SAREnitatininternational अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शताधर्म- se प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१६॥ दीप हे भ्रातः! हे मातुल ! हे भागिनेय ! भगवता समुद्रेण अभिरक्ष्यमाणा यूयं जीवत, भद्रं च 'भेत्ति भवतां भवखिति गम्यते, मङ्ख्यध्यपुनरपि लब्धार्थान् कृतकार्यान् अनधान् समग्रान् , अनघत्व-निर्दूषणतया समग्रवम्-अहीनधनपरिवारतया, निजकं गृहं 'हवं' तियने चन्द्रशीघ्रमागतान् पश्याम इतिकला-इत्यभिधाय 'सोमाहिति निर्विकारलात् 'निद्धाहिति सस्नेहसात् 'दीहाहिति दूरं यावदबलोकनात् 'सप्पिवासाहिति सपिपासाभिः पुनदर्शनाकासावतीभिर्दर्शनातृप्ताभिर्वा 'पप्पुयाहिति प्रप्लुताभिः अश्रुजला-स्यागमः द्राभिः 'समाणिएसु'त्ति समापितेषु दत्तेषु नावीति गम्यते सरसरक्तचन्दनस्य दईरेण-चपेटाप्रकारेण पञ्चाङ्गुलितलेषु हस्त-15 अरहनककेष्वित्यर्थः, 'अणुक्खित्तंसी ति अनूरिक्षते-पश्चादुत्पाटिते धूप पूजितेषु समुद्रवातेषु नौसांयात्रिकप्रक्रियया समुद्राधिषदेवपा- वृत्तं च सू, देषु वा 'संसारियासु वलयवाहासु'त्ति स्थानान्तरादुचितखाननिवेशितेषु दीर्घकाष्ठलक्षणबाहुषु आवल्लकेविति सम्भाव्यते, | तथा उच्छ्रितेषु-ऊद्धीकृतेषु सितेषु ध्वजापु-पताकाग्रेषु पटुभिः पुरुषः पटु वा यथा भवतीत्येवं प्रवादितेषु तूर्येषु जयिकेषु-| |जयावहेषु सर्वशकुनेपु-बायसादिषु गृहीतेषु राजवरशासनेषु- आज्ञासु पट्टकेषु वा प्रक्षुभितमहासमुद्रवभूतमिव तदात्मकमिव ते प्रदेशमिति गम्यते 'तओ पुस्समाणवो बकमुयाहुति ततोऽनन्तरं मागधो मङ्गलवचनं ब्रवीति म इत्यर्थः, तदेवाह-सर्वपामेव 'भे' भवतामथेसिद्धिर्भवतु, उपस्थितानि कल्याणानि प्रतिहतानि सर्वपापानि-सर्वविधाः, 'जुत्तो ति युक्तः 'पुष्यो । नक्षत्रविशेषः चन्द्रमसा इहावसरे इति गम्यते, पुष्यनक्षत्रं हि यात्रायां सिद्धिकर, यदाह-"अपि द्वादशमे चन्द्रे, पुष्यः सर्वो- ॥१६॥ थेंसाधन" इति, मागधेन तदुपन्यस्तै, विजयो मुरविंशतो मुहर्तानां मध्यात , अयं देशकाला-एष प्रस्तावो गमनसेति | गम्यते 'वके उदाहिए'त्ति वाक्ये उदाहते हटतुष्टाः कर्णधारो-निर्यामकः कुक्षिधारा-नौपार्थनियुक्तकाः आवेल्लकवाहकादयः अनुक्रम [८७,८८] ON SAREauraton intimational अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] गर्भे भवाः गर्भजा:-नीमध्ये उच्चावचकर्मकारिणः संयात्रानौवाणिजका-भाण्डपतयः, एतेषां द्वन्द्वः, 'वापरिसु'नि ख्या-1 तवन्तः खस्खव्यापारेविति, ततस्ता नावं पूर्णोत्सङ्गा-विविधभाण्डभृतमध्यां पण्यमध्यां वा मध्यभागनिवेशितमङ्गल्यबस्तुला पूर्णमुखी पुण्यमुखी वा तथैव बन्धनेभ्यो विसर्जयन्ति-मुश्चन्ति, पवनवलसमाहता-वातसामर्थ्यप्रेरिताः 'फसियसिय'ति उच्छ्रितसितपटा, यानपात्रे हि वायुसङ्ग्रहार्थ महान् पट उच्छ्रितः क्रियते, एवं चासावुपमीयते विततपक्षेव गरुडयुवतिः गङ्गा| सलिलस्य तीक्ष्णाः ये श्रोतोवेगा: प्रवाहवेगास्तैः सक्षुभ्यन्ती २-प्रेर्यमाणा समुद्रं प्रतीति ऊर्मयो महाकल्लोला तरङ्गा-इखकल्लो| लास्तेषां मालाः-समूहाः तत्सहस्राणि 'समतिच्छमाणि'त्ति समतिकामन्ती 'ओगाढ'त्ति प्रविष्टा, 'तालजंघ'मित्यादि वालो-वृक्षविशेषः स च दीर्घस्कन्धो भवति ततस्तालबजङ्घ यस्य तत्तथा, दिवंगयाहि वाहाहिं ति आकाशप्राप्ताभ्यामतिदीर्घाभ्यां बाहुभ्यां युक्तमित्यर्थः, 'मसिमूसगमहिसकालगं'ति मषी-कजलं मूषक:-उन्दुरविशेषः अथवा मपीप्रधाना मूषा-ताम्रादिधा-18 तुप्रतापनभाजनं मपीमूषा महिपश्च प्रतीत एव तत्कालकं यत्तत्तथा 'भरियमेहवणं'ति जलभृतमेघवर्णमित्यर्थः, तथा लम्बोष्ट 'निग्गयग्गदंत'ति निर्गतानि मुखादग्राणि येषां ते तथा निर्गतामा दन्ता यस्य तत्तथा, 'निल्लालियजमलजुयलजीह ति | निलालितं-विवृतमुखानिःसारितं यमल-समं युगलं-द्वयं जियोर्येन तत्तथा 'आऊसियवयणगंडदेसंति आऊसियत्ति-प्रविष्टौ चदने गण्डदेशी-कपोलभागौ यस्य तथा 'चीणचिपिडनासियंति चीना-हवा चिपिटा चनिम्ना नासिका यस्य तत्तथा 'विगयभुग्गभुमयंति विकृते-विकारवत्यौ भुने भये इत्यर्थः, पाठान्तरेण 'भुग्गभग्गे| अतीव वक्र ध्रुवौ यस्य तत्तथा, 'खज्जोयगदित्तचक्खुराग'ति खद्योतका-ज्योतिरिङ्गणाः तद्दीप्तश्वथूरागो-लोचनरतलं दीप अनुक्रम [८७,८८] BIG अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप ज्ञाताधर्म- यस तत्तथा, उत्रासनक-भयंकर विशालबदो-विस्तीरस्थल विशालकुक्षि-विस्तीर्णोदरदेश एवं प्रलम्क्युक्षि पहसिक- मल्या कथानम्, पयलियपपडियात ति प्रहसितानि-हसितुमारब्धानि प्रचलितानि च स्वरूपात् प्रवलिकानि वा-प्रजातकलीकानि अपति- यने चन्द्र तानि च-प्रकर्षण रवीभूतानि मात्राणि यख तत्तथा, वाचनान्तरे 'विगयभुग्गभुमयपहसियपयलियपयडियफुलिंगख- च्छायनूप॥१३७॥ ज्जोयदित्तचक्खुराम ति पाठः, तत्र विकृते मने भ्रवौ प्रहसिते च प्रचलिते प्रपतिते यस स्फुलिङ्गक्त् खद्योतकवच्छ दीक्ष-1 स्यागमः अथूरामश्च यस्य तत्तथा, "पणचमाण'मित्यादि विशेषणपश्चकं प्रवीतं, 'नीलुप्पलें त्वादौ गवलं-महिषम अक्सी-मालव-18 अरहन्नककदेशप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'खुरहारंति क्षुरस्येव धारा यस स तथा तमसिं-खङ्ग, क्षुरो अतितीक्ष्णधारो मवत्यन्यया केशा-8 वृत्तं च सू. नाममण्डनादिति क्षुरेणोपमा खगधारायाः कृतेति, अभिमुखमापतत् पश्यन्ति सर्वेऽपि सांयात्रिकाः, त्राहमकवर्जा यत् कुर्वन्ति र नदर्शयितुमुक्तमेक पिशाचस्वरूपं स विशेष तेषां तदर्शनं चानुक्दनिदमाह-तए णमित्यादि, ततस्ते अर्हनकवर्जाः सांगात्रिकाः पिशाचरूप बक्ष्यमाणविशेषगं पश्यन्ति, दृष्ट्वा च बहूनामिन्द्रादीनां बहून्युफ्याचितशतान्युपयाचितवन्तस्तिष्ठन्तीति । | समुदायाः, अथवा 'तए प्रति 'अरहनावजा इत्यादि गमान्तरं 'आगासदेवयाओ नचंति इलोऽनन्तरं द्रष्टव्यम्, 8| अत एव वाचनान्तरे नेदुमुपलभ्यते, उपलभ्यते चैवम्-अभिमुहं आवयमाणं पासंति, तर ते अरहनामवजा नावा वाणियगा भीया' इत्यादि, तत्र 'तालपिसायंति तालवृक्षाकारोक्तिदीर्घवेन पिशाचः तालपिशाचः तं, विशेषणदर्य प्रापि, १३७॥ 'फुट्टसिरति स्फुटितम् वचन्मलेन चिकीर्ण शिर इनि-शिरोजातवान् केशा यख स तथा तं अमरनिकरवत् वरमापराशिक्त् माहपाच कालको कास तथा तं भूतमेघवर्ण तथैव, सूर्पमिव-धान्यशोधकमाननविशेषवद नखा यस स मूर्पनखा के, 'फाल अनुक्रम [८७,८८] 29300aeeeeeeeee अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~2840 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] 300 दीप अनुक्रम [८७,८८] सदशजिह्व'मिति फाल-द्विपश्चाशत्फ्लप्रमाणो लोहमयो दिव्य विशेषस्तव रहिमतापितमिह प्राय तस्साच चेह जिलाया वर्णदीप्तिदीर्ववदिभिरिति, लम्बोष्ठं प्रतीतं धवलाभित्ताभिरंश्लिष्टाभिर्विशरारुखेन तीक्ष्णामिः स्थिराभिः निश्चलखेन पीनाभि रुपचिततेन कुटिलानिय क्कतचा दंष्ट्रामिस्वगृढ़-व्याप्तं कदनं यस्य स तथा तं, विकोशितस्प-अपनीतकोशकस्य निराकरणस्पेवाल्यर्थः घारापोः पाराप्रधानखायोर्ययुगलं-द्वित्वं तेन समसदृश्यौ अत्यन्ततुल्ये तनुके प्रतले चश्चल-विमुक्तवैर्य यथा ॥ भवत्यविश्राममित्खयों कलन्त्यो रसाक्लिौस्यात् लालाविभुश्चन्त्यौ रसलोले-भक्ष्यस्सलम्पटे चाले-पश्चले फुस्फुरायमाणे-प्रकम्प्रे निलालिते-मुखात्रिकाशिते अग्रजिहे-अग्रभूते जिहे जिहाग्रे इत्यर्थो येन स तथा तं 'अवच्छिपति प्रसारितमित्येके, अन्ये तु यकारस्यालमत्वात् 'अवयच्छियं प्रसारितमुखत्वेन दृश्यमानमित्याहुन, 'महलं ति महत् विकृतं बीभत्स लालाभिः प्रमला रक्तं च तालु-काकुन्द यस्य स तथा तं,तथा हिकुलकेन कर्जकद्र व्यविशेषेण सर्भ कन्दरलक्षणं क्लिं यस स तथा तमिक 'अंजणगिरिस्सति विभक्तिविपरिणामादअनगिरि-कृष्णवर्णपर्वत विशेष तथाऽग्निज्वाला उहिरव क्दनं स स तथा तं, अथवा 'अव|च्छियेत्यादि हिंगलुए'त्वादि अनिवाले त्यादि प्रत्यंतरे च कर्मधारयेण वक्ष्यमाणक्दनपदस विशेषणं कार्य रख तमित्येवरूपश्च वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, तथा अमिधाला उद्गिरद्वदनं यस स तथा तं, 'आऊसिय'ति सङ्कुचितं यदक्षचर्म-जलाकर्षणकोशस्तद्वत् |'उइति अफ्कृष्टौ अक्कर्षवन्तौ सङ्कुचितौ गण्डदेशी क्स्य स लया तं, अन्ये वाहुः-आमूषितानि-सङ्कटितानि अक्षाणि-इन्द्रियाणि च चर्म च ओष्ठौ च गण्डदेसी च यस स तथा तं, चीना इखा 'चिचडचि चिपटा-निम्ना वंका-कका भन्ने भना-जयोधनकुट्टितेवेत्यथों नासिका यस स तथा तं, रोपादायतो 'धमपतचि प्रबलतया ममतत्ति शब्दं कुर्वाणो मास्तो अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [६९,७०] ॥१३॥ दीप | वायुनिष्ठुरो-निर्भरः खरपरुष:-अत्यन्तकर्कशः शुषिरयो:-रन्ध्रयोर्यत्र तत्तथा, तदेवंविधमवभुग्नं-वक्रं नासिकापुटं यस तथा मल्ल्यध्य तं, इह च पदानामन्यथा निपातः प्राकृतत्वादिति, घाताय पुरुषादिवधाय घाटाभ्यां वा-मस्तकावयव विशेषाभ्यां उद्भर्ट- यने चन्द्र| विकरालं रचितमत एव भीषणं मुखं यस्य स तथा तं, ऊर्द्धमुखे कर्णशष्कुल्यौ-कर्णावती ययोस्तौ तथा तौ च महान्ति-दीर्घाणि || च्छायनृपविकृतानि लोमानि ययोस्तौ तथा तौ च 'संखालगत्ति शङ्खवन्तौ च शङ्खयोः-अक्षिप्रत्यासत्रावयव विशेषयोः संलग्नौ-सम्ब-12 स्थागमः | द्धावित्येके, लम्बमानौ च-प्रलम्बौ चलितौ-चलन्ता कौँ यस्य स तथा तं, पिङ्गले-कपिले दीप्यमाने-भासुरे लोचने यस्य स अरहन्नक| तथा तं, भृकुटि:-कोपकृतो भूविकारः सैव तडितू-विद्युयसिंस्तत्तथा तथाविधं पाठान्तरेण भूकटितं कृतधूकुटि ललाट यस सात प. | तथा तं, नरशिरोमालया परिणद्धं-चेष्टितं चिन्ह-पिशाचकेतुर्यस्य स तथा तं, अथवा नरशिरोमालया यत्परिणद्ध-परिणहन । तदेव चिन्हं यस्य स तथा तं, विचित्रैः बहुविधैर्गोनसैः सरीसृपविशेषैः सुबद्धः परिकरः-सबाहो येन स तथा तं, 'अवहोलं-14 तति अवघोलयन्तो डोलायमानाः 'फुप्फुयायंत'त्ति फुत्कुर्वन्तो ये सर्पाः वृश्चिका गोधाः उन्दुरा नकुलाः सरटाथ तैर्विरचिता| विचित्रा-विविधरूपवती वैकेक्षण-उत्तरासङ्गेन मर्कटबन्धेन स्कन्धलम्बमात्रतया वा मालिका-माला यस्य स तथा तं, भोगः--18 | फणः स क्रूरो-रोद्रो ययोस्ती तथा तौ च कृष्णसौ च तौ धमधमायमानौ च तावेव लम्बमाने कर्णपूरे-कणोभरणविशेषी यस्य स तथा तं, मार्जारशृगालौ लगिती-नियोजितौ स्कन्धयोर्येन स तथा तं, दीन-दीप्तखरं यथा भवत्येवं 'घुघुर्यत'त्ति ॥१३८॥ घूत्कारशब्दं कुर्वाणो यो चूक:-कौशिकः स कृतो-विहितो 'कुंतल'त्ति शेखरकः शिरसि येन स तथा तं, घण्टानां रवणं-IN शब्दस्तेन भीमो यः स तथा स चासो भयङ्करबेति तं, कातरजनानां हृदयं स्फोटयति यः स तथा तं, दीप्तमट्टहासं घण्टारवेणी अनुक्रम [८७,८८] अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप अनुक्रम [८७,८८] भीमादिविशेषणविशिष्टं विनिर्मुश्चन्तं वसारुधिरपूयमांसमलैमेलिना 'पोशड'त्ति विलीना च तनु:-शरीरं यस्य स तथा सं. उमा-IST सनक विशालवक्षसं च प्रतीते, 'पेच्छंतति प्रेक्ष्यमाणा-दृश्यमाना अभिन्ना-अखण्डा नखाब-नखरा रोम च मुख चन शाच कर्णौ च यस्यां सा तथा सा चासौ वरच्याघ्रस्य चित्रा-कळूरा कृत्तिव-चर्मेति सा तथा सैव निवसन-परिधानं यस्यस तथा तं, सरसं-रुधिरप्रधानं यद्गजचर्म तद्विततं-विस्तारितं यत्र तत्तथा तदेवं विधं 'ऊसविर्य'ति उच्छ्रुतं-ऊदींकृतं बायSIगलं येन स तथा तं, ताभिश्व तथाविधाभिः खरपरुषा-अतिकर्कशाः अस्निग्धाः-स्नेहविहीना दीप्ता-ज्वलन्त्य इवोपतापहेत खात् अनिष्टा-अभिलापाविषयभूताः अशुभाः खरूपेण अप्रियाः अप्रीतिकरखेन अकान्ताश्च विवरत्वेन या वाचस्वाभिः विस्तान कुर्वाणं-त्रस्तयन्तं तर्जयन्तं च पश्यन्ति स, पुनस्तत्चालपिशाचरूप 'एजमाण'ति नावं प्रत्यागच्छत् पश्यन्ति सम तुरंगेमाणे'ति आश्लिष्यन्तः, स्कन्द:-कार्तिकेयः रुद्र:-प्रतीतः शिवो-महादेवः श्रमणो-यक्षनायकः नागो-भवनपति|विशेषः भूतयक्षा-व्यन्तरभेदा: आय--प्रशान्ता प्रसन्नरूपा दुगों-कोक्रिया-सैव महिषारूढरूपा, पूजाभ्युपगमपूर्वकाणि || प्रार्थनानि उपयाचितान्युच्यन्ते, उपयाचितवन्तो-विदधतस्तिष्ठन्ति स्मेति,अर्हन्नकवर्जानामियमितिकर्चच्यतोक्ता, अधुनाईसकस्य पतामाह-'तए ण'मित्यादि, अपत्थियपत्थिय'ति अप्रार्थितं-यत्केनापि न प्रार्थ्यते तत्प्रार्थयति यः स तथा तदामत्रण पाठा न्तरेण अप्रस्थितः सन् यः प्रस्थित इव मुमूर्षरित्यर्थः स तथोच्यते तस्यामनगं हे अप्रस्थितप्रस्थित !, यावत्करणात् 'दुरंत4-15 तलक्खणे'ति दुरन्तानि-दुष्टपर्यन्तानि प्रान्तानि-अपसदानि लक्षणानि यस्य स तथा तस्यामश्रणं 'हीणपुण्णचाउदसी इति हीना-असमग्रा पुण्या पवित्रा चतुर्दशी तिथिर्यस्य जन्मनि स तथा, चतुर्दशीजातो हि किल भाग्यवान् भवतीति आक्रोशे For P OW fojaunditurary.com अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [६९,७०] दीप ISEभावोदसिंत रति सिरिदिरिधीकित्सिवजिय'चि प्रतीतं, 'सवसीलाए'त्यादि, तब शीलवतानि-अणुव्रतामि गुमा- मिल्यध्य कथाङ्गम. गुणवतानि विश्मणानि-रामादिविरतिप्रकाराः प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि पौषधोपवास:-अष्टम्यादिषु पहि यने चन्द्र सनं आहारशरीरसत्काराबधब्यापारपरिवनमित्यर्थः, एतेषां इन्द, 'चालिसए'षि भाकान्तरगहीवान् मकान्तरेण छायनृप. ॥१३९॥ कि शोभयित-एतान्येवं परिपालयाम्युतोन्झामीति योमविषयान् क खण्डयितुं-देशता म सर्वसा उज्झितु-परखा देश- स्यागमः विरतेस्त्यागेन परित्यक्तु-सम्यक्त्वस्थापि त्यागत इति, 'दोहि अंगुशीहिति बङ्गुष्ठकतर्जनीभ्यां अथवा तर्जनीमध्यमाभ्या- अरहन्नकमिति, 'ससहतलप्पमाणमेत्तार्य'ति तलो-हस्ततला तालाभिषानो वाऽतिदीर्घवधविशेषः स एव प्रमाणं-यानं नरुममाणं वृत्तं च सू. समाष्टौ वा सप्लाष्टानि तलप्रमाणानि परिमाणं येषां ते समाष्टतलप्रमाणमात्रास्तान् गगनभागान् यावदिति गम्यते 'पहुं वहार्स ति ऊर्च विहायसि-ममने 'उबिहामिति नयामि 'जेणं तुमति येन वं 'अदुहवसहेति मार्चम-ध्यानविशेषस्य यो 'बुहह'चि दुर्घटः दुःस्थमो दुनिरोधो वश:-पारतयं तेन ऋतः--पीड़ितः भादूर्घटवशाः , किमुक्त भवति ?-असमाधिप्रातः, 'यवरोधिजसि'चि व्यपरोपयिष्यसि अपेतो भविष्यसीत्यर्थः, 'चालिसए चि इह चलनयन्यथाभावत्वं, कई-खोभिसए'चि क्षोभयित संशयोस्पादनतः तथा 'विपरिणामिसए'चि विपरिणामयितुं विपरीताध्यवसायोत्पादनत इति, 'संते'इत्यादौ यावत्करणात् 'संते परिते' इति इष्टव्य, तत्र श्रान्तः शान्तो वा मनसा तान्त:-कायेन खेदवान् परिवान्ता-सर्वतः खिनः निर्विणः-तम्मादुपसर्गकरणादुपरता, 'लढे'त्यादि, नत्र लब्धा-उपार्जनतः प्राप्तक-- तत्त्रारमिसमन्वागदा-सम्यगासेवनतः, 'बाइक्सह इत्यादि, आख्याति सामान्येन भापते विशेषतः, एतदेव द्वयं क्रमेण पर्या कछव अनुक्रम [८७,८८] KI SARELatunintamanna अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [६९,७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९,७०] यशब्दाभ्यामुच्यते-प्रज्ञापयति प्ररूपयति, 'देवेण वा दाणवे'त्यादाविदं द्रष्टव्यमपरं 'किवरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण या गंधवेण वति तब देवो-वैमानिको ज्योतिको बा दानवो-भवनपतिः शेषा म्यन्तरभेदाः, 'यो सहहामि इत्यादि न श्रद्दधे-प्रत्ययं न करोमि 'नो पसियामि' तत्र प्रीतिक-प्रीति न करोमि नरोचयामि-असाकमप्येवंभूता गुणप्राप्तिर्भवत्येवं न रुचिविषयीकरोमीति, 'पियधम्मति धर्मप्रियो दृढधर्मा-आपबपि धर्मादविचला, यावत्करणा कारखादिपदानि दृश्यानि, तत्र 'इहि'त्ति गुणचि पुतिः-आन्तरं तेजः यश:-ख्यातिः बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारः-अभियानविशेषः पराक्रमः स एव निष्पादितस्त्रविषयः लब्धादिपदानि तथैव, 'उस्सुकं पिपरईत्ति शुल्काभावमनुजानावीत्यर्थः, 'गामागरें'त्यादाविदं द्रष्टव्यं-'नगरखेडकब्बडमडंपदोणमुहपट्टणनिगमसभिवेसाई' इति तत्र ग्रामो-जनपदाध्यासितः आकरो॥ हिरण्याद्युत्पत्तिस्थानं नगर-करविरहित खेटे-धूलीप्राकारं कर्बट-कुनगरं मड-दूरपतिसन्निवेशान्तरं द्रोणमुखं-जलप-| थस्थलपथयुक्तं पचन-जलपथस्थलपथयोरेकतरयुक्तं निगमो-वणिग्जनाधिष्ठितः सनिवेश:-कटकादीनामावासः,'देवकन्नगा वेत्यादाविदं दृश्य-'असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकना वा गंधवकन्ना वा रायकना वेति, 'वाणियगजणियहासे'त्ति नैगमोत्पादितमल्लीविषयानुराग इत्यर्थः २॥ तेणं कालेणं २ कुणाला नाम जणवए होत्या, तत्थ णं सावत्थी नाम नगरी होत्था, तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नाम राया होत्या, तस्स णं रुप्पिस्स धुया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहुनामं दारिया दीप अनुक्रम [८७,८८] अङ्गच्छाय-नृपः, तस्य वर्णनं ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम. लड प्रत सूत्रांक [७१,७२] मझ्यध्ययेन श्रीदामगण्डात् ऋक्मिनु(पागमा सू.७१ ॥१४॥ दीप होत्था, सुकुमाल स्वेण य जोवणेणं लावण्णेण य उकिट्ठा उकिसरीरा जाया यावि होत्या, तीसे णं सुबाहुए दारियाए अन्नदा चाउम्मासियमजणए जाए यावि होस्था, तते णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासियमज्जणयं उवडियं जाणति २ कोटुंबियपुरिसे सदावेति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुबाहुए दारियाए कलं चाउम्मासियमजणए भविस्सति तं कल्लं तुम्भे गं रायमग्गमोगादसि चउर्फसि जलथलयदसद्धवन्नमल्लं साहरेह जाच सिरिदामगंडे ओलइन्ति, 'तते णं से रुप्पी कुणालाहिवती सुवनगारसेणिं सहावेति २एवं चयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायमग्गमोगादसि पुष्फमंडवंसि णाणाविह पंचवन्नेहिं तंदुलेहि णगरं आलिहह तस्स बहुमज्रदेसभाए पट्टयं रएह २ जाव पचप्पिणति, तते णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्धिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड० अंतेउरपरियाल संपरिषुडे सुबाहुंदारियं पुरतो कटु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुष्फमण्डवे तेणेव उवागच्छति २ हत्थिखंधातो पचोरुहति २ पुप्फमंडवं अणुपविसति २ सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति २ सेयपीतएहिं कलसेहि पहाणेति २ सवालंकारविभूसियं करेंति २ पिउणो पार्य वंदि उवणेति,तते णं सुबाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छति २ पायग्गहणं करेति, तते णं से रूप्पी राया सुधाई दारियं अंके निवेसेति २ सुवाहुए दारियाए स्वेण य जो लाव० जाब विम्हिए वरिसधरं सद्दावेति २ एवं वयासी-तुमण्णं अनुक्रम [८९,९० कलese ॥१४॥ FarPranaswamincom रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं ~290 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१,७२] देवाणुप्पिया! मम दोघेणं बहणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, तं अत्थि याई ते कस्सइ रनो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मज्जणए विट्ठपुछ जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मज्जणए, तते णं से वरिसधरे रुप्पि करयल एवं व०-एवं खलु सामी! अहं अन्नया तुन्भेणं दोघेणं मिहिलं गए तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मज्जणए दिहे, तस्सणं मजणगस्स इमे सुबाहुए दारियाए मजणए सयसहस्सहमपि कलं न अग्घेति, तए णं से रूप्पी राया वरिसघरस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म सेसं तहेव मजणगजणितहासे दूतं सदावेति २ एवं वयासी-जेणेच मिहिला नयरी तेणेव पहारित्थगमणाए ३ (सूत्रं ७१) तेणं कालेणं २ कासी नाम जणवए होत्या, तत्थ णं चाणारसीनाम नगरी होत्या, तस्थ णं संखे नाम कासीराया होत्या, तते णे तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधी.विसंघडिए यावि होत्या, तते णं से कुंभए राया सुवनगारसेर्णि सदावेति २एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया। इमस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह, तए णं सा सुवन्नगारसेणी एतमहं तहत्ति पडिमुणेति २ तं दिषं कुंडलजुयलं गेण्हति २ जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेष उवागच्छति २ सुवन्नगारभिसियासु णिवेसेति २ बहुहिं आएहि य जाव परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिवस्स कुंडलजुयलस्स संधि घडिसए, नो चेव णं संचाएंति संघडित्तए, तते णं सा सुवन्नगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवा दीप अनुक्रम [८९,९० REairat-Aamana For P OW O urmurary.org रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म कथानम् प्रत सूत्रांक [७१,७२] ॥१४॥ मध्यभ्यKायने मुक्त रणेकारश्रे णेशात पागमः सू.७२ दीप गच्छति २ करयल० बद्धावेत्ता एवं वदासी-एवं खलु सामी? अज तुन्भे अम्हे सहावेह २ जाव संधि संघाडेत्ता एतमाणं पञ्चप्पिणह, तते णं अम्हे तं दिवं कुंडलजुयलं गेण्हामो जेणेच सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडिसए, तते णं अम्हे सामी! एयरस दिवस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजयलं घडेमो, तते णं से ऊभए राया तीसे सुवनगारसेणीए अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं भिउडी निडाले साहड्ड एवं वदासी-से केणं तुम्भे कलायाणं भवह ? जे णं तुम्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडेत्तए. ते सवनगारे निविसए आगवेति, तते ते सुवनगारा कुंभेणं रण्णा निविसया आणता समाणा जेणेव साति २ गिहाति तेणेव उवा०२ सभंडमत्तोवगरणमायाओ मिहिलाए रायहाणीए मज्झमझेणं निक्लमंति २ विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव कासी जणवए जेणेच चाणारसी नयरी तेणेव उवा०२ अग्गुजाणंसि सगडीसागडं मोएन्ति २ महत्थं जाव पाहुडं गेण्हंति २सा वाणारसीनयरी मजझमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागउछति २ करयल. जाव एवं अम्हे णे सामी! मिहिलातो नयरीओ कुंभएणं रत्ना निविसया आणत्ता समाणा इई हपमागता तं इच्छामो णं सामी! तुभ बाहरछायापरिग्गहिया निग्भया निरुविग्गा सुइंसुहेणं परिवसिउं, तते ण संखे कासीराया ते मुवनगारे एवं वदासी-किन्नं तुन्भे देवा! ऊंभएणं रखा निविसया आणता, तते णं ते सुवन्नगारा संखं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! कुंभगस्स अनुक्रम [८९,९० Deses ॥१४॥ रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७१,७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१,७२] रनो घूयाए पभावसीए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए तते / से कुंभए सुवनगारसेणि सद्दावेति २ जाव निविसया आणत्ता, तं एएणं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं निविसया आणसातते णं से संखे सुवन्नगारे एवं वदासी-केरिसिया णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्सधूया पभावतीदेवीए अत्तया मल्ली वितते णं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वदासी-गो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधवकन्नगा वा जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना, तते णं से संखे कुंडलजुअलजणितहासे दूतं सहावेति जाव तहेव पहारस्थ गमणाए (सूत्रं ७२) . 'मिसियाओति आसनानि 'तिवलियं भिउडिं निडाले साहटुचि त्रिवलीका-बलियोपेतां भृकुटीं-भ्रूविकारं| सहत्य-अपनीयेति, 'केणं तुन्भे कलायाणं भवहति के पूर्व कलादाना-सुवर्णकाराणां मध्ये भवथ, न केपीत्यों, निर्विज्ञानत्वात् , अथवा के यूयं सुवर्णकाराणां पुत्राधन्यवमा भवध, अथवा के यूयं कलादा, न केपीत्यर्थः, णमित्यलङ्कारे, शेषं सुगर्म । तेणं कालेणं २ कुरुजणवए होत्था हस्थिणाउरे नगरे अदीणसत्तू नाम राया होत्था जाव विहरति, तत्थ णं मिहिलाए कुंभगरस पुसे पभावतीए अत्तए मल्लीए अणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे जाव जुवराया यावि होत्था, तते णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोटुंबिय० सद्दावेति २ गच्छह णं तुम्भे मम पमदवणंसि एग महं चित्तसभ करेह अणेग जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दा-- दीप अनुक्रम [८९,९० Hirajastaram.org | रुक्मी-नृपः, तस्य वर्णनं, अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत दमल्यध्ययने चित्रकरात् अदीनशत्रुनृपागमा सू.७३ सत्राक ॥१४२॥ [७३] दीप अनुक्रम वेति २ एवं वयासी-तुन्भे गं देवा! चित्तसमें हावभावबिलासविव्योयकलिएहिं रूवेहिं चित्रोह २ । जाव पचप्पिणह, तते णं सा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिसुणेति २ जेणेव सयाई गिहाई तेणेव उचा०२ तूलियाओ पन्नए य गेण्हंति २जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छंति २त्ता अणुपविसंति भूमिभागे विरंचंति २ भूमिं सजेतिरचित्तसभ हावभाव जाव चित्ते पयत्ता याचि होत्था, तते णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया-जस्सणंदुपयस्स वा चउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासति तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं निवत्तेति, तए णं से चित्तगरदारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायंगुई पासति, तते णं तस्स णं चित्तगरस्स हमेपासवे जाव सेयं खलु मम मल्लीएवि पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणोववेयं स्वं निवत्तित्तए, एवं संपेहेति २ भूमिभागं सजेति रमल्लीएवि पायगुट्टाणसारेणं जाव निवत्तेति, तते णं सा चित्तगरसणी चित्तसभ जाव हावभावे चित्तेति २ जेणेव मल्लदिने कुमारे तेणेष २ जाच एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं मल्लदिने चित्तगरसेणि सकारेइ २ विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलेइ २ पडिविसज्जेह, तए णं मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अंतेउरपरियालसंपरिखुड़े अम्मधाईए सर्दि जेणेच चित्तसभा तेणेव उवा०, २चित्रासभं अणुपविसह २ हावभावविलासविब्योयकलियाई रूवाई पासमाणे २ जेणेव मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवे णिवत्तिए तेणेव पहारेत्य गमणाए, तए णं से मल्लदिन्ने कुमार मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवं निवत्तिय [९१] ||१४था SARERatunintamatkarma | अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [९१] पासति २ इमेयास्वे अन्भत्थिए जाव समुप्पवित्था-एस णं मल्ली विदेहवररायकन्नत्तिकटु लजिए वीडिए विअडे सणियंरपच्चोसकर, तएणं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसकंतं पासित्ता एवं वदासी-किन्नं तुमं पुत्ता! लजिए वीडिए विअडे सणियंरपच्चोसका?, तते णं से मल्लदिन्ने अम्मघाति एवं वदासी-जुत्तंणं अम्मो!मम जेहाए भगिणीएगुरुदेवयभूयाए लज्जणिजाए मम चित्तगरणिवत्तियं सभं अणुपविसित्तए?,तएणं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमारं व-नो खलु पुत्ता! एस मल्ली, एस णं मल्ली विदे०चित्तगरएणं तयाणुरूवेणिवत्तिए,तते णं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयम8 सोचा आसुरुत्ते एवं वयासी-केस णं भो चित्तयरए अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए जे णं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए जाव निवत्तिएत्तिकटु तं चित्तगरं वज्झं आणवेइ, तए णं सा चित्तगरस्सेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेच उवागच्छइ २त्ता करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेइ २त्ता २ एवं वयासी-एवं खलु सामी! तरस चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया जस्स णं दुपयस्स चा जाब णिवत्तेति तं मा णं सामी! तुन्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह, तं तुन्भे गं सामी! तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निवत्तेह, तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ २ निविसयं आणवेह, तए णं से चित्तगरए मल्लदिनेणं णिविसए आणते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिक्खमइ २ विदेहं जणवयं मझमझेणं जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव कुरुजणवए जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव | अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: दमयन्य. लायने चित्रकरात् अ. दीनशत्रु प्रत सत्राक नृपागमः [७३] दीप अनुक्रम ज्ञाताधर्म- उवा०२ सा भंडणिक्खेवं करेइ २ चित्तफलग सजेहर मल्लीए विदेह पायंगुहाणुसारेण रूवं णिवत्तेइ २ कथानम्. कक्खंतरंसि बुब्भइ २ महत्थं ३ जाव पाहुडं गेण्हइ रहस्थिणापुरं नयरं मझमझेणं जेणेव अदीणसचू राया तेणेव उवागच्छति २२ करयल जाव बद्धावेइ २पाहुडं उवणेति २ एवं स्खलु अहं सामी! मिहि॥१४॥ लाओ रायहाणीमो कुंभमस्स रनो पुत्तेणं पभावतीए देवीए अत्तएणं मल्लदिनेणं कुमारणं निधिसए आणसे समाणे इह हवमागए, तं इच्छामि चं सामी! तुभ बाटुच्छायापरिग्गहिए जाव परिवसित्तए, तते णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगदारय एवं वदासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया! मल्ल दिण्णेणं निधिसए आणते, तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुराय एवं वदासी-एवं खलु सामी! मल्लविन्ने कुमारे अपणया कयाई चित्तगरसेणि सद्दावेइ २ एवं च-तुम्मे देवाणुप्पिया! मम चित्तसभं तं चेव सर्व भाणिय जाव मम संडासगं छिंदावेद २ निविसयं आणचेह, तं एवं खलु सामी! मल्लदिनेणं कुमारेणं निषिसए आणत्ते, सते णं अदीणसत्तू राया तं चिसगरं एवं बदासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए तवाणुरूवे रूवे निबत्तिए, तते णं से चित्त० कक्खंतराओ चित्तफलयं गीणेति २ अदीणस तुस्स उवणेह २ एवं व०-एस णं सामी! मल्लीए वि० तयाणुरूवस्स रूवस्स केइ आगारभावपडोयारे RI. निवत्तिए णो खलु सका केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवरकषणगाए तयाणुरूवे रूवे निपत्तित्तए, तते गं मदीणसत्तू पडिरूवजणितहासे दूयं सहावेतिरएवं वदासी-सहेव जाव पहारेत्य गमणयाए(सूत्रं७३) [९१] १४शा अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [७३] का 'पमयवर्णसिति गृहोषाने 'हावभावविलासविवोयकलिएहि ति हावभावादयः सामान्येन स्त्रीचेष्टाविशेषाः, विशेषः पुनरयम्-"हाबो मुखविकारः, स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो मेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥" इति, अन्ये | त्वेवं विलासमाहुः-"स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥१॥" विब्बोकलक्षणं चेदम्-"इष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानमर्भसम्भूतः । स्त्रीणामनादरकतो विम्बोको नाम विज्ञेयः ॥१॥" 'तूलियाउत्ति तूलिका बालमय्यचित्रलेखनकर्चिकाः, 'तदणुरूवं रूवंति दृष्ट्वा द्विपदाधुचितमाकारमिति, 'अंतेउरपरियालेण'न्ति अन्तःपुरा च परिवारश्न अन्तःपुरलक्षणो वा परिवारो यः स तथा ताभ्यां तेन वा सम्परिवृतः, लज्जितो वीडितो व्यईः इत्येते वयोऽपि पर्यायशब्दा: लजाप्रकर्षाभिधानायोक्ताः, 'लज्जणिवाए'चि लज्ज्यते यस्याः सा लजनीया। तेणं कालेणं २ पंचाले जणवए कंपिल्ले पुरे नयरे जियसत्तू नाम राया पंचालाहिवई, तस्स णं जितसनुस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं ओरोहे होत्या, तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नाम परिवाइया रिउक्वेद जाव परिणिहिया यावि होत्या, तते णं सा चोक्खा परिवाइया मिहिलाए बहणं राईसर जाव सस्थवाहपभितीणं पुरतो दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरति, तते णं सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ २ परिवाइगावसहाओ पडिनिक्खमइ २ पविरलपरिवाइया सद्धिं संपरिचुडा दीप अनुक्रम [९१] For P OW Hirauasaram.org | अदिनशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं, जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक [७४,७५] ॥१४॥ टमयध्ययने परिव्राजका याः जितशत्रुनृपागमः सू. ७४ गाथा: मिहिलं रायहाणि मझमझेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नोभवणे जेणेव कण्णतेउरे जेणेव मल्ली विदेह तेणेच उचागच्छइ २ उदयपरिफासियाए दम्भोवरि पचत्थुयाए मिसियाए निसियति २ सा मल्लीए विदेह. पुरतो दाणधम्मं च जाव विहरति, ततेणं मल्ली विदेहा चोक्खं परिवाइयं एवं बयासी-तुम्भे णं चोक्खे ! किंमूलए धम्मे पन्नते?, तते णं सा चोक्वा परिवाइया मल्लिं विदेहं एवं बढ़ासी-अम्हं गं देवाणुप्पिए ! सोयमूलए धम्मे पण्णवेमि, जपणं अम्ह किंचि असुई भवइ तण्णं उदएण य मट्टियाए जाव अविग्घेणं सरगं गच्छामो, तए णं मल्ली विदेह चोक्खं परिवाइयं एवं वदासी-चोक्खा ! से जहा नामए कई पुरिसे रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा अस्थि णं चोक्खा! तस्स रुहिरकयस्स वस्थस्स रुहिरेणं धोषमाणस्स काई सोही!, नो इणढे समहे, एवामेव चोक्खा ! तुम्भे णं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव धोबमाणस्स, तए णं सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेह एवं वुत्ता समाणा संकिया कंखिया विइगिछिया भेयसमावण्णा जाया यावि होस्था, मल्लीए णो संचाएति किंचिचि पामोक्खमाइक्वित्तए तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति निति खिसंति गरहंति अप्पेगतिया हेरुयालंति अप्पे मुहमकडिया करेंति अप्पे वग्घाडीओ करेंति अप्पे० तज्जमाणीओ निच्छुभंति, तए णं सो चोक्खा मल्लीए विदेह दासचेडियाहिं जाय गरहिज्जमाणी हीलिज्माणी आसु दीप अनुक्रम [९२-९५] ॥१४॥ whaturmurary.org जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: रुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए पओसमावञ्चति, मिसियं गेण्हति.२ कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमति २ मिहिलाओ निग्गच्छतिरपरिवाइयासंपरिबुडा जेणेच पंचाल जणवए जेणेब कंपिल्लपुरे यहूर्ण राइसर जाव परूवेमाणी विहरति, तए णं से जियसत्तू अन्नदा कदाई अंतेउरपरियाल सद्धिं संपरिबुडे एवं जाव विहरति, तते णं सा चोक्खा परिवाइयासंपरिचुडा जेणेव जिंतसंत्तुस्स रण्णो भवणे जेणेव जितसत्तू तेणेव उवागच्छह २त्ता अणुपविसति २ जियसत्तुं जएणं विजएणं वद्धावेति, तते णं से जितसत्तू चोक्खं परि० एजमाणं पासति २ सीहासणाओ अब्भुतुति २ चोक्खं सकारेति २ आसणेणं उवणिमंतेति, तते णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निविसह, जियसनु रायं रज्जे प जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छह, तते णं सा चोक्खा जियसत्तस्स रन्नो दाणधम्मं च जाव विहरति, तते णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं एवं वदासी-तुम णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामागर जाव अडह बहूण य रातीसर गिहार्ति अणुपविससि तं अत्थियाई ते कस्सवि रन्नो वा जाव एरिसए ओरोहे दिट्ठपुधे जारिसए णं इमे मह उवरोहे, तए णं सा चोक्खा परिछाइया जियसत्तुं [एवं वदासी] इसिं अवहसियं करेइ २ (एवं वयासी-) एवं च सरिसए णं तुम देवाणुप्पिया! तस्स अगडद्हरस्स?, के णं देवाणुप्पिए । से अगडद्हुरे, जियसत्तू ! से जहा नामए अगहद्दुरे सिया, से णं तत्थ जाए तत्थेव बुहे अण्णं अगडं वा तलार्ग वा दहं वा दीप अनुक्रम [९२-९५] जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्मकथाझम्॥१४५॥ मझ्यध्ययने जितशत्रुनृपागमः सू. ७४ [७४,७५] गाथा: सरं वा सागरं वा अपासमाणे चेवं मण्णइ-अयं चेव अगडे चा जाव सागरे वा, तए णं तं कूवं अपणे सामुद्दए दहुरे हदमागए, तए णं से कूवदहुरे तं सामुददुरं एवं वदासी-से केसणं तुम देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हबमागए, तए णं से सामुद्दए बहुरे तं कूवबहुरं एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए ददुरे, तए णं से कृषददुरे तं सामुद्दयं बहुरं एवं चयासी-फेमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे, तए णं से सामुए ददुरे तं कृवद्हरं एवं बयासी-महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे, तए णं से दर्रे पारणं लीहं कड्डेइ २ एवं वयासी-एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे, णो इणद्वे समझे, महालए णं से समुदे, तए णं से कूवदहुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उफिडित्ता णं गच्छा २ एवं वयासी-एमहालए ण देवाणुप्पिया! से समुद्दे, णो इणढे समढे, तहेव एवामेव तुमंपि जियसत्तू अन्नेसि पाहूर्ण राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं भज्ज वा भगिणी वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अपणस्स, तं एवं खलु जियस तू ! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूता पभावतीए अत्तिया मल्ली नामंति स्वेण य जुवणेण जाव नो खलु अपणा काई देवकना या जारिसिया मल्ली, विदेहवररायकपणाए छिपणस्सवि पायंगुढगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सतिर्मपि कल न अग्घात्तिकट्ठ जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, तते गं से जितस तू परिवाइयाजणितहासे दूयं सहावेति २जाव पहारेत्थ गमणाए ।(सूत्रं ७४) तते णं तेसि जियसत्तु दीप अनुक्रम [९२-९५] ॥१४५॥ CREDIamYALome जितशत्रु-राजा, तस्य वर्णनं ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: emerserseseneeseaहलालट पामोक्खाणं छहं राईणं या जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं छप्पिय दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवाग०२ मिहिलाए अरगुजाणंसि पत्तेयं २ खंधावारनिवेसं करेंति २ मिहिलं रायहाणी अणुपविसंति २ जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२ पत्तेयं २ करयल० साणं २ राईणं वयणार्ति निवेदेति, तते णं से कभए तेसिं दयाणं अंतिए एपमटुं सोचा आसुरुत्ते जाय तिवलियं भिउडि एवं वयासी-न देमि णं अहं तुम्भं मल्ली विदेहवरकपणंतिक१ ते छप्पि दूते असक्कारिय असम्माणिय अबहारेणं णिच्छुभावेति, तते गं जितसत्तुपामोक्खाणं छहं राईणं दूया कुंभएणं रना असकारिया असम्माणिया अवदारेणं णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा २ जाणवया जेणेव सयाति २णगराइंजेणेव सगा २ रायाणो तेणेव उवा० करयलपरिक एवं वयासी-एवं खलु सामी अम्हे जितसत्तुपामोक्खाणं छपहं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं निच्छुभावेति, तं ण देइ णं सामी ! कुंभए मल्ली वि०, साणं २ राईणं एयमट्ट निवेदंति, तते णं ते जियसनुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेर्सि दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमण्णस्स दूयसंपेसणं करेंति २ एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं छहं राईणं या जमगसमगं चेव जाब निच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तएत्तिक? अपणमण्णस्स एतमढ पडिसुणेति २ पहाया सपणद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामा जाव सेयवरचामराहि० महयाहयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरं दीप अनुक्रम [९२-९५] ~ 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञावाधर्मकथानम्. [७४,७५] मझ्यध्य| यने युद्धपराजये प्रतिमया बोधास, ७५ ॥१४६॥ गाथा: गिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडा सचिड्डीए जाव रवेणं सरहिं २ नगरेहितो जाब निग्गच्छंति २ एगयओ मिलायंति जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं कुंभए राया इमीसे कहाए लढे समाणे बलवाउयं सद्दावेति २ एवं वदासी-खिप्पामेव० हय जाब सेण्णं सन्नाह जाव पञ्चप्पिणंति, तते गं कुंभए हाते सण्णहे हथिखंध. सकोरंट. सेयवरचामरए महया० मिहिलं मज्झमझेणं णिजाति २ विदेहं जणवयं मज्झमझेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवा०२खंधावारनिवेसं करेति २ जियसतुपा छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठति,ततेणं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पिय राया णो जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२ कुंभएणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तते गं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयप्पडागं किच्छप्पाणोधगयं दिसो दिसिं पडिसेहिं ति, तते णं से कुंभए जितसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे अवले अवीरिए जाव अधारिणिज्जमितिकट्ठ सिग्धं तुरियं जाच बेइयं जेणेव मिहिला तेणेव उवा०२ मिहिलं अणुपविसति २ मिहिलाए दुवाराति पिहेइ २ रोहसज्जे चिट्ठति, तते णं ते जितसनुपामोक्खा छप्पि राया णो जेणेब मिहिला तेणेव ज्यागकछति २ मिहिलं रायहाणि णिस्संचार णिरुचारं सबतो समंता ओरुभित्ताणं चिति, तते णं से कुंभए मिहिलं रायहार्णि रुद्धं जाणित्ता अभंतरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए तेर्सि जितसत्तुपामोक्खाणं छहं रातीणं छिपाणि य दीप अनुक्रम [९२-९५] 5 ॥१४॥ ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्मकधमा अंगसूत्र-८ (मननपतिः प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहहिं आएहि य उवाएहि य उत्पत्तियाहि य ४ बुद्धीहि परिणामेमाणे २ किंचि आयं वा स्वायं वा अलभमाणे ओहतमणसंकप्पे जाव झियायति, इमं च णं मल्लीवि० पहाया जाव बहूहिं खुजाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उ०२ कुंभगस्स पायग्गहणं करोति, तते णं कुंभए मल्लिं विदेह णो आढाति नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं मल्ली वि० कुंभग एवं वयासी-सुब्भेणं ताओ ! अण्णदा मम एजमाणं जाव निवेसेह, किणं तुभं अज ओहत झियायह ?, तते णं कुंभए महिं वि० एवं व०-एवं खलु पुत्ता! तव कज्जे जितसत्तुपमुक्खेहिं छहि रातीहिं दूया संपेसिया, ते णं मए असफारिया जाव निच्छूढा, तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा तसि दूयाणं अंतिए एयम8 सोचा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्संचारं जाव चिट्ठति, तते ण अहं पुत्ता तोर्स जितसत्तुपामोक्खाणं छहं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव सियामि, तते गं सा मल्ली वि० कुंभयं रायं एवं वयासी-मा मैं तुम्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा जाप झियायह, तुम्भे णं ताओ! तोर्स जियसनुपामोक्खाणं छहं राईणं पत्तेयं २ रहसियं दुयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं बदह-तव देमि मार्मि विदेहवररायकण्णंतिकट्ठ संझाकालसमयंसि पविरलमणूसंसि निसंतंसि पडिनिसंतंसि पत्तेयं २ मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह २ गम्भघरएसु अणुष्पवेसेह मिहिलाए रायहाणीए दुवाराई पिधेह २ रोहसज्जे चिट्ठह, तते ण कुंभए एवं तं चेव जाच पवेसेति रोहसज्जे चिट्ठति, तते गं ते जितसत्तुपामोक्खा दीप अनुक्रम [९२-९५] ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत हाताधर्म-18 कथाङ्कम् टमयभ्य यने युद्ध सूत्रांक पराजये [७४,७५] ॥१४७॥ प्रतिमया बोध: सू. गाथा: छप्पिय रायाणो कलं पाउन्भूया जाव जालंतरेहिं कणगमयं मत्थयछिड़ पउमुप्पलपिहाणं पडिम पासति, एस णं मल्ली विदेहरायवरकपणत्तिकठ्ठ महीए विदेह रूवे य जोवणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा जाव अझोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा २ चिट्ठति, तते णं सा मल्ली वि० पहाया जाव पायच्छित्ता सवालंकार बहूहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेच उवाग०२ तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओतं पउमं अवणे ति, तते णं गंधे णिद्धावति से जहा नामए अहिमडेति वा जाव असुभतराए चेव, तते ण ते जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंघेणं अभिभूया समाणा सरहिं २ उत्सरिजएहिं आसातिं पिहेंति २त्ता परम्मुहा चिट्ठति, तते णं सा मल्ली वि० ते जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किपणं तुम्भं देवाणुप्पिया! सएहिं २ उत्तरिजेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?, तते ण ते जितसत्नुपामोक्खा मल्ली वि० एवं वयंति-एवं खलु देवाणुपिए । अम्हे हमेणं असुभण गंधणं अभिभूया समाणा सएहि २ जाव चिट्ठामो, तते णं मल्ली वि० ते जितसत्तुपामुक्खे० जइ ता देवाणुपिया! इमीसे कणग. जाव पडिमाए कल्लाकाहिं ताओ मणुषणाओ असण ४ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे २ इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासबस्स बंतासवस्स पित्तासवस्स सुकसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुख्वमुत्तपुतियपुरीसपुषणस्स सडण जाव धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सति, तं मा णं तुम्भे देवाणु ! माणुस्सपसु कामभोगेसु दीप अनुक्रम [९२-९५] ॥१४॥ | भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] गाथा: eneछeseeeeeeeeccess सज्जह रज्जह गिजाह मुजाह अजमोववजह, एवं खलु देवाणु। तुम्हे अम्हे इमाओ तचे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावर्तिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवि य वालवयंसया रायाणो होत्था सहजाया जाव पचतिता, तए णं अहं देवाणुप्पिया! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निवत्तेमि जति णं तुभं चोत्थं उपसंपजित्ताणं विहरह तते णं अहं छ8 उपसंपज्जित्ताणं विहरामि सेसं तहेव सवं, तते णं तुम्भे देवाणुप्पिया! कालमासे कालं किया जयंते विमाणे उववण्णा तत्थ णं तुम्भे देसूणाति बत्तीसाति सागरोवमाई ठिती, तते ण तुन्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे २ जाव साई २ रज्जाति उवसंपजित्ताणं विहरह, तते णं अहं देवाणुताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पञ्चायाया,-किंथ तयं पम्हुटुंज थ तया भी जयंत पवरमि । वुत्था समयनिबद्धं देवा! तं संभरह जाति ॥१॥ तते णं तेर्सि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं रायाणं मल्लीए विदेहराय० अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अजस वसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणियाणं० ईहाबूह० जाव सणिज्जाइस्सरणे समुष्पन्ने, एयमह सम्म अभिसमागच्छति, तए णं मल्ली अरहा जितसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता गम्भघराणं दाराई विहाडावेति,तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जेणेव मल्ली अरहातेणेव उवागञ्छति२ततेणं महन्यलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था,तते णं मल्लीए अरहाते दीप अनुक्रम [९२-९५] भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत जाताधर्मकयाम् सूत्रांक [७४,७५] दमध्यध्ययने युद्धपराजये | प्रतिमया बोधः सू. ७५ ॥१४८॥ गाथा: जितसत्तुपामोक्खे छप्पिय रायाणो एवं व-एवं खलु अहं देवा! संसारभयउबिग्गा जाव पपयामि तं तुम्भे णं किं करेह किं चववसह जाव किं भे हियसामत्थे ?.जियसत्त० मालिं अरहं एवं बयासी-जति णं तुम्भे देवा! संसार जाव पबयाह अम्हे णं देवा! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे था जह चेव णं देवा! तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कजेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था तहा चेव णं देवा इपिहपि जाव भविस्सह,अम्हेविय णं देवाणु संसारभउधिग्गा जाव भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भवित्ता जाच पच्चयामो.तते णं मल्ली अरहा तेजितसत्तपामो. क्खे एवं वयासी-जण्णं तुम्भे संसार जाव मए सद्धिं पञ्चयह तं गच्छह णं तुम्भे देवा० सएहिं २ रज्जेहिं जेट्टे पुत्ते रज्जे ठावेह रत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओसीयाओदुरूहह दुरूदा समाणामम अंतियं पाउम्भवह, तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा मल्लिस्स अरहतो एतमढे पडिमुणेति, तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तु० गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाए पाडेति, तते णं कुंभए ते जितसतु० विपुलेणं असण ४ पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति जाव पडिविसज्जेति, तते गं ते जियसतुपामोक्खा कुंभएणं रपणा विसजिया समाणा जेणेव साई २ रजाति जेणेव नगरात तेणेव उवा०२ सगाई रजाति उपसंपज्जित्ता विहरंति, तते णं मल्ली अरहा संवरछरावसाणे निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेति (सूत्रं ७५) दीप अनुक्रम [९२-९५] | ॥१४॥ भगवती मल्लिजिन एवं पूर्वभवानां मित्राणां प्रातिबोध: ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४,७५] SOSeSeedsaeeso गाथा: 'पामोक्खंति उत्तरं आक्षेपस परिहार इत्यर्थः, 'हीलंती'त्यादि हीलयन्ति जात्यायुद्घट्टनतः निन्दन्ति-मनसा कुत्सन्ति | खिसंति परस्परस्याग्रतः तद्दोषकीर्तनेन गईन्ते-तत्समक्षमेव 'हरुयालिति विकोपयन्ति मुखमर्कटिकातः असूयया खमुखवक्रताः कुर्वन्ति, 'बग्घाडियाओ'ति उपहासा रुतविशेषाः, 'कसलोदंतति कुशलवार्ता, 'अगडदहुरे सिय'त्ति कूपमण्डूको भवेत, ISI |'जमगसमगं'ति युगपत् 'जत्तं गिण्हित्तए'त्ति यात्रा-विग्रहार्थ गमनं ग्रहीतुं-आदातुं विधातुमित्यर्थः, 'बलवाउयति || | बलव्यापृतं सैन्यव्यापारवन्तं 'संपलग्गे'त्यत्र योद्धमिति शेषः, 'हयमहियपवरवीरघाइयविवडियचिंधद्धयपडागे'ति हता-सैन्यस्य हतखात् मथितो-मानस्य निर्मथनात प्रवरा वीरा-भटा घातिता-विनाशिता यस्य स तथा विपतिता चिन-1 ध्वजाः-चिह्नभूतगरुडसिंहधरा वलकध्वजादयः पताकाश्च हस्तिनामुपरिवर्तिन्यः प्रबलपरवलप्रयुक्तानेकवीक्ष्णक्षुरप्रहारप्रकरण दण्डादिच्छेदनाथस्य स तथा, ततः पदचतुष्कस्य कर्मधारयः, अथवा हयमथिताः-अश्वमर्दिताः प्रवरवीरा यस्य |घातिताच सत्यो विपतितावितध्वजपताका यस्य स तथा तं, "दिसोदिसं'ति दिशो दिशि सर्वत इत्यर्थः, 'पडिसेहंति'चि आयोधनाद्विनिवर्तयन्ति निराकुर्वन्तीत्यर्थः, 'अधारणिति अधारणीयं धारयितुमशक्यं परवलमितिकृखा, अथवा अधार| णीयं-अयापनीयं यापना कर्तुमात्मनो न शक्यत इतिकता 'निस्संचारं ति द्वारापद्वारैः जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति 'निरुचारं' प्राकारस्योर्ध्व जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति अथवा उच्चारः-पुरीपं तद्विसाथ यजनानां बहिनिगमनं तदपि। स एवेति तेन वर्जितं यथा भवत्येवं सर्वतो-दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु 'अवरुध्य' रोधक कसा तिष्ठन्ति स्मेति, 'रहस्सिएति रहसिकान् गुप्तान् ‘दूतसंप्रेषान्' दूतप्रेषणानि 'पविरलमणूसंसिचि प्रविरलाः मनुष्याः मागादिषु यस्मिन् सन्ध्याकाल दीप अनुक्रम [९२-९५] SARERatunintamatkarma ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७४,७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कपाङ्गम. सूत्रांक [७४,७५] ॥१४९॥ गाथा: समये स तथा तस्मिन् , तथा 'निशान्तेषु' गृहेषु 'प्रतिनिश्रान्ता' विश्रान्ता यस्मिन् मनुष्या इतीह द्रष्टव्यं, स तथा प्रत, मल्यव्यअथवा सन्ध्याकालसमये सति तथा तत्रैव या अविरलो मनुष्यो-मानुपजनो मार्गेषु भवति तत्र निशाननेषु प्रतिनिश्रान्ते इत्यर्थःयने युद्ध'जइ तावे'त्यादि, यदि तावदस्थाहारपिण्डस्यायं परिणामः अस्य पुनरौदारिकशरीरस्य कीदृशो भविष्यतीति सम्बन्धः, इह च पराजये 'किमंग पुणति यत्कचिद् दृश्यते ततः 'इमस्स पुण'ति पठनीयं वाचनान्तरे तथादर्शनात् , 'कल्लाकर्मि'ति प्रतिदिनं प्रतिममा 'खेलासवे'त्यादि खेलं-निष्ठीवनं तदाश्रवति-क्षरतीति खेलाथ तस्य एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं वान्तं-चमनं पित्तं- बापासू. दोषविशेषः शुक्र-सप्तमो धातुः शोणित-आर्चवं सामान्येन वा रुधिरं 'पूर्य' परिपकं तदेव दूरूपी--विरूपाचुच्छासनिःश्वासौ यस्स तसथा तस्य, दूरूपेण मूत्रकेण पूतिकेन वा-अशुभगन्धवता पुरीषेण पूर्ण यत्तत्तथा तस्य, तथा शटनं-अगुल्यादेः कुष्ठा|दिना पतनं छेदन-बाहादेषिध्वंसनं च-चयः एते धर्माः-खभाषा यस्य तत्तथा तस्य, 'सज्जह' सज्जत सबै कुरुत 'रज्यत'| रागं कुरुत 'गिझह' गृध्यत गृदि प्राप्तभोगेष्वदृप्तिलक्षणां कुरुत 'मुज्झह' मुद्यत मोहं-तदोषदर्शने मूढलं कुरुत 'अझो-18 ववजह' अध्युपपद्यर्च तदप्राप्तप्रापणायाध्युपपत्ति-तदेकाग्रतालक्षणां कुरुत, ' किंथ लयं' गाहा 'कि' मिति प्रश्ने, ' इति वाक्यालङ्कारे, 'तकत् तत् 'पम्हट'ति विस्मृतं 'जति यत् थ इति वाक्यालङ्कारे 'तदा' तस्मिन् काले 'भो' इत्यामश्रणे | 'जयंतप्रवरे' जयन्तामिधाने प्रवरेऽनुत्तरविमाने 'वुत्थति उषिता निवासं कृतवन्तः 'समयनिवर्द्ध' मनसा निबद्ध- ॥१४॥ | सङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति, समकनिबद्धां वा-सहितैर्या उपात्ता जातिस्तां देवा: अनुत्तरसुरा। सन्तः, 'तंति|| त एव तो वा देवसम्बन्धिनी सरत जाति-जन्म यूयमिति ॥१॥ दीप अनुक्रम [९२-९५ cesesed ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: तेणं कालेणं २ सकस्सासणं चलति, तते णं सके देविंदे ३ आसणं चलियं पासति २ ओहिं पञ्जति २ मलि अरहं ओहिणा आभोएति २ इमेयारूवे अन्भस्थिए जाच समुप्पवित्था-एवं खलु जंबुद्दीवे २ भारहे वासे मिहिलाए भगस्स० मल्ही अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेति.तं जीयमेयं तीयपचुप्पन्नमणागयाणं सकाणं ३ अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलितए, तंजहा-'तिपणेच य कोडिसया अट्ठासीर्ति च होंति कोडीओ। असितिं च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं ॥१॥ एवं संपेहेति २ वेसमणं देवं सद्दावेति २त्ता एवं खलु देवाणु ! जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जाव असीर्ति च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुपिया! जंबु० भारहे• कुंभगभवणंसि इमेयाख्वं अत्थसंपदाणं साहराहि २ खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, तते णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं एवं युत्ते हढे करयल जाव पडिसुणेइर जंभए देवे सद्दावेइ२ एवं वयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणु जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ असियं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह २ मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तते गं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव सुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवकमंति २ जाव उत्तरवेवियाई रूवाई विइति २ताए उफिट्टाए जाव बीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रपणो भवणे तेणेव उवाग अनुक्रम [९६ -१०८] ISH | भगवन्त मल्ली तिर्थंकरस्य संवत्सरी-दानं ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. दमल्यध्ययने सांवत्सरिकदानं सू. [७६,७७] ॥१५॥ गाथा: च्छंति २ कुंभगस्स रनो भवर्णसि तिन्नि कोडिसया जाच साहरंति २ जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवा०२ करयल जाव पचप्पिणति, तते णं से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छह २ करयल जाव पञ्चप्पिणति, तते णं मल्ली अरहा कल्लाकहिं जाव मागहओ पायरासोत्ति बएणं सणाहाण य अणाहाण य पंधियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरपणकोडिं अट्ट य अणूणार्ति सयसहस्साति इमेयारुवं अत्थसंपदाणं दलपति, तए णं से कुंभए मिहिलाए राय तत्थ २ तहिं २ देसे २ बहूओ महाणससालाओ करेति, तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइभत्तवेयणा विपुलं असण ४ उवक्खडेंति २ जे जहा आगच्छंति तं०-पंथिया चा पहिया वा करोडिया वा कप्पडिया वा पासंडस्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्वस्स सुहासणवरगत० तं विपुलं असणं ४ परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति, तते णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणोअण्णमण्णरस एवमातिक्खति-एवं खलु देवाणु०कुंभगस्स रपणो भवणंसि सबकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं ४ बहूर्ण समणाण य जाव परिवेसिज्जति, वरवरिया घोसिजति किमिच्छियं दिजए बहुविहीयं । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहियाण निक्खमणे ॥१॥ तते णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीर्ति च होति कोडीओ असितिं च सयसहस्साई इमेयावं अत्थसंपदार्ण दलइत्ता निक्खमामित्ति मणं पहारेति (सूत्रं ७६) तेणं कालेणं २ लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिहे विमाण अनुक्रम [९६ ॥१५॥ -१०८] | भगवन्त मल्ली तिर्थकरस्य संवत्सरी-दानं ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: पत्थडे सएहिं २ विमाणेहिं सएहिं २ पासायसिएहिं पत्तेयं २ चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहि सत्सहिं अणिएहि सत्तहिं अणियाहिबईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य यहूहिं लोगतिएहि देवहिं सद्धिं संपरिबुडा महयाहयनहगीयवाहय जाव रवेणं भुंजमाणा विहराइ, तंजहा'सारस्सयमाचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अबाबाहा अग्गिचा चेव रिहा य ॥१॥ तते णं तेर्सि लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाति चलति तहेव जाव अरहताणं निक्खममाणाणं संघोहर्ण करेत्सएति तं गच्छामो णं अम्हेचि मल्लिस्स अरहतो संबोहणं करेमित्तिकहु एवं संपेहेंति २ उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं० वेचियसमुग्याएणं समोहणंति २ संखिजाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रनो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति २ अंतलिक्खपडिचन्ना सखिखिणियाई जाव वत्वाति पवर परिहिया करयल० ताहि इट्ठा एवं वयासीबुज्झाहि भगवं! लोगनाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सतित्तिकटु दोचंपि तचपि एवं वयंति २ मल्लिं अरहं बंदंति नमसंति २जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया, तते णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा०२ करयल. इच्छामिणं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अभYण्णाते मुंडे भवित्ताजाव पचतित्तए, अहासुहं देवा० मा पडिबंधं करेहि, तते णं कुंभए कोडंबियपुरिसे सद्दावेति २एवं वदासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं जाव अनुक्रम [९६ -१०८] | लोकान्तिकदेवैः भगवन्त-मल्लिं सम्बोधनं ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. सूत्रांक मह्यध्ययने सांवत्सिरिकदानं सू. [७६,७७] ॥१५॥ गाथा: भोमेजाणंति, अण्णं च महत्थं जाब तित्थयराभिसेयं उबट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति, तेणं कालेणं २ चमरे असुरिंदे जाच अच्चुयपज्जवसाणा आगया, तते णं सक्के ३ आभिओगिए देवे सद्दावेति २ एवं वदासीखिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवपिणयाण जाव अपणं च तं विउलं उबट्ठवेह जाव उवट्ठति, तेवि कलसा ते चव कलसे अणुपविट्ठा, तते णं से सके देविंदे देवराया कुंभराया मल्लिं अरहं सीहासणंसि परत्थाभिमुहं निवेसेह अट्ठसहस्सेणं सोवपिणयाणं जाव अभिर्सिचंति, तते णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए बद्दमाणे अप्पेगतिया देवा मिहिलं च सम्भितरं बाहिं आव सबतो समता परिधावति, तए णं कुंभए राया दोचंपि उत्तराचकमणं जाव सबालंकारविभूसियं करेति २ कोटुंषियपुरिसे सहावेइ २त्ता एवं बयासीखिप्पामेव मणोरमं सीय उवट्ठवेह ते उवट्ठति, तते णं सके ३ आभिओगिए खिप्पामेच अणेगखंभ० जाव मणोरमं सीयं उचट्ठवेह जाच सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा, तते णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अन्भुढेति २ जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवा० २ मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरम सीयं दुरूहति २सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सहावेति २ एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया! पहाया जाव सबालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह जाव परिवहंति, तते णं सके देविंद देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हति, ईसाणे उत्तरिलं उवरिल्लं बाहं गेण्हति, चमरे दाहिणिलं हेढिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेडिल्लं, अवसेसा देवा जहा अनुक्रम [९६ ॥१५॥ -१०८] | भगवन्त-मल्ली-तिर्थकरस्य दीक्षा-अभिषेक: (भगवन्त के जन्म-अभिषेक कि तरह भगवन्त कि दीक्षा के पूर्व भी ६४ ईन्द्र द्वारा अभिषेक होता है) ~312 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: रिहं मणोरमं सीयं परिवहंति, "पुर्वि उक्खित्ता माणुस्सेहि तो हट्ठरोमकूवेहि। पच्छा वहति सीयं असुरिंदसुरिंदनागेंदा ॥ १॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी । देविंददाणविंदा वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥२॥ तते णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरतो अहाणु एवं निग्ग मो जहा जमालिस्स, तते णं मल्लिस्स अरहतो निक्खममाणस्स अप्पे देवा मिहिलं आसिय० अभितरवासविहिगाहा जाव परिधावति, तते णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उजाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवासीयाओ पचोरुभति २ आभरणालंकारं पभावती पडिच्छति, तते णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, तते णं सक्के देविंदे ३ मल्लिस्स केसे पडिच्छति, खीरोदगसमुद्दे पक्खिवह, तते णं मल्ली अरहा णमोऽत्थु णं सिद्धाणंतिक? सामाइयचरित्तं पडिवज्जति, जं समयं च णं मल्ली अरहा चरितं पडिवज्जति तं समयं च णं देवाणं माणुसाण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवातियनिग्घोसे य सकस्स वयणसंदेसेणं णिलुके यावि होत्था, जं समयं च णं मल्ली अरहा सामातियं चरित्तं पडिचन्ने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहतो माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने, मल्ली णं अरहा जे से हेमंताणं दोचे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे तस्स णं पोससुद्धस्स एकारसीपक्खेणं पुषणहकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थीसएहिं अभितरियाए परिसाए तिहिं पुरिससरहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पचहए, अनुक्रम [९६ -१०८] | भगवन्त मल्लिजिनस्य दीक्षा-निष्क्रमण महोत्सव: ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकधाङ्कम् सूत्रांक [७६,७७] ॥१५२| दानं सू. गाथा: मल्लिं अरहं इमे अढ रायकुमारा अणुपवइंसु तंजहा-णंदे य णदिमित्ते सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य । महयष्यअमरवति अमरसेणे महसेणे व अहमए ॥१॥तए णं से भवणवई ४ मल्लिस्स अरहतो निक्खमण- यने सावमहिमं करेंति २जेणेव नंदीसरवरे अट्ठाहियं करेंति २जाव पडिगया, तते णं मल्ली अरहा जंचेव दिवसं पब त्सरिक तिए तस्सेव दिवसस्स पुवा(पच्च) वरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि मुहा सणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्यहिं अज्झवसाणेहिं पसस्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि तयावरण| कम्मरयविकरणकरं' अपुचकरणं अणुपविठ्ठस्स अणते जाव केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने (सूत्रं ७७)। 'जाव मागहओ पायरासोति मगधदेशसम्बन्धिनं प्रातराश-प्राभातिकं भोजनकालं यावत् प्रहरद्वयादिकमित्यर्थः,18 'बाहण'मित्यादि, सनाथेभ्य:-सखामिकेभ्यः अनाथेभ्यो-रकेभ्यः 'पंधियाणं ति पन्थानं नित्यं गच्छन्तीति पान्धास्त एव8 पान्थिकास्तेभ्यः 'पहियाणं'ति पथि गच्छन्तीति पथिकास्तेभ्यः अहितेभ्यो वा केनापि कचिव प्रेषितेभ्य इत्यर्थः करोट्याकपालेन चरन्तीति करोटिकास्तेभ्यः कचित 'कायकोडियाण ति पाठस्तत्र काचो-भारोद्वहनं तस्य कोटी-भागः काच-12 कोटी तया ये चरन्ति काचकोटिकास्तेभ्यः, कपटैश्चरन्तीति कार्यटिकाः कापटिका वा-कपटचारिणस्तेभ्यः, 'एगमेगं हत्था-IN मासंति वाचनान्तरे दृश्यते तत्र हस्तेन हिरण्यस्यामर्श:-परामर्शो ग्रहो हस्तामर्शः तत्परिमाणं हिरण्यमपि स एवोच्यते अत-1 स्तमेकैकमेकैकस्मै ददाति स, प्रायिक चैतत्सम्भाव्यते 'वरवरिया घोसिज्जइ किमिच्छियं दिजए बहुविहीय'ति वचनात् । अत | SH अनुक्रम [९६ ॥१५॥ -१०८] ~3144 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६,७७] गाथा: एव 'एगा हिरण्णकोडी'त्याद्यपि शक्रार्पितहिरण्यदानप्रमाणमेव, यतोऽन्यदपि स्वकीयधनधान्यादिगतं दानं सम्भवतीति, 'तत्था । तत्थति अवान्तरपुरादौ देशे देशे-शृङ्गाटकादौ 'तहिं तहिं ति तत्र तत्र महापथपथादीनां भागे भागे अतिबहुषु स्थानेविति। तात्पर्यमिति, महानससाला-रसवतीगृहाणि 'दिण्णभयभत्तवेयण तिदन-वितीर्ण भृतिभक्तलक्षणं द्रव्यभोजनखरूपं वेतनमूल्यं येभ्यस्ते तथा 'पासंड'त्ति लिङ्गिनः 'सबकामगुणिय'ति सर्वे कामगुणा-अभिलषणीयपर्याया रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणा:18| सन्ति सञ्जाता वा यत्र तत् सर्वकामगुणिक सर्वकामगुणितं वा, क: किमीप्सतीत्येवमिच्छानुसारेण यद्दीयते तत्किमीप्सितं, बहुभ्यः श्रमणेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः सनाथेभ्य इत्यादि पूर्ववत् , 'सुरासुरिय'ति वाचनान्तरे दृश्यते तत्र भोजने अयं च सूरोऽयं च मूरो भुक्तां च यथेष्टमित्येवं या परिवेषणक्रिया सा सूरामरिका पुटापुटिकादीनामिवात्र समासः तया सूरासूरिकया, तृतीया || चेह सूत्रनिर्देशे द्वितीया द्रष्टव्येति, 'वरवरिया' गाहा वरख-इष्टार्थस्य वरण-ग्रहणं बरवरिका, वरं वृणुत वरं वृणुतेत्येवं संशब्दनं वरवरिकेति भावः, सुरासुरैर्देवदानवनरेन्द्रव महिता येते तथा तेषां, 'सारस्सय'गाहा सारखताः १ आदित्याः २ वहयो ३|| | वरुणाश्च ४ गईतोयाश्च ५ तुषिताः ६ अव्यावाधाः ७ आग्नेयाचे ८ त्यष्टौ कृष्णराज्यवकाशान्तरस्थविमानाष्टकवासिनो रिष्ठावेति|रिष्ठाख्यविमानप्रस्तटवासिनः, कचित् दशविधा एते व्याख्यायन्ते, असाभिस्तु स्थानाङ्गानुसारेणैवमभिहिताः, 'हहरोमकूवेहिति रोमाश्चितैः 'चलचवलकुंडलधर'चि चलाच ते चपलकुण्डलधराश्चेति विग्रहः, 'सच्छंदविउवियाभरण-11 धारित्ति खच्छन्दाश्च ते विकु बिताभरणधारिणश्च स्वच्छन्देन वा-खाभिप्रायेण विकुर्वितान्याभरणानि धारयन्तीति विग्रहः, 'जहा जमालिस्स'चि भगवत्यां यथा जमालेः निष्क्रमणं वह वाच्यमिहेव वा यथा भेषकुमारस्य, नवरं चामर-1 अनुक्रम [९६ -१०८] ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७६,७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्म- कथाका. सूत्रांक [७६,७७] त्सरिक ॥१५॥ गाथा: धारितरुण्यादिषु शकेशानादीन्द्रप्रवेशत इह विशेषः, 'आसिय० अभंतरा वास विहि गाहा' इति 'अप्पेगइया देवा टमङ्यध्य. मिहिलं रावहाणि सभितरवाहिरं आसियसंमञ्जियं संमहसुइरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगइया देवा मंचाइमंचक-1 यने सांवलियं करेंती'त्यादिर्मेधकुमारनिष्क्रमणोक्तनगरवर्णकस्स तथा 'अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासिसु एवं सुवनवास वासिसु एवं रयणवहरपुष्फमल्लगंधचुण्णाभरणवासं वासिंसु' इत्यादिवर्षसमूहस्य तथा 'अप्पेगइया देवा हिरण्णविहिं भाईसु18 दानं सू. एवं 'सुवण्णचुण्णविहि भाईसु' इत्यादिविधिसमूहस्य तीर्थकरजन्माभिषेकोक्तसनहार्थी याः कचित् गाथाः सन्ति ताः अनुभित्य | सूत्रमध्येयं यावद् 'अप्पेगइया देवा आघावेति परिधावन्ती'त्येतदवसानमित्यर्थः, इदं च राजप्रश्नकृतादी द्रष्टव्यमिति, 'निलुकेति निलुकोऽन्तर्हित इत्यर्थः 'सुद्धस्स एकारसीपक्खेणं ति शुद्धपक्षस्य या एकादशी तिथिस्तत्पधे-तदढे गमि-18 त्यलकारे 'णायकुमार'चि हाता:-क्ष्वाकुवंशविशेषभूताः तेषां कुमारा:-राज्याही ज्ञातकुमाराः, 'तस्सेव दिवसस्स पुवा(पञ्च)वरणहकालसमयंसित्ति यत्र दिवसे दीक्षा जग्राह तस्यैव पोषमासशुद्धैकादशीलक्षणस्य प्रत्यपराह्नकालसमये-पश्चिमे 8 भागे इदमेवावश्यक पूर्वाहे मार्गशीर्षे च श्रूयते,यदाह-'तेवीसाए गाणं उप्पन जिणवराण पुतण्हे'त्ति तथा 'मग्गसिरसुद्धएकारसीए मल्लिस्स अस्सिणीजोगिति तथा तत्रैवाखाहोरात्र यावच्छावपर्यायः श्रूयते तदवाभिप्राय बहुश्रुता विदन्तीति, 'कम्मरयविकरणकरं ति कर्मरजोविक्षेपणकारि अपूर्वकरणमष्टमगुणस्थानक, अनन्तं विषयानन्तखात् यावत्करणा-1 ॥१५॥ दिदं द्रष्टव्यं अनुत्तर-समस्तवानप्रधानं निर्व्यापातं-अप्रतिहतं निरावरण-क्षायिक कृत्स्न-सर्वार्थग्राहकखात् प्रतिपूर्ण-सकल-| खांशयुक्तनात् पौर्णमासीचन्द्रवत् केवलवरज्ञानदर्शनं संशुद्धं वरविशेषग्रहणं सामान्यग्रहणं चेत्यर्थः । अनुक्रम [९६ -१०८] ~316 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ---------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: བས ནས་ PA प्रत सत्रांक [७८) दीप अनुक्रम [१०९] सेणं कालेणं २ सवदेवाणं आसणाति चलंति समोसढा सुणेति अट्ठाहियमहा० नंदीसरं जामेव दिसं पाउ० कुंभएवि निग्गच्छति। तते गं ते जितसत्तुपा० एप्पि० जेट्टपुत्ते रज्जे ठावेत्ता 'पुरिससहस्सवाहिणीयाओ दुरूढा सचिड्डीए जेणेव मल्ली अ० जाव पज्जुवासंति, तते णं मल्ली अ० तीसे महालियाए कुंभगस्स तेसिं च जियसत्तुपामुक्खाणं धम्मं कहेति परिसा जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, कुंभए समणोवासप जाते, पडिगए, पभावती य, तते णं जितसत्तू छप्पि राया धम्मं सोचा आलित्तए णं भंते ! जाव पच्चया, चोद्दसपुषिणो अणंते केवले सिद्धा, ततेणं मल्ली अरहा सहसंबवणाओ मिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरह, मल्लिस्सणं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा अट्ठावीसं गणहरा होत्या, मल्लिस्सणं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोव्बंधुमतिपामोक्खाओ पणपण्णं अजियासाहस्सीओउको सावयाणं एगा सतसाहस्सी चुलसीतिं सहस्सा सावियाणं तिनि सयसाहसीओ पण्णढि च सहस्सा छस्सया चोइसपुवीण वीससया ओहिनाणीणं बत्तीसंसया केवलणाणीणं पणतीसं सया वेउबियाणं अट्ठसया मणपज्जवनाणीणं चोइससया वाईणं वीसं सया अणुत्तरोववातियाणं, मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था तंजहा-जुयंतकरभूमी परियायतकरभूमी य, जाव चीसतिमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी, दुवासपरियाए अंतमकासी, मल्ली णं अरहा पणुवीस घणूतिमुहूं उच्चत्तेणं वपणेणं पियंगुसमे समचउरंससंठाणे वज़रिसभणारायसंघयणे मज्मदेसे मुहंसुहेणं विहरित्ता जेणेव मल्लिजिनस्य षड् मित्राणां दिक्ष-महोत्सव: ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: साताधर्म कथाङ्गम् दमल्लीज्ञाताध्यम ल्लीनिर्वाणादि सू. प्रत ११५४॥ सत्राक सम्मेए पथए तेणेव उवागच्छइ २त्ता संमेयसेल सिहरे पाओवगमणुबवणे मल्लीण य एगं वाससतं आगारवासं पणपण्णं वाससहस्सातिं वाससयऊणाति केवलिपरियागं पाउणित्ता पणपणं वाससहस्साई सबाउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोचे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खस्तेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अजियासएहिं अभितरियाए परिसाए पंचहि अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं वग्धारियपाणी खीणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे एवं परिनिवाणमहिमा भाणियबा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ पडिगयाओ, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेसिवेमि (सूत्रं ७८)॥८॥ [७८) कि दीप अनुक्रम [१०९] 'अट्टाहियामहिम'ति अष्टानामहां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां साऽष्टाहिका, इदं च व्युत्पत्तिमात्र, प्रवृत्तिस्तु । महिमामात्र एवेति दिवसस्य मध्ये तवयं न विरुध्यते इति, 'दुबिहा अंतकरभूमिति अन्तकरा:-भवान्तकराः निर्वाणयायिनस्तेषां भूमिः कालान्तरभूमिः, 'जुयंतकरभूमी ति इह युगानि-कालमानविशेषास्तानि च क्रमवचीनि तत्साधम्पांघे क्रम- वर्जिनो गुरुशिष्यप्रशिष्पादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमितान्तकरभूमिः युगान्तकरभूमिः, परियायतकरभूमी'ति पयर्यायः-11 तीर्थंकरस्य केवलिखकालस्तमाश्रित्यान्तकरभूमिर्या सा तथा तत्र, 'जावेत्यादि इह पश्चमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या ततो यावद्धि १५॥ मल्लिजिनस्य षड् मित्राणां दिक्ष-महोत्सव: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [७८) दीप अनुक्रम [१०९] शतितम पुरुष एवं युग पुरुषयुगं विंशतितम प्रतिशिष्य यावदित्यर्थः युगान्तकरभूमिमल्लिजिनस्याभवत् । मल्लिजिनादारभ्य || तत्तीर्थे विंशतितमं पुरुषं यावत् साधवः सिद्धास्ततः परं सिद्धिगमनव्यवच्छेदोऽभूदिति हृदयं, 'दुवासपरियाए'ति द्विवर्ष- पर्याये केवलिपर्यायापेक्षया भगवति जिने सति अन्तमकाति-भवान्तमकरोत् तत्तीर्थे साधु रात् कथिदपीति, 'दुमासपरियाए' इति कचित् कचिच 'चउमासपरियाए' इति दृश्यते, 'वग्धारियपाणी'ति प्रलम्बितमजः, 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञायां ऋषभस्य निर्वाणमहिमोक्तस्तथेह मल्लिजिनस वाच्य इत्यर्थः, स चैवमर्थता-यत्र समये || मल्लिरहेन् कालगतो व्यतिक्रान्तः समुद्घातः छिन्नजातिजरामरणबन्धनः सिद्धः तत्र समये शक्रवलितासनः प्रत्युक्तावधिबिज्ञातजिननिर्वाणः सपरिवारः सम्मेतशैलशिखरेवततार, ततोऽसौ विमना निरानन्दोऽश्रुपूर्णेनयनो जिनशरीरकं त्रिः प्रद-18 क्षिणीकृत्य अनतिदूरासने नमस्मन् पर्युपास्ते म, एवं सर्वेऽपि वैमानिकादयो देवराजाः, ततः शक्रो देवनन्दनवनात् आनायितगोशीर्षसरसदारुविहितचितित्रयः क्षीरसमुद्रादानीतक्षीरोदकेन जिनदेहं नापयामास गोशीर्षचन्दनेनानुलिलेप हंसल!क्षणं शाटकं निवासयामास सर्वालङ्कारविभूषितं चकार, शेपा देवा गणधरानगारशरीरकाण्येवं चक्रुः, शक्रस्ततो देवेस्तिस्रः शिविकाः कारयामास, तत्रैकवासी जिनशरीरमारोपयामास महाच चितिस्थाने नीखा चितिकायां स्थापयामास, शेपदेवा गणधरानगारशरीराणि द्वयोः शिपिकयोरारोप्य चित्योः स्थापयामासुः, ततः शक्रादेशादपिकुमारा देवास्तिसृष्वपि चितिष्वग्निकार्य, IS विकृतवन्तो वायुकुमारास्तु वायुकार्य शेपदेवाश्च कालागुरुप्रवरकुन्दरुकतुरुकधूपान् घृतं मधु च कुम्भारशः प्रचिक्षिपुः, ततो मांसादिषु दग्धेषु मेधकुमारा देवाः क्षीरोदकेन चितीनिर्वापयामासुः, ततः शक्रो भगवतो दक्षिणमुपरितनं सस्थि जग्राह SARERainintenmarana ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [८], ----------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [७८) ज्ञाताधर्म-15 ईशानश्च वामं चमरोधस्तनं दक्षिण बलियम शेषा यथार्हमङ्गोपाङ्गानि गृहीतवन्तः, ततस्तीर्थकरादिचितिक्षितिषु महास्तूपान् दमल्लीज्ञाकथाङ्गम, चक्रुः परिनिर्वाणमहिमानं च, ततः शक्रो नन्दीश्वरे गला पूर्वमिन्नञ्जनकपर्वते जिनायतनमहिमानं चकार तल्लोकपालास्तुताध्यम | चत्वारचत पूर्वाञ्जनपावर्तिषु दधिमुखपवेतेषु सिद्धायतनमहिमानं चक्रुः, एवमीशानः उत्तरसिंतल्लोकपालास्तत्वार्थ- लीनिर्वा॥१५५|| वर्तिदधिमुखेषु चमरो दक्षिणाञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव बलिः पश्चिमेऽञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव, ततः शक्रः खकीये विमाने 8 णादि सू. गला सुधर्मसभामध्यव्यवस्थितमाणवकाभिधानस्तम्भवतियससमुद्कानवतार्य सिंहासने निवेश्य तम्मध्यवर्तिजिनसक्थीन्यपू-ISH ७८ पुजत् मल्लिजिनसक्थि च तत्र प्राविपद् एवं सर्वे देवा इति, 'एव'मित्यादि निगमनम् ॥ इह च ज्ञाते यद्यपि | दृष्टान्तदाष्टोन्तिकयोजना सूत्रेण न दर्शिता तथापि द्रष्टच्या, अन्यथा ज्ञातसानुपपत्तेः, सा च किलैचम्-"उग्गतवसं- जमवओ पगिढफलसाहगस्सवि जियस्स | धम्मविसएवि सुहुमावि होह माया अणस्थाय ॥१॥ जह मल्लिस्स महाबलभवंमि || तिस्थयरनामबंधेवि । तवविसय थेवमाया जाया जुवइत्तहेउत्ति ॥२॥ [उग्रतपःसंयमवत: प्रकृष्टफलसाधकस्यापि जीवस्य धर्मविषयाऽपि सूक्ष्माऽपि भवति माया पुनरनर्थाय ॥१॥ यथा मल्या महाबलभवे तीर्थकरनामवन्धेऽपि तपोविषय स्तोका माया जाता युवतिभावहेतुः ॥२॥] अष्टमज्ञातविवरणं समाप्तमिति ॥८॥ ॥१५५॥ दीप अनुक्रम [१०९] अत्र अध्ययनं-८ परिसमाप्तम् ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०]. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अथ नवमज्ञातविवरणम् । सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११०-११२] अथ नवमं विवियते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र मायावतोऽनर्थ उक्तः इह तु भोगेष्वविरतिमतोऽनों विरतिमतथार्थोऽभिधीयते इत्येवंसम्बद्धंजइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स णायज्झयणस अयमढे पण्णत्ते नवमस्स णं भंते नायजायणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णत्ते, एवं खलु जंबू! तेर्ण कालेणं २चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे तत्थ णं माकंदी नाम सत्यवाहे परिचसति, अहे, तस्स णं भद्दा नाम भारिया, सीसे णं महाए अत्तया दुवे सत्यवाहदारया होत्या, तंग-जिणपालिए य जिणरक्खिए य, तते णं सेसिं मागंदियदारगाणं अण्णया कयाई एगपओ इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पवित्था-एवं खल्लु अम्हे लवणस. मुई पोयवहणेणं एकारस वारा ओगाढा सबस्थविय णं लट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि निययघरं हवमागया त सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! दुवालसमंपि लवणसमुदं पोतवणेणं ओगाहित्तएत्तिकड अण्णमण्णस्सेतमटुं पडिसुणेति २त्सा जेणेव अम्मापियरो तेणेव ७वा. एवं वदासी-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारस वारा तं चेव जाब निययं घरंहवमागया,तं इच्छामो णं अम्मयाओ!तुम्हेहिं अथ अध्ययन- ९ "माकन्दी आरभ्यते - शिर्षक स्थाने मया यत् [७९-८०] लिखितं तत् स्पष्टीकरण-- (मूल संपादक द्वारा सूत्र ४९ ऐसा क्रम भुलसे दोबार दिया गया है, उसके बाद सूत्र-८० है, मतलब यहां तीन सूत्र एक साथ है, इसिलिए हमने ७९,८० ऐसी हमारी पध्धत्ति को छोडकर यहा ७९-८० लिखा है ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [७९-८०] ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [११०-११२]] अन्भणुपणाया समाणा दुवालसमं लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए, तते ण ते मागंदियदारए अम्मापियरो एवं वदासी-इमे ते जाया! अजग जाव परिभाएत्तए तं अणुहोह ताय जाया ! बन्दीज्ञाता० विउले माणुस्सए इड्डीसकारसमुदए, किंभे सपचवाएणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं, एवं खलु लवणोदपुसा! दुवालसमी जत्ता सोचसग्गा पावि भवति, तं मा णं तुम्भे दुवे पुत्ता! दुवालसमंपि लवण धियात्रा जाव ओगाहेह, मा हु तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सति, तते णं मागंदियदारगा अम्मापियरो दोचपि | सू. १९ तपेपि एवं वदासी-एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एकारस वारा लवणं ओगाहित्सए, तते णं ते मार्गदीदारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा ताहे अकामा चेव एयमहूं अणुजाणिस्था, तते णं ते मागंदियदारगा अम्मापिकहिं अग्भणुण्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेजं च पारिच्छेज्जं च जहा अरहणगस्स जाव लवणसमुई बरई जोअणसयाई ओगाढा (सूत्रं ७९) तते णं तेसिं मागंदियदारगाणं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं अणेगाई उप्पाहपसयाति पाउम्भूयाति, तंजहा-अकाले गजियं जाव थणियस कालियवाते तत्व समु. ॥१५६॥ हिए, तते णं सा णावा तेणं कालियवातणं आहुणिजमाणी २ संचालिबमाणी २ संखोभिजमाणी २ सलिलतिक्खवेगेहिं आयडिजमाणी२ कोहिमंसि करतलाहते विव तेंदूसए तत्थेव २ ओवयमाणी य उप्पयमाणी य उप्पयमाणीविच धरणीयलाओ सिद्धविजाहरकन्नगा ओवयमाणीविव गगणतलाओ eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeerne ..अत्र सूत्रक्रमांक स्थाने मूल संपादने एका स्खलना वर्तते- यत् सू. ७९ स्थाने सू. १९ मुद्रितं ~322 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११०-११२] भविजा विजाहरकन्नगाविव पलायमाणीविव महागालवेगवित्तासिया भुयगवरकन्नगा धावमाणीविव महाजणरसियसहवित्तत्था ठाणभट्ठा आसकिसोरी णिगुंजमाणीविव गुरुजणदिहावराहा सुयणकुलकन्नगा घुम्ममाणीविव वीचीपहारसततालिया गलियलंयणाविव गगणतलाओ रोयमाणीविष सलिलगद्विविप्पहरमाणघोरंसुवाएहिं णवबहू उधरतभत्तुया बिलबमाणीविष परचकरायाभिरोहिया परममहन्मयाभिदुया महापुरवरी झायमाणीविच कवडच्छोमप्पओगजुत्ता जोगपरिवाइया णिसासमाणीविव महाकतारविणिग्गयपरिस्संता परिणयवया अम्मया सोयमाणीविव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरबहू संचुषिणयकट्ठकूवरा भग्गमेडिमोडियसहस्समाला मूलाइयवंकपरिमासा फलहंतरतडतडेंतफुतसंधिवियलंतलोहकीलिया सवंगवियंभिया परिसडियरज्जुविसरंतसवगत्ता आमगमल्लगभूया अकयपुण्णजणमणोरहोविव चिंतिजमाणगुरुई हाहाकयकपणधारणाचियवाणियगजणकम्मगारविलविया णाणाविहरयणपणियसंपुण्णा बहहिं पुरिससएहिं रोयमाणेहिं कंद० सोय. तिप्प० विलवमाणेहिं एगं महं अंतो जलगयं गिरिसिहरमासायइत्ता संभग्गकूवतोरणा मोडियझयदंडा वलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विदय उवगया, तते णं तीए णावाए भिजमाणीए बहवे पुरिसा विपुलपडियं भंडमायाए अंतो जलंमि णिमज्जावि यावि होत्था (सूत्रं७९) तते णं ते मागंदियदारगा छेया दक्खा पसट्ठा कुसला मेहावी पिउणसिप्पोवगया बहुसु पोतवहणसंपराएसु कयकरणलद्धविजया अमूढा अमूढहत्था ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म ९माक कथानम्॥ ॥१५७॥ प्रत सुत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११०-११२] एग महं फलगखंडं आसाति, जंसिंच णं पदेसंसि से पोयवहणे विवन्ने तसिं च णं पदेससि एगेमहं रवणदीचे णाम दीचे होत्था अणेगाई जोअणाति आयामविक्खंभेणं अणेगाईजोअणाई परिक्खेवणं णाणादुम- नन्दीदारकसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासातीए ४, तस्स गं बहुमज्झदेसभाए तत्थ णं महं एगे पासायवसए होत्था ज्ञाते नौअन्भुग्गपमूसियए जाव सस्सिरीभूपरूवे पासातीए ४, तत्थ गं पासायब.सए रयणदीवदेवया भामं निमज्जन देवया परिवसति पाचा चंडा रुदा साहसिया, तस्स णं पासायवसियस्स चउरिसिं चत्तारि चणसंडा किण्हा किण्होभासा, तते णं ते मागंदियदारगा तेणं फलयखंडेणं उधुज्झमाणा २ रयणदीर्वतेणं लद्वीपदेवसंवुढा यावि होत्या, तते ते मागंदियदारणा याहं लभंति २ मुटुसतरं आससंति २ फलगखंडं विस- तासंगः जेति २ रयणदीव उत्तरंति २फलाणं मम्गणमवेसणं करेंति २फलार्ति गिण्हंति २ आहारैति २णाकि- सू.८० एराणं मग्गणमवेसणं करेंति गालिएराई फोडेंति २ नालिएरतेल्लेणं अपणमण्णस्स गत्ताई अभंगति २ पोक्खरणीतो ओबाहिति २ जलमजणं करेंति २ जाब पबुत्तरंति २पुढविसिलापडपंसि निसीयंति २ आसत्था बीमत्था मुहासणवरगया चंपानयार अम्मापिउआपुच्छणं व लवणसमुदोत्तारं च कालियथायसमुत्थर्ण च पोतबहणविवर्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदीनुत्तारं च अणुर्णिलेमाणा २ मोह ॥१५७॥ तमणसंकप्पा आव सिचायन्ति, तसे सा रथाद्दीचदेवया ते मामंदिपदारए ओहिणा आभोएति - असिफसगवग्गहस्था खसहतालप्पमाणं हूं बहासं जम्पयति २ खाते बिहाए जान देषगईए पीइय ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रांक [७९-८०] माणी २ जेणेव मागंदियदारए तेणेच आगच्छति २ आसुरुत्ता मामंदिपदारए खरफरुसनिडरवयहि एवं वदासी- रंभो मागंदियदारया! अप्पत्थियपस्थिया जति णं तुम्भे मए सर्द्धि बिउलाति भोगमोगाई मुंजमाया विहद तो भे अस्थि जीवि, अहणणं तुम्भे मए सद्धिं बिजलाति नो विहरह तो भे इमेणं नीलुष्पलगवलगुलिय जाव खुरधारेणं असिमा रसगडमंसुबाई माउयाहिं उचसोहियाई तालफलाणीव सीसाइं एगते एडेमि, तते णं ते मामंदियदारमा रयणदीवदेषयाए मंतिए सो भीया करपल. एवं जणं देवाणुप्पिया! यतिस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिदेसे चिहिस्सामो, तते णं सा रयगद्दीवदेवधा से मागंदियदारए मेण्हति २ जेणेव पासायवसिए तेणेव उवागच्छह २ असुभपोग्मलावहारं करेति २ सुभपोग्गलबक्खेवं करेति २सा पच्छा तेहिं सदि विलाति भोगभोगाई भुंजमाणी विहरति कल्लाकलिं च धमयफलार्ति उवणेति (सूत्र ८०) सर्व सुगम, नवरं 'निरालंबणेणं' निष्कारणेन प्रत्यपायसम्भवे वा वाणायाऽऽलम्बनीयवस्तुबर्जितेन 'कालियावाए तत्यत्ति कालिकावात:-प्रतिकूलवायुः, आहुणिजमाणी'त्यादि आधूयमाना कम्पमाना विद्रवमुपगतेति सम्बन्धः, सञ्चारखमाना-स्थानात् स्थानान्तरनयनेन सङ्क्षोभ्यमाना-अधो निमजनतः तद्गतलोकक्षोभोत्पादादा सलिलातीक्ष्णवेमैरतिवल्माना-18 आक्रम्यमाणा कुष्टिमे करतलेनाहतो यः स तथा स इव तेंदूसए'त्ति कन्दुक तत्रैव प्रदेशेऽध: पतन्ती बा-अधो मच्छन्ती उत्प दीप अनुक्रम [११०-११२] Saesesee ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९-८०] दीप अनुक्रम [११०-११२] साधर्मतन्ती वा-ऊर्द्ध यान्ती तथोपतन्तीव धरणीतलात् सिद्धविद्या विद्याधरकन्यका तथाध: पतन्तीव गगनक्षलाद् भ्रष्टविद्या वि-11९ माककथाशम्. द्याधरकन्यका तथा विपलायमानेव-भयाद्धावन्तीव महागरुडवेगवित्रासिता भुजगकन्यका धावन्तीव महाजनस्य रसितशब्देन । न्दीशाता. वित्रस्ता स्थानभ्रष्टाऽश्वकिशोरी तथा विगुञ्जन्तीव-अव्यक्तशब्दं कुर्वन्तीव अवनमन्तीव वा गुरुजनदृष्टापराधा-पित्राद्युपलब्धव्य-18, ॥१५॥ लीका सुजनकुलकन्यका कुलीनेति भावः, तथा घूर्णन्तीव-वेदनया थरथरायमाघेव वीचिप्रहारशतताडिता हि स्त्री वेद- ९-८ नया घूर्णतीति वेदनयेव घूर्णयन्तीत्येवमुपमानं द्रष्टव्यं, गलितलम्बनेव-आलम्बनाद् भ्रष्टेव गगनतलाद्-आकाशात् पतितेवि गम्यते, यथा क्षीणबन्धन फलाद्याकाशात् पतति एवं साऽपीति, कचित्तु गलितलम्बना इत्येतावदेव दृश्यते, तत्र लम्ब्यन्ते | इति लम्बना:-नगरास्ते गलिता यस्यां सा तथा, तथा रुदन्तीव, कैः केल्याह-सलिलभिन्ना ये ग्रन्थयस्ते सलिलगन्धयः ते च ते 'विप्पहरमाण'ति विप्रकिरन्तश्च सलिलं क्षरन्त इति समासः त एव स्थरा अश्रुपातास्तैर्नववधूरुपरतभर्तृका तथा 18 विलपन्तीव, कीदृशी केल्याह-परचक्रराजेन-अपरसैन्यनृपतिनाभिरोहिता-सर्वतः कृतनिरोधा या सा तथा, परममहाभयाभिद्रुता महापुरवरी, तथा क्षणिकस्थिरवसाधर्म्यात् ध्यायन्तीव कीदृशी केल्याह-कपटेन वेषायन्यथाखेन यच्छन तेन प्रयोगः-परप्रतातरणच्यापार: तेन पुक्ता या सा तथा योगपरिव्राजिका-समाधिप्रधानप्रतिनीविशेषः, तथा निःश्वसन्तीव अधोगमनसाधाद तद्गतजननिःश्वाससाधोद्वा निःश्वसन्तीव कीदृशी केल्याह-महाकान्तारविनिर्गता परिश्रान्ता च या सा तथा परिणतया |॥१५८॥ 151-विगतयौवना 'अम्मय'ति अम्बा पुत्रजन्मवती, एवंभूता हि खी श्रमप्रचुरा भवति ततधात्यर्थे निःश्वसितीत्येवं सा विशेषि-IN तेति, तथा तद्गतजनविषादयोगात् शोचन्तीव, कीदृशी केवेत्याह-तपश्चरण-ब्रह्मचर्यादि तत्फलमपि उपचारात् तपश्चरणं ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रांक [७९-८०] खर्गसम्भवमोगजातं तसा क्षीणः परिभोगो यस्याः सा तथा, च्यवनकाले देववरवधूः, अथवा 'उप्पयमाणीवियेत्यादाविवशब्दसान्यत्र योगादुत्पतन्ती नौः, केव-सिद्धविद्याविद्याधरकन्यकेवेत्यादि व्याख्येयमिति,तथा सञ्चूर्णितानि काष्ठानि कूवर च-तुण्डं यस्याः सा तथा, तथा भया मेढी-सकलफलकाधारभूतकाष्ठरूपा यस्याः सा तथा, मोटितो-मनः सहसा-अकस्मात् सहस्रसाजनाश्रयभूतो वा मालो-मालकः उपरितनभागो जनाधारो यस्याः सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तथा । शूलाचितेव-शूलामोतेव गिरिशृङ्गारोहणेन निरालम्बनतां गतसालाचिता पको-वक्र: परिमों-जलधिजलस्पर्शो यस्याः | सा तथा ततः कर्मधारयः अथवा शूलायित:-आचरितशूलारूप: स्कन्दितपरिकरवात् 'मूलाइच'चि पाठे तु शूलाय-18 मानो वन-वक्र: 'परिमासोति नौगतकाष्ठविशेषो नाविकप्रसिद्धो यस्यां सा तथा, फलकान्तरेषु-सङ्कटितफलकविवरेषु तटतटायमाना:-तथाविधध्वनि विदधानाः स्फुटन्तो-विघटमानाः सन्धयो-मीलनानि यस्यां सा तथा, विगलन्त्यो। लोहकीलिका यस्यां सा तथा, ततः कर्मधारयः, तथा सर्वाङ्ग:-सर्वावयवैषिजृम्भिता-विवृततां गता या सा तथा, परिशटिता रजवा-फलकसङ्घातनदवरिका यस्याः सा तथा, अत एच 'विसरंत'त्ति विशीर्यमाणानि सर्वाणि गात्राणि यस्याः सा तथा, ततः कर्मधारयः, आमकमल्लकभूता-अपकशराबकल्पा, जलसम्पर्के क्षणेन विलयनात्, तथा| अकृतपुण्यजनमनोरथ इव चिन्त्यमाना-कथमियमेतामापदं निस्तरिष्यतीत्येवं विकल्प्यमाना गु/-गुरुका, आपदः सकाशात् दुःसमुद्धरणीयखात्, निष्पुण्यजनेनापि खो मनोरथः कथमयं पूरयिष्यत इत्येवं चिन्त्यमानो दुनिर्वहखाद् गुरुरेव भव-18 न्तीति तेनोपमेति, तथा हाहाकृतेन-हाहाकारेण कर्णधाराणा-निर्यामकाणां नाविकाना-कैवर्चानां वाणिजकजनानां कर्मकराणां दीप अनुक्रम [११०-११२] ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [७९-८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [७९-८०] eenewesese दीप अनुक्रम [११० |च प्रतीतानां विलपितं-विलापो यस्यां सा तथा, नानाविधै रत्नैः पण्यैश्च-भाण्डैः सम्पूर्णा या सा तथा, 'रोयमाणेहि ति ९माककथाङ्गम्। सशब्दमश्रूणि विमुञ्चत्सु 'कंदमाणेहि ति शोकान महाध्वनि मुञ्चत्सु 'सोयमाणेहि शोचत्सु मनसा खिद्यमानेषु तिप्पमा-न्दीज्ञाता. यहि ति भयात् प्रखेदलालादि तर्पत्सु 'विलपत्सु धार्न जल्पत्सु एक महन् 'अंतो जलगर्य'ति जलान्तर्गतं गिरिशि- सू. ॥१५॥ | खरमासाथ सम्भन्नः कूपक:-कूपकस्तम्भो यत्र यत्र सितपटो निवध्यते तोरणानि च यस्यां सा तथा, तथा मोटिवा ध्वज-18 दण्डा यस्यां सा तथा, बलकानां-दीर्घदारुरूपाणां शतानि खण्डानि यस्यां सा तथा अथवा वलयशतैः-वलयाकारखण्डशतैः खण्डिता या सा तथा, 'करकर'त्ति करकरेतिशब्दं विधाना तत्रैव जलधौ विद्रवं-विलयमुपगतेति, पोयवहणसंपराएK'ति 18 सम्परायः-सङ्ग्रामः तव्यानि भीषणानि पोतवहनकार्याणि तानि तथोच्यन्ते तेषु, देवताविशेषणानि विजयचौरविशेषणवद् । गमनीयानि, 'असिखेडगवग्गहत्य'ति खडफलकाभ्यां व्यत्रौ हस्तौ यस्याः सा तथा, 'रत्तगंडमंसुयाई ति रक्तौ-रञ्जितौ || गण्डौ पैस्तानि रक्तगण्डानि तानि मथूणि-पूर्चकेशाः ययोस्ते रक्कमण्डश्मभुके 'माउयाहि यसोहियाईति इह माउयाउ8 उत्तरोष्ठरोमाणि सम्भाष्यन्ते अथवा 'माया' सस्यो मातरो वा वाभिः उपशोमिते-समारचितकेशलादिना जनितशोभे|81 I उपशोभिते वा-निर्मलीकते शिरसी-मस्तके छिच्चेति वाक्यशेषः, 'जण्णं देवाणुप्पिए'त्यादि, यं कञ्चन प्रेष्याणामपि प्रेम देवानुप्रिया वदिष्यति-उपदेश्यति यदुतायमाराध्यः 'तस्स'त्ति तस्यापि आस्वां भवत्याः आबा-अवश्य विधेयतया आदेशः ॥१५९॥ उपपात:-सेवावचनं अनियमपूर्वक आदेश एवं निर्देश:-कार्याणि प्रति प्रश्ने कृते यत्रियवार्यनुचरमेतेषां समाहारद्वन्द्वः तत्र अथवा यद्देवानां प्रिया वदिष्यति तस्सति वत्र आज्ञादिरूपे खाखामा-वर्तिघ्याम इति, 'अमयफलाई ति अमृतोपमफलानि ॥ Footbesecs -११२] ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक poerce Ice गाथा: तते णं सा रयणदीवदेवया सवयणसंदेसेणं मुट्ठिएणं लवणादिवरणा लवणसमुद्दे तिसंसखुसो अणपरिपहियवेत्ति ज किंचि तत्थ तर्ण वा पत्तं वा कटु वा कयवरं वा असुई पूतिय दुरभिगंधमचोक्वं तं सर्व आहुणिय २ तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयवंतिकड्ड णिउत्ता, तत्ते णं सा पणदीवदेवया ते भागंदियदारए एवं वदासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सत्र सुट्टियः तं चेव जाव णिउत्ता, तं जाव अहं देवालवणसमुदे जाव एडेमि ताव तुम्भे इहेव पासायवर्डिसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह, जति णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उबिग्गा वा उस्सुया वा उप्पुषा वा भवेजाह तो णं तुन्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थ णं दो ऊऊ सया साहीणा तं०-पाउसे य वासारत्ते य, तत्थ उ कंदलसिलिंधदंतो णिउरवरपुष्फपीवरकरो । कुडयज्जणणीवसुरभिदाणो पाउसऊगयवरो साहीणो ॥१॥ तत्थ प-सुरगोचमणिविचित्तो वहुरकुलरसियउमररषो। वरहिणविंदपरिणडसिहरो वासारत्तो उऊपवतो साहीणो ॥२॥ तत्थ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! बहुसु बाबीसु य जाय सरसरपंतियासु बहसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाच कुसुमघरएसु य सुहंमुहेणं अभिरममाणा विहरेजाह, जति णं तुम्भे एस्थति उचिग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेवाह तो गं तुम्भे उत्तरिल्लं वणसंड गच्छेज्जाह, तत्थ ण दो ऊऊ सया साहीणा तं०-सरदो य हेमंतो प,-तत्थ उ सणससवण्णकउओ नीलुप्पलपउमन लिणसिंगो । सारसचकवायरवितघोसो सरयऊऊगोवती साहीणो दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत जाताधर्म सुत्राक [८१] ॥१६॥ ९माकन्दीज्ञाता. वनषण्डे पडतुवर्णनं पर्वतशशिसागरैः सू. गाथा: ॥१॥ तत्थ य सियकुंदधवलजोण्हो कुसुमितलोद्भवणसंडमंडलतलो । तुसारदगधारपीवरकरो हेमंतकऊससी सया साहीणो ॥२॥ तत्थ णं तुन्भे देवाणुप्पिया! वावीसु य जाब विहरेज्जाह, जति णं तुन्भे तत्ववि उधिग्गा वा जाव उस्सुया वा भवेताह तो गं तुन्भे अवरिलं वणसंडं गच्छेज्जाह, तत्थ णं दो ऊऊ साहीणा, तं०-वसंते य गिम्हे य, तंत्थ उ सहकारचारुहारो किसुयकणियारासोगमउडो । ऊसिततिलगबउलायपत्तो वसंतउऊणरवती साहीणो ॥१॥ तत्थ य पाडलसिरीससलिलो मलियावासंतियधवलवेलो। सीयलसुरभिअनिलमगरचरिओ गिम्हऊऊसागरो साहीणो ॥२॥ तत्थ णं बहुसु जाव विहरेवाह,जति णं तुम्भे देवा तत्थवि उधिग्गा उस्सुया भवेज्जाह तओ तुन्भे जेणेव पासायवडिंसए तेणेव उवागच्छेजाह, ममं पडिवालेमाणा २ चिट्ठलाह, मा णं तुन्भे दक्खिणिलं वणसंडं गच्छेजाह, तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अहकायमहाकाए जहा तेयनिसग्गे मसिमहिसामूसाकालए नयणविसरोसपुषणे अंजणपुंजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजुयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कड फुडकुडिलजडिलकक्खडवियडफडाडोवकरणदच्छे लोगाहारधम्ममाणधमधमेतघोसे अणागलियचंडतिवरोसे समुहिं तुरियं चवलं धमधमतदिट्ठीविसे सप्पे य परिवसति, मा णं तुम्भं सरीरगस्स वायत्ती भविस्सइ, ते मागंदियदारए दीप अनुक्रम [११३-१२२] ॥१६॥ ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [८१] गाथा: दोचंपितञ्चपि एवं वदति २ वेउवियसमुग्घाएणं समोहणति २ ताए उकिटाए लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियडेउं पयत्ता यावि होत्था (सूत्रं ८१) 'सकवयणसंदेसेणं'ति शक्रवचनं चासौ सन्देशव-भाषकान्तरेण देशान्तरस्थस भणनं शक्रवचनसन्देशः तेन, अशुचिक-TRA अपवित्रं समुद्रस्थाशुद्धिमात्रकारकं पत्रादीति प्रक्रमः पूतिक-जीर्णतया कुथितप्राय दुरभिगन्धं-दुष्टगन्धं,किमुक्तं भवति ?-अचोक्ष-12 अशुद्धं, 'तिसत्तखुत्तो'त्ति त्रिभिर्गुणिताः सप्त त्रिसप्त त्रिसप्त वाराः त्रिसप्तकृत एकविंशतिवारानित्यर्थः, एयंसि अंतरंसित्ति एतस्मिन्नवसरे विरहे वा 'उबिग्गति उद्विनौ उद्वेगवन्तौ 'उप्पिच्छत्ति भीतौ पाठान्तरेण उत्प्लुतौ-भीतावेव 'उस्सुय'ति । उत्सुकौ असत् समागमनं प्रति, 'तत्थ णं दो उदृ'इत्यादि, तत्र-पौरस्त्ये वनखण्डे द्वौ ऋतू-कालविशेषौ सदा स्वाधीनौ-अSस्तिखन खायची, तज्जन्यानां वनस्पतिविशेषपुष्पादीनां सद्भावात् , तद्यथा-प्रावृट् वर्षारात्रश्च, आषाढश्रावणौ भाद्रपदाचयुजौ। चेत्यर्थः, अनयोरेव रूपकालङ्कारेण वर्णनाय गीतिकाद्वयम्, 'तत्थ उइत्यादि, तत्रैव पूर्ववनखण्डे नान्यत्रौदीच्ये पश्मेि वेत्यर्थः, Ki कन्दलानि च-प्रत्यग्रलताः सिलिन्ध्राच-भूमिस्फोटाः, अन्ये बाहुः-कन्दलप्रधानाः सिलिन्ध्रा-वृक्षविशेषा ये प्राकृषि पुष्यन्ति सितकुसुमात्र भवन्ति त एव कुसुमिताः सन्तो दन्ता यख घवलबसाधात् सः कन्दलसिलीन्ध्रदन्तः, इह च सिलीन्ध्राणां कुसुमितख विशेषणं सामर्थ्याद् व्याख्यातं, कुसुमाभावे तेषां प्रावृषोऽन्यत्रापि कालान्तरे सम्भवादिति, तथा निउरों'चि वृक्षविशेषः तस्य यानि वरपुष्पाणि तान्येव पीयरः-धूरः करो यस्य स तथा, कुटजार्जुननीपा-वृक्षविशेषास्तत्पुष्पाणि कुटजार्जुननीपानि तान्येव दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक गाथा: ज्ञाताधर्म- सुरभिदान-सुगन्धिमदजलं यस स तथा, प्रावृद् ऋतुरेव गजवरः प्रावृऋतुगजवरः खाधीनः, इह सिलिन्ध्रादिवनस्पतीनामाककथाङ्गम. कालान्तराकृतकुसुमानां सदाकुसुमितानां भाषादात्मवशोऽस्तीति भावः ।।१॥ तथा तत्रैव बनखण्डे सुरगोपा-इन्द्रगोपकामिधानान्दीज्ञाता. रक्तवर्णाः कीटास्त एव मणयः पद्मरागादयः तैर्विचित्र:-कबुरो यः स तथा, तथा दर्दुरकुलरसितं-मण्डूकसमूहरटितं सदेव वनषण्डे. ॥१६॥ उज्झररवो-निझरशब्दो यत्र स तथा, बहिणधृन्देन-शिखण्डिसमूहेन परिणद्धानि-परिगतानि शिखराणि ऋतुपक्षे वृक्षसम्बन्धीनिषतुवर्णन पर्वतपक्षे कूटानि यत्र स तथा वरात्रऋतुरेव पर्वत इति विग्रहः, स्वाधीनः-खायत्तस्तद्धर्माणां सर्वदा तत्र भावादिति ॥२ पर्वतशशि'वावीसु'इत्यादि प्रथमाध्ययनवत्, 'सरओ हेमंतो यति कार्तिकमार्गशीर्षों पौषमाघौ चेत्यर्थः, इहापि गीतिकाद्वयं-सागरैः सू. 'तत्थ उ'इत्यादि, तत्रैव सनो-बल्कप्रधानो वनस्पतिविशेषः सप्तपर्ण:--सप्तच्छदस्तयोः पुष्पाणि सनसप्तपर्णानि तान्येव ककुदि-स्कन्घदेश विशेषो यस्य स तथा, नीलोत्पलपद्मनलिनानि-जलजकुसुमविशेषास्तान्येव शृङ्गे यस्य स तथा, सारसाश्चक्रवा-18 काश्च-पक्षिविशेषास्तेषां 'रवियं ति रुतं तदेव घोषो नदितं यस्य स तथा शरहतुरेव गोपतिः-गवेन्द्रः शरदृतुगोपतिः स्वाधीनः। ॥१॥ तथैव तत्र बनखण्डे सितानि यानि कुन्दानि-कुन्दाभिधानवनस्पतिकुसुमानि तान्येव धवला ज्योत्स्ना-चन्द्रिका यस्य | RI स तथा, पाठान्तरेण 'सितकुंदविमलजोण्हो चि स्पष्टं, कुसुमितो यो लोध्रवनखण्डः स एव मण्डलतलं-बिम्ब यस्य स तथा, तुषारं-हिमें तत्प्रधानाः या उदकधारा-उदकविन्दुप्रवाहास्ता एव पीवरा:-स्थूलाः करा:-किरणा यख स तथा, हेम-1 ॥१६॥ पन्तऋतुरेव शशी-चन्द्र इति विग्रहः खाधीनः ॥२॥ तथैव 'वसंते गिम्हे यति फाल्गुनचत्रो वैशाखज्येष्ठी चेत्यर्थः, 'तत्थ उ'इत्यादि गीतिकाइयं, तत्र च सहकाराणि-चूंतपुष्पाणि तान्येव चारुहारो यस्य स तथा, किंशुकानि-पलाशस्य कुसु दीप अनुक्रम [११३-१२२] ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [८१] गाथा: मानि कर्णिकाराणिकर्णिकारस अशोकानि चाशोकस्य तान्येव मुकुदं-किरीटं यस्य स तथा, उच्छ्रितं-उन्नतं तिलकबकुलानितिलकबकुलकुसुमानि तान्येवातपत्रं-छत्रं यस्य स तथा, वसन्त ऋतुर्नरपतिः स्वाधीनः प्रतीतम् ॥११॥ तत्र च पाटलाशिरीषाणि-13 पाटलाशिरीषकुसुमानि तान्येव सलिलं यत्र स तथा मल्लिका-विचकिलो वासन्तिका-लताविशेषः तत्कुसुमानि मल्लिकावासन्तिकानि तान्येव धवला-सिता वेला-जलवृद्धिर्यस्य स तथा, शीतला सुरभिश्च योऽनिलो-वायुः स एव मकरचरितं यत्र स तथा, इह || चानिलशब्दस्य अकारलोपः प्राकृतखात् 'अरण्ण रणं अलार्य लाउय'मित्यादिवत् ग्रीष्मऋतुसागरः स्वाधीन इति । 'उग्गविसे' इत्यादि, उग्रं दुर्जरखाद्विवं यस्य स उपविषः, एवं सर्वत्र, नवरं चण्डं झगिति व्यापकलात् , पाठान्तरे तु 'भोगविसे' इति तत्र भोगः शरीरं स एव विषं यखेति, घोरं परम्परया पुरुषसहस्रस्थापि घातकखात्, महत् जम्बूद्वीपप्रमाणशरीरस्थापि विषतयाऽभवनात्|| कायान्-शरीराणि शेषाहीनामतिकान्तोऽतिकाया,. अत एव महाकायः, 'जहा तेयनिसम्गेति शेषविशेषणानि यथा । गोशालकचरिते तथेहाध्येतल्यानीत्यथें, तानि चैतानि 'मसिमहिसमूसाकालगे' मपी च महिपक्ष भूपा च-वर्णादितापन-18 भाजनविशेषः इति द्वन्द्वः एता इव कालको यः स तथा, 'नयणविसरोसपुण्णो' नयनविषेण-दृष्टिविषेण रोषेण च पूर्ण इत्यर्थः 'अंजणपुंजनिगरप्पगासे' कजलपुञ्जानां निकर इव प्रकाशते यः स तथा, रत्तच्छे जमलजुपलचंचलचलंतजीह यमल-14 सहवर्ति युगलं-द्वयं चञ्चलं च यथा भवत्येवं चलन्त्योः अतिचपलयोर्जियोर्यख स तथा, धरणितलवेणिभूए' धरणीतलख || वेणीभूतो-बनिताशिरसः केशबन्धविशेष इच यः कृष्णखदीर्घबश्लक्ष्णलपश्चाद्भागवादिसाधात् स तथा, 'उकडफुडकुडिलज-19 डिलकक्खाइधिमडफडाडोषकरणदच्छे' उत्कटो बलवताऽन्येनाध्वंसनीयवाद स्फुटो-व्यक्तः प्रयत्नविहितसात् कुटिल:-18 दीप अनुक्रम [११३-१२२] SARERatunintamatara Auditurary.com ~333 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१], ----------------- मूलं [८१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [८१] हितोपदे गाथा: ज्ञाताधर्म- तत्स्वरूपसात् जटिल:-स्कन्धदेशे केसरिणामिवाहीनां केसरसद्भावात् कर्कशो-निष्ठुरो बलवत्त्वाव विकटश्च-विस्तीर्णो यः स्फटा- ९माककथाङ्गम. टोपः-फपासंरम्भः तत्करणे दक्षो यः स तथा, 'लोहागरधम्ममाणधमधमेतघोसे लोहाकरे ध्मायमानं-अग्निना ताप्य-न्दीज्ञाता. ISIमानं लोहमिति गम्यते तस्येव यद्धमधमायमानो-धमधमेतिवर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः-शब्दो यस्य स तथा, 'अणागलि-10 ॥१६॥ ISIIयचंडतिबरोसे अनर्गलिता-अनिवारितोऽनाकलितो वा-अप्रमेयश्चण्डतीव्र:-अत्यर्थतीम्रो रोषो यस्य स तथेति, 'समुहिं। शावाप्तिः तरिय चवलं धर्मतंति शुनो मुखं श्वमुखं तस्येवाचरणं श्वमुखि-कौलेयकस्येव भषणता सरितचपलं-अतिचलतया धमन्-I सू.८२ शब्दं कुर्वन्नित्यर्थः॥ तए णं ते मागंदियदारया तओ मुहुत्तरस्स पासायवडिंसए सई वा रतिं वा घिति वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वदासी-एवं खलु देवा! रयणद्दीवदेवया अम्हे एवं वदासी-एवं खलु अहं सकवयणसंदेसेणं मुट्टिएणं लवणाहिवइणा जाव वाबत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! पुरच्छिमिल्ले वणसंडं गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयमई पडिसुणेति २ जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागमति २तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरति. तते णं ते ॥१६२॥ मागंदियदारया तत्थवि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवा० २ तत्थ णं बावीसु य जाव जालीघरएमु य विहरंति, तते णं ते मागंदियदारया तत्थवि सति वा जाव अलभ० cिerseseseiceseses दीप अनुक्रम [११३-१२२] SARERainintamanna ~3344 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [૮૨-૮૮ गाथा: जेणेव पञ्चस्थिमिल्ले वणसंडे तेणेव उचा०२ जाब विहरति, तते णं ते मागंदिय तत्थवि सति वा जाव अलभ. अण्णमण्णं एवं वदासी-एवं खलु देवा! अम्हे रयणदीवदेवया एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सकस्स वयणसंदेसेणं सुट्टिएण लवणाहियाणा जाप माणं तुन्भं सरीरगस्स वावती भविस्सति तं भवियई एत्य कारणेणं, तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिलं वणसंडं गमित्तएत्तिकहु अण्णमपणस्स एतमट्ट पडिसुणेति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं गंधे निद्वाति से जहा नामए अहिमडेति वा जाव अणिहतराए चेव, तते णं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सरहिं २ उत्तरिजेहिं आसाति पिहेंति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेच उवागया तस्थ णं महं एग आघातणं पासंति २ अहियरासिसतसंकुलं भीमदरिसणिज एगं च तस्थ सूलाइतयं पुरिसं कलुणार्ति विस्सराति कट्ठाति कुबमाणं पासंति, भीता जाव संजातभया जेणेव से सलातियपुरिसे तेणेघ उवागच्छंति २ तं सूलाइयं एवं वदासी-एस णं दे० ! कस्साघयणे तुमं च णं के कओ वा इहं हवमागए केण वा इमेयारूवं आवतिं पाविए ?, तते णं से मुलातियए पुरिसे मागंदियदारए एवं वदासी-एस णं देवाणु ! रयणदीवदेवयाए आघयणे अहण्णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागदीए आसवाणियए विपुलं पणियभंडमायाए पोतवहणेणं लवणसमुदं ओयाए, तते णं अहं पोयवहणविवत्तीए निब्बुङ्कभंडसारे एगं फलगखंडं आसाएमि, तते णं अहं उखुज्झमाणे २ दीप अनुक्रम [१२३-१४०] serce ~335. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [८२-८८] कधानम्. ॥१६॥ ९माकदीज्ञाता. हितोपदेशावाप्तिः सू. ८२ गाथा: रयणदीवतेणं संबूढे, तते णं सा रयणदीवदेवया ममं ओहिणा पासइ २ ममं गेण्हई २ मए सद्धिं विपुलातिं भोगभोगाति भुजमाणी विहरति, तते णं सा रयणदीवदेवया अण्णदा कयाई अहालहुसगंसि अपराहंसि परिकुविया समाणी ममं एतारूवं आवर्ति पावेह, सं ण णज्जति णं देवा! तुम्हंपि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवती भविस्सइ, तते णं ते मागंदियदारया तस्स सूलाइयगस्स अंतिए एयमत्धं सोचा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजायभया मूलाइतयं पुरिसं एवं प०-कहाणं देवाणु ! अम्हे रतणदीवदेवयाए हत्याओ साहत्धि णित्थरिज्जामो,तते णं से मूलाइयए पुरिसे ते मागंदिय० एवं वदासी-एस णं देवाणु ! पुरच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसति, तए णं से सेलए जक्खे चोदसट्टमुद्दिपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमये महया २ सदेणं एवं वदति-कं तारयामि कं पालयामि, तं गच्छह णं तुम्भे देवा! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुष्फचणियं करेह २ जण्णुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह, जाहे णं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदेजा-कं तारयामि के पालयामि, ताहे तुम्भे बदह-अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेबयाए हत्थाओ साहस्थि णित्थारेज्जा, अण्णहा भेन याणामि इमेसि सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ ? (सूत्रं ८२) तते णं ते मागंदिय० तस्स सूलाइयस्स अंतिए एपमढे सोचा निसम्म सिग्धं चंडं दीप अनुक्रम [१२३-१४०] See/SSOS ॥१६॥ ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: चवलं तुरियं चेइयं जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोक्खरिणी तेणेष उवा० पोक्वरिणिं गार्हति २ जलमजणं करेन्ति २ जाई तत्थ उप्पलाई जाव गेण्हति २ जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेच उ०२ आलोए पणामं करेंति २ महरिहं पुप्फचणियं करेंति २ जण्णुपायवडिया सुस्सूसमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति, तते णं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वदासी- तारयामि के पालयामि ?, तते णं ते मागं दियदारया उट्ठाए उट्ठति करयल० एवं व०-अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि, तए णं से सेलए जक्खे ते मागंदिय एवं वया०-एवं खलु देवाणुप्पिया। तुभं मए सद्धिं लवणसमुद्देणं मझं २ वीइवयमाणेणं सा रयणदीवदेवया पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया बहूहिं स्वरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गं करेहिति, तं जति णं तुम्भे देवा ! रयणदीवदेवयाए एतमढे आढाह वा परियाणह वा अवयेक्वह वा तो भे अहं पिट्ठातो विधुणामि, अह णं तुभे रयणदीवदेवयाए एतमझु णो आढाह णो परियाणह णो अवेक्खह तो भे रयणदीवदेवयाहत्थातो साहत्धि णित्यारेमि, तए णं ते मागंदियदारया सेलगं - जक्खं एवं वदासी-जपणं देवाणु01 वइस्संति तस्स णं उववायवयणणिसे चिहिस्सामो, तते णं से सेलए जक्खे उत्तरपुरच्छिमं दिसीमागं अवक्कमति २ वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति २ संखजाति जोयणाई दंडं निस्सरइ दोचपि तचंपि वेउवियसमु०२ एगं महं आसरूवं विउद्या २ ते मागंदियदा दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा". श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ ज्ञाताधर्मकधाङ्गम. ॥१६॥ गाथा: रए एवं वदासी-ई भो मागंदिया ! आरुह णं देवाणुप्पिया ! मम पिट्ठसि, तते णं ते मागंदिय० हह । माकसेलगस्स जक्खस्स पणामं करेंति २सेलगस्स पिढि दुख्दा, तते णं से सेलए ते मागंदिय दुरुढे न्दीज्ञाते जाणित्ता सत्तट्ठतालप्पमाणमेत्ताति उहुं बेहासं उप्पयति, उप्पइत्ता य ताए उकिहाए तुरियाए देवयाए शैलकयक्षलवणसमुई मज्झमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे जेणेव चंपा नपरी तेणेव पहारेत्थ गम- पृष्ठेआरोणाए (सूत्रं ८३)तते णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियति जंतस्थ तणं वा हः सू.८३ जाव एडेति, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छति २ ते मागंदिया पासायवर्डिसए अपासमाणी जिनरक्षिजेणेच पुरच्छिमिल्ले वणसंडे जाव सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेति २ तेर्सि मायंदियदारगाणं कच्छह तचलनंसू. सुतिं वा ३ अलभमाणी जेणेव उत्सरिल्ले एवं चेव पचस्थिमिल्लेवि जाव अपासमाणी ओहिं पांजति, ते मागंदियदारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयमाणे२पासति २ आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हति २ सत्तह जाव उप्पयति २ ताए उकिट्ठाए जेणेव मागंदिय० तेणेव उवा०२ एवं व०-हं भो मार्गदिय० अप्पस्थियपस्थिया किण्णं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं मजन• मज्झेणं वीतीवयमाणा?, तं एवमवि गए जइ णं तुन्भे ममं अवयववह तो भे अस्थि जीवियं, अहण्णं SI||१६४॥ णावयक्खा तो भे इमेणं नीलुप्पलगवल जाव एडेमि, तते णं ते मागंदियदारया रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोणिस. अभीया अतत्था अणुबिग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए ८४ दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ एयमद्वं नो आदति नो परि० णो अवयवखंति, अणाढायमाणा अपरि० अणवयक्षमाणा सेलएण जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीतिवयंति, तते णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएति बहूहि पडिलोमेहि य वसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए या लोभित्तए वा ताहे महुरेहि सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गे पपत्ता यावि होत्या, हं भो मागंदियदारगा! जति णं तुन्भेहिं देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुम्भे सवाति अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयह, तते णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियरस मणं ओहिणा आभाएति आभोएसा एवं वदासी-णिचंऽपिय णं अहं जिणपालियस्स अणिहा ५ निचं मम जिणपालिए अणि? ५ निचंपिय णं अहं जिणरक्खियस्स इहा ५ निचंपिय णं ममं जिणरक्खिए इटे ५, जति णं ममं जिणपालिए रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी तिप्पमाणी विलवमाणी णावयखति किपणं तुमं जिणरक्खिया! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि, तते गं-'सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिणरक्खियरस मणं । नाऊण वधनिमित्तं उवरि मागंदियदारगाणं दोण्हपि ॥१॥ दोसकलिया सललियं णाणाविहचुण्णवासमीसं (सियं) दिछ । घाणमणनिव्वुइकर सबोउयसुरभिकुसुमधुढि पर्मुचमाणी ॥२॥णाणामणिकणगरयणघंटियखिंखिणिणेऊरमेहलभूसणरवेणं। दिसाओ विदि ecemeseiseneseneeeee गाथा: ASS दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ ज्ञाताधर्म कथानम्. 8|९ माकसन्दीज्ञाते जिनरक्षिपतचलनं सू. ८४ ॥१६५॥ गाथा: साओ पूरयंती वयणमिणं चेति सा सकलुसा ॥३॥ होल वसुल गोलणाह दइत पिय रमण कंत सामिय णिग्घिण णिस्थक । छिपण णिकिव अकयलय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख अकलुण जिणरक्खिय मझं हिययरक्खगा!॥४॥णहु जुज्जसि एक्वियं अणाहं अबंधवं तुज्झ चलणओवायकारियं उज्झिउं महणं । गुणसंकर ! अहं तुमे विहूणा ण समत्थावि जीविउ खणपि ॥५॥ इमस्स पु अणेगझसमगरविविधसावयसयाउलघरस्स । रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुझ पुरओ एहि णियत्ताहि जइसि कुविओ खमाहि एकावराह मे ॥ ६॥ तुज्झ य विगयघणविमलससिमंडलगारसस्सिरीयं सारयनवकमलकुमुदकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभानयणं वयणं पिवासागयाएसद्धा मे पेच्छिउँ जे अवलोएहिता इओ मर्म णाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं ॥ ७॥ एवं सप्पणयसरलमहुरातिं पुणो २ कलुणाई वयणार्ति जपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेह पावहियया ॥८॥ तते णं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कपणसुहमणोहरेणं तेहि य सप्पणयसरलमहरभणिएहिं संजायविजणराए रयणदीवरस देवयाए तीसे सुंदरचणजहणवयणकरचरणनयणलावारूवजोषणसिरिं च दिचं सरभसउवगूहियाई जाति विव्योपविलसियाणि य विहसियसकडक्खदिहिनिस्ससियमलियउबललिपठिपगमणपणयखिजियपासादियाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे कम्मवसगए अवयवति मग्गतो सविलियं, तते णं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चुगलस्थाहणोलियमई अवयवंतं तहेव जक्खे ये सेलए दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ॥१६॥ ~340 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८] गाथा: Reechemesesesesecesese जाणिऊण सणियं २ उविहति नियगपिट्ठाहि विगयसत्थं, तते णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुर्ण जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्टाहि उवयंतं दास! मओसित्ति जंपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गेण्हिय बाहाहिं आरसंतं उडे उबिहति, अंबरतले ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पलगवलअयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडिं करेति २ तत्थ बिलव माणं तस्स य सरसवहियस्स घेत्तूण अंगमंगाति सरुहिराइंउक्खित्तबलिं चउदिसि करेति सा पंजली पहिहा। (सूत्रं८४) एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंधाण वा २ अंतिए पञ्चतिए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसायति पत्थयति पीहेति अभिलसति से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४ जाव संसारं अणुपरियहिस्सति, जहा वा से जिणरक्खिए-'छलओ अवयक्खंतो निरावयक्खो गओ अविग्घेणं । तम्हा पधयणसारे निरावयक्खेण भवियचं ॥१॥ भोगे अवयखंता पडति संसारसायरे घोरे । भोगेहिं निरचयक्खा तरंति संसारकतारं ॥२॥ (सूत्रं ८५) तते णं सा रयणद्दीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेच उवा बहूहि अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरमहरसिंगारेहिं कलुणेहि य उवसग्गेहि य जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभि. विप्प० ताहे संता तंता परितंता निविपणा समाणा जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसं पडिगया, तते णं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुई मझमझेणं बीतीवयति २ जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छति २ चंपाए नयरीए अग्गुनाणंसि जिणपालियं पट्ठातो ओयारेति २ एवं वा-एस णं देवा! e/accesesesesesesecerseceverseser दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥१६॥ ९माकन्दीज्ञाते भोगाकाक्षणोपनयः सू.८५ रत्नद्वीपदेवतापक्रा: गाथा: चंपानयरी दीसतित्तिकट्ठ जिणपालियं आपुच्छति २ जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए (सूत्रं ८६) तते णं जिलपालिए'चंपं अणुपविसति २ जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छह २ अम्मापिऊणं रोयमाणे जाव विलवमाणे जिणरक्खियवावत्तिं निवेदेति, ततेणं जिणपालिए अम्मापियरो मित्तणाति जाब परियणेणं सद्धिं रोयमाणाति बदई लोइयाई मयकिच्चाई करेति २कालेणं विगतसोया जाया, ततेणं जिणपालियं अन्नया कयाइ सुहासणवरगतं अम्मापियरो एवं वदासी-कहपणं पुत्ता ! जिणरक्खिए कालगए, तते णं से जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियघायसमुत्थर्ण पोतवहणविवर्ति च फलहखंडासातणं च रयणदीवुत्तारं च रयणदीवदेवयागिहं च भोगविभूई च रयणदीवदेवयाअप्पाहणं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरुहणं च रनणदीवदेवयाउवसग्गं च जिणरक्खियविवतिं च लवणसमुहाउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुकणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेति, तते णं जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विपुलाति भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति। (सूत्रं ८७) तेणं कालेणं २ समणे० समोसंढे, धम्मं सोचा पवतिए एकारसंगवी मासिएणं सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमे, महाविदेहे सिज्झिहिति । एवामेव समणाउसो! जाप माणुस्सए कामभोए णो पुणरवि आसाति से णं जाव वीतिवतिस्सति जहा वा से जिणपालिए । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया नवमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्तेत्तिबेमि ॥ (सूत्रं ८८)॥ नवम अझयणं समतं ॥ |न्तिः सू. दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ८६ जिन| पालितस्वास्थ्यसू. ८७श्रीवीरसमीपे दी क्षा सू.८८ ॥१६॥ For P OW ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध : [१] ----------------- अध्य यन [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ 'सई वत्ति सुखलक्षणफलबहुलता स्मृति वा स्मरणं अतिच्याकुलचित्ततया न लभते स रति-चित्तरमणं 'घिई यति धृति चित्तखा-1 स्थ्यमिति, 'आसयाई ति आस्वे-मुखे 'पिहिति'त्ति पिधन्तः-स्थगयन्तः 'आघयणं'ति वधस्थानं 'सूलाइयगं'ति शूलिकाभिन्न 'कलुणाईति करुणाजनकखात् 'कट्ठाईति कष्ट-दुःखं तत्प्रभवसात् 'विस्सराईति विरूपशब्दखरूपसात् वचनानीति गम्यते,18 'कूजन्तं' अव्यक्तं शब्दायमानं 'काकंदीए'त्ति काकन्दीनगरी तद्भवः, ओयाए'त्ति उपायात:-उपागतः, अहालहुस्सगंसिति कायथाप्रकारे लघुखरूपे, 'उदिति अमावास्या, 'आगयसमए'त्ति आसनीभूतोऽवसरो यस्य स इत्यर्थः, प्राप्तस्तु साक्षादेव, 'हत्थाओचि हस्ताद् ग्रहणप्रवृत्तात् 'साहत्यि'ति स्वहस्तेन 'सिंगारेहिति शृङ्गाररसोपेतः कामोत्कोचकैः करुणैस्तथैव उपसगैः-उपद्वैर्वचनचेष्टाविशेषरूपैः 'अवयक्खह' अपेक्षध्वं 'मए सद्धि हसियाणि'इत्यादि, इह क्तप्रत्ययो भावे तस्य, चोपाधिभेदेन भेदस्य विवक्षणाद् बहुवचनं, अन्यथा यावाभ्यां मया सार्द्ध हसितं चेत्यादि वाच्यं स्यात् , तथा रतानि च अक्षादिभिः ललितानि च ईप्सितानि लीला वा 'कीलियाणि यत्ति जलान्दोलनकक्रीडादिभिः हिण्डितानि च बनादिषु विहशतानि मोहितानि च-निधुवनानि, एतच्च वाक्यं काकाऽध्येयं, तत उपालम्भः प्रतीयते, 'तए णं सा रयणदीवेत्यादि सूत्र वाचनान्तरे रूपकविशेषद्वयभ्रान्ति करोति, तथाहि-सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिणरक्खिअस्स नाऊण वहनिमित्तं उरि माइंदिदारगाण दोण्हपि' इत्येक 'दोसकलिया सलीलयं नाणाविहयुग्णवासमीसियं दिवं घाणमणनिब्युइकरं सबोउयसुरहिकुसुमवुद्धिकरं पमुंचमाणी'इति द्वितीय, एवमन्यान्यपि परिभावनीयानि पद्यानि, IS पद्यचन्धं हि विना तुकारादिनिपातानां पादपूरणार्थानां निर्देशो न घटते, अपरिमितानि च छन्दःशास्त्राणीति, अर्थस्वेवम-1|| feeseceseroese गाथा: 228805Seeeeeeees दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: बाबासा देवता जिनरक्षितस्य ज्ञाखा भावमिति शेषो वधनिमित्तं तस्यैव, वचनमिदं ब्रवीति स्मेति सम्बन्धः, 'दोसकलिय'त्तिा द्वेषयुक्ता, 'सलीलय'ति सलीलं यथा भवतीत्यर्थः, 'चुण्णवासति चूर्णलक्षणा वासा: चूर्णवासाः तैमिश्रा या सा तथा ता|8दीज्ञाते कथाङ्गम्, दिव्यां प्राणमनोनिवृत्तिकरी सर्वतकानां सुरभीणां च कुसुमानां या वृष्टिः सा तथा तां प्रमुञ्चन्ती । तथा नानामणिकनकर-18जिनपालि॥१६७॥ लानां सम्बन्धीनि घण्टिकाश्च किङ्किण्यश्च-क्षुद्रघण्टिका नुपूरौ च प्रतीती मेखला च-रसना एतल्लक्षणानि यानि भूषणानि तेषां तजिनर 18यो वस्तेन इति रूपकाध 'दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेइ यत्ति दिशो विदिशव पूरयन्ती वचनमिदं क्षितवृत्तं वक्ष्यमाणं ब्रवीति सा देवता, सकलुसति सह कलुषेण पापेन वर्तते या सा तथेति तृतीयं । हे हो(हा)ल हे वसुल हे गोल एतानि सू८५८८ च पदानि नानादेशापेक्षया पुरुषाधामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, हो(हा)ल इति दशवकालिके होल इति दृश्यते, तथा नाथ!-योगक्षेमकरिन् । दयित!-वल्लभ ! रक्षित ! इति वा प्रिय !-प्रेमकः ! रमण-भतः! कान्त !-कमनीय ! खामिक!-अधिपते । निर्पण!-निर्दय ! सस्नेहाया वियोगदुःखाया मम परित्यागात् 'नित्थक'चि अनवसरज्ञ अनुरताया ममाकाण्डे एव त्यागादित्यई 'छिपण ति स्त्यान! कठिन मदीयात्यन्तानुकलचरिताद्रवीकृतहृदयखात् निष्कप ! मम || दुःखिताया अप्रतीकारात् , अकृतज्ञ! मदीयोपकारस्थानपेक्षणात् शिथिलभाव ! अकस्साद् मम मोचनात् निर्लज ! प्रतिपन्नत्यागात रूक्ष ! नेहकार्याकरणात् अकरुण ! हे जिनरक्षित मम हृदयरक्षक !-वियोगदुःखेन शतधास्फुटतो हृदयस्य त्रायक पुनर्मम ॥१६॥ खीकरणत इत्यर्थः इति चतुर्थ, 'नहु' नैव युज्यसे-अर्हसि एककामनाथामबान्धवां तब चलनोपपातकारिका-पादसेवाविधायिनीमुज्झितुमधन्यामिति, इह च समानार्थानेकशब्दोपादानेऽपि न पुनरुक्तदोषः सम्भ्रमाभिहितसाद , यदाह-"वक्ता हर्षभ दीप अनुक्रम [१२३ Saesercedeoesesesekelee -१४०] For P OW ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: | यादिभिराक्षिक्षमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकद् ब्रूयात् तत्पुनरुक्तं न दोषाय।।१।। इति अर्थ, हे गुणसंकर!-गुणसमुदायरूप! हं इति अकारलोपदर्शनादहमिति दृश्यं खया विहीना न समों जीवितुं क्षणमपीति पञ्चमं । तथा 'इमस्स उति अस्स पुनः अनेके ये झपा-मत्स्या मकरा-ग्राहाः विविधश्वापदाच-जलचरक्षुद्रसवरूपास्तेषां यानि शतानि तेषामाकुलगृहं आकीर्णगेहं झपादीनां वा सदा-नित्यं कुलगृहमिव कुलगृहं यः स तथा तस्येत्यर्द्ध, रत्नाकरस्य-समुद्रस्य मध्ये आत्मानं 'वहेमिति हन्मि|| तव-भवतः पुरतः-अग्रतः तथा एहि निवर्त्तख 'जइसित्ति यदि भवसि कुपितः क्षमस्वैकापराध त्वं मे इति षष्ठं । 'तुम यत्ति तब च विगतधनं विमलं च यच्छशिमण्डलं तस्येवाका यस्य श्रिया च सह यते तत्तथा, पाठान्तरेण विगतघनविमलशशिमण्डलेनोपमा यस्य सश्रीकं च यत्तचथा, शारद-शरत्कालसम्भवं यत्र-प्रत्ययं कमलं च-सूर्यबोध्यं कुमुदं च-चन्द्र-18 बोध्यं कुवलयं च-नीलोत्पलं तेषां यो दलनिकर:-दलवृन्दं तत्सदृशे नितरां भात इति-निभे च नयने यत्र तत्तथा, पाठान्तरेण शारदनवकमलकुमुदे च ते विमुकुले च ते विकसिते शेष तथैव, बदनं-मुखं प्रतीति वाक्यशेषः, पिपासागतायाः-IN मुखदर्शनजलपानेच्छया आयातायाः तां वा गताया:-प्राप्तायाः कस्याः-मे-मम श्रद्धा-अभिलापः किं कर्तुं ?-प्रेक्षितु-अवलोकयितुं जे इति पादपूरणे निपातः अवलोकय ता इति-ततस्तावदिति वा इत:-अस्यां दिशि मां नाथ जा इति-येन याव[दिति वा ते-तव प्रेक्षे वदनकमलमिति रूपकं ।। ७॥ एवं सप्रणयानि-सस्नेहानीव सरलानि-सुखावगम्याभिधेयानि मधुराणि च-भाषया कोमलानि यानि तानि तथा, तथा करुणानि-करुणोत्पादकखात् वचनानि जल्पन्ती सा पाषा क्रियया मार्गत:| पृष्ठतः समन्वेति--समनुगच्छति पापहृदयेति ॥८॥ ततोऽसौ जिनरक्षितश्चलमना:-अभ्युपगमाचलितचेताः 'अवयक्खइत्ति दीप अनुक्रम [१२३-१४०] SARERainintenational ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: ज्ञाताधर्म- सम्बन्धः, किंभूतः -सञ्जातद्विगुणरागः पूर्वकालापेक्षया, कस्यां ?-रत्नद्वीपदेवतायां, केन कैथेत्याह-तेन च-पूर्वोक्तेन भूषण- माककथानम्. वेण कर्णसुखो मनोहरश्च यस्तेन तैश्च पूर्ववर्णितैः सप्रणयसरलमधुरभणितैः, तथा तस्या देवतायाः सुन्दरं यस्तनजघनवदन- न्दीज्ञाते करचरणनयनानां लावण्यं-स्पृहणीयसं तच रूपं च-शरीरसुन्दरखं च यौवनं च-तारुण्यं तेषां या श्री:-सम्पत सा तथा ताजिनपालि. ॥१६८॥ IIच दिन्या-देवसम्बन्धिनी सरनिति सम्बन्धः, तथा सरभसानि-सहर्षाणि यान्युपग्रहितानि-आलिङ्गितानि तानि तथा विग्यो- ताजनर यका' स्त्रीचेष्टाविशेषाः विलसितानि च-नेत्रविकारलक्षणानि च तानि तथा, विहसितानि च-अर्द्धहसितादीनि सकटाक्षा:-Rक्षितवृत्त सापाङ्गदर्शनाः दृष्टयो-विलोकितानि निःश्वसितानि च-कामक्रीडायाः समुद्भवानि मलितानि च-पुरुषाभिलपणीययो- सू.८५.८८ KI पिदङ्गमर्दनानि च पाठान्तरेण मणितानि च-रतकूजितानि उपललितानि च-क्रीडितविशेषरूपाणि पाठान्तरेण ललितानि-ईप्सि-1 तानि क्रीडितानि वा स्थितानि च स्वभवनेषु उत्सङ्गासनादिपुवा अवसानानि गमनानि च-ईसगत्या चङ्कमणानि प्रणयखेदितानि | च-प्रणयरोषणानि प्रसादितानि च-कोपप्रसादनानीति द्वन्द्वस्तानि च सरन्-चिन्तयन् रागमोहितमतिः अवश आत्मन इति 8 गम्यते, कर्मवशं-कर्मणः पारतव्यं गतो यः स तथा पाठान्तरे कर्मवशात् बेगेन मोहस्य नडितो-विडम्बितो यस कर्म-12I वशवेगनडितः, 'अवइक्खइ'ति अवेक्षते-निरीक्षते स मार्गतः-पृष्ठतोवलोकयति तामागच्छन्तीमित्यर्थः, 'सविलियंतिAmren |सबीडं, सलअमित्यर्थः । 'मच्चुगलथल्लणोल्लियमईति मृत्युना-यमराक्षसेन 'गलत्थल्ला' हस्तेन गलग्रहणरूपा तया नोदिता-खदेशगमनवैमुख्येन यमपुरीगमनाभिमुखीकृता मतिर्यस्य स तथा तं अवेक्खमाणं तथैव यक्षस्तु शैलको बाला शनैः २ 'उविहइति उद्विजहाति-ऊर्दू क्षिपति, 'तहेव सणियं' इत्येतत् पदद्वयं वाचनान्तरे नोपलभ्यते निजकपृष्ठात् दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८ गाथा: शरीरावयवविशेषात् 'विगयसत्य'ति विगतस्वास्थ्यं पाठान्तरे विगतश्रद्धो यक्षः शैलक इति, 'ओवयंत ति अवपतन्तं 'सरस-18 बहियस्स'त्ति सरसं-अभिमानरसोपेतं धितो-हतो यः स तथा तस्य 'अंगमंगाईति शरीरावयवान् 'उक्खित्तचलि ति उत्क्षिप्त:-ऊर्द्ध आकाशे क्षिप्तो न भूमिपट्टादिषु निवेशितो यो बलि:-देवतानामुपहारः स तथा तं चतुर्दिशं करोति, सा देवता 'पंजलि'त्ति प्रकृताञ्जलिः प्रकृष्टतोपवती 'एवमेवेत्यादि निगमनं 'आसायति प्राप्तानाश्रयति भजते-अप्राप्तान प्रार्थयते-ISH |ऋद्धिमन्तं याचते स्पृहयति-अप्रार्थित एव यद्ययं श्रीमान भोगान् मे ददाति तदा साधु भवति इत्येवंरूपां स्पृहां करोति अभिलपति-दृष्टादृष्टेषु शब्दादिषु भोगेच्छां करोतीत्यर्थः, अत्रार्थे 'छलिउं' गाहा-छलितो-व्यंसितोऽनर्थ प्राप्तः अवकाहन्' पश्चाद्भागमवलोकयन् जिनरक्षित इति प्रस्तुतमेव 'निरवयक्खो' निरवकाङ्गः पश्चाद्भागमनवेक्षमाणस्तनिस्पृह इत्यर्थो गत:स्वस्थान प्राप्तोऽविघ्नेन-अन्तरायाभावेन जिनपालित इति वक्ष्यमाणं, एष दृष्टान्तानुबादो, दान्तिकस्खेवं-यस्मादेवं तस्मात् । 'प्रवचनसारे' चारित्रे लब्धे सतीति गम्यते 'निरवकालेण' परित्यक्तमोगान् प्रति निरपेक्षेण-अनभिलापवता भवितव्यमिति, "भोगे' गाहा चारित्रं प्रतिपद्यापि भोगानवकाजन्तः पतन्ति संसारसागरे घोरे जिनरक्षितवत् , इतरे तु तरन्ति ज़िनपालितवत् | समुद्रमिति ।।२।। शेष सूत्रसिद्धं । इह विशेषोपनयमेवं वर्णयन्ति व्याख्यातार:-"जह रयणदीवदेवी तह एत्थं अविरई महापावा। जह लाहत्थी वणिया तह सुहकामा इहं जीवा ॥१॥ जह तेहिं भीएहिं दिवो आघायमंडले पुरिसो । संसारदुक्खभीया पासंति | तहेब धम्मकह ॥२॥ जह तेण तेसि कहिया देवी दुक्खाण कारणं घोरं । ततो चिय नित्थारो सेलगजक्खाओ नन्नत्तो ॥३॥ १यया रनडीप देवी तथानाविरतिर्महापापा । यथा लाभार्थिनी कनिजी तथा सुखकामा इह जीयाः॥१॥ यथा ताभ्यां भीताभ्यो र आघातमण्डले पुरुषः । | संसारदुःखभीताः पश्यन्ति तथैव धर्मकथकं ।। २ ॥ यथा वेन ताभ्यां कथिता दुःखानां घोरं कार देवी । तत एव लिकयक्षात् निस्तारो नान्यस्मात् ॥३॥ दीप अनुक्रम [१२३-१४०] ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [९], ----------------- मूलं [८२-८८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८२-८८] ज्ञाताधर्म कथानम्. माकन्दीज्ञाते जिनपालि ॥१६॥ तह धम्मकही भहाण साहए दिवअचिरइसहायो । सयलदुहहेउभूलो पिसया विरयंति जीवाणं ॥ ४॥ सत्ताण दुहवाणं सरणं चरणं जिणिंदपनत्तं । आणदरूवनिबाणसाहणं तहय देसेइ ॥५॥ जह तेसि तरियो रहसमुद्दो तहेव संसारो जह तेसि सगिहगमणं निधाणगमो तहा एत्थं ॥ ६ ॥ जह सेलगपिट्ठाओ भट्ठो देवीइ मोहियमईओ । सावयसहस्सपउरंमि | सायरे पाविओ निहणं ॥ ७ ॥ तह अविरईई नडिओ चरणचुओ दुक्खसावयाइण्णे | निवडद अपारसंसारसायरे दारुणसरूवे ॥८॥जह देवीए अक्खोहो पत्तो सट्ठाण जीवियसुहाई । तह चरणडिओ साहू अक्खोहो जाइ निवाणं ॥ ९॥ नवमज्ञाताध्ययनविवरणं समासमिति ॥ सू.८५-८८ गाथा: दीप अनुक्रम [१२३-१४०] १ तथा धर्मकथको भव्येभ्यः कषयेत् इष्टम मिरतिखभावम् । सकलदुःसहेतुभूतं विषयेभ्यो विरमयन्ति जीवान् ॥ ४ ॥ सरवाना दुःखातीना शरण चरणं जिनेन्द्रप्रहः । आनन्दरूपनिर्वागसाधनं तव दर्शयति ।। ५ ॥ यथा ताभ्यो तरणीयो रुद्रः समुद्रतयेव संसारः । यथा तयोः खगृहगमनं निर्वाणगमन तथाऽत्र ॥६॥ यथा शैलकपृष्ठात् अष्टो देवीमोहितमतिकः । श्वापदसहस्रप्रचुरे सागरे प्राप्तो निधनम् ॥ ७॥ तपाऽविरया नटितश्चरणयुरो दुःखश्वापदाकीणे । निषतत्यपारससारसागरे दारुणखरूपे ।। ८॥ यथा देण्याक्षोभः प्राप्तः सस्थानं जीवितसुखानि च । तथा परगस्थितः साधुरक्षोभो याति निर्वाणम् ॥५॥ ansare |॥१६९॥ अत्र अध्ययन-९ परिसमाप्तम् ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१०], ------------ ------ मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अथ दशमज्ञातविवरणम् । प्रत मत्रा [८९]] दीप अनुक्रम [१४१] अथ दशमं विवियते, तस्य चायं पूर्वेण सह सम्बन्धः-अनन्तराध्ययनेऽविरतिवशवर्यवशवर्तिनोरनर्थेतरायुक्ती, इह तुं| गुणहानिवृद्धिलक्षणाबनर्थार्थों प्रमाद्यप्रमादिनोरभिधीयते इत्येवंसम्बद्धमिदम् - जति णं भंते ! समणेणं णवमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते दसमस्स के अ४०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे सामी समोसढे गोयमसामी एवं वदासी-कहणं भंते ! जीवा वहुंति वा हायन्ति वा, गो० ! से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवयाचंदे पुषिणमाचंदं पणिहाय हीणो वण्णेणं हीणे सोम्मयाए हीणे निद्धयाए हीणे कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं तयाणतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय हीणतराए वपणेणं जाप मंडलेणं तया तरं च णं ततिआचंदे बितियाचंद पणिहाय हीणतराएवणेणं जाय मंडलेणं, एवं खल एएणं कमेणं परिहायमाणे २जाव अमावस्साचंदे चाउद्दसिचंद पणिहाय न वण्णणं जाव नट्टे मंडलेणं, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पवइए समाणे हीणे खंतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं महवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं हीणे हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभचेरवासेणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे २णढे खंनीए SAREauratonintamational अथ अध्ययन-१०"चन्द्रमा आरभ्यते ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१०], ----------- ------ मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. प्रत ॥१७॥ १८९) दीप अनुक्रम [१४१] जाव गट्टे बंभचेरवासेणं, से जहा वा सुक्तपक्खस्स पाडिवयाचंदे अमावासाए चंदं पणिहाय अहिए १०चन्द्रवपणेणं जाव अहिए मंडलेणं तयाणंतरं च णं बिइयाचंदे पडिवयाचंदं पणिहाय अहियपराए थपणेणं ज्ञाता. जाव अहियतराए मंडलेणं एवं खल एएणं कमेण परिवहेमाणे २जाव पुषिणमाचंदे चाउद्दर्सि चंदं क्षान्त्यापणिहाय पडिपुपणं वण्णेणं जाव पडिपुण्णे मंडलेणं, एवामेव समणाउसो! जाब पञ्चतिए समाणे अहिए Pादिवृद्धिखंतीए जाव बंभचेरवासेणं, तयाणंतरं च णं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेरवासेणं, एवं खलु हानिभ्यां एएणं कमेणं परिवड्डेमाणे २ जाव पडिपुन्ने बंभचेरवासेणं, एवं खलु जीवा बटुंति वा हायंति वा, एवं जीवगुण ली खलु जंबू ! समणेणं भगवता महावीरेणं दसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पपणत्तेत्तियेमि ॥ (सत्रं ८९) । दसमं णायज्झयणं समत्तं ॥१०॥ सर्व सुगमम् , नवरं जीवानां द्रव्यतोऽनन्तत्वेन प्रदेशतश्च प्रत्येकमसङ्ख्यातप्रदेशसेनावस्थितपरिमाणखात् बर्द्धन्ते गुणैः । हीयन्ते च तैरेव । अनन्तरनिर्देशखेन हानिमेव तावदाह-'से जहे त्यादि, 'पणिहाए'ति प्रणिधायापेक्ष्य 'वर्णेन' शुक्रताल-II क्षणेन 'सौम्यतया सुखदर्शनीयतया 'स्निग्धतया' अरूक्षतया 'कान्त्या' कमनीयतया 'दीया' दीपनेन वस्तुप्रकाशनेने- ॥१७॥ त्यर्थः 'जुत्तीय'त्ति युक्त्या आकाशसंयोगेन, खण्डेन हि मण्डलेनाल्पतरमाकाशं युज्यते न पुनयांवत्सम्पूर्णन, 'छायया' जलादौ प्रतिविम्बलक्षणया शोभया वा 'प्रभया' उद्गमनसमये यद् द्युतिस्फुरणं तया 'ओयाए'ति ओजसा दाहापनय ~350 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१०], ----------- ------ मूलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत मत्रा [८९]] |नादिखकार्यकरणशक्या 'लेश्यया' किरणरूपया 'मण्डलेन' वृत्ततया, शान्त्यादिगुणहानिश्च कुशीलसंसर्गात् सद्गुरूणाम-TRI पर्युपासनात् प्रतिदिनं प्रमादपदासेवनात् तथाविधचारित्रावरणकर्मोदयाच भवतीति, गुणवृद्धिस्वेतद्विपर्ययादिति, एवं च। हीयमानानां जीवानां न वाञ्छितस्य निर्वाणसुखस्यावाप्तिरित्यनर्थः, आह च-'चंदोष कालपक्खे परिहाई पए पए पमायपरो। तह उग्घरविग्घरनिरंगणोवि न य इच्छियं लहइ ॥१॥"ति[चन्द्र इव कृष्णपक्षे परिहीयते पदे पदे प्रमादपरः । तथा उद-18 हविगृहनिरञ्जनोऽपि द्रव्यतो नेप्सितं लभते ॥१॥] गुणैर्वर्द्धमानानां तु वान्छितार्थावाप्रथे इति, विशेषयोजना पुनरेवम्"जह चंदो तह साहू राहुवरोहो जहा तह पमाओ । वण्णाई गुणगणो जह तहा खमाई समणधम्मो ॥१॥ पुण्णोवि पइदिणं जह हायंतो सबहा ससी नस्से । तह पुण्णचरित्तोऽविहु कुसीलसंसग्गिमाईहिं ।। २॥ जणियपमाओ साहू हायंतो पइदिणं | Kखमाईहिं । जायइ नढचरितो ततो दुक्खाई पावेह ॥ ३॥ तथा-'हीणगुणोविहु होउं सुहगुरुजोगाइजणियसंवेगो । पुण्णस-11 रूपो जायइ विवढमाणो ससहरोच ॥४॥ [यथा चन्द्रस्तथाः साधुः राहपरोधो यथा तथा प्रमादः । वोदिगुणगणो यथा तथा क्षमादिः श्रमणधर्मः॥१॥ पूर्णोऽपि प्रतिदिनं यथा हीयमानः सर्वथा नश्यति शशी । तथा पूर्णचारित्रोऽपि कुशीलसं-1%8 सर्गादिभिः ॥२॥ जातप्रमादः साधुः प्रतिदिनं हीयमानः क्षमादिभिः । जायते नष्टचारित्रः ततो दुःखानि प्राप्नोति ॥३॥ हीनगुणोऽपि भूखा शुभगुरुयोगादिजनितसंवेगः । पूर्णखरूपो जायते विवर्धमानः शशधर इव ॥४॥] दशमज्ञातविवरण समाप्तमिति ॥ दीप अनुक्रम [१४१] Sesese अत्र अध्ययनं-१० परिसमाप्तम् ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------- ------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: एकादशज्ञातविवरणम् । ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सत्राक ॥१७१॥ [९०] दीप अनुक्रम [१४२] cerserseleoenesepeper ११दावद्रवज्ञाताध्य. स्वपरोभयानुभयोक्तिसहने देशविराधनाराधनसाराधनविराधनाः सू.९० ॥१७॥ अथैकादशमं विवियते-अस्य पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-पूर्वत्र च प्रमाधप्रमादिनोर्गुणहानिवृद्धिलक्षणावनार्थायुक्ती, इह तु मार्गाराधनविराधनाभ्यां तावुच्यते इतिसम्बमिदम् जति णं भंते ! दसमस्स नायजसणस्स अयमढे एकारसमस के अ०१. एवं खल जव! तेणं कालेणं २ रायगिहे गोयमे एवं वदासी-कह णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ?, गो! से जहा णामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नाम रुक्खा पपणत्ता किण्हा जाव निउबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति, जया णं दीविचगा इंसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति तदा णं बहवे दावद्दया रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति अप्पेगतिया दाबद्दवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडियपंडुपत्तपुष्फफला सुक्रुक्खओ विव मिलायमाणा २ चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जे अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव पञ्चतिते समाणे बट्टणं समणाणं ४ सम्म सहति जाव अहियासेति बरणं अपणउत्थियाणं वहणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहति जाब नो अहियासेति एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते समणाउसो! जया णं सामुदगा इंसिं पुरेवाया पच्छा SAREauratonintimational अथ अध्ययन- ११ "दावद्रव" आरभ्यते ~352 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------- ------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१४२] पाया मंदावाया महावाता वायति तदा णं बहवे दावदवा रुक्खा जुपणा झोडा जाब मिलायमाणा २ चिट्ठति, अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया जाय उबसोभेमाणा २ चिटुंति, एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा पवतिए समाणे बहणं अण्णउत्धियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहति बढ़णं समणाणं ४ नो सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे देसाराहए पन्नत्ते समणासो।। जया शं नो दीविचगा णो सामुहगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया तते णं सबेदावच्या रुक्खा जुण्णा झोडा. एवामेव समणाउसो! जाव पवतिए समाणे बहूणं समणाणं २ बहूणं अन्नउत्थिय. गिहत्थाणं नो सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे सबविराहए पण्णते समणाउसो!, जया णं दीविचगावि सामुद्दगावि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव वायति तदा णं सबे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, एवामेव समणाउसो! जे अम्हं परतिए समाणे बट्टणं समणाणं बरणं अनउस्थियनिहत्थाणं सम्मं सहति एस णं मए पुरिसे सबाराहए पं०1, एवं खलु गो ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया एक्कारसमस्स अयम? पण्णत्तेत्तिबेमि ॥ (सूत्रं-१०) एकारसमं नायज्ज्ञयर्ण समतं॥ सर्वे सुगम, नवरं आराधका ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य विराधका अपि तस्यैव 'जया ण'मित्यादि 'दीविचगा' द्वैया द्वीप-| सम्भवा इंषत् पुरोवाता:-मनाक-सस्नेहवाता इत्यर्थः, पूर्वदिक्सम्बन्धिनो वा, पथ्या वाता-वनस्पतीनां सामान्येन हिता SAREauratoninternational ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------- ----- मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [९०] दीप अनुक्रम [१४२] ज्ञाताधर्म-18 वायवः पश्चादाता वा मन्दाः-शनैः सञ्चारिणः महाबाता:-उदंडवाता बान्ति तदा 'अप्पेगइय'ति अध्येके केचनापि १दाबद्रकधाङ्गम. स्तोका इत्यर्थः, 'जुण्ण'त्ति जीर्णा इव जीर्णाः, झोडा पत्रादिशाटनं, तद्योगात्तेऽपि झोडाः, अत एव परिशटितानि कानिचिव विज्ञाताध्य. पाण्डूनि पत्राणि पुष्पफलानि च येषां ते तथा शुष्कपक्षक इव म्लायन्तस्तिष्ठन्ति इत्येष दृष्टान्तो, योजना लखवं 'एवामेवे'त्यादि, खपराम ॥१७२॥ 'अण्णउत्थियाण'ति अन्ययूथिकानां-तीर्थान्तरीयाणां कापिलादीनामित्यर्थः, दुर्वचनादीनुपसर्गान् नो सम्यक् सहते इति, 'एस णति य एवंभूतः एष पुरुषो देशविराधको ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य, इयमत्र विकल्पचतुष्टयेऽपि भावना यथा दावद्रव्य-18 |किसहने वृक्षसमूहः खभावतो द्वीपवायुभिः बहुतरदेशैः खसम्पदः समृद्धिमनुभवति देशेन चासमृदि १ समुद्रवायुभिश्व देशरसमृद्धि देशविरादेशेन च समृद्धि २ मुभयेषां च वायूनाममाये समृद्धभाव ३ मुभयसद्भावे च सर्वतः समृद्धि ४ मे क्रमेण साधुः कुती-1 धनाराध|र्थिक गृहस्थानां दुर्वचनादीन्यसहमानः क्षान्तिप्रधानस्य ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य देशतो विराधनां करोति, श्रमणादीनां बहुमानवि-181 नसोरा धनविराषयाणां दुर्वचनादिक्षमणेन बहुतरदेशानामाराधनात् १ श्रमणादिदुर्वचनानां खसहने कुतीथिकादीनां सहने देशानां विराधनेन8 धनाः देशत एवाराधना करोति २ उभयेषामसहमानो विराधनायां सर्वथा तस्य वर्तते ३ सहमानश्च सर्वथाऽऽराधनायामिति ४, इह|8 सू. ९० पुनर्विशेषयोजनामेवं वर्णयन्ति-"जह दाबद्दवतरुवणमेव साह जहेब दीविचा । वाया तह समणाइयसपक्खवयणाई दुसहाई ॥१॥ जह सामुदयवाया तहऽण्णतित्थाइकडयवयणाई । कुसुमाइसंपया जह सिवमग्गाराहणा तह उ ॥२॥जह कुसुमाइविणासो ॥१७॥ १ यथा दाववतम्वनमेवं साधवः यथैव द्वीपगाः । वातास्तथा श्रमणादिकरापक्षवचनानि दुःसहानि ॥ १॥ यथा समुद्रवातास्तथाऽभ्यतीथिकादिकटुकवचनानि । कुसमादिसंपत् यथा शिवमानौराधना तथैव ।। २ ॥ यथा कुसुमादिविनाशः । ~354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [११], ----------- ------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक | सिमागविराहणा तहा नेया । जह दीववाउजोगे बहु इड्डी इसि य अणिड्डी ॥३॥ तह साहम्मियवयणाण सहमाणा-1 राहणा भये बहुया । इयराणमसहणे पुण सिवमग्गविराहणा थोवा ॥४॥जह जलहि वाउजोगे थेविड्डी बहुयरा यऽणिड्डी य ।। तह परपक्खक्खमणे आराहणमीसि बहुपयरं ॥ ५॥ जह उभयवाउविरहे सहा तरुसंपया विणहत्ति | अनिमित्तोभयमच्छररूवे। विराहणा तह य । ६ ।। जह उभयवाउजोगे सबसमिड्डी वणस्स संजाया । तह उभयवयणसहणे सिवमग्गाराहणा बुत्ता ॥७॥ ता पुन्नसमणधम्माराहणचित्तो सया महासतो । सवेणवि कीरतं सहेज सर्वपि पडिकूलं ॥८॥" इति ॥ एकादशज्ञातविवरणं समाप्तं ।। ११॥ [१०] दीप अनुक्रम [१४२] शिवमार्यविराधना तथा शेया । यथा द्वीपचायुयोगे बहुः ऋद्धिरीषयावृद्धिः ॥१॥ तथा साधर्मिकवचनाना सहमानानाभाराधना भवेदका । इतरेषा-II मसह ने पुनः शिवमागंविराधना सोका ॥ ४ ॥ यथा जलधिवायुयोगे तोकदिहुकतराऽनधि । तथा परपक्षक्षमणे भाराधनेषत् बहुफतरा (विराधना) ॥५॥ यथोभयवायुपिरदे या तरसंपत् विनष्टेति । अनिमित्तोभयमत्सररूपेह विराधना तथा च ॥ ६॥ ययीभयवायुयोगे सर्वां समृशिर्वनस्य संमाता । तयोभयवचन-18| सहने शिवमायारापनीता ॥ ७॥ तत् पूर्णधमणधारापनाचित्तः सदा महासत्यः । सर्वेणापि क्रियमाणं सहेत सर्वमपि प्रतिकूल ॥ ८॥ JMEaurat अत्र अध्ययनं-११ परिसमाप्तम् ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप अनुक्रम [१४३ ज्ञाताधर्म-18 द्वादशज्ञातविवरणम्। १२उदककथाङ्गम. ज्ञाते परि IN खोदकं सू. ॥१७३॥ अधुना द्वादशं विवियते, अस्स चैवं सम्बन्धः-अनन्तरज्ञाते चारित्रधर्मस्य विराधकत्वमाराधकसं चोक्तमिह तु चारित्रारा-18TV धकवं प्रकृतिमलीमसानामपि भव्यानां सद्गुरुपरिकर्मणातो भवतीत्युदकोदाहरणेनाभिधीयते, इत्येवं सम्बद्धमिदम् --- द्धिकृतो जतिणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एकारसमस्स नायज्झयणस्स अयम बारसमस्स णं नायज्झयणस्स के जितशत्रोअढे पं०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं२चंपा नाम नयरी पुण्णभद्दे जितसत्तू रायाधारिणी देवी, अदीणसत्तू बर्बोधः सू. नामं कुमारे जुवराया यावि होत्था, सुबुद्धी अमचे जाव रज्जधुरार्चितए समणोवासए, तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे परिहोदए यावि होत्था, मेयवसामसरुहिरपूयपडलपोचडे मयगकलेवरसंछण्णे अमणुण्णे चपणेणं जाव फासणं, से जहा नामए अहिमडेति वा गोमडेति वा जाव मयकुहियविणढकिमिणवावण्णदुरभिगंधे किमिजालाउले संसते असुइविगयवीभत्थदरिसणिजे, भवेयारूवे सिया?, णो इणढे समढे, एत्तो अणिट्ठतराए चेव जाव गंधेणं पण्णत्ते (सूत्रं ९१) तते णं से जितसत्तू ११७३॥ राया अण्णदा कदाइ पहाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहुहिं राईसर जाव सत्यवाहपभितिहिं सद्धिं भोयणवेलाए सुहासणवरगए विपुलं असणं ४ जाव विहरति, जिमितभु -१४४] SANEmiratKIL. अथ अध्ययन- १२ "उदकज्ञात" आरभ्यते ~356 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप नुत्तरायए जाव सुइभूते तंसि विपुलंसि असण ४ जाव जायविम्हए ते बहवे ईसर जाब पभितीए एवं वयासी-अहो णं देवा! इमे मणुण्णे असण ४ वण्णेणं उववेए जाव फासेणं उववेते अस्सायणिज्जे विस्सायणिजे पीणणिज्जे दीवणिजे दप्पणिज्जे मयणिज्जे विहणिजे सबिंदियगायपल्हायणिजे, तते णं ते बहवे ईसर जाव पभियओ जितसत्तुं एवं व०-तहेव णं सामी! जणं तुम्भे बदह अहो णं इमे मणुण्णे असणं ४ वण्णेणं उववेए जाव पल्हायणिज्जे, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं व०-अहो णं सुबुद्धी! इमे मणुण्ण असणं ४ जाव पल्हायणिज्जे, तए णं सुवुद्धी जितसत्तुस्सेयम8 नो आढाइ जाव तसिणीए संचिट्ठति, तते णं जितसत्तुणा सुवुद्धी दोचंपि तचापि एवं वुत्ते समाणे जितसत्तुं रायं एवं वदासी-नो खलु सामी! अहं एयंसि मणुण्णंसि असण ४ केइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुन्भिसहावि पुग्गला दुन्भिसदत्ताए परिणमंति दुन्भिसद्दावि पोग्गला मुभिसहत्ताए परिणमंति, सुरूवावि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति दुरूवावि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति, सुन्भिगंधावि पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति. दुन्भिर्गधावि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणमंति सुरसावि पोग्गला दुरसताए परिणमंति दुरसावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति सुहफासावि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति दुहफासावि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति पओगवीससापरिणयावि य णं सामी! पोग्गला पण्णत्ता, तते णं से जितसत्तू सुबुद्धिस्स अमञ्चस्स एवमातिक्खमाणस्स ४ एयमद्वं नो आढाति नो अनुक्रम [१४३ -१४४] ~357 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: हाताधर्म थाङ्गम्. प्रत ॥१७॥ सूत्रांक [९१,९२] १२उदकज्ञाते परिखोदकं सू. |९१ सुबुद्धिकृतो जितशत्रोबोधः सू. - परियाणई तुसिणीए संचिट्ठइ, तए णं से जितसत्तू अण्णदा कदाई पहाए आसखंधवरगते महया भडचडगरहआसवाहणियाए निजायमाणे तस्स फरिहोदगस्स अदूरसामंतेणं बीतीवयह । तते णं जितसत्तू तस्स फरिहोद्गस्स असुभेणं गंघेणं अभिभूते समाणे सएणं उत्तरिजगेणं आसगं पिहेइ, एगस अवक्कमति, ते बहवे ईसर जाव पभितिओ एवं वदासी-अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदए ! अमणुण्णे वण्णेणं ४ से जहा नामए अहिमडेति वा जाव अमणामतराए चेव, तए णं ते बहवे राईसरपभिह जाव एवं व०-तहेव णं तं सामी ! जंणं तुम्भे एवं वयह, अहोणं इमे फरिहोदए अमणुपणे वपणेणं ४ से जहा णामए अहिमडे इ वा जाब अमणामतराए चेच, तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं अमचं एवं वदासीअहो णं सुबुद्धी! इमे फरिहोदए अमणुपणे वण्णेणं से जहा नामए अहिमडेइ वा जाव अमणामतराए चेष, तए णं सुबुद्धी अमचे जाव तुसिणीए संचिट्ठा,तएणं से जियसत्तू राया सुवुद्धि अमचं दोचंपि तञ्चपि एवं व०-अहो णं तं चेव, तए णं से सुबुद्धी अमचे जियसत्तुणा रन्ना दोचंपि तचंपि एवं बुत्ते समाणे एवं व-नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए, एवं खलु सामी! सुम्भिसद्दावि पोग्गला दुभिसहत्ताए परिणमंति, तं चेव जाव पओगयीससापरिणयावि य गं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता, तते णं जितसत्तु सुवृद्धि एवं चेव, मा णं तुम देवाणु ! अप्पाणं च परं च तदुभयं चा बहहि य असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहराहि, तते दीप अनुक्रम [१४३ ૧૨ -१४४] cesesesesese ||१७४॥ ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अन्भथिए ५ समुप्पज्जित्था-अहो णं जितसत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सन्भूते जिणपण्णत्ते भावे णो उवलभति, तं सेयं खलु मम जितसन्तुस्स रपणो संताणं तचार्ग तहियाणं अवितहाणं सम्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणद्वयाए एयम8 उवाइणावेत्तए, एवं संपेहेति २ पचतिएहिं पुरिसेहिं सदि अंतरावणाओ नवए घडयपडए पगण्हति २ संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि णिसंतपडिनिसंतंसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागए २तं फरिहोदगं गेण्हावेति २ नवएसु घडएस गालावेति २ नवएसु घडएसु पक्खिवावेति २ लंछियमुद्दिते करावेति २ सत्तरतं परिवसावेति २ दोचंपि नवएसु घडएसु गालावेति नवएसु घडएसु पक्खिवावेति २ सज्जक्खारं पक्खिवावेह लंछियमुहिते कारवेति २ सत्तरतं परिवसावेति २ तचंपि णवएसु घडएसु जाव संवसावेति एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतराय विपरिवसावेमाणे २ सत्त २ रातिंदिया विपरिवसावेति, तते णं से फरिहोदए सत्तमसत्तयंसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेते ४ आसायणिजे जाव सर्विदियगायपल्हायणिजे, तते णं सुबुद्धी अमचे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवा०२ करयलंसि आसादेति २तं उदगरयणं वण्णणं उबवेयं ४ आसायणिज्जे जाच सर्विदियगायपल्हायणिहज जाणित्ता हट्ठतुहे बहहिं उद्गसंभारणिज्जेहिं संभारेति २ जितसत्तुस्स रणो पाणियपरियं सद्दावेति २ एवं व०-तुर्म च णे देवाणु अनुक्रम [१४३ -१४४] Bermudararycom ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: झौताधर्म कथाकम्. प्रत ॥१७॥ सुत्रांक [९१,९२] प्पिया इमं उद्गरयणं गेण्हाहि २ जितसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेज्जासि, तते णं से पाणियघरिए सुबुद्धियस्स एतमझु पडिसुणेति २तं उदगरयणं गिण्हाति २ जितसन्तुस्स रपणो भोयणवेलाए उवट्टवेति, तते णं से जितसत्तू राया तं विपुलं असण ४ आसाएमाणे जाव विहरह, जिमियभुनुत्तराययाविय णं जाव परमसुइभूए तंसि उद्गगरयणे जायविम्हए ते बहवे राइसर जाव एवं व०-अहोणं देवाणु01 इमे उदगरयणे अच्छे जाव सबिंदियगायपल्हायणिज्जे तते णं बहवे राईसर जाव एवं व०तहेव णं सामी! जपणं तुम्भे वदह जाच एवं चेव पल्हायणिजे, तते णं जितसत्तू राया पाणियधरियं सहावति २ एवं व-एस णं तुन्भे देवा० । उदगरयणे कओ आसादिते , तते णं से पाणियघरिए जितसत्तुं एवं वदासी-एस णं सामी ! मए उद्गरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिं अमचं सद्दावेति २ एवं च०-अहो णं सुबुद्धी केणं कारणेणं अहं तव अणिद्वे ५ जेणं तुम मम कल्लाकल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवट्ठवेसि ?,तए णं तुमे देवा! उदगरयणे कओ उबलद्धे !, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं व०-एस णं सामी ! से फरिहोदए, तते णं से जितसत्तू सुबुद्धिं एवं व०-केणं कारणेणं सुबुद्धी ! एस से फरिहोदए ?, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं व-एवं खलु सामी ! तुम्हे तया मम एवमातिक्खमाणस्स ४ एतमट्ट नो सद्दहह तते णं मम इमेयारचे अन्भत्थिते ६ अहोणं जितसत्तू संते जाव भावे नो सद्दहति नो पत्तियति नो रोएति तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स १२उदकज्ञाते परिखोदक सू९१ सुबुद्धिकृतो जितशत्रोबोधः सू. ९२ दीप अनुक्रम [१४३ Oi -१४४] ॥१७॥ ~360 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप रनो संताणं जाव सन्भूताणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एतमट्ठ उवाइणावेत्तए, एवं संपेहेमि २तं चेव जाव पाणियपरियं सहावेमि २ एवं वदामि-तुम णं देवाणु ! उदगरतणं जितसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि, तं एएणं कारणेणं सामी ! एस से फरिहोदए । तते गं जितसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमचस्स एवमातिक्खमाणस्स ४ एतमझु नो सद्दहति ३ असहमाणे ३ अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे सद्दावेति २ एवं वदासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाच उद्गसंहारणिज्जेहिं दवेहिं संभारेह तेऽवि तहेव संभारेति २ जितसत्तुस्स उवणेति, तते णं जितसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएति आसातणिजं जाव सविंदियगायपल्हायणिज्जं जाणिसासुबुद्धि अमचं सद्दावेति २एवं व०-सुबुद्धी! एए णं तुमे संता तथा जाव सन्भूया भावा कतो उवलद्धा, तते णं सुबुद्धी जितसत्तुं एवं वदासी-एए णं सामी ! मए संता जाव भावा जिणवयणातो उवलद्धा, तते णं जितसत्तु सुवुद्धि एवं व०-तं इच्छामि गं देवाणु ! तब अंतिए जिणवयणं निसामेत्तए, तते गं सुबुद्धी जितसत्तुस्स विचितं केवलिपन्नत्तं चाउजामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्वति जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुषयाति, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट सुबुद्धिं अमचं एवं व०-सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंध पावयणं ३ जाव से जहेयं तुम्भे वयह, तं इच्छामि गं तव अंतिए पंचाणुषइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवा! मा पडि अनुक्रम [१४३ -१४४] Nirauasaram.org ~361 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [९१,९२] १२उदकज्ञाते परिखोदकं सू. ९१ सुबु ॥१७६॥ द्धिकृतो बंध०, तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमञ्चस्स अंतिए पंचाणुवइयं जाब दुवालसविहं सावयधम्म पडिवजह, तते णं जितसत्तू समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरति । तेणं कालेणं २ थेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छति, सुबुद्धी धम्मं सोचा जं णवरं जियसत्तुं आपुच्छामि जाव पचयामि, अहासुहं देवा०1,ततेणं सुबुद्धी जेणेव जितसत्तू तेणेव उवा०२ एवं व.-एवं खलु सामी! मए धेराणं अंतिए धम्मे निसन्ते सेऽविय धम्मे इच्छियपडिच्छिए ३, तए णं अहं सामी! संसारभउविग्गे भीए जाच इच्छामि गं तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए स० जाव पवइत्तए, तते णं जितसत्तू सुबुद्धिं एवं व-अच्छासु ताव देवाणु कतिवयाति वासाई उरालाति जाव मुंजमाणा ततो पच्छा एगयओ धेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाब पवइस्सामो, तते णं सुवुद्धी जितसत्तुस्स एयमझु पडिसु. णेति, तते णं तस्स जितसत्तुस्स सबढीणा सद्धिं विपुलाई माणुस्स. पचणुभवमाणस्स दुवालस वासाई बीतिफताई तेणं कालेणं २ थेरागमणं तते णं जितसत्तू धम्मं सोचा एवं जं नवरं देवा! सुबुद्धि आमंतेमि जेट्टपुत्तं रज्जे ठवेमि, तए णं तुम्भं जाव पच्चयामि, अहासुहं, तते णं जितसत्तू जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ सुबुद्धिं सदावेति २ एवं बयासी-एवं खलु मए थेराणं जाव पवजामि, तुम किं करेसि, तते णं सुबुद्धी जितसतुं एवं व०-जाव के. अन्ने आहारे वा जाव पबयामि, तं जति णं देवा० जाव पवयह गच्छह णं देवाणु ! जेहपुत्तं च कुटुंबे ठावेहि २सीयं दुरुहिताणं ममं अंतिए सीया जितशत्रोबोधः सू. दीप ९२ Seasenasasa अनुक्रम [१४३ -१४४] ॥१७६॥ ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१,९२] दीप जाव पाउम्भवेति, तते णं सुबुद्धीए सीया जाव पाउन्भवइ, तते णं जितसत्तू कोढुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा० अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह जाव अभिसिंचंति जाव पञ्चतिए । तते णं जितसत्तू एकारस अंगाई अहिज्जति बहूणि वासाणि परियाओ मासियाए सिद्धे, तते णं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अ० यहणि चासाणि जाव सिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स अयमद्धे पण्णत्तेत्तिवेमि (सूत्रं ९२) ॥१२॥ वारसमं नाअज्झयणं समत्तं ॥ सर्व सुगम नवरं 'फरिहोदए'त्ति परिखायाः-खातवलयस्सोदकं परिखोदकं, चापीति समुच्चये, ततश्चपादिकोऽर्थोऽभूद एवं परिखोदकं चाभूदित्येवं, चः समुपये इति, 'मेयेत्यादि, अत्र मेदःप्रभृतीनां पटलेन-समूहेन 'पोचर्ड' विलीनं मृतकानां यथा वा द्विपदादीनां कडेवरी संछन्नं यत्तत्तथा, अह्मादिकडेवरविशेषणायाह-मृत-जीवविमुक्तमात्र सबत् कुथित-हेपतुदुर्गन्धमित्यर्थः तथा विनष्टं उच्छनखादिविकारवत् 'किमिण'ति कतिपयकृमिवत् व्यापन च शकुन्यादिभक्षणाद्वीभत्सतां गतं सद्यहुरभिगन्धं तीव्रतरदुष्टगन्धं तत्तथा 'सुब्भिसद्दाविति शुभशब्दा अपि, 'दुम्भिसद्दत्ताए'त्ति दुष्टशब्दतया, 'पओगवीससापरिणय'त्ति प्रयोगेण-जीवव्यापारेण विश्रसया च-खभावेन परिणताः-अवस्थान्तरमापना ये ते तथा 'आसखंधवरगए'त्ति अश्व एव स्कन्धः-पुद्गलप्रचयरूपो वर:-प्रधानोऽश्वस्कन्धवरोऽथवा स्कन्धप्रदेशप्रत्यासत्तेः पृष्ठमपि स्कन्ध इति व्यपदिष्टमिति, 'असम्भावुन्भावणाहिति असतां भावानां-वस्तूनां वस्तुधर्माणां वा या उद्भावना-उत्क्षेपणानि तास्तथा ताभिर्मिथ्या अनुक्रम [१४३ -१४४] REairaba d ~363 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१२], ----------------- मूलं [९१,९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. प्रत सूत्रांक [९१,९२] ॥१७७॥ खाभिनिवेशेन च-विपर्यासाभिमानेन व्युग्राहयन्-विविधत्वेनाधिक्येन च ग्राहयन् व्युत्पादयन्-अव्युत्पन्नमति व्युत्पन्न कुर्वन १२उदक|'संते'इत्यादि सतो-विद्यमानान् 'तचेति तत्त्वरूपानदंपर्यसमन्वितानित्यर्थः, अत एव तथ्यान-सत्यान् , एतदेव व्यतिरेकेणोच्यते-अवितथान् न वितथानित्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-सद्भूतान् सता प्रकारेण भूतान्-यातान् सद्भूतान् एकार्थी वैते खोदकं सू. शब्दाः, 'अभिगमणट्ठयाए' अवगमलक्षणाय अर्थायेत्यर्थः, 'एतमटुंति एवं(तं)-पुद्गलानामपरापरपरिणामलक्षणमर्थ ९१ सुबु'उचाइणावित्तए'त्ति उपादापयितुं ग्राहयितुमित्यर्थः, 'अंतरावणाउति परिखोदकमार्गान्तरालवचिनो हटात् कुम्भका- कृता रसम्बन्धिन इत्यर्थः, 'सज्जखारं'ति सद्यो भस, 'अच्छे'त्यादि, अच्छ-निर्मल, पथ्य-आरोग्यकरं जात्यं-प्रधानमिति जतशबाभावः, तनुकं-लघु सुजरमिति हृदयं, 'उद्गसंभारणिजेहिं ति उदकवासकैः बालकमुस्तादिभिः संमारयति-संभृतं करोति । वाधः सू. इहाध्ययने यद्यपि सूत्रेणोपनयो न दर्शितः तथाऽप्येवं द्रष्टव्यः-"मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि' पापिणो विगुणा । फरि-18 होदगंव गुणिणो हवंति वरगुरुपसायाओ ॥१॥"ति [ मिथ्यालमोहितमनसः पापप्रसक्ता अपि प्राणिनो विगुणाः । परिखो-18 दकमिव गुणिनो भवन्ति वरगुरुप्रसादात् ॥१॥] द्वादशज्ञातविवरणं समाप्तम् ।। दीप अनुक्रम [१४३ Receeeeeeeeeeeeeeeee -१४४] ॥१७७॥ weredturary.com अत्र अध्ययनं-१२ परिसमाप्तम् ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------- ------ मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अथ त्रयोदशज्ञातविवरणम् । प्रत सत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] अथ त्रयोदर्श व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने संसर्गविशेषाद् गुणोत्कर्ष उक्तः, इह तु संसविशेषाभावाद् गुणापकर्ष उच्यते, इत्येवं सम्बद्धमिदम् जति णं भंते । समणेणं बारसमस्स अयमढे पण्णते तेरसमस्स णं भंते ! नाय. के. अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे गुणसिलए चेतिए, समोसरणं, परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २ सोहम्मे कप्पे दहुरवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए दडुरंसि सीहासणंसि दडुरे देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहि अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सुरियाभो जाव दिवाति भोगभोगाई भुंजमाणो विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं २ विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ जाव नविहि उवदंसित्ता पडिगते जहा सुरियाभे। भंतेति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वंदह नमसति २ एवं व-अहो भंते। ददुरे देवे महिड्डिए २ दहुरस्सणं भंते! देवस्स सा दिवा देविड्डी ३ कहिं गया०१, गो सरीरं गया सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिढतो, दहुरेणं भंते ! देवेणं सा दिवा देचिट्ठी ३ किण्णा लद्धा जाव अभिसमनागया ?, एवं खलु गो०! इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे गुणसिलए Halasaramorg अथ अध्ययन- १३ "दर्दुरक' आरभ्यते ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्म कथाहर प्रत | १३दर्दुरज्ञाता०नन्दश्राद्धेन वाप्यादिकारणं सू. सत्राक ॥१७८॥ [९३] चेतिए सेणिए राया, तत्थ णं रायगिहे णंदे णामं मणियारसेट्टी अहे दित्ते, तेणं कालेणं २ अहं गोयमा समोसड्डे परिसा णिग्गया, सेणिए राया निग्गए, तते णं से नंदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे पहाए पायचारेणं जाव पज्जुवासति, गंदे धम्म सोचा समणोवासए जाते, तते णं अहं रायगिहाओ पडिनिक्खन्ते बहिया जणवयविहारं विहरामि, ततेणं से गंदे मणियारसेट्ठी अन्नया कदाइ असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपजवेहि परिहायमाणेहिं २मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं २ मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्या, तते णं नंदे मणियारसेट्ठी अन्नता गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगण्हति २ पोसहसालाए जाव विहरति, तते णं णंदस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए य अभिभूतस्स समाणस्स इमेयारूवे अन्भत्थिते ५-धन्नाणं ते जाव ईसरपभितओ जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीतो पोक्खरणीओ जाव सरसरपंतियाओ जत्थ णं बहुजणो ण्हातिय पियति य पाणियं च संवहति, सेयं खलु ममं कल्लं पाउ० सेणियं आपुच्छित्ता रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए वेभारपवयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइतंसि भूमिभागंसि जाव णंदं पोक्खरणिं खणावेत्तएत्तिकटु एवं संपेहेति २ कल्लं पा० जाव पोसहं पारेति २ हाते कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिखुडे महत्थ जाव पाहुडं रायारिहं गेण्हति २जेणेव सेणिए राया तेणेव उवा ०२ जाव पाहुडं उवट्ठवेति २ एवं व-इच्छामि णं सामी! तुन्भेहिं अन्भणु oneeeeeeeerasraepsee दीप अनुक्रम [१४५] ॥१७८॥ दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------- ------ मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] माए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया, तते ण णंदे सेणिएणं रक्षा अन्भणुण्णाते समाणे हट रायगिहं मझमज्झेणं निग्गच्छप्ति २ वत्थुपाढयरोइयंसि भूमिभागंसि शंदं पोक्खरणिं खणाविउं पयत्ते यावि होत्था, तते णं सा गंदा पोक्खरणी अणुपुवेणं खणमाणा २ पोक्खरणी जाया यावि होत्था चाउकोणा समतीरा अणुपुब्बसुजायवप्पसीयलजला संछण्णपत्तबिसमु. णाला बहुप्पलपउमकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया परिहत्थभमंतमच्छछप्पयअणेगसउणगणमिहुणवियरियसहुन्नइयमहरसरनाइया पासाईया ४। तते णं से गंदे मणियारसेट्टी गंदाए पोक्खरणीए चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडे रोवावेति । तए णं ते वणसंडा अणुपुवेणं सारक्खिजमाणा संगोविज्जमाणा य संवड्डियमाणा य से वणसंडा जाया किण्हा जाव निकुरुंबभूया पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति । तते णं नंदे पुरच्छिमिल्ले वणसंडे एगं महं चित्तसभ करावेति अणेगखंभसयसंनिविडं पा०, तत्थ णं वहणि किण्हाणि य जाव सुकिलाणि य कट्टकम्माणि य पोत्थकम्माणि चित्त० लिप्प० गंधिमवेढिमपूरिमसंघातिम उवदंसिज्जमाणाई २ चिट्ठति, तत्थ णं बहणि आसणाणि य सयणाणि य अत्थुपपञ्चधुयाई चिट्ठति, तत्थ णं बहवे णडा य पट्टा य जाब दिनभइभत्तवेयणा तालायरकम्मं करेमाणा विहरंति, रायगिहविणिग्गओ य जत्थ यह जणो तेसु पुवन्नत्थेसु आसणसयणेसु संनिसन्नो य संतुयहो य सुणमाणो य REnatumhatana दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा", श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------- ------ मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्म कथानम् प्रत |१३दर्दुरज्ञातानन्दश्राद्धेन वाप्यादिकारणं सू. सत्राक ॥१७॥ [९३] दीप अनुक्रम [१४५] पेच्छमाणो य सोहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरह, तते णं णंदे दाहिणिल्ले वणसंडे एग महं महाणससालं करावेति अणेगखंभ जाच रूवं तत्थ पं यहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विपुलं असण ४ उवक्खडेंति बहूणं समणमाहणअतिही किवणवणीमगाणं परिभाएमाणा २ विहरंति, तते णं गंदे मणियारसेट्ठी पञ्चस्थिमिल्ले वणसंडे एग महं तेगिच्छियसालं करेति, अणेगखंभसय जाच रूवं, तत्थ ण बहवे बेजा य वेजपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य दिनभइभत्सवेयणा बटणं वाहियाणं गिलाणाण य रोगियाण य दुबलाण य तेइच्छं करेमाणा चिहरंति, अण्णे य एत्थ यहवे पुरिसा दिन तेर्सि बहूणं वाहियाण य रोगि० गिला. दुव्यला. ओसहभेसज्जभत्तपाणेणं पडियारकम्मं करेमाणा विहरंति, तते णं णंदे उत्सरिल्ले वणसंडे एगं महं अलंकारियसभं करेति, अणेगखंभसत. जाव पडिरूवं, तत्थ णं वहवे अलंकारियपुरिसा दिनभइभत्त. बहूर्ण समणाण य अणाहाण य गिलाणाण य रोगि दुव्य. अलंकारियकम्मं करेमाणा २विहरति । तते णं तीए गंदाए पोक्सरपीए बहवे सणाहा य अणाहा य पंथिया य पहिया य करोडिया कारिया० तणहार० पत्त कट्ठ० अप्पेगतिया पहायति अप्पेगतिया पाणियं पियंति अप्पेगतिया पाणियं संवहंति अप्पे विसज्जितसेय जल्लमलपरिस्समनिहखुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरंति । रायगिहविणिग्गओवि जत्थ बहुजणो किं ते जलरमणविविहमजणकयलिलयाघरयकुसुमसत्थरयअणेगसउणगणरुयरिमितसंकुलेसु ॥१७९॥ दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~368 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [ १४५ ] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ------- अध्ययनं [१३], मूलं [९३] श्रुतस्कन्धः [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः 99 सुहंसुहेणं अभिरममाणों २ विहरति । तते णं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो व्हायमाणो पाणिर्य व संवहमाणो य अन्नमनं एवं वदासी- घण्णे णं देवा ! मंदे मणियारसेट्ठी कयत्थे जाव जम्मजीविय फले जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोणा जाब पडिरूवा, जस्स णं पुरथिमिल्ले तं चैव सवं वणसंडे जाव रायगिविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्नो य संतुयहो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरति, तं घने कयत्थे कयपुन्ने कयाणं० लोया । सुल माणुस्सए जम्मजीवियफले नंदस्स मणियारस्स, तते णं रायगिहे संघाडग जाव बहुजणो, अन्नमनस्स एवमातिक्खति ४ घन्ने णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सो वेव गमओ जाव सुहंसुहेणं विहरति । तते णं से गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एतमहं सोचा हट्ट २ धाराहयकलंवगंवि समूससियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरति (सूत्रं ९३ ) सर्व सुगमं, नवरं 'एवं सुरिया'चि यथा राजप्रश्नकृते सूरिकाभो देवों वर्णितः एवं अयमपि वर्णनीयः, कियता वर्णकेनेत्याह- 'जाव दिवाई' इत्यादि, स चायं वर्णकः 'तिहिं परिसाहिं सतहिं अणिएहिं सतहिं अणियाहवई हिं' इत्यादि, 'इमं च मं केवलकप्पं ति इमं च केवल:- परिपूर्णः स चासौ कल्पथ - स्वकार्यकरणसमर्थ इति केवलकल्पः केवल एव वा केवलकल्पः ते 'आभोरमाणे' इह याचत्करणादिदं दृश्यं-'पास समर्थ भगवं महावीर मित्यादि, 'कूडागारदितेत्ति एवं चासो 'से केणद्वेगं भंते ! एवं बुम्बइ सरीरगं गया सरीरगं अणुपविट्ठा १, गोषमा ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओ' वहिरन्तथ Education intimation दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिनः कथा For Parata Use Only ~369~ janatary org Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------- ------ मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] ज्ञाताधर्म-RI 'गुत्ता लिला' सावरणखेन गोमयाघुपलेपनेन च, उभयतो गुप्तखमेवाह-गुप्ता-बहिः प्राकारावृता गुत्तदुवारा अन्तर्गुप्तेत्यर्थः, १३दर्दुरकथानम्. अथवा गुप्ता गुप्तद्वारा द्वाराणां केषांचित् स्थगितखात् केषांचिच्चास्थगितखादिति 'निवाया' वायोरप्रवेशात् 'निवायगंभीरा' किल महद् गृहं निवातं प्रायो न भवतीत्यत आह-निवातगम्भीरा निवातविशालेत्यर्थः, 'तीसे णं कूडागारसालाए अदूरसामंते एत्थ न्दश्राद्धेन ॥१८॥ णं महं एगे जणसमूहे चिट्ठद, तए णं से जणसमूहे एगं महं अभवदलयं वा वासबद्दलयं वा महावार्य वा एजमाणं पासह वाप्यादि पासित्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुषविसित्ताणं चिट्ठइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ सरीरगं गया सरीरगं अणुषविद्वति, IS|| कारणं सू. 'असाधुदर्शनेनेति साधूनामदर्शनेनात एव 'अपर्युपासनया' असेवनया 'अननुशासनया' शिक्षाया अभावेन 'अशुश्रूषणया' श्रवणेच्छाया अभावेन 'सम्यक्त्वपर्यवैः' सम्थक्वरूपपरिणामविशेषैरेवं मिथ्याखपर्यवैरपि मिथ्यालं विशेषण प्रतिपनो विप्रतिपन्नः, काष्ठकर्माणि-दारुमयपुत्रिकादिनिर्मापणानि एवं सर्वत्र, नवरं पुस्त-वखं चित्रं लेप्यं च प्रसिद्ध ग्रन्थिमा-18 |नि-यानि सूत्रेण अध्यन्ते मालावत चेष्टिमानि-यानि वेष्टनतो निष्पाद्यन्ते पुष्पमालालम्बसकवत पूरिमाणि-यानि पूरणतो भवन्ति || कनकादिप्रतिमावत् सङ्घातिमानि-सङ्घातनिष्पाद्यानि स्थादिवत् उपदर्यमानानि लोकैरन्योऽन्यमित्यर्थः, 'तालायरकम्मति | |प्रेक्षणककर्मविशेषः, 'तेगिच्छियसालं'ति चिकित्साशाल-अरोगशाला वैद्या-भिषग्वराः आयुर्वेदपाठकाः वैद्यपुत्राःतत्पुत्रा एव 'जाणुय'त्ति ज्ञायकाः शाखानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञप्रवृत्तिदर्शनेन रोगखरूपतः चिकित्सावेदिनः कुशलाः-खवित- ॥१८॥ कोचिकित्सादिप्रवीणाः, 'वाहियाण'ति ग्याधितानां विशिएचित्तपीडावतां शोकादिविप्लुतचित्तानामित्यर्थे। अथवा विशिष्टा आधिर्यस्मात् स व्याधिः-स्थिररोगः कुष्ठादिस्तद्वतां ग्लानानां क्षीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः रोगितानां सञ्जातज्वरकुष्ठादिरो-II . दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [१४५] Gee गाणामाशुधातिरोगाणां बा, 'ओसहमित्यादि औषध-एकद्रव्यरूपं भैषज-द्रव्यसंयोगरूपं अथवा औषधं-एकानेकद्रव्यरूपं भैषजं तु-पथ्यं भक्तं तु-भोजनमात्र प्रतिचारककर्म-प्रतिचारकलं 'अलंकारियसह ति नापितकर्मशाला, 'विसजिए'त्यादि विसृष्टखेदजल्लमलपरिश्रमनिद्राक्षुत्पिपासाः, तत्र जल्लोऽस्थिरो मालिन्यहेतुर्मलस्तु स एव कठिनीभूत इति, 'रायगिहे'त्यादि राजगृहविनिर्गतोऽपि चात्र बहुजनः किंतेत्ति किं तद् यत्करोति ?, उच्यते-जलरमणैः-जलक्रीडामिः विविधमज्जन:बहुप्रकारखानैः कदलीनां च लतानां च गृहकैः कुसुमश्रस्तरैः अनेकशकुनिगणरुतैश्च रिभितैः-खरघोलनावद्भिर्मधुरैरित्यर्थः। सङ्कलानि यानि तानि तथा तेषु पुष्करणीवनखण्डलक्षणेषु पञ्चसु वस्तुष्विति प्रक्रमः, 'संतुयट्टो यति शयितः, 'साहेमाणो यत्ति प्रतिपादयन् 'गमय'ति पूर्वोक्तः पाठः, 'सायासोक्खंति साता-सातवेदनीयोदयात् सौख्य-सुखं ।। तते णं तस्स नंदस्स मणियारसेहिस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउन्भूया तं०"सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिमूले भगंदरे ६। अरिसा अजीरए दिढिमुद्धसूले अगारए" ॥१॥ अच्छिवेपणा कनवेयणा कंडू दउदरे कोढे १६। तते णं से गंदे मणियारसेट्ठी सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूते समाणे कोडुषियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-च्छह णं तुम्भे देवा० रायगिहे सिंघाडग जाव पहेसु. महया सद्देणं उग्धोसेमाणा २एवं व०-एवं खलु देवाणु णंदस्स मणियारसेहिस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउन्भूता तं०-'सासे जाव कोढे' तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया ! वेजोवा वेजपुत्तो वा. जाणुओ वा २ कुसलो वा २ नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोयायंकाणं एगमवि रोयापक दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०६], अंग सूत्र - [०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म [९५] कथाङ्गम्. ॥१८॥ उवसामेत्तए तस्स णं दे! मणियारे विउलं अत्थसंपदाणं दलयतित्तिकटु दोचंपि तचंपि घोसणं . घोसेह २ पञ्चप्पिणह, तेवि तहेव पचप्पिणति, तते णं रायगिहे इमेयारूवं घोसणं सोचा णिसम्म बहवे वेजा य वेजपुसा य जाव कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य कोसगपायहस्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलिया०य ओसहभेसज्जहत्थगया य सएहिं २ गिहेहिंती निक्खमंति २ रायगिह मझमज्झेणं जेणेच गंदस्स मणियारसेहिस्स गिहे तेणेव उवा०२ गंदस्स सरीरं पासंति, तेसिं रोयायंकाणं णियाण पुच्छंति गंदस्स मणियार बहहिं उचलणेहि य उवणेहि य सिणेहपाणेहि य चमणेहि य विरेयणेहि यसेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि य बत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुढवाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्बेहि य इच्छति तेसि सोलसहं रोयायंकाणं एगमवि रोयायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएति उवसामेसए, तते णं ते बहवे बेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगाणं एगमवि रोगा० उच० ताहे संता तंता जाव पडिगया । तते णं नंदे तेहिं सोलसेहिं रोयायंकेहिं अभिभूते समाणे गंदापोक्खरणीए मुछिए ४ तिरिक्खजोणिएहिं निवद्धाउते बद्धपएसिए अदुहद्दवसट्टे कालमासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरणीए दहुरीए कुञ्छिसि दहुरत्ताए उबवन्ने । तए णं गंदे दहुरे गम्भाओ विणिम्मुक्के १३दर्दुरज्ञाता०नन्दस्य रोगोत्पादमृतिदर्दुरत्वदेवत्वादिसू.९५ गाथा दीप अनुक्रम [१४६-१४७] ॥१८॥ ... अत्र मूल-संपादने सूत्रक्रमांकने एक: मुद्रण-दोष: वर्तते-सूत्र ९४ स्थाने सूत्र ९५ मुद्रितं (सूत्र-९४ क्रम भूल गये है और सूत्र ९५ लिख दिया है) दर्दुरकदेवस्य पूर्वभव - नन्द-मणिकारश्रेष्ठिन: कथा एवं नन्दस्य मृत्युः, दर्दुरकत्वेन नन्दस्य उत्पत्ति: ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [९५ गाथा समाणे उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोधणगमणुपत्ते नंदाए पोक्खरणीए अभिरममाणे २ विहरति, तते णं गंदाए पोक्खरणीए बहू जणे ण्हायमाणो य पियइ य पाणियं च संवहमाणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्खति ४ घन्ने णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारे जस्स णं इमेयारूवा गंदा पुक्खरणी चाउकोणा जाव पडिरूवा जस्स णं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभ. तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजीवियफले, तते णं तस्स दहुरस्स तं अभिक्खणं २ बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म इमेयारूवे अम्भत्थिए ६-से कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे णिसंतपुषेत्तिकट्ट सुभेणं परिणामेणं जाव जाइसरणे समुप्पन्ने, पुषजाति सम्मं समागच्छति, तते णं तस्स दडुरस्स इमेयारूवे अन्भस्थिए ५-एवं खलु अहं इहेच रायगिहे नगरे गंदे णाम मणियारे अहे । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं म. समोसहे, तए णं समणस्स भगवओ० अंतिए पंचाणुबाए सत्तसिक्खावइए जाव पडिवन्ने, तए णं अहं अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य जाव मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने, तए णं अहं अक्षया कयाई गिम्हे कालसमयंसि जाव उपसंपज्जित्ता णं विहरामि, एवं जहेच चिंता आपुच्छणा नंदापुक्ख० वणसंडा सहाओ तं व सर्व जाव नंदाए पु० दहुरत्ताए उववन्ने, तं अहो णं अहं अहने अपुग्ने अकयपुग्ने निग्गंथाओ पावयणाओ नहे भट्ठे परिन्भटे तं सेयं खलु मम सयमेव पुवपडिवन्नाति पंचाणुवयाति उपसंपजित्ताणं विह रित्तए, एवं संपेहेति २ पुवपडिवनाति पंचाणुवयाई. आरुहेति २ इमेयारूवं. दीप अनुक्रम [१४६-१४७] नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~3730 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५] ज्ञाताधर्म | १३दर्दुर कथाङ्गम्. ॥१८२॥ ज्ञातानन्दस्य रोगोत्पादमूतिदर्दुरदिसू.९५ गाथा त्वदेवत्वा अभिग्गहं अभिगिण्हति-कप्पड़ मे जावजीवं छटुंछट्टेणं अणि. अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्सविष णं पारणगंसि कप्पड़ मे गंदाए पोक्खरणीए परिपेरंतेसु फासुएणं पहाणोदएणं उम्महणोलोलियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति, जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं जाव विहरति तेणं कालेणं २ अहंगो ! गुणसिलए समोसढे परिसा निग्गया, तए णं नंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो पहाय०३ अन्नमन्त्रं जाव समणे ३ इहेव गुणसिलएक, तं गच्छामो णं देवाण. समणं भगवं.चंदामो जाव पज्जुवासामो एयं मे इह भवे परभवे पहियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सइ, तए णं तस्स (रस्स बहुजणस्स अंतिए एयममु सोचा निसम्म० अपमेयारूवे अन्भत्थिए ५ समुप्पज्जित्था-एवं खलु संमणेतं गच्छामि णं वंदामि० एवं संपेहेति २णंदाओ पुक्खरणीओसणियं. उत्तरह जेणेव रायमग्गे तेणेव उवा०२ ताए उक्किट्ठाए ५ ददुरगईए वीतिवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेथ गमणाए, इमं च णं सेणिए राया भंभसारे पहाए कपकोउप जाव सबालंकारविभूसिए हस्थिखंघबरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवरचामरा० हयगयरह० महया भडचडगर०चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे मम पायवंदते हवमागच्छति, तते णं से दूहुरे सेणियस्स रन्नो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाएणं अते समणे अंत निग्धातिए कते यावि होत्या, तते णं से दहुरे अत्यामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिज्जमितिकटु एगंतमवक्कमति करयलपरिग्गहियं नमोऽत्यु दीप अनुक्रम [१४६-१४७] ॥१८२ Santarataliend नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५ गाथा णं जाव संपत्ताणं नमोऽत्थु णं मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामस्स पुषिपिय णं मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धूलए पाणातिवाए पचक्खाए जाब थूलए परिग्गहे पचक्खाए, तं श्याणिपि तस्सेच अंतिए सर्व पाणातिवायं पञ्चक्खामि जाव सर्व परि० पच जावजीवं सबं असण ४ पच जावजीवं जंपिय इमं सरीरं इ8 कंतं जाव मा फसंतु एयंपिणं चरिमेहि ऊसासेहि बोसिरामित्तिकट्ट, तए ण से दहुरे कालमासे कालं किचा जाव सोहम्मे कप्पे दहरवर्डिसए विमाणे उववायसभाए दहरदेवत्ताए उचबन्ने,एवं खलु गो० ददुरेणं सा दिवा देविड्डी लद्धा ३१ ददुरस्स णं भंते ! देवस्स केवतिकालं ठिई पण्णत्ता ?, गोचत्तारि पलिओवमाई ठिती पं०, सेणं ददुरे देवे० महाविदेहे वासे सिजिनहिति बुझिजाच अंतं करेहिइ य। एवं खलु समणेणं भग. महावीरेणं तेरसमस्स नायजमयणस्स अयम? पण्णत्तेत्तिवेमि ॥ (सूत्र ९५) तेरसमं णायज्झयणं समत्तं ॥१३॥ 'सासे'त्यादि श्लोकः प्रतीतार्थः, नवरं 'अजीरए'ति आहारापरिणतिः 'दिट्टीमुद्धसूले'चि दृष्टिशूल-नेत्रशूल। मर्द्धशूलं-मस्तकशूलं, 'अकारए'ति भक्तद्वेषः 'अच्छिवेयणे'त्यादि श्लोकातिरिक्तं, 'कंड'त्ति खर्जुः, 'दउदरे'ति दकोदरं जलोदरमित्यर्थः, 'सस्थकोसे'त्यादि, शस्त्रकोश:-क्षुरनखरदनादिभाजनं स हस्ते गतः-स्थितो येषां ते तथा, एवं | सर्वत्र, नवरं शिलिकाः-किराततिक्तकादितृणरूपाः प्रततपाषाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णीकरणार्थाः, तथा गुटिका-द्रव्यसंयोगनिप्पादितगोलिकाः ओषधभेषजे तथैव 'उच्चलणेही त्यादि उद्वेलनानि-देहोपलेपन विशेषाः यानि देहाद्धस्तामर्शनेनापनीयमा दीप अनुक्रम [१४६-१४७] Tweeeee SAREnaturmanand Humstaram.org नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् [९५] ॥१८॥ गाथा नानि मलादिकमादायोद्वलंतीति उद्वर्तनानि तान्येव विशेषस्तु लोकरूढिसमवसेय इति, स्नेहपानानि-द्रव्यविशेषपकघृतादि- १३दर्दुरपानानि वमनानि च प्रसिद्धानि विरेचनानि-अधोविरेकाः स्वेदनानि-सप्तधान्यकादिभिः अवदहनानि-दम्भनानि अपना-1 | ज्ञाताननानि-स्नेहापनयनहेतुद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नानानि अनुवासना:-चर्मयन्त्रप्रयोगेणापानेन जठरे तैलविशेषप्रवेशनानि बस्तिक-18 |न्दस्य रोमाणि-चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरप्रभृतीनां स्नेह पूरणानि गुदे वा वादिक्षेपणानि निरुहा-अनुवासना एव केवलं द्रष्यकृतो गोत्पादमू|विशेषः शिरोवेधा-नाडीवेधनानि रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः तक्षणानि-वचः क्षुरप्रादिना तनूकरणानि प्रक्षणानि-इखानि खचो । विदारणानि शिरोषस्तयः-शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य संस्कृततेलापूरलक्षणाः, प्रागुक्तानि बस्तिकर्माणि सामान्यानि अनुवासना- Iवदेवत्वानिरुहशिरोवस्तयस्तु तद्भेदाः, तर्पणानि-लेहद्रव्यविशेषैहणानि पुटपाका:-कृष्ठिकानां कणिकावेष्टितानामनिना पचनानिदि सू.९५ |अथवा पुटपाका:-पाकविशेषनिष्पना औषधविशेषाः छल्यो-रोहिणीप्रभृतयः पल्ल्यो-गुडूचीप्रभृतयः कन्दादीनि प्रसि-101 द्धानि, एतैरिच्छन्ति एकमपि रोगमुपशमयितुमिति, 'निबद्धाउए'त्ति प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धापेक्षया 'बंधपएसिए'त्ति | प्रदेशपन्धापेक्षयेति 'अंतनिग्याइए'ति निर्धातितान्तः, 'सर्व पाणाइवायं पञ्चक्खामि' इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणं तथापि विरवा | देशविरतिरेव, इहार्थे गाथे-"तिरियाणं चारित्तं निवारियं अह य तो पुणो तेसि । सुबइ बहुयाणपिहु महत्वयारोहणं समए ॥१॥ न महायसम्भावेवि चरणपरिणामसम्भवो तेसिं । न बहुगुणाणपि जओ केवलसंभूइपरिणामो ॥२॥" इति [ तिरश्चा चारित्रं निवारितं अथ च तदा पुनस्तेषां श्रूयते बहूनामपि महावतारोपणं समये ॥१॥ न महाव्रतसद्भावेऽपि चरण-18॥१८॥ परिणामसंभवस्तेषां । बहुगुणानामपि न यतः केवलसंभूतिपरिणामः ॥२॥] इह यद्यपि सूत्रे उपनयो नोक्तः तथाऽप्येवं ।। दीप अनुक्रम [१४६-१४७] नन्द-मणिकारस्य दर्दुरक-जन्मस्य घटना ( नन्द मणिकार का दर्दुरकरूपे जन्म और वो दर्दुरक के व्रत-ग्रहण कि अभूतपूर्व घटना ) ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१३], ----------------- मूलं [९५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [९५ द्रष्टव्यः--"संपन्नगुणोवि जओ सुसाहुसंसग्गिवजिओ पायं । पावइ गुणपरिहाणीं ददुरजीवोद मणियारो ॥ १ ॥ [संपनगुणोऽपि यतः सुसाधुसंसर्गवर्जितः प्रायः । प्राप्नोति गुणपरिहाणि दर्दुरजीव इव मणिकारः॥१॥ति, अथवा-1ई। तित्थयरवंदणत्थं चलिओ भावेण पावए सगं । जह दडुरदेवेणं पत्तं येमाणियसुरत्तं ॥२॥" [ तीर्थकरवन्दनार्थ चलितो भावेन प्रामोति खर्गम् । यथा द१रदेवेन प्राप्त वैमानिकसुरखम् ॥१॥]"ति त्रयोदशज्ञातविवरणं समाप्तम् ॥ १३ ॥ गाथा Keeeee अथ चतुर्दशज्ञातविवरणम् । दीप अनुक्रम [१४६-१४७] अथ चतुर्दशज्ञात विवियते-अस्स चार्य पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-पूर्वस्मिन् सतां गुणानां सामग्यभावे हानिरुक्ता, इह तु| तथाविधसामग्रीसद्भावे गुणसम्पदुपजायते इत्यभिधीयते, इत्येवंसम्बद्धमिदम् जति णं भंते! तेरसमस्स ना. अयमढे पण्णत्ते चोहसमस्स के अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ तेयलिपुरं नाम नगरं पमयवणे उजाणे कणगरहे राया, तस्स णं कणगरहस्स पउमावती देवी, तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमचे सामदंड०, तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नाम मूसियार 9 09asraerseas Auditurary.com अत्र अध्ययन-१३ परिसमाप्तम् अथ अध्ययन- १४ "तैतलीपुत्र' आरभ्यते ~377 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] ज्ञाताधर्मकथानम्. ॥१८॥ १४तेतलिपुत्रज्ञाता. | तेतलिपोलियोर्विवाहः सू. दीप अनुक्रम [१४८-१५१] दारए होत्था अड्डे जाव अपरिभूते, तस्स णं महा नामं भारिया, तस्स णं कलायरस मूसियारदारयस्स धूया भदाए अत्तया पोहिला नाम दारिया होत्था रूवेण जोवणेण य लावन्नेण उकिट्ठा २, तते णं पोटिला दारिया अन्नदा कदाइ पहाता सबालंकरविभूसिया चेडियाचकवालसंपरिबुडा उप्पि पासायवर गया आगासतलगंसि कणगमएणं तिदूसएणं कीलमाणी २ विहरति, इमं च णं तेयलिपुत्ते अमचे पहाए आसखंधवरगए महया भडचडगरआसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स भूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीतिवयति, तते णं से तेयलिपुत्ते भूसियारदारगगिहस्स अदूरसामंतेणं चीतीवयमाणे २ पोटिलं दारियं उप्पि पासायवरगयं आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी पासति २ पोहिलाए दारियाए रूवे प ३ जाव अझोववन्ने को९वियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-एस णं देवा० ! कस्स दारिया र्किनामधेज्जा ?, तते णं कोडंबियपुरिसे तेयलिपुत्तं एवं वदासी-एस णं सामी! कलायस्स मूसियारदारयस्स धूता भद्दाए अत्तया पोहिला नाम दारिया रूवेण य जाव सरीरा, तते णं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिनिपत्ते समाणे अम्भितरहाणिज्जे पुरिसे सद्दावेति २एवं व०-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! कलादस्स मूसियार धूयं भदाए अत्तयं पोहिलं दारियं मम भारियत्साए वरेह, तते ण ते अभंतरद्वाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ट करयतहत्ति जेणेव कलायस्स मूसि. गिहे तेणेव उवागया, तते णं से कलाए मूसियारदारते पुरिसे एजमाणे पासति २ हठ्ठतुढे आसणाओ अग्भु ॥१८४॥ LIO HTRainrary.org तेतलिपुत्रस्य कथा ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [ १४८ -१५१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [९६-९९] श्रुतस्कन्ध: [१] -------- अध्ययनं [१४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educator तेतलिपुत्रस्य कथा ति २ सतपदातिं अणुगच्छति २ आसणेणं उवणिमंतेति २ आसत्ये वीसत्थे सुहासणवरगए एवं व० संदिसंतु णं देवाणु० ! किमागमणपओयणं ?, तते णं ते अभितरद्वाणिज्जा पुरिसा कलायमूसिय० एवं य०-अम्हे णं देवाणु० ! तब घूयं भद्दाए अत्तयं पोहिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारिमत्ताए बरेमो, तं जति णं जाणसि देवाणु जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो ता दिज्जउ णं पोहिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, ता भण देवाणु० किं दलामो सुकं १, तते vi कलाए मूसियारदारए ते अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे एवं वदासी-एस चेव णं दे० मम सुंके जन्न तेतलिपुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करेति, ते ठाणिजे पुरिसे विपुलेणं असण ४ पुप्फवत्थ जाव मल्लालंकारेणं सकारेइ स० २ पडिविसज्जेइ, तए णं कलायस्सवि मूसि० गिहाओ पडिनि० २. जेणेव तेयलिपुत्ते अ० तेणेव उवा० २ तेयलिपु० एयमहं निवेयंति, तते णं कलादे मूसिपदारए अन्नया कयाइं सोहणंसि तिहिनक्खत्तमुटुसंसि पोहिलं दारियं पहायं सवालंकारभूसियं सीयं दुरूहइरता मित्तणाइसंपरिवुढे सातो गिहातो पडिनिक्खमति २ सविट्टीए तेयलीपुरं मज्झमज्झेणं जेणेव तेतलिस्स गिहे तेणेव उचा० २ पोहिलं दारियं तेतलिपुत्तस्स सयमेव भारियन्ताए दलपति, तते णं तेतलिपुते पोहिलं दारियं भारियताए उवणीयं पासति २ पोहिलाए सद्धिं पट्ट्यं दुरूहति २ सेतापीतएहिं कल सेहिं अप्पाणं मज्जावेति २ अग्गिहोमं करेति २ पाणिग्गहणं करेति २ पोहिलाएं भारियाए मिसणाति जाव For Parts Only ~379~ nary or Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [ १४८ -१५१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) ---------- अध्ययनं [१४], मूलं [९६-९९] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१८५॥ Education Internation परिजणं विपुलेणं असणपाणखातिमसातिमेणं पुष्क जाब पडिविसज्जेति, तते णं से तेतलिपुत्ते पोट्टि - लाए भारियाए अणुरते अविरत्ते उरालाई जाव विहरति (सूत्र ९६) तते णं से कणगरहे राया रज्जेय रहे थ बले य वाहणे य कोसे व कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिते ४ जाते २ पुत्ते वियंगेति, अप्पेगइयाणं इत्थंगुलियाओ छिंदति अप्पेगइयाणं हत्थंगुहप छिंदति एवं पायंगुलियाओ पायंगु एवि कन्नसकुलीएव नासापुडा फालेति अंगमंगातिं वियंगेति, तते णं तीसे पउमावतीए देवीए अन्नया पुवरस्ताव अयमेयारूवे अन्भथिए समुपज्जित्था ४ एवं खलु कणगरहे राया रज्जे व जाव पुत्ते वियंगेति जाब अंगमंगाई वियंगेति, तं जति अहं दारयं पयायामि सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चैव सारक्खमाणी संगोमाणी विहरत्तएत्तिकट्टु एवं संपेहेति २ तेयलिपुत्तं अमचं सहावेति २ एवं व० एवं खलु देवro ! कणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगेति तं जति णं अहं देवाणु० 1 दारगं पयायामि तते णं तुमं कणगरहस्त रहस्सियं चैव अणुपुद्देणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे संघढेहि, तते णं से दारए उम्मुकषालभावे जोवणगमणुप्पत्ते तव य मम य भिक्खाभायणे भविस्सति, तते णं से तेयलिपुत्ते परमावतीए एयमहं पडिसुणेति २ पडिगए, तते णं परमावतीय देवीए पोहिलाय अमच्चीए सयमेव गन्भं गेहति सयमेव परिवहति, तते णं सा परमावती नवण्डं मासाणं जाव पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया, जं रयणि चणं परमावती दारयं पयाया तं स्यणिं च णं पोहिलावि अमची नवहं मासाणं विणिहायमा तेतलिपुत्रस्य कथा, राजकुमार कनकध्वजस्य जन्म For Penal Use On ~ 380~ १४वेतलि. पुत्रज्ञाता० कनकध्व ज जन्मा दि सू. ९७ ॥१८५॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [ १४८ -१५१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [९६-९९] श्रुतस्कन्धः [१] ---------- अध्ययनं [१४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तेतलिपुत्रस्य कथा बन्नं दारियं पयाया, तते णं सा पउमावती देवी अम्मघाई सदावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुमे अम्मो ! तेयलिगिहे तेयलिपु० रहस्सिययं चैव सहावेह, तते णं सा अम्मधाई तहत्ति पडिमुणेति २ अंतेरस्स अवहारेण निग्गच्छति २ जेणेव तेयलिस्स गिहे जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवा० २ करयल जाब एवं वदासी एवं खलु देवा० ! पउमावती देवी सहावेति, तते णं तेयलिपुत्ते अम्मधातीए अंतिए एयमहं सोचा हट्ट २ अम्मघातीए सद्धिं सातो गिहाओ णिग्गच्छति २ अंतेरस्स अवहारेणं रहस्सियं चैव अणुपविसति २ जेणेव पउमावती तेणेव उवाग० करयल० एवं ब० - संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं म काय ?, तते णं परमावती तेयलीपुत्तं एवं व० एवं खलु कणगरहे राया जाव वियंगेति अहं च णं देवा० ! दारगं पाया तं तुमं णं देवाणु० 1 तं दारगं गेण्हाहि जाव तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सतितिकड तेयलिपुत्तं दलपति, तते णं तेयलिपुत्ते पउमावतीए हत्थातो दारगं गेण्हति उत्तरिणं पिहेति २ अंतेरस्स रहस्सियं अवदारणं निग्गच्छति २ जेणेव सए गिहे जेणेव पोहिला भारिया तेणेव उवा० २ पोहिलं एवं व० एवं खलु देवाणु० ! कणगरहे राधा रज्जे य जाव वियंगेति अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अन्तर तेणं तुमं देवा० । इमं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चैव अणुपुत्रेणं सारक्खाहि य संगोवेहि य संवदेहि यतते णं एस दारए उम्मुकबालभावे तव य मम य परमावती य आहारे भविस्सतितिकड पोहिलाए पासे णिक्खिवति पोहिलाओ पासाओ तं विणिहायमावन्नियं For Parts Use One ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १४तेतलि ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. प्रत सूत्रांक [९६-९९] ॥१८६॥ Sil पुत्रज्ञाता. पोट्टिलाप्र ज्यादेवत्विावास्या18 दिसू.९८ दीप अनुक्रम [१४८-१५१] दारियं गेण्हति २ उत्तरिजेणं पिहेति २ अंतेउरस्स अवदारणं अणुपविसति २ जेणेव पउमावती देवी तेणेच उवा०२ पउमावतीए देवीए पासे ठावेति २ जाव पडिनिग्गते । तते णं तीसे पउमावतीए अंगपडियारियाओ पउमावई देवि विणिहायमावन्नियं च दारियं पयायं पासंति२ सा जेणेव कणगरहे राया तेणेव. २सा करयल० एवं व०-एवं खलु सामी! पउमावती देवी मइल्लियं दारियं पयाया, तते णं कणगरहे राया तीसे मइल्लियाए दारियाए नीहरणं करेति बहुणि लोइयाई मयकिचाई. कालेणं विगयसोए जाते, तते णं से तेतलिपुत्ते कल्ले कोडंबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं व०-खिप्पामेव चारगसो. जाव ठितिपडियं जम्हा णं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउ णं दारए नामेणं कणगज्झए जाव भोगसमत्थे जाते (सूत्र९७)तते णं सा पोहिला अन्नया कयाई तेतलिपुत्तस्स अणिट्ठा ५ जाया यायि होत्था णेच्छह य तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोत्तमवि सवणयाए, किं पुण दरिसणं वा परिभोगं वा?, तते णं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाई पुत्वरत्त० इमेयारवे ५ जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं तेतलिस्स पुर्वि इट्टा ५ आसि इयाणि अणिट्ठा ५ जाया, नेच्छद य तेयलिपुत्ते मम नाम जाव परिभोगं वा ओहयमणसंकप्पा जाव झियायति, तए णं तेतलिपुत्ते पोहिलं ओहयमणसंकप्पं जाव झिपायमाणं पासति २ एवं व-माणं तुम दे! ओहयमणसं तुमणं मम महाणसंसि विपुलं असण ४ उवक्खडावेहि २ बहूर्ण समणमाहण जाव वणीमगाणं देयमाणी य दवावमाणीय विहराहि, तते णं सा पोहिला ॥१८६॥ तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [ १४८ -१५१] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [९६-९९] श्रुतस्कन्धः [१] ---------- अध्ययनं [१४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तेलिणं एवं बुत्ता समाणा हट्ट० तेयलिपुत्तस्स एयमहं पडिसुणेति २ कल्लाकलं महाणसंसि विपुलं असण ४ जाव दबाबेमाणी विहरति (सूत्रं९८) तेणं काले२ सुधयाओ नामं अजाओ ईरियासमिताओ जाव गुत्तवं भयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुद्दाणुपुत्रिं जेणामेव तेयलिपुरे नगरे तेणेव उवा० २ अहापडिरूवं उग्गहं उग्गहति २ संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति, तते णं तासिं सुबयाणं अज्जाणं एगे संघाटए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेति जाव अडमाणीओ तेतलिस्स गिहं अणुपविट्ठाओ, तते णं सा पोहिला ताओ अजाओ एजमाणीओ पासति २ हट्ट० आसणाओ अग्मुद्वेति २ वंदति नम॑सति २ विपुलं असण ४ पडिला भेति २ एवं ब० एवं खलु अहं अज्जाओ ! तेयलिपुत्तस्स पुषिं हा ५ आसी इपार्णि अणिट्टा ५ जाब दंसणं वा परिभोगं वा तं तुम्भेणं अज्ञातो सिक्खियाओ बहुनायाओ बहुपदियाओ बहूणि गामागर जाब आहिंडह बहूणं राईसर जाव गिहातिं अणुपविसह तं अस्थि याई भे अजाओ! के कईचि चुनओए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा हियउडावणे वा काउडावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोडयकम्मे वा भूइ० मूले कंदे छल्ली गल्ली सिलिया वा गुलिया वा ओसहे वा भेस वा जबलपुत्रे जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा ५ भवेज्जामि, तते णं ताओ अज्जाओ पोहिलाए एवं साओ समाणीओ दोषि कन्ने ठाईति २ पोहिलं एवं वदासी अम्हे णं देवा० ! समणीओ निग्गंधीओ जाव गुत्तभचारिणीओ नो खलु कप्पद अम्हं एयप्यवारं कन्नेहिवि णिसामेत्तए, किमंग पुण उवदिसित्तए For Parts Only तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोधः, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्तिः ~383~ wor Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत शाताधर्मकथानम्॥१८७॥ सूत्रांक [९६-९९] या आयरिसए वा?, अम्हेणं तव देवा! विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहिजामो, तते णं सा पोहिला १४तेतलितामो अजाओ एवं व-इच्छामिणं अजाओ। तुम्हें अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्म निसामित्तए, तते णं ताओ ISज्ञाता०पोअजाओ पोहिलाए विचित्तं धम्म परिकहेंति, तलेणं सा-पोहिला धम्म सोचा निसम्म हह एवं व०- ट्टिलायाः सद्दहामि णं अजाओ। निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुम्भे वयह, इच्छामि णं अहं तुम्भं अंतिए श्रमणोपापंचाणुवयाई जाव धर्म पडिवजित्तए, अहासुहं, तए णं सा पोहिला तासिं अजाणं अंतिए पंचाणुष- |सिकात्वं इयं जाव धम्म पडिवज्जइ ताओ अजाओ वंदति-नमंसति २ पडिविसजेति, तए णं सा पोटिला सम- सू.९९ णोवासिया जाया जाव पडिलाभेमाणी विहरइ (सूत्रं ९९) दीप अनुक्रम [१४८-१५१] सर्व सुगम, नवरं 'कलाए'त्ति कलादो नाम्ना मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति, 'अभितरठाणिज्जे'त्ति आभ्य-113 |न्तरामातानित्यथे।, 'वियंगेइति व्यङ्गयति विगतकर्णनाशाहस्तायनान् करोतीत्यर्थः, 'विइंतेति'त्ति विकृतन्तति छिनत्तीत्यर्थः, |'संरक्खमाणीयत्ति संरक्षन्त्याः आपदः सङ्गोपयन्त्याः प्रच्छादनतः 'भिक्खाभायणे'ति भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजन तद माकं भिक्षोरिप निर्वाहकारणमित्यर्थः, 'पढमाए पोरुसीए सम्झायमित्यादौ यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं-'बीयाए पोरिसीए झाणं ISIRen झियायइ तईयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहयोत्तियं पडिलेहेइ भायणवस्थाणि पडिलेहेइ भायणाणि पमञ्जह भायणाणि | उग्गाहेइ २ जेणेव मुखयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छन्तिर सुवयाओ अजाओ बंदन्ति नमसन्तिरएवं चयासी-इच्छामो णं तुम्भहि | तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोध:, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~3840 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९] दीप अनुक्रम [१४८-१५१] अन्भणुभार तेपलिपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुकाणास भिक्खायरियाए अडिचए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं, तए ण ताओ अजयाओ सुच्चयाहि अजाहिं अब्भणुण्णायाओ समापीओ सुबयाणं अजाणं अंतियाओ पडिस्सयाओ पडिनिक्खमिति अतुरियमचवलमसमंताए गतीए जुमंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणीओ तेयलिपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुयाणस्स भिक्खायरिय अडमाणीउति गृहेषु समुदान-भिक्षा गृहसमुदानं तसै गृहसमुदानाय भिक्षाचया-मिक्षानिमित्रं विचरण अटन्त्यः-कुर्वाणाः, 'अस्थि याई भेचि आइंति देशभाषायां मेति-भवतीना, 'चुण्णजोए'त्ति 81 द्रव्यचूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्मकारी, 'कम्मणजोए'त्ति कुष्ठादिरोगहेतः, 'कम्माजोप'त्ति काम्ययोगः कमनीयताहेत: 'हियपडावणे'ति हुदयोड्डापनं चित्ताकर्षणहेतुः 'काउड्डावणे ति कार्याकर्षणहेतुः 'आभिओगिए'त्ति पराभिभवनहेतुः IS वसीकरणे'त्ति वश्यताहेतुः 'कोण्यकम्मेत्ति सौभाग्यनिमिर्त स्वपनादि 'भूहकम्मेति मत्राभिसंस्कृतभूतिदानं । तते णं तीसे पोहिलाए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालस० कुडंबजागरिय. अयमेयारूवे अन्भस्थिते. एवं खलु अहं तेतलि पुर्षि इहा ५ आसि इयाणि अणिवा५जाव परिभोगं वातं सेयं खलु मम सुखयाणं अजाणं अंतिए पञ्चतित्तए, एवं संपेहेतिरकल्लं पाउ जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवा० २ करयलपरि० एवं व.-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुच्चयाणं अजाणं अंतिए धम्मे णिसंतेजाव अन्भणुन्नाया पवइत्तए, तते णं तेयलिपुसे पोहिलं एवं व०-एवं खलु तुम देवाणुप्पिए! मुंडा पवइया समाणी कालमासे कालं किया तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोध:, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१००-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ccesesed सूत्रांक १४तेतलिज्ञाता०पोटिलाया दीक्षादि सू.१०० ॥१८८॥ [१००-१०१] अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजिहिसि तं जति णं तुमं देवा ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे योहिहि तोऽहं विसजेमि, अह णं तुमं ममं ण संबोहेसि तो ते ण विसजेमि, तते णं सा पोटिला तेयलिपुत्तस्स एयमझु पडिसुणेति, तते णं तेयलिपुत्ते विपुलं असण ४ उवक्खडावेति २ मितणातिजावआमतेइ २जाव सम्माणेइ २ पोहिलं पहायं जाव पुरिससहस्सवाहणीयं सि दुरूहित्ता मि. तणाति जाव परिवुढे सविहिए जाव रवेणं तेतलीपुत्तस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुबयाणं उचस्सए तेणेव उवा०२ सीयाओ पचोरुहति २ पोहिलं पुरतो कटु जेणेव सुक्खया अज्जा तेणेव उवागच्छतिर बंदति नमंसतिर एवं च०-एवं खलु देवा! मम पोहिला भारिया इट्ठा ५ एस णं संसारभउबिग्गा जाव पवतित्तए पडिच्छंतु णं देवा! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि, अहासुहं मा०प०,तते णं सा पोटिला मुघयाहिं अजाहिं एवं बुत्ता समाणा हह उत्तरपुर०सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति २सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइरजेणेव मुवयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छइश्वंदति नमसतिरएवं व-आलित्तेणं भंते! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव एकारस अंगाई बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता सहि भत्ताई अण. आलोइयपडि०समाहिं पत्ता कालमासे कालं किचा अन्नतरेसु देवलोएसु देवदताए उववन्ना (मूत्रं १००)तते णं से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होस्था. तते णं राईसर जाव णीहरणं करेंति २ अन्नमन्नं एवं च०-एवं खलु देवाणु ! कणगरहे राया रजे य जाव दीप अनुक्रम [१५२-१५३]] ॥१८८॥ तेतलिपुत्रस्य कथा, तेतलि-पत्नी पोट्टीलाया: बोध:, श्रावक्त्वं, दीक्षा, संयमजीवनं, देवत्व-प्राप्ति: ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१००-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००-१०१] पुत्ते वियंगित्था, अम्हे णं देवा ! रायाहीणा रायाहिटिया रायाहीणकज्जा अयं च णं तेतली अमचे कणगरहस्स रनो सबढाणेसु सबभूमियासु लद्धपच्चए दिनवियारे सबकज्जवहाचए यावि होत्था, तं सेयं खलु अम्हं तेतलिपुत्तं अमचं कुमारं जातित्तएत्तिकटु अन्नमन्नस्स एयमढे पडिसुणेति २ जेणेच तेयलिपुत्ते अमचे तेणेव उवा०२ तेयलिपुत्तं एवं व०-एवं खलु देवाणु! कणगरहे राया रजे य रहे य जाव वियंगेइ, अम्हे य णं देवाणुरायाहीणा जाव रायाहीणकज्जा, तुमं च णं देवा०1 कणगरहस्स रनो सबढाणेसु जाव रजधुरार्चितए, तं जाणं देवाणु ! अस्थि केह कुमारे रायलक्खणसंपन्ने अभिसेयारिहे तपणं तुम अम्हं दलाहि, जाणं अम्हे महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचामो, तए णं तेतलिपुत्ते तेर्सि ईसर० एतम8 पडिसुणेति २ कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीयं करेइ २त्ता तेर्सि इसर जाव उवणेति २एवं च०-एस णं देवा! कणगरहस्स रन्नो पुत्ते पउमावतीए देवीए अत्तए कणगाए नाम कुमारे अभिसेयारिहे रापलक्खणसंपन्ने मए कणगरहस्स रन्नो रहसिययं संवड़िए, एयं णं तुम्भे महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचह, सर्व च तेसिं उहाणपरियावणियं परिकहेइ । तते णं ते ईसर० कणगझयं कुमारं महया २ अभिसिंचंति । तते णं से कणगज्झए कुमारे राया जाए महया हिमवंतमलय. वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे बिहरह। तते णं सा पउमावती देवी कणगज्झयं रायं सद्दावेति २ एवं व०-एस णं पुत्ता ! तव० रज्जे जाव अंतेउरे य० तुमं च तेतलिपुत्तस्स पहावेणं, तं तुम दीप अनुक्रम [१५२-१५३]] cene wirectorary.com | तेतलिपुत्रस्य कथा, कनकरथस्य राज्याभिषेक: ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ---------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१००-१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: साताधर्म प्रत सूत्रांक [१००-१०१] गं तेतलिपुत्तं अमचं आढाहि परिजाणाहि सकारेहि सम्माणेहि इंतं अम्भुट्टेहि ठिचं पज्जुवासाहि वच्चंत: तेतलि. कथाङ्गम्- पडिसंसाहहि अद्धासणेणं उवणिमंतेहि भोगं च से अणुवढेहि, तते णं से कणगज्झए परमावतीए तहत्ति IS ज्ञाता०कपडि० जाव भोगं च से बप्ति (सूत्रं १०१) नकध्वज॥१८॥ 'रापाहीणा'इत्यादि; राजाधीनाः राझो रेऽपि वर्तमाना राजक्शवर्तिन इत्यर्थः,. राजाधिष्ठितास्नेन स्वयमध्यासिताः,स्य नृपत्वं राजाधीनानि-राजायत्तानि कार्याणि येषां ते वयं राजाधीनकार्या', 'सबं च से उठाणपरियावणियंति सर्वे च सेन्तस्य सू.१०१ Bउत्थानं च-उत्पत्ति परियापनिका च-कालान्तरं यावत् खितिरित्युत्थानपरियापनिकं तत्परिकथयतीति; 'वयंत परिसंसा-IRT हिति विनयग्रस्तापात् वजन्तं प्रतिसंसाधय-अनुव्रज, अथवा वदम्स प्रति संश्लाघय-साधूक्तं साध्वित्येवं प्रशंसा कुर्वित्यर्थः, भोग-वर्तम। तते ण से पोष्टिले देवे तेतलिपुस अभिक्खणं केवलिपन धम्मे संथोहेति, नो चेव णं से तेतलिपुत्ते संबुज्झति, तते णं तस्स पोहिलदेवस्स इमेयारवे अपमस्थिते ५-एवं खलु कणगजाए- राया तेवलिपुत्रआढाति जाक मोगं च संबड्लेति तते पं से तेतली अभिववर्म र संयोहिलामाकि कामेनो संघुज्वति तं सेयं खलु कणगअझयंततलिपुसातो विपरिणामेत्तयत्तिकदुःएवं समेहेतिरका कापगलायं तेललिपुरानो विपरिणामेकालनेणतेतलिपुत्ते कल्लं पहाते जाय पायच्छित आसवंधशाए कहहिं पुरिहिं संपरिकुले सातो गिहातो मिग्मच्छति जेणेक माणगायः सया तेणेकः पहारेथ गमणाप, तते तोकि दीप अनुक्रम [१५२-१५३]] १८९॥ | तेतलिपुत्रस्य कथा, कनकरथस्य राज्याभिषेक: ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] पुतं अमचं में जहा बहके राईसरतलकर जाय पभियओ पासंतितेतहेक्लायति परिजाणंति अलि २ अंजलिपरिग्गडं करेंति इहाहिं कताहिं जाव वग्गूहिं आलवेमाणाय संलवेमाणा या पुरतो य चिठतोक पासतोय मम्मतो यसमणुगकांति, तते गं से तेतलिपुत्ते जेणेव कणमज्झए तेणेव उवागच्छति, तसेणं कणगज्झए तेतलिपुतं एजमाणं पासतिश्नो आढाति नो परियाणाति नो अमुटुक्ति अणाढायमाणे ३ परम्मुझे संचिट्ठति, तते ण तेत्तलिपुसे कणगज्झयस्स रन्नो अंजलिं करेइ, तते णं से कणगजाए त्या अणावायमाणे तसिणीए परम्महे संचिदति, तते गं तेतलिपुत्से कणगलमयं विपरिणयं जाणित्ता भीते जाव संजातभए एवं प०-सट्टे णं मम कणगज्झए राया हीणे णं मम कणगल्झए रापा अवमाए कणगजाए, तंण नज्जइ णं मम केणइ कुमारेण मारेहितित्तिक? भीते तत्थे य जाव सणियं २ पचोसकेति २ तमेव आसखधं दुरूहेति २ तेतलिपुरं मज्झमशेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेस्थ गमणाए, तते जं तेयलिपुतं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति नो परियाणंति नो अमुटुंति नो अंजलि. इटाहिं जाव णो संलचंति नो पुरओ य पिष्टुओ य पासओ य (मग्गत्ते य) समणुगच्छंति, तते गं तेतलिपुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागछति, जावि य से तस्थ वाहिरिया परिसा भवति, तं०-दासेति या पेसेति वा भाइएति वा सावि य णं नो आढाइ २.जाबिय से अभितरिया परिसा भवति, तंजहापियाइ वा माताति वा जाव सुण्हाति वा साविय गंवा नो आप कोण से तेतलिपुले जेणेव वास र दीप अनुक्रम [१५४-१५६] DESE क For P OW | पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म १४तेतलि प्रत सूत्रांक कथानम्. ज्ञाता०ते ॥१९॥ सू. १०२ [१०२-१०४] घरे जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छति २सयणिजंसि णिसीयति २एवं व०-एवं खलु अहं सयातो गिहातो निग्गपछामि तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाति नो परियाणाति नो अन्भुट्टेति, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियातो ववरोवित्तएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ तालउड विसं आसगंसि पक्खिवति सेय विसे णो संकमति, तते णं से तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव असिं खंधे ओहरति, तत्स्थवि य से धारा ओपल्ला, तते णं से तेतलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छति २ पासगं गीवाए बंधति २रुक्खं दुरूहति २पासं रुक्खे बंधतिरअप्पाणं मुयति तत्थवि य से रज्जू छिन्ना, ततेणं से तेतलिपुत्ते महतिमहालयं सिलं गीचाए बंधति २ अत्थाहमतारमपोरिसियसि उदगंसि अप्पाणं मुयति, तत्थवि से थाहे जाते, तते णं से तेतलि० सुकंसि तणकूडसि अगणिकार्य पक्खिवति २ अप्पाणं मयति तत्वविय से अगणिकाए विज्झाए, तते णं से तेतली एवं व-सद्धेयं खलु भो समणा वयंति सद्धेयं खलु भो माहणा वयंति सद्धेयं खलु भो समणा माहणा वयंति, अहं एगो असद्धेयं वयामि एवं खलु अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते को मेदं सद्दहिस्सति ? सह मित्तेहिं अमित्ते को मेदं सद्दहिस्सति ?, एवं अत्थेणं दारेण दासेहिं परिजणेणं, एवं खलु तेयलिपुत्ते णं अ० कणगझएणं रन्ना अवज्झाएणं समाणेणं तेयलिपुत्ते तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते सेविय णो कमति को मेयं सद्दहिस्सति ?, तेतलिपुत्ते नीलुप्पल जाव खंधंसि ओहरिए तत्थविय से धारा ओपल्ला को मेदं सद्दहिस्सति?, तेतलिपुत्तस्स पासगं गीवाए बंधेत्ता दीप अनुक्रम [१५४-१५६] coercene ॥१९॥ | पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक Seceden [१०२-१०४] जाच रजू छिन्ना को मेदं सहहिस्सति ?, तेतलिपुत्ते महासिलयं जाव बंधित्ता अथाह जाव उदगंसि अप्पा मुक्के तत्वविय णं थाहे जाए को मेयं सद्दहिस्सति?, तेतलिपुत्ते सुकंसि तणकूडे अग्गी विज्झाए को मेदं सद्दहिस्सति', ओहतमणसंकप्पे जाव झियाइ । तते णं से पोहिले देवे पोहिलारूपं विउवति २ तेतलिपुत्तस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं व-हं भो ! तेतलिपुत्सा! पुरतो पवाए पिट्टओ हथिभयं दुहओ अचक्खुफासे मज्झे सराणि बरिसयंति गामे पलिते रत्ने झियाति रने पलिते गामे झियाति आउसो! तेतलिपुत्ता! कओ वयामो?, तते णं से तेतलिपुत्ते पोटिलं एवं वयासी-भीयस्स खलु भो! पबज्जा सरणं उकंद्वियस्स सद्देसगमणं छुहियस्स अन्नं तिसियरस पाणं आउरस्स भेसज माइयरस रहस्सं अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं तरिउकामस्स पवहणं किचं परं अभिओजितुकामस्स सहायकिच्चं खंतस्स दंतस्स जितिंदियस्स एत्तो एगमविण भवति, तते णं से पोहिले देवे तेयलिपुत्तं अमचं एवं व०-सुदणं तुमं तेतलिपुत्ता ! एयमढे आयाणिहित्तिकट्ठ दोबंपि एवं वयह २ जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए(सूच१०२)तते णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने,तते ण तस्स तेयलिपुत्सस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिते ५ समु०-एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे २महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजये पोंडरीगिणीते रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्या, तते णं अहं घेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोद्दस पुवातिव्यहूणि वासाणि सामनपरियाए मासियाए संलेहणाए महामुके कप्पे देवे, तते दीप अनुक्रम [१५४-१५६] eseisesesecesesesesesea - | पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध: ~391 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] ॥१९॥ १४तेतलिज्ञाता०तेतलेजर्जातिस्मृतेःसर्वपूर्वज्ञानं सू. १०३ | सकेवलो seseae णं अहंताओ देवलोयाओ आउक्खएणं इहेच तेयलिपुरे तेयलिस्स अमचरस भक्षर भास्यिाएवारमत्तार पञ्चायाते,तं सेयं खलु मम पुश्वविठ्ठाई महत्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं वितरित्तए, एवं संपेहेतिश्सयमेव महवयाई आकहेति २ जेणेव पमयषणे उजाणे तेणेव उवा०२ असोगवरपायचस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसन्नस्स अणुर्चितेमाणस्स पुवाहीयाति सामाश्यमातियाई चोदसपुवाई सयमेच अभिसमन्नामबाई, तते णं तस्स पलिपुत्सस्स अपगारस्स सुमेणं परिणामेणं जाक तयावाणिजाणं कम्मरणं स्वओक्समे कम्मरयविकरणकर अपुष्करगं पविठ्ठरस केषलवरणाणदंसने समुम्पन्ने (सूकं१०३) तए णं तेवलिपुरे नपरे अहासन्निहिएहिं वाणमलारेहिं देहि देवीहि व देवदुंदुभीओ समाहयाओ दसवने कुसुमे निवाइए, क्वेि गीयगंधदमिनाए कए याषि होत्था, तक्ते णं से कणगझल सया इमीसे कहाष लट्ठे एवं ब०-एक स्खलु तेतर्लि मए अवाले मुंडे भविता पञ्चलिकेतंकममितेय लिपुतं अणणारं वदामि नमसामि २ एयमई विणए मुजो खानेमिः; एवं संपेलेति २ बहाक चाललंगिणीए- सेणाम जेणेच पायो उज्जाणे जेणेक तेतलिपुले अणगारे तेनेक उचागच्छति २ तेतालिपुरतं अश्वगावं वेदक नमसक्ति २ एक महं च विणएणं भुजोरखामेह चासन्ने जाप पन्जुवामाइलो से तेकशिपुत्ते अम्गगारे कणजायस्सरसो तीसे य महा धर्म परिकहेइ, तते से कागजाक सपा लिपुकास केवलिस्क अंतिए धम्म सोचा णिसम्म पंचाशुवइषं सत्ससिक्खावइयं सावधम्म पत्रिका २ समणोचासए जाने पन कुसुम मिाझए, दिवे मोक्षः सू. दीप १०४ अनुक्रम [१५४-१५६] R ॥१९॥ पोट्टीलदेवै: तेतलिपुत्रं प्रतिबोध:, तेतलिपुत्रस्य मोक्ष: ~392 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] जाव अहिगयजीवाजीवे । तते णं तेतलिपुत्ते केवली बहणि वासाणि केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे । एवं खर जे भगवया समणेणं महावीरेणं चोहसमस्स नायजायणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १०४) बदसमे अजमय समय ॥१४॥ 'म्हे ण'मित्यादी हीनोऽयं मय ग्रीस्येति गम्यते, अपध्यातो-दुवचिन्तावान् ममेक्-िममोपरि कनकध्वजा, पाठान्तरेण दुातोऽहं-दुष्टचिन्ताविषयीकृतोऽहं कमध्वजेन राजा, तत्-क्सान ज्ञायते केनापि कुमारणा-विरूपमारणप्रकारेण मारयिष्यतीति खंसि उवहरई'इति स्कन्धे उपहरति पिनाशयतीति 'धास ओपल्लत्ति अपदीर्णा मण्ठीभूतेत्यर्थः, 'अत्याहंति अस्त| निरस्तमविद्यमानमधस्तलं प्रतिष्ठान क्स तदस्ता स्ताघो वा-प्रतिष्ठानं तदभावादस्तापं, असार यस्थ करण नास्ति पुरुषः परिमाण 18| यस्य तत्पौरुषेयं तनिषेधादपौरुषेवं ततः पत्रयस्य कर्मधारयो, मकारौ च प्राकृतखात्, अतस्तत्र, 'सद्धेय मित्यादि, श्रद्धेयं । श्रमणा वदन्ति आत्मपरलोकपुण्यपाषादिकमर्थजातं, अतीन्द्रियस्यापि तस्य प्रमाणामपितखेन श्रद्धानमोचरसाद, अहं पुनरेकोऽ| अदेयं वदामि पुत्रादिपरिवारयुक्तस्यास्यर्थ राजसम्मतस्य च अपुत्रादिलमराजसम्मसलं च विषखापाशकजलाप्रिभिरहिंसलं चारमनः प्रतिपादयतो मम युक्तिवाधितत्वेन अनप्रतीतेरविषयत्वेनाश्रद्धेयस्वादिति प्रस्तुतसूत्रभावना, 'तए 'मित्यावि, भो। | इत्यामन्त्रणे, पुरत:-अग्रतः, प्रपातो-गर्भः पृष्ठतो हस्तिभवं 'दुहओ'त्ति उभयतः अचक्षुःस्पर्श:-अन्धकार मध्ये-मध्यभागे यत्रं | वयमासहे तत्र शरा-बाणा निपतन्ति, ततश्च सर्वतो भयं वर्त्तते इत्यर्थः, तथा ग्रामः प्रदीप्तोऽग्निना ज्वलति, अरण्यं तु ध्मायतेऽSIनुपशान्तदाहं वर्तते, अथवा ध्यायतीच ध्यायति, अनेरविध्यानेन जागर्तीवेत्यर्थः,अथवा अरण्य प्रदीप्तं ग्रामो मायते न विथ्यापति, दीप अनुक्रम [१५४-१५६] Evereseकन्छ ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१४], ----------------- मूलं [१०२-१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२-१०४] ज्ञाताधर्म एवं सर्वस्यापि भयानकखात् स्थानान्तरस्य चाभावादायुष्मंस्तेतलिपुत्र! 'कतिक बजामः भीतर्गन्तव्यममाभिरिवान्येनापि १४तेतलिकथाङ्गम्भ वतीति प्रश्नः, उत्तरं च भीतस्य प्रवज्या शरणं भवतीति गम्यते, यथोत्कण्ठितादीनां खदेशगमनादीनि, तत्र 'छुहियस्स'चि ज्ञाता० ॥१९२॥ चुभुक्षितस्य मायिनो-वंचकस्य रहवं-गुप्तवं शरणमिति सर्वत्र गमनीयं, अभियुक्तस्य-सम्पादितदूषणस प्रत्ययकरणं-दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादनं अध्वानं अरियतो(अध्वपरिश्रान्तस्य)- गन्तुमशक्तस्य बाहनगमनं-शकटाचारोहणं तरीतुकामस्य नद्यादिकं प्लवनंतरणं कृत्यं कार्य यस्य तत् प्लवनकृत्यंतरकाण्डं परमभियोक्तुकामस्व-अभिभवितुकामस्य सहायकृत्य-मित्रादिकृतं सहायक-RI म्र्मेति, अथ कथं भीतस्य प्रव्रज्या शरणं भवति अत उच्यते-खंते त्यादि वान्तस्य क्रोधनिग्रहेण दान्तस्पेन्द्रियनोइन्द्रियदमेन जितेन्द्रियस विषयेषु रागादिनिरोद्धः 'एत्तोति एतेभ्योऽनन्तरोदितेभ्योऽप्रतः अपातादिभ्यो भयेभ्यः एकमपि भयं न भवति, प्रबजितस्य सामायिकपरिणत्या शरीरादिषु निरभिष्वङ्गखात् मरणादिभयाभावादिति, एवं देवेनामात्यः स्ववाचा भीतस्य प्रव्रज्या श्रेयसीत्यभ्युपगमं कारयिखा एवमुक्तः 'सुगु इत्यादि, अयमों-भीतस्य प्रव्रज्या शरणमिति यदि प्रतिज्ञायते तदा सुष्टु ते मतं, भयाभिभूतस्तमिदानीमसीति एतमर्थमाजानीहि-अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्ख प्रवज्यां विधेहीतियावत् ।। इह च यद्यपि सूत्रे उप नयो नोक्तः तथाप्येवं द्रष्टव्यः, "जाव न दुक्खं पत्ता माणभंसं च पाणिणो पायं । ताव न घम्म गेण्हंति भावओ तेयलीसुDILउन ॥१॥[प्राणिनः प्रायेण तावन्न धर्म गृहन्ति भावतः यावदुःखं न प्राप्ता मानभ्रंशं च तेतलिसुतवत् ॥१॥]ति समाप्त ॥१९॥ चतुर्दशज्ञातविवरणम् ॥ १४ ॥ दीप अनुक्रम [१५४-१५६] aesecenese अत्र अध्ययन-१४ परिसमाप्तम् ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अथ पंचदशज्ञातविवरणम् ॥ १५ ॥ OS प्रत सूत्रांक [१०५] m दीप अनुक्रम [१५७] अधुना पञ्चदशं वित्रियते, अस्य चैवं पूर्वेण सह सम्बन्धः-पूर्वस्मिन्नपमानाद्विषयत्यागः प्रतिपादितः, इह तु जिनोपदेशात् तत्र च सत्यर्थप्राप्तिस्तदभावे खनर्थप्राप्तिरभिधीयत इत्येवंसम्बद्धमिदम् जति णं भंते ! चोहसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते पन्नरसमस्स० के अढे पन्नत्ते?, एवं खलु जंबु। तेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्था, पुन्नभद्दे चेहए जियसत्तू राया, तत्थ णं चंपाए नयरीए धणे णामं सत्थवाहे होत्था अड्डे जाव अपरिभूए, तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था, रिद्वत्थिमियसमिद्धा वन्नओ, तत्थणं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगकेउ नामंराया होस्था, महया वन्नओ, तरस धण्णस्स सत्यवाहस्स अन्नदा कदाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयाख्वे अब्भत्धिते चिंतिए पत्थिर मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मम विपुलं पणियभंडमायाए अहिच्छत्तं नगरं वाणिज्जाए गमित्तए, एवं संपेहेति २गणिमं च ४ चउविहं भंडं गेण्हइ २सगडीसागई सज्जेइ २ सगडीसागडं भरेति २ कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! चंपाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसुं एवं खलु देवाणु ! धणे सत्यवाहे विपुले पणिय. इच्छति अहिच्छत्तं नगरं वाणिजाए गमित्तते, तं जो णं देवाणुचरए वा चीरिए वा चम्मखंडिए वा भिच्छुडे वा पंडरगे । amimate SAREauratonintentiational अथ अध्ययनं- १५ "नन्दिफ़ल" आरभ्यते ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कधानम्. प्रत सूत्रांक १५ नन्दीफटज्ञाता. धन्यसार्थवाहप्रवासादि सू. ॥१९॥ [१०५] दीप अनुक्रम [१५७] चा गोतमे वा गोवतीते वा गिहिधम्मे या गिहिधम्मर्चितए वा अविरुद्धविरुद्धवसावगरतपडनिग्गंथप्पभितिपासंडत्थे वा गिहत्थे वा तस्स णं धपणेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नगरि गच्छइ तस्स गंधण्णे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलाइ अणुवाहणस्स उवाहणाउ दलयइ अकुंडियस्स कुंडियं दलयइ अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ अपक्वेवगस्स पक्खेवं दलयइ अंतराविय से पडियस्स चा भग्गलुग्गसाहेजं दलयति सुहंसुहेण य णं अहिच्छत्तं संपावेतित्तिकद दोचपि तचंपि घोसेह २ मम एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव एवं व०-हंदि सुणंतु भगवंतो चंपानगरीवत्थत्वा बहवे चरगा य जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से कोडुंबियघोसणं सुच्चा चंपाए णयरीए बहवे चरगाय जाब गिहत्थाय जेणेव धपणे सत्यवाहेतेगेव उवागच्छन्ति ततेणं धपणे तेसिंचरगाण यजाव गिहत्थाण थ अच्छत्तगस्स छत्तंदलयइ जावं पत्थयणंदलाति, गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! चंपाए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा चिट्टह, तते णं चरगा यधपणेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ता समाणा जाव चिटुंति,तते णं धपणे सत्यवाहे सोहणंसि तिहिकरणनक्वत्तसि विपुलं असणं४उवक्खडावेइरत्ता मित्तनाई आमंतेतिरभोयणं भोयावेतिर आपुच्छतिर सगडीसागडं जोयावेति २ चंपानगरीओ निग्गच्छति णाइविप्पगिद्देहिं अद्धाणेहिं वसमाणे २ सुहेहिं वसहिपायरासेहि अंग जणवयं मज्झमझेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छति २ सगडीसागडं मोयावेति २ सस्थणिवेसं करेति २ कोटुंबियपुरिसे सहावेति एवं व-तुम्भे णं देवा! मम सत्यनिवेसंसि ॥१९३॥ ~396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] महया २ सद्देणं उरघोसेमाणा २ एवं वदह-एवं खलु देवाणु ! इमीसे आगामियाए छिन्नावापाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे णदिफला नाम रुक्खा पन्नत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरियरेरिजमाणा सिरीए अईव अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति मणुपणा वनेणं ४ जाव मणुन्ना फासेणं मणुना छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया! तेसि नंदिफलाणं रुकवाणं मलाणि वा कंद० तय पत्त० पुप्फ० फल० बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेति छायाए वा वीसमति तस्स णं आवाए भद्दए भवति ततो पच्छा परिणममाणा २ अकाले चेव जीवियातो ववरोवेंति, तं मा णं देवाणुप्पिया! केह तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ, मा णं सेऽवि अकाले चेव जीवियातो ववरोविजिस्सति, तुम्भे णं देवाणु ! अन्नेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेथ छायासु वीसमहत्ति घोसणं घोसेह जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं धपणे सस्थवाहे सगडीसागडं जोएतिरजेणेच नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छति २ तेसिं नंदिफलाणं अदूरसामंते सत्थणिवेसं करेति २ दोचंपि तचंपि कोडं. चियपुरिसे सदावेति २एवं च०-तुम्भे णं देवाणु ! मम सत्थनिवेसंसि महता सहेणं उरघोसेमाणा २ एवं बयह-एएणं देवाणु 1 ते णंदिफला किण्हा जाव मणुन्ना छायाए तं जो णं देवाणु ! एएसि मंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंद. पुष्फ तय० पत्त० फल. जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेंति, तं मा णं तुम्भे जाव दूर दूरेणं परिहरमाणा वीसमह, मा णं अकाले जीवितातो ववरोविस्संति, अन्नेसिं दीप अनुक्रम [१५७] SARERatininemarana For P OW ~397 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत कथाङ्गम्. १५नन्दीफलज्ञाता. धन्यसार्थवाहप्रवासादि सू. सूत्रांक ॥१९४॥ [१०५] elememeRE दीप अनुक्रम [१५७] रुक्खाणं मूलाणि य जाव चीसमहत्तिकट्ठ घोसणं पञ्चप्पिणंति, तत्थ णं अत्थेगइया पुरिसा धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमहूं सदहति जाव रोयति एयमटुं सदहमाणा तेसिनंदिफलाणं दूरं दरेण परिहरमाणा२ अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव बीसमंति, तेसि णं आवाए नो भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणा २ सुहरूवत्ताए ५ भुजो २ परिणमंति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वार जाव पंचस कामगुणेसु नो सजेति नो रजेति से णं इह भवे चेव बहूर्ण समणाणं ४ अचणिज्जे परलोए नो आगच्छति जाव बीतीवतिस्सति, तत्थ णं जे से अप्पेगतिया पुरिसा धण्णस्स एयमझु नो सद्दहति ३ धण्णस्स एतमढ असदहमाणा ३ जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छति २ तेसिं नंदिफलाणं मलाणि य जाव बीसमंति तेसि णं आवाए भद्दए भवति ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा पबतिए पंचसु कामगुणेसु सज्जेति ३ जाव अणुपरियहिस्सति जहा व ते पुरिसा, तते णं से धण्णे सगडीसागर्ड जोयावेति २ जेणेव अहिच्छत्ता नगरी तेणेव उवागच्छति २ अहिच्छत्ताए णयरीए वहिया अग्गुवाणे सत्यनिवेसं करेतिर सगडीसागडं मोया. बेइ,तएणं से धपणे सत्यवाहे महत्धरापरिहं पाहुडं गेण्हइश्वहुपुरिसेहिं सद्धिं संपरिखुडे अहिच्छत्तं नयरं मज्झमझणं अणुप्पविसह जेणेच कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छति, करयल जाव बद्धावेह, तं महत्थं ३ पाहडं उवणेह, तए णं से कणगकेऊ राया हद्दतुह० घण्णस्स सत्यवाहस्स तं महत्थं ३ जाव ॥१९॥ ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम [१५७] पडिच्छइ २ धणं सत्यवाहं सकारेइ सम्माणेइ२ उस्सुक्कं वियरतिर पडिविसज्जेह भंडविणिमयं करेहर पडिभंडं गेण्हतिरसुहंसुहेणं जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छतिरमित्तनाति अभिसमन्नागते विपुलाई माणुस्सगाई जाव विहरति, तेणं कालेणं २ घेरागमणं धण्णे धम्मं सोचा जेट्टपुत्तं कुटुंचे ठावेत्ता पचाए एकारस सामाइयाति अंगार्ति बहणि वासाणि जाव मासियाए सं० अन्नतरेसु देवलोएसु देवताए उवचन्ने महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेति । एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं पन्नरसस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १०५) पन्नरसम नायज्झयणं समत्तं ॥ सर्व सुगम, नवरं 'चरए वेत्यादि, तत्र चरको-धाटिभिक्षाचरः चीरिको रथ्यापतितचीवरपरिधानः चीरोपकरण इत्यन्ये चमखण्डक:-चर्मपरिधानः चर्मोपकरण इति चान्ये भिक्षाण्डो-भिक्षामोजी सुगतशासनस्थ इत्यन्ये, पाण्डुरागः-शैवः गौतमः-लघुतराक्षमालाचर्चितविचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापवद्वषभकोपायतः कणभिक्षाग्राही गोत्रतिका-गोधयानुकारी, उक्तं च-"गावीहिं समं निग्गमपवेसठाणासणाइ पकरेंति । मुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विभावता ॥१॥" [गोभिः समं प्रवेशनिर्गमस्थानासनादि प्रकुर्वन्ति । भुंजन्ति यथा गावस्तिर्यग्वासं विभावयन्तः॥१॥] गृहिधर्मा-गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभि-| सन्धाय तयथोक्तकारी धर्मचिन्तको धर्मसंहितापरिज्ञानवान् सभासदः अविरुद्धो-बैनयिका, उक्तं च-"अविरुद्धो विणयकारी देवाईणं पराए भत्तीए । जह येसियायणसुओ एवं अन्नेवि नायवा ॥१॥" [अविरुद्धो विनयकारी देवादीनां परया भक्त्या। यथा वैश्यायनसुत एवमन्येऽपि ज्ञातव्याः ॥१॥] विरुद्धोः-अक्रियावादी परलोकानभ्युपगमात् सर्ववादिभ्यो ~399 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१५], ----------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप अनुक्रम [१५७] ज्ञाताधर्म-19 विरुद्धः एवं वृद्धः-तापसः प्रथममुत्पन्नखात् प्रायो वृद्धकाले च दीक्षाप्रतिपत्तेः श्रावको-ब्राह्मणः अन्ये तु वृद्धश्रावक इति१५नन्दीकथानम् व्याचक्षते, स च ब्राह्मण एव, रक्तपट:-परिव्राजको निर्ग्रन्थ:-साधुः प्रभृतिग्रहणात् कापिलादिपरिग्रह इति, 'पत्थयणं' तिफलज्ञाता. पथ्यदनं-शम्बलं 'पक्खि'ति अर्द्धपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपका, 'पडियस्स'ति वाहनात्पतितस्य रोगे वा धन्यसाथ॥१९५॥ हापतितस्य 'भग्गरुग्गस्स'त्ति वाहनात् स्खलनाद्वा पतने भनस्य रुग्णस्य च-जीर्णतां गतस्पेत्यर्थः,'हंदि'त्ति आमन्त्रणे 'नाइविगि-वाहप्रवा हहिं अद्धाणेहि ति नातिविप्रकृष्टेषु नातिदीर्घवध्वमु-प्रयाणकमार्गेषु वसन् शुभैरनुलैः 'वसतिप्रातराशेः' आवासस्थानासादिसू. प्रातर्भोजनकालैश्वेत्यर्थः 'देसग्गं'ति देशान्तं । इहोपनयः सूत्राभिहित एव । विशेषतः पुनरेवं तं प्रतिपादयन्ति-"चंपा इव मणुयगती १०५ धणोव भयवं जिणो दएकरसो । अहिछत्तानयरिसमं इह निहाणं मुणेयई ॥१॥ घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं 18 चरगाइणोच इत्थं सिवसुहकामा जिया बहवे ॥२॥ नंदिफलाइ व इहं सिवपहपडिवणगाण विसया उ | तब्भक्खणाओ मरणं RI जह तह विसएहि संसारो ॥३॥ तवजणेण जह इट्टपुरगमो विसयवजण तहा । परमानंदनिबंधणसिवपुरगमणं मुणेय ॥४॥ चम्पेव मनुष्यगतिर्थन इव भगवान् जिनो दयैकरसः । अहिच्छत्रानगरीसममिह निर्वाणं ज्ञातव्यं ॥१॥ घोषणमिव तीर्थकरस्य शिवमार्गदेशनमनधं । चरकादिवदत्र शिवसुखकामा जीवा बहवः ॥२॥ नन्दीफलानीवेह शिवपथप्रतिपन्नानां विषयाः। तनक्षणात् मरणं यथा तथेह विपयैः संसारः ॥शा तर्जनेनेष्टपुरगमो यथा विषयवर्जनेन तथा । परमानन्दनिबन्धन-18॥१९५|| शिवपुरगमनं ज्ञातव्यं ॥४॥] पञ्चदशज्ञातविवरणं समाप्तम् ॥१५॥ Ra2009 अत्र अध्ययनं-१५ परिसमाप्तम् ~400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अथ षोडशज्ञातविवरणम् ॥ १६ ॥ सूत्रांक [१०६-१०८] दीप अनुक्रम [१५८ अथ पोडशं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्र विषयाभिष्वङ्गस्यानर्थफलतोक्ता इह तु तद्विषयनिदा-11 नस्य सोच्यते इत्येवंसम्बद्धमिदम्जतिणं भंते ! स०भ०म० पन्नरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे प०सोलसमस्सणं णायजायणस्सणं समक भग० महा० केअहे पण्णत्ते?, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ चंपा नाम नयरी होत्या, तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए मुभूमिभागे उजाणे होत्था,तत्थ णं चंपाए नयरीए तओमारणा भातरो परिवसंति, तंजहा-सोमे सोमदत्ते सोमभूती अड्डा जाव रिउच्वेद ४ जाव सुपरिनिट्ठिया, तेसि णं माहणाणं तओ भारियातो होत्था, तं०-नागसिरी भूयसिरी जक्खसिरी सुकुमाल जाव तेसिणं माहणाणं इट्टाओ विपुले माणुस्सए जाव विहरति । तते णं तेर्सि माणाणं अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पजित्था, एवं खलु देवाणुपिया! अम्हं इमे विपुले धणे जाव सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलबंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएतं सेयं खलु अम्हं देवाणु अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विपुलं असणं ४ उपक्खडे २ परि जमाणाणं विहरित्तए, अन्नमन्नस्स एयमढें पडिसुणेति, कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असण -१६०] अथ अध्ययनं-१६ “अपरकङ्का आरभ्यते द्रौपदी-कथा, द्रौपदया: पूर्वभवस्य वृतान्तं नागश्री कथा ~401 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्मकथानम्. ||१६ अपर ॥१९६॥ [१०६-१०८] ता.ब्राह्मणभोजनव्यवस्था सू.१०६ दीप ४ उवक्खडावेति २ परिभुजमाणा विहरंति, तते णं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नदा भोयणवारए जाते याषि होत्या, तते णं सा नागसिरी विपुलं असणं ४ उबक्खडेति २एगं महं सालतियं तित्ता लाउअं यहसंभारसंजुत्तं जेहावगाढं उवक्खडावेति, एग बिंदुर्य करयलंसि आसाएइ तं खारं कडयं अक्खजं अभोज विसन्भूयं जाणित्सा एवं च०-धिरत्धु णं मम नागसिरीए अहनाए अपुत्ताए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणियोलियाए जीए णं भए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदवक्खएणं, नेहक्खए य कए, तं जति णं ममं जाउयाओ जाणिस्संति तोणं मम खिंसिस्संतितं जाव ताव मम जाउयाओ ण जाणंति ताव मम सेयं एवं सालतियं तित्तालाउ बहुसंभारणेहकर्य एगते गोवेत्तए अन्नं सालइयं महुरालाउयं जाव नेहावगाढं उवक्खडेत्तए, एवं संपेहेति २तं सालतियं जाव गोवेइ, अनं सालतियं महुरालाउयं उवक्खडेइ, तेसिं माहणाणं पहायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असण ४ परिवेसेति, तते णं ते माहणा जिमितभुत्युत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया सकम्मसंपउत्ता जाया याचि होत्था, तते णं ताओ माहणीओ पहायाओ जाब विभूसियाओ तं विपुलं असण ४ आहारेंति २ जेणेव सयाई २ गेहाई तेणेव उवा०२ सककम्मसंपउत्तातो जायातो (सूत्रं १०६) तेणं कालेणं २ धम्मघोसा नाम थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नाम नगरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवा०२ अहापडिरूवं जाव विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, अनुक्रम [१५८ percedeversesesersesercere ॥१९६॥ -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा ~402 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१६]. ----------------- मलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६-१०८] दीप तए णं तेसि धम्मघोसाणं घेराणं अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले जाव तेउलेस्से मासं मासेणं खममाणे विहरति, तते णं से धम्मई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झार्य करेइ २ बीयाए पोरसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेतिर तहेव धम्मघोसं धेरं आपुच्छह जाव चंपाए नयरीए उच्चनीयमज्झिमकुलाई जाव अडमाणे जेणेच नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपविठे,ततेणंसा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाणं पासतिरत्ता तस्स सालइयस्स तित्तकडुयस्स बहु०णेहा०नि सिरण?याए हहतहा उट्टेति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवा०२तं सालतियं तित्तकडुयं च बहुनेहं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सबमेव निसिरह, तते णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमितिकटु णागसिरीए माहणीए गिहातो पडि निक्खमति २पाए नगरीए मझमझेणं पडिनिक्खमति २ जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव उवागच्छति २धम्मघोसस्स अदूरसामंते अन्नपाणं पडिदंसेइ २ अन्नपाणं करयलसि पडिदंसेति, तते णं ते धम्मघोसा घेरा तस्स सालइतस्स नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा ततो सालइयातो नेहावगाढाओ एग बिंदुर्ग गहाय करयलंसि आसादेति तित्तगं खारं कडयं अखजं अभोज्ज विसभ्यं जाणित्ता धम्मरुई अणगारं एवं वदासी-जति णं तुम देवाणु एयं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारेसि तो तुम अकाले चेव जीवितातो ववरोविज्जसि, तं मा णं तुम देवाणु! इमं सालतियं जाव आहारेसि, मा णं तुम अकाले चेव जीविताओ ववरोविजसि, तं गच्छ णं तुम देवाणु ! इर्म अनुक्रम [१५८ -१६०] Halasaram.org द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~4030 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१०६-१०८] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥१९७॥ Eucation Internationa सालतियं एतमणावाए अचित्ते थंडिले परिद्ववेहि २ अनं फासूयं एसणिजं असण ४ पडिगाहेता आहारं आहारेहि, तते णं से घम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं घेरेणं एवं बुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्लमति २ सुभूमिभागउज्जाणाओ अदूरसामंते थंडिलं पडिलेहेति २ ततो सालइयातो एवं बिंदुगं गहेइ २ थंडिलंसि निसिरति, तते णं तस्स सालतियस्स तितकयस्स बहुनेहावगाढस्स गंधेणं बहूणि पिपीलिगासहस्साणि पाउ० जा जहा य णं पिपीलिका आहारेति सा तहा अकाले वेव जीवितातो बवरोविज्जति, तते णं तस्स घम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अम्भस्थिए५ जइ ताव इमस्स सालतियस्स जाव एगंमि बिंदुगंमि पक्खिन्तंमि अणेगातिं पिपीलिकासहस्साइं वबरोविज्वंति तं जति णं अहं एवं सालइयं पंडिलंस सवं निसिरामि तते णं बहूणं पाणाणं ४ बहकरणं भविस्सति, तं सेयं खलु ममेयं सालइयं जाब गाढं सयमेव आहारेतर, मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउत्तिक एवं संपेहेतिर मुहपोन्तियं २ पडिलेहेति २ ससीसोवरियं कार्य पमज्जेति २ तं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं चिलमिव पन्नगभूतेणं अप्पाणेणं सवं सरीरकोहंसि पक्खिवति, तते णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस समाणस्स मुटुसंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उल्लला जाब दुरहियासा, तते गं से धम्मरुची अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमितिक आयारमंडगं एते वेइ २ थंडिल्लं पडिलेहेति २ दम्भसंधारगं संधारेह २ दम्भसंधारगं दुरूहति २ For Pasta Use Only द्रौपदी कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं - नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~ 404~ १६ अपर कङ्काज्ञाता० धर्मरुच्यनगारवृत्तं सू. १०७ ॥१९७॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१०६-१०८] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः vereststateshenee पुरत्याभिमु संपलियंनिसने करयलपरिग्गहियं एवं व०-नमोऽत्यु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, णमो - त्यु णं धम्मघोसाणं घेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुर्विपि णं मए धम्मघोसाणं घेराणं अंतिए सवे पाणातिवाए पचखाए जावज्जीवाए जाव परिग्गहे, इयाणिंपिणं अहं तेसिं चेव भगवं ताणं अंतियं सर्व पाणाति० पद्यक्खामि जाव परिग्गहं पञ्चक्खामि जावजीवाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं उसासेहिं बोसिरामित्तिकटु आलोइयपडिकं समाहिपत्ते कालगए, तते णं ते धम्मघोसा घेरा धम्मरुई अणगारं चिरं गयं जाणित्ता समणे निरगंथे सहावेंति २एवं व० एवं खलु देवाणु० ! घम्मरुइस्स अणगारस्स मासखमणपारणगंसि सालइयस्स जाव गाढस्स णिसिरणट्टयाए बहिया निग्गते चिराति तं गच्छह णं तुभे देवाणु ! धम्मरुइस्स अणगारस्स सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेह, तते णं ते समणा निग्गंधा जाव पडिसुर्णेतिर धम्मघोसाणं घेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमति २ धम्मरुइस्स अणगारस्स सबओ समता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिलं तेणेव उवागच्छति २ घम्मरुइस्स अणगारस्स सरीरगं निष्पाणं निचे जीवविष्पजढं पासंति २ हा हा अहो अकज्जमितिकडु धम्म रुइस्स अणगारस्स परिनिपाणवत्तिय काउस्सग्गं करेंति, धम्मरुदस्स आयारभंडगं गेण्हति २ जेणेव धम्मघोसा घेरा तेणेव उवागच्छति २ गमनागमणं पडिकमंति२ एवं ब० एवं खलु अम्हे तुम्भं अंतियाओ पडिनिक्खमामो२ सुभूमिभागस्स उ० परिपेतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सर्व्वं जाव करेमाणे जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवा०२ जाव For Parts Only द्रौपदी कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं - नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~ 405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म प्रत सूत्रांक कथानम्. ॥१९८॥ [१०६-१०८] इहं हवमागया, तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयारभंडए, तते णं ते धम्मघोसा घेरा पुवगए उपओगं गच्छंतिर समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य सदातिर एवं व०-एवं खलु अजो! मम अंतेवासी धम्मरुची नाम अणगारे पगइभदए जाब विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपबिढे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरह, तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमितिकदु जाव कालं अणवखेमाणे विहरति, से णं धम्मरुई अणगारे बहणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उर्ल्ड सोहम्मजाव सबढसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोव. माई ठिती पत्नत्ता, तस्थ धम्मरुइस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोषमाइं ठिती पपणत्ता, से गं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति (सूत्रं१०७) तं धिरत्थु णं अनो! णागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपनाए जाय णिबोलियाए जाए णं तहारूवेसाह धम्मलई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव गाढणं अकाले येव जीवितातो ववरोविए, तते गं ते समणा निग्गंधा धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए एतम8 सोचा णिसम्म चंपाए सिंघाडगतिगजाच बहुजणस्स एवमातिक्खंति-धिरत्थु णं देवा! नागसिरीए माहणीए जाव णिबोलियाएजाए णं तहारूवे साहू साहरूवे सालतिएणं जीवियाओ यवरोवेह, तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्वति and900000 दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] ॥१९८॥ द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, धर्मरुचि अनगारस्य कथा ~406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०६-१०८] दीप एवं भासति-धिरत्थु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविते, तते ण ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एतमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेच नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति २णागसिरी माहणी एवं वदासी-हं भो। नागसिरी! अपस्थियपत्धिए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुषणचाउद्दसे घिरस्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए जाव णिवोलियाते जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे मासखमणपारणगंसि सालतिएणं जाव ववरोविते,उच्चावएहि अकोसणाहिं अकोसंति उच्चावयाहिं उर्द्धसणाहिं उद्धंसेंति पचावयाहिं णिन्भधणाहिं णिन्भत्धति उच्चावयाहिं णिकछोडणाहिं निच्छोडेंति तज्जेति तालेति तब्बेत्ता तालेत्ता सयातोगिहातो निच्छुभंति,ततेणं सानागसिरी सयातो गिहातो निच्छूढा समाणी चंपाए नगरीए सिंघाडगतियचउपचचरचउम्मुह बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिजमाणी निंदिनमाणीगरहिजमाणी तजिजमाणी पदहिज्जमाणी धिकारिजमाणी धुकारिजमाणी कत्थई ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी २ दंडीखंडनिवसणा खंडमल्लयखंडघडगहत्थगया फुहहडाहडसीसा मच्छियाचहगरेणं अग्निज्जमाणमग्गा गेहंगेहेणं देहवलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरति, तते णं तीसे नागसिरीए माहणीए तन्मवंसि चेव सोलस रोयायंका पाउन्भूया, तंजहा-सासे कासे जोणिसूले जाव कोडे, तए णं सा नागसिरी माहणी सोलसहि रोयायंकेहिं अभिभूता समाणी अहवसहा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढबीए उफोसेणं बावीससागरोवमद्वितीएसु नरएसु नेरइयत्ताते उववन्ना, सा णं तओऽणंतरंसि अनुक्रम [१५८ -१६०] For P OW द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, ~407 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०६-१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ज्ञाताधर्म [१०६-१०८] दीप ज्वहिता मच्छेसु उववन्ना, तत्थ णं सस्थवझा दाहवऋतिए कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमीए पुख १६ अपरकथाङ्गम्. वीए उक्कोसाए तित्तीसंसागरोवमहितीएसु नेरइएमु उबवन्ना, सा णं ततोऽणतरं उचहित्ता दोर्चपि मच्छेसु कङ्काज्ञा उवववति, तस्थविय णं सस्थवज्झा दाहवतीए दोचंपि अहे सत्तमीए पुढचीए उक्कोसं तेत्तीससागरो- (ता. नाग॥१९॥ वमहितीएसु नेरइएसु उववजति, सा णं तओहिंतो जाव उबहित्ता तच्चपि मच्छेसु उववन्ना, सत्यवि श्रीभवन य णं सस्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोचंपि छडीए पुढवीए उक्कोसेणं. तओऽणंतरं उबटिसा नरएस एवं मासू. जहा गोसाले तहा नेय जाच रयणप्पभाए सत्सम उघवन्ना, ततो उबट्टित्ता जाब इमाई खहयरविहाIIT- णाई जाव अदुसरं च णं खरषायरपुढविकाइयत्ताते तेसु अणेगसतसहस्स खुत्तो (सूत्रं १०८) सर्व सुगम, नवरं 'सालइयं ति शारदिकं सारेण वा-रसेन चित-युक्तं सारचितं, 'तित्तालाउयंति कदुकतुम्बक 'बहुसंभारसंजुत्तं' बहुमिः सम्भारद्रव्यैः-उपरि प्रक्षेपद्रव्यस्तगेलाप्रभृतिभिः संयुक्तं यत्तत्तथा 'लेहावगाद' नेहण्यातं 'दूभग-1 सत्ताए'त्ति दुर्भगः सवा-प्राणी यस्याः सा तथा, भगनियोलियाए'ति निम्बगुलिकेव-निम्बफलमिव अत्यनादेयत्नसाधात् दुर्भगाणां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनिम्बगुलिका, अथवा दुर्भगाना मध्ये निर्दोलिता-निमज्जिता दुर्भगनिवोलिता, जाउयाउत्ति ॥१९९॥ देवराणां जाया मार्या इत्यर्थः, 'बिलमि'त्यादि चिले इव-रन्ध्र इव पनगभूतेन-सर्पकल्पेन आत्मना करणभूतेन सर्व तद|लाबु शरीरकोष्ठ के प्रक्षिपति, यथा किल बिले सर्प आत्मानं प्रक्षिपति पार्थान् असंस्पृशन् एवमसौ बदनकन्दरपाश्चान् असं अनुक्रम [१५८ -१६०] द्रौपदी-कथा, द्रौपद्या: पूर्वभवस्य वृतान्तं-नागश्री कथा, नागश्री-भवभ्रमण: ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) प्रत सूत्रांक [१०६ -१०८] दीप अनुक्रम [१५८ -१६०] [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१०६-१०८] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः स्पृशन आहारेण तदसञ्चारणतस्तदलाबु जठरविले प्रवेशितवानिति भावः, 'गमणागमणाए पडिफमंति'त्ति गमनागमनंईर्यापथिकी 'उच्चावयाहिं' ति असमञ्जसाभिः 'अकोसणाहिं' ति मृताऽसि तमित्यादिभिर्वचनैः, 'उद्धसणाहिंति दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनार्थैः, 'निच्छुहणाहिं'ति निःसरासद्गेहादित्यादिभिः 'निच्छोडणाहिं'ति स्वजासदीयं वस्त्रादीत्यादिभिः 'तज्जेंति' त्ति ज्ञास्यसि पापे ! इत्यादिभणनतः 'तालिंति' ति चपेटादिभिः हील्यमाना- जात्याद्युद्घट्टनेन खियमाना-परोक्षकुत्सनेन निन्द्यमाना-मनसा जनेन गर्धमाणा - तत्समक्षमेव वर्ण्यमाना- अङ्गुलीचालनेन ज्ञास्यसि पापे इत्यादिभणनतः प्रन्यथ्यमाना- यष्टवादिताडनेन विविक्रयमाणा धिक्शब्दविषयीक्रियमाणा एवं धूत्क्रियमाणा दण्डी - कृतसन्धानं जीर्णवस्त्रं तस्य खण्डं निवसनं परिधानं यस्याः सा तथा खण्डमलकं-खण्डशरावं भिक्षाभाजनं खण्डपटकथ-पानीयभाजनं ते हस्तयोर्गते यस्याः सा तथा, 'फु' ति स्फुटितया स्फुटितकेशसञ्चयसेन विकीर्णकेशं 'हडाहर्ड' ति अत्यर्थ 'शीर्ष' शिरो यस्याः सा तथा, मक्षिकाचटकरेण-मक्षिकासमुदायेन अन्वीयमानमार्गा - अनुगम्यमानमार्गा मलाविलं हि वस्तु मक्षिकाभिर्वेष्टयते एवेति, देह मलिमित्येतस्वाख्यानं देहवलिका तया, अनुखारो नैपातिकः, 'सत्यवज्झ'ति शस्त्रवध्या जातेति गम्यते, 'दाहव ंतिए'ति दाहव्युत्क्रान्त्या दाहोत्पच्या 'खयरविहाणाई जाव अदुत्तरं चेत्यत्र गोशालकाध्ययनसमानं सूत्रं तत एव दृश्यं, बहुखातु न लिखितं । Education Internation साणं तओतरं चत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दा भारियाए कुच्छिसि दारियन्त्ताए पचायाया, तते णं सा भद्दा सत्थवाही णवण्हं मासाणं दारियं For Parts Only द्रौपदी-कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं - नाग श्री कथा, नागश्री भवश्वमणः ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१०९-११३] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२००॥ पाया सुकुमालकोमलियं गयता लुयसमाणं, तीसे दारियाए निघत्ते बारसाहियाए अम्मापियरो इमं एतारूवं गोनं गुणनिष्पन्नं नामघेज्जं करेंति-जम्हा णं अम्हं एसा दारिया सुकुमाला गयतालुयसमाणा तं होड णं अम्हं इमीसे दारियाए नामघेज्जे सुकुमालिया, तते णं तीसे दारियाए अम्मापितरो नामवेज्जं करेंति सूमालियत्ति, तए णं सा सूमालिया दा० पंचधाईपरिग्गहिया तंजहा - खीरधाईए जाब गिरिकंदरमater to चंपकलया निवाए निदाघायंसि जाव परिवहद्द, तते णं सा सूमालिया दारिया उम्मुकबालभावा जाव रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उकिडा उकिडसरीरा जाता यावि होत्था (सूत्रं १०९ ) तत्थ णं चंपाए नगरीए जिणदत्ते नाम सत्थवाहे अहे, तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया सूमाला इट्ठा जाब माणुस्सर कामभोए पञ्चणुग्भवमाणा विहरति, तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दार भारियाए अत्तर सागरए नाम दारए सुकुमाले जाव सुरूबे, तते णं से जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नदा कदाई सातो गिहातो पडिनिक्खमति २ सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं बीतीवयह इमं च णं सूमालिया दारिया पहाया चेडिया संघ परिबुडा उप्पिं आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी २ विहरति, तते णं से जिणदत्ते सत्थवाहे समालियं दारियं पासति २ सूमालियाए दारियाए रुवे य ३ जायविम्हए कोबि रिसे सहावेति २ एवं व०-एस णं देवा० ! कस्स दारिया किं वा णामधेों से १, तते णं ते कोडबिपुरिसा जिणद सेण सत्यचाहेणं एवं वृत्ता समाणा हट्ट करयल जाव एवं बयासी-एस णं देवाणु० ! सागर द्रौपदी कथा, द्रौपद्याः पूर्वभवस्य वृतान्तं- सुकुमालिका कथा For Parts Only ~410~ १६ अपर कङ्काज्ञा ता. सुकुमालिका या जन्म वीवाहःस्. १०९-११० ॥ २००॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: दत्तस्स सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया सूमालिया नाम दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उकिट्टा, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे तेर्सि को बियाणं अंतिए एयमढे सोचा जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ पहाए जाव मित्तनाइपरिबुडे चपाए. जेणेच सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्यवाह एज्वमाणं पासइ एजमाणं पासइत्ता आसणाओ अन्भुढेइ २ त्ता आसणेणं उवणिमंतेति २ आसत्धं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं बयासी-भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवा! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरस्स भारियत्ताए बरेमि, जति णं जाणाह देवा! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो ता दिजउ णं सूमालिया सागरस्स, तते णं देवा! किं दलयामो सुंकं सूमालियाए ?,तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी-एवं खलु देवा ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्टा जाव किमंग पुण पासणयाए तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं, तं जतिणं देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए भवति तो णं अहं सागरस्स दारगस्स सूमालियं दलयामि, तते णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्तेसमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइरसागरदारगं सद्दावेतिर एवं व०-एवं खलु पुत्ता सागरदत्ते सम्मम एवं बयासी-एवं खलु देवा०1 सूमालिया दारिया इट्ठा तं चेव तं जति णं सागरदारए मम घरजामाउए ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्म कथानम्. १५अपरकङ्काज्ञाता. सागरित्यागः ॥२०॥ भवइ ता वलयामि, तते णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं बुत्ते समाणे तुसिणीए, तते णं जिणदत्ते स. अन्नदा कदाइ सोहणंसि तिहिकरणे विउलं असण ४ उवक्खडावेति २ मित्तणाई आमंतेह जाय सम्माणित्ता सागरं दारगं पहायं जाव सवालंकारविभूसियं करेइ २ पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहावेति २मित्तणाइ जाव संपरिखुडे सचिडीए सातो गिहाओ निग्गच्छति २ चंपानयरिं मझमझेणं जेणेच सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छति २ सीयाओ पचोरुह ति २सागरगं दारर्ग सागरदत्तस्स सस्थ० उवणेति,तते णं सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असण ४ उपक्सडावेहर जाव सम्माणेसा सागरगंदारगं सूमालियाए दारियाए सद्धिं पश्यं दुरूहावेइ २ सेयापीतएहिं कलसेहिं मज्जावेति २होम करावेतिर सागरं वारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गेण्हादिति (सूत्रं ११०) तते णं सागरवारए सूमालियाए दारिइम एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेति से जहा नाम ए असिपसे हवा जाव मुम्मुरे हवा इतो अणिहतराए चेव पाणिफासं पडिसंवेदेति, तते णं से सागरए अकामए अवसघसे तं मुहुत्तमित्तं संचिदृति, तते णं से सागरदसे सस्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ विउलं असणपुष्फवस्थ जाव सम्माणेत्ता पडिविसज्जति, तते णं सागरए दारए समालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवा० २सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ, तते णं ते सागरए दा० सूमालियाए दा० इमं एयारूवं अंगफास पडिसंवेदेति, से जहा नामए असिपत्तेइ वा जाव अमणामयरागं घेच अंगफासं पचणुन्म सू. १११ ecemeseseeeeeeeeeeee RO ॥२०॥ SAREauratonintamational ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: बमाणे विहरति, तते णं से सागरए अंगफासं असहमाणे अवसबसे मुहुत्समित्तं संचिट्ठति, सते गं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाउ उद्वेतिर जेणेच सए सयणिज्जे तेणेव उवा०२ सयणीयंसि निवजह, तते णं सूमालिया दारिया तओ मुहसंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पतिवया पइमणुरत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उद्देति २ जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छति २ सागरस्स पासे गुवज्जइ, तते णं से सागरदारए सूमालियाए दारि० दुचंपि इम एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेति जाव अकामए अवसबसे मुहत्तमित्तं संचिट्ठति, तते णं से सागरदारए सूमालियं दारियं मुहपमुत्तं जाणिसा सयणिज्जाओ उट्टेड २ वासघरस्स दारं विहाडेति २ मारामुके विव काए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगए (सूत्रं १११) तते णं सूमालिया दारिया ततो मुहुर्सतरस्स पडिबुद्धा पर्तिवया जाव अपासमाणी सयणिज्जाओ उद्वेति सागरस्स दा० सबतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी २ वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ २ एवं व-गए से सागरेसिकटु ओहयमणसंकप्पा जाब झियायह, सते णं सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउ० दासचेडियं सदावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए बहुवरस्स मुहसोहणियं उवणेहि, तते णं सा दासचेडी भराए एवं चुत्ता समाणी एयमहुँ तहत्ति पडिसुगंति, मुहधोवणियं गेण्हति २ जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छति २ सूमालियं दारियं जाव झियायमाणिं पासति २ एवं व-किन्नं तुमं देवाणु ! ओहयमणसंकप्पा ~4134 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१०९-११३] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०२॥ जाव शिया हिसि ?, तते णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडीयं एवं व० एवं खलु देवा० सागरए दारए मम सुहपत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेति २ वासघरदुवारं अवगुण्डति जाव पडिगए, तते णं ततो अहं मुहुत्तरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए णं से सागरएत्तिकडु ओहयमण जाव शियायामि तते णं सा दासवेडी सूमालियाए दारि० एयमहं सोचा जेणेव सागरदन्ते तेणेव उवागच्छइ २ ता सागरदत्तस्स एपमहं निवेएइ, तते णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमहं सोचा निसम्म आरुत्ते जेणेव जिणदत्तसत्यवाहगिहे तेणेव उवा० २ जिगद० एवं व०- किण्णं देवाणुप्पिया ! एवं जुतं वा पतं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा जन्नं सागरदारए स्मालियं दारियं अदिट्ठदोसं पवयं विहाय इहमागओ बहूहिं खिलणियाहि य रुंटणियाहि य उवालभति, तए णं जिणदन्ते सागरदतरस एम सोचा जेणेव सागरए दारए तेणेव उवा० २ सागरयं दारयं एवं व० दुट्टु णं पुत्ता ! तुमे hi सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हवमागते, तेणं तं गच्छह तुमं पुत्ता । एवमवि गते सागरदत्तस्स गिहे, तते णं से सागरए जिणदत्तं एवं व०-अवि यातिं अहं ताओ ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुष्पवायं वा जलप्पवेसं वा विसभक्खणं वा बेहाणसं वा सत्थोबाडणं वा गिद्वापि वा पवज्जं वा विदेसगमणं वा अभुवगच्छामि नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा, तते णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुडुंतरिए सागरस्स एयमहं निसामेतिर लज्जिए बिलीए बिडे जिणदत्तस्स गिहातो पडिनिक्खमह Education Internationa For Pale Only ~ 414 ~ १६ अपरकङ्काज्ञाता. नमककृतस्त्यागः सू. ११२ ૨૦ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१०९-११३] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [ १६ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ सुकुमालियं दारियं सदावेह २ अंके निवेसेइ २ एवं ब०किणं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का ?, अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाब मणामा भविस्ससित्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं वग्गूहिं समासासेइ २ पडिविसज्जे । तए से सागरदत्ते सत्थ अन्नया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसपणे रायमग्गं ओलोएमाणे२ चिट्ठति, तते से सागरदत्ते एवं महं दमगपुरिसं पासह दंडिखंडनिवसणं खंडगमल्लगघडगहत्थगयं मच्छियासहसेहिं जाव अन्निज्माणमग्गं तते णं से सागरदत्ते कोडूंचियपुरिसे सहावेति २ एवं व०-तुम्भे णं देवा० ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असण४ पलो मेहिरगिहं अगुप्त वेसेह २ खंडगमल्लगं खंडघडगं ते एगंते एडेह २ अलंकारियकम्मं कारेह २ पहायं कयबलि० जाव सवालंकारविभूसियं करेह २ मणुष्णं असण ४ भोयावेह २ मम अंतियं उवणेह, तए णं कोटुंबियपुरिसा जाव पडिसुर्णेति २ जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव वा० २ तातं दमगं असणं उवप्लोमेति २ ता सयं सिंहं अणुपवेसिंति२ तं खंडगमल्लगं खंडगघडगं च तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडंति, तते णं से दमगे तं खंडमल्लगं सि खंडघडगंसि य एगंते एडिजमाणंसि महया २ सद्देणं आरसति, तए णं से सागरदत्ते तस्स दमगपुरिसस्स तं महया २ आरसियसहं सोचा निसम्म कोवियपुरिसे एवं व० - किण्णं देवाणु० ! एस दमगपुरिसे महया २सद्देणं आरसति ?, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा एवं ० एस णं सामी ! तंसि खंड मल्लगंसि खंडघडगंसि एगंते एडिजमाणंसि महया रसदेणं आरसह, Ja Education Interation For Parts Only ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्, १६ अपरकङ्काज्ञाता.द्रमका कृतस्त्यागः सू. ११२ ॥२०॥ ततेणं से सागरदत्ते सस्थ० ते कोडुंबियपुरिसे एवं व-मा णं तुम्भे देवा! एयस्स दमगस्सतं खंड जाव एडेह पासे ठवेह जहा णं पत्तियं भवति, तेवि तहेव ठविति, तए णं ते कोडंचियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति २ सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अम्भंगेति अब्भंगिए समाणे सुरभिगंधुबहणणं गायं उहिति २ उसिणोदगगंधोदएणं सीतोदगेणं पहाणेति पम्हलसुकुमालगंधकासाईए गायाई लूहंति २हंसलक्खणं पसाडगं परिहंति २ सवालंकारविभूसियं करेंति २ विउलं असण ४ भोयातिर सागरदत्तस्स उवणेन्ति, तए णं सागरदत्ते सूमालियं बारियं पहायं जाव सघालंकारभूसियं करित्ता तं दमगपुरिसं एवं व०-एस गं देवा० मम धूचा इट्ठा एवं णं अहं तब भारियत्ताए दलामि भदियाए भद्दतो भविज्जासि, तते णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमझु पडिमुणेति २ सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुविसति सूमालियाए दा० सद्धिं तलिगंसि निवजह, तते गं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफास पडिसंवेदेति, सेसं जहा सागरस्स जाव सपणिज्जाओ अन्भुट्टेति २ वासघराओ निग्गछति २ खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुफे विव काए जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए, तते णं सा सूमालिया जाच गए णं से दमगपुरिसेत्तिकह ओहयमण जाब झियायति (सन ११२) तते णं सा भद्दा कल्लं पाउदासचेर्डि सद्दावेति २एवं बयासी जाव सागरदत्तस्स एपमढे निवेदेति, तते णं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेय उवा०२ ॥२०॥ ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Reasodaeaseem सूमालियं दारियं अंके निवेसेति २ एवं व०-अहोणं तुम पुत्ता ! पुरापोराणेणं जाव पचणुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जाव झियाहि तुम णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं ४ जहा पुहिला जाव परिभाएमाणी विहराहि, तते णं सा सूमालिया दारिया एयम पडिसुणेतिर महाणसंसि विपुलं असण जाव दलमाणी विहरद । तेणं कालेणं २ गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेब तेयलिणाए सुब्बयाओ तहेव समोसड्ढाओ तहेव संघाडओ जाव अणुपविढे तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वदासी-एवं खलु अजाओ! अहं सागरस्स अणिवा जाव अमणामा नेच्छइ सागरए मम नाम वा जाव परिभोग वा, जस्स २ विय णं दिनामि तस्स २ विय णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुम्भे य णं अजाओ! बहुनायाओ एवं जहा पुहिला जाव उवलद्धे जे गं अहं सागरस्स दार० इट्ठा कंता जाच भवेजामि, अवाओ तहेव भणंति तहेव साविया जाया तहेव चिंता तहेव सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छति जाव गोवालियाणं अंतिए पवइया, तते णं सा सूमालिया अजा जाया ईरियासमिया जाव बंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्ठहम जाच विहरति, तते णं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओतेणेव उवा०२ चंदति नमसतिर एवं व०-इच्छामि गं अजाओ। तुम्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी चंपाओ बाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते छटुंछट्टेणं अणिक्वित्तेणं तबोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणी विहरित्तए, तते णं ताओ ~417 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. ॥२०४॥ Recent गोवालियाओ अजाओ सूमालियं एवं प०-अम्हे णं अज्जे ! समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ १६ अपरजाव गुत्तभचारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पति बहिया गामस्स जाव सण्णिवेसस्स वा छ8 २ जाव विहरित्तए, कप्पति णं अम्हं अंतो उबस्सयस्स बतिपरिक्खित्तस्स संघाडिवद्धियाए णं समतलपतियाए ता.दात्री आयावित्तए, तते णं सा सूमालिया गोवालिया एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियह नो रोएति एपमहूँ साध्वी | आतापिअ०३ सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते छटुंछट्टेणं जाव विहरति (सूत्रं ११३) का सुकुसुकुमालककोमलिका-अत्यर्थ सुकुमारां, गजतालुसमानां, गजतालुकं खत्यर्थ सुकुमालं भवतीति, 'जुत्तं वेत्यादि युक्तं-1 मालिका | सङ्गतं 'पत्तंति प्राप्तं प्राप्तकाल पात्रं वा गुणानामेष पुत्रः, श्लाघनीयं वा सहशो वा संयोगो विवादयोरिति, 'से जहा नामएसू. ११२ असिपत्तेइ वा' इत्यत्र यावत्कारणादिदं द्रष्टव्यं 'करपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरिगापत्तेइ वा सत्तिअग्गेति वा कौत-18 ग्गेति वा तोमरग्गेति वा भिंडिमालग्गेइ वा सूचिकलावएति वा विच्छुपडंकेइ वा कविकच्छ्इ वा इंगालेइति वा मुम्मुरेति वा I अच्चीइ वा जालेंह वा अलाएति वा सुद्धागणीइ वा, भवेतारूवे, नो इणढे समढे, एत्तो अणिद्वतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुनतराए चेव अमणामतराए चेति तत्रासिपत्रं-खड्गः करपत्र-कचं क्षुरपत्रं-छुरः कदम्बची-1 ॥२०४॥ रिकादीनि लोकरूढ्याऽवसेयानि, वृश्किडङ्क:-वृश्चिककण्टकः,कपिकच्छु:-खर्जुकारी वनस्पतिविशेषः, अङ्गारो-विज्वालोऽग्नि-11 कणा मुर्मुर:-अधिकणमिश्र भम आर्थिः इन्धनप्रतिबद्धा ज्याला ज्वाला तु-इन्धनच्छिन्ना अलात-उल्पकं शुद्धानि:-अयस्पिण्डान्त-18 ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: पिरिति 'अकामए'ति अकामको-निरभिलाष:, 'अवस्सवसे'ति अपखवशः, अपगतात्मतत्रस इत्यर्थः तलि-II सि निवजईत्ति तल्पे--शयनीये निपद्यते-शेते 'पइवय'चि पति-भत्तारं व्रतयति-तमेवाभिगच्छामीत्येवं नियमं करोतीति पतिव्रता. पतिमनुरक्ता-भारं प्रति रागवतीति, 'मारामुकेविव काए'ति मायेन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सा मारा-शूना का तथा मुक्तो यः स मारामुक्तो माराद्वा-मरणान्मारकपुरुषाद्वा मुक्तो-विच्छुटितः काको-पायसः, 'बहुवरस्स'जि पक्ष परश्च वधूवर तस्य, 'कुलाणुरुवंति कुलोचितं वणिजां वाणिज्यमिव 'कुलसरिसं'ति श्रीमद्वणिजा रखवाणिज्यमिव 'अदिट्ट दोसवडिय'ति न दृष्टे-उपलभ्यखरूपे दोषे-दूषणे पतिता-समापना अदृष्टदोषपतिता तां, 'खिजणियाहिति खेदक्रियामिः। रुण्टनकादिभिः-रुदितक्रियाभिः, 'मरुप्पवायं वत्ति निजेलदेशप्रपातं 'सस्थोवाडणं'ति शखेणावपाटन-विदारणमात्मन इत्यर्थः, 'गिद्धपट्ट'ति गृध्रस्पृष्ट-गृधैः स्पर्शनं कडेवराणां मध्ये निपत्य गृधैरात्मनो भक्षणमित्यर्थः, 'अम्भुवेज्जामि'चि अभ्यु-|| KIपैमि'पुरा पोराणाण'मित्यत्र यावत्करणादेवं द्रष्टव्यं 'दुचिण्णाणं दुप्परकताणं कडाणं पावाणं कम्माण पावगं फलवित्तिविसेस'ति। अयमर्थ-पुरा-पूर्वभवेषु पुराणानां-अतीतकालभाविनां तथा दुधीर्ण-दुश्चरितं मृपावादनपारदार्यादि तद्धेतकानि कर्माण्यपि। दुधीर्णानि व्यपदिश्यन्ते अतस्तेषामेव दुष्पराक्रान्तानां नवरं दुप्पराक्रान्तं-प्राणिघातादत्तापहारादिकृतानां प्रकृत्यादिभेदेन, पुराशब्दस्पेह सम्बन्धः,पापानां-अपुण्यरूपाणां 'कर्मणां ज्ञानावरणादीनां पापक-अशुभ फलवृत्तिविशेष' उदयवर्जनभेदं प्रत्यनभवन्ती' वेदयन्ती 'विहरसि' वर्तसे, 'कप्पइ णं अम्हं' इत्यादि 'अम्हंति अस्माकं मते प्रबजिताया इति गम्यते, अन्तः-मध्ये 'उपाश्रयस्य' वसतेवृत्तिपरिक्षिप्तस्य परेषामनालोकवत इत्यर्थः, 'संघाटी'निर्गन्धिकापच्छदविशेषः सा बद्धा-निचे ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१०९-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १६ अपरकङ्काज्ञाता. सुकु. मालिकानिदानं सू. ११४ ईशाने उ ज्ञाताधर्म-19 शिता काये इति गम्यते यया सा संघाटीबद्धिका तस्याः, णमित्यलकारे समतले द्वयोरपि भुवि विन्यस्तखात् पदे-पादौ यस्याः सा कथाङ्गम् समतलपदिका तस्याः 'आतापयितुं आतापना कर्त कल्पते इति योगः। तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोही परिवसति, नरवइदिण्णवि(प)यारा अम्मापिइनिययनिप्पिवासा ॥२०५॥ घेसविहारकयनिकेया नाणाविहअविणयप्पहाणा अट्ठा जाव अपरिभूया, तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नाम गणिया होत्था सुकुमाला जहा अंडणाए,तते णंतीसे ललियाए गोहीए अन्नया पंच गोहिल्लगपुरिसा देवदसाए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति, तत्थ णं एगे गोटिलगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे धरति एगे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ एगे पुष्फपूरयं रएइ एगे पाए रएइ एगे चामरक्खेवं करेइ, तते णं सा सूमालिया अन्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लपुरिसेहिं सर्द्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी पासति २ इमेयारूचे संकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो णं इमा इत्थिया पुरा पोराणार्ण कम्माणं जाव विहरह, तं जति णं केइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि तो गं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उसलाई जाव विहरितामित्तिकट्ठनियाणं करेतिर आयावणभूमिओपचोरुहति (सूत्रं ११४)तते णं सा सूमालिया अजा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खण र हत्थे धोवेड पाए धोवेह सीसं घोवेद मुहं धोये धणंतराई धोवेह कक्वंतराहं धोवेह गोजसंतराई घोवेह जत्थ णं ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा चेए पपातः सू. ११५ | ॥२०५॥ ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११४-११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ति तस्यषि य णं पुषामेव उदएणं अन्भुक्खइत्ता ततो पच्छा ठाणं वा ३ चेएति, तते णं तातो गोयालियाओ अलाओ सूमालियं अर्ज एवं व०-एवं खलु देवा! अजे अम्हे समणीओ निग्गंधीओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पति अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अजे! सरीरबाउसिया अभिक्खणं २ हत्थे धोवसि जाव चेदेसि, तं तुम ण देवाणुप्पिए तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, तते णं समालिया गोवालियाणं अजाणं एयम8 नो आढाइनो परिजाणति अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरति, तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियं अजं अभिक्खणं २ अमिहीलंति जाव परिभवति, अभिक्खणं २ एयमद्वं निवारेंति, तते णं तीए सूमालियाए समणीहिं निग्गंधीहिं हीलिजमाणीए जाव वारिजमाणीए इमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था, जया णं अहं अगारवासमझे वसामि तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पवइया तया णं अहं परवसा, पुर्वि च णं मम समणीओ आढायंति २ इयाणि नो आदति २ तं सेयं खलु मम कल्लं पाउ० गोवालियाण अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएकं उबस्सगं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ कलं पा० गोवालियाणं अजाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति २त्ता पाडिएक उवस्सगं उपसंपलित्ताण विहरति, तते णं सा सूमालिया अज्जा अणोहहिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खकर हत्थे धोवेइ जाव चेएति तत्थविय णं पासस्था पासत्वविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीलार संसत्तार बहुणि वासाणि ecerseseseps SARERatininemarana ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११४-११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- सामण्णपरियागं पाउणति अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिता कालमासे R१६ अपरकथाङ्गम्.18 कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणसि देवगणियत्ताए उबवण्णा, तत्धेगतियाणं देवीणं नव कङ्काज्ञापलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, तस्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता (सूत्रं ११५) ता. सुकु॥२०६॥ 'ललिय'त्ति क्रीडाप्रधाना 'गोहि'त्ति जनसमुदायविशेषः 'नरवइदिन्नपयाति नृपानुज्ञातकामचारा 'अम्मापिइनिय- मालिकागनिप्पिवास'त्ति मात्रादिनिरपेक्षा 'वेसविहारकयनिकेय'ति वेश्याविहारेषु-वेश्यामन्दिरेषु कृतो निकेतो-निवासो यया सानिदानं तथा, 'नाणाविहअविणयप्पहाणा' कण्ठ्यं 'पुष्फपूरयं रएइ'चि पुष्पशेखरं करोति, 'पाए रएई' पादावलक्तादिना सू.११४ रजयति, पाठान्तरे 'रावेइति घृतजलाभ्यामार्द्रयति, 'सरीरबाउसिय'ति बकुशः-शनलचरित्रः स च शरीरत उपकरण- ईशाने उतश्वेत्युक्तं शरीरवकुशा-तद्विभूषानुवर्तिनीति, 'ठाणं ति कायोत्सर्गस्थानं निपदनस्थानं वा 'शय्यां' वग्वर्त्तनं 'नषेधिकीपपातः । खाध्यायभूमि चेतयति-करोति, 'आलोएहि जावे त्यत्र यावत्करणात् 'निन्दाहि गरिहाहि पडिकमाहि विउहाहि विसोहेहि सू. ११५ अकरणयाए अन्भुट्टेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि'त्ति दृश्यमिति, तत्रालोचनं--गुरोनिवेदनं निन्दनपश्चात्तापो गर्हणं-गुरुसमक्षं निन्दनमेव प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानलक्षणं अकृत्याविवर्त्तनं वा वित्रोटनं-अनुबन्ध-15 च्छेदनं विशोधन-प्रतानां पुनर्नवीकरणं शेष कण्ठ्यमिति, 'पडिएकति पृथक्, 'अणोह हियति अविद्यमानोऽपघट्टको-IS२०६॥ यदृच्छया प्रवर्त्तमानायाः हस्तग्राहादिना निवत्तको यस्याः सा तथा, तथा नास्ति निवारको-मैवं कार्षीरित्येवं निषेधको यस्याः सा तथा। एकटकलsedecease ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Rese तेणं कालेणं २ इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कपिल्लपुरे नाम नगरे होत्था, वन्नओ, II तत्थ णं दुवए नाम राया होत्या, बन्नओ, तस्स णं चुलणी देवी धट्ठज्जुणे कुमारे जुवराया, तए णं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २भारहे वासे पंचालेसु जणवएम कंपिल्लपुरे नयरे दुपयस्स रपणो चुलणीए देवीए कम्छिसि दारियत्ताए पञ्चायाया, तते णं सा चुलणी देवी नवहं. मासाणं जाव दारियं पयाया, तते णं तीसे दारियाए निबत्तवारसाहियाए इमं एया. रूवंक नाम० जम्हाणं एस दारिया दुवयस्स रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तियातं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधिज्जे दोबई,तएणं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुपणं गुणनिप्फन्नं नामधेज करिति दोवती, तते णं सा दोवई दारिया पंचधाइपरिग्गहिया जाच गिरिकंदरमल्लीण इव चंपगलया निवायनिवाघापंसि सुहंसुहेणं परिवढा । तते णं सा दोबई रायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव उकिट्टसरीरा जाया यावि होत्या, तते णं तं दोवर्ति रायवरकन्नं अण्णया कयाई अंतेउरियाओ ण्हायं जाव विभूसिपं करेंति २. वयस्स रपणो पायवंदिङ पेसंति, तते णं सा दोवती राय. जेणेव दुबए राया तेणेव उवागच्छह २ दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेति, तए णं से दुवए राया दोवर्ति दारियं अंके निवेसेद २ दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण जोबणेण य लावण्णेण य जायबिम्हए दोबई रायवरकर्म एवं व०जस्स णं अहं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि तत्थ णं तुमं सुहिया, ~4234 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०७॥ Education International दुखिया वा भविजासि, तते णं ममं जावजीवाए हिययडाहे भविस्सर, तं णं अहं तव पुत्ता ! अन्नया सयंवरं विरयामि, अज्जयाए णं तुमं दिवणं सयंवरा जेणं तुमं सयमेव रायं वा जुबरायं वा बरेहिसि से णं तब भत्तारे भविस्सइत्तिकट्टु ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेह २ पडिविसज्जेइ । (सूत्रं ११६) तते णं से दुबए राया दूयं सहावेति २ एवं व०-गच्छह णं तुमं देवा० ! बारवई नगरिं तत्थणं तुमं कहं वसुदेवं समुदविजयपामोक्खे दस दसारे बलदेवपामुषखे पंच महावीरे उग्गसेणपामोक्त्रे सोलस रायसहस्से पज्जुण्णपामुक्खाओ अट्ठाओ कुमारकोडीओ संवपामोक्खाओ सद्वि दुदंतसाहसीओ वीरसेापामुक्खाओ इक्वीसं वीरपुरिससाहस्सीओ महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहसीओ अने य बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइन्भसिहिसेणावहसत्थवाहपभिइओ कलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावन्तं अंजलि मत्थए कट्टु जएणं विजएणं वजावेहि२ एवं वयाहि एवं खलु देवाणforant कंपिल्लपुरे नरे बस्स रण्णो घूयाए चुलणीए देवीए अत्तपाए धट्टज्जुणकुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ ते णं तुम्मे देवा० ! दुवयं राय अणुगिण्हे माणा अकालपरिहीणं वेव कंपिल्लपुरे मयरे समोसरह, तए णं से दृए करयल जाब कट्टु दुवयस्स रण्णो एयम पडिसुर्णेति २ जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ २ कोबियपुरिसे सहावेह २ एवं व०-लिप्यामेव भो देवाणुप्पिया ! बाउri आसरहं जुत्तामेव उषट्टवेह जाव उबट्टवेंति, सप णं से दूर हाले जाव अलंकार• सीरे चारघंट For Park Lise Only ~ 424~ १६ अपर कङ्काज्ञाता. द्रौपद्याः स्वयं वराज्ञा सू. ११६ स्वयंवरे नृपागमः सू. ११७ ॥२०७॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्य यनं [१६], ----------------- मलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Jeetenesesamer लासरहं दुदहा २ बरहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाऽऽउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिखुढे कंपिलपुरं नगरं मझमझेणं निग्गच्छति, पंचालजणवपस्स मज्झमझेणं जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छा, सुरद्वाजणवयस्स मज्झमज्झणं जेणेव बारवती नगरी तेणेय उवागच्छह २ बारवई नगरि मज्झमझेणं अणुपविसह २ जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स वाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता चाउरघंट आसरहं ठवेइ २ रहाओ पचोरुहति २ मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायचारविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०२ कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामुक्खे प दस वसारे जाव बलषगसाहस्सीओ करयल तं चेव जाव समोसरह । तते णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दयस्स अंतिए एपमह सोचा निसम्म हह जाव हियए तं दूयं सकारेइ सम्माणेइ २ पडिविसज्जेइ । तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडंबियपुरिसं सदावेद एवं ब०-गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! सभाए मुहम्माए सामुदाइयं भेरिं तालेहि, तए णं से कोडंथियपुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासदेवस्स एयम8 पडिसुणेतिरजेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया मेरी तेणेव उवागच्छद २ सामुदाइयं भेरिं महया २ सद्देणं तालेइ, तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुदविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महसेणपामुक्खाओ छप्पणं बलवगसाहस्सीओ पहाया जाय विभूसिया जहा विभवइडिसक्कारसमुदएणं अप्पेगइया जाव पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति २ करयल जाव कण्हं वासुदेवं जगणं विजएणं बद्धाति, SARERatunintharana For P OW ~425 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२०८॥ तणं से कहे वासुदेवे कोटुंबियपुरिसे सदावेति २ एवं व० खिप्पामेव भो! देवाणुपिया ! अभिसेकं हत्थरयणं पटिकप्पेह हयगय जाव पचप्पिणंति, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेव वाग ०२ समुत्तालाकुलाभिरामे जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरुडे, तते णं से कण्हे वासुदेवे समुह विजय पामुक्रखेहिं दसहिं दसारेहिं जाच अणंग सेणापामुक्रखेहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सि संपरिबुडे सविट्टीए जाव रवेण बारवइनयरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छ २ सुरद्वाजणवयस्स मज्झमजणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ २ पंचालजणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थगमणाए । तए णं से दुवए राया दोचं दूयं सदावेइ २ एवं व०- गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरं नगरं तत्थणं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिद्विल्लं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं दुज्जोहणं भाइसयसमग्गं गंगेयं विदुरं दोणं जयदहं उणी कीवं आसत्थामं करयल जाव कड्ड तहेब समोसरह, तए णं से दूए एवं व०जहा वासुदेवे नवरं भेरी नत्थि जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए २ । एएणेव कमेणं तच दूयं चंपायरिं तत्थ णं तुमं कण्हं अंगरायं सेल्लं नंदिरायं करयल तहेब जाव समोसरह । चस्थं दूयं सुत्तिमनयरिं तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसयसंपरिवुडं करयल तहेब जाव समोसरह | पंचगं दूयं हत्थसीसनयरं तत्थ णं तुमं दमदंतं रामं करयल तहेब जाव समोसरह । छटुं दूयं महुरं नयरिं तत्थ णं तुमं घरं रायं करयल जाव समोसरह । सत्तमं दूपं रायगिहं नगरं तत्थ णं तुमं सह Educatin internation For PanalPrata Use Only ~426~ १६ अपर कङ्काज्ञाता. स्वयंवरे नृपागमः सू. ११७ ॥२०८॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्य यनं [१६], ----------------- मलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: देवं जरासिंधुसुयं करयल जाव समोसरह । अट्टमं दूयं कोडिण्णं नयरं तत्थ णं तुम रूपि भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह । नवमं यं विराडनयरं तत्थ णं तुमं कियगं भाउसयसमग्गं करयल जाप समोसरह । दसम दूर्य अवसेसेसुथ गामागरनगरेसु अणेगाईरायसहस्साई जाव समोसरह, तएणं से दूए. तहेच निग्गच्छइ जेणेव गामागर जाव समोसरह । तएणं ताई अणेगाई रायसहस्साई तस्स यस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हहतंदूयं सकारति२ सम्माणतिरपडिविसर्जिति, तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयंर ण्हाया सन्नद्धहत्थिखंधवरगया हयगयरहरूमहया भडचडगररहपहकर०सएहि २ नगरेहितो अभिनिग्गच्छति २ जेणेव पंचालेजणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।(सूत्रं ११७)तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ एवं व०-गच्छह णं तुमं देवाणु० ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदूरसामंते एगं महं सयंवरमंडवं करेह अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलद्वियसालभंजिआगं जाव पञ्चप्पिणति, तए णं से दुवए राया को९वियपुरिसे सद्दावेद २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह तेवि करेत्ता पञ्चप्पिणंति, तए णं दुवए चासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आगमं जाणेत्ता पत्तेयं २ हत्थिखंधजावपरिबुडे अग्धं च पजं च गहाय सपिडिए कंपिल्लपुराओ निग्गच्छइ २ जेणेव ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छह २ताई वासुदेवपामुक्खाई अग्घेण य पजेण य सकारेति सम्माणेइ २ तेसि वासुदेव ~427 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ---------------- मूलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथानम्. ॥२०९॥ १६ अपरकाज्ञा ता. स्वयं हवरमण्डपः सू. ११८ | जिनपूजा सू. ११९ पामुक्खाणं पत्तेयं २ आवासे वियरति, तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवा० २ हथिखंधाहितो पचोरुहंति २ पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति २ सए२ आवासे अणुपविसंति २ सएसुरआवासेसु आसणेमु य सयणेसु य सन्निसमा य संतुयहा य बहहिं गंधवेहि य नाडएहि य उवगिजमाणा य उवणचिजमाणाय विहरंति,तते णं से दुवए राया कंपिल्लपुरं नगरं अणुपविसतिरविउलं असण ४ उवक्खडावेइ २ को९वियपुरिसे सहावेइ २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! विउलं असणं ४ सुरं च मजं च मंसं च सीधुं च पसण्णं च सुबहुपुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं च वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, तेवि साहरंति, तते णं ते वासुदेवपामुक्खा तं विपुलं असणं ४ जाव पसन्नं च आसाएमाणा ४ विहरंति, जिमियभुत्तुत्तरागधाविय णं समाणा आयंता जाव सुहासणवरगया बहहिं गंधवेहिं जाब विहरंति, तते णं से दुवए राया पुवावरण्हकालसमयंसि कोटुंबियपुरिसे सहावेह २त्ता एवं प०-गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहे वासुदेवपामुक्खाण प रायसहस्साणं आवासेसु हथिखंधवरगया महया २ सद्देणं जाव उग्घोसेमाणार एवं वदह-एवं खल. देवाणु कल्लं पाउ• दुवयस्स रपणो धूयाए बुलणीए देवीए अत्तयाए घटाजुण्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकपणाए सयंवरें भविस्संह, ते तुम्भे णं देवा! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाब विभूसिया हस्थिखंधवरगया सकोरंट० सेयवरचामर हयगयरह महया भडचरगरेणं जाव परिक्खित्ता ॥२०॥ ~428 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [११६-११९] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [ १६ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Krisesex जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवा० २ पत्तेयं नामंकेसु आसणेसु निसीयह २ दोवई रायकरणं पडिवालेमाणा २ चिह्न, घोसणं घोसेह २मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोहुंधिया तहेव जाब पचप्पि ति, तए से दुव राया कोहुंबियपुरिसे सदा० २ एवं व० गच्छह णं तुग्भे देवाणु० 1 सयंवरमंडपं आसियसंमजिओवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुष्कपुंजोवयारकलियं कालागरुपवर कुंदुरुक्कतुरुजाव गंधचभूयं मंचाइमंचकलियं करेह २ वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पत्तेयं २ नामंकाई आसणाई अत्थुपचत्थुयाई रएह २ एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तेवि जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा कलं पाउ० व्हाया जाव विभूसिया हस्थिबंधवरगया सकोरंट० सेवरचामराहिं हयगय जान परिवुडा सविट्टीए जाव रवेणं जेणेव सयंवरे तेणेव उवा० २ अणुपविसंत २ पत्तेयं २ नामंकेसु निसीयंति दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा चिट्ठंति, तए णं से पंडुए राया कल्ले पहाए जाय विभूसिए हत्थिबंधवरगए सकोरंट० हयगय० कंपिल्लपुरं मज्मज्झेणं निरगच्छंति जेणेव सयंवरा मंडवे जेणेव वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवा० २ तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं करयल० वद्भावेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स सेपवरचामरं गहाथ उववीयमाणे चिह्नति (सूत्रं ११८) तणं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ पहाया कपबलिकम्मा कपकोडमंगलपायच्छा सुष्पावेसाई मंगल्लाई बस्थाई पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमह२ जेणेव For Parts Only ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ---------------- मूलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कधाङ्गम. ॥२१॥ जिणघरे तेणेव उवागच्छह २ जिणघरं अणुपविसइ २ जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ २ लोमहत्वयं १६ अपरपरामुसइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अञ्चेइ २ तहेव भाणियचं जाव घूर्व डहइ २ वामं जाणुं कङ्काज्ञा ता.स्वयंअश्चेति दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेतिर तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलं सि नमेइ२ ईसि पचुपणमति वरमण्डपः करयल जाय कह एवं बयासी-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं बंदा नमसह २ सासू. ११८ जिणघराओ पडिनिक्खमति २ जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छह (सूत्रं ११९) जिनपूजा 'अजयाए'त्ति अद्यप्रभृति, 'अग्धं च त्ति अर्घ पुष्पादीनि पूजाद्रव्याणि, 'पजं च'त्ति पादहितं पाद्यं-पादप्रक्षालनस्नेइनोद्वर्तनादि, मद्यसीधुप्रसनाख्याः सुराभेदा एव, 'जिणपडिमाणं अचणं करेइचि एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरे तु बहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मजणघराओ पडिनिक्खमह २ जेणामेव जिणघरे तेगामेव उवागच्छति २ जिणधरं अणुपविसह २ जिणपडिमाणं आलोए पणाम करेइ २ लोमहत्वयं परामुसइ २ एवं जहा मरियाभो जिण-10 |पडिमाओ अञ्चेति तहेव भाणियत्वं जाव धूर्व डहइति इह यात्रकरणात अर्थत इदं दृश्य-लोमहस्तकेन जिनप्रतिमाः प्रमार्टि सुरभिणा गन्धोदकेन नपयति गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति वखाणि निवासयति, ततः पुष्पाणां माल्यानां-प्रथितानामित्यर्थः ॥२१०॥ गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां चारोपणं करोति स, मालाकलापावलम्बनं पुष्पप्रकरं तन्दुलैर्दर्पणाबष्टमङ्गलालेखनं च। करोति, 'वामं जाणुं अश्चेइति उत्क्षिपतीत्यर्थः, दाहिणं जाणुं धरणीतलंसि निहटु-निहत्य स्थापयिलेत्यर्थः, 'तिक्खुत्तो ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ---------------- मूलं [११६-११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: मुद्धाण धरणीतलंसि निवेसेइ-निवेशयतीत्यर्थः, 'ईसिं पच्चुन्नमति २ करतलपरिग्गहियं अंजलिं मत्थए कटु एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं जाच संपत्ताणं वंदति नमसति २ जिणघराओ पडिनिक्खमह'त्ति तत्र वन्दते शचैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन नमस्सति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः, न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवन्दनम-II भिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपवादस्य, न च चरितानुयादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सरिकामादिदेववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति तदपि विधेयं स्यात् , किञ्च-अविरतानां प्रणिपातदण्डकमात्रमपि चैत्यवन्दनं सम्भाव्यते, यतो वन्दते नमस्यतीति पदद्वयस्य | वृद्धान्तरण्याख्यानमेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता-"विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यबन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गासिद्धेः, ततो. वन्दते सामान्येन नमस्करोति आशयवृद्धः प्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणे"ति किञ्च-समगण सावएण य अवस्स कायवयं हवइ जम्हा। अंतो अहो नि सिस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥१॥" तथा "जपणं समणो वा समणी वा सावओ वा साविया वा तचित्ते तल्लेसे तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्ठति तन्नं लोउत्तरिए भावावस्सए" [श्रमणेन श्रावकेण चावश्यं कर्तव्यं भवति यस्मात् । अन्तरदो निशायाश्च तस्मादावश्यकं नाम ॥१॥ यत् श्रमणो या श्रमणी वा श्रावको वा श्राधिका वा तञ्चित्तः तन्मनाः तल्लेश्यः उभयसिन् काले आवश्यकाय तिष्ठति तत् लोकोत्तरिकं भावावश्यकं ] इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् , तथा 'सम्यग्दर्शनसम्पन्नः प्रवचनभक्तिमान् पविधावश्यकनिरतः पदस्थानयुक्तच श्रावको भवती'त्युमास्वातिवाचकवचनाच श्रावकस पबिधावश्यकस्य सिद्धावावश्यकान्तर्गत प्रसिद्ध चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति ।। ~431 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२०-१२४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२.११॥ तते णं तं दोवहं रायवरकन्नं अंतेउरियाओ सवालंकारविभूसियं करेंति किं ते ? बरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचकवालमयहरगविंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उबद्वाणसाला जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवा० २ किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउरघं आसरहं दुरुहृति, तते णं से घट्टज्जुणे कुमारे दोवतीए कण्णाए सारत्थं करेति, तते णं सा दोवती रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवा० २ रहं उवेति रहाओ पचोरुहति २ किहावियाए लेहियाए यसद्धिं सयंवरं मंडपं अणुपविसति करयल तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेति, तते णं सा दोवती रायवर० एवं महं सिरिदामगंडं किं ते ? पाडलमल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धणि मुतं परमसुहासं दरिसणिज्जं गिण्हति तते णं सा किड्डाविया जाव सुरूवा जाव वामहत्येणं चिल्ललगदपणं गद्देऊण सललियं दप्पणसंकेतबिंबं संदसिए य से दाहि पण हत्थेणं दरिसिए पररायसी फुडविसयविमुद्धरिभियगंभीरमहुरभणिया सा तेसिं सोसिं पत्थिवाणं अम्मापिकणं वंससत्तसामत्थगोत्तविकंतिकं तिबहुविह आगममाहप्परूवजोद्दणगुणला वण्णकुलसीलजाणिया कित्तणं करेइ, पढमं ताव वहिपुंगवाणं दसदसारवीरपुरिसाणं तेलोफबलवगाणं सत्तुससस्समाणामगाणं भवसिद्धिपवरपुंडरीयाणं चिल्ललगाणं बलवीरियरूवजोव णगुणलावन्न कित्तिया कित्तणं करेति, ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं, भणति य-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिस an Internationd For Penal Use Only ~432~ १६ अमरकङ्काज्ञा. पञ्चपाण्ड ववरण सू. १२० ॥२११ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: गंधहत्थीणं । जो हु ते होइ हिययदइओ, तते णं सा दोबई रायवरकन्नगा बहणं रायवरसहस्साणं मज्झमझेणं समतिच्छमाणी २ पुषकयणियाणेणं चोइज्जमाणी २ जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवा०२ ते पंचपंडवे तेणं दसद्धवपणेणं कुसुमदाणेणं आवेढियपरिवेढियं करेति २त्सा एवं वयासी-एए णं मए पंच पंडवा चरिया, तते णं तेसि वासुदेवपामोक्खाणं बहणि रायसहस्साणि महयारसदेणं उग्रोसेमाणा २ एवं वयंति-सुवरियं खलु भो! दोवइए रायवरकन्नाएरत्तिकट्ठ सयंवरमंडवाओ पडि निक्खमंति २ जेणेव सया २ आवासा तेणेव उवा०, तते णं धट्टलुण्णे कुमारे पंच पंडवे दोवर्ति रायवरकपणं चाउघंटं आसरहं दुरूहति २त्ता कंपिल्लपुरं मझमज्झेणं जाव सयं भवणं अणुपविसति, तते णं दुवए राया पंच पंडवे दोबई रायवरकण्णं पट्टयं दुरूहेति२ सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जायेति २ अग्गिहोम कारचेति पंचण्हं पंडवाणं दोवतीए य पाणिग्गहणं करावेइ, तते णं से दुवए राया दोवतीए रायवरकपणयाए इमं एयारूवं पीतिदाणं दलयती, तंजहा-अट्ट हिरण्णकोडीओ जाव अट्ट पेसणकारीओ दासचेडीओ, अपणं च विपुलं धणकणग जाव दलयति तते णं से दुवए राया ताई वासुदेवपामोक्खाई विपुलेणं असण ४ पत्थगंध जाव पडिविसज्जेति (सूत्रं १२०) तते णं से पंडू राया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं बहूर्ण रा० करयल एवं य०-एवं खलु देवा! हथिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाणं दोवतीए य देवीए कल्लाणकरे भविस्सति तं तुम्भे गं देवा! ममं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणं समोसरह, तते णं SAREauratonintentiational ~433 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: HO ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. १६ अमरकाज्ञाता. | कल्याणकारः सू. १२१ ॥२१२॥ वासुदेवपामोक्खा पत्तेपर जाव पहारेत्थ गमणाए । तते णं से पंडुराया कोटुंबियपुरिसे सहा० २ एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! हस्थिणाउरे पंचण्हं पंडवाणं पंच पासायवडिंसए कारेह अन्भुग्गयमूसिय वण्णओ जाव पडिरूवे, तते णं ते को९वियपुरिसा पडिसुणेति जाव करावेंति, तते णं से पंडुए पंचहिं पंडवेहिं दोवईए देवीए सद्धिं हयगयसंपरिबुडे कंपिल्लपुराओ पडिनिक्खमह२ जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए, तते णं से पंडुराया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता कोटुंबि० सदावेइ २ एवं ब०-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! हस्थिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं आवासे कारेह अणेगखंभसय तहेव जाव पचप्पिणंति, तते णं ते वासुदेवपामोक्खा पहवे रायसहस्सा जेणेव हस्थिणाउरे तेणेव उवागच्छन्ति, तते णं से पंडराया तेर्सि वासुदेवपामोक्खाणं आगमण जाणित्ता हहतुढे पहाए कयवलि. जहा दुपए जाव जहारिहं आचासे दलयति, तते णं ते वासुदेवपा० बहवे रायसहस्सा जेणेव सयाई २ आवासाई तेणेव उवा तहेव जाव विहरंति, तते णं से पंडराया हस्थिणारं णयरं अणुपविसति २ कोडुंबिय० सद्दावेति २ एवं व०-तुम्भेणं देवा ! विउलं असण ४ तहेव जाव उवणेति, तते णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे राया पहाया कयवलिकम्मा तं विपुलं असणं ४ तहेव जाब विहरंति, तते णं से पंडराया पंच पंडवे दोवतिं च देविं पट्टयं दुरूहेति २ सीयापीएहिं कलसेहिं पहाति २ कल्लाणकारं करेति २ ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विपुलेणं ॥२१२॥ ~4344 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: असण ४ पुप्फवस्थेणं सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसज्जेति, तते णं ताई वासुदेवपामोक्खाई बहुहिं जाव पडिगयाति(सूत्रं१२१) तते ण ते पंच पंडवा दोवतीए देवीए सद्धिं अंतो अंतेउरपरियाल सर्द्धि कलाकर्तिवारंवारेणं ओरालाति भोगभोगाई जाव विहरति, तते णं से पंह राया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवतीए देवीए यसद्धिं अंतो अंतेउरपरियाल सद्धिं संपरिखुडे सीहासणवरगते यावि विहरति, इमं चणं कच्छल्लणारए दंसणेणं अइभदए विणीए अंतो २ य कस्लुसहियए मज्झत्थोवस्थिए य अल्लीणसोमपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवत्थे दण्डकमण्डलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंजमहलबागलधरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधवे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणओवयणउप्पयणिलेसणीसु य संकामणिअभिओगपण्णत्तिगमणीथंभणीसुय बहुसु विजाहरीसु विजासु विस्सुयजसे इहे रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्नपईवसंबअनिरुद्धणिसहउम्मुयसारणगयसुमुहदुम्मुहातीण जायवाणं अट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलहजुद्धको. लाहलप्पिए भंडणामिलासी यहुसु य समरसयसंपराएसुदंसणरए समंतओ कलहसदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिलोकबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवतीं एकमणिं गगणगमणदफई उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपदणसंवाहसहस्समंडियं धिमियमेइणीतलं वसुहं ओलोइंतो रम्नं हथिणारं उवागए पंडरायभवणंसि अइवेगेण समो. ~435 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १६अमरकाज्ञा नारदस्यानादरःसू. १२२ ज्ञाताधर्म-11 वइए, तते णं से पंडुराया ककछुल्लनारयं एजमाणं पासति २ पंचहिं पंडवेहि कुंतीए य देवीए सद्धिं कथाङ्गम्. आसणातो अब्भुट्टेति २ कच्छुल्लनारयं सत्तदृपयाई पञ्चुग्गच्छइ२ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २ वंदति णमंसति महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, तते णं से कच्छुल्लनारए उद्गपरिफोसियाए दम्भो. ॥२१३॥ वरिपञ्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयति २ पंडरायं रजे जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छह, तते णं से पंडराया कोंतीदेवी पंच य पंडवा कच्छुल्लणारयं आढ़ति जाच पज्जुवासंति, तए णं सा दोबई कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं अपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मंतिकड नो आढाति नो परियाणइ नो अन्भुट्टेति नो पज्जुवासति ( सूत्रं १२२) तते णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अम्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था अहो णं दोवती देवी रूवेणं जाव लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अणुबहा समाणी ममं णो आदाति जाव नो पज्जुवासह तं सेयं खलु मम दोवतीए देवीए विप्पियं करिशएत्तिकट्ठ एवं संपेहेति २ पंडुयरायं आपुच्छह २ उप्पयर्णि विजं आवाहेति २ ताए उफिट्टाए जाच विजाहरगईए लवणसमुई मज्झमझेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवतिउं पयत्ते यावि होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धदाहिणड्डभरहवासे अवरकंका णाम रापहाणी होत्था, तते णं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णाम राया होत्या महया हिमवंत० वण्णओ, तस्स णं पउमनाभस्स रनो सत्त देवीसयाति ओरोहे होत्या, तस्स ॥२१॥ seoccerseas ~4364 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: णं पउमनाभस्स रण्णो सुनाभे नाम पुत्ते जुवरायायावि होत्या, तते गं से पउमणाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिखुढे सिंहासणवरगए विहरति, तए णं से कच्छुल्लणारए जेणेच अमरकंका रायहाणी जेणेच पउमनाहस्स भवणे तेणेव उवागच्छति २ पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्ति बेगेणं समोवइए, तते णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लं नारयं एजमाणं पासति २ आसगातो अम्भुटेति २ अग्घेणं जाव आसणेणं उवणिमंतेति, तए णं से कच्छुल्लनारए उदयपरिफोसियाए दम्भोवरिपत्थुयाते भिसियाए निसीयइ जाव कुसलोदंतं आपुच्छइ, तते णं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं २०-तुभं देवाणुप्पिया! बहणि गामाणि जाव गेहाति अणुपविससि, तं अस्थि याई ते कहिंचि देवाणुप्पिया! एरिसए ओरोहे दिपुवे जारिसए णं मम ओरोहे ?, ततेणं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियं करेइर एवं व-सरिसे णं तुमं पउमणामा! तस्स अगडद(रस्स, के णं देवाणुप्पिया! से अगडदहुरे ?, एवं जहा मल्लिणाए एवं खलु देवा! जंबूद्दीवे २ भारहे वासे हस्थिणाउरे दुपयस्स रणो धूया चूलणीए देवीए अत्तया पंडस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवती देवी स्वेण य जाव उकिट्ठसरीरा दोवईए ण देवीए छिन्नस्सवि पायंगुट्ठयस्स अयं तव ओरोहे सतिमपि कलं ण अग्धतित्तिकठ, पउमणाभं आपुच्छति २ जाव पडिगए २, तते णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म दोवतीए seseserce SAREauratoninternational ~437 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. १६ अमर कङ्काज्ञा धातकीभरतेऽपहारसू.१२३ ॥२१॥ देवीए रूबे य ३ मुच्छिए ४ दोवईए अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उव.२ पोसहसालं जाव पुषसंगतियं देवं एवं व०-एवं खलु देवा! जंबुद्दीवे २ भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा तं इच्छामिणं देवा! दोवती देवी इहमाणियं, तते णं पुवसंगतिए देवे पउमनाभं एवं व०-नो खलु देवा! एयं भूयं या भवं वा भविस्सं वा जपणं दोवती देवी पंच पंडवे मोत्तूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालातिं जाव विहरिस्सति, तहाविय णं अहं तव पियट्टतयाए दोवती देविं इहं हवमाणेमित्तिक१ पउमणाभं आपुच्छइ २ ताए उकिट्ठाए जाव लवणसमुई मझमज्झेणं जेणेव हस्थिणाउरे गयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तेणं कालेणं २ हथिणाउरे जुहिडिल्ले राया दोवतीए सद्धिं उपि आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्या, तएणं से पुषसंगतिए देवे जेणेव जुहिडिल्ले राया जेणेव दोवती देवी तेणेव उवाग २दोवतीए देवीए ओसोवणियं दलयहरदोवतिं देविं गिण्हइताए उकिट्ठाए जाव जेणेव अमरकंका जेणेव पउमणाभस्स भवणे तेणेव उवा०२पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवति देवी ठावेइ २ ओसोवर्णि अवहरति २ जेणेव पउमणाभे तेणेव उ०२एवं व.-एसणं देवा ! भए हथिणाउराओ दोवती इह हरमाणीया तव असोगवणियाए चिट्ठति, अतो परं तुम जाणसिसिकटु जामेव दिर्सि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तते णं सा दोबई देवी ततो मुहततरस्स पडिवुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपञ्चभिजाणमाणी एवं व०-नो खलु अम्हं एसे सए भवणे णो खलु एसा अम्हं सगा ॥२१४॥ ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: असोगवणिया, तं ण णजति णं अहं केणई देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा अन्नस्स रण्णो असोगवणियं साहरियत्तिकटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायति, तते णं से पउमणाभे राया पहाए जाव सबालंकारभूसिए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवती देवी तेणेव उवा०२दोवती देवी ओहय. जाव झियायमाणीं पासति २ सा एवं व०-किणं तुम देवा०1 ओहय जाच झियाहि !, एवं खलु तुम देवा! मम पुवसंगतिएणं देवेणं जंबुद्दीवाओ २ भारहाओ वासाओ हथिणापुराओ नयराओ जुहिडिल्लस्स रपणो भवणाओ साहरिया तं मा णं तुमं देवा! ओहय जाव झियाहि, तुमं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई जाव विहराहि, तते णं सा दोवती देवी पउमणाभं एवं व०-एवं खलु देवा! जंबुद्दीवे२ भारहे वासेबारवतिए णयरीए कण्हे णामं वासुदेवे ममप्पियभाउए परिवसति, तं जति णं से छह मासाणं ममं कूवं नो हवमागच्छा तते णं अहं देवा! जे तुमं वदसि तस्स आणाओवायवयणणिद्देसे चिहिस्सामि, तते णं से पउमे दोवतीए एयमहूँ पडिमुणेत्तार दोवतिं देविं कण्णंतेउरे ठवेति, तते णं सा दोवती देवी छटुंछटेणं अनिक्खित्तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणी विहरति (सूत्रं१२३) तते णं से जुहुढिल्ले राया तओ मुहुर्ततरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवर्ति देविं पासे अपासमाणो सयणिज्जाओ उद्वेइ २त्ता दोवतीए देवीए सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेह २त्ता दोवतीए देवीए कत्थई सुई वा खुई चा पवर्ति वा अल ~439~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाइम्. ॥२१५॥ Receलय Sene १६अमरकङ्काज्ञा० द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयनं सू. १२४ भमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवा०२ ता पंडराय एवं व०-एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि पमुत्तस्स पासातो दोवती देवी ण णजति केणइ देवेण वा दाणवेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा हिया वा णीया वा अवक्वित्ता वा?, इच्छामि णं ताओ दोवतीए देवीए सवतो समंता मग्गणगवसणं कयं, तते णं से पंडराया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेद २ एवं व०-गच्छह णं तुब्भे देवा! हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं व०-एवं खलु देवा०! जुहिडिल्लस्स रपणो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासातो दोवती देवी ण णज्जति केणइ देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिसेण वा किन्नरेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा, तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवतीए देवीए मुर्ति वा जाव पवितिं वा परिकहेति तस्स णं पंडराया विउलं अत्थसंपयाणं दाणं दलयतित्तिक घोसणं घोसावेह २ एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते णं ते कोटुंबियपुरिसा जाव पचप्पिणंति, तते णं से पंडू राया दोवतीए देवीए कत्थति सुई वा जाव अलभमाणे कोती देवीं सदावेति २ एवं वनाच्छह णं तुम देवाणु! बारवर्ति णयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमझु णिवेदेहि, कण्हे णं परं वासुदेवे दोवतीए मग्गणगवेसणं करेजा, अन्नहा न नजद दोवतीए देवीए सुती वा खुती वा पवत्ती वा उवल भेजा, तते णं सा कोंती देवी पंडुरण्णा एवं चुत्ता समाणी जाव पडिसुणेइ २ण्हाया कयबलिकम्मा हथिखंधवरगया हथिणाउरं मझमझेणं णिग्गच्छइ२ कुरु ॥२१५॥ ~440 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२०-१२४] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [ १६ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०६] अंगसूत्र- [ ०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Education Internation जणवयं मज्झमज्झेणं जेणेव सुरट्ठजणवए जेणेव वारवती णयरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवा० २हत्थिधाओ पचोरुहति २ कोटुंबियपुरिसे सदा० २ एवं व०- गच्छह णं तुम्भे देवा० ! जेणेव बारवई णयरिं बारवतिं यरिं अणुपविसह २ कण्टं वासुदेवं करयल एवं वयहएवं खलु सामी ! तुम्भं पिउच्छा कोती देवी हत्थिणाराओ नयराओ इह हबमागया तुम्भं दंसणं कंखति, तते णं ते कोटुंबिय पुरिसा जाव कहेंति, तते णं कण्हे वासुदेवे कोबियपुराणं अंतिए सोचा णिसम्म हस्थिखंधवरगए हयगय बारवतीए य मज्झमज्झेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उ० २ हथिधातो पञ्चोरुहति २ कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेति २ कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थसंधं दुरूहति २ बारवतीए णयरी मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० २ सयं हिं अणुपविसति । तते णं से कण्हे वासुदेवे कोती देविं हायं कययलिकम्मं जिमियमुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं व०-संदिउणं पिच्छा ! किमागमणपओयणं ?, तते णं सा कोंती देवी कन्हं वासुदेवं एवं व०- एवं खलु पुत्ता ! हत्थणारे परे जुहिडिल्लस्स आगासतले सुहपसुतस्स दोवती देवी पासाओ ण णजति केणइ अबहिया जाव अवविवत्ता वा तं इच्छामि णं पुसा ! दोवतीए देवीए मग्गणगवेसणं कथं, तते णं से कण्हे वासुदेवे कोसी पिउच्छि एवं व०-जं णवरं पिउच्छा ! दोवतीए देवीए कत्थइ सुई वा जाव लभामि तो अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्बभरहाओ वा समंतओ दोवतिं साहस्थि उवणेमित्तिकड For Parts Only ~441~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधानम् १६ अमर कङ्काज्ञा द्रौपदीगघेषणपत्यानयनं सू. १२४ ॥२१६॥ कती पिउस्थि सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसज्जेति, तते णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसि पडि । तते णं से कण्हे वासुदेवे को९वियपुरिसे सहा०२ एवं वनाच्छह णं तुम्भे देवा! बारवति एवं जहा पंहूतहा घोसणं घोसावेति जाव पचप्पिणंति, पंडुस्स जहा, तते णं से कण्हे वासुदेवे अन्नया अंतो अंतेउरगए ओरोहे जाव विहरति, इमं च णं कच्छुल्लए जाव समोवइए जाव णिसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ, तते णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुलं एवं व०-तुमणं देवा०! बहुणि गामा जाव अणुपविससि,तं अस्थि याई ते कहिवि दोवतीए देवीए सुती वा जाव उबलद्धा, तते णं से कच्छुल्ले कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु देवा०1 अन्नया धायतीसंडे दीवे पुरथिमद्धं दाहिणभरहवासं अवरकंकारायहाणिं गए, तत्थ णं मए पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि दोवती देवी जारिसिया दिवपुत्वा यावि होस्था, तते णं कण्हे वासुदेवे कच्छलं एवं व०-तुभं चेव णं देवाणु०! एवं पुचकम्म, तते णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ते समाणे उप्पयर्णि विजं आवाहेति २ जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिर्सि पडिगए, तते णं से कण्हे वासुदेवे दयं सद्दावेह २ एवं व०-च्छह णं तुमं देवा! हथिणाउरं पंडुस्स रनो एपमहूँ निवेदेहि-एवं खलु देवाणु०! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अवरकंकाए रायहाणीए पउमणामभवणंसि दोबतीए देवीए पउत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडा पुरत्थि seeneneweseseisesese ॥२१६॥ ~442 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: मवेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु, तते णं से दूर जाव भणति, पडिवालेमाणा चिट्ठह, तेवि जाव चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ२त्ता एवं व०-गच्छह णं तुम्भे देवा! सन्नाहियं भेरि ताडेह, तेवि तालेंति, तते णं तीसे सण्णाहियाए भेरीए सदं सोचा समुहविजयपामोक्खा दसदसारा जाच छप्पणं बलवयसाहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जाव गहियाउहपहरणा अप्पेगतिया हयगया गयगया जाव वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुधम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव २ करयल जाव बद्धवावेंति, तते गं कण्हे वासुदेवे हथिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं० सेयवर हयगय महया भष्टचडगरपहकरेणं बारवती गयरी मज्झमज्झेणं णिग्गच्छति, जेणेव पुरथिमवेयाली तेणेव उवा०२ पंचहि पंडवेहिं सद्धिं एगपओ मिलइ २ खंधावारणिवेसं करेति २ पोसहसाल अणुपविसति २ सुट्टियं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठति, तते ण कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि मुहिओ आगतो, भण देवा! जंमए काय, तते णं से कण्हे वासुदेव मुट्ठियं एवं व०-एवं खलु देवा०1 दोवती देवी जाव पउमनाभस्स भवर्णसि साहरिया तण्णं तुम देवामम पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्इं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जणं अहं अमरकंकारायहाणी दोवतीए कूवं गच्छामि, तते णं से सुटिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं बयासी-किण्हं देवा! जहा चेव पउमणाभस्स रन्नो पुषसंगतिएणं देवेणं दोवती जाव संहरिया तहा चेव दोवर्ति देविं धायतीसंहाओ दीवाओ भार For P OW ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञावाधर्मकथाङ्गम्. ॥२१७॥ १६ अमरकाज्ञा द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयनं सू.१२४ हाओ जाव हस्थिणापुरं साहरामि, उदाहु पउमणाभं रायं सपुरषलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि?, तते ण कण्हे वासुदेव मुट्ठियं देवं एवं व-मा णं तुम देवा! जाव साहराहि तुम णं देवा! लवणसमुद्दे अप्पण्वस्स छण्हं रहाणं मग्गं चियराहि, सयमेव णं अहं दोवतीए कृवं गच्छामि, तए णं से सुट्टिए देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं होउ, पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छह रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वितरति, तते णं से कण्हे बासुदेवे चाउरंगिणीसेणं पडिविसज्जेति २ पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे छर्हि रहेहिं लवणसमुदं मझमझेणं वीतीवयति २ जेणेव अमरकंका रायहाणी जेणेव अमरकंकाए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छइ २ रहं ठवेइ २ दारुयं सारहिं सद्दावेति एवं च-गच्छहणं तुम देवा०1 अमरकंकारायहाणी अणुपविसाहि २ पउमणामस्स रपणो वामेणं पाएणं पायपीढं अकमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि तिवलियं भिउर्षि पिडाले साहव आसुरुत्ते रुढे कुडे कुविए पंडिकिए एवं व०-हं भो पउमणाहा! अपत्थियपत्थिया दुरंतपंतलक्खणा हीणपुन्नचाउद्दसा सिरीहिरिधीपरिवजिया अज्ज ण भवसि किन्नं तुम ण याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणि दोवतिं देविं इहं हवं आणमाणे, तं एयमवि गए पचप्पिणाहि णं तुम दोवर्ति देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसजे णिग्गच्छाहि, एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहि अप्पछडे दोवतीदेवीए कूवं हबमागए, तते णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हद्दतुढे जाव पडिमुणे २ अमरकंकारापहार्णि ॥२१७॥ ~4444 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: टटटटटटटटट अणुपविसति २ जेणेव पउमनाहे तेणेव उवा०२ करयल जाव बद्धावेत्सा एवं व०-एस णं सामी! मम विणयपडिवित्ती इमा अन्ना मम सामिस्स समुहाणत्तित्तिक? आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीदं अणुक्कमति २ कोतग्गेणं लेहं पणामति २त्ता जाव कूवं हवमागए, तते णं से पउमणामे दारुणेणं सारहिणा एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते तिवलिं मिउर्डि निडाले साहट्ट एवं व०-णों अप्पिणामि णं अहं देवा! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवर्ति, एस णं अहं सयमेव जुज्झसजो णिग्गच्छामित्तिकड दारुयं सारहिं एवं व केवलं भो! रायसत्थेसु दूये अवोत्तिकटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेति, तते णं से दारुए सारही पउमणाभेणं असकारिय जाव णिच्ढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उ०२ करयल. कण्हं जाव एवं व०-एवं खलु अहं सामी! तुम्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेति, तते णं से पउमणाभे बलवाउयं सदावेति २ एवं प.-खिपामेच भो देवाणु ! आभिसे हस्थिरयणं पडिकप्पेह, तयाणंतरं च णं छेयायरियउवदेसमइविकप्पणाविगप्पेहिं जाब उवणेति, तते णं से पजमनाहे सन्नद्ध० अभिसेयं० दूरूहति २ हयगय जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव पहारेत्य गमणाए, तते णं से कण्हे वासुदेवे पउमणाभं रायाणं एजमाणं पासति २ ते पंच पंडवे एवं व०-हं भो दारगा! किन्नं तुम्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उयाहु पेच्छिहिह, तते णं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं १०-अम्हे णं सामी ! जुज्झामो तुम्भे पेच्छह, तते णं पंच पंडवे सपणद्ध जाव पहरणा रहे दुरूहंति २ जेणेच पउम For P OW ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ॥२१८॥ १६ अमरकङ्काज्ञा द्रौपदीगवेषणप्रत्यानयन सू. १२४ नाभे राया तेणेव उ० २ एवं व०-अम्हे पउमणाभे वा रायत्तिकटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तते णं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हयमहियपवरविवडियचिन्धद्धयपडागा जाव दिसोदिसि पडिसेहेतित्ति, तते णं ते पंच पंडवा पउमनाभेणं रन्ना हयमहियपवरविवडिय जाव पडिसेहिया समाणा अत्थामा जाच अधारणिज्जत्तिक? जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवा०, तते णं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं व०-कहणं तुम्भे देवाणु०१ पउमणाभेण रन्ना सदि संपलग्गा?, तते । णं ते पंच पंडया कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु देवा! अम्हे तुन्भेहि अन्भणुनायासमाणा सन्नद्ध रहे दुरूहामो २ जेणेव पउमनाभे जाव पडिसेहेति, तते णं से कण्हे वासुदेषे ते पंच पंडवे एवं व०जति णं तुन्भे देवा ! एवं वयंता अम्हे णो पउमनाभे रायत्तिकठ्ठ पउमनाभेणं सर्द्धि संपलग्गंता तो णं तुम्भे णो पउमणाहे हयमहियपवर जाव पडिसेहंते,तं पेच्छह णं तुम्भे देवा! अहं नो पउमणाभे रायत्तिक? पउमनाभेणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि रहं दुरूहति २ जेणेव पउमनामे राया तेणेव उवाग० २ सेयं गोखीरहारधवलं तणसोल्लियसिंदुवारकुंदेंदुसन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेपणविणासकरं पंचवणं संखं परामुसति २ मुहवायपूरियं करेति, तते णं तस्स पउमणाहस्स तेणं संखसदेणं बलतिभाए हते जाव पडिसेहिए, तते णं से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसति घेढो धणुं पूरेति २ घणुसई करेति, तते णं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बलतिभाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए, तते ॥२१८॥ ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: णं से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्थामे अवले अवीरिए अपुरिसक्कारपरकम्मे अधारणिजत्तिकटु सिग्घं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेच उ०२ अमरकंक रायहार्णि अणुपविसति २ दारार्ति पिहेति २रोहसज्जे चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेच अमरकंका तेणेव उ०२ रहं ठवेति २ रहातो पचोरूहति २ वेउवियसमुग्धाएणं समोहणति, एगं महं णरसीहरूवं विउबति २ महया २ सद्देणं पाददद्दरियं करेति, तते णं से कण्हेणं वासुदेवेणं महया २ सद्देणं पाददइरएणं करणं समाणेणं अमरकंका रायहाणी संभग्गपागारगोपुरांद्यालयचरियतोरणपल्हस्थिपपवरभवणसिरिधरा सरस्सरस्स धरणियले सन्निवइया, तते णं से पउमणाभे राया अमरकंक रायहाणिं संभग्ग जाव पासित्ता भीए दोवतिं देवि सरणं उवेति, ततेणं सा दोबई देची पउमनाभं रायं एवं व०-किपणं तुमं देवा ! न जाणसि कण्हस्स वासुदेवस्स उत्तमपुरिसस्स विप्पियं करेमाणे ममं इह हबमाणेसि, तं एवमवि गए गच्छह णं तुम देवा! पहाए उल्लपडसाडप अवचूलगवत्थणियत्थे अंतेजरपरियालसंपरिखुडे अग्गाई चराई रयणाई गहाय मम पुरतो कार्ड कण्हं वासुदेवं करयलपायपडिए सरणं उवेहि, पणिवइयवच्छला गं देवागुप्पिया! उत्तमपुरिसा, तते णं से पउमनाभे दोवतीए देवीए एयमढे पडिमुणेति २ण्हाए जाब सरणं उवेति २ करयल० एवं व०-दिहा ण देवाणुप्पियाणं इड्डी जाव परकम्मे तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! जाव खमंतु णं जाव णाहं भुजो २ एवंकरणयाएत्तिकट्ठ पंजलिवुडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स Receeseseoceaedees ~447 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२०-१२४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२१९॥ दोafi देवि साहस्थ उवणेति, तते णं से कण्हे वासुदेवे पमणाभं एवं व०- भो पउमणाभा ! अप्पत्थियपत्थिया ४ किष्णं तुमं ण जाणसि मम भगिणिं दोवतीं देवीं इह हवमाणमाणे तं एवमवि गए णत्थि ते ममाहिंतो इयाणिं भयमस्थित्तिकट्टु पउमणाभं पडिविसज्जेति, दोवतिं देवं गिण्हतिर रहं दुरूहेति २ जेणेव पंच पंडवे तेणेव उवा० २ पंच पंडवाणं दोवतिं देविं साहत्थि उवणेति, तते णं से कण्हे पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछडे छहिं रहेहिं लवणसमुदं मज्झमज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं १२४ ) 'सारत्थं' ति सारथ्यं सारथिकर्म, 'तए णं सा किड्डाविए'त्यादी यावत्करणादेवं दृश्यं 'साभावियहंसा चोदहजणस्स उस्सुयकरं विचित्तमणिरयणबद्धच्छरु'ति तत्र क्रीडापिका - क्रीडनधात्री 'साभाविग्रहंस' ति साद्भाविक:- अकैतवकृतो घर्षो घर्षणं यस्य स तथा तं दर्पणमिति योगः, 'चोहहजणस्स ऊमुघकरे ति तरुणलोकस्य औत्सुक्यकरं - प्रेक्षणलम्पटखकरं 'विचित्तमणिरयणबद्धच्छरुहं ति विचित्रमणिरत्नैर्बद्धः छरुको - मुष्टिग्रहणस्थानं यस्य स तथा तं 'चिल्लगं' दीप्यमानं दर्पम्-आदर्श 'दप्पणसंकंतर्विषसंदंसिए य से त्ति दर्पणे सङ्क्रान्तानि यानि राज्ञां विम्बानि प्रतिविम्बानि तैः संदर्शिताःउपलम्भिता ये ते तथा तांश्च से तस्या दक्षिणहस्तेन दर्शयति स द्रोपद्या इति प्रक्रमः प्रवरराजसिंहान्, स्फुटमर्थतो विशदं वर्णतः विशुद्धं शब्दार्थदोषरहितं रिमितं-स्वरघोलनाप्रकारोपेतं गम्भीरं - मेघशब्दवत् मधुरं - कर्णसुखकरं भणितं - भाषितं Education Internationa For Parts Only ~448~ १६ अमर कङ्काज्ञा० द्रौपदीग वेषणप्रत्यानयनं सू. १२४ ॥२१९॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: यस्याः क्रीडापिकायाः सा तथा तां, मातापितरौ वंश-हरिवंशादिकं सत्व-आपत्खवैतव्यकरमध्यवसानकर च सामर्थ्य-बलं गोत्र-गौतमगोत्रादि विक्रान्ति-विक्रम कान्ति-प्रभा पाठान्तरण कीर्ति वा-प्रख्याति बहुविधागर्म-नानाविधशाखविशारदमित्यर्थः माहात्म्यं-महानुभावतां कुलं-वंशस्थावान्तरभेदं शीलं च-स्वभावं जानाति या सा तथा कीर्तनं करोति स्मेति, वृष्णिपुङ्गवानां यदुपुङ्गवानां यदुप्रधानानां दशाराणां-समुद्रविजयादीनां दशारस्य वा-वासुदेवस्य ये वरा वीराव पुरुषास्ते तथा ते चते त्रैलोक्येऽपि बलवन्तति विग्रहस्ततस्तेषां, शत्रुशतसहस्राणां-रिपुलक्षाणां मानमवमृद्गन्ति ये ते तथा तेषा, तथा भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि ये ते तथा तेषा, 'चिल्गाणं ति | दीप्यमानानां तेजसा तथा बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं रूपं-शरीरसौन्दर्य यौवनं-तारुण्यं गुणान्-सौन्दर्यादीन् लावण्यं चस्पृहणीयता कीर्तयति या सा तथा, क्रीडापिका कीर्चनं करोति स्म, पूर्वोक्तमपि किश्चिद्विशेषाभिधानायाभिहितमिति न | दुष्टं, 'समइच्छमाणी'ति समतिक्रामन्ती, 'दसद्धवष्णेणं'तीह श्रीदामगण्डेन पूर्वगृहीतेनेति सम्बन्धनीयं 'कल्लाणकारे नि । कल्याणकरणं मङ्गलकरणमित्यर्थः, 'इमं च णं'ति इतच 'कछुल्लनारए'ति एतबामा तापसः, इह कचिद्यावत्करणादिदं| उश्य, 'दसणेणं अहमदए' भद्रदर्शन इत्यर्थः, 'विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए' अन्तरान्तरा दुष्टचितः केलीप्रियता-18| |दित्यर्थः, 'मज्झत्थजवस्थिए य' माध्यस्थ्य-समतामभ्युपगतो व्रतग्रहणत इति भावः, 'अल्लीणसोमपियदंसणे सुरुवे । आलीनानां- आश्रितानां सौम्य--अरौद्रं प्रियं च दर्शनं यस्य स तथा 'अमइलसगलपरिहिए' अमलिन सकलं-अखण्डं शकलं वा खण्डं बल्कवास इति गम्यते परिहित-निवसितं येन स तथा, 'कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवत्थे कालमृगचर्म उत्त ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मरासङ्गेन रचितं वक्षसि येन स तथा 'दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तियमुंजमेहलावागलधरे १६ अपरकथाङ्गम्. | गणेत्रिका-रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणं मुञ्जमेखला-मुञ्जमयः कटीदवरका वरकलं-तरुखक, 'हत्थकथकच्छ भीए' कच्छपिका कङ्काज्ञा तदुपकरण विशेषः, 'पियगंध' गीतप्रियः, 'धरणिगोयरप्पहाणे आकाशगामिखान, 'संचरणावरणउवयणिलेसणीसु य ता . द्रौप॥२२॥ संकामणिअभिओगपण्णचिगमणीर्थभणीसु य बहुसु विजाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे' इह सञ्चरण्यादिविद्यानामर्थः शब्दानु-दीहरणादि सारतो वाच्यः, 'विजाहरिसुति विद्याधरसम्बन्धिनीषु विश्रुतयशाः-ख्यातकीर्चिी, 'इहे रामस्स केसवस्स य पज्जुन्न-18 पईवसंबअनिरुहनिसढउम्मुपसारणगयसुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं अबुट्ठाणं कुमारकोडीणं हिययदइए वल्लभ इत्यर्थः, 'संथवे' एतेषां संस्तावकः, 'कलहजुद्धकोलाहलप्पिए' कलहो वाग्युद्धं युद्धं तु-आयुधयुद्धं कोलाहलोबहुजनमहाध्वनिः, 'भंडणाभिलासी' भंडनं पिष्टातकादिभिः 'बहसु य समरसंपराएम' समरसङ्ग्रामेष्वित्यर्थः, 'दंसगरए समंतओ कलहं सदक्खिणं' सदानमित्यर्थः, 'अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतेलोकबलवगाणं आमंतेऊणं तं भगवति एकमणिं गमणत्थं उप्पइओ गगणतलमभिलंघयंतो गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणसंबाहसहस्समंडियं थिमियमेहणीयं णिन्भरजनपदं वसुहं ओलोयंतो रम्मं हत्थिराणपुरं उवागए' 'असंजयअविरयअप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मेत्तिक?' असंयतः संयमरहितखात् अविरतो|| ॥२२०॥ विशेषतस्तपस्यरतसात् न प्रतिहतानि-न प्रतिषेधितानि अतीतकालकृतानि निन्दनतः न प्रत्याख्यातानि च भविष्यत्कालभावी नि | पापकर्माणि-प्राणातिपातादिक्रिया येन अथवा न प्रतिहतानि सागरोपमकोटीकोटयन्तःप्रवेशनेन सम्यक्सलामतः न च SARERatinidiindiaina ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत्याख्यातानि सागरोपमकोटीकोव्याः सङ्ख्यातसागरोपमैन्युनताकरणेन सर्वविरतिलामतः पापकर्माणि-ज्ञानावरणादीनि येन स तथेति पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'कू'ति कूजकं व्यावकवलमिति भावः, 'सुई वत्ति श्रूयते इति श्रुतिः-शब्दः ता | 'खुति वत्ति क्षुतिः छीत्कारादिशब्दविशेष एव तां प्रयुक्ति-वार्ता, वा पर्यायाश्चैते इति, 'हिया व'चि हृता प्रदेशान्तरे । स्थापिता 'नीता' नेत्रा स्वस्थान प्रापिता 'आक्षिपिता' आकृष्टैवेति, 'इमा अण्णे'त्यादि, इयमन्या अपरा मदीयवामिनः | | सम्बन्धिनी विनयप्रतिपत्तिरिति वर्तते, 'समुहाणत्तित्तिकटु' स्वमुखेन-स्वकीयवदनेन भणिता आज्ञप्ति:-आदेशः स्वमुखान प्तिरितिकखा-एवमभिधाय, आसुरुत्तेत्ति क्रुदः, 'बलवाउए'त्ति बलव्यापूतः सैन्यव्यापारवान्, 'अभिसेकन्ति | 18 अभिषेकमर्हतीत्याभिषेक्यं मूर्दाभिषिक्तमित्यर्थः, 'छेयायरियउवएसमइविगप्पणाविगप्पेहि तिछेको-निपुणो य आचार्यः-18 8 कलाचार्यः तस्योपदेशात्-तत्पूर्विकाया मतेः-युद्धेर्याः कल्पना:-विकल्पाः लप्तिभेदास्ते तथा तैरिति, इह यावत्करणादिदं दृश्यं | 'सुनिउणेहिति सुनिपुणैनरैः 'उज्जलनेवत्थहवपरिवच्छियंति उज्वलनेपथ्येन-निर्मलवेषेण 'हव'न्ति शीघं परिक्षिप्त:परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा तं 'मुसज्ज' सुष्टु प्रगुणं, 'वम्मियसन्नहबद्धकवचियउप्पीलियकच्छवच्छबद्धगेवजगलयवरभूसणविरायंत वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः सनद्धः-कृतसन्नाहो या स बार्मिकसन्नद्धा बद्धं कवचंसन्नाह विशेषो यस्य स बद्धकवचः, स एव बद्धकवचिकः, अथवा वर्मितः सन्नद्धः बद्धस्वक्त्राणबन्धनात् कवचितश्च यः स तथा, भेदतेषां लोकतोऽवसेयः, एकार्थावते शब्दाः सन्नद्धताप्रकर्षाभिधानायोक्ता इति, तथा उत्पीडिता-गाढीकृता| कक्षा-हृदयरज्जुर्वक्षसि यस्य स तथा अवेयक-ग्रीवाभरणं बद्धं गले-कण्ठे यस स तथा वरभूषणविराजमानो यः स तथा, ततो ~451 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: झाताधर्म- वमितादिपदानां कर्मधारयोऽतस्तं, 'अहियतेयजुत्तं सललितवरकण्णपूरविराजितं पलंबओचूलमहुयरकयंधगारं' प्रल- १६ अपरकथाङ्गम्, IS|म्बानि अवचूलानि-करक(ट)न्यस्ताऽधोमुखकूर्चकाः यस्य सः प्रलम्बावचूलः मधुकरैः-भ्रमरैर्मदजलगन्धाकृष्टैः कृतमन्धकार येनकाज्ञाता. स तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तं, 'चित्तपरिच्छेयपच्छदं चित्रो-विचित्रः परिच्छेको-लघुः प्रच्छदो-बखविशेषो यस्य स द्रौपदीह॥२२१॥ तथा तं, 'पहरणावरणभरियजुद्धसज्ज' ग्रहरणानां-कुन्तादीनामावरणानां च कटानां भृतो यः स तथा स च युद्ध- रणादि सज्जथेति कर्मधारयः अतस्तं 'सच्छत्तं सज्झयं सघंटे पंचामेलयपरिमंडियाभिराम' पञ्चभिरापीडै:-शेखरैः परिमण्डितोऽती एवाभिरामश्च-रम्यो यः, 'ओसारियजमलजुयलघंट' अवसारित-अवलम्बितं यमलंन्सम युगलं-द्वयं घण्टयोर्यत्र स तथा तं, 'विज्जुप्पणिद्धं व कालमेहं घण्टाग्रहरणादीनामुज्ज्वलखेन विद्युत्कल्पखाद हस्तिदेहख कालत्वेन महत्वेन वा मेघकल्पसादिति, 'उप्पाइयपवर्ष व चंकमंतं चङ्कममाणमिवौत्पातिकपर्वतं, पाठान्तरेण ओत्पातिक पर्वतमिच, 'सक्खंति साक्षात् 'मत्तं'ति मदवन्तं 'गुलुगुलंतं' 'मणपवणजइणवेगं मनःपवनजयी वेगो यस्य स तथा तं, "भीमं संगामियाजोग्गं' सावा-श मिक आयोग:-परिकरो यस्य स तथा तं, 'अभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पंति २ उवणेति'त्ति 'हयमहियपवरविवडियचिंधधयपडागे' हतमथिता-अत्यर्थ हताः अथवा हताः प्रहारतो मथिताः मानमथनात् हतमथिताः तथा प्रवरा विप-1 तिताश्चिन्हध्वजादयः पताकार तदन्या येषां ते तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तान् , यावत्करणात् 'किच्छोवगयप्पाणे ति दृश्य ॥२२॥ कष्टगतजीवितव्यानित्यर्थः, 'अम्हे वा पउमनामे वा रायत्तिकह' इति असा पमनामस्य च बलववादिह सकामे वर्ष वा भवामः पद्मनाभो वा, नोभयेपामपीह संयुगे त्राणमस्तीतिकला-इति निश्चयं विधाय सम्प्रलग्नाः यो मिति शेषः, 'अम्हे ~452 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ISनो पउमनाभे रायत्तिक?' वयमेवेह रणे जयामो न पद्मनाभो राजेति, यदि स्वविषये विजयनिश्चयं कृत्वा पद्मनाभेन IS सार्द्ध योद्धं सम्पालगिष्यथ ततो न पराजयं प्राप्स्यथ, निश्चयसारखात् फलप्राप्ते, आह च-"शुभाशुभानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः । एकतस्तु मनो याति, तद्विशुद्ध जयावहम् ॥१॥ तथा स्थानिश्चयैकनिष्ठाना, कार्यसिद्धिः परा नृणाम् । संशयक्षुण्णचित्ताना, कार्ये संशीतिरेव हि ॥२॥" शङ्खविशेषणानि कचिद् दृश्यन्ते-'सेयं गोखीरहारधवलं तणसोलाल्लियसिंदुचारकुंदेंदुसन्निगासं 'तणसोल्लियन्ति मल्लिका सिंदुवारो-निर्गुण्डिः, 'निययस्स बलस्स हरिसजणणं| रिउसेण्णविणासकर पंचजण्ण'न्ति पाञ्चजन्याभिधानं 'वेढो'ति वेष्टकः एकवस्तुविषया पदपद्धतिः, स चेह धनुर्विषयो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्धोऽध्येतव्यः,तद्यथा-'अइरुग्णयबालचंदईदधणुसनिकासं' अचिरोद्तो यो बालचन्द्रः-शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रः तेनेन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाश-सदृशं यत्तत्तथा 'वरमहिसदरियदप्पियदढघणसिंगग्गरइयसारं वरमहिषस्य दृप्तदर्षितस्यII सञ्जातदोतिशयस्य यानि ढानि धनानि च शृङ्गाग्राणि ते रचितं सारं यत्तत्तथा, 'उरगवरपवरगवलपवरपरहुयभमरकुलनी-12 लर्धतघीयपट्ट' उरगवरो-नागवरः प्रवरगवलं-वरमहिषशृङ्ग प्रवरपरभृतो-यरकोकिलो भ्रमरकुलं-मधुकरनिकरो नीली-गुलिका |एतानीव स्निग्धं कालकान्तिमत् ध्मातमिव ध्मातं च-तेजसा ज्वलत् धौतमिव धौतं च-निर्मलं पृष्ठं यस्य तचथा, 'निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं निपुणेन शिल्पिना ओपिताना-उज्ज्वलितानां मणिरबपण्टिकानां यजालं तेन | परिक्षिप्तं-वेष्टितं यत्तत्तथा 'तडितरुण किरणतवणिज्जबद्धचिंध तडिदिव-विद्युदिव तरुणा:-प्रत्ययाः फिरणा यस्य तत्तथा | तस्य तपनीयस्स सम्बन्धीनि बद्धानि चिन्हानि-लाञ्छनानि यत्र तत्तथा 'दद्दरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालयद्धचंदर्षिचं दर्द SARERatinintenarana wirectorary.com ~453 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२०-१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- रमलयाभियानौ यौ गिरी तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्बन्धिनो ये केसरचामरखाला:-सिंहस्कन्धचमरपुच्छकेशाः अर्द्धचन्द्राच ||१६ अमरकथानम्. तल्लक्षणानि चिह्नानि यत्र तत्तथा, 'कालहरियरचपीयसुकिल्लबहुण्हारुणिसंपिनद्धजीय' कालादिवर्णाः या स्नायवः-शरीरान्तर्व- काज्ञा. र्धास्ताभिः सम्पिनद्धा-बद्धा जीवा-प्रत्यश्चा यस तत्तथा 'जीवियान्तकर ति शत्रूणामिति गम्यते, 'संभग्गे'त्यादि, सम्भन्नानि | कृष्णकपि॥२२२॥ प्राकारो गोपुराणि च-प्रतोल्यः अट्टालकाच-प्राकारोपरिस्थानविशेषाः चरिका च नगरप्राकारान्तरेऽष्टहस्तो मार्गः तोरणानि||लयोःशच यस्यां सा तथा, पर्यस्तितानि-पर्यस्तीकृतानि सर्वतः क्षिप्तानि इत्यर्थः प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि च-भाण्डागाराणि |ब्दसंमेल: यस्यां सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'सरसरस्स'ति अनुकरणशब्दोऽयमिति, 'उल्लपडसाडए'त्ति सद्यामानेन सू. १२५ आद्री-पट्टशाटको उत्तरीयपरिधाने यस्य स तथा, 'अवचूलगवत्थनियत्यति अवचूल-अधोमुखचूलं मुकलावलं यथा भवतीत्येवं वसं निवसितं येन स तथा, 'तं एवमवि गए नत्थि ते ममाहिंतो इयाणि भयमस्थिति तत-तमादित्थमपिहा II गते अस्मिन् कार्ये नास्ति अयं पक्षो यदुत ते-तव मत्तो भयमस्ति-भवति । तेणं कालेणं २ धायतिसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे भारहे वासे चंपा णामं णपरी होत्था, पुण्णभद्दे चेतिए, तत्व णं चंपाए नयरीए कविले णामं वासुदेवे राया होत्था, महया हिमवंत. वपणओ, तेणं कालेणं २ ॥२२२॥ मुणिसुबए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे समोसढे, कपिले वासुदेवे धम्म सुणेति, तते णं से कविले वासुदेवे मुणिमुचयरस अरहतो धम्म सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेति, तते णं तस्स कविलस्स. ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: वासुदेवस्स इमेयारूवे अम्भत्थिए समुप्पवित्था-किं मण्णे धायइसंडे दीवे भारहे वासे दोचे वासुदेवे समुप्पण्णे ? जस्स णं अयं संखसदे ममंपिव मुहवायपूरिते वियंभति, कविले वासु० सदाति सुणेइ, मुणिसुधए अरहा कविलं वासुदेवं एवं व०-से गूणं ते कविला वासुदेवा! मम अंतिए धम्मं णिसामेमाणस्स संखसई आकण्णित्ता इमेयारूवे अन्भस्थिए-किं मन्ने जाब वियंभइ, से पूर्ण कविला वासुदेवा! अयमट्टेसमहे?, हता! अस्थि, नो खलु कविला! एवं भूयं वा ३ जन्नं एगे खेत्ते एगे जुगे एगे समए दुवे अरहंता वा चक्कवट्टी बा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पजिसु उप्पजिति उप्पज्जिस्संति वा, एवं खलु वासुदेवा ! जंबुदीवाओ भारहाओवासाओ हस्थिणाउरणयराओ पंडस्सरण्णो सुण्हा पंच पंडवाणं भारिया दोवती देवी तव पउमनाभस्स रपणो पुषसंगतिएणं देवेणं अमरकंकाणयरिं साहरिया, लते णं से कण्हे वासुदेव पंचाहिं पंडवेहिं सहि अप्पछट्टे छहिं रहेहिं अमरकंकरायहाणि दोवतीए देवीए कूवं हवमागए, ततेणं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स पउमणाभेणं रपणा सद्धिं संगाम संगामेमाणस्स अयं संखसहे तव मुहवाया० इव इहे कंते इहेव वियंभति, तए णं से कविले चासुदेवे मुणिसुवयं वंदति २ एवं व०-गच्छामि णं अहं भंते! कण्हं वासुदेवं उत्तम पुरिसं सरिसपुरिसं पासामि, तए णं मुणिसुधए अरहा कविलं वासुदेवं एवं व०-नो खलु देवा०! एवं भूयं वा ३ जपणं अरहंता वा अरहंतं पासंति चकवट्टी वा चक्कवहि पासंति बलदेवा वा बलदेवं पासंति वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति, तहविय णं तुम कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई ~455 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्क न्ध : [१] ----------------- अध्य यनं [१६], ----------------- मलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. १६ अपरकङ्काज्ञा वासुदेवयोः शङ्कशब्दमेल: सू.१२५ २२३॥ मसंमज्झेणं वीतिवयमाणस्स सेयापीयाई धयग्गाति पासिहिसि, तते गं से कविले वासुदेवे मुणिमुवयं वंदति २ हत्थिखंचं दुरूहति २ सिग्धं २ जेणेव वेलाउले तेणेव उ०२ कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुई मज्झमझेणं वीतिवयमाणस्स सेयापीयाहिं धयग्गाति पासति २ एवं चयइ-एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लघणसमुदं मझमझेणं बीतीवयतित्तिकट्ठ पंचयन्नं संखं परामुसति मुहवायपूरियं करेति, तते णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेति २ पंचयनं जाव पूरियं करेति, तते गं दोवि वासुदेवा संखसद्दसामायारिं करेति, तते णं से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उ०२अमरकंक रायहाणि संभग्गतोरणं जाव पासति २ पजणणाभं एवं व०-किन्न देवाणुप्पिया! एसा अमरकंका संभग्ग जाव सन्निवश्या ?, तते णं से पउमणाहे कविलं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु सामी! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हवमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूय अमरकंका जाव सन्निवाडिया, तते णं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमई सोचा पउमणाह एवं व-हं भो! पउमणाभा! अपत्थियपत्थिया किन्नं तुम न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे?, आसुरुत्ते जाव पउमणाहं णिविसयं आणवेति, पउमणाहस्स पुत्तं अमरकंकारायहाणीए महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति जाव पडिगते (सूत्रं १२५) तते णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुई मज्झमझेणं वीतिवयति, ते पंच पड़वे एवं व० ॥२२३॥ ~4560 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: - गच्छह णं तुम्भे देवा० ! गंगामहानदि उत्तरह जाव ताव अहं सुट्टियं लवणाहिबई पासामि, ततेणे ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगामहानदी तेणेव उ०२ एगट्टियाए णावाए मग्गणगवेसणं करेंति २ एगट्टियाए नावाए गंगामहानदि उत्तरंति २ अण्णमण्णं एवं चयन्ति-पह देवा! कण्हे वासुदेवे गंगामहाणदि बाहाहिं उत्तरिसए उदाहु णो पमू उत्सरित्सएतिकट्ठ एगडियाओ नावाओ मेति २ कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणा २ चिट्ठति, तते णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई पासति २ जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उ०२ एगट्टियाए सवओ समता मग्गणगवेसणं करेति २ एगडियं अपासमाणे एगाए वाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेहइ एगाए थाहाए गंगं महाणर्दिबासर्टि जोयणार्ति अजोयणं च विच्छिन्नं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था, तते णं से कण्हे वासुदेवे गंगामहाणदीए बहुमज्झदेसमागं संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाए याचि होत्या, तते णं कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अम्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-अहो णं पंच पंडवा महाबलवगा जेहिं गंगामहाणदी बासहि जोयणाई अजोयणं च विच्छिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा, इच्छंतएहिं णं पंचहिं पंडबेहि पउमणाभे राया जाव णो पडिसेहिए, तते णं गंगादेवी कण्हरस वासुदेवस्स इमं एयारूवं अम्भत्थियं जाव जाणित्ता थाहं वितरति, तते णं से कण्हे वासुदेवे मुहुर्सतरं समासासति २ गंगामहाणदि बावहि जाव उत्तरति २जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवा०पंच पंडवे एवं व०-अहो णं तुम्भे देवा! ~457 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 कथाङ्गम्. ॥२२॥ महापलचगा जेणं तुब्भेहिं गंगामहाणदी बासहि जाव उत्तिपणा, इच्छंतपहिं तुम्भेहिं पउम जाव णो 1१६ अमरपडिसेहिए, तते णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं बुत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं व०-एवं खलु | कङ्काज्ञा देवा० अम्हे तुम्भेहिं विसजिया समाणा जेणेव गंगा महाणदी तेणेव उवा०२ एगट्ठियाए मग्गणगवेसणं रथमधनतं चेव जाव णूमेमो तुम्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो, तते णं से कण्हे वासुदेवे तेर्सि पंचण्हं पांडवाणं दुर्गतिवेशः एयम सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाच तिवलियं एवं व०-अहो णं जया मए लवणसमुई दुवे जोयण- पाण्डवनिसयसहस्सा विच्छिपणं वीतीचइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहिता अमरकंका संभग्ग दोवती | विषयता साहत्धि उवणीया तया णं तुम्भेहिं मम माहप्पं ण विण्णायं याणि जाणिस्सहत्तिकट्ठ लोहदंडं परा- च सू.१२६ मुसति, पंचण्डं पंचवाणं रहे चूरेति २ णिविसए आणवेति २ तस्थ णं रहमदणे णामं कोड़े णिविडे, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेच सए खंधावारे तेणेव उवागच्छह २ सएणं खंधावारेणं सद्धि अभिसमन्नागए यावि होत्था, तते णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई णयरी तेणेच उवा० २ अणुपविसति (सूत्रं १२६) तते णं ते पंच पंडवा जेणेव हथिणाउरे तेणेव उवागच्छन्तिर जेणेव पंडू तेणेच उ०२ करयल एवं व०-एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिचिसया आणत्ता, तते णं पंडुराया ते पंच पंडये एवं ॥२२४॥ च०-कहणं पुत्ता! तुम्मे कण्हेणं वासुदेवेणं णिविसया आणत्ता,तते ण ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं व०एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकातो पडिणियत्ता लवणसमुदं दोन्नि जोयणसयसहस्साई चीतिव ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Broeae तित्ता (स्था) तए णं से कण्हे अम्हे एवं वयासि-गच्छह णं तुम्भे देवा! गंगामहाणदि उत्तरह जाय चिट्ठह ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो, तते णं से कण्हे वासुदेवे मुट्ठियं लवणाहिवइंदवण तं चेव सर्व नवरं कण्हस्स चिंताण जुज्ज (बुच्च) ति जाव अम्हे णिविसए आणवेति, तए णं से पंडराया ते पंच पंडवे एवं व०-दुहु णं पुत्ता! कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहिं, तते णं से पंडू राया कॉर्ति देविं सद्दावेति २ एवं व-गच्छणं तुम देवा1 बारवर्ति कण्हस्स वासु.णिवेदेहि-एवं खलु देवा! तुम्हे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता तुमं च णं देवा ! दाहिणभरहस्स सामी तं संदिसंतुणं देवा ते पंच पंडवा कपरं दिसि वा विदिसंवा गच्छतु ?, तते णं सा कोंती पंडणा एवं बुत्ता समाणी हस्थिखं, दुरूहति २ जहा हेट्ठा जाव संदिसंतु णं पिउत्था! किमागमणपओयणं, तते णं सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं वक-एवं खलु पुत्ता! तुमे पंच पंडवा णिविसया आणत्ता तुमं च णं दाहिणभरह जाव वि दिसं या गच्छंतु ?, तते णं से कण्हे वासुदेव कोंतिं देवि एवं व०-अपूईवषणा णं पिउत्था ! उत्तमपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चकवट्टी तं गच्छंतु णं देवाणु ! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेयालिं तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु मम अदिवसेवगा भवतुत्तिकट्ट कौति देविं सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसजेति, तते णं सा कोंती देवी जाव पंडस्स एयमहूँ णिवेदेति, तते णं पंडू पंच पंडवे सद्दावति २ एवं व०-गच्छहणं तुम्भे पुत्ता! दाहिणिलं वेयालिं तत्थ णं तुम्भे पंडुमहुरं णिचेसेह, तते णं पंच पंडवा पंडुस्स रपणो जाव roercercereeroecececececene SARERatinintenmarana ~459 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम् ॥२२५॥ १६ अमर कङ्काज्ञा पाण्डुमथुरानिवेशः पाण्डवदी क्षा सू. |१२७-१२८ तहत्ति पडिसुणेति सबलवाहणा हयगय० हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति २ जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवा० २ पंडुमहुरं नगरि निवेसेति २ तत्थ णं ते विपुलभोगसमितिसमण्णागया याचि होत्था (सूत्रं १२७) तते णं सा दोवई देवी अन्नया कयाई आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था, तते णं सा दोवती देवी णवण्हं मासाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालं णिवत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवतीए अत्तए तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेनं पंडसेणे, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेह पंडुसेणत्ति, बावत्तरि कलाओ जाव भोगसमत्धे जाए जुवराया जाव विहरति, थेरा समोसढा परिसा निग्गया पंडवा निग्गया धम्मं सोचा एवं व०-जं गवरं देवा०.दोवर्ति देविं आपुच्छामो पंडसेणं च कुमार रज्जे ठावेमो ततो पच्छा देवा! अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो, अहासुहं देवा०1, तते णं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ दोवतिं देवि सदाति २ एवं य-एवं खलु देवा! अम्हेहि राणं अंतिए धम्मे णिसंते जाच पचयामो तुम देवाणुप्पिए ! किं करेसि , तते णं सा दोबती देवी ते पंच पंडवे एवं व०-जति णं तुम्भे देवा० संसारभउचिग्गा पचयह ममं के अण्णे आलंबे वा जाव भविस्सति ?, अहंपि यणं संसारभविग्गा देवाणुप्पिएहिं सदि पवतिस्सामि. तते ण ते पंच पंडया पंडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरति, तते णं ते पंच पंडवा दोवती य ॥२२५॥ Hirwasaram.org ~460 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: देवी अन्नया कयाई पंहुसेणं रायाणं आपुच्छति, सते णं से पंडुसेणे राया कोडंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो! देवाणु ! निक्षमणाभिसेयं जाव उवहवेह पुरिससहस्सपाहणीजो सिवियाओ उवट्ठवेह जाव पचोरुहंति जेणेव थेरा तेणेष. आलित्ते णं जाप समणा जाया चोइस्स पुवाई अहिज्जति २ बाहणि वासाणि छट्ठट्ठमदसमखुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरति (सूत्रं १२८) तते णं सा दोवती देवी सीयातो पचोरूहति जाव पञ्चतिया सुचयाए अज्याए सिस्सिणीयताए दलयति, इक्कारस अंगाई अहिजइ बहूणि वासाणि छट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरति(सूत्रं१२९) तते ण थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंहुमहरातो णयरीतो सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति २ बहिया जणवयविहारं विहरंति, तेणं कालेणं २ अरिहा अरिहनेमी जेणेव सुरहाजणवए तेणेव उवा०२ सुरद्वाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ०-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरिहा अरिहनेमी सुरद्वाजणवए जाब वि०, तते णं से जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एपमढे सोचा अन्नमन्नं सद्दाति २ एवं व०-एवं खल देवाणु ! अरहा अरिहनेमी पुवाणु० जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हंधेरा आपुच्छित्सा अरहं अरिहुनेमि चंदणाए गमित्तए, अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति २ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव जवा०२ थेरे भगवते वदंति णमसंति २त्ता एवं व०-इच्छामो णं तुम्भेहिं अभणुनाया समाणा अरहं अरिह ~461 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [१२५-१३१] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२२६॥ मं जाव गमित्त, अहासुहं देवा० !, तते णं ते जुहिडिल्लपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अम्भणुनाया समाणा थेरे भगवंते वंदति णमंसति २ थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति मासंमासेणं अणिक्खिणं तवोकम्मे गामायुगामं दृईज्यमाणा जाव जेणेव हत्थकप्पे नयरे तेणेव उवा० हत्थकष्परस बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति, तते णं ते जुहिल्लिवज्जा चसारि अणगारा मासखमणपारणए पढमाए पोरसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी णवरं जुहिद्विलं आपुच्छंति जाब अटमाणा बहुजणसद्दं णिसामेंति, एवं खलु देवा० ! अरहा अरिहनेमी उर्जित सेल सिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसहिं सद्धिं कालगए जाब पहीणे, तते णं ते जुहिडिल्लवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम सोचा हत्थकण्याओ पडिणिक्खमति २ जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिहिले अणगारे तेणेव उवा० २ भत्तपाणं पचुवेक्खति २ गमणागमणस्स पटिकमति २ एसणमणेसणं आलोपंति २ भत्तपाणं पडिदति २ एवं व० एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया । इमं पुवगहियं भत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेत्तुखं पञ्चयं सणियं सणियं दुरूहित्तए संलेहणाए झूसणा सियाणं कालं अणवकखमाणाणं विहरित्तएत्तिकडु अण्णमण्णस्स एयमहं परिसुति २ तं पुचगहियं भन्तपाणं एते परिद्ववेति २ जेणेव सेतु पक्षए तेणेव उवागच्छ २ सा सेतु पवयं दुरुति २ जाव कालं अणवकखमाणा विहरंति । तते णं ते जुहिल्लिपामोक्खा Education International For Para Use Only ~ 462 ~ १६ अमर कङ्काज्ञाता. द्रौपदीदीक्षा पाण्डवमो क्षश्च सू. १२९-१३० ॥२२६॥ nayor Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१६], ----------------- मूलं [१२५-१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: पंच अणगारा सामाइयमातियाति चोइस पुवाई बहूणि वासाणि दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्टाए कीरति णग्गभावे जाव तमहमाराति २ अणंते जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने जाव सिद्धा (सूत्रं १३०)तते णं सा दोवती अजा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगार्ति अहिज्जति २ बहणि वासाणि मासियाए संलेहणाए. आलोइयपडिता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती प० तत्व णं दुवतिस्स देवस्स दस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, सेणं भंते ! दुबए देवे ततो जाब महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू ! समणेणं सोलमस्स अपम? पण्णतेत्तिवेमि (सूत्रं १३१) सोलसम-नायज्झयणं समत्तं ॥१६॥ 'एगट्ठिय'त्ति नौः 'नूमंति'त्ति गोपयन्ति, श्रान्तः-खिन्नः तान्त:-तरकाण्डकाढावान् जातः परितान्त: सर्वथा खिन्नः एकाथिका बैते, 'इच्छंतएहिंति इच्छया कयाचिदित्यर्थः, 'वेयालीएतिवेलातटे इति । इहापि सूत्रे उपनयो न दृश्यते, एवं चासी द्रष्टव्य:-"सुबहुपि तवकिलेसो नियाणदोसेण दूसिओ संतो । न सिवाय दोवतीए जह किल सुकुमालियाजम्मे | ॥१॥" अथवा-'अमणुनमभत्तीए पत्ते दाणं भवे अणत्थाय । जह कड्डयतुंबदाणं नागसिरिभवमि दोवइए ॥२॥"ति [सुबहुरपि तपःलेशो निदानदोषेण दूषितः सन् | न शिवाय द्रौपद्या यथा सुकुमारिकाजन्मनि ॥१॥ अमनोज्ञमभक्या पात्रे दानं भवेदनोंय । यथा कटुतम्बदानं नागश्रीभवे द्रौपद्या अपि ॥२॥] समाप्तं पोडशज्ञाताध्ययन विवरणम् ॥ १६॥ ब weredturary.com अत्र अध्ययन-१६ परिसमाप्तम् ~463 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. ॥२२७॥ 8 अथ सप्तदशाध्ययनविवरणम् ॥१७॥ १६ अमर. द्रौपद्या दे वत्वं १३१ अथ सप्तदशं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने निदानात् कुत्सितदानाद्वा अनर्थ उक्त 81 १७ अश्वइह सिन्द्रियेभ्योऽनियत्रितेभ्यः स उच्यते, इत्येवंसम्बद्धमिदम् ज्ञा.सांयाजति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स णायज्मयणस्स अयमझे त्रिकागमः पण्णत्ते सत्सरसमस्स णं णायज्झयणस्स के अढे पन्नते ?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ सू,१३२ हत्थिसीसे नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ णं कणगकेऊ णामं राया होत्था, वपणओ, तत्थ णं हस्थिसीसे णयरे बहवे संजुत्ताणाचावाणियगा परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था, तते णं तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया एगयओ जहा अरहण्णओ जाव लवणसमुई अणेगाई जोपणसयाई ओगाढा यावि होत्या, तते णं तेसिं जाव बहणि उप्पातियसयाति जहा मागंदियदारगाणं जाव कालिपवाए पतस्थ समुत्थिए, तते णं सा णावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्जमाणी २संचालिजमाणी२ S२२७॥ संखोहिज्जमाणीर तत्व परिभमति, तते णं से णिज्जामए गढमतीते णट्ठसुतीते णट्ठसपणे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था, ण जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसंवा पोयवहणे अवहितत्तिकहु ओहयमणसं Mea अथ अध्ययनं- १७ "अश्व: आरभ्यते ~464 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: esesekseeeeese कप्पे जाव झियापति, तते गं ते यहचे कुच्छिधारा य कपणधारा य गम्भिलगा य संजत्ताणावावाणियगा य जेणेव से णिज्जामए तेणेव उवा०२ एवं व०-किन्नं तुम देवा०1 ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह ?, तते णं से णिज्जामए ते वहवे कुच्छिधारा य४एवं वक-एवं खलु देवाणहमतीते जाव अवहिएत्तिक? ततो ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि, तते ण ते कण्णधारा तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयमह सोचा णिसम्म भीया ५ ण्हाया कयवलिकम्मा करयल थहणं इंदाण य खंधाण य जहा मल्लिनाए जाव उवायमाणा २चिट्ठति, तते णं से णिज्जामए ततो मुहुर्ततरस्स लद्धमतीते ३ अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्या, तते णं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधारा य एवं व०-एवं खलु अहं देवालद्धमतीए जाव अमूढदिसाभाए जाए, अम्हे णं देवा! कालियदीवंतेणं संबूढा, एस णं कालियदीवे आलोकति, तते णं ते कुच्छिधारा य ४ तस्स णिजागमस्स अंतिए सोचा हट्टतुट्टा पयक्खिणाणुकूलेणं वारण जेणेव कालीयदीवे तेणेव उवागच्छंति २ पोयवहणं लंति २ एगडियाहिं कालियदीवं उत्तरंति, तस्थ णं बहवे हिरपणागरे य सुवपणागरे य रयणागरे य पइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते?, हरिरेणुसोणिमुत्तगा आईणवेढो, तते णं ते आसा ते वाणियए पासंति तेसिं गं, अग्यायंति २भीया तत्था उधिग्गा उधिग्गमणा ततो अणेगाई जोइणाति उम्भमंति, ते गं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया निन्भया निरुबिग्गा सुहंसुहेणं विहरंति, तए णं संजुत्तानावावाणियगा अण्णमण्णं एवं ब०-किण्हं अम्हे ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. १७ अश्वज्ञाता. अश्वानयनायंप्रेषणं सू, १३३ ॥२२८॥ oesea देवा! आसेहिए, इमेणं बहवे हिरपणागराय सुवण्णागराय रयणागरायवइरागरायतं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य सुवष्णस्स य रयणस्स य वइरस्सय पोयवहणं भरित्तएत्तिक? अन्नमन्नस्स एयमहूँ पडिसु. णतिर हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य अण्णस्स य कट्टस्स य पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति २ पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयवहणपणे तेणेव उ०२ पोयवहणं लंबंति २ सगडीसागडं सजेति २तं हिरणं जाव वरं च एगहियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति २ सगडीसागडं संजोइंति २ जेणेच हथिसीसए नयरे तेणेव उवा०२ हत्थिसीसयरस नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सस्थणिवेसं करेंति २ सगडीसागडं मोएंति २महत्थं जाव पाहुडं गेहति २हत्धिसीसंच नगरं अणुपविसंति २ जेणेव कणगकेऊ तेणेव उ०२जाव उवणेति, तते णं से कणगकेऊ तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छति (सूत्रं १३२) ते संजुत्ताणावावाणियगा एवं व०-तुम्भे णं देवा! गामागर जाच आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खणं २ पोयवहणणं ओगाहह तं अस्थि याई केइ भे कहिचि अच्छेरए दिट्टपुचे?, तते गंते संजुत्ताणावावाणियगा कणगकेउं एवं व०-एवं खलु अम्हे देवा! इहेव हथिसीसे नपरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संबूढा, तत्थणं बहवे हिरण्णागरा य जाव बहवे तत्थ आसे, किंते?, हरिरेणु जाच अणेगाइं जोयणाई उन्भमंति, तते णं सामी! अम्हेहि कालियदीव ते आसा अच्छेरए दिहपुणे, तते णं से कणगकेऊ तेर्सि संजत्तगाणं अंतिए एयम सोचा ते Receneseaeesese ॥२२८॥ ~466 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: संजुत्तए एवं प०-च्छह णं तुम्भे देवा०मम कोडुंबियपुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह, ततेणं से संजुत्ताकणगक एवं व०-एवं सामित्तिकट्ट आणाए विणएणं वयर्ण पडिसुणेति, तते णं कणगके कोटुंपियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वनाच्छह णं तुम्भे देवा! संजुत्तएहिं सद्धिं कालियदीवाओ मम आसे आणेह, तेवि पडिसुणेति, तते गं ते कोडुंबिय सगडीसागडं सजेंति २ तस्थ णं बहणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य भंभाण य छन्भामरीण य विचित्तवीणाण य अन्नेसिं च बहणं सोर्तिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति २बहूर्ण किण्हाण य जाव सुकिलाण य कट्ठकम्माण यगंथिमाण य ४ जाव संघाइमाण य अन्नेसिं च बहणं चक्खिदियपाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेंति २ पटणं कोठपुडाण य केयइपुडाण य जाच अन्नेसिं च यहणं घाणि दियपाउग्गाणं दवाणं सगहीसागडं भरेति २ बहुस्स खंडस्स य गुलस्स य सकराए य मच्छडियाए य पुप्फुत्तरपउमुत्तर अन्नेर्सि च जिम्भिदियपाउग्गाणं दवाणं भरेंति २षहणं कोयवयाण य कंबलाण य पावरणाण य नवतयाण य मलयाण य मसूराण य सिलावहाण जाव हंसगम्भाण य अन्नेसि च फार्सिदियपाउग्गाणं दवाणं जाव भरेति रसगडीसागडं जोएंति २ जेणेच गंभीरए पोयट्टाणे तेणेव य उवा०२सगडीसागडं मोएंति २पोयवहणं सजेंति २ तेसिं उकिटाणं सहफरिसरसरूवगंधाणं कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूर्ण पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहर्ण भरति २दक्खि ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [१७], मूलं [१३२-१३४] श्रुतस्कन्ध: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्म कथाक्रम्. ॥२२९॥ raj arer जेणेव कालियदीवे तेणेव उवा० २ पोपवहणं लवेति २ लाई उक्किद्वाई सहफरिसरसरूवगंधाई एगहियाहिं कालियदीवं उतारेंति २ जहिं २ व णं ते आसा आसयंति वा संयंति वा चिति वा तुपति वा तहिं २ च णं ते कोटुंबियपुरिसा ताओ वीणाओ य जाव वि चितवीणातोय अन्नाणि षहूणि सोइंदिपपाउग्गाणि यदचाणि समुद्दीरेमाणा चिति तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति २ चला फिंदा तुसिणीया चिद्वंति, जत्थ २ ते आसा आसयंति वा जाव तुयहंति वा तत्थ तत्थ णं ते कोटुंबियo बहूणि किण्हाणि य कटुकम्माणि य जाव संघाइमाणि य अन्नाणि य बहूणि चखिदियपाउग्गाणि य दद्दाणि ठवेंति तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति २ णिचला णिष्कंदा० चिट्ठति जत्थ २ ते आसा आसति ४ तत्थ २ णं तेसिं बहूणं कोट्ठपुडाण य अनसिं च धाणिंदियपाउग्गाणं दद्दाणं पुंजे य यिरे य करेंतिश्तेसिं परिपेरले जाव चिह्नंति जत्थर णं ते आसा आसयंति ४ तत्थ २ गुलस्स जाव अन्नेसिं बहूणं जिभिदियपाजग्गाणं दद्दाणं पुंजे य निकरे य करेंति २ वियरए खर्णति २ गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स पारपाणगरस अन्नेसिं च बहूणिं पाणगाणं वियरे भरेंति २ तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिह्नंति, जहिं २ चणं ते आसा आस० तर्हि २च ते बहवे कोयवया य जाव सिलावट्ट्या अण्णाणि य फासिंदियापागाई अत्युपचत्थुयाई ठवेति २ तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिह्नंति, तते णं आसा जेणेव एते उक्किट्ठा सदफरिसरसरूपगंधा तेणेव उवा० २ तत्थ णं अत्थेगतिया आसा अपुत्रा णं इमे सफरिसरसख्वगंधा Education Internationa For Parts Only ~468~ १७ अश्व ज्ञाता, अ श्वानयनायंप्रेषणं सू. १३३ ॥२२९॥ wor Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: इतिकटु तमु उकिहेसु सफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ तेर्सि उकिटाणं सद्द जाव गंधाणं दूरदूरेणं अवमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिन्भया णिरुधिग्गा सुहंसुहेणं विहरंति, एवामेव समणाउसो। जो अम्हं णिग्गयो वा २ सहफरिसरसरूवगंधा णो सज्जति से गंहलोए चेव बहणं समणाणं ४ अञ्चणिज्जे जाय वीतिवयति (सूत्रं १३३) तत्थ र्ण अस्थेगतिया आसा जेणेव उकिट्टसद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवा०२ तेसु उफिटेसु सफरिस ५ मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा आसेविड पयत्ते यावि होत्था, तते णं ते आसा एए उकिटे सद्द ५ आसेवमाणा तेहिं यहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य बझंति, तते णं ते कोटुंबिया एए आसे गिण्हंति २ एगद्वियाहिं पोयवहणे संचारेंति २ तणस्स कट्ठस्स जाव भरेंति, तते गं ते संजुत्ता दक्षिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपदणे तेणेव उवा०२ पोयवहणं लंति २ ते आसे उत्तारेति २ जेणेव हत्यिसीसे णयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेष उवागच्छन्ति २त्ता करयल जाव वद्धातिरते आसे उवणेति, तते णं से कणगकेज तेसिं संजुत्तावाणियगाणं उस्सुकं वितरति २ सकारेति संमाणेति २ ता पडिविसजेति, तते णं से कणगकेक कोटुंबियपुरिसे सदावेद २ सकारेति पडिविसजेति, तते णं से कणगकेफ आसमद्दए सद्दायेति २ एवं च०तुम्भेणं देवा ! मम आसे विणएह, तते णं ते भासमद्दगा तहत्ति पडिसुणंति २ ते आसे यहूहिं मुहवंधेहि य कण्णबंधेहि यणासाबंधेहि य वालपंधेहि य खुरवंधेहि य कडगवंधेहि य ख लिणवंधेहि य अहिलाणेहि For P OW ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्. ज्ञाता. अ ॥२३॥ यपडियाणेहि य अंकणाहि य वेलप्पहारेहि य चित्तप्पहारेहि य लयप्पहारेहि य कसप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति २ कणगकेउस्स रन्नो उवणेति २ तते णं से कणगकेऊ ते आसमदए सकारेति २पडि १७अन्धविसजेति, तते णं ते आसा बहहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाति श्वानांपापाति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा २ पचइए समाणे इढेसु सदफरिस जाव गंधेसु रतन्त्र्य य सज्जंति रजति गिझंति मुझंति अज्झोववनंति से णं इहलोए चेच वरणं समणाण य जाव साविया सू.१३४ ण य हील णिजे जाव अणुपरियहिस्सति (सूत्रं १३४) सर्व सुगम, नवरं नहमतीएचि-चक्षुनिस्स विषयानिश्चायकखात् नष्टश्रुतिको निर्यामकशाखेण दिगादिविवेचनस्य करणे अशक्तलात् , नष्टसंज्ञो मनसो भ्रान्तवात् , किमुक्तं भवति ?-मूढः-अविनिधितो दिशां भागो-विभागो यस्य स मूढदिग्भागः, कुक्षिधारादयो यानपात्रव्यापारविशेषनियोगिनः, 'हिरण्णागरे'त्यादि, हिरण्याकरांश्च सुवर्णाकरांश्च रत्नाकरांश्च वैराकरांवर तदुत्पत्तिभूमिरित्यर्थः, बहूंचात्राश्चान्-योटकान् पश्यन्ति स्म, 'किंतेत्ति किंभूतान् ? अत्रोच्यते-'हरी'त्यादि, 'आइन्नवेढोचित आकीर्णा-जात्याः अश्वाः तेषां 'वेढो'त्ति वर्णनार्थी वाक्यपद्धतिराकीर्णवेष्टकः, स चायं-"हरिरेणुसोणिसुत्तग सकविलमज्जार-1 पायकुकडयोडसमुग्गयसामवना । गोहुमगोरंगगोरीपाडलगोरा पवालवण्णा य धूमवण्णा य केइ ॥१॥ तलपत्तरिट्ठवण्णा सालीवना य भासवन्ना य । केई जंपियतिलकीडगा य सोलोयरिद्वगा य पुंडपइया य कणगपट्टा य केइ ॥ २॥ चकागपि ॥२३॥ REmiratnada na ~470 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३२-१३४] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः वण्णा सारसवण्णा य हंसवण्णा य केई । केइत्थ अन्भवन्ना पतलमेहवत्रा य बहुवन्ना य केइ ॥ ३ ॥ संझाणुरागसरिसा सुमुहगुंजद्वरागसरिसत्थ केई । एलापाडलगोरा सामलयाग वलसामला पुणो केइ ॥ ४ ॥ बहवे अने अणिसा सामाकासीसरतपीया अचंतविसुद्धा विय णं आइण्णजाइकुलविणीयगयमच्छरा हयवरा जहोवएस कमवाहिणोऽविय णं सिक्खाविणीयविणया लंघणवग्गणधावणधोरणत्तिवई जईणसिक्खियगड, किं ते १, मणसावि उविहंताई अणेगाई आससयाई पासंति"त्ति तत्र हरिद्रेणवच-नीलवर्णपांसवः श्रोणिसूत्रकं च बालकानां कर्मादिदवरकरूपं कटीसूत्रं तद्धि प्रायः कालं भवति, सह कपिलेनपक्षिविशेषेण यो मार्जारो - बिडालः स च तथा पादक्कुक्कुट:- कुक्कुटविशेषः स च तथा बोडं - कर्पासीफलं तस्य समुद्गकं - | सम्पुटमभिन्नावस्थं कर्पासीफलमित्यर्थः तच्चेति द्वन्द्वस्तत एषामित्र श्यामो वर्णो येषां ते तथा, इह च सर्वत्र द्वितीयार्थे प्रथमा, अवस्तानिति, तथा गोधूमो - धान्यविशेषः तद्वद् गौरमङ्गं येषां ते तथा गौरी या पाटला- पुष्पजातिविशेषस्तद्वद्ये गौरास्ते तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, गोधूमगौराङ्गगौरपाटलागौरास्तान् तथा प्रबालवर्णाश्व-विद्रुमवर्णान् अभिनवपल्लववर्णान् वा रक्तानित्यर्थः धूमवर्णाध-धूम्रवर्णान् पाण्डुरानित्यर्थः, 'के 'ति कांबिन सर्वानित्यर्थः इदं च हरीत्यत आरभ्य बोण्डशब्दे कल्पितार्द्धरूपकं भवति १ । तलपत्राणि - तालाभिधानवृक्षपर्णानि रिष्ठा च मदिरा तद्वद्वर्गो येषां ते तलपत्र रिष्ठावर्णास्तान्, तथा शालिवर्णाश्च शुक्रानित्यर्थः, 'भासवण्णा यत्ति भसवर्णाच भाषो वा पक्षिविशेषस्तद्वर्णाथ कांश्चिदित्यर्थः, 'पिपतिलकीडगाय'ति यापिता:- कालान्तरप्रापिता ये तिला:-धान्यविशेषास्तेषां ये कीटका: - जीवविशेषास्तद्वद् ये वर्णसाधर्म्यात् ते तथा तांथ यापिततिलकीटकांथ 'सोलोयरिङगा पनि सावलोकं सोद्योतं यद्रिष्ठकं - रत्नविशेषस्तद्वये वर्णसा Ecation Internationa For Parts Only ~471~ ra Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १७अश्वज्ञाता अश्वानां पारतन्य सू.१३४ ज्ञाताधर्म धात ते सावलोकरिष्ठास्तांश्च 'पुंडपझ्या वति पुण्डानि-धवलानि पदानि-पादा येषां ते तथा ते एव पुण्डपदिकास्तांध कथा. तथा कनकपृष्ठान् कोचिदितिरूपकं २ । 'चकागपिट्ठवण्ण'ति चक्रवाका-पक्षिविशेषस्तत्पृष्ठस्येव वर्णो येषां ते तथा तान | IN सारसवांश्च हंसवर्णान् कांचिद् इति पचाई, 'केतित्थ अब्भवणे'ति कांचिदत्राभ्रवर्णान् ‘पकतलमेहवण्णा यति पकपत्रो यस्तलः-तालवृक्षः स च मेघश्चेति विग्रहस्तस्खेव वर्णो येषां ते तथा तान् , 'पविरलमेहयषण'ति कचित्पाठा, तथा 'बहुवण्णा केइ'त्ति वधुवर्णान् कांश्चित्पिङ्गानित्यर्थः, बाहुवर्णानिति कचित् दृश्यते, रूपकमिदं३ । तथा 'संशाणुरागसरिस'ति सन्ध्यानुरागेण सदृशान् वणेत इत्यर्थः, 'सुयमुहगुंजद्धरागसरिसत्य केह'ति शुकमुखस्स गुञ्जार्द्धस्य च प्रतीतस्स रागेण-सटशो रागो येषां ते तथा तान् , अत्र-इह कांश्चिदित्यर्थः, 'एलापाडलगोर'त्ति एलापाटला-पाटलाविशेषोऽथवा एला च पाटला च तद्वत् गौरा ये ते तथा तान् , 'सामलयागवलसामला पुणो केह'त्ति श्यामलता-प्रियङ्गुलता गवलं च-महिपशूज तद्वत् श्यामलान्-श्मामान पुनः काश्चिदिति रूपकं ४ । 'बहवे अन्ने प निदेस'त्ति एकवर्णेनाव्यपदेश्यानित्यर्थः, अत एवाह 'सामाकासीसरत्तपिय'त्ति श्यामकाच काशीसं-रागद्रव्यं तद्वये ते कासीसास्ते च रक्काच पीताश्च येते तथा तान् शबलानित्यर्थः, 'अचंतविसुद्धावियण ति निदोषांश्वेत्यर्थः णमित्यलङ्कारे 'आइण्णजाइकुलविणी-| रायगयमच्छरति आकीर्णानां-जवादिगुणयुक्तानां सम्बन्धिनी जातिकुले येषां ते तथा ते च ते विनीताय गतमत्सराव-परस्परा8 सहनवर्जिता निर्मसका चेति तथा तान् , 'हयवर'ति हयाना-अश्वानां मध्ये वरान् प्रधानानित्यर्थः, 'जहोवदेसकमवाहिणोड विय णति यथोपदेशक्रममिच-उपदिष्टपरिपाट्यनतिक्रमेणैव वोढुं शीलं येषां ते तथा तानपि च णमित्यलकारे, 'सिक्खा ॥२३॥ ~472 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: विणीयविणय'ति शिक्षयेव-अश्वदमकपुरुषशिक्षाकरणादिव विनीतः-अवाप्तः विनयो यैस्ते तथा तान् , 'लंघणवग्गणधा-181 पावणधोरणतिवाईजहणसिक्खियगइति लानं गर्तादीनां वल्गन-कूईनं धावन-वेगवद् गमनं धोरणं-चतरवं गतिविषय त्रिपदी-मल्लस्येव रङ्गभूम्यां गतिविशेषः एतद्रूपा जविनी-वेगवती शिक्षितेव शिक्षिता गतिय स्ते तथा तान् , किं ते इति किम-| परं, 'मणसावि उविहंताईति मनसाऽपि-चेतसाऽपि न केवलं वपुषा 'उविहंताईति उत्पतन्ति, 'अणेगाई आसस-1 याई ति न केवलमश्वानेकैकश: अपि तु अश्वशतानि पश्यन्ति स्मेति,गमनिकामात्रमेतदस वर्णकस्य भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्य इति। 'पउरगोयर'त्ति प्रचुरचरणक्षेत्राः, 'वीणाण येत्यादि, वीणादीनां तश्रीसझ्यादिकृतो विशेषः, भंभा-ढक्का 'कोटपुडे'त्यादि, 18कोष्ठपुटे ये पच्यन्ते ते कोष्ठषुटा:-चासविशेषाः तेषां च, इह यावत्करणादिदं दृश्यं-पत्तपुडाण य' पत्राणि तमालपत्रादीनि18 चोयपुडाण ब'चोय'ति बपुट-पत्रादिमयं तद्भाजनं 'तगरपुडाण य एलापुडाण यहिरिवेरपुडाण य चंदणपुडाण य कुंकुमपुडाण य ओसीरपुडाण य चंपगपुडाण य मरुअगपुडाण य दमणगपुडाण य जातिपुडाण य जूहियापुडाण काय मल्लियापुडाण य नोमालियापुडाण य वासंतियापुडाण य केयइपुडाण य कप्तरपुडाण य पाडलपुडाण यत्ति, इह तगरादीनि गन्धद्रव्याणि गान्धिकप्रसिद्धानि, हिरिरं-वालकः उसीरं-बेरणीमूलं, केचित्तु पुष्पजातिविशेषाः लोकप्रसिद्धाः, SIपुष्पजातयश्च प्रायो यधपि बहुदिनक्षमा न भवन्ति तथाऽप्युपायतः कतिपयदिनक्षमाः सम्भाव्यन्ते, न च शुष्कतायामपि तासां IS सर्वथा सुगन्धाभाव इति तद्ग्रहणमिहादुष्टमिति, तथा 'बहुस्स'त्ति बहोः खण्डादेः पुष्पोत्तरा पमोचरा च शर्कराभेदावेव, 'कोयवगाण यति रूतपूरितपटानां प्रावारा:-प्रावरणविशेषा नवतानि-जीनानि मलयानि मसूरकाणि चासनविशेषाः, अथवा ~473 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३२-१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: कथाङ्गम्म १७अश्व ज्ञाता. इन्द्रियास ॥२३२॥ दोषगुणाः सू. १३५ मलयानि-मलयदेशोत्पन्नाः वसविशेषाः, पाठान्तरेण 'मसगाण य'ति मशका:-कृत्तिमण्डिताः वखविशेषाः शिलापट्टाः- मृणशिलाः, 'समियस्स'चि फणिकायाः, 'खलिणबंधेहि यत्ति खलिनैः-कविकः, 'उवीलणेहि य'ति अवपीडनाभि- न्धनविशेषैः, पाठान्तरे 'अहिलाणेहि' मुखबन्धनविशेषैः 'पडियाणएहि य'त्ति पटतानकं पर्याणस्वाधो यद्दीयते इति, शेष प्रायः प्रसिद्धं । अथेन्द्रियासंबृतानां स्वरूपस्खेन्द्रियासंवरदोषस्य चाभिधायक गाथाकदम्बकं वाचनान्तरेऽधिकमुपलभ्यते, तत्र कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा रमंती सोहंदियवसहा ॥१॥ सोइंदियदुहन्तत्तणस्स अह एत्तिओ हवति दोसो । दीविगरुयमसहंतो वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥ २ ॥ धणजहणवणकरचरणणयणगवियविलासियगतीसु । रुवेसु रज्जमाणा रमंति चक्खिदियवसहा ॥३॥ चक्खिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ भवति दोसो । जं जलणंमि जलते पडति पर्यगो अबुद्धीओ॥४॥ अगुरुवरपवरघूवणउउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रज्जमाणा रमंति पाणिदियवसा ॥५॥ पाणिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो । ज ओसहिगंधेणं बिलाओ निद्धावती उरगो ॥६॥ तित्तकडुयं कसायंब महुरं बहुखजपेजलेझेसु आसायंमि उ गिद्धा रमति जिभिदियवसहा ॥७॥ जिभिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो फुरह थलविरल्लिओ मच्छो ॥८॥ उउभयमाणसुहेहि य सविभवहिययगमणनिब्बुइकरेसु । फासेसु रजमाणा रमंति फासिं दियव ae | ||२३२॥ I ~4744 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: OPearSoSGeasoeeoora सट्टा ॥९॥ फासिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवह दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥१०॥ कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसकउहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥११॥ थणजहणवयणकरचरणनयणगवियविलासियगतीसु । रूवेसु जे न रत्ता बसहमरणं न ते मरए ॥ १२॥ अगरुवरपवरधूवणउउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १३ ॥ तित्तकडुयं कसायं व महुरं बहुखज्जपेजलेजझेसु । आसाये जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १४ ॥ उउभयमाणसुहेसु य सविभवहिययमणणिबुइकरेसु । फासेसु जे न गिद्धा वसहमरणं न ते मरए ॥ १५ ॥ सहेसु य भयपावएसु सोयविसयं उवगए । तुट्टेण व रुडेण व समणेण सया ण होय ॥ १६ ॥ रूवेसु य भद्दगपावएस चक्खुविसयं उवगएसु । तुडेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होय ॥ १७॥ गंधेसु य भयपावरसु घाणबिसयं उवगएसु । तुट्टेण व रुडेण व समणेण सया ण होयत्वं ॥ १८॥ रसेसु य भयपावएसु जिन्भविसयं उवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व समणेण सया ण होयचं •॥१९॥ फासेसु य भइयपावएमु कायविसयं उवगएसु । तुट्टेण व रुढेण व समणेण सया ण होयचं ॥२०॥ एवं खस्तु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायजायणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तियेमि ( सूत्रं १३५) सत्तरसमं नापजायणं समत्तं ॥१७॥ SAREauratonintamational ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६], अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म- 'कलरिमियमहरतंतितकतालवंसककुहाभिरामेसुति कला:-अस्यम्तश्रवणहृदयहराः अव्यक्तध्वनिरूपा अथवा कला- १७अश्वकथाजमवन्ता-परिणामवन्त इत्यर्थः रिमिता:-खरपोलनात्रकारवन्त: मधुरा:-श्रवणसुसमरा ये तत्रीतलतालवंशाः ते तथा, तत्र तत्री- ज्ञाता० ॥२३ वीणा तलताला:-हसतासाः अथवा तसा:-हस्सा वासाः कसिकाः वंशावेणवा, इह च सध्यादयः कलादिभिः अन्द-इन्द्रियास॥ धविशेषिताः शब्दकारणलालेच ते कदाप्रपामः स्वरूपेणाभिरामाश-बनोवा इति कर्मधारयोऽतस्तेषु, रमन्ति-रति कर्व- परसंवरन्तीति इति योगः, 'ससु रखयागा मंलि सोइंदियबसहचि शब्देह-मनोज्ञध्वनिषु श्रोतोविषयेषु रम्पमा रामचन्तः दोषगुणाः थोत्रेन्द्रियस्य वशेन-बलेन ऋता:-पीडिता इति विग्रहः, ये शब्देषु रज्यन्चे-तत्कारणेषु तत्र्यादिपु थोत्रेन्द्रियवशाइमन्ते इति सू. १३५ वाक्यार्थः, अनेन च कार्यतः श्रोत्रेन्द्रियस्वरूपमुक्तं ॥ 'सोइंदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीवियरुपमसहंतो वहबंधं तित्तिरो पत्तो॥२॥ कण्ठ्या, नवरं शाकुंनिकपुरुषसम्बन्धी पञ्जरस्थतित्तिरो द्वीपिका उच्यते तस्य यो रवस्त-18 मसहमानः स्वनिलयान्निगतो वध-मरण बन्धं च-पञ्जरबन्धन प्राप्त इत्यर्थः। 'धणजघणवयणकरचरणनयणगवियविलासिय-RI गईसुति स्तमादिषु तथा गर्विताना सौभाग्यमानवतीनां स्त्रीणां या बिलसिता-जातपिलासाः सविकारा गतयस्तासु चेत्यर्थः। 'रूवेसु रज्जमाणा रमंति चखिदियवसट्टा' प्रतीतमेव, 'पक्खिवियदुईतत्तणस्स अह एत्तिमो हवइ दोसो । जं जलणं मि जलंते पडह पर्यगो अबुद्धीओ ॥४॥ कण्ठ्या, 'अगुरुवरपवरवणउउयमवाणुलेवषविहीसु । गंधेसु रजमाणा रमंति पाणिदि- ॥२३॥ यवसट्टा ॥५॥ कण्ठ्याः , नवरं अमुरुवर:-कृष्णागरुः प्रवरधूपनानि-गन्धयुक्त्युपदेशविरचिता धूपविशेषाः,'उज्योति ऋतौ २ यान्युपचितानि तानि आर्तवानि माल्यानि-जात्यादिकुसुमानि अनुलेपनानि च-श्रीखण्डकहमादीनि विषया-एतत्प्रकारा। wieldiaram.org ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Miss इति॥'घाणिदियदुरन्तत्तणस्स आह एसिओ भवति दोसो। ओसहिगंघेणं विलाओ निद्धावई उलगों' ६, कण्ठ्या, तिसकटु कसायंचमहुरं बहु खजपेजलेज्मेसु । आसायंमि छ गिद्धा मंति जिभिदियवसहा ॥७॥, पूर्ववत् , नवरं तिक्तानि-निम्बकटुकादीनि कदुकानि-शृङ्गनेरादीनि कयायाणि-मुनादीनि अम्लानि-तक्राधिसंस्कृतानि मधुराणि-सण्डादीमि खायानि-कूरमोदकादीनि पेयानि-जलमयदुग्धादीनि लेखानि-अधुशिखरिणीप्रभृतीनि आस्वादे-से | 'जिभिदियदुईतवणस्स बह एतिजो भवा दोसो। जे गललग्मुक्खिचो फरह थलविरेष्ठिओ मच्छो ॥८॥ कण्ठया, नवरं मलं-विजिपं सब लनः कण्ठे विदला उत्क्षिप्तो-जलादुतस्ततः कर्मधारयः, स्फुरति-स्पन्दते सले-भूतले 'विरेलिओति प्रसास्तिः वित इत्यर्थः यः स तथा ॥ 'उडभयमाणसुहेसु य सविभवहिययमणनिम्बुड़करेसु फासेसु रजमाणा रमति फार्सिदियवसहा॥९॥, कण्ठ्या, नवरं ऋतुषु-हेमन्तादिषु भव्यमानानि-सेव्यमानानि मुखानि-सुखकराणि तानि तथा तेषु,सविभवानिसमृद्धियुक्तानि महाधनानीत्यर्थः, हितकानि-प्रकत्यनुकूलानि सविभवानां वा-श्रीमतां हितकानि यानि तानि तथा मनसो |नितिकराणि यानि तानि तथा ततः पदत्रयस्य तद्वयस्य वा कर्मधारयोऽतस्तेषु, स्रक्चन्दनाङ्गनाक्सनतूल्यादिषु द्रव्येविति गम्यते, 'फार्सिदियदुईतत्तणस्स अह एत्तिो हवइ दोसो। जं खणइ मत्थय कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ।।१०।। भावना प्रतीतैव, अथेन्द्रियाणां संवरे गुणमाह-कलरिभियमहुरतंतीतलतालवंसककहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा वसट्टमरणं न ते मरए [॥१२॥ पूर्ववत्, नवरमिह तव्यादयः शब्दकारणखेनोपचाराच्छन्दा एव विवक्षिता अतः शम्देष्वित्येतस्य विशेषणतया व्याख्येया:, तथा वशेन-इन्द्रियपारतक्येण ऋता:-पीडिता वार्ताः वशं वा-विषयपारतव्यं ऋता:-प्राप्ता वशााः तेषां मरणं वशा ~477 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१७], ----------------- मूलं [१३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- मरणं वशत्तमरणं वा न ते 'मरए'ति नियन्ते छान्दसखादेकवचनप्रयोगेऽपि बहुवचनं व्याख्यातमिति, 'थणजघणवयणकर-18 १७अन्वकथाङ्गम्. | चरणनयणगवियविलासियगईसु । रूवेसु जे न रत्ता वसट्टमणं न ते मरए।।१२॥ एवमन्यास्तिस्त्रो गाथाः पूर्वोक्तार्था वाच्याः , उप- | ज्ञाता. देशमिन्द्रियाश्रितमाह-सद्देसु य भयपावएसु सोयविसयं उवगएसु । तुडेण व रुद्रेण व समणेण सया न होय।।१६।। कण्ठ्या, नवरं इन्द्रियासं. ॥२३४॥ | भद्रकेषु-मनोज्ञेषु पापकेषु-अमनोज्ञेषु क्रमेण तुष्टेन-रागवता रुष्टेन-रोषवतेति, एवमन्या अपि चतसोऽध्येतव्या इति । इह विशे- वरसंवर पोपनयमेवमाचक्षते-"जह सो कालियदीबो अणुवमसोक्खो तहेब जाधम्मो । जह आसा तह साहू वणियबष्णुकूलकारिजणा | दोषगुणाः I॥ १॥ जह सद्दाइअगिद्धा पत्ता नो पासबंधणं आसा । तह विसएसु अगिद्धा बझंति न कम्मणा साहू ॥२॥ जह सच्छंद-18 विहारो आसाणं तह य इह वरमुणीणं । जरमरणाई विवज्जिय संपत्ताणदनिवाणं ॥३॥ जह सदाइसु गिद्धा बद्धा आसा तहेव विसयरया । पावेंति कम्मबंधं परमासुहकारणं घोरं ॥४॥जह ते कालियदीवा णीया अन्नत्थ दुहगणं पत्ता । वह धम्मपरिभवा अधम्मपत्ता इह जीवा ॥ ५॥ पावेंति कम्मनरवइवसया संसारवाहयालीए । आसप्पमदएहि व नेरइयाइहि ॥ दुक्खाई ॥६॥" [ यथा स कालिकद्वीपोऽनुपमसौख्यस्तथा यतिधर्मः । यथाऽश्वास्तथा साधवः वणिज इवानुकूलकारिणो18 जनाः ॥१॥ यथा शब्दायेषु अगृद्धाः प्राप्ता न पाशबन्धनं अश्वाः । तथा विषयेषु अगृद्धा बध्यन्ते न कर्मणा साधवः ॥ २॥ | ॥२३४॥ यथा स्वच्छन्दविहारोऽश्वानां तथाचेह वरमुनीनां । जरामरणानि विवर्य संप्राप्ताऽऽनन्दं निर्वाणं ॥३॥ यथा शब्दादिषु गृद्धा || बद्धा अश्वास्तथैव विषयरताः। प्राप्नुवन्ति कर्मबन्धं परमासुखकारणं घोरम् ॥ ४॥ यथा ते कालकद्वीपात् नीता अन्यत्र दुःख-18 ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कन्धः [१] अध्ययनं [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः · मूलं [१३५] + गाथा: गणं प्राप्तः । दवा धर्मपरिभ्रष्टाः अधर्मप्राप्ता इह जीवाः ॥ ५ ॥ प्राप्नुवन्ति कर्मनरपतिवशगताः संसारवाद्याला अपमर्दकेवि नैरयिकादिभिर्दुःखानि ।। ६ ।। ] इति सप्तदर्श ज्ञातं विवरणतः समाप्तम् ॥ १७ ॥ अथ अष्टादशज्ञाताध्ययनम् ॥ अथाष्टादशमारभ्यते, अस्य चायं पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्वमिनिन्द्रियवशवर्त्तिनामितरेषां वानर्थेवरायुक्ताविह तु लोभवशवर्त्तिनामितरेषां च तावेवोच्येते इत्येवंसम्बद्धमिदम्--- Education Internation जति णं भंते! समणेणं० सत्तरसमस्स अयमद्वे पण्णत्ते अट्ठारसमस्स के अट्ठे पनसे?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २रायगिहे णामं नयरे होत्था, वण्णओ, तत्थ णं घण्णे सत्थवाहे भद्दा भारिया, तस्स णं घण्णस्स सत्थवाहस्स पुसा भद्दाए अन्तया पंच सत्थवाहदारगा होत्या, तं०-घणे घणपाले घणदेवे धणगोवे धणरक्खिए, तस्स नं धणस्स सत्थवाहस्स घूया भद्दाए अन्तया पंचण्डं पुत्ताणं अणुमग्गजातीया संसुमाणामंदारिया होत्था समालपाणिपाया, तस्स णं घण्णस्स सत्यवाहस्स चिलाए नाम दासचेडे होत्था अहीणपंचिंदियसरीरे मंसोबचिए बालकीलावणकसले यावि होत्था, तते णं से दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए पावि होत्या, सुमं दारियं कढी गण्हत २ बहूहिं दारएहि य दारियाहि य विभएहि य नियाहि प कुमारपहि अत्र अध्ययनं - १७ परिसमाप्तम् अथ अध्ययनं १८ "सुसुमा" आरभ्यते For Parts Only ~ 479~ or Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३६-१३८] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. ॥२३५॥ Education Tr य कुमारियाहि य सद्धिं अभिरममाणे २ विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारियाण य ६ अप्पेगतियाणं खल्लए अवहरति, एवं बहुए आडोलियातो तेंदुए पोतुल्लए साडोल अप्पेतियाण आभरणमल्लालंकारं अवहरति अप्पेगतिया आउस्सति एवं अवहसइ निछोडेति निव्भच्छेति तज्जेति अप्पे तालेति, तते णं ते बहवे द्वारगा य ६ रोयमाणा व ५ साणं २ अम्मापिणं णिवेदेति, तते णं तेसिं बहूणं दारगाण य ६ अम्मापियरो जेणेव घण्णे सत्थवाहे तेणेव उवा० घण्णं सत्थवाहं यहूहिं खेज्जणाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खेलमाणा य रुंटमाणा य उवलंभेमाणा य घण्णस्स एयमई णिवेदेति, तते णं घण्णे सत्थवाहे चिलायं दासचेडं एयमहं भुजो २ णिवारेंति णो चेव णं चिलाए दासचेडे उबरमति, तते गं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारगाण य ६ अप्पेगतियाणं खुल्लए अवहरति जाव तालेति, तते णं ते बहवे दारगा य ६ रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं णिवेदेति, तते णं ते आसुरुत्ता ५ जेणेव घण्णे सत्थचाहे तेणेव उवा० २ सा बहुहिं खिज्ज जाव एयमहं णिवेदिति, तते से धणे सत्थवाहे बहूणं दारगाणं ६ अम्मापिकणं अंतिए एयमहं सोचा आसुरुते चिलाय दासउच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसति उद्धंसति णिग्भच्छेति निच्छोडेति तज्जेति उच्चावयाहिं तालनाहिं तालेति सातो गिहातो णिच्छुभति (सूत्रं १३६ ) तते णं से चिलाए दासचेडे सातो गिहातो निच्छूढे समाणे रायगिहे नगरे सिंघाडए जाव पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जयखलएसु य For Penal Use On ~ 480~ १८ सुंसु माज्ञाता. चिलाति निर्धाटनं सू. १३६ | ॥ २३५॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रतस्कन्धः [१] ----------------- अध्ययनं [१८]. ----------------- मलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: वेसाघरेसु य पाणघरएमु य सुहंसुहेणं परिवहृति, तते णं से चिलाए दासचेडे अणोहहिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मज्जपसंगी चोजपसंगी मंसपसंगी जूयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि होस्था, तते णं रायगिहस्स नगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरस्थिमे दिसिभाए सीहगुहा नाम चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकडगकोडयसंनिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजणणिग्गमपचेसा अम्भितरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्सवि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्या, तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णाम चोरसेणावती परिवसति अहम्मिए जाव अधम्मे केऊ समुट्ठिए बहुणगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसीए सहवेही, से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसयाणं आहेबच्चं जाव विहरति, तते णं से विजए तकरे चोरसेणावती बट्टणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्त. खणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य वीसंभधायगाण य जयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिंच पहुणं छिन्नभिन्नबहिराहयाणं कुडंगे यावि होत्या, तते णं से विजए तकरे चोरसेणावती रायगिहस्स दाहिणपुरच्छिमं जणवयं षहहिं गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य चंदिग्गहणेहि य पंथकुणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे २ विद्धंसेमाणे २ णित्थाणं णिद्धणं करेमाणे विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे रायगिहे बहहिं अत्याभिसंकीहि य चोजाभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणि ~481 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. १८सुंसु माज्ञाता. चिलाते राधिपत्यं ॥२३६॥ IO एहि य जूहकरेहि य परब्भवमाणे २ रायगिहाओ नगरीओ णिग्गच्छति २ जेणेव सीहगुफा चोरपल्ली तेणेव उवा०२ विजयं चोरसेणावती उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तते णं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्गे असिलट्ठग्गाहे जाए यावि होत्था, जाहेविय णं से विजए चोरसेणावती गामघायं वा जाव पंधकोहि वा काउं वच्चति ताहेविय णं से चिलाए दासचेडे सुबटुंपि हु कूवियबलं हयविमहिय जाव पडिसेहिति, पुणरवि लवे कयकज्जे अणहसमग्गे सीहगुहं चोरपल्लिं हवमागच्छति, तते णं से विजए चोरसेणावती चिलायं तकरं वइओ चोरविजाओ य चोरमते य चोरमायाओ चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ, तते णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कपाई कालधम्मुणा संजुसे यावि होत्था, तते ण ताई पंचचोरसयार्ति विजयस्स चोरसेणावइस्स महया २ इहीसकारसमुदएणं णीहरण करेंति २ बरई लोइयार्ति मयकिचाई करेइ २ जाब विगयसोया जाया याचि होस्था, तते णं ताई पंच चोरसपाति अन्नमन्नं सदातिर एवं व०-एवं खल अम्हं देवा! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते अयं च णं चिलाए तफरे विजएणं चोरसेणावइणा बहुइओ चोरविजाओ य जाब सिक्खाबिए तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! चिलायं तकरं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावहत्ताए अभिसिंचित्तएत्तिका अन्नमन्नस्स एयमहूँ पडिसुणेति २चिलायं तीए सीहगुहाए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति, तते णं से चिलाए चोरसेणावती जाए अहम्मिए जाव विहरति, तए णं से चिलाए चोरसेणावती चोरणापगे जाव ॥२३६॥ ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: कटहलटर कुडंगे यावि होत्था, सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण य एवं जहा विजलो तहेव सच जाव रायगिहस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरति (सूत्र १३१) तते णं से चिलाए चोरसेणावती अन्नया कयाई विपुलं असण ४ उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेई तओ पच्छा पहाए कयवलिकम्मे भोषणमंडवंसि तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असणं ४ सुरं च जाव पसणं च आसाएमाणे ४ विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूवपुष्फगंधमल्लालंकारेणं सफारेति सम्माणेति २ एवं व०-एवं खलु देवा०1रायगिहे णपरे धणे णामं सस्थवाहे अड्डे, तस्स णं धूया भदाए अत्तया पंचण्डं पुत्ताणं अणुमग्गजातिया सुंसुमाणामंदारिया यावि होत्था अहीणा जाव सुरूवा, तं गच्छामोणं देवा०1 धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं विलुपामो तुम्भं विपुले धणकणग जाव सिलप्पवाले ममं सुंसुमा दारिया, ततेणं ते पंच चोरसया चिलायस्स०पडिमुणेति, ततेणं से चिलाए चोरसेणावती तेहि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लचम्मं दुरूहति २ पुवावरण्हकालसमयंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध जाव गहियाउहपहरणा माइयगोमुहिएहि फलएहि णिकट्ठाहिं असिलट्ठीहिं अंसगएहि सोणेहिं सजीवहिं धणूर्हि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दीहाहिं ओसारियाहिं उघंटियाहि छिप्पतूरेहि बजमाणेहिं महया २ उफिट्ठसीहणायचोरकलकलरवं जाव सद्दरवभूयं करेमाणा सीहगुहातो चोरपल्लीओ पडिनिक्खमति २ जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवा०२ रायगिहस्स अदूरसामंते एगं महं गहणं अणु ...मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने यत् (सूत्रं १३१) लिखितं तत् मुद्रणदोषः, सूत्र १३७ स्थाने सूत्र १३१ लिखितं ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म कथाङ्गम् ॥२३७॥ १८ सुंसुमाज्ञाता. सुंसुमापहारः सू. १३८ 1 पविसति २ दिवसं खवेमाणा चिट्ठति, तते णं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयंसि निसंतपडिनिसंतंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं माइयगोमुहितेहिं फलएहिं जाव मूइआहिं उरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहे पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवा० २ उदगवत्थिं परामुसति आयंते ३ तालुग्घाडणिविजं आवाहेइ २ रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएणं अच्छोडेति कवार्ड बिहाडेति २ रायगिह अणुपविसति २ महया २ सदेणं उग्घोसेमाणे २ एवं व०-एवं खलु अहं देवा ! चिलाए णामं चोरसेणावई पंचहिं चोरसरहिं सद्धिं सीहगुहातो चोरपल्लीओ इह हवमागए धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाउकामे तं जो णं णवियाए माउयाए दुद्धं पाउकामे से णं निग्गच्छउत्तिकड जेणेव धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवा० २ धण्णस्स गिहं बिहाडेति, तते णं से धपणे चिलाएणं चोरसेणावतिणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं गिहं घाइजमाणं पासति २भीते तत्थे ४ पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं एगतं अवकमति, तते णं से चिलाए चोरसेणावती धण्णस्स सत्यवाहस्स गिहं घाएति २ सुबहुं धणकणग जाव सावएज्जं सुंसुमं च दारियं गेण्हति २त्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमति २ जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं १३८) | सर्व सुगम नवरं 'खुल्लए'त्ति कपईकविशेषान् 'वर्तकान्' जखादिमयगोलकान् 'आडोलियाउति रुद्धा उनइया इति वा । योच्यते, तेंदूसए'त्ति कन्दुकान् 'पोत्तुल्लए'त्ति वस्त्रमयपुत्रिका अथवा परिधानवस्त्राणि, 'साडोल्लए'चि उत्तरीयवस्त्राणि, ॥२३७॥ ~4840 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Decemesectices 'खेवणाहि यति खेदनाभिः खेदसंसूचिकाभिः वाग्भिः रुदनादिभिः-रुदितप्रायाभिरुपालम्भनामिः-युक्तमेतद्भवादशामित्यादिभिरिति 'अणोहहए'त्ति अकार्ये प्रवर्त्तमानं तं हस्ते गृहीला योऽपहरति-व्यावयति तदभावादनपहर्तृकः अनपघट्टको |वा वाचा निवारयितुरभावादनिवारकः, अत एवं स्वच्छन्दमति:-निरर्गलघुद्धिरत एष खैरप्रचारी स्वच्छन्दविहारी, 'चोजपसंगे-11 ति चौर्यप्रसक्तः, अथवा 'चोजति आश्चर्येषु कुहेटकेषु प्रसक्त इत्यर्थः, 'विसमगिरिकडगकोलंबसन्निविट्ठत्ति विषमो योऽसौ गिरिकटकस्य-पर्वतनितम्बस्य कोलम्बः-प्रान्तस्तत्र सनिविष्टा-निवेशिता या सा तथा, कोलम्बो हि लोकेऽवनतं वृक्षशाखाप्रमुच्यते 18 इह चोपचारतः कटकानं कोलम्बो व्याख्यातः, 'वंसीकलंकपागारपरिक्खित्त'त्ति वंशीकलङ्का-वंशजालीमयी वृत्तिः सैव प्राकारस्तेन परिक्षिप्ता-वेष्टिता या सा तथा, पाठान्तरे तु वंशीकृतप्राकारेति, 'छिन्नसेलविसमप्पवायपरिहोवगूढ'त्ति छिनोविभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्य सम्बन्धिनो ये विषमाः प्रपाता-गाः त एव परिखा तयोपगूढा-वेष्टिता या सार शतथा, एकद्वारा-एकप्रवेशनिर्गममार्गा, 'अणेगखंडि'त्ति अनेकनश्यन्नरनिर्गमापद्वारा विदितानामेव-प्रतीतानां जनानां निर्ग-1 मप्रवेशौ यस्यां हेरिकादिभयात् सा तथा, अभ्यन्तरे पानीयं यस्याः सा तथा, सुदुर्लभं जलं पर्यन्तेषु-बहिःपार्श्वेषु यस्याः सा तथा, सुबहोरपि 'कूवियबलस्स'चि मोषव्यावर्तकसैन्यस्वागतस्य दुष्प्रध्वंस्था, वाचनान्तरे पुनरेवं पठ्यते 'जत्थ चउरंगवलनिउत्तावि कृवियवला यमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिन्धधयवडया कीरंति'त्ति, अत्र चतुर्णामझानां हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणानां यदलं-सामर्थ्य तेन नियुक्तानि-नितरां सङ्गतानि यानि तानि तथा, 'कृवियबल'त्ति निवर्तकसैन्यानीति, 'अधम्मिएति अधर्मेण चरतीत्यधार्मिकः, यावत्करणात् 'अधम्मि?' अधर्मिष्टोऽतिशयेन निर्द्धा निस्वंशकर्मकारिखात् , 'अधम्मक्खाई' अधर्ममा ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म-18 ख्यातुं शीलं यस्य स तथा, 'अधम्माणुए' अधर्मे कर्तव्येऽनुज्ञा-अनुमोदनं यस्य सोधर्मानुज्ञः अधर्मानुगो वा 'अधम्म- संसकथाङ्गम्. पलोई' अधर्ममेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी 'अधम्मपलजणे' अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यते इत्य- माज्ञाता धर्मप्ररजनः, रलयोरक्यमितिकता रस स्थाने लकारः, 'अधम्मसीलसमुदायारे' अधर्म एव शील-खमावः समुदाचारच! ॥२३८॥ यकिशन यरिकश्चनानुष्ठानं यस्य स तथा, 'अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे विहरति' अधर्मेण-पापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाकननिलाञ्छनादिना कर्मणा वृत्ति-वर्चनं कल्पयन्-कुर्वाणो विहरति-आस्ते स 'हणदिभिंदवियसए' हन-विनाशय |छिन्द-द्विधा कुरु मिंद-कुंतादिना भेदं विधेहीत्येवं परानपि प्रेरयन प्राणिनो विकृन्ततीति हनच्छिन्दमिन्द विकर्तकः, हनेत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः, अनुकरणरूपखादेषां, 'लोहियपाणि' प्राणविकर्त्तनो (नतो) लोहितौ रक्तरक्ततया पाणी-हस्तौ यस्य स तथा, 'चंडे' चण्डः उत्कटरोपखात् , 'क' रौद्रो निस्तूशखात , द्राक्षद्रकर्मकारिखाव, साहसिक:-असमीक्षितकारि-18 खात् , 'उपचणचणमायानियडिकबडकूडसाइसंपओगबहले उत्कश्शनमुत्कोचा, मुग्धं प्रति तत्प्रतिरूपदानादिक-18 मसद्व्यवहारं कर्तुं प्रवृत्तस्स पार्श्ववर्तिविचक्षणभयात क्षणं यत्तदकरणं तदुत्कञ्चनमित्यन्ये, वचनं-प्रतारणं माया-परवचनबुद्धिः निकृतिः-बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणं अधिकोपचारकरणेन परच्छलनमित्यन्ये मायाप्रच्छादनार्थ मायाम्मरकरणमित्यन्ये । कपर्ट-वेपादिविपर्ययकरणं कूट कापणतुलाव्यवस्थापत्रादीनामन्यथाकरणं 'साइति अविधम्मः एषां सम्प्रयोगः-प्रव २३८॥ तेन तेन बहुलः स वा बहुलो यस्य स तथा, 'निस्सीले अपगतशुभखभावः 'निवए' अणुव्रतरहित: 'निर्गुणो॥ . गुणवतरहितः 'निष्पचक्खाणपोसहोववासे अविद्यमानपौरुण्यादिप्रत्याख्यानोऽसत्पर्वदिनोपवासवेत्यर्थः, 'बहूर्ण दुपय-1|| ~486 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: II चउप्पयमियपसुपक्खिसिरीसवाणं पायाए वहाए उच्छायणयाए अधम्मकेऊसमुहिए'त्ति प्रतीतं नवरं पात:-प्रहारो वयो हिंसा व्यत्ययो वा उच्छादना-जातेरपि व्यवच्छेदनं तदर्थ 'अधर्मकेतुः' पापप्रधानः केतुः-ग्रहविशेष स हव यः स ISI तथा, द्विपदादिसवाना हि क्षयाय यथा केतुर्ग्रहः समुद्गच्छति तथाऽयं समुत्थित इति भावना, बहुनगरेषु निर्ग-IKI तं-जनमुखाभिःमृतं यशः-ख्यातिर्यस्य स तथा, सूरो-विक्रमी दृढप्रहारी-गाढप्रहारः, शब्दं लक्षीकृत्य विध्याले यः सः। शब्दवेधी, चौरादीन्येकादश पदानि प्रतीतानि, नवरं प्रन्थिभेदकाः-ज्यासकान्यथाकारिणः घुर्घरकादिना वा ये अन्धीन् । छिन्दन्ति, सन्धिच्छेदका ये गृहभित्तिसन्धीन विदारयन्ति, क्षात्रखानका ये सन्धानवर्जितभित्तीः काणयन्ति, 'अणधारयति । ऋण-व्यवहरकदेयं द्रव्यं तये तेषां धारयन्ति, खंडरक्षा-दण्डपाशिकाः, तथा छिन्ना-हस्सादिषु भिमा नासिकादो पायाः देशात् || आहता-दण्डादिभिः ततो द्वन्द्वः, कुडंग--वंशादिगहनं तद्वयो दुर्गमसेन रक्षार्थमाश्रयणीयससाधम्योत् स तथा, 'नित्थाण'ति स्थानभ्रष्टं 'अग्गअसिलढिगाहिति पुरस्तात् खड्गयष्टिग्राह: अथवा अम्पा-प्रधाना, 'अल्लचम्म दुरूहत्ति'चि आर्द्र चमारोहति माङ्गल्यार्थमिति, 'माइयति ककारख वार्थिकसात् 'माइ'सि रुक्षादिवालयुक्तखात् पक्ष्मलानि तानि च। तानि 'गोमुहीअति गोमुखबदुस्प्रच्छादकलेन कृतानि गोमुखितानि चेति कर्मधारयस्ततस्तैः फलकैः-स्फुरकैः, अत्रार्थे । वाचनान्तराण्यपि सन्ति तानि च विमर्शनीयानीति, गमनिकैवेयं, निकृष्टाभिः-कोशाबहिष्कृताभिरसियष्टिभिः असङ्गतैःस्कन्धावस्थितैस्तूणैः-शरभस्वादिभिः सजीवैः-कोव्यारोपितप्रत्यश्चर्द्धनुर्भिः समुस्क्षिप्तः-निसर्गार्थमाकृष्टैः शरधेः सकाशाग्छरैःबाणैः 'समुल्लासियाहिति ग्रहरणविशेषाः 'ओसारियाहिंति प्रलम्बीकृताभिः ऊरुघंटाभिः-जहाघण्टामिः 'छिप्पतूरेणं ति BreeCees ~487 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम. १८ सुंसुमाज्ञाताधन्यादेः अटवीनिस्तारः सू. ॥२३॥ क्षिप्ततूर्येण, द्रुतं वाद्यमानेन तूर्येणेत्यर्थः, प्रतिनिःकामन्ति, इह बहुवचनं चौरव्यक्त्यपेक्षया अन्यथा चौरसेनापतिप्रक्रमादेक- वचनमेव स्वादिति । तते गं से धण्णे सत्थचाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ सुवहुंधणकणगं सुंसुमंच दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं ३ पाहुडं गहाय जेणेव णगरगुत्तिया तेणेव उवा० २ तं महत्थं पाहुढं जाव उवणेति २ एवं व०-एवं खलु देवा! चिलाए चोरसेणावती सीहगुहातो चोरपाल्लीओ इहं हवमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सर्द्धि मम गिहं घाएत्ता सुवहुंधणकणगं सुंसुमं च दारियं गहाय जाब पडिगए, तं इच्छामो णं देवा! मुंसुमादारियाए कूवं गमित्तए,तुम्भे णं देवाणुप्पिया! से विपुले धणकणगे ममं सुंसुमा दारिया, तते णं ते णयरगुत्तिया धण्णस्स एयम8 पडिसुणेति २ सन्नड जाव गहियाउहपहरणा महया २ उक्किट्ठ० जाव समुद्दरवभूयंपिव करेमाणा रायगिहाओ णिग्गच्छंति २जेणेव चिलाए चोरे तेणेव उवा०२चिलाएणं चोरसेणावतिणा सहि संपलग्गा यावि होत्या, तते णं णगरगुत्तिया चिलायं चोरसेणावति हयमहिया जाव पडिसेहें ति, तते णं ते पंच चोरसया णगरगोत्तिएहिं हयमहिय जाव पडिसेहिया समाणा तं विपुलं धणकणगं विच्छडेमाणा य विपकिरेमाणा य सबतो समंता विप्पलाइत्या, तते णं ते णयरगुत्तिया तं विपुलं धणकणगं गेण्हंति २ जेणेव रायगिहे तेणेव उवा०, तते णं से चिलाए तं चोरसेणं लेहिं णय ॥२३ ॥ ~488 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: es रगुत्तिएहिं हयमहिय जाव भीते तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एगं महं अगामियं दीहमद्धं अडर्वि अणुपविटे, तते णं धण्णे सत्यवाहे सुंसुमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहिं अवहीरमाणिं पासित्ताणं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्धचिलायस्स पदभग्गविहिं अभिगच्छति,अणुगज्जेमाणे हकारेमाणे पुक्कारेमाणे अभिनजेमाणे अमितासेमाणे पिट्टओ अणुगच्छति, तते णं से चिलाए तं धपणं सत्यवाह पंचहि पुत्तेहिं अप्पछट्टे सन्नद्धबद्धं समणुगच्छमाणे पासति २ अत्यामे ४ जाहे णो संचाएति सुसुमं दारयं णिवाहित्तए ताहे संते तंते परिसंते नीलुप्पलं असिं परामुसति २ सुंसुमाए दारियाए उत्तमंगं छिंदति २तं गहाय तं अगामियं अडविं अणुपविटे, तते णं चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तण्हाते अभिभूते समाणे पम्छुट्टदिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव कालगए। एवामेव समणाउसो! जाव पवतिए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्सवंतासवस्स जाव विद्धंसणधम्मस्स वपणहेउं जाव आहारं आहारेति से णं इहलोए चेव बहणं समणाणंहीलणिजे जाव अणुपरियहिस्सति जहा व से चिलाएतकरे। तते णं से धणे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहिं अप्पछडे चिलायं परिधाडेमाणे २ तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाइए चिलातं चोरसेणावति साहथि गिण्हित्तए, से णं तओ पडिनियत्तइ २ जेणेव सा सुंसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविल्लिया तेणंतेणेव उवागच्छतिर सुसुमं दारियं चिला. एणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ २ परसुनियंतेव चंपगपायवे, तते णं से धणे सत्यवाहे अप्पछडे RRC ~489 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्. १८ सुंसुमाज्ञाता. अटवीनिस्तारः सू. १३९ ॥२४॥ Eeeeeeeeeeeeee आसत्थे कूवमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ सद्देणं कुह २ सुपरुन्ने सुचिरं कालं वाहमोक्खं करेति, तते णं से धणे पंचहि पुत्तेहिं अप्पछट्टे चिलायं तीसे अगामियाए सवतो समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य परिन्भं(रद्ध)ते समाणे तीसे आगामियाए अडवीए सघतो समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेंति २ संते तंते परितंते णिविन्ने तीसे आगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेच णं उदगं आसादेति, तते णं उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसमा जीषियातो वघरोएल्लिया तेणेव उवा० २जेहूं पुतं धणे सहावेइ २ एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सुंसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तकरं सपतो समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे आगामियाए अडबीए पदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उद्गं आसादेमो, तते णं उदगं अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्सए, तण्णं तुम्भं ममं देवा! जीवियाओ परोह मंसंच सोणियं च आहारेह २ तेणं आहारणं अवहिट्ठा समाणा ततो पच्छा इमं आगामियं अहर्षि मित्थरिहिह रायगिहं च संपाविहिह मित्तणाइय अभिसमागच्छिहिह अस्थस्स प धम्मरस प पुण्णस्स य आभागी भविस्सह,तते णं से जेपत्ते धणेणं एवं कुत्ते समाणे धणं सत्यवाहं एवं प-तुमने ण ताओ! अम्हं पिया गुरू जणया देवयभूया ठावका पतिद्वावका संरक्खगा संगोवगा तं कहपणं जम्हे तातो! तुम्ने जीवियाओ ववरोबेमो तुम्भ ण मंसंच सोणियं च आहारमो? तं तुब्भेणं तातो ! ममं जीवियाओ पव 20 ॥२४॥ ~490 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१३९-१४०] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः रोवेह मंसं च सोणियं च आहारेह आगामियं अडविं णित्थरह तं चैव सर्व्वं भणइ जाब अत्थस्स जाव पुण्णस्स आभागी भविस्सह, तते णं घण्णं सत्थ० दोघे पुत्ते एवं ब० मा णं ताओ ! अम्हे जेहं भारं गुरुं देवयं जीविधाओ बबरोवेमो तुभे णं ताओ! मम जीविधाओ बबरोवेह जाव आभागी भविस्सह, एवं जाव पंचमे पुत्ते, तते णं से घण्णे सत्थवाहे पंच पुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं व० मा णं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ बबरोवेमो एस णं सुंसुमाए दारियाए सरीरए णिप्पाणे जाव जीवविप्पजढे तं सेयं खलु पुस्ता अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेतर, तते णं अम्हे तेणं आहारेणं अवत्थद्धा समाणा रायगिहं संपाणिस्सामो, तते णं ते पंच पुत्ता घणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा एथमहं पडिसुर्णेति, तते णं घण्णे सत्थ० पंचहिं पुत्तेहिं सर्द्धि अरणिं करेति २ सरगं च करेति २ सरएणं अरणिं महेति २ अरिंग पाडेति २ अरिंग संधुक्खेति २ दारुयाति परिक्खेवेति २ अरिंग पज्जालेति २ सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेंति, तेणं आहारेण अवस्थद्धा समाणा रायगिहं नयारं संपत्ता मित्तणाई अभिसमण्णागया तस्स य विलस्स कणगरण जाव अभागी जायाविहोत्था, तते णं से घण्णे सत्यवाहे सुंसुमाए दारियाए बहूई लोइयातिं जाव विगयसोए जाए यावि होत्था (सूत्रं १३९) तेण कालेनं २ समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेहए समोसढे, से णं घण्णे सत्थवाहे संपत्ते धम्मं सोचा पवतिए एकारसंगवी मासियाए For Penal Prsata Use Only ~ 491 ~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकधाङ्गम्. ॥२४॥ |१८ सुंसुमाज्ञाता. अटवीतो | निस्तारः धन्यदीक्षोपनयश्च सू. १३९-१४० संलेहणाए सोहंमे उबवण्णो महाविदेहे वासे सिन्झिहिति, जहाविय णं जंबू! धपणेणं सत्यवाहेणं णो वण्णहे वा नो रूवहे वा णो बलहेर्ड वा नो बिसयहे वा सुंसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्य एगाए रायगिहं संपावणट्ठयाए, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा २ इमरस ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स मुकासवस्स सोणियासवस्स जाच अवस्सं विप्पजहियवस्स वा नो वण्णहेउं वा नो रूवहे वा नो बल. विसयहे वा आहारं आहारेति ननस्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं २ बट्टणं सावयाणं बहूर्ण साविगाणं अचणिज्जे जाव वीतीवतीस्सति, एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया अट्ठारमस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिमि (सत्रं १४०) अट्ठारसमं णायज्मयणं समत्तं १८ _ 'मूहयाहिं'ति मूकीकृताभिनिःशब्दीकृताभिरित्यर्थः, 'उदगवस्थिति जलभृतदृतिः जलाधारपर्ममयभाजनमित्यर्थः, 'जो णं णवियाए'त्यादि यो हि नविकायाः-अग्रेतनभवभाविन्याः मातुर्दुग्धं पातुकामः स निर्गच्छतु, यो मुमूर्षरित्यर्थः, 'आगरमियंति अग्रामिकं 'दीहमद्धं ति दीर्घमार्ग, 'पयमग्गविहिं ति पदमार्गप्रचार, 'पम्हढदिसाभाए'ति विस्मृतदिग्भागः, 'अंतरा चेव कालगए'त्ति इह एतावदेवोपयोगीति आवश्यकादिप्रसिद्धं तदीयं शेषचरितं साधुदर्शनोपशमायुपदेशेन सम्यक्सपरिभाषनवज्रतुण्डकीटिकाभक्षणदेवलोकगमनलक्षणं नोक्तमिति न विरोधः सम्भावनीयः, उपनयग्रन्थः पूर्व ~492 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: वन, 'वाहपामोक्खंति अथुविमोचनं 'पिया'इत्यादौ पितोपचारतो लोकेऽन्योऽपि रूढो, यदाह-"जनेता चोपनेता च, यस्तु विद्या प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता, पश्चैते पितरः स्मृताः ॥१॥” इति जनकग्रहणं स्थापकाः-गृहस्थधर्मे दारादिसमहणात् प्रतिष्ठापका:-राजादिसमक्ष स्वपदनिवेशनेन संरक्षकाः-नानाव्यसनेभ्यः सङ्गोपका:-यहच्छाचारितायां संवरणाद, "अरणिति अरणिरनेः उत्पादनार्थ निर्मथ्यते यद्दारु 'सरगं करेइति शरको निर्मथ्यते तद्येनेति, 'नो वनहेतु'मित्यादि, अनेन च किमुक्तं भवति ?--'नन्नत्यति एकस्याः सिद्धिगमन प्रापणार्थतया अन्यत्र नाहारमाहारयति, तां वर्जेयिखा कारणान्तरेण नाहारयतीत्यर्थः, तत्र सिद्धिगमनस्य-सिद्धिगतेयः प्रापणलक्षणोऽर्थः प्राप्तिरित्यर्थः तस्य भावस्तत्ता तस्या इति, इह चैवं चिशे-| पोपनयः-"जह सो चिलाइपुत्तो सुसुमगिद्धो अकज्जपडिबद्धो । धणपारद्धो पत्तो महाडविं वसणसयकलियं ॥१॥ तह जीवो विसयमुहे लुद्धो काऊण पावकिरियाओ । कम्मवसेणं पावर भवाडबीए महादुक्खं ॥२॥ धणसेट्ठीविन गुरुणो पुत्ता इव साहवो भवो अडवी । सुयमंसमिबाहारो रायगिह इह सिर्व नेयं ॥ ३ ॥ जह अडविनयरनित्थरणपावणत्थं तपहिं सुयर्मसं । भुत तहेह साहू गुरूण आणाए आहारं ॥ ४॥ भवलंघणसिवपावणहेउं भुअंतिण उण गेहीए । वष्णबलरूवहेउं च भावियप्पा | महासत्ता ॥५॥ [ यथा स चिलातिपुत्रः सुसुमागृद्धोऽकार्यप्रतिबद्धः धन्येन प्रारब्धः प्राप्ती महाटवीं व्यसनशतकलिताम् ॥१॥ तथा जीवो विषयसुखे लुब्धः कुला पापक्रियाः । कर्मवशेन प्राप्नोति भवाटव्यां महादुःखम् ॥२॥ धनश्रेष्ठीव गुरवः। पुत्रा इव साधवो भवोऽटची । सुतामांसमिवाहारो राजगृहं इह शिवं ज्ञेयम् ॥३॥ यथाटवीनिस्तरणनगरप्रापणार्थ तैः ~493 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१८], ----------------- मूलं [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म- कथाङ्गम्.. सुतामांसं । शुक्तं तथेह साधवो गुरूणामाशयाऽऽहारं ॥४॥ भवलङ्घनशिवपापणहेतो आन्ति न पुनर्णाज्या । वर्णनल-18 १९पुण्डरूपहेतोश्च भावितात्मानो महासत्त्वाः ॥५॥] अष्टादश ज्ञातविवरणं समाप्तम् ॥ १८॥ PIरीकज्ञाता. पद्मदीक्षा INT मोक्षौ सू. अथ एकोनविंशतितमाध्ययनविवरणम् ॥१९॥ १४१ ॥२४॥ अथैकोनविंशतितम व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्रासंधूताश्रवस्येतरख चानर्थेतराचुक्ताविह तु चिरंग संवृताश्रयो भूखापि यः पश्चादन्यथा स्यात्तस्य अल्पकालं संवृताश्रवख च ताबुच्यते इत्येवंसम्बद्धमिदम् जति णं भंते ! समणेणं भग०म०जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायजायणस्स अयमढे पन्नत्ते एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते?,एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं तेणं कालेणंररहेव जंबु. हीवेदीवे पुवचिदेहे सीयाए महाणदीए उत्तरिल्ले कूले नीलवंतस्स दाहिणणं उत्तरिल्लस्स सीतामुहवणसंडस्स पच्छिमेणं एगसेलगरस वक्खारपचयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं पुक्खलावई णामं विजए पनत्ते, तत्थ णं पुंडरिगिणी णाम रायहाणी पन्नत्ता णवजोयणविच्छिण्णा दुवालसजोपणायामा जाच पचक्वं देवलोयभूया पासातीया ४ । तीसे णं पुंडरिगिणीए णयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिमाए णलिणिवणे २४२॥ REaantAILund अत्र अध्ययन-१८ परिसमाप्तम् अथ अध्ययन- १९ "पुण्डरीक' आरभ्यते ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: । णामं उजाणे, तस्थ णं पुंडरिगिणीए रायहाणीए महापउमे णाम राया होत्या, तस्स णं पउमावती 'णामं देवी होत्था, सस्स णं महापउमस्स रन्नो पुत्ता पउमावतीए देवीए अत्तथा दुवे कुमारा होत्था, तं०-पुंडरीए य कंडरीए य सुकुमालपाणिपाया०, पुंडरीयए जुवराया, तेणं कालेणं २ घेरागमर्ण महापउमे राया णिग्गए धर्म सोचा पोंडरीय रज्जे ठवेत्ता पचतिए, पोंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया, महापउमे अणगारे चोइसपुषाई अहिजइ, तते णं थेरा बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से महापउमे यहूणि वासाणि जाय सिद्धे (सूत्रं १४१) तते णं घेरा अन्नया कयाई पुणरवि पुंडरिगिणीए रापहाणीए णलिणवणे उजाणे समोसढा, पोंडरीए राया णिग्गए, कंडरीए महाजणसई सोचा जहा महव्यलो जाच पज्जुवासति, थेरा धर्म परिकहेंति, पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगते, तते णं कंडरीए उहाए उद्देति उहाए उद्वेत्ता जाव से जहेयं तुम्भे वदह ज णवरं पुंडरीयं रायं आपुच्छामि तए णं जाव पचयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया, तए णं से कंडरीए जाव धेरे बंदद नमसइ० अंतियाओ पडिनिक्खमह तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहति जाव पचोरुहइ जेणेव पुण्डरीए राया तेणेव उवागच्छति करयल जाव पुंडरीयं एवं बयासी-एवं खलु देवा ! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते से धम्मे अभिरु इए तए णं देवा! जाव पवइत्तए, तए णं से पुंडरीए कंडरीयं एवं बयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया! इदाणि मुंडे जाव पच्चयाहि अहंणं तुम महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचयामि, तए णं से कंडरीए पुंड ~495 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम. |१९पुण्डरीकज्ञाता. कण्डरीकदीक्षा गाहस्थ्यं सू. | १५२-१४३ ॥२४॥ रीयस्स रपणो एयमढ णो आढाति जाव तुसिणीए संचिट्ठति,तते णं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चंपितचंपि एवं वक-जाव तुसिणीए संचिट्ठति, तते णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएति बहहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य ४ ताहे अकामए चेव एयम8 अणुमन्नित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचति जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयति, पबतिए अणगारे जाए एकारसंगविऊ, तते गं घेरा भगवंतो अन्नया कयाई पुंडरीगिणीओनयरीओ णलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति पहिया जणवयविहारं विह-. रति (सूत्रं १४२)तते णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहिं अंतहि य पंतेहि य जहा सेलगस्स जाव दाहवकंतीए यावि विहरति, तते णं थेरा अन्नया कयाई जेणेव पोडरिगिणी तेणेच उवागच्छह २ णलिणिवणे समोसढा, पोंडरीए णिग्गए धम्म मुणेति, तए णं पोंडरीए राया धम्म सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवा० कंडरीयं वंदति णमंसति २ कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सवाधाहं सरोयं पासति २ जेणेव धेरा भगवंतो तेणेच उबा०२ धेरे भगवंते वंदति णमंसह २त्सा एवं व-अहण्णं भंते! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसह सज्जेहिं जाव तेइच्छं आउहामि तं तुम्भे गं भंते! मम जाणसालासु समोसरह, तते णं घेरा भगवंतो पुंडरीयस्स पडिसुणेति २जाय उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तते णं पुंडरीए राया जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलियसरीरे जाए, तते णं घेरा भगवंतो पोंडरीय रायं पुच्छंति २ बहिया जणवयविहारं विहरंति, तते णं से कंडरीए ताओ रोयायंकाओ विप्पमुके समाणे तंसि SEResesexesekseesesesepercenese ॥२४॥ ~496~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 58sersesents मणुपणंसि असणपाणखाइमसाइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोषवणे णो संचाएइ पोंडरीपं आपुच्छिता बहिया अन्भुजएणं जणवयविहारं विहरित्तए, तत्थेव ओसपणे जाए, तते णं से पोंडरीए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे पहाए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उचा०२कंडरियं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ बंदति णमंसति २ एवं व०-धन्नेसि णं तुम देवा ! कयत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे सुलद्धे णं देवा। तब माणुस्सए जम्मजीवियफले जे गं तुमं रजं च जाच अंतरं च छडइत्ता विगोवइत्ता जाव पचतिए, अहं णं अहणणे अकयपुन्ने रज्जे जाच अंतेउरे य माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने नो संचाएमि जाव पवतित्तए, तं धन्नेऽसि णं तुम देवा! जाव जीवियफले, तते णं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमढे णो आदाति जाव संचिट्ठति, तते णं कंडरीए पोंडरीएणं दोपि तचंपि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवस्सबसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीयं रायं आपुच्छति २ थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरति, तते णं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं किंचि कालं उग्गउग्गेणं विहरति, ततो पच्छा समणत्तणपरितंते समणतणणिविणे समणत्तणणिन्भत्थिए समणगुणमुकजोगी घेराणं अंतियाओ सणियं २ पच्चोसकति २ जेणेव पुंडरिगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवा० असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि णिसीयति २ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठति, तते णं तस्स पोंडरीयस्स अम्मघाती जेणेव असोगवणिया तेणेव MSRea SAREauratonintimational For P OW ~497 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथानम्. १९पुण्डबारीक ज्ञाता. पुण्डरीक दीक्षा सू. १४४ ॥२४४॥ neneweeछ उवा०२ कंडरीय अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावयंसि ओहयमणसंकप्पंजाव झियायमाणं पासति २ जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवा०२पोंडरीयं रायं एवं व०-एवं खलु देवा! तब पिउभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावद्दे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति, तते णं पोंडरीए अम्मधाइए एयमहूँ सोचा णिसम्म तहेब संभंते समाणे उट्ठाए उद्देति २ अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो. एवं व०-धण्णेसि णं तुम देवा ! जाव पवतिए, अहणं अघण्णे ३ जाव पचहत्तए, तं धन्नेऽसि णं तुमं देवा ! जाव जीवियफले, तते णं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति दोचंपि तवंपि जाव चिट्ठति, तते णं पुंडरीए कंडरीपं एवं व०-अट्टो भंते ! भोगेहिं , हता! अहो, तते णं से पोंडरीए राया कोडंबियपुरिसे सहावेइ २ एवं व०-खिप्पामेव भो देवा! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेअं उवट्ठवेह जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचति (सूत्रं १४३) तते णं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति सयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवजति २ कंडरीयस्स संतियं आयारभंडयं गेण्हति २ इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कप्पति मे धेरे वंदित्ताणमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउजामं धम्म उवसंपजित्ता ततो पच्छा आहारं आहारित्तएत्तिकट्ठ, इमं च एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरिगिणीए पडिनिक्खमतिर पुवापुछि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए (मूत्रं१४४) तते गं ॥२४४॥ INE SAREnatarna Hetaurary.com ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा " - अंगसूत्र - ६ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [१४१-१४७] श्रुतस्कन्ध: [१] अध्ययनं [१९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तरस कंडरीयरस रण्णो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अहभोयमप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ, तते णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममासि पुरता वरन्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भूया उज्वला विडला पगाढा जाब दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दावतीए याचि विहरति ॥ तते णं से कंडरीए राया रज्जे य रहे प अंतेउरे य जाव अज्झोववन्ने अदुहहबसट्टे अकामते अवस्सबसे कालमासे कालं किवा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालइियंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उबवण्णे । एवामेव समणाउसो ! जाव, पचतिए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसाइए जाव अणुपरियहिस्सति जहा व से कंडरीए राया (सूत्रं १४५ ) तते णं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवा० २ थेरे भगवंते वंदति नमसति २ घेराणं अंतिए दोचंपि चाज्जामं धम्मं पडिवज्जति, छट्टखमणपारणगंसि पदमाए पोरिसीए सज्झायं करेति २ जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेति २ अहापजत्तमितिक पडिणियत्तति, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवा० २ भत्तपाणं पडिदंसेति २ थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुare समाणे अमुच्छिते ४ बिलमिव पण्णगभूएर्ण अप्पाणेणं तं फासुएसणिज्वं असण ४ सरीरको - गंसि पक्खिवति, तत्ते णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइकंतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोणं आहारियस समाणस्स पुञ्चरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो Eaton Internationa For Parts Only ~499~ ayor Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१] ----------------- अध्ययनं [१९], ----------------- मूलं [१४१-१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्मसम्मं परिणमति, तते णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउम्भूया उज्जला जाव |१९पुण्डकथानम्, दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए विहरति, तते णं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले रीकज्ञाता अवीरिए अपुरिसकारपरकमे करयल जाव एवं व०-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोऽत्यु कण्डरीक॥२४॥ णं घेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुर्विपि य णं मए घेराणं अंतिए सवे पाणा- नारकिता तिवाए पञ्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पञ्चक्खाए जाव आलोइयपडिकते कालमासे कालं किचा पुण्डरीकसबसिद्धे उववन्ने । ततो अणंतरं उच्चहित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहितिजाव सबदुक्खाणमंतं काहिति। सिद्धिः श्रुएवामेव समणाउसो! जाव पबतिए समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं णो सजति नो रज्जति जाव नो त०समाविप्पडिघायमावबति से णं इभवे चेव बहणं समणाणं बहणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूर्ण सावि- प्तिः सू. गाणं अच्चणिजे बंदणिज्ने पूयणिज्जे सकारणिजे सम्माणणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जे- १४५-१४६ त्तिकट्ठ परलोएवियणं णो आगच्चति बहणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरतं संसारकतारं जाव वीतीवइस्सति जहा व से पोंडरीए अणगारे । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं जाब सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स IS२४५ नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते ॥ एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइणामधेनं ठाणं संपत्तेणं छहस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिबेमि (सूत्रं १४६) तस्स णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एकसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समपंति (सूत्र १४७) पढमो सुयक्खंधो समत्तो॥ सर्व सुगम, नवरं उपनयविशेषोऽयम्-'वाससहस्सपि जई काऊणं संजमं सुविउलंपि । अंते किलिट्ठभावो.न बिसुज्झइ कंडबारीउन ॥१॥ तथा-अप्पेणवि कालेणं केइ जहागहियसीलसामण्णा । साहिति निययकर्ज पुंडरीयमहारिसिव जहा ॥२॥ II वर्षसहस्रमपि यतिः कृता संयम सुविपुलमपि । अन्ते क्लिष्टभावोन विशुध्यति कण्डरीक इव ॥१॥ अल्पेनापि। कालेन केचित् यथागृहीतशीलसंयुक्ताः । साधयन्ति निजकार्य यथैव पुण्डरीकमहर्षिः ॥२॥] इत्येकोनविंशतितमं जातं विवरणतः समाप्तम् ॥ अत्र अध्ययनं-१९ परिसमाप्तम् तत् परिसमाप्ते प्रथमो श्रुतस्कन्धो अपि समाप्तम् ~500 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [१], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म ल कथानम्. श्रुत.वर्गः ॥२४६॥ ड अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धविवरणम् । धर्मकथाअथ द्वितीयो व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वत्राप्तोपालम्भादिभिातर्धार्थ उपनीयते, इह तु साह एव साक्षात्कथाभिरभिधीयते इत्येवंसम्बन्धोऽयम्तेणं कालेणं २ रायगिहे नाम नयरे होत्था, वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए तत्थ णं गुणसीलए णामं चेइए होत्था वणओ, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जमुहम्मा णामं धेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना जाब चउद्दसपुची चउणाणोधगया पंचाहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुवाणुपुर्वि चरमाणा गामाणुगाम दुइज्जमाणा सुहंमुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसीलए चेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तेणं कालेणं २ अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अजजंबू णामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं व-जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमसुयक्खंधस्स णायसुयाणं अयमढे पन्नत्ते या दोच्चस्स गंभंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते , एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पं०,०-चमरस्स अग्गमहिसीणं पदमे वग्गे १ बलिस्स 8090908 ॥२४६॥ wirelumurary.org अथ द्वितिय: श्रुतस्कन्ध: आरभ्यते अथ पञ्च-अध्ययनात्मक: प्रथम-वर्ग: आरब्ध: ~501 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: बहरोयर्णिदस्स बहरोयणरन्नो अग्गमहिसीणं बीए वग्गे २ असुरिंदवज्जाणं दाहिणिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइए वग्गे ३ उत्तरिल्लाणं असुरिंदवजियाणं भवणवासिइंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्धे बग्गे ४ दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं पंचमे वग्गे ५ उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छठे वग्गे ६ चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमे चग्गे ७ सरस्स अग्गमहिसीणं अहमे यग्गे ८ सफस्स अग्गमहिसीणं णवमे वग्गे ९ इंसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमे वग्गे १०। जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस बग्गा पं० पढमस्स णं भंते ! बग्गस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नते?, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा पं० सं०-काली राई रयणी विजू मेहा, जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा पं०पढमस्स णं भंते। अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पं०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे णयरे गुणसीलए चेहए सेणिए राया चेलणा देवी सामी समोसरिए परिसा णिग्गया जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ काली नाम देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालवडिंसगभवणे कालंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं मयहरियाहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवतीहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिं बहुएहि य कालवासियभवणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवीहिं देवेहि य सद्धिं संपरिखुडा महयाहय जाव विहरह, इमं च णं केव ~502 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् धर्मकथाश्रुतस्कन्धः ॥२४७ लकप्पं जंबुद्धीव २ विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी २ पासह, तत्थ समणं भगवं महावीर जंबुद्दीवे २ भारहे वासे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमार्ण पासति २त्ता हहतुद्दचित्तमाणंदिया पीतिमणा जाव हयहियथा सीहासणाओ अन्भुटेति २ पायपीढाओ पचोरुहति २ पाउया ओमुयति २ तित्थगराभिमुही सत्तट्ट पयाई अणुगच्छति २ वाम जाणुं अंचेति २दाहिणं जाणु धरणियलंसि निहट्ठ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेति २ईसिं पचुण्णमह २ कडयतुडियर्थभियातो भुयातो साहरति २ करयल जाव कड एवं व० णमोऽत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स बदामि णं भगवंतं तत्थगयं इह गए पासउ मे समणे भगवं महावीरे तत्थ गए इह गयंतिकटु वंदति २ नमंसति २सीहासणधरंसि पुरत्याभिमुहा निसपणा, तते गं तीसे कालीए देवीए इमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुधासित्तएत्तिकडु एवं संपेहेति २ आभिओगिए देवे सहावेति २ एवं व०-एवं खलु देवा ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सुरियाभो तहेव आणत्तियं देह जाव दिवं सुरवराभिगमणजोगं करेह २ जाव पञ्चपिणह, तेवि तहेव करेत्ता जाव पचप्पिणंति,णवरं जोयणसहस्सविच्छिण्णं जाणं सेसं तहेव तहेव णामगोयं साहेइ तहेब नहविहिं उवदंसेइ जाय पडिगया। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति २एवं व० Ameeeeex ।॥२४७॥ ~503 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: कालिए णं भंते ! देवीए सा दिवा देविड्डी ३ कहिं गया० कूडागारसालादिढतो, अहोणं भंते ! काली देषी महिहिया, कालिए णं भंते । देवीए सा दिया देविड्डी ३ किण्णा लद्धा किपणा पत्ता किण्णा अभिसमण्णागया, एवं जहा सूरियाभस्स जाब एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं २ हेव जंधुदीवे २ भारहे वासे आमलकप्पा णाम णयरी होत्था वपणओ अंवसालवणे चेइए जियसत्तू राया, तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नाम गाहावती होत्था अड्डेजाव अपरिभूए, तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी णामं भारिया होस्था, सुकुमाल जाव सुरूवा, तस्स णं कालगस्स गाहावतिस्स घूया कालसिरीए भारियाए अत्तया काली णामं दारिया होत्था, वडा वडकुमारी जुण्णा जुपणकुमारी पडियपुयस्थणी णिविन्नवरा वरपरिवज्जियावि होत्या, तेणं कालेणं २ पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा बहमाणसामीणवरं णवहस्थुस्सेहे सोलसहिं समणसाहस्सीहिं अदृत्तीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे परिसा णि जाव पज्जुवासति,तते णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवा०२ करयल जाव एवं व०-एवं खलु अम्मयाओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरति, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहि अन्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए, अहासुहं देवा! मा पडिबंध करेहि, तते णं सा कालिया दारिया अम्मापिथेहि अन्भणुनाया समाणी हह जाष हियया ~504 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म २ धर्मक कथाङ्गम्. Pथाश्रुत स्कन्धः ॥२४८॥ पहाया कयपलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाई मंगल्लाति बस्थातिं पवर परिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा चेडियाचकवालपरिकिपणा सातो गिहातो पडिणिक्खमति २ जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवा०२ धम्मियं जाणपवरं दुरूढा, तते णं सा काली दारिया धम्मियं जाणपवरं एवं जहा दोवती जाव पज्जुवासति, तते णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महतिमहालयाए परिसाए धम्म कहेइ, तते णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हह जाव हियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति २ एवं व०-सद्दहामि णं भंते! णिग्गंधं पावयणं जाय से जहेयं तुम्भे वयह, जं णवरं देवा०1 अम्मापियरो आपुच्छामि,तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पचयामि, अहासुहं देवा, तते णं सा काली दारिया पांसेणं अरया पुरिसादाणीएणं एवं बुत्ता समाणी हट्ट जाव हियया पासं अरहं पंदति २ तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति २ पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियातो अंपसालवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमति २ जेणेव आमलकप्पा नयरी लेणेव उचा०२ आमलकप्पं णयरिं मझमझेणं जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवा. २ धम्मियं जाणपबरं ठवेति २ धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहति २ जेणेव अम्मापियरा तेणेव उवा०२ करयल एवं व०एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहतो अंतिए धम्मे णिसंते सेविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए | ॥२४८॥ ~505 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ह अभिरुतिए, तए णं अहं अम्मयाओ ! संसारभउविग्गा भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि गं तुम्भेहिं अन्भणुनाया समाणी पासस्स अरहतो अंतिए मुंडा भबित्ता आगारातो अणगारियं पवतिसए. अहासुहं देवा० मा पडिबंध कर, तते णं से काले गाहावई विपुलं असणं ४ उवक्खडावेति २ मिसणाइणियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेतिर ततो पच्छा पहाए जाब विपुलेणं पुष्फवत्थगंधमलालंकारेणं सकारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरियणस्स पुरतो कालियं दारियं सेयापीपहिं कल सेहि पहावेति २ सवालंकारविभूसियं करेति २ पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरुहेति २ मित्त णाइणियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धिं संपरिबुडा सविहीए जाव रवेणं आमलकप्पं नयरिं मझमज्झेणं णिग्गच्छति २ जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवा०२छत्ताइए तित्थगराइसए पासतिरसीयं ठवेइ २ कालियंदारियं अम्मापियरो पुरओ काउंजेणेव पासे अरहा पुरिसा तेणेव उवा०२ बंदइ नमसइ २त्ता एवं व०-एवं खलु देवा! काली दारिया अम्हं धूया इहा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए ?, एस णं देवा! संसारभउधिग्गा इच्छह देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ताणं जाव पबहत्तए, तं एवं गं देवाणुप्पियाण सिस्सिणिभिक्खं दलयामो पडिच्छतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध, तते णं काली कुमारी पासं अरहं वंदति २ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमति २ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति २ सयमेव लोयं करेति २ जेणेव पासे अरहा ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म कथाङ्गम्. २धर्मकधाश्रुतस्कन्धः ॥२४९॥ पुरिसादाणीए तेणेव उवा०२ पासं अरहं तिक्खुसो वंदति २एवं व-आलित्ते गं भंते ! लोए एवं जहा देवार्णदा जाव सयमेव पधाविउं, तते णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फलाए अज्जाए सिस्सिणियत्साए दलयति, तते णं सा पुष्फचूला अज्जा कार्लि कुमारि सयमेव पवावेति, जाव उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तते णं सा काली अजा जाया ईरियासमिया जाव गुत्सर्वभयारिणी, तते णं सा काली अज्जा पुष्फलाअजाए अंतिए सामाइयमाझ्याति एक्कारस अंगाई अहिजइ बहूर्हि चउत्थ जाव विहरति, तते णं सा काली अजा अन्नया कयाति सरीरवाउसिया जाया पावि होत्या, अभिक्खणं २ हत्थे धोवइ पाए धोवइ सीसं धोबह मुहंधोवइ थर्णतराई धोवह कक्खंतराणि धोवति गुज्तराई धोवइ जत्थ २विय णं ठाणं वा सेज वा णिसीहियं वा चेतेइतं पुषामेव अभुक्खेत्ता ततो पच्छा आसयति वा सयइ वा, तते गं सा पुष्फबूला अज्जा कालिं अजं एवं प०-नो खलु कप्पति देवा! समणीणं णिग्गंधीणं सरीरबाउसियाण होत्तए तुमं च णं देवाणुप्पिया ! सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं २ हस्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा तं तुम देवाणुप्पिए। एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पापछि पडिवजाहि,तते णं सा काली अज्जा पुष्फलाए अजाए एयमझु नो आढाति जाव तुसिणीया संचिट्ठप्ति, तते णं ताओ पुप्फचूलाओ अजाओ कालिं अजं अमिक्खणं २हीलेंति जिंदति सिंति गरिहंति अवमपणंति अभिक्खणं १ एपम8 निवारेंति,तते गं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं गिग्गं ceservercedescreers SOCIReseseroe 604 ॥२४९॥ स ~507~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: eleselaesese थीहिं अभिक्खणं २ हीलिजमाणीए जाव वारिज्नमाणीए इमेयासवे अन्मस्थिए जाप समुपजिस्थाजया णं अहं आगारवासं मचे वसिस्था तया " अहं सर्यचसा जप्पिभिइंच णं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचतिया तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कालं पाउपभायाए रयणीए जाव जलते पाडिकिय अवस्सयं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तएतिकटु एवं संपेहेति २कल्लं जाव जलते पाडिएफ उवस्सयं गिण्हति, तत्थ णं अनिवारिया अणोद्दिया सच्छंदमती अभिक्खणं २हत्थे धोवेति जाव आसयइ वा सयइ वा, तए णं सा काली अज्जा पासस्था पासस्थविहारी ओसण्णा ओसण्णविहारी कुसीला २ अहाउंदा २ संसत्ता २ बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेति २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ २ तस्स ठाणस्स अणालोइयजपडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालवर्डिसए भवणे उबवापसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेजाइभागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवीत्ताए उवषण्णा, तते णं सा काली देवी अटुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए, तते णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च यहूर्ण कालवडेंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव विहरति, एवं खलु गो! कालीए देवीए सा दिया देविड्डी ३ लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, कालीए णं भंते ! देवीए केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता', ~508 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शाताधर्मकथाङ्गम्. थाश्रुतस्कन्धः ॥२५॥ गो! अट्ठाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, काली णं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उययद्वित्ता कहिं गच्छिहिति कहं उववजिहिति ?, गो! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमवग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्तिबेमि । धम्मकहाणं पढमायणं समत्तं (सूत्रं १४८) सर्वः सुगमः, नवरं 'किण्णा लद्ध'त्ति प्राकृतखात् केन हेतुना लब्धा-भवान्तरे उपार्जिता प्राप्ता-देवभवे उपनीता| अभिसमन्वागता-परिभोगतः उपयोग प्राप्तेति, 'वडत्ति बृहती वयसा सैव बृहत्वादपरिणीतखाच्च बृहत्कुमारी जीर्णा शरीरजरणाद्धेत्यर्थः सैव जीर्णत्वापरिणत्वाभ्यां जीणकुमारी जीर्णशरीरलादेव पतितपुतस्तनी-अवनतिगतनितम्बदेशवक्षोजा |निर्विण्णाच वरा:-परिणेतारो यस्याः सा निर्विष्णवरा अत एव वरपरिवर्जितेति, शेष सूत्रसिद्धम् ।। जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमद्धे प० वितियस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के० अहे पण्णते?, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २रायगिहे नगरे गुणसीलए चेहए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति, तेणं कालेणं २राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेब आगया पट्टविहिं १ उवदंसेत्ता पडिगया, भंतेत्ति भगवं गो! पुवभवपुच्छा, एवं खलु गो! तेणं कालेणं २ आमलकप्पा णयरी अंबसालवणे चेहए जियसत्तू राया राई गाहावती राईसिरी भारिया राई दारिया पासस्स समो neeroe ॥२५॥ ~509 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [१], ---------- अध्ययनं [१-५], ---------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सरणं राई दारिया जहेब काली तहेव निक्खता तहेव सरीरयाउसिया तं चेव सर्व जाव अंतं काहिति। एवं खलु जंबू ! बिइयजायणस्स निक्वेवओ २। जति णं भंते! तइयज्झयणस्स उक्खेवतो, एवं खल्लु जंबू! रायगिहे णयरे गुणसिलए चेइए एवं जहेब राती तहेव रयणीवि, गवरं आमलकप्पा नयरी रयणी गाहावती रयणसिरी भारिया रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिति । एवं विज्जूवि आमलकप्पा नपरी चिज्जुगाहावती विज्जुसिरिभारिया विज्जुदारिया सेसं तहेव ४ । एवं मेहावि आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावती मेहसिरि भारिया मेहा दारिया सेसं तहेव ५। एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते (सूत्रं १४९) जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोचस्स बग्गस्स उक्खेचओ, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पं०,तं०-सुंभा निसुंभारंभा निरंभा मदणा, जति णं भंते समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दोचस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पं०, दोचस्स णं भंते! बग्गस्स पढमायणस्स के. अहे पं०१, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे णयरे गुणसीलए चेइए सामी समोसढो परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ सुंभा देवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुभंसि सीहासणंसि कालीगमएणं जाव णहविहिं उवदंसेत्ता जाच पडिगया,पुत्भवपुच्छा, सावस्थीणयरी कोट्टए चेहए जियसत्तू राया सुंभे गाहावती मुंभसिरी भारिया मुंभा दारिया सेसं जहा कालिया गवरं । RELIGunintentATHREE FarPranaamsamumony अत्र पञ्च-अध्ययनात्मक: प्रथम-वर्ग: परिसमाप्त: अथ वितियात् आरभ्य दशम-वर्ग: पर्यन्ता वर्गा: (स्व-स्व अध्ययनानि समेता) कथ्यन्ते ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [२],[३], --------- अध्ययनं [१-५],[१-५४], --------- मूलं [१५०,१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म कथाम SIRधर्मक थाश्रुतस्कन्धः २५|| अदुवाति पलिओवमाई ठिती, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ अज्झयणस्स एवं सेसावि चत्तारि अझयणा, सावत्थीए नवरं माया पिया सरिसनामया, एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ वितीयवग्गस्स २(सूत्रं १५०) उक्खेवओ तइयवग्गस्स एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तइयरस वग्गरस चउपपणं अज्झयणा पन्नत्ता, सं०-पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णतिमे अजायणे, जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउष्पन्नज्झयणा पं० पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णते, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे गयरे गुणसीलए चेइए सामी समोसढे परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ इला देवी धरणीए रायहाजीए इलावडंसए भवणे इलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएणं जाव गटविहिं उपदंसेत्ता पडिगया, पुषभवपुच्छा, चाणारसीए णयरे काममहावणे चेइए इले गाहावती इलसिरी भारिया इला दारिया सेसं जहा कालीए णवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ सातिरेगअद्धपलिओवमठिती सेसं तहेव, एवं खलु णिक्खेवओ पढमजायणस्स, एवं कमा सतेरा सोयामणी इंदा घणा विज्जुयावि, सखाओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ एव, एते छ अज्झयणा वेणुदेवस्सवि अविसेसिया भाणियच्चा एवं जाव घोसस्सवि एए चेव छ अज्झयणा, एवमेते दाहिणिल्लाणं इंदाणं चउपपणं अज्झयणा भवंति, सहाओवि वाणारसीए काममहावणे चेहए तइयवग्गस्स णिक्खेवओ (सूत्रं १५१) चउत्थस्स उक्खेवओ, ॥२५॥ ~511 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [४] ---------- अध्ययनं [१-५४] ---------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पं०,०पहमे अजायणे जाव चप्पण्णइमे अज्झयणे, पढमस्स अज्झयणस्स उक्खेवो गो०1 एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ रूया देवी रूयाणंदा रायहाणी रूयगवर्दिसए भवणे रूपगंसि सीहासणंसि जहा कालीए तहा नवरं पुषभवे चंपाए पुण्णभदे चेतिए रूयगगाहावई रूयगसिरी भारिया रूया दारिया सेसं तहेव, णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उवयाओ देसूर्ण पलिओवमं ठिई णिक्खेवओ, एवं खलु सुरूयावि रूयंसावि रूयगावतीवि रूपकतावि ख्यप्पभावि, एयाओं चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियबाओ जाव महाघोसस्स, णिक्खेबओ चउत्थवग्गस्स (सूत्रं १५२) पंचमवग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! जाच बत्तीसं अज्झयणा पं०, तं०कमला कमलप्पभा चेव, उप्पला य सुदंसणा । रूववती बहुरूवा, सुरूवा सुभगाविय ॥१॥ पुण्णा बहुपुत्तिया चेव, उत्तमा भारियाविय । पउमा वसुमती चेव, कणगा कणगप्पभा ॥२॥ वडेंसा केउमतीचेव, वहरसेणा रयिप्पिया । रोहिणी नमिया चेव, हिरी पुष्फवतीतिय ॥३॥ भुयगा भुयगवती चेव, महाकच्छाऽपराइया। सुघोसा विमला चेव, सुरसराय सरस्सती॥४॥ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स, एवं खलु जंबू तेणं कालेणं २रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलसि सीहासर्णसि सेसं जहा कालीए तहेव णवरं पुषभषे ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" श्रुतस्कन्ध: [२], -------- वर्ग: [५] -------- अध्ययनं [१-५४] -------- मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: जाताधर्म कथाका २धर्मकथाश्रुतस्कन्धः ॥२५२॥ नागपुरे नयरे सहसंबवणे उजाणे कमलस्स गाहावतिस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासस्स० अंतिए निक्खंता कालस्स पिसायकुमारिंदस्स अग्गमहिसी अपलिओवमं ठिती, एवं सेसावि अज्झयणा दाहिणिल्लाणं वाणमंतरिंदाणं, भाणियबाओ सबाओ णागपुरे सहसंबवणे उजाणे माया पिया धूया सरिसनामया, ठिती अद्धपलिओवमं । पंचमो वग्गो समत्तो। (सूत्रं १५३) छटोवि वग्गो पंचमवग्गसरिसो, णवरं महाकालिंदाणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुषभवे सागेयनयरे उत्तरकुरुउजाणे माया पिया धूया सरिसणामया सेसं तं चेव । छटो वग्गो समत्तो (सूत्रं १५४) सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! जाव चत्तारि अज्झयणा पं०.०-सूरप्पभा आयवा अचिमाली पभंकरा, पढमजायणस्स उक्खेषओ, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं २ सूरप्पभा देवी सूरंसि. विमाणसि सरप्पमंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए तहा णवरं पुषभवो अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए सुरप्पभा दारिया सूरस्स अग्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहिं अन्भहियं सेसंजहा कालीए, एवं सेसाओवि सबाओ अरक्खरीए णयरीए। सत्तमो वग्गो समत्तो (सूत्रं १५५) अहमस्स उक्खेचओ, एवं खलु जंबू! जाव चत्तारि अज्झयणा पं०,०-चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, पढमस्स अजायणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २ रायगिहे समोसरणं जाव परिसा ॥२५॥ ~513 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [८] --------- अध्ययनं [१-४] --------- मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: पतक-भाग ३ लावाधर्मकथा" - अमन- मल-वृत्मिने पज्जुवासति, सेणं कालेणं २ चंदप्पभा देवी चंदप्पभसि विमाणसि चंदप्पभंसि सीहासणंसि सेसं जहा कालीए, णवरं पुत्वभवे महुराए णयरीए भंटिवडेंसए उजाणे चंदप्पभे गाहावती चंदसिरी भारिया चंदप्पभा दारिया चंदस्स अग्गमहिसी ठिती अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अन्भहियं सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओवि महुराए णयरीए मायापियरोवि धूयासरिसणामा, अट्ठमो वग्गो समत्सो। (सूत्रं १५६) णवमस्स उक्खेवओ, एवं खस्लु जंबू ! जाव अट्ट अज्झयणा पं०, तं०-पषमा सिवा सती अंजू रोहिणी णवमिया अचला अच्छरा, पहमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ, तेणं कालेणं २ पउमावई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणंसि जहा कालीए एवं अढवि अज्मयणा कालीगमएणं नायवा, णवरं सावत्थीए दो जणीओ हथिणाउरे दो जणीओ कंपिल्लपुरे दो जणीओ सागेयनयरे दो जणीओ पउमे पियरो विजया मायराओ सबाओऽवि पासस्स अंतिए पदतियाओ सक्करस अग्गमहिसीओ ठिई सत्त पलिओवमाईमहाविदेहे वासे अंतं काहिंति ।णवमो वग्गो समत्तो (सूत्र १५७) दसमस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! जाव अट्ठ अज्झयणा पं०, तं०-कण्हा य कण्हराती रामा तह रामरक्खिया बसू या । वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चैव ईसाणे॥१॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुबासति, SAREauratoninternational ~514 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा" - अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कन्ध: [२], --------- वर्ग: [१०] --------- अध्ययनं [१-८] --------- मूलं [१५८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६] अंगसूत्र-[०६] "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञाताधर्म स्कन्धः I तेणं कालेणं २ कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कण्हव.सए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्हंसि सीहासणंसि कधाङ्गम्. सेसं जहा कालीए एवं अट्ठवि अज्झयणा कालीगमएणं पवा, णवरं पुषभये वाणारसीए नयरीए दो जणीओ रायगिहे नयरे दो जणीओ सावस्थीए नयरीए दो जणीओ कोसंबीए नयरीए दो जणीओ रामे ॥२५३॥ पिया धम्मा माया सबाओऽवि पासस्स अरहओ अंतिए पवइयाओ पुष्फलाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए ईसाणस्स अग्गमहिसीओ ठिती णव पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिजिझहिंति बुजिमाहिति मुच्चिहिंति सबदुक्खाणं अंतं काहिंति । एवं खलु जंबू! णिक्खेवओ दसमवग्गस्स । दसमो वग्गो समत्तो। (सूत्र १५८) । एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोसमेणं जाव संपत्तेणं | धम्मकहा सुयक्खंधो समसो दसहि बग्गेहिं नायाधम्मकहाभो समताओ। (सूत्रं १५९) समाप्तो द्वितीयः श्रुतस्कन्धः। नमः श्रीवर्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः । नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः ॥१॥ इह हि गमनिकार्थ यन्मया KI ब्यूहयोक्तं, किमपि समयहीनं तद्विशोध्यं सुधीभिः । नहि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा, दयितजिनमतानां तायिनां चाङ्गि वर्गे ॥ २॥ परेषां दुर्लक्षा भवति हि विपक्षाः स्फुटमिदं, विशेषाद् वृद्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम् । निराम्नायाधीभिः पुनरतितरी मादृशजनस्ततः शास्त्रार्थे मे वचनमनघं दुर्लभमिह ॥३॥ ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञैः, स्वयमूद्यः प्रयत्नतः । न पुनरसदाख्यात, एव ग्रामो नियोगतः ॥ ४॥ तथापि माऽस्तु मे पापं, समत्युपजीवनात् । वृद्धन्यायानुसारिखाद्धितार्थ च प्रवृत्तितः | ॥२५॥ | अथ द्वितियात् आरभ्य दशम-वर्ग: पर्यन्ता वर्गा: (स्व-स्व अध्ययनानि समेता) परिसमाप्ता: ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम | (०६) [भाग-१२] “ज्ञाताधर्मकथा” – अंगसूत्र-६ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कन्ध: [२], ---------- वर्ग: [-] --------- अध्ययनं [-] ---------- मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[०६, अंगसूत्र-[०६] “ज्ञाताधर्मकथा' मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ५॥ तथाहि-किमपि स्फुटीकृतमिह स्फुटेऽप्यर्थतः, सकष्टमतिदेशतो विविधवाचनातोऽपि यत् । समर्थपदसंश्रयाद्विगुण| पुस्तकेभ्योऽपि यत्, परात्महितहेतवेऽनभिनिवेशिना चेतसा ॥६॥ यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं व्युत्पादयामासिवान्, प्रस्थानर्विविधैर्निरस निखिलं बौद्धादि सम्बन्धि तत् । नानावृत्तिकथाकथापथमतिक्रान्तं च चके तपो, निःसम्बन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा ॥ ७ ॥ तस्साचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, तन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि । छन्दोवन्धनिबद्धबन्धुरवचःशब्दादिसल्लक्ष्मणः, श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः ॥८॥ शिष्येणाभयदेवाख्यमूरिणा विवृतिः कृता । ज्ञाताधर्मकथाजस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥ ९ ॥ निर्वतककुलनभस्तलचन्द्रदोणाख्यम्रिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥१०॥ प्रत्यक्षरं गणनया, अन्धमान विनिधितम् । अनुष्टुमा सहसाणि, त्रीण्येवाष्टशतानि च ॥११॥ एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे विजयद-15 शम्यां च सिद्धेयम् ।। १२॥ समाप्ता चेयं ज्ञाताधर्मकथाप्रदेशटीकेति ।। सार है ॥ इति चन्द्रकुलनभस्तलोडपतिप्रभश्रीमदभयदेवमूरिसूत्रितविवरणयुतं ज्ञाताधर्मकथाङ्गं समाप्तम् ।। MUN ट अथ द्वितिय: श्रुतस्कन्ध: परिसमाप्त: REDurammindinmalsina भाग 12 "ज्ञाताधर्मकथा" मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ~516 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HUT कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन-१,२ 02 आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ 04 आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १५ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान-१ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण | 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. | 08 | आगम ०५ भगवती मुलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण | 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ | 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ३३६ ६१० ~517 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ ४४२ सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम भाग 22 | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. 23 | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. 24 | | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. | आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया । आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से १२१ 29 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ ____30 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन-१ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन-१ से ५ | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ર૬. ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ ~518 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आलम आर रागम 341077 GEUNER आजम आगम राजस 617-747 आगर आजम आरा 201712 आगम आजम आजम आजम आजम आगम आगम आजम अवान Marver आजम राजम 311001 आजम आजम आगम है आजम आजम ATGTH GUSTA 431STR SISTE आगम वाचना शताब्दी वर्ष आराम आजम आजम आजम आजम वि ~519~ SAICHAR आगाम आज़म आजम Katram आगमन KHON आज Angre MSASTR आगम आजम आराम आलमाराम आलम आ जागा प्रीय आलम STRE आगम आजम आज आजस Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम, आज आजम म रागम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक FOT काम 38राम Mar पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज 3 TORTIE BUSHE अभिनव संकलनकर्ता ~ 520~ Super FICHE Supics Suom STONE राजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रोजेक्ट के संपूर्ण अनुदान- दाता OFF OF OT 오늘 ~ 521 ~ श्री आगम मंदिर पालिताणा Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजमा मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आजम आजम आजम आजम आजम आगम -6 'ज्ञाताधर्मकथा' मूलं एवं वृत्ति: आजम आजम् अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~522