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अर्हम् ।
श्रीमच्छ्यामाचार्य दृब्धं श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहित विवरणयुतं
श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् (उत्तरार्द्धम् )
प्रकाशयित्री - १००० राधनपुरवास्तव्यश्रेष्ठिमोतीलालमूलजी १००० कालीयावाडीवास्तव्य - श्रेष्ठिमेघाजीचांपाजी ६२९ सोर्यपुरीयबृहच्चतुष्पथसत्कश्रीसङ्घवितीर्णपूर्ण
द्रव्यसाहाय्येन श्रेष्ठिवेणीचन्द्रसुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः मोहमय्यां 'निर्णयसागर' मुद्रणालये रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
प्रतयः १००० ]
2123
वीरसंवत् २४४५ विक्रमसंवत् १९७५ क्राईष्ट १९१९. वेतनं ९-१२-० [ Rs. 1-12-0]
325এ225
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Printed by Ramchandra Yesu Shedge, Nirnaya-Sagar Preas, 33, Kolbbat Lane, Bombay.
- 04 Pablished by Shah Venichand Surchand for Agamodaysamiti, Mebesana.
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प्रज्ञापनासूत्रं.
श्रीआगमवाचनामां मदद.
900oce
म. रकम. मददगारोनां नाम. गामर्नु नाम. बाकी. |३००० शेठ उत्तमचंद खीमचंद
पाटण. .. | १५०० वोरा लल्लुभाइ कीशोरदास मेसाणा. . |१५०० दोसी कस्तूरचंद वीरचंद मेसाणा. . १००१ शा. रायचंदभाइ दुर्लभदास कालीयावाडी. . |१००१ संघवी बुलाखीदास पुंजीराम मेसाणा. १००१ |१००१ भणसाली रूपचंद मूलजीनी
विधवा बाई रामकुंवरबाइ पोरबंदर ५०० १००१ गांधी रामचंद हरगोविन्दास मेसाणा. | १००० शा. हालाभाइ मगनलाल पाटण. | ५५१ । शा. खुशालभाइ करमचंद वेरावळ.
म. रकम. मददगारोनां नाम. गामनुं नाम. बार्क
५५१ बाबु चुनीलालजी पन्नालालजी पाटण. ५०१ पारी त्रीकमदास हीराचंद मेसाणा. ५०१ शेठ नगीनदास छगनलाल माणसा. ५०१ शा. कल्याणचंद उत्तमचंदनी
विधवाबाइ नंदुबाइ प्रभासपाटण. . ५०१ शा. कल्याणचंद लक्ष्मीचंद वेरावळ. . ५०१ परी. बालाभाइ देवचंद कपडवंज ५०१ शेठ जेसींगभाइ प्रेमाभाइ केवलभाइ
कपडवंज ५०० झवेरी कस्तूरचंद झवेरचंद सुरतबंदर
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आगमछ.
श्रीआगमछपाववामां मदद.
मदद
॥
१
॥
म.रकम. अमुकसूत्रमां. मदद. नाम.गाम.नाम. बाकी. | म. रकम. अमुकसूत्रमा मदद. नाम. गाम.नाम. बाकी. | २२०० श्रीआचारां-वोरा जेसींगभाइ )
५०० " झवेरी कस्तूरचंद झवेरचंद सुरतबंदर. . गजीमां डोसाभाइ हस्ते वोरा मेसाणा.
५०० " बाइ पारवती ते शा. दललल्लुभाइ कीशोरदास)
छाराम वखतचंदनी विधवा अमदावाद.. १००१ सूयगडांग-शेठ नगीनदास
५००१ " बाई मोंधीबाई शेष्ठ लल्लुभाइ जीमां जीवणजी नवसारी. .
" चुनीलालनी धणीयाणी सुरत. . शेठलल्लुभाइ केवलदास कपडबंज. . ५०० " शेठ सोभाग्यचंद माणेकचंद " . ५०१ " शेठ मगनलाल दीपचंद माणसा. . १००० ठाणांगजीमां श्रीछाणीना संघतरफथी छाणी. .
शेठ मगनलाल पीतांबरदास अमदावाद. दनी दीकरी बाइ परसन)
१००० " शेठ दीपचंद सुरचंद सुरतबंदर. .
शा. नथुभाइ लालचं-
कपडवंज.
०.
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म. रकम अमुकसूत्रमां मदद नाम गाम नाम. बाकी.
५०१ " ५००
०
शा. शिवचंद सोमचंद सुरत. o शेठ नानचंद धनाजी सुरत. ७५१ समवायांगजीमां शेठ मगनभाइ कस्तूरचंदनी विधवा बाई हीराकोर भरुच.
शेठ कस्तुरचंद नानचंद रूपाल. श्रीशान्तिनाथना देरासरना
33
६२५ " ५०० "
उपाश्रयना हा० बेन नवल मुंबाइ. | ४२०० श्रीभगवतीजीमां शेठ उत्तमचंद मूलचंद तथा शेठ अभेचंद मूलचंद (प्रथमभागमां ) ४२०० श्रीगोडीजीमहाराजना देरासरनी पहेडी तरफथी श्रीभगवतीजीमां द्वितीयभागमां
१२५० श्रीज्ञाताजीमां शेठ उत्तमचंद खीमचंद
मुंबई. पाटण.
o
०
०
o
०
म. रकम. अमुकसूत्रमां मदद नाम गाम नाम. बाकी. झवेरी मगनभाइ प्रतापचंद सुरत.
शेठ अमीचंद खुशालभाइ
फुलचंद जवेरी.
सुरतबंदर.
शेठ चुनीलाल छगनचंद श्रोफ अरधाभागमां सुरतबंदर
१२००
१०००
१०००
"
५०१ उपाशकदशांग, अंतगडदशांग, तथा अनुत्तरोववाइ.
१००० रायपसेणीजीमां पारी सरूपचंद
35
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37
मेसाणा.
""
६५१
शेठ मोहनलाल सांकलचंद अमदावाद. ७५० प्रश्नव्याकरणमां बाबु गुलाबचंदजी
०
०
०
लल्लुभाइ शा. रायचंदभाइ
दुर्लभदास कालीयावाडी. ०
०
०.
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आगमछ.
॥ २ ॥
म. रकम. अमुकसूत्रमां मदद नाम. गाम नाम. बाकी. अमीचंदजी झवेरी मुंबाइबंदर. १०१५ " शेठ मंछुभाइ तलकचंद सुरतबंदर. १०१५ शेठ कल्याणचंद सोभाग्यचंद झवेरी
५००
सुरतबंदर.
३७२५ आवश्यकजीमां बाबु चुनीलालजी
19
पन्नालालजी झवेरी मुंबाइबंदर.
५५० उववाइजीमां शा. हरखचंद अमरचंदनी दीकरी बेन रतन तथा तेजकोर
सुरतबंदर.
५४० उबवाइजीमां झवेरी नवलचंद उदेचंदनी
o
o
०
०
विधवा बाई नंदकोर सुरतबंदर. ०
म. रकम. अमुकसूत्रमां मदद. नाम. गाम नाम. बाकी. मदद.
. ३५०१ पन्नवणा श्रीकपडवंजना संघतरफथी -
प्रथमांश:
६२९ द्वितीयोऽंशः }
१००० "
१००० "
पारी- मीठाभाइ कल्याणचं
दनी पेढीमांथी ज्ञानखाता
मारफत परी - बालाभाइ दल
सुखभाइ रु. २३३१. चउद
सुपननी उपजना रु. ११७० कपडवंज. ०
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वडाचौटाना संघतरफथी हा चंदुभाई सुर
शा मेघाजी चांपाजी तथा
शा लखमाजी मेघाजी कालीयावाडी
०
॥२॥
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म. रकम. अमुकसूत्रमां मदद. नाम. गाम नाम. बाकी.
१००० " शेठ मोतीलाल मूलजी राधनपुर १८०० नंदीजीमां शेठ प्रेमचंद रायचंद मुंबाइबंदर. १७५५ ओघनिर्युक्तिमां जैन विद्याशालातरफथी सुबाजी रखचंद जयचंद अमदावाद. २८५१ सूर्यपन्नतिसूत्रमां झवेरी भगवानदास हीराचंद मुंबा बंदर. ८५१ ५०१ निरयावली ( शेठ हरखचंद सोमचंद सूत्रमां हा० नेमचंदभाइ सुरत.
०
o
o
०
म. रकम. अमुकसूत्रमां मदद. नाम. गाम नाम. बाकी.
५०१ हरकोई सूत्र / शेठ कल्याणचंद छपाववा माटे (देवचंद
५०१ हरकोइ सूत्र | शेठ सरुपचंद अभेचंद पाववा माटे हस्ते शा. प्रेमचंद
सुरत.
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О
०
सुरत.
५३०
विपाकसूत्रमां शेठ गुलाबचंद हरखचंद सुरत. २६५ ५५० हरकोई सूत्र (श्रीतत्त्वबोध जैनश्राविकाशाला छपाववा माटे f तरफथी हा० बेन नवलबेन सुरत. ० सं. १९७५ ना माघ शुक्ल ६ ने शुक्रवारे मुंबई.
0
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पदानामनुक्रमः
प्रज्ञापना
याः
पदानि १-प्रज्ञापनापदम् २-स्थानपदम् ३-अल्पबहुत्वपदम् ४-स्थितिपदम् ५-पर्यायपदम् ६-उपपातोद्वर्तनापदम् ७-उच्छासाख्यं पदम् ८-संज्ञाख्यं पदम् ९-योनिपदम् १०-चरमाचरमपदम् ११-भाषापदम् १२-शरीरपदम्
श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गस्यानुक्रमणिका ॥ पत्राकाः । पदानि
पत्राङ्काः । पदानि ११३-परीणामपदम्
२८४ २५-कर्मवेदाख्यं पदम् ७१ १४-कषायपदम्
२८९२६-कर्मवेदबन्धाख्यं पदम् ११३ १५-इन्द्रियपदम्
२९३ २७-कर्मप्रकृतिवेदवेदपदम् १५८ १६-प्रयोगाख्यं पदम्
३१७२८-आहारपदम् १७९१७-लेश्यापदम्
३३०२९-उपयोगाख्यं पदम् २०४ १८-कायस्थितिपदम्
३७४ ३०-पश्यत्ताख्यं पदम् २१९ १९-सम्यक्त्वपदम्
३९५३१-संज्ञापरिणामपदम् २२१ २०-अन्तक्रियापदम्
- ३९६ ३२-संयमयोगाख्यं पदम् २२४ २१-अवगाहनापदम् . ४०७ ३३-ज्ञानपरिणामाख्यं पदम् २२८ २२-क्रियाख्यं पदम्
४३५ ३४-प्रवीचारपरिणामाख्यं पदम् २४५२३-कर्मप्रकृतिपदम् . . ४५३ ३५-वेदनाख्यं पदम् २५९/२४-कर्मप्रकृतिबन्धपदम् ४९१ ३६-समुद्घाताख्यं पदम्
पत्राहा ४९४ ४९५ ४९७ ४९८ ५२५ ५२८
५३३
५३५
५३५
॥१॥
५५३
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अथ अष्टादशपदं कायस्थितिनामकं प्रारभ्यते ॥ १८॥
तदेवमुक्तं सप्तदशं पदं, अधुनाऽष्टादशमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे लेश्यापरिणाम उक्तः, सम्प्रति परिणामसाम्यात् कायस्थितिपरिणाम उच्यते, तत्र चेदमधिकारगाथाद्वयंजीव गइंदिय काए जोए वेए कसायलेसा य । सम्मत्तणाणदंसण संजय उवओग आहारे ॥१॥ भासगपरित्त पजत्त सुहूम सन्नी भवत्थि चरिमे य । एतेसिं तु पदाणं कायठिई होइ णायचा ॥२॥ जीवे णं भंते ! जीवेत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा ! सबद्धं । दारं १ नेरइए णं भंते ! नेरइएत्ति कालओ केचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ॥ तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केचिरं होइ ?, गोयमा ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेतओ अणंता लोगा असंखेञ्जपोग्गलपरियहा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखिज्जइभागे । तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणित्ति कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तममहियाई ॥ एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि एवं चेव ॥ देवे णं भंते ! देवत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहेव नेरइए, देवी णं भंते ! देवित्ति कालतो केबच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं पणवत्रं पलिओवमाई । सिद्धे णं भंते ! सिद्धेत्ति
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
१८कायस्थितिपदं
॥३७४॥
कालतो केवचिरं होई ?, गोयमा! सादिए अपञ्जवसिए । नेरइए णं भंते ! नेरइयअपज्जत्तएत्ति कालतो केवच्चिरं होड ?. गोयमा! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, एवं जाव देवी अपज्जत्तिया । नरेइयपज्जत्तए मते ! नेरइयपज्जत्तएत्ति कालतो केवञ्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई । तिरिक्खजोणियपज्जत्तए णं भंते ! तिरिक्खजोणियपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा । जहश्रेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, एवं तिरिक्खजोणिणिपज्जत्तियावि, एवं मणुस्सेवि मणुम्सीवि एवं चेव देवपञ्जत्तए जहा नेरइयपजत्तए, देवीपजत्तिया णं भते । देवीपज्जत्तियत्ति कालतो केवचिरं होड. गोयमा! जहन्त्रेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई उक्कोसेणं पणपन्न पलिओवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ।।दारं २ (सूत्रं २३२)
'जीवगइंदियकाए' इत्यादि, प्रथमं जीवपदं, किमुक्तं भवति?-प्रथमं जीवपदमधिकृत्य कायस्थितिर्वक्तव्या इति १ ततो गतिपदं २ तदनन्तरमिन्द्रियपदं ३ ततः कायपदं ४ ततो योगपदं ५ तदनन्तरं वेदपदं ६ ततः कषायपदं ७ ततो लेश्यापदं ८ तदनन्तरं सम्यक्त्वपदं ९ ततो ज्ञानपदं १० तदनन्तरं दर्शनपदं ११ ततः संयतपदं १२ तत उपयोगपदं १३ तदनन्तरमाहारपदं १४ ततः परीत्तपदं १५ ततो भाषकपदं १६ ततः पर्याप्तपदं १७ ततः सूक्ष्मपदं १८ संक्षिपदं १९ ततो भवसिद्धिकपदं २० तदनन्तरमस्तिकायपदं २१ ततश्चरमपदं २२ । एतेषां द्वाविंशतिसङ्ख्यानां पदानां कायस्थितिर्भवति ज्ञातव्या-यथा च भवति ज्ञातव्या तथा यथोद्देशं निर्देक्ष्यते, अथ
॥३७४॥
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कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, काय इह पर्यायः परिगृह्यते, काय इव काय इत्युपमानात् , स च द्विधासामान्यरूपो विशेषरूपश्च, तत्र सामान्यरूपो निर्विशेषणो जीवत्वलक्षणः विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः तस्य स्थितिः-अवस्थानं कायस्थितिः, किमुक्तं भवति ?-सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन भवनं सा कायस्थितिः, ततः प्रथमतः सामान्यरूपेण पर्यायेणादिष्टस्याव्यवच्छेदेन यद् भवनं तचिचिन्तयिषुराह-'जीवे णं भंते!' इत्यादि, इह जीवनपर्यायविशिष्टो जीव उच्यते, ततःप्रश्नयति-जीवा 'णं' इति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीव इति जीवनपर्यायविशिष्टतया इत्यर्थः 'कालतः' कालमधिकृत्य 'कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम ! 'सर्वाद्धां' सर्वकालं यावत् , कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह जीवनमुच्यते | प्राणधारणं, प्राणाश्च द्विधा-द्रव्यप्राणा भावप्राणाश्च, द्रव्यप्राणा इन्द्रियपञ्चकबलत्रिकोच्छ्वासनिःश्वासायुःकर्मानुभवलक्षणाः, भावप्राणाः ज्ञानादयः, तत्र संसारिणामायुःकर्मानुभवलक्षणप्राणधारणं सदैवावस्थितं, न हि सा काचिदवस्था संसारिणामस्ति यस्थामायुःकानुभवनं न विद्यते इति, मुक्तानां तु ज्ञानादिरूपप्राणधारणमवस्थितं,1% मुक्तानामपि हि ज्ञानादिरूपाः प्राणाः सन्ति, यैर्मुक्तोऽपि द्रव्यप्राणैः जीवतीति व्यपदिश्यते, ते च ज्ञानादयो मुक्तानां शाश्चतिकाः, अतः संसार्यवस्थायां मुक्तावस्थायां च सर्वत्र जीवनमस्तीति सर्वकालभावी जीवनपर्यायः॥ सम्प्रति तस्यैव जीवस्य नैरयिकत्वादिपर्यायैरादिष्टस्य तैरेव पर्यायैरव्यवच्छेदेनावस्थानं चिन्तयन्नाह-'नेरइए णं भंते!'
888888888890
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
ecene
१८ कायस्थितिपदं
॥३७५॥
इत्यादि, सुगम, नवरं नैरयिकास्तथाभवखाभाव्यात् खभवाच्युत्वा अनन्तरं न भूयो नैरयिकत्वेनोत्पद्यन्ते, ततो यदेव तेषां भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि इत्युपपद्यते जघन्यत उत्कर्षतश्च यथोक्तपरिमाणा कायस्थितिः। 'तिरिक्खजोणिए णं भंते !' इत्यादि, तत्र यदा देवो मनुष्यो नैरयिको वा तिर्यक्षुत्पद्यते तत्र चान्तमुहूर्त स्थित्वा भूयः खगतौ गत्यन्तरे वा सङ्क्रामति तदा लभ्यते जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा कायस्थितिः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावत् , तस्य चानन्तस्य कालस्य प्ररूपणा द्विधा, तद्यथा-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः, उत्सर्पिण्यवसर्पिणीपरिमाणं च नन्द्यध्ययनटीकातोऽवसेयं, तत्र सविस्तरमभिहितत्वात् , क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, किमुक्तं भवति ?–अनन्तेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे क्रियमाणे यावत्योऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तायतीर्यावत् तिर्यक तिर्यक्त्वेनावतिष्ठते, एतदेव कालपरिमाणं पुदलपरावर्तसङ्ख्यातो निरूपयति-असङ्खयेयाः पुद्गलपरावर्ताः, पुद्गलपरावर्त्तखरूपं च पञ्चसङ्ग्रहटीकायां विस्तरतरकेणाभिहितमिति ततोऽवधार्य, इह तु नाभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात् , असङ्ख्याता अपि पुदलपरावर्ताः कियन्त इति विशेषसङ्ख्यानिरूपणाथेमाह-'ते णं' इत्यादि, ते पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्येयभागः, किमुक्तं भवति?-आवलिकाया असयेयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणा असङ्ख्येयाः पुद्गलपरावर्ती इति, एतचैवं कायस्थितिपरिमाणं वनस्पत्यपेक्षया द्रष्टव्यं न शेषतिर्यगपेक्षया, वनस्पतिव्यतिरेकेण शेषतिरश्चामेतावत्कालप्रमाणकायस्थितेरसंभवात् ,
209080308982889000
॥३७५॥
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ISIतिरिक्खजोणिणी णं भंते !' इत्यादि, इहोत्तरत्र च जघन्यान्तर्मुहूर्त्तभावना प्रागुक्तान्तर्मुहूर्तभावनानुसारेण खयं ।
भावनीया, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि, कथं इति चेत् !, उच्यते, इह तिर्यानुष्याणां सम्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामुत्कर्षतोऽप्यष्टौ भवाः कायस्थितिः “नरतिरियाण सत्तट्ट भवा" [नरतिरश्चां सप्ताष्टौ(वा) भवाः ] इति वचनात् , तत्रोत्कर्षस्य चिन्त्यमानत्वात् अष्टावपि भवा यथासंभवमुत्कृष्टस्थितिकाः परिगृह्यन्ते, असध्येयवर्षायुष्कस्तु मृत्वा नियमतो देवलोकेषूत्पद्यते न तिर्यक्षु, ततः सप्त भवाः पूर्वकोट्यायुषो वेदितव्याः अष्टमस्तु पर्यन्तवर्ती देवकुर्वादिग्विति त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि भवन्ति ‘एवं मणुस्सेवि मणुस्सीवि' इति, एवं-तिर्यस्त्रीगतेन प्रकारेण मनुष्योऽपि मानुष्यपि च वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-मनुष्यसूत्रे मानुषीसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि वक्तव्यानीति, सूत्रपाठस्त्वेवं-'मणुस्से णं भंते ! मणुस्सत्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुत्वकोडीपुहुत्तमभहियाई, मणुस्सी गं भंते ! मणुस्सित्ति कालओ केवच्चिरं होई' इत्यादि, देवसूत्रे 'जहेव नेरइए' इति, यथैव नैरयिकः प्रागुक्तः तथैव देवोऽपि वक्तव्यः, देवस्थापि जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि वक्तव्यानीति भावः, देवा अपि हि खभवाच्युत्वा न भूयोऽनन्तरं देवत्वेनोपपद्यन्ते “नो देवे देवेसु उववजई" [न देवो देवेषूत्पद्यते ] इति वचनात् , ततो यदेव देवानामपि भवस्थितेः परिमाणं तदेव कायस्थितेरपि,
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ASSISोगुक्तः तथैव देवोऽपि वक्तव्य
भयोऽनन्तरं देवत्वेनोपपयन्तास्थितेरपि,
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प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती.
॥३७६॥
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देवीसूत्रे उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानीति, देवीनां भवस्थितेरुत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् , एतच्चेशानदेव्यपे- १८कायक्षया द्रष्टव्यं, अन्यत्र देवीनामेतावत्याः स्थितेरसंभवात् । सिद्धसूत्रे साद्यपर्यवसित इति, सिद्धत्वस्य क्षयासंभवात् ,
स्थितिपदं | सिद्धत्वाद्धि च्यावयितुं ईशा रागादयो, न च ते भगवतः सिद्धस्य संभवन्ति, तन्निमित्तकर्मपरमाण्वभावात् , तदभा
वश्च तेषां निर्मूलकाकषितत्वात् ॥ सम्प्रत्येतावतो नैरयिकादीन् पर्याप्तापर्याप्त विशेषणद्वारेण चिन्तयन्नाह-'नेर ६ एणं भंते !' इत्यादि, नैरयिको भदन्त ! अपर्याप्त इति-अपर्याप्सत्वपर्यायविशिष्टोऽविच्छेदेन कालतः कियन्तं कालं & यावद्भवति ?, भगवानाह-गौतम ! इत्यादि, इहापर्याप्तावस्था जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तप्रमाणा, तत ऊर्ल्ड &
नरयिकाणामवश्यं पर्याप्तावस्थाभावात् , तत उक्तं 'जहन्नेणवि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं'। 'एवं जाव देवी अपजत्तिया' इति, एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेणापर्याप्सास्तिर्यगादयस्तावद्वक्तव्याः यावद्देव्यपर्यासिका, अपर्याप्तकदेवीसूत्रं यावदित्यर्थः, तत्र तिर्यञ्चो मनुष्याश्च यद्यप्यपर्याप्तका एव मृत्वा भूयो भूयोऽपर्याप्तत्वेनोपपद्यन्ते तथापि तेषामपर्याप्तावस्था नैरन्तर्येणोत्कर्षतोऽपि अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणैव लभ्यते, यद्वक्ष्यति 'अपजत्तए णं भंते ! अपजत्तएत्ति कालतो केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं' इति, देवदेवीसूत्रे अन्तर्मुहूर्तभावना ॥३७६॥ नैरयिकवत् वक्तव्या । 'नेरइयपजत्तए णं भंते !' इत्यादि, नैरयिकपर्याप्त इति-पर्याप्तो नैरयिक इत्येवमविच्छेदेन । कालतः कियचिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम ! जघन्यतो दश वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्तोनानि, अन्तर्मुहूर्तस्याद्यस्या
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पर्याप्तावस्थायां गतत्वात्, अत एवोत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूतनानि, तिर्यक्सूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त भावना प्रागिव, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमान्यन्तर्मुहूत्तनानि, एतच्चोत्कृष्टायुषो देवकुर्वादिभाविनस्तिरश्वोऽधिकृत्य वेदनीयं, अन्येषामेतावत्कालप्रमाणायाः पर्याप्तावस्थाया अविच्छेदेनाप्राप्यमाणत्वात्, अत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तोनित्वमन्तर्मुहूर्त्तस्याद्यस्यापर्याप्तावस्थायां गतत्वात् एवं तिर्यक् स्त्रीमनुष्य मानुषीसूत्रेष्वपि भावनीयं । देवदेवीसूत्रयोस्तु जघन्यत उत्कर्षतश्च कायस्थितिपरिमाणं प्रागुक्तमेव अपर्याप्तावस्था भाविनाऽन्तर्मुहूर्त्तेन हीनं परिभावनीयं । गतं गतिद्वारं, इदानीमिन्द्रियद्वारमभिधित्सुराह
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सईदिए णं भंते ! सईदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ १, गोयमा ! सईदिए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा - अणाइए वा अपजवसिए अणाइए सपज्जवसिए । एगिंदिए णं भंते! एगिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ १, गोयमा ! जहनेणं अंतोतंउकोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो || बेईदिए णं भंते ! बेईदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । एवं तेईदियचउरिदिएवि । पंचिदिए णं भंते ! पंचिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं । अणिदिए णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपज - वसिए । सइंदियपज्जत्तए णं भंते । सइंदियपज्जत्तएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । एगिंदियपज्जत्तए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखे जाई
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ .
॥३७७
वाससहस्साई | बेइंदियपज्जत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं संखेज्जवासाईं, तेइंदियपज्जतए णं : पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेजाई राइंदियाई, चउरिंदियपञ्जत्तए णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जा मासा | पंचिंदियपञ्जत्तए णं भंते ! पंचिंदियपज्जत्तपत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसय पुहुत्तं । सइंदियअपज्जतए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहनेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, एवं जाव पंचिदियअपज्जत्तए । दारं ३ ( सू २३३ )
'सदिए णं भंते!' इत्यादि, सहेन्द्रियं यस्य येन वा स सेन्द्रियः, इन्द्रियं च द्विधा - लब्धीन्द्रियं द्रव्येन्द्रियं च, तत्रेह लब्धीन्द्रियमवसेयं, तद्विग्रहगतावप्यस्ति इन्द्रियपर्याप्तस्यापि च ततो निर्वचनसूत्रमुपपद्यते, अन्यथा तदघटमानकमेव स्यात्, निर्वचनसूत्रमेवाह - गौतम ! इत्यादि, इह यः संसारी स नियमात् सेन्द्रियः संसारश्चानादिः | इत्यनादिः सेन्द्रियः, तत्रापि यः कदाचिदपि न सेत्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, सेन्द्रियत्वपर्यायस्य कदाचिदप्यव्यवच्छेदात्, यस्तु सेत्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्त्यवस्थायां सेन्द्रियत्वपर्यायस्याभावात् । एकेन्द्रियसूत्रे यदुक्तं - 'उक्कोसेणं अणतं कालं' इति तमेवानन्तकालं सविशेषं निरूपयति- 'वणस्सइकालो' इति, यावान् वनस्पतिकालोऽग्रे वक्ष्यते तावन्तं कालं यावदित्यर्थः, वनस्पतिकायश्चैकेन्द्रियः, एकेन्द्रियपदे तस्यापि परिग्रहात् स च वनस्पतिकालः एवंप्रमाणः - 'अनंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते
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१८ काय
स्थितिपद
॥३७७॥
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पण पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागो' इति द्वीन्द्रियसूत्रे 'संखेनं कालं'ति सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणीत्यर्थः,
'विगलिंदियाण य वाससहस्सा संखेजा' [विकलेन्द्रियाणां वर्षसहस्राणि संख्ययानि ] इति वचनात् , एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिययोरपि सूत्रे वक्तव्ये, तत्रापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः सङ्ख्येयकालमिति वक्तव्यमिति भावः, सङ्ख्येयश्च कालः सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि प्रत्येतव्यानि । पञ्चेन्द्रियसूत्रे उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रं, तच नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवभवभ्रमणेन द्रष्टव्यं, अधिकं तु न भवति, एतावत एव कालस्य केवलवेदसोपलब्धत्वात् । अनिन्द्रियो द्रव्यभावेन्द्रियविकलः स च सिद्ध एव सिद्धश्च साद्यपर्यवसितः तत उक्तं 'साइए अपजवसिए' इति । 'सइंदियअपजत्तए णं इत्यादि, इहापर्याप्ता लब्ध्यपेक्षया करणापेक्षया च द्रष्टव्याः, उभयथापि तत्पर्यायस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् , एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकः-पञ्चेन्द्रियापर्याप्तकसूत्रं, तच सुगमत्वात् खयं परिभावनीयं, अनिन्द्रियोऽत्र न वक्तव्यः, तस्य पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहितत्वात् । 'सइंदियपजत्तए णं भंते !' इत्यादि, इह पर्याप्तो लब्ध्यपेक्षया वेदितव्यः, स हि विग्रहगतावपि संभवति, करणैरपर्याप्तस्यापि, तत उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वमिति यनिर्वचनं तदुपपद्यते, अन्यथा करणपर्याप्तत्वस्योत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूत्तोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणतया लभ्यमानत्वात् यथोक्तं निर्वचनं नोपपद्यते, एवमुत्तरसूत्रेऽपि पर्याप्तत्वं लब्ध्यपेक्षया द्रष्टव्यं । एकेन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणीति, एकेन्द्रियस्य हि पृथिवीकायस्योत्कर्षतो
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
॥३७॥
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& द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि भवस्थितिः अप्कायस्य सप्त वर्षसहस्राणि वातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्य १८काय
दश वर्षसहस्राणि ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसंकलनया सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि घटन्ते इति । द्वीन्द्रियपर्या- स्थितिपदं ससूत्रे सङ्ख्येयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रियस्य हि उत्कर्षतो भवस्थितिपरिमाणं द्वादश संवत्सराणि, न च सर्वेष्वपि भवे-18 फूत्कृष्टस्थितिसंभवः, ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसंकलनयापि सङ्ख्येयानि वर्षाण्येव लभ्यन्ते न तु वर्षशतानि वर्षसहस्राणि वा । त्रीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सङ्ख्ययानि रात्रिन्दिवानि, तेषां च भवस्थितेरुत्कर्षतोऽप्येकोनपञ्चाशहिनमानतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसंकलनायामपि सङ्ख्येयानां रात्रिन्दिवानामेव लभ्यमानत्वात, चतुरिन्द्रियपर्याससूत्रे सङ्ग्येया मासाः, तेषां भवस्थितरुत्कर्षतः षण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्येयानां मासानां प्राप्यमाणत्वात् । पञ्चेन्द्रियसूत्रं सुगमं । गतमिन्द्रियद्वारं, इदानी कायद्वारमभिधित्सुराह
सकाइए णं भंते ! सकाइएत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सकाइए दुविहे पन्नते, तंजहा–अणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपजवसिए जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवाससमभहियाई, अकाइए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! अकाइए सादिए अपज्जवसिए, सकाइयअपज्जत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणवि उक्कोसेणवि ॥३७८॥ अंतोमुहुत्तं, एवं जाव तसकाइयअपजत्तए । सकाइयपज्जत्तए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं, पुढविकाइए णं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेजं कालं असंखेजाओ उस्स
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प्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा, एवं आउतेउवाउकाइयावि, वणस्सइकाइया णं पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणिओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियट्टा ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो । पुढविकाइए पजत्तए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेजाई वाससहस्साई, एवं आउवि, तेउकाइए पजत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाई राईदियाई, वाउकाइयपजत्तए णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजाई वाससहस्साई, वणस्सइकाइयपज्जत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजाई वाससहस्साई, तसकाइयपजत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं दारं ४ । (सूत्रं २३४)
'सकाइए णं भंते !' इत्यादि, सह कायो यस्य येन वा स सकायः सकाय एव सकायिकः आपत्वात् खार्थे इकप्रत्ययः, कायः-शरीरं, तचौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदात् पञ्चधा, तत्रेह कार्मणं तैजसं वा द्रष्टव्यं, तस्यैवाऽऽसंसारभावात् , अन्यथा विग्रहगतौ वर्तमानस्य शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य च शेषशरीरासंभवादकायिकत्वं स्यात् , तथा च सति निर्वचनसूत्रप्रतिपादितं द्वैविध्यं नोपपद्यते, अथ निर्वचनसूत्रमाह-'सकाइए दुविहे पन्नत्ते' इत्यादि, तत्र यः संसारपारगामी न भविष्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः कदाचिदपि तस्य कायस्य व्यवच्छेदासंभवात् यस्तु मोक्षमधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः तस्य मुक्त्यवस्थासंभवे सर्वात्मना शरीरपरित्यागात्, पृथिव्यतेजोवायुवनस्प
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
१८कायस्थितिपदं
॥३७९॥
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तिसूत्राणि सुगमानि, अन्यत्रापि तदर्थस्य प्रतीतत्वात् , तथा चोक्तं-'असंखोसप्पिणिओसप्पिणीओ एगिंदियाण उ चउण्हं । ता चेव उ अणंता वणस्सईए उ बोद्धबा ॥१॥ [असंख्या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य एकेन्द्रियाणां चतुण । ता एवानन्ता वनस्पती बोद्धव्याः ॥१॥] ननु यदि वनस्पतिकालप्रमाणं असङ्ख्येयाः पुद्गलपरावर्त्तास्ततो यद्गीयते सिद्धान्ते-मरुदेवाजीवो यावजीवभावं वनस्पतिरासीदिति, तत्कथं स्यात् ?, कथं वा वनस्पतीनामना|दित्वं, प्रतिनियतकालप्रमाणतया वनस्पतिभावस्थानादित्वविरोधात्, तथाहि-असङ्ख्येयाः पुदलपरावर्तास्तेषामवस्थानमानं, तत एतावति कालेऽतिक्रान्ते नियमात् सर्वेऽपि कायपरावर्त कुर्वते, यथा खस्थितिकालान्ते सुरादयः, उक्तं च-"जइ पुग्गलपरियट्टा संखाईया वणस्सईकालो । तो अचंतवणस्सईणमणाइयत्तमहेतूओ ॥१॥ न य मरुदेवाजीवो जावजीवं वणस्सई आसी। जमसंखेजा पुग्गलपरियट्टा तत्थऽवत्थाणं ॥२॥ कालेणेवइएणं जम्हा | कुवंति कायपलहूं । सवेवि वणस्सइणो ठिइकालंते जह सुराई ॥३॥ [ यदि पुद्गलपरावर्त्ताः संख्यातीता वनस्प-18 |तिकालः । तदाऽऽत्यन्तवनस्पतीनामनादित्वमहेतुकं ॥ १॥ न च मरुदेवीजीवो यावजीवं वनस्पतिरासीत् । यदसंख्ययाः पुद्गलपरावर्तास्तत्रावस्थानं ॥२॥ कालेनैतावता यस्मात् कुर्वन्ति कायपरावर्त । सर्वेऽपि वनस्पतयः स्थितिकालान्ते यथा सुराद्याः ॥॥] किं च-एवं यद्वनस्पतीनां निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं तदपीदानी प्रसक्तं, कथमिति चेद् ?, उच्यते, इह प्रतिसमयमसङ्ख्यया वनस्पतिभ्यो जीवा उद्वर्तन्ते, वनस्पतीनां च कायस्थितिपरि
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IS माणमसङ्ख्येयाः पुद्गलपरावर्तास्ततो यावन्तोऽसङ्ख्येयेषु पुद्गलपरावर्तेषु समयास्तैरभ्यस्ता एकसमयोवृत्ता जीवा यावन्तो |
भवन्ति तावत्परिमाणमागतं वनस्पतीनां, ततः प्रतिनियतपरिमाणतया सिद्धं निर्लेपनं, प्रतिनियतपरिमाणत्वादेव च गच्छता कालेन सिद्धिरपि सर्वेषां भव्यानां प्रसक्ता, तत्प्रसक्तौ च मोक्षपथव्यवच्छेदोऽपि प्रसक्तः, सर्वभव्यसिद्धिगमनानन्तरमन्यस्य सिद्धिगमनायोगात्, आह च-"कायद्विइकालेणं तेसिमसंखेजयावहारेणं । निलेवणमावन्नं सिद्धीवि य सवभवाणं ॥१॥ पइसमयमसंखेजा जेणुवटुंति तो तदन्भत्था । कायटिइऍ समया वणस्सईणं च परिमाणं ॥२॥ [कायस्थितिकालेन तेषामसंख्येयकापहारेण । निर्लेपनमापन्नं सिद्धिरपि च सर्वभव्यानां ॥१॥ प्रतिसमयमसंख्येया येनोद्वर्त्तन्ते ततस्तदभ्यस्ताः। कायस्थितेः समयाः वनस्पतीनां च परिमाणं ॥२॥] न चैतदस्ति, वनस्पतीनामनादित्वस्य निर्लेपनप्रतिषेधस्य सर्वभव्यासिद्धेर्मोक्षपथाव्यवच्छेदस्य च तत्र तत्र प्रदेशे सिद्धान्तेऽभिधानात् , उच्यते, इह द्विविधा जीवाः-सांव्यवहारिका असांव्यवहारिकाश्चेति, तत्र ये निगोदावस्थात उद्धृत्त्य पृथिवीकायिकादिभेदेषु वर्तन्ते ते लोकेषु दृष्टिपथमागताः सन्तः पृथिवीकायिकादिव्यवहारमनुपतन्तीति व्यवहारिका उच्यन्ते, ते च यद्यपि भूयोऽपि निगोदावस्थामुपयान्ति तथापि ते सांव्यवहारिका एव, संव्यवहारे पतितत्वात् ,
ये पुनरनादिकालादारभ्य निगोदावस्थामुपगता एवावतिष्ठन्ते ते व्यवहारपथातीतत्वादसांव्यवहारिकाः, कथमे४ तदवसीयते ? द्विविधाः जीवाः सांव्यवहारिकाः असांव्यवहारिकाश्चेति, उच्यते, युक्तिवशात्, इह प्रत्युत्पन्नवन
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ .
॥१८०॥
स्पतीनामपि निर्लेपनमागमे प्रतिषिद्धं किं पुनः सकलवनस्पतीनां तथा भव्यानामपि य (त) च्च यद्यसांव्यवहारि कराशिनिपतिता अत्यन्तवनस्पतयो न स्युः ततः कथमुपपद्येत ?, तस्मादवसीयते अस्त्यसांव्यवहारिकराशिरपि यद्गतानां वनस्पतीनामनादिता, किं चेयमपि गाथा गुरूपदेशादागता समये प्रसिद्धा - " अत्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो । तेवि अनंताणंता निगोयवासं अणुवसंति ॥ १ ॥” [ सन्त्यनन्ता जीवा यैर्न प्राप्तस्वसादिपरिणामः । तेऽप्यनन्तानन्ता निगोदवासमनुवसन्ति ॥ १ ॥ ] तत इतोऽप्यसांव्यवहारिकराशिः सिद्धः, उक्तं च - "पचुप्पन्नवणस्सईण निल्लेवणं न भवाणं । जुत्तं होइ न तं जइ अचंतवणस्सई नत्थि ॥ २ ॥ एवमणादिवणस्सईणमत्थित्तमत्थओ सिद्धं । भण्णइ [य] इमावि गाहा गुरुवएसागया समये ॥ २ ॥ अत्थि अनंता जीवा ०" [ प्रत्युत्पन्न वनस्पतीनां तथा भव्यानां निर्लेपनं न । युक्तं भवति न तद् यद्यत्यन्तवनस्पतिर्नास्ति ॥ १ ॥ एवमनादिवनस्पतीनामस्तित्वमर्थतः सिद्धं । भण्यते चैषाऽपि गाथा गुरूपदेशागता समये ॥ २ ॥ ] इत्यादि, तत्रेदं सूत्र सांव्यवहारिकानधिकृत्यावसेयं, न चासांव्यवहारिकान्, अविषयत्वात् सूत्रस्य, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, यत आहुः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादाः - “ तह कार्यट्ठिइकालादओ विसेसे पहुच किर जीवे । नाणाइवणस्सइणो जे संववहारबाहिरया ॥ १ ॥" [ तथा कार्यस्थितिकालादयो विशेषान् प्रतीत्य किल जीवान् । नानादिवनस्पतीन ये संव्यवहारवाद्याः ॥ १ ॥ ] अत्रादिशब्दात् सर्वैरपि जीवैः श्रुतमनन्तशः स्पृष्टमित्यादि यदस्यामेव प्रज्ञाप
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१८ काय
स्थितिपदं
॥३८०॥
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नायां वक्ष्यति प्रागुक्तं च तत्परिग्रहः, ततो न कश्चिदोषः। त्रसकायसूत्रं सुप्रतीतं ॥ एतानेव त्रसकायिकादीन् पर्या
सापर्याप्तविशेषणविशिष्टान् चिन्तयन्नाह-'सकाइयअपजत्तए णं भंते !' इत्यादि, सुगम, नवरं तेजःकायसूत्रे उत्कपार्षतः सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवानीति, तेजःकायस्य हि भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवानि, ततो निरन्तरक-| |तिपयपर्याप्तभवकालसंकलनायामपि सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवान्येव लभ्यन्ते, न तु वर्षाणि वर्षसहस्राणि वा । सम्प्रति || कायद्वारान्तःप्रवेशसंभवात् सूक्ष्मकायिकादीनिरूपयितुकाम आहसुहुमे णं भंते ! सुहुमेत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो.! जह० अंतो० उ० असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणि
ओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो असंखेज्जा लोगा, सुहुमपुढविकाइते सुहुमआउका० सुहुमतेउका० सुहुमवाउका० सुहुमवणप्फइकाइते. सुहुमनिगोदेवि ज. अंतोमुहुत्तं उक्को० असंखेजं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो असंखेज्जा लोगा, सुहुमे णं भंते ! अपजत्तएत्ति पुच्छा, गो० ! ज० उ० अंतोमुहुत्तं, पुढविकाइयआउकायतेउकायवाउकायवणप्फइकाइयाण य एवं चेव, पजत्तियाणवि एवं चेव जहा ओहियाणं । बादरे णं भंते ! बादरेत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो० ! जह• अंतो० उक्को० असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो कालओ खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं, बादरपुढविकाइए णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो, एवं बादरआउक्काइएवि जाव बादरतेउकाइएवि बादरवाउक्काइएवि, बादरवणप्फइकाइते बादर० पुच्छा, गो० !
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥३८१॥
ज० अंतो॰ उक्को० असंखेअं कालं जाव खेसओ अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, पत्तेयसरीरवादरवगक इकाइ र णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो । निगोदे णं भंते ! निगोएत्ति केवच्चिरं होति ?, गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं० अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा, बादरनिगोदे णं भंते ! बादर० पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीतो । बादरतसकाइया णं भंते ! बादरतसकाइयत्ति काल० केवचिरं होइ ?, गो० ! जह० अंतो० उक्को० दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्भहियाई, एतेसिं चेव अपज्जत्तगा सवेवि जह० उक्को० अंतो०, बादरपज्जते णं भंते ! बादरपजत्त० पुच्छा, गो० ! जह० अंतो॰ उक्को॰ सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं, बादरपुढ विकाइयपज्जत्तए णं भंते ! बादर० पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को ० संखिज्जाई वाससहस्साई, एवं आउकाइएवि, तेउकाइयपञ्जत्तए णं भंते! तेउकाइयपज्ज० पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उको ० संखिज्जाई राईदियाई, वाउकाइयवणस्सइकाइयपत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइते पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० संखेज्जाई वाससहस्साईं, निगोयपञ्जत्तते बादरनिगोदपजत्तए पुच्छा, गो० ! दोण्हवि ज० अन्तो० उक्को० अंतो० । बादरतसकाइयपज्जत्तए णं भंते ! बादरतसकाइयपजत्तपत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गो० ! ज० अंतो० उ० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । दारं ४ ( सूत्रं २३५ )
'सुमे णं भंते!' इत्यादि 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मकायिको भदन्त ! सूक्ष्म इति सुक्ष्मत्वपर्यायविशिष्टः सन्नव्यवच्छेदेन का
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१८ काय
स्थितिपदं
॥३८१॥
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लतः कियचिरं भवति, भगवानाह-गौतम ! 'जहन्नेणमित्यादि, एतदपि सूत्रं सांव्यवहारिकजीवविषयमवसातव्यं, अन्यथा उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमिति यन्निर्वचनमुक्तं तन्नोपपद्यते, सूक्ष्म निगोदजीवानामसांव्यवहारिकराशिनिपति| तानामनादितायाः प्रागुपपादितत्वात् , 'खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति, असङ्ख्येयेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे यावत्य उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्प्रमाणा असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य इत्यर्थः । सूक्ष्मवनस्पतिकायसूत्रमपि प्रागुक्तयुक्तिवशात् सांव्यवहारिकजीवविषयं व्याख्येयं । तथा सूक्ष्माः सामान्यतः पृथिवीकायि-181 कादिविशेषणविशिष्टाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च निरन्तरं भवन्तो जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् न पर| मपि, ततस्तद्विषयसूत्रकदम्बके सर्वत्रापि जघन्यतः उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तमुक्तं, बादरसामान्यसूत्रे यदुक्तम् 'असंखे|जकालं' तस्य विशेषनिरूपणार्थमाह-असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, इदं कालतः परिमाणमुक्तं, क्षेत्रत आह'अंगुलस्स असंखेज्जइभागो' इति, अङ्गलस्थासङ्ख्ययभागः, किमुक्तं भवति?–अङ्गुलस्यासङ्ख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयं एकैकप्रदेशापहारे यावन्त्योऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, अथ कथं अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रस्यापि प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ति ?, उच्यते, क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् , उक्तं च-"सुहुमो य होइ कालो तत्तो सुहुमयरयं हवइ खिच"मित्यादि, [ सूक्ष्मश्च भवति कालस्ततः सूक्ष्मतरकं भवति क्षेत्रं] एतच वादरवनस्पतिकायापेक्षयाऽवसातव्यं, अन्यस्य बादरस्यैतावत्का
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥ ३८२॥
यस्थितेरसम्भवात् शेषसूत्राणि द्वारसमासिं यावत् सुगमानि । गतं कायद्वारम् इदानीं योगद्वारमभिधित्सुराहसजोगी णं भंते ! सजोगित्ति काल० १, गो० ! सजोगी दुविहे पं० तं० - अणादीए वा अपज्जवसिते अजादीए वा सपज्जवसिते, मणजोगी णं भंते ! मणजोगीति कालतो० १, गो० ! ज० एवं समयं उक्को० अंतो०, एवं वइजोगीवि, कायजोगी णं भंते ! काल० १, गो० ! जहनेणं अंतो० उक्को० वणप्फइकालो, अजोगी णं भंते! अजोगिति कालओ haचिरं होति ?, गो० ! सादीए अपज्जवसिते । दारं ५ ( सूत्रं २३६ )
ܕ
'सजोगी णं भंते!' इत्यादि, योगाः – मनोवाक्कायव्यापाराः, योगा एषां सन्तीति योगिनः मनोवाक्कायाः सह योगिनो यस्य येन वा स सयोगी, अत्र निर्वचनं 'सजोगी दुविहे पं०' इत्यादि, अनाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि मोक्षं गन्ता स हि सर्वकालमवश्यमन्यतमेन योगेन सयोगी ततोऽनाद्यपर्यवसितो, यस्तु यास्यति मोक्षं सोऽनादिसपर्यवसितः, मुक्तिपर्यायप्रादुर्भावे योगस्य सर्वथापगमात्, मनोयोगिसूत्रे जघन्यतः एकं समयमिति यदा कश्चिदौदारिककाययोगेन प्रथमसमये मनोयोग्यान् पुद्गलानादाय द्वितीयसमये मनस्त्वेन परिणमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते म्रियते वा तदा एकं समयं मनोयोगी लभ्यते, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त, निरन्तरं मनोयोग्यपुद्गलानां ग्रहण निसग कुर्वन् तत ऊर्द्ध सोऽवश्यं जीवखाभाव्यादुपरमते, उपरम्य च भूयोऽपि ग्रहणनिसर्गों करोति, परं कालसौक्ष्म्यात् कदाचिन्न खसंवेदनपथमायाति, तत उत्कर्षतोऽपि मनोयोगोऽन्तर्मुहूर्त्तमेव, एवं 'वयजोगीवि' इति, एवं मनोयोगीव
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१८ काय
स्थितिपदं
॥ ३८२॥
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वाग्योग्यपि वक्तव्यः, तद्यथा-'वइजोगी पं भंते ! वइजोगीति कालओ केवचिरं होति ?, गो.! जह० एकं समय उक्को० अंतोमुहुत्त'मिति तत्र यः प्रथमसमवे काययोगेन भाषायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति द्वितीयसमये तानि भाषात्वेन परिणमय्य मुञ्चति तृतीयसमये चोपरमते म्रियते वा स एकं समयं वाग्योगी लभ्यते, आह च मूलटीकाकारः-'पढमसमये कायजोगण गहियाणं भासादवाणं बिइयसमये वइजोगेण निसग्गं काऊण उवरमंतस्स मरंतस्स वा एगसमओ लब्भई' इति, अन्तर्मुहूर्त निरन्तरं ग्रहणनिसगौं कुर्वन् तदनन्तरं चोपरमते, तथाजीवखाभाव्यात्, काययोगी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, इह द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगोऽपि लभ्यते, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोयोगोऽपि ततो यदा वाग्योगो भवति मनोयोगो वा तदा न काययोगप्राधान्यमिति सादिसपर्यवसितत्वभावात् जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त काययोगी लभ्यते, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः, वनस्पतिकायिकेषु हि काययोग एव केवलो न वाग्योगो मनोयोगो वा, ततः शेषयोगासम्भवात्तेष्वाकायस्थितेः सततं काययोग इति मतं, अयोगी च सिद्धः, स च साद्यपर्यवसित इत्ययोगी साद्यपर्यवसित उक्तः । गतं योगद्वारमिदानी वेदद्वारं प्रतिपिपादयिषुराह
सवेदए णं भंते ! सवेदएति० १, गो० ! सवेदए तिविधे पं०, तं०-अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए वा सपज्जवसिए सादीए वा सपज्जवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जह० अंतो० उक्को० अणंतं कालं अणंताओ उस्स
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१८ काय
प्रज्ञापनाबा: मलय०वृत्ती.
स्थितिपद
॥३८॥
प्पिणिओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अवटुं पोग्गलपरियट्टू देसूणं, इत्थिवेदे णं भंते! इत्थिवेदेत्ति काल०१, गो०! एगेणं आदेसेणं जह० एकं समयं उक्को० दसुत्तरं पलिओवमसतं पुवकोडिपुहुत्तमभहियं १, एगेणं आदेसेणं जह• एगं समयं उक्को० अट्ठारसपलितोवमाई पुत्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई २, एगेणं आदेसेणं ज० एगं समयं उक्को० चउद्दस पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियाई ३, एमेणं आदेसेणं ज० एगं समय उक्को. पलिओवमसतं पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियं ४, एगेणं आदेसेणं जह० एगं समयं उक्को० पलितोवमपुहुत्तं पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियं ५, पुरिसवेदे णं भंते ! २१, गो० ! जह० . अंतो० उक्को० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं, नपुंसगवेए णं भंते ! नपुंसगवेदेत्ति, पुच्छा, गो० ! ज. एगं समय उक्को० वणस्सइकालो, अवेदए णं भंते ! अवेदएत्ति पुच्छा, गो०! अवेदे दुविधे पं०, तं०-सादीए वा अपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिते, तत्थ णं जे से साइए सपञ्जवसिते से जहण्णेणं एगं समयं उक्को० अंतो०। दारं ६ (सूत्रं २३७)
'सवेदए णं भंते' इत्यादि, सह वेदो यस्य येन वा स सवेदकः, 'शेषाद्वेति कप्रत्ययः, स च त्रिविधः, तद्यथाअनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्रयः उपशमश्रेणिं क्षपकणि वा जातु-कदाचिदपि न प्राप्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितः, कदाचिदपि तस्य वेदोदयव्यवच्छेदासम्भवात् , यस्तु प्राप्स्यति उपशमश्रेणि क्षपकश्रेणिं वा सोऽनादिसपर्यवसितः, उपशमश्रेणिप्रतिपत्ती क्षपक श्रेणिप्रतिपत्तौ वा वेदोदयव्यवच्छेदस्य भावित्वात् , यस्तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तत्र चावेदको भूत्वा भूय उपशमश्रेणीतःप्रतिपतन् सवेदको भवति स सादिसपर्यवसितः,
SSSSSSSORSaeesasee
॥३८॥
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स च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, कथमिति चेत्?, उच्यते, इह यदा कोऽपि उपशमश्रेणिं उपपद्य त्रिविधमपि वेदमुपशमय्यावेदको भूत्वा पुनरपि श्रेणीतः प्रतिपतन् सवेदकत्वं प्राप्य झटित्युपशमश्रेणि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण क्षपकश्रेणिवा प्रतिपद्यते प्रतिपद्य च वेदत्रयमुपशमयति क्षपयति वा अन्तर्मुहूर्तेन तदा जघन्येनान्तर्मुहूर्त सवेदकः उत्कर्षतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त देशोनं, अपगतमद्धं यस्य सोऽपार्द्धः देशोनः-किञ्चिदूनः, उपशमश्रेणितो हि प्रतिपतित एतावन्तं कालं संसारे पर्यटति, ततो यथोक्तमुत्कर्षतः सादिसपर्यवसितस्य सवेदकस्य कालमानमुपपद्यते । स्त्रीवेदविषये च | पञ्चादेशास्तान क्रमेण निरूपयति 'एगेणं आदेसेण'मित्यादि, तत्र सर्वत्रापि जघन्यतः समयमात्रभावनेयं-काचित् युवतिरुपशमश्रेण्यां वेदत्रयोपशमेनावेदकत्वमनुभूय ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकसमयमनुभूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेषूत्पद्यते, तत्र च तस्याः पुंस्त्वमेव न स्त्रीत्वं तत एवं जघन्यतः समयमानं स्त्रीवेदः, उत्कर्षचिन्तायामियं प्रथमादेशभावना-कश्चिजन्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवान् अनुभूय ईशाने कल्पे पञ्चपञ्चाशत्प्रमाणपल्योपमोत्कृष्टस्थितिष्वपरिगृहीतासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः वायु:क्षये च्युत्वा भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पन्नस्ततो भूयोऽपि द्वितीयं वारं ईशाने देवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नस्ततः परमवश्यं वेदान्तरमेव गच्छति, एवं दशोत्तरं पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते, अत्र पर आह-जनु यदि देवकुरूत्तरकुा
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प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्तौ .
॥ ३८४ ॥
दिषु पल्योपमत्रयस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये समुपपद्यते ततोऽधिकाऽपि स्त्रीवेदस्य स्थितिरवाप्यते, ततः किमित्येतावत्येवोपदिष्टा ?, तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि - इह तावद्देवीभ्यश्युत्वा असङ्ख्येयवर्षायुष्का स्त्रीषु मध्ये नोत्पद्यते, देवयोनेश्युतानां असङ्ख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पादप्रतिषेधात् नाप्यसङ्ख्येयवर्षायुष्का सती योषित् उत्कृष्टासु देवीषु जायते, यत उक्तं मूलटीकाकृता - " जत्तो असंखेज्जवासाज्या उक्कोसट्टिई न पावेइ” इति, ततो यथोक्तप्रमाणैवोत्कृष्टा स्थितिः स्त्रीवेदस्यावाप्यते, द्वितीयादेशवादिनः पुनरेवमाहुः - नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवान् अनुभूय पूर्वप्रकारेणेशान देवलोकेषु वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकासु देवीषु मध्ये उत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीताखेवोत्पद्यते नापरिगृहीतासु ततस्तन्मतेनोत्कृष्टमवस्थानं स्त्रीवेदस्याष्टादश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च तृतीयादेशवादिनां तु सौधर्मदेवलोके परिगृहीतासु सप्तपल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु वारद्वयं समुत्पद्यते, ततस्तन्मतेन चतुर्दश पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि स्त्रीवेदस्य स्थितिः, चतुर्थादेशवादिनां तु मतेन सौधर्मदेवलोके पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्काखपरिगृहीतदेवीष्वपि पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते, ततस्तन्मतेन पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकमवाप्यते, पञ्चमादेशवादिनः पुनरिदमाहुः नानाभवभ्रमणद्वारेण यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकं प्राप्यते न ततोऽधिकं कथमेतदिति चेत् ?, उच्यते, नारीषु तिरश्रीषु वा पूर्व कोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाष्टमभवे
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१८ कायस्थितिपदं
॥ ३८४ ॥
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19 देवकुर्वादिषु त्रिपल्योपमस्थितिषु स्त्रीमध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्यते, ततो मृत्वा सौधर्मे देवलोके जघन्यस्थितिकासु | देवीषु मध्ये देवीत्वेनोपजायते, तदनन्तरं चावश्यं वेदान्तरमभिगच्छति इति, अमीषां पञ्चानामादेशानामन्यतमादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नैर्वा कर्तुं शक्यते, ते च भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन् , केवलं तत्कालापेक्षया ये पूर्वतमाः सूरयस्तत्कालभाविग्रन्थपौर्वापर्यपर्यालोचनया यथाखमति स्त्रीवेदस्य स्थिति प्ररूपितवन्तस्तेषां सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवानार्यश्याम उपदिष्टवान् , तेऽपि च प्रावचनिकसूरयः खमतेन सूत्रं पठन्तो गौतमप्रश्नभगवन्निर्वचनरूपतया पठन्ति, ततस्तदवस्थान्येव सूत्राणि लिखता गोतमा !! इत्युक्तं, अन्यथा भगवति गौतमाय निर्देष्टरि न संशयकथनमुपपद्यते, भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् , पुरुषवेदसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमिति, यदा कश्चिदन्यवेदेभ्यो जीवेभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदेषुत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त सर्वायुर्जीवित्वा | गत्यन्तरे अन्यवेदेषु मध्ये समुत्पद्यते तदा पुरुषवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमवस्थानं लभ्यते, उत्कृष्टमानं कण्ठ्यं [[ग्रन्थाग्रं १००००], नपुंसकवेदसूत्रे जघन्यतः एकः समयः स्त्रीवेदस्येव भावनीयः, उत्कर्पतो वनस्पतिकालः, सच प्रागेवोक्तः, एतच सांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य यदा चिन्ता क्रियते यदा त्वसांव्यवहारिकजीवानधिकृत्य चिन्ता क्रियते तदा द्विविधा नपुंसकवेदाद्धा, कांश्चिदधिकृत्यानाद्यपर्यवसाना, ये न जातुचिदपि सांव्यवहारिकराशौ निपतिष्यन्ति, कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसपर्यवसाना, ये असांव्यवहारिकराशेरुद्वत्य सांव्यवहारिकराशावागमिष्यन्ति,
299999999092e
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥३८५ ॥
अथ किमसांव्यवहारिकराशेरपि विनिर्गत्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति येनैवं प्ररूपणा क्रियते ?, उच्यते, आगच्छन्ति कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते, पूर्वाचार्योपदेशात्, तथा चाह दुष्षमान्धकारनिमन जिनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः – “सिज्यंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ । एंति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥ १ ॥” [सिध्यन्ति यावन्तः किल इह सांव्यवहारिकजीवराशेः । आयान्ति अनादिवन|स्पतिराशितस्तावन्तस्तस्मिन् ] ॥ १ ॥ अवेदको द्विधा - साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च तत्र यः क्षपकश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको भवति स साद्यपर्यवसितः, क्षपकश्रेणेः प्रतिपातासम्भवात् यस्तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यावेदको जायते स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनैकं समयं कथमेकं समयमिति चेत् ?, उच्यते, यदा एकसमयमवेदको भूत्वा द्वितीयसमये पञ्चत्वमुपागच्छति तदा तस्मिन्नेव पञ्चत्वसमये देवेषूत्पन्नः पुरुषवेदोदयेन सवेदको भवति, तत एवं जघन्यत एक समयमवेदकः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त, परतोऽवश्यं श्रेणीतः प्रतिपाते वेदोदय सद्भावात् इति । गतं वेदद्वारमिदानीं कषायद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् —
सकसाई णं भंते ! सकसादित्ति काल० १, गो० ! सकसाती तिविधे पं० तं० – अणादीए वा अपज्जवसिते अणादीए वा सपञ्जवसिते सादीए वा सपज्जवसिते जाव अवडं पोग्गलपरियहं देणं, कोहकसाई णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० उको० अंतोमुहुत्तं, एवं जाव माणमायकसाती, लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा, गो० ! जह० एकं समयं उको ०
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१८ काय
स्थितिपदं
॥ ३८५ ॥
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अंतोमु०, अकसाई णं भंते ! अकसादित्ति काल., गो! अकसादी दुविहे पं०, तं०-सादीए वा अपज्जवसिते सादीए का सपज्जवसिते, तस्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जह० एग समयं उक्को० अंतो० । दारं ७ । (सूत्रं २३८) 'सकसाई णं भंते ! इत्यादि, सह कषायो येषां यैर्वा ते सकपाया-जीवपरिणामविशेषास्ते विद्यन्ते यस्य स सकषायी, इदं सकलमपि सूत्रं सवेदसूत्रवदविशेषेण भावनीयं, समानभावेनोक्तत्वात् , 'कोहकसाई गंभंते!' इत्यादि, 19
जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त इति उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमिति-क्रोधकषायोपयोगस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तप्रमा-131 Kणत्वात् , तथाजीवखाभाव्यात् , इदं च सूत्रचतुष्टयमपि विशिष्टोपयोगापेक्षमिति, लोभकषायी जघन्येनेक समय
मिति, यदा कश्चिदुपशमक उपशमश्रेणिपर्यवसाने उपशान्तवीतरागो भूत्वा श्रेणीतः प्रतिपतनू लोभाणुप्रथमसमयसंवेदनकाल एव कालं कृत्वा देवलोकेषूत्पद्यते, तत्र चोत्पन्नः सन् क्रोधकषायी मानकषायी मायाकषायी वा भवति तदा एकं समयं लोभकषायी लभ्यते, अथैवं क्रोधादिष्वप्येकसमयता कस्मान्न लभ्यते ?, उच्यते, तथाखाभाव्यात्, तथाहि-श्रेणीतः प्रतिपतन् मायाणुवेदनप्रथमसमये मानाणुवेदनप्रथमसमये क्रोधाणुवेदनप्रथमसमये वा| यदि कालं करोति कालं च कृत्वा देवलोकेपूत्पद्यते तथापि तथाखाभाब्यात येन कषायोदयेन कालं कृतवान् तमेव कषायोदयं तत्रापि गतः सन्नन्तर्मुहर्त्तमनुवर्तयति, एतचावसीयते अधिकृतसूत्रप्रामाण्यात्, ततोऽनेकसमयता क्रोधादिष्विति । अकषायसूत्रं वेदसूत्रमिव भावनीयं । गतं कषायद्वारमधुना लेश्याद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम्
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१८ कायस्थितिपदं
प्रज्ञापना- सलेसे णं भंते ! सलेसेत्ति पुच्छा, गो० ! सलेसे दुविधे पं०, तं०-अणादीए वा अपज्जवसिंते अणादीए वा सपज्जवया मल- सिते, कण्हलेसे णं भंते ! कण्हलेसेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गो० ! जह• अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोयवृत्ती. मुहुत्तमन्भहियाई, नीललेसे णं भंते ! नीललेसेत्ति पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० दस सागरोवमाई पलितोवमा
संखिज्जइभागमभहियाई, काउलेसे णं पुच्छा, गो ! जह० अंतो० उक्को तिण्णि सागरोवमाइं पलितोवमासंखिजति॥३८॥
भागमभहियाई, तेउलेसे णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्को० दो सागरोवमाई पलितोवमासंखिजतिभागमभहियाई, पम्हलेसे णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उको० दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, सुक्कलेसे णं पुच्छा०, गो० ! जह० अंतो० उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, अलेसे णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपज्जवसिते । दारं ८ । (सूत्रं २३९) 'सलेसे णं भंते' इत्यादि, सह लेश्या यस्य येन वा स सलेश्यः, स द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनादिरपर्यवसितो यो न जातुचिदपि संसारव्यवच्छेदं कर्ता अनादिसपर्यवसितो यः संसारपारगामी, 'कण्हलेसे णं भंते !' इत्यादि,
इह तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्याद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्तिकानि, ततः परमवश्यं लेश्यान्तरपरिणामं भजन्ते, देवनैरयिकाणां हेतु पूर्वभवचरमान्तर्मुहूर्त्तादारभ्य परभवाद्यमन्तर्मुहूर्त यावत् अवस्थितानि ततः सर्वत्र जघन्यमन्तर्मुहूर्त तिर्यग्मनुष्या
पेक्षया द्रष्टव्यमुत्कृष्टं देवनैरयिकापेक्षया, तच विचित्रमिति भाव्यते, तत्र यदुक्तं-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मु
॥३८६॥
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हर्ताभ्यधिकानीति तत्सप्तमनरकपृथिव्यपेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रया हि नैरयिकाः कृष्णलेश्याकाः, तेषां च स्थितिरुत्कृष्टान त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, यत्तु पूर्वोत्तरभवगते यथाक्रमं चरमाद्य अन्तर्मुहूर्ते ते द्वे अप्येकं, अन्तर्मुहूर्तस्यासङ्ख्यातभेदभिन्नत्वात् , तथा चान्यत्राप्युक्तम्-"मुहुत्तद्धं तु जहन्ना तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया। उकोसा होइ ठिई नायचा कण्हलेसाए ॥१॥ [मुहूर्त्ताध तु जघन्या त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा । मुहूर्त्ताधिका भवति स्थितिः कृष्णलेश्यायाः ॥१॥] अत्र 'मुहुत्तहिया' इति चूर्णिकृता व्याख्यातमन्तर्मुहूर्त्ताधिकेति, नीललेश्यासूत्रे यानि दश सागरोपमाणि पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकान्युक्तानि तानि पञ्चमपृथिव्यपेक्षया वेदितव्यानि, तत्र हि प्रथमप्रस्तटे नीलले 'पंचमियाए मीसा' [पञ्चम्यां मिश्रा] इति वचनात् , तस्मिंश्च प्रथमप्रस्तटे स्थितिरुत्कर्षत एतावती, ये तु पूर्व भवगते अन्तर्मुहूर्ते ते पल्योपमासङ्ख्येयभागे एवान्तर्गते इति न पृथग्विवक्षिते, एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं, कापोतलेश्या-18 सूत्रे त्रीणि सागरोपमाणि पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकानि तृतीयनरकपृथिव्यपेक्षयाऽवसातव्यानि, तृतीयपृथिव्यामपि प्रथमप्रस्तटे कापोतलेश्याया भावात् , 'तईयाए मीसिया' [तृतीयस्यां मिश्रा] इति वचनात् तत्र चोत्कृष्टस्थितेरेतावत्याः सम्भवात्, तेजोलेश्यासूत्रे द्वे सागरोपमे पल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिके ईशानदेवलोकदेवापेक्षया वेदितव्ये, ते हि तेजोलेश्याका उत्कर्षत एतावतूस्थितिकाः, पद्मलेश्यासूत्रे दश सागरोपमाणि अन्तर्मुहूताभ्यधिकानि ब्रह्मलोकापेक्षया भावनीयानि, तत्र हि देवानां स्थितिरुत्कृष्टा दश सागरोपमाणि लेश्या च पद्मलेश्या, ये च
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
१८कायस्थितिपदं
॥३८७॥
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पूर्वोत्तरभवगते अन्तर्मुहूर्त ते किलैकमन्तर्मुहूर्त्तमिति अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानीत्युक्तं, शुक्ललेश्यासूत्रे त्रयस्त्रिंशत्सागरोप| माणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि अनुत्तरसुरापेक्षया, तेषामुत्कर्षतः स्थितेः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात् , अन्तर्मुहू
भ्यिधिकत्वभावना च प्राग्वत्, अलेश्यः-अयोगिकेवली सिद्धश्च, ततो न तस्यामप्यवस्थायामलेश्यत्वव्याघात इति साद्यपर्यवसितः । गतं लेश्याद्वारम् , इदानीं सम्यक्त्वद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम्सम्मदिट्टी णं भंते ! सम्मदि० काल.?, गो! सम्मद्दिवी दुविहे पं०, तं0-सादीए वा अपज्जवसिते सादीए वा सपअवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जह० अंतो० उक्को छावढि सागरोवमाई साइरेगाई, मिच्छादिट्ठी णं भंते ! पुच्छा०, गो.! मिच्छादिट्ठी तिविधे पं०, तं०-अणाइए अपज्जवसिए वा अणादीए वा सपज्जवसिए सादीए वा सपञ्जवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपञ्जवसिते से जह० अंतो० उक्को० अणंतं कालं अर्णताओ उस्सपिणिअसिप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अवई पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण, सम्मामिच्छादिट्टी णं पुच्छा, गो! जह० अंतो० उको० अंतो०। दारं ९ । (सूत्रं २४०) 'सम्महिट्ठी णं भंते!' इत्यादि, सम्यग्-अविपर्यस्ता दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, स चान्तरकरणकालभाविना औपशमिकसम्यक्त्वेन सासादनसम्यक्त्वेन विशुद्धदर्शनमोहपुओदयसम्भविक्षायोपशमिकसम्यक्त्वेन सकलदर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थक्षायिकसम्यक्त्वेन वा द्रष्टव्यो. निर्वचनं-सम्यग्दृष्टिद्विविधः प्रज्ञप्तः,
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॥३८७॥
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तद्यथा-साद्यपर्ववसितः' एष क्षायिके सम्यक्त्वे उत्पादिते सति वेदितव्यः, तस्स प्रतिपाताभावात् , 'सादिसपयवसितः' एष क्षायोपशमिकादिसम्यक्त्वापेक्षया, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितः सम्यग्दृष्टिः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, परतो मिथ्यात्वगमनात् , उत्कर्षतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तत्र यदि वारद्वयं विजयादिषु चतुष्वप्र| तिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टस्थितिको देव उत्पद्यते वेलात्रयं वाऽच्युतदेवलोके ततो देवभवैरेव षट्रपष्टिः सागरोपमाणि
परिपूर्णानि भवन्ति, ये तु मनुष्यभवाः सम्यक्त्वसहितास्तेऽधिका इति तैः सातिरेकाणीति, उक्तं च-"दो वारे || विजयाइसु गयस्स तिन्निऽचुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं" इति [द्वे वारे विजयादिपु गतस्य तिस्रो वारा अच्युते
ऽथवा तानि । अतिरेकं नरभविक 'मिच्छादिट्ठीणं भंते!' इत्यादि, मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः-जीवाशदिवस्तुतत्त्वप्र|तिपत्तियेस्स भक्षितहृत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् स मिथ्यादृष्टिः, ननु मिथ्यादृष्टिरपि कश्चिद् भक्ष्यं भक्ष्यतया जानाति पेयं पेयतया मनुष्यं मनुष्यतया पशुं पशुतया ततः स कथं मिथ्याष्टिः १, उच्यते, भगवति सर्वज्ञे तस्य प्रत्ययाभावात् , इह हि भगवदहत्प्रणीतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यावृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशतः, उक्तं च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्याष्टिः सत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम ॥१॥" किं पुनः शेषो भगवदहेंदभिहित यथावद् जीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः, ननु सकलप्रवचनार्थाभिरोचनात् तद्गतकतिपयार्थानां चारोचना
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प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्तौ.
॥३८॥
देष न्यायतः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरेव भवितुमर्हति कथं मिथ्यादृष्टिः ?, तदसत् , वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , इह यदा १८ कायसकलं वस्तु जिनप्रणीततया सम्यक् श्रद्धते तदानीमसौ सम्यग्दृष्टियंदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा मतिदौर्ब
स्थितिपदं ल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिथ्यापरिज्ञानाभावतो न सम्यश्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः तदा सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च शतकबृहचूर्णी-"जहा नालिकेरीदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स पुरिसस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स आहारस्स उवरि न रुई न य निंदा, जेण तेण सो ओयणाइओ आहारो ण कयाइ दिट्ठो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छहिहिस्सवि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न य रुई नावि निंद"त्ति, यदा पुनरेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्ततो विप्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेवेत्यदोषः, स च त्रिविधः, तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र यः कदाचनापि सम्यक्त्वं नावाप्स्यति सोऽनाद्यपर्यव|सितः, यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वमासाद्य भूयोऽपि मिथ्यात्वं याति स सादिसपयेवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं कस्यापि भूयः सम्यक्त्वावाप्तेः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेवानन्तं कालं
॥३८८॥ द्विधा प्ररूपयति-कालतः क्षेत्रतश्च, तत्र कालतोऽनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिणीर्यावत् , क्षेत्रतोऽपार्द्धपुद्गलपरावत्त । देशोनं, अत्र क्षेत्रत इति निर्देशात् क्षेत्रपुदलपरावतः परिग्रायो, नतु द्रव्यपुद्गलपरावर्तादयः, एवं पूर्वोत्तरत्रापि च भावनीयं, 'सम्मामिच्छादिट्ठी 'मित्यादि, सम्यग्मिथ्या दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिध्यादृष्टिः स जघन्यत उत्कर्षतो
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वा अन्तर्मुहूर्त्त, परतोऽवश्यं तत्परिणामविध्वंसात्, तथा जीवस्वाभाव्यात् । गतं सम्यक्त्वद्वारमिदानीं ज्ञानद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् -
गाणी णं भंते ! णाणित्ति काल०, गो० ! णाणी दुविधे पं० तं० – सातीते वा अपजवसिते साइए वा सपञ्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जहण्णेणं अंतो० उक्को० छावट्ठि सागरोवमाई साइरेगाई, आभिनिवोहियणाणी णं पुच्छा, गो० ! एवं चैव, एवं सुयणाणीवि, ओहिनाणीवि एवं चेव, नवरं जहण्णेणं एगं समयं, मणपजवणाणी णं भंते ! [ पुच्छा ] मणपजवणाणित्ति कालतो०, गो० ! जह० एगं समयं उक्को० देभ्रूणा पुवकोडी, केवलणाणी णं पुच्छा, गो० ! सातिए अपञ्जवसिते । अण्णाणी मतिअण्णाणी सुतअण्णाणी पुच्छा, गो० ! अण्णाणी महअण्णाणी सुयअण्णाणी तिविधे पं० तं० – अाइए वा अपजवसिए अणादीए वा सपज्जवसिते सादीए वा सपज्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं, अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालतो खेत्तओ अवड्डपोग्गलपरियां देणं, विभंगणाणी णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाते पुचकोडीते अन्भहिताई । दारं १० ॥ ( सूत्रं २४१ )
'नाणी णं भंते' इत्यादि, ज्ञानमस्यास्तीति 'अतोऽनेकखरा' दितीन् स द्विधा साद्यपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र केवलज्ञानापेक्षया साद्य पर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् शेषज्ञानापेक्षया सादिसर्पयवसितः, शेषज्ञानानां प्रतिनि
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प्रज्ञापनाया: मलय.वृत्ती.
यतकालभावित्वात् , स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, परतो मिथ्यात्वगमनेन ज्ञानपरिणामापगमात् , उत्कर्षतः षट्षष्टिसाग- १८ कायरोपमाणि सातिरेकाणि यावत्, तानि सम्यग्दृष्टेरिव भावनीयानि, सम्यग्दृष्टरेव ज्ञानित्वात् , आभिनिवोधिकज्ञानि- स्थितिपदं सूत्रे 'एवं चेव'त्ति यथा सामान्यतो ज्ञानी सादिसपर्यवसितो जघन्यत उत्कर्षतश्चोक्तस्तथाऽऽभिनिवोधिकज्ञान्यपि वक्तव्यः, स चैवं–'जह. अंतो• उक्को० छावट्ठी सागरोवमाइं सातिरेगाई' एवं श्रुतज्ञान्यपि, अवधिज्ञान्यप्येवं, नवरं स जघन्यत एकं समयं वक्तव्यः, कथमेकसमयताऽवधिज्ञानस्येति चेत् ?, उच्यते, इह तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियो मनु-18 प्यो देवो वा विभङ्गज्ञानी सन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, तस्य च सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमये एव सम्यक्त्वभावतो विमङ्गज्ञानमवधिज्ञानं जातं, तच यदा देवस्य च्यवनेन मरणेनान्यस्यान्यथा वाऽनन्तरसमये प्रतिपतति तदा भवत्यवधिज्ञानस्यैकसमयता, उत्कर्षतः सातिरेकाणि षट्षष्टिं सागरोपमाणि यावत् , तानि चाप्रतिपतितावधिज्ञानस्य वारद्वयं ॥ विजयादिषु गमनेन वारत्रयमच्युतदेवलोकगमनेन वा वेदितव्यानि, मनःपर्यवज्ञानिन एकसमयता संयतस्याप्रमताद्धायां वर्तमानस्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पाद्यानन्तरसमये कालं कुर्वतो भावनीया, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, तत ऊर्दू संयमाभावेन मनःपर्यवज्ञानस्याप्यभावात् , केवलज्ञानी साद्यसपर्यवसितः, प्रतिपाताभावात् । अज्ञानी त्रिविधः,
४॥३८॥ तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च. तत्र यस्य कदाचनापि ज्ञानलाभो न भावी सोऽ-15 नाद्यपर्यवसितो, यस्तु ज्ञानमासादयिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यः पुननिमासाद्य भूयो मिथ्यात्वगमनेनाज्ञानि
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| त्वमधिगच्छति स सादिस पर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, परतः सम्यक्त्वस्यासादनेनाज्ञानित्यपरिणामापगमसम्भवात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालमित्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं सम्यक्त्वावासेरज्ञा नित्वापगमात् एवं मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी च त्रिविधो भावनीयः, विभङ्गज्ञानी जघन्यत एकं समयं कथमिति चेत् ?, उच्यते, कश्चित्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो देवो वा सम्यग्दृष्टित्वादवधिज्ञानी सन् मिथ्यात्वं गतस्तस्मिंश्च मिथ्यात्वप्रतिपत्तिसमये मिध्यात्वप्र भावतोऽवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानीभूतं, “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्त" मिति वचनात् ततोऽनन्तरसमये | देवस्य च्यवनेनान्यस्य मरणेनान्यथा वा तद्विभङ्गज्ञानं परिपतति, तत एवमेकसमयता विभङ्गज्ञानस्य, उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोन पूर्वको ट्यभ्यधिकानि, तथाहि-- यदि कश्चिन्मिथ्यादृष्टिस्तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा पूर्वको व्यायुः कतिपयवर्षातिक्रमे विभङ्गज्ञानी जायते, जातश्च सन्नप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगत्या सप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिको नैरयिको जायते तदा भवति यथोक्तमुत्कृष्टं मानं, तत ऊर्द्ध तु सम्यक्त्वप्रतिपत्त्याऽवधिज्ञानभावतः सर्वथाऽपगमाद्वा तद्विभङ्गज्ञानमपगच्छति । गतं ज्ञानद्वारम्, इदानीं दर्शनद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् -
चक्खुदंसणी णं भंते! पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं, अचक्खुदंसणी णं भंते ! अचक्खुदंसणित्ति काल०, गो० ! अचक्खुदंसणी दुविहे पं० तं० - अणादीए वा अपजवसिते अणादीए वा सपञ्जवसिए,
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्तौ.
॥३९॥
ओहिंदसणी णं पुच्छा, गो! जह० एगं समयं उक्को दो छावट्ठीओ सागरोवमाणं साइरेगाओ, केवलदंसणी णं पुच्छा, १८ कायगो० ! सातीए अपज्जवसिते ॥ दारं ११ । (२४२)
स्थितिपदं 'चक्खुदंसणी णं भंते !' इत्यादि, इह यदा त्रीन्द्रिया दिश्चतुरिन्द्रियादिषूत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि त्रीन्द्रियादिषु मध्ये उत्पद्यते तदा चक्षुर्दर्शनी अन्तर्मुहूर्त लभ्यते, उत्कर्पतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रं, तच्चतुरिन्द्रि-2 यतिर्यपञ्चेन्द्रियनैरयिकादिभवभ्रमणेनावसातव्यम् , अचक्षुर्दर्शनी अनाद्यपर्यवसितो यो कदाचिदपि न सिद्धिभावमधिगमिष्यति, यस्त्वधिगन्ता सोऽनादिसपर्यवसितः, तथा तिर्यकपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा तथाविधाध्यवसायादवधिदर्शनमुत्पाद्यानन्तरसमये यदि कालं करोति तदाऽवधिदर्शनं प्रतिपतति, तदाऽवधिदर्शनिन एकसमयता, उत्कर्षतोऽवधिदर्शनी द्विषट्पष्टी सागरोपमाणि सातिरेकाणि, कथमिति चेत्, उच्यते, इह कश्चिद्विभङ्गज्ञानी तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वाऽप्रतिपतितविभङ्गज्ञान एवाविग्रहगत्याऽधःसप्तमनरकपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रयिको जातः, तत्र चोद्वर्तनाप्रत्यासत्तिकाले सम्यक्त्वमुत्पाद्य ततः परिभ्रष्टस्ततोऽप्रतिपतितेन विभङ्गज्ञानेन पूर्वकोट्यायुष्केषु तिये
पञ्चेन्द्रियेषु समुत्पन्नस्तत्र च परिपूर्ण खायुःप्रतिपाल्य पुनरप्रतिपतितविभङ्ग एवाधःसप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरो-| ॥३९॥ पमस्थितिको नैरयिको जातस्तत्रापि चोद्धृत्तिप्रत्यासत्तौ सम्यक्त्वमासाद्य परित्यजति, ततो भूयोऽप्यप्रतिपतितविभङ्ग एव पूर्वकोट्यायुष्केषु तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु जातस्तदेवमेका षट्षष्टिः सागरोपमाणामभून् , सर्वत्र च तिर्यसूत्पद्यमानो
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ASIविग्रहेणोत्पद्यते, विग्रहे विभङ्गस्य तिर्यक्षु मनुष्येषु च निषेधात्, यद्वक्ष्यति-"विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया
मणूसा आहारगाणो अणाहारगा" इति, आह-किं सम्यक्त्वमेषोऽपान्तराले प्रतिपाद्यते ?, उच्यते, इह विभङ्गस्य स्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनपूर्वकोट्यभ्यधिकानि, तथा चोक्तं प्राक्-"विभंगणाणी जह० एग समयं उक्को तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुवकोडीए अब्भहियाई" इति, तत एतावन्तं कालमविच्छेदेन विभङ्गस्याप्राप्यमाणत्वात् अपान्तराले सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते, ततोऽप्रतिपतितविभङ्ग एव मनुष्यत्वमवाप्य संयम पालयित्वा द्वौ वारौ विजयादिषूत्पद्यमानस्य द्वितीया षट्रपष्टिः सागरोपमाणां सम्यग्दृष्टेभवति, एवं द्वे षषष्टी सागरोपमाणामवधिदर्शनस्य, अथ विभङ्गावस्थायामवधिदर्शनं कर्मप्रकृत्यादिषु प्रतिषिद्धं ततः कथमिह विभङ्गे तद्भाव्यते?, नैष दोषः, सूत्रे विभङ्गेऽप्यवधिदर्शनस्य प्रतिपादितत्वात् , तथा ह्ययं सूत्राभिप्रायः-विशेषविपयं विभगज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनं, यथा सम्यग्दृष्टेः विशेषविषयमवधिज्ञानं सामान्यविषयमवधिदर्शनमुच्यते केवलं विभङ्गज्ञानिनोप्यवधिदर्शनमनाकारमात्रत्वेनाविशिष्टत्वात् अवधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनतुल्यमिति तदप्यवधिदर्शनमु
च्यते, न विभङ्गदर्शन मिति, आह च मूलटीकाकारोऽप्येतद्भावनायाम्-“दंसणं च विभंगोहीणं जतो तुल्लमेव, 18 अतो चेव दो छावट्ठीओ साइरेगाओ' इति, ततोऽस्माभिरपि विभङ्गेऽवधिदर्शनं भावितं, कार्मग्रन्थिकाः पुनराहु:
यद्यपि साकारतरविशेषभावेन विभङ्गज्ञानमवधिदर्शनं च पृथगस्ति तथापि न सम्यग्निश्चयो विभङ्गज्ञानेन, मिथ्यात्व
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पणन विमजावस्था-10१८काय
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥३९॥
रूपत्वात् नाप्यवधिदर्शनेन तस्यानाकारमात्रत्वादतः किं तेन पृथग्विवक्षितेनापीति तदभिप्रायेण न विभङ्गावस्थायामवधिदर्शनं, न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितं, पूर्वसूरिभिरप्येवं मतविभागस्य व्यवस्थापितत्वात् , उक्तं च विशे-I पणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादैः-"सुत्ते विभंगस्सवि परूवियं ओहिदंसणं बहुसो । कीस पुणो पडिसिद्धं कम्मप्पगडीपगरणंमि ॥१॥ विभंगेवि दरिसणं सामण्णविसेसविसयओ सुत्ते । तं चऽविसिट्ठमणागारमेत्तं तोऽवहिविभंगाणं ॥२॥ कम्मपगडीमयं पुण सागारेयरविसेसमावेवि । न विभंगनाणदंसणविसेसणमणिच्छयत्तणओ ॥३॥” इति, [सूत्रे विभङ्गस्यापि प्ररूपितमवधिदर्शनं बहुशः । कथं पुनः प्रतिषिद्धं कर्मप्रकृतिप्रकरणे ॥१॥ विभङ्गेऽपि दर्शनं सामान्यविशेषविषयतः सूत्रे। तच्चाविशिष्टमनाकारमानं ततोऽवधिविभङ्गयोः ॥२॥ कर्मप्रकृतिमतं पुनः साकारतरविशेषभावेऽपि।न विभङ्गज्ञानदर्शनविशेषोऽनिश्चयत्वात् ॥३॥] अन्ये तु व्याचक्षते-किं सप्तमनरकपृथिवीनिवासिनारककल्पनया ?, सामान्येनैव नारकतिर्यग्नरामरभवेषु पर्यटतः खल्ववधिविभङ्गौ एतावन्तं कालं भवतस्तत ऊर्द्धमपवर्ग इति । केवलदर्शनिनः सूत्रं केवलज्ञानिनः सूत्रवद्भावनीयं, । गतं दर्शनद्वारम् , इदानीं संयतद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम्
संजए णं भंते ! संजतेत्ति पुच्छा, गो० ! ज० एग समयं उक्को० देसूर्ण पुवकोडिं, असंजते ण भंते ! असंजएत्ति, पुच्छा, गो० ! असंजते तिविधे पं०, तं०-अणातीए वा अपजवसिते अणातीए वा सपजवसिते सातीए वा सपजव
॥३९॥
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सिते, तत्थ णं जे से सातीए सपज्जवसिते से जह० अं० उक्को० अणं • अनंताओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ खेत्ततो अवङ्कं पोग्गलपरियहं देणं, संजतासंजते णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उको० देखणं पुछ्कोडिं, नोसंजतेनोअसंजते नो संजतासंजते णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपजवसिते । दारं १२ (सूत्रं २४३ ) सागारोवओगोवउत्ते णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० उ० अं० । अणागारोवउत्तेवि, एवं चैव । दारं १३ ( सूत्रं २४४ )
'संजए णं भंते' इत्यादि, जघन्यत एकसमयता संयतस्य चारित्रपरिणामसमय एव कस्यापि कालकरणात्, असंयतस्तु त्रिधा - अनाद्यपर्यवसितोऽनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च तत्र यः संयमं कदाचनापि न प्राप्स्यति सोऽनाद्य पर्यवसितो, यस्तु प्राप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितो, यस्तु संयमं प्राप्य ततः परिभ्रष्टः स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त ततः परं कस्यापि पुनरपि संयमप्रतिपत्तिभावात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालमित्यादि प्राग्वत् तत ऊर्द्धमवश्यं संयमप्राप्तिः, संयतासंयतो - देशविरतः, स च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त देशविरतिप्रतिपत्त्युपयोगस्य, जघन्यतोऽप्यान्त मौहूर्त्तिकत्वात्, देशविरतिर्हि द्विविधत्रिविधादिभङ्गबहुला ततस्तत्प्रतिपत्तौ जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त्त लगति, सर्वविरतिस्तु सर्व सावद्यमहं न करोमीत्येवंरूपा ततस्तत्प्रतिपत्त्युपयोग एकसामयिकोऽपि भवतीति प्राक्र संयतस्य एकसमयतोक्ता, यस्तु न संयतो नाप्यसंयतो नापि संयतासंयतः स सिद्ध इति साद्यपर्यवसित इति । गतं संयतद्वारम् इदानीमुपयोगद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम् - ' सागारोवओगोवउत्ते णं भंते !' इत्यादि, इह संसारिणामुप
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥३९२॥
9929898800008092001
योगः साकारोऽनाकारो वा, जघन्यतोऽप्यान्तर्मुहूर्तिकः उत्कर्षतोऽपि, ततः सूत्रद्वयेऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्त-18|१८ कायमुहूर्त्तमुक्तं, यस्तु केवलिनामुक्तः एकसामयिक उपयोगः स इह न विवक्षित इति । गतं उपयोगद्वारं, इदानीमा- स्थितिपदं हारद्वारं, तत्रेदमादिसूत्रम्
आहारए णं भंते ! पुच्छा, गो ! आहारए दुविधे० ५०, तं०-छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य, छउंमत्थआहारए णं भंते ! छउमत्थाहारएत्ति काल०१, गो० ! ज० खुड्डागभवग्गहणं दुसमयऊणं उक्को० असंखेनं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीतो कालतो खेत्ततो अंगुलस्स असंखेजतिभागं, केवलिआहारए णं भंते ! केवलिआहारएत्ति कालतो. १, गो० ! जह० अंतो० उ० देसूर्ण पुत्व० । अणाहारए णं भंते ! अणाहारएत्ति०, गो०! अणाहारए दु० पं०, तं०-छउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो० ! जह० एगं समयं उक्को दो समया, केवलिअणाहारए णं भंते ! केवलि०१, गो० ! केवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य, सिद्धकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपज्जवसिए, भवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो०! भवत्थकेवलिअणाहारए दुविधे पं०, तं०-सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य, सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं भंते ! पुच्छा, गो०! अजहण्णमणुक्कोसेणं तिणि समया, अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए णं पुच्छा, गो! जह० उक्को० अंतो। दारं १४ । (मूत्रं २४५)
||३९२॥
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'आहारगेणं भंते ! इत्यादि सुगम, नवरं 'जहण्णेणं खुडागभवग्गहणं दुसमऊण'मिति इह यद्यपि चतुःसाम-1 यिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति, आह च-"उजुया य एगवंका, दुहतोवंका गती विणिहिट्ठा । जुजइ तिचउर्वकावि नाम चउपंचसमयाओ ॥१॥” इति [ऋज्वी चैकवका द्विधावक्रा गतिश्च विनिर्दिष्टा । युज्यते त्रिचतुर्वक्र अपि नाम चतुःपञ्चसमये ॥१॥] तथापि बाहुल्येन द्विसामयिकी त्रिसामयिकी वा प्रवर्त्तते न चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी वा प्रवर्तते ततो न ते विवक्षिते, तत्रोत्कर्षतस्त्रिसामयिक्यां विग्रहगतौ द्वावाद्यौ समयावनाहारक इत्याहारकत्वचिन्तायां क्षुल्लकभवग्रहणं ताम्यां न्यूनमुक्तं, ऋजुगतिरकवक्रगतिश्च न विवक्षिता, सर्वजघन्यस्य परिचिन्त्यमानत्वात् , उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालमित्यादि सुगम, नवरं एतावतः कालादूर्द्धमवश्यं विग्र-18 हगतिर्भवति, तत्र चानाहारकत्वमित्यनन्तं कालमिति नोक्तं । केवलिसूत्रं सुगम, छद्मस्थानाहारकसूत्रे 'उक्कोसेणं दो समया' इति त्रिसामयिकी विग्रहगतिमधिकृत्य, चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रहगतिने विवक्षितेत्यभिहितमनन्तरं, सयोगिभवस्थकेवलिअनाहारकसूत्रे त्रयः समया अष्टसामयिकस्य केवलिसमुद्घातस्य तृतीयचतुर्थे|पञ्चमरूपाः, उक्तं च-"दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
१८ कायस्थितिपदं
॥३९३॥
चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ ४ ॥” इति । गतमाहारद्वारं, | अधुना भाषाद्वारमाह
भासए णं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं एग समयं उक्को० अंतो०, अभासए णं पुच्छा, गो० ! अभासए तिविधे पं०, तंअणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपञ्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ णं जे से साइए वा सपज्जवसिते से जहण्णेणं अं० उ० वणफइकालो । दारं १५ (सूत्रं २४६) परित्तएणं पुच्छा, गो०! परित्ते दुविहे पं०, तं०-कायपरित्ते य संसारपरित्ते य, कायपरिते णं पुच्छा, गो०! जह• अंतो० उक्को० असं० पुढविकालो असंखेज्जाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीतो, संसारपरित्ते णं पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियट्टू देसूर्ण । अपरित्ते णं पुच्छा, गो०! अपरित्ते दु. ५०, तं०-कायअपरित्ते य संसारअ०, कायअपरित्ते णं पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० वणस्सइकालो, संसारअपरित्ते णं पुच्छा, गो! संसारअपरित्ते दु. ५०, तं०-अणादीए वा सपञ्जवसिते अणादीए वा अपज्जवसिते, नोपरित्तेनोअपरित्ते णं पुच्छा, गो०! सादीए अपजवसिते, दारं १६ (सूत्रं २४७) पजत्तए णं. पुच्छा, गो०! ज० अं० उ० सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं, अपञ्जत्तए णं पुच्छा, गो.! ज० उ० अंतो०, नोपज्जत्तएनोअपज्जत्तए णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपज्जवसिते । दारं १७ (सूत्रं २४८) सुहुमे णं भंते ! सुहुमित्ति पुच्छा, गो०! ज० अंतो० उ० पूढविकालो, बादरे णं पुच्छा, गो० ! ज. अं० उ० असंखेजं कालं जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजति
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॥३९३॥
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भागं, नोहुमनोबादरे णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपअवसिते । दारं १८ ( सू २४९) सण्णी णं भंते! पुच्छा, गो० ! ज० अंत० उ० सागरोवमसत हुत्तं सातिरेगं, असण्णी णं पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उक्को० वणस्सइकालो, नोसण्णीनोअस
पुच्छा, गो० ! सादीए अपजवसिते । दारं १९ (सूत्रं २५०) भवसिद्धिए णं पुच्छा, गो० ! अणादीए सपञ्जवसिते, अभवसिद्धिए णं पुच्छा, गो० ! अणादीए अपञ्जवसिते, नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए णं पुच्छा, गो० ! सादीए अपअवसिते । दारं २० । (सूत्रं २५१) धम्मत्थिकाए णं पुच्छा, गो० ! सङ्घद्धं, एवं जाव अद्धासमए । दारं २१ (सूत्रं २५२ ) चरिमे णं पुच्छा, गो० ! अणादीए सपञ्जवसिते, अचरिमे णं पुच्छा, गो० ! अचरिमे दुविधे पं० तं० - अणादीए वा अपजवसिते सादीते वा अपज्जवसिते । दारं २२ । ( सूत्रं २५३ ) पण्णवणाए भगवईए अट्ठारसमं कायट्ठिइनामपर्यं समचं ॥ १८ ॥
'भास णं भंते!' इत्यादि, इह जघन्यत एकसमयता उत्कर्षत आन्तर्मुहूर्त्तिकता च वाग्योगिन इवावसातव्या, अभाषक स्त्रिविधस्तद्यथा - अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितश्च तत्र यो न जातुचिदपि भाषकत्वं प्राप्स्यति सोऽनाद्यपर्यवसितो यस्त्ववाप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु भाषको भूत्वा भूयोऽप्यभाषको भवति स सादिसपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, भाषित्वा कञ्चित्कालमवस्थाय पुनर्भाषकत्वोपलब्धेः, अथवा
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प्रज्ञापनायाःमलयवृत्ती.
॥३९॥
द्वीन्द्रियादिभाषक एकेन्द्रियादिष्वभाषकेषुत्पद्य तत्र चान्तर्मुहूर्त जीवित्वा पुनरपि यदा द्वीन्द्रियादिरेवोत्पद्यते तदा || |१८ कायजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमभाषकः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, सच प्रागेवोक्त इति नोपदयते । गतं भाषकद्वारं, इदानीं स्थितिपदं परीतद्वारं, परीतो द्विविधः-कायपरीतः संसारपरीतश्च, तत्र यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतो, यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसारः स संसारपरीतः, कायपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स च यदा कश्चिनिगोदादुद्धृत्य प्रत्येकशरीरिषु समुत्पद्य च तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि निगोदेषूत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, स चासङ्ख्येयः कालः पृथिवीकालो, यावान् पृथिवीकायिककायस्थितिकालस्तावान् वेदितव्य इत्यर्थः, तमेव कालतो निरूपयति-असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त तत ऊर्द्धमन्तकृत्केवलित्वयोगेन मुक्तिभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तमेव निरूपयति-'अणंताओं' इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्द्धमवश्यं मुक्तिगमनात्, कायापरीतोऽनन्तकायिकः, संसारापरीतः सम्यक्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः, कायापरीतो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, 181 स च यदा कश्चित्प्रत्येकशरीरिभ्य उद्धृत्य निगोदेषु समुत्पद्यते तत्र चान्तमहल स्थित्वा भूयोऽपि प्रत्येकशरीरिषूत्पद्यते तदाऽवसातव्यः, उत्कर्षतो वनस्पतिकालो वाच्यः, स च प्रागेवोपदर्शितः, तत ऊर्द्व नियमात्तत उदृत्तेः,
॥३९४॥ संसारापरीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, नोपरीतोनोअपरीतश्च सिद्धः, स च साद्यपर्यवसित एव । पर्याप्सद्वारे पर्याप्तो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत।
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1 ऊर्द्धमपर्याप्तत्वप्रसक्तेः, उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमशतपृथक्त्वं, एतावन्तं कालं पर्याप्सलब्ध्यवस्थानसम्भवात् , 18 अपर्यासो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त, तत ऊर्द्धमवश्यं पर्याप्सलब्ध्युत्पत्तेः, नोपर्याप्सोनोअपर्याप्तश्च सिद्धः, स च
साद्यपर्यवसितः, सिद्धत्वस्याप्रच्युतेः। सूक्ष्मद्वारे सूक्ष्मसूत्रे उत्कर्षतः पृथिवीकाल इति, यावान् पृथिवीकायिकका-1 यस्थितिकालस्तावान् वक्तव्यः। बादरसूत्रं सुगम, अनयोश्च भावना प्रागेव कृता, नोसुक्ष्मोनोवादरश्च सिद्धस्ततः
धपर्यवसितः। संज्ञिद्वारे संज्ञिसूत्रे जघन्यतोऽन्तमुहूर्त्तमिति, यदा कश्चिजन्तुरसंज्ञिभ्य उदृत्त्य संज्ञिषु समुत्पद्यते । तत्र चान्तर्मुहूर्त जीवित्वा भूयोऽपि असंज्ञिपूत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कृष्टं सुगमं । असंज्ञी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स । चैवं-कश्चित् संज्ञिभ्य उदृत्त्यासंज्ञिषूत्पद्यते, तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयोऽपि संज्ञिषु मध्ये समागच्छति, उत्कतो वनस्पतिकालो, वनस्पतिकायस्याप्यसंज्ञिग्रहणेन ग्रहणात् नोसंज्ञिनोअसंज्ञी च सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः। भवसिद्धिकद्वारे 'भवसिद्धिए णमित्यादि, भवे सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्य इत्यर्थः, स चानादिसपर्यवसितः, अन्यथा भव्यत्वायोगात् , अभवसिद्धिकोऽभव्यः, स चानाद्यपर्यवसितः, अन्यथाऽभव्यत्वायोगात्, नोभव्योनोअभव्यश्च सिद्धः, ततः साद्यपर्यवसितः। अस्तिकायाः पञ्चापि सर्वकालभाविनः, अद्धासमयोऽपि प्रवाहापेक्षया, तत उक्तं 'एवं जाव अद्धासमए,' चरमो भवो भविष्यति यस्य सोऽभेदाचरमो-भव्यस्त द्विपरीतोऽचरमः स चाभव्यस्तस्य चरमभवाभावात् , सिद्धश्च, तस्यापि चरमत्वायोगात् , तत्र चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात्,
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१९सम्य
प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती .
अचरमो द्विविधोऽनाद्यपर्यवसितः साद्यपर्यवसितश्च, तत्रानादिअपर्ययसितोऽभव्यः, साद्यपर्यवसितः सिद्धः । इति । श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनावृत्ती अष्टादशं पदं समाप्तम् ॥
क्त्वपदं एकोनविंशतितमं सम्यक्त्वपदं प्रारभ्यते ॥ १९ ॥
॥३९५॥
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तदेवं व्याख्यातमष्टादशं पदं, साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते. अस्य चायमभिसंवन्धः-इहानन्तरपदे कायस्थितिरुक्ता, अत्र तु कस्यां कायस्थितौ कतिविधाः सम्यग्दृष्ट्यादिभेदेन जीवा भवन्तीति चिन्त्यते, तत्रेदं सूत्रम्
जीवा गं भंते ! किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी १, गोयमा! जीवा सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि । एवं नेरइयावि । असुरकुमारादि एवं चेव जाव थणियकुमारा । पुढवीकाइया णं पुच्छा, गोयमा ! पुढवीकाइया णो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी, एवं जाव वणस्सइकाइया । बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा !
बेइंदिया सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वाण| मंतरजोइसियवेमाणिया य सम्मदिट्ठीवि मिच्छादिट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, सिद्धा णं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सम्म
दिट्ठी, णो मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी । (सूत्र २५४ ) पनवणाभगवईए सम्मत्चपदं समत्तं ॥ १९ ॥
॥३९५॥
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'जीवा णं भंते ! किं सम्मदिही' इत्यादि सुगमं आपदपरिसमासेः, नवरं सासादनसम्यक्त्वयुक्तोऽपि सूत्राभि-1 प्रायेण पृथिव्यादिषु नोत्पद्यते, "उभयाभावो पुढवाइएसु" [ उभयाभावः पृथ्व्यादिषु] इति वचनात्, द्वीन्द्रियादिषु सासादनसम्यक्त्वयुक्त उपपद्यते, ततः पृथिव्यादयः सम्यग्दृष्टयः प्रतिषिद्धाः, द्वीन्द्रियादयोऽभिहिताः, सम्यगमिथ्याष्टिपरिणामः पुनः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां भवति, न शेषाणां, तथाखाभाव्यात्, अत उभयेऽपि सम्यगमिथ्यादृष्टयः प्रतिषिद्धाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकोनविंशतितमं पदम् समाप्तम् ॥
अथ विंशतितममन्तक्रियापदं प्रारभ्यते ॥
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व्याख्यातमेकोनविंशतितमं पदं, अधुना विंशतितमं आरभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तरपदे सम्यक्त्वपरिणाम उक्तः, अत्र तु परिणामसाम्याद गतिपरिणामविशेषोऽन्तक्रियाऽभिधीयते, तत्रेयमादी अधिकारद्वारगाथा
नेरइय अंतकिरिया अणन्तरं एगसमय उबट्टा । तित्थगरचक्किबलदेववासुदेवमंडलियरयणा [य] ॥१॥ दारगाहा । जीवे
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२०अन्तक्रियापदम्
॥३९६॥
णं भंते ! अंतकिरियं करेजा ?, गोयमा! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगतिए णो करेजा । एवं नेरइए जाव वेमाणिए । नेरइए णं भंते ! नेरइएसु अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! नो इणढे समटे । नेरइया णं भंते ! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेजा ?, गोयमा ! नो इणढे समटे । एवं जाव वेमाणिएसु । नवरं मयूसेसु अंतकिरियं करेजत्ति पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए करेज्जा अत्थेगतिए. णो करेजा । एवं असुरकुमारा जाव माणिए । एवमेव चउवीसं २ दंडगा भवन्ति । (सूत्रं २५५) नेरइया णं भंते ! किं अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति , गोयमा ! अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागयावि अंतकिरियं करेंति । एवं रयणप्पभापुढविनेरइयावि जाव पंकप्पभापुढवीनेरइया, धूमप्पभापुढवीनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा! णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति, एवं जाव अहेसत्तमापुढवीनेरइया । असुरकुमारा जाव थणियकुमारा पुढवीउवणस्सइकाइया य अणन्तरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरियं पफरेंति, तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिदिया णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति । सेसा अणंतरागयावि अंतकिरियं पकरेंति परंपरागयावि अंतकिरियं पकरेंति । (सूत्रं २५६)
'नेरइय अंतकिरिया' इत्यादि, प्रथमतो नैरयिकोपलक्षितेषु चतविशतिस्थानेष अन्तक्रिया चिन्तनीया। ततोऽनन्तरागताः किमन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता वा? इत्येवमन्तरं चिन्तनीयं, ततो नैरयिकादिभ्योऽनन्तरमागताः
॥३९६॥
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कियन्त एकसमयेनान्तक्रियां कुर्वन्तीति चिन्त्यते, तत 'उच्चट्टा' इति उदृत्ताः सन्तः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं, तथा यत उदृत्तास्तीर्थकराश्चक्रवर्तिनो बलदेवा वासुदेवा माण्डलिकाश्चक्रवर्तिनो रत्नानि च-सेनापतिप्रमुखाणि भवन्ति ततस्तानि क्रमेण वक्तव्यानि इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः। विस्तरार्थ त सूत्रकृदेव वक्ष्यति, तत्र प्रथमतोऽन्तक्रियामभिधित्सुराह-'जीवे णं भंते !' इत्यादि, जीवो 'ण'मिति वाक्यालङ्कतौ भदन्त ! 'अन्तक्रिया मिति अन्तः-अवसानं, तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यं, अन्यत्रागमेऽन्तक्रियाशब्द(वाच्यतया त)स्य रूढत्वात् , तस्य क्रिया-करणमन्तक्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः, “कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः" इति वचनात् , तां कुर्याद् ?, भगवानाह-गौतम ! अस्त्येकको यः कुर्यात् , अस्त्येकको यो न कुर्यात् , इयमत्र भावना-यस्तथाविधभव्यत्वपरिपाकवशतो मनुष्यत्वादिकामविकलां सामग्रीमवाप्य तत्सामर्थ्यसमुद्भूतातिप्रबलवीर्योलासवशतःक्षपकश्रेणिसमारोहणेन केवलज्ञानमासाद्याघातीन्यपि कर्माणि क्षपयेत् स कुर्यात् , अन्यस्तु न कुर्यात् , विपर्ययादिति । एवं नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् भावनीया यावद् वैमानिकाः, सूत्रपाठस्त्वेवम्-'नेरइएणं भंते ! अंतकिरियं करेजा?, गोयमा ! अत्थेगइए करेजा अत्थेगइए नो करेजा' इत्यादि । इदानीं नैरयिकेषु मध्ये वर्तमानोऽन्तक्रियां करोति किं वा न करोति ? इति पिपृच्छिषुरिदमाह-'नेरइए णं भंते' इत्यादि, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नायमों युक्त्युपपन्न इत्यर्थः । कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह कृत्स्नकर्मक्षयः प्रकर्षप्राप्तात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमु
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प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती.
॥३९७॥
दायाद् भवति, न च नैरयिकावस्थायां चारित्रपरिणामः, तथा भवखाभाब्यादिति । एवमसुरकुमारादिषु वैमानिक-18/२०अन्तपर्यवसानेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । मनुष्येषु तु मध्ये समागतः सन् कश्चिदन्तक्रियां कुर्यात् , यस्य परिपूर्णा चारि-8 क्रियापदम् त्रादिसामग्री स्यात्, कश्चिन्न कुर्यात्, यस्तद्विकल इति । एवमसुरकुमारादयोऽपि वैमानिकपर्यवसानाः प्रत्येकं नैर|यिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तत एवमेते चतुर्विशतिदण्डकाश्चतुर्विशतयो भवन्ति ॥ अथैते नैरयिकादयः खखनैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तरं मनुष्यभवे समागताः सन्तोऽन्तक्रियां कुर्वन्ति किंवा तिर्यगादिभवव्यवधानेन परंपरागता इति निरूपयितुकाम आह-'नेरइया णं भंते !' इत्यादिप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! अनन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अपि, तत्र रत्नशर्करावालुकापङ्कप्रभाभ्योऽनन्तरागता अपि परम्परागता अपि, धूमप्रभापृथिव्यादिभ्यः पुनः परम्परागता एव, तथाखाभाव्यात्, एनमेव विशेष प्रतिपिपादयिषुः सूत्रसप्तकमाह-‘एवं रयणप्पभापुढवीनेरइयावि' इत्यादि, सुगमं । असुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसानाः पृथिव्यब्बनस्पतयश्चानन्तरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अप्यन्तक्रियां कुर्वन्ति, उभयथाऽप्यागतानां तेषामन्तक्रियाकरणाविरोधात् , तथा केवलचक्षुषोपलब्धेः। तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः परम्परागता एव, न त्वन- ॥३९७॥ न्तरागताः, तत्र तेजोवायूनामानन्तर्येण मनुष्यत्वस्यैवाप्राप्तः, द्वीन्द्रियादीनां तु तथाभवस्खाभाब्यादिति । शेषास्तु तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियादयो वैमानिकपर्यवसाना अनन्तरागता अपि परम्परागता अपि । अथ नैरयिकादिभवेभ्योऽनन्तर
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मागताः कियन्त एकसमयेऽन्तक्रियां कुर्वन्ति इत्येवंरूपं तृतीयं द्वारमभिधित्सुराह
अणंतरागया नेरइया एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा! जहन्नेणं एगो वादो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, रयणप्पभापुढवीनेरइयावि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढवी०, अणंत० भंते ! पंकपभापुढवीनेरइया एगसमयेणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्वारि, अणन्तरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमये केवतिआ अंत० पकरेंति , गोयमा! जह० एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारीओ एगस० केव० अंत० पकरेंति ?, गोयमा! जह० एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पंच, एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणिअ० अणंतरागया णं भंते ! पुढवि० एगसमये केवइया अंतकिरियं पकरेंति ?, गोयमा ! जह० एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं चत्तारि, एवं आउक्काइयावि चत्तारि, वणस्सइकाइया छच्च, पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस, तिरिक्खजोणिणीओ दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीस, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पंच, जोइसिआ दस, जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिआ अट्ठसयं, वेमाणिणीओ वीसं । (सूत्रं २५७)
'अणंतरागया णं भंते !' इत्यादि, नैरयिकभवादनन्तरं-अव्यवधानेन मनुष्यभवमागता अनन्तरागताः, नैरयिका इति प्राग्भवपर्यायेण व्यपदेशः सुरादिप्राग्भवपर्यायप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, एवमुत्तरत्रापि तत्तत्प्राग्भवपर्यायेण
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प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती.
उद्धृत्ते धर्म
॥३९८॥
व्यपदेशे प्रयोजनं चिन्तनीयमिति । शेषं कण्ठ्यं । सम्प्रति तत उद्वृत्ताः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते ? इति चतुर्थं द्वारम- २. अन्त
क्रियापदे भिधित्सुराहनेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उज्वट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ?, गोयमा ! नो इणढे समढे, नेरइए णं भंते ! नेरइ- ।
श्रवणादि एहितो अणंतरं उबट्टित्ता असुरकुमारेसु उववजेज्जा ?, गोयमा! नो इणढे समढे । एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुच्छा,
सू. २५८ गोयमा ! नो इणटे समहे | नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो अणंतरं उच्चट्टिता पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेजा', अत्थेगतिए उववज्जेज्जा अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा, जे णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उवव० से णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ?, गोयमा! अत्थेगतिए लभेजा अत्थेगतिए णो लभेजा, जेणं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुज्झेजा?, गोयमा! अत्थेगतिए बुज्झेजा अत्थेगतिए णो बुझेज्जा । जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुझेज्जा से णं सद्दहेज्जा पत्तिएजा रोएज्जा ?, गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएजा, जेणं भंते ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएजा से णं आभिणिबोहियनाणसुयणाणाई उप्पाडेजा ?, हंता गोयमा ! उप्पाडेजा, जे णं भंते ! आभिणियोहियनाणसुयनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएजा सीलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा
M३९८॥ पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा पडिवजित्तए ?, गोयमा ! अत्थेगतिए संचाएजा अत्यंगतिए णो संचाएजा, जे णं भंते ! संचाएजा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवजत्तए से णं ओहिनाणं उप्पाडेजा ?, गोयमा! अत्यंगतिए
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उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जेणं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए ?, गोयमा! नो इणहे समहे ॥ नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता मणुस्सेसु उक्वजेजा?, गोयमा! अत्थेगतिए उववजेजा अत्थेगतिए णो उववजेज्जा, जेणं भंते ! उववजेजा से णं केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए ?, गोयमा ! जहा पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु जाव जे णं भंते ! ओहिनाणं उप्पाडेजा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइत्तए, गोयमा! अत्थेगतिए संचाएजा अत्थेगतिए णो संचाएज्जा, जेणं भंते ! संचाएजा मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए से णं मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा ?, गोयमा! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जे णं भंते ! मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेजा ?, गोयमा! अत्थेगतिए उप्पाडेजा अत्थेगतिए णो उप्पाडेजा, जे णं भंते ! केवलनाणं उप्पाडेजा से णं सिज्झेजा बुज्झेज्जा मुच्चेज्जा सबदुक्खाणं अंतं करेजा ?, गोयमा! सिज्झेजा जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेज्जा । नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता वा नंतरजोइसियवेमाणिएसु उववजेजा ?, गोयमा ! नो इणढे समढे । (सूत्र २५८)
नेर ५ णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सक्णयाए' इति केवलिना-सर्वज्ञेन प्रज्ञसो-देशितः केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च तं लभेत श्रवणतया-श्रूयते इति श्रवणं भावे अनट्प्रत्ययः श्रवणस्य-श्रवणशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं श्रुतिरेव श्रवणता श्रवणमेवेत्यर्थः, "भावे त्वतलो" इत्यत्र हि 'तस्पति
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥३९९॥
शब्दरूपस्य भावः - प्रवृत्तिनिमित्तं' इत्यपि व्याख्यानमस्ति तया श्रवणतया १, भगवानाह - ' अत्थेगतिए' इत्यादि, | पुनरपि प्रश्नयति - यस्तु भदन्त ! केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत श्रवणतया 'से णं केवलं बोहिं बुज्झेजा' इति, इह बोधिः - धर्मावाप्तिरुच्यते, तस्या निमित्तभूतो यः शब्दसंदर्भः सोऽपि कारणे कार्योपचाराद् बोधिः, स च केवलिना साक्षात्परम्परया वोपदिष्ट इति कैवलिकः, स केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य श्रोता णमिति पूर्ववत् केवलिकीं बोधिंयथोक्तरूपां बुध्येत —तदर्थं जानीयादित्यर्थः १, भगवानाह - ' अत्थेगतिए' इत्यादि । पुनरपि प्रश्नयति — यो भदन्त ! केवलिकीं बोधिमर्थतोऽवगच्छति सोऽर्थतस्तां श्रद्दधीत - श्रद्धाविषयां कुर्यात्, तथा प्रत्ययेत् — प्रतीतिविषयां कुर्या - तू रोचयेत् — चिकीर्षामि इत्येवमध्यवस्येत् ?, भगवानाह - 'अत्थेगइए' इत्यादि, पुनः प्रश्नयति - यस्तु भदन्त ! श्रधीत प्रत्ययेत् रोचयेत् स आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयेत् ?, भगवानाह - 'हन्ते' त्यादि, [अनुमतौ ] हंता गौतम ! उत्पादयेत्, केवलिप्रज्ञप्तधर्म श्रवणश्रद्धानादवश्यं तयोर्भावात् भूयः प्रश्चयति - यो भदन्त ! आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने उत्पादयति स 'संचाएज्जा' शक्नुयात् 'शील' ब्रह्मचर्य ' त्रतं' चित्रं द्रव्यादिविषयनियमरूपं गुणं - उत्तर|गुणं भावनादिरूपं विरमणं - विरतिरतीतस्थूलप्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं - अनागतस्य स्थूलप्राणातिपातादेरेव, पोषं - धर्मपोषं दधाति — करोतीति पोषधं - अष्टम्यादिपर्व तस्मिन्नुपवासः पोषधोपवासः तं प्रतिपत्तुं शक्नुयात् ? । | भगवानाह - ' अत्थेगइए' इत्यादि, इह तिरश्चां मनुष्याणां च भवप्रत्ययतोऽवधिर्नोपजायते किन्तु गुणतः, गुणाश्च
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२० अन्त
क्रियापदे उद्वृत्ते धर्मश्रवणादि
सू. २५८
॥३९९॥
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शीलतादयोऽस्यापि विद्यन्ते ततः किमस्यावधिज्ञानमुत्पद्यते किंवा न ? इति प्रश्नयति, 'जे णं भंते !' इत्यादि, यस्य शीलवतादिविषयविप्रकृष्टपरिणामभावात् अवधिज्ञानावरणकर्मणः क्षयोपशम उपजायते स उत्पादयेत् , शेषस्तु नेत्यर्थः ॥ अवधिज्ञानानन्तरं च मनःपर्यवज्ञानं द्रष्टव्यं, मनःपर्यवज्ञानं चानगारस्य भवति "तं संजयस्स सवप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमतो" [तत् संयतस्य सर्वप्रमादरहितस्य विविधद्धिमतः] इति वचनात् , ततोऽनगारतामेव प्रश्नयति-'जे णं भंते !' इत्यादि, मुण्डो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन भावतः सर्वसङ्गपरित्यागेन, तत्रेह द्रव्यमुण्डत्वासंभवाद् भावमुण्डः परिगृह्यते, मुण्डो भूत्वा अगारात्-खाश्रयरूपाद् विनिगत्य न विद्यते अगारं-गृहं द्रव्यतो भावतश्च यस्यासी अनगारः तद्भावोऽनगारता तां प्रव्रजितुं शक्नुयात् ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, तिरश्चां भवस्वभावतः तथारूपपरिणामासंभवात् , अनगारताया अभावे मनःपर्यवज्ञानस्य चाभावः सिद्ध एव । यथा च तिर्यपञ्चेन्द्रियविषयं सूत्रकदम्बकमुक्तं तथा मनुष्यविषयमपि वक्तव्यं, नवरं मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानसूत्रे अधिके प्रतिपादयति-'जे णं भंते ! संचाएजा मुंडे भवित्ता इत्यादि सुगम, नवरं 'सिज्झेजा' इत्यादि, सिध्यत-समस्ताणिमैश्वर्यादिसिद्धिभाक् भवेत् बुध्येत-लोकालोकखरूपमशेषमवगच्छेत् मुच्येत-भवोपग्राहिकर्मभिरपि, किमुक्तं भवति ?-सर्वदुःखानामन्तं कुर्यात् । वानमन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः, नैरयिकस्य भवखाभाव्यान्नैरयिकदेवभवयोग्यायुबन्धासंभवात् ।
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥४०॥
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तदेवं नैरयिका नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तिताः, साम्प्रतमसुरकुमारानरयिकादिचतुविशतिदण्डका- २०अन्तमेण चिन्तयति
क्रियापदेअसुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता नेरइएसु उबवजेजा, गोयमा! नो इणढे समहे । असुरकुमारे
उद्धृत्ते धर्मणं भंते ! असुरकुमारहितो अणंतरं उवट्टित्ता असुरकुमारेसु उववजेजा ?, गोयमा! नो इणहे समहे, एवं जाव थणिय
श्रवणादि
सू. २६० कुमारेसु । असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता पुढवीकाइएसु उववजेजा?, हन्ता गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा अत्थेगतिए णो उववज्जेजा । जे णं भंते ! उववजेजा से णं केवलियं धम्मं लभेजा सवणयाए , गोयमा! नो इणहे समहे । एवं आउवणस्सइसुवि । असुरकुमारा णं भंते ! असुरकुमारोहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिदिएसु उववज्जेजा, गोयमा! नो इणहे समढे, अवसेसेसु पंचसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिइसु असुरकुमारेसु जहा नेरइओ, एवं जाव थणियकुमारा (सूत्र २५९)
'असुरकुमारा णं भंते !' इत्यादि प्राग्वत् , नवरमेते पृथिव्यवनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ईशानान्तदेवानां तेषूत्पादा-18|| विरोधात् , तेषु चोत्पन्ना न केवलिप्रज्ञसं धर्म लभन्ते श्रवणतया. श्रवणेन्द्रियस्याभावात, शेषं सर्व नैरयिकबत्, एवं 'जाव थणियकुमारा' इति एवमसुरकुमारोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमाराः ।
॥४०॥ पुढचीकाइए णं भंते ! पुढवीकाइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता नेरइएसु उक्वज्जेजा, मोयमा ! नो इणढे समडे, एवं असुर
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कुमारेसुवि, जाव थणियकुमारसुवि । पुढवीकाइए जं भंते ! पुढबीकाइएहिंतो अपंतरं उच्चट्टित्ता पुडवीकाइएसु उववजेजा ?, गोयमा ! अत्थेगतिए उववज्जेज्जा अत्थेगतिए जो उपवजेजा, जे णं भंते ! उवषज्जेजा से पं केवलिपबत्तं धम्म लभेजा सवणयाए !, गोयमा ! नो इणढे समटे । एवं आउक्काइआदिसु निरंतर भाणियवं जाव चउरिदिएसुं । पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु जहा नेरइए । वाणमंतरजोडासयवमाणिएसु पडिसेहो । एवं जहा पुढवीकाइओ भजिओ तहेव आउकाइओवि, जाव वणस्सइकाइओवि भाणियबो॥ तेउकाइए णं भंते! तेउकाइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता नेरइएसु उववओआ, गोयमा ! णो इणढे समडे, एवं असुरकुमारेसुवि, जाव थणियकुमारेसु, पुढवीकाइमआउवाउतेउवणबेईदियतेइंदियचउरिदिएसु अत्थेगतिए उववजेजा अत्थेगतिए णो उववजेज्जा, जेणे भंते ! उववजेजा से गं केबलिपत्र धम्मं लभेजा सवणयाए ?, गोयमा ! नो इणढे समझे। तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता पंचिंदियतिरिक्खजोगिएसु उबरज्जेजा, गोयमा! अत्थेगइए उववज्जेजा अत्थेगइए णो उववज्जेजा, से णं केवलिपबत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा, जेणं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए से णे केवलिं बोहिं बुझेजा ?, गोयमा! णो इणढे समढे॥ मणुस्सवाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु पुच्छा, गोयमा ! णो इणहे समढे । एवं जहेव तेउक्काइए निरंतरं एवं वाउकाइएवि (सूत्र २६०) पृथिवीकायिका नैरयिकेषु देवेषु च प्रतिपिध्यन्ते, तेषां विशिष्टमनोद्रव्यासंभवतस्तीत्रसंक्लेशपिशुद्धाध्यवसायाभा
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
२० अन्त| क्रियापदे उद्धृत्ते धर्मश्रवणादि सू. २६२
॥४०॥
वात् , शेर षु तु सर्वेष्वपि स्थानेषु उत्पद्यन्ते, तद्योग्याध्यवसायस्थानसंभवात् , तत्रापि च तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु च नैरयिकवद् वक्तव्यं, एवमप्कायिका वनस्पतिकायिकाश्च वक्तव्याः। तेजस्कायिका वायुकायिकाश्च मनुष्येष्वपि प्रतिषेधनीयाः, तेषामानन्तर्येण मनुष्येषूत्पादासंभवात् , असंभवश्च क्लिष्टपरिणामतया मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीमनुप्यायुर्वन्धासंभवात् , तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभरन्, श्रवणेन्द्रियस्य भावात् , पुनस्तां केवलिकी बोधिं नावबुध्येरन् , संक्लिष्टपरिणामत्वात् ।
बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिएहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा, गोयमा! जहा पुढवीकाइआ । नवरं मणुस्सेसु जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा । एवं तेइंदिया चउरिदियावि जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा । जे णं मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा से णं केवलनाणं उप्पाडेजा, गोयमा! नो इणढे समढे। (सूत्रं २६१) पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो [अणंतरं] उव्वट्टित्ता नेरइएसु अणंतरं उववज्जेज्जा?, गोयमा! अत्यंगइए उववजेजा अत्थेगइए णो उववज्जेजा, से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ?, गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा, जेणं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए से णं केवलिं बोहिं बुज्झेजा ?, गोयमा! अत्थेगतिए बुज्झेजा अत्थेगतिए णो बुझेजा, जेणं भंते ! केवलिं बोहिं बुज्झेज्जा से णं सद्दहेजा पत्तिएज्जा रोएज्जा, हंता गोयमा ! जाव , रोएजा, जे णं भंते ! सद्दहेजा० से णं आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणाई उप्पाडेजा ?, हंता गोयमा ! जाव उप्पा
॥४०॥
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डेजा !, जेणं भंते! आभिणिबोहियनाणसुय नाणओहिनाणाई उप्पाडेजा से णं संचाएजा सीलं वा जाव पडिवज्जित्तए ?, गोमा ! णो णट्टे समट्ठे । एवं असुरकुमारेसुवि, जाव थणियकुमारेसु । एगिंदियविगलिदिएसु जहा पुढवीकाइआ । पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए। वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा नेरइएस [उववज्जइ] पुच्छा भणिया एवं मणुस्सेवि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा असुरकुमारे। (सूत्रं २६२ )
द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पृथिवीकायिकवत् देवनैरयिकवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पद्यन्ते, नवरं पृथिवीकायिका मनुष्येष्वागता अन्तक्रियामपि कुर्युः ते पुनरन्तक्रियां न कुर्वन्ति, तथाभवस्वभावात् मनः पर्यवज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः । तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च सर्वेष्वपि स्थानेषूत्पद्यन्ते, तद्वक्तव्यता च पाठसिद्धा । वानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका असुरकुमारवद् भावनीयाः । गतं चतुर्थ द्वारं । इदानीं पञ्चमं तीर्थकरत्ववक्तव्यतालक्षणं द्वारमभिधित्सुराहरयणप्पभापुढवीनेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढवीने रइएहिंतो अनंतरं उबट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा १, गोयमा ! अत्थे -
भेजा अत्थे णो लभेज्जा, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ – अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेजा १, गो० ! जस्स णं रयणप्पभापुढवीनेरइअस्स तित्थगरनामगोयाई कम्माई बढाई पुढाई निघत्ताई कडाई पट्ठवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई उदिन्नाई णो उवसंताई हवंति से णं रयणप्पभापुढवीनेरइए रयणप्पभापुढवीने र इएहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा, जस्स णं रयणप्पभापुढवीने रइयस्स तित्थगरनामगोयाइं णो बद्धाई जाव णो उदिन्नाई
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प्रज्ञापना
या: मलयवृत्ती.
२०अन्तक्रियापदे तीर्थकरत्वाप्तिः
॥४०॥
सू. २६३
उवसंताई हति से रयणप्पभापुढवीनेरइए रयणप्पभापुढषीनेरइएहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता तित्थगर णो लभेजा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अत्थेगतिए लभेजा अत्थेगतिए णो लभेजा । एवं सकरप्पभाजाववालुयप्पभापुढवीनेरइए+ हिंतो तित्थगरसं लभेजा। पंकप्पभापुढवीनेरइए णं भंते ! पंकप्पभा हितो अणंतरं उबट्टित्ता तिस्थगरतं लभेजा, गोयमा! णो इणटे समटे, अंतकिरियं पुण करेजा, धूमप्पभापुढवी० पुच्छा, गोयमा! णो इणढे समढे, सबविरइं चुण लभेज्जा, तमप्पभापुढवीपुच्छा, विरयाविरई पुण लभेज्जा, अहेसत्तमपुढवीपुच्छा, गोयमा! णो इणहे समढे, सम्मत्तं पुण लभेजा । असुरकुमारस्स पुच्छा, णो इणढे समटे, अंतकिरियं पुण करेजा । एवं निरंतरं जाव आउकाइए । तेउकाइए णं भंते ! तेउकाइएहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता उववज्जेजा (तित्थगरत्तं ल०), गो! णो० ति०, केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाते, एवं वाउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गो० ! णोति०, अंतकिरियं पुण करेजा, बेइंदियतेइंदियचउरिदिए णं पुच्छा, गो! नोति०, मणपज्जवनाणं उप्पाडेजा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणूसवाणमंतरजोइसिए णं पुच्छा, गो०! णोति०, अंतकिरियं पुण करेजा, सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तिस्थगरतं
लभेजा, गो०! अत्थे० ल. अत्थे० नो ल०, एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइए एवं जाव सबसिद्धगदेवे ॥ (सूत्रं २६३) _ 'रयणप्पभापुढवीनेरइया णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'पद्धानि' सूचीकलाप इव सूत्रेण प्रथमतो बद्धमात्राणि, तदनन्तरमग्निसंपर्कानन्तरं सकृत् धनकुट्टितसूचीकलापवत् स्पृष्टानि 'निधत्तानि' उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकर
॥४०२॥
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णायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीति भावार्थः 'कृतानि निकाचितानि सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः 'प्रस्थापितानि' मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकीर्तिनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीति भावः 'निविष्टानि' तीव्रानुभावजनकतया स्थितानि 'अभिनिविष्टानि' विशिष्टविशिष्टतराध्यवसायभावतोऽतिती-19 ब्रानुभावजनकतया व्यवस्थितानि 'अभिसमन्वागतानि' उदयाभिमुखीभूतानि 'उदीर्णानि' विपाकोदयमागतानि 'नोपशान्तानि' न सर्वथाऽभावमापन्नानि निकाचिताद्यवस्थोद्रेकरहितानि वा न भवन्ति, शेषं समस्तमपि कण्ठ्यं, एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभाविषये अपि सूत्रे वक्तव्ये । पङ्कप्रभापृथिवीनरयिकस्ततोऽनन्तरमुद्धत्तः तीर्थकरत्वं न लभते, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात्, धूमप्रभापृथिवीनैरयिकोऽन्तक्रियामपि न करोति, सर्वविरतिं पुनर्लभते, तमःप्रभापृथिवीनरयिकः सर्वविरतिमपि न लभते, विरत्यविरतिं-देशविरतिं पुनर्लभते, अधःसप्तमपृथिवीनरयिकः पुन|स्तामपि देशविरतिं न लभते, यदि परं सम्यक्त्वमात्रं लभते । असुरादयो यावद्वनस्पतिकाया अनन्तरमुत्ताः तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः । वसुदेवचरिते पुनर्नागकुमारेभ्योऽप्युट्टत्तोऽनन्तरमैरावतक्षेत्रेऽस्यामेवावसपिण्यां चतुर्विंशतितमस्तीर्थकर उपदर्शितः, तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति । तेजोवायवोऽनन्तरमुत्ताः अन्तक्रि| यामपि न कुर्वन्ति, मनुष्येषु तेषामानन्तर्येणोत्पादाभावाद्, अपि च ते तिर्यसूत्पन्नाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभेरन् , न तु बोधत इत्युक्तं प्राक, वनस्पतिकायिका अनन्तरमुवृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अंतक्रियां पुनः कुर्युः,
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प्रज्ञापना
याः मलय० वृत्तौ .
॥४०३ ॥
द्वित्रिचतुरिन्द्रिया अनन्तरमुदृत्तास्तामपि न कुर्वन्ति, मनःपर्यायज्ञानं पुनरुत्पादयेयुः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्का अनन्तरमुद्वृत्तास्तीर्थकरत्वं न लभन्ते, अन्तक्रियां पुनः कुर्युः, सौधर्मादयः सर्वार्थसिद्धिपर्यवसाना नैरविकवद्वक्तव्याः । गतं तीर्थकरद्वारं सम्प्रति चक्रवर्त्तित्वादीनि द्वाराण्युच्यन्ते
रयणप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! अनंतरं उबट्टित्ता चकवट्टित्तं लभेज्जा, गो० ! अत्थे० लभेज्जा अत्थे० नो लभेजा, से णणं भंते ! एवं ०१, गो० ! जहा रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थगरत्तं । सक्करप्पभानेरइए अनंतरं उवट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेजा ?, गो० ! नो० ति०, एवं जाव अधेसत्तमापुढविनेरइए, तिरियमणुए हिंतो पुच्छा, गो० ! णो० ति०, भवणपतिवाणमंतरजोतिसियवेमाणिएहिंतो पुच्छा, गो० ! अत्थे० ल० अत्थे० नो लभेजा, एवं बलदेवचंपि, णवरं सकरप्पभापुढविने रवि लभेज्जा, एवं वासुदेवत्तं दोहिंतो पुढवीहिंतो वेमाणिएहिंतो य अणुत्तरोववाइयवजेहिंतो, सेसेसु नो ति०, मंडलियत्तं अधेसत्तमा तेउवाऊवजेहिंतो, सेणावइरयणत्तं गाहावइरयणत्तं वडतिरयणत्तं पुरोहियरयणत्तं इत्थिरयणं (ण) च एवं चेव, णवरं अणुत्तरोववाइयवजेहिंतो, आसरयणत्तं हत्थिरयणत्तं रयणप्पभाओ णिरंतरं जाव सहस्सारो, अत्थे० लभेज्जा अत्थे० नो लभेज्जा, चक्करयणत्तं छत्तरयणत्तं चम्मरयणत्तं दंडरयणत्तं असिरयणतं मणिरयणत्तं कागिणिरयणत्तं एतेसिणं असुरकुमारेहिंतो आरद्ध निरंतरं जाव ईसाणाओ उववाओ, सेसेहिंतो नो तिणट्टे समट्ठे (सूत्रं २६४ ) तत्र चक्रवर्त्तित्वं रत्नप्रभानैरयिकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेभ्यो न शेषेभ्यो, बलदेववासुदेवत्वे शर्करातोऽपि,
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२० अन्तक्रियापदे
चक्रवर्त्ति
त्वाद्याप्तिः
सू. २६४
॥४०३ ॥
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नवरं वासुदेवत्वं वैमानिकेभ्योऽनुत्तरोपपातवर्जेभ्यः, मण्डलिकत्वमधःसप्तमतेजोवायुवर्जेभ्यः शेषेभ्यः सर्वेभ्योऽपि स्थानेभ्यः, सेनापतिरत्नत्वं गाथापतिरत्नत्वं वार्द्धकिरत्नत्वं पुरोहितरत्नत्वं स्त्रीरत्नत्वं चाधःसप्तमपृथिवीतेजोवायुअनुत्तरोपपन्नदेववर्जेभ्यः शेषेभ्यः स्थानेभ्यः, अश्वरत्नत्वहस्तिरत्नत्वे रत्नप्रभात आरभ्य निरन्तरं यावदासहस्रारात्, चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं चर्मरत्नत्वं दण्डरत्नत्वमसिरत्नत्वं मणिरत्नत्वं काकणिरत्नत्वं चासुरकुमारादारभ्य निरन्तरं यावदीशानात् , सर्वत्र विधिवाक्ये 'अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए नो लभेजा' इति वक्तव्यं, प्रतिषेधे ‘णो इणटे समढे| इति । तदेवमुक्तानि द्वाराणि, सम्प्रति उपपातगतं किञ्चिद्वक्तव्यमस्तीति तदभिधित्सुराह
अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असण्णीणं तावसाणं कंदप्पियाणं चरगपरिवायगाणं किबिसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिओगियाणं सलिंगीणं दसणवावण्णगाणं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहिं उववाओ पण्णत्तो?, गो० ! असंजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्को० उवरिमगेवेञ्जएसु, अविराहियसंजमाणं जह० सोहम्मे कप्पे उक्को सवट्ठसिद्धे, विराहियसंजमाणं जह• भवणवासीसु उक्को० सोहम्मे कप्पे, अविराहियसंजमासंजमाणं जह• सोहम्मे कप्पे उक्को० अचुए कप्पे, विराहितसंजमासंजमाणं ज० भवणवासीसु उक्को जोतिसिएसु, असन्त्रीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उ० वाणमंतरेसु, तावसाणं ज० भवणवासीसु उक्को जोइसिएसु, कंदप्पियाणं ज० भवणवासीसु उ० सोहम्मे कप्पे, चरगपरिवायगाणं ज०
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥४०४ ॥
भवणवासी उ० बंभलोए कष्ये, किंच्चिसियाणं जह० सोहम्मे कप्पे उ० लंतए कप्पे, तिरिच्छियाणं जह० भवनवासीसु उ० सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं ज० भवणवासीसु उ० अच्चुए कप्पे, एवं आभिओगाणवि, सलिंगीणं दंसणवावण्णगाणं ज० भवणवासीसु उ० उवरिमगेवेजएसु (सूत्रं २६५ )
'अह भंते !' इत्यादि, अथेति परप्रश्ने 'असंजयभवियदवदेवाण' मिति असंयताः - चरणपरिणामशून्या भव्या| देवत्वयोग्याः अत एव द्रव्यदेवाः, समासश्चैवं असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चासंयतभव्यद्रव्यदेवास्तेषां तत्रैके प्राहु:एते किलासंयतसम्यग्दृष्टो देवेषूत्पादात् उक्तं च किलैवमागमे - " अणुवयमहवएहि य बालतवोकामनिज्जरा ए य। देवाउयं निबंधइ सम्म हिट्ठी य जो जीवो ॥ १ ॥” [ अणुव्रत महाव्रतैर्वा लतपोऽकामनिर्जरया च । देवायुष्कं निवनाति सम्यग्दृष्टिश्च यो जीवः ॥ १॥] तदयुक्तम्, यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरितनयैवेयकेषूपपातो वक्ष्यते, सम्यग्दष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रोपपातोऽस्ति, देशविरतश्रावकाणामप्यच्युतादूर्द्धमगमनात्, नाप्येते निह्नवास्तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् तस्मान्मिथ्यादृष्टय एवाभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणोऽसंयतभव्यद्रव्यदेवाः प्रतिपत्तव्याः, तेऽपीहाखिलकेवलक्रियाप्रभावत उपरितनयैवेयकेषूत्पद्यन्त एवेति, असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात्, 'अविराहियसंजमाण' मिति प्रत्रज्याकालादारभ्याभचारित्रपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थान कवशाद्वा स्वल्पमायादिदोषसम्भवेनापि अनाचरितसर्वथाच
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२० अन्त
क्रियापदे
उपपातो
Sसंयतादेः
सू. २६५
॥४०४ ॥
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रणोपघातानामित्यर्थः, तथा 'विराहियसंजमाणं ति विराधितः-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चिचप्रतिपत्ता भूयः सन्धितः संयमो यैस्ते विराधितसंयमास्तेषां 'अविराहियसंजमासंजमाणं'ति प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदेशविरतिपरिणामानां श्रावकाणां 'विराहियसंजमासंजमाणमिति विराधितः-सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या पुनर्नवीकृतः संयमासंयमो यैस्ते विराधितसंयमासंयमास्तेषां, असंज्ञिनां-मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावतां तथा 'तावसाणं'ति परिशटितपत्राद्युपभोगवतां बालतपखिनां, तथा 'कंदप्पियाणं'ति कन्दप्पः-परिहासः स एषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कान्दर्पिकाः, कान्दर्पिका व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दपकौकुच्यादिकारकाः, उक्तं च-"कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले यावि हासणकरे य । विम्हावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१॥ कहकहकहस्स हसणं कंदप्पो अणिहुया य उल्लावा। कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य॥२॥ भुमनयणवयणदसणच्छदेहिं करपायकण्णमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं ॥३॥ वायाइ कुक्कुओ पुण तं जंपइ जेण हस्सए लोओ। णाणाविहजीवरुते कुबइ मुहतूरए चेव ॥४॥ भासइ दुयं २ गच्छए य दरिओ(य)गोव सो सरए । सवं दवं कुणइ [कारी] फुट्टइ वडि(भरि)ओ य दप्पेणं ॥ ५॥ वेसवयणेहिं हासं जणयंतो अप्पणो परेसिं च । अह हासणोत्ति भण्णइ घयणोच छले नियच्छंतो ॥ ६ ॥ सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तविहजणस्स । तेसु न विम्हइ य सयं आहटुक्कहठएसुं च ॥ ७ ॥ जो संजओवि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ । सो
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प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्ती.
॥४०५॥
तविहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥८॥" [कन्दर्प कौकुच्ये द्रवशीलश्चापि हास्यकरश्च । विस्मापयन् परं
२०अन्तकान्दपी भावनां करोति ॥१॥ कहकहकहेतिहसनं कन्दर्पः अनिभृताश्चोल्लापाः। कन्दर्पकथाकथनं कन्दोपदेशप्रशंसे
क्रियापदे च ॥२॥ भ्रनयनवदनदशनच्छदैः करपादकर्णादिभिः । तत्तत्करोति यथा यथा हसति पर आत्मनाऽहसन् ॥३॥
उपपातोवाचा कुकुचः पुनस्तत् जल्पति येन हसति लोकः । नानाविधजीवरुतान् करोति मुखतूर्याण्येव ॥४॥ भाषन् । ऽसंयतादेः द्रुतं २ गच्छति च दृप्तो गौरिव सरति सः। सर्व द्रव्यं करोति स्फुटति च भृतो दर्पण ॥५॥ वेषवचनाभ्यां हास जनयन् आत्मनः परेषां च । असौ हसन इति भण्यते घृतन इव छलानि गवेषयन् ॥ ६॥ इन्द्रजालादिभिस्तु विस्मयं करोति तथाविधजनानां । तेन विस्मयते खयं आहत्योत्कथनेन स्थगकश्च ॥७॥ यः संयतोऽप्येताखप्रश|स्तासु भावनां करोति । स तद्विधेषु गच्छति सुरेषु भक्तश्चरणहीनः ॥८॥] तेषां कान्दर्पिकाणां, 'चरगपरिवाययाणं'ति चरकपरिव्राजका–धाटिभैक्षोपजीविनस्त्रिदण्डिनः, अथवा चरका:-कच्छोटकादयः परिव्राजकाःकपिलमुनिसूनवः, चरकाश्च परिव्राजकाच तेषां, तथा 'किविसियाणं'ति किल्बिषं-पापं तदस्ति येषां ते किल्बिपिकास्ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव ज्ञानाद्यवर्णवादिनः, उक्तं च-"नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स सबसाहूर्ण । माई अवण्णवाई किविसियं भावणं कुणइ ॥१॥ काया वया य ते चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहि- ॥४०५॥ गारियाणं जोइसजोणीहि किं कजं?॥२॥ एगंतरमुप्पाए अण्णोण्णावरणया दुवेण्हपि । केवलदसणनाणाणम
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गकाले व एगतं ॥ ३ ॥ जच्चाईहि अवण्णं विहसह वट्टइ नयावि उववाए । अहिओ छिप्पेही पगासवाई अणणुकूलो ॥ ४ ॥ अविसहणातुरियगई अणाणुवत्तीय अवि गुरुपि । खणमेत्तपीइरोसा गिहवच्छलगा य संजइया ॥ ५ ॥ गृहइ आयसहावं घायइ य गुणे परस्स संतेवि । चोरोव सङ्घसंकी गूढायारो वितहभासी ॥ ६ ॥ [ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्य सर्वसाधूनां । माय्यवर्णवादी किल्बिषिकीं भावनां करोति ॥ १ ॥ काया व्रतानि च तान्येव तावेव प्रमादाप्रमादौ । मोक्षाधिकारिणां ज्योतिर्योनिभिः किं कार्य ॥ २ ॥ एकान्तरोत्पादे अन्योऽन्यावरणता द्वयोरपि । केवलज्ञानदर्शनयोरेककालत्वे चैकत्वं ॥ ३ ॥ जात्यादिभिरवर्ण ( वदति ) वर्त्तते न चाप्युपपाते । अहितछिद्रप्रेक्षी प्रकाशवादी अननुकूलः ॥ ४ ॥ अविषहना मन्दगतयो अननुवृत्तयो गुरूणामपि । क्षणमात्रप्रीतिरोषा गृहवत्सलकाश्च संयतकाः ॥ ५ ॥ गूहत आत्मस्वभावं घातयति च गुणान् परेषां सतोऽपि । चौर इव सर्वशङ्की गूढाचारो वितथभाषी ॥ ६ ॥ ] तेषां 'तिरिच्छियाणं' ति तिरथां - गवादीनां देशविरतिभाजां 'आजीवियाणं' ति | आजीविका :- पाखण्डविशेषाः गोशालमतानुसारिणः अथवाऽऽजीवन्ति ये अविवेकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिश्चरणादीनि इत्याजीविकाः तेषां तथा 'आभियोगियाणं ति अभियोजनं - विद्यामत्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः, स च द्विधा, यदाह - "दुविहो खलु अभिओगो दवे भावे य होइ नायो । दबंमि होंति जोगा विज्जा मंता य भावम्मि ॥ १ ॥ " [ द्विविधः खल्वभियोगो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये भवन्ति योगा
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प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्तौ .
॥४०६ ॥
विद्या मन्त्राश्च भावे ॥ १ ॥ ] सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये ते अभियोगिका आभियोगिका वा, ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, उक्तं च- " कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इद्धिरससायगरुओ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १ ॥” कौतुकं - सौभाग्याद्यर्थं त्रपनं भूतिकर्म - ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नाप्रश्नः - स्वप्नविद्यादि, 'सलिंगीण' मिति रजोहरणादिसाधुलिङ्गवतां, किंविधानामित्याह - 'दंसणवावण्णगाणं'ति दर्शनं - सम्यक्त्वं व्यापन्नं- भ्रष्टं येषां ते तथा तेषां निहृवानामित्यर्थः, 'देवलोगेसु उववजमाणाणं ति अनेन देवत्वादन्यत्रापि यथाऽध्यवसायमुत्पादो भवतीति प्रतिपादितं, 'विराहियसंजमाणं जहणणेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे' इति, अत्र कश्चिदाह - विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं तत्कथं घटते ?, द्रौपद्याः सुकुमालिकाभवे विराधितसंयमाया अपि ईशानकल्पे उत्पादश्रवणात्, नैष दोषः, तस्या हि संयमविराधना उत्तरगुणविषया बकुशत्व मात्रकारिणी न मूलगुणविराधना, सौधर्मोत्पादश्च प्रभूततरसंयमविराधनायां भवति, यदि पुनविराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारणं स्यात् तदा बकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिरुपपद्यते ?, कथञ्चिद्विराधकत्वात्तेषामिति । असंज्ञी देवेषूत्पद्यते इत्युक्तं, स चायुषा इति तदायुर्निरूपयति
कतिविहे णं भंते ! असण्णियाउए पण्णत्ते ?, गो० ! चउविधे असण्णिआउए पं० तं० – नेरइयअसण्णियाउए जाव देवअसण्णियाउए । असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति १, गो० ! नेरइयाउयं पकरेति
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२० अन्त
क्रियापदे
उपपाती
sसंयतादेः
सू. २६५
॥४०६ ॥
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जाव देवाउयं पकरेति, नेरइयाउं पकेरमाणे जह० दस वाससहस्साई उ० पलिओनमस्स असंखेजइभागं फ्करेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जह० अंतो० उक्को० पलितोवमस्स असंखेजइभागं करेति, एवं मनुस्साउयंपि, देवाउयं जहा नेरइयाउयं । एयस्स णं भंते ! नेरइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स कतरे - २ हिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! सवत्थोवे देवअसण्णियाउए मणूस असण्णिआउए असंखेज्जगुणे तिरिक्खजोणियअसण्णिआउ असंखे ० नेरइयअसण्णिआउए असंखे ० । (सूत्रं २६६ ) पण्णवणाए वीसइमं पदं समत्तं ॥ २० ॥
'कवि 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'असण्णिआउए'त्ति असंज्ञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्वभाति तदसंज्ञ्यायुः, 'नेरइयअसन्नियाउए' इति नैरयिकप्रायोग्यमसंज्ञ्यायुनैरयिका संज्ञ्यायुरेव मन्यान्यपि, इहासंज्ञ्यायुरसंज्ञ्यवस्थानुभूयमानमप्युच्यते न चेदमत्र प्रकृतमतस्तत्कृतलक्षणसम्बन्ध विशेष निरूपणार्थमाह - ' असण्णी' इत्यादि, व्यक्तं नवरं 'पकरेइ' इति वनाति, 'दस वाससहरसाई' इति रत्नप्रभाप्रथम प्रस्तटमधिकृत्य 'उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं' इति एतत् रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमधिकृत्य, प्रथमप्रस्तटे हि जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टा नवतिः सहस्राणि द्वितीये दश लक्षाणि जघन्या उत्कृष्टा नवतिर्लक्षाणि, एषैव तृतीये जघन्वा उत्कृष्टा पूर्वकोटी, एषैव चतुर्थे जघन्या उत्कृष्टा सागरोपमस्य दशभागः, ततोऽत्र पल्योपमासङ्ख्येयभागो मध्यमा स्थितिर्भबति, तिर्यक् सूत्रे पल्योपमासङ्ख्येयभागो मिथुनकतिरथोऽधिकृत्य एवं मणुयाउयंपि' इति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्क
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प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्तौ .
॥४०७ ॥
र्षतः पल्योपमासङ्ख्येय भागमित्यर्थः, अत्रापि पल्योपमासङ्ख्येयभागो मिथुनकनरानाश्रित्य प्रतिपत्तव्यः, 'देवाउयं जह नेरइयाउय' मिति देवासंज्ञ्यायुस्तथा वक्तव्यं यथा नैरयिकासंज्ञ्यायुर्जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणं वक्तव्यमिति भावः, 'एयस्स णं भंते !' इत्यादिना यदसंज्ञ्यायुषोऽल्पबहुत्वं तदस्य ह्रस्वदीर्घत्वे प्रतीत्य ॥ इति श्रीमलयगिर्याचार्यविरचितायां श्रीप्रज्ञापनावृत्ती विंशतितमं पदं समाप्तम् ॥ २० ॥
4881644
अथ एकविंशतितमं शरीरपदं प्रारभ्यते ॥ २१ ॥
1307
व्याख्यातं विंशतितमं पदं, इदानीमेकविंशतितममारभ्यते - अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषोऽन्तक्रियारूपपरिणाम उक्तः, इहापि गतिपरिणामविशेष एव शरीरस्य संस्थानादिर्नरकादिग तिषूत्पन्नानां प्रतिपाद्यते, अत्र चेयमधिकारगाथा
विहिसंठाणपमाणे पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो । दवपएसऽप्पबहुं सरीरोगाहणऽप्पबहुं ॥ १ ॥ कति णं भंते ! सरीरया पण्णत्ता ? गो० ! पंच सरीरया पं०, तं० – ओरालिए १ वेविए २ आहारए ३ तेयए ४ कम्मए ५, ओराठियसरीरे णं
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२१ शरीर
पदं
॥४०७॥
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भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे पं०, तं०-एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचिंदियओरालियसरीरे, एगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो०! पंचविहे पं०, तं०-पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे जाव वणप्फइकाइयएगिदियओरालियसरीरे, पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पं० १, गो० ! दुविहे पं०, तं०-सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे बादरपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य, सुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! दु०५०, तं०-पज्जत्तगसुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरे य अपजत्तगसुहुमपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे य, बादरपुढविकाइयावि एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियत्ति, बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो०! दुविधे पं०, तं०-पञ्जत्तबेइंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगबेइंदियओरालियसरीरे य, एवं तेइंदिया चउरिदियावि। पंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! दुविधे, पं०, तं०-तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरा० मणुस्सपंचिंदियओरा०, तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो ! तिविधे पं०, तं०-जलयरतिरिक्खजोणियपंचिं० ओरालिय० थलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियओरा. खहयरति. पंचिं० ओरा०, जलयरतिरि०५० ओरालियसरीरेणं भंते ! कतिविधे पं० १, गो०! दुविधे, पं०, तं०-संमुच्छिमजल० पं०तिरि० ओरालि० गब्भवतिजलयरपंचि० तिरि० ओरालियसरीरे य, संमुच्छिमजल• तिरि० पंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! दुविहे पं०, तं०पजत्तगसंमुच्छिमपंचिं० तिरि०ओरा० अपज्जत्तगसंमुच्छिम० पं०ति ओरालि०, एवं गम्भवतिएवि, थलयरपंचिं
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२१शरीर
प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
॥४०८॥
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तिरिक्ख ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे, पं०१, गो० ! दुविहे पं०, तं०-चउप्पयथलयर तिरि० पंचिक ओरा परिसप्पथल. तिरि० पं० ओ०, चउप्पयथल तिरि० पंचि० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दुविहे 40, तं०-समु० थल०चउप्पयतिरि० पं०ओरा० गब्भवतियचउप्पयथल ति०५०ओरा०, संमुच्छिमचउ० ओरालियसरीरे कइविहे पं० १, गो०! दुविधे पं०, तं०-पजत्तसंमु० चउ० थल. तिरि० पंचि० ओरा० अपज्जतसंमुच्छिमचंउ० थल० तिरि० पंचिं० ओरा०, एवं गम्भवकतिएवि, परिसप्पथलयरतिरि० पंचि० ओरा० भंते ! कतिविधे पं०१, गो! दु०५०, तं०-उरपरिसप्पथल. पं० तिरि० ओरा. भुयपरिसप्पथलपं० तिरि० ओरालियसरीरे य, उरपरिसप्पथल. पंचिंतिरि० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०1, गो! दु० पं०, तं०-संमुच्छिमउर० थल० पंचिं. तिरि० ओरा० गब्भवभूतियउर० थल० तिरि० पंचिं० ओरा०, संमुच्छिमे दुविहे पं०, तं०-अपजत्तसंमु० उर० थल तिरि० पंचिं० ओरालियसरीरे य पजत्तसंमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरि० पंचिं० ओरालि०, एवं गन्मवक्कंतियउरपरिसप्पे चउक्कतो भेओ, एवं भुयपरिसप्पावि समुच्छिमगब्भवतियपज्जत्ता अपजत्ता य, खहयरा दुविधा, पं०, तं०-संमुच्छिमा य गब्भवतंतिया य, संमुच्छिमा दुविधा पं०१, पज्जत्ता अपज्जत्ता य, गन्भवतियावि पजत्ता अपज्जत्ता य । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०, गो० ! दुविहे पं०, तं०-संमृच्छिममणूसपंचिं. ओरा० य गन्भवतियमणूसपंचिं० ओरालि०, गब्भवतियम० पंचिं० ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, मो०! दु०५०, तं०–पञ्जत्तगगब्भवतियमणूसपंचिंदियओरा० अपज्जत्तगगब्भ० मणूसपंचिंदियओरा० (सूत्रं २६७)
SO20292892999999
। एवं भुयपरिसप्पाविमाछाउरपरिसप्पथलयरतिर विहे पं०, २०–अपजत्तसं
॥४०८॥
स्ट
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'विहिसंठाणपमाणे' इत्यादि प्रथम विधयो-भेदाः शरीराणां वक्तव्याः, तदनन्तरं संस्थानानि, ततः प्रमाणानि, तदनन्तरं कतिभ्यो दिग्भ्यः शरीराणां पुद्गलोपचयो भवतीत्येवं पुद्गलचयनं वक्तव्यं, ततः कस्मिन् शरीरे सति किं शरीरमवश्यंभावीत्येवंरूपः परस्परसंयोगो वक्तव्यः, ततो द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः ते च द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः 'समानानामेकशेषः' इत्येकशेषस्तैरल्पबहुत्वं वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया 9 द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया च पञ्चानामपि शरीराणामल्पबहुत्वमभिधातव्यमिति, ततः पञ्चानामपि शरीराणामवगाहनाविषयमल्पबहुत्वं वाच्यमिति गाथासक्षेपार्थः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतो विधिद्वारमभिधित्सुरादौ शरीरमूलभेदान् प्रतिपादयति,-'कइ णं भंते !' इत्यादि, कति-किंपरिमाणानि णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! शीयन्ते-प्रतिक्षणं विशरारुभावं बिभ्रतीति शरीराणि, शरीराण्येव शरीरकाणि, तथा खार्थे कप्रत्ययः, भगवानाहगौतम ! पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च शैषैस्तीर्थकृद्भिः, तान्येव नामत आह-'ओरालिए' इत्यादि, उदारं प्रधानं, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानुत्तरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारंसातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य वैक्रियं प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथा उत्तरवैक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेव औदारिकं विनयादिपाठादिकण्, तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, तथाहि-तदेकं भूत्वा अनेकं भवति अनेकं भूत्वा एक
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ
॥४०९॥
तथा अणु भूत्वा महद्भवति महच भूत्वा अणु तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्य
२१शरीरभूत्वा अदृश्यं भवति अदृश्यं भूत्वा दृश्यमित्यादि, तच द्विविधं-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च, तत्रीपपातिकमुपपातजन्मनिर्मितं, तच देवनारकाणां, लब्धिप्रत्ययं तिर्यग्मनुष्याणां, तथा 'आहारए' इति आहारकं चतुर्दशपूर्व विदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निर्वय॑ते इत्याहारकं, 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्मणि वुजू, यथा पादहारक इत्यत्र, उक्तं च-"कजंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए। जं एत्थ आहरिजइ भणितं आहारगं तं तु ॥१॥"[कार्ये समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलब्ध्या । यदत्राहियते भणितमाहारकं तत् ॥१॥] कार्यं चेदम्-"पाणिदयरिद्धिदंसणसुहुमपयत्थावगहणहेउं वा। संसयवोच्छेयत्थं । गमणं जिणपायमूलंमि॥२॥" [प्राणिदयर्द्धिदर्शनसूक्ष्मपदार्थावगाहनहेतोश्च। संशयव्यवच्छेदार्थ गमनं जिनपादमूले ॥१॥] तच वैक्रियशरीरापेक्षया अत्यन्तशुभं स्वच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुदलसमूहघटनात्मकं, तेज इति-तैजसं तेजसः-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यण, तत् ऊष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणं, तद्वशाच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, उक्तं च-"सबस्स उम्हसिद्धं रसाइआहारपाकजणगं च ॥ तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायचं ॥१॥" [ सर्वस्योष्मसिद्धं रसाद्याहारपाकजनकं च । तेजोलब्धिनिमित्तं । च तैजसं भवति ज्ञातव्यम् ॥१॥] 'कम्मए' इति कर्मणो जातं कम्मंज, किमुक्तं भवति ?-कर्मपरमाणव एवा
जापुद्गलानांपेक्षया अत्यन्तवादर्शनसूक्ष्मपदाद्धिदसणसुहमा
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त्मप्रदेशैः सह ये क्षीरनीरवत् अन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणतास्ते कर्मजं शरीरमिति, अत एवैतदन्यत्र कार्मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्-"कम्मविगारो कम्मणमट्टविहविचित्तकम्म निप्फन्नं । सवेसि सरीराणं कारणभूतं मुणेयवं ॥१॥" [कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं मुणितव्यं ॥१॥] अत्र 'सवेसिमिति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीज| भूतं कार्मणशरीरं, न खल्वामूलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मज शरीरं जन्तोगत्यन्तरसङ्क्रान्तौ साधकतमं करणं, तथाहि-कर्मजेनैव वपुषा तैजससहितेन परिकरितो जन्तुमरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि तैजससहितकार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सट्टामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मान्न दृष्टिपथमवतरति ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानां चातिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् , तथा च |परतीर्थिकैरप्युक्तम्-"अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन् वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥” इति । सम्प्रति औदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतोऽवस्थाभेदतश्च भेदानभिधित्सुराह-'ओरालियसरीरे णं भंते।' इत्यादि, औदारिकशरीरमेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदात् पञ्चधा, एकेन्द्रियोदारिकशरीरमपि पृथिव्यप्रतेजोवायुवनस्पतिएकेन्द्रियभेदात् पञ्चविधं, पृथिवीकायिकैकेन्द्रियौदारिकशरीरमपि सूक्ष्मेतरभेदाद् द्विधा, पुनरेकैकं द्विधा पर्याप्सापर्याप्तभेदात्, एवमतेजोवायुवनस्पत्येकेन्द्रियौदारिकशरीराण्यपि प्रत्येकं चतुर्विधानीति सर्वसङ्ख्य
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥४१०॥
येकेन्द्रियौदारिकशरीराणि विंशतिधा, द्वित्रिचतुरिन्द्रियौदारिकशरीराणि प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् द्विभेदानि, २१ शरीरपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-तिर्यग्मनुष्यभेदात् , तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं त्रिधा, जलचरस्थलचरखचरभे- पदं दात् , जलचरतिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं द्विविधं-सम्मछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात्, एकैकमपि पुनर्द्विभेदंपर्याप्तापर्याप्तभेदात्, स्थलचरतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-चतुष्पदपरिसर्पभेदात्, चतुष्पदस्थलचरतियक्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि द्विधा-सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदात्, परिसर्पस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरमपि उरःपरिसर्पभुजपरिसर्पभेदतो विभेदं, पुनरेकैकं द्विधासम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् , तत्रापि पुनः प्रत्येकं द्वैविध्यं पर्याप्तापर्याप्तभेदात् , सर्वसङ्ख्ययाऽष्टभेदं परिसर्पस्थ|लचरतिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं, खचरतिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् द्विभेदं, |पुनरेकैकं द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदादिति, सर्वसङ्ख्यया तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं विंशतिभेदं, मनुष्यपञ्चेन्द्रियोदारिकशरीरं सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदात् विभेदं, पुनरेकै द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् । एवमौदारिकस्य भेदा उक्ताः, सम्प्रत्येतेषामेव यथाक्रमं संस्थानान्याह
ओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठिते पन्नत्ते, गो०! णाणासंठाणसंठिते पं०, एगिदियओरा० किंसंठिते पं०१, गो! णाणासंठाणसंठिते पं०, पुढविकाइयएगिदियओरा. किंसंठिते पं० १, गो० ! मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं
29802020820020201203
॥४१०॥
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सुहुमपुढविकाइयाणवि बादराणवि, एवं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणवि, [एवं चेव] आउक्काइयएगिदियओरा० भंते ! किंसंठिते पं० १, गो० ! थिचुकबिंदुसंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमबादरपज्जत्तापज्जत्ताणवि, तेउक्काइयएगि० उरा० भंते ! किंसंठिते पं० ?, गो० ! सूईकलावसंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमवादरपज्जत्तापज्जत्ताणवि, वाउक्काइयाणवि पडागासंठाणसंठिते, एवं सुहुमबादरपज्जत्तापज्जत्ताणवि, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं सुहुमबादरपज्जचापजत्ताणवि । बेइंदियओरा० भंते ! किंसं० पं०१, गो० ! हुंड संठाणसंठिते पं०, एवं पजत्तापजताणवि, एवं तेइंदियचउरिंदियाणवि । पंचिंदियतिरिक्खजोणियपंचिं० ओरा भंते ! किंसंठा० पं० १, गो०! छविहसंठाणसं०५०, तं०-समचउससंठाणसं० जाव हुंडसंठाणसंठितेवि, एवं पजत्तापजत्ताणवि ३, समुच्छिमतिरिक्खजो० पंचिं० ओरा० भंते ! किंसं० पं०१, गो० ! हुंडसंठाणसंठिते पं०, एवं पज्जत्तापज्जत्ताणवि, गब्भवकं० तिरिक्ख० पंचिंदिय० ओरा० भंते ! किसंठा० ५०, गो०! छबिहसंठाणसं० पं०, तं०-समचउरंसे जाव हुंडसंठा, एवं पञ्जत्तापज्जत्ताणवि ३, एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा, जलयरपं० तिरि० ओरा० भंते ! किंसंठाणसंठिते पं० १, गो० ! छबिहसंठाणसं० पं०, तं०-समचउरंसे जाव हुंडे, एवं पज्जत्तापज्जत्ताणवि, संमुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिता, एतेसिं चेव पज्जतावि अपज्जत्तगावि एवं चेव, गब्भवतियजलयरा छविहसंठाणसंठिता, एवं पजत्तापजत्ताणवि, एवं थलयराणवि णव सुत्ताणि एवं चउप्पयथलयराणवि उरपरिसप्पथलयराणवि भुयपरिसप्पथलयराणवि, एवं खहयराणवि णव सुत्ताणि, नवरं सत्वत्थ समुच्छिमा हुंड संठाणसंठिता भाणितवा, इयरे छसुवि । मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसं
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥४११॥
ठिते पं० १, गो० ! छविहसंठाणसंठिते पं० तं० - समचउरंसे जाव हुंडे, पज्जत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, गन्भवकंतियाणवि एवं चैव, पञ्जत्तापज्जत्ताणवि एवं चेव, संमुच्छिमाणं पुच्छा, गो० ! हुंडठाणसंठिता पण्णत्ता ( सूत्रं २६८ ) ‘ओरालियसरीरे णं भंते !' इत्यादि, नानासंस्थानसंस्थितं जीवजातिभेदतः संस्थानभेदभावात्, एकेन्द्रियौदारिकशरीरे नानासंस्थानसंस्थितता पृथिव्यादिषु प्रत्येकं संस्थानभेदात्, तत्र पृथिवीकायिकानां सूक्ष्माणां वादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि मसूर चन्द्रसंस्थान संस्थितानि, मसूरो- धान्यविशेषः तस्य चन्द्रः - चन्द्राकारमर्द्धदलं तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, अष्कायिकानां सूक्ष्मादिभेदतः चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि | स्तिबुक विन्दु संस्थानसंस्थितानि, स्तिबुकाकारो यो विन्दुर्न पुनरितस्ततो वातादिना विक्षिप्तः स्तिबुक बिन्दुस्तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, तैजसकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि सूचीकलाप संस्थानसंस्थितानि, | वायुकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि, वनस्पतिकायिकानां सूक्ष्मा| णां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकमौदारिकशरीराणि नानासंस्थान संस्थितानि, देशकालजातिभेदतः तेषां संस्थानानामनेकभेदभिन्नत्वात्, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं पर्याप्तानामपर्याप्तानामौदारिकशरीराणि हुंडसंस्थानसंस्थितानि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरं सामान्यतः षड्विधसंस्थानसंस्थितं, तदेवोपदर्शयति- 'समचउरंससंठाणसंठिए' इत्यादि, यावत्करणात् ' नग्गोहपरिमंडल संठाणसंठिए साइसं० वामणसं० खुजसंठाणसंठिए इंडसंठाणसं
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२१ शरीर
पदं
॥४११॥
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ठिए' इति परिग्रहः, तत्र समाः - सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणा विसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्त्रयः -- चतुर्दिग्विभागोपल| क्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रं, समासान्तो ऽत्प्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थितं समचतुरस्त्र संस्थानसंस्थितं, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तत् न्यग्रोधपरिमण्डलं यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णप्रमाणं अधस्तु न तथा तन् न्यग्रोधपरिमण्डलं, तथा आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना - नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्त्तते इति सादि, यद्यपि सर्व शरीरमादिना सह वर्त्तते तथापि सादित्यविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाणलक्षणेनेति, इदमुक्तं भवति - यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीं प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थानं, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपुष्टमुपरितना तदनुरूपा न महाविशा| लता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु नेति, तथा यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मडभं तत्कुब्जसंस्थानं, यत्र पुनरुरउदरादि प्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं हीनं तद्वामनसंस्थानं, यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थानं, समासः सर्वत्रापि पूर्ववत्, एवं 'पजत्तापजत्ताणवि' इति, एवं-उक्तप्रकारेण सामान्यतस्तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणामिव पर्याप्तानां अपर्याप्तानां
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ.
॥४१२॥
च प्रत्येकं सूत्रं वक्तव्यं, तदेवमेतानि त्रीणि सूत्राणि, एवमेव च सामान्यतः सम्मूच्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामपि त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु हुण्डसंस्थानसंस्थितमिति वक्तव्यं, सम्मूच्छिमाणामविशेषेण सर्वेषामपि हुण्डसंस्थानभावात् त्रीणि सामान्यतो गर्भज तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामपि, नवरं तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु 'छविहसंठाणसंठिए पण्णत्ते' इत्यादि वक्तव्यं, गर्भजेषु समचतुरस्रादिसंस्थानानामपि सम्भवात् तदेवमेते सामान्यतस्ति|र्यक्पञ्चेन्द्रियविषया नव आलापकाः, अनेनैव क्रमेणैव जलचरतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्प|दस्थलचराणामुरः परिसर्प स्थलचराणां भुजपरिसर्पस्थलचराणां खचरतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि वक्तव्यानि, सर्वसङ्ख्यया तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियाणां त्रिषष्टिः ६३ सूत्राणि मनुष्याणां नव सर्वत्र सम्मूच्छिमेषु हुण्डसंस्थानं च वक्तव्यमितरत्र पडपि संस्थानानि । तदेवमुक्तान्यौदारिकभेदानां संस्थानानि, साम्प्रतमवगाहनामानमाह
ओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को ० सातिरेगं जोयणसहस्सं, एगिंदियओरालियस्सवि एवं चैव जहा ओहियस्स, पुढविकाइयए गिंदियओरालिय सरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १ गो० ! ज० उ० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, एवं अपज्जत्तयाणवि पञ्जत्तयाणवि, एवं सुहुमाणं पञ्जत्तापजत्ताणं, बादराणं पञ्जत्तापञ्जत्ताणवि, एवं एसो नवओ भेदो जहा पुढविकाइयाणं तहा आउक्काइयाणवि काइयाणवि वाउक्काइयाणवि, वणस्सइकाइयओरालियसरीरस्स पणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १,
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२१ शरीरपदं
॥४१२॥
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गो० ! ज० अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्को० सातिरेगं जोअणसहस्सं, अपजत्तगाणं जह० उक्को० अंगुलस्स असंखेजतिभागं, पजत्तगाणं जह० अंगुलस्स असं० उको० सातिरेगं जोयणसहस्सं, बादराणं जह० अंगुलस्स असं० उक्को० जोअणसहस्सं सातिरेगं, पजत्ताणवि एवं चेव, अपजत्ताणं जह• उक्को० अंगुलस्स असं०, सुहुमाणं पज्जत्तापजत्ताण य तिण्हवि जह० उक्को० अंगुलस्स असं० । बेइंदियओरा० भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो०! जह• अंगुलस्स असं० उक्को० बारस जोअणाई, एवं सब्बत्थवि अपजत्तयाणं अंगुलस्स असंखे० जहण्णेणवि उक्कोसेणवि, पजत्तगाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स, एवं तेइंदियाणं तिण्णि गाउयाई, चउरिंदियाणं चत्तारि गाउयाई, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उकोसेणं जोयणसहस्सं ३, एवं समुच्छिमाणं ३, गब्भवतियाणवि ३ एवं चेव नवओ भेदो भाणियबो, एवं जलयराणवि जोयणसहस्सं, नवओ भेदो, थलयराणवि णव भेदा ९, उक्को० छ गाउयाई पज्जत्तगाणवि, एवं चेव संमुच्छिमाणं पजत्तगाण य उक्को गाउयपुहुत्तं ३, गब्भवतियाणं उक्को० छ गाउयाई पञ्जत्ताण य २ ओहियचउप्पयपज्जत्तगब्भवकंतियपज्जत्तयाणवि उक्को० छ गाउयाई, संमुच्छिमाणं पजत्ताण य गाउयपुहुत्तं उक्को०, एवं उरपरिसप्पाणवि ओहियगम्भवकंतियपजत्तगाणं जोयणसहस्सं, संमुच्छिमाणं पञ्जत्ताण य जोयणपुहुत्तं, भुयपरिसप्पाणं ओहियगम्भवतियाणवि उक्को. गाउयपुहुत्तं, संमुच्छिमाणं धणुपुहुत्तं, खहयराणं ओहियगन्भवतियाणं संमुच्छिमाण य तिण्हवि उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, इमाओ संगहणिगाहाओ-'जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोअणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयए धणुहपुहुत्तं च पक्खीसु ॥१॥ जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोअणपुहुत्तं । दोण्हं तु धणुपुहुत्तं समुच्छिमे होति उच्चत्तं ॥२॥ मणूसो
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प्रज्ञामनाया: मलय० वृत्ती.
पदं
॥४१३॥
रालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो०! जह० अंगु० उक्को तिण्णि गाउयाई, एवं अपज्ज
२१शरीरताणं जह० उक्को० अंगुलस्स असं०, संमुच्छिमाणं जह० उक्को० अंगुलस्स असं०, गब्भवतियाणं पज्जत्ताण य जह० अंगुलस्स असं० उक्को० तिण्णि गाउयाई (सूत्रं २६९) 'ओरालियस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकस्य जघन्यतोऽवगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, सा चोत्पत्तिप्रथमसमये पृथिवीकायिकादीनां चावसातव्या, उत्कर्षतः सातिरेकं योजनसहस्रं, एषा लवणसमुद्रगोतीर्थादिषु पद्मनालाद्यधिकृत्यावसातव्या, अन्यत्रैतावत औदारिकशरीरस्यासम्भवात् , एवमेकेन्द्रियसूत्रेऽपि, तथा चाह-एगिदियओरालियस्स एवं चेव जहा ओहियस्स' इति पृथिव्यतेजोवायूनां सूक्ष्माणां बादराणां प्रत्येकं पर्याप्तानामपर्यासानां चौदारिकशरीरस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चावगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागः प्रत्येकं च नव सूत्राणि, तेषां औषिकसूत्रमौधिकापर्याप्तसूत्रमौधिकपर्याप्तसूत्रं तथा सूक्ष्मसूत्रं सूक्ष्मपर्याप्तसूत्रं सूक्ष्मापर्याप्तकसूत्रं एवं बादरेऽपि सूत्रत्रिकमिति, एवं वनस्पतिकायिकानामपि नव सूत्राणि, नवरमौधिकवनस्पतिसूत्रे औधिकवनस्पतिपर्याप्तकसूत्रे बादरसूत्रे वादरपर्यासकसूत्रे च जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः सातिरेकं योजनसहस्रं, तच पद्मनालाघधिकृत्य वेदितव्यं, शेषेषु तु |
४४१३॥ पञ्चसूत्रेषु जघन्यत उत्कर्षतो वाऽङ्गुलासययभागः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं त्रीणि २ सूत्राणि, तद्यथा-औधिकसूत्रमपयोप्तसूत्रं पयोप्तसूत्रं च, तत्रीषिकसूत्रे पयोप्तसूत्रे च द्वीन्द्रियाणामुत्कषेतो द्वादश योजनानि, त्रीन्द्रियाणां
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8 त्रीणि गव्यूतानि, चतुरिन्द्रियाणां चत्वारि गव्यूतानि, अपर्याप्तसूत्रे तु जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्गुलासङ्ख्येयभागः, तथा ४ सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां जलचराणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्पदानामुर परिसाणां भुजपरिसर्पाणां खचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चां च प्रत्येकं नव २ सूत्राणि, तद्यथा-त्रीणि औधिकानि त्रीणि संमूर्छिमविषयाणि त्रीणि गर्भव्युत्क्रान्तिकविषयाणि, तत्रापर्यासेषु स्थानेषु सर्वेष्वपि जघन्यत उत्कर्षतो वा अङ्गुलासङ्ख्येयभागः, शेषेषु तु स्थानेषु ।। जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः सामान्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु जलचरेषु चोत्कर्षतो योजनसहस्रं, सामान्यतः | स्थलचरेषु चतुष्पदस्थलचरेषु चौषिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च षटू गव्यूतानि, सम्मूछिमेषु गन्यूतपृथक्त्वं, उरम्परिसर्पष्वौषिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु च योजनसहस्रं सम्मूछिमेषु योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसर्पष्वौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तेषु च गव्यूतपृथक्त्वं, सम्मूछिमेषु धनुःपृथक्त्वं, खचरेष्वौधिकेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु सम्मूछिमेषु च सर्वेषु स्थानेषु धनुःपृथक्त्वं, अत्रेमे सङ्ग्रहगाथे-"जोअणसहस्स"मित्यादि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानां जलचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनाया मानं योजनसहस्रं, चतुष्पदस्थलचराणां षड् गव्यूतानि, उरःपरिसप्पस्थलचराणां योजनसहस्रं, भुजपरिसर्पस्थलचराणां गव्यूतपृथक्त्वं, पक्षिणां धनुःपृथक्त्वं, तथा सम्मूछिमानां जलचराणामुत्कर्षतः शरीरावगाहनायाः प्रमाणं योजनसहस्रं, चतुष्पदस्थलचराणां गव्यूतपृथक्त्वं, उरःपरिसप्पस्थलचराणां योजनपृथक्त्वं, भुजपरिसर्पस्थलचराणां पक्षिणां च धनुःपृथक्त्वमिति । उक्तं तिर्यपञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमिदानीं मनुष्यप
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प्रज्ञापनाया:मल
कामित्यादि काली नगरं प्रीणि गणतानि देव । असल
य० वृत्ती.
॥४१४॥
ञ्चेन्द्रियौदारिकशरीरावगाहनामानमाह-'मणुस्सोरालियसरीरस्स ण'मित्यादि, कण्ठ्यं, नवरं त्रीणि गव्यूतानि देव-18२१शरीरकुर्वाद्यपेक्षया, तदेवमौदारिकशरीरस्य विधयः संस्थानानि प्रमाणानि चोक्तानि, सम्प्रति तानि क्रमेण वैक्रियस्याभिधित्सुराह
वेउब्वियसरीरे णं भंते । कतिविधे पं० १, गो० ! दुविधे पं०, तं०-एगिदियवेउब्वियसरीरे य पंचिंदियवेउब्वियस०, जति एगिदियवेउब्वियसरीरे किं वाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे अवाउक्काइयएगिदियवेउत्वियसरीरे ?, गो० ! वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे नो अवाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे, जइ वाउकाइयवेउब्वियसरीरे किं सुहुमवाउकाइयवेउवियसरीरे बायरवाउक्काइयवेउवियसरीरे?, गो०! नो सुहुमवाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे बादरवाउकाइयएगिदियवेउब्वियस०, जइ बादरवाउकाइयएगिदियवेउब्वियसरीरे किं पजत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे अपजत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे ?, गो० ! पज्जत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउव्वियसरीरे नो अपञ्जत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउवियसरीरे, जति पंचेंदियवेउवियसरीरे किं नेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरे जाव किं देवपंचिदियवेउवियसरीरे ?, गो! नेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरेवि जाव देवपंचिंदियवेउवियसरीरेवि, जइ नेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरे किं रयणप्पभापुढविपंचिंदियवेउत्विय० जाव | ॥४१४॥ किं अधेसत्तमापुढविनेरइयपं० वेउवियसरीरे ?, गो०! रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरेवि जाव अधेसत्तमापुढविनेरइयपंचिं० वेउब्वियसरीरेऽवि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयविउव्वियसरीरे किं पञ्जत्तगरय० नेरइयवेउ०स० अपजत्तगरय
बादरवाजागो ! पजत्तबादरवायसरीरे जाव किं देवपाच
कि रयणप्पभापुढ
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णप्पभापु० नेरइ० पं० वे० सरीरे ?, गो०! पजत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं० अपज्जत्तगरयणप्पभापु० नेर० पं०, एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणितबो, जइ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्वियसरीरे किं समुच्छिमपं०तिरिवेउ०स० गम्भवकतियपंचिंतिवे०स० १, गो० ! नो समुच्छिमपं० ति० वे० सरीरे गब्भवतियपं० ति० वेउवियसरीरे, जति गम्भवकं० पंचिं० ति० वेउव्वियसरीरे किं संखेजवासाउयगब्भवतियपंचि० वे०सरी० असंखिज्जवासाउयग० पं०तिवे०सरीरे ?, गो० ! संखेजवासाउयगब्भ० पं० ति० वे० स० नो असं० गब्भ० पंचिं० तिरि० वेउ० स०, जइ संखिज० गम्भ० पंचिंतिवेउ०सरीरे किं पञ्जत्तगसं० गम्भ० पं० ति० वे० सरीरे अपज्जत्तगसं० ग. पं० ति० वे सरीरे ?, गो! पज० सं० ग० पं० ति० वे० सरीरे नो अप० सं० गब्भ० पं० ति. वे. सरीरे, जइ संखेजवासा० किं जलयरगम्भ० पं० ति० वे० सरीरे थलयरसं० ग. पं० ति० वे० सरीरे खहयरसं० ग० पं० ति. वे. सरीरे ?, गो० ! जल. सं० ग. पं० ति० वे० सरीरेवि थलयरसं० ग० पं० ति० वे. सरीरेवि खहयरसं० गम्भ० पं० ति० वे० सरीरेवि, जइ जल० सं० किं पञ्जत्तगजल० सं० ग० पं० ति० वे० सरीरे अपञ्जत्तगजल० सं० ग० पं० ति० वेउ० सरीरे य?, गो! पज्ज. जल० सं० गब्भ० पं० तिरि० वे० स० नो अपज० सं०जलग० पं० ति० वे० स०, जति थलयरपंचिं० जाव सरीरे किं चउप्पय जाव सरीरे किं परिसप्प जाव?, गो०! चउप्पयजावसं० परिसप्पजाव स०, एवं सन्वेसि णेयत्वं जाव खहयराणं पजत्ताणं नो अपज्जत्ताणं, जति मणूसपंचिक वेउ० सरीरे किं समुच्छिममणूस० पं०वे. सरीरे गब्भ० म०पं. वेउब्वियसरीरे ?, गो.! णो संमु०म०पं० उ० सरीरे गम्भ० म. पंचि० वे० सरीरे, जइ गम्भ.
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२१शरीर
प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
णो अंतरदीवगः
॥४१५॥
• ग० म० पं० ० ०कम्म० ग० म० ०
म० पं० वे० स० किं कम्मभूमग ग० म०पं० वे० स० अकम्मभूमग. ग० म०पं० वे० स० अंतरदीवग० ग० म० पं० वे० सरीरे ?, गो० ! कम्मभूमगगन्भ० म०पं० वे० स० णो अकम्भूमग णो अंतरदीवग०, जइ कम्मभूमगगम्भ मणूस पंचिं. वे० सरीरे किं संखेज्जवासाउयकम्म० ग० म० वे० स० असं० कम्म० ग० म० पं० वे. स० १, गो० ! संखे० कम्म० ग० म०पं० वे० स० नो असं० कम्म० ग० म०पं० वे० सरीरे, जति संखे० कम्म ग० म०पं० वे० सरीरे किं पजत्तयसंखे० क० म०पं० वे० स० अपजत्तग० सं० क. ग० म०पं० वे० सरीरे ?, गो० ! पज्ज० सं० क० ग० म०पं० वे० सरीरे नो अपज० सं० क० ग० म०पं० वे० सरीरे । जइ देव पंचिंदियवेउब्वियसरीरे किं भवणवासिदेव० पं० वे० सरीरे जाव वेमाणियदेव० वे० स० १, गो० ! भवणवासीदेव० पं० वे० सरीरेवि जाव वेमाणियदेव पंचि० वेउ० सरीरेवि, जइ भवणवासिदेव० पं० वे० सरीरे किं असुरकुमारभव० देव. पं० वे० स० जाव थणियकुमारभव० देव० पं० वे० सरीरे ?, गो० ! असुरकु० जाव थणियकुमार० वेउ० सरीरेवि, जइ असुरकुमारदेव० पं० वे० स० किं पजत्तगअसुर० भ० देव० पं० वे० सरीरे अपजत्तग० असुरकुमारभ० देव० पं० वे० स० १, गो ! पज्ज. असुर० भ० देव० पं० वे० सरीरेवि अपजत्तगअसु० भ० देव० पं० वे० सरीरेवि, एवं जाव थणियकुमाराणं दुगतो भेदो, एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं जोतिसियाणं पंचविहाणं, वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातीता य, कप्पोवगा बारसविहा, तेसिपि एवं चेव दुहतो भेदो, कप्पातीता दुविहा गेवेजगा य अणुत्तरोववाइया य, गेवेजगा णवविहा अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एतेसिं पज्जत्तापजत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो भाणि (मूत्रं २७०)
॥४१५॥
ea
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'वेउवियसरीरे णं भंते !' इत्यादि, वैक्रियशरीरं मूलतो द्विभेदं-एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् , तत्रैकेन्द्रियस्य वातकायस्य तत्रापि बादरस्य तत्रापि पर्याप्तस्य, शेषस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् , उक्तं च-"तिण्हं ताव रासीणं वेउवियलद्धी चेव नत्थि, बायरपजत्ताणंपि संखेजइभागमेत्ताणं' अत्र 'तिण्हं'ति त्रयाणां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्तबादररूपाणां । पञ्चेन्द्रियचिन्तायामपि जलचरचतुष्पदोरःपरिसर्पभुजपरिसर्पखचरान् मनुष्यांश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकान सङ्ग्येयवर्षायुषो मुक्त्वा शेषाणां प्रतिषेधो, भवस्वभावतया तेषां वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् । उक्ता भेदाः, संस्थानान्यभिधित्सुराह
वेउवियसरीरेणं भंते ! किंसंठिते प०१, गो०! णाणासंठाणसंठिते पं०, वाउकाइयएगिदियवेउ० सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं० १, गो० ! पडागासंठाणसंठिते पं०, नेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पं० १, गो ! नेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरे दुविधे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरवेउविए य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं हंडसंठाणसंठिते पं०, तत्थ णं जे से उत्तरवेउविते सेवि हुंडसंठाणसंठिते पं०, रयणप्पभापुढविनेरइयपचिं० वेउ० सरीरेणं भंते ! किंसंठाणसंठिते पं० १, गो! रयणप्पभापुढविनेरइयाणं दुविधे सरीरे पं०, तं०-भवधारणिजे य उत्तरवेउविए य, तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं हुं०, जे से उत्तरवेउविते सेवि हुंडे, एवं जाव अधेसत्तमापुढविनरइयवेउवियसरीरे । तिरिक्खजोणियपं० वे० सरीरेणं भंते ! किंसंठाणसंठिते पं०, गो! णाणासंठाणसंठिते पं०, एवं जलयरथलयरख
2062082670888220002
चिंदियवेउबियसमागासठाणसंठिते पं०, न गाणासठाणसंठिते पं०.
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२१ शरीर
प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती.
पदं
॥४१६॥
हयराणवि, थलयराणवि चउप्पयपरिसप्पाणवि परिसप्पाणवि उरपरिसप्पभुयपरिसप्पाणवि । एवं मणूसपचिंदियवे० सरी- रेवि । असुरकुमारभवणवासी देव० पंचि० वे० सरीरे णं भंते! किंसंठिते पं० १, गो०! असुरकुमाराणं देवाणं दविहे सरीरे पं०, तं०-भवधारणिज्जे य उत्तरवेउविते य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से णं समचउरंससंठाणसं पं०, तत्थ ण जे से उत्तरवेउविए से णं णाणासंठाणसं० पं०, एवं जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियवेउवियसरीरे, एवं वाणमंतराणवि, णवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति, एवं जोतिसियाणवि ओहियाणं, एवं सोहम्मे जाव अच्चुयदेवसरीरे, गेवेजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिते पं० १, गो०! गेवेजगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरे, से णं समचउरंससंठाणसंठिते पं०, एवं अणुत्तरोववाइयाणवि (सूत्रं २७१)
'बेउवियसरीरे णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं नैरयिकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थानमत्यन्तक्लिष्टकर्मोदयवशात् , तथाहि तेषां भवधारणीयं शरीरं भवखभावत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलग्रीवादिरोमपक्षिसंस्थानवदतीव बीभत्सं हुण्डसंस्थानं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि वयं शुभं करिष्याम इत्यभिसन्धिना कर्तुमारब्धमपि तथाविधात्यन्ताशुभनामकर्मोदयवशादतीवाशुभतरमुपजायते इति हुण्डसंस्थानं । तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च वैक्रियं नानासंस्थानसंस्थितमिच्छावशतः प्रवृत्तेः, दशविधभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्माद्यच्युतपर्यवसानवैमानिकानां भवधारणीयं भवस्वभावतया तथाविधशुभनामकर्मोदयवशात् प्रत्येकं सर्वेषां समचतुरस्रसंस्थान, उत्तरवैक्रियं
४१६॥
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विच्छानरोधतः प्रवृत्तेर्नानासंस्थानसंस्थितं, ग्रैवेयकानामनुत्तरोपपातिनां चोत्तरवैक्रियं न भवति, प्रयोजनाभावाद, उत्तरक्रियं ह्यत्र गमनागमननिमित्तं परिचारणानिमित्तं वा क्रियते, न चैतेषामेतदस्ति, यत्तु भवधारणीयमेतेषां। तत्समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितमिति । उक्तानि संस्थानानि, सम्प्रत्यवगाहनामानमाह
वेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरावगाहणा पं० ?, गो० ! जह० अंगुलस्स असं० उक्को सातिरेगं जोयणसयसहस्सं । वाउक्काइयएगिदियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो०! जह• अंगुलस्स असं० उक्कोसेणवि अंगुलस्स असं०, नेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरस्सणं भंते ! केमहा० पं०१, गो०! दुविहा पं०, तं०-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जह० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को० पंचधणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउत्विया सा जह० अंगुलस्स संखेजतिभागं उक्को० धणुसहस्सं । रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केमहा. पं०१, गो०! दुविहा पं०, तं०-भवधारिणिज्जा य उत्तरवेउविता य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जह• अंगु० असं० उक्को० सत्त धणूइं तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जा सा उत्तरखेउविता सा जह• अंगु० असं० उक्को० पण्णरस धणूतिं अड्डाइजाओ रयणीओ । सक्करप्पभाए पुच्छा, गो०! जाव तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जह० अंगु० असं० उको० पण्णरस धणूई अड्डाइजातो रयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविता सा जह० अंगु० संखे० उको एकतीसं ध]ई एक्का य रयणी । वालुयप्पभाए पुच्छा, भवधारणिज्जा एकतीसं धणूई एका रयणी उत्तरवे
22200020908092000
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२१शरीर
प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्तौ.
॥४१७॥
उत्विया छावढि धणूतिं दो रयणीओ। पंकप्पभाए भवधारणिजा बावहि धणूई दो रयणीओ, उत्तरवेउब्बिया पणवीसं धणुसयं । धूमप्पभाए भवधारणिजा पणवीसं धणुसयं, उत्तरवेउविया अड्डातिजाइं धणुसयाई । तमाए भवधारणिजा अड्डाइजाइं धणूसताई उत्तरवेउविया पंच धणुसताई । अधेसत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई उत्तरवेउविता धणुसहस्सं, एवं उक्कोसेणं । जहन्नेणं भवधारणिज्जा अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उत्तरवेउविता अंगुलस्स संखिजतिभागं । तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! जह० अंगु० सं० उक्कोसेणं जोअणसतपुहुत्तं । मणुस्सपंचिंदियवेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहा० ?, गो० ! जह० अंगुल० सं० उक्को० सातिरेगं जोअणसतसहस्सं । असुरकुमारभवणवासिदेव. पंचि. वेउवियसरीरस्स णं भंते ! केमहा० ?, गो० ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरीरोगाहणा पं०, तं०-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविया य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा ज. अंगु० असं० उक्को० सत्त रयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउविता सा जह• अंगु० संखे० उक्को० जोअणसतसहस्सं, एवं जाव थणियकुमाराणं, एवं ओहियाणं वाणमंतराणं, एवं जोइसियाणवि सोहम्मीसाणदेवाणं, एवं चेव उत्तरखेउविता, जाव अच्चुओ कप्पो, नवरं सणंकुमारे भवधारणिज्जा जह० अंगु० अ० उक्को० छ रयणीओ, एवं माहिंदेवि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीओ महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ, आणयपाणयआरणचुएसु तिण्णि रयणीओ गेविजगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियवेउ० स० केम०, गो. ! गेवेज्जगदेवाणं एगा भवधारणिजा सरीरोगाहणा पं० सा जह• अंगुल. असं० उको दो रयणी, एवं अणुत्तरोववाइयदेवाणवि, णवरं एक्का रयणी (मूत्र २७२)
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॥४१७॥
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'उचियसरीरस्स ण' मित्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागं नैरयिकादीनां भवधारणीयस्यापर्याप्तावस्थायां वातकायस्य वा, उत्कर्षतः सातिरेकं योजनशतसहस्रं देवानामुत्तरवै क्रियस्य मनुष्याणां वा, 'एगिंदियवे उच्चियसरीरस्स ण' मित्यादि, अत्र एकेन्द्रियो वातकायोऽन्यस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् तस्य जघन्यत उत्कर्षतो वाऽवगाहनामान - मङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणं, एतावत्प्रमाणविकुर्वणायामेव तस्य शक्तिसम्भवात्, सामान्यनैरयिकसूत्रे 'भवधारणीया' भवो धार्यते यया सा भवधारणीया 'कुद्वहुल' मिति वचनात् करणे अनीयप्रत्ययः, उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्त| खैक्रिया धनुःसहस्रं सप्तमनरकपृथिव्यपेक्षया, अन्यत्रैतावत्या भवधारणीयाया उत्तरवैक्रियाया वा शरीरावगाहनाया अप्राप्यमाणत्वात्, अधुना प्रतिपृथिव्यवगाहनामानमाह - 'रयणप्पमेत्यादि, अङ्गुला सङ्ख्येय भागप्रमाणता प्रथमोत्पत्तिकाले वेदितव्या, उत्कर्षतः सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि पर्याप्तावस्थायां, इदं चोत्कर्षतः शरीरावगाहनामानं त्रयोदशे प्रस्तटे द्रष्टव्यं शेषेषु त्वर्वाक्तनेषु प्रस्तटेषु स्तोकं स्तोकतरं तच्चैवम् - रत्नप्रभायाः प्रथमप्रस्तटे त्रयो हस्ता उत्कर्षतः शरीरप्रमाणं, द्वितीये प्रस्तटे धनुरेकमेको हस्तः सार्द्धनि चाष्टावङ्गुलानि, तृतीये प्रस्तटे धनुरेकं त्रयो हस्ताः सप्तदशाङ्गुलानि, चतुर्थे द्वे धनुषी द्वौ हस्तौ सार्द्धमेकमङ्गुलं, पञ्चमे त्रीणि धनूंषि दशाङ्गुलानि, षष्ठे त्रीणि धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्द्धान्यष्टादशाङ्गुलानि सप्तमे चत्वारि धनूंषि एको हस्तः त्रीणि चाङ्गुलानि, अष्टमे चत्वारि धनूंषि त्रयो हस्ताः सार्द्धान्येकादशाङ्गुलानि, नवमे पञ्च धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, दशमे पट्
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ.
॥४१८॥
धनूंषि सार्द्धानि चत्वारि अङ्गुलानि, एकादशे षट् धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रयोदशाङ्गुलानि, द्वादशे सप्त धनूंषि सार्द्धान्येकविंशतिरङ्गुलानि, त्रयोदशे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् परिपूर्णान्यङ्गुलानि अत्र चायं तात्पर्यार्थः - प्रथमप्रस्तटे यच्छरीरावगाहनापरिमाणं त्रयो हस्ता इति तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण सार्द्धानि षट्पञ्चाशदङ्गुलानि प्रक्षिप्यन्ते ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु शरीरावगाहनापरिमाणं भवति, उक्तं च - " श्यणाऍ पढमपयरे हत्थतियं देहउस्सओ भणिओ । छप्पन्नंगुल सहा पयरे २ हवइ बुढी ॥ १ ॥ [ रत्नायाः प्रथमे प्रतरे हस्तत्रयं देहोच्छ्रयो भणितः । षट्पञ्चाशदलानि सार्धानि प्रतरे प्रतरे भवति वृद्धिः ॥ १ ॥ ] 'तत्थ णं जा सा उत्तरवेउचिया' इत्यादि, जघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागं, प्रथमसमयेऽपि तस्या अङ्गुलसङ्ख्येयभागप्रमाणाया एव भावात्, न त्वसङ्ख्येयभागप्रमाणायाः, आह च सङ्ग्रहणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरिः - " उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्नभावादाद्यसमयेऽप्यङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रैव, उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि अर्धतृतीया हस्ताः " इदं च उत्तरवैक्रियशरीरावगाहनापरिमाणं त्रयोदशे प्रस्तटेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु प्रागुक्तभवधारणीयमानापेक्षया द्विगुणं प्रत्येतव्यं १ । शर्कराप्रभायां भवधारणीया उत्कर्षतः पञ्चदश धनूंषि अर्द्धतृतीया हस्ताः, इदं चोत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनापरिमाणमेकादशे प्रस्तटेऽवसातव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेष्विदं - शर्करायाः प्रथमे प्रस्तटे सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि, द्वितीये प्रस्तटे अष्टौ धनूंषि द्वौ हस्तौ नव चाङ्गुलानि तृतीये नव धनूंषि एको हस्तो द्वादश चाङ्गुलानि, चतुर्थे दश धनूंषि पञ्चदशाङ्गुलानि पञ्चमे दश
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२१ शरीर
पदं
॥४१८ ॥
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మహిమపదించి
धनूंषि त्रयो हस्ता अष्टादशाङ्गुलानि, षष्ठे एकादश धनूंषि द्वौ हस्तावेकविंशतिरङ्गुलानि, सप्तमे द्वादश धनूंषि द्वौ | हस्ती, अष्टमे त्रयोदश धनंषि एको हस्तः त्रीणि अङ्गुलानि, नवमे चतुर्दश धनूंषि षट् चाङ्गलानि, दशमे चतुर्दशी धनुषि त्रयो हस्ता नव चाङ्गलानि, एकादशे सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्रापीदं तात्पर्य-प्रथमे प्रस्तटे.यत्परिमाणमुक्तं | तस्योपरि प्रस्तटक्रमेण त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि प्रक्षेप्तव्यानि, ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परीमाणं भवति, "सो चेव य बीयाए पढमे पयामि होइ उस्सेहो। हत्थतिय तिन्नि अंगुल पयरे पयरे य वुड्डीए ॥१॥ एक्कारसमे। पयरे पण्णरस धणणि दोणि रयणीओ। बारस य अंगुलाई देहपमाणं तु विन्नेयं ॥२॥" गाथाद्वयस्थापीयमक्षरगमनिका-य एव प्रथमपृथिव्यां त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कर्षत उत्सेधो भणितः-सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षट्र चाङ्गुलानि इति, स एव द्वितीयस्यां-शर्कराप्रभायां पृथिव्यां प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति ज्ञातव्यः, ततः प्रतरे प्रतरे वृद्धिरवसेया त्रयो हस्तास्त्रीणि चाङ्गुलानि, तथा च सत्येकादशे प्रस्तटे उत्कर्षतो भवधारणीयशरीरपरिमाणमायाति पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि इति, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणमाह-एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, इदं च एकादशे प्रस्तटे वेदितव्यं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमवसेयं २ । तथा तृतीयस्यां वालुकाप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः, एतच नवमं प्रस्तटमधिकृत्योक्तमवसेयं, शेषेषु प्रस्तटेष्वेवं-तत्र प्रथमप्रस्तटे भवधारणीया पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गुलानि, द्वितीये प्रस्तटे सप्तदश
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प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्ती.
॥४१९ ॥
धनूंषि द्वौ हस्तौ सार्द्धानि सप्ताङ्गुलानि तृतीये एकोनविंशतिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ त्रीण्यङ्गुलानि, चतुर्थे एकविंशतिः धनूंषि एको हस्तः सार्द्धनि द्वाविंशतिरङ्गुलानि पञ्चमे त्रयोविंशतिर्धनूंषि एको हस्तोऽष्टादश चाङ्गुलानि षष्ठे पञ्चविंशतिर्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धानि त्रयोदशाङ्गुलानि, सप्तमे सप्तविंशतिर्धनूंषि एको हस्तो नव चाङ्गुलानि, अष्टमे एकोनत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः सार्द्धानि चत्वार्यङ्गुलानि, नवमे यथोक्तरूपं परिमाणं भवति, अत्रापि चायं भावार्थ:प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सप्त हस्ताः सार्द्धानि च एकोनविंशतिरङ्गुलानि क्रमेण प्रक्षेप्तव्यानि ततो यथोक्तं प्रस्तटेषु परिमाणं भवति, उक्तं च - " सो चेव य तझ्याए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । सत्त रयणीउ अंगुल उणवीसं सहबुद्धी य ॥ १ ॥ पयरे पयरे य तहा नवमे पयरंमि होइ उस्सेहो । धणुयाणि एगतीसं एक्का रयणी य नायवा ॥ २ ॥ " अस्यापि गाथाद्वय सेयमक्षरगमनिका - य एव द्वितीयस्याः शर्करप्रभाया एकादशे प्रस्तटे भवधारणीयाया उत्कर्षत उत्सेध उक्तः - पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चाङ्गुलानि, स एव तृती यस्याः वालुकाप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे प्रस्तटे उत्सेधो भवति, ततः प्रतरे २ वृद्धिरवसेया सप्त हस्ताः सार्द्धानि चैकोनविंशतिरङ्गुलानि, तथा च सति नवमे प्रस्तटे यथोक्तं भवधारणीयावगाहनामानं भवति - एकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्त इति, उत्तरवैक्रियोत्कृष्टपरिमाणमाह - द्वाषष्टिर्धनूंषि द्वौ हस्तौ एतच्च नवमप्रस्तटापेक्षमवसेयं, शेषेषु तु प्रस्तटेषु | निजनिजभवधारणीय प्रमाणापेक्षया द्विगुणद्विगुणमिति ३ । चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया
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२१ शरीर
पर्द
॥४१९ ॥
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द्वापष्टिर्धनूंषि द्वौ हस्ती, इदं च सप्तमे प्रस्तटे प्रत्येयं, शेषेषु प्रस्तटेष्वेवं-पङ्कप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे एकत्रिंशद्धनूंषि । |एको हस्तः, द्वितीये पत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तो विंशतिरङ्गुलानि, तृतीये एकचत्वारिंशद्धनूंषि द्वौ हस्तौ षोडश अङ्गुलानि, चतुर्थे षट्चत्वारिंशद्धनूंषि त्रयो हस्ता द्वादशाङ्गुलानि, पञ्चमे द्विपञ्चाशद्धनूंषि अष्टावङ्गुलानि, षष्ठे सप्तप-11 चाशद्धनूंषि एको हस्तः चत्वार्यङ्गलानि, सप्तमे यथोक्तरूपं परिमाणं, अत्रापि चैप भावार्थः-प्रथमे प्रस्तटे यत्परि-IST माणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे क्रमेण पञ्च धनूंषि विंशतिरङ्गुलानीत्येवंरूपा वृद्धिरवगन्तव्या, ततः प्रथमे प्रस्तटे
सूत्रोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-“सो चेव चउत्थीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पंच धणु वीस अंगुल पयरे पियरे य वुड्डी य ॥१॥ जो सत्तमए पयरे नेरइयाणं तु होइ उस्सेहो । बासट्टी धणुयाणं दोण्णि रयणी य बोद्धधा
॥२॥" अस्यापि गाथाद्वयस्याक्षरगमनिका प्राग्वत् भावनीया, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्चविंशं धनुःशतं, तच सप्तमे प्रस्तटे, शेषेषु तु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति ४ । पञ्चम्यां धूमप्रभायां पृथिव्यां भवधारणीयोत्कर्षतः पञ्चविंशं धनुःशतं, तच्च पञ्चमं प्रस्तटमधिकृत्योक्तमवसेयं, शेषेषु प्रस्तटेष्विदं-प्रथमप्रस्तटे द्वापष्टिधषि द्वी हस्तौ, द्वितीयेऽष्टसप्ततिर्धषि एका वितस्तिः, तृतीये त्रिनवतिर्धनूंषि त्रयो हस्ताश्चतुर्थे नवोत्तरं धनुःशतं एको हस्तः एका च वितस्तिः, पञ्चमे सूत्रोक्तं परिमाणं, अत्रापि चायं तात्पर्यार्थः-यत्प्रथमे प्रस्तटे परिमाणमुक्तं तदुपरि प्रस्तटे २ क्रमेण पञ्चदश धनंपि सार्द्धहस्तद्वयाधिकानि प्रक्षेप्तव्यानि, तथा च सति यथोक्तं पञ्चमे प्रस्तटे परिणाम
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२१शरीर
प्रज्ञापना- या: मलय० वृत्ती.
॥४२॥
भवति, उक्तं च-“सो चेव य पंचमीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । पनरस धणूणि दो हत्थ सह पयरेसु वुड्डी य ॥१॥ तह पंचमए पयरे उस्सेहो धणुसयं तु पणवीसं ॥” अस्याः सार्द्धगाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्तव्या, उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, एतानि च पञ्चमे प्रस्तटे वेदितव्यानि, शेषेषु प्रस्तटेषु खखभवधारणीयापेक्षया द्विगुणमिति । षष्ठयां तमःप्रभायां पृथिव्यामुत्कर्षतो भवधारणीया अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि, तानि च तृतीये प्रस्तटे प्रत्येतव्यानि, प्रथमे तु प्रस्तटे पञ्चविंशं धनुःशतं, द्वितीये सार्द्धसप्ताशीत्यधिकं धनुःशतं, तृतीये तु सूत्रोक्तमेव परिमाणं, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थः-प्रथमे प्रस्तटे यत्परिमाणमुक्तं तस्योपरि प्रस्तटे प्रस्तटे सार्द्धानि द्वाषष्टिधनूंषि प्रक्षेप्तव्यानि, तथा च सति तृतीये प्रस्तटे यथोक्तं परिमाणं भवति, उक्तं च-“सो चेव य छट्ठीए पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो । बावटि धणुय सड्ढा पयरे पयरे य वुड्डीओ ॥१॥छट्टीएँ तइयपयरे दोसय पण्णासया होंति ॥” अस्याप्युत्तरार्द्धपूर्विकाया गाथाया अक्षरगमनिका प्राग्वत् कर्तव्या. उत्तरवैक्रियोत्कर्षपरिमाणं पञ्च धनुःशतानि, तानि च तृतीयप्रस्तटे वेदितव्यानि, आद्ययोस्तु द्वयोः प्रस्तटयोः खस्खभवधारणीयापेक्षया द्विगुणं द्विगुणमवबोद्धव्यं ६।अथ सप्तम्यां तु पृथिव्यां भवधारणीया उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, उत्तरवैक्रिया धनुःसहस्रं, सर्वत्र |भवधारणीया जघन्यतोऽङ्गलासङ्ख्येयभागप्रमाणा उत्तरवैक्रिया सङ्ग्येयभागप्रमाणेति । तिर्यकपञ्चेन्द्रियस्य वैक्रियशरीरावगाहना उत्कर्षतो योजनशतपृथक्त्वं, तत ऊर्ध्वं करणशक्तेरभावात् , मनुष्याणां सातिरेकं योजनशतसहस्रं,
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॥४२०॥
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यभागमानावशेषः सनत्कुमा च भवधारणाव येषां सन
विष्णुकुमारप्रभृतीनां तथाश्रवणात् , जघन्या तूभयेषामप्यङ्गुलसङ्ख्येयभागप्रमाणा, न त्वसङ्ख्येयभागमाना, तथारूपप्रयत्नासम्भवात् । असुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां सौधर्मेशानदेवानां प्रत्येकं जघन्या भवधारणीया वैक्रियशरीरावगाहना अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, सा चोत्पत्तिसमये द्रष्टव्या, उत्कृष्टा सप्त रत्नयः, उत्तरवैक्रिया जघन्या अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रा, उत्कृष्टा योजनशतसहस्रं, 'उत्तरवेउविया जाव अच्चओ कप्पो' त्ति उत्तरक्रिया तावद् वक्तव्या यावदच्युतः कल्पः, परत उत्तरक्रियासम्भवात् , एतच्च प्रागेवोक्तं, सर्वत्र जघन्य
तोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमाना उत्कर्षतो योजनलक्षं, भवधारणीया तु विचित्रा ततस्तां पृथगाह-'नवर'मित्यादि, नवर-IN K मयं भवधारणीयां प्रति विशेषः-सनत्कुमारे कल्पे जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभाग उत्कर्षतः षड् रत्नयः, एवं माहिंदेवि'
इति एवं-उक्तेन प्रकारेण जघन्या उत्कृष्टा च भवधारणीया माहेन्द्रकल्पेऽपि वक्तव्या, एतच्च सप्तसागरोपमस्थि-18 तिकान् देवानधिकृत्योक्तमवसेयं, धादिसागरोपमस्थितिष्वेवं-येषां सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोर्द्व सागरोपमे स्थिति
स्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्णसप्तहस्तप्रमाणा, येषां त्रीणि सागरोपमाणि तेषां पड़ हस्ताः चत्वारश्च हस्तस्यै& कादशभागाः, येषां चत्वारि सागरोपमाणि तेषां षड् हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशभागाः, येषां पञ्च सागरोपमाणि
तेषां पड़ हस्ताः द्वौ च हस्तस्यैकादशभागौ, येषां षट् सागरोपमाणि तेषां षडू हस्ताः एकश्च हस्तस्यैकादशभागः, येषां तु परिपूर्णानि सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा षड् हस्ता भवधारणीया, उक्तं च-"अयरतिगं ठिइ
ಅಅಅಅಅಅಅಅಅಲಿ
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥४२॥
जेसिं सणंकुमारे तहेव माहिंदै । रयणीछकं तेसिं भागचउकाहियं देहो ॥१॥ तत्तो अयरे अयरे भागो एक्केकओ२१शरीरपडइ जाव । सागरसत्तठिईणं रयणीछक्कं तणुपमाणं ॥२॥" इह जघन्या भवधारणीया सर्वत्राप्यनुलासङ्ख्ययभागप्रमाणा, सा च प्रतीतेति तामवधीर्योत्कृष्टां प्रतिपादयति-'बंभलोगलंतगेसु पंच रयणीओ' इति, इह यद्यपि ब्रह्मलोकस्योपरि लान्तको न समश्रेण्या तथापीह शरीरप्रमाणचिन्तायामिदं द्विकं विवक्ष्यते, द्विकपर्यन्त एव हस्त|स्य त्रुटिततया लभ्यमानत्वात् , एवमुत्तरत्रापि द्विकचतुष्कादिपरिग्रहे कारणं वाच्यं, तत्र ब्रह्मलोकलान्तकयोरुत्कर्षतया भवधारणीया पञ्च रत्नयः, एतच लान्तके चतुर्दशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्य प्रतिपादितमवसेयं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवं-येषां ब्रह्मलोके सप्त सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां षडू रत्नयः परिपूर्णा भवधारणीया, येषामष्टी सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः षड़ हस्तस्यैकादशभागाः, येषां नव सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताः पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ताश्चत्वारश्चैकादशभागाः हस्तस्य, लान्तकेऽपि येषां दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया उत्कर्षतो, येषामेकादश सागरोपमाणि लान्तके स्थितिस्तेषां पञ्च हस्तास्त्रयो हस्तस्यैकादशभागाः, येषां द्वादश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता द्वौ च हस्तैकादशभागी, येषां त्रयो-15 दश सागरोपमाणि तेषां पञ्च हस्ता एको हस्तस्यैकादशभागो, येषां चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णा पञ्चहस्ता भवधारणीया, 'महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ' महाशुक्रसहस्रारयोश्चतस्रो रत्नय उत्कर्षतो भवधार
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णीया, एतच्च सहस्रारगतान् अष्टादशसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं वेदितव्यं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवंयेषां महाशुक्रे कल्पे चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुत्कर्षतो भवधारणीया परिपूर्णाः पञ्च हस्ताः, येषां पञ्चदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्तास्त्रयश्च हस्तस्यैकादशभागाः, येषां षोडश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशभागौ, येषां सप्तदश सागरोपमाणि तेषां चत्वारो हस्ता एको हस्तस्यैकादशभागः, सहस्रारेऽपि येषां सप्तदश सागरोपमाणि तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनः सहस्रारे परिपूर्णान्यष्टादश सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ताः भवधारणीया, 'आणयपाणयआरणचएसु तिन्नि रयणीओ' इति आनतंप्राणतारणाच्युतेषु तिस्रो रनय उत्कृष्टा भवधारणीया, एतचाच्युते कल्पे द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकान् देवानधिकृत्योक्तं द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवं-येषामानतेऽपि कल्पे परिपूर्णानि किञ्चित्समधिकानि चाष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः तेषां परिपूर्णाश्चत्वारो हस्ता उत्कृष्टा भवधारणीया. येषां पुनरेकोनविंशतिः सागरोपमाणि तेषां त्रयो हस्तात्रयश्च हस्तस्यैकादशभागाः, प्राणतेऽपि कल्पे येषामेकोनविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां| पुनः प्राणते कल्पे विंशतिः सागरोषमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता द्वौ च हस्तस्यैकादशभागी, येषामारणेऽपि कल्पे विंशतिः सांगरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनरारणेऽपि कल्पे एकविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता एकस्य हस्तस्यैकादशभागो भवधारणीया, अच्युतेऽपि कल्पे येषामेकविंशतिः सागर
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प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती.
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रोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनरच्युते कल्पे द्वाविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामुत्क- N२१शरीरपतो भवधारणीया परिपूर्णास्त्रयो हस्ताः, 'गेवेजकप्पातीते'त्यादि भावितं, नवरं 'उक्कोसेणं दो रयणीओ'त्ति एतन्नवमवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् देवान् प्रति द्रष्टव्यं, शेषसागरोपमस्थितिष्वेवं-प्रथमे ग्रैवेयके येषां द्वाविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां त्रयो हस्ता भवधारणीया, येषां पुनस्तत्रैव त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तावष्टौ हस्तस्यैकादशभागाः, द्वितीयेऽपि ग्रैवेयके येषां त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र चतुर्विशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ सप्त च हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, तृतीयेऽपि अवेयके येषां चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनः पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ षट् हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, चतुर्थेऽपि वेयके येषां पञ्चविंशतिःसागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेतावती भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र षडविंशतिःसागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ पञ्च हस्तस्यैकादशभागाः, पञ्चमेऽपि त्रैवेयके येषां पविंशतिः सागरोपमाणि तेषामेतावती भव-II धारणीया, येषां तु तत्र सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषां द्वौ हस्तौ चत्वारो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, षष्ठेऽपि ग्रैवेयके येषां सप्तविंशतिः सागरोपमाणि तेषामतावत्येव भवधारणीया, येषां पुनस्तत्राष्टाविंशतिः सागरोप& माणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्तौ त्रयो हस्तस्यैकादशभागा भवधारणीया, सप्तमेऽपि अवेयके येषामष्टाविंशतिः सागरो
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॥४२२॥
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पमाणि (स्थितिः) तेषामेतावती, येषां पुनस्तत्र एकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया द्वौ हस्तौ द्वौ च हस्तस्यै-18 कादशभागी, अष्टमेऽपि वेयके येषां स्थितिरेकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेतावत्प्रमाणा, येषां पुनस्तत्र त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां द्वौ हस्ती एकश्च हस्तस्यैकादशो भागो भवधारणीया, नवमे ग्रेवेयके येषां स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषां भवधारणीया एतावत्प्रमाणा, येषां पुनरेकत्रिंशत्सागरोपमाणि तत्र स्थितिस्तेषां परिपूर्णों द्वौ हस्तो भवधारणीया, 'एवं अणुत्तरे' इत्यादि, एवं ग्रैवेयकोक्तेन प्रकारेण अनुत्तरोपपातिकदेवानामपि सूत्रं वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षतो भवधारणीया एका रनिः-हस्तो वक्तव्यः, एतच त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकान् प्रति ज्ञातव्यं, येषां पुनर्विजयादिषु चतुर्पु विमानष्वेकत्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषां परिपूर्णों द्वौ हस्तौ भवधारणीया, येषां पुनस्तत्रैव मध्यमा द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिस्तेषामेको हस्त एकश्च हस्तस्यैकादशभागो भवधारणीया, येषां पुनस्तत्र सर्वार्थसिद्धमहाविमाने त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि तेषामेको हस्तो भवधारणीया, जघन्या सर्वत्राङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रा ॥ तदेवमुक्तानि वैक्रियशरीरस्यापि विधिसंस्थानावगाहनाप्रमाणानि, सम्प्रत्याहारकस्य प्रतिपिपादयिषुराह
आहरगसरीरेणं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ?, गो० ! एगागारे पं०, जइ एगागारे किं मणूसआहारगसरीरे अमणूसआहारगसरीरे ?, गो० ! मणूसआहारगसरीरे नो अमणूसआ०, जइ मणूसआहा. किं संमुच्छिममणूसआहा० गम्भवतियमणूसआहा०, गो०! नो संमुच्छिममणूसआहा० गम्भवकंतियमणूसआहा०, जइ गम्भव० म० आ० किं कम्मभूमगग०
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प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्तौ.
२१शरीरपदं
॥४२३॥
म० आ० अकम्मभूमगग० म० आ० अंतरद्दीवगग० म० आ० १, गो! कम्मभूमग नो अकम्मभूमगग नौ अंतरदीवग०, जइ कम्भभूमगग० म० आ० किं संखेजवासाउय० क. ग० म० आ० असंखेजवासाउक० ग० म० आ०१, गो! संखिजवा० क० गम्भ० म० आहारगसरीरे नो असं० क० ग० म० आ०, जति सँखे० के० ग० म० आहा० सरीरे किं पञ्जत्तसं० वा० क० ग० म० आ० सरीरे अपज्जत्तसं० वा. क. ग० म० आ०१, गो० ! पञ्जत्तसं० वासा०क. ग० म० आ० नो अपज्जत्तं क० ग० मणू आ०, जइ पजत्त० सं० क० ग० म० आ० किं सम्मविट्ठीपज्जत्तगसं० क० ग० म० आ० मिच्छद्दट्ठीप० सं० क. ग० म० आ० सम्मामिच्छद्दिद्विपज्ज० सं० क० ग० म. आ०१, गो०! सम्म० पज्ज० सं० क. ग०म० आ० नो मिच्छद्दिहि नो सम्मामिच्छद्दिटिप० सं० कम्म० ग० म० आ०, जइ सम्मद्दिहिपज्जत्तसं० वा. क. ग० म० आ० किं संजयस० म० सं० क. गम. आ. असंजतसम्म प० सं० क. ग.म. आ. संजयासंजयस०प० सं०क. ग.म. आ.१, गो! संजयसम्म पं० सं० क० ग. म. आ० नो असंजतसम्म०प० आहा० नो संजतासंजतसम्म० आहा०, जइ संजतसम्म० पं० सं० क० ग० म० आ० किं पमत्तसंजतसम्म०म० आ० अपमत्तसंजतसम्म० सं० क. ग०म० आ०१, गो! पमत्तसं० सम्मबिडिप० सं० क. ग० म० आ० नो अपमत्तसं० स०प० सं० क. ग. म. आ०, जइ अपमत्तसं० स. प० सं० क० म० आ० किं इड्डिपत्तप्पमत्तसं० स० क० सं० ग०म० आ. अणिडिपत्तसं०प० क० सं० ग. आ०१, गो०! इडिपत्त स०प० सं० क. ग० म० आ० नो अणिड्डिप० स०प० सं० क० ग० म० आहा । आहारगसरीरे णं भंते !
॥४२॥
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किंसंठिते पं०१, गो०! समचउरंससंठाणसंठिते पं०, आहारगसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पं०१, गो! जह० देसूणा रयणी उ० पडिपुण्णा रयणी । (सूत्रं २७३) 'आहारकसरीरे णं भंते ! कइविहे पं०' इत्यादि सुगम, नवरं 'संजय'त्ति 'यमू उपरमें संयच्छन्ति स्म-सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्मेति संयताः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका'दिति कतरिक्तप्रत्ययः, सकलचारित्रिणः, असंयताअविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयता-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त'त्ति प्रमाद्यन्ति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः, पूर्ववत्कर्तरि क्तप्रत्ययः, तेच प्रायो गच्छवासिनस्तेषांक्वचिदनुपयोगसम्भवात् , तद्विपरीता अप्रमत्ताः,ते चप्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नास्तेषां सततोपयोगसम्भवात् , इह जिनकल्पिकादयो लब्धि नोपजीवन्ति, तेषां तथाकल्पत्वात् , येऽपि च गच्छवासिन आहारकशरीरं कुर्वन्ति तेऽपि तदानीं लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादवन्तो, मोचनेऽपि चप्रमादवन्त आत्मप्रदेशानामौदारिकशरीरे सर्वात्मनोपसंहरणेन व्याकुलीभावात्, आहारकशरीरे चान्तर्मुहर्तावस्थानं,
ततो यद्यपि तन्मध्यभागे कियत्कालं मनाक विशुद्धिभावतः कार्मग्रन्थिकैरप्रमत्ततोपवर्ण्यते तथापि स लब्ध्युपजीसावनेन प्रमत्त एवेत्यप्रमत्तस्य 'नो अपमत्तसंजए' इत्यादिना प्रतिषेधः कृतः, 'इहिपत्त'त्ति ऋद्धीः-आमोषध्यादि
लक्षणाः प्राप्त ऋद्धिप्राप्तस्तद्विपरीतोऽनद्धिप्राप्तः, ऋद्धीश्च प्राप्नोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापर्वार्थप्रतिपादक
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२१शरीर
प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्तौ.
॥४२४॥
श्रुतमवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीव्रतीव्रतरशुभभावनामधिरोहन अप्रमत्तः सन् , उक्तं च-"अवगाहते च स श्रुतजलधिं प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । मानसपर्यायं वा ज्ञानं कोष्ठादिबुद्धीवा ॥१॥चारणवैक्रियसौषधिताद्या वाऽपि लब्धयस्तस्य । प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥२॥" अत्र 'स' इत्यप्रमत्तसंयतः, मानसपर्यायमिति-मानसाः-मनसः सम्बन्धिनः पर्याया-विषया यस्य तन्मानसपर्यायं मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, कोष्ठादिबुद्धीर्वा इत्यत्रादिशब्दात् पदानुसारिवीजपरिग्रहः, तिस्रो हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, तद्यथाकोष्ठबुद्धिः १ पदानुसारिबुद्धिः २ बीजबुद्धि ३ श्च, तत्र कोष्ठक इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थानौ च सूत्रार्थों धारयति न किमपि तयोः कालान्तरे गलति सा कोष्ठबुद्धिः १, या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी २, या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः ३, सा च सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति, तथा चारणाश्च वैक्रियं च सर्वोषध्यश्च तद्भावश्च चारणवैक्रियसौषधिता, तत्र चरणं-गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः 'ज्योत्स्नादिभ्योऽणि'ति मत्वर्थीयोऽण् प्रत्ययः, तत्र गमनमन्येषामपि मुनीनां विद्यते ततो विशेषणान्यथानुपपत्त्या चरणमिह विशिष्टं गमनमभिगृह्यते, अत एव चातिशायने मत्वर्थीयो, यथा रूपवती कन्या इत्यत्र, ततोऽयमर्थः-अतिशायिचरणसमर्थाश्चारणाः, आह च भाष्य
॥४२४॥
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कृत् स्वकृतभाष्यटीकायां “अतिशयचरणाचारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः,” ते च [ते] द्विविधा - जङ्घाचारणाः विद्याचारणाश्च तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः, ये पुनर्विद्याव| शतः समुत्पन्नगमनलब्ध्यतिशयास्ते विद्याचारणाः, जङ्घाचारणाश्च रुचकवरद्वीपं यावत् गन्तुं समर्थाः विद्याचारणा नन्दीश्वरं तत्र जङ्घाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवस्तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति, विद्याचारणास्त्वेवमेव, जङ्घाचारणश्च रुचकवरद्वीपं गच्छन् एकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन स्वस्थानं, यदि पुनर्मेरुशिखरं जिगमिषुस्तर्हि प्रथमेनैवोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहति प्रतिनिवर्त्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति, जङ्घाचारिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवन्ति, ततो लब्ध्युपजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाञ्चारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिः परिहीयते, ततः प्रतिनिवर्त्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां स्वभुवमायाति विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन खस्थानमायातीति, तथा स एवोर्द्ध गच्छन् प्रथमोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति द्वितीयेनोत्पातेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्त्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायातीति, विद्याचारणो विद्यावशतो भवति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, अतः प्रतिनिवर्त्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन स्वस्थानागमनमिति, उक्तं च - "अइसयचरणसमत्था जंघाविज्जाहि चारणा मुणओ । जंघाहि जाइ
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प्रज्ञापना-18 पढमो नीसं काउं रविकरेवि ॥ १॥ एगुप्पारण गओ रुयगवरंमि उ तओ पडिनियत्तो । विइएणं नंदिस्सरमिहं २१शरीरयाः मल-18 तओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेणं पंडगवण बिइउप्पाएण नंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एइ य० वृत्ती.
18॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु बिइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहइं ॥ ४॥ पढमेणं ॥४२५नंदणवणे बिअउप्पाएण पंडगवणंमि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥५॥" तथा सर्व-विड्मूत्रा
दिकमौषधं यस्य स सर्वोषधः, किमुक्तं भवति ?-यस्य मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशमसमर्थों भवति स सर्वोषधः, आदिशब्दादामौषध्यादिलब्धिपरिग्रहः, एताश्च ऋद्धीरप्रमत्तः सन् प्राप्य पश्चात् प्रमत्तो भवति, तेनेवह प्रयोजनं तत उक्तम्-'इडिपत्तपमत्तसंजये'सादि, आह-मनुष्यस्याहारकशरीरमित्युक्ते सामर्थ्यादमनुष्यस्य नाहारकशरीरमित्यवसीयते ततः कस्मादुच्यते-'नो अमणुस्साहारगसरीरे' इत्यादि ?, निरर्थकत्वात् , उच्यते, इहा त्रिविधा विनेयाः, तद्यथा-उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपञ्चितज्ञाश्च, तत्र ये उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमवबुध्यन्ते, ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलास्ते प्रपञ्चितमेवावगन्तुमीशते नान्यथा, ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्थ्यलब्धस्यापि विपक्षनिषेधस्याभिधानं, महीयांसो हि परमकरुणापरीतत्वात् अवि|शेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिदोषः, 'जहण्णणं देसूणा रयणी' इति आहारकशरीरस्य जघन्यतोड
HaORO2000000020200202
॥४२५॥
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वगाहना देशोना-किञ्चिदूना रनिः-हस्तः तथाविधप्रयत्नभावतः प्रारम्भसमयेऽपि तस्या एतावत्या एव भावात् ।। तदेवमुक्तान्याहारकशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति तैजसस्य तान्यभिधित्सुराह
तेयगसरीरे ण भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविहे पं०, तं०-एगिदियतेयगसरीरे जाव पंचिंदियतेयगसरीरे, एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइविधे पं०१, गो०! पंचविधे पं०, तं०-पुढविकाइय० जाव वणस्सइकाइयएगिदियसरीरे, एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणितो तहा तेयगस्सवि जाव चउरिंदियाणं । पंचिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविधे पं०१, गो! चउबिहे पं०, तं०-नेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे, नेरइयाणं दुगतो भेदो भाणितबो, . जहा वेउवियसरीरे । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भाणितो तहा भाणियो । देवाणं जहा वेउवियसरीरभेदो भाणितो तहा भाणियबो, जाव सबसिद्धदेवत्ति । तेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पं० १, गो! णाणासंठाणसंठिए पं०, एगिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पंण्णत्ते?, गो० ! णाणासंठाणसंठिए पं०, पुढविकाइयएगिदियतयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पं०१, गो०! मसूरचंदसंठाणसंठिते पं०, एवं ओरालियसंठाणाणुसारेण भाणितत्वं जाव चउरिंदियाणवि, नेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किंसंठिए पं० १, गो० ! जह वेउवियसरीरे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाणं जहा एतेसिं चेव ओरालियन्ति, देवाणं भंते ! किंसंठिते तेयगसरीरे पं०१, गो० ! जहा वेउवियस्स जाव अणुत्तरोववाइयत्ति । (सूत्रं २७४)। जीवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स
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२१शरीर
प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
॥४२६॥
केमहालिया सरीरोगाहणा पं० १, गो० ! सरीरपमाणमत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असं० उक्को. लोगंताओ लोगंते, एगिदियस्स णं भंते ! मारणं तियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरो०१, गो०! एवं चेव, जाव पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फइकाइयस्स, बेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमु० समो० तेयासरीरस्स केमहा० १, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे० उक्को तिरियलोगाओ लोगंते, एवं जाव चउरिंदियस्स, नेरइयस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा०, गो०! सरीरप्पमाणमत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० सातिरेकं जोयणसहस्सं उक्को अधे जाव अहेसत्तमा पुढवी तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे उर्दू जाव पंडगवणे पुक्खरिणीतो, पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्सणं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स य केमहा० १, गो० ! जहा बेइंदियसरीरस्स, मणुस्सस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयासरीरस्स केमहा० ?, गो०! समयखेत्ताओ लोगतो, असुरकुमारस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेया० केम० ?, गो०! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे उक्को अधे जाव तच्चाए पुढवीए हिडिल्ले चरमंते तिरियं जाव सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरिल्ले वेइयंते उडे जाव इसीपब्भारा पुढवी, एवं जाव थणियकुमारतेयगसरीरस्स, वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणगा य एवं चेव, सणकुमारदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालि० ?, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह• अंगु० असं० उक्को० अधे जाव महापातालाणं दोचे तिभागे, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे उड़ जाव अच्चुओ कप्पो, एवं जाव सहस्सारदेवस्स अचुओ कप्पो, आण
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यदेवस्स णं भंते ! मार० समु० समो० तेयास० केम ?, गो० ! सरीरप्पमाणमत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगु० असं० उक्को० जाव अधोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते उड्डे जाव अच्चुओ कप्पो, एवं जाव आरणदेवस्स अच्चुअदेवस्स एवं चेव, णवरं उडे जाव सयाई विमाणाति, गेविजगदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमु० समो० तेयग० केम० ?, गो० ! सरीरपमाणमत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० विजाहरसेढीतो उक्को० जाव अहोलोइयगामा तिरियं जाव मणूसखेत्ते उड़ जाव सगाति विमाणाति, अणुत्तरोववाइयस्सवि एवं चेव । कम्मगसरीरेणं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे,पं० त०-एगिदियकम्मगसरीरे जाव पंचिंदिय० य, एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं
ओगाहणा य भणिता तहेव निरवसेसं भाणितवं जाव अणुत्तरोववाइयत्ति (सूत्रं २७५) 'तेयगसरीरे णं भंते !' इत्यादि, इह तैजसशरीरं सर्वेषामवश्यं भवति ततो यथा एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियगत| औदारिकशरीरभेदो भणितस्तथा चतुरिन्द्रियान् यावत् तैजसशरीरभेदोऽपि वक्तव्यः, पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरचिन्तायां चतुर्विधं पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरं, नैरयिकतिर्यग्मनुष्यदेवभेदात् , तत्र नैरयिकतैजसशरीरचिन्तायां यथा प्राक् वैक्रिय-| शरीरे पर्याप्तापर्याप्त विषयतया द्विगतो भेद उक्तस्तथाऽत्रापि वक्तव्यः, स चैवं-'जइ नेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे किं रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे जाव किं अहेसत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे ?, गो.! रयणप्पभापुढविनेरइयपं०तेयगसरीरेवि जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपं०तेयगसरीरेवि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिं
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प्रज्ञापना-1दियतेयगसरीरे किं पजत्तगरयणप्पभेत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च यथा प्रागौदारिकशरीरभेद ४२१शरीर. याः मल- उक्तस्तथा अत्रापि वक्तव्यः, स चैवम्-'तिरिक्खजोणियपंचिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते?' इत्यादि, ४पर्द य० वृत्ती.
देवानां यथा वैक्रियशरीरभेद उक्तस्तथा भणितव्यः, स चैवम्-'जइ देवपंचिंदियतेयगसरीरे किं भवणवासिदेवपं॥४२७॥
चिंतेयगसरीरे' इत्यादि, यावत्सर्वार्थसिद्धदेवसूत्रं । उक्तो भेदः, सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'तेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पं०?' इत्यादि, सुगम, इह जीवप्रदेशानुरोधि तैजसं शरीरं ततो यदेव तस्यां २ योनावौदारिकशरीरानुरोधेन वैक्रियशरीरानुरोधेन च जीवप्रदेशानां संस्थानं तदेव तैजसशरीरस्यापि इति प्रागुक्तमेकद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यगतमौदारिकसंस्थानं नैरयिकदेवेषु वैक्रियसंस्थानमतिदिष्टमिति । गतं संस्थानमधुना अवगाहनामानमाह-'जीवस्स णं भंते !' इत्यादि, जीवस्य नैरयिकत्वादिविशेषणाविवक्षायां सामान्यतः संसारिणो| णमिति वाक्यालङ्कारे मारणान्तिकसमुद्घातेन वक्ष्यमाणलक्षणेन समवहतस्य सतः 'केमहालिया' इति किंमहती किंप्रमाणमहत्वा शरीरावगाहना?, शरीरमौदारिकादिकमप्यस्ति तत आह-तैजसशरीरस्य, प्रज्ञप्ता ?, भगवानाहशरीरप्रमाणमात्रा विष्कम्भवाहल्येन, विष्कम्भश्च बाहल्यं च विष्कम्भवाहल्यं समाहारो द्वन्द्वरतेन, विष्कम्भेन बाहल्येन चेत्यर्थः, तत्र विष्कम्भ उदरादिविस्तारः वाहल्यमुरःपृष्ठस्थूलता आयामो दैर्ध्य, तत्रायामेन जघन्यतोऽङ्गुल-13 स्थासङ्ख्येयभागः-अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा, इयं च एकेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेष्वत्यासन्नमुत्पद्यमानस्य द्रष्टव्या, उत्कर्षतो
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॥४२७॥
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420209080020009002020
| लोकान्तात् लोकान्तः, किमुक्तं भवति ?-अधोलोकान्तादारभ्य यावदूर्द्धलोकान्त ऊर्द्धलोकान्तादारभ्य यावदधोलोकान्तस्तावत्प्रमाण इति, इयं च सूक्ष्मस्य बादरस्य वा एकेन्द्रियस्य वेदितव्या, न शेषस्थासम्भवात्, एकेन्द्रिया हि सूक्ष्मा बादराश्च यथायोगं समस्तेऽपि लोके वर्तन्ते न शेषास्ततो यदा सूक्ष्मो बादरो वा एकेन्द्रियोऽधोलोके वर्तमान ऊर्द्धलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया वोत्पत्तुमिच्छति ऊर्द्धलोकान्ते वा वर्तमानः सूक्ष्मो बादरो वा अधोलोकान्ते सूक्ष्मतया बादरतया वोत्पत्स्यते तदा तस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना भवति, एतेन पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसूत्राण्यपि भावितानिद्रष्टव्यानि, तथाहि-सूक्ष्मपृथिवीकायि| कोऽधोलोके ऊर्द्धलोके वा वर्तमानो यदा सूक्ष्मपृथिवीकायिकादितया बादरवायुकायिकतया वा ऊर्द्वलोके अधोलोके वा समुत्पत्तुमिच्छति तदा भवति तस्य मारणान्तिकसमुदघातेन समवहतस्योत्कर्षतो लोकान्तात् लोकान्तं | यावत् तैजसशरीरावगाहना, एवमप्कायिकादिष्वपि भाव्यं, द्वीन्द्रियसूत्रे आयामेन जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्ययभागप्रमाणा यदा अपर्याप्तो द्वीन्द्रियोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणौदारिकशरीरः खप्रत्यासन्नप्रदेशे एकेन्द्रियादितयोत्पद्यते तदा अवसेया, अथवा यस्मिन् शरीरे स्थितः सन् मारणान्तिकसमुदघातं करोति तस्मात् शरीरात् मारणान्तिकसमुद्घातवशात् बहिर्विनिर्गततैजसशरीरस्यायामविष्कम्भविस्तारैरवगाहना चिन्त्यते न तत् शरीरसहितस्य, अन्यथा भवनपयादेर्यजघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागत्वं वक्ष्यते तद्विरुध्येत, भवनपत्यादिशरीराणां सप्तादिहस्तप्रमाणत्वात् , ततो महा
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥४२८॥
कायोऽपि द्वीन्द्रियो यदा खप्रत्यासन्नदेशे एकेन्द्रियतयोत्पद्यते तदाप्यङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा वेदितव्या, उत्कर्षतस्तिर्यग्लोकालोकान्तः, किमुक्तं भवति ? - तिर्यग्लोकादधोलोकान्तो ऊर्द्धलोकान्तो वा यावता भवति तावत्प्रमाणा इत्यर्थः, कथमेतावत्प्रमाणेति चेत्, उच्यते, इह द्वीन्द्रिया एकेन्द्रियेष्वप्युत्पद्यन्ते, एकेन्द्रियाश्च सकललोकव्यापिनः, ततो यदा तिर्यग्लोकस्थितो द्वीन्द्रिय ऊर्द्धलोकान्ते अधोलोकान्ते वा एकेन्द्रियतया समुत्पद्यते तदा भवति तस्य मारणान्तिकसमुद्घातसमवहतस्य यथोक्तप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, तिर्यग्लोकग्रहणं च प्रायस्तेषां तिर्यग्लोकः | स्वस्थानमिति कृतमन्यथा अधोलोकैकदेशेऽप्यधो लौकिकग्रामादौ ऊर्द्धलोकैकदेशेऽपि पण्डकवनादौ द्वीन्द्रियः सम्भवतीति तदपेक्षयाऽतिरिक्ताऽपि तैजसशरीरावगाहना द्रष्टव्या एवं त्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये । नैरयिकसूत्रे आयामेन जघन्यतो यत्सातिरेकं योजनसहस्रमुक्तं तदेवं परिभावनीयम् - इह वलयामुखादयश्चत्वारः पातालकलशाः लक्षयोजनावगाहा योजनसह स्रवा हल्य ठिक्करिकाः, तेषामधस्त्रिभागो वायुपरिपूर्ण उपरितनस्त्रिभाग उदकपरिपूर्णा मध्यस्त्रिभागो वायूदकयोरुत्सरणापसरणधर्मा, तत्र यदा कश्चित्सीमन्तकादिषु नरकेन्द्रकेषु वर्त्तमानो नैरयिकः | पातालकलशप्रत्यासन्नवर्त्ती च वायुःक्षयादुद्धृत्य पातालकलशकुड्यं योजनसहस्रबाहल्यं भित्त्वा पातालकलशमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिभागे मत्स्य तयोत्पद्यते तदा भवति सातिरेकयोजनसहस्रमाना नैरयिकस्य मारणान्तिकसमु
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२१ शरीरपदं
॥४२८॥
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nearenesO0999
द्घातसमवहतस्य जघन्या तैजसशरीरावगाहना, उत्कर्षतो यावदधः सप्तमपृथिवी तिर्यक् यावत्खयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्त ऊ यावत्पण्डकवने पुष्करिण्यस्तावद् द्रष्टव्या, किमुक्तं भवति ?-अधः सप्तमपृथिव्या आरभ्य तिर्यग् यावत् || खयम्भूरमणपर्यन्त ऊर्दू यावत् पण्डकवनपुष्करिण्यस्तावत्प्रमाणा, एतावती च तदा लभ्यते यदाऽधः सप्तमपृथि-18 वीनारकः स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्ते मत्स्यतयोत्पद्यते पण्डकवने पुष्करिणीषु चेति, तिर्यपञ्चेन्द्रियस्योत्कर्षतस्तिर्यग्लोकालोकान्तोऽत्रापि भावना द्वीन्द्रियवत्कर्त्तव्या, तिर्यकपञ्चेन्द्रियस्यैकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात् । मनुष्यस्योत्कर्षतः | समयक्षेत्रात् , समयप्रधानं क्षेत्रं समयक्षेत्रं मयूरव्यंसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, यस्मिन् अर्द्धतृतीयद्वीपप्रमाणे सूर्यादिक्रियाव्यङ्ग्यः समयो नाम कालद्रव्यमस्ति तत्समयक्षेत्रं मानुषक्षेत्रमिति भावस्तस्मात् , यावदध ऊर्दू वा लोकान्तस्तावत्प्रमाणा, मनुष्यस्याप्येकेन्द्रियेपूत्पादसम्भवात् , समयक्षेत्रग्रहणं समयक्षेत्रादन्यत्र मनुष्यजन्मनः संहरणस्य चासम्भवेनातिरिक्ताया अवगाहनाया असम्भवात् । असुरकुमारादिस्तनितकुमारपर्यवसानभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागः, कथमिति चेत् , उच्यते, एते धेकेन्द्रियेपूत्पद्यन्ते ततो यदा ते
१ णेरइयाणं आयामेणं जहन्नेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, कहं ? नरकादुद्धत्य पातालकुड्यं भिदेत्ता मच्छेसु पातालाओ वा मच्छस्स नरगेसु उववजमाणस्स, अन्ये तु व्याचक्षते नरकाणां योजनसहस्रं, कथं ?, सीमन्तको नाम नरकः सर्वोपरिवर्ती वज्रमयो योजनसहस्रबाहुल्यकुड्य इतो योजनसहस्रमवगाह्य तत्र ये नारका मत्स्या भवितुकामास्ते तदासन्नं समुद्घातं गतास्तत्र सहस्रं लभंते ॥ (श्रीहरि०वृत्तौ)
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na
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प्रज्ञापना
याः मलय० वृत्तौ .
॥४२९ ॥
खाभरणेष्वङ्गदादिषु कुण्डलादिषु वा ये मणयः पद्मरागादयस्तेषु गृद्धा मूच्छितास्तदध्यवसायिनस्तेष्वेव शरीरस्थेष्वा भरणादिषु पृथिवीकायिकत्वेनोत्पद्यन्ते तदा भवति जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येय भागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, अन्ये त्वन्यथाऽत्र भावनिकां कुर्वन्ति, सा च नातिश्लिष्टेति न लिखिता न च दूषिता, 'कुमार्ग न हि तित्यक्षुः पुनस्तमनुधावती'ति न्यायानुसरणात् उत्कर्षतो यावदधस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनश्चरमान्तः तिर्यक्र यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य बाह्यो वेदिकान्त ऊर्द्ध यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथिवी तावत् द्रष्टव्या, कथमिति चेत्, उच्यते, यदा भवनपत्यादिको देवस्तृतीयस्याः पृथिव्या अधस्तनं चरमान्तं यावत् कुतश्चित्प्रयोजनवशाद् गतो भवति, तत्र च गतः सन् कथमपि स्वायुः क्षयान्मृत्वा तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रवाह्मवेदिकान्ते यदिवा ईषत्प्राग्भाराभिधपृथिवीपर्यन्ते | पृथिवीकायिकतयोत्पद्यते तदा भवत्युत्कर्षतो यथोक्ता तथा तैजसशरीरावगाहना, सनत्कुमारदेवस्यापि जघन्यतोऽमुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सनत्कुमारादय एकेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियेषु वा नोत्पद्यन्ते, तथा भवखाभाव्यात्, किन्तु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वा ततो यदा मन्दरादिपुष्करिण्यादिषु
१ इह तु पूज्याः खल्वेवं भावार्थ अभिवर्णयति यथोपपात देशागतजीवप्रदेशापेक्षया एतदुच्यते, कुतः ?, मणेः तदुपपातक्षेत्रस्य वा तच्छरीरविष्कंभ बाहल्या योगात्, तच्च तत्र गतोऽपि तत्र संघातमधिकृत्य तदाहारकः तदा भवति तदाविष्कंभबाहल्यं चोपसंहृत्य सर्वात्मना तत्र प्रतिष्ठो भवतीति, अयं च स्वाभरणादावुत्पद्यमान एव द्रष्टव्य इति ॥ ( श्रीहरि० वृत्तौ )
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| २१ शरी
रपदं
॥४२९॥
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जलावगाहं कुर्वतां खभवायुःक्षयात् तत्रैव खप्रत्यासन्ने देशे मत्स्यतयोत्पद्यन्ते तदा अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा द्रष्टव्या, अथवा पूर्वसम्बन्धिनी मनुष्यस्त्रियं मनुष्येणोपभुक्तामुपलभ्य गाढानुरागादिहागत्य परिष्वजते परिष्वज्य च तदवाच्यप्रदेशे खावाच्यं प्रक्षिप्य कालं कृत्वा तस्या एव गर्ने पुरुषबीजे समुत्पद्यते तदा लभ्यते, उत्कर्षतोऽधः पातालक-1 लशानां लक्षयोजनप्रमाणावगाहानां द्वितीयत्रिभागं यावत् तिर्यग् यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्त ऊर्द्ध यावदच्युतकल्पस्तावदवगन्तव्या, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सनत्कुमारादिदेवानामन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं यावद् गमनं भवति, न च तत्र वाप्यादिषु मत्स्यादयः सन्ति तत इह तिर्यग्मनुष्येषूत्पत्तव्यं, तत्र यदा सनत्कुमारदेवोऽन्यदेवनिश्रया अच्युतकल्पं गतो भवति तत्र च गतः सन् खायुःक्षयात्कालं कृत्वा तिर्यक स्वयंभूरमणपर्यन्ते यदिवाऽधः पातालकलशानां द्वितीयत्रिभागे वायूदकयोरुत्सरणापसरणभाविनि मत्स्यादितयोत्पद्यते तदा भवति तस्य तिर्यगधो वा यथोक्तक्रमेण तैजसशरीरावगाहनेति, 'एवं जाव सहस्सारदेवस्स'त्ति एवं-सनत्कुमारदेवगतेन प्रकारेण जघन्यत उत्कर्षतश्च तैजसशरीरावगाहना तावद्वाच्या यावत्सहस्रारदेवेभ्यः, भावना[ऽपि] सर्वत्रापि समाना, आनतदेवस्थापि जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा तैजसशरीरावगाहना, नन्वानतादयो देवा मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते मनुष्याश्च मनुष्यक्षेत्र एवेति कथमङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणा ?, उच्यते, इह पूर्वसम्बन्धिनी मनुष्यस्त्रियमन्येन मनुष्येणोपभुक्तामानतदेवः कश्चनाप्यवधिज्ञानत उपलभ्यासन्नमृत्युतया विपरीतखभावत्वात् सत्त्वचरितवैचित्र्यात् कर्मगतेरचिन्त्य
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प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्ती.
॥४३०॥
त्वात् कामवृत्तेमलिनत्वाच, उक्तं च-"सत्त्वानां चरितं चित्रं, विचित्रा कर्मणां गतिः । मलिनत्वं च कामानां, २१ शरीवृत्तिः पर्यन्तदारुणा ॥१॥” इति, गाढानुरागादिहागत्य नकुलोपगृहं तां परिष्वज्य तदवाच्यप्रदेशे खावाच्यं
रपदं प्रक्षिप्यातीव मूञ्छितः वायुःक्षयात् कालं कृत्वा यदा तस्या एव गर्ने मनुष्यबीजे मनुष्यत्वेनोत्पद्यते, मनुष्यबीजं च ४ जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो द्वादश मुहूर्तान यावदवतिष्ठति. उक्तं च-"मणुस्सबीए णं भंते ! कालतो केवचिर। होइ ?, गो.! जह• अंदो० उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता" इति, ततो द्वादशमहर्ताभ्यन्तर उपभुक्तां परिष्वज्य मृतस्य ६ तत्रैवोत्पत्तिर्मनुष्यत्वेन द्रष्टव्या, उत्कर्षतोऽधो यावदधोलौकिका प्रामास्तिर्यग् यावन्मनुष्यक्षेत्रं ऊर्दू यावदच्युतः
कल्पस्तावदवसेया, कथमिति चेत् , उच्यते, इह यदाऽऽनतदेवः कस्याप्यन्यस्य देवस्य निश्रया अच्युतकल्पं गतो भवति, स च तत्र गतः सन् कालं कृत्वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदिवा मनुष्यक्षेत्रपर्यन्ते मनुष्यत्वेनोत्पद्यते तदा लभ्यते, एवं प्राणतारणाच्युतकल्पदेवानामपि भावनीयं, तथा चाह-एवं जाव आरणदेवस्स, अचुयदेवस्स एवं चेव, नवरं उर्दु जाव सयाई विमाणाई' इति, अच्युतदेवस्यापि जघन्यतः उत्कर्षतश्च तैजसशरीरावगाहना एवमेवएवंप्रमाणैव, परं सूत्रपाठे 'उहुं जाव सयाई विमाणाई' इति वक्तव्यं, नतु 'उहं जाव अचुओ कप्पो' इति, अच्यु
॥४३०॥ तदेवो हि यदा चिन्त्यते तदा कथमूर्दू यावदच्युतः कल्प इति घटते?, तस्य तत्र विद्यमानत्वात् , केवलमच्युतदे-1। वोऽपि कदाचिदू खविमानपर्यन्तं यावद् गच्छति तत्र च गतः सन् कालमपि करोति तत उक्तम्-'उडे जाव।
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सयाई विमाणाई' इति, अवेयकानुत्तरसुरा भगवद्वन्दनादिकमपि तत्रस्था एव कुर्वन्ति तत इहागमनासम्भवात् अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणता न लभ्यते, किन्तु यदा वैताब्यगतासु विद्याधरश्रेणिषूत्पद्यन्ते तदा स्वस्थानादारभ्याधो | यावद्विद्याधरश्रेणयस्तावत्प्रमाणा जघन्या तैजसशरीरावगाहना, अतोऽपि मध्ये जघन्यतराया असम्भवात् , उत्कृष्टा | यावदधोलौकिका ग्रामास्ततोऽप्यध उत्पादासम्भवात् , तिर्यग्यावन्मनुष्यक्षेत्रपर्यन्तस्ततः परं तिर्यगप्युत्पादाभावात् , | यद्यपि हि विद्याधरा विद्याधर्यश्च नन्दीश्वरं यावद् गच्छन्ति अर्वाक सम्भोगमपि कुर्वन्ति तथापि मनुष्यक्षेत्रातू परतो गर्भे मनुष्येषु नोत्पद्यन्ते ततस्तिर्यग्यावत् मनुष्यक्षेत्रमित्युक्तं । तदेवमुक्तानि तैजसशरीरस्य विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति कार्मणस्य वक्तव्यानि, कार्मणं च तैजससहाविनाभावि तैजसवच जीवप्रदेशानुरोधि संस्थानं ततो यथैव तैजसशरीरस्योक्तानि तथैव कार्मणस्यापि वक्तव्यानि, तथा चाह-एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणमोगाहणा य भणिता तहेव निरवसेसं भाणितवं जाव अणुत्तरोववाइय'त्ति ॥ उक्तानि पञ्चानामपि शरीराणां विधिसंस्थानावगाहनामानानि, सम्प्रति पुद्गलचयनमाह
ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजति ?, गो० ! निवाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं, वेउव्वियसरीरस्स ण भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति ?, गो० ! णियमा छद्दिसिं, एवं आहारगसरीरस्सवि, तेयाकम्मगाणं जहा ओरालियसरीरस्स । ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला उवचि
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२१शरी
प्रज्ञापनाया:मलय० वृत्ती.
रपर्द
॥४३॥
जंति ?, गो! एवं चेव जाव कम्मगसरीरस्स, एवं उवचिजंति, अवचिजंति । जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं ?, गो ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउवियसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं, गो०! जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं णियमा अत्थि, जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं?, गो० ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं नियमा अस्थि जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, एवं कम्मगसरीरंपि, जस्स णं भंते ! वेउवियसरीरं तस्स आहारगसरीरं जस्स आहारगसरीरं तस्स वेउवियसरीरं ?, गो० ! जस्स वेउवियसरीरं तस्स आहारगसरीरं णत्थि, जस्सवि आहारगसरीरं तस्सवि वेउवियसरीरं णत्थि, तेयाकम्मातिं जहा ओरालिएण समं तहेव आहारगसरीरेणवि समं तेयाकम्मगातिं चारेयवाणि, जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं?, गो०! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं णियमा अत्थि, जस्सवि कम्मगसरीरं तस्सवि तेयगसरीरं णियमा अत्थि (मूत्रं २७६) 'ओरालियसरीरस्स णं भंते !' इत्यादि, औदारिकशरीरस्य 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'कइदिसिं' इति । पञ्चम्यर्थे द्वितीया. बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , ततोऽयमर्थः-कतिभ्यो दिग्भ्यः समागत्य पुद्गलाश्चीयन्ते, कर्म
॥४३॥
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कर्तर्ययं प्रयोगः, स्वयं चयनमागच्छन्तीत्यर्थः, भगवानाह–निर्व्याघातेन-व्याघातस्याभावो निर्व्याघातमव्ययी| भावः तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पनाम्विधानान्नात्राम्भावः 'छद्दिसिं'ति षड्भ्यो दिग्भ्यः, किमुक्तं भवति ?यत्र त्रसनाड्या मध्ये बहिर्वा व्यवस्थितस्यौदारिकशरीरिणो नैकापि दिग् अलोकेन व्याहता वर्तते तत्र निर्व्याघाते व्यवस्थितस्य नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, व्याघातं-अलोकेन प्रतिस्खलनं प्रतीत्य 'सिय |तिदिसिं'ति स्यात्-कदाचित्तिसृभ्यो दिग्भ्यः स्याच्चतसृभ्यः स्यात् पञ्चभ्यः, कथमिति चेत्, उच्यते, सूक्ष्मजीवस्यौदारिकशरीरिणो यत्रो लोकाकाशं न विद्यते नापि तिर्यक पूर्वदिशि नापि दक्षिणदिशि तस्मिन् सर्वोर्वप्रतरे आग्नेयकोणरूपे लोकान्ते व्यवस्थितस्याधः पश्चिमोत्तररूपाभ्यस्तिसभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलोपचयः शेषदिक्त्रयस्यालोकेन व्याप्तत्वात् , पुनः स एव सूक्ष्मजीव औदारिकशरीरी पश्चिमां दिशमनुसृत्य तिष्ठति तदा पूर्वदिगस्याधिका जातेति | चतसृभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, यदा पुनरधो द्वितीयादिप्रतरे गतः पश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदा ऊर्द्धदिगप्यधिका लभ्यते केवला दक्षिणैव दिगलोकेन व्याहतेति पञ्चभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, वैक्रियशरीरमाहारकशरीरं च सनाड्या मध्य एव सम्भवति नान्यत्रेति तयोरपि पुद्गलचयो नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः, तैजसकामणे सर्वसंसारिणां, ततो यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षड्भ्यो दिग्भ्यो व्याघातं प्रतीत्य पुनः स्यात् त्रिदिग्भ्यः स्याचतु| दिग्भ्यः स्यात् पञ्चदिग्भ्यः तथा तैजसकामणयोरपि द्रष्टव्यः, यथा चयस्तथा उपचयोऽपचयश्च वक्तव्यः, तत्र उप
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२१ शरी
प्रज्ञापना
या: मलयवृत्ती.
॥४३२॥
चयः-प्राभूत्येन चयः अपचयो-हासः शरीरेभ्यः पुद्गलानां विचटनमितियावत् । उक्तं पुद्गलचयनमिदानीं शरी-1 रसंयोगमाह-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्यौदारिकं तस्य वैक्रियं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, य औदारिकशरीरी सन् | वैक्रियलब्धिमान् वैक्रियमारभ्य तत्र वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीति भावः, यस्य वैक्रियशरीरं तस्यौदारिकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, देवनारकाणां वैक्रियशरीरवतामौदारिकशरीरं नास्ति तिर्यग्मनुष्याणां तु वैक्रियशरीरवतामस्तीति भावार्थः, आहारकशरीरेणापि सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्याहारकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, य औदारिकशरीरी चतुर्दशपूर्वधर आहारकलब्धिमान् आहारकशरीरमारभ्य वर्तते तस्यास्ति शेषस्य नास्तीत्यर्थः, यस पुनराहारकशरीरं तस्यौदारिकशरीरं नियमादस्ति, औदारिकशरीरविरहे आहारकलब्धेरप्यसम्भवात् , तैजसशरीरेण | सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्य नियमात्तैजसशरीरं, तैजसशरीरविरहे औदारिकशरीरासम्भवात् , यस्य पुनस्तैजसशरीरं तस्यौदारिकं स्यादस्ति स्थानास्ति, देवनैरयिकाणां नास्ति तिर्यग्मनुष्याणामस्तीति भावः, एवं कार्मणशरीरेणापि सह चिन्ता कर्त्तव्या, तैजसकामणयोः सहचारित्वात् , सम्प्रति वैक्रियशरीरस्याहारकशरीरादिभिः सह संयोगचिन्तां कुर्वन्नाह जस्स णं भंते !' इत्यादि, यस्य वैक्रियशरीरं न तस्याहारकशरीरं यस्याहारकशरीरं न | तस्य वैक्रियशरीरं, समकालमनयोरेकस्यासम्भवात् , तैजसकामणे यथौदारिकशरीरेण सह चिन्तिते तथा वैक्रियशरीरेणापि सह चिन्तयितव्ये, आहारकशरीरेणापि सह तथैव, तैजसकामणयोस्तु परस्परमविनाभावित्वात् यस्य
9-992989-900902
॥४३ २॥
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तैजसं तस्य नियमात् कार्मणं यस्य कार्मणं तस्य नियमात् तैजसम् । गतं संयोगद्वारम्, इदानीं द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वमभिधित्सुराह—
एतेसि णं भंते ! ओरालियवे उब्विय आहारगतेयगकम्मगसरीराणं दबट्टयाए पदेसट्टयाए दवप सट्टयाते कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! सवत्थोवा आहारगसरीरा वट्टयाते वे वियसरीरा वट्टयाए असंखेज्जगुणा ओरालियसरीरा दवया असं० तेयाकम्मगसरीरा दोषि तुल्ला दवट्टयाते अनंतगुणा, पदेसट्टयाए सवत्थोवा आहारगसरीरा पदे० वेउचियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा पदे० असं० तेयगसरीरा पदे० अणं० कम्मगसरीरा पदे० अणं, दवट्ठपदेसट्टयाते सवत्थोवा आहारगसरीरा वट्टयाते वेउवि यसरीरा वट्टयाए असं • ओरालियसरीरा दबट्टयाए असं० ओरालिय सरीरे हिंतो वट्टयाएहिंतो आहारगसरीरा पदेसट्टयाए अणं० वेउद्द्वियसरीरा पदे० असं० ओरालियसरीरा० पदे० असंखेज्जगुणा तेयाकम्मा दोविल्ला दबट्टयाए अणं० तेयगसरीरा पदे० अनंतगुणा कम्मगसरीरा पदे० अणं० ( सूत्रं २७७ ) एतेसिणं भंते ! ओरालियवेउद्द्विय आहारगतेयग कम्मगसरीराणं जहण्णियाए ओगाहणाए उक्कोसियाए ओगाहणाए जहण्णुकोसियाए ओगाहणाए कतरे२हिंतो अप्पा वा ४ १, गो० ! सवत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहण्णिया ओगाहणा, तेयाकम्मगाणं दोन्हवि तुल्ला जहण्णिया ओगाहणा विसे० वेउब्वियसरीर स्स जहण्णिया ओगाहणा असं० आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असं०, उक्कोसियाए ओगाहणाए सवत्थोवा आहारगसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा ओरालियस -
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२१ शरीरपदं
॥४३॥
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रीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखे० वेउब्वियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोवि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असं०, जहण्णुकोसियाते ओगाहणाते सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा तेयाकम्माणं दोण्हवि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसे वेउब्वियसरीरस्स जहणिया ओगा० असं० आहारगसरीरस्स जहणियाहिंतो ओगाहणाहितो तस्स चेव उक्कोसिया ओगा० विसे० ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगा० संखे० वेउव्वियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखि० तेयाकम्मगाणं दोण्हवि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखिज्जगुणा ॥ (मूत्रं २७८) पण्णव
णाए भगवईए एगवीसइमं पयं समत्तं ॥२१॥ _ 'एएसि णं भंते !' इत्यादि, सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया, शरीरमात्रद्रव्यसङ्ख्यया इत्यर्थः, उत्कृष्टप-18 देऽपि तेषां सहस्रपृथक्त्वस्य प्राप्यमाणत्वात् , 'उक्कोसेण उ जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साण'मिति वचनात् [ उत्कृष्टेन तु युगपत् सहस्राणां पृथक्त्वमात्रं] तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, सर्वेषां नैरयिकाणां सर्वेषां च देवानां कतिपयतिर्यकपञ्चेन्द्रियमनुष्यवादरवायुकायिकानां च वैक्रियशरीरसम्भवात् , तेभ्योऽप्यौदारिक| शरीराणि द्रव्यार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यकपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामौदारिक| शरीरभावात् , पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिशरीराणां च प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि तैजसकामणशरीराणि द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणानीति, सूक्ष्मबादरनिगोदजीवानामनन्तानन्तानां प्रत्येक तैजसकार्मणशरीरभावात् ,
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॥४३३॥
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स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि, परस्पराविनाभावित्वादेकस्याभावेऽन्यस्याप्यभावात् प्रदेशार्थचिन्तायां सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वमात्रशरीरप्रदेशानामल्पत्वात्, तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशाथतया असङ्ख्येयगुणानि, इह यद्यपि वैक्रियशरीरयोग्यवर्गणाभ्य आहारकशरीरवर्गणाः परमाण्वपेक्षया अनन्तगुणास्तथापि स्तोकाभिवर्गणाभिराहारकशरीरं निष्पद्यते हस्तमात्रत्वादतिप्रभूताभिर्वै क्रिय शरीरवर्गणाभिवैक्रियं उत्कर्षतः सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वात् अतिस्तोकानि चाहारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् अतिप्रभूतानि वैक्रियशरीराणि असङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् तत उपपद्यन्ते आहारकशरीरेभ्यः प्रदेशार्थतया वैक्रियशरीराण्यसङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, असङ्ख्ये यलो का काशप्रदेशप्रमाणतया तेषां लभ्यमानत्वेन तत्प्रदेशानामतिप्रभूतानां सम्भवात्, तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, द्रव्यातयाऽपि तेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात्, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, तैजसवर्गणाभ्यः कार्मणवर्गणानां परमाण्वपेक्षयाऽनन्तगुणत्वात् द्रव्यार्थ प्रदेशार्थचिन्तायां 'सवत्थोवा आहारगसरीरा दघट्टयाए उचियसरीरा दट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दव० असं०' इत्यत्र भावना प्रागुक्ताऽनुसर्त्तव्या, तेभ्यो द्रव्यार्थतयौदारिकशरीरेभ्य आहारकशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, औदारिकशरीराणि सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्ये| यलोका काशप्रदेशप्रमाणानि, आहारकशरीरयोग्यवर्गणायां त्वेकैकस्यामप्यभव्येभ्योऽनन्तगुणाः परमाणव इति, तेभ्यो
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥४३४॥
Sपि वैयिशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असङ्ख्येयगुणानि, अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽपि तैजसकार्मणानि द्रव्यार्थतया अनन्तगुणानि अतिप्रभूतानन्तसङ्ख्योपेतत्वात्, तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अनन्तपरमाण्वात्मिकाभिरनन्ताभि (वैर्गणाभि ) रेकैकस्य तैजसशरीरस्य निष्पाद्यत्वात्, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अत्र कारणं प्रागेवोक्तं । तदेवं पञ्चानामपि शरीराणां द्रव्यप्रदेशो भयैरल्पबहुत्वमुक्तम्, इदानीं जघन्योत्कृष्टो भयावगाहनाविषयमल्पबहुत्वमाह - 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका औदारिकशरीरस्य जघन्यावगाहना, अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रप्रमाणत्वात् तैजसकार्मणयोर्जघन्यावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या, औदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, कथमिति चेत्, उच्यते, इह मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य पूर्वशरीरात् यद्वहिर्विनिर्गतं तैजसशरीरं तस्यायामबाहल्यविस्तारैरवगाहना चिन्त्यते इत्युक्तं प्राक्, तत्र यस्मिन् प्रदेशे उत्पत्स्यन्ते सोऽपि प्रदेश औदारिकशरीरावगाहनाप्रमितोऽझुलासङ्ख्येयभागप्रमाणो व्याप्तो यदप्यपान्तरालमतिस्तोकं तदपि व्याप्तमित्यौदारिकजघन्यावगाहनातो विशेषाधिका, ततोऽपि वैक्रियशरीरस्य जघन्यावगाहना असङ्ख्येयगुणा, अङ्गुलासङ्ख्येयभागस्यासङ्ख्ये य भेदभिन्नत्वात्, ततोऽप्याहारकशरीरस्य जघन्यावगाहनाऽसङ्ख्येयगुणा, देशोनहस्तप्रमाणत्वात् उत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां सर्वस्तोका | आहार कशरीरस्योत्कृष्टाऽवगाहना, हस्तमात्रत्वात्, ततोऽप्यौदारिकशरीरस्य उत्कृष्टावगाहना सङ्ख्येयगुणा, सातिरे
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२१ शरीरपदं सु.
२७८
॥४३४॥
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कयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् , ततोऽपि वैक्रियशरीरस्योत्कृष्टावगाहना सङ्ख्येयगुणा, सातिरेकयोजनलक्षमानत्वात् , तेज-11 सकार्मणयोरुत्कृष्टावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या वैक्रियशरीरोत्कृष्टावगाहनातोऽसङ्ख्येयगुणा, चतुर्दशरज्वात्मकत्वात् , जघन्योत्कृष्टावगाहनचिन्तायां आहारकशरीरस्य 'जहणियाहिंतो ओगाहणाहितो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया' इति, देशेन समधिकत्वात् , शेष सुगम, अनन्तरमेव भावितत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायामेकविंशतितममवगाहनासंस्थानपदं समर्थितम् ॥२१॥
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अथ द्वाविंशतितमं क्रियाख्यं पदं ॥ २२ ॥
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तदेवं व्याख्यातमेकविंशतितमं पदं, अधुना द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषरूपं शरीरावगाहनादि चिन्तितं, इह तु नारकादिगतिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपाता|दिरूपाः क्रियाविशेषाश्चिन्त्यन्ते, तत्रेदमादिसूत्रम्__ कति णं भंते ! किरियाओ पण्णताओ ?, गो० ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं०–काइया १ अहिगरणिया २ पादो
सिया ३ पारियावणिया ४ पाणाइवायकिरिया, काइया णं भंते ! किरिया कातेविहा पं० १, गो०! दुविहा पं०, तं०
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
॥४३५॥
अणवस्यकाइया य दुप्पउत्तकाइया य, अहिगरणिया णं भंते ! किरिया कइविहा पं० १, गो! दुविहा पं०, तं०- ४२२क्रियासंजोयणाहिकरणिया य निवत्तणाधिगरणिया य, पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पं० १, गो० ! तिविहा पं०, पदेतद्भेदाः तं०-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं संपधारेति, सेत्तं पादोसिया किरिया, पारियावणिया णं सू, २७९ भंते ! किरिया कतिविहा पं० १, गो! तिवि० पं०, तं०-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अस्सायं वेदणं उदीरेति, सेत्तं पारियावणिया किरिया, पाणातिवायकिरिया णं भंते ! कतिविहा पं० १, गो! ति. पं०, तं०-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियाओ ववरोवेइ, से तं पाणाइ वायकिरिया (सूत्रं २७९)
'कइ णं भंते ! किरियाओ पं०' इत्यादि, करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा इत्यर्थः, सा पञ्चधा, तद्यथा|'काइया' इत्यादि, चीयते इति कायः-शरीरं, काये भवा कायेन निवृत्ता वा कायिकी १, तथा अधिक्रियतेस्थाप्यते नरकादिष्वात्माऽनेनेति अधिकरणं-अनुष्ठानविशेषो बाह्यं वा वस्तु चक्रखगादि तत्र भवा तेन वा नित्ता आधिकरणिकी, 'पाउसिया' इति प्रद्वेषो-मत्सरः कर्मबन्धहेतुरकुशलो जीवपरिणामविशेष इत्यर्थः तत्र भवा तेन वा निवृत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी ३, 'पारियावणिया' इति परितापनं परितापः पीडाकरणमित्यर्थः तस्मिन्
॥४३५॥ भवा तेन वा निवृत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी ४, 'पाणाइवायकिरिया' इति प्राणा-इन्द्रियादयस्तेषामतिपातो-विनाशस्तद्विषया प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया, तत्र कायिकी द्विभेदा, तद्यथा-अनुप
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रतकायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी च, उपरतो-देशतः सर्वतो वा सावद्ययोगाद्विरतः नोपरतोऽनुपरतः कुतश्चिदप्यनि-11 वृत्त इत्यर्थः तस्य कायिकी अनुपरतकायिकी क्रियेति वर्तते, इयं प्रतिप्राणिनि वर्तते, इयमविरतस्य वेदितव्या, न देशविरतस्य सर्वविरतस्य वा, तथा दुष्टं प्रयुक्तं-प्रयोगः कायादीनां यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, प्रमत्ते सति कायदुष्प्रयोगसम्भवात् । आधिकरणिक्यपि द्विभेदा, तद्यथासंयोजनाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिकरणिकी च, तत्र संयोजनं-पूर्वनिर्वर्त्तितानां हलगरविषकूटयत्राद्यङ्गानां मीलनं तदेव संसारहेतुत्वादाधिकरणिकी संयोजनाधिकरणिकी, इयं हलाद्यङ्गानि पूर्वनिर्वर्त्तितानि संयोजयितुर्भवति, तथा निवर्तनं-असिशक्तिकुन्ततोमरादीनां मूलतो निष्पादनं तदेवाधिकरणिकी निवर्त्तनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वर्तनाधिकरणिकी, देहस्यापि दुष्प्रयुक्तस्य संसारवृद्धिहेतुत्वात् । प्रादेषिकी त्रिभेदा, तद्यथा'जेण अप्पणो'इत्यादि, येन प्रकारेण जीवा आत्मनो वा-खस्य वा अन्यस्य वा-आत्मव्यतिरिक्तस्य उभयस्य वाखपरलक्षणस्योपरि अशुभं-अकुशलं मनः-अन्तःकरणं प्रधारयति-प्रकर्षेण धारयति करोतीत्यर्थः तेन कारणेन विषयस्य त्रैविध्यात् त्रिविधा प्राद्वेषिकी क्रिया, तथाहि-कश्चित् कस्मिन् प्रयोजने खयमनुष्ठिते पर्यन्ते विपाकदारुणे संवृत्ते सति अविवेकादात्मन एवोपरि अकुशलं मनः सम्प्रधारयति, एवं कश्चित् परस्य, कश्चित् खपरयोरपीति। पारितापनिक्यपि त्रिविधा, तद्यथा-'जेणं अप्पणो' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चित् कुतश्चित् हेतोरविवेकत आत्मन
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प्रज्ञापनाया मल
य० वृत्तौ .
॥४३६॥
एवासातां - दुःखरूपां वेदनामुत्पादयति, कश्चित्परस्य कश्चित्तदुभयस्य ततः खपरतदुभयभेदात् भवति त्रिधा पारितापनिकी क्रिया, आह एवं सति लोचाकरणतपोऽनुष्ठानाकरणप्रसङ्गः, यथायोगं खपरो भयासात वेदना हेतुत्वात् तदयुक्तं, विपाकहितत्वेन चिकित्साकरणवत् लोचकरणादेरसात वेदनाहेतुत्वायोगात् अशक्यतपोऽनुष्ठानप्रतिषेधाच्च, उक्तं च- "सो हु तवो कायचो जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी जेण य जोगा न हायंति ॥ १ ॥” [ तदेव तपः कर्त्तव्यं येन मनोऽशोभनं न चिन्तयति । येन नेन्द्रियहानिर्येन च योगा न हीयन्ते ॥ १ ॥ ] तथा - “कायो न केवलमयं परिपालनीयो, मृष्टै रसैर्बहुविधैर्न च लालनीयः । चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेषु, वश्यानि येन च तथाऽऽचरितं जिनानाम् ॥ १ ॥” इति प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, तद्यथा - 'जेण अप्पणी' इत्यादि, येन प्रकारेण कश्चिदविवेकी भैरवप्रपातादिनाऽऽत्मानं जीविताद् व्यपरोपयति कश्चित् प्रद्वेषादिना परं कश्चिदुभयमपीत्यतः प्राणातिपातक्रियाऽपि त्रिविधा, अत एव कारणाद्भगवद्भिरकालमरणमपि प्रतिषिद्धं, प्राणातिपातक्रियादोषसम्भवात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, सम्प्रत्येताः किमविशेषेण सर्वेषां जीवानां सन्ति किं वा नेति जिज्ञासुरिदमाह
1
जीवा णं भंते ! किं सकिरिया अकिरिया १, गो० ! जीवा सकिरियावि अकिरियावि, से केणद्वेगं भंते ! एवं बु० - जीवा सकिरियावि अकिरियावि १, गो० ! जीवा दुविहा पं० तं ० - संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगा य, तत्थ णं
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२२ क्रियापदेतद्भेदाः
सू. २७९
॥४३६॥
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जे ते असंसारसमावण्णा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पं० तं०सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिव०, तत्थ णं जे ते सेलेसिप० ते णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते असेलेसिपडि० ते णं सकिरिया से तेणद्वेणं गो० ! एवं बु० - जीवा सकिरियावि अकिरियावि । अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति १, हंता ! गो० ! अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कजति ?, गो० ! छसु जीवनिकाएसु, अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति १, गो० ! एवं चेव, एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं, अत्थि णं मंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजति ?, हंता ! अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कति ?, गो० ! सङ्घदवेसु, एवं निरंतरं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कञ्जति ?, हंता अस्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कजति ?, गो० ! गहणधारणिजेसु दबेसु, एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कजति १, हंता अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणं किरिया कजति १, गो० ! रूवेसु वा रूवसहगतेसु वा दवेसु, एवं नेर० निरं० जाव वेमाणियाणं, अत्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजति ?, हंता अस्थि, कम्हि णं भंते ! परिग्गहेणं किरि ० १, गो० ! सङ्घदवेसु, एवं नेर० जाव वैमाणियाणं, एवं कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं पेजेणं दोसेणं कलहेणं अब्भक्खाणेणं पेसुन्नेणं परपरिवारणं अरतिरतीते मायामोसेणं मिच्छादंसणसणं, सधेसु जीवा नेरइयभेदेणं भाणितवा, निरंतरं जाव वेमाणियाणंति, एवं अट्ठारस एते दंडगा १८ (सूत्रं २८० )
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
२२ क्रियापदे प्राणातिपाता दिना क्रियाः सू.
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॥४३७॥
२८०
| 'जीवा णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'संसारसमावण्णगा' इति संसारं-चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग्-एकीभा- वेनापन्नाः संसारसमापन्नाः संसारसमापन्ना एव संसारसमापन्नकाः, प्राकृतत्वात् खार्थे कप्रत्ययः, तद्विपरीता असंसारसमापन्नकाः, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र ये असंसारसमापन्नकास्ते सिद्धाः, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽक्रियाः, ये तु संसारसमापन्नकास्ते द्विविधाः-शैलेशीप्रतिपन्नका अशैलेशीप्रतिपन्नकाश्च, शैलेशी नामायोग्यवस्था तां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः, ततः पूर्ववत् स्वार्थिकः कप्रत्ययः, शैलेशीप्रतिपन्नकाः, तद्व्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्रतिपन्नकाः, तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सूक्ष्मवादरकायवाङ्मनोयोगनिरोधादक्रियाः, ये त्वशैलेशीप्रतिपन्नकास्ते सयोगित्वात् सक्रियाः, 'से एएणटेण'मित्याधुपसंहारवाक्यं । तदेवं ये सक्रिया ये चाक्रियास्ते उक्ताः, सम्प्रति यथा प्राणातिपातक्रिया न भवति तथा दर्शयति-'अत्थि णं भंते !' इत्यादि, अस्त्येतत् , णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! जीवानां प्राणातिपातेन-प्राणातिपाताध्यवसायेन क्रिया सामर्थ्यात् प्राणातिपातक्रिया क्रियते ?, कर्मकर्त्तयेयं प्रयोगो, भवतीत्यर्थः, अनतीतनयाभिप्रायात्मकोऽयं प्रश्नः, कतमोऽत्र नयो यमध्यवसाय पृष्टमिति चेत्, उच्यते, ऋजुसूत्रस्तथाहि-ऋजुसूत्रस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपातक्रियोच्यते, पुण्यपापकर्मोपादानानुपादानयोरध्यवसायानुरोधित्वात्, न अन्यथा परिणताविति, भगवानपि तं ऋजुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाह-हंता ! अत्थि' हन्तेति प्रेषणप्रत्यवधारणविषादेषु, अत्र प्रत्यवधारणे, अस्त्येतत्प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति,
॥४३७॥
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'परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाण' [पारिणामिकं प्रमाणं निश्चयमवलम्बयतां] मित्याद्यागमवचनस्य | स्थितत्वाद्, अमुमेव वचनमधिकृत्याऽऽवश्यकेपीदं सूत्रं प्रावर्त्तिष्ट-'आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एस' इति, तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति तथोक्तम् , सम्प्रति कस्मिन् विषये सा प्राणातिपातक्रिया भवतीयेतन्निरूपयति-'कम्हि णं भंते' इत्यादि सुगमम्, नवरं मारणाध्यवसायो जीवविषयो भवति नाजीवविषयो, योऽपि रजवादी सर्पादिबुद्ध्या मारणाध्यवसायः सोऽपि सर्पोऽयमिति बुया प्रवर्त्तमानत्वात् जीवविषये एव, न खलु रज्यादौ रज्वादितया परिच्छिन्ने कश्चित्तद्विषयं मारणाध्यवसायं विदधाति, ततः प्राणातिपातक्रिया षट्सु जीवनिकायेपूक्ता, एतामेव प्राणातिपातक्रियामुक्तप्रकारेण नैरयिकादिकं चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य चिन्तयति-'अस्थि णं भंते' इत्यादि, नवरमेवं सूत्रपाठः 'अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइयाएणं किरिया कजइ ?, हंता अत्थि, कम्हि णं भंते ! पाणाइवाएणं किरिया कजइ १, गोयमा! छसु जीवनिकाएसु', एवं तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकविषयं सूत्रं । तदेवं यथा प्राणातिपातक्रिया भवति यद्विषया च तत्प्रतिपादितं, सम्प्रति एवमेव मृपावादादिविषयाण्यपि सूत्राण्याह-'अस्थि णं भंते । मुसावाएण'मित्यादि सुगम, नवरं 'किरिया कज्जइ' इति यथायोगं प्राणातिपातादिक्रिया भवतीत्यर्थः, तथा सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृषावादः, स च लोकालोकगतसमस्तवस्तुविषयोऽपि घटते, तत उक्तं मृपावादसूत्रम्-'सव्वदचेसु' इति, द्रव्यग्रहणमुपलक्षणं तेन पर्यायेष्वपीत्यपि द्रष्टव्यं, तथा
टरसिटटटटटटट
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥४३८॥
यद्वस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते तद्विषयमादानं भवति न शेषविषयमतोऽदत्तादानसूत्रे 'गहणधारणिजेसु दत्रेसु' इत्युक्तम्, मैथुनाध्यवसायोSपि चित्रलेपकाष्ठादिकर्मगतेषु रूपेषु रूपसहगतेषु वा — ख्यादिषु ततो मैथुनसूत्रे उक्तम्- 'रूवेसु वा रूवसहगएसु वा' इति, तथा परिग्रहः – खखामिभावेन मूर्च्छा, सा च प्राणिनामतिलोभात्सकलव| स्तुविषयाऽपि प्रादुर्भवति ततः परिग्रहसूत्रे उक्तम्- 'सबदधेसु' इति, अत एवान्यत्रापि प्रथमत्रतं सर्वजीवविषयमुक्तं द्वितीयचरमे सर्व वस्तुविषये तृतीयचतुर्थे तदेकदेशविषये इति, उक्तं च- "पढमम्मि सङ्घजीवा बीए चरिमेय सङ्घदवाई | सेसा महवया खलु तदेकदेसम्मि नायवा ॥ १ ॥" क्रोधादयः सुप्रतीता, नवरं कलहो - राटिः, अभ्या| ख्यानं - असद्दोषारोपणं यथा-अचौरेऽपि चौरस्त्वमपारदारिकेऽपि पारदारिकस्त्वमित्यादि, इदं मृषावादेऽप्यन्तर्गतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपात्तं, पैशून्यं - परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनं, परपरिवादः प्रभूतजनसमक्षं परदोषविकत्थनं, अरतिरती प्रतीते, इदमेकं समुदितं पापस्थानं, 'मायामोसेण' मिति माया च मृषा च समाहारो द्वन्द्वः, द्वन्द्वैकत्वे नपुंसकत्वमिति 'क्लीवे' इति हखत्वं तेन इह समुदायो विवक्षितो, महाकर्मबन्धहेतुश्चेति मृषावादमायाभ्यां पृथगुपात्तं, 'मिच्छादंसणसल्लेणं' ति मिथ्यादर्शनं - मिथ्यात्वं तदेव शल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं तेन, 'अट्ठारस एए दंडगा' इति एतेऽनन्तरोदितपदोल्ले खोपदर्शिताः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टादश दण्डका भवन्ति । प्राणातिपाता- दीनां पापस्थानानामष्टादशत्वात्तदेवमष्टादशपापस्थानान्यधिकृत्य जीवानां क्रिया विषयश्चोपदर्शितः, साम्प्रतं तान्ये
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२२ क्रियापदे प्राणा
तिपाता
दिना क्रि
याः सू. ૨૦૦
॥४३८॥
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वाधिकृत्य जीवानामेकपृथक्त्वाभ्यां कर्मवन्धत्वमुपदिदर्शयिषराह
जीवे णं भंते ! पाणातिवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अद्वविधबंधए वा, एवं नेरइए जाव निरंतरं वेमाणिते, जीवा णं भंते ! पाणातिवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो.! सत्तविहबंधगावि अढविहबंधगावि, नेरइया णं भंते ! पाणातिवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सवेवि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य, एवं असुरकुमारावि जाव थणियकुमारा पुढविआउतेउवाउवणप्फइकाइया य, एए सव्वेवि जहा ओहिया जीवा, अवसेसा जहा नेरइया, एवं ते जीवेगिंदियवज्जा तिण्णि तिणि भंगा सवत्थ भाणियबत्ति, जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं एगत्तपोहतिया छत्तीसं दंडगा होति । (सूत्र २८१) जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति किरिए ?, गो०! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं नेरइए जाव वेमाणिए, जीवा णं भंते ! णाणावरणिजं बंधमाणा कतिकिरिया० १, गो०! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरियावि, एवं नेरइया निरंतरं जाव वेमाणिया, एवं दरिसणावरणीयं वेदणिजं मोहणिजं आउयं नामं गोत्तं अंतराइयं च अट्ठविहकम्मपगडीतो भाणितवाओ, एगत्तपोहत्तिया सोलस दंडया भवन्ति, जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए, गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए, जीवे णं भंते ! नेरइयाओ कतिकिरिए , गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, एवं जाव थणियकुमाराओ, पुढविकाइयातो आउक्काइयातो तेउक्काइयातो वाउकाइयवणप्फइकाइयवेइंदियतेइंदियचउरिंदियपंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सातो जहा
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्ती.
॥४३९॥
जीवातो, वाणमंतरजोइसियवेमाणियातो जहा नेरइयातो, जीवे णं भंते! जीवेहिंतो कतिकिरिए १, गो ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिते सिय अकिरिए, जीवे णं भंते ! नेरइएहिंतो कतिकिरिए १, गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिते सिय अकिरिए, एवं जहेव पढमो दंडतो तहा एसो वितिओ भाणितवो जाव वेमाणियत्ति, जीवा णं भंते ! जीवातो कतिकिरिया १, गो० ! सिय तिकिरियावि सिय चउकिरियाव सिय पंच किरियाव सिय अकिरियावि, जीवाणं भंते ! नेरइयातो कति किरिया १, गो० ! जहेव आदिल्लदंडतो तहेव भाणितवो, जाव वेमा•णियत्ति, जीवा णं भंते ! जीवेहिंतो कति किरिया १, गो० ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि अकिरियावि, जीवा णं भंते ! नेरइएहिंतो कतिकिरिया ?, गो० ! तिकिरिया चउकिरिया अकिरिया, असुरकुमारेहिंतोवि एवं चैव जाव वैमाणितेर्हितो, ओरालियसरीरेहिंतो जहा जीवेहिंतो । नेरइए णं भंते! जीवातो कतिकिरिए ?, गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच०, नेरइए णं भंते ! नेरइयातो कतिकिरिए ?, गो० ! सिय तिकिरिए सिय. च०, एवं जाव वेमाणिएहिंतो, नवरं नेरइयस्स नेरइएहिंतो देवेहिंतो य पंचमा किरिया नत्थि, नेरइया णं भंते ! जीवातो कति किरिया ?, गो० ! सिय तिकि० सिय चउकि० सिय पंचकि०, एवं जाव वैमाणियातो, नवरं नेरइयाओ देवाओ य पंचमा किरिया नत्थ, नेरइया णं भंते ! जीवेहिंतो कतिकिरिया ?, गो० ! तिकिरिया वि चउकि० पंचकि०, नेरइया णं भंते ! नेरइएहिंतो कतिकिरिया ?, गो० ! तिकि० चउकि०, एवं जाव वेमाणिएहिंतो, नवरं ओरालियसरीरेहिंतो जहा जीवेहिं, असुरकुमारे णं भंते! जीवातो कति किरिए ?, गो० ! जहेव नेरइए चत्तारि दंडगा तहेव असुरकुमारेवि चत्तारि दंडगा
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२२ क्रियापदे प्राणातिपातादि
भ्यः कर्मवन्धः नारकादिभ्यः क्रियाश्च
सू. २८१
२८२
॥४३९॥
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भाणितवा, एवं च उवउजिऊणं भावेयत्वंति, जीवे मणूसे य अकिरिए वुच्चति सेसा अकिरिया न वुच्चंति, सबजीवा ओरालियसरीरेहितो पंचकिरिया नेरइय देवेहिंतो पंचकिरिया ण वुचंति, एवं एकेकजीवपदे चत्तारि २ दंडगा भाणितबा, एवं एतं दंडगसयं सवेवि य जीवादीया दंडगा (मूत्र २८१) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं सप्तविधबन्धकत्वं आयुर्वन्धविरहकाले आयुर्वन्धकाले चाष्टविधवन्धकत्वं, पृथक्त्वचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे सप्तविधबन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपि सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते तत उभयत्रापि बहुवचनमित्येवंरूप एक एव भङ्गः, नैरयिकसूत्रे सप्तविधबन्धका अवस्थिता एव, हिंसापरिणामपरिणतानां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानानां सप्तविधबन्धकत्वस्यावश्यंभावित्वात् , ततो यदा एकोऽप्यष्टविधबन्धको न लभ्यते तदेप भङ्गः सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधवन्धका इति, यदा पुनरेकोऽष्टविधबन्धकः शेषाः सर्वे ससविधवन्धका-13 | स्तदा द्वितीयो भङ्गः सप्तविधवन्धकाश्च अष्टविधवन्धकश्च, यदा त्वष्टविधबन्धका अपि बहवो लभ्यन्ते तदा उभयगतबहुवचनरूपस्तृतीयो भङ्गः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधवन्धकाश्च, एवं भङ्गत्रयेणासुरकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत् स्तनितकुमाराः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिका यथा सामान्यतो जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, उभयत्रापि बहुवचनेनैक एव भङ्गो वक्तव्य इति भावः, पृथिव्यादीनां हिंसापरिणामपरिणतानां प्रत्येक सप्तविधबन्धकानामष्टविधवन्धकानां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, शेषा द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्य
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ .
॥४४०॥
न्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिका भङ्गत्रिकेणोक्तास्तथा वक्तव्याः, यथा च प्राणातिपातेनैकत्वपृथक्त्वाभ्यां द्वौ दण्डकायुक्तावेवं सर्वपापस्थानैरपि प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यौ, तथा चाह - " जाव मिच्छादंसणसल्लेणं' ति सर्वसङ्ख्यया कियन्तो दण्डका भवन्तीति चेत्, अत आह— ' एवं एगत्तपोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होंति' अष्टादशानां द्वाभ्यां गुणने षट्त्रिंशद्भावात् । 'जीवे णं भंते' इत्यादि, अथ कोऽस्य सूत्रस्यापि सम्बन्धः १, उच्यते, इह प्रागुक्तं जीवः प्राणातिपातेन सप्तविधमष्टविधं वा कर्म बनाति, स तु तमेव प्राणातिपातं ज्ञानावरणीयादि कर्म बन् कतिभिः क्रियाभिः समापयतीति प्रतिपाद्यते, अपिच - कार्येण ज्ञानावरणीयाख्येन कर्मणा कारणस्य प्राणातिपाताख्यस्य निवृत्तिभेद उपदर्श्यते, तद्भेदाच्च बन्धविशेषोऽपीति, उक्तं च - " तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च [क्रियाभिः ]हिंसा समाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद्योगप्रद्वेषसाम्यं चेत् ॥ १ ॥” इति, तमेव प्राणातिपातस्य निवृत्तिभेदं दर्शयति- 'सिय तिकिरिए ' इत्यादि, स्यात् — कदाचित्रिक्रियः कदाचिच्चतुष्क्रियः कदाचित् पञ्चक्रियः, तत्र त्रिक्रियता कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभिः क्रियाभिः, कायिकी नाम हस्तपादादिव्यापारणं अधिकरणिकी खड्गादिप्रगुणीकरणं प्राद्वेषिकी मारयाम्येनमित्यशुभमनःसम्प्रधारणमिति, चतुष्क्रियता कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीपारितापनिकीभिः पारितापनिकी नाम खड्गादिघातेन पीडाकरणं, पञ्चक्रियता यदा प्राणातिपातक्रियाऽपि पञ्चमी भवति, प्राणातिपातक्रिया जीविताद् व्यपरोपणं, एवं नैरयिकादारभ्य चतुर्विंशति
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२२ क्रियापदे सूत्रं
२८१
॥४४०॥
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दण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, सूत्रपाठस्त्वेवम्— 'नेरइए णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइकिरिए पं०' इत्यादि, तदेवमेकत्वेन दण्डक उक्तः, सम्प्रति बहुत्वेनाह - 'जीवा णं भंते !' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जीवास्त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि किमुक्तं भवति १ – जीवा | ज्ञानावरणीयं कर्म बभ्रन्तः सदैव बहव इति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि लभ्यन्ते इत्येक एव भङ्गः, यथा च सामान्यतो जीवपदेऽभङ्गकं तथा नैरयिकादिषु चतुर्विंशतौ स्वस्थानेषु प्रत्येकमभङ्गकं द्रष्टव्यं, नैरयि| कादीनामपि ज्ञानावरणीयकर्म बनतां सदैव त्रित्रियाणामपि चतुष्क्रियाणामपि पञ्चत्रियाणामपि बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् यथा च ज्ञानावरणीयं कर्माधिकृत्य एकत्वपृथक्त्वाभ्यां द्वौ दण्डकावुक्तौ तथा दर्शनावरणीयादीन्यपि कर्माण्यधिकृत्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ दण्डको वक्तव्यौ, तत एवं सति सर्वसङ्ख्यया षोडश दण्डका । 'जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए पं०' इति, अथ कोऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धः ?, उच्यते, इह न केवलं वर्त्तमानभववर्त्तिनो जी - वस्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धभेदप्ररूपणे कायिक्यादिक्रियाविशेषणः प्राणातिपातभेदो भवति, किन्त्वतीतभवका|यसम्बन्धः कायिक्यादिक्रियाविशेषणोऽपि तत एतस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम्, अस्य चेयं पूर्वाचार्योपदशिता भावना - 'इह संसारअडवीए परिब्भमंतेहिं सङ्घजीवेहिं तेसु तेसु ठाणेसु सरीरोवहाइणो विष्पमुक्का तेहि य सत्थभूएहिं जया कस्सर खतः परितापनादयो भवंति तथा तस्सामिणो भवंतरगयस्सवि तत्रानिवृत्तत्वात् किरि
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ .
॥४४१ ॥
यासम्भव इति व्युत्सृष्टेषु तु न भवति निवृत्तत्वात्, एत्थ उदाहरणं - वसंतपुरे णयरे अजियसेणस्स रण्णो पडिचारगा दुबे कुलपुत्तगा, तत्थेगो समणसङ्को इयरो मिच्छद्दिट्ठी, अण्णया रयणीए रण्णो निस्सरणं संभमतुरंताण तेसिं घोडगारूढाणं खग्गा पब्भट्ठा, सडेण जणकोलाहलो मग्गिओ न लहइ, इयरेण हसियं- किमण्णं ण होहि ?, | सण अहिगरणंतिकट्टु वोसिरियं, इयरे च खग्गग्गाहिणो बंदिग्गहसाहसिएहिं लद्धा, गहिओ अण्णेहिं रायन - लहो पलायमाणो बाबाइओ, तओ आरक्खिएहिं गहिऊण रायसमीवं नीया, कहिओ वृत्तंतो, कुविओ राया, पुच्छियं चणेण - कस्स तुम्भे ? तेहिं कहियं - अणाहा, कलं चिंय, कप्पडिया, एए तुम्ह खग्गा कहिं लद्धत्ति, पुच्छिएहिं कहियं पडिया इति, तओ सामरिसेण रण्णा भणियं - गवेसह तुरियं मम अणबद्ध वेरिणं ईसरपुत्ताणं महापमत्ताणं केसिं इमे खग्गेत्ति ?, तओ तेहिं निउणं गवेसिऊण विण्णत्तं रण्णो - सामि ! गुणचंदबालचंदाणमिति, ततो रण्णा पिहं पिहं सहावेऊण भणिया-लेह नियखग्गे, एकेण गहियं, पुच्छिओ रण्णा - कहं ते पणटुंति ?, तेण कहियं जहावित्तं, कीस न गविहं १, भणइ-सामि ! तुम्ह पसाएण एद्दहमेत्तमवि गवेसामि ?, सड़ो नेच्छह, रण्णा पुच्छिओ-कीस न गेण्हसि ?, तेण भणियं - सामि ! अम्हाणमेस ठिई चैव नत्थि जमेवं गेण्हिज्जइ अहिगरणत्तणओ, परं संभ्रमेण मग्गंतेणवि न लद्धंति बोसिरियं अतो न कप्पड़ मे गिहिउं, तओ रण्णा पमायकारी अणुसासिओ, इयरो विमुक्को, एस दिहंतो इमो य से अत्थोवणओ-जहा सो पमायगन्भेण अवोसिरियदोसेण
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२२ क्रियापदे सूत्रं २८१
॥४४१॥
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अवराहं पत्तो एवं जीवोवि जम्मतरत्थं देहोवहाइ अवोसिरंतो अणुमयभावतो पावेइ दोस ?, श्रूयते च जाति-II स्मरणादिना विज्ञाय पूर्वदेहमतिमोहात् (केचित्) सुरनदी प्रत्यस्थिशकलानि नयन्तीति । इदानीं सूत्रव्याख्याजीवो भदन्त ! जीवमधिकृत्य कतिक्रियः प्रज्ञप्तो ?, भगवानाह-गौतम ! स्यात्-क्वचित् त्रिक्रियः कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीभावात् , तत्र वर्तमानभवमधिकृत्य भावना प्राग्वत् भावनीया, अतीतभवमधिकृत्यैवं-कायिकी तत्सम्बन्धिनः कायस्य कायैकदेशस्य वा व्याप्रियमाणत्वात् , आधिकरणिकी तत्संयोजितानां हलगरकूटयत्रादीनां तन्निवर्तितानां वा असिकुन्ततोमरादीनां परोपघाताय व्याप्रियमाणत्वात् , यदिवा देहोऽप्यधिकरणमित्याधिकरणिक्यपि, प्राद्वेषिकी तद्विषयाऽकुशलपरिणामप्रवृत्तेरप्रत्याख्यातत्वात् , स्थाचतुष्क्रियः पारितापनिक्यपि कायेन कायैकदेशेनाधिकरणेन वा तत्सम्बन्धिना क्रियमाणत्वात् , स्यात्पश्चक्रियो यदा तेन जीवितादपि व्यपरोपणमाधीयते. स्यादक्रियो यदा पूर्वजन्मभावि शरीरमधिकरणं वा त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृष्टं भवति, न चापि तजन्मभाविना शरीरेण काञ्चिदपि क्रियां करोति, इदं चाक्रियत्वं मनुष्यापेक्षया द्रष्टव्यं, तस्यैव सर्वेविरतिभावात् , सिद्धापेक्षया वा, तस्य देहमनोवृत्त्यभावेनाक्रियत्वात् , अमुमेवार्थ चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'जीवेणं भंते ! नेरइयाओ कइकिरिए' इत्यादि सुगम, नवरमयं भावार्थः-देवनारकान् प्रति चतुष्क्रिय एव, तेषां जीविताद् व्यपरोपणस्यासम्भवाद् 'अनपवायुषो नारकदेवा' इति वचनात् , शेषान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति पञ्चक्रियोऽपि, तेपामपवायु
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥४४२॥
ष्कतया जीविताद् व्यपरोपणस्यापि सम्भवात्, तदेवमेकस्य जीवस्य एकं जीवं प्रति क्रियाश्चिन्तिताः सम्प्रत्येकस्यैव जीवस्य बहून् जीवान् प्रति क्रियाश्चिन्तयति - 'जीवे णं भंते ! जीवेहिंतो कइकिरिए पण्णत्ते' इत्यादि, एषोऽपि दण्डकः प्राग्वद्भावनीयः, अधुना बहूनां जीवानामेकं जीवमधिकृत्य क्रियाश्चिन्तयति - 'जीवा णं भंते ! जीवातो कइकिरिया पं०' इत्यादि, एषोऽपि दण्डकः प्रथमदण्डकवदवसेयः, अधुना बहूनां जीवानां बहून् जीवानधिकृत्य सूत्रमाह - 'जीवा णं भंते ! जीवेहिंतो कइकिरिया पं० १' इत्यादि, अत्र प्रश्नः पाठसिद्धो, निर्वचनमिदं - गौतम ! त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि पञ्चक्रिया अपि अक्रिया अपि, कस्यापि जीवस्य कमपि जीवं प्रति त्रिक्रियत्वात् कस्यापि चतुष्क्रियत्वात् कस्यापि पञ्चक्रियत्वात् कस्यापि मनुष्यस्य सर्वोत्तमचारित्रिणः सिद्धस्य वा शेषस्याक्रियत्वात् इति सर्वत्र बहुवचनरूप एक एव भङ्गः, एवं नैरयिकादिक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, नवरं नैरयिकान् देवांश्च प्रति त्रिक्रिया अपि चतुष्क्रिया अपि अक्रिया अपीति वक्तव्यं, शेषान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति पञ्चक्रिया अपीति, तदेवं सामान्यतो जीवपदमधिकृत्य दण्डकचतुष्टयमुक्तं, सम्प्रति नैरयिकपदमधिकृत्याह - 'नेरइए णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए पं०' इत्यादि 'एवं जाव वेमाणिएहिंतो' इति, अत्र यावत्करणात् 'नैरयिको जीवान् प्रति कतिक्रिय' इति इत्यादिरूपो द्वितीयोऽपि दण्डक उक्तो द्रष्टव्यः, सर्वत्र औदारिकशरीरान् सङ्ख्येयवर्षायुषः प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुष्क्रियः स्यात् पञ्चक्रिय इति वक्तव्यं, नैरयिकस्य देवान् प्रति पञ्चमी जीविताद्
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२२ क्रियापदे सूत्रं
२८१
॥४४२॥
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व्यपरोपणरूपा क्रिया नास्ति, तेषामनपवायुष्कत्वात् , ततस्तान् प्रति स्यात् त्रिक्रियः स्याचतुष्क्रिय इति वक्तव्यं, नैरयिको देवान् प्रति कथं चतुष्क्रिय इति चेत् , उच्यते, इह भवनवास्यादयो देवास्तृतीयां पृथिवीं यावत् गता गमिष्यन्ति च, किमर्थं गता गमिष्यन्तीति चेत् ?, उच्यते, पूर्वसागतिकस्य वेदनामुपशमयितुं पूर्ववैरिणो वेदनामु-|| दीरयितुं (वा) तत्र गच्छन्ति, तदानीमनन्तकालादेतदपि भवति (यद्) तद्गताः सन्तो नारकैर्बध्यन्ते इति, आह च मूलटीकाकारोऽपि-"तत्र गता नारकैबध्यन्ते इत्यप्यनन्तकाल एव कथञ्चित्सम्भवमात्र"मिति, अत्रापर आहननु नारकस्य द्वीन्द्रियादीनधिकृत्य कथं कायिक्यादिक्रियासम्भवः ?, उच्यते, इह नारकैर्यस्मात् पूर्वभवशरीरं न व्युत्सृष्टं विवेकाभावात् , तदभावश्च भवप्रत्ययात्, ततो यावत् शरीरं तेन जीवन निर्वर्तितं सत् तं शरीरप-| रिणाम सर्वथा न परित्यजति तावद् देशतोऽपि तं परिणामं भजमानं पूर्वभावप्रज्ञापनया तस्येति व्यपदिश्यते घृतघटवत् , यथा हि घृतपूर्णो घटो घृते अपगतेऽपि घृतघट इति व्यपदिश्यते, तथा तदपि शरीरं तेन निर्वर्त्तित-| मिति तस्येति व्यपदेशमर्हति, ततस्तस्य शरीरस्य एकदेशेनास्थ्यादिना योऽन्यः प्राणातिपातं करोति, ततः पूर्वनिर्वतितशरीरजीवोऽपि कायिक्यादिक्रियाभियुज्यते, तेन तस्याव्युत्सृष्टत्वात् , तत्रेयं पञ्चानामपि क्रियाणां भावनातत्कायस्य व्याप्रियमाणत्वात् कायिकी कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक् तत आधिकरणिकी, प्राद्वेषिक्यादयस्त्वेवं-यदा तमेव शरीरैकदेशं अभिघातादिसमर्थमन्यः कश्चनापि प्राणातिपातोद्यतो दृष्ट्वा तस्मिन् घासे द्वीन्द्रियादौ
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
२२क्रियापदे क्रियासंवेधः सू. २८२
॥४४३॥
समुत्पन्नक्रोधादिकारणोऽभिघातादिसमर्थमिदं शस्त्रमिति चिन्तयन् अतीवक्रोधादिपरिणामं भजते पीडां चोत्पादयति जीविताच व्यपरोपयति तदा तत्सम्बन्धिप्राद्वेषिक्यादिक्रियाकारणत्वान्नैगमनयाभिप्रायेण तस्यापि प्राद्वेषिकी पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया च यथायोगं, यथा च नैरयिकपदे चत्वारो दण्डका उक्ताः तथा असुरकुमारा|दिष्वपि शेषेषु त्रयोविंशतौ स्थानेषु चत्वारः चत्वारो दण्डका वक्तव्याः, नवरं जीवपदे मनुष्यपदे चाक्रिया इत्यपि वक्तव्यं, विरतिप्रतिपत्ती व्युत्सृष्टत्वेन तन्निमित्तक्रियाया असम्भवात् , शेषा अक्रिया नोच्यन्ते, विरत्यभावतः खशरीरस्य भवान्तरगतस्याव्युत्सृष्टत्वेनावश्यं क्रियासम्भवात् , तदेवं सामान्यतो जीवपदे एकं शेषाणि तु नैरयिकादीनि स्थानानि चतुर्विंशतिरिति सर्वसङ्ख्यया पञ्चविंशतिरेकैकस्मिंश्च स्थाने चत्वारो दण्डका इति सर्वसङ्कलनया दण्डकशतं । अथ केषां जीवानां कति क्रिया इति निरूपणार्थ प्रागुक्तमेव सूत्रं पठति
कति णं भंते ! किरियाओ पण्णताओ?, गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णताओ, तं०-कातिया जाव पाणातिवातकिरिया, नेरइया णं भंते ! कति किरियातो पण्णताओ?, गो०! पंच किरियातो पण्णताओ, तं०-कातिया जाव पाणातिवायकि०, एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स णं भंते ! जीवस्स कातिया किरिया कजइ तस्स अहिगरणिया किरिया कजति जस्स अहिगरणिया किरिया कजति तस्स कातिया कजति ?, गो०! जस्स णं जीवस्स कातिया किरिया कजति तस्स अहिगरणी किरिया नियमा क०, जस्स अहिगरणी किरिया क० तस्सवि काइया किरिया नियमा कजति, जस्स
॥४४॥
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जति तस्स र
ण भंते ! जीवस्स काइया कि० तस्स पादोसिया कि० जस्स पादोसिया कि० तस्स काइया किं. क. १, गो! एवं चेव, जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स पारियावणिया किरिया कजइ जस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स कातिया किरिया कज्जइ ?, गो०! जस्स णं जीवस्स काइया कि० क० तस्स पारितावणिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ, जस्स पुण पारियावणिया कि० क० तस्स काइया नियमा कजति, एवं पाणाइवायकिरियावि, एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिण्णि कजंति, जस्स आइल्लाओ तिनि कजंति तस्स उवरिल्लाओ दोनि सिय कजति सिय नो कजंति, जस्स उवरिल्लाओ दोणि कन्जंति तस्स आइल्लाओ नियमा तिणि कन्जंति, जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स पाणातिवायकिरिया कजति, जस्स पाणातिवायकिरिया कजति तस्स पारियावणिया किरिया कजति , गो०! जस्स णं जीवस्स पारियावणिया कि० तस्स पाणातिवातकिरिया सिय कजति सिय नो कजति, जस्स पुण पाणातिपातकिरिया कजति तस्स पारियावणिया किरिया नियमा कञ्जति, जस्स णं भंते ! नेरइयस्स काइया किरिया कजति तस्स अधिगरणिया किरिया कजति ?, गो० ! जहेव जीवस्स तहेव नेरइयस्सवि, एवं निरंतरं जाव वेमाणियस्स । जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया कि० क० तं समयं अधिगरणिया कि० जं समयं अधिगरणिया कि० क० तं समयं काइया कि०, एवं जहेव आइल्लओ दंडओ तहेव भाणितबो, जाव वेमाणियस्स । जंदेसेणं भंते! जीवस्स काइया कि० तंदेसेणं अधिगरणिया कि० तहेव जाव वेमाणियस्स । जंपएसेणं भंते ! जीवस्स काइया कि० तं पदेसं आधिगरणिया कि० एवं तहेव जाव वेमाणियस्स, एवं एते जस्स समयं जंदे जंपएसेणं चत्तारि दंडगा होति ।
तस्स पाणातिवास आइल्लाओ
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२२क्रियापदे क्रिया
| संवेधःसू.
२८२
॥४४४॥
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कति णं भंते ! आतोजितातो किरियाओ पण्णत्तातो ?, गो० ! पंच आओजियाओ किरियाओ पण्णत्ताओ, तं०-काइया जाव पाणातिवातकिरिया, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया आतोजिया किरिया अस्थि तस्स अधिगरणिया किरिया आतोजिता अस्थि जस्स अधिगरणिया आतोजिता किरिया अस्थि तस्स काइया आतोजिया किरिया अस्थि ?, एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणितत्वा, जरस समयं देसं जं जाव वेमाणियाणं । जीवे णं भंते ! समयं काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तंसमयं पारियावणियाते पुढे पाणातिवातकिरियाते पुढे ?, गो०! अत्थेगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओ जंसमयं काइयाए अधिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए पुढे १ अत्थेगतिते जीवे एगतियाओ जीवाओं
समयं काइयाए अधिगरणियाए पादोसियाते किरियाए पुढे तं समयं पारितावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरि8 याए अपुढे २ अत्थेगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जंसमयं काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए पुढे तंसमयं पारि०
किरि० अपुढे पाणाइवायकि० अपुढे ३ (सूत्र २८२)
'कइणं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि प्राग्वत्, एता एव क्रियाः चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया णं भंते !' इत्यादि पाठसिद्धं, सम्प्रत्यासामेव क्रियाणामेकजीवाश्रयेण परस्परमविनाभावित्वं चिन्त- यति-'जस्स णं भंते !' इत्यादि, इह कायिकी क्रिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिवर्तनसमर्था प्रति-विशिष्टा परिगृह्यते न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा, तत आद्यानां तिसृणां क्रियाणां परस्परं नियम्यनिया
रडरररर
४४४॥
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|मकभावः, कथमिति चेत्, उच्यते, कायोऽधिकरणमपि भवतीत्युक्तं प्राक्, ततः कायस्याधिकरणत्वात् कायिक्यां सत्यामवश्यमाधिकरणिकी आधिकरणिक्यामवश्यं कायिकी, सा च प्रतिविशिष्टा कायिकी क्रिया प्रद्वेषमन्तरेण न भवति ततः प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमविनाभावः, प्रद्वेषोऽपि च काये स्फुटलिङ्ग एव वक्ररूक्षत्वादेस्तदविनाभाविनः प्रत्यक्षत एवोपलम्भात् , उक्तं च-"रूक्षयति रुष्यतो ननु वक्रं नियति च रज्यतः पुंसः। औदारिकोऽपि देहो भाववशात् परिणमत्येवम् ॥१॥" परितापनस्य प्राणातिपातस्य चाद्यक्रियात्रयसम्भवेऽप्यनियमः, कथमिति चेत्, उच्यते, यद्यसौ घात्यो मृगादिर्घातकेन धनुषा क्षिप्तेन बाणादिना विध्यते ततस्तस्य परितापनं मरणं वा भवति, नान्यथा, ततो नियमाभावः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य च भावे पूर्वक्रियाणामवश्यं भावस्तासामभावे तयोरभावात् , ततोऽमुमेवार्थ परिभाव्य कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियाभिः सह आधिकरणिकी तिसृभिः क्रियाभिः सह प्राद्वेषिकी द्वाभ्यां सूत्रतः सम्यक् चिन्तनीया, पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साक्षादाह-'जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति' इत्यादि, पारितापनिक्याः सद्भावे प्राणातिपातक्रिया स्याद् भवति स्यान्न भवति, यदा बाणाद्यभिघातेन जीवितात् च्याव्यते तदा भवति शेषकालं न भवतीत्यर्थः, यस्य पुनः प्राणातिपातक्रिया तस्य नियमात् पारितापनिकी, परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणासम्भवात् । सम्प्रति नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स णं भंते ! नेरइयस्स काइया
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२२क्रियापदे क्रिया| संवेधःसू.
२८२
प्रज्ञापना- किरिया कजति' इत्यादि प्रतीतं, भावितत्वात् । तदेवमेको दण्डक उक्तः, सम्प्रति कालमधिकृत्योक्तप्रकारेणैव द्वितीयाः मल- यदण्डकमाह-जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तं समयं अहिगरणिया कजइ जं समयं अहिय. वृत्ती. गरणिया कजई' इत्याद्यारभ्य सर्व पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-एवं जहेव आइ॥४४५॥
लतो दंडओ तहेव भाणियवो जाव वेमाणियस्स' इति, समयग्रहणेन चेह सामान्यतः कालो गृह्यते, न पुनः परमनिरुद्धो यथोक्तखरूपो नैश्चयिकः समयः, परितापनस्य प्राणातिपातस्य वा बाणादिक्षेपजन्यतया कायिक्याः प्रथमसमये एवासम्भवात् , एप द्वितीयो दण्डकः, सम्प्रति द्वौ दण्डको क्षेत्रमधिकृत्याह-'जंदेसेणं भंते ! जीवस्स' इत्यादि, अत्रापि सूत्रं पूर्वोक्तं तदवस्थं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्र, तथा चाह-'तहेव जाव वेमाणियस्स' एष
तृतीयदण्डकः, 'जंपएसेणं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजई' इत्यादिकश्चतुर्थः, अत्रापि सूत्रं प्रागुक्तक्रमेण शतावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, तथा चाह-एवं तहेव जाव वेमाणिए' इति, दण्डकसङ्कलनामाह-'एवमेते'।
इत्यादि, एताश्च यथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं तथा संसारकारणमपि, ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धस्य संसारकारणतया तद्धेतुत्वेन तासामपि संसारकारणत्वोपचारात् , तथा चाह-कइ णं भंते ! आजोजियाओ किरियाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि, आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः-कायिक्यादिकाः शेषं सर्वं सुगम, सूत्रपाठस्तु पूर्वो-| क्तप्रकारेण तावद् वक्तव्यो यावत् यस्येति यं समयमिति यं देशमिति यं प्रदेशमिति परिपूर्णाश्चत्वारो दण्डकार,
॥४४५॥
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'यं समय' मित्यादौ तु 'कालाध्वनोर्व्याप्ता' वित्यधिकरणे द्वितीया, ततो यस्मिन् समये यस्मिन् देशे यस्मिन् प्रदेशे इति व्याख्येयं, 'जीवे णं भंते ! जं समयं काइयाए अहिगरणियाए' इत्यादि, अत्रापि समयग्रहणेन सामान्यतः कालो गृह्यते, प्रश्नसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे भङ्गत्रयी - कञ्चिज्जीवमधिकृत्य कश्चिज्जीवो यस्मिन् समये-काले क्रियात्रयेण स्पृष्टस्तस्मिन् समये पारितापनिक्याऽपि स्पृष्टः प्राणातिपातक्रियया चेत्येको भङ्गः, पारितापचिक्या स्पृष्टः प्राणातिपातेनास्पृष्ट इति द्वितीयः, पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया चास्पृष्ट इति तृतीयः; एष च तृतीयो भङ्गो बाणादेर्लक्षात्परिभ्रंशेन घात्यस्य मृगादेः परितापनाद्यसम्भवे वेदितव्यः, यस्तु यस्मिन् समये यं जीवमधिकृत्याद्यक्रियात्रयेणास्पृष्टः स तस्मिन् समये तमधिकृत्य नियमात् पारितापनिक्या प्राणातिपातक्रियया चास्पृष्टः, कायि - क्याद्यभावे परितापनादेरभावात् । तदेवमुक्ताः क्रियाः, साम्प्रतं प्रकारान्तरेण क्रिया निरूपयति
कतिणं भंते! किरियाओ पण्णत्ताओ ?, गो० ! पंच किरियाओ पं० तं० – आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपच्चक्खाकिरिया मिच्छादंसणवत्तिया, आरंभिया णं भंते । किरिया कस्स कजति ?, गो० ! अण्णयरस्सवि पमत्तसंजयस्स, परिग्गहिया णं भंते । किरिया कस्स कअइ १, गो० ! अण्णयरस्सवि संजया संजयस्स, मायावत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जति १, गो० ! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स, अपचक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कजति ?, गो०! अण्णयरस्सवि अपच्चक्खाणिस्स, मिच्छादंसणवत्तिया णं भंते! किरिया कस्स कजति ?, गो० ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स ।
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
शक्रियापदे क्रियाणांसह भावः सू. २८४
॥४४६॥
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नेरइयाणं भंते ! कति किरियातो पं० १, गो० ! पंच किरियातो पं०, तं०-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, एवं जाव वेमाणियाणं । जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया क० तस्स परिग्गहिया कि कजति ? जस्स परिग्गहिया कि० तस्स आरंभिया कि०, गो०! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० तस्स परिग्गहिया सिय कजति सिय नो कजति, जस्स पुण परिग्गहिया किरिया क० तस्स आरंभिया कि.णियमा क०, जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स मायावत्तिया कि० क. पुच्छा, गो० ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स मायावत्तिया कि. नियमा क० जस्स पुण मायावत्ति० कि० क. तस्स आरंभिया कि० सिय कजति सिय नोक०, जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपचक्खाणकिरिया पुच्छा, गो० ! जस्स जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपचक्खाणकिरिया सिय कजति सिय नो० क० जस्स पुण अपच्चक्खाणकिरिया क० तस्स आरंभिया किरिया णियमा क०, एवं मिच्छादंसणवत्तियाएवि समं, एवं पारिग्गहियावि तिहिं उवरिल्लाहिं समं संचारेतवा, जस्स मायावत्तिया कि० तस्स उवरिल्लाओ दोवि सिय कजंति सिय नो कअंति, जस्स उवरिल्लाओ दो कजंति तस्स मायावत्तिया णियमा कजति, जस्स अपच्चक्खाणकि० क० तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कज्जति सिय नो कजति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया कि० तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया णियमा कजति । नेरइयस्स आइल्लियातो चत्तारि परोप्परं नियमा काति, जस्स एताओ चत्तारि कति तस्स मिच्छादसणवत्तिया कि० भइज्जति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज़ति तस्स एतातो चत्तारि नियमा कजंति, एवं जाव थणियकुमारस्स, पुढविकाइयस्स जाव चउरिंदियस्स पंचवि परोप्परं नियमा कजंति,
विनिरिseksee
॥४४६॥
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DOOOOOO900908
पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स आतिल्लियातो तिणिवि परोप्परं नियमा कजंति, जस्स एयाओ कजंति तस्स उवरिल्लिया दोणि भइजति, जस्स उवरिल्लातो दोण्णि कजंति तस्स एतातो तिण्णिवि णियमा कज्जति, जस्स अपच्चक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवत्तिया सिय कन्जति सिय नो क०, जस्स पुण मिच्छादंसणवत्तिया किरिया क० तस्स अपच्चक्खाणकिरिया नियमा क०, मणूसस्स जहा जीवस्स, वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा नेरइयस्स, जं समयण्णं भंते ! जीवस्स आरंभिया कि० क तं समयं पारिग्गहिया कि० क०१, एवं एते जस्स जं समयं जं देसं जं पदेसेण य चत्तारि दंडगा णेयबा, जहा नेरइयाणं तहा सव्वदेवाणं नेतत्वं जाव वेमाणियाणं (सूत्रं २८४) 'कइणं भंते !' इत्यादि, आरम्भः-पृथिव्याधुपमईः, उक्तं च-"संरंभो संकप्पो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवतो सुद्धनयाणं तु सवेसि ॥१॥" [संरम्भः संकल्पः परितापक्रिया भवेत् समारम्भः । आरम्भ उपद्रवकः शुद्धनयानां तु सर्वेषां (मतं)॥१॥] आरम्भः प्रयोजनं-कारणं यस्याः सा आरम्भिकी, 'परिग्गहिय'त्ति परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुखीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च परिग्रह एव पारिग्रहिकी परिग्रहेण निवृत्ता वा पारिग्राहिकी, 'मायावत्तिया' इति माया-अनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादेरपि परिग्रहः माया प्रत्ययः-कारणं यस्याः |सा मायाप्रत्यया 'अपञ्चक्खाणकिरिया' इति अप्रत्याख्यानं-मनागपि विरतिपरिणामाभावस्तदेव क्रिया अप्रत्याख्यानक्रिया, 'मिच्छादसणवत्तिया' इति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो-हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, एतासां क्रियाणां
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
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॥४४७॥
मध्ये यस्य या सम्भवति तस्य तां निरूपयति-'आरंभिया णं भंते !' इत्यादि, 'अन्नयरस्सवि पमत्तसंजयस्स' इतिक्रिया. अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमः प्रमत्तसंयतस्याप्यन्यतरस्य-एकतरस्य कस्यचित् प्रमादे सति कायदुष्प्रयोगभावतः पृथि- पदे किव्यादेरुपमईसम्भवात् , अपिशब्दोऽन्येषामधस्तनगुणस्थानवर्त्तिनां नियमप्रदर्शनार्थः, प्रमत्तसंयतस्याप्यारम्भिकी क्रिया। याणां सहभवति किं पुनः शेषाणां देशविरतिप्रभृतीनामिति ?, एवमुत्तरत्रापि यथायोगमपिशब्दभावना कर्त्तव्या, पारिग्र- भावः सू. हिकी संयतासंयतस्यापि देशविरतस्यापीत्यर्थः, तस्यापि परिग्रहधारणात् , मायाप्रत्यया अप्रमत्तसंयतस्यापि, कथ- २८४ मिति चेत् , उच्यते, प्रवचनोडाहप्रच्छादनार्थ वल्लीकरणसमुद्देशादिपु, अप्रत्याख्यानक्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि-न किञ्चिदपीत्यर्थः यो न प्रत्याख्याति तस्येति भावः, मिथ्यादर्शनक्रिया अन्यतरस्यापि सूत्रोक्तमेकमप्यक्षरमरोचयमानस्येत्यर्थः मिथ्यादृष्टेभवति । एता एव क्रियाश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-नेरहयाणं भंते' इत्यादि सुगम । सम्प्रत्यासां क्रियाणां परस्परमविनाभावं चिन्तयति-तद्यथा-यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य पारिग्रहिकी स्याद्भवति स्यान्न भवति, प्रमत्तसंयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य मायाप्रत्यया नियमाद्भवति, यस्य मायाप्रत्यया तस्यारम्भिकी क्रिया स्याद्भवति स्थान भवति, "अप्रम
॥४४७॥ त्तसंयतस्य न भवति शेषस्य भवतीत्यर्थः, तथा यस्यारम्भिकी क्रिया तस्याप्रत्याख्यानक्रिया स्याद्भवति स्यान्न भव!ति. प्रमत्तसंयतस्य देशविरतस्य च न भवति, शेषस्य अविरतसम्यग्दृष्ट्यादेर्भवतीति भावः, यस्य पुनरप्रत्याख्यान
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क्रिया तस्यारम्भिकी नियमात्, अप्रत्याख्यानिनोऽवश्यमारम्भसम्भवात् एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यययापि सहाविनाभावो भावनीयः, तथाहि - यस्यारम्भिकी क्रिया तस्य मिथ्यादर्शनप्रत्यया स्याद्भवति स्यान्न भवति, मिथ्यादृष्टेर्भ - वति शेषस्य न भवतीत्यर्थः, यस्य तु मिथ्यादर्शनक्रिया तस्य नियमादारम्भिकी, मिथ्यादृष्टेरविरतत्वेनावश्यमारम्भसम्भवात्, तदेवमारम्भिकी क्रिया पारिग्राहिक्यादिभिश्चतसृभिरुपरितनीभिः क्रियाभिः सह परस्परमविनाभावेन चिन्तिता, एवं पारिग्राहिकी तिसृभिर्मायाप्रत्यया द्वाभ्यामप्रत्याख्यानक्रिया एकया मिथ्यादर्शनप्रत्ययया चिन्तनीया, तथा चाह - ' एवं पारिग्गहियावि तिहिं उवरिल्लाहिं समं संचारेयवा' इत्यादि सुगमं, भावनायाः सुप्रतीतत्वात् । अमुमेवार्थ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति- 'नेरइयस्स आइलातो चत्तारि' इत्यादि, नैरयिकाधुत्कर्षतोऽप्यविरतसम्यग्दष्टिगुणस्थानकं यावन्न परतः ततो नैरविकाणामाद्याश्चतस्रः क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यः, | मिथ्यादर्शनक्रियां प्रति स्याद्वादः, तमेवाह - 'जस्स एयाओ चत्तारि' इत्यादि, मिथ्यादृष्टेर्मिध्यादर्शनक्रिया भवति | शेषस्य न भवतीति भावः यस्य पुनर्मिथ्यादर्शनक्रिया तस्याद्याश्चतस्रो नियमात्, मिथ्यादर्शने सत्यारम्भिक्यादीनामवश्यंभावात् एवं तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारस्य । पृथिव्यादीनां चतुरिन्द्रियपर्यवसानानां पञ्च क्रियाः परस्परमविनाभाविन्यो वक्तव्याः, पृथिव्यादीनां मिथ्यादर्शनक्रियाया अप्यवश्यंभावात् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्याद्यास्तिस्रः परस्परमविनाभूता देशविरतिं यावदासामवश्यंभावात्, उत्तराभ्यां तु द्वाभ्यां स्याद्वादः, तमेव दर्शयति - 'जस्स
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ARI श्च सू.
प्रज्ञापना- एयाओ कजंति' इत्यादि, देशविरतस्य न भवतः शेषस्य भवत इति भावः, यस्य पुनः उपरितन्यौ द्वे क्रिये तस्या
४२२ क्रियाया मल- द्यास्तिस्रो नियमाद्भवन्ति, उपरितन्यौ हि क्रिये अप्रत्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च, तत्राप्रत्याख्यानक्रिया
पदे हिंसाय०वृत्ती.
दिविरमणे अविरतसम्यग्दृष्टिं यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया मिथ्यादृष्टेः आद्याश्चतस्रो देशविरतिं यावत् अत उपरितन्यो वेड
हेतुः बन्ध॥४४८॥
वश्यमाद्यानां तिसृणां भावः, सम्प्रति अप्रत्याख्यानक्रियया मिथ्यादर्शनक्रियायास्तिर्यपञ्चेन्द्रियस्य परस्परमविनाभावं चिन्तयति-'जस्स अपञ्चक्खाणकिरिया' इत्यादि भावितं, मनुष्ये यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, व्यन्तर-18 २८५-२८६ ज्योतिष्कवैमानिकानां यथा नैरयिकस्य, एवमेष एको दण्डकः, 'एवमेव जं समयं णं भंते ! जीवस्से'त्यादिको
द्वितीयः, "ज देसण्ण'मित्यादिकः तृतीयः, "जं पएसण्ण'मित्यादिकश्चतुर्थः । अथ षट् कायाः प्राणातिपातक्रिया18 हेतव एव भवन्ति किं वा तद्विरमणहेतवोऽपीति पृच्छति
अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवायवेरमणे कजति ?, हंता! अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणातिपातवेरमणे क०, गो! छसु जीवनिकाएसु, अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणातिवातवेरमणे क., गो०! नो इणढे समढे, एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं, एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं, जीवस्स य मणूसस्स य, सेसाणं नो
॥४४८॥ तिणहे समढे, णवरं अदिनादाणे गहणधारणिज्जेसु दवेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दवेसु, सेसाणं सवेसु दवेसु, अत्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कजति ?, हंता ! अत्थि, कम्हि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे
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कजति ?, गो० ! सबदवेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिदियविगलेंदियाणं नो तिणढे समटे (सू०२८५) पाणातिपातविरए णं भंते ! जीवे कइ कम्मपगडीतो बंधति ?, गो०! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा, एवं मणूसेवि भाणितवे, पाणातिपातविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति?, गो० ! सवेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगाय १ अहवा. सत्तविहबं० एगविहवं अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबं० एगविहवं. अट्टविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबं० एगविहबं० छबिहबंधगे य ४, अहवा सत्तविहबं० एगवि० छबिहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबं० एगविहबं० अबंधए य ६ अहवा सत्तविहबं० एगविहवं० अबंधगा य७ अहवा सत्तवि० एगवि० अट्ठविधबंधगे य छविहबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबं० अट्ठविहबंधए य छबिहबंधगा य २ अहवा सत्तविहबं० एगवि० अढविहबंधगा य छविहबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छबिहबंधगा य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अहविहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहवं० एगविहबं० अट्ठविहबंधए य अबंधगा य २ अहवा सत्तविहबं० एगवि० अट्ठविहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहवंधगे य अबंधए य १ अहवा सत्तविहवं० एगविहबंधगा य छविहबंधए य अबंधगा य २, अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० छबिह० अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० छविह० अबंधगा य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अढविहबंधगे य छविहबंधए य अबंधए य १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठविहबंधए य छबिहबंधए.य अब
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२२क्रियापदे हिंसादिविरमणे हेतुः बन्ध
श्च सू. २८५-२८६
॥४४॥
धगा य २ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह. अट्टविहबंधए य छबिहबंधगा य अबंधए य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह० अट्ठविधबंधए य छबिहबंधगा य अबंधगा य ४, अहवा सत्तवि० एगवि० अट्ठवि० छबिहबंधगे य अबंधए य ५, अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अढविह० छबिहबंधगे य अबंधगा य ६, अहवा सतवि० एगविह० अढवि० छविहबंधगा य अबंधए य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एग० अट्ठवि० छविहबं० अबंधगा य ८ एवं एते अट्ठभंगा, सवेवि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति, एवं मणूसाणवि एते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितवा, एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूसस्स य, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगवि० अबंधए वा, मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! नेरइए कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अवि० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिय०, मणसे जहा जीवे, वाणमंतरजोइसितवेमाणिते जहा नेरइते, मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीतो बंधति, गो! ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणितवा, मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! नेरइया कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठवि० एवं जाव वेमाणिया, णवरं मणसाणं जहा जीवाणं । (सूत्रं २८६ ) पाणातिवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजति ?, गो० ! पाणातिवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कजति सिय नो कजति, पाणातिवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स परिग्गहिया किरिया कजति, गो! णो इणढे समहे, पाणातिवाय
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RE४४९॥
य
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विरयस्स णं भंते! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जति १, गो० ! सिय कज्जति सिय नो कज्जति, पाणातिपातविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अपच्चक्खाणवत्तिया किरिया कज्जति १, गो० ! णो इणट्ठे समट्ठे, मिच्छादंसणवत्तियाए पुच्छा, गो० ! णो इणट्टे समट्ठे, एवं पाणातिपातविरयस्स मणूसस्सवि, एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य, मिच्छादंसणसलविरयस्स णं भंते ! जीवस्स किं आरंभिया किरिया क० जाव मिच्छादंसणवत्तिया कि० क० १, गो० ! मिच्छादंससल्लविरतस्स जीवस आरंभिया कि० सिय क० सिय नो क०, एवं जाव अपच्चक्खाणकिरिया, मिच्छादंसणवत्तिया न क०, मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते ! नेरइयस्स किं आरंभिया किरिया क० जाव मिच्छादंसणवत्चिया कि० क०१, गो० ! आरंभिया कि० क० जाव अपच्चक्खाणकिरियावि क०, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया नो क०, एवं जाव थणियकुमारस्स, मिच्छादंसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा, गो० ! आरंभिया कि० क० जाव मायावतिया कि० क०, अपञ्चक्खाणकि० सिय क० सिय नो क०, मिच्छादंसणवत्तिया कि० नो क० । मणूस स जहा जीवस्स । वाणमंतरजोइसियवेमा० जहा नेरइयस्स । एतासि णं भंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादंसणवत्तियाण य कतरे २ हिंतो अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थोवाओ मिच्छादंसणवत्तियाओ किरियाओ, अपच्चक्खाणकिरियाओ विसे०, परिग्गहियातो विसे०, आरंभियातो किरियातो विसे, मायावत्तियातो विसेसाहियातो ( सूत्रं २८७ ) ॥ पण्णवणाए बावीसतिमं पयं समत्तं ॥ २२ ॥
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२२क्रिया| पदे विरतानां क्रियाभावः सू.२८७
प्रज्ञापना- | 'अस्थि णं भंते !' इत्य क्रियते कर्मकर्तरिप्रयोगः ततो भवतीति द्रष्टव्यः, प्राणातिपातादिविरमणया: मल
गेव भाविता इति न भूयो भाव्यन्ते, विरतिश्च प्राणातिपातादीनां मायामृषापर्ययवृत्ती.
|न्तानां जीवपदे मनुष्यपदे वक्तव्या, शेषेषु स्थानेषु नायमर्थः समर्थ इति वक्तव्यं, तेषां भवप्रत्ययतः सर्वविरत्यस॥४५०॥
म्भवात् , मिथ्यादर्शनविरमणविषयचिन्तायां सर्वद्रव्येष्विति उपलक्षणमेतत् सर्वपर्यायेष्वपि, अन्यथा एकस्मिन् द्रव्ये पर्याये वा मिथ्यात्वभावे मिथ्यादर्शनविरमणासम्भवात् , 'सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" इति वचनात्, मिथ्यादर्शनशल्यविरमणं च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेपु स्थानेषु, शेषेषु एकेन्द्रियादिषु न भवति, कस्मादिति चेत्, उच्यते, पृथिव्यादिषु 'उभयाभावो पुढवाइएसु' [प्रतिपद्यमानप्रतिपन्नाभावः पृथिव्यादिषु] इति वचनात, द्वीन्द्रियादीनां तु यद्यपि करणापयांप्तावस्थायां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वं भवति तथापि तत् मिथ्यात्वाभिमुखानां तत्प्रतिकूलानामतस्तेषामपि मिथ्यादर्शन
शल्यविरमणप्रतिषेधः, आह च-'अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसलवेरमणे कजई' इत्यादि, अथवा प्राणा॥ तिपातविरतस्य कर्मबन्धो भवति किं वा नेति चेत् , उच्यते, भवत्यपि न भवत्यपि, तथा च एतदेव प्रश्नसूत्रपूर्व-
कमाह-पाणाइवायविरए णं भंते ! जीवे' इत्यादि सुगम, बहुवचने प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्सविधवन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च, इह प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तबादरसम्परायाः सप्तविधवन्धकाः
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४५०॥
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IS प्रमत्ता अप्रमत्ताश्चायुर्वन्धकालेऽष्टविधबन्धकाः, आयुषोऽपि बन्धनात् , आयुर्वन्धश्च कादाचित्क इति कदाचित्स
वथा न लभ्यतेऽपि, प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते, अपूर्वकरणा अनिवृत्तिबादराश्च कदाचिन्न भवन्त्यपि, विरहस्यापि तेषामागमे प्रतिपादनात्, एकविधबन्धका उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः, तत्र उपशान्तमोहाः क्षीणमोहाश्च कदाचिल्लभ्यन्ते कदाचिन्न लभ्यन्ते, तेषामन्तरस्यापि सम्भवात् , सयोगिकेवलिनस्तु सदा प्राप्यन्तेऽन्यान्यभावेन तेषामव्यवच्छेदात्, ततः सप्तविधवन्धका एकविधबन्धकाचावस्थिता इत्यष्टविधबन्धकाद्यभावे एको भङ्गः, अथवा सप्तविधबन्धका एकविधबन्धकाश्च बहव एकोऽष्टविधबन्धक इति द्वितीयः, अष्टविधबन्धकानां बहुत्वे तृतीयः, षडुबिधबन्धका अपि कदाचिल्लभ्यन्तेकदाचिन्न, उत्कर्षतः षण्मासविरहभावात् , यदापि लभ्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षपदेऽष्टोत्तरं शतं ततोऽष्टविधबन्धकपदाभावे षड्विधबन्धकपदेनापि द्वौ भङ्गो, अबन्धका अयोगिकेवलिनस्तेऽपि कदाचिदवाप्यन्ते कदाचिन्न, तेषामप्युत्कर्षतः षण्मासविरहभावात्, | यदाऽप्यवाप्यन्ते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, ततोऽष्टविधबन्धकपदाभावेऽबन्धकपदेनापि द्वौ भनौ, तदेवमेक आद्यो भङ्ग एककसंयोगे च षडिति सप्त भङ्गाः, इदानी द्विकसंयोगे भङ्गा दर्श्यन्ते, तत्र सप्तविधबन्धका एकविधबन्धकाश्चावस्थिताः, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , ततोऽष्टविधबन्धकपदे षडविधबन्धकपदे च प्रत्येकमेकवचनमिति एको भङ्गः, अष्टविधवन्धकपदे एकवचनं षड्डिधवन्धकपदे बहुवचनं इति
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥४५१ ॥
द्वितीयः, एतौ द्वौ भङ्गावष्टविधबन्धकपदस्यैकवचनेन लब्धौ एतावेव द्वौ भङ्गौ बहुवचनेनेति चत्वारः, एवमेव चत्वारो भङ्गाः अष्टविधबन्धकाबन्धकपदाभ्याम्, एवमेव चत्वारः षड्विधबन्धका बन्धकपदाभ्यामिति, सर्वसङ्ख्यया द्विकसंयोगे द्वादश भङ्गाः, त्रयाणामष्टविधबन्धकपडू विधबन्धकाबन्धकरूपाणां पदानां संयोगे प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, सर्वसङ्कलनया सप्तविंशतिर्भङ्गाः, अत्रापर आह— ननु विरतस्य कथं बन्धो ?, न हि विरति - न्धहेतुर्भवति, यदि पुनर्विरतिरपि बन्धहेतुः स्यात् ततो निर्मोक्षप्रसङ्गः, उपायाभावात् उच्यते, न हि विरतिर्वन्धहेतुः, किन्तु विरतस्य ये कषाययोगास्ते बन्धकारणं, तथाहि - सामायिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकेष्वपि संयमेषु कषायाः संज्वलनरूपा उदयप्राप्ताः सन्ति योगाश्च ततो विरतस्यापि देवायुष्कादीनां शुभप्रकृतीनां तत्प्रत्ययो बन्धः, यथा च प्राणातिपातविरतस्य सप्तविंशतिर्भङ्गा उक्ताः तथा मृषावादविरतस्य यावत् मायामृषाविरतस्य, | मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्रमाह-'मिच्छादंसणसलविरए णं भंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं सप्तविधबन्धकत्वमष्टविधबन्धकत्वं षड्रविधबन्धकत्वमे कविधबन्धकत्वमबन्धकत्वं च मिथ्यादर्शनशल्यविरतेरविरतसम्यग्दृष्टेरारभ्यायोगिकेवलिनं यावद्भावात्, नैरयिकादिचतुवैिशतिदण्डकचिन्तायां मनुष्यवर्जेषु शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु सप्तविधवन्धकत्वं अष्टविधबन्धकत्वं वा, न पडूविधबन्धकत्वादि, श्रेणिप्रतिपत्त्यसम्भवात्, मनुष्यपदे च यथा जीवपदे तथा वक्तव्यं, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात्, बहुवचनेनैतद्विषयं सूत्रमाह - 'मिच्छादंसण सलविरया णं भंते! जीवा' इत्यादि,
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२२ क्रियापदे विर
ताना क्रियाभावः सू. २८७
॥४५१॥
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अत्रापि त एव पूर्वोक्ताः सप्तविंशतिर्भङ्गाः, नैरयिकपदे भङ्गत्रिक, तत्र सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सप्तविधबन्धका इत्येको है भङ्गः, अयं च यदैकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदा भवति, यदा पुनरेकोऽष्टविधबन्धको लभ्यते तदाऽयं द्विती-1
यो भङ्गः ससविधवन्धकाश्चाष्टविधबन्धकश्च, यदा पुनरष्टविधबन्धका अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्च, एवं भङ्गत्रिक तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकसूत्रं, नवरं मनुष्यपदे सप्तविंशतिर्भङ्गका यथा जीवपदे इति । अथारम्भिक्यादीनां क्रियाणां मध्ये का क्रिया प्राणातिपातविरतस्येति चिन्तयति-'पाणाइवायविरयस्स णं भंते !' इत्यादि, आरम्भिकी क्रिया स्याद्भवति स्यान्न भवति, प्रमत्तसंयतस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावः, पारिग्रहिकी निषेध्या, सर्वथा परिग्रहान्निवृत्तत्वात् , अन्यथा सम्यक्प्राणातिपातविरत्यनुपपत्तेः, मायाप्रत्यया स्याद्भवति स्यान्न भवति, अप्रमत्तस्यापि हि कदाचित् प्रवचनमालिन्यरक्षणार्थ भवति, शेषकालं तु न भवति, अप्रत्याख्यानक्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया च सर्वथा निषिध्यते, तद्भावे प्राणातिपातविरत्ययोगात्, प्राणातिपातविरतेश्च द्वे पदे, तद्यथा-जीवो मनुष्यश्च, तत्र यथा सामान्यतो जीवमधिकृत्योकं तथा मनुष्यमधिकृत्य वक्तव्यं, तथा चाह-'एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्सवि' इति, एवं तावद्वाच्यं यावन्मायामृषाविरतस्य जीवस्य मनुष्यस्य च, मिथ्यादर्शनशल्यविरतमधिकृत्य सूत्रं 'मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! जीवस्स' इत्यादि, आरम्भिकी स्याद्भवति स्थान्न भवति, प्रमत्तसंयतान्तस्य भवति शेषस्य न भवतीति भावार्थः, पारिग्रहिकी देशविरतिं यावद्भवति, परतो
00000000002029020129
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
रक्रियापदं विरतानामारम्भिक्यादिःक्रियाणामल्पब
॥४५२॥
न भवति, मायाप्रत्ययाऽप्यनिवृत्तवादरसम्परायं यावद्भाविनी परतो न भवति, अप्रत्याख्यानक्रियाऽपि अविरतस- म्यग्दृष्टिं यावन्न परतः, तत एता अपि क्रिया अधिकृत्य 'सिय कजइ सिय नो कज्जई' इति वक्तव्यं, तथा चाह- 'एवं जाव अपञ्चक्खाणकिरिया' इति, मिथ्यादर्शनप्रत्यया पुनर्निषेध्या, मिथ्यादर्शनविरतस्य तस्या असम्भवात्, चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां नैरयिकादीनां स्तनितकुमारपर्यन्तानां चतस्रः क्रिया वक्तव्याः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, तिर्यपञ्चेन्द्रियस्याद्यास्तिस्रः क्रिया नियमतो वक्तव्याः, अप्रत्याख्यानक्रिया भाज्या, देशविरतस्य न भवति | | शेषस्य भवतीत्यर्थः, मिथ्यादर्शनप्रत्यया निषेध्या, मनुष्यस्य यथा सामान्यतो जीवस्य, व्यन्तरादीनां यथा नैरयिकस्य । सम्प्रत्यासामवारम्भिक्यादीनां क्रियाणां परस्परमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं भंते !' इत्यादि, सवेस्तोका मिथ्यादशेनप्रत्यया क्रिया, मिथ्यादृष्टीनामेव भावात, ततोऽप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिका, अविरतसम्यग्दृष्टीनां | मिथ्यादृष्टीनां च भावात् , ताभ्योऽपि पारिग्राहिक्यो विशेषाधिकाः, देशविरतानां पूर्वेषां च भावात् , आरम्भिक्यो विशेषाधिकाः, प्रमत्तसंयतानां पूर्वेषां च भावातू, ताभ्योऽपि मायाप्रत्यया विशेषाधिकाः, अप्रमत्तसंयतानामपि भावात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां द्वाविंशतितमं क्रियापदं समाप्तम् ॥२२॥
हुत्वं सू.
॥४५२॥
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अथ त्रयोविंशतितमं कर्मप्रकृतिपदं ॥ २३ ॥
तदेवमुक्तं द्वाविंशतितमं पदं, सम्प्रति त्रयोविंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे नारकादिगतिपरिणामेन परिणतानां जीवानां प्राणातिपातादिक्रियाविशेषश्चिन्तितः, सम्प्रति पुनः कर्मबन्धादिपरिणामविशेषश्चिन्त्यते-तत्र चेयमधिकारद्वारगाथाकति पगडी १ कह बंधति २ कइहिवि ठाणेहिं बंधए जीवी ३॥ कति वेदेइ य पयडी ४ अणुभावो कइविहो कस्स ५॥१॥ कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णताओ, गो० ! अह कम्मपगडीओ पण्णचाओ, तं०-णाणावरणिज्नं १ दंसणावरणिजं २ वेदणिज ३ मोहणिज्ज ४ आउयं ५ नाम ६ गोयं ७ अंतराइयं ८, नेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पं०१, गो० ! एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १ (सूत्रं २८८) कहणं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीतो बंधति , गो.! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज कम्मं णियच्छति, दसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्जं कम्मं णियच्छति, दसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत् नियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिएणं गो० ! एवं खलु जीवो अट्ट कम्मपगडीतो बंधति, कहणं भंते ! नेरइए अट्ट कम्मपगडीओ बंधति?, गो०! एवं चेव, एवं जाव वेमाणिते । कहणं भंते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीतो बंधति, गो० ! एवं चेव जाव वेमाणिया ॥२ (सूत्र २८९)
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प्रज्ञापनायाः मल- य०वृत्ती.
प्रकृति
॥४५३॥
'कइ पगडी' इत्यादि, कति प्रकृतयो भवन्तीत्यादि प्रथमोऽधिकारः, तथा कथं-केन प्रकारेण ताः प्रकृतीब- २३कर्मप्रभातीति द्वितीयः, कतिभिः स्थानैबधातीति तृतीयः, कति प्रकृतीर्वेदयते इति चतुर्थः, कस्य कर्मणः कतिविधोऽनु- कृतिपदे भागः पञ्चमः। तत्र प्रथमाधिकारनिरूपणार्थमाह-'कति णं भंते ! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओं' इति, ननूक्तमेव क्रियापदे कति कर्मप्रकृतय इति ततः किमर्थमिह प्रकृतिसङ्ख्यार्थः प्रश्नः ?, उच्यते, विशेषप्रतिपादनार्थः, स चायंन्धश्च सू. विशेषः-पूर्व ज्ञानावरणीयादि कर्म बनन् कतिमिः क्रियाभियुज्यते इत्युक्तं, क्रियाश्च प्राणातिपातहेतवः, प्राणाति-18|२८८-२८९ पातश्च बाह्यं ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धकारणं, कर्मबन्धः कार्य, इह तु ज्ञानावरणीयादिकर्म एवान्तरं कर्मवन्धका-15 रणं प्रतिपाद्यमिति, भगवनिर्वचनमाह-गौतम ! अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञताः, एता एव नामग्राहं दर्शयति'ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं' इत्यादि, ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आत्रियते-आच्छाद्यते अमेनेत्यावरणीयं 'कृद्धहुल'मिति वचनात् करणेऽनीयप्रत्ययः, ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीयं, दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः, उक्तं च-"जं सामन्नग्गहणं भावाणं नेय कट्ट आगारं। अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिइ वुच्चए समए ॥१॥" [यत् सामान्यग्रहणं भावानां नैव कृत्वाऽऽकारम् । अर्थानविशेष्य दर्शनमित्युच्यते समये ॥१॥] तस्यावरणीय दर्शनावरणीयं, तथा वेद्यते-आहादादिरूपेण यदनुभूयते तदनीय, अत्र कर्मण्यनीयः, यद्यपि च सर्व कर्म वेद्यते
॥४५॥
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| तथापि पङ्कजादिशब्दवत् वेदनीयशब्दस्य रूढिविषयत्वात् सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयमित्युच्यते, न शेषं, तथा | मोहयति - सदसद्विवेकविकलं करोति आत्मानमिति मोहनीयं, अत्र बहुलवचनात् कर्त्तर्य्यनीयः, तथा एतिआगच्छति प्रतिबन्धकतां खकृतकर्मबद्धनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः, अथवा आ समन्तादेतिगच्छति भवाद भवान्तरसङ्क्रान्तौ विपाकोदयमित्यायुः, उभयत्राप्यौणादिक उस्प्रत्ययः, तथा नामयति — गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम, तथा ग्रूयते - शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत् तद् गोत्रं - उच्चनीचकु| लोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं, कार्ये कारणोपचारात्, यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते - शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्मणः उदयाद् गोत्रं, तथा जीवं दानादिकं चान्तरा व्यवधानापादनाय एति - गच्छत्यन्तरायं, जीवस्य दानादि कर्त्तुमुद्यतस्य विघातकृद् भवतीत्यर्थः, अत्राह - नन्वित्थं ज्ञानावरणीयाद्युपन्यासे किञ्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेव प्रवृत्तिरिति ?, अस्तीति ब्रूमः, किं तदिति चेत्, उच्यते, इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य स्वतत्त्वभूतं, तदभावे जीवत्वस्यैवाभावात्, चेतनालक्षणो हि जीवस्ततः स कथं ज्ञान - दर्शनाभावे भवेत् ?, ज्ञानदर्शनयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानं, तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविषयविचारसन्ततिप्रवृत्तेः, अपिच - सर्वा अपि लब्धयो जीवस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायन्ते, न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य, 'सच्चाओ लद्धीओ सागरोवउत्तस्स नो अणागारोवओगोवउत्तस्से' [ सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य नानाकारोपयोगोपयुक्तस्य]
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प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती .
२३कर्मप्र
कृतिपदे. प्रकृति
॥४५॥
न्धश्च सू.
२८८-२८९
ति वचनप्रामाण्यात्, अन्यच्च-यस्मिन् समये सकलकर्मविनिर्मुक्तखरूपो जीवः सम्पद्यते तस्मिन् समये ज्ञानोपयोगोपयुक्त एव न दर्शनोपयुक्तो, दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये भावात् , ततो ज्ञानं प्रधानं, तदावारकं च ज्ञानावरणीयं कर्म ततस्तत्प्रथममुक्तं, ततस्तदनन्तरं दर्शनावरणीयं ज्ञानोपयोगाच्युतस्य दर्शनोपयोगेऽवस्थानात्, एते च ज्ञानदर्शनावरणीये खविपाकमुपदर्शयतो यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः, तथाहिज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षमधिरूढं विषाकतोऽनुभवन् सूक्ष्म २ तरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः खिद्यते भूरिलोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि वस्तुनि निजप्रज्ञया भिन्दानो बहुजनातिशायिनमात्मानं पश्यन् सुखं वेदयते, तथाऽतिनिबिडदर्शनावरणविपाकोदये जात्यन्धादिरनुभवति दुःखमद्भुतं, दर्शनावरणक|मक्षयोपशमपटिष्टतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो यथावद् वस्तुनि पश्यन् वेदयते प्रमोदम्, तत एतदथेप्रतिपत्त्यर्थे दर्शनावरणीयानन्तरं वेदनीयग्रहणं, वेदनीयं च सुखदुःखे जनयत्यभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धात् ,अभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ तौ च मोहनीयहेतुकौतत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ वेदनीयानन्तरंमोहनीयग्रहणं, मोह-18 नीयमूढाश्च जन्तवो बहारम्भपरिग्रहाद्यासक्ता नरकाद्यायुष्कमावन्नन्ति ततो मोहनीयानन्तरमायुष्कग्रहणं, नरकाद्यायुष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादीनि नामान्युदयमायान्ति तत आयुष्कानन्तरं नामग्रहणं, नामकर्मादयं च नियमादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यमतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणं, गोत्रोदये. चोचे कलोत्पन्नस्य
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प्रायो दानलाभान्तरायादिक्षयोपशमो भवति, राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात् , नीचैःकुलोत्पन्नस्य हुँ दानलाभान्तरायायुदयोऽन्त्यजातीनां तथादर्शनात्, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणं । तदेवमुक्तं प्रथम द्वारम् , अधुना कथं बनातीति द्वितीयद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहपणं भंते।' इत्यादि, कथं-केन प्रकारेण णमिति वाक्यालङ्कारे जीवोऽष्टौ प्रकृतीनाति ?, भगवानाह-गौतम ! ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीयं ।। कर्म निर्गच्छति-निश्चयेन गच्छति, विशिष्टोदयापनमासादयति, किमुक्तं भवति?-ज्ञानावरणीयमुत्कर्षप्राप्तमुदयेन अनुभवन् दर्शनावरणीयमुदयेन वेदयते, दृश्यन्ते हि खलु शून्यवादिप्रभृतयः कुवादिनः कुज्ञानवासितान्तःकरणा विपरीतं पश्यन्त इति, दर्शनावरणीयस्य च कर्मण उदयन दर्शनमोहनीयं कर्म निर्गच्छति, विपाकावस्थोदयेन प्रतिपद्यते इति भावः, तस्य दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिथ्यात्वं निर्गच्छति, अतत्त्वं तत्त्वमध्यवस्थति तत्त्वं चातत्त्वमिति भावः, तत एवं मिथ्यात्वोदयेन जीवोऽष्टौ प्रकृतीबंधाति. खलुशब्दः प्रायोवृत्तिदर्शनार्थः, प्रायस्तावदेवमन्यथा सम्यग्दृष्टिरपि कश्चिदष्टौ प्रकृतीबंधाति, केवलं कश्चित् न बनात्यपि यथा सूक्ष्मसम्परायादिरिति स हा प्रकारो नोक्तः, एष चात्र तात्पर्यार्थः-पूर्वकर्मपरिणामसामर्थ्यात् उत्तरकर्मणः सम्भवो, यथा बीजादडरपत्रना-1
लादीनां, उक्तं च-"जीवपरिणामहेउं कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मनिमित्तं जीवोवि तहेव परिणमइ ॥१॥" इति [जीवपरिणामहेतोः पुलाः कर्मतया परिणमन्ति । कर्मपुद्गलहेतो वोऽपि तथैव परिणमति
392909009999999
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प्रज्ञापना
18॥१॥] उक्तमेवार्थ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-'कहण्णं भंते ! नेरइए' इत्यादि सुगम, तदेवमुक्त२३कर्मप्रयाः मल- एकत्वेन दण्डकः, सम्प्रति बहुत्वेनाह-'कहण्णं भंते ! नेरइया' इत्यादि पाठसिद्धं । उक्तं द्वितीयद्वारमपि. अधना कृतिपदे य. वृत्ती. कतिभिः स्थानबंधातीति तृतीयद्वारमभिधित्सुराह
स्थानानि जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं कतिहिं ठाणेहिं बंधति ?, गो०! दोहिं ठाणेहि, तं०-रागेण य दोसेण य, रागे
सू. १९० ॥४५५॥
दुविहे पं०, तं०-माया य लोभे य, दोसे दुविधे पं०, तं०-कोहे य माणे य, इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहिं विरितोवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणिजं कम्मं बंधति, एवं नेरतिते जाव वेमाणिते, जीवाणं भंते ! णाणावरणिज कम्म कतिहिं ठाणेहिं बंधति ?, गो० ! दोहि ठाणेहिं एवं चेव, एवं नेरइया जाव वेमाणिया, एवं दसणावरणिजं जाव अंतराइज,
एवं एते एगत्तपोहत्तिया सोलस दंडगा ॥३ (सूत्रं २९०) । 'जीवे णं भंते।' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, त एव स्थाने नामग्राहमाह-तद्यथारागेण द्वेषेण च, अथ कोऽसौ रागः को वा द्वेष इति ?, उच्यते, प्रीतिलक्षणो रागोऽप्रीत्यात्मको द्वेषः, एतौ च प्रीत्यप्रीत्यात्मकौ रागद्वेषौ नात्यन्तं क्रोधादिभ्यो व्यतिरिच्यते, किन्तु तेष्वेवान्तर्भवतः, स चान्तर्भावो नयभेदाद्विचित्र इति विनेयजनानुग्रहाय प्रदर्श्यते, तत्र सङ्ग्रहो मन्यते-क्रोधोऽप्रीत्यात्मकः प्रतीत एव, मानोऽपि परगुणासह-19
॥४५५॥ नात्मकत्वादप्रीत्यात्मकः, ततोऽप्रीत्यात्मकत्वादेतौ द्वावपि द्वेषः, लोभोऽभिष्वङ्गात्मकत्वात् प्रीतिरूपः सुप्रसिद्धो,
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मायामपि परवञ्चनात्मिकां किञ्चिदभिलषन् प्रयुङ्क्ते अभिलाषश्च प्रीतिखभाव इति साऽपि प्रीत्यात्मिका, तत एतौ मायालोभौ प्रीत्यात्मकत्वात् रागः, उक्तं च- "कोहं माणं चापीइजाइतो बेइ संगहो दोसं । मायाए लोभेण य स पी सामण्णतो रागं ॥ १ ॥” अत्र उत्तरार्द्धस्याक्षरयोजना - मायया लोभेन सह प्रीतिजातिसामान्यात् स मान - प्रीतिजातिभावात् द्वावपि मायालोभौ स सङ्ग्रहो रागमाचष्टे इति । व्यवहारः पुनर्जूते - माया खलु परोपघाताय प्रयुज्यते परोपघातपरिणामश्च द्वेष इति मायाया अपि द्वेषेऽन्तर्भावः, या तु न्यायोपादानेनार्थे मूर्च्छा स परोपघातरहितः शुद्धो लोभ इति रागः, एवं चेदमस्य मतेन वस्तु व्यवस्थितं - क्रोधमानमाया द्वेषो लोभो राग इति, आह च - "मायंपि दोसमिच्छइ ववहारो जं परोवघायाय । नायोवायाणे चिय मुच्छा लोभेत्ति तो रागो ॥ १ ॥” ऋजुसूत्रः पुनराह — क्रोधो नियमादप्रीत्यात्मकः, ततः स परोपघातात्मकत्वात् द्वेषः, ये तु मानमाया लोभास्ते द्विधाऽपि सम्भवन्ति - प्रीत्यात्मका अप्रीत्यात्मकाश्च तथाहि - मानः खाहङ्कारोपयोगकाले प्रीत्यात्मकः स्वगुणबहुमानभावात्, परगुणद्वेषोपयोगवेलायामप्रीत्यात्मको मात्सर्यादिभावात्, मायाऽपि परवञ्चनोपयोगप्रवृत्तौ परोपघातरूपत्वात् अप्रीत्यात्मिका परगतद्रव्योपादानचिन्तायां त्वभिष्वङ्गात्मकत्वात् प्रीतिरूपा, लोभोऽपि क्षत्रियादीनां परिचिन्त्यमानः प्रीत्यप्रीत्यात्मकः सुप्रतीतः, तथाहि — क्षत्रिया एवं मन्यन्ते परविषयापहारोऽस्माकं न्यायो 'वीरभोग्या वसुन्धरा' इति न्यायात्, ततो यदा परविषयापहाराय तेषामत्यर्थमभियोगस्तदाऽसौ अप्रीत्यात्मकः, परोप
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥४५६॥
घातहेतुत्वात्, यदा तु परविषयजिघृक्षोपयोगस्तदा सोऽभिष्वङ्गात्मकत्वात् प्रीत्यात्मकः, तत एवं मानमायाठोभा उभयरूपा अपि संवेद्यन्ते, यदा च प्रीत्युपयोगो न तदाऽप्रीत्युपयोगः, यदा चाप्रीत्युपयोगो न तदा प्रीत्युपयोगः, | एकस्मिन् समये उपयोगद्वयाभावात्, ततो मानमायालोभाः प्रीत्युपयोगकाले रागोऽप्रीत्युपयोगकाले द्वेष, कं च - " उज्जसुयमयं कोहो दोसो सेसाणमयमणेगंतो । रागोति य दोसोत्ति य परिणाम वसेण उ विसेसो ॥ १ ॥ माणो रागोत्ति मओ साहंकारोवओगकालंमि । सो चेन होइ दोसो परगुणदोसोवयोगंमि ॥ २ ॥ मायाोभा चैवं परोवघाओवओगतो दोस्रो । मुच्छोवओगकाले रागोऽभिस्संगलिंगोति ॥ ३ ॥” शब्दादयस्त्रयः पुनरेवमाहुःइह द्वावेव कषायौ -- क्रोधो लोभश्थ, ये तु मानमाये ते क्रोधो भयोरन्तर्भवतः, तथाहि -माने मायायां च ये परोपघातहेतवोऽध्यवसायास्ते क्रोधोऽप्रीत्यात्मकत्वात् ये तु खगुणोत्कर्षपरद्रव्यमूर्च्छात्मकास्ते लोभोऽभिष्वङ्गरूपत्वात्, लोभोऽपि च लोकप्रसिद्धो द्विधा - परोपघातात्मको मूर्च्छात्मकश्च तत्र परोपघातात्मको यथा क्षत्रियाणां परराष्ट्रापहारे, मूर्च्छात्मको न्यायोपात्ते निजद्रव्ये, तत्र यः परोपघातात्मकः स क्रोधो भवति, क्रोधश्च सर्वोऽपि योखरूपो द्वेषोऽप्रीत्यात्मकत्वात्, केवलस्तु मूर्च्छात्मकोऽध्यवसायो लोभः स च रागः, तथा चोक्तम्- "सहाइमयं माणे मायाए य सगुणोवरागा य । उवओगो लोहो चित्र जतो स तत्थेव उवरद्धो ॥ १ ॥ सेसंसा कोहो चिय सुपरोधायमइओत्ति तो दोसो | तलक्खणो य लोभो अह मुच्छा केवलो रागो ॥ २ ॥” इति, तत्र सङ्ग्रहनयमतेनाह-
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२३ कर्मप्रकृतिपदे स्थानानि
सू. २९०
॥४५६ ॥
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रागे दुविहे पण्णत्ते' इत्यादि सुगम, भावितत्वात् , उपसंहारमाह-'इचेतेहिं चउहि ठाणेहि' इत्यादि, एवं खलु है है। इत्येतैरनन्तरोकैश्चतुर्भिः स्थानः, कथंभूतैरित्याह-वीर्योपगृहीतैर्जीववीर्योपस्थापितैरित्यर्थः, ज्ञानावरणीयं कर्म जीवो
बनाति, अमुमेवार्थ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-‘एवं नेरइए जाव वेमाणिए' सुगम, नवरमेवं सूत्रपाठः 'नेरइए णं भंते ! नाणावरणिजं कम्मं कइहिं ठाणेहिं बंधई' इत्यादि । तदेवमेकत्वेन चिन्ता कृता, सम्प्रति बहुत्वेन तां कुर्वन्नाह-'जीवाणं भंते ! इत्यादि सुगम, यथा च ज्ञानावरणीयमेकत्वबहुत्वाभ्यां दण्डकद्वयेन चिन्तितं तथा| दर्शनावरणीयादीन्यपि चिन्तनीयानि, सर्वसङ्ख्यया षोडश दण्डकाः। तदेवमुक्तं तृतीयं द्वारम् , सम्प्रति कति प्रकृती-18 वेदयते इति चतुर्थं द्वारमभिधित्सुराहजीवे णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं वेदेति ?, गो० ! अत्थेमइए वेदेति अत्थेमहए नो वेएइ, नेरइए णं भंते ! णाणावरणिजं कर्म वेदेति', गो०! नियमा वेदेति, एवं जाव वेमाणिते. गवरं मासे जहा जीवे । जीवाणं मते । णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेति , गो०!चेदेंति एवं चेव, एवं जाव वेमाणिया. एवं जहा पाणावरणिशं तहा दंसणावरणिज माहणिजं अंतराइयं च, वेयणिज्जाउनामगोताई एवं चेव, नवरं मयसेवि नियमा वेदेति, एवं एते एगचपोहत्तिया सोलस दंडगा ॥ ४ (सूत्रं २९१) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि, अस्त्येककः कश्चित् यो वेदयतेऽस्त्येककः कश्चिद् यो न वेदयते अक्षीणघातिकर्मा वेद-11
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nal
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प्रज्ञापना- याः मल- यवृत्ती.
॥४५७॥
यते क्षीणघातिकर्मा तु न वेदयते इति भावः, अमुमेवार्थं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइए णं भंते ! २३कर्मप्रइत्यादि सुगम, मनुष्यं मुक्त्वा शेषेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु नियमाद्वेदयते इति वक्तव्यं, सर्वेषामक्षीणघातिकर्मत्वात्, कृतिपदे मनुष्ये यथा जीवपदेऽभिहितं तथाऽभिधातव्यं, क्षीणघातिकर्मणोऽपि मनुष्यस्य लभ्यमानत्वात् , एवमेष एकत्वेन | वेदनानुदण्डक उक्तः, एवं बहुत्वेनापि वक्तव्यः, यथा च ज्ञानावरणीयमेकत्वपृथक्त्वाभ्यां भावितं एवं दर्शनावरणीयमोह
भावौ सू. नीयान्तरायाण्यपि भावनीयानि, वेदनीयायुर्नामगोत्राणि तु जीवपदे भजनीयानि, यतः-सिद्धा न वेदयन्ते शेषा
२९१-२९२ वेदयन्ते इति, शेषास्तु नैरयिकादयो मनुष्या अपि च नियमाद्वेदयन्ते, आसंसारचरमसमयमवश्यममीषामुदयसम्भवात्, सर्वसङ्ख्बया चास्मिन्नप्यधिकारे एकत्वपृथक्त्वाभ्यां षोडश दण्डका भवन्ति । गतं चतुर्थद्वारम् , इदानीं तु 8 अनुभावः कस्य कर्मणः कतिविध इति पञ्चमद्वारमभिधित्सुराहणाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्धफासपुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपतस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कयस्स जीवेणं निवत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिPणस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्स गतिं पप्प ठिति पप्प भवं पप्प पोग्गलपरिणाम पप्प कति
४५७॥ विधे अणुभावे पण्णते?, गो! णाणावरणिजस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविधे अणुभावे पं०, तं०-सोतावरणे सोयविण्णाणावरणे नेतावरणे नेतविण्णाणावरणे घाणावरणे घाणविण्णाणावरणे रसावरणे रस
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विष्णाणावरणे फासावरणे फासविण्णाणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेसिं वा उदपणं जाणियवं ण जाणति जाणिउकामे ण याणति जाणित्तावि न याणति उच्छन्नणाणी यावि भवति णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जे कम्मे एस णं गोयमा ! णाणावरणिअस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविधे अणुभावे पं० । दरिसणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविधे अणुभावे पं० १, गो० ! दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविधे अणुभावे पं० तं० - णिद्दा णिद्दा २ पयला पयला २ थीणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदंसणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेर्सि वा उदएणं पासियवं वा ण पासति पासिउकामेवि ण पासति पासिता विण पासति, उच्छन्नदंसणी यावि भवति दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं, एस णं गो० ! दरिसणावरणिजे कम्मे एस 'णं गोयमा ! दरिसणावरणिअस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविधे अणुभावे पण्णचे, सायावेणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविधे अणुभावे पं० १, गो० ! सातावेद• णिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्ठविधे अणुभावे पं० तं० - मणुष्णा सद्दा १ मणुण्णा रुवा २ मणुण्णा गंधा ३ मणुष्णा रसा ४ मण्णा फासा ५ मणोसुहता ६ वयसुहया ७ कायसुहता ८ जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं तेसिं वा उदरणं सातावेदणिज्जं कम्मं वेदेति, एस णं गो० ! सायावेय
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
18२३कर्मप्र
कृतिपदे कर्मानुभावः सू. २९२
॥४५८॥
पिज्जे कम्मे एस गो! साहावेयणिजस्स जाव अढविषे अणुमावे पं० । असातावेयणिजस्स भते! कम्मस्स जीवेणं तहेव पुच्छा, उत्तरं च, नवरं अमणुण्णा सद्दा जाव कायदुहया एस णं गो! असायावयणिजे कम्मे एसणं गो.! असातावेदणिज्जस्स जाब अट्ठविधे अणुभावे पं० । मोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कतिविषे अणुभावे पं०१, मो०! मोहणिअस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पं०, तं०-सम्मत्तवेयणिजे मिच्छत्तवेयणिजे सम्मामिच्छत्तवेयणिजे कसायवेयणिजे नोकसायवेयणिजे जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा बीससा वा पोग्गलाण परिणाम तेसि वा उदएणं मोहणिज्ज कम्मं वेएइ वा एस गं गोयमा मोहणिज्जस्स कम्मस्स जान पंचविधे अणुभावे पं० । आउस्स गं मंते ! कम्मस्स जीवेणं बहेव पुच्छा, गो! आउयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चविहे अणुभावे पं०, २०-नेरइयाउते तिरियाउते मणुयाउए देवाउए, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्बले वा पोग्गलपरिणामं वा बीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिंवा उदएणं आउयं कम्मं वेदेति वा एसणं गो ! आउए कम्मे एस गो! आउकम्मस्स जाब चउबिहे अणुभावे पण्णचे। मुहणामस्सणं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा, गो०! सुहणामस्स
कम्मस्स जीवेणं चउद्दसविषे अणुभावे पं००-इट्ठा सदा १इटारूवा २ इट्ठा गंधा ३ इटारसा ४ इट्टा फासा ५इहागती ६ इट्ठा ठिती ७ इडे लावण्णे ८ इट्टा जसोकिती ९ इट्टे उट्ठाणकम्मबलबीरियपुरिसकारपरक्कमे १० इट्ठस्सरया ११ कंतस्सस्था १२ पियस्सरया १३ मणुष्णस्सरया १४ जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोम्गलाणं परिणाम तेसिं या उदएणं सुभणामं कम्मं वेएइ एस णं गो०! सुहनामकम्मे एस णं गो ! सुभणामस्स कम्मस्स जाव
॥४५८॥
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चउद्दसविधे अघुमावे पं०, दुहनामस्स गं भंते! पुच्छा, गो०! एवं चेव, णवर अणिहा सदा जाबहीणस्सरया दीणस्तरमा अर्कतस्सरया जं वेदेति सेसं तं चैव जाव चउद्दसविधे अणुभावे पण्णत्ते । उच्चागोतस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा, यो! उच्चायोतस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अट्ठविहे अशुभावे तं०-जातिविसिट्टया १ कुलविसिया २ बलविसिट्ठया ३ रूववि०४ तववि. ५ सुयवि०६ लामवि०७ इस्सरियवि.८ वेदेति पोग्गलं या पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोगलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं जाव अढविधे अणुमावे पं०, णीयागोयस्स पं भंते ! पुच्छा, गो० ! एवं चेच, गवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया जं वेदेति पुग्मलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं जाव अट्ठविधे अणुभावे पण्णत्ते, अंतरायस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा, गो०! अंतराइयस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पं०, तं०-दाणंतराए लाभंतराए भोगंतराए उवभोगंतराए वीरियंतराए, जं वेदेति पोग्गलं जाव वीससा वा० तेसिं वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति, एस णं गो० ! अंतराइए कम्मे, एस णं गो० ! जाव पंचविधे अणुभाचे पं० (सूत्र २९२)॥ पण्णवणाए तेवीसतितमस्स पयस्स पढमो उद्देसो २३-१॥ 'नाणावरणिज्जस्स गं भंते !' इत्यादि, ज्ञानावरणीयख णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीवेन बद्धस-रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस्य-आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य 'बद्धफासपुट्ठस्सेति पुन
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प्रज्ञापनाया मल
म० वृत्तौ .
॥ ४५९॥
रपि गाढतरं बद्धस्यातीव स्पर्शेन स्पृष्टस्य च किमुक्तं भवति ? - आवेष्टन परिवेष्टनरूपतयाऽतीव सोपचयं गाढतरं च बद्धस्येति, 'सञ्चितस्य' आबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया निषिक्तस्य 'चितस्य' उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्ध्याऽवस्थापितस्य 'उपचितस्य' समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिकसङ्क्रमेणोपचयं नीतस्य 'आपाकप्रासस्य' ईषत्पाकाभिमुखीभूतस्य 'विपाकप्राप्तस्य' विशिष्टपाकमुपगतस्य अत एव 'फलप्राप्तस्य' फलं दातुमभिमुखीभू| तस्य ततः सामग्रीवशादुदयप्राप्तस्य, एते चापाकप्राप्तत्वादयः कर्मधर्माः यथा आम्रफलस्य, तथाहि - आम्रफलं प्रथमत | ईषत्पाकाभिमुखं भवति, ततो विशिष्टं पाकमुपागतं तदनन्तरं तृप्तिप्रमोदादि फलं दातुमुचितं ततः सामग्रीवशादुपभोगप्राप्तं भवति, एवं कर्मापीति, तत् पुनर्जीवेन कथं बद्धमित्यत आह- 'जीवेण कयस्स' जीवेन कर्मबन्धन - बद्धेनेति गम्यते 'कृतस्य' निष्पादितस्य जीवो छुपयोगस्खभावस्ततोऽसौ रागादिपरिणतो भवति, न शेषो, रागादिपरिणतश्च सन् कर्म करोति, सा च रागादिपरिणतिः कर्मबन्धनबद्धस्य भवति, न तद्वियोगे, अन्यथा मुक्तानामप्यवीतरागत्वप्रसक्तेः, ततः कर्मबन्धनबद्धेन सता जीवेन कृतस्येति द्रष्टव्यं उक्तं च- 'जीवस्तु कर्मबन्धनबद्धो वीरस्य भगवतः कर्त्ता । सन्तत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः ॥ १ ॥” इति, तथा जीवन निर्वर्त्तितस्य, इह बन्धसमये जीवः प्रथमतोऽविशिष्टान् कर्मवर्गणान्तःपातिनः पुद्गलान् गृह्णन् अनाभोगिकेन वीर्येण तस्मिन्नेव बन्धसमये ज्ञानावरणीयादितया व्यवस्थापयत्याहारमिव रसादिसप्तधातुरूपतया यच्च ज्ञानावरणीयादितया व्यवस्थापनं
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२ ३ कर्मप्रकृतिपदे कर्मानुभा
वः सू.
२९२
॥ ४५९॥
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तन्निवर्तनमित्युच्यते, तथा जीवन परिणामितस्य-विशेषप्रत्ययः प्रद्वेषनिह्नवादिभिस्तं तमुत्तरोत्तरं परिणाम प्रापितस्य, खयं वा विपाकप्राप्ततया परनिरपेक्षमुदीर्णस्य-उदयप्राप्तस्य परेण वा उदीरितस्य-उदयमुपनीतस्य तदुभयेन-खपररूपेणोभयेन उदीयमाणस्य-उदयमुपनीयमानस्य गतिं प्राप्य किञ्चिद्धि कर्म काश्चिद् गतिं प्राप्य तीब्रा-15 नुभावं भवति, यथा नरकगतिं प्राप्यासातवेदनीयं, असातोदयो हि यथा नारकाणां तीब्रो भवति न तथा तिर्यगादीनामिति, तथा स्थिति प्राप्य सर्वोत्कृष्टामिति शेषः, सर्वोत्कृष्टां हि स्थितिमुपगतमशुभं कर्म तीव्रानुभावं भवति, यथा मिथ्यात्वं भवं प्राप्य, इह किमपि कर्म कश्चिद्भवमाश्रित्य खविपाकदर्शनसमर्थ यथा निद्रा मनुष्यभवं तिर्यभवं वा प्राप्य ततो भवं प्राप्येत्युक्तं, एतावता किल खत उदयस्य कारणानि दर्शितानि, कर्म हि तां तां गति स्थितिं भवं वा प्राप्य खयमुदयमागच्छतीति, सम्प्रति परत उदयमाह-पुद्गलं काष्ठलेष्ठुखशादिलक्षणं प्राप्य, तथाहिपरेण क्षिसं काष्ठलेष्टुखगादिकमासाद्य भवत्यसातवेदनीयक्रोधादीनामुदयः, तथा पुद्गलपरिणाम प्राप्य-इह किञ्चि|त्कर्म कमपि पुद्गलमाश्रित्य विपाकमायाति, यथाऽभ्यवहृतस्याहारस्याजीर्णत्वपरिणाममाश्रित्य असातवेदनीयं ज्ञाना| वरणीयं सुरापानमिति, ततः पुद्गलपरिणाम प्राप्येत्युक्तं, कतिविधोऽनुभावः प्रज्ञप्त इत्येष प्रश्नः, अत्र निर्वचनंदशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव दशविधमनुभावं दर्शयति-'सोयावरणे' इत्यादि, इह श्रोत्रशब्देन श्रोत्रेन्द्रियविषयः क्षयोपशमः परिगृह्यते 'सोयविण्णाणावरणे' इति श्रोत्रविज्ञानशब्देन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगो, यत्तु निवृत्त्युपकरणलक्षणं
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प्रज्ञापना
या:मलयवृत्ती.
कृतिपदे
वः सू. २९२
॥४६॥
द्रव्येन्द्रियं तदङ्गोपाङ्गनामकर्मनिर्वयं न ज्ञानावरणविषय इति न श्रोत्रशब्देन गृह्यते, एवं नेत्रावरणे इत्याद्यपि २३कर्मप्रभावनीयं, तच्चैकेन्द्रियाणां रसनघाणचक्षुःश्रोत्रविषयाणां लब्ध्युपयोगानां प्राय आवरणं, प्रायोग्रहणं च बकुलादिव्यवच्छेदार्थ, बकुलादीनां हि यथायोगं पञ्चानामपीन्द्रियाणां लब्ध्युपयोगाः फलतोऽस्पष्टा उपलक्ष्यन्ते, आग
कर्मानुभामेऽपि च प्रोच्यन्ते-“पंचिंदियोवि बउलो नरोव पंचिंदिओवओगाओ । तहवि न भण्णइ पंचिंदिओत्ति दर्षि दियाभावा ॥१॥" तथा "जह सुहुमं भाविंदियनाणं दविंदियावरोहेवि । दवसुयाभावंमिवि भावसुयं पत्थिवाइणं ॥२॥” इति [पञ्चेन्द्रियोऽपि बकुलो नर इव पञ्चेन्द्रियोपयोगात् । तथापि न भण्यते पञ्चेन्द्रिय इति द्रव्येन्द्रियाभावात् ॥१॥ यथा सूक्ष्म भावेन्द्रियज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि । द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावश्रुतं पार्थिवादीनां ॥२॥] ततः प्राय इत्युक्तं, द्वीन्द्रियाणां घ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रिव विषयाणां लब्ध्युपयोगानां त्रीन्द्रियाणां चक्षुःश्रोत्रविषयाणां चतुरिन्द्रियाणां श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं सर्वेषामपि स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं कुष्ठादिव्याधिमिरु-15 पहतदेहस्य द्रष्टव्यं, पञ्चेन्द्रियाणामपि जात्यन्धादीनां पश्चाद्वा अन्धबधिरीभूतानां चक्षुरादीन्द्रियलब्ध्वुपयोगावरण भावनीयं, कथमेवमिन्द्रियाणां लब्ध्युपयोगावरणमिति चेत्, उच्यते, खयमुदीर्णस्य परेण वा उदीरितस्य ज्ञानाव-13 ॥४६॥ रणीयकर्मण उदयेन, तथा चाह-जं वेएई' इति, यवेदयते परेण क्षिप्तं काष्ठलेष्टुखगादिलक्षणं पुद्गलं तेनाभिघा-18| तजननसमर्थेन 'पुग्गले वा' इति यावद्वहन पुदलान् काष्ठादिलक्षणान परेण क्षिप्तान वेदयते, तैरभिघातजननस
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मथैः, 'पुद्गलपरिणामं वा' इति यं वा पुद्गलपरिणाममभ्यवहताहारपरिणामरूपं पानीयरसादिकमतिदुःखजनकं वेद-15 यते तेन वा ज्ञानपरिणत्युपहननात् तथा-वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम मिति विस्रसया यः पुद्गलानां प णामः शीतोष्णातपादिरूपस्तं वेदयते यदा तदा तेनेन्द्रियोपघातजननद्वारेण ज्ञानपस्णितावुपहतायां ज्ञातव्यमे न्द्रियकमपि सद्वस्तु न जानाति, ज्ञानपरिणतेरुषहतत्वात् , अयं सापेक्ष उदय उक्तो, निरपेक्षस तु विषये सूत्रमि|दम्-'तेसिं वा उदएणति तेषां या ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानां विपाकप्रासानामुदयेन ज्ञातव्यं न जानाति 'जाणिउकामेविन याणइ' इति ज्ञानपरिणामेन परिणंतुमिच्छन्नपि ज्ञानपरिणत्युपघातान्न जानाति, 'जाणित्ताविन याणई' इति, प्राक् ज्ञात्वाऽपि पश्चान्न जानीते, तेषामेव ज्ञानावरणीयकर्मपुरलानामुदयात्, 'उच्छन्ननाणी यावि भवई' इत्यादि, ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नज्ञान्यपि भवति, उच्छन्नं च तद् ज्ञानं च उच्छन्नज्ञानं तदस्यास्तीति उच्छन्नज्ञानी, सर्वधनादिपाठाभ्युपगमादिन् , यावत्शक्तिप्रच्छादितज्ञान्यपि भवतीत्यर्थः, 'एस णं गोयमा ! णाणावरणिजे कम्मे' इत्याद्युपसंहारवाक्यं कण्ठ्यं, 'दसणावरणिजस्स गंभंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं पूर्ववत्, निर्वचनमाह-गौतम ! नवविधः प्रज्ञप्तः, तदेव नवविधत्वं दर्शयति-निद्रा' इत्यादि, निद्राशब्दार्थमने वक्ष्यामो, भावार्थस्त्वयम्-"सुहपडिबोहा निहा दुहपडिबोहा य निद्दनिहा य । पयला होइ ठियस्स उ पयलपयला य चंकमतो॥१॥थीणगिद्धी पुण अइसंकिलिट्टकम्माणवेयणे होइ । महणिहा दिणचिंतियवावारपसाहणी
Peeroeseseeeeeeeeeटरव
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प्रज्ञापनाया:मलय. वृत्ती.
॥४६॥
वः सू. २९२
पायं ॥२॥" [सुखप्रतिबोधा निद्रा दुःखप्रतिबोधा च निद्रानिद्रा च । प्रचला भवति स्थितस्य तु प्रचलाप्रचला च २३कर्मप्रचमतः॥१॥ स्त्यानर्द्धिः पुनरतिसंक्लिष्टकर्माणुवेदने भवति । महानिद्रा दिनचिन्तितव्यापारप्रसाधनी प्रायः
कृतिपदे ॥२॥] चक्षुर्दर्शनावरणं-चक्षुःसामान्योपयोगावरणं, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, 'जं वेयई' इत्यादि, यं वेदयते पुद्- कर्मानुभागलं मृदुशयनादिकं 'पुग्गले वा' इति यान् पुद्गलान् बहून् मृदुशयनीयादीन् वेदयते पुद्गलपरिणामं माहिषदध्याद्यभ्यवहृताहारपरिणाममित्यर्थः, 'वीससा पोग्गलाण परिणाम'मिति वर्षाखभ्रसम्भृतनभोरूपं धाराम्बुनिपातरूपं वा यं वेदयते तेन निद्रायुदयापेक्षया दर्शनपरिणत्युपघाते एतावता परत उक्तः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा उदएणं'ति तेषां वा दर्शनावरणीयकर्मपुद्गलानामुदयेन परिणतिविघातेन द्रष्टव्यं न पश्यति, तथा कश्चित् दर्शनपरिणामेन परिणन्तुमिच्छन्नपि जात्यन्धत्वादिना दर्शनपरिणत्युपघातान्न पश्यति, प्राग् दृष्ट्वापि पश्चान्न पश्यति, दर्शना-2 वरणीयकर्मपुद्गलानामुदयात्, किंबहुना ?, दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छन्नदर्शन्यपि यावच्छक्तिप्रच्छादितदर्शन्यपि भवति, 'एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिजे कम्मे' इत्याधुपसंहारवाक्यं । 'सायावेयणिजस्स णं भंते! कम्मस्स' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनमाह-गौतम ! अष्टविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, अष्टविधत्वमेव दर्शयति'मणुन्ना सद्दा' इत्यादि, मनोज्ञाः शब्दा आगन्तुका वेणुवीणादिसम्बन्धिनः, अन्ये आत्मीया इत्याहुस्तदयुक्तं, आ
॥४६॥ त्मीयशब्दानां वाक्सुखेनेत्यनेनैव गृहीतत्वात् , मनोज्ञा रसा-इक्षुरसप्रभृतयः, मनोज्ञा गन्धाः-कर्पूरादिसम्बन्धिनः,
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मनोज्ञानि रूपाणि-खगतखस्त्रीगतचित्रादिगतानि मनोज्ञाः स्पर्शा-हंसतूल्यादिगता 'मणोसुहया' इति मनसि सुख यस्थासौ मनःसुखस्तस्य भावो मनःसुखता, सुखितं मन इत्यर्थः, वाचि सुखं यस्यासौ वाक्सुखस्तस्य भावो वाक्सुखता, सर्वेषां श्रोत्रमनःप्रल्हादकारिणी वागिति तात्पर्यार्थः, काये सुखं यस्यासौ कायसुखस्तद्भावः कायसुखता, |सुखितः काय इत्यर्थः, एते चाष्टौ पदार्थाः सातावेदनीयस्योदयेन प्राणिनामुपतिष्ठन्ते तत उक्तोऽष्टविधः सातवेदनीयस्यानुभावः, परतः सातावेदनीयस्योदयमुपदर्शयति-जं वेएइ पुग्गल'मित्यादि, यद्वेदयते पुद्गलं सकचन्दनादि यान् वेदयते पुद्गलान् बहून् सकचन्दनादीन् यं वा वेदयते पुद्गलपरिणाम देशकालवयोऽवस्थानुरूपाहारपरिणाम, | 'वीससा वा पुग्गलाण परिणाम विस्रसया वा यं पुदलानां परिणामं कालेऽभिलषितं शीतोष्णादिवेदनाप्रतीकार-IS रूपं, तेन मनसः समाधानसम्पादनात् सातवेदनीयं कर्मानुभवति, सातवेदनीयकर्मफलं सात वेदयते इत्यर्थः, उक्तः परत उदयः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा उदएणं'ति तेषां वा सातवेदनीयकर्मपुद्गलानामुदयेन मनोज्ञशब्दादिव्यतिरेकेणापि कदाचित् सुखं वेदयते. यथा नैरयिकास्तीर्थकरजन्मादिकाले 'एस णं गोयमा।' इत्याधुपसंहारवाक्यं, 'असायावेयणिजस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनं पूर्ववत्, तथा चाह-'तहेव पुच्छा उत्तरं च' नवरमित्यादिना पूर्वसूत्रादस्य विशेषमुपदर्शयति, 'अमणुण्णा सद्दा' इत्यादि, अमनोज्ञाः शब्दाः-खरोष्ट्राश्वादिसम्बन्धिन आगन्तुका अमनोज्ञा रसाः-खस्याप्रतिभासिनो दुःखजनकाः अमनोज्ञा गन्धा-गोमहिषादिमृतकडेवरा-18
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प्रज्ञापना
या मल
य० वृत्तौ.
॥४६२॥
दिगन्धा अमनोज्ञानि रूपाणि- स्वगतस्त्वस्त्रीगतादीनि अमनोज्ञाः स्पर्शा:- कर्कशादयः, 'मणोदुहिया' इति दुःखितं मन इति 'वइदुहिया' इति अभव्या वाक् इति भावार्थ:, 'कायदुहिया' इति काये दुःखं यस्यासौ कायदुःखस्त|द्भावः कायदुःखिता दुःखितकाय इत्यर्थः, 'जं वेएइ' इत्यादि, यं वेदयते पुद्गलं - विषशस्त्रकण्टकादि 'पुग्गले वा' इति यान् वा पुद्गलान् बहून् विषशस्त्रकण्टकादीन् वेदयते पुद्गलपरिणाममपथ्याहारलक्षणं, विस्रसया वा यं वेदयते पुद्गलपरिणामं अकालेऽनभिलषितं शीतोष्णादिपरिणामं, तेन मनसोऽसमाधानसम्पादनात् असातवेदनीयं कर्मानुभवति, असातावेदनीयकर्मफलमसातं वेदयते इति भावः, एतेन परत उदय उक्तः, सम्प्रति खत उदयमाह - 'तेसिं वा उदपणं'ति तेषां वा असातावेदनीयकर्मपुद्गलानामुदयेनासातं वेदयते, 'एस णं गोयमा !' इत्याद्युपसंहारवाक्यं । 'मोहणिजस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्मसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनं पञ्चविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति'सम्यक्त्ववेदनीय' मित्यादि, सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यं तत्सम्यक्त्ववेदनीयं, एवं शेषपदेष्वपि शब्दार्थो भावनीयः, भावार्थस्त्वयं - यदिह वेद्यमानं प्रशमादिपरिणामं करोति तत्सम्यक्त्ववेदनीयं यत्पुनरदेवादिबुद्धिहेतुस्तन्मिथ्यात्व| वेदनीयं, मिश्रपरिणामहेतुः सम्यग्मिध्यात्ववेदनीयं, क्रोधादिपरिणामकारणं कषायवेदनीयं हास्यादिपरिणामकारणं नोकषायवेदनीयं, 'जं वेएइ पुग्गल' मित्यादि, यं वेदयते पुद्गलषिषयं प्रतिमादिकं पुद्गलान् वा यान् वेदयते बहून् - प्रतिमादीन् यं वा पुद्गलपरिणामं देशाद्यनुरूपाहारपरिणामं कर्मपुद्गलविशेषोपादानसमर्थ भवति, आहारपरिणाम
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२३ कर्मप्रकृतिपदे कर्मानुभा
वः सू.
२९२
॥४६२॥
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विशेषादपि कदाचित्कर्मपुदलविशेषो, यथा प्रायोषघ्यायाहारपरिणामात् ज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानां प्रतिविशिष्टः क्षयोपशमा, उक्तंच-"उदयखबखओवसमोवसमावि यजंच कंमुणो मणिया। वर्ष खेसं कालं भावं च भवंच संपप्प ॥१॥" विस्रसया वा यं पुदलानां परिणामं अभ्रविकारादिकं यदर्शनादेव विवेक उपजायते. "आयः शरजलधरप्रतिम नराणां, सम्पत्तयः कुसुमितद्रुमसारतुल्याः। खोपभोगसशा विषयोपमोगाः, सङ्कल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम ॥१" इलादि, अन्यं वा प्रशमादिपरिणामनिवन्धनं वेदयते तत्सामयात मोहनीवं सम्यक्त्ववेदनीयादिकं वेदयते, सम्यक्त्ववेदनीयादिकर्मफलं प्रशमादि वेदयते इति भावः, एतावता परत उदय उक्तः, सम्प्रति खतस्त्रमाह-'तेसि वा उदएणं ति तेषां च सम्यक्त्ववेदनीवादिकर्मपुदलानामुदयेन प्रशमादि वेदयते, 'एस गं' इत्याधुपसंहारवाक्यं । 'आउस्स में भंते ! इत्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राम्बत् , निर्वचनं चतुर्विधोज्नुभावः प्रज्ञासः, तदेव । चतुर्विधत्वं दर्शयति-'नेरइयाउए' इत्यादि सुगम, 'जं वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि, यं वेदयते पुद्गलं शस्त्रादिकमायुरपवर्तनसमर्थ बहून् पुदलान् शस्त्रादिरूपान् यान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणामं विषान्नादिपरिणामरूपं विलसया वा यं पुद्गलपरिणामं शीतादिकमेवायुरपवर्तनक्षम, तेनोपयुज्यमानभवायुषोऽपवर्तनात् , नारकाधायुःकर्म वेदयते, एतावता परत उदयोऽमिहिता, खत उदयस्य सूत्रमिदं-'तेसिं वा उदएणं ति तेषां वा नारकायायुःपुद्गलानामुदयेन नारका१ उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा अपि च कर्मणो यद्भणिताः । द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं भवं च संप्राप्य ॥ १ ॥
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प्रज्ञापनायाः मल- य० वृत्ती.
व: सू.
॥४६॥
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द्यायुर्वेदयते 'एस ण'मित्याधुपसंहारवाक्यं । नामकर्म द्विधा-शुभनामकर्म अशुभनामकर्म च, तत्र शुभनामकर्माधि-8/२३कर्मप्रकृत्य सूत्रमाह-'सुभनामकम्मस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनं चतुर्दशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव 8 कृतिपदे |च चतुर्दशविधत्वं दर्शयति-'इटा सद्दा' इत्यादि, एते शब्दादय आत्मीया एंव परिगृह्यन्ते, नामकर्मविपाकस्य चिन्त्य- कर्मानुभामानत्वात् , तत्र वादित्राद्युत्पादिता इत्येके, तदयुक्तं, तेषामन्यकर्मोदयनिष्पाद्यत्वात् , इष्टा गतिमत्तवारणाद्यनुकारिणी शिबिकाद्यारोहणतश्चेत्येके, इष्टा स्थितिः सहजा सिंहासनादौचान्ये, इष्टं लावण्यं-छायाविशेषलक्षणं कुङ्कुमाद्य- २९२ |नुलेपनजमित्यपरे इष्टा यशःकीर्तिः यशसा युक्ता कीर्तिः २, यशःकीयॊश्चायं विशेषः-'दानपुण्यकृता कीर्त्तिः, पराक्रमकृतं यशः' 'इडे उहाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमें' इति उत्थानं-देहचेष्टाविशेषः कर्म-आरेचनभ्रमणादि बलं-शारीरसामर्थ्य विशेषः वीर्य-जीवप्रभवः स एव पुरुषकारः-अभिमानविशेषः स एव निष्पादितखविषयः पराक्रमः इष्टखरता-वल्लभखरता, तत्र इष्टाः शब्दा इति सामान्योक्तावियं विशेषोक्तिस्तदन्यबहुतमत्वापेक्षाऽवगन्तव्या, 'कांतखरते'ति कान्तः-कमनीयः सामान्यतोऽभिलषणीय इत्यर्थः, कान्तः खरो यस्य स तथा तद्भावः कान्तखरता,
॥४६३॥ 'प्रियखरते'ति प्रियो-भूयोऽभिलषणीयः प्रियः खरो यस्य स तथा तद्भावः प्रियखरता, 'मणुण्णस्सरता' इति उपरतभावोऽपि खालम्बनप्रीतिजनको मनोज्ञः स खरो यस्य स मनोज्ञखरस्तावो मनोज्ञखरता, 'जं वेएई' इत्यादि, यं |वेदयते पुद्गलं वीणावर्णकगन्धताम्बूलपट्टशिविकासिंहासनकुङ्कुमदानराजयोगगुलिकादिलक्षणं, तथा च वीणादिसं-।
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8000000000000000000002020
म्बन्धाद् भवन्तीष्टाः शब्दादय इति परिभावनीयमेतत्सूक्ष्मधिया मार्गप्रहर्षमनसोऽनुसारिण्या, 'पुग्गले वा' इति यतो बहून् पुद्गलान् वेणुवीणादिकान् वेदयते यं पुद्गलपरिणामं ब्रायोषध्याहारपरिणामं विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणाम-शुभजलदादिकं तथा चोन्नतान् कज्जलसमप्रभान् मेघानवलोक्य गायन्ति मत्तयुवतयो रेल्लुकानिष्टखरानित्यादि, तत्प्रभावात् शुभनामकर्म वेदयते, शुभनामकर्मफलमिष्टखरतादिकमनुभवतीति भावः, एतावता परत उक्तः, इदानी स्वतस्तमाह-'तेसिं वा उदएणं'ति तेषां वा शुभानां कर्मपुद्गलानामुदयेन इष्टशब्दादिकं वेदयते, 'एसणं गो!' इत्याधुपसंहारवाक्यं, 'दुहनामस्स णं भंते! इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रं प्रागुक्तार्थवपरीत्येन भावनीयं, गोत्रं द्विधा-उच्चैर्गोचं नीचैर्गोत्रं च, तत्रोचैर्गोत्रविषयं सूत्रमाह-'उच्चागोयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनमष्टविधोऽनुभावःप्रज्ञप्तः, तदेवाष्टविधत्वं दर्शयति–जाइविसिट्टया' इत्यादि, जात्यादयः सुप्रतीताः, शब्दार्थस्त्वेवम्-जात्या विशिष्टो जातिविशिष्टस्तद्भावो जातिविशिष्टता इत्यादि जं वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि यं वेदयते पुद्गलं बापद्रव्यादिलक्षणं, तथाहि-द्रव्यसम्बन्धाद्राजादिविशिष्टपुरुषसम्परिग्रहाद्वा नीचजातिकुलोत्पन्नोऽपि जात्या दिसम्पन्न इव जनस्य मान्य उपजायते, बलविशिष्टताऽपि मल्लानामिव लकुटिभ्रमणवशात् रूपविशिष्टता प्रतिविशिष्टतादृग्वस्त्रालङ्कारसम्बन्धात् तपोविशिष्टता गिरिकूट्याचारोहणेनातापनां कुर्वतः श्रुतविशिष्टता मनोज्ञभूदेशसम्बन्धात् खाध्यायं कुर्वतः लाभविशिष्टता प्रतिविशिष्टरत्नादियोगात ऐश्वर्यविशिष्टता धनकनकादिसम्बन्धादिति, 'पुग्गले वा'
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
|२३कर्मप्र| कृतिपदे उद्देशः१ सू. २९२
॥४६४॥
इति यान् बहून् पुद्गलान् वेदयते पुद्गलपरिणाम-दिव्यफलाद्याहारपरिणामरूपं विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणामअकस्मादभिहितजलदागमसंवादादिलक्षणं तत्प्रभावादुञ्चैर्गोत्रं वेदयते-उच्चैर्गोत्रकर्मफलं जातिविशिष्टत्वादिकं वेदयते, एतेन परत उदय उक्तः, सम्प्रति स्वतस्तमाह-'तेसि वा उदएणं' तेषां वा उच्चैर्गोत्रकर्मपुरलानां उदयेन जातिविशिष्टत्वादिकं भवति, 'एस णं गोयमा' इत्याधुपसंहारवाक्यं, 'नीयागोयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्। | निर्वचनमष्टविधोऽनुभावः, तमेवाष्टविधमनुभावं दर्शयति-'जाइविहीणया' इत्यादि, सुप्रतीतं, 'जं वेएइ पुग्गल'मिति यं वेदयते पुद्गलं नीचकर्मासेवनरूपंनीचपुरुषसम्बन्धलक्षणं वा, तथाहि-उत्तमजातिसम्पन्नोऽपि उत्तमकुलोत्पन्नोऽपि यदि नीचैःकर्मवशात् यथा (अधम) जीविकारूपमासेवते चाण्डाली वा गच्छति तदा भवति चाण्डालादिरिव जनस्य निन्द्यः, बलहीनता सुखशयनीयादिसम्बन्धतः रूपविहीनता कुत्सितवस्त्रादिसम्बन्धात् तपोविहीनता पार्श्वस्थादिसंसर्गात् श्रुतविहीनता विकथापरसाध्वाभासादिसंसर्गात् लाभविहीनता देशकालानुचितकुक्रयाणकसम्पर्कतः ऐश्वर्यविहीनता कुग्रहकुकलत्रादिसम्पर्कत इति 'पुग्गले' इति यान बहन पुद्गलान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणाम वृन्ताकीफलाद्याहारपरिणामरूपं, वृन्ताकीफलं ह्यभ्यवहृतं कण्ड्रत्युत्पादनेन रूपविहीनतामापादयतीत्यादि, विश्रसया वा पुद्गलानां परिणाम अभिहितजलदागमविसंवादलक्षणं वेदयते, तत्प्रभावात नीचैःकर्म वेदयते, नीचे कमेंफलं जात्यादिविहीनतारूपं वेदयते इत्यर्थः, एतावता परत उदय उक्तः, सम्प्रति खत उदयमाह-'तेसिं वा उदए
॥४६४॥
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'ति तेषां वा-नीचैर्गोत्रकर्मपुद्गलानामुदयेन जात्यादिविहीनतामनुभवति, 'एस णं गोयमा!' इत्याधुपसंहारवाक्यं, IS अंतरायस्स णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनं पञ्चविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेव पञ्चविधत्वं दर्शयति-दा-18 |णंतराए' इत्यादि, दानस्यान्तरायो-विघ्नः दानान्तरायः, एवं सर्वत्र भावनीयं, तत्र दानान्तरायो दानान्तरायस्य कर्मणः फलं लाभान्तरायादयो लाभान्तरायादिकर्मणामिति 'जं वेएइ पुग्गलं वा' इत्यादि. यं वेदयते पुद्गलं तथाविधविशिष्टरत्नादिलक्षणं, तथाहि-प्रतिविशिष्टरत्नादिसम्बन्धात् दृश्यते तद्विषये एव दानान्तरायोदयः, सन्धिच्छेदनाधुपकरणसम्बन्धाल्लाभान्तरायकर्मोदयः प्रतिविशिष्टाहारसम्बन्धादनर्घार्थसम्बन्धाद्वा लोभतो भोगान्तरायोदयः एव-% मुपभोगान्तरायकर्मोदयोऽपि भावनीयः, तथा लकुटादिअभिघाताद्वीर्यान्तरायकर्मोदय इति, 'पुग्गले वा' बहून् तथाविधान् यान् पुद्गलान् वेदयते यं वा पुद्गलपरिणामं तथाविधाहारोषध्यादिपरिणामरूपं, तथाहि-दृश्यते तथाविधाहारौषधपरिणामाद्वीर्यान्तरायकर्मोदयः मत्रापसिक्तवासादिगन्धपुदलपरिणामात् भागान्तरायादयो यथा सुबन्धुसचिवस्य, विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणामं चित्रं शीतादिलक्षणं, तथाहि-दृश्यन्ते वस्त्रादिकं दातुकामा | अपि शीतादि निपतन्तमालोक्य दानान्तरायोदयात् तस्यादातार इति तत्प्रभावात् , एष परत उदय उक्तः, खतस्तमाह-'तेसिं वा उदएणं'ति तेषां वा-अन्तरायकर्मपुद्गलानामुदयेन अन्तरायकर्मफलंदानान्तरायादिकं वेदयते-'एस, णमित्याधुपसंहारवाक्यम् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायांप्रत्रयाविंशतितमस्य कर्मप्रकृतिपदस्य प्रथमाद्देशकः ॥१॥
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प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती.
॥४६५॥
व्याख्यातः प्रथमोद्देशकः, इदानीं द्वितीयो व्याख्येयः, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके ज्ञानावरणीया-19२३कर्मप्रदीनामनुभाव उक्तः, इह तु तेषामेव ज्ञानावरणीयादीनामुत्तरप्रकृतिविभाग उच्यते, तत्र विशेषपरिज्ञानार्थ भूयोऽ-| कृतिपदे पि मूलप्रकृतिविषयं प्रश्ननिर्वचनसूत्रमाह
२उद्देशः
सू. २९३ कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, गो! अट्ठ कम्मपगडीओ पं०, तं०–णाणावरणिजं जाव अंतराइयं, णाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० ?, गो ! पंचविधे पं०, तं०-आभिणिवोहियनाणावरणिजे जाव केवलनाणावरणिज्जे, दंसणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दु०५०, तं०-निदापंचए य दंसणचउक्कए य, निद्दापंचए णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविहे पं०, तं०-निद्दा जाव थिणद्धी, दंसणचउक्कए णं पुच्छा, गो! चउविध पं०, तं०-चक्खुदंसणावरणिजे जाव केवलदसणावरणिजे, वेयणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो! दुविहे पं०, तं०-सायावेयणिज्जे य असायावेयणिजे य, सातावेयणिजे णं भंते ! कम्मे पुच्छा, गो० ! अट्ठविधे पं०, तं०-मणुण्णा सद्दा जाब कायसुहया, असायावेदणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं०१, गो! अट्ठविधे पं०, तंअमणुण्णा सद्दा जाव कायदुहया, मोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दु० पं०, तं०-दसण मोहणिजे य ४६५॥ चरित्तमोहणिजे य, दंसणमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० तिविहे पं०, तं०-सम्मत्तवेदणिजे मिच्छत्तवेयणिजे सम्मामिच्छत्तवेयणिजे, चरित्तमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! दुविधे पं०, तं०-कसायवे.
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नोकसायवेद, कसायवेदणिजे णं भंते! कतिविधे पं० १, गो० ! सोलसविधे पं० तं० - अनंताणुबंधी कोहे अणताणुबंधी माणे अ० माया अ० लोभे, अपच्चक्खाणे कोहे एवं माणे माया लोभे, पच्चक्खाणावरणे कोहे एवं माणे माया लोभे, जलको एवं माणे माया लोभे, नोकसायवेय णि णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! णवविहे पं० तं०इत्थवेवेयणिज्जे पुरिस० नपुंसगवे० हासे रती अरती भए सोगे दुगुंछा, आउए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! चविधे पं० ० - नेरइयाउए जाव देवाउए, णामे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! बायालीसति विदे पण्णत्ते, तं० – गतिनामे १ जातिनामे २ सरीरनामे ३ सरीरोगंगनामे ४ सरीरबंधणनामे ५ सरीरसंघयगनामे ६ संघा
नामे ७ ठाणनामे ८ वण्णणामे ९ गंधणामे १० रसणामे ११ फासणामे १२ अगुरुलघुनामे १३ उवघायणामे १४ पराधायणामे १५ आणुपुविणामे १६ उस्सारणामे १७ आयवणामे १८ उज्जोयणामे १९ विहायगतिणामे २० तसनामे २१ थावरणामे २२ सुहुमनामे २३ बादरणामे २४ पज्जत्तणामे २५ अपअत्तणामे २६ साहारणसरीरणामे २७ पत्ते - यसरीरणामे २८ रिणामे २९ अथिरणामे ३० सुभगामे ३१ असुभणामे ३२ सुभगणामे ३३ दुभगणामे ३४ सुसरनामे ३५ दूसरनामे ३६ आदेजनामे ३७ अणादेज्जनामे ३८ जसो कित्तिगामे ३९ अजसो कित्तिणामे ४० णिम्माणणा० ४१ तित्थगरणा० ४२ । गतिनामे णं मंते ! कम्मे कतिविहे पं० १, गो० ! चउविहे पं० तं० – निरय० तिरिय० मणु० देवगतिणामे, जातिणाणं भंते! कम्मे पुच्छा, गो० ! पंच० पं० तं० एर्गिदियजातिणामे जाव पंचिदियजातिणा०, सरीरनामे णं भंते! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! पंच० पं० तं०-ओरालिय सरीरनामे जाव कम्मगसरीरणामे, सरीरो
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥४६६॥
वंगनामे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! तिविधे पं० तं० - ओरालियसरी रोवंगणामे वेउद्वियसरी रोबंग० आहारगसरोवं, सरीरबंधणनामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते १, गो० ! पंचविधे पं० तं०-ओरालि यसरीरबंधणणामे जाव कम्मगसरीरबंधणनामे, सरीरसंघायणामे णं भंते ! कति० १, गो० ! पंचविधे पं० तं० - ओरालियस रीरसंघायनामे जाव कम्मगसरीरसंघायनामे, संघयणनामे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! छवि पं० तं० - वइरोस भनाराय संघयणनामे उस नारायसं० नाराय संघ० अद्धनारायसं० कीलियासंघ० छेवट्ठसंघयणनामे, संठाणनामे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! छवि पं० तं० - समचउरंस संठाणनामे निग्गोहपरिमंडलसंठा० साइसं० वामणसं० खुजसं० हुंडठाणनामे, वण्णनामे णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे पं० तं० – कालवण्णनामे जाव सुकिल्लवण्णनामे, गंधनामे
-
ते ! कम्मे पुच्छा, गो० ! दु० पं० तं० - सुरभिगंधना मे दुरभिगंधना, रसनामे णं पुच्छा, गो० ! पंचविधे पं०, तं० - तित्तरसनामे जाव महुररसनामे, फासनामे णं पुच्छा, गो० ! अट्ठविहे पं० तं० - कक्खडफासनामे जाव लहुयफासनामे, अगुरुलहुयनामे एगागारे पं०, उवघायनामे एगागारे पं०, पराघातनामे एगागारे पं०, आणुपुब्विणामे पिं० ० - नेर आणुपुवीणामे जाव देवाणुपुवीणामे, उस्सासनामे एगागारे पं०, सेसाणि सव्वाणि एगागाराईं पण्णजव तित्थगरनामे, वरं विहायगतिनामे दुविधे पं० तं० - पसत्थविहायगइनामे अपसत्थविहायगतिनामे य । गोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पं० १, गो० ! दुविहे पं० तं० - उच्चागोए य नीयागोए य, उच्चागोए णं भंते ! कइविधे पं० १, गो० ! अट्ठविधे पं० तं० - जाइविसिट्ठया जाव इस्सरियविसिया, एवं नीयागोए वि, णवरं जातिविहीणता
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२३ कर्मप्रकृतिपदे
२ उद्देशः सू. २९३
॥४६६॥
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जाव इस्सरियविहीणया। अंतराए णं भंते ! कम्मे कतिविधे पं० १, गो० ! पंचविधे पं० त०-दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए । (मूत्रं २९३)
'कइ णं-भंते !' इत्यादि पूर्ववत्, सम्प्रति 'यथोद्देशं [तथा] निर्देश' इति न्यायात् ज्ञानावरणीयोत्तरप्रकृतिविषयं सूत्रमाह-'नाणावरणिजे णं भंते !' इत्यादि, इह आभिनिबोधिकादि इत्यादिशब्दार्थ उपयोगपदे वक्ष्यते, विग्रहभावना त्वियम्-आभिनिबोधिकज्ञानस्यावरणीयं आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयं, एवं श्रुतज्ञानावरणीयमित्यादिप्वपि भावनीयं । दर्शनावरणीयोत्तरप्रकृतीराह-दरिसणावरणिजे णं भंते !' इत्यादि, 'द्रा कुत्सायां' नियतं द्रातिकुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यस्यां खापावस्थायां सा निद्रा, यदिवा "दै खप्ने निद्राणं निद्रा, नखच्छोटिकामात्रेण यस्यां प्रबोध उपजायते सा खापावस्था निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रा कारणे कार्योपचारात्, 'निहानिद'त्ति निद्रातोऽतिशायिनी निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादिदर्शनात् 'मयूरव्यसकादय' इति मध्यमपदलोपी समासः, तस्यां हि चैतन्यस्यात्यन्तमस्फुटीभूतत्वात् बहुभिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो भवति, ततः सुखप्रबोधहेतुनिद्रातोऽस्या अतिशायिनीत्वं, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा उपचारात् , तथा उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलयति-घूर्णयति यस्यां खापावस्थायां सा प्रचला, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला, 'पयलापयला' इति प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचलाप्रचला, पूर्ववत् मध्यमपदलोपी समासः, सा हि चक्रमणादिकमपि कुर्वत उदयमधि
29202929888800900
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प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती .
॥४६७॥
गच्छति, ततः स्थानस्थितखप्तप्रभवप्रचलोपक्षया तथा अतिशायिनीत्वं, 'थीणद्धी' इति स्त्याना-पिण्डीभूता२३कर्मप्रऋद्धिः-आत्मशक्तिरूपा यस्यां खापावस्थायां सा स्त्यानार्द्धिः, तद्भावे हि प्रथमसंहननस्य केशवा बलसदृशी श-I कृतिपदे |क्तिरुपजायते, तथा च श्रूयते प्रवचने-कचित् प्रदेशे कोऽपि प्राप्तः क्षुलकः स्त्यानर्द्धिनिद्रासहितो द्विरदेन दिवा खलीकृतः, ततस्तस्मिन् द्विरदे बद्धाभिनिवेशोरजन्यां स्त्यानध्र्युदये प्रवर्त्तमानः समुत्थाय तद्दन्तमुशलमुत्पाख्य खोपा- सू. २९३ श्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्तवानित्यादि, तथा चक्षुषा दर्शनं चक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयं चक्षुर्दर्शनावरणीयं अचक्षुपा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणीयमचक्षुर्दर्शनावरणीयं अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनं तस्यावरणीयमवधिदर्शनावरणीयं केवलमेव दर्शनं केवलदर्शनं तस्यावरणीयं केवलदर्शनावरणीयं, इह निद्रापञ्चकं प्राप्ताया दर्शनलब्धरुपघातकृद् दर्शनावरणचतुष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति, आह च गन्धहस्ती-“निद्रादयः समधिगताया दर्शनलब्धेपघाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तद्गमोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनल|ब्धि"मिति, वेदनीयं द्विधा-सातवेदनीयमसातवेदनीयं च, सातरूपेण यद्वद्यते तत्सातवेदनीय, तद्विपरीतमसातवेदनीयं, किमुक्तं भवति ?-यस्योदयात् शारीरं मानसं च सुखं वेदयते तत्सातवेदनीयं, यस्योदयात् पुनः शरीरे ॥४६७॥ मनसि च दुःखमनुभवति तदसातवेदनीयं, एकैकमष्टविधं, मनोज्ञामनोज्ञशब्दादिविषयभेदात्, मोहनीयं द्विधाका दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च, दर्शन-सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयं. चारित्रं-सावधेतरयोगनिवृत्तिप्र
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वृत्तिगम्यं शुभात्मपरिणामरूपं तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयं, चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ, दर्शनमोहनीयं ।।। त्रिविधं, तद्यथा-सम्यक्त्ववेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं मिश्रवेदनीयं, तत्र जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानात्मकेन सम्यक्त्वरूपेण यद्वेद्यते तत्सम्यक्त्ववेदनीयं, यत्पुनर्जिनप्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते तन्मिथ्यात्ववेदनीयं, | यत्तु मिश्ररूपेण-जिनप्रणीततत्त्वेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयं, आह-सम्यक्त्ववेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयं, न हि तदर्शनं मोहयति, तस्य प्रशमादिपरिणामहेतुत्वात् , उच्यते, इह सम्यक्त्ववेदनीयं मिथ्यात्वप्रकृतिः, ततोऽतिचारसम्भवात् , औपशमिकक्षायिकदर्शनमोहनाचेदं दर्शनमोहनीयमित्युच्यते, चारित्रमोहनीयं द्विविधं-कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं च, तत्र यत्क्रोधादिकषायरूपेण वेद्यते तत्कषायवेदनीयं, यत्पुनः स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयं, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचको, तत्र कषायवेदनीयं षोडशविधं, क्रोधमानमायालोभानां प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसवलनरूपत्वात् , तत्रानन्तं संसारमनुबन्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः, उक्तं च-"अनन्तान्यनुबन्धन्ति, यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्धाख्या, क्रोधायेषु नियोजिता ॥१॥" एषां संयोजना इति द्वितीयमपि नाम, तत्रायमन्वर्थः-संयुज्यन्ते-सम्बध्यन्तेऽनन्तसङ्खयैर्भवजन्तवो यस्ते संयोजनाः, उक्तं च संयोजयन्ति यन्नरमनन्तसङ्ख्यैर्भवैः कषायास्ते । संयोजनता-18 |ऽनन्तानुबन्धिता वाप्यतस्तेषाम् ॥१॥" सर्व प्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानं च येषामुदये न लभ्यते ते भवन्त्यप्रत्या
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99999-
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प्रज्ञापना- ख्यानाः, सर्वनिषेधवचनोऽयं नञ्, उक्तं च-'स्वल्पमपि नोत्सहेद्येषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽ-18 २३कर्मप्रया: मल- 1& तो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥१॥” तथा प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावियते यैस्ते प्रत्याख्यानावरणाः, आह च- कृतिपदे य० वृत्ती.
| "सर्वसावधविरतिः, प्रत्याख्यानमुदाहृतम् । तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता ॥१॥" तथा परीषहोपसर्गनिपाते २ उद्देशः ॥४६॥
सति चारित्रिणमपि सम्-ईषत् ज्वलयन्तीति सज्वलनाः, उक्तं च-"संज्वलयन्ति यतिं यत्संविज्ञं सर्वपापविरत-18 सू. २९३ मपि । तस्मात् सज्वलना इत्यप्रशमकरा निरुध्यन्ते ॥१॥" अन्यत्राप्युक्तम्-"शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, सज्वलयन्ति यतो मुहुः । ततः सज्वलनाह्वानं, चतुर्थानामिहोच्यते ॥१॥" खरूपं च पश्चानुपूर्व्याऽमीषामिदं-'जलरेणुपुढविपच्चयराईसरिसो चउविहो कोहो । तिणिसलयाकट्टडियसेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ मायावलेहीगोमुत्तिमिंढसिंगघणवंसमूलसमा । लोहो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसारित्थो ॥२॥ पक्खचउम्मासवच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो भणिया ॥ ३॥" [जलरेणुपृथ्वीपर्वतराजीसदृशश्चतुर्विधः क्रोधः । तिनिशलताकाष्ठास्थिशैलस्तम्भोपमो मानः॥१॥ मायावलेखिकामेण्ढशृङ्गघनवंशमूलसमा । लोभो हरि-1 द्राखजनकर्दमकृमिरागसदृशः ॥२॥ पक्षचतुर्मासवत्सरयावजीवानुगामिनः क्रमशः । देवनरतिर्यग्नरकगतिसा- ॥४६८
धनहेतवो भणिताः॥३॥] 'इत्थीवेए' इति वेद्यते इति वेदः स्त्रिया वेदः स्त्रीवेदः, स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष AS इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्त्रीवेदः, पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः, पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं क
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र्मापि पुरुषवेदः, नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः, नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः, तथा यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति स्म हासयते वा तत् हास्यमोहनीयं, यदुदयाद्वाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रमोदमाधत्ते तत् रतिमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनर्वाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति तदरतिमोहनीयं, यदुदयात् प्रियविप्रयोगादौ सोरस्ताङमाक्रन्दति परिदेवते भूपीठे च लुठति दीर्घ च निःश्वसिति तत् | शोकमोहनीयं, यदुदयवशात् सनिमित्तमनिमित्तं वा तथारूपखसङ्कल्पतो विभेति तद्भयमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनः शुभमशुभं वा वस्तु जुगुप्सते तत् जुगुप्सामोहनीयं, जुगुप्साजनकं मोहनीयं जुगुप्सामोहनीयं, एवं सर्वपदे - व्वपि विग्रहो भावनीयः, नोकषायता चामीषां हास्यादीनां कषायसहचारित्वात् कैः कषायैः सहचारितेति चेत्, उच्यते, आद्यैर्द्वादशभिः, तथाहि - नाद्येषु द्वादशकषायेषु क्षीणेषु हास्यादीनामवस्थानसम्भवस्तदनन्तरमेव तेषामपि क्षपणाय प्रवृत्तिः, अथवा एते प्रादुर्भवन्तोऽवश्यं कषायादीनुद्दीपयन्ति ततः कषायसहचारिणः, एवं नोशब्दः साह - चर्ये द्रष्टव्यः, कषायैः सहचारिणो नोकपाया इति, उक्तं च - " कषाय सहवर्त्तित्वात् कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ॥ १ ॥” आयुः कर्मसूत्रं पाठसिद्धं, नामकर्म द्विचत्वारिंशद्विधं, तानेव द्वाचत्वारिंशतं भेदानाह - 'गतिनामे' त्यादि, गम्यते - तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिः - नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः, सा चतुर्धा, तद्यथा - नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्य गतिर्देवगतिस्तज्जनकं नाम गतिनाम, तदपि चतुर्द्धा, 'नरकगतिनामे'
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
॥४६९॥
त्यादि, तथा एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणामलक्षणमेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभाछ यत्सामान्यं सा|२३कर्मप्रजातिस्तजनकं नाम जातिनाम, इदमत्र तात्पर्य-द्रव्यरूपमिन्द्रियमङ्गोपाङ्गनामेन्द्रियपर्याप्तिनामसामर्थ्यसिद्धं, भा-18 कृतिपदे वरूपं तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसामर्थ्यात्, "क्षायोपशमिकाणीन्द्रियाणीति वचनात्, यत्पुनरकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धनं तथारूपसमानपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदनन्यसाध्यत्वाजातिनिबन्धनमिति, तच जातिनामसू. २९३ पञ्चधा, तद्यथा-एकेन्द्रियजातिनाम यावत्पञ्चेन्द्रियजातिनाम, तथा शीर्यते इति शरीरं, तत्पञ्चधा, तद्यथा-औदारिक क्रियमाहारकं तैजसं कामणं, एतानि प्रागेव व्याख्यातानि, तन्निबन्धनं नामापि पञ्चधा, तद्यथा-औदारिकनाम वैक्रियनाम इत्यादि, तत्र यदुदयादौदारिकशरीरप्रायोग्यान पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तदादारिकशरीरनाम, एवं शेषशरीरनामान्यपि भावनीयानि, 'सरीरोपाङ्गनामेति शरीरस्याङ्गान्यष्टौ शिरःप्रभृतीनि, उक्तं च-'सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊरुया य अटुंगा [शीर्षमुदरं पृष्ठिद्वौ बाहू उरुणी चाष्टाङ्गानि] इति, उपाङ्गानि अङ्गावयवभूतान्यङ्गुल्यादीनि शेषाणि तत्प्रत्यवयवभूतान्यङ्गुलिपर्वरेखादीनि अङ्गोपाङ्गानि अङ्गानि च उपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि च २ अङ्गोपाङ्गानि "स्यादावसङ्ख्येय" इत्येकशेषः, तन्निमित्तं नाम शरीरोपाङ्गनाम, तच त्रिधा, तद्यथा-औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियाङ्गोपागनाम आहारकाङ्गोपाङ्गनाम, तत्र यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणति
॥४६९॥
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रुपजायते तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम, एवं वैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गनाम्नी अपि वाच्ये, तैजसकार्मणयोस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वान्नास्त्यङ्गोपाङ्गसम्भवः, तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धनं, यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैर्वा सह सम्बन्धजनकं तद्बन्धननाम, आह च मूलटीकाकारः - "विद्यते तत्कर्म यन्निमित्ता व्यादिसंयोगापत्तिराविर्भवति, यथा काष्ठद्वयभेदैक्यस्य करणे जतु कारण" मिति, तच पञ्चधा, तद्यथा - औदारि कबन्धननाम वैक्रियबन्धननाम आहारकबन्धननाम तैजसबन्धननाम कार्मणबन्धननाम, तत्र यदुदयवशात् औदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुद्गलैश्च सह सम्बन्ध उपजायते तदौदारिकबन्धनं, | यदुदयाद्वैत्रियपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धः तद्वैक्रियबन्धनं, यदुदयादाहारकशरीरपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसकार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तदाहारकबन्धनं, यदुदयात्तैजसपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैश्च सह सम्बन्धस्तत्तैजसबन्धननाम, यदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं सम्बन्धस्तत्कार्मणबन्धननाम, तथा सङ्घात्यन्ते - पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्सङ्घातं तच्च तन्नाम च सङ्घातनाम, तदपि पञ्चधा, तद्यथा - औदारिकसङ्घा - तनाम वैक्रियसङ्घातनाम आहारकसङ्घातनाम तैजससङ्घातनाम कार्मणसङ्घातनाम, तत्र यदुदयवशादौदारिकशरीररचनाऽनुकारिसङ्घातरूपा जायते तदौदारिकसङ्घातनाम, एवं वैक्रियादिशरीरसङ्घातनामखपि भावनीयं, 'संघयण
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥४७०॥
नामे' इति संहनननाम, संहननं - अस्थिरचनाविशेषः, आह च मूलटीकाकारः - "संहननमस्थिरचनाविशेषः” इति, तेन यः प्राह सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिति, तथा च तद्व्रन्थः - 'सुत्ते सत्तिविसेसो संघयण' मिति स भ्रान्तः, मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना संहननस्यास्थिरचनाविशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात्, यत्त्वे केन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमन्यत्रोक्तं तत् टीकाकारेण समाहितं, औदारिकशरीरत्वादुपचारत इदमुक्तं द्रष्टव्यं न तु तत्त्ववृत्त्येति, यदि पुनः शक्तिविशेषः स्यात् ततो देवानां नैरयिकाणां च संहननमुच्येत अथ च ते सूत्रे साक्षादसंहननिन उक्ता इत्यलं उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु स चास्थिरचनाविशेष औदारिकशरीर एव नान्येषु तेषामस्थिरहितत्वात् तच पोढा,
१ मतमिदं जिनवल्लभीयं यतस्ततो न श्रीमद्धरिभद्रसूरिसूत्रितायां वृत्तौ कथञ्चिदप्युल्लेखः, न चानुक्तोपालम्भसंभावना यतः तेन जिनवइभेन विहिते तदनुसारिभिश्च विवृते सूक्ष्मार्थसार्धशतके स्पष्टमवलोक्यते चतुर्दश्यां गाथायां "सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिहट्टिनिचउत्ति सूत्रे, व्याख्याने च - तथा सूत्रे - आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते, कोऽभिप्राय: : - वर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशे| षाभिधायकतया व्याख्यातत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईदृशं च संहननं देवनारकयोरपीष्यत एव तेन देवा वर्षभनाराचसंहननिनो नारकाः सेवार्तसंहननिन इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यं । इह तु ग्रन्थेऽस्थिनिचयकीलिकादिरूपाणामस्थामेव रचनाविशेषः संहननं बोद्धव्यं, एतचास्थिनिचयरूपं संहननमौदारिकशरीर एव, नान्येषु शेषाणामस्थ्याद्यभावादिति गाथार्थः ॥ व्याख्याकारः पञ्चदश्यामपि गाथायां साक्षेपमभिदधौ यथा अत्राह - ननु “ नरतिरियाणं छप्पिय, हवंति विगलिंदियाण छेवटु" मिति वचनात् यो विकलेन्द्रियाणां पि
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२३ कर्मप्रकृतिपदं
॥४७०॥
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पीलिकादीनां छेदवृत्तसंहननोदयोऽभ्युपगतः सोऽस्थ्यभावे कथं संगच्छते ? इत्यत्रोच्यते - योऽयमस्थिविन्यासप्रयत्नोऽभिहितोऽसौ बलप्रक-ख्यापकोऽत एव सूत्रे शक्तिविशेषः संहननमुक्तं, अन्यथोभयमर्कटग्रहपट्टकीलिकाप्रयत्ने सति गात्रसंकोचविकाशाभावो भाव्येत । अतः | पिपीलिकादीनां क्षुद्रसत्त्वानां यद्यप्यस्थीनि न संभाव्यन्ते तथापि कायबलमधिकृत्य संहननमुच्यते, तथााह – लोकेऽस्थिसद्भावेऽप्यल्पबलः पुरुषोऽसंहनन एव व्यपदिश्यते । ततः शक्तिमपेक्ष्य तेषां संहननं वेदितव्यं । अथवा शङ्खादीनां द्वीन्द्रियाणामपि दृश्यन्ते एवास्थीनि, पि|पीलिकादीनां तु सूक्ष्मत्वात्केवलगम्यानीति न कश्चिद्विरोध इति पञ्चसङ्ग्रहाभिप्रायः । इतीदं षडिधं संहननमस्थिसंनिचयात्मकं यदुदयाद्भवति शरीरे तदपि तत्संज्ञितं षड़िधं संहनननामकर्मेति गाथार्थः ॥ प्रसारकसभा मुद्रिते प्रस्तावनाकर्तृभिर्विवेचितं च तत्र "संहननव्याख्याधिकारे यदुक्तं – “सुत्ते सत्तिविसेसो” तत्र समयविद्भिः समालोचनीयं समयेष्वस्थिरचनात्मकस्यैव स्वीकृतत्वात्, यदुक्तं विवाहप्रज्ञप्तिवृत्तौ सूक्ष्मसूक्ष्मतरपदार्थसार्थवर्णनोद्वेधानादि कालसंबद्धमिध्यात्वाविरतकषायाद्यन्तरारातिवर्गस्वान्तव्यापारार्जितमूलककर्माष्टकम हामलापनयनक्षमनानाविधयमनियमत्रातोर्मियुक्तचारित्रभुवनापूर्णगाढतरदुःखद समर्थकषायतापभीत्यागतचिरंतनमुनिपुङ्गवजीवनचरनिर्भय क्रीडोपशोभिते सिद्धान्तरत्नाकरे दुष्षमारकराक्षसेन कवलीयमानमेधायुर्बलानामैदंयुगीनजनानां प्रवेशाय सरलनवायादिवृत्त्या बद्धतटैः विबुधेनार्चनीयक्रमकजैः श्रीमदभयदेवसूरिपादैः—“इह संहननं अस्थिरचनाविशेषः " । तथा चरणसंस्पर्शिरजोभिः पवित्रितभूमण्डलैः श्रीमद्देवभद्रसूरिपादैः त्रैलोक्यदीपिकावृत्तावपि तथैवाभिधानात् । तत्पाठश्चायम् - "संहन्यन्ते संहतिविशेषं प्राप्यन्ते शरीरास्थ्यवयवाः यैस्तानि संहननानि दृढदृढतरादयः शरीरबंधाः” । ननु तर्हि एकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननं जीवाभिगमोपा विबुधानां च वज्रर्षभनाराचं प्रज्ञापनादौ प्रोक्तमस्ति तत्र भवतां का गतिरिति चेत्, न, एकाक्षाणां सुधाशिनां च शक्तिमपेक्ष्यौपचारिकमुक्तं, तथाहि - एकाक्षाणामत्यन्ताल्पीयसी शक्तिरेतदशक्तिविषय
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प्रज्ञापनाश्व सेवार्तसंहननस्य तदादारिकशरीरसंबंधमात्रमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, निर्जराणामपि चक्रवर्तिभ्योऽप्यत्यन्तमहती शक्तिः सा च प्रथमसंहननविषया 8.
|२३कर्मप्रया: मल
इति । न चैतत्प्रथकृद्भिः सूत्रे शक्तिविशेष(षः) संहननमुक्तं, वृत्तिकृता तु तदभिप्रायः प्रकटीकृतः, तत् किमर्थ भवद्भिः समालोचनीयमुच्यत । यवृत्ती. इति वाच्यं, ग्रंथकृद्भिस्तु “सुत्ते सत्तिविसेसो" इत्यनेन सूत्रे शक्तिविशेष(षः) संहननं संस्थापितं, वृत्तिकारेणापि तदेवातिदृढीकृतं, न त्वौप-11
कृतिपदं चारिकमुक्तं, ननूपचारोऽपि सद्वस्तुन एव क्रियते, नत्वसद्वस्तुन इति चेत् , सत्यं, परम्-"अतस्मिन् तद्ध्यवसायः उपचारः” इति वचनात् ॥४७॥ उपचारोऽप्यसत्येव सद्वस्तुनो न तु सद्वस्तुनि सद्वस्तुनः । अपि च सूत्रे शक्तिविशेषः संहननं स्यात् तर्हि जीवाभिगमसूत्रे कथं देवनारका
असंहननाः प्रोक्ताः, तथा च तद्न्थ:-"सुरनेरइया छण्हं संघयणाणं असंघयणा" इति, पुनः तत्रैव हेतुमद्भावेनोक्तं-'नेवट्ठी नेव सिरा नेव ण्हारू नेव संघयणमट्ठी'ति । किं च सूत्रे शक्तिविशेषः संहननं तर्हि गर्भजनरतिरश्चामपि ग्रंथकृदभिप्रायेण सूत्रे शक्तिविशेषः संहननमुक्तं स्यात् ; तच्च कुत्रचिदागमे नोपलभ्यते इति, एतन्न स्वमनीषिकाया विजूंभितं, किं तूत्पत्तिविनाशादिजीवनापूर्णभवाब्धिनिमज्जतूसत्योद्धरणपोतायमानैः श्रीमन्मलयगिरिसूरिपादैः जीवाभिगमायुपांगवृत्तिषु तथैवोल्लेखः कृतः। तद्ग्रंथश्चायम्-"अस्थिनिचयात्मकं च संहननमतोऽस्थ्याद्यभावादसंहननानि शरीराणि, इयमत्र भावना-इह तत्त्ववृत्त्या संहननमस्थिनिचयात्मकं, यत्तु प्रागेकेन्द्रियाणां सेवार्तसंहननमभ्यधायि तदौदारिकशरीरसंबंधमात्रमपेक्ष्यौपचारिकं, देवा अपि यदन्यत्र प्रज्ञापनादौ वर्षभनाराचसंहननिनः उच्यन्ते तेऽपि गौणवृत्त्या, तथाहि-इह यादृशी मनुष्यलोके चक्रवर्त्यादेविशिष्टवर्षभनाराचसंहननिनः सकलशेषमनुष्यजनासाधारणी शक्ति:-'दो सोला बत्तीसा सबबलेणं तु संकलनिबद्ध'मित्यादिका, ततोऽप्यधिकतरा देवानां पर्वतोत्पाटनादिविषया श्रूयते न च शरीरपरिक्लेश इति तेऽपि वर्षभनाराच
॥४७॥ IS संहननिनः उक्ताः, न पुनः परमार्थतस्ते संहननिनः, ततो नारकाणामस्थ्यभावात् संहननाभावः । एतेन योऽपरिणतभगसिद्धान्तसारो
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बावदूकः सिद्धान्तबाहुल्यमात्मनः ख्यापयन्नेवं प्रललाप "सुत्ते सत्तिविसेसो संघयणमिट्ठिनिच्चओ'त्ति इति सोऽपाकीर्णो द्रष्टव्यः । साक्षा। दत्रैव सूत्रेऽस्थिनिचयात्मकस्य संहननस्याभिधानात् । अस्थ्यभावे संहननप्रतिषेधात् इति ( जीवाभिगमसू० ३२) एवमेव त्रैलोक्यदीपिकावृत्तावप्युल्लेखितं । तत्त्वं पुनः कलहंसा जानन्ति" ॥ अत्र नैवं वाच्यं यदुतोपसर्जनानुपसर्जनकृत एव विशेषो यतः श्रीमद्भिहरिभद्रसूरिपादैरपि आवश्यकबृहद्वृत्तौ "इह चेत्थम्भूतास्थिसंचयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते न त्वस्थिसंचय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात्" इति वचनेन शक्तिविशेषरूपस्यैव तस्याङ्गीकारादिति, आदौ तावत् क एष तावदश्चेत् गणनां विबुधेषु यो मुख्यं सूर्य ज्योतिरिङ्गणमाख्याय ज्योतिरिङ्गणमेव ज्योतिष्पतितया व्याहरेत् ?, नैव चेत् कश्चित् कथमिव व्याकृतं सूत्रेऽस्थिनिचयस्य संहननवाच्यतानिषेधाय 'सुत्ते सत्तिविसेसो' इत्यादि, भवदर्शितोक्तावपि अस्थिनिचयस्यैव संहननवाच्यता स्पष्टैव, यत उदितं 'इह चेत्यादि' अन्यच्चाभियुक्त-17 मतं तु केवलमेवास्थिनिचयं संहननशब्दवाच्यतयाऽपेक्षितमपाकुर्यात् न तु शास्त्रसिद्धं संहननस्यास्थिवाच्यतापक्षं, तथा च देवानामाद्यसंहननिता शक्तिविशेषापेक्षिणी एकेन्द्रियाणामन्त्यसंहननितौदारिकशरीरसत्ताऽपेक्षिणीत्येवं भवत्यौपचारिकी नतु अस्थिनिचयस्यौपचारिकत्वं संहननशब्दवाच्यतायां लेशतोऽपि, ततो युक्तमेवोक्तं श्रीमद्भिष्टीकाकृद्भिर्मलयगिरिसूरिचरणैरुररीकृत्य जिनवल्लभगणिसत्कं 'सुत्ते सत्तिविसेसो' इति वचनं 'इत्यलमुत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु' इत्येवं कुमार्गगमृगसिंहनादीयं वचनं, एवं च 'साइणा परिनिव्वुडे' इति वचनस्य कल्याणकपरतया व्याख्यानं गर्भापहारस्य षष्ठकल्याणकतया व्यक्तीकृतिश्च तस्यैव मुखमलङ्कुर्वाणा शोभते न सूत्रानुसारिणां श्रीमद्हरिभद्राचार्याभयदेवसूरिव्याख्यातवीरवरश्रीमद्वर्धमानस्वामिकल्याणपञ्चकवादिनामित्यलं चसूर्या ।
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प्रज्ञापनाया मलय. वृत्त.
कृतिपदं
॥४७२॥
eeeeeeeee
तद्यथा-वज्रर्षभनाराचं ऋषभनाराचं नाराचं अर्द्धनाराचं कीलिका सेवा च, तत्र वज्र-कीलिका ऋषभः-परि| वेष्टनपट्टः नाराचं-उभयतो मर्कटवन्धः, उक्तं च-"रिसहो य होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयवा । उभओ
मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि ॥१॥ऋषभश्च भवति पट्टो वज्रं पुनः कीलिका ज्ञातव्या। उभयतो मर्कटबन्धो ४ यस्तं नाराचं विजानीहि ॥१॥] ततश्च द्वयोरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धनबद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्ना परिवे-18 ष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाख्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद्वर्षभनाराचसंहननं, यत्पुनः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनाराचं, यत्र त्वस्थ्नां मर्कटबन्ध एव केवलो भवति तत्संहननं नाराचं, यत्र त्वेकपार्थेन। मर्कट बन्धो द्वितीयपार्थे च कीलिका तदर्द्धनाराचसंहननं, यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्संहननं कीलिकाख्यं, यत्र पुनः परस्परपर्यन्तमात्रसंस्पर्शलक्षणां सेवामागतानि अस्थीनि नित्यमेव स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परि-1 शीलनामाकाङ्क्षन्ति तत्सेवार्तसंहननं, एतन्निबन्धनं संहनननामापि षोढा, तद्यथा-वज्रर्षभनाराचसंहनननाम ऋषभ-12 नाराचनाम नाराचनाम अर्द्धनाराचनाम कीलिकानाम सेवार्तनाम, तत्र यदुदयात् वज्रर्षभनाराचसंहननं भवति तत् वज्रर्षभनाराचसंहनननाम, एवं शेषसंहनननामस्खपि भावनीयं तथा संस्थान-आकारविशेषस्तेष्येव गृहीतसङ्घातितबद्धेषु औदारिकादिषु पुद्गलेषु संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयाद भवति तत्संस्थानं, एतच षोढा, तद्यथा-समचतुरस्रसंस्थाननाम न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम सादिसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम कुब्जसंस्थाननाम हुण्डसंस्थान
॥४७२॥
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नाम च, तत्र यदुदयादसुमतां समचतुरस्रसंस्थानमुपजायते तत्समचतुरस्रसंस्थाननाम, यदुदयात्तु न्यग्रोधपरिमण्डलं संस्थानं तन्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम, एवं शेषाण्यपि वाच्यानि, तथा वर्ण्यते-अलयिते शरीरमनेनेति वर्णः, स च पञ्चप्रकारः श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णभेदात् , तन्निबन्धनं नामापि पञ्चधा, तद्यथा-श्वेतवर्णनाम पीतवर्णनाम रक्तवर्णनाम नीलवर्णनाम कृष्णवर्णनाम, तत्र यदुदयाजन्तुशरीरेषु श्वेतवर्णप्रादुर्भावो यथा बिशकण्ठिकानां तत् श्वेतवर्णनाम, एवं शेषवर्णनामान्यपि भावनीयानि, तथा 'गन्ध अईने' गन्ध्यते-आघ्रायते इति गन्धः, स द्विधा-सुरभिगन्धो दुरभिगन्धश्च, तन्निबन्धनं गन्धनामापि द्विधा, तद्यथा-सुरभिगन्धनाम दुरभिगन्धनाम च,
तत्र यदुदयाजन्तुशरीरेषु सुरभिगन्ध उपजायते यथा शतपत्रमालतीकुसुमादीनां तत्सुरभिगन्धनाम, यदुदयाद् दुरKI भिगन्धः शरीरेषूपजायते यथा लशुनादीनां तत् दुरभिगन्धनाम, तथा 'रस आखादनस्नेहनयोः' रस्यते आखाद्यते
इति रसः, स पञ्चधा, तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात् , तन्निबन्धनं रसनामापि पञ्चधा, तद्यथा-तिक्तनाम कटुनाम कपायनाम अम्लनाम मधुरनाम, तत्र यदुदयात् जन्तु शरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां तत्तिक्तरसनाम, एवं शेषाण्यपि रसनामानि भावनीयानि, तथा 'स्पृश संस्पर्श' स्पृश्यते इति स्पर्शः, 'अकर्तरी ति घञ्प्रत्ययः, स च कर्कशमृदुल घुगुरुस्निग्धरूक्षशीतोष्णभेदादष्टप्रकारः, तन्निवन्धनं स्पर्शनांमाप्यष्टप्रकारं, तत्र यदुदयाजन्तु-|| शरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति यथा पाषाणविशेषादीनां तत्कर्कशस्पर्शनाम, एवं शेषाण्यपि स्पर्शनामानि भावनी
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ.
॥४७३ ॥
यानि, तथा यदुदयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि नापि लघूनि किन्त्वगुरुलघुरूपाणि भवन्ति तदगुरुलघुनाम, तथा यदुदयात् खशरीरावयवैरेव शरीरान्तः परिवर्द्धमानैः प्रतिजिह्वागलवृन्दलम्ब क चोरदन्तादिभिरुपहन्यते यद्वा स्वयंकृतोद्बन्धन भैरवप्रपातादिभिस्तदुपघातनाम, यदुदयात् पुनरोजखी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति तत्पराघातनाम, तथा कूर्परलाङ्ग| लगोमूत्रिकाकारेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाकवेद्यं नामकर्मापि कारणे कार्योपचारात् आनुपूर्वी नाम, तच्च चतुर्द्धा, तद्यथा - नैरयिकानुपूर्वीनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम मनुष्यानुपूर्वीनाम देवानुपूर्वीनाम, तथा यदुदयवशादात्मन उच्छ्वासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुच्छ्वासनाम, आह- यद्येवमुच्छास पर्यासिनाम्नः कोपयोगः १, उच्यते, उच्छासनाम्न उच्छ्वासनिःश्वासयोग्य पुद्गलग्रहणमोक्षविषया लब्धिरुपजायते सा च लब्धिर्नोच्छ्रासपर्याप्तिमन्तरेण खफलं साधयति, न खलु इपुक्षेपणशक्तिमानपि धनुर्ग्रहणशक्तिमन्तरेण क्षेप्तुमलं तत उच्छासपर्याप्तिनिष्पादनार्थमुच्छ्रासपर्याप्तिनाम्न उपयोगः, एवमन्यत्रापि यथायोगं भिन्नविषयता सूक्ष्मधिया भावनीया, तथा यदुदयात् जन्तुशरीराणि खरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम, तद्विपाकश्च भानुमण्डलगतेषु पृथिवीकायिकेष्वेव न वहौ, प्रवचनेऽपि निषेधात्, तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् उत्कटलोहितवर्णनामोदयाथ प्रकाशकत्वमिति, तथा
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२३ कर्मप्रकृतिपदं
॥४७३॥
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यदुदयाजन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं कुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रनक्षत्रतारविमानरनौषधयस्तदु-18 द्योतनाम, तथा विहायसा गतिः-गमनं विहायोगतिः, ननु सर्वगतत्वात् विहायसस्ततोऽन्यत्र गतिर्न सम्भवतीति किमर्थ विशेषणं ?, व्यवच्छेद्याभावात् , सत्यमेतत् , किन्तु यदि गतिरेवोच्यते ततो नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्ती-12 ति पौनरुत्याशङ्का स्यात् , अतस्तव्यवच्छेदार्थ विहायसा गतिः, न तु नारकादिपर्यायपरिणतिरूपति विहायोगतिः, सा द्विविधा-प्रशस्ता अप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता हंसगजवृषभादीनां अप्रशस्ता खरोष्ट्रमहिषादीनां, तद्विपाकवेद्यं विहायोगतिनामकर्म द्विधा-प्रशस्त विहायोगतिनाम अप्रशस्तविहायोगतिनाम चेति, तथा त्रसन्ति-उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसा-द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्यायपरिणतिवेद्यं नामकर्मापि त्रसनाम, तथा यदुदयादुष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः पृथिव्यपतेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते तत् स्थावरनाम, तथा बादरनाम यदुदयाजीवा बादरा भवन्ति, बादरत्वं परिणामविशेषः, यद्वशात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुह्यत्वाभावेऽपि बहूनां समुदाये चक्षुषा ग्रहणं भवति, तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम, यदुदयावहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुग्राह्यता न भवति, उक्तं च श्रावकप्रज्ञप्तिमूलटीकायां-"सूक्ष्मनाम यदुदयात् सूक्ष्मो भवति, अत्यन्तसूक्ष्मोऽतीन्द्रिय इत्यर्थः" इति, पर्याप्तकनाम यदुदयात् खयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनसमर्थो भवति तत्पर्याप्तिनाम-आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः,
eceaeeeeeeeeeeeeeeeeeeee
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प्रज्ञापनायाः मल- यवृत्ती.
२३कर्मप्रकृतिपदं
॥४७४॥
एतच्च प्रागेवोक्तमिति, तद्विपरीतमपर्याप्तकनाम, तथा यदुदयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरं तत्प्रत्येकनाम, यदु- दयवशात् पुनरनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम, तथा यदुदयवशात् शरीरावयवानां शिरोऽस्थि- दन्तानां स्थिरता भवति तत्स्थिरनाम, तद्विपरीतमस्थिरनाम, यदुदयवशाजिहादीनामवयवानामस्थिरता भवति तदस्थिरनाम, तथा यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभा जायन्ते तत् शुभनाम, यदुदयवशात् नाभरधस्तना पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति तदशुभनाम, तथाहि-शिरसा स्पृष्टस्तुष्यति पादेन तु रुष्यति, कामिन्या पादेनापि स्पृष्टः तोषमुपयाति ततो व्यभिचार इति चेत्, न, तस्य परितोषस्य मोहनीयनिवन्धनत्वात् , वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यते इत्यदोषः, तथा यदुदयवशादनुपकृदपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति तत्सुभगनाम, तद्विपरीतं दुर्भगनाम, यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति, उक्तं च-"अणुवकएवि बहूणं जोहु पिओ तस्स सुभगनामुदओ। उवगारकारगोवि हु न रुच्चए दुब्भगस्सुदए ॥१॥ सुभगुदएवि हु कोई किंची आसज दुब्भगो जइवि । जायइ तहोसाओ जहा अभवाण तित्थयरो ॥२॥" [ अनुपकृतेऽपि बहूनां यः प्रियस्तस्य सुभगनाम्न उदयः । उपकारकारकोऽपि न रोचते दौर्भाग्यस्योदये ॥१॥ सुभगस्योदयेऽपि कश्चित्कञ्चिदासाद्य दुर्भगो यद्यपि । जायते तदोषात् यथाऽभव्यानां | तीर्थकरः॥२॥] तथा यदुदयवशात् जीवस्य खरः श्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायते तत्सुखरनाम, तद्विपरीत दुःखरनाम यदुदयात् स्वरः श्रोतृणामप्रीतये भवति, तथा यदुदयवशात् यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्व लोकः प्रमाणीकरोति
टटटटाseeeeeeeeee
॥४७४॥
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दर्शनसमनन्तरमेव च जनोऽभ्युत्थानादि समाचरति तदादेयनाम, तद्विपरीतमनादेयं, यदुदयवशादुपपन्नमपि बुवाणो नोपादेयवचनो भवति नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्याभ्युत्थानादि समाचरति, तथा तपःशौर्यत्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तनं-संशब्दनं यशःकीर्तिः, यद्वा यशः-सामान्येन ख्यातिः कीर्तिः-गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा अथवा सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः एकदेशगामिनी पुण्यकृता वा कीर्तिः ते यदुदयवशाद्भवतस्तद्यशःकीर्त्तिनाम, यदुदयवशात् मध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति तदयशःकीर्त्तिनाम, तथा यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु खखजात्यनुसारेणाङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवर्त्तिता भवति तन्निर्माणनाम, तच्च सूत्रधारकल्पं, तदभावे हि तद्भुतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिर्निवर्तितानामपि शिरउरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमः स्यात् , तथा यदुदयवशात् अष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः प्रादुष्ष्यन्ति तत्तीर्थकरनाम, तदेवमुक्ताः नामकर्मणो द्विचत्वारिंशद्भेदाः, सम्प्रत्येतेषामेव गत्यादीनामवान्तरभेदप्रतिपादनार्थमाह-गइनामे णं भंते ! कम्मे कइविहे पं०' इत्यादि, समस्तमपि निगदसिद्धम् , उक्ता नामकर्मणो भेदाः, सम्प्रति गोत्रकर्मभेदानाह-'गोए णं भंते !' इत्यादि, यदुदयवशादुत्तमजातिकुलवलतपोरूपैश्चर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानाअलिप्रग्रहादिसम्भवस्तदुचैर्गोत्रं, यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दां लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रं, उक्तौ गोत्रदौ, सम्प्रति तयोरेव भेदानाह-'उच्चगोए णं भंते ! कम्मे कइविहे पं.' इत्यादि सुगम, सम्प्रति अन्तरायभेदानाह
।
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प्रज्ञापना
याः मलय० वृत्ती. ॥४७५ ॥
'अंतराए णं भंते ! कम्मे कइविहे' इत्यादि, तत्र यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुं नोत्सहते तद्दानान्तरायं, तथा यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुर्गृहे विद्यमानमपि देयमर्थजातं याच्ञाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायं, तथा यदुदयवशात् सत्यपि विशि|ष्टाहारादिसम्भवेऽसति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलकार्पण्यान्नोत्सहते भोक्तुं तद्भोगान्तरायमेवमुपभोगान्तरायमपि भावनीयं, नवरं भोगोपभोगयोरयं विशेषः - सकृद् भुज्यते इति भोगः - आहारमाल्यादि, पुनः पुनर्भुज्यते इत्युपभोगो-वस्त्रालङ्कारादि, उक्तं च- "सह भुज्जइत्ति भोगो सो पुण आहारपुप्फमाईओ । उपभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ वत्थविलयाइ ॥ १ ॥” [ सकृद्भुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिकः । उपभोगस्तु पुनः पुनरुपभुज्यते वस्त्रवनितादिः ॥ १ ॥ ] तथा यदुदयात् सत्यपि नीरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्त्तमानोऽल्पप्राणो भवति यद्वा बलवत्यपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजने हीनसत्त्वतया न प्रवर्त्तते तद्वीर्यान्तरायं, उक्तो मूलोत्तरप्रकृतिविभागः, सम्प्रति उत्तरप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टस्थितिप्रतिपादनं चिकीर्षुः प्रथमतो ज्ञानावरणीय स्य पञ्चप्रकारस्यापि विषये प्रश्नसूत्रमाह
वरणअसणं ते! कम्मस्स केवतितं कालं ठिती पं० १, गो० ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीत तिणि य वाससहस्साई अवाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मनिसेगो, निद्दापंचगस्स णं भंते! कम्मस्स
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२३ कर्मप्रकृतिपदं
॥४७५॥
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haतितं कालं ठिती पं० १, गो० ! जह० सागरोवमस्स तिष्णि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणिया, कोसेणं तसं सागरोवमकोडाकोडीतो, तिण्णि य वाससहस्साई अवाहा, अबाहूणिया कम्मट्टिती कम्मनि सेभो, दंसणचकस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पं० १, गो० ! जहने० अंतो० उ० तीसं सागरोवमकोडाकोडीतो, तिण्णि य वाससहस्साई अवाहा०, सायावेयणिज्जस्स ईरियावहियं बंधगं पडुच्च अजहण्णमणुकोसेनं दो समया संपराइयबंधगं पडुश्च ज० बारस मुहुत्ता, उ० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीतो, पण्णरस वाससयाई अबाधा०, असातावेद णिअस्स जह० सागरोवमस्स तिष्णि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उ० सीसं सागरोवमकोडाकोडीतो, तिणि य वाससहस्साई अबाहा, सम्मत्तवेयणिअस्स पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० छावहिं सागरोवमाई सातिरेगातिं, मिच्छचवेमणिजस्स जह० सागरोवमं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणगं उ० ससरि कोडाकोडीतो, सत्त य बाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया, सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जस्स ज० अंतो० उ० अंतो०, कसायचारसगस्स ज० सागशेवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्को० चचालीसं सागरोवमकोडाकोडीतो, चतालीसं वाससताई अबाहा जाव निसेगो, कोहसंजलणे पुच्छा, गो० ! जह० दो मासा उको० चचालीसं सामरोवमकोडाकोडीतो चत्तालीसं वाससताई अबाहा जाव निसेगो, माणसंजलगाते पुच्छा, गो० ! ज० मासं उ० जहा कोहस्स, मायासंजणाते पुच्छा, गो० ! ज० अद्धं मासं उ० जहा कोहस्स, लोहसंजलणाए पुच्छा, गो० ! ज० अंतो० उ० जहा कोहस्स, इत्थिवेयस्स पुच्छा, गो० ! जहनेणं सागरोवमस्स दिवङ्कं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणयं
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प्रज्ञापना
या: मलय० वृत्ती.
॥४७६ ॥
'उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीतो पण्णरस वाससताई अवाहा, पुरिसवेदस्स णं पुच्छा, गो० ! जह० अट्ठ संवच्छरातिं उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीतो दस वाससताई अवाहा जाव णिसेगो, णपुंसगवेदस्स णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो वीस य वाससताई अबोहा, हासरतीणं पुच्छा गो० ! जह० सागरोवमस्स एकं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजति भागणं ऊणं उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस वाससताई अवाहा, अरतिभयसोगदुगुंछाणं पुच्छा, गो० जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं उणया, उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो वीसं वाससताई अवाहा, नेरइयाउयस्स णं पुच्छा, गो० ! जह० दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाकोडीति भागम भहियातिं, तिरिक्खजोणियाउयस्स पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिण्णि पलितोवमाई
कोडितिभागमन्भहियाई, एवं मणूसाउयस्सवि, देवाउयस्स जहा नेरइयाउयस्स ठितिचि, निरयगतिनामए णं पुच्छा गो० ! जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखिज्जतिभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो वीसं वाससताई अबाहा । तिरियगतिनामए जहा नपुंसगवेदस्स, मणुयगतिनामते पुच्छा, ज० सागरोवमस्स दिवद्धं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणगं उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीतो पण्णरसवास सताई अाहा | देवगतिनाम णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमसहस्सस्स एवं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेज्जति भागेणं ऊणयं उको० जहा पुरिसवेदस्स, एगिंदियजातिनामए णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलि
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२३ कर्मब न्धपदे क मस्थितिः
सू. २९४
॥४७६ ॥
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तोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो वीसति वाससताई अवाहा, बेइंदियजातिनामेणं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया उ० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस य वाससयाई अबाहा, तेइंदियजातिनामए णं जहण्णेणं एवं चेव, उक्को० अट्ठारससायरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस वाससताई अबाहा, चउरिदियजातिनामाए पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया उक्को० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस वाससताई अबाहा, पंचिंदियजातिनामाए पुच्छा, गो० ! जह० सायरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीतो वीस य वाससताई अबाहा, ओरालियसरीरएवि एवं चेव, वेउवियसरीरनामाए णं भंते ! पुच्छा, गो०! जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उको० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीसइ वाससयाई अबाहा, आहारगसरीरनामए जह• अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ उको. अंतोसागरकोडाकोडीओ, तेयाकम्मसरीरनामाए जहण्णेणं दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीस य वाससताई अवाहा, ओरालियवेउवियआहारगसरीरोवंगनामाए तिण्णिवि एवं चेव, सरीरबंधणनामाएवि पंचण्हवि एवं चेव, सरीरसंघायनामाए पंचण्हवि जहा सरीरनामाए कम्मस्स ठिइत्ति, वइरोसभनारायसंघयणनामाए जहा रइनामाए, उसभनारायसंघयणनामाए पुच्छा, गो० ! सागरोवमस्स छ पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया, उक्को० बारस सागरोवमकोडाकोडीओ, बारस वाससताई अबाहा०, नारा
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
२३ कर्मवन्धपदे कमस्थितिः सू. २९४
॥४७७॥
यसंघयणनामस्स जह० सागरोवमस्स सत्त पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्को० चोदस सागरोवमकोडाकोडीतो चउद्दस वाससताई अवाहा०, अद्धनारायसंघयणनामस्स जह० सागरोवमस्स अट्ठ पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागणं ऊणया उक्को० सोलस सागरोवमकोडाकोडीतो सोलस वाससताई अबाहा०, खीलियासघयणे णं पुच्छा, गो ! ज. सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ अट्ठारस वाससताई अवाहा, छेवट्ठसंघयणनामस्स पुच्छा, गो० ! जह• सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असं० ऊणया, उक्को० वीसं सागरोवमको० वीस य वाससताई अबाहा, एवं जहा संघयणनामाते छब्भणिया एवं संठाणावि छब्भाणितबा, सुकिल्लवण्णणामते पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स एग सतमार्ग पलितो. असं० ऊणगं, उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीतो, दस वाससताई अबाहा, हालिद्दवण्णणामए णं पुच्छा, गो०! ज० सागरोवमस्स पंच अट्ठावीसतिभागा पलितोवमस्स अ०भा० ऊ० उ० अद्धतेरससागरोवमकोडाकोडी, अद्धतेरस वाससयाई अबाहा, लोहितवण्णणामए णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स छ अट्ठावीसतिभागा पलितोवमस्स असं० भागेहि ऊणया, उ० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ पण्णरस वाससयाति अबाहा, नीलवण्णनामाए पुच्छा, गो०! ज. सागरोवमस्स सत्त अट्ठावीसतिभागा पलितोबमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणया, उक्को० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अडूद्वारस वाससताई अबाहा, कालवण्णनामाए जहा छेवट्ठसंघय०, सुब्भिगंधणामाते पुच्छा, मो०! जह सुकिल्लवण्णनामस्स, दुब्भिगंधणामाए जहा छेवट्ठसंघयणस्स, रसाणं महुरादीणं जहा वण्णाणं भणितं तहेव परिवाडीते माणितई, फासा
॥४७७॥
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जे अपसत्था तेसिं जहा छेवट्ठस्स, जे पसत्था तेसिं जहा सुकिल्लवण्णनामस्स, अगुरुलहुनामाते जहा छेवढस्स, एवं उवघातनामाएवि, पराघायनामाएवि एवं चेव, निरयाणुपुबीनामाए पुच्छा, गो०! जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया, उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, वीसं वाससताई अबाहा०, तिरियाणुपुवीए पुच्छा, गो ! जह. सागरोवमस्स दो सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणया उक्कोसेणं वीस सागरोवमकोडाकोडीओ वीसति वाससताई अबाधा०, मणुयाणुपुत्वीनामाए णं पुच्छा, गो० ! जह० सागरोवमस्स दिवई सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं, उक्को० पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ पण्णरस वाससताई अबाहा देवाणुपुबीनामाते पुच्छा, गो०! जह. सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेअतिभागेणं ऊणयं, उनको दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससताई अबाहा०, ऊसासनामाते पुच्छा, गो०! जहा तिरियाणुपुबीए, आयवनामाए वि एवं चेव, उज्जोयनामाएवि, पसत्थविहायोगतिनामाएवि पुच्छा, गो० ! जह० एग सागरोवमस्स सत्तभागं उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दस वाससताई अबाहा०, अपसत्थविहायोगतिनामस्स पुच्छा, गो० ! ज. सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागणं ऊणया उ० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पीस य वाससताई अबाहा०, तसनामाए थावरनामाए य एवं चेव, सुहुमनामाए पुच्छा, गो०! जहं० सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलितोवमस्स असंखेजतिभागेण ऊणया, उक्को० अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीतो अट्ठारस य वाससताई अचाहा०, बादरनामाए जहा अप्पसत्थविहायोगतिनामस्स, एवं पञ्जचनामाएषि, अपजतनामाए जहा सुहुमनामस्स, पत्तेयसरीर
Son02920000000000020201202
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प्रज्ञापनायाः मलय०वृत्तौ.
॥४७८॥
नामाएवि दो सत्तभागा, साहारणसरीरनामाए जहा सुहमस्स, थिरनामाए एगं सत्तभागं अथिरनामाए दो सुभनामाए
२३ कर्मबएगो असुभनामाए दो सुभगनामाए एगो दूभगनामाए दो सूसरनामाए एगो दूसरनामाए दो आदिजनामाए एगो न्धपदे कअणाइजनामाए दो जसोकित्तिनामाए जह० अट्ठ मुहुत्ता उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीतो दस वाससताई अबाहा०,
| मस्थितिः अजसोकित्तिनामाए पुच्छा, गो०! जहा अप्पसत्थविहायोगतिनामस्स, एवं णिम्माणनामाएवि, तित्थगरणामाए णं
सू. २९४ पुच्छा, गो० ! जह० अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ उक्कोसेणवि अंतो० कोडाकोडीओ, एवं जत्थ एगो सत्तभागो तत्थ उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस वाससताई अबाहा०, जत्थ दो सत्तभागा तत्थ उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ वीस य वाससयांइ अबाहा, उच्चागोयस्स णं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अह मुहुत्ता उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ, दस य वाससताई अबाहा०, णीयागोत्तस्स पुच्छा, गो.! जहा अप्पसत्थविहायोगतिनामस्स, अंतराए णं पुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेगो । ( सूत्रं २९४) 'णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पं०' इति ज्ञानावरणीयस्य मतिश्रुतावधिमनःपर्याय-12 ॥४७८॥ केवलावरणभेदतः पञ्चप्रकारस्य कर्मणो भदन्त ! कियन्तं कालं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता १, एवमुक्ते भगवानाहगौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच सर्वलघु सूक्ष्मसम्परायस्य क्षपकस्य खगुणस्थानकचरमसमये वर्तमानस्य वेदितव्यं,
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उत्कर्षत स्त्रिंशत्सागरोपमकोटीको ट्यः, सा च मिथ्यादृष्टेरुत्कृष्टे सङ्केशे वर्त्तमानस्यावसातव्या, तदेवं नियता प्रागुक्तस्य प्रश्नोत्तरसिद्धिः, इदम पृष्टव्याकरणं त्रीणि वर्षसहस्राणि अबाधा अबाधोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेक इति, किमर्थमिति चेत्, उच्यते, स्थितिद्वैविध्यप्रदर्शनार्थ, तथाहि - द्विविधा स्थितिः - कर्मरूपतावस्थानलक्षणा अनुभवयो ग्या च तत्र कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणां स्थितिमधिकृत्येदमुक्तं त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटय इति, अनुभवयोग्या च वर्षसहस्रत्रयोना यतः, आह च - ' त्रीणि वर्षसहस्राणि अबाधा' किमुक्तं भवति ? - ज्ञानावरणीयं कर्म उत्कृष्टस्थितिकं बद्धं सत् बन्धसमयादारभ्य त्रीणि वर्षसहस्राणि यावत् न किञ्चिदपि खोदयतो जीवस्य बाधामुत्पादयति, तावत्कालमध्ये दलिकनिषेकस्याभावात्, तत ऊर्ध्वं हि दलिकनिषेकः, तथा चाह— अबाधोना - अबाधाकालपरिहीना अनुभवयोग्या कर्मस्थितिः, किमुक्तं भवति ? - कर्मनिषेकः, स चैवं - प्रथमस्थितौ प्रभूतो द्वितीयस्थितौ विशेषहीनः तृतीयस्थितौ विशेषहीनः एवं विशेषहीनो विशेषहीनश्च तावद् वक्तव्यो यावत्स्थितिचरमसमयः, एतावता च यदुतमग्रायणीयाख्ये द्वितीयपूर्वे कर्मप्रकृतिप्राभृते बन्धविधाने स्थितिबन्धाधिकारे - " चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, तद्यथास्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा अबाधा कण्डकप्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा चे”ति, तत्रोत्कृष्टाऽवाधाकण्डक प्ररूपणा उत्कृष्टनिषेकप्ररूपणा च दर्शिता भवति, अबाधाकालपरिज्ञानोपायश्चायं - यस्य यावत्यः सागरोपमकोटीको व्यस्तस्य तावन्ति वर्षशतान्यबाधा, यस्य पुनः सागरोपमकोटीको ट्या मध्ये स्थितिस्तस्यायुर्वर्ज स्यान्तर्मु
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२३कर्मबन्धपदे कमंस्थितिः सू. २९४
॥४७९॥
हर्त्तमायुषस्तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमबाधा उत्कर्षतः पूर्वकोटीत्रिभागः, तत एवमबाधाकालं परिभाच्यावाधाविषया- |णि सूत्राणि स्वयं भावनीयानि, निद्रापञ्चकविषयं सूत्रमाह-'निहापंचगस्स णं भंते !' इत्यादि, जन जघन्यतः स्थितिः त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः, काऽत्र भावनेति चेत्, उच्यते, पञ्चानां ज्ञानावरणप्रकृतीनां चतसृणां दर्शनावरणप्रकृतीनां चक्षुर्दर्शनावरणादीनां सज्वलनलोभस्य पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां च जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त, सातवेदनीयस्य सकपायिकस्य द्वादश मुहूर्ता, इतरस तु द्वौ समयौ, प्रथमसमये बन्धो। द्वितीयसमये वेदनं तृतीयसमये त्वकर्मीभवनमिति, यशःकीयुचैर्गोत्रयोरष्टौ मुहूर्ताः, पुरुषवेदस्याष्टौ संवत्सराणि, सज्वलनक्रोधस्य द्वौ मासौ, सज्वलनमानस्यैको मासः, सज्वलनमायाया अर्द्धमासः, शेषाणां तु प्रकृतीनां या या खकीया उत्कृष्टा स्थितिस्तस्या उत्कृष्टायाः सप्सतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणाया मिथ्यात्वस्थित्या भागे हते यलभ्यते तत्पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनं जघन्यस्थितिपरिमाणं, तत्र निद्रापञ्चकस्योत्कृष्टा स्थितित्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हियमाणे 'शून्यं शून्येन पातयेदिति वचनात् लब्धास्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, ते पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, ततो भवति यथोक्कं जघन्यस्थितिपरिमाणमिति, 'सायावेयणिजस्स ईरियावहियवंधगं पडुच अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया संपराइयबंधगं पडुच्च जहण्णेणं बारस मुहुत्ता' इति प्रागेव भावितं, असातावेदनीयस्य जघन्यतस्त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासोय
॥४७९॥
Ca
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भागोना निद्रापञ्चकवद् भावनीयाः, तस्याप्युत्कर्षतः स्थितेस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , सम्यक्त्ववेदनी-18 यस्य यत् जघन्यतः स्थितिपरिणाममन्तर्मुहुर्त उत्कर्षतः षट्षष्टिःसागरोपमाणि सातिरेकाणि तद्वेदनमधिकृत्य वेदितव्यं । न बन्धमाश्रित्य, सम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वयोर्बन्धाभावात् , मिथ्यात्वपुद्गला एव हि जीवेन सम्यक्त्वानुगुणविशोधिबलतस्त्रिधा क्रियन्ते, तद्यथा-सर्वविशुद्धाः अर्द्धविशुद्धाः अविशुद्धाश्च, तत्र ये सर्वविशुद्धास्ते सम्यक्त्ववेदनीयव्यपदेशं लभन्ते येऽर्द्धविशुद्धास्ते सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयव्यपदेशं अविशुद्धा मिथ्यात्ववेदनीयव्यपदेशसतो न तयोर्बन्धस म्भवः, यदा तु तेषां सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वपुद्गलानां खरूपतः स्थितिश्चिन्त्यते तदाऽन्तर्मुहर्मोनसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा वेदितव्या, सा च तावती यथा भवति तथा कर्मप्रकृतिटीकायां सङ्कमकरणे भावितेति ततो ऽवधार्य, मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्या स्थितिरेकं सागरोपमं पल्योपमासळवेयभागोनमुत्कर्षतस्तस्योत्कृष्टस्थितेः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य जघन्यत उत्कषेतो वा अन्तर्मुहुरी वेदनापेक्षया. पुद्गलानां त्ववस्थानमुत्कर्षतः प्रागेवोक्तं, कषायद्वादशकस्यानन्तानुबन्धिचतुष्टयाप्रत्याख्यानचतुष्टयप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयरूपस्य प्रत्येकं जघन्या स्थितिश्चत्वारः सागरोपमसप्तभागा पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः, उत्कर्षतस्तेषां स्थितेश्चत्वारिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, सज्वलनानां च जघन्या स्थितिमासद्वयादिप्रमाणा क्षपकस्य खबन्धचरमसमयेऽवसातव्या, स्त्रीवेदस्य जघन्या स्थितिर्यर्द्धसागरोपमस सप्तभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः कथमिति चेत्,
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥४८०॥
उच्यते, त्रैराशिककरणवशात्, तथाहि - यदि दशानां सागरोपमकोटीकोटीनां एकः सागरोपमसंप्तभागो लभ्यते ततः पञ्चदशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिः किं लभ्यते १, राशित्रयस्थापना - १० । १ । १५ । अत्रान्त्येन राशिना पञ्चदशलक्षणेन मध्यो राशिरेकलक्षणो गुण्यते, जाताः पञ्चदशैव, 'एकस्य गुणने तदेव भवतीति वचनात् तेषामाद्येन राशिना दशकलक्षणेन भागहरणं लब्धा सार्द्धाः सप्तभागा इति, 'हासरइअरइभयसोगदुगुंछाणं जहण्णुक्कोसटिई भाणियचा' इति हास्यरतिअरतिभयशोकजुगुप्सानां जघन्या उत्कृष्टा च स्थितिर्वक्तव्या, सा च सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथं वक्तव्येति चेत्, उच्यते, 'हासरईणं पुच्छा गो० ! जहण्णेणं एगो सागरोवमस्स सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेजभागेण ऊणो उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस वाससयाई अवाहा जाव निसेगो, अरइभयसोगदुगुंछाणं पुच्छा, गो० ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगा उक्कोसेणं वीसं सागरोवम कोडाकोडीओ वीससयाई अबाहा जाव निसेगो' इति ज्ञेयं, तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि च त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि इति यदुक्तं तत् पूर्वकोट्यायुषस्तिर्यग्मनुष्यान् बन्धकानधिकृत्य वेदितव्यं, अन्यत्रैतावत्याः स्थितेः पूर्वकोटित्रिभागरूपाया अबाधायाश्चालभ्यमानत्वात्, 'तिरियगइनामाए जहा नपुंसगवेयस्स' इति, जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनौ, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटी कोट्य इत्यर्थः, मनुष्यगतिनानि 'जहणणेणं सागरोवमस्स दिवसत्तभागं पलिओ मस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं' ति अत्र
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२३ कर्मन्धपदे कस्थितिः
सू. २९४
॥४८०॥
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IS भावना स्त्रीवेदवद् भावनीया, 'दिवद्धसत्तभाग'मित्यादौ तु नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , नरकगतिनाम्नो जघन्यतः
सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ, किमुक्तं भवति ?-सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी सहस्रेण गुणिताविति, तदुत्कृष्टस्थितेविंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणत्वात् , तद्वन्धस्य च सर्वजघन्यस्यासंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य भावात् , असंज्ञिपञ्चेन्द्रियकमबन्धस्य च जघन्येनैकेन्द्रियजघन्यकर्मबन्धापेक्षया सहस्रगुणत्वात् , भावयिष्यते चायमों वैक्रियचिन्तायां, देवगतिनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्यैकः सप्तभागः, एकः सागरोपमस्य सप्तभागः सहस्रगुणित इति भावः, तस्य हि उत्कृष्टा स्थितिर्दश सागरोपमकोटीकोटयः, ततःप्रागुक्तकरणवशादेकः सागरोपमस्य सप्तभागो लब्धः, बन्धोऽपि चाय जघन्यतोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येति सहस्रगुणितः, देवगतिनामसूत्रे 'उक्कोसेणं जहा पुरिसवेयस्स' इति 'दस सागरोवमकोडीओ दसवाससयाई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसेगों' इति वक्तव्यमिति भावः, द्वीन्द्रियजातिनामसूत्रे 'जहन्नेणं नव पणतीसहभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणगा' इति, द्वीन्द्रियजातिनानो द्युत्कृष्टा स्थितिरष्टादश सागरोपमकोटीकोटयः, 'अट्ठारस सुहुमविगलतिगे'त्ति [ सूक्ष्मा विकलेन्द्रियाश्चाष्टादश] वचनात् , ततोऽष्टादशानां सागरोपमकोटीकोटीनां मिथ्यात्वस्योत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणया भागो हियते, | भागश्च न पूर्यते, ततः शून्यं शून्येन पात्यते, जाता उपरि अष्टादश अधस्तात् सप्ततिस्तयोरर्द्धनापवर्तनालब्धा नव पञ्चत्रिंशद्भागास्ते पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः क्रियन्ते, आगतं सूत्रोक्तं परिमाणमिति, एवं त्रिचतुरिन्द्रियजातिनामसूत्रे
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प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती.
॥४८॥
अपि भावनीये, वैक्रियशरीरनामसूत्रे 'जहण्णेणं सागरोवमस्स दो सत्तभागा पलिओयमस्स असंखेजइभागेणं ऊण- २३कर्मबगा' इति, इह वैक्रियशरीरनाम्न उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयः स्थितिस्ततः प्रागुक्तकरणवशेन जघन्यस्थिधपदे कतिचिन्तायां तस्यां द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ लभ्येते, परं वैक्रियषटमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाश्च न बन्नन्ति, किन्त्वसं-8 मस्थितिः ज्ञिपञ्चेन्द्रियादयः, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च जघन्यतोऽपि बन्धं कुर्वाणा एकेन्द्रियबन्धापेक्षया सहस्रगुणं कुर्वन्ति, 'पणवी-8 सू. २९४ सा पण्णासा सयं सहस्सं च गुणकारो' [ पञ्चविंशतिःपञ्चाशत् शतं सहस्रं च गुणकारः] इति वचनात्, ततो यौ द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी प्रागुक्तकरणवशालब्धौ तौ सहस्रेण गुण्येते ततः सूत्रोक्तं परिमाणं भवति, सागरोपमस्य द्वौ सहस्रौ सप्तभागानां सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागाविति ोकोऽर्थः, आहारशरीरनाम्नोः जघन्यतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी उत्कर्षतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी, नवरं जघन्यादुत्कृष्ट सङ्ख्येयगुणं द्रष्टव्यं, अन्ये त्वाहारकचतुष्कस्य जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमिच्छन्ति, (तथा च) तदन्थः-"पुंवेयअट्टवासा, अट्टमुहुत्ता जसुच्चगोयाणं । साए बारस आहारविग्यावरणाण किंचूणं ॥१॥" [पुंवेदेऽष्टौ वर्षाण्यष्टमुहूर्त्ता यशउच्चगोत्रयोः । साते द्वादश वर्षाणि आहारकविघ्नावरणानां किञ्चिदूनं ॥१॥] अत्र 'किंचूणमिति अन्तर्मुहर्तमित्यर्थः. तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति, यथा शरी- ४८ रपञ्चकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिपरिमाणमुक्तं तेनैव क्रमेण शरीरबन्धनपञ्चकस्य शरीरसंघातपञ्चकस्य च वक्तव्यं, तथा चाह-'सरीरवन्धननामाएवि पंचण्हवि एवं चेव, सरीरसंघायणनामाए पंचण्हवि' इति 'वइरोसपनारायसंचय
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जनामाए जहारइनामाए' इति, वज्रर्षभनाराचसंहनननानो यथा प्राक्रतिनानोमोहनीयस्योक्तं तथा वक्तव्यं, तद्यथा'वइरोसभनारायसंघयणनामाए भंते! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पं०१, गो०! जह• एकसत्तभागंपलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणं, उक्को० दस सागरोवमकोडाकोडीओ' इति, ऋषभनाराचसूत्रे 'सागरोवमस्स छप्पण्णतीसभागा पलिओवमस्स असंखिजइभागेण ऊणगा' इति, ऋषभनाराचसंहननस्य धुत्कृष्टा स्थितिर्वादश सागरोपमकोटीकोटयः, तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागो हियते, तत्र भागहारासम्भवात् शून्य | शून्येन पातयित्वा छेद्यच्छेदकराश्योरर्द्धनापवर्तनालब्धाःसागरोपमस्य षट् पञ्चत्रिंशद्भागाः३६, तेपल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, एवं नाराचसंहनननाम्रो जघन्यस्थितिचिन्तायां सप्त पञ्चत्रिंशद्भागाः चा पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कृष्टस्थितेश्चतुर्दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , अर्द्धनाराचसंहनननाम्नः अष्टौ पञ्चत्रिंशदभागाः ६ पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः, उत्कृष्टस्थितेः षोडशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , कीलिकासंहनननाम्नो नव पञ्चत्रिंशद्भागाः || पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कृष्टस्थितेरष्टादशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् परिभावनीयाः, सेवार्तसंहननसूत्रं तु सुगमं, यथा संहननषष्टकस्य स्थितिपरिमाणमुक्तं तेनैव क्रमेण संस्थानषट्कस्यापि वक्तव्यं, तथा चाह-एवं जहा संघयणनामा छन्भणिया एवं संप्रणा छब्भाणियवा उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि 'संघयणे संठाणे मे दस उवरिमेसु दुगवुड्डी' इति [संहनने संस्थाने प्रथमे दश उपरितनेषु द्विकवृद्धिः ] हारिद्रवर्णनामसूत्रे 'जह
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
॥४८२ ॥
सु. २९४
नेणं सागरराव मस्स पंच अट्ठावीसहभागा पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणगा' इति, हारिद्रवर्णनानो हि सार्द्धा द्वादशसागरोपमकोटी कोटयः, तथा चोक्तमन्यत्रापि — “सुकिलसुरभिमडुराण दस उ तहा सुभगउण्डफासाणं । अहाइजपबुट्टी अंबिलहालिहपुत्राणं ॥ १ ॥” [ शुक्लसुरभिमधुराणां दशैव तथा सुभगोष्णस्पर्शयोः सार्धद्वयप्रवृ- 8 स्थितिः द्धिरम्लहारिद्रपूर्वाणाम् ॥ १ ॥ ] तासां मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागो हियते, तत्र शून्येन शून्यस्य पातनात्तेन उपरितनो राशिः सांश इति सामस्त्येन चतुर्भागकरणार्थ चतुर्भिर्गुण्यते जाताः पञ्चाशत्, अधस्तनोऽपि सप्ततिलक्षणच्छेदराशिचतुर्भिर्गुण्यते जाते द्वे शते अशीत्यधिके, ततो भूयोऽपि शून्यं शून्येन पातनालब्धाः पञ्च अष्टाविंशतिभागाः | ते पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, आगतं सूत्रोक्तं परिमाणं, अनेनैव गणितक्रमेण लोहितवर्णनाम्नो जघन्यस्थितौ षट् अष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कर्षतस्तस्य स्थितेः पञ्चदश सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, नीलवर्णनाम्नः सप्ताष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कर्षतस्तस्य स्थितेः सार्द्ध सप्तदशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्, 'कालवण्णनामाए जहा सेवट्ठसंघयणस्से ति सेवार्त्त संहननस्येव जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनौ उत्कर्षतो विंशतिसागरोपमकोटीकोटयः कृष्णवर्णनाम्नोऽपि वक्तव्या इति भावः, सुरभिगन्धनाम्नः शुक्लवर्णनाम्न इव, 'सुक्किलसुरभिमहुराण दस उ' इति वचनात्, दुरभिगन्धनाम्नो यथा सेवार्त्तसंहननस्य तच्चानन्तरमेवोक्तमिति न पुनरुच्यते, 'रसाणं महुरादीणं
२३ कर्मचन्धपदे क
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॥४८२॥
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जहा वण्णाणं भणियं तहा परिवाडीए भाणियव' मिति, रसानां मधुरादीनां परिपाट्या-क्रमेण तथा वक्तव्यं ६ यथा वर्णानामुक्तं, तचैवं-मधुररसनाम्नो जघन्या स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः,18 उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयी दश वर्षशतान्यबाधा, अबाधारहिता कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः, अम्लरसनाम्नो जघन्यतः पञ्च सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कर्षतोऽर्द्धत्रयोदशसागरोपमकोटीकोटयो अर्द्धत्रयोदश शतान्यबाधा, कषायरसनानो जघन्यतः षट् अष्टाविंशतिभागाः सागरोपमस्य पल्योपमासङ्ख्येयभागोनाः, उत्कर्षतः पञ्चदश सागरोपमकोटीकोटयः, पञ्चदश वर्षशतान्यबाधा, कटुकरसनाम्नो जघन्यतः सागरोपमस्य सप्ताष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः, उत्कर्षतः सार्द्धसप्तदश सागरोपमकोटीकोटयः सार्द्धसप्तदश शतान्यबाधा, तिक्तरसनानो जघन्यतः सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयो विंशतिर्वषेशतान्यबाधा अबाधाकालहीना च कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेक इति, स्पर्शा द्विविधाः, तद्यथा-प्रशस्ता अप्रशस्ताश्च, तत्र प्रशस्ता मृदुलघुस्निग्धोष्णरूपाः अप्रशस्ताः कर्कशगुरुरूक्षशीतरूपाः, प्रशस्तानां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः, उत्कर्षतो दश सागरोपमकोटीकोटयो दश वर्षशतान्यबाधा अबाधाकालहीना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः, अप्रशस्तानां जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनौ उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयो विंशतिवर्षशतान्यवार्धा अबाधा
Educati
onal
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प्रज्ञापना- याः मलयवृत्ती.
२३ कर्मबन्धपदे कमस्थितिः सू. २९४
॥४८॥
कालोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः, तथा चाह–'फासा जे अप्पसत्था तेसिं जहा सेवठ्ठस्स जे पसत्था तेसिं जहा सुकिल्लवण्णनामस्स' इति, नरकानुपूर्वीनाम्नो जघन्यतः सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ, द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी सहस्रगुणिताविति भावः, भावना नरकगतिवद् भावयितव्या, मनुष्यानुपूर्वीनामसूत्रे “जहण्णणं सागरोवमस्स दिवहुं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखिजइभागेण ऊणगं'ति, तदुत्कृष्टस्थितेः पञ्चदशसागरोपमकोटीकोटी- प्रमाणत्वात् , उक्तं चान्यत्रापि-"तीसं कोडाकोडी असायआवरणअंतरायाणं । मिच्छे सयरी इत्थीमणुदुगसायाण पन्नरस ॥१॥”[त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोट्योऽसातावरणान्तरायाणाम् । मिथ्यात्वे सप्ततिः स्त्रीमनुष्यद्विकसातानां पञ्चदशं ॥१॥] देवानुपूर्वीनाम्नोऽपि जघन्यतः एकः सागरोपमस्य सप्तभागः सहस्रगुणितः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः, उत्कर्षतो हि तत्स्थितेः दशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तथा चोक्तम्-"पुंहासरईउच्चे सुभखगतिथिराइछक्कदेवदुगे । दस सेसाणं वीसा एवइयाऽवाह वाससया ॥१॥॥" [पुंवेदहास्यरत्युच्चैर्गोत्रशुभविहायोगतिस्थिरादिषटूदेवद्विकेषु । दश शेषाणां विंशतिः एतावन्त्यबाधा वर्षशतानि ॥१॥] बन्धश्चास्य जघन्यतोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु इति, तथा सूक्ष्मनामसूत्रे जघन्यतो नव सागरोपमस्य पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना द्वीन्द्रियजातिनाम्न इव भावनीया, सूक्ष्मनानो द्युत्कर्षतः स्थितेरष्टादशसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , 'अट्टारस सुहुमविगलतिगे' इति वचनात् , एवमपर्याप्तसाधारणनामोरपि भावनीयं, बादरपर्याप्तप्रत्येकनाम्नां तु जघन्यतो
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द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनौ, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयः, तथा चाह'बायरनामाए जहा अपसत्थविहायोगइनामाए, एवं पज्जत्तनामाएवि' इत्यादि, स्थिरशुभसुभगसुखरादेयरूपाणां पञ्चानां नाम्नां जघन्यतः स्थितिरेकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागोनः, यश-कीर्तिनाम्नस्तु जघन्यतोऽष्टौ मुहूर्ताः, 'अट्ट मुहुत्ता जसुच्चगोयाण'मिति वचनात् , उत्कृष्टा पुनः षण्णामपि दश सागरोपमकोटीकोटयः 'थिराइछक्कदेवदुगे दसे'ति वचनात् , अस्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्त्तिनाम्नां तु जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनी, उत्कर्षतो विंशतिः सागरोपमकोटीकोटयः, एवं निर्माणनामोऽपि वक्तव्यं, तीर्थकरनानो जघन्यतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटी उत्कर्षतोऽप्यन्तःसागरोफ्मकोटीकोटी, ननु यदि जघन्यतोऽपि तीर्थकरनाम्नोऽन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा स्थितिः तर्हि तावत्याः स्थितेः तिर्यग्भवभ्रमणमन्तरेण पूरयितुमशक्यत्वात् कियन्तं कालं तीर्थकरनामसत्कर्मापि तिर्यग्भवेत्, अथ चासावागमे निषिद्धः, तथा चोक्तम्-"तिरिएसु नत्थि तित्थयरनाम संतंति देसियं समए । कह य तिरिओ न होही अयरोवमकोडीकोडीओ ॥ १॥" [तिर्यक्षु नास्ति तीर्थकरनाम सत्तायां इति देशितं समये । कथं च तिर्यक् न भविष्यति अतरोपमकोटीकोटीस्थितिकत्वात् ? ॥१॥] इति , ततः कथमेतदिति चेत्, उच्यते, इह यन्निकाचितं तीर्थकरनामकर्म तत्तिर्यग्गती सत्तायां निषिद्ध, यत्पुनरुद्वर्तनापवर्तनासाध्यं तद्भवेदपि तिर्यग्गतौ न विरोधमास्कन्दति, तथा चोक्तम्-“जमिह
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प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती.
॥४८४॥
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२३ कर्मबनिकाइय तित्थं तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उच्च एणासज्झे ॥१॥" [यदिह निकाचितं
न्धपदे एतीर्थनाम तिर्यग्भवे तन्निषिद्धं सत्तायाम् । इतरस्मिन् नास्ति दोषः उद्वर्त्तनापवर्त्तनासाध्ये ॥१॥] इति, गोत्रान्तरा
केन्द्रियाहायसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरं 'अंतराइयस्स णं पुच्छा' इति, पञ्चप्रकारस्यापीति वाक्यशेषः, निर्वचनमपि पञ्चप्रकार-
Tणां कर्मस्थापि द्रष्टव्यं । तदेवमुक्तं जघन्यत उत्कर्षतश्च सामान्यतः सर्वासां प्रकृतीनां स्थितिपरिमाणं, साम्प्रतमेकेन्द्रियान-स्थितिःसू. धिकृत्य तासां तदभिधित्सुराह
एगिदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधति ?, गो! जह० सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा पलि- . तोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं निद्दापंचगस्सवि, दंसणचउक्कस्सवि, एगिदिया णं भंते ! सातावेदणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति ?, गो! ज० सागरोवमदिवई सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं उ० तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, असायवेयणिजस्स जहा णाणावरणिजस्स, एगिदियाणं भंते! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधति ?, गो० ! णत्थि किंचि बंधंति, एगिदिया णं भंते! जीवा मिच्छत्तवेदणिजस्स कम्मस्स. ४४८४॥ किं बंधंति, गो०! ज. सागरोवमं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणं उ० तं चेव पडिपुणं बंधंति, एगिदिया णं भंते ! जीवा सम्मामिच्छ त्तवेयणिज्जस्स किं बंधति ?, गो० ! णत्थि किंचि बन्धंति, एगिदिया णं भंते !, जीवा कसायबारसगस्स किं बंधंति ?, गोयमा ! जह. सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणते उ०
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ते चेव पडिपुण्णे बंधति, एवं जाव कोहसंजलणाएवि जाव लोभसंजलणाएवि, इत्थिवेदस्स जहा सातावेदणिजस्स, एगिदिया पुरिसवेदस्स कम्मस्स जह० सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं उक्को तं चैव पडिपुण्णं बंधंति, एगिंदिया नपुंसगवेदस्स कम्मस्स जह० सागरोवमस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणए उक्को० ते चेव पडिपुण्णं बंधंति, हासरतीते जहा पुरिसवेदस्स, अरतिभयसोगद्गुंछाए [उक्को० ते चेव पडिपुण्णे बंधति, हासरतीते जहा पुरिसवेदस्स अरतिभयसोगदुगुंछाए] जहा नपुंसगवेयस्स, नेरइयाऊ देवाऊ य निरयगतिनाम देवगतिनाम वेउब्वियसरीरनाम आहारगसरीरनाम नेरइयाणुपुबिनाम देवाणुपुविनाम तित्थगरणाम एताणि पदाणि ण बंधति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह• अंतो० उक्कोसेणं पुत्वकोडी सत्तहिं वाससहस्सेहिं वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधति, एवं मणुस्साउयस्सवि, तिरियगतिनामाए जहा नपुंसगवेदस्स, मणुयगतिनामाए जहा सातावेदणिज्जस्स, एगिदियनामाए पंचिंदियजातिनामाए य जहा नपुंसगवेदस्स, बेइंदियतेइंदियजातिनामाए पुच्छा, जह• सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागे पलितोवमस्स असखेजतिभागेणं ऊणए उक्को० ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, चउरिंदियनामाएवि जह० सागरोवमस्स णव • पणतीसतिभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणए उ० ते चेव पडिपुण्णे बंधन्ति, एवं जत्थत्थि जहण्णगं दो सत्त
भागा तिनि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठावीसतिभागा भवंति, तत्थ णं जहण्णेणं ते चेव पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणगा भाणितवा, उ० ते चेव पडिपुण्णे बंधति, तत्थ णं जहण्णेणं एगो वा दिवड्डो वा सत्तभागो तत्थ जह• तं चेव भाणितत्वं उ० तं चेव पडिपुण्णं बंधति, जसोकित्तिउच्चागोताणं ज. सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलितोवमस्स
कोसणं पुवकोडी सत्ताहानामाए जहा सातावदास नव पणतीसतिभाग
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२९५
प्रज्ञापना
असं० ऊणं उ० तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, अंतराइयस्स णं भंते ! पुच्छा, गो ! जहा णाणावरणिज्जं उ० ते चेव २३कर्मबयाः मल- पडिपुण्णे बंधति । (सूत्रं २९५)
न्धपदे ए य. वृत्ती. RI 'एगिन्दिया णं भंते ! जीवा णं नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधति?' इत्यादि, अत्रेयं परिभाषा-यस्य यस्य केन्द्रियाकर्मणो या या उत्कृष्टा स्थितिः प्रागभिहिता तस्याः २ मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोकोटीकोटीप्रमाणया भागे हृते
|णां कर्म॥४८५॥
यल्लभ्यते तत्पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनं जघन्या स्थितिः, सैव पल्योपमासङ्ख्येयभागसहिता उत्कृष्टेति, एतत्परिभाव्य स्थितिः सू. सकलमप्येकेन्द्रियगतं सूत्रं खयं परिमावनीयं, तथापि विनेयजनानुग्रहाय किञ्चिल्लिख्यते-ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकासातवेदनीयान्तरायपञ्चकानां जघन्यत एकेन्द्रियाणां स्थितिबन्धस्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमास-| ध्येयभागहीनाः, उत्कृष्टतस्त एव परिपूर्णास्त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः, सातवेदनीयस्त्रीवेदमनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्षीणां जघन्यतः सार्द्धः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः, उत्कर्षतस्तु स एव सार्द्धः सप्तमागः परिपूर्णः, मिथ्यात्वस्य जघन्यत एकं सागरोपमं पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनमुत्कर्षतः तदेव परिपूर्ण, सम्यक्त्ववेदनीयस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीयस्य च न किश्चिदपि बनन्ति, न किञ्चिदपि वेद्यमानतयाऽऽत्मप्रदेशः सम्बन्धयन्तीति। ॥४८५॥ भाकः, एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्ववेदनीयस्य सम्यग्मिथ्यात्ववेदनस्य चासम्भवात्, यस्तु साक्षाद्वन्धः स सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोन घटत एवेति प्रागेवाभिहितं, कषायषोडशकस्स जघन्यतश्चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागाः फल्यो
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पमासङ्ख्येयभागोना उत्कर्षतस्त एव परिपूर्णाः, पुरुषवेदहास्यरतिप्रशस्तविहायोगतिस्थिरादिषटूप्रथमसंस्थानप्रथमसंहन-11 नशुक्लवर्णसुरभिगन्धमधुररसोचैर्गोत्राणां जघन्यत एकः सागरोपमस्य सप्तभागः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनः उत्कर्षतः स एव परिपूर्णः, द्वितीयसंस्थानसंहननयोः जघन्यतः षट् पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना उत्कर्षतस्त एव । परिपूर्णाः, तृतीयसंस्थानसंहननयोजघन्यतः सप्त सागरोपमस्य पञ्चत्रिंशद्भागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना उत्कर्षतस्त || एव परिपूर्णाः, लोहितवर्णकषायरसयोर्जघन्यतः षट् सागरोपमस्साष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना उत्कपतस्त एव परिपूर्णाः, हारिद्रवर्णाम्लरसयोर्जघन्यतः पञ्च सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनाः ।। उत्कर्षतस्त एव परिपूर्णाः, नीलवर्णकटुरसयोः सप्त सागरोपमस्याष्टाविंशतिभागाः पल्योपमासङ्येयभागोनाः उत्कपंतस्त एव परिपूर्णाः, नपुंसकवेदभयजुगुप्साशोकारतितियगौदारिकद्विकचरमसंस्थानचरमसंहननकृष्णवर्णतिक्तरसागुरुलघुपराघातोच्छासोपघातत्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकास्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्तिस्थावरातपोद्योताशमविहायोगतिनिर्माणकेन्द्रियजातिपञ्चेन्द्रियजातितैजसकामणानां जघन्यतो द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमास
यभागहीनौ उत्कर्षतस्तावेव परिपूर्णाविति, नरकद्विकदेवद्विकवैक्रियचतुष्टयाहारकचतुष्टयतीर्थङ्करनाम्नां त्वेकेन्द्रियाणां न बन्धः, आयुश्चिन्तायामपि एकेन्द्रिया देवायुनेरयिकायुवो न बघ्नन्ति, तथा भवखाभाव्यात.किन्त तिर्यगायर्मनुष्यायो, तदपि बधन्तो जघन्यतोऽन्तमुहूत्ते बन्नन्ति, उत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रमाणं साधिक केवलमत्कष्ट चि-1
90992989929202010000
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प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती.
॥४८६॥
न्त्यते इत्येकेन्द्रिया द्वाविंशतिर्वर्षसहस्रप्रमाणायुषः खायुपश्च त्रिभागावशेषे परभवायुर्वन्तः परिगृयन्ते इति सप्तवर्षसहस्राणि वर्षसहस्रत्रिभागोत्तराण्यधिकानि लभ्यन्ते, ततो भवति तिर्यगायुर्मनुष्यायुश्चिन्तायां सूत्रोक्तं परिमाणमिति । उक्तमेकेन्द्रियबन्धकानधिकृत्य जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिपरिमाणं, सम्प्रति द्वीन्द्रियानधिकृत्य तमभिधित्सुराह
इंदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ?, गो० ! जह० सागरोवमपणवीसाते तिणि सत्तभागा पलितोवमस्स असं ०ऊणया उ० ते चेत्र पडिपुण्णे बंधंति, एवं निद्दापंचगस्सवि, एवं जहा एगिंदियाणं भणितं तहा बेइंदियाणवि भाणित, नवरं सागरोवमपणवीसाए सह भाणितवा पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणा सेसा (उ०) तं चैव पडिपुण्णं बंधंति, जत्थ एगिंदिया न बंधंति तत्थ एतेवि न बंधंति, बेइंदिया णं भंते ! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति ?, गो० !, जह० सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखेजइभागेण ऊणयं उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह० अंतो० उको० पुछ्कोडिं चउहिं वासेहिं अहियं बंधंति, एवं मणुयाउयस्सवि, सेसं जहा एगिंदियाणं जाव अंतराइयस्स । तेइंदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिअस्स किं बंधंति ?, गो० ! जह० सागरोवमपण्णासाए तिण्णि सत्तभागा पलितोवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणया उ० ते चैव पडिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जतिभागा ते तस्स सागरोवमपणास सहभाणितवा, तेइंदिया णं भंते ! मिच्छत्तवेदणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ?, गो० ! ज० सागरोवमपण्णासं
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२३ कर्मचन्धपदे हीन्द्रियादीनां कर्मस्थितिःसू.
२९५
॥४८६ ॥
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पलितोवमस्सासंखेजतिभागेणं ऊणयं उ० तं चेव पडिपुण्णं बंधति, तिरिक्खजोणियाउयस्स जह. अंतो० उक्को०. पुवकोडिं सोलसेहिं राइदियतिभागेण य अहियं बंधंति, एवं मणुस्साउयस्सवि, सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स । चरिदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स किं बंधंति ?, गो० ! जह० सागरोवमसयस्स तिण्णि सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणए उक्को० ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जति भागा तस्स सागरोवमसतेण सह भाणितत्वा, तिरिक्खजोणियाउयस्स कम्मस्स जह० अंतो० उ० पुवकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं, एवं मणुस्साउयस्सवि, सेसं जहा बेइंदियाणं, णवरं मिच्छत्तवेदणिजस्स जह० सागरोवमसतं पलितोवमस्स असंखेजतिभागेणं ऊणयं उ० तं चैव पडिपुण्णं बंधति, सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स । असण्णी णं भंते ! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति ?, गो! जह. सागरोवमसहस्सस्स तिण्णि सत्तभागे पलितोवमस्सासंखेजतिभागेणं ऊणए उक्को० ते चेव पडिपुण्णे, एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं, णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणितवं जस्स जति भागत्ति, मिच्छत्तवेदणिजस्स जह० सागरोवमसहस्सं पलितोवमासंखेजतिभागेणं ऊणयं उ० तं चेव पडिपुण्णं, नेरइयाउयस्स जह० दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तममहियाई उक्कोसेणं पलितोवमस्स असंखेजतिभागं पुत्वकोडितिभागब्भहियं बंधंति, एवं तिरिक्खजोणियाउयस्सवि, णवरं जह० अंतो०, मणुयाउयस्सवि देवाउयस्स जहा नेरइयाउयस्स, असण्णी णं भंते ! जीवा पंचिंदियनिरयगतिनामाए कम्मस्स किं बंधति ?, गो० ! जह० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणया उक्को० ते चेव पडिपुण्णे, एवं तिरियगतितेवि, मणुयगतिनामाएवि एवं चेव, णवरं जह• सागरो
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ.
॥४८७॥
वमसहस्सस्स दिवङ्कं सत्तभागं पलितोवमस्सासंखेज्जइभागेण ऊणं उक्को० तं चैव पडिपुण्णं बंधंति, एवं देवगतिनामाए, नवरं ते सागरोवमसहस्सस्स एवं सत्तभागं पलिओ मस्सासंखे ० ऊणं उ० तं चेत्र पडिपुण्णं, वेउब्वियसरीरनामाए पुच्छा, गो० ! ज० सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलितोवमस्सा संखेज्जतिभागेण ऊणे उक्को० दो पडिपुण्णे बंधंति, सम्मत्तसम्मा - मिच्छत्तआहारगसरीरनामाते तित्थगरनामाए ण किंचि बंधंति, अवसिद्धं जहा बेइंदियाणं, णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स सा सागरोवमसहस्सेण सह भाणितवा, सबेसिं आणुपुवीए जाव अंतराइयस्स | सण्णी णं भंते! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधंति ?, गो० ! ज० अंतोमु० उ० तीसं सा० कोडाकोडीओ तिष्णि वाससहस्साई अबाहा, सणी भंते! पंचिंदिया विद्दापंचगस्स किं बंधंति ?, गो० ! जह० अंतो० सागरोवमकोडाकोडीओ उ० तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तिण्णि य वाससहस्साई अवाहा, दंसणच उकस्स जहा णाणावरणिज्जस्स, सायावेदणिज्जस्स जहा ओहिया ठिती भणिता तहेव भाणितवा, ईरियावहियबंधयं पडुच्च संपराइयबंधयं च, असायावेयणिजस्स जहा णिद्दापंचगस्स, सम्मत्तवेदणिजस्स सम्मामिच्छत्तवेदणिजस्स जा ओहिया ठिती भणिता तं बंधंति, मिच्छावेदणिजस्स ज० अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ उक्को० सत्तारं सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्तरिय वाससहस्साई अबाहा, कसायबारसगस्स जह० एवं चैव उक्को० चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, चत्तालीस य वाससयातिं अबाहा, कोहमाणमाया लोभसंजलणाए य दो मासा मासो अद्धमास अंतोमुहुत्तो, एवं जहन्नगं, उक्कोसगं पुण जहा कसायवारसगस्स, चउण्हवि आउयाणं जा ओहिया ठिती भणिता तं बंधंति, आहारमसरीरस्स तित्थगरनामाए य जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीतो उ० अंतोसागरोचमकोडा
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२३ कर्मत्रन्धपदे द्वी. न्द्रियादीनां कर्मस्थितिःसू.
२९५
॥४८७॥
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कोडीओ, पुरिसवेदणिजस्स ज. अह संवच्छराई उ० दस सागरोवमकोडाकोडीओ दस य वाससताई अबाहा, जसोकित्तिणामाए उच्चागोत्तस्स एवं चेव, नवरं जह० अह मुहुत्ता, अंतराइयस्स जहा णाणावरणिजस्स, सेसएसु सवेसु ठाणेसु संघयणेसु संठाणेसु वण्णेसु गंधेसु य जह. अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ उक्को जा जस्स ओहिया ठिती भणिता तं बंधंति, णवरं इमं नाणत्तं अबाहा अबाहूणिया ण बुच्चति, एवं आणुपुबीते सव्वेसि, जाव अंतरायस्स ताव माणितवं (सूत्रं २९६) 'बेइंदिया णं भंते ! जीवा' इत्यादि. अत्रेयं परिभाषा-यस्य २ कर्मणो या या स्थितिरुत्कृष्टा प्रागभिहिता तस्याः तस्याः मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हते यल्लभ्यते तत्पञ्चविंशत्या गुण्यते गु|णितं च सत् यावद्भवति तावत्पल्योपमासङ्ख्येयभागहीनं द्वीन्द्रियाणां बन्धकानां जघन्यस्थितिपरिमाणं तदेव परि
पूर्णमुत्कृष्टस्थितिपरिमाणं, तद्यथा-ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकासातवेदनीयान्तरायपञ्चकानां त्रयः सागरोपमस्स Sसप्तभागाः पञ्चविंशत्या गुणिताः, वस्तुवृत्त्या पञ्चविंशतेः सागरोपमाणां त्रयः सप्तभागाः पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना
जघन्यस्थितिबन्धपरिमाणं, त एव परिपूर्णा उत्कृष्टमित्यादि। त्रीन्द्रियबन्धचिन्तायां तदेव भागलब्धं पञ्चाशता गुण्यते चतुरिन्द्रियबन्धचिन्तायां शतेन असंज्ञिपञ्चेन्द्रियचिन्तायां सहस्रेण, आह च कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिकार:-"पण-16 |वीसा पन्नासा सयं सहस्सं च गुणकारो। कमसो विगलअसन्नीण"मिति [पञ्चविंशतिः पञ्चाशत् शतं सहस्रं च गुण-16
402020129000000000000
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्ती.
॥४८८॥
कारः । क्रमेण विकलासंज्ञिनाम् । ] तत एतदनुसारेण सूत्रं स्वयं निगमनीयं सुगमत्वात् नवरं 'सागरोवमण्णवीसाए तिष्णि सत्तभागा पलिओनमस्स असंलेज्जइभागेणं ऊणना' इति, अत्रेयं गणितभावना - पञ्चविंशतेः सागरोपमाणां सप्तभिर्भागे हियमाणे यल्लभ्यते तत्रिगुणीकृत्य पल्योषमा सङ्घपेयभागहीनं क्रियते इति, एवं सर्वत्रापि यथायोगं | गणित भावना कर्त्तव्या । संज्ञिषश्चेन्द्रियबन्धकसूत्रे ज्ञानावरणीयादिकर्मणां जघन्यतः स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्त्तादिपरिमाणः क्षपकस्य स्वस्ववन्धचरमसमये प्रतिपत्तव्यः, निद्रापञ्चका सातवे दनीयमिध्यात्मकषायद्वादशकादीनां तुः क्षपणादव:क् बन्ध इति तेषां जघन्यतोऽप्यन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणः उत्कृष्टो मिथ्यादृधेः सर्वसङ्क्लिष्टस्य, नक्रं तिर्थमनुष्यदेवायुषां खखबन्धकेष्वतिषिद्धस्येति । इह संज्ञिपञ्चेन्द्रियसूत्रे ज्ञानावरणीयादिकर्म्मणां जयम्यस्थितिषन्धोऽन्तर्मुहूर्त्तादिपरिमाण उक्तः, स कस्मिन् स्वामिनि लभ्यते इति जिज्ञासु पृच्छति
जाणावर जस्स णं मंते ! कम्मस्स जहण्णद्वितीबंधए के० १, गो० ! अण्णयरे सुहुमसंपरायते उवसामए वा खवगे वा एस गो० ! जाणावर णिज्जस्स कम्मस्सः जहणठितीबंधते, तबइरिते अजहण्णे, एवं एएणं अभिलाषेणं मोहाउथवज्जाणं सेसकम्माणं भाणितवं, मोहणिजस्स णं मंते । कम्मरस जहण्णठितीबंधते के० १, गो० ! अनवरे वादरलंपराए उनसामए क aar वा एस णं मो० ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जहणठितीबंधते, तवतिरिते अजहण्णे, आउयस्सः णं भंते! कम्माः जतिबंध के ० १, गो० ! जे णं जीवे असंखेप्यद्धापविट्टे सधनिरुद्धे से आडते, सेसे सक्षमहंतीए आठयबंथद्वार
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२३ कर्मप्रकृतिपदं
॥४८८॥
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तीसे 5 आउयबंघद्धाए चरिमकालसमयसि सबजहणिय ठिई अपज्जत्तापज्जत्तियं निवत्तेति, एस गं गोयमा! आउयकम्मस्स जहण्णठितीबंधते, तबइरित्ते अजहण्णे (सूत्रं २९७) 'नाणावरणिजस्स गं मैते ! कम्मस्स जहण्णठिइबंधए के ?' इत्यादि सुममं , नवरमन्यत्तरसूक्ष्मसंपराय इति । यदुक्तमस्य व्याख्यानं क्षपक उपशमको वा सूक्ष्मसम्परायः, इह ज्ञानावरणस्य बन्धः क्षपकस्य उपशमकस्य च जघन्यतोऽन्तर्महर्त्तप्रमाणस्ततोऽन्तमहतत्वाविशेषात् उपशमको वा क्षपको वा इत्युक्तम्, अन्यथाऽत्रापि क्षपकापेक्षया | उपशमकस्य बन्धो द्विगुणो वेदितव्यो, यत आह कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणिकारः-खवगुवसाममपडिवयमाणो दुगुणो तहिं तहिं बंधो' [क्षपकोपशमकप्रतिपततां द्विगुणस्तत्र तत्र बन्धः] इति, ततो वेदनीवस्य साम्परायिकबन्धचिन्तायां जघन्यः स्थितिबन्धः क्षपकस्य द्वादश मुहूर्ता उपशमकस्य चतुर्विंशतिः, नामगोत्रयोर्जघन्यतः क्षपकस्याष्टौ मुहूतो उपशमकस्य षोडश, परं उपशमकस्यापि जघन्यतो बन्धः शेषवन्धापेक्षया सर्वजघन्य इति तत्सुत्रेष्वपि 'अन्नयरे महुमसंपराए उवसामए वा खवणे या' इति वक्तव्यं, तथा च वक्ष्यत्ति-'एएणं अभिलावेणं मोहाउवज्जाणं सेसकम्माणं भाणिय'ति उपसंहारसूत्रे 'तवइरित्ते अजहन्ने' इति तद्व्यतिरिक्त:-क्षपकोपशमकसूक्ष्मसम्परायव्यतिरिक्तो जनो
जघन्यस्थितिबन्धकः, आयुर्वन्धकसूत्रे 'जे णं जीवे असंखिप्पद्धापविटे' इत्यादि, इह द्विविधा जीवाः-सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुषश्च, तत्र देवा नैरयिका असङ्ख्येयवर्षायुषस्तिर्यम्मनुष्याः सङ्ख्येयवर्षायुषोऽप्युत्तमपुरुषाश्चक्रवत्यादयश्चर
99%80090902
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याः मल
य० वृत्तौ .
॥४८९ ॥
मशरीरिणश्च निरुपक्रमायुष एव, शेषास्तु सोपक्रमा अपि निरुपक्रमा अपि उक्तं च - "देवों नेरइया वा असंखवासाउया य तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ॥ १ ॥ सेसा संसारत्था भइया सोवकमा व | इयरे वा । सोवक्कमनिरुवक्कमभेओ भणिओ समासेणं ॥ २ ॥” [देवा नैरयिका वा असंख्यवर्षायुष्काश्च नरतिर्यञ्चः । उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीराश्च निरुपक्रमाः ॥ १ ॥ शेषाः संसारस्था भक्ताः सोपक्रमा वेतरे वा । सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन ॥ २ ॥] तत्र देवा नैरयिका असङ्ख्येयवर्षायुषस्तिर्यग्मनुष्याश्च पण्मासावशेषायुषः पारभविकायुर्बन्धका एव, ये पुनस्तिर्यग्मनुष्याः संख्ये वर्षायुषोऽपि निरुपक्रमायुषस्ते नियमात्रिभागावशेषायुषः परभवायुर्वन्ति, ये तु सो पक्रमायुषस्ते स्यात्रिभागावशेषायुषस्त्रिभाग त्रिभागावशेषायुषो यावदसङ्क्षेप्याद्धाप्रविष्टा इति, तत आह - 'जे णं जीवे' इत्यादि, यो णमिति वाक्यालङ्कारे जीवोऽसङ्क्षेप्याद्धाप्रविष्टः त्रिभागादिना प्रकारेण या सङ्क्षेसुं न शक्यते सा असङ्क्षेप्या सा चासौ अद्धा च असङ्क्षेप्याद्धा तां प्रविष्टः असङ्क्षेप्याद्धाप्रविष्टः, अत आह— ' से ' तस्यासप्याद्धाप्रविष्टस्य जीवस्यायुः सर्वनिरुद्धं उपक्रमहेतुभिरतिसङ्क्षिप्तीकृतं, आयुर्वन्धनिवर्त्तनमात्र एव कालः तस्यास्ति न परतो जीवनकाल इति भावः, एतदेव स्पष्टतरमाह - 'सेसे सक्षमहंतीए आउयबंधद्धाए' इह सर्वमहती | आयुर्बन्धाद्धा अष्टाकर्षप्रमाणा तस्याः शेषः - एकाकर्षप्रमाणा तावन्मात्रं सर्वनिरुद्धं तस्यायुर्वर्त्तते इति भावः, ततो- ऽसङ्क्षेप्याद्धाप्रविष्टः, स इत्थंभूतः तस्या - आयुर्वन्धाद्धायाश्चरमकालसमये — चरमकालावसरे एकाकर्षप्रमाणे, इह
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२३ कर्मप्रकृतिपदं
॥४८९ ॥
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चरमसमयकालग्रहणेन न परमनिरुद्धः समयः परिगृह्यते किन्तु यथोक्तरूपः कालस्ततो हीनेन कालेनायुबन्धस्यासम्भवात् , यत उक्तं प्राक् व्युत्क्रान्तिपदे "जीवा णं भंते ! ठिइनामनिहत्ताउयं कइहिं आगरिसेहिं पकरेइ ?. गोसा जह एक्केणं उक्कोसेणं अट्टहिं आगरिसहि' इति, एकेन चाकर्षणायुनिवर्तयति सर्वजघन्यं, यत आह-'सचजहनिय'मिति, सर्वजघन्यां-सर्वलध्वीं स्थितिमिति गम्यते, निवर्तयति बभ्रातीति भावः, किंविशिष्टामित्याह'पर्याप्तापर्याप्तिकां' शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिवर्तनोच्छासपर्याप्त्यनिर्वर्तनसमर्थी, कथमेतत् अवसेयं यत्सर्वजघन्यामपि स्थिति निवर्तयति जीवः शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिवर्तनसमर्थां न ततो हीनतरां इति चेत्, उच्यते, युक्तिवशात् , तथाहि-इह । सर्व एव देहिनः परभवायुर्बवा म्रियन्ते नान्यथा, परभवायुषश्च बन्ध औदारिके वैक्रिये आहारके वा योगे वर्तमानस्य न कार्मणे औदारिकादिमिश्रे वा, तथा चाह मूलटीकाकारः-"जेणोरालियाईणं तिण्हं सरीराणं कायजोगे वट्टमाणो आउयबंधगो, न कम्मए ओरालियाइमिस्से वा" इति, औदारिकादिकाययोगश्च विशिष्टो भवति शरीरेन्द्रियपर्याप्त्या, न केवलं शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य, तत एतत्सिद्धं-शरीरपर्याप्त्या इन्द्रियपर्याप्त्या च पर्याप्तस्य मरणं नान्यथेति, सर्वजघन्यामपि स्थिति निवर्तयति शरीरेन्द्रियपर्याप्सिनिर्वर्तनसमर्थो न ततोऽपि हीनतरामिति, 'एस णं गोयमे'त्याधुपसंहारवाक्यम् । तदेवमुक्तो जघन्यस्थितिबन्धकः, सम्प्रत्युत्कृष्टस्थितिबन्धके पृच्छति___ उक्कोसकालद्वितीयं णं भंते ! णाणावरणिज्जं किं नेरइओ बंधति तिरिक्खजोणिओ बंधइ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो
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२२
प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती.
॥४९॥
बंधह मणुस्सिणी बंधइ देवो बंधइ देवी बंधइ , गो! नेरइओवि बंधइ जाप देवीवि बंधइ, केरिसए णं भंते ! बेहए। उक्कोसकालठिइयं णाणावरणिज्ज कम्मंबंधइ, गोसणी पंचिंदिए सबाहिं पज्जतीहिं पजते सागारे जागरे सुखो(तो)वउत्ते - मिच्छादिट्ठी कण्हलेसे य उक्कोससंकिलिट्ठपरिणामे ईसिमज्झिमपरिणामे वा, एरिसए णं गो०! नेरइए उक्कोसकालहितिवं णाणावरणिझं कम्मं बंधति, केरिसए णं भंते । तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं णाणावरणिज कम्मं बंधति १; गो! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचेंदिए सबाहिं पजत्तीहिं पञ्जचए सेसं तं चेव जहा नेरइमस्स, एवं तिरिक्खजोणिणीवि मासेवि मणसीवि, देवदेवी जहा नेरइए, एवं आउयवजाणं सत्तण्हं कम्माणं । उकोसकालठितीयं णं भंते ! आउयं कम्मं किं नेरइओ बंधति जाव देवी बं०१, गो०! नो नेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधति, नो तिरिक्खजोणिणी बंधति, मणुस्सेवि बंधति मणुस्सीवि बंधति, नो देवो बंधइ नो देवी बंधइ, केरिसए णं भंते ! तिरिक्खजोणिते उकोसठितीयं आउयं कम्मं बंधति', गो! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचिदिए सबाहिं पजत्तीहिं पजत्तए सागारे जागरे सुत्तोवउत्ते मिच्छदिट्ठी परमकण्हलेसे उक्कोससंकिलिङपरिणामे, एरिसए णं गो० ! | तिरिक्खजोणिते उक्कोसकालद्वितीयं आउयं कम्मं बंधति, केरिसए णं भंते ! मणसे उक्कोसकालद्वितीयं आउयं कम्मं बंधति, गो कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुत्तो(तो)वउत्ते सम्मदिट्ठीवा मिच्छद्दिट्टी वा कण्हलेसे वा सुकलेसे वा णाणी वा अण्णाणी वा उ० संकिलिट्ठपरिणामे का असंकिलिट्ठपरिणामे.वा तप्पाउग्गविसुज्झमाणपरिणामे का एरिसए णं गो० मनसे उक्कोसकालद्वितीयं आउयं कम्मं बंधति, केरिसया णं मंते ! मणुसी उक्कोसकालाहिइयं आउ
॥४९॥
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कम्मं बंधह, गो० ! कम्मभूमिया वा कम्मभूमगपलिभागी वा जा सुत्तोवउत्ता सम्मद्दिष्टी सुक्कलेसा तप्पाउग्गचिसुज्झमाणपरिणामा, एरिसिया णं गोतमा ! मणूसी उक्कोसकालहिइयं आउयं कर्म बंधति, अंतराइयं जहा गाणावरणिशं (सूत्र २९८)॥ पण्णवणाए तेवीसमं पर्व समत्तं ॥ २३ ॥ . 'उक्कोसकालठिइयं णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं किं नेरइओ बंधइ' इत्यादि, सुगम, नैरयिकसूत्रे 'सागार' इति || साकारोपयुक्तः, 'जागरे' इति जाग्रत् नारकाणामपि कियानपि निद्रानुभवोऽस्ति तत उक्तम्-'जाग्रदिति 'सुचो(तो) वउत्ते' इति श्रुतोपयुक्तः सामिलापज्ञानोपयुक्त इति भावः। तिर्यग्योनिकसूत्रे 'कम्मभूमगपलिभागी च' कर्मभूमगाःकर्मभूमिजातास्तेषां प्रतिभागः-सादृश्यं तदस्यास्तीति कर्मभूमगप्रतिभागी कर्मभूमगसदृश इत्यर्थः, कोऽसाविति चेत् , उच्यते, या कर्मभूमिजा तिर्यकत्री गर्भिणी सती केनाप्यपहृत्याकर्मभूमौ मुक्ता तस्या जातः कर्मभूमगसदृश | इत्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते-कर्मभूमग एव यदा केनाप्यकर्मभूमौ नीतो भवति तदा स कर्मभूमगप्रतिभागी व्यपदिश्यते इति । उत्कृष्टस्थितिकायुबन्धचिन्तायां नैरयिकतिर्यग्योनिकस्त्रीदेवदेवीनां प्रतिषेधः, तासामुत्कृष्टस्थितिषु नरकादिपूत्पत्त्यभावात् , मनुष्यसूत्रे 'सम्मट्टिी वा मिच्छादिट्ठी वा' इति, इह द्वे उत्कृष्टे आयुषी, तद्यथा-सप्तमनरकपृथिव्यायुर्वनाति तदा मिथ्याष्टिः, यदा पुनरनुत्तरसुरायुस्तदा सम्यग्दृष्टिः, कण्हलेसे वा' नारकायुर्वन्धक: 'सुक्कलेसे वा' इति अनुत्तरसुरायुर्वन्धकः सम्यग्दृष्टिरप्रमत्तयतिः, उत्कृष्टसलिष्टपरिणामो नारकायुर्वन्धकस्तत्मा
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प्रज्ञापनाया मलय० वृत्तौ .
॥४९१॥
योग्यविशुद्ध्यमानपरिणामोऽनुत्तरसुरायुर्वन्धकः, मानुषी तु सप्तमनरकपृथिवीयोग्यमायुर्न बाति अनुत्तरसुरायुस्तु बभ्रातीति तत्सूत्रे सर्व प्रशस्तं ज्ञेयं, इह अतिविशुद्ध आयुर्बन्धमेव न करोतीति तत्प्रायोग्यग्रहणं, शेषं कण्ठ्यम् ॥ इतिश्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां त्रयोविंशतितमं कर्मप्रकृत्याख्यं पदं परिसमाप्तम् ॥
अथ चतुर्विंशतितमं कर्मप्रकृतिबन्धपदं ॥ २४ ॥
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व्याख्यातं त्रयोविंशतितमं पदं, सम्प्रति चतुवैिशतितममारभ्यते - तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे कर्मबन्धादिरूपः परिणामविशेषश्चिन्तितः, स एव वक्ष्यमाणेष्वपि चतुर्षु पदेषु क्वचित् चिन्त्यते, तत्र चतुर्विंशतितमस्य पदस्येदमादि सूत्रम् —
कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ?, गो० ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं० - णाणावरणिजं जाव अंतरा - इयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो बंधइ १, गो० ! सत्तविहबंध वा अट्ठविह० छविहबंधते वा, नेरइए णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंध वा अट्ठविह, एवं जाव वेमाणिते, णवरं मणुस्से जहा जीवे, जीवा णं भंते ! णाणावरणिअं कम्मं
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२४ कर्मबन्धपदं
॥४९१॥
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बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छबिहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छविहबंधगा य, णेरइया ण भंते ! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीतो बंधंति ? गो० ! सवेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबधगा य अट्ठविहबंधगे य, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य तिण्णि भंगा, एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइया णं पुच्छा, गो०! सत्तविहबंधगावि अट्टविहबंधगावि एवं जाव वणप्फइकाइया, विगलाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं तियभंगो सब्वेवि ताव होज सत्तविहबंधगा अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य, मणूसा णं भंते ! णाणावरणिज्जस्स पुच्छा, गो० ! सवेवि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधए य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य छबिहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगे य छविहवंधगे य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छबिहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छबिहबंधगे य ८ अहवा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगा य छबिहबंधगा य ९ एवं एते नव भंगा, सेसा वाणमंतरादिया जाव वेमाणिता जहा नेरइया सत्तविहादिबंधगा भाणिता तहा भाणितवा, एवं जहा णाणावरणं बंधमाणा जहिं भणिता दंसणावरणंपि बंधमाणा तहिं जीवादीया एगत्तपोहुत्तेहिं भाणितवा, वेयणिजं बंधमाणे जीवे कति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा, एवं मणूसेवि, सेसा नारगादीया सत्तवि० अट्टविहबंधगा जाव वेमाणिते, जीवा णं
बंधगे य २ अहवा सतरणजस्स पुच्छा, गोमय अविहबंधगे य अहवा सत्यतिरिक्खजोणिहबंधगा अविहबंधगे य छबिहबंधगा या अहवा सत्तविहबंधगा या अहवा सत्तविहबंधगा य हवा सत्तपि
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
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॥४९॥
भंते ! वेदणिज कम्मे पुच्छा, गो० ! सब्वेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधगा य एगविहबंधया य छविहर्व- २४कर्मब. धए य अहवा सचविहवंधमा य अट्ठविहबंधगा य एमविहबंधगा य छबिहबंधगा य अवसेसा, नारगादीया जाव वेमाणि- न्धपदं ता जहिं णाणावरणं बंधति तहि माणितबा, एवं मणूसा गं भंते ! वेदणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो० ! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा य एगवि० १ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठविहबंधगे य२ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अहवि० ३ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छबिहबंधगे य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविह. छबिह० ५ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठविहबंधते य छविहबंधते य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अढविहबंधते य छविहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य एगवि० गा व अविहवं. छविहबंधगे य ८ अहषा सत्तविहबंधगा य एगवि० अट्ठवि० छबिहब०९एवं एए नव भंगा भाणियवा, मोहणिजं बंधमाणे जीवे कति०१, गो०! जीवेगिदियवजो तियभंगो, जीवेगिंदिया सत्तविहबंधगावि अढविहबंधगावि, जीवे में भंते ! आप कम्मं बंधमाणे कति कम्म०, मो०! नियमा अट्ट, एवं नेरइए जाव वेमाणिए एवं पुहुत्तेणवि, णामगोयअंतराइयं बंधमाणे जीवे कति०, गो०! जीवा णाणावरणिज्ज बंघमाणे जाहिं बंधति ताहि भाणितबो, एवं नेरइएवि, जाव वेमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि भाणियत्वं ॥ (सूत्रं २९९) पण्णवणाए भगवईए चउवीसतिमं पयं समतं ॥
M॥४९॥ 'करणं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्तागो' इत्यादि, प्रागुपन्वतस्थालापकस्खेहोपन्यासो विशेषाभिधानार्थः, एवमुत्तरे-11
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शवपि पदेषु भावनीयं, संप्रति किं कर्म बनन् कानि कर्माणि वनातीति बन्धसम्बन्धं चिचिन्तयिषुः प्रथमतो ज्ञानावरणीयेन सह सम्बन्धं चिन्तयति-'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीजो बंधई' सुगम, नवरं सप्तविधवन्धक आयुर्वन्धकाभावकाले अष्टविधवन्धक आयुरपि बनन् पड्डिधकाधको मोहायुर्वन्धाभावे, सच सूक्ष्मसम्परायः, उक्तं च-"सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउवजगाणं तु । तह मुहमसंपराया छधिहबंधा विणिहिहा ॥१॥ मोहाउयवजाणं पवडीणं ते उ बंधगा भणिया॥" [ सप्तविघबन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वर्जानाम् । तथा सूक्ष्मसंपरायाः षडिववन्धा विनिर्दिष्टाः ॥१॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः]] इति, एकविधबन्धकस्तु न लभ्यते, एकविधबन्धका हि उपशान्तकषायादयः, तथा चोक्तम्-'उवसंतखीयमोहा | केवलिणो एगविहबंधा। ते पुणदुसमयहिइयस्स बंधका न उण संपरायस्स ॥" [उपशान्तक्षीणमोहाः केवलिन एकविधबन्धाः । ते पुनर्व्हिसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः संपरायस्य ] न चोपशान्तकषायादयो ज्ञानावरणीयं कर्म वनन्ति, तद्वन्धस्य सूक्ष्मसम्परायचरमसमय एव व्यवच्छेदात्, किन्तु केवलं सातवेदनीयमिति ॥ एतदेव नैरयिका| दिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइए णं भंते' इत्यादि, इह मनुष्यवर्जेषु शेषेषु पदेषु सर्वेष्वपि द्वावेव भङ्गको द्रष्टव्यौ सप्तविधबन्धको वा अष्टविधबन्धको वा इति, न तु तृतीयः षड्विधबन्धक इति, तेषु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानास-1 म्भवात् , मनुष्यपदेषु त्रयोऽपि वक्तव्याः, तत्र सूक्ष्मसम्परायत्वसम्भवात् , तथा चाह-एवं जाव वेमाणिए, नवरं
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प्रज्ञापनावाः मलयवृत्ती.
२४कर्मव. न्धपदं
॥४९॥
मणूसे जहा जीवे' इति । उक्त एकत्वेन दण्डकः, सम्प्रति बहुत्वेनाह-'जीवा णं भंते' इत्यादि, इह जीवाः सप्तवि- धबन्धकाः अष्टविधवन्धकाश्च सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते, षडूविधवन्धकस्तु कदाचित्सर्वथा न भवति, षण्मासान् या- वत् उत्कर्षतस्तदन्तरस्य प्रतिपादनात्, यदापि लभ्यते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, तत्र यदैकोऽपि न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः, यदा त्वेको लभ्यते तदा द्वितीयो, बहूनां लाभे तु तृतीय इति, नैरयिकाः षड्विधबन्धका न भवन्ति अष्टविधबन्धका अपि कादाचित्काः, तत्र यदैकोऽप्यष्टविधवन्धको न लभ्यते तदा सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तविधबन्धका इति प्रथमो भङ्गः, यदा त्वेकोऽष्टविधबन्धकस्तदा द्वितीयो यदा तु बहवस्तदा तृतीय इति, एतदेव भङ्गत्रिकं दशखपि भवनपतिषु भावनीयं, पृथिव्यादिषु पञ्चसु सप्तविधबन्धका अपि अष्टविधबन्धका अपीत्येक एव भङ्गोऽष्टविधबन्धकानामपि सदैव तेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्य पञ्चेन्द्रियसूत्रेषु भङ्गत्रिकं नैरयिकवत् , मनुष्यसूत्रे भङ्गनवकमष्टविधवन्धकस्य पद्भिधबन्धकस्य च कदाचित् सर्वथाप्यभावात् , तत्राष्टविधषविधवन्धकाभावे सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तविधबन्धका इति प्रथमो भङ्गः, सप्तविधबन्धकानां सदैव बहुत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , एकाष्टविधवन्धकभावे द्वितीयः सप्तविधवन्धकाश्चाष्टविधबन्धकश्च, बह्वष्टविधबंधकभावे तृतीयः सप्तविधवन्धकाश्चाष्टविधबंधकाच, एवमेवाष्टविधबन्धकाभावे षइविधवन्धकपदेनाप्येकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भङ्गाविति द्विकसंयोगे चत्वारो भङ्गाः, त्रिकसंयोगेऽप्यष्टविधबन्धकपविधबन्धकपदयोः प्रत्येकमेकवचनबहुवचना
॥४९
॥
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भ्यां चत्वार इति सर्वसङ्ख्यया नव, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका नैरयिकवत् , यथा ज्ञानावरणीयं चिन्तितं तथा दर्शनावरणीयमपि चिन्तयितव्यं, वेदनीयचिन्तायां एकविधवन्धक एव इति उपशान्तमोहादि, शेषं प्राग्वत्, मनुष्यपदविषयचिन्तायामपि त एव प्रागुक्ता नव भङ्गाः, सप्सविधबन्धकानामेकविधबन्धकानां च सदैव बहुत्वेनावस्थिततया भङ्गान्तरासम्भवात् , मोहचिन्तायां जीवपदे पृथिव्यादिषु पदेषु च प्रत्येकं एक एव भङ्गः-सप्तविधवन्धका | अपि अष्टविधवन्धका अपीति, उभयेषामपि सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , पइविधबन्धकस्तु मोहनीयबन्धको न भवति. मोहनीयबन्धो ह्यनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकं यावत्, षविधवन्धकस्तु सूक्ष्मसंपराय इति, आयर्वन्धकस्तु नियमादष्टविधवन्धक इति तचिन्तायामेकवचने बहुवचने च सर्वत्रामङ्गकं, नामगोत्रान्तरायसूत्राणि ज्ञानावरणीयसूत्रवत् ।। इति श्रीमलयगिरिविर० कर्मबन्धाख्यं चतुर्विशतितमं पदं समाप्तम् ॥२४॥
अथ पञ्चविंशतितमं कर्मवेदाख्यं पदं ॥२५॥ सम्प्रति पञ्चविंशतितममारभ्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पं० १, गो०! अट्ट कम्मपगडीतो पण्णत्ताओ तं०–णाणावरणिजं जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवे णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति ?, गो. निय
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
२५कर्मवेदपदं सू. ३००
॥४९॥
मा अट्ट कम्मपगडीतो वेदेति, एवं नेरइए जाव वेमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि, एवं वेदणिज्जवजं जाव अंतराइयं । जीवेणं भंते ! वेदणिजं कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति ?, गो०! सत्तविहवेदए वा अढविहवेदए वा चउबिहवेदए वा, एवं मणसेवि, सेसा नेरइयाति एगतेण पुहुत्तेणवि नियमा अट्ट कम्मपगडीओ वेदंति जाव वेमाणिया, जीवाणं भंते ! वेदणिजं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीतो वेदेति ?, गो ! सव्वेवि ताव होजा अट्ठविहवेदगा य चउबिहवेदगा य? अहवा अट्टविहवेदगा य चउबिह. सत्तविहवेदगे य २ अहवा अट्टविहवेदगा य चउवि. सत्तवि० ३, एवं मणसावि भाणियबा ॥ (सूत्रं ३०० ) पण्णवणाए भगवईए कम्मवेदणामं पणवीसतिमं पयं समत्तं ॥ २५॥ 'कह णं भंते कम्मपगडीओ' इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म बनन् कति कर्मप्रकृतीर्वेदयते इति चिन्तयति'जीवे णं भंते !' इत्यादि सुगम, वेदनीयसूत्रे 'सत्तविहवेयए वा अट्टविहवेयए(या) वा चउविहवेयए(या)वा' इति,सप्तविधवेदक उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा, तयोर्मोहनीयोदयाभावात् , अष्टविधवेदका मिथ्यादृष्टयादयः सूक्ष्मसम्परायान्ताः, तेषामवश्यमष्टानामपि कर्मणामुदयभावात् , चतुर्विधवेदकः सयोगिकेवली, तस्य घातिकर्मचतुष्टयोदयाभावात्, बहुवचने सप्तविधवेदकाः कादाचित्का इति भङ्गत्रयम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां पञ्चविंशतितमं| कर्मवेदाख्यं पदं समाप्तम् ॥ २५ ॥
॥४९४॥
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अथ षड्विंशतितमं कर्मवेदबन्धाख्यं पदं ॥ २६ ॥
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अधुना षड्विंशतितममारभ्ये, तत्र चेदमादिसूत्रम्- . कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णताओ, गो० ! अह कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं0-णाणा० जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवे णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधति ?, गो० ! सत्तविहबंधए वा अवविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा, नेरइए णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं वेदेमाणे कति कम्म० बंधति ?, गो.! सत्तविहबंधए वा अट्ठवि०, एवं जाव वैमाणिते, एवं मणसे जहा जीवे, जीवाणं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं वेदेमाणा कति० ! कम्मपगडीतो बंधंति !, गो० ! सवेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्ठविह० १ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य छबिहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगाय छबिहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधए य ४ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य ५ अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठवि० छबिहबंधए य एगविहबंधए य ६ अहवा सत्तविहबंधगा य अडवि० छविहबंधए य एगविहबंधगा य ७ अहवा सत्तविहबंधगा य अढवि० छविह० एगविहबंधए य ८, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठ०
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
२६कर्मवेदबन्धपदं
॥४९५॥
छविह० एगविह० ९, एवं एते नव भंगा, अवसेसाणं एमिंदियमणूसवज्जाणं तियभंगो जाव वेमाणियाणं; एगिदियाण सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबं०, मणूसाणं पुच्छा, गो० ! सवेवि ताव होज सत्तविहबंधगा १ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगे य २ अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य ३ अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधए य४, एवं छबिहबंधएणवि समं दो भंगा, एगविहबंधएणवि समं दो भंगा, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छबिहबंधए य चउभंगो १ अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य एगविहबंधगे य चउभंगो २, अहवा सत्तविहबंधगा य छबिहबंधए य एगविहबंधए य चउभंगो ३ अहवा सत्तविहबंधगा य अहविहबंधए य छबिहबंधए य एगविहबंधए य भंगा अह, एवं एते सत्तावीसं भंगा, एवं जहा णाणावरणिज्जं तहा दंसणावरणिज्जंपि अंतराइयंपि, जीवे णं भंते ! वेदणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीतो बंधति ?, गो०! सचविहबंधते वा अहविहबंधते वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा, एवं मणूसेवि, अवसेसा णारयादीया सत्तविहवं. अट्टविहबं० एवं जाव वेमाणिता । जीवा गं भंते ! वेदणिजं कम्मं वेदेमाणा कति० बंधति ?, गो० ! सब्वेवि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा य अढवि० एगवि० छविहबंधगे य, अहवा सत्तविहबंधगा य अद्वविहबंध० एगविहबंध० छविहबंधगा य, अबंधगेणवि समं दो भंगा भाणितवा, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंध० एगविहबंध० छबिहबंधगे य अबंधगे य चउभंगो, एवं एए नव भंगा, एगिदियाणं अभंगतं, नारगादीणं तियभंगा जाव वेमाणियाणं, नवरं मसाणं पुच्छा, सवेवि ताव होजा सत्तविहबंधगा एगविहबंधगा य अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छबिहबंधते य अट्ठविहवं
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॥४९५॥
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धते य अबंधते य, एवं एते सत्तावीसं भंगा भाणितवा, एवं जहा वेदणिज तहा आउयं नाम गोयं च भाणितवं, मोहणिजं वेदेमाणे जहा णाणावरणिजं तहा भाणियत्वं ॥ (मूत्रं ३०१) पण्ण. छब्बीसतिमं पयं समत्तम् ॥ २६॥
'कति णं भंते ! इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म वेदयमानः काः कर्मप्रकृतीबंधातीत्युदयेन सह बन्धस्य सम्बन्धं चिचिन्तयिषुरिदमाह-'जीवे णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं वेएमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधई' इत्यादि सुगम, नवरं ज्ञानावरणीयं कर्म वेदयमान एकविधबन्धकः उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा न तु सयोगिकेवली, तस्य ज्ञानावरणीयोदयाभावात् , बहुवचनचिन्तायां षड्विधबन्धकाः सूक्ष्मसम्पराया एकविधबन्धका उपशान्तमोहक्षीणमोहाः कादाचित्का एकत्वादिना च भाज्या इत्युभयेषामप्यभावे सप्तविधबन्धका अपि अष्टविधबन्धका अपीत्येको भङ्गो, द्वयानामपि सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , ततः षडविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ भङ्गो, एवमेव द्वौ भङ्गावेक विधबन्धकप्रक्षेपेऽपि, उभयोरपि युगपत् प्रक्षेपे पूर्ववचत्वार इति सर्वसत्यया नव, नैरयिकादिषु तु पदेष्वेकेन्द्रियमनुष्यवर्जेषु बहुवचनचिन्तायां भङ्गत्रिकं, अष्टविधवन्धकानां कादाचित्कतया एकत्वादिना भाज्यतया च लभ्यमानत्वात् , एकेन्द्रियेष्वभङ्गक, सप्तविधबन्धका अष्टविधबन्धका अपीति, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , मनुष्येषु तु सप्तविंशतिर्भङ्गाः, अष्टविधवन्धकषड्विधवन्धकएकविधबंधकानां कादाचित्कतया एक|त्वादिना भाज्यमानतया लभ्यमानत्वात् , तत्रामीषामभावे सप्तविधबन्धका इत्येको भङ्गः, ततोऽष्टविधवन्धकपदप्र
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२३कर्मवे.
प्रज्ञापनाया मलय० वृत्ती.
दबन्धपदं सू. ३०१
॥४९६॥
क्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ द्वौ, षड्विधबन्धकप्रक्षेपे द्वौ, एकविधबन्धकप्रक्षेपे सति सप्त, ततोऽष्टविधबन्धक| षड्विधबन्धकपदप्रक्षेपे चत्वारः, अष्टविधबन्धकैकविधबन्धकपदप्रक्षेपे चत्वारः, षड्विधबन्धकएकविधवन्धकपदप्रक्षेपेऽपि चत्वारः, एकोनविंशतिः, ततोऽष्टविधवन्धकषड्विधवन्धकैकविधबन्धकपदानां युगपत् प्रक्षेपेऽष्टाविति सप्तविंशतिः, वेदनीयसूत्रे एकविधबन्धकः सयोगिकेवल्यपि, तस्यापि वेदनीयोदयबन्धसम्भवात् , अबन्धकोऽयोगिकेवली, तस्य योगाभावतो वेदनीयं वेदयमानस्यापि तद्वन्धासम्भवाद्, वेदनीयसूत्रे एकवचनबहुवचनचिन्तायां जीवपदे नव भङ्गाः, तत्र सतविधबन्धकाष्टविधबन्धकैकविधबन्धकानां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् बहुवचनात्मके इतरपदद्वयाभावे एकः, ततः षविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ एवमेव द्वावेकविधबन्धकपदप्रक्षेपे चत्वार उभयपदप्रक्षेपे इति । मनुष्यपदे सप्तविंशतिः, तत्र हि सप्तविधबन्धका एकविधबन्धका एकेन बहुत्वेन सदावस्थिता इतरे तु त्रयोऽप्यष्टविधबन्धकाः षड्विधबन्धकाः अबन्धकाश्च कादाचित्का एकत्वादिना च भाज्याः, ततस्तेषामभावे | सप्तविधबन्धका अप्येकविधबन्धका अपीत्येको भङ्गः, ततोऽष्टविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ द्वौ षविधवन्धकपदप्रक्षेपे द्वावेकविधबन्धकपदप्रक्षेपे इति षट्, तथा त्रयाणां पदानां त्रयो द्विकसंयोगा एकैकस्मिन् द्विकसंयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति द्विकसंयोगे द्वादश त्रिकसंयोगेऽष्टाविति सर्वसङ्ख्यया सप्तविंशतिः, एवमायुनामगोत्रसूत्राण्यपि भावनीयानि, मोहवेदनीयं कर्म वेदयमानो जीवः सप्तविधबन्धकोऽष्टविधबन्धकः षड़
SO90999900900507
॥४९६॥
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विधबन्धको वा, सूक्ष्मसम्परायावस्थायामपि मोहनीयवेदनसम्भवात् , एवं मनुष्यपदेऽपि वक्तव्यं, नरकादिषु तु पदेषु सप्तविधबन्धकोऽष्टविधबन्धको वेत्येवं वक्तव्यं, सूक्ष्मसम्परायत्वाभावतः षड्विधबन्धकत्वासम्भवात् , बहुवचनचिन्तायां जीवपदे भङ्गत्रिक, तत्र सूक्ष्मसम्परायाः कादाचित्का इतरे च द्वये सदैव बहुत्वेन लभ्यन्ते इति षड्वि|धबन्धकपदाभावे सप्तविधबन्धका अपि अष्टविधवन्धका अपीयेको भङ्गः, ततः षड़विधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वावेतो भङ्गाविति, नैरयिकादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु सप्तविधबन्धकाः सदा बहुत्वेनावस्थिताः, अष्टविधबन्धकास्तु कादाचित्का एकत्वादिना च भाज्या इति, अष्टविधबन्धकपदाभावे सप्तविधबन्धका इत्येको भङ्गः, ततोऽष्टविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वाविति, पृथिव्यादिषु तु पञ्चखप्यभङ्गक सप्सविधबन्धका अपि अष्टविधबन्धका अपीति, उभयेषामपि तेषु सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेषु व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु च नैरयिकवत् भङ्गत्रिकं, मनुष्येषु नव भङ्गाः, तत्र सप्तविधबन्धका इत्येको भङ्गस्ततोऽष्टविधबन्धकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ द्वौ षड्विधबंधकपदप्रक्षेपे एकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वारः उभयपदप्रक्षेपे इति, तथा चाह-"मोहणिजं वेएमाणे जहा [बंधे] णाणावरणिजं तहा भाणियब'मिति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां षडविंशतितमं वेदबन्धाख्यं पदं समाप्तम् ॥
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प्रज्ञापना
या मलय० वृत्तौ.
॥४९७॥
अथ सप्तविंशतितमं कर्मप्रकृतिवेदवेदपदं ॥ २७ ॥
-60000
संप्रति सप्तविंशतितममारभ्यते, तत्रेदमादिसूत्रम् -
कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पं० १, गो० ! अट्ठ, तं० - णाणा० जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवे भंते! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति १, गो० ! सत्तविहवेयए वा अट्ठविहवेयए वा, एवं मणूसेवि, अवसेसा गत्तेणवि पुहुत्तेणवि णियमा अट्ठ कम्मपगडीतो वेदेति जाव वेमानिया, जीवा णं भंते ! णाणावर - णि वेदेमाणा कति कम्मपगड़ीतो वेदेंति ?, गो० ! सबेचि ताव होज्जा अट्ठविहवेदगा, अहवा अट्ठविहवेदगा य सत्तविह वेदगे य अहवा अट्ठविहवेद्गा य सत्तवि०, एवं मणूसावि, दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं च एवं चैव भाणितवं वेदणिज्जं आउयनामगोतातिं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेएति १, गो० ! जहा बंधगवेदगस्स वेयणिज्जं तहा भाणितवाणि, जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं वेदेमाणे कति कम्मपगडीतो वेदेति १, गो० ! नियमा अट्ठ कम्मपगडीतो वेदेति, एवं नेरतिए जाव वेमाणिते, एवं पुहुत्तेणवि ( सूत्रं ३०२ ) ॥ पण्णवणाए भगवईए सत्तावीसइमं पर्यं समत्तं ॥ २७ ॥
'कई णं भंते!' इत्यादि गतार्थ, सम्प्रति किं कर्म वेदयमानः कति कर्मप्रकृतीर्वेदयते इत्युदयस्योदयेन सह सम्बन्धं चिन्तयति - 'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेएमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएर' इत्यादि, तत्र सप्तविधवे
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२७ कर्मवेदवेदपदं
सू. ३०२
॥४९७॥
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दक उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा तयोर्मोहनीयोदयासम्भवात् शेषस्तु सूक्ष्मसंपरायादिरष्टविधवेदकः, एवं मनुष्यपदेऽपि वाच्यं, नैरयिकादयस्तु नियमादष्टविधवेदकाः, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे मनुष्यपदे च भङ्गत्रिकं, तत्र सर्वेऽपि तावद् भवेयुः अष्टविधवेदका इत्येको भङ्गः, ततः सप्तविधवेदकस्यैकस्य भावे द्वितीयो बहूनां भावे तृतीयः, शेषेषु तु नैरयिकादिषु पदेषु अभङ्गमष्टविधवेदका इति, सप्तविधवेदकत्वस्य तत्रासम्भवात् एवं दर्शनावर - णीयान्तरायसूत्रेऽपि वक्तव्यं, वेदनीयसूत्रे जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमष्टविधवेदको वा सप्तविधवेदको वा चतुविधवेदको वेति वक्तव्यं, शेषेषु तु नैरयिकादिषु अष्टविधवेदक इत्येकः, तेषामुपशान्तमोहत्वाद्यवस्थासम्भवात्, तत्रैव वेदनीयसूत्रे बहुवचनचिन्तायां जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तत्राष्टविधवेदका श्वेत्येको भङ्गः, एष | सर्वथा सप्तविधवेदकानामभावे, ततः सप्तविधवेदकपदप्रक्षेवे एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ भङ्गाविति, शेषेषु तु नैरयिकादिषु स्थानेष्वभङ्गकं अष्टविधवेदका इति, एवमायुर्नामगोत्रसूत्राण्यपि भावनीयानि, मोहनीयं कर्म वेदयमानो नियमादष्टविधवेदक इति, जीवादिषु पञ्चविंशतौ पदेष्वेकवचनचिन्तायां बहुवचनचिन्तायां च सर्वत्रापि अभङ्गकं - अष्टौ कर्मप्रकृतीर्वेदयते वेदयन्ते वा ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्र० वेदवेदाख्यं सप्तविंशतितमं पदं समाप्तम् ॥ २७॥
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अथ अष्टविंशतितमं आहारपदं ॥ २८ ॥
प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
२८आहारपदे उद्देशःश्नारकाणामाहारादि सू.३०३
॥४९॥
तदेवमुक्तं वेदवेदाख्यं सप्तविंशतितमं पदं, सम्प्रत्यष्टाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे नारकादिगतिसमापन्नानां कर्मवेदनापरिणाम उक्तः, इह त्वाहारपरिणाम इति, तत्र चेमे सङ्ग्रहणिगाथेसच्चित्ता १ हारट्ठी २ केवति ३ किं वावि ४ सवतो चेव ५। कतिभागं ६ सवे ७ खलु परिणामे ८ चेव बोद्धये ॥१॥ एगिदियसरी रादी लोमाहारो तहेव मणभक्खी । एतेसिं तु पदाणं विभावणा होंति कातवा ॥२॥नेरइया णं भंते ! किं ! सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा , गो०! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया, ओरालियसरीरा जाव मणूसा सचित्ताहारावि अचित्ताहारावि मीसाहारावि । नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी , हन्ता आहारट्ठी, नेरइयाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति ?, गो० ! नेरइयाणं दुविधे आहारे पण्णत्ते, तं०-आभोगनिवतिते य अणाभोगनिव्वत्तिते य, तत्थ णं जे से अणाभोगनिवत्तिते से णं अणुसमयमविरहिते आहारहे समुप्पजति, तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिते से णं असंखिज्जसमतिए अंतोमुहुत्तिते आहारट्टे समुप्पज्जति, नेरइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति?, गो० ! दवतो अणंतपदेसियाति खेचओ असंखेजपदेसोगाढातिं कालतो अण्णयरहिइयाति भावओ वण्णमंतातिं गंधमंताई रसमंताई फासमंताई, जाई भावतो वण्णमंताई आहारेति ताई कि एगवण्णाति आहारैति जाव किं पंचवण्णाई
४९८॥
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आहारैति ?, गो० ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाईपि आहारेंति जाव पैचवण्णाइंपि आहारैति, विहाणमग्गणं पड्डुच्च कालवण्णाइंपि आहारेंति जाव सुकिल्लाईपि आहारेंति, जाति वण्णतो कालवणातिं आहारेंति ताई किं एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आ० संखिज्ज असंखिजगुणकालाई आ० जाव अणंतगुणकालाई आ०१, गो०! एगगुणकालाइंपि आ० जाव अणतगुणकालाईपि आ० एवं जाव सुकिल्लाई, एवं गंधतोवि रसतोवि, जाई भावओ फासमंताई ताई नो एगफासाइं आ० नो दुफासाइं आ० नो तिफासाई आहारेंति चउफासाइं आहारेंति, जाव अट्ठफासाइंपि आ०, विभागमग्गणं पडुच्च कक्खडाइंपि आ० जाव लुक्खाई, जातिं फासतो कक्खडातिं आ० ताई किं एगगुणकक्खडाई आ० जाव अणंतगुणकक्खडाइं आ० १, गो० ! एगगुणकक्खडाईपि आ० जाव अणंतगुणकक्खडाइंपि आ०, एवं अहवि फासा भाणितवा, जाव अणंतगुणलुक्खाईपि आ०, जाति भंते ! अणंतगुणलुक्खाई आ० ताई कि पुट्ठाई आ० अपुट्ठाई आ०१, गो०! पुट्ठाई आ० नो अपुट्ठाई आ०, जहा भासुद्देसए जाव णियमा छद्दिसि आ०, ओसणं कारणं पडुच्च वण्णओ कालनीलातिं गंधओ दुन्भिगंधाति रसओ तित्तरसकडयाई फासओ कक्खडगुरुयसीयलुक्खाई तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विपरिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुत्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सबप्पणयाए आहारं आहारैति । नेरइया णं भंते ! सबओ आहारैति सबओ परिणामंति सबओ ऊससंति सवओ नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति आहच्च आहारेंति आहच परिणामेंति आहच्च ऊससंति आहच्च नीससंति ?, हंता! गो० ! णेरइया सव्व
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प्रज्ञापना-1 याः मलय० वृत्ती.
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२८आहारपदे उद्देशः१असुरादीनामाहारादि सू. ३०४
ताए गिण्हंतित पणिहत्ताए अमगुणमति (सूत्र ३०२२ परिणमति,
समुजोर परिणमा, जाव तेसि भुजा समुप्पजई, ओमान पोराणे
॥४९९॥
9999999999999900
तो आहारेंति एवं तं चेव जाव आहच्च नी०। नेरइया णं भंते ! पोग्गले आहारत्ताते गिण्हंति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेति कतिभागं आसाएंति ?, गो० ! असंखेजतिभागं आ० अणंतभागं अस्साएंति, नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हंति ते कि सवे आहारैति नो सवे आहारेंति ?, गो० ! ते सत्वे अपरिसेसए आहारेति । नेरइया णं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो २ परिणामेंति ?, गो० ! सोतिंदियत्ताते जाव फासिंदियत्ताते अणिद्वत्ताते अकंतत्ताए अण्णिद्वत्ताए अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताते अणिच्छियत्ताते अभिज्झित्ताए अहत्ताते नो उद्धत्ताए दुक्खताते नो सुहत्ताते एतेसि भुज्जोर परिणमंति (सूत्रं ३०३) असुरकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी!, हंता ! आहारट्ठी, एवं जहा नेरइयाणं तहा असुरकुमाराणवि भाणितवं, जाव तेसिं भुञ्जो २ परिणमंति, तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिते से णं जहण्णेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं सातिरेगवाससहस्सस्स आहारहे समुप्पजइ, ओसणं कारणं प. डुच्च वण्णतो हालिद्दसुकिल्लातिं गंधतो सुब्भिगंधाति रसतो अंबिलमहुराति फासओ मउयलहुयनिद्भुण्हातिं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे जाव फासिंदियत्ताते जाव मणामत्ताते इच्छियत्ताते भिज्झियत्ताते उद्धृत्ताते नो अहत्ताए सुहत्ताए नो दुहत्ताए एतेसिं भुजो २ परिणमंति, सेसं जहा नेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमाराणं, णवरं आभोगनिवत्तिते उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जति ( सूत्रं ३०४) ..
॥४९९॥
'सचित्ताहारट्ठी' इत्यादि प्रथमोऽधिकारः सचित्तपदोपलक्षितः स चैवम-नेरइया णं भंते! कि सचित्ताहारा
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अचित्ताहारा इत्यादि १, द्वितीय आहारार्थिन इति २, तृतीयः 'केवइय'त्ति कियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यते इत्यादिरूपः ३, चतुर्थः किमाहारमाहारयन्तीतिपदोपलक्षितः ४ पञ्चमः सर्वत इतिपदोपलक्षितः, स चैवम्'नेरइया णं सबतो परिणामंती'त्यादि ५ चेवशब्दः समुच्चये, 'कइभागं'ति गृहीतानां पुद्गलानां कतिभागमाहारयन्तीत्येवमादिः षष्ठोऽधिकारः६, 'तथा सवे' इति यान् पुद्गलान् आहारतया गृह्णन्ति तान् किं सर्वान्-अपरिशेषान् आहारयन्ति उतासर्वान् इत्येवमुपलक्षितः सप्तमोऽधिकारः ७, तथाऽष्टमोऽधिकारः परिणामः-परिणामरूपो बोद्धव्यः, स चैवम्-'नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुजो २ परिणामंती'त्यादिरूपः ८, नवमोऽर्थाधिकारः एकेन्द्रियादीनि शरीराणि, स चैवम्-'नेरइया णं भंते ! किं एगिदियसरीराई आहारति जाव पंचिंदियसरीराइं आहारेंति ? ९, दशमोऽधिकारो लोमाहारो-लोमाहारवक्तव्यतारूपः १०, एकादशो मनोभक्षितवक्तव्यतारूपः ११, "एएसिंतु' इत्यादि, एतेषां सामान्यतोऽनन्तरमुद्दिष्टानां पदानां-अर्थाधिकाराणां विभावना-विस्तरतः प्रकाशना नाम भवति कर्त्तव्यता, सूत्रकारवचनमेतत् । प्रतिज्ञातमव निर्वाहवितुकामो 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमाधिकारं विभावयति-'नेरइया णं भंते!' इत्यादि, नैरयिका भदन्त ! किं सचित्ताहाराः-सचित्तमाहारयन्तीति सचित्ताहाराः, एवमचित्ताहारा मिश्राहारा इत्यपि भाक्नीयं, भगवानाहगौतम'त्यादि, इह वैक्रियशरीरिणो वैक्रियशरीरपरिपोषयोग्यान पुदलानाहारयन्ति, ते चाचित्ता एव सम्भवन्ति न
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प्रज्ञापना
या मल
य० वृत्तौ .
॥५००॥
जीवपरिगृहीता इत्यचित्ताहारा न सचित्ताहारा नापि मिश्राहाराः, एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाश्च वेदितव्याः, औदारिकशरीरिणः पुनरौदारिकशरीरपरिपोषयोग्यान् पुद्गलानाहारयन्ति, ते च पृथिवीकायिकादिपरिणामपरिणता इति सचित्ताहारा अचित्ताहारा मिश्राहाराश्च घटन्ते, तथा चाह - 'ओरालियसरीरा जाव मणूसा' इत्यादि, औदारिकशरीरिणः पृथिवीकायिकेभ्य आरभ्य यावन्मनुष्याः, किमुक्तं भवति ? - पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपा एकेन्द्रिया द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च एते प्रत्येकं सचित्ताहारा अप्यचित्ताहारा अपि मिश्राहारा अपि वक्तव्याः । उक्तः प्रथमाधिकारः, सम्प्रति द्वितीयादीनष्टमपर्यन्तान् सप्ताधिकारान् चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण युगपदभिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामभिदधाति - 'नेरइया ण' मित्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! आहारार्थिनः, काक्वाऽभिधानतः प्रश्नार्थत्वावगतिः, भगवानाह – 'हंते' त्यादि, हन्तेत्यनुमतौ अनुमतमेतत्, गौतम ! आहारार्थिनो नैरयिका इति, यदि आहारार्थिनस्ततो भदन्त ! नैरयिका णमिति पूर्ववत् 'केवइका लस्स' त्ति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी, कियता कालेन आहारार्थः- आहारलक्षणं प्रयोजनं आहाराभिलाष इतियावत् समुत्पद्यते ?, भगवानाह - 'गौतम !' इत्यादि, नैरयिकाणां द्विविधो-द्विप्रकारः आहारः; तद्यथा - आभोगनिवर्त्तितोऽनाभोगनिर्वर्त्तितश्च तत्र आभोगनमाभोगः - आलोचनमभिसन्धिरित्यर्थः आभोगेन निर्व|र्त्तितः - उत्पादित आभोगनिर्वर्त्तित आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मापित इतियावत्, तद्विपरीतोऽनाभोगनिर्वर्त्तितः,
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२८आहा
रपदे उद्दे
शः १असुरादीना
माहारादि
सू. ३०४
॥५००॥
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आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण यो निष्पाद्यते प्रावृट्काले प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्ग्यशीत पुद्गलाद्याहारवत् सोऽनाभोग निर्वर्त्तित इति भावः, 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र - अनाभोगाभोगनिर्वर्त्तितयोर्मध्ये योऽसावनाभोग निर्वर्त्तित आहारः 'से ण' मिति पूर्ववत् 'अनुसमयं' प्रतिसमयं समये २ इत्यर्थः, इह च दीर्घ कालोपभोग्य स्याहारस्यैकवारमपि ग्रहणे तावन्तं कालमनुसमयं भवति, तत आभवपर्यन्तं सातत्यग्रहणप्रतिपादनार्थमाह-अविरहित आहारार्थः समुत्पद्यते, अथवा सततप्रवृत्ते आहारार्थेऽपान्तराले चुक्कस्खलितन्यायेन येन कथञ्चित् विरहभावेऽपि लोके तदगणनया अनुसमयमिति व्यवहारः प्रवर्त्तते ततोऽपान्तराले विरहाभावप्रतिपादनार्थमविरहित इत्युक्तं, अनुसमयमविरहितोनाभोग निर्वर्त्तित आहारार्थः समुत्पद्यमानः ओजआहारादिना प्रकारेणावसेयः, 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र - आभोगानाभोग निर्वर्त्तितयोर्मध्ये योऽसावाभोगनिर्वर्त्तितः आहारार्थः सोऽसङ्ख्येयसामयिक :- असङ्ख्येयैः समयैर्निर्वर्त्तितः, यच्चा| सङ्ख्येयसमय निर्वर्त्तितं तज्जघन्यपदेऽप्यन्तर्मुहूर्त्तिकं भवति न हीनमत आन्तर्मुहूर्त्तिक आहारार्थः समुत्पद्यते, किमुक्तं भवति ? - अन्तर्मुहूर्त्त कालं यावत् प्रवर्त्तते न परतो, नैरयिकाणां हि योऽसावाहारयामीत्यभिलाषः स परिगृहीताहारद्रव्यपरिणामेन यजनितमतितीव्रतरं दुःखं तद्भावादन्तर्मुहूर्त्तान्निवर्त्तते तत आन्तर्मुहुर्त्तिको नैरयिकाणामाहारार्थः, 'नेरइया ण' मित्यादि, नैरयिका णमिति पूर्ववत् किंखरूपमाहारमाहारयन्ति ?, भगवान् द्रव्यादिभेदतस्तमाहारयन्तीति निरूपयितुकाम आह— 'गोयमे' त्यादि, गौतम ! द्रव्यतो- द्रव्यखरूपपर्यालोचनायां अनन्तप्रादेशिकानि
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प्रज्ञापना- याः मलय०वृत्ती.
२८आहा. रपदे उद्देशः१असुरादीनामाहारादि सू.३०४
॥५०॥
द्रव्याणि, अन्यथा ग्रहणासम्भवात्, न हि सङ्ख्यातप्रदेशात्मका असङ्ख्यातप्रदेशात्मका वा स्कन्धा जीवस्य ग्रहणयो- ग्या भवन्ति, क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि कालतोऽन्यतरस्थितिकानि, जघन्यस्थितिकानि मध्यमस्थितिकानि उत्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः, स्थितिरिति चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वेनावस्थानमवसेयं, भावतो वर्णवन्ति गंधवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति च, प्रतिपरमाण्वेकैकवर्णगन्धरसस्पर्शभावात् , 'जाइं भावतो वण्णमंताई' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'गो० ! ठाणमग्गणं पडुच्चे'त्यादि, तिष्ठन्ति विशेषा अस्मिन्निति स्थानं-सामान्यमेकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणं-अन्वेषणं तत्प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाश्रित्येति भावार्थः, एकवर्णान्यपि द्विव
दीन्यपि इत्यादि सुगमं, नवरं तेषामनन्तप्रादेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापेक्षया, निश्चयनयमतापेक्षया त्वनन्तप्रादेशिकस्कन्धोऽणीयानपि पञ्चवर्ण एवं प्रतिपत्तव्यः, 'विहाणमग्गणं पडुच्चे'त्या|दि, विविक्तम्-इतरव्यवच्छिन्नं धानं-पोषणं खरूपस्य यत् तद्विधानं-विशेषः कृष्णो नील इत्यादिप्रतिनियतो वर्णादिविशेष इतियावत् तस्य मार्गणं प्रतीत्य तानि कालवर्णान्यपि आहारयन्तीत्यादि सुगम, नवरमेतदपि व्यवहा| रतः प्रतिपत्तव्यं, निश्चयतः पुनरवश्यं तानि पञ्चवर्णान्येव, 'जाई वण्णओ कालवण्णाइंपी'त्यादि सुगम, यावद् 'अन-| न्तगुणसुकिल्लाइंपि आहारेंति' एवं गंधरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, 'जाई भंते ! अणंतगुणलुक्खाई' ! इत्यादि, यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि, उपलक्षणमेतत् एकगुणकालादीन्यपि आहारयन्तीति, तानि च भदन्त !
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किं स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशविषयाण्याहारयन्ति उतास्पृष्टानि?, भगवानाह-स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि 'जहा भासुद्देसए वा जाव नियमा छद्दिसिंति अत ऊर्ध्व यथा भापोद्देशके प्राक् सूत्रमभिहितं तथात्रापि द्रष्टव्यं, तत्र तावत् यावत् 'नियमा छहिसिंति पदं, तच्चैवम् 'जाइं पुट्ठाई' आहा. 'ताई भंते ! किं ओगाढाई आहा० अणोगाढाई आहारैति?, गो! ओगाढाई आहारेंति णो अणोगाढाई आहारेंति, जाइं भंते ! ओगाढाई आहारेंति ताई कि अणंतरोगाढाई आ० परंपरोगाढाई आहारेंति ?, गो० ! अणंतरोगाढाई आ० नो परंपरोगाढाई आ०, जाई भंते ! अणंतरोगाढाई आ० ताई भंते ! किं अणूई आहारेंति बादराई आ.?,गो! अणूइंपि आ० बादराईपि आहा०,जाइंभंते! अणूइंपि आहारेति बादराईपि आ० ताई किं उडे आ. अहे आहा. तिरियं आहारेंति ?, गो०! उहृपि आ० अहेवि आ० तिरियपि आहारेंति, जाइं भंते ! उहृपि आ० अहेवि आहा. तिरियपि आहारेति ताई किं आदि आ० मज्झे आ० पजवसाणे आ०१, गो ! आदिपि आहारति मज्झेवि आ० पजवसाणेवि आहारति जाई भंते! आइपि आहारेंति मझेवि आहारति पजवसाणेवि आहारेंति ताई भंते ! किं सविसए आहारेंति अविसए आ०१, गो० सविसए आ० नो अविसए आ० जाई भंते! सविसए आताई किं आणपुवीए आहारेन्ति अणाणुपुवीए आ०?, गो! आणुपुवीए आ० नो अणाणुपुवीए आजाई भंते ! आणुपुष्विं आ० ताइं किं तिदिसिं आहारेंति चउदिसिं आहा. पंचदिसिं आहोरेंति छद्दिसिं आहारेंति ?,गो! नियमा छहिसिं आ०,' अस्य व्याख्या-इहात्मप्रदेशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाढक्षेत्राद्वहिरपि
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प्रज्ञापना- सम्भवति ततःप्रश्नयति-'जाइं भंते' इत्यादि, यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किं अवगाढानि-आत्म- २८आहाया: मल- प्रदेशैः सह एकक्षेत्रावस्थायीनि उत अनवगाढानि-आत्मप्रदेशावगाहक्षेत्राद्वहिरवस्थितानि ?, भगवानाह-गौ- रपदे उद्देय.वृत्ती. तिम ! अवगाढान्याहारयन्ति नानवगाढानि, यानि भदन्तावगाढान्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमनन्तरावगाढानि, शः१असु
रादीना॥५०२॥ किमुक्तं भवति ?-येण्यात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येवाहारयन्ति उत परम्परावगाढा-16
महारादि नि-एकद्वित्रयाद्यात्मप्रदेशव्यवहितानि ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्तरावगाढानि आहारयन्ति नो परम्परावगा
सू. ३०४ ढानि, यानि भदन्तानन्तरावगाढान्याहारयन्ति तानि किमणूनि-स्तोकान्याहारयन्ति उत बादराणि-प्रभूतप्रदेशोपचितानि ?, भगवानाह-गौतम ! अणून्यप्याहारयन्ति बादराण्यप्याहारयन्ति, इहाणुत्ववादरत्वे तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया वेदितव्ये इति, यानि भदन्त ! अणुन्यप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमूर्ध्व-ऊर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तियग्वा, इह ऊर्ध्वाधस्तियक्त्वं यावति क्षेत्रे नैरयिकोऽवगाढः तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं, भगवानाह-गौतम! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति-ऊर्ध्वप्रदेशावगाढान्यप्याहारयन्ति एवमधोऽपि तिर्यगपि, यानि भदन्त ! ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्यगप्याहारयन्ति तानि किमादावाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति, अयमत्राभिप्रायः-नैरयिका हि अनन्तप्रदेशिकानि द्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त कालं यावत् उपभोगोचितानि गृह्णन्ति, ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणस्यादौ-प्रथमसमये
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आहारयन्ति उत मध्ये – मध्येषु समयेषु आहोश्चित्पर्यवसाने - पर्यवसानसमये १, भगवानाह - गौतम ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति, किमुक्तं भवति ? – उपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्त्तप्रमाणस्यादिमध्यावसानेषु समयेष्वाहारयन्तीति यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं स्वविषयाणि - खोचिताहारयोग्यानि आहारयन्ति उत अविषयाणि – खोचिताहारायोग्यान्याहारयन्ति ?, भगवानाह — गौतम ! स्वविषयाण्याहारयन्ति नो अविषयाण्याहारयन्ति, यानि भदन्त ! स्वविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्व्या आहारयन्ति अनानुपूर्व्या ?, आनुपूर्वीनाम यथासन्नं तद्विपरीता अनानुपूर्वी, भगवानाह - गौतम ! आनुपूर्व्या, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् यथा आचाराने 'अगणिं च पुट्ठा' इत्यत्र, आहारयन्ति नो अनानुपूर्व्या, ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्वा यथासन्नं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावः, यानि भदन्त ! आनुपूर्व्या आहारयन्ति तानि किं 'तिदिसिं' ति तिस्रो दिशः समाहृतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पञ्चदिशि पडूदिशि वा, इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदे त्रिदिव्यवस्थितमेव प्राप्यते न द्विदिव्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितं वा अतस्त्रिदिश आरभ्य प्रश्नः कृतः, भगवानाह - गौतम ! नियमात् षदिशि व्यवस्थितान्याहारयन्ति, नैरयिका हि त्रसनाड्या मध्ये व्यवस्थिताः, तत्र चावश्यं षदिक्संभव इति, 'ओसण्णकारणं पडुचेत्यादि, ओसन्नशब्दो बाहुल्यवाची, यथा 'ओसन्नं देवा सायावेयणं वेदयन्ती'त्यत्र, ओसन्नकारणं - बाहुल्यकारणं प्रतीत्य, किं तद्वाहुल्यकारणमिति चेत्,
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
२८आहारपदे उद्देशः१असुरादीनामाहारादि सू. ३०४
॥५०३॥
उच्यते, अशुभानुभाव एव, तथापि प्रायो मिथ्यादृष्टयः कृष्णादीन्याहारयन्ति न तु भविष्यत्तीर्थकरादयः तत ओसनेत्युक्तं, वर्णतः कालनीलानि गन्धतो दुरभिगन्धानि, रसतस्तिक्तकटुकानि स्पर्शतः कर्कशगुरुशीतरूक्षाणि इत्यादि, तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानां 'पुराणान्' अग्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् ‘विपरिणामइत्ता परिवीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता' एतानि चत्वार्यपि पदानि एकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि, विनाश्य किमित्याह-अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् उत्पाद्य आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् 'सबप्पणया' सर्वात्मना सवरेवात्मप्रदेशैराहारमाहाररूपान् आहारयन्ति, 'नेरइया णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, 'नेरइया णं भंते ! जे पोग्गला' इत्यादि, नैरयिका णमितिपूर्ववत् , भदन्त ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृहन्ति नैरयिकाः तेषां गृहीतानां पुद्गलानां 'सेकालंसि' एण्यत्काले ग्रहणकालोत्तरकालमित्यर्थः 'कइभागं'ति कतिथं भागमाहारयन्ति-आहारतयोपभुञ्जते , तथा 'कतिभागं' कतिथं भागमाहार्यमाणपुद्गलानामाखादं गृह्णन्ति, नहि सर्वे पुद्गला आहार्यमाणा आखादमायान्तीति पृथक प्रश्नः, भगवानाह-गौतम ! असङ्ख्येयं भागमाहारयन्ति, अन्ये तु गवादिप्रथमबृहद्ग्रासग्रहण इव परिशटन्ति, आहार्यमाणानां | पुद्गलानामनन्तभागमाखादयन्ति, शेषास्त्वनासादिता एव शरीरपरिणाममापद्यन्ते इति, 'नेरइया णं भंते।' इत्यादि, || नरयिकाःणमिति पूर्ववत् यान् पुदलान् आहारतया गृह्णन्ति, इह ग्रहणं विशिष्टमवसेयं, ततो ये उज्झितशेषाः।
॥५०३॥
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केवला आहारपरिणामयोग्या एवावतिष्ठन्ते तेऽत्राहारतया गृह्यमाणाः पृष्टा द्रष्टव्याः, अन्यथा निर्वचनसूत्रमपेक्ष्य पूर्वापरविरोधप्रसङ्गो, न च भगवद्वचने विरोधसम्भावनाऽप्यस्ति, तत इदमेव व्याख्यानं सम्यक्, अत एवंविधपूर्वापरविरोधाशङ्काव्युदासाथै पूर्वसूरिभिः कालिकसूत्रस्यानुयोगः कृतः, उक्तं च- "जं जह सुत्ते भणियं तहेव तं जइ |वियालणा नत्थि । किं कालियाणुजोगो दिट्टो दिटिप्पहाणेहिं ? ॥१॥" [ यद्यथा सूत्रे भणितं तथैव तद् यदि विचारणा नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टिप्रधानदृष्टः? ॥१॥] तान् किं सर्वान् आहारयन्ति उत नोसर्वान
सर्वैकदेशभूतान् ?, भगवानाह-तान् सर्वान्-अपरिशेषानाहारयन्ति, उज्झितशेषाणामेव केवलानामाहारपरिणामयोIS ग्यानां गृहीतत्वात् , 'नेरइया ण'मित्यादि, नैरयिकाः णमितिपूर्ववत् यान् पुद्गलान् आहारतया गृह्णन्ति ते पुद्ग
लाः णमिति पूर्ववत् ते तेषां नेरयिकाणां कीदृक्तया-किंखरूपतया भूयो भूयः परिणमन्ते', भगवानाह-गौतम! श्रोत्रेन्द्रियतया यावत्करणात् चक्षुरिन्द्रियतया घ्राणेन्द्रियतया जिह्वेन्द्रियतयेति परिग्रहः, स्पर्शनेन्द्रियतया, इन्द्रियरूपतयापि परिणममानान शुभरूपाः किन्त्वेकान्ताशुभरूपाः, यत आह-'अणिहत्ताते' इत्यादि, इष्टा-मनसा इच्छा| विषयीकृताः, यथा शोभनमिदं जातं यदित्थमिमे परिणता इति, तद्विपरीता अनिष्टावद्भावस्वत्ता तया, इह किञ्चित् | परमार्थतः शुभमपि केषाश्चिदनिष्टं भवति यथा मक्षिकाणां चन्दनकपूरादि तत आह-'अकंतताए'न कान्ताःकमनीया अकान्ता अत्यन्ताशुभव गोपेतत्वात् , अत एवाप्रियतया न प्रिया अप्रियाः, दर्शनापातकालेऽपि न प्रियबु
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न्तिा अत्यन्ताशुभव गलियावा मक्षिकाणां चन्दनकर्पूरादि तलावस्तता तया, इह
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982920292020
SABG0202999999
प्रज्ञापना- Malद्धिमात्मन्युत्पादयन्तीति भावः, तद्भावोऽप्रियता तया, 'असुभत्ताए' इति न शुभा अशुभा अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शात्म- याः मल- | कत्वात् तद्भावस्तत्ता तया, 'अमणुन्नत्ताए' इति न मनोज्ञा अमनोज्ञाः, विपाककाले दुःखजनकतया न मनःप्रल्हादय० वृत्ती. हेतव इति भावः, तद्भावस्तत्ता तया, 'अमणामत्ताए' भोज्यतया मनः आमुवन्तीति मनापाः, प्राकृतत्वाच्च पकारस्य ॥५०॥
मकारत्वे मणाम इति सूत्रे निर्देशः, न मनआपा अमनपा, न जातुचिदपि भोज्यतया जन्तूनां मनापीभवन्तीति | भावस्तद्भावस्तत्ता तया, अत एव 'अणिच्छियत्ताए' इति अनीप्सिततया भोज्यतया खादितुमीष्टा ईप्सिता न ईप्सिता अनीप्सितास्तद्भावस्तत्ता तया, अभिज्झियत्ताए' अभिध्यानमभिध्या, अभिलाष इत्यर्थः, अभिध्या साता एविति अभिध्यितास्तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः तद्भावस्तत्ता तया, किमुक्तं भवति?-ये गृहीता आहारतया पुद्गला न ते तृप्तिहेतवोऽभूवन्निति न पुनरभिलषणीयत्वेन परिणमन्ते, तथा 'अहत्ताए' इति अधस्तया, गुरुपरिणामतयेति भावः, नो ऊध्र्वतया-लघुपरिणामतया, अत एव दुःखतया गुरुपरिणामपरिणतत्वात् , न सुखतया लघुपरिणामपरिणतत्वाभावात् , ते पुद्गलास्तेषां नैरयिकाणां भूयो भूयः परिणमन्ते । एतान्येव आहारार्थिन इत्यादीनि सप्त द्वाराणि असुरकुमारादिषु भवनपतिषु चिचिन्तयिषुरिदमाह-'जहा नेरइयाण'मित्यादि, यथा नैरयिकाणां तथा असुरकुमाराणामपि
भाणितव्यं, यावत् 'तेसिं भुजो २ परिणमन्ती'ति पर्यन्तपदं, तत्र नैरयिकसूत्रादस्य सूत्रस्य विशेषमुपदर्शयति-'तत्थ पण जे से' इत्यादि, एवं चोपदर्शितं सूत्रं न मन्दमतीनां यथास्थितं प्रतीतिमागच्छति ततस्तदनुग्रहाय सूत्रमुपदश्यते
२८आहा. रपदे उद्देशः१असुरादीनामाहारादि | सू. ३०४
।
॥५०४॥
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TS| असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी ?, हंता आहारट्ठी, असुरकुमारा णं भंते! केवइकालस्स आहारटे समुप्पजई', अत्र
सप्तम्यर्थे षष्ठी, कियति काले अतिक्रान्ते सति भूय आहारार्थः समुत्पद्यते इत्यर्थः, ? 'असुरकुमारा णं दुविहे आहारे पं० तंजहा-आभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए य, तत्थ णं जे से अणाभोगनिवत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पजइ, तत्थ गंजे से आभोगनिबत्तिए से णं जहण्णणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्टे समुपजइ' तत्र 'चउत्थभत्तस्सेति' सप्तम्यर्थे षष्ठी, चतुर्थभक्ते आगमिकीयं संज्ञा, एकस्मिन् दिवसेऽति-18 क्रान्ते इत्यर्थः, भूयो जघन्येनाहारार्थः समुत्पद्यते, एतच दशवर्षसहस्रायुषां प्रतिपत्तव्यमुत्कर्षतः सातिरेके-अभ्यधिके || वर्षसहस्रेऽतिक्रान्ते, एतच्च सागरोपमायुषामवसेयं, 'असुरकुमाराणं भंते ! किमाहारमाहारयन्ति ?, गो ! दवतोऽणंतप्पएसियाई खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाई कालओ अन्नयरटिइयाइं भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई जाव नियमा छद्दिसिं आहारेंति, ओसन्नं कारणं पडुच्च वण्णओ हालिहसुकिल्लाई, गंधओ सुरभिगंधाई, रसओ अंबिलमहुराई फासओ मउयलहुनिडुण्हाई, तेसिं पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे जाव इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उद्धत्ताए नो अहत्ताए सुखत्ताए नो दुहत्ताए य तेसिं भुजो २ परिणमंति', यथा चासुरकुमाराणां सूत्रमुक्तं तथा नागकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्यं, नवरमाभोगनिवर्तिताहारार्थचिन्तायामुत्कर्षाभिधानावसरे 'उक्कोसेणं दिवसपहत्तस्स आहारट्टे समुप्पजई' इति वक्तव्यं, एतच्च पल्योपमासङ्ख्येयभागायुषां।
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥५०५॥
तदधिकायुषां चावसेयं, शेषं तथैव, तथा चाह,-'एवं जाव थणियकुमाराण'मित्यादि । सम्प्रति पृथिवीकायिकाना-% २८आहा| मेतान् सप्ताधिकारान् चिन्तयितुकाम आह
रपदे उद्दे
शः १ पृपुढविकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ?, हंता! आहारट्ठी, पुढ विकाइयाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति ?, गो०!
थ्व्यादीअणुसमयमविरहिते आहारहे समुप्पजइ, पुढविकाइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति, एवं जहा नेरइयाणं जाव ताई
नामाहाराकतिदिसि आहारेंति ?, गो० ! निवाघातेणं छद्दिसि वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसि सिय पंचदिसिं, नवरं
दिसू.३०५ ओसन्नकारणं न भण्णति, वण्णओ कालनीललोहितहालिद्दसुकिल्लातिं गंधतो सुब्भिगंधदुब्भिगंधातिं रसतो तित्तरसकडुयरसकसायरसअंबिलमहुराई फासतो कक्खडफासमउयगुरुयलहुयसीतउण्हणिद्धलुक्खातिं तेसिं पोराणे वण्णगुणे सेसं जहा नेरइयाणं जाव आहच्च नीससंति, पुढविकाइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हंति तेसिं भंते ! पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति ? गो० ! असंखेजतिभागं आहारेंति अणंतभागं आसाएंति, पुढविकाइया णं मंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हति ते किं सवे आहारति नोसवे आहारेंति जहेव नेरइया तहेव, पुढ विकाइया णं. भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्डंति ते णं तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुजो २ परिणमंति?, गो० ! फासिंदियवेमाय- ५०५॥ चाते भुजो २ परिणमंति, एवं जाव वणप्फइकाइया। (सूत्रम् ३०५) 'पुढविकाइया णं भंते !' इत्यादि सर्व पूर्ववद् भावनीयं, नवरं 'निवाघाएणं छदिसिमित्यादि, व्याघातो नाम
मते ! पोग्गला
आहारेंति अणं
आहारेंति नो
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अलोकाकाशेन प्रतिस्खलनं, व्याघातस्याभावो निर्व्याघातं ' शब्दे यथावदव्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव' इत्यव्ययीभावः 'तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पेन अम्विधानात् पक्षेऽत्रामभावः, नियमादवश्यंतया षदिशि व्यवस्थितानि षड्भ्यो दिग्भ्य आगतानि द्रव्याण्याहारयन्तीति भावः, व्याघातं पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटादौ स्यात्-कदाचित्रिदिशि- तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि कदाचिचतुर्दिग्भ्यः कदाचित्पञ्चदिग्भ्यः काऽत्र भावनेति चेत्, उच्यते, | इह लोकनिष्कुटे पर्यन्ताधस्त्यप्रतराग्नेय कोणावस्थितो यदा पृथिवीकायिको वर्त्तते तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वात् अधोदिक्पुद्गलाभावः, आग्नेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिक्पुद्गलाभावो दक्षिणदिक्पुद्गलाभावश्च, एवमधः पूर्वद - क्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन व्यापनात् ता अपास्य या परिशिष्टा ऊर्ध्वा अपरा उत्तरा च दिगव्याहता वर्त्तते तत आगतान् पुद्गलान् आहारयति, यदा पुनः स एव पृथिवीकायिकः पश्चिमां दिशं अमुञ्चन् वर्त्तते तदा पूर्वदिगभ्यधिका जाता द्वे च दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति, | यदा पुनरु द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति तदा अधस्त्यापि दिगभ्यधिका लभ्यते केवलदक्षि|णैका पर्यन्तवर्त्तिनी अलोकेन व्याहतेति पञ्चदिगागतान् पुद्गलानाहारयतीति, शेषं सूत्रं समस्तमपि पूर्ववद् भणनीयं, यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति- नवरं 'उस्सण्णकारणेणं ण हवई' इत्यादि सुगमं, 'फासिंदियवेमायत्ताए' इति विषमा मात्रा विमात्रा तस्या भावो विमात्रता त्या इष्टानिष्टनानाभेदतयेति भावो न तु नारकाणामेकान्ताशुभतया
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प्रज्ञापना-1| सुराणां च शुभतयेवेति, एवं 'जाव वणस्सइकाइयाणं ति यथा पृथिवीकायिकाना सूत्रमुक्तमेवमतेजोवायुवनस्पतीना-1|| २८आहाया: मल- मपि भणनीयं, सर्वेषामपि सकललोकव्यापितया विशेषाभावात् ।
रपदे उद्देयवृत्ती.
शः १सू. बेडंदिया भंते ! आहारट्ठी, हंता आहारट्ठी, बेइंदियाणं भंते केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पजति ?, जहा नेरइयाणं. ३०६ ॥५०६॥
नवरं तत्थ ण जे से आभोगनिवत्तिते सेणं असंखिज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारहे समुप्पजति, सेसं जहा पुढविकाइयाणं, जाव आहच्च नीससंति, नवरं नियमा छद्दिसिं, बेइंदियाणं भंते ! • पुच्छा, गो०! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हति ते णं तेसिं पुग्गलाणं सियालंसि कतिभागं आहारेंति कतिभागं आसाएंति , एवं जहा नेरइयाणं, बेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सवे आहारेंति णो सच्चे आहारैति ?, गो०! बेइंदियाणं दुविधे आहारे पं०, तं०लोमाहारे य पक्खेवाहारे य, जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हंति ते सवे अपरिसेसे आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिमसंखेजतिभागमाहारेंति अणेगाई च णं भागसहस्साई अफासाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं विद्धसमागच्छंति, एतेसिणं भंते पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे २ हिंतो अप्पा वा ४, गो! सवत्थोवा पोग्गला अणासाइजमाणा अफासाइजमाणा अणंतगुणा, बेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताते पुच्छा, गो01.
8 ॥५०॥ जिभिदिय० फासिंदियवेमायत्ताए तेसिं भुञ्जो २ परिणमंत्ति, एवं जाव चउरिदिया, पवरं गाई च णं भागसहस्साईअणाघाइजमाणाई अणासाइजमाणाई अफासाइजमाणाई विद्धंसमागच्छंति, एतेसि गं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइजमाणा
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णं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे२हितो अप्पा वा ४१, गो० सवत्थोवा पोग्गला अणापाइजमाणा अणासाइजमाणा अणंतगुणा अफासाइजमाणा अणंतगुणा, तेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला पुच्छा, गो० ! ते णं पोग्गला पाणिदिय जिभिदिय० फासिंदियवेमायत्ताए तेसिं भुजो२ परिणमंति, चउरिदियाणं चक्खिदिय पाणिदिय जिभिदिय० फासिंदियवेमायत्ताए तेर्सि भुजो २ परिणमंति, सेसं जहा तेइंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदियाण, णवरं. तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिते से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स उक्को० छट्ठभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति, पंचिंदियतिरिक्खजोणि--, याणं भंते जे पोग्गला आहा० पुच्छा, गो० सोतिंदिय चक्खिदियव्याणिदिय जिन्मिदियफासिंदियवेमायत्ताए भुजो२ . परिणमंति, मणूसा एवं चेव, नवरं आभोगनिवत्तिते जह० अंतोमुहुत्तस्स उक्को० अट्ठमभत्तस्स आहारढे समुप्पजति वाण मंतरा जहा नागकुमारा, एवं जोतिसियावि, णवरं आभोगनिवत्तिते जह० दिवसपुत्तस्स उ० दिवसाहुत्तस्स आहारहे समुप्पजइ, एवं वेमाणियावि, नवरं आभोगनिवत्तिए ज० दिवसपुहुत्तस्स उ० तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पज्जति, सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव एतसिं भुजो २ परिणमंति, सोहम्मे आभोगनिवतिते ज० दिवसपुहुत्तस्स उक्को० दोण्हं वाससहस्साणं आहारट्टे सफ, ईसाणेणं पुच्छा, गो०! ज० दिवसपुहुत्तस्म सातिरेगस्स उ० सातिरेग दोण्हं वाससहस्साणं, सणकुमाराणं पुच्छा, गो! ज. दोण्हं वाससहस्साणं उ० सत्तण्डं वाससहस्साणं, माहिंदे पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं दोण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं उक्को० सत्तण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं, बंभलोए पुच्छा, गो! जसत्तहं वाससहस्साणं उ० दसहं वाससह, लंतएणं पुच्छा, गो० ज० दसहं वाससह उ० चउदसण्हं वाससह, महासु
992ककककक300928
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प्रज्ञापनाया: मलय.वृत्ती .
२८आहारपदे उद्देशः १सू.
॥५०७॥
के णं पुच्छा गो० ! ज. चउदसण्हं वासस० उक्को० सत्तरसण्हं वाससह०, सहस्सारे पुच्छा, गो० ! जह. सत्तरसहं वासस० उ० अट्ठारसण्हं वाससह०, आणए णं पुच्छा, गो० ज० अट्ठारसण्हं वाससह० उ० एगूणवीसाए वाससहस्साणं, पाणए णं पुच्छा, गो० ज० एगृणवीसाए वास० उ० वीसाए वाससहस्साणं, आरणे णं पुच्छा, गो०! ज० वीसाए वाससह उक्को एकवीसाए वाससह०, अचुए णं पुच्छा गो० ! ज० एकवीसाए वाससह० उक्को. बावीसाए वा०, हिहिमहिहिमगेविजगाणं पुच्छा, गो०! ज० बावीसाए वा० उक्को० तेवीसाए वा०, एवं सत्वत्थ सहस्साणि भाणियवाणि, जाव सवढं, हिटिममज्झिमगाणं पुच्छा, गो० ! ज० तेवीसाए उ० चउवीसाए, हेहिमउवरिमाणं पुच्छा, गो! ज० चउवीसाए उ० पणवीसाए, मज्झिमहेहिमाणं पुच्छा, गो० ज० पण्णवीसाए उको छवीसाए, मज्झिममज्झिमाणं पुच्छा, गो.! जछवीसाए उ० सत्तावीसाए, मज्झिमउवरिमाणं पुच्छा, गो.! ज० सत्तावीसाए उ० अट्ठावीसाए, उवरिमहेहिमाणं पुच्छा, गो० ! ज० अट्ठावीसाए उ० एगूणतीसाए, उवरिममज्झिमाणं पुच्छा, गो० ! ज० एगणतीसाए उ० तीसाए, उवरिमउवरिमाणं पुच्छा, गो० ! ज० तीसाए उ० एगतीसाए, विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं पुच्छा, गो० ! ज. एगतीसाए उक्को० तेत्तीसाए, सबगसिद्धदेवाणं पुच्छा, गो! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पजति (सूत्रं ३०६ ) 'बेइंदिया णं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'लोमाहारे पक्खेवाहारे' इति लोमभिराहारो लोमाहारः प्रक्षिप्य
208000080920020202020a
॥५०७॥
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तेऽर्थात् मुखे इति प्रक्षेपः स चासावाहारश्च प्रक्षेपाहारः, तत्र यः खल्वोघतो वर्षादिषु पुदलप्रवेशो मूत्रादिगम्यः स लोमाहारः, कावलिकस्तु प्रक्षेपाहारः, तत्र यान् पुद्गलान् लोमाहारतया गृह्णाति तान् सर्वान्-अपरिशेषानाहारय|न्ति, तेषां तथा २ खभावत्वात् , यान् पुद्गलान् प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषामसङ्ख्येयतमं भागमाहारयन्ति, अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि-बहवोऽसङ्ख्येया भागा इति अस्पृश्यमानानामनाखाद्यमानानां विध्वंसमागच्छन्ति, किमुतं भवति ?-बहूनि द्रव्याण्यन्तर्बहिश्च अस्पृष्टान्येवानाखादितान्येव च विध्वंसमायान्ति, नवरं यथायोगं केचिदतिस्थौल्यतः केचिदतिसौम्यत इति, सम्प्रत्यस्पृश्यमानानामनाखाद्यमानानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह-'एएसि णं भंते ! पुग्गलाणं अणासाइजमाणाण'मित्यादि, इह एकैकस्मिन् स्पर्शयोग्ये भागेऽनन्ततमो भाग आखाद्यो भवति, ततो येऽनाखाद्यमानाः पुद्गलास्ते स्तोका एव, अस्पृश्यमानपुद्गलापेक्षया तेषामनन्तभागवर्जित्वात् , अस्पृश्यमानास्तु पुद्गला अनन्तगुणाः, 'जिभिदियफासिंदियवेमायत्ताए' इति विमात्राऽत्रापि प्राग्वद् भावनीया, "एवं जाव चउरिदिया' एवं-द्वीन्द्रियोक्तप्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावच्चतुरिन्द्रियाः-चतुरिन्द्रियगतं सूत्रं, प्रायः समानवक्तव्यत्वात् , यस्तु विशेषः स उपदश्यते-'नवर'मित्यादि, यान् पुद्गलान् प्रक्षेपाहारतया गृह्णन्ति तेषां पुद्गलानामेकमसङ्ख्येयतमं भागमाहारयन्ति अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि सङ्ख्यातीता असङ्ख्येयभागा इत्यर्थः अनाघ्रायमाणा|नि अस्पृश्यमाणानि अनाखाद्यमानानि विध्वंसमागच्छन्ति, तानि च यथायोगमतिस्थौल्यतोऽतिसौक्षयतश्च वेदित
टायटिन्छिeeeeeees
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प्रज्ञापनाया:मलय.वृत्ती .
॥५०॥
व्यानि, अत्रैवाल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते !' इत्यादि, इह एकैकस्मिन् भागे स्पर्शयोग्येऽनन्तमो भागः आखा- आहादयोग्यो भवति, तस्याप्यनन्तमो भाग आघ्राणयोग्यः, ततो यथोक्तमल्पबहुत्वं भवति, शेषं सर्व सुगम, पञ्चेन्द्रिय-18
रपदे उद्देसूत्रे-'जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्सेति षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वादन्समुहू गते सति भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, उत्कर्षतः
शः १सू. षष्ठभक्तेऽतिक्रान्ते, एतच देवकुरूत्तरकुरुतिर्यपञ्चेन्द्रियापेक्षया द्रष्टव्यं, मनुष्यसूत्रे 'उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्से'ति उत्कर्षतोऽष्टमभक्तेऽतिक्रान्ते, एतच ताखेव देवकुरूत्तरकुरुषु द्रष्टव्यं, व्यन्तरसूत्रे नागकुमारसूत्रवत् , ज्योतिष्कसूत्रमपि तथैव, यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति-नवरं जहण्णेण वि दिवसपुहुत्तस्स उक्कोसेणवि दिवसपुहुत्तस्स'ति, ज्यो का हि जघन्यतोऽपि पल्योपमाष्टभागप्रमाणायुषस्ततस्तेषां जघन्यपदेऽप्युत्कृष्टपदेऽपि दिवसपृथक्त्वेऽतिकान्ते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, पल्योपमाष्टभागायुषां च खरूपत एव दिवसपृथक्त्वातिक्रमे भूय आहारार्थः समुत्पद्यते, मानिकसूत्रे 'नवरमाभोगनिवत्तिए जहण्णेणं दिवसपुहुत्तस्स' इति, एतत्पल्योपमाद्यायुषामवसेयं, 'उक्कोसे त्तीसाए वाससहस्साणंति एतदनुत्तरसुराणामवसेयं, इह यस्य यावन्ति सागरोफ्माणि स्थितिस्तस्य तावत्सु सेष्वतिक्रान्तेषु भूय आहारायः समुत्पद्यते, ततोऽमुं न्यायमाश्रित्य सौधर्मशानादिदेवलोकेषु जघन्यत उत्कर्षतश्च । तिपरिमाणं परिभाव्य वैमानिकसूत्रं सकलमपि खयं विज्ञेयमिति । सम्प्रत्येकेन्द्रियशरीरादीनामधिकारमभिधित्सुराह
नेरइयाणं भंते ! कि एगिदियसरीराई आहारेति जाव पश्चिदियसरीराई आहारैति', गो० ! पुषभावपण्णवणं पडुच्च एमि
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दियसरीराईपि आहारेंति जाव पंचिंदिय०, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च नियमा पंचिंदियसरीरातिं आ०, एवं जाक्थगित यकुमारा, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो! पुत्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पड्डुच्च नियमा एगिदियसरीरातिं, बेइंदिया पुश्वमावषण्णवणं पडुच्च एवं चेक, पडुप्पण्णभावपण्णवणं प० नियमा बेइंदियाणं सरीरातिं आ०, एवं जाव चउरिंदिया ताव पुत्वभावपण्णवणं पडुच्च, एवं पडुप्पण्णभावपण्णवणं पड्डुच्च नियमा जस्स जति इंदियाई तइंदियाई सरीराई आहारेंति सेसं जहा नेरइया, जाव वेमाणिता, नेरइया णं भंते ! किं लोमाहारा पक्खेवाहारा, गो०! लोमाहारा नो पक्खेवाहारा, एवं एगिंदिया सबदेवा य भाणितवा, बेइंदि० जाव मणूसा लोभाहारावि पक्खेवाहारावि (सूत्र ३०७) 'नेरइया णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमे'त्यादि, पूर्वः-अतीतो भावः पूर्वभावः तस्य प्रज्ञापना-प्ररूपणा तां प्रतीत्य एकेन्द्रियशरीराण्यपि यावत्करणात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियशरीरपरिग्रहः, पञ्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्ति, इयमत्र भावना-यदा तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानामतीतो भावः परिभाव्यते तदा ते केचित् कदाचित् | एकेन्द्रियशरीरतया परिणता आसीरन् कदाचित् द्वीन्द्रियशरीरतया कदाचित् त्रीन्द्रियशरीरतया कदाचिचतुरिन्द्रियशरीरतया कदाचित् पञ्चेन्द्रियशरीरतया, ततो यदि पूर्वभावं इदानीमध्यारोप्य विवक्ष्यते तदा नैरयिका एकेन्द्रियशरीराण्यपि यावत्पञ्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्तीति भवति, 'पडप्पन्नभावपण्णवणं पडुचे'त्यादि, प्रत्युत्पन्नो-वार्तमानिकः स चासौ भावश्च प्रत्युत्पन्नभावस्तस्य प्रज्ञापना तां प्रतीत्य नियमाद्-अवश्यतया पञ्चेन्द्रियशरीराण्याहारय
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ .
॥५०९॥
न्ति, कथमिति चेत्, उच्यते, इह प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनां करोति नयः ऋजुसूत्रो न शेषा नैगमादयः, ऋजुसूत्रश्च क्रियमाणं कृतं अभ्यवाहियमाणमभ्यवहृतं परिणम्यमाणं परिणतमभ्युपगच्छति, अभ्यवह्रियमाणाश्च पुद्गलास्ते उच्चन्ते ये खशरीरतया परिणम्यमाना वर्त्तन्ते, अभ्यवाहियमाणं चाभ्यवहृतं परिणम्यमानं च परिणतमिति तन्मतेन खशरीरमेवाभ्यवहियते खशरीरं च तेषां पञ्चेन्द्रियशरीरं पञ्चेन्द्रियशरीरत्वात् तेषामत उक्तं नियमात् पञ्चेन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमार पर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः, पृथिवीकायिकसूत्रे प्रत्युत्पनभावप्ररूपणा चिन्तायां नियमादेकेन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्यं, तेषामेकेन्द्रियतया तत्शरीराणामेकेन्द्रियशरीरत्वात् एवं द्वीन्द्रियसूत्रे नियमात् द्वीन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्यं, त्रीन्द्रियसूत्रे नियमात् त्रीन्द्रियशरीराणि, चतुरिन्द्रियसूत्रे नियमात् चतुरिन्द्रियशरीराणि, तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया मनुष्या व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाश्च नैरयिकवद्र वक्तव्या, तथा चाह - 'पुढविकाइयाणं पुच्छा' इत्यादि । अधुना लोमाहाराधिकारं विभावयिपुरिदमाह - 'नेरइया ण' मित्यादि सुगमं, नवरं नैरयिकाणां प्रक्षेपाहारो न भवति, वैक्रियशरीराणां तथा स्वभावत्वात्, लोमाहा|रोऽपि पर्याप्तानामवसेयो नापर्याप्तानामिति, एवं एगिंदिया' इत्यादि, एवं – नैरयिकोक्तप्रकारेण एकेन्द्रियाः — पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे देवाश्च - असुरकुमारादयो यावद्वैमानिका भणितव्याः, तत्रैकेन्द्रियाणां प्रक्षेपाहाराभावो मुखाभावात् असुरकुमारादीनां वैक्रियशरीरतया तथा स्वभावात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया
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२८ आहारपदे उहेशः १ सू. ३०७
॥५०९॥
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मनुष्याश्च लोमाहारा अपि वक्तव्याः प्रक्षेपाहारा अपि, उभयरूपस्याप्याहारस्य तेषां सम्भवात् , चरममाधिकारमभिधित्सुराह
नेरइया णं भंते ! किं ओयाहारा मणभक्खी ?, गो० ! ओयाहारा णो मणभक्खी, एवं सत्वे ओरालियसरीरावि, देवा सवेवि जाव वेमाणिया ओयाहारावि मणभक्खीवि, तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पञ्जति इच्छामो णं मणभक्खणं करित्तते, तते णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्टा कंता जाव मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहा नामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतिचाणं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति, एवामेव तेहिं देवेहि मणभक्खीकए समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति (सूत्रं ३०८) आहारपयस्स पढमो उद्देसो समत्तो २३-१॥ 'नरइया णं भंते !' इत्यादि, ओज-उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः, ओज आहारो येषां ते ओजआहाराः, मनसा भक्षयन्तीत्येवंशीला मनोभक्षिणः, तत्र नैरयिका ओजआहारा भवन्ति, अपर्याप्तावस्थायामोजस एवाIS हारस्य सम्भवात् , मनोभक्षिणस्त्वेते न भवन्ति, मनोभक्षणलक्षणो ह्याहारः स उच्यते ये तथाविधशक्तिवशात् मन
सा खशरीरपुष्टिजनकाः पुद्गला अभ्यवह्रियन्ते, यदभ्यवहरणानन्तरं तृप्तिपूर्वः परमसन्तोष उपजायते, न चैतन्नैरयिकाणामस्ति, प्रतिकूलकर्मोदयवशतः तथारूपशक्त्यभावात् , 'एवं सचे ओरालियसरीरावि' इति, एवं-नैरयि
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
॥५१०॥
कोक्तेन प्रकारेण औदारिकशरीरिणोऽपि सर्वे पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्यवसाना वक्तव्याः, तद्यथा-'पुढविका-18|२८आहाइया णं भंते ! किं ओयाहारा मनभक्खी, गोयमा ! ओयाहारा नो मणभक्खी'त्यादि, 'देवा' इत्यादि देवाः याव- रपदे उद्देद्वैमानिका ओजआहारा अपि मनोभक्षिणोऽपि वक्तव्याः, तद्यथा-असुरकुमारा णं भंते ! किं ओयाहारा मनो- शः१सू. भक्खी, गो.! ओयाहारावि मणभक्खीवि,जाव वेमाणियाणं पुच्छा, गो! ओयाहारावि मणभक्खीवि सम्प्रति मनोभक्षित्वं देवानां यथा भवति तथोपदर्शयति-तत्थ णमित्यादि, तत्र-तेषु संसारिषु जीवेषु मध्ये, णमिति वाक्यालङ्कारे ये मनोभक्षिणो देवास्तेषां णमिति वाक्यालङ्कारे मनः प्रस्तावादाहारविषयं समुत्पद्यते, केनोल्लेखेन इत्यत आह-इच्छामः-अभिलषामो णमिति वाक्यालङ्कारे, मनोभक्षणमिति-मनसा भक्षणं मनोभक्षणं कर्तुमिति, तत एवं तैमनसि कृते-व्यवस्थापिते मनोभक्षणे सति तथाविधशुभकर्मोदयवशात् क्षिप्रमेव तत्कालमेवेति भावः,
ये इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञा मनापा पुद्गलाः एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् तेषां देवानां मनोभक्षतया परिणमन्ते, व कथमित्यत्रैव दृष्टान्तमाह-से जहानामए" सेशब्दोऽथशब्दार्थः, स चात्र वाक्योपन्यासे, यथा नामेति विवक्षिताः
शीताः पुद्गलाः शीतं-शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य शीतत्वमेवातित्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, किमुक्तं भवति - विशेषतः शीतीभूय शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्त इति, उष्णा वा पुद्गला उष्णं-उष्णयोनिकं । प्राप्य उष्णमेव-उष्णत्वमेवातिव्रज्य-अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, विशेषतः खरूपलाभसम्पत्त्या तस्स सुखित्वायोप
५१०॥
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तिष्ठन्त इति भावः, 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण तैर्देवैः प्रागुक्तरीत्या मनोभक्षणे कृते सति स तेषां देवानामिच्छामना-आहारविषयेच्छाप्रधान मनः क्षिप्रमेवापैति-तृसिमावान्निवर्तते इति भावः, इयमत्र भावना-यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्प्यन्ते उष्णपुद्गला वा उष्णयोनिकस्य तथा देवैरपि मनसाऽभ्यवहियमाणाः पुद्गलास्तेषां तृसये परमसन्तोषाय चोपकल्पन्ते, तत आहारविषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति, अत्र च ओजआहारादिविभागप्रतिपादिका इमाः सूत्रकृताङ्गनियुक्तिगाथा:-"सरीरणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायवो ॥१॥ ओयाहारा जीवा सवे अपज्जत्तया मुणेयवा। पजत्तगा य लोमे पक्खेवे होति भइयवा ॥१॥ एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥२॥ लोमाहारा एगिदिया उ नेरइथसुरगणा चेव । सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवओ चेव ॥३॥ ओयाहारा मणभक्खिणो य सधेवि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमे पक्खेवओ चेव ॥४॥" [शरीरेणौजआहारः त्वचा स्प
शेन रोमाहारः। प्रक्षेपाहारः पुनः कावलिको भवति ज्ञातव्यः॥१॥ ओजआहारा जीवाः सर्वेऽपर्याप्तका ज्ञातव्याः। कापयोप्ताश्च रोमाहारे प्रक्षेपे भवन्ति भक्तव्याः॥२॥ एकेन्द्रियदेवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपाहारः। शेषाणां
जीवानां संसारस्थानां प्रक्षेपः॥३॥रोमाहारा एकेन्द्रियास्तु नैरयिकसुरगणाश्चैव । शेषाणामाहारो रोममिः प्रक्षेपेणैव 18 ॥४॥ (सू०१७१-१७२-१७३) ओजआहारा मनोभक्षिणश्च सर्वेऽपि सुरगणा भवन्ति । शेषा भवन्ति जीवा रोमभिः
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
प्रक्षेपतश्चैव ॥ ५॥] अथ क आहार आभोगनिवर्चितः को वाऽनाभोगनिवर्णित इति चेत् , उच्यते, देवानामाभोग- २८आहा| निर्वर्त्तितः ओजआहारः स चापर्याप्तावस्थायां, लोमाहारोऽप्यनाभोगनिर्वर्तितः, स च पर्याप्तावस्थायां आभोगनिर्वति- पदे उहे| तो मनोभक्षणलक्षणः, स चपर्याप्तावस्थायां देवानामेव न शेषाणां, सर्वेषामप्यनाभोगनिर्वर्तित आहारोऽपर्यासावस्थायां Riश:१ लोमाहारः पर्याप्तावस्थायां, नैरयिकवर्जानांलोमाहारो, नैरयिकाणां तु लोमाहार आभोगनिवर्तितोऽपि, द्वीन्द्रियादीनां मनुष्यपर्यवसानानां यः प्रक्षेपाहारः स आभोगनिवर्तित एवेति ॥श्रीमलयगिरिविर० प्रज्ञापनाटीकायां आहारपदस्य प्रथमोद्देशकः परिसमाप्तः॥
॥५११॥
| व्याख्यात आहारपदस्य प्रथमोद्देशकः, सम्प्रति द्वितीयो व्याख्येयः, तत्र चादावियमधिकारसङ्ग्रहगाथा
आहार १ भविय २ सण्णी ३ लेसा ४ दिट्ठी ५य संजत ६ कसाए ७। णाणे ८ जोगु ९ वओगे १० वेदे ११ य सरीर . १२ पज्जत्ती १३ ॥१॥ . 'आहारे'सादि, प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारः, द्वितीयो भव्याधिकारो-भव्यविशेषिताहाराधिकारः, एवं तृतीयः संश्यधिकारः, चतुर्थो लेश्याधिकारः पञ्चमो दृष्टयधिकारः षष्ठः संयताधिकारः सप्तमः कषायाधिकारः अष्टमो ज्ञानाधिकारः नवमो योगाधिकारः दशम उपयोगाधिकारः एकादशो वेदाधिकारः द्वादशः शरीराधिकारः त्रयोदशः
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पर्याप्त्यधिकारः, इह भव्यादिग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूता अभव्यादयोऽपि सूचिता द्रष्टव्याः, तथैवाने वक्ष्यमाणत्वाद्, तत्र प्रथम सामान्यत आहाराधिकारं विभावयिषुरिदमाह
जीवे णं भंते ! किं आहारए अणाहारए, गो० ! सिय आहारए सिय अणाहारए, एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए, सिद्धे णं भंते ! किं आहारए अणाहारए , गो०! नो आहारए अणाहारए, जीवा णं भंते ! किं आहारया अणाहारया, गो० ! आहारयावि अणाहारयावि, नेरइयाणं! पुच्छा, गो० ! सवेवि ताव होजा आहारया १ अहवा आहारगा य अणाहारए य २ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, एवं जाव वेमाणिया, णवरं एगिंदिया जहा जीवा, सिद्धाणं पुच्छा, गो० ! नो आहारगा अणाहारगा । दारं १॥ भवसिद्धिए णं भंते! जीवे किं आहारते अणाहारते ?, गो०! सिय आहारते सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए, भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणा० १, गो० ! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, अभवसिद्धिएवि एवं चेव, नोभवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो०! णो आहारए अणाहारए, एवं सिद्धेवि, नोभवसिद्धियनोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा?, गो०! नो आहारगा अणाहारगा, एवं सिद्धावि, दारं २। सण्णी णं भंते! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो० ! सिय आ० सिय अणा०, एवं जाव वेमाणिए, णवरं एगिदियविगलिंदिया नो पुच्छिज्जति, सण्णी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारमा, मो.! जीवाइओ तियभंगो जाव वेमाणिया, असण्णी भंते ! जीवे किं
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥५१२॥
आहार अणाहारए ?, गो० ! सिय आ० सिय अणा० एवं णेरइए जाव वाणमंतरे, जोइसियवेमाणिया ण पुच्छिज्जति, अण्णी णं भंते ! जीवा किं आ० अणा० १, गो० ! आहारगावि अणाहारगावि एगो भंगो, असण्णी णं भंते ! णेरइया किं आहारया अणा० १, गो० ! आहारगा वा १ अणाहारगा वा २ अहवा आहारए य अणाहारए य ३ आहारए य अणाहारयाय ४ अहवा आहारगा य अणाहारए य ५ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ६ एवं एते छन्भंगा, एवं जाव थणियकुमारा, एगिदिएस अभंगतं, बेइंदिय जाव पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु तियभंगो, मणूसवाणमंतरेसु छब्भंगा, नोसणीनोअसणणं भंते! जीवे किं आ० अणा० १, गो० ! सिय आहारए सिय अणाहारए य, एवं मणूसेवि, सिद्धे अणाहारते, पुहुत्तेणं नोसण्णीनोअसण्णी जीवा आहारगावि अणाहारगावि, मणूसेसु तियभंगो, सिद्धा अणाहारगा । दारं ३ (सूत्रं ३०९ )
'जीणं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'गौतम' त्यादि, गौतम ! स्यात् — कदाचिदाहारकः कदा| चिदनाहारकः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, विग्रहगतौ केवलिसमुद्घाते शैलेश्यवस्थायां सिद्धत्वे चानाहारकः, शेषाखवस्थाखाहारकः, उक्तं च- "विग्गहगहमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ १ ॥ " [ विग्रहगत्यापन्नाः समवहताः केवलिनोऽयोगिनश्च । सिद्धाश्चानाहारकाः शेषा आहारका जीवाः ॥ १ ॥] तदेवं सामान्यतो जीवचिन्तां कृत्वेदानीं नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणाहारकानाहारकचिन्तां करोति - 'नेर -
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२८आहारपदे उद्देशः २ सू. ३०९
॥५१२ ॥
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इए णं भंते! किं आहारए' इत्यादि सुगमं तदेवं सामान्यतो जीवपदे नैरयिकादिषु चैकवचनेन आहारकानाहारकत्वचिन्ता कृता, सम्प्रति बहुवचनेन तां चिकीर्षुराह - 'जीवा णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! आहारका अपि अनाहारका अपि, सदैव बहुवचनविशिष्टा उभयेऽपि लभ्यन्ते इति भावः, तथाहि - विग्रहगतिव्यतिरेकेण शेषकालं सर्वेऽपि संसारिणो जीवा आहारकाः, विग्रहगतिस्तु क्वचित् कदाचित् कस्यचित्तु भवतीति सर्वकालमपि लभ्यमाना सा प्रतिनियतानामेव लभ्यते तत आहारकेषु बहुवचनं, अनाहारका अपि सिद्धाः सदैव लभ्यन्ते, ते चाभव्येभ्योऽनन्तगुणाः, अन्यच्च - सर्वकालमेकैकस्य निगोदस्य प्रतिसमयमसङ्ख्येयभागो विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते, ततोऽनाहारकेष्वपि बहुवचनं, नैरयिकसूत्रे सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः १, किमुक्तं भवति ? - कदाचिन्नैरयिकाः सर्वेऽप्याहारका एव भवन्ति, न त्वेकोऽप्यनाहारकः, कथमिति चेत्, उच्यते, उपपातविरहात्, तथाहि - नैरयिकाणामुपपातविरहो द्वादश मुहूर्त्ताः, एतावति चान्तरे पूर्वोत्पन्नविग्रहगत्यापन्ना अपि आहारका जाताः, अन्यस्त्वनुत्पद्यमानत्वात् अनाहारको न सम्भवतीति, अथवा आहारका अनाहारकाश्च २ आहारकपदे बहुवचनं अनाहारकपदे एकवचनमिति भावः, कथमेष भङ्गो घटामियत्तति चेत्, उच्यते, इह नरकेषु जन्तुः कदाचिदेक उत्पद्यते कदाचिद्दौ कदाचित् त्रयश्चत्वारो यावत्सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा, तत्र यदा एक उत्पद्यते सोऽपि च विग्रहगत्यापन्नोऽपि भवति अन्ये च पूर्वोत्पन्नतया आहारका अभवन् तदा एष भङ्गो लभ्यते, तृतीयभङ्गमाह — अहवा आहारगा य अणाहारगां य ३,
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
२८आहारपदे उद्दे|शः२ सू.
॥५१३॥
अत्रोभयत्रापि बहुवचनं, एष च भङ्गो यदा बहवो विग्रहगयोत्पद्यन्ते तदा द्रष्टव्यः, शेषभङ्गकास्तु न सम्भवन्ति, आहारकपदस्य नैरयिकाणां सर्वदैव बहुवचनविषयतया लभ्यमानत्वात् , एवमसुरकुमारादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु द्वीन्द्रियादिषु च वैमानिकपर्यन्तेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं भावनीयं, उपपातविरहभावतःप्रथमभङ्गस्य एकादिसङ्ख्यतयोत्पत्तेः शेषस्य च भङ्गद्वयस्य सर्वत्रापि लभ्यमानत्वात् , एकेन्द्रियेषु पुनः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपेषु प्रत्येकमेष एवैको भङ्गः आहारकाः अनाहारका अपि, पृथिव्यप्तेजोवायुषु प्रत्येकं प्रतिसमयमसङ्ख्यातानां वनस्पतिषु प्रतिसमयमनन्तानां विग्रहगत्योत्पद्यमानानां लभ्यमानतया अनाहारकपदेऽपि सदैव तेषु बहुवचनसम्भवात् , तथा चाह-एवं जाव वेमाणिया नवरं एगिदिया जहा जीवा' इति, एवं-नैरयिकोक्तभङ्गप्रकारेण शेषा अप्यसुरकुमारादयस्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपाः प्रत्येकं यथा उभयत्रापि बहुवचने जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, सिद्धेष्वेक एव भङ्गोऽनाहारक इति, सकलशरीरप्रहाणतस्तेषामाहारासम्भवात् बहूनां च सदा भावात् इति, गतं प्रथमं द्वारं ॥ द्वितीयं भव्यद्वारमभिधित्सुराह-भवसिद्धिए णं भंते !' इत्यादि, भवैः सङ्ख्यातरसङ्ख्यातैरनन्तैर्वा सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्यः, स कदाचिदाहारकः कदाचिदनाहारकः, विग्रहगत्याद्यवस्थायां अनाहारकः शेषकालं त्वाहारकः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकेऽपि प्रत्येकं वाच्यं, तथा चाह-"एवं जाव वेमाणिए' अत्र च सिद्धविषयं सूत्रं न वक्तव्यं, मोक्षपदप्रासतया तस्स भवसिद्धिकत्वायोगात्, अत्रैव बहुवचनेनाहारकानाहारकत्वचिन्तां चिकीर्षुराह
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॥ द्वितीयं भव्यद्वारमादिति, सकलशरीरप्रहाण प्रत्यकं यथा उभयत्रापियार
॥५१
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भवसिद्धिया णं भंते !' इत्यादि, अत्राप्याहारकद्वार इव जीवपदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमुभयत्र बहुवचनेनैक एव भङ्गो, यथा आहारका अपि अनाहारका अपि, शेषेषु नैरयिकादिषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, कदाचित्केवला आहारका एव न त्वेकोऽप्यनाहारकः, अथवा कदाचिदाहारका एकोऽनाहारकः, अथवा आहारका अपि अनाहारका अपि उभयत्रापि बहुवचनं, तथा चाह-'जीवगिदियवज्जो तियभंगो' इति, यथा च भवसिद्धिके एकस्मिन् बहुषु चाहारकानाहारकत्वचिन्ता कृता तथा अभवसिद्धिकेऽपि कर्तव्या, उभयत्राप्येकवचने बहुवचने च भङ्गसङ्ख्यायाः सर्वत्रापि समानत्वात् , तथा चाह-'अभवसिद्धिए एवं चेव' अभवसिद्धिकेऽपि भवसिद्धिक इव एकवचन बहुवचने च वक्तव्यमिति, | यस्तु न भवसिद्धिको नाप्यभवसिद्धिकः स सिद्धः, स हि भवसिद्धिको न भवति, भवातीतत्वात् , अभवसिद्धिकस्तु
रूढ्या यः सिद्धिगमनयोग्यो न भवति स उच्यते, ततोऽभवसिद्धिकोऽपि न भवति, सिद्धिप्राप्तत्वात् , तथा च सति नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिकत्वचिन्तायां द्वे एव पदे, तद्यथा-जीवपदं सिद्धिपदं च, उभयत्राप्येकवचने एक एव भङ्गोनाहारक इति, बहुवचनेऽप्येक एवानाहारका इति । संज्ञिद्वारे-'सन्नी णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रमाह-'गोयमे'त्यादि, विग्रहगतावनाहारकः शेषकालमाहारकः, ननु संज्ञी समनस्क उच्यते, विग्रहगती च मनो नास्ति ततः कथं संज्ञी सन्ननाहारको लभ्यते !, उच्यते, इह विग्रहगत्यापन्नोऽपि संश्यायुष्कवेदनात् संज्ञी व्यवहियते, यथा नारकायुष्कवेदनान्नारकस्ततो न कश्चिद्दोषः, 'एव'मित्यादि, एवमुपदर्शितेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं
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प्रज्ञापना- या मलय. वृत्तौ. ॥५१॥
२८आहारपदे उद्देशः २ सू.
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यावद्वैमानिको-वैमानिकसूत्रं, नवरमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रिया न प्रष्टव्याः, किमुक्तं भवति ?-तद्विषयं सूत्रं सर्वथा न वक्तव्यं, तेषाममनस्कतया संज्ञित्वायोगात्, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे नैरयिकादिपदेषु च प्रत्येकं सर्वत्र भङ्गत्रयं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहारकाः १ अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च २ अथवा आहारकाश्च अनाहारकाश्च ३, तथा चाह-'जीवातीतो तियभंगो जाव वेमाणिया' इति, तत्र सामान्यतो जीवपदे प्रथमभङ्गः सकललोकापेक्षया संज्ञित्वेनोत्पातविरहाभावात् द्वितीयभङ्ग एकस्मिन् संजिनि विग्रहगत्यापन्ने तृतीयभङ्गो बहुषु संजिषु विग्रहगत्यापन्नेषु, एवं नैरयिकादिपदेष्वपि भङ्गभावना कार्या, 'असण्णी णं भंते !' इत्यादि, अत्रापि विग्रहगतावनाहारकः | शेषकालमाहारकः, 'एवं जाव वाणमंतरे' इति एवं-सामान्यतो जीवपद इव चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावत् वक्तव्यं यावद्वानमन्तरो-वानमंतरविषयं सूत्रं, अथ नैरयिका भवनपतयो वानमन्तराश्च कथमसंज्ञिनो येनासंज्ञिसूत्रे तेऽपि पठ्यन्ते इति उच्यते, इह नैरयिका भवनपतयो व्यन्तराश्चासंज्ञिभ्योऽपि उत्पद्यन्ते संज्ञिभ्योऽपि, असंज्ञिभ्यश्च उत्पद्यमाना असंज्ञिन इति व्यवहियन्ते संज्ञिभ्य उत्पद्यमानाः संज्ञिनः, ततोऽसंज्ञिसूत्रेऽपि ते उक्तप्रकारेण पठ्यन्ते, ज्योतिष्कवैमानिकास्तु संज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते नासंज्ञिभ्य इति असंज्ञित्वव्यवहाराभावादिह ते न पठ्यन्ते, तथा चाह-'जोइसियवेमाणिया न पुच्छिजंति' किमुक्तं भवति?-तद्विषयं सूत्रं न वक्तव्यं, तेषामसंज्ञित्वाभावादिति, बहुवचनचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे एक एव भङ्गः, तद्यथा-आहारका अपि अनाहारका अपि, प्रतिसमयमेके
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॥५१४॥
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न्द्रियाणामनन्तानां विग्रहगत्यापन्नानामत एवानाहारकाणां सदैव लभ्यमानतया अनाहारकपदेऽपि सर्वदा बहुवच-18 नभावात् , नैरयिकपदे षट् भङ्गाः, तत्र प्रथमो भङ्ग आहारका इति, अयं च भङ्गो यदाऽन्योऽसंज्ञिनारकः उत्पद्यमानो विग्रहगत्यापन्नो न लभ्यते पूर्वोत्पन्नास्वसंज्ञिनः सर्वेऽप्याहारका जातास्तदा लभ्यते, द्वितीयोऽनाहारका इति, एष यदा पूर्वोत्पन्नोऽसंज्ञी नारक एकोऽपि न विद्यते उत्पद्यमानास्तु विग्रहगत्यापन्ना बहवो लभ्यन्ते तदा विज्ञेयः, तृतीय आहारकश्च अनाहारकश्च, द्वित्वेऽपि प्राकृते बहुवचनमिति बहुवचनचिन्तायामेषोऽपि भङ्गः समीचीन इत्युपन्यस्तः, तत्र यदा चिरकालोत्पन्न एकोऽसंज्ञी नारको विद्यते अधुनोत्पद्यमानोऽपि विग्रहगत्यापन्न एकस्तदाऽयं भङ्गः, चतुर्थः आहारकश्च अनाहारकाश्च एष चिरकालोत्पन्ने एकस्मिन्नसंज्ञिनि नारके विद्यमाने अधुनोत्पद्यमानेषु असंज्ञिषु विग्रहगत्यापन्नेषु द्रष्टव्यः, पञ्चमः-आहारकाश्च अनाहारकश्च, अयं चिरकालोत्पन्नेषु बहुषु असंशिषु नारकेषु सत्सु अधुनोत्पद्यमाने विग्रहगत्यापन्ने एकस्मिन्नसंज्ञिनि विज्ञेयः, षष्ठ आहारकाश्च अनाहारकाच, एष बहुषु चिरकालोत्पन्नेषुत्पद्यमानेषु चासंजिषु वेदितव्यः, 'एवमेते छन्भंगा' एवमुपदर्शितप्रकारेण एते षट् भंगाः, तद्यथा-आहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेनैकः १, अनाहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेन द्वितीयः २, आहारकपदस्यानाहारकपदस्य च युगपत् प्रत्येकमेकवचनेन तृतीयः३, आहारकपदस्यैकवचनेन अनाहारकपदस्य बहुवचनेन चतुर्थः ४, | आहारकपदस्य बहुवचनेन अनाहारकपदस्यैकवचनेन पञ्चमः ५, उभयत्रापि बहुवचनेन षष्ठः ६, शेषास्तु भङ्गा न
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आहारपदे उद्देशः२ सू.
प्रज्ञापना-18 सम्भवन्ति, बहुवचनचिन्तायाः प्रक्रान्तत्वात् , एते च षटू भङ्गा असुरकुमारादिष्वपि स्तनितकुमारपर्यवसानेषु वेदि- या मल- तव्याः, तथा चाह-एवं जाव थणियकुमारा' 'एगिदिएसु अभंगय'मिति एकेन्द्रियेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपेयवृत्ती. प्वभङ्गकं-भङ्गकाभाव एक एव भङ्ग इत्यर्थः, स चाय-आहारका अपि अनाहारका अपि, तत्राहारका बहवः| ॥५१५॥
| सुप्रसिद्धाः, अनाहारका अपि प्रतिसमयं पृथिव्यपतेजोवायवः प्रत्येकमसङ्ख्येयाः प्रतिसमयं वनस्पतयोऽनन्ताः सर्वकालं लभ्यन्ते इति तेऽपि बहवः सिद्धाः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तद्यथाआहारका अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च अथवा आहारकाश्च अनाहारकाच, तत्र द्वीन्द्रियान् प्रति भावनायदा द्वीन्द्रिये एकोऽपि विग्रहगत्यापन्नो न लभ्यते तदा पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽप्याहारका इति प्रथमो भङ्गः, यदा पुनरेको विग्रहगत्यापन्नस्तदा पूर्व सर्वेऽप्याहारका उत्पद्यमानस्त्वेकोऽनाहारक इति, यदा तूत्पद्यमाना अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियेष्वपि भावना कर्तव्या, मनुष्यन्यन्तरेषु षट् भङ्गाः, ते च नैरयिकेष्विव भावनीयाः, तथा चाह-'बेइंदिय जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु तियभंगो, मणूसवाणमंतरेसु छन् - गा' इति, नोसंज्ञीनोअसंज्ञी च केवली सिद्धश्च ततो नोसंज्ञिनोअसंज्ञित्वचिन्तायां त्रीणि पदानि, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, तत्र जीवपदे सूत्रमाह-'नोसण्णीनोअसण्णी णं भंते ! जीवे' इत्यादि, स्यात्-कदाचिदाहारकः केवलिनः समुद्घाताद्यवस्थाविरहे आहारकः (कत्वात्), स्यात्-कदाचिदनाहारकः, समुद्घातावस्थायां अयो
तदा पूर्व सर्वेऽप्याहारका उत्पन्द्रियेष्वपि भावना कर्त्तव्या, मायोमणूसवाणमंतरेसु छ
॥५९
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गित्वावस्थायां सिद्धावस्थायां वा भावनीयं, 'सिद्धे अणाहारए' इति सिद्धे-सिद्धविषये सूत्रे 'अणाहारए' इति वक्तव्यं, 'पुहुत्तेणं'ति पृथक्त्वेन बहुत्वेन चिन्तायामिति प्रक्रमः, 'आहारगावि अणाहारगावि' तत्राहारका अपि बहूनां केवलिनां समुद्घाताद्यवस्थारहितानां सदैव लभ्यमानत्वात् , अनाहारका अपि सिद्धानां सदैव भावात्तेषां चानाहारकत्वादिति, 'मणुस्सेसु तियभंगो' इति मनुष्यविषयं भङ्गत्रिकं, तद्यथा-आहारका एष भङ्गो यदा न कोऽपि केवली समुद्घाताद्यवस्थागतो भवति, अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च एष भङ्ग एकस्मिन् केवलिनि । समुद्घाताद्यवस्थागते सति लभ्यते, अथवा आहारकाश्च अनाहारकाश्च एष बहुषु केवलिसमुद्घाताद्यवस्थागतेषु । सत्सु वेदितव्यः । लेश्याद्वारे सामान्यतः सलेश्यसूत्रमाह
सलेसे णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो० ! सिय आहारए सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिते, सलेसा णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा?, गो० ! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, एवं कण्हलेसावि नीललेसावि काउलेसावि जीवेगिंदियवजो तियभंगो, तेउलेसाए पुढविआउवणस्सइकाइयाणं छब्भंगा, सेसाणं जीवादिओ तियभंगो जेसि अस्थि तेउलेसा, पम्हलेसाए सुक्कलेसाए य जीवादिओ तिभंगो, अलेसा जीवा मणुस्सा सिद्धा य एगत्तेणवि पुहुत्तेणवि नो आहारगा अणाहारगा, दारं ४ । सम्मदिट्टी गं भंते ! जीवा किं आहा० अणा०१, गो०! सिय आहा०सिय अणा०, बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया छन्भंगा, सिद्धा अणाहारमा, अवसेसाणं तियभंगो, मिच्छादिट्टीसु जीवेगिंदियवज्जो तिय- ..
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
२८आहारपदे उद्देशः२सू. ३१०
॥५१॥
समानासंजतासंजते जीवे सिद्धे य एतय अणाहारते, एवं जाव वेमाणिताय देवनेरइएसु छन्भंगा, अवस
भंगो, सम्मामिच्छादिट्ठी णं भंते ! किं आहा० अणा०, गो० ! आहारते नो अणा०, एवं एगिदियविगलिंदियवजं जाव वेमाणिते, एवं पुहुत्तेणवि । दारं ५। संजए णं भंते ! जीवे किं आहा० अणा० १, गो० ! सिय आहारए सिय अणाहारए, एवं मणूसेवि, पुहुत्तेणं तियभंगो । असंजते पुच्छा, सिय आहारए सिय अणाहारए, पुहुत्तेणं जीवेगिंदियवजो तियभंगो । संजतासंजते णं जीवे. पंचिंदियतिरिक्खजोणिते मासे य३ एते एगत्तेणवि पुहुत्तेणवि आहारगा नो अणा०, नोसंजतेनोअसंजतेनोसंजतासंजते जीवे सिद्धे य एते एगत्तेण पोहत्तेणवि नो आहा० अणा०, दारं ६ । सकसाई णं भंते! जीवे किं आहारए अणा०, गो०! सिय आ० सिय अणाहारते, एवं जाव वेमाणिता, पुहुत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, कोहकसाईसु जीवादीसु एवं चेव, नवरं देवेसु छन्भंगा, माणकसाईसु मायाकसाईसु य देवनेरइएसु छन्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, लोहकसाईसु नेरइएसु छन्भंगा, अवसेसेसु जीवेगिंदियवजो तियभंगो, अकसाई जहा णो. सण्णीणोअसण्णी, दारं ७॥(सूत्रं ३१०)
'सलेसे णं भंते ! जीवे'इत्यादि, इदं सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयं, अत्रापि सिद्धसूत्रन वक्तव्यं, सिद्धानामलेश्यत्वात् , बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमेक एव भङ्गस्तद्यथा-आहारका अपि अनाहारका अपि, उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , शेषेषु तु नैरयिकादिषु पदेषु तु प्रत्येक भङ्गत्रिकं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः १, अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च २, अथवा आहारकाच अनाहारकाच
॥५१६॥
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३, अमीषां च भावना प्राग्वत्, तथा चाह-'जीवेगिदियवजो तियभंगों' इति, 'एव'मित्यादि, एवं यथा सामान्यतः सलेश्यसूत्रमुक्तं तथा कृष्णलेश्याविषयमपि नीललेश्याविषयमपि कापोतलेश्याविषयमपि सूत्रं वक्तव्यं, सर्वत्र सामान्यतो जीवपदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमभङ्गकं, शेषपक्षे भङ्गत्रिकं, तेजोलेश्याविषयमपि सूत्रमेकत्वे प्राग्वत् , बहुत्वे पृथिव्यवनस्पतिषु षट् भङ्गाः, तेषु कथं तेजोलेश्यासम्भव इति चेत् ?, उच्यते, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां तेजोलेश्यावतां तत्रोत्पादभावात् , उक्तं चास्या एव भगवत्याः प्रज्ञापनायाचो-'जेणेतेसु भवणवइवाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणया देवा उववजंति तेणं तेउलेस्सा लब्भइ" इति, ते षट् भङ्गा इमे-सर्वे आहारकाः १ अथवा सर्वे अनाहारकाः २ अथवा आहारकश्चानाहारकश्च ३ अथवा आहारकश्च अनाहारकाश्च ४ अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च ५ अथवा आहारकाश्चानाहारकाश्च ६, शेषाणां जीवपदादारभ्य सर्वत्रापि भङ्गत्रिकं, तथा चाह–'तेउलेस्साए पुढविआउवणस्सइकाइयाणं छन्भंगा, सेसाणं जीवाईओ तियभंगो' इति, आह-किं सर्वेषामविशेषेण जीवपदादारभ्य भङ्गत्रिकमुत केषांचिदत आह-जेसिं अत्थि तेउलेसा' इति, येषामस्ति तेजोलेश्या तेषामेव भङ्गत्रिकं वक्तव्यं, न शेषाणां, एतेन किमावेदितं भवति ?,-नैरयिकविषयं तेजोवायुविषयं द्वित्रिचतुरि
१ श्रीहरिभद्रसूरिवरविहिता प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्यारूपैवेयं नत्वन्या काचिचूर्णिः, अस्ति च तत्रायं पाठः समग्रः, स्पष्टं च श्रावकधर्मपचाशकवृत्तौ औपपातिकाद्यानामुपाङ्गानां चूर्ण्यभाव इति प्रतिपादनम् ।
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प्रज्ञापना
8न्द्रियविषयं च तेजोलेश्यासूत्रं न वक्तव्यमिति, तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च येषां सम्भवति तद्विषयं तयोः सूत्रं ||२८आहायाः मल- वक्तव्यं, तत्र पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वैमानिकेषु च लभ्यते न शेषेष्विति तयोः प्रत्येक रपदे उद्दे यवृत्ती. चत्वारि पदानि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं तिर्यपञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदं वैमानिकपदं च, सर्वत्राप्येकवचनचि- शः २.सू..
न्तायां स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति भङ्गः, बहुवचनचिन्तायां भङ्गत्रिकं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहार॥५१७॥
काः १ अथवा आहारकाश्च अनाहारकश्च २ अथवा आहारकाश्चानाहारकाश्च ३, तथा चाह-'पम्हलेसाए सुकलेसाए जीवाइओ तियभंगोत्ति, अलेश्या-लेश्यातीतास्ते चायोगिकेवलिनः सिद्धाश्च, ततोऽत्र त्रीणि पदानि, तद्यथासामान्यतो जीवपदं मनुष्याः सिद्धाश्च, सर्वत्राप्येकवचनेन बहुवचनेन चानाहारका एव वक्तव्याः, एतदेवाह-'अलेस्सा जीवा मणुस्सा सिद्धा य एगत्तेणवि पुहुत्तेणवि नो आहारगा अणाहारगा' इति, गतं लेश्याद्वारम् । सम्प्रति सम्यग्दृष्टिद्वारम्-सम्यग्दृष्टिश्चेहीपशमिकसम्यक्त्वेन साखादनसम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेन वेदकसम्यक्त्वेन क्षायिकसम्यक्त्वेन वा प्रतिपत्तव्यः, सामान्यत उपादानात् , तथैवाग्रे भङ्गचिन्ताया अपि करिष्यमाणत्वात्, तत्रौपशमिकसम्यग्दृष्ट्यादयः सुप्रतीताः, वेदकसम्यग्दृष्टिः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पादयन् चरमग्रासमनुभवन्नवसेयः ॥५१७॥ एकत्वे सर्वेष्वपि जीवादिपदेषु प्रत्येकमेष भङ्गः स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, नवरमत्र पृथिव्यादिविषयं सूत्रं न वक्तव्यं, तेषां सम्यग्दृष्टित्वायोगात् , 'उभयाभावो पुढवाइएसु' [उभयाभावः पृथ्व्यादिषु ] इति वचनाद्, बहुवचन
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विषयं सूत्रं, सामान्यतो जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपि इत्येष एव भङ्गः, उभयेषामपि सदा सम्यग्दृष्टीनां बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, नैरयिकभवनपतितिर्यकपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तद्यथा-कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव १ कदाचिदाहारका एकश्चानाहारकः२, कदाचिदाहारकाश्च अनाहारकाश्च ३, द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु पुनः षड् भङ्गाः, ते च प्राग्वद् भावनीयाः, द्वीन्द्रियादीनां च सम्यग्दृष्टित्वमपर्याप्तावस्थासम्भवि-| साखादनसम्यक्त्वापेक्षया द्रष्टव्यं, सिद्धास्त्वनाहारकाः, एतेषां क्षायिकसम्यक्त्वयुक्तत्वात् , तथा चाह-बेइंदियतेइंदियचउरिदिएसु छभंगा, सिद्धा अणाहारगा, अवसेसाणं तियभंगों' मिथ्यादृष्टिष्वपि एकवचने सर्वत्र स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति, उभयेषामपि सर्वदैव तेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वेन, शेषेषु तु सर्वेषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, सिद्धसूत्रं चात्र न वक्तव्यं, सिद्धानां मिथ्यात्वापगमात् , एतदेवाह-'मिच्छादिट्ठीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छहिट्ठीणं भंते! जीवे'
इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! आहारको नो अनाहारकः, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह संसारिराणामनाहारकत्वं विग्रहगती, न च सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वं विग्रहगताववाप्यते, कालकरणायोगात्, 'सम्मामिच्छो न कुणइ |
कालं' [सम्यग्मिथ्या न करोति कालं] इति वचनात्, ततः सम्यग्मिध्यादृष्टेर्विग्रहगत्यभावतोऽनाहारकत्वाभावः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण सर्वत्रापि वक्तव्यं, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः, तेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वा
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
॥५१॥
सम्भवात् , एवं बहुवचनेऽपि वक्तव्यं, तद्यथा-'सम्मामिच्छहिट्ठी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा?,
२८आहा. गो! आहारगा नो अणाहारगा, सम्मामिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! नेरइया किं आ० अणा०१, गो! आहारगानो रकपदे उअणाहारगा, एवमेगिंदियविगलिंदियवजा जाव वेमाणिया' इति । गतं दृष्टिद्वारं, सम्प्रति संयतद्वारं संयतत्वं च देशः२ मनुष्याणामेव, तत्र द्वे पदे, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं च, तत्रजीवपदे सूत्रमाह-संजए णं भंते ! जीवे' इत्यादि । गत्यादिसुगम, नवरमनाहारकत्वं केवलिसमुद्घातावस्थायामयोगित्वावस्थायां च वेदितव्यं, शेषकालमाहारकत्वं, ‘एवं मणू
प्वाहारकसेवित्ति एवं मनुष्यविषये सूत्रं वक्तव्यं, तद्यथा-'संजए णं भंते ! मणूसे किं आहारए अणाहारए १, गोसिय
त्वादिःसू. आहारए सिय अणाहारए' भावनाऽनन्तरमेवोक्ता, 'पुहुत्तेणं तियभंगो'त्ति पृथक्त्वेन-बहुवचनेन जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, तचैवं-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः, एष भङ्गो यदा न कोऽपि केवली समुद्घातमयोगित्वं वा प्रतिपन्नो भवति तदा वेदितव्यः, अथवा आहारकाचानाहारकश्च, एष एकस्मिन् केवलिनि समवहते शैलेशी वा गते प्राप्यते, अथवा आहारकाचानाहारकाच, एष बहुषु केवलिषु समवहतेषु शैलेशीगतेषु वा लभ्यते । असंयतसूत्रे
॥५१८॥ एकवचने सर्वत्र स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिषु च पदेषु प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपि इत्येष भङ्गः, शेषेषु तु नैरयिकादिषु स्थानेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, संयतासंयता-देशविरताः, ते च तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया मनुष्या वा न शेषाः, शेषाणां खभावत एव देशविरतिपरिणामाभावादू, एवं चैतेषां त्रीणि पदा
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नि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदं च, एतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु एकवचने बहुवचने च आहारका भवन्ति, भवान्तरगतौ केवलिसमुद्घाताद्यवस्थासु च देशविरतिपरिणामाभावात्, नोसंयतोनोअसंयतोनोसंयतासंयतः, तचिन्तायां वे पदे, तद्यथा-जीवपदं सिद्धपदं च, उभयत्राप्येकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव वक्तव्यं, न त्वाहारकत्वं, सिद्धानामनाहारकत्वात् । गतं संयतद्वारं, कषायद्वारं-'सकसाई णं भंते ! जीवे' इत्यादि, एकवचनविषयं सूत्रं सुगम, बहुवचने 'जीवेगिदियवजो तियभंगो'त्ति जीवपदे पृथिव्यादिषु च पञ्चसु पदेषु प्रत्येक आहारका अपि अनाहारका अपि वक्तव्यं, उभयेषामपि सकषायाणां सदैव तेषु स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्, शेषेषु तु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, 'कोहकसाई एवं चेव'त्ति क्रोधकषाय्यपि एवमेव-सामान्यतः सकषायवदवसेयः, तत्रापि जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु चाभङ्गक, शेषेषु तु स्थानेषु भङ्गत्रिकमिति भावः, किं सर्वेष्वपि शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिक?, नेत्याह-'नवरं 'देवेसु छब्भंगा' देवा हि खभावत एव लोभबहुला भवन्ति न क्रोधादिबहुलाः, ततः क्रोधकषायिण एकादयोऽपि लभ्यन्ते इति षड् भङ्गाः, तद्यथा-कदाचित् सर्वेऽप्याहारका एव क्रोधकषायिणः, एकस्यापि विग्रहगत्यापन्नस्यालभ्यमानत्वात् १, कदाचित्-सर्वेऽप्यनाहारकाः२, एकस्यापि क्रोधकषायिणः सत आहारकस्याप्राप्यमा-10 नत्वात् , क्रोधोदयो हि मानाधुदयविविक्त एवेह विवक्ष्यते न मानाधुदयसहितोऽपि, तेन क्रोधकषायिणःसतः कदाचिदाहारकस्य सर्वथाऽप्यभावः, तथा कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ३ कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहा
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प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती.
॥५१९॥
रकाः ४, कदाचिद्बहव आहारका एकोऽनाहारकः ५, कदाचिद्बहव आहारकाः बहवश्चानाहारका इति ६, मानकषा
२८आहायसूत्रं मायाकषायसूत्रं चैकवचने प्राग्वत् , बहुवचने विशेषमाह-'माणकसाईसु' इत्यादि, मानकषायिषु मायाकषा- शरकपदे उयिषु बहुवचनेन चिन्त्यमानेषु देवेषु नैरयिकेषु च प्रत्येकं षड़ भङ्गाः, नैरयिका हि भवखभावतः क्रोधबहुलाः देवास्तु देशः २ लोभबहुलास्ततो देवानां नैरयिकाणां च मानकषायो मायाकषायश्च प्रविरल इति प्रागुक्तप्रकारेण षट् भगाः, जीव-II गत्यादिपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमभङ्गकमाहारकाणामनाहारकाणां च मानकषायिणां मायाकषायिणां च प्रत्येकं सदैव प्वाहारकतेषु २ स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात. शेषेषु तु स्थानेषु भङ्गत्रिकं.लोभकषायसूत्रमप्येकवचने तथैव, बहुवचने विशे-ISI त्वादिःसू. षमाह-'लोभकसाईसु' इत्यादि, लोभकषायिषु नैरयिकेषु षट् भजास्तेषां लोभकषायस्खाल्पत्वात् , शेषेषु तु जीवैकेन्द्रियवर्जेषु स्थानेष्वपि भङ्गत्रिक, देवेष्वपि भङ्गत्रिकमिति भावः, तेषां लोभबहुलतया षड्भनयसम्भवात्, जीवे|वकान्द्रयषु च प्राग्वदेष एव भङ्गः, आहारका अप्यनाहारका अपि इति, "अकसाई जहा नोसण्णीणोअसण्णी'ति अकषायिणो यथा नोसंज्ञिनोऽसंज्ञिन उक्तास्तथा वक्तव्याः, किमुक्तं भवति-अकषायिणोऽपि मनुष्याः सिद्धाश्च, मनुष्या उपशान्तकषायादयो वेदितव्याः, अन्येषां सकपायित्वात. तत एतेषामपि त्रीणि पदानि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमेकवचने स्यादाहारका स्वाद-1 नाहारक इंति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक एवेति, बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपीति, केवलि
३१०
१॥
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नामाहारकाणां सिद्धानामनाहारकाणां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , मनुष्यपदे भात्रिकं, सर्वेऽपि युराहारकाः१ अथवा आहारकाचानाहारकश्च २ अथवा आहारकाश्चानाहारकाश्च ३ भावना च प्रागेवानेकशः। कृता, सिद्धपदे त्वनाहारक एव । गतं कषायद्वारं, सम्प्रति ज्ञानद्वारम्, तत्र
णाणी जहा सम्मद्दिट्ठी, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी-य बेइंदियतेइंदियचउरिदिएसु छन्भंगा, अवसेसेसु जीवादिओ तियभंगो जेसिं अस्थि, ओहिणाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगाणो अणाहारगा, अवसेसेसु जीवादिओ तियभंगो जेसिं अस्थि ओहिनाणं, मणपजवनाणी जीवामणूसा य एगत्तेणवि पुहत्तेणवि आहाणो अणाहारगा, केवलनाणी जहा नोसण्णीनोअसण्णी, दारं ७ । अण्णाणी मतिअणाणी सुयअण्णाणी जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य आहारगाणो अणा०, अवसेसेसु जीवादियो तियभंगो, दारं ८ । सजोगीसु जीवेगिदियवजो तियभंगो, मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छट्ठिी, नवरं वइजोगो विगलिंदियाणवि, कायजोगीसु जीवेगिदियवजो तियभंगो, अजोगी जीवमणूससिद्धा अणाहारगा, दारं ९। सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिदियवजो तियमंगो, सिद्धा अणाहारगा, दारं १० । सवेदे जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, इत्थिवेदपुरिसवेदेसु जीवादिओ तियभंगो, नपुंसगवेदए य जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, अवेदए जहा केवलनाणी, दारं ११॥ ससरीरी जीवेगिंदियवजो तियभंगो, ओरालियसरीरी जीवमशुसेसु तियभंगो, अवसेसा आहारगा नो अणाहारगा जेसिं अस्थि ओरालियसरीरं, वेउबियसरीरी आहारगसरीरी य
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प्रज्ञापना
या: मलयवृत्ती.
MO.999999
॥५२॥
आहारगा नो अणा० जेसिं अत्थि, तेयकम्मसरीरी जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, असरीरी जीवा सिद्धा य नो आहारगा NR८आहाअणा० दारं १२, आहारपज्जत्तीए पजत्ते सरीरपज्जत्तीए पज्जत्ते इंदियपजत्तीए पजत्ते आणापाणपज्जत्तीए पजत्तए भासा- रकपदे उमणपज्जत्तीए पज्जत्तते एतासु पंचसुवि पज्जत्तीसु जीवेसु मणूसेसु य तियभंगो, अवसेसा आहारगा नो अणाहारगा, देशः २ भासामणपजत्ती पंचिंदियाणं अवसेसाणं नत्थि, आहारपज्जत्तीअपज्जत्तए णो आहारए अणा०, एगणवि पुहुत्तेणवि, गत्यादिसरीरपजत्तीअपज्जत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए, उवरिल्लियासु चउसु अपज्जत्तीसु नेरइयदेवमणूसेसु छन्भंगा, प्वाहारकअवसेसाणं जीवेगिंदियवो तियभंगो, भासामणपज्जत्तएसु जीवेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, नेरइयदेव- त्वादिःसू. मणुएसु छन्भंगा, सवपदेसु एगत्तपोहत्तेणं जीवादिया दंडगा पुच्छाए भाणितवा जस्स जे अस्थि तस्स तं पुच्छिज्जति जस्स जे णत्थि तस्स तं न पुच्छि जति जाव भासामणपजत्तीअपज्जत्तएसु नेरइयदेवमणुएसु छन्भंगा, सेसेसु तियभंगो
( सूत्र ३११) आहारपयस्स वितिओ उद्देसो समत्तो ॥ अट्ठावीसइमं पयं समत्तं ॥ २८ ॥ __ 'नाणी जहा सम्मदिहि'त्ति ज्ञानी यथा प्राक् सम्यग्दृष्टिरक्तस्तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नाणी णं भंते ! जीवे किं| | आहारए अणाहारए ?, गो.! सिय आहारए सिय अणाहारए, नाणी णं भंते ! नेरइए किं आहारए अणाहारए 1,81
IS २०॥ गो! सिय आ० सिय अणाहारए, एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिए, नाणी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहार-18| गा?, गो! आहारगावि अणाहारगावि, नाणी णं भंते ! नेरइया किं आहारगा अणाहारगा?, गो! सवेवि ताव
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होज आहारगा १, अहवा आहारगा य अणाहारगे य २ अहवा आहारगा य अणाहारगा य ३, एवं जाव थणियकुमारा, बेइंदियाणं पुच्छा, गो० ! सच्चेवि ताव होज आहारगा य १ अहवा अणाहारगा य २ अहवा आहारए य अणाहारए य ३, अहवा आहारगे य अणाहारगा य ४, अहवा आहारगा य. अणाहारगे य ५, अहवा आहारंगा य अणाहारगा य ६, एवं तेइंदियचउरिंदियावि भाणितच्चा, अवसेसा जाव वेमाणिया जहा नेरइया, सिद्धाणं पुच्छा, गो० ! अणाहारगा य' इति, आभिनिबोधिकज्ञानिसूत्रे श्रुतज्ञानिसूत्रे चैकवचने प्राग्वदवसेयं, बहुवचने द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु षड् भङ्गाः, अवशेषेषु तु जीवादिषु स्थानेषु एकेन्द्रियवर्जेषु भङ्गत्रिकं, तचैवम् – 'आभिनिबोहियनाणी णं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ?, गो० ! सधेवि ताव होज्ज आहारगा १ अहवा आहारगा य अणाहारगे य २ अहवा आहारगाय अणाहारगा य ३ इत्यादि, तथा चाह - 'आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य बेइंदियतेहूंदियचउरिदिए छन्भंगा, अवसेसेसु जीवाइओ तियभंगो, जेसिं अस्थि' इति सुगमं, नवरं 'जेसिं अस्थि' येषां जीवानामाभिनिबोधिकज्ञानश्रुतज्ञाने स्तस्तेषु भङ्गत्रिकं वक्तव्यं, न शेषेषु पृथिव्यादिष्विति, अवधिज्ञानसूत्रमेकवचने तथैव, बहुवचनचिन्तायां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका आहारका एव न त्वनाहारकाः, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह पञ्चेन्द्रियतिरश्चामनाहारकत्वं विग्रहगतौ न च तदानीं तेषां गुणप्रत्ययतोऽवधिसम्भवो, गुणानामेवासम्भवात् नाप्यप्रतिपतितावधिर्देवो मनुष्यो वा तिर्यक्षत्पद्यते, ततोऽवधिज्ञानिनः सतः पश्चेन्द्रियतिरश्चोऽनाहारकत्वायोगः, शेषेषु तु स्थानेष्वेकेन्द्रिय
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥५२॥
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विकलेन्द्रियवर्जेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिक, तदेवाह-'ओहिनाणी णं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा अवसेसेसु जीवाइओ२८आहातियभंगो जेसिं अत्थि ओहिणाण'मिति, मनःपर्यायज्ञानं मनुष्याणामेव, ततो द्वे पदे, तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं च,81
रकपदे उउभयत्रापि चैकवचने बहुवचने च मनःपर्यायज्ञानिन आहारका एव वक्तव्याः , न त्वनाहारकाः, विग्रहगत्याद्यवस्थावां मनःपर्यायज्ञानासम्भवात् , केवलज्ञानी यथा प्राग नोसंज्ञीनोअसंज्ञी उक्तस्तथा वक्तव्यः, किमुक्तं भवति ।-केवलज्ञान
गत्यादि
प्वाहारकचिन्तायामपि त्रीणि पदानि, तद्यथा-सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्य-18
स्वादिःसू. पदे चैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक इति, बहुवचने सामान्यतो जीवपदेश आहारका अपि अनाहारका अपि, मनुष्यपदे भात्रिक, तच्च प्रागेवोपदर्शितं. सिद्धपदे त्वनाहारका अपि । अज्ञानिसूत्र मत्यज्ञानिसूत्रं श्रुताज्ञानिसूत्र एकवचने प्रागिव, बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमाहारका अनाहारका अपि इति वक्तव्यं, शेषेषु तु भङ्गत्रिकं, विभङ्गज्ञानिसत्रमप्येकवचने तथैव, बहुवचनचिन्तायां पञ्चेन्द्रियतियेग्योनिका मनुष्याश्चाहारका एव वक्तव्याः, न त्वनाहारकाः, विभङ्गज्ञानसहितस्य विग्रहगत्या तियेकपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु चोत्पत्त्यसम्भवात् , अवशेषेषु स्थानेषु एकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं । गतं ज्ञानद्वार, सम्मृति । ॥५२१॥ योगद्वार-तत्र सामान्यतः सयोगिसूत्रमेकवचने तथैव, बहुवचने जीवएकेन्द्रियपदानि वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु । भङ्गत्रिक, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च पुनःप्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति भङ्गः, उभयेषामपि सदेव तेषु
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| स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् 'मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छट्टिी यत्ति मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च यथा । प्राक् सम्यग्मिथ्यादृष्टय उक्तास्तथा वक्तव्याः, एकवचने बहुवचने चाहारका एव वक्तव्या न त्वनाहारका इति भावः, नवरं 'वइजोगो विगलिंदियाणवित्ति नवरमिति-सम्यग्मिथ्यादृष्टिसूत्रादत्रायं विशेषः, सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वं विकलेन्द्रियाणां नास्तीति तत्सूत्रं तत्र नोक्तं, वाग्योगः पुनर्विकलेन्द्रियाणामप्यस्तीति तत्सूत्रमपि वाग्योगे वक्तव्यं, तचै-| वम्-'मणजोगीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो! आहारए नो अणाहारए, एवं एगिदियविगलिं
दियवजं जाव वेमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि, वइजोगीणं भंते ! किं आहा. अणा. १, गो! आहारएं नो अणाहारए, ॥३॥ एवं एगिंदियवजं जाव वेमाणिए, एवं पुहत्तेणवित्ति, काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतः सयोगिसू
त्रमिव, अयोगिनो मनुष्याः सिद्धाश्च, तेनात्र त्रीणि पदानि. तद्यथा-जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च, त्रिष्वपि स्थानेवेकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव । गतं योगद्वारं, अधुनोपयोगद्वारमाह-तत्र साकारोपयोगसूत्रे अनाकारोपयोगसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने सर्वत्र स्वादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, सिद्धपदे त्वनाहारक इति, बहुवचन जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु चाहारका अपि अनाहारका अपि इति भङ्गः, शेषेषु भङ्गत्रिकं, सिद्धास्त्वनाहारका इति, सूत्रोल्लेखस्त्वयम्-'सागारोवउत्ते णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गो.! सिय आहारए सिय अणाहारए'। इत्यादि । गतं उपयोगद्वारं, वेदद्वारे सामान्यतः सवेदसूत्रमेकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीव
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प्रज्ञापना- याः मलय० वृत्ती. ॥५२२॥
पदमेकेन्द्रियांश्च वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनः प्रत्येकमभङ्गक, आहारका अनाहा-18
२८आहारका अपीति, स्त्रीवेदसूत्रं पुरुषवेदसूत्रं च एकवचने तथैव, नवरमत्र नैरयिकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः, तेषां । रकपदे उनपुंसकत्वात् , बहुवचने जीवादिषु पदेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिकं, नपुंसकवेदेऽपि सूत्रमेकवचने तथैव, नवरमत्र भवनपति- देशः २ व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका न वक्तव्यास्तेषामनपुंसकत्वाद्, बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु भङ्गत्रिकं, जीवपदे एकेन्द्रिय- गत्यादिपदेषु च पृथिव्यादिषु पुनरभकं प्रागुक्तखरूपमिति, अवेदो यथा केवली तथा एकवचने बहुवचने च वक्तव्यः, ध्वाहारकजीवपदे मनुष्यपदे च एकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका
त्वादिःसू.
३११ अपि, मनुष्येषु भङ्गत्रिकं, सिद्धत्वेऽनाहारका इति वक्तव्यमिति भावः । गतं वेदद्वार, शरीरद्वारे सामान्यतः शरीरसूत्रे सर्वत्रैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवएकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु स्थानेषु प्रत्येकं भङ्गत्रिक, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमभङ्गक प्रागुक्तमिति, औदारिकशरीरसूत्रमेकवचने तथैव, नवरमत्र नैरयिकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका न वक्तव्यास्तेषामौदारिकशरीराभावात् , बहुवचने जीवपदे मनुष्यपदेषु च प्रत्येकं भङ्गत्रिक, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः, एष भङ्गो यदान कोऽपि केवली समुद्घातगतोऽयोगी वा, अथवा आ
॥५२२॥ हारकाचानाहारकश्च, एष एकस्मिन् केवलिनि समुद्घातगते अयोगिनि वा सति प्राप्यते, अथवा आहारकाचानाहारकाच, एष भङ्गो बहुषु केवलिसमुद्घातगतेषु अयोगिषु वा सत्सु वेदयितव्यः, शेषास्त्वेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय
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चतुरिन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रिया आहारका एव वक्तव्याः, न त्वनाहारकाः, विग्रहगत्युत्तीर्णानामेवौदारिकशरीरसम्भवात, वैक्रियाहारकशरीरिणश्च सर्वेऽप्येकवचने बहुवचने चाहारका एव न त्वनाहारकाः, नवरं येषां वैक्रियमाहारक वा सम्भवति त एव वक्तव्या नान्ये, तत्र वैक्रियं नैरयिकभवनपतिवायुकायिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिकवैमानिकेषु आहारकं मनुष्यष्वेव, सूत्रोल्लेखश्चायं-'वेउवियसरीरी णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ?, गोयमा ! आ० णो अणा०, वेउवियसरीरे णं भंते ! णेरइए कि आहारए अणाहारए ?, गो! आ० नो अणा.' इत्यादि. तैजसकामणशरीरिसूत्रे चैकवचने सर्वत्र स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति, बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं, जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनरभङ्गक, अशरीरिणः-सिद्धास्तेन तत्र द्वे एव पदे, तद्यथा-जीवाः सिद्धाश्च, तत्र एकवचन बहुवचने चोभयत्राप्यनाहारका एव । गतं शरीरद्वारं, सम्प्रति पर्याप्तिद्वारम्-तत्रागमे पर्याप्तयः पञ्च, भाषामनःपर्याप्त्योरेकत्वेन विवक्षणात्, तथा चाहारकपर्याप्त्या पर्याप्त शरीरपर्याप्त्या पर्याप्से इन्द्रियपर्यात्या पर्याप्त प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्ते भाषामनःपर्याप्त्या पर्याप्ते चिन्त्यमाने, अत्रैव सर्वसङ्कलनामाह-एतासु पञ्चखपि पर्याप्तिषु समर्थितासु चिन्त्यमानाखिति शेषः प्रत्येकमेकवचने जीवपदे मनुष्यपदे च स्यादाहारका स्यादनाहारक इति, शेषेषु तु स्थानेषु आहारक इति, बहुवचने 'जीवेसु मणुस्सेसु य तियभंगोत्ति जीवपदे मनुष्यपदे च भङ्गत्रिकं वक्तव्यं, तचौदारिकशरीरिसूत्रमिव भावनीयं, अवशेषाः सर्वेऽप्याहारका वक्तव्याः, नवरं भाषामनःपर्याप्तिः
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प्रज्ञापना
पञ्चेन्द्रियाणामेवेति तत्सूत्रे एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः, किन्तु शेषाः, एतदेवाह-'भासामणपजत्ती पंचिंदि-२८आहायाः मल- याणं अवसेसाणं नत्थि' इति, आहारपर्याप्त्यपर्याप्तकसूत्रे एकवचने सर्वत्राप्यनाहारको वक्तव्यो, नो आहारकः, रकपदे उय० वृत्ती. आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्सो विग्रहगतावेव लभ्यते, उपपातक्षेत्रं प्राप्तस्य प्रथमसमय एवाहारपर्याप्त्या पर्याप्तत्वभावाद देशः २ 8 अन्यथा तस्मिन् समये आहारकत्वानुपपत्तेः, बहुवचने त्वनाहारका इति, शरीरपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे एकवचने सर्वत्र
गत्यादि॥५२३॥
प्वाहारकस्थादाहारकः स्यादनाहारक इति, तत्र विग्रहगतावनाहारक उपपातक्षेत्रप्राप्तस्तु शरीरपर्याप्तिपरिसमाप्तिं यावदाहारक |
त्वादिःसू. इति, एवमिन्द्रियपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे प्राणापानपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे भाषामनःपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे च प्रत्येक एकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं, बहुवचने 'उवरिल्लियासु' इत्यादि, उपरितनीषु शरीरापर्याप्तिप्रभृतिषु चतसृषु अपर्यासिषु चिन्त्यमानासु प्रत्येकं नैरयिकदेवमनुष्येषु षड् भङ्गा वक्तव्याः, तद्यथा-कदाचित्सर्वेऽप्यनाहारका एव १ कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव २ कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः ३ कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहारकाः ४ कदाचिद्वहव आहारकाः एकश्चानाहारकः ५ कदाचिद्बहव आहारका बहवश्चानाहारकाः ६, अवशेषाणा नरायकदवमनुष्यव्यतिरिक्तानां जीवैकेन्द्रियवर्जानां भङ्गत्रिकं वक्तव्यं, तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुः आहारकाः १ अथवा आहा- ॥५२३॥ | रकाश्च अनाहारकश्च २ अथवा आहारकाचानाहारकाच ३, जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पुनः शरीरपयोत्यपयोप्तसूत्रे इन्द्रियपयोत्यपयोप्तसूत्रे प्राणापानपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे च प्रत्येकमभङ्गक आहारका अपि अनाहारका अपि, उभयेषामपि
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च सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् , भाषामनःपर्याप्त्यपर्याप्तकास्त्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न भवन्ति, किन्तु पञ्चेन्द्रिया | एव, येषां हि भाषामनःपर्याप्तिसम्भवोऽस्ति त एव तत्पर्याप्त्यपर्याप्तकाःप्रोच्यन्ते, न शेषा इति, ततस्तत्सूत्रे बहुवचने जीवपदे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपदे च भङ्गत्रिकं, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो हि सम्मूर्छिमाः सदैव बहवो लभ्यन्ते, ततो यावदद्याप्यन्यो विग्रहगत्यापन्नः पञ्चेन्द्रियतिर्यग् न लभ्यते तावदेष भङ्गः-सर्वेऽपि तावद् भवेयुराहारका इति १, एकस्मिन् तस्मिन् विग्रहगत्यापन्ने लभ्यमाने द्वितीयो भङ्गः-आहारकाश्चानाहारकश्चेति २, यदा तु विग्रहगत्यापन्ना अपि| बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयो भङ्गः-आहारकाश्चानाहारकाश्चेति ३, जीवपदेऽपि भङ्गत्रिकं एतदपेक्षया प्रत्येयं, नैर-18 यिकदेवमनुष्येषु प्रत्येकं षडू भङ्गाः, ते च प्रागेवोक्ताः, इह भव्यपदादारभ्य प्राय एकत्वेन बहुत्वेन च वैविक्त्येन सूत्राणि जीवादिदण्डकक्रमेण नोक्तानि ततो मा भून्मन्दमतीनां सम्मोह इति तद्विषयमतिदेशमाह-'सवपएसु एगत्ते'त्यादि, एते जीवादयो दण्डकाः सर्वपदेषु-सर्वेष्वपि पदेषु एकत्वेन बहुत्वेन च पृच्छया उपलक्षणमेतन्निवेचनेन भणितव्याः, किं सर्वत्राप्यविशेषेण कर्तव्याः १. नेत्याह-'जस्से'त्यादि, यस्य यदस्ति तस्य तत्पृच्छ्यते-तद्विषयं सूत्रं भण्यते, यस्य पुनः यन्नास्ति न तस्य तत्प्रष्टव्यं-न तद्विषयं तस्य सूत्रं वक्तव्यमिति भावः, कियडूरं यावदेवं कर्त्तव्यमिति शङ्कायां चरमदण्डकवक्तव्यतामुपदिशति-'जाव भासामणपजत्तीए अपजत्तएसु' इत्यादि, भाविताथै, इहा|धिकृतार्थभावनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रतिपादिता गाथाः-"सिद्धेगिंदियसहिया जहिं तु जीवा अभंगयं तत्थ । सिद्धे
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प्रज्ञापना- विडियोहिं होई जीवहिं तियभंगो ॥१॥ असण्णीसु य नेरइय देवमणुएसु होति छन्भंगा । पुढविदगतरुगणेस य |२८आहाया: मल- छभंगा तेउलेसाए ॥२॥ कोहे माणे माया छब्भंगा सुरगणेसु सत्वेसुं । माणे माया लोभे रइएहिपि छन्भंगारपदे उद्देय०वृत्ती. ॥३॥ आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे खलु तहेव सम्मत्ते । छभंगा खलु नियमा वियतियचउरिदिएसु भवे ॥४॥ शः२ सू.
उवरिलापजत्तीसु चउसु णेरइयदेवमणुएसुं । छब्भंगा खलु नियमा वजे पढमा उ अपजत्ती ॥५॥ सण्णी वि॥५२४॥
सुद्धलेसा संजय हिट्ठिल तिसु य नाणेसु । थीपुरिसाण य वेदेवि छन्भंग अवेय तियभंगो ॥६॥ सम्मामिच्छामणवहमणनाणे बालपंडियविउची । आहारसरीरंमि य नियमा आहारया होति ॥७॥ ओहिंमि विभंगंमि य नियमा आहारया उ नायवा। पंचिंदिया तिरिच्छा मणुया पुण होति विभंगे॥८॥ओरालसरीरंमि य पजचीणं च पंचसु तहेव । तियभंगो जियमणुएसु होंति आहारगा सेसा ॥९॥ णोभवअभविय लेसा अजोगिणो तहय होंति
असरीरी । पढमाए अपजत्तीऍ ते उ नियमा अणाहारा ॥ १०॥ सन्नासन्नविउत्ता अवेय अकसाइणो य केवलि-ISM राणो। तियभंग एकवयणे सिद्धाऽणाहारया होंति ॥ ११॥” एताश्च सर्वा अपि गाथा उक्तार्थप्रतिपादकत्वाद् भाविता इति न भूयो भाव्यन्ते ग्रन्थगौरवमयात, नवरं, 'एक्कवयणे सिद्धाणाहारया होंति' इति 'एकवयणे' इत्यत्र तृती
॥५२४॥ यार्थे सप्तमी एकवचनेन एकार्थेनेति भावः, सर्वत्र सिद्धा अनाहारका भवन्तीति विज्ञेयम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां आहारपदस्य द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः॥२॥ समाप्तमष्टाविंशतितममाहाराख्यं पदम् ॥२८॥
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अथ एकोनत्रिंशत्तमं उपयोगाख्यं पदं ॥ २९ ॥
ओगे पं०, त-सागासागारोवओगे सुयणाणणागारोवओगे णं भने
तदेवमुक्तमष्टाविंशतितममाहाराख्यं पदं, साम्प्रतमेकोनत्रिंशत्तममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेष आहारपरिणाम उक्तः, इह तु ज्ञानपरिणामविशेषः उपयोगः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम्
कइविहे णं भंते ! उवओगे पं०१, गो! दुविहे उवओगे पं०, तं०-सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, सागारोवओगे णं भंते ! कतिविधे पं० १, गो० ! अढविहे पं०, तं०-आभिणिबोहियनाणसागारोवओगे सुयणाणसामारोवओगे ओहिणाणसा० मणपजवनाणसा० केवलनाणसा० मतिअण्णाणसा० सुयअण्णाणसा० विभंगणाणसा०। अणागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पं० १, गो० ! चउविहे पं०, तं०-चक्खुदंसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणअणा० ओहिदसणअणागा. केवलदंसणअणागारोवओगे य। एवं जीवाणं, नेरइयाणं भंते! कतिविधे उवओगे पं०१, गो०! दुविधे उवओगे पं०,०सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, नेरइयाणं भंते ! सागारोवओगे कइविहे पं० १, गो! छबिहे पं०, तं०-मतिणाणसागारोवओगे सुयणाणसा० ओहिणाणसा० मतिअण्णाणसा० सुयअण्णाण विभंगणाणसा०, नेरइयाणं भंते ! अणागारोवओगे कइविहे पं००१, गो! तिविहे पं०-चक्खुदंसण० अचखुदंसण ओहिदसणअणा०, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० दु० उवओगे पं०, तं०-सागारो० अणागारोव०, पुढवि० सागारोवओगे कतिविधे पं०१, गो०
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
२९ उपयोगपदे सूत्रं ३१२
॥५२५॥
दु० पै०, तं०-मतिअण्णाण सुयअ०, पुढविका० अणागारोवओगे कतिविधे पं० १, गो! एगे अचक्खुदंसणअणागारोवओगे पं०, एवं जाव वणप्फइकाइयाणं । बेइंदिगाणं पुच्छा, गो! दुविधे उवओगे पं०, तं०-सागारोवओगे अणागारोवओगे य, बेइंदियाणं भंते! सागारोवओगे कतिविधे पं०?, गो० चउविहे पं०, तं०-आभिणि सुय० मतिअण्णाण० सुतअण्णाणसा०, बेइंदियाणं अणा० कइ० पं०१, गो०! एगे अचक्खुदंसण अणागारोवओगे, एवं तेइंदियाणवि, चउरिदियाणवि एवं चेव, नवरं अणागारोवओगे दुविधे पं० २०-चक्खुदंसणअणा. अचक्खुदंसणअणापंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा नेरइयाणं । मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणितं तहेव भाणितत्वं । वाणमंतरजोतिसियवेमाणियाणं भंते !० जहा णेरइयाणं । जीवा णं भंते ! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ?, गो० ! सागारोवउत्तावि अणा०, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवा सागारोवउत्तावि अणा०?, गोजेणंजीवा आभिणिबोहियणाण सुय० ओहिमण केवल मइअणाणसुयअण्णाणविभंगणाणोवउत्ताते णं जीवा सागारोवउत्ता, जेणं जीवा चक्खुदंसणअचक्खुदंसण
ओहिदंसणकेवलदंसणोवउत्ता ते णं जीवा अणागारोवउत्ता, से तेणटेणं गो०! एवं वुच्चइ-जीवा सागारोवउत्तावि अणागारो०, नेरइया णं भंते ! किं सागारोवउत्ता अणा०१, गो०! नेरइया सांगारोवउत्तावि अणागा०, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति', गो०! जे गं नेरइया आभिणिबोहियणाण सुय०ओहि०मतिअण्णाणसुय विभंगनाणोवउत्तातेणं नेरइया सागा०, जेणं नेरइया चक्खुदसणअचखुदंसणओहि० ते णं नेरइया अणागारोवउत्ता, सेतेणटेणं गो०! एवं बु० जाव सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो०! तहेव जाव जेणं पुढवि० मतिअण्णाणसुयअ
O900ADOS2002020
॥५२५॥
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ण्णाणोवउत्ता ते णं पुढवि० सागारोव०, जेणं पुढवि० अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं पुढ० अणागारोवउत्ता से तेणट्ठेणं गो० ! एवं बु० जाव वणप्फइकाइया । बेइंदियाणं भंते ! अट्ठसहिया तहेव पुच्छा, गो० ! जाव जे णं बेइंदिया आभिणिवोहिय० सुयणाणमतिअण्णाण सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं बेइंदिया अचक्खुदंसणोवउत्ता
अणागा, से तेणद्वेणं, गो० ! एवं बु० एवं जाव चउरिंदिया, गवरं चक्खुदंसणं अन्भहियं चउरिंदियाणंति, पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, मणूसा जहा जीवा, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइया ( सूत्रं ३१२ ) पण्णaure भगवईए एगोणतीसइमं उवओगपयं समत्तं ॥ २९ ॥
'aspati भंते ! उवओगे पं०' कतिविधः – कतिप्रकारः, सूत्रे एकारो मागधभाषालक्षणवशात्, णमिति वाक्यालङ्कृतौ, भदन्त ! - परमकल्याणयोगिन् ! 'उपयोगः' उपयोजनमुपयोगः भावे घञ्, यद्वा उपयुज्यते - वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः - 'पुंनाम्नि घ' इति करणे घप्रत्ययो बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः प्रज्ञप्तः - प्रतिपादित: १, भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि, आकारः - प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, 'आगारो अ विसेसो' इति वचनात् सह आकारेण वर्त्तत इति साकारः स चासावुपयोगश्च साकारोपयोगः, किमुक्तं भवति १सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुआन आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स उपयोगः साकार उच्यते इति, स च कालतः छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्त्तं कालं केवलिनामेकसामयिकः, तथा न विद्यते यथोक्तरूप आकारो
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥५२६॥
यत्र सोऽनाकारः स चासावुपयोगश्च अनाकारोपयोगः, यस्तु वस्तुनः सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोपयोगः स्कन्धावारोपयोगवदित्यर्थः, असावपि छद्मस्थानामान्तर्मुहूर्त्तिकः परमनाकारोपयोगकालात् साकारोपयोगकालः सङ्ख्येयगुणः प्रतिपत्तव्यः, पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकाललगनात् छद्मस्थानां तथास्वाभाव्यात्, केवलिनां त्वनाकारोऽप्युपयोग एकसामयिकः, चशब्दौ खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र साकारोपयोगभेदानभिधित्सुरिदमाह'सागारोवओगे णं भंते !' इति, अर्थाभिमुखो नियतः - प्रतिनियतखरूपो बोधो - बोधविशेषो अभिनिबोधः अभिनिबोध एव आभिनिबोधिकं, अभिनिबोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् 'विनयादिभ्य' इत्यनेन खार्थे इकण् प्रत्ययः, 'अतिवर्त्तन्ते खार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी' तिवचनादत्र नपुंसकता, यथा विनय एवं वैनयिकमित्यत्र, अथवा अभिनिबुध्यतेऽस्मादस्मिन्वेति अभिनिबोधः - तदावरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निर्वृत्तमाभिनिबोधिकं तथ तज्ज्ञानं च आभिनिवोधिकंज्ञानं, स च इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशावस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासो बोधवि. | शेष इत्यर्थः, स चासौ साकारोपयोगश्च आभिनिबोधिकज्ञानसाकारोपयोगः, एवं सर्वत्रापि समासः कर्त्तव्यः, तथा श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसं स्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतः समानपरिणामः शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमितोsवगमविशेष इत्यर्थः श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, ततो भूयः साकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः, तथाऽवश
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२९ उपयोगदे
सूत्रं ३१२
॥५२६ ॥
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ब्दोऽधः शब्दार्थः, अब - अधो विस्तृतं वस्तु धीयते - परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, यद्वा अवधिः - मर्यादा रूपित्रेव | द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानं, तथा परिः - सर्वतो भावे अवनं अवः, 'तुदादिभ्योऽनुका' वित्यधिकारे 'अकितौ चेत्यकारप्रत्ययः, अवनं गमनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवः मनः पर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, पाठान्तरं पर्यय इति, तत्र पर्ययणं पर्ययः, भावेऽल्प्रत्ययः, मनसि मनसो वा पर्ययः मनः पर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं वा, अथवा मनःपर्यायेति पाठान्तरं तत्र मनांसि पर्येति — सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्यायं, 'कर्मणोऽण्' मनःपर्यायं च तत् ज्ञानं च मनः पर्यायज्ञानं, यदिवा मनसः पर्यायाः मनः पर्यायाः, पर्याया धर्मा बाह्यवस्त्वा लोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरं तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्तिसंज्ञिमनोगत द्रव्यालम्बनं, तथा केवलं एकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात्, 'नटुंमि उ छाउमत्थिए नाणे' [ नष्टे तु छास्थिके ज्ञाने ] इति वचनात् शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कविगमात् सकलं वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वा केवलमनन्यसदृशत्वात् अनन्तं या केवलं ज्ञेयानन्तत्वात्, केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं, तथा मतिश्रुतावधय एव यदा मिथ्यात्वकलुषिता भवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञानथुताज्ञानविभङ्गज्ञानव्यपदेशालभन्ते, उक्तं च- “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्त" मिति, 'विभङ्ग' इति
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प्रज्ञापना
या: मलय० वृत्तौ.
॥५२७ ॥
विपरीतो भङ्गः - परिच्छित्तिप्रकारो यस्य तत् विभङ्गं, तच्च तत् ज्ञानं च विभङ्गज्ञानं, सर्वत्रापि च साकारोपयोगशब्देन विशेषण समासः । अनाकारोपयोगभेदानभिधित्सुराह - 'अणागारोवओगे णं भंते !' इत्यादि, तत्र चक्षुषा - चक्षुरिन्द्रियेण दर्शनं - रूपसामान्यग्रहणलक्षणं चक्षुर्दर्शनं तच्च तत् अनाकारोपयोगः चक्षुर्दर्शनाना कारोपयोगः, अचक्षुषा - चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं-खखविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनं, ततोऽनाकारोपयोग शब्देन विशेषणसमासः, एवमुत्तरत्रापि, अवधिरेव दर्शनं - सामान्यग्रहणमवधिदर्शनं, केवलमेव सकलजगद्भाविस मस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं दर्शनं केवलदर्शनं, अथ मनः पर्यायदर्शनमपि कस्मान्न भवति येन पञ्चमोऽनाकारोपयोगो न भवतीति चेत् ?, उच्यते, मनःपर्यायविषयं हि ज्ञानं मनसः पर्यायानेव विविक्तान् गृहदुपजायते, पर्यायाश्च विशेषाः, विशेषालम्बनं च ज्ञानं ज्ञानमेक न दर्शनमिति मनःपर्यायदर्शनाभावस्तदभावाच्च पञ्चमानाकारोपयोगासम्भव इति । ' एवं जीवाण' मित्यादि, एवं निर्विशेषणोपयोगवत् जीवानामप्युपयोगो द्विविधः प्रज्ञप्तो भणितव्यः, तत्रापि साकारोपयोगोऽष्टविधोऽनाकारोपयोगश्चतुर्विधः, एतदुक्तं भवति-यथा प्राक् जीवपदरहितमुपयोगसूत्रं सामान्यत उक्तं तथा जीवपदसहितमपि भणितव्यं, तद्यथा- 'जीवाणं भंते ! कतिविधे उवओगे पं० १, गो० ! दुविधे उवओगे पं० तं - सागारोवओगे य अणागारोवओगे य, जीवाणं भंते ! सागारोवओगे कतिविधे पं० १, गो० ! अट्ठविधे पं० तं०' इत्यादि, तदेवं सामान्यतो जीवानामुपयोगश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नैरयिकादीनां चिन्तयन्नाह - 'नेरइयाणं
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२९ उपयोगपदे
सूत्रं ३१२
॥५२७॥
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विशेषण प्रतिपत्तव्यः, उभयपONTयकानां साकारोपयोगी
भते!' इत्यादि, नैरयिका हि द्विविधा भवन्ति-सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च, अवधिरपि तेषां भवप्रत्ययोऽवश्यमुपजायते, | "भवप्रत्ययो नारकदेवाना' (तत्त्वा० अ० १ सू०२२) मिति वचनात् , तत्र सम्यग्दृष्टीनां मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टीनां मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानीति सामान्यतो नैरयिकाणां षड्विधः साकारोपयोगः, अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनं अचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च, एष च त्रिविधोऽप्यनाकारोपयोगः सम्यग्दृशां मिथ्यादृशां चाविशेषेण प्रतिपत्तव्यः, उभयेषामप्यवधिदर्शनस्य सूत्रे प्रतिपादितत्वात् , एवमसुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां भवनपतीनामप्यवसेयं, पृथिवीकायिकानां साकारोपयोगो द्विविधस्तद्यथा-मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च, अनाकारोपयोग एकोऽचक्षुदर्शनरूपः, शेषोपयोगानां तेषामसम्भवात् , सम्यग्दर्शनादिलब्धिविकलत्वात् , एवमसेजोवायुवनस्पतीनामपि वेदितव्यं, द्वीन्द्रियाणां साकारोपयोगश्चतुर्विधः, तद्यथा-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान, तत्रापर्याप्सावस्थायां केषांचित् सासादनभावमासादयतां मतिज्ञानश्रुतज्ञाने शेषाणां तु मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने, अना
कारोपयोगस्त्वेकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः, शेषोपयोगाणां तेषामसम्भवात् , एवं त्रीन्द्रियाणामपि, चतुरिन्द्रियाणामप्येवं, IS नवरमनाकारोपयोगो द्विविधः चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं च, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां साकारोपयोगः षड्विधस्तद्यथा-मतिज्ञानं
श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं, अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनं अचक्षुर्दर्शनं अवधिदर्शनं च, अवधिद्विकस्यापि केषुचित्तेषु सम्भवात् , मनुष्याणां यथासम्भवमष्टावपि साकारोपयोगाश्चत्वारोऽप्यनाकारो
लिब्धिविकलत्वात् ,
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73
प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
|३० पश्यत्तापदं सू.
पयोगाः, मनुष्येषु सर्वज्ञानदर्शनलब्धिसम्भवात् , व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकाः, तदेवं सामान्यतश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण च जीवानां उपयोगश्चिन्तितः, सम्प्रति मन्दमतिस्पष्टावबोधाय जीवा एव तत्तदुपयोगोपयुक्ताः सामान्यतश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्त्यन्ते-'जीवा णं भंते ! इत्यादि सुगमम् । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां० एकोनत्रिंशत्तममुपयोगाख्यं पदं समाप्तं ॥ २९ ॥
अथ त्रिंशत्तमं पश्यत्ताख्यं पदं ॥ ३०॥
90988saas0SSO909
तदेवमुक्तमेकोनत्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेष उपयोगोऽभिहितः, इहापि ज्ञानपरिणामविशेषे उपयोगे पश्यत्ता चिन्यते इति, तत्र चेदमादिसूत्रम्
कतिविहाणं भंते ! पासणया पण्णत्ता, गो० दुविहा पासणया पं००-सागारपासणया अणागारपासणया, सागारपासणया णं भंते ! कइविहा पं० १, गो.! छबिहा पण्णचा, तं०-सुयणाणपा० ओहिणाणपा० मणपज्जवणाणपा० केवलणाणपा० सुयअण्णाणसागारपा० विभंगणाणसागारपासणया, अणागारपासणया णं भंते ! कइविधा०१, गो० ! तिविहा पं०, तं०
॥५२८॥
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चक्खुदंसणअणागारपा० ओहिदसणअणा० केवलदसणअणा०, एवं जीवाणंपि, नेरइयाणं भंते! कतिविधा पासणया पण्णता?, गो०! दुविहा पं०, तं०-सागारपासणया० अणागा०, नेरइयाणं भंते ! सागारपा० कइविहा पं० १, गो० ! चउविहा पं०,०-सुयणाणपा०ओहिणाणपा० सुअअण्णाणपा०विभंगणाण०, नेरइयाणं भंते ! अणागारपा० कतिविहा पं०१, गो! दुविहा, तं०-चक्खुदंसण ओहिदं०, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं भंते! कतिविहा पासणया पं०, गो० ! एगा सागारपा०, पुढयिकाइयाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पं० १, गो०! एगा सुयअन्नाणसागारपा०५०, एवं जाव वणफइकाइयाणं । बेईदियाणं भंते ! कतिविहा पासणया पं० १, गो! एगा सागारपासणया पं०, बेइंदियाणं भंते ! सागारपा० कइविहा पं० १, गो.! दु० पं० तं०-सुयणाणसागारपा० सुयअण्णाणसागारपा०, एवं तेईदियाणवि, चउरिदियाणं पुच्छा, गो०! दु० पं०, तं०-सागारपा० अणागारपा०, सागारपासणया जहा बेईदियाणं, चउरिंदियाणं भंते ! अणागारपा० कइविहा पं० १, गो० ! एगा चक्खुदसण. अणागारपा० ५०, मणूसाणं जहा जीवाणं, सेसा जहा नेरइया जाव वेमाणियाणं । जीवाणं भंते ! किं सागारपस्सी अणागारपस्सी, गो! जीवा सागारपस्सीवि अणागारपस्सीवि, से केणटेणं भंते! एवं वु० जीवा सागार० अणागार०१, गो01 जेणं जीवा सुतणाणी ओहिणाणी मणपज्जव० केवल सुअअण्णाणी विभंगनाणी ते णं जीवा सागारपस्सी, जे णं जीवा चक्खुदंसणी ओहिदंसणी केवलदंसणी ते णं जीवा अणागारपस्सी, से एतेणटेणं गोयमा! एवं वु०-जीवा सागारपस्सीवि अणागा०, नेरइया णं भंते ! किं सागारपस्सी अणागा०, गो० ! एवं चेव, नवरं सागारपासणयाए मणपज्जवनाणी केवलनाणी न वुचति,
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Ge
३०पश्यत्तापदं सू.
प्रज्ञापना- अणागारपासणयाए केवलदसणं नत्थि, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो०! पुढविकाइया सागारपयाः मल- स्सी णो अणागारपस्सी, से केणटेणं भंते! एवं बु०-गो! पुढविकाइयाणं एगा सुयअण्णाणसागारपासणया पं०, से ते. य० वृत्ती. गो!, एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं, बेइंदियाणं पुच्छा, गो सागारपस्सी णो अणा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति',
गो! बेइंदियाणं दुविहा सागारपासणया पं०, तं०-सुयणाणसागारपा० सुअअण्णाणसागारपा०, से एएणडेणं गो! ॥५२९॥
एवं वु०, एवं तेइंदियाणवि, चउरिदियाणं पुच्छा, गो०! चउरिंदिया सागारपस्सीवि अणागारपस्सीवि, से केणटेणं० १, गो! जे णं चउरिंदिया सुयणाणी सुयअन्नाणी ते णं चउरिंदिया सागारपस्सी, जे णं चउरिदिया चक्खुदंसणी ते णं चउरिंदिया अणागारपस्सी, से एएणटेणं गो०! एवं बु०, मणूसा जहा जीवा, अवसेसा जहा नेरइया जाव वेमाणिया (सूत्रं ३१३) __ 'कतिविधा णं भंते' इत्यादि, कतिविधा-कतिप्रकारा, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! 'पासणय'त्ति 'इशिर प्रेक्षणे' पश्यतीति 'सति वानिता'विति अतृप्रत्ययः कर्तयनदादेशः, 'पाघ्राध्मास्थाम्नादाणुदृश्यतिथीतिकृयुधिखुशदसदः पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यर्छकृधिशीयसीद'मिति दृशेः पश्यादेशः, पश्यतो भावः पश्यत्ता, 'भावे
तत्वला'विति तत्प्रत्ययः, 'आदापू' सैव पासणयेत्युच्यते, एष च पासणयाशब्दो रूढिवशात् साकारानाकारबोधप्रगतिपादकः उपयोगशब्दवत् , तथा चोपयोगविषये प्रश्नोत्तरसूत्रे इमे-'कइविहे गं भंते ! उवओगे पण्णत्ते ?, गोयमा!|
॥५२९॥
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IS दुविहे पण्णत्ते, तं०–'सागारोवओगे य अणागारोवओगे य' पश्यत्ताविषयेऽपि प्रश्नोत्तरसूत्रे इमे-'कइविहा णं भंते !
पासणया पण्णता?, गो! दुविहा०,०-सागारपासणया अणागारपासणया' इति, ननु तुल्ये साकारानाकारभे-18 दत्वे कोऽनयोःप्रतिविशेषो येन पृथगुच्यते !, उच्यते, साकारानाकारभेदगतावान्तरभेदसत्यारूपः, तथाहि-पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीत्यष्टविधः साकार उपयोगः, साकारपश्यत्ता तु षविधा, मतिज्ञानमत्यज्ञानयोः पश्यत्तयोः अनभ्युपगमात्, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह पश्यत्ता नाम पश्यतो भाव उच्यते, पश्यतो भावश्च 'इशिर् प्रेक्षणे'
इति वचनात्, प्रेक्षणमिह रूढिवशात् साकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घकालं अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानारियां प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणमवसेयं, तथा च सति येन ज्ञानेन त्रैकालिकः परिच्छेदो भवति तदेव ज्ञानं प्रदीर्घका
बालविषयत्वात् साकारपश्यत्ताशब्दवाच्यं न शेष, मतिज्ञानमत्यज्ञाने तु उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहके साम्प्रतकालविषये, तथा । पाच मतिज्ञानमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्-"जमवग्गहादिरूवंपञ्चप्पन्नवत्थुगाहगं लोए । इंदियमणोनिमित्तं च तमामिनि
बोधिगं बेति ॥१॥" [यदवग्रहादिरूपं प्रत्युत्पन्नवस्तुग्राहकं लोके । इन्द्रियमनोनिमित्तं च तदाभिनिवोधिकं त्रुवते keu१॥] तत् द्वे अपि साकारपश्यत्ता शब्दवाच्ये न भवतः, श्रुतज्ञानादीनि तु त्रिकालविषयाणि, तथाहि-श्रुतज्ञा
नेन अतीता अपि भावा ज्ञायन्ते अनागता अपि, उक्तं च-"जं पुण तिकालविसयं आगमगंथाणुसारि विन्नार्ण । इंदिवमणोनिमिचं सुयनाणं तं जिणा बेति ॥१॥"यत् पुनत्रिकालविषयं आगमनन्यानुसारि विज्ञानम् । इन्द्रि
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३० पश्यत्तापदं सू.
प्रज्ञापना
यमनोनिमित्तं श्रतज्ञानं तत जिना ब्रुवते ॥१॥] अवधिज्ञानमपि सङ्ख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः अतीताः परिया: मल
छिनति भाविनीश्च, मनःपर्यायज्ञानमपि पल्योपमासङ्ख्येयभागमतीतं जानाति भाविनं च, केवलं सकलकालय०वृत्ती. विषयं सप्रतीतं. ताज्ञान विभङ्गज्ञाने अपि त्रिकालविषये, ताभ्यामपि यथायोगमतीतानागतभावपरिच्छेदात . ततः
ज्ञानानि साकारपश्यत्ताशब्दवाच्यानि, उपयोगस्तु यत्राकारो यथोदितखरूपः परिस्फुरति स बोधो वर्तमानकालवि॥५३०॥
यो वा यदि भवति त्रिकालिको वा तत्र सर्वत्रापि प्रवर्तत इति साकारोपयोगोऽष्टविधः। तथा चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमिति चतुर्विधोऽनाकारोपयोगः, अनाकारपश्यत्ता तु त्रिविधा, अचक्षुर्दर्शनस्यानाकारपश्यताशब्दवाच्यत्वाभावात् , कस्मादिति चेत्, उच्यते, उक्तमिह पूर्वमनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परिस्फु
टरूपमीक्षणमवसेयमिति, तत्राचक्षुर्दर्शने परिस्फुटरूपमीक्षणं न विद्यते, न हि चक्षुषेव शेषेन्द्रियमनोभिः परिस्फुटसमीक्षते प्रमाता, ततोऽचक्षुदर्शनस्यानाकारपश्यत्ताशब्दवाच्यत्वाभावात् त्रिविधाऽनाकारपश्यत्ता, तदेवं साकारभेदेड
नाकारभेदे च प्रत्येकमवान्तरभेदे वैचित्र्यभावान्महानुपयोगपश्यत्तयोः प्रतिविशेषः, एनमेव प्रतिविशेष प्रतिपि
पादयिषुः प्रथमतः साकारानाकारभेदी ततस्तद्गतावान्तरभेदान् प्रतिपादयति-'गो० ! दुविहा पं० तंजहा- 18 सागारपासणया अणागारपासणया-य, सागारपासणया णं भंते ! कतिविहा पं.' इत्यादि भावितार्थम्। तदेवं सामा
न्यतो जीवपदविशेषणरहिता पश्यत्तोक्ता, साम्प्रतं तामेव जीवपदविशेषितामभिधित्सुराह-एवं जीवाणंपि' एवं
0000000000000
५३०॥
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पूर्वोक्तेन प्रकारेण जीवानामपि-जीवपदविशेषणसहितापि पश्यत्ता वक्तव्या, सा चैवम्-'जीवाणं भंते ! कतिविधा पासणया पं०१, गो! दुविहा पं०, तंजहा-सागारपासणया अणागारपासणया य, जीवाणं भंते ! सागारपासणया कतिविडा पं.' इत्यादि, तदेवं जीवानामपि सामान्यत उक्ता, सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वदति-'नेरइयाणं भंते ! इत्यादि, सुगमत्वात् उपयोगपदे प्रायो भावितत्वात् अनन्तरोक्तभावनानुसारेण खयं परिभावनीयं, तदेवं सा. मान्यतो विशेषतश्च जीवानां पश्यत्तोक्ता, सम्प्रति जीवानेव पश्यचाविशिष्टान् चिचिन्तयिषुराह-'जीवा णं भंते ! किं सागारपस्सी' इत्यादि, जीवाः-जीवनयुक्ताःप्राणधारिण इत्यर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे किमिति प्रश्ने साकारपश्यत्ता विद्यते येषां ते साकारपश्यत्तिनः, प्राकृतत्वात् साकारपस्सी इत्युक्तं, 'मणपजवनाणी केवलनाणी न वुच्चई' इत्यादि, नैरयिकाणां चारित्रप्रतिपत्तेरभावतो मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनानामभावात् ॥ इह किल छद्मस्थानां साकारोऽनाकारचोपयोगः क्रमेणोपजायमानो घटते, सकर्मकत्वात् , सकर्मकाणां बन्यतरस्योपयोगस्य वेलायामन्यतरस्य कर्मणाऽऽवृतत्वान्न घटते एवोपयोग इति, केवली तु घातिचतुष्टयक्षयाद् भवति, ततः संशयः-किं क्षीणज्ञानावरणदर्शनावरणत्वात् यस्मिन्नेव समये रत्नप्रभादिकं जानाति तस्मिन्नेव समये पश्यति उत जीवखाभाव्यात् क्रमेणेति ?, ततः पृच्छतिकेवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि आगारेहिं हेतूहिं उवमाहिं दिटुंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं
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प्रज्ञापनाया: मलय०वृत्ती.
जाणति तं समयं पासइ जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ?, गो०! नो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पमं पुढवि आगारेहिं० जं समयं जाणति नो तं समयं पासति जं समयं पा० नो तं समयं जा०१, गो० ! सागारे से णाणे भवति अणागारे से दंसणे भवति, से तेणटेणं जाव णो तं समयं जाणाति एवं जाव अहे सत्तम । एवं सोहम्मकप्पं जाव अचुयं, गेविजगविमाणा अणुत्तरविमाणा, ईसीपब्भारं पुढवीं, परमाणु पोग्गलं दुपदेसियं खंधं जाव अणंतपदेसियं खंधं, केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहिं अहेतूहि अणुवमाहिं अदिलुतेहिं अवण्णेहिं असंठाणेहिं अपमाणेहिं अपडोयारेहिं पासति न जाणति', हंता! गो० ! केवली णं इमं रयणप्पमं पुढविं अणागारेहिं जाव पासति न जाणति, से केणटेणं भंते ! एवं वु० केवली इमं रयणप्पमं पुढवि अणागारेहिं जाव पासति ण जाणति, गो० ! अणागारे से दसणे भवति सागारे से नाणे भवति, से ते. गो.! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पमं पुढविं अणागारेहिं जाव पासति ण जाणति, एवं जाव ईसिप्पभारं पुढवि परमाणु पोग्गलं अणंतपदेसियं खधं पासति न जाणति ॥ (मूत्रं ३१४) पासणयापयं समत्तं ॥३०॥
॥५३॥
३०पश्यत्तापदं आकारादिज्ञानदर्शनपृथक्त्वं सू. ३१४
208292020302020SARO020
॥५३॥
केवली णं भंते !' इत्यादि, केवलं ज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली णमिति वाक्यालकती भदन्त !-परमल्याणयोगिन् ! 'इमां' प्रत्यक्षत उपलभ्यमानां रत्नप्रभाभिधां पृथिवीं 'आगारेहिति आकारभेदा यथा इयं रत्नप्रभापृथिवी त्रिकाण्डा खरकाण्डपङ्ककाण्डअपकाण्डभेदात्, खरकाण्डमपि षोडशभेदं, तद्यथा-प्रथमं योजनसहस्रमानं
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| रत्नकाण्डं तदनन्तरं योजनसहस्रप्रमाणमेव वज्रकाण्डं तस्याप्यधो योजनसहस्रमानं वैडूर्यकाण्डमित्यादि, 'हेऊहिं'ति || हेतवः-उपपत्तयः, ताश्चेमाः-केन कारणेन रत्नप्रभेत्यभिधीयते ?, उच्यते, यस्मादस्याः रत्नमयं काण्डं तस्मात् रत्नप्रभा, रत्नानि प्रभा-खरूपं यस्याः सा रत्नप्रभेति व्युत्पत्तेरिति, 'उवमाहिं' इति उपमामिः, 'माङ्ग माने' अस्मादुपपूर्वात् उपमितं उपमा 'उपसर्गादात' इत्यङ्प्रत्ययः, ताश्चैवं-रत्नप्रभायां रत्नप्रभादीनि काण्डानि वर्णविभागेन कीदृशानि, पझरागेन्दुसदृशानि इत्यादि, 'दिटुंतेहिति दृष्टः अन्तः-परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्ध-| स्थाविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्तास्तैर्यथा घटः स्वगतैर्धम्मैः पृथुबुनोदराद्याकारादिरूपैरनुगतः परधर्मेभ्यश्च |पटादिगतेभ्यो व्यतिरिक्त उपलभ्यते इति पटादिभ्यः पृथक वस्त्वन्तरं तथैवैषाऽपि रत्नप्रभा खगतभेदैरनुपक्ता शकराप्रभादिभेदेभ्यश्च व्यतिरिक्तेति ताभ्यः पृथक् वस्त्वन्तरमित्यादि, 'वण्णेहिं ति शुक्लादिवर्णविमागेन तेषामेव उत्कषोंपकषेसङ्घयेयासंख्येयानन्तगुणविभागेन च, वर्णग्रहणमुपलक्षणं तेन गन्धरसस्पर्शविभागेन चेति द्रष्टव्यं, 'संठाणेहिति यानि तस्यां रत्नप्रभायां भवननारकादीनां संस्थानानि तद्यथा-ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्ख
रकण्णियासंठाणसंठिया' तथा 'ते णं नरया. अंतो वहा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया' इत्यादि, तथा लापमाणेहिंति प्रमाणानि, 'अहे'त्यादि परिमाणानि, यथा 'असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्ला रजुप्पमाणमेत्ता आ
यामविक्खंभेण'मित्यादि, 'पडोयारेहिंति प्रति-सर्वतः सामस्त्सेन अवतीर्यते-व्याप्यते यैस्ते प्रत्यवताराः, ते चात्र
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥५३२॥
घनोदध्यादिवलया वेदितव्याः, ते हि सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेमां रत्नप्रभां परिक्षिप्य व्यवस्थितास्तैः, 'जं समय' मिति 'कालाध्वनोर्व्याप्ता' वित्यधिकरणभावेऽपि द्वितीया, ततोऽयमर्थः - यस्मिन् समये जानाति - आकारादिविशिष्टां परिच्छिनत्ति 'तं समयं 'ति तस्मिन् समये पश्यति - केवलदर्शनविषयीकरोति ?, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थो, नायमर्थो युक्त्युपपन्न इति भावः, तत्त्वमजानानः पृच्छति - 'से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि, 'से' इति अथशब्दार्थे अथ केनार्थेन - कारणेन भदन्त ! एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेणोच्यते, तमेव प्रकारं दर्शयति- 'केवली ण' मित्यादि, भगवानाह - 'गौतम' त्यादि, अस्यायं भावार्थ:- इह ज्ञानेन परिच्छिन्दन् जानातीत्युच्यते, दर्शनेन परिच्छिन्दन् पश्यतीति, ज्ञानं च 'से' तस्य भगवतः साकारमन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, विशेषानभिगृण्हानो हि बोधो ज्ञानं, 'सविशेषं पुनर्ज्ञान' मिति वचनात्, दर्शनमनाकारं 'निर्विशेषं विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते' इति वचनात्, तत्र ज्ञानं च दर्शनं च जीवस्य खण्डशो नोपजायते, यथा कतिपयेषु प्रदेशेषु ज्ञानं कतिपयेषु प्रदेशेषु दर्शनं, तथाखाभाव्यात्, किन्तु यदा ज्ञानं तदा सामस्त्येन ज्ञानमेव यदा दर्शनं तदा सामस्त्येन दर्शनमेव, ज्ञानदर्शने च साकारानाकारतया परस्परं विरुद्धे, छायातपयोरिवेतरेतराभावनान्तरीयकत्वात्, ततो यस्मिन् समये जानाति तस्मिन् समये न पश्यति, यस्मिन् समये पश्यति तस्मिन् समये न जानाति, एतदेवाह - 'से एएणट्टेणं' इत्यादि, एतेन यदवादीद् वादी सिद्धसेनदिवाकरो यथा - 'केवली भगवान् युगपत् जानाति पश्यति चे 'ति, तदप्यपास्तमवगन्तव्यं, अनेन सूत्रेण साक्षात् युक्तिपूर्व
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३०पश्यत्तापदं आकारा
दिज्ञानदर्शनपृथ
क्त्वं सू.
३१४
॥५३२ ॥
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| ज्ञानदर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यवस्थापितत्वात् एवं शर्करा प्रभावालुकाप्रभाषङ्कप्रभाधूमप्रभातमः प्रभातमस्तमःप्रभासौधर्मेशान सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारान्तप्राणतारणाच्युतकल्पग्रैवेयकविमानानुत्तर विमानेषत्प्राग्भाराभिधपृथिवीपरमाणुपुद्गलद्विप्रदेशिक स्कन्धयावदनन्तप्रदेशिक स्कन्धविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, ननु यदि | ज्ञानदर्शने साकारानाकारतया पृथगेवं व्यवस्थापितविषये तत इदमायातं यदा भगवान् केवली रत्नप्रभादिकमाकाराद्यभावेन परिच्छिनत्ति तदा स पश्यतीत्येवं वक्तव्यो न जानातीति, सत्यमेतत् तथा चाह - 'केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेऊहिं' इत्यादि, प्रायो भावितत्वात् सुगमं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां ० त्रिंशत्तमं पदं समाप्तं ॥ ३० ॥
अथ एकत्रिंशत्तमं संज्ञापरिणामपदं ॥ ३१ ॥
-6D9670
तदेवमुक्तं पश्यत्ताऽऽख्यं त्रिंशत्तमं पदं, साम्प्रतमेकत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेषः प्रतिपादितः, इह तु परिणामसाम्याद् गतिपरिणामविशेष एव संज्ञापरिणामः प्रतिपाद्यते, तत्र चेदमादिसूत्रम् -
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
३१संज्ञापदं सू. .
॥५३३॥
जीवा णं भंते ! किं सण्णी असण्णी नोसण्णीनोअसण्णी ?, गो० ! जीवा सण्णीवि असण्णीवि नोसण्णीनोअसण्णीवि । नेरइयाणं पुच्छा, गो० ! नेरइया सण्णीवि असण्णीवि नो नोसण्णीनोअसण्णी, एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो! नो सण्णी असण्णी, नो नोसण्णीनोअसण्णी, एवं बेइंदियतेइंदियचउरिदियावि, मणूसा जहा जीवा, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया वाणमंतरा य जहा नेरइया, जोतिसियवेमाणिया सण्णी नो असण्णी नो नोसण्णीनोअसण्णी, सिद्धाणं पुच्छा, गो! नो सुण्णी नो असण्णी नोसण्णिनोअसण्णी, नेरइयतिरियमणुया य वणयरगसुरा इ सण्णीऽसण्णी य । विगलिंदिया असण्णी जोतिसवेमाणिया सण्णी ॥१॥ (सूत्रं३१५) पण्णवणाए सण्णीपर्य समत्वं ॥३१॥
'जीवा णं भंते ! किं सण्णी' इत्यादि, संज्ञानं संज्ञा-'उपसर्गादात' इत्यङ्प्रत्ययः भूतभवद्भाविभावखभावपयोलो|चनं सा विद्यते येषां ते संजिनः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असंजिनः, ते च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियसम्मछिमपञ्चेन्द्रिया वेदितव्याः, अथवा संज्ञायते-सम्यक् परिच्छिद्यते पूर्वोपलब्धो वत्तेमानो भावी च पदार्थो यया सा संज्ञा, भिदादिपाठाभ्युपगमात करणे घन. विशिष्टा मनोवृत्तिरित्यर्थः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः समनस्का इत्यर्थः, तद्विपरीता असंज्ञिनोऽमनस्का इत्यर्थः, ते चैकेन्द्रियादय एवानन्तरोदिताः प्रतिपत्तव्याः, एकेन्द्रियाणां प्रायः सर्वथा मनोवृत्तेरभावात् , द्वीन्द्रियादीनां तु विशिष्टमनोवृत्तेरभावः, ते हि द्वीन्द्रियादयो वार्तमानिकमेवाथै शब्दादिकं शब्दादिरूपतया संविदन्ति. न भतं भाविनं चेति. केवली सिद्धचोभयप्रतिषेधषि
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॥५३३॥
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षयः, केवली हि यद्यपि मनोद्रव्यसम्बन्धभाक् तथापि न तैरसी भूतभवद्भाविभावस्वभाव पर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकलज्ञानदर्शनावरणत्वात् पर्यालोचनमन्तरेणैव केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च साक्षात्समस्तं जानाति पश्यति च, ततो न संज्ञी नाप्यसंज्ञी, सकलकालकलाकलापव्यवच्छिन्नस मस्तद्रव्यपर्यायप्रपञ्च साक्षात्करणप्रवणज्ञानसमन्वितत्वात्, सिद्धोऽपि न संज्ञी, द्रव्यमनसोऽप्यभावात् नाप्यसंज्ञी सर्वज्ञत्वात्, तदेवं सामान्यतो जीवपदे संज्ञिनोऽसंज्ञिनो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनश्च लभ्यन्ते इति, भगवान् तथैव प्रतिसमाधानमाह - 'गौतमे' त्यादि, जीवाः संज्ञिनोऽपि नैरयिकादीनां संज्ञिनां भाषाद, असंज्ञिनोऽपि पृथिव्यादीनामसंज्ञिनां भावात्, नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनोऽपि सिद्ध केवलिनां नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनामपि भावात् । एतानेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति - 'नेरइया ण' मित्यादि, इह ये नैरयिकाः संज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते ते संज्ञिनो व्यवह्रियन्ते इतरे त्वसंज्ञिनः, न च नैरयिकाणां केवलिभावो घटते, चारित्रप्रतिपत्तेरभावात् तत उक्तं नैरयिकाः संज्ञिनोऽप्यसंज्ञिनोऽपि, नो नोसंज्ञिनोनोअसंज्ञिनः, एवमसुरकुमारादयोऽपि स्तनितकुमार पर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः तेषामप्यसंज्ञिनोऽप्युत्पादात् केवलित्वाभावाच, 'मणूसा जहा जीव'त्ति मनुष्याः प्राक् यथा जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, संज्ञिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनोऽपि वक्तव्या इति भावः तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तास्ते संज्ञिनः सम्मूच्छिमा असंज्ञिनः केवलिनो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः, 'पञ्चेन्दियतिरिक्खजोणियवाणमंतरा जहा नेरइया' इति, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका व्यन्तराश्च यथा नैरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः,
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प्रज्ञापना
याः मलय० वृत्तौ.
॥५३४॥
संज्ञिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः वक्तव्या इति भावः, तत्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः सम्मूच्छिमाः असंज्ञिनः गर्भव्युत्क्रान्ताः संज्ञिनः, व्यन्तरा असंज्ञिभ्य उत्पन्ना असंज्ञिनः संज्ञिभ्य उत्पन्नाः संज्ञिनः, उभयेऽपि चारित्रप्रतिपत्तेरभावात् नो नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः, ज्योतिष्कवैमानिकाः संज्ञिन एव, नो असंज्ञिनः, असंज्ञिभ्य नो संज्ञिनो असंज्ञिनश्चारित्रप्रतिपत्तेरभावात्, सिद्धास्तु प्रागुक्तयुक्तितो नो संज्ञिनो नाप्यसंज्ञिनः उत्पादाभावात्, किन्तु नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनः, अत्रैव सुखप्रतिपत्तये सङ्ग्रहणिगाथामाह - 'नेरइय' इत्यादि, नैरयिकाः 'तिरिय'त्ति ति - र्यकूपञ्चेन्द्रिया मनुष्या वनचरा - व्यन्तरा असुरादयः - समस्ता भवनपतयः प्रत्येकं संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च वक्तव्याः, एतचानन्तरमेव भावितं, विकलेन्द्रिया - एकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंज्ञिनो ज्योतिष्कवैमानिकाः संज्ञिन इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्र० एकत्रिंशत्तमं पदं समाप्तम् ॥ ३१ ॥
अथ द्वात्रिंशत्तमं संयमयोगाख्यं पदं ॥ ३२ ॥
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तदेवमुक्तमेकत्रिंशत्तमं पदं, अधुना द्वात्रिंशत्तमं पदमारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे संज्ञिपरिणा
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३१ संज्ञा - पदं सू. ३१५
॥५३४ ॥
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संजयासंजयाननीसंजयानोअसंजयानोसंजयासंतासंजयानोसंजयासंजया ?, यो
म उक्तः, इह तु चारित्रपरिणामविशेषः संयमः प्रतिपाद्यते, संयमो नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, तत्र चेदमादिसूत्रम्जीवाणं भंते ! कि संजया असंजया संजया २नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजया?, गो ! जीवा संजयावि१ असंजयावि२ संजयासंजयावि३ नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजयावि ४, नेरइया णं भंते ! पुच्छा, गो०! नेरइया नो संजया असंजया नोसंजयासंजया नो नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजया, एवं जाव चउरिंदि, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! पंचिंदियतिरिक्खजोणिता नो संजता असंजतावि संजतासंजतावि नो नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजतावि, मणुस्साणं पुच्छा, गो०! मणूसा संजतावि असंजतावि संजतासंजतावि नो नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइया, सिद्धा णं पुच्छा, गो० ! सिद्धा नो संजता १ नो असंजता २ नो संजतासंजता ३ नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता ४॥ गाहा “संजयअसंजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य । संजतरहिया तिरिया सेसा अस्संजता होंति ॥१॥" (सूत्रं ३१६)॥ संजयपयं समत्तं ॥ ३२॥
'जीवा णं भंते !' इत्यादि, संयच्छन्ति स्म-सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्म अर्थात् निरवद्ययोगेषु चारित्र-8 परिणामस्फातिहेतुषु वर्तन्ते स्म इति संयताः 'गत्यर्थनित्याकर्मकादिति कर्तरि क्तप्रत्ययः, हिंसादिपापस्थाननिवृत्ता इत्यर्थः, तद्विपरीता असंयताः, हिंसादीनां देशतो निवृत्ताः संयतासंयताः, त्रितयप्रतिषेधविषयाः सिद्धाः, कथमिति
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥ ५३५॥
चेत्, उच्यते, उक्तमिह संयमो नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, ततः संयतादिपर्यायो योगाश्रयः सिद्धाश्च भगवन्तो योगातीताः शरीरमनसोऽभावादतस्त्रितयप्रतिषेधविषयाः, एवं च सामान्यतो जीवपदे चतुष्टयमपि घटते, तथा चाह - 'गोयमे'त्यादि, गौतम ! जीवाः संयता अपि साधूनां संयतत्वात्, असंयता अपि नैरयिकादीनामसंगतत्वात्, संयतासंयता अपि पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च देशतः संयमस्य भावात्, नो संयतनो असंयतनो संयतासंयता अपि सिद्धानां त्रयस्यापि प्रतिषेधात्, चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि सुगमानि अत्रैवं सङ्ग्रहणिगाथामाह - 'संयते' त्यादि, संयता असंयता मिश्रकाश्च - संयतासंयता जीवास्तथैव मनुष्याश्च, किमुक्तं भवति ? - जीवपदे मनुष्यपदे च एतानि त्रीण्यपि पदानि घटन्ते, नतु न घटन्ते इत्येवंपरमेतत् सूत्रं, अन्यथा जीवपदे त्रितयप्रतिषेधरूपं चतुर्थमपि पदं घटत एव, यथोक्तं प्राक्, तथा संयतरहिता उपलक्षणमेतत् त्रितयप्रतिषेधरहिताश्च तिर्यञ्चः - तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः, आह- कथं संयत पदरहितास्तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाः १, यावता तेषामपि संयतत्वमुपपद्यते एव, तथाहि - संयतत्वं नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकं, ते च निरवद्येतरयोगेषु प्रवृत्तिनिवृत्ती तिरश्चामपि सम्भवतः, यतश्चरमकालेऽपि चतुविधस्याप्याहारस्य प्रत्याख्यानं कृत्वा शुभेषु योगेषु वर्त्तमाना दृश्यन्ते, अन्यच्च सिद्धान्ते तत्र तत्र प्रदेशे महात्रतान्यप्यात्मन्यारोपयन्तः श्रूयन्ते, उक्तं च- "तिरियाणं चारितं निवारितं तह य अह पुणो तेसिं । सुबइ बहुयाणं चिय महबयारोवणं समए ॥ १ ॥ " [ तिरश्चां चारित्रं निवारितं तथा च पुनस्तेषां श्रूयतेऽथ महात्रतारोपणं बहूनां समये ॥ १॥ ]
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३२ संयम
पदं सू.
३१६
॥५३५||
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तदेतदयुक्तं सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् संयतत्वमिह निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपमान्तर चारित्रपरिणामानुषत: मवगन्तव्यं, न शेषं न च तेषां कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानानामपि महात्रतान्यारोपयतां भवप्रत्ययादेव चरणपरिणाम उपजायते, स यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे मनुष्यभव एव, यदि परं कर्मक्षयोपशमाद् भवति, नान्यथा, अत एवायमतिदुर्लभो गीयते भगवद्भिः, अथ कथमवसीयते न तिरश्चां तथा चेष्टमानानामप्यान्तरश्चारित्रपरिणामः १, उच्यते, केवलज्ञानाद्यश्रवणात्, यदि हि तिरश्चामपि चरणपरिणामस्सम्भवेत् तत् क्वचित् कदाचित् कस्यचिदुत्कर्षतो भावतो मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं वा श्रूयेत, तयोश्चारित्रपरिणामनिबन्धनत्वात् न च श्रूयते, तस्मादवसीयते न तेषां चारित्रपरिणामः उक्तं च - " न महवयसन्भावेवि चरणपरिणामसंभवो तेसिं । न बहुगुणापि जओ केवलसंभूहपरिणामो ॥ १ ॥ " [न महात्रतसद्भावेऽपि चारित्रपरिणामसंभवस्तेषाम् । न बहुगुणानामपि यतः केवलसंभूतिप|रिणामः ॥ १ ॥ ] तद्भावाभावात् संयमपदरहिताः, शेषाः संसारस्था असंयता-असंयतपदसहिंता भवन्ति, न शेषपदसहिताः ॥ इति श्रीमलयगिरिविर० प्रज्ञा • संयमपदं द्वात्रिंशत्तमं समाप्तम् ॥ ३२ ॥
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती
॥५३६॥
अथ त्रयस्त्रिंशत्तमं ज्ञानपरिणामाख्यं पदं ॥ ३३ ॥
३३ अव
| धिपदं सू. ANSतदेवमुक्तं द्वात्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति त्रयस्त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे चारित्रपरिणामविशेषः संयमः प्रतिपादितः, इह तु ज्ञानपरिणामविशेषः खल्ववधिःप्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्यावधिविषयमधिकारद्वारमाह
भेदविसयसंठाणे अभितरबाहिरे य देसोही । ओहिस्स य खयवुड्डी पडिवाई चेव अपडिवाई ॥१॥ कइविहा णं भंते ! | ओही पण्णता ?, गो० ! दुविहा ओही पन्नत्ता, तं०-भवपच्चइया य खओवसमिया य, दोण्हं भवपच्चइया, तं०-देवा
ण य नेरइयाण य, दोण्हं खओवसमिया, तं०-मणूसाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य (सूत्रं ३१७)
'भेयविसये'त्यादि, अवधेः-अवधिज्ञानस्य प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य प्रथमं भेदो वक्तव्यः, ततो विषयस्तदनन्तरं ।। |संस्थान-अवधिना द्योतितस्य क्षेत्रस्य यस्तप्रादिरूप आकारविशेषः सोऽवधिनिबन्धन इत्यवधेः संस्थानत्वेन व्यपदिश्य
॥५३६॥ ते, तथा द्विविधोऽवधिर्वक्तव्यः, तद्यथा-अभ्यन्तरो बाह्यश्च, तत्र योऽवधिः सर्वासु दिक्षु खद्योत्यं क्षेत्रं प्रकाशयति | अवधिमता च सह सातत्येन ततः खद्योत्यं क्षेत्रं सम्बद्धं सोऽभ्यन्तरावधिः, एतद्विपरीतो बाह्यावधिः, स च द्विधा,
eeeeeeeeeब्रिटस्टा
प्रादिरूप आकारवियोवधिः सर्वासु दिक्षु खावधिः, स च द्विधा, RI
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| तद्यथा-अन्तगतो मध्यगतश्च, अथान्तगत इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, इह पूर्वाचार्यप्रदर्शितमर्थत्रयं अन्ते
आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, काऽत्र भावनेति चेत् , उच्यते, इहावधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरू|पतयोत्पद्यते, स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः, तथा चाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः खोपज्ञभाष्यटीकायां-"स्पर्द्धकमवधिविच्छेदविशेष" इति, तानि च एकजीवस्थासङ्ख्येयानि संख्येयानि च भवन्ति, यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमपीठिकायाम्-'फडाय असंखेजा संखिजा यावि |एगजीवस्स' इति, [स्पर्धकान्यसंख्येयानि संख्येयानि चापि एकजीवस्य ] तानि च विचित्ररूपाणि कानिचित्पर्यन्तवर्तिष्वात्मप्रदेशेषूत्पद्यन्ते, तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिचिदुपरितनभागे कानिचिन्मध्यवर्तिष्यात्मप्रदेशेष्वेवं योऽवधिरुपजायते स आत्मनः पर्यन्ते स्थित इतिकृत्वा अन्तगत इत्यभिधीयते, तैरेव पर्यन्तवर्तिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादवबोधात्', अथवा औदारिकशरीरस्यान्ते गतः-स्थितोऽन्तगतः, औदारिकशरीरमधिकृत्य कदाचिदेकया दिशोपलम्भात् , इदमपि स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानं, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरस्यान्ते कयाचिदेकया दिशा यदशादुपलभ्यते सोऽप्यन्तगतः, आह-यदि सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति ?, उच्यते, एकदिशैव क्षयोपशमसम्भवात् , विचित्रो हि देशाद्यपेक्षया कर्मणां क्षयोपशमः, ततः सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानामित्थंभूत एव खसामग्रीवशात् क्षयोपशमः संवृत्तो यदौदारिक
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प्रज्ञापना- याः मन- यवृत्ती.
॥५३७॥
शरीरमपेक्ष्य कयाचिद्विवक्षितया एकया दिशा पश्यतीति, तथा चोक्तं नन्यध्ययनचूर्णी-ओरालियसरीरते ठियं-18
|३३ भवगयंति एगटुं, तं वा अप्पप्पएसफडगावहि एगदिसोवलंभाओ अंतगयमोहिनाणं भन्नइ, अहवा सवप्पएसेसु वि-IN
विपदंसू. सुद्धसुवि ओरालियसरीरगंतेण एगदिसि पासणा गयंति अंतगयंति भण्णई' इति, एष द्वितीयः, तृतीयः पुनरय-एगदिग्भाविना तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्रं तस्यान्ते वर्तते अवधिरवधिज्ञानवतस्तदन्ते वर्तमानत्वात् , ततोऽन्ते एकदिग्गतस्यावधिविषयस्य पर्यन्ते गतः-स्थितोऽन्तगत इति. अन्तगतश्चावधिः त्रिधा, तद्यथा-पुरतोऽन्तगतः पृष्ठतोऽन्तगतः पार्थतोऽन्तगतः, तत्र यथा कश्चित्पुरुषो हस्तगृहीतया दीपिकया पुरतः प्रेयमाणया पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं येनावधिना तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव सङ्ग्येयान्यसङ्ग्येयानि वा योजनानि पश्यति नान्यत्र सोऽवधिःपुरतोऽन्तगत इत्यभिधीयते, तथा स एव पुरुषो यथा पृष्ठतो हस्तेन त्रियमाणया दीपिकया पृष्ठत एव पश्यत्येवं येनावधिना पृष्ठत एव सङ्ग्येयान्यसङ्ग्येयानि वा योजनानि पश्यति स पृष्ठतोऽन्तगतो, येन तु पाश्वेत एक-18 तो द्वाभ्यां वा सङ्ख्येयान्यसङ्ख्येयानि वा योजनानि पश्यति स पार्थतोऽन्तगत इति, उक्तं च नन्द्यध्ययनचूर्णा-"पुरतोऽतगएणं पुरतो चेव संखेजाणि वा असंखेजाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, मग्गतोऽतगएणं ओहिनाणणं ॥५३७॥ मग्गतो चव' इत्यादि, मध्यगत इत्यत्रापि त्रिधा व्याख्यानं, इह मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत् , तत्रात्मप्रदेशानां मध्येव्यवाचवात्मप्रदशषु गतः-स्थितो मध्यगतः, अयं च स्पर्द्धकरूपः सर्वदिगपलम्मकारण, मध्यवत्तिनामात्मप्रदे
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शानामवधिरवसेयः, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरमध्यभागेनोपलब्धिः स मध्ये | गतो मध्यगतः, उक्तं च नन्द्यध्ययनचों-"ओरालियसरीरमझे फहगविसुद्धीओ सवायप्पएसविसुद्धीओ वा सव-| दिसोवलंभत्तणओ मज्झगतोत्ति भण्णइ' इति, अथवा तेनावधिना यदुद्योतितं क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये-मध्यभागे स्थितो मध्यगतः, अवधिज्ञानिनस्तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात, आह च नंदिचूर्णिकृदेव-"अहवा उवलद्धिखेत्तस्स अवहिपुरिसो मज्झगतोत्ति अतो वा मज्झगतो ओही भण्णइ' इति, इह व्याख्यांनत्रयेऽपि यदाऽवधिना द्योतितं क्षेत्रमवधिमता सम्बद्धं भवति तदा सोऽभ्यन्तरावधिर्मतः सर्वदिगुपलब्धिक्षेत्रमध्यवर्तित्वात् , एष चेह न ग्रामोऽभ्यन्तरावधावस्यान्तर्भावात् , यदा तु तदुद्योतितं क्षेत्रमपान्तराले व्यवच्छिन्नत्वादवधिमता सम्बद्धं न भवति तदा बाझोऽवधिः एष चेह ग्राह्यः, प्रस्तुतत्वात् , तथा 'देसोही' इति देशावधिर्वक्तव्यः, उपलक्षणमेतत् , प्रतिपक्षभूतः
सर्वावधिश्व, अथ किंखरूपो देशावधिः किंखरूपो वा सर्वावधिरिति चेत्, उच्यते, इहावधिस्त्रिविधो भवति, तद्यलाथा-सर्वजघन्यो मध्यमः सर्वोत्कृष्टश्च, तत्र यः सर्वजघन्यः स द्रव्यतोऽनन्तानि तैजसभाषापान्तरालवर्तीनि द्रव्याणि
क्षेत्रतोऽगुलासङ्ख्येयभागं क्षेत्रं कालतोऽतीतमनागतं चावलिकाया असङ्ख्येयभागं, इहावधिः क्षेत्रं कालं च खरूपतः| साक्षान्न जानाति, तयोरमूर्तत्वात् , अवधेश्च रूपिविषयत्वात् 'रूपिष्ववधे' (तत्त्वा-अ०१सू० २८) रिति वचनात्, हाइह क्षेत्रकालदर्शनमुपचारतो वेदितव्यं, किमुक्तं भवति?-एतावति क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तानि जानातीति,
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SASO2009
३३ अन| धिपदंसू.
प्रज्ञापना
HS भावतोऽनन्तान् पर्यायान् जानाति, प्रतिद्रव्यं जघन्यपदेऽपि चतुर्णी रूपरसगन्धस्पर्शरूपाणां पर्यायाणामवगमात्, या: मल
'दो पजवे दुगुणिए सवजहण्णे उ पिच्छए (ओही)। 'ते उ वन्नाईया चउरो' [द्वौ पर्यवौ द्विगुणितौ सर्वजघन्यौ तु यवृत्ती. प्रेक्षतेऽवधिः । ते तु वर्णादिकाश्चत्वारः] इति वचनात्, द्रव्याणां चानन्तत्वात् , अत ऊर्ध्वं तु प्रदेशवृद्ध्या सम
यवृद्ध्या पर्यायवृद्धा च प्रवर्द्धमानोऽवधिमध्यमो वेदितव्यः, स च तावत् यावत्सर्वोत्कृष्टः परमावधिन भवति, सर्वोत्कृ॥५३८॥
ष्टः परमावधिव्यतः सर्वाणि रूपिद्रव्याणि जानाति, क्षेत्रतोऽलोके लोकमात्राणि खण्डानि, कालतोऽतीतानागताश्वासङ्ख्येया उत्सपिण्यवसर्पिणीभवतोऽनन्तान् पर्यायान् , प्रतिद्रव्यं सङ्ख्येयानामसङ्ख्येयानां च पर्यायाणामवगमात्, 'एगं दवं पेच्छं खंधमणुं वा स पजवे तस्स । उक्कोसमसंखिजे संखेजे पेच्छए कोई ॥१॥"[ एकं द्रव्यं प्रेक्षमाणः स्कन्धमणुं वा स तस्य पर्यवान्। उत्कृष्टतः संख्येयान् असंख्येयान् प्रेक्षते कश्चित् ॥१॥] इति वचनात् , तत्र सर्वजघन्यो मध्यमश्च देशावधिः, सर्वोत्कृष्टस्तु परमावधिः सर्वावधिः। तथाऽवधेः क्षयवृद्धी वक्तव्ये, किमुक्तं भवति-हीयमानकः प्रवर्द्धमानकचावधिर्वक्तव्य इति, तत्र तथाविधसामग्र्यभावतः पूर्वावस्थातो हानिमुपगच्छन् हीयमानकः, उक्तं |च-"हीयमाणयं पुवावत्थातो अहोऽहो हस्समाणं'ति, वर्द्धमानको बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतोऽभिवर्द्धमानः, तथा प्रतिपाती अप्रतिपाती चशब्दस्यानुतार्थसमुचायकत्वादानुगामिकोऽनानुगामिकश्च वक्तव्यः, तत्र प्रतिपतनशील प्रतिपाती-य उत्पन्नः सन् क्षयोपश
॥५३८॥
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मानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति, अथ हीयमानकप्रतिपातिनोः कः प्रतिविशेषः, | उच्यते, हीयमानकः पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हानिमुपगच्छन्नभिधीयते प्रतिपाती तु निर्मूलमेककालं ध्वंसमुपगच्छन्निति, तथा न प्रतिपाती अप्रतिपाती, यत्केवलज्ञानाद्वा मरणादारतो वा न भ्रंशमुपयातीत्यर्थः, तथा गच्छन्तं पुरुष आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामि आनुगाम्येवानुगामिकः, खार्थे कः प्रत्ययः, अथवा अनुगमः प्रयोजनं यस्य स आनुगामिकः, लोचनवत् गच्छन्तमनुगच्छति सोऽवधिरानुगामिक इति भावः, तथा न आनुगामिकोऽनानुगामिकः, शृङ्खलाप्रतिवद्धदीप इव यो गच्छन्तं पुरुषं नानुगच्छतीति भावः॥ तदेवमधिकारप्रतिपादनाय द्वारगाथोपन्यस्ता, सम्प्रति 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतो भेदप्रतिपादनार्थमाह-कइविहा णं भंते !' इत्यादि, कतिविधो भदन्त ! अवधिः प्रज्ञप्तः, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , भगवानाह-गौतम ! द्विविधोऽवधिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'भवपचइया य खओवसमिया य' भवप्रत्ययकाक्षायोपशमिकश्च, तत्र भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवो-नारकादिजन्म, 'पुंनाम्नीति अधिकरणे घप्रत्ययः, भव एव प्रत्ययः-कारणं यस्य स भवप्रत्ययः, प्रत्ययशब्द-1 श्वेह कारणपर्यायः, वर्त्तते च प्रत्ययशब्दः कारणत्वे "प्रत्ययः शपथज्ञानहेतुविश्वासनिश्चये” इति, स एव खार्थिककप्रत्ययविधानात् भवप्रत्ययकः, तथाऽवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः। स क्षयोऽनुदयावस्थस्य विपाकोदयविष्कम्भणमुपशमः क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमौ ताभ्यां निवृत्तः क्षायोपशमिकः,
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
३३ अवधिपदंसू.
॥५३९॥
चशब्दो खगतानेकभेदसूचकौ, तत्र तु यो येषां भवति तं तेषामुपदर्शयति-'दोण्ह'मित्यादि, द्वयोर्जीवसमूहयोर्भव- प्रत्ययकः, तद्यथा-देवानां च नारकाणां च, देवा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदाचतुर्विधाः, नारका रत्नप्रभादिपृथिवीभेदात् सप्तविधाः, चशब्दौ प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकौ, ते चानेकभेदा विषयसंस्थानचिन्तायामग्रे खयमेव सूत्रकृतैवोपदर्शयिष्यन्ते, आह-नन्ववधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते नारकादिभवस्त्वौदयिके तत्कथं देवादीनामवधिज्ञानं भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते ?, नैष दोषो, यतस्तदपि परमार्थतःक्षायोपशमिकमेव, केवलं स क्षयोपशमो देवनारकभवेष्ववश्यंभावी पक्षिणां गगनगमनलब्धिरिव ततो भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते, आह च नन्धध्ययनचूर्णिकृत्-"नणु ओही खओवसमिओ चेव नारगादिभवो से उदइए भावे तओ कहं भवपचइओ भण्णइ १, उच्यते, सोऽवि खओवसमिओ चेव, किंतु सो खओवसमो देवनारगभवेसु अवस्सं भवइ, को दिटुंतो ?-पक्खीणं| आगासगमणं व, तओभवपञ्चइओ भण्णईत्ति, तथा द्वयोः क्षायोपशमिकस्तद्यथा-मनुष्याणां च पञ्चेन्द्रियतिथेग्योनिजातानां च, अत्रापि चशब्दौ प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकौ. मनुष्याणां तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चावधिज्ञानं नावश्यंभावि ततः सामान्येऽपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं भिद्यते, परमार्थतः पुनः सकलमप्यवधिज्ञानं क्षायोपश-18 |मिकमेवेति । तदेवमुक्तो भेदः, सम्प्रति विषयप्रतिपादनार्थमाह
नेरइया णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गो! जह० अद्धगाउयं उक्को. चत्तारि गाउयाई ओहिणा
302030280090020209002020a
॥५३९॥
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जाणंति पासंति, रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गो० ज० अबुहाई गाउयाई उको० चत्तारि गाउयाई०, सक्करप्पभापुढविनेरइया जह० तिण्णि गा० उक्को० अद्भुट्टाई गाउ०, वालुयप्पभापुढविनेरइया ज० अद्धाइजाई गाउ० उ० तिण्णि गाउयाई ओहिणा जाणंति पासंति, पंकप्पभावुडविनेरइया ज० दोण्णि गाउ० उ० अद्धाइजाइं गा० ओहिणा जा० पा०, धूमप्पभापु० नेर० जह० दिवद्धं गा उको दो गाउ० ओहिणा जा० पा०, तमापु० ने० ज० गाउयं उ० दिवढे गाउयं ओहिणा जा० पा० अधेसत्तमाए पुच्छा, गो० ! जह० अर्बु गाउयं उ० गाउयं ओहिणा जा० पा० । असुरकुमारा णं भंते ! ओहिणा केवइयं खेत्तं जा० पा० १, गो० ! ज० पणवीसं जोअणाई उक्को० असंखेजे दीवसमुद्दे ओहिणा जा० पा०, नागकुमारा णं ज. पणवीसं जोअणाई उ० संखेजे दीवसमुद्दे ओहिणा जा० पा०, एवं जाव थणियकुमारा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति , गो० ज० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उ० असंखेजे दीवसमुद्दे, मणूसा णं भंते ! ओहिणा केवतितं खेत्तं जा० पा० १, गो०! ज० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को० असंखेन्जाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाई ओहिणा जा० पा० । वाणमंतरा जहा नागकुमारा, जोइसिया णं भंते ! केवतितं खेत्तं ओ० जा० पा०१, गो० ! ज० संखेजे दीवसमुद्दे उक्कोसेणवि संखेजे दीवसमुद्दे, सोहम्मगदेवा णं भंते ! केव० खेत्तं ओ० जा० पा० १, गो० ज० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को० अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए हिहिल्ले चरमंते तिरियं जाव असंखिज्जे दीवसमुद्दे उडे जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति, एवं ईसाणगदेवावि, सणकुमारदेवावि एवं चेव, नवरं जाव अहे दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए
1200020900206082020902ODORom
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३३ अवधिपरंतू. ३१८
प्रज्ञापना
हिडिल्ले चरमंते, एवं माहिंददेवावि, बंभलोयलंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हिडिल्ले चरमंते, महासुक्कसहस्सारगदेवा चउत्थीए याः मल- पंकप्पभाए पुढवीए हेहिल्ले चरमंते, आणयपाणयआरणञ्चुयदेवा अहे जाव पंचमाए धूमप्पभाए हेडिल्ले चरमंते, हेद्विममय. वृत्ती. ज्झिमगेवेज्जगदेवा अधे जाव छठाए तमाए पुढवीए हेहिल्ले जाव चरमंते, उवरिमगेविज्जगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत
ओहिणा जा० पा० १, गो० ज० अंगुलस्स असंखेजतिभागं उ० अधे सत्तमाए हे० च० तिरियं जाव असंखेजे दीवसमुद्दे ॥५४०॥
उड्डे जाव सयाई विमाणाई ओ० जा० पा०, अणुत्तरोववाइयदेवा णं भंते ! के० खेत्तं ओ० जा० पा० १, गो०! संभिन्न लोगनालिं ओ० जा० पा० (सूत्रं ३१८) 'नेरइया ण'मित्यादि सुगम, नवरं जघन्येनार्द्धगव्यूतमिति सप्तमपृथिव्यां जघन्यपदमपेक्ष्य, उत्कर्षतश्चत्वारि गन्यूतानि रत्नप्रभायामुत्कृष्टपदमाश्रित्य, अधुना प्रतिपृथिवीविषयं चिन्तयन्नाह-'रयणप्पभे'त्यादि, सुगम, जघन्यपदोत्कृष्टपदविषयसङ्ग्राहिके इमे गाथे-"अट्ट १-३॥ तिन्नि २-३ अद्धाइयाई ३-२॥ दोणि ४-२ य दिवड्ड५-१॥ मेगं च ६-१ अद्धं च गाउ ७-०॥ कमसो जहन्नतो रयणमाईसुं ॥१॥ चत्तारि गाउयाई १-४ अडुहाई २-३॥ तिगाउयं ३-३ चेव । अद्धाइजा ४-२॥ दोण्णि ५-२ य दिवत.६-१॥ मेगं ७-१ च नरएसुं॥
॥२॥" भवनपतिव्यन्तराणां जघन्यपदे यानि पञ्चविंशतियोजनानि तानि येषां सर्वजघन्यं दशवर्षसहस्रप्रमाणमा1. युस्तेषां द्रष्टव्यानि, न शेषाणां, आह च भाष्यकृत्-'पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसिमिति, मनुष्य
॥५४॥
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चिन्तायामुत्कृष्टपदे यान्यलोके लोकप्रमाणमात्राणि खण्डानि असङ्ख्येयानि तानि परमावधिमपेक्ष्य द्रष्टव्यानि, तस्यैवैतावद्विषयसम्भवात् , एतत्सामर्थ्यमात्रमुपवयेते, यद्येतावति क्षेत्रे द्रष्टव्यं भवति तर्हि पश्यति यावता तन्न विद्यते.. अलोके रूपिद्रव्याणामसम्भवात् , रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, केवलमयं विशेषो-यावदद्यापि परिपूर्ण लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव पश्यति, यदा पुनरलोकेऽपि प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा यथाऽभिवृद्धिमासादयति तथा | तथा लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् स्कन्धान् पश्यति यावदन्ते परमाणुमपि, उक्तं च-"सामत्थमेत्तमुत्तं दट्टच्वं जह हवेज पेच्छेजा । न उ तं तत्थत्थि जओ सो रूविनिबंधणो भणिओ ॥१॥ वडंतो पुण बाहि लोगत्थं चेव पासई दछ । सुहुमयरं सुहुमयरं परमोही जाव परमाणुं ॥२॥" [सामर्थ्यमात्रमुक्तं द्रष्टव्यं यदि भवेत् प्रेक्षेत नतु तत्तत्रास्ति यतः स रूपिनिबन्धनो भणितः॥१॥ वर्धमानः पुनर्बहिर्लोकस्थमेव पश्यति द्रव्यं । सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतरं परमावधिर्यावत् परमाणुं॥२॥] इत्थंभूतपरमावधिकलितश्च नियमादन्तर्मुहूर्तेन केवलालोकलक्ष्मीमालिङ्गति, यत उक्तं-“परमोहीनाणविऊ केवलमंतोमुहुत्तमेत्तेणं" [ परमावधिज्ञानविदः केवलमन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण ] इति, वैमानिकानां यजघन्यपदे अङ्गुलासङ्ख्येयभागप्रमाणं क्षेत्रं उक्तं तत्र पर आह-नन्वङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तियग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु, यत आह भाष्यकृत् खकृतटीकायाम्-"उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येषु, मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेव जघन्यो नान्येषु, शेषाणां मध्यम एपेति" तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः,
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३३ अव
प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
घिपदंसू.
उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः सम्भवति, स च कदाचित्सवेजघन्योऽपि, उपपातानन्तरं तु तद्भवजः, ततो न कश्चिद्दोषः, आह च दुष्षमान्धकारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपो जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:"वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहण्णओ होइ । उववाए परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ॥१॥" उढे जाव सगाई विमाणाईति ऊर्ध्वं यावत् खकीयानि विमानानि, खकीयविमानस्तूपध्वजादिकं यावदित्यर्थः, 'संभिन्नं लोगनालिं'ति परिपूर्ण चतुर्दशरज्वात्मिका लोकनाडीमिति.। संस्थानद्वारमाह
३१९-३२०
॥५४॥
नेरइयाणं भंते ! ओही किंसंठिए पं०१, गो०! तप्पागारसंठिए पं०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो०! पल्लगसंठिते, एवं जाव थणियकुमाराणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! णाणासंठाणसं०, एवं मणूसाणवि, वाणमंतराणं पुच्छा, गो० ! पडहगसं०, जोतिसियाणं पुच्छा ?, गो०! झल्लरिसंठाणसं०५०, सोहम्मगदेवाणं पुच्छा, गो० ! उड्डमुयंगागारसंठिए पं०, एवं जाव अनुयदेवाणं, गेवेजगदेवाणं पुच्छा, गो० ! पुप्फचंगेरिसंठिए पं०, अणुत्तरोववाइयाणं पुच्छा, गो० ! जवनालियासंठिते ओही, पं०। (सूत्रं ३१९) नेरइयाणं भंते ! ओहिस्स किं अंतो० बाहि०, गो०! अंतो नो बाहि, एवं जाव थणियकुमारा, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो! नो अंतो बाहिं, मणूसाणं पुच्छा, गो०। अंतोवि बाहिपि, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । नेरइयाणं भंते ! किं देसोही सबोही ?, गो०! देसोही नो सबोही, एवं जाव थणियकुमारा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! देसोही नो सवोही, मणूसाणं पुच्छा,
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॥५४॥
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गो० ! देसोहीवि सोही वि, वाणमंतर जोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । नेरइयाणं भंते ! ओही किं आणुगामिते अणाणुगामिते वडमाणते हीयमाणए पडिवाई अप्पडिवाई अवट्टिए अणवट्ठिए १, गो० ! आणुगामिए नो अणाणुगामिए नो वद्धमाणते नो हीयमाणए नो पडिवाई अप्पडिवाई अवट्ठिए नो अणवट्टिए, एवं जाव थणियकुमाराणं, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! आणुगामितेवि जाव अणवट्टिएवि, एवं मणूसाणवि, वाणमंतर जोतिसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं (सूत्रं ३१९ ) ॥ पण्णवणाए ओहिपदं समत्तं ॥ ३३ ॥
'रइयाण' मित्यादि, 'तप्पागारसंठिए 'ति तप्रो नाम काष्ठसमुदायविशेषो यो नदीप्रवाहेण प्लाव्यमानो दूरादानीयते स चायतरूयस्त्रश्च भवति, तदाकारसंस्थितोऽवधिर्नारकाणां असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि भवनपतीनां पलक संस्थान संस्थितः, पलको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः, स चोर्ध्वाध आयत उपरि च किञ्चित्सङ्क्षिप्तः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां च नानासंस्थानसंस्थितो, यथा स्वयम्भूरमणोदधौ मत्स्याः, अपि च तत्र मत्स्यानां वलयाकारं संस्थानं निषिद्धं तिर्यग्मनुष्यावधेस्तु तदपि भवति, उक्तं च - " नाणागारो तिरियमणुपसु मच्छा सयंभूरमणेव । तत्थ वलयं निसिद्धं तस्स पुण तयंपि होजाहि ॥ १ ॥" व्यन्तराणां पटहसंस्थान संस्थितः, पटह आतोद्यविशेषः, स च किञ्चिदायत उपर्यधश्च समप्रमाणः, ज्योतिष्कदेवानां झल्लरीसंस्थान संस्थितः, झलरी – चर्मावनद्धविस्तीर्णवलयाकारा आतोद्यविशेषरूपा देशविशेषे प्रसिद्धा, सौधर्मदेवादीनामच्युतदेव पर्यन्तानां मृदङ्गसंस्थान संस्थितः,
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प्रज्ञापना- मृदङ्गो वाद्यविशेषः, सचाधस्तात् विस्तीर्ण उपरि च तनुकः सुप्रतीतः, अवेयकदेवानां प्रथितपुष्पसशिखाकरूपच-18 ३३ अवया: मल- ड्रेरीसंस्थानसंस्थितः, अनुत्तरोपपातिकदेवानां कन्याचोलकापरपर्यायजवनालकसंस्थानसंस्थितः, तथा च तप्राकारा-४ | धिपदं सू. यवृत्ती. दीनां व्याख्यानमिदं भाष्यकृदाह-"तप्पेण समागारो तप्पागारो स चाययत्तंसो। उद्धायतो उ पल्लो उरिं च स४
३१९ ॥५४२॥
किंचि संखित्तो ॥१॥ नचायतो समोविय पडहो हेट्टोवरि पईतो सो। चम्माणवणद्धविच्छिन्नवलयरूवा उ झलरिया ॥२॥ उद्धायओ मुइंगो हेट्ठा रुंदो तहोवरिं तणुओ। पुष्फसिहावलिरइया चंगेरी पुप्फचंगेरी ॥ ३॥ जवनालओत्ति भण्णइ उब्भ सिरकंचुओ कुमारीए॥” इति, अनेन च संस्थानप्रतिपादनेनेदमावेदितं द्रष्टव्यं, भवनपतिव्यन्तराणामूर्ध्व प्रभूतोऽवधिवैमानिकानामधः ज्योतिष्कनारकाणां तिर्यक् विचित्रो नरतिरश्चां, आह च-"भवणवइवणयराणं उर्ल्ड बहुगो अहो य सेसाणं । नारगजोइसियाणं तिरियं ओरालिओ चित्तो ॥१॥" तथा नैरयिकभवनपति
व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः तथाभवस्खाभाव्यादवधेमध्यवर्त्तिनो न पुनर्बहिः, किमुक्तं भवति?-सर्वतःप्रकाशिख। सम्बद्धावधयो भवन्ति, न तु स्पर्द्धकावधयो विच्छिन्नावधयो वा, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियास्त्ववधेरन्तन विद्यन्ते, किन्तु
॥५४॥ बहिः, अत्राप्येष भावार्थ:-तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियास्तथाभवस्खाभाव्यात् स्पर्धकावधयो विच्छिन्नापान्तरालसर्वतःप्रकाश्यवधियो वा भवन्ति, स्पर्द्धकाद्यवधयो वेति भावः, देशावधिसर्वावधिचिन्तायां मनुष्यवर्जाः सर्वेऽपि देशावधयः, मनुष्यास्तु
देशावधयोऽपि भवन्ति सर्वावधयोऽपि, परमावधेरपि तेषां सम्भवात् । आनुगामिकादिचिन्तायां नैरयिकभवनपति
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व्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका आनुगामिकाप्रतिपात्यवस्थितावधयो नत्वनानुगामिकवर्द्धमानहीयमानप्रतिपात्यनवस्थितावधयस्तथाभवखाभाव्यात्, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां त्वष्टधाऽवधिरिति ॥ इति श्रीमलयगिरि प्रज्ञापनाटी - कायां त्रयस्त्रिंशत्तममवध्याख्यं पदं समाप्तम् ॥ ३३ ॥
अथ चतुस्त्रिंशत्तमं प्रवीचारपरिणामाख्यं पदं ॥ ३४ ॥
तदेवमुक्तं त्रयस्त्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति चतुस्त्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे ज्ञानपरिणामविशेषोऽवधिरुक्तः, अत्र तु परिणामसाम्याद्वेद परिणामविशेषः प्रवीचारः प्रतिपाद्यते इति, तत्र च सकलवक्तव्यतोपसङ्ग्राहिके इमे द्वे गाथे
अणंतरगयाहारे १, आहारे भोयणाइय २ । पोग्गला नेव जाणंति ३, अज्झवसाणा ४ य आहिया ॥ १ ॥ सम्मत्तस्साहिगमे ५ तत्तो परियारणा ६ य बोद्धवा । काए फासे रूवे सद्दे य मणे य अप्पबहुं ॥ २ ॥ नेरइया णं भंते ! अनंतराहारा ततो निवत्तणा ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो परियारणया तओ पच्छा विउवणया १, हंता ! गो० ! नेरइयाणं अणंतराहारा ततो निवत्तणया ततो परियादिणया ततो परिणामया तओ परियारणया तओ पच्छा विउवणया, असुरकुमारा णं भंते ! अनंतराहारा ततो निवत्तणया ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो विउवणया तओ पच्छा
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प्रज्ञापनापरियारणया ?, हंता! गो! असुरकुमारा अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया जाव ततो पच्छा परिया०, एवं जाव थणिय- 8
|३४ परिया: मल- कुमारा, पुढविकाइया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तगया ततो परियाइणया ततो परिणामया ततो परिया० ततो- चारणापदं य०वृत्ती. विउ०१, हंता ! गो ! तं चेव जाव परियारणया नो चेवणं विउवणया, एवं जाव चउरिंदिया, नवरं वाउकाइया पं- . सू. ३२०
चिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य जहा नेरइया, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं ३२०) ॥५४३॥
___ 'अणंतरागयाहारे'इत्यादि, प्रथममनन्तरागताहारको नैरयिकादिर्वक्तव्यः, तदनन्तरं 'आहारे भोयणाइय' इति | आहाराभोगता आदिशब्दादाहारानाभोगता च वक्तव्या, यथा 'नेरयिकाणं भंते ! आहारे किं आभोगनिवत्तिए अणाभोगनिवत्तिए' इत्यादि, तथा 'पोग्गला नेव जाणंति' इति, नैरयिका आहारतया गृहीतान् पुद्गलान्नैव जानन्ती
त्यादि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्यं, 'अज्झवसाणा य आहिय'त्ति तदनन्तरं नैरयिकादीनां क्रमेणाध्यवसानाहानि, सूत्रे पुंल्लिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , चः पूर्वापेक्षया समुच्चये, आख्यातानि, तदनन्तरं 'सम्मत्तस्स अहिगमे' इति,
सम्यक्त्वस्याधिगमो नेरयिकादिचतविशतिदण्डकक्रमेण चिन्तनीयः, 'तत्तो परियारणा य बोद्धव्वा' इति ततःसम्यक्त्वाधिगमप्रतिपादनादूर्ध्व परिचारणा वक्तव्यतया बोद्धव्या, कस्मिन् विपये इत्याह-काये स्पर्श रूपे शब्दे ॥५४३॥
मनसि च, ततः कायप्रवीचारादीनामल्पबहुत्वं, भावप्रधानोऽयं निर्देश:-अल्पबहत्वं वक्तव्यं । सम्प्रति 'यथोद्देशं नि-४ हाश' इति प्रथमतोऽनन्तरागताहारवक्तव्यतामभिधित्सरिदमाह-नेरहया णं भंते' इत्यादि, नैरयिकाः, णमिति
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वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! - परमकल्याणयोगिन् ! परमसुखयोगिन् ! वा अनन्तरं - उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमयमेव आहारयन्तीत्यनन्तरागताहाराः, 'ततो निवत्तणया' इति ततः - अनन्तराहारग्रहणादारभ्य क्रमेण शरीरस्येति गम्यते निवर्त्तना - निष्पत्तिर्भवति, 'ततो परियाइणया' इति ततः - शरीरनिष्पत्तेरारभ्य पर्यादानं - यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गैर्लोमाहारादिना समन्ततः पुद्गलादानं 'ततो परिणामणया' इति ततः पुद्गलादानादनन्तरं तेषां पुद्गलानां परिणामनंइन्द्रियादिरूपतया परिणत्यापादनं 'ततो परियारणया' इति ततः - इन्द्रियादिरूपतया परिणत्यापादनादूर्ध्वं परिचारणा- यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः, ततः पश्चात् विकुर्वणा - वैक्रियलब्धिवशात् विक्रिया नानारूपा १, एव मुक्ते भगवानाह - 'हंता ! गोयमे' त्यादि, हन्तेत्यभ्यनुज्ञार्थ, हंता ! गौतम ! नैरयिका अनन्तराहारा इत्यादि, तदेवं यथा नैरयिकाणामनन्तराहारादिवक्तव्यतोक्ता तथा असुरकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्या, नवरं तेषां पूर्व विकुर्वणं पश्चात् परिचारणा, ते हि विशिष्टशब्दाद्युपभोगवाञ्छायां पूर्वमिष्टं वैक्रियं रूपं कुर्वन्ति पश्चात् | शब्दाद्युपभोगमित्येष नियमः, शेषास्तु शब्दाद्युपभोगसम्पत्तौ सत्यां हर्षवशात् विशिष्टतरशब्दाद्युपभोगवाञ्छातः अन्यतो वा कुतश्चित्कारणात् विकुर्वते, ततस्तेषां पूर्व प्रवीचारणा पश्चाद्विकुर्वणेति, पृथिवीकायविषये प्रश्नसूत्रं तथैव उत्तरसूत्रे तावद् वक्तव्यं यावत् परिचारणा, तेषामपि स्पर्शोपभोगसम्भवात्, 'नो चेव णं विउवणय'त्ति न चैव तेषां विकुर्वणा वाच्या, वैक्रियलब्धेरसम्भवात्, 'एव' मित्यादि, एवं - पृथिवीकायिकवत् अप्कायादयो वातकायवजस्ता
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३४ परिचारणापदं सू. ३२१
प्रज्ञापना-IN | वदध्येतव्या यावच्चतुरिन्द्रियाः, सर्वेषामपि वैक्रियलब्धेरसम्भवेन सूत्रस्य समानत्वात् , वातकायान् प्रति विशेषमभि-
या:मल- धित्सुः समानगमत्वात् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणामपि वातकायैः सहातिदेशमाह-'नवर'मित्यादि, 'जहां नेरइया यवृत्ती. इति यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः, किमुक्तं भवति ?-'नैरयिकवत् विकुर्वणाऽप्येतेषां वक्तव्या, वैक्रियलब्धिसम्भ
वात् , सा च प्रवीचारणायाः पश्चादिति, 'वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा' इति असुरकुमाराणामिव ॥५४४॥
व्यन्तरादीनामपि पूर्व विकुर्वणा पश्चात् परिचारणा वक्तव्येति भावः, सुरगणानां सर्वेषामपि तथाखाभाव्यात्, उक्तं च मूलटीकायाम्-"पुवं विउवणा खलु पच्छा परियारणा सुरगणाणं । सेसाण पुवपरियारणा उ पच्छा विउवणया ॥१॥” इति ॥ सम्प्रति आहारविषयमाभोगं चिचिन्तयिपुरिदमाह- . नेरइया णं भंते ! आहारे किं आभोगनिवत्तिते अणाभोगनि०, गो ! आभोगनिवत्तिएवि अणा०, एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं,णवरं एगिदियाणं नोआभोगनिवत्तिए अणाभोगनिबत्तिए । नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारवाए गिण्हंति ते किं जाणंति पा० आहारेंति उदाहु न याति न पासं० आहारेंति, गो.!न याणंति न पासंति आहारति, एवं जाव तेइंदिया, चउरिदियाणं पुच्छा, गो० ! अत्थेगतिया न याणंति पासंति आहा० अत्थेगइया न याणंति न पासंति आहा०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो०! अत्थे० जा० पा० आहा०१ अत्थे० जा० न पा० आहा... अत्थे० न याणंति पासंति आहा० ३ अत्थे न जा० नपा० आ० ४, एवं जाव मणुस्साणवि, वाणमंतरजोइसिया जहा
॥५४४॥
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नेरइया, वेमाणियाणं पुच्छा, गो० ! अत्थे० जा० पा० आ०, अत्थे न जा न पा० आ०, से केणटेणं भंते ! एवं वु० वेमाणिया अत्थे० जा० पा० आ. अत्थे न जान पा० आ०१, गो० वेमाणिया दुविहा पं०,०-माईमिच्छद्दिहिउववनगा य अमायिसम्मद्दिहिउव०, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे भणितं तहा भाणितवं जाव से एएणढेणं गो! एवं वुच्चति, नेरइया णं भंते केवतिया अज्झवसाणा पं० १, गो०! असंखेजा अज्झवसाणा, ते णं भंते ! किं पसत्था अपसत्था ?, गो० ! पसत्थावि अप० एवं जाव वेमाणियाणं । नेरइया णं भंते ! किं सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी ,गो०! सम्मत्ताभिगमीवि मिच्छत्ताभिगमीवि सम्मामिच्छत्ताभिगमीवि, एवं जाव वेमाणियावि, नवरं एगिदियविगलिंदिया णो सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी नो सम्मामिच्छत्ताभिगमी (सूत्रं ३२१) 'नेरइयाण'मित्यादि, आभोगनिर्वर्तितो यदा मनःप्रणिधानपूर्वमाहारं गृह्णन्ति, शेषकालमनाभोगनिवर्तितः, स| च लोमाहारोऽवसातव्यः, एवं शेषाणामपि जीवानामाभोगनिर्वर्तितोऽनाभोगनिर्वर्तितश्चाहारो भावनीयः, नवरमेकेन्द्रियाणामतिस्तोकापटुमनोद्रव्यलब्धिसम्पन्नत्वात् पटुतर आभोगो नोपजायते इति तेषां सर्वदाऽनाभोगनिर्व|र्तित एवाहारो न पुनः कदाचिदप्याभोगनिर्वर्तितः। अधुना आहार्यमाणपुद्गलविषये ज्ञानदर्शने चिन्तयति-'नेरइया णं भंते' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! यान् पुद्गलान् आहारतया गृहन्ति तान् किं जानन्ति पश्यन्ति उत नेति ?, भगवानाह-गौतम ! न जानन्त्यवधिज्ञानेन, लोमाहारतया तेषामतिसूक्ष्मत्वेन नारका
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प्रज्ञापनावधेरविषयत्वात् , न च पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियविषयाभावात् , द्वीन्द्रिया न जानन्ति, मिथ्याज्ञानतया तेषां सम्यक्
३४ परिया: मल- परिज्ञानाभावात् , द्वीन्द्रियाणां हि मत्यज्ञानं तदपि चास्पष्टमतःप्रक्षेपाहारमपि न ते खयं गृह्यमाणमपि सम्यक् जा- चारणापदं यवृत्ती. नन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावात् न च पश्यन्ति, एवं त्रीन्द्रिया अपि ज्ञानदर्शनविकला भावनीयाः, चतुरिन्द्रियाः 'अत्थेगइ- सू. ३२१
यत्ति सन्त्येकके ये खयं गृह्यमाणमप्याहारं प्रक्षेपरूपमपि न जानन्ति, मिथ्याज्ञानित्वात् , तेषामपि हि द्वीन्द्रियाणा॥५४५॥
मिव मत्यज्ञानं तदपि चाविस्पष्टमिति, चक्षुषा पुनः पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियसद्भावात् , तथाहि-पश्यन्ति मक्षिकादयो
गुडादिकमिति एवमाहारयन्ति, तथा सन्त्येकके चतुरिन्द्रिया ये न जानन्ति, मिथ्याज्ञानित्वात् , न पश्यन्ति च अन्धIS| कारादिना चक्षुर्दर्शनस्य व्याहतत्वात् अनाभोगसम्भवाद्वा, तिर्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चां चतुर्भङ्गी प्रक्षेपाहारं लोमाहारं ॥
चाधिकृत्य भावनीया, तत्र प्रक्षेपाहारमधिकृत्यैवं भावना-सन्त्येकके तिर्यपञ्चेन्द्रिया ये प्रक्षेपमाहारं जानन्ति, सम्यग्ज्ञानितया तेषां यथावस्थितपरिज्ञानात , पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियभावात् एवमाहारयन्ति १, तथा सन्त्येकके ये |जानन्ति पूर्ववत् न च पश्यन्ति चक्षुर्दर्शनस्यान्धकारादिना अनाभोगेन च व्याहतत्वात् २, तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानितया सम्यकपरिज्ञानाभावात् पश्यन्ति पुनश्चक्षुरिन्द्रियोपयोगात् ३ तथा सन्त्येकके ये न जान
॥५४५॥ रान्ति मिथ्याज्ञानित्वान्न च पश्यन्ति पूर्ववत् एवमाहारयन्ति ४ लोमाहारापेक्षया त्वेवं भावना-सन्त्येकके तियेंपञ्चे-|| न्द्रिया ये लोमाहारमपि जानन्ति, विशिष्टावधिज्ञानपरिकलितत्वात् , पश्यन्ति तथाविधक्षयोपशमभावत. इन्द्रियपा
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टवस्यातिविशुद्धत्वात् एवमाहारयन्ति १ तथा सन्येकके ये न जानन्ति पूर्ववत् न तु पश्यन्ति तथाविधस्येन्द्रियपा-18 टवस्थाभावात् २ तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति पश्यन्ति पुनस्तद्विषयेन्द्रियपाटवस्य भावात् ३ तथा सन्येकके ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानित्वात् अवधिविकलत्वात् अवधिविषयातीतत्वाद्वा, न च पश्यन्ति तथारूपपाटवाभावात् ४ इति, एवं मनुष्याणामपि लोमाहारप्रक्षेपाहारौ प्रतीत्य चतुर्भङ्गी भावनीया, 'वाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया' इति, नैरयिकावधिरिव व्यन्तरज्योतिष्कावधिरपि मनोभक्षित्वेऽप्याहारपुद्गलानामविषयत्वात् , 'वेमाणियाणं पुच्छ'|त्ति, वैमानिकानां पृथक् सूत्रं वक्तव्यं, 'वेमाणिया णं भंते !' जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं जाणंति पासंति | आहारेंति उदाहु न जाणंति न पासंति आहारेंति' इति, भगवानाह-'गोयमेत्यादि, माया पूर्वभवकृता विद्यते येषां ते मायिनो, मायया हि यया तया वा बादररूपकृतया कलुषकर्मप्रादुर्भावः, कलुषे च कर्मण्युदयमागते भवप्रत्ययादप्युपजायमानोऽवधिर्नातिसमीचीनो भवति, एते च सम्यग्दृशो न वेदितव्याः, तथा मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिःजिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, मायिनश्च मिथ्यादृष्टयश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्ते च ते उपपन्नाश्च मायिमिथ्यादृष्ट-युपपन्नास्त एव खार्थिककप्रत्ययविधानात् मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकास्ते चोपरितनोपरितनौवेयकपर्यवसाना विज्ञेयाः, तेषां यथायोगमवश्यं मिथ्याष्टित्वस्य मायित्वस्य च भावात्, तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्टयुपपनकाः, ते चानुत्तरविमानवासिनः, तेषामवश्यं सम्यग्दृष्टित्वं, पूर्वानन्तरभवे नितरां प्रतनुक्रोधमानमायालोभत्वस्योप
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प्रज्ञापना- याः मलय. वृत्ती.
३४ परिचारणापदं सू. ३२१
॥५४६॥
शान्त कषायत्वस्य च भावात् ,आह च मूलटीकाकार:-"वेमाणिया मायिमिच्छहिट्ठीउववण्णगा जाव उवरिमगेवेज्जा, अमायिसम्महिट्ठिउववन्नगा अनुत्तरसुरा एव गृह्यन्ते" इति, 'एवं जहे'त्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण प्राक् यथा इन्द्रि- | यसत्के प्रथमोद्देशके भणितं तथा भणितव्यं, तच तावत् यावत् सर्वान्तिमं से एएणटेण'मित्यादिना निगमनवाक्यं, तचैवम्-'तत्थ णं जे ते मायिमिच्छहिटिउववन्नगा ते णं न जाणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते अमायि| सम्मद्दिट्ठिउववण्णगा ते णं दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-अणंतरोववण्णगा य परंपरोववण्णगा य, तत्थ णं जे ते अणंत
रोववण्णगा ते णं ण याणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते णं दुविहा पं०, तं०-पजत्त|गा य अपजत्तगा य, तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं न जाणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते दुविहा पं०,तं०-उवउत्ता य अणुवउत्ता य, तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण याणंति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति आहारैति, से एएणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चति-अत्थेगइया न जाणति न |पासंति आहारेंति अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारैति" इति, अस्यायमर्थः-तत्र ये ते मायिमिथ्यादृष्ट-युपपन्नका उपरितनोपरितनवेयकपर्यवसाना इत्यर्थः ते मनोभक्ष्याहारयोग्यान् पुद्गलान् न जानन्ति अवधिज्ञानेन, तदवधेस्तेषामविषयत्वात् , न पश्यन्ति चक्षुषा, तथाविधपाटवाभावात् , येऽप्यमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नका अनुत्तरविमानवासिन - इत्यर्थः, ते द्विधा-अनन्तरोपपन्नका परम्परोपपन्नकाश्च, प्रथमसमयोत्पन्ना अप्रथमसमयोत्पन्नाश्चेत्यर्थः, अत्र येते
॥५४६॥
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अनन्तरोपपन्नकास्ते न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रथमसमयोत्पन्नतयाऽवधिज्ञानोपयोगस्य चक्षुरिन्द्रियस्य चाभावात् , किन्त्वेवमेवाहारयन्ति, तत्र ये ते परम्परोपपन्नकास्ते द्विविधाः, तद्यथा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, तत्र ये ते अपर्याप्तकास्ते न जानन्ति न च पश्यन्ति, पर्याप्तीनामसम्पूर्णत्वेनावध्याधुपयोगाभावात् , येऽपि पर्याप्सास्तेऽपि द्विविधाः, तद्यथा-उपयुक्ता अनुपयुक्ताश्च, तत्र ये ते उपयुक्तास्ते जानन्ति, अवधानवशतो यथाशक्ति नियमेन ज्ञानस्य खविषयपरिच्छेदाय प्रवृत्तिसम्भवात् , पश्यन्ति चक्षुषा इन्द्रियपाटवस्य तेषामतिविशिष्टत्वात् , ये त्वनुपयुक्तास्ते न जानन्ति न च पश्यन्ति अनुपयुक्तत्वादेव, उपयुक्ता अपि कथं मनोभक्ष्याहारयोग्यान् पुद्गलान् जानते इति चेत् , उच्च इहावश्यकप्रथमपीठिकायामवधिज्ञानाधिकारेऽभिहितम्-"संखेज कम्मदवे लोए थोऊणयं पलियं" अस्थायमर्थःकार्मणशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य सङ्ख्येयान् भागान् पश्यति कालतः स्तोकोनं पल्योपमं यावत् , अनुत्तरास्तु सम्पूर्णी लोकनाडी पश्यन्ति, 'संभिन्न लोगनालिं पासंति अनुत्तरा देवा' इति वचनात् , ततस्ते मनोभक्ष्याहार| योग्यानपि पुद्गलान् जानन्ति, आह च मूलटीकाकार:-'ते जानन्ति पश्यन्ति आहारयन्ति च, विशुद्धत्वादवधेरिन्द्रियविषयस्य चातिविशुद्धत्वात् पश्यन्त्यपि” इति, अत्र इन्द्रियविषयस्येति-इन्द्रियपाटवस्येतिभावः, उपसंहारवाक्यं प्रतीतं । अध्यवसायचिन्तायां प्रत्येकं नैरयिकादीनामसङ्ख्ययान्यध्यवसानानि प्रतिसमयं प्रायोऽन्यान्याध्यवसानभावात् । सम्यक्त्वाद्यधिगमचिन्तां कुर्वन्नाह-'नेरइया ण'मित्यादि, नैरयिकाः णमिति पूर्ववत् भदन्त ! किं सम्यक्त्वा
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
३४ परिचारणापदं सू. ३२२-३२३
॥५४७॥
389e999098999999990
धिगामिनः-सम्यक्त्वप्राप्तिवन्तः, एवं मिथ्यात्वाधिगामिनः सम्यग्मिथ्यात्वाधिगामिनश्च ?, भगवानाह-गौतम || 'सम्मे'त्यादि सुगम, त्रिविधाया अपि प्राप्तेर्यथायोगं सम्भवात् , एवं जावे'त्यादि, एवं-नैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियाणां विकलेन्द्रियाणां केषांचित् सासादनसम्यक्त्वमपि लभ्यते । तथापि ते मिथ्यात्वाभिमुखा इति सदपि तन्न विवक्षितं । सम्प्रति परिचारणां प्रतिपिपादयिषुरिदमाहदेवा गं भंते ! किं सदेवीया सपरियारा सदेवीया अपरियारा अदेवीया सपरियारा अदेवीया अपरियारा ?, गो.! अत्थेगतिया देवा सदेवीया सपरियारा अत्थेगतिया देवा अदेवीया सपरियारा अत्थे० देवा अदेविया अपरिचारा नो चेव णं देवा सदेवीया अपरिचारा, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चति-अत्थे० देवा सदेवीया सपरिचारा तं चेव जाव नो चेव णं देवा सदेवीया अप० ?, गो०! भवणपतिवाणमंतरजोतिससोहंम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा सदेवीया सपरियारा, सर्णकुमारमाहिंदबंभलोमलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणचुएसु कप्पेसु देवा अदेवीया सपरिचारा गेवेज्जअणुसरोववाइया देवा अदेवीया अपरियारगा, नो चेवणं देवा सदेवीया अपरिचारा, से तेणटेणं गो०! एवं वु० अत्थे० देवा सदेवीया सपरिचारा तं चेव नो चेव णं देवा सदेषीया अपरियारा (सूत्रं ३२२) कतिविहा णं भंते! परियारणा पं०१, गो० ! पंचविहा परियारणा पं०,०-कायपरियारणा फासपरियारणा स्वप० सद्दपरि०मणप०,से केण?णं भंते ! एवं तु. पंचविहा परि० पं०, तं०-कायप० जाव मणप०१, गो०! भवणवइवाणमंतरजोइससोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरि०
॥५४७॥
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सर्णकुमारमाहिदेसु कप्पेसु देवा फासपरि० बंभलोयलंतगेसु देवा रूवपरिया० महासुक्कसहस्सारेसु देवा सद्दप० आणयपाणयआरणचुएसु कप्पेसु देवा मणप०, गेवेज्जअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणटेणं गो०! तं चेव जाव मणपरियारगा, तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पजति-इच्छामो णं अच्छरांहिं सद्धिं कायपरियारं करेत्तए, तए ण तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ ओरालातिं सिंगाराई मणुण्णाई मणोहराई मणोरमाई उत्तरवेउवियरूवाई विउवंति विउवित्ता तेसिं देवाणं अंतियं पाउम्भवंति, तते णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेंति (सूत्रं ३२३) से जहाणामए सीया पोग्गला सीतं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ताणं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवतिताणं चिट्ठति, एवमेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं कते समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति (सूत्रं ३२४) अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं सुकपोग्गला, हता! अस्थि, ते णं भंते ! तासिं अच्छराणं कीसत्ताते भुञ्जो २ परिणमंति?, गो० ! सोतिंदियत्ताते चक्खुइंदि० पाणिदिय० रसिंदिय० फासिंदियचाते इट्टत्ताते कंतताते मणुमत्ताते मणामत्ताते सुभगताते सोहग्गरूवजोवणगुणलावन्नताए ते तासिं भुजो २ परिणमंति (सूत्रं ३२५) तत्थ ण जे ते फासपरियारगा देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पज्जति, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणितई । तत्थ पंजे ते स्वपरियारगा देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पजति इच्छामोणं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेत्तते, ते णे तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे तहेव जाव उत्तरवेउविताति सवाई विउदति विउवित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं असामते ठिच्चा ताई उरालाई जाव मणोरमाइं उत्तर
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प्रज्ञापनाया:'मलयवृत्ती.
॥५४८॥
वेउविताई रुवाई उवदंसेमाणीतो २ चिट्ठति, तते णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव ३४ प्रवीजाव भुजो २ परिणमन्ति । तत्थ णं जे ते सहपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पजति-इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं ४चारपदंसू. सद्दपरियारणं करेत्तए, तते णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउब्वियातिं रूवाति विउव्वति विउदित्ता ३२३-३२७ जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति २ ता तेसिं देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई समुदीरेमाणीतो २ चिट्ठति, तते णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति सेसं तं चेव जाव भुज्जो २ परिणमंति । तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पजति, इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तते, तते ण तेहिं देवेहि एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थ गयाओ चेव समाणीओ अणुत्तराति उच्चावयातिं मणाई संपहारेंमाणीतो २ चिट्ठति, तते णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेंति, सेसं निरवसेसं तं चेव जाव भुजो २ प० (सूत्रं ३२६) एतेसिणं भंते ! देवाणं कायपरियारगाणं जाव मणपरियारगाणं अपरियारगाण य कयरे० अप्पा वा ४१, गो० ! सवत्थोवा देवा अपरियारगा मणपरियारगा संखे० सद्दपरियारगा असंखे० रूवप० असं० फासप० असं० कायप० असं० ॥ (सूत्रं ३२७) पण्णवणाए परियारणापयं समत्तं ॥ ३४ ॥ 'देवाण'मित्यादि, सुगम, नवरं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानकल्पेषु देवा सदेवीकाः, देवीनां तत्रोत्पादात्, अत एव सपरिचाराः-परिचारणासहिताः, देवीनां तत्परिग्रहे यथायोगं भावतः कायप्रवीचारभावात् , सनत्कुमारमाहे
॥५४८॥
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न्द्रयोललोकलान्तकयोमहाशक्रसहस्रारयोरानतादिचतुषु कल्पेषु देवा अदेवीकाः, तत्र देवीनामुत्पादाभावात् , अथ च । सपरिचाराः-परिचारणासहिताः, सौधर्मशानगतदेवीभिः सह यथाक्रम स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारभावात् , वेयकानुत्तरोपपातिनो देवा अदेवीकाः, देवीनां तत्रोत्पादाभावात् अपरिचाराः-अप्रवीचाराः, अत्यन्तमन्दपुरुषवेदोदयतया मनसापि प्रवीचारासम्भवात् ,न पुनस्ते देवाः सदेवीका अपरीचाराः,तथाभवस्खाभाब्यात् , 'से एएण'मित्यादि निगमनवाक्यं । देवाः सदेवीकाः सपरिचारा इत्युक्तं, तत्र परिचारणामेव जिज्ञासुः पृच्छति-'कइविहाण'मित्यादि,सुगम, भगवानाह-'गौतमें'त्यादि गतार्थ, नवरं कायपरिचारगा' इति कायेन-शरीरेण मनुष्यस्त्रीपुंसानामिव परिचारो-मैथुनोपसेवनं येषां ते कायपरिचारकाः, किमुक्तं भवति?-भवनपत्यादय ईशानदेवलोकदेवपर्यन्ताः सक्लिष्टोदयपुरुषवेदकर्मप्रभावतो मनुष्यवत् मैथुनसुखप्रलीयमानाः सर्वाङ्गीणं कायक्लेशजं संस्पर्शसुखमवाप्य प्रीतिमासादयन्ति नान्यथेति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोर्देवाः स्पर्शपरिचारकाः, स्पर्शन-स्तनभुजोरुजघनादिगात्रसंस्पर्शेन परिचारः-प्रवीचारो येषां ते तथा, ते हि यदा प्रवीचारमभिलषन्ति तदा प्रवीचाराभिलाषुकतया प्रत्यासन्नभूतानां देवीनां स्तनाद्यवयवान् संस्पृशन्ति, तावन्मात्रेणैव तेषां कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखं वेदोपशान्तिश्चोपजायते, ब्रह्मलोकलान्तकयोः कल्पयोर्देवा 'रूपपरिचारका' रूपेण-रूपमात्रदर्शनेन परिचारो-मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा, ते हि सुरसुन्दरीणां मनोभवराजास्थानीयं दिव्यमुन्मादजनक रूपमुपलभ्य कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुरतसुखमासादयन्ति, तावन्मात्रेणैवोपशान्तवेदा
कायप्रवीचारादनन्तगोपसेवनं येषां ते तथा,
तावन्मात्रेणैवोपशान्तवा
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३४ प्रवीचारपदंसू. ३२३-३२७
प्रज्ञापना- । उपजायन्ते, महाशुक्रसहस्रारेषु कल्पेषु देवाः 'शब्दपरिचारकाः' शब्देन-शब्दमात्रश्रवणेन परिचारो येषां से तथा, ते या: मल
|हि इच्छाविषयीकृतदेवीसत्कगीतहसितसविकारभाषितनूपुरादिध्वनिश्रवणमात्रत एवं कायप्रवीचारादनन्तगुणसुखं यवृत्ती.
उपभुजते तावन्मात्रेणेव तेषां वेद उपशान्तिमति, आनतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवा 'मनःपरिचारकाः' मनसा॥५४९॥
मनोभवविकारोपबृंहितपरस्परोच्चावचमनःसङ्कल्पेन परिचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा, ते हि परस्परोच्चावचमनःसङ्कल्पमात्रेणेव कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखमवामुवन्ति, तृप्ताश्च तावन्मात्रेणैवोपजायन्ते, अवेयकानुत्तरोपपतिदेवा 'अपरिचारका' न विद्यते परिचारो-मैथुनोपसेवनं मनसाऽपि येषां ते तथा, तेषां प्रतनुमोहोदयतया प्रशमसुखांतीनत्वात् , यद्येवं कथं न ते ब्रह्मचारिणः १, उच्यते, चारित्रपरिणामाभावात् , 'से तेणटेण'मित्यादि निगमनवाक्यं, तत्र ये कायपरिचारका देवास्तेषां कायप्रविचारं विभावयिषुरिदमाह-'तत्थ 'मित्यादि, तत्र-तेषु कायपरि|चारकादिषु देवेषु मध्ये येते पूर्वमुक्ताः कायपरिचारका भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवास्तेषां णमिति पूर्ववत् इच्छामनः-कायपरिचारेच्छाप्रधान मनः समुत्पद्यते, केनोल्लेखेन समुत्पद्यते ?-इच्छामः-अभिलषामः णमिति पूर्ववत् अप्सरोभिः सार्द्ध कायपरिचारं कर्तुमिति, 'तए ण'मित्यादि, ततस्तैर्देवैरेवमुक्तेन प्रकारेण कायपरिचारे मनसि कृते सति क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव ता अप्सरसः खखोपभोग्यदेवाभिप्रायमवेत्य परिचाराभिलाषुकतया उत्तरवैकियाणि रूपाणि विकुर्वन्तीति सम्बन्धः, कथंभूतानीत्यत आह-उदाराणि-स्फाराणि न तु हीनावयवानि तानि अपि
Pann
॥५४९॥
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'शृङ्गाराणि' शृङ्गारो - विभूषणादिभिर्मण्डनं स विद्यते येषां तानि शृङ्गाराणि, 'अभ्रादिभ्य' इत्यादि अप्रत्ययः, विभूपणादिकृतोदारश्टङ्गाराणीत्यर्थः, तानि च कदाचित् कस्यचिदमनोज्ञानि भवेयुः अत आह— 'मनोज्ञानि' खखोपभो ग्यदेवमनोविषयभावपेशलानि तानि लेशतोऽपि सम्भाव्यन्ते तत आह- 'मनोहराणि ' खखोपभोग्यस्य देवस्य मनो हरन्ति - आत्मवशं नयन्तीति मनोहराणि 'लिहादित्वादच्', तच मनोहरत्वं प्रथमसमापातमात्रभाव्यपि भवति तत आह - 'मनोरमाणि' मनः खखोपभोग्यदेवसम्बन्धि रमयन्ति - क्रीडयन्ति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरानुरागसम्पृक्तं जनयम्तीति मनोरमाणि तानि इत्थंभूतानि उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वित्वा तेषां देवानामन्तिकं - समीपं प्रादुर्भवन्ति, 'तते ण' मित्यादि, ततः णमिति पूर्ववत्, ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध कायपरिचारणं - मनुष्य इव मनुष्यस्त्रीभिः सर्वाङ्गीणकायक्लेशपूर्वकं मैथुनोपसेवनं कुर्वन्ति, एवमेव तेषां वेदोपशान्तिभावात् । तथा चामुमेवार्थे दृष्टान्तेन द्रढयति' से जहाणामए' इत्यादि 'से' इति अथशब्दार्थः, स चात्र वाक्योपन्यासे, यथा नाम 'ते' विवक्षिताः शीताः पुद्गलाः शीतं - शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य 'शीतमेव' शीतत्वमेवातिव्रज्य - अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, किमुक्तं भवति ? - विशेषतः शीतीभूतस्य शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते, उष्णा वा पुद्गला उष्णयोनिकं प्राणिनं प्राप्य 'उष्णमेव ' उष्णत्वमेवातित्रज्य - अतिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति, विशेषतः स्वरूपलाभसम्पत्त्या तस्य सुखवायोपतिष्ठन्ते इति भावः, 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण तैर्देवैस्ताभिरप्सरोभिः सार्द्धं यथोक्तरूपे कायपरिचारणे कृते
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
३४ प्रवीचारपदंसू. ३२३-३२७
॥५५॥
सति इच्छामनः-कामविषयेच्छाप्रधानं मनः क्षिप्रमेवातितृप्तिभावात् शीतीभवति, इयमत्र भावना-यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्शे शीतत्वं विशेषतः आसादयन्तस्तस्य 'सुखित्वायोपकल्पन्ते उष्णपुद्गला वा उष्णयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्श उष्णत्वमतिप्रभूतमासादयन्तः सुखाय घटन्ते तथा देवीशरीरपुद्गला देवशरीरमवाप्य देवशरीरपुद्गला अपि देवीशरीरमवाप्य परस्परं तद्गुणतां भजमानाः परस्परं सुखित्वायोपकल्पन्ते ततस्तृप्तिरुपजायते तृप्तिभावाचाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति । इह मनुष्यस्त्रीणां मनुष्यपुरुषोपभोगे शुक्रपुद्गलसमतः सुखमुपजायमानं लब्धं तत्किं देवीनामप्युपभोग्यदेवसत्कशुक्रपुद्गलसङ्क्रमतः सुखमुपजायते आहोश्चिदन्यथेति संशयानो देवानां शुक्रपुद्गलास्तित्वं पृच्छति-'अत्थि ण'मित्यादि, अस्तीतिनिपातोऽत्र बह्वर्थे, णमिति पूर्ववत्, भदन्त ! तेषां देवानां शुक्रपुदलाः यत्सम्पर्कतो देवीनां सुखमुपजायते ?, 'हंता! अत्थि' भगवानाह-गौतम! सन्ति, केवलं ते वैक्रियशरीरान्त|गता इति न गर्भाधानहेतवः, 'ते णं भंते !' इत्यादि, ते शुक्रपुद्गलाः, णमिति पूर्ववत् भदन्त ! तासामप्सरसा कीहक्खरूपतया 'भूयो २' यदा २ क्षरन्ति तदा २ इत्यर्थः परिणमन्ति !, भगवानाह-गोयमे'त्यादि, श्रोत्रेन्द्रियरूपतया यावत्स्पर्शनेन्द्रियतया, तेऽपि कदाचिदनिष्टतया परिणमन्तः सम्भाव्यरन् तत आह–इष्टतया, इष्टमपि किञ्चित्खरूपतोऽकान्तं भवति, यथा शूकरादीनामिष्टमपि विष्ठादि, तत आह-'कान्ततया' कमनीयतया, कान्तमपि किञ्चिन्मनःस्पृहणीयं न भवति तत आह-'मनोज्ञतया' अतिस्पृहणीयतया, तदप्यतिस्पृहणीयत्वं कदाचिदा
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॥५५॥
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पातकालमात्रभावि सम्भाव्यते तत आह-'मनआपतया' मन आमुवन्ति-मनसि सदा रमन्ते इति मनापास्तद्भावस्तत्ता तया, मनसा सदा स्पृहणीयतयेति भावः, कस्मादिति चेत्, अत आह-'सुभगतया' 'निमित्तकारणहेतुषु । सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायात् अत्र हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः-यतः सुभगतया-सर्वजनप्रियतया परिणमन्ति तत उच्यते इष्टतया कान्ततयेत्यादि, सुभगतया परिणमनमपि कथमिति चेत्, अत आह-'सोहग्गरूव-| जोवणगुणलावन्नत्ताए' इति, अत्र प्राकृततया गुणशब्दस्य लावण्यशब्दात् पूर्व निपातः परमार्थतस्तु परतो द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-सौभाग्याय-सौभाग्यहेतवे रूपयौवनलावण्यरूपा गुणा यस्य तत्सौभाग्यरूपयौवनलावण्यगुणं तद्भाव-11 स्तत्ता तया, तत्र रूपं-सौन्दर्यवती आकृतियौवनं-परमस्तरुणिमा लावण्यं-अतिशायी मनोभवविकारहेतुः परिणतिविशेषः, यतः सौभाग्यहेतुरूपादिगुणनिबन्धनतया परिणमन्ति ततः सुभगतया परिणमंतीत्युच्यते, एवं ते शुक्रपुद्गलास्तासामप्सरसां भूयो भूयः परिणमन्ति । तदेवं कायपरिचार उक्तः, सम्प्रति स्पर्शपरिचारं विभावयिषुराह-'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र-तेषु परिचारकादिषु मध्ये णमिति पूर्ववत् ये ते स्पर्शपरिचारका देवास्तेषां णमिति पूर्ववत् एवमिच्छामनः-स्पर्शपरिचारविषयेच्छाप्रधान मनः समुत्पद्यते, 'एवं जहेवे'त्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण यथैवानन्तरं प्राक् कायपरिचारका उक्ताः तथैव स्पर्शपरिचारकेष्वपि निरवशेष भणितव्यं, तच्चैवम्-'इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं फासपरियारं करेत्तए, तए णं तेहिं देवहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ उरालाई जाव विउवित्ता
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प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
५५
| ३४ प्रवी-- चारपदं सू. ३२३-३२७
तेसिं देवाणं अंतियं पाउम्भवंति,तए णं ते देवा अच्छराहिं सद्धिं फासपरियारं करेंति" स्पर्शपरिचारणं वदनचुम्बनस्तनमईनबाहुउपगृहनजघनोरुप्रभृतिगात्रसंस्पर्शरूपं, 'से जहानामए सीया पुग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवइत्ताणं चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिटुंति एवमेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं फासपरियारणे कए समाणे इच्छामणे खिप्पामेव अवेइ,' अस्य सपातनिका व्याख्या प्राग्वत् , 'अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं सुक्कपोग्गला ?, हंता ! अस्थि, ते पं भंते ! तासिं अच्छराणं कीसत्ताए भुजो २ परिणमंति?, गोयमा ! सोतिदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए इतृत्ताए कंतत्ताए जाव भुजो २ परिणमंति' अस्यापि सपातनिका व्याख्या प्राग्वत्,नवरमस्मिन् स्पर्शप्रवीचारे शुक्रपदलसङ्कमो दिव्यप्रभावादवसेयः,एवं रूपपरिचारादावपि भावनीयं, तदेवमुक्ताः स्पर्शपरिचारकाः, सम्प्रति रूपपरिचारणां विभावयिषुराह-तत्थ ण'मित्यादि,सुगम तावत् यावत् विकुर्वित्वा 'जेणामेव'त्ति यत्रैव देवलोके विमाने प्रदेशे च ते देवाः सन्ति तत्रैव स्थाने ता अप्सरस उपागच्छन्ति, उपागम्य च तेषां देवानां 'अदूरसामंते' इति अदूरसमीपे स्थित्वा तानि पूर्व विकुर्वितानि उदाराणि यावदुत्तरवैक्रियाणि रूपाणि उपदर्शयन्यस्तिष्ठन्ति, ततस्ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध रूपपरिचारणां-परस्परं सविलासदृष्टिविक्षेपाङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणनिजनिजानुरागप्रदर्शनपटिष्टचेष्टाप्रकटनादिरूपां कुर्वन्ति, 'सेसं तं चेव'त्ति शेषं से जहा नामए' इत्यादि तदेव यावत् 'भुजो २ परिणमन्तीति वाक्यम, तदेवं भाविता रूपपरिचारणा, सम्प्रति शब्दपरिचारणां भावयितुकाम
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स्टटटटटटटरaeeee
आह-'तत्थ ण'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरमदूरसमीपे स्थित्वा अनुत्तरान्-सर्वमनःप्रल्हादजनकतया अनन्यसदृशान् । उचावचान-प्रबलरतरमन्मथोद्दीपकसभ्यासभ्यरूपान् शब्दान्, सूत्रे नपुंसकनिर्देशःप्राकृतत्वात् , समुदीरयन्त्यस्तिष्ठन्ति, शेषं तथैव, ‘एवं तत्थ णमित्यादि, मनःपरिचारकसूत्रमपि तथैव यावन्मनःपरिचारे मनसि कृते सति क्षिप्रमेव ता अप्सरसस्तत्र गता एव-सौधर्मशानदेवलोकान्तर्गतखखविमानस्थिता एव सन्त्योऽनुत्तराणि-परमसन्तोषजनकतया अनन्यसदृशानि उच्चावचानि-कामानुषक्तसभ्यासभ्यरूपाणि मनांसि प्रचारयन्त्यस्तिष्ठन्ति, इह 'तत्थगया चेव समाणीओ' इति वदता देव्यः सहस्रारं यावद् गच्छन्ति न परत इत्यावेदितं द्रष्टव्यं, तथा चाह सङ्घ-13 हणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरिः-"सनत्कुमारादिदेवानां रताभिलाषे सति देव्यः खल्वपरिग्रहीताः सहस्रारं यावदू गच्छन्ती"ति, तथा स एव प्रदेशान्तरे आह-"इह सोहम्मे कप्पे तासिं देवीणं पलिओवममाउगं ताओ तद्देवाणं चेव हवंति, जासिं पुण पलिओवमाइं समयाहिया ठिई दुसमयतिसमयसंखेज्जासंखेजसमयाहिया जाव दसपलिया सोहम्मगदेवीओ ताओ सणंकुमाराणं गच्छंति, एवं दसपलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई जाव वीसं पलिया ताओ बंभलोगदेवाणं गच्छंति, एवं वीसपलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई जाव तीसं पलिया ताओ महासुक्कदेवाणं गच्छंति, एवं तीसं पलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई जाव चत्तालीसं पलिया ताओ आणयदेवाणं तत्थ ठिया चेव झाणावलंबणं होंति, एवं चत्तालीसं पलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई जाव पंचास पलिया ताओ
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥५५॥
आरणदेवाणं तत्थ ठियाओ चेव झाणावलंबणं होंति" तथा "ईसाणे जासिं देवीणं पलिओवममहियमाउयं ताओ ३४ प्रवीतद्देवाणं चेव होंति, जासिं पुण अहियपलिओवमाई समयाहिया ठिई दुसमयतिसमयसंखेजासंखेजसमयाहिया जाव चारपर्दसू. पण्णरसपलिया ताओ माहिंददेवाणं गच्छंति, एवं पन्नरसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाक पणवीसं पलिया ताओ ३२३-३२७ लंतगदेवाणं, जासिं पुण पणवीसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पंचतीसं पलिया ताओ सहस्सारदेवाणं, जासिं पुण पंचत्तीसपलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पणयालीसं ताओ पाणयदेवाणं तत्थ ठियाओ चेव झाणावलंबणं होति, जासिं पुण पणयालीसं पलिओवरि समयाहिया ठिई जाव पणपन्नपलिया ताओ अच्चुयदेवाणं तत्थ ठियाओ चेव झाणावलंबणं हवंति" इति, 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् , ते देवाः ताभिरप्सरोभिः सार्धं मनःपरिचारणं-सुरतानुबन्धि परस्परं सभ्यासभ्यमनःसङ्कल्पकरणरूपं कुर्वन्ति, 'सेस'मित्यादि, शेषं से जहा नामए सीया पोग्गला' इत्यादि निरवशेषं तावद् वक्तव्यं यावत् 'भुजो २ परिणमन्तीति सर्वान्तिमं वाक्यं, व्याख्या चास्य प्राग्वत्, तत ऊर्ध्व तु ग्रैवेयकादयो मनसाऽपि योषितो न प्रार्थयन्ति, प्रतनुवेदोदयत्वात्, यथोत्तरं चैतेऽनन्तगुणसुखभाजः, तथाहि-कायप्रवीचारेभ्योऽनन्तगुणसुखाः स्पर्शपरिचारकास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणसुखाः रूपपरिचार
IMI॥५५२|| कास्तेभ्योऽपि अनन्तगुणसुखाः शब्दपरिचारकास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणसुखा मनःपरिचारकास्तेभ्योऽपि अपरिचारकाः अनन्तगुणसुखाः।साम्प्रतमेतेषामेव परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह-एएसि ण'मित्यादि,सर्वस्तोका देवा अपरिचा-1
ब्रान्डररररररररर
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रकाः, ते हि ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिनस्ते च सर्वसङ्ख्यया क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागवर्त्तिनभः प्रदेशराशिप्रमाणा इति, तेभ्योऽपि मनः परिचारका देवाः सङ्ख्येयगुणाः, तेषामानतादिकल्पचतुष्टयवर्त्तित्वात् तद्वर्त्तिनां च पूर्वदेवापेक्षया सङ्ख्येयगुणक्षेत्रपल्योपमा सङ्ख्येय भागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यः शब्दपरिचारका असङ्ख्येयगुणाः, ते हि महाशुक्रसहस्रारकल्पवासिनः, ते च घनीकृतलोकस्य एकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसङ्ख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, तेभ्योऽपि रूपपरिचारका देवा असङ्ख्येयगुणाः, ते हि ब्रह्मलोकलान्तक कल्पनिवासिनः, ते च पूर्वदेवानधिकृत्या सङ्ख्येयगुणश्रेण्यसङ्ख्येयभागगतनभः प्रदेशराशिप्रमाणाः, तेभ्योऽपि स्पर्शपरिचारका देवा असङ्ख्येयगुणाः, तेषां सनत्कुमारमाहेन्द्र कल्पवर्त्तित्वात् तद्वर्त्तिनां च ब्रह्मलोकलान्तकदेवानपेक्ष्यासङ्ख्येयगुणश्रेण्यसङ्ख्येय भागवकाशप्रदेशपरिमाणतयाऽधीतत्वात्, तेभ्यः कायपरिचारका देवा असङ्ख्येयगुणाः, भवनपत्यादीनामीशानान्तानां सर्वेषां कायपरिचारकत्वात् तेषां सर्वसङ्ख्यया प्रतरासङ्ख्येयभागवर्त्तिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविर० प्रज्ञा० चतुस्त्रिंशत्तमं पदं समाप्तम् ॥
"
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अथ पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्यं पदं ॥ ३५॥
३५वेदना
पदं सू.
प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती. ॥५५३॥
& तदेवमुक्तं चतुस्त्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति पञ्चत्रिंशत्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरपदे वेदपरिणामविशेषः प्रवीचारः प्रतिपादितः, अत्र तु गतिपरिणामविशेषा वेदना प्रतिपाद्यते, तत्र आदी सकलवक्तव्यतासङ्ग्रहपरे इमे द्वे गाथेसीता य दवसरीरा साता तह वेदणा भवति दुक्खा । अब्भुवगमोवक्कमिया निदाय अणिदाय नायबा ॥१॥ सायमसायं सो सुहं च दुक्खं अदुक्खमसुहं च । माणसरहियं विगलिंदिया उ सेसा दुविहमेव ॥२॥ कइविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो०! तिविहा वेदणा पं०, तं०-सीता उसिणा सीतोसिणा, नेरइया ण भंते ! कि सीतं वेदणं वेदेति उसिणं वे० वे० सीतोसिणं वे वेदेति ?, गो० ! सीतपि वेदणं वेदेति उसिणंपि वे वे० नो सीतोसिणं वे० वे०, केई एकेकपुढवीए वेदणाओ भणंति, रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! पुच्छा, गो! नो सीतं वेदणं वे० उसिणं वे० वे० नो सीतोसिणं वे. वे०, एवं जाव वालुयप्पभापुढविनेरइया, पंकप्पभापुढविनेरयाणं पुच्छा, गो०! सीतंपि वे० वे० उसिंणपि वे० वे०, नो सीतोसिणं वे० वे०, ते बहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदंति, ते थोवतरागा जे सीतं वेदणं वे०, धूमप्पभाए एवं चेव दुविहा, नवरं ते बहुतरागा जे सीतं वे० वे० ते थोवतरागा जे उसिणं वे वेदेति, तमाए य तमतमाए य सीयं वे वे० नो
॥५५॥
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उसिणं वे वे०, नो सीतोसिणं वे. वेदेति, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो! सीतंपि वे० वे उसिणंपि वेल्वे० सीतोसीणपि वे. वे०, एवं जाव वेमाणिया । कतिविहा णं भंते ! वेदणा पं० १, गो० ! चउबिहा वेदणा पं० तं०-दबतो खेत्ततो कालतो भावतो, नेरइया णं भंते ! किं दवतो वेदणं वे वे जाव किं भावतो वे वे० १, गो०! दवओवि वे. वे० जाव भावओवि वे० वे०, एवं जाव वेमाणिया। कतिविहा णं भंते ! वेदणा पं० १, गो० ! तिविहा वेदणा, पं०, तं०-सारीरा माणसा सारीरमाणसा, नेरइया णं भंते ! कि सारीरं वे वे० माणसं वेयणं वे० सारीरमाणसं वे० वे०, गो० ! सारीरपि वे० वे० माणसंपि वे० वे० सारीरमाणसंपि वे० वे०, एवं जाव वेमाणिया, नवरं एगिदियविगलिंदिया सारीरं वे० वे० नो माणसं वे वे० नो सारीरमाणसं वे वे०। कइविहा णं भंते ! वेयणा पं०१, गो०! तिविहा वेयणा पं०, तं०साता असाता सातासाता, नेरइया णं भंते ! किं सायं वेदणं वेदंति असातं बे० वे सायासायं वे० वे० १, गोयमा ! तिविहंपि वे० वे०, एवं सबजीवा जाव वेमाणिया। कतिविहाणं भंते ! वेदणा पं० १, गो०! तिविहा पं०, तं०-दुक्खा सुहा अदुक्खसुहा, नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं वेदणं वे० वे० पुच्छा, गो० ! दुक्खंपि वे० वे० सुहपि वे. वे० अदुक्खमसुइपि वे० वे० एवं जाव वेमाणिया । (सूत्रं ३२८) 'सीया य दधे'त्यादि, वेदना प्रथमतः शीता चशब्दादुष्णा शीतोष्णा च वक्तव्या, तदनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्वेदना वक्तव्या, ततः शारीरी उपलक्षणान्मानसी च वेदना वाच्या, ततः साता तथा दुःखा वेदना सभेदा वक्तव्य
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्ती.
॥५५४॥
तथा ज्ञातव्या भवति, तदनन्तरमाभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च वेदना वक्तव्यतया ज्ञातव्या, ततोऽप्यनन्तरं निदा चानिदा चेति, सातसुखादीनां विशेषमाभ्युपगमिक्यादिशब्दानामर्थं त्वग्रे वक्ष्यामः, सातादिवेदनां अधिकृत्य यो विशेषो वक्ष्यते तत्सङ्ग्राहिका द्वितीया गाथा - ' सायम साय' मित्यादि, सर्वे संसारिणः सातामसातां चशब्दात् सातासातां च वेदनां वेदयन्ते, तथा सुख दुःखां अदुःखासुखां च, तथा विकलेन्द्रिया - एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः तुशब्दस्याधिकारार्थसंसूचनार्थत्वादसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च मानसरहितां - मनोविकलां वेदनां वेदयन्ते, शेषास्तु द्विविधामेव शरीरमनोनिबन्धनां शारीरीं मानसीं तदुभयसमुद्भवां चेति भावः, निदाऽनिदादिगतस्तु विशेषो न सङ्गृहीतो, विचित्रत्वात् सूत्रगतेः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतः शीतादिवेदनाः प्रतिपादनार्थमाह - ' कइविहा णं भंते !" इत्यादि, शीता - शीत पुद्गलसम्पर्कसमुत्था, एवमुष्णा, या च अवयवभेदेन शीतोष्णपुद्गलसम्पर्कतः शीता उष्णा च सा शीतोष्णा, एनामेव त्रिविधां वेदनां नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति - 'नेरइया ण' मित्यादि, तत्राद्यासु तिसृषु पृथिवीपूष्णां वेदनां वेदयन्ते, ते हि शीताः ये नरकावासाश्च तदाश्रयभूताः सर्वतो जगप्रसिद्धखादिराङ्गारातिरिक्त बहुप्रतापोष्ण पुद्गलसम्भूताः, चतुर्थ्यां तु पङ्कप्रभाभिधानायां पृथिव्यां केचिन्नैरयिका उष्णवेदनां केचिच्च शीतवेदनामनुभवन्ति, तत्रत्यनरकावासानां शीतोष्णभेदतो द्विधा भेदात्, केवलं ये उष्णवेदनां वेदयन्ते ते प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेपूष्णवेदनासद्भावात्, इतरे शीतवेदनामनुभवन्तः स्तोकाः, स्तोकतरेषु नर
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३५ वेदना
पदं सू ३२८
॥५५४॥
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कावासेषु शीतवेदनासम्भवात् , धूमप्रभायामपि पृथिव्यां केचित् शीतवेदनाकाः केचिदुष्णवेदनाकाः, नवरं शीतयेद-3 नाकाः प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेषु शीतवेदनासम्भवात्, स्तोका उष्णवेदनाः, कतिपयेष्वेव नरकावासेपूष्णवेदनाभावात् , अधस्तन्योस्तु द्वयोः पृथिव्योः शीतवेदनामेव नैरयिका अनुभवन्ति. तत्रत्यनैरयिकाणां सर्वेषामुष्णयोनिकत्वात् , नरकावासानां त्वनुपमहिमानुषक्तत्वात् , एतावत्सूत्रं चिरन्तनेष्वनिप्रतिपत्त्या श्रयते, केचिदाचार्याः पुनरेतद्विषयमधिकमपि सूत्रं पठन्ति, ततस्तन्मतं आह-'केह एक्केकीए पुढवीए यणं भणंति' इति केचिदाचार्या एककस्सां पृथिव्यां प्रश्भनिर्वचनरूपतया वेदना भणंति, यथा भणन्ति तथोपदर्शयन्ति–'रयणप्पभे'त्यादि सुगम, तदेवं नैरयिकाणां चिन्तिता शीतादिवेदना, सम्प्रत्यसुरकुमाराणां तां चिचिन्तयिषुरिदमाह-'असुरकुमाराणं पुच्छा' असुरकुमाराणां शीतादिवेदनाविषये पृच्छासूत्रं च वक्तव्यं, 'असुरकुमाराणं भंते ! किं सीयं वेदणं वेयंति उसिणं वेयणं वेयंति सीओसिणं वेयणं वेयंति, इति भगवानाह-'गोयमे'त्यादि, शीतामपि वेदनां वेदयन्ते, यदा शीतलजलसम्पूर्णहृदादिषु निमज्जनादिकं विदधति, उष्णामपि वेदनां वेदयंते यदा कोऽपि महर्द्धिकस्तजातीयोऽन्यजातीयो वा कोपवशात् विरूपतया दृष्ट्याऽवलोकमानः शरीरे सन्तापमुत्पादयति, यथा प्रथमोत्पन्नः ईशानेन्द्रो बलि| चञ्चाराजधानीवास्तव्यानामसुरकुमाराणामुत्पादितवान् , अन्यथा वा तथाविधोष्णपुद्गलसम्पृक्तावुष्णवेदनामनुभवन्तो वेदितव्याः, यदा त्ववयवभेदेन शीतपुद्गलसम्पर्क उष्णपुद्गलसम्पर्कचोपजायते तदा शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ते,
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प्रज्ञापनाया: मल
य० वृत्ती.
॥५५५॥
ननु उपयोगः क्रमेण जीवानां भवति, तथाखाभाष्यात् कथमत्र शीतोष्णवेदनानुभवो युगपत् प्रख्याप्यते इति ?, उच्यते, इहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव तथाजीवखा भान्यात्, केवलं शीतोष्णवेदनाहेतुपुद्गलसम्पर्को युगपदुपजायत इति सूक्ष्ममाशुसञ्चारिणमुपयोगक्रममनपेक्ष्य यथैव ते वेदयमाना युगपदभिमन्यन्ते तथैव प्रतिपादितमिति न कश्चिदोषः, सामान्यतः सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात्, 'एवं जाव वेमाणिय'त्ति एवं - असुरोक्तेन प्रकारेण यावद् वैमानिकास्तावत् सूत्रं वक्तव्यं तचैवम्- 'पुढविकाइया णं भंते! किं सीयं वेयणं वेयंति उसिणं वे० वे० सीओसिणं वेयणं वेयंति १, गो० ! सीयंपि वे० वे० उसिपि वे ० वे० सीतोसिणपि वे० वेयंति' इत्यादि, तत्र पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्यवसानाः शीतवेदनां हिमादिप्रपातेऽभिवेदयमाना वेदितव्याः उष्णवेदनामध्यादिसम्पर्के शीतोष्णवेदनामवयवशः शीतोष्णपुद्गलसम्बन्धे इति, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकास्त्वसुरकुमारवत् भावनीयाः । उक्ता शीतादिभेदात् त्रिविधा वेदना, सम्प्रति तामेव वेदनां प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह— 'कइविहा णं भंते' इत्यादि, इह | वेदना द्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्रीवशादुत्पद्यते, सर्वस्यापि वस्तुनो द्रव्यादिसामग्रीवशादुत्पद्यमानत्वात्, तत्र यदाऽ - स्यैव वेदना पुद्गलद्रव्य सम्बन्धमधिकृत्य चिन्त्यते तदा द्रव्यवेदना, द्रव्यतो वेदना द्रव्यवेदना, नारकाद्युपपातक्षेत्रम|धिकृत्य चिन्त्यमाना क्षेत्रवेदना, नारकादिभवकालसम्बन्धेन विवक्ष्यमाणा कालवेदना, वेदनीयकर्मोदयादुपजायमा| नत्वेन परिभाव्यमाना भाववेदना, एतामेव चतुर्विधां वेदनां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति - 'नेरइया णं भंते !
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३५ वेदना
पदं सू.
३२८
॥५५५॥
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किं दवतो वेयणं वेदंति' इत्यादि, सकलमपि सुगमं। प्रकारान्तरेण वेदनांपि प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे 91 आह-'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, शरीरे भवा शारीरी मनसि भवा मानसी तदुभयभवा शारीरमानसी, शारीरी च मानसी च शारीरमानसी, 'पुंवत्कर्मधारय' इति पुंवद्भावः, एतामेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया णं भंते ! किं सारीरं वेयणं वेदेति' इत्यादि, तत्र यदा परस्परोदीरणतः परमाधार्मिकोदीरणतो वा क्षेत्रानुभावतो वा शरीरे पीडामनुभवन्ति तदा शारीरी वेदनां वेदयन्ते, यदा तु केवलं मनसि दुःखं परिभावयन्ति पाश्चात्यं वा भवमात्मीयं दुष्कर्मकारिणमनुसृत्य पश्चात्तापमतीव कुर्वते तदा मानसीं वेदनां वेदयन्ते, यदा तु शरीरे मनसि | चोक्तप्रकारेण युगपत् पीडां अनुभवन्ति तदा शारीरमानसी, इहापि वेदनानुभावः क्रमेणैव केवलं विवक्षिततावत्कालमध्ये शरीरे च पीडामनुभवन्ति मनसि च एतावन्तं कालं एक विवक्षित्वा युगपच्छरीरमनःपीडानुभवः प्रतिपादित इत्यदोषः, 'एवं जाव वेमाणिया' इत्यादि, एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः शारीरी वेदनां वेदयन्ते न मानसीं, तेषां मनसोऽभावात् , ततस्तदनुसारेण तद्विषयं सूत्रं वक्तव्यं । प्रकारान्तरेण वेदनामभिधित्सुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, तत्र साता-सुखरूपा असाता-दुःखरूपा सातासाता-सुखदुःखात्मिका, एतामेव नरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति'नेरइया ण'मित्यादि, तत्र तीर्थकरजन्मादिकाले सातवेदनां वेदयन्ते, शेषकालमसातवेदनां वेदयन्ते, यदा तु पूर्वस
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प्रज्ञापना- या:मलय. वृत्तौ.
॥५५६॥
अतिको देवो दानवो वा वचनामृतैः सिञ्चति तदा मनसि सातं शरीरे तु क्षेत्रानुभावतोऽसातं यदिवा मनस्येव तद्द-18|३५वेदनाशेनतः तद्वचनश्रवणतश्च सातं पश्चात्तापानुभवनतस्त्वसातमिति तदा सातासातवेदनामनुभवन्ति, अत्रापि तावन्तं पदं सू. विवक्षितकालमेकं विवक्षित्वा सातासातानुभवो युगपत् प्रतिपादितः, परमार्थतस्तु क्रमेणैव च वेदितव्य इति, 'एव'-INI ३२९ मित्यादि, एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेण सर्वे जीवास्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः, तत्र पृथिव्यादयो यावन्नाद्याप्युपद्रवः सन्निपतति तावत् सातवेदनां वेदयन्ते उपद्रवसम्पाते त्वसातवेदनामवयवभेदेनोपद्रवसम्पातभावे सातासातवेदनां, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः सुखमनुभवन्तः सातवेदनां च्यवनादिकाले त्वसातवेदनां परविभूतिदर्शनतो मात्सयाँधनुभवे खवल्लभदेवीपरिष्वङ्गाउनुभवे च युगपजायमाने सातासातवेदनां वेदयन्ते इति । भूयः प्रकारान्तरेण एतामेव प्रतिपादयन् प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह–'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, या वेदना नैकान्तेन दुःखा भणितुं | शक्यते सुखस्यापि भावात् नापि सुखा दुःखस्यापि भावात् सा अदुःखसुखा सुखदुःखात्मिका इत्यथैः, अथ सातासातयोः सुखदुःखयोश्च परस्परं कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, ये क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवतः सातासात ते सातासाते उच्यते, ये पुनः परोदीर्यमाणवेदनारूपे सातासाते ते सुखदुःखे इति, एतामेव चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण
| ॥५५६॥ चिन्तयति-'नेरइया ण'मित्यादि ॥ वेदनामेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह
कत्तिविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो ! दुविहा वेयणा पं०, तं०-अब्भोवगमिया य उवकमिया य, नेरइया णं भंते !
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अन्मोवगमियं वेदणं वे० वे० उवक्कमियं वेदणं वे००, गो०! नो अब्भोवगमियं वे०वे. उवकमियं वे वे०,एवं जाव चउरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहंपि वे० वे०, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइया (सूत्रं ३२९)
'कतिविहा णं भंते !' इत्यादि, तत्राभ्युपगमिकी नाम या खयमभ्युपगम्यते, यथा साधुभिः केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः शरीरपीडा, अभ्युपगमेन-खयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः, उपक्रमणमुपक्रमः-खयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निवृत्ता औपक्रमिकी, खयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीयकर्मणो विपाकानुभवनेन निवृत्ता इत्यर्थः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च द्विविधामपि वेदनां वेदयन्ते, सम्यग्दृशां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च कर्मक्षपणार्थमाभ्युपगमिक्या अपि वेदनायाः सम्भवात् , शेषास्त्वौपक्रमिकीमेव वेदनां वेदयन्ते नाभ्युपगमिकीं, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां मनोविकलतया विवेकाभावतस्तथाप्रतिपत्तेरभावात् , नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च तथाभवखाभाव्यादिति, एतदेव सूत्रकृत् प्रतिपादयति-'नेरइया णं भंते !' इत्यादि सुगमं । पुनः प्रकारान्तरेण वेदनामेवाभिधित्सुराहकतिविहा णं भंते ! वेदणा पं०१, गो! दुविहा वेदना पं०, तं०-निदाय अणिदाय, नेरइयाणं भंते ! किं निदायं वेयणं वेदयंते अणिदाय वे० वे० १, गो० ! निदायपि वे० वे० अणिदायपि वेदणं वे०, से केणद्वेणं भंते ! एवं वु०-नेरइया निदायपि अनिदायपि वे० वे० ?, गो० ! नेरइया दुविहा पं०, तं०-सण्णीभूया य असण्णीभूया य, तत्थ णं जे ते सण्णिभूया
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प्रज्ञापनाया: मलय. वृत्ती.
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॥५५७॥
ते णं निदायपि वे० वे०, तत्थ णं जे ते असण्णीभूता ते णं अणिदायं वेदणं वे०, से तेणटेणं० १, गो! एवं नेरइया R३५वेदनानिदायपि वेयणं वे० अणिदायपि वे० वे०, एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो०! नो निदायं के वे० |पदं सू. अणिदाय वे० वे०, से केणटेणं भंते ! एवं० पुढवीकाइया नो निदायं ० ० अनिदायं वे० वे ?, गो! पुढविकाइया सवे असण्णी असण्णिभूयं अणिदाय वे० वे०, से तेणटेणं गो०! एवं. पुढविकाइया नो निदायं वे वे०, अणिदायं वे. वे०, एवं जाव चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया, जोइसियाणं पुच्छा, गो० ! निदायपि वेयणं वे वे० अणिदायपि वेयणं वेद०, से केणटेणं भंते ! एवं वु०-जोइसिया निदायपि० अणिदायपि वेयणं वेदेंति ?, गो.! जोइसिया दुविहा पं०, तं०-माइमिच्छद्दिहिउववण्णगा य अमाइसम्मद्दिट्ठीउववण्णगा य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिहिउववण्णगा ते णं अणिदाय वेयणं वेयंति, तत्थ णं जे ते अमाईसम्मदिट्टीउ० ते णं निदायं वे वे०, से एतेणटेणं गो०! एवं० जोइसिया दुविहंपि वेदणं वे०, एवं वेमाणियावि॥ (सूत्र ३३०)। पण्णवणाए वेयणापयं समत्तं ॥३५॥
'कतिविहा णं भंते !' इत्यादि, निदा च अनिदा च, तत्र नितरां निश्चितं वा सम्यक् दीयते चित्तमस्यामिति निदा, बहुलाधिकाराद् 'उपसर्गादात' इसधिकरणे घञ्, सामान्येन चित्तवती सम्यग्विवेकवती वा इत्यर्थः, इतरा
॥५५७॥ त्वनिदा-चित्तविकला सम्यगविवेकविकला वा, एतामेव चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण प्रतिपादयति-नेरइया ण'मित्यादि, द्विविधा हि नैरयिकाः-संज्ञिभूता असंज्ञिभूताश्च, तत्र येते संज्ञिभ्य उत्पन्नास्ते संज्ञिभूताः, ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेऽसं
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जिभूताः, असंज्ञिनश्च पाश्चात्यं न किमपि जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वैरादिकं वा स्मरन्ति, स्मरणं हि तत्र प्रवर्तते यत्तीत्रेणाभिसन्धिना कृतं भवति, न चासंज्ञिभवे पाश्चात्से तेषां तीत्राभिसन्धिरासीत्, मनोविकलत्वात् , ततो यामपि काञ्चिद्वेदनां नैरयिका वेदयन्ते तामनिदां, पाश्चात्यभवानुभूतिविषयस्मरणपटुचित्तासम्भवात् , संज्ञिभूतास्तु सर्व पाश्चात्यमनुस्मरन्तीति ते निदां वेदनां वेदयन्ते इति, एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो । वक्तव्याः, तेषामपि संज्ञिभ्योऽसंज्ञिभ्यश्चोत्पादसम्भवात् , पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्मूछिमा इति मनोविकलत्वात् अनिदामेव वेदनां वेदयन्ते, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया' इति, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्या व्यन्तराश्च यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्या इति शेषः, निदामपि वेदनां वेदयन्ते अनिदामपि वेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्या इत्यर्थः, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्याश्च द्विधा भवन्ति, तद्यथा-सम्मूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाच, तत्र ये ते सम्मूछिमास्ते मनोविकलत्वादनिदां वेदनां वेदयन्ते, ये तु गर्भव्युत्क्रान्तास्ते समनस्का इति निदां वेदनामनुभवन्ति, व्यन्तरास्तु संज्ञिभ्योऽपि उत्पद्यन्ते असंज्ञिभ्योऽपि ततस्तेऽपि नैरयिकवत् निदां चानिदां च वेदनां वेदयमाना भावनीयाः, 'जोइसिया ण'मित्यादि, ज्योतिष्कास्तु संज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते, ततस्तेषु न नैरयिकोक्तेन प्रकारेण निदानिदे वेदने सम्भावनीये, किन्तु प्रकारान्तरेण, ततस्तहा मेव प्रकारं बुभुत्सुः प्रश्नसुत्रमाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि सुगम, भगवानाह-गोयमे'त्यादि, ज्योतिष्का हि
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ.
द्विविधाः-मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकाः अमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नकाच, तत्र मायानिवर्तितं यत्कर्म मिथ्यात्वादिकं तद- ३५वेदना पि माया, कार्ये कारणोपचारात् , माया विद्यते येषां ते मायिनः, अत एव मिथ्यात्वोदयात् मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः- पदं सू. वस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयो मायिनश्च ते मिथ्यादृष्टयश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्ते च ते उपपन्नकाश्च मायिमि-8| ३२९ थ्यादृष्टयुपपन्नकाः तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नकाः, तत्र ये ते मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकास्तेऽपि मिश्यादृष्टित्वादेव व्रतविराधनातोऽज्ञानतपोवशाद्वा वयमेवंविधा उत्पन्ना इति न जानते, ततः सम्यग्यथावस्थितपरिज्ञानाभावादनिदां वेदनां वेदयमानास्ते वेदितव्याः, ये त्वमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नास्ते सम्यग्दृष्टित्वात् यथावस्थितं खरूपं जानन्ति, ततो यां काञ्चन वेदनां वेदयन्ते तां सर्वामपि निदामिति, ‘एवं चेव वेमाणियावि' इति एवं-ज्योतिष्फोक्तेन प्रकारेण वैमानिका अपि निदामनिदां च वेदनां वेदयमाना वेदितव्याः, तेषामपि मिथ्याष्टिसम्यग्दृष्टिभेदतो द्विविधत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां वेदनाख्यं पञ्चत्रिंशत्तमं पदं समातं ॥ ३५॥
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अथ षट्त्रिंशत्तमं समुद्घाताख्यं पदं ॥ ३६ ॥
तदेवं व्याख्यातं पञ्चत्रिंशत्तमं पदं, सम्प्रति पत्रिंशत्तममारभ्यते, तस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरपदे गतिपरिणामविशेषो वेदना प्रतिपादिता, इहापि गतिपरिणामविशेष एव समुद्घातश्चिन्त्यते, तत्र समुद्घातवक्तव्यताविषये इयमादौ सङ्ग्रहणिगाथा -
वेयणकंसायमरणे वेडवियतेयए य आहारे । केवलिए चैव भवे जीवमणुस्साण सत्तेव ॥ १ ॥
'वेयणे' त्यादि, इह समुद्घाताः सप्त भवन्ति, तद्यथा - ' वेयणकसायमरणे' इति, वेदनं कषायाश्च मरणं च वेदनकषायमरणं समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् विषये त्रयः समुद्घाता भवन्ति, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुद्घातो मरणसमुद्घातश्च, 'वेउच्चिय'त्ति वैक्रिय विषयश्चतुर्थः समुद्घातः, तैजसः पञ्चमः समुद्घातः, षष्ठ आहार इतिआहारकशरीर विषयः, सप्तमः केवलिकः - केवलिषु भवति, 'जीवमणुस्साण सत्तेवत्ति सामान्यतो जीवचिन्तायां मनुष्यद्वारचिन्तायां सप्तैव - सप्तपरिमाणाः समुद्घाता वक्तव्याः, न न्यूनाः, सप्तानामपि तत्र सम्भवात्, 'सत्तेव' त्ति एवकारोऽत्र परिमाणे, वर्त्तते च परिमाणे एवशब्दः, यदाह शाकटायनन्यासकृत् - 'एवोऽवधारणपृथक्त्वपरिमाणे
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प्रज्ञापना-विति, शेषद्वारचिन्तायां तु यथासम्भवं वाच्याः, ते चाने खयमेव सूत्रकृताऽभिधास्यन्ते इत्येष सङ्ग्रहणिगाथासङ्के-11 ३६ समुयाः मल- पार्थः । अथ समुद्घात इति कः शब्दार्थः १, उच्यते, समित्येकीभावे उत्प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन घातः समु- द्घातपदं यवृत्ती. द्घातः, केन सह एकीभावगमनमिति चेत्, उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि-यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घात सू.३३० ॥५५॥
गतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन कथं घात इति चेत्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरयति, आत्मप्रदेशैस्सह सङ्क्लिष्टान् सातयतीति भावः, 'पुवकयकम्मसाडणं तुर निजरा' [ पूर्वकृतकर्मशाटनं तु निर्जरा ] इति वचनात् , तथाहि-वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्यकर्माश्रयः, कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातः अन्तर्मुहर्तशेषायुःकर्माश्रयः, वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाता यथाक्रमं वैक्रियशरीरतैजसशरीराहारकशरीरनामकर्माश्रयाः, केवलिसमुद्रातः सदसवेद्यशुभाशुभनामोचनीचैर्गोत्रकर्माश्रयः, तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा असातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहिवेदनापीडितो जीवः खप्रदेशाननन्तानन्तकर्मस्कन्धवेष्टितान् शरीराद्वहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैवंदनजठरादिरन्धा- ५५९॥ णि कर्णस्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमात्र क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहुर्त यावदवतिष्ठते, तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातावेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्म
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पडलपरिशातं विधत्ते, तथाहि-कषायोदयसमाकुलोजीवःप्रदेशान् बहिर्विक्षिपति, तैः प्रदेशैर्वदनोदरादिरन्त्राणि कर्णस्कन्धाधन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देहमानं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतान् कषायकर्मपुद्गलान् । परिशातयति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलान् परिशातयति, नवरं मरणसमुद्घातगतो विक्षिप्तखप्रदेशो वदनोदरादिरन्ध्राणि स्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्य विष्कम्भबाहल्याभ्यां खशरीरप्रमाणमायामतः खशरीरातिरेकतो जघन्यतोऽखुलासङ्ख्येयभागं उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तत इति वक्तव्यं, वैक्रियसमुद्धातगतः पुनर्जीवः खप्रदेशान् शरीरादहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमानमायामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुदलान् प्राग्वत् शातयति, तथा चोक्तम्-'उघियसमुग्घाएणं समोहणइ संमोहणित्तासंखिज्जाइंजोयणाई दंडं निसिरह, निसिरिता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेई'इति, एवं तैजसाहारसमुद्घातावपि भावनीयो, नवरं तेजससमुद्घातस्तेजोलेश्याविनिर्गमकाले तैजसनामकर्मपुद्गलपरिशातहेतुः, आहारकसमुद्घातमतस्त्वाहारशरीरनामकर्मपुद्गलान् परिशातयतीति, केवलिसमुद्घातगतः केवली सदसवेद्यादिकर्मपुद्ग|लपरिशातं करोति, स च यथा कुरुते तथा विनेयजनानुग्रहाय भाव्यते इति, केवलिसमुद्घातोऽष्टसामयिकः, तं च कुर्वन् केवली प्रथमसमये बाहल्यतः खशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तं आत्मप्रदेशानां दण्डमारचयति, द्वितीयसमये पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वा कपाटं तृतीये मन्थानं चतुर्थेऽवकाशान्तराणां पूरणं पञ्चमेऽवकाशान्तराणां संहार
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प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती.
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षष्ठे मथः सप्तमे कपाटस्य अष्टमे खशरीरस्थो भवति, वक्ष्यति च-“पढमे समये दंडं करेई, बीए कवाडं करेइ" ३६ समइत्यादि, तत्र दण्डसमयात् प्राक् या पल्योपमासङ्ख्येयभागमात्रा वेदनीयनामगोत्राणां स्थितिरासीत् तस्या बुद्धया| द्घातपदं असङ्ख्येयभागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्डं कुर्वन् असङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽसङ्ख्येयो भागोऽवतिष्ठते. सू. ३३० यश्च प्राकर्मत्रयस्यापि रसस्तस्याप्यनन्ता भागाः क्रियन्ते, ततस्तस्मिन् दण्डसमये असातवेदनीय१प्रथमवर्जसंस्थान ६ संहननपञ्चका ११ प्रशस्तवर्णादिचतुष्टयो १५ पघाता १६ प्रशस्तविहायोगति १७ दुःखर १८ दुर्भगा १९ स्थिरा२०पर्याप्तका २१ शुभा २२ नादेया २३ यशः कीर्ति २४ नीचैर्गोत्ररूपाणां २५ पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान भागान हन्ति, एकोऽनन्तभागोऽवशिष्यते, तस्मिन्नेव च समये सातवेदनीय १ देवगति २ मनुष्यगति ३ देवांनुपूर्वी ४ मनुष्यानुपूर्वी ५ पञ्चेन्द्रियजाति ६ शरीरपञ्चको ११ पाङ्गत्रय १४ प्रथमसंस्थान १५ संहनन १६ प्रशस्तव
र्णादिचतुष्टया २० गुरुलघु २१ पराघातो२२च्छ्रास १३ प्रशस्तविहायोगति २४ त्रस २५ बादर २६ पर्याप्त २७ प्रत्येकातपो २९ द्योत ३० स्थिर ३१ शुभ ३२ सुभग ३३ सुखरा ३४ देय ३५ यशःकीर्ति ३६ निर्माण ३७ तीर्थकरो३७ च्चैर्गोत्ररूपाणा ३९ मेकोनचत्वारिंशतः प्रकृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनोपहन्यते, समुद्घातमाहात्म्यमेतत् , तस्य चोद्धरितस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्तभागस्य पुनर्यथाक्रमं असङ्ख्येया अनन्ताश्च 81 भागाः क्रियन्ते, ततो द्वितीये कपाटसमये स्थितेरसङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽवशिष्यते, अनुभागस्य चानन्तान्
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भागान् हन्ति एकं मुञ्चति, अत्राप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातो द्रष्टव्यः, पुनरप्येतत्समयेऽवशिष्टस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य पुनर्बुया यथाक्रममसङ्ख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततस्तृतीये समय स्थितेरसङ्ख्ययान् भागान् हन्ति, एकं मुञ्चति, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् हन्ति, एकमनन्तभागं मुञ्चति, अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनावसेयः, ततः पुनरपि तृतीयसमयावशिष्टस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्थानुभागस्य चानन्ततमभागस्य बुध्ध्या यथाक्रममसङ्ख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये स्थितेरसङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याप्यनन्तान् भागान् हन्त्येकोऽवशिष्यते, प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातश्च पूर्ववदवसेयः, एवं च स्थितिघातादि कुर्वतश्चतुर्थसमये खप्रदेशापूरितसमस्तलोकस्य भगवतः केवलिनो वेदनीयादिकर्मत्रयस्थितिरायुषः सङ्खयेयगुणा जाता, अनुभागस्त्वद्याप्यनन्तगुणः, चतुर्थसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य भूयोऽपि बुद्धया यथाक्रमं सङ्ख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततोऽवकाशान्तरसंहारसमये स्थितेः सङ्ख्येयभागान् हन्ति, एकं सङ्ख्येयभागं शेषीकरोति, अनुभागस्थानन्तान् भागान् हन्ति एकं मुञ्चति, एवमेतेषु पञ्चसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येकं सामयिकं कण्डकमुत्कीर्णं, समये २ स्थितिकण्डकानुभागकण्डकघातनात् , अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्डकं चान्तर्मुहुर्तेन कालेन विनाशयति, प्रयत्नमन्दीभावातू, षष्ठादिषु च समयेषु कण्डकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकलं तावदु
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प्रज्ञापना- या: मलयवृत्ती.
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किरति यावदन्तर्मुहूर्त्तचरमसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्णं भवति, एवमान्तमौर्तिकानि स्थितिकण्डकान्य-३६ समुनुभागकण्डकानि च घातयन् तावद्वेदितव्यः यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः, सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभाग- द्घातपदं कण्डकान्यसङ्ख्येयान्यवगन्तव्यानीति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र संग्रहणिगाथोक्तमर्थ स्पष्टयन् प्रथमतः समुद्
सू. ३३१ घातसङ्ग्याविषयं प्रश्नसूत्रमाहकति णं भंते! समुग्घाया पं०१, गो०! सत्त समुग्घाया पं०, तं०-वेदणासमुग्धाते १ कसायसमुग्धाते २ मारणंतियसमु० ३ वेउवियस० ४ तेयास०५ आहारस० ६ केवलिसमुग्धाते ७ । वेदणासमुग्घाए णं भंते! कतिसमइए पं०१, गो.! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिते पं०, एवं जाव आहारसमुग्धाते, केवलिसमुग्घाए गं भंते! कतिसमइए पं०१, गो.! अट्ठसमइए पं०। नेरइयाणं भंते ! कति समुग्धाया पं०१, गो०! चत्तारि समुग्घाया पं०, तं०-वेदणासमुग्धाए कसायस० मारणंतियस वेउवियस०, असुरकुमाराणं भंते ! कति समुग्घाया पं०१, गो० ! पंच समुग्घाया पं०, तं०-वेदणास. कसायस० मारणंतियस० वेउब्वियस० तेयासमुग्धाए, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं भंते! कति समुग्घाया पं०१, गो०! तिणि समुग्धाया पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस०, एवं जाव चउरिंदियाणं, नवरं वाउका
K५६१॥ इयाणं चत्तारि समुग्पाया पं०, तं०-वेदणास कसायस. मारणंतियस० वेउबियस०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव वेमाणियाणं भंते ! कति समुग्धाया पं०१, गो०! पंच समुग्धाया पं०, तं०-वेयणास कसायस० मारणंतियस०
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वेउब्धियस० तेयास०, नवरं मणूसाणं सत्तविहे समुग्घाए पं०, तं०-वेदणास० कसायस० मारणंतियस० वेउ० तेया० आहार० केवलिसमुग्धाते (सूत्रं ३३१) 'कइ 'मित्यादि, कति-किंपरिमाणा णमिति वाक्यलकारे 'भदन्ते'ति भगवतो वर्द्धमानखामिन भामत्रणं, भदन्तत्वं च भगवतः परमकल्याणयोगित्वात् , यदिवा भवान्तेति द्रष्टव्यं, सकलसंसारपर्यन्तवर्तित्वात्, अथवा भयान्त ! इहपरलोकादिभेदभिन्नसप्तप्रकारभयविनाशकत्वात् , समुद्घाताः-उक्तशब्दार्थाः प्रज्ञप्ताः, भगवानाह'गोयमे त्यादि, गौतम! सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घात इत्यादि, वेदनायाः समुदघातो वेदनासमुद्घातः, एवं यावदाहारकसमुद्घात इति, 'केवलिसमुद्घात' इति केवलिनः समुद्घातः केवलिसमुद्घातः सम्प्रति कः समुद्घातः कियन्तं कालं यावद्भवतीत्येतन्निरूपणार्थमाह-वेयणे'त्यादि, सुगम, नवरं 'जावे'त्यादि, एवमुक्तप्रकारेणाभिलापेनान्तर्मुहूर्तप्रमाणतया च समुद्घा ताः क्रमेण तावद्वाच्याः यावदाहारकसमुद्घातः, एते षडप्याद्या आन्तर्मुहूर्तिकाः, केवलिसमुद्घातस्त्वष्टसामयिका, स चानन्तरमेव भावितः, एतानेव समुद्घातान् चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिचिन्तयिषुराह-'नेरइयाणमित्यादि, नैरयिकाणामाद्याश्चत्वारः, तेषां तेजोलब्ध्याहारकलब्धिकेवलित्वाभावतः शेषसमुपातत्रयासम्भवात्, असुरकुमारादीनां दशानामपि भवनपतीनां तेजोलेश्याल|धिभावात् आधाः पञ्च समुद्घाताः, पृथिवीकायिकाप्कायिकतजस्कायिकवनस्पतिकायिकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया
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प्रज्ञापमाया:मलय० वृत्ती.
३६ समुद्घातपदं सू.३३१३३२
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णामाद्यास्त्रयः, तेषां वैक्रियादिलब्ध्यभावतः उत्तरेषां चतुर्णामपि समुद्घातानामसम्भवात् , वायुकायिकानामाद्याश्चत्वारस्तेषां वैक्रियलब्धिसम्भवेन वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामाद्याः पञ्च, | केषांचित्तेषां तेजोलब्धेरपि भावात् , मनुष्याणां सप्त, मनुष्येषु सर्वसम्भवात् , व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामाद्याः पञ्च, वैक्रियतेजोलब्धिभावाद, उत्तरौ तु द्वौ न सम्भवतः, आहारकलब्धिकेवलित्वायोगात् ॥ सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकस्य जीवस्य कति वेदनादयः समुद्घाता अतीताः कति भाविन इति चिचिन्तयिषुराहएगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता-१, गो०! अणता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो०! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवमसुरकुमारस्सवि निरंतरं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव तेयगसमुग्धाते, एवमेते पंच चउवीसा दंडगा। एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स केवइया आहारसमुग्धाया अतीता ?, कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि तस्स जह० एको वा दो वा उक्को तिण्णि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० चत्तारि, एवं निरंतरं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स अतीतावि पुरेक्खडावि जहा नेरइयस्स पुरेक्खडा, एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीता?, गो०! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा?, गो०! कस्सइ
9:020129.8292028090020200
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अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि एक्को, एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स अतीता कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि एको, एवं पुरेक्खडावि (सूत्रं ३३२) 'एगमेगस्स णं भंते !' इत्यादि, एकैकस्य सूत्रे मकारोऽलाक्षणिकः, भदन्त ! नैरयिकस्य सकलमतीतं कालमधिकृत्य 'केवइय'त्ति कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीता-अतिक्रान्ताः, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नारकादिस्थानानामनन्तशः प्राप्तत्वादेकैकस्मिंश्च नारकादिस्थानप्राप्तिकाले प्रायोऽनेकशो वेदनासमुद्घातानां भावात्, एतच्च बाहुल्यापेक्षयोच्यते, बहवो हि जीवा अनन्तकालमसंव्यवहारराशेरुद्वृत्ता वर्तन्ते, ततस्तदपेक्षया एकैकस्य नैरयिकस्थानन्ता अतीता वेदनासमुद्घाता उपपद्यन्ते, ये तु स्तोककालमसंव्यवहारराशेरुद्वृत्तास्तेषां यथासम्भवं सङ्ख्येया असङ्ख्येया वा प्रतिपत्तव्याः, केवलं ते कतिपये इति न विवक्षिताः, 'केवइया पुरेक्खड'त्ति इदं सूत्रं पाठसूचामात्रं, सूत्रपाठस्त्येवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा'? इति, सुगम, नवरं पुरे| अग्रे कृताः-तत्परिणामप्राप्तियोग्यतया व्यवस्थापिताः, सामर्थ्यात् तत्कर्तृजीवेनेति गम्यते, पुरस्कृता-अनागतकालभाविन इति तात्पर्यार्थः, अत्र भगवानाह-कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः सङ्ख्येया वा असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, इयमत्र भावना-यो नाम विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरं वेदनासमुद्घातमन्तरेणैव नरकादुद्वृत्त्यानन्तरमनुष्यभवे वेदनासमुद्घातमप्राप्त एव सेत्स्यति
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प्रज्ञापनाया: मतय. वृत्ती.
३६ समुद्घातपदं सू. ३३२
॥५६३॥
तस्य पुरतो वेदनासमुद्घात एकोऽपि नास्ति, यस्तु विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरमायुःशेषे कियत्कालं नरकमवे स्थित्वा तदनन्तरं मनुष्यभवमागत्य सेत्स्यति तस्य एकादिसम्भवः, सङ्ख्यातकालसंसारावस्थायिनः सङ्ख्याता असङ्ख्यातकालसंसारावस्थायिनोऽसङ्ख्याताः अनन्तकालसंसारावस्थायिनोऽनन्ताः, 'एवं'मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तप्रकारेणासुरकुमारस्यापि यावत् स्तनितकुमारस्य वाच्यं, ततश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकस्य, किमुक्तं भवति?-सर्वेष्वपि असुरकुमारादिषु स्थानेषु अतीता वेदनासमुद्घाता अनन्ता वाच्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्यया अनन्ता वा इति वाच्याः, भावनापि पूर्वोक्तानुसारेण खयं परिभावनीया, एवं चतुविशतिदण्डकक्रमेण कषायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातश्च प्रत्येकं, तत एव पञ्च चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, तथा चाह-'एवं जाव तेयगसमुग्धाए'इत्यादि, एवं वेदनासमुद्घातप्रकारेण शेषसमुद्घातेष्वपि प्रत्येकं तावद्वक्तव्यं यावत्तैजससमुद्घातः, शेषं सुगम, 'एगमेगस्स ण'मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य पाश्चात्यं सकलमतीतं कालमपेक्ष्य कियन्त आहारकसमुद्घाता अतीताः?, भगवानाह-गौतम! कस्यापि 'अत्यि'त्ति अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनो, यदाह शाकटायनन्यासकृत्-"मस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनेवि"ति, ततोऽयमर्थः-कस्यापि अतीता माहारकसमुद्घाताः सन्ति कस्यापि न सन्ति, येन पूर्व मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामग्र्यमावतचतुर्दश
॥५६३॥
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पूर्वाणि नाधीतानि, चतुर्दशपूर्वाधिगमे वा आहारकलब्ध्यभावतः तथाविधप्रयोजनामावतो वा आहारकशरीरं न । कृतं तस्य न सन्तीति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः एको वा द्वौ वा उत्कर्षतस्तु त्रयो, न तु चत्वारः, चतु:कृत्वः कृताहारकशरीरस्य नरकगमनाभावात्, आह च मूलटीकाकारः-"आहारसमुग्घाया उक्कोसेणं तिनि, तदुवरि नियमा नरगं न गच्छइ जस्स चत्तारि भवन्ति" इति, पुरस्कृता अपि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यो मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामग्र्यभावतश्चतुर्दशपूर्वाधिगममाहारकसमुद्घातं चान्तरेण सेत्स्यति तस्य न सन्ति, शेषस्य तु यथासम्भवं जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, तत ऊर्ध्वमवश्यं गत्यन्तरासंक्रमेणाहारकसमुद्घातमन्तरेण च सिद्धिगमनभावात्, 'एव'मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेण चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्रं, नवरं मनुष्यस्यातीता अपि पुरस्कृता अपि यथा नैरयिकस्य पुरस्कृतास्तथा वाच्याः, अतीता अपि चत्वारः पुरस्कृता अपि चत्वार उत्कर्षतो वाच्या इत्यर्थः, सूत्रपाठश्चैवम्-'एगमेगस्स णं मणूसस्स भंते ! केवइया आहारसमुग्घाया अतीता?, गोयमा! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि जहनेणं । |एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं चचारि, केवइया पुरेक्खडा, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि जहन्नेणं एको वा दो या तिन्नि वा उक्कोसेणं चचारि' अत्र भावना-इह यश्चतुर्थवेलमाहारकशरीरं करोति स नियमात् तद्भव एव मुक्तिमासादयति, न गत्यन्तरं, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, सूत्रपौर्वापर्यपर्या
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥५६४॥
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लोचनात् , तथाहि-यदि चतुर्थवेलमप्याहारकशरीरं कृत्वा गत्यन्तरं संक्रामेत ततो नैरयिकादावन्यतरस्यां गतौ ||३६ समु. उत्कर्षतश्चत्वारोऽप्याहारकस्य समुद्घाता उच्येरन् , न चोच्यन्ते, ततोऽवसीयते-चतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा द्घातपदं नियमात् तद्भव एव मुक्तो भवति, न गत्यन्तरगामी, तत्र यः प्रागाहारकशरीरं कदाचनापि न कृतवान् तस्या- सू. ३३२ तीत आहारकसमुद्घातो नास्ति, ततस्तदपेक्षयोक्तं 'कस्सइ नत्थि'त्ति, यस्यापि सन्ति सोऽपि यदि पूर्वमेकवारमाहारकशरीरं कृतवान् तस्यैकोऽतीत आहारकस्य समुद्घातः द्वौ वारौ कृतवतो द्वौ त्रीन् वारान् कृतवतस्त्रयो यश्चतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा आहारकसमुद्घाताचतुर्थात्प्रतिनिवृत्तो वर्तते न चाद्यापि मनुजभवं विजहाति तस्य चत्वारः, पुरस्कृता अपि समुद्घाताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यश्चतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा आहारकसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो यदिवा पूर्वमकृताहारकशरीरोऽप्यथवा एकवारकृताहारकशरीरोऽपि यदिवा द्विकृत्वः कृताहारकशरीरोऽपि यदिवा त्रिकृत्वः कृताहारकशरीरोऽपि तथाविधसामग्र्यभावात् उत्तरकालमाहारकशरीरमकृत्वैव मुक्तिमवाप्स्यति तस्य पुरस्कृता आहारकसमुद्घाता न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको वा द्वौ वा प्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, तत्र एकादिसम्भवः पूर्वोक्तभावनानुसारेण खयं भावनीयः, यस्तु पूर्वकाल-IAusam मेकवारमपि आहारकशरीरं न कृतवान् अथ चोत्तरकालं तथाविधसामग्रीभावतो यावत्सम्भवमाहारकशरीरका तस्य चत्वारोन शेषस्य । सम्प्रति केवलिसमुद्घातविषयं दण्डकसूत्रमाह-'एगमेगस्स 'मित्यादि, एकैकस्य
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भदन्त ! नैरयिकस्य निरवधिकमतीतं कालमधिकृत्य कियन्तः केवलिसमुद्घाता अतीताः?, भगवानाह–'नस्थिति नास्त्यतीत एकोऽपि केवलिसमुद्घातः, केवलिसमुद्घातानन्तरं यन्तर्मुहूर्तेन नियमतो जीवाः परमपदमश्वते, ततो यद्यभविष्यत्केवलिसमुद्घातस्तर्हि नरकमेव नागमिष्यद्, अथ च सम्प्रति नरकगामिनो वर्तन्ते तस्मानास्त्येकस्याप्यतीतः केवलिसमुद्घातः, 'केवइया पुरेक्खड'त्ति कियन्तः पुरस्कृताः केवलिसमुद्घाता इति प्रश्नः, भगवानाह'गोतमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि'त्ति, इह केवलिसमुद्घात एकस्य प्राणिन आकालमेक एव भवति, न द्वित्राः, ततोऽस्तीति निपातोऽत्र एकवचनान्तो वेदितव्यः, ततश्चायमर्थः कस्यापि केवलिसमुद्घातः पुरस्कृतोऽस्ति, यो दीर्घतरेणापि कालेन मुक्तिपदप्राप्त्यवसरे विषमस्थितिकर्मा इति, कस्यापि नास्ति, यो मुक्तिपदमवातुमयोग्यो योग्यो वा केवलिसमुद्घातमन्तरेणैव मुक्तिपदं गन्ता, तथा च वक्ष्यति-"अगंतूण समुग्घायमणंता केवलीजिणा । जरमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥१॥" [अगत्वा समुद्घातमनन्ताः केवलिनो जिनाः । जरामरणविप्रमुक्ताः & सिद्धिं वरगतिं गताः॥१॥] इति, इह अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचन इत्यविदितसिद्धान्तस्य बहुत्वाशङ्कापि कस्यचित् स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-'जस्स अत्थि' एको यस्यास्ति पुरस्कृतः केवलिसमुद्घातस्तस्य एको, भूयः संसाराभावात्, ‘एवं जाव वेमाणियस्स'त्ति एवं-नैरयिकगताभिलापप्रकारेण चतुविशतिदण्डकक्रममनुसृत्य तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्रं, तच्चेदम्-'एगमेगस्स णं भंते! वेमाणियस्स केवइया केवलिसमुग्घाया अतीता?,
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प्रज्ञापनाया: मलय० वृत्ती.
३६ समु. द्घातपदं
सू.३३२
॥५६॥
गोयमा! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा?, गोयमा! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि एको' इति, तत्रैव विशेषमाह-'नवर'मित्यादि, नवरमयं विशेषः-मनुष्यस्य केवलिसमुद्घातस्य चिन्तायामतीतः कस्याप्यस्ति कस्यापि नास्तीति वक्तव्यः, तत्र यः केवलिसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो वर्त्तते न चाद्यापि मुक्तिपदमवाप्नोति तस्यास्त्यतीतः केवलिसमुद्घातः, ते च सर्वसङ्ख्यया उत्कर्षपदे शतपृथक्त्वप्रमाणा वेदितव्याः, कस्यापि नास्ति अतीतः केवलिसमुद्घातो, यो न समुद्घातं गतवान् , ते च सर्वसङ्ख्यया असङ्ख्येया द्रष्टव्याः, शतपृथक्त्वव्यतिरेकेणान्येषां सर्वेषामप्यसम्प्राप्तकेवलिसमुद्घातत्वात् , अत्राप्यस्तीति निपातस्य सर्वलिङ्गवचनत्वात् , 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि' इत्युक्ती बहुत्वाशका स्यात् ततस्तव्यवच्छेदार्थमाह-यस्य मनुष्यस्यातीतः केवलिसमुद्घातस्तस्य नियमादेको न द्वित्राः, एकेनैव समुद्घातेन प्रायः समस्तघातिकर्मणां निर्मूलकाषंकषितत्वात् , 'एवं पुरेक्खडावि'त्ति एवं भतीतगतेन प्रकारेण पुरस्कृता अपि केवलिसमुद्घाता वाच्याः, ते चैवम्-'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एक्को' इति, अत्र भावना पूर्वोक्तानुसारेण खयं भावनीया ॥ तदेवमतीतमनागतं च कालमधिकृत्य एकैकस्य नैरयिकादेर्वेदनादिसमुद्घातचिन्ता कृता, सम्प्रति नैरयिकादेः प्रत्येकं समुदायरूपस्य तच्चिन्तां चिकीर्षुराह
नेरइयाणं भंते! केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता?, गो०! अणंता, केवइया पुरेक्खडा, गो० ! अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव तेयगसमुग्घाए, एवं एतेवि पंच चउवीसदंडगा, नेरइयाणं ! मंते ! केवइया आहारगसमुपाया
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५६५॥
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अतीता, गो०! असंखेज्जा, केवइया पु०१, गो०! असंखेजा, एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं वणस्सइकाइयाण मणसाण य इमं णाणतं-वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया आहारसमुग्धाया अईया ?, गो०! अणंता, मणसाणं भंते । केवइया आहारसमुग्घाया अईया ?, गो! सिय संखेजा सिय असं०, एवं पुरेक्खडावि। नेरइयाणं भंते ! केवइया केवलिसमुरघाया अतीता?, गो०! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो०! असंखेज्जा, एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं वणस्सइमाणसेसु इमं नाणत्तं-वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया केवलिसमुग्घाया अतीता?, गो! पत्थि, केवइया पुरे०१,. गो०! अणंता, मणूसाणं भंते ! केवइया केवलिस० अतीता?, गो! सिय अत्थि सिय नत्थि; जइ अत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सतपुडुत्तं, केवति. पुरेक्खडा, सिय संखेजा सिय असं० (सूत्रं ३३२) .
'नेरइयाण'मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां सर्वेषां समुदायेन भदन्त ! कियन्तो वेदनासमुद्घाता है |अतीताः१, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तकालसंव्यवहारराशेरुद्धृत्तत्वात्, कियन्तः पुरस्कृताः १, अत्रापि प्रश्नसूत्रपाठः परिपूर्ण एवं द्रष्टव्यः-'नेरइयाणं भंते ! केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा' इति, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, बहूनामनन्तकालभाविसंसारावस्थानभावात् , एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्य यावद्वैमानिकानां, यथा च वेदनासमुद्घातश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तितः तथा कषायमरणवैक्रियतेजससमुद्घाता अपि चिन्तनीयाः, तथा चाह-एवं-जाव तेयगसमुग्घाए' एवं च सति एतान्यपि बहुत्वविषयाणि पञ्च
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Jaiम.९५
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. ॥५६६॥
३६ समुद्घातपदे सामान्येनातीता समु.सू. ३३२
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चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, एतदेवाह-एवमेएवि य पंच चउच्चीसदंडगा' इति, आहारकसमुद्घात|चिन्तां कुर्वन्नाह-'नेरइयाण'मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! असङ्ख्येयाः, इयमत्र भावनाइह नैरयिकाः सर्वदाऽपि प्रश्नसमयभाविनः सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसङ्ख्येयाः, तेषामपि मध्ये कतिपयाः सङ्ख्यातीताः कृतपूर्वाहारकसमुद्घातास्ततोऽसङ्ख्येया एव तेषामतीताहारसमुद्घाता घटन्ते, नानन्ता नापि सङ्ख्येयाः, एवं पुरस्कृता अपि भावनीयाः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकानां, आह च-'एवं जाव वेमाणियाणं' अत्रैव यो विशेषस्तं दिदर्शयिषुराह-'नवर'मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकचिन्तायां मनुष्यचिन्तायां च नैरयिकापेक्षया नानात्वमवसेयं, तदेव नानात्वमाह-वणप्फइकाइयाण'मित्यादि,अत्र प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम!अनन्ताः, अनन्तानामधिगतचतुर्दशपूर्वाणां कृताहारकसमुद्घातानां प्रमादवशतः उपचितसंसाराणां वनस्पतिषु भावात्, पुरस्कृता अनन्ताः,अनन्तानां वनस्पतिकायादुद्धृत्य चतुर्दशपूर्वाधिगमपुरस्सरं कृताहारकसमुद्घातानांभाविसिद्धिगमनभावात् ,'मणुस्साणं भंते।' इत्यादि,अत्रापि प्रश्नसूत्रं प्रतीतं,भगवानाह-गौतम! स्यादिति निपातोऽनेकान्तद्योती, ततोऽयमर्थः-कदाचित् सङ्ख्येयाः कदाचिदसङ्ख्येयाः, कथमिति चेत्, उच्यते, इह सम्मूछिमगर्भव्युत्क्रान्तसमुदायचिन्तायां उत्कृष्टपदे मनुष्या अङ्गलमात्रक्षेत्रे यावान् प्रदेशराशिस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलं तत् तृतीयवर्गमूलेन गुणितं सत् यावत्प्रमाणं भवति एतावत्प्रदेशप्रमाणानि खण्डानि धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्यां श्रेणी यावन्ति भवन्ति
॥५६६॥
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एतावत्प्रमाणा एकहीनाः, ते चातीव शेषनारकादिजीवराश्यपेक्षया स्तोकाः, तत्रापि ये पूर्वभवेषु कृताहारकशरीरास्ते कतिपयाः, ते च कदाचित् विवक्षितप्रश्नसमये सङ्ख्येयाः कदाचिदसङ्ख्येयाः, तत उक्तम्-'सिय संखेजा सिय असंखेज्जा'इति, अनागतेऽपि काले विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कतिसङ्ख्या एवाहारकशरीरमारप्स्यन्ति तेऽपि कदाचित् सङ्ख्येयाः कदाचिदसल्येयाः, तत आह-'एवं पुरेक्खडावित्ति एवं अतीतगतेन प्रकारेण वनस्पतिकायिकानां मनुष्याणां च पुरस्कृता अपि आहारकसमुद्घाता वेदितव्याः,ते चैवम्-'वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवइया आहारगसमु|ग्घाया पुरेक्खडा?, गो! अणंता, मणुस्साणं भंते ! केवइया आहारगसमुग्पाया पुरेक्खडा ?, गो! सिय संखेजा सिय असंखेजा'इति,केवलिसमुद्घातविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'नेरइयाणं भंते।' इत्यादि सुगम,भगवानाह-गौतम नसन्ति केचनातीता नैरयिकाणां केवलिसमुद्घाताः, कृतकेवलिसमुद्घातानां नारकादिगमनासम्भवात्, कियन्तः पुरस्कृता इति प्रश्नः, भगवानाह-गौतम ! असङ्ख्येयाः, सर्वदा विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्येऽसङ्ख्यातानां भाविकेवलिसमुद्घातत्वात् , तथा केवलवेदसोपलब्धः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद् वाच्यं यावद् वैमानिकानां सूत्रं, तथा चाह-एवं जाव वेमाणियाणं' अत्रैव विशेषमाह-'नवर'मित्यादि, नवरं-वनस्पतिकायिकेषु मनुष्येषु चेदं वक्ष्यमाणलक्षणं नानात्वं, तदेवाह-वणप्फइकाइयाण'मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुप्रतीतं, उत्तरसूत्रे निर्वचनं-अनन्ताः, अनन्तानां भाविकेवलिसमुद्घातानां तत्र भावात्, 'मणुस्साण'मित्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥५६७॥
गौतम ! स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति, किमुक्तं भवति ? - यदा प्रश्नसमये समुद्घातान्निवृत्ताः प्राप्यन्ते तदाः सन्ति, शेषकालं न सन्ति तत्र 'जइ अस्थि'त्ति यदि प्रश्नसमये कृतकेवलिसमुद्घाता मनुष्यत्वमनुभवन्तः प्राप्यन्ते तदा ४ जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं एतावतामेककालमुत्कृष्टपदे केवलिनां केवलिसमुद्घातासादनात् 'केवइया पुरेक्खड 'त्ति कियन्तो मनुष्याणां केवलिसमुद्घाताः पुरस्कृताः १, भगवानाह — स्यात् सङ्ख्येयाः स्यादसङ्ख्येया, मनुष्या हि सम्मूच्छिमा गर्भव्युत्क्रान्ताश्च सर्वसमुदिता उत्कृष्टपदे प्रागुक्तप्रमाणास्तत्रापि विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कदाचित्केवलिसमुद्घाताः सङ्ख्येयाः, बहूनामभव्यानां भावात् कदाचिदसज्ञेयाः, बहूनां भाविकेवलिसमुद्घातानां भावात् । सम्प्रति एकैकस्य नैरयिकत्वादिभावेषु वर्त्तमानस्य प्रत्येकं कति वेदनासमुद्घाता अतीताः कति भाविन इति निरूपयितुकाम आह
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एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणास० अतीता १, गो० ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जह० एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं असुरक्कुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता १, गो० ! अनंता, केवइया पु० !, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय सं० सिय अ० सिय अनंता, एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स असुरकुमारते केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता १, गो० ! अनंता, केवइया पु० १,
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३६ समु
द्वातपदं
स्वपर स्था
ने वेदना
समु. सू. ३३३
॥५६७॥
Page #397
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गो०कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जह० एक्को वा दो वा तिण्णि वा उ० संखे० असंखे० अणता वा, एवं नामकुमारचेवि जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा० वेयणासमुग्धातेणं असुरकुमारे नेरइयादिवेमाणियपज्जवसाणेसु भणितो तहा नागकुमारादिया अवसेसेसु सहाणेसु परहाणेसु भाणितवा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवमेते चउडीसा चउनीसं दंडगा भवंति । (सूत्र ३३३)
'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य भदन्त। नैरयिकस्य सकलमतीतं कालमवधीकृत्य तदा तदा नैरयिकत्वे वृत्तस्य सतः सर्वसङ्ख्यया कियन्तः वेदनासमुद्घाता अतीताः, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नरकस्थानस्यानन्तशः IS प्रासत्वादेकेकस्मिंश्च नरकभवे जघन्यपदेऽपि सोयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् , 'केवइया पुरेक्खड'त्ति कियन्तो ।
भदन्त ! एकैकस्य नैरयिकस्यासंसारमोक्षमनागतं कालमवधीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः सतः सर्वसङ्ख्यया पुरस्कृता वेदनासमुद्घाताः१, भगवानाह-गौतम! कस्सइ अत्थि'इत्यादि, तत्र य आसन्नमृत्युर्वेदनासमुदघातमप्राप्यान्तिकमरणेन नरकादुत्य सेत्स्यति तस्य नास्ति नैरयिकत्वे भावी एकोऽपि पुरस्कृतो वेदनासमुद्घातः, शेषस्य तु.सन्ति, तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा. एतच्च क्षीणशेषायुषां तद्भवजानामनन्तरं सेत्स्यतां द्रष्टव्यं, न भूयो नरकेषुत्पत्स्यमानानां, भूयो नरकेपुत्पत्तौ जघन्यपदेऽपि सोयानां प्राप्यमाणत्वात्, यदाह मूलटीकाकारः"नरकेषु. जघन्यस्थितिषूत्पन्नस्य नियमतः समवेया एव वेदनासमुद्राता भवन्ति, वेदनासमुद्घातप्रचुरत्वान्नारका
2002082908220002
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प्रज्ञापना-1णा "मिति, उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्खयेया वा अनन्ता वा, तत्र सकृत् नरकेषु जघन्यस्थितिषूत्पत्स्यमानस्य सङ्ख्येयाः ३६ समुयाः मल- अनेकशो दीघस्थितिषु असकृद्वा उत्पत्स्यमानस्य असङ्ख्येयाः अनन्तशः उत्पत्स्यमानस्य अनन्ताः, 'एव'मित्यादि, एवं- घातपद य० वृत्तौ. नरयिकगतेनाभिलापप्रकारेणासुरकुमारत्वेन तदनन्तरं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकत्वे,
स्वपरस्था
ने वेदना ॥१६॥ हातचैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमाराओ केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता?, गो! अनंता,
समु. सू. केवइया पुरेक्खडा?, गो०! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सखेजा वा असोजा वा अणंता वा' तत्रातीतसूत्रेऽनन्तशोऽसुरकुमारत्वस्य प्राप्तत्वादुपपद्यते तद्भावमाप
नस्यानन्ता अतीता वेदनासमुद्घाताः, पुरस्कृतचिन्तायां योऽनन्तरभवेन नरकादुदृत्तो मानुष्यं प्राप्य सेत्स्यति प्रासो 18|| वा परम्परया सकृदसुरकुमारभवं न वेदनासमुद्घातं गमिष्यति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतो असुरकुमारत्वे वेदनासमुद्
घातः, यस्तु सकृदसुरकुमारत्वं प्राप्तः सन् सकृदेव वेदनासमुद्घातं गन्ता तस्य जघन्यत एको द्वौ वात्रयो वा, शेषस्य | सजयेयान्वारान् असुरकुमारत्वं यास्यतः सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं सूत्रपाठस्तावद वक्तव्यो यावद्वैमानिकत्वविषयं सूत्र, 'एगमेगस्स
॥५६८॥ ण'मित्यादि, एकैकस्य भदन्त! असुरकुमारस्य पूर्व नैरयिकत्वेन वृत्तस्य सतः सकलमतीतं कालमपेक्ष्य सर्वसङ्ख्यया कि-13 यन्तो वेदनासमुदघाता अतीताः१, भगवानाह-गौतम! अनन्ता अतीताः,अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , एके
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कमिंश्च नैरयिकस्य भवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् , कियन्तः पुरस्कृताः?, स्यात् सन्ति | | स्यान्न सन्ति, कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति इति भावः, अत्रापीयं भावना-योऽसुरकुमारभवादुद्वृत्तो न नरकं यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुजभवं प्राप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकत्वावस्थाभाविनः पुरस्कृता वेदनासमुद्घाता न सन्ति, नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात् , यस्तु तद्भवादूर्ध्व पारम्पर्येण नरकं गमिष्यति तस्य सन्ति, तत्रापि कस्यचित्सङ्ख्येयाः कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, तत्र यः सकृजघन्यस्थितिषु मध्ये समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयाः, सर्वजघन्यस्थितावपि नरकेषु सङ्ख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात्, वेदनाबहुलत्वान्नारकाणां, असकृद् जघन्यस्थितिषु दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा गमने असङ्ख्येयाः, अनन्तशो नरकगमने अनन्ताः, तथा एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः१, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, पूर्वमप्यनन्तशस्तद्भावस्य प्राप्तत्वात् , प्रतिभवं च वेदनासमुद्घातस्य प्रायो भावात् , पुरस्कृतचिन्तायां कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, यस्य प्रश्नसमयादृर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपि वत्तेमानस्य न भावी वेदनासमुद्घातो नापि तत उद्धृत्त्य भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति, यस्तु सकृत् प्राप्स्यति तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया अनन्ता वा, सङ्ख्येयान् वारान् उत्पत्स्यमानस्य सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमण नाग
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प्रज्ञापनायाः मलया वृत्ती.
३६ समद्घातपदे स्वपरस्थाने कषायस मु.सू.३३४
॥५६॥
कुमारत्वादिषु खस्थानेष्वसुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे, तथा चाह-एवं नागकुमारत्तेवि'इत्यादि, तदेवमसुरकुमाराणां वेदनासमुघातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमाह-एवं'मित्यादि, उपदर्शिताभिलापेन यथा चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण असुरो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितस्तथा नागकुमारादयोऽवशेषेषु समस्तेषु खस्थानपरस्थानेषु भणितव्या यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे,एवं चैतानि नैरयिकचतुर्विशतिदण्डकसूत्रादीनि वैमानिकचतुर्विंशतिदण्डकसूत्रपर्यवसानानि चतुर्विशतिः सूत्राणि भवन्ति, तदेवं चतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रर्वेदनासमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विशतिदण्डकसूत्रः कषायसमुद्घातं चिचिन्तयिषुरिदमाहएगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया कसायसमुग्घाया अतीता, गो.! अणंता, केवइया पु०१, गो० क. अत्थि क० नत्थि, जस्सत्थि एगुत्तरियाते जाव अणंता । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया कसायसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! अणंता, केवइया पु०१, गो० ! कस्सति अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणन्ता, एवं जाव नेरइयस्स थणियकुमारत्ते, पढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए नेतवं, एवं जाव मणुयत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, जोइसियत्ते अतीता.अणंता, प्ररेक्खडा कस्सति अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि सिय असंखेजा सिय अणंता, एवं वेमाणियत्तेवि सिय असंखेज्जा सिय अर्णता, असुरकुमारस्स नेरइयत्ते अतीता अर्णता, पुरेक्खडा कस्सति अस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेजा सिय अणंता, असुरकुमारस असुरकु
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॥५६९॥
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मारते अतीता अनंता पुरेक्खडा एगुत्तरिया, एवं नागकुमारते जाव निरंतरं वेमाणियत्ते जहा नेरइयस्स भणितं तहेव भाणित, एवं जाव थणियकुमारस्सवि वेमाणियत्ते, नवरं सवेसिं सहाणे एगुत्तरियाए परट्ठाणे जहेब असुरक्कुमारस्स, पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते जाव थणियकुमारत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सति अत्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अनंता, पुढविकाइयस्स पुढविकाइयत्ते जाव मणूसत्ते अतीता अनंता पुरे० क० अस्थि क० नथ जस्स अत्थि एगुत्तरिया, वाणमंतरचे जहा णेरइयत्ते, जोतिसियवेमाणियत्ते अतीता अनंता, पुरेक्खडा कस्सइ अतिथ कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि सिय असंखेजा सिय अनंता, एवं जाव मणूसत्तेवि नेयवं, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा, णवरं सहाणे एगुत्तरियाए माणित जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं एते चउद्दीसं चउवीसा दंडगा, (सूत्रं ३३४ )
' एगमेगस्स ण' मित्यादि, तत्र नैरयिकस्य नैरयिकत्वविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यः क्षीणशेषायुः प्रश्नसमये भवपर्यन्ते वर्त्तमानः कषायसमुद्घातमप्राप्त एवं नरकभवादुवुत्यानन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति न भूयो नरकवासगामी तस्य न सन्ति पुरस्कृता नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाताः, शेषस्य तु सन्ति, तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, ते च क्षीणायुःशेषाणां तद्भाव भाजामवसेयाः, उत्कर्षतः सोया असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, तत्र सङ्ख्येयवर्षायुः शेषाणां सङ्ख्येयाः असङ्ख्येय वर्षायुः शेषाणामसङ्ख्येयाः, यदिवा सकृत् जघन्यस्थितौ उत्पत्स्यमानानां सङ्ख्ोयाः असकृत् जघन्यस्थितौ सकुंद सकृदीर्घस्थितावुत्पत्स्यमानानामस
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प्रज्ञापनायाः मल- य. वृत्ती .
॥५७०॥
ध्येयाः अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, तथा नैरयिकस्येवासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्रं, तथैव पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ |३६ समु. अत्थि कस्सइ नत्थि'त्ति यो नरकादुत्तोऽसुरकुमारत्वं न प्राप्स्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता असुरकुमारत्वविषयाःद्घातपदे कषायसमुद्घाताः, यस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति, ते च जघन्यपदे सङ्ख्येया जघन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां सङ्ख्येयानां स्वपरस्थाकषायसमुद्घातानां भावात् , लोभादिकषायबहुलत्वात् तेषां, उत्कृष्टपदेऽसङ्ख्येया अनन्ता वा, तत्र सकृद्दीर्घस्थि-ने कषायस तावसकृजघन्यस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामसङ्ख्येयाः, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, एवं नैरयिकस्य नागकु-|
मु.सू.३३४ मारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत् स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह-"एवं जावे'त्यादि, पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यो नरकादुदृत्तो न पृथिवीकायभवं गमी तस्य न सन्ति, योऽपि गन्ता तस्यापि जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, ते चैवं-तिर्यपञ्चेन्द्रियभवान्मनुष्यभवाद्देवभवाद्वा कषायसमुद्घातसमुद्धतः सन् य एकवारं पृथिवीकायिकेषु गन्ता तस्य एको द्वौ वारौ गन्तुद्वौं त्रीन् वारान् त्रयः सङ्ख्येयान् वारान् सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्यया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, तथा चाह-'पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए नेय'ति तथा 'एवं ताव मणूसत्ते'।
॥५७०॥ इति एवं पृथिवीकायिकगतेनाभिलापप्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावन्मनुष्यत्वे, तच्चैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स आउकाइयत्ते केवइया कसायसमुग्घाया अईया?, गोयमा! अणंता, केवइया पुरेक्खडा, गो ! कस्सइ
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Pos209999990SAPos
अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सखेजा वा असखेजा वा अणंता वा' एवं यावन्मनुष्यसूत्रं, तत्राप्कायादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत्, द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वेति सकृत् जघन्यस्थितिकं द्वीन्द्रियभवं प्रामुकामस्य, सङ्ख्येयान् वारान् प्राप्तुकामस्य सङ्ख्यया असङ्ख्येयानसङ्येया अनन्तान् अनन्ताः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तियकपञ्चेन्द्रियमनुष्यसूत्रविषया त्वेवं भावना-सकृत्पञ्चेन्द्रियभवं प्राप्नुकामस्य खभावत एवाल्पकषायस्य जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा शेषस्य सङ्ख्येयान् वारान् तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य सङ्ख्येया असङ्ख्ययान् वारान् असङ्ख्यया अनन्तान् वारान् अनन्ताः, मनुष्यसूत्रे तु पुरस्कृतविषया भावनैवं-यो नरकभवादुत्तोऽल्पकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्घातमप्रास एव सिद्धिपुरं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य सन्ति, तस्यापि एकं द्वौ त्रीन् वारान् कषायसमुद्घातान् प्राप्य सेत्स्यत एको द्वौ त्रयो वा सङ्ख्येयान् भवान् यदिवा एकस्मिन्नपि भवे सङ्ख्येयान् कषाय| समुद्घातान् गन्तुः सङ्ख्यया असङ्ख्येयान् भवान् प्राप्तुकामस्थासङ्ख्येयाः अनन्तान् अनन्ताः, 'वाणमंतरत्ते जहा असुर| कुमारत्ते' प्रागुक्तं, किमुक्तं भवति? -पुरस्कृतचिन्तायां एवं वक्तव्यं-'जस्सत्थि सिय सखेजा सिय असोज्जा सिय अणंता वा' इति न त्वेकोतरिका वक्तव्याः, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघ यस्थितावपि सङ्ख्येयानां कषायसमुद्घातानां लभ्यमानत्वात् , असङ्ख्येयानन्तभावनाप्यसुरकुमारवत्, 'जोइसियत्' इत्यादि, ज्योतिष्क
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प्रज्ञापना- त्वेऽतीता अनन्ता वक्तव्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतदपि प्राग्वदू भावनीयं, यस्यापि ३६ समुया: मलसन्ति तस्यापि कस्यचिदसङ्ख्ययाः कस्यचिदनन्ताः, न तु स्यात् सङ्ख्येया इति वक्तव्यं, कुत इति चेत् ?, उच्यते,
द्घातपदे यवृत्ती. ज्योतिष्काणां जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्येयकालायुष्कतया जघन्यतोऽपि असङ्ख्येयानां कषायसमुद्घातानां लभ्यमानत्वात्,
स्वपरस्थाअनन्तशस्तत्र जिगमिषूणामनन्ता, एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां स्यादसङ्ख्येयाः स्यादनन्ता इति वक्तव्यं, ॥५७१॥
ने कषायस भावना प्राग्वत् । तदेवं नैरयिकस्य स्वस्थाने परस्थाने च कषायसमुद्घाताश्चिन्तिताः, सम्प्रत्यसुरकुमारेसु तान्
मु.सू.१३४ चिचिन्तयिषुराह-एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाता अतीताअनन्ताः, भाविनः कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुवृत्तो नरकं न यास्यति तस्य न सन्ति, यस्तु यास्यति तस्य सन्ति, तस्यापि जघन्यतः सङ्ख्येयाः, जघन्यस्थितावपि सङ्ख्येयानां कषायसमुद्घातानां नरकेषु भावात्, उत्कर्षतोऽसद्धयेया अनन्ता वा, तत्र जघन्यस्थितिष्वसकृद्दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा जिगमिषोरसबैया अनन्तशो जिगमिषोरनन्ताः, असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः, 'पुरेक्खडा एगुत्तरिया' इत्यादि, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवे पर्यन्तवर्ती न च कषायसमुद्घातं याता नापि तत्र प्रभ्रष्टो ॥५७१॥
भूयोऽसुरकुमारभवं लब्धा किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य सन्ति, शेषस्य तु न सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि । IS जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्यया असङ्ख्यया अनन्तावा, तत्र एकादयः क्षीणायुःशेषाणां तद्भव
सरिटरटseesesecार
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प्र. ९६
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भाजां भूयस्तत्रैवानुत्पत्स्यमानानामवगन्तव्याः सङ्ख्येयादयो नैरयिकत्वे इव भावनीयाः, 'एव' मित्यादि, एवं - उक्तेन प्रकारेण नागकुमारत्वे तत ऊर्द्ध चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं यावद्वैमानिकत्वे – वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, यथा नैरयिकस्य भणितं तथैव भणितव्यं किमुक्तं भवति १ - नागकुमारत्वादिषु स्तनितकुमार पर्यवसानेषु पुरस्कृतचिन्तायां 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अनंता' पृथिवीकायिकत्वादिषु मनुष्यत्वपर्यवसानेषु 'जस्स अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा' व्यन्तरत्वे 'जस्स अस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेजा सिय अनंता' ज्योतिष्कत्वे 'जस्स अस्थि सिय असंखेज्जा सिय अनंता' वैमानिकत्वेऽप्येवमेवेति वक्तव्यमिति, एवं जावे' त्यादि, एवं - उक्तेन प्रकारेण असुरकुमारवन्नागकुमारस्य यावत् स्तनितकुमारस्य प्रत्येकं यावद वैमानिकत्वे – वैमानिकत्वविषयं सूत्रं तावद्वक्तव्यं, अत्रैव विशेषमाह - नवरं सर्वेषां नागकुमारादीनां स्तनितकुमार पर्यवसानानां स्वस्थाने नियमतः पुरस्कृता एकोत्तरिकाः परस्थाने यथैवासुरकुमारस्य तथैव वक्तव्याः, 'पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते' इत्यादि, पृथिवीकायिकस्य नैरयिकत्वे यावत् स्तनितकुमारत्वे अतीता अनन्ताः, अत्र भावना प्रागिव, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति तत्र यः पृथिवी - कायभवाद्वृत्तो नरकेष्वसुरकुमारेषु यावत् स्तनितकुमारेषु न गमिष्यति किन्तु मनुष्यभवं प्राप्य सिद्धिं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः सङ्ख्येयाः, जघन्यस्थितावपि नरकादिषु सङ्ख्येयानां
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती
॥५७२॥
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कषायसमुद्घातानां भावात् , उत्कर्षतोऽसङ्ख्यया अनन्ता वा, ते च प्राग्वद् भावयितव्याः, पृथिवीकायिकत्वे याव- ३६ समु. मनुष्यत्वेऽतीतास्ते तथैव, भाविन एकोत्तरिकया वक्तव्याः, ते चैवम् –'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि 8 घातपदे जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा' ते च नैरयिकस्य पृथिवीका- स्वपरस्थायिकत्व इव भावनीयाः, 'वाणमंतरत्ते जहा नेरइयत्ते' इति व्यन्तरत्वे यथा नैरयिकत्वे तथा वक्तव्यं, किमुक्तं भव-शन कषायस ति?–एकोतरिका न वक्तव्याः, किन्तु 'सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता' इति वक्तव्यं, 'जोइसिय'
सू. ३३४ इत्यादि. ज्योतिष्कत्वे वैमानिकत्वे चातीतास्तथैव, पुरस्कृता यदि सन्ति ततो जघन्यपदे असङ्ख्येयाः उत्कृष्टपदे अनन्ता एवमप्कायिकस्य यावन्मनुष्यत्वे नेतव्यं, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां यथा असुरकुमारस्य, नवरं पुरस्कृ-1 तचिन्तायां सर्व स्वस्थाने एकोत्तरिकया वक्तव्यं, परस्थाने यथा असुरकुमारस्य सूत्रं, सूत्रपर्यन्तं दर्शयति-'जाव
वेमाणियस्स वेमाणियत्ते' इति यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, एवमेते कषायसमुद्घातगK ताश्चतुर्विंशतिः-चतुर्विंशतिसङ्ख्याश्चतुर्विंशतिदण्डकाः भणितव्याः २४ । तदेवमुक्तश्चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डक-M सूत्रः कषायसमुद्घातः, सम्प्रति चतुर्विंशत्यैव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैारणान्तिकसमुद्घातमाह
॥५७२॥ मारणंतियसमुग्धातो सहाणेवि परहाणेवि एगुत्तरियाए नेयवो जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवमेते चउवीसं चउवीसदंडगा भाणियवा वेउब्वियसमुग्धातो जहा कसायस० तहा निरवसेसो भाणितबो, नवरं जस्स नत्थि तस्स
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न वुच्चति, एत्थवि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियहा । तेयगसमु० जहा मारणंतियस०, णवरं जस्सत्थि, एवं एतेवि चउव्वीसं चउव्वीसा दंडगा भाणितवा । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया आहारसमुग्धाया अतीता?, गो! णत्थि, केवइया पु०, गो०! णत्थि, एवं जाव वेमाणिय त्ते, नवरं मणूसत्ते अतीता कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जह० एको वा दो वा उ० तिनि, केवइया पु०१, गो० ! कस्सति अस्थि क० नत्थि, जस्सत्थि जह. एक्को वा दो वा तिण्णि वा उ० चत्तारि, एवं सवजीवाणं मणुस्साणं भाणियवं, मणूसस्स मणूसत्ते अतीता कस्सतिअस्थि कस्सति नत्थि, जस्सत्थि जह० एक्को वा दो वा तिण्णि वा उ० चत्तारि, एवं पुरेक्खडावि, एवमेते चउवीसं . चउवीसा दंडगा जाव वेमाणिवत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते के. केवलिसमुग्धाया अतीता १, गो.! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गो० ! नत्थि, एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीता नत्थि, पुरेक्खडा क० अस्थि क० नत्थि, जस्सत्थि इक्को, मणूसस्स मणूसत्ते अतीता कस्स ति अत्थि क० नत्थि, जस्सत्थि एक्को, एवं पुरेक्खडावि, एवमेते चउबीसं चउच्चीसा दंडगा (सूत्रं ३३५)
'मारणंतिए'त्ति मारणान्तिकसमुद्रातः पुरस्कृतचिन्तायां स्वस्थाने परस्थाने या एकोतरिकया नेतव्यो यावद्वैमानिक वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तचैवम्-एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरयत्ते केवइया मार-1 णतियसमुग्घाया अतीता ?, गोयमा ! अर्णता, केवइया पुरेक्खडा १, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नथि,
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ.
॥५७३ ॥
जस्सत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अनंता वा' तत्र यो मारणान्तिकसमुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुद्वृत्तः अनन्तरं पारम्पर्येण वा मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति न भूयो नरकगामी तस्य न सन्ति पुरस्कृता मारणान्तिकसमुद्घाताः, यः पुनस्तद्भवे वर्त्तमानो मारणान्तिकसमुद्घातेन कालं कृत्वा | नरकादुद्वृत्तः सेत्स्यति तस्यैकः पुरस्कृतो मारणान्तिकसमुद्घातो यः पुनर्भूयोऽपि नरकमागत्य सर्वसङ्ख्यया द्वौ मारणान्तिकसमुद्घातौ गन्ता तस्य द्वौ, एवं त्रिप्रभृतयोऽपि भावनीयाः, सङ्ख्येयान् वारान् नरकमागन्तुः सङ्ख्येयाः असयेयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवमसुरकुमारत्वे आलापको वाच्यः, नवरमत्रैवं भावनायो नरकादुवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति यदिवा तस्मिन् भवे मारणान्तिकसमुद्घात मगत्वा मृत्युमासाद्य ततोऽन्यभवे सिद्धिं गन्ता तस्यैव न सन्ति, शेषस्य त्वेकादिभावना प्रागिव, व्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेषु यथा नैरयिकस्य, (यथा नैरयिकस्य ) | नैरयिकादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु चिन्ता कृता तथाऽसुरकुमारादीनां वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण कर्त्तव्या, तदेवमन्यान्यपि चतुर्विंशतिर्दण्डकसूत्राणि भवन्ति, तथा चाह - ' एवं एए चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियद्या' इति, उक्तो मारणान्तिकसमुद्घातश्चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैः, साम्प्रतमेतावत्सङ्ख्या कैरेव सूत्रैर्वैक्रियसमुद्घातं विवक्षुराह - 'वेउचिए' इत्यादि, वैक्रियसमुद्घातो यथा कषायसमुद्घातः प्राक् प्रतिपादितः तथा निरविशेषो भणितव्यः, केवलं यस्य वैक्रियसमुद्घातो नास्ति वैक्रिय लब्धेरेवासम्भवात् तस्य नोच्यते, शेषस्य उच्यते, स
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३६ समुद्यातपदे
नारकादेनरिकत्वा
दौ मारणान्तिकाद्याः
सू. ३३५
॥५७३ ॥
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चैवं - ' एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेउधियसमुग्धाया अतीता १, गो ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहणणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं सिय संखेज्जा वा सिय असंखेजा वा सिय अनंता वा । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया वेउचियसमुग्धाया अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! कस्सह अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय संखिजा सिय असंखिजा सिय अनंता वा, एवं नेरइयस्स जाव थणियकुमारते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवइया वेउचियसमुग्धाया अतीता १, गो० ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! नत्थि, एवं जाव तेउकाइयत्ते, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स वाउकाइयत्ते केवइया वेउच्चियसमुग्धाया अतीता ?, गो० ! अनंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिष्णि वा उक्को० संखेज्जा वा असं० अनंता वा, वणस्सइकाइयत्ते जाव चउरिंदियत्ते जहा पुढविकाइयत्ते, तिरिक्खपंचिंदियत्ते मणुसत्ते जहा वाउकाइयत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्तेसु जहा असुरकुमारत्ते' इह यत्र वैक्रियसमुदूधातसम्भवस्तत्र भावना कषायसमुद्घातवद् भावनीया, अन्यत्र तु प्रतिषेधः सुप्रतीतो, वैक्रियलब्धिरेवासम्भवात्, यथा च नैरयिकस्य चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण सूत्रमुपदर्शितमेव मसुरकुमारादीनामपि चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण प्रत्येकं सूत्रमवगन्तव्यं, नवरमसुरकुमारादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु व्यन्तरादिषु च परस्परं खस्थाने एकोत्तरिका पर
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प्रज्ञापना
या मल
य० वृत्तौ .
॥५७४ ॥
स्थाने सङ्ख्येयादयो वक्तव्याः, वायुकायिकतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु तु परस्परं स्वस्थाने परस्थाने वा एकोत्तरिकाः, शेषं तथैव, एवमेतान्यपि चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, तथा चाह - 'एवमेते चउवीसं चउवीसगा | दंडगा भाणितचा' एवं - उपदर्शितेन प्रकारेण अत्रापि — वैक्रियसमुद्घातविषयेऽपि चतुर्विंशतिः - चतुर्विंशतिसङ्ख्याः 'चउवीसा' इति चतुर्विंशतिः - चतुर्विंशतिस्थानपरिमाणा दंडका - दण्डकसूत्राणि भणितव्याः । सम्प्रति तैजससमुद्घातमतिदेशत आह- 'तेयगेत्यादि, तैजससमुद्घातो यथा मारणान्तिकसमुद्घातस्तथा वक्तव्यः, किमुक्तं भवति : - स्वस्थाने परस्थाने च एकोत्तरिकया स वक्तव्य इति, नवरं यस्य नास्ति न सम्भवति तैजससमुद्घातस्तस्य न वक्तव्यः, तत्र नैरयिकपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु न सम्भवतीति न वक्तव्यः, शेषेषु तु वक्तव्यः, स चैवम्' एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया तेउसमुग्धाया अतीता ?, गो० 1 नत्थि, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! नत्थि, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया तेयगसमुग्धाया अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अनंता वा' इत्यादि सूत्रोक्तं विशेषमुपजीव्य स्वयं परिभावनीयं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्या- माह - 'एव' मित्यादि, एवं - मारणान्तिकसमुद्घातगतेन क्वचित् सर्वथा निषेधरूपेण च प्रकारेण एतेऽपि - तैजससमुद्घातगता अपि चतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिका - दण्डका भणितव्याः । सम्प्रत्याहारकसमुद्घातं चिन्तयन्नाह - ' एगमे -
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३६ समु
द्घातपदे नारकादेनारकत्वा
दौ मारणा
न्तिकाद्याः
सू. ३३५
॥५७४॥
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200999999999999
गस्स णमित्यादि, इह सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्तायामतीता जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतस्त्रयश्च, पुरस्कृता जघन्यत एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, शेषेषु स्थानेषु अतीताः पुरस्कृताश्च प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च जघन्यत एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, अत्रार्थे च कारणं प्रागेवोक्तं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्यामाह-एव'मित्यादि, एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिसङ्ख्याकाः दण्डका वक्तव्याः, कियहरं यावदित्याह-यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तच्चैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! वेमाणियस्स बेमाणियत्ते केवइया आहारगसमुग्घाया अतीता ?, गो० ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा, गो० नत्थि' इति । अधुना केवलिसमुद्रातमभिधित्सुराह-एगमेगस्स णं भंते' इत्यादि, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थः-सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्ताव्यतिरेकेणातीताः पुरस्कृताश्च प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यवर्जेषु मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः प्रतिषेद्धव्याः, पुरस्कृतस्तु कस्याप्यस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एवेति वक्तव्यः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीतः कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एव, एतच्च प्रश्नसमये केवलिसमुद्घातादुत्तीर्ण केवलिनमधिकृत्य, पुरस्कृतोऽपि कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक इति वक्तव्यं, अत्रापि सूत्रसङ्ख्यामाह-'एव'मित्यादि एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते केवलिसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विशतिसङ्ख्याका दण्डका भवन्ति, तदेवं सर्वसङ्ख्यया एकत्वविषयाणां चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणाम
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प्रज्ञापनायाः मलया वृत्ती.
॥५७५||
ष्टषष्ट्यधिकं शतं जातं, एतावत्सङ्ख्याकान्येव बहुत्वविषयाण्यपि सूत्राणि भवन्ति, तान्युपदिदर्शयिषुराह
नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते० के० वेदणास० अतीता ?, गो० ! अणंता, के० पुरे० १, गो० ! अगंता, एवं जाव वेमाणियत्ते, एवं सवजीवाणं भाणितई जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते, एवं जाव तेयगस०, णवरं उवउजिऊण नेयवं जस्सत्थि वेउविय- | तेयगा । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिता आहारगस० अतीता ?, गो० ! नत्थि, केवतिता पु०१, गो० ! णत्थि एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीता असं० पुरेक्खडा असंखेजा एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा अणंता, मणूसाणं मणूसत्ते अतीता सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडावि, सेसा सो जहा नेरइया, एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केव० केवलिसमुग्घाया अतीता?, गो० ! नत्थि, के० पु. १, गो! नत्थि, एवं जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीता णत्थि, पुरे० असंखेजा, एवं जाव वेमाणिया, नवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीता नत्थि, पु० अर्णता, मणूसाणं मणूसत्ते अतीता सिय अत्थि सिय णत्थि, जइ अस्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० सतपुहुत्तं, केवइया पुरे०१, गो०! सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं एते चउबीसं चउबीसा दंडगा सत्वे पुच्छाए भाणितवा जाव वेमाणियाणं वेमाणियचे (सूत्रं ३३६) 'नेरइयाण'मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां सर्वेषां भदन्त ! पूर्व सकलमतीतं कालमवधीकृत्य
३६ समु
द्घातपदं | नारकादीनां नारकत्वादौ समुद्घाताः सू. ३३६
५७५॥
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यथासम्भवं नैरयिकत्वे वृत्तानां सतां समुदायेन सर्वसङ्ख्यया कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः ?, भगवानाहगौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तकालमसंव्यवहारराशेरुद्धृत्तत्वात् , कियन्तः पुरस्कृताः , एतच सूत्रं सूचामात्र, परिपूर्णस्तु पाठ एवं-'नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा ?' इति भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तशो भूयोऽपि नरकेष्वागमनसम्भवात् , 'एवं'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेणासुरकुमारत्वादिषु स्थानेषु क्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तचेदं-'नेरइयाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो.! अणंता' इति, अत्र अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, सर्वसांव्यवहारिकजीवैः प्रायोऽनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतास्त्वनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां नैरयिकाणां मध्ये बहुभिरनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्स्यमानत्वात् , एवमपान्तरालवर्तिष्वपि असुरकुमारत्वादिषु स्थानेषु भावना भावनीया, यथा च नैरयिकाणां नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेणातीताः पुरस्कृताश्च वेदनासमुद्घाता भणिता एवं सर्वजीवानामसुरकुमारादीनां भणितव्याः, कियडूरं यावदित्याह-यावद्वैमानिकानां वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयाः. ते चैवं-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता ?, गो! अणंता. केवइया परे०१, गो! अणंता' इति, एवं कषायमरणवैक्रियतैजससमुद्घाता अपि नैरयिकादीनां वैमानिकपर्यवसानानां सर्वेषु नैरयिकत्वादिषु स्थानेषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तथा चाह
B9802000988800008
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्तौ.
॥५७६ ॥
Jain Education I
' एवं जावे' त्यादि, एवं - वेदनासमुद्घातगतेन प्रकारेण कषायादिसमुद्घाता अपि तावद्वक्तव्याः यावत्तैजससमुद्धतिः, किमविशेषेण वक्तव्याः १, नेत्याह - 'नवर 'मित्यादि, नवरमुपयुज्य - उपयोगं कृत्वा सर्वं सूत्रं बुद्ध्या नेतव्यं, किमुक्तं भवति ? – ये यत्र समुद्घाता घटन्ते ते तत्रातीताः पुरस्कृताश्चानन्ता वक्तव्याः, शेषेषु च स्थानेषु प्रतिषेद्धव्याः एतदेव वैविक्त्येनाह - 'जस्स अत्थी' त्यादि, यस्य जीवराशेनैरयिकादेरसुरकुमारादेश्च सन्ति वैक्रियतैजससमुद्घातास्ते तस्य वक्तव्याः, शेषेषु पृथिव्यादिषु स्थानेषु प्रतिषेद्धव्या इति सामर्थ्य लभ्यं, कषायमारणान्तिकसमुद्घाताः पुनः सर्वत्रापि वेदनासमुद्घातवदविशेषेणातीताः पुरस्कृताश्चानन्ता वक्तव्याः, न तु क्वापि निषेद्धव्याः । सम्प्रति आहारसमुदूधातविषयं सूत्रमाह - 'नेरइयाण' मित्यादि, आहारकसमुद्घातो ह्याहारकलब्धौ सत्यामाहा रकशरीरप्रारम्भकाले भवति, नान्यथा, आहारकलब्धिश्चोपजायते चतुईशपूर्वाधिगमे, तेषां चतुर्द्दशानां पूर्वाणामधिगमो मनुष्यत्वावस्थाय न शेषायामवस्थायामिति मनुष्यत्ववर्जासु शेषास्ववस्थास्खतीतानां पुरस्कृतानां चाहारकसमुद्घा तानां प्रतिषेधः, मनुष्यत्वावस्थायामपि पूर्वमतीता असङ्ख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहूनामसोयानां नारकाणां पूर्व तदा २ मनुष्यत्वमवाप्य अधिगतचतुर्द्दशपूर्वाणां प्रत्येकं सकृद् द्विः त्रिर्वा कृताहारकसमुद्घातत्वात्, पुरस्कृता अपि असङ्ख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहुभिरसङ्ख्ये यैर्नारिकैर्नर कादुद्वृत्त्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा तदा तदा मनुष्यत्वावासौ चतुर्द्दश पूर्वाण्यधीत्य प्रत्येकमाहारकसमुद्घातानामेकशो द्विः त्रिश्चतुर्वा करिष्यमाणत्वात्, 'एवं जाव
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३६ समुदूधातपदं
२ नारकादीनां नारकत्वादौ स
मुद्घाताः
सु. ३३६
॥५७६॥
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वेमाणियाण'मिति नैरयिकाणां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्ता कृता एवमसुरकुमार(दीनामपि प्रत्येक चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकानां, केवलं यत्रास्ति विशेषस्तं दर्शयति-'नवर'मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां ||५|| मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च प्रत्येकमनन्ता वक्तव्याः, अनन्तानां पूर्वमधिगतचतुर्दशपूर्वाणां यथायोगमेकशो द्विःत्रिर्वा कृताहारकसमुद्घातानांवनस्पतिष्ववस्थानात् अनन्तरमेव वनस्पतिकायादुद्धृत्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा मानुपत्वमवाप्य यथायोगमेकशोद्विःत्रिश्चतुर्वाऽऽहारकसमुद्घातानां निर्वयिष्यमाणत्वात्, मनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थायामतीताः पुरस्कृताश्च स्यात्सङ्ख्ययाः स्यादसङ्ख्येयाः,कथमिति चेत् ,उच्यते,ते हि प्रश्नसमयभाविनः उत्कर्षपदेऽपि सर्वस्तोकाः, श्रेण्यसङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , ततो विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कदाचिदसङ्ख्येयाः-यथायोगं प्रत्येकमेकशो द्विः त्रिश्चतुवा कृतकरिष्यमाणाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते, उपसंहारमाह-एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्घातविषयाश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिसङ्ख्याका दण्डका वक्तव्याः, सम्प्रति केवलिसमुद्घातं चिन्तयति-'नेरइयाण'मित्यादि, केवलिसमुद्घातोऽपि मनुष्यत्वावस्थायां भवति, न शेषाखवस्थासु, न च कृतकेवलिसमुद्घातः संसारं पर्यटति, केवलिसमुद्घातानन्तरमन्तर्मुहूर्तेनावश्यं निःश्रेयसपदाधिगमात् , ततो नारकाणां मनुष्यत्ववासु शेषाखवस्थाखतीताः पुरस्कृताश्च केवलिसमुद्घाताः प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यत्वावस्थायामप्यतीताः प्रतिषे. द्धव्याः, कृतकेवलिसमुद्घातानां नरके गमनाभावात्, भाविनश्च भविष्यन्ति, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहूनामसङ्खये
कारण एते आहारक
केवलिसमुद्घाता
तावश्यं निःश्रेयसपद
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प्रज्ञापना- या: मलय. वृत्ती.
॥५७७॥
ताः सू.
eeeeeeeeeeeeee
यानां नारकाणां मुक्तिपदगमनयोग्यत्वात् , ततः पुरस्कृता असङ्ख्येया इत्युक्तं, 'एव'मित्यादि, यथा नैरयिकाणां ३६ समु. केवलिसमुद्घातचिन्ता कृता एवमसुरकुमारादीनामपि कर्त्तव्या, सा च तावत् यावत् वैमानिकानां, अत्रैव विशे- द्घातपदं षमाह-'नवर'मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः प्रतिषेद्धव्याः, कृतकेवलिसमु
नारकाघातानां संसाराभावात्, पुरस्कृतास्त्वनन्ता वाच्याः, प्रश्नसमयभाविनां वनस्पतिकायिकानां मध्ये बहूनामन-18
दीनां नान्तानां वनस्पतिकायिकानां वनस्पतिकायादुद्धृत्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा कृतकेवलिसमुद्घातानां सेत्स्यमानत्वात् ,
रकत्वादौ
समुद्घामनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, कृतकेवलिसमुद्घातानां सिद्धत्वभावादन्येषां चाद्यापि केवलिसमुद्घाताप्रतिपत्तेः, यदापि सन्ति तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः शत-18| ३३६ थक्त्वं, पुरस्कृताः स्यात्सङ्ख्येयाः स्यादसङ्ख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां मनुष्याणां मध्ये कदाचित्सङ्ख्येयानां कदाचिद-12 सङ्ख्येयानां यथायोगमानन्तर्येण पारम्पर्येण कृतकेवलिसमुद्घातानां सेत्स्यमानत्वात् , सूत्रसर्वसङ्ख्यामाह-एवमुक्तेन | प्रकारेण एते केवलिसमुद्घातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विशतिदण्डकाः ते च सर्वेऽपि पृच्छायां-पृच्छापुरस्सरं भणितव्याः कियहूरं यावदित्याह-वैमानिकानां वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तच्चेदं-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया केव
॥५७७॥ लिसमुग्घाया अतीता ?, गो! नत्थि, के. पु०१, गो० ! नत्थि' इति ॥ बदेवमुक्ता नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेष्वेकत्वविशिष्टेषु बहुत्वविशिष्टेषु च भूतभाविवेदनादिसमुद्घातसम्भवासम्भवपुरस्सरं सङ्ख्याप्रमाणप्ररूपणा, सम्प्र
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ति तेन तेन समुद्घातेन यावत् केवलिसमुद्घातेन समुद्घतानामसमुद्घतानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह
एतेसि णं भंते ! जीवाणं वेदणासमुग्धातेणं कसायस० मारणंतिय० वेउवियस० तेयस. आहारगस० केवलिस० समोहयाणं असमोहयाण य कयरेशहितो अ० ब० तु० वि० १, गो०! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसमुग्धाएणं समोहया केवलिसमुग्घाएणं संमोहता संखे० तेयगसमुग्धाएणं समोहया असं० वेउव्वियसमुग्धाएणं समो० असं० मारणंतियसमु० समो० अणंतगुणा कसायस० स० असं० वेदणास विसेसाहिया असंमोहया असंखिजगुणा (सूत्रं ३३७) एतेसिणं भंते ! नेरइयाणं वेदणासमुग्धाएणं कसायस. मारणंतियस० वेउवियस० समोहयाणं असमोहयाण य कतरेशहितो अप्पा वा ४, गो० ! सवत्थोवा नेरइया मारणंतियसमुग्यातेणं समोहया वेउब्वियसमुग्धातेणं समोहया असं० कसायसमुग्याएणं समोहता संखे० वेदणासमुग्धा० समो० संखे० असमोहया० संखे। एतेसि णं भंते ! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्धातेणं कसायस० मारणंतियस० वेउवियस० तेयगस० समोहताणं असमोहताण य कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गो! सवत्थोवा असुरकुमारा तेयगसमुग्धाएणं समोहया मारणंतियस० स० असं० वेदणास० स० असं० कसायसमु० स० सं० वेउब्वियसमु० स० संखे० असमोहया असंखेजगुणा एवं जाव थणियकुमारा । एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं वेदणास० ३१, गो० ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया कसायसमुग्धाएणं समोहया सं० वेदणासमु० स० विसेसाहिया असमोहया असं०, एवं जाव वणस्सइकाइया, णवरं सबत्थोवा वाउक्काइया वेउब्वियसमुग्धा. एणं समोहया मारणंतियसमु० समो० असंखेजगुणा कसायसमुग्धा० स०सं० वेदणास० स० विसेसाहिया असमो
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
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३६ समुद्घातपदं समुद्धातानामल्पब| हुत्वं सू. |३३७-३३८
॥५७८॥
हया असंखेज्जगुणा । बेइंदियाणं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं कसायस० मारणंतियस० समोहयाणं असमोहयाण य कतरे२ हितो अप्पा वा ४१, गो० ! सत्वत्थोवा बेईदिया मारणंतियसमुग्याएणं समोहया वेदणासमुग्धातेणं समोहया असंखे० कसायस. समो० असंखे० असमोहया संखे०, एवं जाव चउरिंदिया । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! वेदणास. समो० कसायसमुग्घातेणं मारणंतियस० वेउब्वियस० तेयासमु० समोहयाणं असंमोहयाण य कतरेरहिंतो अप्पा वा ४ १, गो! सवत्थोवा पंचिंदियतिरि० तेयासमु० समोहया वेउ० समु० समो० असं० मारणंतियस० समो० असं० वेदणास० समो० असं० कसायस० समो० संखे० असमवहता संखे० । मणुस्साणं भंते ! वेदणासमुग्धातेणं समोहयाणं कसायसमु० मारणंतियस० वेउवियस० तेयगस० आहारगसमुग्धाएणं केवलिस० समोहयाणं असमोहयाण य कयरे २हिंतो अप्पा वा ४१, गो०! सवत्थोवा मणुस्सा आहारगस० समोहया केवलिस० स० संखे० तेयगस० समो० संखे० वेउवियस० समो० संखे० मारणंतियस० समो० असं० वेदणास० स० असं० कसायस० स० संखे० असमोहया असं०।. वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं (सूत्रं ३३८)
'एएसि ण'मित्यादि, एतेषां-यथायोगं प्राक् समवहतासमवहतत्वेन निरूपितानां भदन्त ! सामान्यतो जीवानां वेदनासमुद्घातेन यावत् केवलिसमुद्घातेन समवहतानामसमवहतानां च मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पाः कतरे कतरेभ्यो बहुका:-सक्येयासक्वेयादिगुणतया प्रभूताः कतरे कतरेस्तुल्याः-समसङ्ख्याकाः, अत्रार्थे सूत्रे विभक्तिपरिणामः खयं योजनीयः, कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिका:-मनागधिकाः,वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, भगवानाह-गौतम!
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॥५७८॥
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सर्वस्तोका जीवा आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः, आहारकशरीरिणो हि कदाचिदिह लोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि, यदापि भवन्ति तदापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, केवलमाहाकसमुद्घात | आहारकशरीरप्रारम्भकाले न शेषकालं ततः स्तोका एव युगपदाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते इति सर्वस्तोका आहारकसमुद्घोतन समुद्धताः,तेभ्यः केवलिसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, तेषामेककालं शतपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् , यद्यप्याहारकशरीरिणः सत्तया समकालं एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वमानाः प्राप्यन्ते तथाप्या(पि स्तोकानामा)हारकसमुद्घातसम्भवात् एककालमतिस्तोकाः प्राप्यन्ते इति न तेभ्यः केवलिसमुद्घातसमुद्धतानां सङ्खये। यगुणत्वविरोधः, केवलिसमुद्घातसमुद्धतेभ्यः तैजससमुद्घातेन समवहताः असङ्ख्येयगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां देवानामपि च तैजससमुद्घातंसम्भवात् , तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, नारकवातकायिकानामपि वैक्रियसमुद्घातसम्भवात् , वातकायिकाश्च वैक्रियलब्धिमन्तो न स्तोकाः, किन्तु देवेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः, कथमेतदिति चेत्, उच्यते, इह बादरपर्याप्तवायुकायिकाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, महादण्डके तथा पठितत्वात् , स्थलचरपञ्चेन्द्रियाश्च देवेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः, ततो यद्यपि बादरपर्याप्तवायुकायिकानां सङ्ख्येयभागमात्रस्य वैक्रियलब्धिसम्भवो, यत उक्तम्-"तिण्हं ताव रासीणं वेउवियलद्धी चेव नत्थि, बायरपजत्ताणंपि संखेजइभागमेत्ताणं"ति, तथापि सङ्ख्येयभागमात्रा वैक्रियलब्धिमन्तो देवेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणा भवन्ति,
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प्रज्ञापनायाः मल- यावृत्ती.
॥५७१॥
ततो नैरयिकाणां वायुकायिकानां च वैक्रियसमुद्घातसम्भवादुपपद्यन्ते तैजससमुद्घातसमुद्धतेभ्यो वैक्रियसमुद्घातेन ।
३६ समुसमुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता अनन्तगुणाः, कथं ?, उच्यते, इह निगोद-R
द्घातपदं जीवानामनन्तानामसङ्ख्येयो भागः सदा विग्रहगतौ वर्तमानः प्राप्यते, ते च प्रायो मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धता
समुद्धाताइति पूर्वेभ्योऽनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातसमुद्धता असङ्ख्येयगुणाः,निगोदजीवानामेवानन्तानां विग्रहग
| नामल्पबत्यापन्नेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्घतानां सदा प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता
हुत्वं सू. विशेषाधिकाः,तेषामेव निगोदजीवानामनन्तानां कषायसमुद्घातसमुद्धतेभ्यो मना विशेषाधिकानां सदा वेदनासमु- ३३७-३३८ द्घातेन समुद्धततयाऽवाप्यमानत्वात् ,तेभ्योऽपि एकेनापि समुद्घातेनासमुद्धता असङ्ख्येयगुणाः,वेदनाकषायमरणसमुद्घातसमुद्धतेभ्यो निगोदजीवानामेवासङ्ख्येयगुणानामसमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् ।सम्प्रत्येतदेवाल्पबहुत्वं जीवविशेषेषु नैरयिकादिषु चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण यथायोगं चिचिन्तयिषुराह-'नेरइयाण'मित्यादि प्रश्नसूत्रं, भगवानाह-सर्वस्तोका नैरयिका मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः, मारणान्तिको हि समुद्घातो मरणकाले भवति, मरणं च शेषजीवन्नारकराश्यपेक्षयाऽतिस्तोकानां, न च सर्वेषां म्रियमाणानामविशेषेण मारणान्तिकसमुद्घातः, किन्तु कतिपयानां, 'समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंतीति वचनात् , अतः सर्वस्तोका मारणान्तिकसमुद्घात
॥५७९॥ समुद्धताः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, सप्तखपि पृथिवीषु प्रत्येकं बहूनां परस्परवेदनो
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दीरणाय निरन्तरमुत्तरवैक्रियसमारम्भसम्भवात् , तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, कृतोत्तरवैक्रियाणामकृतोत्तरवैक्रियाणां च सर्वसङ्ख्ययोत्तरवैक्रियारम्भकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, यथायोगं क्षेत्रजपरमाधार्मिकोदीरितपरस्परोदीरितवेदनाभिः प्रायो बहूनां सदा समुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽप्येकेनापि समुद्घातेनासमवहताः सङ्ख्येयगुणाः, वेदनासमुद्घातमन्तरेणाप्यतिबहूनां सामान्यतो वेदनामनुभवतां सम्भवात् । सम्प्रत्यसुरकुमाराणामल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादिप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोकाः असुरकुमारास्तैजससमुद्घातेन समुद्धताः, तैजसो हि समुद्घातो महति कोपावेशे क्वचित कदाचित्केपाश्चिद्भवति, ततस्तेन समुद्घातेन समुद्धताः
सर्वस्तोकाः, तेभ्यो मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यो वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्ये&यगुणाः, परस्परं युद्धादौ बहूनां वेदनासमुद्घातेन समुद्घतानां प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातेन समु-18
द्धताः सङ्ख्येयगुणाः, येन तेन वा कारणेन बहूनां कषायसमुद्घातगमनसम्भवात् , तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातन | समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, परिचारणाद्यनेकनिमित्तमतिबहुनामुत्तरवैक्रियकरणारम्भसम्भवात्, तेभ्योऽप्यसमवहता असङ्ख्येयगुणाः, बहूनामुत्तमजातीनां सुखसागरावगाढानां प्राक्तेभ्योऽसयेयगुणानां केनापि समुद्घातेनासमवह|तानां सदा लभ्यमानत्वात् , 'एव'मित्यादि, यथा असुरकुमाराणामल्पबहुत्वमुक्तमेवं सर्वेषां भवनपतीनां द्रष्टव्यं
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प्रज्ञापना
या मलयवृत्ती.
३६ समुद्घातपदं समुद्धातानामल्पब| हुत्वं सू. ३३७-३३८
॥५८०॥
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यावत स्तनितकुमाराणामिति । सम्प्रति पृथिवीकायिकगतमल्पबहुत्वमाह-'एएसि ण'मित्यादि, अत्र कषायसमुदघातसमुद्धतानां वेदनासमुद्घातसमुद्धतानां च सङ्ख्येयगुणत्वे असमवहतानां चासमवेयगुणत्वे भावना खयं भावनीया, सुगमत्वात् , 'एव'मित्यादि, पृथिवीकायिकगतेन प्रकारेणाल्पबहुत्वं तावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिकायिकाः. | वायुकायिकान् प्रति विशेषमभिधित्सुराह-'नवर'मित्यादि, नवरं वातकायिकानामल्पबहुत्वचिन्तायामेवं वक्तव्यंसर्वस्तोका वातकायिका वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः, बादरपर्याप्तसङ्ख्येयभागस्य वैक्रियलब्धेः सम्भवात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरभेदभिन्नानां सर्वेषामपि वातकायिकानां मरणसमुदघातसम्भवात् , तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता विशेषाधिकाः, तेभ्योऽसमवहता असङ्ख्येयगुणाः, सकलसमुद्घातगतवातकायिकापेक्षया खभावस्थानां वातकायिकानां खभावत एवासङ्ख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् । द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकाः द्वीन्द्रिया मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः, प्रतिनियतानामेव प्रश्नसमये मरणसद्भावात् , तेभ्यो वेदनासमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, शीतातपादिसम्पर्कतोऽतिप्रभूतानां वेदनासमुद्घातभावात् , तेभ्यः कषायसमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, अतिप्रभूततराणां लोभादिकषायसमुद्घातभावात् , तेभ्योऽप्यसमवहताः सङ्ख्येयगुणाः, 'एव'मित्यादि, एवं द्वीन्द्रियगतेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावचतुरिन्द्रियाः। तिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकास्तैजससमुद्घातेन समुद्धताः, कतिपयाना
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॥५८०॥
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६ मेव तेजोलब्धिभावात् , तेभ्यो वेदनासमुद्घातेनासमवहताः असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहताः
असङ्ख्येयगुणाः, प्रभूतानां वैक्रियलब्धर्भावात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता असङ्ख्येयगुणाः, सम्मूछिमजलचरस्थलचरखचराणामपि सर्वेषां वैक्रियलन्धिरहितानां प्रत्येकं पूर्वोक्तेभ्योऽसद्ध्येयगुणानां केषाञ्चित् गर्भजानामपि वैक्रियलब्धिरहितानां वैक्रियलब्धिमतां च मरणसमुद्घातसम्भवात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धताः असङ्ख्येयगुणाः, म्रियमाणजीवराश्यपेक्षया अपि अम्रियमाणानामसङ्ख्येयगुणानां वेदनासमुद्घातभावात्, तेभ्यः कषायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यसमवहताः सङ्ख्येयगुणाः, अत्र भावना प्रागिव । मनुष्यसूत्रे सर्वस्तोका आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः, अतिस्तोकानामेककालमाहारकशरीरप्रारम्भसंभवात् , तेभ्यः केवलिसमुघातेन समुद्धताः सङ्खयेयगुणाः, शतपृथक्त्वसङ्ख्यया प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यस्तैजससमुदघातेन समवहताः सङ्ख्येयगुणाः, शतसहस्रसङ्ख्यया तेषां प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्ययगुणाः, कोटीसङ्ख्यया लभ्यमानत्वात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता असङ्ख्येयगुणाः, सम्मूछिममनुष्याणामपि तद्भावात् , तेषां चासङ्ख्येयत्वात् , तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता असङ्ख्येयगुणाः, म्रियमाणराश्यपेक्षया असङ्ख्येयगुणानाम| म्रियमाणानां तद्भावसम्भवात् , तेभ्यः कषायसमुद्घातेन समुद्धताः सङ्ख्येयगुणाः, प्रभूततया तेषां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽप्यसमवहता असङ्ख्येयगुणाः, सम्मूछिममनुष्याणामल्पकषायाणामुत्कटकपायिभ्योऽसङ्ख्येयगुणानां सदा
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द्घातपदं स्वपरस्थाने कषायस. सू.
प्रज्ञापना
II लभ्यमानत्वात् । व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा असुरकुमारास्तथा वक्तव्याः । तदेवमुक्तं समुद्धतासमुद्धतविया: मल- षयमल्पबहुत्वं, अधुना कषायसमुद्घातगतां विशेषवक्तव्यतामभिधित्सुराहय० वृत्ती.
कति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पण्णत्ता?, गो०! चत्तारि कसायसमुग्घाया पं० तं-कोहसमुग्धाते माणस० मायास. ॥५८॥
लोहस०, नेरइयाणं भंते ! कतिकसायसमुग्धाया पं० १, गो०! चत्तारि कसायसमुग्धाता पं० एवं जाव वेमाणियाणं, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवतिता कोहसमुग्धाता अतीता, गो० ! अणंता, केवतिता पुरे०१, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं जाव वेमाणियस्स, एवं जाव लोभसमुग्धाते एते चत्तारि दंडगा । नेरइयाणं भंते ! केवइया कोहसमु० अतीता ?, गो० ! अणता, के० पु. १, गो० ! अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव लोभसमुग्याए, एवं एएवि चत्तारि दंडगा। एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया कोहस० अतीता?, गो०! अणंता, एवं जहा वेदणासमुग्धातो भणितो तहा कोहसमुग्धातोवि निरवसेसं जाव वेमाणियत्ते, माणसमुग्घाए मायासमुग्धातेवि निरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धाते लोहसमुग्घातो जहा कसायसमुग्घातो नवरं सव्वजीवा असुरादिनेरइएसु मोहकसाएणं एगुत्तरियाते नेतवा । नेरइइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया कोहसमु० अतीता, गो० अणंता, के० पु०१, गो०! अणंता, एवं जाव वेमाणियत्ते, एवं सहाणपरहाणेसु सव्वत्थ भाणियबा, सबजीवाणं चत्तारिवि समुग्घाया जाव लोभसमुग्घातो जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते (सूत्रं ३३९)
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॥५८१॥
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'कइ ण'मित्यादि, इदं सामान्यतः कषायसमुद्घातविषयं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमगतं च सूत्रं सुप्रतीतं, सम्प्रत्येकैकस्य नैरयिकादेश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वैमानिकपर्यवसानस्य तद्वक्तव्यतामाह-'एगमेगस्स णं भंते !' इत्यादि, अत्रातीतसूत्रं सुप्रतीतं, पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि'त्ति यो नरकभवप्रान्ते वर्तमानः खभावत | एवाल्पकषायः कषायसमुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुदृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्घातमगत एव सेत्स्यति तस्य नास्ति पुरस्कृत एकोऽपि कषायसमुद्घातो, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, ते 31 च प्रागुक्तखरूपस्य सकृत्कषायसमुद्घातगामिनो वेदितव्याः, उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया अनन्ता वा, तत्र सङ्ख्येयं । | कालं संसारावस्थायिनः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयं कालमसङ्ख्येयाः अनन्तकालमनन्ताः, एवमसुरकुमारादिक्रमेण तावद् | वाच्यं यावद्वैमानिकस्य, 'एव'मित्यादि, एवं-चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण मानादिकषायसमुद्घातसमुद्धतास्तावद्वक्तव्याः यावल्लोभसमुद्घातः, एवमते चत्वारः चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति, एते चैकैकनैरयिकादिविषया उक्ताः, सम्प्रत्येतानेव चतुश्चतुर्विंशतिदण्डकान् सकलनारकादिविषयानाह-'नेरइयाणमित्यादि, अतीतसूत्रं सुप्रतीतं, पुरस्कृता अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहूनामनन्तकालमवस्थायित्वात् , एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकानां । यथा चैषः क्रोधसमुद्घातश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेणोक्तः एवं मानादिसमुद्घाता अपि तावद् वक्तव्या यावलोभसमुदघातः। एवमेतेऽपि सकलनारकादिविषयाश्चत्वारश्चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति, साम्प्रतमेकैकस्य
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्तौ.
॥५८२ ॥
| नैरयिकादेर्नैरयिकादिषु भावेषु वर्त्तमानस्य कति क्रोधसमुद्घाता अतीताः कति भाविन इति निरूपयितुकाम आह' एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य विवक्षितप्रश्नसमयकालात् पूर्व सकलमतीतं कालमवधी| कृत्य तदा तदाऽस्य नैरयिकत्वं प्राप्तस्य सतः सर्वसङ्ख्यया कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः १, भगवानाह - गौतम ! अनन्ताः, नरकगतेरनन्तशः प्राप्तत्वात्, , एकैकस्मिंश्च नरकभवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां क्रोधसमुद्घातानां भावात्, 'एवं जहे त्यादि, एवमुपदर्शितेन प्रकारेण यथा वेदनासमुद्घातः प्राग् भणितः तथा क्रोधसमुद्घातोऽपि भणितव्यः, कथं भणितव्य इत्याह- निरवशेषं, क्रियाविशेषणमेतत्, सामस्त्येनेत्यर्थः कियद्दूरं यावत् भणितव्यमित्याह - यावद् वैमानिकत्वे, वैमानिकस्य वैमानिकत्व इत्यालापकं यावदित्यर्थः, स चैवं - 'केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवमसुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते,' 'एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्धाया अईया ?, गो० ! अनंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय संखेज्जा सिय असं० सिय अनंता, एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवइया कोहसमुग्धाया अतीता १, गो० ! अणंता, केव० पुरे० ?, गो० ! क० अस्थि क० नत्थि, जस्सत्थि जह० एक्को वा दो वा तिणि वा उक्को० संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा, एवं नागकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा असुरकुमारेसु नेर
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३६ समुदूद्यातपदं ४ स्वपरस्थाने कषाय
रु० सू.
३३९
॥५८२॥
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इया वेमाणियपजवसाणेसु भणिया तहा णागकुमारादिया सहाणपरहाणेसु भणियचा जाब वेमाणियत्ते' इति. अस्यार्थः-कियन्तो भदन्त ! एकैकस्य नारकस्यासंसारमोक्षमनन्तं कालं मर्यादीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः सतः सर्वसङ्ख्यया पुरस्कृताः क्रोधसमुद्घाताः ?, भगवानाह-'कस्सइ अत्थि' इत्यादि,य आसन्नमरणः क्रोधसमुद्रातमनासाद्यात्यन्तिकमरणेन नरकादुद्वृत्तः सेत्स्यति तस्य नास्ति नैरयिकत्वभाविन एकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुद्रातः, शेषस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, एतच्च क्षीणशेषायुषां तद्भवस्थानां भूयो नरकेषु उ(प्वनु)त्पद्यमानानां वेदितव्यं, भूयो नरकेपुत्पत्तौ हि जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयाः प्राप्यन्ते, नैरयिकाणां क्रोधसमुद्घातप्रचुरत्वात् , उत्कर्षतः सङ्ख्येया वा असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, तत्र सकृन्नरकेषु जघन्यस्थितिकेषुत्पत्स्यमानस्य सङ्ख्यया अनेकशो यदिवा दीर्घस्थितिकेषु सकृदपि उत्पत्स्यमानस्यासङ्ख्येयाः अनन्तश उत्पत्स्यमानस्यानन्ताः, 'एव'-1 मित्यादि, एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेणासुरकुमारत्वे तदनन्तरं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तचैवं-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स वेमाणियत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अईया ?, गो० ! अणंता, केवइया पुरे०१, गो० ! कस्सइ अत्थि क० नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० संखेज्जा वा असं० अणंता वा,' अत्राप्ययं भावार्थ:-अतीतचिन्तायामनन्ताः, अनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायां योऽनन्तरभवे नरकादुदृत्तो मानुषत्वमवाप्य सेत्स्यति प्राप्तो वा परम्परया सकृद्वैमानिकभवं न क्रोधस
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
३६ समु
द्घातपदं स्वपरस्थाने कषाय|स० सू.
॥५८३॥
मुदयातं गन्ता तस्यैकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुद्घातो वैमानिकत्वे न विद्यते, यस्त्वसकृद्वैमानिकत्वं प्राप्तः सन् सकृदेव क्रोधसमुद्घातं याता तस्य जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, शेषस्य सङ्ख्यातान् वारान् वैमानिकत्वं प्राप्स्यतः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, 'एगमेगस्स ण'मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, 'गो! अणंता' इति, अनन्तशो नैरयिकत्वं प्राप्तस्य, एकैकस्मिंश्च नैरयिकभवे जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयानां क्रोधसमुघातानां भावात् , पुरस्कृताः कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, किमुक्तं भवति ?-योऽसुरकुमारभवादुहृत्तो न नरकं यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकावस्थाभाविनः पुरस्कृताः क्रोधसमुद्घाता न सन्ति, नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात्, यस्तु तद्भवादूर्व पारम्पर्येण नरकगामी तस्य सन्ति, तस्यापि कस्यचित् सङ्ख्येयाः कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, तत्र यः सकृजघन्यस्थितिकेषु नरकमध्येषु समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि सङ्ख्येयाः दशवर्षसहस्रप्रमाणायामपि स्थितौ सङ्ख्येयानां क्रोधसमुद्घातानां भावात् , क्रोधबहुलत्वान्नारकाणां, असकृत् दीर्घस्थितिषु सकृद्वा गमनेऽसङ्ख्येयाः अनन्तशो नरकगमनेऽनन्ताः, तथा एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारस्य असुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः?, भगवानाह-अनन्ताः अनन्तशोऽसुरकुमारभावस्य प्राप्तत्वात् , प्रतिभवं च क्रोधसमुद्घातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, यस्य प्रश्नकालादूचं असुरकुमारत्वेऽपि वर्चमानस्य न भावी
॥५८३॥
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क्रोधसमुद्घातो नापि तत उद्धृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं याता तस्य न सन्ति, यस्तु सकृदसुरकुमारत्वमागामी तस्य जघन्यपदे एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया अनन्ता वा, सङ्ख्येयान् वारान् आगामिनः |सङ्ख्येया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु असुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे, तथा चाह-'एवं नागकुमारत्तेऽवी'त्यादि, तदेवमसुरकुमारेषु क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमाह-एव'मित्यादि, एवमुक्तेनाभिलापगतेन प्रकारेण यथा चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण असुरकुमारो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितः तथा नागकुमारादयः समस्तेषु खस्थानपरस्थानेषु भणितव्याः यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे आलापकः, एवमेतानि नैरयिकचतुर्विशतिदण्डकादिसूत्राणि वैमानिकचतुर्विंशतिदण्डकपर्यवसानानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि वेदितव्यानि । तदेवं चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रः क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः, सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विंशतिदण्ज्कसूत्रैर्मानसमुद्घातं मायासमुद्घातं चाभिधित्सुरतिदेशमाह-माणसमुग्घाए मायासमुग्घाए निरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्घाए' इति, यथाप्राक् मारणान्तिकसमुद्घातेऽभिहितं सूत्रं तथा मानसमुद्घाते मायासमुद्घाते च निरवशेषमभिधातव्यं, तच्चैवं'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया माणसमुग्घाया अईया', गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा १, गो० ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखे
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प्रजापना- याः मल- य०वृत्ती.
॥५८४॥
बावा असंखेज्जा का अर्णता वा, एक्मसुरकुमारचे जाव वेगापिपत्ते, गमेगस्सयते। असुरकुमारस्स नेश-IN३६ समवत्ते केवइया माणससुग्घाया अतीता ?, गोयमा ! अयंता, केवझ्या कुरेक्खडा, गो० ! कस्सइ बत्यि कस्सइद्घातपदं नास्थि. जस्सस्थि जहन्ने एको वा दो वा तिन्नि वा उको संखेबा वा असंखेजा वा अशंसा पा. एवं नाममा- स्वपरस्थारत्ते जाव वेमाणिवत्ते, एवं जहा असुरकुमारे मेरइया वेमाणिक्पजबसाणेसु भणिया तहा नामकुमाराइया सदाण-18
ने कषाय
स. सू. रद्राणेस भाणियबा जाव बेमाणियस्स वेमाणियत्ते' अस्थायमर्थः-अतीतेषु सूत्रेषु सर्वत्राबनन्तस्वं सुप्रतीतं, नैरवि-19
३३९ कत्वादिस्थानानि प्रत्येकमनन्तशः प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायां त्वेवं नैरविकस नैरविकत्वे भावना-यो नैरयिकः प्रश्नकालाय मानसमुधातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुवृत्तोऽनन्तरं पारम्पर्येण वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति न भूयो नरकमागन्ता तस्य न सन्ति पुरस्कृता मानसमुद्घाताः, यः पुनस्तद्भवे वर्गमानो भूयो वा नरकमागत्यैकं वारं मानसमुदयातं गत्वा कालकरखेन नरकादुहृत्तः सेत्सति तस्यैकः पुरस्कृतो मामसमुद्घात, ऐयमेव कस्यापि द्वौ कस्यापि त्रयः सङ्ख्येयान् वारान् नरकमागन्तुः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् यारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, नैरयिकस्यैवासुरकुमारत्वे पुरस्कृतचिन्तायामियं भावना-यो नरकादुदृत्तो असुरकुमारत्वं न यास्यति तस्य न सन्ति ॥५८४॥ पुरस्कृता मानसमुद्घाताः, यस्त्वेकं वारं गन्ता तस्स एको द्वौ ज्यादयो वा सङ्ख्येयान् वारान् गन्तुः सङ्ख्येयाः अस-1 येयान् वारान् असञ्जयेयाः अनन्तान् वारान् अनन्ता, एवं तावद् भणनीयं यावत् तिर्यपञ्चेन्द्रियत्वे पुरस्कृत-16
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चिन्ता. मनुष्यचिन्तायां चैवं भावना-यो नरकादुदृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य मानसमुद्घातमगत्वा सेत्स्यति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतो मानसमुद्घातो, यतु मनुष्यत्वं गतः सन्नेकं वारं मानसमुद्घातं गन्ता तस्यैकोऽपरस द्वावन्यस्य ज्यादयः सङ्ख्येयान् वारान् गन्तुः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्ययाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकत्वेषु भावना यथा असुरकुमारत्वे यथा च नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु भावना कृता तथा असुरकुमारादीनामपि वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण कर्तव्या, यथा च मानसमुद्घातस्य चतुर्विंशतिः सूत्राणि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेणोक्तानि तथा मायासमुद्घातस्यापि चतुर्विशतिसूत्राणि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्यानि, तुल्यगमकत्वात् , अधुना लोभसमुद्घातमतिदेशत आह-'लोभसमुग्घातो जहा कसा
यसमुग्घातो. नवरं सघजीवा असुराई नेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरियाए नेतवा' इति, यथा प्राक् कषायसमुद्रात 18| उक्तस्तथा लोभकषायोऽपि वक्तव्यः, नवरं तत्रासुरकुमारादीनां नैरयिकत्वे पुरस्कृतचिन्तायां स्यात् सङ्ख्येयाः स्याद-18
सङ्ख्यया स्यादनन्ता इत्युक्तं अत्र तु सर्वे जीवा असुरकुमारादयो नैरयिकेषु पुरस्कृतचिन्तायां चिन्त्यमाना एकोतरिकया ज्ञातव्याः, एकोत्तरस्य भाव एकोतरिका 'द्वन्द्वचुरादिभ्यो वु'जिति चौरादेराकृतिगणतया बुझिति, एको द्वौ त्रय इत्यादिरूपा तया, एकोत्तरतया इत्यर्थः, नैरयिकाणां निरतिशयदुःखवेदनाभिभूततया नित्यमुद्विग्नानां प्रायो लोभसमुद्घातासम्भवात् , सूत्रालापकश्चैवम्-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केव० लोभसमु० अतीता ?.
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प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती.
॥५८५॥
गो०! अणंता, के० पु. १, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि एगो वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं
३६ समुसंखेजा वा असं०. अनंता वा, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केव० लोभस. अतीता ?, गो.
द्घातपदं अणंता, के० पु. १, गो० ! क. अत्थि क. नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव स्वपरस्थानेरइयस्स थणियकुमारने, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते के० लोभस. अतीता ?, गो.! अणंता, ने कषायके० पुरे० १, गो० ! क० अत्थिक नत्थि, जस्स अत्थि जह• एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को० संखे० असं०स० सू. अणंता वा, एवं जाव मणूसत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स जोइसियत्ते के०
३३९ लोभस. अतीता?, गो० ! अणंता, केवइया पुरे० १, गो० ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि जह. एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता, एवं जाव वेमाणियत्तेऽवि भाणियचं, एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते के. लोभस. अतीता ?, गो! अणंता, केवइया पुरे०१, गो.! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जह० एको वा दो वा तिणि वा उक्को. सं. असं० अणंता वा, एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते के. लोभस. अतीता ?, गो! अणंता, के. पु.?, गो.! क. अ. क. नत्थि, जस्सत्थि जह. एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को. सं. असं० अणंता वा, एगमेगस्स णं भंते ! ॥५८५॥ असुरकुमारस्स नागकुमारत्ते पुच्छा, गो० ! अणंता, के० पु० ?, गो० ! क० अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय
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सं० सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव थणियकुमारत्ते । पुढविकाइयत्ते जाव वेमाणियत्ते जहा नेरइयस्स भणितं तहेव भाणियचं, एवं जाव थणियकुमारस्स वेमाणियत्ते। एगमेगस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते केव० लोभस. अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइ० पु. १, गो० ! क. अस्थि क. नत्थि, जस्सत्थि जह• एको वा दो वा तिन्नि वा उक्को० संखेज्जा वा असं० अणं०, पुढवि० असुरकुमारत्ते अतीता अणंता, केव० पु. ?, गो.! कस्सइ अत्थि क० नत्थि, जस्स अत्थि सिय सं० सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव थणियकुमारत्ते, पुढविकाइयत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि क. नत्थि, जस्सत्थि जह. एको वा दो वा तिण्णि वा उक्को. सं. असं० अणंता बा, एवं जाव मणूसत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, जोइसियत्ते वेमाणियत्ते अतीता अणंता, पुरेक्ख० क. अत्थि क० नत्थि, जस्सत्थि सिय संखे० सिय असं० सिय अणंता, एवं जाव मणूसस्स वेमाणियत्ते, वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स एवं जोइसियवेमाणियाणंपि' अस्थायमर्थः-नैरयिकस्य नैरयिकत्वे |अतीता लोभसमुद्घाता अनन्ताः, अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायां कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यः प्रश्नसमयादूद्ध लोभसमुद्रातमप्राप्त एव नरकभवादुदृत्त्यानन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति न च |भूयो नरकमागामी न चागतोऽपि लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य नैकोऽपि पुरस्कृतो लोभसमुद्घातः, शेषस्य तु भावी, तस्यापि कस्यचिदेकः कस्यचित् द्वौ कस्यचित् त्रयः, एतच्च प्रश्नसमयादूर्द्धमपि तद्भवभाजां सकृन्नरकभवगामिनां
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प्रज्ञापनाया:मलयवृत्ती.
३६ समुद्घातपदं स्वपरस्थाने कषायस० सू.
॥५८६॥
वा वेदितव्यं, उत्कर्षतः सङ्ख्येवा वा असङ्ख्येया वा अनन्ता वा, तत्र सङ्ख्येयान् वारान् नरकमवमागामिनः सङ्ख्ययाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, तथा नैरयिकत्वस्यासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्रं तथैव भावनीयं, पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ अस्थि क. पत्थि'त्ति यो नरकभवादुत्तो नासुरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्यसुरकुमारत्वविषयाः पुरस्कृताः लोभसमुद्घाताः, वस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति, ते च जघन्यपदे सङ्ख्येयाः, जघन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां सङ्ख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् , लोभबहुलत्वात् तेषां, उत्कृष्टपदेऽसङ्ख्येया अनन्ता वा, तत्र सहीर्घस्थितावसकृजघन्यस्थितिषु दीस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामवसेयं, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, एवं नैरयिकस्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह-‘एवं जाव थणियकुमारत्ते' पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र नरकादुद्दत्तो यो न पृथिवीकायिकत्वं प्राप्स्यति तख न सन्ति, योऽपि गन्ता तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा | उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया अनन्ता वा, ते चैवम्-तिर्यपञ्चेन्द्रियभवात् मनुष्यभवाद्वा लोभसमुद्घातेन समुद्धतः सन् य एकं वारं पृथिवीं गन्ता तस्य एको द्वौ वारौ गन्तुद्वौं त्रीन् वारान् गन्तुस्त्रयः सङ्खयेयान् वारान् सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, “एवं जाव मणूसत्ते' इति एवं-पृथिवीकायिकयतेनाभिलापप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावन्मनुष्यत्वे, तच्चैवं-'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स आउकाइयत्ते' इत्यादि, याव
॥५८६॥
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न्मनुष्यसूत्र, तत्राप्कायिकादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत्, द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वेति एतत् सकृत् द्वीन्द्रियभवं प्रामुकामस्य वेदितव्यं, उत्कर्षेण सङ्ख्येया असङ्ख्येया अन-11 न्ता वा, तत्र सङ्ख्येयान् वारान् द्वीन्द्रियभवं प्राप्नुकामस्य सङ्ख्येया असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् । अनन्ताः, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रविषया त्वेवं भावना-सकृत् पञ्चेन्द्रियभवं गन्तुकामस्य खभावत एवाल्पलोभस्य जघन्यतः एको द्वौ त्रयो वा, शेषस्य तूत्कर्षतः सङ्ख्येयान् वारान् तिर्यपञ्चे|न्द्रियभवं गन्तुः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, मनुष्यसूत्रे तु पुरस्कृतविषया |भावनामूलत एवं-यो नरकभवादुद्दत्तोऽल्पलोभकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य लोभसमुद्घातमगत्वा सिद्धिपुरं यास्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता लोभसमुद्घाताः, शेषस्य तु सन्ति, यस्य सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो बा, ते च एकं द्वौ त्रीन् वा लोभसमुद्घातान् प्राप्य सेत्स्यतो वेदितव्याः, सङ्ख्येयादयः प्राग्वद् भावनीयाः, 'वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारा' इति यथा नैरयिकस्यासुरकुमारत्वे पुरस्कृतविषये सूत्रमुक्तं तथा व्यन्तरेष्वपि वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-पुरस्कृतचिन्तायामेवं वक्तव्यं-'कस्सइ अस्थि क. नत्थि, जस्स अस्थि सिय संखेजा सिय असं० सिय अणंता' इति, नत्वेकोतरिका वक्तव्या, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघन्यस्थितावपि सङ्ख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् , 'जोइसियत्ते' इत्यादि, ज्योतिष्कत्वे अतीता अनन्ताः, अनन्तशो ज्योतिष्कत्वस्य प्राप्त
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥५८७ ॥
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त्वात्, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति एतत् प्राग्वद् भावनीयं यस्यापि सन्ति तस्यापि कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, न तु जातुचित् सङ्ख्येयाः, ज्योतिष्काणां जघन्यपदेऽप्यसङ्ख्येयवर्षायुष्कतया जघन्यतोऽप्यसङ्ख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात्, लोभबहुलत्वात्तज्जातेः, एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृत चिन्तायां वक्तव्यं । तदेवं स्वस्थाने परस्थाने च लोभसमुद्घातश्चिन्तितः सम्प्रत्यसुरकुमारस्य तं चिचिन्तयिषुरिदमाह – ' एगमेगस्स ण' - मित्यादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे लोभसमुद्घाता अतीता अनन्ताः, नैरयिकत्वस्यानन्तशः प्राप्तत्वात्, पुरस्कृताः कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न संन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुद्वृत्तो न नरकं याता नापि सकृद् गतोऽपि लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य न सन्ति यस्तु यास्यति तस्य जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया असङ्ख्येया अनन्ताः, तत्र सकृन्नरकगामिनः एकादयो नैरविकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावतः प्रायो लोभसमुद्घातस्यासम्भवात्, उक्तं च मूलटीकायाम् – “नेरइयाणं लोभसमुग्धाया थोवा चेवं भवन्ति, तेसिमिट्ठदवसंजोगाभावातो एगादिसंभव" इति सङ्ख्येयान् वारान् नरकं गन्तुः सङ्ख्येयाः असङ्ख्येयान् वारान् असङ्ख्या अनन्तान् वारान् अनन्ताः, असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति तत्र योs - सुरकुमारभवे पर्यन्तवर्त्ती न च लोभसमुद्घातं याता नापि तत उद्धृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं याता किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य न सन्ति यस्य तु सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्येया
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३६ समुद्यातपदं
स्वपर स्थ
ने कराय
स० सू. ३३९
॥५८७॥
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असङ्ख्येया अनन्ताः, तत्र एकादयः क्षीणायुःशेषाणां तद्भवभाजां भूयस्तथैवानुत्पद्यमानानामवगन्तव्याः, सङ्ख्येया-2 दियो नैरयिकस्येव भावनीयाः, असुरकुमारस्य नागकुमारत्वेऽतीताः प्राग्वत्, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि
न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुदृत्तो न नागकुमारभवं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि स्यात् सङ्ख्येयाः स्यादसङ्ख्येयाः स्यादनन्ताः, तत्र सकृन्नागकुमारभवं प्राप्तुकामस्य सङ्ख्येयाः, जघन्यस्थिता-IN | वपि सङ्ख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् ,असङ्ख्येयान् वारान् प्राप्तुकामस्य असङ्ख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे, पृथिवीकायिकत्वे यावद्वैमानिकत्वे यथा नैरयिकस्य भणितं तथैव भणितव्यं, एवमसुर-18 कुमारस्येव नागकुमारादेरपि तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रं, तंचैवं-'एगमेगस्स णं भंते ! थणियकुमारस्य वेमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्धाया अतीता? इत्यादि, एवं 'एगमेगस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते' इत्याद्यपि सूत्रं पूर्वोक्तभावनानुसारेण वयं भावनीयं, तदेवं नैरयिकादेरेकत्वविषयाः क्रोधादिसमुद्घाताः प्रत्येकं चतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैर्विचिन्तिताः, सम्प्रति तानेव नेरयिकादिबहु-18 त्वविषयान् चिचिन्तयिपुरिदमाह-नेरइयाणं भंते' इत्यादि, नैरयिकाणां भदन्त ! नैरयिकत्वे कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः. अनन्तशो नैरयिकत्वस्य सर्वजीवैःप्राप्सत्वात् , कियन्तः पुरस्कृताः १, गौतम ! अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहूनामनन्तशो नैरयिकत्वं प्राप्तकामत्वात् 'एव'मित्यादि,
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प्रज्ञापनायाः मलय० वृत्ती.
॥५८८॥
एवं-नैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैर्निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकस्य वैमानि
३६ समुकत्वे-वैमानिकविषयं सूत्रं, तचैवं-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अतीता ?,
गोदघातपदे अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गो० ! अणंता' भावना प्राग्वत् , यथा च क्रोधसमुद्घाताः सर्वेषु जीवेषु खस्थाने क्रोधादिपरस्थाने चातीताः पुरस्कृताश्चानन्तत्वेनाभिहिताः तथा मानादिसमुद्घाता अपि वाच्याः, तथा चाह-'एव'मि- समुद्धातात्यादि, एवं-क्रोधसमुद्घातगतेन प्रकारेण चत्वारोऽपि समुद्घाताः सर्वत्रापि स्वस्थानपरस्थानेषु वाच्याः, यावलोभ- द्यल्पबहुत्वं समुद्घातो वैमानिकत्वविषय उक्तो भवति, स चैवं-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्घाया
सू.३४० अतीता ?, गो० ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा?, गो.! अणंता' सुगमं । तदेवं नैरयिकादिबहुत्वविषया अपि क्रोधादिसमुद्घाताः प्रत्येकं चतुर्विशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रश्चिन्तिताः,सम्प्रति क्रोधादिसमुद्घातैः शेषसमुद्घातैश्च समवहतानामसमवहतानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुः प्रथमतः सामान्यतो जीवविषयं तावदाह
एतेसि णं भंते ! जीवाणं कोहसमुग्धातेणं माणसमुग्घातेणं मायासमुग्यातेणं लोभसमुग्घातेण य समोहयाणं अकसायसमुग्यातेणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे२हिंतो अप्पा वा ४ ?, गो० ! सव्वत्थोवा जीवा अकसायसमुग्घाएणं समो, ॥५८८॥ माणसमुग्धाएणं समोहया अणंत०, कोहस० समो० विसेसाहिया मायासमुन्धाएणं स० विसे० लोभसमु० स० वि० असमोहया संखेज्जगुणा, एतेसि णं भंते ! नेरइयाणं कोहस० माणस० मायास० लोभस० समोहयाणं असभोहयाण य
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कयरेशहितो अप्पा वा ४ ?, गो० ! सव्वत्थोवा नेरइया लोभसमुग्याएणं समोहया मायास० स० संखेज. माणस० स० संखे० कोहस० संखे० असमोहया संखे०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो० ! सबत्थोवा असुरकुमाराणं कोहस० समो० माणसमुग्धाएणं स० संखे० मायास० स० सं० लोभस० समो० संखे० असमोहया संखेजगुणा, एवं सबदेवा जाव वेमाणिया, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गो० ! सबत्थोवा पुढविकाइया माणसमुग्धाएणं समोहया कोहसमु० स० विसे. मायासमु० स० विसे० लोभस० स० विसे० असमो० संखे, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा जीवा, णवरं माणसमु० स० असं० (सूत्रं ३४०) . 'एएसि ण'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! जीवानां क्रोधसमुद्घातेन मानसमुद्घातेन मायासमुद्घातेन लोभसमुद्घातेन च समवहतानां 'अकषायेणे ति कषायव्यतिरेकेण शेषेण समुद्घातेन समवहतानामसमवहतानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहवो वा 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम'इति न्यायात् पञ्चम्याः स्थाने तृतीयापरिणामनात्तु कतरैः कतरैस्तुल्या वा, तथा कतरेभ्यो विशेषाधिकाः, एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अकषायसमुद्घातेन-कषायव्यतिरिक्तेन शेषवेदनादिसमुद्घातपट्केन समवहताः,कषायव्यतिरिक्तसमुद्घातसमुद्धता हि क्वचित् कदाचित् केचिदेव प्रतिनियता लभ्यन्ते, ते चोत्कर्षपदेऽपि कपायसमुद्घातसमवहतापेक्षया अनन्तभागे वर्तन्ते, ततः स्तोकाः, तेभ्यो मानसमुद्घातसमवहता अनन्तगुणाः, अनन्तानां वनस्पतिजीवानां पूर्वभवसं
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३६ समु. | दघातपदे क्रोधादिसमुद्धाताद्यल्पबहुत्वं
प्रज्ञापना-18 स्कारानुवृत्तितो मानसमुद्घाते वर्तमानानां प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यः क्रोधसमुद्घातेन समवहता विशेषाधिकाः, याः मल- मानापेक्षया क्रोधिनां प्रचुरत्वात् , तेभ्यो मायासमुद्घातेन समवहता विशेषाधिकाः, क्रोध्यपेक्षया मायाविना य० वृत्तौ. प्रचुरत्वात् , तेभ्योऽपि लोभसमुद्घातेन समवहता विशेषाधिकाः, मायाविभ्यो लोभवतामतिप्रभूतत्वात् , तेभ्यो
पि केनाप्यसमवहता सङ्ख्येयगुणाः, चतसृष्वपि गतिषु प्रत्येकं समवहतेभ्योऽसमवहतानां सदा सद्ध्येयगुणतया ॥५८९॥
प्राप्यमाणत्वात् , सिद्धास्त्वेकेन्द्रियापेक्षयानन्तभागवर्त्तिन इति ते सन्तोऽपि न विवक्षिताः, एतदेवाल्पबहुत्वं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयन्नाह-'एएसि ण'मित्यादि सुगम, नवरं सर्वस्तोका नैरयिका लोभसमुद्घातेन समवहता इति, नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावात् प्रायो लोभसमुद्घातस्तावन्नोपपद्यते, येषामपि च केषाञ्चिद्भवति ते कतिपया इति शेषसमुद्घातसमवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, असुरकुमारविषयाल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः क्रोधसमुद्घातसमुद्धता इति, देवा हि खभावतो लोभबहुलास्ततोऽल्पतरामानादिमन्तः ततोऽपि कदाचित्कतिपये क्रोधवन्त इति शेषसमुद्घातसमवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, 'एवं सचदेवा जाव वेमाणिया' इति एवं-असुरकुमारगतेनाल्पबहुत्वप्रकारेण सर्वे देवा नागकुमारादयस्तावद्वक्तव्याः यावद्वैमानिकाः, पृथिवीकायिकचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे इव - भावना भावनीया, समानत्वात् , 'एवं जावे'त्यादि, एवं-पृथिवीकायिकोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत् तिर्यपञ्चेन्द्रियाः, मनुष्या यथा जीवाः, नवरमकपायसमुद्घातसमवहतापेक्षया मानसमुघातेन समवहता
02020829092029202
॥५८॥
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असङ्ख्येयगुणा वक्तव्याः । सम्प्रति कति छानस्थिकाः समुद्घाता इति निरूपणार्थमाह
कइ णं भंते ! छाउमत्थिया समुग्धाया पं० १, गो०!छ छाउमत्थिया स०पं०, तं०-वेदणास० कसायस० मारणंतियस वेउवियस० तेयासक आहारगसमुग्घाते, नेरइयाणं भंते ! कति छाउमत्थिया स० पं०१, गो० ! चत्तारि छाउमत्थिया स० पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस वेउवियस०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गो०! पंच छाउ० समु० पं०, तं०-वेदणासमु० कसायसमु० मारणंतियस० वेउब्वियस० तेयगसमु०, एगिदियविगलिंदियाणं पुच्छा, गो०! तिण्णि छाउ० समु० पं०, तं०-वेदणासमु० कसायस० मारणतियस०, णवरं वाउकाइयाणं चत्वारि स. पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस० वेउब्वियस०, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गो० ! पंच० स० पं०, तं०-वेद.णास कसायस० मारणंतियस० वेउब्वियस० तेयगस०, मप्रसाणं कति 'छाउमत्थिया समु. पं० १, गो० ! छ छाउमत्थिया स० पं०, तं०-वेदणास कसायस० मारणंतियस० वेउवियस० तेयगस० आहारगस० (सूत्रं ३४१) 'कइणं भंते !' इत्यादि सुगम, अथ कति केषां छानस्थिकाः समुद्घाता इति चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरूपयति-निरइयाण'मित्यादि, नैरयिकाणामाद्याश्चत्वारो वेदनादिसमुद्घाताः, तेषां तेजोलब्ध्याहारकलब्ध्यभावतस्तेजससमुदुघाताहारकसमुद्घातासम्भवात् , असुरकुमारादीनां सर्वेषामपि देवानामाहारकसमुद्घातवजोः शेषाः। पञ्च समुद्घाताः, तेषां तेजोलब्धिसम्भवात् तैजससमुद्घातस्यापि सम्भवात्, यस्त्वाहारकसमुद्घातः स तेषां न ४
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प्रज्ञापना- या मल- यवृत्ती.
॥५९०॥
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सम्भवति, चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावतो भवप्रत्ययाच तेषामाहारकलब्ध्यभावात् , वायुकायवजैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया- णामाद्या वेदनाकषायमरणलक्षणास्त्रयः समुद्घाताः, तेषां वैक्रियाहारकतेजोलब्ध्यभावतस्तत्समुद्घातासम्भवात् , वायुकायिकानां पूर्वे त्रयो वैक्रियसमुद्घातसहिताश्चत्वारः समुद्घाताः, तेषां बादरपर्याप्तानां वैक्रियलब्धिसम्भवतो वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामाहारकसमुद्घातवर्जाः शेषाः पञ्च छानस्थिकाः समुघाताः, यस्त्वाहारकसमुद्घातः स तेषां न सम्भवति, चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावतस्तेषामाहारकलब्ध्यसम्भवात् , मनुष्याणां षडपि, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात् । तदेवं यति येषां छाझस्थिकाः समुद्घातास्तति तेषां निरूपिताः, सम्प्रति यस्मिन् समुद्घाते वर्तमानो यावत् क्षेत्रं समुद्घातवशतस्तैस्तैः पुद्गलैाप्नोति तदेतन्निरूपयतिजीवे णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइते खेत्ते अफुण्णे केवतिते खेत्ते फुडे १, गो०! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभवाहल्लेणं नियमा छद्दिसिं एवतिते खेत्ते अफुण्णे एवतिते खेत्ते फुडे, से णं भंते ! खित्ते केवतिकालस्स अप्फुडे केव० फुडे ?, गो० ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे, ते णं भंते ! पोग्गले केवतिकालस्स निच्छुभति ?,गो०! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स उक्को वि० अंतो०, ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाति तत्थ पाणातिं भूयाति जीवातिं सत्ताति अभिहणंति वत्तेति लेसेंति संघाएंति संघट्टेति परिताउति किलामेंति उद्दति तेहिंतो णं भंते ! से जीवे कतिकिरिए ?,
३६ समुदघातपदं छाद्मस्थिकाः समुद्धाताःसू. ३४१ समुद्धातपुद्गलपूरणादि सू. ३४२
॥५९०॥
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गो० ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच किरिए, ते णं भंते ! जीवा तातो जीवाओ कतिकिरिया १, गो० ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया से णं भंते! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ?, गो० ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि, नेरइए णं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं समोहते, एवं जहेव जीवे, णवरं नेरइयाभिलावो, एवं निरवसेसं जाव वेमाणिते । एवं कसायसमुग्धातोवि भाणितवो । जीवे णं भंते ! मारणंतिय समुग्धातेणं समोहण समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतिते खेत्ते अष्फुण्णे hard खेते फुडे ?, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खभबाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्को सेणं असंखेजाति जोयणाति एगदिसिं एवतिते खेते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे, से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे १, गो० ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अण्णे एवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चैव जाव पंचकि०, एवं नेरइएवि, णवरं आयामेणं जहण्णेणं साइरेगं जोयणसहस्सं उक्को० असंखेज्जातिं जोअणातिं, एगदिसिं एवतिते खेत्ते अप्फुण्णे एवतिते खित्ते फुडे, विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमतिएण वा भन्नति, सेसं तं चैव जाव पंचकिरियावि, असुरकुमारस्स जहा जीवपदे, णवरं विग्गहो तिसमइओ जहा नेरइयस्स, सेसं तं चैव जहा असुरकुमारे, एवं जाव वेमाणिते, णवरं एगिंदिये जहा जीवे निरवसे (सूत्रं ३४२ )
'जीवे णं भंते!' इत्यादि, जीवो णमिति वाक्यालङ्कारे - वेदना समुद्घाते वर्त्तमानः तस्मिन् समवहतो भवति
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प्रज्ञापना- याः मल- य०वृत्ती.
॥५९१॥
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समवहत्य च यान् पुद्गलान् वेदनायोग्यान् खशरीरान्तर्गतान् ‘निच्छुभइ' इति विक्षिपति आत्मविश्लिष्टान् करो-11३६ समुतीत्यर्थः, 'तेहि णमिति तैः पुद्गलैः कियत् क्षेत्रमापूर्ण, आपूर्णत्वमपान्तराले कियदाकाशप्रदेशासंस्पर्शनेऽपि व्यव- द्घातपदे हारत उच्यते तत आह-कियत् क्षेत्रं स्पृष्ट-प्रतिप्रदेशापूरणेन व्याप्तं, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह- समुद्धात'सरीरे'त्यादि नियमात्-नियमेन 'छद्दिर्सि'ति षडू दिशो यत्रापूरणे स्पर्शने वा षड्दिक् तद्यथा भवति एवं विष्क- पुद्गलपूरम्भतो-विस्तरेण बाहल्यतः-पिण्डतः शरीरप्रमाणमात्र, यावत्प्रमाणः खशरीरस्य विष्कम्भो यावत्प्रमाणं च णादि सू.
३४२ बाहल्यं एतावन्मात्रमापूर्ण स्पृष्टं चेति वाक्यशेषः, तदेव निगमनद्वारेणाह-'एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' इति, इह वेदनासमुद्घातो वेदनातिशयात् , वेदनातिशयश्च लोकनिष्कुटेषु जीवानां न भवति, निरुपद्रवस्थानवर्तित्वात् तेषां, किन्तु त्रसनाच्या अन्तः, तत्र परोदीरणसम्भवात् , तत्र च षइदिकसम्भव इति नियमाच्छद्दिशिमित्युक्तं, अन्यथा 'सिय तिदिसिं सिय चउदिसि सिय पंचदिसि'मित्याधुच्येत, अथ खशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यमेव क्षेत्रमापूर्ण स्पृष्टं च विग्रहगतो जीवस्य गतिमधिकृत्य कियदूरं यावद्भवति कियन्तं च कालमित्येतन्निरूपणार्थमाह-'से णं भंते !' इत्यादि, नपुंसकत्वे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , तत्-अनन्तरोक्तप्रमाणं णमिति प्राग्वत् भद-18 न्त ! क्षेत्रं कालस्स इति-प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी कियता कालेन पूर्ण कियता कालेन स्पृष्टं, किमुक्तं भवति ?कियन्तं कालं यावत् खशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्रं निरन्तरं विग्रहगतो जीवस्य गतिमधिकृत्यापूर्ण स्पृष्टं च
॥५९१॥
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लभ्यते इति ?, भगवानाह-गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण, किमुक्तं भवति?एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण यावन्मानं क्षेत्र व्याप्यते इयडूरं यावत् खशरीरप्रमाणविष्कम्भवाहल्यं क्षेत्रं वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण-भृतं जीवस्य गतिमधिकृत्यावाप्यते, तत एतद्गतमुत्कर्षतस्त्रिसामयिकेन विग्रहेण यावन्मानं क्षेत्रमभिव्याप्यते एतावदात्मविश्लिष्टैर्वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण लभ्यते, इह चतुःसामयिकः पञ्चसामयिकश्च विग्रहो यद्यपि सम्भवति तथापि वेदनासमुद्घातः प्रायः परोदीरितवेदनावशत उपजायते, परोदीरिता च वेदना त्रसनाड्यां व्यवस्थितस्य न बहिः, सनाडीव्यवस्थितस्य च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक इति उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिकेन विग्रहेणेत्युक्तं, न चतुःसामयिकेन पञ्चसामयिकेन चेति, उपसंहारवाक्यमाह-एवइयकालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे' एतावता उत्कर्षतोऽपि त्रिसमयप्रमाणेनेत्यर्थः कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्ट, किमुक्तं भवति ?-विग्रहगतावुत्कर्षतः त्रीन् समयान् यावत् त्रिभिश्च समययोवन्मानं व्याप्यते इयन्ती सीमामभिव्याप्य खशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण भृतं च जीवस्य गतिमधिकृत्य व्याप्यते, अथवा 'केवइय कालस्स'त्ति षष्ठ्येव व्याख्येया, ततः खशरीरप्रमाणविष्कम्भबहिल्यं क्षेत्रं वेदनाजननयोग्यः पुदलरापूर्ण भृतं च जीवस्य विग्रहगतिमधिकृत्य कियतः कालस्य सम्बन्धि, कियन्तं कालं यावदवाप्यते इत्यर्थः, भगवानाह-एकसमयेन द्विसमयेन त्रिसमयेन वा विग्रहेणापूर्ण स्पृष्टं च लभ्यते इति
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प्रज्ञापना
या:मल- यवृत्ती.
३६ समु. द्घातपदे समुद्धातपुद्गलपूरणादि सू. ३४२
॥५९२॥
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वाक्यशेषः, तत एतावता उत्कर्षतः त्रिसमयप्रमाणस्य कालस्य सम्बन्धि यथोक्तप्रमाणं क्षेत्रं वेदनाजननयोग्यः पुरलैरापूर्णमेतावता कालस्य सम्बन्धि स्पृष्टमिति। सम्प्रति यावन्तं कालं वेदनाजननयोग्यान् पुद्गलान् विक्षिपति तावत्कालप्रमाणं प्रतिपादनार्थमाह-'ते णं भंते !' इत्यादि, तान् वेदनाजननयोग्यान् पुद्गलान् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् परमसुखयोगिन् वा पुद्गलान् कियतः कालस्य सम्बन्धिनो विक्षिपति १, कियकालं वेदनाजननयोग्यान् विक्षिपतीति भावः, भगवानाह-जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तस्य सम्बन्धिन उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मु-1 हूर्तस्य, केवलं मनाक बृहत्तरस्य सम्बन्धिनः विक्षिपति, किमुक्तं भवति ?-ये पुद्गला जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त यावत् वेदनाजननसमर्थाः तान् तथा २ वेदनातः सन् खशरीरगतान् खशरीरादहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्लिष्टान् विक्षिपति, यथाऽत्यन्तदाहज्वरपीडितः सन् सूक्ष्मपुद्गलान्, प्रत्यक्षसिद्धं चैतदिति, 'ते णं भंते !' इत्यादि, ते णमिति पूर्ववत् भदन्त ! पुद्गला विक्षिप्ताः सन्तः शरीरसम्बद्धा असम्बद्धा वा 'जाई तत्थे'त्यादि प्राकृतत्वात् पुंस्त्वेऽपि नपुंसकता यान् तत्र वेदनासमुद्घातगतपुरुषसंस्पृष्ट क्षेत्रेप्राणान्-द्वित्रिचतुरिन्द्रियान् शङ्ककीटिकामक्षिकादीन् भूतान्-वनस्पतीन् जीवान-पञ्चेन्द्रियान् गृहगोधिकासपोदीन् सत्त्वान्-शेषपृथिवीकायिकादीन् अभिन्नन्ति-अभिमुखमागच्छन्तो नन्ति वर्तयन्ति-आवर्तपतितान् कुर्वन्ति लेशयन्ति-मनाक स्पृशन्ति सङ्घातयन्ति-परस्परं तान् सवातमापन्नान् कुर्वन्ति सङ्घयन्ति-अतीव सङ्घातविशेषमापादितान् कुर्वन्ति परितापयन्ति-पीडयन्ति क्लमय
॥५९२॥
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न्ति-मूर्छापन्नान् कुर्वन्ति अपद्रावयन्ति-जीवितात् व्यपरोपयन्ति, तेभ्यः पुद्गलेभ्यः तेषां प्राणादीनां विषये भदन्त ! सः-अधिकृतो वेदनासमुद्घातगतो जीवः कतिक्रियः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-गौतम ! 'सिय तिकिरिए' इति, स्यात्शब्दः कथञ्चित्पर्यायः, कथञ्चित् कदाचित् कांश्चिच्च जीवानधिकृत्येत्यर्थः त्रिक्रियः, किमुक्तं भवति ?-यदा न केषाञ्चित् सर्वथा परितापनं जीविताद् व्यपरोपणं वा करोति तदा सर्वथा त्रिक्रिय एव, यदापि केषाञ्चित्परितापं मरणं वाऽऽपादयति तदापि येषां नाबाधामुत्पादयति तदपेक्षया त्रिक्रियः, "सिय चउकिरिए' इति केषाश्चित्परितापकरणे तदपेक्षया चतुष्क्रिय इति, केषाञ्चिदपद्रावणे तदपेक्षया पञ्चक्रिय इति, सम्प्रति तमेवाधिकृतं वेदनासमुद्घातगतं जीवमधिकृत्य तेषां वेदनासमुद्घातगतपुरुषपुद्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रिया निरूपयति-तेणं | भंते ! इत्यादि, ते-वेदनासमुद्घातगतपुद्गलस्पृष्टा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! जीवास्ततो-वेदनासमुद्घातपरिगतान् जीवान् अत्र 'स्थानियपः कर्माधारयोः' इति स्थानिनं यपमधिकृत्य पञ्चमीयं, अयमर्थः-तं वेदनासमुद्घातपरिगतं जीवमधिकृत्य कतिक्रियाः प्रज्ञप्ताः, भगवानाह-गौतम ! स्यात्रिक्रियाः यदा न काञ्चित्तस्याबाधामापादयितुं प्रभविष्णवः, स्थाचतुष्क्रिया यदा तं परितापयन्ति, दृश्यन्ते शरीरेण स्पृश्यमानाः परितापयन्तो वृश्चिकादयः, स्यात् पञ्चक्रियाः ये तं जीवितादपि व्यपरोपयन्ति, सिद्धाश्च प्रत्यक्षतः शरीरेण स्पृश्यमाना जीविताच्यावयन्तः सदिय इति, सम्प्रति तेन वेदनासमुद्घातगतेन जीवेन व्यापाद्यमानर्जीवैर्येऽन्ये जीवा व्यापाद्यन्ते ये चान्यैर्जी
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प्रज्ञापना
या: मल
य० वृत्तौ .
॥५९३ ॥
वैर्व्यापाद्यमाना वेदनासमुद्घातगतेन जीवेन व्यापाद्यन्ते तानधिकृत्य तस्य वेदनासमुद्घातपरिगतस्य तेषां च समुद्घातगतजीवसम्बन्धिपुद्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रियानिरूपणार्थमाह- 'से णं भंते! जीवे ते य जीवा' इत्यादि, सः - अधिकृतो वेदनासमुद्घातगतो जीवः ते च वेदनासमुद्घातपरिगतजीव सम्बन्धिपुद्गलस्पृष्टाः अन्येषां जीवानामुपदर्शितेन प्रकारेण यः परम्पराघातस्तेन परम्पराघातेन कतिक्रियाः प्रज्ञप्ताः १, भगवानाह - गौतम ! स्यात् त्रिक्रिय इत्यादि पूर्ववत् भावयितव्यः, एनमेव वेदनासमुद्घातमुक्तेन प्रकारेण नैरयिकादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु चिन्तयन्नाह - 'नेरइए णं भंते !' इत्यादि, एवं उक्तेन प्रकारेण यथैव प्राक् सामान्यतो जीवो वेदनासमुद्घातमधिकृत्य चिन्तितः तथा नैरयिकोऽपि चिन्तयितव्यः, नवरं जीवाभिलापस्थाने नैरयिकाभिलापः कर्त्तव्यो, यथा 'नेरइए णं भंते ! वेणासमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ' इत्यादि, 'एवं निरवसेसं जाव बेमाणिए' इति एवं - नैरयिकोक्तेन प्रकारेण शेषेष्वपि स्थानेषु खखाभिलापपूर्वकं निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिका:वैमानिकाभिलापः । तदेवमुक्तो वेदनासमुद्घातः, सम्प्रति कषायसमुद्घातं समानवक्तव्यत्वादतिदेशतोऽभिधित्सुराह - ' एवं कसायसमुग्धाओऽवि भाणियचो' इति, एवं - वेदनासमुद्घातगतेन प्रकारेण सामान्यतो जीवपदे चतुविंशतिदण्डकक्रमेण च कषायसमुद्घातोऽपि वक्तव्यः, स चैत्रम्- 'जीवे णं भंते! कसायसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ' यान् पुद्गलान् शरीरान्तर्गतान् कषायसमुद्घातवशसमुत्थप्रयत्तविशेषतः खशरीराद्
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३६ समु
द्घातपदे
समुद्धात
पुद्गलपूरणादि सू.
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॥५९३ ॥
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बहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्विष्टान् करोति, 'तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खेत्ते अष्फुण्णे केवइए खित्ते फुडे ?, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खभवाहलेणं नियमा छद्दिसिं एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' कषायसमुघातो हि प्रथमं उद्भवति त्रसजीवानां तेषामेव तीव्रतराध्यवसायसम्भवाद, एकेन्द्रियाणां तु पूर्वभवानुवृत्तितः, त्रसजीवाश्च त्रसनाढ्यां न ततो वहिः, त्रसनाड्यां च व्यवस्थितः खशरीरप्रमाणं विष्कम्भबाहल्यं क्षेत्रमात्मविश्लिष्टैः पुद्गलैः भृतं षदिक्त्वमवश्यमुपपद्यते इति 'नियमा छद्दिसि' मित्युक्तम्, 'एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' |इत्यादि सर्व समानं । सम्प्रति मरणसमुद्घातमभिधित्सुराह - 'जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएण' मित्यादि, इति पूर्ववत् भदन्त ! कश्चिन्मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः समवहत्य च यान् पुद्गलान् तैजसादिशरीरान्तर्गतान् 'निच्छुभइ' इति विक्षिपति, आत्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्टान् करोति तैर्भदन्त ! पुद्गलैः कियत् क्षेत्रमापूर्ण कियत् क्षेत्रं भृतम् ?, भगवानाह - गौतम ! विष्कम्भवाहल्यतः शरीरप्रमाणमायामतो जघन्यतः खशरीरातिरेकाङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रं यदा तावन्मात्रे क्षेत्रे उत्पद्यते उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनानि एतच्च यदा तावति क्षेत्रे अन्यथा वा द्रष्टव्यम्, एकदिशि- एकस्यां दिशि न तु विदिशि स्वभावतो जीवप्रदेशानां दिशि गमनसम्भवात् एतावत् क्षेत्रमापूर्णमेतावत् क्षेत्रं स्पृष्टं जघन्यतः उत्कर्षतो वा आत्मप्रदेशैरपि एतावत् क्षेत्रस्य पूरणसम्भवात्, सम्प्रति विग्रहगतिमधिकृत्यापूरणविषयं स्पर्शनविषयं च कालप्रमाणमाह - 'से णं भंते !' इत्यादि, तत् उत्कर्षेणायामतोऽनन्तरोक्तप्रमाणं भद
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9002020
प्रज्ञापना- न्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्य 'केवइयकालस्स'त्ति तृतीयाथै षष्ठ्या भावात् कियता कालेनापूर्ण कियता कालेन ३६ समुया: मल- स्पृष्टं, किमुक्तं भवति ?-विग्रहगतिमधिकृत्य कियता कालेनोत्कर्षतोऽसङ्ख्येययोजनप्रमाणं क्षेत्रमायामतः पुद्गलै- द्घातपदे य० वृत्ती. रापूर्ण स्पृष्टं भवतीति, भगवानाह-गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा चतुःसमयेन वा विग्र- समुद्धात
हेणापूर्ण स्पृष्टं, इह पञ्चसामयिकोऽपि विग्रहः सम्भवति परं स कादाचित्क एव इति न विवक्षितः, इयमत्र पुद्गलपूर॥५९४॥ भावना-उत्कृष्टपदे आयामतोऽसङ्ख्येययोजनप्रमाणं क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्कर्षतः चतुर्भिः समयैरापूर्ण स्पृष्टं वा ।
णादि सू.
३४२ भवतीति, अथ कथं चतुःसामयिकः पञ्चसामयिको वा विग्रहः सम्भवति ?, उच्यते, त्रसनाड्या बहिरधस्तनभागादुपरितने भागे यद्वोपरितनभागादधस्तने भागे समुत्पद्यमानो जीयो विदिशो वा दिशि दिशो वा विदिशि यदोत्पद्यते तदा एकेन समयेन त्रसनाडी प्रविशति द्वितीयेनोपरि अधो वा गमनं तृतीयेन बहिनिःसरणं चतुर्थेन दिशि उत्पत्तिदेशप्राप्तिः, अयं चतुःसामयिको विग्रहः, एवं पञ्चसामयिकस्तु सनाड्या बहिरेव विदिशो विदिशि उत्पत्ती लभ्यते, तद्यथा-प्रथमसमये सनाड्या बहिरेव विदिशो दिशि गमनं द्वितीये त्रसनाच्या मध्ये प्रवेशः तृतीये उपर्यधो वा गमनं चतुर्थे बहिनिस्सरणं पञ्चमे विदिश्युत्पत्तिदेशगमनमिति, उपसंहारमाह-'एवइयकालस्स ५९४॥
अप्फुण्णे एवइयकालस्स फुडे' इति एतावता कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्टमिति, 'सेसं तं चेव जाव पंचकिHIरिए' इति अत ऊर्दू शेषं तदेव सूत्रं-'ते णं भंते ! पुग्गला निच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई इत्यादि यावत्
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पंचकिरिया' इति पदं, तदेवं सामान्यतो जीवपदे मारणान्तिकसमुद्घातश्चिन्तितः सम्प्रति एनमेव चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयन् प्रथमतो नैरयिकातिदेशमाह - ' एवं ' मित्यादि, एवं - सामान्यतो जीवपद इव नैरयिकेऽपि वक्तव्यं, नवरमयं विशेषः - सामान्यतो जीवपदे क्षेत्रमायामतो जघन्येनाङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रमुक्तं इह तु जघन्यतः सातिरेकं योजनसहस्रं, किमत्र कारणमिति चेत् ?, उच्यते, इह नैरयिकाः नरकादुद्वृत्ताः स्वभावत एव पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये उत्पद्यन्ते मनुष्येषु वा नान्यत्र, सर्वजघन्यचिन्ता चात्र क्रियते, ततो यदा पातालकलशसमीपवर्त्ती नैरयिकः पातालकलशमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिभागे मत्स्यतयोत्पद्यते तदा पातालकलशठिक्करिकाया योजनसहस्रमानत्वात् यथोक्तं जघन्यमानं नातोऽपि न्यूनतरं कथंचनेति, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनानि तानि सप्तमपृथिवीगतनारकापेक्षया भावनीयानि अत्रैवोपसंहारमाह - 'एगदिसिं एवइए' इत्यादि, एकस्यां दिशि जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावत् — अनन्तरोक्तप्रमाणं क्षेत्रमापूर्णमेतावत् क्षेत्रं स्पृष्टं विग्रहगतिमधिकृत्य विशेषमाह - 'विग्गहे - णेत्यादि, विग्रहेणापूर्ण स्पृष्टं वा वक्तव्यमेकसामयिकेन द्विसामयिकेन त्रिसामयिकेन वा, नन्वेतत् सामान्यतो जीवपदेऽप्युक्तं तत्कोऽत्र विशेषस्तत आह- 'नवरं चउसमइएण वा ण भन्नइ' इति नवरमत्र सामान्यजीवपद इव चतुःसामयिकेनेति न भण्यते, नैरयिकाणामुत्कर्षतोऽपि विग्रहस्य त्रिसामयिकत्वात्, ते च त्रयः समया एवं भवन्ति - इह कश्चिन्नैरथिको वायव्यां दिशि वर्त्तमानो भरतक्षेत्रे पूर्वस्यां दिशि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियतया मनुष्यतया
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प्रज्ञापनायाः मलय. वृत्ती.
॥५९५॥
वोत्पित्सुः प्रथमसमये ऊर्द्धमागच्छति द्वितीयसमये वायव्या दिशः पश्चिमदिशं तृतीये ततः पूर्वदिशमिति, एवम- ३६ समु. सुरकुमारादिष्वपि यथायोगं त्रिसमयविग्रहभावना कार्या, 'सेसं तं चेव जाव पंचकिरियावि' इति शेषं सूत्रं तदेव द्घातपदे वेदनासमुद्घातगतं, ते णं भंते! पोग्गला केवइया कालस्स निच्छुभंति ?, गो.! जहन्नेणवि अंतो० उक्को. अंतो- समुद्धातमुहुत्तस्से'त्यादि तावद्वक्तव्यं यावदन्तिमं पदं 'पंचकिरियावि' इति, असुरकुमारविषये अतिदेशमाह-'असुरकु- पुद्गलपूरमारस्स जहा जीवपदे' इति यथा सामान्यतो जीवपदेऽभिहितं तथा असुरकुमारस्याप्यभिधातव्यं, एतावता
णादि सू.
३४२ किमुक्तं भवति ?-यथा जीवपदे आयामतः क्षेत्रं जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रं उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनानि I तथाऽत्रापि वक्तव्यं, कथं जघन्यतोऽङ्गलासङ्ख्येयभागमात्रमिति चेत् , उच्यते, इहासुरकुमारादय ईशानदेवपर्यन्ताः। पृथिव्यम्बुवनस्पतिष्यप्युत्पद्यन्ते, ततो यदा कोऽप्यसुरकुमारः सलिष्टाध्यवसायी खकुण्डलायेकदेशे पृथिवीकायिकत्वेनोत्पित्सुमरणसमुद्घातमादधाति तदा जघन्येनायामतः क्षेत्रमङ्गलासङ्ख्ययभागप्रमाणमवाप्यते इति यथा जीवपदे इत्युक्तं, ततोऽत्रापि विग्रहगतिश्चतुःसामयिकी प्राप्नोति तत.आह-नवरं विग्रहस्त्रिसामयिको यथा नैरयिकस्य, शेषं सूत्रं तदेव यत् सामान्यतो जीवपदे, नागकुमारादिष्वतिदेशमाह-'जहा असुरकुमारे' इत्यादि, यथा ॥५९५॥ असुरकुमारेऽभिहितमेवं नागकुमारादिषु तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं सूत्रं, नवरमेकेन्द्रिये पृथिव्यादिरूपे यथा जीवे-सामान्यतो जीवपदे तथा निरवशेषं वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-यथा जीवपदे चतुःसामयिकोऽपि विग्रह
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उक्तः तथा पृथिव्यादिष्वपि पञ्चसु स्थानेषु वक्तव्यः । शेषं तथैवेति, तदेवमुक्तो मारणान्तिकसमुद्घातः, साम्प्रतं वैक्रियसमुद्घातमभिधित्सुराह
जीने णं भंते ! वेउद्वियसमुग्धाएणं समोहते समोहणित्ता ने पुग्गले निच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतिते खेत्ते अण्णे केवतिए खिते फुडे १, गो० ! सरीरष्यमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स संखेजतिभागं उको ० संखिजाति जोअणातिं एगदिसिं विदिसिं वा एवइए खित्ते अफुण्णे एवतिते खेते फुडे, से णं भंते ! केवतिकालस्स अलणे केवतिकालस्स फुडे १, गो० ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अण्णे दवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चैव जाव पंचकिरियावि, एवं नेरइएवि, नवरं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखेअतिमागं उक्को० संखिमाई जोजणाई एगदिसिं, एवतिते खेते, केवतिकालस्स १, तं चैव जहा जीवपदे, एवं जहा नेरइयस्त तहा असुरकुमारस्स, नवरं एगदिसिं विदिसिं वा, एवं जाव थणियकुमारस्स, वाउकाइयस्स जहा जीवपदे, णवरं एमदिसिं, पंचिदियतिरिक्खजोबियस्स निरवसेसं जहा नेरइयस्स, मणूसवाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स निरवसेर्स जहा असुरकुमारस्स | जीवे णं मैते ! तेयगसमुग्धाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोगले निच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गले हिं केवसिते से अष्णे केवइए खिसे फुडे, एवं जहेव वेधिते समुग्घाते तहेव, नवरं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखेजविमानं सेसं तं चैव एवं जाग वैमाणियस्त्र, गवरं पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स एगदिसि एवविते खेत्ते अण्णे एवइखित
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प्रज्ञापनाया मल
य० वृत्ती.
॥५९६ ॥
स्स फुडे । जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्धातेणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुन्भति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं hase खित्ते अणे haइए खेत्ते फुडे १, गो० ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्को० संखेजई जोयणाई एगदिसिं, एवतिते खेते एगसमतिएण वा दुसम० तिसम० विग्गहेणं एवतिकालस्स अण्णे एवतिकालस्स फुडे, ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स निच्छुन्भति १, गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतोमुहुत्तस्स, ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जातिं तत्थ पाणातिं भूयातिं जीवातिं सत्तातिं अभिहणंति जाव उद्दवेंति, ते णं भंते ! जीवे कतिकिरिए १, गो० ! सिय तिकि० सिय चउ० सिय पंचकिरिए, ते णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया १, गो० ! एवं चेव, से णं भंते! ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघातेणं कतिकिरिया !, गो० ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकि०, एवं मणूसेवि ( सूत्रं ३४३ )
‘जीवे णं भंते ! वेउच्चिए' इत्यादि प्राग्वत्, नवरमायामत उत्कर्षतः सङ्ख्येयानि योजनानि, एतच्च वायुकायिकवर्जनैरयिकाद्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि वैक्रियसमुद्घातमारभमाणास्तथाविधप्रयत्नविशेषभावतः सङ्ख्येयान्येव योजनान्युत्कर्षतोऽप्यात्मप्रदेशानां दण्डमारचयन्ति, नासङ्ख्येयानि योजनानि, वायुकायिकास्तु जघन्यतो वा उत्कर्षतो वा अङ्गुलासङ्ख्येयभागं तावत्प्रमाणं चोत्कर्षतो दण्डमारचयन्तस्तावति प्रदेशे तैजसादिशरीरपुद्गलान् आत्मप्रदेशेभ्यो विक्षिपन्ति, ततस्तैः पुद्गलैर्भूतं क्षेत्रमायामत उत्कर्षतोऽपि सङ्ख्येयान्येव योजनान्यवाप्यन्ते, एतच्चैवं क्षेत्रप्रमाणं
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३६ समुद्घातपदं
समुद्धातपुद्गलस्प शादि सु.
३४३
॥५९६॥
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केवलं वैक्रियसमुद्घातसमुद्भवं प्रयत्नमधिकृत्योक्तं, यदा तु कोऽपि वैक्रियसमुद्घातमधिरूढो मरणमुपश्लिष्टः कथ
मप्युत्कृष्टदेशेन त्रिसामायिकेन विग्रहेणोत्पत्तिदेशमभिगच्छति तदा सङ्ख्यातीतान्यपि योजनानि यावदायामक्षेत्रम|| वसेयं, तावत्प्रमाणं क्षेत्रापूरणं मरणसमुद्घातप्रयत्नसमुद्भवमिति सदपि न विवक्षितं, 'एकदिसि विदिसिं वा' इति, तत् ।
जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामक्षेत्रमेकस्यां दिशि विदिशि वा द्रष्टव्यं, तत्र नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियतिरश्चा वायुकायिकानां च नियमादेकदिशि, नैरयिका हि परवशा अल्पर्द्धयश्च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाश्वाल्पर्द्धय एव वायुकायिका विशिष्टचेतनाविकलास्ततस्तेषां वैक्रियसमुद्घातमारभमाणानां यदि परं तथास्वाभाव्यादेवात्मप्रदेशदण्डविनिर्गमस्तेभ्यश्चात्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्य पुद्गलानां च खभावतोऽनुश्रेणिगमनं न तु विश्रेणितः ततो दिश्येव नैरयिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियवायुकायिकानामायामतः क्षेत्रं द्रष्टव्यं, नतु विदिशि, ये तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका मनुप्याश्च ते खेच्छाचारिणो विशिष्टलब्धिसम्पन्नाश्च भवन्ति ततस्ते कदाचित्प्रयत्नविशेषतो विदिश्यप्यात्मप्रदेशानां दण्डं विक्षिपन्तस्तत्र तेभ्य आत्मप्रदेशेभ्यः पुद्गलान् विक्षिपन्तीति तेषामेकस्यां दिशि विदिशि वा प्रत्येतव्यं । वैक्रियसमुद्घातगतश्च कोऽपि कालमपि करोति विग्रहेण चोत्पत्तिदेशमभिसर्पति ततो विग्रहगतिमधिकृत्य कालनिरूपणार्थमाह-से णं भंते!' इत्यादि, तत् भदन्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्पचिदेशं यावत् 'केवइकालस्स'त्ति तृतीयाथै षष्ठी कियता कालेनापूर्ण कियता कालेन स्पृष्टं ?, भगवानाह-गौतम! एकसामयिकेन वा द्विसाम
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ .
॥५९७ ॥
यिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण आपूर्ण स्पृष्टमिति गम्यते, किमुक्तं भवति ? - विग्रहगतिमधिकृत्य मरणदशादारभ्य उत्पत्तिदेशं यावत् क्षेत्रस्यापूरणमुत्कर्षतः त्रिभिः समयैरवाप्यते न चतुर्थेनापि समयेन, वैक्रियसमुद्घातगतो हि वायुकायिकोऽपि प्रायासनाढ्यामेवोत्पद्यते, त्रसनाढ्यां च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक इति, उपसंहारमाह - 'एवइकालस्स' इत्यादि सुगमं, 'सेसं तं चेवेत्यादि अत ऊर्द्ध शेषं सूत्रं तदेव - यत्प्राक् वेदनासमुद्घाते उक्तं तच तावत् यावदन्तिमपदं 'पंचकरियावि' इति, एवं 'नेरइएणवि' इत्यादि सूत्रं तु स्वयं भावनीयं यस्तु दिग्विदिगपेक्षया विशेषः स प्रागेव दर्शितः । सम्प्रति तैजससमुद्घातमभिधित्सुराह - 'जीवे णं भंते! तेयगसमुग्वापण' मित्यादि, सुगमं, नवरमयं तेजससमुद्घातश्चतुर्देव निकायतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां सम्भवति न शेषाणां, ते च महाप्रयत्नवन्त इति तेषां तेजस्समुद्घातमारभमाणानां जघन्यतोऽपि क्षेत्रमायामतोऽङ्गुलासङ्ख्येय भागप्रमाणं भवति, न तु सयेय भागमानं, उत्कर्षतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं तच जघन्यत उत्कर्षतो या यथोक्तप्रमाणं क्षेत्रं तिर्यक्पञ्चेन्द्रियवर्णानामेकस्यां दिशि विदिशि या वक्तव्यं, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तु दिश्येव, अत्र युक्तिः प्रागुक्तैवानुसव्या, तथा चाह एवं जहा वेउचियसमुग्धाएं' इत्यादि । तदेवमुक्तस्तैजससमुद्घातः, साम्प्रतमाहारकसमुद्घा तं | प्रतिपिपादयिषुराह 'जीवे णं भंते!' इत्यादि, एतच्च सूत्रं तैजससमुद्घातवद्भावनीयं, नवरमयमाहारकसमुद्घातो मनुष्याणां तत्राप्यधीत चतुर्दशपूर्वाणं तत्रापि केषाञ्चिदेवाहारकलब्धिमतां न शेषाणां, ते चाहारकसमुद्घातमारभ
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३६ समुद्घातपदं
समुद्धातपुनलस्प शदि स
३४३
॥५९७॥
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ISI माणा जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामतः क्षेत्रमात्मप्रदेशविश्लिष्टैः पुद्गलैरापूरयन्त्येकस्यां दिशि, न तु| I| विदिशि, विदिशि तु प्रयत्नान्तरविशेषादात्मप्रदेशदण्डविक्षेपः पुद्गलैरापूरणं च, न च ते प्रयत्नान्तरमारभते प्रयोजना-11
भावात् गम्भीरत्वाचेति, माहारकसमुद्घातगतोऽपि च कोऽपि कालं करोति विग्रहेण चोत्पद्यते विग्रहश्वोत्कर्षतत्रिसामयिक इति 'एगदिसिं एवइए खेचे फुडे' तथा 'एगसमइएण वा दुसमइएण वा' इत्याद्युक्तं, तथा मनुष्याणामेहायमाहारकसमुद्रात इति चतुर्विशतिदण्डकचिन्तोपक्रमे 'एवं मणसेवि' इत्युक्तं, असायमर्थः एवं सामा. न्यतो जीवपदे इव मनुष्येऽपि-मनुष्यचिन्तायामपि सूत्रं वक्तव्यं, जीवपदे मनुष्यानेवाधिकृत्य सूत्रस्य प्रवृत्तत्वाद्, अन्येषामाहारकसमुदधातासम्मवात् ॥ तदेवं षण्णामपि छानस्थिकानां समुदघातानामारम्भे जघन्यतः उत्कर्षतो वा यावामाणं क्षेत्रमात्मविश्विष्टः पुदलैर्यथायोगमौदारिकादिशरीराधन्तर्गतैरापूरितं भवति तावत्नमाणमावेदित, सम्प्रति केवलिसमुद्घातविधौ पचाखरूपैः पदावतप्रमाषख क्षेत्रसापूरणमुपजायते तथाखरूपैः पुगलैस्तावामा-1 णस क्षेत्रस्यापूरणमनिधित्सुराह
अणमारस्स भो!भावियप्पणो केवलिसमुग्धातेणं समोहयस्स जे चरमा निञ्जरापोग्गला सुहमा ण ते पोग्गला पं०१ समभाउसो, सबलोगंपियण ते फसित्ताणं चिति ,हंता! गो! अणगारस्स भावियप्पणो केवलिसमुग्धाएणं समोहपस्स जेपरमा निजरापोग्गला सुहुमा ते पोग्गला पं० समणाउसो, सबलोगंपिय गं फुसित्ताणं चिट्ठति । छउ
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प्रज्ञापना
या मलयवृत्ती.
३६ समुद्घातपर्द केवलिस
मुबातनि
५९८॥
जरापुद्गलसूक्ष्मता सू.३४४
मत्थे णं भंते ! मणसे तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेण वा रसं फासेण वा फासं जाणति पासति ?, गो० ! णो इणहे समठे, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं २ गंधेणं २ रसेणं २ फासेणं २ णो जाणति पासति ?, गो० ! अयण्णं जंबूद्दीवे दीवे सबदीवसमुदाणं सबभंतराए सबखुड्डाए बट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिते वट्टे रहचक्वालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एगं जोअणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोणि सत्तावीसे जोयणसते तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिते परिक्खेवेणं पं०, देवेणं महिडीते जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गतं गहाय तं अवदालेति तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गतं अवदालइत्ता इणामेव कट्ट केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हत्वमागच्छेजा, से नूणं गो० ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं पाणपोग्गलेहि फुडे १, हंता ! फुडे, छउमत्थे णं गोतमा ! मणूसे तेसिं घाणपुग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ?, भगवं ! नो इणढे समढे, से एएणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणूसे तेसिं निजरापोग्गलाणं नो किंचि वण्णेणं वण्णं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति, सुहुमाणं ते पोग्गला पं० समणाउसो !, सबलोगंपिय णं फुसित्ताणं चिडति (सूत्र ३४४) 'अणगारस्स णं भंते' इत्यादि, इह केवलिसमुद्रातः केवलिनो भवति, न छद्मस्थस्य, केवली निश्चयनयमते
॥५९८॥
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S899999999999
नानगारो न गृहस्थो नापि पाखण्डी, स च नियमाद् भावितात्मा विशिष्टशुभाध्यवसायकलितत्वात्, अन्यथा केवलित्वानुपपत्तेः, तत उक्तमनगारस्य भावितात्मन इति, केवलिसमुद्घातेन-उक्तखरूपेण समवहतस्य ये चरमाः-चरमसमयभाविनश्चतुर्थसमयमाविन इत्यर्थः, तैरेव सकललोकापूरणात् , 'निर्जरापुद्गला' इति निर्जरागुणयोगात् निर्ज-18 रा:-निर्जीर्णा इत्यर्थः ते च ते पुद्गलाश्चेति विशेषणसमासः, किमुक्तं भवति -ये लोकापूरणसमये पुद्गला आत्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्टाः परित्यक्तकर्मत्वपरिणामा इति, 'सुहुमा णं ते पुग्गला' इति णमिति निश्चये नियतमेतत् सूक्ष्माःचक्षुरादीन्द्रियपथमतिक्रान्तास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः भगवद्भिहें श्रमण हे आयुष्मन् !, गौतमकृतं भगवतः सम्बोधन-1 मेतत्, तथा णमिति निश्चितमेतत् सर्वलोकमपि ते पुदलाः स्पृष्टा णमिति वाक्यालङ्कारे तिष्ठन्ति ? इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-'हंता गोयमा!' इत्यादि, हन्तेति प्रीती, यदाह शाकटायन:-'हन्तेति सम्प्रदानप्रीतिविषादादिवि'ति, प्रीतिश्चात्र यथावस्थितखरूपप्रतिपादकत्वात् प्रश्नसूत्रस्य साम्मत्यलक्षणा वेदितव्या, न तु हर्षरूपा, क्षीण-18 मोहत्वेन भगवतो हर्षविषादातीतत्वात् साम्मत्यमेव ख्यापयति, यदुक्तं गौतमेन तदेवानुवदति-'अणगारस्से'त्यादि भावितार्थ । सूक्ष्माः पुद्गला इत्युक्तं, तच सूक्ष्मत्वमापेक्षिकमपि भवति यथा बदरादीनामामलकाद्यपेक्षया, ततश्चक्षुरादीन्द्रियगोचरातिक्रान्तरूपं तत्प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'छउमत्थे णं भंते !' इत्यादि, छद्मस्थो भदन्त ! मनुष्यः तेषां-अनन्तरोद्दिष्टानां निर्जरापुदलानां किञ्चिदिति प्रथमतः सामान्येन प्रयुक्तं जानाति पश्यतीति सम्बध्यते,
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समाह-/घातपर्द
प्रज्ञापनासपना- एतदेव विशेषतो व्याचष्टे-'वर्णेन' वर्णग्राहकेण चक्षरिन्द्रियेण वर्ण्यते-यथावस्थितं वस्तुखरूपं निर्णीयते अनेनेति
३६ समुया: मल- वर्ण इति व्युत्पत्तेः वर्ण-कृष्णादिरूपं 'गन्धेन' गन्धग्राहकेण नासिकेन्द्रियेण 'गन्ध आघ्राणे 'चुरादिभ्यो णिच् || यवृत्ती. गन्ध्यते-आघायते शुभोऽशुभो वा गन्धोऽनेनेति गन्ध इति व्युत्पादनात् गन्धं शुभमशुभं वा 'रसेन' रसग्राह
ISI केण रसनेन्द्रियेण रस्सते-आखाद्यतेऽनेनेति शब्दार्थत्वात् रसं-तिक्तादिरूपं, 'स्पर्शन' स्पर्शग्राहकेण स्पर्शनेन्द्रि- मुद्धातनि
येण स्पृश्यते कर्कशादिरूपः परिच्छेद्यवस्तुगतः स्पर्शोऽनेनेति स्पर्श इति व्युत्पादनात् 'स्पर्श' कर्कशादिरूप। जरापुद्गलजानाति पश्यतीति !, मगवानाह-गौतम । नायमर्थः समर्थः उपपन्न इत्यर्थः, पुनर्गौतमः प्रश्नयति-से केण-18॥
सूक्ष्मता तुणं भंते' इत्यादि, उत्तानार्थ, भगवानाह-गौतम ! 'अयण्ण'मित्यादि, अयं-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानः, णमिति वाक्यालङ्कारे, अष्टयोजनोच्छ्तिया रत्नमय्या जम्ब्वा उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपो द्वीपः, 'सर्वाभ्यन्तरक' इति सर्वे। पामम्पन्तरो-मध्यवर्ती सर्वाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः "जाती वा खार्थे क" इति प्राकृतलक्षणवशात् ॥
खायें कप्रत्ययः, केषां सर्वेषामभ्यन्तर इत्याह-सर्वद्वीपसमुद्राणां, तथाहि-सर्वे-अशेषा द्वीपसमुद्रा जम्बूद्वीपादाकारभ्यागमामिहितेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणविस्तारा व्यवस्थिताः ततो भवति द्वीपसमुद्राणामेव जम्बूद्वीपोऽभ्यन्तरः,
तथा 'सबसुहागे' इति सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-इखः सर्वक्षल्लकः, तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे हाच पातकीखण्डादयो बीयाः अवाजम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोकेन क्रमेण द्विगुणद्विगुणचक्रवालवितताः ततः शष
यमर्थः समः स्पर्श इति व्युत्पादन' स्पर्शग्राहकेण
सू.३४४
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॥ द्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं सर्वलधुरिति, तथा वृत्तो-वर्नुलो, यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन हि पक्कोऽपूपः प्रायः ||
परिपूर्णवृत्तो मवति न घृतपक्व इति तैलविशेषणं, तस्येव संस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो जम्बूद्वीपो द्वीपो यतो रथच
वालसंस्थानसंस्थितः, रथस्य-रथाङ्गस्य चक्रस्य चक्रवालं-मण्डलं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितः, एवं सूत्रोक्त|मन्यदपि पदद्वयं भावनीयं, 'आयामविक्खंभेणं'ति आयामश्च विष्कम्भश्चेति समाहारो द्वन्द्वः तेन आयामेन विष्कम्भेन च प्रत्येकमेकं योजनशतसहस्रमित्यर्थः,परिधिपरिमाणानयनगणितं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादावनकशो भावितमिति ततो
ऽवधायें 'देवे णमित्यादि, देवश्च णमिति वाक्यालङ्कारे 'महर्द्धिक' इति महती ऋद्धिः-विमानपरिवारादिका यस्याIS सो महर्द्धिका 'नाव महासोक्खे' इति यावत्शब्दकरणात् 'महज्जुइए महाबले महायसे' इति द्रष्टव्यं, तत्र महती।
पुतिम् पारीरामरणविषया यस्य स महाद्युतिः, महलं-शारीरः प्राणो यस्य स महाबलः, महत् यशः-ख्यातियेस्स इस महायशाः, तथा महत्-प्रभूतं सौख्यं यस्य प्रभूतसद्वेद्यकर्मोदयभावादिति महासौख्यः, क्वचित्-'महेसक्खे' इति । हापाठ, तत्र महान् ईश-ईश्वरं इत्याख्या-शब्दप्रथा यस्य लोके स महेशाख्यः, अथवा ईशनमीशो, भावे घञ्प्र
त्या, ऐचर्यमित्यर्थः, 'ईश ऐश्वर्य' इति वचनात् , तत ईशं-ऐश्वर्यमात्मनः ख्याति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापहायति प्रकाशयति तथा परिवारादिस्फीत्या वर्चते इति ईशाख्यः महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, अन्यत्र 'महा
सक्खें' इति वा पाठः, तत्रैवं वृद्धव्याख्या-आशुगमनादश्वं-मनः अक्षाणि-इन्द्रियाणि खखविषयव्यापकत्वात् , अक्ष
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aese
प्रज्ञापना- या: मलय० वृत्ती.
॥६००॥
४ मुद्धातनि
शब्दो हि प्रायेणाशुङ् व्याप्तावित्यस्य धातोर्निष्पाद्यते, अश्वश्चाक्षाणि च अश्वाक्षाणि, महान्ति-स्फीतिमन्ति अश्वा-३६ समुक्षाणि यस्यासौ महाश्चाक्षः, स्फीतमनाः स्फूर्त्तिमच्चक्षुरादीन्द्रियश्चेत्यर्थः, एकं महान्तं-अतिगुरुकमन्यथा स्तोकतया | द्घातपदं तद्गतर्गन्धपुद्गलैः सकलस्य जम्बूद्वीपस्य व्याप्तुमशक्यत्वात् , 'सविलेवण'मिति सह विशिष्टं-अतिसूक्ष्मरंध्राणामपि ४ केवलिसस्थगनात् लेपनं लेपो-जत्वादिकृतं पिधानमुपरि वर्तते येन स तथा तं, विशिष्टलेपप्रदानाभावे हि बहवः सूक्ष्मरन्धैर्गन्धपुद्गला निर्गच्छन्ति तत उद्घाटनवेलायां तेषां स्तोकीभावेन सकलजम्बूद्वीपापूरणं नोपपद्यते, 'गंधसमुग्गय'ति
रापुद्गलगन्धद्रव्यैरतिविशिष्टैः परिपूर्ण भृतः समुद्को गन्धसमुद्कस्तं 'अबदालेइ'त्ति अवदालयति उत्पाटयतीत्यर्थः, 'इणामे
सूक्ष्मता वेति एवमेवेत्यर्थः 'केवलकप्प'ति केवलं केवलज्ञानं तत्कल्पं परिपूर्णतया तत्सदृशं परिपूर्णमित्यर्थः, जम्बूद्वीपं
सू.३४४ द्वीपं त्रिभिः अप्सरोनिपातो नाम-चप्पुटिका ततस्तिसृभिः चप्पुटिकाभिरिति द्रष्टव्यं, चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणं, ततोऽयमर्थः-यावता कालेन तिस्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते तावत्कालमध्ये इति, त्रिसप्तकृत्वः-एकविंशतिवारान् अतिपरिवर्त्य-सामस्त्येन परिभ्रम्य 'हवं' शीघ्रमागच्छेत् -समागच्छेत् 'से नूर्ण'इत्यादि, सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्ध्या अथशब्दार्थे, अथशब्दस्य चार्थो वाक्योपन्यासादयः, उक्तं च-'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलाधिकारवाक्योपन्या
॥६००॥ सेषु' तत्रायं वाक्योपन्यासे, तद्भावना च एवं-उक्तस्तावत् विवक्षितार्थप्रतिपत्तिहेतोदृष्टान्तस्य पीठिकाबन्धः, सम्प्रति विवक्षितार्थप्रतिपत्तिहेतुदृष्टान्तवाक्यमुपन्यस्यते, नूनं-निश्चितं, गौतम ! स केवलकल्पो जम्बूद्वीपस्तैग
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न्धसमुद्काद्विनिर्गतैः प्राणपुद्गलैः-गन्धपुगलैः स्पृष्टो-व्याप्तः, काका चेदं सूत्रमधीयते ततःप्रश्नोऽवगम्यते, अथवा प्रश्नार्थः सेशब्दस्ततोऽअसा प्रश्नयतीति, गौतम ! आह-हंत ! स्पृष्टो गन्धपुद्गलानां सर्वतोऽगिसर्पणशीलत्वात् , पुनरपि भगवानाह-'छउमत्थे ण'मित्यादि सुगमम् , एष चात्र भावार्थः-यथा ते सकलजम्बूद्वीपव्यापिनो गन्धपुदगलाः सूक्ष्मत्वात् न छद्मस्थानां चक्षुरादीन्द्रियगम्यास्तथा सकललोकव्यापिनो निर्जरापुद्गला अपीति, उपसंहारमाहएसुहुमाणं'ति एतावत्सूक्ष्माः अथ यन्निमित्तं केवली समुद्घातमारभते तत्पिपृच्छिषुरिदं प्रश्नसूत्रमाहकम्हाणं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छति?, गो! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिण्णा भवंति, तं०-वेदणिज्जे आउए नामे गोए, सबबहुप्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे हवति सबत्थोवे आउए कम्मे हवइ, विसमं समं करेति बंधणेहिं ठितीहि य, विसमसमीकरणयाए बंधणे हिं ठितीहि य एवं खलु केवली समोहणति, एवं खलु समुग्घायं गच्छति, सब्वेविणं भंते ! केवली समोहणंति सववि णं भंते ! केवली समुग्धांतं गच्छंति ?, गो०! णो इणढे समढे, "जस्साउएण तुल्लाति, बंधणेहिं ठितीहि य । भवोवग्गह कम्माई, समुघात से ण गच्छति ॥१॥ अगंतूणं समुग्धातं, अणंता केवली जिणा । जरमरणविप्पमुका, सिद्धिं वरगतिं गता ॥ २॥ (सूत्रं ३४५) कतिसमतिए णं भंते ! आउज्जीकरणे पं० १, गो० ! असंखेज्जसमतिए अंतोमुहुत्तिए आउजीकरणे पं० (सूत्रं ३४६) कतिसमतिए णं भंते ! केवलिसमुग्घाए पं०१, गो! अट्ठसमतिते पं०, तं०-पढमे समए दंडं करेति बीए समए कवाडं करेति ततिए समए मंथं
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प्रज्ञापना
फरेति चउत्थे समए कोगे पूरेति पंचमे समए लोयं पडिसाहरति छढे समए मंथं पडिसाहरति सत्तमए समए कवाडं याः मल
पडिसाहरति अट्ठमे समए दंड पडिसाहरति, दंडं पडिसाहरेत्ता तओ पच्छा सरीरत्थे भवति । से णं भंते ! तहा समु- द्घातपदे य.वृत्ती . ग्पायगते कि मणजोग झुंजति वइजोगं गँजति कायजोगं जुजति ?, गो! नो मणजोगं सृजति नो बइजोगं जुजति केवलिस
कायजोगं झुंजति, कायजोगे णं भंते ! जुजमाणे किं ओरालियकायजोगं जुजति ओरालियमीसासरीरकायजो० किं केउब्वि- मुद्धातप्र॥६०१॥ घसरीरकाययोगं वेउधियमीसासरीरकायजोगं० किं आहारगसरीरका. आहारगमीसासरीरका० किं कम्मगसरीरका० १,
1 योजन गो०! ओरालियसरीरकायजोगपि जुजति ओरालियमीसासरीरकायजोगपि झुंजइ, नो वेउवियसरीरका० नो वेउविय
आवर्जीमीसा० नो आहारसरीरका० नो आहारगमीसास० कम्मगसरीरकायजोगपि जुजति, पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीर
करणं केवकायजोगं झुंजति बितियछसत्तमेसु समएसु ओरालियमीसासरीरकायजोगं गँजति, ततियचउत्थपंचमेसु समएसु कम्म
| लिसमु. गसरीरकायजोगं झुंजति (सूत्रं ३४७)
खातःसू.
३४५-३४६ 'कम्हाण'मित्यादि, कस्मात् कारणात् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! 'केवली' केवलज्ञानोपेतः समुद्घातं 191 SI गच्छति-आरमते, कृतकृत्यत्वात् किल तस्येति भावः, भगवानाह-'गोयमे'त्यादि, गौतम ! केवलिनश्चत्वारः ‘कमों-18॥६०१॥
शाः' कमेंमेदाः 'अक्षीणाः' क्षयमनुपगताः, कुत इत्याह-अवेदिताः, अत्र 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायात हेतौ प्रथमा, सतोऽयमर्थः-यतोऽवेदिताः ततोऽक्षीणाः, कर्मणां हि क्षयो नियमतः
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भुज्यते कानुभावानजीर्णाः' सामस्त्येनात्मय केवलिनः सर्वबहुप्रदेश
प्रदेशतो विपाकतो वा वेदनाद् भवति, 'सवं च पएसतया भुजइ कम्ममणुभावतो मइय' [ सर्वच प्रदेशतया भुज्यते कर्मानुभावतो भक्तं] मित्यादि वचनात् , ते चत्वारः कर्माशा अपि अवेदिता अतोऽक्षीणाः, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-'अनिर्जीर्णाः' सामस्त्येनात्मप्रदेशेभ्योऽपरिशाटिताः भवन्ति' तिष्ठन्ति, तानेव नामग्राहमभिधित्सु
राह-'तंजहे'त्यादि सुगम, तत्र यदा 'से' तस्य केवलिनः सर्वबहुप्रदेशं वेदनीयमुपलक्षणमेतत् नामगोत्रे च तथा ३ सर्वस्वोकप्रदेशमायुःकर्म तदा स 'बंधणेहिं ठिइहिन्ति बध्यते-भवचारकात् विनिर्गच्छन् प्रतिबद्यते यैस्ते बन्ध
नाः, 'करणाधारे' इति करणेऽनट्प्रत्ययः, अथवा बध्यन्ते-आत्मप्रदेशैः सह लोलीभावेन संश्लिष्टाः क्रियन्ते योगवशात् ये ते बन्धनाः 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्मणि अनद, उभयत्रापि कर्मपरमाणयो वाच्याः, स्थितयो-वेदनाकालाः, तथा चोक्कं भाष्यकृता-"विसमं स करेइ समं समोहओ बंधणेहि ठिइए य । कम्मदवाई बंधणातिं कालो ठिई तेसिं ॥१॥" [विषमं स करोति समं समवहतो बन्धनः स्थित्या च । कर्मद्रव्याणि बन्धनानि कालः स्थितिस्तेषाम् ॥१॥] ततश्च तैर्बन्धनैः स्थितिभिश्च विषमं सत् वेदनीयादिकं समुद्घातविधिना सममायुषा सह करोति, स एवं खलु केवली बन्धनैः स्थितिभिश्च विषमस्य सतो वेदनीयादिकस्य कर्मणः 'समीकरणयाए' इति अत्र ताप्रत्ययः खार्थिकः, ततोऽयमर्थः-समकरणाय, 'समोहन्नई' इति समवहन्ति–समुद्घाताय प्रयतते, एवं खलु समुद्घातं गच्छति, उक्तं च-"आयुषि समाप्यमाने शेषाणां कर्मणां च यदि समाप्तिः। न स्यात् स्थितिवैष-18
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प्रज्ञापना
याः मल
य० वृत्ती.
॥ ६०२ ॥
म्यात् गच्छति स ततः समुद्घातम् ॥ १ ॥ स्थित्या च बन्धनेन च समीक्रियार्थ हि कर्मणां तेषाम् । अन्तर्मुहूर्त्त - १३६ समुशेषे तदायुषि समुज्जिघांसति सः ॥ २ ॥ ननु प्रभूतस्थितिकस्य वेदनीयादेरायुषा सह समीकरणार्थं समुद्घातः मारभते इति यदुक्तं तन्नोपपन्नं, कृतनाशादिदोषप्रसङ्गात्, तथाहि - प्रभूतकालोपभोग्यस्य वेदनीयादेरारत एवापगमसम्भवात् कृतनाशः, वेदनीयादिनश्च कृतस्यापि कर्मक्षयस्य पुनर्नाशसम्भवान्मोक्षेऽप्यनाश्वासप्रसङ्गः, तदसत्, | कृतनाशादिदोषाप्रसङ्गात्, तथाहि - इह यथा प्रतिदिवसं सेतिकापरिभोगेन वर्षशतोपभोग्यस्य कल्पितस्याहारस्य भस्मकव्याधिना तत्सामर्थ्यात् स्तोकदिवसैर्निःशेषतः परिभोगान्न कृतनाशोपगमः तथा कर्म्मणोऽपि वेदनीयादेः | तथाविधशुभाध्यवसायानुबन्धादुपक्रमेण साकल्यतो भोगान्न कृतनाशरूपदोषप्रसङ्गः, द्विविधो हि कर्म्मणोऽनुभवःप्रदेशतो विपाकतश्च तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मानुभूयते, न तदस्ति किञ्चित् कर्म यत्प्रदेशतोऽप्यननुभूतं सत् क्षयमुपयाति ततः कथं कृतनाशदोषापत्तिः १, विपाकतस्तु किञ्चिदनुभूयते किञ्चिन्न, अन्यथा मोक्षाभावप्रसङ्गात्, तथाहि यदि विपाकानुभूतित एव सर्व कर्म क्षपणीयमिति नियमः तर्ह्यसङ्ख्यातेषु भवेषु तथाविधविचित्राध्यवसायविशेषैर्यन्नरकगत्यादिकं कर्मोपार्जितं तस्य नैकस्मिन् मनुष्यादावेव भवेऽनुभवः, खखभवनिवन्धनत्वात् तथाविधविपाकानुभक्स्य, क्रमेण च खखभवानुगमनेन वेदने नारकादिभवेषु चारित्राभावेन प्रभूततरकर्मसन्तानोपचयात् तस्यापि स्वस्वभवानुगमनेनानुभवोपगमात् कुतो मोक्षः १, तस्मात् सर्वे कर्म विपाकतो भाज्यं
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दुधातपदे केवलिस
मुद्धातप्र
योजनं आवर्जी
करणं केव
लिसमु
द्धातः सृ. ३४५-३४६
३४७
॥६०२॥
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प्रदेशतोऽवश्यमनुभवनीयमिति प्रतिपत्तव्यं, एवं च न कश्चिदोषः, नन्वेवमपि दीर्घकालभोग्यतफा तछेदनीयादिकं कर्मोपचितं अथ च परिणामविशेषादुपक्रमेणारादेव तदनुभवति ततः कथं न कृतनाशदोषापत्तिः, तदप्यसम्यक, बन्धकाले तथाविधाध्यवसायवशादादावुपक्रमयोग्यस्यैव तेन बन्धनात्, अपिच-जिनक्चनप्रामाण्यादपि वेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यः, यदाह भाष्यकृत्-"उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया। दवाई पंचगं पड़ जुत्तमुवक्कमणमेत्तोवि ॥१॥" [उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा यस्माच कर्मणो भणिताः। द्रव्यादिपञ्चक प्रति युक्तमुपक्रमणमितोऽपि ॥१॥] न चैवं मोक्षोपक्रमहेतुः कश्चिदस्ति येन तत्रानाथासप्रसङ्गः, यथा चन मोक्षोपक्रमहेतुः कश्चिदस्ति तथाऽन्तिमसूत्रे भावयिष्यते, ततो यदुक्तं 'वेदनीयादिवच कृतस्यापि कर्मक्षयस्से'त्यादि। न तत्सम्यगुपपन्नमिति स्थितं, अपर आह-ननु यदा वेदनीयादिकमतिप्रभूतं सर्वस्तोकं चायुस्तदा समधिकवेदीयादिसमुद्घातार्थ समुद्रातमारभतां, वेदनीयादेः सोपक्रमत्वात्, यदा त्वधिकमायुः सर्वस्तोकं च वेदनीयादिकं तदा का वार्ता ?, न खल्वायुषः समधिकस्य समुद्घाताय समुद्घातः कल्प्यते, चरमशरीरिणामायुषो निरुपक्रमत्वात् 'चरमसरीरा य निरुवकमा' इति वचनात् , तदयुक्तं, एवंविधभावस कदाचनाप्यभावात् , तथाहि-सर्वदैव वेदनीयाद्यवायुषः सकाशादधिकस्थितिकं भवति, न तु कदाचिदपि वेदनीयादेरायुः, अथैवंविधो नियमः कुतो लभ्यः | |ते?, उच्यते, परिणामखाभाव्यात, तथाहि-इत्थंभूत एवात्मनः परिणामो येनास्यायुर्वेदनीयादेः समं भवति
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JM
प्रज्ञापना- न्यूनं वा न तु कदाचनाप्यधिकं, यथैतस्यैवायुषः खल्वध्रुवबन्धः, तथाहि-ज्ञानावरणादीनि कर्माणि आयुर्वर्जानि याः मल-18 सप्तापि सदैव बध्यन्ते, आयुस्तु प्रतिनियत एव काले खभवत्रिभागादिशेषरूपे, तत्र चैवंविधवैचित्र्यनियमे न स्व- यवृत्ती. भावादृतेऽपरः कश्चिदस्ति हेतुरेवमिहापि स्वभावविशेष एव नियामको द्रष्टव्यः, आह च भाष्यकृत्-"असमठिईणं ॥६०३॥
नियमो को थेवं आउयं न सेसंति । परिणामसहावाओ अदुवबंधोवि तस्सेव ॥१॥" [असमस्थितिषु को नियमः-स्तोकमायुःन शेषाणि । परिणामस्वभावात् अध्रुवबन्धोऽपि तस्यैव ॥१॥] अथ विशेषपरिज्ञानाय गौतमो भगवन्तं पृच्छति-सवेवि णमित्यादि, णमिति निश्चये सर्वेऽपि खलु केवलिनः समवनन्ति-समुद्घाताय प्रयतन्ते, प्रयत्नानन्तरं च सर्वेऽपि खलु केवलिनः समुद्घातं गच्छन्ति ?, इति गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवान्निर्वचनमाह-गोयमे'त्यादि, गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्थः उपपन्नः, किमुक्तं भवति ?-सर्वेऽपि केवलिनः समुद्घाताय न प्रयतन्ते नापि समुद्घातं गच्छन्ति, किन्तु येषामायुषः समधिकं वेदनीयादिकं, यस्य पुनः खभावत एवायुषा सह समस्थितिकानि वेदनीयादीनि कर्माणि सोऽकृतसमुद्घात एव तानि क्षपयित्वा सिध्यति, तथा चाह-'जस्से'त्यादि, यस्य केवलिन आयुषा सह भवे-मनुष्यभवे उप-समीपेन गृह्यते-अवष्टभ्यते यस्तानि भवोपन
हाणि तानि च तानि कर्माणि च भवोपग्राहकर्माणि वेदनीयनामगोत्राणि बन्धनैः-प्रदेशैः स्थितिभिश्च तुल्याSनि-समानि भवन्ति स समुद्घातं न गच्छति, अकृतसमुद्घात एव तानि क्षपयित्वा स सिद्धिसौधमध्यास्ते इति
३६ समुद्घातपदे केवलिसमुद्धातप्रयोजनं आवजीकरणं केवलिसमु. द्धातःसू. ३४५-३४६ ३४७
॥६०३॥
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भावः,
उक्तं च –“जस्स उ तुल्लं भवइ य कम्मचउक्कं सभावतो जो य । सो अकयसमुग्धाओ सिज्झइ जुगवं खवेऊणं ॥ १ ॥ " [ यस्य तु तुल्यं भवति तु कर्मचतुष्कं खभावतो यश्च ( समकर्मा) । सोऽकृतसमुद्घातः सिध्यति युगपत् क्षपयित्वा ॥ १ ॥ ] अथायं कदाचित्को भाव उत बाहुल्यभावः ?, तत आह - ' अगंतूण समुग्धाय' मित्यादि, अगत्वा समुद्घातं - केवलिसमुद्घातं 'सिद्धिं' चरमगतिं गता इति सम्बन्धः कियत्सङ्ख्या का इत्याह- अनन्ताः - अनन्तसङ्ख्याकाः 'केवलिनः' केवलज्ञानदर्शनोपेताः, अनेन ये नवानामात्मगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष इति प्रतिपनास्तेऽपास्ता द्रष्टव्याः, ज्ञानस्य निरुपचरितात्मखभावत्वात् तस्य च विनाशायोगाद्, अन्यथाऽऽत्मन एवाभावापत्तेः, नं चात्मनो निरन्वयो विनाशः, सतः सर्वथा विनाशायोगात्, 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत' इति न्यायात्, तथा जिना - जितरागादिशत्रवः, अनेन गोशालकमतापाकरणमाह, ते हि मुक्तिपदमध्यासीनमपि न तत्त्वतो वीतरागमपि मन्यन्ते, 'अवाप्तमुक्तिपदा अपि तीर्थनिकार दर्शनादिहागच्छन्ती'ति वचनात्, तत्त्वतो वीतरागस्य च पराभवबुद्धे रिहागमनस्य चासम्भवात् पुनः कथंभूता इत्याह- ' जरामरणविप्रमुक्ता' जरा च मरणं च जरामरणे ताभ्यां विप्रमुक्ता जरामरणविप्रमुक्ताः, जरामरणग्रहणमुपलक्षणं तेन समस्त रोगशोकादिसांसारिकक्लेशविमुक्ता इति द्रष्टव्यं एतेन एकान्ततो मोक्षसौख्यस्योपादेयतामाह, अन्यस्यैवंविधस्वरूपस्य स्थानस्यासम्भवात् नहि संसारे प्रकर्षसुखप्राप्तमपि स्थानमेवंविधमस्ति, सर्वस्यापि मरणपर्यवसानत्वात्, सेधनं सिद्धिः - अशेषकर्माशापगमेनात्मनः
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प्रज्ञापना- खरूपेऽक्वान्ता वरा-सर्वगतीमामुत्तमा गम्यते इति गतिरगतिस्तां वरगतिरूपामित्यर्थः गताः-प्राप्ताः, इस ३६ समु. या:मल- सर्वोऽपि केवली केवलिसमुद्घातं गच्छन् प्रथमत आवर्जीकरणमुपगच्छति, तथा च केवलिसमुद्घातप्रक्रियां बिम- द्घातपदे य० वृत्ती. 18|णिषुः समुदुधातशब्दव्याख्यानपुरस्सरमाह भाष्यकार:-"तत्थाउथअंससाहियकम्मसमुग्घायणं समुथाओ। तं|
केवलिसगंतुमणा पुवं आउजीकरणं उवे ॥ १॥” [ तत्रायुरंशाधिककर्मसमुद्घातनं समुद्घातः । तं गन्तुमनाः पूर्वमाष-16
मुद्धातप्र॥६०४॥
योजन जीकरणमुपयाति ॥ १ ॥] अथावर्षीकरणमिति का शब्दार्थः, उच्यते, आवर्जनमावर्जः-आत्मानं प्रति मोक्ष-16
आवर्जीस्वाभिमुखीकरणं आत्मनो मोक्षं प्रत्युपयोजनमिति तात्पर्यार्थः, आथया आषयेते-अभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति करण केवआवर्जः-शुभमनोवाकायव्यापारविशेषः, उक्तं च-आवबणमुवलोगो कावारो का' इति, तत उभयत्रापि अतस्य 8
|लिसमुतस करणमिति विषक्षायां विप्रत्ययः आवर्जीकरणं, अपरे आवर्जितकरणमित्याहुः तत्रायं शब्दार्थ-आवर्जितो
द्धातःसू. नाम अमिमुखीकृता, तथा च लोके क्त्तारू: 'आयर्जितोऽयं मया, सम्मुखीकृत' इत्यर्थः, ततश्च तथाभन्यत्वेनावर्जित- ३४५-३४६. स्व-मोक्षामनं प्रत्यभिमुखीश्वतख कारणं-क्रिया शुभयोगव्यापारणं आवर्जितकरणं, अपरे 'आउजियाकरणमिति
३४७ पठन्ति, तत्रैवं शब्दसंस्कारमाचक्षते-आयोजिकाकरणमिति, अयं चात्राम्बयार्थ:-आमर्यादायां आ-मर्यादया ॥६०४॥
लिया. योजन:-शुभानां योगानां व्यापारणमायोजिका, भाके कुत्र, तस्याः करणमायोजिकाकरगं, अन्ये 'आउस्सियकरण मिति ब्रुवते, तत्राण्ययमन्यर्थ:-आवश्यकेन-अवश्यंभावन करणमानश्यककरणं, तथाहि-समुः
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Rad, नवरमेवं भावार्थो-या
लोगतमामिण सो सदेहविक्सा
द्घात केचित्कुर्वन्ति केचिञ्च न कुर्वन्ति इदं त्वावश्ययाकरण सर्वेऽपि केवलिनः कुर्वन्तीति, सम्प्रत्यास्सैकावळकर-2
कालप्रमाणनिरूपणार्थप्रश्ननिर्ववनसूत्रे आह-'पाइसमइए पमित्यादि सुपम, आवर्जीकरणानन्तरं चाव्यवधा-1 नेनः कोकलिसमुद्घातमारभते, सच कतिसामधिक इत्यावायां तत्समस्यनिरूपणार्थमाह-कासमइए णमित्यादि
सुगम, तत्रावलिन् समये यत्करोति तदर्शयति-तंजहा-पढमे समए' इत्यादि, इसमपि सुगम, प्रामेव व्याख्या18 तत्वात्, नवरमेवं भावार्थो-यथाऽऽधेश्चतुर्भिः समयैः ऋमेवात्मप्रदेशानां विस्तारणं तथैव प्रतिलोमं क्रमेण संहरण
मिति, उक्तं तदन्यत्रापि-"उहुंअहो य लोगंतमामिणं सो सदेहविक्खम। पढमे समर्थमि दंडं करेइ विक्ष्यामि। काय कवाडं ॥१॥ तस्यसमयमि मथं चउत्थए लोगपूरणं कुणः। पडिलोमं साहरणं काउं तो होश देवत्यो ॥२॥" ISI[अर्ध्वमधच लोकान्तगामिनं स खदेहविष्कम्भम् । प्रथमे समये दण्डं करोति द्वितीये च कपाटम् ॥१॥ तृतीये
मन्यानं चतुर्ये लोकपूरणं करोति । प्रतिलोमं संहरणं कृत्वा ततो भवति देहस्थः ॥२॥] अस्मिंश्च समुद्घाते |क्रियमाणे सति यो योगो व्याप्रियते तमभिधित्सुराह-से णं भंते ! इत्यादि, तत्र मनोयोगं वाग्योगं वा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् , आह च धर्मसारमूलटीकायां हरिभद्रसूरि:-"मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात्" काययोग पुनर्युआन औदारिककाययोगमौदारिकमिश्रकाययोगं कार्मणकाययोगं का युनक्ति, न शेष लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्यासम्भवात्, तत्र प्रथमे अष्टमे च समये केवलमौदारिकमेच शरीरं व्या
तो होश देहत्या ॥२॥RI
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प्रज्ञापना- प्रियते इत्यौदारिककाययोगः, द्वितीये षष्ठे सप्तमे च समये कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वात् औदारिकमिश्रका- ३६ समुयाः मल- ययोगः, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु समयेषु केवलमेव कार्मणशरीरव्यापारभागिति कार्मणकाययोगः, आह च भाष्य
द्घातपर्द यवृत्ती. कृत्-"न किर समुग्धातगतो मणवइजोगप्पयोयणं कुणइ । ओरालियजोगं पुण सृजइ पढमट्ठमे समए ॥१॥
कृतसमु
द्वातस्य ॥६०५॥ उभयवावाराओ तम्मीसं बीयछट्टसत्तमए । तिचउत्थपंचमे कम्मगं तु तम्मत्तचेट्ठाओ ॥२॥" अत्रैव विशेषपरि
योगाः ज्ञानायाह
सू. ३४८ से णं भंते ! तहा समुग्घातगते सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिवाति सवदुक्खाणं अंतं करेति, गो! नो इणढे समढे, से णं ततो पडिनियत्तति पडिनियतित्ता ततो पच्छा मणजोगपि जुजति वइजोगंपि जुजइ कायजोगपि जुजति, मणजोगं जुंजमाणे किं सच्चमणजोगं जुजति मोसमणजोगं जुजति सच्चामोसमणजोगं झुंजति असच्चामोसमणजोगं जुजति ?, गो.! सच्चमणजो० नो मोसमणजो० नो सच्चामोसमणजोगं जुजति असच्चामोसमणजोगं जुजति, वतिजोगं जुजमाणे किं सच्चवइजोगं जुजति मोसवइजोगं जु० सच्चामोसवइजोगं असच्चामोसवइजो०१, गो! सच्चवतिजो० नो मोसवइजो० नो सच्चामोसवतिजो० असच्चामोसवइजोगंपि जुजति, कायजोगं झुंजमाणे आगच्छेज वा गच्छेज वा चिटेज वा निसीएज
IN६०५॥ वा तुयहेज वा उलंघेज वा पलंघेज वा पडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेज्जा । (सूत्र ३४८) 'से णं भंते !' इत्यादि, स भदन्त ! केवली तथा-दण्डकपाटादिक्रमेण समुद्घातं गतः सन् सिद्मति
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निष्ठितार्थो भवति !, स च 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वेति वचनात् सेत्स्यन्नपि व्यवहारत उच्यते तत आहबुध्यते-अवगच्छति केवलज्ञानेन यथाऽहं निश्चयतो निष्ठितार्थो भविष्यामि निःशेषकर्माशापगमतः तत आहेमुच्यतेऽशेषकर्माशेरिति गम्यते, मुच्यमानश्च कर्माणुवेदनापरितापरहितो भवति तत आह-परिनिर्वाति-सामस्त्येन शीतीभवति, समस्तमेतदेकेन पर्यायेण स्पष्टयति-सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थो-नायमर्थः सङ्गतो यः समुद्घातं गतः सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, योगनिरोधस्याद्याप्यकृतत्वात् , सयोगस्य च वक्ष्यमाणयुक्त्या सिद्ध्यभावादिति भावः, ततः किं करोतीत्यत आह-से 'मित्यादि, सः| अधिकृतसमुद्घातगतः णमिति वाक्यालङ्कारे ततः समुद्घातात् प्रतिनिवर्त्तते, प्रतिनिवर्त्य च ततः-प्रतिनिवर्तनात् पश्चादनन्तरं मनोयोगमपि वाग्योगमपि काययोगमपि युनक्ति-व्यापारयति, यतः स भगवान् | भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रवेदनीयेष्वचिन्त्यमाहात्म्यसमुद्घातवशतः प्रभूतेष्वायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूत्तेभाविपरमपदत्वतस्तस्मिन् काले यद्यनुत्तरोपपातिकादिना देवेन मनसा पृच्छयते तर्हि व्याकरणाय मनःपुद्गलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा, मनुष्यादिना पृष्टः सन्नपृष्टो वा कार्यवशतो वाक्पुद्गलान् गृहीत्वा वाग्योगं तमपि सत्यमसत्यामृषा वा, न शेषान् वाग्मनसोर्योगान्, क्षीणरागादित्वात्, आगमनादौ चौदारिकादिकाययोगं, तथाहि-भगवान् कार्यवशतः कुतश्चित् स्थानात् विवक्षिते स्थाने आगच्छेत् ,
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प्रज्ञापना- या: मलय० वृत्ती.
स्ट
॥६०६॥
यदिवा कापि गच्छेत् , अथवा तिष्ठेत्-अर्द्धस्थानेन वाऽवतिष्ठेत् निषीदेवा तथाविधश्रमापगमाय त्वम्पर्तनं वा३६ समु. कुर्यात्, अथवा विवक्षिते स्थाने तथाविधसम्पातिमसत्त्वाकुलां भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुल-1 द्घातपदं छनं प्रलङ्घनं वा कुर्यात् , तत्र सहजात् पादविक्षेपान्मनामधिकतरः पादविक्षेपः उल्लचनं स एवातिविकटः प्रलचनं, कृतसमुयदिवा प्रातिहारिक पीठफलकशय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयेत्, यस्मादानीतं तस्मै समर्पयेत् , इह भगवता आर्यश्यामेन द्धातस्य शातिहारिकपीठफलकादीनां प्रत्यर्पणमेवोक्तं ततोऽवसीयते नियमादन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्क एवाधीकरणादिकमार-
योगा: भते, प्रभूतावशेषायुष्का, अन्यावा ग्रहणस्याकि सम्भवात्तदण्युपादीयेत, एतेन यदाहुरेके-'जघन्यतोऽन्तर्महः शेषे सू.३४० समुदयातमारभते उत्कर्षतः षट्रसु मासेकु शेषेविति तदपारतं द्रष्टव्यं, षट्सु मासेषु कदाचिदपान्तराले वर्षाकालसम्भवात् तनिमित्तं पीठफलकादीनामादानमण्युपपवेत, न च तत्सूत्रसम्मतामिति तत्प्ररूपणमुत्सूत्रमवसेयं, एल्योसूत्रं आवश्यकेऽपि समुद्घातानन्तरमव्यवधानेन शैलेश्यभिधानात्, (यतः) तत्सूत्रं 'दण्डकवाडे मंथंतरे य साहारणा सरीरत्थे। भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझवा चेव ॥१॥' यदि पुनरुत्कर्षतः षण्मासरूपमपान्तरालं भवेत्तत-| स्तदप्यभिधीयेत, न चोतं, तस्मादेव अयुक्तमेतदिति, तथा चाह भाष्यकार:-“कम्मलहुयाएँ समओ मिनमुहु- ॥६०६॥ चावसेसओ कालो । अन्ने जहन्नमेवं छम्मासुकोसमिच्छति ॥१॥ ततोऽनंतरसेलेसीवयणाओ जंच पाडिहारीणं । पचप्पणमेव सुए इहरा गहणंपि होजाहि ॥२॥ अत्र कम्मलघुतानिमित्तं समुद्घातस्य समयः-अक्सरो
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भिन्नमुहूर्त्तावशेषकालः, शेषं सुगमं तदेवमन्तर्मुहूर्त्तकालं यथायोगं योगत्रयव्यापारभा केवली भूत्वा तदनन्तरमत्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुरवश्यं योगनिरोधायोपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्य ध्यानस्यासम्भवात् तथाहि —योगपरिणामो लेश्या, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्, ततो यावद्योगस्तावदव| श्यंभाविनी लेश्येति न लेश्यातीतध्यानसम्भवः, अपिच - यावद्योगस्तावत्कर्मबन्धोऽपि 'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणई' इति वचनात् केवलं स कर्म्मबन्धः केवलयोगनिमित्तत्वात् समयत्रयावस्थायी, तथाहि - प्रथमसमये कर्म बध्यते, द्वितीयसमये वेद्यते, तृतीये तु समये तत्कर्माकर्मीभवति, तत्र यद्यपि समयद्वयरूप - स्थितिकानि कर्माणि क्रियन्ते, पूर्वाणि २ कर्माणि प्रलयमुपगच्छन्ति, तथापि समये समये सन्तत्या कर्मादाने प्रवर्त्तमाने सति न मोक्षः स्याद्, अथ चावश्यं मोक्षं गन्तव्यं तस्मात् कुरुते स योगनिरोधमिति, उक्तं च- " स ततो योगनिरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकाङ्क्षन् । समयस्थितिं च बन्धं योगनिमित्तं स निरुरुत्सुः ॥ १ ॥ समये | समये कर्मादाने सति सन्ततेर्न मोक्षः स्यात् । यद्यपि हि विमुच्यन्ते स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि ॥ २ ॥ नाकर्मणो हि वीर्य योगद्रव्येण भवति जीवस्य । तस्यावस्थानेन तु सिद्धः समयस्थितेर्बन्धः ॥ ३ ॥" अत्र बन्धस्य सप्रयमात्र - स्थितिकता बन्धसमयमतिरिच्य वेदितव्या, भाष्यमप्येनं पूर्वोक्तं सकलमपि प्रमेयं पुष्णाति तथा च तद्वतो ग्रन्थः“विणिवित्तसमुग्धाओ तिष्णिवि जोगे जिणो पउंजिजा । सञ्चमसच्चामोसं च सो मणं तह वईजोगं ॥ १ ॥ ओरा
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प्रज्ञापनायाः मल- य. वृत्ती.
लियकाययोगं गमणाई पाडिहारियाणं वा। पञ्चप्पणं करेजा जोगनिरोहं तओ कुणइ ॥२॥ किन्न सयोगो सिज्झइ? स बंधहेउत्ति जं सजोगोऽयं । न समेइ परमसुकं स निजराकारणं परमं ॥३॥" अत एवाह
३६ समु
द्घातपदं योगनिरो
धः सू.
॥६०७॥
से णं भंते ! तहा सजोगी सिज्झति जाव अंतं करेति ?, गो०! नो इणढे समढे, से णं पुत्वमेव सण्णिस्स पंचिंदियपज्जत्तयस्स.जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं पढम मणजोगं निरंभति, ततो अणंतरं बेइंदियपज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स. हेट्ठा असंखिजगुणपरिहीणं दोच्चं वतिजोगं निरंभति, ततो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपजत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेहा असंखेजगुणपरिहीणं तचं कायजोगं निरंभति, से णं एतेण उवाएणं-पढमं मणजोगं निरंभति मणजोगं निरूभित्ता वतिजोगं निरंभति वयजोगं निलंभित्ता कायजोगं निरंभइ कायजोगं निरुभित्ता जोगनिरोह करेति जोगनिरोहं करेत्ता अजोगतं पाउणति अजोगयं पाउणित्ता ईसिं हस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुवरइयगुणसेढीयं च णं कम्म, तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेजाहिं गुणसेढीहिं असंखेजे कम्मखंधे खवयति खवइत्ता वेदणिज्जाउणामगोत्ते इच्चेते चत्वारि कम्मसे जुगवं खवेति, जुगवं खवेत्ता ओरालियतेयाकम्मगाई सबाहिं विप्पजहण्णाहिं विप्पजहति, विप्पजहिता उज्जुसेढीपडिवण्णो अफसमाणगतीए एगसमएणं अविग्गहेणं उडे गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ० तत्थ सिद्धो भवति, ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा देसणणाणोवउत्ता णिठियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ ते णं
92020209002020120-
॥६०७॥
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तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसणणाणोवउत्ता निहियट्ठा नीरया निरयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति ?, गो०! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवति, एवामेव सिद्धाणवि कम्मबीएसु दड्डेसु पुणरवि जम्मुप्पत्तीण भवति, से तेणटेणं गोतमा! एवं वु०-तेणं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दसणणाणोवउत्ता णिहियट्ठा णीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठतित्ति ।-'निच्छिण्णसवदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । सासयमव्वाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता ॥१॥' (मूत्रं ३४९) इति पण्णवणाए भगवतीए समुग्घायपयं छत्तीसतिमं पयं समत्तं ॥ ३६॥ [प्रत्यक्षरं गणनया अनुष्टुप्छंदसां मानमिदम्-७७८७]॥ 'से णं भंते ! तहा सजोगी सिन्झइ' इत्यादि, सुगम, योगनिरोधं कुर्वन् प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, तच पर्या-18 समात्रसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मात्रश्च तद्व्यापारः तस्मादसङ्ख्येयगुणहीनं मनोयोगं प्रतिसमयं निरन्धानोऽसङ्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि, उक्तं च-"पजत्तमेत्तसण्णिस्स जत्तियाई जहपणजोगिस्स । होति मणोदवाई तत्वावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरंभमाणो सो। मणसो सबनिरोहं करेअसंखेजसमएहिं ॥२॥” एतदेवाह-'से णं भंते !' इत्यादि, सः-अधिकृतकेवली योगनिरोध चिकीर्षन् पूर्वमेव संज्ञिनः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य मनोयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् असङ्ख्ययगुण-10 परिहीन समये २ निरुन्धानोऽसङ्ग्येयैः समयैः साकल्येनेति गम्यते प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'ततोऽनंतरं च
easooros20020282929202098
म.१०२
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प्रज्ञापनायाः मल
य० वृत्तौ
||६०८ ॥
३६ समु•
३४९
ण' मित्यादि, तस्मात् मनोयोगनिरोधादनन्तरं चशब्दो वाक्यसमुच्चये णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य वायोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् वाग्योगं असङ्ख्येयगुणपरिहीनं समये समये निरुन्धानोऽ- २ द्वातपदं योगनिरो सङ्ख्येयैः समयैः साकल्येनेति गम्यते द्वितीयं वाग्योगं निरुणद्धि, आह च भाष्यकृत् - "पज्जत्तमित्तबिंदिय जहधः सू. ण्णव जोगपज्जवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं समये समये निरुभंतो ॥ १ ॥ सववइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं" "ततोऽणंतरं च णमित्यादि, ततो वाग्योगादनन्तरं च णं प्राग्वत् सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तकस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्येति भावार्थ: जघन्ययोगिनः – सर्वाल्पवीर्यस्य पनकजीवस्य यः काययोगस्तस्याधस्तादसङ्ख्येयगुणहीनं काययोगं समये समये निरुन्धन् असङ्ख्येयैः समयैः समस्तमपीति गम्यते तृतीयं काययोगं निरुणद्धि, तं च काययोगं निरुन्धानः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ध्यानमधिरोहति, तत्सामर्थ्याच्च वदनोदरादिविधरपूरणेन सकुचितदेह त्रिभागवर्त्तिप्रदेशो भवति, तथा चाह भाष्यकृत् - " तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोववण्णस्स ॥ जो किर जहण्णजोगी तदसंखेज्जगुणहीणमेकेके । समएहिं रुंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो ॥ १ ॥ रुभइ स कायजोगं संखाई एहिं चैव समएहिं' काययोगनिरोधकालान्तरे चरमे अन्तर्मुहूर्त्ते वेदनीयादित्रयस्य प्रत्येकं स्थितिः सर्वापवतनया अपवर्त्त्यायोग्यवस्थासमाना क्रियते गुणश्रेणिक्रमविरचितप्रदेशा, तद्यथा - प्रथमस्थितौ स्तोकाः प्रदेशाः, द्वितीयस्यां स्थितौ ततोऽसङ्ख्येयगुणाः, तृतीयस्यां ततोऽप्यसङ्ख्येयगुणाः, एवं तावद्वाच्यं यावच्चरमा स्थितिः, स्था
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॥ ६०८ ॥
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Recedeeseeeeeeee.
पना, एताः प्रथम- ०००००००००००० समयगृहीतदलिकनिवर्त्तिता गुणश्रेणयः, एवं प्रतिसमयगृहीतदलिक-11 निर्वर्तिताः कर्मत्र- ०० ०० ०० यस्य प्रत्येकमसङ्ख्येया द्रष्टव्याः अन्तर्मुहूर्तसमयानामसङ्ख्यातत्वात् , ISI
आयुषस्तु स्थितिर्य- . ना. गो. थाबद्धवावतिष्ठते, सा च गुणश्रेणिक्रमविपरीतक्रमदलिकरचना, स्थापना | चेयम्- अयं च सर्योऽपि मनोयोगादिनिरोधो मन्दमतिसुखावबोधार्थमाचार्येण स्थूरदृष्ट्या प्रतिपादितः, यदि पुनः सूक्ष्मदृष्टया तत्स्वरूपजिज्ञासा भवति तदा पञ्चसङ्ग्रहटीका निभालनीया, तस्यामतिनिपुणं प्रपञ्चेन तस्याभिधानाद, इह च ग्रन्थगौरवभयानास्माभिरभिहितः, 'से ण'मित्यादि, सोऽधिकृतः केवली णमिति पूर्ववत् एतेनानन्तरोदितेनोपायेन-उपायप्रकारेण, शेषं सुगम, यावदयोगतां 'पाउणइत्ति प्राप्नोति, अयोगताप्रात्यभिमुखो भवति इति भावार्थः, अयोगतां च प्राप्य-अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भूत्वा 'ईसिति स्तोकं कालं शैलेशी प्रतिपद्यते इति सम्बन्धः, कियता कालेन विशिष्टां इत्यत आह-इखपञ्चाक्षरोच्चारणाद्धया, किमुक्तं भवति ?-नातिद्रुतं नातिविलम्बितं किन्तु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन ञणनम इत्येवंरूपाणि पञ्चाक्षराणि उच्चार्य्यन्ते तावता कालेन विशिष्टामिति, एतावान् कालः किंसमयप्रमाण इति निरूपणार्थमाह-असङ्ख्येयसामयिकां-असङ्ख्येयसमयप्रमाणां, यचासङ्ख्येयसमयप्रमाणं तच्च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणं तत एषाऽप्यन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणेति ख्यापनायाह
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प्रज्ञापनायाः मलयवृत्ती.
॥६०९॥
'आन्तर्मुहूर्तिकी शैलेशी मिति, शीलं-चारित्रं तचेह निश्चयतः सर्वसंवररूपं तद् ग्राह्य, तस्यैव सर्वोत्तमत्वात् , तस्येशः। शीलेशः तस्य याऽवस्था सा शैलेशी तां प्रतिपद्यते, तदानीं च ध्यानं ध्यायति व्यवच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति, उक्तं द्घातपदं च-"सीलं व समाहाणं निच्छयओ सवसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सेलेसी होइ तदवत्था ॥१॥ हस्सक्ख- योगनिरोराई मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगतो तत्तियमित्तं तओ कालं ॥२॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरियानियहि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥३॥" न केवलं शैलेशी प्रतिपद्यते
३४९ पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च वेदनीयादिकं कर्म अनुभवितुमिति शेषः, प्रतिपद्यते च तत्पूर्व काययोगनिरोधगते चरमेन्तर्मुहूर्ते रचिता गुणश्रेणयः-प्रागनिर्दिष्टखरूपा यस्य तत्तथा, ततः किं करोतीत्यत आह-तीसे सेलेसिअद्धाए' इत्यादि, तस्यां शैलेश्यद्धायां वर्तमानोऽसङ्ख्येयाभिर्गुणश्रेणीभिः पूर्वनिर्वर्त्तिताभिः प्रापिता ये कर्मत्रयस्य पृथक् प्रतिसमयमसङ्ख्येयाः कर्मस्कन्धास्तान् 'क्षपयन्' विपाकतः प्रदेशतो वा वेदनेन निर्जरयन् चरमे समये वेदनीयमायुर्नाम गोत्रमित्येतान् चतुरः 'कर्माशान्' कर्मभेदान् युगपत् क्षपयति, युगपच्च क्षपयित्वा ततोऽनन्तरसमये औदारिकतैजसकार्मणरूपाणि त्रीणि शरीराणि 'सबाहिं विप्पजहणाहिं' इति सर्वैर्विप्रहानैः, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, विप्र
॥६०९॥ जहाति, किमुक्तं भवति ?-यथा प्राक् देशतस्त्यक्तवान् तथा न त्यजति, किन्तु सर्वैः प्रकारैः परित्यजतीति, उक्तं च-“ओरालियाइ चयइ सबाहिं विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसच्चाएण सो पुचिं ॥१॥"
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परित्यज्य च तस्मिन्नेव समये कोशबन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थखभावविशेषादेरण्डफलमिव भगवानपि कर्मसम्बन्धविमोक्षणसहकारिसमुत्थखभावविशेषादूळे लोकान्ते गत्वेति सम्बन्धः, उक्तं च-“एरण्डफलं च जहा बंधच्छेदेरियं दुयं जाति । तह कम्मबंधणछेदणेरितो जाति सिद्धोवि ॥१॥" कथं गच्छतीत्यत आह-'अविग्रहेण' | विग्रहस्याभावोऽविग्रहः तेन एकेन समयेनास्पृशन् , समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेनेत्यर्थः, ऋजुश्रेणिं च प्रतिपन्नः, एतदुक्तं भवति-यावत्खाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानू_मृजुश्रेण्याऽवगाहमानो विवक्षिताच समयादन्यत् समयान्तरमस्पृशन् गत्वा, तथा चोक्तमावश्यकचूर्णी-“जत्तिए जीवोऽवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उडे उज्जुगं गच्छति न वक, बिइयं च समयं न फुसइ" इति, भाष्यकारोऽप्याह-"रिउसेटिं पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥१॥” इत्थमूर्व गत्वा किमित्याह-साकारोपयुक्तः सन् सियति-निष्ठितार्थो भवति, सर्वा हि लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य उपजायते नानाकारोपयुक्तस्य, सिद्धिरप्येषा सर्वलब्ध्युत्तमा लब्धिरिति साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायते, आह च-"सबाओ लद्धीओ जं सागा-18 रोवओगलाभाओ। तेणेह सिद्धिलद्धी उप्पजइ तदुवउत्तस्स ॥१॥” तदनन्तरं तु क्रमेणोपयोगप्रवृत्तिः । तदेवं 8 यथा केवली सिद्धो भवति तथा प्रतिपादितमिदानी सिद्धा यथाखरूपास्तत्रावतिष्ठन्ते तथा प्रतिपादयति-'ते णं | तत्थ सिद्धा भवंती'त्यादि, ते-अनन्तरोक्तक्रमसम्भूता णमिति वाक्यालङ्कारे तत्र-लोकान्ते सिद्धा भवन्ति, अश
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प्रज्ञापनाया मलयवृत्ती.
३६ समुद्घातपदं योगनिरो
धः सू. ३४९
॥६१०॥
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रीराः-औदारिकादिशरीरविप्रमुक्ताः तेषां सिद्धत्वप्रथमसमये एव सर्वात्मना त्यक्तत्वात् , जीवधना-निचितीभूतजीवप्रदेशरूपाः, सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानप्रतिपत्तिकाले एव तत्सामर्थ्यतो वदनोदरादिविवराणामापूरितत्वात् , दर्शनज्ञानोपयुक्ता जीवस्वाभाव्यात् , निष्ठितार्थाः कृतकृत्यत्वात् , नीरजसो बध्यमानकर्माभावात् , निरेजनाः कम्पक्रियानिमित्तविरहात्, वितिमिराः कर्मतिमिरवासनापगमात्, विशुद्धास्त्रिविधसम्यग्दर्शनादिमार्गप्रतिपत्त्या अत्यन्तशुद्धीभूतत्वात् , ते चेत्थंभूतास्तत्र गतास्तिष्ठन्ति शाश्वतं यथा भवत्येवं 'अनागताद्धं' अनागता-भाविनी अद्धा समस्ता यत्र सोऽनागताद्धः तं कालं यावत् , अत्रैव मन्दमतिविबोधायाक्षेपपरिहारावाह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं 'कम्मबीएसुत्ति कर्मरूपाणि बीजानि-जन्मनः कारणानि कर्मबीजानि तेषु दग्धेषुनिर्मूलकाकषितेषु पुनरपि-भूयो जन्मन उत्पत्तिर्न भवति, कारणमन्तरेण कार्यासम्भवात् , अथ तान्येव कर्माणि भूयः कस्मान्न भवन्ति ?, उच्यते, रागादीनामभावात् , रागादयो ह्यायुःप्रभृतीनां कर्मणां कारणं, न च ते तेषां सन्ति, प्रागेव क्षीणमोहावस्थायां क्षीणत्वात्, न च तेऽपि क्षीणा अपि भूयः प्रादुष्ष्यन्ति, सहकारिकारणाभावात्, रागादीनां झुत्पत्तौ परिणामिकारणमात्मा सहकारिकारणं रागादिवेदनीयं कर्म, न चोभयकारणजन्यं कार्यमेकतरस्थाप्यभावे भवति, अन्यथा तस्याकारणत्वप्रसङ्गात्, न च सिद्धानां रागादिवेदनीयं कर्मास्ति, तस्य प्रागेव शुक्लध्यानामिना भस्मीकृतत्वात्, न च वाच्यमत्रापि स एव प्रसङ्गः, यथा तदपि रागादिवेदनीयं कर्म भूयः कस्मान्न
॥६१०॥
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भवतीति ?, तत्कारणस्य सङ्क्लेशस्याभावात् , रागादिवेदनीयानां हि कर्मणामुत्पत्तौ रागादिपरिणतिरूपः सङ्क्लेशः, 'जं वेयइ से बंधई' इति, न च रागादिवेदनीयकर्मविनिर्मुक्तस्य तथाभूतं सक्लेशोत्थानमस्ति, ततस्तदभावाद्रागादिवेदनीयकाभावः, तदभावाच भूयो रागादीनामभावः, तथा च रागादीनामेव पुनरुत्पत्तिचिन्तायां धर्मसङ्ग्रहण्यामुक्तम्-"खीणा य ते न होंती पुणरवि सहकारिकारणाभावा। नहि होइ संकिलेसो तेहिं विउत्तस्स जीवस्स ॥१॥ तयभावा न य बंधो तप्पाउग्गस्स होइ कम्मस्स । तदभावे तदभावो सबद्धं चेव विन्नेओ ॥२॥" इति, ततो रागादीनामभावादायुःप्रभृतीनां कर्मणां पुनरुत्पादाभावस्तदभावाच न भूयो जन्मोत्पत्तिः, अत एवोक्तमन्यत्रापि-"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥ १॥"S उपसंहारमाह-'से एएणटेण'मित्यादि, एतदेव सिद्धखरूपं परममङ्गलभूतं शास्त्रस्य शिष्यप्रशिष्यादिवंशगतत्वेनाव्यवच्छित्तिर्भूयादित्यन्तमङ्गलत्वेनोपसंहारव्याजत आह-निच्छिण्णे'त्यादि, निस्तीर्ण सर्वदुःखं यैस्ते तथा, सकल-| सांसारिकदुःखपारगता इत्यर्थः, कुत इत्याह-जातिजरामरणबन्धनविषमुक्ताः' जातिश्च जरा च मरणं च बन्ध-| नानि च-ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि तैर्विप्रमुक्ताः, अत्र हेतौ प्रथमा, यतो जातिजरामरणबन्धनविप्रमुक्ताः ततो निस्तीर्णसर्वदुःखाः, ते इत्थंभूताः परमस्वास्थ्यरूपं 'शाश्वतं' शश्वद्भावि 'अव्याबाधं बाधारहितं, रागादयो हि न. तद्बाधितुं प्रभविष्णवो न च तेषां ते सन्तीत्यनन्तरमेव भावितं, सुखं प्राप्ताः, अत एव सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्ति ॥
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________________ प्रज्ञापनाया: मलयवृत्ती. नमत नयभङ्गकलितं प्रमाणबहुलं विशुद्धसद्बोधम् / जिनवचनमन्यतीर्थिककुमतिनिरासैकदुर्ललितम् // 1 // जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः / यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन विवृतिकरः // 2 // कृत्वा प्रज्ञा| पनाटीकां पुण्यं यदवाप मलयगिरिरनघम् / तेन समस्तोऽपि जनो लभतां जिनवचनसद्बोधम् // 3 // " 36 समुद्घातपदं योगनिरो 911 // 349 इति श्रीमन्मलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां षट्त्रिंशत्तमं पदं समर्थितम् // प्रज्ञापनाटीका समाप्ता ग्रन्थाग्रं 16000 // 11 // Educato For Personal & Private Use Only nebrary.org