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品 सरस्वती फ्र
सचित्र
मासिक पत्रिका
भाग ३८, खण्ड १ जनवरी से जून
१६३७
fa
सम्पादक देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
प्रकाशक
इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग वार्षिक मूल्य साढ़े चार रुपये
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लेख-सूची
पृष्ठ
९७
३
१२
नम्बर
नाम १ अगेय की ओर (कविता) ...
श्रीयुत दिनकर
३१६ अनुरोध (कविता)
श्रीयुत राजनाथ पाण्डेय, एम० ए० अन्तर्गीत (कविता)
श्रीयुत द्विरेफ़
... अन्तिम वाक्य
श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह ... . अन्वेषण (कविता)
श्रीयुत गयाप्रसाद द्विवेदी 'प्रसाद' अब भी (कविता)
... कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए०, एल-एल० बी० ... अमरनाथ गुफा की ओर ... ... श्रीयुत सी० बी० कपूर, एम० ए०, एल-एल. बी. अमरीका और योरप में अंतर.... ... श्रीयुत संतराम, बी. ए. ... ... अशान्ति के दूत
... श्रीयुत पृथ्वीनाथ शर्मा, बी० ए० ( अान० ) ______एल-एल० बी० ...
१५३ आँसू की माला (कविता) ... ... श्रीयुत श्यामनारायण पाण्डेय ...
४५४ आत्म-चरित कुँवर राजेन्द्रसिंह
२२९ उदय-अस्त (कविता) श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी, एम. ए.
२८४ उदयपुर-यात्रा
... श्रीयुत दि० नेपाली, बी० ए०... १४ उद्गार (कविता)
श्रीयुत राजाराम खरे .. उन्नति के पथ पर पंडित मोहनलाल नेहरू ...
४७७ १६ - उषा (कविता)
श्रीयुत रामेश्वरदयाल द्विवेदी... १७ एज्युकेशन-कोर्ट
पंडित राजनाथ पाण्डेय, एम० ए० १८ कटे खेत (कविता) .
श्रीयुत केसरी , १९ कब मिलेंगे (कविता)
श्रीयुत नरेन्द्र .... .
५४५ २० कलयुग नहीं करयुग है यह ... ... श्रीयुत सुदर्शन २१ कलिङ्ग-युद्ध की एक रात
श्रीयुत दुर्गादास भास्कर, एम० ए०, एल-एल० बी० २२ कवि का स्वप्न (कविता) ...
श्रीयुत भगवतीचरण वर्मा ... २३ कवि के प्रति (कविता)
श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए० । २४ कवि क्या सचमुच गा न सकोगे ? (कविता) ... श्रीयुत व्रजेश्वर, बी० ए० ... २५ कवि गा दुखियों के अाह गीत (कविता) ... श्रीयुत मित्तल
... ... २६ कवि-वन्दना (कविता)
श्रीयुत राजाराम पाण्डेय, बी० ए० . ...
३८० २७ कस्तूरी (कविता)
... श्रीयुत आरसीप्रसादसिंह ... . ... १३६ एक कहानी का अन्त
...
श्रीयुत पृथ्वीनाथ वर्मा, बी० ए० (आन०).
एल-एल० बी० . ... . ... ५५६ १. कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टीट्यूट ...... श्रीयुत श्यामनारायण कपूर, बी० एस० सी० ... ५७९ । कुछ इधर-उधर की
..., २९५, ५०३, ६०७ मैं क्या जगत में भ्रान्ति ही है (कविता) ... श्रीयुत नरेन्द्र ... ... १०५
३८६ ५६२
१६५
.... ७६
४५३
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सरस्वती
नम्बर
नाम ३२ खूनी लोटा ३३ गाँव
३४ गीत (कविता) ३५ गीत (कविता) ३६ गीत (कविता) ३७ गीत (कविता) ३८ गीत (कविता) ३९ गोरा धाय का अपूर्व त्याग
चिता)
४० ग्रामों की समस्या ४१ चिट्ठी-पत्री ... ४२ जवाहरलाल नेहरू ४३ जाग्रत नारियाँ ४४ जापान में मोतियों की खेती ४५ जीवन का गान (कविता) ... ४६ झगड़ा (कविता) ४७ दीपदान (कविता) ४८ दुख है इसको हम जान न पायें (कविता) १९ दूरागत सङ्गीत ५० देवदासी (कविता) ५१ नई पुस्तकें ... ५२ नयन (कविता) ५३ नरहरि का निवास ५४ नियति (कविता) ५५ पथिक (कविता) ५६ पाप की छाया ५७ प्रवासियों की परिस्थिति ५८ प्रायश्चित्त ... ५९ फिलिपाइन को स्वतन्त्रता ... ६० फ़ैज़पुर का महाकुम्भ ६१ फ्रान्स का देहाती जीवन ... ६२ बदरी .. ... ...
लेखक श्रीयुत गोविन्दवल्लभ पन्त ... . श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एल-एल० बी० कुँवर चन्द्रप्रकाश सिंह श्रीमती तारा पाँडे श्रीयुत बालकृष्ण राव, एम० ए० श्रीमती तारा पाण्डे कुँवर चन्द्रप्रकाशसिंह कुँवर चाँदकरण शारदा, बी० ए० एल-एल० बी० एडवोकेट ... श्रीयुत शङ्करसहाय सक्सेना, एम० ए०
... ... ५२, १९२, २५७, ३९२, श्रीयुत ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' ... ५२२ श्रीमती राजकुमारी मिश्रा ...... ५३, १७१, २५९ श्रीयुत नलिनी सेन ... . ... ३६२ कुँवर सेामेश्वरसिंह, बी० ए०, एल-एल० बी० ५८९ श्रीयुत बिसमिल श्रीयुत द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण' ... ... ५४८ श्रीयुत राजाराम खरे श्रीयुत रामदुलारे गुप्त ... ठाकुर गोपालशरणसिंह ... ...... ६५, १८४, २७०, ३८७,
श्रीमती शान्ति ... ठाकुर मानसिंह गौड़ .... .. ढाकुर गोपालशरणसिंह
.... ५२१ श्रीयुत अनवारुलहक़ 'अनवार'
... १२७ प्रोफ़ेसर रमाशङ्कर शुक्ल, एम० ए० ... श्रीयुत भवानीदयाल संन्यासी ... श्रीयुत भगवतीप्रसाद वाजपेयी ... श्रीयुत रामस्वरूप व्यास ... ... श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए० ...
श्रीयुत डाक्टर रविप्रतापसिंह श्रीनेत ... श्रीयुत उपेन्द्रनाथ 'अश्क', बी० ए०, एल-एल. बी.... श्रीयुत सत्यरञ्जन सेन
... २१० ठाकुर गोपालशरणसिह
१७.४९०.
द
... १५२ ... २५६
६
...
..
...
४२१
६३ बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य ६४ बाल विधवा (कविता) ।
......२४७
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नम्बर
नाम
६५ बेवक्त की शहनाई
६६ ब्रिटिश म्युज़ियम
६७ भविष्य ( कविता )
६८ भविष्य का स्वप्न ( कविता )
६९ भाई परमानन्द और भूले हुए हिन्दू
७०
भारत (कविता)
भारत के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण
७१
७२ भारतीय नृत्यकला
७३ भारतीय बीमा व्यवसाय की प्रगति
७४ भूले हुए हिन्दू ७५ मडेरा
७६ मतभेद
७७
मदरास का सम्मेलन
७८ मधुमास ( कविता ) M
७९ मलार में महेश्वर
८० मानव ( कविता )
८१ मानव ( कविता ) ८२ मुक्तिमार्ग
८३ मुन्नी
८४ मृणालवती - प्रणय
८५ मैं समुद्र के कूल खड़ा हूँ ( कविता )
क्षण भर सूने में रो लूँ (कविता)
८६
८७ मोहनिशा ( कविता ) यहाँ और वहाँ
योरप के उपनिवेश
९० रंगून से आस्ट्रेलिया
९१ रजनी ( कविता )
६२ रससमीक्षा
९३: राजस्थान की रसधार
१९४ रायबहादुर लाला सीताराम... ९५ रुपया
*९६ रुबाइयाते पद्म ( कविता )
९७ ला हावर
९८ वह 'कल' कभी नहीं आया
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लेख सूची
लेखक
पृष्ठ
श्रीयुत सीतलासहाय
१४१
श्रीयुत विश्वमोहन बी० ए० (श्रानर्स) ( लन्दन )... २३४ ढाकुर गोपालशरणसिंह
४१७
श्रीयुत गिरीशचन्द्र पन्त
४७
प्रोफ़ेसर प्रेमनारायण माथुर, एम० ए०,
बी० काम०
श्रीमती सावित्री श्रीवास्तव
पंडित मृत वसंत
श्रीयुत रामनाथ दर
श्रीयुत अवनीन्द्रकुमार विद्यालङ्कार
४४८
श्रीयुत भाई परमानन्द, एम० ए०, एम० एल० ए० ३३५ प्रोफ़ेसर सत्याचरण, एम० ए०
४३६
श्रीयुत राजेश्वर प्रसादसिंह
२७६
४७९
२१७
....
श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए०
श्रीयुत गङ्गाप्रसाद पाण्डेय
श्रीयुत कुमारेन्द्र चटर्जी बी० ए०, एल० टी० और श्रीयुत गणेशराम मिश्र
श्रीयुत भगवतीचरण वर्मा
श्रीयुत महेन्द्रनारायण सिंह पथिक श्रीयुत चन्द्रभूषण सिंह श्रीयुत श्रीहर
श्रीयुत सूर्यनारायण व्यास
प्रोफ़ेसर धर्मदेव शास्त्री
श्रीयुत रामानुजलाल श्रीवास्तव श्रीयुत श्रारसीप्रसाद सिंह
'श्रीयुत सावित्रीनन्दन
श्रीयुत रामस्वरूप व्यास
श्रीयुत भगवानदीन दुबे श्रीयुत नत्थाप्रसाद दीक्षित 'मलिन्द ' श्रीयुत काका कालेलकर
श्रीयुत सूर्यकरण पारीक, एम० ए०
श्रीयुत राजनाथ पाण्डेय, एम० ए०
::::
श्रीयुत सीतला सहाय
श्रीयुत पद्मकान्त मालवीय
प्रोफ़ेसर सत्याचरण, एम० ए०
श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी, एम० ए०
४६३
४३०
४३५
३७२
५८८७
३५
३५८
८०
३७६
३३८
२२५
२५, १२१
१४४
११४
४९
...
४६०
१७४
३५० १६२
:::
३६६
१२
३१३
५४९
३४२
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सरस्वती
४८
... ४३३.
नम्बर नाम
लेखक ... ९९ वह मेरी मँगेतर
श्रीयुत उपेन्द्रनाथ अश्क, बी० ए०, एल-एल० बी० ८९ १०० वह रो रहा था
कुमारी सुशीला अागा, बी० ए० ... ७७ १०१ विक्टोरिया-क्रास
श्रीयुत बेनीप्रसाद शुक्ल १०२ विज्ञानशाला में ... श्रीयुत व्रजमोहन गुप्त.
... ३७७ । १०३ व्यत्यस्त-रेखा-शब्द-पहेली ...
८१, १९३, २८९, ३९३, ४९७, ६०१ ११०४ शनि की दशा ... पंडित ठाकुरदत्त मिश्र ७१, १७५, २६५, ३८१, ४७१,
... ५९० १०५ शिक्षा और भारतवासी ...
श्रीयुत चैतन्यदास ... ... ४४६ १०६ सदा कुँआरे टीकमलाल ... ... श्रीमती लीलावती मुंशी ... ... १२८ १०७ सम्पादकीय नोट
... ९८, २०१, ३०४, ४०९, ५१३, ६१८ १०८ सम्बन्ध ...
श्रीमती दिनेशनंदिनी चोरड्या
... १४० १०९ सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति (कविता) ... श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ११० सम्राट का कुत्ता
... श्रीयुत कमलकुसार शर्मा १११ सरस्वतीतट की सभ्यता
पंडित अमृत वसन्त ११२ सरिता (कविता)
... श्रीयुत मदनमोहन मिहिर ... ... ३३७ ११३ साधना ... ... श्रीमती दिनेशनन्दिनी चोरड्या
... ४६२ ११४ सामयिक विचारप्रवाह
... ५०५ ११५ सामयिक साहित्य
... ५७, २९७, ४०१, ६१२ '११६ सावलियाँ (कविता) ...
श्रीयुत सूर्यनाराण व्यास 'सूर्य' ... ११७ - साहबजी महाराज और उनका दयालबाग ... श्रीयुत जानकीशरण वर्मा .... ११८ साहित्यिक हिन्दी को नष्ट करने के उद्योग ... डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा, एम० ए०, डी० लिट० ३१४ ११९ सिद्धान्त (कविता) .... पण्डित रामचरित उपाध्याय ...
५८६ १२० सिन्ध का लाइट बरेज और रुई की खेती. ... श्रीयुत मदनमोहन नानूराम जी व्यास
४२६ १२१ हँसी की एक रेखा (कविता)
कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' १२२ हमारी गली ..
प्रोफ़ेसर अहमद अली, एम. ए... १२३ हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो ... ... श्रीयुत संतराम, बी० ए० ...
... ५७३ १२४ हास-परिहास ... .
... ८७, १९९, ३९९ १२५ हिन्दी (कविता)
श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एस-सी०, एल. एल० बी० १६४ १२६ हिन्दी याने हिन्दोस्तानी ...
प्रोफ़ेसर धर्मदेव शास्त्री .... ... ४१८ १२७ हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार ... श्रीयुत कमलाकान्त वर्मा, बी० ए०, बी० एल० ... २३९ १२८ हे कवे ! (कविता)
श्रीयुत हरिशरण शर्मा 'शिविर १२९ १ (कविता)
श्रीयुत सुबोध अदावाल . १३० १९३६ का देशी कम्पनी कानून , ... प्रोफ़ेसर प्रेमचन्द मलहोत्र
....
५९८
५४६
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चित्र-सूची
प्रत्र
चित्र-सूची
रङ्गीन चित्र नम्बर विषय .१ एज्युकेशन-कार्ट का सिंहद्वार २ कादम्बरी, महाश्वेता और चन्द्रापीड़ ... ३ पंचवटी में ४ पुजारिन ५ प्रकाश और छाया ६ भूतपूर्व सम्राट एडवर्ड ७ भूषण भारु...ही कै भार
८ लैला-मजनू .९ वंशी-ध्वनि १० श्रीमती देविकारानी ११ सालति है....जिय माँ हि १२ सीता और हनूमान् ।
[फ़रवरी मार्च [मई] [जनवरी [जनवरी] [अप्रैल [जून] [मई] [फ़रवरी मार्च . [अप्रैल
... ५६९
मुखपृष्ठ ... २६४ ... ४७२ ... ७२
मुखपृष्ठ ... मुखपृष्ठ ... मुखपृष्ठ
मुखपृष्ठ
१६० ... मुखपृष्ठ ... ३७६
सादे चित्र नम्बर विषय १-११ अमरनाथ की गुफा की ओर-सम्बन्धी ११ ।
१४५-१५१ १२-२३ उदयपुर-यात्रा-सम्बन्धी १२ चित्र ..
५३२-५३८ -२४-३२ एज्युकेशन-कोर्ट-सम्बन्धी २९ चित्र
५६२५७२ ५३-५५ कलयुग नहीं करयुग है यह-सम्बन्धी ३ चित्र
२१८-२२१ ५६-६० कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टीटयूट-सम्बन्धी ५ चित्र
५८०-५८५ ६१-६३ कुछ इधर-उधर-सम्बन्धी ३ चित्र
२९५-२९६,५०४ ६४ गोरा धाय , ६५-९० चित्र-संग्रह-सम्बन्धी २६ चित्र
१८१-१८३, २८५-२८८, ४९४-४९५, ६०९-६११ ९१-९९ जाग्रत-नारियाँ सम्बन्धी ९ चित्र
... ५३-५५, १७२-१७३, २६०-२६२ १००-१०३. जापान में मोतियों की खेती-सम्बन्धी ४ चित्र ..
३६२ १०४ डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा
३१४ १०५ पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय
४१६ १०६ पंडित जवाहरलाल नेहरू ... १०७-१०८ पंडित जवाहरलाल नेहरू-सम्बन्धी २ चित्र ...
५२३-५२५ ०९-११३ प्रवासियों की परिस्थिति-सम्बन्धी ५ चित्र
४०-४३ ११४ प्रोफेसर अहमद अली, एम० ए०
। २४८
१०३
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सरस्वती
:
... १६६-१७० ... ३१७-३२२
२११-२१६
४३६-४४५ ... ४८०-४८१
... ४६३-४६९ २५-३३, १२१-१२६
:
५५०-५५४
९०-९१
७८
नम्बर
विषय .. ११५-१२२ फ़ैज़पुर का महाकुम्भ-सम्बन्धी ८ चित्र ... १२३-१२९ फ्रांस का देहाती जीवन-सम्बन्धी ७ चित्र १३०.१३६ बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य-सम्बन्धी ७ चित्र १३७-१४६. मडेरा-सम्बन्धी १० चित्र ... १४७-१५० मदरास का सम्मेलन-सम्बन्धी ४ चित्र.... १५१-१६३ मलार में महेश्वर-सम्बन्धी १३ चित्र ... १६४-१७६. रंगून से आस्ट्रेलिया-सम्बन्धी १३ चित्र । - १७७ राजस्थान की रसधार-सम्बन्धी १ चित्र १७८-१८६ ला हावर-सम्बन्धी ९ चित्र . १८७-१८८ वह मेरी मॅगेतर-सम्बन्धी २ चित्र ...
१८९ वह रो रहा था-सम्बन्धी १ चित्र ... .. १९० शान्ता आपटे और लीला देशाई ... १९१ श्री काका साहब कालेलकर १९२ कुँवर चाँदकरण शारदा... १९३ श्रीयुत केशवदेव शर्मा
१९४ श्रीयुत भाई परमानन्द । १९५-१९७ सम्पादकीय-सम्बन्धी ३ चित्र १९८-१९९ सुम्राट जार्ज छठे और सम्राशी एलिज़ाबेथ २००-२१८ सामयिक साहित्य-सम्बन्धी १९ चित्र २१९-२२६ साहब जी महाराज और उनका दयालबाग-सम्बन्धी ८ चित्र . २२७ सिंध का लाइड बरेज और रुई की खेती-सम्बन्धी १ चित्र
२२८ स्वर्गीय अवधवासी लाला सीताराम २२९ स्वर्गीय पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती २३०, स्वर्गीय राजा रामपालसिंह
२३१ स्वर्गीय रायबहादुर लाला सीताराम २३२-२४० हास-परिहास-सम्बन्धी ९ चित्र
४०८ ११४ ३४७
३३५ ... ६१९-६२०
..
५७-६४, २९७-३००, ५०६-५१०
१०६-११३
२०४. २०५
FK
३६८
८७-८८, १९९-२००,
ज
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad.
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वारस्वनी
ANA
VILLila
सम्पादक देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
जनवरी १९३७ ।
भाग ३८, खंड १ संख्या १, पूर्ण संख्या ४४५
पौष १९६३
सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति
लेखक, श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
वीक्षण अराल :
बज रहे जहाँ जीवन का स्वर भर छन्द, ताल
मौन में मन्द्र, ये दीपक जिसके सूर्य-चन्द्र, बंध रहा जहाँ दिग्देशकाल, ____ सम्राट् ! उसी स्पर्श से खिली प्रणय के प्रियङ्गु की डाल डाल !
विशति शताब्दि, धन के, मान के बाँध को जर्जर कर महाब्धि ज्ञान का, बहा जो भर गर्जन
साहित्यिक स्वर“जो करे गन्ध-मधु का वर्जन
वह नहीं भ्रमर;
मानव मानव से नहीं भिन्न, निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न;
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सरस्वती
[भाग ३८
भेद कर पङ्क निकलता कमल जो मानव का
वह निष्कलङ्क,
हो कोई सर" था सुना, रहे, सम्राट् ! अमर.. मानव के वर !
वैभव विशाल, साम्राज्य सप्त-सागर-तरङ्ग-दल दत्त-माल,
है सूर्य क्षत्र मस्तक पर सदा विराजित
ले कर-आतपत्र, विच्छुरित छटा--
जल, स्थल, नभ में विजयिनी वाहिनी विपुल घटा,
क्षण क्षण भर पर बदलती इन्द्रधनु इस दिशि से
उस दिशि सत्वर, वह महासन लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटित
ज्यों रक्त पद्म, बैठे उस पर नरेन्द्र-वन्दित, ज्यों देवेश्वर ।
उर की पुकार जो नव संस्कृति की सुनी
विशद, मार्जित, उदार, था मिला दिया उससे पहले ही
अपना उर, इसलिए खिंचे फिर नहीं कभी,
पाया निज पुर जन-जन के जीवन में सहास, है नहीं जहाँ वैशिष्ट्य-धर्म का
भ्रू-विलास-- भेदों का क्रम, मानव हो जहाँ पड़ा--
__ चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम । सिंहासन तज उतरे भू पर, सम्राट् ! दिखाया
सत्य कौन-सा वह सुन्दर । जो प्रिया, प्रिया वह
___ रही सदा ही अनामिका,
तुम नहीं मिले,तुमसे हैं मिले आज नव
यारप-अमेरिका।
सौरभ प्रमुक्त! प्रेयसी के हृदय से हो
तुम प्रतिदेशयुक्त, प्रतिजन. प्रतिमन, आलिङ्गित तुमसे हुई
सभ्यता यह नूतन !
पर रह न सके,
हे मुक्त,
बन्ध का सुखद भार भी सह न सके ।
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लेखक- कुँवर राजेन्द्र सिंह
प्रायः मरते समय बहुत-से लोग ऐसी बातें कह जाते हैं जो वे जीवित अवस्था में कदापि न कहते । मनुष्य के ऐसे वाक्य समस्त जाति के पथप्रदर्शक हो सकते हैं क्योंकि वे शुद्ध अन्तरात्मा से निकलते हैं। इस लेख में कुँवर साहब ने विदेशी महापुरुषों के ऐसे ही अन्तिम वाक्य संग्रह करके हिन्दी-पाठकों को एक सर्वथा नवीन वस्तु भेंट को है। हमारे देश के स्वर्गगत महापुरुषों के ऐसे वाक्य भी अवश्य इधर-उधर बिखरे पड़े होंगे। क्या अच्छा हो कि कुँवर साहब या अन्य
विद्वान् इधर भी ध्यान दें। चितवन के नाटक के अन्तिम दृश्य मस्तिष्क को ऐसा सम्भ्रम कर देती हैं कि कुछ कहना तो के ऊपर यवनिका-पतन होने दर रहा
मरते भी नहीं बनता है। हमारे देश के पहले के वाक्यों में जो का दृष्टिकोण और है । अगर मरने के वक्त राम का नाम दुख और दर्द, जो अनुताप मँह से निकल जाय और समस्त जीवन चाहे जैसा व्यतीत और पश्चात्ताप या जो शान्ति हुअा हो, तो समझ लिया जाता है कि बिना किसी रोकओर सन्तोप होता है वह और टोक के वह सीधा वैकुण्ट पहुँच गया, और यदि किसी के
किसी समय के वाक्यों में होना मुँह से कोई और बात निकल गई तो किसी महात्मा के असम्भव है। उसी समय इस कठोर यथार्थता का पता लिए भी यही समझा जाता है कि वह शैतान का साथी चलता है कि जीवन केवल एक परिहास है। एक समाधि- बनेगा। सबके लिए यही कहा जाता है कि राम-नाम स्थान पर यह मृत्यु-अालेख अङ्कित है ---- "लाइफ़ इज़ रटते उनका शरीरान्त हो गया, सत्यता चाहे जो कुछ हो। ए जेस्ट, बाल थिंग्ज शो इट, ग्राई थाट सो वंस, नाउ आई इस वजह से अपने देश के बड़े आदमियों के अन्तिम नो इट" अर्थात जीवन एक परिहास है, सब चीज़े यही वाक्यों का कोई संग्रह नहीं है। विदित करती हैं। में भी कभी यही ख़याल करता था। परन्तु पाश्चात्य देशों में ऐसे वाका प्राण्य हैं, अतएव अब में जानता हूँ । जब मौत की ज़द पर उम्र आ गई हो यहाँ कुछ प्रसिद्ध आदमियों के अन्तिम वाक्य दिये
और संसार से प्रस्थान करने के सब सामान प्रस्तुत हों तब जाते हैं। उनके भो दिल खुल जाते हैं जिनके जन्म-पर्यन्त कभी अडीसन (जोजेफ) १६७२-१७१९-ये टेटलर नहीं खुले थे । भविष्य अनिश्चित होने के कारण भय-प्रद पत्रिका में प्रायः लिखते थे। १७११ में स्पेक्टेटर पत्र की होता है और प्रायः भय में सच्ची बात मह से निकल ही स्थापना की और उसी से इनको इतना लाभ हुआ कि जाती है।
१०,००० पौंड की रियासत ख़रीदी! इनका दुःखान्त नाटक ____ पहले तो कहने का कुछ मौका ही नहीं मिलता है, 'केटो' लोगों ने इतना पसन्द किया कि वह पैंतीस रातों तक क्योंकि त्रदोष के प्रकोप से ऐसा कंठावरोध हो जाता है बराबर खेला गया। इन्होंने एक दूसरा सुखान्त नाटक कि गले से आवाज़ ही नहीं निकलती है। उस पर माया लिखा, परन्तु इसे सफलता नहीं प्राप्त हुई । इनके निबंधों की . और मोह, फिर संशयग्रस्त भविष्य का भय-ये सब बाते बड़ी प्रशंसा है । इनकी शैली बहुत बढ़िया थी। अाधुनिक .
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सरस्वती
[भाग ३८
+
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अँगरेज़ी भाषा इनकी ऋणी है। इन्होंने मरने के समय इस स्पीच से भी अधिक महत्त्व की स्पीच उन्होंने आर्कट कहा था-"देखो, एक क्रिश्चियन किस तरह मरता है।” के नवाब के कर्ज के विषय में दी थी। बर्क का अन्तिम यह वाक्य उसी के मुंह से निकल सकता है जिसने धार्मिक वाक्य यह था-"ईश्वर तुम्हारा (सबका) भला करे।" जीवन व्यतीत किया हो। ट्राई अान एडवर्डस ने लिखा इससे उनके धार्मिक विचारों का पता चलता है। है कि "मृत्यु ज़रा भी भयानक नहीं है, यदि अपने ही बायरन (जार्ज गार्डन) लार्ड १७८८-१८२४ ---- जीवन ने उसे भयानक न बना दिया हो।"
साहित्यिक क्षेत्र में अपने समय में वे बे जोड़ थे । जर्मनी के बर्क (एडमंड) १७२९-१७९७-इनकी गिनती संसार महान् विद्वान् गेटे की राय है कि शेक्सपियर के बाद बैरन के बड़े वक्ताओं में है। ये राजनैतिक विचारों की का ही स्थान है । वे बड़े अभिमानी स्वभाव के थे, साथ ही गम्भीरता, उदारता, स्वतंत्रता और दृढ़ता के लिए भी दुश्चरित्र भी। उनके मरते ही उनका जीवन-चरित लिख प्रसिद्ध हैं। अपनी राय के लिए सब कुछ सहने को तैयार लेने के बाद उनके सारे काग़ज़-पत्र जला दिये गये थे । रहते थे। यह इन्हीं का कहना है कि 'किसी मनुष्य की उन्होंने जो शादी की थी उससे एक लड़की पैदा हुई थी, त्रुटियों के कारण उससे झगड़ा करना ईश्वर की कारीगरी जिसका नाम एडा था। एडा के जन्म के बाद फिर उनकी पर आक्षेप करना है।' इन्होंने अपनी एक स्पीच में कहा पत्नी ने उनके घर का मुंह नहीं देखा। उन्होंने एक बार था कि मेरा यह कहना है कि "उन सब झगड़ों में जो अपनी सौतेली बहन को लिखा था--"जब मैं किसी शासक और शासित के बीच में उठ खड़े होते हैं अमीर औरत को ढूँढ़ पाऊँगा जो मेरी सुविधा के उनसे यही अनुमान किया जा सकता है कि शासित का अनुसार होगी और जो इतनी बेवकूफ़ होगी कि मुझे पक्ष ठीक होगा।" एक दफ़ा इन्होंने अपने वोट देने- स्वीकार करे तब उसे मैं अपने को दुखी करने दूंगा। वालों के सामने भाषण करते हुए कहा था कि “प्रतिनिधि दौलत चुम्बक-पत्थर की तरह है और वैसे ही औरत भी को हर तरह की सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए, है। वह जितनी ही बुड्ढी हो, उतना ही अच्छा है, परन्तु उसे अपनी आत्मा, अपने ज्ञान और अपनी राय क्योंकि उसे स्वर्ग भेजने का मौका मिलता है ।" जिसके ये का किसी के लिए भी बलिदान नहीं करना चाहिए।” इन विचार हों वह कैसे एक का होकर रह सकता था? अपअमूल्य वाक्यों से आज-कल के 'जी हुजूर'-सम्प्रदाय के भी व्ययी होने के कारण बैरन धनाभाव से पीड़ित रहते थे लोगों का काम चल जाता है। सायमन-कमीशन के प्राग- और उनकी सदैव रुपये पर ही निगाह रहती थी। अन्त मन के पहले से ही इस देश में 'बायकाट' की धूम मची हुई में बाप-दादे की सारी जायदाद, यहाँ तक कि मकान भी थी और जो लोग किसी वजह से उसके पक्ष में थे वे स्वयं बिक गया था। उन्होंने एक दफ़ा अपने मित्र को लिखा लज्जित थे। परन्तु इस लज्जा को छिपाने के लिए उप- था कि उनकी उपाधि कम-से-कम दस या पन्द्रह पौंड में यक्त वाक्यों का पाठ किया करते थे । बर्क की प्रकृति में ज़रूर बिक जायगी-यही अच्छा है जब पास इतने आने अतिथि-सत्कार बहुत था । जब रघुनाथराव पेशवा के दो भी नहीं हैं। 'भारत काह न करहि कुकर्मा'। नित्य प्रति ब्राह्मण राजकर्मचारी इंग्लेंड गये तब उनको वहाँ बड़े काई नई बात हो, यही उनकी इच्छा रहती थी और इसी कष्ट उठाने पड़े। जब यह बात बर्क को मालूम हुई तब को वे अपने जीवन का उद्देश समझते थे और कहते थे उन्हें अपने मकान में ठहराया और बाग़ में उनके खाना कि इसी से पता चलता है कि हम जीवित हैं, चाहे तकपकाने का प्रबन्ध करवा दिया। बर्क सदा ऋण के बोझ लीफ़ में ही क्यों न हों। (नग्न हाये ग़म को भी ऐ दिल से दबे रहे और इसी वजह से किसी बड़ी जगह पर नहीं ग़नीमत जानिये—बे सदा हो जायगा यह साज़ हस्ती एक पहुँच पाये । उन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़ पर अभियोग लगाने में दिन) उसी इच्छा की पूर्ति के लिए वे तम्बाकू खाते थे। जो स्पीच दी थी उसका अाज भी बड़ा नाम है। उसे वे इतने बदनाम हो गये थे कि इंग्लैंड में रहना मुश्किल .सुनकर बहुत-सी सुननेवाली महिलायें बेहोश हो गई थी, हो गया था। जब देश छोड़े जा रहे थे तब उन्होंने एक
और स्वयं वारेन हेस्टिग्ज़ का भी दिल दहल गया था। कविता लिखकर अपने मित्र टाम मूर को भेजी थी, जिस
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संख्या १]
अन्तिम वाक्य
का भावार्थ यह है---"उनके लिए अाह है जो मुझसे प्रेम कार्य का प्रभाव कैथलिक-सम्प्रदाय के लोगों पर बहुत बुरा करते हैं और उनके लिए उपहासजनक मुस्कराहट है जो पड़ा था। इस घटना के दो वर्ष के अन्दर ही इनकी मृत्यु मुझसे नफ़रत करते हैं। चाहे जिस देश में मैं रहूँ, यह हो गई थी। इन्होंने मरने के समय कहा था- “दाई ! हृदय हर एक भवितव्यता के लिए तैयार है ।" वे इंग्लेंड दाई ! कैसे कैसे वध मैंने करवाये हैं, कितना कितना को फिर जिन्दा नहीं लौटे । तुर्की के ख़िलाफ़ वे ग्रीस के खून बहाया है। मैंने अपराध किया है। क्षमा करो, पक्ष में थे। उनकी इच्छा युद्धस्थल में लड़ते हुए मरने ईश्वर ।" कैसे पश्चात्ताप-पूर्ण शब्द हैं। की थी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ । उनकी 'चाइल्ड हेराल्ड' कापर नीकस (निकोलस) १४७३-१५४३–ये नाम की कविता बहुत प्रसिद्ध है । यह २० फ़रवरी १८१२ खगोल-विद्या के बहुत बड़े विद्वान् थे । योरपीय लोग इन्हें को प्रकाशित हुई थी और मार्च के अन्त तक इसके सात इस विद्या का संस्थापक मानते हैं । उन्हीं लोगों की यह राय संस्करण निकल गये थे । उनका अन्तिम वाक्य यह है कि इन्होंने इस बात का पता लगाया था कि सूर्य ही इस था--"मैं ख़याल करता हूँ, मैं अब सेा जाऊँ।" ऐसे विश्व का केन्द्र है। इन्होंने बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं । अशान्तिमय जीवन के बाद ऐसे ही वाक्य का मुँह से देहावसान के समय यह वाक्य इनके मुँह से निकला थानिकलना स्वाभाविक था।
"अब, हे ईश्वर, अपने सेवक को कष्टों से मुक्त कर।" चार्ल्स (द्वितीय) १६३०-१६८५-ये 'प्रजापीड़क, तकलीफ़ में लोग उसी को पुकारते हैं जिससे कुछ अाशा विश्वासघाती, और घातक' चार्ल्स (प्रथम) के पुत्र थे । इनके होती है, और यह वाक्य आशा का एक सुन्दर नमूना है । पिता को कामवेल की आज्ञा से प्राण-दण्ड दिया गया ऊन्मर (टामस) १४८९-१५५६-ये केन्टरबरो के था। इंग्लैंड के इतिहास में इनसे अधिक बुरी हुकुमत बड़े पादरी थे। इनके विचारों में उदारता नहीं थी। जो
और किसी राजा की नहीं हुई है । इनकी दूसरी विशेषता राय होती थी, बस उसी को ठीक समझते थे। जिनके यह थी कि शायद वहाँ के और किसी बादशाह के इतनी विचार इनके विचारों से नहीं मिलते थे उनके ये दुश्मन रखेलियाँ नहीं थीं। इन्हीं के समय में लन्दन में प्लेग का हो जाते थे। धार्मिक सहनशीलता इनमें नाम को भी नहीं प्रकोप हुअा था और बहुत बड़ी आग भी लगी थी। मरने थी। कहा जाता है कि बहुतों को जिन्दा जलवा देने में भी के थोड़ी देर पहले इन्होंने कहा था-"देखना, बेचारी इनका हाथ था। उस समय पादरियों के बहुत अधिकार वेली (आपकी एक प्रेमिका) भूखों न मरे ।" इनका थे। हेनरी (अष्टम) का ज़माना था, जो इन पर बहुत
आखिरी वाक्य यह था--"मुझे खेद है कि मरने में मैं कृपा करता था। ये धीरे धीरे 'प्रोटेस्टेंट-सम्प्रदाय' की देर लगा रहा हूँ ।" वह वाक्य उन दरबारियों से कहा था तरफ़ झुक रहे थे, लेकिन हेनरी के देहान्त के बाद इनके जो इनकी मत्युशय्या के पास खड़े थे। कहने का मतलब पैर उखड़ गये और अपने धर्मशास्त्र के विरुद्ध सेमूर के यह था कि आप लोगों को बेकार खड़े खड़े कष्ट हो रहा प्राणदण्ड के आज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कर दिया । बिशप है। शून्य हृदय के शून्य शब्द हैं !
वोनर, गाडिनर और डे का पदच्युत करने और कारावास ___चाल्स नवम (फ्रांस) १५५०-१५७४- इनमें शारी- का दण्ड देने में ये सहमत थे। बाद को इन पर झूठी रिक बल की कमी नहीं थी और न कमी बहादुरी की थी। कसम खाने का अभियोग लगाया गया। रोम के बड़े ये साहित्य के भी अच्छे जानकार थे। इन सब गुणों के पादरी के कमिश्नर की अदालत में इनका मुकद्दमा पेश होते हुए भी ये बड़े चालाक थे, विचारों में न स्थिरता हुअा। इनका यह कहना था कि यह मुकद्दमा कमिश्नर थी, न दृढ़ता थी, और सर्वोपरि यह अवगुण था कि नहीं कर सकता। दूसरा अभियोग राजद्रोह का था, जिसे इनका हृदय दया-शून्य था। ये अपनी मा के हाथों के इन्होंने स्वीकार कर लिया और इनको प्राणदण्ड कठपुतली थे। वह जो नाच नचाती थी वही नाचते थे। दिया गया। इन्होंने यह इच्छा प्रकट की थी कि ये अपनी माता के आदेशानुसार इन्होंने सेन्ट बार्थोलोम्यू को जलाये जायँ । जब लकड़ियों में : वध किये जाने की आज्ञा दी थी। इस दुष्ट और पापपूर्ण इन्होंने अपने दाहने हाथ को आग में बढ़ा दिया और
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सरस्वती
[भाग ३८
कहा "इस हाथ ने अपराध किया है। यह अयोग्य सिर काटनेवाले से कहा था- "मेरा सिर लोगों को हाथ। इसी हाथ से इन्होंने अपना धर्म बदलनेवाले अवश्य दिखला देना, क्योंकि ऐसा सिर लोगों को बहत कागज़ पर हस्ताक्षर किया था। चरित्र तो उतना उच्च नहीं दिनों के बाद देखने को मिलेगा।" अभिमान ने मरते था, पर अपनी भल मान लेने की हिम्मत अवश्य थी और वक्त तक इनका साथ नहीं छोड़ा। उसी का सूचक उनका उपर्युक्त अन्तिम वाक्य है। फाक्स, चार्ल्स जेम्स १७४९-१८०६-ये श्राजीवन
डैन्टन (जार्जेज जेक्यूज़ १७५९-१७९४ --पाजविप्लव अनियमित ही रहे । १९ वें वर्ष में पार्लियामेंट के के पहले ये पेरिस में वकालत करते थे । इनकी सहानुभूति मेम्बर चुने गये। जब अमरीका से युद्ध हो रहा था तब क्रांतिकारियों की तरफ़ थी। योग्य योग्य को पहचानता है। इन्होंने उन सब कानूनों का विरोध किया जिनके द्वारा इन पर मिराबो की निगाह पड़ी और उन्होंने इनको अपने गवर्नमेंट को मनमानी करने का अधिकार प्राप्त होता साथ काम करने के लिए रख लिया। मिराबो भी अपने था। ये अपने समय के श्रेष्ठ वक्ताओं में थे। इनका जमाने का बहुत बड़ा आदमी था। फ्रांस के विप्लव का स्वभाव सरल और विचार बहुत उदार थे। उनके साथ इतिहास उसी का इतिहास है। एक के बिना दूसरा अपूर्ण भी बहुत अच्छा व्यवहार करते थे जो इनके खिलाफ है। सुनने में चाहे अयुक्ताभास मालूम हो, पर यह एक ऐति- रहते थे। एक दफ़ा जब ये पार्लियामेंट की मेम्बरी के हासिक सत्य है कि प्रायः विद्वत्ता और सच्चारत्रता एक दूसर लिए खड़े हए तब बहत जोरों से इनका विरोध किया का साथी नहीं है। इनका कोई सिद्धान्त नहीं था और गया। ऐसे मौकों पर प्रत्येक वोट बहुमूल्य होता है। अगर कोई था तो समय की सेवा करना । इनके विचारों में डिवनशायर की डचेज़ इनके पक्ष में थीं। डचेज़ बडी स्थिरता नहीं थी-दृढ़ता तो दूर रही। ये एक दफ़ा अपने सुन्दर थीं। वे एक क़स्साब से वोट माँगने गई। उसने वोट पिता के पक्ष में इतना हो गये कि मा ने इन पर गोली देने से इनकार किया। अन्त में यह तय हुअा कि वह चला दी और जब माता के पक्ष में हुए तब बाप को उनका चुम्बन करले और अपना वोट दे दे। काक्स में ये बुरा भला कहने में कोई कसर नहीं उठा रक्खी और फिर सब गुण होते हुए भी कुछ अवगुण थे। वे बहुत बड़े जब पलटा खाया और पिता के पक्ष में गये तब माता के शराबी और जुवाँरी थे। बर्क के समकालीन थे। बर्क ने चरित्र तक पर आक्षेप किया। इनमें सभी अवगुण थे, परन्तु एक दफ़ा इनकी प्रशंसा में कहा था कि फाक्स जैसा उस समय ये जनता के प्राराध्यदेव थे। कज़ लेकर उसे तार्किक संसार में कभी नहीं पैदा हुअा। बक और फाक्स चुकाना इन्होंने नहीं सीखा था। इनके मरने पर इनकी का आखिरी ज़िन्दगी में वैमनस्य हो गया था। तब भी शादी के कपड़ों के दाम देना बाकी था। इनके भाषण बक के मरने पर फाक्स ने पार्लियामेंट में यह प्रस्ताव पेश सदा उनके खिलाफ़ होते थे जो विप्लव के पक्ष में नहीं थे। किया था कि वे वेस्टमिंस्टर-एबे में गाड़े जायँ । परन्तु थोड़े दिनों के बाद ये न्याय मंत्री नियुक्त हुए। इस समय बर्क कह गये थे कि साधारण श्रादमियों की ही तरह वे समस्त देश में बड़ा जोश था। बड़ी जगह पर पहुँचते ही दफ़न किये जायँ । फाक्स ने अपनी मित्रता का ऋण चुका उनकी संख्या बडी हो जाती है जो बिन काज दाहने बायें दिया। इन्होंने मरने के पहले कहा था--"मैं सुखी मर रहते हैं । ये अपने घर चले गये और वहीं रहने लगे। रहा हूँ।" ये शब्द उसी के मुँह से निकल सकते हैं जिस लोगों ने इनको बुला भेजा और पेरिस पहुँचते ही ये पर कोई लाञ्छन न हो। गिरफ्तार कर लिये गये और उसी न्यायालय के सामने
६२-१८३०- १९ वर्ष की अवस्था इनका मुकद्दमा हुअा जिसकी स्थापना इन्होंने की थी। तक ये कड़ी देख-भाल में रक्खे गये। १८ वें वर्ष से ही इन पर न्याय का अपमान करने का अभियोग लगाया अपने चरित्र का पता देना शुरू कर दिया था । एक नाटक गया। इन्होंने अपने बचाव में बहस की, पर एक न सुनी करनेवाली मिसेज़ राविंसन से इनका प्रेम हो गया और गई और इन्हें प्राणदण्ड दिया गया। राज-विद्रोह का फिर २० साल की उम्र में एक रोमन कैथलिक सम्प्रदाय एक बड़ा पक्षपाती स्क्यं उसका शिकार बन गया। उन्होंने की स्त्री से शादी कर ली। १७९५ में फिर प्रिसेस केरोलीन
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संख्या १]
अन्तिम वाक्य
से शादी की और पार्लियामेंट ने इनका क़र्ज़ जो ने बड़ा अच्छा प्रबन्ध किया था । १७६९ में जब फ्रांस की ६,५०,००० पौंड था, अदा कर दिया। बादशाह होने पर फ़ौज ने फ्रैंकफ़ोर्ट में प्रवेश किया तब वहाँ एक थियेटर इन्होंने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया। जैसे को तैसा की स्थापना हुई और इनकी तबीयत उधर खिंच गई और मिल जाता है। इनके सम्बन्ध में लोगों की राय है कि प्रसिद्ध नाटक लिखनेवालों से उनकी जान-पहचान ये अभक्त पुत्र, बुरे पति और निठुर पिता थे। मरने के हुई, जिनका बहुत प्रभाव इन पर पड़ा। जब ये यूनिवर्सिटी वक्त कहा था--"यह क्या है ? क्या यह मौत है ?" में भर्ती हुए तब इनको कानून से कुछ भी नहीं
गिबन (एडवर्ड) १७३७-१७९४- इंग्लैंड के इति- और साहित्य से बहुत थोड़ी रुचि थी। स्वतंत्र हाम-लेखकों की सूची में इनका नाम सबसे ऊँचा है। आत्माओं को किसी किस्म के बंधन से अरुचि होती है । बचपन में ये प्रायः बीमार रहते थे। सिर्फ दो वर्ष स्कूल में इनको समालोचना लिखने और कविता रचने का शौक पढ़ा था और १४ महीने कालेज में । यही इनकी शिक्षा था। अब प्रेम पथ-प्रदर्शक हुआ- सोने में सुगन्ध की नींव थी। ये लैटिन और फ्रेंच के भी अच्छे विद्वान् आगई । ये अपनी प्रेमिका को इतना चाहते थे कि एक ये। 'डिकलाइन ऐंड फ़ाल श्राफ दि रोमन इम्पायर' इन्हीं दफ़ा जब इनको एक आवश्यक कार्यवश बाहर जाना पड़ा की अमर रचना है। इन्होंने स्वयं लिखा है कि १५ तब ये उसकी कंचुकी साथ ले गये थे। इनका कहना है अक्टूबर १७६४ को जब मैं रोम में बृहस्पति -ग्रह के मंदिर कि कई दिनों तक इनको उसमें एक मनोहारी सुगंध मिलती में बैठा हुआ था और नंगे पैर पुजारी स्तुति कर रहे थे रही । प्रेम प्रत्येक अंग को सुवासित कर देता है। राजवंश तब पहले दफ़ उस साम्राज्य के ह्रास और पतन का में भी इनका श्रादर और सत्कार था और ऊँचे पद पर इतिहास लिखने का ख़याल मेरे दिमाग में आया था। ये नियुक्त थे। इन्होंने बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं, जो अभी ये पार्लियामेंट के मेम्बर भी रहे । ये हमेशा गवर्नमेंट की तक प्रसिद्ध हैं। समय ने पल्टा खाया-अच्छे दिन गये, तरफ़ वोट देते थे और इसी कारण इनको अच्छे वेतन बुरे दिन आये। १८१६ में इनकी पत्नी का शरीरान्त हो की एक जगह मिल गई थी। इनके कौंसिलों में वोट देने गया। इनकी अत्यन्त शोचनीय दशा हो जाती, यदि इनकी के सम्बन्ध में किसी ने खूब कहा है--"अस्त्र धारा भल बह इनकी अच्छी देख-रेख न रखती और पौत्र इनका दिल न जाना कौंसिल का है वोट, या तो पांचों उँगली घी में न बहलाया करते । अँगरेज़ी में एक कहावत है कि 'मुसीबत या सर पर है चोट" । इनका अन्तिम वाक्य यह था- कभी अकेली नहीं आती है।' एक एक करके इनके दोस्त "हे ईश्वर ! हे ईश्वर !” जिनके 'रास्ते में फूल बिछे रहे चलते बने और अन्त में १८३० में इनको पुत्र-शोक भी हैं' या जिन्होंने 'चैन की बंशी' बजाई है या जो 'लक्ष्मी के देखना पड़ा। इनका अन्तिम वाक्य यह था-"प्रकाश, पुत्र' रहे हैं उन्हें ईश्वर से क्या सरोकार ? सरोकार तो और अधिक प्रकाश" । अर्थात् जीवन अन्धकारमय है और ईश्वर से उन्हें रहता है जिनका रास्ता कण्टकपूर्ण है या किसी गूढ़ तत्त्व पर काफ़ी प्रकाश नहीं पड़ता है। जो 'चौंकत चैन को नाम सुने' या जिनके पास भूख को हैपिलट (विलियम) १७७८-१८३०–ये अँगरेज़ी 'धोखा' देने भर का भी इन्तिज़ाम नहीं है या जिनकी के बहुत बड़े लेखक थे। इन्होंने कई विवाह किये, परन्तु ज़िन्दगी 'ज़िन्दा मौत' है । यदि इन सब कष्टों का सामना किसी से इनको वास्तविक सुख नहीं प्राप्त हुअा। इनका गिबन को करना पड़ा था तो फिर कोई वजह नहीं थी कि अन्तिम समय दुःख-पूर्ण रहा । स्वास्थ्य बहुत ख़राब होगया मरने के समय ईश्वर न याद अाता।
__ था और उससे अधिक आर्थिक दशा बिगड़ी हुई थी। गेटे (जान उल्फगैंग) १७४९-१८३२-इनका जन्म- इतने पर भी मरते समय इन्होंने कहा था-"मेरा जीवन स्थान फ्रैंकफ़ोर्ट (जर्मनी) है । ये अपने समय के अद्वितीय सुखी व्यतीत हुआ है ।" सन्तोषी सदा सुखी रहता है। विद्वान् थे या यह भी कहना ठीक होगा कि संसार के बड़े हर्बर्ट (जार्ज) १५९३ १६३३–ये कवि थे। कालेज विद्वानों में इनकी गणना है। कोई भी बात ये बहुत से निकलने पर आँखें नौकरी पर थीं, पर इनके कुछ मित्रों . जल्दी सीख लेते थे । इनको शिक्षा देने का इनके पिता ने इनका ध्यान धर्म की तरफ़ आकर्षित कर दिया और
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सरस्वती
ये थोड़े दिनों तक एक पदाधिकारी भी रहे। इनकी कुछ कवितायें बड़ी प्रशंसा की दृष्टि से देखी जाती हैं । मृत्यु के समय इन्होंने कहा था- - "ईश्वर, अब मेरी आत्मा को स्वीकार कर ।" ये शब्द उनके धार्मिक विचारों के प्रतिबिम्ब हैं ।
कीट्स (जान) १७९५-१८२१ -- इन्होंने पहले चिकित्सा-शास्त्र पढ़ा और थोड़े दिनों तक एक डाक्टर के साथ काम भी सीखा । परन्तु अन्त में यह सब छोड़कर सरस्वती के उपासक बन गये । अँगरेजा - भाषा के कवियों में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। इनकी कविता की जो प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है । विद्वत्ता और दरिद्रता की मित्रता है । ये भी धनाभाव से पीड़ित रहते थे। पैतृक सम्पत्ति बहुत कुछ ‘सिकुड़' आई थी और स्वास्थ्य ने भी साथ छोड़ दिया था । बहुत दिनों से क्षय रोग का भय हो रहा था और वही आख़िर में ठीक निकला। एक स्त्री से इनका सफल प्रेम था । अँगरेज़ी की एक कविता का भावार्थ यह है कि सब वेदनाओं से अधिक यह वेदना है कि किसी का किसी से असफल प्रेम हो । इन्होंने स्वयं अपना मृत्यु-आलेख लिखा था - " यहाँ वह लेटा हुआ है जिसका नाम पानी पर लिखा है ।" कितने भावपूर्ण शब्द । इनको फूलों का बड़ा शौक था। इनका आख़िरी वाक्य यह था - "मुझे मालूम होता है कि जैसे मुझ पर फूल उग रहे हों । "
मेकाले, टामस बैबिग्टन (लार्ड) १८००-१८५९ये इतनी तीव्र बुद्धि के थे कि चार ही वर्ष में स्कूल से कालेज पहुँच गये । ये गणित से बहुत घबराते थे और हमेशा इसका उन्हें डर रहता था । इन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा पास की, परन्तु इस पेशे से इनको वैसी रुचि नहीं थी — ये साहित्य की तरफ खिँच गये । १८२५ में इन्होंने मिल्टन पर एक लेख लिखा था । इस लेख से साहित्य में इनका स्थान निश्चित हो गया। जब ये पार्लियामेंट में पहुँचे और 'रिफ़ार्म- बिल' पर स्पीच दी तब लोगों को मालूम हुआ कि ये बड़े भारी वक्ता भी हैं । इनका 'हाथ खुला' हुआ था, इस वजह से रुपया की कमी रहती थी और इसी वजह से १०,००० पौंड का सालाना वेतन स्वीकार कर ये भारत सरकार के क़ानूनी सलाहकार के रूप में १८२४ में हिन्दुस्तान आये थे ।
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इनके ज़ोर देने की वजह से की शिक्षा दी जाने लगी।
[ भाग ३८
हिन्दुस्तानियों को अँगरेज़ी १८३८ में ये वापस गये । इतिहास और निबन्ध के नामी लेखक थे । एक ने इनकी प्रशंसा में कहा है कि किसी विद्यार्थी का इससे अधिक अभाग्य नहीं हो सकता है कि इनकी शैली का अनुसरण करे | इन्होंने मरने के वक्त कहा था - "अव मैं जीवन के मञ्च पर से हहूँगा । मैं बहुत थक गया हूँ ।" नेपोलियन बोनापार्ट) १७६९ - १८२१ - नेपोलियन के सम्बन्ध में किसी का यह कहना है कि जो उन्हें नहीं जानता है, यह सूचित करता है कि वह स्वयं अपरिचित है। मिल्टन ने अपने 'पेराडाइज़ लास्ट' में लिखा है कि शैतान ने एक मौके पर कहा था - नाट टु नो मी इज़ टु अगूं योर सेल्फ अननोन । अर्थात् मुझे न जानना इस बात का प्रमाण है कि स्वयं तुम्हें कोई नहीं जानता है । यह पंक्ति व अँगरेज़ी में एक प्रसिद्ध लोकोक्ति हो गई है । जब तक भाग्य ने साथ दिया, कीर्ति और विजय नेपोलियन के पीछे दौड़ती थी जैसा किसी के पीछे उनके पहले और उनके बाद कभी नहीं दौड़ी है और बुरे दिन आते ही फिर ऐसा मुँह फेरा कि एक नज़र भी लौटकर नहीं देखा । नेपोलियन की भी निगाह हिन्दुस्तान पर थी और इंग्लैंड से तो वे जलते ही थे, लेकिन उनके इरादे पूरे नहीं हुए । नील और फालगर के युद्धों की असफलता ने उनकी समस्त शक्ति को समाप्त कर दिया। वाटरलू के प्रसिद्ध युद्ध में वे पकड़े गये और सेन्ट हेलिना द्वीप में रहने को भेज दिये गये और वहीं क़ैद में उनकी मृत्यु हो गई। मरने के वक्त उन्होंने कहा था- "हे ईश्वर, फ्रांस की फ़ौज का प्रधान सेनापति ।" यह शायद इस भाव का सूचक है कि हे ईश्वर, फ्रांस की फ़ौज का प्रधान सेनापति श्राज क़ैदी के रूप में मर रहा है । नेपोलियन को सम्राट होने से अधिक अभिमान प्रधान सेनापति होने का था ।
नेल्सन (हुरेशियो) वाईकाउंट १७५८ - १८०५इन पर इंग्लैंड को उचित अभिमान है । इसमें सन्देह नहीं कि ये एक बहुत बड़े वीर पुरुष थे, और इनके वीरत्व की तुलना केवल इनकी अनुपम देश-भक्ति से की जा सकती है। ट्रेफ़ालगर के युद्ध का इतिहास बिना इनके इतिहास के अपूर्ण है । उस समय इंग्लेंड पर घोर संकट था और देशवासियों से प्रार्थना करते हुए इन्होंने लिखा
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संख्या १ ]
या कि नेल्सन हर एक आदमी से आशा रखता है कि वह अपने कर्त्तव्य की पालन करेगा। इन्होंने पुनरावृत्ति में 'नेल्सन' की जगह 'इंग्लेंड' शब्द बढ़ा दिया | • इससे इनके उदार विचारों का पता चलता है । १८०० में इन्होंने अपनी पत्नी को तलाक़ दे दिया था, क्योंकि (इनका प्रेम लेडी हैमिल्टन से हो गया था ।
युद्ध हो रहा था और ये सामने खड़े कैप्टेन हार्डी को आज्ञा दे रहे थे कि इनके बायें कन्धे में गोली या लगी, जिससे प्राणघातक घाव लगा और तीन घंटे के बाद इनका शरीरान्त हो गया। इनका अन्तिम वाक्य यह था - "ईश्वर का धन्यवाद है । मैंने अपने कर्त्तव्य का पालन " किया है ।" मनुष्य को कभी इतना सन्तोष और प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कर्तव्य पालन से होती है ।
ये
नेरो (रोम का बादशाह) ३७-६८ इन्होंने कुल चौदह वर्ष राज्य किया था । सच्चरित्रता का अभाव यों तो बहुतों में होता है, परन्तु ये उन लोगों में थे “जिनके पहलू से हवा भी बचकर चलती थी ।" इनके पिता के मरने पर इनकी माता ने बादशाह क्लाडियस से शादी कर ली और उसने इन्हें अपना उत्तराधिकारी मान लिया। उसके मरने पर तख़्त पर बैठे और बड़ी कड़ाई से शासन किया । इन्होंने क्लाडियस के लड़के का ज़हर दिलवा दिया और अपनी प्रेमिका को प्रसन्न करने के लिए अपनी माता और फिर अपनी पत्नी का वध कर डाला । सन् ६४ ईसवी की जुलाई में रोम में इतनी बड़ी आग लगी कि दो तिहाई शहर जल गया । कहा जाता है कि इन्हीं ने आग लगवा दी थी और यह भी कहा जाता है कि ये दूर से इस भयानक और हृदय विदारक दृश्य को देख रहे थे और एक पुरानी कविता पढ़ रहे थे, जिसमें एक दूसरे शहर के जलने का वर्णन था। बहुत-से ईसाइयों को मरवा डाला और बहुतों के साथ बड़ी कठोरता का बर्ताव किया । इनके ख़िलाफ़ रियाया ने षड्यन्त्र रचा, परन्तु वह सफल नहीं हुआ और प षड्यन्त्रकारी मार डाले गये । इन्होंने फिर शहर नवाना शुरू किया और स्वयं अपना महल बनवाने के ए इटली के कई सूबे लूटे । एक दफ़ा गुस्से में आकर अपनी पत्नी को एक लात मार दी। वह गर्भवती थी और इस चोट से उसकी मृत्यु हो गई। फिर क्लाडियस की लड़की शादी करनी चाही, लेकिन उसने इनकार कर दिया । इस
अन्तिम वाक्य
फा २
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वजह से उसे मरवा डाला । वहाँ से जब नाउम्मीदी हुई तब एक दूसरी स्त्री पर तबीयत श्राई और उसके पति का वध करवाकर उससे विवाह किया। इनके ज़माने में किसी में सद्गुणों का होना एक बड़ा अभिशाप था । ये अपने ज़माने के बहुत बड़े कवि, तत्त्वज्ञानी और संगीतशास्त्रविशारद कहलाना चाहते थे । रियाया बिगड़ी हुई थी । अन्त में विद्रोह सफल हुआ और ये भागे और आत्महत्या कर ली। मरने के वक्त इन्होंने कहा था – “संसार मुझमें कितना बड़ा कला-कौशल खो रहा है ।" शायद यह मिथ्याभिमान की चरमसीमा है ।
पामर्स्ट (हेनरी जान टेम्पेल) लार्ड १७८४-१८६५ये इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचे थे। इनके चरित्र में कुछ विचित्रतायें भी थीं। ये अपनी राय का ऐसे ज़ोरों से समर्थन करते थे कि तर्क की सीमा को भी उल्लंघन कर जाते थे । इनके भाषणों में प्रायः एक प्रकार का रूखापन होता था, जो सभ्य समाज की दृष्टि में अनुचित मालूम होता था । ये अक्सर अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप किया करते थे । इन्होंने मरने के वक्त कहा था - " मरना, डाक्टर, वही एक चीज़ है जो मैं कभी नहीं करूँगा” । संसार की यही एक चीज़ है, जो सबको करना पड़ती है । उर्दू का एक कवि कहता है - "लाश पर इबरत यह कहती है ‘अमीर', आये थे दुनिया में इस दिन के लिए ।"
पो ( इडगर एलन) १८०९ - ४९ – ये तीन ही वर्ष की अवस्था में अनाथ हो गये थे । इनको एक अमीर और पुत्रविहीन सौदागर ने अपना उत्तराधिकारी बना लिया था। अभी ये पढ़ ही रहे थे कि इनको जुवाँ खेलने की दत पड़ गई। इन्होंने फ़ौज में नौकरी की । वहाँ ठीक काम न करने की वजह से निकाल दिये गये । ये भूखों मरते, यदि इनको लिखना न श्राता होता । ये अखबारों में लिखा करते थे । उससे कुछ मिल जाता था और कुछ किताबें भी लिखी थीं । लिखकर जो कमाते थे वह फिर उड़ा देते थे और फिर रोटियों के लाले पड़ जाते थे । इनकी पत्नी अत्यन्त दरिद्रता में मरी । इन्होंने एक दफ़ा आत्महत्या करने की चेष्टा की थी । अन्त में इनकी एक अस्पताल में मृत्यु हुई । इनका आख़िरी वाक्य यह था - " हे ईश्वर, मेरी आत्मा की सहायता
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सरस्वती
करो, अगर कर सकते हो" । जिसे जन्म भर किसी से सहायता न मिली हो उसे सहायता पर कैसे विश्वास होता ? कोई भी अपने अवगुणों पर निगाह नहीं डालता है यह ख़याल किया करता है कि वह सहायता और दया के योग्य है और जो कुछ गल्ती है वह दया और सहायता न करनेवाले की है। अँगरेज़ी में एक कहावत है कि 'पहले योग्य बनो तब इच्छा करो'। एक दूसरा कहता है कि 'योग्य बनो परन्तु इच्छा न करो ।
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टेवेल (फ्रैंसिस) १४८३-१५५ ३ - ये अपने समय के बहुत बड़े विद्वान् थे । ग्रीक, हेब्रु, अरबी, लेटिन और फ्रेंच आदि भाषायें अच्छी तरह जानते थे । स्वतंत्र विचारों के आदमी थे । कभी साधुत्रों के किसी सम्प्रदाय में सम्मिलित हो जाते थे और कभी उसे छोड़ देते थे और वहाँ से चलते बनते थे । सबसे बड़े पादरी से इनकी मित्रता थी और इस वजह से इनको अगम्य कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा था । इनका चिकित्सा शास्त्र का भी अच्छा ज्ञान था और चिकित्सक का भी काम किया था। ये अच्छे व्यंग्यलेखक थे । बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं। इनकी लिखी एक पुस्तक से रोमन कैथलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों इतना नाख़ुश हुए कि किताब की बिक्री रोक देने और लेखक का जला देने का शोर मचाया था । हास्य के लिखते समय सभ्यता को उठाकर ताख पर रख देते थे । उसमें ग्रामीणता श्रा जाती थी । यदि यह दोष न होता तो इनकी कविता उच्च कोटि की गिनी जाती। इनकी मृत्यु के पश्चात् इनकी जो पुस्तक प्रकाशित हुई उसमें भी उपर्युक्त दोष था । इनकी विद्वत्ता के जितने लोग प्रशंसक थे, उतने ही या उससे अधिक निन्दक थे । इन्होंने मरने के समय कहा था-“परदा गिरने दो ! (जीवनरूपी) प्रहसन समाप्त हो गया । " बहुत अच्छा भाव बहुत अच्छे शब्दों में प्रकट हुआ है ।
स्काट (सर वाल्टर) १७७१-१८३२ - अँगरेज़ीसाहित्य में इनका बहुत नाम है । ये एक प्रसिद्ध सैनिक घराने के थे, पर इन्होंने साहित्य क्षेत्र में नाम कमाया । साहित्यिक विशेषताओं के अतिरिक्त इनमें दो शारीरिक विशेषतायें भी थीं । ये चलने में लँगड़ाते थे और इनका मुँह अधिक चौड़ा था | बचपन में बीमार पड़ गये थे । जान तो बच गई, परन्तु न मालूम किस कारण से पैर में ढबक श्र गई। मुँह चौड़ा होने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि
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[ भाग ३८
इनके छः पुश्त पहले के वाल्टर स्काट का पुत्र विलियम बहुत खूबसूरत था, और एक दफ़ा जब उसने सर गिडन मरे की ज़मीन पर धावा किया तब पकड़ लिया गया। सर गिडन ने यह शर्त की कि या तो प्राणदण्ड स्वीकार करो या उसकी तीन लड़कियों में से जो सबसे अधिक कुरूप है उससे शादी करो । विलियम ने शादी करना स्वीकार किया और वह कुरूप कन्या एक आदर्श पत्नी निकली। तब से इस वंश के सब लोगों के मुँह चौड़े होते आते थे । ये ग़ज़ब की मेहनत करने वाले थे । जब काम करने लगते तब न खाने का ख़याल रहता, न आराम का । निर्भीक भी बहुत थे । एक क़िस्सा स्वयं कहा करते थे
। एक दफ़ा ये एक सराय में पहुँचे। उसके मालिक से कहा कि सोने के लिए एक कमरे में प्रबन्ध कर दीजिए । मालिक ने खेद प्रकट किया और कहा कि कोई कमरा ख़ाली नहीं है सिवा उस कमरे के जिसमें एक पलंग पर लाश पड़ी हुई है और दूसरा पलंग ख़ाली है। उन्होंने पूछा कि क्या वह ग्रादमी किसी संक्रामक रोग से मरा था। मालिक ने कहा, नहीं। तब इन्होंने कहा कि उसी कमरे के दूसरे पलंग पर मेरे सोने का इन्तिज़ाम कर दो। ये कहा करते थे कि उस रात से अधिक अच्छी तरह मैं कभी नहीं सोया । इनकी पुस्तकों की बड़ी धूम थी, हाथों-हाथ चिकती थीं। कहा जाता है कि इन्होंने पुस्तकें लिखकर १,४०,००० पौंड कमाया था, परन्तु जिस ढाट-बाट से ये रहते थे उसके लिए यह ग्रामदनी काफ़ी नहीं थी । इनके मकान की प्रशंसा में एक ने कहा था कि वह पत्थर में कविता थी । ये केवल लेखक ही नहीं थे, बहुत बड़े कवि भी थे । अन्त में ऋणी हो गये । पक्षाघात हो गया था । प्राणान्त के समय इन्होंने कहा था- "तुम सबका ईश्वर भला करे । अब मैं फिर अपने को जानता हूँ ।" यही वह जब लोग अपनी वास्तविकता पहचानते हैं । शेडन (रिचर्ड ब्रिस्ली) १७५१ - १८१६ - इनमें वाणी - बल बहुत था। इनका वह भाषण व भी श्रादर की दृष्टि से देखा जाता है जो इन्होंने वारेन हेस्टिंग्ज़ पर अभियोग लगाये जाने के समर्थन में दिया था। कहा जाता है कि अँगरेज़ी भाषा में इसके जोड़ की स्पीच नहीं है । इसको सुनकर लोग मुग्ध हो गये थे । इसकी प्रशंसा में पिट ने कहा था कि यह मालूम होता था कि जैसे 'कामन्स
समय
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संख्या १]
अन्तिम वाक्य
सभा' के मेम्बर जादूगर की छड़ी के नीचे हों। ये बहुत नये देवताओं के पूजन के पक्षपाती हैं और इनके उपदेशों अच्छे नाटक लिखनेवालों में से थे । इनके नाटक 'दि से नवयुवकों के चरित्र बिगड़ रहे हैं। मुकद्दमा चला और रायवल्स' और 'दि स्कूल फ़ार स्कैंडल्स' बहुत मशहूर हैं। इनको प्राणदण्ड दिया गया। इन्होंने तमाम दिन अपने इनके नाटक जब खेले जाते थे तब ये भी अभिनय करते मित्रों के साथ व्यतीत किया और शाम को आज्ञानुसार थे। थोड़े दिनों के बाद नाटकों से इनकी तबीयत हट गई, जहर पी लिया। मरने के समय इन्होंने कहा थायहाँ तक कि साहित्य से भी। अब ये अपनी पत्नी को "कायटो, (आपका एक मित्र) एक मुर्ग का बलिप्रदान लेकर लंदन चले आये और वहीं रहने लगे। वहाँ आकर एसक्यूलापियस (एक देवता) को करना रह गया है।" ये फैशन के पंजे में फंसे और वह जीवन व्यतीत होने लगा शब्द यद्यपि मामूली हैं, तथापि इस बात के सूचक अवश्य हैं जो अतिव्ययता का परमोच्च शिखर था। १७८० में २९ कि मृत्यु के समय के कष्टों ने प्रतिज्ञा को नहीं भूला पाया था। वर्ष की अवस्था में ये पहली दफ़ा पार्लियामेंट के मेम्बर वाल्टेर, फ्रैंसिस मेरी एरूट डी १६९४-१७७८हुए। परन्तु इनका पहला भाषण असफलता का प्रतिरूप इनका जीवन विचित्र था। पहले कानून पढ़ने का इरादा था। इनके एक मित्र ने इनको सलाह देते हुए कहा था था, परन्तु ये उससे बहुत जल्दी घबरा गये। अतिव्ययी कि बहुत अच्छा होता यदि ये अपना पुराना पेशा करते शुरू से ही थे, इस वजह से बाप नाखुश था। बाप ने रहते। शेरीडन ने अपना सिर अपने हाथ पर रखकर इनको फ्रांस के प्रतिनिधि के साथ जो हालेंड में रहता था, उत्तर दिया कि वाक्-शक्ति मुझमें है और वह प्रकट कर दिया और वहाँ से भी ये अपमानित होकर लौटे। होगी। अब ये अपनी स्पीचे रट कर देने लगे। इन्होंने एक कविता लिखी, जिसमें इतने बड़े आक्षेपों और
और जब अपने ऊपर विश्वास बढ़ा तब जो कुछ कहना खुली तरह के व्यंग्यों से काम लिया कि इनको जेलखाना होता था संक्षेप में एक काग़ज़ के टुकड़े पर लिख लेते थे। जाना पड़ा, और इसी अपराध में और भी कई दफ़ा उसकी परिश्रम प्रत्येक कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकता है, हवा खानी पड़ी। लेकिन इनकी आदत नहीं छूटी। इनकी झिझक जाती रही। फिर इनका जो नाम हुआ वह अब विद्वत्ता में कोई सन्देह नहीं था और न कोई सन्देह इनकी भी जीवित है। अब बुरे दिन आये। इनकी पत्नी का चरित्र-हीनता में था। बहुत-से कारबारों में इनका रुपया देहान्त हो गया और जिस औरत से इन्होंने फिर शादी की लग था, जिससे इनको अच्छी आमदनी यी। इनका वह इनसे ज़्यादा रुपया बरबाद करने में बढी हई थी। इनको अन्तिम वाक्य था-- 'कृपा करके मुझे शान्ति से मरने थियेटर से भी कुछ आमदनी नहीं थी। ऋणग्रस्त हो गये दीजिए।" अगर जीवन में शान्ति नहीं थे। इन्होंने मरने के वक्त कहा था--"श्राह ! मैं बिलकुल के समय उसकी आशा करनी व्यर्थ है। बरबाद हो गया !” यह दुखी हृदय के दुख के शब्द हैं। काटरेट जान, अले ग्रेविनाइल १६९०-१७३६-ये है. साक्रेटीज-इनका जन्म सन् ईसवी के ४६९ वर्ष स्वीडेन में इंग्लैंड के प्रतिनिधि रहे थे और अन्तर्राष्ट्रीय पहले बतलाया जाता है। ये ग्रीकदेश के सबसे बड़े तत्त्व. सिक्रेटरी भी। शरीरान्त के समय होमर के महाकाव्य के
नकी विशेष रुचि प्राचार-नीति से थी। ये युद्ध का एक दृश्य इनको याद अा गया, जिसमें सरापीडन पहले फ़ौज में काम करते थे और इनका बहादुरी में बड़ा सेनापति ने एक सैनिक से कहा था- "भाग नाम था। राजनीति-क्षेत्र इनका क्षेत्र नहीं था। केवल से कैसे बच सकते हो ? यदि हम सब मौत और वृद्धावस्था कुछ दिनों के लिए ये सचिव-सभा में रहे थे। इन्होंने से बच सकते तो भागना तर्कयुक्त होता। परन्तु मौत हमें कोई किताब नहीं लिखी। ये प्रश्नोत्तरों से उपदेश देते चारों तरफ से घेरे हुए है, इसलिए मैं तुमको उपदेश दूंगा है। इनका कहना था-"सद्गुण ज्ञान है, दुर्गुण अज्ञान कि युद्ध करो और आगे बढ़ो।" है।" ३९९ में इन पर यह अभियोग लगाया गया कि अन्तिम वाक्यों में शान्ति और सन्तोष के अतिरिक्त ईज्य-द्वारा पूजित पुराने देवताओं के ये ख़िलाफ़ हैं और उपदेश भी होते हैं ।
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हमारा आज का आर्थिक प्रश्न
रुपया
ONE
RUPEE EUR INDIA
लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय
1904
क्टोबर के प्रथम सप्ताह में, बिक्री विदेशों में नहीं होती थी, इसलिए उनका भाव मद्दा लेजिस्लेटिव असेंबली में था। फ्रांस विदेशों से ख़रीद ज्यादा रहा था और विदेशों राष्ट्रीय पक्ष की ओर से यह में बेच कम पाता था। फ्रांसीसी किसान आर्थिक संकट में । प्रस्ताव उपस्थित किया गया पड गये थे और उनके ऊपर कर्ज की मात्रा बढती जाती था कि रुपये की कीमत घटा थी। फ्रांसीसी व्यवसायी कमज़ोर पड़ रहे थे । विदेशी व्यव
दी जाय। रुपये पर विशेष सायों के मकाबिले में उनका माल गरीं पड़ता था।
J रूप से बट्टा लगाने का यह इसलिए सरक्षण की पुकार उठ रही थी। बेकारी ज़ोरों प्रस्ताव उचित नहीं मालूम होता, लेकिन सम्पूर्ण से बढ़ रही थी और सोना बाहर खिचा जा रहा था। राष्ट्रीय पक्ष ने जिसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि भी शामिल थे, लन्दन के 'टाईम्स' ने फ्रांस की स्थिति निम्नलिखित बट्टा लगाने के इस प्रस्ताव को ज़ोरदार तरीके से समर्थन शब्दों में बयान की हैकिया। गवर्नमेंट की ओर से सर जेम्स ग्रिग ने कहा कि इस वर्ष की प्रथम छमाही भर फ्रांस को राष्ट्रीय जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, रुपये की कीमत में कमी न होने आर्थिक अवस्था अधिकाधिक शोचनीय होती रही। दूंगा। परिणाम यह हुआ कि रुपये की कीमत पूर्ववत् एक १९३२ से ही फ्रेंच गवर्नमेंट के बजट में घाटा रहता। शिलिंग छः पेंस ही कायम रही।।
श्रआया है और पिछले पांच बरस में तो सरकारी कर्ज़ ३० प्रस्ताव क्यों उठा--व्यवस्थापक असेम्बली के सामने प्रतिशत बढ़ गया। अर्थात २७० अरब ] इस प्रस्ताव के आने का मौका यह था कि लगभग उसी फ्रेंक हो गया था। समय फ्रांस ने अपने सिक्के फ्रेंक की कीमत एकदम घटा चूँकि डालर और पौंड तथा अन्य देशों के सिक्कों के दी, और स्वीज़रलैंड, हालेंड तथा इटली ने फ्रांस का अनु- बदले में फ्रांस का सिक्का महँगा मिलता था, इसलिए फ्रांस सरण किया। ब्रिटेन और अमरीका ने फ्रांस के इस कार्य के निर्यात पर बड़ा भयङ्कर आघात पड़ता था। फ्रांस की को प्रोत्साहन दिया और उससे सहयोग भी किया। इसलिए ६२ अरब फ्रेक (८२,५०,००,००० पौंड) से अधिक पूँजी भारतीय राष्ट्रीय पक्ष ने यह कहा कि जब योरपीय राष्ट्र पिछले १८ महीने में वहाँ से निकलकर विदेशों को चली अपने-अपने सिक्कों की कीमत घटाकर अपने निर्यात-व्यापार गई थी। फ्रांस का निर्यात-व्यापार अायात के मुकाबिले में को प्रोत्साहन दे रहे हैं और अपनी समस्यायें हल कर रहे इतना कम हो गया था कि प्रतिदिन ५,००,००० पौंड काहैं, हिन्दुस्तान भी उसी मार्ग का अनुकरण क्यों न करे। सेाना फ्रांस से विदेशों को ढोया चला जा रहा था। .
फ्रांस की स्थिति-फ्रांस के सामने अनेक आर्थिक इटली की स्थिति–इटली के सामने भी करीब-करीब समस्यायें श्रागई थीं। जो चीजें फ्रांस बनाता था उनकी यही समस्यायें थीं। पहले तो मुसोलिनी ने लीरा की कीमत
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संख्या १ ]
रुपया
घटाना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने इन समस्याओं का मुकाबिला करने के लिए पहले तो अपनी यह नीति बनाई कि उपज बढ़ाई जाय । कृषि की उपज और व्यावसायिक उपज इतनी ज्यादा की जाय कि इटली को उन चीज़ों के लिए किसी देश का श्राश्रित न रहना पड़े। उन्होंने इस बात का अनुरोध किया कि इटली के लोग केवल इटली का ही बना हुआ माल ख़रीदें। उन्होंने उपज में सरलता पैदा करने के लिए हड़ताल इत्यादि करना क़ानून बनाकर वर्जित कर दिया । विदेशी माल पर सख्त चुंगी लगा दी । लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसी अवसर पर उन्होंने भी लीरा की क़ीमत ४० प्रतिशत कम कर दी। जो लीरा महायुद्ध के पहले एक पौंड में २५ मिलते थे, वे ही १०० मिलने लग गये ।
भारतवर्ष की समस्यायें – भारत के सामने भी ग्राज है और विनिमय की दर क्या है ।
वही समस्यायें हैं ।
(१) जो चीजें भारतवर्ष पैदा करता है उनका भाव बहुत मद्दा हो गया है ।
(२) जो माल हम विदेशों में बेचते थे उनकी माँग बहुत कम हो गई है ।
(३) हमारी विदेशी माल की ख़रीद ज्यादा है। दिसावर की बिक्री कम है । और सोना तो द्रुत गति से ढोया चला जा रहा है ।
•
(५) भारतीय व्यवसाय कमज़ोर हो रहे हैं । (६) बेकारी बहुत ज़्यादा है |
राष्ट्रीय पक्ष का यह कहना है कि जब यही समस्यायें इंग्लैंड, फ्रांस, बेलजियम, स्वीज़लैंड, हालैंड, जापान, इटली अमरीका के सामने थीं तब उन्होंने अपने अपने सिक्के की कीमत घटाकर ही इन समस्याओं को हल किया। हम रुपये की कीमत क्यों न घटायें ?
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( ४. भारतीय ग्रामीण संकट में हैं और क़र्ज़ उन पर बहुत में मार्क और अमरीका में डालर ।
बढ़ रहा है।
पं० गोविन्दवल्लभ पन्त का मत असेम्बली में कांग्रेस-पक्ष के उपनेता पन्त जी ने इस विषय पर अपनी राय देते हुए कहा था
"स्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड ने अपने अपने सिक्के की कीमत घटा दी है। मुसोलिनी किसी समय कहते थे कि इटली ने लौरा के लिए रक्त बहाया है ।
वे अन्तिम वक्त तक लीरा की क़ीमत क़ायम रक्खेंगे । उन्हीं मुसोलिनी ने आज लीरा का दाम घटा दिया है । जब हिन्दुस्तान के चारों ओर इस प्रकार अग्नि जल रही है तब क्या हिन्दुस्तान को चुपचाप बैठना चाहिए ? मेरा यह अनुरोध है कि रुपये का सम्बन्ध स्टलिंग से तोड़ दिया जाय और भारत की स्थिति देखकर उसकी नीति निर्धारित की जाय । इस देश के हितों को भेड़-बकरी की तरह योरप के हित के लिए कदापि बलिदान न करना चाहिए ।" ( हिन्दुस्तान टाइम्स १० आक्टोबर)
किन्तु इस विषय को हम अच्छी तरह नहीं समझ सकते जब तक हम यह न जान लें कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कैसे चलता है, रुपया की क़ीमत कैसे निश्चित होती
१३
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कैसे चलता है ? – रुपया हिन्दुस्तान का क़ानूनी सिक्का है । हिन्दुस्तान भर में रुपये से हम अपनी आवश्यकताओं की चीज़ ख़रीद सकते हैं । लेकिन हिन्दुस्तान के बाहर अगर हम रुपया लेकर जायँ तो यह सिक्का नहीं चलेगा। ईरान का दिरम या ग्वालियर का पैसा हिन्दुस्तान के बाज़ार में नहीं चल सकता । हर एक देश का सिक्का अलग अलग है । इंग्लैंड में पौंड चलता है, फ्रांस में फेंक, इटली में लीग, रूस में रूबल, जर्मनी
प्रश्न यह उठता है कि जब हर एक देश का सिक्का जुदा जुदा है तब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कैसे चलता है । अँगरेज़ सेठिया अपना कपड़ा हिन्दुस्तानी मारवाड़ी के हाथ बेचकर उसकी कीमत पौंड के रूप में चाहेगा। मारवाड़ी उसे पौंड कहाँ से देगा, क्योंकि हिन्दुस्तान में तो पौंड का चलन ही नहीं है । अमरीकन टाइपरायटर की कम्पनियाँ हिन्दुस्तान में अपनी मशीनें बेचकर अगर रुपया ही पायें तो वे अमरीका में वह रुपया ले जाकर क्या करेंगी ? वहाँ तो डालर चाहिए । लेकिन जब जब हम विदेशी माल मोल लेते हैं, तब दाम रुपये के रूप में ही देते हैं। क्या इस देश से रुपया विदेशों को लद जाता है और वहाँ गला दिया जाता है ?
आयात और निर्यात की परिभाषा - अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विचित्र ढङ्ग से चलता है। जो माल हम विदेशों से,
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सरस्वती
खरीदते हैं उसे 'श्रयात' कहते हैं और जो माल विदेशों को भेजते हैं अर्थात् विदेशों में बेचते हैं वह 'निर्यात ' कहलाता है । जैसे १९३०-३१ में भारतवर्ष ने २ अरब रुपये का माल विदेशों से ख़रीदा था। भारत का 'श्रयात' व्यापार २ अरब का था । इसी वर्ष इस देश ने २ अरब २६ करोड़ का माल विदेशों के हाथ बेचा था । यह 'निर्यात' व्यापार हुआ ।
अगर 'निर्यात' और 'श्रायात' के व्यापार की क़ीमत बराबर हुई तो लेन-देन बराबर हो जाता है। अगर इंग्लैंड से भारत ने पचास करोड़ का कपड़ा ख़रीदा और इंग्लेंड के हाथ पचास करोड़ का गेहूँ बेचा तो इसकी ज़रूरत नहीं रह जाती कि कोई रक़म इंग्लेंड से हिन्दुस्तान श्राये या हिन्दुस्तान से इंग्लैंड जाय । व्यापारी लोग एक-दूसरे पर हुडी-पुरी करके लेखा-जोखा बराबर कर लेते हैं। लेकिन अगर इस देश ने माल बेचा ज्यादा और ख़रीदा कम तो ज्यादा ख़रीदने वाले देश को यहाँ सोना भेजना पड़ेगा ।
अप्रत्यक्ष आयात व निर्यात - एक बात और ध्यान देने की है । 'निर्यात' प्रत्यक्ष भी होता है और अप्रत्यक्ष भी । 'श्रयात' प्रत्यक्ष भी होता है और अप्रत्यक्ष भी । प्रत्यक्ष आयात तो वह है जो वास्तविक माल की सूरत में आता है, जैसे कपड़ा, मशीन, मोटर इत्यादि । अप्रत्यक्ष श्रायात वह है जो श्राता तो नहीं है, लेकिन उसकी कीमत देनी पड़ती है। प्रत्यक्ष निर्यात वह है, जिसे हम जहाज़ पर लादकर भेजते हैं, जैसे गेहूँ, चावल इत्यादि । प्रत्यक्ष निर्यात में माल तो नहीं जाता है, लेकिन उसकी कीमत हमें मिल जाती है ।
तो क्या यह पहेली है ? अप्रत्यक्ष आयात और निर्यात कौन-सी चीज़ है जो श्राती तो नहीं है, लेकिन उसकी क़ीमत देनी पड़ती है और जाती नहीं, लेकिन दाम मिल जाते हैं।
अप्रत्यक्ष निर्यात वह नकद रक्कम है जो देश में पूँजी के लिए श्राती है और व्यवसाय में लगाई जाती है । जो नकद रक्कम विदेशों में लगी हुई पूँजी के मुनाफ़े या सूद में ाती है वह प्रत्यक्ष निर्यात है। जो रुपया मुसाफ़िर लोग किसी देश में जाकर ख़र्च कर आते हैं वह उस देश के निर्यात में समझा जाता है । अप्रत्यक्ष प्रायात वह रकम है जिसे कोई देश अपने यहाँ लगी हुई विदेशी पूँजी की मद सें सूद या मुनाफ़े के खाते में अदा करता है। जो पेंशनें
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विदेशी मुलाज़िमों को दी जाती हैं उनको रकम अप्रत्यक्ष श्रायात में ही समझी जाती है ।
प्रत्यक्ष आयात और निर्यात को अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं भारतवर्ष का उदाहरण लेता हूँ । इस देश में रेलवे में तथा अन्य परदेशी कम्पनियों में करोड़ों रुपये लगे हुए हैं। रेलवे में जो मुनाफ़ा होता है, परदेशी पूँजीपतियों को प्रतिवर्ष दिया जाता है । यह रकम अप्रत्यक्ष श्रायात कही जायगी, क्योंकि इस रकम के बदले में हमारे पास कोई माल नहीं आता है, प्रतिवर्ष रक्कम ही अदा करन पड़ती है। जो अँगरेज़ मुलाज़िम भारत सरकार में काम कर चुके हैं, प्रतिवर्ष अपनी पेंशनें लेते हैं। अनेक मुलाज़िम अपनी अपनी तनख़्वाहों से बचाकर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपया इंग्लेंड भेजते हैं । यह सब अप्रत्यक्ष श्रायात समझा जाता है, क्योंकि इस रकम के बदले में जो चीज़ हिन्दुस्तान को मिलती है वह अप्रत्यक्ष है ।
[ भाग ३८
इसी प्रकार प्रत्यक्ष निर्यात को भी समझ लीजिए । हिन्दुस्तान का प्रत्यक्ष निर्यात बहुत कम है, क्योंकि भारतवर्ष की पूँजी विदेशों में कहीं नहीं लगी है और न हिन्दुस्तानी ही विदेशों में जाकर ऐसी ऊँची ऊँची जगहों पर नियुक्त हैं कि स्वदेश को धन भेजें। इस देश का अप्रत्यक्ष आायात बहुत ज़्यादा है । हिन्दुस्तान के ऊपर क़र्ज़ है, उसे पेंशनें देनी पड़ती हैं और यहाँ से करोड़ों रुपया अँगरेज़ मुलाज़िम बचाकर अपने देश को भेजते हैं। केवल क़र्ज़ की अदायगी की मद में ५० से ६० करोड़ रुपये तक की रकम भारतवर्ष प्रतिवर्ष इंग्लिस्तान को भेजता है
३१ मार्च १९३१ को भारत सरकार पर इंग्लिस्तान का निम्नलिखित कर्ज़ था -
लाख पौंड
३१ मार्च १९३१ तक पुराना क़र्ज़ २९२७ महायुद्ध की सहायता की मद में रेलवे की न्यूटी इंडिया-बिल
१६१·३
५१८.६
प्राविडेंट फंड
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"
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६०
२६.६
करोड़
रुपया
३९०.२६
करोड़
७६६·५ = १०२-२
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संख्या १]
रुपया
प्रश्न यह था कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कैसे चलता है ? कर लें। लेकिन दुनिया की सभी गवर्नमेंट स्वदेशी और इसका नियम यह है कि पहले आयात (चाहे वह प्रत्यक्ष विदेशी सिक्के की सराफ़ी में हस्तक्षेप करती हैं और हो या अप्रत्यक्ष) की कीमत निर्यात के रूप में (चाहे वह कानून-द्वारा यह निश्चित करती हैं कि उनका भाव क्या प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष) अदा की जाती है और अगर हो । जैसे भारत- सरकार ने सन् १९२७ में यह निश्चित . निर्यात से अायात ज़्यादा हुअा तो बैलेंस अाफ़ ट्रेड अपने कर दिया है कि एक रुपया का दाम एक शिलिंग छः पेंस खिलाफ़ माना जाता है। अगर आयात कम है और हो। जिस भाव पर एक मुल्क का सिक्का दूसरे मुल्क के निर्यात ज़्यादा तो बैलेंस अाफ़ ट्रेड अनुकूल कहा जाता है। सिक्के के रूप में भुनता है, अर्थशास्त्रीय परिभाषा में उसे
सोने का प्रवाह-अगर ऊपर बयान की हुई बातें 'विनिमय की दर' कहते हैं। हम अच्छी तरह समझ गये हैं तो हमें स्पष्ट हो जायगा कि विनिमय का व्यापार पर प्रभाव-विनिमय की दर हिन्दुस्तान जो कुछ माल विलायतों से खरीदता है उसके का देश की व्यापारिक स्थिति पर काफी प्रभाव पड़ता है। दाम वह अपने देश में पैदा हुई चीज़ों के रूप में अदा अगर अाज भारत-सरकार विनिमय की दर बदल दे, अर्थात् करता है। अप्रत्यक्ष पायात के लिए भी उसे स्वदेश की रुपये की कीमत एक शिलिंग ६ पेंस न रखकर कम या चीजें भेजनी होती है, अर्थात् जो करोड़ों रुपया क़र्ज़ के ज्यादा कर दे तो भारत के निर्यात और अायात व्यापार सूद के रूप में या पेंशनों के रूप में जाता है वह सबका पर बहुत प्रभाव पड़ जाय । अगर आज रुपया एक शिलिंग सब गेहूँ, चावल, जूट इत्यादि भारतीय उपज की सूरत में ६ पस का न रह कर एक शिलिंग ८ पेंस का हो जाय । उसे देना होता है। अगर अायात इतना अधिक हो गया तो हमारा निर्यात व्यापार बहुत ही कम हो जायगा। कि निर्यात की सूरत में अदा नहीं हो सका तो उसके बदले अँगरेज़ व्यापारी आज एक शिलिंग ६ पेंस देकर १० सेर में सोना जाता है। आज-कल भारतवर्ष का यही हाल है। गेहूँ भारत में खरीद सकता है। परन्तु विनिमय की दर के अरबों का सोना इस देश से विलायतों को चला गया और बदल जाने पर उसी १० सेर गेहूँ के लिए उसे १ शिलिंग बराबर जा रहा है केवल इसलिए कि हम विदेशों में अपना ८ पेंस देने पड़ेंगे, अर्थात् २ पेंस ज़्यादा । ऐसी स्थिति निर्यात-व्यापार इतना नहीं बढ़ा पाते कि उससे अपने में स्वाभाविक है कि वह भारत के बाज़ार में न ख़रीदकर
आयात की कीमत अदा कर सकें। उसकी पूर्ति के लिए किसी दूसरे बाज़ार में ख़रीदेगा, जहाँ उसे सस्ता मिलेगा। हमें सोना भेजना पड़ता है।
परिणाम यह होगा कि गेहूँ का दिसावर में जाना बन्द हो ___ इस प्रकार अायात, निर्यात और सोना ये तीनों जायगा । मारवाड़ी लोग गाँव और कस्बे कस्बे ख़रीद बन्द मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का लेखा-जोखा बराबर रखते कर देंगे। गेहूँ का भाव गिर जायगा। १० सेर के बजाय हैं। अगर निर्यात अायात से कम हो जाता है तो हमें वह ११ सेर का बिकने लगेगा। किसानों की आर्थिक सोना भेजना पड़ता है। अगर आयात कम हो जाता है तो दशा बदतर हो जायगी, क्योंकि वही मन भर गेहूँ जिसे सोना पाता है।
बेचकर वे ४) पा सकते थे, केवल ३||) का हो जायगा। एक बात और होती है। अगर हिन्दुस्तान में निर्यात इस तब्दीली का एक परिणाम और भी होगा। विलायती के मुकाबिले में आयात ज़्यादा हुअा तो हिन्दुस्तान के माल हिन्दुस्तान में सस्ता पड़ने लगेगा। आज जब विनिऊपर विदेशी व्यापारियों की हुंडी ज़्यादा होगी। ऐसी मय की दर १८ पेंस है (१ शिलिंग ६ पेंस , एक रुपया हालत में हिन्दुस्तान के सिक्के की कीमत अर्थात् रुपये देकर हम पाँच गज़ लङ्काशायर की बनी हुई मारकीन की कीमत में बट्टा लगने लगेगा। रुपये की कीमत घट खरीद लेते हैं, क्योंकि १८ पेंस में ५ गज़ मारकीन बेचने जायगी।
में ब्रिटिश व्यापारी का परता पड़ जाता है । अगर विनिमय विनिमय की दर- गवर्नमेंट अगर स्वदेशी और को दर बदल गई और रुपया २० पेंस का हो गया तो विदेशी सिक्कों के पारस्परिक सम्बन्ध को स्वतन्त्र छोड़ दें तो ब्रिटिश व्यापारी २० पेंस में ५ गज़ २ गिरह मारकीन परते अार्थिक शक्तियां उसका समतोल अपने ढंग से निश्चित के साथ दे सकेगा, अर्थात् एक रुपये में हिन्दुस्तान में
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सरस्वती
[ भाग ३
५ गज़ २ गिरह मारकीन मिलने लगेगी । किसान ॥ क्योंकि उसके प्रतिद्वन्द्वी उन बाजारों में जहाँ उसका माल के बजाय ) गज़ मारकीन पा जायगा।
बिकता था, अब भारतवर्ष को नीचा दिखाकर अपना माल दूसरा उदाहरण लीजिए। अगर मुझे अाज एक बेच रहे हैं। भाव बढ़ने की कोई सम्भावना तो बहुत दिनों ब्रिटिश कार खरीदनी है। उसका दाम २४० पौंड है। तक नहीं दिखाई देती और चीज़ों की कीमतें ऐसे पैमाने पर १८ पेंस विनिमय की दर होने पर मुझे उस कार के लिए आकर रुक गई हैं कि उसे स्थिर हो कहना चाहिए। इस ३२००) देने होंगे। अगर विनिमय की दर २० पेंस हो देश में चीज़ों के बनाने या पैदा करने का ख़र्चमात्र भी जाय तो वही कार मुझे २८८०) में मिल जायगी। मुझे आज-कल कीमत से नहीं वसूल होता। ये ३२०) की बचत हो जायगी । ऐसी हालत में, साफ़ ज़ाहिर सिक्कों की कीमत घटाना स्थिति को नि: है, इस देश में मोटर की बिक्री बढ़ जायगी।
देता है। इससे भारतवर्ष में बेरोज़गारी बढ़ेगी। कर्ज़ का विनिमय की दर से निर्यात और आयात व्यापार पर भार ज़्यादा हो जायगा और अगर संसार के व्यापार में अंकुश रक्खा जा सकता है। अर्थ शास्त्र के इस सिद्धान्त कुछ गरमी आई तो हिन्दुस्तान उससे फायदा न उठा से फ़ायदा उठाकर स्वतन्त्र कौमें विनिमय की दर अपने सकेगा।" अनुकूल निश्चित करके अपने देश का आर्थिक संकट 'लीडर' का मत-अँगरेज़ी दैनिक 'लीडर' का मत मिटाने का प्रयत्न करती हैं।
है कि "भारतीय पत्रकार और व्यापारी बरसों से इस बात . इसी सिद्धान से प्रेरित होकर फ्रांस, इटली, स्वीज़- के लिए आन्दोलन कर रहे हैं कि रुपये का भाव घटा दिया लेंड आदि देशों ने अपने अपने सिक्कों की कीमत जाय, लेकिन गवर्नमेंट बिलकुल अटल रही है। गवर्नमेंट घटाई है।
अपनी मुद्रा-नीति वैदेशिक पूँजी के हित की दृष्टि से निश्चित राम्रीय और सरकारी धारणा-राष्ट्रीय पक्ष की करती है, भारतीय लोकमत से नहीं। यही कारण है कि यह धारणा है कि अगर गवनमेंट अपनी ज़िद छोड़ दे गवर्नमेंट 'विनिमय की दर घटाने का बराबर विरोध करती
और रुपये की कीमत १८ पेंस से घटा दे तो हिन्दुस्तान को रही है। निःसन्देह रुपये की कीमत में कमी कर देने का बहुत फायदा होगा।
प्रभाव यह पड़ेगा कि विदेशों में हमारे माल की बिक्री .. किन्तु सर जेम्स ग्रिग का अपना मत जुदा है। वे बढेगी, स्वदेशी बाज़ार में भी भाव में उन्नति होगी और समझते हैं कि रुपये का वर्तमान भाव कायम रखने में ही विदेशी माल का आना कम हो जायगा। भारतीय व्यवसाय हिन्दुस्तान की भलाई है। ग्रेट ब्रिटेन ने १९३१ में पर यह नीति संरक्षण का काम कर जायगी। लेकिन इसका गोल्ड-स्टैंडर्ड छोड़ा, रुपये का भाव काफ़ी घट गया। प्रभाव उन लोगों पर भी पड़ेगा जो अपनी आमदनी की अमरीका ने चाँदी की कीमत बढ़ाने का यत्न किया। बचत ब्रिटेन भेजते हैं। जब आर्थिक मामलों में ब्रिटिश इससे भी रुपये का भाव घटा है । इत्यादि इत्यादि। और भारतीय हितों में ज़ाहिरा संघर्ष हो, ब्रिटिश हित ही
श्री अडरकर का मत—इलाहाबाद-विश्व-विद्यालय सफलमनोरथ होता है। ....... 'मौजूदा नीति ब्रिटेन और के एक अध्यापक महोदय ने भी राष्ट्रीय पक्ष का समर्थन हिन्दुस्तान दोनों के लिए हानिकर है। किया है। वे लिखते हैं
श्री खेतान का मा-इस सम्बन्ध में इंडियन चेम्बर "यह बात अनिवार्य है कि योरपीय देशों का अपने अाफ़ कमर्स के फ़ेडरेशन के प्रमुख श्री खेतान ने अपना सिक्कों की कीमत घटाने का यह निश्चय योरप के साथ वक्तव्य प्रकाशित किया है। ये भी इसी सिद्धान्त का भारत के निर्यात-व्यापार पर विशेष अंकुश का काम समर्थन करते हैं कि रुपये की कीमत घटाई जाय। इनका करेगा। इस समय भारत के वैदेशिक व्यापार का लेखा तो यह मत है कि अगर भारत-सरकार रुपये के सम्बन्ध में उसके बहत खिलाफ है। अब उसकी हालत और भी राष्ट्रीय पक्ष के इस प्रस्ताव को मान ले तो हिन्दुस्तान की बदतर हो जायगी। हिन्दुस्तान इस बात के लिए चिल्ला अनेक समस्यायें हल हो सकती हैं। . रहा था कि उसके सिक्के की कीमत और भी घटाई जाय, श्री खेतान कहते हैं--
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संख्या १]
रुपया
“सर जेम्स ग्रिग ने भारत सरकार की ओर से यह दूसरी बात यह है कि सभी मानते हैं कि अनाज का घोषणा की है कि वे रुपये का मौजूदा भाव कायम भाव बहुत मद्दा है। और इसकी वजह से किसानों को रक्खेंगे।" सर जेम्स ग्रिग ने यह भी कहा है कि "इसके बहुत कष्ट है। अगर रुपये (विनिमय) की दर घटा दी जाय विपरीत कोई भी फ़ैसला हिन्दुस्तान के हितों के खिलाफ़ तो अनाज का भाव बढ़ जायगा और इस प्रकार इस देश जायगा।" मुझे यह खेद के साथ कहना पड़ता है कि के रहनेवालों की बहुत बड़ी संख्या को बहुत काफ़ी गवर्नमेंट की यह घोषणा किसी भी प्रकार भारतवर्ष के हित सहायता पहुँच सकेगी। में नहीं कही जा सकती, क्योंकि भारतवर्ष का तो हित सबसे तीसरी बात यह है कि मध्यवर्ग की दुःख-जनक अधिक अाज इसी बात में है कि रुपये का भाव घटा बेरोज़गारी जो इस समय खूब बढ़ी हुई है, उसी समय दूर दिया जाय।
___ हो सकती है जब स्वदेशी व्यापार और व्यवसाय उन्नति - पहली बात तो यह है कि हिन्दुस्तान से विदेशों को करे। अगर रुपये (विनिमय) की दर घट जाय तो स्वदेशी सोने का लगातार ढोया जाना केवल इसी लिए है कि हमारा व्यापार और व्यवसाय को बहुत सहायता मिल जायगी। निर्यात-व्यापार इतना नहीं है कि आयात माल की कीमत इसलिए अगर देश के हित की बात की जाती है तो हम उससे पूरी करदें और सोने के भेजने की ज़रूरत न देश-हित तो निष्पक्ष आलोचक की दृष्टि से रुपये के मौजूदा पड़े। अगर रुपये की (विनिमय) दर मुनासिब तौर से भाव को कायम रखने में कदापि नहीं है। घटा दी जाय तो नतीजा यह होगा कि बैलेंस आफ़ ट्रेड अगर गवर्नमेंट इस विषय पर अपनी नीति बदल दे हमारे पक्ष में हो जायगा और सोने का प्रवाह रुक सकेगा। तो वह देश के साथ बहुत उपकार करेगी।
भविष्य का स्वप्न
लेखक, श्रीयुत गिरीशचन्द्र पन्त फिर जाग उठेंगे रोम रोम में
मानव रे, उठ, अब बीत चुकी । ज्ञान-प्रेम के सोम-सिन्धु,
___ कलि की सपनों-सी दुःख-रात । फिर बरस पड़ेंगे सृष्टि-हृदय में
लख, भीतर, देख, उमड़ पड़ते पूर्ण प्रेम के अमृत-विन्दु।
शत शत नव जीवन के प्रभात ! रे, विश्व-प्रेम की ज्वलित ज्वाल में
ये नव प्रभात, लो, लिये आ रहे, ___ जल जायेंगे दैन्य ताप ।
नव नव सत्यों की दिव्य सृष्टि, . रे, गूंज उठेगा प्रेम प्रेम का,
यह दिव्य सृष्टि भर लाई, . हृदय हृदय में अमर जाप ।
आलोक प्रेम की अमर वृष्टि। अब तुरत भस्म होगा रे संचित,
ओ अमर वृष्टि की मन्दाकिनि, अहंकार का अन्धकार ।
भर भर प्राणों में महोल्लास । रे, बाट जोहती जगन्मात
मानवता के ये आद्रे नेत्र, देगी प्राणों में अमृत ढार ।
रो रो थककर बैठे उदास। .
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सरस्वती-तट की सभ्यता
लेखक, श्रीयुत पंडित अमृत वसंत
इस लेख के लेखक पंडित अमृत वसन्त पुरातत्त्व के मार्मिक विद्वान हैं। उन्होंने अपने इस लेख में अपने विषय के विशिष्ट ज्ञान का ही नहीं परिचय दिया है, किन्तु नर्मदा-सभ्यता के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए यह बात भले प्रकार सिद्ध कर दी है कि सरस्वती-तट की सभ्यता ही संसार की सबसे प्राचीन आर्य-सभ्यता है। उन्होंने अपने सिद्धान्त के समर्थन में जो विचारकोटि
उपस्थित की है वह अकाट्य ही नहीं, हृदयग्राही और मनोरञ्जक भी है।
तिहास के प्रसिद्ध विद्वान् श्री करन्दीकर ने एक भी कोई वस्तु अब तक नर्मदा-घाटी में नहीं मिली। इस २ विलक्षण ऐतिहासिक सिद्धान्त की सृष्टि की है। अन्वेषण के विषय में पत्रों में जो समाचार और लेख इस सिद्धान्त का नाम है 'नर्मदा-घाटी की सभ्यता' । श्रीयुत प्रकाशित हुए हैं उनसे यही ज्ञात होता है कि वहाँ मौर्यकरन्दीकर के इस सिद्धान्त का आशय यह है कि भारत काल के पश्चात् की ही अधिकांश ऐतिहासिक सामग्री में प्रलय से भी पूर्व नर्मदा-घाटी में एक उच्च प्रकार की प्राप्त हुई है। हाँ, कुछ प्राचीन स्थानों का अवश्य पता सभ्यता थी, और यही भारत की आदिम सभ्यता थी, जिसकी लगा है। परन्तु न तो वे सिन्धु-सभ्यता के समय के हैं नींव राजा पृथु वैन्य ने डाली थी। वैवस्वत मनु के समय और न उनके द्वारा उन सिद्धातों की पुष्टि ही होती है में (ई० पू० ४२०० में) सारे उत्तर भारत में प्रलय श्राया, जिनका श्री करन्दीकर ने नर्मदा-सभ्यता की प्राचीनता तथा जिससे भारत की सारी सभ्यता नष्ट हो गई। पुराणों में महत्त्व के समर्थन में पेश किया है। श्रीकरन्दीकर की कहा गया है कि नर्मदा-प्रदेश प्रलय में नहीं डूबा था, इस असफलता का मूल कारण यह कि उन्होंने पुराणों में अतः इसकी सभ्यता उस प्रलय से भी पूर्व की होनी वर्णित घटनाओं को आँखें मूंदकर सत्य मान लिया है चाहिए। श्रीयुत करन्दीकर ने इस विषय पर बड़ोदा में और फिर अपने सिद्धान्तों की सृष्टि कर डाली है । प्रस्तुत सातवीं ओरियन्टल कान्फरेन्स के समक्ष एक भाषण किया लेख में पुरातत्त्व के प्रमाणों-द्वारा इस बात का दिग्दर्शन था और नर्मदा-घाटी में अन्वेषण करवाने के लिए अपील कराया जायगा कि प्रलय के पूर्व भारत में एक और ही की थी। इसके परिणाम-स्वरूप कान्फरेन्स ने 'नर्मदा- सभ्यता थी, जिसकी उत्पत्ति सरस्वती-नदी के तटवर्ती घाटी-अन्वेषण-मंडल' नामक एक मंडल की नियुक्ति प्रदेश में हुई थी। वास्तव में यही भारत की प्रारम्भिक करके यह कार्य उसको सौंप दिया। तब से नर्मदा-घाटी सभ्यता थी और सिन्धु-सभ्यता इसी का विकसित रूप थी। की सभ्यता का सिद्धान्त ऐतिहासिकों का बहुत कुछ ध्यान मैंने इस सभ्यता को 'सरस्वती-सभ्यता' का नाम दिया है। अपनी ओर खींच रहा है। उक्त मंडल अाज दो वर्ष से केवल भारत ही नहीं, बरन सारे संसार की सबसे प्राचीन नर्मदा-घाटी में अन्वेषणं कर रहा है, परन्तु उसको इस सभ्यता यही 'सरस्वती-सभ्यता' थी। सभ्यता तथा इसकी प्राचीनता की पुष्टि में एक भी महत्त्व
पाषाण-युग पूर्ण प्रमाण नहीं मिला और उसे निराश होना पड़ा। भूगर्भ-शास्त्र तथा पुरातत्त्व के अन्वेषणों-द्वारा ज्ञात उसे न तो प्रलय के पूर्व की कोई वस्तु प्राप्त हुई, न उसके हुअा है कि आदि में मानव-जाति जीवन-निर्वाह के कार्य बाद की। श्रीयुत करन्दीकर का कहना है कि नर्मदा- में पत्थरों के टुकड़ों को हथियार-औज़ार के तौर सभ्यता वह सभ्यता थी जो सिन्धु-सभ्यता से भी पूर्व वहाँ पर व्यवहार करती थी। उस समय वह नर-वानर के प्रचलित थी तथा उसी सभ्यता में से भारतीय और रूप में थी। इसके पश्चात् शारीरिक विकास-द्वारा ज्योंमेसोपोटामिया की सुमेरु-सभ्यता का जन्म हवा. था। ज्यों वह अधिकाधिक मानवता की ओर अग्रसर होने परन्तु सिन्धु-सभ्यता से पूर्व की क्या, उसके पश्चात् की लगी, त्यों-त्यों उसके इन पत्थरों के हथियार-औज़ारों में
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संख्या १]
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सरस्वती-तट की सभ्यता
सुधार होने लगा । नुकीले पत्थरों के ऐसे सुधरे हुए औज़ार भारतवर्ष में इन धान्यों की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण 'यूलिथ' कहलाते हैं। इन यलिथों के काल की 'मानव- मिल गया है, अतः भारतवर्ष ही वह देश है जहाँ सबसे सभ्यता को 'यलिथ-सभ्यता' कहते हैं। ये यलिथ भी अन्य प्रथम मनुष्य-जाति ने खेती करना सीखा। यह एक पत्थरों-द्वारा छीलकर और अधिक उपयुक्त बनाये गये सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जिस देश में कृषि का प्रारम्भ
और इनके उपयोग के समय की सभ्यता 'चिलियन- हा, वहीं सभ्यता का भी जन्म हश्रा है, अर्थात् सभ्यता सभ्यता' कहलाई। इसके पश्चात् और भी सुधार हुआ। की माता कृषि ही है। उस समय की सभ्यता 'मुस्टेरियन-सभ्यता' कहलाई । इन
सप्तसिन्धु हथियार-औज़ारों की सभ्यता के समय का मनुष्य अधिक कृषि के जन्मस्थान पश्चिमोत्तर-सीमाप्रान्त में चित्राल, अंशों में नर-वानर ( एप ) ही था और उसमें वास्तविक पश्चिम-कश्मीर आदि प्रदेश अति प्राचीन काल से ही मनुष्यत्व का बीजारोपण नहीं हुआ था। मुस्टेरियन- आर्य-जाति के निवासस्थान रहे हैं। आर्य-जाति ने ही सभ्यता के पश्चात् की 'रेनडियर-सभ्यता' आती है। सर्वप्रथम कृषि का आविष्कार किया। आर्यों के प्राचीनइसके समय के हथियार-ौज़ारों को देखने से पता चलता तम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि-जीवन का ही चित्र पाया जाता है कि इस समय मानव-जाति में मानवोचित बुद्धि का है। जिस भूमि में आर्यों-द्वारा कृषि का आविष्कार हुआ विकास होने लगा था। इसके पश्चात् की सभ्यतायें ही वह पार्वत्य प्रदेश होने के कारण इस कार्य के उपयुक्त वास्तविक मानव-सभ्यतायें कहलाती हैं। इनमें से पहली नहीं थी; अतः आर्यों को दक्षिण में पंजाब की उर्वरा सभ्यता नव-पाषाण-कालीन कही जाती है। इसके युग भूमि की ओर खिसकना पड़ा। यह प्रदेश कृषि-कार्य के का मनुष्य अपने जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। आज लिए सर्वथा उपयुक्त था। इसमें से होकर सात नदियाँ भी अफ्रीका, प्रशान्त महासागर के द्वीप-पुंज तथा दक्षिण- बहती थीं। अतः इसका नाम 'सप्तसिन्धु' रक्खा गया । अमरीका की जंगली जातियों में यही सभ्यता पाई जाती है। सारा पंजाब, राजपूताने का उत्तरी और पश्चिमी भाग उनके शिकार तथा गृह-कार्य के हथियार-औज़ार तथा पात्र और सिन्ध इस सप्तसिन्धु के अन्तर्गत थे। सप्तसिन्धु की श्रादि पत्थरों के ही होते हैं। यूलिथ-सभ्यता से लेकर नदियों में सरस्वती और सिन्धु बहुत बड़ी थीं। सरस्वती नव-पाषाण-कालीन सभ्यता तक के काल को विद्वान् लोग सिन्धु से भी बड़ी थी। यों तो आर्य लोग सारे सप्तसिन्धु पाषाण-युग कहते हैं।
___ में फैल गये थे, परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र सरस्वती कृषि का आविष्कार तथा सभ्यता का प्रारम्भ ही थी। इसका तटवर्ती प्रदेश उनके लिए बड़ा पवित्र
पाषाण-युग के पश्चात् मानव-जाति में धातु-युग का था। सरस्वती उस समय आर्यावर्त्त को दो सीमाओं में प्रादुर्भाव हुआ। धातु-युग का प्रारम्भ ताम्र-युग से होता विभक्त करती थी। इसके पश्चिम की ओर का भाग है । नव-पाषाण-युग के अंत तक मनुष्य की बुद्धि बहुत-कुछ 'उदीच्य तथा पूर्व की ओर का 'प्राच्य' कहलाता था। विकसित हो गई थी। इसी समय कृषि का आविष्कार इसी कारण इन देशों के निवासी आर्य 'प्राच्य' और हुआ। कश्मीर के पश्चिमी भाग और पश्चिमोत्तर-सीमा- 'उदीच्य' कहलाते थे। उत्तर-भ प्रांत के चित्राल-प्रदेश में घास की कुछ इस प्रकार की 'प्राच्य' और 'उदीच्य' दो भागों में विभक्त हैं । कान्यकुब्ज, जातियाँ प्राप्त हुई हैं जिनके क्रम-विकास-द्वारा ही गेहूँ और मैथिल आदि प्राच्य हैं तथा पंजाब, सिन्ध, सुराष्ट्र (काठियाजौ के पौधे उत्पन्न हुए हैं । गत वर्ष एक जर्मन अन्वेषक- वाड़) और गुजरात के ब्राह्मण उदीच्य हैं। इन्हीं दो दल इस विषय में अनुसंधान कर गया है और उसने शाखाओं में से सारी ब्राह्मण उपजातियाँ उत्पन्न हुई हैं । यही निष्कर्ष निकाला है कि भारत के इसी भभाग में सर्व- उदीच्य-प्रदेश सरस्वती के पश्चिमीतट देवयोनिवृत्त से प्रथम गेहूँ और जौ की उत्पत्ति हुई थी। अब तक मिस्र या मेसोपोटामिया तक फैला हुआ था और प्राच्य-प्रदेश की
मेसोपोटामिया गेहूँ का उत्पत्तिस्थान माने जाते थे। परन्तु सीमा इसके पूर्वी-तट से बंगाल तक थी। आर्य सरस्वती . इस बात का वहाँ कोई प्रमाण नहीं प्राप्त हुअा था। अब को इतना पवित्र क्यों मानते थे ? यह एक रहस्य-पूर्ण
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सरस्वती
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[भाग ३८
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विषय है । इस पर प्रकाश डालने के पूर्व सरस्वती कहाँ से में समुद्र नहीं था। कच्छ की मिट्टी की परीक्षा-द्वारा विदित होकर बहती थी, यह निश्चित कर लेना चाहिए। होता है कि वह समुद्र की बालू-द्वारा नहीं बनी है, बरन सरस्वती के प्रवाह की खोज
नदियों की मिट्टी-द्वारा बनी है. अतः सरस्वती को : ऋग्वेद-द्वारा सरस्वती की ठीक स्थिति का पता नहीं पश्चिमाब्धि अर्थात् अरब सागर में गिरने के लिए और लगता। वह यमुना से पश्चिम की ओर बहनेवाली आगे जाना पड़ता होगा । रनकच्छ के दक्षिण में सुराष्ट्र नदी बताई गई है। आज भी यमुना से पश्चिम की अोर अर्थात् काठियावाड़ है । इस प्रदेश के भूगर्भ-शास्त्र-सम्बन्धी सरस्वती नाम की एक छोटी-सी नदी बहती है, जो शिवा- अन्वेषण से पता लगा है कि आज से १००० वर्ष पूर्व लिक पर्वतमाला से निकल कर पटियाले के रेगिस्तान में सुराष्ट्र और गुजराज की सीमा के बीच से एक बड़ी नदी जाकर सूख जाती है। कुरुक्षेत्र इसी सरस्वती के तट पर प्रवाहित होती थी जो रनकच्छ की ओर से आती हुई स्थित है।
खम्भात की खाड़ी में गिरती थी। इसका प्रवाह सुराष्ट्र को ..'अवेस्ता' तथा एक ईरानी शिलालेख के अनुसार सिन्धु- गुजरात से अलग करता था और इस प्रकार सुराष्ट्र एक नदी के पूर्व की अोर का प्रदेश 'हरहती' कहलाता था। इससे बड़ा द्वीप था। कहते हैं कि यह सिन्धु-नदी का प्रवाह ज्ञात होता है कि सिन्धु से पूर्व की ओर सरस्वती बहती था । इस नदी का शुष्क प्रवाह-मार्ग अब तक पाया जाता थी। मनु के अनुसार सिन्धु और सरस्वती के बीच का है। जब इस प्रदेश में किसी वर्ष अत्यधिक वर्षा होती है यह प्रदेश 'ब्रह्मावत' और 'देवयोनिवृत्त' कहलाता था। तब पानी इसके प्रवाह में बह चलता है और सुराष्ट्र फिर अमरकोष में सरस्वती को 'पश्चिमाब्धिगामिनी' कहा है। एक द्वीप बन जाता है । सन् १९२७ की भीषण वर्षा में इससे ज्ञात होता है कि यह 'पश्चिमाब्धि' अर्थात् वर्तमान दो मास तक यही दशा रही थी। रेल-मार्ग बन्द हो गया अरब-सागर से गिरती थी । उत्तर राजपूताने की दन्त- था और समुद्र-मार्ग-द्वारा आवागमन होता था। इस कथाओं तथा मध्यकाल की मुसलमानी तवारीखों द्वारा प्राचीन नदी का प्रवाह इतना प्रबल था कि इसके कारर ज्ञात होता है कि उत्तर-राजपूताने में मध्यकाल में एक सुराष्ट्र और गुजरात के बीच खम्भात से इस अोर एक 'हाकड़ा' नाम की नदी बहती थी, जिसका शुष्क प्रवाह- झील बन गई थी, जो 'नल-सरोवर' कहलाती थी। यह
खाई देता है। सातवीं सदी से अरबों सूखी हुई अवस्था में अब तक विद्यमान है और वर्षा के के सिन्ध-श्रागमन के विवरण से पता चलता है कि उस दिनों में भर जाती है । इसके आस-पास का प्रदेश 'नलसमय सिन्धु नदी के पूर्व में 'मिहिरान' नामक एक बहत काठा' कहलाता है। इस प्रकार सरस्वती रनकच्छ (जो बड़ी नदी बहती थी। 'इम्पीरियल गेज़ेटियर अाफ़ इंडिया' उस समय उपजाऊ भू-प्रदेश था) को पार करती हुई की पहली जिल्द के पृष्ठ ३० पर लिखा है कि “सिन्धु- गुजरात (गुर्जर-राष्ट्र) और सुराष्ट्र (युजाति का राष्ट्र) के नदी के पूर्व की ओर उन रेगिस्तानों में जो किसी समय बीच से प्रवाहित होती हुई खम्भात की खाड़ी में, जो उपजाऊ भूमि थे, एक प्राचीन नदी का शुष्क प्रवाह-मार्ग अरब-सागर का ही एक भाग है, मिल जाती थी। दृष्टिगोचर होता है जो रनकच्छ' में जाकर गिरती महाभारत, शल्य-पर्व, में कृष्ण के बड़े भाई बलदेव की थी।" यही प्राचीन मिहिरान का प्रवाह-मार्ग था जो प्रतिस्रोतसरस्वती-यात्रा का . भौगोलिक विवरण पाया रनकच्छ में गिरती थी । वास्तव में हाकड़ा और मिहिरान जाता है । बलदेव ने यह यात्रा सुराष्ट्र में प्रभास (यहाँ का प्रवाह ही सरस्वती का प्रवाह था। कुरुक्षेत्र की सोमनाथ का इतिहास-प्रसिद्ध मंदिर था) से प्रारम्भ की सरस्वती पटियाले के ठीक उस रेगिस्तान में जाकर सूख थी। इस यात्रा में जो जो स्थान मार्ग में आये थे उनका जाती है जिसमें होकर हाकड़ा बहती थी । इससे जान विवरण महाभारत में दिया हुआ है । बलदेव प्रभास से
सरस्वती करुक्षेत्र के पास से गुजरती हई. चलकर सुराष्ट रनकच्छवाला भ-प्रदेश, पश्चिमी और
राजपुताना में बहती हई, रनकच्छ में उत्तरी राजपूताने को पार करते हुए ४२ दिन में कुरुक्षेत्र जाकर गिरती थी। परन्तु रनकच्छ के स्थान में प्राचीन काल पहुँचे थे। इसके पश्चात वे हिमालय पर स्थित लक्षप्रस्रवण
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सरस्वती तट की सभ्यता
संख्या १ ]
पर्वत पर पहुँचे, जहाँ सरस्वती का उद्गम था । इस प्रकार सरस्वती शिवालिक पर्वत माला से निकल कर कुरुक्षेत्र के पास से बहती हुई उत्तरी-पश्चिमी राजपूताना, रनकच्छ और सुराष्ट्र को पार करती हुई खम्भात की खाड़ी में समुद्र से मिल जाती थी । यह स्थान 'सरस्वती - सागर - संगम' कहलाता था। पुराणों में प्रभास (सुराष्ट्र) के निकट सरस्वती - सागर संगम का उल्लेख भी है । परन्तु वास्तव में यह स्थान यहाँ से कुछ हटकर खम्भात के निकट था । सरस्वती के तट-प्रदेश में ताम्र-युग की उत्पत्ति
प्राचीन काल में राजपूताना में ताँबा प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता था। अब भी अनेक स्थानों में यहाँ ताँबा निकलता है । सरस्वती इस प्रदेश में से होकर बहती थी, अतः उसका तट प्रदेश ताँबे का प्राप्ति-स्थान था । उत्तर सेकर जब आर्य लोग सप्त सिन्धु में बसे तब सरस्वती का तट प्रदेश ही उनकी सभ्यता का केन्द्र रहा । यहाँ कृषि और गृह कार्य के उपयुक्त हथियार - श्रौज़ार बनाने के लिए पत्थर के स्थान में उनको ताँबा प्राप्त हुआ । यह धातु नरम होती है, अत: सरलता के साथ इसमें से मनचाहे
कार की वस्तुएँ बनाई जा सकती हैं । इस प्रकार सरस्वती तट पर सर्वप्रथम मनुष्य जाति पत्थर - युग से ताम्र- युग में आई । ' चान्हूडेरो' तथा 'विजनोत' नामक स्थानों की खुदाई में ताम्र-युग की इस शुद्ध सभ्यता के अवशेष मिल चुके हैं। ये स्थान सरस्वती के शुष्क प्रवाहमार्ग पर ही पाये गये हैं । यह ताम्र-सभ्यता सरस्वती के प्रवाह के दोनों ओर प्राच्य तथा उदीच्य प्रदेशों में फैल गई थी । संयुक्त प्रान्त में बिठूर, फ़तेहगढ़, बिहार और उड़ीसा में राँची, पाचम्बा, हज़ारीबाग़, मध्य - प्रान्त में बालाघाट, गँगेरिया तथा बंगाल में सिलदा नामक स्थानों में इस ताम्र-सभ्यता की वस्तुएँ मिल चुकी हैं। दूसरी ओर सिन्धु, पश्चिमोत्तर - सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान, सीस्तान, फ़ारस, इलाम तथा मेसोपोटामिया में फुरात के तट तक इस सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं। मेसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता 'प्रोटोइला - माइट-सभ्यता' के नाम से प्रसिद्ध हुई, जिसको संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता कहते हैं । सुमेरु-जाति प्रोटो- इलामाइट जाति के पश्चात् मेसोपोटामिया में आकर बसी थी। सुमेरु- सभ्यता के पश्चात् मिस्र में सभ्यता का उदय हुआ था । !
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संसार की सर्वप्राचीन प्रोटो- इलामाइटसभ्यता और प्रलय
इस प्रकार आर्यावर्त्त में सरस्वती के तट - प्रदेश पर मानव-जाति ने सर्वप्रथम पत्थर-युग से धातु-युग में पदार्पण किया। डाक्टर डी० टेरा नामक अमेरिकन विद्वान् के मतानुसार भी सिन्ध- प्रदेश ही वह भूमि है जो मनुष्य को पत्थर और धातु-युग से मिलाती है । मिस्र, मेसोपोटामिया, लघु- एशिया, क्रीट, मध्य- एशिया, ईरान आदि संसार के प्रति प्राचीन कहे जानेवाले देशों के प्राचीनतम नगरों की अन्तिम तह की खुदाई में पाषाण युग की सभ्यता के अवशेषों पर काँसे की सभ्यता के ही अवशेष प्राप्त हुए हैं। पाषाण और काँसे की सभ्यता की मध्यवर्ती ताम्र-सभ्यता के चिह्न कहीं नहीं प्राप्त हुए । इससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि काँसे की सभ्यतावाली ये सुमेरु, खत्ती (हिटाइट), क्रीटन, मिस्री आदि जातियों की सभ्यतायें किसी अन्य अज्ञात देश में ताँबे की सभ्यता में से विकसित हुई थीं । इन सभ्यताओं की श्रादि-भूमि कौनसा देश था, यह अब तक ज्ञात नहीं हुआ है । जहाँ पाषाण, ताम्र और काँसा इन तीनों प्रकार की सभ्यताओं के अवशेष एक-दूसरे पर क्रमबद्ध पाये जायँ, वहीं इन सभ्यताओं की उत्पत्ति की सम्भावना दिखाई दे सकती है। मेसोपोटामिया के. उर, फरा, किश तथा इलाम ( ईरान का दक्षिण-पश्चिमी भाग) के सुसा और तपा-मुस्यान आदि स्थानों की खुदाई में काँसे की सभ्यता के नीचे ताम्र-सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं और इसके नीचे पाषाण-सभ्यता के भी चिह्न मिले हैं । मेसोपोटामिया में जहाँ जहाँ इस प्रोटो- इलामाइट कही जानेवाली ताम्र-सभ्यता के अवशेष मिले हैं, उसके और सुमेरु-जाति की काँसे की सभ्यता के स्तरों के बीच में किसी बहुत बड़ी बाढ़ के पानी द्वारा जमी हुई चिकनी मिट्टी का अनेक फ़ुट (३ से ८) मोटा स्तर प्राप्त हुआ है । योरपीय पुरातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि यह मिट्टी का स्तर उस बड़ी बाढ़ द्वारा बना था जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह का प्रलय कहा है । ताम्र-युग की प्रोटोइलामाइट - सभ्यता के अवशेष इस प्रलय के स्तर के नीचे प्राप्त हुए हैं, अतः सिद्ध होता है कि प्रोटो- इलामाइटसभ्यता का अस्तित्व प्रलय से भी पहले था । इस सभ्यता के अवशेषों के नीचे कुछ स्थानों में निम्न श्रेणी की पाषाण
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सरस्वती
सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं। यह पाषाण- सभ्यता अत्यन्त निम्न श्रेणी की थी और इसमें से प्रोटो- इलामाइट सभ्यता के विकसित होने के कुछ प्रमाण नहीं मिले, अतः पुरातत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि प्रोटो- इलामाइट लोग अपनी ताम्र-सभ्यता के साथ किसी अन्य देश से इलाम और मेसोपोटामिया में आकर बसे थे । यहाँ आकर इन्होंने यहाँ के मूल निवासी पाषाण- सभ्यतावाली जाति को नष्ट कर दिया या भगा दिया और स्वयं यहाँ बस गये। ये प्रोटो- इलामाइट खेती करते थे । इनकी एक चित्र - लिपि के नमूने भी प्राप्त हुए हैं। ये कृषि तथा गृह कार्य के लिए पशु पालते थे । ऊन के वस्त्र पहनते थे । ताँबे के हथियार तथा औज़ारों को उपयोग में लाते थे। ये लोग किस मूलदेश के निवासी थे, इसका अब तक पता नहीं लगा । यह जाति प्रलय की बाढ़ में नष्ट हो गई, क्योंकि प्रलय के स्तर के ऊपर इसकी सभ्यता के चिह्न नहीं प्राप्त हुए, अपितु सुमेरु-जाति की काँसे की सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं। प्रलय की विनाशकारी घटना से इन लोगों की जो जन-संख्या बची वह पुनः अपने मूल देश को वापस चली गई । इलाम में सुसा तथा तपा-मुस्यान तक प्रलय की बाढ़ नहीं पहुँच पाई थी, तथापि वहाँ इन लोगों की उजड़ी हुई बस्तियाँ पाई गई हैं। इससे यही सिद्ध हुआ है कि प्रलय के पश्चात् इस जाति के जो कुछ लोग बचे 'पुनः अपने देश को लौट गये ।
कुछ
वे
सुमेरु-जाति
इलाम में बेरखा नदी के तट पर सुसा-नगरी इन लोगों की सभ्यता का केन्द्र थी। सुसा तक प्रलय का जल नहीं पहुँच पाया था, तथापि ये लोग उसको छोड़कर चले गये और सुसा उजड़ गया । इस उजड़े नगर पर धूल मी शुरू हो गई और कालान्तर में यह धूल का स्तर पाँच फुट मोटा हो गया। इसके पश्चात् एक काँसे की सभ्यतावाली जाति कहीं से आई और सुसा तथा सारे मेसोपोटामिया में बस गई। यह जाति सुमेरु कहलाती थी । सुमेरु का अर्थ है ‘सु' जाति । प्रोटो- इलामाइट तथा सुमेरुसभ्यता के अवशेषों की परीक्षा करके डाक्टर फ्रेंकफ़ोर्ट, डी० मोर्गन, डाक्टर लेंग्डन आदि विद्वानों ने निर्णय किया है कि प्रोटो- इलामाइट -सभ्यता का ही विकसित रूप सुमेरु-सभ्यता थी । अर्थात् सुमेरु- सभ्यता प्रोटो- इलामाइट
I
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[ भाग ३८
सभ्यता से ही उत्पन्न हुई थी । प्रोटो- इलामाइट - जाति प्रलय के कारण स्वदेश वापस चली गई और वहाँ इसकी सभ्यता का विकास हुआ। इस विकसित सभ्यता का ही नाम सुमेरु सभ्यता हुा । सुमेर-जाति पुनः अपने पूर्वज प्रोटो- इलामाइट लोगों के निवासस्थान इलाम और मेसोपोटामिया में आकर बसी । प्रोटो- इलामाइट - जाति का स्वदेश कौन-सा था, प्रलय के पश्चात् वह कहाँ चली गई थी और कहाँ से पुनः सुमेरु-सभ्यता को लेकर मेसोपोटामिया में श्राई, संसार के प्राचीन इतिहास का यह एक ' महत्त्वपूर्ण उलझा हुआ प्रश्न है ।
प्रोटो- इलामाइट तथा भारत की आमरी सभ्यता
कुछ वर्ष पूर्व सिन्ध- प्रदेश में जो प्रागैतिहासिक स्थलों की खुदाइयाँ हुई हैं उनसे इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर मिल जाता है । इस प्रदेश में सरस्वती नदी के तट प्रदेश पर किस प्रकार पाषाण-सभ्यता में से ताम्र-सभ्यता की उत्पत्ति हुई, इस विषय में पहले लिखा जा चुका है। इस ताम्रसभ्यता के अवशेष सिन्ध- प्रदेश तथा उस प्रदेश में जहाँ से होकर सरस्वती बहती थी, काफ़ी परिमाण में प्रात हो चुके हैं। सिन्ध- प्रदेश के श्रमरी नामक स्थान में इसकी नियमित खुदाई हुई है, अतः सरकारी पुरातत्व विभाग के उस समय के अधिकारी सर जान मार्शल ने इस ताम्र-सभ्यता को श्रामरीसभ्यता का नाम दिया है । श्रामरी सभ्यता तथा प्रोटो- इलामाइट-सभ्यता की वस्तुएँ एक-दूसरे से बिलकुल मिलतीजुलती हैं । श्रामरी - सभ्यता के अवशेष स्वरूप जो हथियार - औज़ार, मिट्टी के पात्र श्रादि वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं, ठीक वैसी ही वस्तुएँ प्रोटो- इलामाइट -सभ्यता की पाई गई हैं, अतः सिद्ध होता है कि ग्रामरी तथा प्रोटो- इलामाइट एक ही प्रकार की सभ्यता थीं, जिसके सप्तसिन्धु में सरस्वती- तट पर उत्पन्न होने के विषय में लिखा जा चुका है। प्रोटो- इलामा - इट लोग वास्तव में सप्तसिन्धु में निवास करनेवाले वे आर्य-कृषक थे जो बिलोचिस्तान और ईरान होते हुए इलाम तथा मेसोपोटामिया की उर्वरा भूमि में प्रलय के पूर्व जा बसे थे । मेसोपोटामिया की मुख्य नदी फ़ुरात अमोनिया के बर्फीले पर्वतों में से निकलती है। ऐसी नदियों में अक्सर भयंकर बाढ़े श्राया करती हैं । कुछ वर्ष पूर्व कश्मीर में बर्फ का एक बंध टूट जाने से सिन्धु नदी में भयंकर बाढ़ आ गई थी। ठीक ऐसी ही एक बड़ी बाढ़
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संख्या १]
सरस्वती-तट की सभ्यता
रात-नदी में आई, जिसके कारण इसके तट पर बसने- प्रलय के विषय में श्रीजायसवाल जी का सिद्धान्त ताली प्रोटो-इलामाइट-जाति नष्ट हो गई । यही प्रलय की मेसोपोटामिया में प्रलय के चिह्न मिलने के पश्चात् गढ़ थी, जिसका वर्णन मेसोपोटामिया तथा भारत दोनों श्रीकाशीप्रसाद जी जायसवाल ने यह सिद्धान्त पेश किया देशों के प्राचीन ग्रन्थों में पाया जाता है। समेरु-जाति की है कि प्रलय की बाढ मेसोपोटामिया से भारत में राजगिलगमेश की कथा में यह मूल प्रलय-कथा पाई जाती है पूताने तक फैली थी, क्योंकि प्रलय की कथा मेसोपोटामिया
और इसमें से ही यह बेबीलोनियन, हिटाइट (खत्ती) तथा तथा भारत दोनों देशों में पाई जाती है। श्रीजायसवाल हेब-साहित्य में पहुंची।
जी से मेरा प्रश्न है कि भारत के अतिरिक्त यह कथा प्रलय के कारण प्रोटो-इलामाइट-जाति का पेसेफ़िक में स्थित पालीनीशिया के द्वीप, मेक्सिको तथा भारत-आगमन
पेरू में भी पाई जाती है तो क्या हम यह मान सकते हैं इलाम तथा ईरान के जिन ऊँचे प्रदेशों पर प्रोटो- कि प्रलय मेसोपोटामिया से प्रारम्भ होकर भारत को डुबाता इलामाइट-जाति का जो जन-समुदाय रहता था और जो हुआ, पोलीनीशिया पर फैलता हुअा, मेक्सिको और पेरू उँचाई पर रहने के कारण प्रलय से बच गया था वह तक जा पहुँचा था, क्योंकि इन देशों में भी यह कथा पाई पुनः अपनी मातृभूमि आर्यावर्त को वापस चला गया। जाती है । इतना ही नहीं, योरप के अनेक प्रदेशों में भी इस समय यहाँ वैवस्वत मनु का राज्य था और ऋषि गण यह कथा प्रचलित है । प्रलय के विस्तार को मेसोपोटामिया रातपथ ब्राह्मण की रचना कर रहे थे। प्रलय के कारण से भारत तक मानना बिलकुल अयुक्त है। मेसोपोटामिया मेसोपोटामिया में आर्य-जाति के जन-धन की भयंकर और राजपूताना के मध्य में ईरान और बिलोचिस्तान का हानि हुई थी, अतः इस जातीय घटना को शतपथ सैकड़ों मील लम्बा प्रदेश है, जिसमें अनेक पर्वतमालायें ब्राह्मण में स्थान दिया गया । शतपथ ब्राह्मण में जो प्रलय- भी हैं। क्या हम मान सकते हैं कि प्रलय मेसोपोटामिया कथा पाई जाती है उसमें यह कहीं नहीं लिखा है कि प्रलय से प्रारम्भ होकर इस सैकड़ों मील लम्बे प्रदेश को पार की यह घटना भारतवर्ष में घटित हुई थी। उसमें लिखा करता हुअा तथा वहाँ की पर्वत-मालाओं को डुबाता हुआ है कि प्रलय के समय मनु की नाव उत्तरी पर्वत की ओर राजपूताने तक आ पहुँचा था ? यदि यही बात थी तो वह चल दी। इस उत्तरी पर्वत को भारतीय विद्वानों ने बिना राजपूताने से भी आगे क्यों नहीं बढ़ा ? इन प्रदेशों के सभझे-बूझे ही हिमालय-पर्वत मान लिया है। भारत के भूगर्भ-द्वारा किसी ऐसी घटना का होना बिलकुल प्रमाणित भगर्भ-द्वारा यह बात सिद्ध नहीं होती है कि किसी समय नहीं होता। सारे उत्तर-भारत पर जल-प्रलय आया था। यदि प्रलय प्राचीन भारत की सीमा और मेसोपोटामिया वास्तव में भारतवर्ष की ही घटना थी तो मुहें-जो डेरो* मैं इस बात का वर्णन कर चुका हूँ कि प्रलय की और हड़प्या की खुदाइयों में इसके चिह्न प्राप्त होने चाहिए। कथा भारत में किस प्रकार आई। शतपथ ब्राह्मण तथा परन्तु इन खुदाइयों में कहीं भी प्रलय के चिह्न नहीं सुमेरु-साहित्य की प्रलय-कथायें एक दूसरे के समान ही प्राप्त हुए हैं । परन्तु मेसोपोटामिया में इसके प्रत्यक्ष चिह्न हैं । केवल नायक के नामों में फ़र्क है। शतपथ ब्राह्मण की पाये गये हैं और वे भी ठीक वहाँ के प्रथम राजवंश की कथा का नायक मनु है और सुमेरु-प्रलय-कथा का नायक वस्तुत्रों के नीचे के स्तर में । मेसोपोटामिया तथा भारत ऊतानपिश्तिम है । मेसोपोटामिया में जिस प्रोटो-इलामाइटदोनों देशों के राजवंशों का प्रारम्भ प्रलय से ही होता है। जाति को इस घटना का सामना करना पड़ा था वह भारअतः प्रलय के चिह्नों का मेसोपोटामिया में वहाँ के प्रथम तीय वैदिक आर्य-जाति ही थी, यह मैं सिद्ध कर चुका राजवंश की वस्तुओं के नीचे मिलना स्वाभाविक ही है। हूँ। अाज के भारत को हमको प्राचीन काल का भारत
* हिन्दी में इसको मोहन जो दारो या दडो कहते हैं जो बिल नहीं समझना चाहिए। उस समय लघु-एशिया से अासाम कुल अशुद्ध है। इस स्थान का वास्तविक नाम 'मुहें-जो-डेरो है. तक भारत की सीमा थी। ऋग्वेद में ईरान तक का निसका अर्थ सिन्धी-भाषा में मुर्दो का स्थान है।
भौगोलिक विवरण पाया जाता है। इससे सिद्ध होता है
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भारत
कि उस समय गंगा की तलहटी से ईरान तक श्रार्यावर्त्त की सीमा थी । ज्यों-ज्यों श्रार्य जाति का अधिकाधिक विस्तार होता गया, त्यों-त्यों आर्यावर्त्त की सीमा भी विस्तृत होने लगी और शतपथ ब्राह्मण के रचमा-काल में वह मेसोपोटामिया तक जा पहुँची। इसके पश्चात् वह लघुएशिया तक जा पहुँची थी। विष्णु पुराण (तीसरा अध्याय) में की पूर्व से पश्चिम की सीमा के विषय में लिखा हैपूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमे यवनाः स्थिताः ||८|| अर्थात् इसके पूर्वी भाग में किरात तथा पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं । किरात आसाम की प्राचीन जति थी। आज भी वहाँ की यात्रा, जिमदार, खाम्बु श्रादि भाषायें किराती भाषायें कहलाती हैं । यवन यूना नियों का प्राचीन नाम है, यह प्रसिद्ध ही है। यूनानी 'ग्रीक' कहलाने के पूर्व 'यवन' कहलाते थे, इसी लिए लघुएशिया के निकट जहाँ वे रहते थे वह भूभाग 'ग्रायोनिया' कहलाता था । बाइबिल में भी इनका नाम 'जवन' लिखा हुआ है। जब भारत की सीमा पश्चिम में लघु-एशिया तक थी तब मेसोपोटामिया भी भारत के अन्तर्गत था । इस स्थिति में प्रलय की घटना को वर्तमान संकुचित भारत की सीमा में घसीटने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए । मेसोपोटामिया तथा भारत के एक देश होने का प्रमाण यह भी है कि दोनों देशों के राजा भी एक ही थे । भारत का राजवंश जिस प्रकार प्रलय से प्रारम्भ होता है, उसी प्रकार सुमेरु (मेसोपोटामिया ) का भी । केवल एक राजा के नाम का अन्तर पाया जाता है। भारत का प्रथम राजा मनु था और सुमेरु का इक्ष्वाकु था। इनके पश्चात् राम के तीन पीढ़ी पश्चात् तक के राजाओं के नाम क्रमपूर्वक दोनों देशों की वंशावलियों में एक-से पाये जाते हैंभारतीय वंशावली सुमेरु- वंशावली
मनु
- इक्ष्वाकु
विकुक्षि (भाई निमि)
पुरंजय
: श्रनेना
सरस्वती
पुन पुन
अनु
उपसंहार
।
प्रलय के पूर्व और पश्चात् भारत में कौन-सी सभ्यता थी, इसका इस लेख में भली भाँति विवेचन हो चुका है। नर्मदा सभ्यता न तो वास्तव में कोई सभ्यता थी, न प्रलय के पूर्व इसका अस्तित्व था । प्रलय उत्तर-भारत में घटित ही नहीं हुआ था । अतः नर्मदा उपत्यका का प्रलय में न डूबना पौराणिक कपोल कल्पना ही है । इन पुराणों के आधार पर ही श्री करन्दीकर ने अपनी 'नर्मदासभ्यता' के सिद्धान्त की सृष्टि कर डाली है। यदि उन्होंने पुरातत्व का आधार लिया होता तो कभी नर्मदा-सभ्यता के विषय में विद्वानों के सम्मुख वे उक्त निर्णय न रखते जिसके अनुसन्धान में उनको सफलता प्राप्त हो रही है । प्रलय के पूर्व वास्तव में भारत में वह सभ्यता थी, जिसका हमने इस लेख में 'सरस्वती सभ्यता' नाम दिया है । सिन्धु सभ्यता सरस्वती सभ्यता का ही विकसित रूप थी और सुमेर, हिटाइट, क्रीटन, मिस्री आदि सभ्यतायें सिन्धसभ्यता की ही पुत्रियाँ थीं । इस महत्त्वपूर्ण विषय पर मैंने अभी हाल में 'मनुष्य और सभ्यता की जन्मभूमि भारत' नामक ग्रन्थ लिखा है, जिसमें संसार भर के पुरातत्त्व तथा प्राचीन साहित्य का मंथन करके अकाट्य युक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया है कि मनुष्य का विकास भारत में ही हुआ था और यहीं उसकी सभ्यता की उत्पत्ति हुई थी बक्कुसि (भाई निमी) और यहीं से वह संसार भर में फैली । प्रलय की घटना का काल ई० पू० ४२०० नहीं था, जैसा कि श्री करन्दीकर मानते हैं, किन्तु ई० पू० ३४७५ था ।
उक्कुसि
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[ भाग ३८
सुमेरु- वंशावली में इक्ष्वाकु को प्रथम राजा माने जाने का यह कारण है कि मनु के काल में मेसोपोटामिया में प्रलय की बाढ़ आने के कारण श्रार्य लोग भारत वापस आ गये थे । इसके पश्चात् ही शीघ्र प्रलय का भय जाते रहने पर इक्ष्वाकु के साथ वे पुनः मेसोपोटामिया पहुँचे, जहाँ उन्होंने सुमेरु - सभ्यता की स्थापना की । यह सुमेरुआर्य सभ्यता सुराष्ट्र (काठियावाड़) से इक्ष्वाकु के साथ समुद्र-मार्ग-द्वारा मेसोपोटामिया पहुँची थी ।
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रंगून से आस्ट्रेलिया
लेखक, श्रीयुत भगवानदीन दुबे
श्रीयुत दुबे जी उन थोड़े-से भारतीयों में हैं जिन्होंने संसार का खूब भ्रमण किया है। अपने इस लेख में दुबे जी ने अपनी रंगून से आस्ट्रेलिया की हवाई यात्रा का सुन्दर वर्णन किया है, जो पाठकों के लिए रोचक होगा ।
गून तथा भारतवर्ष से आस्ट्रेलिया जाने के लिए तीन रास्ते हैं । पहला कोलम्बो होकर, दूसरा सिंगापुर से जावा - बाली द्वीप होते हुए और तीसरा वायुयान से। पहले और दूसरे समुद्री मार्ग हैं और जहाज़ - कम्पनियाँ बम्बई और कोलम्बो से निहायत सस्ते किराये पर वापसी टिकट बेचती हैं। कोलम्बो से ब्रिसबेन तक का एक तरफ़ का पहले दर्जे का किराया ७००) है, पर २ महीने का वापसी टिकट ७२ ७२५) | में मिलता है । बहुत-से सरकारी अफसर दो महीने की छुट्टी लेकर इस वापसी टिकट का लाभ उठाते हैं । यात्री दर्जे का वापसी किराया ४०० ) है । आने-जाने में दो महीने लगते हैं ।
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जगाया जाऊँगा | ४ ||| बजे छोटा नाश्ता मिलेगा । ५ बजे मोटर ग्रावेगा, जो मुझे एयरोड्रोम ले जायगा | ५ ||| बजे वायुयान रवाना होगा। पाठक जानते होंगे कि 'इंपीरियल एयरवेज़' के वायुयान लन्दन से कराची तक आते हैं । कराची से सिंगापुर तक इंडियन एंड ट्रान्सकान्टीनेंटल एयरवेज़ के वायुयान चलते हैं। सिंगापुर से ब्रिसबेन तक 'कन्टास एम्पायर एयरवेज़' का दौरा रहता है। ये तीनों कम्पनियाँ अलग अलग हैं, पर 'इंपीरियल एयरवेज़' का सबमें हाथ है । इंपीरियल व इंडियन एयरवेज़ में मुसा - फ़िरों को ३३ पौंड तक सामान मुफ़्त में ले जाने का मिलता ही है, पर यदि मुसाफ़िर का वज़न १७८ पौंड से कम है तो इतना सामान वह और मुफ्त ले जा सकता है जितना उसका वज़न १७८ पौंड से कम हो । कन्टास में सिर्फ़ ३३ पौंड सामान मुफ़्त ले जाने की इजाज़त है, मुसाफ़िर का वज़न कितना भी हो ।
हवाई जहाज़ का रंगून से ब्रिसबेन का १२००) एक तरफ़ का किराया है। वापसी टिकट २१४० ) में मिलता है । मुझे इतना सावकाश नहीं था कि मैं समुद्री यात्रा कर सकता, इसलिए मैंने वायुयान द्वारा ही श्राना-जाना तय किया । वायुयान रंगून से ब्रिसबेन ५ रोज़ में पहुँचा जाता है। रंगून से सिंगापुर तक का विवरण बहुत दफ़ा निकल चुका है । मैं सिंगापुर से आस्ट्रेलिया तक के अपने हवाई यात्रा के अनुभव इस लेख में लिखता हूँ ।
सिंगापुर में वायुयान के यात्री वहाँ के विख्यात रैफ़िल्स होटल में ठहराये जाते हैं। रात का भोजन करके जब मैं कमरे में आया तब कन्टास एम्पायर एयरवेज़ का जिसके वायुयान आस्ट्रेलिया जाते हैं, नोटिस मेज़ पर रक्खा पाया । उसमें लिखा था कि मैं ४ || बजे सुबह
इंडियन एयरवेज़ की अपेक्षा कन्टास के वायुयान छोटे हैं। आठ आदमियों की जगह है, पर डाक इतनी ज़्यादा रहती है कि तीन मुसाफ़िरों से ज़्यादा नहीं लिये जाते । छोटे होने पर भी इन वायुयानों की गति इंडियन एयरवेज़ की तुलना में अधिक है। आस्ट्रेलिया जानेवाले दो मुसाफ़िर और थे । एक मिस्टर बर्टराम जो ब्रिटिश एयर मिनिस्टरी के मुहकमे के थे और जो नई फ्लाइंग बोट के सम्बन्ध में न्यूज़ीलैंड जा रहे थे। दूसरी मिसेज़ स्मिथ थीं, जिन्होंने लन्दन २२ अगस्त को छोड़ा था, पर
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सरस्वती
[आस्ट्रेलिया की भेड़ों का एक झुंड ]
मार्गगत दुर्घटनाओं के कारण मिस्टर बर्टराम से जिन्होंने लन्दन २ सितम्बर को छोड़ा था, सिंगापुर में मिल गई थीं। फ़्लाइंग बोट के पानी में गिर जाने के कारण इनको विंडसी अलेक्जेंड्रिया जहाज़ से आना पड़ा। फिर बैहरीन में एयरोड्रोम न मिलने के कारण मरुस्थल में उतरना पड़ा, जहाँ से ३४ घंटे के बाद आर० ए०एफ० के वायुयान द्वारा अन्य यात्रियों के साथ बचाई गई। कानपुर में इंजिन के बिगड़ जाने के कारण एक रोज़ पड़ी रहीं और रंगून में चार रोज़ । इतनी विपत्ति झेलने पर भी ये ज़रा भी हतोत्साह नहीं हुई थीं। मिसेज़ स्मिथ और मिस्टर बर्दराम दोनों मिलनसार व हँसमुख थे, और हम लोग आपस में खूब हिल-मिल गये ।
वायुयान यथासमय उड़ा। बहुसंख्यक विदेशयात्राओं में मैंने अनेक हवाई सफ़र किये हैं। इसलिए यादी हो जाने के कारण नये चढ़वैये की तरह मुझे वायुयान के ज़मीन छोड़ने पर कोई धड़कन नहीं मालूम पड़ी। गोधूलि की वेला थी। सूरज की सिर्फ़ लालिमा नज़र आती थी। धीरे धीरे प्रकाश बढ़ने लगा। छोटे छोटे कई द्वीप- समुदाय नीले समुद्र में फैले हुए थे । बिखरे हुए बादलों की छाया सूरज के निकलने पर समुद्र में काले धब्बों की तरह दिखती थी। सात बजे कंट्रोल रूम जहाँ बैठ कर वायुयान वाहक वायुयान चलाते हैं, खुला । इस वायुयान में भी चार इंजिन थे और दो चलानेवाले। चलानेवालों में एक कैप्टन था और दूसरा फ़र्स्ट ग्राफ़िसर ।
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[भाग ३८
कन्टास के सभी चलानेवाले आस्ट्रेलियन हैं। फ़र्स्ट आफ़िसर ने डिब्बे से निकालकर सैंडविच व फल प्रत्येक मुसाफ़िर को दिये और खा लेने के बाद एक एक गिलास लेमोनेड ।
वायुयान की उड़ान समुद्र के ऊपर से ही ज़्यादातर थी। कभी कभी जावा द्वीप का किनारा दिख जाता था । १० बजे के करीब बेटेविया शहर का दर्शन हुआ। सवा दस बजे वहाँ के एयरोड्रोम में वायुयान उतरा। एयरोड्रोम के एक कमरे में नाश्ते का सामान लगा हुआ था । हम लोग खाने के लिए बैठ गये। उधर वायुयान में पेट्रोल और तेल भरा जाने लगा। खाना डच तरीके का था और उम्दा बना हुआ था। इतने में कप्तान को मौसिम की रिपोर्ट दी गई। पढ़कर उसने मुँह बिगाड़ा। मालूम हुआ कि 'हेड विंड' है।
हवा व पानी की जाँच के लिए जगह जगह पर मेटेरिनोलाजिकल दफ़र खुले हुए हैं। ज़मीन से १०-१२ हज़ार फुट की ऊँचाई तक जिसके बीच में वायुयान उड़ा करते हैं, हवा एक-सी नहीं रहती। कभी कभी तो दस हज़ार फुट के ऊपर हवा का रुख बिलकुल विपरीत रहता है। ज़मीन पर हवा पूर्व से पश्चिम है तो वहाँ पश्चिम से पूर्व हो सकती है। इसी तरह हवा के वेग में भी परिवर्तन होता रहता है। नीचे श्राँधी चलती हो तो ऊपर शान्त भाव हो सकता है। बहुधा मेटिरियोलाजिकल दक्करवाले गुब्बारे उड़ाकर इसकी जाँच किया करते हैं। वायुयानवाहक भी ख़बरें देकर मेटिरियोलाजिकल दफ़रों की
[आस्ट्रेलिया का एक जङ्गल का मार्ग ]
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संख्या १]
रंगून से आस्ट्रेलिया
सहायता करते रहते हैं। देश के भिन्न भिन्न स्थानों से भी बादल और हवा के सम्बन्ध में उस दफ्तर में घड़ी घड़ी पर तार पाया करते हैं । ख़बरों और स्वकीय जाँचों का सारांश निकालकर वायुविज्ञानविशारद अपनी राय कायम करता है और उसकी सब वायुयानवाहकों को सूचना देता है। वायुयानवाहक यथार्थ सूचना पाकर जिस उँचान से उन्हें मुनासिब समझ पड़ता है, अपना वायुयान चलाते हैं।
जो रिपोर्ट कप्तान को मिली उससे ज़ाहिर हुआ कि दो हज़ार फुट के ऊपर हवा का वेग बढ़ता जाता था और १५,००० फुट तक भी उससे बचने की गुंजाइश नहीं थी। कप्तान ने तय किया कि २,००० फुट के नीचे से ही उड़ना होगा। खैर ११ बजे हम लोग अपनी अपनी जगह पर बैठे। बेटेविया से सोइराबेया को ज़मीन के ऊपर से राह थी। केवल १,६०० फुट की उँचाई से उड़ने की वजह से नीचे का दृश्य साफ़ साफ़ दिखाई देता था। झोकों से वायुयान करवटें लेता तथा ऊपर-नीचे हो जाता था। यान के कई फुट एकाएक गिरने पर दिल धड़कने लगता था। वैसे ही उसके एकाएक ऊपर उड़ने पर हम चौंक पड़ते थे। ऐसे ही मौकों पर 'एयर-सिकनेस' मुसाफ़िरों को हो जाती है, पर ईश्वर की दया से एयर-सिकनेस और सी-सिकनेस से एक भारी जङ्गली वृक्ष गिराया जा रहा है (आस्ट्रेलिया)] मैं बिलकुल बरी हूँ।
काँच की खिड़कियों से नीचे हरे-भरे खेत लहलहाते ज्यादा रहती है। बहुत शीघ्र ही इसका अनुभव होने लगा। नज़र आते थे । बस्तियाँ दूर दूर पर साफ़-सुथरी थीं। कहीं वायुयान बहुत कुछ स्थिरता के साथ जा रहा था। जावाकहीं डच ज़मींदारों के बँगले सुंदर फुलवारियों के बीच में द्वीप के बाद बाली-द्वीप अाया। खेती यहाँ बहुत अच्छी नज़र पड़ते थे। अावपाशी के लिए बहुत-सी नहरें कटी नज़र आई। भमि उपजाऊ जान पड़ी। इस द्वीप में हर थीं। गन्ने के अगणित खेत इधर-उधर अधकटे खड़े थे। तरह की खेती होती है। थोड़ी देर में फ़र्स्ट आफ़िसर ने मिट्टी का तेल भी जावा में निकलता है, इसलिए एक जगह आकर हम लोगों को एक बस्ती दिखाकर कहा कि पहले तेल के कई कुए भी नज़र पड़े। सोइरावेया के नज़दीक बाली के राजभवन यहाँ थे, जो अब 'विश्रामगृह' बना चीनी के कारखाने भी कई दिखे । ढाई बजे वायुयान दिये गये हैं। साढ़े पाँच बजे वायुयान रामबंग नामक सोइराबेया के बंदरगाह में पहुँचा। नाश्ते का सामान एयरोड्रोम में उतरा। रात को यहाँ रुकना था। करीब १२ तैयार था। कप्तान ने जल्दी करने को कहा, जिससे अँधेरा घंटे में आज १२०० मील का सफ़र तय हुया । होने के पहले पड़ाव पर पहुँच जायँ । हेड-विंड के कारण मोटर तैयार थे, जिन पर बिठाकर हम विश्रामगृह पहुँवायुयान की गति में बाधा पड़ रही थी। जल्दी जल्दी चाये गये । एयरोड्रोम से विश्रामगृह करीब ५ मील दूर खा-पीकर वायुयान पर सब कोई आये और वायुयान उड़ा। था। मोटर से जाते हुए कई बस्तियाँ मिलीं, जिनमें वहाँ
हवा के झोकों से बचने के लिए कप्तान ने समुद्री के लोगों के घर और रहन-सहन, वस्त्राभूषण इत्यादि का रास्ता पकड़ा। ज़मीन के बनिस्बत पानी पर हवा की समता कुछ ज्ञान हो सका। पुरुष व स्त्रियाँ छोटे कद के थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat
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२८
सरस्वती
[ भाग ३८
•
उत्तर-भारत के पहाड़ियों से मिलते थे। स्त्रियाँ नीचे सारंग दिया। सधन्यवाद स्वीकार कर पलास्तर से वह रूमाल व ऊपर एक कोटनुमा कमर तक का कुर्ता-सा पहने थीं। फटी जगह के चारों ओर चिपका दिया गया और हम लोग यह कुर्ता हृदय के ऊपर बटन से बँधा और नीचे पेट तक अपनी जगहों में जा बैठे। यहाँ से पोर्ट डार्विन जाना था। खुला था।
बीच में ५०० मील में टिमूर समुद्र पड़ता था। कहीं ज़मीन समुद्र-तट पर रामबंग एक छोटी सी जगह है। नहीं मिलती है। कई वायुयान इस समुद्र में गिरकर गायब कन्टास ने यहाँ एयरोड्रोम अपनी सुविधा के लिए बनाया हो गये हैं। लंडन-आस्ट्रेलिया हवाई यात्रा में यह जगह है । कन्टास का पड़ाव बन जाने के कारण यहाँ के विश्राम- बड़ी ख़तरनाक समझी जाती है। हवाई यात्रा के भीरु गृह में बहुत कुछ सुधार हो गया है। इसमें तीन व्यक्ति अपने वक्तव्य में टिमूर समुद्र का नाम सबसे आगे कमरे थे । एक में मिसेज़ स्मिथ, दूसरे में मिस्टर बर्टमैन रक्खा करते हैं । इस समुद्र को पार करने के समय वायुयानऔर मैं, तीसरे में कैप्टन व फर्स्ट आफ़िसर ने रात काटने वाहकों को यह आदेश रहता है कि वे फालतू पेट्रोल टैंक को को डेरा डाला।
जो हर वायुयान में आकस्मिक घटना के लिए लगा रहता देखने के लायक यहाँ कुछ नहीं था। इसलिए भोजन है. अवश्य भर लिया करें। पर इस बार मौसम की रिपोर्ट कर व थोड़ी देर तक ग़प-शप कर सो रहे। सुबह नाश्ता अनुकूल थी, जिससे तथा बोझा के भी काफ़ी होने कर सवा पाँच बजे एयरोड्रोम पहुँचे और साढ़े पाँच बजे से कप्तान ने फालतू पेट्रोल-टैंक को नहीं भरा। मगर उसे
आकाश में मँडराने लगे। इस उड़ान में कोईपांग में ठहरना १२००० फुट की उँचाई से उड़ना था। था, जो वहाँ से ६०० मील पड़ता था। समुद्र पर से ही काईपांग छोड़ने के बाद ही हम लोग ऊँचे उठने ज़्यादातर उड़ान रही और हम लोग १० बजे के करीब लगे और १४,००० फुट की उँचाई की सतह पाकर आगे कोईपाँग पहुँच गये। स्वागत के लिए एक वृद्ध सज्जन बढ़े। नीचे जल ही जल था, इसलिए किताब निकाली खड़े थे । मुझे देखते ही हिन्दुस्तानी में बोले और मेरे और पढ़ने में समय काटना उचित समझा। सर्दी बढ़ने
आश्चर्यचकित होने पर कहा कि वे कश्मीरी हैं और वहाँ लगी और शीघ्र ही ओवरकोट का सहारा लेना पड़ा। बीस साल से बसे हुए हैं । राजनैतिक शरणागत होने के इंजिन का शोर भी ज़्यादा था, इसलिए कान में रुई भरनी कारण भारतवर्ष नहीं लौट सकते। अपना कारबार वहाँ पड़ी। तीन बजे आस्ट्रेलिया का किनारा नज़र आया । अच्छा जमा लिया है और अपने दो लड़कों को भी देश साढ़े तीन बजे पोर्ट डार्विन के 'एयरोड्रोम' में उतरे । से बुला लिया है। प्रमुख नागरिक होने की वजह से एयरो- हम लोग नीचे उतरनेवाले थे कि हुक्म मिला कि डोम के वे एक अवैतनिक अधिकारी हैं। मैं पहला ही आपकारा ह । म पहला ही जब तक डाक्टरी न हो जाय, नहीं उतर सकते । डाक्टर
जब तक डाक्टरा न ह भारतवासी था जो इतने दिनों के बाद वायुयान से साहब वायुयान के भीतर अाये। टीका का सर्टिफिकेट सफ़र करता हुआ उन्हें मिला था, इसलिए वे बहुत माँगा । टीका दो साल के अंदर लगा होना चाहिए, नहीं ख़ुश हुए थे। मुझसे कहने लगे कि श्राप रुक जायँ और तो यहाँ टीका लगाकर कैरेन्टाइन में भेज देते हैं। विदेशदूसरे वायुयान से आस्ट्रेलिया जाय । यह तो असंभव था, यात्रा के सम्बन्ध में मुझे ऐसे कानूनों से हमेशा सतर्क पर मुझसे वादा ले लिया कि लौटती बार उनके यहाँ रहना पड़ता है और मैंने अपना सर्टिफिकेट दिखला दिया। ज़रूर मुकाम करूँ । इसी तरह बातें करते नाश्ता किया और अन्य मुसाफ़िर भी सचेत थे और इस परीक्षा के बाद साढ़े दस बजे वायुयान पर चलने का आदेश मिला। डाक्टर ने अपने पीछे पीछे सबको आने के लिए कहा। कप्तान ने चारों ओर देखकर हमेशा की तरह वायुयान की उसके दफ्तर में पहुँचने पर सब मुसाफिरों से एक काग़ज़ परीक्षा की । एक पखने में न जाने कैसे एक फुट तक पट्टी पर दस्तखत कराये गये कि अगर दो हफ्ते के अन्दर फटकर खुल गई थी। इसकी मरम्मत करना ज़रूरी थी। आस्ट्रेलिया में किसी को भी कोई बीमारी हो तो वह चिपकाने का मसाला निकाला गया और एक सज्जन ने फटी स्वास्थ्य-विभाग को फ़ौरन सूचित करे, नहीं तो कानून-भंग पट्टी की जगह चिपकाने के लिए अपना बड़ा-सा रूमाल दे के इल्ज़ाम में जुर्माना व सज़ा का ज़िम्मेदार होना पड़ेगा ।
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संख्या १]
रंगून से आस्ट्रेलिया
अब चुंगीवालों की बारी आई। सारा सामान अच्छी तरह खोलकर देखा गया। खैर, किसी के पास चुंगीवाली काई वस्तु नहीं थी।
मुसाफिरों के पास आस्ट्रेलिया के सिक्के नहीं थे। इनकी सहूलियत के लिए वायुयान से एजेंट को तार कर दिया गया था और उसने बैंक के मैनेजर से बदोबस्त करके बैंक खोल रखने के लिए कह दिया था, जिससे हम लोगों के वहाँ जाने पर हुंडी भुनाकर आस्ट्रेलियन रुपया मिल सके। चुंगीघर
[एक आस्ट्रेलियन चरागाह ] से निकलकर रुपया भुनाकर विश्रामगृह में पहुँचे । पोर्ट डार्विन में केवल नज़र आये। आबादी का कहीं नामोनिशान नहीं था। २,००० मनुष्य बसते हैं। दूर दूर पर बँगले नज़र आते वृक्षाच्छादित समतल भूमि में जहाँ-तहाँ मरुभूमि के पीले पीले थे। भूमि समतल थी। उसी पर से मोटर की लीक टुकड़े दृश्य की समानता को भंग करते थे। अाठ बजे वायुयान बन गई थी। पक्की सड़क का नामोनिशान नहीं था। डेलीवाटर्स नामक जगह पर आया । यहाँ सिर्फ एक घर विश्रामगृह लकड़ी का बना हुआ था और समुद्र-तट एक अँगरेज़ का है, जो किसी तरह अपना गुज़र करते हैं । पर था। इसमें १२ आदमियों के ठहरने की जगह थी। वायुयान का अड्डा बन जाने के कारण इन बेचारे के बरामदा बहुत बड़ा था। गर्मी थी, इसलिए बरामदे में ही परिवार को जीविका का एक साधन मिल गया है । हवाई सोने का प्रबन्ध था। विश्रामगृह की संचालिका एक बूढ़ी मुसाफिरों को नाश्ता देने का प्रबन्ध इन्हीं के ज़िम्मे रहता है। मेम थी। एक नौकरानी भी थी । यहाँ का समय जावा के बूढ़ी मेम एक कमरे में मेज़ पर नाश्ते का सामान चुने समय से २ घंटे अागे था। इसलिए घड़ियाँ २ घंटे बढ़ाई हुए तैयार थी। घर का मधु भी रक्खा था, जो बहुत ही गई। सकुशल आस्ट्रेलियन भूमि पर पैर रखने के तार सुस्वादु था। बातचीत करने पर मालूम हुआ कि वे लन्दन करने थे, जो टेलीफोन से तार आफिस में कर दिये गये। की रहनेवाली है, एक भद्र परिवार में उनका जन्म हुआ थोड़ी देर के बाद उनकी कीमत की ख़बर मिली, जो विश्रा- है, शिक्षा भी अच्छी पाई है, पर भाग्य की ठोकर से इस मगृह की मालकिन को चुका दी गई।
निर्जन प्रान्त में प्रा बसी हैं। स्नानकर व थोड़ी देर टहलकर रात का भोजन इसी बीच में एक दूसरे हवाई जहाज़ के आने की किया। समुद्री हवा बह रही थी। खूब नींद आई। सुबह आवाज़ आई । पूछने पर मालूम हुआ कि वह वायुयान हमेशा की तरह उठकर नाश्ता किया और एयरोड्रोम आये। दक्षिण-पश्चिमीय आस्ट्रेलिया के पर्थ नामक शहर को
पोर्ट डार्विन से उड़ने पर विशाल जंगल ही जंगल हवाई डाक ढोता है । फ़र्स्ट आफ़िसर जल्दी से उठकर
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३०
सरस्वती
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[ भाग ३८
sa ca - aa के लिए चला गया और पीछे से हम लोग चक्की लगा दी जाती है, जो पानी खींच कर हौज़ में भरा भी पहुँच गये ।
डाक का काम समाप्त होने पर हम लोग फिर उड़े । न्यूकैसल वाटर्स और नेटडाउन्स में ज़रा ज़रा देर रुककर डाक दे लेकर फ़ौरन उड़ते हुए केमोवील श्राये ! भोजन का सामान यहाँ तैयार था । यहाँ कुछ घरों की एक बस्ती है। गाय, बैल, घोड़े, बकरी, भेड़ पालकर यहाँ गुज़र होता है । यहाँ हमने क़रीब ५० घोड़ों के झुण्ड का दो गुड़सवारों को ले जाते हुए देखा। यहाँ के घुड़सवार अपनी कला में निहायत दक्ष हैं । सौ सौ जङ्गली घोड़ों के गिरोह को दो घुड़सवार जहाँ चाहते हैं, ले जाते हैं । हाथ में चाबुक रहता है। घोड़े खुले रहते हैं
। जानवर यहाँ घास पर ही पलते हैं। सौ सौ या इससे कुछ कम ज़्यादा बीघों के लकड़ी के हातों में गाय, बैल, घोड़ों का घेर देते हैं। भेड़ बकरियों के लिए तार के हाते होते हैं। इन हातों में सब मवेशी स्वच्छन्द चरते हैं। बरसात बहुत कम होती है । नदी-नाले नहीं हैं। इधर-उधर पानी पड़ने पर गढ़े भर जाते हैं, जो जानवरों का पानी पीने के काम आते हैं। बरसात के न होने से या कम होने से जैसे अपने यहाँ फसल का नुकसान होता है, उसी तरह पानी न होने या गढ़ों और चारा के सूख जाने की वजह से यहाँ जानवर लाखों की संख्या में मर जाते हैं ।
केमावील के बाद माउंट ईसा का पड़ाव था, यहाँ जस्ता और चाँदी की खानें हैं। उनमें काम करनेवाले २५०० मनुष्यों की अच्छी-सी बस्ती हो गई है । माउंट ईसा के बाद ग्लोन कुर्री और फिर लोनग्रीच । लोनग्रीच में उतरने के समय तक अँधेरा हो गया था । एयरोड्रोम के चारों तरफ़ बत्तियों के कारण जगमग हो रहा था। बड़ी सावधानी से कप्तान ने वायुयान उतारा। मोटर खड़े थे, जिनमें बिठाकर हम लोग होटल पहुँचाये गये। लॉगरीच में अच्छा पानी निकल ग्राने से बड़ी सुविधा हो गई है । इस मुल्क में केवल बरसात की तो कमी है ही, किन्तु ज़मीन के अन्दर भी पानी नहीं है । बहुत तलाश करने पर कहीं पानी निकला भी तो वह प्रायः इतना ख़राब होता है कि मवे शियों को पिलाने के भी काम नहीं आता । पाइप गलाकर ज़मीन से पानी निकाला जाता है। कुए कहीं नहीं हैं । कदाचित् कहीं कुछ अच्छा पानी निकल आया तो हवा
करती है, जहाँ से पाइप द्वारा दूर दूर तक पानी ले जाया जाता है । जहाँ-तहाँ हवा में फरफराती हुई ऐसी हवाचकियाँ वहाँ के अनन्त जङ्गली प्रदेशों में मानव - निवास का संकेत करती रहती हैं ।
1
होटल में पहुँचते पहुँचते सात बज गया था । अपने कमरे में दाख़िल होने के बाद ही वेटर ने आकर कहा कि चलिए चाय तैयार है । श्राज १,३०० मील से ज़्यादा का सफ़र हुआ था। थकाई मिटाने के लिए मैं नहाने की फिक्र में था । मैंने कहा चलो, आता हूँ । नहा-धोकर कपड़े पहन नीचे उतरा । कुछ गर्मी थी । इरादा हुआ, दस मिनट बाहर टहल लूँ तो भोजन करने बैठूं । जैसे ही फाटक पर आया, वेटर ने फिर बड़ी आतुरता से कहा, भोजन तैयार है, पहले भोजन कर लीजिए तब टहलने जाइए। दूसरे मुसाफ़िर भी आ गये और हम सब भोजन करने बैठे। मैंने कप्तान से पूछा कि ऐसी जल्दी का क्या कारण है । तब मालूम हुआ कि भोजनालय यहाँ साढ़े सात बजे बन्द हो जाता है । हम लोगों के कारण नौकरों की छुट्टी में देर हो रही है। इस जगह मच्छड़ों का बड़ा ज़ोर था । दिन में मक्खियाँ भी बहुत ज्यादा रहती हैं। सुबह फिर यथासमय एयरोड्रोम पर श्राये । श्राज सफ़र का अन्तिम दिन था । वायुयान ६ बजे सुबह उड़ा। श्राढ बजे चारल्यूली पहुँचे । नाश्ते का इन्तिज़ाम वहाँ था । मोटर से शहर में ले जाकर एक अच्छे होटल में भोजन कराया गया और फिर एयरोड्रोम पर पहुँचा दिया गया। अब की रोमा शहर में वायुयान को ठहराना था ।
मेरे भूतपूर्व साझीदार व परम मित्र मिस्टर नाइट अवकाश प्राप्तकर आस्ट्रेलिया में या बसे हैं । उनको मैंने अपने श्रागमन की सूचना दे रक्खी थी। उन्होंने ख़बर दी कि ब्रिसबेन न जाकर मैं एक स्टेशन इसी तरफ़ रोमा में उतर जाऊँ, जहाँ वे मुझे मिलेंगे । ११ बजे वायुयान रोमा एयरोड्रोम पर उतरा। मिस्टर नाइट वहाँ खड़े थे | मिलकर एक दूसरे का बड़ी प्रसन्नता हुई । साथी मुसाफ़िरों और वायुयान संचालकों से विदा ले मिस्टर नाइट के मोटर पर श्राया और बातचीत करते हुए रोमा शहर के एक होटल में पहुँचा । आज रोमा में ही ढहरना था । मिस्टर नाइट ने यहाँ ज़मीन लेकर 'फार्म' खोल रक्खा
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रंगून से आस्ट्रेलिया
संख्या १ ]
निहायत
है। एक छोटी सी दूकान भी की है। हँसमुख व सज्जन होने की वजह से उनकी लगभग दो सौ कोस के
इर्द-गिर्द सभी ज़मींदारों व अन्य व्यवसायियों में
काफ़ी मेल-जोल व प्रतिष्ठा हो गई है।
लंच के पहले मिस्टर
नाइट ने मुझे ले जाकर अपने क्लब में अपने मित्रों
से मेरा परिचय कराया । भोजनोपरान्त का समय भी यहाँ वहाँ जाने में बीता । रोमा में क़रीब
३००० मनुष्यों की आबादी है। सड़कें सीधी व स्वच्छ हैं। हर एक परिवार का अपना अलग अलग बँगला है। रात का भोजन के लिए रोमा के एक बड़े ज़मींदार के यहाँ न्योता था। उनका घर शहर से १० मील पर था। मालूम हुआ, उनके पास डेढ़ लाख एकड़ ज़मीन है, जिसमें भेड़-बकरी, घोड़े, गाय-बैल इत्यादि पाले जाते हैं। शाम को उनके घर जाने पर निहायत सुन्दर बँगला पाया । अँगरेज़ी सज्जनोचित रीति- रस्म के साथ भोजन हुआ । इन ज़मींदार का नाम मिस्टर मैकगिग है । वे बड़े सुशिक्षित व 1 अनुभवी जान पड़े। बातचीत ऊँचे दर्जे की थी। उन्होंने दूसरे दिन शीपडिपिंग (भेड़ों को नहलाना) देखने के लिए मुझे आमन्त्रित किया। मिस्टर नाइट का इशारा पाकर मैंने सधन्यवाद स्वीकार किया। होटल में वापस लौटने पर १२ बज गया था।
सुबह भोजन कर शीपडिपिंग देखते हुए डुलक्का नामक जगह पर जहाँ मिस्टर नाइट का फ़ार्म व कारोबार है, जाने के लिए मोटर पर बैठे । क्कीन्सलैंड-प्रान्त का सारा प्रदेश सरकारी जालीदार हातों से घिरा हुआ है, जहाँ-तहाँ फ़ार्मों में जाने के लिए फाटक बने हुए हैं। उन पर नोटिस टँगे हुए हैं, जिनमें लिखा है कि इनको बन्द कर दो । खुला
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[ बटेवा (जावा) की एक सड़क ]
छोड़ने पर १,५००) जुर्माना देना पड़ेगा। ये सरकारी होते पगडंडी छोड़कर बने हुए हैं। यहाँ ख़रगोश व कंगारू बहुत हैं, जो यदि हाते न हों तो मवेशियों के चारे को चर लें । इसलिए सरकार ने बहुत पैसा ख़र्च कर सारे प्रदेश को जालीदार तार के हातों से घेर दिया है। इनके भीतर ज़मींदार अपनी ज़मीन में पचास से सौ एकड़ तक के तार के अथवा लकड़ी के हाते घेर लेते हैं, जिनमें भेड़, गाय, बैल, घोड़े इत्यादि स्वच्छंद चरा करते हैं । दूध देनेवाली गायों को जब तक वे दूध देती हैं, अलग रखते हैं । बाद को फिर उन्हें हातों में छोड़ देते हैं। गाय-बैल दो तरह के हैं । एक तो डेरी के काम आते हैं याने दूध के व्यवसाय के लिए पाले जाते हैं। दूसरे सिर्फ़ हट्टे-कट्टे कर कसाईखानों को बेच दिये जाते हैं। आस्ट्रेलिया से बहुत बड़े परिमाण में विदेशों को मांस भेजा जाता है।
मिस्टर मेक्गिग की ज़मीन की सरहद पर पहुँच सरकारी हाते के अन्दर घुसे। वहाँ से फिर अनेक हातों के फाटक खोलते-बन्द करते हुए उनके बँगले पर आये । मालूम हुआ कि वे कोई चार मील पर शीपडिपिंग में लगे हुए हैं। उनकी श्रीमती राह बतलाने को साथ हो
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सरस्वती
[भाग ३८
कुल्हाड़ी से एक एक घाव मार दिया जाता है. जिससे छिलका कट कर कुल्हाड़ी कुल अन्दर घुस जाती है। इम तरह पेड़ को काटकर छोड़ देते हैं। बाद को बह पेड़ रखकर ग्राँधी-पानी का शिकार बन कर खुद गिर जाता है। यदि सूग्वा खड़ा भी रहा तो घाम को हानि नहीं पहुँचाता। __इस तरह देखतेभालते हम लोग उस जगह पहुँचे, जहाँ
शीपडिपिंग हो रहा [सिङ्गापुर का एक हिन्दू मंदिर ]
था। मिस्टर मेकिंगग ली। प्रायः सभी हातों में कहीं भेड़, कहीं गाय-बैल, कहीं जो कल शाम को निहायत सभ्य की पोशाक में बँगले में थे, घोड़े, कहीं बकरियाँ, अलग अलग चर रहे थे । जहाँ-तहाँ ग्राज बही 'अवराल' डाले हुए हाथ में डंडा लिये गड़रियों जंगल भी खड़ा था। पानी के दो-चार नालां के समान की बोली वालते हुए भेड़ों के गिरोह में दिख। उनके गढे मिले । इनको 'क्रीकर कहते हैं। बरसात होने पर इनमें लड़के भी अन्य मजदरों की तरह पानी भर जाता है । वही जानवरों को पिलाने के काम लगे हुए थे। कई बाड़ों में भेड़ें भरी हुई थीं। भेड़ों के अाता है। थोड़ी दूर जाने पर गेहूँ के खेत मिले । यहाँ ऊन के ऊपर एक प्रकार के कीड़े बैठ जाते हैं, जो अंडे. खेत मशीनों से ही जोते, बोये और काटे जाते हैं। बच्चे देकर शीघ्र खाल में बैठकर उनकी जान लेकर फ़सल असींच होती है। बरसात का सहारा ज़रूर रहता छोड़ते हैं। इसलिए समय समय पर भेड़ों को ज़हर के है। बीहड़ भूमि में गेहूँ के हरे हरे खेत लहलहा रहे थे। पानी में डुबाया जाता है, जिससे कीटाणुत्रों का नाश हो ऐसा भी एक भाग मिला, जहाँ सूखे पेड़ खड़े हुए थे। जाय । उस रोज़ उन्हें १० हजार भेड़ों को इस तरह बतलाया गया कि यहाँ जंगल साफ़ किया जा रहा है। बाना था। पेड़ों की वजह से घास नहीं बढ़ती है। जहाँ पेड़ कट गये बाड़ों में से लकड़ी के बने हुए एक तंग रास्ते से एक कि घास ज़ोर पकड़ जाती है और मवेशी पालने के काम एक भेड़ हका ली जाती थी। रास्ता तिरछा था। भेड़
आने लगती है । जंगल साफ़ करने का मतलब भमि को नीचे से ऊपर की तरफ़ ठेली जाती थी, जिससे नीचे क्या वृक्ष-रहित कर देना है। पेड़ों को जड़ से काटने व उनके है, भेड़ को न दिखे । उच्च स्थान पर श्राने पर एक घूमती ढोने में ज़्यादा ख़र्च पड़ने की वजह से वृत्तों की छाल उधेड़ने हुई पटरी पर वह ठेल दी जाती थी जिससे वह पीछे नहीं की रीति काम में लाई जाती है। वह रीति यह है कि पेड़ हट सकती थी। यह पटरी एक नाली में ख़तम होती थी, में जमीन से दो फुट की ऊँचाई पर चारों तरफ़ मे गोलाकार जो करीब तीन हाथ चौडीब दस हाथ ल
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संख्या १ ]
पाँच हाथ थी, जिसमें
चार हाथ ज़हर का
पानी भरा था। इस
नाली में गिर कर भेड़
तैरती हुई उस पार निकल कर पक्के बाड़े
में इकट्ठा होती थी । नाली के किनारे एक
मज़दूर एक विशेप
प्रकार की बनी लकड़ी
लिये खड़ा था, जा
भेड़ की गर्दन पर दबा
देता था जिससे भेड़
का सिर भी ज़हरीले
पानी में डूब जाय ।
यह काम बड़ी फुर्ती से हो रहा था। मिस्टर
रंगून से ट्रेलिया
मेक्गिग को लेकर कुल ६ आदमी इस काम में लगे थे, जो दिन भर में दस हज़ार भेड़ों को इस तरीके पर नहला कर छोड़ेंगे। पन्द्रह मिनट तक यह दृश्य देखकर मिस्टर मेकिंग को धन्यवाद देकर हम लोगों ने डुलक्का की राह पकड़ी, जो वहाँ से क़रीब ७० मील दूर था ।
समुद्र के किनारे के प्रमुख शहरों में ग्राने-जाने के लिए पक्की सड़कें हैं। आस्ट्रेलिया के भीतरी प्रदेश में भूमि समतल होने के कारण तथा नदी-नालों के प्रभाव में मदरत के लिए पेड़ काटकर ज़मीन साफ़ कर दी गई है और वह 'ट्रेक' के नाम से मशहूर है। इन्हीं ट्रैकों पर से मोटर श्राते-जाते हैं । जानवरों को भी इन्हीं से एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं। इन सबकी वजह से लीक-सी बन गई है। वर्षा की निहायत कमी के कारण ही यह मार्ग सदा काम देता रहता है। जहाँ एक इंच भी पानी पड़ा कि वहाँ की चिकनी और लसदार मिट्टी जब तक सूख नहीं जाती सारी श्रावाजाही बन्द रहती है। रोमा से डुलक्का के लिए ऐसी ही राह से मोटर पर जाना था । मारे धक्कों के बदन चूर चूर हो रहा था । आश्चर्य है कि मोटर ऐसे
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[ कीन्सलैंड में पशुओं का एक बाड़ा ]
३३
रास्तों पर किस तरह ठहरते हैं। मगर निहायत पुराने ढंग के मोटर आते-जाते देखकर उनके टिकाऊपन पर दङ्ग हो जाना पड़ता था। सभी मोटर रखनेवाले मोटर दुरुस्त करना जानते है, क्योंकि अगर कहीं मोटर बिगड़ गया तो मी किसी का सहारा मिलना कठिन है । रोमा से डुलका ७० मील दूर था, पर मोटर की गति १५ मील प्रतिघंटे से ज्यादे की नहीं थी । औसत १० मील प्रतिघंटा समझिए एक जगह दोपहर को जल पान किया । चार लगभग काले बादलों का एक झुंड दिखलाई दिया । उस समय तय हुआ कि जैक्सन नामक जगह में चाय पी जाय । इतने में बूँदें पड़ने लगीं और पाव इंच के लगभग पानी भी बरसा । मिस्टर नाइट कहने लगे कि
बजे के
डुलका जो वहाँ से केवल दस मील रह गया था, जाना सम्भव है। मिट्टी गीली हो जाने से चिकनी पड़ गई होगी और फँस जाने का डर है । यह बातचीत हो रही थी कि नई उम्र का एक आदमी आया, जो मिस्टर नाइट का परिचित था । उसने कहा कि मैं भी डुलका जा रहा हूँ । यदि आप कहें तो आपका मोटर
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सरस्वती
[भाग ३७
मैं सकुशल चला ले जाऊँगा । जैक्सन बीस घरों की बस्ती श्रीमती नाइट जो रंगून में आधे दर्जन नौकरों से घिरी थी । होटल सामने था, जिसमें इतनी ही सुविधा थी कि रहती थीं, वहाँ घर का सारा कामकाज खुद करती थीं। छप्पर के नीचे रात कट सकती थी। विचार कर मिस्टर बँगला निहायत उम्दा था। बाग़ीचा भी विविध प्रकार के नाइट ने डुलक्का जाना तय किया और मोटर चलाने का फूलों से सुशोभित था। भाजी तथा फल के पेड़ भी लगा काम उस आदमी को सौंपा । वह बेशक मोटर चलाने में रक्खे थे। मर्ग-बतखें भी पली हुई थीं। मदद के लिए प्रवीण था। गीली चिकनी मिट्टी में चक्के फिसल रहे थे। एक लड़की दो-चार घंटे को श्रा जाया करती थी। एक जान पड़ता था कि नाव पर हैं । मुझे तो इस तरह का आदमी बागीचा गोड़ने के लिए हफ्ते में एक रोज़ चार पहले कभी अनुभव नहीं हुअा था, इसलिए पग पग पर घंटे के लिए आता था। उनको इतना काम करते हुए यही जान पड़ता था कि अब उलटे तब उलटे । तीन-चार देखकर मुझे दंग होना पड़ा। मील इस तरह कलेजे पर हाथ रक्खे जाने पर एक ऐसी पचमढ़ी वगैरह की तरह टूवूम्बा एक पहाड़ी पर बसा जगह आई, जहाँ ढलुत्रा होने की वजह से पानी इकट्ठा हुअा है, जो दो हज़ार फुट ऊँची है। यहाँ अधिकतर हो गया था और ज़मीन इतनी गल गई थी कि मोटर के अवकाशप्राप्त पुरुष बसे हुए हैं। बस्ती २५,००० मनुष्यों पिछले चक्के आधे धंस गये और फड़फड़ाने लगे। यह की हो गई है। टूवम्बा पहाड़ी के नीचे को डार्लिङ्ग तय हुआ कि उतरकर मोटर ठेला जाय । इतने में एक डाउन्स नाम की ज़मीन बड़ी उपजाऊ समझी जाती दूसरा मोटर आता दिखा । भाग्यवश वह मिस्टर नाइट के है। यहाँ छोटे छोटे बहुत-से फ़ार्म हैं । इन्हीं के कारण मैनेजर का था, जिसमें दो आदमी और थे। उन लोगों आबादी ज़्यादा है, जिसकी वजह से यहाँ दूकानों का ने उतरकर किसी तरह ठेल-ठाल कर मोटर उस बोगदे के अच्छा जमघट है। सिनेमा-थियेटर भी बहुत से हैं। बाहर निकाला और हमारे मोटर की मदद से उनकी गाड़ी आस्ट्रेलिया में पहले-पहल मुझे यही जगह शहर-सा भी पार हुई । डुलक्का पहुँचते पहुँचते सात बज गये। लगी । शहर भर में सड़कें उम्दा बनी हुई हैं। सारा
मिस्टर नाइट का अपना घर टूवम्बा में है, जो डुलक्का शहर बँगलों का बना हुअा है और हर एक बँगले में से १५० मील और ब्रिसबेन से ७० मील इस तरफ़ है। अपनी फुलवाड़ी है, जिसे विविध फूलों से सजाने में हर मिस्टर नाइट को कुछ आवश्यकीय काम होने की वजह से कोई दिलचस्पी रखता है । पहाड़ी के ऊपर से घाटियों का दो रोज़ डुलक्का में रुकना था। मैंने तय किया कि मैं रेल से अनुपम दृश्य देखने में आता है। दूसरे दिन टूवृम्बा चला जाऊँ, जहाँ मिस्टर नाइट दो दिन आस्ट्रेलिया में जल की कमी का मैंने ऊपर ज़िक्र के बाद आ जायेंगे, क्योंकि डुलक्का में सिर्फ दस घर की किया है । बरसात के पानी का पूरा लाभ उठाने के लिए बस्ती थी और ठहरने का अच्छा प्रबन्ध नहीं था। सुबह सारे घर टीन से छाये हुए हैं । बारिश का पानी टीन पर सात बजे रेलगाड़ी जाती थी और मैं उस पर सवार से लुढ़ककर पनारों में आता है और पनारों का पानी हुआ । उसमें सिर्फ दो डिब्बे थे और वह हर स्टेशन पर बटोरने के लिए हर एक घर में बड़े बड़े हौज़ बने हुए ठहरती थी। आखिरकार २ बजे टूम्बा पहुँचा। हैं । टूवम्बों में पानी का समुचित प्रबन्ध है, तो भी इस
मिस्टर नाइट ने अपनी पत्नी को मेरे आने की सूचना तरह के हौज़ प्रायः सब घरों में हैं और उनका पानी काम दे दी थी। वे टूवम्बा-स्टेशन पर आकर मुझसे मिलीं में लाया जाता है। और मुझे अपने घर पर ही ठहरने के लिए विवश किया।
[अगले अङ्क में समाप्य
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एकाङ्की नाटक
मृणालवती-प्रणय
लेखक, श्रीयुत सूर्यनारायण व्यास
बहन,
[पात्र
मृणालवती-तुम्हारा घमंड दूर करने के लिए ही मेरा मुंज—मालव का प्रतापी राजा,
इस समय यहाँ आना हुआ है। मृणालवती-तैलंगण के राजा तैलप की विधवा मुंज-(आश्चर्य से) अोह ! मेरा घमंड दूर करने को ही
इस समय आप पधारी हैं ? खूब ! वीरबाहु-मृणालवती का सैनिक,
मृणालवती-हाँ, समर-क्षेत्र में जीतकर विजय की वरसमय-संध्याकाल, स्थल तैलंगण से राज-विहार के माल धारण करनेवाले अपने विजयी भाई की तरफ़ नीचे का कारागृह।]
से तुम्हारा घमंड दूर करने के लिए आई हूँ। की ज (हाथ में बेड़ियों से जकड़ा मुंज-(क्रोध से) यह तुम क्या बक रही हो मृणालवती ?
हुआ इधर-उधर फिर रहा छल-कपट से विजय प्राप्त करना ही क्या क्षत्रियों है।)-विधिगति विचित्र है। का लक्षण है ? छल-कपट से मैं कैद में डाला गया मालवा के राजसिंहासन पर हूँ। अपने भाई की ऐसी ही बहादुरी पर गर्व कर बैठनेवाला और पृथ्वी का प्यारा राजा कहलानेवाला, मृणालवती-जो कुछ समझो, मगर इस समय तो तुम मेरे
अाज एक सप्ताह से इस देश कैदी हो न ? इस समय तो तुम मेरे जीते हुए हो न ? में पड़ा हुआ है ! उस समय एक शब्द मुख से निकलते मुंज-नहीं, नहीं। ऐसा समझती हो तो तुम्हारी भूल है । ही हज़ारों सेवक हाज़िर हो जाते थे और आज इस समय तुम्हारे पिशाच हृदय-भ्राता तैलप ने मुझे बन्दी नहीं मेरे शब्द का प्रत्युत्तर ये जड़ दीवारें अट्टहास करके-जैसे बनाया। मुझे बन्दी बनानेवाला तो वीर भिल्लमदेव मेरी यह दशा देखकर खुश हो रही हों, देती हैं। दैव ! है। यह मालवपति अपने जीवन-काल में यह पहली तेरी विचित्र गति है! जिस हाथ में चमकती तलवार शोभा बार ही भिल्लमदेव-द्वारा बन्दी किया गया है । धन्य है देती थी, उसी हाथ में श्राज लोह-शृंखला शोभा दे रही उसकी वीरता को और धन्य है उसके गर्म रक्त को है। (मृणालवती प्रवेश करती है।) कौन ? मृणालवती ? और उसकी तेजस्विनी तलवार को ! इस समय मेरे निवास में ?
मृणालवती-किन्तु मुंज, भिल्लम तो हमारा सरदार है। मृणालवती-हाँ, मुंज ! वीर तैलप की बहन, इस समय वह तो हमारा नमक खाता है, इससे उसकी हर एक तुम्हारे सामने खड़ी है।
विजय पर हमारा पूर्ण अधिकार है-हमारी सम्पूर्ण मुंज-भाने का प्रयोजन ?
सत्ता है। मृणालवती-लोगों के मुख से सुनती थी कि मुंज बड़ा मुंज-किन्तु तुम्हारा नमक खाकर वह तुम्हारे विश्वासघाती
बुद्धिमान् है, किन्तु तुम्हारे प्रश्न से ज्ञात होता है कि भाई की तरह नीच नहीं हुआ। यह जानकर मैं लोगों का कहना झूठ था। भला काई बिना प्रयोजन सहज ही अपनी आत्मा का शान्ति देता हूँ कि मुंज के अाता है ?
कैद में डाला तो गया, किन्तु वीर के हाथ ही, मुंज----अच्छा ! हाँ, हाँ, तुमने मेरा मूल्य तो ठीक आँका। क्षत्रियत्व का लजानेवाले कायर-डरपोक मनुष्य के . अब अपने आने के प्रयोजन का प्रकरण तो खोलो। हाथ से कैद में नहीं गया।
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सरस्वती
[भाग ३८
मृणालवती- यह तुम क्या कह रहे हो मुंज ? मेरा भाई मुंज-किसलिए छोड़ दूँ ? मैं नहीं जानता था कि
क्षत्रियत्व को लजानेवाला कायर है ? तुम्हें पता है कि तुम्हारा भाई ऐसा कसाई है। और वह युद्ध में पकड़े इस समय तुम किसके सामने बोल रहे हो ?
गये अपने ही जैसे नरेश के साथ ऐसा बर्ताव करेगा। मुंज (हँसते हुए)-हाँ, हाँ, मृणालवती ! यह मत सम- मृणालवती--मेरी अशान्त आत्मा को अपने नीच शब्दों
झना कि मुंज कारागृह के दुःख से ज्ञान-बुद्धि खो से अधिक अशान्त न करो। बैठा है। मैं पूर्णतया ज्ञान-बुद्धि में ही हूँ। मैं अच्छी मुंज-अहा ! हा ! हा !! हा !!! तरह जानता हूँ कि मुंज इस समय तैलंगण के कारा- मृणालवती-अगर अधिक बोला तो मुंज-तेरी जीभ गृह में तैलप की बहन से बात-चीत कर रहा है। खींच लूंगी। याद रख, कल तू कुत्ते की मौत से मारा सम्पूर्ण तैलंगण की नगरी को रसहीन बनानेवाली जायगा। तेरे मांस के टुकड़ों से कौए-कुत्ते-गीधों मृणालवती से बात कर रहा है।
का पेट भरेगा। मृणालवती (क्रोध से लाल-पीली होकर)-तैलंगण को मुंज-(हँसता हुआ) वाह ! डर तो बहुत बड़ा दिखाया।
रसहीन बनाने का आक्षेप करनेवाले तथा मेरे विजयी मुंज, मौत से कभी नहीं डरता। मौत को तो मुट्ठी में बन्धु का अपमान करनेवाले मुंज कैदी, सोच-समझ- लिये फिरता है । युद्ध-क्षेत्र में तुम्हारे दस सैनिकों का कर ही ज़बान खोल, अंधा मत बन ।
एक ही तलवार के झटके से सिर उतारनेवाले मुंज मुंज-मुंज जो कुछ कहता है. समझकर-विचारकर ही को कहीं मृत्यु का भय हो सकता है ? मंज जैसे यशस्वी
कहता है। अकेले तुम्हीं ने सम्पूर्ण नगरी को रसहीन को तो मृत्यु ही शोभा देती है। बना दिया है। रस और रसिकता का क्या अर्थ है, मृणालवती---यह सब ज़बानी जमा-खर्च है। जब काल इस बात का तुमने अपनी सत्ता के बल से, सत्ता के प्रत्यक्ष दिखाई देगा तब देखूगी तेरी शूर-वीरता। नशे में श्राकर बेचारी प्रजा को भान ही नहीं होने मुंज-अच्छा! तुम्हें मेरी शूर-वीरता देखनी है ? यदि दिया है।
शूर-वीरता देखनी हो तो इन लौह-शृंखलानों को मृणालवती-इसमें मैंने क्या बुरा किया ? रस, गान-तान खुलवा दो, और लाश्रो एक तलवार । फिर बुलाश्रो
तथा मौज-शौक़ पर मैंने प्रतिबन्ध लगाये हैं, इसमें अपने भाई को या और जो कोई बलवान् योद्धा हो क्या अनुचित हुश्रा ? रस, गान-तान तथा विलास- तुम्हारे राज्य में ! फिर देखो मेरा रण-स्वरूप ! सिंह वैभव से लोग कमज़ोर हो जाते हैं, शौर्यहीन हो को दुःखी करने से या कैद में रखने से वह बकरा जाते हैं।
नहीं बन जाता, और न अपनी माता का दूध ही भल मुंज-शाबाश मृणालवती! शाबाश तुम्हें ! तभी तो जाता है, प्रचंड सूर्य के सामने धूल उड़ाने से कहीं
तुम्हारे भाई ने सोलह सोलह बार चढ़ाई करके हारने उसका तेज घटता है ? __ का कलंक सिर पर मढ़ा ?
मृणालवती--अो अहंकार के मद में चूर नृपति ! ईश्वर मृणालवती—दो पक्ष लड़ेंगे तो उसमें एक की विजय, दूसरे ने समझ-बूझ कर ही तुम्हारा गर्व चूर किया है।
की हार होनी स्वाभाविक है। यह विश्व में चला मुंज-ऐसा मत समझो कि मुंज अभिमानी है। मुंज के अानेवाला एक अटल नियम है।
हृदय में अभिमान का तिलमात्र स्थान नहीं है। मुंज-अगर यही समझा होता तो आज आठ-आठ दिन मृणालवती-(स्वगत) कैसी इस पुरुष में मोहकता है ?
से मुझे कैद में न सड़ाया होता, मुझे दुःखी न इसकी बोलने की कैसी छटा है ? मेरी अात्मा आज करते।
क्यों इसके प्रति आकर्षित हो रही है ? इसके प्रति प्रेम मृणालवती-क्या तुम्हें कैद में दुःख होता है ? तब क्या प्रकट करना चाहती है ? (कुछ क्षण बाद) कुछ नहीं
तुम्हें इस कारागृह में राज-वैभव चाहिए ? वाह ! यह तो सहज मन की कमजोरी है, (प्रकट में-मुंज वाह ! मुंज यह सब अाशा छोड़ देनी होगी।
से) मुझे पहले तुम्हें बोलना सिखलाना पड़ेगा।
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संख्या १]
मृणालवती-प्रणय
मुंज-अच्छा ! तुम मुझे बोलना सिखायोगी ? बताअो- मृणालवती के सामने इस तरह बोलने में तेरी जीभ . बताओ, तुम मुझे क्या बोलना सिखाअोगी।
क्यों नहीं कट जाती ? मृणालवती–महान्-नृपति, तैलप की बहन के साथ कैसे मुंज-वाह ! मृणालवती ! साध्वी कहलाना चाहती हो ? बोलना चाहिए, यह सिखाऊँगी।
साध्वी होना तुम्हारे भाग्य में लिखा ही कहाँ है ? मंज-यह पृथ्वीवल्लभ ने सब सीखा है। जिस प्रकार मृणालवती--मैं साध्वी हूँ, और साध्वी ही रहूँगी ।
समर-क्षेत्र में रिपु-दल का संहार करना सीखा है, मुंज- विधि के लेख को मिटाने की किसी में शक्ति नहीं ! उसी तरह बल्कि उससे अधिक सरस्वती का पक्का किन्तु कहता हूँ, तुम्हारे भाग्य में साध्वी होने का
पुजारी है. अर्थात बोलना भी अच्छी तरह जानता है। लिखा पृष्ठ उलट गया है, पुछ गया है। मृणालवती-तो तुम इस तरह से न बोलते।
मृणालवती-एक कैदी के साथ अधिक विवेचन करना मंज-तो क्या मुझे सिखाने की तुम्हारी आकांक्षा है ? ठीक नहीं । चल मेरे पैर प्रक्षालन करने को तैयार
मेरा शिक्षक बनने की तुम्हारी मनोभावना है ? किन्तु हो। (अपने नौकर से)-वीरबाहु ! यहाँ श्रा, मृणालवती ! पूर्ण ज्ञान सम्पादन किये बिना शिक्षक (कारा-गृह के द्वार पर खड़ा हुआ वीरबाहु आता नहीं बना जाता। तुम्हें तो अभी बहुत कुछ सीखना है।) जा, जल से भरी हुई झारी ले था। बाक़ी है।
वीरबाहु-लाता हूँ सरकार ! (जाता है) मृणालवती (स्वगत)- आज मेरा हृदय क्यों ज़ोर से चल मंज-क्या तुम मुझसे अपने पैर प्रक्षालन कराअोगी ?
रहा है ? मेरा हृदय आज क्यों इसके प्रति पक्षपात - अहा, तुम्हें चरण धुलवाना है ? (वीरबाहु झारी कर रहा है ? (प्रकट) नहीं महोदय ! मुझे सीखने लेकर आता है) को कुछ बाकी नहीं है।
मृणालवती--(वीरबाहु के हाथ से झारी लेकर) चल मुंज-देखो, तुम्हें अभी प्रियतम के मनाने की शिक्षा लेना मंज ! ले यह झारी, और कर मेरे पैर प्रक्षालन ।
बाकी है। राग-रस में मस्त होकर यौवन का रस पीना (वीरबाहु जाता है)
बाक़ी है । मधुर जीवन का आनन्द लेना बाकी है। मंज–पहले इन लौह-शृङ्खलाबों को खुलवा दो, जिससे मृणालवती-यह तू क्या बक रहा है ?
ठीक तौर से पैर धो सकूँ। मुंज-मैं सच ही बक रहा हूँ। मैंने क्या झूठ कहा है ? मृणालवती-वीरबाहु ! यहाँ श्रा, (वीरबाहु अाता है।)
देखा, सुनो अभी। तुम्हें नाच-गान-तान सीखना बाकी चल, मंज के हाथ से बेड़ी निकाल दे। (वीरबाहु है । नयन-कटाक्ष से वीरों को आहत करना बाकी है। बेड़ी खोल देता है) यह सब अभी तुम्हें सीखना है। इसी से ईश्वर ने मंज-अब लाओ, सुन्दरी, गजगामिनी ! (मंज मृणालवती मुझे तुम्हारे कारागृह में भेजा है।
के हाथ से झारी लेकर दूर फेंक देता है) सुन्दरी ! मृणालवती-(स्वगत) अहा ! इतनी विह्वलता शरीर में देखा पाद-प्रक्षालन तो इस तरह होता है। लाओ,
क्यों मालूम होती है ? इसके एक एक शब्द आज अपना हाथ (एक हाथ पकड़कर प्रालिंगन करने मुझे इसकी तरफ आकर्षित कर रहे हैं । ज़िन्दगी में का प्रयत्न करता है । मृणालवती दूर हट जाती है, किसी समय जितना मेरा मन प्रफुल्लित नहीं हुअा था,, स्तब्ध होकर थोड़ी देर दूर खड़ी रहती है ।) उतना आज इसके शब्दों के कानों में पड़ते ही क्यों मृणालवती-दुष्ट ! तूने मेरे पवित्र हाथ को छूकर अपवित्र प्रफुल्लित हो उठा है ? अरे, रसिकता के पुजारी मुंज! कर दिया । वीरबाहु ! जा लोहे की जलती हुई एक रसिकता और यौवन का मज़ा ही क्या जीवन का छड़ तो ला। (वीरबाह जाता है।) सच्चा लाभ है ? अरे, यह क्या ? ऐसे नीच विचार मंज-लौह की जलती हुई छड़ से मुझे क्या करोगी? मेरे मन में ? छिः साध्वी के हृदय में ऐसे विकारों मृणालवती-तेरे हाथों में लगाऊँगी-तुझे जलाऊँगी।
को स्थान मिला ? (मंज से प्रकट में)-साध्वी तभी मेरी श्रात्मा का शान्ति होगी। और तुझे मालूम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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३८
सरस्वती
होगा कि पवित्र हाथों को इस तरह स्पर्श करने से क्या भोगना पड़ता है I
मुंज - श्रो दण्ड देनेवाली सुन्दरी ! जलती हुई लोहे की छड़ से मुझे दागना है १ यदि मुझे जलाने से ही तुम्हारी आत्मा को शान्ति होती हो तो मैं वह दुःख सहने के लिए इसी क्षण तैयार हूँ ।
मृणालवती -- तू तैयार हो या न हो, पर मैं तुझे कब छोड़ सकती हूँ ?
मुंज - किन्तु मेरे दाग देखते ही तुम्हारे हृदय में तीव्र वेदना न हो, इसका ख़याल रखना । मेरा दाग तुम्हारे कोमल हृदय में प्रवेश न कर सके, इसकी सावधानी रखना । तुम्हारे हृदय में होलिका प्रज्वलित न हो, इसका ध्यान रखना । ( वीरबाहु हाथ में तप्त लौह का छड़ लेकर आता है ।) ला, यहाँ ला, मैं स्वयम् इसे दाग दूँगी तू जा । (वीरबाहु जाता है ।) मुंज - लाओ, लाओ मोहमूर्त्ति ! अपने कोमल हाथ को
इतना कष्ट मत दो। मुझे दागते समय कहीं तुम्हारा कुसुम सम कोमल कर कुम्हला न जाय ! इसलिए यह रक्तवर्ण लोह मेरे हाथ में (मुंज मृणालवती के हाथ से उसे लेकर अपने हाथ को दाग देता है । हाथ का चर्म जलने से उसकी गन्ध से सारा वातावरण भर जाता है ।) क्यों अब तो तुम्हारे हृदय में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हुआ न ? मृणालवती - (स्वगत) ग्रह ! कैसी इसकी हिम्मत है ? जलने पर भी इसके मुख पर कष्ट की ज़रा भी छाया दृष्टिगोचर नहीं होती। सच्चे वीर ऐसे ही होते हैं ! भय और मौत क्या, यह तो ये जानते ही नहीं। ऐसा
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[ भाग ३७
ही निडर राज सिंहासन पर शोभित होता है। ऐसे सिंह ही सार्वभौम शक्ति स्थापित करने में शक्तिमान् होते हैं । कायर - डरपोक मनुष्य कभी राजा बनने लायक नहीं ।
मुंज- अभी और कुछ बाक़ी रहा जाता है क्या ? अगर बाकी रहा जाता हो तो स्मरण शक्ति को ताज़ा करके For
मृणालवती - (स्वगत) कैसे कोमल हाथ हैं इसके ! आँखों में कैसा अद्भुत जादू भरा है ! चंद्र-सा शोभित मुखारविन्द है । पृथ्वी का चन्द्र चकोरी के बिना रह नहीं सकता और चकोरी चन्द्र के बिना क्षण भर भी नहीं जी सकती। मुंज मेरा चन्द्र है और मैं उसकी चकोरी । ( प्रकट में) मुंज ! वीर मुंज तुम्हें जीतने आई थी, किन्तु तुम अजेय रहे । मैं हार गई । आज मुझमें विचित्र परिवर्तन हु है I मुंज - श्राश्रो ! श्राश्रो सुन्दरी ! ज़रा नज़दीक श्राश्रो । मृणालवती - श्राज से श्राप मेरे प्रियतम और मैं आपकी
ू
प्रियतमा । प्रियतम ! आज से मैं मालव नगरी की महारानी हुई हूँ और आपकी पटरानी । प्यारे ! मेरा हृदय तुम्हारे मिलन के लिए आतुर हो
रहा था ।
मंज - आओ प्रिये ! तब तो तुम आज से मालव- नरेश की महारानी हुई । जगत् देखेगा और कहेगा कि तैलप की बहन मालवा की महारानी है ।
( पर्दा गिरता है)
['पृथ्वीवल्लभ' के आधार पर ]
झगड़ा लेखक, श्रीयुत बिसमिल
बन्दी का बखेड़ा है, न कुछ पस्ती का झगड़ा है। हक़ीक़त में फ़क़त मज़हब की अब मस्ती का झगड़ा है। कोई मुझसे अगर पूछे तो कह दूँ साफ़ ऐ 'बिसमिल' । न मजहब है, न मस्ती है, जबरदस्ती का झगड़ा है ||
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प्रवासियों की परिस्थिति
लेखक, श्रीयुत भवानीदयाल संन्यासी
श्री स्वामी भवानीदयान जी प्रवासी भारतीयों की समस्या के विशेषज्ञ हैं। उनका यह लेख प्रामाणिक और विचारणीय है। इस लेख में उन्होंने प्राय: समस्त उपनिवेशों के प्रवासी
भारतीयों की वर्तमान दुर्वस्था का विहङ्गम दृष्टि से वर्णन किया है।
ड
1 स समय संसार के भिन्न भिन्न और उनके साथ वैसा ही व्यवहार भी होता है। महात्मा DAN देशों और उपनिवेशों में गांधी के सत्याग्रह और भारत सरकार के राजदूतों की वाणी
लगभग २५ लाख प्रवासी और नीति से भी उनकी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन भारतीयों की आबादी है। नहीं हो सका। आज भी भारतीयों के लिए ट्रेनों में अलग
जहाँ जहाँ वे बसे हुए हैं, डिब्बे और ट्रामों में अलग बैठकें हैं; डाकघरों, स्टेशनों विहाँ वहाँ उनको अपने देश और दफ्तरों में रङ्ग-भेद का नग्न-प्रदर्शन है। होटलों और
1 की पराधीनता के कारण थियेटरों के दरवाज़े उनके लिए. बन्द हैं। न उन्हें पार्लिअपमान का कड़ा प्याला पीना पड़ता है। पौन सदी यामेंटरी मताधिकार है और न म्युनिसिपल मताधिकार तक जारी रहनेवाली शर्तबन्दी-प्रथा का इतिहास वास्तव ही। कुलीगीरी के सिवा उन्हें और कोई सरकारी नौकरी में भारतीयों की अपकीर्ति का इतिहास है और उसमें नहीं मिल सकती। जो भाई खेती और रोज़गार करते हैं विशेषतः अन्यायों, अत्याचारों और अपमानों के ही अध्याय उनकी राह में इतने काँटे बिखेर दिये गये हैं जो पग पग मिलेंगे । यद्यपि अनेक सहृदय महानुभावों के उद्योग से पर चुभते हैं । राम और कृष्ण के वंशज एवं बुद्ध, ईसा, अब इस प्रथा का अन्त हो गया है, तो भी इससे उत्पन्न मुहम्मद, शङ्कर और दयानन्द के अनुयायी यहाँ असभ्य परिस्थिति की सीमा अभी तक अगोचर है। इतने आन्दो- हब्शियों से भी निम्न समझे जाते हैं। लनों और बलिदानों के बाद भी न तो प्रवासियों के सङ्कटों दक्षिणी अफ्रीका के श्वेताङ्गों के रङ्ग-द्वेष की कुछ का अन्त हुआ है और न उनकी अवस्था में आशाजनक बानगी देखिए । दक्षिण अफ्रीका की सहति के चारों अन्तर ही पड़ा है । मज़ा तो यह है कि ब्रिटिश साम्राज्य प्रान्त नेटाल, केप, आरेञ्ज फ्री स्टेट और ट्रांसवाल—में के अन्तर्गत उपनिवेशों में ही उन्हें सबसे अधिक धक्के केप अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु वहाँ के खाने और अपमान सहने पड़ते हैं। पिछली लखनऊ- राष्ट्रवादी श्वेताङ्गों की परिषद् ने हाल में ही जो प्रस्ताव कांग्रेस में राष्ट्रपति पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने प्रवासियों पास किया है वह यह है—“योरपीय क्रिश्चियन संस्कृति के सम्बन्ध में जो प्रस्ताव उपस्थित किया था और जिसकी की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि योरपीयों और व्याख्या करने का भार मुझे सौंपा गया था, समय-सङ्कोच गैर-योरपीयों के मध्य में जहाँ तक बन पड़े, अन्तर रक्खा के कारण मैं उसकी व्याख्या भला क्या कर सकता था- जाय; उनका विवाह-सम्बन्ध कानून से जुर्म ठहराया केवल इधर-उधर की दो-चार बातें कहकर सन्तोष कर लेना जाय, गैर-योरपीय स्कूलों में अन्य वर्गों के साथ गौराङ्ग पडा था। उसी समय मैंने सरस्वती-सम्पादक को इस अध्यापक की नियुक्ति रोकी जाय, काई भी श्वेता किसी विषय पर कुछ लिखने का वचन दिया था, किन्तु बीमारी गैर-श्वेताङ्ग से नौकरी में नीचे के ओहदे पर न रक्खा
और कमज़ोरी के कारण आज से पहले मैं अपने वचन का जाय और गोरी स्त्रियाँ गैर-योरपीय के यहाँ नौकरी पालन नहीं कर सका।
करने से रोकी जायँ ।" यहाँ यह कह देना उचित होगा 'दक्षिण-अफ्रीका तो रङ्ग-द्वेष की दौड़ में सबसे आगे कि इस गौराग-दल के नेता हैं डाक्टर मलान, जो कुछ बढ़ गया है । यहाँ भारतीय 'कुली-कबाड़ी' समझे जाते हैं दिनों पहले तक यूनियन-सरकार के अन्तर्विभाग के मंत्री
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४०
सरस्वती
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[लोरेन्सो माविस (अफ्रीका) में भारत समाज द्वारा संचालित गुजराती पाठशाला के कुछ अध्यापक और विद्यार्थी ।] रह चुके हैं । इससे भी बढ़कर रङ्ग-द्वेष की एक और विचित्र बानगी लीजिए । डंडी में एक हवशी औरत ने एक अँगरेज़ गृहस्थ की कुछ मुशियाँ चुरा लीं और उन्हें एक भारतीय के हाथों बेच डाला। वह पकड़ी गई. मामला चला और उसे सज़ा मिली। यहाँ तक तो किसी को शिकायत नहीं, किन्तु ग्रागे मजिस्ट्रेट महोदय ने भारतीय खरीदार को ताकीद करते हुए फर्माया तुम्हें योरपीय और नेटिव की मुर्गी का ग्रन्तर जानना चाहिए था । तुम व्यापारी लोग उनसे अच्छी मुर्गियाँ खरीदकर नेटियों को चोरी करने के लिए प्रोत्साहन देते हो। यहाँ तक रङ्ग-भेद का चिप फैल चुका है। आदमी अपने रङ्ग से पहचाने जा सकते हैं, लेकिन यह जान लेना कि अमुक मुग़ काले की है और अमुक गोरे की, कैसे सम्भव हो सकता है ? यहाँ की मुर्गियाँ भी काली गोरी जातियों में परिणत हो रही हैं। और डंडी के मजिस्ट्रेट गेई साहब के दिमाग़-शरीफ़ में तिजारती भारतीयों को इसकी पहचान होनी चाहिए। यह किसी पिछली सदी की बात नहीं है, बल्कि अक्टूबर १९३६ की घटना है। क्या रङ्गभेद की ऐसी मिसाल दुनिया में और कहीं मिल सकती है ?
[ भाग ३७
1
प्रथा
गया है, और अब खुद वहाँ की
फ़ीजी का मामला और भी अनोखा है । जहाँ संसार में स्वेच्छाचारी शासनों का अन्त हो रहा है और जनतन्त्र की स्थापना हो रही है, वहाँ फ़िजी के सत्ताधिकारी अपनी निरङ्कुशता के बनाये रखने के लिए अठारहवीं सदी की ओर वापस जा रहे हैं। चौंकानेवाली बात तो यह है कि फ़ीजी ब्रिटेन की क्राउनकलोनी है और उसे दक्षिण अफ्रीका की भाँति स्वराज्य नहीं मिला है हाल में वहाँ म्युनिसिपलका अन्त किया सरकार शहरों की सफ़ाई की व्यवस्था किया करेगी। बेचारे नागरिक रेट और टैक्स' भरने के लिए मजबूर होंगे, लेकिन उसकी व्यय- व्यवस्था में उनको चूँ-चकार करने का हक़ नहीं रहेगा। यह भी आन्दोलन शुरू हुआ था और बड़े उग्ररूप से कि कौंसिल के लिए जो चुनाव-प्रथा है। उसकी भी अन्त्येष्टि हो जाय और सरकार द्वारा नामज़द किये गये लोग ही कौंसिलर हुआ करें । दुःख की बात तो यह है कि मौजूदा कौंसिल के श्री के० बी० सिंह और श्री मुदालियर नामक दो भारतीय मेम्बरों ने इस आन्दोलन का श्रीगणेश किया था, यद्यपि ये दोनों महाशय भारतीय मतदाताओं की ओर से चुने जाकर कौंसिल की कुर्सियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। सरकार की सहायता से कौंसिल में उनका प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया, किन्तु यह सौदा कुछ महँगा पड़ा, क्योंकि एक ओर तो भारतीयों ने घोर आन्दोलन आरम्भ कर दिया और दूसरी ओर योरपीयों का एक डेपुटेशन विलायत जा पहुँचा। भारत सरकार ने भी इस पीछे फिरो' नीति का विरोध किया। नतीजा यह हुग्रा कि औपनिवेशिक सचिव को हाल में 'एक घोषणा करनी
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संख्या १]
प्रवासियों की परिस्थिति
C.
पड़ी है, जिसके द्वारा दोनों पक्षों को राज़ी रखने का प्रयत्न किया गया है। अब तक तीन भारतीय निर्वाचित होते थे, पर अब तीन निर्वाचित होंगे और दो मनोनीत । इस नवीन व्यवस्था से सिंह और मुदालियर का राजभक्ति का पुरस्कार मिल गया और कौंसिल में उनकी कुसी बरकरार रह गई। __ केनिया और यूगारडा की अवस्था भी दयाजनक है। यद्यपि केनिया-कौंसिल में पाँच भारतीयों को कुर्सी लोरेन्सा मार्विस के कुछ प्रवासी भारतीय । स्वामी जी हाथ में छड़ी लिये खड़े हैं।] मिली है, तो भी अल्पसंख्यक होने के कारण उनकी आवाज़ में कुछ दम दरवाज़ा मज़बूती से बन्द कर रक्खा है और उस पर यह नहीं है। केनिया की ऊँची ज़मीन श्वेताङ्गों के लिए साइन-बोर्ड' लगा रक्खा है कि इन उपनिवेशों में प्रवासी संरक्षित कर दी गई है, चाहे उन श्वेताङ्गों में कुछ भारतीयों का प्रवेश वर्जित है । श्वेताङ्ग ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु ही क्यों न हो ? प्रवासी मारिशस की जन-संख्या में तीन हिस्सा भारतीयों की भाइयों को यही तो सबसे बड़ा आश्चर्य है कि ब्रिटिश श्राबादी है, फिर भी राजनैतिक दृष्टि से उनका न कोई उपनिवेशों में योरप की सारी जातियाँ और एशिया मल्य है और न महत्त्व ही। जनतन्त्र के सिद्धान्त के अनुके यहूदी भी केवल श्वेताङ्ग होने के कारण समाना- सार वहाँ का शासन-सूत्र भारतीयों के हाथ में होना धिकार भागते हैं, किन्नु भारतीयों के प्रति-ब्रिटिश साम्राज्य चाहिए, किन्तु कहावत है कि "ज़रदार मर्द नाहर, घर की प्रजा होते हुए भी-केवल रङ्ग के कारण ऐसा व्यव- रहे चाहे बाहर । वे ज़र का मर्द बिल्ली, घर रहे चाहे दिल्ली। हार किया जाता है जो पग-पग पर उन्हें पराधीनता का वास्तव में हम घर में भी गुलाम हैं और बाहर भी इसी स्मरण दिलानेवाला और ग्राठ-आठ आँसू रुलानेवाला प्रकार ट्रिनीडाड, जमैका और डेमरारा की बात मत पूछिए । है। यह स्थिति स्वयं त्रिटिश साम्राज्य के हित की दृष्टि इन ब्रिटिश उपनिवेशों में भी भारतीयों की संख्या काफी से भी वाञ्छनीय नहीं है।
है, लेकिन उनकी राजनैतिक स्थिति पर दृष्टि डालते ही टंगेनिका जब तक जर्मनी के अधिकार में था तब तक ददभरी ग्राह निकल पाती है। वहाँ के भारतीय सुख-शान्ति से रहते थे --उनकी कभी ब्रिटिश उपनिवेशों की देखादेखी अन्य उपनिवेशवाले कोई शिकायत नहीं सुनी गई. किन्न ब्रिटिश मंडेट में प्राते भी अपने यहाँ इसी नीति का अवलम्बन करने लगे हैं। हो टंगेनिका के प्रवासी भारतीयों ने हाय-तोबा मचाना शुरू मारिशस का प्रभाव मेडागास्कर पर पड़ रहा है। फ्रेंचकर दिया । आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और कनाडा तो ब्रिटेन उपनिवेश होने के कारण मेडागास्कर में भारतीयों के साथ के स्वराज्य-प्राप्त उपनिवेश टहरे, वे भला प्रवासी भारतीयों अपमानजनक व्यवहार तो नहीं होता, फिर भी उनकी वह को किस खेत की मृली समझ सकते हैं ? उन्होंने अपना सम्मानपूर्ण स्थिति नहीं है जो होनी चाहिए। उधर डेम
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४२
सरस्वती
[ लेखक का अफ्रीका का हवशी रसोइया भोजन परोस रहा है।]
रारा आदि के असर से डच - उपनिवेश सुरीनाम कैसे बच सकता है ? वहाँ भी प्रवासी भाई 'लकड़हारों और पनि हारों' में शुमार किये जाते हैं। इधर दक्षिण अफ्रीका के पास ही पोर्तुगीज़- पूर्व अफ्रीका है। पड़ोस की विषैली वायु से यहाँ के भारतीयों का भी दम घुट रहा है। पहले जहाँ पोर्तुगीज सरकार भारतीयों को यहाँ बसने के लिए प्रोत्साहित करती थी, वहाँ अव दूध की मक्खी की भाँति निकाल फेंकने पर तुल गई है। नवागत भारतीयों का प्रवेश तो वर्जित है ही, किन्तु पुराने प्रवासी भी यदि यहाँ से एक बार समुद्र को पारकर स्वदेश गये तो फिर उधर से लौटना बहुतों के लिए असम्भव हो जाता है। इस नीति से यहाँ की भारतीय ग्रावादी दिन पर दिन घटती जाती है। जंज़ीवार नाम मात्र के लिए सुलतान का है - वास्तव में वहाँ के शासन की बागडोर अँगरेज़ों के हाथ में है । वहाँ लौंग के व्यापार के सम्बन्ध में जो नया कानून बनाया गया है और जिसके कारण असन्तोप की लहर उठ रही है वह वास्तव में भारतीयों के हितों का विघातक है ।
इस प्रकार सारे संसार में प्रवासी भारतीयों के भाग्याकाश पर आपत्तियों की घटा घिरी हुई है । इधर भारत में जब से सत्याग्रह-संग्राम स्थगित हुआ और कांग्रेस दल ने लेजिस्लेटिव असेम्बली में प्रवेश किया तब से असेम्बली में प्रवासियों की कुछ चर्चा होने लगी है | प्रवासी विभाग के सर्वेसर्वा हैं कुँवर सर जगदीशप्रसाद जी और सर गिरजाशंकर वाजपेयी, किन्तु इनके जिम्मे भूमि, स्वास्थ्य
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[ भाग ३८
और शिक्षा विभाग भी है, अतएव प्रवासी विभाग के लिए एक विशेष सेक्रेटरी की नियुक्ति हुई है । इस पद पर श्री मेनन की जगह अब श्री बोज़मेन नियत हुए हैं । सर वाजपेयी आदि प्रवासियों के प्रति विशेष सहानुभूति रखते हैं और उनके प्रश्न पर उचित ध्यान भी देते हैं, लेकिन असल में भारत सरकार ही कमज़ोर है। उसका कोई स्वतन्त्र सत्ता तो है नहीं, वह साम्राज्य सरकार के अधीन है और उसके आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य | केनिया, युगाण्डा, फ़ीजी, मारिशस, ट्रिनीडाड, डेमरारा यदि क्राउन कलोनी हैं, उनके नियन्त्रण और शासन की व्यवस्था इंग्लेंड के औपनिवेशिक सचिव के आदेशों से होती है । अतएव इन उपनिवेशों में भारतीयों के प्रति होनेवाले दुर्व्यवहारों का खुल्लमखुल्ला विरोध करना मानो अपने स्वामी साम्राज्य सरकार के सामने विद्रोह करना होगा और इस स्थिति में भारत सरकार वास्तव में दया का पात्र है ।
स्वराज्य प्राप्त दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि उपनिवेशों के विषय में साम्राज्य सरकार का यह बहाना चल सकता है कि वे अपने देश की अान्तरिक व्यवस्था करने में स्वतंत्र हैं और उनके कामों में हस्तक्षेप करना साम्राज्य सरकार की शक्ति और सत्ता के बाहर की बात है । परन्तु क्राउन कलोनियों के बारे में यह कथन कहाँ तक युक्तिसङ्गत हो सकता है ? भारत स्वराज्याधिकार से वंचित है और उसके शासन का असली सूत्र ब्रिटिश
[ लोरेन्सो मासि के एक जंगल की झोपड़ी में प्रवास M भाई वैदिक विधि से हवन कर रहे हैं ।]
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संख्या १]
प्रवासियों की परिस्थिति
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पार्लियामेंट के हाथ में है । तब मालिक का विरोध करना मातहत के लिए कैसे सम्भव हो सकता है ? असली रहस्य यही है और इसी लिए साम्राज्य सरकार के इशारे पर भारत-सरकार को नाचना पड़ता है। ___कांग्रेस में भी अब विदेशी विभाग कायम हो गया है । इस विभाग की कहानी भी लम्बी है । सन १९२५ में इन पंक्तियों के लेखक के ही विशेष उद्योग से श्रीमती सरोजिनी देवी की अध्यक्षता में कानपुर-कांग्रेस में प्रवासी-विभाग की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पास हुअा था, किन्तु वह कई साल तक केवल काग़ज़ को ही शोभा बढ़ाता रहा। कलकत्ता-कांग्रेस में पंडित मोतीलाल जी नेहरू के नेतृत्व में इस प्रस्ताव की पुनरावृत्ति की गई-केवल अन्तर यह हुया कि 'प्रवासी-विभाग' की जगह उसका नाम 'विदेशी विभाग' २क्खा गया। कुछ दिनों तक एक विशेष मंत्री द्वारा कुछ काम भी हुअा, किन्तु सन् १९३० में सत्याग्रह संग्राम के समय कांग्रेस के अन्य विभागों की भाँति यह विभाग भी लुप्त हो गया। अब पंडित जवाहरलाल नेहरू की इच्छा से इस विभाग का काम फिर शुरू हुअा है। कांग्रेस के नवीन विधान के अनुसार देश में । बाहर की कोई संस्था उसमें शामिल नहीं रह गई है, प्रवासियों के प्रतिनिधित्व का अन्त हो गया है और कांग्रेस [स्वामी भवानीदयाल संन्यासी श्रीयुत भीखाभाई भूलाभाई में उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा। मुझे तो राष्ट्रपति के
के साथ। विशेष निमन्त्रण-द्वारा लखनऊ-कांग्रेस में शामिल होने प्रतिष्ठा एवं मर्यादा की रक्षा और उसकी वृद्धि के लिए
और कांग्रेस-मंच से बोलने का अवसर दिया गया था। लगातार अान्दोलन करने में कटिबद्ध हैं । उनको पूर्ण कांग्रेस के इस नवीन विधान से प्रवासी भारतीयों में अस- विश्वास है कि कभी न कभी इस अमावस की अँधेरी रात न्तोष की अभिवृद्धि होना अस्वाभाविक नहीं है। का अन्त होगा और भाग्य-भानु की सुनहरी किरणे
ऐसी स्थिति में प्रवासियों का परमात्मा ही रक्षक है। अवश्य छिटकेगी। वह दिन चाहे शीत्र यावे अथवा कुछ फिर भी प्रवासी भाई निराश नहीं हुए हैं। वे अपने पैरों देर में, किन्नु अावेगा अवश्य । प्रवासी भाई उसी मंगलके बल खड़ा होना सीख गये हैं और अपनी मातृभूमि की मय दिवस की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
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पंडित भगवतीप्रसाद वाजपेयी हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ कहानी-लेखक । इस कहानी में इनकी दार्शनिकता खूब प्रस्फुटित हुई है ।
प्रायश्चित्त
लेखक, श्रीयुत भगवतीप्रसाद वाजपेयी
विपिन
पिन अपनी बैठक में बैठा हुआ एक संवाद - पत्र देख रहा था। प्रशान्त मानस में यदि वह ऐसा उपक्रम करता तो कोई बात ही न थी । किन्तु वह तो अपने अन्तःकरण के साथ परिहास कर रहा था। एक पंक्ति भी, निश्चित रूप से, वह ग्रहण नहीं कर सका था ।
यह विपिन इस समय जो अतिशय उद्विग्न है और किसी भी काम में उसकी जो प्रवृत्ति नहीं है उसका एक कारण है। बात यह है कि वह आशावादी रहा है। वह मानता आया है कि चेष्टा-शीलता ही जीवन है । किन्तु आज उसे प्रतीत हुआ है कि नियति के राज्य में श्राशा और आस्था की कहीं कोई गति नहीं है । यह समस्त विश्व कवि का एक स्वप्न है । वास्तव में कामना और उसकी सफलता, तृप्ति और संतोष, भोग और शान्ति एक कल्पित शब्द-सृष्टि है ।
पाकेट से सिगरेट-केस निकालकर उसने एक सिगरेट होठों से दबा ली । दियासलाई जलाकर वह धूम्र-पान करने लगा ।
ओह ! विपिन का जो श्रानन सदा उल्लास-दोलित रहा है, आज कैसा विषण्ण और कैसा विवर्ण हो गया है ! मानो उसका अब तक का समस्त ज्ञान कोई वस्तु नहीं है, नितान्त क्षुद्र है वह ।
निकटवर्ती आकाश में धूम्र - शिखाओं के वारिद उड़ाता हुआ विपिन सोच रहा है - इस वीणा पर वह कितना विश्वास करता था ! वह मानने लगा था कि वह तो उसके हृदय की रानी है, मनोमन्दिर की देवी । मानो उसके प्रस्ताव की स्वीकारोक्ति का भी वह स्वयं ही अधिकारी है; उसका आत्म-विश्वास ही उसकी सिद्धि है, जवीन का चरम साफल्य । किन्तु —
" उसने तो कल कह डाला - मैं ?.... मैं तो चाहती हूँ कि तुम मुझे भूल जात्रो, मुझसे घृणा करो ।
४४
.....
क्योंकि तुम्हारी चरम कुत्सा ही मेरे जीवन की तृप्ति है— उसका एकमात्र अवलम्ब । मैं प्रेम नहीं जानती, प्रीति नहीं जानती । मैं नहीं जानती कि प्यार क्या चीज़ है ! विश्वास नहीं करती कि नारी के लिए स्वामी एक मात्र श्राश्रय है, आधार है । मैं तो नारी की स्वतन्त्र सत्ता पर I विश्वास रखती हूँ ।"
कहते-कहते न तो उसकी चेष्टा में कहीं कोई संगति का लेश दृष्टिगत हुआ, न प्रकृत धारणा की-सी कोई प्रतीति ।
यही सब सोच-सोचकर विपिन दिन भर नितान्त विमूढ़सा, पराजित-सा बना रहा ।
उसकी मा ने पूछा - " आज तू कुछ उदास-सा क्यों देख पड़ता है ?" उसके पिता ने कहा - " क्या कुछ तीत खराब है ?" उसके अग्रज ने टोंक दिया- "बात क्या है रे विपिन कि आज तू मेरे साथ पेट भर खाना भी नहीं खा सका ?” उसकी भाभी चाय लेकर आई तब उसने लौटा दी । किन्तु वह इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ कह न सका । अपनी स्थिति के मर्म को उसने किसी को भी स्पर्श न करने दिया । दिन भर वह निश्चेष्ट बना रहा। किन्तु यह बात उस विपिन के लिए केवल एक दिन की तो थी नहीं। वह तो उसके जीवन की एक मात्र समस्या बन गई थी । अतएव अकर्मण्य बनकर वह कैसे रहता ? धीरे-धीरे उसने एक विचार स्थिर कर लिया । एक निश्चय में वह श्राबद्ध हो गया। वह यह समझने की चेष्टा में रहने लगा कि वीणा उसकी कोई नहीं थी । वह तो उसके लिए एक भ्रम मात्र थी - स्वप्न-सी अकल्पित, मृग-तृष्णा-सी ऐन्द्रजालिक । वह अकेला श्राया है और केला जायगा ।
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है।
लोग कहा करते हैं, मानव प्रकृति परिवर्तनशील लोग समझ बैठते हैं कि मनुष्य की आन्तरिक रूप
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सख्या १] .
प्रायश्चित्त
रेखा नहीं बदलती । संसार बदल जाता है, किन्तु मानवात्मा "कहो न, इतना सोच-विचार क्यों करते हो ?" की प्रेरणा सदा एकरस अक्षुण्ण रहती है। किन्तु इस विपिन कहते-कहते अत्यधिक अातुर हो उठा। प्रकार के निष्कर्ष निकालते समय लोग यह भूल जाते हैं रायसाहब का मुख म्लान पड़ गया। प्रतीत हुआ, कि मनुष्य की स्थिति वास्तव में है क्या ? जो सत्ता जैसे काई अवर्णनीय अतीत अपने समस्त कल्याण के जगत् के जन-जन के साथ समन्वित है, जिसकी चेतना साथ उनके उस अनुताप-दग्ध अानन पर मुद्रित हो और अनुभूति ही उसकी मूर्त अवस्था है, किसी के स्पर्श उठा है। और आघात के अनुषंग से उसका अपरिवर्जन कैसे उन्होंने कहा-"किन्तु मुझे कुछ कहना न होगा। सम्भव है ?
सभी कुछ मैंने अपनी डायरी में लिख दिया है। मेरे विदा ___ दिन आये और गये। विपिन अब कलाविद् न रहकर हो जाने के बाद उसे देख लेना। मुझे विश्वास है कि दार्शनिक हो गया।
उस समय जो कुछ तुमको उचित प्रतीत होगा वही मेरी [ २ ].
कामना और तुम्हारा कर्तव्य होगा। उसके पिता अत्यधिक बीमार थे । यहाँ तक कि उनके
[ ३ ] जीवन की कोई अाशा न रह गई थी। वे रायसाहब थे। विपिन का जीवन पूर्ववत् चल रहा था। यद्यपि वीणा उन्होंने अपने जीवन में यथेष्ट सम्पत्ति और वैभव का के प्रति उसमें अब वह मदिर आकर्षण न था, तथापि अर्जन किय था। अपनी सदाशयता और विनयशीलता शिष्टाचार और साधारण कर्तव्य के जगत् में वह एक के कारण नगर भर में उनकी-सी सर्वाधिक प्रतिष्ठा का कहीं वीणा के प्रति ही नहीं; किसी के लिए भी अपने आपको किसी में सादृश्य न था। नित्य ही अनेक व्यक्ति उनके बदल न सका था। सभी से वह उसी प्रकार विहँसकर बातें दर्शन तथा मङ्गल-कामना प्रकट करने के लिए आते करता था। चटुल-हास में तो वह कहीं भी अपना सादृश्य रहते थे।
न देख सकता था। वृद्धता में तो रायसाहब का अंग-अंग शिथिल-ध्वस्त यह सब कुछ था। किन्तु भीतर से विपिन अब कुछ हो रहा था; किन्तु मोतियाविन्द के कारण उनके नेत्रों की और था। उसकी स्थिति प्रस्तावक की न रहकर अब ज्योति अत्यन्त क्षीण हो गई थी। यहाँ तक कि वे अपने अनुमोदक की हो गई थी। वह स्थल-पद्म का एक शुष्कश्रात्मीय जनों का परिचय दृष्टि से ग्रहण न करके स्वर से दल-मात्र था। रंग वही था, सौरभ भी अमन्द था, प्राप्त करते थे।
किन्तु मृदुल कोंपल की-सी स्पर्श-मोहक कमनीयता अब ____एक दिन की बात है। रात के अाठ बजे का समय उसमें कहाँ से होती है वह तो अब उसका इतिहास बन था। रायसाहब बोले-“कहाँ गया रे विपिन ?" गई थी।
विपिन ने तुरन्त उत्तर दिया-"मैं यहाँ पास ही तो उस दिन के वार्तालाप के पश्चात् एक दिन साधारण बैठा हूँ बाबू । कहा, क्या कहते हो?"
रूप से ही वीणा ने पूछ दिया-"मेरी उस दिन की बातों रायसाहब ने पूछा- “यहाँ और काई तो नहीं है ?” का तुम कुछ बुरा तो नहीं मान गये ?" ..
"नहीं है और कोई बाबू । मैं यहाँ अकेला ही बैठा विपिन वृश्चिक-दंश के समान उत्क्लेश-ध्वस्त होकर हूँ।" विपिन ने उत्तर दिया।
रह गया। बड़ी चतुरता के साथ अपनी स्थिति की रक्षा __"एक बात कहने को रह गई है। उसे और किसी करते हुए उसने उत्तर दिया - "बुरा क्यों मानूँगा वीणा ? को न बतलाकर तुझको बतलाना चाहता हूँ। बात यह बुरा मानने की उसमें बात ही क्या थी ? वह तो अपने-अपने है कि तू थिंकर है, चिन्तक । तेरी आत्मा में मेरा सारा निजत्व की बात है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ अपने विचार रखता प्रतिनिधित्व आलोकित है। मुझे विश्वास है कि तू मेरी है, उसके कुछ अपने सिद्धान्त होते हैं। तुम भी यदि उस बात को स्थायी रूप से ग्रहण करेगा।" रायसाहब ने अपने कुछ सिद्धान्त रखती हो तो इसमें मेरे या किसी के अटूट विश्वास के साथ अधिकार-पूर्वक दृढ़ होकर कहा। भी बुरा मानने की क्या बात हो सकती है ?"
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४६
सरस्वती
यह वीणा भी एक विलक्षण नारी है— अपने विश्वासों की रानी, निराशा से होन, उत्तरंग और अपराजिता । उस दिन उसने विपिन को जान-बूझकर विशिष्ट विभ्रम में डाल दिया था। मानवात्मा की निर्बाध कल्लाल - राशि में पली हुई इस नारी की यह एक प्रकृतकीड़ा है। अभीप्सित विलास-गर्भित हो-होकर वह जगत् का समस्त रूप इस एक ही जीवन के विकल्प में अनुभव कर लेना चाहती है। वह किसी से भी अपनी आकांक्षा प्रकट नहीं करती और किसी की भी आकांक्षा को अपने निजत्व के साथ स्थापित नहीं करती । वह सदा सर्वदा निर्द्वन्द्व रहना चाहती है । वह मानती है कि उसे निर्झरिणी की भाँति सदा मुखरित रहना है । मानो यह भी नहीं देखना है कि कितनी पाषाण शिलायें उसके कोलाहल में आई और गई और उसके निनाद की गति में यदि कभी मति उपस्थित हो गई तो उसकी क्या स्थिति होगी ।
विपिन के इस उत्तर से वीणा के जलजात दुर्लभ अधर - पल्लव खिल उठे, दाड़िमदशन युग्म झलक पड़े। विहँसती हुई वह बोली - "तुम पागल हो गये हा विपिन । मेरी उस दिन की बातों ने तुम्हें बिलकुल बदल दिया है। फिर भी तुम इसे स्वीकार नहीं कर रहे हो ! श्राघात सहते हुए कोई व्यक्ति कभी स्पर्श्य रह भी सका है कि एक तुम्हीं रह पाओगे ?”
"मनुष्य का हृदय मिट्टी का घरौंदा नहीं है वीणा, जिसे जब चाहोगी तब ठोकर मारकर नष्ट कर डालोगी और फिर उमङ्ग में श्राकर उसे इच्छानुकूल बना लोगी । संसार में ऐसा कौन है जो परिस्थिति के अनुसार बदलता न हो । तुम्हीं से पूछता हूँ वीणा, बतलाओ, तुम्हीं क्यों बदल रही हा । श्राज तुम्हीं को यह पागलपन क्यों सूझ रहा है, जिस व्यक्ति से तुम्हारा कोई सौहार्द्र नहीं है, जिसकी आत्मीयता तुम्हारे लिए सर्वथा क्षुद्र हो गई है, उसके मर्मस्थल को कोंच- कोंचकर तुम जिस श्रानन्द का अनुभव कर रही हो वीणा, वह श्रानन्द, वह उल्लास, मानवात्मा का नहीं। मुझसे मत कहलाओ कि किसका है ।"
विपिन अकस्मात् उत्तेजित होकर कह गया। उसकी अपरूप भाव-भंगी देखकर वीणा कुछ क्षणों के लिए अवाक् रह गई ।
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[ भाग ३८
विपिन तब स्थिर न रहकर फिर बोला – “ रह गई बात बुरा मानने की। मैं जानना चाहता हूँ वीणा, बुरा और भला संसार में है क्या। कौन कह सकता है कि आज मैं जो हो सका हूँ उसके मूल में कहीं कोई ऐसी बात भी है जिसे तुम 'बुरा मानना' कह सकने का दम भर सकती हो। मैंने बुरा मानकर उसे भला मान लिया है वीणा । मैं बुराई मात्र को भलाई की दृष्टि से देखने का अभ्यासी हूँ । दुनिया के लिए तुम चाहे जो हो वीणा, मेरे लिए तुम वही जगत्तारिणी मन्दाकिनी ही हो। मैं तुम्हारा कितना उपकृत हूँ, कह नहीं सकता |
उसका श्रानन ज्वलन्त कान्ति से जगमग हो उठा । वीणा समझती थी, वह अपराजिता है- किसी के समक्ष वह कभी हार नहीं सकती। एक वीणा ही नहीं, संसार की निखिल यौवन दृप्त अंगनायें कदाचित् ऐसा ही समझती हैं। वे नहीं जानतीं कि व्यक्तित्व के चरम उत्कर्ष की क्षमता उन्हें किस अर्थ में ग्रहण करती है । वे नहीं अनुभव करतीं कि कोई उत्क्षेप उनके लिए अकल्पित भी हो सकता है । वे नहीं देखतीं कि किसी के अन्तस्तल की शून्यता भी उन्हें श्राकण्ठ प्लावित बना रही है। वीणा भी ऐसी ही नारी थी । किन्तु आज के इस क्षण में वीणा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो इस विपिन के आगे वह क्षुद्र, अतिशय क्षुद्र हो गई है। कोई भी उसकी मर्यादा नहीं है, कहीं भी उसकी गति नहीं है । यही एक विपिन इसमें समर्थ है कि वह चाहे तो उसे उठाकर चरम नारीत्व तक पहुँचा दे ।
इस वीणा ने अभी तक जान पड़ता है, अपना हृदय कहीं कुछ अवशिष्ट भी रख छोड़ा था। तभी तो यही सब सोचती हुई उसकी नयन-कटोरियाँ भी भर आई । अटकते हुए अस्थिर आर्द्र स्वर में उसने कहा- तुम मुझे क्षमा करो विपिन या चाहे तो न भी करो; लेकिन हाय ! तुम भी तो यह जानते कि मैं कितनी दुखिया नारी हूँ । मैं किसी को चाह नहीं सकती, किसी का हृदय अपना नहीं बना सकती ! और अधिक क्या बताऊँ ! जब कि मैं खुद ही नहीं जानती कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ ।
कथन के अन्तिम छोर तक पहुँचती पहुँचती वीणा रो
पड़ी ।
वृक्ष से लगाकर उसकी सुरभित कुन्तल - राशि पर
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संख्या १]
प्रायश्चित्त
[४]
दक्षिण कर फेरते हुए विपिन बोला-तुम सचमुच पगली एक दिन की बात है, बात बढ़ जाने पर उत्तेजना में बन रही हो वीणा ! स्नेह के राज्य में वर्ण, जाति और अाकर विनोद कह बैठा-स्वामी राम ! स्वामी राम तो समाज की कोई भी सत्ता मैं नहीं मानता। तुम नारी हो। भक्त थे । और भक्त ज्ञानी नहीं होता, क्योंकि वह तो बस, तुम्हारा एक यही लक्षण पुरुष के लिए यथेष्ट है- साधना पर विश्वास रखता है। दूसरे शब्दों में हम उसे रोश्रो मत वीणा । यह पार्क है। कोई देखेगा तो क्या । र्ख कह सकते हैं। कहेगा ? न, मैं तुम्हें और अधिक न रोने दूंगा-किसी लतिका ने पारक्त मुद्रा में उत्तर दिया-बस अब हद तरह नहीं।
हो गई मिस्टर विनोद ! अब तुमको सावधान होना पड़ेगा। ___ उस दिन के पश्चात् वीणा अब विपिन के घर पूर्ववत् स्वामी राम के लिए यदि फिर कभी तुमने ऐसे घृणित श्राने लगी थी।
विशेषण का प्रयोग किया तो मैं इसे किसी तरह बरदाश्त
न कर सकूँगी। यह मैं तुमको अभी से बतला देना विपिन को पिता का संस्कार किये हुए कई मास बीत चाहती हूँ। चुके थे । यद्यपि उसकी दिनचर्या फिर पूर्ववत् चलने अभी तक विनोद बैठा था। अब वह उठ खड़ा हुआ। लगी थी, तो भी इधर कुछ दिनों से उसके जीवन की अदम्भ उत्तेजित स्वर में उसने कहा--पशुता की मात्रा हम अनुभूति का एक नया पृष्ठ खुल रहा था। विनोद विपिन का में जितनी ही अधिक हो, देश-भक्ति की दुनिया में यद्यपि सहचर था और वह निरन्तर उसके साथ रहता था। यहाँ हम इस समय उसका आदर ही करेंगे, फिर भी मैं उसे तक कि दोनों एक ही बँगले में साथ ही साथ रहने लगे जंगलीपन तो मानता ही हूँ। तो भी मिस लतिका, मैं तुम्हें थे । इधर यह बात थी, उधर वीणा जब कभी उससे मिलने बतला देना चाहता हूँ कि असहनशीलता के क्षेत्र में भी अाती तब साथ में अपनी सखी लतिका को भी अवश्य अन्त में पश्चात्ताप ही तुम्हारे हाथ लगेगा। लाती थी। क्रमशः विनोद और लतिका के मिश्रण से इस फिर तो बातें इतनी बड़ी कि एक ने कहा--बस, अब मंडली का वातावरण अधिकाधिक मनोरञ्जक होता जा रहा था। तुम्हारी ज़बान निकली कि मैंने तुम्हें यहीं समाप्त किया।
विनोद यों तो संस्कृत का प्रोफ़ेसर था, किन्तु विचार- दूसरे ने जवाब दिया-मैं तुम्हारे इस दम्भ को मिट्टी जगत् की दृष्टि से वह एग्नास्टिक था। विवाद के अवसर में मिलाकर छोईंगा। पर वह प्रायः कहा करता—हम ईश्वर के विषय में न कुछ उस दिन बड़ी मुश्किल से उस उभड़ते हुए काण्ड की जानते हैं, न जान सकते हैं।
रक्षा की जा सकी। और लतिका?
____ विपिन पहले तो इस घटना को कुछ दिन तक अमां- वह पूर्ण बल्कि सम्पूर्ण अर्थों में कट्टर आस्तिक थी। गलिक ही मानता रहा, परन्तु फिर आगे चलकर जब उसका कथन था कि एक ईश्वर ही नहीं, मनुष्य की विविध . उसने अनुभव किया कि वीणा और विनोद उस दिन के अनुभूतियाँ अमूर्त होती हैं, फिर भी हम उनका ग्रहण ही पश्चात् परस्सर अधिकाधिक प्रात्मीय हो रहे हैं तब उसे करते हैं, कभी उनके प्रति अविश्वासी नहीं होते । तब कोई व्यक्तिगत रूप से बोध हुआ कि हमारा कोई भी क्षण व्यर्थ कारण नहीं कि जिस अजेय सत्ता का अनुभव हम अपने नहीं है । जीवन का पल-पल हमारे भविष्य-निर्माण के जीवन में क्षण-क्षण पर करते हैं उसके प्रति अविश्वासी लिए सवथा सूत्र-बद्ध ही है। बनें। यह तो हमारी कृतघ्नता की पराकाष्ठा है। यह तो दिन बीतते गये और विपिन की दृष्टि वीणा पर से . मानवता का चरम अपमान है-एक तरह का जंगलीपन, उचट कर लतिका पर जा पहुँची। पहले तो अपने इस जहालत । दोनों वक्तृत्वकला में, तर्कशास्त्र में, एक दूसरे नवीन परिवर्तन की वह बराबर उपेक्षा करता रहा। बारको चुनौती देते थे । कभी-कभी जब विवाद बढ़ जाता तब बार वह यही सोचता कि मनुष्य का यह मन भी सचमुच विपिन और वीणा को बीच-बचाव तक करना पड़ता । ऐसी क्या चिड़ियों की फुदक की भाँति ही चटुल है ? क्या भयंकर परिस्थिति उत्पन्न हो जाती थी।
वास्तव में उसके भीतर अक्षय प्रेम की ज्योति का अभाव
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सरस्वती
[भाग ३८
ही है ? परन्तु फिर वह यह भी स्थिर करने लगा कि पहले अनेक वर्ष तक मैंने उसे संसार से अछता रक्खा यह भी निश्चित हो जाय कि प्रेम है क्या ? क्या यह सम्भव था। किन्नु संयोग की बात, कुछ ऐसे कार्यों में लग गया नहीं हो सकता कि कल जिसे हम प्रेम समझते थे, अाज कि फिर आगे चलकर उसकी आत्मीयता का निर्वाह न वही जो हमें मृगतृष्णावत् प्रतीत होता है, एकदम कर सका। अकारण नहीं है ? जैसे धर्म के अनेक रूप हैं, वैसे ही मेरी बड़ी आकांक्षा थी कि मैं एक कन्या का पिता क्या प्रेम के अनेक रूप नहीं हो सकते ? वीणा विनोद का होता । किन्तु यह कैसे सम्भव था ? हम जो चाहते हैं, चाहती है-निस्सन्देह हृदय से चाहती है। और उनका केवल वही हमें नहीं प्राप्त होता । यही इस संसार की यह मिलन भी सर्वथा श्रेयस्कर ही है। तब, ऐसी दशा में, विलक्षणता है। मैं यदि उसका पथ प्रशस्त करके उसके सामने से हट जाता किन्तु मैं कन्या से सर्वथा हीन ही हूँ, ऐसी बात नहीं हूँ तो यह बात क्या वीणा के प्रति मेरे उत्सर्ग की, दूसरे है। तारा से एक कन्या हुई थी। मैंने उसका नाम...... शब्दों में, प्रेम की नहीं है ?
रक्खा था; क्योंकि उसका कण्ठ-स्वर बड़ा मृदुल था। विपिन जल्दबाज़ नहीं है । वह अतुलनीय धीर-गम्भीर रूप-सौन्दर्य में भी वह अपनी मा के समान थी। बल्कि है। वह कभी लतिका के जीवन का अनुभव करता है, उससे बढ़कर । उसके वाम स्कन्ध पर पास ही पास दो कभी वीणा-वादन का। इसी भाँति उसके दिन बीत रहे हैं। तिल हैं । जब मैंने सुना कि वह पढ़ रही है तब मुझे बड़ी इस कालक्षेप में वह उद्विग्न नहीं बनता। क्योंकि वह प्रसन्नता हुई थी। मैंने हठ-पूर्वक उसके व्यय के लिए मानता है कि जैसे ज्ञान के लिए यह विश्व असीम है, वैसे पचीस रुपये मासिक वृत्ति देने पर तारा को राज़ी कर ही जीवन के लिए ज्ञान भी असीम है । तब उसके समन्वय लिया था। मैंने उसे शपथ देकर वचन ले लिया था में काल के अनन्त राज्य में यह आज क्या और कल क्या ? कि वह उसका ब्याह अवश्य कर दे।
___ किन्तु यह तो काई प्रायश्चित्त नहीं है। जिसका मैंने पिता के द्विवार्षिक श्राद्ध से निश्चिन्त होकर एक दिन सर्वस्व अपहरण कर लिया है उसके लिए यह सब क्या विपिन उनकी डायरी के पृष्ठ उलटने लगा। उसमें एक चीज़ है ! मैं अनुताप से बराबर जलता रहा हूँ; और मुझे जगह लिखा था
ऐसा जान पड़ता है कि मेरी इस जलन की सीमा नहीं है, ससार मुझे कितनी प्रतिष्ठा देता है ! नगर का कोई थाह नहीं है, उसका अन्त नहीं है । श्राह ! मुँह खोलकर भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसकी श्रद्धा, जिसका सम्मान मुझे मैं किससे पूछ, कैसे पूछं कि मैं तारा के लिए अब क्या प्राप्त न हो ! सांसारिक वैभव भी मैंने थोड़ा अर्जन नहीं कर सकता हूँ ? ऐसा जान पड़ता है कि यह जीवन ही किया है। लोग समझते हैं, मेरा जीवन बहुत ऊँचा है । मैं नहीं, अगले जीवन में भी मुझे इसके लिए इसी तरह सब प्रकार से सुखी हूँ। बड़े संतोष की मृत्यु मैं लाभ जलना पड़ेगा। करूँगा । जैसी अक्षय कीर्ति मुझे अपने इस जीवन-काल में तो यह भी ठीक ही है। जीवन जैसे एक दीप है, मिली है, परलोक-यात्रा में भी मैं वैसे ही महत्तम पुण्य का जलना ही जैसे उसका धर्म है, वैसे ही अगर मैं जलता ही भागी बनूँगा ! किन्तु लोग नहीं जानते; अपने यौवन- रहूँ, तो भी वह मेरे जीवन की एक सार्थकता ही है ! जो काल में मैंने कैसे-कैसे गुरुतर पाप किये हैं !
हो, आज अगर वह साकार होता तो उससे मैं यह पूछे तारा एक सम्भ्रान्त कुल की युवती कन्या थी। अपूर्व बिना न रहता कि मेरी इस जलन का अन्त कहाँ है ? सौन्दयं था उसमें, सर्वथा अलौकिक । एक बार प्रसंगवश x
x
x उसे देखकर मैं सदा के लिए खो सा गया था। किसी और विपिन बोला--अब चलो वीणा, मैं तुम्हें प्रकार मैं उसे प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सका। लेने आया हूँ। मेरी प्रापर्टी का तीसरा भाग तुम्हारा है। तव विवश होकर अपने ताल्लुके की देख-भाल में मैं उसे पिता जी की ओर से मैंने उसे विनोद को कन्या-दान में ज़बर्दस्ती ले आया था।
देने का निश्चय किया है।
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राजस्थान की रसधार
लेखक-श्रीयुत मूर्यकरण पारीक, एम० ए०
पणिहारी
'पणिहारी' के गीत राजस्थान की आत्मा के सर्वोत्तम जस्थान देश अपने त्योहारों, गीतों और रंग-बिरंगे परिचायक हैं। उनमें जिस सौन्दर्य, जिस देशी छटा का
वेष-भूषा के लिए भारतवर्ष में विशेषरूप से प्रसिद्ध विवरण रहता है, उसके प्रत्येक अंश पर राजस्थानी जीवन है। बल्कि यह कहा जाय तो अन्यथा न होगा कि सभ्यता की गहरी छाप लगी रहती है। बरसात राजस्थान की
और विज्ञान के इस युग में जब सब अोर सादगी, सौकुमार्य और हलकापन ही श्रेष्ठता और सौन्दर्य के माप माने जा रहे हैं, राजस्थान इन्हीं तीनों के लिए बदनाम भी है। हमें विज्ञान और सभ्यता के विकास से विरोध नहीं होना चाहिए, परन्तु हमें अपने निजी संस्कारों और प्राचीन संस्थानों के साथ प्रेम और पक्षपात भी होना चाहिए। विश्वधर्ममानवता और राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए जातीयता की रक्षा करना मानव का पहला धर्म है।
लोकगीत किसी जाति अथवा देश के
BABA हृदय और संस्कारों के जितने सच्चे परिचायक होते हैं, उतनी उस देश की शास्त्रीय शैली से रची हुई कवितायें और काव्य नहीं। इसका एक कारण
पनिहारिनों का एक दृश्य-उदयपुर ।] यह है कि लोकगीतों का निर्माण लोकहृदय से होता है सर्वोत्तम ऋतु है । इस ऋतु में सरोवरों के तट पर सन्ध्या
और काव्य की उपज कवि के हृदय से होती है। एक सवेरे पनिहारिनों के समूह –'झूलरा' का वस्त्राभूषण से सजसामूहिक रुचि की उपज है, दूसरा व्यक्ति के हृदय का धज कर एक-स्वर से मर्मस्पर्शी गीत गाते हुए आना-जाना, प्रतिबिम्ब ।
एक ऐसा स्वर्गापम दृश्य उपस्थित करता है जिसकी कल्पना
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Shree Sud.
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सरखती
मात्र से सौन्दर्य की विभूतियाँ जागृत हो उठती हैं । साक्षात् देखने से तो और ही आनन्द मिलता है ।.
कला की दृष्टि से भी यह दृश्य भारतीय संस्कृति को राजस्थान की एक उत्तम देन समझा जा सकता है । 'पणिहारी' प्रथा के प्रायोजन में साहित्य, संगीत और कला तीनों आदर्शों का पूर्ण समन्वय हुआ है । इस प्रकार के गीतों को केवल पढ़कर साहित्यिक सन्तोष कर लेने से ही पूर्णानन्द का लाभ नहीं समझना चाहिए । इसका सजीव और सुन्दर रूप तो इसके वास्तविक दृश्य में रहता है और इसकी कलात्मक मधुरिमा बसती है इसके संगीत में। बाहरी जगत् के अधिकाधिक सम्पर्क से तथा ज़माने की बदलनेवाली हवा से अब यह मनोहारिणी प्रथा शिथिल होती जा रही है, तो भी लुप्त नहीं हो गई है। यों तो राजपूताना के प्रायः सभी राज्यों में यह दृश्य देखने को मिलता है, परन्तु मारवाड़ की पनिहारिनों का दृश्य विशेष मनोरम होता है । नागौर, मेड़ता, मूँडवा, जोधपुर और उदयपुर आदि नगरों में यह दृश्य अब भी वर्षा ऋतु में सुलभता से देखा जा सकता है 1
इस प्रथा ने वैयक्तिक दृष्टि से भी गृहस्थ जीवन में कलात्मक भावना की सुरुचि का समावेश किया है और नागरिक जीवन में सौन्दर्योपासना, स्वच्छता और स्वातन्त्र्य की वृत्ति की ज्योति का कुछ श्राभास दिया है ।
ज़रा इसके साहित्य-सौन्दर्य को भी देखिए । 'पणिहार' के बहुत से प्रचलित गीतों में से पश्चिमी राज स्थान में बहु प्रचलित एक गीत नीचे दिया जाता है
काळी एकाळायण ऊमटी, पणिहारी ए लो । मोटोड़ी छाँटाँ रो वरसै मेह, वाला जो ॥ भर नाडा भर नाडिया, पणिहारी ए 1 भरियो भरियो समँद- तळाव, वाला जो ॥ किरण जी खुणाया नाडा - नाडिया, पणिहारी ए किरणाँ जी खुणाया तळाव, वाला जो ॥ सुरैजी खुणाया नाडा-नाडिया, ए पणिहारी ए पिबजी खुणाया तळाव, वाला जो ॥ सात सहेल्या रे झूलरे, ए पणिहारी ए 1 पाणीड़े ने चाली रे तळाव, वाला जो ॥ घडो न डूबे बेवड़ो, ए पणिहारी एलो । ईढुणी तिर-तिर जाय, वाला जो ॥
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I
1
[ भाग ३८
सारे सहेल्या पाणी भर चाली, ए पणिहारी ए लो । पणिहारी रही ए तळाव, वाला जो ॥
1
ठी ने हेलो मारियो, लंजा प्रोढीड़ा ए लो । घड़ियो उखणावतो जाय, वाला जो ॥ ओ रे काजळ-टीकियाँ, पणिहारी ए लो. थारोड़ा फीकरिया नैंण, वाला जो ॥ रे श्रोण चूनड़ी, पणिहारी ए लो । थारोड़ो मैलो सो वेस, वाला जो ॥
रा पिवजी घर वसै, लंजा ओढीड़ा हे लो । म्हारोड़ा वसै परदेस, वाला जो ॥ घड़ो पटक देनी ताळ में, पणिहारी ए लो । चालै नी प्रोठी री लार, वाला जो ॥
तो जाळू थारी जीभड़ी, रे लंजा क्रोढीड़ा ए लो । इसै तनें काळो नाग, वाला जो ॥
यो तो भर नै पाछी वळी, पणिहारी ए लो । आई आई फळसे रे बार, वाला जो ॥ घड़ियो पटक दूँ ऊभी चौक में, म्हारा सासूजी ए लो । वेगेरो घड़ियो उतराव, वाला जो ॥ किण थाँने मोसो मारियो, म्हारा बहूजी ए लो । किण थाँने दीवी है गाळ, वाला जो ॥ एक ओढी मनें इसो मिल्यो, म्हारा सासूजी ए लो । पूछो म्हारे मनड़े री बात, वाला जो ॥ देवर जी सरीसो डीघो- पातळो, म्हारा सासूजी ए लो । नणदल बाई - सारे उणिहार, वाला जो ॥ थे तो बहूजी भोळा घणा, म्हारा बहूजी ए लो । श्रो तो थाँरो ही भरतार वाला जो ॥ अर्थ
पावस की काली काली घन घटायें उमड़ आई हैं और मोटी मोटी बूँदोंवाला मेह बरसने लगा है । ताल - पोखरे भर गये हैं और समुद्र की तरह विशाल सरोवर भी भर कर उतरा रहा है ।
ए पनिहारी, ये ताल-तलैयाँ किसने खुदवाये हैं ?
और किसने खुदवाया है यह विशाल तालाब ? स्वसुरजी ने ताल तलैयाँ खुदवाये हैं। प्रियतम ने तालाब खुदवाया है । सात सहेलियों के भूलरे के साथ पनिहारी पानी भरने सरोवर को चली । तालाब लबालब जल से भरा है । घड़ा और उसके ऊपर का छोटा पात्र
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संख्या १]
राजस्थान की रसधार
डुबोया नहीं डूबता और ईडुरी पानी पर तैर-तैर कर निकल उल्लास में घड़े भर कर लौटने की तैयारी में हैं। उनको जाती है।
आत्मायें संगीतमय हो रही हैं । परन्तु वियोगिन पनिहारी सातों सहेलियाँ पानी भर कर चल दीं। केवल पनिहारी अन्यमनस्क होकर घड़ा भर रही है, चित्त उसका और तालाब पर रह गई । एक ऊँट का सवार (अोठी) राह राह किसी ओर लगा है । उमड़ी हुई काली घटा 'झूलरे' का जा रहा था। पनिहारी ने उसे आवाज़ दी और घड़ा उठाने यह सुख-संगीत उसके हृदय में प्रियस्मृतिजन्य आत्मको कहा। [पनिहारी को क्या पता था कि यही उसका विस्मृति पैदा कर देता है। इसी लिए उसका घड़ा डुबाये चिर-प्रतीक्षित प्राणेश्वर होगा।
नहीं डूबता-उसकी ईडुरी तैर-तैर कर जल में निकली जाती अोठी ने पूछा-ए पनिहारी, औरों ने कज्जल-बेंदी है। वह स्वयं प्रियचिंतन में डूबी है । घड़ा कैसे डूबे ? - लगा रक्खे हैं। तेरे नेत्र फीके-से क्यों हैं ? औरों के विरह की दीवानी को छोड़कर और पनिहारिने चल चुनरियाँ अोढ़ने को हैं । तेरे मैले वस्त्र कैसे ?
दी । वह अकेली रह गई। घड़ा कौन उठावे ? कैसी पनिहारी ने उत्तर दिया- औरों के प्रियतम घर पर विषम परिस्थिति है ? हैं । चतुर अोठी, मेरा पति विदेश गया है। __ऊँट का सवार घड़ा उठाकर अपनी राह लेता तो
इस पर अोठी ने ठीक ही तो कहा । परन्तु पनिहारी चित्र में वह रस-रंग पैदा न होता। अोठी के हृदयस्पर्शी इसका रहस्य समझती कैसे ?
प्रश्न पनिहारी के कलेजे में उथल-पुथल मचा देते हैं। __ अोठी ने कहा-घड़े को ताल में पटक दे और मेरे उसका कलेजा मुँह को प्राता है । जिस समय उत्तर में पीछे हो जा । पनिहारी को ये वाग्बाण विषैले लगे और वह कहने को बाध्य होती है कि औरों के पति घर पर हैं, वह रिसा कर बोली-जला दूँ तेरी जीभ को, अोठी, तुझे मेरा विदेश में है, उस समय की उसकी मानसिक दशा काला सप डसे।
कल्पना का विषय है-लज्जा, शील, संकोच, समवेदना ___इस प्रकार प्रश्नोत्तर करके पनिहारी वापस आई । घर आदि भावों की ख़ासी गुत्थी है । अोठी के प्रस्ताव मेंके द्वार पर पहुँचकर सास को पुकारकर घबराये स्वर में "घड़ो पटक दे ताल में" में एक असहनीय स्पष्टता है, जो कहा-पटक हूँ इस घड़े को चौक में । सास जी, इसे जल्दी पनिहारी को बहुत अखरती है, और वह उससे अपना उतारो।
- अपमान समझती है। परन्तु इसका दोष अोठी को सास बोली-बहू मेरी, तुझे किसने ताना दिया है, नहीं, परिस्थिति के आकस्मिक संयोग को दिया जा किसने तुझे गाली दी है ?
सकता है। उत्तर-मुझे आज एक अोठी मिला, जिसने मेरे मन घर लौटने पर पनिहारिन की परिस्थितिजन्य घबराहट की बात पूछी। देवर के समान वह लम्बे-पतले शरीरवाला और साथ ही उसके 'मनड़े री बात' में भावों के मार्मिक था और ननदबाई की प्राकृति से उसकी श्राकृति मिलती थी। सम्मिश्रण का कैसा मनोज्ञ चित्र उपस्थित किया गया है। सास समझ गई। हँस कर बोली-
इसमें सन्देह नहीं, इस गीत में मानव-हृदय के अत्यन्त बहू, तू बहुत भोली है । वह तो तेरा ही पति है। सूक्ष्मभाव कलात्मक रीति से केन्द्रीभूत हुए हैं। तभी तो
कलात्मक सौन्दर्य और मनोविज्ञान के अच्छे दृश्य यह राजस्थान के स्त्री-पुरुषों के हृदय का इतनी बहुलता इस चित्र में सम्मिलित हैं । और पनिहारिने संयोग-सुख के के साथ आकर्षण कर सका है।
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एसम्म
श्री भारतमाता-मंदिर
में जहाँ हिन्दी का पौधा उत्तर-भारत से ले जाकर लगाया
१९ मार्गशीर्ष १९९३ गया हो, बाबू शिवप्रसाद गुप्त को वहाँ के अधिवेशन का प्रिय महाशय-सादर नमस्कार
सभापति बनाना हिन्दी के गौरव को बढ़ाना होगा। ___ मैंने अभी आई हुई 'सरस्वती' के मार्गशीर्ष के अंक में मुझे दुःख है कि मैं मत-दाताओं में नहीं हूँ, पर ,भारतमाता-उद्घाटन-सम्बन्धी टिप्पणी पढी। जिन शब्दों में जा है उनसे मेरा निवेदन है कि वे अपना मत बाब
आपने उसे लिखा है, पढ कर बड़ा अनग्रहीत हा। अनेक शिवप्रसाद गुप्त के पक्ष में अवश्य दें। मैंने सुना धन्यवाद । पर मैं एक छोटी-सी भल की ओर आपका है, गुप्त जी का स्वास्थ्य वैसा अच्छा नहीं है। यदि ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। आपने लिखा है कि वे इस कारण इस पद को स्वीकार न करें तो मैं यह 'वन्दे मातरम्' का गान वहाँ न होना आपको खटका था। प्रस्ताव करूँगा कि नीचे लिखे तीन नामों में कोई एक नाम सो ऐसा नहीं है। जब महात्मा जी भीतर कपाट खोलकर चुना जाय । पधारे और धार्मिक ग्रन्थों का पाठ हो चुका तब पहले
(१) श्री राहुल सांकृत्यायन 'अई भुवनमोहनी' से ध्यान, फिर 'वन्दे मातरम्' से वन्दना
(२) श्री पुरुषोत्तमदास टंडन हुई थी । लाउड स्पीकर का प्रबन्ध कुछ गड़बड़ा जाने से
(३) श्री जमनालाल बजाज़ व अत्यन्त शोर के कारण बाहर सुनाई नहीं पड़ा । वह
--एक हिन्दी-प्रेमी वन्दना व ध्यान माता की मूर्ति के सामने ही होना उचित हिन्दी में अँगरेज़ी महीने किस प्रकार लिखे जायँ ? जानकर उसका प्रबन्ध भीतर मूर्ति के पास हुअा था। हिन्दी-भाषा में अँगरेज़ी महीनों के नाम किस प्रकार कृपा कर अगले अंक में इस भूल को सुधारने की कृपा लिखे जायँ, इस पर शायद समुचित विचार नहीं हश्रा है। कीजिएगा । अनुग्रहीत हूँगा।
यही कारण है कि एक ही अँगरेज़ी महीने का नाम लोग साथ में पुस्तक व छपा हुअा गान का परचा जा रहा हिन्दी में कई तरह लिखते हैं। उदाहरणार्थ ता० २७ सितहै जो उस समय बँटा था।
म्बर की 'बिजली' के सम्पादकीय विचार में 'अक्तूबर' लिखा भवदीय
है और उसी अंक के समाचार-संग्रह कालम में 'अक्टूबर' ।
शिवप्रसाद गुप्त 'सरस्वती' उसे आक्टोबर लिखती है। कोई सितम्बर सम्मेलन का सभापति कोन हो ? लिखता है तो कोई 'सेप्टेम्बर'। इसी प्रकार 'फ़रवरी' यह प्रसन्नता की बात है कि इस वर्ष हिन्दी-साहित्य- 'फर्वरी' और 'फेब्रुअरी' तथा 'ऐप्रिल' और 'अप्रैल' भी सम्मेलन मदरास में होने जा रहा है। गत वर्ष के लिखे जाते हैं। मेरे विचार में अँगरेज़ी महीने हिन्दी सम्मेलन के सभापतित्व के लिए 'सरस्वती' में किसी ने बाबू भाषा में इस प्रकार लिखे जाने चाहिए -जनवरी, शिवप्रसाद गुप्त का नाम लिया था। मेरा ख़याल है कि फ़रवरी, मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर, इस वर्ष सम्मेलन को बाबू शिवप्रसाद गुप्त से बढ़कर अक्तूबर, नवम्बर, दिसम्बर। आशा है, हिन्दी के अधियोग्य सभापति नहीं मिल सकता। हिन्दी का इतना ज़बर- कारी विद्वान् इस पर अपनी सम्मति प्रकट करेंगे। दस्त हामी शायद ही कोई दूसरा हो । एक ऐसे स्थान
योगेन्द्र मिश्र, मुज़फ़्फ़रपुर।
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जान जारिश के
जाग्रत नारिया
गांधीयुग की स्त्री
लेखक, श्रीमती राजकुमारी मिश्रा
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45
S
जन्दू-संस्कृति ने प्रारम्भ से ही
जीवन के लिए एक आदर्श
रक्खा है। इतना होते हुए भी - वह सिर्फ़ आदर्श के स्वीकार में
ही गौरव नहीं मानती है, और बाप उसके विन्दु की तरफ़ जीवन
स्वाभाविक रीति से चलता जाय, इसलिए विवेक-बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि का उपयोग करके नियम बनाकर उन्हें समाज में प्रचलित कर दिया है। चाहे जैसी उच्च भावना हो उसके विशाल जनसमुदाय में जाने पर और वहाँ अधिक काल तक ऊपर रहने पर भी उसमें विकृति का आ जाना अनिवार्य है। आर्यसंस्कृति की महद भावनायें इसी से विकृत हुई हैं।
बहुत अर्से के बाद यहाँ भी पाश्चात्य संस्कृति की । 'व्यक्ति स्वतन्त्रता' की घोषणा सुनाई दी। इस शब्द के
आस-पास कैसी भावनाओं के शोभन भाव चित्रित हए होंगे? श्रीमती इरावती मेहता-ये इलाहाबाद के कमिश्नर किसे पता है ? किन्तु यहाँ तो 'व्यक्ति-स्वातन्या का श्री वी० एन० मेहता, जो बीकानेर के दीवान होकर गये 'सामाजिक उत्तरदायित्व का नाश' ऐसा ही अर्थ किया है, की पत्नी हैं और आज-कल बच्चों की मृत्यु की समस्या जाता है। वर्षों से अन्धकार में पड़ा हुआ और मृत्यु की को छान-बीन में लगी हैं।] निर्बलता से विरूप बना हुअा समाज 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' इस 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' की आकांक्षा ने अनेक जीवनकी घोषणा को अपनाने के लिए उठा या यों कहिए कि स्पर्शी विषयों को देखने की प्रेरणा की है। इतना ही नहीं, समाज का एक अङ्ग जागा।
गहरे असन्तोष की चिनगारी प्रकट करके-स्त्री-पुरुष को
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सरस्वती
[ भाग ३८
लाहौर की संगीत-प्रवीण छात्राय । बैठी हुई बाइ अोर से कुमारी कौमुदी, कुमारी प्रीतम धवन और कुमारी एस. सी० चटर्जी। खड़ी हुई कुमारी लीला भण्डारी, कुमारी यमुना, कुमारी लजावती धवन और कुमारी कमला मोहन । इसने अपने व्यक्तित्व को नये दृष्टि-विन्दु से देखने की स्थिति इससे भिन्न है । फिर भी अान्दोलन के प्रारम्भ होने प्ररणा की है। दोनों को सामाजिक बन्धन कठिन लगते के बाद से लेकर आज तक दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं, दोनों को अपना साम्प्रत जीवन परिवतन माँगता हुया दिखाई दी हैं। यह चिह्न जागृति के लिए यावश्यक है। नज़र आता है । फलस्वरूप समाज के दो अङ्ग-स्त्री-पुरुष अब देखना इतना है कि इम जागृति के बाद भी फिर अन्तर्विग्रह की तैयारी कर रहे हों, ऐसा मालूम होता है। मोती हैं या नहीं ? जागृति के चमत्कार के बाद यह जुगुन स्त्री को पुरुष सत्ताशोल, स्वतन्त्र, सुखी मालूम होता है, पुनः पंख बन्द कर देनेवाले हैं या नहीं ? मदभरी आँखों
और वह अपनी जाति को दलित कहती है। पुरुष की की निद्रा भङ्ग हो, और फिर घोर निद्रा अा जाय, ऐमा वेदना और ही है। दिन ब दिन जीवन-कलह भयङ्कर रूप तो नहीं होगा न ? धारण करता जाता है। इससे वह स्त्री के मार्दव की अधिक स्त्रियाँ किधर जा रही हैं ! अपेक्षा रखता है। किन्तु नई स्त्री इस मार्दव में गुलामी इस प्रश्न के उत्तर के लिए स्त्रियों की दोनों प्रकार की देखती है।
प्रवृत्तियों पर दृष्टि डालनी पड़ेगी। इसके बाद ही उत्तर __ स्त्रियों में नई महत्त्वाकांक्षा जागृत हुई है। इससे व मिलेगा। 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' के पाये पर इमारत बाँधने हर एक क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी करने में गौरव मानती की इच्छा रखनेवाला वर्ग कहेगा कि अभी स्त्री-समाज
हैं। जिस ज़माने में यह बराबरी नहीं थी, उस ज़माने को ने चलना शुरू नहीं किया; अभी स्त्रियों को अपने व्यक्ति - वे पुरुष की जुल्मी सत्ता का ज़माना मानती हैं। वस्तु- का भान नहीं हुअा; समान अधिकार भोगने की इच्छा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या १ ]
नमें भी जागृत नहीं हुई । पक्षपाती शास्त्रकारों ने प्रौर जुल्मी हिन्दू-समाज ने स्त्रियों को सदा दबाये रखने के लिए सूत्रावली की जो नाग पाश डाली है वह अभी नहीं पड़ी है ।
दूसरा वर्ग कहेगा कि स्त्री जागी है ।
कोई कुमारी साइकिल पर सवार होकर कालेज जाती तो कोई युवती खुद मोटर चलाती है। कोई युवती चूड़ी, कुंकुम तथा लंबे केशों का परित्याग करके बोन्डहेर
बहुत सी पिनें लगाकर हाथ में काग़ज़ों का बंडल लेकर प्राफ़िस में जाती है तो कोई रेकेट लेकर टेनिस ग्राउंड की तरफ़ | कोई अपनी दशा के लिए पुरुषों को गालियाँ देती है या मिथ्या दोषारोपण से भरे हुए नये नये लेख लिखती कोई स्त्रियों के प्रति होनेवाले अन्याय के विरुद्ध व्याख्यान - मंच पर खड़ी होकर रोप की वर्षा करती हैं। पहले प्रकार के जवाब के नीचे ये दृश्य तैर रहे हैं । इसलिए सुधारक ग्रानन्दित होते हैं । किन्तु इस श्रानन्द के पीछे
हे
सन्तोप की वेदना है । वेदना इसलिए है कि ऐसी स्त्री ने पांच-दस या सौ-दो सौ की संख्या में यह दृश्य देखने की इच्छा नहीं रक्खी थी, बल्कि हज़ारों या लाखों की संख्या में
I
भोली लेकर चन्दा वसूल करती हुई, शराब या विदेशी वस्त्रों पर पिकेटिंग करती हुई, सरकस में जाती और स्त्रियों पर लाठी चले ऐसी आशा होने पर भी पड़ती हुई लाठी को रोक लेना, अगुवा बनना, ऐसी ऐसी स्त्रियों की प्रवृत्तियों पर दृष्टि स्थिर कर दूसरा वर्ग इसका उत्तर देता है ।
जाग्रत नारियाँ
ऊपर आलेखित चित्रों से ये दूसरे चित्र अवश्य भक्तिभाव-पूर्ण हैं । फिर भी इस पर से बड़ी लम्बी आकृति खींच कर स्त्री-समाज जागा हैं, यह नहीं कहा जा सकता । फिर भी ये चित्र स्त्री- विकास की ख़ासी मधुर रेखा तो अवश्य हैं । किन्तु जो विकासोन्नति के भव्य दर्शन के लिए यत्न कर रहे हैं उन्हें कुछ अधिक देखना हैचों और मनःचक्षुओं को शारीरिक और आध्यात्मिक तेज । जो हिताहित की दृष्टि से माप निकालते हैं वे भी यही देखने की इच्छा रखते हैं ।
५५
[कुमारी शान्ता श्रमलादी (बम्बई ) । ये संगीत-फला में बड़ी निपुण हैं और इनका कंठ बहुत ही मधुर है ।]
जागृति का असर भी नहीं दीखता । अभी वही अज्ञानता, वही निर्बलता और वही की वही मनोदशा है। इसका नाश अवश्य होगा। अभी तो नहीं हुआ है। सुधारक इस विषय के लिए बहुत कम विचार करते हैं। यदि इस विषय को महत्त्व न दें तो भी उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती । पुरुषों के सामने थोड़े ही अन्तर के बाद तिरस्कार में परिवर्तन प्राप्त हुआ है। पुरुष को हृदयहीन, ज़ालिम के तौर पर देखने की प्रवृत्ति, द्रव्योपार्जन की व्यवस्था, इन सबको लक्ष्य के तौर पर गिननेवाली स्त्री रसोई का जीवन जीवन को घबरानेवाला माने, सेवा में गुलामी माने, शर्म में निर्बलता का अनुभव करे, शिशुपालन में अत्याचार समझे, यह सब क्या उन्नतिकारक है ? इससे क्या आर्यावर्त्त का उत्कर्ष होगा ?
ऐसे सुधार की लहर के बाद के सुधार में (गांधीयुग के सुधार में कुछ सङ्गीनता और गम्भीरता श्राई ।
बेशक स्त्रियाँ जागृत हुई हैं, किन्तु जागृति की चेतना स्वार्थी और पक्षपाती विचार - प्रवाह में गम्भीरता ने मानवभी स्त्री समाज में नहीं फैली है । कर्तव्य की और हिताहित की विचारणा के तत्त्वों को स्त्री-समाज का बड़ा बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जहाँ बढ़ाया। इसने शब्द- बल को कार्य बल में परिणत किया ।
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सरस्वती
[ भाग ३८
फलस्वरूप नई शक्ति का आगमन हुआ। नाजुक सेवा के नहीं किया। इससे लड़ाई को नुकसान हुआ हो, ऐसा निश्चय शौक दबे, और जो तत्त्वज्ञान की बातें नहीं कर सकतीं, करते नहीं बनता। बलिदान मांगनेवाले कार्य किये जाते राजनीति या कारबार की ग्रन्थि नहीं सुलझा सकतीं, भाषण थे, फिर भी नासमझ और अनुदार व्यक्तियों की तरफ़ से करने का जिसमें साहस नहीं, ऐसी शक्ति पूँघट दूर करके इस विषय में टीका की जाती है वह इस स्त्री-मानस को आई और जो काम मिला सो कर स्त्रीत्व को प्रकाशित कर ही अाभारी है। गई-आगे के सुधारों की उत्पन्न की हुई घोर निराशा के इस विलासी वातावरण से श्रावृत्त हुई नारी कार्य की अन्धकार में बिजली चमका गई।
गम्भीरता के अनुरूप सादगी और गम्भीरता न सज सकी। ___आज ये दोनों वायु के प्रवाह से बह रहे हैं। पहला उसने असहकार की प्रवृत्तियों को अनुकुल बनाकर सेवा पुराना होने से सतत बहता रहा, और उसमें नया वायु- में सत्ता के शौक़ की तृप्ति देखी। प्रवाह मिला। दोनों ने अपनी अपनी विशिष्टता सुरक्षित गांधीयुग ने स्त्री को जागृत और बलवान बनाने का रखते हुए भी एक रूप लिया, किन्तु अब यह प्रवाह प्रयत्न किया, साथ ही उसके स्त्रीत्व पीछे का असहकार का बल जाते ही क्या होगा, यह देखने रक्खा। शब्दबल से कार्यबल अधिक आवश्यक है, यह को है। दसरा वायु वज़नदार होने से शायद ज़मीन पर बैठ उसे समझाया, और बरसों के विलायत के असरवाले
और पहला हलका होने से उड़ता रहे। ऐसा होना सुधारकों के भाषण पुरुष-हृदय में स्त्री-सम्मान का जो प्रदीप सम्भव है।
न प्रकटा सके सो इस युग की हलचल ने थोड़े में ही दिखा मालूम होता है कि भारत के स्त्री-समाज में से स्त्रीत्व दिया। स्त्रियों के लिए पुरुष की मान्यताओं में जो उदार की अग्नि कभी नहीं बुझी । हाँ, वर्षों से अज्ञानता की राख परिवर्तन हुआ वह सब कहीं नहीं दीखता। फिर भी जो पड़ी रहने के कारण इस अग्नि की गर्मी कम हो गई कुछ हुआ वही बहुत है। है। प्रारम्भिक सुधारणाकी भावना ने पाश्चात्य पवन की गांधीयुग घर के आवश्यक और अनावश्यक युद्धों का फूंक से इसे उड़ाने का प्रयत्न किया । यह पवन एक टुकड़ी भेद भी कर के बताता है । के मुख के निकला । इस टुकड़ी में स्त्री-पुरुष दोनों थे। स्त्री-सम्बन्धी अादर्श और आर्य सन्नारी की भावना स्त्रियाँ अच्छी तरह आगे की लाइन में खड़ी हुई। इन का प्रभाव पड़े ऐसा प्रचार संयोगों की विचित्रता और वही स्त्रियों में कुमारियाँ और बड़े आदमियों की पत्नियां थीं। कार्य करनेवाली टुकड़ी के अभाव से नहीं हश्रा है। जिन्होंने समाज की दूसरी तरफ़ दृष्टि नहीं डाली थी उन्हें यह किन्तु गांधीयुग ने अपने विशिष्ट विचारों को पेश करके ज्ञान होगा, किन्तु मानसशास्त्र की उन्होंने उपेक्षा ही की। उन्हें गति में रख दिया है। अच्छी वस्तु को बिगाड़ने में देर __प्रवृत्ति ने पृथ्वी पर के आकाश को उज्ज्वल बना नहीं लगती। किन्तु फिर बनाने में समय और प्रयत्न दोनों दिया। कितने ही पुरुषों ने भी सहकार किया । परिणाम की आवश्यकता रहती है। इससे गांधीयुग ने पहले के यह हुआ कि स्त्री स्त्री होने के कारण उच्च है, ऐसी दलीले 'बल' दबाये अवश्य, फिर भी पुन: सिर ऊँचा करने जैसी
आँधी पर चढ़ीं। ऐसे समय में इस वातावरण के विरुद्ध स्थिति में ही वह रहा है। दिन पर दिन नये बनाव बनते जाते का सत्य या असत्य बोलने में असुरक्षिता दिखने लगी। हैं, एक बल दबकर दूसरा बल ऊपर आता है। गांधी जी फलस्वरूप न प्रतिकार हुअा, न तत्त्वज्ञान की वृद्धि । इससे की हलचल होगी, ऐसा उस समय कौन जानता था ? फिर यह प्रवृत्ति बढ़ नहीं सकी। दूसरी तरफ़ इस प्रवृत्ति के ऐसा बल पैदा होगा और स्त्री-विकास की हलचल को वह स्वीकार करनेवालों में शब्दचातुर्य-शब्दच्छल का विकाश योग्य रास्ते पर लगा देगा, ऐसी आशा क्यों न की जाय ? हुश्रा और श्रादर्श की आकांक्षा बढ़ी।
भारतवर्ष का मुख उज्ज्वल रक्खें और अपने गृह-संसार सत्याग्रह के संग्राम ने इसमें की कुछ शक्तियों को को मधुरतम और सुखमय बनाये, ऐसी आर्य महिलायें प्रोत्साहन देकर नया जीवन दिया। इस संग्राम में जितनी शीघ्र बाहर आये, यही हमारी आकांक्षा है। स्त्रियाँ शामिल हुई थीं उन सबों ने कुछ ऐसा जीवन स्वीकार
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सामयिक साहित्य
सम्राट अष्टम एडवट का सिंहासन-त्याग करना ही उचित समझा। वे सम्राट भले ही न रहे,
सम्राट अएम एडवड और मिसेज सिम्पसन की इस महान कार्य से उन्होंने अपने महान त्याग का प्रेम-कहानी मानव-जाति के इतिहास में अमर रहेगी। परिचय दिया है और उनकी लोकप्रियता और भी मिमंज़ सिम्पमन एक वयस्क अमरीकन महिला हैं बढ़ गई है। राजत्याग करते समय उन्होंने जो मर्म
और वे दो पतियों को तलाक दे चुकी हैं। ऐमी म्पर्शी घोपणा की है उसे हम यहाँ उदधृत करते हैंमहिला को अगरेज़-जाति ने अपनी रानी बनाना "लव गहरे और लम्बे मोच-विचार के बाद मैंने उम म्वीकार नहीं किया और सम्राट एडवर्ड में उनके गजगदी का छोड़ने का निश्चय किया है जिसका मैं अपने मंत्रियों ने कहा कि एमा विवाह व राजमिहामन का पिता की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारी बना था। और परित्याग करके ही कर सकते हैं। इसलिए एक साधा- अब मैं अपने दम अनिम व अटल निर्णय की सूचना देता ग्गा स्त्री के प्रति अपने कतव्य का पालन करने के हूँ। मुझे इस कदम की गम्भीरता का अनुभव हो रहा है. निए सम्राट अष्टम गडबड न सिंहासन का परित्याग परन्तु मैं केवल यह अाशा कर सकता हूं कि जो मैंने किया
सम्राट एडवर्ड श्रीमती सिम्पसन के साथ थियेटर देख रहे हैं।
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सरस्वती
[भाग ३८
है और जिन कारणों से मुझे यह निर्णय करना पड़ा
मैं, एडवर्ड अष्टम, ब्रिटेन, आयलैंड तथा है, मेरी प्रजा मेरा समर्थन करेगी। मैं अपने व्यक्तिगत समुद्र-पार के ब्रिटिश उपनिवेशों का राजा और मनोभावों के सम्बन्ध में यहाँ कुछ नहीं कहूँगा, परन्तु मैं भारतवर्ष का राजराजेश्वर अपने और अपने वंशजों प्रार्थना करूँगा कि यह याद रखना चाहिए कि सम्राट के के लिए तख्त छोड़ने के लिए अटल संकल्प की कन्धों पर लगातार जो बोझ रहता है वह इतना भारी है घोषणा करता हूँ। साथ ही मैं यह भी घोषित करता कि वह केवल उन्हीं परिस्थितियों में उठाया जा सकता हूँ कि मेरी इच्छा है कि राज्य-त्याग के इस घोषणापत्र है जब कि वे उन परिस्थितियों से भिन्न हों जिनमें कि के अनुसार तत्काल कार्यवाही की जाय। इसके लिए इस समय में अपने को पाता हूँ।
मैं आज १० दिसम्बर १९३६ को निम्नलिखित गवाहों के सम्मुख हस्ताक्षर करता हूँ।"
हस्ताक्षर-सम्राट् एडवर्ड । फोर्ट वलवेडियर में अलबर्ट हेनरी जार्ज के सम्मुख हस्ताक्षर हुए।
"मेरे इस घोषणा-पत्र पर मेरे तीन भाइयों ने गवाहियाँ दी हैं।
“विभिन्न निर्णय करने के सम्बन्ध में मुझसे जो अपील की गई हैं, उनमें व्यक्त भावनात्रों की मैं सराहना करता हूँ और अंतिम निर्णय पर पहुँचने के पहले मैंने उन पर पूर्ण विचार कर लिया है। मगर मेरा निश्चय अटल है। इसके अलावा अब विलम्ब करना उस जनसाधारण के लिए हानिकारक होगा, जिनकी सेवा युवराज
और सम्राट के रूप में करने की चेष्टा मैंने की है और जिनकी भावी उन्नति और सुख सदा हमारे हृदय में रहेंगे। ___ "मुझे पूरा यकीन और उम्मीद है कि मैंने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह राज-सिंहासन और साम्राज्य के स्थायित्व और प्रजाजन के सुख के लिए सर्वोत्तम है। मेरे सिंहासनारूढ़ होने के बाद मेरे प्रति जो सद्भावनायें दिखाई गई हैं और जो मेरे उत्तराधिकारी के प्रति भी
दिखाई जायँगी उनके लिए मैं कृतज्ञ रहूँगा। [मिसेज़ सिम्पसन का हाल का एक चित्र ।]
___"मैं इसके लिए उत्सुक हूँ कि इस घोषणा को कार्यमेरा विचार है कि उस समय मैं अपने उस कर्तव्य रूप देने में विलम्ब नहीं होना चाहिए और मेरे वैध से विमुख नहीं हो रहा हूँ जो सार्वजनिक हितों को सबसे उत्तराधिकारी मेरे भाई हिज़ रायल हाइनेस ड्यूक अाफ़ यार्क
आगे रखने का मुझ पर है, जब कि मैं यह घोषित करूँ को शीघ्र ही सिंहासनारूढ़ करने की कार्रवाई करनी कि मैं यह महसूस करता हूँ कि मैं इस भारी काम को अब चाहिए।" योग्यता अथवा अपने सन्तोष के लायक पूरा नहीं कर सकता। __ अतः आज सुबह मैंने निम्नलिखित शर्तों के अनुसार प्रधान मत्री मिस्टर बाल्डविन का वक्तव्य राज-सिंहासन छोड़ने के घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर सम्राट् के राजसिंहासन त्याग के बाद प्रधान किये हैं।
मंत्री मिस्टर बाल्डविन जिन्होंने इस सम्बन्ध में
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सामयिक साहित्य
संख्या १ ]
प्रमुख रूप से भाग लिया था, पार्लियामेंट में इस पर प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित भाषण दिया था
मैं
इस सम्बन्ध में मुझे प्रशंसात्मक व निन्दात्मक आलो aracter-टिप्पणी नहीं करनी है । मेरे ख़याल से मेरे लिए साफ़ मार्ग यह है कि सम्राट् और मेरे बीच जो बातचीत हुई और वर्तमान स्थिति कैसे उत्पन्न हुई, उसको साफ़ साफ़ आपके सामने रख दूँ। प्रारम्भ में ही कह देना चाहता हूँ कि सम्राट् ने जब वे प्रिंस ग्राफ़ वेल्स थे, अपनी मैत्री से मुझे सम्मानित किया है और उसको मैं बहुत कीमती समझता हूँ। मैं जानता हूँ कि सम्राट् इस बात से सहमत होंगे कि यह मैत्री न केवल मनुष्य र मनुष्य के बीच थी, बल्कि मैत्री की सम्पूर्णता थी, और मैं आपको बताना चाहता हूँ कि मंगलवार की रात को फोर्ट बेल्वेडर से जब विदा हुआ तब हम दोनों ने अनुभव किया और परस्पर प्रकट किया कि विगत सप्ताह की गई बहस ने हमारी मैत्री को क्षति नहीं पहुँचाई है, बल्कि हम दोनों को और दृढ़ मैत्री के बन्धन में बाँध दिया है और यह जीवन पर्यन्त कायम रहेगी ।
सम्राट साथ
सभा जानना चाहती होगी कि सम्राट् से मेरी पहली मुलाक़ात कब हुई । सम्राट् ने उदारतापूर्वक मुझे हम दोनों के बीच हुई बातचीत को आपसे कहने के लिए इज़ाजत दे दी है। जैसा आपको मालूम है, अगस्त और सितम्बर में मुझे पूर्ण विश्राम लेने की सलाह दी गई थी, जिसका मैंने अपने साथियों की मेहरबानी से पूर्ण उपभोग किया। अक्तूबर का मास प्रारम्भ होने पर यद्यपि मुझे विश्राम लेने के लिए कहा गया था, मगर मैंने अपने कार्य के महत्त्व को देखते हुए और अवकाश लेना उचित नहीं समझा। अक्तूबर श्राधा गुज़रने के बाद मैं श्राया । इस समय मेरे सामने दो काम थे, जिनसे मेरा मन अशान्त था। उस समय मेरे दफ़्तर में बहुत चिट्ठियाँ, मुख्यरूप से ब्रिटिश प्रजा और संयुक्तराष्ट्र अमरीका के ब्रिटिश वंशज अमरीकन नागरिकों की ओर से ग्रा रही थीं।
मैंने देखा कि डोमीनियनों, इस देश और अमरीकन समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों से देश में बैचेनी फैल रही है। मैंने अनुभव किया कि तलाक देने से परिस्थिति और विकट हो जायगी । मैंने अनुभव किया कि सम्राट से मिलने और उनको सावधान करने का समय आ गया
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५९
है । क्योंकि पत्रों में प्रकाशित समाचारों, आलोचनाओं और टीका-टिप्पणी के बाद स्थिति के और विकट हो जाने की सम्भावना थी । मैंने अनुभव किया कि इस समय एक आदमी का काम है और वह प्रधान मन्त्री ही है जो इस कार्य को कर सकता है । मैंने अनुभव किया कि देश के प्रति जो मेरा कर्तव्य है वह मुझे बाधित करता है कि मैं सम्राट् को चेतावनी दूँ । मैंने यह भी विचार किया कि मैं सम्राट् का केवल एक सलाहकार ही नहीं हूँ, बल्कि मित्र भी हूँ और उस नाते भी मुझे अपना कर्तव्य पालन करना
[मिस्टर बाल्डविन । ]
चाहिए | मेरे इस कार्य को मेरे साथियों ने जल्दबाज़ी बताया और मुझे इस जल्दबाज़ी के लिए माफ़ भी कर दिया । मैं फ़ोर्ट वेल्वेडर के समीप ही रहा था। मुझे जब मालूम हुआ कि सम्राट् १८ अक्तूबर शनिवार को एक शिकार पार्टी का श्रातिथ्य करने के लिए बरसिंहम जा रहे हैं। और रविवार को यहाँ वापस श्रा जायँगे तब मैंने उनसे मिलने का निश्चय किया ।
मैं २० अक्तूबर इस सम्बन्ध में पहली बार सम्राट् से मिला और अमरीकन पत्रों में प्रकाशित समाचारों की ओर सम्राट् का ध्यान खींचते हुए चिन्ता प्रकट की । उस
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सरस्वती...
[भाग ३८
समय सम्राट को मैंने चेतावनी भी दी कि ब्रिटिश साम्राज्य उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ हम 'हिन्दुस्तान' से के इतिहास में 'ताज' का अाज जितना महत्त्व है, उतना देते हैंपहले कभी नहीं था। मैंने सम्राट को सावधान करते हुए सम्राट एडवर्ड (अष्टम) की वैवाहिक घटना ब्रिटिश कहा कि 'राजमुकुट' अाज साम्राज्य की एकता और अक्षु- इतिहास में सदा अमर रहेगी। एणता की ही गारण्टी नहीं करता, बल्कि देश की एकता आप कोई बहुत बड़े राजनीतिज्ञ नहीं थे। श्राप एक
और अक्षण्णता की भी गारण्टी करता है और देश का सच्चे और साफ़दिल राजा थे । आपने हमेशा अपनी प्रजा उन बहुत-सी बुराइयों से बचाता है जिनका अन्य यूरो- के जीवन को तह में जाने की कोशिश की और उसकी पियन देश शिकार हो रहे हैं। सम्राट की पत्रों में इस वास्तविक हालत को जाना। अपने इसी गुण के कारण प्रकार अालोचना प्रकाशित होने से 'ताज' को यह शक्ति आप इतने थोड़े समय में ही प्रजा के प्यारे बन गये और क्षीण होती है और साम्राज्य को इससे धक्का लगता है। आपने दुनिया के सामने बादशाहत का नया आदर्श
इसके बाद मैं सम्राट से इस सम्बन्ध में १६ नवम्बर उपस्थित किया। ... को मिला। इसी रोज़ मिसेज़ सिम्पसन की डिक्री घोषित आपका पूरा नाम एडवर्ड अल्बर्ट क्रिश्चियन जार्ज की गई। सम्राट ने इस अवसर पर मिसेज़ सिम्पसन से एण्ड्रपेट्रिक डेविड है। श्राप अाज से १. माह पूर्व गत विवाह करने की इच्छा प्रदर्शित की और कहा कि इस जनवरी में स्वर्गीय जार्ज (पंचम) के देहावसान पर इंग्लैंड विषय में बहुत पहले से वे मुझसे बातचीत करनेवाले थे। के राजा तथा भारत एवं अधीनस्थ उपनिवेशों के सम्राट
२५ नवम्बर को जब मैं सम्राट से मिला तब उन्होंने घोषित किये गये थे। आपका जन्म २३ जून १८९४ में पूछा कि क्या पार्लियामेंट ऐसा कानून बना सकेगी जिससे हुआ था। इस समय आपकी उम्र ४३ साल की है। मिसेज़ सिम्पसन मेरी पत्नी तो हो सके, मगर रानी न बनोस्वोर्न और डार्टमाउथ के शाही नाविक कालेजों सके।
में नियमित शिक्षा प्राप्त करने के बाद १९१३ में आप २ दिसम्बर को मैंने सम्राट को सूचित किया कि यह प्रोक्सफ़ोर्ड के मैगडेलन कालेज में प्रविष्ट हुए । १९१४ अव्यावहारिक है। राजा ने कहा कि वे इस जवाब से से १९१८ तक आपने महायुद्ध में भिन्न-भिन्न फ़ौजों के चकित नहीं हुए हैं।
कार्यों में भाग लिया। सम्राट निम्न तीन बातें चाहते थे--
महायुद्ध के बाद आपने कैनेडा, भारत, जापान, वे प्रतिष्ठा के साथ गद्दी से अलग हो । ऐसी स्थिति आस्ट्रेलिया और अफ्रीका का भ्रमण किया। १९३० में में राज्यत्याग करें, जिससे कम से कम मन्त्रि-मण्डल और आप दक्षिणी अमेरिका गये। वहाँ आपने ब्योनेसएयर्स जनता अशान्ति और गड़बड़ का अनुभव न करे । यथा- की प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। . सम्भव वे ऐसी स्थिति में विदा हों, जिससे उनके भाई को १९१० में आप कारनारवोन में प्रिंस अाफ़ वेल्स सिंहासनासीन होने में कम से कम कठिनाई हो। बनाये गये। एक वर्ष बाद आप गार्टर की उपाधि से ___ मैं सभा को बताना चाहता हूँ कि सम्राट के लिए विभूषित किये गये तथा दूसरे वर्ष पश्चात् श्राप ड्यूक 'राजा की पार्टी यह विचार तक एक घृणोत्पादक था। अाफ़ कार्नवाल के रूप में हाउस अाफ़ लार्ड्स में बैठे । . सम्राट का अन्तिम उत्तर ९ को प्राप्त हुअा । सम्राट से प्रिंस श्राफ वेल्स तथा राजा के रूप में आपने हर एक पुनः विचार करने के लिए प्रार्थना की गई । मगर उन्होंने तरह की राष्ट्रीय प्रगति में बहुत दिलचस्पी दिखलाई । कृषि सखेद सूचित किया, उनका निर्णय अपरिवर्तनीय है। का आपका विशेष शौक था। इसी लिए आपने सौथम्पटन
में एक खेत तथा कैनेडा में एक चरागाह भी रख छोड़ा है। सम्राट् एडवर्ड का संक्षिप्त परिचय राजा के रूप में आपने देश के भिन्न-भिन्न स्थानों .. इस अवसर पर पाठक सम्राट एडवर्ड का परि- का दौरा किया और वहाँ के कार्यों में वैयक्तिक दिलचस्पी
चय स्वभावतः जानने के लिए उत्सुक होंगे। इसलिए दिखाई । जनता को प्रोत्साहित किया। गरीबों का आपको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या १]
सामयिक साहित्य
(सम्राट एडवर्ड का साल्ज़बर्ग की यात्रा के समय का एक चित्र । वे साधारण यात्री की भाँति कन्धे से केमरा
लटकाये मित्रों से बातें कर रहे हैं । कहते हैं, इस यात्रा में मिसेज़ सिम्पसन उनके साथ थीं।] विशेष ख़याल रहता था। उनके लिए आपने अनेक मिसेज़ सिम्पसन कौन है ? बार बहुत कुछ किया और भविष्य में और अधिक करने
_ मिसेज सिम्पसन के सम्बन्ध में इधर समाचारकी दृढ़ इच्छा प्रकट की।
पत्रों में तरह तरह की बातें प्रकाशित हो रही हैं। उनके ___इंग्लिश जनता ने जिन आकर्षक युवराज एवं ग़रीबों
पहले पति श्रीयुत स्पेन्सर ने एक पत्र-प्रतिनिधि से के प्यारे राजा के रूप में अपने हृदयों में जगह दी वे
बातें करते हुए कहा है कि वे एक अद्भुत महिला हैं स्वभाव से लोकतन्त्र के हामी थे तथा उसी के उसूलों
" और पति को प्रसन्न करना और उसकी भक्ति करना को मानते थे। दस महीने के छोटे से राज्यकाल में राजा
राजा जानती हैं। उनके सम्बन्ध में विलायत से जो सबसे एडवर्ड ने इंग्लैंड के राजतन्त्र को लोकतन्त्रात्मक
पहले समाचार आये थे उनमें एक इस प्रकार थाबनाने का पूरा प्रयत्न किया और प्रजा के साथ इतना
सम्राट की प्रेयसी श्रीमती अर्नेस्ट सिम्पसन का २१ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर लिया जिसकी मिसाल ब्रिटिश
जुलाई १९२८ को मिस्टर अर्नेस्ट सिम्पसन के साथ जो कि सल्तनत के इतिहास में ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती।
स्टाक ब्रोकर (दलाल) हैं, शादी हुई थी। गत २७ अक्तूShree Sudharmaswan- bhandar-Umara Surat
बर को आपने तलाक ले लिया है। इससे पूर्व भी आपने
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सरस्वती
[भाग ३८
१९१६ में २० वर्ष की आयु में अर्ल विंगफ़ील्ड मिस्टर अनस्ट सिम्पसन से विवाह करने के बाद उनके स्पेन्सर से विवाह किया था और १९२५ में तलाक दे साथ ही श्रीमती सिम्पसन लंदन में पाई। यहीं इंग्लिश दिया था।
कोर्ट में महाराज से उनकी पहली भेट हुई। उस समय महाराज प्रिस-अाफ़-बेल्स थे। धीरे धीरे दोनों एक-दूसरे के सम्पर्क में ग्राने लगे। यहां तक कि कुछ दिनों के बाद दोनों में गादी मित्रता हो गई। उनके इस प्रेम का समाचार लंदन में ही नहीं, अमरिका तथा अन्य स्थानों में भी फैल गया। इन समाचार की
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[मिसेज़ सिम्पसन अपने लन्दन के घर में ।।
श्रीमती सिम्पसन अमेरिका की रहनेवाली है। ग्राज से ३८ वर्ष पहले उनका जन्म वल्टीमर में एक भले दक्षिणी घराने में हुआ था। उनका विवाह १९१६ में अल विनिफंड पंसर के साथ हुआ। श्रीमती सिम्पसन मिसेज़ सिम्पसन-सन् २०१६ में--प्रथम ६ वर्षों तक उनके साथ रहीं । पश्चात् उन्होंने उसे तलाक
विवाह के समय का चित्र। दे दिया, और कैप्टन अर्नेस्ट सिम्पसन के साथ पुनः विवाह किया।
पुष्टि उस समय और भी होने लगी जब महाराज एडयाटिक श्रीमती सिम्पसन का सौन्दय निःसन्देह अाकर्षक है। सागर की मेर के लिए रवाना हुए: पीर उनके साथ लेकिन उस समय का सौन्दर्य तो और भी अाकर्षक था। श्रीमती सिम्पसन भी गई। ऐसी खबर पढ़ने को मिली थी सौन्दर्थ में जितना अाकर्षण नहीं है, उतना उनकी चंचलता कि वे महाराज के बगल में बैठती थीं और प्रत्येक शाही में है। उनकी पोशाक तथा रहन-सहन का ढंग अपना है, उत्सब तथा बालकन की राजधानियों और तुर्की में महाराज जिस पर मुग्ध हो जाना स्वाभाविक है।
के किये गये सम्मानों में वे उनके साथ रहीं।
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संख्या १]
सामयिक साहित्य
सहसा यह भी समाचार प्राप्त हुअा कि श्रीमती सिम्प- सम्राट के प्रति हमारी सहानुभूति सन ने अपने पति कैप्टन अर्नेस्ट सिम्पसन को तलाक देने की दरखास्त कोर्ट में दे दी है। इस बीच में सम्राट के सिंहासन के त्याग पर उनके महान अदालत में उसकी सुनवाई हुई । वहाँ से उन्हें मिस्टर व्यक्तित्व की कुछ विलायती पत्रों को छोड़कर शेष सिम्पसन के ऊपर नीसी' की डिग्री मिली। ६ महीने के समस्त संसार के पत्रों ने प्रशंसा की है। हमारे देश बाद २७ अप्रैल १९३७ को उसका वक्त पूरा हो जायगा के पत्रों ने तो उनके प्रति और भी अधिक श्रद्धा और श्रीमती सिम्पसन पुनः विवाह करने के लिए कानूनन
और सहानुभूति का परिचय दिया है, क्योंकि वे एक स्वतन्त्र हो जायेंगी।
ऐसे सम्राट् थे जो ग़रीबों और दलितों के प्रति अपना सक्रिय अनुराग व्यक्त करने में कभी नहीं चूकते थे और कुछ पत्रों की तो यहाँ तक सम्मति है कि उनके राज्य-त्याग का उनका यह स्वभाव भी एक कारण है। यहाँ हम 'आज' के अग्रलेख का कुछ अंश उद्धृत करते हैं। इस घटना से हम भारतीयों के हृदय सम्राट् की ओर अनायास किस प्रकार खिंच गये हैं, यह इससे भले प्रकार स्पष्ट हो जायगा।
साम्राज्य के लिए अपने प्रियतम की हत्या करनेवाले बहुत हो गये और होंगे, पर ऐसे पुरुष बिरले ही होते हैं जो प्रिय के लिए पृथ्वी के सबसे बड़े साम्राज्य के सम्राट होने का मोह त्याग दें। अष्टम एडवर्ड ने यही किया है और यह कहकर हृदयवान् पुरुषों के हृदय में अपने लिए सदा के लिए स्थान
कर लिया है। जिस महिला से श्रापका प्रेम हुआ वह आपके [श्री अर्नेस्ट सिम्पसन, जिनकी पत्नी ने उन्हें
योग्य है अथवा नहीं, यह प्रश्न ही बिलकुल दूसरा है।
हमारे सामने तो यह सत्य है कि एक महिला से आपका हाल में तलाक़ दिया है।
प्रेम हो, पर साम्राज्य के शासकों ने आपको सिंहासन पर लोगों के लिए यह प्रश्न भी कम महत्त्व का नहीं है रहते हुए उससे विवाह नहीं करने दिया और अपने साम्राज्य कि एक साधारण स्त्री के लिए महाराज ने अपनी राजगद्दी के लिए उसका त्याग न करके उसके लिए साम्राज्य का क्यों छोड़ दी ? लेकिन इधर के समाचारों से विदित होता त्याग कर दिया। यह महत्ता-हृदय की यह दृढ़ता-और है कि महाराज केवल श्रीमती सिम्पसन के सौन्दर्य पर ही बुद्धि की विशालता मानव-समाज को भूषित करनेवाली
आकर्षित नहीं हुए हैं, बल्कि श्रीमती सिम्पसन के कितने है। ब्रिटिश सहासन का त्याग करते समय अाज हम उस ऐसे त्यागपूर्ण और प्रभावशाली कार्य हुए हैं, जिनका महान् पुरुष को अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करते हैं। एक महाराज के ऊपर एकान्त रूप से प्रभाव पड़ा है। प्रकृत पुरुष के प्रति मानव-समाज की यह श्रद्धा है-इससे ____ कहा जाता है कि मिसेज़ सिम्पसन बड़ी सुन्दर, राज्य का कुछ भी सम्बन्ध नहीं। लावण्यमयी, आकर्षक तथा तीक्ष्ण विनोद-बुद्धिवाली हैं। अष्टम एडवर्ड का राजनैतिक जीवन आज समाप्त हो और सबसे बड़ा गुण आपमें यह है कि आप वाक्चातुर्य गया । इस अवसर पर यह कहना हम अपना कर्तव्य समझते में बड़ी प्रवीण हैं।
हैं कि ब्रिटिश राजवंश में इधर ऐसा श्रीमान् और लोकहितैषी पुरुष दूसरा नहीं हुआ था। उस राजवंश के पुरुषों
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की --- विशेष कर सिंहासन के उत्तराधिकारी और सिंहासनाधिष्ठ पुरुषों की स्वतंत्रता बहुत ही मर्यादित है। उस मर्यादा के भीतर रहकर भी आपने जनता की अभूतपूर्व सेवा की और ऐसे लोकप्रिय हुए जैसा पहले कोई नहीं हुआ था । हम मानते हैं कि जिस महिला से श्रापका प्रेम गया है वह राजराजेश्वरी होने योग्य नहीं है। इसका कारण हमारी दृष्टि में इसके सिवा और कुछ नहीं है कि उस महिला के दो विवाह पहले हो चुके थे और
हो
Dragonss
सरस्वती
[प्रेम सिंहासन से भारी सिद्ध हुआ ।]
दोनों परित्यक्त पति अभी तक जीवित हैं। यदि किसी साधारण कुल की सुशीला कुमारी से विवाह करना चाहते तो सम्भवतः मंत्रिमंडल उसका विरोध करने का साहस न करता । पर इस विवाह के मार्ग में पहले के दो विवाह बाधक अवश्य थे । ब्रिटेन के साधारण कानून के अनुसार ऐसे विवाह वैध हैं, पर सिंहासनों के उत्तराधिकारियों की जननी ऐसी नारी नहीं हो सकती, यह बात
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[ भाग ३८
स्वयम् सम्राट् एडवर्ड भी जानते और मानते थे । इसी से आपने प्रधान मन्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा क़ानून नहीं बना दे सकते कि वह मेरी पत्नी हो, पर सम्राज्ञी न हो ? श्री बाल्डविन ने इनकार कर दिया । इस अस्वीकृति का मर्म ही हमारी समझ में नहीं आया । अष्टम एडवर्ड के अविवाहित रहते सिंहासन के उत्तराधिकारी आपके छोटे भाई ड्यूक आफ यार्क थे, और अब तो आप सिंहासन पर भी बैठेंगे । श्राप विवाह कर लेते और पत्नी 'रानी' न होती तो भी यही परम्परा जारी रहती । फिर आपको अपने हृदय की इच्छा पूर्ण करने का अवसर क्यों नहीं दिया गया, क्यों ब्रिटिश साम्राज्य को ऐसे योग्य और लोकप्रिय राजा से वंचित किया गया ? इसका सन्तोषजनक उत्तर हमें नहीं मिल रहा है। शायद इतिहास देगा । परमात्मा श्री विण्डसर को अपने प्रेम में सुखी करे !
शेरो की भविष्य वाणी
सुप्रसिद्ध भविष्यवक्ता शेरो ने सन् १९१५ में सम्राट् अष्टम एडवर्ड के सम्बन्ध में एक भविष्यवाणी की थी। उसका कुछ अंश इस प्रकार है
“युवराज ( व सम्राट् ) का जन्म एक ऐसी घड़ी में हुआ है कि उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ समझ सकना ही मुश्किल है। उनके नक्षत्रों से मालूम होता है कि उनका जीवन बहुत ही बेचैनी से गुज़रेगा। उनमें एक-सी विचारधारा का प्रभाव रहेगा। ध्यान को केन्द्रित करने में उन्हें मुश्किल होगी । यात्रा और विविध दृश्यों के निरीक्षण के लिए उनमें अपार प्रेम होगा। उनमें 'ख़तरे की भावना ' न रहेगी । व्यग्र शारीरिक चेष्टात्रों द्वारा वे बेचैनी और घबराहट का प्रदर्शन करेंगे। वे एक ऐसे व्यक्ति होंगे जो सदैव 'प्रेम की भावना का अनुभव करते रहेंगे... उनके नक्षत्रों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे सर्वनाशक प्रेम के शिकार होंगे। अगर उन्होंने प्रेम किया तो मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि वे अपने प्रेम-पात्र को प्राप्त करने के लिए सम्राट का पद भी छोड़ देंगे, क्योंकि विवाह- क़ानून उनकी इच्छा को बहुत ज्यादा सीमित कर देगा ।
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नई पुल
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[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथा समय प्रकाशित होगा।]
१–मेरी कहानी-लेखक, श्रीयुत पंडित जवाहर- ११-१६-गीता-प्रेस, गोरखपुर-द्वारा प्रकालाल नेहरू, अनुवादक, श्रीयुत हरिभाऊ उपाध्याय, शित ६ पुस्तकेप्रकाशक, सस्ता साहित्य-मंडल, दिल्ली और मूल्य ४) है। (१) पूजा के फूल-लेखक, श्रीयुत भूपेन्द्रनाथ देव
२-तेल (उपन्यास)-अनुवादक, श्रीयुत छविनाथ शर्मा, और मूल्य ।। ) है । पाण्डेय, प्रकाशक, हिन्दी-साहित्य कार्यालय, सर्चलाइट, (२) आनन्द मार्ग-लेखक, श्रीयुत चौधरी रघुबिल्डिग्स, पटना और मूल्य १।।) है।
नन्दनप्रसादसिंह और मूल्य ॥7) है। ३-जापान-लेखक, श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन, (३) धूपदीप-लेखक, श्रीयुत माधव और मूल्य प्रकाशक, साहित्य-सेवा-संघ, छपरा और मूल्य ३१) है। ) है।
४-उत्तराखंड के पथ पर-लेखक, प्रोफेसर (४) सूक्ति सुधाकर-सानुवाद मूल्य ।।-) है । मनोरञ्जन, एम० ए०, प्रकाशक, पुस्तक-भंडार, लहेरिया (५) कल्याण-कुंज शिव-मूल्य ।) है । सराय, पटना और मूल्य २) है।
(६) तत्त्व-विचार-लेखक, श्रीयुत ज्वालाप्रसाद ५-अवध की नवाबी-अनुवादक, श्रीयुत गणेश कानोड़िया और मूल्य ।-) है। पाण्डेय, प्रकाशक, छात्रहितकारी पुस्तकमाला, दारागंज, १७-कृषि-उद्यान-विद्यासागर-लेखक, श्रीयुत प्रयाग और मूल्य २) है।
अं०, गो० करन्दीकर, मिलने का पता-करन्दीकर ब्रदर्स, ६-योगासन और अक्षय युवावस्था-लेखक, जुगल-निवास, टीकमगढ़ और मूल्य २॥) है। स्वामी शिवानन्द सरस्वती, प्रकाशक, भारतवासी-प्रेस, १८-लिपिकला-प्रणेता, पंडित गौरीशंकर भट्ट, दारागंज, प्रयाग और मूल्य १) है।।
प्रकाशक, अक्षर-विज्ञान-कार्यालय, मसवानपुर, कानपुर ___-राष्ट्रसंघ और विश्व-शान्ति-लेखक, श्रीयुत और मूल्य ।) है। रामनारायण यादुवेन्दु, बी० ए०, एल-एल० बी०, १९–शिक्षा कैसी हो ?-अनुवादक, श्रीयुत धन्यप्रकाशक, मानसरोवर-साहित्य-निकेतन, मुरादाबाद और कुमार जैन, प्रकाशक, विशालभारत-कार्यालय, १२०/२, मूल्य ३।।) है।
अपर सरकूलर रोड, कलकत्ता और मूल्य ।) है।। ८-समाजवाद-लेखक, श्रीयुत सम्पूर्णानन्द २०-जीवन्त-प्रकाश (गुजराती)-लेखक, श्रीयुत जी, प्रकाशक, काशी-विद्यापीठ, बनारस (छावनी) और गोविन्द द. पटेल, प्रकाशक, गोरधनलाल, किशोरभाई, मूल्य १॥) है।
पटेल, एडवोकेट, नंदानंद, अलकापुरी सयाल नगर, ९-बुन्देल-केशरो (नाटक)-लेखक, श्रीयुत श्यामा- बड़ादा और मूल्य १) है । कान्त पाठक, बी०, लिट०, प्रकाशक, कर्मवीर-प्रेस, २१-स्तोत्र-सरिता (गुजराती-अनुवाद-सहित)जबलपुर और मूल्य ||) है।
अनुवादक, श्रीयुत हि०, म०, शास्त्री, प्रकाशक, श्रीबाला१०-हार (कविता)-लेखक, श्रीयुत पद्मकान्त भारती-कार्यालय, मुक़ाम, धड़कण, पो० प्रा० प्रान्तिज, मालवीय, प्रकाशक, दि नेशनलिस्ट न्यूज़पेपर्स कम्पनी ज़िला अहमदाबाद और मूल्य ।। है । लिमिटेड, प्रयाग और मूल्य ||) है। :
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सरस्वती
१ - ऋग्वेद संहिता - बनैलीराज्य के अधिपति श्रीमान् कुमार कृष्णानन्दजी ने एक लाख रुपया लगाकर 'गंगा' नाम की एक उच्च कोटि की मासिक पत्रिका और 'वैदिकपुस्तक - माला' को जन्म दिया था । 'गङ्गा' तो चार वर्ष चलकर बन्द हो गई पर 'वैदिक पुस्तक -माला' का काम जारी है और हाल में उसके प्रथम पुष्प ॠग्वेद संहिता का अन्तिम खण्ड भी छुपकर प्रकाशित हो गया। इस प्रकार कोई तीन वर्ष के भीतर ऋग्वेद संहिता कई खंडों में छपकर प्रकाशित हो गई । इसके हिन्दी भाष्यकार पंडित रामगोविन्द त्रिवेदी और पंडित गौरीनाथ झा हैं। इस संस्करण के ऋग्वेद का मूल्य १६ ) है । हिन्दी भाष्य सहित ॠग्वेद का पहला संस्करण जो इतने कम मूल्य में प्रकाशित किया गया है । यह संस्करण साधारण लोगों के लिए इतना अधिक सस्ता ही नहीं है, किन्तु इसका भाष्य भी सायण के भाष्य का मथितार्थ है । ऐसी दशा में वेद के प्रेमियों को इस संस्करण का अवश्य संग्रह करना चाहिए । वेद हिन्दुओं की परम निधि है । संस्कृत में होने के कारण वे जनता से दूर हो गये हैं । इसलिए इस बात की बहुत बड़ी ज़रूरत है कि कम से कम ॠग्वेद का एक हिन्दी-संस्करण सस्ते से सस्ता निकाला जाय । अच्छा होता 'वैदिक पुस्तक - माला' केवल अपने हिन्दी अनुवाद को 'हिन्दी ॠग्वेद' के रूप में प्रकाशित करती । ऋग्वेद संहिता के इस संस्करण के निकालने के लिए इसके प्रकाशक वास्तव में बधाई के पात्र हैं।
२-४ - श्री भारत-धर्म महामण्डल की तीन पुस्तकें
(१) मार्कण्डेयपुराण - भारत-धर्म-मण्डल का प्रकाशन विभाग १८ महापुराणों को हिन्दी में प्रकाशित करना चहता है । इस सिलसिले में उसने सबसे पहले मार्कण्डेयपुराण का प्रकाशित किया है । व्यास-प्रणीत १८ पुराणों में मार्कण्डेयपुराण एक विशिष्ट पुराण है । आकार में यह छोटा है और इसकी श्लोक संख्या कुल नौ हज़ार है । ास्तिक हिन्दुत्रों का परममान्य 'सप्तशतीस्तोत्र' इसी पुराण से निकला है । इसी का यह हिन्दीभाषान्तर है । भाषान्तर की भाषा संस्कृत-गर्भित है, तथापि श्राशय समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती । अच्छा होता यदि अनुवाद की भाषा सरल ही नहीं अति सरल होती । स्थल स्थल पर
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[ भाग ३८
जो पाण्डित्य - पूर्ण टिप्पणियाँ दी गई हैं उनसे पुराण के रहस्यों पर सनातन धर्म के दृष्टिकोण से अच्छा प्रकाश डाला गया है । ये टिप्पणियाँ भारत धर्म महामण्डल के पूज्यपाद श्री स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज ने लिखवाई हैं । इन टिप्पणियों के कारण यह हिन्दीमार्कण्डेयपुराण अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है । पुराणप्रेमियों को इस संस्करण का संग्रह करना चाहिए। यह तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ है । इसकी पृष्ठ संख्या ४७४ और तीनों खण्डों का मूल्य ३) है ।
।
) भारतवर्ष का इतिवृत्त -- यह एक अनोखी पुस्तक है । इसमें भारतवर्ष अर्थात् भू-मण्डल तथा भारतअर्थात् हिन्दुस्तान का भेद स्पष्ट करते हुए देश और काल के पौराणिक दृष्टिकोण से जो विवेचना की गई है। वह निस्सन्देह पाण्डित्य-पूर्ण है और इन विषयों के विशेषज्ञों के विचार के लिए एक नई विचार - सरणि उपस्थित करती है । यह ग्रन्थ १२ अध्यायों में विभक्त है । पहले अध्याय में ब्रह्माण्ड और भारतवर्ष का सम्बन्ध बतलाया गया है, दूसरे अध्याय में ब्रह्माण्ड के मानचित्र का विवरण दिया गया है, तीसरे अध्याय में भारत - द्वीप को जगद्गुरु सिद्ध किया गया। चौथे अध्याय में आर्यों की काल-गणना का परिचय दिया गया है, पाँचवें में मनुष्यसृष्टि और वर्णाश्रमबन्ध का विवेचन किया गया है। छठे में भारत - द्वीप का सामाजिक संगठन, सातवें में वेद और शास्त्रों की महिमा का वर्णन, आठवें में भारत द्वीप के धर्म, नवें में राज्यशासन व्यवस्था, दसवें में शिक्षा-प्रणाली, ग्यारहवें में रामायणकालीन संस्कृति और बारहवें में महाभारतकालीन संस्कृति का दिग्दर्शन कराया गया है। यह इसका भी पहला ही खण्ड है । इसकी पृष्ठ संख्या ३८० और मूल्य २) है ।
(३) सप्तशती - यह सप्तशती का संस्करण अधिक उपयोगी है । यह संस्कृतटीका और हिन्दी अनुवाद के सहित है। इसके सिवा कवच आदि स्तोत्र एंव सूक्त और आवश्यक न्यास आदि भी दे दिये गये हैं । श्रतएव इससे नित्य के पाठ आदि का भी काम निकल सकता और इस महत्त्वपूर्ण स्तोत्र के अध्ययन और परिशीलन का भी । इस लिए यह संस्करण अनूठा ही है । हिन्दीवालों के लिए सप्तशती का यह संस्करण प्रत्युपयोगी है । सप्तशती-प्रेमियों
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संख्या १]
नई पुस्तकें
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को इसका अवश्य संग्रह करना चाहिए । मूल्य और वह बड़े सोच में पड़ जाती है। रानी का पिता दया॥) है।
धाम से उसकी शादी करना चाहता है। यद्यपि उसे यह . उक्त पुस्तकें शास्त्र-प्रकाशन-विभाग, महामण्डल-भवन, स्वीकार नहीं था, पर इस समस्या के आ जाने से उसने जगतगंज, बनारस के पते पर मिलती हैं ।
पिता की बात स्वीकार कर ली और पिता-पुत्री साथ साथ . ५–मन्दिर-दीप-लेखक, श्रीयुत ऋषभचरण जैन, सिनेमा हाल में दयाधाम को यह सूचना देने जाते हैं । वहाँ प्रकाशक, साहित्य-मण्डल, बाज़ार सीताराम, दिल्ली, हैं। दयाधाम से तो नहीं, नागरदास और रानी से भेंट होती पृष्ठ-संख्या ३८० और मूल्य ३) है।
है। नागरदास की बातों से प्राकष्ट होकर रानी उसके लेखक ने अपने इस उपन्यास में भारतीय शिक्षित साथ उसके इच्छित स्थान पर जाती है। मार्ग में गाड़ी में युवक-युवतियों के आधुनिक जीवन पर प्रकाश डालने का नागरदास मिस रानी से अनुचित प्रस्ताव करता है जिससे प्रयत्न किया है। इसका कथानक रोचक और मनो- विवश होकर रानी ख़तरे की जंजीर खींचती है। अन्त में रंजक है।
नागरदास रानी को लेकर अपने घर जाता है और वहाँ _ जनककुमार, दयाधाम और नागरदास एक ही भी वह उससे वैसी ही अनुचित छेड़-छाड़ करता है, पर कालेज के विद्यार्थी हैं । उसी कालेज में मिस रानी और वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं होता। अन्त में रानी को मिस रोज़ भी पढती हैं। मिस रोज़ एक पादरी की लड़की अपने घर में कैदी की हालत में रखता है। मिस रोज़ के है। मिस रानी एक प्रतिष्ठित घराने की हैं और उसका पिता को रोज़ और जनककुमार का पता लग जाता है और आचरण भी श्रेष्ठ है। दयाधाम और रानी के विवाह की वहाँ जाकर जनककुमार को पकड़वा कर जेल भेजवा देता चर्चा है और मिस रानी अपने को जनककुमार की सह- है। पर जब उसे रोज़ से जनककुमार के असाधारण धर्मिणी समझती है। दयाधाम के दिल पर रानी के इस व्यक्तित्व का पता लगता है तब वह अपना मुकद्दमा उठा मनोभाव का बुरा असर पड़ता है और वह जनककुमार लेता है। जनककुमार, दयाधाम और रानी के पिता के से शत्रुता रखने लगता है । एक दिन सुनसान जंगल में वह साथ रानी का पता लगाने जाता है और सब लोग रानी जनककुमार पर पिस्तौल से वार भी करता है, पर जनक- के कारागार का भीषण दृश्य और रानी की दृढ़ता देखते कुमार मृत्यु से बच जाता है, और उसके हाथ में घाव हो हैं । अन्त में नागरदास को पुलिस गिरफ्तार करना चाहती जाता है, जिसे वह किसी पर भी नहीं प्रकट करना चाहता। है, किन्तु वह स्वयं अपनी हत्या कर लेता है । रानी बन्धननागरदास रईस का लड़का है। इसका पढ़ने में दिल नहीं मुक्त होती है और सब लोग प्रसन्न होते हैं। लगता । यह केवल नवयुवतियों के आमोद-प्रमोद के लिए कथानक का वर्णन बहुत बढ़ाकर किया गया है, कालेज में पढ़ने जाता है। रोज़ से इसकी घनिष्ठता है। जिससे पुस्तक का आकार काफी बढ़ गया है। कथा रोचक मिस रानी के प्राचरण का अनुकरण करके रोज़ भी अपना और मनोरंजक है। पढ़ते समय आगे की घटना जानने सुधार करना चाहती है। उसकी जनककुमार से भी दोस्ती की उत्सुकता होती जाती है। किन्तु इसमें कुछ ऐसे भद्दे है । जनककुमार से रोज़ के विवाह की अफवाह नागरदास चित्र भी अंकित किये गये हैं, जो कथानक को समयानुकूल
आदि फैला देते हैं, पर वह झूठी सिद्ध होती है और बनाने की अपेक्षा उसे पीछे की ओर ले जाते हैं । जैसेउनकी काफ़ी बेइज्जती की जाती है। उसी रात को जनक- मिस रानी नागर के कुत्सित व्यवहार से रुष्ट होकर जंजीर कुमार रोज़ के यहाँ जाकर अपने बाहर जाने का प्रस्ताव खींचने में तो साहस का काम करती है, पर गार्ड के आने करता है । मिस रोज़ भी उसके साथ जाने का हठ करती पर वह नागरदास के इस कथन का कुछ भी विरोध नहीं है और इस शर्त पर दोनों निकल भागते हैं कि एक सच्चे करती कि "यह मेरी स्त्री है, इसका दिमाग़ ठीक नहीं है, लोकसेवक के रूप में अपना जीवन व्यतीत करेंगे । वे इसने भूल से यह काम किया, श्राप ५० रु० लीजिए और जाकर एक गाँव में छोटी कुटी बनाकर रहने लगते हैं। जाइए।" कदाचित् ही आज कोई ऐसी शिक्षित महिला
मिस रानी को इस समाचार से विशेष ग्लानि होती है होगी जो अनिच्छा और क्रोध की दशा में अपनी बात
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सरस्वती
[भाग ३८
के कहने में संकोच का अनुभव करे ? दूसरे स्थल जीवन में प्रवेश करती हैं तब उनके सामने एक विकट पर रोज़ और जनककुमार की कुटी में कामुक थानेदार- समस्या उठ खड़ी होती है। अपने नये जीवन को किस द्वारा जनककुमार का जो शिक्षा दिलवाई गई है वह ढंग से ले चलें, उन्हें यह नहीं सूझता है। हमारे देश की ठीक नहीं कही जा सकती। पर इसमें मिस रानी और शिक्षा भी केवल किताबी शिक्षा होती जा रही है, उसमें जनककुमार के चरित्र बहुत शुद्ध चित्रित किये गये हैं। व्यावहारिक जीवन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान नहीं दिया उनके आचरण से भारतीय युवक-युवतियाँ अपने आचरण जाता है। इस कारण शिक्षित नवयुवतियाँ भी गृहस्थ-जीवन को सुदृढ़ बना सकती हैं । इस उपन्यास की भाषा भी सरल में प्रवेश करने पर एक अबूझ पहेली के हल करने की है, इससे कथानक अासानी से समझ में आ जाता है। उलझन में पड़ जाती है। उपन्यास-प्रेमियों को इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए। यह पुस्तक स्त्री-पुरुषों के जीवन की ऐसी ही जटिलता
-गंगासिंह पर प्रकाश डालती है। यह उपन्यास के तर्ज़ पर ६-मोतियों के बन्दनवार–पुस्तक मिलने का लिखी गई है और इसमें यह बताया गया है कि पता-प्रकाशक, ११ एलगिन रोड, प्रयाग है । मूल्य सवा दाम्पत्तिक जीवन किस तरह सुख-पूर्वक बिताया जा सकता रुपया ११) है।
है। इसके लिए बीच बीच में तरह तरह के उपयोगी इस पुस्तक की सहायता से मोतियों के तोरण, बन्दन- नुस्खे तथा उपचार भी बताये गये हैं। वस्तुतः यह गार्हस्थ्य वार तथा लेम्पशेड बनाये जा सकते हैं। रंग-बिरंगे मोतियों शास्त्र एवं कामशास्त्र-सम्बन्धी पुस्तक है। इस पस्तक में से सिंह. तोता. मोर. राजहंस. भारतमाता, कदम्ब के नीचे ३३ परिच्छेद हैं। इसके ३२वे परिच्छेद में ऐ श्रीकृष्ण, स्वागतम् इत्यादि अनेक नमूने बनाये जा सकते लिखी गई हैं जिनका जानना प्रत्येक नये दम्पती के लिए हैं । बनानेवालों की सुविधा के लिए 'तारण बनानेवालों आवश्यक है । इसमें केवल व्यक्तिगत जीवन पर ही प्रकाश के लिए कळ ज्ञातव्य बातें. तोरण के मोती. 'बनाने नहीं डाला है. बल्कि गृहगत. समाजगत. लोकगत व्यावकी विधि' इन विषयों का अच्छी तरह समझाते हुए हारिक जीवन की भी इसमें विस्तार से चर्चा की गई है। वर्णन किया गया है।
विषय के वर्णन का ढंग रोचक और हृदयग्राही है। गुजरात तथा बम्बई प्रान्तों में मोतियों के तोरण-द्वारा
. मुकुटविहारी द्विवेदी 'प्रभाकर' खिड़कियाँ तथा दरवाजों के सजाने का बड़ा प्रचार -सन्त–सम्पादक, श्रीमहर्षि शिवव्रतलाल हैं। है। आशा है कि इस प्रान्त की कलारसिक स्त्रियाँ भी वार्षिक मूल्य ४॥) है। पता--मैनेजर 'सन्त' कार्यालय, प्रयाग । इस प्रकार के सस्ते आकर्षक तथा सुन्दर नमूने डाल महर्षि शिवव्रतलाल राधास्वामी-सम्प्रदाय की एक कर अपने घर सजायेंगी। इस विषय की हिन्दी-भाषा में शाखा के 'सद्गुरु' हैं। यह 'सन्त' उन्हीं का मासिक पत्र यह पहली पुस्तक है। पुस्तक इस ढंग से लिखी गई है है, जो गत दस वर्षों से हिन्दी में प्रकाशित हो रहा है । कि छोटी छोटी बालिकाओं से लेकर साधारण पढ़ी-लिखी 'सन्त' का यह दिसम्बर १९३५ का अङ्क है और 'शिवस्त्रियाँ तक बिना किसी कठिनाई के, थोड़े से मूल्य में, संहिता' के नाम से प्रकाशित किया गया है। पौराणिक तोरण या बन्दनवार बनाने का तरीका समझ जायँगी। यह कथात्रों एवं रूपकों में 'शिव' तथा उनके परिवार का जो पुस्तक विशेषतया बालिकाओं तथा स्त्रियों के लिए विशेष वर्णन किया गया है उन सबके रहस्यों को इस 'अंक' में सरल उपयोगी है।
भाषा तथा रोचक शैली में समझाने का प्रयत्न किया गया __७-प्रेमपिचकारी-लेखिका व प्रकाशिका, श्रीमती है। शिव कौन हैं, उनका वर्ण श्वेत क्यों है, उनके गले की राधारानी श्रीवास्तव, श्री माधवाश्रम, २९ न्यू कटरा, मुण्डमाला का क्या अर्थ है, कपाल-पात्र में शिव के भंग इलाहाबाद हैं। पृष्ठ-संख्या ४४२, छपाई व सफ़ाई सुन्दर, पीने का क्या रहस्य है, इत्यादि प्रश्नों की युक्तिसंगत सुनहरी सजिल्द पुस्तक का मूल्य ३) है।
विवेचना की गई है। पुराणों के इन आलंकारिक रहस्यों हमारे देश की बालिकायें जब पढ़-लिख कर गृहस्थ- को खोल कर योग-दृष्टि से उनकी जो व्याख्या इसमें की गई
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संख्या १]
नई पुस्तकें
है उससे सर्व-साधारण को पर्याप्त सन्तोष होगा। इस प्रकार कविताओं और कहानियों का जो संकलन किया गया है वह के अर्थों से मत-भेद हो सकता है, किन्तु इस प्रकार के विशेष रूप से सुन्दर है। इसको पढकर भारत प्रयत्न के बिना पुराणों में वर्णित अालंकारिक देव-गाथा के मुख्य उद्देश का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। कमला तथा उनके परिवार एवं वाहनों की कल्पनायें जनता के और भक्तिमार्ग नाम के दो रंगीन चित्रों के सिवा कई सादे विशेष उपयोग की वस्तु नहीं बन सकती हैं। इस प्रकार के चित्रों का भी इस अंक में समावेश किया गया है।
राणों के उच्च विज्ञान के रहस्यों को बहुत कुछ दिवाली के सम्बन्ध की विशेष जानकारी रखनेवाले पाठकों सरल करने में समर्थ हुए हैं। डाक्टर भगवानदास को इस अंक का अवश्य संग्रह करना चाहिए। जी ने भी अपने 'समन्वय' नामक ग्रन्थ में इस दिशा ११–'सैनिक का' 'चुनाव-अंक'–सम्पादक, श्रीयुत में अच्छा प्रयत्न किया है। पुराणों के अलंकारों के रहस्यों श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, प्रकाशक, सैनिक प्रेस, कसेरट को खोलकर लेखक ने हिन्दू-धर्म की प्रशंसनीय सेवा की है। बाज़ार, आगरा और मूल्य ३) है। प्रत्येक हिन्दू-धर्मावलम्बी को जो शिव-विषयक पौराणिक आगरे का 'सैनिक' एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय पत्र है । इसने अलंकार को समझना चाहे, इसका अध्ययन करना चाहिए। अपने प्रचार-क्षेत्र में राष्ट्रीयता के विचारों का प्रचार करने 'सन्त' की छपाई साधारण है तथा प्रूफ़ की अनेक अशु. में बड़ा काम किया है। चुनाव-अंक के रूप में इसका जो द्धियाँ इसमें छूट गई हैं, जिनकी ओर सम्पादक महोदय का विशेषाङ्क निकला है उसमें अागामी कौंसिल और असेम्बली ध्यान जाना चाहिए।
के चुनाव पर कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं के उत्तम लेखों -कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० का सुन्दर संग्रह किया गया है। इस अंक में श्री भूला९-'हिन्दुस्तान'--इस नाम का हिन्दी का एक नया भाई देसाई, श्री सत्यमूर्ति, श्री कावास जी जहाँगीर, श्री दैनिक गत छः महीने से दिल्ली से सफलता के साथ निकल मोहनलाल सक्सेना आदि के लेखों-द्वारा चुनाव के विषय रहा है। यह दैनिक साफ़-सुथरा छपता है । इसका सम्पादन पर काफ़ी प्रकाश डाला गया है। लेखों का चयन बहुत उत्तम बहुत अच्छे ढंग से होता है । यह कांग्रेस का समर्थक है। है। आज-कल चुनाव की चर्चा जोर पकड़ रही है इसलिए अभी हाल में महात्मा गांधी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में सभी वोटरों के लिए इस अंक का पढ़ना आवश्यक है। 'गांधी-जयन्ती-अंक' के नाम से इसका एक विशेष अंक १२–'योगी' का 'दीपावली-अंक'-संपादक, निकला है। इस अंक में महात्मा जी के सम्बन्ध में जो श्रीयुत अार० एल० शर्मा, प्रकाशक, योगी-प्रेस, पटना हैं लेख छापे गये हैं, रोचक तथा महत्त्व के हैं। उनमें एक और मूल्य 7) है। लेख मौलाना शौकतअली का भी है, जिसके अन्त में 'योगी' विहार का एक प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र है। उनका हिन्दी में हस्ताक्षर भी छापा गया है, जो अति अपने अल्पकाल के जीवन में ही यह वहाँ का एक लोकमनोरञ्जक है।
प्रिय पत्र हो गया है। इसका दीपावली-अंक भिन्न भिन्न १०-'महारथी' का 'दीपावली-अंक'–सम्पादक, विषयों की अनेक कविताओं, कहानियों और लेखों से श्रीयुत रामचन्द्र शर्मा, प्रकाशक महारथी-प्रेस, दिल्ली सज्जित है। इस अंक में पं० बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री शाहदरा हैं।
__ब्रजमोहनदास वर्मा, श्रीयुत सुदर्शन, श्री केशरीकिशार'महारथी' का प्रकाशन इसके प्रवर्तक और सम्पादक शरण एम० ए० आदि के लेख उल्लेखनीय हैं। मुखपृष्ठ श्रीयुत रामचन्द्र शर्मा ने बड़े उत्साह के साथ किया था पर पंडित जवाहरलाल नेहरू और स्वर्गीया श्रीमती कमला
और जितने दिनों तक वह निकला, अच्छे रूप में निकला। नेहरू के चित्र हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक स्त्रीपरन्तु बीच में यह कुछ दिनों तक बन्द रहा। प्रसन्नता की पुरुषों के चित्र इसमें प्रकाशित किये गये हैं। बात है, यह फिर नई सजधज के साथ निकला है। भगवान् १३-'लोकमान्य' का 'दीपावली विशेषांक'-- करे, यह चिरायु हो।
संपादक व प्रकाशक, श्रीयुत मन्मथनाथ चौधरी, १६०, दीपावली-अंक इसका विशेषांक है। इसमें लेखों, हरीसन रोड, कलकत्ता हैं और मूल्य =) है।
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७०
- सरस्वती
सदा की भाँति इस बार भी 'लोकमान्य' का दीपावलीक अच्छा निकला है । इस अंक में भिन्न-भिन्न विषयों के सुन्दर लेखों का अच्छा संकलन किया गया. । इसके सभी लेख अपनी विशेषता रखते हैं । बाबू जुगलकिशोर बिड़ला, डाक्टर किशोरीलाल शर्मा, श्री ए० बी० पंडित, श्रीयुत श्रीचन्द्र अग्निहोत्री आदि के लेख बड़े महत्त्व के हैं। श्री महालक्ष्म्यै नमः का सुन्दर रंगीन चित्र है तथा अनेक और भी सादे चित्र हैं । भारतीय संस्कृति के विषय पर भी इस अंक में ख़ासा प्रकाश डाला गया है । १४ -- प्रभाकर (साप्ताहिक पत्र ) - संपादक श्रीयुत हरिशंकर शर्मा, प्रकाशक, प्रभाकर- प्रेस, ५३ ए० सिविल लाइन, आगरा, हैं और वार्षिक मूल्य ३) है ।
श्रीयुत हरिशंकर शर्मा अनुभवी सम्पादक हैं । श्रागरे के 'मित्र' का आपने बहुत दिनों तक योग्यता के साथ सम्पादन किया है । अब आपने 'प्रभाकर' नाम का अपना एक नया पत्र निकाला है। इसकी पहली किरण हमारे सामने है । इसके मुखपृष्ठ पर प्राचार्य पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का चित्र और एक सुन्दर श्लोक है । इसके अतिरिक्त देश-विदेश की अनेक ख़बरें और कई महत्त्वपूर्ण लेख हैं । हमें आशा है कि श्री शर्मा जी के सम्पादन 'प्रभाकर' अपने ढंग का एक विशिष्ट पत्र होगा । समाचारपत्र के पाठकों को इस सुन्दर पत्र से अवश्य लाभ उठाना चाहिए ।
१५ - प्रताप का 'विजयाङ्क' - सम्पादक, श्रीयुत हरिशंकर विद्यार्थी, प्रकाशक, प्रताप प्रेस, कानपुर हैं । पृष्ठसंख्या २२ और मूल्य ) || है |
प्रताप का 'विजयांक' सदा की भाँति सुन्दर निकला है । इस अंक में अनेक सचित्र लेखों का संकलन किया गया है । पं० बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' की 'दाशरथी राम' शीर्षक कविता सुन्दर है । इसके अतिरिक्त राम के सम्बन्ध में और भी कई लेख हैं । इस अंक के लेखकों में श्री जैनेन्द्रकुमार, श्री विश्वम्भरनाथ 'कौशिक', प्रो० सद्गुरुशरण अवस्थी आदि के लेख उल्लेखनीय हैं ।
१६ – 'मिलाप' का 'दुर्गा पूजा अंक' - सम्पादक, श्रीयुत लाला खुशहालचन्द, खुर्सद, प्रकाशक, हिन्द-मिलाप कार्यालय, लाहौर हैं और इस अंक का मूल्य = ) है ।
लाहौर का 'हिन्दी-मिलाप' एक लोकप्रिय पत्र है ।
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[ भाग ३८
इसका बिजयांक ख़ासा सुन्दर निकला है । यह अनेक वीरों के चित्रों से भली भाँति सजाया गया है। रंगीन मुख - पृष्ठ के अतिरिक्त झाँसी की वीर रानी का सुन्दर चित्र अति प्राकषक है। इसमें अनेक सादे चित्र भी दिये गये हैं । इसके सभी लेख सुपाठ्य हैं ।
१७ - 'अर्जुन' का 'रियासत-अंक'–सम्पादक, श्रीयुत कृष्णचन्द्र, प्रकाशक, अर्जुन- प्रेस, श्रद्धानन्द बाज़ार, देहली हैं और मूल्य केवल 1 ) है ।
यह अंक अपने ढंग का अनूठा है। भारतीय रियासतों के सम्बन्ध के अनेक सुन्दर लेखों का इसमें संग्रह किया गया है। श्री पट्टाभि सीतारमैया, श्रीदेवव्रत वेदालंकार, कवीश्वर स० शार्दूलसिंह, सेठ गोविन्ददास, आदि अनेक विद्वानों के अनूठे लेखों का इसमें संकलन किया गया है। चित्रों का संकलन भी सतर्कता से किया गया है । मुख पृष्ठ पर महाराणा प्रताप का चित्र है। पाठकों को यह अंक अवश्य पढ़ना चाहिए ।
१८- स्वतंत्र भारत - सम्पादक, पंडित शारदाप्रसाद अवस्थी, प्रकाशक स्वतंत्र - भारत - कार्यालय, १०२ मुक्ताराम स्ट्रीट, कलकत्ता हैं । पृष्ठ संख्या ४५ और मूल्य ) है ।
'दीपावली' के उपलक्ष में प्रकाशित होने के कारण इसके सभी लेख दीपावली से सम्बन्ध रखते हैं। चित्रों का संग्रह भी किया गया है । पाठकों को इससे ज़रूर लाभ उठाना चाहिए ।
१९ - भूगोल का 'स्पेन - अंक' - सम्पादक, श्रीयुत ग्रानन्दस्वरूप गुप्ता, प्रकाशक, भूगोल- कार्यालय, इलाहाबाद हैं | पृष्ठ संख्या १३६ और मूल्य || ) है |
प्रयाग का 'भूगोल' हिन्दी में अपने ढंग का एक ही पत्र है । यह उसका स्पेन अंक है । इस अंक में स्पेन की भौगोलिक स्थिति पर काफ़ी प्रकाश तो डाला ही गया है, उसकी सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों का भी सम्यक् परिचय दिया गया है। आज कल स्पेन में घरेलू लड़ाई हो रही है, इसलिए पाठकों को उसके सम्बन्ध में विशेष जानकारी की उत्सुकता है । इस अंक से स्पेन की ऐसी सभी बातें पाठकों की समझ में आसानी से ज्ञात हो सकती हैं । इस दृष्टि से भी यह अंक इस समय विशेष उपयोगी है । इसमें अनेक चित्र भी दिये गये हैं ।
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धारावाहिक उपन्यास ക്കാതെ
d
शनि की दशा
अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त, मिश्र सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता स्वर्गीय श्री राखालदास बनर्जी की सहधर्मिणी तथा बँगला की सुप्रसिद्ध उपन्यास-लेखिका श्रीमती काञ्चनमाला देवी ने बँगला में 'शनिदशा' नाम का एक उपन्यास लिखा है । बँगला साहित्य में इस उपन्यास का बड़ा मान है । यह उपन्यास है भी ऐसा ही। इसी से हमने इस वर्ष इसका हिन्दी-भाषान्तर 'सरस्वती'
छापने का निश्चय किया है । अाशा है, सरस्वती के पाठकों को अधिक रुचिकर प्रतीत होगा।
Nोना रे बासन्ती, यह शीशे की
पहला परिच्छेद
में जगह दे दी है, इसको तो समझती नहीं, ऊपर से मेरे
बच्चे को अपराध लगाती है। तू मर भी न गई बासन्ती
कि सन्तोष हो जाता । आज तुझे घर से निकाल का रे बासन्ती, यह शीशे की कटोरी कर ही जल ग्रहण करूँगी। इतना तेरा मिजाज़ बढ़ किसने तोड़ डाली ?” घर के गया है।
भीतर से एक ग्यारह वर्ष की अकारण ही डाट सहकर बासन्ती चुपचाप खड़ी रह क्यों बालिका ने बहुत ही मृदु स्वर गई। अपराधी जब बात का उत्तर नहीं देता तब किसी
से कहा—मैं तो नहीं जानती किसी का पारा और अधिक चढ़ जाता है। बासन्ती को मामी।
उत्तर न देती देखकर यही दशा उसकी मामी की भी । बालिका की यह बात हुई। आँखें लाल करके कमर की साड़ी सकेलती हुई वह सुनते ही प्रश्न करनेवाली भूखी बाघिन की तरह तड़प बासन्ती की ओर बढ़ी और कहने लगी-अब भी मैं सीधे उठी। कड़क कर उसने कहा-तू नहीं जानती तो और से पूछ रही हूँ। सचसच बता दे। नहीं तो देखती हूँ कि कौन जानता है रे चण्डालिन । जो लोग पल्ले सिरे के अाज तुझे घर में कौन रहने देता है ! बदमाश होते हैं वे ऐसे ही भोले बने बैठे रहते हैं, मानो मामी की भयङ्कर मूर्ति देखकर बासन्ती ने रुंधे हुए कुछ जानते ही नहीं। बर्तन मल कर ले आई तू और कण्ठ से कहा-मैं तो कहती हूँ कि मैं नहीं जानती। तोड़ने गई मैं ?
परन्तु आप जब विश्वास ही नहीं करती हैं तब भला मैं क्या ___"सच कहती हूँ मामी, मैं नहीं जानती। नन्हे बच्ची करूँ ? कटोरी जब मैंने तोड़ी नहीं तब भला कैसे कह दूं कि को दूध देने के लिए कटोरी लेने गया था। शायद उसी के मैंने तोड़ी है ? हाथ से छूट पड़ी है।"
अब तो जलती हुई अग्नि में घृत की आहुति पड़ बालिका के मुँह की बात समाप्त भी न हो पाई थी कि गई। तेज़ी से पैर बढ़ाकर मामी ने उसके मुंह पर एक मेघ की तरह गरजती हुई मामी कहने लगी-जितना बड़ा थप्पड़ मारा। अकस्मात् चोट खाकर बासन्ती पृथ्वी पर तो मुँह नहीं है, उतनी बड़ी तेरी बात है। दया करके घर गिर पड़ी। उसका मस्तक चौखट से टकरा गया। इससे
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सरस्वती
[ भाग ३
ज़रा-सा कट गया और खून बहने लगा। असह्य यन्त्रणा कन्या तया विधवा पत्नी के लिए न तो वे किसी प्रकार की के मारे उसके मह से निकल गया—हाय बाप रे! सम्पत्ति छोड़ गये थे और न किसी का सहारा हो कर गये
बासन्ती की यह बात सुनकर क्रोध के मारे कांपते हुए थे। अतएव भाई के घर में श्राश्रय ग्रहण करने के अतिस्वर में मामी ने कहा-बाप को क्या पुकारती है रे रिक्त बासन्ती की मा के लिए कोई दूसरा मार्ग ही नहीं अभागिन ? बाप का तो तूने धरती पर गिरते ही खा लिया। था। परन्तु भौजाई का निष्ठुर तथा हृदयहीन व्यवहार थोड़े ही दिनों के बाद मा को भी खा लिया। इतने से अधिक समय तक सहन करना उसके भाग्य में नहीं बदा भी पेट नहीं भरा तब अब हम लोगों को खाने आई है। था। इसलिए उसकी अशान्त श्रात्मा शीघ्र ही शान्तिमय इतनी बड़ी लड़की के ऐसे ऐसे गुण ! इसके लक्षण देख- के चरणों के समीप चली गई। कर शरीर जल जाता है। निकल जा मेरे घर से। अब माता की मृत्यु के समय बासन्तो केवल चार वर्ष की यदि कभी घर के भीतर पैर रक्खा तो पीटते पीटते खाल थी। माता-पिता की गोद से बिछुड़ी हुई इस बालिका उधेड़ लूँगी। देखो न इस हरामज़ादी को! कटोरी तोड़ी का मामा ने बड़े ही यत्न से पालन-पोषण किया। है इसने, अपराध लगाती है दूसरे को । हट जा मेरे सामने उसके मामा हरिनाथ बाबू उसे बहुत ही प्यार करते
तक तू उठी नहीं ? इस तरह की करतूत पर थे, परन्तु मामी को वह फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी। तेरी जो दुर्दशा न हो वही थोड़ी है।
जन्मकाल से ही दुर्भाग्य की गोद में पालन-पोषण प्राप्त ___ मामी ने बासन्ती का हाथ पकड़कर ज़ोर से खींचा, करनेवाली वह बालिका असाध्य साधना करके भी मामी गला पकड़कर दरवाज़े के बाहर सड़क पर कर दिया, और का स्नेह आकर्षित करने में समर्थ नहीं हो सकी। बालिका स्वयं द्वार बन्द कर भीतर चली गई।
होकर भी वह बहुत ही बुद्धिमती थी। उसने अपने ___ सावन का महीना था। आकाश मेघ से आच्छादित दुर्भाग्य का अनुभव कर लिया था। यही कारण था कि था। पानी की बूंदें टप टप करके गिर रही थीं। अँधेरा वह सदा ही बहुत सावधान होकर रहा करती थी और क्रमशः घना होकर चारों दिशात्रों को ढंक रहा था। लाख कष्ट होने पर भी कभी मँह नहीं खोलती थी। परन्तु धूसरवर्ण की यवनिका संसार को अपने प्रावरण से छिपा जितना ही वह सावधान होकर रहती थी, उतनी ही उसकी रही थी। उसी अन्धकार से प्रायः समाच्छादित सड़क विपत्तियाँ बढ़ती जाती थीं। ग्यारह वर्ष की ही अवस्था पर अकेली ही बैठी बासन्ती रो रही थी। उसके ललाट में घर का सारा काम उसने अपने हाथ में ले लिया था। से उस समय भी रक्त की ज़रा ज़रा-सी बूंदें चू रही थीं। क्या छोटे, क्या बड़े गृहस्थी के किसी भी काम में दूसरे बीच बीच में वह अञ्चल के वस्त्र से चूता हुआ रक्त पोंछ को हाथ लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। परन्तु लिया करती थी । गाँव से दूर शृगालों का झुंड इतने पर भी उसे सदा मामी की झिड़कियाँ ही सहनी अपनी हुअा हुआ की ध्वनि से बस्ती की निस्तब्धता को पड़ती थीं। कभी भूल कर भी मामी शान्ति के साथ उससे भंग कर रहा था । भय से व्याकुल होकर बेचारी बासन्ती बात नहीं करती थी। सोच रही थी कि ऐसे अँधेरे में मैं कहाँ जाऊँ । मामा दरिद्र के घर में जन्म ग्रहण करने पर भी बासन्ती का तीन-चार दिन के लिए बाहर गये हैं। उन्हें छोड़कर रूप असाधारण था। उसके मस्तक के काले काले बाल और कौन ऐसा है जो आकर मुझे घर ले जाय । मामी घुटने के नीचे तक लटक पड़ते थे। उसके शरीर का रंग तो शायद भीतर पैर भी न रखने देगी। इसी तरह की चम्पे के फूल का-सा । मुँह की सुन्दरता के सम्बन्ध में कितनी चिन्तायें उसके छोटे-से हृदय में चक्कर काट रही थीं। फिर कहना ही क्या था? उसे एकाएक देखकर देवकन्या
बहुत थोड़ी ही अवस्था में माता-पिता के स्नेह से का-सा भ्रम हो जाता था और अपने आप ही उसके प्रति वञ्चित होकर बासन्ती का मामा के घर में श्राश्रय ग्रहण स्नेह का भाव उदित हो पाता था। परन्तु इस प्रकार की करना पड़ा था। जय बह दस दिन की थी तभी उसके अतुलित रूपराशि लेकर जन्म ग्रहण करने पर भी दुर्भाग्य पिता इस संसार से विदा हो गये थे। अपनी एक-मात्र के हाथ से वह छुटकारा नहीं पा सकी।
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[चित्रकार श्रीयुत वाणीकान्त दास
प्रकाश और छाया
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संख्या १ ]
सन्ध्या का अन्धकार प्रगाढ़ हो जाने पर दत्त-बहू वसु के यहाँ से लौटकर घर जा रही थीं। साथ में उनका नौकर राम था। वह लालटेन लेकर उनके पीछे पीछे चल रहा था । दूर से ही उन्हें लालटेन के क्षीण आलोक में सफ़ेद वस्त्र से ढँकी हुई मनुष्य की एक मूर्ति दिखाई पड़ी । उसे देखकर पहले तो वे कुछ डरीं, परन्तु बाद का साहस करके आगे बढ़ीं। कुछ ही और आगे आने के बाद उन्होंने देखा कि एक दीवार के सहारे से खड़ी हुई कोई लड़की फूट फूट कर रो रही है । दत्त बहू की अवस्था प्रायः ढल चली थी, और वृद्धता के प्रभाव से उनकी दृष्टि भी कुछ क्षीण हो गई थी। इससे वे पहले लड़की को पहचान न सकीं । धीरे धीरे उसके समीप जाकर उन्होंने पूछा- तुम कौन हो भाई ?
शनि की दशा
दत्त - बहू बासन्ती की मामी का श्राचरण जानती थीं । माता-पिता से हीन बेचारी बासन्ती को वह बहुत ही निष्ठुरता के साथ दण्ड दिया करती है, यह बात भी उनसे छिपी नहीं थी । अतएव उसकी बात से वे ज़रा भीश्चर्य चकित नहीं हुई । कुछ क्षण के लिए वे निस्तब्ध भर हो गईं। उन्होंने कहा — निकाल क्यों दिया है ? तुमने क्या किया था ?
बासन्ती ने कहा- मैंने कुछ नहीं किया था। भैया से एक कटोरी टूट गई है, परन्तु विश्वास नहीं करतीं। कहती हैं कि यह कटोरी तुम्हीं से टूटी है । इसी लिए उन्होंने मुझे मारकर निकाल दिया है। भला इतनी रात को मैं कहाँ जाऊँ बड़ी मामी ?
दत्त-बहू ने समझा-बुझाकर बासन्ती को शान्त किया । उन्होंने कहा- तुम डरती किस बात के लिए हो बिटिया ? चलो, तुम मेरे घर चलो ।
दत्त- बहू का कण्ठ- स्वर सुनकर बासन्ती के रुदन का वेग और भी बढ़ गया । उन्होंने लालटेन लेकर उसके मुँह की ओर देखा तब वे बासन्ती को पहचान सकीं । उसके शरीर पर हाथ रखकर उन्होंने पूछा- क्यों रे बासन्ती, तू इतनी रात में यहाँ कैसे ?
बीच में ही बात काट कर दत्त - बहू ने कहा - तो इतनी रात में तुम यहाँ अकेली ही पड़ी रहोगी ? यह कैसे हो सकता है ? तुम्हें कोई भय नहीं है । तुम मेरे साथ चलो । साथ जाने के लिए दत्त - बहू ने बासन्ती को तैयार कर बड़ी कठिनाई से अपने आपको सँभाल कर उसने लिया । उसे लेकर वे घर की ओर चलीं। मन ही मन वे कहा-मामी ने मुझे घर से निकाल दिया है।
बासन्ती की प्रशंसा करने लगीं। दत्त-बहू काफ़ी चतुर थीं। वे समझ गई कि मारने से ही बासन्ती का माथा फूट गया है, परन्तु इस बात का यह प्रकट नहीं करना चाहती । इतनी बड़ी लड़की की यह बुद्धिमत्ता देखकर वे अवाक् हो गईं ।
एकाएक दत्त - बहू की दृष्टि बासन्ती की साड़ी की ओर गई। उसे देखकर तो वे सन्नाटे में आ गई। उन्होंने
फा. १०
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७३
उत्कण्ठित भाव से कहा- यह क्या हुआ है ? तुम्हारे कपड़े में क्या लगा है ? इतना रक्त कहाँ से आया ? राम रे ! देखो न, साड़ी की साड़ी रक्त से भीग गई है । छिः ! छिः ! वह क्या बिलकुल राक्षसी ही है ! ऐसी अँधेरी रात में जब कि पानी बरस रहा है, ज़रा-सी लड़की को बाहर निकाल दिया । आप घर में आराम से सो रही है । चलो बिटिया, तुम मेरे घर चलो। कैसे लग गया है ? शायद उसी ने मारा है ।
रक्त पोंछते
सूत्रों से
दत्त-बहू ' ने अपने अञ्चल से बासन्ती का पोंछते पूछा- किस चीज़ से मारा है ? रुँधे हुए स्वर से बासन्ती ने कहा- उन्होंने मारा नहीं बड़ी मामी? मैं स्वयं गिर पड़ी हूँ, इससे माथा फूट कर रक्त बहने लगा है । मैं...... अब...... .. नहीं चलूँगी । नहीं तो मामी और भी......
बासन्ती के माता-पिता तो थे नहीं कि उसके लिए चिन्तित होते । इधर मामी को रात्रि के समय में उस
नाथिनी को खोजने की आवश्यकता ही नहीं मालूम पड़ी । स्वयं श्राराम से खा-पीकर वह पड़कर रही ।
इधर बासन्ती को साथ में लेकर दत्त-बहू घर के द्वार पर पहुँचीं। उन्होंने ऊँचे स्वर से पुकारा - विशू ! ज़रा सुन तो ! जल्दी से आना ।
उनकी आवाज़ सुनते ही एक सुन्दर युवक घर के भीतर से निकल आया। उसने कहा- क्या बात मा ?
पुत्र को सामने देख कर उन्होंने कहा - हुा है मेरा सिर । देखो न, इस नन्हीं सी लड़की को राक्षसिन ने एकदम मार डाला है। बेचारी का माथा फूट गया है, जिससे रक्त बह रहा है । इसमें कोई दवा तो लगा दे ।
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सरस्वती
[ भाग ३८
यह बात कहते कहते वे भीतर की ओर जाने को ही जिस दिन उन्हें यह बात मालूम हुई, उसी दिन मानो थीं कि पीछे से किसी की आवाज़ सुनाई पड़ी। इससे उन्होंने सन्तोष के मातृस्नेह के अभाव को दूर करने की उन्होंने मस्तक पर का कपड़ा ज़रा-सा खींच लिया और प्रतिज्ञा कर ली थी। सन्तोष भी उन्हें माता की ही तरह पुत्र को आगन्तुक से बातचीत करने का इशारा करके मानता था। स्वयं बरामदे में हो गई। क्षण भर में एक परिपक्व अनादि बाबू ने इतने समय में बहुत-सा धन एकत्र अवस्था के पुरुष को साथ लेकर वह आ खड़ा हुआ। कर लिया था। परिवार में स्त्री, पुत्र तथा एक कन्या के श्रागन्तुक को देखकर दत्त-बहू ने अपना यूँघट और खींच अतिरिक्त और कोई नहीं था। उनकी कन्या सुषमा उस लिया । उनका पुत्र माता की ओर अग्रसर होकर कहने समय बेथून-कालेज में पढ़ रही थी। एक ही वर्ष में लगा-ये सज्जन कहीं जा रहे हैं । परन्तु ऐसे पानी में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा देनेवाली थी। रात के समय आगे जाना कठिन है, इसलिए कहते हैं कि सुषमा माता-पिता की बड़े आदर की कन्या थी। मुझे ज़रा-सी जगह दे दीजिए।
वह जिस बात के लिए अड़ जाती थी, अनादि बाबू अपनी ___गृहणी ने इशारे से पुत्र को अपनी स्वीकृति दे दी। शक्ति भर उसे पूरा किये बिना नहीं रहते थे। इसी लिए तब आगे बढ़कर वृद्ध ने कहा-मा, तुम मुझसे लज्जा न कभी कभी उनकी स्त्री कहा करती थी कि तुम लड़की का करो। मैं शैशव-काल में ही मातृहीन हो गया हूँ। माता मिजाज़ आसमान पर चढ़ाये जा रहे हो। का स्नेह कैसा होता है, यह मैं नहीं जानता। आज से स्त्री की यह बात सुनकर अनादि बाबू हँस दिया आप ही मेरी मा हैं।
____ करते थे। वे कहा करते थे कि इसके लिए तुम चिन्ता मत ___ इसके बाद उन्होंने उनके पुत्र की ओर इशारा करके करो। बड़ी होने पर क्या मेरी सुषमा ऐसी ही रहेगी ? कहा-यह लड़की कौन है ? विशू ने संक्षेप में उसका उस समय तुम देखोगी कि मेरी सुषमा कितनी सीधी-सादी परिचय दिया। बासन्ती की अतुलित रूपराशि देखकर और विनयशील हो गई है। इसी तरह सुषमा के सम्बन्ध अागन्तुक ने मन ही मन कहा-लड़की है तो अच्छी। में पति-पत्नी में प्रायः कहा-सुनी हया करती थी। कभी
कभी दिखाने के लिए थोड़ा-बहुत मान-अभिमान भी हो दूसरा परिच्छेद
जाया करता था। दुराशा
पहले-पहल सन्तोष बाबू जब इनके यहाँ खाने के लिए सिराजगंज के ज़मींदार राधामाधव बाबू के पुत्र सन्तोष- गये तब उन्हें बहुत झपना पड़ा था। कमरे के भीतर पैर कुमार अपने कलकत्तेवाले मकान में रहते और मेडिकल रखने से पहले ही उन्होंने जूता उतार दिया था। उन्हें ऐसा कालेज में पढ़ते थे। कलकत्ते में अनादि बाबू नामक करते देखकर सुषमा हँसते हँसते लोट-पोट हो गई थी। एक बैरिस्टर थे । उनका लड़का भी मेडिकल कालेज में बाद को जलपान की सामग्री समाप्त करके हाथ धोने के पढ़ता था। उससे सन्तोषकुमार की बड़ी घनिष्ठता थी। लिए जब वे कमरे से बाहर आकर खड़े हुए तब वह कालेज से लौटते समय वे प्रायः अनादि बाबू के यहाँ फिर खिलखिलाने लगी। उसने कहा-बाहर क्यों चले जाया करते थे। बात यह थी कि उनका लड़का अनिल गये सन्तोष बाबू ? . सन्तोषकुमार को किसी प्रकार छोड़ता ही नहीं था। इससे सन्तोषकुमार ने कहा-हाथ धोऊँगा। यह सुनकर उस परिवार के साथ उनकी घनिष्ठता क्रमशः बढ़ती सुषमा और भी ज़ोर से हँसी। उसके हँसने की आवाज़ जाती थी।
सुनकर अनादि बाबू ने कहा-क्या बात है सुषमा ? __अनादि बाबू की स्त्री मनोरमा सन्तोषकुमार को पुत्र इतना क्यों हँस रही है ? से भी अधिक प्यार किया करती थीं। उन्होंने अपने लड़के सुषमा ने कहा-देखिए न बाबू जी, हाथ धोने के अनिल से सुना था कि सन्तोष की माता नहीं हैं । इसलिए लिए सन्तोष बाबू कमरे से बाहर जाकर खड़े हुए हैं । उनके प्रति उनकी ममता और अधिक बढ़ गई थी। तब अनादि बाबू ने कहा-बाहर क्यों चले गये हो
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संख्या १]
शनि की दशा
भैया ? लड़का लोटे में जल रख तो गया है। यहीं हाथ अनिल इस पर सहमत हो गया। फिर से सन्तोष और धो न लो!
सुबमा दोनों ने खेलना प्रारम्भ किया। वे दोनों ही __ तब सन्तोष बाबू ने कहा--हमारी छुटपन से ही इस घूम घूम कर खेल रहे थे। इस खेल का यह नियम ही तरह की आदत हो गई है न। इससे जब कभी हाथ है। इस बार सन्तोष अच्छी तरह खेल न सका। उससे धोना होता है तब मैं अकस्मात् बाहर निकल पड़ता हूँ। बराबर भलें होने लगीं, ऐसा होना स्वाभाविक था।
एक दिन कालेज से लौटते समय अनिल सन्तोष को बात यह थी कि सन्तोष की दृष्टि लगी थी एकाग्र भाव से फिर पकड़ ले आया। जलपान आदि से निवृत्त होने पर सुषमा के मुखमण्डल पर। फिर भला खेल में उससे अनिल ने कहा-चलो, ज़रा बिलियार्ड खेला जाय। भलें क्यों न होतीं ? अन्त में वह हार गया । तब अनिल
सन्तोष ने कहा - आज मुझे एक जगह जाना है ने कहा- ठीक कहती थी सुषमा ! मेरे ही कारण से भाई। आज मुझे खेलने का समय कहाँ है ?
तू उस बार हार गई थी। उनके मह की ओर ताक कर अनिल ने कहा- सुषमा ने मुस्करा कर धीमे स्वर से कहा-देख तो लिया कितने बजे ?
भैया तुमने । मैं क्या मिथ्या कह रही थी ? यह कह कर वह "छः बजे जाना होगा।"
हँसती हुई चली गई। सुषमा के दृष्टि-पथ से परे हो जाने "तब श्राश्रो, ज़रा-सा खेल लें। अभी तो बहुत पर उसकी अोर से मँह फेर कर अनिल ने देखा तो सन्तोष समय है।"
का ध्यान उसी अोर जमा था। अनिल के इस अोर दृष्टि __ अनिल सन्तोष को बिलियार्ड रूम में खींच ले गया। फेरते ही सन्तोष लज्जित हो उठे और नीचे की ओर वे दोनों ही खेलने के लिए बैठ गये। बड़ी देर की हार- देखने लगे। जीत के बाद वे दोनों बड़े ध्यान से खेल रहे थे। इतने ज़रा देर तक चुप रहकर अनिल ने कहा -अायो भाई में सुषमा ने अाकर कहा-भैया, तुम्हें बाबू जी बुला सन्तोष, एक बार फिर खेला जाय । रहे हैं।
सन्तोष ने कहा-नहीं भैया, मुझे क्षमा करो । आज मह ऊपर किये बिना ही अनिल ने कहा-क्या काम अब खेलने को जी नहीं चाहता । बड़ी थकावट मालूम पड़ है सुषमा ?
रही है। सुषमा ने कहा---यह तो मुझे नहीं मालूम है।
अनिल ने मुस्कराकर कहा--अच्छा, तो चलो तब और कोई उपाय न देखकर अनिल उठने के बाहर चलें । यहाँ बड़ी गर्मी मालूम पड़ रही है। लिए बाध्य हुआ। सुषमा की ओर देखकर उसने कहा- सन्तोष और अनिल दोनों ही कमरे से निकल कर तो मेरी जगह पर तू ज़रा देर तक खेल । मैं सुन आऊँ। बरामदे में आये। अनादि बाबू अपनी स्त्री तथा सुषमा सुषमा इस पर सहमत हो गई। बड़ी देर के बाद अनिल के साथ वहीं बैठे थे। इन लोगों को देखते ही उन्होंने जब लौट कर आया तब उसने देखा कि खेल प्रायः समाप्त कहा--अाश्रो भैया, यहीं बैठो।। हो पाया है। इससे वह चुपचाप खड़े खड़े देखने लगा। दोनों ही मित्र बैठ गये। कुछ देर तक तरह-तरह की क्रमशः खेल समाप्त हो गया। इस बार सुषमा हार गई। बात-चीत होती रही। अन्त में अनादि बाबू ने सन्तोष से
सुषमा को चिढ़ाने के लिए अनिल ने कहा-छिः! पूछा-भैया, तुम्हारा तो अब एक ही साल का कोर्स बाकी छिः ! सुषमा, तू हार गई ?
है । कहाँ प्रैक्टिस करोगे. कुछ सोचा है ? अभिमान-मिश्रित स्वर में सुषमा ने कहा—तुम्हारे ही सन्तोष ने मुँह नीचा किये हुए उत्तर दिया-अभी तक कारण तो मुझे इस तरह का अपमान सहन करना पड़ा है। तो कुछ निश्चय नहीं किया । देखें पिता जी क्या कहते हैं । यदि आरम्भ से ही मैं खेलती होती तो मैं कभी न हारती। अनादि बाबू ने कहा-यही ठीक है। उनकी जैसी खेल तो तुमने पहले से ही बिगाड़ रखा था । अच्छा, तुम आज्ञा हो, वही करना तुम्हारा धर्म है। परन्तु मैं तो ज़रा-सा ठहर जाश्रो, इस बार देखना मेरा खेल । समझता हूँ कि गाँव पर ही प्रैक्टिस करना तुम्हारे लिए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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अच्छा होगा । बात यह है कि शहर में अब डाक्टरों का कोई भाव नहीं है । परन्तु हमारे देहातों की अवस्था आज भी बहुत ही शोचनीय है । वहाँ तो कितने ही ग़रीब दुखिया चिकित्सा न हो सकने के ही कारण मर जाया करते हैं । श्रतएव हम लोगों का यह पहला कर्तव्य है कि उनका यह अभाव दूर करें । परन्तु श्राज-कल लड़कों का ध्यान इस ओर नहीं जाता। बहुधा तो वे पिता, पितामह का घर छोड़कर शहर में भाग याना ही पसन्द करते हैं। ठीक कहता हूँ न ?
सन्तोष ने मृदु स्वर से कहा- जी हाँ, आपका कहना बिलकुल ठीक है। आज कल सचमुच हम लोग शहर में ही रहना अधिक पसन्द करते हैं । परन्तु मेरे पिता जी को शहर बिलकुल ही पसन्द नहीं है । मैं जहाँ तक समझता हूँ, वे मुझसे सिराजगंज में ही प्रैक्टिस करने को कहेंगे ।
एकाएक हाथ की घड़ी की ओर सन्तोष की दृष्टि गई ।
कवि, क्या सचमुच गा न सकोगे ? कातर - क्रन्दन में क्या अपना
कोमल-कण्ठ मिला न सकोगे ? यहाँ मय की वायु न बहती, किसको विरह-वेदना दहती । नक्षत्रों में पद ध्वनि 'उनकी', कोई 'मूक संदेश' न कहती ।
उतर अवनि पर शून्य- लोक से,
सरस्वती
कवि क्या सचमुच गा न सकोगे ?
लेखक, श्रीयुत व्रजेश्वर, बी० ए०
पल भर उसे भुला न सकोगे ? यहाँ भूक की जलती ज्वाला, यह कोमल कान्ता 'मधुबाला' । लुटालुटा कितने भी मधुघट, मेट न सकती कष्ट-कसाला |
छोड़ नशे की बान, मानवों का दुख-भार बँटा न सकोगे ? ये कंकाल शेष नर-नारी, भेल वेदना जग की सारी ।
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[ भाग ३८
वे तुरन्त ही उठ कर खड़े हो गये । उन्होंने कहा - श्राज मुझे छः बजे एक जगह जाना था। परन्तु छः यहीं बज रहे हैं। इससे मैं इस समय आपसे आज्ञा लेना चाहता हूँ ।
1
अनिल फाटक तक सन्तोत्र को पहुँचा श्राया । सुप्रमा की मास्टरानी आई थी, इसलिए इससे पहले ही वह पढ़ने चली गई थी । सन्तोष के चले जाने पर अनादि बाबू ने कहा- देखो, यदि दामाद बनाना हो तो सन्तोष ही जैसा लड़का खोजना चाहिए। यह लड़का जैसा नम्र है, वैसा ही चरित्रवान् भी है, मानो हीरे का टुकड़ा है।
गृहणी ने एक हल्की-सी ग्राह भरकर कहा- क्या हमारे ऐसे भी भाग्य हो सकते हैं ? अनिल से सुना था कि उसके पिता कट्टर सनातनी हैं। यह बात यदि सच है। तो भला वे हमारे घर की लड़की कैसे ग्रहण करेंगे ? यह हमारी नितान्त ही दुराशा है । परन्तु इस लड़के का जब से देखा है तब से मुझे ऐसी कुछ ममता हो गई है कि तुमसे क्या कहूँ । श्राह ! बेचारे की मा नहीं है ।
काल- कूट-सा स्वयं ग्रहणकर, पाल रहे हैं देह हमारी ।
बन उनके, उनकी सी कहकर, पल भर उन्हें हँसा न सकोगे ? भूल गये हम भाई-चारा, प्रेमी बन बैठा हत्यारा । धनिकों के इस यन्त्र - जाल में, भटक रहा मानव बेचारा ।
छिन्न-भिन्न मानवता के क्या,
फिर संबंध जुड़ा न सकोगे ? थान प्रथम कवि स्वयं वियोगी, मानव का पथदर्शक योगी । सह न सका जग का उत्पीड़न, इसी लिए रो पड़ा अभोगी ।
औरों की सुख-दुख-गाथा की कोई बात सुना न सकोगे ? कवि क्या सचमुच गा न सकोगे ?
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दो मित्रों की एक कहानी
वह रो रहा था
लेखिका, कुमारी सुशीला पागा, बी० ए०
OD
IG थोड़ी देर के लिए, मुझे दे
NA ग ता पया अपनी कविता की पुस्तक किया, परन्तु इसके अतिरिक्त कि वह मामूली हैसियत का
5 थोड़ी देर के लिए मुझे दे युवक है, सीधे-सादे ढंग से रहता है, और कुछ न जान
। दो-कहते हुए नरेन्द्र ने सका। मुझे स्वयं एक-दो विचित्रतायें उसमें दिखीं। उसके क
कमरे के भीतर प्रवेश किया। वस्त्र बड़े ऊटपटाँग रहते। कभी वह पायजामा, कमीज़
मैं बैठा दाढ़ी बना रहा पहनता, कभी धोती-कुर्ता और कभी पैंट शर्ट । वह प्रायः था। सवेरे सवेरे उसकी इस अजायबघर का छुटा हुआ जानवर-सा लगता था, क्योंकि
बात को सुनकर मैं ज़रा अँझ- जो कपड़े पहनता था उनमें से एक भी उसे फिट नहीं • लाकर बोला-तुम तो मालूम होता है, रात में ही यह होता था। कोई बड़ा होता तो कोई छोटा और कोई ढीला निश्चय करके सो जाते हो कि प्रातःकाल उठकर कौन-सी तो कोई कसा । हमारे छात्रावास के साथी जो फैशन की पुस्तक माँगेंगे। जान पड़ता है, नाम लिखाने भर की फ़ीस सीमाअों को पार कर चुके थे, नरेन्द्र को इस दशा में कैसे दी है। यह नहीं सोचा था कि पुस्तकें भी ख़रीदनी होंगी। पसन्द करते ? जो भी हो, नरेन्द्र के प्रति मेरे हृदय में
मेरी बात का उत्तर दिये बिना ही नरेन्द्र मेरी ओर थोड़ा प्रेम और विश्वास था। छात्रावास भर में मैं ही निहारने लगा। मैंने आईने पर से अपनी दृष्टि हटाकर अकेला उसका मित्र था। मेरे और सहपाठी मुझसे कहतेउसकी ओर देखा। उसके नेत्र याचना कर रहे थे । संकेत "बड़े विचित्र हो । अजब घोंचू मित्र चुना है। तुम्हें क्या से उसे पुस्तक ले जाने को कहकर मैं फिर अपने कार्य में काल पड़ा था ? सिनेमा जाते हो, फैशनेबल हो, रुपयेवाले लग गया।
हो, तुम्हें एक से एक अच्छे पचासों मित्र मिल जायँगे । ___ अनायास ही ऐसे वचन मुख से निकल जाने के लिए प्रयत्न करके देखो।" मुझे थोड़ा-सा पश्चात्ताप हुअा। वह मेरा मित्र है, मैं सबकी सुनता और करता अपने मन की। उन सहपाठी है, क्या मुझ पर उसका इतना भी अधिकार नहीं लोगों के इस विरोध ने हमारा सम्बन्ध और भी घनिष्ठ कर है । खैर, मैंने हजामत समाप्त करके 'स्टेट्समैन' हाथ में दिया । मैं सोचता, नरेन्द्र मनुष्य है, उसके हृदय है। उठाया और आरामकुर्सी पर फैल गया, परन्तु पढ़ने इन्हीं बातों की तो संसार में श्रावश्यकता है। कोई वेशमें मन नहीं लगा। दो-चार पन्ने उलटकर मैंने 'स्टेट- भूषा को शहद लगाकर चाटा थोड़े ही करता है। छात्रासमैन' मेज़ पर पटक दिया और सोचने लगा कालेज वास के लड़के मेरी मुख-मुद्रा देखकर मानो मेरे विचारों तथा छात्रावास की बातें । मुझे छात्रावास में रहते अभी को पढ़ लेते थे। यही कारण था कि उनमें से बहुत-से केवल तीन ही महीने बीते थे । शुरू-शुरू में जब मैं छात्रा- नकचिढ़े तो मुझे सनकी तक कहने में श्रार न करते। वास में आया था, नरेन्द्र ने ही साहस करके मुझसे परिचय किया था। उसने कमरा ठीक करने में मेरी सहायता की हवा के झोंके की नाई और भी कुछ दिन अपनी
और मेरा परिचय भी दो-चार लड़कों से करा दिया। मेरी छाप जगत पर छोड़ते हुए निकल गये । जाड़ा प्रारम्भ हो पुस्तके भी उसी ने खरिदवाई थीं।
गया था। छमाही परीक्षा समीप होने के कारण लड़कों ___ कुछ दिन छात्रावास में बीत जाने पर मुझे पता लगा ने पढ़ाई प्रारम्भ कर दी थी। परन्तु नरेन्द्र बहुधा छात्राकि नरेन्द्र छात्रावास के उन लड़कों में से है जिन्हें लड़के वास से गायब रहता । मैं उसे पढ़ते कभी नहीं देखता था। अधिक मुँह नहीं लगाते। मैंने कारण जानने का प्रयत्न मेरे उन कुछ शब्दों ने उस दिन से उसे इतना प्रभावित
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सरस्वती
[भाग ३८
कर दिया था कि वह उसके बाद से कभी मेरे पास पुस्तके माँगने न पाया। यह साधारण-सी बात थी। मुझे एकदो बार इसका ध्यान अवश्य आया, परन्तु फिर यह समझ कर कि अब तक उसने अपनी पुस्तके मोल ले ली होंगी, चुप रह गया।
रात को दस बजे होंगे, मैं अपना कमरा अन्दर से बन्द किये पढ रहा था। इतने में द्वार पर शब्द हया। मैंने उठकर द्वार खोलकर देखा। नरेन्द्र खड़ा था। उसकी वेश-भूषा विचित्र हो रही थी। ऊँचे से पतलून के ऊपर बारीक मलमल का लम्बा कुर्ता था और उसके ऊपर गरम जरसी। मुझे उसकी यह वेश-भषा देखकर हसी आगई और वह भी कोई साधारण-सी नहीं जो होठों द्वारा चबाई जा सके । मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा। नरेन्द्र एक.
दम ताड़ गया। यह काई नई बात नहीं थी। छात्रावास में प्रायः रोज़ ही वह अपने ऊपर टीका-टिप्पणियाँ सुना करता था। परन्तु अपने मित्र से उसे ऐसी अाशा नहीं। थी। मानो उसने बड़ी भारी वेदना को पी लिया हो। उसका मुख पीला पड़ गया। मैं बात टालने के ढंग से अपनी हरकत पर आप पश्चात्ताप करता हुअा बोला
"रात को जब सब सो जाते हैं तब वह..."
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संख्या १]
वह रो रहा था
"पाप भी खूब हैं जनाब | रात को दस बजे तशरीफ़ लाये "इधर कई दिनों से एक एक करके वह हमारी हैं । मैं तो सोने जा रहा था।"
पुस्तके हमारे कमरों से उठा ले जाता है और दस-पन्द्रह "तब मैं जाता हूँ।" यह कहकर वह मुडा। मैंने दिन के बाद फिर रख जाता है। हम खोजते खोजते तंग लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा-"नहीं, थोड़ी आकर तब तक दूसरी ख़रीद लाते हैं। तुम्हीं बताओ देर बैठो। अब तो तुम बहत ही कम पाते हो।" वह चुप- उसे ऐसा करने का कौन अधिकार हैं। क्या हमें पढना चाप मेरी बात मानकर बैठ गया । इधर-उधर की बातें कर नहीं है ?" चुकने पर मैंने उससे पूछा- "कहो, पढ़ाई का क्या हाल मैंने कहा--नुमसे किसने ऐसा कह दिया ? नरेन्द्र है।" उसने हँसकर टाल दिया। मैंने फिर कहा-"अाज- कभी ऐसा नहीं कर सकता। कल कितने ही दिने से तुम्हारी सूरत तक नहीं दिखाई वह बोला--मैंने स्वयं दो-तीन रात जागकर देखा पड़ती । कहाँ ग़ायब रहते हो ?” उसने धीरे से कहा- "मैं है। रात को जब करीब करीब सब लड़के सो जाते हैं तब तो यहीं रहता हूँ।"
वह यहाँ अाकर बत्ती जलाकर लिखता-पढता रहता है। ___उसकी मुख-मुद्रा को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए मैं मेरे नेत्रों के आगे अन्धकार छा गया, विश्वास बोला - 'तुम ग़लत कहते हो । यह बात ठीक नहीं नरेन्द्र ! नहीं हुआ। अब परीक्षा बहुत समीप है। पढ़ेागे नहीं तो कैसे काम उन लोगों ने कहा--विश्वास न हो तो आज रात चलेगा ?"
को जाग कर स्वयं देख लो । परन्तु तुम उसको समझा ___"इन बातों की चिन्ता तुम व्यर्थ करते हो।" वह दो | इस तरह पुस्तके उड़ायेगा तो हम लोग उसे खूब गंभीरता से बोला।
छकायेंगे। ___मैंने कहा-"और अब तो तुम कभी किताबें भी मैंने लड़कों को समझा-बुझाकर विदा किया। उस माँगने नहीं पाते।”
समय केवल रात के नौ बजे थे। मेरा मन पढ़ने में बिल__“अावश्यकता नहीं है ।" उसने सिर हिलाते हुए कुल नहीं लगा । मैंने अपने मन में कहा, क्या वह इतना कहा।
निर्धन है । बस, यही प्रश्न रह रह कर मेरे मस्तिष्क में ___इधर-उधर की और एक-दो बातें करके वह उठ खड़ा उलझन पैदा करने लगा। उसने मुझसे अपनी निर्धनता के हुआ। शुष्क गले से उसने कहा-"अब सो जाओ गुड विषय में कभी संकेत नहीं किया था। छात्रावास में बलिया नाइट ।” मैंने भी गुड नाइट किया । वह चला गया। के बहुत-से लड़के रहते हैं। एक से एक धन्नासेठ हैं।
तीन-चार दिन तक मुझे फिर नरेन्द्र की सूरत देखने परन्तु वेशभूषा ऐसी कि देखते ही हँसी छुट पड़े। मुझे को नहीं मिली। मालूम नहीं, वह कहाँ रहता था, कब अब ज्ञात हुआ कि नरेन्द्र के कपड़ों का भी किताबों से ही श्राता, नहाता, खाता और सो जाता था।
मिलता-जुलता कुछ रहस्य है। ____ एक दिन छात्रावास के पाँच-छः लड़के मेरे पास आये। मेरे कमरे से कुछ दूर नरेन्द्र का कमरा था। कहीं
वैसे तो मेरे पास लड़के प्रायः अाया करते थे, परन्तु उस नरेन्द्र को मेरे जागते रहने की आहट न मिल जाय, इस समय उनके चेहरे बहुत गम्भीर बने हुए थे। मैंने हँसकर विचार से मैं कमरे की बत्ती बुझाकर चारपाई.पर पड़ गया। प्रश्न किया--"क्या वार्डन साहब से झगड़ा करके आये टन-टन करके ग्यारह बजे । इस समय तक सब जगह हो ?” उनमें से एक चट बोल पड़ा--"नहीं जनाब, की रोशनी बुझ चुकी थी, और नरेन्द्र के कमरे में प्रकाश झगड़ा अभी किसी से भी नहीं हुअा है। पर होते क्या हो रहा था। कुछ देर और प्रतीक्षा कर लेने के बाद मैं देर लगती है ? तुम यदि नरेन्द्र को नहीं रोकोगे तो देखना नंगे पैर नरेन्द्र के कमरे के समीप पहुँचा। द्वार भीतर से उसकी कैसी मरम्मत हम लोग करते हैं ।” मैंने अाश्चर्य बन्द था, परन्तु खिड़की भिड़ी थी। खिड़की के समीप ही से उन लोगों की ओर देखते हुए कहा-"अरे ! भाई, उसकी मेज़ थी। वह बैठा हुआ एक पुस्तक से कुछ नकल बात क्या है ? कुछ बताअो भी तो।"
कर रहा था। उसका सिर झुका था और बीच बीच में
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Το
सरस्वता
लिखना बन्द कर कुछ क्षणों तक वह निश्चल बैठा रहता । कुछ देर यही तमाशा देखता रहा । फिर साहस करके द्वार खटखटाया। उसने कुछ क्षणों के बाद द्वार खोला, परन्तु न वहाँ पुस्तक थी और न वह कापी थी, जिसमें नक़ल कर रहा था । उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए प्रश्न किया- "इतनी रात को क्या काम श्रा पड़ा ?"
मैंने कहा- कुछ नहीं। नींद नहीं था रही थी । तुम्हारे कमरे में प्रकाश देखा तो चला श्राया । "अच्छा किया ।" कहकर उसने कुर्सी बढ़ा दी। मैं रहस्य समझ गया था, इस कारण पढ़ाई की चर्चा करना उचित न समझा, सिनेमा इत्यादि की बातें करता रहा। वह सिर नीचा किये सुन रहा था, और मेरे नेत्र उसके मुख पर जमे थे । नरेन्द्र के हाथ में एक काग़ज़ का पुर्जा था, जिसे उसने मेरी दृष्टि बचाकर फेंक दिया । परन्तु उसके अनजाने
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में वह पुर्जा मेरे पैरों के समीप ही आ गिरा। थोड़े ही प्रयत्न से वह पुर्जा मेरे हाथों में आ गया। उसके पढ़ने की उत्सुकता ने अधिक देर वहाँ न बैठने दिया, नींद का बहाना करके खिसक श्राया। कमरे में आकर मैंने उस पुर्जे को पढ़ा। बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था - "संसार में जो किसी की सहानुभूति और प्रेम का पात्र न बन सकाजिसके जीवन का कोई मूल्य नहीं - भगवन्, तुम्हीं बताओ वह निर्धन जीवित रहकर क्या करे ?" मेरा गला भर आया । अपना प्रेम और सहानुभूति उस पर निछावर करने के लिए, तथा उसे सान्त्वना देने के लिए, मैं उसके कमरे की ओर गया ।
मैं क्षण भर सूने में रो लूँ
लेखक, श्रीयुत रामानुजलाल श्रीवास्तव
[ भाग ३८
उसी प्रकार खिड़की भिड़ी थी, द्वार बन्द था, और किताब खुली हुई थी, मैंने निर्भीकता से खिड़की खोलकर पुकारा - " नरेन्द्र !” उसके नेत्र स्वभावतः मेरे नेत्रों से मिल गये। मैंने देखा, वह रो रहा है ।
मैं क्षण भर सूने में रो लूँ—दे दो इतना अधिकार मुझे | फिर यह न करूँगा कटु लगता है, कोई भी व्यवहार मुझे || तुमने मुझको बाँधा हँसकर, मैंने तुमको बाँधा रोकर, - अब कहते हैं उपचार तुम्हें-- सब कह कहकर बीमार मुझे || ते सब देते कुछ भी नहीं - ऐसा कहना नादानी है; तुमने त्रिभुवनपति बना दिया, दे स्वप्नों के संसार मुझे || दोनों मैंने मूँदी व चार आँखें हो जाने दोसुनने दो किंकिरिण की रुनझुन औ' पायल की झंकार मुझे || पडित जी पोथी उलट-पुलट परलोक की बातें किया करें, जो करता हूँ इस पार सदा वह करना है उस पार मुझे || होनी-अनहोनी सब देखी, बस यही देखना बाक़ी हैअब अन्त समय आकर कोई, क्या कर जायेगा प्यार मुझे ? यह कैसी छेड़ निकाली है; सुधि में आकर मत छेड़ो । तक़दीर बुलाने आई है, अब जाने दो सरकार मुझे || सच कहता हूँ मैं यह समझ - जीवन का सौदा खूब हुआ; मर जाने पर यदि मिल जाये - दो फूलों का उपहार मुझे ||
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व्यत्यस्त-रेखा-शब्द-पहेली .
MAHuimum
TUMHITA
KA
६००) शुद्ध पूर्ति
४००) न्यूनतममशुद्धियों
पर
पारितोषिक
नियम :-(१) वर्ग नं० ६ में निम्नलिखित पारि- भी एक ही लिफ़ाफ़े या पैकेट में भेजी जा सकती हैं । तोषिक दिये जायँगे । प्रथम पारितोपिक-सम्पूर्णतया शुद्ध मनीआर्डर व वर्ग-पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग-नम्बर ६, इंडियन पूर्ति पर ६००) नक़द । द्वितीय पारितोषिक-न्यूनतम प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से पानी चाहिए। अशुद्धियों पर ४००) नकद । वगानमाता की पूति से, (५) लिफ़ाफ़े में वर्ग-पूर्ति के साथ मनीआर्डर की जो मुहर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र नत्थी होकर अाना अनिवार्य है। सही मानी जायगी।
रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र न होने पर वर्ग-पूर्ति की जाँच (२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए न की जायगी। लिफ़ाफ़े की दूसरी ओर अर्थात् पीठ पर जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत
मनीअार्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति-संख्या लिखनी अङ्ग-परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से
अावश्यक है। प्रारम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है
(६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह और इस चिह्न (.) के पहले समाप्त होता है। अङ्क-परिचय
जितनी पूर्ति-संख्यायें भेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी ओर पढे जानेवाले
वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी शब्दों के अङ्क अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह
___ चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति को केवल एक ही पता चलेगा कि कौन शब्द किस अोर को पढ़ा जायगा ।।
इनाम मिल सकता है । वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा __(३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय । पेंसिल
में नहीं लौटाई जायगी। इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें से की गई पूर्तियाँ स्वीकार न की जायँगी । अक्षर सुन्दर,
भाग नहीं ले सकेंगे। सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए। जो अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर
(७) जो वर्ग-पूर्ति २५ जनवरी तक नहीं पहुँचेगी, जाँच दूसरी बार लिखा गया होगा वह अशुद्ध माना जायगा।
- में नहीं शामिल की जायगी । स्थानीय पूर्तियाँ २५ ता० को
पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दूर के स्थाना (४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फीस वर्ग के ऊपर छपी है दाखिल करनी होगी। फ़ीस मनी- (अर्थात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्ठी पहुँचने में आर्डर द्वारा या सरस्वती-प्रतियोगिता के प्रवेश-शुल्क-पत्र ।
२४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २ (Credit voucher) द्वारा दाखिल की जा सकती है। दिन बाद तक ली जायँगी। वर्ग-निर्माता का निर्णय सब इन प्रवेश-शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३) या
__ प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा। शुद्ध वर्ग-पूर्ति ६) में खरीदी जा सकती हैं। ३) की किताब में आठ आने की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले अङ्क में प्रकाशित मूल्य के और ६) की किताब में ११ मूल्य के ६ पत्र बँधे होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पति हैं। एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पता- की शुद्धता अशुद्धता की जाँच कर सकें। ठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीआर्डर-द्वारा अपनी (८) इस वर्ग के बनाने में 'संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर' अपनी फ़ीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियाँ और 'बाल-शब्दसागर' से सहायता ली गई है।
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( ८२ ) बाये से दाहिने अपारचय अङ्क-परिचय
ऊपर से नीचे १-संसार का मायाजाल तोड़नेवाला।
१-लोगों का कथन है कि इसके बिना सुख नहीं मिलता। ५-किसी नवयुवक का...स्वाभाविक बात है।
२-संसार के झगड़े-बखेड़े। ७.-बारात।
३-वृद्धावस्था। ८-शिक्षित स्त्रियाँ अब इसे छोड़ने लगी हैं।
४--नवीनता। ९-भारतवर्ष जैसे देश के लिए इसका होना आवश्यक था। ६-यदि यह साफ़ न हो तो सुनने और समझने में ११-किसी किसी समय इस पर भी बैठकर भोजन करते हैं। प्रायः अन्तर पड़ता है। १३-कठोरता इसका प्रधान लक्षण है।
१०-ऐसा चाबुक उत्पाती घोड़े को वश में नहीं कर सकता। १४-लजाना।
१२-प्रायः लड़ाई का कारण होती है। १६-व्रजभाषा में इसका स्थान ऊँचा है।
१५-एक पक्षी। २१-छोटी पुस्तक।
१७-यह त्योहारविशेष पर बनती है। २३-कितने हैं जो यह बोलते हैं ?
१८-ग्रीष्म ऋतु में सभी गरीब और अमीर इसके ऋणी हैं। २४-मोटा गद्दा।
१९:-पृथ्वी। २५-बबूल ।
२०--तुरन्त ध्यान आकर्षण कर लेना इसकी विशेषता है। २६-इस देश में ऐसे मनुष्य संख्या में कम हैं जो इससे २१-ऋतु विशेष पर एक दिन इसकी बहार होती है। अानन्द उठाते हैं।
२२...-चतुर माता अपने बच्चे को इससे खेलने का अवसर २८-कोई-कोई इसके सामने समय का मूल्य नहीं समझते। ही नहीं देती। ३१-इसकी वाणी अनेकों की व्याकुलता का कारण है। २४.-बहुत बड़ा या विशाल । २७-नाई। ३२-इसका पद किसी की दृष्टि में बहुत बड़ा होता है। २९-अवस्था का परिचायक । ३३-यह 'बरतन' बिगड़ गया है।
३०-कुछ जगहें इसके लिए प्रसिद्ध हैं।
नोट-रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण हैं। या त्रा
__ वर्ग नं. ५ की शुद्ध पूर्ति ।
वर्ग नम्बर ५ की शुद्ध पूर्ति जो बंद लिफ़ाफ़े पर मुहर लगाकर रख दी गई थी यहाँ दी जा रही है। पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं ।
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ६ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए।
और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
+ IN
कावर
141
ल
जा
अ
मुन ताल
क-
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( ८३ )
वर्ग नं०६
फ्रीस
यात्रा
न
A
अशन
।
जाँच का फार्म वर्ग नं० ५ की शुद्ध पूर्ति और पारितोषिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं । यदि आपको यह संदेह हो कि आप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १) फ़ीस के साथ निम्न फ़ार्म की ख़ानापुरी करके २० जनवरी तक भेजें। अापकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे । यदि आपकी पूर्ति आपकी सूचना के अनुसार ठीक निकली तो पुरस्कारों में से जो आपकी पूर्ति के अनुसार होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फ़ीस लौटा दी जायगी। पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चुका है उन्हें इस फार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
2.8
-- --- चिन्दीदार लकीर पर से काटिए------
-----बिन्दीदार लकीर पर से काटिए -------------
दे
V0
३.
सा
(रिक्त कोष्टों के अक्षर मात्रारहित और पूर्ण है)
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम
वर्ग नं०६
फ्रीस ॥
वर्ग नं० ५ (जाँच का फ़ार्म)
मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं० ५ के अापके उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
कोई अशुद्धि नहीं है। एक अशुद्धि है।
दो अशुद्धियाँ हैं। मेरी पूर्ति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त भेजिए। मैं १) जाँच की फ़ीस भेज रहा हूँ। हस्ताक्षर पता- - - -
बिन्दीदार लाइन पर काटिए
यात्रा
---------चिन्दीदार लकीर पर से काटिए-----
गुका च दे ला
-----विन्दीदार लकीर पर से काटिए --------
aट
इसे काट कर लिफाफे पर चिपका दीजिए
FF
V
सा
(रिक्त कोष्टों के अक्षर मात्रारहित और पूर्ण हैं)
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम---.......
मैनेजर वर्ग नं. ६ इंडियन प्रेस, लि०,
इलाहाबाद
...
................................ "पति नं०......
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वर्ग-प्रतियोगियों की कुछ और चिट्ठियाँ
सुन्दर बाग, लखनऊ
इससे 'सरस्वती' के अनेक अाकर्षणों में एक की ९ दिसम्बर १९३६ और वृद्धि हो गई, इसमें सन्देह नहीं । बधाई !
भवदीय, प्रिय महोदय,
-- तारादत्त उप्रेती ___आपकी वर्ग-पूर्तियों में यह मेरा पहला प्रयत्न था ।
ता. ७-१२-३६ व्यत्यस्त-रेखा-पहेली में, जैसी कि सरस्वती में निकल रही
- कटरा, इलाहाबाद है, पुरस्कार पाना भाग्य पर नहीं, बुद्धि पर निर्भर है । जनाबमन ।
वर्ग नम्बर ४ में संकेत था—'कोई कोई ऐसी तंग होती श्रादाब अर्ज़ । दिसम्बर सन् ३६ की 'सरस्वती' देखकर है कि हवा का गुज़र भी कठिनता से हो'। इसके उत्तर
मालूम हुआ कि वर्ग नं०४ दो शब्द थे—ाली, नली। लेकिन 'हो' शब्द से
में पहिला इनाम पानेवालों मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि ठीक उत्तर 'नली'
में मेरा भी नाम है। मुझे है ।' कई गलियों में, सकरेपन के कारण, हवा कम तथा
यह देखकर निहायत खुशी अशुद्ध होती है, पर वहाँ हवा अवश्य होती है। नली में
हुई कि मैं पहली कोशिश हवा का न होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। वह अगर
में नहीं तो दूसरी में ही सही बहुत तंग है तो और वस्तु क्या हवा भी मुश्किल से पहुँच
आख़िर कामयाब तो हुआ। सकती है । अगर अन्त में होता है” शब्द होते तो गली
मेरे ख़याल से आप कम भी इसका ठीक उत्तर होती।
पढ़े-लिखे हों, पर यदि . इसी तरह 'वर्षा भी प्रायः इसका कारण होती है' का
इशारों पर ख्याल दौड़ायें ठीक उत्तर 'अकाज' था न कि 'अकाल', क्योंकि अकाल तो यह काम कोई मश्किल नहीं है। मुझे तो अब इतना सदा वर्षा के कारण होता है।
शौक हो गया है कि मैं अगर किसी दिन इस पर नहीं मैं आशा न एक बार आपके
जीता ही नहीं। वर्ग की अवश्य शुद्ध पूर्ति भेजूंगा और ३००) का अकेला
मि० गामा ही पुरस्कार-विजेता हाऊँगा।
___ भवदीय प्रिय महोदय,
प्रेमप्रकाश अग्रवाल अक्टूबर की 'सरस्वती' में प्रकाशित व्यत्यस्त-रेखा-शब्द( २ )
पहेली का पुरस्कार ठीक समय पर हम सब लोगों को __ माधुरी आफ़िस, लखनऊ मिल गया, इसके लिए आपको धन्यवाद।
१०-१२-१९३६ अवश्य ही हिन्दी में इस प्रकार की पहेलियों का प्रिय महोदय,
अभाव ही-सा था और इसकी आवश्यकता भी थी, क्योंकि ___ आपका पुरस्कार-प्राप्ति की सूचना का कृपापत्र तथा अँगरेज़ी पत्रों में इनकी प्रचुरता रहती ही है। आपने पुरस्कार से रुपये दोनों यथासमय मिल गये । तदर्थ धन्य- हिन्दी में इस कमी की पूर्ति करके हिन्दी पत्र-पत्रिकात्रों वाद। आपकी 'पहेली' वास्तव में पहेली के उद्देश्य को को निदर्शन कराया है।
आपकी सार्थक करती है। मनोविनोद का यह सर्वोत्तम साधन है,
कृष्णाकुमारी क्योंकि इससे केवल विनोद ही नहीं होता, साथ-साथ बुद्धि
रामचन्द्र त्रिपाठी मिश्र-भवन, का विकास और सफल होने पर आर्थिक लाभ भी हो
पी० रोड गान्धीनगर, कानपुर जाता है।
८४
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. ( ८५ )
१०००) में दो पारितोषिक इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ ८१ पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए दो और कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
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| वर्ग नं०६
फ्रीस)
वर्ग नं०६
फीस ॥)
जा
का
-----बिन्दीदार लकीर पर से काटिए---
का
----- चिन्दीदार लकीर पर से काटिए---------
- - - - "चिन्दीदार लकीर पर से काटिए--
-- चिन्दीदार लकीर पर से काटिप----
ग
FR.
(रिक्त कोष्टों के अक्षर मात्रारहित और पूर्ण हैं)
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम---------
(रिक्त कोष्टों के अक्षर मात्रारहित और पूर्ण हैं)
मैनेजर का निणय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम------ पता.
--पूति नं0
"पूनि नं०--
भावभंजन
टकना
यात्रा न
या
वा
न
र
मनकन
.M
ग
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ६ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
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सामने खोला जायगा। उस समय जो सज्जन चाहें स्वयं आवश्यक सूचनायें
उपस्थित होकर उसे देख सकते हैं। (१) स्थानीय प्रतियोगियों की सुविधा के लिए हमने (४) इस प्रतियोगिता में भाग लेनेवाले बहुत-सी ऐसी प्रवेश-शुल्क-पत्र छाप दिये हैं जो हमारे कार्यालय से नकद भूलें कर देते हैं जिन्हें वे नियमों को ध्यान से देखें तो दाम देकर ख़रीदा जा सकता है। उस पत्र पर अपना नाम नहीं कर सकते । बैरँग चिट्ठियाँ नहीं ली जायँगी और ।।) स्वयं लिख कर पूर्ति के साथ नत्थी करना चाहिए। के मनिबार्डर या प्रवेश-शुल्क-पत्र के बजाय जो इसी मूल्य
के डाकघर के टिकट भेजेंगे उनके उत्तर पर भी विचार न (२) स्थानीय पूर्तियाँ सरस्वती-प्रतियोगिता-बक्स में होगा। एक वर्ग-पूर्ति मेज चुकने पर उसका संशोधन दूसरे जो कार्यालय के सामने रक्खा गया है, १० और पाँच के
' लिफ़ाफ़े में भेजना टिकट का अपव्यय करना होगा क्योंकि बीच में डाली जा सकती हैं।
उन पर भी विचार न होगा। छोटे कूपन, या कूपन की नकल (३) वर्ग नम्बर ६ का नतीजा जो बन्द लिफ़ाफ़े में मुहर पर भेजी गई वर्ग-पूर्तियों पर भी विचार न होगा। इस लगा कर रख दिया गया है ता० २८ जनवरी सन् १९३७ को सम्बन्ध में हमें जो कुछ कहना होगा हम इन्हीं पृष्ठों में सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे सर्वसाधारण के लिखेंगे । पत्रों का हम पृथक् से कोई उत्तर न देंगे।
59
संक्षिप्त हिंदी-शब्दसागर
मैक्षिात हिंदी-एब्दसागर
CENAR
V
SAR
__जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और बहुमूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्दसागर की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये।
हिन्दी-शरसर
ह
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SEK
हासपरिहास
IN TIDUIDANS
जर्मनी और रूस की तनातनी—प्रारम्भ कौन करेगा ? स्टेलिन-5 (एक साथ) “मुझे पकड़ा ! मैं स्वयं अपनी ताकत से भयभीत हूँ।" गोरिङ्ग-।
–'पायनियर' में)
स्वीजरलड का शस्त्रधारण स्पेन की आग और उसके तापनेवाले ।
"क्या अच्छा हो कि उस तूफ़ान के ग्राने से पहले मैं -(अमरीका के 'सेंट लूईस पोस्ट टिपैच से नया छाता लेकर तैयार हो जाऊँ।" .
-'नेबेल्सपाल्टर' से) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ८७
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सरस्वती
[भाग ३८
मिस्टर नता
e
और एक ज़माना यह भी है। चुनाव की चलचल ज़ोर पकड़ रही है। विविध दल एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं । 'भारत' ने जो नर्मदलवालों का पत्र है, कांग्रेसवालों का मज़ाक उड़ाने के लिए ये व्यङ्ग्य चित्र प्रकाशित किये हैं ।
एक ज़माना वह भी था।
VALES.3
SHAHIR
फाँसी पर कौन लटकेगा ? परन्तु इस बार नर्मदलवालों को चुनाव अखर रहा है । ऊपर के व्यङ्ग्य चित्र में 'हिन्दुस्तान' ने जो कांग्रेसी पत्र है, उनका मनोभाव दिखाने का अच्छा प्रयत्न किया है।
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अश्क जी कहानी लिखने में बड़े कुशल हैं। इस कहानी में उनकी कला अपनी उत्कृष्टता का परिचय देती है। एक ग्रामीण युवक की सुकुमार भावना को जिस खूबी के साथ चित्रित किया है वह प्रशंसनीय है।
“वह मेरी मँगेतर"
लेखक, श्रीयुत उपेन्द्रनाथ अश्क, बी० ए०, एल-एल० बी० हाड़ी रियासत की हवालात । ब्लेकहोल से भी अधिक हाँ तो गोविन्द, मेरे साथ भी ऐसी ही दुर्घटना घटी
तंग। गहरे खड्ड में एक छोटी सी मडैया। थी, और वह भी इसी मेले में । उस समय टिक्का साहब इसमें एक छोटा-सा तहख़ाना, अँधेरा, नम और सर्द। बहुत छोटे थे। अब तो उनकी आयु भी चालीस साल ठंडक इतनी कि शरीर सुन्न होकर रह जाय । फर्श दलदल- की होगी और मैं तो साठ-सत्तर का हो चला हूँ। मेला सा। तहख़ाने के ऊपर सिपाहियों के सोने के लिए लकड़ी तब भी बड़े समारोह से होता था। तब तो यहाँ आनेवाली के तख़्तों की छत । उसमें नीचे तहख़ाने में उतरने के युवतियों की संख्या भी अधिक होती और नाच-रंग भी लिए पेंचों से जड़ा हुआ डेढ़-दो वर्ग गज़ का दरवाज़ा। बहुत होता था। मडैया के दरवाजे पर एक चौकीदार बैठा था और बाहर मैंने मेला कभी नहीं देखा था। था तो इधर का ही एक भंगी कहीं से काम करता करता थककर आग तापने रहनेवाला, पर बचपन से ही अपने दादा के पास लाहौर को आ बैठा था। दोनों में बातें हो रही थीं। विषय था चला गया था। वहाँ पन्द्रह साल नौकर रहा। फिर मेरी मूर्खता । मैं सी० पी० (सीपुर) का मेला देखने गया उन्होंने मुझे जवाब दे दिया। बात कुछ भी न थी, मुझसे था। वहाँ सिपाही से झगड़ा हो जाने के कारण हवालात कोई अपराध भी नहीं हुआ था, पर मेरा श्रायु में बड़ा में ढूंस दिया गया । गलती मेरी न थी। सिपाही ने मुझे हो जाना ही मेरे हक़ में विष साबित हुआ । वहाँ भले गाली दी थी और मैंने क्रोध में आकर उसके एक-दो आदमी बड़ी श्रायु के नौकरों को घर में नहीं रखते । मैंने थप्पड़ जड़ दिये थे। परन्तु पुलिस चाहे वह अँगरेज़ी और एक-दो जगह नौकरी करने का प्रयास किया और एक इलाके की हो अथवा देशी रियासत की, अपने दोषों को जगह मैं सफल भी हो गया, परन्तु मेरा मन नहीं लगा। दूसरे पर थोप देना खूब जानती है। चौकीदार को युद्ध मैं अपने गांव को लौट आया। चित्त उदास था और से सहानुभूति थी। उसकी बातों से मुझे ऐसा ही प्रतीत मन चंचल । इतने दिनों तक शहर के पिंजरे में बन्द हुआ। उसे कदाचित् अपने जीवन की कोई पुरानी घटना रहने के पश्चात् गाँव की स्वतन्त्रता मिली थी, परन्तु स्मरण हो आई । भंगी का नाम गोविन्द था। लम्बी साँस मुझे वह भी बुरी लगती थी । लेकिन स्वतन्त्रता पाकर लेकर उससे बोला
उसके गुण शीघ्र ही ज्ञात हो जाते हैं। मैं भी गाँव में ___भई, इसमें न सिपाही का दोष है, न इस बन्दी का। श्राकर खिल उठा । निराशा की सब उदासी और बेचैनी सब दोष है बुरे दिनों का । इसका सितारा चक्कर में है। दूर हो गई । यहाँ ठंडे वृक्षों के नीचे ठंडी ठंडी वायु में दुर्भाग्य के आगे किसी की पेश नहीं जाती। सच जानो, बाँसुरी बजाने में वह आनन्द प्राता था जो लाहौर की हम पर भी एक बार विपत्ति आई थी और इससे हमें जो गरमी में स्वप्न में भी नहीं आ सकता था। बाँसुरी मुझे कष्ट भोगने पड़े उनकी स्मृति-मात्र से ही आज भी रोंगटे दादा ने सिखाई थी। लाहौर में इसे बजाने का अवसर खड़े हो जाते हैं।
ही नहीं मिलता था और यहाँ गाने-बजाने के सिवा कुछ ___ गोविन्द ने, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे पाँव भी आग काम ही न था। मैं बाँसुरी में फूंक देता तो मीठी मदभरी के सामने पसार लिये और तन्मय होकर चौकीदार की तान दूर घाटियों में गूंज जाती। कहानी सुनने लगा।
. गाँव में आने पर मुझे एक और बात का भी अाभास चौकीदार दीर्घ निःश्वास छोड़कर बोला- ... हुआ। वह यह कि मैं अब किसी का नौकर नहीं, बल्कि
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सरस्वती
[भाग ३८
"हम वृक्षों की श्रोट में चले गये।"
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संख्या १]
“वह मेरी मँगेतर"
९१
वर्षा नहीं होती। मई और सितम्बर दो ही महीने हैं,
जिनमें इधर की पहाड़ियों का अानन्द लिया जा सकता है।
सूरज में तनिक गरमी आ जाती है और उसकी सुनहरी धूप से पतझड़ की सिकुड़ी हुई पहाड़ियाँ खिल उठती हैं । इन दिनों में काम नहीं किया करता था। खेती-बारी का काम अपने बड़े भाई पर छोड़कर स्वयं ढोर
डाँगरों को लेकर निकल जाता, सारा सारा दिन गायें स्वतन्त्र व्यक्ति हूँ। चराता। सन्ध्या को दूध दुहता और सँजौली जाकर
हमारी थोड़ी-सी भूमि उसे बेच आता। मुझे केवल प्रातः और सन्ध्या दूध थी, उसको जोतना-बोना मैंने शीघ्र ही दुहने और बेचने का ही काम करना पड़ता था।
सीख लिया। लाहौर में मैं तुच्छ समझा अन्यथा मैं सर्वथा स्वतन्त्र अपने ढोरों को चराता फिरता। जाता था, यहाँ मैं मरुस्थल का एरण्ड था। जिधर से थक जाता तो वृक्ष के नीचे बैठकर बाँसुरी की तान गुज़र जाता, सबकी नज़रें मुझ पर उठ जातीं। सब मुझे छेड़ देता। श्रद्धा की निगाह से देखते । जब मैं गाँव में आया इन्हीं दिनों मूर्त से मेरी भेट हुई । सन्ध्या का समय तब घर घर मेरी चर्चा हुई। कई युवतियों की नज़रें था। मुझे कुछ देर हो गई थी। इसलिए शीघ्र शीघ्र भी मुझसे चार हुई। मुझे इन निगाहों में प्रेम के सन्देश कदम बढ़ाता हुआ सँजौली का जा रहा था कि मुझे किसी भी मिले । पर मेरा मन कहीं नहीं अटका । मैं अपनी ने आवाज़ दी–भैया, तनिक ठहरना।" खेती-बारी में मग्न और बाँसुरी के गानों में मस्त रहा। मैंने पीछे मुड़कर देखा । पास के गाँव से आनेवाली
ठंडा शीत बीता और प्राणों को गरमी पहुँचानेवाली पगडंडी से एक युवती, कन्धे पर दूध का डिब्बा लटकाये, बहार भा गई । मई का महीना था। इन दिनों शिमले में शपाशप बढ़ी चली आ रही थी। गले में धारीदार गबरून
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सरस्वती
[भाग ३८
की कमीज़, उस पर जाकेट, कमर में काली सुथनी, पाँव. गोविन्द, उस रात मुझे नींद नहीं पाई। सारी रात में ख़ाकी रंग का फलीट । उसकी नाक में छोटी-सी लौंग उसकी आँखें, उसकी सुन्दर सलोनी सूरत, उसका मधुर थी। उस शाम के धुंधलके में मुझे उसकी सूरत बहुत वार्तालाप, उसका यह पूछना, "तुम रोज़ उधर जाते हो भली लगी। जब तक वह मेरे बराबर न आ गई, मैं उसे क्या", उसकी हर अदा मेरी आँखों में नाचती रही, देखता ही रहा।
उसकी हर बात मेरे कानों में गूंजती रही। एक-दो बार ___ समीप आने पर ज्ञात हुआ, उसे भी दूध देने सँजौली मैंने अपनी परिचित बालाओं से उसकी तुलना की। कोई जाना है और अँधेरा हो जाने से वह तनिक डर-सी रही । असाधारण बात न थी। कदाचित् उससे भी अधिक सुन्दर है । मैंने उसे आश्वासन दिया और हम दोनों सँजौली रमणियाँ हमारे गाँव में थीं। पर न जाने, उसमें क्या था, की ओर चल पड़े। कुछ देर चुप चलते रहे। परन्तु सन्ध्या उसकी आँखों में क्या था, उसकी चाल में क्या था, का सुहावना समय, ठंडी ठंडी वायु, सुन्दर पहाड़ी दृश्य, उसकी बातों में क्या था। में दीवाना-सा हो गया। वह मार्ग की तनहाई, कोई अकेला हो तो चुपचाप लम्बे लम्बे दिन मेरे समस्त जीवन की निधि है, जिसकी स्मृति अाज डग भरता चला जाय । हम दोनों में भी धीरे धीरे बातें भी मूक और नीरव एकान्त में मेरी संगिनी होती है। चल पड़ी। प्रारम्भ किसने किया, स्मरण नहीं, परन्तु दूसरे दिन हम फिर उसी जगह मिले। मैंने उससे सँजौली पहुँचते पहुँचते हम घुल-मिल गये । आते समय मिलने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। अपने भी हम इकट्ठे ही आये। उसने कहा था, मैं दूध देकर नल निश्चित समय पर चल पड़ा, तो भी हम उसी स्थान के पास तुम्हारे आने की प्रतीक्षा करूँगी। और जब मैं पर मिल गये। कदाचित् वह भी कुछ देर पहले चल वापस फिरा तब वह मेरा इन्तज़ार कर रही थी। अँधेरा पड़ी थी। पहले दिन की भाँति फिर हम इकट्ठे सँजौली बढ़ चला था, हम निधड़क चलते गये। बातों में मार्ग की गये, फिर मैं उसे घर तक छोड़ने गया, फिर उसी प्रकार दूरी कुछ भी नहीं जान पड़ी, और जब हम वहाँ पहुँच उल्लास से वापस आया। हाँ, आज एक और बात का गये, जहाँ से हमें जुदा होना था तब मेरा हृदय सहसा पता ले आया। वह भी दिन को अपनी गायें चराया धड़क उठा। मैंने कहा-"अँधेरा अधिक हो गया करती थी, पर दूसरी घाटी में। दूसरे दिन मेरी गायें भी है । मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आता हूँ। फिर अपने उसी घाटी की ओर जा निकलीं, जैसे अचानक । पहले वह गाँव को चला पाऊँगा।" वह मान गई। मैं उसे तनिक झिझकी, परन्तु जब मैंने अपनी गायों को वापस उसके घर तक छोड़ने गया। उसके घर के समीप हम मोड़ना चाहा तब उसने कहा- "इस घाटी में घास अधिक जुदा हुए । उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। जुदा होते समय अच्छी है ।" मैं न जा सका। इसके बाद हम प्रायः रोज़ उसने धीरे से पूछा- "तुम रोज़ उधर जाते हो क्या ?” साथ ही गायें चराते, साथ ही दूध लेकर सँजौली जाते
और साथ ही वापस पाते। मेरी बाँसुरी का शौक भी इन "और तुम ?"
दिनों कुछ बढ़ गया। रात को प्रायः मैं अपने इधर की "मैं भी।"
पहाड़ी पर अपने घर के बाहर ऊँची-सी जगह बैठकर बस इसके बाद हम जुदा हो गये। मैं ज़रा तेज़ी से बाँसुरी बजाया करता। एक शब्द में कह दूँ, गोविन्द, वापस फिरा, पर शीघ्र ही मेरी चाल धीमी हो गई और मुझे उससे प्रेम हो गया था। जिस दिन मैं गायें लेकर मैं अपने ध्यान में मग्न चलने लगा। जब चौंका तब पहले पहुँच जाता और वह देर से आती, उस दिन मेरे देखा, सँजौली के समीप पहुँच गया हूँ। फिर वापस मुड़ा। हृदय में सहस्रों आशंकायें उठने लगतीं। यही हाल घर पहुँचा तो देर हो गई थी। भाई को चिन्ता हो रही उसका था। धीरे धीरे हमारे प्रेम की बात गाँव में फैल थी। मैंने कहा- "मेरा लाहौर का एक मित्र मिल गया गई। मेरे भाई और उसके माता-पिता को पता चल गया। था। उसका घर देखने चला गया था। वह चुप उन्होंने हमारी सगाई कर दी। मेरी प्रसन्नता का ठिकाना हो गया।
न रहा । परन्तु मेरे इस सुख में एक दुख का काँटा भी
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संख्या १]
"वह मेरी मॅगेतर"
था। यह जानकर कि उसे मेरी पत्नी बनना है, मूर्त ने गये। मैंने इनसे एक ख़ाकी कोट और बिरजस बनवाई, मुझसे मिलना छोड़ दिया था। मैं व्यर्थ ही अब अपने अच्छे से बूट खरीदे, अच्छी-सी धारीदार गबरून की दो दोर लेकर उस घाटी में जाता, जहाँ वह अपनी गायें कमीज़े सिलवाई, दो रुमाल लिये, बारीक मलमल का चराया करती थी। व्यर्थ ही उस चट्टान पर घंटों बैठा बिजली रंग का साफा रंगवाया। और जब मेले के दिन रहता, जहाँ हम दोनों बैठे गीत गाया करते थे, व्यर्थ ही इन सब कपड़ों से सजकर मैंने कुल्ले पर नोकदार साफ़ा रात को बाँसुरी बजाया करता। उसकी सूरत बिलकुल न बाँधा और उसके तुरे का फूल-सा बनाकर शीशे में दिखाई देती । दूध देने भी अब उसका छोटा भाई जाता। देखा तब गर्व से मेरा सिर तन गया और चेहरा लाल मैं उससे मूर्त की बातें पूछा करता। कभी वह सरल अबोध हो गया । बालक मुझे उत्तर दे देता और कभी मेरी बातें उसकी रेशमी रुमाल का कोट की ऊपर की जेब में रखकर, समझ में न आतीं।
कमीज़ के कालरों के कोट पर चढ़ाकर, हाथ में छोटी-सी
छड़ी लेकर जब मैं मेले को रवाना हुआ तब गाँव के सब इसी प्रतीक्षा में शीत बीत गया। दिन खिल उठे। स्त्री-पुरुष मुझे निनिमेष निगाहों से ताककर रह गये । हमारे विवाह की तिथि भी नियत हो गई। परन्तु मेरे मुझे देखकर कौन कह सकता था कि यह रोज़ सुबह-शाम हृदय की बेचैनी नहीं घटी । मैं मूर्त की सूरत तक को तरस दूध लेकर सँजौली जानेवाला ग्वाला है और इसका काम गया । उसे देखने के लिए मेरे सब प्रयास असफल हुए। गायें चराना और उनकी सेवा करना है।
चौकीदार ने एक लम्बी साँस लेकर कहा-तुम मार्ग में एक पानी की सबील थी । यों ही कच्ची मिट्टी पूछोगे, गोविन्द, जब उसे मेरे घर अाना ही था तब फिर और पत्थरों से तीन दीवारें खड़ी करके उन पर टीन का उसे देखने की बेचैनी क्यों ? मैं स्वयं ठीक तौर पर इस छप्पर डाल दिया गया था। छप्पर पर बड़े बड़े पत्थर प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता । वास्तव में जिस दिन हमारी रक्खे थे, ताकि तीक्ष्ण वायु से वह कहीं उड़ न जाय। मँगनी हो उस रोज़ से उसने अपनी सूरत भी नहीं इस प्रकार बनी हुई वह कोठरी एक तरफ़ सर्वथा खुली दिखाई थी। और मैं इस ज्ञान के पश्चात् उससे कई तरह हुई थी। कोई किवाड़ इत्यादि भी नहीं थे। इसी में एक की बातें करना चाहता था। यह बात जानने के बाद वह बड़ा-सा पत्थर रक्खा था, जहाँ एक अधेड़ आयु की किस तरह की बातें करती है, किस प्रकार उसका मुख स्त्री पानी पिला रही थी। यह मूर्त के गाँव की बुढ़िया लज्जा से सर्ख हो जाता है. इन सब बातों का अानन्द तुलसी थी। मैं इस सबील पर आकर रुका, प्रकट में कछ मैं लेना चाहता था और भावी जीवन के सम्बन्ध में पहले सुसताने के लिए, परन्तु मेरी हार्दिक इच्छा यहाँ रहकर से ही कुछ बातचीत कर रखना चाहता था। पर उसने मूर्त की बाट जोहनी थी। जैसे अपने घर से बाहर निकलने की सौगन्ध खा ली थी। यह सबील सड़क के दाई ओर केलू के वृक्षों के झुंड मैं लाख इधर-उधर चक्कर लगाता, लाख बाँसुरी में आने में बनी हुई थी। मार्ग के इस ओर कुछ निचाई थी। का चिरपरिचित संदेश देता, पर वह नहीं पाती। पहाड़ पर नीचे को सीढियाँ-सी बनी हुई थीं और गायों के
इन्हीं दिनों में सी० पी० का मेला आ गया । मेरी इधर-उधर चलने से छोटी छोटी-सी पगडंडियाँ प्रतीत प्रसन्नता की सीमा न रही। मेले में वह अवश्य जायगी, होती थीं। मैं सबील के एक अोर मार्ग की तरफ पीठ इस बात का मुझे पूरा निश्चय था और फिर कहीं रास्ते में करके, नीचे को टाँगें लटकाकर बैठ गया। साफ़ा उतारउसे देख पाना और अवसर पाकर उससे दो बातें कर कर मैंने पास ही पड़े हुए पत्थरों पर रख दिया। परन्तु लेना असम्भव नहीं था। मैं कई दिन पहले से ही मेले मुझसे बहुत देर तक इस प्रकार बैठा नहीं गया । मैं तुलसी की तैयारियों में निमग्न हो गया। दूध बेचने पर जो कुछ से कुछ बातें करना चाहता था । पानी पीने के बहाने उठा बचता उसमें से भैया कुछ मुझे भी दे देते थे। शनैः शनैः और वहाँ पहुँचा । पानी पीने ही लगा था कि उसने व्यङ्गय यह रकम जमा होती गई, और मेरे पास पचास रुपये हो का तीर छोड़ा।
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सरस्वती
[भाग ३८
___"पानी से प्यास क्या मिटेगी, चाहे मनों पी जानो। साथ लेकर ही न आ जाय और इस 'प्रतीक्षा करनेवाली जिसे देखने की प्यास है वह अभी इधर से नहीं गुज़री ।” सहेली' का भेद खुल जाय । पर नहीं, वह अकेली आई।
- अब छुपाना व्यर्थ था। मैंने रहस्ययुक्त अन्दाज़ से वायु में उसके सिर का दुपट्टा उड़ रहा था, चमकी का धीरे से पूछा--अाज मेला देखने तो जायगी।
चमचमाता हश्रा कुर्ता उड़ रहा था. वह स्वयं उड-सी "शायद ।”
रही थी। मेरे समीप अाकर वह भौचक्की-सी खड़ी हो गई "सहेलियाँ साथ होंगी ?"
और एक क्षण बाद स्वर्ण-स्मित उसके अधरों पर चमक "हाँ"
उठी और वह वापस मुड़ने लगी। मैंने उसे पकड़ लिया "फिर मैं कैसे उससे बात कर सकूँगा ?"
और क्षणिक आवेश से उसे अपने प्यासे आलिङ्गन में "केवल देखने से प्यास नहीं बुझ सकती ?" लेकर उसके अधरों को चूम लिया। उसके मुख अरुण "नहीं।"
होकर रह गये और वह अपने आपको स्वतन्त्र करने की बुढ़िया चुप रही।
चेष्टा करने लगी। मैंने अपना रेशमी रूमाल उसकी जेब मैंने पूछा- "तुम प्रबन्ध नहीं कर दोगी ?" में ढूंस दिया । वह भाग गई। न मैं कुछ कह सका, न
बुढ़िया का हँसता हुआ पोपला मुँह मेरी ओर उठा। वह । कितनी बातें सोची थीं, कितने मनसूबे बाँधे थे, परन्तु उसकी आँखें चमकने लगीं। वह बोली-"कैसे ?” अवसर मिलने पर एक भी पूरा न हुआ।
"मैं वहाँ वृक्षों के झुंड में हूँ। तुम कह देना, तुम्हारी वह अपनी सहेलियों के साथ चली गई। अपने मुख एक सहेली वहाँ तुम्हारी बाट जोह रही है। उससे मिल पात्रो" की लाली, अपना अस्त-व्यस्त दुपट्टा, अपनी घबराहट का "नहीं, मैं यह नहीं कर सकती।" .
कारण उसने सहेलियों से क्या बताया, यह मुझे ज्ञात नहीं। मैंने कुछ कहने के बदले जेब से एक रुपया निकाल. परन्तु उसके चले जाने के बाद मैंने साफ़ा सिर पर रक्खा कर बुढ़िया के सामने रख दिया। उसने कदाचित् अपनी और वृक्षों के झुंड से बाहर निकल आया। मेरे ओंठ सारी आयु में रुपया नहीं देखा था। उसकी बाछे खिल अभी तक जल रहे थे और हृदय धड़क रहा था। गई। कहने लगी--"यह कष्ट क्यों करते हो ? भेज दूंगी उसे । अाखिर वह तुम्हारे ही घर तो जायगी।"
चौकीदार ने साँस लेकर कहा- हमारा गाँव सँजौली मेरा हृदय प्रसन्नता से खिल उठा । इतनी जल्दी यह और मशोबरे के रास्ते में है। सँजौली वहाँ से कोई दो काम हो जायगा, इसकी मुझे अाशा नहीं थी। पानी पीकर मील होगा। सबील तनिक आगे थी। मैं तुलसी से बिना मैं अपनी जगह श्रा बैठा और उसके आने की घड़ियाँ मिले ऊपर को चल पड़ा। सड़क पर पहुँचकर मैंने मशोबरे गिनने लगा। पाँव की तनिक-सी चाप भी मूर्त के आने की ओर देखा। मूर्त अपनी सहेलियों के साथ दूर निकल का सन्देह जागृत कर देती और मेरी आँखें सबील की गई थी। मैं सिर झुकाये चल पड़ा। तबीयत में कुछ ओर उठ जातीं । परन्तु हर बार निराश होकर लौट आतीं। उदासी-सी छा गई । उस समय मैं इसका कारण न समझ प्रतीक्षा के ये क्षण युगों की नाई प्रतीत हुए । बार बार सका, पर बाद की घटनाओं ने बता दिया कि वह उदासी देखता, बार बार ताकता । कहीं रँगे हुए दुपट्टे की तनिक- अकारण न थी। मूर्त से मिलने के पश्चात् मेरे मन में सी झलक भी दिखाई देती तो हृदय धड़कने लग जाता। प्रसन्नता का जो तूफ़ान आया था वह उड़-सा गया । होना इतना ही अच्छा था कि जहाँ मैं बैठा था, वहाँ से मैं तो इसके विपरीत चाहिए था। लेकिन हुआ ऐसा ही। सबको देख सकता था, पर मुझे कोई नहीं देख पाता था। प्रसन्नता से तेज़ चलने के बदले में धीरे धीरे चलने ___अन्त में मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी। तुलसी खयाल आया, कदाचित् मूर्त नाराज़ न हो गई हो, उसे मेरी ओर आने के लिए कह रही थी और वह कदाचित् वह मेरे इस दुस्साहस से रुष्ट न हो गई हो । अब
षमा-सी. भोलापन-सी बनी पल रही थी। मेले में उससे आँखें कैसे मिला सकॅगा? दिल में चोर बस मेरा हृदय धड़क रहा था । कहीं वह अपनी सहेलियों को गया था और इच्छा होती थी, मेले में न जाऊँ, वापस
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संख्या १]
"वह मेरी मॅगेतर"
गाँव को मुड़ जाऊँ। लेकिन नहीं, मुझे तो जाना था, मेरे वह मेरी ओर देखे । उस समय मैंने देखा कि एक और दिल में तो उसे एक नज़र देखने का लोभ बना हुआ था पुरुष भी मूर्त की ओर प्रेम-भरी दृष्टि से देख रहा है और
सी तरह संवरण न कर सका। इस प्रेम में वासना की पुट अधिक है। वह था कोठी का चलता गया।
दारोगा। क्रोध और ईर्ष्या के कारण मेरी आँखें लाल हो मेले में पहुँचते पहुँचते मेरे सब सन्देह दूर हो गये। गई। परन्तु अपने आपको सँभालकर मैं वहीं खड़ा रहा । मत मुझे मेले से जरा इधर ही मिली। वे सब विश्राम उधर उस नरपिशाच की निगाह बराबर मत के सन्दर ले रही थीं। प्रकट में ऐसा ही प्रतीत होता था, परन्तु मुझे मुख पर जमी रही। ऐसा जान पड़ा, जैसे वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे अन्त को मूर्त की मुझसे चार आँखें हुई । मैंने उसे देखते ही मुसकरा दी। उसकी आँखें नाच उठीं। मेरा हाथ से आने का संकेत किया । उसने इशारे से मुझे हृदय उल्लास से विभोर हो उठा। उसी समय मेरे गाँव का स्वीकृति दी । कदाचित् दारोगा ने भी हमारी इशारेबाज़ी एक साथी मेरे पास से गुज़रा । मैंने उसे आवाज़ दी। वह को देख लिया । दूसरे क्षण मैंने उसकी ओर देखा और वहीं खड़ा हो गया।
उसने मेरी ओर । उसकी आँखों में ईर्ष्या थी, कदाचित् "किधर जा रहे हो ?” मैंने पूछा ।
द्वेष भी। मैंने इसकी परवा नहीं की और एक बार फिर "मेले को।" उसने उत्तर दिया।
मूर्त की ओर देखकर उसके सामने ही वृक्षों की अोट में हो "किधर रहोगे ?"
गया। कुछ ही देर के बाद वह आ गई। चंचलता, उल्लास, "घूम-फिर कर देखेंगे।"
प्रसन्नता का जीवित चित्र ! मैंने कहा मूत , तुम तो दिखाई "हम तो भई वहीं वृक्षों के झंड के पीछे डेरा ही नहीं देतीं, ईद का चाँद हो गई।" लगायँगे । उधर पा सको तो आना।" मैंने मूर्त की ओर "और तुम्हारा कौन पता चलता है ? मैं इस झंड के देखकर कहा। बातें मैं साथी से कर रहा था, पर संकेत पीछे देखकर हार गई ।” मूत को था। साथी चला गया, वह मुसकरा दी। उस "पर मैं तो उधर था ।" समय वह चलने के लिए उठी। मैं शीघ्र शीघ्र कदम "मैं कैसे जान सकती थी ?" बढ़ाता सीपुर (सी० पी०) पहुँच गया ।।
___मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मैंने कहा-चलो छोड़ो वहाँ पहुँचा तो मेला खूब भर रहा था। मैं थका इस झगड़े को। इन चार घड़ियों को बहस में क्यों खोये ? हुआ था। तनिक विश्राम करने का ठिकाना देखने लगा। हम वृक्षों की श्रोट में चले गये । समीप ही मेले में आये
आकाश पर बादल छाये हुए थे और मनोमुग्धकारी ठंडी हुए व्यक्तियों का शोर कुछ स्वप्न के संगीत की भाँति हवा चल रही थी। मैं उस जगह के पीछे, जहाँ अाज चाय प्रतीत होने लगा। हम अपनी बातों में मग्न मेले और का रोमा लगा है, जाकर बैठ गया। न जाने कितनी देर उसमें होनेवाले राग-रंग को भूल गये। उन कतिपय तक वहाँ बैठा कल्पनाओं के गढ़ निर्माण करता रहा । लाट क्षणों में न जाने हमने भविष्य के कितने प्रासाद बनाये । अथवा किसी दूसरे पदाधिकारी के आने पर जब बाजों की वृक्षों की उस ठंडी छाया में, उस मदमत्त समोर में, उस ध्वनि वायुमण्डल में गूंज उठी तब मेरी विचार-धारा लालसा-उत्पादक एकान्त में मूर्त मुझे मूर्तिमान् सुन्दरता टूटी। मैं अपनी जान में मूर्त की प्रतीक्षा कर रहा था। पर दिखाई दी और मैंने एक स्वर्गीय आनन्द से विभोर होकर यह न सोचा कि जब उसे इस स्थान का पता ही नहीं तब उसे अपनी ओर खींचा। इस समय हमारे सामने किसी वह यहाँ आयेगी कैसे ? यह ध्यान आते ही उठा । इधर- की गहरी छाया पड़ी। मैंने चौंककर पीछे की ओर देखा। उधर घूमता वहाँ पहुँचा, जहाँ स्त्रियाँ बैठी हुई थीं। मूर्त वही दारोगा क्रोधभरी ईर्ष्यामयी आँखों से मुझे घूर रहा एक सिरे पर बैठी थी। मैं उसके सामने से गुज़रा, पर था। मैं तनककर उसके सामने खड़ा हो गया। मूर्त भी उसकी आँखें किसी और तरफ़ थीं। मैं एक ओर हटकर बैठी न रह सकी। खड़ा हो गया और इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि "इस औरत को किधर भगाने की कोशिश कर रहे
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सरस्वती
[भाग ३८
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हो ?” उसने मूर्त का बाज़ पकड़कर अपनी ओर खींचते दूसरे दिन सिपाही मुझे राणा साहब के आगे पेश हुए कहा।
करने को लेने आये, पर मुझसे तो उठा तक न जाता मेरी आँखों में खून उतर आया। मैंने कड़ककर था। तीन दिन तक इसी नरक में पड़ा रहा । फिर क्यार कहा-"इसे हाथ मत लगायो।"
कोटी ले गये । वहाँ तनिक आराम आने पर मेरा मामला "क्यों तुम्हारे बाप की क्या लगती है ?"
पेश हुआ। मुझ पर मेले से एक स्त्री को भगाने का प्रयास "मेरी मँगेतर है।"
करने और बावर्दी सिपाहियों को उनके कर्तव्य से रोकने "चल मँगेतर के साले । जरा राणा के पास चल। तथा पीटने का अभियोग लगाया गया। शिकायत कर सब पता लग जायगा कि यह तेरी मँगेतर है या अाशना। वाला ही निर्णायक था। मुझे डेढ साल की कैद की सजा यहाँ मेला देखने आते हो या बदमाशी करने।" यह कहते मिली। मेरे भाई के सब उद्योग-सब मिन्नते वृथा गई। कहते उसने वासनायुक्त दृष्टि मत पर डाली। वह खडी वे मुझसे मिलने तक न पाये। थरथर काँप रही थी। क्रोध के मारे मेरी भुजायें फड़कने चौकीदार ने दीर्घ निःश्वास छोड़कर कहा-इस डेढ़ लगीं। मैंने एक हाथ से मूर्त को उसके पंजे से छुड़ाया वर्ष में मैंने जो कष्ट उठाये वे अनिर्वचनीय हैं। यह
और दूसरे से एक ज़ोर का थप्पड़ उसके मुँह पर रसीद समझ लो कि जब मैं डेढ़ साल के बाद अपने गाँव पहुंचा किया। उसने मुझे गाली दी और हंटर से प्रहार किया तब मेरा सगा भाई भी मुझे नहीं पहचान सका। मैं कदाचित्
और सीटी बजाई। मुझे क्रोध तो आया हुआ था ही। डेढ़ साल बाद भी वहाँ से छुटकारा न पाता, यदि वह मैंने हंटर उसके हाथ से छीनकर दूर खड्ड में फेंक दिया दारोगा वहाँ से रियासत के किसी दूसरे भाग में न बदल
और कमर से पकड़कर उसे धरती पर दे मारा। . जाता। गाँव में आने पर मुझे ज्ञात हुआ कि मूर्त भी ___एक चीख़ और बीसियों लोग उधर दौड़े हुए आये। उस मेले से नहीं लौटी । वह अवश्य हो उस दारोगा वा
श्रागे अागे कई सिपाही थे । आते ही उन्होंने मुझ पर दूसरे कर्मचारियों की पापवासनाओं का शिकार बनी होगी। हंटरों की वर्षा कर दी। मेरा युवा हृदय भी विह्वल हो इस बात का मुझे पूरा निश्चय था और मेरा यह सन्देह उठा, उत्तेजित हो उठा । यों चुपके से पराजय स्वीकार कर सत्य भी साबित हुआ, जब एक साल पश्चात्, स्वस्थ लेना उसे मंज़र न था। मैंने हमला करनेवालों में से एक होने के बाद , लाहौर जाने पर मैंने धोची-मंडी में मूर्त के को पकड़ लिया और प्रहारों की परवा न करते हुए उसे दर्शन किये। वह एक बहुत छोटे-से घिनौने मकान में खड्ड में ढकेल दिया। फिर एक दूसरे की नारी बाई । उसे रहती थी। मैं उसके पास कई घंटे तक बैठा रहा । उसने भी खड्ड में गिरा दिया। सिपाहियों ने सहायता के लिए मुझे अपनी मर्मस्पर्शी कहानी सुनाई। किस भाँति उसकी सीटियाँ बजा दीं। और लोग आ गये । मुझ पर चारों सुन्दरता पर मुग्ध होकर दारोगा अथवा दूसरे कर्मचारियों
ओर से प्रहार होने लगे । मेरे शरीर से रक्त बह निकला। ने उस पर अनर्थ तोड़े और किस प्रकार अपने अत्याचारों फिर भी मैं उस समय तक लड़ता गया, जब तक बेहोश का भण्डाफोड़ होने के भय से उन्होंने उसे छोड़ दिया। नहीं हो गया।
अपने सतीत्व को लुटाकर वह किस प्रकार अपने गाँव
में जाने का साहस न कर सकी और किस प्रकार पेट की ____ जब होश आया तब अपने आपको नीचे की हवालात ज्वाला ने उसे धोबी-मंडी में आ बसने को बाध्य किया। में पड़े पाया। इस अँधेरे और एकान्त में मेरा दम घुटने चौकीदार की आवाज़ भरी गई। वह कहने लगालगा। मूर्त के साथ क्या बीती, इस विचार ने मेरे मन यह कहते कहते गोविन्द, वह रो पड़ी। मैं भी रोने लगा ! को अधीर कर दिया। भूत में क्या हुश्रा और भविष्य में मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा, पर वह राजी नहीं क्या होगा, इन विचारों ने मेरे मस्तिष्क को घेर लिया। हुई । अाते समय उसने मेरे सामने एक रेशमी रूमाल रख मेरा अंग अंग दुख रहा था, परन्तु मुझे अपने दुख की दिया और रोती हुई बोलीअधिक चिन्ता न थी.। दुख था तो मूर्त की जुदाई का। "अाज तीन साल से मैंने इसे सँभाल कर रक्खा है ।
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' संख्या १]
"वह मेरी मॅगेतर"
परन्तु यह पवित्र रूमाल अब मुझ-सी अपवित्र नारी के दिया, मैं उसे सस्ते दामों छोड़ना नहीं चाहता था। परन्तु पास नहीं रहना चाहिए । इसे अपनी नव वधू को भेंट कर परमात्मा ने मुझे उस नीच के लहू से अपने हाथ रँगने देना।
से बचा लिया। मेरे पाने के दो दिन बाद ही वह सड़क उसके स्वर में कुछ ऐसी दृढ़ता थी कि मैं उत्तर न पर चला जा रहा था कि वर्षा के कारण पहाड़ का एक दे सका और मैं वहाँ से चला आया । दूसरे दिन वहाँ बड़ा-सा भाग टूटकर उस पर गिरा और वह अपनी पापगया तब मूर्त वहाँ से जा चुकी थी।
वासनाओं को अपने साथ लिये सदा के लिए संसार से ऊपर कमरे में निस्तब्धता छा गई । कदाचित् कंटावरोध चला गया। इसके बाद दिल में कुछ और भारत ही न के कारण चौकीदार चुप हो गया था।
रही, इसलिए यहीं बना रहा।" ___कुछ क्षणों के बाद गोविन्द ने पूछा-तो आप इस गोविन्द ने एक लम्बी साँस ली। उसने कहा-“भाग्य नौकरी पर कैसे पाये ?
___ के खेल हैं चौकीदार जी। जिस प्रकार विधाता रक्खे, उसी "यह बात पूछने से क्या लाभ ? भाग्य के चक्कर से पर सन्तुष्ट रहना चाहिए। इधर आ गया हूँ।"
बाहर सिपाहियों के मज़बूत जूतों की खड़खड़ाहट का "फिर भी।"
शब्द सुनाई दिया और कई सिपाही कमरे में दाखिल चौकीदार ने धीरे से कहा-अब तो बताने में कोई होकर सोने का प्रबन्ध करने लगे। कदाचित् गोविन्द उसी हानि नहीं। वास्तव में मैं उस नरपिशाच दारोगा से बदला समय वहाँ से खिसक गया था ।* लेने की प्रबल आकांक्षा से शिमले आया था। मेरे लिए मूर्त ही सब कुछ थी। मैंने अपने जीवन में केवल
* लेखक की अप्रकाशित 'एक रात का नरक' नामक उसी से प्रेम किया। इसके बाद मैंने बिवाह भी नहीं
पुस्तक से। किया। जिस दारोगा ने इस प्रकार हम दोनों को जुदा कर
अनुरोध लेखक, श्रीयुत राजनाथ पांडेय, एम० ए० भर दे निज कोमल गायन में, कवि रे ! ऐसे आशीस वचन, जिससे जग में श्री बरस पड़े रह जाय न कोई जन निरधन । रह जाय न कोई जन निरधन, कह रे कवि! वे आशीस वचन, रवि-शशि-तारों की किरणों से ले ले मानव अगणित जीवन ! प्रत्येक हृदय में हो मुखरित-वन-पल्लव का लघुतर ममेर, लघु-लघु जीवों की मूक कथा, जगती के हिय का स्पन्दन-स्वर ।
आधार प्रणय का हो करुणा, जग के सब टूट पड़ें बन्धन, बँध जाय प्रेम के धागे में इस अखिल विश्व का प्रिय जीवन । हम तेरे गायन को सुनकर उठकर खोले चिर-अन्ध-नयन, भर दे निज कोमल गायन में कवि रे! ऐसे आशीस वचन !
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सम्पादकीय नो
सम्राट एडवर्ड का राजसिंहासन-त्याग .. त्याग है। परन्तु सम्राट एडवर्ड ने अपनी पद-मर्यादा की कहाँ सम्राट एडवर्ड के राज्याभिषेक की तैयारी धूमधाम रक्षा के विचार से अपनी प्रेमिका का त्याग करना उचित के साथ हो रही थी और साम्राज्य के सारे प्रजाजन उस नहीं समझा। उनकी इस बात से उनके गौरव की और भी महोत्सव के दिन की बड़ी उत्सुकता के साथ राह देख रहे थे, वृद्धि हुई है और अपने इस साहस के कार्य से उन्होंने अपना कहाँ उस दिन एकाएक अख़बारों में यह दुःखद संवाद पढ़ने नाम इतिहास में अमर कर लिया है । वे चाहते तो सम्राटको मिला कि सम्राट एडवर्ड राजसिंहासन परित्याग करने पद का भी न त्याग करते और उनकी प्रेमिका भी उन्हें को लाचार हुए हैं । यही नहीं, राजसिंहासन त्याग कर वे प्रात रहती । परन्तु उन्होंने अपनी उद्देश-सिद्धि के लिए वैसे स्वदेश छोड़कर भी चले गये, यह वास्तव में ब्रिटिश मार्ग का ग्रहण करना उचित नहीं समझा। और अपनी साम्राज्य की इस काल की एक असाधारण घटना हुई है। सचाई के कारण उन्हें राजसिंहासन से हाथ धोना पड़ा। जिस प्रधान बात के कारण सम्राट एडवर्ड को सिंहासन सम्राट के इस कार्य से उनके साम्राज्य के प्रजाजनों को भारी त्याग करना पड़ा है वह है उनका एक अमरीकन महिला दुःख हुआ है और उसका उन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा के साथ विवाह करने का निश्चय । सम्राट का यह है, क्योंकि सम्राट एडवर्ड गत २५ वर्ष से सारे साम्राज्य विवाह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मिस्टर बाल्डविन को ठीक में अपनी उदारता और व्यवहार-कुशलता के लिए बहुत नहीं ऊँचा और उन्होंने सम्राट से अपना विरोध प्रकट ही अधिक लोकप्रिय रहे हैं। . किया । पर सम्राट अपने निश्चय पर अटल रहे और जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि प्रधान मंत्री मिस्टर बाल्डविन के सम्राट् जार्ज और सम्राज्ञी एलिजाबेथ पक्ष में संगठित लोकमत है तब उन्होंने अपने स्वाभिमान की बादशाह एडवडे के राजसिंहासन त्याग करने पर गत रक्षा के लिए सम्राट जैसे ऊँचे पद का त्याग कर देना ही १२ दिसम्बर को उनके सहोदर भाई यार्क के ड्यूक बादशाह उचित सगझा। यही नहीं, उन्होंने तत्काल ही राजसिंहासन जाज (छठे) के नाम से सम्राट और उनकी पत्नी यार्क की का परित्याग कर भी दिया और वे इंग्लेंड छोड़कर एक साधा- डचेज एलिज़ाबेथ सम्राज्ञी घोषित किये गये। आप स्वर्गीय रण नागरिक के रूप में अपना शेष जीवन व्यतीत करने बादशाह जार्ज पंचम के दूसरे पुत्र हैं। आपका जन्म को प्रास्ट्रिया जैसे सुदूर देश को चले गये । सम्राट एडवर्ड सन् १८९५ के १४ दिसम्बर को हुआ था। प्रोस्वोर्न और अभी अभी अपने पिता की मृत्यु के बाद ब्रिटेन के सिंहासन डार्टमूर में श्रापको नौ-विद्या की शिक्षा दी गई । सन् १९१३ पर गत जनवरी में बैठे थे और उन्होंने जिस उत्साह और के सितम्बर में आप कोलिंगउड में नियुक्त किये गये। तत्परता से अपने गौरवपूर्ण पद का भार ग्रहण किया था १९१३ में आप वेस्ट इंडीज़ गये। युद्ध-काल में आपने उससे इस सिंहासन-त्याग की बात की कोई कल्पना भी अपेन्डिसाइटिस की पीड़ा के कारण अपने जहाज़ को छोड़ नहीं कर सकता था। परन्तु दैव की कुटिल गति से वही दिया था। अघट घटना घटित हो गई। इससे प्रकट होता है कि ब्रिटिश १९१६ में आपके २१वें जन्मोत्सव के अवसर पर साम्राज्य का शासन-सूत्र जिन लोगों के हाथ में रहता है वे श्रापको के० जी० की पदवी दी गई। १९१८ में हवाई सम्राट के गौरवपूर्ण पद को किस अादर्श में निहत रखना जहाज़ की कला जानने के लिए आपने उस विभाग में प्रवेश चाहते हैं । चाहे जो हो, ऐसा त्याग कोई सामान्य त्याग किया और आप राजकीय हवाई सेना में कैप्टन बनाये नहीं है। वह संसार के सबसे बड़े साम्राज्य के स्वामित्व का 'गये। इसी समय आप औद्योगिक वेल्फेयर सोसाइटी के
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संख्या १]
सम्पादकीय नोट
सभापति बनाये गये। सन् १९२१ में आपका जी० सी० १९२८ में आप प्रौद्योगिक केन्द्रों का निरीक्षण करते वी० श्रो० की पदवी दी गई। इसी साल की जनवरी में रहे तथा उस स्टेट कौंसिल में भी काम किया जो बादशाह
[सम्राट जार्ज (छठे)]
[सम्राज्ञी एलिज़ाबेथ] श्राप राजकीय नौ-सेना के सेनापति के पद पर प्रतिष्ठित की बीमारी के कारण १९२८ में नियुक्त हुई थी। श्राप किये गये। १९२२ में आप ई० यार्कस रेजीमेंट के कर्नल १९२९ के मार्च में स्काटलैंड के चर्च के हाई कमिश्नर हुए।
नियुक्त किये गये । १९३० में अापकी दूसरी पुत्री का जन्म __ सन् १९२३ की जनवरी में आपकी स्ट्राथमोर के अल हुअा। १९३१ की जुलाई में पेरिस-औपनिवेशिक-प्रदर्शनी की पुत्री लेडी एलिज़ाबेथ बोवेस-लाइयन से सगाई हुई देखने गये । १९३२ की ३ जून को श्राप रियर एडमिरल और उसी साल वेस्ट-मिनिस्टर एबे में आपका २६ अप्रेल बनाये गये । १९३२ के दिसम्बर में आप मेजर-जनरल को विवाह हो गया। १९२५ में आप अफ्रीका भ्रमणार्थ और एयर वाइस मार्शल स्काट्स गाड्स के कर्नल बनाये गये। १९२५ की प्रसिद्ध वेम्बले-प्रदर्शनी के श्राप सभापति गये । १९३४ में आपने सार्वजनिक कार्यों में बड़ी दिलहए। १९२६ की २१ अप्रेल को अापके एक पुत्री हई। चस्पी दिखाई। राजकुमारी का नाम एलिज़ाबेथ अलेक्जेंड्रा मेरी रक्खा अब आप अपने जेठे भाई के राज्यत्याग करने पर गया। १९२६ के दिसम्बर में आप जी० सी० एम० जी० ब्रिटिश साम्राज्य के सम्राट घोषित किये गये हैं । इस समय बनाये गये। १९२७ की जनवरी में आप सपत्नीक आस्ट्रेलिया आप ४१ वर्ष के हैं। हम यहाँ आपके दीर्घजीवी होने की नई राजधानी कनबेर्रा देखने को आस्ट्रेलिया गये और की कामना प्रकट करते हैं और चाहते हैं कि आपका भी ९ मई को वहाँ के पार्लियामेंट-भवन का उद्घाटन किया। शासन-काल आपके स्वर्गीय पिता जैसा ही गौरवशाली हो । इसी वर्ष जुलाई में आपकी पत्नी को जी० बी० ई० की पदवी दी गई।
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सरस्वती
[ भाग ३८
क्या महायुद्ध छिड़ेगा
तीनों देश अवसर पाते ही अपने अपने भूभाग अपने इसमें सन्देह नहीं है कि जर्मनी अब योरप का प्रबल अपने राज्य में मिला लेने से कभी नहीं हिचकेंगे। इस राज्य हो गया है। वह निर्दयता के साथ बर्सेलीज़-सन्धि के कारण योरप का यह नया देश बड़े चक्कर में पड़ा हुआ है विरुद्ध आचरण कर रहा है, यही नहीं, वह अपने छीने और वह अपनी रक्षा के लिए फ्रांस और रूस का मुँह हुए उपनिवेश भी वापस मांग रहा है। इसके लिए उसने ताकते रहने को बाध्य रहा है। परन्तु आज पासा उलट यथासम्भव अपनी सैनिक तैयारी भी कर ली है। उसकी गया है। बर्लिन और रोम की गतिविधियों ने उसे अस्थिर शक्ति-वृद्धि को देखकर फ्रांस बुरी तरह डर गया है और कर दिया है। योरप के जो राज्य उससे मेल-जोल रखते थे वे भी लड़ाई इसकी अस्थिर नीति के कारण जुगोस्लेविया और छिड़ जाने की आशंका से फ्रांस के गुट से अलग हो जाने रूमानिया ज़ेचोस्लोवेकिया को सन्देह की दृष्टि से देख रहे
का प्रयत्न कर रहे हैं । बेल्जियम तक ने अगले युद्ध में हैं। वे उसे रूस का सहायक समझ रहे हैं । इधर रूमानिया निरपेक्ष रहने की घोषणा कर दी है। उधर बालकन-प्रायद्वीप रूस का विरोधी है। और जुगोस्लेविया ने तो आज तक के रूमानिया और जुगोस्लेविया भी फ्रांस से किनारा करते सोवियट रूस को नहीं स्वीकार किया है, यद्यपि वह स्लावों हुए दिखाई दे रहे हैं । इसका मूल कारण है राष्ट्र-संघ की का राज्य है। परन्तु स्लावों को अपने सजातीय और पहले नपुंसक नीति ।
के मित्र रूसियों का वर्गवाद एक क्षण के लिए भी स्वीकार यह सच है कि फ्रांस ने रूस से मैत्री कर ली है और नहीं है । उसकी यह वर्गवाद-विरोधी नीति जर्मनी एक बहुत बड़ी रकम देकर पोलेंड को भी अपने पक्ष में और इटली के अनुकूल है। फिर जर्मनी का व्यापार कर लिया है । परन्तु यदि जर्मनी से उसका युद्ध छिड़ गया जुगोस्लेविया में बहुत बढ़ गया है, जिससे उसका वहाँ तो उस दशा में फ्रांस का साथ कौन कौन देश देगा, काफी प्रभाव हो गया है। इस सम्बन्ध में कोई बात निश्चय-पूर्वक कहना बहुत इधर आस्ट्रिया में जर्मनी का जो विरोध था वह भी कठिन है।
क्षीण हो गया है । तथापि यह जानते हुए भी कि जर्मनी को देखिए न कि ज़ेचोस्लोवेकिया, जुगोस्लेविया और उसका राजतंत्रवाद रुचिकर नहीं है, आस्ट्रिया के भाग्यरूमानिया में इस बात के कारण मित्रता थी तथा अाज विधाता डाक्टर शुश्निग ने स्पष्टरूप से कह दिया है कि भी है कि उनके राज्य का क्षेत्रफल जैसे का तैसा बना आस्ट्रिया में राजतंत्र का आन्दोलन कानून-विरुद्ध नहीं है। रहे, इसके सिवा उनके राज्यों की वर्तमान सीमा की रक्षा यह सच है कि लघु मित्रदल ने यह घोषित किया । का आश्वासन उन्हें फ्रांस ने भी बराबर दिया है। परन्तु है कि यदि जर्मनी आस्ट्रिया को हड़पने का प्रयत्न करेगा अब फ्रांस जर्मनी और इटली के आगे पीछे पड़ गया और ब्रिटेन, फ्रांस और इटली उसका विरोध करेंगे तो वह है, अतएव इन राज्यों को आपत्ति के समय फ्रांस की भी उनका साथ देगा । परन्तु यदि आस्ट्रिया या हंगेरी अपने सहायता का भरोसा नहीं रहा । वर्तमान राजनैतिक यहाँ राजतंत्र की स्थापना करेगा तो वह स्वयं उसका सशस्त्र परिस्थिति के कारण ज़ेचोस्लोवेकिया तो बिलकुल विरोध करेगा। रूस और जर्मन के संघर्ष के बीच में पड़ गया है। ऐसी इस परिस्थिति में कोई कैसे कह सकता है कि युद्ध दशा में वह अपनी रक्षा के विचार से धीरे धीरे इटली छिड़ जाने पर कौन किसका साथ देगा। की अोर झुक रहा है । इस दशा में उसकी आस्ट्रिया इधर तो राजनैतिक परिस्थिति ऐसी अस्तव्यस्त है,
और हंगेरी से अधिक घनिष्ठता हो जायगी। और उधर योरप के राष्ट्रों का सामरिक बल दिन दिन बढ़ता जा ऐसा होने पर जर्मनी का विरोध-भाव कम पड़ जायगा। रहा है । राष्ट्रसंघ ने एक विवरण छपाया है, जिससे प्रकट परन्तु ऐसा कहाँ तक सम्भव होगा, यह समझना कठिन होता है कि संसार के ६. देशों में से ५० के है, क्योंकि ज़ेचोस्लोवेकिया की रचना हंगेरी, श्रास्ट्रिया सेना हो गई है। और जर्मनी के प्रदेशों को मिलाकर ही हुई है और ये संसार की सारी स्थायी सेनाओं में (अर्द्ध-सैनिक दलों
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संख्या १]
सम्पादकीय नोट
१०१
और पुलिस को शामिल न कर) लड़ाकों की संख्या सन् उदाहरण लोगों के सामने आये हैं। एक दक्षिण अफ्रीका १९३५-३६ में ८२,००,००० थी, जिनमें से ५,४५,००० का है । यहाँ के गवर्नर जनरल लार्ड क्लेरेंडन का कार्य-काल जल-सैनिक थे। निरस्त्रीकरण-सम्मेलन के काल में (सन् १९३७ के मार्च से समाप्त हो जायगा। अभी तक यहाँ के १९३१-३२) यही संख्या ६५,००,००० थी। इस प्रकार गत गवर्नर-जनरल की नियुक्ति ब्रिटेन के प्रधान मंत्री के परामर्श ५ या ६ वर्षों में १७,००,००० सैनिकों की वृद्धि हुई है। के अनुसार हुआ करती थी। परन्तु १९२६ की इम्पीरियलकेवल यूरोपीय देशों को ले तो उनके सैनिकों की वर्तमान कान्फरस और वेस्ट-मिनिस्टर-स्टेट्यूट के फलस्वरूप अब सख्या (स्थल, जल और वायु सेनात्रों में) ४८,००,००० वहाँ के गवर्नर-जनरल की नियुक्ति देश के प्रधान मंत्री के है जो सन् १९३१-३२ में कुल ३६,००,००० थे। अर्थात् परामश के अनुसार हुआ करेगी। फलतः दक्षिण अफ्रीका केवल योरप में १२,००,००० सैनिकों की वृद्धि हुई है। के प्रधान मंत्री जनरल हर्टज़ोग ने यह सिफारिश की है ____ महायुद्ध के पूर्व और पश्चात् की स्थितियों का कि मिस्टर पैट्रिक डनकन गवर्नर-जनरल बनाये जायँ । मुकाबिला करना रोचक है। राष्ट्र-संघ की शस्त्र-पुस्तक में तो तदनुसार बादशाह ने उनकी नियुक्ति की स्वीकृति दे दी। युद्ध के पूर्व के सैनिकों की संख्या नहीं दी गई, परन्तु अन्य इससे यह प्रकट हो जाता है कि उन देशों को स्वराज्य के स्थानों पर जो अनुमान दिये गये हैं उनके अनुसार समस्त कैसे अधिकार प्राप्त हैं। दूसरा उदाहरण आयलैंड का है सैनिकों की संख्या जल-सेना के अतिरिक्त) ५९,००,००० और वह इससे भी बढ़ा-चढ़ा है। आयलैंड ने अपने यहाँ थी। सन् १९३५-३२ में यही संख्या ६०,००,००० थी, की पार्लियामेंट में कानून पास करके गवर्नर-जनरल का
और श्राज-कल ७६,००,००० है। अर्थात् १९१२-१३ पद ही उठा दिया है और उसके सारे अधिकार अपनी से अब तक १७,००,००० की वृद्धि हुई है। केवल योरप पार्लियामेंट के स्पीकर को प्रदान कर दिये हैं। यही नहीं, में युद्ध के पूर्व की संख्या ४६,००,०००: सन् १९३१-३२ वहाँ की सरकार ने बादशाह का नाम केवल बाहरी मसलों में ३२,००, ००० और आज-कल ४५,००,००० है। में ही उपयोग करने का निश्चय किया है। देश के भीतरी सारांश यह है कि योरप में निरस्त्रीकरण-सम्मेलन के मामलों में अब बादशाह का नाम नहीं प्रयुक्त होगा। ये
सब वास्तव में बड़े भारी परिवर्तन हैं और इनसे प्रकट होता थी, पर इस समय वह १९१२-१३ के बराबर है। है कि ब्रिटिश साम्राज्य के भिन्न भिन्न देश किस तरह अपने
योरप की यह परिस्थिति क्या योरपीय महायुद्ध के अस्तित्व का महत्त्व प्रकट करने में यत्नवान् हो रहे हैं तथा छिड़ने की सम्भावना का द्योतक नहीं है, अब तो स्पेन के उनकी क्षमता कहाँ तक बढ़ गई है। निस्सन्देह साम्राज्य गृहयुद्ध ने लड़नेवालों को मौका भी दे दिया है और उन्होंने के इन कई प्रधान देशों से केन्द्रीय साम्राज्य सरकार की एक तरह लड़ाई छेड़ ही दी है। जर्मनी और इटली विद्रो- सत्ता पूर्णतया उठ गई है और यदि कहीं कुछ है भी तो हियों के पक्ष में हैं और रूस स्पेन-सरकार के पक्ष में है। वह नाममात्र को ही है। इस परिस्थिति से साम्राज्य को ब्रिटेन और फ्रांस निरपेक्ष हैं। कौन कह सकता है कि स्पेन कहाँ तक दृढ़ता प्राप्त हुई है, इसका पता भविष्य में ही का यह युद्ध महायुद्ध का रूप नहीं ग्रहण कर लेगा ? लगेगा, आज इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कोई कुछ नहीं
कह सकता है।
साम्राज्य सरकार और उपनिवेश ___ मदरास के कारपोरेशन का महत्त्वपूर्ण कार्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत श्रात्मशासन-प्राप्त कई देश मदरास के कारपोरेशन के हाल के चुनाव में कांग्रेसदल हैं । कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, फ्रो-स्टेट आदि की असाधारण जीत हुई है और उसका उसमें बहुमत हो ऐसे ही देश हैं। इन देशों को श्रात्म-शासन के कहाँ तक गया है । फलतः कारपोरेशन में महत्त्व का एक यह प्रस्ताव बढे चढे अधिकार प्राप्त हैं, इसका पता समय-समय पर पास किया गया है कि अब कारपोरेशन में हेल्थ अाफ़िसर. मिलता रहता है। इस सिलसिले में हाल में और दो ताज़े रेवेन्यू आफ़िसर, इलेक्ट्रिकल इंजीनियर जैसे उच्च अधिकारी
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सरस्वती ।
[भाग ३८
५००) से अधिक मासिक वेतन नहीं पायेंगे । बहुत दिन फुट ऊँचा होगा । यदि इस प्रपात से बिजली पैदा की हुए कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया था कि देश का जायगी तो १६ करोड़ घोड़े की शक्ति की बिजली प्राप्त हो शासन-प्रबन्ध जब उसके हाथों में आ जायगा तब वह सभी सकेगी। ऊँचे अफसरों का वेतन घटाकर ५००) मासिक कर देगी। इसके सिवा भूमध्य-सागर से नहर काटकर उत्तरी प्रसन्नता की बात है कि मदरास के कारपोरेशन ने अपने यहाँ अफ्रीका की कायापलट की जा सकेगी। क्योंकि सहाराउपर्युक्त श्राशय का प्रस्ताव पास कर देश के अन्य सभी मरुभूमि का अधिकांश समुद्र की सतह से नीचे है। अतएव म्युनिसिपल बोर्डों के लिए राह खोल दी है। श्राशा है, उक्त नहर-द्वारा सहारा की मरुभूमि में एक बहुत बड़ा मदरास का कारपोरेशन इसी तरह नागरिक जीवन के संगठन कृत्रिम समुद्र बनाया जा सकेगा। का भी कोई उपयुक्त आदर्श देश के सामने उपस्थित कर उधर डार्डेनेलीज़ का मुहाना बाँध देने से काले समुद्र अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करेगा। देश की सतह ऊँची हो जायगी । अतएव उसका अधिक पानी के अनेक नगरों के म्यूनिसिपल बोर्डों में इधर कांग्रेसमैनों कास्पियन समुद्र को पहुँचाया जा सकेगा, और कास्पियन का बाहुल्य हो गया है । इसमें सन्देह नहीं कि ऐसे उपयोगी से वह पूर्ववर्ती मरुभूमियों में । रूस-सरकार इन दोनों समुद्रों प्रस्ताव म्युनिसिपल बोडों के कांग्रेस सदस्य बहुमत न को नहर काटकर जोड़ देने का विचार कर भी रही है, रखते हुए भी दूसरे सदस्यों की सहायता से पास कर सकते क्योंकि कास्पियन सागर दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा है। हैं और उन्हें कार्य में परिणत भी कर सकते हैं। परन्तु यदि उक्त जर्मन कारीगर की योजना कार्य में परिणत अभी तक उन्होंने ऐसा कोई महत्त्व का कार्य नहीं किया हो जाय तो संसार के सारे बेकारों की जीविका का एक हैं जिससे यह व्यक्त होता हो कि उनके पहुंचने से स्थायी द्वार खुल जाय और इस बला से वह एक लम्बे म्युनिसिपल बोर्डों में पहले की अपेक्षा विशेषता हो गई समय तक के लिए मुक्त हो जाय । योजना के अनुसार है। आशा है, अब म्युनिसिपल बोर्डों के लोकसेवक बड़े बड़े बाँध बाँधने पड़ेंगे, नई सड़कें, और रेलवे लाइने सदस्यों में कर्तव्य-बुद्धि जाग्रत होगी और उनके द्वारा समाज बनानी पड़ेंगी, नगर बसाने की ज़रूरत होगी; क्योंकि समुद्र का वास्तविक हित हो सकेगा।
के भीतर से निकली हुई ज़मीन को आबाद करना होगा
और उसमें खेतीबारी करने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। एक अनोखी योजना
और इस सारी कार्यवाही में संसार के सारे के सारे बेकार जर्मनी के एक कारीगर ने एक योजना तैयार की है। आसानी से जीविका से लग जायेंगे। इस योजना के कार्य में परिणत किये जाने पर आधे इस योजना में तो कोई त्रुटि नहीं है। आवश्यकता है भमण्डल का नक्शा बदल जा सकता है। इन कारीगर का इसे कार्य में परिणत करने की । और यह तभी हो सकेगा नाम हर हरमैन सोइजेल है और ये म्यूनिच के निवासी हैं। जब ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, रूस, स्पेन और तुर्की इसके
इनकी उक्त योजना का अाधार विज्ञान है । इस बात लिए राज़ी होंगे। का पता लग चुका है कि भूमध्यसागर का जितना पानी प्रतिदिन सूर्य सोख लेता है, उतना पानी उसमें गिरनेवाली
दक्षिण-भारत में हिन्दी नदियाँ नहीं पहुंचा पातीं। यदि जिब्राल्टर, स्वेज़ और दक्षिण-भारत में हिन्दी दिन-प्रति दिन लोकप्रिय होती डार्डेनेलीज़ के मुहाने बाँध दिये जायँ तो भूमध्यसागर की जा रही है। वहाँ के निवासी हिन्दी को प्रेम-पूर्वक सीख सतह दिन-प्रतिदिन गिरने लग जायगी और प्रतिवर्ष ही नहीं रहे हैं, किन्तु वे उसका वहाँ बड़ी तत्परता के साथ उसकी मीलों भूमि जल के घट जाने से बाहर निकलने लग प्रचार भी कर रहे हैं। अभी हाल में मैसूर-यूनीवर्सिटी के जायगी । और इस प्रकार जब उसकी सतह काफ़ी नीची सीनेट में यह प्रश्न उठाया गया था कि उक्त यूनीवर्सिटी हो जायगी तब जल की कमी की पूर्ति के लिए उसमें बाहर में इच्छित विषयों में अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी को का पानी लाना पड़ेगा । इस जल-राशि का प्रपात ६५० स्थान दिया जाय या नहीं। इस पर उक्त सभा में जो वाद
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संख्या १]
सम्पादकीय नोट
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विवाद हुआ उससे प्रकट होता है कि दक्षिण-भारत में विशेष महत्त्व का सूचक है । वह यह कि उन्होंने अपनी हिन्दी ने अपना उचित स्थान प्राप्त कर लिया है । उक्त अव- सेवा-परायणता, स्वाथ-त्याग और अदम्य साहस से अपने सर पर सीनेट के कई प्रमुख सदस्यों ने हिन्दी का विरोध करते हुए अपने भाषणों में साफ़ साफ़ कह दिया कि हिन्दी का इच्छित विषयों में स्थान देने से कनाडी की हित-हानि होगी, इसके सिवा यह प्रस्ताव अन्यायमूलक भी है। परन्तु विरोधियों की एक बात भी नहीं सुनी गई और प्रोफेसर ए० आर० वाडिया का मूल-प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया। ये बातें प्राशाजनक हैं और इनसे यही प्रकट होता है कि हिन्दी का दक्षिण-भारत में अच्छा प्रचार हो गया है । वहाँ की इस अवस्था से हिन्दी के केन्द्र स्थान संयुक्त प्रान्त को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए और अपनी अकर्मण्यता के लिए पश्चात्ताप। क्या संयुक्त प्रान्त में हिन्दी का उतना भी प्रचार नहीं है कि वह प्रान्तीय सरकार के कचहरी-दरबार में अपना समुचित स्वत्व प्राप्त कर सके ? इस सम्बन्ध में दक्षिण भारत बहुत आगे बढ़ गया है और इसके लिए वहाँ के हिन्दी-प्रेमी जो महत्त्व
का काय कर रहे हैं वह अन्य प्रान्तों के निवासियों के लिए सर्वथा अनुकरणीय है।
राष्ट्रीय महासभा का अधिवेशन राष्ट्रीय महासभा का ५० वाँ अधिवेशन पहले की भाँति दिसम्बर के पिछले सप्ताह में बम्बई प्रान्त की देहात के फैजपुर नामक एक गाँव में हुआ है। इस अधिवेशन में
[राष्ट्रपति पंडित जवाहरलाल नेहरू । ] दो-तीन मार्के की विशेषतायें हुई हैं । पहली विशेषता यह अापको यहाँ तक लोकप्रिय बना लिया है कि आज वे भारतीय है कि यह अधिवेशन नगर छोड़कर देहात के एक गाँव राष्ट्रीय भावना के प्रतीक हो गये हैं। तीसरी विशेषता यह में किया गया है। इससे प्रकट होता है कि राष्ट्रीय महा- है कि इस बार बम्बई के उस स्थान से जहाँ राष्ट्रीय महासभा का ध्यान अब देहात की अोर विशेष रूप से रहेगा। सभा का सर्वप्रथम अधिवेशन हुआ था, राष्ट्रीय महासभा अच्छा हो, यदि प्रान्तीय एवं जिला सभात्रों के भी अधि- के स्वयंसेवकों ने पैदल चलकर फैजपुर में अधिवेशन के वेशन देहातों में ही हुश्रा करें। इससे राष्ट्रीय भावना का दिन प्रज्वलित अग्नि पहुँचाई है। इस कार्य की व्यवस्था व्यापक प्रचार हो नहीं होगा, किन्तु राष्ट्रीय महासभा की जिस ढंग से की गई है वह केवल सुन्दर और उत्साहवर्द्धक शक्ति में भी असीम वृद्धि होगी। दूसरी विशेषता यह ही नहीं सिद्ध हुई है, किन्तु उसका जनता पर काफी प्रभाव हुई है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ही इस बार फिर भी पड़ा है। इसी प्रकार राष्ट्रपति की भी ये विशेषतायें हैंराष्ट्रपति मनोनीत हुए हैं। इसी वर्ष अप्रेल में राष्ट्रीय (१) ये तीन बार राष्ट्रीय महासभा के सभापति बनाये महासभा का लखनऊ में जो अधिवेशन हुआ था उसके गये हैं । (२) ये एक के बाद दूसरे अधिवेशन के राष्ट्रपति भी सभापति पण्डित जवाहरलाल नेहरू ही बनाये गये थे। वरण किये गये हैं। (३) अपने पिता के बाद ये कांग्रेस इस बार उनका फिर राष्ट्रपति मनोनीत होना निस्सन्देह के सभापति मनोनीत किये किये हैं। (४) इनके घराने
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सरस्वती
[भाग ३८
के दो व्यक्ति कांग्रेस के सभापति बनाये गये हैं । (५) अपने हमारे सामने बहुत महत्त्वपूर्ण काम है। भारतीय ही प्रान्त में कांग्रेस के सभापति बनकर इन्होंने पुरानी और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बड़ी-बड़ी समस्याओं को हल परम्परा तोड़ी है। (६) १२ बैलों के रथ में इनका सवादा करना है । सिवाय हमारी महान् संस्था कांग्रेस के स्टेशन से जलूस निकाला गया है । इस तरह फ़ैजपुर का इनको कौन सुलझा सकता है ? क्योंकि इसी संस्था ने राष्ट्रीय महासभा का यह अधिवेशन अनेक विशेषतात्रों से पूर्ण अपने पचास साल की लगातार कोशिश और त्याग से हुअा है। परन्तु इन विशेषताओं से भी बड़ी विशेषता यह भारत के करोड़ों मनुष्यों की ओर से बोलने का अद्वितीय हुई है कि राष्ट्रपति ने अपना भाषण काफ़ी छोटा दिया है अधिकार प्राप्त कर लिया है। जो मर्मस्पर्शी और उत्साहवर्द्धक है। उसके दो महत्त्व के x x x अंश ये हैं
दो साल हुए गांधी जी की ही सलाह से कांग्रेसअखिल भारतीय कांग्रेस-कमेटी के चुनाव-सम्बन्धी विधान में फिर परिवर्तन किये गये। उसमें एक बात घोषणापत्र में यह बात अच्छी तरह बता दी गई है कि हम यह हुई कि अब कांग्रेस सदस्यों की संख्या के आधार इस चुनाव की लड़ाई में क्यों ना पड़े, और किस तरह पर प्रतिनिधियों की संख्या नियत की जाती है। इस हम काम को पूरा करना चाहते हैं । मैं इस तब्दीली ने हमारे कांग्रेस-चुनाव में एक वास्तविकता
व को श्रापको मंजूरी के लिए पेश करता हूँ। पैदा कर दी है और हमारे संगठन को भी मज़बूत बना इम कौंसिलों और असेम्बलियों में जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद दिया है। लेकिन अब भी कांग्रेस की देश में जितनी के साधन हैं, सहयोग करने के लिए नहीं जा रहे हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान है उसके अनुसार हमारा संगठन उसका विरोध करने और उसका अन्त करने के लिए ही अभी बहुत पीछे है और हमारी कमिटियों में साधारण काम वहाँ जा रहे हैं । जो भी हम करेंगे वह इसी नीति के करनेवालों तथा जनता से बिलकुल कटे हुए रहकर अर्थात् दायरे में महदूद होगा। धारा-सभाओं में हम विधेयात्मक हवा में काम करने की प्रवृत्ति आ गई है। मार्ग या शुष्क सुधारवाद के मार्ग का अनुसरण करने नहीं इसी कमी को दूर करने के लिए लखनऊ-कांग्रेस में जा रहे हैं।
जन-साधारण का सम्पर्क (मास कान्टैक्ट) सम्बन्धी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था। लेकिन जो कमिटी इसके लिए नियत
की गई थी उसने अपनी रिपोर्ट अभी तक नहीं पेश की इन चुनावों में कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ भी जहाँ तहाँ है। उस प्रस्ताव में जितनी बातें सम्मिलित थीं उनसे यह देखी गई हैं जिनके अनुसार किसी न किसी प्रकार बहुमत कहीं ज़्यादा बड़ा सवाल है । इसके द्वारा कांग्रेस के वर्तमान प्राप्त करने के लिए समझौते किये गये हैं। यह रुख़ बहुत संगठन को ही बदलने का विचार है ताकि कांग्रेस एक ही ख़तरनाक है। इसे तुरन्त रोकना चाहिए । चुनाव का अधिक मज़बूत, संगठित और पुरअसर काम करनेवाली उपयोग तो ख़ास तौर पर इसी लिए होना चाहिए कि संस्था बन सके। जनता कांग्रेस के झण्डे के नीचे श्रावे । करोड़ों वोटरों और इसमें सन्देह नहीं कि श्रीमान् नेहरू जी के इस वर्ष भी असंख्य गैर-वोटरों के पास समानरूप से कांग्रेस का सन्देश राष्ट्रपति बने रहने से देश में नव जागरण को शक्ति और पहुँचे, और जनता का आन्दोलन दूनी तेज़ी से आगे बढ़े। दृढ़ता दोनों प्राप्त होंगी।
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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कादम्बरी के पास महाश्वेता और चन्द्रापोड़ का आगमन।
चित्रकार-उपेन्द्रकुमार मित्र
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Tr
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
फ़रवरी १६३७
भाग ३८, खंड १ संख्या २, पूर्ण संख्या ४४६१
माघ १६६३.
क्या जगत् में भ्रान्ति ही है ?
लेखक, श्रीयुत नरेन्द्र, एम० ए० एक दिन पूछा विचरती वायु से मैंने, “कहो क्या- कभी क्रीड़ास्थल बनाती शान्ति भी है ?
चिर-विकल विक्षिप्त सागर; . क्या जगत में भ्रान्ति ही है ?"
"वायु बोला, क्या कहीं कुछ शान्ति भी है ? "है तुम्हारे विशद पथ में
क्या जगत् में भ्रान्ति ही है ?" नगर, ग्राम; उजाड़ उपवनः गीत मेरा सुन, स्वयम संगीतमय हो वायु कहतीमार्ग में घर और मरघट,
"है न जाने कौन-सा कोना जहाँ, कवि, शान्ति रहती ? महल औ' पावन तपोवन;
"किन्तु जाऊँ, खोज आऊँ"तुम अचल आकाश के
क्या कहीं कुछ शान्ति भी है ?" उर में रमा करती निरन्तर,
क्या जगत में भ्रान्ति ही है ?
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साहब जी महाराज श्रौर
उनका
दयालबाग़
लेखक, श्रीयुत जानकीशरण वर्मा
यालबाग' देखने की बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी । १९३३ की जुलाई में मैं स्काउटिंग के प्रचार के लिए वहाँ जानेवाला था, लेकिन बीमार हो गया । कुछ ही महीनों के बाद मुझे दूसरा अवसर मिला । १९३३ की चौथी दिसम्बर को जब मैं ग्रागरे के छिली ईंट मुहल्ले से मोटर में बैठकर दयालबाग के लिए रवाना हुआ तब मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। कुछ मिनटों के बाद मैंने सड़क के किनारे एक साइनबोर्ड देखा, जिस पर अँगरेज़ी में लिखा था- 'दयालबाग को '। उससे १०६
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[ साहब जी महाराज सर श्रानन्दस्वरूप
थोड़ी दूर ग्रागे जाने पर मेरे एक साथी ने कहा कि अब दयालबाग़ पहुँच गये। मुझे आश्चर्य हुआ ।
यह दयालबाग मेरे पूर्व-कल्पित दयालबाग से बिलकुल दूसरा ही निकला । मेरा दयालबाग़ बुरा नहीं था, लेकिन वह इतना शानदार और २० वीं सदी के सामानों से सजा हुआ भी नहीं था। मैंने मोटर ड्राइवर से कहा, 'धीरे धीरे', और अपने एक मित्र से तरह तरह के सवाल करना शुरू किया। शरणाश्रम, प्रेमनगर, कार्यवीरनगर और स्वामीनगर मुहल्लों के मकानों को सरसरी तौर पर देखता हुआ मैं 'गेस्ट हाउस' के सामने श्राया। वहीं मुझे ठहरना था । मोटर से उतरने के पहले मैंने अपने मित्र से पूछा - "यहाँ और कौन कौन मुहल्ले है ?” उन्होंने कहा - " दयालबाग, श्वेतनगर इत्यादि । "
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संख्या २ ]
साहब जी महाराज और उनका दयालबाग़
shouti
[टेक्निकल कालेज के शिक्षक और विद्यार्थी ]
मैं इस बार किसी खास काम से दयालबाग़ नहीं गया था । मेरे श्रद्धेय सहकारी पंडित श्रीराम वाजपेयी दयालबाग़ के स्काउटों को देखने गये थे। उसी सिलसिले में मैं भी उनके साथ चला गया था ।
गेस्ट हाउस में थोड़ी देर ठहरने के बाद हम लोगों को "साहब जी महाराज के पास जाना पड़ा। साहब जी महाराज उस दिन पास के एक बाग़ में खुली जगह पर एक गद्दी पर विराजमान थे और उनके सामने बैठे हुए सैकड़ों सत्संगी भाई प्रेम और भक्ति-भरी नज़रों से उनकी ओर देख रहे थे । दूर से मैंने जब उस मंडली को देखा तब साहब जी महाराज को मुस्कराते हुए पाया था । वे कुछ कह रहे थे, पर अपने भावों को शब्दों की अपेक्षा मुस्कराहट से ही ज्यादा प्रकट कर रहे थे । हम लोगों के पास जाने पर उन्होंने हम लोगों से प्रेम-पूर्वक बात-चीत की, वाजपेयी जी का उचित सम्मान किया और एक स्थानीय कर्मचारी से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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पूछ-ताछ कर वाजपेयी जी के ठहरने के दिनों का प्रोग्राम ठीक कर दिया ।
साहब जी के पास से आने पर मैंने सोचा कि मुझे कोई खास काम तो करना नहीं है, चलो यहां के गलीकुचों की सैर करूँ और देखूं कि यहाँ कितनी अच्छाई है । घूमता- घूमता मैं एक ऐसे विभाग में पहुँचा, जहाँ एक-एक तरह के बहुत से मकानों की सीधी सीधी लम्बी लाइनें थीं। अगर एक लाइन में एक तरह के ऊँचे ऊँचे बहुतसे मकान थोड़ी दूर तक थे तो उसके ग्रागे दूसरी तरह के बहुत-से मकान बहुत दूर तक थे । फिर ऐसा भी देखा कि एक लाइन में एक तरह के मकान हैं और दूसरी लाइन में दूसरी तरह के । पूछने पर मालूम हुआ कि यह 'प्रेमनगर' है । इसी प्रेमनगर के बाहरी हिस्से को मोटर से देखता हुआ मैं गुज़रा था। फिर करीब करीब वैसा ही सिलसिला और वही सजावट मैंने 'स्वामीनगर' में भी
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सरस्वती
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[चार० ई०
पाई । उस दिन घूम घूमकर मैंने क़रीब क़रीब सारी बस्ती देख डाली | आर० ई० ग्रा० कालेज, टेक्निकल कालेज, मिडिल स्कूल, माडेल इंडस्ट्रीज़, बोर्डिङ्ग हाउस, , बैंक, दूकानें, डाकघर, दयालभंडार (जहाँ पकाअस्पताल, पकाया भोजन मिलता है), सत्संग का विशाल खुला हुना हाल इत्यादि सभी मैंने देखे । दो-तीन घंटों में इतनी इमा रतों और कारखानों को मैं अच्छी तरह नहीं देख सकता था, पर सभी की थोड़ी-बहुत जानकारी जरूर हासिल कर ली। सोचा कि स्काउटिंग के नाते यहां का ग्राना-जाना बराबर बना रहेगा, मौक़ा पाकर सभी चीज़ों को अच्छी तरह देख लूँगा । लेकिन उस दिन की उस सैर से ही मुझे मालूम हो गया कि दयालबाग़ सभी तरह भरपूर है और वहाँ के रहनेवालों को बाहरवालों का मुँह ताकने की ज़रूरत नहीं ।
मैंने दयालबाग के संबन्ध में कई महानुभावों की रिपोर्टें पढ़ी थीं। उनमें से कइयों ने कहा है कि अगर हिन्दुस्तान
ई०
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कालेज के विद्यार्थी ।]
[ भाग ३८
में कई दयालबाग हो जायँ तो इस देश की समस्या जल्द हल हो जाय । दयालबाग को देखने के बाद ही मैं इस उक्ति का श्राशय अच्छी तरह समझ सका ।
दयालबाग की सब बातों में मुझे एक ख़ास तौर के प्रबन्ध की झलक दिखाई दी । एक जगह पर मुझे दो-तीन ऐसे आदमी मिले, जो पुलिस की तरह पोशाक पहने थे। पूछने पर मालूम हुआ कि दयालबाग़ की अपनी पुलिस है । इतना ही नहीं, मुझे यह भी मालूम हुआ कि दयालबाग की सभी बातों के प्रबन्ध के लिए एक बोर्ड है। उसके सदस्यों का चुनाव समय-समय पर होता है और वे वहाँ के विविध विभागों की देख-रेख करते हैं। मैं समझ गया कि वहाँ न केवल अच्छा प्रबन्ध ही है, बल्कि अपना काम आप ही चला लेने के लिए लोगों को अच्छी से अच्छी शिक्षा भी दी जा रही है । दयालबाग जाने से पहले मैं समझता था कि वहाँ लोग
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संख्या २] -
साहब जी महाराज और उनका दयालबाग़
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सिर्फ भजन-ध्यान में ही लगे रहते होंगे, पर मैंने पहले ही कारण है-भौतिक जीवन का आध्यात्मिक जीवन से दिन, और कुछ ही घंटों के अन्दर, जो कुछ देखा उससे बिलकुल अलग न समझना । पता चला कि वहाँ के रहनेवाले सांसारिक वस्तुओं को सुना था कि दयालबाग के कारखाने बहुत अच्छे हैं,
आध्यात्मिक बातों से अलग नहीं बल्कि उनका एक अंग, खासकर वहाँ की डेयरी (दूध का कारखाना) बहुत मशहूर स्थूल अंग, मानते हैं और जो कुछ भी वे करते हैं उसे है। जिन दिनों दूसरी बार जाकर मैं वहाँ ठहरा हुआ था, सुन्दर और हर पहलू से दुरुस्त बनाने की कोशिश एक दिन साहब जी महाराज की चिट्ठी-पत्री लिखाने की करते हैं।
बैठक में गया। यह बैठक वहाँ 'कॉरेसपॉन्डेन्स' के नाम . मैंने दयालबाग़ में जगह-जगह छोटे-छोटे बोर्ड लगे से प्रसिद्ध है। इसमें हर रोज़ बहुत-से सत्संगी भाई जाकर देखे, जिन पर लिखा था- 'कड़ ा मत बोलो'। मैंने अाज़- बैठते हैं, और वे लोग भी जाते हैं जिन्हें साहब जी महाराज माना चाहा कि लोग इस आदेश का पालन भी करते हैं से कुछ काम-काज रहता है। मैं साहब जी महाराज से यह या यह वैसे ही लिखा हुआ है। मैंने जिस किसी से इधर- कहने गया था कि आप कृपाकर एक स्काउट-रैली का उधर की पूछ-ताछ करनी शुरू कर दी। किसी से वहाँ के सभापतित्व स्वीकार करें। उन्होंने मेरी प्रार्थना मान ली, कारखानों के बारे में पूछा, किसी से साहब जी महाराज पर साथ ही साथ स्काउटिंग पर बातें करते-करते और की दैनिक चर्या का हाल जानना चाहा और किसी से विषयों पर बात-चीत करने लगे। मैंने उत्साह के साथ राधास्वामी मत के सिद्धान्तों पर प्रश्न किया। मुझे यह दयालबाग़ के अच्छे प्रबन्ध की प्रशंसा की, जिस पर देखकर खुशी हुई कि सबों ने शान्ति और प्रसन्नता के साहब जी महाराज ने पूछा-"आपने यहाँ की डेयरी देखी साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया। वहाँ की यह ट्रेनिंग है?" मैंने कहा-“जी नहीं।' साहब जी महाराज ने पूछासचमुच ग़ज़ब की है। संसार में अक्सर इतनी शुष्कता, “क्यों, क्या आपको डेयरी से दिलचस्पी नहीं है ?” मैंने उदासीनता और कटुता देखने में आती है कि इन लोगों उत्तर दिया-"है, लेकिन डेयरी से ज़्यादा डेयरी की बनी का ऐसा व्यवहार मुझे बहुत ही भला मालूम हुआ। कुछ चीज़ों से दूध, मलाई, घी-से दिलचस्पी है । मैं जब से महीनों के बाद जब मैं दूसरी बार दयालबाग़ गया तब मैंने यहाँ आया हूँ दिन में दो बार सिर्फ एक-एक बोतल दूध देखा कि 'कड़ या मत बोलो' के बदले 'मीठा बोलना पीता हूँ और शाम को अपना स्काउटिंग का काम ख़त्म हमारा धर्म है' लिखा हुआ है। इस परिवर्तन से मैं अच्छी कर पूरा खाना खाता हूँ।” साहब जी महाराज इसे सुनकर तरह जान गया कि एक बड़े शिक्षक की शिक्षा प्रणाली में मुस्कराये और फिर दूसरी बातें करने लगे। जब रहकर वहाँ के लोग मामूली मामूली बातों में भी पूर्णता सभा ख़त्म हुई और मैं वहाँ से उठा तब एक उत्साही लाना सीख रहे हैं। इसी शिक्षा के कारण सफ़ाई, सिल- सत्संगी मेरे पास आ धमके और बोले--"क्यों साहब, 'सिले का ख़याल और सुव्यवस्था वहाँ की सभी बातों में आप यहाँ दो बार आ चुके और अभी तक डेयरी नहीं पाई जाती है। दो-चार आदमी अगर एक साथ चलते हैं देखी ? डेयरी तो यहाँ की बहुत मशहूर है ।” मैंने हँसते तो उनके कदम मिलते हैं, चाय-पार्टी होती है तो बैठने, हँसते कहा-“यहाँ के आदमियों को देखने से अगर फुर्सत खाने का प्रबन्ध त्रुटि-हीन रहता है, किसी सभा का आयो- मिले तो डेयरी देखने जाऊँ।” मेरे सत्संगी मित्र मेरा जन होता है तो कार्यवाही को अच्छी तरह चलाने की सभी प्राशय नहीं समझे और ज़ोर देकर कहने लगे कि मुझे सुविधायें सोच ली जाती हैं और कोई जलसा होता है तो जल्दी से जल्दी डेयरी देख लेनी चाहिए। खेद है कि उसका दिलचस्प बनाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी डेयरी देखने की फुर्सत मुझे आज तक नहीं मिली। वह जाती। स्कूल-कालेज में, फ़ैक्टरी-डेयरी में, जलसे-दावतों दयालबाग़ की असल बस्ती से कुछ दूर पर है । दयालबाग़ में, सत्संग और भजन में, सभी में विचारशीलता और के और कारख़ानों को, जो बस्ती में हैं या पास हैं, मैंने व्यवस्था पाई जाती है। दयालबाग़ की यही विशेषता है, देखा है और वहाँ के कल-पुर्जी और बनी हुई चीज़ों को और मेरी राय में, जैसा कि मैंने पहले कहा है, इसका असल सराहा है । जूतों के कारखाने को भी, जो कुछ दूर पर है,
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११०.
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सरस्वती ......
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. [भाग ३८ :
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KANERATORS FemaraEANING
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A
R.E.I.Dairy (Dayalbagh)
मैंने देखा है, क्योंकि स्काउट-कैंप के
है कि लड़के अगर चंचल होते हैं। लिए एक उपयुक्त जगह ढूँढ़ता-ढूँढ़ता
तो अक्सर वे बदमाश भी होते हैं। मैं एक दिन वहाँ पहुँच गया था।
अगर वे सीधे होते हैं तो उनमें से यहाँ भी बहुत प्रशंसनीय काम होता है।
डेयरी दयालबाग
बहुत-से बोदे होते हैं। पढ़नेवालों इन सब कारखानों में अच्छे से अच्छे कल-पुर्जे लगे हैं और में अच्छे खिलाड़ी और खिलाड़ियों में अच्छे पढ़नेवाले सबों में अच्छी-अच्छी चीज़ तैयार की जा रही हैं, लेकिन ये कम मिलते हैं। लेकिन दयालबाग़ में अधिकांश विद्यार्थी कारखाने और चीज़ दोनों ही बे-जान हैं। मेरी राय में सारा ऐसे हैं जो चंचल फिर भी सीधे, तगड़े फिर भी नम्र, दयालबाग एक कारखाना है, जिसमें दुनिया के काम के बहुत बोलनेवाले फिर भी सुशील हैं। खिलाड़ियों में लिए, उसके झंझटों और बखेड़ों से अच्छी तरह टकराने के भी अच्छी खासी संख्या ऐसों की है जो पढ़ने-लिखने लिए, दूसरों को और अपने-आपको सुखी बनाते हुए में भी जी लगाते हैं। एक खास तरह के शासन में संसार में अच्छी तरह रह सकने के लिए 'जानदार इन्सान' वे इस तरह मॅजे हुए हैं कि एक अपरिचित आदमी भी तैयार किये जा रहे हैं । इस कारखाने के चलानेवाले तीन सौ लड़कों से ड्रिल की हरकतें बात की बात में सिद्ध-हस्त शिल्पकार, कुशल कारीगर, साहब जी महाराज एक साथ करा सकता है और गाने के स्वर में भी हैं। यहाँ आत्मा की शक्ति विचार और भावों पर अपना सभी को एक साथ सम्मिलित कर सुरीला गाना गवा असर डाल रही है, और इस तरह यहाँ 'मनुष्य' तैयार सकता है। स्काउटिंग के काम में मुझे अक्सर बड़ी-बड़ी करने की कोशिश जारी है।
जमायतों को एक साथ ड्रिल कराने और कारस गवाने इस कोशिश की झलक यहाँ के कालेज और स्कूल के का मौका होता है। कहीं-कहीं तो तीन-चार दिनों में और लड़कों पर भी है । मैंने देश के अनेक विद्यालय देखे हैं । मैं कहीं इससे भी ज्यादा समय में ड्रिल में एक साथ हरकते तुलना करना नहीं चाहता, क्योंकि दयालबाग के विद्यार्थियों करा पाता हूँ, पर दयालबाग में अगर पहले दिन की पहली . पर अगर साहब जी महाराज का प्रभाव पड़ा है तो और- कोशिश में नहीं तो दूसरी में तो मैं सफल हो ही गया था।
और विद्यार्थियों पर कवीन्द्र रवीन्द्र, महात्मा हंसराज और जिस जगह को इन दिनों दयालबाग़ कहते हैं वह डाक्टर बेसंट अादि महानुभावों के उच्च जीवन की छाप बीस-बाइस साल पहले एक जंगली बयाबान था। आज पड़ी है। इसलिए तुलना बेकार है, लेकिन दयालबाग़ के वह शानदार इमारतों से सुशोभित, स्कूल-कालेज और
विद्यार्थियों में कछ विशेषतायें ज़रूर हैं, जो और साधारण फैक्टरियों से सुसजित, तार, बिजली, वायरलेस इत्यादि . स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों में नहीं हैं। देखा गया सभ्यता की विभूतियों से सुसंपन्न, जीता-जागता दमदमाता
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संख्या २
२]
साहब जी महाराज और उनका दयालबाग
[प्रेम विद्यालय की छात्रायें और अध्यापिकायें]
दयालबाग है; और यह साहब जी महाराज की कल्पना, संगठन- योग्यता और अथक परिश्रम का फल है ।
साहब जी महाराज सूर्योदय से बहुत पहले सत्संग के चबूतरे पर आ जाते हैं । उस समय वहाँ 'संतों' के 'शब्द' गाये जाते हैं । फिर ८ र ९ बजे के बीच वे सत्संग-हाल के एक हिस्से में चिट्ठी-पत्री और दूसरे कामों को निपटाने के लिए दो-ढाई घंटे बैठते हैं । दोपहर के भोजन और कुछ आराम करने के बाद मॉडल इंडस्ट्रीज़ और कारखानों का काम देखते हैं और फिर शाम को सत्संग के चबूतरे पर ग्राकर सत्संगियों को अपने सत्संग का अवसर देते हैं । इस समय जैसा कि सुबह के सत्संग और कॉरेस्पॉन्डेन्स में होता है, दूसरे दूसरे लोग भी आया करते हैं और अक्सर धार्मिक या अन्य विषयों पर साहब जी महाराज से तर्क-वितर्क करते हैं । सत्संग का चबूतरा बहुत ही बड़ा है। उस पर पाँच हज़ार से ज्यादा
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आदमी एक साथ बैठ सकते हैं। आवाज़ को बुलंद करने वाले लाउड स्पीकर-यंत्र के भोंपू कई जगहों पर लगे हैं, जिससे साहब जी महाराज के वचन सभी के कानों तक पहुँच जाते हैं । सत्संग के अवसर पर अक्सर जो बहसें छिड़ जाती हैं वे सुनने के लायक होती हैं। साहब जी महाराज कठिन से कठिन बात को भी सीधे-सादे शब्दों में इस तरह समझाते हैं कि वह ग्रासान मालूम होती है । यह तो हुई साहब जी महाराज की मामूली दिनचर्या । इसके अलावा श्रागन्तुकों से मिलना, दयालबाग और ग्रागरे में होनेवाली सभा सुसाइटियों में अक्सर शरीक होना, व्याख्यान देना, सभापति बनना, पुस्तकें पढ़ना, पुस्तकें लिखना इत्यादि भी साहब जी महाराज के हर रोज़ के काम है । बीच-बीच में वे देश-भ्रमण के लिए या दूसरे शहरों में सार्वजनिक कामों के लिए जाया करते हैं। तब दयालबाग सूना हो जाता है ।
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सरस्वती
[भाग ३८
दियालबाग़ की इमारतों का एक विहङ्गम दृश्य
साहब जी महाराज के साथ मुझे तीन-चार बार देर इसी से उनके रचे दयालबारा में सर्वांग-संदरता दिखाई देर तक बातें करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । अगर कोई देती है।।
ख़ास काम न हुआ तो ज़रा चिन्ता-सी हो जाती है कि पहली जनवरी १९३६ का प्रभात था। मैं पिछले दिन | किस विषय पर बात-चीत की जाय । लेकिन साहब जी महा- आधी रात के समय पुराने साल को ताजमहल के चबूतरे
राज स्वयं ऐसे आदमी के पेट से धीरे-धीरे बहुत-सी बातें पर बिदा बोलकर, कुछ मित्रों के साथ मोटर में बैठ, | निकलवा लेते हैं। उनके साथ साधारण विषयों पर बातें भगवान् कृष्ण के जन्म स्थल मथुरा में नये साल का करते समय यह समझना कठिन होता है कि वे एक धर्म- स्वागत करने गया था। सुबह होते होते मैं दयालबाग गुरु भी हैं, क्योंकि सत्संग के चबूतरे पर विराजमान लौट आया। मुँह-हाथ धोकर मैं अपने मित्रों से मिलने होकर परमात्मा और जीवात्मा के प्रश्नों पर प्रकाश गया और उनसे सुना कि साहब जी महाराज को 'सर' । डालनेवाले, जटिल से जटिल आध्यात्मिक पचड़ों को की उपाधि मिली है। ख़ुशी हुई आश्चर्य हुआ। सोचा सुलझानेवाले, राधास्वामी-मत के वर्तमान नायक साहब कि क्या अब साहब जी महाराज, साहब जी महाराज जी महाराज दूसरे अवसरों पर कल-पुर्जे, खेती-सिंचाई, 'सर' आनंदस्वरूप के नाम से प्रसिद्ध होंगे, एक धर्म गुरु मज़दूर-कारख़ाने इत्यादि से सम्बन्ध रखनेवाले विषयों पर सांसारिक प्रभुता के अाभरण से आभूषित होंगे ! फिर भी एक अनुभवी संसारी की तरह बातें करते हुए अपनी सोचा कि इसमें आश्चर्य ही क्या है, साहब जी महाराज ऊँची-तुली राय दे सकते हैं। वे एकांगी नहीं हैं, और की यही तो विशेषता है। विलायत के महाकवि शेली Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara Surat
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संख्या २]
साहब जी महाराज और उनका दयालबारा
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' दयालबाग के स्काउट। श्री साहब जी महाराज बीच में पंडित श्रीराम वाजपेयी और इस लेख के
लेखक महोदय के साथ बैठे है । ] ने ग्राकाश में ऊँचे उड़नेवाली फिर भी लोटकर पृथ्वी पर ही या टिकनेवाली लावा
ली लावा चिड़िया के बारे में कहा है--लावा चिड़िया अापस में बहुत कुछ मिलतजुलते हुए 'स्वर्ग' और 'स्वभवन', दोनों स्थानां. से सम्बन्ध रखती है। कविकुल सम्राट कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल' नामक अमर काव्य की पालोचना करते हुए अन्तर्जातीय ख्याति प्राप्त कविवर रवीन्द्र ने कहा है कि इस काव्यश्रेष्ठ में मालूम नहीं राधास्वामी हाई स्कूल की फुटबाल टीम के खिलाड़ी जिन्होंने सन् १९३४-३५ में होता कि भूलोक कहाँ
.फुटबाल लीग कप को जीता ।] और कैसे परिवर्तित होकर स्वलोक बन गया। इन महाकवियों संसार के साथ मिलाते हैं और धर्मापदेश के साथ साथ के उपर्युक्त कथन साहब जी महाराज के सम्बन्ध में भी लागू संसार में अच्छी तरह रहना और चलना सिखाते हैं । हैं. क्योंकि वे भी अपने जीवन में सूक्ष्म अध्यात्म को स्थल Shree Sudhar hoe swami Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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रस-समीक्षा : कुछ विचार मूलगुजराती लेखक, श्री काका साहब कालेलकर
अनुवादक-श्री हृषीकेश शर्मा श्रीयुत काका साहब साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ हैं। इस लेख में उन्होंने यह बताया है कि यह जरूरी नहीं है कि पूर्वाचार्यों ने जिन नव रसों का विवेचन किया है, हम उनके वही नाम और उतनी ही संख्या मानें।
रसों का संस्कार
गर सोचें तो सहज में ही यह पता प्राणि-मात्र में स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे की तरफ़ लग जायगा कि साहित्य, संगीत श्राकर्षण होता है। सृष्टि ने इस खिंचाव को इतना अधिक और कला, इन तीनों के ही भावना- उन्मादकारी बनाया है कि इसके आगे मनुष्य की तमाम । क्षेत्र होने से इनके भीतर एक ही होशियारी, सारा सयानपन और संयम गायब हो जाता है। वस्तु समाई हुई है। इस वस्तु का ऐसे आकर्षण को उत्तेजन देना आवश्यक है या नहीं,
हम 'रस' कहते हैं। प्राचीन इस प्रश्न को हम यहाँ छेड़ना नहीं चाहते। पर इस साहित्याचार्यों ने रस का विवेचन कई रीतियों से किया है। आकर्षण और प्रेम के बीच में जो सम्बन्ध है उसे हमें संगीत में राग और ताल के अनुसार रस बदलते हुए देखे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। स्त्री और पुरुष के गये हैं। चित्रकला में नव रसों के भिन्न-भिन्न प्रसंग तूलिका आपस के आकर्षण में यथार्थ में एक-दूसरे के प्रति प्रेम के सहारे चित्रित किये जाते हैं। रेखाओं-द्वारा तथा विविध होता है या यों ही वे अहं प्रेम को तृप्ति के साधनरूप एकरंगों के साहचर्य से रस व्यक्त किये जाते हैं । परन्तु साहित्य, दूसरे को देखते हैं, पहले इसका निश्चय करना चाहिए। संगीत और चित्रकला की सामूहिक दृष्टि से या जीवन-कला सृष्टि की रचना ही कुछ ऐसी है कि काम-वृत्ति का प्रारम्भ की समस्त सार्वभौमिक दृष्टि से रस का अब तक किसी ने अहं-प्रेम अर्थात वासना से होता है। लेकिन काम अगर विवेचन नहीं किया है। साहित्याचार्यों ने जो कुछ विवेचन धर्म के पथ से चले तो वह विशुद्ध प्रेम में परिणत हो किया है उसे ध्यान में रखकर और उसका संस्कार कर जाता है। विशुद्ध प्रेम में अात्म-विलोपन, सेवा और
उसको और भी अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है। प्रात्म-बलिदान की ही प्रधानता रहती है। काम विकार ... यह ज़रूरी नहीं है कि पूर्वाचार्यों ने जिन नव रसों का है। प्रेम को कोई विकार नहीं कहता; क्योंकि उसके पीछे विवेचन किया है, हम उनके वही नाम और उतनी हृदय-धर्म की उदात्तता रहती है। यहाँ धर्म से रूढ़ि-धर्म ही संख्या मान लें। हमारे संस्कारी जीवन में कलात्मक या शास्त्र-धर्म से हमारा तात्पर्य नहीं है, किन्तु अात्मा के रस कौन-कौन-से हैं, अब इसकी स्वतंत्रतापूर्वक छानबीन स्वभावानुसार प्रकट हुए हृदय-धर्म से है। होनी चाहिए।
__ शृंगार प्रारम्भ में भोग-प्रधान होता है। पर हृदयशृंगार और प्रेम
धर्म की रासायनिक क्रिया से वह भावना-प्रधान बन जाता - हमारे यहाँ शृंगार-रस 'रसराज' की उपाधि से अलंकृत है। यह रसायन और परिणति ही काव्य और कला का किया गया है । वह सब रसों का सरताज माना गया है। विषय हो सकती है। प्राचीन नाट्यकारों ने जिस प्रकार पर बात वास्तव में ऐसी नहीं है। इसे सर्वश्रेष्ठ रस नहीं नाटक में रंग-मंच पर भोजन करने का दृश्य दिखलाने का कह सकते।
निषेध किया है, उसी प्रकार उन्होंने भोग-प्रधान शृंगारी
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संख्या २]
रस-समीक्षा : कुछ विचार
चेष्टयों को भी खुल्लमखुल्ला बतलाने की रोक-थाम कर दी
वीर-रस है। यह तो कोई नहीं कहता कि नाट्य-शास्त्रकारों को वीर-रस भी अपने शुद्ध रूप में आत्म-विकास को खाने-पीने आदि से घृणा थी। देह-धर्म के अनुसार इन सूचित करता है। सामान्य स्वस्थ स्थिति में रहनेवाला वस्तुओं के प्रति स्वाभाविक आकर्षण तो रहेगा ही, पर मनुष्य अपने अात्म-तत्त्व को प्रकट नहीं कर सकता, क्योंकि ये प्रसंग और ये आकर्षण कला के विषय नहीं हो सकते। यह शरीर के साथ एकरूप होकर रहता है। जब किसी कलाकृति में इन वस्तुओं के लिए काई स्थान नहीं है, असाधारण प्रसंग के कारण खरी कसौटी का समय आता है यह सिद्ध करने के लिए किसी तरह की वैराग्यवृत्ति की तब मनुष्य अपने शरीर के बन्धन से ऊँचा उठता है। ज़रूरत नहीं । हममें सिर्फ यथेष्ट संस्कारिता होनी चाहिए। इसी में वीर-रस की उत्पत्ति है।
..' मध्य-योरप के एक मित्र ने विगत महायुद्ध के बाद की वीर-रस में प्रतिपक्षी के प्रति द्वेष, क्रूरता, उसके गिरी हुई दशा का वर्णन करते हुए लिखा था कि अब सामने अहंकार का प्रदर्शन आदि आवश्यक नहीं है। वहाँ भोजन के अानन्द पर भी कवितायें बनने लगी लोक-व्यवहार में बहुत बार ये हीन भावनायें मौजूद रहती हैं। हमारे नाट्यशास्त्र में शृंगार-चेष्टात्रों के प्रति संयम हैं। कभी कभी शायद ये ज़रूरी भी हो पड़ती हैं; लेकिन रखने का जो इशारा है उसकी अब योरप के अच्छे से यह ज़रूरी नहीं है कि साहित्य में इनका स्थान हो ही। अच्छे कला-रसिक प्रशंसा करने लगे हैं।
साहित्य कुछ वास्तविक जीवन का सम्पूर्ण फोटोग्राफ़ नहीं ____ हम प्रेम-रस का शुद्ध वर्णन भवभूति के 'उत्तर- होता । जितनी वस्तुओं की तरफ़ ध्यान खींचना आवश्यक रामचरित' में पाते हैं। 'शाकंतल' में प्रेम के प्राथमिक होता है, साहित्य में उन्हीं की चर्चा की जाती है । इष्ट शृंगार का स्वरूप भी है और अन्त का परिणत शुद्ध रूप वस्तु को आगे रखना और अनिष्ट वस्तु को दबाना साहित्य भी है । सच पूछो तो प्रेम को ही 'रसराज' को पदवी से तथा कला का ध्येय है। इस पुरस्कार और तिरस्कार के विभूषित करना चाहिए। शृंगार को तो केवल उसका बगैर कला का ठीक ठीक विकास नहीं होने पाता।
आलम्बन-विभाव कह सकते हैं। शृंगार के वर्णन से साहित्य में वीर-रस को जिन चीज़ों से हानि पहुँचती हो मनुष्य की चित्तवृत्ति सहज में ही उद्दीपित की जा सकती उन्हें साहित्य में से निकाल डालना चाहिए। तभी वह है। इस सहलियत के कारण सभी देशों और सभी काल कलापूर्ण साहित्य होगा। में कलामात्र में शृंगार-रस की प्रधानता पाई जाती है।
शौर्य और वीर्य जैसे ऋतुओं में वसंत, उसी तरह रसों में शृंगार उन्माद- लोक-व्यवहार में भी वीर-रस एक सीमा तक आर्यत्व कारी होता है । जिस तरह लोगों की या व्यक्ति की खुशामद की अपेक्षा तो रखता ही है। पशुओं में जोश होता है, करके बातचीत का रस बड़ी आसानी से निभाया जा पर वीर्य नहीं होता। जब जोश में आकर आपे से बाहर होते सकता है, उसी तरह शृंगार-रस को जागृत करके बहुत हैं, वे आपस में अंधाधंध लड़ पड़ते हैं। यही उनकी पशुता अोछी पूँजी के ऊपर अाकर्षण करनेवाली कृति का निर्माण है। पर कहीं ज़रा-सा भी भय का संचार उनमें हुअा कि किया जा सकता है।
अपनी दुम दबाकर भागने में उन्हें देर नहीं लगती, और ___सच्चे प्रेम-रस में अपना व्यक्तित्व खोकर 'दूसरे के भय की लज्जा का भाव तो वे जानते ही नहीं। भय की साथ तादात्म्य भाव (सम्पूर्ण अभेद-भाव) का अनुभव लज्जा तो आत्मा का गुण है। जानवरों में इसका विकास नहीं करना होता है। इसी लिए उसमें आत्म-विलोपन और होता । आवेश हो या न हो; लेकिन तीव्र कर्तव्य-बुद्धि के सेवा की प्रधानता होती है। प्रेम तो आत्मा का गुण है। कारण अथवा आर्यत्व के विकसित होने से मनुष्य भय पर अतः देह के ऊपर उसकी हमेशा विजय होती है। प्रेम, विजय पा लेता है। आलस्य, सुखोपभोग, भय, स्वार्थही आत्मा है। अमर प्रेम से प्रात्मा कभी भिन्न नहीं है। इन सबका त्याग कर, देह-रक्षा की चिन्ता से निर्मुक्त हो, इस बात की सभी प्रेमियों, भक्तों और वेदान्ती दर्शनकारों जब मनुष्य अपना बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है ने स्पष्ट घोषणा की है।
तभी वह जड़ के ऊपर अपनी देह पर विजय पाकर आत्मShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
गुणों का उत्कर्ष स्थापित करता है। ऐसा वीर-कर्म, ऐसी वीर-वृत्ति देखनेवाले या सुननेवाले के हृदय में वीरभाव को जागृत करती है, और इसी में वीर रस का आकर्षण और उसकी सफलता है ।
हमारे पास कोई रक्षक वीर पुरुष खड़ा है, इसलिए हम बेफ़िक्र हैं, सही-सलामत हैं, भय का कोई कारण नहीं; इस तरह की तसल्ली दुर्बलों और अबलाओं को 'होती है । इसे कुछ वीर रस का सर्वोच्च परिणाम नहीं कह सकते ।
जिस ज़माने में मनुष्य अपनी देह का मोह करनेवाला, फूँक-फूँक कर क़दम रखनेवाला और घरघुसा बन जाता है, उस ज़माने में वह वीरों का बखान कर और उन्हें बहादुरी की सबसे ऊँची चोटी 'एवरेस्ट पर चढ़ाकर उन्हीं के हाथों अपना त्राण मानता है । ऐसों के समाज में वीर रस की और वीर काव्य की जो चाहना होती है, जो प्रतिष्ठा होती है इस पर से यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि उस समाज में श्रार्यत्व का उत्कर्ष होने लगा । जब THE में लोकमान्य तिलक पर मुक़द्दमा चल रहा था तब वहाँ के सारे मिल-मजूर दंगा करने पर उतारू हो गये थे । • उनकी हलचल से घबराकर मध्यम वर्ग और व्यापारी वर्ग के कई लोग घरों के अंदर जा घुसे। जब उस हलचल का दमन करने के लिए सरकारी फ़ौज आई तब उसे देख वही लोग मारे ख़ुशी के हुर्रे - हुर्रे की जयध्वनि करने लगे और अपने हाथों के रूमाल उछालने लगे । उन्होंने उन सैनिकों का सहर्ष स्वागत किया और उस वक्त उनके मुख से जो 'वीर - गान' निकला उससे उस समाज में कुछ वीरत्व का भाव जागृत नहीं हुआ। यह हमारी खों देखी घटना है, और इसी लिए उसका असर हमारे दिल पर गहरी छाप डाल चुका है ।
वीर रस की क़द्र वीर करें, यह एक बात है और शरणागत जन करें, यह दूसरी बात है। जो वीर है वह वीर रस को हमेशा विशुद्ध और प्रायचित रखने की चेष्टा करता है । श्राश्रय-परायण व्यक्ति के अपनी प्राण-रक्षा के लिए आतुर होने के कारण उसमें श्रार्य-अनार्य-वृत्ति का विवेक नहीं रहता । अपने रक्षक के प्रति 'नाथनिष्ठा' रखकर उसके तमाम गुण-दोषों को समान भाव से उज्ज्वल ही देखता है ।
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[ भाग ३८
वीर-वृत्ति और वैर-वृत्ति
दुःख की बात है कि वीर-वृत्ति में से कभी कभी वैरवृत्ति भी जागृत होती है। इसका कोई इलाज न देखकर आर्य धर्मकारों ने इसकी मर्यादा बाँध दी है- "मरणान्तानि वैराणि" । दुश्मन के मरने के बाद उसकी लाश को पैर से ठुकराना, उसके जिस्म के टुकड़े टुकड़े करवा डालना, उसके सगे-सम्बन्धियों या श्राश्रितों को दर-दर का भिखारी बनाना, उनकी दुर्दशा करना और उनकी नाथ स्त्रियों की बेइज्जती करना, यह सब एक आर्य वीर के लिए शोभावह नहीं है । इससे कुछ मृत शत्रु का अपमान नहीं होता; उलटे अपने वीरत्व को ही बट्टा लगता है । सच्चे वीर पुरुष यह बात भली भाँति जानते हैं । श्रार्यसाहित्याचार्यों, कवियों और कलाकारों ने पुकार का यही कहा है कि शत्रुता ही करो तो वह भी अपनी बराबरी के किसी शत्रु को खोज कर करो, और उसे हराने के बाद उसकी इज्ज़त करके उसकी प्रतिष्ठा बनाये रक्खो, और इस तरह अपना गौरव बढ़ायो ।
वीर-वृत्ति का परिचय मनुष्य के ही विरोध में नहीं दिया जाता, बल्कि सृष्टि के कुपित होने पर भी मनुष्य अपनी उस वृत्ति को विकसित कर सकता है । जब शत्रु सामने नंगी तलवार लिये खड़ा हुआ है तब अपने बचाव के लिए मुझे अपनी सारी ताक़त बटोर कर उसका मुक्काबिला करना ही होगा। इस मौके पर अगर मैं लड़ाकू वृत्ति न रक्खूँ तो जाऊँ कहाँ ? सिंहगढ़ की दीवार पर चढ़कर उदयभानु के साथ संग्राम करनेवाले तानाजी की सेना जब हिम्मत हारने लगी तब तानाजी के मामा सूर्याजी ने दीवार से नीचे उतरने की रस्सी तुरंत काट डाली थी । अमेरिका पहुँचने के बाद स्पेनिश वीर नैंडो कोर्टेज़ ने अपने जहाज़ जला दिये थे । इस प्रकार जब पीठ फेरना असंभव हो जाता है तब श्रात्मरक्षा की वृत्ति वीर-वृत्ति की सहायक बन जाती है। जिसे अपनी जान ज़्यादा प्यारी होती है वही इस मौके पर अधिक शूर बन जाता है । परन्तु जब कोई मनुष्य पानी में डब रहा हो अथवा जलते हुए घर के अन्दर से किसी असहाय बालक के चीखने की आवाज़ सुनाई पड़ रही हो, उस समय अपने बचाव की, जीवन के जोखिम की, ज़रा भी परवा न करते हुए कोई तेजस्वी पुरुष अपने हृदय धर्म का वफ़ादार बनकर पानी
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'संख्या २]
रस-समीक्षा : कुछ विचार
११७.
में या धधकती हुई आग में कूद पड़ता है तब वह अपनी
.बीभत्स वीर-वृत्ति का परम उत्कर्ष प्रकट करता है। माफ़ी माँग योद्धा में लहू, मांस और शरीर के छिन्न-भिन्न अवयवों कर जीने की अपेक्षा फाँसी पर चढ़ जाना मनुष्य ज़्यादा को देखने की टेव होनी ही चाहिए । दुःख और वेदना पसंद करता है। करोड़ों रुपये की लालच के वश में न अपने हों या पराये, उन्हें सहन करने की शक्ति भी उसमें होकर केवल न्यायबुद्धि को जो मनुष्य पहचानता है वह भी होनी चाहिए । शस्त्र-क्रिया करनेवाले डाक्टरों में भी अपने अलौकिक वीरत्व का परिचय देता है। इस दुनिया इस शक्ति का रहना आवश्यक है। लोह की धार को का चाहे जो हो, पर अन्तरात्मा की आवाज़ को बे-वफ़ा देखकर कुछ लोगों को चक्कर क्यों आ जाता है, इसे मैं नहीं होने दूंगा, ऐसी वीर-धीर-वृत्ति जिस मनुष्य में स्वाभा- अब तक समझ नहीं सका हूँ। मुझे स्वयं मांस काटते या विक होती है वह वीरेश्वर है।
शस्त्र-क्रिया करते देखकर किसी किस्म की बेचैनी नहीं - किसी बह-बेटी या स्त्री का अपहरण करते समय मालम होती। फिर भी वीर-रस के वर्णन के सिलसिले में भी कई एक बदमाश-गुण्डे विकार के वश होकर अपनी जब रणनदी के वर्णन बाँचता हूँ तब उसमें से जुगुप्सा को असाधारण बहादुरी व्यक्त करते हैं । बड़े बड़े डाकू भी अपनी छोड़कर दूसरा भाव पैदा ही नहीं होता। खून के कीचड़ जान हथेली पर रखकर घरों में सेंध लगाते हैं अथवा लूट- और उसमें उतराते हुए नर-रुण्डों के वर्णन से वीर-रस को मार मचाते हैं. और जब पकड़े जाते हैं. पुलिस भले ही किसी तरह पोषण मिलता है, यह अब तक मेरी समझ में उन्हें प्राणान्त कष्ट पहुँचावे, वे अपने षड्यंत्र का भेद नहीं आया है। युद्ध में जो प्रसंग अनिवार्य हैं उनमें से नहीं बतलाते। उनकी यह शक्ति हमें आश्चर्य-चकित मनुष्य भले ही गुज़रे; किन्तु जुगुप्सित घटनाओं का रसपूर्ण ज़रूर कर सकती है, पर शरीफ़ लोगों का धन-हरण वर्णन करके उसी में अानन्द मनानेवाले लोगों के या पर-स्त्री का अपहरण करने की नीचातिनीच वृत्ति से को तो विकृत ही कहना चाहिए । मनुष्य को खंभे से बाँधप्रेरित बहादुरी की कोई आर्य-पुरुष कद्र नहीं करता। कर, उसके ऊपर अलकतरा का अभिष
कू लोग भारी से भारी डाके डालकर मिले हुए धन जला देनेवाले और उसकी प्राणान्त चीख सुनकर खुश का एक भाग अपने आस-पास के प्रदेश के गरीब लोगों होनेवाले बादशाह नीरो की बिरादरी में हम अपना शुमार में बाँट देते हैं और इस प्रकार लोकप्रिय बनकर अपने क्यों करायें ? पकड़नेवालों को हरा देते हैं । कभी कभी ऐसे डाकू और
वीर कथायें कैसे पढ़ें? लुटेरे कुछ ख़ास ख़ास समाज-कंटक लोगों को नष्ट कर वीर-रस मनुष्य-द्वेषी नहीं है। वह परम कल्याणकारी,
और उनका सर्वस्व लूटकर ग़रीबों को भयमुक्त भी समाज-हितकारी और धर्मपरायण आर्यवृत्ति का द्योतक है। कर देते हैं। इससे भी कृपण जनता ऐसे लोगों की दुष्टता उसका रूप यही होना चाहिए । वीर-रस के पोषण और को भूल कर उनके गुणों का बखान करने लगती है। यह संरक्षण का भार वीरों के ही हाथ में होना चाहिए । वीरकाम चाहे जितना स्वाभाविक क्यों न हो, फिर भी इससे वृत्ति को पहचाननेवाले कवि, चारण और शायर जुदे हैं, समाज की उन्नति होती है, ऐसा हम कभी नहीं कह सकते। और अपनी रक्षा की तलाश में रहनेवाले कायर और मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जी की “पाल्या हि कृपणा आश्रित जुदे हैं । जनाः" यह उक्ति प्रजा के गौरव को नहीं बढ़ाती। जिससे . पुराने ज़माने की भली बुरी सब वीर-कथात्रों को हम लोक-हृदय उन्नत नहीं हो सकता, ऐसी कृति में से शुद्ध पढ़ें ज़रूर, उन्हें अादर के साथ बाँचें, किन्तु इनमें से हम 'वीर-रस का उद्गम होता हो, सेा भी नहीं कहा जा सकता। पुरानी प्रेरणा नहीं ले सकते । उन लोगों का वह प्राचीन अकेली हिम्मत और सरफ़रोशी वीर-रस नहीं है और शत्रु को संतोष हमें अपने लिए त्याज्य ही समझना चाहिए । जीवन . बेरहमी से अंग-भंग करने में, उसके आश्रित जनों की फ़ज़ीहत में वीरता के नये आदर्शों को स्वतंत्र रूप से विकसित करके, करने में वैर-वृत्ति की तृप्ति भले ही हो जाय; इसमें न तो शूरता और उनके लिए आवश्यक पोषक तत्त्व प्राचीन कथाओं में है, न वीरता है, न धीरता है और आर्यता तो होगी ही कहाँ से। से जितनी मात्रा में मिल सके उतने अवश्य ही प्राप्त किये
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जाने चाहिए; परन्तु वीर-रस के क्रूर या जीवनद्रोही आदर्शों - करुण-रस ही रस-सम्राट है, और यह आवश्यक नहीं है में हम फिसल न जायें । अगर जीवन में से वीरता चली कि इस रस में शोक का भाव होना ही चाहिए । वात्सल्यगई तो वह उसी क्षण से सड़ने लगता है और अन्त में रस, शांत-रस और उदात्त-रस, ये करुण के ही जुदे जुदे उसमें एक भी सद्गुण नहीं टिकता, यह हमें नहीं भूलना पहलू हैं। बाकी अन्य सब रस, अन्त में जैसे सागर में चाहिए।
नदियाँ समा जाती हैं वैसे ही, इस रस में लीन हो जाते हैं। ___ आधुनिक युग के कलाकारों के अग्रणी श्री रवीन्द्रनाथ एक मित्र ने इन सब रसों के लिए "समाहित रस" का ठाकुर को एक बार जापान में एक ऐसा स्थान दिखाया नाम सूचित किया, जो मुझे बहुत ठीक ऊँचा। पर इसमें गया था, जहाँ जापानी वीर कट मरे थे। उस स्थान और शक है कि भाषा में यह सिक्का चल सकेगा या नहीं। सच उस घटना पर अपनी प्रतिभा का प्रयोग करके कोई भाव- पूछा जाय तो सब रसों की परिणति योग में ही है। योग
अर्थात् समाधि-समाधान--सर्वात्म एकता का भाव । था। विश्वकवि ने वहीं जो दो पंक्तियाँ लिखकर दे दी अन्त में कला में से यही वस्तु निकलेगी। यह योग ही थीं, जो भारतवर्ष के मिशन और मानव-जाति के भविष्य कला का साध्य और साधन है। दुर्भाग्य की बात है कि की शोभा बढ़ानेवाली थीं, उनका भाव यह है कि "दो योग का यह व्यापक अर्थ अाज-कल की भाषा में स्वीकार भाई गुस्से में आकर अपनी मनुष्यता को भूल गये और नहीं किया जाता। नाक पकड़कर, पलथी मारकर और उन्होंने भू-माता के वक्षःस्थल पर एक-दूसरे का खून देर तक नींद लेकर बैठे रहना और भूखों मरना ही लोगों बहाया । प्रकृति ने यह देखकर अोस के रूप में अपने आँसू की दृष्टि में 'योग' रह गया है।। बहाये और मनुष्य-जाति की इस रक्तरंजित हया को हरी हमारे साहित्यकारों ने करुण-रस का बहुत सुन्दर हरी दूब से ढाँक दिया।" शान्तिप्रिय, अहिंसापरायण, विकास किया है। कालिदास का 'अज-विलाप' अथवा सर्वोदयकारी, समन्वयप्रेमी संस्कृति का वीररस तो त्याग के भवभूति का उत्तररामचरित करुण-रस के उत्तम से उत्तम रूप में ही प्रकट होगा। आत्मविलोपन, आत्मदान ही नमूने माने जाते हैं। भवभूति जिस समय करुण-रस का जीवन की सच्ची वीरता है । इसके असंख्य भव्य प्रसंग कला राग छेड़ता है, उस समय पत्थर भी रोने लगता है और के वर्ण्य विषय हो सकते हैं। ये प्रसंग कला को उन्नत वज्र का हिया भी पिघलकर चूर चूर हो जाता है। करुणकरते हैं और प्रजा को जीवन-दीक्षा देते हैं। आज-कल के रस ही मनुष्य की मनुष्यता है। फिर भी यह ज़रूरी नहीं कलाकार जीवन के इस पहलू' को विशेष रूप से विकसित है कि करुण-रस का उपयोग सिर्फ स्त्री-पुरुष के पारस्परिक करते हैं या नहीं, इसकी जाँच मैं अब तक नहीं कर सका विरह-वर्णन में ही हो । माता का अपने बालक के हूँ, फिर भी मैं इतना तो जानता हूँ कि यदि भविष्य की लिए या किसी का अपने मित्र के लिए विलाप करनेकला इस दिशा की तरफ अग्रसर हुई तो निकट भविष्य में मात्र से भी करुण-रस का क्षेत्र संपूर्ण नहीं होता। अनन्तवह बहुत भारी तरक्की असाधारण उन्नति-कर सकेगी, काल से, हर एक युग में और हर एक देश में, प्रत्येक
और समाज-सेवा भी इस के हाथों अपने आप होगी। समाज में किसी न किसी कारण से, महान् सामाजिक .. एको रसः करुण एव
अन्याय होते आ रहे हैं। हज़ारों और लाखों लोग इस जब भवभूति ने 'रस एक ही है और वह करुणा है अन्याय के बलि हो रहे हैं। अज्ञान, दारिद्रय, उच्च-नीच और अनेक रूप धारण करता है' यह सिद्धान्त स्थिर किया भाव, असमानता, मात्सर्य और द्वेष इत्यादि अनेक कारणों तब उसने करुण, शब्द को उतना ही व्यापक बनाया जितना से और बिना कारण भी मनुष्य मनुष्य पर अत्याचार कर कि कला शब्द है । जहाँ हृदय कोमल हो, उन्नत हो, रहा है। उसे गुलाम बना रहा है, चूस रहा है और सूक्ष्मज्ञ हो या उदात्त हो, वहाँ कारुण्य की छटा आयेगी अपमानित कर रहा है। ये सभी प्रसंग करुण-रस के स्वाभाही। कारुण्य की समभावना या समवेदना सार्वभौम होती विक क्षेत्र हैं। है। इसके द्वारा हम विश्वात्मैक्य तक पहुँच सकते हैं। नल राजा के हंस को पकड़ने या एकाध सिंह के
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रस- समीक्षा : कुछ विचार
संख्या २]
नन्दिनी गौ के धर दबोचने के दुःख का वर्णन हमारे कवियों ने किया है। एक निषाद ने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को बाण से भेद डाला तो वाल्मीकि की शापवाणी ने सारी दुनिया के हृदय को भेदकर इस अन्याय की तरफ़ उसका ध्यान खींचा। इतना होते हुए भी पशुपक्षियों का या गाय-भैंस का सामुदायिक दुःख अभी तक किसी ने गाया है, ऐसा मन में विचार उठता भी नहीं है। मध्यम वर्ग के लोग विधवाओं के दुःखों का कुछ वर्णन करने लगे हैं; पर इसमें भवभूति का प्रोजगुण या वाल्मीकि का पुण्य - प्रकोप व्यक्त नहीं हुआ । करुण रस का
सर जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ । श्रतएव हृदय की शिक्षा और हृदय धर्म की पहचान अपूर्ण ही रही है। और इसी से गांधी जी जैसा व्यक्ति अस्पृश्यता के • कारण अपने हृदय का क्षोभ प्रकट करता है, फिर भी समाज के हृदय पर उसका काफ़ी असर नहीं पड़ता; अधिकांश में वह अछूत ही रहता है । करुण रस में केवल हृदय का पिघलना ही पर्याप्त नहीं है; हृदय में आग लगनी चाहिए और उससे जीवन में आमूल क्रान्ति हो जानी चाहिए । जीवन के हर एक व्यवहार के लिए हृदय- धर्म मनुष्य को एक नई कसौटी तैयार करनी चाहिए ।
हास्य रस अगर यह कहें कि प्राचीन लोगों को हास्य रस की वास्तविक कल्पना तक नहीं थी तो इसमें कोई ज्यादा अतिशयोक्ति नहीं है । ऊँचे दर्जे का हास्य रस संस्कृतसाहित्य में बहुत ही कम पाया जाता है। उसमें जहाँतहाँ नरम वचन और सुन्दर चाटूक्तियाँ तो बिखरी पड़ी हैं; और यह अपनी संस्कृति की विशेषता है । हालाँकि अब हमारे साहित्य में भी हास्य रस के अनेक सफल प्रयोग होने लगे हैं, फिर भी यही कहना पड़ता है कि नाटकों में पाया जानेवाला हास्य रस अभी बहुत सस्ता ' और साधारण कोटि का है। हमारे व्यंग्य चित्रों में और प्रहसनों में पाया जानेवाला हास्य रस आज भी अधिकांश में निम्न श्रेणी का है । आज-कल प्रीति-सम्मेलनों में हास्य और वीर रस के ही प्रयोग अधिक किये जाते हैं; क्योंकि उनमें सफलता बगैर विशेष मेहनत के मिल जाती
और अनायास ही उनकी तैयारी की जाती है। उन पर
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तालियाँ भी खूब पिट जाती हैं। इससे कला की प्रगति नहीं होती और प्रजा संस्कार-समर्थ भी नहीं बनती।
अद्भुत का आविष्कार
हमारे कलाकारों ने अद्भुत रस का विकास किस रीति से किया है, यह मुझे मालूम नहीं है । पर मेरे मत में अद्भुत रस की उत्पत्ति भव्यता में से होनी चाहिए । अन्यथा मनुष्य जितना अधिक ज्ञान में रहेगा हर एक चीज़ उतनी ही उसे अद्भुत मालूम होगी । अद्भुत का रूप हीं ऐसा होता है कि उसके श्रागे कला का साधारण व्याकरण स्तम्भित हो जाता है। विजयनगर की ग्रांसपास की पहाड़ियों में बड़ी-बड़ी शिलाओं के जो ढेर पड़े हुए हैं उनमें किसी तरह की व्यवस्था या समरूपता नहीं है, और वहाँ इसकी आवश्यकता भी नहीं दीखती । सरोवर का श्राकार, मेघों का विस्तार, नदी का प्रवाह - इनमें कौन किसी तरह की व्यवस्था की अपेक्षा रेख सकता है ? भव्य वस्तु अपनी भव्यता द्वारा ही सर्वाङ्गपूर्ण होती है। नहर का व्याकरण नदी के लिए लागू नहीं होता । उपवन का रचना - शास्त्र महान् सघन वन के लिए उपयोगी नहीं होता । जो कुछ भी भव्य, विशाल, विस्तीर्ण, उदास, उन्नत और गूढ़ है वह अनन्त का प्रतिरूप है, और इसी लिए यह अपनी सत्ता से अत्यन्त रमणीय है। महाकवि तुलसीदास ने कहा है कि 'समरथ को नहिं दोष गुसाई' वह यहाँ नये अर्थ में कला के सूत्र रूप में ही अधिक सुसंगत मालूम होता है ।
अद्भुत, रौद्र और भयानक
अद्भुत, रौद्र और भयानक इन तीनों रसों का उद्गम एक ही जगह से है । हृदय की भिन्न-भिन्न प्रतिभूतियों के कारण ही उसके जुदे-जुदे नाम पड़े। जब शक्ति के श्राविर्भाव से हृदय दब जाता है, अपनी लज्जा खो बैठता है, तब भयानक रस का निर्माण होता है। सिर पर लटकती हुई एक ऊँची चट्टान के नीचे हम खड़े हों तो उस समय हमारे मन यह विश्वास तो रहता है कि यह शिलाराशि हमारे सिर पर गिरनेवाली नहीं है; उलटे, आँधी-तूफ़ान से ही हमारी रक्षा करेगी। इतना विश्वास होते हुए भी यदि वह कहीं गिर पड़े तो ! – इतना ख़याल मन में आते ही हम दब जाते हैं। यह एक शक्ति का ही आविर्भाव है। पहाड़ जैसी ऊँची-ऊँची लहरों पर तैरकर
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सरस्वती
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सफ़र करनेवाले जहाज़ में बैठे-बैठे हम इस भाव का एक . या भयानक में वह अपने को भिन्न मानती है। इन दोनों भिन्न रीति से अनुभव करते हैं।
.. मनोवृत्तियों का जिसने अनुभव किया है, ऐसे कलाकार ने ___ मनुष्य भव्य वस्तु के साथ हमेशा अपना मुकाबिला एकाएक घोषित किया है कि शिव और रुद्र एक ही हैं. करता ही रहता है। ऐसा करते-करते जब वह थक जाता शान्ता और दुर्गा एक ही हैं। जो महाकाली है वही है तब इससे रौद्र-रस प्रकट होता है। और जहाँ भव्यता महालक्ष्मी और महासरस्वती है। श्री रामचन्द्र जी का की नवीनता और उसका चमत्कार भुलाया नहीं जाता, दर्शन होते ही हनुमान् के भक्त हृदय ने स्वीकार कर वहाँ अदभुत-रस का परिचय मिलता है। ये तीनों रस लियामनुष्य की संवेदन-शक्ति के ऊपर निर्भर हैं। आकाश के
'देहबुद्धया तु दासोऽहम् अनन्त नक्षत्रों को देखकर जानवरों को कैसा लगता है. यह
जीवबुद्धथा त्वदंशकः। हम नहीं जानते । जब बच्चों को वह एक पालने के चंदोवे
श्रात्मबुद्धथा त्वमेवाऽहम् , की तरह मालूम होता है तब वही एक प्रौढ़ खगोल शास्त्री
यथेच्छसि तथा कुरु ॥' को नित्य नूतन और बढ़ते हुए अद्भुत-रस का विश्वरूप- इस अन्तिम चरण में जो संतोष और आत्मसमर्पण दर्शन जैसा लगता है। अद्भुत-रस की विशेषता यह है है वही कला के क्षेत्र में शान्त-रस है । रौद्र, भयानक कि जिस तरह मेघ का गर्जन सुनकर सिंह को गर्जन करने और अद्भुत ये तीनों रस अन्त में जब तक शान्तरस में की सूझती है, उसी तरह आर्य-हृदय को भव्यता का दर्शन न मिल जायँ, जब तक हमारा समाधान न करें, तब तक होने के साथ ही अपनी विभूति भी उतनी ही विराट भव्य काई इन्हें रस कहेगा ही नहीं।* करने की इच्छा होती है। अद्भुत-रस में मनुष्य की .......... श्रात्मा अपने का अद्भुतता से भिन्न नहीं मानती, पर एक * यह लेख हमें भारतीय साहित्य-परिषद्, वर्धा, से अमुक रीति से इसमें वह अपना ही प्रादुर्भाव देखती है, रौद्र मिला है । सम्पादक
अब भी लेखक, श्रीयुत कुँचर सेमेिश्वरसिंह, बी० ए०, एल-एल० बी० है उन स्वप्नों की छाया,
बुझ गई ज्योति जीवन की, अब भी उर में छा जाती।
है अन्धकार-सा छाया। सुधि एक कसक सी उठकर
पर कुछ प्रकाश-सा अब भी, है कभी कभी आ जाती ॥
दिखला जाती है माया ॥ है बीते विकल क्षणों की, हैं छोड़ गई मुझको सब, स्मृति जीवन विकल बनाती। वे मतवाली आशायें । है कभी कभी उर-तन्त्री, पर उकसा जाती हैं उर,
अब भी वह राग बजाती ।। अब भी मृदु अभिलाषायें । मादकता चली गई है,
जर्जर जीवन में उठता, अब भी खुमार है यानी ।
है तड़प कभी नव जीवन। नयनों के सम्मुख सहसा,
चेतना-हीन कर देता, आ जाती है वह झाँकी॥
है कभी कभी पागलपन ।।
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रंगून से आस्ट्रेलिया
लेखक, श्रीयुत भगवानदीन दुबे
श्री दुबे जी की रंगून से आस्ट्रेलिया की हवाई यात्रा का सुन्दर वर्णन सरस्वती के गत अङ्क में प्रकाशित हो चुका है । यह लेख उसी का शेषांश है । इसमें इन्होंने मार्ग-गत नगरों का रोचक वर्णन किया है ।
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आस्ट्रेलिया के शासन की बागडोर श्राज-कल मज़दूरदल के हाथ में है । मज़दूरों के लाभ के लिए इतने उदार कानून बनाये गये हैं कि किसी को नौकर रखना अपने यहाँ की तरह हाथी बाँधना है । सब तरह के काम करनेवालों के अलग अलग संघ हैं और इन संघों ने मज़दूरी की दर कायम कर रक्खी है । काम करने के घंटे भी नियत हैं । श्राज-कल कम से कम मज़दूरी की दर ३ । पौंड याने क़रीब चालीस रुपये प्रतिसप्ताह के हिसाब से है । इसी तरह प्रतिदिन अथवा प्रतिघंटे की भी मज़दूरी का निर्स बँधा हुआ है। कोई उससे कम नहीं दे सकता । किस पेशेवाला कितने बजे से कितने बजे तक काम करेगा और बीच में कितने बजे कितनी देर की छुट्टी उसे मिलनी चाहिए, यह भी नियत है । तनख़्वाह के अलावा बेकारी टैक्स लगता है। काम करते समय चोट लग जाय तो हर्जाना देने के लिए इन्श्योरेंस भी उतारना पड़ता है। एक घंटे के लिए भी अगर आपने कोई आदमी रक्खा और उसे कुछ चोट आ गई कि आप हर्जाने के ज़िम्मेदार हुए । इन सब बलाओं के मारे अब वहाँ सब अपना अपना काम कर लेते हैं और मज़दूर से काम कराने के नज़दीक नहीं जाते ।
मज़दूर ८ बजे से १२ बजे तक और डेढ़ से साढ़े पाँच बजे तक काम करते हैं। घर के नौकर नौकरानियों की भी
का समय नियत है । छुट्टी के समय अगर किसी से कोई काम कराता है तो क़ानून-भंग के अपराध में सज़ा का भागीदार होता है ।
मिस्टर नाइट के टूम्बा आने में जो दो रोज़ का विलम्ब था वह मुझे विश्राम के लिए बड़ा लाभप्रद हुआ। उनके आने पर टूबूम्बा में दो रोज़ और घूमनाफिरना हुआ। वहाँ से मुझे ब्रिसवेन जाना था । मिस्टर नाइट अपने मोटर में मुझे ब्रिसबेन लाये और दो रोज़ वहाँ भी मेरे साथ रहे। मैंने तीन रोज़ ब्रिसबेन में बिताये । त्रिसबेन की करीब चार लाख मनुष्यों की आबादी है । सुन्दर विशाल दूकानें, टाउन हाल इत्यादि दर्शनीय जगहें हैं । सड़कें बड़ी और चौड़ी हैं। शहर नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ है। ऊँची-नीची जगह होने की वजह से कई - एक स्थानों से सारा शहर नज़र आता है। रहने के मकान बहुत दूर दूर तक बने हुए हैं। हर मकान में बागीचा है, जिसको एक-दूसरे से बढ़कर सजाने की यहाँ ख़ासी प्रतिस्पर्द्धा रहती है । समशीतोष्ण स्थान होने की वजह से ग्रगणित प्रकार के पुष्प-पौधे विविध रंग व ग्राकार के फूलों से लदे नज़र आये। उनके सजाने में भी किसी किसी कोठी में अच्छी कारीगरी दिखलाई गई थी । मैंने बहुत से शहर देखे हैं, पर सारा का सारा यहाँ की
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दूकानें नौ बजे खुलती हैं और साढ़े पाँच बजे बन्द हो जाती हैं। खाने-पीने की दूकानें देर तक खुली रहती हैं। होटलों में भोजनालय डेढ़ बजे दिन में बन्द होकर ४ बजे खुलता है और ८ बजे रात में बन्द हो जाता है। ग्राम
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सरस्वती
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हैं। जिसके पास १,०००) यहाँ हो वह ५०.०००) की ज़मीन खरीद सकता है और उसमें २०,०००) के मवेशी भी भर सकता है। कपड़ा-लत्ता सब किश्त पर मिल सकता है। नतीजा यह है कि ज़मींदार महज़ बैंकों या महाजनों के गुलाम हैं। बारिश अच्छी हुई तो लाभ हो जाने की उम्मेद रहती है, नहीं तो सूद व कमीशन देकर मुश्किल से पेट भरता है। उपज का पैसा ज़मींदार के हाथ नहीं पाता। ख़रीददार अपने बचाव के लिए ज़मींदार के बैंक को ही दाम देता है।
किसानों के लाभार्थ सहयोग-समितियां स्थापित हैं तथा बोर्ड कायम हैं। मक्खन की पैदावार इस देश में बहुत है। किसान दूध से मलाई अलग कर मक्खन के कार खाने में भेज देता है, जो यहाँ समुचित स्थानों में बने हए हैं। मक्खन बेचने की दर भी यहाँ नियत है. जैसे १२ आने सेर । जितना मक्खन आस्ट्रेलिया की खपत के अलावा होता है, बाहर के मुल्कों में जो दाम मिले उस पर बेच दिया जाता है जो ६ अाने सेर पड़ता है। इन
दोनों भावों का औसत निकाल कर बोर्ड जो भाव ठहराता [ यह मेलबोर्न का दृश्य है । सफ़ेद और बड़ी इमारत है, मानो ९ आना सेर, उस हिसाब से किसान के बैंक जो ऊपर दिख रही है वह वार मेमोरियल है।।
में मक्खन के कारखानेवाला हर महीने चेक भेज . तरह फूलों से भरा कहीं नहीं पाया। मौसम वसंत का होने देता है। पर भी मुझे तो गृहस्थों की सुरुचि को श्रेय देना उचित सिडने, मेलबोर्न, एडेलेड, पर्थ अादि घूमकर फिर जान पड़ता है। इस प्रदेश में श्राम भी होता है और ब्रिसबेन से हवाई जहाज़ पकड़ने के लिए पाने में समय किसी किसी कोठी में ग्राम के पेड़ बोरे हुए देखकर मुझे की काई बचत नहीं होती थी और खर्च भी बहुत पड़ता बड़ा आनंद मिला।
था। इसलिए ब्रिसबेन में आने के तीसरे दिन बाद जो — श्रास्ट्रेलिया में कुल ७० लाख मनुष्य हैं, जिनमें से पी० एन्ड श्रो० कम्पनी का मंगोलिया जहाज़ खुलनेवाला २५ लाख सिडने और मेलबोन में तथा बीस लाख समद्र- था उससे लौटने को तय किया। यह जहाज़ ७ दिन तट के और दूसरे शहरों में रहते हैं। या यों कहिए सिडने, २ दिन मेलबोर्न और १ दिन एडेलेड, १ दिन कि इन ४५ लाख शहरी आदमियों की गुज़र ज़मीन पर फ्रीमेंटल में रुकता जाता था, जिससे जहाज़ पर रहतेकाम करनेवाले २५ लाख व्यक्तियों पर निर्भर है। सर- खाते सारे शहरों का दिग्दर्शन होता था और फ्रीमेंटल से कारी आमदनी इतनी नहीं है कि ख़र्च चल सके । उधार चलने पर नवे रोज़ कोलम्बो पहुँच जाता था । वहाँ से पाँच लेकर ही काम किये जाते हैं। आस्ट्रेलियन सरकार का रोज़ में मैं मदरास होते हुए रंगून पहुँच सकता था। राष्ट्रीय ऋण इतना बढ़ गया है कि उसका सूद अदा २४ सितंबर को यह जहाज़ ब्रिसबेन से खुला। करीब करने के लिए प्रजा पर अनेक कर लगाये गये हैं। तो २० मुसाफ़िर थे । अाठ व्यक्ति तो ऐसे थे जो कोलम्बो और भी ऋण लेना जारी है। यही हवा सारे ज़मींदारों को बम्बई से इसी जहाज़ से कम दर के वापसी टिकट पर आये लगी हुई है। जितनी ज़मीन है, सब बैंकों के पास गिरवी थे और लौटे जा रहे थे। २६ तारीख़ को जहाज़ सिडने है। मवेशी वगैरह भी इसी तरह उधार लेकर लिये गये पहुँचनेवाला था। एक सज्जन ने मुझसे कहा कि श्राप
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संख्या २]
रंगून से आस्ट्रेलिया
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HORSES
ONOMIGTITAN
सुबह डेक पर से. सिडने बन्दरगाह में जहाज़ का घुसना ज़रूर देखें। ___ सुबह बड़े कड़ाके की ठंड थी और हवा ज़ोर से बह रही थी, तो भी मैंने डेक पर खड़े रहकर इस दृश्य को देखना ही उचित समझा। दो चट्टानों के बीच से सिडने बन्दरगाह में जाने का रास्ता है । इस मुहाने को पार करते ही एक । बड़ी सी झील में आ गये, ऐसा प्रतीत होता है।
[हे स्ट्रीट (पर्थ ) वस्ट ग्रास्ट्रेलिया ।] इस स्वाभाविक कृति से सिडने का बन्दरगाह दुनिया वसा हुया है। पहले नावों से ग्राना-जाना होता था। अब के प्रमुख सुरक्षित बन्दरगाहों में गिना जाता है । खाड़ी के इस पुल से दोनों किनारे जोड़ दिये गये हैं । सभी अोर उच्च स्थलों पर संदर गृह-समृह नज़र अाते हैं। पुल निर्माण करनेवालों ने मसविदा बनाया था कि समुद्र-स्नान के कई रमणीय स्थान हैं। सिडने के पुल के पुल के लिए, जो ऋण लिया जायगा (इस देश में सब ऊपर का ढाँचा समुद्र से ही दिखता था, पर खाड़ी में से ऋण लेकर ही काम किया जाता है) उसका सूद इस पुल उसके विशालकाय अधगोलाकार स्वरूप का पूर्णतया पर से आने-जानेवालों के ऊपर कर लगाकर अदा होता अवलोकन हो सका। यह पुल दुनिया के एक स्पैन के रहेगा । कर बहुत कड़ा है, फिर भी यह हाल है कि जो पुलों में सबसे बड़ा है । इसके मध्य के स्पेन की मेहराब की आमदनी इस ज़रिये से होती है वह उसकी मरम्मत के लिए लम्बाई १,६५० फुट है व उँचाई ४४० फुट । पानी को भी पर्याप्त नहीं है। प्रजा-कर से इस सफ़ेद हाथी के लिए सतह से पुल १९० फुट ऊँचा है, जिससे उसके नीचे से सूद व मरम्मत का खर्च निकालना पड़ता है। जब तक बड़े बड़े जहाज़ निकल जाते हैं। पुल की चौड़ाई १६० एक तरफ़ से रंग कर दूसरे तरफ़ पहुँचा जाता है तब तक फुट है, जिस पर ४ बिजली की रेल की पटरियाँ, अाट पहले का हिस्सा फिर रंगने के काबिल हो जाता है । इस मोटरों के एक साथ निकलने की सड़क (५७ फुट), दो लिए इसका रंगने के लिए एक स्थायी विभाग ही स्थापित पैदल रास्ते दस दस फुट के बने हुए हैं। इसके बनाने में है और हमेशा काम जारी रहता है । ५७,००० टन लोहा लगा है और कुल ख़र्च १० करोड़ हमारा जहाज़ पिरमांट हार्फ पर जाकर लगा । सिडने रुपया पड़ा है। हमारा जहाज़ जब इस पुल के नज़दीक में जहाज़ अाट रोज ठहरता था, इसलिए अच्छी तरह
आया तब ऐसा भ्रम हुअा कि जहाज़ का मस्तुल घूम-फिरकर देखने का समय था। घाट से शहर जाने के पुल से बहुत ऊँचा है और ज्यों-ज्यों जहाज़ बढ़ता गया, लिए बस और फेरी अाध-आध घंटे पर छूटते थे। सिडने यह भान होने लगा कि मस्तूल ज़रूर टकरा जायगा। पर में पाठ रोज़ अच्छी तरह बिताने के लिए सैलानियों के जब पुल कुछ फुट रह गया तब इस कदर ऊँचा होने मनोरञ्जन के काफी स्थान है। टूरिस्ट कम्पनियाँ शहर में लगा कि जहाज़ का मस्तुल उसके नीचे चला गया। इस अथवा बाहर दूर स्थानों पर मोटर ले जाती है । हर एक घटना का स्वयं अनुभव करके ही उसका सच्चा स्वरूप यात्री के लिए भाड़ा नियत है। फेरी और ट्राम से भी
जाना जा सकता है। सिडने शहर खाड़ी के दोनों तरफ़. समुद्र-तट के स्थानों पर जाया जा सकता है। शहर में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[भाग ३८
R.M.S.STRA PASSING UNDE
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शहर में बैंक, बीमा कम्पनी, रेलवेदक्कर, होटल, थियेटर वगैरह की इमारतें देखने काबिल हैं। मज़बूती व वेशकीमती में एक एक से होड़ करती है। नतीजा यह है भव्य व विशाल इमारतों से सिडने का व्यापारिक हिस्सा भरा हुअा है। बड़ी-बड़ी दुकानों में शाक-भाजी
से लेकर बर्तन, कपड़े, [सिडनी बंदरगाह पर एक पुल जिसके नीचे से बड़े बड़े जंगी जहाज़ गुज़र जाते हैं । ]
' कुर्सी, पलँग अादि सिनेमा, थियेटर इत्यादि बहुत-से हैं । नाच घर या अन्य जो कुछ गृहस्थी के काम की चीजें हैं, सब मिलती विलास-वैभव में किसी योरपीय शहर से सिडने कम नहीं हैं। सैकड़ों फुट के घेरे में दस- दस तल्ले सामान से है। समाज के रहन-सहन पर अमेरिकन प्रभाव का बड़ा खचाखच भरी दुकानें देखने में श्राती हैं और ख़रीददारों हिस्सा जान पड़ता है। स्त्रियों का श्रृंगार उसी ढंग का का तांता लगा रहता है। यहाँ अादमी सोना-चाँदी है। स्त्रियों के सुन्दर पहनावे से उनकी सुरुचि की श्रेष्ठता नहीं खरीदते, बल्कि अपनी आमदनी वस्त्र व ऐशोप्रकट होती है। निस्संदेह समृद्धता इसका मूल कारण है। पाराम की सामग्रियों में खर्च करते हैं। प्राप्त यहाँ मज़दूरी का औसत कम से कम ४०) हप्ता है। काम आमदनी तो एक तरफ़ रही, भावी आमदनी के भरोसे पर के समय नियत हैं, इसलिए स्त्री-पुरुषों को खेलों के लिए किश्त पर भी बहुत बड़ा व्यापार होता है। जिसकी नौकरी पर्याप्त समय मिलता है। पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी खेल लगी हुई है उसको दुकान की शौकीन हैं, जिसका उनकी तन्दुरुस्ती व शारीरिक पर चीजें बेचते हैं। गठन पर अच्छा प्रभाव देखने में ग्राता है। अक्तबर से यों तो श्रास्ट्रेलिया के सभी शहरों में 'मिल्कबार' हैं, अप्रैल तक सिडने के समद्रस्नान-तट जन-समुदाय से भरे पर सिडने में इनकी विशेष छटा है। नाम के खयाल से रहते हैं।
तो यहाँ दुध ही मिलना चाहिए, पर शवत वगैरह अन्य आस्ट्रेलिया भर में जुए का बड़ा शौक़ है। हर एक पेय पदार्थ तथा प्राइस-क्रीम और फल भी बिकते हैं। शहर में घुड़दौड़ होती है। सिडने, मेलबोर्न जैसे शहरों में शहर के मध्य में अन्य दुकानों की तरह दफ्तरों तो घुडदौड के कई मैदान हैं। लोगों की जुबाडी-प्रवृत्ति सिनेमा-थियेटरों के नजदीक. पार्क-बागीचों में, स्टेशनों में से लाभ उठाने के लिए सरकारी लाटरी हमेशा हुया करती या और जहाँ कहीं आदमियों की ज्यादा ग्रामदरफ्त है, है । टिकट की दर दो शिलिंग और पाँच शिलिंग होती वहाँ स्वच्छ जगमगाती सजावट में चाँदी के बर्तन व काँच है। रैफ़िल भी हुया करते है। लाटरी के टिकट सिगरेट- के गिलास से सुशोभित मिल्कवार कायम हैं। इनमें फाटक तम्बाकू की सब दूकानों पर बिकते हैं। लोगों की प्रायः नहीं रहता, जिससे सड़क पर से सब खुला दिखता है। अाधी कमाई शराब और जुए में खर्च होती है।
लकड़ी का करीब दो फुट चौड़ा वा चार फुट ऊँचा कट
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संख्या २ ]
रंगून से आस्ट्रेलिया
हरा बना रहता है । सामान भीतर रहता है और ऊँचे-ऊँचे स्टूल बाहर रक्खे रहते हैं। स्टूलों पर बैठकर कटहरे पर गिलास रख या योंही खड़े हुए कटहरे की टेक लिये ग्राहक यथारुचि पीते-खाते हैं । ग्राहकों की भीड़ के अनुसार परोसनेवाली स्त्रियाँ कटहरे के भीतर एक-दो या तीन-चार की संख्या में रहती हैं। ज्यादातर १६ से २० बरस की युवतियाँ इस काम पर नियत रहती हैं, जो भड़कीली पोशाक में सफ़ेद टोपी लगाये लाल-लाल चोंट, गुलाबी गाल व सुरेखित भौंहें किये कटहरे के भीतर ग्राहकों को परोसने में मधुर मुस्कान धारे इधर-उधर झपटती फिरती नज़र आती हैं । अवकाश पाने पर दो बातें भी कर लेती हैं, जिससे किसी रसीले ग्राहक का समाधान हो जाता है ।
जहाँ-तहाँ सैलूनवार हैं। ये हमेशा दरवाज़े के भीतर होते हैं । यहाँ बियर, ह्विस्की, बैंडी या अन्य मादक द्रव्य बिकते हैं। पुरुष ही इनमें ग्राहक होते हैं । यहाँ भी बहुधा बारमेड रहती हैं, जो ज्यादा उम्र वाली नज़र ग्राई । ग्राहकों को हँसी-मजाक व सिगरेट पाइप के धुएँ से ये सैलूनबार गूँजे रहते हैं । मिल्कबार में स्त्री-पुरुष सभी जाते हैं, पर सैलूनवार में सिर्फ मर्द ही । सैलूनबार प्रायः होटलों में होता है और होटल में लॉज- कमरा ज़रूर रहता है। लाँज दर की निगाह से देखा जाता है, जिसमें स्त्री-पुरुष बैठकर शराब वगैरह मँगाकर पीते हैं बारों में 'टिप' नहीं दी जाती, पर लाँज में वेटर या वेटरेस को 'टिप' देने का रवाज है। लॉज प्रायः स्त्री-पुरुषों के मिलने के स्थान होते हैं ।
।
रेलवे और ट्राम के सरकारी होने की वजह से किसी अन्य व्यक्ति को लारी या बस चलाने की इजाज़त नहीं है। जहाँ ट्राम नहीं है, वहाँ सरकारी बसें चलती हैं। ट्राम या बस का किराया दो पेंस से कम नहीं है । शहरों में टैक्सियाँ चलती हैं, जो एक शिलिंग प्रतिमील के हिसाब पर जाती हैं। खाड़ी में से एक दूसरी जगह जाने के लिए फेरी चला करती हैं। टैक्सी की तरह लाँच भी किराये पर मिलती हैं। लाँच पर चढ़कर खाड़ी में सैर करने का मज़ा . लेनेवालों की यहाँ कमी नहीं है । कुछ दूर समुद्र की सैर
जाने के लिए याच भी किराये पर मिल सकती हैं। मोटर कार की तरह अपने आराम के लिए बहुत-से धनाढ्य पुरुषों की जल की सैर के लिए अपनी-अपनी लाँच या याच हैं ।
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एक रोज़ हमने ज़ू देखने में बिताया । यहाँ का मछलीघर देखने के लायक है। तरह-तरह की विविध रङ्ग और
कार की मछलियाँ अपने-अपने प्राकृत स्थानों में काँच के शीशे के अन्दर जल में तैरती फिरती हैं । सबसे ज्यादा शोभायमान मछलियाँ होनोलूलू के तट की हैं । एक सिडने ब्रिज का पैदल चलकर देखने में बिताया । इस पुल की कारीगरी देखने व समझने का यही ज़रिया है । जिन चार खम्भों पर पुल का भार टिका हुआ है वे पत्थर के हैं । और २८५ फुट ऊँचे हैं। उन पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और उन पर से शहर का अच्छा
दर्शन होता है ।
एक दिन मैनली -बीच पर जाकर बिताया । वहाँ एक तरफ़ सुरक्षित स्नान- तट हैं। समुद्र की पदी से जल से क़रीब बीस फुट ऊँची लोहिया जाली जड़ दी गई है, जिससे जाली के इस तरफ़ समुद्र स्नान करनेवालों को शार्क मछली या अन्य जल-जन्तुओं का भय न रहे । यह सिडनेबन्दरगाह के मुहानेवाली एक चट्टान पर स्थित है । भीतर की तरफ़ सुरक्षित स्नान-तट है और बाहर की तरफ़ खुला समुद्र नहाने के लिए है । जल-जन्तुनों से बचा का कोई इंतिज़ाम नहीं है, तो भी लहर -स्नान का लाभ लेते हुए असंख्य आदमियों को देखकर उनकी निर्भीकता की प्रशंसा करनी ही पड़ती है ।
एक प्रतिष्ठित मिलनसार श्रादमी से भेंट करने के लिए मिस्टर नाइट के एक मित्र ने बूम्बा से लिख दिया था । उन्होंने मेरी ख़ातिरदारी में कुछ उठा नहीं रक्खा । अपने कई मित्रों से मेरी जान-पहचान कराई और मेरे सातों दिन सिडनी में किसी न किसी के साथ लंच या डिनर का न्योता रहा । मोटरकार में इधर-उधर की बहुत-सी सैर कराई और सिडने के रात्रि - जीवन का भी उनकी कृपा से बहुत कुछ अनुभव हुआ । .
३ अक्टूबर को मेरा जहाज़ मेल्बोर्न के लिए रवाना हुा । जहाज़ पर देखा कि एक हिन्दुस्तानी सज्जन अपनी स्त्री के साथ टहल रहे हैं । दूसरे बैंगनी मख़मली टोपी लगाये अँगरेज़ी पोशाक में एक किनारे खड़े हैं। चार आदमियों का एक झुंड सस्ती व भद्दी अँगरेज़ी पोशाक पहने एक तरफ़ बात-चीत कर रहा । यहाँ इतने हिन्दुस्तानी आदमियों के मिलने की मुझे उम्मीद नहीं
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सरस्वती .
[भाग ३८
भवन व ख़ज़ाने के दफ़र के पास बागीचे में आये । इस बाग़ीचे में कैप्टन कुक का जिन्होंने आस्ट्रेलिया में ब्रिटिश भंडा गाड़ा था, घर देखने गये। यह कैप्टन कुक का
विलायत का घर है। [सिडनी के समुद्र-तट पर स्नान प्रेमियों की भीड़ का एक दृश्य ।]
१८३४ में मेल्बोर्न की थी। परिचय प्राप्त करने की कोशिश की। मालूम हुआ शताब्दी मनाई गई थी। उस वक्त यह घर मेल्बोन-कोसिल कि सपत्नीक सजन फ़ीजी से सिडने अाकर बम्बई जा रहे को इनाम में दे दिया गया था। कौंसिल ने इंटी-लकड़ीहैं। मख़मली टोपीवाले सज्जन थियासोफी के प्रचारक समेत सारे मकान को विलायत से उखाड़कर जैसा का तैसा मिस्टर जिनराजदास निकले, जो उस समय आस्ट्रेलिया में इस बगीचे के एक किनारे में खड़ा कर दिया है । इस मकान लेकचर दे रहे थे। वे मेल्बोर्न तक ही इस जहाज़ से जा में १०० साल पहले का दुनिया का एक नक्शा टॅगा है, रहे थे। चार हिन्दुस्तानियों का दल न्यूज़ीलैंड से आया जिसे कैप्टन कुक ने अपनी सफ़र में इस्तेमाल किया था। था। वह भी बम्बई जा रहा था। उनसे ज्ञात हुआ कि वे इस तरह घूमते-फिरते १२ बज गये। एक भोजनालय में न्यजीलैंड में फल-तरकारी बेचने का व्यवसाय करते हैं भोजन कर नदी पार जाकर बोटेनिकल गार्डन और गवर्नतथा वहाँ हिन्दुस्तानी आदमियों की संख्या लगभग दो मेंट-हाउस देखते हुए बार-मेमोरियल पहुंचे। यह एक बड़ी हज़ार के है। वे सब गुजरात के रहनेवाले हैं। अब वहाँ भव्य इमारत है। ऊँची जगह पर स्थित है। इसके बनाने बाहरवालों का जाना बन्द है। वे लोग इस कानून के होने में करीब १५ लाख रुपया खर्च हुअा है। ऊपर चढ़ने को के पहले न्यूज़ीलैंड पहुँच गये थे।
सीढ़ी बनी है, जो कुछ ऊपर जाकर ख़त्म हो जाती है । ___फ्रीजीवाले सज्जन वहाँ दूकान रखकर व्यवसाय करते चारों तरफ़ थोड़ा-थोड़ा हिस्सा खुला हुआ है, बाकी स्तूप हैं । उनकी हिन्दुस्तानी अवध-प्रांत की ग्रामीण भाषा थी, के ढंग पर ऊँचा चला गया है । इस खुली छत से मेल्बोर्न जिससे जान पड़ा कि वहाँ इस प्रांत के बहुत-से लोग हैं। शहर का अच्छा दृश्य दिखता है। इस इमारत में रोशनी शुद्ध हिन्दी बोलनेवालों का सम्पर्क न होने की वजह से का भीतर प्रवेश नहीं है । हमेशा बिजली की बत्ती से रोशनी ग्रामीण भाषा ही वे सीख सके। मुझे फ़ीजी पाने के लिए हुआ करती है। इमारत के चारों तरफ़ सुन्दर बागीचा उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया।
है । यहाँ युद्ध में हर एक काम आये हुए व्यक्ति के नाम के पाँचवीं तारीख़ की सुबह को हमारा जहाज़ मेल्बोर्न पेड़ लगाये गये हैं, जिनमें नाम की तख्ती टॅगी है। ढाई पहुँचा। जहाज़ रुकने का स्थान शहर से करीब ६ मील बजे मोटरबस सैलानियों को घुमाने के लिए छूटती है। पड़ता था। रेल से शहर आने-जाने का ज़रिया था। मेरी एक ढाई घण्टे की सैर थी। किराया ढाई शिलिंग था। टिकट अँगरेज़ से अच्छी मित्रता हो जाने के कारण वह और मैं लेकर उसमें जा बैठे। यह सैर ज़्यादातर मेल्बोर्न के पड़ोस साथ-साथ शहर जाने व देखने के लिए चले। भोजन कर की थी। इसमें कोई मार्के की बात देखने में नहीं आई। नौ बजे रेल पर बैठे। आने-जाने का डेढ़ शिलिंग भाड़ा इस नगर में मुझे एवेन्यू बहुत पसंद आये। सड़कों के था। शहर में मिल डर्स-स्ट्रीट स्टेशन पर जाकर उतरे। मध्य के बग़ल में दोनों तरफ़ छायादार वृक्ष लगे हुए हैं।
वहाँ से एलिज़ाबेथ-स्ट्रीट में दूकान देखते हुए डाक-घर कहीं ताड़ हैं तो कहीं दूसरे किस्म के पेड़ । इन एवेन्युगों से गये । वहाँ से लौटकर कालिन्स-स्ट्रीट होते हुए पार्लियामेंट- निकलने पर तबीअत प्रसन्न हो उठी थी। इस तरह धूम
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। संख्या २]
रंगून से आस्ट्रेलिया ।
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फिरकर सायंकाल जहाज़ पर लौट आये। दूसरे दिन जहाज़ १२ तारीख की सुबह को जहाज फ्रीमेंटल पहुँच गया। दो बजे खुलता था । कुछ नया न होने की वजह से फिर शहर यह केवल बंदरगाह है। असली शहर पर्थ है, जो यहाँ से नहीं गये । बन्दरगाह में ही इधर-उधर घूमकर समय बिताया। करीब १२ मील दूर है। यहाँ से पर्थ का रेल और बसें
अाठ तारीख़ की सुबह को जहाज़ अडेलेड आया। बराबर थोड़ी-थोड़ी देर पर छूटा करती हैं । हम और हमारे बन्दरगाह से शहर १२ मील दूर था। जाने के लिए अँगरेज मित्र दस बजे निकले । वस पर से ही जाना तय रेलगाड़ी थी । जहाज़ छः बजे शाम को खुलता था। साढ़े हुअा। फ़्रीमेंटल से पर्थ तक सड़क के दोनों बग़ल घर नौ बजे भोजन के उपरांत मुसाफिरों को शहर ले जाने के बने हुए हैं। पर्थ नदी के किनारे बसा हुआ है। यह लिए एक स्पेशल गाड़ी का इंतिज़ाम था। उस पर बैठकर पश्चिमी आस्ट्रेलिया-प्रांत की राजधानी है । कलगोरी हम लोग १० बजे शहर पहुँचे। इस शहर का बसे हुए जो इसी प्रांत में है, सोने की खान के लिए मशहूर १०० बरस हो गये हैं। उसकी शताब्दी मनाई जा रही है। शहर में कोई विशेषता नहीं मिली। भोजन कर किंग्सहै। बहुत-से मकान फूलों से सजाये मिले। इस शहर के - पार्क में हम लग गये। यहाँ की ऊँची जगह से शहर का बसाने की तारीफ़ है। एक तरफ़ सब सरकारी मकान, दृश्य अच्छा नजर आता है। इस बागीचे में कुछ भाग बाग़ीचे, विश्वविद्यालय इत्यादि हैं, दूसरे भाग में दूकानें स्वाभाविक छोड़ दिया गया है, जिससे आस्ट्रेलिया के ही दूकानें हैं। इसी तरह एक भाग में गोदाम हैं। सड़के जंगली प्रदेश का अागन्तुकों को भान हो सके । झाड़ियों सीधी और साफ़-सुथरी हैं। यहाँ बहुत कुछ देखने को और पेड़ों से जिनमें जंगली फूल कई किस्म के फूल रहे नहीं था। चार बजे की स्पेशल गाड़ी से जहाज पर वापिस थे, यह भाग बहुत मनोहर लगा। दो घंटे यहाँ बिताकर आ गये।
जहाज पर वापस लौटे, जो ६ बजे शाम को कोलम्बो के ..अडेलेड के बाद दूसरा बन्दरगाह फ्रीमेंटल था। लिए रवाना हुआ। इस तरह आस्ट्रेलिया में मेरा चार १,३०० मील का सफ़र साढ़े तीन दिन में समाप्त हुआ। हफ्ते का सफ़र ख़त्म हुआ।
'पथिक'
लेखक, श्रीयुत अनवारुलहक "अनवार" मत पूछो क्या मैंने मन में ठाना है। ___ कब हुए ख्याति के दास पथिक इस पथ के। जाने दो मुझको दूर बहुत जाना है।
दुनिया नवीन है यकदम गुमनामों की। ।। मत कहो एक क्षण रुककर दम लेने को।
गुमनामी का आनंद कोई क्या जाने । सुख-शान्ति इसी चलने ही में माना है।
हो अगर जौहरी तो मणि को पहचाने । करते हो विचलित मुझे मार्ग से मेरे।।
दुख मैंने किया न दूर अगर दुनिया का। .. लो अपनी अपनी राह रहो मत घेरे।। यदि केवल मैंने अपना ही हित ताका। मत करो प्रशंसा तुम मेरे कामों की।
क्यों करूँ कामना सब मेरे गुण गावें। .. इच्छा न मुझे है आदर की दामों की।
क्यों चाहूँ मैं फहराये कीर्ति-पताका । हो अथक मुझे दुखियों का दुख हरने दो। हाँ, सफल मुझे मानव-जीवन करने दो।
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श्रीमती लीलावती मुंशी गुजराती की प्रसिद्ध लेखिका हैं। यह कहानी आपने 'सरस्वती' के लिए लिखी है। इसका हिन्दी अनुवाद श्री काशिनाथ त्रिवेदी ने किया है।
सदा कुँवारे टीकमलाल !
लेखिका, श्रीमती लीलावती मंशो
(१)
जो बड़ी चाची वर की मा बनी थीं वे गा उठीं। स्त्रियों PRIME ME जनगर की एक गली में स्त्रियों का का वह दल शकुन गाता हुआ चाची के पीछे चल पड़ा। RELA एक दल खड़ा था। स्त्रियाँ कुल- सहनाई बज उठी, ढोल ढमक उठा और सारी गली उस
देवी की पूजा के लिए कुम्हार के सुर और उस नाद से गँज उठी।
घर से मटके लाने का निकली थीं. गानेवालियों की आवाज़ दूर-और दूर होती चली So और जाने की तैयारी में थीं। गली गई। अड़ोसी-पड़ोसी अपने घरों में चले गये । कुत्ते दो-तीन
के चौक में एक कुआँ था । कुएँ पर दफा गली के मोड़ तक जाकर भोक आये और फिर जहाँ एक स्त्री पानी खींच रही थी, और गली में खड़ी एक स्त्री के तहाँ अाकर ठहर गये। घर के ऊपरी मंज़िल के झूले पर से बातें कर रही थी। आस-पास घरों के चबूतरों पर कुछ बैठा टीकम, नई शादी के नवोल्लास में, भूले की सलाखों अधेड़ और कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ जानेवाली स्त्रियों को देखने के संगीत के साथ झूल रहा था।
और उन्हें सलाह देने को खड़ी थीं। पास में एक 'परब' . यह टीकम ही इस उत्सव का नायक था। ताज़ा थी, जहाँ कुछ पंछी दाना चुग रहे थे और दो-तीन कुत्ते थे, लगा हुआ कुंकुम का टीका और चावल उसके माथे पर जो कभी घर में जाते थे, कभी बाहर आते थे और श्राकर सुशोभित थे। रेशमी कमीज़ और लाल किनारे की धोती भोंकने लगते थे। फत्तू इस घर का नौकर था, जो दमामियों से सजी हुई उसकी देह सुहावनी मालूम होती थी! अपने की मदद से इन कुत्तों को निकालने की कोशिश कर रहा था। दुबले-पतले हाथों में वह सोने के कड़े पहने था, और
इतने में सामने से एक विधवा आई। जब उसने दूर अँगुली में मानिक की एक अँगूठी थी। पर इन सुहागिनों का यह दल देखा तब कतराकर दूर ही उसे देखते ही उसकी उमर का अन्दाज़ लगाना ज़रा दूर से यों निकल गई कि असगुन न हो। और अच्छे मुश्किल था। फिर भी तीस-बत्तीस से ज़्यादा उसकी उमर सगुन नहीं हो रहे थे, इसलिए स्त्रियों का दल जहाँ का तहाँ नहीं थी। उसके गाल पिचके हुए थे, आँखें चंचल, थमा हुअा था। यह देखकर एक बुढ़िया ने उलाहने-भरी कपाल असाधारण रूप से चौड़ा, और सिर पर कुछ सफ़ेद
आवाज़ में कहा--"अरी सुनती हो ! अब की ज़रा अच्छे और कुछ काले बालों की खिचड़ी पकी थी। सगन लेकर जाना ताकि बेचारे का घर ठीक-से बसे । चार- सँवारे हए थे। बीड़ी की संगत से होंठ काले पड़ गये थे, चार दफ़ा दूल्हा बनकर भी बेचारा कारा ही रहा । भगवान् मगर इस समय उन पर पान की सुर्वी चढ़ी हुई थी। और करे, यह पाँचवीं दुलहिन देवी बनकर आये । बहनो! कानों में जो तीन बालियाँ वह पहने था उनसे उसके मुँह तब तक एक-आध गीत ही गायो। यों गूंगी-सी क्यों की शोभा बढ़ती या घटती थी, कहना कठिन है।
आज रात को पाँचवीं बार उसका ब्याह होने जा रहा खड़ी हुई स्त्रियाँ आपस में एक-दूसरी से कहने लगी कि था। अभी एक महीना पहले ही जच्चा की हालत में तुम गाना शुरू करो। इतने में सामने से एक गाय आ उसकी चौथी पत्नी कमला का देहान्त हो गया था, इसलिए प्रदँची । इसे देखते ही दो-चार स्त्रियाँ एक साथ पुकार इस बार ब्याह में कोई ख़ास धूम-धाम करने का उसका को..... सगन ! सगन हा ! पूजा की थाली लिये इरादा न था। गणेशपूजा, गौरीपूजा, हवन और मंडप,
खड़ी हो ?"
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संख्या २] .
. . . सदा कुँवारे टीकमलाल
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और बरात का सभी काम, छोटा और बड़ा, अाज एक-ही प्रकार नज़र दौड़ा रहा था, जिस प्रकार हवाई जहाज़ में दिन में कर लेना था। सबकी सलाह से यह तय हुआ था बैठा अादमी अपने नीचे की दुनिया पर दौड़ाता है। कि आज टीकम घोड़े के बदले गाड़ी पर बैठेंगे, जामा आज से बीस-बाईस बरस पहले अाज ही जैसा एक
और सरपंच के बदले सादा रेशमी कोट पहनेंगे और सिर अवसर उसके जीवन में पहले-पहल पाया था; और उस . पर एक नये पल्ले की सादी लाल सुर्व पगड़ी बाँधकर रात समय तो वह सिर्फ दस बरस का बालक था--ऐसा बालक जो को नौ बजे नई दुलहिन को ब्याहने जायेंगे।
छगन पाँड़े की चटसाल में तीसरी किताब पढ़ता था ! उन ___ लोगों के ख़याल में टीकम बेचारा एक भला आदमी दिनों वह बहुत कमज़ोर रहा करता था। संगी-साथी थे, था। चार दफ़ा मैट्रिक में फेल हुअा; पिता का देहान्त जो उसे हर तरह चिढ़ाया करते थे। उसे चिढ़ाने में हर होगयाः विधवा मा और दो छोटे भाइयों का बोझ उसके किसी को मज़ा आता था, और जब-जब पांडे जी की नज़र माथे ा पड़ा। सर्राफ़ की दूकान पर ब्याज-बट्टे का धन्धा उस पर पड़ती थी तब-तब वे भी अपने डण्डे से उसकी वह करता था। रोज़ शाम को घर भोजन करने अाता, ख़ातिर किया करते थे।
और फिर घर से निकलता तब रात काई ग्यारह बजे लेकिन जिस दिन से उसके ब्याह की बात चली, सभी वापस पाने की फर्सत पाता। अपनी हैसियत के मुताबिक उसे प्रशंसा-भरी आँखों से देखने लगे। उसके हक़ में वह ठीक-ठीक कमा लेता था, पर बेचारे के ग्रह इतने यह एक ही बात उसकी इज़्ज़त बढ़ाने को काफ़ी थी कि कमज़ोर थे कि गृहस्थी जम ही न पाती थी। अगर उस जैसा एक छोटा-सा बालक निकट भविष्य में पति यह अभाव न होता तो दस-पाँच बरस में उसकी गिनती बनने जा रहा है ! उसके दर्जे के और दर्जे के बाहर के उन लोगों में होने लगती जो ख़ुशहाल माने जाते हैं। संगी-साथी भी उसके मुँह से उसकी नन्ही-सी दुलहिन का ___टीकम की मा नीचे काम कर रही थीं । फत्त भी नीचे नाम सुनने को अधीर हो उठते थे, लेकिन उस छोटी उमर श्रोसारे में बैठा चावल बीन रहा था। दोनों भाई कहीं में भी वह इतना पहुँचा हुअा था कि भूलकर भी अपने मुँह बाहर गये थे और उनकी पत्नियाँ कुम्हार के घर मटके से अपनी प्रियतमा का नाम न लेता था। जब टीकम को लेने गई थीं; इसलिए ऊपर, दुमंज़िले पर, टीकम को छोड़ उस समय की यह बात याद आई तब वह मन-ही-मन कुछ और कोई नहीं था।
मुसकुरा उठा। ____ ब्याह की ख़ुशी का अवसर होते हुए भी आज उसका उसके बाद ! एक रात का ज़िक्र है--अाधे सोते और मन तनिक उदास-सा था। इससे पहले की चार-चार प्राधे जागते वह अपने से दो बरस बड़ी, बारह बरस शादियों में आज के दिन उसे जो-जो अनुभव हुए थे, सो की, एक दुलहिन को, अपने साथ ले आया। लड़की का सब एक-एक करके उसे याद अा रहे थे और उसकी कन्या-काल बीता जा रहा था; मा-बाप घबराये हुए थे। खिन्नता को बढ़ा रहे थे।
मौका पाते ही उन्होंने बिजली का टीकम के साथ बाँध उसके जीवन में सुनहरे सपनों की अब कोई बड़ी दिया और आप हलके हो गये। जिस लड़के से बिजली गुंजाइश नहीं थी। पिर भी एकान्त के कारण कहिए या . की पहली सगाई हुई थी वह बेचारा एकाएक चेचक में
आज के असाधारण अवसर के कारण कहिए, झूले के चल बसा था। अगर यह दुर्घटना न होती तो टीकम को हलके झोंकों के साथ, उसकी आँखों के सामने बीते इतनी बड़ी बहू ब्याहने का यह सौभाग्य, इतनी जल्दी, हुए जीवन के अनेकानेक चित्रों का एक समा-सा बँध रहा शायद ही प्राप्त होता ! लेकिन दुनिया का तो यही तरीका था। इससे. कारण आनेवाले सुख में पड़नेवाले विघ्न की है--बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा ही करता है; एक के आशंका से उसका दिल काँप उठता था। यद्यपि उसके रोने में दूसरे का हँसना छिपा रहता है ! मन में खिंचनेवाले ये चित्र नीचे लिखे चित्रों की तरह बिजली सचमुच ही बिजली थी। वह चुपके-चुपके साफ़ और विस्तृत नहीं थे, फिर भी अपने भावी सुख के इशारों से टीकम को बुलाती। जब अकेली होती तब हाथ विचारों में लीन उसका मन अपने भूतकाल पर उसी खींचकर उसे अपने पास बैठा लेती और अपने मैके से
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.१३०
- सरस्वती
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वेले पैसे की जो चीज़े वह खाने को लात्ती उन्हें, सबो की नज़र चुराकर बड़े प्यार से टीकम को खिलाती और नासमझ टीकम था कि जब तक खाने-पीने का डौल होता, - बैठा रहता, मगर जब कुछ और गड़बड़ होता तोचुपचाप श्रोमा ! देखो, यह मुझे छेड़ती है कह कर चिल्लाता हुआ भाग जाता । उसकी पुकार सुनकर तुरन्त ही मा आती और बहू को बुरा-भला कहने लगती। कहती हू ! तू कितनी नादान है, और कैसी मगरमस्त! मेरे बेटे को क्यों सताती है? फिर तो साँझ पड़ते पढ़ते यह क़िस्सा मुहल्ले के एक-एक घर में चर्चा का विषय बन जाता । साल-दो साल और बीत गये यहू जवान हो गई। छोटे टीकम की जवान बहू यार लोगों के हँसी-मजाक का निशाना बन गई। शुरू-शुरू में तो बेचारी इस ग्राफ़त से बहुत घबराई मगर ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये और यह रोज़ मर्रा की एक चीज़ बन गई, बिजली को भी बेहया बनते देर न लगी। उसका पति था, जो बात-बात पर अपनी मा के पास तकरार लेकर जाता और मा एक ही ज़ालिम थी, जिसके त्रास से बेचारी बिजली काँपा करती । इसलिए भी उसे लोगों की शरारत में एक तरह का मीठा मज़ा आने लगा था । वह थी तो सिर्फ़ चौदह बरस की, लेकिन समझदार इतनी थी, मानो चौबीस बरस की हो ।
सास को बहू के रंग-ढंग अच्छे न लगे। बहू की उठती जवानी को रिझाने के लिए अब टीकम तेरह बरस का हो चुका था।
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[ भाग ३
नाम से. मशहूर हो गई। हर कोई उसके बालक- पति और दुखिया सास पर तरस खाने लगा। सबकी सहानुभूति टीकम और उसकी मा के साथ थी। बेचारी बिजली पर अचानक बादल घिर खाये उसे दबाने और कुचलने की जितनी कोशिशें होती उन सबमें समाज का नैतिक बल टीकम के और उसकी मा के साथ रहता ।
शुरू-शुरू में बिजली इन सब बातों से घबराई; लेकिन बाद में वह बहुत ढीठ हो गई और ईंट का जवाब पत्थर से देने लगी। टीकम इस समय पन्द्रह-सोलह बरस का
था,
और उसके लिए सिर्फ एक यही रास्ता रह गया था कि अपने बाप-दादों को तरह वह भी बिजली को डण्डों से पीटा करे और उसकी मस्ती उतारा करे । जब ज़रूरत मालूम होती वह श्राव देखता न ताव, थाली, कटोरी, पत्थर, पटिया, जो हाथ लग जाता वहीं हथियार बनकर टीकम के हाथों बिजली के सिर पर बरसने लगता !
,
एक दिन की बात है। बिजली मैके गई थी। साँझ हो गई। लौटने का वक्त बीत गया और बिजली न लौटी। टीकम घर में चक्कर काटने लगा। उसकी मा बड़बड़ाने लगी। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनकी चिन्ता और उनके मिजाज़ का पारा बढ़ता चला गया। दोनों चिन्ता में ही दूबे रह गये और किसी को यह सवाल न श्राया कि जाकर उसे लिवा लायें - ढूँढ लायें । इसी बीच, सौभाग्य से कहिए या दुर्भाग्य से, रात के कोई आठ बजे बिजली दिल में धड़कन लिये, मगर ऊपर से बेहयाई का जामा पहने आई और घर में चली गई । उसे देखते ही टीकम अपनी सारी ताकत लगाकर दहाड़ उठा और बोला"हरामज़ादी, किस के घर अब तक बैठी हुई थी ? मुँह से बोल नहीं अभी कमर तोड़ दूँगा !"
I
बात
अब सास भी बहू की हर एक हरकत पर कड़ी निगाह रखने लगी । छोटे-छोटे देवर थे, जो उसकी हर में नमक मिर्च लगाते और मा से कहते थे। पड़ोसियों को उसके चाल-चलन की कुत्सा करने में मज़ा श्राता था । महल्ले के और मदरसे के लड़के थे, जो टीकम के देखते उन दोनों का विकराल रूप बिजली ने देखा तब वह उसकी बिजली का उपहास करते, टीकम की मर्दानगी और सहम गई, उसकी विन्धी बँध गई। बोली- कहीं भी उसके पतित्व की हँसी उड़ाते और टीकम को इस बात के तो नहीं गईं थी । अम्मा को एकाएक दौरा श्रागया, और लिए हरदम उभाड़ते रहते कि वह बिजली पर अपना पति- घर में कोई दूसरा था नहीं, इसलिए मुझे रुक जाना पड़ा । पना जताये और उसकी हरकतों के लिए उसे सूत कर "हूँ, अम्मा को दौरा आया था अम्मा को दौरा! सीधा करे। बेचारी नादान और मुकुमार विजली पर यों खड़ी रह अभी इसी दम, बिजली पर यों खड़ी रह । अभी, इसी दम, तेरा यह सारा दौरा निकाले चौतरफा चढ़ाई होने लगी, और उसकी रक्षा का भार सबने देता हूँ !” डण्डा तैयार ही था बड़ातड़ बिजली की अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक अपने सिर ले लिया । पीठ पर पड़ने लगा, और सास ने इस तरह गालियाँ देनी मारी जाति में बिजली कुलच्छनी और कुलकलंकिनी के शुरू कीं, मानो बेटे को बढ़ावा दे रही हो !
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संख्या २]
सदा कुंवारे टीकमलाल
"अरे बाप रे ! मर गई रे ! हाय रे-सच कहती हूँ लाश विजली की ही थी, इसमें किसी को शक न रह गया। रे; मैं कहीं नहीं गई। सचमुच ही मा को दौरा आ गया सबके दिल एकबारगी काँप उठे, पर यह सोच कर सबने था ।” लेकिन वह जितनी ही अपनी सफ़ाई देती थी, टीकम खुशी मनाई कि एक बला उनके बीच से चली गई ! को उतना ही जोश चढ़ता था और वह दूनी ताक़त से उस जब सवेरा हुया और लोगों ने पता लगाया तब मालूम पर डण्डा बरसाता था। इसमें उसे एक तरह का मज़ा हुआ कि वाकई रात को बिजली की मा बीमार थी और आता था-पति के कर्तव्य को पूरा करने का मज़ा। इसी से बिजली को देर हो गई थी। मगर होनहार थी, जो .
अड़ोस में, पड़ोस में, चौतरे पर और चौक में पड़ासी होकर रही ! उसे कौन था, जो न होने देता! थे, जो दरवाज़ों और खिड़कियों में खड़े खड़े तमाशा देख रहे बिजली को मरे अभी पाँच-दस दिन ही बीते थे कि थे। जब मर्द औरत पर पिला हो तब पड़ोसी बेचारे क्या टीकम की मा अधीर हो उठी बेटे को फिर से ब्याह देने कर सकते हैं ? फिर भी तमाशाइयों में एक-दो श्रादमी के लिए। कुलीनो में उनकी गिनती होती थी, इसलिए ऐसे थे जिनकी पूरी हमदर्दी टीकम के साथ थी, मगर मँगनी का कोई टोटा न था। एक धनवान् माता-पिता की बिजली पर पड़नेवाली मार का त्रास उनके लिए असह्य सयानी और सुलच्छनी लड़की के साथ देखते-देखते था । वे आगे बढ़े और बड़ी मुश्किल से टीकम का हाथ टीकम की सगाई तय हो गई। लड़की के मा-बाप ज़रा रोककर बोले----अरे भाई ! क्या मार ही डालेगा ? आखिर सुधारक विचारों के थे; उनकी एक शर्त यह रही कि जब अभी लड़की ही तो है । अगर भल हो गई है तो दुबारा तक कान्ता तेरह बरस की न होगी, वे ब्याह न करेंगे। ऐसा नहीं करेगी। इतनी सज़ा कुछ कम नहीं है । बिजली लेकिन टीमक अब बालक नहीं था-नौजवान होगया वहीं बेहोश पड़ी थी। लोगों ने उसे उठाया, और घर के था। बिजली के कारण जो संताप उसे रात-दिन घेरे रहता एक कोने में ले जाकर पटक दिया।
... था उसकी चिन्ता से भी अब वह मुक्त था। ये उसके ___टीकम आखिरी बार गरजा-क्या कहा ? फिर जायगी? छटपटाने के दिन थे-दुनिया का आनन्द लूटने के ताब है उसकी, जो घर से पैर निकाले ! बदज़ात कहीं की- लिए अब वह अधीर हो रहा था। और कान्ता अभी एक ही डण्डे में ढेर कर दूंगा, ढेर !
बालिका थी। धीरे-धीरे मा का भी गुस्सा ठण्डा हुअा; बेटे ने भी हमजोलियों ने उसे राह दिखाई, और अपने इस शान्ति धारण की। पड़ोसी अपने घरों को चले गये। संकट से पार उतरने के लिए वह रास्ता छोड़कर बे रास्ते लड़-झगड़ कर दोनों खूब थक गये थे, और दोनों को कड़ाके चलने लगा। ‘देखा-देखी करे जोग, घटे काया बड़े रोग !' - की भूख लगी थी। इतने बड़े काण्ड के बाद बिजली से · वाली मसल हुई । टीकम दिन-दिन दुबला होने लगा, और कुछ खाने को कहना गुनाह बेलज्ज़त होता; इसलिए न देह में रोगों ने घर कर लिया । मा ने पूछा, न बेटे ने पूछा। दोनों खा-पीकर अपनी-अपनी जब ब्याह के दिन नज़दीक आये तब कान्ता के माता- . जगह चले गये और से रहे ।
पिता का ध्यान इस ओर गया। बस, एक साल के लिए . आधी रात को अचानक महल्ले के कुएँ में ज़ोरों का ब्याह और टल गया; और इस एक साल में टीमक की एक धड़ाका हुआ और जिज्ञासा और कुतूहल की मारी देह ऐसी छीज गई कि ठठरी हो गई ! मा सरे आम महल्ले की सारी जनता जाग उठी। रात के उस काण्ड उसका बचाव करने लगी- यह शादी न करने का ही की भनक अभी तक सबके कानों में आ रही थी। धड़ाका नतीजा है कि लड़का इतना दुबला हो रहा है; कल शादी सुनते ही सबसे पहली बात जो लोगों ने सोची यही थी हो जाय, कल से वह पनपने लगे। कि कहीं बिजली ही तो कुएँ में नहीं गिरी।
लड़की से आपको कितनी ही मुहब्बत क्यों न हो; .. बड़ा शोर हुअा; एक हंगामा-सा मच गया। कोई जाति के पंजे से छूटना मुश्किल है। और फिर एक तैराक की तलाश में गया, कोई रस्सियाँ ले आया और दो- लड़की के लिए सारे परिवार का यों परेशान और हैरान तीन घण्टों की मेहनत के बाद लाश ऊपर निकाली गई। रहना भी क्या कोई अकलमन्दी है ? बेचारी कान्ता के मा-बाप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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- सरस्वती
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[ भाग ३८
को, इसी लिए पुरबले के कर्मों के बस होकर, कान्ता का. ले तो घर कौन सँभाले, अन्धी बालिका की परवरिश कौन ब्याह टीकम के साथ कर देना पड़ा । और कान्ता-बारह करे, घर के काम-काज में बढिया मा का हाथ कौन बँटाये. बरस की कान्ता, टीकम की बहू बनकर उसके घर आई ! और दोनों बार, सुबह-शाम, उसे गरम-गरम खाना पकाकर जिस दिन के लिए टीकम अाज चार-चार बरस हुए आतुर कौन खिलाये ? इसमें शक नहीं कि कान्ता के उठ जाने से हो रहा था वह सुनहरा दिन आज आ गया। उस दिन टीकम को गहरा धक्का बैठा था, और जीवन का सारा ब्याह के समय वह जितना खुश और उमंगों से भरा था, मज़ा ही किरकिरा हो गया था, मगर उसका इलाज न था।
उतनी खुशी. वैसी उमंगें, और वह अातुरता, इस जीवन इसी लिए आख़िर पास के एक गांव में रहनेवाले एक - में फिर उसने न पाई।
___हेड मास्टर की चौदह बरस की लड़की से, ऐसी लड़की से बहू को घर अाई देखकर सास की खुशी का ठिकाना न जो पाते ही घर का सारा काम सँभाल ले, पन्द्रह दिन बाद, रहा । टीकम तो खुश था ही। दोनों बहू को सिंगारने और बिना किसी धूमधाम के, टीकम का ब्याह हो गया ! यह रिझाने में ऐसे मग्न हुए कि अपने आपको भूल गये | रात उसका तीसरा अनुभव था। जब टीकम ऊपर जाता तब बाज़ार से बहू के लिए नई उसकी ज़िन्दगी का अच्छे से अच्छा समय अगर कभी नई मिठाइयों के दोने के दोने लाता, उसे प्रेम से खिलाता बीता तो वह इस नई हीरा बह के राज्य में बीता। हीरा और वह जो चाहती, उसके लिए हाज़िर कर देता। बहू एक हेड मास्टर की लड़की थी। गुजराती की पाँच - दो-चार महीनों के बाद बहू दुसाध बनी। टीकम किताब तक पढ़ी थी। थोड़ा कसीदा काढ़ना और और उसकी मा के हर्ष का पार न रहा । उन्होंने सोचा, भरना भी जानती थी । घर के काम-काज और रोटी-पानी इस सुलच्छनी बहू के प्रताप से अब सचमुच ही हमारे वह सब अकेले कर लेती थी। देह उसकी सुडौल और . दिन फिर जायँगे । इसी अभिलाषा को हिये में छिपाये स्वस्थ थी; चिड़िया की तरह चहकती-फुदकती वह वे बहू को बड़े जतन से रखने लगे; मगर बहू दिन- बात की बात में घर का सारा काम सँभाल लेती थी। दिन कमजोर होती चली गई। उसके लिए क्या-क्या न 'सती-मण्डल' नामक पुस्तक के दोनों भाग वह पढ़ चुकी किया गया ? न-जाने कितने ताबीज़ बाँधे गये, न-जाने थी, और उसकी एक यह अभिलाषा थी कि वह भी एक कितनी मिन्नतें मानी गई, और न जाने कितनी माड़-फूंक सती बने । माता-पिता ने ब्याह से पहले उसे समझाया थाकरवाई गई। मा के लिए इससे बढ़कर और क्या बात बेटी ! सास का आदर करना, उन्हें खुश रखना; पति की । थी कि बेटे के घर बेटा आवे और पितरों को स्वर्ग में सेवा करना और प्रसन्न रहना; देवरों की मर्जी रखना और शान्ति मिले।
अच्छे रास्ते चलना! हीरा यही साध लेकर ससुराल आई लेकिन कान्ता ऐसी बहू थी जो न खिली, न फूली, न थी कि अपने व्यवहार से वह दोनों कुलों की कीर्ति को फली, और असमय में ही मुरझा कर चली गई एक अन्धी उज्ज्वल बनायेगी। लड़की को जन्म देकर और असह्य वेदना के चीत्कारों से हीरा के राज्य में टीकम का जीवन सचमुच ही बहुत घर को कँपाकर । उसके माता-पिता हाहाकार कर उठे- सुखी रहा । हीरा की संगति से उसकी कई आदतें कुछ-कुछ फूट-फूट कर रोने लगे। और टीकम और उसकी मा मुँह सुधर चलीं। उसकी दुबली देह की सार-सँभाल हीरा के लटकाये, तन-छीन, मन-मलीन, उसी अन्धी बालिका की हाथों बड़े मजे से होने लगी। पिता की मृत्यु के बाद विकट सार-सँभाल के बोझ से दबे, कान्ता बहू की याद में पढ़ना-लिखना छोड़कर वह व्यवसाय में पड़ गया था। फफक-फफक कर रोये।
बचपन की अपनी सभी आदतें भुलाकर इस समय वह टीकम अब इक्कीस वर्ष का था। और इक्कीस वर्ष का घर में बड़े-बूढ़े की तरह गम्भीर बनकर रहने लगा था। नौजबानः अपनी पत्नी का शोक कितने दिन पाल सकता है ? अब वह लोगों के हर्ष-शोक में, जात-बिरादरी में बराबर जब घर-गिरस्ती पीछे पड़ी हो और जवानी माथे चढ़ी हो शामिल होने लगा। जाति की उन्नति के लिए उसने तब कौन है, जो संन्यास ले? और अगर संन्यास ले भी एक-दो भाषण भी किये। उसका एक ही मनोरथ था,
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। संख्या २]
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. सदा कुंवारे टीकमलाल
जो अब तक पूरा नहीं हुआ था, और वह था पुत्र लेकिन अाखिर वह लाचार हो गई । अब तक मनोका जन्म।
बल से जिस देह को वह घिस रही थी, मनोबल के रहते ... और, यह शुभ समय भी कुछ देर के लिए निकट भी अब उसने उठने से इनकार कर दिया । हीरा ने बिछौना
आता-सा. दिखाई पड़ा; श्राशालता एकबारगी लहलहा पकड़ लिया । उठी। मगर दुर्भाग्य था कि बेटे की जगह बेटी आ गई ! - टीकम ने और उसकी मा ने पहले तो बड़े चाव से घरवालों ने यह सोचकर मन को दिलासा दी कि 'अाज हीरा की चाकरी शुरू की। लेकिन जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती लड़की आई है तो कल लड़का भी आयगा।'
गई और दिन बीतते गये, हीरा के अच्छे होने की उम्मीद और हीरा बहू की क्या तारीफ़ की जाय ? वह एक कम होती गई । टीकम की हालत बड़ी दयनीय हो गई थी। ही गुण वती थी। जब उस बार टीकम बहुत बीमार पड़ा तब मर्द अादमी था। काम-धन्धा छोड़कर बीमार औरत के हीरा ही थी, जो दिन-रात एक पैर पर खड़ी चाकरी करती पीछे कब तक बैठा रहता ? और मा बेचारी क्या करे ? रही। उसकी वह सेवा, वह टहल और वह साधना, जिसने बुढ़ापे में भगवान् का नाम लेकर अात्मा का उद्धार करे या देखी है वही उसकी कदर कर सकता है। उसकी याद सारी ज़िन्दगी बेटे की और उसके संसार की गुलामी में आते ही आज के इस मंगल-अवसर पर भी टीकम की गिरफ्तार रहे ? अगर रहना भी चाहे तो बुढ़ापे की देह आँखें भीगे बिना न रहीं।
भला कब तक साथ दे? । कोई एक बरस बाद हीरा सौभाग्य से फिर दुसाध हीरा को बीमार रहते दो-दो साल बीत गये। दिनों हुई । टीकम की बीमारी में वह काफ़ी दुबली हो गई थी, · दिन उसकी देह छीजती गई । वैद्यों ने और डाक्टरों ने तो इसलिए ये नौ महीने ज़रा संकट में ही बीते । लेकिन जब बहुत पहले से उसकी अाशा छोड़ रक्खी थी, मगर जीवन नवें महीने टीकम के घर पचीस बरस में पहली बार पुत्र की डोरी जरा लम्बी थी, और उसकी अाश पर साँस टिकी ने अवतार लिया तब क्या सास, क्या बहू और क्या पति, थी। वही मसल थी कि चङ्गा खाये धान, और बीमार तीनों के अानन्द का पार न रहा, तीनों गद्गद हो उठे। खाये धन । हीरा की बीमारी में काफ़ी पैसा खर्च हो टीकम के लिए जीवन के सुख की यह चरम सीमा थी। रहा था। टीकम के लिए यह एक सवाल था कि वह पितरों को स्वर्ग पहुँचाने का जो महान् उत्तरदायित्व उसके कब तक मौत के किनारे बैठी हुई इस औरत के पीछे माथे था उसे अाज सफल होते देख वह कृतार्थ होगया था। अपनी गाढ़ी कमाई ख़रचता रहे। आखिर धीरज छूट
लेकिन विधना से बढ़कर ईर्ष्यालु शायद ही दूसरा कोई गया, और लोग मनाने लगे कि भगवान् ! जल्दी से इस हो ! उसे किसी का सुख नहीं सुहाता । अतृप्त लालसाओं पीड़ा से छुड़ानो, और हमें भी हलका करो। लेकिन राम को लेकर जो बिजली चली गई थी, इस समय वही प्रेत रक्खे तो कौन चक्खे ? काँच की प्याली तो थी नहीं कि बनकर हीरा बहू के सुख में राहु बनकर आई। जब अपने पटकी और चूर-चूर हुई ! एक महीने के लाल को लेकर हीरा पहली बार पति के घर गई. आख़िर महीनों और बरसों की प्रतीक्षा के बाद बिदाई तब कहीं से आकर उस प्रेतिनी ने हीरा को छला। हीरा काँप का वह दिन भी आ ही पहुँचा । हीरा सँभल गई। टीकम को उठी। मारे डर के उसी रात उसे धड़धड़ा कर ज़ोरों का अपने पास बुलाया और विनय-भरे स्वर में बोली-नाथ ! बुख़ार हो अाया, और कुछ ही दिनों के बाद उसे क्षय हो गया! मैं जानती हूँ, मैंने आपको बहुत दुःख दिया है। मुझसे । खटिया पर पड़े-पड़े भी हीरा, बीमारी की हालत में, आपकी कोई सेवा बन नहीं पाई । परमात्मा से मैं यही चाहूँगी. अपने पति और पुत्र का काम करती रहती थी। बीमारी का कि जब जन्D , आप ही को पाऊँ । थकावट के कारण कुछ क्या, कल मिट सकती है; घर का काम कौन करे ? बूढ़ी देर चुप रहकर वह फिर बोली-प्यारे ! मेरे बाद कौन है, १ सास थी; वह अगर देव-दर्शन को न जाती तो उसका जो आपकी चिन्ता करेगा, बच्चों की सार-सँभाल रक्खेगा ? बुढ़ापा बिगड़ता ! और हीरा पतिव्रता ठहरी । वह भला मुझे इसकी बड़ी फ़िक्र है। मा जी तो अब थक गई हैं। क्यों यह अन्याय अपनी आँखों देखती ?
कहती हूँ, मेरी एक बात मान लो, मुझे वचन दे दो, में
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१३४
सरस्वती
मुख से मरूँगी। टीकम का कण्ठ रुँध गया, वह एक शब्द भी न बोल सका । चुपके से उसके हाथ में अपना हाथ देकर वह यों खड़ा रहा, मानो कहता हो ―हारा ! इस घड़ी, तुम जो कहोगी, मैं करूँगा । हीरा ने अपने दुर्बल हाथों में उसका हाथ लेकर छाती से लगाया, आँखों को लाया और ग्रह- स्वर में बोली- प्यारे ! आपका यह वचन है न कि मेरे बाद आप फिर ब्याह करेंगे ? बस, यही मेरी एक अभिलाषा थी। अब मैं हलकी हूँ, फूल की तरह हलकी-सुख से, शान्ति से मरूँगी ! टीकम बड़ी कठिनाई से आँखों के बहते मुत्रों को रोकता हुआ वहाँ से उठ खड़ा हुया ।
दो घण्टे के बाद जीवन के सब कर्तव्यों से अवकाश पाकर हीरा की ग्रात्मा अनन्त में विलीन हो गई। टीकम • जीवन में पहली बार फूट-फूटकर रोया । बुढ़िया मा की खों से चौधा आँसू बहने लगे ।
हीरा की बीमारी की चिन्ता और रतजगे के कारण टीकम का स्वास्थ्य बहुत ख़राब हो गया था। उसे दमे ने घेर लिया और खाँसी के मारे प्राण नहों में आ गये । इधर हीरा के बिना घर में पग-पग पर परेशानी उठानी पड़ती थी । होते-होते हीरा को मरे एक महीना बीत गया । एक दिन मा ने हिम्मत बटोर कर कहा- बेटा ! क्या इरादा है तेरा ?
" मेरा इरादा ? मैं तो लुट गया, मा ! अब रक्खा ही क्या है इस जीवन म ?” शोक में डूबे हुए टीकम ने
कहाँ ।
" सच कहते हो, भाई ! हीरा तो हीरा ही थी । उस जैसी न कोई हुई, न होगी । लेकिन दुनिया भी तो देखनी पड़ती है बेटा । यों हउ धरकर बैठने से कैसे काम चलेगा ? मेरा बुढ़ापा है, बच्चे छोटे-छोटे हैं। कल अगर मैं उठ कर चल दी तो कौन है, जो तुझे और तेरे बच्चों को सँभालेगा ?" मा ने गिड़गिड़ाकर कहा - ' - "बेटा, ज़रा अपनी ओर भी तो देख | "
टीकम ने सिर धुनते हुए कहा- "मा, मेरी तक़दीर में सुख ही नहीं है। नहीं, तीन-तीन ब्याह के बाद भी मेरी यह दशा क्यों हो? तो मैं इस संकट में न पड़ेगा । " मा की आँखों के सू सूख गये। स्वर में कठोरता भरकर वह बोली -- पगले कहीं के ! यों कहीं दुनिया
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[ भाग ३८
चली है ? और इस बुढ़ापे में बच्चों का यह झमेला मेरे सिर लादकर क्या तू मेरी बुढ़ौती बिगाड़ना चाहता है ? मैं साफ़ कहे देती हूँ, मुझसे तेरे घर का काम नहीं देखा
जायगा ।
टीकम मुँह लटकाये, खिन्न भाव से, मा की बात सुनता रहा। जीवन की कोरमकोर यथार्थता के आगे करुणा में डूबी भावनाओं की क्या ताब थी कि वे टिकतीं ? आख़िर अनिच्छापूर्वक ही क्यों न हो, उसने अपनी सम्मति दे दी । जाति में उस समय कोई बड़ी उमर की लड़की मिल नहीं रही थी । आखिर दस बरस की एक बालिका के साथ टीकम की सगाई हो गई। मा ने कहा—ग्राज छोटी है तो कल बड़ी भी हो जायगी। जवान आदमी क्या 'रँड़ापे' में दिन काटेगा ।
सहालग में फिर ब्याह निकले। लोगों ने जाना कि टीकम चौथी बार ब्याहने जा रहा है। कहने लगे अव की ज़रूर उसका घर जमेगा। कुछ थे, जो टीकम की ग्रहदशा को कोसते थे; कुछ और थे, जो मङ्गल का दोष निकालते थे । उनके ख़याल से टीकम का यह ब्याह अन्तिम व्याह था ।
लड़की वैसे दस बरस की थी, मगर साल सिंहस्थ का था, इसलिए ब्याह न हो सका। और वह सारा साल टीकम ने एक न एक बीमारी में बिताया ।
जैसे-तैसे वह साल बीता और साल के अन्त में टीकम का ब्याह हुआ। लेकिन अब की बहू इतनी अबूझ आई. कि वह टीकम को देखते ही डर गई। फिर तो वह ससुराल जाने से ही इनकार करने लगी। ज्यों ही ससुराल जाने का समय होता वह चीखने-चिल्लाने लगती, किसी कोठरी में अपने को छिपा लेती और खिड़की की सलाखों को इस मज़बूती से पकड़ लेती कि टस से मस न होती !. लेकिन एक हिन्दू के घर में, एक व्याहता बेटी, जो पराई हो चुकी है, अपने मा-बाप के घर कैसे रह सकती है ? मैकेवाले साँझ पड़ते ही हाथ-पैर बांधकर उसकी गठरी बना लेते और उठाकर ससुराल रख ते । रात में जब वह भयभीत बालिका रोती-चिल्लाती तब पड़ोस के लोग या तो उसकी पर हँसते या टीकम पर तरस लाकर कहते - हाय, बेचारे टीकम की तकदीर में सुख ही नहीं है !
टीकम की यह कोई पहली शादी नहीं थी लेकिन
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सख्या २]
सदा कुँवारे टीकमलाल
१३५ ।।
जैसा अनुभव इस · बार उसे हो रहा था, पहले कभी नहीं मन, वचन, कर्म से श्रापको छोड़ और किसी का ख़याल हुआ था । घर-घर और गली-गली टीकम की गृहस्थी का तक नहीं किया है, इसलिए निश्चय ही अगले जन्म में 'गुणगान' होता था-बात एक कान से दूसरे कान भी आप ही हमें मिलेंगे। टीकम जी ! हम आपकी बाट पहुँचती थी। कुछ लोगों को हिन्दू समाज के भविष्य की जोह रही हैं । कहिए, आप जल्दी से जल्दी कब तक' चिन्ता होने लगती थी। कहते थे-कैसा अन्धेर है ? इतनी अाइएगा। इस अनोखे सत्य को सुनाकर श्रानन्द में विभोर बड़ी, ग्यारह बरस की, छोकरी ऐसी नासमझ कि ससुराल वे सुन्दरियाँ अट्टहास के साथ अदृश्य हो गई। जाने से घबराये ! हाय भगवान. न-जाने क्या होने बैठा टीकम के पैर झूला झूलते हए रुक गये। उसने आँखें है! कुछ कहते-छोकरी को क्षेत्रपाल ब्याह गया है । कुछ बन्द की और खोलीं । क्या बात थी ? भूत-लीला तो टीकम की कमज़ोरी पर हँसते।
नहीं थी? क्या वह सचमुच ही सो गया था या जागते हुए ___ मा को भी बहू के व्यवहार से कुछ कम गुस्सा न कोई सपना देख रहा था ? क्या वाकई ये सब औरते अगले अाता था। बुद्धौती में आराम पहुँचाना तो दूर रहा, इस जन्म में उसे फिर मिलेंगी ? नहीं, अकेली हीरा मिले तो कुलच्छनी बहू के कारण सन्तप्त होकर बुढ़िया सुलच्छनी बस हो। वह तो बेचारी सदा सेवा करती रही । हुक्म की हीरा की याद में घण्टों आँसू ढरकाया करती थी। ताबेदार थी। उसकी भली-बुरी सब इच्छाओं को पूरा
रोज़-रोज़ की इस दाँता-किचकिच से कमू को 'फिट करती थी। उसने तो उसे इस लोक में अपना प्रभु ही। अाने लगे। और रही-सही बेचारी दुसाध बन गई। माना था और परमेश्वर की ही तरह उसकी पूजा की अाखिर हार कर टीकम ने मा की सलाह से कम को उसके थी। लेकिन ये दूसरी सब ? इनका क्या होगा ? जब इनमें मैके भेज दिया।
से एक एक ने इतनी तकलीफ़ दी है तब ये सब मिलकर ___ सात महीने में कम के एक मरा हुअा लड़का क्या नहीं करेंगी ? इस शंका के मारे उसका मन डांवाडोल हुअा ! और वह भी इस दुनिया से ऊबकर वहाँ चली हो उठा। गई, जहाँ न सास का अातंक था, न पति का त्रास ! मरते- इतने में दूर पर कुम्हार के घर से लौटती हुई स्त्रियों के .. मरते भी उसका भयत्रस्त चेहरा और फटी हुई आँखें गाने की आवाज़ सुनाई पड़ी । अागे-आगे ढोल और ताशे, ऐसी थीं कि न डरनेवाले को भी डराती थीं!
तुरही और सहनाई की जो अावाज़ आ रही थी वह मानो यो हिंडोले पर अकेले बैठे-बैठे टोकम के मन में अपने उसके सारे सपनों और सारी कुशंकाओं को लील रही थी। बीते हुए जीवन की ये घटनाये एक के बाद एक ताज़ा वह उठकर खड़ा हो गया और खिड़की के पास जाकर हो रही थीं। और इनकी याद में कभी उसका चेहरा हर्ष ध्यान से सुनने लगा। गीत की पदावली साफ़ सुनाई से खिल उठता. कभी शोक से मुरझा जाता. कभी दुःख पड़ती थी।--- और निराशा से खिन्न हो उठता । अाखिर-आख़िर में जब एक अावे, दूजी अावे, तीजी तड़ा मार कमला के अल्प जीवन की तसवीरें उसकी आँखों के
___ मारो वीजणो रे; सामने से गुज़रने लगी तब किसी दुःस्वप्न की तरह उसका चौथी कागळ मोकले, सवारे वहेलो श्राव, हृदय छटपटा उठा। और फिर सबके अन्त में उसे ।
मारो वींजणो रे! .ऐसा मालूम हुआ, मानो बिजली, कान्ता, हीरा और 'चौथी क्यों, अब तो पाँचवीं पा रही है'-टीकम कमला, सभी अधर में झूल रही हैं और मानो चारों मन-ही-मन मुसकुराया और बोल उठा। अपनी सब
रही हैं---आप फ़िक्र क्यों करते हैं ? पुरानी स्त्रियों की याद, इस अानन्द-ध्वनि की लहरों में, शास्त्रों में लिखा है कि मौत के बाद जब पुनर्जन्म होता है जहाँ की तहाँ विलीन होगई और नई बहू की छवि का ९ तब पति-पत्नी फिर मिलते हैं; इसलिए विश्वास रखिए कि साक्षात्कार करने में उसका मन तत्क्षण तल्लीन हो गया।
और श्राप फिर मिलेंगे। अात्मा अमर है; देह की स्त्रियों का दल समीप ा गया था। पहला गीत तरह क्षणभंगुर नहीं। और अपने पिछले जन्म में हमने समाप्त होते ही उन्होंने नया गीत शुरू किया था।
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१३६ । ।
सरस्वती
[भाग ३८
-'
+
टीकम के श्रोशातुर अन्तर में इस गीत ने एक साड़ी ख़रीदेगा, और कैसे उसे रिझावेगा। और वे औरते अनोखा तूफ़ान खड़ा कर दिया। उसने ज्यों ही अपनी गा रही थीं, चिल्ला रही थीं और बताशों के लिए उतावली
कल्पना की आँखों से देखा कि नई दुलहिन अधीर होकर हो रही थीं! - उसकी बाट जोह रही है, त्यों ही उसका मन हर्ष से . अब इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि उस रात पुलकित हो उठा और चेहरे पर एक अनिवार्य मुसकुराहट टीकम पाँचवीं बार घोड़े पर चढ़ा, मण्डप में गया और छा गई।
पाँचवीं दुलहिन के साथ घर अाया। आइए, औरों की .. गानेवालियाँ घर के अन्दर आ गई और उन्होंने तरह हम भी उसे आशीर्वाद दें कि उसका सुहाग अखण्ड मटकों को इस तरह सहेज कर रख दिया कि खंडित न रहे और प्रभु उस बेचारे को फिर-फिर ब्याहने की पीड़ा हों। फिर तो आँगन में छुहारे और बताशे बाँटने की से मुक्त करें। हालाँ कि 'सुहाग' शब्द तो स्त्रियों के लिए धूम मच गई । टीकम छज्जेवाली अपनी खिड़की से नीचे ही बरता जाता है, लेकिन इस ज़माने में, रियायतन, हम उन स्त्रियों को अतृप्त लालसा से एकटक निहारने और पुरुषों के लिए भी उसका उपयोग कर सकते हैं ! यह सोचने में लग गया कि आनेवाली अपनी नई दुलहिन के लिए वह उनमें से किनके जैसे ज़ेवर और किनकी-सी * भारतीय साहित्य-परिषद् के सौजन्य से।
कस्तूरी
लेखक, श्रीयुत आरसीप्रसादसिंह
कुसुमित-गिरि-कानन में द्रुम-दल हिलता; अरे, कहाँ से आज सुरभि यह
सरि-पल्वल में अमल-कमल-दल खिलता ! इतनी उमड़ाई ?
किन्तु, कहाँ त्रिभुवन में फिर भी मिलता। तृण-तृण में कण कण में कैसी
वह मेरा मदमाता ! मादकता. छाई !
हाय न कोई इस रहस्य का मैं पागल बन भटक रहा वन-वन में;
उद्गम बतलाता !! जल में, थल में, उपवन-पवन-गगन में ! मेरे सौरभ-मत्त हृदय में, मन में
अरे, न जाना जिस पर मैं था अलस-वेदना आई !
इतना बौराया; अरे, कहाँ से आज सुरभि यह
वह तो मेरे ही यौवन की इतनी उमड़ाई ?
थी मोहन-माया! सुरभित जिससे फूल-पत्तियाँ सारी;
हिम-मण्डित गिरि-शृङ्ग-शृङ्खला प्यारी! मुझे न कोई इस रहस्य का
होता जिस पर निखिल विश्व बलिहारी; उद्गम बतलाता !
स्वयं न मैंने पाया ! हाय, कहाँ से इतना सौरभ
वह तो थी मेरी ही यौवनउमड़-उमड़ आता?.
माया की छाया !!
(२)
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ग्रामों की की समस्या
लेखक, श्रीयुत शंकरसहाय सक्सेना, एम० ए०
यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार और कांग्रेस दोनों का ध्यान प्रामोद्धार की ओर गया है । परन्तु इन दोनों की कार्य-पद्धति ऐसी है कि उससे ग्रामों की समस्या सुलझ नहीं सकती। इस लेख के विद्वान् लेखक ने ग्रामोद्धार सम्बन्धी समस्त संस्थाओं की त्रुटियों का वर्णन करते हुए यह बताने का प्रयत्न किया है कि गाँवों की समस्या क्या है और कैसे सुलझ सकती है।
ज-कल भारतवर्ष में ग्रामोद्धार की जितनी चर्चा सुनाई दे रही है, सम्भवतः ब्रिटिश शासन के पिछले सौ वर्षों में अन्य किसी भी विषय की इतनी चर्चा नहीं हुई। आश्चर्य की बात तो यह है कि देश की एकमात्र दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ राष्ट्रीय महासभा और भारत-सरकार दोनों ही ग्रामीणों की सेवा करने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने पर तुले हुए हैं। सरकार का ग्राम-प्रेम एकाएक इतना क्यों बढ़ गया, इसका रहस्य हम भारतवासियों से छिपा नहीं है । बम्बई - कांग्रेस में जैसे ही महात्मा गांधी ने ग्राम-उद्योग संघ की स्थापना की घोषणा की, वैसे ही भारत सरकार का ग्रासन हिल उठा और उसने एक करोड़ रुपया ग्राम सुधार कार्य के लिए प्रान्तीय सरकारों को दे दिया। देखते देखते ग्राम-सुधार कार्य का बवंडर देश में इस प्रबल वेग से उठा कि थोड़ी देर के लिए तो यह प्रतीत होने लगा, मानो ग्रामों का कायापलट होने में देर नहीं है। सरकार का रुख देखकर चाटुकार ज़मींदार, व्यापारी तथा शिक्षितवर्ग के लोग तथा पद-लोलुप धनीवर्ग सभी 'ग्राम-सुधार', 'ग्राम-सुधार' चिल्लाने लगे। वर्तमान वायसराय महोदय के शासनकाल में तो यह चिल्लाहट और भी तीव्र हो गई है ।
परन्तु इस ग्रान्दोलन से एक यह लाभ अवश्य हुना है कि समस्त देश का ध्यान देश के उपेक्षित ग्रामों की र गया है और कतिपय सार्वजनिक संस्थायें स्वतंत्र रूप से ग्रामोद्धार के कार्य में लग गई । व तो राष्ट्रीय महासभा ने भी इस ओर ध्यान दिया है। इस कारण इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। एक बात ध्यान में रखने की है। कांग्रेस तथा सरकार के द्वारा इस आन्दोलन के अपनाये
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जाने के पूर्व ही कतिपय संस्थायें छोटे छोटे क्षेत्रों में यह कार्य कर रही थीं, जिनमें श्री ब्रायन की गुरगाँववाली योजना, कविवर रवीन्द्र के श्रीनिकेतन की योजना, दक्षिण में मालाबार - प्रान्त के अन्तर्गत मार्तण्डम् तथा रथन - पुरम् के केन्द्रों में नेशनल कौंसिल आफ़० वाई० एम० सी० ए० का कार्य, बनारस में श्रीयुत मेहता की योजना, सुंदरबन में श्री हैमिल्टन का ग्रामीण उपनिवेश, गोदावरीज़िले में श्री सत्यनारायन जी का राममंदिर, दक्षिण में श्री देवधर ट्रस्ट तथा जयपुर-राज्यांतर्गत वनस्थली का कार्य उल्लेखनीय हैं। ऊपर लिखी हुई संस्थाओं के अतिरिक्त और बहुत-से सार्वजनिक कार्यकर्ता तथा संस्थायें अपनी अपनी शक्ति के अनुसार इस कार्य में लगी हुई हैं, जिनका यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सकता ।
वास्तव में हमारे ग्रामों की समस्या बहुत उलझी हुई है, अतएव जब तक इसका पूर्णरूप से अध्ययन नहीं जाता तब तक ग्राम-सुधार - प्रान्दोलन को सफलता मिलना कठिन है । आज हमारे ग्रामीणों की दशा ठीक उस घोड़े की भाँति है जिसको चारे का अभाव रहता है, शक्ति से अधिक बोझ ढोना पड़ता है, कभी आराम करने को नहीं मिलता, जिससे क्रमशः वह हृष्ट-पुष्ट सुन्दर घोड़ा क्षीण - काय होकर अत्यन्त निर्बल और निर्जीव हो गया है । उस मरणासन्न घोड़े की अत्यन्त शोचनीय दशा देखकर उसका स्वामी सोचता है कि इसको किसी डाक्टर को दिखाना चाहिए और दवा देनी चाहिए, किन्तु यह बात उसके ध्यान में नहीं आती कि सबसे पहला काम उसे यह करना चाहिए कि वह उस निर्बल और भूखे घोड़े को आराम की साँस लेने दे तो वह बिना किसी डाक्टर अथवा विशेषज्ञ की सहायता के ही चंगा हो सकता 1
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ठीक यही दशा आज भारतीय ग्रामीण की हो रही है। वर्तमान ख़र्चीले शासन के कारण न सहन किया जा सकनेवाला तथा बढ़ते हुए करों का भयंकर बोझ तथा ज़मींदार के अत्यधिक लगान और सरकार की मालगुज़ारी ने वास्तव में ग्रामीण की रोढ़ तोड़ दी है। ऊपर से महाजन का ऋण और नगरनिवासी व्यापारी, दलाल, वकील, शिक्षितवर्ग आदि के वैज्ञानिक शोषण ने 'तो भारतीय ग्रामीण के अन्तिम रक्तबिन्दु को भी चूस लिया है। अतएव ग्रामों के उद्धार के लिए यह आवश्यक है कि बिना विलम्ब किये उनका बहुमुखी शोषण रोका जाय । तभी पूर्णरूप से ग्रामोद्वार हो सकता है। और यह कार्य एकमात्र भारत सरकार ही कर सकती है।
हमारे इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि ग्राम-सुधार का यह जो देशव्यापी आन्दोलन चल रहा है वह निरर्थक है | ग्राम सुधार आन्दोलन से एक यह लाभ तो अवश्य ही होगा कि ग्रामीण जनता में अपनी दशा के ज्ञान का उदय होगा और भविष्य में उसे स्वयं अपनी स्थिति को सुधारने की इच्छा होगी। अब हमें देखना यह है कि देश में जो कुछ भी ग्राम सुधार कार्य हो रहा है उसका श्रादर्श क्या होना चाहिए और ग्राम-सुधार का कार्य करनेवालों का लक्ष्य क्या होना चाहिए ।
यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि देश में ग्रामसुधार के प्रश्न को लेकर इतनी हलचल मची हुई है, परन्तु अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका कि ग्राम सुधार से क्या
भीष्ट है। कोई कार्यकर्ता आधुनिक भारतीय ग्राम को उपयोगिताहीन, निर्जीव संस्था समझता है, अतएव उसके अतएव उसके ध्वंसावशेषों पर एक नवीन ग्राम-संस्था का भवन खड़ा करना चाहता है । उसकी दृष्टि में आधुनिक आर्थिक संगठन के योग्य एक नवीन संस्था को जन्म देना ग्रावश्यक है। दूसरा कार्यकर्ता भारतीय ग्राम में केवल इस प्रकार के परिवर्तन करना चाहता है जिनसे वह आधुनिक आर्थिक संगठन के उपयुक्त बनाया जा सके।
एक बात ध्यान में रखने की है कि जो लोग भारतीय आम को बिलकुल नष्ट कर पश्चिमी देशों में पाये जाने वाले ग्रामों को इस देश में स्थापित करना चाहते हैं वे सम्भवतः यह भूल जाते हैं कि भारतीय ग्राम में ऐसी बहुतसी सुन्दर संस्थायें विद्यमान हैं. जिनकी रक्षा अत्यन्त
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आवश्यक है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इस औद्योगिक तथा राजनैतिक परिवर्तन के युग में अपने ग्रामों को आधुनिक आर्थिक तथा राजनैतिक संगठन में अपना स्थान सुरक्षित रख सकने के योग्य बना दें। इस लक्ष्य को लेकर ही देश में ग्राम सुधार का कार्य होना चाहिए ।
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श्राज भारतीय ग्राम-संस्था निर्बल और निर्जीव-सी हो गई है । ग्राम-सुधारक का मुख्य कार्य यह है कि वह इस संस्था को सतेज और बलवान् बना दे । यदि वास्तव में हमें ग्रामोद्वार की इच्छा है तो हमें गाँवों में यह स्थिति उत्पन्न करनी होगी कि ग्रामीण जनता में अपनी स्थिति का सुधार करने की इच्छा बलवती हो उठे । ग्राम-सुधार का कार्य तभी सफल और स्थायी हो सकता है जब सुधार की भावना स्वयं ग्रामीण जनता में उत्पन्न हो जाय । गाँवों पर बाहर से सुधार लादने से सफलता कभी मिल ही नहीं सकती । खेद है कि इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर कार्यकर्ताओं का ध्यान बहुत कम गया है। शीघ्रता से सफलता मिलने की आशा में उत्साही कार्यकर्ता गांव की प्रत्येक बुराई को दूर करने के लिए दौड़ पड़ते हैं, परन्तु वे सुधार ग्रामीणों को छूते तक नहीं। फल यह होता है कि जब कार्यकर्ता का उत्साह मंद पड़ जाता है अथवा वह किसी दूसरे क्षेत्र में काम करने के लिए चला जाता है तब फिर उस गाँव की दशा पहले जैसी हो जाती है। गुरगांव के ग्राम-सुधार कार्य ने देश को विशेष रूप से आकर्षित किया था । किन्तु जैसे ही श्रीयुत ब्रायन का यहाँ से तबादला हुआ, वैसे ही वह कार्य भी ठंडा हो गया । श्राज गुरगाँव के गाँवों में जाइए, ग्राम-सुधार कार्य के पूर्व जाइए, ग्राम-सुधार कार्य के पूर्व जैसी दशा थी, लगभग वैसी ही दशा अब फिर हो गई है । ब्रायन साहब ने पिट - लैट्रिन (शौच - गृह) बनवाये थे, किन्तु श्राज कोई उनका उपयोग नहीं करता और वे भरते जा रहे हैं । किसान फिर पोखरों के समीप तथा जङ्गल में शौच के लिए जाने लग गया है। स्कूलों में अब लड़के बहुत कम जाते हैं और लड़कियाँ तो दिखलाई ही नहीं पड़तीं । ब्रायन साहब ने श्राटा पीसने के लिए जो सार्वजनिक बैलों से चलनेवाली चक्कियाँ खड़ी करवाई थीं उनके भग्नावशेष हमें ध्यान दिलाते हैं कि कभी यहाँ चक्की थी। किसान गढ़ों में खाद न बनाकर फिर घूरों पर खाद डालता है । उस सफ़ाई का श्राज चिह्न भी शेष नहीं है जो श्रीयुत प्रायन महोदय के समय में
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ग्रामों की समस्या
दृष्टिगोचर होती थी । बात यह थी कि वह सब एक तमाशे की भाँति किसान ने ग्रहण किया था, इसी से बाज उस कार्य का कोई अस्तित्व भी नहीं रह गया है। श्राज जो ग्राम-सुधार कार्य हो रहा है उसका अधिकांश इसी प्रकार का है । तएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्राम-सुधार का कार्य तभी स्थायी और सफल हो सकता है जब सुधार अन्दर से हो न कि बाहर से ।
एक दूसरा प्रश्न भी इस विषय में महत्त्वपूर्ण है । ग्राम-सुधार एक एक समस्या को लेकर चलने से हो सकता है अथवा सब समस्याओं को एक साथ हाथ में लेने से । अभी तक ग्राम-सुधार-कार्य को टुकड़े टुकड़े करके करने का प्रयत्न किया गया है, किन्तु अनुभव और अध्ययन बतलाता है कि इस प्रकार सफलता मिलना बहुत कठिन है । कोई सफ़ाई और स्वास्थ्य को लेकर चल रहा है, कोई किसानों के ऋण की समस्या को हल करने में लगा हुआ है, तो कोई मुकद्दमेबाज़ी को बन्द करना चाहता है । ये सब प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु जो लोग ग्रामों की वास्तविक दशा को जानते हैं वे भली भाँति समझते हैं कि गाँव में जितनी भी समस्यायें हैं वे एक-दूसरे से ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं कि पृथक् नहीं की जा सकतीं । ग्राम-सुधार का कार्य तभी पूर्ण सफल हो सकता है जब सब समस्याओं के विरुद्ध एक साथ युद्ध छेड़ दिया जाय । कार्य कठिन दिखलाई देता है, परन्तु बिना इसके किये निस्तार नहीं है। उदाहरण के लिए ग्रामीण ऋण की समस्या को ही ले लीजिए । यह स्थायी रूप से तभी हल की जा सकती है जब मुकदमेबाजी, सामाजिक कुरीतियों, खेती की उन्नति, स्वास्थ्य और सफ़ाई, पशुओं की उन्नति और उनकी चिकित्सा तथा शिक्षा की समस्यायें हल की जायँ । फिर उनके पुराने ऋण का परिशोध करने के लिए कोई कानून बनाया जाय और भविष्य में पूँजी का प्रबन्ध करने के लिए सात्र समितियाँ स्थापित की जायँ । इसी प्रकार मुक़द्दमेबाज़ी का रोग दूसरी कुरीतियों तथा मनोरञ्जन के प्रभाव से सम्बन्ध रखता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य भारतीय ग्रामों की समस्याओं को एक एक करके देखने का अभ्यस्त है वह उनको हल नहीं कर सकता । ग्राम-सुधार कार्य करनेवाले को तो सारी समस्याओं का एक साथ सामना करना चाहिए। तभी सफलता मिल सकती है।
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भारतवर्ष में ६ लाख से कुछ ऊपर ग्राम हैं । यह संख्या ब्रिटिश भारत तथा देशी राज्यों के गाँवों की है । यदि मान लिया जाय कि ग्राम सुधार कार्य को सफल बनाने के लिए १० वर्ष लगातार कार्य करने की आवश्यकता है तो भी कार्य की गुरुता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ऐसी दशा में यह निश्चय करना कि ग्राम सुधार कार्य की प्रणाली कैसी हो, अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । बिना यह निश्चय किये कि किस प्रकार की पद्धति देश की स्थिति को देखते हुए. विशेष लाभदायक होगी, कार्य प्रारम्भ कर देना भयङ्कर भूल होगी। यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि सब सम - स्थात्रों को एक साथ हाथ में लेने से ही यह कार्य सफलता-पूर्वक हो सकता है, अतएव यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न स्थानों पर ग्राम-सुधार केन्द्र स्थापित किये जायँ और उन केन्द्रों के द्वारा समीपवर्ती ग्रामों में सुधार कार्य किया जाय । ग्राम-सुधार केन्द्र के कार्यकर्ताओं का उद्देश यह होना चाहिए कि वे क्रमशः अपने क्षेत्र में ऐसे स्थानीय नेता तथा कार्यकर्ता उत्पन्न कर दें जो भविष्य में उन गाँवों का कार्य स्वयं अपने हाथ में ले लें। नहीं तो इतने ग्रामों के सुधार के लिए असंख्य मनुष्यों और अपार धन की आवश्यकता होगी । कुछ वर्ष कार्य करने के बाद जब कार्यकर्ताओं को यह विश्वास हो जाय कि स्थानीय कार्यकर्ता अब इस कार्य को चला सकेंगे, साथ ही सुधार की भावना ने ग्रामीणों के हृदय में स्थान कर लिया है, तब केन्द्र वहाँ से हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाय । यह तभी हो सकता है जब ग्रामीणों में अपनी दशा सुधारने की इच्छा बलवती हो ।
आज भारतीय ग्रामीण संसार का सबसे अधिक निराशावादी, भाग्यवादी तथा मूर्खता की सीमा तक पहुँचनेवाला संतोष कर जीवित रह रहा है । सैकड़ों वर्षों से उसका जो भीषण शोषण हो रहा है उससे उसका पशु से भी गिरा हुआ जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है । आज भारतीय किसान को यह विश्वास ही नहीं होता कि कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो उसका शोषण न .. करे और इस बात की तो वह कल्पना ही नहीं कर सकता कि उसकी दशा में कभी सुधार भी हो सकता है । अतएव ग्रामोद्धार कार्यकर्तायों का पहला कर्तव्य यह होना चाहिए कि वे किसानों में अपनी इस पतित अवस्था के विरुद्ध असंतोष उत्पन्न करें और उनमें विश्वास और श्रात्म-सम्मान उत्पन्न
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करें। जब तक किसान का निराशावाद नष्ट नहीं किया सरकार तथा सच्चे सुधारकों में सहयोग भी सम्भव नहीं जायगा तब तक स्थायी रूप से ग्रामोद्धार का कार्य सफल है। अतएव राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले ग्राम-सुधारकों को नहीं हो सकता। यदि कार्यकर्ता उन्हें श्राशावादी बना सकें स्वतंत्र रूप से ग्रामोद्धार कार्य करना चाहिए। जो लोग तो आधा कार्य हो गया समझना चाहिए।
स्वतंत्र रूप से ग्राम-सेवा का कार्य करना चाहते हैं उनके अभाग्यवश भारतवर्ष में ग्रामोद्धार-आन्दोलन उस लिए यह आवश्यक है कि वे पहले तो इस विषय का समय छेड़ा गया है जब संसार भयंकर मंदी का सामना अध्ययन करें, तदुपरान्त किसी ग्राम को केन्द्र बनाकर कर रहा है । खेती की पैदावार का मूल्य बहुत गिर गया उसमें कुछ वर्षों के लिए जम जायँ । हमारे देश में बहुत-से है, इस कारण किसान की आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ शिक्षित लोग अपना कार्य-काल समाप्त करने पर भी नगरों गई है। यही नहीं, देश के उद्योग-धंधे भी भीषण अार्थिक का मोह नहीं छोड़ते। यदि रिटायर होकर शिक्षित लोग -मंदी का सामना कर रहे हैं, भारत-सरकार तथा प्रान्तीय गाँवों में बसना और उनमें रहनेवालों की सेवा करना सरकारों की प्रार्थिक दशा शोचनीय हो रही है। ऐसी अपना कर्तव्य समझे तो इस ओर बहुत कुछ हो सकता है। दशा में सरकार इस कार्य के लिए अधिक धन व्यय कर यही नहीं, आवश्यकता तो इस बात की है कि चीन की सके, यह असम्भव है। तो भी भारत सरकार को ग्रामों के भाँति शिक्षित युवक गाँवों की ओर लौटें और अाश्रम उद्धार के लिए तीन काम करने होंगे-(१) प्रान्तीय स्थापित करके ग्राम-सुधार का कार्य करें। श्राज देश के सरकारें लगान को आधा कर दें, (२) ग्रामीण ऋण की शिक्षित नवयुवकों को यह कहने की आवश्यकता हैसमस्या को हल करने के लिए सरकार एक कानून बनाकर "गाँवों की ओर लौटो"। ग्राम-सुधार का कार्य गुरुतर है किसान के ऋण का एक चौथाई महाजन को देकर और यह तभी सम्भव हो सकता है जब राष्ट्र की सम्मिलित किसान को ऋण-मुक्त कर दे, (३) ग्रामोद्धार के लिए शक्ति अर्थात् सरकार और जनता दोनों ही इस कार्य में ऋण लिया जाय और एक योजना बनाकर सारी राजकीय लग जायँ। जब तक ऐसा न होगा तब तक इस कार्य में शक्ति उस ओर लगा दी जाय । ऐसा करने से ग्रामोद्धार पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। इसका यह अर्थ कदापि हो सकता है।
नहीं है कि जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं वे अपना __ लेकिन केवल सरकार के ही प्रयत्न से गाँवों की दशा समय नष्ट कर रहे हैं। ग्रामीणों की स्थिति जितनी भी सुधर नहीं सकती। और वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति में सुधर सके वही राष्ट्र के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
सम्बन्ध
लेखिका, श्रीमती दिनेशनंदिनी प्रकृति और पुरुष में घनिष्ठ सम्बन्ध है!
कीड़े से कुञ्जर और धूल-कण से अनन्त अाकाश एक ___ जङ्गली जानवर और पालतू पशु-पक्षी ही हमारे ही सूत्र में बँधे हैं, और सब सत्य को प्रकाशित करने के निकट आत्मीय नहीं हैं, परन्तु हरित वृक्ष और सब्ज़ घास। लिए एक ही भाषा का उपयोग करते हैं--गो कि लहर
प्रभात में खिल मध्याह्न में कुम्हला जानेवाले पुष्प मर्मर ध्वनि करती है, वायु निःश्वास छोड़ती है, मनुष्य और अनन्त काल तक खड़ी रहने वाली चट्टानें, नीलिम बोलता है और -- लहर और वायु भी-जुलाहे ने हम सबको एक ही ताने
रमणी का हृदय मौन रहता है !! बाने में बुना है, ग्रहों और मणियों का प्रभाव ही मनुष्य- प्रकृति और पुरुष में घनिष्ट सम्बन्ध है !! जीवन पर नहीं, मगर ज़रें ज़रें तक का जो ब्रह्माण्ड के जीवन-जे में एक रङ्गीन धागा है। .
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बेवक्त की
शहनाई
रेलगाड़ी की यात्रा में प्राय. विविध विचारों के लोग आपस में मिल जाते हैं और उनका विवाद बहुत मनोरञ्जक होता है । इस लेख में लेखक महोदय ने एक ऐसी ही यात्रा
और विवाद का वर्णन किया है।
लेखक, श्रीयुत सीतलासहाय
P A RT किन्ड क्लास के डिब्बे में हिन्दुस्तानी- वेदव्रत जी ने राजा साहब का परिचय देते हुए
DATA अँगरेज़-झगड़ा हो ही जानेवाला कहा-"चन्दनपुर-नरेश महाराज हरपालसिंह, चौहानों के से था। परिस्थिति ऐसी थी कि कोई सिरमौर, सच्चे क्षत्री, शिकार-कला के विशेषज्ञ । शेर को
भी ऐसी अवस्था में खानसामे को दो मचान पर से मारना अपने क्षत्रियत्व के खिलाफ समझते
तमाचा मारे बिना नहीं रह सकता हैं। बाकायदा आँखें चार करके ज़मीन से गोली
। था। लेकिन राजा हरपालसिंह ने चलाते हैं।" आश्चर्यजनक अात्मसंयम का परिचय दिया ।
कुछ देर शिकार की बातें होती रहीं। फिर गोली के थोड़ी देर का सफ़र था। सिर्फ लखनऊ से हरदोई निशाने की चर्चा चली। राजा साहब उड़ती चिड़िया तक का । मई के महीने में बरेली जानेवाली शाम की गोली से मार सकते हैं । फिर रेस का ज़िक्र अाया। लेकिन गाड़ी भरी होती है, क्योंकि पहाड़ की ओर उच्च वर्ग का थोड़ी ही देर के बाद हम लोगों की बातचीत निरस होने निष्क्रमण प्रारम्भ हो जाता है। जिस गाड़ी में मैं बैठा लगी, क्योंकि हमारे दोनों के दर्मियान एल० सी० एम० था, इत्तिफ़ाक से मेरे मित्र पंडित वेदव्रत त्रिपाठी भी उसी की संख्या बहुत छोटी थी और वह अवस्था शीघ्र ही आनेगाड़ी में आ बैठे थे। ये चन्दनपुर के ताल्लुक़दार राजा वाली थी कि हम दोनों जम्हाई लेने लगते कि गाड़ी स्टेशन हरपालसिंह के साथ अल्मोड़ा जा रहे थे।
पर रुकी। किसी ने गाड़ी का दरवाज़ा धड़ाक से खोला। __पंडित वेदव्रत विचारों में आर्यसमाजी और व्यावहा- राजा साहब की पेचदान-फ़र्शी जो सामने सुलग रही थी, रिक जीवन में जेल-निवासी राष्ट्रीय कार्यकर्ता और मेरे मित्र तड़ मे जमीन पर गिर पड़ी, मुँहनाल राजा साहब के होठों थे। जेल से छूटे अभी इन्हें केवल तीन हफ्ते हुए थे। से निकलकर शास्त्री जी की गोद में जा पहुँची, चिलम राजा साहब का मेरा परिचय बिलकुल नया था। उनकी चकनाचूर हो गई, हुक्के का पानी गाड़ी के फर्श में फैल अवस्था लगभग ५० वर्ष के होगी, किन्तु हृष्ट-पुष्ट अादमी गया। ये । लम्बी लम्बी मूंछे, चौड़ी पेशानी, बड़ी बड़ी आँखें, दरवाज़ा खुलते ही बाकायदा पोशाक में एक खानसामा कामदार टोपी पहने, विशाल तोंद के साथ आकर वे बर्थ कमरे के अन्दर दाखिल हुया। उसके पीछे दो कुली थे। पर बैठ गये । राजा साहब के आगमन के बाद हमारी खानसामे ने यह सब देखा, पर माफ़ी का एक शब्द भी गाड़ी नाना प्रकार के असबाबों से भर गई थी, क्योंकि वे नहीं कहा। अपनी बिरादरी के रवाज के मुताबिक सम्पूर्ण परिग्रह' के साथ मुझे अाग-सी लग गई और तबीअत चाही कि सफ़र कर रहे थे । इस स्थान पर 'परिग्रह' शब्द में दारा या खानसामे के एक तमाचा जड़ दूं। लेकिन भूल राजा साहब उसका बहुवचन शामिल न समझना चाहिए, क्योंकि इस के ख़िदमतगार की थी। उसने हुक्के को बिलकुल दरवाज़े से वस्तु-विशेष को राजा साहब अपने अन्य रत्नों और मणियों भिड़ाकर रक्खा था; और मुझे बोलने का हक़ भी के समान चन्दनपुरस्थ अपने विशाल भवन 'सिंहगह्वर' में नहीं था। सुरक्षित रख पाये थे और बाकी ज़रूरी और ऐश की राजा साहब उचककर बैठ गये, माथे पर शिकन चीजें सब उनके साथ थीं। हाथ धोने की मिट्टी से लेकर आ गई, किन्तु एक मेम साहब और उनके पीछे योरपीय दातून, दाल, चावल, घी और पलँग तक साथ था, साथ पोशाक पहने एक साहब के आगमन ने राजा साहब की
ही ताश, ह्विस्की की बोतल, ग्रामोफोन और तबला भी था। मनोदशा में तबदीली पैदा कर दी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-umara, Surat १४१ ....
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"कुछ हर्ज नहीं, कुछ हर्ज नहीं" राजा साहब कहने शताब्दी पहले के एक शिक्षित यूनानी का था। उसमें कहा
उधर कली ने फ़र्शी को उठाकर रख दिया। साहब , था कि जीवन के साधारण व्यवहार में हिन्दुओं के चरित्र और मेम साहब ने भी वह सब देखा था, पर एक बार भी का मुख्य गुण ईमानदारी है। सम्भव है, यह बात 'आई एम सारी' (मुझे दुःख है) तक नहीं कहा, बल्कि कुछ अँगरेज़ों को श्राज विचित्र मालूम हो, लेकिन सच तो उनकी समालोचना यह थी 'मछट्र क्राउडेड' (बहुत भार यह है कि जिस प्रकार दो हज़ार वर्ष पहले यह बात सही हुअा है)।
थी, करीब करीब आज भी उतनी ही सत्य कही जा इस अवसर पर राजा साहब ने अद्भुत अात्मसंयम सकती है। अँगरेज़ लोग आज भी अपने हिन्दुस्तानी का परिचय दिया। जो अादमी शेर को ज़मीन पर खड़ा मुलाज़िमों को देखते हैं कि उन लोगों को बड़ी बड़ी होकर मारे और अपने जीवन के और किसी अंग में संयम रक़में सिपुर्द कर दी जाती हैं और वे उनके पास को फटकने तक न देता हो, इस प्रकार चुप रहे, अाश्चर्य- बिलकुल सुरक्षित रक्खी रहती हैं हालाँकि हिन्दुस्तानी जनक था। किन्तु उससे अधिक आश्चर्य की बात उस मुलाज़िम चाहें तो रकम खा जायँ, किसी प्रकार पकड़ में डिब्बे में यह हुई कि इस घटना के ५ मिनट के अन्दर ही भी न आयें और सारी ज़िन्दगी अानन्द से
वेदव्रत जी उक्त साहब के साथ प्रेम से हिलते-मिलते “उक्त उद्धरण का यह अर्थ था-अपने देश. दिखाई दिये।
वासियों के साथ व्यवहार करने में हिन्दुओं का नव आगन्तुक साहब इत्तिफ़ाक से वेदव्रत जी के पुराने यह गुण विशेष रूप से प्रकट हो जाता है। ये लोग मित्र मिस्टर उलफ़तराय गौबा निकले। ये सज्जन पंजाबी बड़ी बड़ी रकमों का व्यापार इस प्रकार दूरदेशी थे । वेद-प्रचार के लिए अमरीका गये थे और वहाँ से छोडकरं करते हैं कि ये मुर्खता की सीमा तक पहुँच जाते अन्तर्राष्ट्रीय विवाह करके आये थे। वेदव्रत जी ने अपने हैं । किन्तु बहुत कम धोखा होता है। रोज़ सैकड़ों रुपये • मित्रदम्पति का सब लोगों से परिचय कराया। पश्चिमी देशों केवल ज़बानी ज़मानत पर कर्ज लिये-दिये जाते हैं। जो
के वर्तमान राजनीति पर बातें होने लगी। हिटलर, मुसो- कुटुम्ब गरीब से अमीर हो जाते हैं, अपने पूर्वजों का सैकड़ों लिनी का ज़िक्र अाया, ट्राटस्की और लेनिन की चर्चा होने बरस का क़र्ज़ अदा कर देते हैं, हालाँकि उस क़र्ज़ का लगी। फ्रांस और ब्लम के सम्बन्ध में हम सबों ने अपनी कोई रुक्का-पुर्जा नहीं होता, सिर्फ महाजन के खाते में अपनी राय प्रकट की। इस वार्तालाप के समय राजा रकम नाम पड़ी होती है । हिन्दुत्रों का सम्पूर्ण सामाहरपालसिंह मौन बैठे रहे। थोड़ी देर के बाद इजाज़त जिक संगठन असाधारण ईमानदारी पर निर्मित हुअा है। लेकर वे अपने बर्थ पर जाकर लेट गये।।
राजपूत और ब्राह्मण की वीरता और अात्माभिमान, - मिसेज़ गोवा को भी श्री उलफ़तराय गौबा ने 'डार्लिंग वैश्य और कुर्मियों का परिश्रम और मितव्ययिता अाँखें गो एंड हैव रेस्ट' (प्रिये, जाओ, पाराम करो) कहकर एक रखनेवाला साधारण अादमी भी देख सकता है। सारे बर्थ पर भेज दिया। और वेदव्रत तथा उलफ़तराय की हिन्दू-समाज से श्राप निर्दयता से स्वाभाविक घृणा पायेंगे, बातचीत होती रही।
- हिन्दुओं के मन में आपको प्रसन्नता और प्रफुल्लता . "आपके कहने का क्या यह मतलब है कि हिन्दुस्तान मिलेगी और आप यह देखेंगे कि कल्पना-शक्ति, सौन्दर्य और का राष्ट्रीय चरित्र पर्याप्त ऊँचा है "। गौबा ने कहा। हास्य से ये लोग बहुत शीघ्र प्रभावित होते हैं।"
"उससे कहीं ज्यादा। देखिए एक अँगरेज़ लिखता है।" उक्त लंबा उद्धरण सुनकर गौबा ने कहा
वेदव्रत जी अँगरेज़ी में एक लम्बा वाक्य कह "श्रापका यह उद्धरण मेरे लिए वेदवाक्य नहीं, न गये । यह इन्हें कण्ठस्थ था। स्मरण-शक्ति के इस चम- कुरान की आयत है। मैं तो आँख खोलकर देखता हूँ। त्कार से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। हमारे आर्यसमाजी मेरी किताब तो दुनिया है और सड़क पर चलनेवाले भाइयों की स्मरण-शक्ति, खास कर उद्धरण सुनाने में, हिन्दुस्तानियों का चेहरा इस किताब के पन्ने हैं । इस किताब बहुत तेज़ होती है। वह लम्बा वाक्य ईसवी सन् के दो के पन्नों में बड़े मोटे मोटे टाइप में मुझे लिखी हुई दिखाई
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बेवक्त की शहनाई
देती है 'निराशा। मैं भी आपके जवाब में एक अँगरेज़ "वह प्यार करने के योग्य है। मैं तो अँगरेज़ी चरित्र की राय हिन्दुस्तानियों के बारे में सुनाता हूँ। वह लिखता का बड़ा प्रशंसक हूँ।"-गौबा ने कहा । है-एक महान् जातीय दोष जो हिन्दुत्रों में पाया जाता "मैं तो यह बात आपकी पोशाक में, रहन-सहन में ही है, दृढ़ता का अभाव है। कोई भी बात हो, निश्चय कर लेने देख रहा हूँ । यही क्यों, अगर आप अँगरेज़ी चरित्र के भक्त । के बाद अगर उसमें ज़रा भी विघ्न आ जाय (जिन्हें हम न होते तो आपने अपने जीवन की सर्वोत्तम अमूल्य वस्तु अँगरेज़ लोग मामूली विन्न समझेगे) हिन्दू लोग अपने अपना हृदय कदापि एक अँगरेज़ महिला को न सौंप दिया निश्चय पर कायम रहने में बिलकुल असमर्थ हो जाते हैं। होता।" वेदव्रत ने हँसते हुए कहा।
और सुनिए, तुम्हारी रीढ़ की हड्डी बड़ी मुलायम होती है, दो मिस्टर गौबा भी हँस पड़े। उन्होंने साँस लेकर कहाघंटे भी डट कर बैठना तुम्हारे लिए असम्भव होता है। तुम "यह बात ठीक हो सकती है। सच तो यह है कि समझते हो कि मनुष्य की स्वाभाविक पोज़ीशन उत्तान है, फ़ेयरप्ले अँगरेज़ी चरित्र का मुख्य गुण है।" लम्बरूप नहीं । तुम्हारी धारणा है कि दौड़ने से चलना मैंने कहा- "मिस्टर गौबा, अँगरेज़ी चरित्र की श्रेष्ठता बेहतर है, चलने से खड़ा रहना, खड़े रहने से बैठ जाना, को हम स्वीकार करते हैं। लेकिन एक बात बतलाइए, बैठने से लेट जाना और लेट जाने की अपेक्षा सो जाना उसका बयान और प्रचार करने से हमारे देश का क्या कहीं अधिक श्रेयस्कर है।
फायदा है ? यह तो वेमौके की शहनाई है। हिन्दुस्तानी ___ "लेकिन मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि अगर लोग अँगरेज़ या फ्रेंच या रूसियों की श्रेष्ठता को सुनकर इसी बात पर अर्थात् मनुष्य के स्वाभाविक पोज़ीशन के उत्साहित नहीं होंगे, बल्कि उनकी हिम्मत और पस्त हो विषय में हिन्दुस्तानी जनता की राय ली जाय और जायगी। बाकायदा चुनाव की तरह वोट पड़ें तो वोट तुम्हीं को “हिन्दुस्तानियों में उत्साह तो उस समय पैदा होगा मिलेंगे । सतत श्रम का सिद्धान्त भारतीय सभ्यता में अगर जब उनके हृदय में अपने पूर्वजों का गौरव होगा, उन्हें जब था तो बहुत दकियानूसी ज़माने में । वर्तमान भारत और अपने भविष्य के लिए आशा बंधेगी। दूसरों की तारीफ़ या मध्यकालीन भारत का लोकमत और लोकाभिलाषा इसके पश्चिमीय राष्ट्रों की श्रेष्ठता का वर्णन सुनकर वे कदापि खिलाफ़ थी और है। हमारी सभ्यता में श्रम को उन्नत नहीं होंगे। लेकिन मैं अँगरेज़ क़ौम के बारे में आपकी नीचा स्थान दिया गया है। परिश्रम श्रीहीनों का काम परख जानना चाहता हूँ। यह बताइए कि आखिर ये है । यह न समझिएगा कि मैं आप लोगों के प्रयत्नों लोग इतने बड़े साम्राज्यवादी कैसे हो गये ?' का तिरस्कार करता हूँ, किन्तु अपने देश की दशा उलफ़तराय जी बोले-"जिन गुणों ने रोमन लोगों को देखते हुए अपने देश के भविष्य में निराशावादी को महान् बनाया था वे इनमें भी हैं । कर्तव्य का पालन होगया हूँ।"
करने की इनमें धार्मिक निष्ठा है। जीवन को महत्त्वपूर्ण ___"श्राप पर हीनता की भावना का प्रभाव है ।" वेदवत समझना, उद्देश-प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प, ख़तरे में निर्भने कहा।
यता, विपत्ति में वीरता इत्यादि गुण इनमें खूब पाये जाते ___ "क्या आपने अपने देशवासियों की मनोवृत्ति का हैं। इनके स्वभाव में शुद्धता और ईमानदारी है, न्यायअध्ययन किया है ?” उलफ़तराय ने ज़रा तेज़ी में आकर. परायणता है और चिरस्थायी उत्साह है। रोमन लोग अपने जवाब दिया।
को दुनिया भर में श्रेष्ठ समझते थे। अँगरेज़ भी अपने को . वेदव्रत बोले-"मैं तो सिपाही हूँ। लेकिन जो लोग ऐसा ही समझते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन को चलाते हैं वे ज़रूर अध्ययन कर “फिर अँगरेज़ लोगों में व्यक्तिगत रूप से मौलिकता पाई. चुके हैं।"
जाती है । अपने मौलिकतायुक्त परिश्रम से और ईमान्दारी "क्या आपने अँगरेज़ी चरित्र को समझा है ?" से उन्होंने बड़े बड़े साम्राज्य जीते हैं, ख़याली पुलाव, स्वप्न . “यह मेरा काम नहीं है ।"
के संसार और कल्पना को वे नफ़रत की नज़र से देखते. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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हैं। उनका विश्वास ठोस चीज़ में है। हवा से बातें करना उन्हें पसन्द नहीं । भविष्य की आशा में वर्तमान को क़त्ल कर डालना उनके स्वभाव में नहीं पाया जाता ।
सरस्वती
"अँगरेज़ श्रमली जीवन का महत्त्व देता है । कल्पना ar विश्वास और तुच्छता की दृष्टि से देखता है । इस बात पर विचार करने में उसे स्वाभाविक रूप से घृणा मालूम होती है कि भविष्य में क्या होगा । इसलिए वह पहले से कभी अपने को किसी मार्ग या नीति के लिए वचनबद्ध करना पसन्द नहीं करता । उसे इस बात का खूब ज्ञान होता है कि अगर मामले ने कोई रूप धारण किया तो जो उचित होगा, कर लेगा । भविष्य की परेशान करनेवाली घटनाओं का आज से ही मुकाबिले के लिए "तैयार होना उसे पसन्द नहीं ।
1
"अँगरेज़ अपनी बात का भी धनी होता है। जब वह हाँ कर देता है, उसका मतलब 'हाँ' ही होता है । उसमें
[भाग ३८
इतनी निर्भीकता होती है कि 'नहीं' कह सकता है । अँगरेज़ बच्चों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि झूठ बोलना बड़ी जिल्लत की बात हैं और किसी को झूठा कहना घोरतम अपमान है ..... " ·
किन्तु मिस्टर गौबा का यह भाषण एकाएक रुक गया । गाड़ी एकदम ठहर गई । खानसामे ने श्राकर साहब का असबाब बाँधना शुरू कर दिया। मेम साहब बिस्तर से उढकर खड़ी हो गई । तीन मिनट के अन्दर साहब और • मेम साहब डिब्बे के बाहर चले गये ।
राजा हरपाल सिंह ने करवट बदली। उन्होंने पूछा"साहब बहादुर गये ?”
"हाँ, महाराज ।” वेदवत जी ने कहा ।
"मेम से बियाह किहिन है ?"
"हाँ, महाराज । "
"बड़े बकबासी जान पड़त हैं। दिमाग़ चाट गये ।”
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रजनी
लेखक, नत्थाप्रसाद दीक्षित, मलिन्द
( १ )
है तम- कालिमा व्याल कराल की, श्यामल पंक्ति छटा छिटकाई । पथ-सा सुर वारण जो वही, विष्णुपदी नदी शीश सुहाई । है नखतावली मुण्ड की माल, विशाल विभा की विभूति रमाई । इन्दु-सा विन्दु ललाट लगा, शिव-सी सजनी रजनी बनि आई । ( २ )
पूजने को किस देवता के पुष्पाक्षत अञ्चल में भर लाई । माल मराल की मंजु बना, युति मानसरोवर की हर लाई । नीलम थाल में आरती के लिये, सुन्दर दीप जलाकर लाई । साज सजाये सदा रहतीं, जब से द्विजराज को हो वर लाई ।
( ३ ) इस भाँति से यों चुपचाप भला, किस भाँति कहाँ किससे सुषमा-भरे श्यामल रूप से, है जगती का किससे यह चाँदनी चादर, कैरव-नेत्र कटाक्ष मणिचन्द्र की पाई कहाँ तुम्हें तारक मोतियों का ये खजाना मिला ।
बतलाना मिला | लुभाना मिला ? चलाना मिला ?
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अमरनाथ-गुफा की ओर
लेखक, श्रीयुत सी० बी० कपूर एम० ए०, एल-एल० बी०
इम लेग्य के लेखक महोदय माहमी और नव अवक भारतीय हैं। अपने एक जर्मन मित्र के साथ इन्होंने मोटर-माइकिल पर सार भारत का भ्रमण किया है। इसी यात्रा के मिामले में ये हिमालय के दुर्गम माग में स्थित अमरनाथ गुफा की ओर भी गये थे। इस लेख में उमी का रोचक वर्णन है।
3
गुका के भीतर --- लेखक और श्री अमरनाथ साधु ।] DAKIR मरनाथ हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध और देखकर कुछ हैरान भी हुए कि इतने ठंडे निर्जन
तीर्थ स्थान है । यह स्थान कश्मीर और उजाड़ स्थान में इनका यहाँ कैसे रहना होता है। राज्य की विशाल 'लीदरघाटी में इस स्थान के उच्च शुङ्ग पर स्थित होने के कारण
समुद्रतल से लगभग ४,००० फुट यह सदा हिम से ढंका रहता है। जब शरद ऋतु का र की उँचाई पर स्थित है। यहाँ अन्तिम काल और वसन्त का अागमन होता है. शनैः शनैः
एक गुफा है, जिसमें हिम का एक शीत की भीषणता क्षीण होने लगती है, बर्फ पिघलती है शिवलिंग बन जाया करता है और वही 'अमरनाथ महादेव' और मार्ग साफ हो जाता है। यहाँ की यात्रा जून से है। ज्यों ज्यों शुक्ल पक्ष में चन्द्र देव पूर्णता के पथ पर लेकर सितम्बर के महीनों तक प्रासानी से हो सकती है। अग्रसर होते हैं. त्या-त्यों शिवलिंग भी अपने प्राकार में कश्मीर के महाराज की कृपा से यात्रा मार्ग भी सुन्दर और पृण होता जाता है। प्रकृति देवी की इस अनोखी कारी- काफो चौड़ा बन गया है। प्रति सात मील पर यात्रियों की गरी को देखकर ग्राश्चर्य चकित होना पड़ता है। यह गफा मविधा के लिए झोपडियां बनी हुई कोई ८० फुट ऊँची, ५० फुट चौड़ी और लगभग प्रति वर्ष की जाती है । साधुग्रों का प्रसिद्ध जलूस जिसको ६० फुट गहरी है। कहा जाता है कि शिव जी इस गुफा 'छड़ी' कहते हैं. अगस्त में निकलता है और देखने के में तप किया करते थे। परन्तु मनुष्य-जाति के वहाँ भी जा योग्य होता है। कश्मीर-राज्य की ओर से इन साधु यात्रियों पहुँचने पर वे वहाँ से चले गये और तिब्बत में कैलाश को बहुत सहायता दी जाती है। पर्वत की चोटी पर जाकर अपना ग्रासन लगाया है ! यह प्रत्येक साधु यात्री को सर्दी से मुरक्षित रखने के लिए भी कहा जाता है कि शिव और पार्वती कबूतर और कबूतरी (और भोजन बना सकने के लिए) गले में लटकानेके रूप में आज भी इस गुफा में निवास करते हैं । यह वाली एक-एक दहकती हुई अँगीठी, बर्फ पर काम दे कहाँ तक ठीक है, पाठक स्वयं ही सोच सकते हैं। परन्तु मकनेवाला एक जोड़ा जूता और यात्रा-काल भर के लिए हमने इस कबूतर के जोड़े को वहाँ रहते ज़रूर देखा है खाद्य सामग्री आदि राज्य की अोर से बिना मूल्य दी जाती
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सरस्वती
[भाग ३८
हैं । पहलगाम से चढ़ाई प्रारम्भ होकर गुफा में ही जाकर समाप्त होती है। इस थोड़े-से फासले में लगभग ८ हज़ार फुट की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है । इस कठिनता का अंदाज़ा पाठक स्वयं लगा सकते हैं।
मैं और मेरे एक मित्र मिस्टर ढिच्ची जो जर्मनी के रहनेवाले हैं, अपनी मोटर-साइकिल पर जिससे हम दोनों सारे भारत का भ्रमण कर रहे थे, अगस्त के महीने में पहलगाम पहुँच गये थे। वहाँ हम एक प्रोफेसर मित्र के यहाँ ठहरे। ये वहाँ अपने कुटुम्ब के साथ तम्बू में रहते थे। तम्बू में रहना हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी, परन्तु हमारा तम्बू इतना छोटा था कि हम उसमें सीधे होकर भी नहीं बैठ सकते थे। पर हमारे मित्र के तम्ब बहुत बड़े और ऊँचे थे, उनमें रहना पर्याप्त सुखद था। अतएव हमारे मित्र के तम्बू से हमारे तम्ब का क्या मुकाबिला !
लेखक अपने साज-सामान के साथ ।] है। यहाँ काशी, हरिद्वार, गङ्गोत्री, रामेश्वर और बड़ी दूर-दूर से आये हुए यात्रियों का समागम होता है । साधुओं में संन्यासी, नागा. वैरागी यादि प्रायः सभी अपने अपने दल के मुंड के साथ अपनी-अपनी पताका उड़ाते हुए अमरनाथ जी जाते हैं । चलने का मार्ग बहुत दुर्गम है। चीड़ आदि के विकट जङ्गलों के बीच से होकर जाना पड़ता है। मार्ग निरा चढ़ाई का ही है। पैदल यात्रा पहलगाम से प्रारम्भ होती है। यहाँ से गुफा लगभग ३० मील के फ़ासले पर है। इस मार्ग को यात्री तीन दिन में तय करते
[शेषनाग से पर्वत का एक दृश्य ।] पहलगाम जम्मू कश्मीर के राज-मार्ग में एक सुन्दर तथा विचित्र स्थान है। यहाँ के घास के ऊँचे-ऊँचे मैदानों में चीड़ के लम्बे-लम्बे वृक्षों की छाया के नीचे हर गर्मियों में सैकड़ों की संख्या में हिन्दुस्तानियों के तम्बू लग जाते हैं। इन सुन्दर मैदानों के दोनों अोर शीतल और साफ़ पानी के दो नाले बहते हैं। पीत. हरित और अरुण वर्ण के रंग-बिरंगे फूल खिलकर इस स्थान की मनोहरता को कई गुना अधिक बढ़ा देते हैं। पहलगाम तक मोटर पाते जाते हैं । अब तो यहाँ एक बड़ा बाज़ारसा बन गया है और दो-तीन अच्छे होटल भी खुल गये
[पहलगाम में इस लेख के लेखक और उनका जर्मन मित्र ।]
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संख्या २]
अमरनाथ-गुफा की ओर
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हैं । खाने-पीने की तमाम सामग्री यहाँ मिल जाती है । तम्बू और मैदान के टुकड़े यहाँ किराये पर मिलते हैं। मफ़ाई अादि का अधिक ध्यान रखा जाता है ।
यहाँ से यात्रा के लिए कुली और टटट बहुत आसानी से सस्ते मिल जाते हैं। हम दोनों पहलगाम के सुन्दर जगमगाते नाले के तट पर खड़े थे। जब हमने साधुत्रों के जलूस को अमरनाथ की अोर जाते देखा तो देखते ही हम दोनों के दिल में भी उमङ्ग पैदा हुई। मेरे जर्मन मित्र तो मुझसे भी अधिक उत्सुक हो गये। हमने उसी समय यात्रा करने की तैयारी प्रारम्भ कर दी और कुछ खाने-पकाने की सामग्री भी मँगवा ली। हमने कोई कुली या टटट्र नहीं किया, क्योंकि हम नवयुवक थे और १५ सेर से अधिक तक बोझ अासानी से अपनी पीठ पर लादकर ले जा सकते थे। मेरे जर्मन मित्र मुझसे भी अधिक बोझ उठाने के आदी थे। जर्मनी में फेरी का बड़ा प्रचार है। जर्मनी के हर नवयुवक को चाहे वह किसान का
[एक त्रिशूलधारी साधु ।] रोटियाँ, २ दर्जन अंडे, एक सेर चीनी, एक डिब्बा अोवल टीन, अाध सेर मक्खन और थोड़ी-सी चाय थी । इसके सिवा हमारे शरीर पर काफ़ी गर्म वस्त्र थे । परन्तु जब हम यात्रा में चल दिये तब हमें तम्बू का ले जाना कुछ फज़ल-सा ही मालूम हुअा, क्योंकि रियासती झोपड़ियाँ थोड़ी-थोड़ी दूर पर बनी हुई मिलीं ।
पहला पड़ाव 'चन्दनवारी का पड़ता है। यह पहलगाम से काई ४ मील के फासले पर होगा। हम ११ बजे के लगभग यहाँ पहुँच गये। पाठक यह जानकर हैरान होंगे
लेखक अपने तम्बू के बाहर-शेषनाग झील के तट पर ।] लड़का हो या मन्त्री का, ६ महीने के लिए 'लेबर-कैम्प' में रहना पड़ता है । जो ऐसा नहीं करता उसे वहाँ की सरकार दण्ड देती है। यही कारण है कि जर्मन-जाति इतनी बलवान् और संगठित है। ___ अगले दिन सूर्य निकलने पर हम दोनों अपने सफ़री थैलों को अपनी-अपनी पीठ पर लादकर अमरनाथ की ओर चल दिये । हमारे सफरी थेलों में एक 'स्लीपिंग-बैंग', एक हलका-सा तम्बू जिसमें हम दोनों सिर्फ सेा सकते थे, एक बरसाती, एक केमरा, खाने के लिए ३ दर्जन डबल
[पंचतरनी पर छड़ी का जलूस ।]
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सरस्वती
[शेषनाग झील।]
कि प्रातः काल के चले होकर भी हम केवल ४ मील का ही सफर इतनी देर में कर सके ! इसका कारण यहाँ की कठिन चढ़ाई है । थोड़ी चढ़ाई चढ़ने पर ५ मिनट या और कुछ देर तक दम ले-लेकर भागे चड़ना पड़ता है। चन्दनवारी पहुँचने तक हम खूब थक गये थे । यहाँ तक का मार्ग खूप घने जङ्गल से होता हुआ पहलगाम के शीतल नाले के साथ-साथ जाता है। मार्ग में शीतल जल के चश्मे भी स्थान-स्थान पर मिलते हैं, जिससे थकावट कुछ-कुछ दूर हो जाती है। कुछ यात्री यहाँ अपना खानापीना कर रहे थे । झोपड़ियों में मैला होने के कारण हमने अपना तम्बू लगा लिया और रात भर उसमें खूब गहरी नींद सोये चन्द्रमा के निर्मल प्रकाश में इस स्थान की शोभा बहुत ही दर्शनीय हो रही थी।
1
दूसरे दिन हाथ-मुँह धोने और कुछ पेट पूजा करने के बाद हम दूसरे पड़ाव शेषनाग की ओर सूर्य निकलने से पहले ही चल दिये । इतना सवेरे चलने का कारण यह था कि तेज़ धूप हो जाने पर चढ़ाई का चढ़ना बुरा-सा लगता है। यहाँ से चढ़ाई ठीक डगमगाती हुई सीढ़ी की तरह है, जिस पर काँपते, शीत से सिसकते, सी-सी करते यात्रियों के समूह के समूह डग बढ़ाते हुए चले जा रहे थे । ज्यों ज्यों ऊपर पहुँचते गये, शीत की भीषणता बढ़ती गई । यहाँ हवा की कमी के कारण साँस लेने में कुछ कष्ट
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रहे थे । कुछ ऊपर जाने पर भी मिले और दूर से बर्फ से दिखाई देने लगे ।
सा होने लगता है और बहुत शीघ्र शीघ्र साँस चलने लगती है।
इस बार थकावट की हद न थी और ख़ास कर मेरे लिए, क्योंकि इस बार तम्बू उठाने की बारी मेरी थी, साथ ही मुगन्धित और छायादार चीड़ और चिनार के वृक्षों का
भी जो हमारी थकावट को हटाने में सहायता
करते थे, अभाव था। अब तो हम सूखे और उजाड़ पर्वतों पर चढ़ हमें बर्फ के कई टुकड़े लदे हुए सुन्दर पर्वत भी
कोई एक बजे के लगभग हम शेषनाग के पड़ाव पर पहुँच गये। यह पड़ाव 'शेषनाग' नाम की एक सुन्दर झील के तट पर बना हुआ है। सूर्य की रश्मियों ने यहाँ
पूर्व ही दृश्य उपस्थित कर रक्खा था । इस झील के तट का बहुत-सा हिस्सा बर्फ़ से ढँका हुआ था । चारों ओर बर्फ़ से लदे हुए, सुन्दर पर्वतों ने इसकी शोभा को और भी बढ़ा दिया था – जिधर देखते, बर्फ ही बर्फ़ दिखाई देती थी ।
यहाँ के मनोहर दृश्य ने हमारी सब थकावट दूर कर दी और इस झील के तट पर घूमने के लिए हम नीचे चले गये । उस समय ऐसा विदित होता था, मानो वर्षों के बाद विश्राम करने का अवसर मिला है ।
यह झील भी हिन्दुओं के लिए एक तीर्थ है। इसका जल स्फटिक या दुग्ध के समान उज्ज्वल है। जल बहुत ही स्वादिष्ठ, शीतल और स्वास्थ्यवर्धक है । अमरनाथ के जानेवाले यहाँ स्नान करते हैं और यथाशक्ति वरुणदेव की पूजा-अर्चना कर की पूजा-अर्चना कर रात्रि भर यथाशक्ति 'मरनाथ' 'अमरनाथ' जपते-जपते काट देते हैं । हमने भी स्नान करने की कोशिश की, परन्तु जल के अधिक ठंडा होने के कारण शीघ्र ही बाहर निकल थाये।
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संख्या २]
सरकारी झोपड़ियाँ यात्रियों से भरी होने के कारण हमने अपना तम्बू एक कश्मीरी के खेमे के समीप लगाया । यदि हम चाहते तो अगले पड़ाव की ओर उसी दिन चल पड़ते, परन्तु वहाँ के सुन्दर दृश्य ने हमें आगे नहीं जाने दिया ।
अमरनाथ गुफा की ओर
धूप में लेटे हुए उस दृश्य का आनन्द लूट रहे थे । कश्मीरी के चूल्हे पर हमने कुछ चाय ग्रादि तैयार की, जिसके पीने में अधिक स्वाद आया । सायंकाल को काले काले बादल आ गये और रात भर मूसलधार वर्षा होती रही, और कुछ ओले भी पड़े । शीत के मारे रात भर काँपते रहे। एक तो बर्फीले पहाड़, फिर खुला मैदान र सन्नाटे की हवा, तिस पर इतने ज़ोर की वर्षा, सब मिलकर नाड़ियों के रक्त प्रवाह को रोक देने के लिए पर्याप्त थे, ङ्ग-प्रत्यङ्ग ठिठुर रहे थे ।
हमारे हाथ-पैर ख़ूब काँप रहे थे । हमें कश्मीरियों को बिना जूतों या जुर्राबों के देखकर आश्चर्य हो रहा था। छोटे छोटे बच्चों से लेकर स्त्रियाँ - पुरुष सबके सब इतनी सर्दी में सिवा एक बड़े लम्बे कुर्ते के शरीर ढँकने के लिए और कुछ भी नहीं था । हम हर प्रकार के गर्म वस्त्र पहने हुए थे, फिर भी थरथर काँप रहे थे। हमारा तम्बू 'वाटरप्रूफ़ था, वर्ना जैसी वर्षा वहाँ रात्रि में हुई और जैसी सख़्त सर्दी पड़ी थी, हमारे मज़बूत शरीर भी शायद न बर्दाश्त कर सकते ।
तीसरे दिन प्रातःकाल जब हमने अपने छोटे-से खेमे से सिर बाहर निकाले तब चारों ओर पर्वतों पर रात को गिरी हुई नई बर्फ़ सूर्य की रश्मियों के नीचे ख़ूब जगमगा रही थी । हम कुछ खाने-पीने के बाद अपना बिस्तर - बोरिया अपनी पीठ पर रखकर तीसरे पड़ाव की ओर चल दिये । चढ़ाई का फिर सामना करना पड़ा, पेड़ों की छाया तो नहीं थी, परन्तु उसके बदले वहाँ की ठंडी वायु थकावट दूर करती जाती थी। पर ठंडी वायु भी थोड़ा और ऊपर चढ़ने पर इतनी तेज़ हो गई कि हमको अपने सिर और कानों को ढाँक कर चलना पड़ा । मेरे विचार में इस यात्रा की सबसे अधिक चढ़ाई इन दोनों पड़ावों अर्थात् शेषनाग और पंचतरनी के बीच में आती है । इसमें कोई शक नहीं कि इतना सामान उठाकर और फिर इतनी खड़ी चढ़ाई चढ़ने से हम बिलकुल पस्त हो गये
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[पंचतरनी और अमरनाथ के बीच यात्री बर्फ पर चल रहे हैं ।]
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थे । परन्तु जब हम पंचतरनी के मैदान में पहुँचे तब वहाँ के सुन्दर और मनभावने दृश्य ने हमारी सब थकावट और टाँगों की पीड़ा दूर कर दी। पंचतरनी का पड़ाव एक खुले मैदान में एक छोटे से नाले के तट पर है । यहाँ पर कुल तीन ही झोपड़ियाँ बनी हुई हैं । यहाँ से थोड़े थोड़े फ़ासले पर चारों ओर बर्फ से लदे हुए पर्वत ही दिखाई देते हैं ।
1
कोई ११ बजे का समय होगा जब हम पंचतरनी पहुँच । भूख और थकावट की कोई हद न थी । भाग्य से मेरे एक पञ्जाबी मित्र जो अपनी स्त्री और बाल-बच्चों के साथ वहाँ आये हुए थे, मिल गये । वे अमरनाथ जी के दर्शन कर आये थे और अब लौटने की तैयारी में थे। उनके साथ चार-पाँच टट्टू और दो-तीन कश्मीरी नौकर भी थे । उनके पास खाने-पीने की सामग्री भी बहुत थी । मेरे जर्मन मित्र और मैंने पराठों और हलवे से अपनी अपनी भूख दूर की। उनके चले जाने के पश्चात् साधुओं की 'छड़ी' भी अमरनाथ जी के दर्शन आदि करके पंचतरनी के पड़ाव में लौटकर आ पहुँची और प्राते ही सबके सब खाना पकाने लग गये । उसके बाद सबके सब उसी दिन पहलगाम की ओर चल दिये ।
1
पूछने से मालूम हुआ कि पंचतरनी पड़ाव के आगे और कोई स्थान रात में ठहरने के लिए नहीं है । वहाँ से अमरनाथ गुफा कुल ३ वा ४ मील है । अतएव यात्री लोग पंचतरनी से जाकर अमरनाथ जी के दर्शन करते हैं
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सरस्वती
[ सामान पंचतरनी में रखकर हम घड़ी और केमरा लेकर गुफा के लिए रवाना हुए । ]
और उसी दिन पंचतरनी के पड़ाव को लौट आते हैं। हमने भी ऐसा ही किया । केमरा और पहाड़ी लकड़ी जिसे 'बलम' कहते हैं और जिसकी निचली और लोहे की एक सीख लगी होती है, लेकर गुफा की ओर चल दिये । बाक़ी सामान हमने एक झोपड़ी में बिना किसी का सिपुर्द किये वा ताला लगाये रख दिया। गुफा में ४ बजे के लगभग पहुँच गये। पंचतरनी से चल कर एक पहाड़ी को काट कर एक घाटी में जिसमें गुफा है, उतरना पड़ता है, इस लिए थोड़ी-सी चढ़ाई चढ़नी पड़ी। मार्ग में कई बार बर्फ पर भी चलना पड़ा। कई यात्री गुफा से लौटते हुए मिले घाटी से 'कोई ३०० फुट की ऊँचाई पर है । गुफा जब हम इसको चढ़कर गुफा के नज़दीक पहुँचे तब भीतर से एक साधु के गीत की आवाज़ आई । मेरे मित्र ने जो हिन्दुस्तानी नहीं जानते थे, मुझे आगे कर दिया और स्वयं मेरे पीछे पीछे चलने लगे। गुफा में पहुँचकर हमने साधु जी को प्रणाम किया और आशीर्वाद पाया । गुफा उतनी गहरी नहीं, जितनी ऊँची और चौड़ी है । उसकी सुन्दरता और बनावट को देखकर हम दंग रह गये । प्रकृति की कारीगरी उसकी प्रत्येक बात से व्यक्त होती थी । उस अँधेरी गुफा के बाहर अधिक सदीं थी । उसके एक
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[ भाग ३८
कोने में बर्फ का एक टुकड़ा एक सुन्दर शिवलिंग की शकल में स्थित था । कई यात्री जो वहाँ पर मौजूद थे, पुष्पादि से उसकी पूजा कर रहे थे। थोड़ी देर के बाद सबके सब गुफा से चल दिये। हमारे देखते ही ' देखते कबूतर का एक जोड़ा भी गुफा से बाहर को
उड़ गया ।
साधु जी गुफा • के बीच में अकेले बैठे हुए थे । पिछले १२ वर्ष से वे इस गुफा में अकेले रह रहे हैं । परन्तु सर्दियों में वे श्रीनगर चले जाते हैं । मेरे साथ एक योरपीय को देखकर उन्होंने मुझसे उनकी जाति श्रादि की बाबत पूछा और ज्यों ही मैंने उनको बतलाया कि वे जर्मन हैं, उन्होंने उनके साथ सुन्दर जर्मन भाषा में बातचीत करनी श्रारम्भ कर दी। मेरे मित्र और मैं दोनों यह देखकर हक्का-बक्का से रह गये कि एक साधु और संसार से इतनी दूर एक काली गुफा में और फिर अँगरेज़ी का ही नहीं, बल्कि जर्मन जैसी भाषा का ज्ञान रखता है ! हम कोई एक घंटा तक जर्मन भाषा में ही बातचीत करते रहे । साधु जी कोई ४५ वर्ष के होंगे। वे शीघ्र ही हमारे मित्र बन गये और हमारी हँसी - दिल्लगी में शामिल हो गये । उन्होंने हमें अपने स्टोव पर ( बिना दूध की चाय बनाकर पिलाई और खाने को कुछ बादाम, अखरोट और सूखे फल भी दिये । साधु महाराज नये ढङ्ग से रहते हैं और उनके विचार भी उदार हैं। उन्होंने हमें अपने जीवन की कुछ बातें भी बतलाई । कोई १५ वर्ष तक वे 'जर्मन ईस्ट अफ़्रीका' में 'कस्टम ग्राफिसर' रहे थे, इसलिए जर्मन भाषा खूब अच्छी तरह जानते हैं। इसके अलावा इंग्लिश और भारत की सब भाषायें अच्छी तरह जानते हैं। बड़ी कठि नाई से उन्होंने हमें अपना फोटो लेने की इजाज़त दी । वे जानते हैं कि भारत के साधुत्रों का नाम कितना बदनाम हो चुका है और उनके कितने फोटो योरप के अखबारों में क्यों छपते हैं। उन्होंने हमारे साथ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापारिक तथा हर एक विषय पर बातचीत की। कोई दो घंटा के लगभग साधु जी के पास ठहरने के बाद हम पंचतरनी के पड़ाव को लौटे और सूर्य के अस्त होने से पहले वहाँ पहुँच गये 1 उक्त साधु जी विद्वान् और महात्मा हैं। उनकी मुलाक़ात का हम पर बड़ा प्रभाव पड़ा । मेरे जर्मन मित्र भी उस दिन से हमारे साधुत्रों को इज्ज़त
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संख्या २]
अमरनाथ-गुफा की ओर ।
मे देखने लगे हैं । परन्तु पाठक अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में ऐसे साधु कितने हैं। ___ रात हमने पंचतरनी में ही काटी। उस दिन सिवा हम दो के वहाँ और कोई यात्री नहीं था। अब हमारे पास खाने-पीने का बहुत थोड़ा सामान रह गया था। दिया सलाई न होने के कारण हमें यात्रियों के चूल्हों की जाँच पड़ताल करनी पड़ी। भाग्य से एक चूल्हे में एक-दो सुलगते अंगारे मिल गये, जिससे हमने अपनी झोपड़ी में
आग जलाई और कुछ चाय आदि भी पकाई । जब तक जागते रहे, अाग सुलगाये रहे और गर्म रहे, परन्तु जब नींद अागई तब खूब सर्दी लगी और रात भर सिकुड़े हुए अपने सानेवाले थैलों में पड़े रहे ।
चौथे दिन प्रात:काल कल खाने-पीने के बाद हम शेपनाग की ओर चल दिये। अाकाश बादलों से साफ़ था
और सूर्य की प्यारी प्यारी किरण मन को बड़ी प्यारी लगती थीं। अब चूँकि उतराई ही उतराई थी, इसलिए चलना कुछ अासान था और काई २ घंटे में हम शेषनाग के पड़ाव में पहुँच गये। यहाँ पहुँचने पर हमें मालूम हुअा कि एक झोपड़ी में चार अँगरेज़ स्त्रियाँ ठहरी हुई
[अमरनाथ की गुफा।] हैं और वे अमरनाथ को जा रही हैं। परन्तु जब हम इस पड़ाव में पहुँचे तब उस समय वे झील की सैर करने और मुलाकात हुई और उन्होंने मुझसे अमरनाथ के सम्बन्ध में फोटो लेने के लिए नीचे गई थीं। इनके लिए बड़ा लम्बा- बहुत-सी बातें पूछी कि हम हिन्दुओं के लिए क्यों यह चौड़ा बन्दोबस्त था। कई बच्चर और कई नौकर और तीर्थस्थान है। हमने रात का खाना उनके यहाँ खाया अनेक प्रकार की खाने की वस्तुएँ थीं। इतना सब कुछ और उस गम खाने में हम मज़ा पाया । होने पर भी में उनकी बड़ी हिम्मत समझता था। परन्तु
पांचवें दिन हम सूर्य निकलने से पहले पहलगाम की मेरे जर्मन मित्र के लिए एक मामूली बात थी। बाद में ओर चल दिये। उतराई ही उतराई होने के कारण उन्होंने मुझे बतलाया कि योरप और ख़ास जर्मनी में स्त्रियों थकावट बहुत ही कम होती थी। हमारी खाने-पीने की
ना एक मामूली और आम बात है। हम धूप सामग्री समाप्त हो गई थी. इसलिए बोझ भी कुछ हलका में लेटे ह । थोड़ा आराम कर रहे थे कि कुछ देर के बाद वे हो गया था। सायंकाल में पहले हम सुन्दर पहलगाम बहादुर स्त्रियाँ अपनी झोपड़ी में आ गई । हमारी उनसे पहुँच गये।
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अरे, ये दो दुर्लभ प्रिय नेत्र, नयन नयनों में लोभी भँवरा है, इन्हीं में छिपा हुआ संसार ।
नयनों में ही पुष्प-पराग । कराता हमको परिचित विश्व,.. ११ लेखिका, श्रीमती शान्ति
नयनों में सांसारिकता है, नयन की महिमा का विस्तार ॥ लाखका नाम
नयनों में ही है वैराग ।। इन्हीं में स्वप्न, इन्हीं में सत्य, नयनों में है गौरव-गरिमा, इन्हीं से होता जग-व्यवहार। नयनों में उसका अभिमान । यही हैं छलिया प्राणों की, नयनों में ही भरा हुआ है, .
इन्हीं में माया का व्यापार ॥ निज मानापमान का ध्यान । इनमें ही पिछली झाँकी है।
नयनों में है। प्रणय-कहानी, इनमें ही अब का उत्साह ।
नयनों में प्रिय की तसवीर । इनकी ही नौका पर चढ़कर,
नयनों में मुग्धा की भूलें, तरना है संसार अथाह ॥ ,
नयनों में चिन्ता गम्भीर ।। नयनों में है शरद्-पूर्णिमा, नयनों में मद की मादकता, . नयनों में तम है घनघोर । शैशव का चिर भोलापन । नयनों में ही उमड घमड कर. नयनों में तरुणी विधुरा के
लेता पारावार हिलोर ।। जीवन का चिर सूनापन ।। इनमें ही हैं मधुर स्मृतियाँ,
नयनों में है मिलन-महोत्सव इनमें अन्तर के उद्गार।
जीवन का उद्देश्य महान । अरुणोदय की लाली इनमें,
कठिन तपस्या करने पर, अरुणा वरुणा की अनुहार ॥
मिलता नयनों को यह वरदान।। यहीं बसा है चतुर खिवैया, नयनों में है चिर उपासना, लेकर सँग में जीवन-नाव। . नयनों में ही बसा उपास्य । यहीं आह, रूठा माँझी है, . नयनों में सूनी उदासता,
यहीं पड़ी है टूटी नाव ॥ नयनों में ही है मृदु हास्य ॥ नयनों में ही दौड़ धूप है,
__नयनों में है छिपे हुएनयनों में लगता बाजार ।
अन्तस्तल के भावों की खान । काली पुतली सौदा करती,
नयनों में आँसू के मोती बिकता मन अपना भखमार ॥
करती करुणा भर-भर दान || नयनों में है विजय-लालिमा, नयनों में है भय की छाया, नयनों में रण का उत्साह । विह्वल माता के उद्गारनयनों में ही मिट जाने की
"पुत्र, न जा रण में, छोटा है, बलि होने की नव-नव चाह ॥ बच्चा, अरे, अभी सुकुमार !" नयनों में है विष की प्याली,
नयनों में है पूर्ण चन्द्रमा, नयनों में अमृत की धार।
नयनों में चकवा की चाह । जीवित मरता, मृत जीता है,
नयनों में स्वाती की बूंदें, नयनों की इच्छा अनुसार ।।
नयनों में चातक की आह !! नयनों में संयोग हुआ था, नयनों में ही हुआ वियोग। नयनों में था स्वास्थ्य, और अब नयनों में ही भीषण रोग ॥
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एक हास्य रस की कहानी
अशान्ति के दूत
लेखक, श्रीयुत पृथ्वीनाथ शर्मा, बी० ए०, ( आनर्स) एल-एल० बी०
ष्टि के आरम्भ में तो शायद नहीं, पर यह निश्चित है कि जब मनुष्य ने प्रकृति की राह छोड़कर संस्कृति का पथ पकड़ा था तब से लेकर उसके जीवन में अशान्ति फैलानेवाले तत्त्वों में जूतों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इनकी ढिठाई की कहानियाँ ग्राज भी देश देश में प्रचलित हैं । पर एक तुच्छ चमरौधा भी किसी के जीवन को भार बना सकता है, यह शायद आपने न सुना होगा । इसी लिए यह कहानी कहने का साहस कर रहा हूँ। बात उन दिनों की है जब मेरे सम्मुख सभ्यता का भूत खड़ा करके घरवालों ने धीरे धीरे मेरे शरीर के सब अंगों को ढँक दिया था। पर जब वे मेरे पाँवों से भी छेड़छाड़ करने पर उद्यत हुए तब मैंने साफ इनकार कर दिया । आख़िर हर एक बात की हद होती । उन दो स्वच्छन्द विचरनेवाले जीवों को मैं क्यों जूतों के बन्धन में डाल देता। घरवालों ने बहुत समझाया, जूता न पहनने से होनेवाली बीमारियों के कई लोमहर्षक चित्र खींचे, देशी, विलायती, लखनवी, पेशावरी, सलीमशाही, सुनहरे, रुपहले, सब प्रकार के जूतों के विस्तारपूर्वक गुणानुवाद किये, पर टस से मस न हुआ । आखिर बकझक कर घरवाले चुप हो रहे । मैं अपनी विजय पर इतरा उठा ।
परन्तु मेरा मन्दभाग्य तो देखिए ! जो बात घरवालों के लाख यत्नों से न हो सकी वही बात एक देहाती इस सफ़ाई से कर गया कि मैं देखता ही रह गया ।
हमारे गाँव से कुछ ही मील की दूरी पर वैशाखी के दिन रामतीर्थ का मेला लगा करता है। उससे पहले यद्यपि कभी स्वप्न में भी उसे देखने का ख़याल न आया था, पर उस दिन पता नहीं क्यों अपने छोटे भाई रघु से सुनते ही मेला देखने की धुन सवार हो गई। पत्नी नहाने गई तब • उसकी पैसोंवाली संदूकची पर जा छापा मारा। साढ़े चौदह श्राने हाथ लगे । इन्हें और रघु को साथ लेकर पत्नी के लौटने से पहले ही चल दिया ।
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कोई घंटा भर के अनन्तर हम मेले में जा पहुँचे । घर से भी कुछ अधिक नहीं खाकर चले थे, इसलिए एक घंटे में ही भूख से व्याकुल हो उठे। मेले के बाहर ही एक हलवाई तेल की बड़ी बड़ी जलेबियाँ निकाल रहा था । हम वहीं बैठ गये और उन पर टूट पड़े। हम अभी बैठे ही थे कि एक देहाती हाथ में एक थैला लिये वहाँ आ निकला । वह मोटे खद्दर का लम्बा कुर्ता और घुटनों से ज़रा नीचे तक पहुँचती हुई खद्दर की धोती पहने था । सिर पर लाल पगड़ी थी, जो शायद सुबह ही उसने स्वयं रँगी थी, क्योंकि उसके हाथों से लाल रंग अभी तक छूटा न था । उसने अपनी टेढ़ी आँखों से मुझे सिर से पाँव तक देखा और आपस में उलझे हुए कालेपीले दाँत निकालता हुआ बोला - " आपका जूता क्या खो गया है ?"
"नहीं ।" मैंने बेपरवाही से जवाब दिया । "पर आपके पाँव तो नंगे हैं ।"
'तुमको इससे क्या', मैंने यह कहना चाहा, पर उसका बलिष्ठ शरीर देखकर कहने का साहस न हुआ | आगे पड़े हुए दोने से उठाकर एक जलेबी ऐसी मुद्रा धारण करते हुए मुँह में रक्खी जिससे साफ़ झलकता था कि जाओ, अपना रास्ता पकड़ो, हमें खाने दो। मुझे यह निश्चय है कि मेरा यह तीर बेकार न जाता यदि रघु ने सारा गुड़ : गोवर न कर दिया होता। पगला उसी समय बक उठा- "ये जूता नहीं पहनते । ” "क्यों ?"
"इन्हें जूतों से चिढ़ है ?"
"चिढ़ ?” उसने मुसकराते हुए कहना आरम्भ किया और मेरे पास बैठ गया । " है भी तो ठीक। आज कल के जूतों से किसे चिढ़ न होगी ? बाहर से तो बेसवा की तरह चमक-दमक, पर अन्दर काग़ज़ और भूसा भरा रहता है । आज पहना तो कल दाँत निकाल देते हैं। मालूम होता है, आपकी नज़रों से असली जूता कभी गुज़रा ही नहीं ।"
यह कहते कहते उसने अपने थैले से कोई इंच भर
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सरस्वती
[भाग ३८
मोटे चमड़े का एक भूसला-सा चमरौधा जूता निकाला मुहर लगा दी। चुपके से आठ आना पैसा निकालकर
और उसे मेरी ओर बढ़ाता हुआ बोला- "इसे ज़रा पहन उसके हाथ में रख दिया और जूता उससे ले लिया। कर देखिए । आपकी चिढ़-विढ़ सब दूर हो जायगी।" .- जूता देखकर मेरे सिर से पाँव तक आग दौड़ गई। घर में घुसते ही ख़बर फैल गई । घरवाले मुझे घेरकर श्राधी जलेबी को जो अभी तक बची थी, मैं दोने में ही छोड़- खड़े हो गये । प्रशंसा की वे नदियाँ बहाने लगे. मानो कर उठ खड़ा हुआ। इससे उसे और भी लाभ हुअा। मैं विश्व-विजय से लौट रहा हूँ। मैंने सँभलने की तो बहुत उसने चुपके से एक जूता मेरे उठते हुए पैर में ठूस दिया। कोशिश की, पर व्यर्थ । आख़िर हूँ तो मनुष्य ही। प्रशंसा
और वह कम्बख़्त ऐसा ठीक बैठा, मानो मेरी ही नाप लेकर का वह उमड़ता हुश्रा वेग सीधा मेरे मस्तिष्क में जा " बनाया गया हो। मेरे झटकने पर भी वह पाँव से फिसला पहुँचा। मैं मद-मत्त हो उठा । बग़ल से जूता निकालकर
तक नहीं। इससे वह देहाती और भी शेर हो गया। प्रसन्नता उसे पाँव में पहन लिया और अकड़कर चलते हए मेरे दिखाता हुआ बोला-"यह तो बना ही आपके पाँव के मुख से भी जूते के प्रति एक-आध प्रशंसा का वाक्य निकल लिए है। आपको तो यह लेना ही होगा।"
ही गया। अब तो उन लोगों की प्रसन्नता का वारापार न "लेना ही होगा ?" मैंने आश्चर्य से उसकी ओर रहा। मेरी पीठ थपथपाते हुए मेरी बड़ी भौजाई ज़रा जोश देखा और अभी कुछ और कहने ही जा रहा था कि रघु से बोलीं-"देखना, कहीं अब इसे उतार न देना।" फिर बोल उठा-"क्या दाम है इसका ?"
"यह भी कभी हो सकता है। मैंने प्रशंसा-द्वारा 'दाम तो है दो रुपया, पर आप क्या देंगे ?" प्रेरित निश्चय-भरे स्वर में कहा।
"कल भी नहीं। मुझे चाहिए ही नहीं।" अपने हाथ कहने को तो मैं यह कह गया, पर सारा जोश दो से जूता उतारकर मैंने ज़मीन पर फेंकते हुए कहा। दिन में ही ठंडा पड़ गया। इतने समय में ही जूते ने मेरे ___"अरे ! कुछ तो कहिए।"
पाँव को छलनी कर दिया था। छाले फूट फूट कर पकने "अाठ आना ।" मेरे रोकते रोकते भी रघु फिर और पक पककर फिर फूटने लगे। एक एक पाँव चलना बोल उठा।
भारी हो रहा था । जी में तो आता था कि उस जूते को - अब तक थोड़ी-सी भीड़ हमारे इर्द-गिर्द इकट्ठी हो उतारकर नाली में फेंक दूं, पर झूठी लाज कुछ नहीं करने चुकी थी। रघु की बाँह कसकर पकड़ते हुए उस भीड़ को देती थी। घर के बड़े से लेकर छोटे तक की अोर कातर चीरता हुअा मैं तेज़ी से जाने लगा।
, तथा दीन नेत्रों से देखता था कि शायद उनमें से कोई "अरे आप तो भाग चले। दो रुपया न सही। कुछ स्वयं ही मुझ पर तरस खाकर उस कम्बख्त जूते को उतार कम ही दे दीजिए"। यह कहता हुआ वह मेरे पीछे हो लिया। देने की सलाह दे दे। पर कहाँ! उन्हें तो मेरे पाँवों के लोगों ने भी उसका साथ दिया ।
लिए मेंहदी पकाने तथा जूते को कड़वे तेल से तरबतर मैं चुप रहा।
करने के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था। अब करूँ "एक रुपया देंगे?"
तो क्या ? सहसा ईश्वर की याद आ गई । लगा प्रार्थनाओं"नहीं।"
द्वारा उसी की रहस्य-मय पर सर्वव्यापक अनुकम्पा को "बारह पाना।
जगाने । इसी झगड़े में चार दिन और बीत गये। ईश्वर "नहीं"। मैं चिल्लाया।
महोदय ने करवट तक न बदली। अब और किसकी शरण "अच्छा निकालिए आठ अाना ही।"
जाता। इस आशा में कि शायद भलकर उस शरीर-रहित अब ? एक बार जी में तो पाया कि इनकार कर हूँ। आत्मा की दिव्य दृष्टि इधर पड़ जाय, मैं ऊपर से तो प्रार्थआखिर आठ आना भी तो रघु ने ही कहा था। पर उस नायें करता हुआ पर हृदय से उसे कोसता हुअा लगभग देहाती की आँखों में छिपी हु तथा लोगों के चेहरों निराश होकर बैठ गया। पर निराशा से ही तो अाशा की पर उसके प्रति झलकती हुई ने मेरी जिह्वा पर रेखा फूटती है। इससे अगले दिन ही ब्रह्माण्ड-कारी महोदय
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संख्या २]
. अशान्ति के दूत ....
१५५ ..
को मेरी सुध भी श्राई । कह नहीं सकता, क्यों। शायद मेरी और घुघट के बीच से मेरी छोटी भौजाई बोलीप्रार्थना की मात्रा पूरी हो गई थी अथवा मेरे कोसने ने "और तेल में ज़रा-सा मोम अवश्य डाल लेना।" . उन्हें चुटीला कर दिया था।
मैं क्रोध से झल्ला उठा। जी में तो पाया कि अपने खैर । उस दिन मैं अर्धसुषुप्ति की अवस्था में अभी . मंसूबों की गठरी खोलकर उनके सम्मुख पटक हूँ। फिर तक चारपाई पर ही पड़ा था कि किसी ने ज़रा ज़ोर से मेरा देखू, उनकी ज़बान कैसे चलती है। पर इस डर से कि . कंधा हिलाया । मैं आँखें मलता हुआ उठ बैठा । सामने कहीं बना-बनाया खेल ही न बिगड़ जाय, मैंने संयम से ससुराल का नाई खड़ा था।
काम लिया। अपनी पत्नी की बाँह कसकर पकड़ उसे "क्यों ?" मैंने पूछा।
खींचता हुआ बिना किसी को कुछ जवाब दिये स्टेशन की "अापको और बीबी को बुला भेजा है। लड़कों का ओर चल दिया। ससुराल का नाई मुस्कराता हुअा हमारे मुंडन-संस्कार है ।" उसने जवाब दिया।
पीछे हो लिया। "कब जाना होगा ?"
गाड़ी आई तो देर में, पर भीड़ का इतना रेला-पेला "अाज ही चलें तो अच्छा है, पर परसों तक तो लेकर आई कि मैं खिल उठा। उस भीड़ में जूते को अवश्य ही पहुँचना होगा।"
खपा देना कौन बड़ी बात है ? मैं एक डिब्बे में घुस गया। • “आज ही !” मैं अानन्द से उछल पड़ा। सोचा, उसके एक कोने में ज़रा-सी जगह खाली थी। अपनी पत्नी इस यात्रा में इन जूतों को कहीं अवश्य इधर-उ
को ढकेलकर मैंने वहाँ बिठा दिया।
"और तुम ?” उसने पूछा। गाड़ी बारह बजे छूटती थी। पर हम दस बजे ही "दरवाजे के पास खड़ा होकर सफ़र काट दूंगा। तैयार होकर चल दिये। अब तक मेरा व्यक्तित्व इतना कौन बड़ी दूर जाना है ?” मैंने जवाब दिया। सोचा था, महत्त्व प्राप्त कर चुका था कि उस दिन घर के सभी लोग वहाँ से जूते को फेंक देना बहुत आसान होगा। पर कहाँ ? हमें गांव के बाहर तक छोड़ने आये । पर उन सबकी दृष्टि कुछ अपने आपको सिकोड़कर कुछ दोनों ओर के यात्रियों हम में से किसी पर नहीं, बल्कि मेरे पाँवों में पड़े हुए जूते को ज़रा आगे सरकजाने की प्रार्थनाकर मेरी पत्नी ने कुछ पर अटक रही थी, मानो उन चेतना-हीन चमड़े के टुकड़ों इंच स्थान प्राधे क्षण में ही बना लिया और मेरी बाँह में जीवन डालकर उन्हें समझा रही हो कि देखना कहीं खींचकर मुझे वहाँ जड़ दिया। नापित महाशय मेरे पीछे इस गँवार के पंजे को न छोड़ देना। और वह दुष्ट भी खड़े थे। झगड़ती हुई चिड़िया की तरह ची ची करता मानो मुझे "जात्रो, तुम किसी और डिब्बे में स्थान देख लो।" चिढ़ाता हुअा उन्हें आश्वासन दे रहा था। मुझे घरवालों मैंने उससे कहा। के अज्ञान पर हँसी आ रही थी और जूते की उदंडता पर "अरे ! कहाँ जाऊँगा ? यहीं बैठ जाता हूँ।" यह कहते दया। आह ! यदि वे मेरे हृदय में उस समय पैठ सकते कहते उसने एक बार मेरी पत्नी की ओर देखा, और फिर तो उनकी अाशा का बाँध बालू की दीवार की भाँति मुस्कराता हुआ मेरे पाँवों से सटकर बैठ गया। छिन्न-भिन्न हो जाता। उनके लाख यत्न और जूते की लाख मैं सब समझ गया। मुझे यह स्वप्न में भी आशा न चिल्लाहट भी मेरे निश्चय को हिला तक न सकते थे। थी कि घरवाले अपने षड्यंत्र में इस नापित को भी मिला ____ "अच्छा अब आप जाइए । अधिक कष्ट न कीजिए।" लेंगे। पर अब क्या कर सकता था ? दाँत पीस कर रह गाँव के बाहर चकर मैंने उनसे कहा।
गया। मन में कहा, यहाँ न सही, ससुराल पहुंचने पर - "देखा जूते को तेल देते रहना ।” मेरी बड़ी भौजाई तो इन दोनों से पीछा छूट ही जायगा। मेरी पत्नी स्त्रियां
में जा मिलेगी और यह धूर्त काम-काज में लग जायगा। "और दादा, पाँव में मेंहदी लगाना न भूलना।" फिर देखूगा, इस लाड़ले जूते की सहायता के लिए कौन रघु बोला। उसकी नस नस से शरारत टपक रही थी। अाता है। ससुरालवाले घर में मुझे ऐसे ऐसे स्थान याद ..
ने कहा।
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सरस्वती
[भाग ३८
थे, जहाँ इन्हें फेंक दूं तो प्रलय तक पड़े सड़ते रहें। लगा "अाज ? इतनी जल्दी क्या पड़ी है ?" अपने मस्तिष्क में ऐसे स्थानों की सूची बनाने और उनमें "मुझे एक बहुत ज़रूरी काम है।" से जूता छिपाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान छाँटने। कभी "काम ?” मेरी सास ने मुस्करा कर मेरी ओर इस स्थान की ओर झुकता था, कभी उसकी ओर, पर देखा-"तुम कब से काम करने लगे हो ? खैर, पर मैं निश्चय कुछ नहीं कर पाता था। सबमें कोई न कोई दोष शामो को अभी नहीं जाने दूंगी।" शामो मेरी पत्नी का दीख जाता था। यहाँ तक कि इसी उधेड़-बुन में स्टेशन नाम था। . आ गया। हम उतर कर गाँव को चल दिये।
मेरा हृदय प्रसन्नता से उछल पड़ा। यही तो मैं
चाहता था। न वह साथ में रहेगी. न नंगे पाँवों की चर्चा जूते को छिपाने के अवसर तो मुझे बहुत मिले, होगी। परं उसकी माता के सामने प्रसन्नता प्रदर्शित करना पर उस भीड़-भड़ाके में मैंने कुछ भी करना उचित न एक बला मोल लेना था। इसलिए अपने स्वर में खेद समझा। मैं जानता था, मेरे नंगे पाँव देखकर कइयों के भरकर मैंने अपनी अनुमति दे दी--"अच्छा ऐसे ही हृदय में गुदगुदी होगी और वे इस विषय में अनधिकार सही, पर एक सप्ताह तक उसे भेज अवश्य देना।" चेष्टा किये बिना न रह सकेंगे। मेरे लाख बहाने गढने "अच्छा। तुम शाम की गाड़ी से ही जानोगे न ?” . पर भी जूते की तलाश श्रारम्भ हो जायगी। इसलिए "नहीं। अभी दस बजे की गाड़ी से।" अब भी ' दो-चार दिन तक और उन दुष्टों के अप्रिय श्राघातों के अधिक देर नंगे पाँव वहाँ रहना ख़तरनाक था। सहने का निश्चय कर लिया।
"परन्तु वह गाड़ी तो तुम्हारे गाँव के निकट ठहरती श्रारिखर मुंडन संस्कार ज्यों-त्यों समाप्त हो गया। ही नहीं।" अतिथि घरों को लौटने लगे। यहाँ तक कि पाँचवें दिन मैं इस बात को भ गया था। अब? मैं सोचने घर लगभग खाली हो गया। मैंने भी अब जाने की ठानी लगा और मस्तिष्क ने शीघ्र ही राह भी सुझा दी- "मुझे और जूते को छिपाने की भी। इससे अगले दिन अभी रास्ते में अमृतसर में उतरना है।" पौ फटने में कई घड़ियों की देर थी। घरवाले गहरी नींद "क्या दरबार साहब देखना चाहते हो ?” मेरी सास सो रहे थे। मैं चुपके से उठा और जूते को लेकर घर की ने व्यंग्य से कहा। उस कोठरी में पहुँचा जिसमें सदा कूड़ा-करकट भरा रहता "हाँ" मैंने गम्भीर मुद्रा धारण किये जवाब दिया। था, जिसमें किसी का जाना शायद वर्ष में एक-दो बार से और कर ही क्या सकता था? अधिक नहीं होता था। उसी के एक कोने में ज़ंग से भरे उसने अधिक विवाद व्यर्थ समझकर मुझे आज्ञा लोहे के बीस किस्म के टुकड़ों का एक बड़ा-सा ढेर पड़ा दे दी। इससे थोड़ी ही देर के बाद में अपनी पाटली था। उसी के नीचे जूतों को. दबाकर मैं धड़कता हुआ उठाकर स्टेशन का चल दिया । यद्यपि स्टेशन बहुत दूर उलटे पाँव लौटकर अपनी चारपाई पर पा लेटा और था, पर कई दिनों के बन्धन के अनन्तर नई पाई हुई सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगा। मन्द मन्द सुखद समीर स्वच्छन्दता के मद में मेरे पाँव मानो पवन पर तैरते हुए बह रही थी, इसलिए मुझे एक हलकी-सी झपकी आ मुझे लिये उड़े जा रहे थे। अभी जब मैं स्टेशन पर पहुँचा गई, जिसने बची-खुची रात्रि को समेट लिया, क्योंकि जब गाड़ी थाने में पूरे पन्द्रह मिनिट थे। फिर मेरी आँख खुली तब सूर्य की पहली किरणें मेरे चेहरे मैं टिकट खरीदकर स्टेशन के मध्य में एक वृक्ष की पर खेल रही थीं। मैं हड़बड़ाकर उठा और नहाने-धोने छाया में बैठ गया और अपने पाँवों पर हाथ फेरने लगा। की तैयारी में लग गया।
कितने प्यारे मालूम देते थे वे जूतों के बिना । मेरे हृदय . जब मैं वापसी यात्रा के लिए सजधज कर अपनी में आनन्द की एक बिजली दौड़ गई। अब देखूगा, घरसास के पास पहुंचा तब उसने पूछा-"क्या बात है ?" वाले क्या कहते हैं। एक एक को न चिढ़ाया तब बात
"अाज जाना चाहता हूँ। आशा के लिए आया हूँ।” है। मेरी कल्पना ने तेज़ी से चित्र खींचने प्रारम्भ कर
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संख्या २ ]
शान्ति के दूत
दिये । घरवालों की क्रोध तथा खीझ से विकृत ऐसी ऐसी सूरतें मेरे सम्मुख नाचने लगीं कि मैं विह्वल हो उठा और मेरे मुख से अपने आप हँसी की धारायें बहने लगीं । नजाने मैं कितनी देर ऐसे ही बैठा रहा । पर मैं अभी इन्हीं विचारों में तल्लीन था कि गाड़ी की भूचाल को-सी गड़गड़ाहट ने मुझे चौंका दिया। मैं उतावली से उठ खड़ा हुआ और अपने चारों ओर देखा । पता नहीं क्यों मेरे इर्द-गिर्द कोई पाँच-सात मनुष्य खड़े थे और मेरी ओर ऐसा देख रहे थे, मानो चिड़ियाघर से कोई जीव भाग
या हो । खैर, मुझे उठते देखकर वे सब नौ-दो ग्यारह में पूछा। अब तक मैं अपने आप पर पूरा प्रभुत्व पा हो गये ।
गाड़ी में वैसी भीड़ न थी । मेरे सामनेवाला डिब्बा लगभग ख़ाली पड़ा था। चारों ओर की बेंचों पर दो-दो चार-चार यात्री बैठे थे । मध्य की बेंच पर केवल एक बूढ़ा-सा मनुष्य मैले-कुचैले कपड़े पहने एक बड़े से लट्ठ का सहारा लिये बैठा सामनेवाले मनुष्य से बातचीत में लगा था । शायद उसके बाल-बच्चों की संख्या और पत्नी के स्वभाव-विषयक प्रश्न पूछ रहा था । मैं उसी बूढ़े के पास जा बैठा । मेरे आते ही उसने सामनेवाले यात्री के छोड़कर मेरी श्रोर ध्यान दिया "तुम किधर जा रहे हो ?" "अमृतसर ।" " काम से ?"
"नहीं । दरबार साहब देखने ।”
" दरबार साहब " ? फिर क्या था वह लगा उस स्वर्णमन्दिर की प्रशंसाओं के पहाड़ गढ़ने । एकाध क्षण तो मैं उसकी श्रुति-रंजना-भरी बातों को सुनता रहा । फिर 'हुँ हुँ करता हुआ ऊँघने लगा। मुझे ऐसी अवस्था में बैठे कठिनता से एक मिनट बीता होगा कि बन्दूक की गोली की भाँति मेरे कान में आवाज़ पड़ी, "दादा ।" और इसके साथ ही पटाक करता हुआ मेरा जूता किसी दैवी कोप की भाँति मेरी गोदी में या गिरा । मैं काँप उठा । अभी तो मैं इसे उस बड़े ढेर के नीचे छिपाकर चला या रहा था । पता नहीं, कौन-सी प्रेत- प्रेरणा ने इसे इतनी शीघ्र फिर यहाँ ला फेंका। कुछ क्रोध पर अधिक विस्मयसूचक दृष्टि से मैंने प्लेटफार्म पर देखा । सामने नाई खड़ा था और हाँफता हुआ अपनी साँस सँभालने में लगा था । मेरी जिह्वा पर बीसियों शब्द श्राये, पर गले में अटक कर
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रह गये । श्राख़िर बड़ी कठिनता से केवल इतना कह सका, "कहाँ मिला ?”
अब तक यद्यपि वह बहुत कुछ सँभल चुका था फिर भी उखड़ते हुए स्वर में कहने लगा- " अँधेरे कमरे में लोहे की चीज़ों के ढेर के नीचे । आपके आने से थोड़ी ही देर बाद बीबी जी नये बछड़े के लिए एक खूँटी ढूँढ़ने गई तो इत्तिफ़ाक से उनका हाथ इन पर जा पड़ा । और उसी समय उन्होंने मुझे स्टेशन की ओर भगा दिया । "
"पर वहाँ रक्खा किसने ?” मैंने भोले-भाले स्वर
चुका था।
"किसी लड़की की शरारत होगी। बीबी जी उन पर बहुत ख़फ़ा हो रही थीं ।" उसने जवाब दिया, पर इसके साथ ही उसके चेहरे पर एक अर्थ भरी मुस्कान खेल उठी । मुझे चीरती हुई दृष्टि से देखते हुए वह फिर कहने लगा" पर यदि सच पूछो तो -- "
परन्तु वह अपना वाक्य समाप्त न कर सका। गाड़ी जो कुछ देर से सीटी द्वारा अपने चलने की सूचना दे रही थी, झटका देकर सहसा चल दी। देखते ही देखते वह मेरी नज़रों से ओझल हो गया । मैंने जूते का अपने पाँवों में पहन लिया और अपने भाग्य को कोसता हुआ मस्तक पर हाथ रखकर बैठ गया । पर बूढ़े मियाँ कब चैन लेने देते। मुझे हिलाकर बोले - " जूता है खूब मज़बूत
ן
जी में तो आया कि उससे कह दूँ कि यदि इतना पसन्द है तो तुम्हीं ले लो, पर न जाने वह बुरा मान ले, इसलिए 'हाँ' कहा और उससे मुँह मोड़कर उस आठ आने के जूते को नीचा दिखाने का ढंग सोचने लगा ।
( ५ )
सिखों के स्वर्ण- मन्दिर की अद्भुत कारीगरी का निरीक्षण करने के अनन्तर मैं थोड़ा थककर मन्दिर को चारों ओर से घेरे हुए तालाब की सीढ़ियों के एक एकान्त काने में आ बैठा । धोती को घुटनों तक ऊँचा करके मैं I अपने पाँव तालाब के निर्मल तथा शीतल जल में डालकर वहाँ तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियों के खेल देखने लगा । कितनी उमंग से वे एक-दूसरी के ऊपर नीचे पानी का चीर रही थीं । उमंग ? पर श्राज तो मुझे चारों ओर उमंग
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ही उमंग दीख रही थी मेरा हृदय भी आज उमंगों से • भर रहा था, क्योंकि आज मैं अपने जूते के शाप से सचमुच मुक्ति पा चुका था। उस जूते को गाड़ी में छोड़े मुझे लगभग तीन घंटे बीत चुके थे । अत्र तक वह मुझसे बीसियों मील दूर जा चुका होगा और प्रतिक्षण मेरे और उसके बीच का अन्तर बढ़ रहा था। यदि किसी की दृष्टि बढ़ उस पर पड़ भी गई तो विशेष यत्न करने पर भी जूते के स्वामी का पता न चल सकेगा। क्योंकि किसी बासुरी बल'द्वारा वह जुता यदि कहीं जीवन भी पा जाय तो भी उसकी जवान न खुल सकेगी। आख़िर है तो वह किसी मूक पशु की खाल का ही बना न । अब मुझे उस जूते से कोई भय न था। अब देखूँगा कौन-सा जूता मेरे पाँव के निकट खाने का साहस करता है। मैं इसी बिजयोल्लास में उठा और भूमता हुआ मन्दिर के बड़े द्वार की ओर बढ़ने लगा, क्योंकि मुझे घर ले जानेवाली गाड़ी छूटने में अब थोड़ी ही देर थी। मैं इसी अलमस्त चाल से चलता हुआ बाहर निकलकर स्टेशन की ओर चल दिया। पर मैं अभी कठि नता से दो-चार क़दम ही गया था कि किसी ने पुकारा, "सुनिए तो ।”
मैंने मुड़कर देखा तो गाड़ीवाले चूड़े मियाँ एक मैलेसे कपड़े में लिपटा हुआ कुछ बग़ल में दबाये खड़े थे । मेरा माथा उनका । इनका यहाँ क्या काम ? क्या मेरा जूता ही तो बगल में लिये हुए नहीं हैं। मेरा हृदय पसलियों से ठोकरें खाने लगा, गला सूखने लगा। पर शायद कुछ और चीज़ हो। मैंने साहस करके पूछा- क्यों, क्या बात है
सरस्वती
יי.
"हाँ आप इसे गाड़ी में भूल आये थे मैं उठा लाया। जानता था, आप यह मन्दिर देखने अवश्य खायेंगे, इसी लिए यहीं पहुँचा। पर आपने प्रतीक्षा बहुत करवाई है। कोई दो घंटे से बैठा हूँ।" यह कहकर बूढ़े ने वह जूता मेरे हाथ में पकड़ा दिया। जूता हाथ में आते ही
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"आपका जुता ---" उसने बगल की ओर हाथ बढ़ाते स्टेशन की ओर चल दिया। हुए कहा ।
"मेरा जूता ?” मेरा सिर घूम उठा टाँगें काँपने लगीं, आँखों के आगे बादल छा गये । लगभग संज्ञाहीन होकर मैं सिर थामकर पास की एक चन्द दूकान के पते पर बैठ गया।
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मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो साँप ने काट खाया हो । उछलकर उठ बैठा और लड़खड़ाती-सी ज़बान से मेरे मुँह से निकला - "इसे आप ही ले जाइए ।"
"मेरे पाँव में यह छोटा है"। उसने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए कहा । जिसका मतलब यह था कि यदि यह उसे ठीक होता तो वह पागल न था जो मेरी तलाश में निकलता । 1 'समझ गया कि उसने इतनी दौड़-धूप मेरे प्रति प्रेम अथवा सेवा-भाव के कारण नहीं, बल्कि कुछ ताँबे के टुकड़ों की आशा में की है। यद्यपि असल में तो वह जूता लाकर उसने मेरा हृदय टूफ टूक कर दिया था, पर सांखारिक दृष्टि से तो उसने मुझ पर एक उपकार ही किया था। इसका बदला तो चुकाना ही होगा। मैंने जेब से एक चचत्र निकाली और उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा-“आपको कष्ट तो बहुत हुआ है, पर आशा है, मेरा अनुरोध मानकर इस तुच्छ भेंट को अवश्य स्वीकार करेंगे।"
उतावली से हाथ बढ़ाकर चवन्नी पकड़ते हुए उसने कहा - "अरे ! तुम तो योंही तकलीफ़ कर रहे हो ।" इससे आधे जगा के बाद ही यह बाज़ार की भीड़ में जा मिला।
चवन्नी तो मैंने अवश्य दे दी, पर मेरे रोम रोम में उस दुष्ट जूते के प्रति अग्नि भड़क उठी । मैं जूता उठाकर तेज़ी से अस्ती से बाहर की ओर भागा। कोई एक मील की दूरी पर एक बीरान-सा पृथ्वी का टुकड़ा था, जहाँ याक और घास-फूस के सिवा कुछ न उगा था। चालू से वहीं एक गढ़ा बनाया । ढोकर लगाकर उसी में मैंने जूते को फेंक दिया। गढ़े को मिट्टी से भरकर मैं वहाँ से
उसी शाम मैं घर पहुँच गया। घरवालों से क्या बातचीत हुई, इसका वर्णन करना तो अब व्यर्थ है, पर वह सारी रात मैंने बहुत बेचैनी से काटी। उस जूते ने स्वप्नों में वे भयानक रूप धारण किये कि मैं पल-पल पर काँपता चला गया । वह रात्रि क्या मुझे तो अब तक उस जूते का धड़का लगा हुआ है। बहुत दूर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों का जोड़ा भी देख लेता हूँ तो काँप जाता हूँ। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेरे पाँव के वे दोनों जूते पंख लगाकर मेरी ओर बढ़े आ रहे हैं।
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अमरीका और योरप में अन्तर
श्रीयुत सन्तराम, बी० ए० रत से जो युवक अमरीका जाते हैं पड़ती है । अमरीका में आप घर बैठे ही टेलीफोन से घर का share वे उस पर इतने मुग्ध हो जाते हैं सारा सौदा ख़रीद सकते हैं । आपकी मँगाई हुई वस्तु साफ़
OY कि दस-दस बरस तक घर लौटने और सुन्दर पैकट में बन्द आपके पास पहुँच जायगी। र भा का नाम तक नहीं लेते । जब वापस आपको पूर्ण निश्चय रहेगा कि चीज़ औवल दर्जे की होगी,
आते भी हैं तब अमरीका को याद दूकानदार घटिया नहीं भेजेगा । अमरीका में इस प्रकार
कर कर झूमते रहते हैं। पूछने पर मनुष्य को बहुत-सा अवकाश मिल जाता है। कि अाप स्वदेश को छोड़कर अमरीका की इतनी अधिक क्यों योरप में अच्छी गृहस्थ स्त्री को अवकाश न मिलने की याद किया करते हैं, वे उत्तर देते हैं-महाशय, अमरीका सदा शिकायत रहती है। उसे रोज़ कई घंटे घर की आवश्यक का क्या पूछते हो ? वह देश नहीं, स्वर्ग है । उसके सामने वस्तुओं के ख़रीदने में खर्च करने पड़ते हैं । उसे अच्छी भारत नरक जान पड़ता है। हो सकता है, हमारे युवकों तरकारी तभी मिल सकती है जब वह खुद कुँजड़े की दूकान को भारत के परतंत्र होने के कारण स्वतंत्र अमरीका स्वर्ग पर जाकर ख़रीदे, नहीं तो सड़ीगली के अतिरिक्त उसे पूरी जान पड़ता हो । परन्तु मैंने तो स्वराज्यभोगी योरपवालों भी नहीं मिलेगी। उसे कुँजड़े से भी बढ़ कर चालाक होना को भी अमरीका का गुणगान करते देखा है । इससे मालूम पड़ता है, और इस बात का उसे अभिमान भी रहता है। होता है कि अमरीका में ऐसी अनेक विशेषतायें हैं जो नानबाई की दूकान दूर, दूसरे बाज़ार में, है । योरप योरप में भी नहीं। श्रीमती क्रिस्टा विन्सलो नाम की एक में आपको ताज़ी रोटी तभी मिलेगी जब आप उसकी दुकान आस्ट्रियन देवी अमरीका गई थीं। वे लिखती हैं--"अम- पर जाकर अपने हाथ से चुनकर रोटियाँ लेंगे । तरकारी रीका में क्या बात है जिससे हमारी तबीअत प्रसन्न हो जाती और मांस आपको एक ही दूकान से नहीं मिलेगा। फल है ? क्या कारण है कि जितना सुख मैं यहाँ अनुभव करती और तरकारी के लिए भी दो भिन्न भिन्न दुकानों पर जाना हूँ, उतना किसी दूसरी जगह नहीं ? मेरे अपने देश में पड़ेगा। दूध, अंडे और मक्खन एक जगह नहीं मिल मेरा घर है, सम्पत्ति है, और पक्की आमदनी है । इस सकते । सोम, बुध और शनिवार के सिवा, प्रत्येक वस्तु देश में मेरा कोई सम्बन्धी भी नहीं। मैं यहाँ ठहरी भी बासी मिलती है। बाज़ार के दिनों में मनुष्य को सवेरे मुश्किल से आठ मास हूँ। फिर कारण क्या है ?" उठना पड़ता है, क्योंकि जो किसान मण्डी में चीजें बेचने
यही अवस्था प्रत्येक दूसरे अमरीका-प्रवासी विदेशी आते हैं वे दोपहर को बेचना बन्द करके भोजन करने चले की है । जब उससे यही प्रश्न पूछा जाता है तब उसे अनेक जाते हैं ।। छोटे छोटे कारण याद आते हैं । अमरीका में ऐसी सहस्रों दूसरे देशों में क्रय-विक्रय का काम बड़ा थका देनेछोटी छोटी सुविधायें हैं जो जीवन को सुखी बना देती हैं। वाला होता है। दूकानदार और ग्राहक एक दूसरे को पसन्द छोटी छोटी चिन्तात्रों के इस प्रकार दूर हो जाने से, रोज़ नहीं करते । वे एक-दूसरे को चोर समझते हैं। योरप में के झंझटों के इस प्रकार कम हो जाने से गृहस्थ को बड़ा इसे प्रकृति का नियम समझते हैं । जर्मनी में दुकानदार श्राराम मालूम होने लगता है, क्योंकि अपने देश में वह समझता है कि मेरा माल ग्राहक के रुपये से अधिक मूल्यइन्हीं चिन्ताओं और झंझटों के भार के नीचे दबा रहता वान् है। इसलिए उसके एक प्रकार का अभिमान-सा था। अमरीकावाले इसका अनुभव नहीं कर सकते। टपकने लगता है । वहाँ की दुकानों में सदा ग्राहक ही पहले
अमरीका में एक विवाहिता स्त्री गृहस्थी को चलाने "धन्यवाद' कहता है। परन्तु अमरीका में बाज़ार करना---- के साथ साथ कोई नौकरी-धन्धा भी बड़े मज़े से कर सकती क्रय-विक्रय करना-एक सामाजिक अनुभव, एक प्रसन्नता है । कारण यह है कि सारा देश इस प्रकार सुसंगठित है कि . की बात है । वहाँ बेचनेवाले की दयालुता गवरीदनेवाले गृह-कार्यों के लिए मनुष्य को बहुत कम दौड़-धूप करनी के द्वारा प्रतिध्वनित हो उठती है। .. .
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...
. सरस्वती
[भाग ३८
भिन्न भिन्न श्रेणियों के लोगों में पारस्परिक सम्मान- भी कोई गराज-मोटर को खड़ा करने का स्थान नहीं मूलक यह अद्वितीय स्वतन्त्रता अमरीका की सच्ची लोकसत्ता मिलता। का एक अतीव सुखद लक्षण है। स्वामी और सेवक की परन्तु अमरीका की बड़ी सड़कों पर एक नये संसार पुरानी भावना वहाँ नहीं है।
. की सृष्टि हो गई है। पुराने समय के टाँगों और इक्कों कीयोरप में मुसाफिरों को सराय में, होटल में, जहाँ भी सी बात हो रही है। जगह जगह मोटर के लिए खाना, जायँ, नौकरों को 'टिप' या बख़शीश देनी पड़ती है। पीना, मकान और सेवक तैयार मिलता है। मोटर चलाने
श के बिना वहाँ के नौकर काम ही नहीं करते। वाला भी थोड़े से पैसों से पेट भरकर खा सकता है। बम्बई के सबसे बड़े ताजमहल होटल में भी जब तक अमरीका के राजमार्गों पर सबके साथ समता का व्यवहार श्राप बहरे को. खानसामे को. लिफ्टवाले को. चौकीदार को होता है। यहाँ सेवा करनेवाले और सेवा करानेवाले के "टिप' न दे, वे आपका कुछ भी काम नहीं करेंगे । श्राप बीच सद्भाव है। वह अमरीकन स्वतन्त्रता और लोकसत्त खाने के कमरे में बैठ जाइए, कोई आपसे पूछेगा तक नहीं का फल है। कि श्रापको क्या चाहिए। इसलिए मुसाफिरों को तंग अमरीका में जब आप होटल के नौकर से प्रार्थना अाकर अपनी गौं के लिए होटल के नौकरों को घूस देनी करेंगे कि मेरा कमरा जल्दी साफ़ हो जाय तो वह उत्तर पड़ती है । योरप में आपको स्त्रियाँ मोटर चलाती हुई में आपसे कहेगा- "बहुत अच्छा, प्यारे !” परन्तु योरप में बहुत कम मिलेंगी । स्त्री का मोटर चलाना वहाँ एक विला- इसका उत्तर मिलेगा--"महाराज, सेवा के लिए हाज़िर सिता समझा जाता है । वहाँ स्त्री एक ऐसा तुच्छ प्राणी हूँ" या "कृपानाथ, बहुत अच्छा ।” योरपीय होटल के समझी जाती है जिसके पास कोई काम नहीं। अच्छी सेवक के शब्दों से दासता का भाव टपकेगा, और वह गृहस्थ देवियों के पास मोटर चलाने के लिए न तो समय सदा बख़शीश की अाशा करेगा । “बहुत अच्छा, ही है और न रुपया ही। योरप के मस्तिष्क में यह बात प्यारे !" में ऐसा कोई भी भाव नहीं है बैठी हुई है कि मोटर में बैठनेवाले व्यक्ति ज़रूर धनाढ्य यात्री ऐसा अनुभव करता है, मानो प्रत्येक व्यक्ति उसे ही होने चाहिए । वहाँ इससे अमीर और ग़रीब की पहचान सहायता देना चाहता है । वहाँ बर्फ़वाला कहेगा—“आपको होती है ।
बर्फ की सन्दूकची का ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं। __ अमरीका में लम्बी, सीधी, सफ़ेद सीमेंट की सड़कें हैं। जब ज़रूरत होगी, मैं आप ही उसे भर दूंगा।' आपके इन पर छाया नाम को भी नहीं। जगह जगह विज्ञापन कपड़े धोनेवाली धोबिन आपसे कहेगी--"मैं आप ही कपड़े चिपकाकर इनकी सूरत बिगाड़ दी गई है। परन्तु मोटर- इकठे करके आपके सामने गिने लेती हूँ।" वालों को इन पर चलने में भी एक अानन्द प्राप्त होता अमरीका के होटल एक विशेष चीज़ हैं । संसार के - है। एक समय था, जब इन सड़कों पर मुसाफ़िरों की भीड़ और किस देश में आपको स्नानागार में साबुन पड़ा रहती थी। सराये थीं जहाँ बटोही विश्राम कर सकते थे। मिलेगा ? और किस जगह आप होटल के बिल का चेक यात्रा का अपना निराला ही लुत्फ़ था।
काटते समय उसमें नौकर की बख़शीश भी मिला सकते आज अमरीका में सड़कों का पुनर्जन्म हुआ है। हैं, और खुद नौकर आपको इसकी सूचना देता है ? योरप में मोटर का शब्द सुनकर आज भी बत्तखें काय-कायँ दूसरा कौन-सा देश है, जहाँ अस्पको इतनी जल्दी, और करती हैं, कुत्ते भोंकते हैं, और घोड़े कान खड़े करते हैं। एक ही काग़ज़ पर सब ख़र्चों का बिल दे दिया जाता है ? मोटर को बार बार रोकना पड़ता है। अभी तक टङ्की जब आप योरप के होटल से बाहर निकलेंगे तब कमरेवाला में पेट्रोल के चुक जाने का डर लगा रहता है, क्योंकि नौकर आपको अपना छोटा-सा बिल देगा भोजनालय का पेट्रोल मिलने के स्थान एक-दूसरे से बहुत दूर दूर हैं। बिल अलग मिलेगा, कुली अपना तीसरा बिल देगा। मोटर ख़राब हो जाने की दशा में तो और भी दिक्कतें होती जब आप समझेंगे कि यह बखेड़ा ख़त्म हो गया तब प्रायः है। मीलों चले जाने पर, गाँव के गाँव निकल जाने पर, एक और मनुष्य आपके पीछे भागता हुआ आयेगा कि ,
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संख्या २]
- अमरीका और योरप में अन्तर
१६१
अभी श्रापको टेलीफोन पर बात करने (कॉल) का और हैं। वे आपसे उन सब वस्तुओं की न रसीद लेंगे और न एस्पिरीन की एक डिबिया का बिल देना बाकी है । इसके अापके घर के कड़े में टूटी हुई रकाबियों के टुकड़े देखते साथ ही २० प्रति सैकड़ा कृपया बखशीश भी दिये जाइए! रहेंगे। वे आपको एक सज्जन मानकर आप पर विश्वास
फिर अमरीका की रेलगाड़ियाँ ! आपके लिए वहाँ करेंगे। सुख और विश्राम के ऐसे साधन जुटाये गये हैं, मानो आप . आप काई वस्तु ख़रीदते समय भूल से दूकानदार को बीमारी की दशा में सफर कर रहे हैं। रेल के कुली आपसे ज्यादा पैसे दे बैठते हैं । पता लगते ही वह झट श्रापको ऐसे सुन्दर ढंग से व्यवहार करेंगे, मानो श्रापको श्राराम फालतू पैसे लौटा देगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अमरीका पहुँचाने पर ही उनका सारा भाग्य निर्भर करता है। इसका में प्रत्येक वस्तु की इतनी प्रचुरता है कि वहाँ किसी को अाशय यह नहीं कि वे लोग सब देवता हैं और निःस्वार्थ- किसी तरह का हलकापन करने की ज़रूरत ही नहीं। परन्तु भाव से सब कहीं प्रसन्नता और माधुर्य बिखेर रहे हैं। योरप में आप चाहे बरसों से चाय. काफ़ी. कपडा को संभवतः यह सब पैसे के लिए है। परन्तु इससे यात्रियों की चम्मच या घी खरीदते रहे हों, फिर भी आपको सदा संदेह कितनी भलाई होती है ?
बना रहेगा कि दूकानदार ने कहीं तोल, माप या गिनती में अमरीका विशेष रूप से ईमानदार देश है । घर से कम न दे दिया हो । योरपीय लोगों में धन इकट्ठा करने अाध मील दूर आप चीज़े खरीदते हैं और टांगेवाले के की प्रवृत्ति बनी रहती है । यही उनकी आत्मिक अशान्ति सिपुर्द कर देते हैं । इनमें आपकी पुस्तकें होती हैं, किराना का कारण है । इस डर या अरक्षा का स्वास्थ्य पर. बड़ा होता है, चिट्रियाँ और चेक होते हैं । आप उनको ताले में बुरा प्रभाव पड़ता है। हलवाई की दुकान में नाना प्रकार बंद नहीं करते और न उनकी रखवाली के लिए काई की मिठाइयाँ सजी देखकर एक निर्धन भूखे गँवार के मन अपना आदमी बैठाते हैं। वे घंटों वहाँ खुली पड़ी रहती की जो अवस्था होती है वह किसी से छिपी नहीं । योरपीय हैं । पर क्या मजाल जो उनमें से एक भी वस्तु चुरा ली देशों के लोगों की वैसी ही दशा है । उनकी तबीअत श्रमजाय? टाँगेवाला अपने आप उन्हें आपके मकान पर रीकनों की तरह तृप्त नहीं । पहुँचा देगा। यह बात योरप में कहाँ ?
अमरीका में लोग नाना प्रकार की सामाजिक समस्याओं योरप में पुष्प-वाटिकात्रों के इर्द-गिर्द तार के जंगले पर विचार करते हैं और नई नई कल्पनायें तैयार करते हैं। लगे रहते हैं । परन्तु अमरीका में बागों में कोई बाड़ नहीं परन्तु योरप में सारे सामाजिक कार्यक्रम का प्रश्न केवल रहती। अड़ोस-पड़ोस के बच्चे और राह चलते बटोही इतना ही है कि क्या हमें खान-पान और भोग-विलास की खुल्लम-खुल्ला वहाँ जा सकते हैं. इस पर भी कोई फूल नहीं सामग्री सदा मिलती रहेगी, हमसे कभी वह छिन तो नहीं तोड़ता। हमारे पहाड़ी प्रान्तों के सदृश अमरीका में भी जायगी? यारपवालों के लिए यह निश्चय बड़ा महत्त्व कहीं कहीं लोग अभी तक घर को खुला छोड़ जाते हैं, रखता है। इससे उनको शान्ति होती है और वे आराम से ताला नहीं लगाते। ताला लगाकर चाबी को चटाई के साँस लेने लगते हैं। जो मनुष्य कभी अमरीका नहीं गया नीचे रख जाने का रवाज तो वहाँ श्राम है। योरप में ऐसी वह समझता है कि वहाँ लोगों के चेहरों से उतावली और बात नहीं।
अशान्ति टपकती होगी। परन्तु अवस्था इसके बिलकुल __ अमरीकन लोग प्रायः उदार होते हैं । आप उनसे विपरीत है। अमरीका के लोग योरप के लोगों की अपेक्षा मकान किराये पर लेते हैं। उसमें कालीन, जाजम, रका- अधिक शान्त देख पड़ते हैं। बियाँ, और दूसरी सैकड़ों छोटी छोटी वस्तुएँ मौजूद होती
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भारतीय
ला.
श्रीयुत रामनाथ दर उन इने-गिने शिक्षित भारतीयों में हैं जिन्हें नृत्य-कला ने विशेष रूप से आकृष्ट किया है, और जिन्हों ने इसके अभ्यासियों के प्रति जन-साधारण की तिरस्कारपूर्ण भावना की परवा न कर इसका अभ्यास आरम्भ किया है। यह लेख आपके ऐसे ही वातावरण में अध्ययन और अभ्यास का फल है । आपकी बातें विचारणीय हैं । मूल लेख आपने अँगरेजी में लिखा था उसका यह हिन्दी
अनुवाद श्री महेन्द्रनाथ पांडेय ने किया है।
लेखक, श्रीयुत रामनाथ दर
- Ener ह वर्तमान समय का शुभ चिह्न ऐसा देखने में आता है कि एक युवती का नृत्य
है कि हम लोगों में से शिक्षित अधिकांश दर्शकों को एक युवक के नृत्य की अपेक्षा अधिक व्यक्तियों की नृत्य-कला की ओर भाता है। इसका कारण केवल नर्तकी का स्त्री होना ही अभिरुचि प्रतिदिन बढ़ती जा रही नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि जब दो महिलायें नृत्य
है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि करती हैं तब उसका नृत्य अधिक अच्छा समझा जाता।
- इस प्राचीन कला की टैगोर और है, जो अधिक सुन्दरता के साथ अंगों का सञ्चालन करती उदयशंकर ने अपने अद्भुत अन्वेषण से सत्यानाश और और अधिक संस्कृत रूप में भाव-प्रदर्शन करती है बनिबदनाम होने से रक्षा की है। हमारे देश के कुछ धनी- स्वत उस महिला के जिसमें इन दो गुणों की कमी होती है, मानी व्यक्ति भी घुघुरू के हुनर की रक्षा अपनी चाहे वह नृत्य-कला के नियमों की विशेषज्ञ ही क्यों न हो। कदरदानी से करने के कारण धन्यवाद के पात्र हैं। भाव- ऐसा मालूम होता है कि नृत्य करनेवालों का एक सम्प्रप्रदर्शन-कला जो प्रभावशाली नृत्य का एक मुख्य अंग दाय ऐसा है-चाहे वह अपनी कला का नाम कुछ भी है, कथाकली के प्रदर्शक और बिन्दा-कालका के विद्यार्थियों रक्खें-जो नृत्यकला के व्याकरण पर ही-खासकर ताल के कारण ही अभी तक जीवित है। नृत्यकला से ही और उसकी पेचीदगियों और बारीकियों पर ही-सबसे जीविका चलानेवाली स्त्रियाँ जिनको समाज ने सदा नीची अधिक ध्यान देता है। और दूसरे छोर पर एक दूसरी
राह से देखा है, साधारण नृत्य के द्वारा इस कला की मंडली है, जो केवल बदन के लेोच पर ही मुग्ध हो जाती है। ओर जनता की रुचि बनाये रखने में बड़ी सहायक हुई हैं। जहाँ तक स्त्री-सम्बन्धी आकर्षण का सम्बन्ध है, बहुत नृत्य-कला की अोर जनता की रुचि आकर्षित करने और कुछ नर्तक और दर्शक की मानसिक और हृद्गत दशा पर उसके गुण-प्रदर्शन के लिए आज-कल म्युज़िकल कान्फरसे अवलम्बित है। अपने विचार को अधिक स्पष्ट करने के की जा रही हैं । इन कान्फरसों में जो नाच दिखाये जाते हैं लिए मेरी उन लोगों से जो मेरे इस विचार से सहमत वे दर्शकों को बहुत पसन्द आते हैं, इसमें कोई आश्चर्य न हों, यह प्रार्थना है कि वे उदयशंकर के प्रेम-सम्बन्धी नहीं है, क्योंकि नैतिकता के ढोंग के कारण मनुष्य की नृत्य को देखने के बाद जो असर पड़ा हो उसकी तुलना अान्तरिक तृष्णा की इनसे तृप्ति होती है। इसके अतिरिक्त उस असर से करें जो उनके हृदय पर किसी असभ्य वहाँ हमें एक और बात देखने को मिलती है, जो मेरे युवक-या युवती के-चाहे वह अपने हुनर में कितनी ही विचार से बहुत ही महत्त्व-पूर्ण है, साथ ही अर्थपूर्ण भी। प्रवीण हो-ऐसे ही नृत्य से पड़ा हो, और तब स्वयं दोनों यह उनके लिए और भी महत्त्वपूर्ण है जो इस बात का के अन्तर को समझ लें। दावा कर रहे हैं या चाहते हैं कि भारतीय प्राचीन, नृत्य- इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राचीन नृत्य-कला जिस कला पुनर्वार अपने असली रूप में जीवित हो जाय जिसमें प्रकार आज-कल दिखाई जाती है, उस तरह एक साधावह हमारे हृद्गत उच्च भावों को जागृत और प्रकाशित रण व्यक्ति को उसमें अानन्द नहीं आ सकता, किन्तु कर सके।
. निःसन्देह वह इस रूप में प्रदर्शित की जा सकती है और
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संख्या २]
होनी भी चाहिए, जिसमें वह जन साधारण की रुचि को सुधार सके और अपना प्रभाव डाल सके । यदि प्राचीन नृत्य- कला ऐसी वस्तु है जिसको एक साधारण मनुष्य जिसमें सामान्य बुद्धि और पवित्र रुचि हो, न समझ सके और न गुणों की परख ही कर सके तो शहर के बीच में टिकट लगाकर जनता के निमन्त्रित करके उसे प्रदर्शित करना
भारतीय नृत्य-कला
मूर्खता है । यह समझ की बात है और विवेकपूर्ण भी है कि नृत्य कला में विभिन्नता होनी चाहिए । नृत्य में किसी ख़ास अंग के सञ्चालन में प्रवीणता प्राप्त करके जैसे घुँघुरु की कला में - यह दावा करना कि यही प्राचीन नृत्य का व्याकरण है और यही होना चाहिए, मेरी राय में ग़लत है और साथ ही हानिकारक भी। इसी प्रकार व्याकरण के गुलाम किसी अन्य मंडली के सम्बन्ध में भी यही आक्षेप लागू होना चाहिए। यह लाजवाब घुँघुरु की कला स्वयं बुरी नहीं, किन्तु इसके सबसे अच्छे प्रद र्शन को भी हम लयपूर्ण व्यायाम ही कह सकते हैं। यह बिलकुल यान्त्रिक है, यद्यपि इससे टाँग और पैर की रंगों और पट्टों पर आश्चर्यजनक अधिकार ज्ञात होता है । किन्तु फिर भी हम इसे शुद्ध नृत्य- कला नहीं कह सकते । यह बात अवश्य है कि यह नृत्य कला की सर्वश्रेष्ठ है ।
वास्तव में नृत्य का आरम्भ वहाँ होता है, जहाँ उसके व्याकरण का अन्त है । मैं इसे स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं प्राचीन हिन्दू-नृत्यकला के पुनरुज्जीवित करने के विरुद्ध नहीं हूँ और न तो मैं इस कला के सच्चे प्रदर्शकों state a faa किसी प्रकार का आक्षेप करना चाहता ॐ हूँ। मैं केवल इस बात पर जोर देना चाहता हूँ कि जब तक व्याकरण को उपयुक्त स्थान नहीं दिया जायगा और वह लक्ष्य तक पहुँचने के लिए केवल साधन मात्र नहीं माना जायगा और जब तक इस कला के शिक्षार्थी अपनी मानसिक और हार्दिक उन्नति न कर लें तब तक वे इस कला में निपुण नहीं हो सकते। यह अक्षरशः सत्य है कि मीराबाई के भजन नाचने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह यदि मीराबाई की प्रात्मिक उन्नति तक न पहुँच सके तो कम-से-कम उसके तत्त्व तक तो अवश्य ही पहुँच "जाना चाहिए। मेरी राय में नृत्यकला का उसके व्याकरण
की अपेक्षा स्वाभाविकता अधिक आवश्यक है। क्योंकि
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आख़िर नृत्य का उद्देश क्या है और चाहिए ?
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क्या होना
नृत्य व्यक्ति के लय और ताल सुर-युक्त अंग-संचालनद्वारा भावों का प्राकृतिक और शक्तिशाली प्रदर्शन करना है । शारीरिक उन्नति और मनोरंजन का भी इससे अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है । नृत्य में अनेक प्रकार के भाव उमड़ सकते हैं। इसमें मारने और जिलाने की गुप्त शक्ति भी छिपी हुई है। इसलिए यह और भी श्रावश्यक हो गया है कि हम जिन भावों का प्रदर्शन करना चाहते हैं उनका विवेक के साथ चुनाव करें। और यह बहुत ही सौभाग्य की बात है कि हमारी दृष्टि अपनी प्राचीन नृत्य - कला की ओर गई है। क्योंकि उस कला की सृष्टि ही नर्तक और दर्शक के भावों को पवित्र और उन्नत करने के लिए हुई है । मैं तो इस कला को सर्वव्यापक ! रहस्य या परमात्मा की एक प्रकार की उपासना समझता हूँ। वास्तव में इसको व्यक्तिगत भक्ति का कर्म समझना चाहिए । यदि एकान्त में आन्तरिक भाव-प्रदर्शन के लिए नृत्य किया जाय तो वह अत्यन्त आनन्ददायक और सफल होता है । मैं तो मस्तानेनाथ का मानता हूँ। धन कमाने के लिए या अपने मालिक को प्रसन्न करने के लिए या प्रशंसा प्राप्त करने के लिए जो नृत्य किये जाते हैं वे मेरी तुच्छ राय में उस प्राचीन भारतीय नृत्य कला के उत्तम आदर्श तक हमें नहीं पहुँचा सकते जो हमें अत्यन्त प्रिय मालूम होती है। भय, लालच, अहंकार, ढोंग की लजा इस उच्च कला के घातक शत्रु हैं। यद्यपि इस कला का पहला आदर्श हृदय को आकर्षित करना है, तथापि इसका
भिप्राय यह नहीं है कि हम नेत्रों और मन को सौन्दर्यप्रियता को भूल जायँ । सभी साधनों को ठीक ढंग से और अन्दाज़ से काम में लाना चाहिए, जो विषय तक ले जाने में समर्थ हों ।
हमारे पास भावों की भाषा, सुन्दर श्रासन और मुद्राओं की अद्भुत अक्षय पैत्रिक सम्पत्ति है। ये चीजें नृत्य के प्रभाव को बहुत हद तक बढ़ाने में मदद करती हैं। परन्तु यहाँ भी सच्चे कलाविद् को इस बात की पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए कि वह जब चाहे नई मुद्राओं और नये आसनों की सृष्टि कर सके । बदन का लोच नृत्य का नेत्रों के लिए सुन्दर बना देता है, किन्तु
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सरस्वती
[भाग ३८
यह नृत्य के विषय का एक साधन-मात्र है । इसका प्रकट होती है । वेगपूर्ण अंग-संचालन भी काम में लाया मनमानी और बेमानी तरीके से केवल शरीर का तोड़ना- जाता है । सच तो यह है कि इस प्रकार का अंग-संचालन मरोड़ना नहीं समझना चाहिए। . एक पूर्ण नर्तक स्वाभाविक रूप से करने लगता है जब • लोच के साथ अंग-संचालन जब कायदे से किये जाते उसको बहादुरी के भाव-प्रदर्शन करने होते हैं । इससे यह . हैं तब वे नृत्य के लिए उतने ही ज़रूरी और कीमती होते प्रकट होगा कि यदि हमको वास्तव में प्राचीन नृत्यकला हैं जितना कि स्वर की शुद्धता संगीत के लिए और रंग को पुनरुजीवित करना है तो हमारे नर्तक को ध्यानपूर्वक मिलाना चित्र-कला के लिए । अंग-संचालन में धारा-प्रवाह भक्ति-पूर्ण दृष्टिकोण बनाना पड़ेगा। यही दृष्टिकोण नाच के लिए, एक बहुत ऊँची श्रेणी के कलाविंद् की आवश्य- की बुनियाद होनी चाहिए । नृत्य-कला में 'पैर का काम, कता होती है । एक सच्चे प्राचीन कला के नर्तक की यह लोच या लय और अभिनय का पूर्ण समन्वय होना पहचान है कि उसके नृत्य में प्रयत्न या.तनाव नहीं होना चाहिए । इसी ढंग पर जनता के नेत्र, मन और हृदय को चाहिए या यों कहिए कि उसे अपने को नृत्य में मग्न कर भी शिक्षित करना चाहिए जिससे सच्ची प्राचीन नृत्य-कला देना चाहिए। यह मानसिक शान्ति या समाधि ज़ोरों से के पल्लवित और ग्रथित होने के लिए अनुकूल वायुनृत्य करते समय नर्तक के चेहरे और अंग-संचालन से मंडल तैयार हो जाय।
हिन्दी लेखक, श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एस-सी०, एल-एल० बी० कौन तुझे दीना कहता है ?
मा ! आसेतु हिमाचल तेरा यशःसलिल निर्मल बहता है ।। हम लोगों के भव्य भाल की हिन्दी तू बिन्दी-सी है। उत्तर से दक्षिण तक तेरी पावन ज्योति जगी-सी है।
तुझे समुद अपनाकर भारत कितना गुरु गौरव लहता है। नित्य नई है नित्य निराली नव-रस-मयी सृष्टि तेरी। शीतल करती है हृत्तल को सुन्दर भाववृष्टि तेरी।
मतवाला मयूर-सा हा मन किसका नहीं नृत्य करता है। तुलसी सूर कबीर जायसी या रहीम रसखान सभी। तेरे भव्य भवन में आये भेद न कोई हुआ कभी।
मिली तुझे उनसे उनको भी तुझसे अमरों की समता है ।। तेरे शत शत लाल चमककर अब भी रवि शशि तारों-से । सजा रहे हैं तेरा अंबर उज्ज्वल मणिमय हारों से ।
. मलयानिल सौरभ-सा जिसमें भावोच्छ्वास निहित रहता है। हिन्दू मुसलमान ईसाई तू तीनों की पूज्य बनी। चढ़ा रहे तेरे चरणों पर सब श्रद्धाञ्जलियाँ अपनी।
. अपरों तक को अपनाने की तुझमें भरी हुई ममता है। वह विशुद्ध लेखन-पद्धति वह शब्दों की संहति तेरी। कितनी स्पष्ट सुबोध सरल है आकृति और प्रकृति तेरी।
...देवि ! राष्ट्रभाषा बनने की तुझमें ही सच्ची क्षमता है ।। कौन०
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कटे खेत
लेखक, श्रीयुत केसरी उजड़ा दयार या चमन कहूँ।
श्रो वसुंधरे ! इस परिवर्तन को निधन कहूँ या सृजन कहूँ। उजड़ा दयारकल लोट-पोट थी हरियाली तेरे आँगन में लहराती
गेहूँ के गोरे गालों पर रूपसी तितलियाँ बलखातीं। छवि का नीलम संसार सघन सौरभ का वह बाजार नया
रे कहाँ शून्य इन खेतों से मधुवन का वह गुलजार गया । बढ़ झौर-झौर मधु बौर-भरी सरसों मदमाती झूम रही . - अब कहाँ बैंगनी पीली कुसुम-कली को कोयल चूम रही। अब कहाँ बेल-बूटों-सी खेतों की कोरों पर इठलाती
साँवली सलोनी पुतली-सी अलसी विलसी पाँती-पाती। लुट गया आह! वैभव-सुहाग लुट गई आज वह फुलवारी
श्रो भूमि ! कहाँ खाई तूने निज चिर-संचित निधियाँ सारी ! "सुंदर थी मैं ओ पथिक ! आज मेरी सुंदरता बिखर गई
जग में सुंदरता भर कर तो मेरी सुंदरता निखर गई। मैं बनी अकिंचन आप और मुझसे गृह-गृह परिपूर हुआ
हूँ धन्य आज मम अंचल-धन जग की आँखों का नूर हुआ। कल थी सुहागिनी आज विश्व-हित हूँ तपस्विनी त्यागमयी,
मेरी सरसों वह आज देव-मंदिर का अमल चिराग़ हुई। बलि बलि जाती तुझ पर मेरे ओ ! कुसुमों की चंदनवाड़ी
जो रंग दी तूने कृषक-किशोरी की वह वासंती साड़ी। मेरे आँगन की हरियाली बन अमरलता फैली जग में ।
__परित्राण बनी दे नव संबल थकितों को कटु जीवन मग में । प्राणों के रस से सींच-सींच जो अंकुर मैंने पनपाये
क्षम सफल जगत का आँगन यदि उनकी छाया से सरसाये। चल जीवन का बस ध्येय यही शाश्वत जग का उपकार करूँ
प्रतिवर्ष दीन-मानव मंदिर में नवल नवल उपहार धरूँ। अर्चित तप के फल दे जग को मैं सिद्ध योगिनी-सी मन में
__संतुष्ट, ग्रीष्मपंचाग्नि बीच तपती रहती नित कण-कण में। फिर प्रेमवशी घनश्याम उमड़ जब सावन-भादों बरसाते
जग का कल्याण लिये मेरे उर नये-नये अंकुर आते।
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फ़ैज़पुर का
'महाकम्भ'
लेखक, श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए०
. इस लेख के साथ जो चित्र प्रकाशित हो रहे हैं वे हमें श्रीयुत काशीनाथ त्रिवेदी और प्रो० मेनन से प्राप्त हुए हैं।
महासभा का शिवाजी द्वार ।
प्र
याग और हरिद्वार के कुम्भ या अर्ध- कुम्भ में तो केवल हिन्दू-जाति के लोग ही एकत्र होते हैं । कुम्भ तो कितने ही बार हो चुके किन्तु फ़ैज़पुर में तो हिन्दू, पारसी, मुसलमान, ईसाई इत्यादि हैं। हज़ारों-लाखों की भीड़ होती. सभी जातियों के लोग जमा हुए थे। साधारण कुम्भ में
है, सब लोग गंगा-स्नान करते हैं, हरिजनों पर जो बीतती है, वह कौन नहीं जानता ।
__ और अपने लिए स्वर्ग में एक किन्तु यहाँ तो सैकड़ों पढ़े-लिखे भाइयों ने उनका हाथ स्थान पाने की कोशिश करते हैं। इन कुम्भों से किसी सहर्ष बँटाया था। हरिद्वार और प्रयाग के कम्भों में का सचमुच कुछ लाभ होता है या नहीं, यह तो साधु लोग केवल धर्म ग्रन्थों का पाठ करते हैं, और लोगों ईश्वर जाने, पर इतना प्रकट है कि धर्म के नाम को परलोक की बात बताते हैं । फैज़पुर में महात्मा गांधी पर इस देश में जितनी भीड़ इकट्री हो जाती है, और पंडित जवाहरलाल जैसे नेता एकत्र थे, जिन्होंने अपने उतनी संसार के शायद ही किसी और देश में होती हो। त्याग और चरित्र के बल से देश में नवजीवन का संचार और ऐसी भीड़ों से क्या लाभ होता है, इसका अनुमान किया है, मरी हुई जाति में नवीन आशा का भाव जाग्रत देश की दयनीय दशा से अच्छी तरह किया जा सकता है। किया है और इस लोक की राह बताई है, जिससे परलोक
अपने आप बन जाता है। तब हम इस बड़े समारोह को पर गत दिसम्बर के अन्त में नये ढंग का एक महाकुम्भ 'महाकुम्भ' क्यों न कहें ? हो गया, और वह भी खानदेश के एक छोटे-से गाँव में। x
x प्रयाग और हरिद्वार के सामने अभी तक फैज़पुर की क्या वैसे तो इस प्रकार के राष्ट्रीय कुम्भ बहुत हो चुके हैं । गिनतो थी ? लेकिन उस महाकुम्भ ने इस छोटे गाँव को किन्तु इस कुम्भ में एक विशेषता थी, जिसके कारण हम गौरवान्वित कर दिया। उक्त स्थानों के कुम्भों के द्वारा उसको महाकुम्भ कहते हैं। अभी तक सब राष्ट्रीय महासभायें अन्धविश्वास और अकर्मण्यता का देश में भले ही प्रसार शहरों में ही हुआ करती थीं। गाँवों में जो यथार्थ में हा हो, किन्तु इस फ़ैज़पुर के कुम्भ से देश में एक नवीन भारत के केन्द्र हैं. इस महासभा का प्रकाश कभी नहीं जाग्रति और उत्साह का संचार हा है। फिर साधारण फैलाया गया। हमारे देश के अधिकांश लोग किसान
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संख्या २]
फैजपुर का महाकुम्भ'
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हैं। यह महासभा इन्हीं किसानों के लिए श्राज़ादी की लड़ाई लड़ने का दावा करती रही है। फिर शहरों में ही इसके अधिवेशन क्यों होते रहे ? यह बात जब हम अब सोचते हैं तब आश्चर्य होता है। किन्तु इस प्रणाली की अस्वाभाविकता का पहले-पहल महात्मा गांधी को ही अनुभव हया और गांव में राष्ट्रीय महासभा के करने का विचार प्रकट किया । लोगों को आशा नहीं थी कि यह ग्रामीण अधिवेशन सफल हो सकेगा। कुछ लोगों ने मज़ाक भी उड़ाया। लेकिन फैज़पुर का अधिवेशन सफलता से हो गया । लोग समझते थे कि बहुत कम भीड़ होगी। लेकिन इतनी भीड़ हुई कि व्यवस्था करना भी मुश्किल हो गया । सभी लोगों का अनुमान है कि इतनी भीड़ अभी तक किसी कांग्रेस के किसी अधिवेशन में नहीं हुई है। भीड़ के कारण तीन दिन के बजाय दो ही दिन में महासभा का कार्य समाप्त कर देना पड़ा।
इस भीड़ के उमड़ पड़ने का क्या कारण था ? गाँव में महासभा करना ही इसका कारण है । मानव-रूपी सागर एकदम उमड़ पड़ा था । असल में कांग्रेस का स्थान गाँवों
[वह रथ, जिसमें राष्ट्रपति का जलूस निकला था।]
में ही है। किसी भी संस्था का स्थान, भारतवर्ष के हित के लिए, गाँव में ही होना आवश्यक है। गाँवों से दूर भागकर हम असली भारत को भूलने की कोशिश करते हैं।
जहाँ अधिवेशन हुआ था, उस स्थान का नाम 'तिलकनगर' रक्खा गया था। संपूर्ण नगर ६० एकड़ के घेरे में था। नगर के मध्य में "शिवाजी-फाटक" मुख्य द्वार था। इसके आस-पास थोड़े फ़ासले पर 'अंसारीफाटक' और 'शोलापुर-शहीद-फाटक' थे। शिवाजी-फाटक के बाद दूसरा फाटक 'सुभाष-फाटक' था। इन दोनों फाटकों के बीच की चौकार जगह में बाज़ार था। फाटकों के बाहरी हिस्सों में भी दूकाने थीं। उसकी बाई ओर 'सार्वजनिक काका द्वार' से होकर दर्शक प्रदर्शनी पंडाल में पहुँचते थे। इस प्रदर्शनी में ग्रामोद्योग, खादी, स्वदेशीउद्योग-धन्धे, चित्रकला, मधु-मक्खियाँ पालने और शहद निकालने आदि की कलायें एवं क्रियाओं के दिखाने का
श्रायोजन था। प्रदर्शनीहाल से बाहर निकलकर दर्शक [राष्ट्रपति के साथ श्री रंजीत, जिसने अपनी जान हथेली सुभाष-फाटक-द्वारा नगर के खास हिस्से में प्रवेश करते थे।
पर रखकर राष्ट्रीय झंडे की इज्जत रखी।] शिवाजी-फाटक की बाई अोर प्रदर्शनी और दाइ अोर
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सरस्वती
.
[भाग ३८
पौधों और बीच में गोलाकार हरी मेथी से सज्जित थीं। हर गोलाकार स्थल के बीचों-बीच केले वा हज़ारा के पौधे लगाये गये थे। अरहर के हरे पौधेां को छाँटछाँटकर जगह-जगह 'वन्दे मातरम्' पृथ्वी पर उगाया गया था। किसान-परिषद में आनेवाले किसानों के ठहरने के लिए तिलक-नगर से बाहर ३,००० आदमियों के लिए व्यवस्था की गई थी। ठहरने का किराया फ़ी आदमी केवल चार अाना था और दोनों समय खाने के लिए ३) देने पड़ते थे।
X
इस अधिवेशन को सफल बनाने के लिए कार्यकर्तायों ने अपना तन, मन, धन लगा दिया था। स्वयम् हाथ-पैर से दिन-रात काम किया, किसी काम को ऊँचानीचा नहीं समझा, और कम खर्च में एक सुन्दर बाँस का नगर बनाकर खड़ा कर दिया। तिलकनगर' अत्यन्त
सुन्दर और कलापूर्ण था; उसमें किसी प्रकार की बनावट [राष्ट्रपति खुले अधिवेशन में वोट-भाषण दे रहे हैं ।]
नहीं थी। सादगी में भी कितनी सुन्दरता हो सकती है, यह
तो जिन्होंने तिलकनगर अपनी आँखों से देखा है, अच्छी एक बड़ा पंडाल था, जो 'सेनापति बापट-दरवाजा' से तरह समझ सकते हैं। इस सरल सौन्दर्य के निर्माण का प्रारम्भ होता था। इसी पंडाल में कांग्रेस का खुला अधि
श्रेय शान्ति-निकेतन के सुप्रसिद्ध कलाकार श्री नन्दलाल वेशन हृया। इस पंडाल में महिलाओं के प्रवेश के लिए वास का है। उन्होंने ही उस छोटे सुन्दर रथ को बनाया 'झाँसी की रानी-फाटक' बना था। तिलकनगर के था, जिसमें राष्ट्रपति का जलूस निकला था। उन्होंने मुझे बाहर नदी की अोर 'शोलापुर-शहीद-फाटक' था। खुले बतलाया कि एक पुराने रथ में केवल सात रुपये खर्च अधिवेशनवाले पंडाल के बिलकुल भीतर 'तिलक-फाटक' करके वह कलापूर्ण वाहन बनाया गया था। नगर के बना था। सुभाष-फाटक से भीतर पाते ही बाई अोर दरवाज़ और महास पोस्ट-ग्राफ़िस, तार-ग्राफ़िस, टेलीफोन-श्राफ़िस. पत्र-संवाद- बहुत ही खूबसूरत बनाया गया था। दाताओं की झोपड़ी थी। इससे ज़रा आगे हटकर कांग्रेस का
X विषय-निर्धारिणी समिति-मण्डप और उससे सटे हुए नेताओं के निवास-गृह थे। नेताओं के निवास-गृह के पीछे स्त्रीस्वयं-सेविकानों का शिविर था। विषय-निर्धारिणी समितिमंडप के आगे की ओर परिवार-सहित आनेवाले दर्शकों के ठहरने का स्थान था। सुभाष-फाटक से गुज़रते ही दाहिनी अोर विभिन्न बातों की जानकारी का दार था।
EMA
TE
तिलकनगर की मुख्य सड़क के आस-पास श्री नन्दलाल बोस के नियंत्रण में अत्यन्त सुन्दर कतारें बनाई गई थीं। इन समानान्तर कतारों के दोनों बाजू चने के
[प्रदर्शनी के सामने जन-समूह ।
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संख्या २]
फैजपुर का 'महाकुम्भ'
y८५
___ इस बार अखिल भारतीय ग्राम-उद्योग-संघ की प्रदर्शनी भी सचमुच ग्रामीण ही थी। देहातों का-सा वातावरण था, पूर्ण सादगी, किन्तु कला और सौन्दर्य से पूर्ण। यह भी पूर्ण सफल रही। २५ दिसम्बर शुक्रवार के प्रातःकाल महात्मा जो ने इसका उद्घाटन किया था। प्रदर्शनी के मैदान में जोश का तूफ़ान उमड़ा पड़ा था। इसके अंदर के बाँस, चटाई, कच्ची लकड़ी आदि से निर्मित स्ट्राल, दफ्तर, मंडप आदि, ग्रामीण जीवन का दृश्य उपस्थित करते थे । खादीविभाग सात हिस्से में विभाजित था-(१) रुई और । दूसरे कच्चे पदार्थों का चौक, (२) औज़ारों का चौक, (३) प्रयोगशाला, (४। ख़ास चीज़ों का चौक, (५) वस्त्र स्वावलंबन-विभाग, (६) अंक-विभाग, और (७) खादी- महात्मा गांधी का प्रदर्शनी में भाषण ।] बाज़ार।
गत कई वर्षों से कांग्रेस के साथ प्रदर्शनी हो रही है। काम में लगे रहते थे । यह बात सचमुच बड़ी उनसे तुलना करने से इस वर्ष की प्रदर्शिनी अपने ढंग महत्त्व की थी। की अनूठी हुई है। खादी-मन्दिर ग्रामीण जनता को कई प्रकार की उपयोगी शिक्षा प्रदान करता था, जैसे भोजन की भी अच्छी व्यवस्था थी। एक बड़े हाल खादी-उद्योग, मधुमक्खी-पालन, चर्मालय, रस्सी बुनाई में कई हज़ार लोग एक साथ बैठकर भोजन करते थे। आदि श्रादि । खादी-मन्दिर में केवल खादी ही नहीं अधिकतर बहनें ही खाना परोसती थीं, और सब लोग बल्कि रेशमी, ऊनी आदि कई किस्म के कपड़े मोल भी बड़ी शान्ति से भोजन करते थे। एक दिन तो हम लोगों मिल सकते थे।
को करीब एक घंटा बैठकर भोजन का इन्तज़ार करना
पड़ा। किन्तु सैकड़ों लोग बड़ी सावधानी से चुपचाप तिलकनगर की सफ़ाई का भी बहुत अच्छा इन्तज़ाम बैठे रहे। लोगों के संतोष और धैर्य को देखकर मैं तो था। सैकड़े पढ़े-लिखे, उच्च जाति के "श्रादर्श भंगी” दंग रह गया।
तो भी भोजन-व्यवस्था बहुत अच्छी थी। ५०-५० हज़ार व्यक्तियों के लिए भोजन की व्यवस्था करना असाधारण कार्य था। पाठ पाने में दोनों समय कोई भी व्यक्ति तिलकनगर के भोजनालय में भोजन कर सकता था। एक साथ लगभग २५० पुरुष और १५० स्त्रियाँ खाना प्रारम्भ कर सकते थे । पन्द्रह-बीस औरत परोसती थीं । सफ़ाई, सुन्दरता और सजावट का पूरा ध्यान रखा जाता था । खाने में आटा व चावल हाथ का पिसा-कुटा होता था। भोजन अधिकांश महाराष्ट्र-ढंग पर तैयार होता था। खाने-खिलाने में भेद-भाव किसी बात का नहीं था।
स्वागत-समिति की स्वयंसेविकाओं ने अपनी सेवाओं से लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। शायद ही
झंडा-अभिवादन।
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सरस्वती
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श्रायेंगे । हम अँगरेज़ों से घृणा नहीं करते। अगर वे हमारे देश में रहना चाहें तो दूध में शक्कर की तरह रह सकते हैं। महात्मा जी ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल खादी पहनना काफ़ी नहीं है। खादी के साथ सत्य, अहिंसा और धर्म भी आवश्यक है।
उसी दिन महासभा के खुले अधिवेशन में भी महात्मा जी ने यही बात कही । जब तक हम चर्खा और ग्रामउद्योगों को महत्त्व नहीं देंगे, हिन्दू-मुस्लिम-एकता, अछूतोद्धार इत्यादि पर फिर पूरा ध्यान नहीं देंगे, तब तक, केवल
व्यवस्थापिका सभात्रों से कुछ लाभ नहीं होनेवाला है। [खुले अधिवेशन का एक दृश्य ।]
"अगर हम इन बातों की ओर ध्यान नहीं देगे तो इस बूढ़े कोई व्यक्ति ऐसा . होगा, जिसे इनके प्रति शिकायत का की यह भविष्यवाणी है कि हमें स्वराज्य कभी नहीं कोई मौका मिला हो । फैजपुर में एक और ख़ास बात मिलेगा।” देखने में आई। अधिकतर हिन्दी और मराठी भाषाओं महात्मा जी के इन शब्दों को हमें याद रखने की का ही प्रयोग होता था।
ज़रूरत है और उनको अमल में लाना आवश्यक है।
इस 'महाकुम्भ' का सबसे महत्त्व का दिन २७ दिसम्बर दुसरा भाषण २९ दिसम्बर को पूज्य मालवीय जी का था। सुबह आठ बजे झण्डा-अभिवादन हुआ । एक नव- हुअा था, जो अपने ढंग का एक महत्त्वपूर्ण भाषण था । . युवक राष्ट्रीय झण्डे की इज़्जत रखने के लिए कई सौ फुट सुविख्यात समाजवादी श्री एम० एन० राय भी इस ऊँचे बाँस पर किस साहस से चढ़ा और अपनी जान की बार इस अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। उन्होंने अब बिलकल परवा न की, यह तो अख़बारों में निकल ही चका निश्चय कर लिया है कि वे कांग्रेस के साथ मिलकर ही है। किन्तु इस बात का ज़िक मैं खास तौर से करना चाहता देश की उन्नति के लिए और स्वराज्य के लिए कार्य करेंगे। हूँ। मेरे विचार में तो यह घटना इस महासभा की एक x x अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना थी। अब भी हमारे देश में ऐसे राष्ट्रपति का भाषण इस वर्ष छोटा था। लखनऊ नवयुवक हैं जो देश के लिए अपना जीवन खतरे में की कांग्रेस के बाद कोई विशेष बात भी नहीं हुई थी। इस डालने को तैयार रहते हैं। .
भाषण में लखनऊ के भाषण का स्पष्टीकरण था। भाषण झण्डा-अभिवादन के बाद प्रदर्शनी में महात्मा गांधी पंडित जवाहरलाल जी नेहरू ने हिन्दी में किया था। का व्याख्यान हुअा। मालूम नहीं, कितने उपस्थित लोगों x ने उसका महत्त्व समझा। कांग्रेस से अलग होने के बाद महासभा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा-सम्मेलन, अ. भा० महात्मा जी ने अपने भावों और विचारों को यहाँ पहली किसान-सभा, प्रगतिशील लेखक-सभा इत्यादि के भी बार व्यक्त किया । उन्होंने कहा कि कौंसिलों में जाने से अधिवेशन हुए। स्वराज्य नज़दीक कभी नहीं पा सकता। स्वराज्य तो सूत किसान-सम्मेलन में दो सौ मील पैदल चल कर एक के धागे पर ही निर्भर है। हम चर्खे को भूल गये हैं, इसी जत्था आया था। इसका खूब स्वागत किया गया। इस जत्थे लिए परतन्त्रता के फन्दे से नहीं छट सके। यदि आप के किसानों ने केवल किसानों को ही नहीं, नेताओं को भी सब खादी का व्यवहार करने लगे तो मैं विश्वास दिला प्रभावित किया। सकता हूँ कि लार्ड लिनलिथगो ही स्वयम् कांग्रेस के पास इस अधिवेशन में वास्तव में अभूतपूर्व जोश दिखाई पड़ा।
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जाग्रत नारिया
स्त्रियों के सम्बन्ध में भ्रमात्मक सिद्धान्त
लेखिका, श्री कुमारी विश्वमोहिनी व्यास
सितम्बर की 'सरस्वती' में हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक श्री पहले भाग को सर्वथा छोड़ दिया है या यह कहिए कि । संतराम बी० ए० ने एक लेख लिखा है। शीर्षक उसके अस्तित्व की कल्पना करने तक का कष्ट नहीं . है उसका 'हिन्दू-स्त्रियों के अपहरण के मूल कारण'। उठाया, यद्यपि वही हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है।
आज कल काई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब समाचार- आपने अपना सारा ज़ोर केवल दूसरे भाग पर ही लगाया पत्रों में स्त्रियों के अपहरण की दो-चार घटनायें छपी न दीख है। दूसरे शब्दों में यह कि स्त्रियों को बहकाकर भगा ले पड़ती हों । इस परिस्थिति में श्री संतराम जी जैसे समाज- जानेवाली घटनाओं को ही आपने अपहरण माना है और सुधारकों का अबलाओं की इस दर्दनाक दशा पर ध्यान उसका उत्तरदायित्व रक्खा है स्त्रियों पर-स्त्रियों की वासनाजाना अाशा का ही चिह्न है। इसके लिए संतराम जी वृत्ति पर। आदरणीय संतराम जी ने यह एक भारी और महिला-समाज की ओर से धन्यवाद के पात्र हैं। परन्तु भद्दी भल की है। वे स्त्री-समाज का उपकार करने की अपेक्षा आपने अपने लेख में कुछ ऐसी बातें लिख दी हैं जिनसे उसका अपकार कर बैठे हैं। यदि इ. भारत की स्त्री-जाति का अपमान होता है। स्त्री-समाज भी किया जाय तो भी लेख एकांगी है, अधूरा है और अधूरे का एक अंग होने के नाते मैं उस सम्बन्ध में यहाँ कुछ विवेचन द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचना भ्रांति का प्रचार निवेदन करना आवश्यक समझती हूँ। पहली बात है करना है। अपहरण के सम्बन्ध में। आज-कल अपहरण की जो दूसरी बात मैं यह कहना चाहती हूँ कि श्री संतराम घटनायें हो रही हैं और जो बंगाल की शस्यश्यामला जी ने अपनी बातों को सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में उपभूमि में एवं पंजाब के उत्तरी भागों में हो चुकी हैं वे सब स्थित करने की हीन चेष्टा की है। उनका श्राशय यह है कि दो भागों में बाँटी जा सकती है। पहले भाग में वे घट- स्त्रियाँ वासना की दासी हैं, वे कुरूप-सुरूप नहीं देखती. नायें आती हैं जिनमें अभागी अबलायें गुण्डों और बद- इसलिए अपहरण की घटनायें होती हैं, अतएव पुरुषों को माशों-द्वारा बलपूर्वक उड़ाई गई हैं और जिनकी रक्षा उनकी बड़ी सावधानी के साथ रक्षा करनी चाहिए। मैं निरीह और निर्बल हिन्दू नहीं कर सके। दूसरे भाग में वे निहायत अदब के साथ श्री संतराम जी के इस स्वयं निर्मित घटनायें हैं जिनमें गुण्डों ने अबलाओं को बहकाकर और सिद्धान्त का विरोध करती हूँ। आपने इस सिद्धान्त के
फुसलाकर अपना मतलब निकाला है। संतराम जी ने समर्थन में दो प्रकार के प्रमाण दिये हैं-भगवान् मनु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
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हैं। मैं यह कल्पना नहीं कर सकती कि श्री संतराम जी संस्कृत से सर्वथा शून्य हैं। यही कह सकती हूँ कि अपनी बात का सिद्धान्त का रूप देने की उत्फुल्ल लालसा में अाकर यह सर्वथा अनर्थकारी अनुवाद कर आपने महाराज । मनु की हत्या तो की ही है, समस्त स्त्री-जाति को भी व्यभिचारिणी बना डाला है।
अब संतराम जी के लेख की जान यानी घटनाओं पर। एक निगाह डालिए। घटनाओं की सत्यता पर स्वयं संतराम जी जितना विश्वास कर सकते हैं, उतना कोई दूसरा नहीं कर सकता। उनमें एक घटना तो मैं नितान्त निरर्थक समझती हूँ। आपने एक तिवारी और उनकी अगरेज़-पत्नी का उल्लेख किया है। विषय के अनुसार आपने इस जोड़े। के मिलन में वासना का प्राधान्य माना है। मैं इन तिवारी जी को और इनकी पत्नी आयरिश महिला-अँगरेज़ नहींको संतराम जी शायद ठीक न जानते हो, अच्छी तरह । जानती हूँ। मैं ही नहीं श्रद्धेय स्वर्गीय गणेशशंकर जी भी इन्हें अच्छी तरह जानते थे और इनका आदर करते थे। विश्ववन्द्य महात्मा गांधी इनको जानते हैं और श्रीमती मीरा बहन (पुरातन मिस स्लेड) से इनका गहरा परिचय है। मैं कह सकती हूँ और ये सब लोग भी कह सकते हैं कि इस सम्मिलन के मूल में वासना नहीं है। फिर तिवारी जी भी बेकार आदमी नहीं हैं, कमाते हैं। श्रीमती जी बरतन नहीं माजतीं, उनके घर में नौकर हैं। इस सम्मिलन के मूल में क्या है ? क्या चीज़ है जिसने इन दोनों को मिला दिया
है ? मैं समझती हूँ कि संतराम जी का अनुमान यहाँ पर स्पेन के गृह-युद्ध में सरकार की ओर से लड़नेवाली
भी नहीं मार सकता। उसका उल्लेख भी नहीं हो सकता। प्रसिद्ध महिला “ला पैसियो नारिया"।]
स्वतन्त्र भारत का इतिहास ही उसके लिए उपयुक्त स्थान का एक श्लोक और कुछ घटनायें। मनु का श्लोक होगा। मैं समझती हूँ, श्री संतराम जी ने हिन्दु-संस्कृति से यह है
प्रेम करनेवाली इस पाश्चात्य देवी को इस कीचड़ में घसीट नैता रूपं परोक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः
कर एक अक्षम्य अपराध किया है, जिसके लिए उन्हें सुरूपं वा कुरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते। क्षमा मांगनी चाहिए। पौश्चल्याश्चलचित्ताश्च नैस्नेहाच्च स्वभावत:
संतराम जी ने जालन्धर के एक कुँजड़े का ज़िक्र किया रक्षिता यत्नतोऽपीह भर्तेष्वेता विकुर्वते ।। है जो किसी गोरे सार्जेन्ट की बीबी को भगा लाया है । आपको संतराम जी इसका अनुवाद करते हैं-"स्त्रियाँ न विश्वस्त सूत्र से मालूम हुअा है कि वह यूँघट निकालती पुरुष की सुन्दरता देखती हैं, न उसकी आयु देखती हैं, है, रोटी बनाती है और मार भी खाती है (वर्तन नहीं चाहे सुरूप हो या कुरूप, वे पुरुष में लिप्त हो जाती हैं। माँजती ?) । मैं संतराम जी के इस सनसनी-पूर्ण समाचार को 'पोश्चल्या' का अनुवाद श्री संतराम जी 'स्त्रियाँ' करते सर्वथा सत्य स्वीकार किये लेती हूँ, साथ ही यह भी पूछना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या २]
जाग्रत नारियाँ
कुमारी वी० ठाकरदाम, म ये गणित में उच्च
शिक्षा प्राप्त करने कैम्बिज गई है।] देग के दो चावल ही देखे जाते हैं और इन दो चावलों से संतराम जी का देग कच्चा मावित हो गया है। फिर यदि थोड़ी देर के लिए बीकानीका लिया जाय कि श्री संतराम जी की घोर परिश्रम संगृहीत समस्त
हिर हिटलर की स्त्री-मित्र लेनी रीफेन्स्टाल । यह जमनी
की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री भी है। चाहती है कि जो स्त्री केवल बासना पूर्ति के लिए कुंज के माथ भाग गई थी वह मार भी कैसे ग्वाती है ? क्या उसकी वासना-पूर्ति का कोई और साधन नहीं ? क्या उस कुँजड़े के पास पड़ाम में सब देवना ही बसते हैं ? मनोविज्ञान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जो स्त्री केवल वासना की पूर्ति के लिए एक बार नीचे उतर अाती है वह फिर नहीं टिकती। जब तक उसे ग्राराम मिलता है तब तक एक व्यक्ति के पास रहती है, नहीं तो पृथक हो जाती है । अव यदि कुँजड़ेवाली स्त्री इतने पर भी उसे छोड़कर चली नहीं जाती है, अपनी वासना पूर्ति का काई और साधन नहीं हूँढ़ती है, तो मानना पड़ेगा कि उसमें वासना का राज्य नहीं, प्रत्युत कुछ और कोमल भावनायें हैं जो उसे
[डाक्टर अन्ना चको-पायनकोर को सरकार की ओर से असहनीय अत्याचारों के बाद भी कुँजड़े के पास रहने के
इंगलैंड गई हैं ।। लिए बाध्य करती हैं और उन्हीं भावनात्रों ने उसे कुँजड़े घटनायें सवा सोलह याने मत्य हैं तो संसार में इसके प्रतिके पास पहुँचाया है, संतराम जी की वासना ने नहीं। कल घटनायें भी मिलती हैं। मैं संतराम जी की तरह
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ऐसी घटनाओं के पहाड़ तो नहीं दिखा सकती, क्योंकि मेरा स्वामिनी हैं । स्त्री यदि वासना की दासी होती तो शायद 'ध्यान ऐसी बातों की ओर नहीं रहता है, फिर भी एक मानव-जाति का इतिहास पशुत्रों से अलग उज्ज्वल और उदाहरण दे देती हूँ। एक महानुभाव हैं जिनकी पत्नी ऊँचा न होता। परिश्रम करके उन्हें खिलाती हैं, उनके श्राराम का पूरा . तीसरी और अन्तिम बात मैं लेख की भाषा के सम्बन्ध ख़याल रखती हैं और वे महानुभाव उसकी अच्छी तरह में कहना चाहती हूँ। संतराम जी ने जिस 'लिपटी-चिपटी पूजा करते हैं यानी खूब मारते हैं। उस महिला से जब और 'सट गई, गढ गई' भाषा का प्रयोग किया है वह कोई कुछ पूछता है तब वह सब सुन लेती है और सिर संतराम जी जैसे घिसे साहित्यिक की लेखनी को झुकाकर चुप रह जाती है और शायद संतराम जी हैरानी शोभा नहीं देती। वयस और विद्या में श्री संतराम जी मेरे के साथ सुनें, इन दोनों में किसी तरह का वासना-पूर्ण गुरुजनों के समान हैं । इन पंक्तियों द्वारा मैं उनसे विवाद सम्पर्क नहीं है।
नहीं करना चाहती। परन्तु आपने लेख-द्वारा स्त्री-जाति का .. मेरे कहने का मतलब केवल यह है कि स्त्री वासना जो अपमान किया है, पीसे हुए वर्ग को और भी पीसने
की दासी नहीं है। बहुत सम्भव है कि संतराम जी को जात- की-उसके बन्धनों को और जकड़ने की जो चेष्टा की पाँत-तोड़क मंडल के मुख्य कार्यकर्ता होने के कारण और है, उसने मुझे विवश कर दिया है कि मैं भी अपने विचार अन्य विभिन्न मागों से भी केवल उन्हीं स्त्रियों के दर्शन रख दूँ। मेरा विश्वास है कि श्री संतराम जी इन पर हुए हों जो वासना की मूर्ति होती हैं। परन्तु संसार में ऐसी विचार कर अपनी ग़लती महसूस करेंगे और भविष्य में भी स्त्रियाँ हैं और बहुत हैं जो वासना की दासी नहीं, अमृत के नाम विष देकर बदनाम न होंगे।
.. भारत
लेखिका, श्रीमती सावित्री श्रीवास्तव भाववल्लभ, भव्य भारत ! भूलकर निज ज्ञान-गौरव क्यों बने हो आज भारत ? वेद, दर्शन, उपनिषद्, गीता तुम्हारी संपदा है, है सभी कुछ प्राप्त तुमको, भाग्य में पर क्या बदा है ? क्यों विपुल वैभव गँवाकर हो गये हो आज गारत ? कृष्ण को रटते सभी हैं पर न उनकी क्रान्तियों को, थी मिली जिनसे विजय संसार में निष्कामियों को। क्या नहीं है याद तुमको विश्व का वह महाभारत ? कहाँ तक गिरते रहोगे भ्रान्तियों में ही भटककर चढ़ चला उन्नति-शिखर पर, हो तनिक तमहर प्रभा-रतहो परस्पर प्रेम जिससे जातियों को एक कर दो व्यर्थ बंधन तोड़ दें नर-नारियों में शक्ति भर दो कर्म से ही विजय होती, कर्मवादी बनो भारत !
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धारावाहिक उपन्यास
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शनि की दशा
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अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालनपोषण हुआ था। किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषतः मामा की अनुपस्थिति में । एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, मामी से तिरस्कृत होकर अपने पड़ोस के दत्त-परिवार में श्राश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना-चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने
उसे अपनी पुत्र-बधू बनाने का विचार किया ।
तीसरा परिच्छेद
नदी के तट से कुछ दूरी पर ज़मींदार राधामाधव वसु मित्र से मुलाकात
__ की ऊँची कोठी उस अञ्चल की शोभा बढ़ा रही थी। र्षा-ऋतु का समय था। यमुना या कोठी की तेज़ रोशनी से सड़क जगमगा उठी थी। राधाब्रह्मपुत्र लबालब भर उठा था। माधव बाबू उस समय सन्ध्याकाल के शीतल पवन का साँझ हो गई थी। दक्षिण-दिशा सेवन करने के लिए गये थे। दरबान लोग भला इस की ठंडी हवा चल रही थी और अवसर से लाभ क्यों न उठाते ? फाटक के पास श्राकर
यमना की तरङ्गों के स्पर्श से और उन सबने जमघट लगा दिया। किसी की भाँग घट रही भी अधिक ठंडी होकर जगत् को स्निग्ध कर रही थी। थी तो कोई तुलसीदास के दोहों की श्रावृत्ति कर रहा था। देखते-देखते कालिमा का प्रावरण चारों ओर फैल गया, ठीक उसी समय अन्धकार को चीरती हुई एक मनुष्यसमस्त दिङमण्डल अन्धकार से आच्छादित हो उठा। मूर्ति फाटक की ओर बढ़ रही थी। सन से बोझी हुई नौकायें नदी के प्रशान्त वक्ष पर अब एकाएक माधवसिंह सरदार की दृष्टि आगन्तुक पर तक विचरण कर रही थीं, किन्तु अन्धकार अधिक बढ़ पड़ी। उन्होंने पञ्चम स्वर से पुकार कर पूछा-कौन है ? . जाने पर अभीष्ट मार्ग का निर्णय करने में असमर्थ होने ज़रा-सा आगे बढ़कर आगन्तुक ने बँगला में पूछाके कारण वे धीरे-धीरे तट की ओर बढ़ने लगीं। समीप ही क्या कर्त्ता बाबू घर में हैं ? . दस-बीस नौकायें बंधी हुई थीं। वे सभी सन से बोझी दरबान सब हिन्दुस्तानी थे, वे लोग बँगला नहीं हुई थीं। चारों दिशायें निस्तब्ध थीं, कहीं से किसी प्रकार समझ पाते थे, इससे आगन्तुक के प्रश्न का श्राशय वे . का भी शब्द नहीं आ रहा था । कहीं कहीं दो-एक किसान नहीं समझ सके । अतएव उत्तर से वञ्चित रहना उसके लिए खेत का काम समाप्त करके अन्धकार का विदीर्ण करते स्वाभाविक था । परन्तु उस बेचारे की कठिनाई का अन्त हुए घर लौट रहे थे।
इतने में ही तो था नहीं। लोगों ने उसे चारों ओर से
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सरस्वती
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घेर कर लगातार इतने प्रश्न किये कि वह व्याकुल हो . यथासमय भोजन आदि से निवृत्त होकर राधामाधव उठा । दरबानों के इस दुर्दान्त दल से मुक्ति प्राप्त करने बाबू तथा विपिन बाबू बैठक के सामनेवाले बरामदे में की कामना से शायद वह मन ही मन दुर्गा जी का स्मरण श्रारामकुर्सियों पर बैठकर बातचीत करने लगे। रात्रि के कर रहा था, इसलिए विपद्विनाशिनी ने शीघ्र ही विपत्ति • समय का शीतल समीरण अा अाकर उनकी उष्णता का से उसका उद्धार कर दिया। बहुत ही हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर निवारण कर रहा था। बग़लवाले कमरे में दो पलँगों पर
और तेजस्वी घोड़ों की जोड़ी से जुती हुई एक बड़ी-सी दोनों ही आदमियों के लिए बिस्तरे लगाये गये थे। गाड़ी श्राकर फाटक के पास खड़ी हुई। वसु महोदय ने पत्नी-वियोग के बाद से ही वसु महोदय ने भीतर का दूर से ही यह भीड़ देख ली थी। इससे कोचमैन को कह सोना बन्द कर दिया था। अन्तःपुर में वे केवल दो बार दिया था कि गाड़ी भीतर न ले चलकर फाटक पर ही भोजन के लिए जाया करते थे या और कोई विशेष कामरोक देना।
काज पड़ने पर जाया करते थे, अन्यथा वे बाहर ही बाहर . गाड़ी देखते ही रास्ता छोड़ कर दरबान लोग कायदे अपना समय व्यतीत कर दिया करते थे। के साथ एक अोर खड़े हो गये। राधामाधव बाबू गाड़ी पर बातचीत के सिलसिले में विपिन बाबू ने कहा --तुमने से उतर पड़े। श्रागन्तुक की अोर ज़रा-सा बढ़कर जैसे ही तो भैया एक तरह से हम लोगों की ममता ही छोड़ दी। उन्होंने उसके मुखमण्डल पर दृष्टि डाली, प्रसन्नता के पहले कभी कभी कलकत्ते में चरणों की धूलि पड़ भी मारे उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने कहा- जाती थी, किन्तु इधर चार वर्ष से उस ओर कभी कृपा श्रो हो, विपिन बाबू हैं ? कहो भाई, कब आये ? श्राओ, ही नहीं की। आयो, भीतर चलो। घर में अच्छा है न ?
राधामाधव बाबू ने कहा-क्या करूँ भाई ? अकेला दरबानों के हाथ से इस प्रकार अनायास ही छुटकारा आदमी हूँ, यहाँ से एक मिनट के लिए भी हटने का प्राप्त कर सकने के कारण विपिन बाबू ने बहुत कुछ अवसर नहीं मिलता। लड़का भी यहाँ नहीं रहता कि शान्ति का अनुभव किया। उन्होंने हँसते हुए कहा-हाँ उसी के भरोसे पर कारबार छोड़कर दो-एक दिन के लिए भाई, सब अच्छा है। परन्तु यदि तुम ज़रा देर तक कहीं श्रा-जा सकूँ।
और न आते तो तुम्हारी यह बन्दरों की सेना नोच-खसोट विपिन बाबू ने कहा-हाँ, अच्छी याद आ गई। कर शायद मुझे एकदम खा' ही जाती। मुझे तो ऐसा मेरा लड़का सतीश एक दिन सन्तोष की चर्चा कर रहा जान पड़ा कि शायद यहीं जीवन से हाथ धोने पड़ेंगे। था। शायद उसे कहीं से पता चला है कि सन्तोष विलाये न तो समझते थे मेरी बात और न समझते थे मेरे यत से लौटे हुए एक बैरिस्टर की कन्या के साथ विवाह इशारे। सबके सब पूरे परमहंस हैं !
करना चाहता है। शायद उस बैरिस्टर के यहाँ वह अायावसु महोदय ने मुस्कराकर कहा---प्रायः ये सभी नये जाया भी करता है। उसके घरवालों के साथ कभी कभी आदमी हैं न। अभी ये हमारी बँगला-भाषा ठीक ठीक सिनेमा आदि भी देखने जाता है। क्या तुमनहीं समझ पाते। यह कहकर विपिन बाबू का हाथ पकड़े विपिन बाबू की बात काट कर वसु महोदय ने कहाहए राधामाधव बाबू बैठक में गये। दरबानों के इस दल ऐसी बात है ? क्या यह सब सच है ? ने शिकार को हाथ से निकला हा देखकर उदास मन विपिन बाबू ने कहा-सच-झूठ का हाल भाई से फिर अपना कार्य पूर्ववत् प्रारम्भ कर दिया। परमात्मा जाने, परन्तु चर्चा मैंने इस तरह की सुनी है ।
. विपिन बाबू सन के दलाल थे। कलकत्ते में वे रहा वसु महोदय ने मुँह से तो कोई बात नहीं कही, परन्तु . करते थे। उस दिन वे यहाँ सन ख़रीदने के लिए मन ही मन वे सोचने लगे कि वैष्णव-वंश में जन्म 'आये थे। वसु महोदय विपिन बाबू के छटपन के साथी ग्रहण करके क्या वह इस तरह के अधःपतन के मार्ग की
थे, इसलिए जब कभी कलकत्ते जाने की आवश्यकता ओर अग्रसर हेा चला है ? क्या वह पूर्वजों का धर्म और पड़ती तब वे प्रायः विपिन बाबू के ही यहाँ ठहरा करते थे। नाम डुबा देना चाहता है ? क्या मेरे धर्म और मेरे समाज
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संख्या २]
शनि की दशा
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से मेरा एकमात्र पुत्र इतनी दूर चला गया है ? असम्भव ! कर डाला । अतीत की सुखस्मृति उसे देखकर व्यङ्गय यह कभी नहीं हो सकता। मेरा वह सन्तोष जिसने कभी . कर रही थी । ऐसी दशा में भला निद्रा कैसे आती ? मेरी ओर अाँख उठाकर देखने तक का साहस नहीं किया, प्रातःकाल शय्या त्यागकर वसु महोदय ने नियमित जिसने कभी बुलाये बिना मेरे पास तक पाने का साहस रूप से शौच-स्नान तथा सन्ध्या-वन्दन आदि किया। बाद नहीं किया, क्या वही अाज उच्च शिक्षा प्राप्त करके मनुष्यता को वे अपने कचहरी के कमरे में आये। छोटे छोटे काम से इतना परे हो जायगा? क्या वह वृद्ध पिता के मुँह में करने के लिए उनके यहाँ एक लड़का नौकर था। उस . अन्तिम काल में एक बिन्दु जल छोड़ने के अधिकार से. दिन की डाक लाकर उसने उनके सामने रख दी और भी वञ्चित होना चाहता है ?
स्वयं दूर जाकर खड़ा हो गया । पास ही विपिन बाबू भी . राधामाधव बाबू मन ही मन बहुत दुःखी हुए । वे नर्चे में मुँह लगाये हुए बैठे थे। दीवान सदाशिव उस सोचने लगे कि मैंने बड़े अभिमान से, बड़ा भरोसा करके, समय तक भी आवश्यक काग़ज़-पत्र लेकर उपस्थित नहीं लड़के को कलकत्ते भेजा था। मुझे विश्वास था कि मेरा हा सके थे । वसु महादय एक एक पत्र खोलकर पढ़ने लड़का अपने कुल की मर्यादा से ज़रा भी विचलित न लगे। कई पत्र पढ़ चुकने के बाद उन्होंने जब एक पत्र होगा। क्या मुझे यह आशा थी कि मेरा सन्तोष मेरी सारी खोला तब उस पर दृष्टि जाते ही उनका चेहरा लाल । मानमर्यादा मिट्टी में मिला देगा? वह कभी ऐसे भी हो गया। वह पत्र उनके एक स्वामिभक्त असामी का मार्ग का अनुसरण करेगा कि समाज उसे देखकर घृणा लिखा हुआ था । वह पत्र इस प्रकार थासे मुंह फेर ले ? · भाई-बिरादरी के लोग उसे देखकर "महामान्य श्रीयुत राधामाधव वसु मखौल उड़ावें ? क्या यही सब अपमान और लाञ्छन
ज़मींदार बहादुर, सहन करने के लिए उसने मेरे यहाँ जन्म ग्रहण किया
महामहिमाणवेषुहै ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। चाहे जैसे भी हो, श्रीमान् की सेवा में दीन-हीन का निवेदन यह है कि उसे लौटालकर मैं ठीक रास्ते पर लाऊँगा ही।
सेवक का श्रीमान् के अन्न से पालन-पोषण हा है और राधामाधव बाबू का हृदय उस समय इतना दुखी हो श्रीमान इस दास के अन्नदाता भयत्राता और प्रभु हैं। गया था कि वे अपने आपको एकदम से भूल ही गये थे। इसलिए यह सेवक अपना धर्म समझता है कि श्रीमान् के बड़ी देर तक व्याकुल भाव से पुत्र के भावी जीवन के सांसारिक व्यापार से सम्बन्ध रखनेवाली हर एक बात दरसम्बन्ध में तरह तरह की बातें सोचने के बाद उन्होंने बार में पेश करता रहे। समाचार यह है कि श्रीमान् के कहा-भैया, बैठे ही बैठे बड़ी रात बीत गई । थके-थकाये युवराज बहादुर खोका बाबू कई मास से एक ब्राह्म के आये हो, चल कर विश्राम करो। कल सवेरे जैसा होगा, यहाँ बहुत आते-जाते हैं और उसी ब्राह्म की एक कन्या वैसा परामर्श किया जायगा। ठीक है न ?
के प्रति जो वेश्या का-सा शृङ्गार किये रहती है, खोका विपिन बाबू ने कहा-इस सम्बन्ध में एक बात मुझे बाबू का ज़्यादा झुकाव मालूम पड़ता है। श्रीमान् को और कहनी है। लड़के पर शासन करने या भयप्रदर्शन अन्नदाता समझकर यह दासानुदास स करने से कोई लाभ न होगा। जहाँ तक हो सके, उसे रहा है कि उक्त वेश्या का-सा रूप धारण करनेवाली कन्या समझा-बुझाकर ही रास्ते पर ले आने की कोशिश करनी के प्रति खोका बाबू के हृदय में विशेष प्रेम उत्पन्न हो गया चाहिए।
है और वे उसके भुलावे में पड़कर ब्राह्म-मत के अनुसार : अन्त में वे दोनों ही मित्र कमरे में जाकर सो गये। विवाह तक करने को तैयार हैं। इस तरह का कर्म हो जाने । उस रात्रि में वसु महोदय को निद्रा नहीं पा सकी । तरह पर श्रीमान् की मानहानि होनी सम्भव है। यह समझकर यह तरह की दुश्चिन्तात्रों से उनका चित्त व्यथित हो उठा। दासानुदास श्रीमान् को सूचना दे रहा है। श्रीमान् के अपने हृदय-पटल पर भविष्य का जो मधुमय चित्र उन्होंने चरण-कमलों में शतकोटि प्रणाम इति सेवकस्यअङ्कित कर रक्खा था उसे न-जाने किसने पोंछ कर साफ़ श्रीगदाधर पाल ।"
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सरस्वती.
भाग ३८
.. यह पत्र पढ़ कर वसु बाबू ने विपिन बाबू को दे "क्या वर ठीक कर लिया है ?" दिया। उन्होंने भी इसे बड़े ध्यान से पढ़ा। बाद को दोनों "अभी तक तो कुछ स्थिर नहीं हो सका है। चार-छः ही व्यक्तियों ने कुछ देर तक परामर्श किया । अन्त में जगह बातें हो रही हैं। देखें, ईश्वर क्या करता है।" उन्होंने बिछौना और बक्स ठीक करने का नौकर को "अापके बहनोई जी क्या करते हैं ?
.. आदेश किया। अन्तःपुर में उन्होंने भौजाई को कहला यह बात सुनते ही हरिनाथ बाबू की आँखे डबडबा भेजा कि आज ही रात को मैं कलकत्ते जाऊँगा। 'आई। वे करुण-स्वर से कहने लगे-आज यदि वासन्ती के
माता-पिता जीवित होते तो वह बेचारी मेरे घर में श्राती चौथा परिच्छेद
ही क्यों और मुझे इस झञ्झट में ही क्यों पड़ना पड़ता ? विधाता का विधान
परन्तु वह जब केवल छः मास की थी तभी मेरे बहनोई जी .. सवेरा होते ही हरिनाथ बाबू लौटकर घर आगये। का स्वर्गवास होगया। जो कुछ थोड़ी-बहुत सम्पत्ति थी उसे परन्तु वहाँ वे एक मिनट भी नहीं रुके। उलटे पाँव दत्त बहन जी को चकमा देकर भाई-पट्टीदारों ने बाँट लिया। बाबू के द्वार पर पहुँच कर वे “विशू" "विशू" कह कर अन्त में उन्हें मेरे इस दुःखमय परिवार में आकर शरण पुकारने लगे।
लेनी पड़ी। किन्तु बेचारी वासन्ती के भाग्य में माता का ... विशू उस समय बाहर के एक कमरे में बैठा राधा- भी स्नेह नहीं बदा था। उसके चार वर्ष की पूरी होते
माधव बाबू से बात-चीत कर रहा था। इतने में एक ही वे उसे त्याग कर चली गई। तभी से रात-दिन ' परिचित कण्ठ से अपने नाम का उच्चारण सुनकर वह छाती से लगाकर मैंने उसे इतनी बड़ी किया है, अबबोला-कौन है ? हरी दादा ! प्रायो, मैं यहाँ हूँ। हरिनाथ और कुछ न कह सके। पुरानी बातें स्मरण यह कहता हुआ वह निकला और हरिनाथ बाबू को साथ में आ जाने के कारण आँसुओं के भार से उनका कण्ठ-स्वर लिये हुए राधामाधव बाबू के पास ले जाकर कहने लगा- रुंध गया। वसु महाशय, ये ही वासन्ती के मामा हरिनाथ मित्र हैं। राधामाधव बाबू ने फिर कहा-अच्छा हरिनाथ
राधामाधव बाबू अभी तक लेटे थे, किन्तु हरिनाथ बाबू , क्या आप वह लड़की एक बार दिखला बाबू को देखते ही उठकर बैठ गये और उन्हें बैठने सकते हैं ? को कहा।
हरिनाथ बाबू के उत्तर देने से पहले ही विश्वनाथ ज़रा देर तक चुप रहने के बाद विशू ने कहा-इतने ने कहा-वसु महाशय, वासन्ती को तो श्राप कल रात्रि सवेरे कैसे पाये दादा ?
में देख चुके हैं। हरिनाथ बाबू ने उत्तर दिया कि कुछ काम से कल यह सुनकर राधामाधव बाबू ने कहा-क्या वही सवेरे घोषपुर चला गया था। सोचा था कि वहाँ तीन-चार हरिनाथ बाबू की भाँजी थी ? है तो अच्छा लड़की । क्या दिन लगेंगे। परन्तु काम जल्दी ही हो गया। इसके सिवा उसकी जन्म-पत्री है ? वहीं के एक सज्जन कल वासन्ती को देखने के लिए हरिनाथ बाबू ने कहा--जी नहीं, मैं तो जहाँ तक आनेवाले हैं। इसलिए लौटने में मुझे और उतावली समझता हूँ, जन्म-पत्री नहीं है। परन्तु प्रयत्न करने पर करनी पड़ी। घर आने पर सुना कि वासन्ती चाची (विशू यह मालूम कर सकता हूँ कि किस मास में और किस तिथि की मा) के पास है, इससे उसे बुलाने के लिए मैं तुरन्त को उसका जन्म हुआ था। ठीक-ठीक समय का पता ही इधर चला आया, वहाँ ज़रा-सा बैठा तक नहीं। लगाना अवश्य कठिन है।
स. राधामाधव बाबू ने तब कहा-क्या महाशय जी के राधामाधव बाबू ने कहा-आपके बहनोई जी की कोई अविवाहिता कन्या है ?
उपाधि क्या थी? . हरिनाथ बाबू ने कहा-~जी नहीं, कन्या नहीं एक भाँजी है। उसी के विवाह की चिन्ता में पड़ा हूँ।
ज़रा देर तक चुप रहने के बाद हरिनाथ बाबू ने
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संया संख्या २]
शनि की दशा
१७९
,
पूछा- महाशय जी का स्थान कहाँ है ? क्या आप यहाँ खड़े हो गये और कहने लगे कि वासन्ती, इन्हें घूमने आये हैं ?
प्रणाम करो। ___“जी नहीं, कुछ कार्य था। कल रात को तूफ़ान वासन्ती ने मस्तक झुकाकर वसु महोदय को प्रणाम
आगया। पानी भी बरसने लगा। इससे जाने का साहस किया। उन्होंने भी उसके मस्तक पर हाथ रख कर श्राशीनहीं हुआ। सोचा कि रात्रि में कहीं कोई चोर-बदमाश न र्वाद दिया । अन्त में भाँजी को साथ में लेकर हरिनाथ मिल जायें । इससे यहीं पर रुक गया।"
बाबू दत्त बाबू के घर से चल पड़े। ___ "अाज यदि मेरे ही यहाँ भोजन करने की कृपा दोपहर को दत्त-बहू हरिनाथ बाबू के द्वार पर जाकर करते !"
___ खड़ी हुई । उस समय उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ा। इससे - वसु महोदय ने ज़रा-सा हँसकर कहा-अाज अभी वे पुकारने लगीं-क्यों रे वासन्ती, कहाँ चले गये तुम ही मैं चला जाऊँगा, अन्यथा आपके यहाँ भोजन करने में लोग ? हरिनाथ कहाँ हैं ? मुझे कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु इसके लिए आपके मन वासन्ती उस समय चौके से बहुत-से जूठे बर्तन लिये को ज़रा भी कष्ट न होना चाहिए। मैं प्रायः इस ओर से हुए आ रही थी। दत्त-बहू को देखकर उसने कहा-- होकर आता-जाता रहता हूँ। इस बार आने पर मैं अवश्य नानी जी, मामा सो रहे हैं । बैठो, मैं उन्हें जगाये देती हूँ। "आपके यहाँ ठहरूँगा।
मस्तक पर से बर्तनों का बोझ उतारकर वासन्ती ... यह बात सुनकर विश्वनाथ ने कहा--माता जी ने रख दिया और लोटे के जल से हाथ धोकर तेल से सवेरे से ही उठकर आपके भोजन का प्रबन्ध कर रही हैं। भीगी हुई एक फटी-सी चटाई उसने बिछा दी । उसी पर रसोई तैयार होगई है। आप शीघ्र ही स्नान कर लीजिए। दत्त-बहू को बैठने को कहकर भीतर चली गई । क्षण यदि आप कुछ खाये बिना ही चले जायेंगे तो वे बहुत ही भर के बाद वासन्ती की मामी का स्वर सुनाई पड़ा। । दुःखी होंगी।
वे पञ्चम स्वर से कह रही थीं-कहाँ की बला है ? यह तो विश्वनाथ की इस बात के उत्तर में वसु महोदय ने खोपड़ी खा गई ऐसी दोपहरी में मामा, मामा करके । क्या कहा-भैया, माता जी क्यों इतने सवेरे से ही मेरे लिए करेगी मामा का ? इससे किसी तरह पिंड भी नहीं छूटता कष्ट करने लगीं ? मैं प्रायः दो-तीन बजे तक भोजन किया कि शान्ति से रह सकती। करता हूँ। सन्ध्या-पूजा आदि से निवृत्त हुए बिना मैं भोजन बाहर से दत्त-बहू ने कहा-पिंड छुड़ाने का ही नहीं करता, और वह सब करने में बड़ा झगड़ा है। प्रबन्ध करने आई हूँ बहू । हरिनाथ को ज़रा-सा बुला दो। ___ विश्वनाथ ने कहा- इसमें क्या झगड़ा है ? मैं अभी दत्त-बहू का कण्ठस्वर सुनकर हरिनाथ बाबू बड़ी सब प्रबन्ध किये देता हूँ। आपको यहाँ किसी प्रकार का उतावली के साथ बाहर निकल आये । वे कहने लगे-- सङ्कोच करने की आवश्यकता नहीं है।
कहो चाची, इस दोपहरी में कैसे निकल पड़ी हो ? क्या ... यह कहकर विश्वनाथ के चुप हो जाने पर राधामाधव कोई ख़ास बात है ? बाबू की ओर देखकर हरिनाथ बाबू ने कहा-महाशय जी, "बात अच्छी ही है । तुमसे एक बात कहने आई हूँ।" अब अाशा दीजिए । बाद को विश्वनाथ की ओर देखते वासन्ती उस समय बर्तन निकालने के लिए धीरे हुए उन्होंने कहा-विशू, वासन्ती को यहाँ बुला लाओ, धीरे चौके में जा रही थी। दत्त-बहू ने कहा---वासन्ती, यह वसु महाशय उसे देख लें।
सब तू इस समय रहने दे । मैं अपनी नौकरानी को कहती विश्वनाथ भीतर गया और ज़रा ही देर में वासन्ती हूँ । वह आकर साफ़ कर देगी । तू मेरे पास आकर बैठ । को साथ में लेकर वह फिर लौट आया । वसु महोदय ने इसमें सन्देह नहीं कि इस बात से मामी बहुत रुष्ट वासन्ती का हाथ पकड़कर उसे अपने पास बैठाल लिया हो गई थीं, परन्तु दत्त-बहू के सामने मुँह से वे कुछ निकाल और सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश में वे उसके मुरझाये हुए नहीं सकती थीं। चेहरे की ओर देखने लगे। तब हरिनाथ बाबू उठकर हरिनाथ बाबू ने पूछा--कौन-सी बात है चाची ?
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१८०
सरस्वती
. [भाग ३८
. दत्त-बहू कहने लगीं—बात क्या है। सवेरे तुम्हारी जिन वही करें, मैं यदि न कर सकें । और मुझे घर में रखना वसु महोदय से मुलाकात हुई थी वे एक बार फिर वासन्ती यदि तुम्हें भार मालूम पड़ता हो तो मुझे मेरे पिता को देखना चाहते हैं। उस समय वे गये नहीं। इससे विशू के यहाँ भेज दो। ने मुझे तुम्हारे पास इसलिए भेजा है कि वासन्ती को हरिनाथ बाबू कुछ कहने जा रहे थे कि दत्तज़रा-सा सजा रखने की ज़रूरत है । परन्तु बहू इस बात का ने उनके मुँह पर हाथ रखकर कहा-बहू और अनुभव नहीं करती। अभी थोड़ी ही देर में वे इसे देखने हरिनाथ, तुम लोग ज़रा-सा चुप रहो। वे भी एक भले आवेंगे।
श्रादमी हैं। कहीं आगये और तुम लोगों की इस तरह की .. हरिनाथ बाबू ने कहा-तो चाची जी, उनके जल- बातें सुन ली तो भला अपने मन में क्या कहेंगे ? मैं पान आदि का भी कुछ प्रबन्ध करना होगा, नहीं तो अच्छा अकेली ही सब कुछ कर लूँगी । अब भी इस बुढ़ापे में भी. न मालूम पड़ेगा।
मैं सात सात भोज पार कर सकती हूँ। हरिनाथ, तुमको मैं चाची जी ने कहा----कुछ तो करना ही पड़ेगा। जो कहती हैं वही करो। बाज़ार जाते समय विशू को और यह तो बहू भी कर सकती है। तुम बाज़ार से कुछ कहते जाना कि बहू मज़दूरिन को लेकर तुरन्त ही यहाँ फल और थोड़ी-सी मिठाई ला दो। बाकी चीजें घर में आ जाय, देरी न होने पावे । 'ही तैयार हो जायँगी।
___ ज़रा हो देर के बाद एक नवयौवना स्त्री मज़दूरिन को . हरिनाथ बाबू की स्त्री का चाची जी के साथ एक गुरुजन साथ लिये हरिनाथ बाबू के घर में पहुँच गई। दत्तका-सा सम्पर्क था। इस कारण उनके सामने वह बोलती नहीं बहू के पास जाकर उसने कहा-मा, क्या तुमने मुझे थी। परन्तु क्रोध के वश में श्रा जाने के कारण वह इस बात बुलाया है ? को भूल गई। एक तो वह पहले से ही हुँझलाई हुई थी, पुत्रवधू को देखकर उन्होंने कहा-बहू, तुम अागई बाद को यह बात सुनकर उसका पारा और चढ़ आया। हो । अच्छा, तुम झटपट वासन्ती के बाल सँभालकर बहुत ही कर्कश स्वर से उसने कहा-इन सब दुनिया भर बाँध दो। .बाद को मज़दूरिन से बर्तन साफ़ करने को के लोगों के लिए हाड़ तोड़ने का मैं नहीं तैयार हूँ। सवेरे कहकर वे स्वयं चूल्हा जलाने लगीं। परन्तु उन्हें ऐसा से ही मेरे मस्तक में पीड़ा हो रही है । मुझे बूंद भर पानी करते देखकर वासन्ती की मामी चुपचाप न रह सकी। देनेवाला भी कोई नहीं है। तिस पर ऐसी दोपहरी में दत्त-बह को बैठने को कहकर वह स्वयं सारा काम-काज चूल्हे के सामने बैठकर ऐसे गैर आदमियों के लिए , करने लगी। भोजन बनाने बैह् ? मुझे इतनी गरज़ नहीं है । जिसकी यथासमय राधामाधव बाबू वासन्ती को देख गये । गरज़ हो वह करे।
उसे तो वे पहले से ही पसन्द कर चुके थे, किन्तु जाते । यह सुनकर हरिनाथ बाबू ने रूखे स्वर में कहा- समय कह गये कि घर जाकर अपने निश्चय की सूचना गरज़ चाची जी को ही है।.ये ही सब करेगी। तुम्हें- दंगा । विपिन बाबू के साथ कलकत्ता जाने से पहले उन्होंने
उनकी बात समाप्त भी न होने पाई कि गृहिणी बोल हरिनाथ बाबू को पत्र लिखा कि मैं दो-एक दिन में उठी–मैं तो सदा से ही बुरी हूँ। जो लोग अच्छे हों वासन्ती को आशीर्वाद देने आऊँगा।
AME
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चित्र-संग्रह
बलिन के निकट एक झोल का ग्रीष्मकालीन दृश्य । Shree Sudha maswami Gyanbhandaru
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बम्बई की लोकमान्य- कन्याशाला की लड़कियों का गर्वा नृत्य
हिंडनबर्ग — जर्मनी का विशालकाय वायुयान । प्रथम उड़ान के बाद उतरते समय का एक दृश्य । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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हाल में इटली में १८ से २१ वर्ष की आयु के फैसिस्ट युवकों का सम्मेलन हया था। यह जत्था आस्ट्रिया के उन युवकों का है जो मुसोलिनी के मेहमान हुए थे।
डा० परमात्मासरन, एम० ए० । ये हिन्दु-विश्व
श्री जयचन्द खन्ना और चन्द्रा खन्ना जिनका हाल में विवाह हुआ विद्यालय में इतिहास के अध्यापक हैं। हाल में विलायत है। बर दिल्ली के लाला मोतीराम खन्ना के पुत्र और वधू इंडियन प्रेस से पी० एच० डी० की डिग्री लेकर लौटे हैं।
के प्रकाशन-विभाग के प्रधान श्री फकीरचन्द मेहरा की पुत्री हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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नई पुलके
[ प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा] · १–हिन्दू मोरिशस -- लेखक, श्रीयुत पंडित श्रात्मा-- गंगा-ग्रन्थागार, ३० अमीनाबाद पार्क, लखनऊ हैं। राम जी, प्रेषक, हिन्दी-प्रचारिणी सभा मोंतांई लोंग, मोरिशस मूल्य ॥र) है। है । मूल्य ३) है।
१२-बीमा-सन्देश-लेखक, श्रीयुत मणिभाई २--श्रीरामचन्द्रोदय काव्य--रचयिता, श्रीयुत राम- देसाई, पता-दि एशियन, एंश्युरन्स कम्पनी लि., एशियन नाथ 'जोतिसी,' प्रकाशक, हिन्दी-मन्दिर, प्रयाग हैं । मूल्य बिल्डिंग, कोट बम्बई है । २) है।
१३-साहित्य की झाँकी-लेखक, श्रीयुत गौरी३-बिहारी-दर्शन-(आलोचना) प्रणेता, पंडित शंकर सत्येन्द्र, एम० ए०, 'विशारद', प्रकाशक, भारतीय लोकनाथ द्विवेदी, सिलाकारी, प्रकाशक, गंगा-ग्रन्थागार, ग्रन्थमाला, वृन्दावन हैं । मूल्य ) है। ३० अमीनाबाद पार्क, लखनऊ हैं । मूल्य २) है।
१४-परमभक्त प्रह्लाद-लेखक, श्रीयुत रामचन्द्र . ४-फूलों की सेज--लेखक, श्रीयुत विजयबहादुर- शर्मा चतुर्वेदी, प्रकाशक, वाणी-मन्दिर, खरगोन हैं । सिंह, बी० ए०, प्रकाशक, गंगा-ग्रन्थागार, ३० अमीनाबाद मूल्य ||) हैं। पार्क, लखनऊ हैं । मूल्य २) है।
१५-१६-श्रीयशवन्त शंकर समाज, दतिया५-काल-ज्ञान (प्रथम भाग)--लेखक व प्रकाशक, द्वारा प्रेषित दो पुस्तकेपंडित बालाजी गोविन्द हर्डीकर ज्योतिषी, काल-ज्ञान (१) उपहार-लेखक श्रीयुत बलवीरसिंह । कार्यालय, कानपुर हैं । मूल्य १||) है ।
(२) अनन्यार्धशतक। - ६--यात्री-मित्र---लेखक, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, १७-भारतीय साहित्य परिषद और भाषा का प्रकाशक, सत्य-ज्ञान-निकेतन, ज्वालापुर (यू० पी०) हैं। प्रश्न-प्रकाशक, सस्ता-साहित्य-मण्डल, देहली हैं। मूल्य ।।) है।
मूल्य ।।) है। ७-सरल रोग-विज्ञान-लेखक, राजवैद्य पंडित १८-चेतावनी-लेखक, श्री दीन-दीक्षित शेरसिंह, रवीन्द्र शास्त्री, 'कविभूषण', प्रकाशक, अनुभूत-योगमाला, . प्रकाशक, श्रीहरिसिद्ध प्रिंटिंग प्रेस, पंडिताश्रम सभा, उज्जबरालोक (इटावा) हैं । मूल्य ३) है।
यिनी हैं। ___-६-श्रीयुत रामेश्वर 'करुण' द्वारा लिखित, १९-योरोप में सात मास-लेखक, श्रीयुत धर्मसाहित्य-सदन अबोहर से प्रकाशित दो पुस्तके- चन्द सरावगी, प्रकाशक, हिन्दी-पुस्तक-एजन्सी, २०३,
(१) ईसप-नीतिनिकुंज—मूल्य ।।) है। हरीसन रोड, कलकत्ता हैं । मूल्य २॥) है। (२) बालगोपाल-मूल्य ८॥ है।
२०-सत्यव्रती हरिश्चन्द्र-लेखक, श्रीयुत जय१०-हिन्दधर्म की विशेषतायें-लेखक, स्वामी दयाल गर्ग, मुद्रक, श्री प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, जोधपुर हैं। सत्यदेव परिव्राजक, प्रकाशक, सत्य-ज्ञान-निकेतन, ज्वालापुर मूल्य |) है। (यू० पी०) हैं । मूल्य ।।) है।
२१-श्रीचैतन्य महाप्रभु-(खंड ४-५) प्रकाशक, ११--अतीत के चित्र (कहानियों का संग्रह)- सस्तं-साहित्य-वर्धक, कार्यालय, अहमदाबाद हैं । मूल्य ३) है। लेखिका, श्री कुमारी सुशीला आगा, बी० ए०, प्रकाशक, २२-विजयवर्गीय के चित्रों का अलबम
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नई पुस्तकें
संख्या २ ]
प्रकाशक, श्रीयुत ठाकुर अयोध्यासिंह, विशाल भारत बुक डिपो, १९५।१ हरीसन रोड, कलकत्ता हैं । मूल्य २) है ।
१८५
१- ३ - निराला जी की तीन पुस्तकें (१) सखी - (कहानियों का संग्रह) प्रकाशक - सरस्वती- पुस्तक भंडार, श्रार्यनगर, लखनऊ । पृष्ठ-संख्या १३०, और मूल्य III) है |
चित्रण की दृष्टि से 'सखी' और 'न्याय' अच्छी कहानियाँ हैं। 'भक्त और भगवान्' भावुकता और दार्शनिकता से पूर्ण है । 'सखी' में कहानीपन कम और काव्य अधिक है । तो भी इसको पढ़ने पर निराला जी की 'आत्मकथा की कहानी उन्हीं की जबानी' अधिक प्रभाव डालती है । हिन्दी-प्रेमियों के लिए निराला जी की यह नवीन कृति पढ़ने की चीज़ है । 'निरुपमा' निराला जी का मौलिक उपन्यास है ।
(२) निरुपमा - (उपन्यास) प्रकाशक -- लीडर प्रेस, आपने २ - ३ और भी उपन्यास लिखे हैं । यह उनकी प्रयाग । पृष्ठ संख्या २०० और मूल्य २) चौथी कृति है । इस पुस्तक की कथा इस प्रकार है
(३) गीतिका - ( गीतों का संग्रह ) -- प्रकाशक ---- भारतीभंडार, काशी । पृष्ठ-संख्या २०० और मूल्य १ || ) है । पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी के श्रेष्ठ कवि और सुलेखक हैं । ब तक श्राप छायावादी कविता के ही विशेषज्ञ थे, किन्तु इधर कुछ वर्षों से आप कहानियाँ और उपन्यास लिखने की ओर भी प्रवृत्त हुए हैं। कविता के समान ही आपके गद्य में भी भावुकता, अलंकारिता, दार्शनिकता और दुरूहता भी पाई जाती है ।
कृष्णकुमार उन्नाव का रहनेवाला है । वह पढ़ने के लिए लन्दन जाता है । वहाँ से डाक्टरी की उपाधि लेकर घर लौटता है. किन्तु नौकरी न मिलने से जूता गाँठने का काम करने लगता है । कृष्णकुमार का घर एक बंगाली ज़मींदार की ज़मींदारी में है। ज़मींदार की लड़की का नाम निरुपमा है। ज़मींदार का कुटुम्ब लखनऊ में रहता है । एक दिन कृष्णकुमार को जूता गाँढते हुए निरुपमा ने देख लिया, और वह उसकी ओर आकृष्ट हो गई । किन्तु निरु - पमा के चचा उसका विवाह दूसरे से करना चाहते हैं । अन्त में निरुपमा की सहायक कमला नामक एक लड़की हुई, जिसने बड़ी चालाकी से निरुपमा (बंगाली लड़की)
विवाह कृष्णकुमार (कान्यकुब्ज ब्राह्मण) से करा दिया । बस यही इस उपन्यास की कथा है। इस कथा के साथ और भी दो एक छोटी कथायें भी सम्मिलित हैं ।
'सखी' में आपकी आठ मौलिक कहानियाँ संग्रहीत हैं । 'सखी', 'न्याय' और 'सफलता' कथा-साहित्य के अनुरूप हैं । 'देवी', 'चतुरी चमार', 'स्वामी सहजानन्दजी महाराज और मैं' लेखक की जीवन घटनाओं से सम्बन्ध रखती हैं । कहानी लिखने का लेखक का कोई उद्देश होता है, चाहे उसका रूप सार्वजनिक हित हो, चाहे सुधारा त्मक या शिक्षाप्रद । इन कहानियों में उत्तम कहानी का प्रधान गुण प्रकर्षण, मनोरंजन एवं एक विशेष विचार की पुष्टि और हृदय की तल्लीनता भी है। अतएव इनमें पाठकों के लिए कहानी का वैसा मज़ा नहीं है । कहानियों की कथायें आलोचनाओं – कहीं कहीं व्यक्तिगत भी - और विषय के विवेचन से युक्त हैं, जिससे कथा-भाग प्रायः काव्यात्मक-सा हो गया है । 'राजा साहब को ठेंगा दिखाया ' कहानी विचित्र मनोभावों से पूर्ण है। निराला जी एक उच्च कोटि के कलाकार हैं । कलाकार का कार्य कला की रक्षा करना है । व्यक्तिगत विवाद और तर्क को साथ लेने से कला का सौन्दर्य बिगड़ जाता है । जैसे 'चतुरी चमार ' 'कहानी में चतुरी से अर्जुनवा को पढ़ाने के एवज़ में प्रतिदिन • बाज़ार से मांस मँगवाना, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी की
चतुरी से तुलना करना आदि व्यक्तिगत बातें हैं । चरित्र की स्त्रियों को अपने घर में आमंत्रित करना, पानी पिलाना,
फा. ११
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इस उपन्यास का नायक कृष्णकुमार है और नायिका निरुपमा है । इसके लिखने का उद्देश जात पाँत तोड़कर विवाह का समर्थन जान पड़ता है। इसके पात्र लखनऊ और उन्नाव के हैं। इसके अन्य पात्र योगेश, यामिनी, सुरेश, नीला, कमला तथा कुछ ग्रामनिवासी ब्राह्मण किसान हैं। कुष्णकुमार का चित्रण साधारणतया ठीक है, क्योंकि आजकल बेकारी का युग है, पढ़े-लिखों को नौकरी मिलना कठिन हो गया है। किन्तु जूता गाँठने का ही आदर्श उसने जनता के सामने क्यों रक्खा, इसका महत्त्व समझ में नहीं आता है । निरुपमा का चरित्र चित्रण अस्वाभाविक है । निरुपमा का कृष्णकुमार से एकाएक प्रेम करने लगना, उसका अपने भाई और बहन के साथ अपनी ज़मींदारी उन्नाव में जाना, वहाँ उसका खेतों में पैदल घूमना, गाँव
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१८६
'सरस्वती
पान खिलाना और उनके साथ बातें करना, यामिनी बाबू से बाह्य प्रेम करना, स्थान स्थान पर साधारण बात में व्यंग्य बोलना और उपनिपदों के श्लोक कहना, अपने चाचा, भाई को, यामिनी बाबू के साथ ब्याह करने के
धोखे में डाले रहना, अन्त में एक दिन कमला की सहायता से विवाह कर लेना, ये सब विचित्र बातें हैं । नीला का चरित्र उतना अच्छा नहीं अंकित किया गया है । हाँ, कृष्णकुमार की माता का चरित्र चित्रण अच्छा हुआ है। माता का हृदय कितना कोमल और सुन्दर होता है, इसका चित्रण लेखक ने स्वाभाविक किया है। योगेश बाबू की चालाकी का चित्रण भी स्वाभाविक हो सकता है । कमला का स्वार्थत्याग भी सुन्दर है । कृष्णकुमार कमला का ट्यूटर है, किन्तु जब उसे सब बातें मालूम होती हैं तब वह छल करके यामिनी बाबू का विवाह दूसरी स्त्री से करा देती है । यामिनी बाबू जब भीतर जाते हैं तब उन्हें पता चलता है कि उनकी विवाहित स्त्री निरुपमा नहीं है । तात्पर्य यह है कि उपन्यास विचारों की दृष्टि से विचित्र और अनूठा है। भाषा और भाव की दृष्टि से भी रचना सुन्दर है । काव्य की कलित कल्पनायें भी यत्र-तत्र प्राप्त होती हैं । हमारा अनुरोध है कि उपन्यास- प्रेमी निराला जी के इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें। विचार-विनिमय के साथ साथ उन्हें समाजवाद की चोटी के सुधारों का दिग्दर्शन होगा और भावुक विचारों का हृदय पर प्रभाव पड़ेगा ।
I
'गीतिका' निराला जी का एक सुन्दर काव्य है। अब तक निराला जी के जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं उनमें यह ग्रन्थ सबसे सुन्दर और आकर्षक है । निराला जी एक उच्च कोटि के कवि और साथ ही संगीतज्ञ भी हैं। इस गीतिका में आपके १०१ गीतों का संग्रह है । गेय काव्य हिन्दी साहित्य मेंप्राचीन काव्य को छोड़कर - नहीं के बराबर हैं। जो हैं भी उनका प्रयोग गायन में नहीं होता है। हिन्दी के इस अंग की 'गीतिका' - द्वारा अच्छी पूर्ति हुई है। प्रारंभ में लेखक ने गीतों की उपयोगिता पर अच्छा प्रकाश डाला है तथा कुछ संगीत - सम्बन्धी विचार भी व्यक्त किये हैं । बाबू जयशंकर 'प्रसाद' जी के कथनानुसार 'गीतिका' भाव, भाषा और कल्पना की दृष्टि से उच्च कोटि की है। पंडित नन्ददुलारे वाजपेयी ने 'समीक्षा' में गीत-काव्य तथा
निराला जी के गीतों की सुन्दर विवेचना की है। गीतिका
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[ भाग ३८
के गीतों में कल्पना की उड़ान उतनी ऊँची नहीं है, जितनी उनकी अन्य कविताओं में। इससे गीत बहुत आकर्षक और बोधगम्य बन गये हैं । भाषा भी 'गीतिका' की समझ के परे नहीं है । गीतों में मधुरता, कोमलता और प्रवाह का सुन्दर मिश्रण है । पुस्तक के अन्त में कठिन शब्दों और भावों का परिचय दिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि जब 'गीतिका' में शब्दकोश देने की आवश्यकता है तब उनकी अपर कवितायें यदि किसी की समझ के परे हों तो क्या आश्चर्य । तथापि 'गीतिका' एक उच्च कोटि का गीतिकाव्य है । गायन की दृष्टि से भी इसका आदर अवश्य होगा। इसमें काव्य की अद्भुत छटा तो है ही । - ज्योति: प्रसाद 'निर्मल'
.४ - मधुबाला - रचयिता श्रीयुत बच्चन, प्रकाशक सुषमा निकुञ्ज, इलाहाबाद हैं। पुस्तक पाकेट साइज़ सजिल्द है । मूल्य ११ है । पृष्ठ संख्या १२१ है ।
/
इस पुस्तक में बच्चन जी की 'मधुबाला' नामक कविता तथा १४ गीतों का संग्रह है ।
'मधुशाला' तथा 'ख़ैयाम की मधुशाला' को लिखकर बच्चन जी ने हिन्दी के क्षेत्र में ख़ासी ख्याति प्राप्त को है ।
इस पुस्तक में कुछ गीत जैसे- 'मधुबाला', 'मधुपायी', 'जीवन- तरुवर', 'प्यास' तथा 'बुलबुल' प्रथम श्रेणी के हैं,, बाकी चार-पाँच मध्यम श्रेणी के हैं, और शेष गीत यदि इस पुस्तक में न होते तो कितना अच्छा होता। बात यह है कि बच्चन जी की यह पहली कृति नहीं है, उनकी चौथी पुस्तक है ।
'सुराही' नामक गीत में बच्चन जी लिखते हैंमदिरालय हैं मन्दिर मेरे, मदिरा पीनेवाले, चेरे, पंडे-से मधु - विक्रेता का, जो निश दिन रहते हैं घेरे;
इसमें मदिरा पीनेवालों की उपमा पंडों से की गई है, जो फ़िट नहीं है ।
एक बात और हमें इन गीतों में अखरती है, वह इनका इतने बड़े-बड़े होना है । गीत तो छोटे ही सुन्दर होते हैं। हमको 'बड़ों' से भी कोई ऐतराज़ न होता यदि उनकी सुन्दरता केवल उनके बड़े होने से ही न मारी जाती ।
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संख्या २]
नई पुस्तकें .
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जितना हम बच्चन जी.के 'प्रलाप' में उत्साह और उमंग कहीं पर कहलाया विक्षिप्त, . . तथा चुलबुलाहट पाते हैं, उतनी उनके गीतों के पहले कहीं पर कहलाया मैं नीच ! हिस्से में नहीं है।
सुरीरे । कंठों का अपमान ___इतना सब होने पर भी बच्चन जी के प्रथम श्रेणी के
जगत में कर सकता है कौन ? गीत बड़े रसीले और प्रभाव-पूर्ण हैं । 'मधुबाला' तथा
स्वयं, लो, प्रकृति उठी है बोल 'प्यास' उनमें सर्वप्रथम है। कुछ सुन्दर पदों को हम
विदा कर अपना चिर व्रत मौन ! यहाँ उद्धृत करते हैं।
अरे मिट्टी के पुतलो! आज, मैं मधु-विक्रेता की प्यारी,
सुनो अपने कानों को खोल, मधु के घट मुझ पर बलिहारी,
सुरा पी, मद पी, कर मधुपान, प्यालों की मैं सुषमा सारी,
रही बुलबुल डालों पर बोल । मेरा रुख देखा करती है
(बुलबुल): मधु-प्यासे नयनों की माला!
-केदारनाथ मिश्र 'केदार' मैं मधुशाला की मधुबाला! .. ५--रोगों की अचूक चिकित्सा-लेखक, श्रीयुत
(मधुबाला) · जानकीशरण वर्मा, प्रकाशक, लीडर प्रेस, इलाहाबाद; क्रोधी मोमिन हमसे झगड़ा,
.. मूल्य १॥ पंडित ने मन्त्रों से जकड़ा;
___इस पुस्तक में रोगों की उत्पत्ति और उनकी सरल पर हम थे कब रुकनेवाले,
चिकित्सा-विधि ऐसे सरल शब्दों में और चित्रों-द्वारा जो पथ पकड़ा वह पथ पकड़ा।
समझाई गई है कि उसे साधारण ज्ञानवाली स्त्रियाँ भी ... (मधुपायी)
अच्छी तरह समझ सकती हैं । लेखक ने भोजन के नियम, क्या कहती ? 'दुनिया को देखो', .
व्यायाम, हवा, धूप, आग और पानी का प्रयोग इत्यादि दुनिया रोती है, रोने दो,
विषयों पर पूरा पूरा प्रकाश डाला है और चिकित्सा के मैं भी रोया, रोना अच्छा,
सम्बन्ध में अपने अनुभवों को देकर पुस्तक को विशेष आँसू से आँखें धोने दो,
उपयोगी बनाया है । इस विषय के प्रेमियों को इसका संग्रह . रोनेवाला ही समझेगा
करना चाहिए। कुछ मर्म हमारी मस्ती का।
(प्यास)
'प्यास) .. ६-१०-वेद-विषयक पाँच पुस्तकें-गुरुदत्त-भवन, इन पद्यों में बच्चन जी ने अपने भाव बड़ी सरलता लाहौर-द्वारा प्रकाशित । तथा सुन्दरता के साथ व्यक्त किये हैं। साधारण बात है, (१) शतपथ में एक पथ-पृष्ठ-संख्या ८८ सरल भाषा है, फिर भी ढंग कितना सुन्दर है ! इसी का मूल्य ।) है । एक सुन्दर उदाहरण और लीजिए -
___ यह पुस्तक पण्डित जी के, गुरुकुल-विश्वविद्यालय, जब मानव का अपनी तृष्णा
काँगड़ी, में दिये गये चार व्याख्यानों का संग्रह है। से है इतना चिर दृढ़ नाता,
प्राचीन वैदिक सम्प्रदाय वेद को संहिता तथा ब्राह्मण इन दो तब मैं मदिरा का अभिलाषी
भागों में बाँटता है और दोनों को अनादि तथा अपौरुषेये क्यों जग में दोषी कहलाता।
स्वीकार करता है। किन्तु आर्य-समाज के प्रवर्तक स्वामी
(प्यास) दयानन्द सरस्वती ने. केवल संहिताभाग को ही वेद स्वीकार निम्न पदों में बच्चन जी के भाव प्रशंसनीय हैं। किया है और ब्राह्मणग्रन्थों को ऋषिकृत तथा पौरुषेय लिये मादकता का संदेश
वेद-व्याख्यानमात्र माना है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने फिरा मैं कब से जग के बीच,
भी इसी बात को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। लेखक .
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१८८
सरस्वती
[भाग ३८
शतपथ के उपशाता याज्ञवल्क्य तथा उसके उपनिबन्धक उनका वर्णन पुराणों के अतिरिक्त साधना से योगज प्रत्यक्षउनके किसी अज्ञातनामा शिष्य को माना है । लेखक के द्वारा वस्तु-तत्त्वों को प्रत्यक्ष दिखला देनेवाले योगशास्त्र में मत से शतपथ ब्राह्मण का प्रतिपाद्य विषय 'यज्ञ' है । ये भी मिलता है। लेखक यदि चाहें तो पातञ्जल योगदर्शन यज्ञ केवल मुख्यार्थ को सूचित करनेवाले 'रूपक' तथा के तृतीय पाद के २६वे सूत्र के व्यास-भाष्य को जिसे स्वामी नाटक-मात्र हैं; सब 'प्रतीक' हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, दयानन्द सरस्वती ने भी प्रामाणिक माना है, देख सकते वृष, श्राप तथा वरुण पद क्रमशः वीर्य, सन्तान, माता, हैं। इतना होते हुए भी लेखक ने अपने दृष्टिकोण को -भाग, स्त्री तथा राष्ट्रनियन्ता के अर्थों में इसमें स्वीकार जिस कौशल से उपस्थित करने का प्रयत्न किया है, वस्तुतः किये गये हैं । अपने विचारों की पुष्टि में लेखक ने ग्रन्थ दर्शनीय है । पुस्तक आर्यसमाजियों के लिए विशेष उपके उद्धरण देकर विषय को स्पष्ट किया है । ग्रन्थ की भाषा योगी है तथा सर्वसाधारण भी आश्रमों के महत्त्व की ज़ोरदार और विषय-प्रतिपादन की शैली प्रभावोत्पादक है। अनेक सुन्दर बातें इससे जान सकते हैं। लेखक के विचारों में पर्याप्त मौलिकता तथा विचारणीय (३) सोम- इस पुस्तक में 'सोम' शब्द पर विचार 'बातें हैं। कात्यायन तथा पतञ्जलि ने एवं सभी वैदिक किया गया है। सोम पद का प्रसिद्ध अर्थ सोम न करके 'विद्या सम्प्रदायों ने शतपथ आदि ब्राह्मण-ग्रन्थों को वेद माना समाप्त करनेवाला ब्रहाचारी' किया है। इसकी सिद्धि में है और लेखक के शब्दों में ऐसा करना 'दुःसाहस की जो. लेखक ने जड़ सोम में न घट सकनेवाले ऐसे विशेषणों की चरम सीमा है उसका परिचय दिया है । ऐसा क्यों किया और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है जो उनके मन्तव्य गया है या ऐसा करने में उनका क्या उद्देश था, इस को पूर्णरूप से परिपुष्ट करते हैं । स्थान स्थान पर आये हुए पर लेखक ने कुछ भी प्रकाश नहीं डाला । सम्पूर्ण यज्ञों 'द्रोण', कलश, धारा, बभ्र आदि पदों का अर्थ व्युत्पत्ति को केवल 'नाटक' या रूपक कहकर लेखक ने जैमिनि और कोशों की सहायता से क्रमशः रथ, व्याख्यानमण्डप, आदि कर्मकाण्डभक्तों के, यज्ञों से 'अपूर्वोत्पत्ति' द्वारा काम्य ऋत (ज्ञान) की धारा आदि किया है। व्याख्या से एक स्वर्ग आदि फलप्राप्ति के सिद्ध करने के सम्पूर्ण परिश्रम, नूतन दृष्टिकोण का पता चलता है, और इस दृष्टि से पुस्तक सिद्धान्तों और दार्शनिक गवेषणाओं की उपेक्षा कर दी उपयोगी है। " है । इन सब विषयों पर विचार न होने से ग्रन्थ का महत्त्व (४) अथ मरुत्सूक्तम्-मूल्य ।) कम हो जाता है । अाशा है, लेखक अपने प्रकाशित होने- इस पुस्तक में ऋग्वेद में आये हुए 'मरुत्' पद की वाले 'शतपथ-भाष्य' में इनका भी विवेचन करेंगे। मीमांसा की गई है । 'मरुत्' का अर्थ 'सैनिक' किया गया
(२) स्वर्ग-पृष्ठ-संख्या ८५ । मूल्य ।। है। ... है, 'वायु देवता' नहीं । व्याख्यान-शैली वही है जो उपर्युक्त . इस पुस्तक में स्वः और स्वर्ग इन दोनों पदों में व्युत्पत्ति- पुस्तकों की है । इस पुस्तक के अनुसार वैदिक सभ्यता में भी निमित्तक भेद मानकर 'स्वर्ग' का अर्थ सुख की ओर सेनाओं का दृढ़ संगठन तथा जन-संहारक बड़े से बड़े ' जानेवाला किया गया है। स्वः की ओर जानेवाले ये तीन भयंकर वैद्युतिक यंत्रों तथा शस्त्रास्त्रों का पता चलता है। मार्ग ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ बतलाकर लेखक पुस्तक खाज से लिखी गई है और लेखक ने अपने प्रतिने स्वः से संन्यासाश्रम का ग्रहण किया है। पुनः वैदिक पाद्य विषय को खूब स्पष्ट तथा मनोरञ्जक ढंग से उपस्थित मंत्रों के उद्धरण देकर विस्तार से इन आश्रमों का वर्णन किया है। किया है । इस प्रकार के व्याख्यान-कौशल से जो अर्थ किये (५) अथ ब्रह्मयज्ञ:--मूल्य ।।) है। हैं वे हमें किसी निश्चयात्मक परिणाम पर नहीं पहुँचाते। पञ्चमहायज्ञों में से ब्रह्मयज्ञ भी एक है । सन्ध्योपासन स्वर्ग-विषयक सभी अर्थ पौराणिक स्वर्ग में भी घट सकते द्विजातियों का दैनिक कर्त्तव्य कहा गया है । इस पुस्तक हैं । स्वर्गलोक देवलोक होने से विभिन्न देवताओं के लोकों में आर्यसमाज में प्रचलित सन्ध्या-मंत्रों की सुन्दर व्याख्या . के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त हो सकता है। इस प्रकार की गई है। मंत्रों में प्रत्येक पद कितना सारगर्भित है तथा . के लोकों की सत्ता, केवल पौराणिक कल्पना नहीं है, किन्तु उनके क्रम में कितना रहस्य भरा हुआ है, यह इस ग्रन्थ से स्पष्ट ..
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संख्या २]
नई पुस्तकें
१८९
समझ में आ सकता है । पुस्तक में अनेक स्थलों पर व्यङ्गय- तथा सत्य-समाज-विषयक शंका-समाधान इसमें दिये गये पूर्ण आक्षेप भी विपक्षियों पर किये गये हैं, जिससे लेखक हैं। सभी धर्म और सम्प्रदायों के व्यक्ति इसके विचारों से की उपदेशक-मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अच्छा लाभ उठा सकते हैं। लेखक का उद्देश ऊँचा है और होता यदि सन्ध्या के 'शंप्रधान' इस विवेचन में दोषदर्शन दृष्टि विशाल है । पुस्तक सबके लिए पठनीय है। की प्रवृत्ति को स्थान न दिया जाता। पुस्तक परिश्रम से १२-माफीदारान निबन्ध-माला-ठाकुर सूर्यकुमार लिखी गई है। प्रत्येक आर्य को इससे लाभ उठाना वर्मा । चाहिए। पुस्तक से लेखक के गम्भीर मनन, दृढ़ श्रद्धा माफ़ीदारों की उन्नति व भलाई के लिए इस पुस्तक और मौलिक विवेचन-प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। में शिक्षा, ज्ञानोदय और उपासना इन तीन विषयों पर तीन
उपर्युक्त पाँचों पुस्तकें पण्डित बुद्धदेव विद्यालङ्कार जी छोटे-छोटे, किन्तु उपयोगी निबन्ध विभिन्न लेखकों-द्वारा की लिखी हुई हैं। इनमें जिस व्याख्यान-कौशल से काम लिखे गये हैं। इस पुस्तक में विद्यार्थियों की शारीरिक, लिया गया है उससे केवल यही सिद्ध होता है कि वेदरूपी मानसिक और आत्मिक उन्नति के लिए व्यावहारिक सलाह . कल्पवृक्ष के पास. जो जिस भावना से जाता है उसे वही दी गई है। माफ़ीदारों के अतिरिक्त इस पुस्तक से और. अर्थ दीख पड़ते हैं। जैसे पाश्चात्य पण्डितों ने वेदों से भी विद्यार्थी लाभ उठा सकते हैं। सभी निबन्ध विचारअपनी ऐतिहासिक गवेषणाओं को प्रमाणित किया है, उसी पूर्ण, सुन्दर और उपयोगी हैं। पुस्तक, माफ़ी-आफिसर प्रकार भारत में भी वेदों से पौराणिक (ऐतिहासिक) ठाकुर सूर्यकुमार वर्मा, ग्वालियर गवर्नमेंट के पते से मिल याशिक, नैरुक्तिक, आध्यात्मिक आदि अर्थो की प्रणालियों सकती है। का प्रचलन हुआ है। इन विभिन्न मतों के मनीषियों के १३-शंका-समाधान-मयंक-टीकाकार पण्डित विभिन्न अर्थों से जहाँ वेदों की सर्वतो-भद्र वेदवाणी के रामखिलावन गोस्वामी । मूल्य १) है। पता--कबीर-धर्ममहत्त्व का पता चलता है, वहाँ साथ ही साधारण जनता वर्धक कार्यालय, सीयाबाग, बड़ौदा। के लिए इस पहेली की रहस्यमय उलझन और भी बढ़ती गोस्वामी तुलसीदास जी के 'श्रीरामचरितमानस' के जाती है। निःसन्देह वेद-वाणी इन सभी अों की अोर भक्तों और अनुरागियों की परम्परा में 'मानस' के विभिन्न संकेत करती हुई भी ऐसे तत्त्वों का मुख्य-रूप से प्रतिपादन अंशों तथा प्रसंगों पर जो शंकायें उठती तथा उठाई जाती करती है जो वेद के अतिरिक्त अन्य किसी लौकिक प्रमाण हैं, उनके निराकरण के लिए 'मयंक' नामक एक से नहीं जाने जा सकते। पण्डित जी के अर्थ बुद्धि संगत विशाल ग्रन्थ की रचना हुई है। इस विशाल ग्रन्थ होते हुए भी अन्य प्रमाणों से लोक में ज्ञात और प्रसिद्ध का यह संक्षिप्त संस्करण है और 'मयंक' के दोहों पर हैं । अनेक स्थलों में तो पण्डित जी ने वर्तमान लोक- टीकाकार ने विस्तृत व्याख्या लिखी है, जिससे 'मयंक' के ' प्रसिद्ध पदार्थों का वेद में वर्णन दिखला भर दिया है : दोहों का अर्थ स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है । राम के इससे वेदों का अनधिगतगन्तृत्व सिद्ध न होने से प्रामाणिकता लिए कैकेयी ने चौदह ही वर्षों का वनवास क्यों माँगा, में बाधा पड़ती है।
'जनकसुता, जगजननि, जानकी' इस चौपाई में कवि ने ११-धर्म-मीमांसा--लेखक, पण्डित दरबारीलाल सीता के तीन नाम क्यों लिये, भगवान् पद का अर्थ न्यायतीर्थ । पता--हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीरा- क्या है, जैसी शंकाओं के समाधान का प्रयत्न इसमें किया बाग़, गिरगाँव, बम्बई।
है। ये शंकायें कहीं-कहीं बड़ी विचित्र तथा मनोरंजक भी । 'सत्य-समाज' की स्थापना सर्व-धर्म-समन्वय की भावना हैं, फलतः उनके समाधान भी वैसे ही हैं। पुस्तक से प्रेरित होकर हुई है। देश, काल और पात्र के अनुसार रामायण-भक्तों के लिए विशेष उपयोगी है। पुस्तक की . धर्म की बाह्य-रूप-रेखा में भेद मानते हुए भी सब धर्मों भाषा तथा छपाई में कहीं-कहीं त्रुटियाँ रह गई हैं, जिनका की सूत्रात्मारूप 'एकता' पर इस समाज की नींव रक्खी संशोधन दूसरी श्रावृत्ति में हो जाना चाहिए । पुस्तक :
गई है। धर्म का स्वरूप, धर्म की मीमांसा, धर्म का उद्देश संग्रहणीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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१९०
सरस्वती
. [भाग ३८
१४–विश्वधाय-लेखक, श्रीयुत भगवानदास वर्मा, के प्रति हृत्ताल में उठती हुई शुद्ध, अर्धशुद्ध या अशुद्ध प्रकाशक, साहित्य-सदन, अबोहर (पंजाब)। मूल्य ।) है। तरंगों का शुद्ध चेष्टा-पूत निदर्शन है।" इसमें संकलित
हिन्दी में गोपालन-विषयक पुस्तकों का बड़ा अभाव है। कविताओं में प्रायः गीति-काव्य की शैली का अनुसरण विश्वधाय गौमाता के प्रति उदासीनता से देश-वासियों किया गया है। वैराग्य, प्रबोधन तथा विश्व की असारता
और विशेषतया देश की भावी अाशात्रों के स्वास्थ्य का प्रदर्शन के द्वारा भगवद्भक्ति की अोर मन को प्रेरित किया क्रमशः जो हास हो रहा है उसके प्रति देशवासियों का गया है। भावों तथा शैली में विशेष मौलिकता नहीं है। ध्यान इधर कुछ वर्षों से आकर्षित हुआ है। हाल में हाँ, कवि-हृदय के स्पन्दन और भावों के आवेग का परिचय बालकों को विशुद्ध और पौष्टिक दूध कैसे मिले, इस विषय ज़रूर मिलता है। कहीं कहीं कुछ पंक्तियाँ कविता की सच्ची पर व्याख्यान देकर हमारे वर्तमान वायसराय महोदय ने सीमा तक पहुँचती हैं, पर अधिकांश के भाव साधारण हैं
भी इस आवश्यक प्रश्न की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित और वे गद्य-सा लगती हैं। खड़ी बोली तथा व्रज दोनों किया है । हमारी इस उदासीनता के मूल में गोपालन- भाषाओं का मिश्रण है। सरलता और प्रवाह कविताओं विज्ञान का अज्ञान तथा बालकों की शारीरिक वृद्धि तथा में काफ़ी हैं। पुष्टि में दूध के महत्त्व का न समझना ही प्रधान कारण रहे १७-राजर्षि-ज्योति-(काव्य)-लेखक ठाकुर राम हैं । लेखक ने अपने तीस-बत्तीस वर्ष के क्रियात्मक अनुभव देवसिंह गहरवार ‘देवेन्द्र' हैं । मूल्य ||-) है। पताके आधार पर गोपालन का तथा दूध, दही, लस्सी, गौ के राजर्षि ग्रन्थमाला, कार्यालय, मधवापुर, प्रयाग। घृत श्रादि के गुणों का वर्णन इस पुस्तक में किया है। काशी के उदयप्रताप-कालेज के जन्मदाता भिनगानरेश पुस्तक ग्रामीण भाइयों को लक्ष्य में रखकर लिखी गई है महाराज श्री उदयप्रतापसिंह जू देव का चरित इस और वस्तुतः यह उनके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। पुस्तक में कविता में लिखा गया है। भिनगानरेश
१५-नव-शक्ति-सुधा-- सम्पादक श्री देवव्रत, प्रका- ने लगभग २० लाख रुपयों का दान देकर क्षत्रिय-कुमारों शक, 'नवशक्ति' कार्यालय, पटना हैं । मूल्य ।) है। की शिक्षा के लिए उक्त कालेज की स्थापना _ 'नवशक्ति' पत्रिका के प्रथम वर्ष में प्रकाशित होने- ग्रन्थ के वही नायक हैं । परन्तु प्रसंगवश कवि ने उनके वाले चुने हुए उपयोगी लेखों, कविताओं तथा कहानियों पूर्व-पुरुषों का वर्णन करके उनकी वंश-परम्परा का परिचय का यह एक छोटा-सा संग्रह है । सम्पादक महोदय ने इस भी पाठकों को कराया है । कविता श्रोजपूर्ण तथा फड़कती संग्रह में जो कृतियाँ संगृहीत की हैं वे उनकी चयन-शक्ति हुई है । स्थान स्थान पर उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का और सूझ का परिचायक हैं । संगृहीत सभी अंश उपयोगी भी काफ़ी समावेश है। पुस्तक में हिमालय-वर्णन तथा और प्रायः उच्च कोटि के हैं । क्या ही उत्तम हो यदि अन्य काशी-वर्णन विशेषरूप से सुन्दर हुए हैं। वर्णन की दृष्टि पत्र-सम्पादक भी अपने पत्रों में प्रकाशित होनेवाले स्थायी- से इस खण्डकाव्य में कवि को अच्छी सफलता मिली। साहित्य का इसी प्रकार पुस्तक के आकार में प्रकाशन है। किन्तु भाषा में कहीं कहीं भर्ती के शब्द भी आ गये । करके उन उपयोगी और उपादेय लेखों की विस्मृति-सागर हैं। भूमिका और वकतव्य ? (वक्तव्य) के गद्य-भाग में में डूबने से रक्षा करें। पुस्तक में संगृहीत कृतियों के लेखक अशुद्ध पद प्रयोगों तथा क्रमहीन एवं शिथिल वाक्यों का तथा कवि, अधिकांश में, हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ व्यक्ति होना खटकता है। हैं । पुस्तक सर्वथा उपादेय है और संग्रहणीय है।
-कैलासचन्द्रशास्त्री एम० ए० १६-अन्तर्नाद-रचयिता श्रीजगदीशनारायण १८-हिन्दी-वाक्य-विग्रह-लेखक पण्डित रामतिवारी, प्रकाशक, राधिका पुस्तकालय, हिमन्तपुर, सुरेमन- सुन्दर त्रिपाठी, विशारद, प्रकाशक पण्डित माताशरण शुक्ल, पुर, बलिया हैं । मूल्य ॥) है।
सोराम (इलाहाबाद) हैं। पृष्ठ-संख्या ६४ और मूल्य ।। है। इस पुस्तक में लेखक की ४२ कविताओं का संग्रह यह पुस्तक हिन्दी के व्याकरण के सम्बन्ध में है। है। लेखक के शब्दों में "अन्तर्नाद, विशुद्ध (परमात्मा) यह हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की प्रथमा तथा मध्यमा परी- :
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संख्या २]
नई पुस्तकें
१९१
क्षाओं के विद्यार्थियों तथा हिन्दी को फ़ाइनल परीक्षा पाठकों को यह पुस्तक विशेष उपयोगी होगी। भाषा सरल तथा हाई-स्कूल की परीक्षा में सम्मिलित होनेवाले विद्या- और सुपाठ्य है । संकलन बहुत सुन्दर है। र्थियों के उपयोग के लिए लिखी गई है। हिन्दी का विग्रह
--गंगासिंह वाक्य इस पुस्तक में बहुत ही उत्तम ढंग से और अधिकार- २२-सुभाषित और विनोद-लेखक, श्रीयुत पूर्वक समझाया गया है । पुस्तक उत्तम है।
गुरुनारायण सुकुल, प्रकाशक, लक्ष्मी-पार्ट प्रेस, दारागंज,
-ठाकुरदत्त मिश्र प्रयाग हैं। मूल्य है। १९-बालगुरुप्रकाश-लेखक, स्वर्गीय पंडित गुरां यह एक विनोद-पूर्ण पुस्तक है, अाठ भागों में लक्ष्मीनारायण जी शर्मा, प्रकाशक, अध्यापक, राजस्थानी- विभाजित है। पहले भाग में शुद्ध साहित्यिक भाव तथा हिन्दी-विद्यालय, कसार हट्ठा चौक, हैदराबाद दक्षिण कला प्रदर्शित करनेवाली सूक्तियाँ हैं, यथा---श्री गोस्वामी हैं । पृष्ठ-संख्या ४६ और मूल्य ।) है।
जी ने एक बार सीता जी का वर्णन साधारण युवती यह पुस्तक छोटे बच्चों के लिए बहुत ही लाभदायक की भाँति कर दिया किहै । इसको पढ़कर वे सब प्रकार के लेखा-हिसाब से परिचित "साह नवल तन सुन्दर सारी”, पर बाद में हनुमान हो सकते हैं। लिखने का ढंग बहुत ही सुन्दर और मनोरं- जी की सहायता से उसे मातृवत् श्रद्धापूर्ण कर दिया। जक होने से बालकों की रुचि भी इसके पढ़ने के लिए
"साह नवल तन सुन्दर सारी'। विशेष रूप से हो सकती है। व्यापारिक हिसाब, रुपये पैसे जगत जननि अतुलित छवि भारी" ॥ का सूद, नाप-तोल आदि विषयों के उत्तम गुर बताये गये दूसरे भाग में चमत्कारपूर्ण अालंकारिक युक्तियाँ हैं । पुस्तक की भाषा बहुत ही सरल और श्राम बोल-चाल हैं, यथा-- की है । भारतीय बच्चों के लिए ऐसी पुस्तके अभी कम 'लक्ष्मी पति के कर बसै, पाँच अछर गिनि लेहु । प्रकाशित हुई हैं । इसलिए इस अनूठी पुस्तक से भारतीय पहिलो अच्छर छोड़ि कै, बचे सो माँगे देहु ।' बाल-समाज को अवश्य लाभ उठाना चाहिए। मतलब यह कि विष्णु भगवान् के हाथ में जो रहता है
२०-अभिमन्यु की वीरता (कविता)-रचयिता 'सुदर्शन' उसका प्रथम अक्षर छोड़कर 'दर्शन' दो। और प्रकाशक, पण्डित रामचन्द्र शर्मा, मंडावर, बिजनौर तीसरे भाग में भारतीय नरेशों का काव्य-प्रेम दिखाया गया हैं । पृष्ठ-संख्या ३८ और मूल्य ।) है ।
है। यथा-रहीम एक बार अपनी दानशीलता के फलस्वरूप - इस पुस्तक की कथा का आधार महाभारत का बहुत दीन हो गये थे और अपने भोजन के लिए भाड़ द्रोणपर्व है। पुस्तक का पहला संस्करण समाप्त हो जाने के झोंक रहे थे । उस समय रीवा के महाराज ने कहा-"जाके कारण लेखक ने यह दूसरा संस्करण विशेष संशोधन के साथ सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस । रहीम ने उत्तर प्रकाशित किया है । इसकी कविता रोचक और वीर-रसपूर्ण दिया-"रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ।” चौथे है। इसलिए पाठकों की रुचि इसके पढ़ने की अोर स्वभा- भाग में महाकवि कालिदास और तुलसीदास के सम्बन्ध की वतः आकृष्ट होती है। भाषा सरल और सुपाठ्य है। आख्यायिकायें हैं। इसी प्रकार पाँचवें, छठे, सातवें और बालकों के लिए यह पुस्तक उपयोगी है।
श्राठवें भाग में कम से कवियों का काव्य-प्रेम, देहावसान, २१-सदुपदेश-संग्रह-संकलयिता, श्रीयुत रामना- काल की युक्तियाँ, कल्पित किन्तु रोचक कहानियाँ तथा रायण मिश्र, प्रकाशक, साहित्य-सागर-कार्यालय, सुइथा- बिखरे वन-पुष्प समान काव्योचित हास्य का संग्रह है। लेखक कला, जौनपुर हैं । पृष्ठ-संख्या ९० और मूल्य ।।) है। ने संस्कृत, हिन्दी एवं उर्दू तथा अँगरेज़ी तक की हास्य-- संकलयिता ने इस पुस्तक में देशी और विदेशी प्रधान बातों का इसमें समावेश किया है । यह पुस्तक संयत महापुरुषों के सदुपदेशों का संकलन किया है। संसार के और सुन्दर है। हिन्दी-प्रेमियों के लिए संग्रहणीय है। महापुरुषों के उत्तम विचारों की जानकारी के इच्छुक ।
-गंगाप्रसाद पाण्डेय
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ส
श्री निराला जी की कविता
१ )
'जनवरी की 'सरस्वती' के मुख पृष्ठ पर छपी 'निराला' जी की 'सम्राट् अष्टम एडवर्ड के प्रति' कविता का अनेकशः निरीक्षण किया । सार्थक तथा सत्यसफल कल्पनाओं, सम्राट् के महात्याग में अपने व्यक्तित्व की प्रतिफलित उदात्त अभिव्यक्ति तथा काव्य-कला के विभिन्न अवयवों का एकत्र सामञ्जस्य देखकर चकित हो गया । बहुत कम इतनी -
कविता हिन्दी में देखने में आती है । लक्ष्मीनारायण मिश्र, नागरी - प्र० - सभा, काशी
( २ )
जनवरी मास की 'सरस्वती' में प्रथम ही जो "सम्राट के प्रति" कविता छपी है उसके सम्बन्ध में निम्नाङ्कित प्रार्थना पर ध्यान देकर क्या श्राप इस लघु साहित्य-सेवक विद्यार्थी की शंका समाधान करने की कृपा करेंगे ?
(३) इसको समझने के लिए कोष की आवश्यकता है । (४) काव्य-दृष्टि से प्रासाद तथा माधुर्य का इसमें कहाँ तक स्थान है ?
सामयिक साहित्य साक्षर जनता को सहज-सुलभ-ज्ञानप्रदायक भी होना चाहिए तभी साहित्य सेवा हो सकेगी।
विषय
(१) भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति, (२) दक्षिणी भाषा पर हिन्दी का प्रभाव, (३) द्राविड- साहित्य,
(१) इसमें कौन सा छन्द है ?
. होगा ?
(४) हिन्दी प्रान्तों में हिन्दी का स्थान, (५) राष्ट्रीय (२) इससे क्या सर्वसाधारण का ज्ञान-वर्धन शिक्षा-पद्धति, (६) हरिजनसमस्या, (७) ग्राम-पुन: संगठन, (८) समाजवाद बनाम राष्ट्र-वाद, (९) विजयनगर साम्राज्य, (१०) तामिल - साहित्य, (११) कर्नाटक - संगीत, (१२) द्राविड - सभ्यता, (१३) भारतीय विनिमय, (१४) भारतीय सिनेमा, (१५) केरल की कथकली ( नृत्य ) कला, (१६) हिन्दी के वर्तमान कवि और उनकी कविता, (१७) हिन्दी का वर्त मान नाट्य-साहित्य और उसकी उन्नति के उपाय !
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CF
905
इस प्रकार की यह कविता इस सिद्धान्त को पूर्ण नहीं करती है ।
"साहित्यरत्न " शिवनारायण भारद्वाज "नरेन्द्र"
आगामी सम्मेलन के लिए विषय सूची
अखिल भारतीय हिन्दी - साहित्य सम्मेलन का छब्बीसवाँ अधिवेशन ईस्टर की छुट्टियों में करने का निश्चय हुआ है । पूर्व - निश्चित परिपाटी के अनुसार हिन्दी के विद्वानों तथा लेखकों से निवेदन है कि सम्मेलन में पढ़े जाने के लिए निम्नलिखित विषयों पर लेख लिखकर, मंत्री, हिन्दीसाहित्य-सम्मेलन' स्वागत-समिति, त्यागरायनगर, मदरास के पते पर ता० १५ मार्च सन् १९३७ तक भेजने की कृपा करें ।
-
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व्यव्यस्त रेखा शब्द पहली CROSSWORD PUZZLE IN HINDI
३००
(शुद्ध पुर्तियों पर V
२००) न्यूनतम् अशुद्धियों पर
नियम : - (१) वर्ग नं० ७ में निम्नलिखित पारितोषिक दिये जायँगे । प्रथम पारितोषिक – सम्पूर्णतया शुद्ध पूर्ति पर ३००) नक़द । द्वितीय पारितोषिक – न्यूनतम अशुद्धियों पर २००) नक़द । वर्गनिर्माता की पूर्ति से, जो मुहर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही सही मानी जायगी ।
(२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत - परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से आरम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है और इस चिह्न () के पहले समाप्त होता है । अङ्क-परिचय में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी ओर पढ़े जानेवाले शब्दों के अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह पता चलेगा कि कौन शब्द किस ओर को पढ़ा जायगा । (३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय। पेंसिल से की गई पूर्तियाँ स्वीकार न की जायँगी । अक्षर सुन्दर, सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए । जो अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर दूसरी बार लिखा गया होगा वह अशुद्ध माना जायगा ।
या
(४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फ़ीस वर्ग के ऊपर छपी है दाख़िल करनी होगी। फ़ीस मनीआर्डर द्वारा या सरस्वती - प्रतियोगिता के प्रवेश शुल्क - पत्र (Credit voucher) द्वारा दाख़िल की जा सकती है। इन प्रवेश शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३) ६) में ख़रीदी जा सकती हैं । ३) की किताब में आठ आने मूल्य के और ६ ) की किताब में १) मूल्य के ६ पत्र बँधे हैं । एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पता - ठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीआर्डर द्वारा अपनी अपनी फ़ीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियाँ
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भी एक ही लिफ़ाफ़ या पैकेट में भेजी जा सकती हैं। मनीग्रार्डर व वर्ग- पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग- नम्बर ७, इंडियन प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से आनी चाहिए।
(५) लिफ़ाफ़ में वर्ग - पूर्ति के साथ मनीआर्डर की रसीद या प्रवेश शुल्क पत्र नत्थी होकर श्राना अनिवार्य है । रसीद या प्रवेश शुल्क-पत्र न होने पर वर्ग- पूर्ति की जाँच न की जायगी। लिफ़ाफ़े की दूसरी ओर अर्थात् पीठ पर मनार्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति - संख्या लिखनी
श्रावश्यक
है । (६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह जितनी पूर्ति - संख्यायें भेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति को केवल एक ही इनाम मिल सकता है । वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा में नहीं लौटाई जायगी। इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें भाग नहीं ले सकेंगे ।
(७) जो वर्ग - पूर्ति २२ फ़रवरी तक नहीं पहुँचेगी, जाँच में नहीं शामिल की जायगी । स्थानीय पूर्तियाँ २२ ता० को पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दूर के स्थानों ( अर्थात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्ठी पहुँचने में २४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २ दिन बाद तक ली जायँगी। वर्ग निर्माता का निर्णय सब प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा । शुद्ध वर्ग- पूर्ति की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले अङ्क में प्रकाशित होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पूर्ति की शुद्धता शुद्धता की जाँच कर सकें ।
(८) इस वर्ग के बनाने में 'संक्षिप्त हिन्दी - शब्दसागर' और 'बाल - शब्दसागर' से सहायता ली गई है ।
१९३
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वायें से दाहिने अङ्क-परिचय ऊपर से नीचे १-संसार को सँभालनेवाला।
१-संसार की बढ़ती के लिए यह आवश्यक है। ४-लड़ना भी कभी किसी का......होता है।
२-दानियों में श्रेष्ठ । . , ७-जहाज़ का रास्ता...... ही होता है।
३-रसीला। ८-यहाँ उलट जाने से काज बनता है।
४-मर्म। ९-यह नवीन की गड़बड़ है।
५-वह बड़ा नल जिससे अनेक छोटे नल निकलते हों। ११-ब्रज का एक बन।
६-यदि यह न हो तो विश्राम का सुख नहीं। १३-विष ।
१०-बड़े से बड़ा भी एक ही के सिपुर्द रहता है। १७--इसमें रस होने पर भी छलकता नहीं।
१२-एक विशेष रीति से साफ़ करना । १९-कुछ लोग इसी से अपना पेट पालते हैं।
१४-इसके लगने से भी रक्त बहने की नौबत आ जाती है। २०-समूह।
१५-इसका अाक्रमण चुपचाप होते हुए भी बड़ा व्यापक है। २१-ब्रह्मा के पुत्र ।
१६-इसकी हार नहीं होती। २२-...की पूजन-विधि निराली है।
१८-नई रोशनीवाले इसे अलग कर देने में नहीं हिचकते। २४-व्यापार करनेवाला।
१९-बहुत कमज़ोर या पतला। २५-इसका उद्देश्य ही नीच है।
२१-अमूल्य रत्न । २६-यह अोषधि के काम में आती है।
२३-माल-मसाला जितना लगेगा उतना ही यह अधिक व २७-इससे सफ़ाई की जाती है।
बढ़िया होगा। २८-बढ़िया गानेवाले की कला इससे अधिक रोचक मालूम २४-इस खाद्य पदार्थ को प्राकृत दशा में बिरले ही पक्षी पड़ती है।
खाते हैं। ३०-कभी-कभी शिकार में काम आती है।
२७-नदी या समुद्र के किनारे थोड़ा या बहत मिलता है। २९-झोंके से उलटना इसके लिए साधारण बात है। ३१-कुछ नवयुवक ऐसा काम गुप्त रीति से करते हैं। नोट-रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा रहित और पूर्ण हैं।
वर्ग नं. ६ की शुद्ध पूर्ति वर्ग नम्बर ६ की शुद्ध पूर्ति जो बंद लिफ़ाफ़े में मुहर लगाकर रख दी गई थी यहाँ दी जा रही है। पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं ।
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ७ की पूर्तियों की नकल यहाँ पर कर लीजिए।
__ और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
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वर्ग नं०७
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( १९५ )
जाँच का फार्म फीस ॥
. वर्ग नं० ६ की शुद्ध पूर्ति और पारितोषिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं । यदि आपको यह संदेह हो कि आप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १J फ़ीस के साथ निम्न फ़ार्म की खानापुरी करके १५ फरवरी तक भेजें । आपकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे। यदि आपकी पूर्ति आपकी सूचना के अनुसार ठीक निकली तो पुरस्कारों में से जो आपकी पूर्ति के अनुसार होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फ़ीस लौटा दी जायगी। पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चुका है उन्हें इस फ़ार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
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चिन्दीदार कार से जानिए
.... बिन्दीदार लकीर पर से काटिए"
(रिक्त कोठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण हैं) मैरेजर का निर्णय मुझे हर मकार स्वीकृत होगा।
पूरा नाम--------
...... पूर्ति नं.-----
वर्ग नं. ६ (जाँच का फ़ार्म)
मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं०६ के आपके उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
{ कोई अशुद्धि नहीं है।
.! एक अशुद्धि है। नं०.........में शादियाँ हैं।
तीन अशुद्धियाँ हैं ! मेरी पूर्ति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त भेजिए। मैं १) जाँच की फ़ीस भेज रहा हूँ।
वर्ग नं.७
फीस ॥)
बिन्दीदार लाइन पर काटिए
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(रिक्त कोड़ों के मातर मात्रा-रहित भौर पूर्ण है।
मैरेज का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम--.......................
...............................................
मैनेजर वर्ग नं०७ इंडियन प्रेस, लि०,
इलाहाबाद
पता
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पुरस्कार विजेताओं की कुछ चिट्ठियाँ
गोकुलदास हिन्दू गर्ल्स कालेज,
. अमरोहा .. मुरादाबाद।
२४-१२-३६ ....महाशय जी वन्दे।
प्रिय महाशय जी, - मैं दो सप्ताह के लिए बाहर गई हुई थी। लौटने पर आपका भेजा हुअा प्रवेश-शुल्क पत्र प्राप्त हुआ।
आपका पत्र तथा 'सरस्वती' मिली। अपना नाम शुद्ध-पूर्ति- धन्यवाद । यद्यपि पुरस्कार अधिक नहीं है, फिर भी मुझे यह पुरस्कार विजेताओं की सूची में देखकर अत्यन्त हर्ष हुअा। जानकर सन्तोष है कि मेरा प्रथम प्रयत्न कुछ सफल हुअा। - वास्तव में व्यत्यस्त-रेखा-शब्द-पहेली निकाल कर प्रथम प्रयास में इससे अधिक आशा नहीं की जा सकती,
आपने हिन्दी पत्रिकाओं में एक रोचकता, नवीनता तथा क्योंकि अनुभव धीरे धीरे ही होता है । वर्ग ४ की शुद्ध पूर्ति पूर्णता ला दी है। इससे 'सरस्वती' में और भी दिलचस्पी देखकर यह ज्ञात हा कि उसका निर्माण बुद्धिमानी से बढ़ गई है। पाठक-पाठिकाये उत्सुकता से अागामी अंक हया है. और संकेत बिलकल शद्ध हैं। आशा है कि भविष्य के लिए प्रतीक्षा करती हैं। मनोरंजन के अतिरिक्त इससे में भी इनको शद्ध रखने का विचार सर्वोपरि रहेगा, क्योंकि
शब्द-ज्ञान भी बढ़ता है। आपके शब्द-संकेत भी बहुत संकेत शुद्ध होने से ही वर्ग-पूर्ति करने में उत्साह बढ़ता है, - उपयुक्त होते हैं, जो केवल बुद्धि के सहारे ही सुलझ जो व्यत्यस्त-रेखा-पहेली की एक अनोखी विभूति है। सकते हैं। -सावित्री देवी वर्मा, एम० ए०
...सुशीला देवी ५८, झा-होस्टल,
इलाहाबाद प्रिय महोदय, . आपका कार्ड ता० ६ दिसम्बर को मिला। अनेक
गवर्नमेंट हाई स्कूल, मथुरा धन्यवाद । आपको यह जानकर अवश्य प्रसन्नता होगी कि
३१-१२-१९३६ मैंने केवल एक ही वर्ग-पूर्ति भेजी थी और ऐसी प्रतियोगिता
श्रीमान् प्रबन्धक महोदय, जय श्रीकृष्ण, . में भाग लेने का यह मेरा पहला अवसर था। इस पर भी
__मैंने वर्ग नं० २ व ४ में पूर्तियाँ भेजी और दोनों ही मैंने १० का पुरस्कार जीता।
बार सफलता मिली। वर्ग नं. ३ में अवकाश न मिलने अङ्क-परिचय में शब्दों का संकेत अत्यन्त सावधानी
के कारण कोई पूर्ति नहीं भेजी थी। वर्ग नं० २ में चार से दिया गया है। उदाहरणार्थ-'यह कभी कभी चमक पूर्तियों में से सिर्फ एक में सफलता मिली थी, परन्तु वर्ग उठता है। इसके लिए 'नग', 'नख', 'नभ' इन तीन शब्दों नं० ४ में चार में से तीन पूर्तियों में सफलता मिली और में कौन सही होगा, यह प्रश्न हमारे सामने आता है। नग' छः रुपये के तीन पुरस्कार (४)+ १) + १)) जीते। .' सही नहीं हो सकता, क्योंकि 'कभी कभी' इसमें लागू नहीं चार रुपये मनीआर्डर से व एक एक रुपया के दो प्रवेश- .' होता । 'नख' के लिए 'चमकता है, कहना उचित नहीं शुक्ल-पत्र प्राप्त हो गये हैं। प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त फिर 'चमक उठने का भाव तो इसमें आता ही नहीं । 'नभा करना अति कठिन नहीं है। यह सिर्फ कुछ अभ्यास पर निर्भर - के लिए यह कहना कि यह कभी कभी चमक उठता है. हैं। वर्ग नं०५ के लिए भी तीन पूर्तियाँ भेजी हैं और बिलकुल सही है।
अाशा है, सफलता मिलेगी। चूँकि प्रतियोगिताओं में भाग • इसी प्रकार सम्पूर्ण वर्ग-निर्माण जिस बुद्धिमानी से लेनेवालों का अभ्यास और अनुभव बढ़ता जा रहा है,
किया गया है वह प्रशंसनीय है। पुरस्कार विजेताओं की इसलिए आप भी धीरे धीरे वर्गों की कठिनता को बढ़ाते • सूची में मेरा नाम देखकर मेरे एक दर्जन मित्रों ने वर्ग • जा रहे हैं। में पुरस्कार पाने की ठानी है।
-निहालसिंह शुक्ल, क्लर्क ५८ झा-होस्टल !
श्रापका ता० १५ दिसम्बर ।
रमेशचन्द्र तिवारी
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( १९७ ) ५००) में दो पारितोषिक
इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ १९३ पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए दो और कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
विदीदार लकीर पर से काटिए
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अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ७ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए 1
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( १९८ )
सामने खोला जायगा। उस समय जो सज्जन चाहें स्वयं आवश्यक सूचनायें
उपस्थित होकर उसे देख सकते हैं। (१) स्थानीय प्रतियोगियों की सुविधा के लिए हमने (४) इस प्रतियोगिता में भाग लेनेवाले बहुत-सी ऐसी प्रवेश शुल्क-पत्र छाप दिये हैं जो हमारे कार्यालय से नकद भूलें कर देते हैं जिन्हें वे नियमों को ध्यान से देखें तो दाम देकर खरीदा जा सकता है। उस पत्र पर अपना नाम नहीं कर सकते । बैरँग चिट्ठियाँ नहीं ली जायँगी और ।। स्वयं लिख कर पूर्ति के साथ नत्थी करना चाहिए।
के मनिबार्डर या प्रवेश-शुल्क-पत्र के बजाय जो इसी मूल्य (२) स्थानीय पूर्तियाँ सरस्वती-प्रतियोगिता-बक्स में
के डाकघर के टिकट भेजेंगे उनके उत्तर पर भी विचार न जो कार्यालय के सामने रक्खा गया है, १० और पाँच के
होगा । एक वर्ग-पूर्ति भेज चुकने पर उसका संशोधन दूसरे
लिफ़ाफ़ में भेजना टिकट का अपव्यय करना होगा क्योंकि बीच में डाली जा सकती हैं।
उन पर भी विचार न होगा। छोटे कूपन, या कूपन की नकल (३) वर्ग नम्बर ७ का नतीजा जो बन्द लिफ़ाफ़े में मुहर पर भेजी गई वर्ग-पूर्तियों पर भी विचार न होगा। इस लगा कर रख दिया गया है ता० २५ फ़रवरी सन् १९३७ को सम्बन्ध में हमें जो कुछ कहना होगा हम इन्हीं पृष्ठों में सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे सर्वसाधारण के लिखेंगे । पत्रों का हम पृथक से कोई उत्तर न देंगे।
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218
मूल्य
संक्षिप्त हिंदी-शब्दसागर
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जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और बहुमूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्दसागर की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये।
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प्रसिद्ध चित्रकार श्री केदार शर्मा ने बिहारी के दोहों पर कुछ और व्यङ्गय चित्र बनाये हैं । उनमें से दो हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।
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बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मैन । हरिनी के नैनान ते, हरि नीके ये नैन ।
सहज सचिक्कन स्याम रुचि, सुचि सुगन्ध सुकुमार । गनत न मन पथ अपथ लखि, बिथुरे सुथरे बार ॥
एक मासिक पत्रिका में उसके सम्पादक महोदय "हिन्दी का समालोचना-साहित्य इस समय जिस मार्ग लिखते हैं----
पर अग्रसर हो रहा है वह मार्ग किसी प्रकार भी घृणा के "हम लोग अपनी लेखनी पर किसी प्रकार का भी योग्य नहीं है।" नियंत्रण नहीं चाहते । यह बात हमारे मित्रों तथा शत्रुओं सम्भवतः ये दोनों सम्पादक अपनी अपनी पत्रिकाओं को कान खोलकर सुन लेनी चाहिए।"
एक दूसरी मासिक पत्रिका के सम्पादक महोदय का होलिकाङ्क निकालने की तैयारी कर चुके हैं। लिखते हैं
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२००
सरस्वती
भाग ३८
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Song
३
SHANKAR
त्रावणकार-नरेश ने अपने राज्य के मंदिरों को हरिजनों के लिए खोले जाने की घोषणा कर दी है। इस घोषणा के प्रकाश में अन्य नरेश और कट्टरपंथा अब कैंस भटक सकते हैं ? --(हिन्दुस्तान से
HEAD VEARHIXMAS PRESENTSHADAYS VORRAGOVT CHAPRAST
1.C.SI
HORSE
लन्दन का एक समाचार है कि आई०सी० एस० की नौकरी में जो लोग लिये जायँगे वे भारतवर्ष के
सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए केनसिंगटन का संग्रहालय देखने भेजे जायँगे। -(पायनियर से) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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HESH
सम्पादकीय नोट
संसार की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति कार्यवाहियों से अपने को असाधारण व्यक्ति प्रमाणित किया योरप की राजनैतिक अवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती है । यदि इनके समय में मुसलमानों में एकता का भाव जा रही है । आपसी फूट के कारण वहाँ के राष्ट्र निर्बल पड़ ज़ोर पकड़ जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । तुर्की में कमाल ने गये हैं, और किसी समय सारे संसार पर योरप की जो धाक और ईरान में रज़ाशाह ने राष्ट्र-निर्माण का जो महत् कार्य थी और कहीं कोई चूँ तक नहीं कर सकता वह अाज नाम को किया है उसका सभी मुसलमान देशों पर काफ़ी प्रभाव भी नहीं रह गई है। यह इसी का परिणाम है कि एशिया के पड़ा है। ऐसी दशा में ये चार ही क्यों, अन्य स्वतन्त्र पूर्वी अंचल में जापान मनमानी कर रहा है और धीरे धीरे मुसलमान राज्य भी अवसर पाते ही उनके दल में मिल चीन के राज्य को हड़पता जा रहा है। मंचूरिया को चीन जाना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझेगे। तथापि इन से उसने अलग ही कर लिया है और अब इस प्रयत्न में है मुसलमान देशों की यह सैनिक तैयारी जहाँ योरप के लिए कि उत्तरी चीन के पाँच प्रान्त भी चीन की राष्ट्रीय सरकार अाज चिन्ता का कारण है, वहाँ वह एशिया के लिए कम के कब्जे से मुक्त होकर उसके चंगुल में आ जाय ताकि वह भयावह नहीं है । और इस परिस्थति का मूल कारण योरप मंगोलिया में बेखटके होकर प्रवेश कर सके । यदि योरप के प्रमुख राष्ट्रों का निर्बल पड़ जाना है। चाहे जो हो, इस के शक्तिशाली राष्ट्रों में एकता होती तो जापान को ऐसा समय संसार में न्याय का नहीं, किन्तु लाठी का ही बोल । करने का साहस न होता और न यही प्रयत्न होता कि बाला है। एशिया के पाँच मुसलमानी राष्ट्र आत्मरक्षा के नाम पर इधर स्पेन का गृह-युद्ध धीरे-धीरे अपना भयानक रूप अपना एक पृथक् गुट बनाते। इस समय तुर्की, ईरान, प्रकट करने लगा है। यह अब एक प्रकट सत्य है कि ईराक और अफ़ग़ानिस्तान में बड़ा मेल है और वे इस बात विद्रोही पक्ष का साथ इटली और जर्मनी दे रहा है तथा स्पेन के प्रयत्न में हैं कि भविष्य के किसी अवसर के लिए वे चारों की सरकार की सहायता रूस और फ्रांस कर रहे हैं । ब्रिटेन मिल कर २० लाख सेना एकत्र कर सकें।
यद्यपि इस झमेले से दूर है, तो भी आयलैंड और स्काटलैंड उधर योरप में इटली, जर्मनी, रूस और फ्रांस अपना के नागरिक यथारुचि दोनों पक्षों में शामिल होकर युद्ध सैन्यबल पहले से ही बढ़ाये हुए हैं, और अब उनकी में भाग ले रहे हैं । इस प्रकार स्पेन का यह गृह-युद्ध एक देखा-देखी ब्रिटेन भी अपना सामरिक बल बढ़ाने में लग प्रकार से योरपीय युद्ध का रूप धारण कर गया है। और गया है। जापान पूर्वी एशिया में और अमरीका में अभी हाल में जर्मनी के जंगी बेड़े ने तो एक घटना को संयुक्त राज्य सैनिक तैयारी में पहले से ही तैयार बैठे लेकर स्पेन-सरकार के जहाज़ों की धर-पकड़ भी शुरू कर हैं। तब यदि पश्चिमी एशिया के उपर्युक्त मुसलमान दी है । जर्मनी का यह हस्तक्षेप जोखिम से भरा हुआ है, राष्ट्र भी अपना गुट बनाकर अपनी आत्मरक्षा के लिए और यदि यह मामला जल्दी न तय हो जायगा तो आश्चर्य . तैयार हो रहे हैं तो यह एक स्वाभाविक ही बात है। वे नहीं कि योरप के अन्य राष्ट्र खुल्लमखुल्ला आपस में ही न जानते हैं कि पिछले महायुद्ध में उनका तुर्क-साम्राज्य भंग लड़ने लग जायँ । हो चुका है और ईरान को व्यर्थ की कठिनाइयाँ झेलनी भूमध्य-सागर के सम्बन्ध में इटली और ब्रिटेन की जो . पड़ी हैं । अतएव वे वैसे ही भीषण प्रसंग के लिए पहले सन्धि हाल में हुई है वह अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। से ही तैयार रहना चाहते हैं। तुर्की के भाग्यविधाता इसके फलस्वरूप तो इटली अब और भी आबधरूप से स्पेन कमाल अता तुर्क और ईरान के रज़ाशाह पहलवी ने अपनी के मामले में हस्तक्षेप कर सकेगा । और इटली तथा जर्मनी
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२०२
सरस्वती
• [भाग ३८
की सहायता से स्पेन में भी फैसिस्ट सरकार की यदि स्थापना दुर्दशाग्रस्त है। उसके प्रसिद्ध देशभक्त डाक्टर सनयात हो जायगी तो उस स्थिति में फ्रांस बड़ी जोखिम में पड़ सेन ने सन् १९११ में इस उद्देश से क्रान्ति करके चीन में जायगा, क्योंकि वह तीन ओर से फैसिस्ट राज्यों से घिर प्रजातन्त्र की स्थापना की थी कि चीन शक्तिमान होकर जायगा। इसके सिवा भूमध्य-सागर का उसका अफ्रीका संसार के राष्ट्रों में अपना उचित स्थान प्राप्त करे। परन्तु का मार्ग भी संकट में पड़ जायगा। उस दशा में वह नहीं हुआ, साथ ही रही-सही अपनी प्रतिष्ठा भी गँवा आश्चर्य नहीं कि फ्रांस में भी फैसिस्ट सरकार की स्थापना बैठा । हाँ, इधर जब से चियांग-कै-शेक ने चीन में नानकिंग का प्रयत्न हो।
की राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की है और चीन के हितों वास्तव में इस समय ब्रिटेन और फ्रांस की जो मैत्री की रक्षा करने में अपने चातुर्य का परिचय दिया है तब से है वह महायुद्ध के काल जैसी नहीं है । जर्मनी के विरुद्ध निःसन्देह उसकी स्थिति में बहुत कुछ स्थिरता आ गई है। शस्त्र ग्रहण करने को ब्रिटेन तैयार नहीं है और न फ्रांस यह सही है कि इन्हीं के समय में जापान ने मंचूरिया को इटली के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण करने को तैयार है । हाँ, छीनकर अपने अधिकार में कर लिया है और इससे चीन यदि ब्रिटेन या फ्रांस पर इनमें से कोई आक्रमण करे तो की मर्यादा को भारी धक्का पहुँचा है और इन्होंने आज • बेशक ये दोनों राष्ट्र आत्मरक्षा की भावना से मिलकर तक उसका प्रतीकार नहीं किया। परन्तु अबीसीनिया की
आक्रमणकारियों से युद्ध करेंगे। इस बात को इटली और गति देखते हुए च्यांग-कै-शेक की बुद्धिमानी की प्रशंसा ही जर्मनी दोनों अच्छी तरह जानते हैं। इसी से वे दोनों की जायगी कि उन्होंने हेल सेलासी बनने से बार-बार इनस्पेन में अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं और ब्रिटेन कार किया। उन्होंने जापान से लड़ना उचित नहीं समझा तथा इटली के हाल के समझौते ने उन्हें और भी उत्तम और वे अपने राष्ट्र को ऐक्य के सूत्र में अाबद्ध करने के काम अवसर प्रदान कर दिया है । यद्यपि यह एक प्रकार से स्पष्ट में ही लगे रहे । फलतः वे कैंटन की सरकार के तोड़ने में है कि फ्रांस की और उसके साथ ब्रिटेन की भी सहानुभूति सफल हुए और इस प्रकार मध्य-चीन और दक्षिण-चीन स्पेन की सरकार के प्रति है, परन्तु ये दोनों उसके पक्ष में को एकता के सूत्र में बाँध दिया। इधर हाल में वे पश्चिमी हस्तक्षेप करके इटली और जर्मनी से बैठे-बिठाये लड़ाई प्रान्तों के बोल्शेविक विद्रोहियों के दमन में इसलिए लगे मोल नहीं लेना चाहते । फिर ब्रिटेन का स्पेन के मामलों थे कि चीन के उस भाग पर भी राष्ट्रीय सरकार की प्रधासे कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। और जिस बात से उसका नंता कायम हो जाय । इसी सिलसिले में वे वहाँ हाल में गये सम्बन्ध है उसे इस सन्धि से उसने स्पष्ट कर लिया है। थे, परन्तु यहाँ एकाएक एक विलक्षण घटना घटित हो गई। इटली ने वचन दे दिया है कि वह भूमध्य-सागर की शेसी-प्रदेश की सेनाओं के सेनापति चंग स्यूह-लियांग ने वर्तमान स्थिति को स्वीकार करता है और स्पेन के किसी विद्रोहियों के षड्यंत्र में शामिल होकर च्यांग-कै-शेक को
टापू को अपने अधिकार में करके वहाँ फ़ौजी किलेबन्दी गिरफ्तार कर लिया और राष्ट्रीय सरकार से यह मांग की .. नहीं करेगा।
कि जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा तथा रूस से मित्रता इसमें सन्देह नहीं कि इस समय संसार की अन्तर्राष्ट्रीय स्थापित की जाय। उनके इस विद्रोह से सारे चीन में दशा वास्तव में जोखिम से भरी हुई है और अधिकारी व्यक्ति सनसनी फैल गई। परन्तु राष्ट्रीय सरकार के अन्य मंत्रियों उसे काबू में रखने के अपने प्रयत्न में बराबर असफल हो ने समय के उपयुक्त दृढ़ नीति से काम लिया । इस अवसर
. पर जहाँ उन लोगों ने विद्रोहियों का दमन करने के लिए
युद्ध की तैयारी की, वहाँ आपसी समझौते की भी बातचीत . चीन की एक महत्त्वपूर्ण घटना
शुरू की। इस बातचीत में आस्ट्रेलिया के मिस्टर डब्ल्यू० चीन संसार का सबसे बड़ा राष्ट्र है-क्या आबादी एच० डोनाल्ड ने प्रमुख भाग लिया। बातचीत के फल' की दृष्टि से, क्या क्षेत्रफल की दृष्टि से और क्या प्राचीनता स्वरूप च्यांग-कै-शेक १५ दिन की कैद के बाद छोड़ दिये
की दृष्टि से । परन्तु दुर्भाग्य से वह एक लम्बे ज़माने से गये और चंग स्यूह-लिंग ने भी आत्मसमर्पण कर दिया।
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संख्या २१
सम्पादकीय नोट
... नानकिंग आकर च्यांग कै-शेक ने अपने पद से त्याग- भाई परमानन्द ने इस बात का प्रयत्न किया था कि "पत्र दे दिया, परन्तु वह स्वीकार नहीं किया गया। इससे संयुक्तप्रान्त, बिहार, बंगाल आदि में भी हिन्दू-सभा कांग्रेस . प्रकट होता है कि उनकी चीन में कितनी भारी प्रतिपत्ति का विरोध करे, परन्तु वे अपने प्रयत्न में नहीं सफल हुए। है। इधर चंग स्यूह-लिंग ने सरकार को लिखकर अपना पंजाब के सिवा महाराष्ट्र में डेमाक्रेटिक स्वराज्य पार्टी और अपराध स्वीकार किया और उचित दण्ड दिये जाने की मदरास में जस्टिस पार्टी ने भी कांग्रेस के विरोध में अपने मांग की। इस सम्बन्ध में इन दोनों व्यक्तियों के जो बयान उम्मेदवार खड़े किये हैं और हाल में मध्य प्रान्त में डाक्टर पत्रों में प्रकाशित हुए हैं उनसे प्रकट होता है कि चीन में मुंजे भी कांग्रेस का विरोध करने को मैदान में कूद पड़े हैं। राष्ट्रीय भावना का कितना प्राबल्य है। इस घटना के इधर संयुक्तप्रान्त में एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी के नाम से वहाँ के कारण जहाँ चीन सर्वनाश के लिए कमर कस चुका था, भूस्वामी कांग्रेस और लीग दोनों का व्यवस्थित रूप से विरोध वहाँ एकाएक उसका इस तरह शान्तिपूर्वक निपटारा हो कर रहे हैं । इनके सिवा प्रायः सभी प्रान्तों में अनेक स्थानों जाना क्या यह नहीं प्रकट करता है कि चीन बहुत अधिक से स्वतन्त्र उम्मेदवार केवल अपने बल पर कांग्रेस का जाग गया है और अब वह ऐसा कोई कार्य नहीं करेगा विरोध करने को खड़े हुए हैं। इसी प्रकार मुस्लिम लीग जिससे उसकी राष्ट्रीय शक्ति निर्बल पड़े। वास्तव में का पंजाब में यूनीयनिस्ट दल से, सीमाप्रान्त में कांग्रेस इस घटना के इस तरह शान्तिपूर्वक समाप्त हो जाने से से, संयुक्तप्रान्त में एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी से, बंगाल में चीन के गौरव और उसकी शक्ति में अपार वृद्धि हुई है। प्रजा-पार्टी से, मध्यप्रान्त में एक नये मुस्लिम राष्ट्रीय दल. और आश्चर्य नहीं है कि इसका प्रभाव जापान पर भी पड़े से भिड़ाभिड़ी है। कांग्रेस का सब कहीं अधिक प्रभाव ही और वह भी इससे कुछ शिक्षा ले । जापान की जो लोभ- नहीं, व्यापक प्रचार भी है। अतएव कांग्रेस का विरोध दृष्टि चीन पर है उससे सारा चीन जापान से कहाँ तक करने में न तो हिन्दू सभा सफल होगी, न एग्रीकल्चरिस्ट असन्तुष्ट है, इसका घटना से अच्छा परिचय मिल पार्टी और न स्वतन्त्र उम्मेदवार ही। इसका कारण यह है जाता है।
कि इनमें कोई भी संस्था न तो उतना संगठित है. न चाहे जो हो, चंग स्युह लियांग के इस विद्रोह से चीन लोकमत का ही वैसा बल प्राप्त है । ऐसी दशा में कांग्रेस की में राष्ट्रीय सरकार एवं उसके प्रधान सूत्रधार च्यांग कै-शेक जीत निश्चित है और सभी प्रान्तों की असेम्बलियों में की प्रतिष्ठा की बहुत अधिक वृद्धि हुई है और अब यही उसका बहुमत रहेगा। आशा है कि जिस नीति से राष्ट्रीय सरकार शासन-चक्र परन्तु कांग्रेस की तरह मुस्लिम लीग का कदाचित् का परिचालन कर रही है उसका जनता में और भी सफलता नहीं प्राप्त होगी। सीमाप्रान्त में और पंजाब में अधिक स्वागत होगा, जिससे सरकार को अपने राष्ट्र- उसके उम्मेदवार नहीं जीत सकेंगे और शायद यही हाल सुधार के कार्य में और भी अधिक सफलता मिलेगी। बंगाल और मध्यप्रान्त में भी होगा। इसका कारण यह है इससे चीन का अभ्युदय ही होगा।
कि मुस्लिम लीग हिन्दू.सभा जैसी ही एक निर्बल संस्था है। उसके पीछे लोकमत का प्रभाव नहीं, किन्तु व्यक्तियों
का बल है। नये शासन-सुधारों के अनुसार जो यह नया
. निर्वाचन हो रहा है उसमें कांग्रेस के भाग लेने से सारे देश नया निर्वाचन
में बड़ी चहल-पहल मची हुई है और कांग्रेस के नेताओं प्रान्तीय असेम्बलियों का निर्वाचन-संग्राम शुरू हो का इस सम्बन्ध में जो स्वागत-सत्कार हो रहा है उससे गया है। इसमें कांग्रेस और मुसलिम लीग-यही दो प्रकट होता है कि देश की जनता सदा की भाँति कांग्रेस संस्थायें हैं, जो सारे देश में निर्वाचन आन्दोलन व्यवस्था के ही साथ है। । के साथ कर रही हैं। कांग्रेस का विरोध पंजाब में हिन्दूसभा के नाम से हो रहा है। हिन्दू-सभा के नेता श्रीयुत
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सरस्वती
स्वर्गीय अवधवासी वाला सीताराम दुःख की बात है कि प्रयाग के रायबहादुर लाला सीताराम का पहली जनवरी की रात को स्वर्गवास हो गया। आप वयोवृद्ध थे, पर आपका स्वास्थ्य सदा अच्छा रहा । साल भर हुग्रा, आपके जेठे पुत्र की मृत्यु हो गई
]
[ स्वर्गीय अवधवासी लाला सीताराम थी। इस शोक का आप पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा. और आप विरक्त-सा हो गये थे।
श्रीमान् लाला जी हिन्दी के पुराने लेखकों में थे ।
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[भाग ३८
प्रारम्भ में आपने उर्दू में लिखना शुरू किया था। परन्तु शीघ्र ही हिन्दी की ओर झुक गये और हिन्दी में भी लिखने लगे। इनका मेघदूत सन् १८८३ में छपा था। तब से आप हिन्दी में बराबर लिखते रहे। पहले कालिदास के. ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया, फिर शेक्सपियर के नाटकों का। अयोध्या का इतिहास और अयोध्या की झाँकी लिखकर आपने अपनी जन्मभूमि के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है। आप अपने नाम के पहले 'अवधवासी' ज़रूर लिखते थे । कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए आपने हिन्दी सेलेक्सस नाम से रसों के अनुसार कविताओं का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह तैयार किया है। आप गद्य-पद्य दोनों के लिखने में कुशल थे ।
आपका जन्म सन् १८५८ की २० जनवरी को अयोध्या में हुना था । १८८९ में आपने बी० ए०. पास किया । इसके बाद ग्राप बनारस में कींस कालेज के स्कूल में अध्यापक हो गये । १८९० में वकालत पास की। १८९५ में आप डिप्टी कलेक्टर नियुक्त किये गये । १९११ में आपने पेंशन ले ली और प्रयाग में रहने लगे। यहाँ साहित्य-सेवा और भगवद्भजन में अपना समय व्यतीत किया ।
श्राप बड़े साहित्यानुरागी तथा विद्वान् थे । राम और रामायण के अनन्य भक्त थे । रामायण के शुद्ध पाठ के उद्धार के सम्बन्ध में आपने सबसे पहले प्रयास किया। आपने रामायण के संस्करणों का अच्छा संग्रह किया है। भिन्न भिन्न समय समय पर आप खोजपूर्ण लेख लिखते
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संख्या २]
सम्पादकीय नोट
२०५
रहते थे। अापकी मृत्यु से हिन्दी के एक महारथी का तथा स्वतन्त्र प्रकृति के सम्पादक थे। आपको ऐसे ही अभाव हुआ है। आपके तीन पुत्र हैं, जिनमें रायसाहब उदात्त स्वभाव के कारण इस वृद्धावस्था में कठिन अार्थिक श्री कौशलकिशोर जी शिक्षा विभाग में हैं। आपको भी संकट का सामना करना पड़ा। इन दिनों में 'विश्वमित्र' हिन्दी से बड़ा अनुराग है। इस दुःखद अवसर पर हम में आपकी पाण्डित्यपूर्ण 'अात्मकथा' छप रही थी। खेद आपके परिवार के प्रति अपनी समवेदना प्रकट करते हैं। है, वह पूरी न हो सकी। आपकी मृत्यु से हिन्दी के क्षेत्र
से उसके एक अनन्य प्रेमी का अभाव हो गया है। आपके पण्डित अमृतलाल च
दुखी परिवार के प्रति हम यहाँ अपनी समवेदना प्रकट दुःख की बात है कि ५ जनवरी को पण्डित अमृतलाल करते हैं । चक्रवर्ती का देहावसान हो गया। आप बंगाली होकर
वास
__ भारत और जहाज़ी कम्पनियाँ संसार के सभी शक्तिशाली राष्ट्रों की अपनी अपनी जहाज़ी कम्पनियाँ हैं, जो देश का व्यापार आदि सफलतापूर्वक चलाती हैं। इनमें जापान की कंपनियों की प्रतिद्वंद्विता से तो ब्रिटेन जैसी महान् समुद्री शक्ति भी विचलित हो गई है। उस दिन लंदन में इस सम्बन्ध में पी० एंड यो कम्पनी के मिस्टर अलेक्जेंडर शा ने जो भाषण किया है उससे प्रकट होता है कि जापान इस क्षेत्र में सारे संसार से बाज़ी मार ले गया है। और कदाचित् इसी परिस्थिति के कारण इटली के सर्वेसर्वा मुसोलिनी अपने यहाँ की जहाज़ी कम्पनियों का ऐसा संगठन करना चाहते हैं कि इस क्षेत्र में उनका भी देश जापान की ही तरह गरिमामण्डित हो जाय । इस तरह सभी छोटे-बड़े राष्ट्र इस विषय में सजग हैं और अपने अपने देश की जहाज़ी कम्पनियों को बढ़ाने में संलग्न हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में भारत की बड़ी दयनीय दशा है। निस्सन्देह उत्साही व्यवसायियों ने यहाँ भी जहाज़ी कम्पनियाँ कायम करके चलाई हैं, परन्तु वे विदेशी जहाज़ी कम्पनियों के आगे नहीं ठहर सकीं और उनके दिवाले तक निकल गये।
आज भी दो-एक कम्पनियाँ लस्टम-पस्टम चल रही हैं। स्वगीय पण्डित अमृतलाल चक्रवती यह तो काम देश की सरकार का है कि वह भारतीय भी हिन्दी की मृत्युपर्यन्त सेवा करते रहे हैं । अापने हिन्दी कम्पनियों की रक्षा करे । परन्तु उसने इस अोर जैसा वंगवासी, भारतमित्र. श्री वेंकटेश्वर कलकत्ता-समाचार चाहिए, ध्यान ही नहीं दिया है। भारत जैसे बड़े भारी
आदि का बड़ी योग्यता से सम्पादन किया। आप बड़े अनुभवी देश के अनुरूप जिसका समुद्री तट भी बहुत बड़ा है, पत्रकार थे। हिन्दीवालों ने श्रापको साहित्य-सम्मेलन के अपनी जहाज़ी कम्पनियाँ कहाँ हैं ? अाज यदि भारत की वृन्दावन के अधिवेशन का सभापति बनाकर • आपका अपनी जहाज़ी कम्पनियाँ होती और अपने देश का तटवर्ती समुचित सम्मान किया था। आप बड़े स्पष्ट वक्ता, निर्भीक तथा देशान्तर का भी सारा व्यापार उसके हाथ में होता
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'सरस्वती
तो भारत की वर्तमान दरिद्रता श्राज इतने भीषण रूप में अस्तित्व में आई होती ।
जंगली जानवरों से खेती की हानि
संयुक्त प्रान्त के कई जिलों में जंगली जानवरों के ऐसे बड़े बड़े दल आज भी पाये जाते हैं जिनके कारण वहाँ के किसानों को बड़ी हानि उठानी पड़ती है । प्रसन्नता की बात है कि इस र फतेहपुर के कलेक्टर श्रीयुत दर का ध्यान आकृष्ट हुआ है और वे उनका उन्मूलन करने के लिए एक योजना का कार्य का रूप देना चाहते हैं । उनके ज़िले में तथा कानपुर, उन्नाव और रायबरेली जिले के गंगा के कछार में हज़ारों की संख्या में जंगली गायें, नीलगायें, सूर तथा हिरन आदि फैले हुए | अन्दाज़ किया गया है कि अकेले फ़तेहपुर के जिले में ऐसे जानवर संख्या में सात हज़ार से ज़्यादा होंगे। श्रीयुत दर ने पहले तो इन्हें शिकारियों को भेजकर गोली से मरवा डालने का प्रयत्न किया । परन्तु वे ऐसा प्रयत्न कर रहे हैं कि गायें तो पकड़ कर गोशालाओं को या उन लोगों का जो उन्हें पालना चाहें, दे दी जायें। शेष जंगली पशु एक दम मार डा जायँ या पकड़कर जैसे बैल, घोड़े आदि नीलाम कर दिये जायँ । उन्होंने इस बात की लोगों को सूचना भी दे दी है कि जो लोग पुरानी पद्धति के अनुसार अपने जानवर खुला छोड़ दिया करेंगे उन पर मुकद्दमे चलाये जायँगे और वे दडित किये जायँगे, क्योंकि उनके वैसा करने से जंगली जानवरों की संख्या में वृद्धि होती है । संयुक्तप्रान्त के कई जिलों में होली के बाद सारे पशु खुले छोड़ दिये जाते हैं और वर्षा होने पर जब फिर जुताई- बुवाई शुरू होती है तब कहीं जाकर वे बाँधे जाते हैं। इस पद्धति के कारण गरमी के दिनों की खेती को तो हानि होती ही है, साथ ही जो किसान चैती की फसल काटने में पिछड़ जाते हैं और जो खरीफ़ की फ़सल ठीक समय में जल्दी बा लेते हैं वे सभी पशुओं के खुला रहने के कारण बड़ी हानि उठाते हैं । अतएव इनकी रोक-थाम करना कहीं अधिक ज़रूरी है, और दर साहब ने इस बात की ओर भी ख़ास तौर पर ध्यान दिया है । क्या ही अच्छा हो, यदि अन्य जिलों के अधिकारी इस समस्या की ओर ध्यान देकर बेचारे दीन किसानों की रक्षा करें। आशा है, फ़तेहपुर के इस प्रदर्श
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[ भाग ३८
प्रयत्न का अन्य जिलों के अधिकारियों पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा और वे भी इस ओर जल्दी ही यत्नवान् होंगे।
लखनऊ की औद्योगिक और कृषि प्रदर्शनी गत ५वीं दिसम्बर से इस प्रान्त की सरकार की ओर से लखनऊ में एक प्रौद्योगिक और कृषि प्रदर्शनी हो रही है। यह प्रदर्शनी अभी ४ फ़रवरी तक चलेगी। इन दो महीनों में लाखों नर-नारी इस प्रदर्शनी की सैर करके अपने देश के औद्योगिक विकास और कृषि सम्बन्धी उन्नति के सम्बन्ध में बहुत-सी बातें जान सकेंगे। दुःख की बात है कि इस प्रदर्शनी के प्रकाशन विभाग ने हिन्दी - पत्रों की बहुत कुछ उपेक्षा की । जनता के कृषि और औद्योगिक ज्ञान- वृद्धि का ध्यान रखते हुए इसके प्रकाशन विभाग को इस प्रान्त की भाषाओं में निकलनेवाले पत्रों में अपनी सूचनायें और विवरण भेजने चाहिए थे । श्रारम्भ में दर्शकों की संख्या में कमी और प्रदर्शनी के सम्बन्ध में ग़लत अफवाहें फैलने का यह भी एक कारण है । लगभग एक महीने बाद प्रकाशन विभाग ने किसी श्रंश तक यह भूल सुधारी और दर्शकों की संख्या में वृद्धि हुई । पर मासिक पत्रिकायें इसके विवरणों से वञ्चित ही रहीं, यद्यपि उन सबमें सचित्र विवरण भेजे जा सकते थे और इस प्रकार दर्शकों की संख्या में वृद्धि करके प्रदर्शनी और भी सफल बनाई जा सकती थी । हमें तो एक भी चित्र या विज्ञप्ति नहीं प्राप्त हुई । ख़ैर |
यह प्रदर्शनी एक बड़े पैमाने पर हो रही है और बहुत दूर तक फैली हुई है । सजावट अत्यन्त सुरुचिपूर्ण है। और रात में एकड़ों के विस्तार में जो रोशनी होती है वह देखने लायक होती है। दर्शकों के आराम देने के उद्देश से प्रदर्शनी के भीतर एक छोटी-सी रेलगाड़ी भी दौड़ाने की व्यवस्था की गई थी, पर उसका इंजन बेकार सिद्ध हुआ और इंजन का काम एक मोटर के पहियों में कुछ परिवर्तन करके लिया गया। लोग इस गाड़ी पर भी बैठे नज़र आते थे, पर रेल का इंजन जो दृश्य उपस्थित करता वह इससे बहुत कुछ फीका रहा। प्रदर्शनी के मध्य में एक झील बनाई गई है, जिसमें छोटी छोटी मोटर वोटों का चलना बहुत ही भला मालूम होता है । इस प्रदर्शनी ने भारत की कई रियासतों का भी सहयोग प्राप्त किया है और
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- संख्या २]
सम्पादकीय नोट
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हैदराबाद, मैसूर, ग्वालियर, इन्दौर आदि की कृषि और आपने खेद प्रकट किया और कहा कि यदि यह क्रम जारी उद्योग से सम्बन्ध रखनेवाली वस्तुएँ भी बड़े सुन्दर ढङ्ग रहने दिया गया तो २५ वर्ष बाद हिन्दू-मुसलमान बिना से प्रदर्शित की गई हैं । कृषि-सम्बन्धी उपजें और विविध दुभाषिये के आपस में बात भी न कर सकेंगे। राय राजेफलों और मेवों का प्रदर्शन भी द्रष्टव्य है। शिक्षा-विभाग श्वरबली ने अपने भाषण में सर तेजबहादुर सप्र के विचारों में ऐतिहासिक और भौगोलिक आदि प्रदर्शन की वस्तुओं का समर्थन किया और हिन्दी-उर्दू का सम्मिलित शब्द-कोश के अतिरिक्त बड़े बड़े चार्टी और चित्रों द्वारा यह भी तैयार करने का विचार उठाया। दिखाया गया है कि शिक्षा की कैसी प्रगति हुई है। गाँव- इस अधिवेशन में हिन्दी-उर्दू में साथ साथ.और अलगवाले थोड़े व्यय में रहने लायक अच्छे हवादार घर कैसे बना अलग बहुत-से निबन्ध पढ़े गये। अधिकांश निबन्ध दोनों सकते हैं, इसके अनेक नमूने भी देखने को मिलते हैं। भाषाओं को मिलाकर एक कर देने के विषय में थे। एक उनके अनुसार यदि किसानों को घर बनवाने का उत्तेजन निबन्ध इस आशय का भी पढ़ा गया कि भाषाओं के साथ दिया जाय तो उनके स्वास्थ्य और सुख में निःसन्देह सुधार लिपि भी एक कर दी जाय और जो नई लिपि हम ग्रहण हो सकता है।
' करें वह रोमन हो । इस पर अच्छा विवाद रहा । कुछ लोगों - प्रदर्शन की विविध वस्तुओं और सैकड़ों दूकानों के ने इस प्रश्न को मज़ाक कहकर टाल देना चाहा, पर प्रिंसिअतिरिक्त इस प्रदर्शनी में दर्शकों के मनोरंजन की जो पल हीरालाल खन्ना ने अपने भाषण से इसे गम्भीर बन व्यवस्था की गई है वह अभतपूर्व कही जा सकती है। बहुत- दिया और कहा कि अब समय आ गया है जब हमें लिपि से लोगों ने रेस के मैदान में कुत्तों की दौड़ और परिस्तान के प्रश्न पर भी विचार करना होगा। राय बहादुर पंडित में अनेक फ़िल्मस्टारों को साक्षात् एक साथ पहली ही बार शुकदेव बिहारी मिश्र ने भी इस प्रश्न पर एक भाषण किया देखा होगा। शिक्षा-विभाग की ओर से प्रान्त भर के और कहा कि यदि परिस्थिति का यही तकाज़ा हो तो रोकर जिला-स्कूलों के लड़कों ने जो कसरते दिखाई वे भी दर्शनीय ही सही, हमें रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए। अन्य थीं। बालकों के ऐसे टूर्नामेंट प्रतिवर्ष हों तो उन्हें निबन्धों में उर्दू-हिन्दी का भाई-चारा बहुत पसन्द किया गया। व्यायाम का शौक पैदा हो सकता है और वे स्वस्थ रह अकेडेमी के सुयोग्य मंत्री डाक्टर ताराचन्द ने इस सकते हैं।
वर्ष भी अपना भाषण हिन्दुस्तानी में ही किया, जो ऐसी सुव्यवस्थित, सुरुचिपूर्ण और उपयोगी प्रदर्शनी मनोरञ्जक होने के अतिरिक्त इस बात का एक अच्छा उदाका आयोजन करने के लिए इस प्रान्त की सरकार की हरण था कि दोनों भाषायें मिलाकर एक की जा सकती हैं। जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है।
डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दुओं के नामों पर एक रोचक
निबन्ध पढ़ा था, जिसमें आपने यह दिखाया कि इन हिन्दुस्तानी अकेडेमी
नामों के पीछे क्या प्रवृत्ति काम करती है और अपने तकौं हिन्दुस्तानी अकेडेमी का वार्षिक अधिवेशन इस बार को नामों की लम्बी सूचियों से पुष्ट किया। लखनऊ की उपर्युक्त प्रदर्शनी के भीतर एक सुन्दर और बड़े पंडाल में राय राजेश्वरबली (भूतपूर्व शिक्षा मंत्री) के
एक आशु कवि सभापतित्व में सफलता-पूर्वक हो गया। अधिवेशन का । हिन्दुस्तानी अकेडमी के जलसे के अवसर पर ही उद्घाटन राइट अानरेबुल सर तेजबहादुर सम ने किया प्रदर्शनी में एक सर्व भारतीय बृहत् कवि-सम्मेलन भी था। इस अवसर पर आपने जो भाषण किया, संक्षिप्त होते हुया था। इस सम्मेलन के प्रबन्धकों की एक लम्बी सूची हुए भी सार-गर्भित था। आपने इस बात पर जोर दिया कि प्रकाशित हुई थी, पर हमें कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ा किसी भी देश की शिक्षा विदेशी भाषा में नहीं होनी और सारा भार श्री ज्योतिलाल भार्गव के सिर पर चाहिए। आज-कल की हिन्दी-उर्दू में संस्कृत और अरबी- आ पड़ा था। जिस परिश्रम से इस कवि-सम्मेलन को फारसी के अधिकाधिक शब्दों के प्रयोग की कुप्रवृत्ति पर उन्होंने मशायरे से भी अधिक सफल बनाया उसके लिए
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- २०८
... सरस्वती
[भाग ३८
उनकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। अधिकांश प्रवासी भारतीयों की असुविधायें दूर होती नहीं दिखाई देती कविताये साधारण थीं और साधारण ढङ्ग से पढ़ी गई हैं। इस सम्बन्ध में जंज़ीबार के प्रवासी भारतीयों के नेता श्रोताओं को सबसे अधिक श्री जगमोहननाथ अवस्थी ने श्री तैयबअली ने जो वक्तव्य दिया है उसका मुख्यांश आकृष्ट किया। उन्होंने अाशु कवि होने की घोषणा की यह हैऔर दावा किया कि वे तत्काल किसी भी विषय या समस्या, रिपोर्ट की पहली सिफ़ारिश यह है कि लौंग बोनेवालों पर पद्य-रचना कर सकते हैं। किसी ने उन्हें 'लाउड स्पीकर' की लौंग के ख़रीदने का एकमात्र अधिकार लौंग-उत्पापर पद्य-रचना करने की बात कही। उन्होंने तत्काल उस दक संघ का होना चाहिए। पर कई सुन्दर पद्य-छन्द पढ़े और 'त्रिशूल-सनेही' और इस समय लौंग बोनेवालों को स्वतन्त्रता है कि वे किसी 'शाह की शादी की समस्याओं की पूर्ति करके तो उन्होंने के भी हाथ अपना माल बेच सकते हैं । परन्तु रिपोर्ट की श्रोताओं को आश्चर्यचकित ही कर दिया। कवि-सम्मेलनों सिफ़ारिश है कि 'सिवाय लौंग-उत्पादक-सङ्घ के और किसी में लोग गम्भीर विचार नहीं, ऐसे ही चमत्कार और को लौंग ख़रीदने का अधिकार न होना चाहिए। अगर अति-मधुर तथा सरलग्राह्य विनोद चाहते हैं। इस दृष्टि कहीं यह सिफ़ारिश कानून के रूप में बदल गई तो से अवस्थी जी बहुत सफल कवि कहे जा सकते हैं और हिन्दुस्तानी आढ़तिये सिर पर हाथ रखकर रोयेंगे और हम उन्हें बधाई देते हैं।
उनका व्यापार एकदम चौपट हो जायगा।
दूसरी सिफ़ारिश यह है कि अगर हिंदुस्तानी चाहें तो सम्मेलन का सभापति को
वे द्वीप की लौंग खरीदने के लिए संघ के अाढ़तिये बन __सम्मेलन के सभापतित्व पर इधर कुछ समय से राजनै- सकते हैं । पर संघ ने ऐसा कोई विश्वास नहीं दिलाया तिक नेताओं का एकाधिकार-सा हो गया है । यद्यपि हम है कि वे हिन्दुस्तानियों को अपने आढ़तिये बना ही लेंगे, उसकी उपयोगिता के कायल हैं तथापि यह वाञ्छनीय अथवा एक बार आढ़तिये बन जाने पर फिर उन्हें नहीं है कि हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्यिक इस सम्मान से हटायँगे नहीं। वञ्चित रहें। हमारे देखते देखते अवधवासी लाला सीता- तीसरी सिफ़ारिश यह है कि निर्यात-व्यापार का लाइ. राम और मुंशी प्रेमचन्द स्वर्गवासी हो गये और वे सम्मे- सेंस सङ्घ न दे, बल्कि जंजीबार की सरकार दिया करे तथा लन के सभापति न बनाये जा सके। हमारा यहाँ हिन्दी- लाइसेंस का शुल्क कम कर दिया जाय । प्रेमियों से अनुरोध है कि इस बार किसी योग्य साहित्यिक ही इसका भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि यदि सरकार को इस आसन पर बैठायें। इस सम्बन्ध में अपनी ओर से निर्यात-लाइसेंस देने में निष्पक्षता भी अख्त्यार कर ले तथा हम श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त का नाम उपस्थित करते हैं। उसका शुल्क भी घटा दे तो भी भारतवासियों को कोई लाभ गुप्त जी इस पद के सर्वथा उपयुक्त भी हैं, क्योंकि हाल में नहीं। उन्हें लाइसेंस लेने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि ही उनकी सारे देश में जयन्ती भी मनाई गई है तथा विदेशी ख़रीदार ज्यों ही यह सुनेंगे कि रक्षित उपनिवेश में महात्मा गांधी-द्वारा उनका सम्मान भी हो चुका है। लौंग भेजनेवाला अब केवल लौंग-उत्पादक-सङ्घ रह गया
है. वे भारतीय व्यापारियों से या मध्यस्थ श्राढ़तियों जंजीबार की समस्या
से माल नहीं खरीदेंगे और इनका व्यापार नष्ट हो जंज़ीबार के भारतीयों की समस्या अभी सुलझती जायगा। नज़र नहीं आती। भारत-सरकार ने बीच में पड़- चौथी सिफारिश सङ्घ की सलाह-कारिणी समिति में कर इस मामले की जाँच करने के लिए औपनिवेशिक एक भारतीय प्रतिनिधि रखने के विषय में है। सो वह विभाग से कहा था, जिसके लिए मिस्टर बेक नियुक्त भारतीय हितों का चाहे कितना ही पोषक हो उसकी आवाज़ किये गये। परन्तु उन्होंने जो रिपोर्ट दी है, उससे भी वहाँ अरण्यरोदनमात्र होगी।
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Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad. '
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KINA
ONIONLIUTRAST
चरस्वनी
জাঙ্গি জুষ্টির জুড়ি
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
मार्च १९३७ ।
भाग ३८, खंड १ संख्या ३, पूर्ण संख्या ४४७१ फाल्गुन १६६३
कवि का स्वप्न
१ लेखक, श्रीयुत भगवतीचरण वर्मा कवि लिखने बैठा-मधुऋतु है, मद से मतवाला है मधुवन, कवि लिखने बैठा--एक युवक जिस पर न्योछावर सहस मदन; भौंरों की है गुजार मधुर, पिक के पंचम में है कम्पन, श्वासों में है उच्छ्वास भरा उन्माद भरी जिसकी चितवन, मलयानिल के उन झोकों में सौरभ के सुषमा की सिहरन, वह निज वैभव में मुग्ध विसुध निज अभिलाषा में लीन मगन, 'प्रधखुली कली की आँखों में सुख-स्वप्नों की कोमल पुलकन। अपने मानस के पट पर वह करता सुख का संसार सृजन ।
कवि लिखने बैठा-मधुवन में फूलों का सुन्दर एक सदन कवि लिखने बैठा-नवबाला, जिसकी आँखों में भोलापन, शत-शत रंगों की धाराएँ, रच रहीं जहाँ शाश्क्त यौवन, जिसके उभरे वक्षस्थल में अज्ञात प्रेम का नव-स्पन्दन, उल्लास उमंगें भरता है विश्वास भरा अक्षय जीवन, नूपुर-ध्वनि में संगीत स्वयं करता उन चरणों का बन्दन, है जहाँ कल्पना का सुन्दर अभिमन्त्रित कामल आलिंगन! निज बाहों की जयमाला का ले कर आई है दृढ़ बन्धन ।
कवि सहसा सिहरा, काँप उठा सुन भूखे बच्चों का रोदन, पत्नी की पथराई आँखों में केन्द्रित था जग का क्रन्दन, गन्दे से टूटे कमरे में होता अभाव का था नर्तन, कवि खड़ा हो गया पागल-सा उसके उर में थी कौन जलन ?
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बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य
लेखक, श्रीयुत सत्यरञ्जन सेन
नये शासन- सुधारों के अनुसार बर्मा भारत से अलग कर दिया गया है और उसके लिए पृथक् शासन-विधान की रचना की गई है। ऐसी दशा में यह जान लेना सामयिक होगा कि वर्मा का भारत से कब और कैसे सम्बन्ध स्थापित हुआ था । इस लेख में लेखक महोदय ने इसी का संक्षेप में विवरण दिया है।
र्मा का आधुनिक इतिहास जब से उसका सम्बन्ध १७ वीं व १८ वीं सदी के योरपीय व्यापारियों से हुआ है, बहुत कुछ निश्चित किया जा चुका है। ईसवी सन् के प्रारम्भ होने से कई सौ वर्ष पूर्व के तथा पीछे
उसके इतिहास की कोई शृङ्खला आज तक उपलब्ध नहीं हो सकी । चर्मी तथा पाली कथानकों में कहा जाता है कि ईसवी सन् के प्रारम्भ से लगभग ९०० वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के अभिराजा नामक एक राजा यहाँ आये । ये अपनी सेना समेत स्थल-मार्ग से श्राये तथा लाल की खानों के प्रदेश के पश्चिमोत्तर- भूभाग को बसा कर टगाँव (आधुनिक मोगोक शहर से उत्तर) नामक नगरी का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाकर राज्य करने लगे। यही अभिराजा आधुनिक बर्मा को बसानेवालों में अग्रणी थे । उनके पीछे उनके वंश का इतिहास भी कुछ मिलता है । परन्तु बाद में कई सौ सालों का इतिहास अज्ञात है । यदि इस काल के इतिहास का अनुसन्धान किया जाय तो भारत तथा बर्मा के धार्मिक, सांस्कृतिक, राजकीय तथा व्यापारिक सम्बन्धों पर प्रकाश पड़ने की बड़ी सम्भावना है। तु ।
प्रस्तुत लेख में हम तीसरे बर्मी युद्ध के कारणों तथा बर्मा पर अँगरेज़ों का श्राधिपत्य स्थापित होने का साधारण विवरण देंगे ।
बोडापाया के बाद उसके उत्तराधिकारी बाजी डाभी अपने पितामह के पदचिह्नों पर चलकर आसाम, मनीपुर तथा अराकान के राज घराने के गृह कलहों में योग देकर इन प्रदेशों पर अपनी सत्ता बनाये रहे । बर्मा के प्रसिद्ध वीर सेनापति महाबन्डुला ने उपर्युक्त प्रदेशों को जीता था । पर सन् १८२४ में जब अँगरेज़ों ने रंगून शहर पर छापा मारकर ११ मई सन् १८२४ को उसे हस्तगत कर लिया और सीरियम, तबाई, पेगु मर्गुई तथा मर्तबान का इलाका भी अपने क़ब्ज़े में कर लिया तब सेनापति बन्डुला इस पराजय पर कैसे चुप बैठे रह सकते थे । उन्होंने ६०,००० सैनिकों को लेकर अँगरेज़ी सेना पर धावा बोल दिया । परन्तु उनके वे सैनिक अपनी ढालतलवार व देशी बन्दूकों से युद्ध में ठहर न सके । १३०० अँगरेज़ों तथा ३००० हिन्दुस्तानियों ने २० छोटी तोपों के द्वारा ही बन्डुला की सेना को मार भगाया । इस युद्ध के
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सन् १७८२ ईसवी में बर्मा के राजा बोडापाया ने अराकान देश जीत लिया, इससे बर्मा तथा ब्रिटिश भारत की सरहद एक दूसरे से मिल गई। इसके बाद बर्मा के राजा का अँगरेज़ों से सम्पर्क हुआ और अन्त में सन् १८२४ में इनसे उसका युद्ध हो गया और अँगरेज़ों ने अराकान तथा तनासिरम के प्रदेश अपने क़ब्ज़े में कर लिये ।
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सन् १७८२ से १८२३ तक के सालों में स्याम, अराकान, ग्रासाम, मनीपुर तथा कचार आदि प्रदेशों में ब राजाओं का ही प्राधान्य था। राजा बोडापाया के राज्यकाल में रामरी - द्वीप समूह के सामन्त ने बोडापाया की तरफ़ से ढाका, चटगाँव तथा मुर्शिदाबाद के जिले को बर्मा - राज्य के अन्तर्गत कर देने की माँग पेश की । सन् १८०६ से १८१६ तक हिन्दुस्तान में बर्मा मिशन बुद्धगया श्रादि बौद्ध तीर्थों के दर्शन तथा प्राचीन अनुपलब्ध संस्कृत-पुस्तकों की खोज के लिए कई बार आये गये । परन्तु अँगरेज़ों को इन पर यह सन्देह था कि ये मिशन मराठों से मेल-जोल करने को आते हैं । इसी कारण सन् १८१७ में जब बम राजदूतों का एक मिशन अराकानी विद्रोहियों को भारतसरकार से वापस लौटाने की माँग पेश करने तथा धार्मिक पुस्तकों की खोज में लाहौर तक जाने की प्राज्ञा प्राप्त करने का आया तब वह कलकत्ते में ही रोक दिया गया ।
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बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य
संख्या ३ ]
परिणाम स्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमाओं में गोहाटी, मनीपुर, कचार तथा अराकान तक बढ़ी हुई बम सेना को अपना क़दम पीछे लौटाना पड़ा ।
जब अँगरेज़ी फ़ौजें रंगून से उत्तर की ओर बढ़ रही थीं तब दानुब्यू की लड़ाई में प्रसिद्ध सेनापति बन्डुला का श्राये । दानुव्यू तथा प्रोम के जिले भी ब्रिटिश शासन के अधीन हुए। ब्रिटिश सेनाओं के प्रोम से उत्तर मालुन तथा पगान की तरफ़ बढ़ आने पर तथा चर्मी सेनाओं की हार होने के कारण यंदाबू की सन्धि लिखी गई । अँगरेज़ी फ़ौजों ने पगान से श्रागे बढ़कर राजधानी श्रावा से ४० मील दूर यंदाबू नामक जगह में ग्राकर खेमे गाड़ दिये । इस सन्धि-द्वारा ग्रासाम, अराकान, तनासिरम तथा मर्तबान पर अँगरेज़ों का प्रभुत्व हुआ; ब्रिटिश सरकार को हर्जाने के तौर पर १ करोड़ रुपया युद्ध- खर्च देना स्वीकार किया गया कचार, जयन्तिया तथा मनीपुर के इलाकों में किसी तरह का हस्तक्षेप न करना तय हुयाः स्याम ब्रिटिश राज्य का मित्रराज्य माना गया । इस सन्धि के अनुसार २४ फरवरी १८२६ को ब्रिटिश फौजें रंगून लौट
इ तथा तनासिरम प्रदेश का मोलमीन शहर जिसका पुराना नाम रामपुरम् था, ब्रिटिश बर्मा की राजधानी बनाया गया। अँगरेज़ों से बर्मा का यह पहला संघर्ष था ।
सन् १८६० में क्रौफ़ोर्ड-सन्धि के अनुसार राजधानी यात्रा में ब्रिटिश रेज़ीडेंट के रखने की स्वीकृति दी गई। परन्तु वर्मा के राजा का रेज़ीडेंटों से मेल नहीं बैठा ।
बर्मा के राजा सन्धियों के विपरीत ब्रिटिश व्यापारी जहाज़ों से अधिक चुंगी वसूल करने लगे और ब्रिटिश बेड़ों के कप्तानों पर झूठे इलज़ाम लगाकर उनसे मनमाना आर्थिक दण्ड लेने लगे। इससे नाराज़ होकर गवर्नर जनरल लार्ड डलहौज़ी ने ६ जंगी जहाज़ बर्मा को भेज दिये और वर्मा- सरकार से पत्रों द्वारा जवाब माँगा । परन्तु उस समय के राजा पगानमिन ने पत्रों का कोई उत्तर नहीं दिया, अतएव अप्रेल सन् १८५२ में युद्ध घोषित कर दिया गया ।
इस युद्ध में जनरल गाडविन ने मर्तबान, रंगून तथा सीन, अर्थात् वर्मा के तीनों बन्दरगाहों पर क़ब्ज़ा कर लिया । सन् १८५२ के अगस्त मास में लार्ड डलहौज़ी स्वयं रंगून ग्राये और निश्चय किया कि सरकारी फ़ौजों को बर्मा
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[कुतोडा पगोडा ग्रुप (कुशल क्षेमाय मन्दिरमाला ) ] के भीतर बढ़ने का आदेश दिया जाय । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डायरेक्टरों ने भी पेगु- प्रदेश को हमेशा के लिए ब्रिटिश भारत में मिला लेने की सलाह को स्वीकार कर लिया।
इन्हीं दिनों दिसम्बर १८५२ में बर्मा के राजा पगानमिन तथा उनके सौतेले भाई मिन्डोमिन के बीच गृह-युद्ध हो रहा था। मिन्डोमिन की फ़ौजों ने उत्तर में श्वेवो की तरफ़ से धावा बोलकर राजधानी अमरापुर पर अधिकार कर लिया। राजा पगानमिन को राजधानी में नज़रबन्द कर दिया और उनके लिए सब सुख के सामान उपस्थित कर दिये गये । इधर २० दिसम्बर सन् १८५२ में कप्तान आर्थर फ़ेयर ने गवर्नर जनरल की यह घोषणा कि पेगु अँगरेज़ सरकार के मातहत माना जाय, उद्घोषित की तथा
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२१२
सरस्वती
[ भाग ३८
राजा मिन्डॉमिन की उदारता तथा शान्तिप्रियता का प्रजा पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उसने न केवल स्वदेशवासियों के अपितु बर्मा में प्रवासी अँगरेज़ों और फ्रांसीसियों श्रादि के साथ भी मित्रता का सम्बन्ध स्थापित किया, यहाँ तक कि उसने ईसाई चर्च तथा स्कूलों के लिए भी धन तथा भूमि का दान किया और अपने पुत्रों को भी इन शिक्षणालयों में प्रविष्ट कराया। पर वह स्वयं एक कट्टर बौद्ध था और अपने राज्यकाल में उसने कतोडा नामक एक सुविशाल पगोडा निर्मित कराया, जिसमें संपूर्ण 'त्रिपिटक' श्वेत-प्रस्तर के शिलालेखों में लिख कर रक्खा गया। राजा मिन्डोमिन ने पंचम बौद्ध महासभा की भी संयोजना की।
सन् १८५५ में मेजर फेयर पुनः एक व्यापारिक संधिपत्र की पूर्ति के लिए अमरापुरा-दरवार में पहुँचे। परन्तु मिन्डोमिन ने संधि से बर्मा को कुछ विशेष लाभ न होता देखकर संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। साथ ही राजा ने सरहदी मामलों में सहयोग तथा मित्रता का बर्ताव रखने की अभिलाषा प्रकट की। सन् १८५७ में राजा ने ज्योतिषियों द्वारा कुछ शकुन देखे जाने पर अमरा पुरा के स्थान में माण्डले को अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद सन् १८५८ में संयुक्त राज्य (अमरीका) से एक मिशन बहाँ के प्रेसीडेंट का पत्र लेकर दोनों देशों में मैत्री स्थापित करने के उद्देश सं माण्डले पहुंचा। इसी वर्ष
राजघराने से सम्बन्धित छ मानी पुरुषों द्वारा बसोन में [कुशलक्षेमाय मन्दिरमाला में प्रवेश करने का
अंगरेजों के विरुद्ध विप्लव इया, जो तुरन्त शान्त कर पश्चिमीय द्वार ।
दिया गया। इसी समय शान-देश के स्वोबा (सामन्त वर्मा के नवीन राजा को चेतावनी दी कि यदि वह इसे एक राजा) ने भी विप्लव किया जो असफल रहा। मास के भीतर स्वीकार न करेगा तो उसकी सम्पूर्ण शक्ति सन् १८६२ में अराकान, पेगु तथा तनासिरम के एक नट कर दी जायगी।
कमिश्नरी बनने पर चीफ़ कमिश्नर मेजर फेयर ने पुनः राजा पगानमिन के गद्दी से उतार दिये जाने के बाद व्यापारिक सन्धि के लिए प्रस्ताव पेश किया। उसमें सरहदी इन शेमिन मिन्डोमिन के हाथों में उक्त पत्र दिया गया। चुंगी के घटाने, ब्रिटिश लोगों को देश में व्यापार की उसने पत्र की भाषा और भाव पर दुःख प्रकट किया और स्वतन्त्रता देने तथा माण्डले में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि सन्धि-पत्र की पूर्ति करने से इनकार कर दिया, पर साथ रखने की शतें थीं। परन्तु सन्धि की शतों का पूरा होना ही मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करना स्वीकार किया। नामुमकिन था, क्योंकि मिट्टी का तेल, सागौन अादि
सन् १८५४ में मिन्डोमिन ने एक मिशन के द्वारा पेगु लकड़ी तथा कीमती पत्थरों का व्यापार राजा के लिए राजा पर अपना प्रभुत्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया, परन्तु के कारकुनों-द्वारा ही होता था, इसलिए स्वतन्त्र व्यापारी यह सफलता न हुई । सुतरां मिन्डोमिन ने बर्मा का जो हिस्सा सब माल राजा से ही ख़रीदने के लिए बाध्य थे। शेष रह गया था उसी का सुप्रबन्ध करने पर सन्तोष किया। चार साल बाद मेजर फेयर पुनः माण्डले पधारे ।
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पर अँगरेजों का आधिपत्य
संख्या ३]
उन्होंने संधि के अनुसार सरहदी चुंगी के कम किये जाने तथा व्यापार पर राजकीय एकाधिपत्य के बजाय व्यापार को उन्मुक्त तथा स्वतन्त्र किये जाने की मांग पेश की। परन्तु वे अपने प्रयत्न में सफल न हुए।
इसी साल सन् १८६६ में माण्डले के राजकुल मं विप्लव हो गया। राजपुत्रों ने अपने चचा (इन-शे-मिन = राजा के छोटे भाई) जो राज्य के उत्तराधिकारी थे, मरवा डाला। इसके जवाब में चचा के पुत्र ने अपने चचेरे भाइयों के खिलाफ विद्रोह का झण्डा खड़ा किया, परन्तु वह बन्दी कर लिया गया और अन्त में मरवा डाला गया । १८६७ में चीफ कमिश्नर फ़िशे साहब एक नई सन्धि करने के लिए माण्डले प्राये । सरहदी चुंगी की दर ५% प्रतिसैकड़ा स्थिर हुई, ब्रिटिश रेज़ीडेंट के माण्डले में रहना और उसका ख़र्च देना भी स्वीकार किया गया। सोना-चाँदी की रफ़्तनी में व्यापारिक स्वतन्त्रता का नियम लागू किया गया । राजकीय एकाधिपत्य केवल मिट्टी के तेल, सागौन तथा क़ीमती पत्थरों तक सीमित किया गया ! वर्मा सरकार चीफ़ कमिश्नर की अनुमति से युद्ध का सामान ब्रिटिश सरकार के राज्य की हद में ख़रीदा करे, इस पर बल दिया गया। चीन के साथ व्यापार जारी करने के लिए चीनी - बम मार्ग के तैयार किये जाने के साथ ही भिन्न भिन्न राजनैतिक क़ैदियों को मुक्त करना भी इस सन्धि के द्वारा तय हुआ ।
इसके उपरान्त सन् १८७१ में चीफ़ कमिश्नर सर एश्ले ईडन ने राजकीय एकाधिपत्य को पूर्ण रूप से उठा लेने की माँग पेश की । उनके कथनानुसार इसी अड़चन से सन् १८६२ तथा सन् १८६७ की व्यापारिक सन्धियाँ व्यर्थ सिद्ध होती रहीं । इधर राजा भी बेहद सामान इकट्ठा हो जाने से भारी वाटा सह रहा था । उसने व्यापारीय एकाधिपत्य को उठा लेना स्वीकार कर लिया । परन्तु कहा जाता है कि बाद में मौक़ वे-मौक़े इसका दुरुपयोग भी होता रहा । ६ साल बाद यह प्रश्न ब्रिटिश कर्मचारियों द्वारा फिर उठाया गया और पुनः सन्धिपत्र में परिवर्तन करने पर ज़ोर
डाला गया ।
सन् १८७२ में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया, वहाँ के प्रधानमन्त्री तथा भारत के वायसराय के द्वारा बर्मा दरबार को ३ पत्र प्रेपित किये गये । इधर बर्मा-मिशन भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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[मिन्डोमिन द्वारा निर्मित कुतोडा मन्दिरमाला के सैकड़ों मन्दिरों में से एक का दृश्य ।]
ब्रिटेन के दरबार में उपस्थित होने को खाना हो चुका था । यह मिशन इटली तथा फ्रांस के दरवारों में भी पहुँचा ।
सन् १८७८ में राजा मिन्डोमिन की मृत्यु के उपरान्त उसके लगभग ६ दर्जन पुत्रों में से मंत्रियों और मँझली रानी के बीच कुछ गुप्त मंत्रणा हो जाने पर राजपुत्र थीवामिन गद्दी पर बिठाये गये । शेष पुत्रों में से बहुत-से उपर्युक्त पड्यन्त्र के अनुसार कत्ल करवा दिये गये । मँझली रानी की दूसरी पुत्री से जिसका थीवामिन से प्रेम था, विवाह कर दिया गया । इन्हीं दिनों कर्नल विन्डम बैलून से माण्डले में उतरे। कहा जाता है कि उनकी आवभगत करने के स्थान में उनके साथ उपेक्षा- पूर्ण व्यवहार किया गया । www.umaragyanbhandar.com
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०१४
सरस्वती
[भाग :
दिया गया, जहां से वह फिर भाग निकला। चार या बाद राजकुमार म्यिगुन जो बनारस में रखा गया था, भाग निकला । चन्द्रनगर होता हुआ वह कोलम्बो जा पहचा, जहाँ से पांडिचेरी पहुँचने पर वह बन्दी कर लिया गया। वहाँ उसने कुछ शान रानों मे मिलकर फिर पड्यन्त्र प्रारम्भ किया, परन्तु मंच सरकार ने जो त्रिटिश मिशन के माण्डले छोड़ देने के बाद बड़ी सतर्कता से राज्य की स्थिरता सम्पन्न करने तथा राजा से व्यापारिक मुभीत प्राप्त करने की इच्छुक थी, इन पडयन्त्रों को दवा देने में ही अपना लाभ समझा । इसके साथ ही उसका यह भी विचार था कि इनके बन्द हो जाने से वर्मा में ब्रिटिश प्रभुत्व का न्यून होना अवश्यम्भावी है।
राजकुमार न्याँ ऊ यो की चढ़ाई के बदले में बनी सरकार ने अँगरेज़-सरकार से ५५८००) हर्जाना मांगा। इसके साथ ही राजकुमार के लौटा देने की भी मांग पेश की, जिसे ब्रिटिश सरकार ने अन्तर्गप्रीय नीति के अनुमान वापस करने से इनकार कर दिया। इसी सिलसिले में पुराना व्यापार सन्धियाँ स्वयं भंग हो गई और राजा ने भी पुनः स्वायत्त व्यापार-नीति का अवलंबन किया, जिससे ब्रिटिश व्यापार का चलना एकदम असम्भव हो गया। इसी समय कुछ राजव्यवस्था तथा कुछ कर्मचारियों की निबलता के
कारण राज्य मुनियमित न रह सका. डाकुनी के गिरोह महालोक माया जे व कुतोडा पगोडा ग्रप का मुख्य बढ़ने लगे तथा शान सामन्तों ने भी यत्र तत्र सिर उठाना केन्द्रीय मन्दिर ।
प्रारम्भ कर दिया। ब्रिटिश भारत तथा वर्मा की सरहदों में
भी लूट-मार बढ़ने लगी। इसके साथ ही वर्मा-मिशन ने इसके साथ ही इरावती-पलोटिला-कम्पनी के कप्तान डायल योरप में दो योरपीय राष्ट्रों से जो नई सब्धियों की उनसे को सिर्फ इस जुम में बन्द कर रक्खा गया कि वे नदी-तीर परिस्थिति सुलझाने के बजाय अधिक विगढ़ गई। सन् के मनाही किये हुए एक राजकीय धार्मिक स्थान पर जूतो- १८८२ में शिमला-बर्मा के बीच नई सन्धि का प्रयत्न नी समेत जा उतरे थे। राजा ने डायल को कैद रखनेवाले असफल ही सिद्ध हुग्रा. क्योंकि राजमंत्री किनबुन मिजी के अफसर को नौकरी से निकाल दिया। कर्नल विन्दम के द्वारा लिखी गई सन्धि को राजा ने स्वीकार करना उचित बारे में रेजीडेंट मिस्टर शा ने कोई विशेष मांग नहीं पेश न समझा। की, परन्तु राजकुमारों के कत्ले-ग्राम के बारे में जवाब । माँगा तथा इस घटना के विरोधस्वरूप सन् १८७९ में कर्मचारियों को राजकुमार म्यिगुन को गद्दी पर बिठाने के ब्रिटिश मिशन माण्डले से बुला लिया गया। पड्यन्त्र के सिलसिले में कैद की सज़ा दी गई। दूसरे
सन् १८८० में राजकुमार न्याँक यो ने थाटम्यो-ज़िले अधिकारियों ने जो पडयन्त्र में स्वयं शामिल थे, बन्दी हुए में विद्रोह खड़ा किया, जहाँ से भागकर वह ब्रिटिश प्रदेश अधिकारियों-द्वारा पडयन्त्र के प्रकट हो जाने के डर से. में आ छिपा । यहाँ वह पकड़ा गया और कलकत्ते पहँचा उन्हें वध करा देना चाहा। उन्होंने कुछ बन्दियों की गुप्त
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संख्या ३ ]
रिहाई का प्रबन्ध किया, पर जब वे जेल से इस प्रकार
निकल रहे थे, उन्होंने जेल में फ़साद होने का अलार्म बजा दिया और पहले उन्हीं
सों का काम तमाम करवा
दिया । अन्त में फ़ौजों ने कर तो समूचे जेल को
ही बाग लगा दी। इसी
बर्मा पर अँगरेज़ों का आधिपत्य
तरह शहर में करीब सभी
जेलों में फ़साद हुआ, जिसमें ३०० के लगभग क़ैदी मारे गये । पड्यन्त्रकारियों की लाशें तीन दिन तक जहाँ की तहाँ पड़ी रहीं। बाद में उनके नरमुण्डों का नगर में प्रदर्शन किया गया, जिससे लोगों को षड्यन्त्र रचने का साहस न हो ।
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[कुतोडा पगोडा के केन्द्रीय विशाल मन्दिर के सोपान पर बने नक्त मीनावतार की भीमकाय प्लास्तर मूर्ति ।]
भी माँग पेश की। चीफ़ कमिश्नर सर चार्ल्स बर्नार्ड ने बॉम्बे वर्मा ट्रेडिङ्ग कारपोरेशन के मामले को स्वतन्त्र न्यायालय के सिपुर्द करने की माँग पेश की, परन्तु कहा जाता है कि वर्मा-दरबार ने इसे स्वीकृत करना उचित न समझा | इसलिए भारत के वायसराय लार्ड डफरिन की आज्ञा से एक अन्तिम चेतावनी २२ ग्राक्टोवर सन् १८८५ को स्पेशल जहाज़ द्वारा माण्डले भेजी गई, जिसमें तीन सप्ताह के भीतर उसका जवाब माँगा गया। उसकी ख़ास श्राज्ञायें इस प्रकार थीं - ( १ ) गवर्नर-जनरल - द्वारा भेजा गया प्रतिनिधि माण्डले दरबार स्वीकार करे और बॉम्बे बर्मा कम्पनी के झगड़े का उसकी सहायता से फ़ैसला करे । (२) कारपोरेशन के ख़िलाफ़ सव राजकीय कार्यवाही उसके पहुँचने तक मुलतबी की जाय । (३) वायसराय की ओर से ख़ास शर्तों पर एक राजदूत माण्डले में रक्खा जाय । (४) भविष्य में बर्मा- सरकार की वैदेशिक नीति तथा अन्य वैदेशिक सम्बन्ध भारत सरकार के नियन्त्रण तथा निगरानी में हुआ करे । किनवुन मिंजी ने जो मुख्य श्रमात्यों में से एक थे, इन शर्तों को बिना ननु नच किये स्वीकार करने की सलाह दी, परन्तु टेन्डा मिंजी आदि दूसरे मन्त्रियों ने उसे स्वीकार करने से इनकार किया । परिणाम स्वरूप राजा ने
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यह घटना अभी सबके दिलों में ताज़ी ही थी कि ब्रिटिश सरकार को यह समाचार प्राप्त हुआ कि माण्डले में बर्मा और फ्रेंच की सरकारों के बीच एक सन्धि हुई है। जो अन्तिम स्वीकृति के लिए पेरिस भेज दी गई है । उस सन्धि में यह मंज़ूर किया गया है कि फ्रेंच सरकार के रुपये से एक रेल मार्ग माण्डले से टौं किंग तक बनाया जाय, एक फ्रेंच बैंक कायम किया जाय जो राजा को १२% प्रतिसैकड़ा की दर से इस काम को चलाने के लिए क़र्ज़ दे । लाल की खानों का प्रबन्ध तथा चाय के व्यापार पर फ्रेंच एकाधिपत्य का होना भी सन्धि में है; साथ ही उपर्युक्त रेलवे के क़र्ज़ के ब्याज की वसूली के लिए नदी का श्रायात-निर्यात का कर तथा मिट्टी के तेल का मुनाफ़ा फ्रेंच-सरकार को दिया जाना तय हुआ है ।
इन्हीं दिनों ब्रिटिश सरकार ने बॉम्बे बर्मा ट्रेडिङ्ग कारपोरेशन के पुराने सवाल को फिर उठाया । उत्तर में बर्मा- सरकार ने सागौन की लकड़ी का निर्यात कर जो २३ लाख से ऊपर था, कारपोरेशन से माँगा तथा व्यापारिक संधि की कुछ शर्तों को भंग करने के लिए क्षति पूर्ति की
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सरस्वती
[ भाग ३
पार करके १७ नवम्बर को मिन्हला के किले पर कब्ज़ा किया गया। २३ नवम्बर को बिना किसी विरोध के पगान शहर हस्तगत कर लिया गया। २५ नवम्बर को थोड़ीबहुत गोलाबारी के बाद मिनजान कब्जे में किया गया। ब्रिटिश सेना की इस गति को देखकर एक राजदूत २६ नवम्बर को शान्ति का प्रस्ताव लेकर उपस्थित हया। सेना
संचालक जनरल प्रन्डर. राजा मिन्डोमिन द्वारा बनवाया गया कुतोडा पगोडा ग्रूप (कुशलक्षेमाय मन्दिर
गास्ट ने उत्तर में कहला माला)-...मगांडले. इसमें ७५० के लगभग श्वेत प्रस्तर की शिलानों पर सम्पर्गा त्रिपिटक
भेजा कि यदि राजा लिखकर एक एक मन्दिर में प्रतिष्ठापित किया गया है ।
थीबा अपनी सेनाउन शतों के विरुद्ध अपनी घोषणा प्रकाशित कर दी, साथ ही समेत सुबह ४ बजे से पूर्व प्रात्म-समर्पण करने को तैयार अँगरेज़ लोगों का वर्मा से निकाल देने की धमकी भी दी। हो तो युद्ध बन्द कर दिया जायगा। परन्तु राजा के उत्तर
इस अवसर को उपयुक्त जानकर ब्रिटिश सरकार ने की प्रतीक्षा न करके सेना को आगे बढाना जारी रखा जो अल्टीमेटम की शतों का राजा-द्वारा अस्वीकृत होने की प्रतीक्षा गं ही बैठी थी. १४ नवम्बर सन् १८८५ को राजा का उत्तर पहुँचने के केवल पाँच दिन बाद ही इरावदी नामक गनबोट (लड़ाक जहाज़) के द्वारा सरहद को पार करके सेनानी को आगे बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। १६ नवम्बर को सिनबाँखे की दीवार माण्डले शैल तथा उसकी तराई में निर्मित कुतोडा माला के बौद्ध-मन्दिर ।
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संख्या ३]
बर्मा पर अँगरेजों का आधिपत्य
गया और २७ नवम्बर को सेना पुरानी राजधानी अावा में प्रकार इस तीसरे ऐंग्लो-बर्मी युद्ध का अन्तिम भाग्य-निर्णय जा पहुंची। इसी दिने पुनः विश्वास के चिह्न-रूप में राजा हुआ। की ओर से एक और समाचार भेजा गया, जिसमें ब्रिटिश राजा थीबा ३ दिसम्बर को अपनी दो रानियों तथा सेनाओं से विरोध न किये जाने तथा इस शान्ति-चर्चा के राजमाता-समेत सदा के लिए माण्डले से बिदा हो गये सबूत में बर्मा-सेनाओं का शस्त्र-त्याग करने का वचन दिया और १० दिसम्बर को एक बन्दी के रूप में रंगून से रवाना गया था। परन्तु उपर्यक्त घटनात्रों के बावजूद सेना बढ़- होते हुए सदा के लिए अपनी जन्मभूमि को भी छोड़ गये । कर २८ नवम्बर को माण्डले जा पहुँची और कहा जाता पहले वे मदरास पहुँचाये गये, पीछे बम्बई के समुद्र-तटस्थ है कि अगले दिन सायंकाल के समय राजा को विरोध रत्नागिरि, जहाँ वे सन् १९१७ में एक निर्वासित के रूप प्रस्तुत किये बिना अात्मसमर्पण करना पड़ा, जिसके फल- में परलोक को प्राप्त हुए। उनके मंत्री टेन्डाव मिंजी स्वरूप न केवल उसे अपितु समस्त राजपरिवार तथा ब्रिटिश हितों के विरोधी कटक में निर्वासित किये गये। बर्मा-देशवासियों को देशीय शासन के महान् लाभों पहली जनवरी १८८६ को भारत सरकार की घोषणा द्वारा से वञ्चित होना पड़ा। इधर बर्मी सेनायें भी इस अपर बर्मा का समस्त प्रदेश ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत प्रकार राजा के अनायास ही पकड़ लिये जाने पर कर लिया गया। इस प्रकार सारा बर्मा अँगरेज़-सरकार के किंकर्तव्यविमूढ होकर स्वयं तितर-बितर हो गई। इस अधीन हो गया।
मधुमास
लेखक, श्रीयुत गंगाप्रसाद पाण्डेय देख प्रिय मधुमास आया छा रहा उल्लास वन में | प्रियतमायें स्नेह स्वागत में मिलन का सन्देश मृदुतर
सजल पलकें बिछाती चल पवन जग को सुनाता
कर रहीं अभिसार नव-नव पुलक पल्लव लहलहाते
वेश सुन्दरियाँ बनाती प्रीति का पल गीत गाता विश्व-जीवन सरस-सर में आज निज अंचल प्रकृति ने
प्राण पंकज-सा खिला है हरित पट का है बनाया
प्रणय का संसार को लाल केसर के मनोहर
__ साकार सा वर आ मिला है तार से जिसको सजाया छिड़ रही नव रागिनी है पर्णिका, गृह में भवन में। है मचलता स्निग्ध सुन्दर हास कलिका में सुमन में। साध जीवन की सहज ही
मैं बना पर चिर वियोगी कोकिला कर पूर्ण पाई
प्यार का अभिशाप लेकर भृङ्ग-दल के संग मिलकर
मौन वाणी स्तब्ध लोचन भाग्य को देती बधाई
अश्रु-जल का अर्घ्य देकर सुरभि-भीनी से भरा जग।
हूँ प्रतीक्षा में युगों से स्वर्ग-सा अब बन गया है
कर रहा आह्वान तेरा चेतना जड़ में छहरती ।
हे उषे ! उठकर क्षितिज से सुख-सना क्षण क्षण नया है .
आज रख ले मान मेरा , व्याप्त है सुषमा सुनहली सलिल में स्थल में गगन में। तिमिर चारों ओर फैला हृदय में मन में नयन में। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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कलयुग नहीं
करयुग है यह !
लेखक, श्रीयुत सुदर्शन
श्री सुदर्शन जी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कहानीलेखक हैं। उनकी यह कहानी पञ्जाब की एक सच्ची घटना पर आश्रित है जो समाचारपत्रों के
पाठकों को अभी भूली न होगी।
था। लाला सुरजनमल से और लड़के के बाप से पुरानी मैत्री थी, वर्ना ऐसे वर कहाँ मिलते हैं ? जो सुनता था, कहता था, साहब ! आपकी बेटी के सितारे बड़े ज़बर्दस्त हैं.
जो ऐसा वर मिल गया। उसमें गुण सभी हैं, अवगुण ran ला सुरजनमल थके हुए अपने ड्राइंग- एक भी नहीं। लड़की जीवन भर राज करेगी। लाला
रूम में आये और सोफे पर बैठकर सुरजनमल को सन्तोष था कि पढ़ा-लिखाकर लड़की की सुस्ताने लगे। हक्का पीते जाते थे मिट्टी ख़राब नहीं की। मगर दुःख इस बात का था कि
और सामने दीवार के साथ टॅगी जुदाई की बेला आ गई। अाज तक अपनी थी, अाज हुई अपनी बेटी उपा की तसवीर पराई हो जायगी। अाज तक घर का सारा स्याह-सफ़ेद
देखते जाते थे। उसे देखकर उनके उसी के हाथ सौंप रखा था। वह जो चाहती थी, करती मन में अानन्द की एक लहर-सी उठती हुई मालूम हुई। थी, और जो कहती थी, होता था। किसी को उसके काम मगर इसके साथ ही यह भी मालूम हुआ, जैसे उस लहर में हस्तक्षेप करने की हिम्मत न थी। एक बार मा ने वेटी के ऊपर एक काली-सी घटा भी छा रही है। ख़ुशी यह की कोई बात टाल दी थी, इससे उसने रो-रोकर आँखे सुजा थी कि बेटी का ब्याह हो रहा है, अपने घर जायगी। ली थीं, और लाला सुरजनमत ने उसे बड़े यत्न से मनाया उन्होंने अपने कई अमीर मित्रों की पढ़ी-लिखी खूबसूरत था। और अाज-वह इस घर को सदा के लिए छोड़कर लड़कियों का ब्याह साधारण लड़कों के साथ होते देखा अपना नया घर बसाने जा रही थी। लाला सुरजनमल की था, और अफ़सोस की ठंडी श्राहे भरी थीं। उनके माता- आँखों में पिघला हुया प्यार लहराने लगा। आज उनके पिता मानते थे कि वे वर उनकी पुत्रियों के योग्य नहीं, घर से बेटी नहीं जा रही, उनके घर की शोभा और रौनक मगर कुछ कर न सकते थे। जवान लड़कियाँ घर में कब जा रही है, उनके आँगन की बहार और बरकत जा रही तक बिठा रक्खें ? मगर लाला सुरजनमल ने गहरा हाथ है, जिसको उन्होंने भगवान् से मांग माँग कर लिया है, मारा था। उन्होंने जो लड़का उपादेवी के लिए पसन्द जिसको उन्होंने स्नेह से सींचा है, जिस पर उन्होंने अपनी किया था वह लड़का न था, हीरा था। स्वस्थ, सुन्दर, पढ़ा- जान छिड़की है। लिखा, कुलीन। अभी अभी विलायत से लौटा था, और
( २ ) अाते ही बाप की बदौलत अच्छे पद पर नियुक्त हो गया सहसा उनकी स्त्री जमना श्राकर उनके सामने खड़ी
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संख्या ३]
कलयुग नहीं करयुग है यह !
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हो गई और हाँफते हुए बोली-“दीनानाथ आपसे मिलने दीनानाथ कुछ देर चुपचाप खड़ा सोचता रहा कि ये आया है।"
तो बिलकुल सड़े हुए ख़याल के आदमी निकले । वर्ना सुरजनमल ज़रा न समझे, कौन दीनानाथ । उन्होंने इतना भी क्या था कि मुझे घर के अन्दर ले जाते हुए बेपरवाई से हुक्के का धुआँ हवा में छोड़ा और पूछा- भी डरते । जैसे इस समय मैं बाघ हूँ, दो घड़ी के बाद "कौन दीनानाथ ?"
आदमी बन जाऊँगा । दुनिया सैकड़ों और हज़ारों कोस ___ जमना ने पति की तरफ़ अचरज-भरी आँखों से देखा, आगे निकल गई है, ये महात्मा अभी तक वहीं पड़े करवटें और जवाब दिया- "अब यह भी पूछने की बात है। यह बदल रहे हैं। वह समझता था, ससुर बड़ा आदमी है, देख लीजिए ।" यह कहते कहते उसने आगन्तुक के नाम हज़ार रुपया वेतन पाता है, अँगरेज़ी लिबास पहनता है, का कार्ड पति के हाथ में दे दिया और स्वयं पास पड़ी हुई साहब लोगों से मिलता-जुलता है, ज़रूर स्वतंत्र विचारों कुर्सी पर बैठ गई।
का अादमी होगा। मगर यहाँ पाया तब एक ही बात ने सुरजनमल ने कार्ड देखा, तो ज़रा चौंके, और हुक्के सारी अाशा तह करके रख दी। दीनानाथ जो कहना की नली परे हटाकर बोले-"इसका क्या मतलब ? ब्याह चाहता था वह गले में अटकता हुअा, ज़बान पर रुकता से पहले वह मेरे घर में कैसे आ सकता है ?"
हुआ, होंठों पर जमता हुअा मालूम हुआ। जमना ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा-"क्या कहूँ, सुरजनमल ने फिर कहा-"मालूम होता है, कोई मुझे तो कुछ और ही सन्देह हो रहा है।"
ऐसी बात है जिसे कहते हुए भी हिचकिचाते हो। मगर ___लाला सुरजनमल उठकर खड़े हो गये और बाहर जब यहाँ तक चले आये हो तब अब कह भी डालो। तुम जाते जाते बोले- 'तुम तो ज़रा ज़रा-सी बात में घबरा संकोच करते हो, मेरे मन में हौल उठता है। जाती हो । इतना भी नहीं समझतीं कि आज-कल के लड़के दीनानाथ ने रुक रुककर जवाब दिया- "मैं लड़की अपनी रीत-रस्में नहीं जानते। विलायत से आया है। समझता देखने आया हूँ।" होगा, यहाँ भी वैसी ही आज़ादी है। मिलने के लिए चला सुरजनमल के सिर पर मानो किसी ने कुल्हाड़ा मार
आया। उसकी बला जाने कि यहाँ ब्याह से पहले ससुराल दिया। दो मिनट तक तो उनके मुँह से बात ही न निकल में जाना बुरा माना जाता है।"
सकी। वे दीवार से एक फुट के फ़ासिले पर खड़े थे। यह यह कहकर वे लपके हुए बाहर आये । दरवाज़े पर सुनकर दीवार के साथ लग गये, मानो अब उनमें खड़े दीनानाथ खड़ा था। सुरजनमल को देखते ही उसने सिर रहने का भी बल न था। मुँह पर हवाइयाँ ऐसे उड़ रही से अँगरेज़ी टोपी उतारी और हाथ बाँध कर नमस्ते किया। थीं, जैसे अभी भूमि पर गिर पड़ेंगे।
सुरजनमल ने नमस्ते का जवाब देकर अपना हाथ दीनानाथ ने घाव पर मरहम लगाते हुए कहा-"मैंने उसके कन्धे पर रक्खा और धीरे से कहा-"बेटा! लड़की की बहुत प्रशंसा सुनी है। मेरी भाभी का कहना क्या करूँ ? समाज के नियम मुझे अाज्ञा नहीं देते कि है कि ऐसी बहू हमारे कुल में आज तक नहीं आई । तुम्हें ब्याह से पहले घर के अन्दर ले चलूँ , इसलिए मैं भी बाबू जी उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते। मगर फिर भी बाहर चला आया। कहो, कैसे आये। कोई विशेष बात आप जानते हैं, अपनी अपनी आँख है, अपनी अपनी तो नहीं ?"
पसन्द । कल को अगर न बने तो दोनों का जीवन नष्ट ____ दीनानाथ ने जेब से रेशमी रूमाल निकालकर अपना हो जाय । ऐसे दृष्टान्त हमारे शहर में सैकड़ों हैं । इधर मुँह पोंछा और जवाब दिया- "बात तो विशेष ही है, वर्ना लड़के अपने प्रारब्ध को रो रहे हैं, उधर लड़कियाँ अपने मैं आपको कष्ट न देता। वैसे बात मामूली है । कम-से-कम बाप के घर बैठी हैं । इसलिए मेरा तो ख़याल है कि आदमी मैं उसे मामूली ही समझता हूँ।"
पहले सोच ले, ताकि पीछे हाथ न मलना पड़े। और , सुरजनमल कुछ चिन्तित-से हो गये -"तो भई ! इसमें कोई हर्ज भी तो नहीं। हर्ज तब था, जब पर्दे की जल्दी कह डालो । मुझे उलझन होती है।"
प्रथा थी। अब पर्दा कहाँ ?" Sifree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[भाग ३८
सुरजनमल ने अपने बिखरे हुए साहस को जमा करके 'मेरी राय में तो साधारण बात है।" कहा-"तुम आज तक कहाँ सोये हुए थे ? अगर पहले सुरजनमल-"तुम्हारी राय में होगी, मेरी राय में कहते तो मुझे ज़रा भी आपत्ति न होती। उसी समय नहीं है। दिखा देता। मगर अब तो मुहूर्त भी नियत हो गया, दीनानाथ — “एक बार फिर सोच लीजिए।" बरात भी आ गई, सारा प्रबन्ध हो गया। इस समय तीन सुरजनमल—“बेटा ! क्या बावलों की-सी बातें करते बजे हैं, अाठ बजे ब्याह है। अब क्या हो सकता हो ? ज़रा अपने आपको मेरी स्थिति में रखकर देखो है ? मान लो, मैंने तुम्हें लड़की दिखा दी और तुमने उसे और फिर बतायो । अगर तुम्हारी बहन का ब्याह हो तो अस्वीकार कर दिया तो क्या ब्याह रुक जायगा ? तुम तुम क्या करो ?” कहोगे, इसमें हज ही क्या है । तुम्हारे ।
दीनानाथ–“मैं तो दिखा दूं।" लिए न होगा, हमारी तो नाक कट जायगी।
सुरजनमल--"शायद इसका यह इसलिए यह बचपन छोड़ो और चुपचाप
कारण हो कि मैं उस कालेज में नहीं पढ़ा, जनवासे को लौट जाओ।"
जहाँ तुम पढ़े हो । मुझे दुनिया का भी मगर दीनानाथ पर इस बात का ज़रा
मुँह रखना पड़ता है।" भी प्रभाव न पड़ा, रुखाई से बोला
दीनानाथ-"तब बहुत अच्छा मैं !
भी आपको अंधकार में नहीं रखना चाहता। मैंने निश्चय कर लिया है कि चाहे इधर की दुनिया
एकाएक उषा
देवी अपनी कुसी से उठकर खड़ी हो गई और बोली-"मगर मुझे तुम पसन्द नहीं हो।"
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संख्या ३]
कलयुग नहीं करयुग है यह !
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उधर हो जाय, मैं लड़की को देखे बिना ब्याह नहीं करूँगा।"
दीनानाथ ने जवाब दिया-- "मुझे लड़की पसन्द है।"
सुरजनमल की दिया। आज उनके आत्मसम्मान में अपने पाँव पर खड़े आँखों के आगे होने का बल न था। आज उनके सामने उनका अपमान अँधेरा छा गया। खड़ा उन्हें ललकार रहा था।
इस अँधेरे से एकाएक उन्हें एक रस्ता सूझ गया । बोले- "तो एक बाहर निकलने का कोई रस्ता न था। सोचते थे, काम करो। तुम्हारे पिता जी मध्यस्थ रहे। वे जो कुछ इस छोकरे ने बुरी जगह घेरा है। कोई दूसरा होता तो कह देंगे, मुझे मंजूर होगा।" कान पकड़ कर बाहर निकाल देते, मगर अाज-वे बेटी के मगर दीनानाथ ने भी विलायत का पानी पिया था, कारण वह सुन रहे थे जो आज तक कभी नहीं सुना था। भाँप गया कि बुड्ढे बुड्ढे एक तरफ़ हो जायेंगे, मेरा दाँव रे और बेटी में आज उन्हें पहली बार भेद दिखाई न चलेगा। उसने अपनी टोपी पर हाथ फेरते हुए कहा
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सरस्वती
"इस मामले में मैं किसी को भी मध्यस्थ नहीं मानता ।"
अब चारों ओर निराशा थी । डूबते ने तिनके का सहारा लिया था । वह तिनका भी टूट गया। अब क्या करें ? इस समय अगर कोई उनका हृदय चीरकर देखता तो वहाँ उसे एक आवाज़ सुनाई देती – 'भगवान् किसी को बेटी न दे ।'
कोने कोने में फैल
ये
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दम के दम में यह ख़बर घर
1
गई । ब्याह के दिन थे, दूर नज़दीक के सारे सम्बन्धी हुए थे । उनको एक शोशा मिल गया, चारों तरफ़ कानाफूसियाँ होने लगीं । धनियों के सगे-सम्बन्धी उनकी बदनामी से जितना ख़ुश होते हैं, उतना दुश्मन ख़ुश नहीं होते । किसी में मुँह से बोलने का साहस न था, मगर मन में सभी ख़ुश हो रहे थे कि चलो अच्छा हुआ । चार पैसे पाकर इसकी खों में चर्बी छा गई थी, अब होश ठिकाने आ जायेंगे । उधर उषादेवी शर्म से मरी जा रही थी, मगर कुछ कर न सकती थी । हिन्दू घरों में कॉरी कन्या के लिए ऐसे मामलों में मुँह खोलना पाप से कम नहीं। देखती थी कि मेरे कारण बाप का सिर नीचे झुका जा रहा है, पर दम न मार सकती थी। दिल ही दिल में कुढ़ती थी और चुपके चुपके रोती थी । इतने में उसकी मा जमना ने आकर भरे हुए स्वर में कहा--"तुझे तेरा बाप बुला रहा है। "
उषादेवी ने मा से कोई सवाल न किया और आँसू पोंछकर बाप के ड्राइङ्गरूम की तरफ़ चली । ड्राइङ्गरूम के दरवाज़े पर उसके पाँव ज़रा रुके । मगर दूसरे क्षण में उसने अपना मन दृढ़ कर लिया और अन्दर चली गई । वहाँ उसके बाप के अतिरिक्त एक और साहब भी बैठे थे । उषादेवी ने उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी न देखा और बाप के पास जाकर खड़ी हो गई। सुरजनमल ने कहा - "बेटी ! बैठ जाओ। अपने ही पढ़ती रही हैं ?" श्रादमी हैं ।"
उषादेवी ने सिर न उठाया और एक कुर्सी पर बैठ गई; मगर इस हाल में कि उसे तन-बदन की सुध न थी । दीनानाथ ने देखा कि लड़की शक्ल-सूरत की बुरी नहीं है । और बुरी क्या, ख़ूबसूरत है। बल्कि खूबसूरती के बारे में उसकी जो धारणा थी, उषादेवी उससे भी बढ़-चढ़कर थी । दीनानाथ कुछ देर उसकी तरफ़ देखता रहा; ठीक
[ भाग ३८
ऐसे ही, जैसे हम किसी वस्तु को ख़रीदने से पहले देखते हैं। इसके बाद धीरे से बोला- "आपने अँगरेज़ी भी पढ़ी है क्या ?"
उपादेवी मूर्खा न थी, सुनते ही समझ गई कि यही मेरा भावी पति है । मगर वह क्या करे ? उसकी बात का क्या जवाब दे ? मुँह में जीभ थी, जीभ में बोलने की शक्ति न थी । वह जिस तरह बैठी थी, उसी तरह बैठी रही, बल्कि ज़रा और भी दबक गई।
दीनानाथ ने सुरजनमल की तरफ़ देखा । सुरजनमल बोले - "बेटी ! तुमसे पूछते हैं। जवाब दो ।"
उपादेवी ने बड़े संकोच से और सिकुड़कर जवाब दिया -- "पढ़ी है ।"
दीनानाथ ने इधर-उधर देखा और लपककर मेज़ से उस तारीख़ का अखबार उठा लिया। इसके बाद उषादेवी के पास जाकर बोला- “ज़रा पढ़ो तो” । यह कहकर उसने अख़बार उषादेवी के हाथ में दे दिया, और एक नोट की तरफ़ इशारा करके स्वयं पतलून की जेब में हाथ डालकर कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया ।
उषादेवी ने थोड़ी देर के लिए सोचा, और इसके बाद सारा नोट पर फ़र पढ़कर सुना दिया ।
दीनानाथ की आँखें चमकने लगीं। उसकी अपनी बहन भी अँगरेजी पढ़ती थी, मगर उसमें तो यह प्रवाह न था । चार शब्द पढ़ती थी और रुकती थी, फिर ज़ोर लगाती थी और फिर रुक जाती थी, जैसे बैलगाड़ी दलदल से निकलने का यत्न कर रही हो । और फिर उसका उच्चारण कितना भद्दा था ! मगर उषा इस पानी की मछली थी। ऐसा मालूम होता था, जैसे यह उसकी मातृ-भाषा है । दीनानाथ सन्तुष्ट हो गया और सुरजनमल की तरफ़ देखकर बोला- “ इनका उच्चारण बड़ा साफ़ है ! किससे
सुरजनमल - "एक येोरपीय औरत मिल गई थी ।" दीनानाथ - "बस बस बस !! अगर किसी हिन्दुस्तानी से पढ़तीं तो यह बात कभी न पैदा होती । इनका उच्चारण बिलकुल अँगरेज़ों का सा है । इन्हें पर्दे में बिठाकर कहिए, बोले । बाहर कोई अँगरेज़ खड़ा हो । साफ़ धोखा खा जायगा । उसे ज़रा सन्देह न होगा कि कोई हिन्दुस्तानी लड़की बोल रही है।"
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संख्या ३]
कलयुग नहीं करयुग है यह !
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सुरजनमल पर नशा-सा छा गया। समझे, परीक्षा और इसके बाद तुम्हें अपना फैसला सुनायें। और मेरा समाप्त हो गई। इतने में दीनानाथ ने दूसरा सवाल कर फैसला यह है कि मैं तुम्हारे साथ कदापि ब्याह नहीं कर दिया- "इन्होंने कुछ गाना भी सीखा है ?"
सकती।" सुरजनमल-"जी हाँ।"
सुरजनमल दीनानाथ को नीचा दिखाना चाहते थे, दीनानाथ-"तो कहिए, कुछ सुना दें।"
मगर उनमें यह साहस न था। उषादेवी के वीर-भाव को सुरजनमल का खून खोलने लगा, मगर कुछ कर न देखकर उनका हृदय-कमल खिल उठा। ब्याह न होगा सकते थे। क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी गये और ठंडी तो क्या होगा, दुनिया क्या कहेगी और वे उसका क्या आह भरकर बेटी से बोले—“कुछ सुना दो ।"
जवाब देंगे? इस समय इनमें एक बात भी उनके सामने __ और दूसरे क्षण में उषा की अंगुलियाँ बाजा बजा रही न थी। उनके सामने केवल एक बात थी। जिसने मेरा थीं, उसकी ताने कमरे में गूंज रही थीं और दीनानाथ अपमान किया है, मेरी बेटी ने उसके मुंह पर तमाचा ख़ुशी और अचरज से झूम रहा था। मगर सुरजनमल मार दिया। इसने मेरा बदला ले लिया। यह भी क्या अान्तरिक वेदना से मरे जा रहे थे, बाहर उनकी महमान याद करेगा? स्त्रियाँ उनकी निर्लज्जता पर खुश हो होकर अफ़सोस कर दीनानाथ पानी पानी हुअा जा रहा था। मगर चुप रही थीं और कलजुग को गालियाँ दे रही थीं। रहने से शर्म घटती न थी, बढ़ती थी। वह खिसियाना __ संगीत की समाप्ति पर दीनानाथ ने सिगरेट-केस से होकर बोला-"अापने तो मुझे परीक्षा के बिना ही फ़ेल सिगरेट निकाला और उसे सुलगाने के लिए दियासलाई कर दिया।" जलाते हुए बोला-'वान्डरफ़ल (अाश्चर्यजनक) " ___उषादेवी ने और भी ज़ोर से कहा- “मुझे तुम्हारी - सुरजनमल ने उपेक्षा-भाव से कहा-“कोई और बात परीक्षा करने की आवश्यकता ही क्या है ? मैं इतना पूछनी हो तो वह भी पूछ लो।"
___ समझ गई हूँ कि मेरे और तुम्हारे विचार इस दुनिया में उषादेवी का मह लाज से लाल हो गया और कान कभी न मिलेंगे। मैं सोलहों आने हिन्दुस्तानी हूँ, तुम जलने लगे।
सोलहों आने विदेशी हो । मैं ब्याह को अात्मिक सम्बन्ध दीनानाथ ने सिगरेट सुलगाकर दियासलाई को हाथ मानती हूँ, जो मौत के बाद भी नहीं टूटता। तुम्हारे के झटके से बुझाते हए जवाब दिया-.-"और कोई बात समीप मेरा सबसे बड़ा गण ही यह है कि मेरा रंग साफ़ नहीं। मुझे लड़की पसन्द है।"
है और मेरे गले में लोच है। लेकिन कल को यदि मुझे सुरजनमल की जान में जान आई।
चेचक निकल आये या किसी अन्य रोग से मेरा गला
ख़राब हो जाय तो तुम्हारी आँखें मुझे देखना भी स्वीकार एकाएक उषादेवी अपनी कुर्सी से उठकर खड़ी हो न करेंगी। तुम कहते हो, मैंने तुम्हारी परीक्षा नहीं की, गई और दीनानाथ की तरफ़ देखकर धीरे से मगर निश्च- मैं कहती हूँ, मैंने तुम्हें दो बातों से तोल लिया है। यात्मक रूप में बोली--"मगर मुझे तुम पसन्द नहीं हो।" जिसकी पसन्द ऐसी अोली और कच्ची बुनियादों पर खड़ी ___ दीनानाथ के लिए एक-एक शब्द बन्दूक की एक-एक हो उसका क्या विश्वास ? तुममें किताबी योग्यता होगी, गोली से कम न था। मुँह का सिगरेट मुँह में ही रह गया। मगर तुममें मनुष्यत्व नहीं है । मेरे बाबू जी आज से तुम्हारे मगर पूर्व इसके कि वह कुछ बोले या सुरजनमल कुछ भी सम्बन्धी थे । तुमने इसकी ज़रा परवा नहीं की। उनके कहें, उषा ने फिर से कहना शुरू कर दिया --
दिल पर छुरियाँ चल रही थीं और तुम अपनी जीत पर "अगर तुम लड़कों को यह अधिकार है कि ब्याह से फूले न समाते थे। तुम्हें केवल अपना ख़याल है। दूसरे पहले लड़की को देखो, उसकी परीक्षा करो और इसके का अपमान होता है तो हुआ करे। ज़रा सोचो, अगर बाद अपना फैसला सुनायो तो हम लड़कियों को भी यह यही सुलूक मैं तुम्हारे पिता जी के साथ करती तो तुम्हारा
अधिकार प्राप्त होना चाहिए कि तुम्हें देखें, तुम्हें परखें, क्या हाल होता ? आँखों से आग बरसने लगती, लहू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[भाग ३८
खौलने लगता, अजब नहीं मुझे घर से निकालने पर भी बाहर निकला तब ज़मीन-आसमान घूम रहे थे, और उतारू हो जाते। ऐसे स्वार्थी, अन्याय-प्रिय, तंग-दिल दुनिया में कहीं भी प्रकाश न था। पुरुष के साथ जो स्त्री अपना जीवन बाँध ले उससे बड़ी अंधी कौन होगी ?" यह कहते कहते उषा बाहर निकल गई।
मगर मा को बेटी की इस बेहयाई पर ज़हर चढ़ दीनानाथ का ज़रा-सा मुँह निकल आया । सोचता था, गया । रोती हुई उसके कमरे में जाकर बोली-“तूने मेरी क्या करूँ, क्या कहूँ। उषादेवी की न्याय-संगत और नाक काट डाली । मैं कहीं मह दिखाने लायक नहीं रही। युक्ति-पूर्ण बातों का उसके पास कोई जवाब न था। चुप- लड़के ने दो बातें पूछ ली तो कौन-सा अन्धेर हो गया ? चाप अपने पाँव की तरफ़ देखता था और अपनी अदूर- जवाब देती और चली आती। अब जब बरात लौट दर्शिता पर पछताता था। मगर अब पछताने से कुछ जायगी और घर-घर में हमारी बातें होने लगेंगी तब हमारे बनता न था। उधर सुरजनमल की आँखें जीत की कुल का नाम रोशन हो जायगा ! जिस लड़की की बरात रोशनी से जगमगा रही थीं। वे सोचते थे, ऐसे नालायक़ लौट जाय उस लड़की का मर जाना भला ।" के साथ जितनी भी हो, कम है। अब बच्चा जी को शिक्षा उषा दीवार के साथ लगी खड़ी थी, मगर कुछ मिल जायगी। वे दुनिया और दुनिया की ज़बान से बहुत बोलती न थी। चुपचाप मा की तरफ देखती थी और डरते थे, मगर इस समय उन्हें इसका ज़रा भी भय न था। सिर झुकाकर रह जाती थी। कुछ देर पहले दीनानाथ का रोष उनके लिए दैवी प्रकोप इतने में सुरजनमल ने आकर उषा को गले से लगा था, इस समय उन्हें उसकी ज़रा भी परवा न थी। श्राज लिया और जमना की तरफ़ अग्नि-पूर्ण दृष्टि से देखकर उनके सामने आत्म-सम्मान और निर्भयता का नया रस्ता बोले-“खबरदार ! अगर मेरी बेटी से किसी ने कुछ खुल गया था, आज उनकी दुनिया बदल गई थी, आज कहा तो। इसने वही किया है, जो नये युग की वीर पुराने जुग ने नये जुग में आँखें खोल ली थीं। कन्याओं को करना चाहिए, और जो करने का हममें
सुरजनमल उठ कर धीरे-धीरे दीनानाथ के पास सामर्थ्य नहीं। मगर हम उसकी प्रशंसा भी न कर सकें गये और मुँह बनाकर बोले-"मुझे बड़ा अफ़सोस है, तो यह डूब मरने की बात होगी। बाकी रह गया सवाल मगर मैं कुछ कर नहीं सकता। जब लड़की ही न माने तो इसके ब्याह का । इसकी मुझे ज़रा भी चिन्ता नहीं। मेरी कोई क्या करे ?"
बेटी के लिए वर बहुत मिल जायेंगे। अच्छे से अच्छा दीनानाथ की रही-सही अाशा भी जाती रही। समझ लड़का चुनूँगा।" गया, जो होना था, हो चुका। थोड़ी देर बाद जब वह यह कहते कहते उन्होंने उषा का माथा चूम लिया।
अन्तीत (महाकवि शेक्सपियर की एक कविता)
___ अनुवादक, श्रीयुत 'द्विरेफ' हटा ले अब ये चिर मृदु हास लिये थे विरति-शपथ के श्वास ।
पर फिर मेरे प्रिय अन्तरतम, उषालोक सम चञ्चल चितवन,
ले आ ले आ। नव प्रभात की प्रवंचना बन ।
अमर प्रेम के दिव्य कुसुम
जो वृथा छिपे हैं,
वृथा छिपे हैं !
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योरप के उपनिवेश
लेखक, श्रीयुत रामस्वरूप व्यास योरप में युद्धाग्नि भड़कानेवाले कारणों में एक उसके उपनिवेशों का प्रश्न भी है। यदि यह प्रश्न हल न हुआ तो युद्ध अवश्यम्भावी है। इस लेख में लेखक महोदय ने इस
प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। R eaRem छली शताब्दी का इतिहास योरप के वेश प्राप्त करने की थी। पर इन्हें कुछ नहीं के बराबर ही
साम्राज्यवाद के प्रसार का इतिहास मिल सका। तब से ये दोनों राष्ट्र-संघ से अप्रसन्न-से ही रहे।
है। यों तो अमरीका का पता लगना परन्तु प्रारम्भ में इन्हें अाशा थी कि शायद बाद में इनकी
HC और भारत का जल-मार्ग ढूँढ़ने यह इच्छा पूरी कर इनके साथ न्याय हो और दूसरे साम्राज्यIS का प्रयत्न ही इसका श्रीगणेश कहा वादी देशों की तरह ये भी उपनिवेशों के अधिपति बन
जा सकता है, पर उस समय संसार सके । पर जब महायुद्ध के बाद कई वर्षों तक इन्हें कोई के सब देश योरपवासियों के लिए खुले थे। उपनिवेशों के उपनिवेश न मिल सका तब फिर इन्होंने अपनी-सी करने हथियाने की होड़ में सर्वप्रथम फ़्रांस और इंग्लैंड का संघर्ष की ठानी। हुआ और फलस्वरूप अाज संसार के नक्शे का सबसे आधुनिक व्यापार, पूँजीवाद तथा यंत्रवाद के लिए अधिक भाग लाल रंगा हुआ है । भारतवर्ष तथा अमरीका उपनिवेश अावश्यक हैं। पूँजीवाद के प्रसार तथा यंत्रों में दोनों जगह अँगरेज़ों की विजय हुई और तब से सबसे से बनी हुई वस्तुओं को खपाने के लिए बाज़ार की अधिक उपनिवेश इनके प्राधिपत्य में आ गये। आवश्यकता पड़ती है। बिना बाज़ार के यंत्रों से बनी हुई
फ्रांस और इंग्लैंड के पदचिह्नों पर योरप के दूसरे असंख्य वस्तुएँ किस प्रकार बिक सकेंगी और उन पूँजीराष्ट्रों ने चलना प्रारम्भ किया और अफ्रीका को योरप की पतियों को किस प्रकार लाभ होगा जिनकी पूँजी कारखानों श्वेत जातियों ने टुकड़े टुकड़े कर आपस में बाँट लिया। में लगी है ? साथ ही साथ इन कारखानों में सामान बनाने उसमें इंग्लैंड और फ्रांस के अतिरिक्त जर्मनी, हालेड, के लिए कच्चे माल की आवश्यकता भी होती है और यदि बेलजियम, पुर्तगाल इन सबके उपनिवेश थे और अब भी यह अपने साम्राज्य के किसी हिस्से से ही मिल सके तो जर्मनी को छोड़कर सबके हैं।
सस्ता मिल सकेगा और साथ ही इसके मिलने न मिलने गत महायुद्ध एक प्रकार से उसी साम्राज्य-प्राप्ति की के बारे में कोई सन्देह भी न रहेगा। प्रतियोगिता का फल कहा जा सकता है जो उस समय जापान, जर्मनी तथा इटली, ये तीनों ही पूँजीपति, योरप की भिन्न भिन्न जातियों के बीच में चल रही थी। साम्राज्यवादी, औद्योगिक राष्ट्र हैं । इन तीनों को भी अपनी महायुद्ध के बाद भी यह उपनिवेश-सम्बन्धी समस्या सुलझ औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, पक्के माल नहीं सकी, बरन उलटा अधिक भीषण हो गई। बारसेलीज़ की खपत के लिए, उपनिवेश चाहिए। पर अब तो न की सन्धि की ११९वीं धारा के अनुसार जर्मनी को अपने कोई दूसरा महाद्वीप ही बाँटने को बच रहा है और न संसार सब विदेशी उपनिवेश मित्रराष्ट्रों के हवाले कर देने पड़े। का कोई दूसरा भाग जो किसी योरपीय राष्ट्र के अधिकार
और ये उपनिवेश मित्र-राष्ट्रों ने राष्ट्र संघ की देख-रेख के या संरक्षण में न हो। हाँ, अबीसीनिया स्वतंत्र रह गया नाम पर आपस में बाँट लिये । जर्मनी से उसके उपनिवेश था, सो इटली ने उसे हथिया लिया। जापान मंचूरिया ही नहीं छिन गये, बरन उस पर यह दोष भी लगाया गया को जीतकर मंगोलिया को भी उसमें मिलाना चाहता कि जर्मन लोग उपनिवेशों का प्रबन्ध करने में अयोग्य है। और जर्मनी भी अपने उपनिवेश फिर से वापस प्रमाणित हुए हैं । इधर मित्र राष्ट्रों में जापान और इटलो मांग रहा है। ऐसे थे जिनकी इच्छा दूसरे योरपीय राष्ट्रों की तरह उपनि- कच्चा माल दे सकना तथा तैयार माल के लिए बाज़ार
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सरस्वती
[भाग ३८
बन सकना ही अर्थशास्त्र की दृष्टि से उपनिवेशों का असली कुछ ऐसा ही है । फ्रांस को अपने उपनिवेशों में लगाये महत्त्व है । पर इनके अतिरिक्त ये इसलिए भी उपयोगी हुए धन के बदले दूसरे देशों में लगाये हुए धन की अपेक्षा हो सकते हैं कि प्रौद्योगिक राष्ट्र अपनी बढ़ती हुई जन-संख्या बहुत कम नफा मिलता है। अधिक से अधिक इटली को तथा बेकारों को वहाँ बसा सके । आर्थिक दृष्टि से भी यह उपनिवेशों से सारे व्यापार पर ५ प्रतिशत से अधिक नफ़ा प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इस समय जापान के लिए नहीं होने का, जो सारा व्यापार लगभग २०,००,००,००० यह जीवन-मरण का प्रश्न हो रहा है।
लीरा वार्षिक का है। और इसके लिए इटली को क्या इस दृष्टिकोण से इटली का अबीसीनिया को प्रतिवर्ष ५०,००,००,०००* लीरा वहाँ के राज्य प्रबन्ध में विजय करने का प्रयत्न करना ठीक है ? सबसे पहले अभी व्यय करना पड़ता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए तक अबीसीनिया के खनिज धन का कुछ ठीक पता नहीं इटली को अबीसीनिया पर अपना आधिपत्य जमा लेने से लग सका है। सिवा खेती से पैदा होनेवाले सामान के यह लाभ के बदले हानि की अधिक आशंका है। नहीं कहा जा सकता है कि अबीसीनिया कितना कच्चा इटली की बढ़ती हुई जन-संख्या के लिए अबीसीनिया माल दे सकेगा। किसी भी इटेलियन साम्राज्यवादी के बसने का उपयुक्त स्थान हो सकेगा. इसमें भी सन्देह है। लिए उस वस्तु का बताना कठिन होगा जिसे इटली अबी- अब तक एरीट्रीया और सोमालीलेंड में मिलाकर १०,०००सीनिया की अपेक्षा दूसरी जगह थोड़े मूल्य पर न ख़रीद से अधिक इटेलियन नहीं पहुँचे हैं। लिबिया में करीब सकता हो । मुसोलिनी ने ४,००,००,००,००० लीरा लड़ाई ३०,००० इटेलियन हैं। एरीट्रीया के समान ही जलवायु के लिए रक्खा था। यदि मान भी लिया जाय कि इटली अबीसीनिया का भी है, पर जब अभी इसी में अधिक इटेने अबीसीनिया को इतना धन व्यय कर जीत लिया लियन बस सकते हैं, वे अबीसीनिया में क्योंकर बस सकेंगे। है तो क्या इटली का सैनिक खर्च इतने से ही यह भी स्पष्ट है कि इटली खुले बाज़ार में अपनी आवश्यकसमाप्त हो जायगा । एक दूसरे साम्राज्यवादी राष्ट्र फ्रांस ताओं की पूर्ति कर सकता है और उसकी अधिक जन-संख्या के अनुभव पर से देखा जाय तो यह खर्च बढता ही के लिए भी जिसे उसने जान कर बढाया है, दक्षिणजायगा। मोरक्को की विजय के बाद फ्रांस का वहाँ अमरीका तथा दूसरे देशों में अधिक उपयुक्त स्थान मिल का सैनिक खर्च १३,३०,००,००० फ्रांक से बढकर सकता है। ८८,६०,००,००० फ्रांक हो गया है। इससे यह सिद्ध होता है इसलिए आर्थिक दृष्टि से तो अबीसीनिया के जीत कि किसी उपनिवेश को जीत लेने के बाद भी उसके ऊपर लेने का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है । हाँ, राजनैतिक दृष्टि से उतना या उससे भी अधिक व्यय उसे अधिकार में रखने मुसोलिनी भले ही अपने सभ्यता-प्रचार के नाम पर के लिए करना पड़ता है।
साम्राज्यलिप्सा को ठीक समझता हो। कुछ लोगों का मत इतने व्यय के बाद इटली को उससे कितना व्यापारिक है कि इटली की अान्तरिक आर्थिक दशा पर से देशवासियों लाभ सम्भव है ? एरीट्रीया और सोमालीलेड से १९३२ में का ध्यान हटाने के लिए तथा अपनी शक्ति को डावाँडोल ५,६७,००,००० लीरा के माल का आयात हुआ था और होते देखकर मुसोलिनी ने इस काम को शुरू किया । उसी वर्ष संसार के भिन्न भिन्न देशों से सब आयात अफ्रीका में जर्मनी के उपनिवेश सब मिलाकर ८,३६,८०,००,००० का था। इस तरह यह इटली के सारे २७,०७,३०० वर्ग किलोमीटर थे अ अायात का १-२ प्रतिशत हुश्रा। लिबिया के सिवा इटली लगभग १,१४,५७,००० थी। उस समय तो जर्मनी को इन दोनों उपनिवेशों को करीब उतना ही पक्का माल भेजता सन्धि की शतों को मानकर इनसे हाथ धोना पड़ा, पर है, जितना उनसे पाता है।
अब फिर उसने उपनिवेश वापस मांगना शुरू किया है। यदि देखा जाय तो उपनिवेशों से व्यापारिक लाभ तथा पूँजी लगाने से जो इटली को लाभ होगा वह शायद कुछ * १९३५-३६ के बजट में यह ४८,२०,००,००० भी न हो, क्योंकि फ्रांस का भी अनुभव इस विषय में लीरा है।
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संख्या ३ ।
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योरप के उपनिवेश
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धीरे धीरे जर्मनी ने अपनी स्थिति पक्की कर ली है और सम्भवतः वह उसे प्राप्त करके ही छोड़ेगा, चाहे उसे पिछले चार-पांच वर्षों के अन्दर तो हिटलर ने सबको यह इसके लिए कितना ही मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। दिखा दिया है कि वह किसी बात में दूसरे योरपीय राष्ट्र यह प्रश्न धीरे धीरे अब इतना गम्भीर हो चला है से पीछे न रहेगा। वह 'सब बातों में समानता का अधिकार कि उपनिवेश रखनेवाले साम्राज्यवादी राष्ट्र और प्रधानतः माँगता है। पहले जर्मनी ने अपनी सेना को सुसंगठित इंग्लेंड को इस समस्या के सुलझाने की फ़िक्र हो गई है। करके वारसेलीज़ की सन्धि की उस धारा को ठुकरा दिया सितम्बर १९३५ की राष्ट्र-संघ की एसेम्बली की बैठक में जिसके द्वारा उस पर अधिक सेना और वायुयान रखने सर सेम्युअल होर ने जो उस समय पर-राष्ट्र-सचिव थे, पर प्रतिबन्ध लगे हुए थे।
कहा था कि उन देशों को भी कच्चा माल लेने में सुविधा ___ इटलीवालों की तरह जर्मन लोगों को भी अपनी दी जाय जिनके पास उपनिवेश नहीं हैं। सच तो यह है श्रावश्यकता की पूर्ति के लिए उपनिवेश चाहिए । नाज़ी- कि उपनिवेशों की समस्या बड़ी विकट होती जा रही है। पार्टी के प्रोग्राम में इसका तीसरा नम्बर है। इसके पहले या तो इटली और जर्मनी को उपनिवेश दिये जायँ या फिर प्रेसीडेंट हिंडनबर्ग ने भी कहा था-"बिना उपनिवेशों के वे बल द्वारा रोके जायँ । पर यह इतना आसान नहीं है। कच्चे माल के मिलने की कोई पक्की बात नहीं हो सकती, ब्रिटेन को अपने फैले हुए उपनिवेशों की रक्षा करने में बिना कच्चे माल के उद्योग-धन्धे नहीं चल सकते और कठिनता मालूम होती है। डच-सरकार ने जावा के उद्योग-धन्धों के बिना काम नहीं मिल सकता, इसलिए पहाड़ों में किले बनाये हैं, जिससे हमले के समय उनमें जर्मनी को उपनिवेशों की आवश्यकता है।"
जाकर अपनी रक्षा की जा सके। आस्ट्रेलिया के लोगों को _इसके उत्तर में कुछ राष्ट्रों की तरफ़ से यह कहा गया भी अपनी कम जन-संख्या के कारण अपनी रक्षा की फ़िक्र था कि जर्मनी तथा और दूसरे बिना उपनिवेशवाले राष्ट्र पड़ी हुई है। पुर्तगाल के अफ्रीकन उपनिवेश इस दशा मेंडटरी देशों का कच्चा माल ले सकते हैं, जो इस में हैं कि यदि कोई हमला कर दे तो उनकी रक्षा करनी समय राष्ट्र संघ की देख-भाल में हैं । पर जर्मनी के नेता कठिन हो जाय और पुर्तगाल को इसमें सन्देह हो रहा है कहते हैं कि उन्हें जर्मनी के लिए कच्चा माल उसी कि २७५ वर्ष पुरानी सन्धि के अनुसार इंग्लेंड उनकी रक्षा देश से चाहिए. जहाँ उसका सिक्का चलता हो । मेंडेटरी में उसकी सहायता कर भी सकेगा। बेलजियम की भी देशों के माल के लिए तो उसे विदेशी मुद्रा में मूल्य करीब करीब यही अवस्था है । केवल फ्रांस को इस विषय चुकाना होगा।
में कोई भारी चिन्ता नहीं है। उसने अपने उपनिवेशों में जर्मन राष्ट्र के अधिक लोगों को भी बाहर बसाने अपनी सहायता के लिए अच्छी सेना तैयार कर ली है। के सम्बन्ध में उनका कहना है कि वे फिर जर्मन-जाति ऐसी अवस्था में दो-तीन सैनिक राष्ट्रों का बिना उपनिवेशों से बिलकुल अलग हो जायँगे। इसके अतिरिक्त कुछ के होना बड़ा भयानक हो सकता है। लोगों का विचार है कि उन उपनिवेशों में अधिक लोग यह प्रश्न का एक ही पहलू है । वे आदि-निवासी जो नहीं बस सकते । पर जर्मनी के नेता कहते हैं कि उन शुरू से इन देशों में बसते चले आये हैं और जिन्हें सभ्य राष्ट्रों के लिए भले ही उन उपनिवेशों का मूल्य न हो बनाने का ठेका योरप की श्वेत जातियों ने लिया है, कब जिनके पास काफ़ी से ज़्यादा उपनिवेश हैं, पर जर्मनी के तक इस दशा में रहते चले जायेंगे ? मित्र और लंका को
तो वे उपनिवेश अावश्यक हैं और वे वहाँ लोगों एक प्रकार से स्वतन्त्रता मिल ही गई है और शायद भारत को बसाकर उन्हें खूब श्राबाद तथा रहने योग्य बनाने का को भी औपनिवेशिक स्वराज्य मिल जाय । चीन अपनी प्रयत्न करेंगे। पर इससे भी अधिक महत्त्व की बात तो यह निद्रा से जागकर संगठित होने का प्रयत्न कर रहा है। होगी कि उपनिवेश मिल जाने पर जर्मनी दूसरे राष्ट्रों के इसी प्रकार किसी दिन अफ्रीकावासी भी अपनी स्वतंत्रता समान हो सकेगा। योरपीय राष्ट्रों में समानता का अधिकार माँगेंगे । वे हमेशा श्वेत जातियों के गुलाम है प्राप्त करने के लिए जर्मनी बुरी तरह तुला हुआ है और पसन्द नहीं करेंगे।
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सरस्वती
[भाग ३८
· और उसमें से युद्ध के कारण न पैदा हों। डिक्टेटरों को चाहे उपनिवेशों का प्रश्न किसी प्रकार हल हो, अपने स्थान को दृढ़ रखने के लिए भी यह आवश्यक है समझौते से या युद्ध-द्वारा, इसका निकट भविष्य में सुलझना कि वे देश के नौजवानों को 'कुछ' करने का मौका दें। आवश्यक है। इसके सुलझने से अन्तर्राष्ट्रीय समस्या योरप में युद्ध की चुनौती एक-दूसरे राष्ट्र को देना आसान भी अवश्य कुछ न कुछ सुलझ जायगी। पर हमें इससे नहीं है । सभी राष्ट्र पूरी तैयारी किये बैठे हैं, इसलिए वही सम्बन्धित एक प्रश्न पर विचार करना पड़ेगा। मौका देखकर छेड़-छाड़ करते हैं जहाँ दूसरा पक्ष अधिक
हमने देखा है कि इटली के लिए अबीसीनिया कोई निर्बल होता है। इटली-अबीसीनिया का युद्ध इस बात का बहुत बड़े आर्थिक महत्त्व का नहीं हो सकता और यही जीता-जागता उदाहरण है। जर्मनी को उपनिवेशों की माँग के बारे में कहा जा सकता . फिर भी शायद समझौते-द्वारा फैसला हो जाने से है। आर्थिक प्रश्न बिना पशुबल के भी हल हो सकते हैं। युद्ध की आग कुछ दिन और भड़कने से रुक जाय और यहाँ तो हमें प्रधानतः इटली और जर्मनी की मनोवृत्ति का नाहक बेचारे काले लोगों का जो इसमें गेहूँ के साथ धुन अवलोकन करना है। हिटलर और मुसोलिनी महायुद्ध की तरह पिस जायँगे खून बहने से बच जाय । सम्भवतः के बाद की भयंकर परिस्थितियों से फ़ायदा उठा कर दो इंग्लेंड इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेगा, क्योंकि विशाल राष्ट्रों के कर्ता-धर्ता बन बैठे हैं। यह प्रधानतः वह इस खतरे को अच्छी तरह समझे हुए है और इतने उन्होंने लोगों के हृदय में भय का संचार कर तथा सैनिक विशाल साम्राज्य को लिये हुए है। बिना किसी समझौते वृत्ति का पोषण करके किया है। इसके साथ ही यह सम्भव के वह सुख की नींद न सो सकेगा। नहीं कि किसी देश में सैनिक वृत्ति को खूब पोसा जाय
कवि के प्रति
श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल, एम० ए० कवि ! पागल तुम मधुशाला में,
किन्तु तुम्हारे उर में जागृत, मैं पागल तव पागलपन पर ।
___दया नहीं कवि ! पल भर । मतवाले हो मधुशाला की,
सुरापान तो तुम्हें सुहावे, मस्तानी मदिरा में,
चिर जीवो मतवाले ! ध्यान नहीं जाता किंचित् भी,
हम तो मस्त इसी रोटी में, दुखियों के क्रन्दन पर।
श्रम मिस रक्त बहाकर। कवियों का मानस तो कोमल,
__* "रोटी का राग" जिसमें से यह कविता ली गई द्रवीभूत होता है, है, शीघ्र ही प्रकाशित होगा।
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AANGLA
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आत्म-चरित
कँवर साहब की जो साहित्यिक लेख-माला 'सरस्वती' में छपती आई है उसका यह 'आत्म-चरित'-शीर्षक लेख अन्तिम लेख है। आशा है, आपका यह लेख
भी पाठकों को रुचिकर प्रतीत होगा। इसमें आपने लेखक, श्रीयुत कुँवर राजेन्द्रसिंह यह बताया है कि आत्म-चरित कैसे लिखना चाहिए
तथा वह कितने महत्त्व की वस्तु है। कसा वन-चरित लिखना कोई मामूली हो या किसी दूसरे के द्वारा लिखा गया हो, मुख्य उद्देश या कला नहीं है, और आत्म-चरित यह है कि चरित-नायक अपने स्वाभाविक स्वरूप में पढ़ने
लिखना तो लोहे के चने चबाना वालों के सामने अा जाय। यदि जीवन-चरित में केवल 4 है। आत्म-चरित के लिखने की उसके गुणों का ही उल्लेख किया जायगा तो शायद ईश्वर LS
प्रथा इंग्लैंड में १८ वीं शताब्दी के को लोग भूल जायेंगे और यदि उसी तरह गुणों को छिपाअन्त के कुछ पहले प्रारम्भ हुई थी। पहले दफ़ 'बाटो- कर केवल अवगुणों की ही सूची दे दी जायगी तो उसमें बायग्राफ़ी' (स्वलिखित जीवन-चरित) शब्द का प्रयोग और शैतान में क्या फ़र्क रह जायगा। अँगरेज़ी-भाषा में सन् १८०९ में हुआ था। इसके पहले दूसरी कठिनाई यह होती है कि प्रात्म-चरित में छोटी ऐसे लेखों को 'जीवन-वृत्तान्त स्वयं लेखक-द्वारा लिखित', छोटी घटनाओं का उल्लेख छुट जाता है। यह नहीं है 'स्मरण-लेख', 'जीवन-चरित जिसे स्वयं चरित-नायक ने कि लेखक उन्हें नहीं लिखना चाहता है, किन्तु कारण लिखा हो', 'स्वयं लिखित इतिहास' इत्यादि कहते थे। यह होता है कि उसकी दृष्टि में उन घटनाओं का कोई केवल १९वीं शताब्दी से यह माना गया कि इतिहास से महत्त्व नहीं होता। वास्तव में छोटी ही घटनाओं से चरितइसका कोई सम्बन्ध नहीं है। अात्म-चरित के ढंग पर नायक के असली स्वरूप के पहचानने में सहायता मिलती
वहाँ सन् ७३१ में कुछ लिखा गया था, और फिर सन् है, जैसे तिनका हवा के रुख़ को बतला देता है। किसी के . १५७३ तक इस ओर कोई उद्योग नहीं हुआ।
भी जीवन में सब बड़ी ही घटनायें नहीं घटित होती हैंआत्म-चरित के लिखने में हर कदम पर कठिनाइयों छोटी और बड़ी घटनाओं के सम्मिलित समूह का ही नाम का सामना करना पड़ता है और वे ऐसी कठिनाइयाँ नहीं जीवन है। हाँ, इस पर अवश्य ध्यान रखना पड़ता है कि हैं जिन पर आसानी से विजय प्राप्त हो सके। पहला प्रश्न ऐसी बातें न लिखी जाय जो मामूली से भी मामूली हों। वे तो लिखनेवाले के सामने यह होता है कि अपने विषय में बाते श्रात्म-चरित में स्थान पाने के योग्य नहीं हैं जिनमें क्या लिखे और क्या छोड़ दे । मनुष्य गुणों और अवगुणों स्वाभाविकता न हो। चरित-नायक की वैसी तसवीर होनी का सम्मिश्रण है । यह असम्भव है कि किसी में कोई गुण चाहिए जैसा वह है न कि जैसा आज-कल का फोटो होता न हो या किसी में कोई अवगुण न हो। यह बर्क का कथन है कि सिर को तोड़-मरोड़ कर, ठुड्ढी को आगे या पीछे है कि 'किसी की त्रुटियों के कारण उससे झगड़ा करना दबाकर, एक अस्वाभाविक ढंग कर दिया जाता है। ईश्वर की शिल्पकला पर आक्षेप करना है ।' स्टीवेंसन की वह फोटो किसी का असली फोटो नहीं कहला सकता है । भी एक कविता का ऐसा ही अाशय है। उसने कहा है धोबिन दूती एक नायिका से कह रही है-"श्रौचक ही कि 'हम लोगों में जो बुरे से बुरे हैं उनमें भी इतनी हँसि अानन फेरि बड़े बड़े नयनन तानि निहारयो।" इसे अच्छाइयाँ हैं और जो हममें अच्छे से अच्छे हैं उनमें स्वाभाविकता कहते हैं | तभी तो निशाना पूरा बैठा । यदि भी इतनी बुराइयाँ हैं कि हममें से किसी के लिए यह जीवन-चरित लिखनेवाला स्वयं चरित-नायक है तो उसके उचित नहीं है कि अन्य सभों के खिलाफ़ कहें ।' यदि कामों की स्वाभाविकता उसे नहीं प्रतीत होती है और यदि लिखनेवाला अपने गुणों का उल्लेख करे तो यह कहा प्रतीत हुई तो स्वाभाविकता नहीं रह जाती। उपर्युक्त जायगा कि आत्मप्रशंसा का गीत अलाप रहा है और यदि पद पर ध्यान देने से मालूम होता है कि औचक सिर चुप हो जाय तो तुला एकांगी रहेगी और लेखन-कला घुमाकर देखने की स्वाभाविकता दती को प्रतीत हुई और दोष-युक्त होगी। जीवन-चरित का चाहे वह स्वलिखित यदि नायिका ने यह सोचकर सिर घुमाया होता कि जो
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सरस्वती
[भाग ३८
इधर से जा रहा है उस पर सोचा हुया प्रभाव पड़े तो दीन्ही, मनसा विजय विश्व कह कीन्हीं।" उन देशों में स्वाभाविकता विदा हो गई होती। अगर उससे यह न कहा जहाँ पर्दे की प्रथा नहीं है, वहाँ विवाह के पहलेवाले गया होता कि उसके औचक सिर घुमाकर देखने का किसी समय को अानन्द और विलास का समय मानते हैं। पर यह प्रभाव पड़ा तो उसे मालूम भी न होता कि क्या एक की मँगनी हुए बहुत दिन हो गये थे। मित्रों ने हुआ था।
पूछा कि कहो, कब शादी होगी। उसने उत्तर दिया कि ___ यहीं कठिनाइयों का अन्त नहीं हो जाता है। इसका यही सोच रहा हूँ कि अभी तो यहाँ अाकर दिल खुश कर निर्णय करना क्या कोई सहज काम है कि जीवन की किन लेता हूँ और शादी हो जाने पर कहाँ जाया करूँगा। इन किन घटनाओं का किस तरह उल्लेख किया जाय। या तो वाक्यों से वहाँ के समाज के संगठन पर अ यह हो जायगा कि “निज कबित्त केहि लागन नीका, सरस पड़ता है। मायकेल फरेडी (बिजली के आविष्कारकर्ता) होय अथवा अति फीका" या उन घटनाओं का ज़िक्र भी के एक जीवनचरित लिखनेवाले को यह बड़ा दुख रहा नहीं होगा जो दूसरों की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण समझी जा कि उसके हाथ वह मसाला न आया जिससे उनके वैवाहिक सकती हैं। जीवन-चरित एक तरह का स्मरण-लेख है, जीवन के पूर्ववाले समय के किस्से गढ़ने का मौका मिलता। परन्तु इस तरह का स्मरण-लेख नहीं है कि “मैं मेल-ट्रेन जिस जीवनचरित में ऐसे किस्सों या रोचक घटनाओं की से घर वापस गया। गर्मी बहुत थी। पंखा और ख़स की कमी रहती है उसकी जनता में मांग नहीं होती है। शायद टट्टी होने पर भी पसीना निकल रहा था और मैं घंटों चित इसी वजह से एक अँगरेज़ लेखक ने लिखा है कि सत्यता पड़ा रहा।” यह क्या है ? वास्तव में यह किसी भी दृष्टि से कहीं अधिक अर्द्धसत्यता मनोहारी होती है। अर्द्धसत्यता से कुछ नहीं है। ऐसे स्मरण-लेखों के प्रकाशित होने से की चाट जिनमें होती है वही पुस्तकें आज-कल हाथोंहाथ किसी का क्या लाभ हो सकता है----किसी और का लाभ बिकती हैं, और जिन पुस्तकों में हृदयगत भाव सच्चे और तो दूर रहा अपना ही क्या लाभ हो सकता है ? इस तरह सीधी तरह से प्रकट कर दिये गये होते हैं वे पुस्तकें छापनेके लेख का मूल्य उस काग़ज़ के मूल्य से भी कम होगा वालों की दृष्टि से अच्छी बिकनेवाली नहीं कहलाती हैं। जिस पर यह लिखा गया होगा। प्रत्येक आत्म-चरित जो कम से कम आत्मचरित लिखनेवालों को अपने पथ से
आत्म-चरित कहला सकता है, इतिहास का भी काम देता नहीं हटना चाहिए, यद्यपि कुछ लोगों का यह मत है कि है। कम से कम यह तो पता चल ही जायगा कि अमुक “वह न कहो जो तुम्हें कहना है, बरन वह कहो जो लोग व्यक्ति के सामने कैसे धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक सुनना पसन्द करते हों।" प्रश्न उपस्थित थे और उन पर उसके क्या विचार थे। इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी मनुष्य को अपना यदि उन विचारों पर लेखक ने कोई राय नहीं प्रकट की तो आत्मचरित लिखना चाहिए। यदि इसके लिखने में एक बहुत बड़ी कमी रह जायगी। समय बदल रहा है और सावधानी से काम लिया जाय तो लोगों का इससे बड़ा स्वभावत: उसी के साथ दृष्टिकोण बदल रहा है। नहीं तो उपकार होता है-आँखें खुल जाती हैं। "पहले से सचेत भारतवासियों को अपने सम्बन्ध में एक शब्द भी लिखना हो जाना सशस्त्र हो जाना है," जैसा कि अँगरेज़ी में एक नहीं पसन्द था और उसी का कारण यह है कि हमारे कहावत है। निज जीवन वृत्तान्त कहने में साहित्यिक कला साहित्य की वह शाखा अपूर्ण रह गई है जिसकी पूर्ति केवल की बड़ी आवश्यकता नहीं होती। यह तो बहुत अच्छा अात्म-चरितों से ही हो सकती है।
है ही कि साहित्य का भी स्वाद हो, परन्तु यदि न हो तो अपने सम्बन्ध के कुछ ऐसे विषय हैं जो अपने लिखने कुछ हर्ज भी नहीं है। किसी भी चीज़ पर वार्निश करने से मनोरंजक नहीं होंगे, जैसे विवाह । यदि तुलसीदास जी से उसका प्राकृतिक रंग जाता रहता है। यह प्रायः देखा की लेखनी महाराज रामचन्द्र के हाथ में होती तो शायद गया है कि सीधे और सादे ढंग से कहा हा अनुभव वे यह न लिख पाते कि "कंकण किंकिणि नूपुर धुनि सुनि, अधिक प्रभावशाली होता है। बाज़ों का यह कहना है कि कहत लषण सों राम हृदय गुनि । मानहु मदन दुंदभी आत्मचरित मनोरंजक नहीं होते। बात यह है कि जैसा
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संख्या ३]
आत्म-चरित
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जिसका दृष्टि-कोण होगा उसको उसी ढंग का साहित्य पसन्द हैं वह अच्छी तरह कह डालें। किसी लेखक का सर्वोत्तम होगा और उसी से उसका मनोरंजन होगा। 'मनोरंजन' गुण यह है कि वह ऐसी भाषा का प्रयोग करे कि सुनने या उन शब्दों में से एक है जिसका अर्थ प्रत्येक मनुष्य अपने पढ़नेवालों के लिए यह असम्भव हो जाय कि वह सिवा इच्छानुकूल समझता है । यदि एक चीज़ एक को मनोरंजक उन अर्थों के कोई और अर्थ न लगा सकें जो लिखनेवाले मालूम होती है तो उसी से दूसरे का कोई मनोरंजन नहीं या बोलनेवाले के हैं। मनुष्य के छोटे से छोटे काम में होता। आत्मचरित का क्या दोष है ? यह सम्भव है कि भी उसकी आत्मा की झलक दिखाई देती है और वही उसके लिखने में योग्यता से काम न लिया गया हो, महत्त्व- झलक आत्मचरित का आधार है और उसी से चरितपूर्ण घटनायें छुट गई हों, मामूली बातों का सविस्तर वर्णन नायक का भी पता चलता है। बहुत आदमियों को यदि हो गया हो, स्वाभाविकता का अभाव हो या चरितनायक दिल खोलने का मौका दिया जाय तो मालूम होगा कि उस रंग में रंगा दिखलाई दे जो उसका प्राकृतिक रंग न बाहरी रुखाई के पर्दे के पीछे कितना कोमल हृदय है। हो । नहीं तो आत्मचरितों से पढ़नेवालों का बड़ा मनोरंजन उन अवसरों पर जब हम सावधान हैं तब भी हम में होता है । यह एक मसल मशहूर है कि जीवन एक नाटक स्वाभाविकता की कमी रहती है और उस समय के कामों है और इसकी सत्यता आत्मचरित पढ़ने से ही मालूम से भी हमारा पूरा पता नहीं चलता है । एक फ़ारसहोती है। जीवन के नाटक में कल्पना की आवश्यकता नहीं देशवासी अरबी-भाषा का इतना बड़ा विद्वान् था कि होती-केवल आवश्यकता होती है सीधे-सादे वर्णन पहचाना नहीं जा सकता था कि वह अन्य देश का रहनेकी, पर्दे खुद उठते और गिरते जाते हैं। उन लोगों की वाला है। वह अरब देश में गया और अपना ऐसा भेष भी संख्या कम नहीं है जिनका यह विचार है कि उन बनाया कि वहाँ के निवासी उसे अपने देश का समझने लोगों की अपेक्षा जो 'लक्ष्मी के पुत्र' कहलाते हैं, उनका लगे। बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखीं, अपनी शादी की और जीवनचरित अधिक शिक्षाप्रद और मनोरंजक होता है वहीं बस गया। उसकी पत्नी भी विदुषी थी। उसे न जिन्हें दुनिया का मुकाबिला करना पड़ा है। अच्छे दिन मालूम किस तरह यह सन्देह हुआ कि अरब देश उसकी बुराइयों को प्रकट कर देते हैं और बुरे दिन अच्छाइयों मातृभूमि नहीं है, परन्तु उसके सन्देह को परिपुष्टता नहीं को । मनुष्य चाहे जैसा हो-चाहे लक्ष्मी का पुत्र हो या प्राप्त होती थी। उसकी भाषा और वेष में कोई त्रुटि नहीं शत्रु हो, चाहे चरित्रवान् हो या महान् चरित्रभ्रष्ट हो, उसे थी। बहुत दिनों के बाद जब एक रात को वह सो रहा अपना आत्मचरित अवश्य लिखना चाहिए। सम्भव है था तब उसकी आँखों पर फतीले की रोशनी पड़ रही थी। कि जिस अनादर की दृष्टि से वह अाज देखा जा रहा है वह सोते हुए चिल्ला उठा कि फतीले का वध कर डालो, उस दृष्टि से वह कुछ समय के बाद न देखा जाय, यदि (यह शायद फ़ारसी मुहाविरा था--अरब देश में फतीला बुझा उसे अपने पक्ष में कुछ कहने का मौका मिले। इन सब दो कहा जाता था) उसकी स्त्री समझ गई कि उसकी मातृबातों के कहने का उचित स्थान आत्मचरित ही है। भाषा कौन है । पूछने पर उसने बतला भी दिया। वह उसका इससे क्या यह सम्भव नहीं है कि यदि उनकी भी सुन ली स्वाभाविक क्षण था जब उसके मुँह से उसकी मातृभाषा का जाती जिन पर दोषारोपण किये गये थे तो उनके विषय में मुहाविरा निकल गया। ऐसे ही मौकों पर यह पता लगता है हमारी राय में परिवर्तन हो जाता । निर्णय हम चाहे जो कि हम क्या हैं और ये अवसर इतने क्षणिक होते हैं कि करते, पर वह निर्णय अधिक ठीक होता।
हम उन्हें 'पकड़ नहीं पाते। इनकी आत्मचरितों में कमी अब यह प्रश्न सामने आता है कि स्वलिखित जीवन- होती है। जहाँ यह सत्य है कि बोज़वेल ने जान्सन के चरित का क्या ढंग हो। जैसे हर एक आदमी के बातें जीवनचरित में बहुत-सी अनावश्यक बातें लिखी हैं, वहाँ यह करने और अपने भावों को प्रकट करने का ढंग पृथक भी सत्य है कि बहुत-सी ऐसी बातें भी लिखी हैं जिनकी पृथक् होता है, वैसे ही श्रात्मचरित लिखने का भी होता वजह से वास्तविक जान्सन का फोटो आँखों के सामने आ है। उद्देश एक ही है और वह यह कि जो हम कहा चाहते जाता है। यदि जान्सन स्वयं लिखते तो वे बातें छट जातीं।
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सरस्वती
[भाग ३८
अपना आत्मचरित लिखने में 'मधुर एकान्त' की है-अनुभव ही सच्चे शिक्षक हैं-चाहे वे सफलता के अत्यन्त आवश्यकता होती है। तभी उन कामों और परमोच्च शिखर के हों और चाहे अधमता की अथाह गहराई घटनात्रों का स्मरण आयेगा जिनके कहने या करने में के हों। दोनों से शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। यदि स्वाभाविकता के कारण सफलता या असफलता प्राप्त हुई इस देश के किसी बड़े से बड़े आदमी से भी कहा जाय थी। एक चरित्रभ्रष्टा अपनी जवानी के दिनों का स्मरण कि आप अपना आत्मचरित लिख दें तो शायद यही कहेगा करके गुनगुना रही है, "हज़ारों हो खाये हुए चोट थे, वह कि किया क्या है जिसका उल्लेख करूँ। इस संकोच से ठुमके से मिरज़ा तो बस लोट थे।" बस इन्हीं दस-पाँच कम से कम उसके देशवाले उसके अनुभवों से वञ्चित रह शब्दों में पूर्ण आत्मचरित लिख गया- पूरी तसवीर आँखों जाते हैं । अन्य देशों में नटियाँ और नर्तकियाँ भी अपना के सामने आ गई। व्यतीत समय का सिंहावलोकन ऐसे जीवन-चरित लिखती हैं या स्मरण-लेख रखती हैं। यद्यपि अवसरों पर बहुत काम देता है। परन्तु इसका ध्यान रहे उद्देश जेब गरम करने का होता है तो भी उनको अपने कि निरीक्षण और निर्णय करने में कृत्रिम रंग न आने विषय में जो कुछ कहना होता है वह तो कह ही पावे--केवल इतना प्रकट कर देना पर्याप्त होगा कि अमुक लेती हैं। विषय पर विचार क्या थे।
तीसरा साधन आत्मचरित का पत्र है। इनके लिए आत्मचरित के लिखने के तीन तरीके हो सकते हैं, द्वितीय पुरुष' को आवश्यकता होती है। इनमें भी तभी और अभी तक यही तीन तरीके काम में लाये गये हैं- स्वाभाविकता अावेगी जब इनका अभिप्राय प्रकाशित करने (१) वही पुराना साधारण तरीका, जिसका 'श्रीगणेशाय का न हो । यद्यपि इनमें नित्यप्रति की घटनाओं का उल्लेख नमः' जन्म-तिथि बतलाकर होता है और 'इति श्री' नहीं होता है, तो भी इनसे अच्छी तरह और किसी ढंग दूसरे के हाथों-द्वारा अन्तिम बीमारी का वर्णन करके मृत्यु- से लेखक का मत प्रकट नहीं हो पाता। अँगरेज़ी-भाषा तिथि पर होती है। इसमें भी संशोधन हो रहा है । अब में सुप्रसिद्ध पत्र-लेखक हो गये हैं और सबसे बड़ा नाम केवल साल बतला दिया जाता है । अब कोई भी शायद चेस्टरफ़ील्ड का है । उन्होंने अपने पुत्र के नाम पत्र लिखे ही जीवनचरित हो जिसमें अन्तिम बीमारी का वर्णन हो। थे और उनमें अच्छे उपदेश दिये हैं। ये गुण होते हुए किसी को इससे क्या मतलब कि कौन-सी अन्तिम बीमारी भी वे वास्तव में पत्र नहीं हैं। वही नकल बहुतों ने की किसको हुई थी ? इतिहास के लिए साल जानना पर्याप्त है। है। एक ने तो अपने पुत्र को पत्र लिखने में लज्जा को
दूसरा तरीका स्मरण-लेख है। यह प्रथम तरीके से तिलाञ्जलि देकर यह लिखा है कि उसका जीवन उसकी कुछ आसान है। इसमें स्वाभाविकता की अधिक सम्भा- स्त्री के साथ कैसा व्यतीत हुआ था। ऐसी पुस्तकें मृतजात वना है। इसमें दिनचर्या सीधी और सरल भाषा में लिखी शिशु के समान होती हैं । अस्तु, आज-कल उन्हीं जीवनहोती है। पेपी की डायरी कई भागों में प्रकाशित हुई है चरितों की धूम होती है जिनमें चरितनायक के स्मरण-लेखों
और वह उनके पूर्ण जीवनचरित का काम देती है। उसमें और पत्रों से बातें जानकर लिखी जाती हैं। राजनैतिक बहुत-सी बाते यद्यपि असंगत-सी मालूम होती हैं, पर क्षेत्र में जो कुछ भी है उस सबके पत्र प्रकाशित होते हैं । अधिकांश में स्वाभाविकता अवश्य है। शायद उन्होंने यह वे भी वास्तव में पत्र नहीं हैं। उनके लिखने का यह निश्चय कर लिया था कि मामूली से मामूली बात का अभिप्राय होता है कि वे अपने मत का स्वतंत्रता से पक्षपात भी वे उल्लेख करेंगे। स्मरण-लेख यदि इस दृष्टि से लिखा कर सकें। तब भी वे पत्र ही कहला सकते हैं, चाहे लेखक गया है कि वह प्रकाशित किया जाय तो उसमें भी बहुत- के प्रतिबिम्ब न हों। उनके आधार पर जीवनचरित लिखा सी बातों पर कृत्रिम रंग होगा। स्वाभाविक ढंग तो वह जा सकता है। है जिस ढंग से मनुष्य कुछ सोचता है । चाहे कुछ लिखने एक और ढंग है, जिसके द्वारा मनुष्य असली रंग में में अत्युक्ति की झलक आ भी जाय तो भी अपने अनुभवों दिखलाई दे सकता है और वह है वार्तालाप का। इससे का उल्लेख करना चाहिए । अनुभवों से बड़ी शिक्षा मिलती मनुष्य के निजी और अदृष्ट जीवन पर से थोड़ा पर्दा हटाया
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संख्या ३]
आत्म-चरित
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जा सकता है। ऐसे वार्तालाप के लिए यह आवश्यक है यदि उसका वार्तालाप प्रकाशित हो जाता तो उसके कि यह उन्हीं के साथ हो जिनके सामने बातें करनेवाला सम्बन्ध में संसार की दूसरी राय होती। उसने खूब कहा है स्वतंत्र हो । जान्सन के आन्तरिक जीवन का संसार को कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि संसार के मञ्च पता न होता यदि बोज़वेल की लेखनी ने उनकी इतनी को छोड़ते ही लोग हमें भुला देते हैं, और तब भी हम . सहायता न की होती। जान्सन बहुत मशहूर बात-चीत किसी के ध्यान को आकर्षित नहीं करते हैं जब मञ्च पर करनेवाले थे और कोई शब्द शायद ही उनके मुँह से ऐसा होते हैं । निकला होगा जिसे बोजवेल ने उनके जीवनचरित में न अपने जीवन के वृत्तान्त और अनुभवों को हमें सीधेलिखा हो । न हर आदमी जान्सन हो सकता है और न सादे और स्वाभाविक रीति से वर्णन कर देना चाहिए । उसका यह सौभाग्य हो सकता है कि उसे बोज़वेल मिल आलिवर गोल्डस्मिथ ने लिखा है कि इसका ध्यान रखना जाय । अपने वार्तालाप से अपने को अपना जीवनचरित चाहिए कि यथार्थतायें विद्वत्ता के बोझ से दब न जायें । लिखने में बहुत सहायता नहीं मिलती है। यदि जान्सन हम सबको अपने इस कठिन कार्य में सफल समझना खद अपना जीवनचरित लिखने बैठते तो अपने वार्तालाप चाहिए, यदि एक व्यक्ति का भी गलत रास्ते पर पैर पड़ने से उतना फ़ायदा न उठा पाते जितना बोज़वेल ने उठाया से बच जाय और इसी तरह कुछ न कुछ अपने साहित्य है। हैज़लिट भी बड़ा काबिल बात-चीत करनेवाला था। की सेवा हो जाय । एक दफ़ स्वर्गीय गोपाल कृष्ण गोखले उसका यह बड़ा अभाग्य है कि उसके वार्तालाप का कोई ने एक दूसरे सम्बन्ध में कहा था कि वे लोग थोड़े दिनों भी अंश संसार के सामने नहीं है। उसे उसकी ज़िन्दगी बाद आवेंगे जो सफलता से देश की सेवा करेंगे। हम में क्या, अभी तक कोई ठीक नहीं समझ पाया है। सबको तो अपनी असफलताओं से ही सेवा करना है।'
हँसी की एक रेखा
लेखक, श्रीयुत कुँवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक'
गगन-अङ्क में बड़े चाव सेचन्द्र विहँसता देख । तेरे मधुर हास की उसमें
समझ एक लघु रेख ।
उछल उछल के मोद मनाता चाहक चित्त-चकोर । इकटक उसे देखते प्यारे।
हो जाता है भोर।
फिर विछोह-वेदना-पिशाची करती है बेचैन । थक जाते हैं रोते रोते
मुझ दुखिया के नैन ।
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ब्रिटिश
म्युजियम
लेखक,
श्रीयुत विश्वमोहन, बी० ए० (आनर्स लन्दन)
[ मुख्य द्वार (ब्रिटिश म्युजियम)]
न्दन एक बहुत ही बृहत् स्थान है। था। वह केवल दर्शकों के मनोरंजन के लिए मूर्ति की यहाँ देखने योग्य वस्तुओं का प्राकृति धारण कर लेता था। मैंने उसकी बड़ी प्रशंसा
अभाव नहीं। यदि आपको चित्र- की। यह प्रदर्शनी वास्तव में मनुष्यों की कारीगरी का | कला से प्रेम है तो 'टेट गैलरी' बहुत ही अनुपम उदाहरण है। भारतवासियों में केवल KES और 'नेश्नल गैलरी' देखें । यदि एक महात्मा गांधी की मृति इसमें रक्खी गई है। इन
- वैज्ञानिक चमत्कार देखना हो तो दर्शन-योग्य संस्थानों और शालाओं का सिरताज 'ब्रिटिश 'इम्पिरियल म्युज़ियम में भ्रमण करें। यदि मोम से बनी म्युजियम' है। इसी की कहानी पाठकों के सामने यहाँ रख वस्तुओं का अद्भुत संग्रह देखना हो तो मैडम टुसो की रहा हूँ। प्रदर्शनी देखें । यह संसार में एक अनोखी चीज़ है, जिसका ब्रिटिश म्युज़ियम' के नाम से अाज सभी पढ़े-लिखे जोड़ा बर्लिन, पेरिस या न्यूयार्क आदि स्थानों में भी व्यक्ति परिचित हैं। इसे पुस्तकों का खज़ाना नहीं, ज्ञान का नहीं मिलता। इसमें संसार के महान् व्यक्तियों के जीवना- ख़ज़ाना कहना चाहिए। यह कहना कुछ कठिन है कि यह कार चित्र रक्षित हैं । ये इतने सुन्दर बने हैं कि मोम की संसार का सबसे बड़ा संग्रहालय है, पर यह कहना अत्युक्ति. मूर्तियाँ हैं वा सजीव व्यक्ति हैं, यह कहना कठिन हो जाता पूर्ण नहीं है कि संसार में इसका जोड़ा नहीं-सा है।। है। जब मैं उसे पहले-पहल देखने गया तब मैं प्रवेशद्वार ब्रिटिश म्युज़ियम के उत्थान की कहानी बहुत ही पर सीढ़ियों से ऊपर जाने लगा। उसी के पास एक मूर्ति मनोरंजक और शिक्षाप्रद है। संसार की कोई भी वस्तु ड़ी थी। उसकी प्राकृति और भावभंगी से यही प्रतीत पैदा होते ही उच्चता के शिखर पर नहीं पहुँच जाती, बरन
वह दशकों से टिकट दिखलाने का प्राग्रह उसकी उत्पत्ति और विकास में कठिनाइयाँ होती हैं। यदि कर रही हो । मैं तो सचमुच पाकेट में हाथ डालकर टिकट उस वस्तु में जीवनशक्ति मौजूद है तो वह सौन्दर्य और निकालने लगा, पर शीघ्र ही पता चला कि वह कोई सजीव दृढ़ता प्राप्त कर जाती है। संरक्षक नहीं, बरन मोम की मूर्ति है। मैं अपने एक अँग- इस म्युजियम का जन्म सन् १७५३ में हुआ था। परन्तु रेज़ बालिका मित्र के साथ ऊपर पहुँचा। वहाँ मैंने एक इसका मूल खोजने के लिए हमें सत्रहवीं शताब्दी में जाना दूसरी मर्ति खड़ी देखी। मैं उसकी बनावट के चारों ओर होगा। विलियम कोरटेन्स पुरानी च घूमकर जाँच करने लगा। फिर जब मैं उसकी कला की बहुत प्रेमी थे। इन्होंने अपने पास से बहुत-से पुराने पुराने निपुणता की प्रशंसा अपने मित्र से कर रहा था, वह मूर्ति चित्रों, संखों, सिक्कों, अनेकानेक बहुमूल्य रत्नों का संग्रह कर मुस्कुरा दी। मैं तो अवाक रह गया। वह वास्तव में मोम रखा था। इस संग्रहालय के लिए डॉक्टर स्लोन को की मूर्ति नहीं थी, वह उस संस्था का एक सजीव संरक्षक उन्होंने अपना उक्त समचा संग्रह सन् १७०२ में दे दिया।
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संख्या ३ ]
डाक्टर स्लीन राजपरिवार के चिकित्सक थे और बहुत दिनों तक रायल सोसाइटी के
प्रेसीडेन्ट भी रहे थे । ये
भी मिस्र, ग्रीस, रोम, ब्रिटेन की पुरानी वस्तुओं
का संग्रह कर रहे थे ।
दोनों संग्रहों के मिल जाने
से इस संग्रहालय का
ब्रिटिश म्यूजियम
मूल्य बहुत बढ़ गया । कुछ ही दिनों के बाद याक्सफ़ोर्ड के अल रावर्ट हाली और सर रावर्ट काटन के ग्रमूल्य पुस्तकालय भी इस संग्रहालय में मिला दिये गये । इंग्लैंड के सम्राट् द्वितीय जार्ज भी पुस्तकों के अतिशय प्रेमी थे । उन्होंने बहुत-सी पुस्तकों का संग्रह कर रक्खा था। राजपरिवार की जो पुस्तकें पीढ़ी दर पीढ़ी से एकत्र होती आ रही थीं वे सबकी सब उन्होंने उदारतापूर्वक इस राष्ट्रीय संग्रहालय को समर्पित कर दीं।
[ किंग्स लाइब्रेरी ( ब्रिटिश म्युजियम ) ]
ब्रिटिश म्युज़ियम का स्थान पहले मान्टेगू हाउस, ब्लूम्सवेरी में था। पर इस बड़े संग्रह के लिए उसमें काफी स्थान न होने के कारण एक नये स्थान की श्रावश्यकता हुई। तब यह नई इमारत बनी जो अब 'ब्रिटिश म्युजियम' के नाम से विख्यात है। इसका सामने का विशाल भाग जो चवालीस स्तम्भों पर स्थित है, इसकी महत्ता का परिचायक है । इसकी बनावट ग्रीक शैली की है और इसके ललाट पर 'सभ्यता की प्रगति' का चित्र खुदा हुआ है। इसके देखने पर एक बार मस्तक झुक जाता है । यदि यथार्थ में कोई मन्दिर है जहाँ पूजा की जा सकती है तो वह यही है ।
पर पाठक यह न समझें कि यह ग्रमर मन्दिर एक रोज़ में बना था अथवा सवों की सदिच्छा से बना था । ऐसे स्थान सिवा खर्च के ग्रामदनी के द्वार नहीं होते । पुरानी चीज़ों के खरीदने और उन्हें सुन्दर रूप से रखने में बहुत व्यय करना पड़ता है। प्रारम्भ में इसके लिए ब्रिटिश
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म्युजियम को एक लाख पौंड की आवश्यकता पड़ी। पार्लियामेंट यह रकम देने को तैयार न थी । सोचा गया, यह रकम जुया द्वारा उपार्जित की जाय। कुछ बदनामी तो हो गई, पर काम चल गया ।
पहले इस संस्था से सहानुभूति रखनेवाले बहुत कम लोग थे । वे समझते थे कि पुस्तकालयों वा संग्रहालयों में द्रव्य खर्च करना व्यर्थ में पैसा गँवाना है । सन् १८३३ में पार्लियामेंट के एक सदस्य ने 'हाउस आफ कामन्स' में भाषण करते हुए कहा था - " पूछना चाहता हूँ, ब्रिटिश म्युज़ियम से किसको क्या नफ़ा है? शायद इससे कुछ ना है तो उन्हीं को जो वहाँ गये, और किसी को भी नहीं । वे लोग जो वहाँ जाकर इससे ग्रानन्द उठाते हैं वे लोग ही इसका खर्च सँभालें । महाजन और किसान लोग इसका खर्च क्यों दें जब यह केवल ग्रमीरों और कुछ जिज्ञामुयों के मन बहलाव का स्थान है ? मैं नहीं जानता, ब्रिटिश म्यूजियम कहाँ है । मैं यह भी नहीं जानता, उसमें क्या है । न मुझे इन बातों के जानने की कुछ इच्छा ही है । ब्रिटिश म्यूजियम के खर्च का सवाल तो सरकार के लिए सबसे व्यर्थ की बात है और जब मुझे इस निन्दा की बात की ओर ध्यान दिलाना पड़ा तब इससे बढ़कर और शर्म की बात क्या हो सकती है ?"
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सरस्वती
[भाग ३८
पार्लियामेंट के इस सदस्य के इस प्रकार अंगारे उगलने 'किंगहम पैलेस' में था और इसके रखने में प्रायः दो का कारण भी था। उस समय जनता के प्रवेश इत्यादि में हज़ार पौंड का सालाना खर्च था। जब चतुर्थ जार्ज गद्दी बहुत कठिनाइयाँ होती थीं। पहले यह कायदा था कि पर बैठे तब उन्हें यह ख़र्च नापसन्द हुा । यह भी पता विद्याशील और जिज्ञासु हो म्युज़ियम के भीतर जा सकते चला कि यदि वे चाहें तो रूस के ज़ार उनके समचे संग्रह थे। उन्हें एक प्रार्थनापत्र लिखकर द्वारपाल को देना को बड़ा मूल्य देकर खरीद सकते हैं । आखिर सब बात पड़ता था। फिर संग्रहालय-रक्षक इसका निर्णय करते थे पक्की भी हो गई । पीछे होम सेक्रेटरी को मालूम हुआ कि वह व्यक्ति म्युज़ियम के भीतर जाने लायक है या नहीं। और देश भर में इस बात की बड़ी निन्दा होने लगी । पर पक्ष में निर्णय होने पर उसे टिकट मिल जाता था। दस चतुर्थ जार्ज को अपने ऐश-आराम के लिए रुपयों की अादमी से ज्यादा एक घंटे के भीतर प्रविष्ट नहीं किये बहुत ज़रूरत थी। उन्होंने कहा कि यदि देश उन्हें उतना जाते थे, और पाँच आदमी से ज्यादा का एक समूह नहीं ही रुपया दे दे जितना रूस के ज़ार उन्हें दे रहे हैं तो वे बन सकता था। फिर वे एक विभाग में एक घंटे से ज़्यादा उसे परदेश न भेजकर अपने देश को ही दे देंगे। आखिर देर तक ठहर नहीं सकते थे। द्रव्य-विभाग में बिना संग्रहा- हुअा भी ऐसा ही। सारे देश ने मिलकर आवश्यकता भर लय के रक्षक के नहीं घूम सकते थे। और द्वारपाल को रुपया जमा कर लिया और इस अमूल्य रत्न को विदेश यह अधिकार था कि वह किसी व्यक्ति को किसी अनुचित जाने से बचा लिया। अब तो बीसवीं शताब्दी में लोग व्यवहार के कारण बाहर निकाल सकता था।
पुरानी चीज़ों का महत्त्व इतना समझने लगे हैं कि उनके ऐसी बाधात्रों के कारण यदि जनता उसकी ओर लिए कोई भी मूल्य अधिक नहीं समझा जाता। प्रायः आकृष्ट न हो तो कोई आश्चर्य नहीं । धीरे धीरे प्रवेश- तीन-चार वर्ष हुए कि अँगरेज़-सरकार ने रूस-सरकार से
होते गये। सन् १८१० में यह नियम बना एक बाइबिल एक लाख पोड़ यानी करीब चौदह लाख कि सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को म्युज़ियम जनता के रुपये में खरीदी है। यह बाइबिल संसार में सबसे पुरानी लिए चार बजे शाम तक खुला रहे और कोई भी भद्र बाइबिल समझी जाती है। सेवियट रूस जब ईश्वरविहीन व्यक्ति उसके भीतर जा सकता है। अब दर्शकों की संख्या हो गया तब उसकी नज़रों में बाइबिल का मूल्य जाता दिनोंदिन बढ़ने लगी । सन् १८२८ में प्रायः अस्सी हज़ार रहा ! इस कारण उसने एक बाइबिल के बदले १४ लाख मनुष्यों ने इसका निरीक्षण किया। सन् १८२८ में प्रायः रुपये लेना पसन्द किया। डेढ़ लाख और सन् १८४८ में प्रायः नौ लाख मनुष्यों ने आज ब्रिटिश म्युज़ियम के कारण अँगरेज़ी-साहित्य इसके निरीक्षण से लाभ उठाया।
पर कितना नया प्रकाश पड़ा है, इसे सभी अँगरेज़ीसन् १८४८ योरप के लिए क्रांतिकाल माना जाता है। साहित्य-वेत्ता जानते हैं। पर इसका सबसे हृदयग्राही और ऐसा मालूम हुआ कि इंग्लैंड के चार्टिस्ट लोग जो अपने मनोरंजक विभाग 'हस्तलिखित-ग्रन्थ-भवन' है। इसमें को शारीरिक बलवाला दल कहते थे, इसका विध्वंस कर प्रायः सभी बड़े बड़े लेखकों के हाथ के लिखे ग्रन्थ मौजद देंगे। इसके बचाने के लिए सेना इत्यादि का आयोजन हैं। जब हम उनकी हस्तलिपि को देखते हैं, उनके हुआ। पर इस पर किसी ने आघात नहीं किया। तब से संशोधनों को देखते हैं, तब वे बड़े बड़े कवि और इसकी दिनोंदिन उन्नति होती रही है। अब तो दिखाने के ग्रन्थकार हम लोगों-सा प्रतीत होने लगते हैं। इससे उनके लिए सदा प्रदर्शक रहते हैं और समय समय पर इसमें प्रति हमारी श्रद्धा नहीं घटती, बरन हममें साहस का बड़े बड़े विद्वानों के व्याख्यान भी हुआ करते हैं। उद्भव होता है, हम अपनी शक्ति का अनुभव करने लगते
इसमें चीन, जापान, हिन्दुस्तान, अरब, ईरान इत्यादि हैं। हमें अपनी दुर्बलता पर ग्लानि तो ज़रूर होती है, पर सभी देशों के पुस्तकों का संग्रह है, किन्तु इसका सबसे बड़ा निराशा नहीं होती। पुस्तकालय 'किंग्स लाइब्रेरी' के नाम से विख्यात है । इसे इसमें बड़े बड़े पुरुषों जैसे-रिचर्ड, ड्यूक अाफ़ तृतीय जार्ज ने एकत्र किया था। इसका स्थान पहले ग्लास्टर, ड्यूक अाफ़ बकिंगहम, एन बोलीन, कैनमर,
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संख्या ३]
ब्रिटिश म्युजियम
BHAI
लाटमर. मर टामस मर के हस्ताक्षर देखने का मिलने है। बोन मरी. महारानी
लि जवथ. सर वाल्टर रेले, सरफिलिप सिडनी इत्यादि की जिनके नाम इतिहास में अमिट है चिटयाँ इसमें मौजूद हैं। काटम की रानी मेरी की भयानक कहानी जो अपने मौन्दर्य के कारण युवकों का स्वप्न हो गई थी और कोमलता के कारण लोगों को निन्दा की वस्तु थी और जो अन्त में गड़ाने का शिकार बनाई गई थी. अाज भी हृदय को व्याकुल कर देती है।
वाचनालय (ब्रिटिश म्युज़ियम)] शेक्सपियर का हस्ताक्षर एक दस्तावेज़ पर देखकर अात्मा यही कह उठती है, क्या की मृर्तियाँ, लोहा, सोना, चांदी इत्यादि के बने अाभपण, यही शेक्सपियर है जिसकी सृष्टि संसार में कोई सानी उनके बर्तनों अथवा खिलौनों से भी मानव सभ्यता पर पूरा नहीं रखती । लाइव और हेस्टिंगस की चिट्टियाँ अब भी प्रकाश पड़ता है। इन सबों का भी ब्रिटिश म्युज़ियम में वर्तमान है, जिन्होंने भारत में अँगरेज़ी-सरकार की वृहत् संग्रह है। यदि आपको पत्थर-युग वा त्रौज़-युग नींव डाली थी। एक शीशे के बक्स से दूसरे की ग्रोर वा लोहा-युग का अध्ययन करना हो तो उन विभागों में भ्रमण जाइए, अतीत काल अतीत नहीं रह जाता, वर्तमान हो करें। सचनुच में यह म्युज़ियन ज्ञान का समुद्र है, जिसका उठता है और यही मालूम होने लगता है मानो ये सभी श्राप जितना ही अधिक मंथन करेंगे, उतने ही सुन्दर रत्न व्यक्ति अपने ग्वाम परिचय के हैं ।
उससे पायेंगे। मादित्य विभाग के अलावा इसके और भी विभाग हैं, इसका अध्ययन स्थान भी जिसे रीडिङ्ग-रूम कहते जो उतना ही शिक्षाप्रद और मनोरञ्जक है। द्रव्य-विभाग है, बड़े ही माके का है। जिम समय यह म्युज़ियम प्रारम्भ में चले जाइए. द्रव्यों के स्वल्प और बनावट का इतिहास हया था, उस समय उसमें पढ़ने के लिए कोई खास स्थान आप बहुन ग्रासानी से जान सकेंगे । छपाई का इतिहास नहीं था । एक कमरे में एक टेबिल और वीस कुर्सियां रख जानना हो तो छपाई विभाग में चले जायँ । प्रारम्भ से दी गई थीं और उतना ही स्थान यथेष्ट समझा जाता था। लेकर अब तक हर तरह की छपाई के नभने ग्राप देग्य बड़े-बड़े दर्शकों में कवि ग्रे भी थे, पर अठारहवीं शताब्दी लगे। किताबों के बाँधने का तरीका देखना हो अथवा के अन्त तक पढ़नेवालों की संख्या प्रतिदिन ग्राधा दर्जन चुस्तकों का मचित्र बनाने का सिलसिला देखना हो तो से ज्यादा न थी। और बड़े-बड़े लोगों में जो म्युजियम आर वहाँ भलीभाँति देख सकेंगे।
को काम में लाये थे, सर वालटर स्काट, हेनरी ब्रम, यह तो रही नाहित्य सम्बन्धी बातें । पर सभ्यता का चाल्स लेम्ब, हेनरी हैलम थे। स्त्रियों में केवल मिसेज ज्ञान केवल पुस्तकों से ही नहीं होता, बरन कला कौशल मकाले का ही नाम पाया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी से
से भी उसका ज्ञान प्राप्त होता है । ग्रीस और रोम की पत्थर पड़नेवालों की संख्या बहुत बढ़ने लगी और एक खास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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२३८
- सरस्वती
[भाग ३८
अलग हाल की आवश्यकता पड़ी। अतएव एक बड़ा . उन्हें ब्रिटिश म्युजियम के रीडिङ्ग-रूम के लिए टिकट नहीं हाल बनवाया गया जो अब तक काम में आ रहा है। मिलता। पर एक बार जिसे भीतर जाने का अवसर प्राप्त ___यह हाल गोलाकार है। चारों ओर किताबों की अल- हो जाता है तो वह मानो ज्ञान के महासागर में उतर जाता मारियाँ हैं और हर एक विभाग में ग्रन्थकारों के नाम है। उसमें किताबों की अलमारियाँ इतनी हैं कि यदि वे लिखे हैं। हाल के बीच में सुपरिटेंडेंट और उनके एक-एक कर पाँत में खड़ी की जायँ तो उनकी पंक्ति छियालिस सहायक कर्मचारियों का स्थान है। एक टेबिल पर पुस्तकों मील लम्बी हो जायगी। पर प्रबन्ध इतना सुन्दर है और का बृहत् सूचीपत्र है जिसमें हर महीने नई आनेवाली वे सब यहाँ इतनी शृंखलाबद्ध रक्खी गई हैं कि बात की पुस्तकों का नाम जोड़ा जाता है। अब तो पार्लियामेंट का बात में जो पुस्तक आप चाहें वह आपके सम्मुख लाई जा कानून हो गया है कि जो भी नई किताब छपे उसकी एक सकती है। जिन पुस्तकों को श्रापको दूसरे दिन ज़रूरत हो प्रति म्युज़ियम में अवश्य भेजी जाय । इसके अलावा और यदि आप एक पुर्जा सुपरिंटेंडेंट को दे दें तो वे पुस्तके कुछ दान-द्वारा, कुछ ख़रीद-द्वारा इसका कोष दिन-रात उचित समय पर आपके टेबिल पर मौजूद रहेंगी। इसके बढ़ता ही रहता है। इसलिए सूची-पत्र का आखिरी फारम अलावा एक 'नार्थ लाइब्रेरी है, जहाँ श्राप हस्तलिपि तक सम्पूर्ण रहना प्रायः असम्भव-सा है। इसकी उपयो- अथवा ऐसी पुस्तकों का अध्ययन कर सकते हैं जो अपूर्ण गिता इस समय इतनी बढ़ गई है कि जहाँ पहले आधे बँधाई या अन्यान्य कारणों से रीडिंग-रूम में लाने योग्य दर्जन लोग ही इसको काम में लाते थे, अब करीब पाँच नहीं हैं। सौ व्यक्तियों के लिए भी यहाँ यथेष्ट स्थान नहीं है। यहाँ ब्रिटिश म्युज़ियम सचमुच में ज्ञान का अनन्य भाण्डार देश-विदेश के विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं । यदि यह है। उसमें हर एक आदमी की शिक्षा और मनोरञ्जन का पाठ्य-स्थान खुले आम छोड़ दिया जाता तो विद्वानों का सामान है, जो यह समझते हों कि रोटी-दाल के परे भी कार्य वहाँ उचित रीति से नहीं चल सकता था। जब कोई कोई अपूर्व वस्तु है। यह सम्भव नहीं कि कोई आदमी श्रादमी काई गम्भीर विषय लेकर उसका अध्ययन करने उसके भीतर जाय और बिना कुछ सीखे उसके बाहर लगता है तब वह किसी प्रकार की बाधा वा अड़चन खुशी चला आये। . से बरदाश्त नहीं करता। इसलिए हर एक को एक अलग किसी देश की सभ्यता केवल लोगों के आचरण और टेबिल और एक कुसी मिलती है और स्थानाभाव के प्रासादों ही पर निर्भर नहीं रहती, बरन उसके ज्ञानप्रेम पर कारण उन्हीं लोगों को प्रवेश की आज्ञा दी जाती है जिनके भी। ज्ञानप्रेम का परिचायक जैसा कि एक संग्रहालय है. अध्ययन की सामग्री किसी और जगह नहीं मिल सकती। वैसा और कोई वस्तु नहीं। यदि सचमुच हम लोग ज्ञान पहले एक आवेदन-पत्र देना पड़ता है, जिसमें अपने के पुजारी हैं तो एक ऐसा मन्दिर बनावे, जहाँ सभी छोटे अध्ययन के विषय और पुस्तकों का नाम देना पड़ता है। बड़े जाकर अपनी श्रद्धाञ्जलि चढ़ा सकें और ज्ञान का वर यदि वे पुस्तके किसी और पुस्तकालय में मिल जायँ तो पा सकें।
इसका हमको कुछ सोच न हो
यदि जीवन में हों अनेक व्यथायें । सुख की यदि खोज करेंगे नहीं __सुख-दायक होंगी हमें विपदायें ।
यदि चाहते हैं कि मनुष्य बनें लेखक, श्रीयुत राजाराम खरे
__इस मंत्र को भूल कभी न भुलायें । "सुख ही सुख है सब जो कुछ है
दुख है इसको हम जान न पायें ।।"
दुख है इसको हम जान न पायें
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हिन्दू स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार
लेखक, श्रीयुत कमलाकान्त वर्मा, बी० ए०,
डाक्टर देशमुख ने असेम्बली में हिन्दू-स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार सम्बन्धी बिल उपस्थित करके स्त्रियों के तत्सम्बन्धी अधिकारों पर चर्चा करने का एक अच्छा अवसर उपस्थित कर दिया है । इस लेख के लेखक महोदय ने इस विषय की बड़े अच्छे ढंग से विवेचना की है और इस जटिल विषय पर पूर्ण प्रकाश डाला है ।
न्द्रीय व्यवस्थापिका सभा की इस बैठक में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि-कोण से एक बड़े महत्त्व के विषय पर गवेषणा की जायगी, और वह है डाक्टर देशमुख का हिन्दूस्त्रियों का साम्पत्तिक अधिकार
सम्बन्धी बिल | इस बिल पर जनता का मत जानने का प्रयत्न किया गया है और अभी तक जो विचार संग्रह हुआ है उससे इस नये विधान को बहुत कुछ प्रोत्साहन मिलता है । एक सौ उनतालीस सम्मतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें आठ विरुद्ध हैं, एक तटस्थ है और शेष एक सौ तीस पक्ष में हैं ।
यह बिल देखने में जितना छोटा है, इसका परिणाम उतना ही सुदूरव्यापी होगा। इसके विषय में सर सी० पी० रामस्वामी ऐयर का मत है कि "यह विषय बहुत जटिल है। स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए हमें सबसे पहले हिन्दू पारिवारिक जीवन की भावना में भारी परिवर्तन करना पड़ेगा | जब तक विशेषरूप से नियोजित विशेषज्ञों की एक समिति इस बिल को अच्छी तरह समझ-बूझ कर इसमें सुधार नहीं करेगी, मुझे इसकी सफलता में सन्देह है । "
इस बिल के पास जाने से वर्तमान दशा में कौनसे परिवर्तन हो जायँगे, सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से उन परिवर्तनों का क्या महत्त्व होगा और इसके क्या गुण-दोष हैं, इस सबकी समीक्षा करने के पहले यह जानना बहुत ज़रूरी है कि हिन्दू स्त्रियों का वर्तमान सम्पत्त्यधिकार क्या है और उस अधिकार के सीमा-बंधन के कारण क्या हैं । यहाँ हम पहले उन अधिकारों का विवेचन करेंगे ।
बी० एल०
किसी भी व्यक्ति का पूर्ण सम्पत्त्यधिकार तीन अंगों में बाँटा जा सकता है - (१) प्राप्ति, (२) उपभोग,
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( ३ ) और पृथक्करण । यदि ये तीनों अधिकार किसी के पास हैं तो उसका सम्पत्ति पर पूरा अधिकार समझा जाता है। यदि किसी भी अंग की कमी हुई तो अधिकार सीमित समझा जाता है। देखना यह है कि हिन्दू स्त्रियों को ये तीनों अधिकार पूर्णरूप से प्राप्त हैं या नहीं ।
इस विषय पर विचार करने के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि हिन्दू-व्यवस्था - शास्त्र क्या है । वास्तव में इस शास्त्र के तीन प्रधान स्रोत हैं- श्रुति, स्मृति और आचार । श्रुति चारों वेदों को कहते हैं । इनका व्यवस्था शास्त्र से बहुत कम सम्बन्ध है । स्मृति धर्म शास्त्र को कहते हैं। तीन स्मृतियाँ प्रमुख हैं- मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और नारदस्मृति । इन स्मृतियों पर बहुत बड़े बड़े निबन्ध लिखे गये हैं और वर्तमान सारा हिन्दू-व्यवस्था - शास्त्र इन्हीं निबन्धों पर स्थित है । निबन्धकारों में सबसे उच्च स्थान विज्ञानेश्वर और जीमूतवाहन का है। विज्ञानेश्वर के 'मिताक्षरा' और जीमूतवाहन के 'दायभाग' पर ही सारा हिन्दूव्यवस्था - शास्त्र अवलंबित है । दायभाग बंगाल में सर्वमान्य है, और मिताक्षरा मिथिला, महाराष्ट्र, बनारस और मदरास में । इस प्रकार हिन्दू-व्यवस्था - शास्त्र के दो मत हैं - (१) दायभाग और (२) मिताक्षरा । मिताक्षरा की चार उपशाखायें
(१) महाराष्ट्र- मत जो बम्बई, गुजरात आदि में प्रचलित है, (२) मैथिल - मत जो मिथिला में माना जाता है, (३) काशी- मत जो संयुक्त प्रान्त और उसके आस-पास व्यवहृत होता है और (४) द्राविड़ - मत जो मदरास में स्वीकृत है ।
स्त्रियों की प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति को साधारण बोलचाल की भाषा में 'स्त्रीधन' कह सकते हैं । किन्तु दुर्भाग्यवश शास्त्रकारों ने 'स्त्री-धन' शब्द को विशिष्टार्थ में ही प्रयुक्त किया है और उसे केवल उन्हीं सम्पत्तियों तक परिमित रक्खा
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है जिन पर स्त्रियों का पूर्ण अधिकार रहता है। परिमित ४-निर्वाह करने के बदले में दी हुई सम्पत्ति । अधिकारवाली सम्पत्तियों को शास्त्रकारों ने स्त्री-धन नहीं कहा ५-मीरास की सम्पत्ति । है। इसलिए अपनी सुविधा के लिए हम यहाँ दो प्रकार का ६-स्वोपार्जित सम्पत्ति। स्त्री-धन मानेंगे -(१) पूर्ण स्त्री-धन और (२) परिमित स्त्री- ७-किसी अधिकार का निपटारा कर लेने पर मिली धन । पूर्ण स्त्री-धन वह है जिस पर स्त्री का पूरा अधिकार हुई सम्पत्ति । हो और परिमित स्त्री-धन वह है जिस पर उसका अधिकार ८-विपरीताधिकार से मिली हुई सम्पत्ति । किसी अंश में परिमित हो । अब यह प्रश्न हो सकता है ९–पूर्ण स्त्री-धन के मूल्य अथवा आय से खरीदी कि व्यावहारिक दृष्टि से 'पूर्ण' और 'परिमित' स्त्री-धन में गई सम्पत्ति । क्या अन्तर है। इसका उत्तर यह है कि यह अन्तर दो इन नौ प्रकार की सम्पत्तियों में कुछ तो पूर्ण स्त्री-धन हैं प्रकार से महत्त्वपूर्ण है
__ और कुछ परिमित । अब हम इनका यहाँ क्रमशः विवेचन (१) प्रत्येक प्रकार का पूर्ण स्त्री-धन किसी स्त्री के करेंगे। मरने के बाद उसके अपने उत्तराधिकारियों को मिलता १-सम्बन्धियों से भेट या वसीयत में मिली हुई है । परिमित स्त्री-धन के विषय में ऐसी बात नहीं होती। सम्पत्ति को 'सौदायिक' कहते हैं । यह कई प्रकार की है ।
(२) अपने पूर्ण स्त्री-धन की अनन्य स्वामिनी होने अध्याग्नि, अध्यावाहनिक, पादवंदनिक, अन्वधेयेवक, आधिदके कारण स्त्री उसका जिस तरह चाहे उपभोग कर सकती निक आदि पूर्ण स्त्री-धन हैं। पर इस नियम का एक है और जैसे चाहे उसे हटा सकती है। यद्यपि सधवावस्था अपवाद यह है कि दाय-भाग के मतानुसार पति की दी में उसे किसी किसी हालत में अपने पूर्ण स्त्री-धन का पूरा हुई स्थावर सम्पत्ति पूर्ण स्त्री-धन नहीं समझी जाती। अधिकार नहीं रहता है, किन्तु विधवावस्था में उसे उस पर २-असम्बन्धियों से मिली हुई सम्पत्ति के तीन पूरा अधिकार मिल जाता है। परिमित स्त्री-धन के सम्बन्ध भेद हैंमें ऐसी बात नहीं है। उस पर उसका अधिकार परिमित (१) कौमार्यावस्था में मिली हुई, (२) सधवावस्था है और वह जैसे चाहे उसे हटा नहीं सकती।
में मिली हुई और (३) विधवावस्था में मिली अब प्रश्न यह है कि स्त्री-धन का 'पूर्ण' या 'परिमित' हुई। (१) कौमार्यावस्था में मिली हुई सम्पत्ति पूर्ण होना किन कारणों पर निर्भर है। कोई भी सम्पत्ति 'पूर्ण स्त्री-धन है और सभी मतों के अनुसार स्त्री का उस स्त्री-धन है या नहीं, यह तीन बातों पर अवलंबित है- पर पूर्णाधिकार है।
१-स्त्री के पास सम्पत्ति किस प्रकार आई ? (२) सधवावस्था में अध्यामि (अर्थात् विवाहमंडप में
२-सम्पत्ति मिलने के समय वह किस अवस्था में विवाहाग्नि के सामने मिली हुई) और अध्यावाहनिक थी, अर्थात् वह कुमारी थी या सधवा या विधवा ?
(अर्थात् वधु-प्रवेश के समय मिली हुई) सम्पत्ति ३-वह हिन्दू-व्यवस्था-शास्त्र के किस मत से शासित प्रत्येक मत के अनुसार पूर्ण स्त्री-धन है। सधवावस्था होती है।
में असम्बन्धियों से दूसरे अवसर पर मिली हुई सम्पत्ति __पहले यह देखना है कि स्त्री को कितने प्रकार से सम्पत्ति महाराष्ट्र, काशी और द्राविड़ के मतों के अनुसार पूर्ण मिल सकती है और उसका यह अधिकार कहाँ तक सीमित स्त्री-धन है। दायभाग और मिथिला के मतानुसार वह है । स्त्री को सम्पत्ति नौ प्रकार से मिल सकती है
परिमित स्त्री-धन है। दायभाग के अनुसार ऐसी सम्पत्ति १-अपने सम्बन्धियों से भेंट में या वसीयत में मिली भी पति के मरने के बाद पूर्ण स्त्री-धन हो जाती है। हुई सम्पत्ति।
मिथिला का मत इस विषय पर अभी निश्चित नहीं है। ___२-असम्बन्धियों से भेंट में या वसीयत में मिली (३) विधवावस्था में मिली हुई सम्पत्ति पूर्ण स्त्री-धन है। हुई सम्पत्ति ।
सभी मतों के अनुसार स्त्री उसकी पूर्णाधिका३-बँटवारे में मिली हुई सम्पत्ति ।
रिणी है।
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हिन्दू-स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार
संख्या ३ ]
३ -- बँटवारे में मिली हुई सम्पत्ति किसी भी मत के अनुसार स्त्री का पूर्ण स्त्री-धन नहीं है। सभी मतों के भिन्न भिन्न कारण हैं । फिर भी सबका निष्कर्ष एक ही है।
I
४ - निर्वाह करने के बदले में स्त्री को दी गई सम्पत्ति को 'वृत्ति' कहते हैं । यह सभी अवस्था में और सभी मतों के अनुसार पूर्ण स्त्री-धन समझी जाती है ।
५ - मीरास की सम्पत्ति के दो भेद हैं। स्त्री दो प्रकार की सम्पत्तियों की उत्तराधिकारिणी हो सकती है- (१) किसी पुरुष की सम्पत्ति जैसे; पति, पिता, पुत्र इत्यादि की और (२) किसी स्त्री की सम्पत्ति; जैसे, माता, पुत्री इत्यादि की।
बंगाल, काशी, मिथिला और मदरास के मतानुसार मीरास की सम्पत्ति किसी भी अवस्था में पूर्ण स्त्री-धन नहीं हो सकती। किसी भी पुरुष या स्त्री से विरासत में मिली हुई सम्पत्ति पर स्त्री का केवल सीमित अधिकार रहता है और वह उसकी स्वामिनी अपने जीवन भर ही रह सकती है। उसकी मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति अपने पहले स्वामी या स्वामिनी के उत्तराधिकारियों के पास ही लौट जाती है। महाराष्ट्र-मत इससे भिन्न है । वहाँ किसी स्त्री की सम्पत्ति किसी स्त्री को मिलने पर वह उसकी पूर्णाधिकारिणी हो जाती है और उसकी मृत्यु के उपरान्त वह सम्पत्ति उसकी पूर्ण स्त्री-धन-सम्पत्तियों की तरह उसके उत्तराधिकारियों को ही मिलती है । पुरुष से मिली हुई सम्पत्ति के दो भेद हैं-- ( १ ) उन पुरुषों से मिली हुई सम्पत्ति जिनके गोत्र में वह अपने विवाह के बाद चली श्राती है; जैसे, पति, पुत्र, प्रपौत्र इत्यादि से । (२) उन पुरुषों से मिली हुई सम्पत्ति जिनके गोत्र में उसका जन्म हुा है; जैसे, पिता, भाई, नाना इत्यादि से । पहले प्रकार की सम्पत्ति पूर्ण स्त्री-धम नहीं समझी जाती और उस पर स्त्री का परिमिताधिकार मात्र है । दूसरे प्रकार की सम्पत्ति महाराष्ट्र मत के अनुसार पूर्ण स्त्रीधन मानी जाती है और arat मृत्यु के उपरान्त उसके उत्तराधिकारियों को वह सम्पत्ति मिलती है ।
६ – स्वोपार्जित सम्पत्ति महाराष्ट्र, काशी और मदरास के मतानुसार स्त्री का पूर्ण स्त्री- धन है, चाहे वह कौमार्यावस्था में प्राप्त की गई हो या सधवावस्था में या विधवावस्था में। किन्तु मिथिला और बंगाल के मत भिन्न हैं । वहाँ कौमार्यावस्था और विधवावस्था में प्राप्त
फा. ५.
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की गई सम्पत्ति पूर्ण स्त्री-धन है, किन्तु सधवावस्था में स्त्री का स्वोपार्जित धन भी पति का हो जाता है। बंगाल में यदि पति स्त्री के पहले मर जाय तो स्त्री की वह सम्पत्ति पूर्ण स्त्री धन हो जायगी और उसके उत्तराधिकारी ही उसका उपभोग करेंगे। मिथिला में ऐसा है या नहीं, यह कहना कठिन है ।
शेष तीन प्रकार की सम्पत्तियाँ, अर्थात् ( ७ ) - अधिकार का निपटारा करने से मिली हुई, (८) विपरीताधिकार से मिली हुई और (९) स्त्रीधन के मूल्य अथवा श्राय से ख़रीदी हुई सम्पत्ति सभी मतों के अनुसार और प्रत्येक अवस्था में स्त्री का पूर्ण स्त्री-धन है और उस पर उसका अधिकार परिमित है
|
अब यह देखना है कि ऐसी भी कोई सम्पत्ति है जो पुरुष को मिल सकती है, किन्तु स्त्री को नहीं ।
मिताक्षरा के अनुसार किसी भी हिन्दू की सम्पत्ति दो भागों में बाँटी जा सकती - ( १ ) संयुक्त पारिवारिक संपत्ति और (२) पृथक् सम्पत्ति ।
(१) संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति वह है जिसमें परिवार के
पुरुष या उनके पुत्र ही भाग ले सकते हैं और जिसका उत्तराधिकारित्व किसी नियमित क्रम से नहीं, किन्तु उत्तर- जीविता पर निर्भर है । उदाहरण के लिए, क र ख दो भाई हैं और दोनों की स्त्रियाँ जीवित हैं। पर जब क मर जाता है तब समस्त सम्पत्ति a को मिल जाती है और क की स्त्री को कुछ भी नहीं मिलता ।
(२) पृथक् सम्पत्ति वह है जिस पर किसी व्यक्ति का विशेषाधिकार हो । उसकी मृत्यु के बाद उसकी वह सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को विहित क्रम से मिलेगी ।
दायभाग के अनुसार भी सम्पत्ति के यही दो भेद हैं । अन्तर इतना ही है कि उसमें संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति उत्तर - जीविता के अनुसार नहीं मिलती। उदाहरण के लिए यदि क र ख दो भाई हैं और दोनों की स्त्रियाँ जीवित हैं तो क की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति उसकी स्त्री को ही मिलेगी, ख को नहीं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन दोनों प्रकार की सम्पत्तियों के सम्बन्ध में स्त्रियों का क्या स्थान है ।
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सरस्वती
[ भाग ३८
(१) संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति में मिताक्षरा के मतानुसार महाराष्ट्र में भी उपर्युक्त सारी स्त्रियाँ उत्तराधिकारिणी
स्त्री को कुछ भी नहीं मिलता, चाहे वह माता हो, मानी जाती हैं । उनके सिवा ममेरी बहन, मौसी, फूश्रा, पुत्री हो या धर्मपत्नी हो । सब कुछ पुरुष को ही मिलता चचेरी बहन इत्यादि भी सूची में रक्खी गई हैं। है। दायभाग के अनुसार भी पुरुष के रहने पर स्त्री को भिन्न भिन्न स्थानों की स्त्री-उत्तराधिकारिणियों की कुछ नहीं मिलता। पुरुष के मरने पर यदि वह उसकी सूची देखने से अन्त में यह ज्ञात होता है कि इनकी संख्या उत्तराधिकारिणी हो सकेगी तो मिलेगा अन्यथा नहीं। कितनी कम है और इनके सम्पत्ति पाने की कितनी कम एक उदाहरण लीजिए। क के एक पुत्र है और एक सम्भावना रहती है। हिन्दू समाज की सम्पत्ति का बहुत कन्या। क के मरने के बाद सारी सम्पत्ति उसके पुत्र बड़ा भाग संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति है और उसमें स्त्रियों को मिल जाती है, कन्या को कुछ भी नहीं मिलता। को कोई भाग नहीं मिलता। दूसरा भाग उनकी पृथक यदि वह पुत्र भी मर जाय और संयुक्त परिवार में सम्पत्ति है। पर यह सम्पत्ति बहुत नहीं है, और जो कुछ है दूसरा कोई पुरुष न हो तो सम्पत्ति कन्या को मिलेगी, वह भी पुरुषों में ही बहुधा बँट जाती है। स्त्रियाँ पुरुषों , किन्तु वह इसलिए नहीं कि वह उस परिवार की है, के साथ साथ नहीं, किन्तु उनके बाद उस सम्पत्ति की किन्तु इसलिए कि वह अपने भाई की उत्तराधिका- अधिकारिणी होती हैं। इस प्रकार इस सम्पत्ति से भी वे रिणी है। इस प्रकार हमें ज्ञात होता है कि जहाँ प्रायः वञ्चित ही रहती हैं। फल यह होता है कि पारिवारिक तक पारिवारिक सम्पत्ति से सम्बन्ध है, स्त्रियों का सम्पत्ति का प्रायः सारा हिस्सा उन लोगों के अधिकार से स्थान अत्यन्त नगण्य है और वे पारिवारिक उत्तरा- सदा बाहर ही रहता है। - धिकार की परिधि के बाहर रक्खी गई हैं।
अब यह देखना है कि उत्तराधिकारिणी होने के बाद (२) पृथक् सम्पत्ति पाने का थोड़ा बहुत अधिकार स्त्रियों स्त्री का सम्पत्ति पर क्या अधिकार रहता है तथा अधिकार
को दिया गया है, किन्तु वह भी बहुत परिमित है। के परिमित होने का अर्थ क्या है। उत्तराधिकारियों की सूची में बहुत थोड़ी स्त्रियों के पूर्ण स्त्री-धन के विषय में कुछ भी नहीं कहना है। नाम हैं और जिनके नाम हैं भी, वे बहुत लोगों के उस पर स्त्री का उतना ही अधिकार है, जितना किसी पीछे हैं। फलतः उन्हें प्रायः सम्पत्ति बहुत कम पुरुष का अपनी सम्पत्ति पर ।। मिलती है और जो मिलती भी है उस पर उनका परिमित स्त्री-धन दो प्रकार का है। एक तो वह जिस पूरा अधिकार नहीं होता।
पर केवल स्त्री के पति का अधिकार होता है, और किसी बंगाल-मत के अनुसार पाँच स्त्रियाँ उत्तराधिकारिणी का नहीं। पति के मर जाने पर वह स्त्री का ही हो जाता मानी गई हैं-(१) विधवा पत्नी, (२) कन्या, (३) माता, है। इस प्रकार के स्त्री-धन का, पति के जीवन-काल में, (४) पितामही और (५) प्रपितामही । इनका स्थान क्रमशः स्त्री उपभोग तो कर सकती है, किन्तु उसे बेच या हटा चौथा, पाँचवाँ, आठवाँ, चौदहवाँ और बीसवाँ है। नहीं सकती। उसकी मृत्यु के बाद, यदि वह पति के मरने ___ काशी और मिथिला में उत्तराधिकारिणी स्त्रियों की के पहले मरे या बाद, वह सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों संख्या अाठ है-(१) विधवा पत्नी, (२) कन्या, (३) माता, को ही मिलती है, पति के उत्तराधिकारियों को नहीं। (४) पितामही, (५) पुत्र की कन्या, (६) पुत्री की कन्या, दूसरा परिमित स्त्री-धन वह है जिस पर स्त्री को केवल (७) बहन और (८) प्रपितामही। इनका स्थान क्रमशः, उपभोग का अधिकार मिलता है और किसी बात का चौथा, पाँचवाँ, सातवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ (अ), तेरहवाँ नहीं। अपने जीवन में न तो उसे वह किसी को दे सकती (ब), तेरहवाँ (स) और सत्रहवाँ है।
है, न किसी प्रकार हटा सकती है। कुछ थोड़ी-सी शास्त्र___ मदरास में उपर्युक्त सभी स्त्रियाँ उत्तराधिकारिणी विहित आवश्यकताओं को छोड़कर यदि और किसी दूसरे मानी जाती हैं, और इनके सिवा भाई की पुत्री भी सूची में कारण से वह उस सम्पत्ति को बेच डाले या अपने पास से रक्खी गई है।
हटा दे तो उसकी मृत्यु के बाद उसका वह काम नाजायज़
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संख्या ३]
हिन्दू-स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार
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+
4
समझा जायगा और सम्पत्ति उसके पहले पुरुष अधिकारी सब प्रकार की सम्पत्ति में पाँच प्रकार की सम्पत्तियाँ मानी के उत्तराधिकारियों के पास लौट आ सकती है। उसकी गई हैं—(१) उत्तराधिकार में मिली हुई, (२) ख़रीदी मृत्यु के उपरान्त उसके अपने उत्तराधिकारी उस सम्पत्ति हुई, (३) बँटवारे में मिली हुई, (४) विपरीताधिकार से को नहीं पा सकते। अन्तिम पुरुष-अधिकारी के उत्तराधि- मिली हुई, (५) और किसी प्रकार से पाई गई। इन कारी ही उसे पा सकते हैं।
पांच तरह की सम्पत्तियों में सभी प्रकार आ गये । परिमित स्त्री-धन की यही विशेषता है कि स्त्री को यदि विज्ञानेश्वर का अर्थ मान लिया जाता तो इसका उसके उपभोग का पूरा अधिकार मिलता है, किन्तु हटाने परिणाम क्रान्तिकारी होता । स्त्रियों को अपनी सारी सम्पत्तियों -या बेचने का अधिकार नहीं मिलता।
पर पुरुषों की तरह ही अधिकार हो जाता। मनु, कात्यायन इस प्रकार स्त्री के अधिकारों पर तीन प्रकार के प्रति- इत्यादि ने केवल छः प्रकार के स्त्री-धनों का ही उल्लेख बन्ध लगे हुए हैं-(१) कुछ सम्पत्तियाँ ऐसी हैं जो उन्हें किया था। किन्तु इसे विज्ञानेश्वर ने यह कहकर टाल मिल ही नहीं सकतीं। (२) कुछ सम्पत्तियाँ ऐसी हैं जो दिया कि छः प्रकार का अर्थ यह है कि स्त्री-धन छः से उन्हें मिलती तो हैं, किन्तु उन पर पति का अधिकार हो कम नहीं हो सकता, अधिक चाहे जहाँ तक हो। उन्होंने जाता है । (३) कुछ सम्पत्तियां ऐसी हैं जो उन्हें मिलती यह भी कहा कि ऋषियों ने 'स्त्री-धन' शब्द को केवल भी हैं और जिन पर उनके उपभोग का पूरा अधिकार भी पारिभाषिक रूप में व्यवहार किया है, वैयुत्पत्तिक रूप में है, किन्तु जिन्हें वे अपने इच्छानुसार बेच या हटा नहीं नहीं । इस प्रकार उन्होंने स्त्री-धन का विस्तार अपरिमित सकतीं और जो उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारियों कर दिया। को न मिलकर अन्तिम पुरुष अधिकारी के वारिसों को किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं हुआ। जीमूतवाहन ने मिल जाती है।
इसे अस्वीकार कर दिया। उनके अनुसार स्त्री-धन वही स्त्रियों के स्त्री-धन सम्बन्धी अधिकारों पर प्रायः अस्सी छः प्रकार का रहा। केवल उन्हीं ने नहीं, अन्य विद्वान् ऋषियों ने अपने अपने मत दिये हैं । किन्तु उनमें सर्व- भाष्यकारों ने भी विज्ञानेश्वर का खण्डन किया। 'माधवीय प्रधान हैं आपस्तंब, बौधायन, गौतम, मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, टीका' का दक्षिण में बड़ा आदर है। उसमें भी उनका विरोध कात्यायन, देवल, हारीत और व्यास । ऐतिहासिक क्रम से किया गया। 'वीरमित्रोदय' ने मिताक्षरा का समर्थन किया, इनके मतों का निरीक्षण करने से पता चलता है कि प्रारम्भ किन्तु यह प्रकट किया कि यदि स्त्री की सभी सम्पत्ति में स्त्री-धन का अत्यन्त संकुचित और परिमित अर्थ था, 'स्त्री-धन' कह भी दी जाय तो भी इतना मानना ही पड़ेगा किन्तु आगे चलकर उसका बहुत विकास हो गया और कि सभी स्त्री-धन पर स्त्री का पूरा अधिकार नहीं है । वीरस्त्रियों के साथ उदारता से काम लिया जाने लगा। यह मित्रोदय का काशी में आदर है और काशीमत के अनुसार
औदार्य-भाव दिन पर दिन बढ़ता गया और अन्त में यहाँ विज्ञानेश्वर का सिद्धान्त मान्य नहीं हुआ। महाराष्ट्र में तक हुआ कि याज्ञवल्क्य ने लिख डाला कि-- 'व्यवहार-मयूख' प्रामाणिक माना जाता है। उसने स्त्री-धन
'पितृमातृपतिभ्रातृदत्तमध्यगन्युपागतम्। का अर्थ मिताक्षरा के अनुसार तो लगाया, किन्तु उसने
अाधिवेदनिकाद्यं च स्त्रीधनं परिकीर्तितम् ॥' उत्तराधिकार के अध्याय में स्त्री-धन और पारिभाषिक स्त्रीइसका अर्थ मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने यह लिखा कि धन में विभेद कर दिया। इस प्रकार वह भी पूर्णरूप से 'स्त्री को पिता, माता, पति या भाई से जो कुछ मिलता है, सहमत नहीं हुआ। मदरास में 'पाराशरमाधव्य' और विवाहाग्नि के सम्मुख उसे जो कुछ दिया जाता है और 'स्मृतिचन्द्रिका' का विशेष स्थान है। ये दोनों मिताक्षरा के उसके पति के दूसरे विवाह के अवसर पर प्राधिवेदनिका मत का खण्डन करते हैं। इनका मत है कि स्त्री-धन का अर्थ के रूप में उसे जो मिलता है और शेष सब उसका विज्ञानेश्वर के कथित अर्थ की तरह अपरिमित नहीं होना स्त्री-धन है'। 'श्राद्य' शब्द पर बड़ा झगड़ा चला। विज्ञाने- चाहिए । मिथिला का प्रामाणिक ग्रन्थ 'विवादचिन्ताश्वर ने आद्य का अर्थ लगाया 'शेष सब प्रकार की सम्पत्ति। मणि' है। इसका भी वही मत है जो स्मृतिचन्द्रिका का
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सरस्वती
[भाग ३
है। स्त्री-धन को अपरिमित अर्थ में मानने को यह भी थीं। ऐसी पुत्रियों के बाद धीरे धीरे अन्य पुत्रियाँ भी तैयार नहीं है। बंगाल का मत भी इसी प्रकार का है। सम्पत्ति की अधिकारिणी होने लगी। मिताक्षरा की उक्त परिभाषा से कोई सहमत नहीं है। पुत्री के बाद माता उत्तराधिकारिणी मानी गई । इतना ही नहीं, अाज-कल की विचार-धारा भी उसके पक्ष माता का नाम आने का प्रधान कारण यह है कि वह में नहीं है। स्त्री-धन के कई मुकद्दमे हुए हैं और सभी में पुत्र से श्राद्ध-तर्पण आदि पाने की अधिकारिणी है। न्यायाधीशों का निर्णय मिताक्षरा के मत के विरुद्ध हुश्रा पुत्री और माता के बाद विधवा पत्नी का स्थान है। है। तथापि अनेक न्यायाधीश और कानून के ज्ञाता यद्यपि आज वह उन दोनों से गणना में ऊँची समझी मिताक्षरा से सहमत हैं और उसे ठीक समझते हैं। पर जाती है, फिर भी उसे अधिकार उनके बाद मिला है। देश-काल के प्राचार का इतना प्रबल प्रभाव है और प्राचीन काल से ही विधवा अपने पति के उत्तराधिकापरम्परा ऐसी बंध गई है कि परिवर्तन करने का किसी रियों से निर्वाह के लिए धन पाने की अधिकारिणी थी। को साहस नहीं होता।
यदि कोई पुरुष निःसन्तान मर जाता या संन्यास धारण __अब हमें यह जानना है कि स्त्री की वह सम्पत्ति जो कर लेता था तो उसके भाई उसकी सम्पत्ति आपस में बाँट पारिभाषिक स्त्री-धन की परिधि के भीतर नहीं पाती, उसे लेते थे और उसकी विधवा को निर्वाह के लिए यथे कैसे मिली और उस पर उसके अधिकारों का विस्तार कैसे दे देते थे। हुआ।
धीरे धीरे प्रवृत्ति यह होने लगी कि यदि मृत पुरुष की प्राचीन काल से हिन्दू-परिवार संयुक्त चला आता है। सम्पत्ति थोड़ी है तो वह सारी ही विधवा को उसके जीवन भोजन, पूजन और सम्पत्त्यधिकार ये सभी संयुक्त रहा करते भर के लिए दे दी जाय । इसी प्रथा के आधार पर श्रीकर थे और परिवार के पुरुषों को एक नियमित और निश्चित ने लिखा है कि केवल स्वल्प सम्पत्ति पर ही विधवा उत्तराक्रम से सम्पत्ति में भाग मिला करता था। स्त्रियों को धिकार प्राप्त कर सकती है। एक बार यह प्रथा निकल पारिवारिक सम्पत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता था और पड़ने के बाद यह कहना कठिन हो गया कि कौन सम्पत्ति उनका कुछ भी अधिकार नहीं था। धीरे धीरे संयुक्त परिवार छोटी है, कौन बड़ी है । पति के मरने के बाद विधवा दुःख टूटने लगे और पुरुषों में आपस में सम्पत्ति का बँटवारा में न पड़े और पति की श्राद्ध-क्रिया आदि समुचित रूप होने लगा। अब एक अड़चन पड़ने लगी । बँटवारा होने से कर सके, इसके लिए यह नियम चल पड़ा कि जब तक से सम्पत्ति की वह मद जिससे स्त्रियों का पालन-पोषण होता वह जीवित रहे तब तक सम्पत्ति चाहे छोटी हो या बड़ी उसी था, कई टुकड़ों में बँट जाने लगी। अब एक ही उपाय के हाथ में रहे। वह उस
करे, किन्तु उसे था। या तो किसी एक विशेष हिस्सेदार को अधिक हिस्से बेचने या किसी को देने का अधिकार न हो और उसकी दे दिये जाय, जिससे वह स्त्रियों के भरण-पोषण का उत्तर. मृत्यु के बाद उसके पति का वास्तविक उत्तराधिकारी दायित्व उठा सके या उन्हीं को सम्पत्ति में से कुछ दिया उसे ले ले।। जाय जिससे वे अपना निर्वाह कर सकें।
नियोग की प्रथा का भी इस पर बहुत कुछ प्रभाव इस प्रकार स्त्रियों का पारिवारिक सम्पत्ति में केवल पड़ा । गौतम के कथनानुसार जान पड़ता है, प्रारम्भ में हिस्सा ही नहीं रहा, किन्तु उन्हें उत्तराधिकार भी प्राप्त केवल वही विधवा सम्पत्ति में उत्तराधिकार पाती थी जो हो गया। फिर भी उनका सम्पत्ति का अधिकार निर्वाह के नियोग-द्वारा पति के नाम पर पुत्र उत्पन्न करती थी। किन्तु लिए केवल उसका उपभोग-मात्र था। वे उसकी यथार्थ काल-क्रम से यह प्रथा उठ गई। पति के पहले उत्तराधि. स्वामिनी नहीं हो पाई।
कारी स्वभावतः यह नहीं चाहते थे कि स्त्री एक नया __ इस प्रकार की स्त्रियों में सर्वप्रथम स्थान 'पुत्री का उत्तराधिकारी उत्पन्न करके उन्हें सम्पत्ति से वञ्चित कर दे। है। प्रारम्भ में यह अधिकार केवल उन्हीं पुत्रियों को इसलिए पीछे यह शर्त लगा दी गई कि स्त्री को सम्पत्ति मिला जो अपने पिता के लिए नियोग से पुत्र उत्पन्न करती तभी मिलेगी जब वह पवित्रता से जीवन पालन करेगी।
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संख्या ३]
हिन्दू-स्त्रियों का सम्पत्त्यधिकार
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बहन का स्थान सबसे पीछे आता है । गोत्रज सपिण्ड जिक कारणों का प्रभाव तीन प्रकार से पड़ा। पहली बात न होने के कारण उसका अधिकार सबसे पीछे है। किन्तु तो यह थी कि प्रारम्भ में समाज राजनैतिक दृष्टिकोण से बहन के अधिकार के सम्बन्ध में बहुत-से विवाद चलते सुदृढ़ नहीं था। सम्पत्ति की रक्षा का भार सम्पत्ति के आये हैं। किन्तु अब १९२९ के हिन्दू-उत्तराधिकार के अधिकारियों पर ही रहता था। परिवार में पुरुषों पर ही कानून के पास हो जाने के कारण काशी, महाराष्ट्र, मदरास इसका भार रहता था। इसी कारण सभी की यह चेष्टा
और मिथिला में बहन को उत्तराधिकार में निश्चित स्थान रहती थी कि परिवार में जितने ही पुरुष हों उतना ही मिल गया है, साथ साथ पुत्र की कन्या, पुत्री की कन्या अच्छा । इसी से शास्त्रों ने बारह प्रकार के पुत्र और आठ
और बहन के लड़के को भी स्थान मिला है । बंगाल में यह प्रकार के विवाह माने । दूसरी बात रक्त की शुद्धता थी। नियम लागू नहीं है और वहाँ बहन अब भी उत्तराधिका- देश समृद्धिशाली था, किन्तु सुव्यवस्थित नहीं था। बाहर रिणी नहीं समझी जाती।
से बहुत-सी जातियाँ आक्रमण किया करती थीं। अायों का स्त्रियों के अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगने के तीन प्रकार रक्त शुद्ध रहे और बाहर से उसमें कोई सम्मिश्रण न होने के कारण हैं-धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक । पावे, इसकी चेष्टा की गई। इसका पहला परिणाम यह
(१) धार्मिक कारण-जैसा कि डाक्टर राजकुमार हुआ कि स्त्रियाँ घरों में बन्द कर दी गई। उनकी रक्षा सर्वाधिकारी ने कहा है कि हिन्दुओं की उत्तराधिकार- करने के लिए पुरुष अपनी जान देने लगे । यह प्रवृत्ति सम्बन्धी व्यवस्थाओं का मूल मंत्र है पितृ-पूजा। पितृ-पूजा यहाँ तक बढ़ी कि धीरे धीरे असवर्ण विवाह उठने लगे, में तीन पीढ़ी तक पितरों की गणना की जाती है। अनुलोम विवाह निषिद्ध हो गया, चरित्र की शुद्धता पर इनकी पूजा अर्थात् श्राद्ध-प्रथा का प्रभाव व्यवस्था- अधिक ज़ोर दिया जाने लगा और पहले जो आठ प्रकार शास्त्र के और अंगों से अधिक उत्तराधिकार पर पड़ा। के विवाह शास्त्रोक्त थे उनकी संख्या केवल दो रह गई। विष्णु ने अपना मत निश्चित किया कि जो सम्पति का नियोग की प्रथा भी एकदम उठा दी गई। इसका परि. उत्तराधिकारी होगा उसे सम्पत्ति के भूतपूर्व स्वामी को णाम अच्छा भी हुआ और बुरा भी। सामाजिक अाचरण पिण्डदान अवश्य देना पड़ेगा। धर्म, समाज और व्यवस्था- की शुद्धता की सतह बहुत ऊपर उठ गई, विशृंखलता घट शास्त्र, तीनों ने मिलकर पिण्डदान को उत्तराधिकार के गई, परिवारों में संगठन श्रा गया, किन्तु स्त्रियाँ परतंत्र हो साथ चिरन्तन बन्धन में बाँध दिया।
गई और उनके आर्थिक अधिकारों के प्रति व्यवस्थापक इस प्रथा का सबसे विषमय परिणाम पड़ा स्त्रियों के उदासीन हो गये। आर्थिक स्वतंत्रता से व्यावहारिक अधिकारों पर। पितरों को पिण्ड-दान मिलता रहे, इसके स्वतंत्रता भी आ जाती है और इसे शास्त्रकार पसन्द नहीं लिए आवश्यक था कि वंश युग-युग तक कायम रहे। करते थे अतएव उन्होंने स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता की इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि स्त्रियों का अस्तित्व जड़ ही काट दी। तीसरा कारण यह हुआ कि पारिवारिक गौण विषय हो गया। फिर दूसरी आवश्यकता यह भी संगठन के बाद धीरे धीरे परस्पर सहयोग की भावना प्रोत्साथी कि जो पुरुष पिण्ड दे वह सम्पत्ति ज़रूर पावे। बंगाल हित की जाने लगी। चेष्टा की गई कि परिवार के व्यक्तियों तो एक कदम और आगे बढ़ गया। जीमतवाहन ने यह में प्रतियोगिता की भावना हटाकर सहयोग के विचार रक्खे लिख दिया कि जो पिण्डदान दे सकता है वही सम्पत्ति जायँ । शास्त्रकारों ने पृथक् सम्पत्ति के विरुद्ध और संयुक्त भी पा सकता है। पुरुषों को पिण्ड देने का स्त्रियों से पारिवारिक सम्पत्ति के पक्ष में व्यवस्थायें बनाई। यह अधिक अधिकार था, इसी लिए सम्पत्ति भी प्रायः वही पाने सब किसी बुरे अभिप्राय से नहीं, किन्तु सद्विचार से लगे। मिताक्षरा ने इसे नहीं माना। फिर भी इतना हुआ कि किया गया और इसका परिणाम भी पारिवारिक दृष्टि से उत्तराधिकार से पाई हुई सम्पत्ति पर स्त्री का स्वत्व बिलकुल अच्छा ही हुआ, किन्तु स्त्रियों को यहाँ भी घाटा ही रहा । परिमित हो गया। उसे केवल उपभोग का अधिकार मिला। उनके अधिकार परिवार के हित के लिए बलिदान कर
(२) सामाजिक कारण--प्रतिबन्धों के लगने में सामा- दिये गये और उन्होंने सब कुछ चुपचाप सह लिया।
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(३) आर्थिक कारण --संयुक्त पारिवारिक संगठन का परिणाम स्त्रियों के स्वत्वाधिकार पर आर्थिक दृष्टिकोण से भी बहुत पड़ा। भारत कृषि प्रधान देश रहा है और व भी है। घर-द्वार, खेत-खलिहान, हिन्दू कृषक परिवारों की यही प्रधान सम्पत्ति है । अत्र इस प्रकार की सम्पत्ति यदि परिवार के संयुक्त अधिकार में रहे तो ठीक है । किन्तु यदि उसमें रोज़ बँटवारा होने लगे तो बड़ी अड़चन पड़ेगी । उससे सम्पत्ति का मूल्य भी घट जायगा और असुविधा भी होगी । बँटवारा होना बुरी बात है, फिर भी इसके बिना काम नहीं चलता, इसलिए पुरुषों में बँटवारा हो सकता है । किन्तु यदि स्त्रियों को भी वह अधिकार दिया जाय तो विषम समस्या खड़ी हो जायगी। स्त्री विवाह होने के बाद एक परिवार से दूसरे परिवार में चली जाती है। यदि उसे सम्पत्ति मिले तो वह भी बँटकर दूसरे परिवार में चली जायगी । इसमें दोनों को ही सुविधा होगी । इसलिए शास्त्रकारों ने यह नियम बना दिया कि पुत्रों को तो पारिवारिक सम्पत्ति में भाग दो, किन्तु कन्याओं को नहीं । दूसरा कारण यह हुआ कि स्त्रियाँ व्यवहार कुशल और बहुत पढ़ी-लिखी नहीं होती थीं और सम्पत्ति का सुप्रबन्ध नहीं कर सकती थीं। इसलिए उन्हें सम्पत्ति में अधिकार न देकर उनके उचित निर्वाह का प्रबन्ध कर दिया गया।
सरस्वती
डाक्टर देशमुख के बिल का अभिप्राय हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति-सम्बन्धी प्राप्ति, उपभोग और पृथक्करण के अधिकारों पर लगे हुए प्रतिबन्धों को हटाना है । उसके अनुसार स्त्रियों को भी पुरुषों की तरह सम्पत्ति पर पूरा और हर तरह का अधिकार मिलना चाहिए। वह स्त्री धन के पारिभा त्रिक अर्थ को उड़ा देगा और केवल उसके वैयुत्पत्तिक अर्थ को मानेगा । परिवार में स्त्री और पुरुष समान अधिकार पावेंगे और साम्यभाव से साथ रहेंगे ।
रूप
बिल के गुण-दोषों के विषय में अभी कुछ भी निश्चित से कहना अत्यन्त कठिन है । परिवर्तन-वादी कहते हैं कि स्त्रियों को पुरुषों की सतह पर रखना आवश्यक है। arry र अमरीका ने जो उन्नति की है उसमें स्त्रियों का बहुत बड़ा हाथ है और स्त्रियों में जागरण तभी हुआ है जब उन्हें अपने सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की याद
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आई है। भारत में भी स्त्रियों को स्वतंत्र बनाना आवश्यक है। जब तक वे स्वतंत्र नहीं होतीं तब तक राष्ट्रीय जागरण नहीं हो सकता और स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। इसके विरुद्ध अपरिवर्तनवादी कहते हैं कि योरप और अमरीका ने जो कुछ किया है वही हमारा भी कर्त्तव्य है, ऐसी कोई बात नहीं है । पारिवारिक हित सहयोग में है, प्रतियोगिता में नहीं । प्रजातंत्र का युग जा रहा है और तानाशाही का युग आ रहा है। इसका अर्थ है कि सभी में प्रकृतिदत्त सुप्रबन्ध करने की शक्ति नहीं होती। इसलिए जिसे ईश्वर शक्ति दी है उसी के हाथ में सम्पत्ति छोड़ देना अच्छा है ।
दोनों दलों की दलीलों में थोड़ी बहुत सचाई है । यह सच है कि स्त्रियों में जागरण आने के लिए उन्हें कुछ आर्थिक स्वतंत्रता मिलना जरूरी है, किन्तु यह भी सच है। कि पारिवारिक हित के लिए दो में से एक को किसी अंश तक परतंत्र होकर रहना ही पड़ेगा और प्रकृति का तक़ाज़ा है कि स्त्री पुरुषों के सरंक्षण में रहे। अधिकार-चर्चा के जोश में चाहे जो भी कह दिया जाय, किन्तु असलियत यही है कि स्त्री का सबसे बड़ा भरोसा पुरुष की ताकत में है । प्रकृति के इस अटल नियम को कोई नहीं उलट सकता । पुरुषों के बलवान् होने में ही स्त्रियों का भी कल्याण है ।
स्त्रियों को सम्पत्ति पर अधिकार मिलना चाहिए और ज़रूर मिलना चाहिए, पर कैसा और कितना मिलना चाहिए, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। यह प्रश्न आज हमारी प्रधान व्यवस्थापिका सभा के सामने उपस्थित है । एक
र नवयुग की क्रान्ति की लहर है और दूसरी ओर प्राचीनयुग की रूढ़ियों की दीवार। दोनों बलवान् हैं, दोनों कठोर हैं, फिर भी दोनों को ही झुकना पड़ेगा। दोनों के समझौते में ही कल्याण है ।*
* डाक्टर देशमुख के बिल को असेम्बली ने अपनी ४ फ़रवरी की बैठक में पास कर दिया है । परन्तु उसमें सेलेक्ट कमिटी ने बहुत कुछ काँट-छाँट दिया है । जिस सुधरे हुए रूप में वह पास हुआ है उसमें केवल विधवाओं को ही अधिकार दिया गया है । - सम्पादक ]
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माँ के समीप तू सोई थी, सौभाग्य-सूर्य जब उदय हुआ । तू चली आरती जब लेकर, तेरे जीवन में प्रलय हुआ ॥
पूजा की सारी सामग्री, रह गई जहाँ की तहाँ वहीं । पर प्रिय पूजा का अधिकारी, अवनी में कोई रहा नहीं ॥ हम कितने दिन के लिए कहें,
मृदु हृदयों का मिलन हुआ । क्या है जग में रह गया तुझे, जीवन-धन का ही निधन हुआ || जब प्रेम-मिलन की चाह हुई, तब चिर-वियोग की व्यथा हुई । ज्यों ही उसका आरम्भ हुआ,
ही समाप्त वह कथा हुई || खिलते ही मुरझा गई हाय, तू भोली भाली नई कली । किस निठुर नियति के हाथों से, तू इस प्रकार है गई छली ॥ अनुराग नया अभिलाष नया,
व्यवहार नया शृङ्गार नया । पल भर में सहसा लुप्त हुआ, वह सोने का संसार नया ॥ तू कभी नहीं कुछ कहती है, चुपचाप सभी कुछ सहती है । जग में रस-धारा बहती है, पर तू प्यासी ही रहती है || तेरे मन में ही छिपी हुई, रोती हैं सब चाहें तेरी ।
बाल-विधवा
लेखक ?
श्रीयुत ठाकुर गोपाल शरणसिंह
उर के भीतर ही गूँज गूँज, रह जाती हैं हें तेरी ॥ तेरे अशान्त उर-सागर में, दुख का प्रवाह ही बहता है । जीवन- प्रदीप तेरा बाले, सब काल बुझा-सा रहता है || र को सँभालती रहती है, मन को मसोसती रहती है । निज लोलुप लोल विलोचन को, तू सदा कोसती रहती है । सुन्दर सरोज को घेर घेर, मधुपावलियाँ मँडराती हैं। वह दृश्य देखकर क्यों बाले, तेरी आँखें भर आती हैं ॥ वल्लरी लिपट कर तरुवर से, जब फूली नहीं समाती है । उस प्रेमालिंगन को विलोक, क्यों तू उदास हो जाती है | लुट गया हाय, सब कुछ तेरा, जग में किसकी यों लूट हुई । सुख- सामग्री जगतीतल की, तेरे हित विष की घूँट हुई || बस मूल मंत्र है त्याग तुझे,
वस्तु का ध्यान नहीं । इस दुनिया में है हुआ तुझे, अपनेपन का भी ज्ञान नहीं । चढ़ते सूरज की दर से, सब दुनिया पूजा करती है ।
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परस्त हो गये दिनकर पर, बस तू ही जग में मरती है । है कौन समझ सकता बाले, तेरी दुनिया की बातों को । तेरे सन्ताप-भरे उर की, मृदु घातों को प्रतिघातों को ||
चुकती है नहीं निशा तेरी, है कभी प्रभात नहीं होता । तेरे सुहाग का सुख बाले, आजीवन रहता है सोता || हैं फूल फूल जाते मधु में, सुरभित मलयानिल बहती है । सब लता वल्लियाँ खिलती है, बस तू मुरझाई रहती है ॥ शुचि विफल प्रेम की ज्वाला में, तू हरदम जलती रहती है । अपने मृदु-भाव- प्रसूनों को, तू नित्य कुचलती रहती है ॥ अविरल हग-जल का स्रोत चपल, है तेरे जीवन का पल पल । भीगा ही रहता है हरदम, हा तुझ अभागिनी का अंचल ॥
शायें अभिलाषायें, कारागृह में बन्द हुई । तेरे मन की दुख ज्वालायें, मेरे मन में कुछ छन्द हुईं ॥ किस कवि में है यह शक्ति भला, कह दे आन्तरिक व्यथा तेरी । उर तल से निकली आहों ने, लिख दी है क्लेश-कथा तेरी ॥
सब
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हमारी गली
रा मकान चेलो की गली में था । मेरे कमरे के दरवाज़े में दो पट थे । नीचे का हिस्सा बन्द कर देने से केवल ऊपर का हिस्सा एक खिड़की की तरह खुला रह जाता था । यह खिड़की पतली सड़क पर खुलती थी । सामने दूधवाले मिर्ज़ा की दूकान थी, और मेरे मकान के दरवाज़े के बराबर सिद्दीक़ बनिये की, और उसके पास अज़ीज़ ख़ैराती की । श्रास-पास कहारों की दूकानें, अत्तार की दूकान, पानवाले की, और दो-चार दूकानें थीं; जैसेकसाई, बिसाती और हलवाई की दूकानें ।
घ
इस कहानी के लेखक महोदय उर्दू के प्रसिद्ध लेखक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय अँगरेजी के अध्यापक हैं। इनकी 'अङ्गारे' और 'शोले' आदि रचनाएँ बड़ी प्रसिद्धि पा चुकी हैं। आशा है हिन्दी में भी इनकी इस रचना का स्वागत होगा ।
हमारे मुहल्ले से होकर लोग दूसरे मुहल्लों को जा सकते थे । इसलिए सड़क बराबर चला करती और तरहतरह के लोग रास्ता बचाने के लिए मेरी खिड़की के सामने से जाते । कभी कोई सफ़ेद कपड़ा पहने गर्मी की चिलचिलाती धूप में छाता लगाये हुए चला जाता; कभी शाम को कोई विलायती मुण्डा पहने, अँगरेज़ी टोपी लगाये छिड़काव के पानी से बचता हुआ, अपने कपड़ों को छींटों से बचाता, बच्चों और लड़कों से अलग होता हुआ या उनके घूरने पर गुर्राता और आँखें निकालता हुआ नाक की सीध चला जाता। कभी-कभी रास्ता चलनेवाला त कर लड़कों को मारने के लिए लकड़ी या छाता उठाता | दूर भाग कर लड़के चिल्लाते - " लूलू है बे;
२४=
लेखक,
प्रोफ़ेसर अहमदली
एम० ए०
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लूलू है ।" दूधवाले मिर्ज़ा की भराई हुई बोली सुनाई देती - "वे लम्डो, क्या करते हो ? तुमको घरों में कुछ काम नहीं ।" और अगर कोई पास बैठा होता तो मिर्ज़ा उससे कहने लगता - "इनकी मात्र को तो देखो, star छोड़ रखा है कि साँड बैलों की तरह गलियों में रौला मचाया करें। हरामज़ादों को गाली-गलौज और धींगा मुश्ती के अलावा कुछ और काम ही नहीं । ”
मिर्ज़ा की छोटी-छोटी आँखें चमकने लगतीं, वह अपनी सफ़ेद तिकोनी दाढ़ी पर एक हाथ फेरता और किसी ख़रीदने वाले की ओर देखने लग जाता । कुंडे में से दही और कढ़ाई में से दूध निकालकर मलाई का टुकड़ा डालता और लेनेवाले की ओर बढ़ा देता ।
लोग कहते थे कि मिर्ज़ा की साहत का खून दौरा करता है।
धमनियों में भलमन लड़कपन में सब याद
न करने पर उसके बाप ने उसको घर से निकाल दिया और कुछ दिन मारे-मारे फिरने के बाद उसने दूकान कर ली। उसके पीछे अक्सर उसके बाप ने क्षमा माँगी और खुशामद भी की, लेकिन मिर्ज़ा ने घर लौट जाने से इनकार कर दिया । फिर मिर्ज़ा ने विवाह कर लिया और उसका काम चल निकला। उसकी दूकान के छोटे-छोटे मलाई के पेड़े शहर भर में प्रसिद्ध थे । और उसका दूध बड़ा सुस्वादु होता था। रात को जब कोई दूध लेने श्राता तब वह उसको सकारे और लुटिया में खूब उछालता,
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संख्या ३]
हमारी गली
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यहाँ तक कि उसमें से झाग निकलने लगता। फिर खपचे से दी और पूछा-'भाई, बड़ा अफ़सोस हुआ। क्या वाकया मलाई का टुकड़ा इस सावधानी से तोड़ता कि दूध हिलने हुआ ?" तक न पाता। उसकी बीबी अक्सर दूकान पर बैठा करती। मिर्जा की आँखों में एक भी आँसू बाकी न था, लेकिन वह बूढ़ी हो गई थी, उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई उसके सारे चहरे पर शोक अंकित था। "तक़दीर फूट थीं, उसकी कमर झुक गई थी और मुँह में एक दाँत बाकी गई, मेरा पला-पलाया लड़का जाता रहा।" यह कहकर न था। उसके ऊँचे डीलडौल और गोरे रङ्ग से मालूम मिर्ज़ा फिर घर की ओर चला गया । होता था कि वह किसी अच्छे घराने की औरत है। ख़रीदनेवाले जो खड़े थे, पूछने लगे--"क्या हुअा ?"
लेकिन अब उसका काम-काज कम हो गया था, क्योंकि सिद्दीक़ ने झुककर देखा। उसी समय हवा का एक तेज़ बुढापे के कारण वे अब ज़्यादा मेहनत न कर सकते थे। झोंका अाया, गर्द और ग़बार उड़ने लगा। एक काग़ज़ उनका इकलौता बेटा मर चुका था और अब उनका हाथ का टुकड़ा हवा में उड़ा और कुछ दूर ऊपर जा उलटताबँटानेवाला कोई न था। असहयोग के दिनों में जब पुलटता नीचे की ओर गिरने लगा। मिर्जा के बाल हवा में
आज़ादी के विचार देश में इधर से उधर हलचल मचाये उड़ रहे थे और वह गली में छिप-सा गया। हुए थे, मिर्जा का लड़का अपने साथियों के साथ जलूस "क्या हुआ ? असहयोग करने गया था, गोली लगी में गया था। “गांधी की जय” और “वन्दे मातरम्” के और मर गया। न जाने अपने काम में जी क्यों नहीं नारों से वातावरण गूंज रहा था। घंटाघर पर गोलियों लगाते ? सरकार के ख़िलाफ़ जाने का नतीजा यही है । की बौछार में बहुत-से आदमी काम आये और मिर्ज़ा तगड़ा जवान था। इन दोज़ख़ के चींटों और खद्दर-पोशो का बेटा भी मरनेवालों में था। बड़ी देर के बाद जब लाश का शिकार हो गया ।" यह कहते कहते सिद्दीक ने मटके के ले जाने पर कोई रोक न रही तब लोग मिर्जा के लड़के की मुँह में एक चमचा डाला। बहुत-से मटके दीवार में गड़े लाश को उसके घर लाये।
हुए थे और कबूतरखाने की तरह देख पड़ते थे। चमचे से सारी दूकानें बन्द थीं। मुहल्ले में सन्नाटा छाया हुअा दाल निकालकर सिद्दीक़ ने गाहक की ओर बढ़ाई । ग्राहक था । जाड़ों की धूप ठंडी और बेजान-सी देख पड़ती थी। जो बेमना हो सिद्दीक़ की बातें सुन रहा था, दाल को नालियों में सफाई न होने के कारण उनमें सड़ान फूट रही अपने कपड़े में बाँधने लगा कि एकाएक उसे दाल देख थी। जब लाश घर आई तब मिर्जा और उसकी बीबी सन्न पड़ी और वह बोला--"वाह मियाँ बाश्शा, यह कौन-सी रह गये। उनको किसी तरह विश्वास न होता था कि दाल दे दिये हो ? मैंने तो अरहर की मांगी थी, ज़री फुर्ती उनका बेटा जो अभी अभी जिन्दा था, हँस-बोल रहा था, करो। मुझे देरी होरी है। बीबी बकैगी।" . जिसने सवेरे ही पेड़े बनाये थे, कढ़ाई माँजी थी, जो घर में मिर्जा की बीबी सिर देकर मार रही थी। बयान कपड़े पहनकर अपने किसी साथी से मिलने गया था, कर करके रोती थी, और अँगरेज़ों और गांधी को कोसती अब जिन्दा नहीं, बल्कि मर चुका है। वे बार-बार खून से थी। यामीन की माँ को जब इस घटना का समाचार मिला लथपथ लाश को देखते थे। मिर्जा की बीबी लाश से तब वह सान्त्वना देने के लिए आई। उसका जवान लिपटकर फूट-फूटकर रो रही थी। लोगों ने उसको अलग लड़का भी दीवार के नीचे दबकर मर गया था और वह करना चाहा, लेकिन वह एक मिनट के लिए भी लाश से अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को सिलाई करके पालती थी। अलग न होती थी। वह "हाय मेरे लाल, हाय मेरे लाल" दोनों गले मिलकर खूब रोई। और मिर्जा की बीबी को कह कहकर रोती थी, और कभी कभी उसके मुँह से ज़ोर तनिक धैर्य हुअा। आखिर लड़के को दफन करने ले की चीख निकल जाती थी। मिर्ज़ा पागलों की तरह, कभी गये। रात अँधेरी थी और बेबसी अँधेरे की तरह सारे में घर के अन्दर और कभी बाहर बौखलाया फिरता था। फैली हुई थी। हवा ठंडी थी और मुहल्ले में सील के सिद्दीक बनिये ने अपनी दूकान खोल ली थी। मिर्ज़ा जब कारण जाड़ा और भी मालूम होता था। लैम्पों की धीमी बाल बिखेरे हुए उधर होकर गया तब सिद्दीक ने आवाज़ रोशनी में मुहल्ला भयानक और डरावना मालूम हो रहा
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___ सरस्वती
[ भाग २८
था, सड़क पर काई सजीव वस्तु नहीं देख पड़ती थी, किसी ने उसके बाल काट दिये थे और उसका सिर उसके केवल मिर्जा की दूकान में कई एक बिल्लियों के गुर्राने मोटी और भारी देह पर एक अखरोट की भाँति दिखाई और गड़बड़ की आवाज़ पा रही थी।
देता । दयालु पुरुष कभी कभी उसे कपड़े पहना दिया इस घटना के कुछ दिनों के बाद तक भी अक्सर करते, लेकिन कुछ ही घंटों के बाद वह फिर नंगी हो जाती मिर्जा की बीबी के दर्द से भरे गाने की आवाज़ आया थी। या तो कोई कपड़ों को उतार लेता या वह खुद उनको करती
फाड़कर फेंक देती। उसके मुँह से हमेशा राल बहा करती "गई यक बयक जो हवा पलट
और उसके हाथ अकड़े हुए रहते । वह प्रायः मटक मटकनहीं दिल को मेरे करार है।" कर सड़क पर नाचती, थिरकती और गंगों की तरह कुछ लेकिन फिर वह चुप रहने लगी और काम-काज में गुन गुन करती। जैसे ही वह मुहल्ले में पाती, लड़कों लग गई।
का एक गोल उसके पीछे तालियाँ बजाता और पगली कह
कहकर पत्थर फेंकता और मुँह चिढ़ाता। औरत “ऐं ऐं" मेरे मकान की ड्योड़ी में खजूर का एक पुराना पेड़ करती और कोनों में छिपती फिरती। जब कभी मिर्जा की था। एक ज़माने में उसमें फल लगा करते थे और शहद दूकान के सामने ये बातें होती तब मिर्जा लड़कों पर की मक्खियाँ खाने की खोज में नीचे उतर आती थीं। चीख़ता--"अबे सुसरो, तुम्हें मरना नहीं है। भागो यहाँ उसकी बड़ी बड़ी डालों पर प्रायः जानवर अाकर बैठते थे से, दूर हो ।” लेकिन थोड़ी ही देर के बाद लड़के फिर और भले-भटके कबूतर रात को बसेरा लिया करते । लेकिन इकट्ठे हो जाते। अब उसके पत्ते झड़ गये थे। डालियाँ गिर चुकी थीं, बड़े अादमी भी प्रायः उससे मज़ाक करते। वह और उसका तना काला और भयानक, रात के अँधेरे में बदसूरत ज़रूर थी, लेकिन उसकी उम्र ज्यादा न थी। उस बाँस की तरह खड़ा रहता जो खेतों में जानवरों को उसका पेट बढ़ा हुआ था और अक्सर मुन्नू जो खाते डराने के लिए गाड़ दिया जाता है। अब न उस पर पोते घराने का लड़का था, लेकिन अब बदमाशों से मिल जानवर मँडराते थे, न शहद की मक्खियाँ उस ओर पाती गया था, कहता. "क्यों? तेरे बच्चा कब होगा?" और थीं। हाँ, कभी कभी कोई कौवा उसके दूंठ पर बैठकर पगली एक दर्द-भरी, जानवरों की-सी आवाज़ निकालती काँव-काँव करता और अपना गला फाड़ता या कोई चील और अपने हाथ आगे बढ़ा के जो ढीले और लिजलिजे थोड़ी देर बैठकर चिलचिलाती और फिर उड़ जाती। रहते--किसी राहगीर या दूकानदार की अोर कर मुन्नू की सवेरे के बढ़ते हुए प्रकाश. में तना अाकाश में चमक अोर संकेत करती। उसकी उस भर्राई हुई आवाज़ में एक उठता, लेकिन सायंकाल को सूर्य के विश्राम करने के विनय होती, बेकस व बेबस व्यक्ति की वह प्रार्थना जो पश्चात् रात को बढती हुई अँधेरी में धीरे धीरे दृष्टि से वह अपने स्वामी या अपने से अधिक शक्तिशाली से श्रोझल हो जाता और रात में मिल जाता। रात को प्रायः करता है कि 'मुझे क्षमा करो और बचा लो'। लेकिन और घर आते समय मेरी दृष्टि उसके मोटे और भयानक तने लोग भी मज़ाक करने में मिल जाते और ज़ोर ज़ोर से पर पड़ती, फिर उसके साथ साथ उड़ती हुई आकाश पर कहक़हा लगाकर हँसते...। जाती। तारे चमकते हुए होते और ठीक उसके सिरे हिन्दुस्तान में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको सिवा खानेपर..............का अन्तिम तारा मुझको दिखाई देता, पीने और मर जाने के और किसी बात से मतलब नहीं। लेकिन वह तना मेरी दृष्टि और आसमान के बीच वे पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, कमाने लगते हैं, खाते-पीते हैं एक प्रकार से रुकावट डालता और मैं तारों के फैलाव को और मर जाते हैं । इसके सिवा उनको दुनिया को किसी न देख सकता।
बात से कोई मतलब नहीं। आदमियत की गन्ध उनमें
नहीं पाती। जीवन की महत्ता का उनको कोई शान मुहल्ले में प्रायः एक पागल औरत आया करती। नहीं। जिस प्रकार गुलाम को काम करने और मर रहने के
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संख्या ३]
हमारी गली
२५१
केवलम
अतिरिक्त कोई अन्य बात नहीं, उसी प्रकार इनको जीवन जिले से काम की तलाश में आ गया था। वह रात को का उदय और अस्त एक प्रकार है। इनके लिए दिन एक मस्जिद में पड़ रहता और दिन भर शहर की काम करने और रातें सो रहने के लिए बनी हैं । बस यही सड़कों पर मारा मारा फिरता । लेकिन शहर की हालत इनका जीवन है और यही इनके जीवन का ध्येय । और काम काज मिलने के सम्बन्ध में गाँवों और कस्बों से किसी मत्य ही इनका जीवन से छटकारा दिला सकती है। तरह अच्छी नहीं थी। इसलिए शेरा को कोई काम न x x
मिल सका। मस्जिद में मीर अमानुल्ला नमाज़ पढ़ने एक और चीज़ हमारे मुहल्ले में बहतायत से दीख पाया करते थे। शेरा ने उनको अपनी कहान पड़ती और वे थे कुत्ते मरे हुए और भूख से सताये । बहुतों मीर साहब को उसकी दयनीय दशा पर दया आ गई और
ली थी और उनकी खाल में से मांस दिखाई पड़ता वे उसे अपने घर ले गये। शेरा नेक और ईमानदार था। अपने बड़े बड़े दाँतों को निकालकर वे अपने पट्रों आदमी था। कुछ समय के बाद मीर साहब ने उसे पाँच को खुजाते थे या कसाई की दुकान के सामने एक हड्डी के रुपये दिये और कहा--"इससे कोई काम शुरू कर देना, पाछ एक-दूसरे को नोचते और लहूलुहान कर देते। वे इसी लिए मैं ये रुपये देता है। जब तेरे पास पैसे हों तब अपनी दुमें टाँगों के बीच दबाये नालियों को सूंघते दबे यह रकम वापस कर देना, नहीं तो कोई फ़िक की बात दबे पातं और कसाई की दुकान पर छीछड़ी पर झपटते, नहीं।" लेकिन जैसे ही उनको गोश्त का कोई टुकड़ा या हड्डी दिखाई शेरा ने दाल, सेव और काबुली चनों का खोमचा देती तो चीलें ऊपर से झपट्टा मारती और उनके सामने लगाया। कुछ ही दिनों में शेरा को बहुत-से मुहल्लेवाले से उसको उठा ले जातीं । फिर वे एक ऐसे आदमी की जान गये और उसका सौदा खूब बिकने लगा। साल भर तरह जो कुछ लज्जित हो चुका हो, अपनी दुम दबाये हुए में ही उसने मीर साहब के रुपये लौटा दिये, अपने बीबीसड़क को सूंघा करते या अपनी भैप आपस में लड़ाई करके बच्चों को बुला लिया और एक छोटे-से परिवार में रहने और एक-दूसरे का खून बहाकर निकालते।
लगा। वह बहुत खुश था।
.. इसी समय के बीच में अब्दुर्रशीद को स्वामी श्रद्धाप्रातःकाल को बड़े सवेरे शेरा चने वेचनेवाले की नन्द की हत्या के अपराध में फाँसी का हुक्म हो गया था। आवाज़ आती । वह अपनी झोली में गरम गरम, ताज़े, शहर के मुसलमानों में एक हलचल मच गई। फाँसी के भुने हुए चने, गली-गली और कूचे-कूचे बेचता फिरता दिन जेल के बाहर हज़ारों आदमियों का झुण्ड था। वे सब था। उसकी उम्र कोई चालीस साल के थी, लेकिन वह दरवाज़े को तोड़कर भीतर घुस जाना चाहते थे । लेकिन दुर्बल और सूखा हुआ था। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ अभी जब पुलिस ने अब्दुर्रशीद की लाश को लौटाने से मना कर से देख पड़ती थीं। उसकी ख़शख़शी दाढ़ी में सफ़ेद बाल दिया तब लोगों के जोश और गुस्से का कोई ठिकाना नहीं आ गये थे। उसकी आँखें एक बीमार की आँखों की तरह रहा। उनका बस नहीं चलता था कि किस तरह जेल को थीं, जिनके नीचे काले घेरे-से पड़े हुए थे और जिनमें मिट्टी में मिला दें, और उस गाज़ी की लाश को एक शहीद भूख और दीनता, रंज और मुसीबत साफ़ झलकते थे। की तरह दफ़न करें। उनके ढेलों में बारीक लाल रगे दूर से दिखाई देती थी, उस दिन शेरा किसी काम से जामामस्जिद की ओर जैसे या तो नशे में या दिनों के अनशन और बुखार के गया हुअा था। आसमान पर धूल छाई थी और सड़के बाद पैदा हो जाती हैं । उसके सिर पर कपड़े की एक मैली एक मौन शहर की भाँति सुनसान और उजाड़ मालूम हो टोपी होती थी। गले में फटा हुअा कमीज़, और उसकी रही थीं। पड़े हुए दोनों को चाटते हुए कई-एक कुत्ते उसे ऊँची धोती में से उसकी पतली पतली टाँगें दिखाई दिखाई दिये । एक नाली में एक मरा हुआ कबूतर पड़ा देती थीं।
था। उसकी गर्दन मुड़ गई थी, उसकी कड़ी और नीली बहुत दिन हुए जब वह हमारे शहर में पास के किसी टाँगें ऊपर उठी हुई थीं, पर पानी में भीग गई थीं। उसकी
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सरस्वती
एक आँख फटी मालूम हो रही थी। शेरा खड़ा होकर उसे देखने लगा। इतने में सामने सड़क के मोड़ से कलमें की ध्वनि ज़ोर ज़ोर से आने लगी । लोग एक अर्थी लिये आा रहे थे। ज्यों ज्यों अर्थी शेरा के पास आती गई, भीड़ पीछे और भी ज्यादा दीखने लग गई, यहाँ तक कि दूर दूर तक आदमियों को छोड़कर कुछ दिखाई नहीं देता था । झुण्ड का झुण्ड अब्दुर्रशीद की अर्थी को ले भागा था। शेरा भी उसकी ओर बढ़ा और कन्धा देने में सहायक हो गया । इतने में सामने से पुलिस देख पड़ी। उन्होंने अर्थी को आगे जाने से रोक दिया और कई एक आदमियों को गिरफ्फ़ार कर लिया । इन लोगों में शेरा भी था और उसको इस उपद्रव में भाग लेने के कारण दो साल की सज़ा हो गई ।
अब वह क़ैद भुगत चुका था । लेकिन अब उसके गाहक उसकी आवाज़ को भूल सा गये थे। उसके पास इतने पैसे न थे कि वह दुबारा खोमचा लगा सके। कुछ लोगों ने चन्दा करके उसे दो रुपये दे दिये और उनसे शेरा ने फिर काम शुरू किया । अब वह चने बेचता फिरता था, लेकिन अब उसकी आवाज़ में वह करारापन न था • और मुसीबत और दुःख उसकी हर पुकार में सुनाई देती
थी, तो भी बच्चे उसकी आवाज़ सुनकर चने लेने को दौड़ते थे और वह मुट्ठी से निकाल निकाल कर चने तौलता और उनको देता था ।
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एक और आदमी जो हमारे मुहल्ले में हर एक दिन रात को आया करता, एक अन्धा फ़क़ीर था । उसका
द बहुत छोटा था और उसकी चुग्गी दाढ़ी पर हमेशा ख़ाक पड़ी रहती थी। उसके हाथ में एक टूटा हुआ बाँस का डण्डा रहता था, जिसे टेक टेककर वह श्रागे बढ़ता था । वह बिलकुल तुच्छ और नाचीज़ मालूम होता था, जैसे कूड़े के ढेर पर मक्खियों का गोल या किसी मरी बिल्ली का ढच्च । लेकिन उसकी आवाज़ में वह नाउम्मेदी और दर्द था जो दुनिया की स्थिरता को चित्रित कर देता है । जाड़े की रात में उसकी आवाज़ सारे मुहल्ले में एक समर्थता - सी फैलाती हुई जैसे कहीं दूर से श्राती । मैंने 1 आज तक इससे अधिक प्रभाव रखनेवाला स्वर नहीं सुना था और अभी तक वह मेरे कानों में गूँज रहा है ।
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[ भाग ३८
बहादुरशाह की ग़ज़ल उसके मुँह से फिर पुराने शाही ज़माने की याद को नई कर देती थी जब हिन्दुस्तान अपने नये बन्धनों में नहीं जकड़ गया था । और उसकी आवाज़ से केवल बहादुरशाह के रंज का ही अनुमान न होता था, बरन हिन्दुस्तान की गुलामी का रोदन सुनने में आता था । दूर से उसकी आवाज़ आती थीज़िन्दगी है या कोई तूफ़ान है ।
लेकिन
हम तो इस जीने के हाथों मर चले || मुहल्ले के शरीफ़ लोग उसको पैसा देने से घबराते थे, क्योंकि वह (कदाचित् ) चरस पीता था, ऐसा समझा जाता था ।
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एक रोज़ रात को मैं अपने कमरे में बैठा हुआ था । गर्मियों की रात और कोई दस बजे का समय था । ज़्यादातर दूकानें बन्द हो चुकी थीं। लेकिन कचाची और मिर्ज़ा की दूकानें अभी तक खुली हुई थीं। सड़क के दोनों ओर लोग अपनी अपनी चारपाइयों पर लेटे हुए थे । कुछ तो सो गये थे और कुछ अभी तक बातें कर रहे थे । हवा में खुश्की और गर्मी थी और नालियों में से सड़ान फूट रही थी । मिर्ज़ा की दूकान के तख़्ते के नीचे एक काली बिल्ली घात लगाये बैठी थी, जैसे किसी शिकार की फ़िक्र में हो । एक आदमी ने एक आने का दूध लेकर पिया और कुल्हड़ को ज़मीन पर डाल दिया। बिल्ली दबे पाँव तख़्ते के नीचे से निकली और कुल्हड़ को चाटने लगी । उसी वक्त मेरी खिड़की के सामने से कल्लो गई और उसके पीछे मुन्नू क़दम बढ़ाता हुआ । कल्लो जवान थी। उसके चेहरे पर एक कान्ति और सुन्दरता थी । उसकी चाल में एक निर्भयता और अल्हड़पन था और उसकी देह जीवन के उभार से पुष्ट और लचीली थी। वह मुन्सिफ़ साहब के यहाँ नौकर थी । मुन्सिफ़ साहब की बीबी ने ही उसे छुटपन से पाला था और अब वह विधवा हो गई थी। उसे विधवा हुए भी तीन वर्ष बीत गये थे, लेकिन मुहल्ले के जवानों की निगाह उस पर गड़ी रहती थी। जब वह गली के मोड़ पर पहुँची तब मुन्नू ने उसका हाथ पकड़ लिया । कल्लो भुँझला कर चिल्लाई - " हट दूर हो मुए । मेरा हाथ छोड़ ।” पास के एक मकान की छत पर दो बिल्लियों के लड़ने की आवाज़ आई । उसी वक्त कल्लो ने ज़ोर
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संख्या ३]
हमारी गली
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से झटका दिया और अपना हाथ छुड़ा लिया-"झाडू "जा यार, यह भी क्या गधों की बातें करता है। मैं पिटे, ज्वाना मरे। समझता है, मुझमें दम नहीं। तो यह जानता हूँ, 'खाम्रो पीअो और मज़े करो'। इससे इतना पिटवाऊँगी कि उम्र भर याद करेगा।"
ज्यादा उस्ताद ने सिखाया नहीं। मैं तो मूंछों को ताव ____ मिर्जा जो एक ख़रीदार को दूध देने के बाद तनिक देता हूँ और पड़े पड़े ऐंड़ता हूँ। कहाँ की दोज़ख़ की देर के लिए घर में चला गया था, उसी वक्त लौट लगाई। अगर हुई भी तो भुगत लेंगे। अब कहाँ का रोग आया और कल्लो का अन्तिम वाक्य उसे सुनाई दिया। पाला ।” वह बोला--
"बस यार बस, क्यों ख़राब बातें मुंह से निकाल दिया ____ "क्या बात है कल्लो ? क्या हुआ ?” लेकिन कल्लो है। सब आगे आ जाता है। सारी अकड़ धरी रह बिना पीछे मुड़े तेज़ी से गली में चली गई।
जायगी।" अज़ीज़ खैराती जो अपनी दुकान के सामने सो रहा "अच्छा यार ले तू इस तरह की बातें करने लगा। था, शोर से उठ गया। वह मुन्नू को खड़ा देखकर पूछने मैं अब चल दिया।" लगा-"अबे मुन्नू , क्या बात है ?"
____ "ज़री सुन तो यार, एक बात मुझे दिनों से हरियान ___मुन्नू निराशा और क्रोध से भरा खड़ा था। उसका कर रही है । कसम खा, बता देगा।" मुँह सूखकर सुन्न-सा मालूम हो रहा था। आँखें साँप "अच्छा जा तू भी क्या याद रखेगा। अल्ला कसम की आँखों की तरह ज़हरीली और तेज़ हो गई थीं। कूड़े बता दूंगा।" के ढेर पर एक बिल्ली की आँखें ज़रा देर चमकती हुई "यह बता, आख़िर तू चोरी क्यों करता है ?" दिखाई दी, लेकिन फिर छिप गई। मुन्नू ने कुछ झेपी-सी "भई, इसकी नहीं बदी थी।" निराशा-भरी आवाज़ में जवाब दिया--"कुछ नहीं यार "देख कौल दे चुका है।" कल्लो थी।"
"अच्छा जा, तू जीता, मैं हारा। जो सच पूछे तो ऊपर बिल्लियाँ अभी तक लड़ रही थीं। वे एक बात यह है कि मैं कभी चोरी न करता । तू जानता है, मेरे भयानक ढङ्ग से गुर्राने के बाद ज़ोर ज़ोर से चीखती थीं। रिश्तेदार काफ़ी अमीर लोग हैं।” यह मालूम होता था कि एक-दूसरे को खा जायँगी। फिर “जदी तो मैं और भी हरियान हो रिया हूँ।" "म्याऊँ म्याऊँ" करके एक भाग निकली और बिल्ला "मेरा एक भाई लगता था। यह कोई दस बरस की गुर्राता हुआ उसके पीछे पीछे हो लिया।
बात है। मेरी उससे कुछ चल गई थी। हम दोनों साथ अज़ीज़ खैराती ने मुन्नू को अपने पलङ्ग पर बिठा रहते थे। उसने मेरी मास्टर से शिकायत कर दी और लिया और सिरहाने से बीड़ी निकालकर उसकी तरफ़ बेंतें लगवाई। मेरे ऊपर भूत सवार हो गया। मैंने कहा, बढ़ाई, लेकिन मुन्नू ने अपनी कमीज़ की जेब में से “साले, अगर बदला न लिया तो मूंछे मुड़वा दूँ ।” एक चाँदी का सिगरेट-केस निकाला और अज़ीज़ से कहा- रोज़ दाँव पाकर मैंने साले का बस्ता चुरा लिया। उसके "लो मियाँ, तुम भी क्या याद करोगे, मैं तुम्हें बड़ा अन्दर बड़ी बढ़िया चीज़ों थीं। उससे शुरूअात हो गई । बढ़िया सिगरेट पिलाता हूँ ।” और एक सिगरेट निकालकर फिर एक बार मुझे एक मामू का सिगरेट-केस पसन्द आ अज़ीज़ को दे दिया।
गया। मैं, उनसे माँग तो सकता न था, लेकिन मैंने पार "अरे मियाँ, अबके किसका मार लाया ?"
कर दिया। उसके बाद मैंने सोचा कि इन हरामज़ादों के "मियाँ. यारों के पास किस चीज़ की कमी है। पास रुपये भी है और अच्छी चीजें भी। क्यों न उड़ा जिसको न दे मौला उसको दे आसफ़द्दौला। अगर लिया करो।" अल्लामियाँ के भरोसे पर रहते तो काम चला लिया था।" "लेकिन अगर कधी पकड़े गये तो।"
"मियाँ होश की लो, पिस से डरो। दोज़ख़ में जलोगे, "फिर तूने वही फ़िज़ल की बातें शुरू कर दी। तोबा करो!
अच्छा मैं अब चला, नहीं तो घर में तू-तू मैं-मैं होगी।"
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सरस्वती
[भाग ३८
यह कह कर वह उठा और अज़ीज़ की कमर पर ज़ोर की असहाय अवस्था का भान होता है। धूलि से मैले से थप्पड़ मारकर चला गया।
और फीके बादलों में एक जंगली कबूतर उड़ता हुआ
गया और उनके धूमिल रङ्गों में छिप गया। दूर से मिलों हमारे मुहल्ले की मस्जिद में हसानुर्रहीम अज़ान दिया की सीटियों और रेल के इञ्जनों की आवाज़ों पा रही थीं। करते थे । ये डील-डौल के भारी और मज़बूत थे । रङ्ग शहर की ऊँची ममटियों और मीनारों से कबूतर उड़ते थे बिलकुल काला था। डाढ़ी मेंहदी से लाल रहती, सिर या मँडरा-मँडराकर उन पर बैठ जाते थे। दूर-दूर जिधर तामड़ा था, लेकिन कनपटी और गर्दन के पीछे तक बाल दृष्टि जाती थी, गन्दी, विकृत, मैली-कुचैली इमारतें और के पट्टे पड़े रहते थे। उनके माथे पर ठीक बीच में एक उनकी छतें दिखाई देती थीं। दूर-दूर जिधर आदमी देख बड़ा-सा गड्ढा पड़ गया था, जिसका रङ्ग राख का-सा सकता था, जीवन में उदासीनता और निरुद्यमता का भान था, और दूर से देख पड़ता था। वे मेरी खिड़की होता था। कहीं-कहीं कोई दुमज़िला या तिमञ्जिला मकान के सामने से खकारते हुए जाया करते थे। वे गाढ़े का बन रहा था और उसकी पाड़े आसमान और निगाह के ढीली मोरियोंवाला पायजामा और गाढ़े का कुर्ता पहने बीच एक रुकावट खड़ी करती थीं, लेकिन बाँसों और रहते और उनके कंधे पर एक बड़ा लाल रङ्ग का छपा बल्लियों के रङ्ग देखने में कोई बुरे मालूम न होते थे। वे हुआ रूमाल पड़ा होता था। उनकी आवाज़ में एक ऐसा बादलों के रंगों में मिलकर मध्यम और हलके दिखाई देते करारापन, गर्मी के साथ वह नर्मी थी जो आदमी को थे। उसी वक्त हसानुर्रहमान के खकार की आवाज़ आई कम मिलती होती है। उनकी आवाज़ दूर-दूर पहचानी और फिर उनकी उठती हुई सुनहरी आवाज़ शून्य में फैल जाती थी, और कई मुहल्लों तक पहुँचती थी। अजान गई। यह आवाज़ कुछ ऐसी निराश करने के साथ ही से पहले उनकी खकार भी बहुत दूर से सुनाई देती थी। साथ सान्त्वना देनेवाली थी कि मेरी निराशा दुःखमयी पहले-पहल तो उनकी आवाज़ से उस प्रकार का संकेत गम्भीरता में परिणत हो गई। उस अावाज़ से कोई होता था जो मुसलमानों को नमाज़ को बुलाती है, फिर महत्ता वा बड़प्पन न टपकता था, बरन उससे जीवन की जब अन्त होने का अाता तब आवाज़ की झङ्कार में कमी अस्थिरता का भान होता था—इस बात का कि जगत् होती और उनके शब्द बल खाते हुए एक सन्नाटा और क्षण-भंगुर है और उसके चाहनेवाले कुत्ते--इस बात का शान्ति पैदा करते हुए आकाश में खो जाते। लोग कि जीवन इसी प्रकार से तुच्छ और सारहीन है जिस प्रकार हसानुर्रहमान को हज़रत बुलाल हबशी कहते थे और कि बादलों के ऊपर छाई हुई धूलि या धुआँ । अपने इन इस तरह की बहुत-सी बातें दोनों में ही एक-सी पाई असम्बद्ध विचारों में निमग्न हुअा मैं अज़ान को सुनता जाती थीं। उनकी गीली आवाजें और उनका रहा। यहाँ तक कि वह ख़त्म होने को आगई और "हई काला रङ्ग।
अलस्सला, हई अलस्सला" की खामोशी पैदा करनेवाली ___ एक बार मैं अपने मकान की छत पर अकेला बैठा अावाज़ कानों में गूंजने लगी। फिर "हई अललफ़िला, था। आसमान पर हलके-हलके बादल बिछे हुए और हई अललफ़िला" की आवाज़ सन्नाटा छाती हुई दुनिया सूरज की रोशनी उन पर पीछे से पड़ रही थी। उनमें की क्षण-भंगुरता का विश्वास दिलाती, एक लम्बी तान हलकी सी फीकी-फीकी रोशनी देख पड़ती, क्योंकि वाता- लेकर, धीमे स्वरों में होती, धीरे-धीरे आश्वासन-सा देती वरण साफ़ न था और शहर की गर्द और दूर की मिलों हुई इस प्रकार ख़त्म हुई कि यह जान न पड़ता था कि का धुओं हवा में फैला हुआ था। शहर का हल्ला-गुल्ला आवाज़ रुक गई है या सारी दुनिया पर ख़ामोशी फैली है। मक्खियों के गुनगुनाने की तरह सुनाई दे रहा था। और वह गहरी और व्याप्त निस्तब्धता जिससे मालूम होता था सारे आकाश-मण्डल में एक हृदय को टुकड़े-टुकड़े करने- कि दुनिया के परे, कहीं बहुत दूर एक दुनिया है, जिसमें वाली निराशा थी—वह दुख की अवस्था जो हमारे शहरों आदि और अन्त दोनों एक हैं, और यह हमारी दुनिया की एक खास पहचान होती है और जिसमें घृणास्पद जीवन तुच्छ और अस्मरणीय है। आवाज़ इस प्रकार शून्य में खो
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संख्या ३]
हमारी गली
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गई जिस प्रकार क्षितिज में जाकर ज़मीन ख़त्म हो जाती है सुलेमान को हुक्म मिला कि एक महल बनायो तो बस
और आसमान शुरू हो जाता है, और जान नहीं पाते कि साहब उन्होंने तैयारियां शुरू कर दी। जिन्नातों ने आननज़मीन ख़त्म हो गई या हर जगह आसमान ही आसमान फानन में बड़े-बड़े फ़त्तर और सिल्ले ला-लाकर जमा कर है । आवाज़ इस तरह धीरे-धीरे रुक गई कि आवाज़ और दिये और मदत लग गई, तुम जानते ही हो कि जिन्नातों उस खामोशी में कोई भेद नहीं देख पड़ता था। आवाज़ का काम कितना फुर्ती का होता है। आज इतना, कल कानों में गूंज रही थी, लेकिन यही सन्देह होता था कि वितना, थोड़े ही दिन में महल आसमान से बातें करने केवल मौन का अातङ्क कानों पर छाया हुआ है। लग गिया। हज़्ज़त सुलेमान रोज़ विस जंगा जाके देखा
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करते कि कोई काम में सुस्ती तो नहीं कर रिया है । तो एक रात को मिर्जा की दुकान पर चार अादमी बैठे बस, साहब एक दिन महल खड़ा हो गिया। अब सिर्फ़ हुए बातें कर रहे थे। उनमें से एक तो अज़ीज़ था, एक विस के अन्दर की कत्तलें और फ़त्तर साफ़ करने रह गिये। कबाबी और एक-आध और इकट्ठे हो गये थे। उनके सामने दूसरे रोज़ फिर हज़त सुलेमान अपनी लकड़ी टेककर हुक्का रक्खा था और वे बारी बारी से यूंट खींच रहे थे। खड़े हो गये और कूड़े-करकट को बाहर फेंकने का हुक्म उनमें से एक कह रहा था
दे दिया। लेकिन वित्ने में वहाँ से कुछ और ही हुक्म श्रा मैं तो यार, हर एक चीज़ में विस की शान देख चुका था। अब देखिए विस की शान कि यहाँ तो महल रिया हूँ।"
की सफ़ाई हो रही है और वहाँ विस लकड़ी में घुन लगना इस पर मेरे कान खड़े हुए और मैं ध्यान से सुनने शुरू हो गया। लेकिन वे डटे खड़े रहे। यहाँ तक कि लगा। इतने में एक गाहक आया और उसने मिर्ज़ा से घुन लगते-लगते मूंठ तक पहुँच गया, लेकिन विस को एक अाने का दूध माँगा और एक अोर खड़ा हो गया। ज़री भी खबर नहीं हुई और लकड़ी राख की तरियों झड़ मिर्जा ने एक कुल्हड़ उठाया और दूध निकालने के लिए गई और विन का खुद का दम निकल गया। लेकिन लुटिया कढ़ाई की ओर बढ़ाई । उस आवाज़ ने अपनी बात मैं तो इस बात पर हरियान हो रिया हूँ कि उन कत्तलों उसी तरह कहना शुरू किया--
और फ़त्तलों को कौन साफ़ करेगा।" ___“परले दिन में चाँदनी चौक में से जा रिया था कि अज़ीज़ के हाथ में हुक्के की नली उसके मुँह के सामने से एक बछिया आ री थी, उसी जगा एक बच्चा बराबर रक्खी हुई थी और वह बोलनेवाले की तरफ़ घूर पड़ा वा था। गाय बच्चे के पास पान के रुक गई । मैंने रहा था। मिर्जा का एक हाथ जिसमें लुटिया थी, ऊपर था सोचा कि देखो अब क्या करती है। वित्ने में साब विस और श्राबखोरेवाला नीचे. और वह किस्से में बेसुध बछिया ने अपने चारों पैर जोड़कर कुल्लाँच मारी कि बच्चे हो लगा हुआ था। मैंने ज़ोर से एक कहकहा लगाया, को साफ़ लाँग गई। मुझको तो उस जानवर की अक्ल में लेकिन फिर सोच में खो गया कि वाकई आखिर इन विस की शान नज़र आ गई।" मिर्जा का एक हाथ कढ़ाई "कत्तलों और फ़त्तरों" को कौन साफ़ करेगा। के पास था, दूसरे में कुल्हढ़, और वह बोलनेवाले की हवा का एक झोंका ज़ोर से आया और मिट्टी के तेल ओर घूर रहा था।
का लैम बुझ गया। सड़क पर अँधेरा था। उसी वक्त ___ अज़ीज़ बोला-"वाह क्या विस की शान है !" लोग मिर्जा की दूकान से उठकर चलने लगे और मैं भी मिर्जा ने लुटिया में दूध लिया और उसको उछालने घर के अन्दर चला गया ।* लगा, उतने में एक दूसरा शख्श बोला-"हाँ, मिया उसकी शान का क्या पूँछ रिये हो। एक मर्तबा हज़ ( सर्वाधिकार लेखक के लिए सुरक्षित)।
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नरहरि का निवास
लेखक, श्रीयुत ठाकुर मानसिंह गौड़ नाकबरी दरबार के हिन्दी-कवियों में नरहरि का अपना विक्रमी में प्रकाशित हुई थी। इसमें नरहरि कवि के वंश
एक विशेष स्थान रहा है । ये अपने समय के एक के विषय में इस तरह लिखा हैस्वाधीनचेता और नीतिकुशल महाकवि थे । खेद है, इनके
जग जानि आदि कवि वेद पुरुष । सम्बन्ध में अभी तक कोई जाँच-पड़ताल नहीं हुई है। जैसे तेहिं बंदीजन रामचरित मैं, गिरिधरदास अपनी कुण्डलियों के लिए प्रसिद्ध हैं, वैसे ही ये
मुनिन कही यह वाज सुरुष ॥१॥ अपने छप्पयों के लिए प्रख्यात हैं। गिरिधरदास की कुछ श्रीयुत नरहरि नाम महाकवि, कुण्डलियायें मिलती भी हैं, पर नरहरि के छप्पयों का लोप-सा
जिनके डंके बजत दुरुष । हो गया है। तब इनके ग्रन्थों के सम्बन्ध में क्या कहा जा जिन बन काटि बसाई असनी, सकता है ? और तो और, हिन्दीवालों ने यह तक जानने का
ब्राह्मणभक्ति न तन में है रुष ॥२॥ प्रयत्न नहीं किया कि ये कहाँ के निवासी थे। ठाकुर शिवसिंह तिनसे श्री हरिनाथ प्रगट भे, सेंगर ने अपने 'सरोज' में इन्हें असनी का निवासी लिखा
मधुर बचन कबहू न कुरुष ।। है। बस उसी की नकल हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों
जिनकी धुजा पताका फहरत, ने कर ली। मिश्रबन्धुत्रों ने, कहा जाता है, अपना 'विनोद' जिनके कुल में कोउ न मुरुष ॥३॥ विशेष खोजों के आधार पर लिखा है, परन्तु उनके संशो- मन थिरात बिनु साधन देखत, धित तथा परिवर्द्धित संस्करण में भी नरहरि असनी के श्री गंगा की झाँक मुरुष ॥ ही निवासी लिखे गये हैं । और यह बात सोलहो पाने ग़लत सो असनी भूदेव बाग सी, है । वास्तव में नरहरि बैसवाड़े के पखरौली ग्राम के निवासी देखत उपजत हरष हुरुष ॥४॥ थे । यह ग्राम रायबरेली-ज़िले के डलमऊ-कस्बे से दो मील इससे प्रकट होता है कि नरहरि और उनके पुत्र हरिनाथ पर्व गंगा जी से दो मील उत्तर स्थित है। इस गाँव में नर- का श्रादिस्थान असनी नहीं था। और सुनिए..हरि जी के द्वारा स्थापित सिंहवाहिनी देवी का मंदिर श्राज श्रीहरिनाथ अश्विनी भाये। भी मौजूद है । उनके वंशधर विवाह आदि शुभ अवसरों
पितु धन पाय सुग्राम बसाये ॥ पर देवी का पूजन करने के लिए यहाँ प्रायः आते रहते हैं।। श्रादिनाथ बेती सुखधामा। यह कहावत यहाँ अाज भी प्रचलित है कि
गोपालौ गोपालपुर नामा ॥ "बरहद नदी पखरपुर गाँव,
बेंती-कल्यानपुर नाम का गाँव गंगा जी के किनारे तिनके पुरिखा नरहरि नाँव" डलमऊ से तीन मील पूर्व है, अर्थात् पखरौली से केवल एक बरहद नाम का बहुत लम्बा-चौड़ा तालाब अब भी मील पर है। 'ब्रह्मभट्ट-प्रकाश' तृतीय खंड सफा ४९ में पखरौली में है। ज्यादा पानी हो जाने पर इसका पानी हरिनाथ भट्ट की संक्षिप्त जीवनी दी गई है। उसमें भी गंगा जी में जाकर गिरता है। बरहद तालाब पखरौली के हरिनाथ-द्वारा असनी का बसाया जाना लिखा है। यह भी उत्तर-पश्चिम ग्राम से मिला हुआ है। पखरौली लिखा है कि एक समय कार्यवश हरिनाथ रीवॉनरेश के पूर्व एक और तालाब है । वह 'हरताल' के नाम से प्रसिद्ध महाराज रामसिंह के पास गये थे। प्रसंगवश महाराज ने है। कहा जाता है कि इसमें नरहरि के हाथी नहलाये जाते अपनी पाली हुई चिड़ियाँ दिखलाकर उनसे पूछा कि थे। मुझे 'अश्विनी-चरित्र' नाम की एक पुस्तक मिली आपने भी चिड़ियाँ पाली हैं। तब उन्होंने यह उत्तर है। यह रायगंज, कानपुर, के 'शंकर-प्रेस' से संवत् १९८४ दिया
રદ્દ
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संख्या ३ ]
बासम बाजपेई पाँड़े पक्षिराजसम । हंस से त्रिवेदी और सोहैं बड़े गाथ के ॥ कुही सम सुकुल मयूर से तिवारी भारी ।
माथ के ||
जु सम मिसिर नवैया नहीं नीलकंठ दीक्षित अवस्थी हैं चकोर चारु । चक्रवाक दुबे गुरुसुख सब साथ के 11 एते द्विज जाने रंग रंग के मैं याने ।
देश देश में बखाने चिड़ीखाने हरिनाथ के || १ || नरहरि के वंश में दयाल नाम के एक कवि हुए हैं। ये भी कहते हैं
कोसभर गंगा ते प्रकट पखरौली गाँव । देवी नरहरि की प्रसिद्ध 'सिंहबाहिनी' || FE EE TREE नदी ' हरताल ' । हाथिन के हलके हिलत के अथाहनी || भनत 'दयाल' भुइयाँ धई भीतर में 1 नव कल्यानपुर 'शीतला ' सराहनी || चकवे चक्कते अकबर बली बादशाह |
तेरी बादशाही में इतेक देवी दाहनी || १ ||
'सिंहवाहनी' देवी का मंदिर पखरौली में, 'भुइयाँ देवी' इस ओर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए ।
शुचि - स्मित वर्णाभरणा ! थर थर थर नीलाम्बर, बहा पवन परिमल-भर, प्रतिहत तम के स्तर स्तर, जागी किरणास्तरणा ।
का निवास
गीत
लेखक, श्रीयुत कुँवर चन्द्रप्रकाशसिंह
फा. ७
'Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
पुर
का धई ग्राम में और 'शीतलादेवी' का मंदिर बेंती - कल्यान - में अब तक स्थापित है। अकबर बादशाह ने नरहरि कवि को निम्नलिखित ग्राम पुरस्कार में दिये थेकोसभर गंगा ते प्रगट पखरौली ? गाँव । दूजे मिरजापुर कल्यानपुर रती है | और नरहरिपुर गाँव धर्मापुर" है । तारापुर ६ बन्ना जमुनीपुर 'कुनेती 11 भनत 'दयाल' एकडला गौरी १० बड़ोगाँव । चाँदपुर लूक ११ सुरजूपुर १२ बरेती १३ है ॥ श्री नानकार के इतेक नाम गाँवन के । जाहिर जहाँन जहाँगिरवा १४ समेती है ॥ १ ॥ कहते हैं कि हिन्दी के प्राचीन कवियों की काफ़ी खोज हो चुकी है । परन्तु जब नरहरि जैसे राजमान्य कवियों के
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सम्बन्ध में यह हाल है तब दूसरों के सम्बन्ध में क्या होगा, कौन कह सकता है । सुना है, नरहरि के वंश में आज भी लाल, ब्रजेश जैसे प्राचीन शैली के ख्याति प्राप्त कवि विद्यमान हैं। ये चाहें तो नरहरि और हरिनाथ के ग्रन्थों
का उद्धार हो सकता है। प्राचीन कविता के प्रेमियों को
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व्यञ्जित रे ! नव-नव स्तव, उत्थित खग-कुल कलरव, खोले दल मुद्रित भव, उतरो, शिञ्जित-चरणा !
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คลิ
स्त्रियों के अपहरण
के
मूल कारण साहित्य-सदन, कृष्णनगर, लाहौर, ७-२-३७
प्रिय महोदय !
फ़रवरी की 'सरस्वती' में 'स्त्रियों के सम्बन्ध में भ्रमात्मक सिद्धान्त' शीर्षक लेख पढ़ा। इसमें सितम्बर ३६ की 'सरस्वती' में प्रकाशित मेरे 'हिन्दू-स्त्रियों के अपहरण के मूल कारण' शीर्षक लेख की आलोचना है । लेखिका के रूप में जिन कुमारी का नाम 'सरस्वती' में छपा है वे भी लाहौर के उसी महल्ले में रहती हैं जिसमें मैं रहता हूँ। कुछ समय पूर्व जब मैंने एक मित्र से सुना कि एक देवी ने मेरे लेख की आलोचना लिखकर 'सरस्वती' में भेजी है तब इस विषय पर एक देवी के विचार जानने की आशा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ था । मैंने समझ रक्खा था कि लेख के पाठ से मेरे ज्ञान में कुछ वृद्धि होगी । परन्तु अब लेख को पढ़कर मुझे घोर निराशा हुई, इसलिए नहीं कि उसमें मेरी कड़ी आलोचना है, न इसलिए कि वह लेख कृत्रिम है, उसमें किसी नारी- हृदय का उच्छवास नहीं, बरन किसी लहँगा चुनरी धारी पुरुष के नारी-सेवा-धर्म या 'शिवलरी' का प्रदर्शन मात्र है । जिस बालिका का नाम लेख की लेखिका के रूप में दिया गया है वह स्कूल में पढ़ती है। लेख में जिस प्रकार की भाषा और विचार व्यक्त किये गये हैं, स्कूल में पढ़नेवाली कोई कुमारिका वैसी भाषा में वैसे विचार
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कभी व्यक्त कर ही नहीं सकती। उसे इस बात का ज्ञान हो नहीं हो सकता कि अमुक दम्पति में 'किसी प्रकार का वासना-पूर्ण सम्पर्क नहीं है।'
कुछ
साड़ी-धारी लेखक ने मेरे लेख के आशय का वा तो समझा ही नहीं या उसने जानबूझ कर मेरे विरुद्ध स्त्री जाति को उभाड़ने और अपने को स्त्री- रक्षक प्रकट करने की चेष्टा की है। मैंने जो कुछ लिखा है उसमें कितनी सचाई है और मेरे खंडन में जो लिखा गया है उसमें कितना सत्यांश है, इसका पता कृष्णनगर - (लाहौर) निवासियों से पूछने से लग सकता है । युवक और युवतियों के अमर्यादित मेल-मिलाप से उनके नैतिक पतन का भय रहता है, इसलिए उन्हें अलग अलग रहना चाहिए, जिस प्रकार यह कहना किसी को व्यभिचारी ठहराना नहीं है, उसी प्रकार नारी-प्रकृति के सम्बन्ध में कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य बताकर उससे लाभ उठाने का परामर्श देना किसी की निन्दा करना नहीं । स्त्रियों की झूठी प्रशंसा से वाहवाही तो मिल जाती है, परन्तु जात का कोई लाभ नहीं पहुँच सकता । इच्छा रहते भी मैं समालोचक महाशय पर तब तक प्रहार नहीं करूँगा जब तक वे साड़ी जम्पर उतारकर अपने प्रकृत पुरुष-रूप में मैदान में नहीं आते। इससे अधिक मैं इस समय और कुछ नहीं कहना चाहता ।
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आपका
सन्तराम
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जाग्रत नारिया
क्या आधुनिक स्त्री स्वाधीन है ?
लेखक, श्रीयुत संतराम, बी० ए० DIRCH ह स्वतंत्रता का युग है। चारों ओर और कई बार बाहर आई। एक दूसरी स्त्री नेलसन
, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता का ही तुमुल स्मारक जैसे ऊँचे स्थान पर से नीचे कूद पड़ी। यह सारी VG - नाद सुनाई पड़ता है। राजनैतिक हलचल और गड़बड़ किसलिए की गई ?-पुरुषों के
स्वतंत्रता ही . जीवन के प्रत्येक समान वोट देने का अधिकार पाने के लिए। विभाग में
स्वतंत्रता की परन्तु अाज उनका वह जोश कहाँ है ? वह सब ठंडा aurat माँग हो रही है। स्त्रियों की दशा पड़ गया है। आज इंग्लैंड में कितनी स्त्रियाँ अपने वोट
Mara को लेकर बड़े हृदयस्पर्शी शब्दों में नर और नारी की समता देने के अधिकार का उपयोग करती हैं ? अब तो वे इसे का ढोल पीटा जा रहा है। स्त्री कभी स्वतंत्र न रहे, एक व्यर्थ का झमेला समझकर इसमें पड़ना ही नहीं धर्मशास्त्र की इस अाज्ञा को लेकर पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ बेचारे चाहतीं। मनु की वह गति बना रही हैं कि उसकी स्वर्गस्थ आत्मा महिला-मताधिकार के लिए अान्दोलन करनेवाली लज्जा के मारे अानन्दधाम के किसी कोने में मुँह छिपाये स्त्रियों के मन में जो भाव काम कर रहा था और जिसने पड़ी होगी। भारत के तो पुरुष भी पराधीन हैं, फिर स्त्रियों उनमें वीरता और क्षोभोन्माद की अवस्था उत्पन्न कर दी की स्वाधीनता का तो उतना प्रश्न ही नहीं पैदा होता। थी वह इसलिए कि वे समझे हए थीं कि पार्लियामेंट परन्तु स्वाधीन योरप में 'स्त्री-स्वातंत्र्य' के प्रश्न को लेकर ही राष्ट्र पर राज्य करती है और सब बातों में उसको मार्ग स्त्रियों ने वह ऊधम मचाया था कि पुरुष बेचारे त्राहि माम् दिखाती है, इसलिए उसमें अपने प्रतिनिधि भेजने का त्राहि माम् कह उठे थे । गत महायुद्ध के पहले वहाँ स्त्रियाँ अधिकार प्राप्त कर लेने से स्त्रियाँ अपनी स्थिति को अच्छा अपने को लोहे की सलाखों के अँगले के साथ जंजीर से बना सकेंगी। परन्तु पार्लियामेंट की सारी शक्ति कर्मचारियों बाँध देती थीं, राजनैतिक सभात्रों पर धावे बोलती थीं, ने और राजनीतिज्ञों के छोटे छोटे समूहों ने छीन रक्खी जेलों में जाकर भूख-हड़ताल करती थीं, पुलिस के सिपाहियों है । ये राजनीतिज्ञ या तो बड़े बड़े आर्थिक और प्रौद्योगिक के साथ गँवारों की तरह लड़ती-झगड़ती थीं, गिरजाघरों स्वार्थदर्शियों के हाथ की बिलकुल कठपुतली होते हैं या को जलाती थीं और क्रीड़ा-स्थलों पर तेज़ाब फेंक देती इन पर उनका बहुत अधिक प्रभाव रहता है । ब्रिटिश उदार. थीं। इंग्लैंड में लेडी कांस्टेस लिटन कई बार जेल गई दल के एक बड़े नेता श्रीयुत रेम्जे मूअर का कथन है कि
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सरस्वती
| भाग ३८
"पिछली पीढ़ी में पार्लियामेण्ट का प्रभुत्व और प्रभाव बड़ी शीघ्रता से और विपत्तिजनक रूप से क्षतिग्रस्त हुअा है;
और इसकी कार्यवाही केवल समय का व्यर्थ नाश और हमारे वास्तविक शासको --मंत्रिमरा दल और नौकरशाहीके कार्य में विलम्ब कराने और बाधा डालने की एक विधि समझी जाने लगी है। मंत्रिमण्डल के एकाधिपत्य ने पार्लियामेण्ट को नि:सार और शक्तिहीन बना दिया है।"
यह बात जितनी आज स्पष्ट हैं, उतनी सन १९१० में नथी। इसलिए यदि उस समय अँगरेज़ स्त्रियों ने पालियामेण्ट म प्रतिनिधि भेजने का अधिकार पाने का ही खजाने । की कुंजी समझा तो इसके लिए उनका उपहास नहीं किया जा सकता। उस समय पुरुषों को भी यही ग़लत फहमी थी। परन्नु मताधिकार प्रात करने का अान्दोलन तो अाक्रमणशील स्त्रियों की एक भाव व्यञ्जना थी, राजनीति के सिवा दुरे क्षेत्रों में भी यही भाव स्पष्ट प्रकट हो रहा था।
विलायत में इस समय बहुत थोड़ी ऐसी स्त्रियां होंगी जो समझता है कि मताधिकार ने उनको कोई टांग लाभ पहुंचाया है। परन्तु वहा मी स्त्रयाँ अनेक हैं जिन्होंने 'मताधिकार प्राप्त करने के अपने जोश को कार्य के दूसरे क्षेत्रों में लगा दिया है । इनमें उन स्त्रियों की भी थोड़ीसी संख्या है जिनकी धारणा है कि उन्हें उस चीज़ से जिसे वे अपना स्वातंत्र्य अथवा 'उद्धार' कहती हैं, बहुत .
कराची की कुमारी जगासिया की अवस्था अभी
कराचा बड़ा लाभ हुया है। 'याज की पुरुष की दामना से छुट- कवल १४ वर्ष की है। पर इस अल्प यायु में ही इन्होंने कारा पाई हुई स्त्री, ये शब्द प्रायः स्त्रियों की पत्रिकायों में नृत्य और संगीत में बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली है। लखनऊ लिखे मिलते हैं। इन्हीं पत्रिकायों में प्रसन्नचित्त स्नान की नुमाइश में गत २१ दिसम्बर का इन्हाने अ०भा० करती हुई लड़कियों के फोटो इम ढग के उपतं हूँ. मानो मंगीत-सम्मेलन के अवसर पर अपना नृत्य दिखाया था। स्नान करने के तालाब के गिर्द गाजरा के गच्छ मजाये यह चित्र उसी समय का है। हए हो। अँगरेजी पत्रिकायों में कभी कभी तो लड़की बड़े यह कहना गलत होगा कि जो दशा उनकी परदादियों सुन्दर वेश में स्नान करती हुई दिखाई जाती है और चित्र की थी, स्वतंत्रता की दृष्टि से यही दशा आज की युवतियों के नीचे वह कुछ लिखा रहता है जो उसकी परदादी उसे की है। निस्सन्देह याज की युवतियां अपनी परदादियों देखकर कहती। उसमें भाव यह दिखाया जाता है कि मे दो-एक छोटी छोटी बातों में कर पायदे में है। परन्तु यह एक तरुण अप्सरा है, जिसमें से माधुर्य और प्रकाश जिसे स्त्रियों का 'उद्धार' या 'नारी स्वातन्य कहते हैं. तनिक फूट फूटकर निकल रहा है, अथवा यह मनुष्य-जाति के उम १२ गम्भीरतापूर्वक विचार कीजिए। इतिहास में नवीन उपाकाल की अग्रगामिनी है। इसके त्रियां इसी बात के लिए लड़ रही थी कि हमें पुरुषों विपरीत उसकी परदादी एक पराधीन कुरूपा वृद्धा थी, जो के समान नौकरियां मिला करें. हम सभी विभागों में काम पुरुषों की उस पर लादी हुई हास्य जनक प्रथानों को कर सके। परन्तु सभी स्त्रियों की दरों और दुकानों में चुपचाप सहन कर लेती थी।
श्राराम की नौकरी नहीं मिल सकती। याधुनिक प्रौद्योगिक
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संख्या ३]
जाग्रत नारियाँ
पद्धति के विकास में कभी कभी भाग्य का हाथ भी देख किसी एक की भी उपेक्षा करने से अभिनेत्री का सारा पड़ता है। जिस समय स्त्रियों ने अपना काम करने का काम मिट्टी में मिल जाता है।" अधिकार पुरुषों से बलपूर्वक छीना, ठीक उसी समय अाधु- जब लड़कियाँ फेक्टरियों में मिल कर काम कर रही होती निक टाइप राइटिंग मशीन उपयोगिता और समर्थता की हैं तब उनकी बातचीत के विषय क्या क्या होते हैं, इसका दृष्टि से उच्चता को प्राप्त हुई । इन दो घटनाओं का एक पता लगाने के लिए हाल में इंग्लैंड में अनुसन्धान किया साथ होना पुरुष-जाति के लिए अथवा कम से कम उन गया था। उनमें से तीन-चौथाई की बात-चीत पुरुषों के पुरुषों के लिए जो श्रमजीवी समाज से काम लेते हैं, एक विषय में थी और बाक़ी में से अधिकांश की सिनेमा पर। इन अतीव सुखद घटना थी। यह नई मशीन पत्र लिखने लड़कियों पर वैसी कोई रोक या दबाव नहीं जैसा कि उनकी
और हिसाब-किताब रखने के भारी काम में उन्हें बड़ा दादियों पर था। ये "अार्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कर चुकी हैं," काम देनेवाली थी और इधर भाग्य के फेर से उस जिसका अर्थ यह है कि इन्होंने बहुत सस्ते वेतन पर अति मशीन पर काम करने के लिए सस्ती मज़दरनों की भी कठोर श्रम करानेवाली दकान में प्रतिदिन आठ या उससे कुछ कमी न रही, जो इस काम को करने का अधिकार भी अधिक घंटे काम करने का अधिकार पा लिया पाने के लिए ही व्याकुल हो रही थीं।
मनोविज्ञान के सर्वोत्तम अाधनिक सिद्धान्तों के अनुसार. इसके परिणाम स्वरूप आज सहस्रों लड़कियाँ टाइप अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए स्वतंत्र' हैं; राइटिंग का काम कर रही हैं । यह एक ऐसा काम है जिसे इसका अर्थ, व्यवहार में, यह होता है कि ये किसी प्रिय पहले सीखना पड़ता है और जो कम से कम उतना ही भारी फ़िल्म स्टार के चेहरे, आवाज़, शृङ्गार, भाव-भङ्गी और होता है, जितने दफ्तर में काम करनेवाले पुरुषों के दूसरे काम वेष-भूषा की नकल करने को स्वतंत्र हैं। होते हैं, और जिससे नाड़ियों पर बहुत अधिक ज़ोर पड़ता है। क्षमा याचना करते हुए कहना पड़ता है कि इस प्रकार परन्तु इसके लिए उनको जो पारिश्रमिक मिलता है वह की बातें भी 'स्त्रियों के उद्धार' का एक अंग हैं ! पुरुषों के वेतन से प्रायः श्राधे के करीब होता है। यह हाँ. निस्सन्देह स्त्रियाँ डाक्टर और वकील भी बनी भी 'स्त्रियों के उद्धार' की क्रिया का एक भाग समझा जाता हैं। स्त्रियों के संयुक्त प्रयत्न से संसार में कहीं कहीं एकहै। जब हम फैक्टरियों पर विचार करते हैं तब स्थिति आध स्त्री पार्लियामेंट और असम्बली में भी पहँचा इससे भी कहीं अधिक बुरी जान पड़ती है । सस्ती मज़दूर है। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि इन व्यवसायों में स्त्रियाँ अाधुनिक कल-कारखानों के स्वामियों के लिए ईश्वर स्त्रियों की सफलता कोई आश्चर्यजनक बात है। ऐसी स्त्रियों का वरदान सिद्ध हुई हैं । जिस काम के लिए पुरुष मजदूरों को पुरुषों के समान ही कड़ा श्रम करना पड़ता है । वे को उन्हें एक रुपया रोज़ देना
रोज़ देना पड़ता था, वही काम वे प्रायः उनके समान योग्य नहीं होती; और उनको बहुधा छः-सात पाने में स्त्रियों से क
उन बहुत-सी उचित और अच्छी चीज़ों को छोड़ना पड़ता ___"अाज-कल स्त्रियों ने अपने आर्थिक उद्धार के लिए है जो स्त्रियों की स्वाभाविक भवितव्यता का एक अंश अभिनेत्री बनकर सिनेमा में काम करना प्रारम्भ किया है। होती हैं । वहाँ उनको अच्छा वेतन मिल जाता है, जिसके प्रलोभन इस नमने की स्त्रियों की संख्या बहुत थोड़ी है। जिन से अनेक रूपवती युवतियाँ घर-बार छोड़कर एक्ट्रेस बन स्त्रियों ने 'आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है' उनका अधिगई हैं। परन्तु वहाँ जाकर क्या वे स्वाधीनता का लाभ कर कांश समय फेक्टरियों और दफ़रों में ही काम करते बीतता लेती हैं ? घर में तो केवल एक पति को ही प्रसन्न करना है। स्त्रियों के इस अाक्रमण को रमणियों के चापलूस पड़ता था। परन्तु सिनेमा में अनेक पुरुषों को प्रसन्न रखना उनकी एक बड़ी विजय मानते हैं । परन्तु इस विजय का पड़ता है। सिनेमा के स्वामी के अतिरिक्त उनको साऊंड मूल्य क्या है ? इसका मतलब केवल इतना है कि अतीव रिकार्डर, फोटोग्राफर, डायरेक्टर आदि को प्रसन्न रखना कठोर प्रकार के आर्थिक दबाव के नीचे स्त्रियाँ एक प्रकार पड़ता है। तब कहीं वे सिनेमा में रह पाती हैं। इनमें से की आर्थिक परतंत्रता में से हाँकी ज़ाकर एक ऐसी दूसरे
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सरस्वती
[ भाग ३८
।
-
AL
H
___ "हमें आज तक ऐसा एक
भी पुरुष नहीं मिला जिसे त्रियों को सहायता देकर, चाहे वे स्त्रियाँ उसकी बहनें हों
और चाहे उपपत्नियाँ, प्रकट या गुम रूप से, गव न होता हो। हमें अाज तक ऐसी एक भी स्त्री नहीं मिली जो एक दुकान या कारखाने के मालिक की ग्रार्थिक निर्भरता को छोड़कर किमी एक पुरुष की ग्रार्थिक निर्भरता ग्रहण कर लेने को प्रतिधायुक्त उन्नति न समझती हो। इन बातों के विषय में स्त्रियों और पुरुषों के एक-दूसरे से झूट बोलने से क्या लाभ ? हमने उनको नहीं बनाया है, झूट बोलने से वे बदल नहीं जायेंगी।"
ओरेज महाशय के ये
शब्द बार बार मनन करने आगरा का मुरारीलाल खत्री हाईस्कूल (लड़कियों के लिए) जुलाई सन् १९३४ से योग्य है । ही स्थापित हुया है। पर इस थोड़े समय में ही इसने अच्छी उन्नति कर ली है। इस जी० के० चेस्टटन नामक स्कूल की कन्यायें संगीत-प्रतियोगिताओं में बराबर भाग लेती रही हैं और उन्होंने कितनी एक दूसरे विद्वान् की सम्मति ही शील्डे, तमगे आदि जीते हैं।]
में फ़ोमिनिम अर्थात् नारी
प्रभाव में अास्था का अर्थ है प्रकार की परतंत्रता में ढकेल दी गई हैं जो पहले से भी स्त्रीमुलभ विशेष गुणों को छोड़ देना। यह स्त्रियों की बहुत खराब है । सैनिक परिभाषा का प्रयोग करते हुए हम प्रशंसा करना नहीं, बरन उनको स्त्रीत्वहीन बनाना है। कहें तो कह सकते हैं कि स्त्रियों की यह विजयी प्रगति स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़नेवाली बड़ी से बड़ी स्त्री खाइयों में सुरक्षित शरण स्थान से निकलकर उनका भी स्त्रियों को अधिक स्त्री-सुलभ गुण-सम्पन्न बनाने में बरसते हुए गोलों के नीचे कच्ची मिट्टी के मोचों में लौट दिलचस्पी नहीं रखती। हमारे देश में इस समय जितनी श्राना है। स्त्रियाँ इस बात को जानती हैं, चाहे उनके भी स्त्रियाँ मुखिया बन रही है उनमें से अधिकांश ऐसी चापलूस हमें कितना ही धोखे में रखने का यत्न क्यों न करें। हैं जिनका गाहस्थ्य-जीवन दूसरी स्त्रियों के लिए कोई अच्छा
स्वगीय श्रीयुत ए० ग्रार० ग्रोरेज पन्द्रह वर्ष तक उदाहरण नहीं उपस्थित करता। एक बार मुझे एक लीड'न्यू एज' नामक पत्र के सम्पादक रहे थे। उन्होंने इस रानी के सामने एक गृहस्थ स्त्री की प्रशंसा करने का अवसर विषय पर अन्तिम शब्द कहा है । मी मताधिकार-अान्दो- प्राप्त हुआ। इस पर उन्होंने अँगरेज़ी में कहा – “हो सकता लन के जोश के दिनों में उन्होंने लिखा था
है कि वह अच्छी भार्या हो, परन्तु हम उसे अच्छी स्त्री नहीं
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संख्या ३ ]
I
कह सकते । " ऐसी नेत्रियाँ पहले तो स्त्रियों में व्याख्यान देना ही पसन्द नहीं करतीं, फिर यदि उन्हें कहीं विवश होकर स्त्रियों में बोलना ही पड़ जाय तो वे घर-गृहस्थी में लगी रहनेवाली स्त्रियों की निन्दा करके उनको 'स्वतंत्र' होने काही उपदेश देती हैं । वे सदा उन्हें प्रत्येक बात में पुरुषों की नकल करने - पुरुषों के ऐसे कपड़े पहनने, पुरुषों के खेल खेलने, पुरुषों का काम करने, बरन मदिरा और धूम्रपान करने तक को कहती हैं । देखा जाय तो यह पुरुष की एक भारी प्रशंसा है । परन्तु इस प्रशंसा की न तो उसे लालसा है और न वह इसके लिए याचना ही करता है । उसकी दृष्टि में यह एक दुःख और उपहास की बात है कि स्त्री कष्ट सहन करके शारीरिक और मानसिक रूप से अपनी आकृति को केवल इसलिए बिगाड़ ले ताकि वह पुरुष की एक अतीव भद्दी नक़ल दीख पड़े । इस आवेग के अनेक और अरुचिकर छोटे-छोटे परिणाम हुए हैं। दो पीढ़ियाँ पहले योरप में भी सब कोई यह मानता था कि स्कूल से ताज़ा निकली हुई अल्पवयस्क और मनोहर लड़की लालसाओं का एक पुंज- मात्र होती है । लोग जानते और मानते थे कि वह अभिमानी, स्वार्थी
छिछोरी होती है, और छोटे जन्तुओं के सदृश, केवल बाहर के उत्तेजनों से उसमें बुरी भावनायें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं । इसलिए घर के बड़े-बूढ़े उसको रोकते और दबाते रहते थे । आज कल की लड़कियाँ जिस प्रकार प्रायः दिगम्बरी वेश में बाहर दौड़ती और युवकों के सामने अपना सौन्दर्य-सौरभ बिखेरती फिरती हैं ताकि भौंरों के सदृश वे उनके गिर्द मँडराते रहें, उस प्रकार वे अर्द्धनग्नावस्था मैं बाहर घूमने नहीं पाती थीं । परन्तु आज की युवतियों के इस प्रकार लगभग नग्न अवस्था में घूमने का फल क्या हुआ ? उनका दिगम्बरीवेश व पूर्ववत् श्राकर्षण उत्पन्न करने में असमर्थ हो गया है । योरप के देशों में सागर तट पर दूर तक लेटी हुई र्द्धनग्न युवतियाँ ऐसी दीखती हैं, मानो सागर - पुलिन पर मांस के ढेर लगे हुए हैं । ऐसे दृश्य से दर्शक की तबीयत जल्दी ही ऊब जाती है । इससे हृदय में स्पन्दन उत्पन्न होने के बजाय पुरुष उकता कर जम्हाई लेने लगता है ।
जात नारियाँ
नारी-स्वातन्त्र्य के आन्दोलन का एक परिणाम लड़कों Sharma पर लड़कियों का धावा है । हमारे विश्वविद्या
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लय आज सूखी, सड़ी, बेडौल, चश्माधारिणी तरुण स्त्रियों से भरते जा रहे हैं । वे पाण्डित्य के पिछले दालान घूमती हुई ज्ञान को बुहारकर एकत्र करने के लिए घोर परिश्रम कर रही हैं । उनमें से जो सर्वोत्तम हैं उनके विद्या मन्दिर विवाह के सीधे मार्ग का काम देता है । उनमें जो सबसे बुरी हैं उन पर क्रमशः असफलदायक संस्कृति की मालिश होती रहती है और कालान्तर में वे जानखाऊ बन जाती हैं। किसी रूपवती स्त्री का पुरुष की जान खानो उतना बुरा नहीं लगता, युग-युगान्तर से पुरुषों को इसे सहन करने का अभ्यास हो गया है । परन्तु सींग के किनारेवाले चश्मेवाली बेडौल युवती द्वारा तङ्ग किये जाने से, जो लीग ऑफ नेशन्स (राष्ट्रसंघ) की रचना और प्रबन्ध सम्बन्धी संगठन समझाने के यत्न में पुरुष का सिर खा जाती है, पुरुष की श्रात्मा पर घाव हो जाता है । ऐसी स्त्री से कोई भी पुरुष विवाह करना नहीं चाहता । यह केवल योरप की ही बात नहीं, हमारे अपने देश में भी धीरे-धीरे यही अवस्था हो रही है । विदुषी युवतियाँ विवाहिता रहने पर विवश हो रही हैं।
ऊपर की पंक्तियाँ लिखने में मेरा उद्देश अपनी लिखने की कोठरी में सुरक्षित बैठकर स्त्री जाति पर कायर - सदृश
क्रमण करना नहीं है । मेरा श्राक्रमण तो उन नासमझ
पुरुषों पर जो बिना सोचे-समझे, पश्चिम के अनुकरण में, स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर स्त्रियों को उकसाकर उनकी दशा को सुधारने के बजाय बिगाड़ रहे हैं । हमें योरप की अवस्था से शिक्षा लेकर इस व्याधि को आरम्भ में ही रोक देना चाहिए ।
स्त्रियों को अपना स्थान जानने की आवश्यकता है । एक पुरानी कहावत है कि स्त्रियों का स्थान रसोई-घर है । यद्यपि इसमें बहुत कुछ सत्यांश है, तथापि मैं इसे थोड़ा अवरोधक समझता हूँ । गत कुछ वर्षो से स्त्रियाँ चूल्हाचौका छोड़कर बहुत दूर भटक गई हैं। अपने दुर्ग से बाहर निकलकर पुरुषों के जिन-जिन स्थानों पर इन्होंने हल्ला : बोला है वहाँ या तो इन्हें विफलता हुई है या भयप्रद सफलता । परन्तु इस बात से इनकार नहीं हो सकता कि उनकी प्राप्त की हुई नवीन स्वतन्त्रता ने थोड़ी-सी दिशाओं में उन्हें लाभ पहुँचाया है ।
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गाँव
लेखक, श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एस-सी०, एल-एल० बी० हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान, धन-जन से भरे घरों में से
तेरे आँगन भर में फेरा ॥ रवि ऊपर आग बरसता है
नभ-सा ऊँचा उठता विनोद । लक्ष्मी की वर विभूति तेरे अपने पावक शर तान तान । यह देख यहाँ नीचे आना
खेतों में शस्य समान उठे। धरती तप रही इधर नीचे
नर-तन धर हरि का सहित मोद || तेरे खलियानों-गोठों से तत्ती तत्ती सिकता-समान ॥ तेरे अतीत की वह गाथा
वंशी की मीठी तान उठे॥ पर तप में निरत तपस्वी-से
कह देगा विंध्याचल पुकार । तेरी सुन्दर सक्षमता का तेरे सीधे सच्चे किसान ।
आसेतु हिमालय साक्षी है
फिर से जग लोहा मान उठे। श्रम के कष्टों को झेल रहे
कैसा था वह वैभव अपार || अज्ञान निशा में पड़कर तू सिर उठा उठाकर साभिमान ॥ ऋतुएँ पाती हैं नित्य नई
पग पग पर कितना हुआ भीत || हैं यही देश के विमल प्रान। धारण करके नूतन सिंगार। किस कुक्षण में था हुअा अरे !
हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान ॥ रो रोकर, तपकर या कँपकर । यह वर्तमान तेरा प्रणीत ।। कल कालिन्दी के कूलों में जाती हैं पर वे बार बार ॥
जो अब तक वह न व्यतीत हुआ ढूँढो अपना वैभव-विलास । जा छिपा कहाँ, किस कोने में युग पर युग यद्यपि गये बीत ।। गोकुल की गलियों से पूछ। क्या जाने वह तेरा अतीत ? यह कैसा जीवन है तेरा। निज पूर्व-रूप-बीता विकास । स्मृति ही है उसकी शेष बची आलस्य और उन्माद भरा। या रामराज्य में जा देखो
जो स्वर्ण-सदृश युग गया बीत ॥ प्रतिपल भाई का भाई से गंगा-सरयू के आस-पास ।
देखी है तुमने युग युग से .. होता रहता है द्वेष हरा ॥ अपना वह प्यारा प्रकृत रूप निज जीवन की जो 'हार-जीत'। है तुझे पैरने को बाकी इठलाता-सा वह विमल हास ॥ क्या कहें कहानी हम उसकी। अज्ञान-सिन्धु कैसा गहरा। वह हँसता हुअा वसन्त और, क्या गावें तेरे पूर्व-गीत ॥ तूने तो तार दिया जग को वह नीचे झुकते से पयोद ।
श्रा देख तनिक निज वर्तमान । पर तू न तनिक भी आप तरा ॥ वह शश्यश्यामला भूमि तथा
हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान || प्राता है इसका क्या न ध्यान ? वह प्रकृति देवि की भरी गोद ॥ वह कहाँ कहानी है तेरी
हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान । अब दूर बहाकर निज प्रमाद
धुंधली अब उसकी याद हुई। .. तू अगर चमक कर एक बार श्रो सोनेवाले गाँव ! जाग। कृषि के गिर जाने से तेरी
प्रज्वलित दिनेश समान उठे। आलस्य आदि को दूर हटा
कितनी नीची मर्याद हुई ॥ . तेरा श्रम तेरे घर घर में अपनी कलङ्ककालिमा त्याग ॥ वह बसी हुई बस्ती तेरी
सुख का फिर स्वर्ण विहान करे। बिजली-सी जो भर दे दिल में क्रम क्रम से फिर बरबाद हुई। . तेरा प्रकाश ही फैल फैल ऐसा वह गा दे कर्म-राग। जिसकी विभूति से नगर बने तेरे तम का अवसान करे॥ दुख-दैन्य जलें जिसमें ऐसी
पर वहाँ न तेरी याद हुई ॥ शत शत जिह्वात्रों से सागर जल उठे दिलों में प्रबल आग ॥ . निज वैभव ज्योति समेट सभी तेरा गुरु गौरव गान करे। युग युग से तूने आज तलक हो गया अस्त तेरा अतीत । . .. तू वही वेश धर ले जिससे पाया है दुख भी बहुतेरा। जी उठे नया जीवन पाकर
तुझ पर सब जग अभिमान करे। अब अाज अविद्या का अपना वह लुप्त कला-कौशल तेरा।
छा दे फिर निज वैभव वितान । तु शीघ्र उठा दे रे डेरा॥ वैभव का विमल प्रकाश करे।
हे गाँव ! राष्ट्र के धन महान ॥
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पंचवटी में
[चित्रकार-श्रीयुत रामगोपाल विजयवर्गीय
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धारावाहिक उपन्यास
शनि की दशा
अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र
वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालन-पोषण हुआ था । किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषतः मामा की अनुपस्थिति में। एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, मामी से तिरस्कृत होकर अपने पड़ोस के दत्त-परिवार में आश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त-परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने उसे अपनी पुत्र वधू बनाने का विचार किया । राधामाधव बाबू का पुत्र सन्तोषकुमार कलकत्ते में मेडिकल कालेज में पढ़ता था । यहाँ उसकी अनादि बाबू नाम के एक वैरिस्टर के कुटुम्ब से घनिता हो गई, जिसका फल यह हुआ कि सन्तोष का उनकी पुत्री सुषमा से प्रेम हो गया। इसकी सूचना जब राधामाधव बाबू को मिली तब यह बात उन्हें बहुत बुरी मालूम हुई और उन्होंने उसका वासन्ती के साथ जल्दी से जल्दी विवाह कर डालने का प्रबन्ध किया |
पाँचवाँ परिच्छेद विवाह में असन्तोष
नुष्य जब दुराग्रह के वश में ग्राकर कोई काम कर बैठता है तब उसमें इस बात का अनुमान करने की शक्ति नहीं रहती कि इसके कारण भविष्य में कैसी कैसी विपत्तियाँ सहन करनी पड़ेंगी । पुत्र के जीवन की धारा परिवर्तित करने के विचार से राधामाधव बाबू ने जो इतनी बड़ी भूल कर डाली उसके दुष्परिणाम की ओर उनका ध्यान नहीं जा सका। कभी कभी जान बूझकर प्रियपात्र के गन्तव्य मार्ग में बाधा खड़ी करनी पड़ती है और उस बाधा के कारण बाधा पानेवाला व्यक्ति चाहे इतनी वेदना का अनुभव न करे, किन्तु बाधा डालनेवाले को कहीं अधिक मानसिक पीड़ा हुआ करती है । परन्तु फिर भी प्रियपात्र
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मङ्गल कामना से बहुधा उसके कार्य में बाधा डालनी पड़ती है, यही सनातन प्रथा है। भविष्य की आड़ में कैसी
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कैसी विपत्तियाँ छिपी रहती हैं, यह बात समझने की शक्ति दृष्टि- शक्तिहीन मनुष्य में कहाँ है ?
मनुष्य सोचता है कुछ और हो जाता है कुछ । सन्तोप के जीवन में भी यही बात घटित हुई थी। जिस समय वह भविष्य के सुख का चित्र अङ्कित करके मिलन - दिन की प्रतीक्षा में बैठा था, उसी समय बिना बादल की बिजली के समान उसने एक दिन सुना कि उसे विवाह करना पड़ेगा । उसे यह भी ज्ञात हुआ कि पिता जी कलकत्ता आ गये हैं, उनके साथ मुझे घर जाना पड़ेगा । उसके जी में आया कि मैं पिता जी से सारी बातें साफ़ साफ़ कह दूँ । किन्तु उसके बाद 'वह बहुत लज्जित हुआ । उसने सोचा कि इस तरह की बातें कहना ठीक नहीं है । यह सब सुनकर पिता जी अपने मन में क्या कहेंगे। अभी मुझे चुप ही रहना चाहिए। देखें, आगे चलकर क्या होता है ।
सन्तोष की माता थी नहीं, पिता ने ही अत्यधिक स्नेह तथा परिश्रम से उसका पालन-पोषण किया था । पिता का इतना अपरिसीम स्नेह उस पर था कि एक दिन www.umaragyanbhandar.com
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सरस्वती
भी वह माता के अभाव का अनुभव नहीं कर सका। अकेले पिता ही उसके माता-पिता दोनों थे । सन्तोष ने भी कभी पिता की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया । आज भी वह वैसा नहीं कर सका। इससे पहले भी ऐसे कितने अवसर आये हैं, जब पिता से उसका मतभेद हुआ था, परन्तु किसी दिन भी उसने अपना मत नहीं प्रकट किया। पहली बात तो यह थी कि पिता के धार्मिक सिद्धान्त उसे बिलकुल ही पसन्द नहीं थे। जब तक वह पिता के सामने रहता तब तक तो वह पिता के आदेश के ही अनुसार कार्य करता रहता, किन्तु उन सब कार्यों के करने में उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी । बात यह थी कि उसकी प्रवृत्ति थी याधुनिक प्रथा की ओर । पिता की पुरानो रीति-नीति उसे कैसे पसन्द आती ? परन्तु पिता के रुष्ट होने के भय से उनके सामने वह कभी ऐसा काम नहीं करता था जिसे वे पसन्द नहीं करते थे ।
सन्तोष पिता के साथ गाँव चला आया । यहाँ श्राकर उसने अपने विवाह का हाल सुना । इससे उसके हृदय har बड़ा क्षोभ और वेदना हुई । किन्तु भीतर ही भीतर वह अपना क्रोध दबाये रहा, मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलने दिया । इस कारण उसकी वास्तविक अवस्था का पता किसी को भी नहीं चल सका । परन्तु सन्तोष के मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन हुए उन्हें उसकी ताई कुछ कुछ समझ सकी थीं। इसी लिए एक दिन अकेले में पाकर उन्होंने उसे छेड़ा । सन्तोष के मलिन और सूखे मुँह की ओर ताककर उन्होंने पूछा- सन्त्, विवाह करने की तेरी इच्छा नहीं है क्या बेटा ?
ताई की उद्वेग से व्याकुल तथा जिज्ञासामयी दृष्टि से दृष्टि मिला कर सन्तोष ने कहा- मेरी इच्छा या अनिच्छा से होता ही क्या है ? जिसकी इच्छा से यह हो रहा है, बाद को वे ही समझ सकेंगे ।
ताई ने क्लिष्ट स्वर से कहा- छिः ! छिः ! इस तरह की बात मुँह से न निकालनी चाहिए । सुनती हूँ कि लड़की बड़ी सुन्दरी है । इसके अतिरिक्त उसके कोई है नहीं । सुनती हूँ, वह बेचारी बड़ा कष्ट पा रही थी, इसी लिए ... ।
ताई की बात काटकर सन्तोष ने कहा- वह कष्ट पा रही थी तो इससे हमारा क्या मतलब ? मुझे छोड़कर
?
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[ भाग ३८
दुनिया में क्या और कोई वर ही नहीं मिल सकता था ? मेरे सिर पर यह बला क्यों लादी जा रही है ?
यह सुनकर ताई दुखी होगई । वे कहने लगीराम ! राम ! तुम्हें यह क्या हो गया है बेटा ? तेरी तो इस तरह की बुद्धि नहीं थी । यह सब क्या कहता है ? पिता तेरा विवाह कर रहे हैं । जहाँ उन्हें पसन्द होगा, वहीं तो करेंगे । इसमें तुझे क्यों आपत्ति होनी चाहिए ? इस तरह की बातें यदि उनके कानों तक पहुँच गई तो वे बहुत दुःखी होंगे । इसलिए इस तरह की बात अब और किसी के सामने मुँह से मत निकालना ।
एक लम्बी साँस लेकर सन्तोष ने कहा- यदि श्रावश्यकता समझो तो उन्हें सूचना दे दो। उन्हें यह जान लेना चाहिए कि यह विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं है । परन्तु मैंने आज तक उनके सामने कोई बात नहीं कही, आज भी नहीं कहना चाहता हूँ । तुम पूछ पड़ी हो, इसलिए तुमसे कह दिया। देख लेना, बाद को तुम्हीं लोगों को रोना पड़ेगा । इस घर में मेरा यही अन्तिम श्रागमन होगा |
ताई ने उतावली के साथ हाथ लगाकर सन्तोष का मँह बन्द कर दिया । उन्होंने कहा- चुप चुप । इस तरह की बात मुँह से न निकालनी चाहिए सन्तु । कहीं कोई ऐसी बात भी कहता है ? तू भी पागल हुआ है। कलकत्ते जाकर तू एकदम से आवारा हो गया । हम लोग अब हैं कितने दिन के ? तेरी चीज़ तेरे ही पास रहेगी । मेरे सामने ऐसी बात और कभी न कहना बेटा ।
सन्तोष को इस तरह समझा-बुझा कर ताई अञ्चल से आँसू पोंछने लगीं। इधर सन्तोष ने एक रूखी हँसी हँसकर कहा- अच्छी बात है, यह सब बाद का मालूम हो
जायगा ।
यह बात कहकर सन्तोष बाहर चला गया। ताई वहीं पर बैठी रहीं । परन्तु ये बातें उन्होंने देवर से नहीं कहीं । उन्हें तो यह भली भाँति मालूम था कि वे कितने हठी और क्रोधी हैं। क्रोध में आकर वे कितना अनर्थ कर सकते हैं, यह भी वे जानती थीं।
घर में बड़े धूमधाम से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। इलाहाबाद से वसु महोदय की बहन अपने पुत्र तथा दोनों कन्याओं को लेकर आ गई। उनका पुत्र
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संख्या ३]
शनि की दशा
૨૬૭
सन्तोष की ही कक्षा में पढ़ता था। सन्तोष से वह अर्थहीन दृष्टि से विनय के मुँह की अोर ताककर केवल एक वर्ष छोटा था। वसु महोदय के बहनोई उसने कहा-अभिभावक की इच्छा के ही अनुसार रमाकान्त बाबू नहीं पा सके।
कार्य हुश्रा करते हैं। मेरी इच्छा या अनिच्छा से क्या जिसके विवाह के उपलक्ष्य में घर में श्रानन्द की होता जाता है ? बाढ़ आ रही थी उसका मन किसी के एक छोटे-से मँह के सन्तोष की यह बात सुनकर विनय पहले तो चौंक सामने मँडराता हुआ नाच रहा था। वह सोच रहा था कि उठा, बाद को उसने अपना भाव दबा लिया। उसने पिता जी जब जानबूझ कर मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह कहा-क्यों भैया, यह कैसी बात कह रहे हो ? कर रहे हैं तब उसके लिए सारा प्रबन्ध वे ही करेंगे, उसके सन्तोष ने विस्मित होकर कहा—कौन-सी बात ? साथ मेरा काई सम्पर्क न रहेगा। दरिद्र की कन्या है। यही सब जो निरर्थक बक रहे हो ?" उसे भोजन नहीं मिल रहा था। अब तो वह चिन्ता रहेगी यह सब निरर्थक नहीं है भाई । मैं जो कुछ कह रहा नहीं। इतने में ही वह सुखी हो जायगी।
हूँ, वह सब अर्थ रखता है। इस समय विवाह करने की ___ सन्तोष का यही निश्चय रहा। पिता से वह कुछ कह मेरी बिलकुल ही इच्छा नहीं है।" नहीं सका। उसके क्रोध का सारा भार जाकर पड़ा बेचारी इतने में दीनू नामक नौकर ने आकर कहा–भैया बासन्ती पर जो सर्वथा निरपराध थी।
जी, आपको बुबा जी बुला रही हैं। अन्तरात्मा की असह्य यन्त्रणा को ज़रा-सा शान्त सन्तोष ने कहा- कह दो कि श्राता हूँ। करके सन्तोष ने सोचा कि पिता जी यदि विलायत से लौटे यह सुनकर नौकर चला गया। हुए आदमी की कन्या के साथ मेरा विवाह करने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बात उन्होंने स्पष्ट क्यों नहीं कह
छठा परिच्छेद दी। यदि ऐसी बात होती तो मैं आजीवन अविवाहित रह
विवाह कर देश और समाज की सेवा में ही अपने जीवन का निर्दिष्ट लग्न में सन्तोषकुमार के साथ बासन्ती का उत्सर्ग कर देता। परन्तु उन्होंने यह क्या कर डाला ? विवाह हो गया। शुभ दृष्टि के समय लोगों के बहुत उन्होंने केवल मेरा ही सर्वनाश नहीं किया, बल्कि एक आग्रह करने पर भी वर-वधू में से किसी ने भी दूसरे के निरपराध बालिका को भी सदा के लिए सङ्कट में डाल प्रति नहीं देखा। इससे लोगों के दिल में ज़रा-सी खलबली दिया।
मची थी अवश्य, किन्तु इस बात को किसी ने विशेष सन्तोप इसी उधेड़-बुन में पड़ा था कि एकाएक उसकी महत्त्व नहीं दिया। एक एक करके विवाह की सभी रस्में बुअा के लड़के विनय ने आकर उसकी इस विचार-धारा पूरी हो गई। दूसरे दिन बड़ी धूमधाम और हर्ष-ध्वनि के को रोक दिया। उसने कहा—भैया, इस तरह चुपचाप साथ बासन्ती मामा के घर से बिदा हो गई। हरिनाथ बाबू बैठे बैठे क्या सोच रहे हो ? चलो ज़रा-सा टहल आवें। ने हाथ पकड़कर उसे गाड़ी पर बिठा दिया। वह गाड़ी ____एक लम्बी साँस लेकर सन्तोष ने कहा-कहाँ चलें की बाज़ में मुँह छिपाकर सिसक सिसककर रोने लगी। भाई ?
सोहागरात के दिन ताई ने बड़े अाग्रह के साथ सन्तोष __सन्तोष का मुरझाया हुश्रा और गम्भीर मुँह देखकर को घर में बुलाया। परन्तु उसने भीतर की ओर पैर तक विनय विस्मित हो उठा । ज़रा देर तक चुप रहने के बढ़ाने की इच्छा नहीं की। अन्त में निरुपाय होकर बाद उसने कहा-भैया, यदि नाराज़ न होनो तो एक उन्होंने सारा हाल अपनी ननद से कहा । सन्तोष की बुआ बात पूछू।
इस सम्बन्ध में भाई से पहले ही बहुत कुछ सुन चुकी थीं। ___ "क्या पूछना चाहते हो भाई ? पूछते क्यों नहीं ? बाद को भौजाई के मुँह से भतीजे के इस प्रकार के अनुनाराज़ी तो इस समय मुझे छोड़कर भाग गई है।" चित आचरण का हाल सुनकर वे बहुत ही क्रुद्ध हो उठीं । "क्या आपको यह विवाह पसन्द नहीं है ?"
घर में आये हुए अतिथियों तथा भाई-बन्धुत्रों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[भाग ३८
भोजन आदि कराने से निवृत्त होने के बाद सन्तोष अपने माननी ही पड़ेगी। यह कहकर उन्होंने सन्तोष से उठने कमरे में जाकर लेट गया। उसके ज़रा देर बाद ही बुअा को फिर कहा। जी उस कमरे में पहुंच गई। वहाँ जाकर उन्होंने देखा तो घर में बुया जी का अखण्ड प्रताप था । छः-सात वर्ष वह साफ़ के ऊपर लेटे लेटे वक्षस्थल पर दोनों बाह के बाद वे थोड़े दिनों के लिए अपने पित्रालय में अाया रक्खे हुए कुछ सोच रहा है। उस समय वह इतना करती थीं। छुटपन से ही वे बड़ी अभिम अधिक चिन्तामग्न था कि उसे बुआ जी के आने की ही उनका लाड़-चाव भी खूब था। जब कभी कोई उनकी श्राहट तक नहीं मिल सकी।
बात न मानता या किसी प्रकार से उनकी अवज्ञा करता ___ बुअा जी धीरे धीरे सन्तोष के बिलकुल समीप जा तो उसे वे सहन नहीं। कर सकती थीं। वे मुँह से कहा तो पहुँची और उसके ललाट पर हाथ रख दिया। बुबा के कुछ नहीं करती थीं, परन्तु उन्हें जब कोई कुछ कहता था स्पर्श करते ही सन्तोष चौंक पड़ा। ज़रा-सी म्लान हँसी तब वे तुरन्त ही रो पड़ती थीं, और उनका रोना जल्दी नहीं हँसकर उसने कहा-बुबा जी, क्या आप अभी तक समाप्त होता था। यही कारण था कि जब कभी वे पित्रालय सोई नहीं ?
__ में आतीं, सभी लोग उनके सामने फूंक फूंककर पैर रक्खा - एक धीमी-सी आह भरकर बुश्रा जी ने कहा- करते थे। वसु महोदय तक उनसे घबराते ही रहते थे। आज के इस शुभ दिन में तू यहाँ बाहर पड़ा है, और हम सन्तोषकुमार भी बुअा के स्वभाव को भली-भाँति जानता लोग निश्चिन्त होकर सावें! यह भी कभी सम्भव है ? था, इससे यह बात अनुभव किये बिना वह नहीं रह सका चल, भीतर चल, वह बेचारी लड़की अकेली पड़ी है ! कि यदि उनकी बात कट गई तो उनके हृदय को असह्य
बुअा के मुँह की अोर ताककर सन्तोष ने कहा- वेदना होगी। परन्तु फिर भी उसने स्पष्ट स्वर से ही मेरी तबीअत अच्छी नहीं है बुश्रा जी। मुझे चुपचाप सोने कहा- बुअा जी, आज तो मैं आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन दीजिए। आप लोगों में से कोई जाकर उस कमरे में न कर सकूँगा, परन्तु कल से कृपा करके इस सम्बन्ध में सो रहे।
मुझसे कुछ न कहा कीजिएगा। आप मेरा मस्तक छूकर बुश्रा ने ज़रा-सा हँसकर कहा-तेरे समान पागल इस बात की प्रतिज्ञा कीजिए। लड़का तो मुझे और कहीं देखने में आया नहीं। अाज बुअा जी ने कहा-दुर पागल कहीं के ! यह भी भला हम लोगों को उसके कमरे में सोना चाहिए ? यह कोई ऐसी बात है कि मस्तक छुकर कहूँ ! अच्छी बात सब बहानाबाज़ी न चलेगी। उठ, जल्दी से चल यहाँ से। है। कल से मैं तुझसे कुछ न कहूँगी।
सन्तोष ने ज़रा अनुनयपूर्ण स्वर में कहा-आपकी बुश्रा जी ने मन ही मन कहा-अाज तो तुम चलो, बात मैं न काट सकूँगा बुबा जी । मुझे अब वहाँ जाने को कल से कहना ही न पड़ेगा। बहू का इस तरह का सुन्दर न कहिएगा।
मुँह देखते ही तुम ठिकाने पर आ जानोगे, कल तुम्हारा ___ सन्तोष की यह बात सुनकर बुबा ने दृढ़ और गम्भीर दिमाग़ इस तरह का न रहेगा। दस अक्षर अँगरेज़ी पढ़ स्वर से कहा--- सन्तू, पढ़-लिखकर तुम इस तरह के लेने पर लौंडों का दिमारा ही उल्टा हो जाता है। इसीमनमाने हो जानोगे, इस बात की आशा हम लोगों ने लिए तो बड़े लड़कों को अकेले रहने नहीं देना चाहिए । कभी नहीं की थी। छिः ! छिः ! दस आदमियों के बीच में ये लोग नाटक-उपन्यास पढकर स्वयं भी नायक-नायिका तुमने इस तरह हमारे मुँह में कारिख लगा दिया। जो बनना चाहते हैं। होना था वह तो हो ही गया. अब तो वह लौट नहीं सन्तोष को लेकर बुबा जी के भीतर पहुँचते ही स्त्रियों सकता । अब तू इस तरह का आचरण क्यों कर रहा है? ने उस समय के समस्त कर्मकाण्ड बात की बात में समाप्त देखा न. चारों तरफ़ दस भाई-बिरादरी के लोग कितना कर डाले । बाद का सन्तोष को सोने को कहकर बुबा जी हँस रहे हैं ? बाद को तेरी जो इच्छा होगी वही करना, ने दरवाजा भिड़ा दिया और वे स्वयं भी सोने चली गई। लेकिन जब तक मैं यहाँ रहूँ तब तक तो मेरी बात उनके जाने के बाद सन्तोष ने ज़मीन पर एक चटाई
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बिछा ली और उसी पर वह सो गया । बासन्ती उस समय केली ही चारपाई पर सोई हुई थी। ज़रा देर के बाद करवट बदलने पर उसने देखा कि सन्तोष भूमि पर लेटे हुए हैं। यह देखकर बासन्ती बहुत ही विस्मित हुई । वह सोचने लगी कि यह क्या हुआ । वे भूमि पर क्यों लेटे हैं ? वह उठकर बैठ गई । सन्तोष उसकी ओर पीठ किये और चदरे से सारा शरीर ढँके लेटा हुआ था । ज़रा देर तक उसकी ओर ताकने के बाद वह फिर लेट गई ।
शनि की दशा
बासन्ती माता-पिता से हीन थी। जिस परिवार में उसका पालन-पोषण हुआ था उससे उसे सदा अनादर ही सहना पड़ा था। इस प्रकार उसका जीवन सदा से ही बहुत कष्टमय रहा था । ऐसी अवस्था में एक ज़मींदार की पुत्रवधू होकर जब वह राजप्रासाद के समान ऊँची अट्टालिका में पहुँची तब उसने सोचा कि अब हमारे दिन फिर गये हैं । परन्तु जिसके ऊपर विधाता की ही भृकुटि वक्र होती है उसे भला सुख कहाँ से मिल सकता है ? उसे तो आशा से कहीं अधिक सुख-सामग्रियाँ प्राप्त करके भी उनके उपभोग से वञ्चित ही रहना पड़ता है ।
उत्सव के दिन बहुत अच्छी तरह से बीत गये । एक एक करके नातेदार रिश्तेदार स्त्री-पुरुषों का दल बिदा हो गया। बुना जी का भी इलाहाबाद लौटने का समय या गया । परन्तु भतीजे का रंग-ढंग देखकर वे डर गई । दूसरे की कन्या को अपनी बनाने के लिए कितनी सहि
ता की आवश्यकता पड़ती है, यह बात शायद बहुत से लोग नहीं जानते । नववधू जिस समय अपना श्राजन्म का परिचित घर, सखी-सहेलियाँ, माता-पिता तथा अन्यान्य श्रात्मीयजनों का परित्याग कर, हृदय में अपार वेदना लेकर ससुराल में निवास करने के लिए श्राती है, उस समय एक व्यक्ति का निष्कपट प्रेम एवं अनुराग प्राप्त करके पिता के यहाँ की स्मृतियों को भुलाने लगती है, भुला भी देती है । परन्तु जो अभागिनी उस व्यक्ति के प्रेम से वञ्चित रहती है उसे सुखी करने के लिए कोई चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, वह सुखी नहीं हो सकती । बासन्ती का भी यह हाल हुआ था अवश्य, किन्तु अपनी इस अवस्था का अनुभव करने के योग्य वह तब तक नहीं हो सकी थी। परन्तु भतीजे की साधारण गम्भीरता देखकर एक अज्ञात श्राशङ्का से बुना जी का
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हृदय कम्पित हो उठा। वे सोचनी लगीं कि विधाता ने यदि बासन्ती के भाग्य में ऐसा ही स्वामी लिखा था तो उस बेचारी को इस तरह अनाथिनी क्यों बना रक्खा है !
दृष्ट का यह कैसा निष्ठुर परिहास है ! इसका परिणाम क्या होगा, यह कौन बतला सकता है ? बासन्ती का तो अभी सारा जीवन ही पड़ा है । तो क्या ग्राजन्म उसका यही हाल रहेगा ? इस बात की तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकती हूँ ।
सोहागरात के दिन के बाद सन्तोष ने जब अपने पढ़नेवाले कमरे में श्राश्रय ग्रहण किया तब से वह बहुत कम बाहर निकलता था । किसी से बातें भी वह बहुत कम करता था । एक कोने में पड़े ही पड़े वह रात की रात और दिन का दिन काट दिया करता था । यदि कोई कभी उसके पास जाकर बैठता तो उसके मुँह पर विरक्ति का भाव उदित हो उठता । इस कारण धीरे धीरे उसके पास जानेवालों की संख्या कम होने लगी । लोग सोचने लगे कि जब वे रुष्ट ही होते हैं तब उनके पास जाने से लाभ ही क्या है। सोहागरात के बाद ही कलकत्ता जाने की भी उसकी इच्छा हुई थी, केवल बुना जी के अत्यधिक
ग्रह से ही वह नहीं जा सका । उन्होंने सन्तोष का हाथ पकड़कर कहा था कि जिस दिन मैं जाऊँगी, उसी दिन तू भी जाना । इसी लिए वह रुक गया ।
सन्ध्या का अन्धकार प्रगाढ़ हो चुका था । सन्तोष के कमरे में उस समय भी चिराग़ नहीं जला था । उसी कमरे में टहलते टहलते वह सोच रहा था कि अब सुषमा के कैसे मुँह दिखला सकूँगा । उस दिन मैं द्विज- देवता तथा अग्नि को साक्षी बनाकर जिस एक बालिका का हाथ पकड़ चुका हूँ, जिसके सुख-दुख का अंशभागी बन चुका हूँ, उसके भविष्य का उत्तरदायित्व किस पर है ? मुझ पर या पिता जी पर ? मैंने तो उन्हें अपने मन का भाव पहले ही सूचित कर दिया था। उस पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया । ऐसी दशा में उसकी ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है । मेरे जीवन की अधिष्ठात्री देवी तो केवल सुषमा है । उसे छोड़कर और कोई भी मेरे हृदय पर कभी अधिकार नहीं कर सकता। पिता जी के इस अन्याय को मैं कभी नहीं सह सकूँगा । मुँह पर मैं उनके प्रति कभी अवज्ञा अवश्य नहीं प्रकट करूँगा, किन्तु इसका फल शीघ्र ही उन्हें देखने को मिलेगा ।
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नई पुलके
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा ]
१--सौरभ---लेखक, श्रीयुत दुर्गाप्रसाद भुंझनूवाला श्रीमती सुशीलकुमारी मिश्रा c/o श्री एच० एस० पाठक, बी० ए०, प्रकाशक, नबराजस्थान-ग्रंथ-माला-कार्यालय, डिप्टीकलेक्टर, बिजनौर हैं । मूल्य ३) है। ७३ । ए चासा धोचापाड़ा स्ट्रीट, कलकत्ता, हैं । मूल्य ११-१७---गीता प्रेस, गोरखपुर की ७ पुस्तकें
(१) भक्तियोग-लेखक, चौधरी श्री रघुनन्दनप्रसाद २-भग्न-तन्त्री--लेखक, श्रीयुत बलदेव शास्त्री, सिंह और मूल्य १८) है। न्यायतीर्थ, प्रकाशक, मेहर चन्द्र लक्ष्मणदास, संस्कृत- (२) शतपंच चौपाई--टीकाकार, पण्डित श्रीविजयाहिन्दी-पुस्तक-विक्रेता, सैदमिट्ठा बाज़ार, लाहौर हैं । मूल्य नन्द त्रिपाठी और मूल्य ||२) है।
(३) तैत्तिरीयोपनिषद्-मूल्य ।। ) है। ३-योगप्रदीप-लेखक, श्रीयुत अरविन्द घोष, (४) माण्डूक्योपनिषद् -मूल्य १) है । प्रकाशक, श्री अरविन्द-ग्रन्थमाला, ४ हेयर स्ट्रीट, कलकत्ता (५) ऐतरेयोपनिषद्-मूल्य ।।) है। हैं । मूल्य ॥) है।
(६) वर्तमान शिक्षा-लेखक, श्रीयुत हनुमानप्रसाद ४-ब्वाय-स्काउटिङ्ग-लेखक, श्रीयुत कृष्णनन्दन- पोद्दार और मूल्य 7) है। प्रसाद, प्रकाशक, सेन्ट्रल बुकडिपो, इलाहाबाद हैं । मूल्य (७) सूक्तिसुधाकर---मूल्य ।।5) है। २॥) है ।
१८-गीता-गायन (तीन भागों में)-लेखक, ५-ग्राम-सुधार-लेखक, श्रीयुत गंगाप्रसाद पाण्डेय श्रीयुत वृजमोहनलाल सक्सेना, प्रकाशक, रायल प्रिंटिङ्ग एल० ए० जी०, श्रीयुत रमेशचन्द्र पाण्डेय, एम० ए०, वर्क्स, कानपुर हैं । प्रत्येक भाग का मूल्य ३) है। प्रकाशक, कृषि-कार्यालय, जौनपुर हैं । मूल्य १) है। १९-२८-बनिता-हितैषी प्रेस, कर्ने लगंज, प्रयाग
६-उपदेशरत्न-माला-लेखिका, श्रीमती चन्दाबाई द्वारा प्रकाशित १० पुस्तकें--- जी जैन, प्रकाशक, दिगम्बर-जैन-पुस्तकालय, सूरत हैं। (१) बच्चों की दिनचर्या-मूल्य ।।) है। मूल्य ॥) है।
(२) परलोक की बात-मूल्य १) है । ७-सारसमुच्चय-टोका-टीकाकार, श्रीयुत (३) कन्याओं के पत्र-मूल्य ।) है। सीतलाप्रसाद जी, प्रकाशक, दिगम्बर-जैन-पुस्तकालय, (४) कन्या-पाकशाला-मूल्य ।।) है। गांधी-चौक, कापड़ियाभवन, सूरत हैं । मूल्य १।) है। (५) शिशु-रक्षा-विधान-मूल्य ||) है।
८-साहित्य-संचय-संग्रहकर्ता, श्रीयुत कामेश्वर- (६) भारतीय कन्याओं का इतिहास-मूल्य प्रसाद एम० ए०, विशारद, प्रकाशक, बिहार-पब्लिशिंग ।।) है। हाउस, पटना हैं । मूल्य |॥ है।
(७) बच्चों के गीत-मूल्य =) है। ९-स्मृति-शक्ति-संग्रहकर्ता, श्रीयुत द्वारिकाप्रसाद (८) बच्चों की मातृ-सेवा--मूल्य ।। है । शर्मा, प्रकाशक, भारतवासी प्रेस, दारागंज, प्रयाग हैं। (९) कन्या-विनय-मूल्य ) है । मूल्य ||) है।
(१०) बच्चों की आरोग्यता-मूल्य ।। है । १०-हिस्ट्री श्राफ दि ह्वाइट रेस (अँगरेज़ी में)- नं० १, नं० ८ और ९ कीपुस्त कों को छोड़कर शेष सातों लेखक व प्रकाशक, पण्डित भगवानदास पाठक, पता- पुस्तके प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती यशोदादेवी की लिखी हुई हैं।
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संख्या ३]
नई पुस्तके
२९---श्री कौशलेन्द्र-कौतक-लेखक व प्रकाशक, एक उपयोगी कार्य किया है। इसके लिए वे सर्वथा धन्यवाद श्रीयुत बिहारीलाल विश्वकर्मा, हंस-तीर्थ, काशी हैं। के पात्र हैं। परन्तु यह विशाल ग्रन्थ बिक्री के लिए नहीं मूल्य १।।) है।
है और यदि बिक्री के लिए भी होता तो भी इसे साधारण १-श्रृंगारलतिका-सौरभ-अयोध्या-नरेश महाराज श्रेणी के लोग प्राप्त न कर सकते। ऐसी दशा में क्या मानसिंह 'द्विजदेव' का हिन्दी के पुराने कवियों में महत्त्व का ही अच्छा होता, यदि इसका एक ऐसा भी संस्करण निकस्थान है । उनकी रचित 'शृंगारलतिका' के पद्यों को उनके लता जो सवसाधारण को भी सुलभ होता। इस विशाल बाद के सभी संग्रहकारों ने अपने संग्रहों में गौरव पूर्ण स्थान ग्रन्थ की पृष्ठ-संख्या ८० +९८४ + २४ = ८०८ है। दिया है। खेद की बात है कि उनकी उक्त रचना सर्व- 'शृंगारलतिका' नायिका-भेद का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है । साधारण को अप्राप्य थी । इस ग्रन्थ को इसके दो टीकात्रों यह तीन सुमनों में विभक्त है। प्रथम सुमन में दोहा, के साथ उनके दौहित्र तथा उत्तराधिकारी स्वर्गीय अयोध्या- सवैया आदि ६५ पद्य हैं। दूसरे सुमन में १७३ पद्य हैं नरेश महाराज प्रतापनारायणसिंह ने एक बार छपवाया और तीसरे में ३६ पद्य हैं। इसकी था। बोल-चाल की हिन्दी में एक टीका स्वयं महाराज ने संवत् १९०६ में की थी और कदाचित् उसके निर्माण साहब ने लिखी थी और दूसरी टीका ब्रज-भाषा में पण्डित में उनका यह पूरा साल व्यतीत हुआ था। राधा-कृष्ण की जगन्नाथ अवस्थी ने लिखी थी। परन्तु वह संस्करण भी लीला और नखशिख का वर्णन करते हुए द्विजदेव ने अप्राप्य हो गया था। आलोच्य पुस्तक उसी अप्राप्य अपनी इस रचना में अपने भाषा-ज्ञान तथा उच्च कोटि के पुस्तक का नूतन संस्करण है, जिसे अयोध्याराज्य की कवित्व का परिचय दिया है। वर्तमान महारानी श्रीमती जगदम्बा देवी ने अपने पतिदेव २-स्मृति-शक्ति-लेखक, चतुर्वेदी पण्डित द्वारकामें छपवाया है। उसका यह संस्करण छपाई प्रसाद शर्मा, प्रकाशक, भारतवासी प्रेस, दारागञ्ज, इलाहा
मनोहर तथा नयनाभिराम ही नहीं है, बाद हैं। पृष्ठ-संख्या ७४ क्राउन श्राक्टेवो साइज़ और किन्तु इसके सम्बन्ध में यह बात तक कही जा सकती है कि मूल्य ।।) है । ऐसा सुन्दर संस्करण शायद ही किसी हिन्दी-ग्रन्थ का कभी चतुर्वेदी जी हिन्दी के पुराने लेखकों में हैं। यह
शृंगारलतिका' के ऐसे सुन्दर संस्करण के पुस्तक अपने विषय की प्रथम पुस्तक है। एक कमज़ोर
रानी साहब ने बहुत अधिक धन व्यय याददाश्तवाला भी अधिक से अधिक बातें किस तरह याद किया है। यही नहीं, उसका उत्तम ढंग से सम्पादन रख सकता है, यह सब इसमें अभ्यासों के सहित बहुत ही करवाने में अपनी ओर से कुछ उठा नहीं रक्खा। अच्छे ढंग से बताया गया है। पुस्तक की शैली रोचक है। मथुरा के ब्रज-भाषा-काव्य के मर्मज्ञ पण्डित जवाहर- वकीलों, विद्यार्थियों और मस्तिष्कजीवी लोगों को इसका लाल चतुर्वेदी ने इसका जिस परिश्रम और अध्य- उपयोग करना चाहिए। वसाय से सम्पादन किया है उससे यह महत्त्व-पूर्ण ग्रन्थ ३--राबर्ट क्लाइव-लेखक, चतुर्वेदी पण्डित अति सुन्दर तथा शुद्ध रूप में प्रकाशित हो सका है। द्वारकाप्रसाद शर्मा, प्रकाशक, भारतवासी प्रेस, दारागञ्ज, चतुर्वेदी जी ने मूल पुस्तक के पाठ को यथावत् देकर इलाहाबाद हैं। मूल्य ॥) है। तथा पाद-टिप्पणियों में यथा-प्राप्त पाठान्तर एवं मूल चतुर्वेदी जी की यह एक मौलिक रचना है। राबर्ट रचना तथा टीकात्रों के भावों को स्पष्ट और वशद करने क्लाइव भारतवर्ष में अँगरेज़ी राज्य के जड़ जमानेवालों में के विचार से साहित्य के विद्वानों का मत तथा उनकी एक प्रधान पुरुष समझे जाते हैं। अपनी प्रतिभा के बल से सूक्तियाँ उद्धृत कर इस ग्रन्थ के महत्त्व को और भी बढ़ा एक मामूली क्लर्क से तत्कालीन ब्रिटिश भारत के सर्वेसर्वा दिया है।
हो गये थे। उन्हीं का इसमें विशद परिचय दिया गया है, इस ग्रन्थ को इस प्रकार सुसम्पादित करवाकर तथा साथ ही इसमें तत्कालीन भारत का बड़ा ही करुण चित्र उत्तम रूप में छपवाकर श्री महारानी साहब ने वास्तव में खींचा गया है । इसकी रचना-शैली भी रोचक है। बी० ए० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[ भाग ३८
और एम० ए० में जिन्होंने इतिहास लिया हो उन्हें यह का जो हृदय का विश्लेषण करता है- प्रतिभा से निकटतम सम्पर्क है । श्रेष्ठ कला में इसी लिए अनुभूति पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए । की गहरी छाप होती है और 'मदिरा' में इसका प्रभाव है।
४- सचित्र योगासन और अक्षय युवावस्था - लेखक, स्वामी शिवानन्द सरस्वती, प्रकाशक भारतवासी प्रेस, दारागञ्ज, इलाहाबाद हैं । पृष्ठ संख्या १७४ और मूल्य १) है ।
योग दर्शन के प्रेमियों से स्वामी शिवानन्द सरस्वती का नाम छिपा नहीं है । यह पुस्तक आपकी ही लिखी हुई है । इसमें योग सिद्धान्तों का परिचय बड़ी सरल रीति से दिया गया है। यह दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में अध्यात्म-विषयक योग का वर्णन किया गया है, जिसके नित्य अभ्यास से मनुष्य योग की अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त करता हुआ चरम सीमा की कैवल्य-समाधि तक पहुँच सकता है। द्वितीय भाग में श्रासनों का वर्णन है, जिनके अभ्यास से मुख्यतः रोगों का नाश होता है और उन आसनों का अभ्यास करनेवाला अक्षय युवावस्था का उपभोग करता है। उन ग्रासनों के अभ्यास से गौणरूप से प्राध्यात्मिक लाभ भी है । प्रत्येक आसन की क्रिया विशदरूप से समझाई गई है। आसनों द्वारा रोगों से मुक्त हुए लोगों के अनुभव भी दिये गये हैं। तृतीय भाग में मुद्रा और बन्धों का वर्णन है । अन्त में प्राणायाम
कुडलिनी आदि का वर्णन करके पुस्तक समाप्त की गई है । पुस्तक के अन्त में विशेष स्वभाव के मनुष्यों के लिए विशेष विशेष ग्रासनों के अभ्यास की व्यवस्था दिनचर्या के सहित दी गई है। स्वामी जी के कथनानुसार इस पुस्तक के ग्रासन बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी कर सकते हैं । इस विषय के प्रेमियों को इसका वलोकन करना चाहिए ।
५ - मदिरा - श्री तेजनारायण काक 'क्रान्ति', प्रकाशक, छात्र हितकारी - पुस्तकमाला, प्रयाग हैं। मूल्य १) है । प्रस्तुत पुस्तक लेखक के सौ गद्य-गीतों का संग्रह है । 'मदिरा' के रचयिता में कविजनोचित पर्याप्त गुण हैं। उसमें प्रतिभा है, पाण्डित्य है, पर उसकी प्रतिभा पर पाण्डित्य का बोझ है। उसने यह भी लिखा है कि 'मदिरा' के अधिकांश गीतों के 'रहस्यान्मुख प्राध्यात्मिकता' के मूल रवीन्द्र का प्रभाव है । निस्सन्देह कवि हृदय के परिष्कार for festीव श्रावश्यकता है। पर कलाकार
T
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'मदिरा' काक जी की प्रथम रचना है । अतएव उनका यह प्रयत्न प्रशनीय है । पुस्तक के प्रारम्भ में हिन्दी - साहित्य के गद्यकाव्य पर एक विवेचना- पूर्ण निबन्ध है, जो
| हिन्दी-प्रेमियों को इस रचना को अपनाना
उपयोगी चाहिए ।
६ -- कल्पना - लेखक, श्रीयुत मोहनलाल महतो, 'वियोगी', प्रकाशक - विश्व - साहित्य ग्रन्थमाला, लाहौर हैं ।
प्रस्तुत पुस्तक में 'वियोगी' जी का परिचय देने की विशेष ज़रूरत नहीं है । 'वियोगी' जी हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि तथा ज़ोरदार लेखक हैं । कविता के सिवा free आदि लिखने में भी उन्होंने कहानियाँ, गद्य-काव्य, ख्याति प्राप्त की है । 'कल्पना' उन्हीं की स्फुट कविताओं का संग्रह है । उनकी प्रतिभा कल्पना में भी विशेष रूप से विकसित हुई है । 'कल्पना' में वियोगी जी का कवि - हृदय स्पष्ट दीख पड़ता है । वास्तव में 'कल्पना', ‘हौंस’, 'उलझन', 'दो मन', 'स्वप्न', 'नर कङ्काल से' आदि में दर्द भरी पंक्तियाँ पर्याप्त मात्रा में वर्तमान हैं। 'अपनी बात' में कवि ने लिखा है कि “देश में जब कि चारों ओर महानाश की ज्वाला धधक रही है, माँ बच्चे भूनकर खा जाना चाहती है और पुत्र पिता का सिर काट लेना चाहता है" तब कवि से खून के आँसू की अपेक्षा है । महतो जी का यह दृष्टिकोण अभिनन्दनीय है ।
हिन्दी-प्रेमियों को वियोगी जी की इस रचना का रसास्वादन करना आवश्यक है।
बाद
- कुसुमकुमार ७ - रोगों की अचूक चिकित्सा - लेखक, श्रीयुत जानकीशरण वर्मा, प्रकाशक, लीडर प्रेस, इलाहा| पृष्ठ संख्या २७८, मूल्य १11) है । प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर लेखक ने इस पुस्तक की रचना की है। इसमें प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के सारांश का वर्णन, रोगों के कारण, रोगों के तीन मुख्य प्रकार, चिकित्सा- सिद्धान्त, भोजन, हवा, पानी, धूप-नहान, भाव-नहान, व्यायाम,
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संख्या ३]
नई पुस्तके
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आदि सत्रह शीर्षकों में किया गया है। वर्णन सरल और अपने छः शिशुओं के छीने और मारे जाने से पागल मनोग्राही है। सर्वसाधारण भी इससे पूरा पूरा लाभ उठा देवकी कारागार की अँधेरी कोठरी में चिल्ला उठती है--- सकें, इस उद्देश से पारिभाषिक तथा कठिन शब्दों का __ 'मेरे षण्मुख कार्तिकेय, तुम इसमें प्रयोग नहीं हुआ है। परिशिष्ट में विभिन्न खाद्य
मुझे घेरकर घूमो ; पदार्थों के गुण-दोष बताकर रोगावस्था तथा आरोग्यावस्था प्रायो, अब तो तुम्हें चूम लूँ में देने योग्य नित्य के भोज्य पदार्थों का उल्लेख किया
और मुझे तुम चूमो। गया है। भाफ के स्नान के चित्रों के अतिरिक्त पुस्तक में चूमने के लिए बढ़ते ही उसकी बेड़ियाँ उसको मानो प्राकृतिक चिकित्सा के विशेषज्ञों तथा प्रचारकों के चित्र भी वास्तविक परिस्थिति का स्मरण कराती हैं और वह अपनी दिये गये हैं। जो व्यक्ति अपने शरीर को आरोग्य तथा बेबसी से रो उठती हैमन को बलवान् बनाना चाहते हैं उन्हें इस पुस्तक का पर अब भी बन्धन में हूँ मैं, पढ़ना चाहिए और विज्ञान के नाम पर शरीर को व्याधि
विवश, देख लो बेटा ; मन्दिर बना देनेवाली चिकित्सा-प्रणालियों से अपनी रक्षा और कंस उच्छङ्खल अब भी करके प्रकृति के कल्याणकारी-पथ का अनुसरण करना सुख-शय्या पर लेटा। चाहिए । पुस्तक सर्वथा उपयोगी है।
इसी तरह प्रत्येक चित्रित चरित्र अपनी विशेषताओं ८-९–साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी), के दो से भरा हुआ है। इस काव्य को पढ़कर हमारे मुँह से तो काव्य-ग्रन्थ--
यही निकल पड़ा कि 'वयं तु कृतिनः तत् सूक्ति-संसेवनात् ।' (१) द्वापर-लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त। (२) सिद्धराज-लेखक, श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त मूल्य ११॥ है।
हैं। मूल्य ११) है। ___ 'साकेत' के यशस्वी कवि की यह नई कृति है। द्वापर गुप्त जी की यह कृति एक वीर-गाथा-काव्य है । मध्ययुग की महा विभति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को केन्द्र में कालीन भारत के वीर 'यश के लिए विजिगीषा' की प्रेरणा रखकर उनके सम्पर्क में आनेवाले व्यक्तियों के चरित्रों से जब परस्पर युद्ध करके केवल अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध की चतुर्दशी से यह शोभित है। द्वापर की विभिन्न किया करते थे उसी युग की यह कथा है । विक्रम की मनोधाराओं की एक एक प्रतीक एक एक व्यक्ति के रूप बारहवीं शताब्दी में पाटन (गुजरात) के सिंहासन पर प्रतापमें इसमें अवतीर्ण की गई है। प्रेम-साधना राधा के रूप शाली नरेश सिद्धराज जयसिंह था। उसी के युद्धों और में, चिर-संरुद्ध नारी-आत्मा का मुक्ति-हुंकार विधृता के जीवन-घटनाओं का लयप्रधान अतुकान्त छन्दों में कवि ने रूप में, कर्मशीलता का संदेश बलराम के रूप में, नेता के वर्णन किया है। राजमाता मिनलदे के साथ जब सिद्धराज अनुसरण की भावना गोप-बालों के रूप में, युग युग में जयसिंह सोमनाथ, के दर्शन का गया था, उसी बीच में क्रान्ति के साधनों को प्रगति देनेवाले कारण नारद के मालव-महीप नरवर्मा ने उनके राज्य पर चढ़ाई की। रूप में; मातृस्नेह की करुण ममता देवकी के रूप में; जयसिंह के मंत्री साँतू से जयसिंह की सोमनाथ-यात्रा का सत्ता के उन्माद का कंस के रूप में तथा ज्ञान-प्रबोध और फल लेकर विजयी नरवर्मा लौट गया । जयसिंह ने लौटसान्त्वना का उद्धव के रूप में इसमें सुन्दर चित्रण कर जब यह सुना तब उसने मालव-नरेश पर चढ़ाई की किया गया है। भाव-पक्ष और कलापक्ष दोनों दृष्टियों और उसे वीरगति प्रदान की। उसके पुत्र और वीर से 'द्वापर' एक उच्च कोटि का ग्रन्थ है। राधा, उद्धव, जगदेव को पकड़ कर भी सिद्धराज ने अपने उदार ग्वाल-बाल, गोपी आदि हमारे चिर-परिचित पौराणिक व्यक्ति व्यवहार से अपना मित्र बना लिया। जगदेव तो उसकी कवि की प्रतिभा और कौशल के आलोक से मण्डित होकर सेवा में ही रहने लगा। इधर सोरठ-नरेश बँगार ने एक अपूर्व मौलिकता से इस रचना में उद्भासित हो सिन्धुराज की ग्रहदोष के कारण परित्यक्त तथा एक उठे हैं।
कुम्भार दम्पती-द्वारा परिपालित 'रानकदे' नामक कन्या फा. ९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
से विवाह कर लिया । इसके रूप की प्रशंसा सुनकर स्वयं सिद्धराज भी इसे अपनी रानी बनाना चाहता था, Area इसमें सिद्धराज ने अपना अपमान समझा और पन्द्रह वर्ष में अनेक बार युद्ध करके वह विजयी हुआ । सोरठ- नरेश की मृत्यु के बाद सिद्धराज ने रानकदे को कैद कर लिया और उसके छोटे छोटे दो बच्चों की हत्या कर डाली । सती रानकदे ने सिद्धराज के नीच प्रेम प्रस्तावों को ठुकरा दिया और जगदेव की मध्यस्थता से अपने सतीत्व की रक्षा करके सती हो गई । सिद्धराज भी अपने पतन और भूल पर पश्चात्ताप करने लगा । अपनी माता की आज्ञा से सिद्धराज ने अपने पिता के शत्रु शाकम्भरी नरेश राज को पराजित किया और उसे बन्दी करके या । सिद्धराज की पुत्री कांचनदे और बन्दी प्रणों राज में प्रेम हो गया और दोनों का विवाह भी कर दिया गया । अन्त में सिद्धराज महोत्रा-नरेश मदनवर्मा का अतिथि हुआ और वसन्तोत्सव के प्रीति- रंग और गुलाल का उपभोग किया। उसकी नीति पूर्ण बातें श्रद्धा से सुनकर सिद्धराज फिर अपने देश को लौट गया । यही इस काव्य का कथानक है । काव्य की दृष्टि से यह एक सफल रचना है। नारियों के सैन्य के सुन्दर चित्र, प्रकृति के मनोरम दृश्य, दूतों की वाक्चातुरी और हृदयहारी कथोपकथनों के अतिरिक्त कवि की कला की अन्य सभी विशेष तायें इसमें हैं ।
पुस्तक काव्य- रसिकों के लिए आदर की वस्तु है । (३) मृण्मयी - ( काव्य ) लेखक श्रीयुत सियाराम - शरण गुप्त हैं । मूल्य १|| है |
कविवर सियारामशरण गुप्त से प्रेमी अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी इस कृति में ग्यारह शीर्षकों में ग्यारह रचनायें दी गई हैं। प्रत्येक कविता एक भावविशेष को लक्ष्य में रखकर लिखी गई है । सम्पूर्ण कविता का मम बीजरूप से इन शीर्षकों में निहित है । 'रजकण' नामक कविता में कवि ने क्षुद्रता और विशालता कील को सुलझाया है। 'रजकरण' जब हिमाचल के चरणों पहुँचकर अपनी अहंभावजन्य क्षुद्रता को भूलकर उस 'एकत्व' से उत्पन्न 'नानात्व' का पता पा लेता है उस समय उसे अपने और हिमाचल में 'स्वजनत्व' का भान होने लगता है । विश्वात्मन् से अपने को पृथक्
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[ भाग ३८
देखना 'क्षुद्रत्व' का कारण है, किन्तु उसी में अपना दर्शन करने से क्षुद्रता का लोप हो जाता है । 'ग्वालिने' शीर्षक कविता में एक गोपी अपना दधि बेचकर 'धन' का लाभ पाये लौट रही है, पर उसे 'प्रियतम' का लाभ कहाँ ? दूसरी दधि न बेंचे ही लौट आई है, परन्तु उसे 'प्रियतम' मिल गया है। इस प्रकार कवि ने लाभ में लाभ और अलाभ में लाभ का स्पष्टीकरण किया है। 'खिलौना' नामक कविता में कवि ने यह दिखाया है कि किस प्रकार मानव अपनी अपनी परिस्थिति और परिप्राप्ति' में असन्तोष का व्यर्थ ही अनुभव किया करते हैं । ' नाम की प्यास' नामक कविता में कवि ने बड़ी सुन्दरता से यह दिखलाया है कि ' नाम की प्यास' जब तक हमें कर्म की ओर प्रेरित करती है तब तक हमारा 'कर्म' असफल और रसहीन ही बना रहता है, पर ज्यों ही यह 'मान की कठोर शिला' फेंक दी जाती है तभी कर्म का सच्चा रस हमें प्राप्त होता है । अन्य कवितायें भी इसी प्रकार एक एक निगूढ़ उपदेश को प्रकाशित करती हैं । काव्य- रसज्ञ इन कविताओं में 'सद्यः परनिर्वृत्ति' के साथ साथ 'कान्तासम्मित' रूप से 'उपदेश ' भी पा सकते हैं । भाषा सरल, प्रवाहमयी और प्रसाद - गुण सम्पन्न है । वर्णनशैली की दृष्टि से हिन्दी में यह रचना अनूठी है । कवि ने एक नवीन दिशा की ओर पग बढ़ाया है और हिन्दी में उनका यह सफल प्रयत्न सर्वथा अभिनन्दनीय है ।
1
११ - राजपूत-मराठा एक हैं (भाग १ म तथा २ य ) - ये दोनों पुस्तकें ग्वालियर के राजपूत-मराठा संघ ने प्रकाशित की हैं। मराठा और रातपूत दोनों वीर जातियों को एक सूत्र में बाँधने और उनमें पारस्परिक विवाहसम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश से ये लिखी गई हैं। प्रथम भाग में इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् श्रीयुत यदुनाथ सरकार तथा श्रीयुत सी० वी० वैद्य के उन विचारों का अँगरेज़ी, मराठी तथा हिन्दी में संकलन किया गया है जिनसे मराठों तथा राजपूतों का क्षत्रियत्व प्रमाणित होता है। प्राचीन इतिहास की साक्षियों से यह सिद्ध कर दिया गया है कि इन दोनों जातियों में पूर्व समय में पारस्परिक विवाह सम्बन्ध होते थे । मुसलमानों के आक्रमणों के पश्चात् भौगोलिक बाधाओं तथा अन्य कारणों से यह सम्बन्ध टूट गया । पुस्तक के द्वितीय भाग में उज्जैन में
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संख्या ३]
नई पुस्तके
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१९३१ में जो राजपूतःमराठा-कान्फरेंस हुई थी उसमें दिये पर उनकी कविता खरी उतरती है । स्थानाभाव के कारण गये भाषणों, प्रस्तावो का तथा कान्फरेंस से सहानुभूति केवल एक उदाहरण यहाँ दे देना यथेष्ट होगा । रखनेवाले सज्जनों के पत्रों का समावेश है । ये सभी लेख इस रंगमंच पर कितनों को आते-जाते देखा। व पत्र आदि भी तीनों भाषाओं में दिये गये हैं। इनसे कितनों को रोते देखा कितनों को गाते देखा । मराठों तथा राजपूतों का एक ही होना भली भाँति प्रमा- हँसते-हँसते जो आये आँसू बरसाते देखा। णित होता है । मराठों तथा राजपूतों को इन प्रमाणों पर दानी को अपना सूना आँचल फैलाते देखा ॥ विचार करना चाहिए। संघ ने जिस उद्देश से इन छोटी कुँवर सोमेश्वरसिंह में करुणा-प्रधान है, और सम्भवतः छोटी पुस्तिकात्रों का प्रकाशन किया है वह स्तुत्य है । अन्य यह युग का प्रभाव है । इस संघर्ष और विमर्ष के युग में ऐतिहासिक विद्वान् भी इनमें अनेक विचारणीय निर्देश करुणा का न होना आश्चर्यजनक होगा । पर हम अाशा पा सकते हैं।
करते हैं कि निकट भविष्य में उस करुणा और विवशता -कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० का स्थान प्राशा और विद्रोह ले लेगा। १२-रत्ना-लेखक, कुँवर सोमेश्वरसिंह, बी० ए०
-भगवतीचरण वर्मा
१३-प्रभा (मराठी)-मराठी का यह : सचित्र एल-एल० बी०, प्रकाशक, हिन्दी-मन्दिर-प्रयाग हैं ।
साप्ताहिक पत्र पाँच साल से निकल रहा है। इस पत्र में मूल्य ॥) है।
विशेष खूबी यह है कि इसके प्रत्येक अङ्ग में बारहों राशियों ___ कुँवर सोमेश्वरसिंह हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि ठाकुर
का भविष्य तथा किन्हीं किन्हीं अङ्कों में तो.पूरे महीने भर गोपालशरण सिंह के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनकी कवितायें समय
का भविष्य दिया रहता है। इसमें सुरुचि-पूर्ण ऐतिहासिक समय पर हिन्दी के प्रमुख पत्रों में प्रकाशित होती रही हैं ।
कहानियाँ, उपन्यास भी रहते हैं । इस पत्र में स्त्री-पुरुषों 'रत्ना' उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह है।
की चिकित्सा-सम्बन्धी चुटकुले भी जो संग्रह करने योग्य रला की कविताओं को पढ़ने के बाद यह कहा जा होते हैं. छापे जाते हैं । सकता है कि कुँवर सोमेश्वरसिंह हिन्दी के उन नवयुवक इस पत्र में निरी शिक्षाप्रद कहानियाँ और उपन्यास कवियों में प्रमुख हैं जिनसे हिन्दी-साहित्य का बहुत बड़ी ही नहीं होते, बल्कि मन बहलाव के चुटकुले और पहेलियाँ श्राशायें हैं। अाधुनिक 'छायावाद' की कविताओं में भी, जिनके सोचने से बुद्धि विकसित होती है। बीच बीच प्रारम्भिक काल में जो दोष आ गये थे वे अब धीरे धीरे में धार्मिक, व्यावसायिक तथा बड़े बड़े नेताओं के चित्र नवयुवक कवियों की कविताओं से निकलते जाते हैं- और उनके चरितों का सुन्दर वर्णन भी रहता है। सिनेमा
और आज-कल की कवितायें काफ़ी विकसित और सुन्दर का भी इस पत्र पर काफ़ी प्रभाव है । सिनेमा में काम करनेहो रही हैं । कुँवर सोमेश्वरसिंह की कवितात्रों को पढ़ने वाली अभिनेत्रियों के चित्र भी इसमें छापे जाते हैं। के बाद हम उस निर्णय पर पहुँचते हैं कि वे इस दौड़ में साल में तीन या चार विशेषाङ्क भी निकलते हैं। पीछे नहीं हैं।
पत्र सर्वथा उपयोगी है। इसका वार्षिक मूल्य पूने के उनकी कवितायें सरल, भावपूर्ण तथा स्पष्ट होती हैं। लिए केवल ३) और अन्य स्थानों के लिए ३।।) है । इसके शब्दों का खेल और कल्पना की दुरूहता उनमें नहीं है। सम्पादक हैं-श्री रा० ब० घोरपडे, बी० एस.सी. तथा इसके लिए हम उन्हें बधाई देते हैं । शब्द सीधे-सादे, भाषा संचालक हैं----डा० ना० भि० परुलेकर, एम० ए०, पी० सरल और इसके साथ हृदय को छू लेने की क्षमता-श्रेष्ठ एच० डी० मिलने का पता--६१७ कसबा, पूना । कविता का मेरे मतानुसार यही लक्षण है; और इस कसौटी
--भालचन्द्र दीक्षित
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श्री राजेश्वरप्रसादसिंह हिन्दी के नवयुवक कहानी-लेखकों में अग्रगण्य हैं। 'सरस्वती' में आपकी अनेक सुन्दर कहानियाँ छप चुकी हैं। यह कहानी भी पाठकों को पसन्द आये बिना न रहेगी।
मतभेद
लेखक, श्रीयुत राजेश्वरप्रसाद सिंह
" नते हो ?"
सही फ़िल्मवाले कम से कम हम लोगों में साहित्य प्रेम तो ए कहो ।” कलम रोककर, काग़ज़ से दृष्टि जाग्रत कर ही रहे हैं ।” उठाकर, रमेश ने कहा।
___ "वास्तविक, यथार्थ, उच्च कोटि के साहित्य के लिए ___ "शजेंट थियेटर में 'डेविड कापरफ़ील्ड' दिखाया जा डुगडुगी बजानेवालों की ज़रूरत न पड़नी चाहिए । 'मुश्क रहा है।"
वह है जो खुद अपनी सुगन्ध फेंके, न कि अत्तार उसका ___ "अच्छा ! 'डेविड कापरफ़ील्ड' डिकेंस की सर्वोत्कृष्ट ढिंढोरा पीटे !' साहित्य वह पवित्र मन्दिर है जिसके द्वार रचना है। किन्तु मेरा तो विश्वास है कि ये फिल्मवाले सदैव सबके लिए खुले रहते हैं। उच्च कोटि के मानसिक चार्ल्स डिकेंस जैसे महान् लेखकों के साथ न्याय नहीं कर मनोरञ्जन तथा ज्ञान की कामना रखनेवाले सदैव वहाँ आते सकते।
हैं और सन्तुष्ट होकर जाते हैं । "नहीं कर सकते ?"
"तुम आदर्शवादी हो, स्वप्न-लोक के निवासी हो । "कदापि नहीं। कम से कम मेरी राय तो यही है। विवाद-ग्रस्त बातें कहने में तुम्हें मज़ा आता है। अगर मैं मूक फ़िल्मों के ज़माने में एक बार मैंने 'ए टेल अाफ़ टू यह कहूँ कि यदि साहित्य को अपने क्षेत्र का विस्तार सटीज़' देखा था। डिकेंस की उस महान् रचना की जो करना है तो उसे व्यवसाय की सहायता अवश्य लेनी होगी दुर्गति की गई थी उसे देखकर मुझे तो बड़ा दुःख तो इसके जवाब में कोई न कोई टेढ़ी-सीधी बात तुरन्त कह हुअा था।"
दोगे। खैर, यह सब रहने दो। मतलब की बात करो। "लेकिन जानकारों का विचार तो यह है कि फ़िल्म- कहो, 'डेविड कापरफ़ील्ड' देखने चलोगे ?" निर्माण-कला आज-कल उन्नति के उच्चतम शिखर पर रमेश हँस पड़ा। पहुँच गई है।"
"बोलो?" "यह उन्नति का युग है । प्रत्येक दिशा में उन्नति की नहीं चल सकता, प्रिये ।" दौड जोरों पर है। अन्य कलात्रों की भांति फ़िल्म-निर्माण- "क्यों।" कला भी बहत काफ़ी उन्नति कर गई है। किन्तु "यह लेख मुझे इसी समय समाप्त करना है। 'ट्रम्पेट' मेरा तो यह दृढ विचार है कि फ़िल्म-निर्माताओं को को अपने अगले साप्ताहिक के लिए इसकी जरूरत है। चार्ल्स डिकेंस जैसे महान् लेखकों के पीछे न पड़ना चाहिए कल ही इसे रवाना कर देना होगा, ताकि देर न हो
और कहानियों के लिए अपने ही कहानी-लेखकों पर निर्भर जाय।" रहना चाहिए।"
"सिनेमा से लौटने के बाद इसे आसानी से समाप्त __"तुम्हारी इस राय से मैं सहमत नहीं हूँ। किसी कर सकते हो।" मामूली कहानी के आधार पर बनी हुई सुन्दर फ़िल्म की "लिखने की मनःस्थिति इस समय मौजूद है और अपेक्षा मैं उस मामूली फ़िल्म को अधिक पसंद करूँगी जो इसे भागने का मौका न देना चाहिए। रात को यह न किसी सुन्दर कहानी के आधार पर बनी हो। और कुछ न लौटी तो क्या करूँगा ? इस खतरे में न पड़ें गा। मुझे
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संख्या ३]
मतभेद
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तीन
मुअाफ़ करो, प्रिये । 'अाज अकेले ही चली जाओ। किसी · उन्हें दी तब वे आगबबूला हो गये। गैर ज़ात की लड़की दूसरे दिन तुम्हारे साथ ज़रूर चलूँगा।"
के साथ शादी कर लेने की अनुमति वे अपने एकमात्र "अच्छी बात है, न जानो।” नाराज़ होकर, तेज़ी पुत्र को कैसे देते ? नहीं, यह असम्भव था। उन्होंने उसे से उठकर, आशा कमरे से बाहर हो गई।
अाज्ञा दी कि वह अपना असंगत निश्चय तुरन्त त्याग दे। रमेश ने दीर्घ निःश्वास खींचा। आशा के स्वर ने, उसे यह धमकी भी मिली कि यदि वह अपने निश्चय पर भाव-भंगी ने साफ़ कह दिया था, सँभलो, तुम्हारी खैरियत अड़ा रहा तो उनके वसीयतनामे से उसका नाम काट नहीं। किन्तु रूठी बीबी को मना लेने, उसके मन की दिया जायगा। किन्तु रमेश धमकी में श्रा जानेवाला व्यक्ति करने या अानेवाले झगड़े पर विचार करने के लिए उसके न था । पास समय न था। कलम उठाकर वह अपने अधूरे लेख कुछ समय के बाद उन दोनों का विवाह सिविल पर ध्यान जमाने लगा।
मैरिजेज़ ऐक्ट के अनुसार श्राशा के पिता विनोदचन्द्र' सीधे पोर्टिको में पहुँचकर अाशा मोटर-कार में बैठ तथा कतिपय मित्रों की उपस्थिति में सम्पन्न हो गया। गई। शोफर ने दरवाज़ा बन्द कर दिया।
महाशय विनोदचन्द्र ने उदारता-पूर्वक सहायता दी, दोनों "रीजेंट थियेटर चलो।"
का स्वतन्त्र भवन स्थापित हो गया। रमेश के पिता बटुक"बहुत अच्छा , सरकार ।" वह अपनी सीट पर बैठ नाथ को पुत्र को हर्कत बहुत बुरी लगी। आवेश में गया । कार चल पड़ा।
आकर उन्होंने उसका नाम अपने वसीयतनामे से निकाल रमेश से, उसकी आदतों से, उसकी झक से, उसके दिया। कुछ दिनों के बाद जब उनका क्रोध शान्त हो गया विचारों से वह तंग आ गई थी।
तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया, नया 'विल' लिखा और हए, एक मित्र के घर पर रमेश से उसकी उसे यथेष्ट आर्थिक सहायता देने लगे। पहले-पहल भेंट हुई थी और उसे ज्ञात हुअा था कि सुख के पथ पर उन दोनों का वैवाहिक जीवन बहुत उसके अतिरिक्त वह किसी अन्य पुरुष को प्यार नहीं कर दिनों तक सुव्यवस्थित गति से चलता रहा । । सकती। वह भी उसकी ओर आकृष्ट हुअा था। वह धनी संगति में दोनों को अदभुत आनन्द प्राप्त होता था-ऐसा था, स्वरूपवान् था, लब्धप्रतिष्ठ साहित्यिक था, सुविख्यात अानन्द जैसा उन्हें कभी नहीं प्राप्त हुआ था, वह अानन्द पत्रकार था। वह भी सुन्दरी थी, स्वतन्त्र प्रकृति की नव- जो शारीरिक सीमायें पारकर आध्यात्मिक रस में घुल-मिल युवती थी और उसी वर्ष ग्रेजुएट हुई थी। इस तरह जाना चाहता है। दोनों के बीच पूर्ण सामंजस्य थादोनों एक-दूसरे के सर्वथा उपयुक्त थे । जब रमेश ने अपना शरीर तथा अात्मा में सामंजस्य, विचारों तथा आदशों प्रेम प्रकट किया तब उसने भी अपना हृदय खोलकर में, इच्छाओं तथा अनिच्छात्रों में । रख दिया। दोनों ने विवाह कर लेने का निश्चय कर फिर, प्रतिक्रिया आई--वह भयङ्कर प्रतिक्रिया जो लिया ।
उनके पारस्परिक अस्तित्व को पूर्णतया रस-हीन कर देने ___ जहाँ तक अाशा का सम्बन्ध था, कोई कठिनाई न पर तुली हुई थी। विभेद उठ खड़े हुए। आये दिन थी। उसी की भाँति उसके पिता भी स्वतन्त्र विचारवाले झगड़े होने लगे। नूतन दृष्टिकोण से वे एक-दूसरे को व्यक्ति थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि वह देखने लगे। दोनों की बुराइयाँ दोनों को अतिरञ्जित होकर बदमाश भिखमंगा को छोड़कर जिस किसी से चाहे दिखाई देने लगीं। उनमें निवास करनेवाले प्रेमी दब गये, शादी कर सकती है। किन्तु उसके प्रेमी की दशा और अालोचक उठ खड़े हुए और एक-दूसरे के सिर पर भिन्न थी। उसके पिता पुराने विचार के और कट्टर यथार्थ तथा कल्पित दोष मढ़ने लगे। ऐसा हो गया मानो हिन्दू थे। अपने कुटुम्ब-सम्बन्धी प्रत्येक विषय में अन्तिम दोनों में किंचित्-मात्र भी सामंजस्य न था, मानो कुटिल फैसला देना वे अपना धर्म और अधिकार समझते थे। दुर्भाग्य ने दोनों को ज़बर्दस्ती एक-दूसरे के गले मढ़ रमेश ने जब अपने विवाह-सम्बन्धी निश्चय की सूचना दिया था।
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सरस्वती
[भाग ३८
प्रेम, अपने शैशवकाल में, सब कुछ दे देना और था ? लिखने की मनःस्थिति ! ' महज बहानाबाजी ! पाना चाहता है। इस सम्पूर्ण समर्पण के मध्य के स्वर्ण- लिखने का जिसे अभ्यास हो, जो नित्य लिखता हो, वह मार्ग से वह सर्वथा अपरिचित होता है। ठोकरें खाकर, जब चाहे कलम उठाकर लिख सकता है। वह आना नहीं प्रौढ़ होकर जब वह अधिक देने और कम या कुछ न पाने चाहता था, इसलिए एक बहाना पेश कर दिया। प्यार की कामना रखने के औचित्य को समझ लेता है, तभी जब दिल से उठ गया तब अवहेलना के सिवा काई क्या वह प्रोजस्वी, पावन तथा निष्कलंक बन पाता है। परि- दे सकता है ? ऐसा परिवर्तन उसमें कैसे हो गया ? उसने वर्तन-काल के कंटकाकीर्ण पथ पर अज्ञात रूप से चलते तो कोई अपराध नहीं किया। वह तो उसे अब भी उतना हुए अाशा और रमेश पहली अवस्था से दूसरी अवस्था ही चाहती है जितना पहले चाहती थी। फिर, पग-पग वह की अोर धीरे-धीरे बढ रहे थे-उस अवस्था की ओर जो उसका तिरस्कार क्यों करता है ? क्या वह किसी दसरी स्त्री उन्हें जीवन तथा संसार को उनके वास्तविक रूप में देखने को चाहने लगा है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उसके और समझने की क्षमता प्रदान करने को थी। तब इसमें जान में तो उसकी कोई स्त्री मित्र न थी। क्या उसने कभी अाश्चर्य की कोई बात नहीं कि वे विकल थे, अशान्त थे, सच्चे दिल से उसे प्यार नहीं किया ? कौन जाने ? अंधकार में भटक रहे थे।
सहसा, उसने देखा, दो सजे-धजे युवक उस ओर
खड़े हुए उसे घूर रहे थे। वे कौन हैं ? वह तो उन्हें नहीं आशा का मोटर रीजेंट थियेटर के सामने पहुँचकर जानती। फिर, वे उसे क्यों घूर रहे हैं ? पुरुष स्त्रियों को रुका। पहले शो के शुरू होने में अभी बहुत देर थी। क्यों घूरते हैं ? "स्त्रियाँ पूरी जाना पसन्द करती हैं", रमेश कार से उतरकर वह बरामदे में पहुंची। इतमीनान से ने एक बार मजाक में कहा था, "इसी लिए मर्द उन्हें इधर-उधर घूमते हुए दो-चार थियेटर के कर्मचारियों के घूरते हैं !” स्त्री-जाति के प्रति ये कैसे अपमानजनक वाक्य अतिरिक्त वहाँ और कोई न था। रेस्तराँ के दरवाजे खुले हैं और मर्दो की बुरी आदत की कैसी झूठी सफ़ाई है ! थे और अन्दर एक मेज के सामने बैठा हुआ एक गोरा उस समय वह हँस पड़ी थी, लेकिन आज तो उसे हँसी सैनिक चाय पी रहा था। बोर्ड के समीप जाकर वह उस नहीं आती। कम से कम वह तो घूरी जाना पसन्द नहीं पर लगे हुए फोटो देखने लगी। उन चित्रों में 'डेविड करती। फिर, वे असभ्य युवक उसे क्यों घूर रहे हैं ? कापरफ़ील्ड' के अनेक मार्मिक दृश्य अंकित थे, किन्तु उन्हें कदाचित् वे भी अपनी स्त्रियों से घृणा करते हैं । वह पुरुष देखने में उसका मन न लगा।
जो अपनी स्त्री से प्रेम करता है, शायद किसी दूसरी स्त्री की तब वह दूसरे बरामदे में चली गई और विचारों में अोर देखना पसंद न करेगा। क्या यह सत्य है ? कदाचित् डूबी हुई धीरे-धीरे टहलने लगी। अकेलेपन का विकल है, कदाचित् नहीं। मर्द कितने स्वार्थी होते हैं, कितने भाव उसके हृदय में व्याप्त था। मस्तिष्क में भी उसे ऐसा बेवफ़ा ! खीझकर वह अपने कार के समीप गई, और जान पड़ता जैसे इस विराट विश्व में उसका कोई न था। उसमें बैठ गई। रमेश क्या उसे अब नहीं चाहता ? बिलकुल नहीं चाहता, "बेनी! मेरे लिए टिकट खरीद लाभो।" पाँच रुपये यह तो स्पष्ट ही है। उसके प्रेम में वह उष्णता, वह का एक नोट उसने शोफ़र की ओर बढ़ा दिया। स्निग्धता कहाँ है जो पहले थी और जिसे वह पसंद करती "बहुत अच्छा , हुजूर ।" नोट लेकर वह चला थी। उसके पास पहुँचने पर अब तो उसे ऐसा जान गया । पड़ता था, मानो वह किसी हिमाच्छादित पर्वत के समीप ये लोग आखिर कब खेल शुरू करेंगे ? तबीअत हो । उसकी छोटी से छोटी इच्छा पहले उसके लिए मान्य कितनी ऊब रही है ! जल्दी आ जाना कितना बुरा हुआ ! होती थी, किन्तु अब तो उसकी किसी इच्छा की उसे ज़रा यह भी रमेश के कारण । अगर वह थाने से इनकार न भी परवा नहीं। अगर वह पाना चाहता तो क्या करता तो वह इतनी जल्दी क्यों आती? वह कितना थोड़ी देर के लिए लिखाई बन्द करके यहाँ नहीं आ सकता समझदार है ! वह जो कुछ कहता है तोलकर कहता है,
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मतभेद
संख्या ३ ]
जो कुछ करता है तोलकर करता है ! वाह री उसकी है तो वह शौक़ से रूठे । श्राज-कल बात बात पर उन बुद्धिमानी ! दोनों के बीच मतभेद क्यों उठ खड़े होते हैं ? किसी विषय में वे सहमत क्यों नहीं हो पाते ? अब भी वह उससे उसी तरह प्रेम करता है जैसे पहले करता था । उसने उसे पूरी स्वतंत्रता दे रक्खी है। उसकी किसी बात में वह दख़ल नहीं देता । वह छोटी छोटी सेवायें भी तो उससे नहीं लेता, जो अन्य पति अपनी पत्नियों से लेते हैं। अपनी देख-रेख स्वयं कर लेने की आदत उसने बाल्यकाल में ही डाल ली थी, और उसकी वह आदत अभी तक जैसी की तैसी बनी हुई है । वह सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करता है । रुष्ट होने का कारण मिलने पर भी वह रुष्ट न होने का प्रयत्न करता है । फिर भी श्राशा उससे खुश नहीं रहती । 1 क्या वह चाहती है कि वह उसके सेवक की भाँति व्यवहार करे ? एक स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति ऐसा व्यवहार कदापि नहीं कर सकता । नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता । उसका ख़याल है कि परिस्थिति के अनुकूल अपने को बना लेने की उसमें क्षमता है । किन्तु यह उसका भ्रम मात्र है । वह सुशिक्षिता है, किन्तु उसे कभी समझ नहीं सकी, उसके अनुरूप अपने को बना नहीं सकी । स्त्री अपने पति से बहुत अधिक माँगती है—उतना माँगती है जितना वह दे नहीं सकता । अपनी इस अनुचित मांग की पूर्ति के निमित्त, स्वेच्छाचारिता तथा ज़िद के अस्त्र लेकर, वह भयंकर युद्ध करती है, और उसका पति जब अपने पुरुषत्व की सहायता लेकर अपने अधिकारों की सार्थकता सिद्ध कर देता है, तभी वह अनिवार्य के सम्मुख नतमस्तक होने के औचित्य को स्वीकार करती है ! यह बात कितनी खेदजनक है, किन्तु कितनी सत्य है ! आशा इस नियम का अपवाद नहीं है । क्या उसे भी उसके विरुद्ध वही कार्रवाई करनी पड़ेगी जो अन्य पतियों ने अपनी स्त्रियों के विरुद्ध की है ? ज़रूर करनी पड़ेगी। पर वह पशु-बल से काम न लेगा । उसका सा सभ्य व्यक्ति पशु-बल से काम लेना पसन्द नहीं कर सकता । वह कार्रवाई तो शायद उसने शुरू भी कर दी है। हाँ, शायद कर दी है।
उठकर वह कमरे से बाहर निकला। थोड़ी देर के बाद वह घूमने चला गया । साढ़े दस बजे वह वापस आया । एक सेवक से पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि आशा थियेटर से लौट आई है, उसने खाना नहीं खाया है।
बेनी वापस आया, और टिकट और बाक़ी रुपये स्वामिनी को दे दिये । पहली घंटी बजी । जाकर अपनी सीट पर बैठ जाना चाहिए ? लेकिन भीड़ तो ज़्यादा नहीं दिखाई देती। नहीं, कोई जल्दी नहीं है । अभी से जाकर बैठना लोगों को फिर घूरने का मौका देना होगा । काफ़ी घूर-घार हो चुकी, कम से कम आज के लिए ! आख़िरी घंटी बजने का इन्तज़ार करना ही मुनासिब है ।
अन्त में जब आख़िरी घंटी बजी तब वह मोटर से उतरी और अव्वल दर्जे की ओर बढ़ी। भीड़ ज्यादा नहीं थी । गेट-कीपर को टिकट देकर वह अन्दर घुसी । एक को छोड़कर सब बत्तियाँ बुझ चुकी थीं। अच्छा ! अब भी खेल शुरू नहीं हुत्रा ! जब लीचड़ हैं ये लोग !
सात बजकर ३७ मिनट हो चुके थे जब रमेश ने अपने लेख का अन्तिम शब्द लिखा । लेख दोहराकर हस्ताक्षर कर, अच्छा-सा शीर्षक लगाकर, सन्तोष की साँस लेकर, मुस्कराकर, उसने सिगरेट जलाई । उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो उसने गहरा पड़ाव मारा हो । कांग्रेसवादियों के कौंसिल प्रवेश के औचित्य के सम्बन्ध में उसने अनोखी बातें अनोखे ढंग से कही थीं । अपरिवर्तनवादी कांग्रेसी यह लेख पढ़कर जल उठेंगे। कैसा मज़ा रहेगा ! सहसा, श्राशा की छाया - मूर्ति उसकी आँखों के सामने श्रा उपस्थित हुई । "अच्छी बात है, न चलो !” उसके ये शब्द उसके कानों में गूँज उठे। उसके स्वर में भयंकर नाराज़गी थी, प्रतिकार की विकट इच्छा थी । किन्तु क्या उसका इतना रूठ जाना उचित था ? क्या यह प्रत्येक पति का अनिवार्य कर्तव्य है कि उसकी पत्नी जब कभी और जहाँ कहीं जाय वह उसके साथ जाय ? यह कैसी अनुचित माँग है ! अगर वह उसे पहले ही से बता देती तो शायद वह उसके साथ जा सकता । किन्तु केवल उसे खुश करने के लिए उस समय लिखना बन्द कर देना उसके लिए असम्भव था। यह बात न थी कि उसे मनोरंजन की आवश्यकता नथी । थी, बहुत थी। किन्तु केवल मनोरंजन के लिए किसी आवश्यक कार्य को स्थगित कर देना उसके स्वभाव के विरुद्ध है । ऐसी परिस्थिति में वह दोषी कैसे ठहराया जा सकता है ? अगर बेमतलब रूठने में उसे मज़ा श्राता
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सरस्वती
[भाग ३८
और वह अपने शयनागार में है। उसे कोई आश्चर्य “कम से कम वह घृणा का पात्र तो नहीं होता।" नहीं हुआ। यह तो वह जानता ही था कि उससे इसके “मैं उससे घृणा नहीं करती। हाँ, उसे नापसन्द विपरीत व्यवहार करने की आशा करना व्यर्थ है। उसे ज़रूर करती हूँ।" मनाने के विचार से वह शयनागार की ओर चला। किन्तु 'क्या यह वाञ्छनीय नहीं है कि स्त्री अपने पति की क्या आसानी से वह उसे मना पायेगा ? असम्भव। दुर्वलताओं को क्षमा करे ?"
शयनागार का दरवाजा भिड़ा हुआ था, लेकिन उसकी "और, क्या यह भी वाञ्छनीय नहीं है कि पति अपनी सिटकिनी नहीं चढ़ी थी। धीरे से दरवाज़ा खालकर उसने स्त्री की उचित इच्छाओं की अवहेलना न करे ? लेकिन कमरे में प्रवेश किया । एक शाल ओढ़े हुए आशा अपने तुम्हें तो अगर किसी बात से मतलब है तो वह है लिखनाबिस्तरे पर लेटी हुई थी और उसकी आँखें बन्द थीं। पढ़ना । कम से कम मुझसे तो तुम कोई मतलब रखना वह बिस्तरे के समीप पहुँचा।
ही नहीं चाहते।" "अाशा !"
___"यह ऐसा दोष है जिसे मैं कभी स्वीकार नहीं कर उसने कोई उत्तर नहीं दिया। तब बिस्तरे पर बैठकर सकता । अाज भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ, जितना उसने धीरे से उसे हिलाया।
पहले चाहता था। तुम्हारी उचित इच्छायें मैं सदा मानने "मुझे तंग मत करो।"
का प्रयत्न करता हूँ, यदि मानना असम्भव नहीं होता। "उठो, प्रिये ।
आत्म-विकास की आवश्यकता मुझे लिखने के लिए प्रेरित "क्यों उह् ?”
करती है, और लिखना मेरे लिए उतना ही आवश्यक है "सोने का वक्त अभी नहीं हुआ है और तुमने जितना किसी दूसरे को कोई दूसरा काम करना। जब मैं भोजन भी नहीं किया है।"
लिखता रहता हूँ तब कोई दूसरा काम करना असम्भव होता "मुझे भूख नहीं है और मैं सो रही हूँ।"
है। इसलिए अगर आज शाम को मैं तुम्हारी बात नहीं ___ "नहीं, तुम जाग रही हो और मन में मुझे कोस रही मान सका तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।" हो। मुझे बड़ा अफ़सोस है !"
'आज की ही बात नहीं है। बीसों बार तुम ऐसा कर "अफ़सोस करने की तुम्हें क्या ज़रूरत है ? तुमने चुके हो। साफ़ बात तो यह है निराशा के अतिरिक्त मैं कौन-सी ग़लती की है ? तुम तो कभी कोई ग़लती नहीं तुम से कुछ नहीं पा सकी !” । करते !"
"निराशा की बात करती हो तो मुझे भी कहना __ "न-जाने क्यों आज-कल तुम मुझे समझने की कोशिश पड़ेगा कि तुम्हारे सम्बन्ध में मेरा भी यही विचार है। नहीं करतीं ?"
फिर भी मैं तुम्हें प्यार करता हूँ-तुम्हारे गुणों-अवगुणों"मैं तुम्हें खूब समझती हूँ, तुमसे अधिक समझती सहित तुम्हें प्यार करता हूँ।" हूँ | मेरी इच्छात्रों की अवहेलना करने में तुम्हें बड़ा मज़ा . “जब तुम्हारे कार्य तुम्हारे शब्दों का समर्थन नहीं श्राता है । तुम्हारे अन्दर जो मसखरापन है वही सारे फ़साद करते तब मैं यह कैसे मान लूँ ?" की जड़ है।"
____ “तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ? श्राशा ! हम बच्चे ___"इस प्रशंसा के लिए धन्यवाद ! किन्तु मैं नहीं जानता नहीं हैं; हम समझदार हैं, जवान हैं । हमारा यह कर्त्तव्य कि इस प्रशंसा के योग्य हूँ या नहीं।" ।
है कि एक-दूसरे के दृष्टि-कोण को समझे और अपने मत__ "तुम मसख़रे हो और इससे तुम इनकार नहीं कर भेदों को दूर करें ।"
__ "तुम्हारे साथ विवाह करके मैंने भारी भूल की। ___खैर, यही सही । लेकिन लोग कहते हैं कि मसख़रा अगर किसी मामूली भोंदू आदमी से भी शादी करती किसी को नुकसान नहीं पहुँचाता।"
तो शायद आज से अधिक सुखी होती !" "यह मैं नहीं मानती।"
"ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें मैं हर्गिज़ बर्दाश्त नहीं कर
सकते।"
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संख्या ३]
मतभेद
२८१
नहीं हूँ !"
सकता। उचित-अनुचित का विचार तुम्हें ज़रा भी नहीं क्या है ? कृपया इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करो। मैं रह गया है । ऐसे अपमानजनक शब्द सुनने के बाद शायद चाहता हूँ कि आज तीसरे पहर तुम मेरे साथ इस प्रस्ताव कोई स्वाभिमानी पति अपनी स्त्री से कोई सम्बन्ध रखना पर विचार करो। इस समय मैं बाहर जा रहा हूँ और एक पसन्द न करेगा। तुम अपने को क्या समझती हो—परी, बजे वापस आऊँगा। स्वतन्त्र रूप से गम्भीरतापूर्वक रानी या क्या ?"
विचार करने के लिए इतना समय शायद तुम्हारे लिए "चाहे मैं संसार की सबसे खराब स्त्री ही क्यों न काफ़ी होगा। होऊँ, लेकिन तुम्हारी धौंस सहने के लिए अब मैं तैयार
तुम्हारा,
रमेश" तीव्र वेग से उमड़ते हुए क्रोध को वश में रखना आशा क्रोध से काँपने लगी। पत्र फाड़कर उसने एक असम्भव जानकर रमेश उठकर तेज़ी से कमरे के बाहर ओर फेंक दिया। बात इस हद तक पहुँच गई ! जले पर निकल गया।
नमक ! वह अपने को क्या समझता है ? उसके साथ वाचनालय में जाकर वह एक आराम-कुर्सी पर लेट सम्बन्ध जोड़े रहने के लिए क्या वह मर रही है ? क्या गया। नौबत यहाँ तक पहुँच गई ! मामला इतना बिगड़ उसमें आत्म-सम्मान का अभाव है ? वह किसी की धौंस गया ! कोई व्यक्ति ऐसी स्त्री से कैसे सम्बन्ध बनाये रख सहनेवाली स्त्री नहीं है । उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए सकता है जो इतनी शान बघारती है, जिसे औचित्य-अनौ- वह अनुनय-विनय न करेगी-कदापि न करेगी। अपने चित्य का लेश-मात्र भी विचार नहीं रह गया है, समझाने- पिता के घर जाकर वह शेष जीवन शान्ति के साथ व्यतीत बुझाने का भी जिस पर कोई असर नहीं पड़ता ? विलग कर सकती है। इस कलहपूर्ण वातावरण में क्या होने का समय शायद आ गया है। जो लोग साथ साथ रक्खा है ? शान्ति के साथ नहीं रह सकते उन्हें अलग हो जाना ही तीसरे पहर जब रमेश मकान वापस आया तब उसे उचित है। हे ईश्वर ! अब क्या करना चाहिए ? पता चला कि सवेरे ही आशा अपने पिता के घर चली
दूसरे दिन प्रातःकाल अाशा को एक पत्र मिला । वह गई । वह मोटर पर सवार होकर गई और उसके आज्ञापत्र इस प्रकार था
नुसार उसका असबाब ठेले पर लदवाकर पहुंचा दिया "प्यारी अाशा,
गया। उसके लिए वह एक पत्र छोड़ गई थी। उस पत्र यह बात अत्यन्त खेदजनक है कि इधर हम दोनों में लिखा थाको एक-दूसरे की संगति में सुख प्राप्त नहीं हो रहा है। "......, सदैव की भाँति इस बार भी तुम्हारी राय वैवाहिक जीवन की सार्थकता सुख पर ही आधारित है। ठीक ही है। इस खेदजनक वातावरण का शीघ्रातिशीघ्र इसलिए उचित यही है कि जब कभी पति या पत्नी या अन्त हो जाना ही उचित है। मेरे प्रति तुम्हारी जो दोनों को उनके वैवाहिक जीवन से सुख प्राप्त न हो तो ज़िम्मेदारियाँ हैं उनसे मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ। मैं अपने उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय । वर्तमान कानून के पिता के घर जा रही हूँ। लेकिन यह तो मैं फ़िज़ल ही अनुसार हम लोगों का सम्बन्ध विच्छेद होना असम्भव है। लिख गई, क्योंकि इस बात से तुम्हें कोई सरोकार नहीं। किन्तु अपनी समस्या हल करने के लिए हमारे सामने जो भारी बोझ तुमसे उठाये नहीं उठता था वह आज एक मार्ग है । अनेक अलिखित कानून विद्यमान हैं और तुम्हारे सिर से उठ गया । आशा है कि अब तुम आराम उनके अनुसार कार्य करने के लिए लोग स्वतन्त्र हैं। और चैन से जीवन व्यतीत कर सकोगे ! बिना शोर-शराबा किये गुप्त-रूप से हम अपना सम्बन्ध तोड़ . सकते हैं और एक-दूसरे को एक-दूसरे के प्रति अपनी
अाशा।" ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने झगड़ा इतनी आसानी से ख़त्म हो गया ! यह अच्छा का अवसर दे सकते हैं । इस सम्बन्ध में तुम्हारे विचार ही हुआ । निर्विघ्न भाव से अब वह जिस तरह चाहे रह
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सरस्वती
[भाग ३८
सकता है, जो कुछ चाहे कर सकता है, और वह भी उलझ जाता जिससे वह दूर रहना चाहती थी। हृदयपूर्णतया स्वतन्त्र है । उसका प्रस्ताव स्वीकार करके अाशा संबंधी बातों में विवेक की एक नहीं चलती। रमेश के प्रति ने बड़ी बुद्धिमानी प्रदर्शित की। उसके पत्र में व्यंग्य उसका प्रेम उसके हृदय में इतनी दृढ़ता से जमा हुआ था अवश्य भरा है, किन्तु यह तो स्वाभाविक ही है। वे जिस कि उसे उखाड़ फेंकना आसान न था। मनुष्य अपनी कठिनाई में थे उसे हल करने का इससे अच्छा कोई सहायता करना चाहे और न कर सके-यह कितने दुःख उपाय न था। कितना अच्छा हुआ कि उसे ऐसा सुन्दर का विषय है ! आशा के आश्चर्य का, विवशता का, दुःख उपाय सूझ गया !
का वारापार न था।
__ और रमेश ? वह भी सुखी न था। सुविकसित पुष्प ___ पति से विलग हुए और पिता के घर पर निवास करते की भाँति जो घर सदा खिलखिलाता रहता था, सहसा हुए एक पक्ष बीत गया, किन्तु अाशा सुखी न थी। पग आकर्षणहीन हो गया था। पहले ही की तरह अब भी वह पग पर उसे रमेश की याद आती थी, और इस बात से साफ़-सुथरा रहता था, किन्तु हर समय उसमें अजीब उसे अपने ही ऊपर क्रोध अाता था। जो उसे नहीं चाहता सूनापन दिखाई देता था। उसके हृदय में भी विचित्र उसकी वह क्यों परवा करे ? वह एक विधवा स्त्री के सूनापन आ गया था। काम में भी उसका मन न लगता। समान है और उसे विधवा के समान जीवन व्यतीत करना लिखने की मनःस्थिति किसी समय उत्पन्न न होती। वह चाहिए। उसके भाग्य में यही लिखा था कि उसके ज़बर्दस्ती लिखता, किन्तु सन्तोषजनक ढंग से कुछ न जीवन के अन्तिम दिवस असीम दुख से व्यतीत हों। जो लिख पाता। उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। आशा कुछ उसके लिए नहीं है उसकी कामना करने का उसे से उसके लेखन-क्रिया का तो स्पष्टतः कुछ सम्बन्धन था। क्या अधिकार है ? मानव-जीवन मनुष्य को उतना ही तो उसके इस काम में तो वह बाधा ही उपस्थित करती थी। दे सकता है जितने का वह पात्र है।
इस सम्बन्ध में उसके विरोध की भावना के ही कारण तो ___रमेश ! प्रारम्भ में वह कितना सहृदय प्रतीत हुआ उन दोनों का सम्बन्ध विच्छेद हुआ था। उसकी अनुपथा, किन्तु अन्त में कितना हृदयहीन सिद्ध हुआ ! मनुष्य स्थिति से लेखन-शक्ति को प्रेरणा मिलनी चाहिए थी। का बाह्य स्वरूप उसके अन्तःकरण का द्योतक नहीं होता। फिर यह उलटी बात क्यों हुई ? बाह्य रूप के बहकावे में आ जाना भारी भूल है। किन्तु उसका क्या हाल है ? उसकी दिन-चर्या क्या है ? इस विषय में उसकी जैसी अनुभव-हीन नवयुवती के लिए किन्तु उसके लिए चिन्तित होने की उसे क्या आवश्यकता भूल करना स्वाभाविक ही है। यह कितने दुःख की बात है ? वह तो अब उसे नहीं चाहती । "तुम्हारे साथ विवाह है कि एक साधारण भूल समस्त जीवन के सुख को नष्ट करके मैंने भारी भूल की!"-उसके इन शब्दों का और कर देती है ! अपनी उस साधारण-सी भूल के लिए उसे क्या मतलब है ? विचित्र है स्त्री-चरित्र ! क्या अब भी वह कैसा भारी मूल्य चुकाना पड़ा! अब वह उसका कोई उससे प्रेम करता है ? नहीं करता। शायद करता है। नहीं, वह भी उसकी अब कोई नहीं। उसकी याद फिर भूल जाने का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए। भूल जाना उसे क्यों सताती है ? क्या अब भी वह उससे प्रेम करती सम्भव है ? शायद है। शायद नहीं है । तब क्या करना है ? नहीं करती। शायद करती है | यह कितनी अपमान- चाहिए ? समझौता ? नहीं, यह असम्भव है। वह उसके जनक बात है ! यदि उसका प्रेम लेश-मात्र भी उसके जीवन से बाहर जा चुकी है। उसकी इच्छा के विरुद्ध हृदय में विद्यमान है तो उसे निकाल फेंकना चाहिए, वह कैसे उसे पुनःप्रवेश का निमन्त्रण दे सकता है ? कैसी उसका विचार भी मन में न आने देना चाहिए । हाँ, विषम परिस्थिति है ! उसे ऐसा करना चाहिए, दृढ़ता के साथ, निर्दयता के दिन का तीसरा पहर था । रमेश समालोचनार्थ श्राई साथ। किन्तु इस सम्बन्ध में उसकी सारी प्रतिज्ञायें हुई एक पुस्तक पढने का प्रयत्न कर रहा था। सहसा निष्फल सिद्ध होतीं। बार बार उसका मन उसी बात में उसके श्वसुर विनोदचन्द्र ने कमरे में प्रवेश किया।
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संख्या ३]
रमेश सम्मानार्थ उठ खड़ा हुआ । प्रणाम - श्राशीर्वाद के बाद दोनों बैठ गये । विनोदचन्द्र ने मुस्कराकर कहा— रमेश ! तुमसे एक सीधा सा सवाल करना चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि ठीक ठीक जवाब दोगे !
" मैंने कभी आपसे कोई बात छिपाने की कोशिश नहीं की ।"
"मैं यह जानता हूँ और इस बात के लिए तुमसे बहुत खुश हूँ । इस समय जो कुछ जानना जाहता हूँ वह यह है । क्या आशा और तुम्हारे बीच झगड़ा हो गया है ?"
"क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप यह क्यों पूछ रहे हैं ?"
" मेरा हृदय पिता का हृदय है और मैं देखने वाली रखता हूँ । आशा ने तो मुझसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मेरा ख़याल है कि तुम दोनों में ज़रूर झगड़ा हो गया है । उस दिन जब वह मेरे घर ढेरों असबाब लेकर पहुँची तभी मुझे सन्देह हुआ था । उसने मुझे बतलाया था कि वह स्थान - परिवर्तन के विचार से आई है, किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ था। मैंने और सवाल किये, लेकिन वह बात टालने की कोशिश करती रही । उसका चेहरा उतरा हुआ था और वह थकी हुई-सी मालूम होती थी । कई दिन बीत गये, लेकिन उसकी तन्दुरुस्ती नहीं सुधरी । तब मैंने अपने डाक्टर को बुला भेजा। उसकी परीक्षा करने के बाद डाक्टर ने मुझे बतलाया कि किसी मानसिक आघात के कारण उसे कोई स्नायु रोग हो गया है। तब से उसका इलाज हो रहा है, लेकिन कोई फ़ायदा दिखाई नहीं देता । उसका चेहरा मुझीया रहता है और वह बहुत दुबली हो गई है। दिन-रात वह अपने में ही खोई रहती है और किसी मित्र से मिलना-जुलना भी उसे पसंद नहीं है । किसी मनोरञ्जन के वह पास नहीं फटकती । इतने दिनों से वह मेरे यहाँ मौजूद है और तुम एक बार भी नहीं श्राये । तुम्हीं बतलाओ, इन बातों से क्या मालूम होता है ।"
तब रमेश ने उपर्युक्त दुःखद घटनायें बयान कर दीं। उसने कोई बात नहीं छिपाई । विनोदचन्द्र उट्ठाकर हँस पड़े ।
" रमेश ! अब तक मैं तुम्हें गम्भीर स्वभाव का व्यक्ति
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मतभद
समता आया हूँ, लेकिन श्राज यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई कि तुम बच्चों की तरह भी व्यवहार कर सकते हो । क्या तुम यह समझते हो कि श्राशा के बिना सुखी रह सकते हो ? अगर तुम्हारा यह ख़याल है, तुम भारी भ्रम में हो । जब तुम्हारी शादी के मामले में मैंने अपनी रजामंदी दी थी तब उसी समय मैंने तुम्हें खूब तोल लिया था। बेटा ! स्त्रियों के मामले में पुरुषों को बड़ी होशियारी से काम लेना पड़ता है। अपनी पत्नियों पर अधिकार जमाये रखने के लिए हमें कभी झुकना पड़ता है, कभी न जाना पड़ता है। किन्तु प्रत्येक दशा में उनकी मान-रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य होता है । हमसे इतने
की आशा करने का उन्हें पूरा अधिकार है । "
२८३
“मैं यह मानता हूँ, पापा कि मुझ से बड़ी ग़लती
हुई । "
" भी बहुत हानि नहीं हुई है। अब तुम एक काम करो। फ़ौरन मेरे साथ चलो और उससे समझौता कर लो ।”
" लेकिन, पापा, क्या यह सचमुच उचित है कि ” "आगा-पीछा मत करो, बेटा । मैं तुम्हारा शुभचिन्तक हूँ और तुमसे अधिक अनुभवी हूँ। जो कहता हूँ, करो ।”
" बहुत अच्छा, पापा । "
तब दोनों उठकर चले गये ।
बाध घण्टे में रमेश ने आशा के कमरे में प्रवेश किया। एक बार उसकी ओर देखकर आशा ने सिर झुका लिया । रमेश झपटकर उसके समीप पहुँचा, उसके बग़ल में बैठ गया और उसे भुजाश्रों में कस लिया ।
" श्राशा ! प्यारी आशा ! मैं जानता हूँ कि मैंने तुम्हारे साथ जानवर का-सा बर्ताव किया है । मुझे क्षमा कर दो "मुझे क्षमा .....!"
"मुझसे भी बड़ी भूल हुई।" आशा ने अवरुद्ध कंठ से कहा । "मेरा अपराध भी कम नहीं है । स्वार्थ ने, मिथ्याभिमान ने मुझे मूर्ख बना दिया था, अंधी बना दिया था। मुझे समझना चाहिए था कि अपने प्रति भी तुम्हारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं ।”
"तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता । जीवन के
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२८४
सरस्वती
[भाग ३८
अन्तिम दिवस तक, चिर-काल तक मैं तुम्हें प्यार करता उस कमरे के अधखुले दरवाज़े के समीप विनोदचन्द्र रहूँगा। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध अब कभी कोई कार्य दबे पाँव आये और एक बार अन्दर झाँककर हट गये । न करूँगा।"
आल इज वेल दैट एन्ड्स वेल (अन्त ठीक तो सब "और मैं अब कभी तुम्हारे काम में विघ्न न डालूँगी ठीक)-उन्होंने मुस्कराकर धीरे से कहा। उस समय और तुम्हारी आज्ञाकारिणी स्त्री बनी रहने का सदा प्रयत्न उनका हृदय आत्मगौरव तथा अगाध संतोष से भर करूँगी।"
गया था।
उदय-अस्त
लेखक, श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी, एम० ए० है प्रथम बिलोड़न किसने,
है प्रथम बीज उपजाया, मातरिश्वनि में उपजाया ?
अथवा कि वृक्ष पहले है ! गति दी किसने इस जग को,
है अन्धकार पहले का, कब कम्पन इसे सिखाया ?
अथवा प्रकाश पहले है ? आकर्षण की निधि कब से,
पहले उगना मिटना या. इस दृश्य जगत ने पाई ?
. है क्या निसर्ग ने पाया ? यह मिलन-प्रक्षिपण-लीला,
पहले विकास को अथवा, गति में कब अगति समाई ?
पहले विनाश अपनाया ?
इस मूक सृष्टि के भीतर,
चेतन चेता, रेंगा कब ? बोला कब किससे कैसे,
सोचा समझा बूझा कब ?
इस प्रखर-ज्वाल-माला को
किसने कब प्रसव किया है ? इस शीतल कन्दुक को कब
किसने आलोक दिया है ?
जब कहीं 'नहीं' सब कुछ था,
तब 'हाँ' सोचा है जिसने, इस सारे प्रलय स्रजन की,
है विधि बैठाई उसने ॥ 'आरम्भ'-'अन्त' का विस्मय
___ कौतूहल चेतनता का । यह 'अब' का 'तब' का सम्भ्रम
धोखा है मानवता का ॥ है 'उदय' 'अस्त' के भीतर;
है 'अस्त' 'उदय' का लेखा। यह द्वैतभाव मयों का;
अमरों की सीधी रेखा ॥
फेंका किसने कब इनको,
कब तक आएँ-जाएँगे ? किस ओर कहाँ सूने में,
निश्चेष्ट शान्ति पायेंगे ?
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PESH
मMA
जूतों में कील लगाने या सिलाई करने की ज़रूरत अब नहीं रही । लन्दन के एग्रीकलचरल-हाल में गत वर्ष चमड़े और जूतों की एक प्रदर्शनी की गई थी। उसमें यह प्रेस भी दिखाया गया था। इसकी सहायता से तल्ले बड़ी
अासानी से उपल्लों में चिपका दिये जाते हैं।
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२८६
सरस्वती
[भाग ३८
हिज हाडनेस महाराजा सेंधिया (ग्वालियर) का विवाह हिज़ हाइनेस महाराजा त्रिपुरा की छोटी बहन राजकुमारी कमलप्रभा देवी से अागामी अप्रेल में होने जा रहा है। यह विवाह अपने ढंग का पहला विवाह है। विवाह
की दोनों ओर तयारयाँ धूम-धाम से हो रही हैं।
इंग्लैंड में खुली हवा और धूप में स्कूल लगाने का भाव बढ़ता जाता है। यह चित्र 'सेंट जेम्स पार्क ओपेन एयर
स्कूल' के एक क्लास का है। ठंड से बचने के लिए छात्राओं ने लबादा डाल रक्खा है ।
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चीफ़ स्काउट लार्ड बेडेन पावेल और लेडी बेडेन पावेल । हाल में ही दिल्ली में स्काउटों की जो जम्बूरी हुई थी उसमें भाग लेने इंग्लैंड से आये।
श्रीयुत लक्ष्मीकान्त झा। ये लन्दन की आई० सी० एस० परीक्षा में भाग लेनेवाले प्रथम मैथिल ब्राह्मण हैं । ये हिन्दी के सुलेखक भी हैं ।
बोटहीमेसी
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वार
श्रीयुत नाथूलाल जैन 'वीर'। ये हिन्दीसाहित्य-सम्मेलन की मध्यमा परीक्षा में इस वर्ष सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए हैं।
obhandar-Umara, Sura
श्रीयुत प्रताप सेठ । आप खानदेश के एक मिलमालिक हैं । आपने हिन्दू - भोंसला मिलिटरी स्कूल के लिए एक लाख का दान दिया है। यह स्कूल शीघ्र ही नासिक में खुलेगा ।
चीन के प्रजातंत्रवादी विद्यार्थी
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व्यव्यस्त रेखा शब्द पहेली CROSSWORD PUZZLE IN HINDI
३००)
२०) (शुद्ध पुर्तियों पर
। न्यूनतम
अशुद्धियों पर V
नियम :-(१) वर्ग नं०८ में निम्नलिखित पारि- भी एक ही लिफ़ाफ़े या पैकेट में भेजी जा सकती हैं । तोषिक दिये जायेंगे। प्रथम पारितोषिक-सम्पूर्णतया शुद्ध मनीबार्डर व वर्ग-पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग-नम्बर ८, इंडियन पूर्ति पर ३००) नकद । द्वितीय पारितोषिक --न्यूनतम प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से पानी चाहिए। अशुद्धियों पर २००) नक़द । वर्गनिर्माता की पूर्ति से, (द) लिफ़ाफ़े में वर्ग-पूर्ति के साथ मनीबार्डर की जो मुहर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र नत्थी होकर पाना अनिवार्य है। सही मानी जायगी।
रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र न होने पर वर्ग-पूर्ति की जाँच (२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए
न की जायगी। लिफ़ाफ़े की दूसरी अोर अर्थात् पीठ पर जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत
मनीआर्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति संख्या लिखनी अङ्क-परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से
आवश्यक है। श्रारम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है
(६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह और इस चिह्न (23) के पहले समाप्त होता है। अङ्क-परिचय ।
जितनी पूर्ति-संख्यायें भेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी अोर पड़े जानेवाले
वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी शब्दों के अङ्क अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह
चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति को केवल एक ही पता चलेगा कि कौन शब्द किस ओर को पढ़ा जायगा ।
इनाम मिल सकता है। वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा (३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय । पेंसिल
में नहीं लौटाई जायगी । इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें से की गई पूर्तियाँ स्वीकार न की जायँगी। अक्षर सुन्दर, सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए। जो
भाग नहीं ले सकेंगे।
(७) जो वर्ग-पूर्ति २२ मार्च तक नहीं पहुँचेगी, जाँच अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर दूसरी बार लिखा गया होगा वह अशुद्ध माना जायगा।
में नहीं शामिल की जायगी। स्थानीय पूर्तियाँ २२ ता० को (४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फ़ीस
पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दूर के स्थानों वर्ग के ऊपर छपी है दाखिल करनी होगी। फीस मनी. (अर्थात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्री पहुँचने में आर्डर-द्वारा या सरस्वती-प्रतियोगिता के प्रवेश शुल्क-पत्र
___ २४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २
२ (Credit roucher) द्वारा दाखिल की जा सकती है।
दिन बाद तक ली जायँगी। वर्ग-निर्माता का निर्णय सब इन प्रवेश-शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३) या '
- प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा। शुद्ध वर्ग-पर्ति ६) में खरीदी जा सकती हैं। ३) की किताब में अाठ पाने की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले अङ्क में प्रकाशित मूल्य के और ६) की किताब में ११ मूल्य के ६ पत्र बँधे होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पर्ति हैं। एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पता- की शुद्धता अशुद्धता की जाँच कर सके। ठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीआर्डर-द्वारा अपनी (८) इस वर्ग के बनाने में 'संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर' अपनी फ़ीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियाँ और 'बाल-शब्दसागर' से सहायता ली गई है।
२८९ Shree Sudhanlavwami Gyanbhandar-Umara, Surat
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ऊपर से नीचे
( २९० ) बायें से दाहिने अङ्क-परिचय १-कृष्ण का नाम ।
१-इसका फल प्रत्यक्ष है। ३-नाटक खेलने का स्थान ।
२-उद्देश्यपूर्ति के लिए इसकी क्रिया विधि-पूर्वक होनी ६-कृष्ण का बहुतेरे ऐसा समझते हैं ।
चाहिए। ७--, बड़े ठाट का, होता है। १०-कृष्ण। ३-होली की महिमा इसके ही अानन्द से है। १२-इसका समय ही थोड़ा होता है।
४-इस के गरम होने से अनाज पकने में सहायता मिलती है। १३-यहाँ नाज उलट पड़ा है।
५-कोई-कोई बहुत कोमल होती है। १४-दिखाई देना।
६-सभ्य संसार में कहीं-कहीं अब यह प्रचलित नहीं। १५-किसी काम के सिद्ध करने के लिए प्रायः इसकी ८-इसका शब्द इसकी अान्तरिक ठेस का पता देता है। आवश्यकता पड़ती है।
९-एक अवतार ऐसा भी हश्रा है जो इसी क्रिया से १८-शिवजी का धनुष ।
प्रसिद्ध हुआ है। १९-घोर कठिनाइयाँ पड़ने पर भी भारतीय महिला की १०-श्री राधा जी का स्थान ।
श्रद्धा इस पर कम नहीं होती। २०-चना। ११-व्यापारी इसकी हवा हर एक ग्राहक को नहीं देता। २२-किसी बात का बार बार कहना। २३-ऊँचे कुल का। १४-दूध से बनता है। २४-जो कहा न जा सके।
१६-हृदय के चलने का शब्द। २६-स्त्रियों के लिए इसका अाकर्षण प्रबल होता है। १७-नये को देखने बहतेरे दौड़े जाते हैं । २७-यदि यह न होती तो मनुष्य अपने हाथ ही से बेकार १९-युद्ध करती हुई सेना को अपने सरदार के हुक्म से 'हो जाता।
प्रायः......पड़ा है। २९-इसी के द्वारा मक्खन निकाला जाता है ।
२०-होली। २१- लड़ाई। २३-पुष्प । ३०-घर-घर बनती है।
२४-इसके लगने पर प्रायः लोग सिमट पाते हैं। २५-अनेक। २८-वर्षा ऋतु में यह अनोखी होती है । नोट-रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा रहित और पूर्ण हैं।
वर्ग नं. ७ की शुद्ध पूर्ति वर्ग नम्बर ७ की शुद्ध पूर्ति जो बंद लिफाफे में मुहर लगाकर रख दी गई थी, यहाँ दी जा रही है । पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं ।
है
या
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ८ की पूर्तियों की नकल यहाँ पर कर लीजिए।
और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
L
श्र
ई
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वर्ग नं.
|
( २९१ ) फीस ॥
जाँच का फाम वर्ग नं० ७ की शुद्ध पूर्ति और पारितोषिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं । यदि आपको यह संदेह हो कि अाप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १) फ़ीस के साथ निम्न फ़ार्म की ख़ानापुरी करके १५ मार्च तक भेजें। आपकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे । यदि आपकी पूर्ति आपकी सूचना के अनुसार ठीक निकली तो पुरस्कारों में से जो आपकी पूर्ति के अनुसार होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फीस लौटा दी जायगी । पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चुका है उन्हें इस फार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
२५
२६
|
|
चिन्दीदार लकीर पर से काटिए
--विन्दीदार लकीर पर से काटिए
४EL
ई
ई
(रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण हैं) मैनेगर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा।
पूरा नाम
पता
वर्ग नं० ७ (जाँच का फ़ार्म)
मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं०७ के अापके । उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
(कोई अशुद्धि नहीं है।
एक अशुद्धि है।
...... पूर्ति न..........
म
पर्णनं.
दो अशुद्धियाँ हैं।
बिन्दीदार लाइन पर काटिए
--
मेरी पूर्ति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त भेजिए। मैं १) जाँच की फ़ीस भेज रहा हूँ।
.
-
.
हस्ताक्षर
..
पता
.......
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..............
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"विन्दीदार लकीर पर से काटिए
.." -विन्दीदार लकीर पर से काटिए
इसे काट कर लिफाफे पर चिपका दीजिए
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३०
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मैनेजर वर्ग नं०८ इंडियन प्रेस, लि०,
इलाहाबाद
(रिक्त कोडों के प्रभर मात्रा-रहित और पूर्ण है)
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम......................................... .... पता
............... ...... पूर्ति में ......
-:
..-
....................
4.....
"
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। २९२ ) पुरस्कार विजेताओं की कुछ चिट्ठियाँ
भेजेंगा।
बनारस
प्रयाग २८-९-३६ २२ जनवरी, १९३७ प्रिय सम्पादक जी प्रिय महोदय,
मुझे आपका कासवर्ड पज़ल बहुत पसंद आया । - अापका २ जनवरी का कृपा-पत्र प्राप्त हुअा, जिसके हिन्दी में इस प्रकार का पज़ल अभी मुझे देखने को लिए आपको धन्यवाद' । इस प्रतियोगिता में भाग लेने नहीं मिला था। शब्दों के संकेत बड़े व्यावहारिक और का मुख्य उद्देश तो केवल मनोविनोद ही को लेकर था प्रत्येक मनुष्य के साधारण ज्ञान और अनुभव पर बनाये
और पारितोषिकप्राप्ति गौण रूप में। परन्तु पहली बार गये थे। अाज-कल हिन्दी में जो पहेलियाँ निकल रही निशाना ऐसा सटीक बैठा कि गौण मुख्य हो गया और हैं उनमें बिना कोष के काम नहीं चलता। आपके मुख्य गौण । अाप इससे घबरा न जायँ । मेरा विश्वास पज़ल की यह विशेषता थी कि उसके लिए कोष देखने है कि आपकी सरस्वती' हिन्दी-संसार के मनोरंजन के लिए की जरूरत नहीं पडी और यदि पडी भी तो इतनो ही किएक ऐसी सामग्री उपस्थित करती है जिसके अभाव तबीअत लगी रहे और मनोरंजन होता रहे। की पूर्ति और कोई चीज़ न कर सकी थी।
यद्यपि वर्ग नं. १ में मुझे सफलता बहुत कम मिली, ___ इससे मनोविनोद तो होता ही है, पर 'कोष' को बार तथापि जहाँ तक मनोरंजन और जानकारी का सम्बन्ध है वार देखने और शब्दों के खोजने से वर्ग-पूर्ति के शब्दों मुझे पूर्ण संतोष है। के अतिरिक्त और बहुत-से शब्द मालूम हो जाते हैं । अब रही सफलता की बात, सेा अाशा और विश्वास मैं इसकी प्रत्येक वर्ग-पूर्तियों में सम्भवतः भाग लूंगा। करता हूँ कि किसी न किसी वर्ग में एक शुद्ध पूर्ति अवश्य
भवदीय रामगोपाल खन्ना
आपका माधवप्रसाद शर्मा
खत्री पाठशाला बनारस
.२३.१२.३६ महाशय,
नमस्ते-पापका भेजा हुअा ४) का पुरस्कार हस्तगत हुआ जिसके लिए आपको अनेकानेक धन्यवाद–अापके प्रिय महादय, पुरस्कार ने मेरे हृदय में एक जागृति उत्पन्न कर दी है- मैंने वर्ग ५ की पूर्ति की और प्रथम पारितोषिक प्राप्त तथा जो विशेष पुरस्कार मेरे मित्रों को मिला है उससे किया। अंक-परिचय अथवा संकेत इतने सरल हैं कि उनकी मंडली में आनन्द का बादल उमड़ आया है- उनको देखकर प्रत्येक पाठक पूर्ति कर सकता है और अब मैं तथा मेरे मित्रगण अापकी प्रतियोगिता में सम्मिलित पारितोषिक ने तो "श्राम के ग्राम और गुठलियों के दाम" रहने की चेष्टा करते रहेंगे । आगे मेरी तथा मेरे मित्रों की की किंवदंती को चरितार्थ कर दिया है। मेरी भावना है कि सम्मति में प्रत्येक शिक्षित मनुष्य को आपकी प्रतियोगिता आपकी वर्गमाला पल्लवित हो। में सम्मिलित होना चाहिए-इससे उनके हिन्दी शब्द
आपका भांडार की वृद्धि होगी
रामेश्वरनाथ सेठ
हास्पिटल रोड भैरोंप्रसाद
आगरा
श्रापका
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( २९३ )
५००) में दो पारितोषिक _इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ २८९ पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए दो और कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
•• - - - - - - - - - -...
वर्ग नं.
फीस
वर्ग नं०
फीस 1)
TRE
.
..
"बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
-बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
--..-बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
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(रिक्त कोठों के प्रक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण हैं) मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा।
(रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण है) येनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार सोहन होगा। ..............
पूरा नाम....
.............................................
पूरा नाम
पता
............................. पति
नं0---
पूत्ति न
का है या
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अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ८ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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आवश्यक सूचनायें
सामने खोला जायगा। उस समय जो सज्जन चाहें स्वयं
उपस्थित होकर उसे देख सकते हैं। (१) स्थानीय प्रतियोगियों की सुविधा के लिए हमने
(४) मनिबार्डर की रसीद जो रुपया भेजते समय प्रवेश-शुल्क-पत्र छाप दिये हैं जो हमारे कार्यालय से नकद डाकघर से मिलती है, पूर्ति के साथ, अवश्य भेजनी दाम देकर खरीदा जा सकता है। उस पत्र पर अपना नाम चाहिए । पूर्तियों की प्राप्ति की सूचना नहीं भेजी जायगी। स्वयं लिख कर पूर्ति के साथ नत्थी करना चाहिए। चिट्ठी के साथ टिकट किसी को नहीं भेजना चाहिए । मनि
(२) स्थानीय पूर्तियाँ सरस्वती-प्रतियोगिता-बक्स में आर्डर से प्रवेश-शुल्क लिया जायगा। पतली निब से साफ़ जो कार्यालय के सामने रखा गया है, १० और पाँच के बनाकर छपे वर्ग पर ही पूर्ति भेजनी चाहिए । वर्ग को काट बीच में डाली जा सकती हैं।
कर जो काग़ज़ पर चिपका देते हैं और अलग से भी लिख(३) वर्ग नम्बर ८ का नतीजा जो बन्द लिफ़ाफ़े में मुहर कर भेजते हैं। ऐसी पूर्तियाँ प्रतियोगिता में नहीं ली लगा कर रख दिया गया है ता० २५ मार्च सन् १९३७ को जावेगी । लिफ़ाफ़ों में पूर्तियों को इस तरह रखना चाहिए सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे सर्वसाधारण के कि यहाँ खोलने में कूपन फटें नहीं।
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मूल्य
संक्षिप्त हिंदी-शब्दसागर
मंजिन हिंदी-एब्दमागर
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जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और बहु. मूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्द सागर को प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये।
हिन्दी-शरसार
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कड़ धार हाधार क
संयुक्त प्रान्तीय असेम्बली के चुनाव में कांग्रेस की ऐसी विजय हुई कि उसके विरोधी दङ्ग रह गये, जो लोग मिनिस्टर आदि बनने के मनसूबे बाँधे हुए थे, असेम्बली में पहुँच तक न सके । पुरानी प्रान्तीय कौंसिल के सभापति सर सीताराम, लेडी कैलाश श्रीवास्तव और लीडर - सम्पादक श्रीयुत सी ० वाई० चिन्तामणि आदि जो असेम्बली की शोभा बढ़ाते और उसमें चहल-पहल पैदा करते उसमें जाते जाते रुक गये । पर कदाचित् व देश कोरी शोभा या चहल-पहल नहीं चाहता या उसे यह आशा कि कांग्रेसवाले और भी मज़ेदार चहल-पहल शुरू करेंगे ।
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इस चुवाव में बहुत-से लोगों को अपनी ज़मानतें गँवानी पड़ीं । बहुत-से लोग ख़ुश हो रहे हैं कि अच्छा हुआ, हम नहीं खड़े हुए और बहुत से लोग सोचते हैं कि कांग्रेस के नाम पर हम भी खड़े हो जाते तो अच्छा होता । क्या अच्छा हो कि ये अनुभव लोगों को याद रह जायँ और इन्दा फिर चुनाव श्रावे तब वे इससे लाभ उठावें ।
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यार में शान्ति की पुकार मची हुई है। ब्रिटेन शान्ति चाहता है, जर्मनी शान्ति के लिए लालायित है, फ्रांस शांति का उपासक है, इटली शांति के लिए चिन्तित है।
I
और रूस साक्षात् शान्ति का दूत होने की घोषणा कर रहा है । ये सब देश बम, विषैली गैसें, मशीनगनें और हवाई जहाज़ आदि युद्ध की सामग्री दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाते चले जा रहे हैं, क्योंकि इनका ख़याल है कि इसके बग़ैर शांति की स्थापना नहीं हो सकती । कदाचित् इन राष्ट्रों का यह ख़याल है कि जिस भूमि पर शान्ति की स्थापना करनी हो वह कुछ समय के लिए युद्ध क्षेत्र बना दी जाय। लोग कटकर मर जायँगे, शान्ति अपने आप स्थापित हो जायगी । उसी चिर शान्ति की और योरप जा रहा है । यदि ये सब राष्ट्र बजाय यह कहने के कि हम शान्ति चाहते हैं, यह कहें कि हम मौत चाहते हैं तो अधिक सार्थक हो ।
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3416
चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पट झीन । माहु सुर सरिता बिमल, जल उछरत जुग मीन ॥ 'चित्रकार - श्री केदार शर्मा
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मैसूर नगर की म्युनिसिपैलिटी ने वहाँ के हज्जामों पर टैक्स लगा दिया है। इसके परिणाम स्वरूप वहाँ के हज्जामों ने गत १४ फ़रवरी से हड़ताल कर रक्खी हैं और फ़ैशनेबल लोग 'पितृपक्ष' की याद दिला रहे हैं । इस प्रकार के पेशेवालों पर टैक्स लगाकर राज्य की श्राय बढ़ाने की म्युनिसिपैलिटी की सूझ प्रशंसनीय । पर
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सरस्वती
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इसके साथ ही उसे धो बियों और दर्जियों आदि पर भी गत १२ फ़रवरी को पटना नगर में एक नवजात टैक्स लगाना चाहिए था । कदाचित् उसने यह सोचा हो शिशु सड़क पर पड़ा पाया गया। कोई उसे गर्म कपड़ों में कि यदि सब एक साथ हड़ताल कर देंगे तो शहर में पूरी लपेटकर सड़क पर रख गया था। वह बच्चा सरकारी मनहूसियत छा जायगी, इसलिए उसने फ़िलहाल हज्जामों अस्पताल में रखा गया है और अनेक निःसन्तान लोगों को ही छेड़ा है। यह हड़ताल यदि एक महीने भी जारी ने उसे अपनाने के लिए मजिस्ट्रेट के पास दस्ति दी रही तो मैसूर पूरा पूरा दढ़ियलों का नगर हो जायगा। है। मजिस्ट्रेट ने सब दोस्तों को नामंजूर कर दिया है ।
पर वे एक हज्जाम की स्त्री की दास्त पर विचार कर रहे हैं। सम्भवतः बच्चा उसी को दिया जायगा। यह दुख की बात है कि जो ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं वे उसका पालन करने का साहस नहीं कर सकते, क्योंकि उस अवस्था में समाज में वे घोर तिरस्कार के भागी हो सकते हैं। खैर, गैर कानूनी बच्चों की रक्षा की ओर लोगों का ध्यान तो जाने लगा।
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अमृतसर के एक अन्धे नवयुवक को पुलिस ने आत्महत्या करने के प्रयत्न में गिरफ्तार किया। मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने पर नवयुवक ने अपने बयान में कहा"न तो मैं अपनी जीविका कमा सकता हूँ और न भीख माँगने से रोटी मिलती है। सात दिन तक भिक्षा मांगने पर भी जब कुछ नहीं मिला तब मैं अफ़ीम खाने के लिए मजबूर हश्रा। कृपया या तो मुझे जन्म भर के लिए जेल में बन्द रखिए या मुझे भोजन देने का प्रबन्ध किया जाय. या लाहौर के मेया-अस्पताल में मेरी आँखें अच्छी कराई जायँ । नहीं तो जब मैं इस बार छूट्रॅगा तब रेलवे लाइन पर कटकर अपनी जान दे दूंगा।'
जिस संवाददाता ने यह समाचार पत्रों में भेजा है उसका कहना है कि मजिस्ट्रेट को उस पर दया आ गई
और उन्होंने उसे ६ मास की सजा दे दी। बिना भोजन के घुल घुलकर मरना जुर्म नहीं है । पर इस प्रकार के जीवन को शीघ्रतापूर्वक ख़त्म कर देने का प्रयत्न जुर्म है । यह क्यों ? कानून के विद्वानों का ध्यान इधर जाना चाहिए ।
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कच समेटि कर, भुन उलटि, खए सीस पट डारि। काको मन बाँधै न यह, जुरो बाँधनि हारि
चित्रकार-श्री केदार शर्मा
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नग्वनऊ को प्रदर्शनी लखनऊ की गोगिक और कृषि प्रदर्शनी की पिछले महीनों अच्छी धम रही। इस प्रान्त में इतन बई विन्नार के साथ की गई यह दूसरी प्रदशनी है। पहली प्रदशनी प्रयाग में मन १९१८ में हुई था। लीडर' के सम्पादक श्रीयत सी. वाई. चिन्तामगि ने प्रयाग की प्रदशनी देखी थी और हम लबान की प्रदर्शनी का भी आपन निरीक्षण किया है। दोनों की तलना करते हुए आपने एक सुन्दर तन्द नीडर में लिखा था। यहाँ हम उसके आवश्यक अंश 'भारत' से उदधृत करते हैं।
हम लेग्य को मैं पहने यही कह कर शुरू करूंगा कि महम बरसनऋन में सरकारी प्रदशनी करने के पन्नाव का समर्थक नहीं था। मंग धागा है कि इस देश
या तथा बड़ी प्रदश नयों की ज्यादती हो गई है। अपने पूर्व अनाव में मैं यद् गी जानता था कि सरकारी पशनी में बहुत समय खर्च होंगे, क्योंकि सरकार जो भी काम करनी है उसमें कपये अधिक खर्च हान हैं। इसके अतिरिक्त यह एक सच्ची बात है कि इसके पहले जो नमाइश हर थी उनमें विदेशी कारखानों का कारवार भारतीय कारखानों की अपेक्षा ज्यादा अच्छा चला था ।
प्रदर्शनी के मुग्य-द्वार (म्मी दरवाजा) पर की गई इसका पहलाकारमा नो यह था कि अभी भारतीय कारखानों
बिजली की रोशनी का दृश्य । का कारया ही बहुत छोटा था और अब भी है और दूसरा बड़े दिन की छुट्टियों के पहले प्रदर्शनी गं जाने का का यह कि विदेशी कारखानों के लोग यह पना मझे अवसर न मिल सका। प्रदर्शनी में में केवल दो बार लगानन कि यहां की जनता किस तरह का माल पनन्द नामका हूं। प्राशनी के सेक्रेटरी मिस्टर शवदासनी नथा की और फिर उसी के अनमार वे चीन भी रखने उसके पब्लिसिटी ग्राफिमर मिस्टर जगगन विहारी माथुर ने
। मैंने अपना यह सम्मान कई बार लेजिस्लेटिव कौमिल ममें प्रदर्शनी का चक्कर लगवाया । इस सौजन्य के लिए में प्रकट की थी और सम्पूमा प्रदर्शनी अथवा उसके अलग मैं उनका याभार्ग है । बंई दिन की छुट्टियों में अवश्य अलग विभागों के लिए कोमिलने जा याथिक सहायता दशकों की संख्या इतनी भारी थी कि उससे कोई भी का मांग की गई थी उसे मंज़र करने के लिए मैंने अपना असन्तुष्ट नहीं हो सकता था। यह स्वाभाविक है कि छुट्टियों वोट नहीं दिया था।
के पहले तथा उसके बाद दर्शकों की संख्या कम होती।
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अपनी व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर मैं यह राय जाहिर कर रहा है। मुझे यह सुनकर बड़ी हसी आई कि वर्तमान प्रदर्शनी का नकशा
आस्ट्रेलिया के एक गृहनिमाणविद्या के विशेषज्ञ ने तैयार किया था। यह प्रदर्शनी भारतीय उद्योगों की उन्नति का प्रदशन करने के लिए की गई है और इसका नक्शा तैयार करना एक ग्रान्टेलिया के निवासी के सुपुर्द किया गया ! प्रदशनी के ऊपर यह क्या
ही अच्छी टीका-टिप्पणी है ! रात में लिया गया प्रदर्शनी के भीतर का एक चित्र ।।
अस्तु. यह एक छोटी
सी बात है। इने यहीं खत्म प्रवेश-शुल्क-द्वारा जितनी ग्रामदनी की ग्राशा की जाती कर देना चाहिए। प्रदर्शनी में जो चीज़ पाई है उनका थी, उतनी प्रदर्शनी के समाप्त होने तक हो सकेगी या नहीं, ज़िक्र अधिक महत्त्वपूर्ण है। दोनों प्रदर्शनियाँ में देग्य चुका यह मुझे नहीं मालूम । प्रदर्शनी एक बड़े विस्तृत क्षेत्र में है और दोनों के सम्बन्ध में मेरी राय भी स्पष्ट है । केवल फैली हुई है और उसकी चीज़ दूर दूर पर विग्दरी हुई है, प्रदर्शनी के लिहाज़ से वर्तमान प्रदर्शनी निश्चित रूप से जिसके कारण किसी भी दर्शक को असुविधा हो सकती है। इलाहाबाद की प्रदर्शनी से घट कर है। किन्तु भारतीय मुझे तो यह अनुभव होता था कि प्रदर्शनी की चीज़ उद्योग-धन्धों की प्रदर्शनी के लिहाज़ से वह इलाहाबाद न दिखाई देकर केवल उसका क्षेत्र ही दिखाई दे रहा है। की प्रदर्शनी से अच्छी है । इसका कारण बिलकुल सीधाप्रदर्शनी में इतना ज्यादा पैदल चलना पड़ता है कि मज़बूत मादा है। गत २६ वर्षों में भारतीय उद्योगों ने भाग से मज़बूत श्रादमी भी थक जाय । प्रदशनी के प्रत्येक उन्नति की है और भारतीय व्यवसायियों के पास अब २५ विभाग का दर्शन करने के लिए जितने समय की आव- वर्ष पहले से अधिक चीज़ प्रदर्शन करने के लिए हो गई श्यकता है और जितनी बार प्रदर्शनी में जाने की है। दूसरा कारण यह है कि वर्तमान प्रदर्शनी के अधिकाअावश्यकता पड़ती है, साधारण मनुष्य उतनी बार न तो रियों ने इलाहाबाद की प्रदर्शनी के अधिकारियों की जा ही सकता है और न उतना समय ही निकाल सकता है। अपेक्षा भारतीय उद्योगों की उन्नति के प्रदशन को ज्यादा
यह स्वाभाविक ही है कि हृदय में इस प्रदर्शनी का महत्त्व दिया है । वर्तमान प्रदर्शनी में एक और महत्वपूर्ण गत सरकारी प्रदर्शनी से मुकाबिला करने का विचार उत्पन्न बात है । इसमें इस बात के प्रदर्शन की व्यवस्था की गई होता है । कम से कम एक बात में सन् १९५० को इलाहा- है कि प्रौद्योगिक चीज़ कैसे तैयार की जाती है, और इस बाद की प्रदर्शनी लखनऊ की प्रदर्शनी से अच्छी थी। सम्बन्ध में वर्तमान प्रदर्शनी के सामने इलाहाबाद की उस प्रदर्शनी के भवन-निर्माण में ज्यादा समझदारी से प्रदर्शनी कोई चीज़ न थी। दर्शकों के शिक्षार्थ प्रदर्शन काम लिया गया था। मेरा यह विचार है कि इस सम्बन्ध किया जाना इस प्रदर्शनी का मुख्य अंग है । जिन लोगों में दो सम्मतियाँ नहीं हो सकतीं। दानों प्रदर्शनियों की का प्रदर्शन से सम्बन्ध है, वे हार्दिक बधाई के पात्र हैं,
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क्योंकि उनका प्रदर्शन का कार्य बहुत ही सफल हुअा है।
प्रदर्शनी के शिक्षा सम्बन्धी कोर्ट का मैं विशेष रूप से जिक्र करूँगा। अब तक मैंने इस देश में जितने शिक्षा सम्बन्धी कोर्ट देखे हैं उनमें वह सबसे अच्छा है । जिन लोगों ने को-आपरेटिव विभाग का दर्शन किया है उनका कहना है कि यह विभाग भी बहुत ही शिक्षाप्रद है। दुर्भाग्यवश मुझे को-आपरेटिव विभाग में जाने का अवसर नहीं मिला, किन्तु मैं अपने मित्रों की बतलाई हुई बात पर विश्वास कर सकता हूँ। सन् १९१० में भारतवर्ष में
लखनऊ की प्रदर्शनी में ग्रेहाउन्ड कुत्तों की दौड़ एक अभूतपूर्व वस्तु थी। को आपरेटिव अान्दोलन प्रारम्भ इस चित्र में कुत्त दौड़ के लिए तैयार हो रहे हैं ।] हुए केवल छः वर्ष हुए थे और उसके महत्व को लोग मुश्किल से समझ पाये थे। ने बड़ी सफलता प्राप्त की है। यह बड़ी प्रशंसनीय बात दुर्भाग्यवश अाज भी यह बात सत्य है कि सहयोग-समिति- है कि को-पापरेटिव-अान्दोलन सम्बन्धी कार्यों की सफलता अान्दोलन अब तक उतनी तरक्की नहीं कर सका है, जितनी को प्रदर्शनी में उचित महत्त्व दिया गया है। उसे करनी चाहिए थी। फिर भी यह मानने से इनकार अब मैं फिर शिना-सम्बन्धी कोर्ट का ज़िक्र करूँगा। नहीं किया जा सकता कि गत २५ वर्षों में इस अान्दोलन मैंने इस कोट को इतना मनोरंजक तथा शिक्षाप्रद पाया
कि मुझे यह जान कर बड़ा शोक हुअा कि सरकारी तथा गैर सरकारी शिक्षा-संस्थानों के अधिकारियों ने प्रदर्शनी के इस भाग का निरीक्षण करने के लिए अपने छात्रों को शिक्षकों के साथ भेजने का प्रबन्ध नहीं किया है। इस कार्ड में दीवारों पर अनेक नकशे टॅगे हुए हैं । किसी नशे में यह दिखलाया गया है कि संसार के विभिन्न देशों में कितने प्रतिशत व्यक्ति शिक्षित हैं; किसी में यह दिखलाया गया है कि विभिन्न देशों में प्रतिवर्ष कितने व्यक्तियों की मृत्यु होती है; और किसी में यह
दिखलाया गया है कि प्रत्येक देश शिक्षा और फ़ौज पर लखनऊ-प्रदर्शनी के भीतर सैर करनेवालों के मज़े के कितने रुपये खर्च करता है । जिस नकशे में विभिन्न देशों लिए एक छोटी रेलगाड़ी चलाई गई थी। पर उसके के शिक्षितों की संख्या दिखाई गई है उसमें भारतवर्ष का इजिन के विगड़ जाने से एक मोटर से इंजिन का काम स्थान सबसे नीचे है। मृत्यु के नशे में उसका स्थान लिया गया।]
सबसे ऊँचा है। शिक्षा पर रुपये खर्च करने के सम्बन्ध में
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होती है उसमें भी भारतवर्ष का स्थान सबसे नीचे है। एक और नक्शा भी बड़ा शिक्षाप्रद है। इस नकशे में एक हिस्से में अशोक के समय का भारतवर्ष दिखलाया गया है और दूसरे हिस्से में ब्रिटिश सरकार के समय का। पहले नशे में एक हिन्दू एक बौद्ध के साथ बड़े प्रेम के साथ हाथ मिला रहा है,
यद्यपि दोनों धमों में वा तक WITH FRETSAV
प्रतिस्पर्धा रही। इससे यह पता चलता है कि उस समय
विभिन्न सम्प्रदायों में किस [लखनऊ की प्रदर्शनी में : फ्रंट सास लकड़ी को कलापूर्ण ढङ्ग से काटने का प्रकार का सम्बन्ध था। ब्रिटिश एक दृश्य ।]
सरकार के समय के नशे में
हिन्दू और मुसलमान एक उसका स्थान फिर सबसे नीचं या करीब करीब सबसे नीचे दूसरे को पटकने की कोशिश कर रहे हैं । यह नकशा इस है। जिस नकशे में यह दिखाया गया है कि विभिन्न देश बात का द्योतक है कि हिन्दू-मुसलमान के बीच अाज-कल अपनी रक्षा करने के लिए फोन पर अपनी ग्रामदनी का कैसा रिश्ता है। ब्रिटिश सरकार अब यह शिकायत नहीं कितना हिस्सा खर्च करते हैं उसमें फिर भारतवर्ष का स्थान कर सकती कि आन्दोलनकारी उसकी अनुचित ग्रालोचना सबसे ऊँचा है। जिस नकशे में यह दिखलाया गया है कि करते हैं। अपने ही सरकारी शिक्षा सम्बन्धी कोट में और विभिन्न देशों के प्रत्येक मनुष्य की सालाना ग्रामदनी कितनी अपनी ही सरकारी प्रदर्शनी में ब्रिटिश सरकार की ऐसी
सच्ची बातों का प्रदर्शन हुआ है जिनसे उसकी प्रतिष्ठा
MINICRAFT PFHNSTRATIONS
प्रदर्शनी के भीतर स्त्रियों द्वारा कताई और कसीदा आदि काड़ने का प्रदर्शन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
दस्तकारी की वस्तुओं के प्रदर्शन का एक साधारण दृश्य ।
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को वह हानि पहुँच सकती है जो अब तक बुरे-से-बुरा कारण ही अधिक बदनाम हैं। भारतीयों में शिक्षा के आन्दोलनकारी न पहुँचा सका होगा।
अभाव के लिए पहली और अन्तिम ज़िम्मेदारी गवर्नमेंट ___ मेरा यह विश्वास है कि प्रदर्शनी के लिहाज़ से सन् की ही है। अगर देश में शिक्षा का पर्याप्त मात्रा में प्रसार १९१० की इलाहाबाद की प्रदर्शनी इससे कहीं अच्छी थी। हो तो स्वभावतः यहाँ से बाहर जानेवाले देशवासी भी किन्तु भारतीय उद्योग-धन्धों की प्रदर्शनी तथा शिक्षा- शिक्षित ही होंगे। माननीय शास्त्री से यह मालूम कर प्रद प्रदर्शन के लिहाज़ से लखनऊ की वर्तमान प्रदर्शनी प्रत्येक भारतीय को हर्ष होना चाहिए कि आचरण के सन् १९१० को इलाहाबाद की बड़ी प्रदर्शनी से कहीं विचार से मलाया के भारतीय अब पहले वर्षों की अपेक्षा अच्छी है।
बेहतर अवस्था में है। देहात में भारतीयों का आचरण ___ अन्त में मैं उन सरकारी कर्मचारियों को बधाई देना गिरा हुआ नहीं। इस पहलू में अगर किसी स्थान के चाहता हूँ जिनके ऊपर इस प्रदर्शनी के कार्य का भार भारतीयों पर अँगुली उठाई जा सकती है तो वे शहर में पड़ा है और जिन्होंने इस कार्य को बड़ी सफलता के साथ रहनेवाले भारतीय हैं और इनमें भी वे लोग जो रुपया सम्पन्न किया है । हमें आशा करनी चाहिए कि जब वर्तमान उधार देने का कारबार करते हैं। ये लोग अपने परिवारों प्रदर्शनी के ख़र्चे का हिसाब तैयार किया जायगा तब वह को अपने साथ नहीं ले जाते। इसी प्रकार क्ली और इलाहाबाद की प्रदर्शनी की अपेक्षा कर-दाताओं के लिए मिस्त्रीगिरी का काम करनेवाले कई लोग जिन्हें अधिक कम भारी साबित होगी।
वेतन नहीं मिलता, स्त्रियों के बिना ही रहते हैं। इन लोगों का अाचरण प्रायः ख़राब पाया जाता है, मगर यह ख़राबी
कोई ऐसी नहीं कि जो दूर न की जा सकती हो। शराब मलाया में भारतीयों की दशा ।
की इल्लत मलाया के भारतीयों में निश्चित रूप से कमी मलाया में भारतीयों की क्या स्थिति है ? इसकी पर है । माननीय शास्त्री का कहना है कि जब से सरकार जाँच करने के लिए भारत सरकार की ओर से ने यह पाबन्दी लगाई है कि कोई मनुष्य एक दिन में माननीय श्रीनिवास शास्त्री वहाँ भेजे गये थे। एक नियत मात्रा से अधिक शराब नहीं ले सकता तब शास्त्री जी अब वहाँ से लौट आये हैं और आपने से नशा पीने की आदत बराबर कमी पर है। मलाया की अपनी रिपोर्ट भारत-सरकार को दे दी है। रिपोर्ट भारतीय स्त्रियों का इस बुराई को दूर करने में भारी हाथ अभी प्रकाशित नहीं हुई, पर एक पत्र-प्रतिनिधि से है। वे न केवल यह कि खुद नशा नहीं करतीं, बल्कि उन्होंने बहुत-सी ज्ञातव्य बातें बताई हैं, जिनके पुरुषों को भी विनाश के इस मार्ग पर जाने से रोकती
आधार पर 'हिन्दी-मिलाप' ने उपर्युक्त शीर्षक में हैं। ये सब हालात जो माननीय शास्त्री की ज़बानी मालूम एक अग्रलेख प्रकाशित किया है। यहाँ हम उसी हुए हैं, उत्साह भङ्ग करनेवाले नहीं। लेकिन फिर भी लेख का एक अंश उद्धृत करते हैं
मलाया के भारतीयों की दशा का ठीक चित्र इन बिखरी ___ मलाया एक सुन्दर प्रायद्वीप है। इसमें भारतीयों ने हुई बातों से खिंच नहीं सकता। इन प्रवासी भारतीयों की बड़ी बड़ो जागीरें बना रक्खी हैं और वे कृषि तथा काश्त हालत जानने के लिए हमें माननीय शास्त्री की रिपोर्ट की से बहुत कुछ पैदा करते हैं, मगर जैसा कि माननीय शास्त्री ही प्रतीक्षा करनी होगी। ने देखा कि पूँजी की कमी के कारण वहाँ के भारतीय अधिक उन्नति नहीं कर पाये। को-आपरेटिव अाधार पर वहाँ कार्य हो सकता है, मगर भारतीय मज़दूरों में अशिक्षा
___ महात्मा गांधी और देवदर्शन का ज़ोर है। इसलिए उनकी अपने आपके सुधारने की मन्दिरों के भीतर जाकर देवदर्शन का अधिकार शक्ति बहुत क्षुद्र तथा सीमित है। एक मलाया ही नहीं, हिन्दू मात्र को प्राप्त हो, इसके लिए सतत उद्योग बहुत-से अन्य विदेशों में भी भारतीय अशिक्षित होने के करते रहने पर भी महात्मा गांधी को इधर मंदिरों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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में जाने से अरुचि-सी हो गई थी। परन्तु जब घुटने टेक सकें। फिर भले ही वह वस्तु कोई ग्रन्थ हो, त्रावणकोर के महाराज ने अपने राज्य के समस्त या पत्थर का कोई ख़ाली मकान हो या अनेक मूर्तियों मंदिरों का हरिजनों के लिए खोल दिये जाने की से भरा हुअा पत्थर का काई मंदिर हो। किसी को ग्रन्थ घोषणा की और इस सिलसिले में महात्मा जी भी से शान्ति मिलेगी, किसी का ख़ाली मकान से तृप्ति होगी, वहाँ गये तब उन्होंने मंदिरों में जाकर श्रद्धापूर्वक तो दूसरे बहुत-से लोगों को तब तक संतोष नहीं होगा देवदर्शन किये। इस अवसर पर त्रिवेन्दरम् में जब तक कि वे उन ख़ाली मकानों में कोई वस्तु स्थापित उन्होंने एक भाषण भी किया था। उसका एक हुई नहीं देख लेंगे । मैं आपसे फिर कहता हूँ कि यह भाव
लेकर आप इन मन्दिरों में न जावे कि ये मंदिर अंधअाज पद्मनाभ स्वामी के मन्दिर में मैंने जो देखा वह विश्वासों को आश्रय देनेवाले घर हैं । मन में श्रद्धाभाव मुझे कह देना चाहिए। शुद्ध धर्म की जागृति के विषय रखकर अगर आप इन मन्दिरों में जायँगे तो आप देखेंगे में मैं जो कह रहा हूँ उसका शायद अच्छे-से-अच्छा कि हर बार वहाँ जाकर आप शुद्ध बन रहे हैं और जीवितउदाहरण इसमें मिलेगा। मेरे माता-पिता ने मेरे हृदय जाग्रत ईश्वर पर आपकी श्रद्धा बढ़ती ही जायगी। कुछ में जिस श्रद्धा-भक्ति का सिंचन किया था उसे लेकर मैं भी हो, मैंने तो इस घोषणा को एक शुद्ध धर्म-कार्य माना अपनी युवावस्था के दिनों में अनेक मन्दिरों में गया हूँ। है । त्रावणकोर की इस यात्रा को मैंने तीर्थयात्रा माना किन्तु इधर पिछले वर्षों में मैं मन्दिरों में नहीं जाता था, है, और मैं उस अस्पृश्य की तरह इन मन्दिरों में जाता
और जब से इस अस्पृश्यता-निवारण के काम में पड़ा हूँ, हूँ जो एकाएक स्पृश्य बन गया हो। आप सब इस घोषणा तब से तो जो मन्दिर 'अस्पृश्य' माने जानेवाले तमाम के विषय में अगर यही भावना रक्खेंगे तो आप सवर्ण और लोगों के लिए खुले हुए नहीं होते उन मन्दिरों में जाना अवर्ण के बीच का सब भेद-भाव तथा अवर्ण-अवर्ण के मैंने बन्द कर दिया है। इसलिए घोषणा के बाद इस बीच का भी सारा भेद-भाव, जो अब भी दुर्भाग्य से बना मन्दिर में जब मैं गया तब अनेक अवर्ण हिन्दुओं की भाँति हुअा है, नष्ट कर देंगे । अन्त में मैं यह कहूँगा कि आपने मुझे भी नवीनता-सी लगी। कल्पना के परों के सहारे अपने उन भाई-बहिनों को जो सबसे दीन और दलित मेरा मन प्रागैतिहासिक काल में जब मनुष्य ईश्वर का समझे जाते हैं, जब तक उस ऊँचाई तक नहीं पहुँचा सन्देश पाषाण-धातु आदि में उतारते होंगे, वहाँ तक दिया, जहाँ तक कि आप अाज पहुँच गये हैं, तब तक उड़ता हुआ पहुँच गया।
आप संतोष न मानें। सच्चे आध्यात्मिक पुनरुत्थान में ____ मैंने स्पष्टतया देखा कि जो पुजारी मुझे शुद्ध सुन्दर आर्थिक उन्नति, अज्ञान का नाश और मानव-प्रगति में हिन्दी में प्रत्येक मूर्ति के सम्बन्ध में परिचय दे रहा था, बाधा देनेवाली चीज़ों को दूर करने का समावेश होना वह यह नहीं कहना चाहता था कि प्रत्येक मूर्ति ईश्वर है। ही चाहिए । पर यह अर्थ दिये बगैर ही उसने मेरे मन में यह भाव महाराजा साहब की घोषणा में जो महान् शक्ति है, उत्पन्न कर दिया कि ये मन्दिर उस अदृष्ट, अगोचर और उसे पूरी तरह से समझने की क्षमता ईश्वर यापको दे । अनिर्वचनीय ईश्वर तथा हम-जैसे अनन्त महासागर के आप लोगों ने मेरी बात शान्ति के साथ सुनी इसके लिए अल्पातिअल्प विन्दुओं के बीच सेतुरूप हैं। हम सब मैं आपका आभार मानता हूँ। मनुष्य तत्त्वचिंतक नहीं होते। हम तो मिट्टी के पुतले हैं, धरती पर बसनेवाले मानव प्राणी हैं, इसी लिए हमारा मन धरती में ही रमता है, इससे हमें अदृश्य एक प्रसिद्ध ज्योतिषी की भविष्यवाणी ईश्वर का चिंतन करके संतोष नहीं होता । कोई- सन् १९३७ का वर्ष कैसा होगा इस सम्बन्ध में न-कोई हम ऐसी वस्तु चाहते हैं, जिसका कि हम स्पर्श योरप के प्रसिद्ध ज्योतिषी श्री आर० एच० नेलर ने कर सकें, जिसे कि हम देख सके, जिसके कि अागे हम अपनी भविष्यवाणी एक अँगरेजी साप्ताहिक पत्र में
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संख्या ३]
सामयिक साहित्य
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प्रकाशित कराई है । नीचे हम उसका सारांश भारत का युद्ध अथवा राजनैतिक चाल के द्वारा भङ्ग करेंगे और से उद्धृत करते हैं
इस बात की चेष्टा करेंगे कि ब्रिटेन संसार का शक्तिशाली ___ सर्वप्रथम उन्होंने इँगलेंड के नये सम्राट के राज्या- राष्ट्र न रह जाय। प्रत्येक मास के साथ इस युद्ध का भिषेकोत्सव का उल्लेख किया है। यह उत्सव १२ मई खतरा बढ़ता ही जायगा। स्पेन के गृह-युद्ध के सम्बन्ध में को मनाया जायगा। उस दिन अच्छी धूम नहीं होगी। भूमध्यसागर में ख़तरनाक स्थिति उत्पन्न हो जायगी। अगर थोड़ी सी जलवृष्टि होगी। अगर नये सम्राट् छठे जार्ज अबीसीनिया-युद्ध की प्रारम्भिक अवस्था में इटली ब्रिटेन का अभिषेकोत्सव निर्दिष्ट दिन को ही मनाया जायगा तो के साथ युद्ध छेड़ देता तो फिर ऐसे महायुद्ध का श्रीगणेश यह निश्चय है कि कुछ अप्रत्याशित घटनायें घटित होंगी। हो जाता जो ६ से ८ वर्ष तक जारी रहता। सारे संसार जुलूस की व्यवस्था के विरुद्ध जनता असंतोष प्रकट करेगी। के सामने एक सङ्कट-पूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जाती। उस अवसर पर विराट जन-समूह की शारीरिक रक्षा का यह विश्वव्यापी सङ्कट-स्थिति अब फिर किसी दूसरे रूप प्रबन्ध करना कठिन प्रमाणित होगा। ये घटनायें निर्दिष्ट में उपस्थित होगी। किन्तु इसमें सन्देह है कि आगामी १२ समय के कुछ पूर्व और कुछ बाद घटित होंगी। महीनों के बीच ब्रिटेन किसी बड़े राष्ट्र के साथ युद्ध करेगा। ___ यह भविष्यवाणी निश्चयात्मक रूप से की गई है कि इंग्लेंड की शिक्षा प्रणाली में महान् परिवर्तन होगा। १९३७ में कोई महायुद्ध नहीं होगा। हाँ, छोटे-मोटे परीक्षा की प्रणाली पूर्णतया बदल दी जायगी। ब्रिटेन के युद्ध अनिवार्य हैं। उदाहरणार्थ जापान पूर्व में छोटी- स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जटिल समस्यायें उत्पन्न हो जायँगी। मोटी लड़ाइयाँ छेड़ेगा। ब्रिटेन को भी जहाँ-तहाँ अपनी बहुत-से व्यक्ति मरेंगे। अाधुनिक चिकित्सा-प्रणाली विफल उच्छंखल प्रजा का दमन करना होगा । छोटे-छोटे राष्ट्र सिद्ध होगी। सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से १९३७ के भी आपस में झगड़ा करेंगे। १९३७ में सबसे अधिक सबसे अधिक ख़तरनाक महीने मार्च, जून, सितम्बर, खतरा भूमध्यसागर में और विशेष कर स्पेन-प्रायद्वीप में नवम्बर और दिसम्बर होंगे। वहाँ एक विचित्र प्रकार का होगा। स्पेन की लड़ाई अपूर्व भीषणता के साथ साल के प्लेग फैलेगा। लन्दन तथा पश्चिम के समुद्र-तटवर्ती कुछ अधिकांश समय तक जारी रहेगी। इससे भी अधिक नगरों में उसका भीषण प्रकोप होगा। यह भविष्यवाणी खराब बात यह होगी कि मुसोलिनी उस युद्ध में भाग लेने जोरदार शब्दों में की गई है कि ब्रिटेन में रक्त-हीन क्रान्ति के लिए प्रलोभित होंगे। उन्हें और भी विजय प्राप्त होगी, होगी। १९३७ के वर्ष की सबसे प्रधान विशेषता यह किन्तु अन्त में ब्रिटेन और जमनी 'दोनों उनकी आशाओं होगी कि पहले ब्रिटेन में और फिर सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य और स्वप्नों पर पानी फेर देंगे।
में कानाफूसी का अान्दोलन होगा। अागामी दो या तीन ___जर्मनी और इटली के बीच सन्धि का होना असम्भव साल में तरह-तरह की अफवाहें फैल जायँगी और लोग है । इस आशय का यदि कोई समाचार अख़बारों में सशङ्कित हो जायँगे । सम्पूर्ण जनता विद्रोह कर उठेगी। प्रकाशित हो तो उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। काना-फूसी करनेवाले सत्यनिष्ठ राजनीतिज्ञों पर आक्रमण ग्रहों की स्थिति से यह प्रकट होता है कि उनमें संधि नहीं करेंगे और उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करेंगे। होगी। हाँ, कुछ समय तक और किसी ख़ास बात के लिए फ्रांस में संसार के दृष्टि-कोण से सबसे महत्वपूर्ण उनमें मेल भले ही हो जाय, किन्तु राजनैतिक क्षेत्र में इन बात यह होगी कि उसके अन्दर बोल्शेविम का राज हो दोनों राष्ट्रों का स्थायी मित्र बना रहना सम्भव नहीं होगा। जायगा। किन्तु वह स्थायी नहीं होगा। फ्रांस के लिए उनके ग्रह एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं। सबसे अधिक ख़तरनाक समय जनवरी, फ़रवरी, मार्च का ___ मुसोलिनी धीरे-धीरे ब्रिटिश साम्राज्य को छिन्न-भिन्न अन्तिम भाग होगा । जून, जूलाई और अगस्त के महीने भी करने का प्रयत्न करेंगे। वे सम्भवतः उनके एक-एक अङ्ग खतरनाक होंगे।
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सम्पादकीय
योरप की भयानक स्थिति योरप में इस समय घोर राजनैतिक संकट उपस्थित है और वहाँ के राज्यों के बड़े बड़े क्षमताशाली उच्च राजकर्मचारियों की बुद्धि उसके वारण करने में कुंठित हो रही है । पहली बात तो यह है कि पिछले महायुद्ध के विजेताओं में से ब्रिटेन और फ्रांस युद्ध से ४ हाथ दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं और कदाचित् उनकी इसी नीति की बदौलत ग्राज योरप का जुगोस्लेविया जैसा छोटा राष्ट्र भी १५ लाख सुदृढ़ सेना रखने की घोषणा करने में गर्व का अनुभव कर रहा है। एक यह उदाहरण काफ़ी है । योरप के क्या छोटे और क्या बड़े सभी राष्ट्र अपनी क्षमता के बाहर अपना सामरिक बल या तो बढ़ा चुके हैं या कुछ ही दिनों के भीतर बढ़ा ले जायँगे । और यही अवस्था योरप में विषम राजनैतिक संकट उपस्थित किये हुए है, जिसका हल ढूँढ़े नहीं मिल रहा है। ग्राश्चर्य तो यह है कि इस दशा में भी, चारों ओर वैज्ञानिक ढंग के अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित राष्ट्रों से घिरे हुए होकर भी, इटली और जमनी प्रकट रूप से दिन-प्रति-दिन अपनी मनमानी करते जा रहे हैं। इटली तो बड़े से बड़े राष्ट्र की दाढ़ी नोच लेने का उधार-सा खाये रहता है। उसने बलपूर्वक अबीसीनिया पर क़ब्ज़ा कर लिया है। उसके भय से आस्ट्रिया, हंगेरी और अलबेनिया उसके आज्ञाकारी अनुयायी बन गये हैं और तुर्की एवं मिस्र आदि देश उससे हर समय सशंक रहते हैं । और इस समय तो वह स्पेन के भाग्य निर्णय का खेल खेल रहा है ।
इटली की देखादेखी जर्मनी भी जोर पकड़ गया है और गत ४ वर्षों में उसके भाग्य विधाता हर हिटलर ने उसे इस स्थिति का पहुँचा दिया है कि ग्राज ब्रिटेन के वैदेशिक मंत्री योरप में शान्ति स्थापित रखने के लिए उसकी खुशामद-सी कर रहे हैं । जर्मन ने इतना बल प्राप्त कर लिया है कि आज वह प्रसिद्ध वर्सेलीज़ के सन्धि-पत्र खुल्लमखुल्ला पैरों से रौंद ही नहीं रहा है, किन्तु इटली के कन्धे से कन्धा भिड़ाकर स्पेन के विद्रोही दल की प्रकट
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रूप से सहायता कर रहा है । जर्मनी और इटली का यह निर्वाध सैनिक प्रदर्शन योरप की एक साधारण वस्था है |
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तथापि यह सब ब्रिटेन और फ्रांस की आँखों के आगे हो रहा है, जो इस समय संसार के सबसे अधिक बलशाली एवं सबसे अधिक सभ्य राष्ट्र माने जा रहे हैं। इन राष्ट्रों के ऐसा होते हुए भी योरप में धींगाधींगी मची हुई है और अन्तर्राष्ट्रीय कानून-कायदों तक की कोई परवा नहीं कर रहा है । निस्सन्देह यही कहा जायगा कि इन दोनों राष्ट्रों में या तो पहले का-सा घनिष्ट सम्बन्ध नहीं रहा है या इन राष्ट्रों के सूत्रधारों में समयानुकूल क्षमता और प्रतिभा का प्रभाव हो गया है । सच है कि इस समय ब्रिटेन जर्मनी की ओर तो फ्रांस इटली और रूस की ओर अधिकाधिक झुक गया है, और यही वह अवस्था है जिसके कारण योरप की समस्या सुलझाये सुलझ नहीं रही है । और अब तो यह स्थिति पहुँच गई है कि बोल्शेविकों का हौग्रा खड़ा करके इटली और जर्मनी स्पेन में उसके विरुद्ध युद्ध-सा घोषित किये हुए हैं। यही नहीं, उनमें से जर्मनी ने एक क़दम आगे रखकर जापान से सहायता की सन्धि भी कर ली है । इस तरह उसने फ्रांस को रूस के साथ सन्धि करने का जवाब सा दिया है । परन्तु जर्मनी - जापान की सन्धि से ब्रिटेन और उसके साथ हालें भी चिन्तित हो उठे हैं । ऐसे ही राजनैतिक पेंच की बातों से आज योरप में जो राजनैतिक सङ्कट उपस्थित हुआ है, उसका प्रतीकार वहाँ के राजनैतिक नेता प्रयत्न करके भी नहीं कर पाते। और उनकी यह असमर्थता यही बात प्रकट करती है कि उसका प्रतीकार बिना युद्ध के नहीं होगा । परन्तु वैसे संसारव्यापी युद्ध की कल्पना करने का साहस योरप का कोई राष्ट्र नहीं कर सकता, क्योंकि वह युद्ध युद्ध नहीं, नरसंहार होगा । आज योरप की सामरिक योजना में विज्ञान की बदौलत तरह तरह की विषैली गैसों की अधिकता हो गई है और सभी प्रमुख राष्ट्रों के सामरिक भाण्डार
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उनसे परिपूर्ण हैं। यही कारण है कि बार बार अव- इटलीवाले अभी तक अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित करने सर आ जाने पर भी युद्ध छेड़ने का काई साहस नहीं कर में सफलमनोरथ नहीं हो सके हैं और उन्हें वहाँ के स्वारहा है, और सारी परिस्थिति इस स्थिति को आ पहुँची है धीनता-प्रेमी वीर निवासियों से जगह जगह करारा मोर्चा लेना कि वहाँ का सारा वायुमंडल अविश्वास और ईर्ष्या-द्वेष पड़ रहा है । यह सच है कि सुशिक्षित और साधन-सम्पन्न से पूर्णतया विषाक्त हो गया है। ऐसी दशा में यही कहना इटली की सेनाओं के आगे अबीसीनियावाले अधिक समय होगा कि योरप का रक्षक भगवान ही है।
तक नहीं ठहर सकेंगे, तथापि उनको अपने वश में ले आने
के लिए इटलीवालों को धन-जन की बहत अधिक हानि अबीसीनिया का अन्तिम प्रतिरोध उठानी पड़ेगी । तब कहीं जाकर वे अबीसीनिया पर अपना अबीसीनिया के सम्राट हेल सेलासी के देश-त्याग करने आधिपत्य स्थापित करने में सफल हो सकेंगे। पर ही यह प्रकट हो गया था कि इटली की युद्ध में विजय हो गई। परन्तु इधर की घटनाओं को देखने से जान पड़ता है
संयुक्त-प्रान्त की म्युनिसिपेल्टियाँ कि संगठित विरोध का अभाव हो जाने पर भी अबीसीनिया संयुक्त-प्रान्त की म्युनिसिपेल्टियों की गत वर्ष की के योद्धा बिना युद्ध के इटलीवालों का अपने देश पर कार्यवाही पर प्रान्तीय सरकार का हाल में मन्तव्य प्रकाअधिकार नहीं हो जाने देंगे। रास कस्सा के दो पुत्रों के शित हो गया है। उससे प्रकट होता है कि उनकी दशा मार डाले जाने और रास इमरू के आत्मसमर्पण कर पूर्ववत् ही असन्तोषजनक बनी हुई है। वे न तो अपनी देने पर भी अबीसीनिया में योद्धात्रों के दल, जान पड़ता सीमा के भीतर सभी स्थानों में समानरूप से पानी का है, युद्ध को बराबर जारी किये हुए हैं। ऐसे योद्धाओं की वितरण ही कर सकी हैं, न सड़कों की उपयुक्त मरम्मत कुल संख्या इस समय १५,००० के लगभग अनुमान की ही। सड़कों पर ३९ म्युनिसिपेल्टियों ने पिछले वर्ष की जाती है और ये लोग हरार-प्रान्त के चार प्रमुख सरदारों के अपेक्षा यदि कम खर्च किया है तो ४५ ने ज़्यादा खर्च नेतृत्व में कारूम्लाटा और चेरचेर के आस-पास इटलीवालों किया है और इस तरह पिछले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष पर अपने अचानक अाक्रमण करते ही रहते हैं । गत मई २३२ लाख रुपए ज़्यादा ख़र्च किया है । तो भी सड़कों की से इटली के वायुयान इन पर बम्ब बरसाते आये हैं, हालत अच्छी नहीं रही। परन्तु इन योद्धात्रों ने अात्मसमर्पण करने से बार बार इनकार बच्चों की मृत्यु में भी वृद्धि हुई है। जहाँ पिछले किया है । इटलीवालों के जनरल नासी उन सरदारों में से साल हज़ार में २२२४६ मरे थे, वहाँ इस वर्ष २७१८९ प्रत्येक के सिर के लिए १० हज़ार लायर का पुरस्कार घोषित फ़ो हज़ार मरे हैं । यह अवस्था चिन्ताजनक है। निस्सन्देह किये हुए हैं, परन्तु वे आज भी अपने पहाड़ी देश की ज़च्चों और बच्चों की व्यवस्था में उचित ध्यान दिया गया बदौलत स्वाधीन हैं। इसके सिवा अरुस्सी और बली के है और अन्य ६ नगरों में उनके लिए नये केन्द्र खोले जिलों में दो अन्य सरदार अपने अनुयायियों के साथ स्वाधी- गये हैं । इस प्रकार उनकी संख्या अब ५२ हो गई है। नता का झंडा अलग खड़ा किये हुए हैं और मौका पाते ही उनका काम भी सन्तोषजनक रहा है। कहा जाता है कि इटलीवालों पर छापा मारकर उन्हें मार डालते हैं । इसी लोगों ने उनसे पर्याप्त सहयोग नहीं किया। ऐसा क्यों हो प्रकार सिदामो में भी रास दस्सिता आदि कई स्थानीय रहा है, इसका जानना ज़रूरी है। कोई न कोई असुविधा सरदारों के साथ शोअन और गल्ला योद्धात्रों को लिये ज़रूर होगी। नहीं तो लोग ऐसी उपयोगी संस्था से लाभ हुए पहाड़ियों में छिपे रहकर लूट-मार मचाये रहते हैं। उठाने से अपने को क्यों वंचित रखते ? उधर उगंडा की सीमा के पास माजी के समीप इथोपिया म्युनिसिपल स्कूलों के व्यय में तथा उनकी छात्रके सिंहासन का दावीदार और मेनलिक का भतीजा देदज- संख्या में काफी वृद्धि हुई है। परन्तु शिक्षा-विभाग के समैच थाया अपने दलबल के साथ मोर्चा लगाये डायरेक्टर की यह शिकायत है कि अनिवार्य प्रायमरी बैठा है। कहने का मतलब यह है कि अबीसीनिया में शिक्षा के प्रचार में सुस्ती की गई है। यह निस्सन्देह बड़े
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खेद की बात है । स्कूलों की इमारतें तथा उनका साज़- की गति १० वर्षों में ४ फी सदी रही है, परन्तु भारत में सामान भी अनुपयुक्त और दरिद्रता-द्योतक बताया गया है। वह १ फ्री सदी रही है । भारत में ९२ फी सदी निरक्षर पढ़ाई का हाल यह रहा है कि ५ वर्ष पहले बच्चों की श्रेणी हैं । सन् १९२१ से सन् १९३१ तक मध्यप्रान्त में प्रत्येक की जो छात्र संख्या ३०,३८९ थी उसमें से छठे दर्जे तक साक्षर पर चार हज़ार रुपया खर्च करना पड़ा है। उस कुल १,६५३ ही लड़के पहुँच सके हैं। यह स्थिति कैसे दशक में वहाँ साक्षरता की वृद्धि १ फी सदी में हुई श्राशाजनक मानी जा सकती है ? लड़कियों के स्कूलों की है । इस गति से भारत को साक्षर होने में १,१५० वर्ष सख्या ४३७ से ४५७ हो गई है और उनकी छात्र संख्या लगेंगे। भारत के साक्षर होने में अनेक बाधाये हैं। इनमें ४२,६३५ से ४५,५५७ हो गई है।
एक महत्त्व का कारण प्रौढ़ों का निरक्षर होना भी है। यह ____ मन्तव्य में यह भी कहा गया है कि अनेक बोर्ड पता लग गया है कि बच्चे को पढ़ना-लिखना सिखाने में कलह और द्वन्द्व के घर बने रहे हैं। यह वास्तव में बड़ी जितना समय लगता है उसके पंचमांश समय में ही प्रौढ़ निन्दा की बात है।
लोग पढ़ना-लिखना सोख सकते हैं। इस नई खोज से
भारत को लाभ उठाना चाहिए। प्रौढ़ लोगों का बच्चों की डाक्टर लौबैच और हमारी निरक्षरता किताबों के पढ़ने में मन नहीं लगता है। उनके लिए अमरीका के न्यूयार्क नगर में एक बड़ी महत्त्व की सभा उनकी प्रवृत्ति के उपयुक्त ही पाठ्य-पुस्तकें तथा शिक्षा का है । इस सभा का एक-मात्र उद्देश संसार की निरक्षरता ढंग होना चाहिए। यह सम्भव होना चाहिए कि भारत दूर करना है, और यह एक नामधारी सभा भर नहीं है, २५ वर्ष के भीतर साक्षर हो जाय । रूस ने तो इस दिशा किन्तु अपने उद्देश की पूर्ति के लिए व्यावहारिक कार्य भी में १५ वर्ष में ही सफलता प्राप्त कर ली है। करती है। अभी हाल में इस सभा के एक प्रतिनिधि इसमें सन्देह नहीं है कि डाक्टर लौबैच के ये विचार श्रीयुत डाक्टर फ्रैंक सी० लौबैच भारत आये हैं और यहाँ अत्यन्त उपयोगी हैं । खेद की बात है कि भारत अपनी की जनता को साक्षर बनाने के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षा- वर्तमान परिस्थिति में उनसे जैसा चाहिए वैसा लाभ नहीं संस्थाओं में जा जाकर भाषण कर रहे हैं। अब तक इस उठा सकता, तथापि यह नितान्त आवश्यक है कि देश सभा ने संसार की ३६ भाषाओं में अपनी योजना का इस महारोग से शीघ्रातिशीघ्र मुक्त किया जाय । क्योंकि प्रयोग किया है और उसे अाशातीत सफलता प्राप्त हुई देश की यह व्यापक निरक्षरता देश की उन्नति की प्रगति है। अपनी ही भाषा का जल्दी से जल्दी और सो भी में सबसे बड़ी बाधा है। कुछ शिक्षा-प्रेमी देशभक्त यदि
से लिखना-पढ़ना सिखा देना ही इस सभा देश की निरक्षरता दूर करने का ही काम उठा लें तो इस की योजनाओं का मुख्य ध्येय है और इसमें उसे, विशेष- क्षेत्र में काफ़ी सफलता मिल सकती है। अाशा है, लोककर फिलीपाइन द्वीपों के मोरों लोगों में, आशातीत सफलता सेवकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट होगा । प्राप्त हुई है। यहाँ के प्रयोगों से यह बात प्रकट हुई है कि सामान्यतः लोग अपनी भाषा को एक से तीन दिन के
स्वर्गीय डाक्टर विंटनित्ज़ भीतर ही पढ़ लेना बखूबी जान जा सकते हैं।
डाक्टर मोरित्ज़ विंटर्नित्ज़ का अभी हाल में ९ जनवरी बातचीत के सिलसिले में डाक्टर लौबैच ने बताया को देहान्त हो गया। ये एक पारगामी विद्वान् थे। ये है कि संसार की आधी आबादी से भी अधिक लोग अर्थात् आस्ट्रियावासी जर्मन थे। इनका जन्म २३ दिसम्बर सन् १ अरब से भी अधिक लोग पढ़ना नहीं जानते हैं। १८६६ को हुआ था। १७ वर्ष की उम्र में ये वियना के दोतिहाई बिलियन तो एशिया में ही निवास करते हैं। विश्वविद्यालय में दर्शन और भाषा-विज्ञान पढ़ने को भर्ती इनमें से ३५ करोड़ चीन में और ३४ करोड़ भारत में हुए। इसी समय इनकी भेंट डाक्टर बूलर से हुई। १८८८ रहते हैं । शेष निरक्षर विशेषकर अफ्रीका, दक्षिण-अमरीका में इन्हें डाक्टर की डिगरी मिल गई। इन्होंने अापस्तम्बीय और प्रशान्त महासागर के द्वीपों में हैं। साक्षरता के प्रचार गृह्यसूत्र का सम्पादन और अनुवाद किया। इसके बाद
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प्रोफ़ेसर मैक्समूलर को ऋग्वेद का दूसरा संस्करण निकालने उम्र इस समय ७२ वर्ष थी और आप वर्तमान मिश्रबन्धुओं में मदद की। इन दोनों ग्रन्थों के सम्पादन आदि में इन्होंने में ज्येष्ठ थे। इधर कई महीने से आपका स्वास्थ्य खराब हो अपने ऐसे पाण्डित्य का परिचय दिया कि ये अपनी रहा था। परन्तु ऐसा नहीं था कि श्राप दिवंगत हो जाते । २५ वर्ष की ही उम्र में सर्वश्रेष्ठ प्राच्यविदों में गिन लिये आपका भी अपने दोनों छोटे भाइयों की तरह हिन्दी से गये। इन्होंने 'मंत्रपाठ' का सम्पादन किया तथा 'ब्राह्मण- विशेष अनुराग था और अपने भाइयों के साहित्यिक कार्यों ग्रन्थों में स्त्रियों का स्थान' और 'महायान बौद्धधर्म'- से विशेष सहानुभूति ही नहीं रखते थे, किन्तु 'हिन्दीविषयक कई एक पुस्तकें लिखीं। पर इन्होंने 'भारतीय नवरत्न' तथा 'मिश्रबन्धुविनोद' की रचना में सक्रिय भाग साहित्य का इतिहास' नाम का जो प्रसिद्ध ग्रन्थ तीन जिल्दों भी लिया था। आप पर गृह-प्रबन्ध का ही सारा भार था में लिखा है वह अपने विषय का सबसे अधिक महत्त्व का और आपका अधिक समय अपनी ज़मींदारी आदि की ग्रन्थ है। इन्होंने भारत की यात्रा भी की है। ये डाक्टर देख-रेख करने में ही बीतता था। इस दुःख के अवसर पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विश्वभारती में गये। कलकत्ता- हम आपके परिवार के साथ विश्वविद्यालय में इन्होंने अपनी व्याख्यान-माला भी पढ़ी। करते हैं। इनके प्रयत्नों से भारतीय संस्कृति का योरप में अच्छा प्रचार हुआ है। इनकी मृत्यु से भारतीय संस्कृति के एक मिस्र में नये युग का आविर्भाव प्रेमी विद्वान् का अभाव हो गया है।
मिस अब एक स्वाधीन राज्य में परिणत हो गया है ।
यह सौभाग्य उसे एक लम्बे युग के बाद प्राप्त हश्रा है। जर्मन की उग्र राष्ट्रीयता
इसका सारा श्रेय मिस्र की प्रबुद्ध जनता तथा उसके लोकजर्मनी के नाज़ियों ने जर्मन-राष्ट्र का 'आर्यनव' विशुद्ध नेता स्वर्गीय जगलूल पाशा तथा नहस पाशा को है । अब बनाये रखने के लिए यहूदियों को जिस तरह जर्मनी से चूंकि ब्रिटिश सरकार से उसकी सन्धि हो गई है, अतएव निकाल बाहर करने की उग्र व्यवस्था कार्य में परिणत कर मिस्र की सरकार ने भी एक स्वाधीन राष्ट्र की तरह अपने रक्खी है वह सर्वविदित है। इसी प्रकार वे अपने हाथ-पैर चलाना शुरू कर दिया है । एक ओर जहाँ उसने 'ईसाई-धर्म' में भी नूतन संस्कार करने का उपक्रम कर स्वदेश की रक्षा के लिए नूतन ढंग से अपने सामरिक रहे हैं ताकि वह भी विशुद्ध 'जर्मन-धर्म' बन जाय। परन्तु बल का संगठन करना प्रारम्भ किया है, वहाँ वह संसार उनकी उग्र राष्ट्रीयता यहीं से समाप्त नहीं हो जाती। वे के राष्ट्रों के बीच भी अपने नये पद के अनुरूप अपना अपनी मातृभाषा का भी संशोधन करने पर उतारू हो गये स्थान अधिकृत करने के लिए यत्नवान् हो रही है। अभी हैं । वे उससे सारे विदेशी शब्द निकाल बाहर करके उनके तक मिस्र में रहनेवाले योरपीयों का, किसी तरह का स्थान में विशुद्ध जर्मन-शब्द ही प्रयोग करने की व्यवस्था अपराध करने पर, वहाँ के न्यायालयों में मुकद्दमा करना चाहते हैं। विद्वानों का कहना है कि उस दशा में नहीं चलता था, किन्तु भिन्न भिन्न राष्ट्र अपने अपने जर्मन-भाषा एक विचित्र ही नहीं, अति कठिन भाषा हो राष्ट्रीयों के अभियोगों का निर्णय अपनी ख़ास अदालत जायगी। परन्तु नाज़ियों की राष्ट्रीयता को इसकी परवा में किया करते थे। स्वाधीन मिस्र अब योरपीयों को नहीं है। वे तो अपने सारे राष्ट्र को क्या रक्त, क्या धर्म ऐसा कोई अधिकार नहीं देना चाहता, क्योंकि इस
और क्या भाषा और क्या संस्कृति 'विशुद्ध जर्मन' बना व्यवस्था से उसके गौरव को ठेस पहुँचती है। उसने डालने को तुले बैठे हैं।
उन राष्ट्रों को जिन्हें मिस्र में विशेष अधिकार
प्राप्त हैं, इस बात की सूचना दे दी है कि वह मिस पण्डित गणेशविहारी का स्वर्गवास में किसी राष्ट्र को विशेष अधिकार नहीं देना चाहता दुःख की बात है कि लखनऊ के पण्डित गणेशविहारी और १२ वर्ष के बाद ऐसे अधिकारों का अन्त हो मिश्र का गत ३१ जनवरी को स्वर्गवास हो गया। आपकी जायगा। इस बीच में मिस्र में विशेषाधिकारवाले विदेशियों
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सरस्वती
[ भाग ३८
के मामले सरकार-द्वारा नई मिस्रित अदालतों-द्वारा तय और वायुयानों के अकस्मात् गिर पड़ने का अब वैसा डर हुश्रा करेंगे। इन अदालतों के जजों की नियुक्ति में नहीं रहेगा । यह आविष्कार इन्होंने १९३१ में किया था, जाति व धर्म का विचार नहीं किया जायगा और यदि जो कसौटी पर कसे जाने पर खरा उतर चुका है। किसी विदेशी जज की जगह ख़ाली होगी तब वह स्थान सन् १९३५ में इन्होंने दो ऐसे नये आविष्कार किये हैं किसी मिस्री जज को ही दिया जायगा। इन अदालतों को जिनसे हवाईयुद्ध में क्रान्ति-सी हो जायगी। एक तो इन्होंने सरकार-द्वारा बनाये गये कानूनों और फ़र्मानों को एक ऐसा उड़नेवाला टारपीडो बनाया है जिसकी गति मानना पड़ेगा। इस प्रश्न पर विचार करने के लिए तेज़ से तेज़ जानेवाले गोले से चौगुनी है । वह दो सौ उसने ऐसे अधिकार-प्राप्त योरपीय राष्ट्रों को आह्वान किया मील तक, विना वाहक के, ३०० मोल फ्री घंटे के हिसाब है । आशा है, मिस्र इस समस्या के हल करने में भी से जा सकता है। दूसरा आविष्कार वायुयान की दुम में सफलमनोरथ होगा।
छिपाकर तोपें रखने का है। ये तो वायुयान में इस ढंग
से लगाई जाती हैं कि पीछे से आनेवाले जहाज़ के मार सैयद अमीरअली का स्वर्गवास
के भीतर आते ही उसे वार करने के पहले ही मारकर मध्य-प्रदेश के प्रसिद्ध हिन्दी लेखक श्रीयुत सैयद गिरा दे सकती हैं। अपने इन अाविष्कारों की बदौलत अमीरअली का इसी जनवरी में एक दुर्घटनावश निधन इस समय श्रीयुत नज़ीर का इंग्लैंड में बड़ा आदर हो गया। वे भाटपारा में रहते थे। घर स्टेशन के पास हो रहा है। था। एक दिन संध्या-समय एक मित्र के यहाँ से लौट रहे श्रीयुत नज़ीर बम्बई के निवासी हैं। इनके पिता जी० थे। रेलवे लाइन पार करते समय वे मालगाड़ी के शंटिंग आई० पी० रेलवे में मुलाज़िम थे। इन्होंने देवलली के करनेवाले डिब्बों के नीचे आ जाने से कट गये और उनका पारसी-स्कूल में शिक्षा पाई है। प्रारम्भ से ही इनका मेकस्वर्गवास हो गया।
निकल इंजीनियरिंग की ओर झुकाव था। स्कूल से सैयद साहब हिन्दी के पुराने लेखकों में थे और अपने निकलने पर ये बम्बई के एक मोटर के कारखाने में समय के प्रसिद्ध लेखक थे । वे गद्य-पद्य दोनों के लिखने उम्मेदवार हो गये। इसके बाद जी० आई० पी० के में सिद्धहस्त थे। उनका 'बूढ़े का ब्याह' आज भी बड़े माटुंगा के कारखाने में नौकर हो गये। यहाँ काम करते
आदर से पढ़ा जाता है । उनकी मृत्यु से एक उदार हुए ये अपने छुट्टी के समय में वायुयान-सम्बन्धी इंजीमुसलमान हिन्दी-लेखक का अभाव हो गया है । हम नियरिंग सीखने लगे और वायुयान का एक माडल भी अापके दुखी परिवार के साथ अपनी समवेदना प्रकट बनाया। अपने इस प्रयत्न से उत्साहित होकर ये पारसी करते हैं ।
ट्रस्टों की वृत्ति प्राप्तकर वायुयान-विद्या सीखने के लिए
सन् १९३१ में इंग्लैंड चले गये । इंग्लैंड में ये ग्राउंड इंजीएक पारसी नवयुवक का चमत्कार नियर हो गये। इसी समय इन्होंने वायुयान की दुर्घटना अवसर पाने पर भारतीय युवकों ने भी अपनी प्रतिभा रोकने का अपना पहला अाविष्कार किया। इस सम्बन्ध में का परिचय देकर यह बात बार बार प्रमाणित की है कि वे प्रिवी कौंसिल के सदस्य सर दीनशा मुल्ला ने इनकी बड़ी भी संसार के समुन्नत राष्ट्रों के युवकों की ही भाँति प्रतिभा- सहायता की और उन्हीं की सिफ़ारिश पर इनके उक्त शाली हैं। बम्बई के एक पारसी नवयुवक श्री फ़िरोज़ आविष्कार पर सरकारी वायुयान-विभाग ने ध्यान दिया प० नज़ीर ने इसकी एक बहुत ही उत्तम नज़ीर अपने और उसकी सार्थकता की जाँच की। अब तो ये उसके वायुयान-सम्बन्धी नये आविष्कारों के द्वारा उपस्थित की लिए ५० हजार रुपया एकत्र करने की चिन्ता में हैं ताकि है। अपने आविष्कार के फलस्वरूप आज इनका इंग्लेंड उस आविष्कार की पूर्ण रूप से जाँच की जा सके। में बड़ा सम्मान हो रहा है। इन्होंने वायुयान में एक ऐसा निस्सन्देह श्रीयुत नज़ीर ने अपने इन आविष्कारों से बहुत सुधार किया है कि अब हवाई यात्रायें निर्विघ्न हुअा करेंगी बड़ी ख्याति प्राप्त की है। ये इस समय लन्दन में कीन
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मेरी कालेज में डाक्टर एन० ए० बी० पियर्सी के निरीक्षण में खोज का काम कर रहे हैं । अभी ये ३० वर्ष के हैं । आशा है कि वायुयान विद्या में ये अपने आविष्कारों से भविष्य में इनसे भी अधिक महत्त्व के चमत्कार कर दिखायेंगे ।
सम्पादकीय नोट
प्रवासी विदेशियों की संख्या राष्ट्र संघ के अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर ग्राफ़िस ने उन विदेशियों की एक रोचक तालिका तैयार की है जो दूसरे देशों में निवास करते हैं । उस तालिका से प्रकट होता है कि सन् १९३० में स्वदेश छोड़कर परदेश में रहनेवाले विदेशियों की कुल संख्या २,८९,००,००० थी, जो संसार की कुल आबादी का १६ को सदी है। और इनमें भी ६३ लाख संयुक्त राज्य तथा २८ लाख अर्जेन्टाइन में ही ये विदेशी थे। इनके सिवा फ्रांस में सन् १९२६ में २४ लाख और सन् १९३१ में २७ लाख, ब्रेज़िल में सन् १९२० में १५ लाख, ब्रिटिश मलाया में १८,७०,०००, स्याम में १० लाख और जर्मनी में ७,८७,००० विदेशी थे ।
योरप के देशों में, रूस को छोड़कर, विदेशियों का सफ़ी हज़ार १५४ था, परन्तु वह बढ़ गया—लकजेम्बर्ग में १८६, स्वीज़लैंड में ८७, फ्रांस में ६६, आस्ट्रिया में ४३ और बेल्जियम में ३९ का फ़ी हज़ार सत हो गया । परन्तु जर्मनी में १२, बल्गेरिया में १०, हंगेरी में ९, तुर्की में ६, पुर्तगाल में ५, ब्रिटिशद्वीप में इटली में और फ़िनलैंड में ३ औसत रह गया ।
४,
परन्तु महायुद्ध के बाद इस अवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है । जर्मनी में तो विदेशियों की संख्या में कमी हुई है, इसके विपरीत फ्रांस में उसमें वृद्धि हुई है । फ्रांस में जहाँ फ़ी हज़ार में सन् १९९० में २९, १९२१ में ३९ विदेशी थे, वहाँ १९३१ में वे फ्री हज़ार में ६६ हो गये । स्वीज़लैंड में सन् १९९० में विदेशियों का औसत फ्री हज़ार में १४८ था, वहाँ वह घटकर सन् १९२० में १०४ और सन् १९३० में ८७ हो गया ।
विदेशों में एशियाइयों की संख्या सन् १९९० में ५० लाख थी, पर वह १९३० में ९५ लाख हो गई है। परन्तु योरपीयों की विदेशों में संख्या यद्यपि अब कुछ कम हो गई है, तो भी वह २,२४,००,००० है ।
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यह उपर्युक्त तालिका प्रथम बार बनी है और इसकी रचना सन् १९१०, १९२० और १९३० की मनुष्यगणना की रिपोर्टों के आधार पर की गई है, अतएव प्रामाणिक है ।
अध्यापक शरच्चन्द्र चौधरी का निधन
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इलाहाबाद विश्वविद्यालय के क़ानून विभाग के लोकप्रिय अध्यापक श्रीयुत शरच्चन्द्र चौधरी का ३० जनवरी को स्वर्गवास हो गया। इन प्रान्तों में क्या, समग्र भारत में उनके सदृश लोकप्रिय अध्यापक का नाम नहीं सुना गया है। उन्होंने अपने शिष्यों को शिष्य नहीं, किन्तु पुत्र ही समझा और उन्हें उपयुक्त शिक्षा तो बराबर ही दी, साथ ही उनके सुख-दुख में तन-मन और धन से भी सदा तत्परतापूर्वक शामिल रहे । यही कारण था कि वे अपने विद्यार्थियों में ही नहीं, विश्वविद्यालय के सभी छात्रों में अत्यधिक लोकप्रिय तथा श्रादरपात्र रहे | इसमें सन्देह नहीं है, चौधरी साहब सभी दृष्टियों से एक आदर्श अध्यापक ही नहीं थे, किन्तु इस क्षेत्र में द्वितीय व्यक्ति थे और अपना सानी नहीं रखते थे । सर आशुतोष ने यदि बंगाल का ग्रेजुएटों से भर दिया है तो उन्होंने इन प्रान्तों को क़ानूनदात्रों से भर दिया है । वे अपने नये क्या पुराने सभी विद्यार्थियों की विश्राम - समय की वार्ता के विशिष्ट पात्र बन गये थे और उनके समय के सभी छात्र उनकी चरित-गाथा बार बार कहते रहने पर भी नहीं घाते थे । ऐसे अध्यापक इस देश में हो गये हैं और श्राज भी कदाचित् यत्र-तत्र हों जिन्होंने अपने छात्रों से काफ़ी से अधिक श्रद्धा प्राप्त की हो और जिनका नाम सुनते ही उनके छात्र बड़े आदर के साथ अपना मस्तक नत कर लेते हों । परन्तु अध्यापक चौधरी इस श्रेणी से भी परे थे । उन्होंने अपने ही छात्रों का नहीं, विश्वविद्यालय के समग्र छात्रों का श्रद्धा से भी अधिक प्रेम प्राप्त किया था । धन्य हैं अध्यापक चौधरी जिन्होंने श्राजीवन शतशः पुत्रों के पिता का स्वाभिमान रखते तथा सभी प्रकार स्वस्थ रहते हुए सुखपूर्वक अपनी जीवन यात्रा समाप्त की । यहाँ हम उनके प्रतिरूप उनके योग्य पुत्र अध्यापक डाक्टर चौधरी के प्रति इस अवसर पर अपनी समवेदना प्रकट करते हैं ।
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३१०
सरस्वती
दीर्घजीवियों का एक गाँव 'नवशक्ति' में छपा है -
चीन के एक समाचार-पत्र में छपा है कि क्यूचू प्रान्त में टाटिंग ज़िले के अन्दर एक गाँव है, जहाँ के अधिकतर निवासी १०० वर्ष से अधिक अवस्था के हैं । उस गाँव की आबादी १०० कुटुम्बों से कम की ही है। इस वक्त जितने आदमी वहाँ ज़िन्दा हैं, थोड़े-से लोगों को छोड़ कर प्रायः सभी की उम्र १०० वर्ष के लगभग है । १०० वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों की संख्या बहुत बड़ी । एक आदमी की उम्र १८० वर्ष है । इस समय भी उस आदमी में पूरी पूरी ताक़त है । वह अपनी जीविका के लिए लकड़ी के गट्ठे सिर पर लेकर बेचने जाया करता । १६० वर्ष से वह नियमपूर्वक सूर्य डूबते ही सो जाया करता है और सुबह सूर्य के उदय होने के बाद ही जागता है । उसको नींद खूब आती है। उसका कहना है कि उसके दीर्घजीवी होने का ख़ास कारण यही है कि वह ख़ूब सोया करता है। चीन में जब मिंग वंश का राज्य था तब कुछ लोग श्राकर यहाँ बाद हुए थे । श्राज के निवासी उन्हीं की संतान हैं। वर्षों से ये लोग अपना अलग उपनिवेश-सा बनाकर रहते आये हैं । बाहर के लोगों से ये बहुत कम मिलते-जुलते हैं। अपनी के लिए अधिक लोग खेती करते हैं । यहाँ की न अधिक गरम है और न अधिक सर्द । टेम्परेचर कभी ६० फ़ारेनहाइट से ऊँचा नहीं जाता और न ४० से कभी नीचे ही जाता है ।
जीविका
हवा
ब्रिटेन और भारत की व्यापारिक स्थिति में सुधार
सरकारी व्यापार विभाग की ओर से इण्डियन ट्रेड कमिश्नर ने ३१ मार्च १९३६ को समाप्त होनेवाले वर्ष की आर्थिक उन्नति के सम्बन्ध में जाँच करके एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। उससे प्रकट होता है कि आज कल की अवस्थाओं का ध्यान में रखते हुए सभी देशों ने अपने-अपने देश के अान्तरिक व्यापारों को केन्द्रित और व्यवस्थित करना ही उचित समझा है। इसलिए साल भर में जो प्रगति हुई है उससे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की अपेक्षा देशों की आन्तरिक स्थिति में अधिक सुधार हुआ है | भारत सम्बन्धी कुछ बातें इस प्रकार हैं-
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[ भाग ३८
लंकाशायर भारतीय रुई के उत्पादकों को उत्साहित कर रहा है । इस वर्ष लंकाशायर ने भारत की लम्बे रेशे की की रुई केवल २ प्रतिशत कम ली है, किन्तु छे । टे रेशे की रुई १०,१८,००० मन ली है जब कि पिछले वर्ष केवल ८,५५,००० मन और उससे पिछले वर्ष केवल ५६,८,०० मन ही ली थी।
रबड़ की उत्पत्ति में इस वर्ष टन की कमी हुई है। भारत से इस वर्ष गत वर्ष की अपेक्षा बहुत कम रबड़ ब्रिटेन गई हैं ।
इस वर्ष भारत से ३७ करोड़ के सन का निर्यात हुआ जब कि गत वर्षों में ३२ करोड़ व्यय होता था । किन्तु फिर भी यह स्थिति सुरक्षित नहीं समझी जा सकती। सभी देश ग्रात्मनिर्भर होना चाहते हैं, अतः वे अब सन के स्थान पर कई अन्य प्रकार के रेशों का उपयोग कर रहे हैं । इसके सिवा वृक्षों की छालों को भी इस काम में लाया जाना शुरू हो गया है, अतः इस व्यवसाय की स्थिति बहुत ही खतरनाक हो रही है ।
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चाय का श्रायात तथा निर्यात करनेवाले देशों में एक समझौता हो गया है, जिससे चाय का व्यवसाय व्यवस्थित हो गया है । गत वर्ष भारत से १,८१५ लाख रुपये की चाय ब्रिटेन गई थी । किन्तु इस वर्ष १,७६८ लाख रुपये की ही गई । भारत में चाय की खपत को और बढ़ाने के लिए यत्न जारी है।
में
इस साल चावल की उत्पत्ति बहुत अधिक बढ़ गई। १९३३ में ६,४४,००० और १९३४ में ८०, ८,००० इंडरवेट चावल भारत से ब्रिटेन गया था जब कि १९३४ ८,९६,००० हंडरवेट चावल इंग्लैंड भेजा गया है । भारत के तम्बाकू का निर्यात भी ३४ लाख रुपये से बढ़कर ४४ लाख तक पहुँच गया है । और सिगरेट के कारख़ानों में इस तम्बाकू का प्रयोग शुरू किया जानेवाला है। इससे भारत की तम्बाकू द्वारा और अधिक लाभ होने की प्राशा है ।
जर्मनी और फ्रांस के साथ हमारा भारत का और खालों का व्यापार अच्छा रहा क्योंकि जर्मनी ने हमारे चमड़े पर रोक-टोक जारी की है अतः जर्मनी से हमारा चमड़े का व्यापार उतना अच्छा न हो सका ।
काफ़ी की खपत बढ़ाने के लिए निरन्तर यत्न कर
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संख्या ३]
सम्पादकीय नोट
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टन
रहे हैं। काफ़ी पर निर्यात कर-द्वारा जो रकम प्राप्त हुई है ३१ मार्च सन् १९३८ को संरक्षण की वर्तमान अवधि वह एक कमिटी के सुपुर्द कर दी गई है। यह कमिटी इस समाप्त हो जायगी। शक्कर के कारखानेवाले चाहते हैं कि रकम को काफ़ी के व्यापार को उन्नत करने के लिए संरक्षण की अवधि ८ वर्ष के लिए और बढ़ा दी जाय । ख़र्च करेगी।
___भारत में विदेशों से कुल मिलाकर कोई १५ करोड़ रिपोर्ट में लकड़ी के सम्बन्ध में भी एक अध्याय है, रुपये की शक्कर आया करती थी। पर अब करीब करीब जिससे मालूम होता है इस वर्ष भारत ने इंग्लेंड को वह आनी बन्द-सी हो गई है, क्योंकि वह भारतीय शक्कर के ३९,००० टन लकड़ी का निर्यात किया है जब कि १९१४ सामने नहीं टिक रही है। थोड़ी सहायता और मिली रहे तो में ३०, ५०० टन लकड़ी का निर्यात हुया था । लकड़ी भारतीय कारखाने स्वदेश के लिए ही शकर तैयार करके के निर्यात में जो वृद्धि हुई है उसका कारण सागौन की न रह जायेंगे, बरन विदेशों को भी काफी शक्कर भेजने उत्पत्ति की वृद्धि है।
लगेंगे। प्रतिवर्ष भारत में काई १,५०,००,००० टन
शक्कर ख़र्च होती है। और इतनी शक्कर हमारे स्वदेशी ग्राम-सुधार का महत्त्व
कारखाने तैयार कर सकते हैं। ग्राम-सुधार इस समय इसलिए महत्त्व को प्राप्त हो भारत में शक्कर की तैयारी के आँकड़े नीचे दिये गया है कि देश की सरकार ने स्वयं उस ओर ध्यान ही जाते हैंनहीं दिया है, किन्तु व्यावहारिक रूप से ग्राम सुधार का साल कार्य कर भी रही है। परन्तु ग्रामीणों पर ऊपर से सुधार १९३१-३२
४,७८,११९ की भावना लाद देना एक बात है और स्वयं उनमें सुधार १९३२-३३
६,४५,२८३ की भावना का पैदा होना दूसरी बात है। और जब तक १९३३-३४
७,१५,०५९ यह दूसरी बात उनमें नहीं होती, जब तक उनमें यह भाव १९३४-३५
७,५७,२१८ नहीं उठता कि वे अवनति की चरम सीमा पर जा पहुँचे १९३५-३६
१०,५०,००० हैं और अब समय आया है कि वे सँभल जायँ तब तक १९३६-३७ अनुमानतः ११,२५,००० ग्राम-सुधार के सारे प्रयत्न विफल होंगे। उनमें प्रात्म-सम्मान इस उद्योग में कितने मजदूरों को और बेकार नौ का भाव, अपनी कठिनाइयों को हल करने को स्वयं प्रवृत्त जवानों को प्रश्रय मिल रहा है, इसका सहज में ही अनुमान होने की भावना तथा उनके सम्बन्ध में स्वेच्छा से विचार नहीं हो सकता। करना नहीं पाता तब तक सुधार-सम्बन्धी प्रयत्न कैसे सफल शक्कर के कारखानों की बदौलत गन्ने की कृषि का हो सकेंगे? और इस स्थिति को लाने के लिए इस बात भी विस्तार हुआ है, और इस तरह इससे किसान लाभ की आवश्यकता है कि सबसे पहले ग्रामीणों की निरक्षरता उठा रहे हैं । अब वे पहले से अच्छे दामों पर अपना दूर की जाय । क्योंकि सारी बुराई की जड़ यही एक बात माल बेचते हैं। नीचे की संख्यायें बताती हैं कि गन्ने की है। अपढ़ और अशिक्षित अादमी सुधार-सम्बन्धी योज- खेती किस गति से विस्तार पा रही हैनात्रों का क्या, उनकी साधारण बातों तक का महत्त्व
एकड़ भूमि नहीं अाँक सकता है।
३१-३२
३०,७६,००० ३२-३३
३४,३५,००० शक्कर के कारखाने
३३-३४
३४,३३,००० श्री वेंकटेश्वर लिखता है
३४-३५
३६,०२,००० इन दिनों बहस यह छिड़ी हुई है कि शक्कर के ३५-३६
३६,८१,००० स्वदेशी कारखानों को संरक्षण मिलना चाहिए या नहीं। ३६-३७
४२,३२,००० ५ वर्ष से स्वदेशी शक्कर को सरकार संरक्षण दे रही है। २,००० विज्ञानविद् ग्रेजुएट, १०,००० दूसरे प्रकार के
सन्
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[ भाग ३८
शिक्षित व्यक्ति और २ लाख मज़दूर इन शक्कर के कारख़ानों पूर्वी रूस-वासी आदि के ६५ करोड़ मंगोल - वंश के लोग
बुद्ध भगवान् द्वारा प्रचारित श्रार्य छाया में हैं। अफ्रीकावासी इथियोपियन-वंश तथा उसके उत्तर-पूर्व और दक्षिण के निवासी योरपीय (फ्रांस, जर्मन, अँगरेज़ और रोमन आदि ) श्रार्य - जातियों की सांस्कृतिक छाया में हैं । इस तरह क़रीब ८० करोड़ अनार्य-वंश के लोग भी वर्तमान में श्रार्य-संस्कृति की छाया में श्रा चुके हैं । अतः समस्त भू-मण्डल में सिर्फ़ बीस करोड़ अनार्यों को छोड़कर बाकी सब आर्य संस्कृति के मानव रहते हैं ।
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सरस्वती
में लगे हुए हैं ।
ऐसे राष्ट्रोपयोगी व्यवसाय को संरक्षण देते रहना परमावश्यक है ।
संसार की विभिन्न जातियाँ और उनकी संस्कृति 'मिथिला मिहिर' लिखता है -
समस्त भू-मण्डल में प्रायः दो अरब मनुष्य बसते हैं । इनमें आर्य-वंश, द्राविड़ वंश, मंगोल-वंश, सेमेटिक और हेमेटिक, इथियोपियन, अमेरिका के मूलनिवासी रेड इण्डियन तथा आस्ट्रेलिया और सिंहल द्वीप के आदिनिवासियों का समावेश होता है। पृथ्वी के इन कतिपय प्रधान मानव गोत्रों में से द्राविड़ वंश आज-कल प्रायः आर्य वंश में मिल-सा गया है। ब्रह्मदेश, चीन, जापान, पूर्व- रूस, कासगार, मंगोलिया, तिब्बत, स्याम और कम्बोडिया इन देशों में मंगोल - वंश का निवास है । इनकी संख्या अन्दाज़ से ६५ करोड़ है । फिनिशिया, सीरिया, अरबिस्तान, यहूदी-भूमि पैलेस्टाईन और उत्तर अफ्रीका का किनारा, इन प्रदेशों में सेमेटिक हेमेटिक वंशवालों का वास है और इनकी संख्या प्रायः १५ करोड़ है । सहारा का रेगिस्तान अफ्रीका के पूर्वीय और पश्चिमीय किनारे तथा दक्षिणी हिस्से में इथियोपियन वंश के लोग रहते हैं। इनकी संख्या करीब १२ करोड़ होगी । अमेरिका के रेड इण्डियन मुश्किल से २ करोड़ होंगे । अन्य सामुद्रिक टापुत्रों की आदम बर्बर जातियों की संख्या अन्दाज़ से ४ करोड़ होगी । इस प्रकार पृथ्वी पर अनार्य-वंशजों की संख्या ९७ करोड़ और श्रार्य-वंशजों की ९६ करोड़ है । मतलब यह कि अन्दाज़ से श्राधा संसार आर्य वंशवालों से बसा हुआ है और आधे में अनार्य हैं ।
श्रार्यों की प्राचीन संस्कृति के वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, गृह्यसूत्रों और उपनिषदों का उत्तराधिकार तो भारत की २३ करोड़ श्रार्य- जनता को ही मिला है। उपर्युक्त ९७ करोड़ अनार्य-वंशजों में तिब्बत, चीन, जापान, मंगो - लिया, ब्रह्मदेश, स्याम, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा और
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देवपुरस्कार की जीत
इस वर्ष दो हज़ार रुपये का 'देवपुरस्कार' व्रजभाषा की रचना पर दिया गया है और वह मिला है पंडित रामनाथ 'जोतिसी' को उनके 'रामचन्द्रोदय-काव्य' पर । जोतिसी जी की इस सफलता पर अनेक बधाइयाँ । उन्होंने अपने इस काव्य में अपने सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा हैरायबरेली प्रान्त, निकट बछराँवाँ कौ पुर; 'विद्याभूषन' रामनाथ कवि, पुर भैरवपुर । कान्यकुब्ज कुल सुकुल, तात विध्याप्रसाद बुध; कल्यानी पतिदेव, जननि जनि मार्ग चौथि सुध । महि गुन नवेंदु बैक्रमि जनमि, जन्म दिवस बय ब्रह्म सर ; भो अवधपुरी मैं 'जोतिसी', रचित राम- जस पूर्नतर । रायबरेली प्रांत, राज्य रहवाँ गुन- मंडित; भए भूप रघुबीरकस, कल कीर्ति खंडित | रघुनन्दन झा शास्त्रि, तहाँ परधानाध्यापक : तिनकी कृपा कटाक्ष, 'जोतिसी' भे बहु व्यापक । विज्ञान- व्याकरन - न्याय- नय, ज्यौतिप-काव्य-कलाप पढ़ि; पुनि चन्दापुर-नृप सँग रहे, द्वादशाब्द मुद मान मढ़ि ।
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अवध- नरेस सुरेस सरिस परतापनरायन : 'जग जाहिर जस जासु, पुहुमि पति पूजित पाँयन । जगदम्बा पटरानि, तासु नृप ग्रासन राजै जगदंबिकाप्रताप, पुत्र ज्यहि श्रंक बिराजै । तिहि राज ज्यौतिषी, राजकवि, अपर पुस्तकाध्यक्ष-पद ; लहि श्रवधपुरी रहि 'जोतिसी', अब निरखत सियराम - पद |
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad.
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any
ফ্রান্সি জুল জুলিফা
सम्पादक
देवीदत्त शु श्रीनाथसिंह
अप्रैल १६३७ }
भाग ३८, खंड १ संख्या ४, पूर्ण संख्या ४४८
चैत १९६४
रुबाइयाते पद्म
लेखक, श्रीयुत पद्मकान्त मालवीय शब्द जो चूमे गये मुझसे उन्होंने शक्ति पाई। आत्मा को ले उड़े नभ-बीच जय-दुन्दुभि बजाई ।। प्यार मैंने है किया सर्वात्मा को पुष्प जैसा, पर न देते ज्योति तुम तो क्या मुझे देता दिखाई ?
यह नहीं अभिमान मुझको भानु या शशि हो गया मैं। ., या कि नभ की तारिकाओं को कभी छू भी सका मैं।
किन्तु इतना सत्य है दुनिया बनाई एक मैंने, और फिर तुमको बनाकर स्वयं जाने क्या बना मैं।
कर रहे थे तके पंडित पुण्य था वह पाप या था। सोचता था मैं कि क्या हूँ, और इससे पूर्व क्या था। खेलता है जो खिलौना-सा मुझे वह ही बताये, मैं किसी को क्या बताऊँ किस समय क्या क्या किया था।
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साहित्यिक हिन्दी को नष्ट करने के उद्योग
लेखक, डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा एम० ए०, डी० लिट० (पेरिस )
प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डाक्टर वर्मा का यहाँ परिचय देने की जरूरत नहीं है । आपकी धारणा है कि इस समय देश में कतिपय प्रवृत्तियाँ साहित्यिक हिन्दी के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। वे क्या हैं ? यही आपने इस लेख में दिखाने की चेष्टा की है ।
वा सौ से भी अधिक वर्ष हुए जब १९वीं शताब्दी के प्रारंभ में खड़ी बोली हिन्दी गद्य के सम्बन्ध में निश्चित प्रयोग हुए थे । इन प्रारंभिक प्रयोगों में से सदल मिश्र की शैली से मिलती-जुलती हिन्दी को अपनाकर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने १९वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस सम्बन्ध में एक निश्चित मार्ग निर्धारित कर दिया । २०वीं शताब्दी के प्रारंभ में पण्डित महावीर - प्रसाद द्विवेदी ने इस मार्ग के रोड़े कंकड़ बीनकर इसे सबके चलने योग्य बनाया। पिछले २०-२५ वर्षों से हिन्दी की समस्त संस्थायें, पत्र-पत्रिकायें, लेखकवृन्द तथा विद्यार्थीगण इसी आधुनिक साहित्यिक हिन्दी के माध्यम को अपनाकर अपना समस्त कार्य कर रहे हैं तथा स्वाभाविकतया इसे अधिक प्रौढ़ तथा परिमार्जित करने अधिकाधिक सहायक हो रहे हैं।
स
किन्तु इधर कुछ दिनों से हिन्दी की इस चिर निश्चित साहित्यिक शैली को नष्ट करने के सम्बन्ध में कई चोर से उद्योग हो रहे हैं। इंशा, राजा शिवप्रसाद तथा अयोध्या
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सिंह उपाध्याय के ‘ठेट हिन्दी' प्रयोगों की तरह कुछ दिनों तक इस प्रकार के उद्योग व्यक्तिगत थे, किन्तु हिन्दियों की उदासीनता के कारण ये धीरे धीरे अधिक सुसंगठित होते जा रहे हैं और यदि इन घातक प्रवृत्तियों का नियंत्रण न किया गया तो साहित्यिक हिन्दी शैली को मारी धक्का पहुँचने का भय है। आत्मरक्षण की दृष्टि से समस्त प्रमुख विरोधी शक्तियों की स्पष्ट जानकारी अत्यन्त आवश्यक है।
साहित्यिक हिन्दी के विरोध ने निम्नलिखित रूप धारण कर रक्खे हैं—
१- प्रान्तीय शिक्षा विभाग की 'कामन लैंग्वेज़' वाली नीति तथा स्कूलों में अँगरेज़ी पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग |
२ - हिंदुस्तानी ऐकेडेमी के कुछ प्रमुख संचालकों की 'हिन्दुस्तानी भाषा' गढ़ने की नीति ।
३- हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के वर्तमान कर्णधारों की 'राष्ट्रभाषा' की कल्पना जो धीरे धीरे उर्दू की ओर झुक रही है।
४ भारतीय साहित्य परिषद्, वर्धा, की 'हिन्दी यानी
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संख्या ४ ]
हिन्दुस्तानी' वाली प्रवृत्ति जिसका उल्लेख इस संस्था के है, जिससे इस संस्था की उपादेयता में बाधा पड़ने की नियमों में स्पष्ट शब्दों में है । संभावना है। वास्तव में इस संस्था को 'हिन्दी-उर्दू ऐकेडेमी' ही रहना चाहिए ।
T
इनके अतिरिक्त प्रगतिशील लेखक संघ (प्रोग्रेसिव राईटर्स असोसिएशन) जैसी छोटी छोटी संस्थायें तथा कुछ थोड़े-से स्वतंत्र व्यक्ति भी हैं । किन्तु इनका पृथक उल्लेख करना अनावश्यक है, क्योंकि इनको प्रोत्साहन किसी न किसी तरह उपर्युक्त चार मुख्य दिशाओं से ही मिलता है । अतः इन्हीं चारों पर एक दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है । साधारण विश्लेषण करने से एक अत्यंत मनोरंजक परिणाम निकलता है । वह यह है कि इन विरोधी शक्तियों में से पहले दो के पीछे सरकारी नीति है और अन्तिम दो के पीछे कांग्रेस महासभा की नीति । अपने देश के ये दो विरोधी दल साहित्यिक हिन्दी को बलिदान करने में संयोग से एक हो गये हैं, यह एक विचित्र किन्तु विचारणीय बात है ।
कांग्रेसवादियों में हिन्दी को हिन्दुस्तानी अथवा सरल उर्दू बनाने के उद्योग का मुख्य अभिप्राय मुसलमानों के साथ समझौता करना मात्र है। हिन्दी की जिन संस्थाओं में कांग्रेसवादियों का ज़ोर है, वहाँ कांग्रेस की इस नीति का प्रवेश होगया है । प्रारंभ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिन्दी - प्रांतों में करना प्रारंभ किया था। शीघ्र ही इस कार्य का नेतृत्व कांग्रेसी लोगों के हाथ में चला गया। इसका फल यह हो रहा है कि इस अन्तर्प्रान्तीय हिन्दी के नाम में तो परिवर्तन हो गया, इसके रूप में भी शीघ्र ही परिवर्तन होने की पूर्ण संभावना है। अभी कुछ ही दिन हुए साहित्य-सम्मेलन की एक कमिटी में यह प्रस्ताव पेश था कि सम्मेलन की 'राष्ट्र-भाषा' परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए उर्दू-लिपि की जानकारी भी अनिवार्य समझी जाय । यदि साहित्य सम्मेलन की बागडोर और कुछ दिनों कांग्रेसी लोगों के हाथ में रही तो यह प्रस्ताव तथा इसी प्रकार के अन्य प्रस्ताव निकट भविष्य में स्वीकृत हो जायँगे और समय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के साथ-साथ उर्दू भाषा और उसकी लिपि का प्रचार भी करने लगेगा। इंदौर का प्रस्ताव इस भावी नीति की प्रस्तावना थी ।
उस
प्रान्तीय सरकार का कहना है कि जब तक हिन्दी और उर्दू मिलकर एक भाषा का रूप धारण नहीं कर लेती तब तक प्रान्त की भाषा-सम्बन्धी समस्या हल नहीं हो सकती । कदाचित् 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी' । वास्तव में जिस दिन 'कामन लैंग्वेज़' वाली नीति प्रारंभ हुई थी, उसी दिन इसका पूर्ण शक्ति से विरोध होना चाहिए था । किन्तु हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं का दृष्टिकोण सार्वभौम तथा अखिलभारतवर्षीय रहता है, अतः हिन्दियों के नित्यप्रति के जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली व्यावहारिक समस्याओं पर विचार करने में उन्हें संकुचित प्रान्तीय दृष्टिकोण की गंध आने लगती है। जो हो, इस उपेक्षावृत्ति का फल यह हुआ है कि आज हमारे बच्चों की शिक्षा का माध्यम न हिन्दी है, न उर्दू और न अँगरेज़ी । तीनों में से एक भी भाषा वे अच्छी तरह नहीं सीख पाते । एक तरह से हमारी वर्तमान संस्कृति सम्बन्धी अवस्था का यह सच्चा प्रतिविम्ब है ।
भारतीय साहित्य परिषद् का वर्धा में होना ही इस बात का द्योतक है कि यह संस्था कांग्रेस महासभा की देशसम्बन्धी साधारण नीति का साहित्यिक अंग है । अतः इसके नियमों में 'इस परिषद् का सारा काम हिन्दी याने हिन्दुस्तानी में होगा' का रहना ग्राश्चर्यजनक नहीं है । इस नियम के अनुसार तो हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नाम भी 'हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी साहित्य-सम्मेलन' हो सकता है । ऐसी अवस्था में 'हिन्दी-उर्दू यानी हिन्दुस्तानी ऐकेडेमी', 'हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी साहित्य परिषद्', 'हिन्दुस्तानी यानी हिन्दी साहित्य सम्मेलन' और 'कामन लैंग्वेज' की नीति, ये चारों मिलकर एक एक ग्यारह की कहावत चरितार्थ कर सकते हैं।
भारत की जातीय भूमियों में केवल हिन्दी प्रदेश ही
साहित्यिक हिन्दी को नष्ट करने के उद्योग
हिन्दुस्तानी ऐकेडेमी की स्थापना प्रान्तीय सरकार ने हिन्दुस्तानी भाषा गढ़ने के उद्देश से नहीं की थी। यह बात इस संस्था के नियमों तथा श्राज तक के प्रकाशित ग्रन्थों को देखने से सिद्ध हो सकती है। किन्तु दुर्भाग्य से इस संस्था के नाम तथा कुछ प्रमुख संचालकों के व्यक्तिगत विचारों के कारण यह रोग इस संस्था के पीछे लग गया
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सरस्वती
| भाग ३८
है । किन्तु प्राचीन प्रभाव अभी थोड़ा-बहुत चल रहे हैं । हिन्दी - जनता ने हिन्दी के उर्दू-रूप को साहित्य के क्षेत्र में उस समय भी ग्रहण नहीं किया जब इस प्रदेश में उर्दू के पीछे तत्कालीन राज्य का संरक्षण था । श्रव परिवर्तित राजनैतिक परिस्थिति में ऐसा हो सकना और भी अधिक संभव है ।
से
कांग्रेस अथवा सरकार के क्षणिक राजनैतिक दृष्टिकोणों प्रभावित न होकर हिन्दियों को चाहिए कि सवा सौ वर्ष के सतत उद्योग से सुसंस्कृत अपनी भाषा-शैली को नाश से बचायें । हाँ, यदि हिन्दी भाषी नीचे लिखे परिणाम को साहित्यिक क्षेत्र में भी स्वीकृत करने को तैयार हों तो दूसरी बात है । वह परिणाम होगा -- हिन्दी, यानी राष्ट्रभाषा, यानी कामन लैंग्वेज़, यानी हिन्दुस्तानो, यानी उदू । गेय की र लेखक, श्रीयुत दिनकर
ऐसा भूमि भाग है जहाँ द्विभाषा समस्या उत्पन्न हो गई है । वास्तव में ऊपर के समस्त दोलन हिन्दी-उर्दू की समस्या को सुलझाने के स्थान पर उसे अधिक जटिल नाते जा रहे हैं । भारतवर्ष के अन्य प्रान्तों के निवासियों के समान ही हिन्दियों की भाषा, लिपि तथा साहित्य का
काव सदा से भारतीयता की ओर था, है और रहना चाहिए। मुग़ल साम्राज्य के अन्तिम दिनों में तत्कालीन 'परिस्थितियों के कारण दरबारी कारबार तथा साहित्य की भाषा फ़ारसी के स्थान पर हिन्दवी हो गई । इस हिन्दवी भाषा का रूप विदेशी फ़ारसी अरबी आदर्शों से ओत-प्रोत होना स्वाभाविक था । ऐसी अवस्था में इसका भिन्न उर्दू नाम हो गया । राजनैतिक परिस्थिति के परिवर्तन के साथसाथ उर्दू के इस कृत्रिम महत्त्व में भी परिवर्तन हो गया
गायक, गान, गेय से आगे, मैं गेयस्वन का श्रोता मन ! सुनना श्रवण चाहते अब तक भेद हृदय जो जान चुका है, बुद्धि खोजती उन्हें जिन्हें जीवन निज को कर दान चुका है। खो जाने को प्राण विकल हैं। चढ़ उन पद-पद्मों के ऊपर-दूर जिन्हें
बाहु- पाश
विश्वास हृदय का मान चुका है। जोह रहे उनका पथ हग जिनको पहचान गया है चिन्तन, गायक, गान, गेय से आगे, मैं गेय स्वन का श्रोता मन ! उछल उछल बह रहा अगम की
प्रकृति कौन ? कौन है दर्पण ? गायक, गान, गेय से आगे मैं गेय स्वन का श्रोता मन ! चाह यही छू लूं स्वप्नों कीनग्न - कान्ति बढ़कर निज कर से, इच्छा है आवरण त्रस्त हो
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र अभय इन प्राणों का जल, जन्म-मरण की युगल घाटियाँ रोक रहीं जिसका पथ निष्फल, मैं जल-नाद श्रवण कर चुप हूँ, सोच रहा यह खड़ा पुलिन पर-" है कुछ अर्थ, लक्ष्य इस रव का ? या कुल-कुल कल-कल ध्वनि केवल ?"
गिरे दूर अन्तःश्रुति पर पहुँच गेय-गेय-संगम पर सुन् मधुर वह राग निरामय फूट रहा जो सत्य, सनातन कविर्मनीषी के स्तर स्तर से ।
• दृश्य, अदृश्य कौन सत् इनमें ? मैं या प्राण-प्रवाह चिरंतन ? गीत बनी जिनकी झाँकी अब हग में उन स्वप्नों का अंजन | गायक, गान, गेय से आगे मैं गेय स्वन का श्रोता मन ! गायक, गान, गेय से आगे मैं
गेय स्वन का श्रोता मन !
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जलकर चीख उठा वह कवि था, साधक जो नीरव तपने में । गाये गीत खोल मुँह क्या वह जो खो रहा स्वयं सपने में ? सुपमायें जा खेल रही हैं जल-थल में, गिरि-गगन-पवन में, नयन मूंद अन्तर्मुख- जीवन खोज रहा उनको अपने में । अन्तर-बाहर एक छवि देखी,
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फ्रांस का
देहाती जीवन
लेखक, श्रीयुत डाक्टर रविप्रतापसिंह श्रीने
CITA
POST
"फ्रांस का ग्राम-जीवन सरल, सुबोध और सन्तोपपूर्ण है । फरासीसी किसानों में पदार्थ के अणुओं जैसा संगठन है । फ्रांस की शक्ति उसके किसानों की शक्ति है।" -प्रोफ़ेसर एलबर्ट आइन्स्टीन
नामण्डी प्रान्त में ग्राम का एक दृश्य ।। न दिनों जब सभी देशों से 'ग्रामों की धुनता। वह तो संसार और उसके मौजूदा ज्ञान से अाज अोर चलो' की आवाज़ पा रही ही लाभ उठाने की धुन रखता है। वह युद्ध को राष्ट्रीय है, उस समय हमें यह भी देखना जीवन का एक आवश्यक अंग मानता है। उसके नजदीक है कि योरप के राष्ट्रों ने अपनी विना युद्ध के दुनिया की हस्ती ही नहीं। वह 'वसुधैव . ग्राम-समस्या किस तरह सुलझाई कुटुम्बकम्' का हामी नहीं है । वह तो अपने राष्ट्र के लिए
है। योरप में अाज बोलशेविड़म, जीना और उसी के लिए मरना चाहता है। भविष्य के प्रेसिज़्म, एनाराकड़म और हिटलरइम अादि 'इमों' का विषय में फ्रांस का मत है--जो अभी तक हुअा है, वही बाज़ार गरम है; किन्तु फ्रांस में---उसके ग्रामों में केवल आगे भी होगा। इस मत का पोपक फ्रांस का प्रत्येक 'फ्रांसिज्म' की ही आवाज़ गँज रही है। यदि हम कहें निवासी है। कि आज फ्रांस इस अशान्ति के युग में दूसरे योरपीय फरासीसी अक्खड़ होते हैं। वे अपने सिद्धान्तों के राष्ट्रों से शान्ततर है तो शायद अत्युक्ति न होगी। यही लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए हमेशा तत्पर कारण है कि फ्रांस का देहाती जीवन फ़रासीसी हितों रहते हैं। उनमें कोई सिद्धान्तवादिता नहीं है। जो कुछ और उसके गुणों का प्रतीक है।
भी वे कहते हैं वही करते भी हैं। वे कर्ण-मधुर सिद्धान्तों _ फ्रांस के ग्रामीण जीवन की अोर इंग्लिश प्रजा और ऊँचे-ऊँचे विचारों के 'हिज़ मार्ट स वायस' नहीं खिन्नता से देखती है। उसका मत है कि फ्रांस का जीवन होते। समय के साथ ही फ्रांस के जीवन में भी परिवर्तन लघुता से आवतित है। उसमें सभी जगह संकुचित हुए; किन्तु उन परिवर्तनों ने फ़रासीसियों को उन्नति की वातावरण का आभास मिलता है। इसी लिए अँगरेज़ ओर ही अग्रसर किया है। फ्रांस के शहरों और देहातों फ्रांस को 'योरप का जापान' कहते हैं। फ्रांस के इतिहास में अधिक अन्तर नहीं। अन्तर अगर है तो केवल सजावट, के उज्ज्वल पृष्ठों ने योरप को अवश्य ही वह स्थान दे ऐशो-इशरत और बाहरी तड़क-भड़क में है: किन्नु सामाजिक दिया है जिसके बल पर आज वह कुछ दर्जे तक 'इतरा' नियम और राजनैतिक सिद्धान्त एक से ही हैं। शहरों में सकता है।
देहातों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। प्रत्येक शहराती शहर यह बात अवश्य है कि फ्रांस भविष्य की उलझन में में रहते हुए भी अपने को देहातियों से अलग नहीं पड़ा रहकर बे-सिर-पैर के सपने देखने का प्रादी नहीं है। समझता। उसकी मनोवृत्ति पूँजीपति नहीं होती, वह वह दशन और फिलासफी के पीछे अपना सिर नहीं अपने को मज़दूर श्रेणी का ही समझता है । यही कारण
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सरस्वती
[भाग २८
'ग्रामों की ओर चलो' की आवाज़ उठाई गई है, तभी से वहाँ के राजनीतिज्ञों का ध्यान अपनी इस ग़लती की ओर गया है। पर फ्रांस ने उस "प्रौद्योगिक क्रान्ति" के समय अपने किसानों की रक्षा की और वह आगे भी करने का प्रस्तुत है ।
फ्रांस ने अच्छी तरह से महसूस कर लिया है कि उसके किसानों की शक्ति ही उसकी शक्ति है। इसलिए उसने अपने किसानों के हितों की रक्षा के सभी उपाय हूँढ निकाले हैं। यही सबब है कि फ्रांस के देहाती जीवन का अपना महत्त्व है। फ्रांस के किसान शक्तिशाली और मंयमी हैं। उन्होंने ईमानदारी और मेहनत से अपने खेतों पर काम किया है और अपने राष्ट्रीय ख़ज़ाने को सोने-चांदी से भर दिया है। खज़ाना ही क्यों, फांस की सेना भी----उमके किसान ही हैं । फ्रांस का प्रत्येक किसानचाहे वह शहर का हो या देहात का-अपने को अपनी गष्ट्रीय सरकार का हर वक्त का सिपाही समझता है। वह उसके लिए हमेशा बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहता है। वह फौजी शिक्षा स्वयं ही लेता है और अपने को अपनी दिनचर्या में सिपाही मानकर ही काम करता है । अपने लिए खुद ही राष्ट्रीय सिपाही की वदी बनवाता है और उत्सवों के अवसर पर गर्व के साथ उसे पहनकर • फ्रेंच' कहलाने में शान व इजत समझता है । इस तरह
प्रत्येक देहाती फ्रांस का राष्ट्रीय सिपाही है। उसके बच्चों में कुत्ते सिर्फ विनोद के लिए नहीं पाले जाने।
में भी यही मनोवृत्ति जाग्रत होली जाती है। उनमें शुरू से उनसे गाड़ी खींचने का भी काम लिया जाता है। ही फ्रांसिज्म' का बीज बोया जाता है. जो यौवनावस्था है कि वहाँ के अमीरों गरीबों में एक सामञ्जस्य का मान तक शुद्ध राष्ट्रीयता का रूप धारण कर लेता है। स्थापित है। योरप के अन्य राष्ट्रों में यह मान नहीं है। फ्रांस का किसान संसार के झगड़ों और उनके
१८वीं शताब्दी के पहले इंग्लैंड और स्काटलैंड समाचारों से दूर रहना पसन्द करता है। यह प्रास्ट्रेलिया, में कृषकों की संख्या बहुत बड़ी थी; किन्तु १९वीं शताब्दी रूस, भारत, अमरीका, अफ्रीका आदि देशों की हलचलों में जो 'श्रौद्योगिक क्रान्ति' हुई उसमें वहाँ के कृपकों ने की अोर से उदासीन रहता है। यह बात अवश्य है कि काफ़ी बड़ी तादाद में खेती छोडकर कल कारखानों और वह फ्रांम के प्रत्येक हिस्से की पूरी जानकारी रखता है। मिलों में जाना पसन्द किया। कारखानों और मिलों में फ्रांस में होनेवाली प्रत्येक घटना की अोर वह पूरा ध्यान उन्हें अच्छी मजदूरी मिलती थी और किसी तरह की दिये रहता है। परासीसी किसान अपने राष्ट्र के लिए ज़िम्मेदारी भी न थी। इसी लालच में आकर किसानों ने अत्यन्त उत्सुक और अन्य राष्ट्रों की अोर बुरी तरह खेती-बारी का बहिष्कार किया। ग्राज उसी का यह उदासीन रहता है। उसकी यह उदासीनता बनावटी नतीजा है कि इंग्लैंड तथा स्काटलैंड अपने निजी खर्च नहीं, बरन स्वाभाविक है। वह खेत जोतने के लिए पुराने भर का भी अनाज नहीं उत्पन्न कर पाते और इसी लिए उन्हें हलों से ही काम लेता है. एंजिनवाले ट्रेक्टर वह काम में अन्य देशों की उपज पर निर्भर रहना पड़ता है। जब से नहीं लाता। वह यह अच्छी तरह समझता है कि 'मशीनों
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प्रमा
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संख्या ४]
फ्रांस का देहाती जीवन
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और कलों' ने योरप के कई देशों की शान्ति को प्रौद्योगिक बाज़ारों के हाथ गिरवी रख दिया है। वह मशीनों को कृषि और मजदूरों का जानी दुश्मन समझता है। इसी लिए वह हमेशा इनके उपयोग से दूर रहता है। वह अपनी प्राचीनता बनाये रखने में ही अपना गौरव समझता है । वह दिन भर कड़ी मेहनत करने पर भी नहीं घबराता, वह तो ज़िन्दगी भर मेहनत ही करना चाहता है। उसका काम कभी पूरा नहीं होता, काम में जुटे रहने में ही वह अपना परम सुख मानता है।
दिन भर की कड़ी मेहनत उसे ज़रा भी विचलित नहीं कर पाती। वह मेहनत के खिलाफ शिकायत नहीं करता। उसका मनोरंजन उसका अपना छोटा-सा संसार (कुटुम्ब) है। अपने बच्चों, अपने पशुओं और अपने दरख्तों की सेवा ही उसका मनोरंजन है। सिनेमा, नाच और सकस में उसे काई आकषण नहीं। वह पुम्नक या समाचारपत्र पढ़कर ज्ञान वृद्धि करने का ढकोसला भी नहीं करता । वह अपने बगीचे में जाकर अपने फल के दरख्तों
और उन दरख्तों पर चहकनेवाली चिड़ियों से अपने मनार जन का सामान इकठा कर लेता है। शाम को घर अाने पर अपनी स्त्री और नन्हें नन्हें बच्चों में हिल-मिलकर बह दिन की कड़ी मेहनत और मौसम के कष्ट को भूल जाता है। अपने छोटे-से घर में वह सारी दुनिया बसा लेता है। इसलिए, उसे बाहरी दुनिया और उसके झगड़ों
[फ्रांसीसी किसानों का संगीत-विनोद ।] की ओर ध्यान देने या उन पर बहस करने की फुमत फ्रांस अपनी नवयुवतियों की फिक्र भारत के समान नहीं रहती।
ही करने लगा है। प्रारम्भ से ही उनमें ईश्वर-भक्ति के फरासीसी किसान 'सन्तति-निग्रह' के नियमों पर चलना बीज बोये जाते हैं। वे धर्मभीरु, सरल, सुन्दर तथा नहीं चाहता। वह स्वभाव से संयमी होता है। तो भी कर्त्तव्यपरायण माताय होती हैं । 'कुमारी' बनकर समाज
औसतन ४ से ६ सन्तान पैदा करना अच्छा समझता और युवकों के सम्मुख थिरकने का लोभ उन्हें नहीं रहता। है। हर एक किसान अपनी ज़रूरतों का ख़याल रखता है। वे सफल लेखक या सफल वकील होने की अपेक्षा सफल उसकी सन्ताने हट्टी-कट्टी और तन्दुरुस्त होती हैं। उनके गृहिणी होना पसन्द करती हैं। वे पुरुष को बाहरी संसार लालन-पालन के लिए प्रत्येक फरासीसी माता बहुत का राजा बनाकर रखना चाहती है और स्वयं भीतरी सतक रहती है। वह खुद उनकी देख-रेख करती और संसार की रानी। उनका जीवनोद्देश भारतीय मातृत्व के उनके साथ अपनी ज़रूरतें बढ़ाती व घटाती है । शिशु- उद्देश से बहुत कुछ मिलता-जुलता होता है। पालन का वह मातृत्व का पुण्य कर्तव्य समझती है। प्रत्येक लड़की को प्रारम्भिक शिक्षा या तो गाँव के अँगरेज़ माताओं की तरह वह नाज़-नवरों की जिन्दगी बसर स्कूल में दी जाती है या स्कूल के अभाव में घर में ही नहीं करती। वह 'कुमारी' रहने की अपेक्षा 'माता' माता-द्वारा। शिक्षा में अक्षर-ज्ञान से लेकर घर की सभी कहलाना अधिक पसन्द करती है।
बातों का ज्ञान कराया जाता है। लड़कियाँ कालेजों में कम
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सरस्वती
[भाग ३८
फरासीसी नवयुवतियों की इस मनोवृत्ति को मंकचित तथा असभ्य कहकर उसकी हँसी उड़ाना अमेरिकन महिलायों और आज़ाद सिनेमा नर्तकियों का ही काम है। इंग्लिश स्त्रियाँ भी जो अाज अपनी अमेरिकन बहनों के पद-चिह्नों पर चल रही है, फ्रांस के विरुद्ध अपना मत ज़ाहिर करती हैं, उन्हें जाहिल और दकियानूस कहती हैं। लेकिन वास्तव में फरासीसी स्त्रियाँ अपना सामाजिक मान बढ़ाये हुए हैं। वे युवक-समाज के ऊपर मँडरानेवाली तितलियाँ नहीं बनना चाहतीं। दूसरी शिकायत उनके खिलाफ यह है कि व अतिथि सम्मान नहीं करती और पुरुषों से दूर दूर रहती हैं । यह सच है कि वे पुरुष पर एकदम विश्वास नहीं करती।
फ्रांस के विषय में स्वामकर त्रयों के सम्बन्ध में विदेशियों की जो राय है वह पे रस को देग्वन हुए है। पेरिस वास्तव में क्रांस के अन्तरंग मे विलकुल भिन्न है। पेरिम का जीवन अाज भी कड़े मे कड़े शब्दों में धिक्काग जा सकता है। परन्तु पेरिस और बाकी फ्रांस में ज़मीनश्राममान का फल है। फ्रांस पेरिस से नहीं जाना जा सकता । फ्रांम को समझने के लिए फ्रांस के देहाती जापन का अनुभव करने की ज़रूरत है।
फ्रांस का देहाती जीवन बड़ा ही शान और सरल है । यहां तक कि एक परिवार, दूसरे परिवार के माथ कम
हिलता-मिलता है। प्रत्येक अपने ही राग में मस्त है। शिशु अपनी माता की बाँहों में।।
त्योहारी और राजनैतिक जलमो के समय माग फ्रस जानी हैं। १५-१६ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कर फ्रांसमय ही दीखता है। इस समय लोग मदिरापान दिया जाता है। विवाह करते समय माता पिता नथा करने में नहीं हिचकते। शगव वहाँ बहुत बड़े परिमाग वर कन्या सभी मिलकर निश्चय करते हैं । विवाह के समय में बनती है, लेकिन पी बहुत कम जाती है। शराब उनके मारे दिखाऊ खच टाल दिये जाते हैं। विवाह के पश्चात जीवन की अावश्यकता नहीं. वरन उत्मया की एक खाम अक्सर पति-पत्नी अपना मंसार अलग बमा लेते हैं या चीज़ है। शराब की जगह में तम्बाक का प्रयोग बहत होता कुटुम्ब के माथ ही रहकर जीविकोपार्जन करते हैं। उनका है। पर स्त्रियाँ तम्बाक पीना भी बुरा समझती है। बच्चे वैवाहिक जीवन बड़ा ही सादा और मुबर होता है । परिवार अंगर खूब खाते हैं । फल और मेवों का प्रचार ग्लव है। के मित्र बहुत थोड़े रहते हैं। केवल मन्वन्धी ही परिवार के बच्चे स्कूल से पाने के बाद शाम को अपनी माता भीतर प्रवेश कर सकते है । प्रत्येक पैसेवाला या ऐश्वर्यवान या पिता के सामने कारनेली या रेसीन की कविता पव उन तक पहुँच नहीं पाता । लकियों नथा नवयुवतियों के मन में कहते हैं । शाम के वक्त हर एक घर में वनों का याचरण तथा रहन मन पर कड़ी निगाह रकबी जानी चहकना, घर के कम्पाउंड में कुत्तों का भीकना और रोशन है। वे भड़कन दुनिया और उसके प्रलोभनों में दर दानों में मे हलकी और धीमी शनाका बादर छिटकना की जाती है।
देहाती जीवन का एक प्रमुख चह है। शाम के ही समय
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संख्या ४]
फ्रांस का देहाती जीवन
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Hansrcesareangsters,
'ममी' अपने बच्चों का पाठ याद कराती और उनका पिता उन्हें अंगर के गुच्छे इनाम के बतौर देता है । बच्चे बड़े नटखटी और शरीर होते हैं।
फ़रामीसी स्कूलों में फ्रेंच, थोड़ा सा गणित और इनिहाम ही बहुत ज़रूरी विषय समझे जाते हैं। प्रारम्भिक शालायों में इन्हीं बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता है । वहाँ की शिक्षा वेकार नहीं जाती। कालेज की शिक्षा भी जीवन की अावश्यकता के अनुसार ही दी जाती है। बेकारी का सवाल वहाँ इतना ज़बर्दस्त नहीं, जितना कि अन्य यापीय राष्ट्रों में है। कालेज और यूनिवर्सिटी की शिक्षा वहाँ वहृत कम दी जाती है। यह शिक्षा केवल शहरों में ही अधिक प्रचलित है। ग्रोसत गृहस्थ तो अपने बच्चों का कालेज भेजता ही नहीं। लड़कियाँ बहुत कम ऐसी है जी कालेज नक पहुँचे। प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त होत ही व गृहया के कामों में जान दी जाती है ।
नवयुवतियों और लड़कियों के सामने 'जोन ग्राफ पाक का अादश मदेव उपस्थित रहता है। बचपन में ही उन अाक का जीवन चरित मन्वाग्र करा दिया जाता है अब केन्याबाग में ग्राकका भी एक जवस्त त्योहार है. जिस दिन प्रत्येक फ़ासीनी युवती पार्क की पनिमा के सम का बड़ा होकर पलना करता है कि वह पार्क की तरह---- या धमर याने पर बने प्यारे देश के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए मदेव तयार रहेगी। यह प्रतिज्ञा प्रत्येक फ़समीमा युवती में टम यात्मवल का संचार करती है। ग्रामीण वृद्धा चम्चा चलाती है और गाती है।। जिसके लिए अनेक गट लालायित रहते हैं। ग्राज कई का मुसाफिर है। जीवन मे उसे अनुगग है: निराशा नहीं। मौ वान फस जान को यादगार में प्रतिवर्ष अपनी दुनिया के सामने वह 'कष्ट भोगी' कहलाना पसन्द करता प्रत्येक युवती से वह प्रतिमा करवाता है जिसके लिए जोन है। यह स्वभाव से अल्हड़ और मस्त होता है । ममखरापन ने अपना उत्सग किया था।
पगमीसी राष्ट्र की अपनी विरामन है। फ्रांस का युवक-समाज व्यावहारिक और कार्य कुशल क्रम अन्य देशों के लिए फैशन तैयार करता है। होता है। सद्धान्तिक वानों पर वह ईमान नहीं लाता । वह फगामी स्त्रियाँ स्वभाव में ही सफ़ाई-पसन्द होती हैं । वे सब कुल, मामने देवना और उसे वहीं करना चाहता है। इतनी सफाई से रहती है कि उनकी बहन सहन एक फैशन जो कुछ बह करता. वही करना भी है। 'भागम-कुमी की पैदा कर देती है। उनकी सफाई और रहने का तरीका राजनीन महकाना दर ना। वह तड़क-भड़क से विचित्र होता है। यही कारण है कि वे फैशन को रोज़ ही रहना भी पसन्द नहीं करना । मात्विकता उसके जीवन का जन्म देती हैं। उनका शरीर सुडौल होता है और मेहनत कत्व है। मदानी रोशाक और सिपाहियाना दृद शमीमियों उन्हें और भी निवार देनी है । गसीसी स्त्री से कहीं अधिक की पनी विशेस्ता है। वह भावना कम, लकिन करता सुन्दर नाव. स्काटलर और अमरीकाश्री त्रियां होती हैं। बहुत है। नजाकत से बहुत दूर रहता है। वह कम माग किन्नु व मुडौल नहीं होता और उनके रहने का तरीका भी
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सरस्वती
[ भाग ३८
फरासीसी स्वभाव से मिष्टभाषी और सरल होते हैं। कोई भी लेक्चरर अपने लेक्चर-द्वारा उन्हें भडका सकता है। नेता-पूजा के वे बड़े भक्त होते हैं। महापुरुषों के जीवन-चरितों द्वारा वे बड़े जल्दी द्रवीभत हो जाते हैं । उनमें वही नेता सफल हो पाता है जो स्वयं अपने विचारों
और सिद्धान्तों का प्रतीक हो । अभी हाल में रूस के कम्यूनिस्टों ने फ्रांस में प्रवेश कर फरासीसी किसानों और मज़दूरों के बीच उथल-पुथल मचा दी थी; किन्तु वहाँ की सरकार ने उन कम्यूनिस्टों को निकाल बाहर किया और किसानों की परिस्थितियों पर ध्यान देकर उन्हें ठीक कर दिया। अब ध रे-धीरे फरासीसियों में भी असन्तोष के लक्षण दीख रहे हैं। उनके नेताओं में कुछ अविश्वासपात्र निकले, जिन्होंने राष्ट्रीय पैसे को निजी काम में खर्च किया और बाद में नेशनल ट्रिब्यूनल द्वारा दण्डित किये गये। यही कारण है कि मज़दूरवर्ग राजनैतिक नेताओं
लकड़ी के जूते बनानेवाला एक व्यवसायी जिसका
रोज़गार कभी धीमा नहीं पड़ता। ऐसा शानदार नहीं होता। हाँ, फ्रांस की शहाती स्त्रियाँ कहीं अधिक बनाव चुनाव में रहती हैं। पेरिस में तो शृंगार को भी मात मिल जाती है। वहाँ का जीवन बड़ा ही कृत्रिम हा गया है । इत्र-फुलेल की तरफ़ उनका आकर्षण बढ़ाचढ़ा है।
फरासीसी पुरुष स्त्रियों की अपेक्षा पोशाक की दृष्टि से बेपरवाह होते हैं । वे ज़्यादा सफाई की चिन्ता नहीं करते। शहराती पुरुष देहातियों से चैतन्य और चञ्चल होते हैं ।
हाँ, साइकिलों के बड़े शौकीन होते हैं। साइकिल या मोटर-साइकिल के लिए वे कोई भी चीज़ गिरवी रखना पसन्द करेंगे। ऐसा कहा जाता है कि फ्रांस की आबादी को देखते हुए जितनी साइकिलें और मा टर-साइकिल फ्रांस में हैं, उतनी दुनिया के और किसी देश में नहीं मिल सकती।
[सप्ताह का काम समाप्त करने के बाद इस युवती ने रविवार को अपनी अाकर्षक पोशाक धारण की है।
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सख्या
४]
झांस का देहाती जीवन
का दुश्मन हो गया है। वह सभी को बुरी और हिकारत मैनेजर को स्खुश कर लें। मस्ती का इससे जबर्दस्त की दृष्टि से देखता है। उनमें यह भाव भरने का श्रेय उदाहरण दुनिया के किसी कोने में नहीं मिलता। फ्रांस बहुत अंशों में कम्यूनिस्ट-विचारों को है। इन विचारों के के समाचार-पत्र मज़ाक से भरे रहते हैं । फरासीसी अश्लील उन्मूलन में फ्रांस की राष्ट्रीय सरकार काफ़ी शक्ति खर्च से अश्लील बात को ऐसे ढङ्ग से कहते हैं कि सुननेवाले कर रही है: फ्रांस के ऊपर भी 'अशान्ति का ख़तरा' को ज़रा.भी मद्दा नहीं मालूम देता।। मँडरा रहा है । भविष्य ही जाने आगे क्या होगा! . फरासीसी फुटबॉल बहुत पसन्द करते हैं । फुटबाल के
फ़रासीसी बड़े ज़िन्दा दिल होते हैं। मज़ान उनके अलावा वे बाउल नाम का एक खेल खेलते हैं । यह खेल व्यक्तित्व का अावश्यकीय भाग है। हाजिरजबाबी, दोअथें देहातों में बहुत प्रचलित है। फ्रांस में लोगों का झुकाव शब्द और कहावतें वे बहुत पसन्द करते हैं । शब्दों की गायन और वाद्य की ओर बहुत है। यही कारण है कि चुस्ती और कहावतों की भरमार उनका जातीय गुण है। फ्रांस अाज ललित-कला का केन्द्र बना हुआ है। प्रत्येक मसखरापन तो उन्हें इतना भला मालम होता है कि अच्छे फरासीसी चित्रकारी और गायन की ओर स्वभावतः अाकर्षित मज़ाक के लिए मयखाने का नौकर आपको एक ग्लास होता है। शराब उड़ेल देगा। किसी भी होटल में आप शामिल कर फ्रांस का देहाती जीवन ऐसा हो अादर्श जीवन है। लिये जायेंगे, यदि आप एक चुभता मज़ाक करके होटल के :
हे कवे !
लेखक, श्रीयुत हरशरण शर्मा 'शिवि' कला का चित्रण किया था
हृदय-रस निज लेखनी से, हे कवे ! तुमने प्रथम।
ढाल कर दानी बने, भावना ले भक्त की,
विश्व को संदेश देकर
तुम कवे ! ज्ञानी बने। मानस रचा तुमने महिम ।।
चल रहे हो ध्वान्त-जग में एक नव आलोक लेकर। भारती का जापकर तुम सरस औ' चेतन बने। सत्य, सुन्दर और शिव के राजते हो ओक बनकर ॥ प्रेम के उन्माद में तुम सजल-कवि-लोचन बने।
लोक-सेवा-भाव में, विरहिणी की हूक में
तुम ओज के अवतार हो। तुम कूक कोयल से उठे,
कला की अभिव्यंजना में,
कल्पना सुकुमार हो। करुण-रस बरसा धरा पर
रसों की अनुभूति में तुम हुए आत्मविभोर हो। गरज जब धन से उठे।
काव्य की आराधना में, कर रहे तप घोर हो। सुन सके हो पीर उर की चातकों की याचना में। कलित-कविता-लता पर तुम भावना के फूल हो। गा सके हो गान मंजुल मातृ-भू-पद-वन्दना में ॥ प्रेम की मन्दाकिनी के तुम मनोरम कूल हो।
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एकाङ्की नाटक
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श्री
पात्रगण
लोटा
गोविन्द वल्लभ पन्त
।
१ - सेठ लम्बोदर
के दर्शन करना मुझे हगिज़ मंजूर नहीं है । चिलम नाराज़ हो जाय तो हुआ करे, कलबुल न रिसाय । या पहुँचे [सिर हिलाकर ] हाँ ! आ पहुँचे । [ फागुन जाता है। सेट लम्बोदर जल से भरा लोटा
२- मालिनी, उनकी धर्मपत्नी
३ - फागुन उनका छोकरा नौकर
[तीसरे दृश्य में इनके अतिरिक्त वैद्य जी, ज्योतिषी जी, लिये आते हैं और उसे सिरहाने की ओर रख देते हैं ।] हकीम जी, डाक्टर साहब और श्रोझा जी ।]
लम्बोदर - रात को सोते वक्त एक लोटा जल अगर सिर
स्थान - सेठ जी के सोने का कमरा ।
समय - एक रात और उसकी सुबह ।
प्रथम दृश्य
मानू सेठ लम्बोदर जी का शयन कक्ष । बीच में द्वार, दोनों ओर दो पलँग । रात दस बजे । उनका नौकर फागुन उनकी चिलम हाथ में लिये फूँक मार मारकर सुलगा रहा 1 नेपथ्य में खुले पंप और सेठ जी के कुल्ला
करने की आवाज़ें ।] फागुन [ चिलम में फूँक मारकर ] - फू ! फू ! फू ! मेरे स्वामी श्रीमान् सेठ लम्बोदर जी का यह बड़ा ज़बर्दस्त हुक्म है कि उनके खा-पीकर हाथ धोने के बाद उनको उनका हुक्का गुड़गुड़ाता और धुवाँ छोड़ता हुआ मिले । फू ! फू ! फू ! जिस दिन उन्हें ज़रा भी राह देखनी पड़ी कि ग़रीब फागुन की बिना न्योते शामत ग्राई । [चिलम से दम खींचकर धुवाँ बाहर करता है ।] हूँऊँऊँ, अब सुलग गया है। उधर सेठ जी ने भी अच्छी तरह छिड़क-खाँसकर जूठे हाथ धो लिये हैं । [चिलम हुक्के पर रख देता है ।] श्रीमती मालिनी'देवी जी ने मेरे लिए खाना परोस दिया होगा । व चल देना चाहिए। देर करने से खाना ठंडा और लाल हो जायँगी । उनकी बल खाई हुई भौंहों
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गाई
हाने रख दिया जाय तो सुबह उठकर दिशा-मैदान जाने में सुभीता होता है । [ खूँटी पर से अँगोछा निकालकर हाथ पोछता है और कुछ विचार कर एक दीर्घ श्वास छोड़ता है । ] ग्रह ! दस हज़ार ग्यारह सौ निन्नानवे रुपये पौने सोलह श्राने तीन पाई मेरे बाहर फँसे हैं । मैं, अकेली दम, दूकान में डंडी तोलूँ. या इन नादेदों की बैठक की ज़ंजीर झनझनाऊँ ! मेरे नौकर फागुन को श्रीमती जी के चूल्हे चौके से ही फ़ुर्सत नहीं [कोट की जेब में हाथ डालता है, पर जेब फटी होने के सबब हाथ बाहर निकल ता है ।] फूटी और फटी तक़दीर ! [ माथे पर हाथ मारता है । मेरी स्त्री मालिनी भी इसे सीना नहीं चाहती । [कोट खोलकर खूँटी पर टाँग देता है । ] कम्बख़्त उधार के खानेवाले ! [क्रुद्ध होकर घूँसा तानता है ।] अब मेरी दूकान का रास्ता ही भुलाये बैठे हैं । [ हथेली में घूँसा मारकर ] नालिश कर दूँगा जी नालिश ! [बिस्तर की ओर बढ़कर लिहाफ़ खींचता है, अचानक सिर पर हाथ रखकर मालूम करता है कि अभी टोपी नहीं उतारी है । उसी समय उसकी दृष्टि उस जल के भरे लोटे पर जाती है। सिर से टोपी उतारकर उससे लोटा ढँक देता है। लेटकर लिहाफ़ प्रोढ़ लेता है और हुक्क्ने की नली हाथ में लेकर गुड़गुड़ाना आरम्भ करता है । ]
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संख्या ४]
खूनी लोटा
__ -
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नेपथ्य में बर्तन मलने की आवाज़ । सेठ जी हुक्का मालिनी-न बतावेगा? तो मैं भी घर का कोना-कोना. गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते सो जाते हैं । मालिनी काग़ज़ की एक .... छान डालूंगी और एक-एक बिन्दी मिटाकर ही चैन पुड़िया लेकर आती है।]
लूँगी। मालिनी-हैं ! इनकी गुड़गुड़ी तो सिल के पत्थर की तरह फागुन-मार डालोगी- ग़रीब को इस तरह मार डालोगी ? .
चुप हो गई । श्रीमान् जी सो गये क्या ? [धीरे से आवाज़ लम्बोदर शोर मुनकर जाग पड़ता है और उठ कर । देकर] अरे श्रो फागुन ! जब तू यहाँ अावे तब एक मालिनी को फटकारता है । फागुन खिसक जाता है।] लोटे में जल भरके लाना। [पुड़िया भूमि पर रखकर लम्बोदर-अरी ! बारह बज चुके हैं ! तुझे कुछ होश वहीं बैठ जाती है ।] हा भगवान् ! हाथ पीले न होते भी है ? सारी दुनिया सो गई, पर तेरी कढ़ाई अभी न सही, किसी अँगुली में भी तो सोने का एक छल्ला तक नहीं उतरी है। तुझे सोकर नाक बजाने के लिए नहीं है । मैं इसी इच्छा को लेकर बूढ़ी हो जाऊँगी, सारा दिन पड़ा हुआ है, पर मुझ कम्बख़्त को तो सुबह पर इन्हें क्या ? इनका छिन जायगा, छीज जायगा, पाँच बजे दूकान खोलनी है। पर बेचारी मालिनीदेवी को कानी कौड़ी भी न मिलेगी। मालिनी-तो एहसान किस पर है? बिना सोचे-समझे [धोती से हाथ पोंछते हुए फागुन आता है ।]
यों ही फन फैला देते हो। तुम्हारी ही दूकान में फागुन-और यह ग़रीब फागुन भी सदा अपनी तनख्वाह 'सतिया' और 'श्रीगणेशाय नमः' लिखने के लिए यह के लिए तरसता ही रह जायगा।
[पुड़िया हाथ में लेकर] गेरू कूट-छानकर अब भिगाने मालिनी---क्यों फागुन ! तुझे याद है, तेरी कितने महीने
डाल रह __की तनख्वाह हमारे सिर चढ़ी है ?
लम्बोदर [शीघ्र नरम पड़कर]-अच्छा , यह बात है ! तो.. फागुन-~जो सरकार : तुम्हारे भुलाये से कभी भूल. नहीं करो, तुम्हारा जो जी चाहे वही करो।
सकता । फागुन भी अब बहुत दिन से शहर में रहने मालिनी [मुह बनाकर क्रुद्ध हो जाती है] - जो जी चाहे . के सबब हद से ज्यादा होशियार हो चला है। उसे वही करो ! हूँ, ज़रा भी तो समझ नहीं है। पंप के नीचे घड़ा भरते और बिजली की रोशनी में लम्बोदर [प्रेमपूर्वक]--तो नाराज़ क्यों हो गई ? [मालिनी बतन मलते बरसों बीत गये हैं।
का हाथ पकड़ना चाहता है।] मालिनी--पर तू तो कहता था मुझे गिनती ही नहीं मालिनी हाथ छुड़ाकर]-रहने दो अपनी चतुराई । मैं ग्राती है।
नहीं बोलती। [मह फिरा लेती है।] कुछ भी तो "फागुन--गिनती नहीं आती है तो क्या यों ही बाज़ार से आदमियत नहीं है।
तुम्हारा सौदा ख़रीद लाता हूँ। कहो, क्या तुम्हें कभी लम्बोदर [उसके मह की ओर जाकर]-यों ही हँसते-खेलते कोई पाई कम मिली। ......अजी, मैं अपनी अँगु- नाराज़ हो जाती हो । भला यह भी कोई बात है ? लियों पर प्रासमान के तारे भी गिन दूंगा। तनख्वाह [कुछ देर खुशामद कर उसे मनाता है, जब वह नहीं याद करना क्या बड़ी बात है ?
मानती तो खुद भी रूढ जाता है।] अच्छा तो हो मालिनी--किस तरह ? मुझे न बतायेगा क्या ?
गया क्या ? [मालिनी मह फेरे चुप ही रहती है ।] फागुन--नहीं सरकार !
हूँ, फिर वही बात ! स्वामी को अपने घर में कोई मालिनी--अरे ! मैं ढिढोरा पीटने थोड़े जा रही हूँ। जगह ही नहीं ! मालिनी ! तुझे बनाने में ब्रह्मा जी ने फागुन -[धीरे से अजी, मैं एक जगह बिन्दी बना देता माधुरी इतनी अधिक नहीं मिलाई, जितनी ज़्यादा
हूँ। एक महीना बीता नहीं कि मैं उसमें एक मिर्च । देख लूँगा, मैं भी तेरे गुस्से को देख लूँगा। बिन्दी और बढ़ा देता हूँ।
[ज़मीन पर पैर पटककर लिहाफ़ अोढ़ लेता है । हुक्के मालिनी--वह जगह है कहाँ ?
में से एक-दो दम खींचता है। जब धुवाँ नहीं आता फागुन–जगह ?...है कहीं, तुमसे मतलब ?
तब नली दूरकर मुंह ढंक सो जाता है ।]
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३२६
सरस्वती
मालिनी - नाराज़ हो गये तो क्या ? धमकायें किसी और को । मालिनी के गुस्से के लिए भी फ़ायर- एंजिन 1 चाहिए । [फागुनद्वार में से ह निकालकर धीरे-धीरे आता है ।] फागुन [लम्बोदर की ओर इशारा कर धीरे-धीरे मालिनी से ] जी ! सो गये ?
मालिनी - कम्बख्त बड़ा लापरवाह है ! मैंने तुझसे क्या करने को कहा था ? फागुन- एक लोटे में पानीमालिनी - तो लाया तू ?
- लाया
फागुन- ( लम्बोदर के रक्खे हुए लोटे को देखकर ]सरकार ! लाया । [तुरन्त ही लम्बोदर की टोपी उठा चारपाई के नीचे फेंक जल का लोटा उठाकर मालिनी को दे देता है । ]
मालिनी - जा, एक लोटा और ले था । फागुन -- भी लो, ठीक ऐसा ही लो। [ जाता है । ]
[ मालिनी पुड़िया उठाकर हाथ में लेती है। फागुन आकर वैसा ही एक दूसरा लोटा मालिनी के सामने रखता है । मालिनी उसमें पुड़िया का गेरू रख उसे पहले लोटे के पानी से भर देती है, और उसे उठाकर ठीक उसी जगह रख देती है, जहाँ लम्बोदर ने अपना लोटा रक्खा था ।]
फागुन- अच्छा सरकार, अब तो कोई और काम नहीं है ? मालिनी - ठहर, [दूसरे लोटे के शेप जल से अपने हाथ धोकर, ख़ाली लोटा फागुन को देती है ।] ले, इसे जहाँ से लाया है वहीं रख देना ।
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[ भाग ३८
द्वितीय दृश्य
[ वही कमरा, दूसरी सुबह । ]
फागुन [नेपथ्य में दरवाज़े की सॉकल झनझनाकर]-- अजी, सूरज सिर पर ा गया। नींद न खुलेगी
क्या ?
मालिनी [चौंककर जागती है, आँखे मलकर चारपाई पर से उठती है, सॉकल खोलती है । फागुन प्रवेश करता है । मालिनी बाएँ हाथ से उसका कान पकड़ती है और दाहने हाथ से सोये हुए लम्बोदर ar दिखाकर तर्जनी होंठों पर रखकर फागुन से चुप रहने को कहती है । ] चुप !
फागुन [मुँह बिगाड़कर दोनों हाथों से दियासलाई घिसने
फागुन- बहुत अच्छा । [ लोटा लेकर जाता है ।]
[ मालिनी दरवाजा बन्द कर साँकल चढ़ा देती है। और क्रोध-भरी निगाह से पति की ओर देखती है, फिर उस भाव को धीरे-धीरे प्रेम में बदल देती है और खूँटी पर से लम्बोदर का कोट उतार लेती है ।] मालिनी - कई बार इन्होंने इस फटी जेब को सी देने के
लिए कहा था । श्राज इसे इस वक्त सी दूँगी तो सुबह इस जेब में हाथ डालते ही सेठ जी का सारा गुस्सा हवा हो जायगा । [सुई-तागा निकाल सीना शुरू करती है ।]
का इशारा करता है और चिलम की ओर सङ्केत करता है । ] — ॐ !
i
मालिनी [दवे पैर लम्बोदर के सिरहाने जाकर वहाँ से कौशल - पूर्वक दियासलाई की डिबिया निकालकर -- ले फागुन को देती है । ] [फागुन का हुक्का उठा लेना । दोनों का जाना । लम्बोदर जी का स्वप्न देखते-देखते लिहाफ सहित चारपाई पर से नीचे गिरना और चौंककर खड़ा होना | ] लम्बोदर - अरे बाप रे ! क्या देखा ? स्वर्ग की परियों ने हवाई जहाज़ में सितारों के पास तक पहुँचाकर मुझे चूसी हुई गुठली और फटे हुए जूते की तरह फेंक दिया ! यह तो ख़ैर हुई कि जो कुछ मैंने देखा वह एक स्वान था और जहाँ मैं गिरा वह मेरे ही कमरे का फ़र्श, मगर आज सुबह - सुबह यह बोहनी अच्छी नहीं हुई। दिन भर के राम ही मालिक हैं । हे भगवान् !
रक्षा करना । [ अत्यन्त भक्ति भाव से हाथ जोड़ता है । ] फागुन [हुक्का लिये आकर समवेदना - पूर्वक ] -क्या हुआ
सरकार !
लम्बोदर [ बेखटके ] - हुआ क्या ? कुछ भी नहीं । अभी
सोकर उठे हैं। भर लाया तम्बाकू ? रख दे । [ जल्दी से लिहाफ़ झाड़कर चारपाई पर रख देता है और बैठकर गुड़गुड़ाने लगता है । ]
फागुन- क्यों सरकार ! रात खटमलों के डर से ज़मीन ही पर सोये क्या ?
लम्बोदर -- श्ररे खटमलों का क्या डर ? लम्बोदर साक्षात्
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संख्या ४]
शेर से भी नहीं डरते। गुड़ ड़, गुड़, ड़, गुड़ ड़ड़ड़ड़ । [धुवाँ छोड़ता है ।] - फ़ू !
फागुन -- यह तो सवा सोलह श्राने सच है । मगर यह लिहाफ़ ज़मीन पर कैसे कूद गया ?
खूनी लोटा
लम्बोदर - चुप रह । बहुत बातें बनायेगा तो जुबान और तनख्वाह दोनों काट ली जायँगी । [नेपथ्य में मालिनी पुकारती है – “फागुन ! ओ फागुन !" ] वह सुन । मालकिन तुझे बुला रही हैं। जा चला जा । [फागुन जाता है।] गुड़ ुड़, गुड़ ुड़, वाह वा ! विवाह के पहले की प्रीति और शौच जाने से पहले का हुक्का ये दोनों बड़े ही मधुर हैं । [ गुड़गुड़ी छोड़कर ] अब शौच का जाना चाहिए । [विस्तर त्यागकर कान में जनेऊ डालता है और रात के रक्खे हुए लोटे पर दृष्टि डाकर चौंकता है ।] हैं ! टोपी कहाँ चली गई ? कल रात सोते वक्त उससे लोटा ढँका था, मुझे खूब अच्छी तरह याद है । फिर कहाँ गई ? क्या उसने पर जमा लिये १ [बिस्तर, सिरहाने और कमरे में इधर-उधर खोजता है, नहीं मिलती है ।] क्या करूँ ? नहीं मिलती ! लेकिन खाते वक्त सिर नङ्गा और जंगल जाते समय सिर ढँका होना चाहिए ऐसा वेद में लिखा है । इस पर सदा बाप-दादों ने श्रमल किया है । लभ्बादर भी इसकी पूँछ यों हीं न छोड़ देगा । [चार - पाई के नीचे छोड़कर और चारों कोनों में टोपी की तलाश करता है ।] हे भगवान् ! शौच की भी बड़ी सख्त जरूरत मालूम देती है । [पेट दबाता है । कुछ सोचकर चारपाई के नीचे खोजता है ।] मिली ! मिली ! मगर इसे यहाँ कौन घसीट ले गया ? [हाथ पर
ड़कर टोपी पहनता है। लोटा उठा, हुक्के में से एक दम और खींच, पैर में स्लीपर डालकर चला जाता है ।]
[फागुन का आना ।] फागुन हुन के को नली तक चूस गये होंगे। [चिलम उठाकर दम खींचता है, धुवाँ छोड़कर ] है, है, अभी बहुत कुछ है । [ फिर दम खींचना चाहता है ।]
[मालिनी का आना ।] मालिनी [फागुन के सिर पर धप जमाती है, जिससे उसकी
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टोपी भूमि पर गिर पड़ती है ।] - मुँहझसे ! जब देखो तभी धुत्र उगलता रहता है। मैंने तुझसे चाय के लिए दूध लाने को कहा था । फागुन [टोपी उठाकर पहनते हुए रोने के स्वर में ] - तो मैंने कब जाने से इनकार किया। सेठ जी की धोती और अँगोछा लेने आया था। तुम जानती ही हो, वह बिना नहाये चाय नहीं पीते । इधर इस भरी चिलम को देखकर अमल जाग उठा । अमल में कई हज़ार घोड़ों की ताकत है, ऐसा अखवारवालों ने छापा है । मालिनी - आग लगे तेरे श्रमल के सिर में ।
फागुन — यह भी क्या झूठ है, बिना आग के धुवाँ कहाँ ? एक दम और खींच लेने दो सरकार ! कुछ कसर रह गई है।
मालिनी - मैं हर्गिज़ तुझे अब न पीने दूँगी । [ फागुन के
हाथ से चिलम छीन हुक्के पर रख देती है ।] देख, तूने कितनी मर्तबा तम्बाकू न पीने की कसमें खाई हैं ।
फागुन — अजी सरकार ! यह कभी का छूट गया होता अगर एक पेंच न होता 1 मालिनी - वह कौन - सा ?
फागुन — यही कि अगर सेठ जी के लिए दिन में दस दफ़ न भरना पड़ता तो । मेरी चिलम के गुरुघण्टाल वही हैं । वे अगर कल को इसे छोड़ दें तो सेवक इसी घड़ी से इसकी परछाई भी न लांघेगा ।
मालिनी - यह तम्बाकू का रोग ठीक नहीं जान पड़ता ।
/
मकान का हर कोना इसके कोयले कूड़े से ग्राबाद है । पारसाल मेरा लिहाफ़ और इस साल मेरी नई साड़ी इसी की बदौलत जले । वे इसी को मुँह लगाये रहने से वक्त पर भोजन नहीं करते । तू इसी की टोह में काम छोड़-छोड़कर चल देता है । मैं अपने घर से इसकी जड़ खोदकर रहूँगी । फागुन- बस खोद चुकीं ! लम्बोदर जी के हाथ और पैर की नसों तक यह धुवाँ पहुँच गया है। अब कुछ नहीं हो सकता देवी जी ! इसलिए यह सेवक भी आपके चरणों में विनती करता है कि इसे एक ही दम और खींच लेने दीजिए ।
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३२८
सरस्वती
[भाग ३८
मालिनी-चल चाण्डाल ! जा निकल काम पर ।
लम्बोदर-अरे बिलकुल आँखों-देखा। वह ख़न भी फागुन-[निराश होकर क्रोध जताता है।-अच्छी बात किसी और का नहीं, इसी बेचारे लम्बोदर का।
है। खूटी पर से सेट जी की धोती और अँगौछा फागुन-हैं ! आपका ही खून ! चकित हो चाय का उतारकर ले जाता है।
__ गिलास भूमि पर रख लम्बोदर की ओर बढ़ता है।] मालिनी--में नहीं जानती यह बदबूदार धुवाँ इन लोगों लम्बोदर-अरे पेट में। पेट को दबाता है।
को इतना प्यारा क्यों हो गया ? [कुछ याद अाकर] फागुन-हाँ, हाँ, पेट में ही, आपके किसी पुराने कर्जदार चाय उबलने लगो होगी। [जाती है।
ने छुरा तो नहीं भोंक दिया ? [लिहाफ उठाकर उसके [लम्बोदर का बीमार होकर पाना । भूमि पर बैठकर पेट में देखता है। ] घाव ख़तरनाक तो नहीं है हाथ से पेट दबाना ।
सरकार ! लम्बोदर-अरे बाप रे ! सब लाल हो गया ! खून की न लम्बोदर-अरे छुरा-चाल कुछ भी नहीं । घाव भीतर से हो
जाने कितनी नदियाँ बह गई । एक-एक मिनट में गया जान पड़ता है। श्रोह ! मरा! मरा! अब नहीं शरीर से ताक़त निकलती चली जा रही है। बड़ी बच सकता ! मुश्किल से हाथ-पैर धो सका। सिर में चक्कर आता फागुन-अजी सरकार ! धीरज रखिए, अापको कुछ भी है। आखिर इसका कारण है क्या ? गेहूँ के चार नहीं हुया है। रात अधिक सिकी रोटी निगल गये टिक्कड़ और बालू का तीन ताला रस, इसे छोड़कर होंगे, वही अङ्गद के जूते, नहीं पैर की तरह अापके और क्या मैंने रात को खाया ? (खड़ा
पेट में डट गई है। [चाय का गिलास उठाकर] हैं !........ सिर घूमता है। [फिर बैठ जाता है ।। लीजिए, यह गरमागरम चाय सुड़क लीजिए । कर दिया किसी ने-ज़रूर जाद कर दिया ! नहीं बच इससे वह रोटी नरम पड़कर अपने पाप नीचे का सकता। यह पड़ोसियों की अाँख का काँटा लम्बोदर सरक जायगी। अाज के दिन नहीं बच सकता। चारपाई पर लेट लम्बोदर---अरे रोटी-बोटी कुछ भी नहीं अटकी। यहाँ तो जाता है ।] नीम के पेड़-तले के हनुमान जी ! हो!
स शरीर का बह गया। ख़बर लेना महावीर जी महाराज ! तुम्हें असली बन्दर फागुन-फिर वही खून! आपको खनी बवासीर तो नहीं है ? माको घासलेट की टोनों की छत चढ़ाऊँगा। [दर्द लम्बोदर-चुप रह । क्या गंदा नाम लिया ! बवासीर हमारे मालूम कर] उफ़ ! सुई, भाले, बछौं, और भी न जाने पिता जी की सौ पुश्तों में से किसी को भी नहीं हुई। क्या-क्या चुभ रहे हैं !
फागुन-तो क्या हर्ज है ! चाय नुक्सान तो कभी करती [फागुन का क
य लेकर आना ।] लेवर माना।
ही नहीं। इसकी पत्ती-पत्ती में गुन भरे हुए हैं। फागुन-हैं सरकार ! फिर सो गये क्या ?
., ठंडी हुई जा रही है। मज़ों की आधी बटालियन को लम्बोदर-कर दिया, कर दिया अरे बाप रे ! [करवट तो चाय यों ही परास्त कर देती है। लीजिए, पी - बदलता है।]
लीजिए, अभी साबित हो जायगा। [लम्बोदर के मना फागुन-क्या कर दिया ।
करते रहने पर भी उसके अोठों तक चाय का गिलास लम्बोदर-सब कुछ कर दिया। बाकी कुछ भी नहीं रक्खा। बढ़ाता है।] फागुन-क्या हो गया सरकार ! अापकी एकाएक कैसे यह लम्बोदर-हाथ मारकर चाय का गिलास दूर फेंक] उल्लू ! __हालत बदल गई ? शौच जाते वक्त तो भले-चंगे थे। . गधे ! तुझे हो क्या गया ? मैं तो मर रहा हूँ, तुझे लम्बोदर-अरे लाल-लाल खून, खून की नदियाँ, नदियों . हँसी सूझी है। [दर्द से चिल्लाकर] मरा, मरा, श्रो का महासमुद्र !......श्रोह नहीं सहा जाता!
बाप रे ! बड़ा दर्द है ! फागुन-यह खून का महासमुद्र ! कहाँ सरकार ! आप फागुन-[अलग हटकर धीरे-धीरे] मामला संगीन नज़र किसी ख्वाब का तो ज़िक्र नहीं कर रहे है ?
अाता है। सेठ जी की थैली में छेद किये बिना यह
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संख्या ४]
* खूनी लोटा
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. दर्द इस मकान के बाहर जानेवाला नहीं मालूम मालिनी सेठ जी की परिचर्या में संलग्न होती है।
देता। चलूँ , श्रीमती जी से जाकर सब हाल कहूँ । . [चाय का गिलास उठाकर चला जाता है।]
तृतीय दृश्य लम्बोदर नहीं बच सकता । सिर में भी दर्द हो चला है। वही कमरा, उसी दिन सुबह, आधा घण्टे बाद ।
[माथे पर हाथ रखकर] जेठ के दोपहर की तरह लम्बोदर उसी प्रकार बीमार पड़ा है। मालिनी उसका तपने लगा है। [एक हाथ से दूसरे हाथ की नाड़ी माथा दबा रही है। देखकर] नाड़ी बैलगाड़ी की भाँति लुढ़क रही है। लम्बोदर-अोह ! नहीं सहा जाता, अब तो नहीं सहा वन ही को लेकर इस पुतले में करामात है । वही जाता ! कहाँ रह गया रे प्रो फागुन ! अभी तक जब सब-का-सब निकलकर बह गया तब ख़ाक के सिवा . वैद्य जी का लेकर नहीं पाया ?
और रह क्या जायगा ? अोह ! दर्द ! दर्द ! पीड़ा! [फागुन के सिर पर खरल रखकर दवा घोटते हुए पीड़ा ! [छटपटाता है।]
वैद्य जी का प्रवेश।] फागुन मालिनी के साथ आकर उसे सेठ जी की दशा फागुन-श्रा पहुँचा सरकार ! और दवा भी मेरी खोपड़ी दिखाता है ।
पर घुटती हुई चली आ रही है। अब आपके चंगे मालिनी-[चिन्ता के साथ हैं ! तुम्हें यह एकाएक क्या होने में क्या शक है ? हो गया ?
- वैद्य जी-हाँ, इसने कहा कि लम्बोदर जी के पेट में दर्द लम्बोदर-उफ़ दर्द ! दर्द ! हर नस हर नाड़ी में दर्द ! है। मैं फौरन ही ताड़ गया कि वही पुराना वायु का
हर हड्डी हर पसली में दर्द ! बाल-बाल में दर्द, बिन्दे- गोला फिर लुढ़कने लगा होगा। मेरे पास दवा तैयार बिन्दे में दर्द ! [बेचैनी दिखाता है। ]
न थी। समय की बचत के लिए ऐसा किया । दवा मालिनी-इसका सबब ?
भी घुट गई, रास्ता भी कट गया। [फागुन के सिर से लम्बोदर-खन-वन-वन ! लाल--लाल-लाल ! खरल उतार लेता है।
एक-दम लाल सागर मालिनी देवी ! अब नहीं वच लम्बोदर---बड़ी कृपा की महाराज ! लेकिन यह वायु का सकता। हाथ-पैर फेंकता है।]
गोला नहीं है। मालिनी-हे भगवान् ! कुछ समझ में नहीं आता। ये वैद्य जी--अजी, वही वायु का गोला है, दूसरा हो नहीं आज किस तरह बोल रहे हैं ?
. सकता । मैं इसे बहुत दिनों से पहचानता हूँ। खरल फागुन---अजी, इनका मतलब मैं समझाता हूँ । अभी-अभी से दवा निकाल उसकी गोली बनाकर] लीजिए, इस
दिशा जाने से पहले ये दुरुस्त और चौकस थे। वहाँ गोली को गरम पानी के साथ निगल लीजिए। . इन्हें न-जाने कितना खून गिरा कि इनकी यह लम्बोदर [गोली हाथ में लेकर]-इस गोली-अोली से . हालत हो गई। .
कुछ न होगा। तुम्हारे पैर पड़ता हूँ वैद्य जी, मुझे लम्बोदर-अरे ! मेरी जान जाती है और तुम खड़े खड़े बचानो। मुझे बहुत खून गिरा है, यही मेरे पेट के तमाशा देखोगे क्या? ..
दर्द का कारण है। मालिनी-जा फागुन जा, किसी डाक्टर को ला। वैद्य जी-कितनी बार खून गिरा ? लम्बोदर-नहीं, नहीं मुझे डाक्टर नहीं चाहिए । इस गली लम्बोदर-अज़ी, एक ही बार में निम्बूनिचोड़ में पड़े हुए
के नोक पर नगदानन्द-औषधालय में गरलपाणि निम्बू की तरह निचुड़कर रह गया हूँ। इस बार बचा पण्डित खरलघोटक शर्मा जी रहते हैं। वे हमारे सकते हो तो तुम्हें समचा एक वर देता हूँ वैद्य जी! . बार के वक्त से हमारे सुख-दुख के साथी हैं। जा, वैद्य जी-ठीक है, मैं समझ गया। हाँ, ज़रा नाड़ी तो उन्हीं को बुला ला।
दिखाइए । [नाड़ी हाथ में लेकर] बात वही है फागुन–जो आज्ञा । [जाता है।]
सेठ जी ! जड़ में वही वायु का गोला है । ज़रा पेट तो फा.२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
दिखाइए । [ हाथ से पेट को दबाकर ] गोला किधर गया ? [कुछ सोचकर ] ठीक है। एक तरफ़ से पित्त और दूसरी ओर से कफ की नाड़ी के आपस में टकरा जाने के सब बीच में पड़े उस वायु के गोले में पंचर हो गया। उसी के फूटने से तुम्हें यह ख़ून गिरा है। यही दवा काम करेगी, मगर गरम पानी के बदले ठंडा पानी लेना होगा | [फागुन से ] जा पानी ले या । फागुन- अभी लीजिए। [ जाता है. । ] लम्बोदर – वैद्य जी, मुझे तो कोई और दवा देते । प्रोह ! ज्योतिषी जी का श्राना ।]
●
बड़ा दुख है ।
मालिनी - तुम्हारे चरणों पर सिर रखती हूँ वैद्य जी ! मेरी
लाज तुम्हारे ही हाथ है।
'फागुन [जल लाकर वैद्य जी को देता है । ] -- लीजिए । वैद्य जी - जब आपका मुझ पर विश्वास है तब मेरी दवा पर
भी होना चाहिए। नहीं तो काम कैसे चलेगा ? लीजिए, इसे निगलिए। दवा इसी मिनट से अपना बिजली का असर दिखायेगी ।
लम्बोदर - [ गोली निगलता है। दवा कड़वी होने के कारण मुँह बनाता है । ] उबक्क ! बड़ी कड़वी है । वैद्य जी - उपदेश और दवा कड़वी होने पर भी निगलने . के योग्य होते हैं। लो जल्दी से दो घूँट पानी पी लो । [लम्बोदर को पानी पिलाता है ।] ..... क्यों कैसी हालत है ? लम्बोदर
र-- हालत ? क्या बताऊँ ? दर्द और भी बढ़ गया । मरा वैद्य जी, मरा !
वैद्य जी [स्त्रगत ] - मामला गड़बड़ ही नज़र आता है । खिसकना चाहिए । [ प्रकट] अभी धीरज रखिए । आपको बीमारी तो कुछ है नहीं, सिर्फ कमज़ोरी है । यह गोली जो मैंने आपका दी है, इसे मामूली गोली न समझिए। तोप में भर दी जाय तो लङ्का को फूँक दे। सुश्रुत की बनाई चरक नाम की जो मोटी पोथी हमारे यहाँ हाथ की लिखी हुई बँधी रक्खी है, इस गोली की तारीफ़ों के पुल उसमें बँधे हैं । ये चार गोलियाँ और दिये जाता हूँ। पहली दही के पानी, दूसरी छाछ, तोसरी दूध और चौथी घी के साथ घण्टे - arc भर में निगल लेना और मुझे ख़बर देना । एक दूसरे बीमार को देखने जाना है, इसी से जल्दी है ।
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[ भाग ३८
[ मालिनी को गोलियाँ दे खरल बग़ल में दात्र प्रस्थान | ].
लम्बोदर [+]बेचैनी प्रकट कर ] - कुछ न होगा, वैद्य जी की दवा से भी कुछ न होगा। अरे जा जा । किसी डाक्टर को बुला ला । जो कुछ उसकी फीस होगी, दूँगा, दूँगा । जान है तो जहान है ।
फागुन -- लीजिए, अभी लीजिए ।
[फागुन का जाना । पाथी- पत्रा बगल में दबाये
ज्योतिषी जी - जय हो, जीते रहो जजमान । [ कुछ चौंककर ]
हैं! यह क्या ? आपका चेहरा तो साल भर के बीमार का-सा हो गया। क्या हुआ ? कल ही तो ग्राप भलेचंगे मन्दिर में जल चढ़ाने गये थे ।
लम्बोदर - कर्म का फल भोग रहा हूँ ज्योतिषी जी । अरे
मरा रे ! बड़ा कष्ट है !
मालिनी - कुछ पोथी- पत्रा देखिए, ग्रह- कुण्डली तो विचा
रिए महाराज ! हमें कौन-सा सनीचर लग गया ? ज्योतिपी जी - बुरा मानने की बात नहीं है सेठानी जी ! मैंने
पिछली अमावस को जब ग्रहण पड़ा था, सेठ जी से कहा था कि कुछ सोना किसी भले वामन को दान कर दो। ये भला क्यों सुनते ? मैंने इनसे दुबारा नहीं कहा। मुझे तुम्हारे पैसे का लोभ नहीं । [ बैठकर पत्रा उलटता है, पोथी खोलता है, पेंसिल से कुछ लिखता है ।]
लम्बोदर – अरे मरा, मार डाला ! [ छटपटाता है । ] ज्योतिषी जी [अँगुलियों पर गिनकर ] - मीन, मेष, मिथुन, कर्क का सूरज और सेठ जी की धनराशि ; आज तारीख़ आठ सितम्बर, चार दूनी आठ, चार उसके, ठीक है, हासिल लगा एक । इतवार, सोमवार, मङ्गल । इनको सनीचर तो नहीं मङ्गल ज़रूर चिपटा है । लम्बोदर – मरता हूँ ज्योतिषी जी ! बदन का सारा खून बह गया ।
ज्योतिषी जी-ख़ून न बहेगा तो और होगा क्या ? मङ्गल की आप पर वक्र दृष्टि है। उसका रंग लाल है, वह लाल चीज़ ही पसन्द करता है । मालिनी - उसके छूटने का कोई उपाय बताइए महाराज ! ज्योतिषी जी - उसकी पूजा कर उसे प्रसन्न करो। किसी
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संख्या ४]
खूनी लोटा
शुद्ध आचरण के बामन से, शिव जी के मन्दिर में मङ्गल का एक लाख जप करात्री । दच्छिना में मसूर, सोना और गुड़ दो, एक लाल वस्त्र दो ।
नज़दीक है।
लम्बोदर - मैं किस बामन को खोजने जाऊँ १ मालिनी - शिव जी का मन्दिर तो आपके ही घर के हकीम जी - सेंधा ! प्रोफ़ ! वह तो और भी ज्यादा खतरनाक है ! सुनिए, जब आपने बोरी खिसकाई तब सारा वज़न, नसों के ज़रिए आपके दिल पर पड़ा, जहाँ पर कोई खून की नाली टूट गई ! इस बीमारी का नाम फ़िरोकुल मिग़ोर है। सिकंदर जब ईरान को फ़तह कर हिन्दुस्तान में श्राया तब उसे भी रास्ते में यहीं श्रीमारी हो गई थी । वह जिनकी पुड़िया सूत्रकर अच्छा हो गया था, उन्हीं की बौलाद होने का इस नाचीज़ को भी फल है ।
ज्योतिषी जी पर मुझे फुर्सत ही कहाँ है १ लाट साहब की जन्म कुण्डली आई है। उनके लिए शिकार को जाने का मुहूर्त ढूंढ़ना है। मैं तो तुम्हारी दूकान बन्द देखकर मारे फ़िक्र के इधर चला आया । मालिनी- हमारी लाज तुम्हारे हाथ है महाराज ! हम पर दया करो |
लम्बोदर – जो कहोगे वही दच्छिना दूँगा । इस मङ्गल को मेरे घर से निकाल दो महाराज ! ज्योतिषी जी-अच्छी बात है। मैं किसी को भेज दूँगा । [पोथी - पत्रा समेटता है ।]
लम्बोदर -- जिला लो हकीम साहब, वही पुड़िया मुझे भी दे दो ।
मालिनी नहीं, आपका ही जाना पड़ेगा । ज्योती जी - अच्छी बात है। तत्र पहले जाकर इसी का इंतज़ाम करता हूँ ।
हकीम जी-जी पुड़िया क्या है, बिलकुल अक्सीर है । मरे को जिला ले, आपके तो अभी सभी लामात सही और दुरुस्त हैं 1
लम्बोदर - जब तक जियूंगा, आपका ऋणी रहूँगा । हकीम जी नुस्ख़ा ख़ास लुकमान हकीम का था। एक
[ ज्योतिपी जी का उठकर जाना, फागुन का एक हकीम जी को लेकर आना । मालिनी घूँघट काढ़ एक ओर को हो जाती है ।]
फागुन- लीजिए, हकीम जी को ले आया । हकीम जी क्यों जनाब सेठ जी ! आपको हो क्या गया ? पेट में दर्द है ? खून गिरा ?
लम्बोदर - हाँ साहब मरता हूँ, बचा लो ।
हकीम जी - ज़रा नब्ज़ तो दिखाइए । [ नब्ज़ देखता है ।] हरत तो बहुत है नहीं । जीभ तो बाहर निकालो । [लम्बोदर जीभ बाहर निकालता है ।] हूँ ! खाने को कोई सख्त, क़ाबिज़ चीज़ तो नहीं खा ली थी ? लम्बोदर - नहीं साहब
हकीम जी — दूकान में कोई भारी बोझ तो नहीं उठाया था ? लम्बोदर - बोझ ? [कुछ याद कर ] हाँ, उठाया था। वह तो धंधा ही ठहरा। कभी नौकर पास रहता है, कभी नहीं ।
हकीम जी - बोझ किस चीज़ का था ? लम्बोदर - नमक की बोरी खिसकाई थी ।
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३३१
हकीम जी - नमक की बोरी ? बस, बस, मैं समझ गया ।, रुई की बोरी होती तो आप हर्गिज़ श्रीमार न पड़तें सेठ जी | नमक कौन-सा था ? संधा या समुद्री १ लम्बोदर - सेंधा |
मर्तबा ग़लत से वह उन्हीं की जेब में रह गया और लबादा धोत्री के यहाँ चला गया । धोत्री उसे पढ़ाने को मेरे बुजुर्गों में से किसी के पास लाया और उन्होंने उसे याद कर लिख लिया । वही म मेरे पास है । आप मेरे घर चलें तो मैं आपको दिखा सकता हूँ । लम्बोदर - मगर इस समय मुझे मरने की भी ताकत नहीं है । पुड़िया निकालिए ।
हकीम जी - लो ये चार पुड़ियाँ हैं । दो-दो घण्टे में एक-एक
फाँक लेना । एक अभी लो । [ पुड़ियाँ देता है । लम्बोदर एक उसी समय फॉक लेता हैं ।] एक और मरीज़ को देखने जाना है। कुछ देर में फिर आऊँगा ।. [जाना ]
मालिनी [घूंघट दूरकर लम्बोदर के निकट या ] क्यों तबीयत कैसी है ? दवा ने कुछ असर दिखाया ? लम्बोदर - कुछ भी नहीं । [ पीड़ा व्यक्त करता है ।] मालिनी - घण्टे भर में दूसरी बुड़िया खाने पर शायद कुछ
असर हो ।
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३:२
सरस्वती
लम्बोदर - घण्टे भर में मेरी जान निकल जायगी । [फागुन से] तुझसे तो डाक्टर को बुला लाने को कहा था ! फागुन- बुलाया हूँ, आते ही होंगे। [नेपथ्य में देख कर] वे पहुँचे ।
[ दवाइयों का बेग हाथ में लिये डाक्टर का आना । मालिनी फिर घूँघट काढ़ एक कोने की ओर मुँह कर लेती है ।]
डाक्टर – वेल सेठ ! क्या बाट है ? बीमार हो गिया ? [ थर्मामीटर निकालकर उसे छटकाता है । ] लम्बोदर - हाँ हुजूर ! गदिश में पड़ा हूँ । डॉक्टर -- हम अभी हमारा गडिश को भगा डेगा । मुँह खोलो। [लम्बोदर मुँह खोलता है, डाक्टर मुँह में थर्मामीटर डालता है और घड़ी देखता है । ] लो यह थर्मामीटर है, आधे मिनट तक इसे मुँह में डालकर चुप पड़े रहो । [घड़ी देखकर थर्मामीटर निकाल उसका निरीक्षण करता है ] है, थोड़ा-सा बुखार भी है । लम्बोदर - बुख़ार भी होगा। पर मेरा तो सब का सब ख़न बह गया। उसी का पेट में दर्द है ।
1
डॉक्टर-पेट में दर्द न होगा तो क्या हाँड़ी में होने सकता है । उसे भरता ही जाता है । कुछ हाथ-पैर भी हिलाता है या नहीं ? मील- दो मील रोज़ घूमने जाता तो कभी बीमार ही नेई पड़ता । [स्टीथियोस्कोप पेट में लगाकर] तुम्हारे पेट में फोड़ा हो गया है । वह फूट गिया । खून बह गिया, यह श्राच्छा ही हुआ है। मगर फिर भी आपरेशन दरकार है ।
लम्बोदर - श्रपरेशन !... क्या पेट फाड़ोगे ? 'डॉक्टर - हाँ, बिला शक ! तुम्हारे पेट में कौंडिसायलस
हो गया है, बड़ी ख़तरनाक बीमारी है। इसमें ज़रूर पेट चीरा जायगा, नहीं तो वह ज़हरीला खुन तुम्हारे सिस्टम में मिलकर चौबीस घण्टे के भीतर तुम्हें मार डालेगा, सेठ जी !
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[ भाग ३८
काटने के बराबर इतना भी दर्द मालूम नेई होगा । [ शीशी निकालता है । ]
लम्बोदर - मगर आपने ध्यान ही नहीं दिया । मेरी तबीयत बहुत सँभल गई है । डाक्टर—–सँभल गई है तो क्या हुआ ? तुम बहुत कमज़ोर है । एक ताकत देनेवाला इंजेक्शन तो देना ही पड़ेगा ।
लम्बोदर - श्रापकी मर्जी है तो दे दीजिए, जंक्शन दे दीजिए । लेकिन मेहरबानी कर इस छुरे को जहाँ से निकाला है, वहीं रख दीजिए ।
डाक्टर - ईश्वर चाहेगा तो तुम इंजेक्शन से श्राच्छा हो जायगा । जब नेई होगा तब फिर यह छुरा तरकारी छोलने का थोड़े है । [रा बेग में रख मुई निकालकर इंजेक्शन देता है । ]
लम्बोदर - अरे बाप रे ! मरा, मरा !
डाक्टर - नवरात्रो, कुछ नेई हुआ, नेई मरेगा | लम्बोदर - आपकी कृपा होगी तो नहीं मरूँगा डाक्टर
साहब ! पर इस वक्त मैं अच्छा हो गया हूँ । आप अपने घर को तशरीफ़ ले जायँ। मैं फिर आपको ख़बर भी दूंगा और फ़ीस भी ।
डाक्टर [बेग बन्द करते हुए ] - हाँ, ज़रूर ख़बर देना ।
अच्छा, हम इस वक्त जाता है और किसी वक्त भी आपरेशन करने सकता है। [बेग उठाकर जाना ।] मालिनी [घूँघट खोल लम्बोदर के पास ग्राकर ] - भगवान्
को धन्यवाद है, आपकी तबीयत सँभलने लगी । फागुन- खुश रहें डाक्टर साहब । उनके दर्शन से ही
बीमारी छलाँग मारकर भाग गई ।
लम्बोदर - अरे कहीं नहीं भागी । वह तो और भी चिपक
गई, उसने तो और भी पैर फैला दिये। मरता हूँ, अब सचमुच मरता हूँ | [कराहता है ।] मालिनी - यह क्या सुनाने लगे ? तुमने तो अभी-अभी डाक्टर से कहा था कि तबीयत अच्छी हो गई । लम्बोदर - अरी कह दिया था। उसने भी तो कुरा निकाल लिया था ।
लम्बोदर, फागुन और कोने में मालिनी सब घबराते हैं। डाक्टर बेग से छुरा निकालता है ।] लम्बोदर - अरे बाप रे ! ठहरिए, ठहरिए डाक्टर साहब, मगर मेरी तीत सुधर गई है । अत्र रहने दीजिए । डाक्टर - ओह यू डरने की कोई बात नेई है। क्लोरोफ़ार्म श्रोझा जी - जी सेठ जी ! जय हो ! बीमार पड़ गये ? सुँघार तुमको बेहोश कर दिया जायगा । खटमल के
[ओझा जी का आना |]
कब से
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सख्या ४]
खूनो लोटा
३३३
लम्बोदर-अजी, अभी-अभी यह हालत हो गई। मैं . जाइए । तकलीफ़ तो होगी ही, पर क्या किया जाय ।।
आपके यहाँ आदमी भेजने ही को था। . लम्बोदर [उठकर बैठते हुए] - अरे बाप रे ! । अोझा जी—मैं घर को जा रहा था। रास्ते में सुना, आपकी अोझा जी [लम्बोदर के सिर के चारों तरफ़ उस लोटे को
तबीअत बहुत ख़राब है । उल्टे पैर इधर ही भाग घुमाते हुए] भूत, पिशाच, देव, जिन, प्रेत, परी, अाया हूँ। कहिए, मेरे लिए क्या हुक्म है।
चुडैल, यक्ष, गन्धर्व, [सफ़ाई से लोटे में रंग की मालिनी-सभी वैद्य, हकीम, डाक्टर इनकी दवा करते- पुड़िया डालकर] राक्षस, किन्नर, बैताल । तीन लोक
करते हार गये। अोझा जी, इनके प्राण बचा दो। मन्तर जागें; दुख-दर्द, विकट सङ्कट सब भागे; शत्रु अोझा जी [सेठ जी का निरीक्षण कर]-यह उनके बस का श्रासन काँपे, गुरु महाराज का महावचन । ओं
का रोग ही नहीं है । यह छूत, जादू और भूत इन फिस्स, अों फूः, श्रों फट्ट । [लोटे की परिक्रमा तीनों में से एक है। [फागुन से जा, एक झाड़, तो रोक कर] अब ज़रा इस लोटे के जल की धार ले श्रा। मैं इसे अभी भगा दूँगा।
को देखिए । [ज़मीन पर लोटे से पानी की धार [फागुन झाड़, लेने जाता है।]
गिराता है।] लम्बोदर-मैंने भी यही कहा था कि यह जादू है। बड़ी लम्बोदर-हैं ! इसका रंग लाल क्योंकर हो गया ? [फिर देर में आये अोझा जी!
लेट जाता है। अोझा जी-आपको उसी वक्त मुझे बुला लेना था। अब फागुन–मैं तो बिलकुल साफ़ पानी लाया था। ___ तक तो. श्राप दूकान में तराजू लिये होते।
अोझाजी-आपका सारा दुख-दर्द, आपके ऊपर किया [फागुन का झाड़ लेकर प्रवेश ।]
हुअा तमाम जादू, मेरे मन्तर की ताकत से खिंचकर फागुन-यह लीजिए।
. इसमें श्रा गया, इसी से पानी लाल हो गया । अोझा जी [फागुन के हाथ से झाड़ लेकर सिर से पैर तक मालिनी-नहीं जी, इस लोटे में मैंने रात गेरू भिगोने
सेठ जी को झाड़ते हुए-नमों विघननासकारी सिरी को डाली थी। यह उसे ही ले आया है। महादेव जी के पुत्तर और सेसनाग में पड़े बिसुन जी फागुन-ॐ हूँ ! वह लोटा तो वहाँ रक्खा है। संख बजावें, कमलासन में बिरमा वेद पढ़ावे । आये लम्बोदर-[कुछ याद कर उठ बैठता है ।] कहाँ रक्खा है ? भत भागे, जावें । गुरु जी की सहाई, हनूमान जी की फागुन-गुसलखाने में । [दौड़कर लोटा लेने जाता है।] दुहाई, सूरज-चन्दर की गवाही । श्रों नमः, श्रों फू: अोझा जी--क्यों सेठ जी, अब तबीअत केसी है ? (झाड़ में फूंक मारकर एक कोने में फेंक देता है।] लम्बोदर-लोटा तो देख लेने दीजिए, तबीअत भी ठीक
ओं फूः हाथ में फूकमार कर ताली पीटता है।] हुई जाती है। [बिस्तर से उठकर भूमि पर खड़ा हो क्यों सेठ जी! सच-सच कहना बीस का दस जाता है। हुश्रा न ?
__ [फागुन लोटा लेकर आता है। लम्बोदर-अोझा जी, अभी तो--
फागुन-वह लोटा यह है। अोझा जी-तोला-भर, तिल-भर, बाल-भर । ठहरिए, अभी मालिनी [दुःख के साथ] -मगर इसमें भिगोया गेरू तो
इलाज किये देता हूँ। [फागुन से] जा एक लोटे में सब-का-सब किसी ने गिरा दिया। पानी ला, [फागुन का पानी लेने जाना, अोझा जी लम्बोदर [प्रसन्नता के मारे भूमि पर कूदता है और हाथ का खाँसकर थूकने के बहाने अलग जा भीतरी जेब फैलाकर पूर्ण स्वस्थता प्रकट करता है।] अरी, ठहर । से एक पुड़िया निकालकर स्वगत] यह लाल रंग की जा दुखी न हो, उतना ही सोना तोल दूंगा। पुड़िया है। सफ़ाई से उस लोटे में डालकर नया रंग मालिनी-परमेश्वर को धन्यवाद है: आप अच्छे हो गये. जमाऊँगा। [फागुन का पानी का लोटा लाकर यही क्या मेरा कम सौभाग्य है। देना।] सेठ जी, अब आप ज़रा सीधे होकर बैठ अोझा जी क्यों सेठ जी ? कैसा झाड़ा ? अब लाइए,
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- ३३४
'सरस्वती
[भाग ३८
- . दच्छिना दीजिए । कर दिया न मैंने आपको अच्छा ? ज्योतिषी जी-आप अच्छे हो गये, यह तो मैंने मन्दिर .. है न मेरे लोटे में करामात ?
__ में जप करते समय ही जान लिया था। . लम्बोदर-करामात इस लोटे में. नहीं, इस लोटे में थी लम्बोदर-मरा रे ! चौथी ओर भागता है, उधर से
अोझा जी ! [फागुन के हाथ से लोटा ले लेता है ।] वैद्य जी आते हैं। इसी की बदौलत मैं बीमार हुआ और इसी ने मुझे वैद्य जी-ठीक हो गये सेठ जी! यह मेरी दवा अच्छा कर दिया। [मालिनी से] चल चूल्हे की का ही असर है। अब हमारी पूजा में कोर-कसर लकड़ियाँ सँभाल, खाना तैयार कर । मुझे बड़ी भूख न हो। लगी है।
लम्बोदर-हा! हा! हा! हा! अरे कैसी फीस और कैसी मालिनी अन्दर जाती है । फागुन भी अोझा और दक्षिणा ? कैसा बिल और कैसा मेहनताना ? यह लम्बोदर के हाथ के लोटे लेकर मालिनी का अनुसरण गरीब लम्बोदर कभी बीमार ही नहीं हुअा। वह तो करता है।
बात ऐसी हुई कि रात को मेरी स्त्री ने जिस लोटे में श्रोझा जी-ब्राहाण का पैसा हजम नहीं होगा सेठ जी। फिर गेरू घोल दी थी, सुबह मैं उसे पानी समझकर बीमार पड़ गये तो
शौच को उठा ले गया। वहाँ जब मैंने गेरू को लम्बोदर-जाइए, इस समय जाइए। [एक अोर को ज़मीन पर बिखरा. पाया तब धुंधली रोशनी में मैंने उसे जाना चाहता है, उधर से डाक्टर पाता है।
खन समझा और बीमार पड़ गया। अब जब भेद डॉक्टर–किधर जाइए ? बिना आपरेशन के ही अच्छा
खुला तब मुझे मजबूर होकर अच्छा हो जाना पड़ा। कर दिया, अब किधर जाइए । लो, यह है दवा के फिर भी मेरी नीयत साफ़ है, मैं बेईमान नहीं हूँ । दाम और फीस दोनों का टोटल। [जेब से बिल दूंगा, आप लोगों की मेहनत दूंगा। इस समय मुझे निकालकर उसके सामने रखता है।]
बड़ी ज़ोर की भूख लगी है। आप अपने-अपने घर [लम्बोदर दूसरी ओर भागता है, उधर से हकीम पधारें, मैं अपने नौकर की मार्फत सबके पास हाथ पसारते हुए आता है।]
भिजवा दूंगा। हकीम-चंगे हो गये एक ही पुड़िया में ! लाओ, अब [सबका भेजकर अन्त में खुद भी चला जाता
हमारा मेहनताना दो। लम्बोदर-अरे बाप रे! [तीसरी ओर भागता है। उधर
(पटाक्षेप) से ज्योतिषी जी फूल-पत्ती लिये हुए आते हैं।।]
है।
गीत
लेखिका, श्रीमती तारा मेरी भीगी पलकों पर, किसने ये चित्र बनाये री। भरती नव-जीवन की लाली ।
मधु-ऋतु को ज्वाला में जल जल, देख सजनि! ऊपर नभ पर ये पावस-घन घिर आये री बोल रही है कोयल पलपल ।
शरद-चाँदनी छाई भू पर, वन उपवन कलियों के नव-प्राण आज अकुलाये री! निखिल विश्व में नीरवता भर । .. सावन की सुन्दर हरियाली, अलि! इस आकुल उर में क्यों स्वप्नों के जाल बिछाये री।
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भूले हुए हिन्दू
लेखक, श्रीभाई परमानन्द जी, एम० ए०,
एम० एल० ए०
हिन्दू-संस्कृति की रक्षा के सम्बन्ध में श्रीमान् भाई परमानन्द जी के अपने खास विचार हैं। अपने इस लेख में उन्होंने उन्हें विलक्षण ढंग से व्यक्त किया है। परन्तु इस विचारकोटि का एक दूसरा पहलू भी है। जो महानुभाव उस पहलू से इस प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करना चाहेंगे, हम उनका भी लेख 'सरस्वती' में छापने को तैयार हैं ।
Paneeaanemचन में अपनी विजय पर कांग्रेस बहुत बात भी कि कांग्रेस का आन्दोलन हिन्दुओं को किधर ले
द खुश है । खुश होना भी चाहिए। जा रहा है। नि हिन्दू तो कांग्रेस के नाम पर मुग्ध हिन्दुओं को ज़रूरत है तो इस बात की कि वे ऐतिहाPG मालूम देते हैं । वे कहते हैं, "हम सिक घटनाओं तथा तथ्यों को विचार-पूर्वक देखना सीखें।
कांग्रेस को वोट क्यों न दें जब कि तभी कहीं वे उनसे राजनैतिक शिक्षायें प्राप्त कर सकते
कांग्रेस ने हमारे लिए इतना कुछ हैं। ग्राइए, थोड़ी देर के लिए यह देखें कि कांग्रेस का किया है ?” एक दृष्टि से ये हिन्दूसच्चे हैं । न इन्होंने संसार वर्तमान अान्दोलन कैसे शुरू हुअा, इमकी रफ्तार क्या थी की विभिन्न जातियों के इतिहास का अध्ययन किया मालूम और इससे परिणाम क्या निकले। होता है, न इनको शायद यह मालूम है कि इस देश तीन बाते हैं जो बड़े ज़ोर के साथ लोगों के सामने के अन्दर पहले क्या कुछ हया है। इनका ख़याल है कि रक्खी जाती हैं। पहली यह कि जो जागृति हमें जनइससे पूर्व न इस देश में कभी अत्याचार या ज़न्म साधारण या जनता में दिखाई दे रही है वह सब कांग्रेस के हुया है, न विदेशी हमलों के तूफ़ान आये हैं; न इस कार्य का फल है, दूसरी यह कि कांग्रेसवालों ने हमारे लिए : देश में देशभक्त पैदा हुए और न उन्होंने राष्ट्र को कुरबानियाँ की हैं और तीसरी यह कि वर्तमान विधायक बचाने तथा दासत्व से निकालने के लिए करबानियाँ की। उन्नति कांग्रेस की कुरबानियों का फल है। हम एक-एक अगर ये हिन्द्र अपने पिछले इतिहास को अच्छी तरह जान बात को लेकर उसकी परीक्षा करने का प्रयत्न करते हैं। . लें तो इनको पता लगे कि अाज-कल कुरबानियों की असलि- पहली बात देश में जागृति के सम्बन्ध में है । सन् यत के बजाय शोर बहुत ज्यादा है। बात भी ठीक है। १९१४-१५ में कांग्रेस का एक खास मंतव्य था। इसके जिन लोगों को असलियत परखने की समझ नहीं होती अनुसार जो कोई मनुष्य कांग्रेस का सदस्य होना चाहता । उनको प्रायः शोर ही पसन्द पाता है और इस शोर का उसे गवर्नमेंट के प्रति राजभक्ति की शपथ खानी पड़ती। ही उन पर असर होता है। ऐसी ऐतिहासिक घटनायों के सन् १९०८ से १९१५ तक यह कांग्रेस राजनैतिक दृष्टि से अध्ययन से एक और बड़ा लाभ यह होगा कि लोगों को एक नीम-मुर्दा-सी संस्था थी। ऐसी दशा में देश के अन्दर इस बात का पता लग जायगा कि दासत्व से स्वतन्त्रता जागृति उत्पन्न हुई तो इसका सबसे बड़ा कारण योरप का प्राप्त करने का तरीका कौन-सा है। इसके साथ ही यह महायुद्ध था। इस युद्ध के दौरान में इंग्लैंड की हालत
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सरस्वती
" बड़ी जी की थी। दीन इंग्लैंड को हर तरफ़ से सहानुभूति और सहायता की ज़रूरत थी । इनको प्राप्त " करने के लिए इंग्लैंड यह कहता था कि वह कमज़ोर और कष्टपीड़ित जातियों के बचाव एवं सहायता के लिए जर्मनी के मुकाबले पर खड़ा हुआ है ताकि हर छोटा-बड़ा राष्ट्र अपना स्वतंत्र जीवन कायम रख सके । तब हिन्दुस्तान में लोग पूछते थे कि अगर इंग्लेंड हर छोटी जाति की स्वतंत्रता के लिए अपने ऊपर इतना ख़तरा उठाता है तो वह भारत को क्यों गुलामी में रक्खे हुए है ? इसके साथ ही इंग्लैंड को भारत की फ़ौजें अपने डिफेंस या बचाव के लिए योरप के युद्ध क्षेत्र में ले जानी पड़ीं। इन भारतीय सैनिकों ने वहाँ पर ऐसी कुरबानी और बहादुरी दिखलाई . कि फ्रांस और इंग्लैंड के जनसाधारण पर इन बातों का बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। इस जनमत (पब्लिक उपीनियन) के सामने झुककर ब्रिटिश गवर्नमेंट को सोचने की ज़रूरत महसूस हुई कि भविष्य में भारत के प्रति उसकी क्या नीति हो । इस परिवर्तित दृष्टिकोण का परिणाम वह घोषणा हुई जो महायुद्ध की समाप्ति पर उस समय के भारत- मंत्री मिस्टर मांटेगू ने ब्रिटिश पार्लियामेंट के अन्दर की । तब यह इक़रार किया गया कि भारत को 'ब्रिटिश कॉमनवेल्थ' का एक हिस्सा बना दिया जायगा ।
एक तरफ़ इस महायुद्ध का असर योरप पर हुत्रा; दूसरी तरफ़ इसका असर भारतवासियों पर हुआ । इससे पूर्व जब जापान की छोटी-सी जाति या राष्ट्र ने रूस जैसे बड़े साम्राज्य पर विजय प्राप्त की तब भारत में भी देशभक्ति की नई लहर उत्पन्न हो गई। इसका प्रदर्शन बंगाल के स्वदेशी आन्दोलन के रूप में हुआ । इसी प्रकार इसके बाद योरप के महायुद्ध ने भारत में स्वतन्त्रता के लिए देशव्यापी इच्छा पैदा कर दी। यह उस 'होमरूल लीग' की सूरत में ज़ाहिर हुई जो श्रीमती एनी बेसेंट ने कांग्रेस से स्वतंत्र होकर स्थापित की थी। एक घटना इस बात का बड़ा प्रमाण है । श्रीमती एनी बेसेंट के शिष्य सर सुब्रह्मण ऐयर (मदरासहाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ) ने अमेरिका के प्रेसिडेंट को चिट्ठी लिखी कि भारतवासियों को भी स्वतंत्रता दिलाई जाय ।
इस बीच में राजनैतिक जागृति का असर कांग्रेस पर भी हुआ । फलतः उसके नेताओं ने सन् १९१६-१७ की लखनऊ-कांग्रेस के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम मुलाहिदा किया
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[ भाग ३८.
( यह बाद में लखनऊ पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ) । ऐसा करके कांग्रेस ने देश के अंदर दो जातियों के राजनैतिक अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। (यह बहुत ही बड़ी भूल थी ।) बाद में हमारे सामने रौलेट ऐक्ट का क़िस्सा श्राता है। इस क़ानून का विरोध वायसराय की कौंसिल के सदस्यों ने एकमत होकर किया, जिससे देश में गवर्नमेंट की नीति के ख़िलाफ़ एक उग्र भाव भड़क उठा। इन बातों से साफ़ ज़ाहिर है कि जागृति उत्पन्न करनेवाले दूसरे कारण थे : इसकी उत्पत्ति में कांग्रेस का कोई हाथ न था । महात्मा गांधी को क्रेडिट मिलेगा तो इस बात का कि उन्होंने इस जागृति को अपना आंदोलन चलाने में इस्तेमाल कर लिया और कांग्रेस का नाम बढ़ाया। उनका सत्याग्रहश्रांदोलन भारत में राजनैतिक जागृति का परिणाम था, न कि उसका कारण ।
।
दूसरा ख़याल है कांग्रेस की कुरबानियों का । इस बारे में मैं यह कह दूँ कि इस प्रकार के त्याग का लाभ तभी हो सकता है जब सत्य मार्ग पर चलकर ठीक उद्देश (राईट काज़ ) के लिए कुरबानी की जाय। अगर रास्ता ग़लत तो उसके लिए जितनी ज्यादा कुरबानी की जाती है उससे उतना ही ज्यादा नुकसान होता है। ऐसी दशा में वह सारा त्याग स्वाभाविकतया निष्फल जाता संसार में कई बड़े साम्राज्य छोटी-सी कमज़ोरी के कारण नष्ट हो गये। इसी प्रकार अगर किसी आंदोलन में मौलिक कमज़ोरी पाई जाती है तो उसका असफल होना स्वाभाविक और साधारण बात है। एक उदाहरण ले लीजिए। यह ख़याल कर लिया गया कि अगर हिन्दूमुस्लिम एकता हो जायगी तो स्वतंत्रता मिल जायगी । बस, इसके लिए हर प्रकार की कुरबानी की जाने लगी । महात्मा गांधी ने तो मुसलमानों को कांग्रेस के साथ मिलाने के लिए कोरे चेक तक देने शुरू किये और कट्टर संप्रदायवादी मुसलमानों की तरफ़ से जो भी माँगें पेश की गई उन्हें महात्मा गांधी ने हिन्दुत्रों का प्रतिनिधि बनकर इसलिए मंज़ूर कर लिया कि वे हिन्दुओं को बड़ा भाई ख़याल करते थे और मुसलमानों को छोटा भाई | इसके अंदर काम करनेवाली ऐतिहासिक भूल की तरफ कोई ध्यान न दिया गया। भूल यह थी कि जब कांग्रेस ने ( जिसके पास अपने कोई इख़्तियारात नहीं हैं) मुसलमानों
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संख्या ४]
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भूले हुए हिन्दू
को सौदाबाज़ी के लिए तैयार किया तब ब्रिटिश गवर्नमेंट मिटाना चाहते हैं उनको यह बात किसी तरह अपील नहीं ने (जिसके पास इस समय सभी इख्तियारात हैं) कर सकती। मुसलमानों को कांग्रेस से हटाकर अपनी तरफ़ करने के तीसरा ख़याल यह है कि वर्तमान विधायक परिवर्तन लिए इस नीलामी में ज़रा आगे बढ़कर बोली देनी शुरू या उन्नति कांग्रेस की कुरबानियों का नतीजा है। इस बात को । अाम मुसलमानों में देशभक्ति नहीं है । वे हर बात में का ज़रा विश्लेषण कीजिए । कांग्रेस के नेताओं के कथनाअपने संप्रदाय के स्वार्थ को ही देखते हैं। फलतः जब नुसार अगर नया विधान पहले से बुरा है तो उस हालत गवर्नमेंट की तरफ़ से ज़्यादा कीमत मिली तब महात्मा में कांग्रेस अपनी कुरबानियों पर कोई गर्व नहीं कर सकती। गांधी और कांग्रेस के सूखे वादों और कोरे चेकों की और, अगर यह विधान पहले से अच्छा है तो जैसा कि मुसलमानों ने कोई परवा न की (वे जानते थे कि कांग्रेस ऊपर कहा गया है. इसके लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट ज़िम्मेदार के इख्तियारात के बंक में एक पाई भी नहीं है) और है, क्योंकि ब्रिटिश गवर्नमेंट महायुद्ध की समाप्ति पर गवर्नमेंट के साथ खुले आम जा मिले। परिणाम वही पार्लिमेंट में की गई घोषणा के अनुसार भारत में एक हा जो इस मार्ग पर चलने से हो सकता था। महात्मा डेमोक्रेटिक या प्रजासत्तात्मक विधान प्रचलित करने के गांधी और कांग्रेस की हिन्दू-मुस्लिम एकता की 'थियरी' लिए बाध्य थी। यही कारण था कि राजनैतिक सुधार या कल्पना ले-दे कर थियरी ही रही। इसके लिए हिंदुओं का पहला भाग गवर्नमेंट ने खुद दिया। “एक वर्ष के की तरफ़ से की गई कुरबानियाँ न सिर्फ व्यर्थ गई, बल्कि अन्दर स्वराज्य" का आन्दोलन सर्वथा असफल रहा। इनते उलटा उनको एक नुकसान यह हुआ कि मुस्लिम इसके बाद जब साइमन-कमीशन का समय आया तब कांग्रेस बहु-जन संख्यावाले प्रान्तों में मुसलमानों को विधायक ने इसका बहिष्कार किया। फिर भी कमीशन की रिपोर्ट में । (स्टेचुटरी) या अपरिवर्तनीय बहुमत दे दिया गया । इस न सांप्रदायिक निर्णय-जैसी कोई ज़हरीली चीज़ है, न किसी कल्पना की ऐतिहासिक भल को जानते हए मैं एक समय से सम्प्रदाय, उदाहरणार्थ मुसलमानों, के लिए कोई खास यह कहता चला आ रहा हूँ कि हिन्दू-मुस्लिम एकता का रियायत और न अछूतों को हिन्दुओं से पृथक करके एकमात्र तरीका यह है कि पहले हिन्दुओं को संगठित और अलग अधिकारों का लालच दिया गया है। साइमनबलवान् बनाया जाय । हिन्दुओं के संगठित एवं बलवान् रिपोर्ट के बाद यह सब कुछ नये विधान में डाल दिया होने पर अन्य सभी संप्रदाय स्वयमेव हिन्दुओं के साथ गया, क्योंकि कांग्रेस ने अपना अांदोलन ग़लत रास्ते पर एकता करेंगे। इसके अतिरिक्त यह बात कि अगर हिन्दुओं चल कर किया। मैं नहीं कह सकता कि अब पंडित के देश हिदुस्तान में हिन्दुओं की संस्कृति की तरफ कोई जवाहरलाल के नये आंदोलन में हिन्दुओं के लिए क्या ध्यान न दिया जाय तो फिर और किस जगह कौन इस बदा है। लेकिन अगर भूले हुए हिन्दू ज़रा सोगे तो तरफ़ ध्यान देगा? हाँ, जो लोग हिन्दुओं की संस्कृति को उन्हें इसका भी पता लग जायगा।
सरिता
लेखक, श्रीयुत मदनमोहन मिहिर । शिला फोड़कर उमॅग रही हो
भरती हुई उछाल डगामग ___ऐसा क्या उद्वेग हृदय में।
सरित जा रही हो किस तट को।... कल-कल कलित नाद अन्तर का
पङ्किल जग की कलुष-कालिमा मिला रही हो किसकी लय में।
सावित कर ले चलो प्रलय में।.
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यहाँ
और
EARNहा जाता है कि अँगरेज़ी-भाषा का यहाँ
EDITAL. शब्द-भाण्डार बड़ा विशाल है और
हिन्दी का उसकी तुलना में अत्यन्त क्षद्र। यह बात ठीक भी है। परन्तु कुछ बातें ऐसी भी हैं जिनके
सम्बन्ध में हिन्दी का शब्द-भाण्डार अँगरेज़ी से अधिक भरा-पूरा है। इसी तरह की एक बात रिश्तेदारी है। विभिन्न रिश्तों को ज़ाहिर करने के लिए
हिन्दी में तो बहुत काफ़ी शब्द हैं, परन्तु अँगरेज़ी में फ़ादर लेखक, श्री सावित्रीनन्दन (पिता), मदर (माता), सन (पुत्र), डाटर (पुत्री), ब्रदर
(भाई), सिस्टर (बहन), अंकिल (चाचा), ऑन्ट (चाची), नेव्यू (भतीजा), नीस (भतीजी), कज़िन (चचेरा भाई)
आदि एक दर्जन से कुछ ही अधिक इने-गिने ही . शब्द हैं।
इसलिए अँगरेज़ी में एक-एक शब्द से इतने काम लेने पड़ते हैं जितने के लिए हमारी भाषा में पांच-पाँच, छः-छः शब्द हैं। उदाहरणतः हिन्दी में चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, मौसा आदि शब्दों से जिन विभिन्न सम्बन्धों का प्रकटीकरण होता है, उन सबके लिए अँगरेजी में केवल एक ही शब्द है, अंकिल'। इसी प्रकार चाची, ताई, मामी, बुबा, मौसी श्राद सभी के लिए अकेला 'श्रान्ट' शब्द ही काम देता है । और चाचा या ताऊ या मामा या बुना या मौसी किसी के भी बच्चे हों, चाहे लड़के हों चाहे लड़कियाँ. सबके लिए एक ही शब्द है 'कज़िन।
मम्बन्ध-सूचक शब्दों की कमी के कारण अँगरेजी में 'इनलॉ' से बड़ा काम लेना पड़ता है। पुत्र 'सन' है तो पुत्र-तुल्य जामाता ‘सन इन-लॉ' हो गया। पिता "फादर' है तो पितृ-तुल्य श्वसुर 'फादर-इन-लॉ' हो गया। और जब जामाता 'सन-इन-लॉ' हे तब पुत्र वधू तो 'डॉटर-इन-लॉ'
हो ही गई। कहना न होगा कि मूल शब्दों की भांति ही श्री सावित्रीनन्दन कौन हैं ? यह 'इन-लॉ' की सहायता से बननेवाले शब्दों को भी अनेका'सरस्वती' के पाठक शायद न जानते
नेक अथों का भार वहन करना पड़ता है। हों। आप 'भारत' के सम्पादक पंडित
_ 'ब्रदर-इन-ला' का ही लीजिए । हमारी भाषा में जिनको केशवदेव शर्मा हैं और अपने सुन्दर
साला या बहनाई या साढ या देवर या जेट कुछ भी कहेंगे साहित्यिक लेख प्रायः इसी नाम ।
उन सबके लिए अँगरेज़ी में यही एक शब्द है। जो शब्द से लिखते हैं।
साले के लिए है वही बहनोई के लिए, यह बात हम
हिन्दुत्रों को कुछ विचित्र-सी मालूम हो सकती है, परन्तु RARREARRIERRESSERTRENERATEVEREIN है ऐसी ही बात । साले और बहनोई के सम्बन्ध को लेकर
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SARAPADOS
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संख्या ४]
यहाँ और वहाँ
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होनेवाले हँसी-मज़ाक ने हम लोगों के, विशेष कर हमारे हिन्दी में 'विमाता' शब्द है, परन्तु 'स्टेप-फादर' के लिए, ग्रामीणों के, जीवन में जिस सरसता का संचार किया है, कम से कम अभी तक तो, कोई शब्द नहीं है । और उसे वे लोग क्या समझेगे जिनकी भाषा में दोनों के लिए होता भी कैसे ? हमारी संस्कृति में स्टेप-फादर के लिए एक ही शब्द है ?
स्थान ही कहाँ है? निस्सन्देह देवर और जेठ दोनों ही पति के भाई होते हैं, परन्तु अब समय बदल रहा है। अन्यान्य बातों के परन्तु हिन्दू स्त्रियों के हृदय में इन दो शब्दों से जिन भावों साथ हमारी सामाजिक प्रथात्रों में भी सुधार हो रहा है। का उदय होता है वे कितने भिन्न हैं ! एक का सम्बन्ध विधवा-विवाह का श्रीगणेश तो हो ही गया है, तलाक के कितना सरसता-पूर्ण है और दूसरे का कितना सम्मान-पूर्ण! लिए भी आन्दोलन चल पड़ा है। हम कुछ भी सोचे देवर और भाभी के सम्बन्ध का हमारे गाहस्थ्य-जीवन तथा और कुछ भी कहें, भविष्य में तलाक का रिवाज उतना ही ग्राम्य-साहित्य का सरस तथा संगीतमय बनाने में कितना अनिवार्य मालूम होता है, जितना विधवा-विवाह । अन्तर भाग रहा है, क्या इसे वे लोग समझ सकते हैं जिनकी केवल समय और आगे-पीछे का है। वह समय भी श्रीनेभाषा में देवर और जेठ दोनों ही 'ब्रदर-इन-लॉ' हैं ? अभी वाला है जब स्टेप-फ़ादर के समानार्थक कोई महाशय हमारी हाल में एक साहित्य-प्रेमी अँगरेज़ सज्जन (मिस्टर शेरिफ़, भाषा में भी आ डटेंगे। तभी देखा जायगा कि हिन्दीवाले
आई० सी० एस०) का किया हुअा हिन्दी के कुछ ग्राम- 'विमाता' की जोड़ के किस शब्द का निर्माण करते हैं। . गीतों का अंगरेजी रूपान्तर प्रकाशित हुआ है। अनुवाद जैसा सफल है, वैसा ही सुन्दर है, परन्तु एक गीत में मनुष्य कल्पनाशील प्राणी है, इसलिए वह निजींव विद्वान लेखक "देवर" को "जेठ" समझ गये हैं। क्या वस्तुओं में भी सजीव प्राणियों की कल्पना करना चाहता इस प्रकार की भूल किसी ऐसे लेखक से हो सकती है। विज्ञानवेत्ताओं के कथनानुसार चन्द्रमा एक निर्जीव है, जो देवर और जेठ-सम्बन्धी वनात्रों से पर पदार्थ है। परन्तु क्या कवि और भावुक भी इस बात से चित हो ?
सहमत हो सकते हैं ? मुझे एक अँगरेज़ी ,कविता याद ग्रा 'ब्रदर-इन-ला' जैसी ही हालत 'सिस्टर-इन-लॉ' की है। रही है। एक प्रेमी अपनी स्वर्गीया प्रमिका की याद करता भाभी भी सिस्टर-इन लॉ और अनुज-वधू भी सिस्टर-इन- हुअा कह रहा है - लॉ ! यही क्यों, साली और सलहज, देवरानी और जिठानी, "इसी स्थान पर मेरी उसकी वह भुलाई न जा सकनेननँद और भौजाई, सभी तो 'सिस्टर-इन-लॉ' के व्यापक वाली भेंट हुई थी, जब हम दोनों ने एक-दूसरे को अथ के अन्तर्गत आ जाती हैं । हमारी भाषा में इन शब्दों यावज्जीवन प्रेम करने की शपथ स्वाई थी। चन्द्रमा हमारा से उत्पन्न होनेवाली भावनाओं में कितना अन्तर है ! और साक्षी था। विज्ञान उसे निर्जीव पदाथ बताता है। जिसकी यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि हमारी संस्कृति में इन सब अाभा से सारा संसार भालोकित हो रहा है. वह निर्जीव है !" सम्बन्धों की अपनी-अपनी निजी विशेषता है। परन्तु अँग- हमारे पूर्वजों ने तो अाज निर्जीव कहे जानेवाले रेजी में तो इनके सम्बन्ध में 'सबै धान बाईस पँसेरी' वाली पदार्थों में से सैकड़ों-हज़ारों की सजीव प्राणियों के ही नहीं,. बात मालूम होती है।
देवी-देवतानों और राक्षसों के रूप में कल्पना की थी। ____ हाँ, दो एक रिश्ते ऐसे भी हैं जिनके लिए अँगरेज़ी में उनकी इन कल्पनाओं से हमारा प्राचीन साहित्य अओत-प्रोत तो शब्द हैं, परन्तु हिन्दी में नहीं हैं, कम से कम शिष्ट है। जिनको अाज का विज्ञान निर्जीव कहता है वे हमारे हिन्दी में तो नहीं हैं। इस तरह का एक शब्द है 'स्टेप- पूर्वजों की कल्पना की बदौलत हमारे साहित्य में ऐसे फादर'। अगर किसी की माता विधवा हो जाने पर या सजीव हो उठे हैं कि उनके जन्म और मरण, उनके प्रेम पति से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर फिर से किसी के और द्वेष, उनके हर्ष और शोक, उनकी जय और पराजय साथ विवाह कर लेती है तो यह नया व्यक्ति उसका की कवित्वपूर्ण कथायें पढ़ते समय हम वैसे ही तल्लीन हो स्टेप-फादर कहलाता है। स्टेप-मदर' के लिए तो जाते हैं, जैसे इतिहास की वास्तविक घटनाओं का वर्णन
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सरस्वती
पढ़ते समय । और, हमारे ही क्यों, अनेक देशों के प्राचीन साहित्य के सम्बन्ध में भी यह बात उतनी ही ठीक है। I
जब निर्जीव पदार्थ सजीव प्राणियों के रूप में साकार किये जाते हैं तो फिर उन्हें अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार स्त्री या पुरुष का रूप देना भी अनिवार्य हो जाता है । और चूँकि दो व्यक्तियों की कल्पना में अन्तर हो सकता है, इसलिए इस बात के भी अनेकानेक दृष्टान्त मिल सकते हैं कि जिस वस्तु को एक देश के निवासियों
ने पुरुष के रूप में साकार किया है उसी को किसी अन्य देश के निवासियों ने स्त्री का रूप प्रदान कर दिया है ।
हमारे देशवासियों की कल्पना में सूर्य की भाँति ही चन्द्रमा भी पुरुष है, इसलिए हम उसके लिए 'चन्द्रदेव' शब्द का व्यवहार करते हैं । परन्तु योरपवालों ने सूर्य की पुरुष के रूप में तथा चन्द्रमा की स्त्री के रूप में कल्पना की है। सूर्य प्रकाश का राजा है, तो चन्द्रमा रानी है । सूर्य के प्रकाश में जिस प्रकार पुरुषोचित प्रखरता है, प्रचण्डता है, उग्रता है, उसी प्रकार चन्द्रमा के प्रकाश में रमणी-सुलभ कोमलता है, मृदुता है, शीतलता है । फिर चन्द्रमा को देखकर हृदय में अनायास ही सौन्दर्य की एक ऐसी मूर्ति साकार हो उठती है कि हमारे देश के कविगण चन्द्रमा को पुरुष मानते हुए भी सुन्दर रमणी को चन्द्रमुखी कहने का लोभ संवरण नहीं कर सके । तत्र अगर पाश्चात्यों ने चन्द्रमा की रमणी के ही रूप में कल्पना कर ली तो आश्चर्य की क्या बात है ?
शुक्र के तारे का, अपने उज्ज्वल, श्वेत प्रकाश के कारण, तारों में एक विशिष्ट स्थान है। इसी लिए योरप वालों ने शुक्र (वीनस) की एक सुन्दरतम रमणी के रूप में कल्पना की है । हमारे यहाँ शुक्राचाय राक्षसों के नीतिनिपुण गुरु हैं तो पश्चिम में वीनस सुन्दरता की देवी है। योरप के बड़े से बड़े चित्रकारों तथा मूर्तिकारों ने उसके चित्र या उसकी मूर्ति का निर्माण करने में अपनी-अपनी कला की पराकाष्ठा दिखाई है । योरपीय साहित्य में बीनस का वही स्थान है जो हमारे साहित्य में रति का । हाँ, एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि हमारी रति कामदेव की स्त्री है और उनकी वीनस पंचशर (क्यूपिड) की माता ।
जहाँ योरपवालों ने नदी की पिता के रूप में कल्पना की है, वहाँ हमने उसे माता मान कर अधिक भावप्रवणता
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| भाग ३८
का परिचय दिया है। रोमन लोग टाइवर को 'फादर टाइबर' कह कर सम्बोधन करते थे; अँगरेज़ लोग टेम्स को 'फादर टेम्स' कहते हैं । किन्तु इसमें कल्पना की वह सुन्दरता कहाँ है जिसका हम 'गंगा मैया' या 'जमुना मैया' कहकर परिचय देते हैं ? जिस प्रकार माता अपना मृतोपम दुध पिला कर बच्चों का लालन-पालन करती है, उसी प्रकार नदी भी अपने अमृतोपम जल से अपने तट पर बसे हुए देशों को हरा-भरा बनाकर उनके निवासियों का सन्तानवत् पालन करती है। उसके उपकारों का हम 'माता' शब्द के द्वारा जैसा सुन्दर प्रकटीकरण कर सकते हैं, वैसा क्या 'पिता' शब्द द्वारा सम्भव है ?
और फिर नदी की स्त्री रूप में कल्पना करने के फलस्वरूप सरिता और सागर का संगम कैसा कवित्वपूर्ण, कैसा रसपूर्ण हो उठता है ! नदी अपने पर्वतरूपी घर से निकलती है तो कवि के शब्दों में
डूबी नवयौवन के मद में, लगी झाँकने मैं बाहर, उमड़ पड़ी दीवानी मग में, भागी तोड़ फोड़कर घर । कितने वृक्ष उखाड़े मैंने, कितने गांव उजाड़ किये, प्रीतम से मिलने की धुन में कितने बसे बिगाड़ दिये । इसके बाद जब नदी सागर में जाकर मिलती है तब उसकी भी कवियों ने कैसी कैसी सुन्दर कल्पनायें की हैं ? सागर में उठनेवाले ज्वार-भाटा की विरह ज्वर के रूप में कल्पना करके एक कवि ने सरिता और सागर के मिलन का कैसा सुन्दर वर्णन किया हैकिन्तु उसासे जब भरता था, प्रीतम उसका भृतल से, हो उठती थी व्याकुल तब वह रोती थी अन्तस्तल से 1 ज्यों ज्यों चन्द्र- ज्योति बढ़ती थी, त्यों त्यों वह घबराता था, पूर्ण चन्द्र की रात विरहज्वर में उठ उठ टकराता था । देख दूर से उसे पड़ा गम्भीर विकल अवनीतल पर, गिरी गोद में जेसुध होकर प्रीतम की, कोसों चल कर । “मैं गोरी थी, वह काला था, मीठी थी, वह खारा था, किन्तु प्रेम का वह सागर था इसी लिए सबसे प्यारा था ।"
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X
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इस प्रकार जिन वस्तुयों की विभिन्न देशों के निवासियों ने भिन्न-भिन्न रूप में कल्पना की है उनमें एक स्वयं 'देश' भी है । हमारे पूर्वज कह गये हैं-- “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।" और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण
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संख्या ४
यहाँ बार वहाँ
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करते हुए हम भारत को 'भारतमाता' कहते हैं। हमारी धूप-छाँह के रंग की साड़ी उड़ती हुई दिखाई देती है। ही भाँति अँगरेज़ लोग भी अपने देश को 'मदरलैण्ड' और तुम्हारा निष्ठुर तेज मानो जेठ की धूप से तपता हुआ (मातृभूमि) कहते हैं। परन्तु जर्मन लोग इसके विपरीत अाकाश है, जो मरुभूमि के सिंह के समान जीभ निकाले अपने देश को 'फ़ादरलैण्ड' (पितृभूमि) कहते हैं । हा हा करके हॉफ रहा है।
अपने देश की स्त्री के रूप में कल्पना करनेवालों ने उसकी प्रायः 'माता' कह कर ही वन्दना की है। बंकिम बाबू गाँवों में उपद्रव प्रारम्भ हो जाते हैं- तब विमला का पति ने 'वन्दे मातरम्' के अमर शब्दों-द्वारा जिस भावना को प्रकट निखिल उससे अपनी ज़मींदारी के बाहर चले जाने को किया है वह प्रायः सर्वव्यापी ही कही जा सकती है। परन्तु यत्र- कह देता है। तब अपनी प्रेयसी से विदा लेते समय. तत्र कवियों ने उसका प्रेयसी के रूप में भी दर्शन कराया है। सन्दीप फिर कहता है___ अंगरेज़ी में टामस मूर की 'लाला रुख' शीर्षक एक मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम्हारी वन्दना ही प्रसिद्ध और सुन्दर कविता है । उसके एक परिच्छेद का हृदय में लेकर यहाँ से जा रहा हूँ। जब से मैंने तुम्हें शीपक है 'अग्निपूजक' । इसमें उस समय की कथा है जब देखा, मेरा मंत्र बिलकुल बदल गया । अब वन्दे मातरम्' अरब के मुसलमानों ने ईरान पर आक्रमण करके पारसियों नहीं रहा, अब 'वन्दे प्रियाम्', 'वन्दे मोहिनीम है। माता. को तलवार के ज़ोर से मुसलमान बनाया था। पारमियों के . हमारी रक्षा करती है, प्रेयसी हमारा नाश । किन्तु वह एक वीर नवयुवक नेता का अपने विरोधी मुसलमान विनाश कितना मधुर है ! उसी मृत्यु नृत्य के घंघरुत्रों की सेनापति की सुन्दरी कन्या से गुप्त प्रेम हो जाता है। एक झनकार से तुमने मेरा हृदय भर दिया है । इस कोमला, स्थान पर प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है
सुजला, सुफला, मलयजशीतला भारतभमि का रूप तुमने ईश्वर ने हम दोनों को क्यों मिलाया ? या तो उसे अपने भक्त की दृष्टि में एक दम बदल दिया । तुम दयामिलाना ही नहीं था या बीच में यह दीवार खड़ी न करनी मया से रहित हो, तुम विष-पात्र लेकर मेरे सामने आई थी। काश तुम भी ईरान की एक पुत्री होती ! तब हम हो। मैं या तो इसी विष को पीकर मरूँगा या मृत्युञ्जय दोनों का एक ही देश से प्रेम होता, एक ही धर्म में विश्वास हो जाऊँगा। माता का दिन आज नहीं है । प्रिया, प्रिया, होता । अाह ! उस दशा में हम कैसे सुखी होते ! तब मैं प्रिया ! देवता, स्वर्ग, धर्म, सत्य, तुमने सब चीज़े तुच्छ तुम्हें देखकर सोच सकता कि मेरी मातृभूमि ही प्रेमिका कर दी। पृथ्वी के समस्त सम्बन्ध अाज छाया-मात्र हो गये। के रूप में मेरे सम्मुख सजीव उपस्थित है। उसके लिए नियम संयम का समस्त बन्धन अाज छिन्न हो गया। प्रिया, मैं क्या न करने को तेयार हो जाता ?"
प्रिया, प्रिया ! जिस देश में तुम अपने दोनों पाँव जमाये ऊपर के अवतरण में स्वदेश की प्रेयसी के रूप में खड़ी हो उसे छोड़कर मैं सारी पृथ्वी में आग लगाकर उसकी कल्पना की एक झलक-मात्र दिखाई देती है। परन्तु राख के ऊपर ताण्डव नृत्य कर सकता हूँ। मैं तुम्हारी वन्दना रवीन्द्र बाबू ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'घर और बाहर' में करता हूँ। तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में जो निष्ठा है -उसी इस कल्पना की यथेष्ट विस्तार-पूर्वक व्याख्या कर दी है। ने मुझे निष्ठुर बना दिया है । तुम्हारे प्रति मुझे जो भक्ति इतना ही नहीं, स्वदेश की माता तथा प्रेयसीरूपी कल्पनाओं है उसी ने मेरे हृदय में प्रलय की आग भड़का दी है। की सुन्दर तुलना भी कर दी है।
सन्दीप की इन उत्तेजनामयी बातों में कारी कविक्रान्तिकारी देशभक्त सन्दीप अपनी प्रयसी विमला कल्पना ही है या वास्तविकता का भी कुछ अंश है. यह से कहता है - "मैंने अपने समस्त देश में तुम्हारा ही तो वही जान सकते हैं जिन्हें बंगाल के क्रान्तिकारी दल के विराट रूप देखा है । तुम्हारे गले में गंगा-ब्रह्मपुत्र का , भावुक नवयुवकों के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानकारी हो । सतलड़ा हार दिखाई पड़ता है। तुम्हारे श्यामवर्ण नेत्रों जो हो, बंगाल ही नहीं, भारत के इस महाकवि की इन की काजल-लगी पलकें नदी के उस पार की बनरेखा में बातों को सोलह श्राना कोरी कल्पना ही मानने को जी तो दिखाई पड़ती हैं। अधपके धान के खेतों में तुम्हारी नहीं चाहता।
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रूस का क्रान्तिकाल के एक दृश्य
वह 'कल' कभी कभी नहीं आया
लेखक - श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी, एम० ए०
भी-कभी ऊँचे दर्जे की मात्रा बहुत खल जाती हैं। हरियाली पर देर तक नेत्र गड़ाने से नींद आने लगती है। थोड़ा समय हुआ मुझे 'बाम्बे - मेल' से एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी। डिब्बे में बिलकुल
एकाकी था। बातें भी किससे करता ? खिड़की से इधरउधर देखा। दोनों ओर का मीलों लम्बा मैदान - जिसमें दूर पर, बहुत दूर पर, क्षितिज के पास काँपते हुए वृक्षों की धूमिल गोट लगी थी -- नेत्रों का अनुरञ्जन बहुत काल तक न कर सका । रेल की घड़घड़ाहट में वह बंजर भूमि हिल रही थी । न स्थावर सृष्टि, न उस पर टिकनेवाला जंगमजगत् । परित्यक्त सूने बीहड़ फैलाव में आँखें बेरोक-टोक संतरण करने लगीं। उस उजाड़ खंड का फीकी ग्राकृति वाला स्वामी सूखी नीरस चौड़ान से सिर उठाकर रेल की भड़भड़ाहट पर मानो त्योरी बदल रहा था ।
JAU
ध्यान इधर से उचटकर आकाश पर जा पड़ा। रंगबिरंगे बादल घुलमिलकर ग्राकारों की सृष्टि कर रहे थे । दुम कटा हाथी, ऊँट की गर्दनवाले घोड़े, तीन पैरवाली भैंस, ताज पहने हुए मल्का विक्टोरिया, ताड़ के पेड़, पित्रलता हुआ ताजमहल, ग्वालियर की तोप, कालिञ्जर का किला, बहती हुई नमदा, हिलता हुआ नगाधिराज और न जाने कौन-कौन-से रूप बने और बिगड़े । दृष्टि का बोझ इनमें से कोई आकार न सँभाल सका । मस्तिष्क में भी विचार इसी प्रकार साकार और निराकार बनने का प्रयास कर रहे थे। उनमें इतनी घुड़-दौड़ मची थी कि समझ के दर्पण में उनकी रूप रेखा नहीं दिखाई देती थी। वे तार के खंभों की तरह ट निकल जाते ।
मन डिब्बे के भीतर गया । कुछ लिखने का विचार हुआ । एक रूसी घटना स्मरण आई। मैंने उसी को कहानीबद्ध करना श्रारम्भ कर दिया ।
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ज़ार के उत्कर्ष के अंतिम दिन थे । उसका चरम रूप देखने और दिखाने की वस्तु थी । जो विरोध उत्पन्न हो गया था उसकी ध्वनि वातावरण में व्याप्त थी । सरकारी कर्मचारी नाद-संवाहक धाराओं को ही आकाश से मिटा देने का व्यर्थ प्रयास कर रहे थे। ज़ार पाशविक अत्याचार से क्रांति के नाम को भी मिटा देना चाहता था; परन्तु वह भयापन भी था। अपनी प्राण-रक्षा के लिए ज़ार और उसके पदाधिकारी बहुत सशंक रहते थे । ज़ार को छिपाने के लिए एक ही आकार-प्रकार की तीन-चार स्पेशल ट्रेनें एक साथ छूटा करती थी । घोषणा कुछ और होती थी और काम कुछ और होता था । गोलाबारी से बचने के लिए बालू के बोरे काँटेदार तारों के बीच में स्थान-स्थान पर रक्खे रहते थे । सुकुमार स्थलों की रक्षा के लिए शरीर पर लोहे की चादर के ढक्कन रहते थे । इनक़लाबियों के प्रतिदिन के रहस्यमय व्यवहारों के कारण शासकों की साँस से भय निकलता और पैठता था । अपनी पदवन से वे चौंकते थे और अपने ही उच्छवास में उन्हें भूकम्प का धक्का अनुभव होता था । अपनी बड़ी क्षति करके यदि कहीं काल्पनिक सफलता मिल जाती तो भी बड़ा उत्सव मनाया जाता । हड्डियों को चूसनेवाला कुत्ता अपने मुँह से निकले हुए रक्त को भी बड़े स्वाद से पीता है ।
ज़ार और उसका सारा वैभव क्रांति की ज्वाला से बचने के लिए - अनजान में कगार की अंतिम रेखा पर खड़ा था । लड़खड़ाहट के लिए एक झोंके भर की देर थी। सरकार के बहुत-से साधन सोने की घड़ी की भाँति दिखावटी अधिक थे; कार्य-प्रेरणा का कोई विशेष महत्त्व उनमें न था । उसी समय ठेठ राजधानी में एक व्यापारी रहता . था । उसकी जाति का कोई पता न था । कहते हैं कि वह पश्चिम की ओर से श्राकर वहाँ बस गया था । उसे लोग 'ह्वारह्य' कहते थे । अँगरेज़ व्यापारियों ने उसका नाम 'टी' रख छोड़ा था । वह आकार का मोटा और प्रकार
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संख्या ४]
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वह 'कल' कभी नहीं आया
का भद्दा था। इस मोटे व्यापारी का अर्थ और यश थोड़ी मोटे व्यापारी का दफ़र बिलकुल साफ़ और सामयिक श्रायु के पदार्थ थे। वह पढ़ा-लिखा था। पहले एक छोटे था। सब चीज़ दर्पण की भाँति जड़ी हुई थी। परन्तु इस वेतन का कर्मचारी और फिर एक बड़े वेतन का पदाधिकारी बाहरी उज्ज्वलता और दिखावटी ईमानदारी की प्रेरणा में बना। बाद में एक बड़े व्यापारी के एक छोटे काम का बड़ी गन्दगी और बेईमानी थी। दफ्तर को शुद्ध, साफ़ छोटा हिस्सेदार हो गया। इससे बढ़ा तब उसने एक स्वतन्त्र रखने के लिए न जाने कितनी बहियों के पृष्ठ फाड़े जाते व्यापार खोल दिया। जिन सीढ़ियों पर पैर रखकर वह थे, कितनी बार काग़ज़ बदला जाता था और कितने जाली ऊपर चढ़ा उन्हें हमेशा पैर से कुचलना ही उसने अपना पत्र लिखे जाते थे। फ़ाइलें की फ़ाइलें बदल दी जाती कर्तव्य समझा।
थीं। जाली हस्ताक्षरों के स्वीकृत-पत्र और भरपाई की मोटे व्यापारी का जिससे जिससे सम्पर्क हुअा, सब झूठी रसीदें भरी पड़ी थीं। परन्तु इँटी के ये सारे दोष यही कहा करते थे कि रुपये-पैसे के सम्बन्ध में वह साफ़ उसके वाचाल समवितरणवादी नवयुवक ढंके रहते थे। नहीं है। वह यह कहता कि लोग ऐसा सभी व्यापारियों 'जो अान्दोलन के लिए इतना धन दे सकता है वह के लिए कहते हैं । यात्रा करनेवाले के हो वस्त्र गंदे होते बेईमान नहीं हो सकता।' बेचारे यह न जानते थे कि हैं, घर में बैठे रहनेवाले के नहीं। व्यापार-शास्त्र में बेई. उनके नाम से एकत्र किये हुए धन का कितना बड़ा मानी पाप नहीं है। कीचड़ को बचाकर चलनेवाला हो भाग वह अपने पास बचा लेता था। गिरता है। इस मोटे व्यापारी के भारी पेट में दुनिया की ज़ार के प्रतिकूल जो अान्दोलन वेग से चल रहा चालाकी और फ़रेब छिपे थे। जितना ही उसका धन बढ़ा, था, मोटा व्यापारी धन से, गुप्तरूप से, उसको सहायता उतना ही उसका पेट बढ़ा और साथ-साथ पेट के कोष की देता। दूसरे व्यापारियों और धनिकों से नवयुवकों के साथ भी वृद्धि हुई।
अपने गुप्त-सम्बन्ध का रहस्यमय ब्योरा देकर उन्हें ठगता फैटी शिक्षित तो था ही, उसकी बैठक-उठक भी और ठगे हए धन के कुछ भाग को अपना कहकर नवव्यापारियों में कम और शिक्षितों में अधिक थी। व्यापारियों युवकों को फुसला दिया करता। जिन श्रादर्शों की प्रेरणा को एक-दूसरे के लिए बेईमान कहना साधारण बात है, से विप्लव का सूत्रपात हुआ था उनसे इसे गहरी घृणा थी, अतएव मोटे व्यापारी पर किये हुए आरोप का कोई विशेष परन्तु जिन युवकों का इसमें हाथ था उन्हें वह हाथ में महत्त्व और प्रभाव जिस वर्ग में वह मिलता-जुलता था, रखना चाहता था। और वह केवल अपने प्रभाव को न पड़ा । परन्तु जिस पर बीती थी वह समझता था, जो अक्षण्ण रखने के लिए। वह लोकप्रिय बना रहे और समझता था वह जानता भी था तथा जो जानता था वह व्यापार उसका बढ़ता रहे यही उसकी आकांक्षा थी। क्रांति मानता भी था।
की लपेट में बड़े-बड़े धनिक आथे. परन्तु नवयुवकों ने मोटे व्यापारी में एक और विशेषता थी। देश के उसे क्रांतिसेवी कहकर बचा लिया। प्रगतिशील नवयुवकों को वह अपनी ओर खींचे रहता धनिकों की संख्या विरल दाँतों की भाँति अभद्र दिखाई था। उनकी सस्थाओं को कुछ चन्दा दे देता था। किसी देने लगी। क्रांति की पौ अभी-अभी फटी थी। दसरे की किसी को अपने यहाँ भोजनों में बुला लिया करता था। कमाई से ऐंठ कर चलनेवाले कुबेर दूसरे के प्रकाश से कभी-कभी उन्हें अपने मोटर पर सैर करा देता था। सरल आलोकित चन्द्रमा की भाँति तेजहीन थे। समाज के सबसे नवयुवक, भुक्खड़ देश-भक्त, दिवाला निकाले हुए व्यापारी, ऊँचे कहे जानेवाले व्यक्तियों पर आपत्ति पहले आई। निठल्ले ठेकेदार, चापलूस सम्पादक सभी का उसके यहाँ प्रभंजन वृक्ष की सबसे ऊँची पत्ती को पहले झकझोरता है। अड्डा था और सबका वह उपयोग करता था। प्रभावशील फैटी दूसरों को दुर्दशा पर हँसता था। वह ज़ार के प्रति व्यक्तियों के साथ का लाभ व्यापार में उठाता था। बेई- घृणा-प्रचारकों का छिप-छिपकर साथ देता था। परन्तु मानों से बेईमानी के और झूठे काम लेता था। मुखर उसके व्यक्तिगत जीवन में कहीं अधिक जारशाही थी। चापलूसों से अपनी प्रशंसा का ढिंढोरा पिटवाता था। नौकरों को गाली देना और मारना और वेतन बढ़ता देख
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३४४
सरस्वती
[भाग ३८
कर कोई आरोप लगा कर निकाल देना फैटी के स्वामि- दफ्तर में प्रतिदिन नियुक्ति और वियुक्त हुश्रा करती। सेवक-व्यवहार-शास्त्र की प्रस्तावना में लिखा था। सरकारी सेवकों को स्वामी के लिए कोई स्नेह न था, फिर भी क्षेत्रों में और विप्लवकारी मठों में यह संवाद प्रचलित था लोग श्रा ही जाते थे। मित्रों ने भी यह मानना प्रारम्भ कि मोटा व्यापारी धन से और नौकरी से नवयुवकों की किया कि कहीं कोई भारी भ्रम है; फैटी और फ्रास्टी सहायता करता है। परन्तु जिस किसी नवयुवक का स्वामि- रुपये के सम्बन्ध में बेईमान और आन्दोलन के सम्बन्ध में संवक के नातं उसका नाता जुड़ा वह उससे रुष्ट होकर ही कायर और लुक-छिप कर बचनेवाले हैं। जाता था।
समय आया कि ज़मोरिन नामक एक नवयुक ने ____मील की संख्या बतलानेवाले पत्थर किसी यात्री एक प्रतिबन्ध-पत्र के अनुसार फैटी के यहाँ नौकरी की। में साहस और किसी में थकावट उत्पन्न करते हैं; ज़ार के इसने बड़े परिश्रम से काम किया। उसने इसकी प्रशंसा घोर दमन में किसी ने क्रांति की सफलता और किसी ने की और वेतन बढ़ा दिया । दूध-पानी की भाँति दोनों वि.लता देखी। फैटी को इसी असमञ्जस की स्थिति में घुल-मिल गये थे; परन्तु व्यापारी की बेईमानी ने खटाई सुख था। वह क्रांति की प्रेरणा करनेवाले सिद्धान्तों से डालकर दोनों को पृथक कर दिया, मनोमालिन्य बढ़ा। घृणा करता था, परन्तु सरकारपक्ष ग्रहण करके लोकप्रियता ज़मारिन साम्यवादियों का प्रमुख व्यक्ति था। इसे ज़ारको भी नहीं छोड़ना चाहता था।
द्वारा दण्ड भी मिल चुका था-केवल फाँसी से बच मोटे व्यापारी ने फ्रास्टी नाम का एक चाटुकार सेवक गया था। इसे अपनी ईमानदारी और देश-सेवा की रख छोड़ा था। इसे वह अच्छा वेतन देता था। ज़ार-विरोधी ऐंठ थी; उसे अपने धन का इठलाता हुआ मद था। मोटे अान्दोलन में कभी भाग लेने के कारण लोकप्रिय व्यक्तियों व्यापारी ने आरोप लगा कर ज़मोरिन को निकाल दिया। में इसका स्थान था। इसके द्वारा फैटी अपने का प्रसिद्ध ज़मेरिन बहुत उष्ण, भावुक, स्पन्दनशील, आत्मकिये हुए था । लोकप्रियता के प्राण खींचने के लिए इसे गौरव की रक्षा में सब कुछ खोदेनेवाला व्यक्ति था। वह अपनी स्वास-नली बनाये था । यह रुई की भाँति नरम, इसकी अप्रतिष्ठा तो मोटे व्यापारी ने खूब की, परन्तु इसके गिँजाई की भाँति घिनौना, बन्दर की भाँति स्वामि-भक्त विरोध में आ जाने से मोटे व्यापारी की अपीति और
और गिरगिट की भाँति चट पलट जानेवाला था। जिसके बढ़ी । सूर्य-ग्रहण तो हुआ, परन्तु चन्द्रमा का कालापन सब प्रति यह परिचय दिखाता वह इससे पिण्ड छुड़ाना लोग देखने लगे। इस संघर्ष में भी मोटे व्यापारी ने चाहता। जिस पर यह प्रेम से हाथ रखता उसकी साँस फ्रास्टी का ही सामने रखा। उसी की आड में उसने ऊबने लगती। मोटे व्यापारी को कूट मन्त्रणानों का यह सब कुछ किया। साधन था। उत्तरदायित्व इसका रहता था और उद्देश 'उसने मुझे बेईमान लिखा और स्वयं मेरे साथ इसके स्वामी का पूरा होता था। दोप इस पर मढ़ा जाता बेईमानियाँ की'---यह भावना ज़मोरिन को मारने-मरने के था, लाभ उसका होता था।
लिए तक तैयार किये थी। उसके पास धन है और साधन धीरे-धीरे मोटे व्यापारी के विषय में यह प्रसिद्ध हो है । बड़े शक्तिमान् और प्रभावशाली व्यक्तियों के पास गया कि उसने मैचलिन से धोखा देकर झूठे हस्ताक्षर उठता-बैठता है। सब उसी की ऐसी कहेंगे।'-यह भी करा लिये, अपने विश्वासी सेवक लीना को भ्रम में डाल- ज़मोरिन समझता था। कर उसकी सारी कमाई का भाग हड़प लिया और उसे ज़मारिन ने पहले सोचा कि प्रतिबन्ध के अनुसार धता बताया, इंग्लैंड की किसी कम्पनी से झगड़ा हुआ मोटे व्यापारी के प्रतिकूल ज़ार-सरकार की शरण लें, पर तब उसका सारा फाइल जाली बनाया गया। उदार विचार- वकील का व्यय, अदालत का व्यय और यदि हार गये वाले बड़े व्यक्ति कुछ उदासीन होकर यह कह दिया करते तो प्रतिवादी का व्यय, यह सब मर मिटने की बातें थे कि यह काम फ्रास्टी का है। मोटा व्यापारी भी इसे थीं। ज़मोरिन के पास क्या था ? उसे इतना वेतन भी अस्वीकार नहीं करता था।
कभी नहीं मिला कि वह सुख से कुछ एकत्र कर सकता।
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संख्या ४]
वह 'कल' कभी नह। आया
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मोटा व्यापारी ज़मारिन की इस लाचारी को समझता बर्फ से ढंकी हुई रेती में मैं बर्फ के गेंद बना . था। और फिर यदि मुकद्दमा दायर भी हो गया तो कौन बालकों से खेलने के लिए बहुधा चुपके से घर से निकल ऐसा पदाधिकारी है जो घूस नहीं लेता। इस प्रकार जाया करता था। कई बार ठण्ढक लगी और मैं मरतेभी उसी की विजय थी। ज़मारिन न तो उसके समान मरते बचा। फिर भी अपनी बान नहीं छोड़ता था। पिता घूस देगा और न दे ही सकता है। मोटे व्यापारी जी को जब भी पता लगता तब मुझे बहुत डाँटते। माता ने लोक-पक्ष का सन्तुष्ट रखने के लिए पहले मेल का से कभी-कभी झगड़ा भी हो जाता था कि अकेले लड़के स्वाग भरा और फिर एक व्यंग्यात्मक अपमान के झटके को इतना न डराना चाहिए। पिता जी कहने लगते कि से मल के सूत्र को सहसा तोड़ दिया। किसको पड़ी है यदि इसे डॉटोगी भी नहीं तो यह बिलकुल बेबस हो कि दूसरे के बीच में पड़े। फैटी के टुकड़ों से पलनेवाले जायगा । इसी प्रसग में उन्होंने एक बार एक कहानी ज़मारिन के प्रतिकूल वातावरण बना रहे थे। धन का सुनाई थी, वह थोड़ी बहुत मुझे स्मरण है। साइबेरिया के बबरता-पूर्ण मद न्याय की छाती पर अन्याय का रथ हाँक उत्तरी भाग में एक बड़ा अजगर रहता था। दूर से ही रहा था। सच्चाई का सूर्य अँठाई की धुवाँधार गोलेबाज़ी में यदि कोई यात्री अथवा पशु-पक्षी उधर से निकलता, बिलकुल छपा था।
वह अपनी वेगवती साँस से घसीटकर खा जाता। एक बार, हिचक पाप और पुण्य के युद्ध का आह्वान है । परन्तु हैकटी नामक एक पहुँचा हुअा पादरी उधर से निकला। मोटे व्यापारी की पाप-पुण्य की मेड़ स्पष्ट न थी। फैटी अजगर ने उसे भी घसीटना प्रारंभ किया। हैकटी उस समय भी हिचका नहीं जब उसने सरकारी अफसरों को ने वेग से चिल्लाकर कहा, घबड़ायो नहीं, मैं स्वयं श्रा ज़मो रन के पडयन्त्रकारी मस्तिष्क की व्याख्या की और रहा हूँ । पास पहुँचकर उन्होंने उसे अहिसा का उपदेश उसके वैर और कोप से अपने को बचाने की प्राथना की। दिया कि जब मिट्टी से तुम्हारा पेट भर सकता है तब जीववे दोनों से रुष्ट थे। इस संघर्ष में सम्भव है, कुछ मतलब हिसा करने से क्या लाभ ? अजगर की समझ में कुछ श्रा की बात मिल जाय, इसी ।लए इसके उकसाने में सुख था। गया। एक सप्ताह के बाद हैकटी फिर उधर से निकला।
जामोरिन अकेला होकर अकेला ही घर पर बैठा था। देखता क्या है कि बहुत-से बालक अजगर पर सवारी किये वह अपनी साँसों से बात करता, अपने आँसुत्रों से उसके नथुनों को नाथे मुँह में लकड़ी डाल रहे हैं, पूँछ अपनी गाथा लिखता । शरीर कुढ़ चुका था। उसमें उत्ते- में रस्सी बँधी है, अजगर की बड़ी बुरी दशा है, उसके नेत्रों जना की चिनगारी और मन में विचारों का बात-चक्र। में धूल डाली जा रही है। हैकटी को बड़ी दया आई। वह अपने को सामने रखकर सोचता, मैने कितने षड़यंत्र बच्चों से मुक्त करके वह सोचने लगा कि यह मेरे ही पराकिये। सरकारी पदाधिकारी मेरे नाम से काँपते थे। मेरी मश का परिणाम है। अजगर से कहने लगे--अरे भाई योजनायें हमेशा सफल हुई । आज भी लड़खड़ाती हुई मैंने हिसा करने को मना किया था; यह थोड़े ही कहा था ज़ारशाही पर मेरे धक्के का भी प्रभाव है। में यदि कुछ कि अपनी फुसकार भी छोड़ दो। पिता जी ने कहा कि समझकर कुछ काल के लिए कुछ मित्रों और सम्बन्धियों बच्चों को ठीक रखने के लिए इसी फुसकार की श्रावके हित के लिए शान्त जीवन से परिणत होकर फैटो के श्यकता है । मैं सोचता हूँ कि मूखों और धूर्तों को ठीक यहाँ आया ता अाज यह अपमान मिला। यह वही फैटी रखने के लिए भी इसी फुसकार की आवश्यकता है। है जो मेरी पूजा करता था। पड़यंत्र के लिए मैंने जब जितना मैंने इसे छोड़ दिया इसी लिए फैटी को मेरा अपमान चाहा, धन |लया । उसने प्रसन्नता से अथवा भय से हमेशा करने का साहस हुआ। मेरी झोली भरी थी। वही आज मैं इतना अपदार्थ हूँ। ज़मारिन के इस विचार-विस्तार का सूत्र उलझ गया। फैटी ने मुझे अपने यहाँ बड़े अनुनय और विनय से बुलाया सहसा उसके एक मित्र ने आकर कहा कि मुझसे कहो, मैं था । आज वह मुझे तिरस्कार करने में अानन्द का अनुभव अभी तुम्हारे अपमान का बदला लूँगा। करता है। क्या इसमें भी मेरा ही दोष है ?
ज़मारिन कुढ़कर क्षीण तो हो गया था, परन्तु उसका
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३४६
सरस्वती
[भाग ३८
विचार-बल अशक्त न था। वह फिर सोचने लगा कि फैटी ने दोनों पत्रों का खूब प्रदर्शन किया। ज़मोरिन व्यक्तिगत झगड़े के लिए लोक-रक्षा के लिए संग्रहित को और भी लज्जित होना पड़ा। उसके दल के लोग बल तथा अनुयायियों का प्रयोग उचित नहीं। जन-सुधार मनमानी करने की उससे अाशा मांगते । जमारिन कभी के लिए अपने सारे प्रयोगों को काम में लाना क्षम्य है। मना करता, कभी चुप रह जाता। परन्तु हृदय में बदला परन्तु अपने व्यक्तिगत अपमान के प्रतिशोध में कोई काम लेने की भीषण ज्वाला की कोई भी लपक उसके साथीन कर डालना ठीक नहीं। लोग कहेंगे और ठीक कहेंगे देख पाते । मित्र दाँत पीस कर रह जाते। कि एक डाक और हत्यारे की भाँति मैंने फैटी के साथ तार एक-दूसरे से लड़ क्यों नहीं जाते ? इसके तल व्यवहार किया। इसका पवित्र उत्तर मेरे पास कोई नहीं है। पर मानवयुक्ति है, जिसने खम्भों पर उन्हें सावधानी से
परन्तु इस समय लोक-जीभ सेा रही है। वह मेरे कस दिया है। इससे कम युक्ति-युक्त वह अदृश्य विधान नहीं पक्ष में क्या कहती है ? लोक के कानों तक पहुँचने के जो बादलों के पहाड़ों को अन्तरिक्ष में सँभाले रहता है। लिए ज़ोर का विस्फोट चाहिए । वह अभी नहीं हुआ है। किसी ऐसे ही अदृश्य अवरोध ने उबलते हुए ज़मारिन को मेरे आगामी काय में वह धड़ाका होगा कि सबकी आँखें भी थाँम रखा था। बहुत काल व्यतीत हो गया। सबने मुझे ही घूरने लगेंगी। पर अभी अपमान का जो घुन यह जाना कि ज़मारिन कुचल दिया गया। फैटी का आतङ्क मुझे खाये जाता है उसे कोई अनुभव नहीं करता । बहुत बढ़ा, उसका धन भी बढ़ गया। साथ ही साथ उसके सोच-विचार कर जमोरिन ने फैटी को एक पत्र लिखा- विचारों में भी विपर्यय होगया। वह खुल्लम-खुल्ला ज़ार मोशिये ह्य वो,
का.समर्थन करने लगा। समवितरणवादियों को कुचलनेतुम्हारे और मेरे बीच में मनो-मालिन्य बढता जा वाली मन्त्रणाअों में वह सरकारी परिषदों के गुप्त अधि. रहा है। तुमने मेरा घोर अपमान किया है और मुझे वेशनों तक में पहुँचने लगा। इसके पूर्व-परिचित नवयुवक बेईमान कहा है। मैं इसका प्रतिशोध द्वन्द-युद्ध करके सबसे पहले फाँसे गये। लेना चाहता हूँ। कृपया समय और स्थान निश्चय करके इधर आतङ्क बढ़ा और उधर क्रान्तिकारियों का वेग। सूचना दीजिए। इस आमन्त्रण को स्वीकार न करने से क्रांति एक अोर से दबाई जाती और दूसरी ओर उभर दोनों पक्षों की महती हानि हो जाने की आशंका है। निकलती। इसी बीच में एक पत्र में प्रकाशित हुआ कि
भवदीय वैरी राजधानी से थोड़ी दूर पर किसी ने फैटी की हत्या कर
जमोरिन दी। सरकारी पदाधिकारियों ने हत्यारे को भी निर्माण कर फॅटी ने तुरन्त उत्तर लिख दिया
लिया। ज़मोरिन फांसी के लिए न्यायाधिकरण में खड़ा ज़मोरिन,
किया गया। न्यायाधीश के समक्ष ज़मोरिन ने बयान दिया तुम्हारा अशिष्ट पत्र मिला। तुम जिस बर्बर-प्रथा और कहा कि मैंने फैटो को नहीं मारा है। का आश्रय लेना चाहते हो वह हम सभ्य लोगों को न्यायाधीश ने उसकी बातों के बड़े मनोयोग से सुना। स्वीकार नहीं। तुम्हारे लिए न्यायाधिकरण खुले हैं। यदि वह लेखनी रखकर कुछ सोचने लगा। 'फैसला कल सुनाया तुम्हें शरीर-बल के संघर्ष में ही पशुओं की भाँति अानन्द जायगा'--यह कहकर वह उठ खड़ा हुअा। श्राता हो तो मेरा मोटा चौकीदार ट्रास्की तुम्हारी नसें कहते हैं कि उसी शाम को ज़ार रूस से मिट गया। तोड़ने के लिए प्रस्तुत है। मैंने उसे अाशा दे दी है। मैं ज़मोरिन जेल के बाहर था। वह भाषणों द्वारा जनता में बिलकुल शान्त हूँ। तुम्हारा जो मन भावे करो। तुम्हें उत्तेजना पैदा कर रहा था। सैकड़ों लोग उसके पीछे थे। 'उसका परिणाम भोगना पड़ेगा।
और फिर फैसला सुनाने वाला वह 'कल' कभी नहीं ___ ह्य वो आया।
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गोराँ धाय का अपूर्व त्याग
लेखक, कुँवर चाँदकरण जी, शारदा बी० ए०, एल-एल० बी०, एडवोकेट
जिज के लिए अपूर्व
न राजभक्त महि
लेली गई । तब राठौड़ दुर्गादास व लाओं ने देश
चांपावत सोनंग आदि सरदारों ने
किसी ढंग से बालक राजकुमार अजीतसाहस और
सिंह को बादशाह के पंजे से निकालना अात्म त्याग का
चाहा। उस साहस के कार्य में गोरों - परिचय दिया है उनमें जोधपुर की
धाय ने प्रमुख भाग लिया और बालक गोरों धाय का नाम प्रसिद्ध है। यह
महाराज के प्राणों की रक्षा के लिए वीराङ्गना गढमंडोवर के गहलोत
अपने पुत्र की बलि दे दी। यह घटना गोपीजी के ज्येष्ठ पुत्र धाो मनोहर जी
इस प्रकार हैभलावत की धर्म-पत्नी थी, और सैनिक
बादशाह औरंगजेब ने जोधपुरक्षत्रिय-जाति के टांक-कुल की थी।
राज्य को हड़पने के लिए महाराज मनोहर जी को राज्य में 'मेहतर'* की उपाधि थी, जैसा की मृत्यु के बाद जन्मे हुए राजकुमारों को औरस नहीं
जनरेश महाराज अजीतसिह जी के लिखे हुए ख़ास माना ओर उन पर अपना कब्ज़ा करना चाहा। एक रुक्का से प्रकट होता है। यह गोरों देवी महाराज राजकुमार का तो काबुल से दिल्ली पहुँचने पर स्वर्गजसवंतसिह जी के राजकुमारों की धाय थी।
वास हो गया। उधर रानियों व राठौड़ सरदारों को जब संवत् १७३५ में जोधपुर-नरेश महाराज जसवन्त- बादशाह के रंग-ढंग को देखकर सन्देह हो गया। सिह जी का स्वर्गवास काबुल के माग में जमरूद के थाने इसलिए राठौड़ दुर्गादास प्रादि सरदारों ने राजमें हो गया और बादशाह औरङ्गज़ेब की आज्ञा से उनकी कुमार अजीतसिह को शाही पहरे से जैसे-तैसे निकालकर रानियाँ अादि जब वहाँ से चलकर दिल्ली पहुंची तब वे मारवाड़ की तरफ़ भेजने का उपाय किया । राजकुमार की सब राजकुमार अजीतसिह के सहित दिल्ली में शाही पहरे में धाय गोरों को भंगिन का स्वाँग भराकर उसकी टोकरी में
मेहतर' राजकर्मचारियों का एक बड़ा अोहदा था, अजीतसिह जी को सुलवाकर.ज्यों-त्यों पहरे के बाहर निकाल जिसका अपभ्रश 'मेहता' (मेता) है। ब्राह्मण, महाजन, देना तय हुआ।
जर ग्रादि जातियों के कई पुरुषों के नामों के इस निश्चय के अनुसार संवत् १७३६ की सावन बदी साथ मेहता की उपाधि अब तक है। बादशाही जमाने में २ को धाय ने अपने बालक पुत्र को राजकुमार की जगह बड़े लोगों को 'मेहतर' कहते थे, जैसे मेहत्तर इब्राहीम, सुला दिया और राजकुमार अजीतसिंह को एक टोकरी मेहत्तर इस्माईल वगैरह । फारसी किताबों में तो पैग़म्बरों में लेटाकर और उसके ऊपर कूड़ा-कचरा बिखेर कर मंगिन के नाम के साथ मेहतर की पदवी लगी हुई है । बिलोचि- के भेष में उसे शाही पहरे से बाहर पहुँचा दिया और स्तान की चित्राल-रियासत के मुसलमान राजा आज भी बच्चे को मुकुन्ददास खींची के सुपुर्द कर दिया। मुकन्ददास
चतराल का मेहत्तर' कहलाते हैं । देखो मारवाड़ मदमशु- सपेरे का स्वाँग भरे हुए उस डेरे से कुछ दूर बैठा हुआ मारी रिपोर्ट सन् १८९१ ई०, तीसरा भाग, पृ० ५४८ तथा था। स्वामिभक्त मुकुन्ददास खींची राजकुमार को अपने महामहोपाध्याय रायबहादुर पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द पिटारे में रखकर मौखर बजाता हुआ मारवाड़ की तरफ़ अोझा-कृत 'उदयपुरराज्य का इतिहास' पृष्ठ ९९, सन् चल पड़ा। १९२८ ई०।
इस घटना के दूसरे ही रोज़ बादशाह को सन्देह हुआ
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सरस्वती
गोधा (भंगिन का स्वाँग भरकर ) बालक महाराजा अजीतसिंह राठोड़ को दिल्ली में सँपेरा भेषधारी मुकन्ददास खीची के सुपुर्द कर रही है ।
कि कहीं बालक राजकुमार हाथों से न निकल जाय । इसलिए उसने कोतवाल को श्राज्ञा दी कि मृत राजा की रानियों को राजकुमार के सहित शाही महलों में ले श्राश्रो और यदि कोई सामना करे तो उसे सज़ा दो। इस पर दुर्गादास की संरक्षता में राठौड़ वीर लड़ने को तैयार हो गये और युद्ध न गया। रानियाँ भी युद्ध में जूझकर काम आई । युद्ध के पश्चात् जो नक़ली राजकुमार बादशाह के हाथ लगा उसे जोधपुर के डेरे से गिरकर हुई दासियों को दिखाकर उसने अपनी तसल्ली कर ली और उसे अपनी पुत्री जेबुन्निसा को परवरिश के लिए सौंप दिया । बादशाह ने इस नकली राजकुमार का नाम 'मुहम्मदी राज' रक्खा और यह औरङ्गज़ेब की सेना में रहकर बीजापुर ( दक्खन) में दस वर्ष की आयु में बचा (प्लेग से मर गया । जब तक असली राजकुमार अजीतसिंह जी का विवाह उदयपुर
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[ भाग ३८
के महाराना ने अपने भाई गजसिंह
की कन्या से संवत् १७५३ (सन् १६९६ ई०) में नहीं
कर दिया तब तक
बादशाह का इस
विषय में सन्देह नहीं हुआ ।
दूर
गोरौँ धाय का यह पूर्व त्याग
मारवाड़ के इति
हास में अमर पद
पा गया है और इसी लिए इसका नाम जोधपुर-राज्य
के राष्ट्रीय गीत
जाता
'धना' में गाया है । इस स्वामिभक्ति के कारण ही राज्य की ओर से प्रकाशित 'राष्ट्रीय गीत' पुस्तिका में भी गोरों धाय के नाम का उल्लेख श्रद्धा के साथ किया गया है ।
गोरों धाय की बनवाई बावड़ी (बापी) जोधपुर शहर में पोकरण की हवेली से सटी हुई है, जो अब अपभ्रंशरूप में 'गोरखा' (गोराँ धाय) बावड़ी कहलाती है । वह देवी संवत् १७६१ की ज्येष्ठ वदी ११ गुरुवार को अपने पति धा मनोहर के साथ सती हुई । जोधपुर में इसी की सुन्दर बड़ी छत्री (देवल) दरबार - हाई-स्कूल के पास कचहरी रोड पर स्थित है । छत्री में एक टूटा-सा शिलालेख
* देखो जोधपुर-राज्य की ओर से छपा 'नेशनलएन्थम' पृष्ठ ३ (मुकन जैदेव गोरौं जसधारी धन दुगो राखियो अजमाल || वाह० ||७|| )
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संख्या ४]
- गोरों धाय का अपूर्व त्याग
३९:
लगा हुआ है, जिसमें घोड़े पर सवार एक मूर्ति है और यद्यपि इन्हीं अप्रसिद्ध वीरों की सहायता से रणक्षेत्र में बड़े एक स्त्री पास खड़ी है । घुड़सवार पुरुष के हाथ में माला बड़े वीरकार्य होते हैं । है। लेख इस प्रकार है
राजपूताने के गौरवान्वित इतिहास में ठीक यही दशा (१) “सं० १७६१ साके १६२६ रा जेठन्द ११ विस्तवार गोराँ धाय की हुई है । इसी विचार से ये पंक्तियाँ लिखी (२) घटी १३ धा ||मा। मनोर गोपी भलात गेलोत गई हैं * । (३) री देवगत परायण हुश्रा ने लारे सत कियो। (४) धा || गोरों बाई टांक......र...
. * जोधपुर के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसाद (५) बेटी उपर छतर मिती दु । भादों
जी ने भी अपने लेख 'महाराजा अजीतसिह राठौड़' में जो (६) बद ४ "संवत १७६८ मंगलवार"
१२ अप्रेल १९१२ ई. के 'संसार' समाचार-पत्र के अंक श्राश्चय है कि बड़े बड़े इतिहास-लेखक भी अपने .
४ में छपा था, गोराँ धाय के आत्म-त्याग का उल्लेख बड़े ग्रन्थों में किसी देश के महापुरुषों अथवा वीरों के चरित
सुन्दर शब्दों में किया था। मुंशी जी के उस लेख के तथा लिखते समय गोरों धाय-से छोटे-मोटे वीरों का बिलकुल
पं० गोकुलप्रसाद जी पाठक-कृत राजस्थान के सपूत' पृ० उल्लेख ही नहीं करते । यह वैसी ही बात है जैसे किसी और बाल इंडिया क्षत्रिय महासभा के मख-पत्र क्षत्रियमहायुद्ध की घटनाओं का वर्णन करते समय केवल प्रसिद्ध . मित्र (भाग २७ अंक ६ पृ०९) में प्रकाशित कविराजा सेनानायकों का ही गुणगान किया जाता है। किन्तु मेहरदानजी, पोयट लारियट', जोधपुर, के लेख मारवाड़साधारण सैनिकों के कार्य का नाम तक नहीं लिया जाता, राज्य के राष्ट्रीय गीत के अाधार पर यह नोट लिखा गया
* देखो मिसल नं० ७७ सन् १९३० ई० कोटवाली है। इसके लिए हम इन लेखकों का आभार मानते हैं। जोधपुर रेवेन्यु ब्राच।
-लेखक
अन्वेषण
लेखक, श्रीयुत गयाप्रसाद द्विवेदी 'प्रसाद' प्रणय का मधुर-मधुर इतिहास ।
बसता कण-कण में पराग केरत्नाकर के हृदय-पटल पर,
बन अलियों की प्यास । विमल वीचियों के अंचल पर; लिखा प्रकृति ने शशिकिरणों से
पढकर मंत्र-मुग्ध मलयानिल, करके प्रथम प्रयास।
अखिल जगत से जीभर हिल-मिलानीरव-नभ के अन्तरग में,
मुक्ति-मार्ग पर मुक्त विचरतीउडुगण के उर को उमग में;
लेकर सरस सुवास। 5 मंगों में दिग्वधुओं के
वन, उपवन, गिरि, सरित, सरों से, पाया विशद-विकास।
कूजित पिक गुञ्जित भ्रमरों से रंग-बिरंगे फूल-फलों में,
सुनने आता है वसन्त भीस्रवित अोस-कण मृदुल दलों में;
बन मधु-माधव मास।
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भारत के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण
लेखक, पण्डित अमृतवसन्त
पण्डित अमृतवसन्त पुरातत्त्व के सार्मिक विद्वान् हैं। इस लेख में उन्होंने यह बात प्रमाणित की है कि भारत का सूर्यवंश ही संसार का प्राचीन राजवंश है। यही नहीं, सुमेर, बैबलन तथा मिस्र के
प्राचीनतम समझे जानेवाले राजवश भी उसी भारतीय सूर्यवश से ही निकले हैं।
तो मिस्त. बेबीलोनिया, चीन आदि वहाँ क्यों नहीं प्राप्त हुआ? यह तो माना ही नहीं जा संसार के सारे प्राचीन देशों के सकता कि सिन्धु-उपत्यका में वैदिक आर्य-सभ्यता का प्राचीन और विशेषकर प्रारम्भिक प्रसार ही नहीं हुआ था जब कि ऋग्वेद के अनुसार सिन्धुराजवंशों का भी समय अनिश्चित-सा उपत्यका ही वैदिक अायं-धर्म का मुख्य केन्द्र थी। विद्वानों
है, परन्तु भारत के प्राचीन राजवंशों का कथन है कि आर्यों ने आकर मुहेंजोडेरोवासी द्राविड़ों को के समय की बात तो नितान्त ही अनिश्चित है। उपयुक्त परास्त करके दक्षिण की ओर भगा दिया और स्वयं वहाँ देशों में पुरातत्त्व की सहायता से थोड़ी-बहुत सत्यता के बस गये। तब तो अवश्य ही आर्य-सभ्यता के चित वहाँ साथ वहाँ के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण किया प्राप्त होने चाहिए थे। सत्य बात तो यह है कि न आर्य जा चुका है, परन्तु भारत में तो यहाँ के प्राचीन राजवंशों ही बाहर से भारत में आये और न द्राविड ही कभी उत्तर. के समय की कोई वस्तु ही नहीं उपलब्ध होती, जिसके भारत में बसे । ये सब निराधार भ्रान्तिमूलक कल्पनायें हैं, अाधार पर उनके काल के विषय में कुछ निश्चित रूप से जो पाश्चात्य विद्वानों की कृपा से भारत में फैल गई हैं। कहा जा सके। यही कारण है कि अधिकांश पाश्चात्य वास्तव में सिन्धु-सभ्यता ही वैदिक आर्य-सभ्यता थी और विद्वान् यहाँ के प्राचीन राजवंशों के अस्तित्व को ही नहीं वह इसी देश में सरस्वती-नदी के तट-प्रदेश पर विकसित मानते। प्राचीन नगरों की खुदाई में मौय-काल से दो-एक हुई थी। इस प्रारम्भिक प्रार्य-सभ्यता के चिह्न सिन्ध के सदी पूर्व तक की ही वस्तुएँ प्राप्त हो सकी है, इसी लिए आमरी, विजनोत अादिक अनेक स्थानों में प्राप्त हो चुके हैं पाश्चात्य विद्वान् भारत के वास्तविक इतिहास का प्रारम्भ और वह 'श्रामरी सभ्यता' कहलाती है। सरस्वती के तटईसा से पूर्व सातवीं सदी से मानते हैं । सिन्ध-सभ्यता
* इस समय अमरीका की दो पुरातत्त्व संस्थानों की कुछ वर्ष पूर्व सिन्धु-उपत्यका में जो प्रागैतिहासिक अोर से चान्हूडेरो (ज़िला नवाबशाह, सिन्ध) में जो खुदाई काल की खुदाइयाँ हुई हैं उनकी प्राप्त सामग्री तो भारत हो रही है उसमें सिन्धु-सभ्यता के बाद की दो सभ्यताओं में आर्यों के आगमन के पूर्व की द्राविड़-सभ्यता के के नगर और अन्य पुरातत्त्व-सामग्री प्राप्त हुई है। इनको भग्नावशेष मान ली गई है और उसको सिन्धु-सभ्यता' क्रमशः 'झकार-सभ्यता' तथा 'झाँगर-सभ्यता' के नाम का नाम दे दिया है। यहाँ भी ऐसी कोई वस्तु नहीं उप- दिये गये हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इनको भी द्राविड़लब्ध हुई है जो शिशुनाग-वंश से पूर्व के किसी राज- सभ्यता माना है। मुहें जोडेरो की खुदाई के आधार पर वंश पर प्रकाश डाल सके। आश्चर्य तो यह है कि हड़प्पा उन्होंने कहा है कि इस सिन्धु-सभ्यता के पश्चात् यहाँ
और मुहेंजोडेरो में वहाँ की द्राविड़ मानी जानेवाली सिन्धु- प्राय-सभ्यता पाई। अब जब सिन्धु-सभ्यता के पश्चात् सभ्यता के अवशेषों पर बौद्ध-स्तूप तथा बौद्ध-काल की की दो और सभ्यताओं के चिह्न अभी हाल में मिले तब पुरातत्त्व-सामग्री उपलब्ध हुई है। बौद्ध-काल के पूर्व तथा वे उनको भी द्राविड़ मानने लगे हैं। यह कितने आश्चर्य . सिन्ध्रु-सभ्यता के पश्चात् की आर्य-सभ्यता का कोई चिह्न की बात है !
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संख्या ४]
भारत के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण
प्रदेश पर उत्पन्न होने के कारण मैंने इसको 'सरस्वती- वाली मिस्री-चित्र-लिपि की माता थी। डाक्टर लेंग्डन ने सभ्यता का नाम दिया है। यह सभ्यता भारत से मेसो- सिद्ध किया है कि वर्तमान भारतीय लिपियों को माता पोटामिया तथा मध्य-एशिया तक फैल गई थी। इस बात ब्राह्मी लिपि सिन्धु-लिपि से ही उत्पन्न हुई थी। परन्तु को मैं पुरातत्त्व के प्रमाणों-द्वारा जनवरी १९३७ की सिन्धु-लिपि और ब्राह्मी-लिपि के बीच की कोई मध्यस्थ . 'सरस्वती' में 'सरस्वती-तट की सभ्यता' शीर्षक लेख में लिपि प्राप्त नहीं हुई है। श्री जायसवाल तथा कुछ और सिद्ध कर चुका हूँ।
विद्वानों के मतानुसार 'विक्रमखोल'-लिपि मध्यस्थ लिपि सिन्ध-लिपि
थी। परन्तु मेरी मान्यता के अनुसार 'उलाप-गढ़जब 'सिन्धु-सभ्यता' आर्य-सभ्यता ही थी तब अवश्य लिपि' ही सिन्धु और ब्राह्मी के बीच की ठीक लिपि हो वहाँ भारत के प्राचीन सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं के सकती है। सिन्धु-लिपि को पढ़ने के मार्ग तथा कंजियाँ समय की वस्तुएँ तथा लेख आदि उपलब्ध होने चाहिए। और मुद्राओं में क्या लिखा है, इस विषय पर किसी सचित्र परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि सिन्धु-सभ्यता के विषय लेख-द्वारा प्रकाश डाला जायगा। में जो कुछ सिद्धान्त और वहाँ प्राप्त वस्तुओं का वर्गीकरण संसार के इतिहास के प्राचीन काल-क्रम की किया गया है वह उसको 'द्राविड़-सभ्यता' मानकर किया सिन्धु सभ्यता अधिकतर मेसोपोटामिया की सुमेरगया है। दूसरे सिन्धु-सभ्यता के जितने भी स्थानों का पता सभ्यता से बहत-कुछ मिलती जुलती है। इसी आधार पर लगा है उन सबकी खुदाई नहीं हुई है। केवल दो स्थान पाश्चात्य विद्वानों ने इसका काल ई० पू० ३२५० से २७५० मुहेंजोडेरा तथा हडप्पा ही खोदे गये हैं, और उनकी भी तक का माना है। इस प्रकार सिन्धु-सभ्यता के काल का खुदाई अभी अधूरी है। ,
सुमेर-सभ्यता से गठबन्धन किया गया है। परन्तु इस विषय ___मुहेंजोडेरो तथा हड़प्पा में कुछ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं, में सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि सुमेर-सभ्यता का ही जिन पर किसी अज्ञात चित्र लिपि में कुछ लिखा हुआ है। कोई निश्चित काल-क्रम नहीं है। जितने मुँह उतनी ही, बहुत सम्भव है कि इनमें से कुछ अधिक आर्य-राजारों बातें हैं । काई राजा सर्गन का समय ई० पू० ३७५०, की मुद्रायें हो। परन्तु खेद है कि यह अज्ञात लिपि अब काई ३३५० और काई २७५० बताता है। केवल एक तक नहीं पढ़ी जा सकी। जिन दो-एक विद्वानों-- कर्नल राजा के समय के विषय में १००० वर्षों का मतभेद है। बेडेल तथा फादर हेरास आदि ने इसके विषय में जो मिस्र के राज-वंशों को दशा इससे भी खराब है। कुछ परिणाम निकाला है वह ऊल-जलूल-सा है। जितने मिस्र का सर्व-प्रथम राजा मेनेज़ था। फोन सर्गन्स ने . मह उतनी ही बाते हैं । इन मुद्रात्रों का अध्ययन करते समय ई० पू० ६४६७, अन्जेर ने ५६१३, बाश ने ४४५५. मैं इस निर्णय पर आया हूँ कि इनमें से ताँबे की कुछ बन्सेन ने ३६२३ और पामर ने उसका समय ई० पू० मुद्रात्रों पर राजाओं के नाम अवश्य है। इन पर कुछ २२२४ माना है। इस प्रकार मेनेज़ के समय के विषय ' ऐसे चिह्न अंकित हैं जो हिटाइट-मुद्रात्रों पर राजा के ... नाम के साथ मिलते हैं। मेरे मतानुसार 'सिन्धु-लिपि' * प्रोटो-इलामाइट-सभ्यता के पश्चात् , प्रलय की प्रोटो-इलामाइट-लिपि से उत्पन्न हुई थी। ध्यान रहे कि दुर्घटना के बाद, सुमेर-सभ्यता मेसोपोटामिया में पहुँची प्रोटा-इलामाइट-सभ्यता की जन्ममि भारत ही थी और थी। वास्तव में सुमेर-लोग सु-राष्ट्र (काठियावाड़) के निवासी इसकी वस्तुएँ 'श्रामरी-सभ्यता' की वस्तुओं से मिलती- भारतीय थे, जिनकी सभ्यता सिन्धु-सभ्यता के साथ जुलती है। यहो संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता थी। सम्बन्धत थी। ये लोग समुद्र-मार्ग-द्वारा मेसोपोटामिया में सिन्धु-लिपि से हिटाइट तथा जमदेतनस्त की श्रादिम-सुमे- उपनिवेश-स्थापन के लिए गये और वहाँ सुमेर कहलाये। रियन-चित्र-लपियाँ उत्पन्न हुई। बाद में सुमेरियन और इस विषय पर 'विशाल भारत' के दिसम्बर १९३६ के अक. सिन्धु दोनों लिपियों में से मिस्र को वह आदिम लिपि में 'सुमेर-सभ्यता की जन्मभमि भारत' शीषक लेख में. उत्पन्न हई जो ससार की लिपियों की जननी मानी जाने- विस्तृत विवेचन कर चुका
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सरस्वत
[भाग ३८
में ४२४३ वर्ष का मतभेद है। है कुछ ठिकाना! संसार हुए हैं। दूसरे एक एक वंशावली की कई प्रतिलिपियाँ के प्राचीनतम देश मिस और मेसोपोटामिया के इतिहास भिन्न-भिन्न स्थानों में पाई गई हैं और उन सबमें एक-सा के 'समय' की यह दुर्दशा है ! इस प्रकार सिन्धु-सभ्यता का ही राज्य-काल पाया गया है। .. भी कोई निश्चित काल नहीं हो सकता। वह भी सुमेर- इन वंशावलियों का मिलान करके मैंने इनको सभ्यता के अस्थिर समय के साथ घटेगा और बढेगा। काल-क्रम के सिलसिले में बैठाया है। पहली किश- सुमेर तथा बेबीलोनियन वंशावलियाँ .. वंशावली, दूसरी निप्पुर तथा तीसरी डब्ल्यू-बी० ४४४
अब यह देखना है कि क्या कोई ऐसा साधन नामक वंशावली है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार हैउपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर संसार के पुरातन १-किश-वंशावली-इसमें सर्व-प्रथम सुमेर राजा इतिहास का कोई निश्चित और विश्वसनीय काल-क्रम उक्कुसि है। यह सर्वप्रथम सुमेर-राजवंश इरीदु के बनाया जा सके। हाँ, अवश्य उपलब्ध है बशर्ते कि हम राजवंश का प्रथम राजा था। इससे लेकर ६३वें उसकी ओर ध्यान दें। प्राचीन सुमेर-जाति के नगर राजा उराशतू के राज्य-काल के अन्त में गूती-सेनाओं निप्पुर, उर, किश, एरेक श्रादि की खुदाइयों में सुमेर के अाक्रमण तक के प्रत्येक राजा का ठीक-ठीक राजाओं की क्रमबद्ध वंशावलियाँ प्राप्त हुई हैं। ये मिट्टी राज्य काल दिया हुआ है। यही मेसोपोटामिया में की पकी हुई शिलाओं पर खुदी हुई प्राप्त हुई हैं। इनमें प्राप्त सबसे प्राचीन सुमेर-वंशावली है। इसकी वहाँ के राजाश्रों का राज-काल दिया हुआ है। ये विशेषता यह है कि इसके बाद की वंशावलियों की वंशावलियाँ भिन्न-भिन्न समयों में लिखी गई थी। जिस भाँति इसमें किसी भी राजा का हज़ारों वर्षों वंशावली के लिखते समय पहले के जितने राजाओं का का कल्पित राज्य-काल नहीं लिखा है। इस ठीक-ठीक समय ज्ञात था वह तो दिया गया है, पर उनसे वंशावली के जिन जिन राजाओं ने अपने लेखों में पूर्व के राजाओं का जिनका समय ठीक-ठीक नहीं ज्ञात था, . जितने वर्षों का राज्य-काल लिखा है वही इस हज़ारों वर्ष लिख मारा गया है। परन्तु एक वंशावली में वंशावली में लिखा हुआ पाया जाता है। प्रत्येक प्राचीन राजाओं का जो हज़ारों वर्ष समय दिया गया है राज-वंश के प्रत्येक राजा का राज्य-काल देने के उससे प्राचीन वंशावली में उनका ठीक समय पाया जाता पश्चात् फिर राजवंश के सारे राजाओं ने कुल है। इस प्रकार सुमेर-जाति के प्रथम राजा से लेकर कितने वर्ष राज्य किया, यह संख्या भी दी गई है। अन्तिम राजा तक का ठीक-ठीक राज्य-काल कहीं कहीं वर्षों २-निप्पुर-वंशावली-यह भी प्रथम सुमेर-राजा से ही ही नहीं, महीनों और दिन तक का प्राप्त हो जाता है। शुरू होती है, जो इस वंशावली के अनुसार 'प्रलय' . अब विचार करना चाहिए कि इन बंशावलियों में के पश्चात् शीघ्र ही स्वर्ग से आकर राजा हुअा था। बताये गये राजाश्रों के राज्य-काल को विश्वसनीय कैसे इस वंशावली के प्रारंभिक राज-वंश का विवरण और माना जाय । परन्तु यह प्रश्न भी हल हो जाता है। राज्य-काल किश-वंशावली में लिखा हुश्रा है। उसका खुदाइयों में ऐसे अनेक राजाओं के लेख प्राप्त हुए हैं काल इसमें हज़ारों वर्षों का लिखा हुआ है। परन्तु जिनमें वे अपना राज्य-काल लिखा हुआ छोड़ गये हैं; सौभाग्य से जहाँ किश-वंशावली समाप्त होती है, जैसे सर्गन, मेदी, गुदिया आदि । इनके लेखों का राज्य- वहाँ से आगे के राज-वंशों तथा राजाओं का इसमें काल वंशावलियों के राज्य-काल से मिलता हुआ है। ठीक-ठीक समय दिया हुआ है। वैसे तो किशदूसरी बात इन बंशालियों के विषय में विश्वास करने वंशावली जिस राज-वंश पर समाप्त होती है उससे योग्य यह है कि इनमें लिखा हुआ कोई भी राज-वंश पीछे के एक राज-वंश से ही इस वंशावली का सत्य कल्पित नहीं प्रमाणित किया जा सका। इनमें जिस भाग प्रारंभ हो जाता है और उस राज-वंश के -काल-क्रम से उनका वर्णन है उसी के अनुसार खुदाइयों राजात्रों का राज्य-काल दोनों वंशावलियों में एक में इन राजवंशों की स्मारक वस्तुएँ और लेख अादि प्राप्त समान है। वह है एरेक का दूसरा राज-वंश । इसके
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संख्या ४]
भारत के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण
पश्चात् गूती जाति का प्रवेश होता है और उसके राजाओं से लेकर इसिन- वंश के दसवें राजा 'इन्साखबानी' तक के राजाओं का राज्य-काल इसमें लिखा हुआ पाया जाता है।
३- इल्यू-बी० ४४४ वंशावली - यह सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता वेल्ड और ब्लन्डेल को इसिन की खुदाई में प्राप्त हुई थी। अब यह ब्रिटिश म्यूजियम में रक्खी हुई है और वहाँ की सुमेर सभ्यता-सम्बन्धी वस्तुत्रों में इसका नम्बर ४४४ है। इसलिए इसको वेल्डब्लन्डेल वंशावली नं० ४४४ कहते हैं । डब्लू-बी० ४४४ इसका संक्षिप्त नाम है। यों तो निप्पुर तथा यह वंशावली एक-सी ही है, परन्तु फ़र्क इतना है कि एरेक के दूसरा राज-वश का जहाँ से निप्पुर वंशावली प्रारंभ होती है, तथा उससे आगे के दो राजवंशों का इसमें काल्पनिक समय दिया हुआ है । परन्तु उर-वंश से दोनों वंशावलियाँ मिल जाती हैं और जहाँ निप्पुर - वंशावली समाप्त होती है उससे भी आगे के सुमेर-राजाओं का राज्य काल इसमें पाया जाता है । इस वंशावली का राजा दमिक निनीशू अन्तिम सुमेर-राजा था और उसके राज्य के २३वें वर्ष में बेबीलन के प्रथम राजवंश के पूर्वे राजा अनुवा मुबाइत बात ने अपने राज्य काल के १७वें वर्ष में इसिन पर आक्रमण किया और वहाँ के अन्तिम सुमेर-राजा दमिक निनीशू को पराजित करके इसिन को अपने राज्य में मिला लिया।
४ - बेबोलोनियन वंशावलियाँ - इसिन-वंश के सुमेर राजा निर्बल हो चले थे, फलतः उनकी सेमाइट प्रजा के एक सरदार ने बेबीलन नगर तथा उसके ग्रास-पास के प्रदेश को सुमेर-राजा से छीनकर अपना राज्य स्थापित किया और बेवीलन नगर को अपनी राजधानी बनाया । इस प्रकार बेबीलन के प्रथम राज-वंश का प्रारम्भ हुा । धीरे-धीरे इसकी शक्ति बढ़ चली और इस वंश के पूर्व राजा अनुपामुवाइत ने इसिन- वंश के अन्तिम सुमेरराजा दमिक निनीशू को पराजित करके सारे मेसोपोटामिया पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। इस प्रकार सुमेर-सभ्यता के पश्चात् बेबीलोनियन सभ्यता तथा उसके राजवंश का प्रारम्भ हुआ। इन लोगों ने
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३५३
बेबीलन पर ईरानी आक्रमण तक राज्य किया। इनकी भी पूरी वंशावलियाँ पाई जाती हैं, जिनमें प्रत्येक राजा के राज्य काल का समय दिया हुआ है। बेबीलोनिया के ईरानी राजवंश के पश्चात् ग्रीक आक्रमण तक के राजाओं और उनके राज्य काल का विवरण ईरानी लेखों में पाया जाता है। इस प्रकार मेसोपोटामिया
के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक के राज बशों के काल का सम्बन्ध ग्रीक-काल-क्रम से जुड़ जाता है और प्रत्येक राज-वंश तथा राजा का ठीक-ठीक राज्य-काल ज्ञात हो जाता है।
ज्योतिष शास्त्र द्वारा चैव वन के प्रथम राज-वंश का काल-निरूपण
हिसाब लगाने से ज्ञात होता है कि ई० पू० २११३ में बेबीलन में प्रथम (सेमाइट) राज-वंश का प्रथम राजा 'सुमुत्रात्रुम' सिंहासनारूढ़ हुआ था । इस काल की सत्यता का दूसरे उपाय से भी समर्थन होता है। बेबीलन का प्रथम राजा जब गद्दी पर बैठा उस समय नक्षत्रों की क्या स्थिति थी, इसका विवरण वेबीलोनिया- साहित्य में पाया जाता है । फ़ादर कग्लर तथा शोश आदि ज्योतिषियों ने इन नक्षत्रों की स्थिति पर से गणना करके बताया है कि ई० पू० २११३ में बेचीलन का प्रथम राजा गद्दी पर बैठा था। इस प्रकार दोनों समय मिल जाते हैं और इस घटना काल की सत्यता सिद्ध हो जाती है ।
इस प्रथम बेबीलोनियन राजवंश के पूर्व राजा अनुवा मुधाइत ने जो सुप्रसिद्ध बेबीलोनियन सम्राट सम्मुराबी का पिता था, अपने राज्य काल के १७ वर्ष में अर्थात् ई० पू० २०१४ में इसिन - नगर पर आक्रमण करके वहाँ के सुमेर राजा दमिक निनीशू को उसके राज्य काल के २३ वें वर्ष में पराजित किया था। इस प्रकार मेसोपोटामिया में सुमेर-राज-वंश का सूर्यास्त हुआ और उसका स्थान बेबीलोनियनराज-वंश ने लिया जो सेमाइट था। सुमेर लोग आर्य थे । इसिन, निप्पुर और किश- वंशावली के राजाओं के राज्य काल को हिसाब लगाने से ज्ञात होता है कि प्रथम सुमेर-राजा उक्कुसि के सिहासन पर बैठने के पश्चात् १२७० वे वर्ष के प्रारम्भ में दमिक निनीशू से श्रन्त्रामुबाइत ने राज्य छीना । इससे ज्ञात होता है कि ई० पू०
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सरस्वती
[भाग ३
mD
२१
२०१४ x १२६९ ८.३३८३ में प्रथम सुमेर-राजा उक्कुसि वंशावली के नाम
राज्य-काल राज्यारूढ़ हुआ था। यही पाश्चमी एशिया का सर्वप्रथम अनुसार क्रम राजा तथा सुमेर-राज्य-वंश का आदि-पुरुष था। इसके
उक्कुसि
३३-३३३५३ विषय में निप्पुरवंशावली' में यह लिखा हुअा है
बक्कुस
३३५३ ३३०३ . - "स्वर्ग से राज्य-सत्ता का आगमन हुअा।
निमीरूद
३३०३-३२७७ ____इरीदु में राज्य का प्रारम्भ हुआ।
पुनपुन
३२७७-३२६२ .. इरीदु में (सर्व-प्रथम) उक्कुसि राजा हुअा।"
नक्ष अनेनु ३२६२-३२५२ भूगम के प्रमाण-द्वारा नवीन काल-क्रम की ११- दुइमुश्शुदियाश ३१९४ ३१८८
१७- पाउसा
३११४-३१०५ सत्यता की पुष्टि
१८- इन्नशनद
३१०५-३०९७ , अब देखना चाहिए कि उक्कुसि के ई० पू० ३३८३ १९- मेदी
३०९७-३०६१ में सिंहासनारूढ़ होने का और भी कोई प्रमाण है। यह २०- पुकुडा
३०६१-३०४४ तो स्पष्ट ही है कि उक्कुसि ने इरीदु को अपनी राजधानी
तारशी
३०४४.३०२७ बनाया था, जो उस समय ईरान की खाड़ो पर बन्दरगाह २३- पश्शीपदा ३०१०-२९९३ था। सुमेर-लेखों में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि सुमेर लोग ३६
२७७२-२७५५ ईरान की खाड़ी के मार्ग से मेसोपोटामिया में आये थे और
३७- शगुर, शासकिन
२७३०-२६६७ नाविक होने के ही कारण उन्होंने इरीदु के बन्दरगाह को ३८- मनिश, मंज २६६७-२६५० अपनी राजधानी बनाया था। परन्तु इरीदु से समुद्र के दूर
नरम अशु २६५०-२५९४ हटते जाने के कारण उसके राजधानी बनने के ४३वे वर्ष ४१-- दलीप
२५९४-२५७० में उक्कुसि के पुत्र क्क्कुस ने किश को राजधानी बनाया। ४३
शुदुरकिब
२५४९-२५३४ इससे ज्ञात होता है कि इरीदु के राजधानी बनने के करीब, ५१- सुद्दा
२४२८-२४०४ ४० वर्ष पश्चात् से समुद्र उसके निकट से दूर हटने लगा ५३- उराशूतू
२३८७-२३६५ था, अर्थात् ई० पू० ३३४३ के करीब की यह घटना है।
दधु
२१९७-२१५६ अाज इरीदु से १५१ मील दूर समुद्र पहुँच गया है। ६१- उजम
२१५६-२१४५ सर हेनरी रालिन्सन ने हिसाब लगाया था कि मेसोपोटामिया ६२-- दशाशीउशाश २१४५-२११७ से ३५ वर्ष में एक मील के औसत हिसाब से ईरान की
रामसिन
२११७-२०९६ खाड़ी दक्षिण की अोर खिसकती जा रही है। इससे ज्ञात ६४- लिबी
२०९६-२०९१ होता है कि १५१ x ३५ = ५२८५ वर्ष पूर्व अर्थात् ई० .६५- इवीती
२०९१-२०८३ पू०५२८५-१९३६ - ३३४९ तक इरीदु समुद्र के किनारे
मिस्र की नवीन काल-गणना था। इस घटना के करीब ४० वर्ष पूर्व अर्थात् ई० पू० मेसोपोटामिया की सभ्यता सबसे अधिक प्राचीन ३३४९ x ४० - ३३८९ में इरीदु में उक्कुसि ने राजधानी समझी जाती है। उस देश के राज-वंश की विश्वसनीय स्थापित की थी। यह समय तथा वंशावलियों द्वारा निःश्चत काल-गणना ऊपर दी जा चुकी है। सभ्यता की प्राचीनता किया हुआ इस घटना का काल ई० पू० ३३८३ मिलता के विषय में मिस्र का दूसरा नंबर है। परन्तु हुआ है। इस प्रकार इस घटना काल की सत्यता का वहाँ के प्रथम राजा मेनेज़ का ही समय कितना अनिश्चित समथन हो जाता है। इस काल-क्रम के अनुसार कुछ और विवाद-ग्रस्त है, यह पीछे बतलाया जा चुका है। प्रसिद्ध सुमेर-राजाओं का राज्य-काल इस प्रकार निश्चित मेनेथो नामक ग्रीक लेखक ने मिस्र के यूनानी राजा टालेमी
.. के लिए प्राचीन मिसी साहित्य तथा वंशावलियों के आधार
होता है
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संख्या ४] .
भारत के प्राचीन राजवंशों का काल-निरूपण
पर मिस्र के राजाओं की संपूर्ण वंशावली तैयार की थी। · है कि वह अपने पिता का नाम शारूकिन लिखता है। राजा टालेमी सिकन्दर के साथ भारत पाया था और बाद सुमेर-राजाओं के जो नाम हम अन्यत्र लिख चुके हैं में मिस्र का बादशाह हया था। परन्तु खेद है कि इस उनमें ३७वें राजा शगुर का दूसरा नाम शारूकिन दिया वंशावली में मिस्त्री राजाओं के मूल मिस्री नाम नहीं दिये गया है और उसके पुत्र का नाम 'मनिश'। इससे यह गये, किन्तु ग्रीक-उच्चारण के अनुसार नाम दिये गये हैं। सिद्ध हो जाता है कि सुमेर-राजा शगुर का पुत्र मनिस ही ठीक वैसे ही जैसे कि चन्द्रगुप्त, पाटलिपुत्र, भृगुकच्छ आदि मिस्र का प्रथम राजा मज या मेनेज़ था। इस प्रकार मिस्र भारतीय नामों को ग्रीक-लेखकों ने सेन्डाकोटस, पाली- के इतिहास का प्रारंभ-काल भी ठीक-ठीक मालूम हो जाता बोथा, बारेगाज़ा आदि लिखा है। इसके अतिरिक्त मिली है। मनिश के राज्य-काल का प्रारम्भ ई० पू०२६६७ में राजाओं की दो और वंशावलियाँ पाई जाती हैं। वे हैं हुआ था। परन्तु मनिश मेसोपोटामिया में अप' ट्यूरिन पेपिरस और मिस्र के राजा सेती (प्रथम) की राज्याधिकारी होने के ३५ वर्ष पूर्व अर्थात् ई० पू० २७०२ शिला-लेख पर खुदी हुई वंशावली। राजा सेती प्रथम की में मिस्र का राजा हो चुका था। ऐसा क्यों हुआ था, इसका वंशावली में मिस्री राजाओं के मूल-नाम मिस्र की चित्राक्षर- कारण हम अन्यत्र लिखेंगे। लिपि में दिये हुए हैं । चित्र-लिपि में लिखे हुए नामों
भारत के प्राचीन राज-वंश के विषय में उच्चारण में थोड़ा मतभेद होता है, क्योंकि संसार के अति प्राचीन देश सुमेर और मिस्र के इतिचित्राक्षर-लिपि की लेखन-प्रणाली ही ऐसी होती है। हास का काल-क्रम तो निश्चित हो चुका। अब भारतवर्ष मेनेथा ने मिस्त्र के प्रथम राजा का नाम मेनेज़ लिखा है। की ओर देखना चाहिए। यहाँ के राज-वंशों की क्रमबद्ध सेती-थम के शिला-लेख पर इसका जो मूल मिती नाम है वंशावलियाँ पुराणों में पाई जाती हैं। इनमें विष्णुपुराण उसका भिन्न-भिन्न विद्वान् दो प्रकार से उच्चारण करते हैं। की वंशावली मुख्य है। पुराण ग्रंथों में यह कहीं नहीं लिखा अँगरेज़ विद्वान् उसको 'मना' पढ़ते हैं और जर्मन विद्वान् है कि कौन राजा कब हुआ और उसने कितने वर्ष राज्य 'मज' । परन्तु मना की अपेक्षा मंज ही 'मेनेथो के 'मेनेज' किया। उनमें केवल वंश-सूची भर पाई जाती है। से अधिक मिलता-जुलता है। इससे सिद्ध होता कि उसका
महाभारत का काल मल नाम 'मंज ही था।
मेगास्थनीज़ नामक एक ग्रीक राजदूत भारतवर्ष के सर फ्लिन्डस पेट्री को मिस्र के एबीडोस नामक स्थान पालीबोथा नगर के राजा सेन्डाकोटस के दरबार में बहत में मिस्र के प्रथम राज-वंश तथा उससे भी पहले के दो समय तक रहा था। उसने अपना भारत-विवरण लिखा है। प्राक्-राज-वंशीय राजाओं की समाधियाँ प्राप्त हुई हैं। विद्वानों के मतानुसार मौर्य वंश का चन्द्रगुप्त ही जिसकी इनमें एक समाधि मिस्र के प्रथम राजा 'मंज' की भी प्राप्त राजधानी पाटलिपुत्र थी, मेगास्थनीज़ का सेन्ट्राकोटस था। हुई है। इन समाधियों में इन राजाओं के लेख एक इस पहचान के आधार पर चंद्रगुप्त मौर्य का काल ई० पू० प्राचीन चित्र-लिपि में प्राप्त हुए हैं। यह चित्र-लिपि अब ३१२ निश्चित हुआ है और यही भारतीय इतिहास के मिस्री चित्राक्षर-लिपि की माता सिद्ध हो चुकी है। इसलिए काल-क्रम की नींव है। चन्द्रगुप्त से १०० वर्ष पूर्व महाइसको आदिम मिती लिपि कहते हैं।
नन्दी हुअा था। विष्णुपुराण के अनुसार महानन्दी से ___ यह श्रादिम मिस्त्री लिपि सुमेर-लिपि से बहुत-कुछ नन्दिवर्धन तक के ११ राजाओं ने ३६२ वर्ष राज्य किया मिलती-जुलती है और इसकी सहायता-द्वारा ही पढ़ी जा था। इसके पूर्व प्रद्योत-वंश के ५ राजाओं ने १४८ वर्ष सकती है। मित्र के प्रथम राजा मेनेज़ या मंज की कब्र में राज्य किया था। इससे आगे विष्णुपुराण काल के विषय सर पेट्री को आबनूस की तख्तियों पर लिखे हुए उसके में मौन हो जाता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि प्रद्योतकुछ लेख मिले हैं। इन लेखों में आदिम-मिस्री लिपि में वंश का प्रथम राजा प्रद्योत ई० पू० ३१२ + १०० । उसका जो नाम लिखा हुआ है उसका उच्चारण मंज के ३६२ + १४८-९२२ में सिंहासन पर बैठा था। प्रद्योत अतिरिक्त 'मनिश' भी होता है, और आश्चर्य की यह बात ने मगध-वंशी राजा रिपुंजय से राज्य छोन लिया था।
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. ३५६
सरस्वती
मगध-वंश का प्रारम्भ जरासंध से होता है, जो रिपुंजय से पूर्व २२खाँ राजा था और जो कृष्ण, युधिष्ठिर आदि का समकालीन था। महाभारत के युद्ध से लेकर सिकन्दर के भारत- आक्रमण तक भारत में एक प्रकार से राजनैतिक शान्त थी, इसलिए प्रत्येक राजा का औसत राज्य-काल २५ वर्ष माना जा सकता है । इस हिसाब से २२ राजाओं का राज्य-काल ५५० वर्ष होता है। इनको उपयुक्त प्रयोत के काल ई० पू० ९२२ के साथ जोड़ देने से जरासंध के राज्यारम्भ का काल निकल आता है। अर्थात् ई० पू० १४७२ के क़रीब जरासंध का राज्य शासन प्रारंभ हुआ था। महाभारत के युद्ध के पूर्व ही भीम द्वारा जरासंघ का वध हो चुका था और उस समय उसका पुत्र सहदेव मगधपति था। उपर्युक्त वर्षों में से जरासंध का श्रौसत राज्यकाल २५ वर्ष निकाल देने से यह ज्ञात हो जाता है कि महाभारत युद्ध कब हुआ था। काशीप्रसाद जी जायसवाल ने इसी आधार पर इसका समय ई० पू० १४२४ माना है ।
महाभारत के समय से मनु तक के राजा
सूर्य वंश का अंतिम राजा बृहद्गल अभिमन्यु-द्वारा महाभारत युद्ध में मारा गया था। इसके वंश में ३० पीढ़ी पूर्व रामचन्द्र जी हुए थे। इन राजाओं के समय में भी भारत की राजनैतिक स्थिति एक प्रकार से शान्त-सी थी । हाँ, उतनी शान्त नहीं जितनी महाभारत से सिकन्दर के आक्रमण के समय में थी अतः इस अवस्था में प्रत्येक राजा का श्रीस्त राज्यकाल २५ वर्ष के बजाय २३ वर्ष माना जा सकता है। इस हिसाब से वृहद्गल से रामचन्द्र तक के राजाओं का राज्य काल ६९० वर्ष होता है। इसका महाभारत के काल ई० पू० १४२४ में जोड़ देने से रामचन्द्र के राज्य का प्रारम्भ-काल ई० पू० २११४ निकलता है। रामचन्द्र से पूव ६१वीं पीढ़ी में इक्ष्वाकु हुआ था। इस समय की भारत की राजनैतिक स्थिति शमा रह और महाभारत के बीच के काल की राजनैतिक स्थिति की अपेक्षा कुछ कम शान्त थी इसलिए इस समय के प्रत्येक राजा का श्रीसत राज्य काल २१ वर्ष माना जा सकता है। इस हिसाब से रामचन्द्र से ६१x२१ = १२८१ वर्ष पूर्व
।
इक्ष्वाकु का राज्य आरंभ हुआ था अर्थात् ई० पू० ३३९५ 英 इक्ष्वाकु था, जो भारत के राजवंश के स्थापक वैवस्वत
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[भाग ३८
मनु का पुत्र था। मनु के कार्यों द्वारा ज्ञात होता है कि उसका राज्य कम से कम ५० वर्ष तो अवश्य रहा होगा । श्रतएव ज्ञात होता है कि ई० पू० ३४४५ या ई० पू० ३४५० में भारत में राज-वंश का प्रारंभ हुआ था और प्रथम राजा मनु गद्दी पर बैठा था। इस प्रकार ई० पू० ३४५० के क़रीब से भारत का राज-वंशी इतिहास प्रारंभ होता है । काल-क्रम की इस रचना प्रणाली के अनुसार सूर्य वंश के कुछ राजाओं का काल इस प्रकार निकलता हैवंशावली के
नाम
.
अनुसार क्रम
२
३
५
११
168
१८
१९
२०
२१
२३
३७-
३८
३९
४०
४२
४४
५२-
५४
६१
६२
६३
६४
इक्ष्वाकु
विकुचि
निर्मि
पुरंजय
श्रनेना
धुंधुमार
प्रसेन
युवनाश्व
मांधाता
पुरूकरस्थ
त्रसदस्यु
पृपदश्व
बाहु
सगर
असमंज
अशुमान
दिलीप
सुहोत्र
सुदास
अश्मक
रघु
अज
दशरथ
रामचन्द्र
राज्य-काल ई० पू०
३३९५-३३७४
३३७४-३३५३
22
""
३३५३-३३३२
२३३२-३३११
३१८५-३१६४
३०५९-२०३८
३०३८-३०२७
३०२७-२००६
३००६-२९८५
२९८५-२९६४
२९२२-२९०१
२६२८-२६०७
२६०७-२५८६
२५८६-२५६५
२५६५-२५४१
२५२०-२४९९
२४७८-२४५७
२३१०.२२८९
२२६८.२२४७
२१७७-२१५६
२१५६-२१३५
२१३५-२११४
२११४-२०९३
* यह विकुक्षि का भाई था, इसलिए विकुक्षिका सभ कालीन था।
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संख्या ४]
भारत के प्राचीन राजवशों का कार्य-निरूपण
३५७
६५- लव, कुश २०९३ २०७२ इस प्रकार सुमेर-वंशावलियों द्वारा भारत के प्राचीन ६६- अतिथि
२०७२-२०५१ राजाओं के समय तथा राज्य-काल का उद्धार हो जाता है। अब पाठक-गण सूर्य-वंशी आर्य-राजाओं की इस क्या भारत तथा उसकी संस्कृति को कश्मीर से कुमारी तक सूची के क्रम-नंबर, राजा का नाम तथा उसके राज्य-काल तथा अटक से कटक तक की सीमा में देखनेवाले हमारे को पीछे दी हुई सुमेर-राजात्रों की सूची के क्रम-नंबर, विद्वान् ज़रा अपनी संकुचित सीमा से बाहर दृष्टिपात नाम तथा राज्य-काल से मिलाकर देखें। दोनों सूचियों करेंगे? खेद है कि गुलामी के बन्धन में सदियों से जकडे के बिलकुल मिलती हुई होने के कारण आपको आश्चर्य हुए हम लोग भारत में ही 'भारत' को माने बैठे हए हैं। होगा और भारत के तथा संसार के इतिहास की एक नई हम नहीं जानते कि भारत का प्राचीन इ.तहास ही संसार बात मालूम होगी। आपके मन में प्रश्न उत्पन्न होगा कि का प्राचीन इतिहास था या यों कहिए कि संसार का क्या सूर्य-वशी और सुमेर-राजा एक ही थे। इसका प्राचीन इतिहास ही भारत का प्राचीन इतिहास था। उत्तर है 'हाँ'।
हम कूप-मडक की भाँति अपने इतिहास को वेदों, पुराणों, इन दोनों वंशावालयों की तुलना करते समय क्रम- रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में खोजते हैं, परन्तु यह नम्बर में सूर्य-वंशी राजाओं का सुमेर-राजारों की अपेक्षा नहीं जानते कि मेसोपोटामिया, मिस्र, लघु एशिया और मध्यएक नम्बर अधिक होगा। इसका यह कारण है कि सुमेर एशिया के प्राचीन खण्डहरों में बिखरी हुई हमारी पुरातन का प्रथम राजा उक्कुसि (इक्ष्वाकु) भारत के प्रथम राजा संस्कृति हमको बुला रही है। सुदूर पैसिफिक महासागर में मन का पत्र था। इससे सिद्ध होता है कि संसार के स्थित ईस्टर तथा नेकर निहोत्रा के द्वीपों में हमारे महेंजोइतिहास के सबसे प्राचीन माने जानेवाले सुमेर-राजवंश डेरो की सिन्धु-लिपि तथा सभ्यता हमारा आवाहन कर की अपेक्षा भारत का राज-वंश एक पीढ़ी अधिक प्राचीन रही है। अमेरिका के एन्डीज़ पर्वतों पर सहस्रों वर्ष से है। इतना ही नहीं, भारत के सूर्य-वंशी राजा ही मेसा- स्थित हमारे दुग, राजप्रासाद श्रादि सूने पड़े हुए हैं। पोटामिया के सुमेर तथा मिस्र के फराड-राजा हुए। क्या अपनी इस प्राचीन सभ्यता की हम सुध नहीं लेंगे ? इक्ष्वाक सुमेर का प्रथम राजा था और सगर का पुत्र क्या अब भी हम रामायण और महाभारत के चक्कर से असमंज मिस्त का प्रथम राजा था। इसके निजी मिस्री मुक्त न होंगे और बाहर जगत् भर में फैले हुए अपने गत लेखों में इसका नाम 'मंज' लिखा हुआ मिला हे तथा गौरव पर दृष्टिपात नहीं करेंगे? भारत के प्राचीन इतिहास इसके नाम के पूर्व इसकी एक उपाधि भी लगा हुई है, के लेखकों के लिए घर के कोने में बैठकर कलम चलाने जिसका उच्चारण होता है 'अहा'। इस प्रकार महामंज का अब युग समाप्त हो रहा है। यदि भविष्य में हमें या असमंज मिस्र का प्रथम राजा था। सगर ने इससे अपनी प्रतिष्ठा कायम रखना हो तो फावड़े लेकर नाराज़ होकर इसको निकाल दिया था। यह फिर कहाँ. दुनिया भर में बिखरे हुए अपनी सभ्यता के खण्डहरों गया, इसका उल्लेख किसी भी पुराण में नहीं है। वास्तव पर हमें टूट पड़ना चाहिए। यह राष्ट्रीय जागृति का युग में यह मिस्र चला गया था और वहाँ अपना राज्य है। ज्यों-ज्यों दृढ़तम प्रमाणों के आधार पर हमारे पुरातन स्थापित करके तथा भारतीय सभ्यता का प्रचार करके वहाँ गौरव की श्रेष्ठता सिद्ध होगी, त्यों-त्यों वह श्रेष्ठता की के राज-वश का प्रवर्तक हुआ। इस प्रकार भारत संसार भावना हमारे हृदयों में नव जागृति की अधिकाधिक का सबसे प्राचीन देश सिद्ध होता है।
ज्योति जगावेगी और हमारे राष्ट्रीय अभिमान की उपर्युक्त तीनों देशों के राज-वंशी इतिहास के प्रारंभ वृद्धि होगी। होने का काल इस प्रकार है
सारे जहाँ पे जब था, वहशत का श्रावतारी। भारतवर्ष ई० पू० ३४५०
चश्मो चिरागे-अालम थी सरज़मी हमारी॥ सुमेर (मेसोपोटामिया) , , ३३८३
शमत्र अदब न थी जब, यूनां के अंजुमन में । मिन " " २७०२
ताबा था मेहरे वेनिस, इस वादिये कुहन में ॥
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३५८
थे जारी ।
इस खाके दिलनशीं से, चश्मे हुए चीनो अरब में जिनसे होती थी श्रावकारी ॥
परन्तु श्रव
(चकबस्त )
सब सूर वीर अपने इस ख़ाक में निही हैं। टूटे हुए खँडहर हैं या उनकी हड्डियाँ हैं ।
(चकबस्त)
सरस्वती
दो अनन्त के बीच सान्त हूँ फिर भी क्यों कर गवं करूँ । अपने कश्मल इस अन्तर को प्रतिदिन पापां से और भरूँ । इसी लिए तो जग में निश्चय अवनति के ही गर्त पड़ा हूँ ||२|| मैं समुद्र
मैं समुद्र के कूल खड़ा हूँ
लेखक, प्रोफेसर धर्मदेव शास्त्री
मैं
के
समुद्र के कूल खड़ा हूँ ।
ऊपर देखूँ तो नभ अनन्त, नीचे वारिधि का नहीं अन्त । पक्षी होकर उड़ जाऊँ क्या ?
रत्नाकर क्या बन पाऊँगा ? मानस को इस विचिकित्सा मेंबस कुछ भी तो नहीं बढ़ा हूँ ||१|| मैं समुद्र के -
देखो सागर उमड़ रहा है मुझको अनन्त रस-लहरी मेंलेने को मानो उछल रहा है । पूर्ण तत्व से बिलकुल अवदित विस्मृति के घन-वन से आवृत, मैं तो बस यूँठ खड़ा हूँ ||३|| मैं समुद्र के
तथापि -
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यूनान, मिस्र, रोमाँ, सब मिट गये जहाँ से । अब तक मगर है बाकी नामोंनिशाँ हमारा || कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी । सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़माँ हमारा ||
[ भाग ३८
मैं रत्नों का नाम न जानू पण्डित बस अपने को मानूँ । पोथी ही सर्वस्व नहीं है रत्नों की खान और कहीं है ।
( इक़बाल )
मानवता का चरम प्रकर्ष देवत्व लाभ करना है बस । फिर उससे भी आगे बढ़कर भूमा स्वरूप की प्राप्ति सुखद । पूर्ण उदधि से शिक्षा लेकर
उस अनन्त की ओर उबा हूँ ||४|| मैं समुद्र के
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अपने को कुछ पढ़ा समझकर ज्ञानादन्वत् से दूर पड़ा हूँ ||५|| मैं समुद्र के -
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फिलिपाइन की स्वतंत्रता
लेखक, श्रीयुत रामस्वरूप व्यास
शान्त महासागर में असंख्य छोटे छोटे द्वीपसमूह हैं। पर फिलिपाइन को इस स्वतंत्रता के प्रश्न ने फिलिपा1 उनमें स. ७,०८३ द्वीपों का एक समूह फिलिपाइन इनवासियों के लिए नई आथिक और राजनैतिक समस्यायें द्वीपों के नाम से प्रसिद्ध है। १८९८ से पहले यह स्पेन के खड़ी कर दी हैं, जो बड़ी विकट दिखाई देती हैं । इनमें अधिकार में था, पर बाद में अमरीका के संयुक्त राज्यों ने सबसे पहला प्रश्न जापान के सम्बन्ध का है। स्पेन से युद्ध करके इसे छीन लिया। इस युद्ध के पहले जापान आधुनिक समय के उन्नतिशील राष्ट्रों में है। से फिलिपाइनवासी स्वतंत्र होना चाहते थे और जब उसने भो योरप के साम्राज्यवाद के सिद्धान्त को अपनाया सयुक्त राज्य के अधिकार में आ गये तब उन्हें अपने प्रयत्न है, जब सिवा एक या दो राष्ट्रों को छोड़कर सभी योरपीय से विरत होना पड़ा। हाँ. बाद में उन्हें स्वतंत्र कर देने राष्ट्र साम्राज्य की इच्छा नहीं करते और कुछ के लिए तो को इच्छा सयुक्त राज्य ने भी प्रकट की। संयुक्त राज्य के निश्चय ही यह प्रश्न भार-स्वरूप सिद्ध हो रहा है। ऐसे समय पास कोई भी उपनिवेश नहीं था। फिलिपाइन ही एक में कुछ सच्चे और कुछ झूठे वादों से प्रेरित होकर ऐसा द्वीप-समह था जो उसका उपनिवेश कहा जा सकता जापान का उठता हुअा राष्ट्र 'जापान-साम्राज्य' का स्वप्न था और जिसे उसने दूसरे योरपीय राष्ट्रों की तरह अपने देखता है । यह ठीक है कि प्रौद्योगिक राष्ट्र होने के कारण
आधिपत्य में रख छोड़ा था। परन्तु संयुक्त राज्य की सरकार और उसके द्वीपों में वहाँ की बढ़ती हुई जन-संख्या के . की धारणा इस विषय में बिलकुल भिन्न थी। वह दूसरी लिए कम जगह होने के कारण उसे कच्चे माल के लेने योरपोय जातियों के समान हमेशा ही इस द्वीपसमूह पर और अपनी बढ़ी हुई जन-संख्या को बाहर भेजने की ज़रूरत अपना अधिकार नहीं जमाये रखना चाहती थी। १९१३ पड़ती है। पर हाल की कुछ खोजों के अनुसार यह भी . में वहाँ के प्रसिद्ध प्रेसीडेंट रूज़वेल्ट ने अपनी जीवनी में निश्चित-सा हो गया है कि आर्थिक दृष्टि से साम्राज्य का । एक जगह लिखा है
होना कोई नफे की चीज़ नहीं है। ___"हम फिलिपाइन पर फिलिपाइन-निवासियों की जापान फैलना चाहता है और फैल भी रहा है । इधर भलाई के लिए राज्य कर रहे हैं और करते रहे हैं। यदि पिछले वर्षों में उसने मंचूरिया और उत्तरी चीन का कुछ कुछ समय के उपरान्त वे इस प्रकार के राज्य को नहीं चाहेंगे हिस्सा ले लिया है, पर इतने से ही उसकी तृप्ति नहीं हुई तो मुझे विश्वास है कि हम उन्हें छोड़ देंगे। पर जब हम है। अब उसकी दृष्टि फिलिपाइन-द्वीपसमूह पर है और स्वास उन्हें छोड़ेंगे तब यह बात साफ़ जता देंगे कि बाद में हम कर जब से संयुक्त राज्य ने फिलिपाइन को स्वतंत्र कर देने . वहाँ की रक्षा का उत्तरदायित्व बिलकुल न लेंगे।...हम की घोषणा को है, उस समय से इस विचार को लेकर वहां की बातों से बिलकुल ही हाथ धो लेंगे।" जापान में कार्य भी शुरू कर दिया गया है। संयुक्त राज्य ___जिस दिन की यह भविष्यवाणी प्रेसीडेंट रूज़वेल्ट ने के वहाँ से जाते ही वह उस पर अपना दाँत गड़ा लेना की थो वह अब निकट आ गया है। संयुक्त राज्य ने निश्चय चाहता है। कर लिया है कि फिलिपाइनवासी स्वराज्य के योग्य हो अभी जब तक संयुक्त राज्य वहाँ है तब तक राजनैतिक गये हैं। अगले दस वर्ष में उन्हें पूरी स्वतंत्रता देकर दृष्टि से तो कुछ किया नहीं जा सकता। हाँ, आर्थिक दृष्टि संयुक्त राज्य वहाँ से अपना नियंत्रण बिलकुल हटा लेगा। से जापान वहाँ अपने पैर फैला रहा है। जापानियों ने वहाँ यह इतिहास में संभवतः पहला मौका है जब किसी शक्ति- के एक बड़े द्वीप के दो प्रधान व्यवसायों-लकड़ी और शाली राष्ट्र ने अपने अधीनस्थ एक देश को बिना किसी सन-को अपने हाथ में ले रक्खा है। केवल यही नहीं, स्वार्थ के स्वतंत्रता देने की घोषणा की हो।
वे तो वहां नई नई चीजें ओर पौधे लाकर बोना चाहते
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३६०
.
सरस्वती
[भाग ३८
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हैं और कुछ नई चीजें तो उन्होंने वहाँ लाकर लगा भी दी है। वह अपने बैंकों, व्यापारिक कोठियों और जहाज़ी हैं। इनके लिए उन्होंने वैज्ञानिक खोज में बड़ा रुपया लाइनों का जाल फिलिपाइन में फैला रहा है। यह खर्च किया है। वे पेरू से रुई, लिबेरिया से काफ़ी, सिंगा- जाल धीरे-धीरे विस्तृत और मजबूत होता रहा है, पर पुर से ताड़ के पेड़ और अनेक प्रकार के फल दूसरे स्थानों अभी फिलिपाइन-राज्य या संयुक्त-राज्य की इस विषय की से लाये हैं । यह सब इसलिए कि भविष्य में जब फिलिपा- नीति निश्चित नहीं है। वहाँ के नेता मैन्युअल कुज़ेनइन 'जापानी साम्राज्य का हिस्सा होगा तब उन्हें सब जो संभवतः स्वतन्त्र हो जाने पर वहाँ के प्रेसीडेंट बनेश्रावश्यक वस्तुएँ यहीं से मिल सकें।
पता नहीं कि इस विषय में क्या सोच रहे हैं, पर यह निश्चय साथ ही प्रतिवर्ष जापान का बना हुआ माल भी है कि इस प्रश्न का हल करना उनके लिए बड़ा कठिन बड़े भारी परिमाण में आता है और उसकी खपत भी होगा। खूब होती है । उधर अमेरिका से जो माल आता था वह .. इस व्यापारिक स्थिति से चाहे संयुक्त राज्य को भारी कम होता जा रहा है और जापानी माल का आयात बढ़ नुकसान न भी हो, पर फिलिपाइनवालों को भारी नुकसान रहा है । १९३२ में ६०,००,००० डालर का माल, १९३३. है । फिलिपाइन का प्रधान उद्योग खेती है और गन्ना वहाँ में, ९५,००,००० डालर का माल और १९३४ मं की ख़ास उपज है। २०,००,००० मनुष्य इस उद्योग में १,२४,००,००० डालर का माल जापान से आया। केवल लगे हुए हैं । ४० से ५० प्रतिशत यहाँ की उपज विदेश को उवालो के रास्ते १९३४ में २,७९,००० डालर का माल भेजी जाती है और इस सपका संयुक्त राज्य ख़रीदता जापान से आया और उसी वर्ष ११,९०० डालर का माल है। १९३४ में फिलिपाइन से ६,४०,००,००० डालर की
रिका से आया। उवाश्रो-बन्दरगाह पर १९३४ में साल शक्कर संयुक्त-राज्य को भेजी गई थी और यह वहाँ की भर में ९८ जापानी जहाज़ आये-गये और उसी वर्ष केवल बाहर भेजी जानेवाली चीज़ों का ६१% थी। संसार के ४ अमेरिकन जहाज़ वहाँ पाये।
दसरे देश अपनी शक्कर की आवश्यकता को स्वयं परी व्यापारिक दृष्टि से कुछ और भी लाभ है, जो जापान कर लेते हैं, थोड़े देश बाहर से शक्कर मँगाते हैं । के पक्ष में है। फिलिपाइन में वे अनेक चीजें पाई जाती संयुक्त राज्य से राजनैतिक सम्बन्ध विच्छेद हो जाने पर यह हैं. जिनकी आवश्यकता जापान को है। खनिज पदार्थों में आवश्यक नहीं कि वह यहीं से शक्कर ख़रीदे और यदि
। और क्रोमाइट होते हैं। लोहा और शकर के उद्योग को धक्का लगा तो फिलिपाइन की सारी क्रोमाइट युद्ध के शस्त्र बनाने के काम में आते हैं । नारियल प्रा.थक अवस्था पलट जायगी, क्योंकि शक्कर की भी खूब होता है, जिससे ग्लेसेरिन निकलती है और एक अाय वहाँ की राष्ट्रीय आमदनी का २ है। जब यह प्राय नाइट्रेग्लिसरीन नामक ध्वंसक पदार्थ बनाने के काम में चली जायगी तब बड़ी कठिन समस्या उत्पन्न हो जायगी। अाता है। नारियल का कोयला गैस मास्क बनाने के काम में अभी तो संयुक्त-राज्य उसकी शक्कर ख़रीदता है और उसके आता है। हाल में ही यहाँ मिट्टी का तेल भी निकल आया बदले में फिलिपाइनवासी वहाँ की बनी हई चीजे-मोटर, है । गन्ना, लकड़ी, सन और काफ़ी भो यहाँ खूब होते हैं। रुई के कपड़े, रासायनिक पदार्थ प्रतिवर्ष ७,५०,००,००० यह सब श्राकषण जापानियों को है, पर फिलिपाइनवासियों डालर के ख़रीदते हैं। को भी कुछ कम आकर्षण नहीं है। उन्हें जापान की यह ठीक है कि जापानवाले वहाँ से कच्चा माल बनी हुई चीज़ बहुत सस्ती मिल जाती है। जहाँ उन्हें ख़रीदेंगे, पर वह तो वही माल खरीदेंगे जिसकी उन्हें अमेरिकन साइकिल के लिए ३० डालर देने पड़ते हैं, जापान के उद्योग के लिए आवश्यकता होगी न कि शक्कर । वहाँ उन्हें जापानी साइकिल तीन डालर में मिल जाती जापान का स्वाथ वहाँ अपना बना हुआ माल बेचने में है है । दूसरी भी चीज़े अपेक्षाकृत बहुत सस्ते भाव में मिल न कि खरीदने में । जाती हैं।
____ इन राजनैतिक और आर्थिक प्रश्नों में गुथे हुए और व्यापारिक क्षेत्र में जापान का असर बहुत बढ़ रहा भी प्रश्न हैं। संयुक्त राज्य ने फिलिपाइन-वासियों को
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संख्या ४] '
फिलिपाइन की स्वतंत्रता
स्वतन्त्रता की शिक्षा दी है। अब फिलिपाइन के निवासी के पक्ष में हैं। मनीला के एक प्रसिद्ध वकील पित्रो ड्यरान यह समझ गये हैं कि संयुक्त राज्य उन्हें स्वतन्त्र करने को इनके प्रमुख प्रचारक हैं । इधर हाल में जापान में भी इसी तैयार है । पर क्या वे इस स्वतन्त्रता को कायम रख सकेंगे ? उद्देश से मारक्विस टोक्गवा ने 'फिलिपाइन-सोसाइटी पास ही जापान का उगता हुआ सबल राष्ट्र है, जो राज- श्राफ जापान' नामक संस्था की नींव रक्खी है। साथ ही नैतिक तथा आर्थिक कारणों से। दूसरे देशों पर पड़ासी होना भी एक बात जापान के पक्ष में है । जापान ग्राधिपत्य जमाना चाहता है। फिलिगइन-द्वीप जापान से और फिलिपाइन की संस्कृति में भी उतना भारी अन्तर काफ़ी निकट है। जापानी मेंडेटरी पलाउ नामक द्वीप से नहीं है। फिलिपाइन-द्वीप-समूह का वायुयान से केवल तीन घंटे का बहुत सम्भव है कि एक दिन फिलिपाइन पर संयुक्तरास्ता है। साथ ही यह द्वीप अावश्यकता पड़ने पर जल- राज्य के बदले जापान का झंडा फहराये। पर यह किसी सेना और वायुयानों का अड्डा बनाया जा सकता है। अभी भीषण युद्ध के बाद न होगा। जापान का व्यापारिक जाल तो अमेरिका फिलिपाइन की रक्षा का प्रबन्ध करता है और फैल जाने पर वह अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करना इसके लिए उसे २,६०,००,००० डालर खर्च करने पड़ते चाहेगा और कोई छोटा कारण भी उसे अपनी सत्ता जमाने हैं । क्या स्वतंत्र फिलिपाइन इतनी बड़ी रकम 'रक्षा' के का मौका दे सकता है। तब फिर फिलिपाइन में इतनी लिए ख़च कर सकेगा?
शक्ति न होगी कि वह जापान के सैनिक बल को रोक सके इधर जापान केवल अपना व्यापारिक जाल ही नहीं और जिस प्रकार चीन अब जापान को रोक नहीं सकता, फैला रहा है, फिलिपाइन में ऐसे विचारों के फैलाने में भी फिलिपाइन भी उसके सामने कुछ न कर सकेगा। उसका हाथ है जो फिलिपाइन को जापान का भाग बनाने
गीत
लेखक, श्रीयुत बालकृष्ण राव रजनी के उर में ज्योति-शलभ, ध्वनि के मृदु अंकुर स्पन्दन में; अंकित कर गई अमिट आशा यह नियति निराशा के मन में ।
मिल गया तृषा में शीतल जल, नीरव लय में मधुमय भाषा; . खोया था जो कल शान्ति-सुमन मिल गया विकलता के वन में ॥
स्थिर हुई काल-गति, बने एक
आगामी, आगत, विगत सभीमिल गई सरस कवि को कविता चिर-मुक्ति-मन्त्र-मय बन्धन में।
फा.४
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नि
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मनाय द्वारा उत्पन्न किये हुए मोतियों की माला ।)
जापान में मोतियों की खेती
N
लेखक---श्रीयुत नलिनी सन धनिक वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा जापान यदि कोई बंद सीप के मुंह में चली जाती है तो वही माती में मोनियों का उत्पन्न करना वस ही बन जाती है। यद्यपि यह बात सत्य नहीं है. तथापि यह सम्भव हो गया है. जब हम लोग सत्य कथा की ग्रोर इशारा करती है। चाम्नविकता यह है धानबाजग वान है। यह न सम कि जब कोई भी विजातीय द्रव्य सांप के मद में चला जाता झिार कि जापानी लोग ये माती है नव दमके भीतर एक प्रका. का दर्द या जलन पैदा
आचम दङ्ग से बना है और ये होती है और उसके शरीर में एक प्रकार का नाम पदार्थ नकलता है। ये माती वैसे ही वास्तविक और मूल्यवान् निकलकर उम विजातीय द्रव्य कोटक लेता है। मग्न हति है न कि प्राकृतिक मोती होन है। याद 'दानी में दाने पर वही मोती बन जाता है। श्रीयुत (मकामटी ने अन्तर है ना केवल इतना ही कि व. प्रकन उत्पन्न करती हम याकस्मिक घटना को एक क्रमबद्ध नियामन वैज्ञानिक है और दसरा मनाय का हाथ:
रूप देकर सीपी से मोती उत्पन्न करना सवथा मनु'य के जापान के मोती मकामोटी के मानी कहलान यश की बात बना दिया है। इस प्रकार जो मोती उत्पन्न है। यह नाम इमाला पड़ा क इस प्रकार वैज्ञानिक दङ्ग होते हैं वे प्राकृतिक मोतियों से किमा यात महीन नहीं से मोती उत्पन्न करने की विद्या का वहाँ इसी नाम के एक होते । इतना ही नहीं. उनमें और भी कतिपय विशेषता व्यांन ने अाविष्कार किया है। उन महाशय का एग नाम या जाती हैं। श्रीयुत का चिनी मकामाटी है। गोकाशी की खाड़ी मे मिकीमोटो के इन ग्यता में जा माती पाले जान है व लेकर पलायो द्वाप नक फैले हुए उनके पाट बड़े बड़े जब नार वर्ष के हो जाते है तब वे अाधानक चीर पाद समदी खता है, जिनमें ये मोती उत्पन्न किये जाने हैं। इन कमिदानी कं. अनमार बंद कौशल चार जाते हैं - वती का क्षेत्र फल लगभग ४५.००० एकड़ है। इन बनाउनमें जलन पैदा करनेवाले छांटछाट विजातीय द्रव्य
कम प्रकार माना उत्पन्न किये जाते हैं. यह कार्य । के कगा प्रवष्ट कर दिये जाते है। यह क्रिया हो जाने के माम और अदभूत कथा के ही समान चित्ताकर्षक है। पश्चात मी तार के पंजड़े में रख कर मन्द्र । डान
मान सपन्न कम होते हैं। यह यहां बनाने की दी जाती है ताकि शो में उनकी जा सके। यावश्यकता नही है। हमारे देश में एक कथा प्रचलित पिंजद समद्र के पानी के अन्दर बई किये गये लकड़ी के है कि जब स्वाति नक्षत्र में पानी बरसता है तब वर्षा की खामों के सहारे रख जात है। मा इमला किया जाता
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संख्या ४ ]
जापान में मोतियों की खेती
है कि परश्या या किसी प्रकार का सन तारित कर दिये जायें।
के भीतर
सुरक्षि अपने अन्दर प्रविष्ट किये गये विजातीय द्रव्य का दमन करने के लिए एक प्रकार का तरल पदार्थ अपने शरीर के भीतर से निकालते हैं और उसकी उस द्रव्य के ऊपर परतों में लपेटने चले जाते हैं। इस प्रकार सांप के हृदय में मोती बनने का जो कार्य आरम्भ होता है वह था वैसा ही होता है जैसा कि प्राकृतिक अवस्था में हुआ करता है। प्रतिवर्ष एक बार ये सीप परीक्षा के लिए रानी की सतह पर लाई जाती है, उनकी खोल की सफाई की जाती है और घास या कोई श्रादि जो उन पर उग कर उनकी बाढ़ को रोक सकते हैं वे खुरचकर हटा दिये जाते हैं।
[श्रीयुत को किची मिकीमोटो । जापान में मोतियों की शेप में से जब मोती निकाल लिये खेती का आविष्कार इन्हीं महोदय ने किया है ।]
इस वर्णन से यह न समझिए कि यह कार्य बड़ा सरल होता है । इस प्रकार सीप उत्पन्न करनेवालों को जिन
[टोवा के मोतियों के कारखाने में मोतियों में सुगब किये जा रहे हैं ।]
विना और जाम का सामना करना पड़ता है उनकी गिनती नहीं है | बहुत सी ऐसी श्रापदायें भी याती रहती हैं जिनको वश में करना मनुष्य की शक्ति के बाहर हो जाता है। कभी कभी समुद्र में भयङ्कर तूफान याने हैं, जोन के नहा ले जाने है। कभी कभी शीनकाल में पानी की सतह के भीतर ऐसीट दी जाती है कि सीपी दौड़ का जीवित रखना असम्भव हो जाता है। इन खेतों पर कार्य करनेवालों को ऐसे ही न जाने कितनी मुसीबतों का रोज़ सामना करना पड़ता रहता है।
इस अवस्था में सात वर्ष रहने के पश्चात् यदि सीप जीवित है तो उनके मोती निकल सकते है। परिस्थिति के अनुसार ये मोती और चमकदार या मलिन और भरे भी हो सकते हैं ये बहुमूल्य भी हो सकते हैं और निकम्मे भी कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी किसी सांप से मोती निकलते ही नहीं उत्पादको की इन सब बातों के लिए तैयार रहना पड़ता है।
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इन सात वर्षों के समय में समस्त प्रकार की सावधानी बर्तने पर भी लगभग २० प्रतिशत सोपे मर जाती हैं । जब अन्तिम बार सीपेची जाती है तब प्रायः देखने में याता है कि लगभग २० प्रतिशत में मोती बने ही नहीं ।
जाते हैं तब मोतियों की जो कड़ी परीक्षा की जाती है उसमें सिर्फ ४ या ५ प्रतिशन स्वरे उतरते है।
जापान की मिकीमोठी प्रयोगशालाओं में व्यापार
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६४
सरस्वती
[भाग ३८
हैं वे जैसे एक ही प्रकार के नहीं होते, वैसे ही ये मोती भी छोटे-बड़े विभिन्न आकारों के होते हैं। इस तरह इन खेतों से उत्पन्न मोतियों से माला बनाने के लिए एक खास आकार और चमक के मोती चुनने का कार्य उतना ही कठिन होता है जितना कि प्राकृतिक मोतियों से चुनाव करते समय हो सकता है। ___ मालायें बनाने के लिए अच्छे और एक से मोतियों का चुनाव मिकीमोटो के कारखाने में जापानी लड़कियाँ अपनी कुशल अँगुलियों के द्वारा करती हैं । कारखाने में कार्य करने के अतिरिक्त बहत-सी लड़कियाँ गोताखोर
भी होती हैं । वे पानी के भीतर मर्दो की अपेक्षा अधिक सीप के भीतर बोये हुए दो मोतियों के नमूने] समय तक रह सकती हैं। के लिए केवल वे ही मोती चुने जाते हैं जो अत्यन्त मिकीमोटो के मोतियों की ख्याति संसार में दिन पर उच्च कोटि के और सुन्दर होते हैं। शेष रद्दी कर दिये दिन बढ़ती जा रही है और जापान का यह व्यवसाय जाते हैं । परन्तु प्राकृतिक रूप से जो मोती उत्पन्न होते अत्यन्त अर्थ-प्रदायक और महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।
साँवलिया !
लेखक, श्रीयुत सूर्यनारायण व्यास 'सूर्य' . मेरी ममता की नौका पर,
नहीं निकट-तट है, दुस्तर है, ले मन की पतवार !
सागर अगम-अपार ! नाविक ! कहाँ चले तज करके, '
उस विशाल-सागर की भंवरेंसरल - हृदय - संसार ?
और वीचि-वल्लरियाँ ! उस सुन्दर दुनिया में देखो
बड़ी सरल, मन-मोहक भी है, जाओगे हिय-हार !
. किन्तु कठिन, साँवलिया !
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तेरे मंजु मनोमन्दिर में करके पावन प्रेम-प्रकाश, करता है वसु याम सुन्दरी ! कौन दिव्य देवता निवास । वार दिया है जिस पर तूने तन-मन-जीवन सभी प्रकार, कभी दिखाता है क्या वह भी तुझे ज़रा भी अपना प्यार ॥
देवदासी
लेखक, श्रीयुत ठाकुर गोपाल शरण सिंह
बनी चकोरी है तू जिसकी कहाँ छिप रहा है वह चन्द, है किस पर अवलम्बित वाले ! तेरे जीवन का श्रानन्द | किस प्रियतम की प्रतिमा को तू करती है सहर्ष उर-दान, हो जाती है तृप्त चित्त में तू करके किसका आह्वान ||
"
पुष्प हार तू इष्ट देव पर क्या वह बनता है किसे रिझाने तू जाती है और लौटती है तू उससे
को देती है प्रतिदिन उपहार, तेरा कभी मनोज्ञ गले का हार । करके नये नये शृङ्गार, लेकर कौन प्रेम उपहार ॥
तेरे सम्मुख ही रहते हैं सन्तत मूर्तिमान भगवान, करती रहती है वरानने ! फिर तू किसका हरदम ध्यान । किस प्रतिमा के दर्शन पाकर होता है तुझको उल्लास, सच कह क्या बुझती है उससे तेरे प्यासे उर की प्यास ॥
शोभामयी शरद-रजनी में बनकर नटवर तेरे नाथ, रुचिर रासलीला करते हैं कभी तुझे क्या लेकर साथ । क्या वसंत में धारण करके मंजुल वनमाली का वेप, तेरा विरह-ताप हरने को आते हैं तेरे हृदयेश ||
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होती थीं व्रज की बालायें बेसुध कर जिसका रस-पान, क्या न सुनाता है मुरलीधर तुझको वह मुरली की तान । हरनेवाले मान मानिनी राधारानी के रस खान, क्या तुझको भी कभी मनाते हैं जब तू करती है मान ||
पाने को प्रभु की प्रसन्नता करती है तू सतत प्रयास, रहती है तू सदा छिपाये उर में कौन गुप्त अभिलाष । क्या प्रतिमा-पूजन से ही हो जाता है तुझको सन्तोष, क्या न कभी आता है तन्वी ! तुझे भाग्य पर अपने रोप |
करके निर्भयता से तेरे अनुपम अधरामृत का पान, कहाँ गगन में छिप जाते हैं वाले ! तेरे मधुमय गान । छा जाती है प्रतिमाओं पर एक नई द्युति पुलक समान, कैसी ज्योति जगा देती है तेरी मधुर-मधुर मुस्कान ||
तुझे प्रशान्त बना देती है तेरे उर की कौन उमङ्ग, है किस ओर खींचती तुझको तेरे मन की तरल तरङ्ग । हर के रोपानल में जलकर हुआ मनोभव जो था चार, तुझे उन्हीं के मन्दिर में क्या वह देता है क्लेश अपार ॥
प्रेम-वंचिता होने पर भी तू दिखती है पुलकित गात, किस कल्पनालोक में विचरण करती रहती है दिन-रात । तूने ली है मोल दासता करके निज सर्वस्व प्रदान, रो उठता है हृदय देखकर यह तेरा पूव बालदान ||
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रायबहादुर लाला सीताराम
(संस्मरण) लेखक, श्रीयुत राजनाथ पाण्डेय, एम० ए०
स्वर्गीय लाला सीताराम ने हिन्दी का जन्म और उसका अभ्युदय देखा ही नहीं है, किन्तु अपने जीवन के अन्तकाल तक वे उसके अभ्युत्थान में बराबर संलग्न रहे हैं। खेद है, हिन्दी के ऐसे महारथी के सम्बन्ध में हिन्दी में वैसे उपयुक्त लेख अभी तक नहीं छपे हैं। ऐसी दशा में, आशा
है, पाठकों को इस लेख-द्वारा लाला जी की गौरव-गरिमा का कुछ परिचय अवश्य प्राप्त होगा।
जाने में फायदा तो पर अब भी अंकित हो। उस नाम का आगे दूर तक Nove ज़रूर है, पर यह अभ्यास की बात साथ रहा। मेरी उम्र के लाख-लाख बच्चों ने उस कविता
होती है। कभी-कभी उन्हें याद को पढ़ा होगा, पर तब से लेकर अब तक पढ़ते-पढ़ते
9 करके कुछ राहत भी मिलती है। चले जाने का सौभाग्य या दुर्भाग्य उन सबको तो रहा न FROME स्मृति के संग्रहालय में १८ वर्ष होगा। फिर भी हज़ारों को उसकी लाइने सुदर न जाने
पहले के चित्र अब बहत कळ कितने-कितने गाँवों में अब भी याद होंगी। उसकी प्रथम धुंधले हो गये हैं, पर कुछ ऐसे हैं जो धुंधले हो-होकर लाइन यह थीभी बने हैं। उनमें से कुछ ये हैं
"बैरगिया नाला जुलुम जोर, तँह रहत साधु के मेस चौर ।" शहर से बीस मील दूर एक देहात का स्कूल; गज़-गज़
उन्हीं दिनों महावीरप्रसाद, मैथिलीशरण, रामचरित, भर चौड़े, नौ नौ गज़ लम्बे टाट के टुकड़े; काठ की छोटी- लेाचनप्रसाद, इन नामों से भी परिचय हुअा था, पर मुझे छोटी पट्टियाँ और उन्हें चमकाने में कालिख से पत गये यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं है कि प्रथम दो नामों अपने हाथ और गाल; हाथ में हर वक्त बाँस की हरी को छोड़कर बाकी नामों का 'बैरगिया नाला' के लेखकपतली छड़ी लिये, पलटन का नीलामी लम्बा-चौड़ा कोट सा दूर तक निकट का संसर्ग नहीं रहा । इसके स्पष्ट पहने, बड़ी-बड़ी मूंछोंवाले मास्टर साहब और रोज़ एक कारण भी थे। साथ खड़े होकर कही जानेवाली-'हे प्रभो! अानन्द
xx दाता ज्ञान हमको दीजिए' वाली प्रार्थना।। ____ आज से १२ वर्ष पहले अँगरेज़ी स्कूल में मैं सातवें
उस समय अरिथमेटिक और ज़बान की पढाई में बहुत दर्जे का विद्यार्थी था। उस समय के चित्र बहत कुछ स्पष्ट मन लगता था। महीने दो महीने में भी शायद काई हैं। कम-से-कम हेड मास्टर साहब के गुस्से के समय के सवाल ग़लत होता हो । किताब के अधिकांश सवालों को काँपते होंठ और लाल-लाल कान तो शायद ही इबारत तक याद थी। अाज स्मृति के ख़ज़ाने में वे सब कभी भूलेंगे। गुम हैं। पर उस समय जो एक चीज़ याद थी वह अाज हमारी किताब में लाला सीताराम बी. ए. की लिखी भी ज्यों की त्यों याद है। ज़बान की किताब में एक 'अज-विलाप' शीर्षक एक कविता थी। उसकी पहली कविता थी। वह हमारे स्कूल के सभी लड़कों के ज़बान लाइन--'अहह फूलहू के तन लागत, है जो विवस प्रान
थी। मुझे उस कविता के नाते उसके नीचे लिखे नर त्यागत' तो अब भी याद है। उस कविता में रानी के उसके लेखक के नाम से भी कुछ अनुराग-सा हो गया। मर जाने पर राजा अज के शोक का वर्णन था। राजा लोगों उस नाम के छपावट के अक्षर जैसे अाँख के भीतरी पर्दे को अनेक रानियाँ होती हैं और एक-दो घट ही गई तो क्या ।
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संख्या ४ ]
I
पर उस कविता के अज कुछ और ही राजा जान पड़े। उस समय पहली बार जान पड़ा कि पत्नी के मर जाने पर पुरुष की क्या दशा होती होगी । उस समय हरिहर लाल हमारे साथ पढ़ते थे । हम-वे पास-पास बैठते । वे इस कविता को अनेक चित्रों के रूप में समझते और मुझे समझाते थे। मैं उनकी चित्र कला की अनुरक्ति को प्रोत्साहित करता । मालूम नहीं, श्रज विलाप पर मेढ़ जी ने कोई चित्र बनाया या नहीं; पर 'ग्रज विलाप' की मेरी याद ज्यों की त्यों बनी हुई है। और अब तो कभी फिर से उसे पढ़ने की इच्छा होती है । बाद को मालूम हुआ कि लाला जी ने रघुवश का हिन्दी पद्यों में अंशत: अनुवाद किया था और यह उसी का एक श था । लाला जी ने कालिदास के और कई ग्रन्थों का अनुवाद किया था और व्यंग्य में उन्हें 'हिन्दी-कालिदास' की उपाधि मिली थी ।
सन् १९३० में बनारस के कीन्स इंटर्मीडियेट कालेज की लाइब्रेरी में लाला सीताराम की लिखी शेक्स पियर के कई नाटकों की हिन्दी अनुवाद की एक पुस्तक देखी । उस समय मालूम हुआ कि रायबहादुर लाला सीताराम डिप्टी कलेक्टर रह चुके हैं और अब प्रयाग में शान्तजीवन व्यतीत कर रहे हैं । हिन्दुस्तानी अफ़सरों में दायरे के बाहर जाकर काम करने की अपेक्षाकृत व भी कमी है। लाला जी की इस सम्बन्ध में विशेषता थी । X
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यूनिवर्सिटी के दिनों पर तो जैसे अभी सिर्फ़ एक ही रात का पदा हो । यूनिवर्सिटी के अपने एम० ए० के कोर्स में देखा तो वहाँ भी लाला साहब मौजूद थे । कलकत्ता यूनिवर्सिटी से छुपी लाला जी की कई किताबों में से एक हमें पढ़नी थी। और पढ़ाते थे पण्डित देवीप्रसाद जी शुक्ल । एक दिन लाला जी पर बात छिड़ी। जिन दिनों वे डिप्टी कलेक्टर थे, एक मुक़द्दमा कर रहे थे । अभियुक्त ने अपना मुकद्दमा कमज़ोर समझ कर डिप्टी साहब की भावुकता को प्रेरित करना चाहा । कवि का सबसे कमज़ोर पहलू उसका कविपन होता है । कविता के
रायबहादुर लाला सीताराम
* सुना है श्रीयुत हरिहरलाल मेढ़ प्रसिद्ध चित्रकार हो गये हैं और इन दिनों लखनऊ के श्राट्स कालेज में अध्यापक हैं । - लेखक ।
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३६७
कोड़े से चाहे उसे मार दीजिए, वह बुरा न मानेगा । अभियुक्त ने अपने बयान के बाद डिप्टी साहब को सम्बोधित कर एक दोहा कहा । डिप्टी साहब ने फ़ैसला दिया और दोहे का जवाब भी दोहे में। * उन्होंने अपराधी को क़ैद की सज़ा कर दी। वे ऐसे कवि तो थे नहीं ।
उस दिन के प्रसंग ने नाम से रूप की ओर प्रेरित किया। एक परिचित मित्र से पत्र लेकर मैं लाला जी से मिलने गया। मकान के ख़ास सड़कवाले दरवाज़े की दाहनी ओोरवाली छोटी कोठरी में हम लोग बैठे । लाला जी ने पहले देर तक हमारे सम्बन्ध में पूछा। फिर हमारे मित्र के सम्बन्ध में बोले- वे हमारे दोस्त हैं। असल में हमारे मित्र के पिता लाला जी के दोस्त थे और उसी नाते उनकी पहचान हुई थी; पर बाद में साहित्य-प्रेमी होने के कारण लाला जी ने उन्हें भी अपना निजी दोस्त बना लिया था । इस कारण उनकी पहचान में पिता का दोस्त होने की बुज़ुगियत से अधिक निजी दोस्ती की मात्रा थी । जिस समय हम बातें कर रहे थे, एक चपरासी एक बड़ा पैकेट लेकर आया। लाला जी उसे लेकर उठ पड़े । गली. में से होकर पिछवाड़े के फाटक से हम मकान के दूसरे हिस्से में आये | मुझे कुछ कुछ याद आता है, एक छोटा-. सागन है। वहाँ शाम तक हम लोग साहित्य के अनेक अंगों और व्यक्तियों के सम्बन्ध में बातें करते रहे । धीरे-धीरे अँधेरा हो गया। मैं लाला जी से बिदा लेमा चाहता था, पर वे अभी और बातें करना चाहते थे । भारतेन्दु, प्रतापनारायण, राजा शिवप्रसाद आदि के सम्बन्ध की अनेक व्यक्तिगत बातें उन्होंने कहीं। मालूम पड़ता था, जैसे उस सन्ध्या को लाला जी फूट पड़े थे और जैसे बहुत दिनों के बाद उन्हें कोई सुननेवाला मिला
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* शुक्ल जी भी एक छिपे ख़ज़ाना है । अनेक अमूल्य जानकारियाँ वहाँ दबी पड़ी हैं, पर उन्हें उभाड़ने के लिए, किसी धैर्यशील हिन्दी- प्रेमी को थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी । इन दोहों के प्रसंग का मैंने लाला जी से भी ज़िक्र किया था, पर उन्हें वे याद नहीं रहे थे । कुछ दिन हुए पूज्य शुक्ल जी से पूछा तब मालूम हुआ कि वे वहाँ से भी गुम हैं। उन दोहों में एक बड़ा स्निग्ध व्यंग्य था, जो लाला जी की खास विशेषता थी । लेखक ।
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३६८.
सरस्वती
का अवसर मिला और उस समय भी प्रथम वार्तालाप के समय के विचारों की पुष्टि हुई। लाला जी को नौकरी के सिलसिले में कई स्थानों में रहना पड़ा था । अपने समय के विशेष लोगों से उनका निजी संपर्क भी रहा था। इस कारण उन्हें अनेक ऐसी बातों की जानकारी थी जो वर्तमान हिन्दी साहित्य का इतिहास समझनेवाले के लिए बहुत ही अमूल्य थीं। मुझे पूरा यकीन है कि यदि लाला जी ने १९वीं शताब्दी के अन्तिम अधीश के हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा होता तो उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में उसका एक विशेष स्थान होता । भारतेन्दु के मरने पर उनके पत्र में अनेक कवितायें छपी थीं, परन्तु उनके सम्बन्ध में लिखी गई सबसे अधिक प्रसिद्ध होनेवाली कविता लाला जी की ही लिखी थी। यह लाला जी ने मुझसे कहा था। जब वे पिछली बातों का ज़िक्र करते तब एक चित्र-सा खड़ा कर देते, और जहाँ तक उन बातों से उनका सम्बन्ध रहा होता उसका भी जिक्र करते । स्पष्ट मालूम पड़ता था कि जहाँ भी वे रहे होंगे, रहे होंगे पहली ही लाइन में । उनकी गम्भीरता और सूक्ष्मता के आगे लोगों को उनके सामने नत होना पड़ता रहा होगा, और कदाचित् उन्हें अपना अग्रसर करने में लोगों को श्रानन्द और सन्तोष भी होता रहा होगा। ये बातें उनकी ओर से तनिक भी ध्वनित नहीं होती थीं। सच बात तो यह है कि उनके मुँह से मैंने किसी की भी बहुत तारीफ़ नहीं सुनी । कुछ लोगों का कहना है कि लाला जी स्वयं अपनी बहुत
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[ स्वर्गीय रायबहादुर लाला सीताराम । ] था। उनकी बातों से मैंने थोड़ी ही देर में समझ लिया कि साहित्य सम्बन्ध में भी उनके निर्णय बिलकुल डिप्टी कलेक्टराना थे । वे बातें दो-टूक कह देते थे और आगे बढ़ जाते थे। जब मैं थोड़ी देर चुप रहता तब वे कोई नई बात छेड़ देते ।
उनसे थोड़ी ही देर बातें करने के बाद उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कई ख़ास बातें प्रत्यक्ष हो जाती थीं। मुझे लाला जी से एक बार और देर तक बातें करने Shree Sudharmaswami Gya handar-Umara, Surat
[ भाग ८३
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संख्या ४]
रायबहादुर लाला सीताराम
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तारीफ़ करते थे। उन्होंने हिन्दी के कई 'महारथियों' का से बातें कर रहे थे। थोड़ी देर के बाद वे उठकर बोलेनाम लेकर मुझसे भी कहा था कि 'मैंने इन सब लोगों चलिए, रोशनी में चला जाय । हम लोग सहन के पूरब-" से अधिक हिन्दी की सेवा की है। मैंने हिन्दी एम० ए० वाले कमरे में आये। वहाँ उन्होंने वह पैकेट खोला। का कोस बना दिया है।' पर मुझे तो इन बातों में आत्म- उसमें बहुत-सी किताबें थीं जो कहीं से रिव्यू के लिए श्लाघा का भाव मिला नहीं, अपितु ये बातें तो ऐसी ही हैं, आई थीं। बाद में लाला जी ने बतलाया कि वे कहाँ से जैसे दिन भर कोई आपका काम करे और जब शाम को आई थीं। लगभग नित्य ही उनके पास उतनी किताबें अापके दरवाज़ पर से गुज़रे कि मज़दूरी चाहे श्राप दे या न आया करती थीं और उन्हें गवर्नमेंट के लिए उनकी रिव्यू दें, एक मुसकुराहट से उसका मन तो ज़रूर भर दें, तब आप लिखनी पड़ती थी। वे उन दिनों एक किताब भी लिख मुँह फेर ले और कहें जाओ तुमने काम ही क्या किया है। रहे थे*। पत्र-पत्रिकाओं में भी उनके रह गई हिन्दी के एम० ए० के कोर्स के बनाने की बात, सो थे। । इस अवस्था में इतना काम ! लाला जी सचमुच ही तो यह स्पष्ट ही है हिन्दी का एम० ए० सबसे पहले कल- एक बड़े योद्धा थे, जो अपने विचारों को लिये बड़ी धीरता, कत्तायूनिवसिटी में प्रारम्भ हुअा। सर आशुतोष मुकुर्जी ने और संयम से ग्रागे बढ़ते जा रहे थे। किताबों के उलटतेकोस बनाने का काम लाला जी को ही सौंपा था । लाला जी पलटते वे एक किताब से रुक गये । बोले--यह लीजिए।
से कहा था कि सर आशुतोष उनसे आकर मिले यह मेरे एक मित्र की लिखी किताब है। मुझे मालूम था
रस. में सर अाशुतोष के परिचित लोगों कि उन्होने एक किताब लिखी है, पर उन्होंने मेरे पास से उनके सम्बन्ध में जो कुछ सुना है उसके अनुसार सर नहीं भेजी थी। यह अपने आप ही आ गई। थोड़ी देर अाशुतोष जैसे महान् व्यक्ति का ऐसा करना कुछ के लिए उस किताब में डन गये। मैं उस दमियान यह
आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात जो है वह सोच रहा था कि यदि इनके पास कई बार अाकर इनके यह कि लोग परिस्थितियों का विस्मरण कर लाला जी के संस्मरण लिख लिये जायँ तो एक बात हो । लाला जी ने कार्यों पर पर्दा डाल दें और उनकी उचित बातों को उनकी जब उस किताब से अाँख उठाई तब मैंने यह प्रस्ताव रख श्रात्मश्लाघा समझे । इसमें सन्देह नहीं कि लाला जी दिया । फिर इसी पर बातें होने लगीं। लाला जी ने उस . अपना कार्य कर चुके थे, पर जिस समय उन्होंने हिन्दी समय यह भी कहा था कि मैं इन दिनों रामबाग़ के पास को अपनाया था तब उनकी परिस्थिति के लोग हिन्दी में मन्दिर बनवा रहा हूँ। शाम को अक्सर वहीं रहता हूँ । कुछ लिखना अपमान समझते थे। उस समय वर्तमान उस समय एक छोटे बच्चे को उँगली से पकड़े एक सज्जन
-साहित्य की नींव डाली जा रही थी। कुछ दिन उनके पास आये। लाला जी ने सिर्फ हाँ-नहीं में उनसे बाद लाला जी की गणना महान् स्तंभों में चाहे भले ही चन्द सेकेंड बात की। वे खड़े-खड़े चले गये। लाला जी ने न हुई हो, पर नींव की वे इटें जिन पर हिन्दी का भव्य भवन बतलाया कि वे उनके लड़के हैं। मालूम नहीं, मेरा अनुमान उठाया जा रहा है, अवश्य ही महत्त्वपूर्ण है। इस कहाँ तक ठीक है, पर ऐसा जान पड़ा कि लाला जी लड़कों सम्बन्ध में लाला जी का नाम चिरस्मरणीय रहेगा, इसमें से बहुत अधिक बातें करने के कायल नहीं थे। मुझे इस सन्देह नहीं । इतना ही नहीं, सच तो यह है कि हिन्दी पर कुछ आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि मेरी उम्र के तो उनके की वतमान गति भी लाला जी के विचारों के प्रतिकुल पुत्रों की सन्तान भी होंगी, पर मुझसे थोड़ी ही देर में वे. नहीं थी। जिन चन्द लोगों पर हिन्दी और उर्दू दोनों का ऐसे घुल-मिल गये थे, जैसे मेरी उनकी बहुत दिनों की समान विश्वास हो सकता है, लाला जी उनमें से एक जान-पहचान थी। थे । कहें तो कह सकते हैं कि लाला जी शुरू से अन्त तक ठीक पथ पर रहे और यह उनके साहित्यिक जीवन * संभवतः अयोध्या का इतिहास ।-लेखक । की एक विशेषता थी। अस्तु ।
+ इलाहाबाद-यूनिवसिटी की मैगज़ीन में उनके लेख . उस अवस्था में भी वे कितने अथक उत्साह और सन उनकी मृत्यु के बाद भी छपे हैं।-लेखक। ..
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૨૭
सरस्वती
कुछ दिन बाद।
नया साल शुरू ही हो रहा था । कान्यकुब्ज इंटर मीडियेट कालेज, लखनऊ का मैदान । टेन्ट । अँगीठी। चाय की प्यालियाँ | सुबह ८ बजे । इलाहाबाद से गया ताजा लीडर | सबमे चुभती ख़बर भी लाला सीताराम की मृत्यु। मुझे कुछ स्मरण हो आया। दूसरी और अन्तिम और अन्तिम चार जब मैं लाला जी से मिला था तब उन्होंने मुझे तुलसीदास जी की एक तसवीर दी थी और उसके नीचे, जिस फ्राउनटेनपेन से मैं यह लेख लिख रहा है इससे, 'श्रीअवधवासी सीताराम' लिख दिया था । मैंने लखनऊ से वापस आने पर अपनी चिट्ठी-पत्री में उसकी खोज की, पर यह न मिली । कल वह अकस्मात् हाथ लग गई। उसकी पुश्त पर उस दिन की नोट की हुई दो-एक बातें और मिलीं।
सितम्बर सन् १९३५ में एक दिन बनारस के तत्कालीन शहर-कोतवाल ख़ाँ बहादुर चौधरी नवी अहमद साहब से कुछ अन्य बातों के अतिरिक्त साहित्यिक चर्चा भी रही । उन्हीं दिनों नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के दफ़र में एक बोरी हो गई थी और के कलाभवन कुछ अमूल्य चित्र ग्राम हो गये थे। तुलसीदास के चित्र के सम्बन्ध में चौधरी साहब ने ज़िक्र किया कि नागरी प्रचारिणी सभा का चित्र उस चित्र से भिन्न है, जो इलाहाबाद में जो इलाहाबाद में उन्होंने रायबहादुर लाला सीताराम के पास देखा था । मैंने लाला जी के पासवाला चित्र देखना चाहा। मैं ८ आक्टोबर सन् १९३५ को लाला जी से मिला। पहली चार और इस बार की मुलाकात में काफी दिनों का अन्तर पड़ चुका था । इसलिए मुझे अपना परिचय देना पड़ा । इस दर्मियान में लाला जी मेरे नाम से परिचित हो चुके थे । ‘विशाल भारत' में मेरी तिब्बत यात्रा के लेख वे पढ़ चुके थे तिब्बत के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत-सी बातें पूछीं फिर 1 महन्त राहुल सांकृत्यायन के सम्बन्ध में पूछा । बोले—मेरा तो दृढ़ 'विश्वास है कि बुद्ध का अयोध्या-गमन हुआ था; पर सांकृत्यायन जो बुद्ध चर्चा में लिखते हैं, नहीं। अब जब वे इलाहावाद वें तो मुझे उनसे ज़रूर मिलाइए 1 इस
1
* सन् ३५ के नवम्बर के शुरू में ही मैं गवर्नमेंट हाई स्कूल, देवरिया में काम करने चला गया । सन् ३६ की गर्मियों में जब प्रयाग लौटा तब सुना कि राहुल जी
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[ भाग ३८
वस्था में विद्या से यह लगन ! यह लाला जी के जीवन की एक विशेषता थी । और जब उन्होंने यह कहा - मुझे बतलाइएगा। मैं उनके पास चलूंगा और अपने मोटर पर उन्हें अपने घर लिवा लाऊँगा । - तब मुझे लाला जी
की विशेषता का और घना परिचय मिला। एक कट्टर सनातनधर्मी के लिए फिर से बौद्ध संस्कृति के प्रसार के लिए मर मिटनेवाले बौद्ध भिक्षु के प्रति इतना सम्मान भाव रखना बड़प्पन की निशानी है।
मुझे तो लाला जी के व्यक्तित्व का सबसे मूल्य अंश यही जान पड़ा। आज-कल बड़े पाये के भी लोग संस्कृति विहीन हैं। लाला जी में संस्कृति थी ऊँचे पैमाने की । और संस्कृति-युक्त होना श्राज-कल के शिक्षित भारतीय के लिए एक महान् भाग्य की बात है ।
चित्र के सम्बन्ध में बात आने पर लाला जी ने नागरीप्रचारिणीवालों से अपनी बड़ी खीझ प्रकट की । बोलेदेखो न, इन सबों ने हमारे देखो न, इन सबों ने हमारे तुलसी का मुँड़कर अपना तुलसी बना लिया है। — लाला जी के और सभा के तुलसी के शरीर, कुशासन, माला और बैठने के ढङ्ग में बहुत कुछ साम्य है । अन्तर केवल इतना ही है कि एक के तुलसी के दाढ़ी मूछ और जटा है और दूसरे के तुलसी इससे रहित हैं। लाला जी का कहना था कि सभावालों ने उन्हीं के तुलसी को अपना लिया है। पर अफ़सोस तुलसी के ले लिये जाने का उतना नहीं मालूम पड़ता था जितना कि उनके मुँड़े जाने का मुझे तो इस प्रसंग में प्रायः विनोद जान पड़ा, यद्यपि वह वैसा ही हलका और दवा-सा था जैसा । कि सदैव लाला जी का हास्य होता था ।
यद्यपि देखने में लाला जी इस बार भी पहले की ही तरह स्वस्थ थे, पर मुझे अच्छी तरह याद है कि इस बार जब मैंने उन्हें देखा था तब उनकी तबीयत जैसे कुछ गिरी हुई-सी थी । वे उन दिनों घर में बिलकुल अकेले रह रहे थे। केवल उनका नौकर साथ था पर उनका कहना था कि अपनी किताबों के साथ अकेले रहने की उनकी
तीसरी बार फिर ल्हासा पहुँच गये हैं। इस वर्ष जनवरी में एक दिन के लिए राहुल जी प्रयाग में थे; पर लाला जी नहीं रहे ! अतः लाला जी की राहुल जी से मुलाकात नहीं हो पाई। लेखक/
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• संख्या ४ ]
. रायबहादुर लाला सीताराम
आदत सी हो गई है। भोजन के सम्बन्ध में भी वे पराधीन
"राय
मिट/लाल—-पूर्वपुरुष—१४,०००)- अलफ्रेड
नहीं थे | बहुत दिनों से वे स्वास्थ्य रक्षा के लिए दलिया पर पार्क - ६८४ ) वार्षिक -- । १५८६ के लगभग - २ ही गुज़र कर रहे जिसे वे स्वयं आसानी से पका लिया वर्ष बाद वीरबल - गंगादास पुत्र महेशदास । मुंशी करते थे। लाला जी ने मुझसे बतलाया था कि उन्हें मालूम कालीप्रसाद कुलभास्कर - १८७६ - ८६" का तारतम्य मैं नहीं कि उन्होंने ग्राम कब खाया था। ग्राम उनके बिलकुल नहीं लगा सकता | मुवाफ़िक नहीं पड़ता था। पिछले आठ महीनों में संसार के सबसे प्रिय प्राणियों को खोकर मृत्यु की निकटता का जितना बोध हुआ है, उतना उस समय नहीं था । लाला जी का स्वास्थ्य और स्वास्थ्य-रक्षा के लिए उनका संयम देखकर यही मालूम पड़ता था कि उन्हें कम-से-कम अभी २० वर्ष और जीना चाहिए, नहीं तो उसी दिन मैं वह सब बहुत कुछ बातें पूछ और लिख लेता जो सदा के लिए उनके साथ चली गई * अफ़सोस तो यह है कि उस दिन उनके प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में मैंने जो दो-एक बातें लिख भी ली थीं, पर उनका ठीक प्रसंग नहीं द्या पाता । +
* श्रीयुत हरिकृष्ण जौहर (कलकत्ता) और बाबू गंगाप्रसाद गुप्त (बनारस) ऐसे व्यक्ति हैं जिनसे तत्कालीन साहित्यिकों के सम्बन्ध में अनेक श्रमूल्य बातें जानी जा सकती हैं। यदि ये लोग अपना कुछ संस्मरण लिखें तो बड़ा हित हो ।
+ लाला जी के पुराने मित्रों में रायबहादुर पंडित रामसरन मिश्र एम० ए०, रिटायर्ड इन्स्पेक्टर आफ स्कूल्स भी हैं । यह मुझे मिश्र जी से मालूम हुआ था और लाला जी ने भी इसकी पुष्टि की थी। संभवतः लाला जी के सम्बन्ध में मिश्र जी भी कुछ प्रकाश डाल सकें ।
सदा व्याधियाँ घेरे रहतीं, बाधाओं का कौन ठिकाना ? दुख ने ठान लिया जीवन कोदिन प्रति और कलपाना ॥
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सन्ध्या क़रीब थी, और हम लोगों के उढने का समय पास श्राता जा रहा था। चलते-चलाते जब कुटुम्ब पर भी कुछ बातें श्राई तत्र लाला जी ने बतलाया कि उनकी सहधर्मिणी जा चुकी हैं। वे कहने को तो यह बात बहुत अविचलित भाव से कह गये थे, पर कुछ पुरानी दुखदायी स्मृतियों के बिलकुल करीब पहुँचा जान अपने को सँभालने के लिए ही शायद यह शेर कह उस प्रसंग का बदल दिया
1
सब बलायें हो चुकीं 'गालिब' तमाम,
एक
मर्गे नागहानी और है ।
उद्गार
लेखक, श्रीयुत राजाराम खरे
३७१
समय ने बता दिया कि लाला जी ने ठीक कहा था । 'मर्गे नागहानी' सचमुच ही उनके लिए आख़िरी बला रह गई थी, जिसे थोड़े ही दिनों के बाद उन्होंने उसी खूबसूरती के साथ फेल दिया जैसे और बलाओं को । उस दिन लखनऊ में 'लीडर' पढ़ने के बाद भी मुझे उनका कहा यह शेर याद हो आया था, और श्राज भी याद है ।
इस प्रकार क्यों सता रहे प्रिय, मुझे पराजित कर न सकोगे !
को यह अभ्यास हो गयासुख होता किस भाँति भुलाना ॥
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ग्राम्य जीवन की एक सरस कहानी
मुक्तिमार्ग
लेखक, श्रीयुत चन्द्रभूषणसिंह
कभी किताब-कापी न होने की शिकायत, कभी फ़ीस न धो की मा कब मरी यह उसको पहुँचने का बखेड़ा । मास्टरों की फरमाइशे और घर की नहीं मालूम, लेकिन इतना अच्छी परेशानियाँ अलग थीं। पहले से ही माधो का बाप गाँव के
तरह याद है कि जब से उसने उन लड़कों से जो दर्जे में माधो से एक वप आगे थे. is होश सँभाला, कभी आसानी से किताबे माँग लाया था। परन्तु जब माधो उस दर्जे में पहुँचा
पेट भर खाने को नहीं मिला। तब प्रायः सभी पुस्तके बदल गई। जब लड़के ने बाप से
गरीबी ने उसकी मा को चिड़चिड़ा यह बात कही तब वह इसे बेटे का बहाना समझकर मदरसे बना दिया था। माधो को लड़कपन और उसके बचपन के पंडित जी के पास दौड़ा हुअा गया और फरियाद की। की शोखियों पर मा का चिढ़ना आपत्तिजनक बात नहीं पंडित जी ने माधो की बात का समर्थन किया। लेकिन हो सकती। लड़के को बे-मतलब डाँटना-फिटकारना उसने यही समझा कि 'पास कराई' न पहुँचने से उसे उसका स्वभाव-सा हो गया था। न घर में किसी का माधो किताबें बदल जाने की मार दी जा रही है। फ्रीस का को ठीक वक्त पर बुलाने की फिक्र थी और न उसी को तकाज़ा उचित था, लेकिन उसमें जल्दबाज़ी इसलिए खेलने से फुसत मिलती थी कि समय पर खाना खाने की जाती थी कि भुट्टे जहाँ रोज़ गुरु जी के पास पहुँचना आये। जब जी में अाता, खाना खाने को बैठ जाता-कभी चाहिए. वहाँ कभी कभी पहँचते थे और वह भी तकाज़ा वक्त से दो घंटे पहले और कभी चार घंटे बाद। पहले करने पर। आता तो अक्सर जवाब मिलता-'इस वक्त क्या धरा है, लाचार होकर माधो के पिता ने लड़के को घर बिठा चलो अभी साग कच्चा है, घड़ा भर में पाना' । माधो पहले दिया और वपों में तय होनेवाला माग कुछ महीनों में तो उठता ही मुश्किल से और अगर उठ जाता तो फिर ही ख़त्म हो गया। माधो के चेहरे पर फिर प्रसन्नता दिखाई घटे दो घटे क्या, दिन दिन भर ग़ायब रहता। शाम को देने लगी। अभी तक तो गोली और गुल्ली-डंडा ही दल अाता तब झिड़कियों को अनसुनी करते हुए थाली लेकर बहलाने के लिए काफ़ी थे, अब आवारगी भी उसके बैठ जाता और खूब खाता । खाना कम पड़ता तो इतना मनोरजन का एक आवश्यक अंग बन गई, और वह कभी शोर मचाता कि कभी कभी पड़ोसी दौड़ पड़ते कि क्या कभी दिन-दिन, रात-रात भर ग़ायब रहता। लड़के का हुश्रा । कभी किसी पड़ोसी के ही घर से खाकर आता था। आवारा-पन देखकर रमई को उसकी शादी की फ़िक्र हुई। और के घर बिना बुलाये जाकर खा लेना मा के नजदीक बहुत ही अनुचित और छोटी बात थी, लेकिन हठी माधो माधो का ब्याह धूम-धड़ाके के साथ हुआ । सवा सौ जिसे मा को जलाने ही में मजा मिलता था. अपनी आदत रुपये खर्च हए । सौतेली मा के लड़का भी पैदा हया। से बाज़ आनेवाला न था।
नई बहू अपनी ख़िदमत की बदौलत सास के गले का हार - बारहवें वर्ष मा के विरोध करने पर भी माधो स्कूल बन गई। मा का पैर दबाना, सिर में तेल डालना, बतन भेजा गया । पढने-लिखने में उसका जी बिलकुल नहीं माँ जना, रोटी बनाना यहाँ तक कि घर का कुल काम लगता था, लेकिन जब मा को भी उसने पढ़ने के खिलाफ उसने संभाल लिया। रजनी एक तरह से इस्तीफा दे चुकी देखा तब वह स्कूल के हाते में कैद होने के लिए उत्सुक थी। काफ़ी चतुर और होशियार होने पर भी नई बहू घर हो उठा। परन्तु गरीबों के भाग्य में विद्या-धन कहाँ ? के काम-काज में उससे बराबर सलाह लेती रहती थी।
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संख्या ४]
मुक्तिमार्ग
३७३
माधो गुल्ली-डंडा भूल चुका था। अब वह अक्सर हुया लौटा। रमई के अागे टोकरी पटककर बोलाछोटे बच्चे के साथ दिल बहलाता था। मा जो इतने दिनों "दादा, भुट्टा नहीं लाये ?" से उसके पीछे डंडा लिये पड़ी थी, अब उससे बड़ा प्रेम रमई ने समझा कि तोहफ़ा क़बूल न होता तो नई करती थी। अब माधो को पानी पीने को बिना माँगे गुड़ फरमाईश नाक-भौंह चढ़ाये बिना हगिज़ न होती । "कहा मिल जाता था। खेलने के लिए भी मा उससे अनुरोध बहुत अच्छा बच्चा' और वह उठ खड़ा हुआ। करती थी, लेकिन अब उसकी तबीअत ही उस तरफ़ ने दूसरा लड़का दौड़ता हुअा अाया और बाप की तरफ़ जाती थी। अब उसे घर की गाय चराने और मुन्नू को देखकर बोला- "बाबू, पक्का कटहल ।” खेलाने में अानन्द अाता था। वह नित्य गाय चराने रमई ने कहा-"अच्छा भैया भुट्टा और कटहल कल ।" जाता और शाम से दो घंटे पहले लौट अाता था। रात के चारे का प्रबन्ध कर दूध दुहता और काम काज से निपट रमई सिर पर टोकरा रक्खे जा रहा था। रास्ते में कर बच्चे को दो घंटे खुली हवा में खेलाता था। गुदरी मिल गया । राम राम के बाद गुदरी साहु ने पूछा
.. "कहाँ की तैयारी है महतो ?" नागपंचमी का त्योहार था । रमई एक टोकरी में दही रमई ने टोकरी दिखाते हुए कहा-"यही साहु कल का मटका, थोड़ा-सा घी और एक कटहल रक्खे गुदरी का तकाज़ा।" साहु के घर पहुँचा । गुदरी टाट पर बैठा हुअा हुक्का पी गुदरी मतलब निकालने का अच्छा मौका जानकर रहा था । सामने दो-चार गरजवाले बैठे अपनी अपनी अज़- वहीं बैठ गया और बोला-"महतो, एक गऊ चाहिए। गज़ मुना रहे थे। गुदरी रमई को आते देखकर पेशबन्दी निगाह में हो तो बताना।" के तौर पर बोला--"अरे भाई रमई ! देखते हो। हमारा रमई के चहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई । टोकरी बड़ा अकाज हो रहा है। रोज़ दस आदमी दरवाजे से अाकर ज़मीन पर रखते हुए बोला-गऊ तो साहु घर में ही है। लौट जाते है । अब तो दूसरा साल है ।” घुरहू पासी कल- पसन्द आने की मत है।" कत्ता जाने के लिए तैयार था । किराये के लिए साहु के “यही तो मैं भी सोच रहा था, मगर मारे लिहाज़ के पास आया था। वह बोला-- "हाँ, महतो, सबकी हज गर्ज कुछ कह नहीं रहा था।" समझा करो । साहु के घर में पेड़ थोड़े ही लगा है।"
"लिहाज़ कौन-सा ? चल कर देख लो न।" रमई ने उदास भाव से कहा- "हाँ, घुरहू भैया, बात “सब देखा ताका है । घर के सौदे में देखना कैसा ?" तो सच है, मगर मजबूरी है ।' गुदरी साहु को रुपये की "दाम काम बगैर देखे कैसे हो सकता है ?" बिलकुल ज़रूरत न थी। वह या तो रमई को तकाज़ा "दाम-दाम देखा जायगा। अभी तो हमारी ही करके भयभीत करना चाहता था या उसने घुरह को रुपया रकम पड़ी है।" न देने का इससे अच्छा बहाना न पाया हो कि रमई के “हाँ हाँ, यही तो हमारा मतलब है । अपनी जमा से रुपया देने पर ही उसे कुछ मिल सकता है। महाजन काट कर हिसाब कर देना ।" को कर्ज वसूल करने को उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी दरवाजे पर चले चलो। क्या कोई जल्दी है ? सूद बढ़ाने की । वह सब करनेवाले कसाई की भाँति दुबे गुदरी को यह गुमान भी न था कि रमई इतना चतुर को मोटा करके ज़बह करता है।
होगा। समझा था कि अच्छी-सी गाय सूद में ही हड़प गुदरी ने मटका देखते हुए पूछा-"कई दिन का है ?" लूंगा। मैंझला कर बोला--"हाँ, हाँ, हिसाब कर लो। रमई ने गर्व से सिर ऊँचा करके कहा-"ताज़ा है कौन बड़ा हिसाब ? क्या हम मुफ्त माँगते हैं ? जो चाहिए, साहु । श्राज-कल छोकरवा सेवा करत है।"
पहले कोई वही दे दे तब दान की बात करे । सवा सौ का साहु का लड़का पास ही बैठा था। बाप का इशारा प्रोनोट है। श्रासाढ़, असाढ़ दो साल से ऊपर हो गया। पाते ही टोकरी उठा ले गया और बहुत जल्दी हाँफता एक सौ साठ से ज़्यादा होता है।"
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. ३७४
सरस्वती
[भाग ३८
ब्राह्मण का पत्रा और महाजन की बही हमेशा सच्ची कि माधो घर में रहकर अपनी उम्र बरबाद कर दे। अब ही मानो जाती है। इनमें झूठ की गुंजाइश ही नहीं वह कमाकर घर भर की परवरिश करने के लायक हो होती। अभी तक इस विचार में परिवर्तन की कोई ज़रूरत गया था। जब से बहू अाई थी और घर में खुशहाली थी, नहीं समझी गई। इनकी कद्र अाज भी उतनी ही है, वह अपने बच्चे और माधो के बीच कोई फर्क नहीं देखती जितनी आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व थी। रमई ने खिन्न भाव थी। मगर अब वह गैर था, नालायक और निकम्मा था। से कहा- "अच्छा साहु, गाय ले लो। सौ रुपये और वह चाहती थी कि माधो परदेश निकल जाय, मगर वह सही। कहीं से कर्ज काड़कर वह भी चुकाया जायगा। साफ़ साफ़ कह नहीं सकती थी, शायद सौतेलेपन के अब तो फँसे ही हैं।"
लाञ्छन का डर था। वह खुद जलती थी और उसी अाग "तो क्या साठ लोगे?"
में माधो को भी जलाती थी। “साहु, बड़ा जतन हुआ तब तैयार हुई है। साढ़े जिस दिन गुदरी साहु ने गाय ली उसके महीने सवा तीन सेर जब जी चाहे, दुह के देख लो।"
महीने बाद माधो घर से गायब हो गया। ताख में रमई .. "भाई, हम तो पैंतिस से ज़्याद न देंगे। अाखिर के रक्खे हुए कुछ रुपये और बहू के कुछ ज़वर गायब थे। व्योहार किस दिन के लिए किया था ? गऊ इसी देहात में घर में तहलका मचा हुआ था, लेकिन रजनी चुप थी, एक से एक पड़ी हैं। मुझे गाय की ज़रूरत थी। रुपये मानो उससे कोई सरोकार ही न था या माधो उससे कह न थे। चाहता था, तुम्हीं से ले लूँ । खैर, तुम्हारी इच्छा कर गया था। नहीं है तो न दो, लेकिन रुपयों का इन्तज़ाम कर दो।मैं किसी दसरी जगह से मैंगा लूँगा और जो फँसने फँसाने की माधो चार वर्ष के बाद कमाकर घर लौटा। बात कहते हो तो कोई फंदा लेकर तुम्हारे घर नहीं गया साथ में एक सूटकेस और फलों की टोकरी थी। रमई उसे था। सौ मरतबे पैर पर गिरे तब भाई दे दिया। समझा था इस तरह देख रहा था, जैसे वह ख़दा के घर से पाया हो कि तुम एहसान न भूलोगे । उसका यह फल पाया ।" या कोई आसमानी फ़रिश्ता हो जो उसे कर्ज़ से मुक्ति देने __रमई गुदरी साहु के बाप के वक्त से दूध, दही, रस, आया हो। माधो अपनी कमाई की कथा सुना रहा था कटहल पहुँचाया करता था जब उसे पैसों की हाजत न कि किस तरह उसने ज़ेवर बेच कर गाय मोल ली और थी। वह कह सकता था कि साहु, मैंने भी व्योहार इसी पैसे बचाकर अपना कारोबार बढ़ाया। बातचीत करते लिए किया था कि समय-कुसमय पर हमारी मदद करोगे, समय उसने गुदरी साहु का नाम कई बार लिया! रजनी न कि कमज़ोर समझ कर उल्टा मेरी गर्दन दबाओगे। अन्दर से सुन रही थी। उसे लड़के की कमाई का लेकिन किसान एहसान जताना गुनाह समझता है। विश्वास होगया। उसने धीरे से माधो का नाम लेकर उसके नज़दीक एहसान की कोई कीमत नहीं । मालूम नहीं पुकारा । वह कई महीने से बीमार थी। यह उसका सीधापन और संकोच है या सदियों के कर्ज ने माधो घर में नहीं जाना चाहता था, लेकिन इनकार उसे इतना कायर बना दिया है।
भी न कर सका । भीतर जाकर मा के पैर छुए और उसकी . रमई यह धमकी सुनकर डर गया और बोला- चारपाई पर बैठ गया। वह उसकी तरफ़ देखने लगा, मानो "अच्छा साहु, ले लो।" रमई ने गऊ-दान कर दिया। मा के हुक्म का इन्तज़ार कर रहा हो। इसे दान ही कहेंगे। साठ-सत्तर का माल केवल पैंतीस रजनी ने कहा- "बेटा, मैं तो बहुत बीमार हूँ। बचने रुपये पर ! किसान अपना माल कभी अच्छी कीमत पर की उम्मीद नहीं। अच्छा हुआ जो तुम अागये। लड़का नहीं बेच सकता।
देखा. बह देखी, अब कुछ न चाहिए। तुम्हारे आगे गाय के बिकते ही माधो पर फिर फिटकार पड़ने मर जाती तो गति बन जाती।" लगी। सौतेली मा फिर चीखने-चिल्लाने लगी। इस माधो ने आँसू रोकते हुए मा की तरफ़ देखा। इतने परिवर्तन का एक गुप्त कारण था । वह नहीं चाहती थी में रजनी का लड़का हरखू आगया।
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संख्या ४]
रजनी ने कहा - - "बेटा, मैंने लड़कपनं से बड़ा मिज़ाज दिखाया है, मगर क़सम ले लो, मेरी यही इच्छा थी कि तुम जल्दी से जल्दी कुछ करने के लायक हो जानो । हरखू के बाप का अन्त समय है । अब उनका भरोसा ही क्या ? पेड़ के पके फल हैं । अब गिरे तब गिरे । मेरा हाल देखते ही हो । बहू तुम्हारे भाग्य से बड़ी होशियार और मेहनती मिली है। अब तुम गृहस्थी सँभालने लायक़ हो गये हो । मैं हरवू का तुमसे ज़्यादा प्यार करती हूँ । इसका मतलब यह नहीं है कि तुम ग़ैर के लड़के हो । मा हमेशा छोटे बच्चे का ज़्यादा प्यार करती है। फिर भी मैं अपनी भूल पर पछताती हूँ । अब तुम घर-गृहस्थी देखा, हरखू से खूब काम लो और उसे भी मार-पीट कर अपनी तरह मेहनती बनाओ ।"
रमई ने हरखू का फाँकनेवाली तम्बाकू लाने के लिए मेजा था। जब वह लौट कर वापस न श्राया तब वह खाँसता हुआ ख़ुद रजनी के कमरे में आया ।
रजनी ने कहा- "मैं तुमसे एक बात कहती हूँ, मानोगे ?"
मुर्ग
ܕܕ
( ६ )
माधेा रजनी के पास से उठा और सीधा गुदरी साहु के घर पहुँचा । उसने साहु से कहा - " मैं अधीनसिंह के पास चलता हूँ । तुम अपना काग़ज़ लेकर श्राश्रो । आज हिसाब हो जाय ।"
माधो- “साहु, कितने रुपये हैं ?”
रमई – “कहा भी ।"
"भैया सवा सौ थे । छः साल से ऊपर हो गया ।" अधीन सिंह -- "तब दावा क्यों नहीं किया ? और इतने ज्यादा कीमत का टिकट क्यों लगाया ? क्या रकम बढ़ाने का इरादा था ?" गुदरी की निकल आई, टुकुर टुकुर ताकने लगा । माधो ने रुपये गिन दिये और ठाकुर ने उठाकर टेंट “यही, मगर उसे घर के मामले में पूरा अधिकार में रख लिये । गुदरी ने बड़े लोभ से उन रुपयों को देखा । रहेगा ।" अधीन सिंह की नीयत उससे छिपी न रही ।
—
रजनी- - "देखो अब घर का मालिक माधो होगा ।" रमई - " बस, यही कि और कुछ
J
माधो ने गुदरी साहु का पक्ष लेना चाहा। ठाकुर गुदरी से काग़ज़ हाथ में लेकर कहा - " मैं तो अपना हिस्सा पा चुका हूँ। अगर माधो, तुम्हें रुपया देना मंज़ूर हो तो मैं इसी काग़ज़ पर पाँच सौ की रक़म लिखाये देता हूँ | बोलो मंज़ूर है ?"
माधोधनसिह को देखा । मुँह से कुछ न कहा, लेकिन आँखों से यही मालूम हुआ कि अब मैं एक पाई भी न दूँगा । हाँ, जो रुपये श्राप लिये जा रहे हैं ये गर गुदरी को मिल जायँ तो बहुत अच्छा हो I
अधीन सिंह ने कोई जवाब न पाकर काग़ज़ फाड़ डाला । (८) रजनी मर गई । माधो घर का मालिक हुआ । प्रोनोटवाले मामले का उसके दिल पर सख्त असर पड़ा । वह अनपढ़ और मूर्ख रहना ईश्वर का दण्ड समझता है । -
गुदरी अचम्भे में आ गया। अभी उसको काग़ज़ ठीक करना था । सचमुच उसके पास कोई बाकायदा काग़ज़ न था । सिर्फ़ एक सादे पन्ने पर टिकट लगाकर अँगूठे का निशान ले लिया था । वही रक्खा हुआ था । वह शोपेश में पड़ गया । "
अधीन गाँव के ज़मींदार थे। सच्चे और सीधे आदमी थे । मगर नज़र नज़राने के मामले में बड़ी सख्ती करते थे । सूखे असामियों को तो वे यों ही टाल देते थे । माधो का देखकर बोले—“कब श्राया चेला ? छाता तो बड़ा
।
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३७५
अलबेला लाया । बोल और कुछ देगा कि बस यही । " - कहते हुए उन्होंने छाता अपने हाथ में ले लिया ।
माधो ने कहा--" सरकार की ख़ातिर जान हाज़िर है । छाता की क्या बिसात है ? श्राज श्राप गुदरी महाजन का हिसाब तय करा दें ।
अधीन सिंह ने कहा – “अभी चल" । और वे डंडा उठा कर चल पड़े ।
गुदरी प्रोनोट बनाने की तैयारी कर रहा था। वह टाल-मटोल करने लगा, लेकिन श्रधीनसिंह ने ऐसी डॉट बताई कि काग़ज़ निकालना ही पड़ा। प्रोनोट क्या था, सादे काग़ज़ पर टिकट लगाकर निशान लगाकर रख लिया था, न कहीं रकम का पता था और न तारीख़ दर्ज थी ।
धनसिंह ने डपट कर पूछा - "यह क्या है ? लाला, जाल करते हो ?"
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३७६
उसने बहुत जल्दी दस्तख़त करना सीख लिया। वह स्टेशन के कुलियों और गाँव के पटवारी से बखूबी बहस कर सकता है । हरखू को वह मार मारकर स्कूल भेजता है और शाम को गाय चराता है।
गाँव में माधो की एक छोटी-सी धे के हिस्सेदार अधीनसिंह भी हैं। माधा से कोई चूँ नहीं करता । गुदरी का रहा है, क्योंकि माधो लेन-देन भी करने लगा है, मगर
दूकान है, जिसमें ठाकुर के ख़ौफ़ से कारोबार बिगड़
सरस्वती
( १ )
मादक,
कैसे इस तम में तुम जाओगे प्रियतम ? बीती रजनी न अभी ममता की निर्मम ! यह निशीथ का समीर : चंचल, अधीर ! पुलकाकुल जीवन वन स्वप्नों से अनुपम ! कैसे इस तम में तुम जानोगे प्रियतम ? ( २ ) शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला; निष्फल ही होगी क्या अश्रु-मुकुत्त-माला ? कोमल वय, काल खींचो मत, हो न दूर!
कर;
युग-तन से तृष्णा का यह दुकूल काला ! शान्त हो न पाई प्रिय, हृदय-दीप-ज्वाला !
मोह - निशा
श्री सीप्रसाद सिंह
ग़रीबों को लूटने के लिए नहीं बल्कि उनकी मदद के लिए। किसी को वह व्यर्थ के लिए रुपया नहीं देता । वह ज़बर्दस्ती वसूल कर लेता है, मगर सूद नहीं बढ़ने देता । उसके असामी आलसी और सुस्त नहीं होते । जिसकी जितनी चौकात है, उसे उतना ही क़र्ज़ मिलता है । अधीनसिंह उसके क़ानूनी सलाहकार हैं । वह उनसे कभी दबता नहीं, मगर उनको खुश रखना अपना कर्तव्य समझता है ।
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(५)
छोड़ो हठ ! शेष
अभी रात्रि प्रीति-भाजन;
होने दो ऊषा का मंगल - नीराजन !
[ भाग ३८
( ३ )
खोलो मत वातायन; अन्धकार - माया ! होगा गृह- दीपक भी लुप्त--शून्य छाया ! रजनी यह म्लान-मुखी; जिसमें चिर- अज्ञ सुखो ! बन्धन से हीन करो तुम न प्रारण काया; खोजो मत वातायन अन्धकार - माया ! ( ४ )
पूर्व
उता विवेक का न एक तारा; माया में खोया-सा सोया जग सारा ! विशिथिल श्वास- सुरभि, चपल हास !
कर
बाहुपाश,
तोड़ोगे किस प्रकार मोह- तिमिर-कारा ? पूर्व में उगा विवेक का न एक तारा !
तरु-तरु पर कूजन नत्र;
गृह-गृह में, पूजन-रव ! चिर-दिन पर आये इस घर में तुम साजन ! छोह छोड़ो हठ, शेष अभी रात्रि प्रीति-भाजन;
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सीता और हनूमान
[चित्रकार-श्रीयुत रामगोपाल विजयवर्गीया.com
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एक रोचक वैज्ञानिक कहानी
विज्ञानशाला में
.. लेखक, श्रीयुत व्रजमोहन गुप्त श्री रररर !
असमर्थ है और इसलिए उसे न जाने कैसा लग रहा है। कार चला जा रहा था। सड़क उसे इस विचित्र प्रकार के बन्धन पर जिसमें वह बँधा है, .2G के दोनों ओर ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे और आश्चर्य होता है, और कभी कभी उसकी दृष्टि जेब में 9 . वृक्षों के परली पार उनकी सघनता पड़े 'पिस्टिल' की अोर बरबस खिंच जाती है। TEXASix बढ़ती चली गई थी। उस सघन "हाँ, जब हमने अपने पत्र का कुछ भी उत्तर न पाया
व के मध्य से दो बड़े शहरों को तब सोचा कि पहले आपको एक दिन अपनी विज्ञानशाला मिलाने के लिए यह सड़क निकाली गई थी। मार्ग दिखला दें। हमारी बातों पर विश्वास न होना स्वाभाविक अच्छा न था, बहुत दिनों से सड़क की मरम्मत भी नहीं ही था, क्योंकि न जाने कितने चोर-डाक इसी प्रकार हुई थी। जहाँ-तहाँ बहुत-से गढ़े हो गये थे, किन्तु कार धनाढ्य व्यक्तियों से रुपया वसूल किया करते हैं।" उन सबको उपेक्षणीय समझ कर घरररर करता चला ही जा इस समय तक एक और व्यक्ति सामने के वृक्षों से रहा था। कार में केवल एक ही व्यक्ति बैठा था, कोट, उस रस्से को खोल चुका था और आकर जेम्स के समीप पैन्ट हैट, टाई से सुसज्जित । वही कार 'ड्राइव' कर रहा ही खड़ा हो गया था। था। सड़क सीधी थी; कार पेड़, पौधे, झाडझकाड़ सब "हाँ, मुझे आपकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ था कुछ पीछे छोड़ता दौड़ता चला जा रहा था कि कार में और मैं आपकी विज्ञानशाला देखने के लिए बहुत उत्सुक बैठे हुए व्यक्ति ने देखा कि एक मोटा रस्सा सामने सड़क भी हूँ। सब कुछ देख चुकने पर जितना सम्भव होगा, रुपया पर तना है, वह दोनों ओर के दो वृक्षों से बँधा हुआ है। भी दे दूंगा, किन्तु इस समय तो मैं एक बहुत. यावश्यक उसने ब्रेक दबाया । कार धीमा हुश्रा, धीमा हुश्रा और रुका कार्य से जा रहा हूँ।" कि पास के वृक्ष से एक व्यक्ति ने निकलकर एक रूमाल "अाशा है आप हमें हमारी इस धृष्टता के लिए क्षमा उसको नाक से लगा दिया--केवल क्षण भर के लिए। और करेंगे, किन्तु यदि अाप सोचगे तो समझ जायँगे कि हमारे उस व्यक्ति (ड्राइवर) ने अनुभव किया कि उसके हाथ। में, उसके पैरों में और उसके सिर में झनझनाहट-सी है, विज्ञानशाला एक गुप्त स्थान पर है। कोई भी व्यक्ति वहाँ और क्षण भर में वह भी शान्त हो गई। वह देख प्रवेश नहीं कर सकता। श्रापको वहाँ ले जाने का प्रबन्ध सकता है, सुन सकता है, बोल सकता है, किन्तु हाथ- करने के लिए हमें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पैर नहीं हिला सकता। उसकी आँखें जेब में पड़े पिस्टल' पड़ा है। हमारा सब पारश्रम व्यर्थ न हो जाय, इसी लिए पर गड़ी हुई है, किन्तु वह लाचार है, अशक्त है। समीप इस बन्धन का प्रबन्ध किया गया है। अब आपको हमारी हो दूसरा व्यक्ति खड़ा हुश्रा बहुत गम्भीर मुद्रा से उसकी इच्छा पर निभर करना होगा।"
ओर देख रहा है। क्षण भर के बाद उसी व्यक्ति ने निस्त- और इतने में ही जेम्स ने एक बड़ा-सा रूमाल जेब ब्धता भग की
से निकालकर स्विम की आँखों पर बांध दिया। जेम्स "श्राप घबराय नहीं मिस्टर स्विम । मैं ! कोई डाक तथा उसके साथी ने उसे वहाँ से उठाकर पिछली सीट नहीं हूँ, एक वैज्ञानिक हूँ । मेरा नाम जेम्स है ।" पर बिठा दिया। जेम्स उसकी बग़ल में बैठ गयो और
“जेम्स ! हाँ, आपका पत्र मुझे मिल गया था ।" उसके साथी ने कार को 'स्टार्ट' कर दिया । वार्तालाप फिर
और स्विम कठपुतले के समान बैठा है। वह देख प्रारम्भ हो गया । रहा है, सुन रहा है, बोल रहा है, किन्तु हिलने-डुलने में हमें ज्ञात हुआ था कि आप एक ऐसे धनाढ्य
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‘सरस्वती
[भाग ३८
व्यक्ति हैं जो अपने धन का सदुपयोग करते हैं, वैज्ञानिक प्रकार के कीटाणु तैयार किये थे और हाथ में शीशी टूट अाविष्कारकों को प्रोत्साहन देते हैं । हम लोग अनेक विचित्र जाने के कारण मे ही उनका शिकार हो गया, क्यों क काँच अाविष्कार कर भी चुके हैं और अाज-कल एक ऐसे के एक टुकड़े से मेरा हाथ कट गया था। उसके कीटाणुओं
विष्कार में लगे हुए हैं जो प्राकृतिक बन्धनों को भी के प्रभाव से मैं शायद पागल हो गया था। उसी अवस्था में नितान्त निबल सिद्ध कर देगा, जो विश्व में हलचल मचा में समुद्र में कूद गया, किन्तु डबा नहीं, बचा लिया गया। देगा । हमें उसके लिए रुपये की आवश्यकता है । रुपया जब मैं होश में लाया गया था तब मुझे मिस्टर राबट ने प्राप्त करने का साधन अत्याचार भी हो सकता था। बहुत-से बताया था कि वे एक छोटे-से 'स्टीमर' में बैठे जा रहे थे कि वैज्ञानिक मृत्यु का भय दिखाकर रुपया प्राप्त करने पर उन्होंने मुझे लकड़ी के एक बड़े कुन्दे से लिपटा हुआ लहर बाध्य हुए भी हैं। किन्तु हम सोचते हैं कि हमें व्यक्तिगत के थपेड़ों से आगे बढ़ता देखा। उनके कहने से र लाभ के लिए रुपये की आवश्यकता नहीं। यदि उचित समुद्र में कूद पड़ा और मुझे निकाल लाया । मैं बेहोश था, रीति से धन प्राप्त हो सके तो अनुचित रीति का प्रयोग वे मुझे अपनी विज्ञानशाला में ले गये और वहाँ मुझे क्यों किया जाय?"
अच्छा कर लिया। मुझे वहीं ज्ञात हो गया था कि मेरी ___"मैं आपके विचारों से सहमत हूँ, किन्तु एक बात विज्ञानशाला मेरे पीछे जल कर भस्म होगई। इस लए नहीं समझ सका। गुंत स्थान पर विज्ञानशाला बनाने का उसके बाद मैं उन्हीं के साथ काय करने लगा। उन्हें एक क्या प्रयोजन ?"
सहायक व्यक्ति की अावश्यकता भी थी और उनका मेरे "उस विज्ञानशाला के विषय में भी एक विचित्र ऊपर अधिकार भी था। उन्होंने मेरे प्राणों की रक्षा कहानी है। उसके विषय में आपको सब कुछ ज्ञात हो की थी।" जायगा। वह विज्ञानशाला बहुत पुरानी है-शायद "ये मिस्टर राबर्ट कौन हैं ?..." सदियों पुरानी। हममें से किसी ने उसे नहीं बनाया। "मेरे अाग्रह करने पर उन्होंने अपने विषय में भी एक विज्ञानशाला को गुप्त रखने से भी बहुत लाभ हैं। चाहे लम्बी कहानी बतलाई थी। वे भी एक केमिस्ट हैं। स्वतन्त्रता कितनी भी हो, किन्तु फिर भी वैज्ञानिकों के एक दिन जङ्गल में घूमते हुए, वृक्षों के झुरमुट में, पृथ्वी लिए प्रतिबन्ध होते ही हैं। उनसे अाविष्कारों में बाधा में एक बड़ी सुरङ्ग देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुअा। वे पड़ती है। इसके अतिरिक्त अनेक उत्सुक सज्जनों का सुरङ्ग के अन्दर चले गये। सुरङ्ग काफी लम्बी थी। अन्दर धावा भी होता रहता है, जिससे बहुत-सा समय नष्ट हो अँधेरा था, टाच उनके पास थी। टाच के प्रकाश की सहाजाता है।"
यता से वे आगे बढ़ते चले गये, बढ़ते चले गये और थोडी , ' कुछ देर स्विम निस्तब्ध बैठा रहा, मानो कुछ सोचने ही देर में एक कमरे में पहुँच गये। कमरे में अन्धकार का प्रयत्न कर रहा हो। फिर अचानक सजग होकर उसने था, टार्च के प्रकाश में उन्होंने देखा कि बहुत-से कहा-"मिस्टर जेम्स ! यापका नाम कुछ परिचित-सा जान विचित्र यन्त्र वहाँ टावल पर लगे हुए हैं, इधर-उधर पड़ता है। शायद छः-सात महीने हए, मैंने समाचार-पत्र बहुत-सी बड़ी बड़ी मोमबत्तियां लगी हुई हैं, जिनमें में पढ़ा था कि एक वैज्ञानिक ने समुद्र में कूदकर यात्म- कुछ पूरी और कुछ अाधी जली हुई थीं। रविट ने हत्या कर ली है और उसी रात को उसकी विज्ञानशाला में सब मोमबत्तियों को जला दिया, कमरे में काफ़ी प्रकाश श्राग लग गई। ठीक मुझे याद नहीं रहा, किन्तु शायद होगया। सब वस्तु पर गर्द जमी हुई थी। उसे देखने उसका नाम भी जेम्स ही था श्रोर इसी नाम के वैज्ञानिक से प्रतीत होता था कि पचासों वर्ष से वहाँ कोई गया नहीं के अाविष्कारों के विषय में उससे पहले भी मैंने बहुत था। प्रकाश में देखने से ज्ञात हुआ कि कमरा बहुत बड़ा कुछ पढ़ा था।"
है। वे आगे बढ़े हो थे कि सामने के कोने में एक विचित्र "हाँ मैं वही जेम्स हूँ। वह भी एक बहुत विचित्र घटना वस्तु देखी। जंजीर के सहारे काँच का एक बहुत हो गई थी। अपने जाल में मैं स्वयं फंस गया था। मैंने एक बड़ा यन्त्र छत से लटका हुआ था और उसके नीचे एक
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विज्ञानशाला में
संख्या ४]
व्यक्ति चित लेटा था। एक हाथ में 'पिस्टिल' और दूसरे में टाच लेकर वे आगे बढ़े। नीचे लेटा हुआ व्यक्ति हिल-डुल नहीं रहा था । समीप जाकर ध्यानपूर्वक देखने से ज्ञात हुया कि चित लेटा हुआ व्यक्ति जिन्दा नहीं है, मुर्दा है, उसका मुँह पूरा खुला हुआ है. ग्रां बन्द हैं। उसके मुँह के लगभग फुट भर ऊपर एक बहुत ही पतली) नली थी, जो कार लटके हुए उस काँच के यन्त्र के पेंदे में लगी हुई थी । समीप ही टेबिल पर दो मोमबत्तियाँ और लगी थीं. रावर्ट ने उन्हें भी जला दिया और फिर ध्यानपूर्वक यन्त्रों को देखने लगे। वह काँच का बड़ा यन्त्र आक्षा किसी लाल रङ्ग के तरल पदार्थ से भरा हुआ था। उस यन्त्र में और भी बहुत-सी काँच की नलियों लगी हुई थीं, जिनका सम्बन्ध इधर-उधर रक्खे हुए अन्य यन्त्रों से था। वे उसके विषय में विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने देखा कि उस नली से उक्त तरल पदार्थ की एक बूँद उस मुर्दे के मुँह में गिरी। समस्या और भी जटिल प्रतीत होने लगी। वे उसी कोने में लगे हुए दूसरे यन्त्रों को देख रहे थे कि अचानक उनका हाथ एक 'हँडिल' पर पड़ा और कड़ाक कड़ाक करके काँच के सब यन्त्र टुकड़े टुकड़े होकर गये। हतबुद्धि से वे कुछ देर खड़े रहे और फिर उस लाश के समीप आये । लाश उस तरल पदाथ में नहा गई थी । यन्त्र इतने 'फोर्स' से टूटे थे कि टुकड़े छिटक कर इधर-उधर फैल गये थे । वे लाश का निरीक्षण करने लगे, सिर बिलकुल ठंडा था, पैर भी बिलकुल ठण्डे थे | उसके वक्षस्थल पर हाथ रखा तब वे सन्न रह गये। वक्षस्थल में काफी गरमी थो धीमी, बहुत ही धीमी-सी दिल की धड़कन भी प्रतीत हुई। 'तो क्या मैं आज हत्या के पाप का भागी बना, उनके हृदय ने शून्य से यह प्रश्न किया। कुछ देर तक वे निश्चल बैठे जलती हुई मोमबत्तियों के खि फाड़-फाड़ कर देखते रहे, मानो आँख उनकी लौ में कुछ पढ़ने का प्रयत्न कर रहे हों । फिर 'टेबल' पर पड़ी वस्तुओं का निरीक्षण करने लगे । वहाँ उन्हें एक 'डायरी' मिली। उसे पढ़ने से ज्ञात हुआ कि वह एक वैज्ञानिक था । उसे अपने सिद्धान्तों पर और इसी लिए अपनी सफलता पर दृढ़ विश्वास था, इसी लिए जीवन तथा मृत्यु के प्रश्न पर आयष्कार करने के लिए उसने स्वयं अपने प्राणों की बाजी लगाई थी। रोबर्ट को प्रतीत हुआ, मानी विज्ञानशाला का एक एक यन्त्र रो-रोकर मूक
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३७९
भाषा में कह रहा है कि 'विश्व के सबसे महान् आविष्कारक की अनोखी सफलता का श्राज तूने मिट्टी में मिला दिया ! विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक की आज तूने हत्या की' । रावट के हृदय ने मूक-भाषा में ही उत्तर दिया कि 'विश्व मृत्यु जैसे शक्तिशाली शत्रु पर सदा के लिए विजय प्राप्त करना चाहता था और सफलता उसके चरणों को चूम रही थी ! निःसन्देह में हत्यारा हूँ ! और फिर उस विज्ञानशाला के एक-एक कढ़ से प्रतिध्वनि हुई 'हत्यारा ! कक्ष हत्यारा !-- हत्यारा!........ीर एक-एक मोमबत्ती की लौ ने भी मानो उसकी ओर संकेत करके कहा, 'हत्यारा !-•••••••• 'हत्यारा' !.........'
वहाँ से राबर्ट भारी दिल लिये हुए लौटे और फिर अपनी विज्ञानशाला का सब सामान भी यहीं पहुँचा दिया और सम्पूर्ण विश्व से सम्बन्ध विच्छेद कर वहीं श्राविष्कारों में रत होगये ।
इतने में ही कार ने तीन-चार चक्कर काटे और थोड़ी. देर के बाद वह रुक गया। जेम्स तथा उसका साथी स्त्रिम को विज्ञानशाला में ले गये। वहाँ उसकी आँखों की पट्टी खोल दी गई। उन्होंने उसे कुछ रासायनिक पदार्थ मुंचाये, जिससे वह ग्रान्तरिक बन्धन से भी मुक्त हो गया । राष्ट उस समय विज्ञानशाला में ही था । उसने स्विम का स्वागत किया।
स्विम ने देखा कि विज्ञानशाला में एक बहुत बड़ा 'डाइनमो' लगा हुआ है और विद्युत् का प्रकाश चारों ओर फैला हुआ है। विज्ञानशाला में चारों ओर मेज़ों पर बहुत-से यंत्र लगे हुए हैं और एक तरफ लोहे की बड़ी बड़ी मशीनें । वह इन सब यन्त्रों तथा मशीनों को देखता हुआ इधर-उधर घूम रहा था कि राबर्ट ने हंसकर कहा“मिस्टर स्विम को वह आविष्कार तो दिखा दो जिसे दिखाने के लिए इन्हें मुल्जिम की भाँति पकड़ लाये हो ।"
जेम्स ने कहा- "हाँ देखिए मिस्टर स्थिम । हमने एक प्रकार को नवीन किरणों की खोज की है, जिनकी सहायता से मनुष्य गायब हो सकता है । उस अवस्था में यह सब देख सकता है, किन्तु उसे कोई नहीं देख सकता। उन नवीन किरणों का सिद्धान्त भी 'एक्स रेज़' के ही समान है। अन्तर केवल इतना ही है कि एक्स रेज़ मनुष्य के केवल मांस में ही प्रविष्ट हो सकती हैं,
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किन्तु ये नवीन किरणें जिनका नाम हमने श्राविष्कारक के नाम पर राबर्टस रेज़ कला है, हड्डियों में से भी गुजर सकती हैं। मनुष्य किस प्रकार ग़ायब होता है, इसे . समझने के लिए आपको देखने का सिद्धान्त समझना होगा । जब किसी वस्तु पर प्रकाश पड़ता है तब वह उस वस्तु से लौटकर नेत्रों में प्रविष्ट होता है और तब हमें उस वस्तु का बोध होता है । यदि जितना प्रकाश वस्तु पर पड़े उस सम्पूर्ण का शोषण वह वस्तु कर ले तो वह काली दिखाई देती है । प्रकाश में विभिन्न रङ्ग होते हैं, सित ज्योति में सात । जब कोई वस्तु अन्य सब रङ्गों का शोषण कर लेती है और केवल एक ही रंग लौटाती है तब वह उसी रङ्ग की दिखाई देती है । इस प्रकार यदि जितना प्रकाश किसी वस्तु पर पड़े वह सब उसमें से गुज़र जाय, न वह लौटे और न उसका शोषण ही हो, तो हमें वह वस्तु दिखाई नहीं देगी। यदि बहुत पतले काँच की एक साफ़ दीवार हो तो वह हमें दूर से दिखाई नहीं देती । समीप से उसका बोध इसलिए होता है कि जितना प्रकाश उस पर पड़ता है वह सब उसमें से गुज़र नहीं जाता, उसका कुछ अंश उसकी ऊपरी सतह से लौट आता है ।"
सरस्वती
इसके पश्चात् जेम्स स्विम को एक बहुत बड़े यन्त्र के समीप ले गया । उसने एक प्रकार की सफ़ेद चादर के समान किसी वस्तु से अपने शरीर को ढँक लिया । वह यन्त्र के सामने खड़ा हो गया। राबर्ट ने एक बटन दबाया, जिससे डाइनमो के, जिसका केवल एक पहिया घूम रहा था
राम राम रटना रसिक, विश्ववन्द्य मति धीर । काव्य कल्पतरु के रुचिर, धन्य आदि कवि-कीर ॥१॥ वीर-वीरता गान में, जिसे न रुचा समास । "भारत" महापयोधि का, पोत धन्य है व्यास ||२||
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कवि-बन्दना
लेखक, श्रीयुत राजाराम पाण्डेय, बी० ए०, आयुर्वेद- केसरी
[ भाग ३८
और तीन स्थिर थे, तीनों स्थिर पहिये भी घूमने लगे । उसने दो बटन और दबाये, और यन्त्र में से एक प्रकार का उज्ज्वल प्रकाश निकलकर जेम्स के शरीर पर पड़ने लगा । पहले उसका शरीर चमकता-सा प्रतीत हुआ और फिर वह शीशे के समान पारदशक हो गया। थोड़ी देर के बाद राबर्ट ने एक बटन और दबाया और जेम्स दृष्टि से
ल हो गया । स्विम कठपुतले के समान खड़ा हुआ सब कुछ आश्चर्य के साथ देख रहा था। कुछ काल के पश्चात् रावर्ट ने यन्त्रों को रोक दिया और जेम्स फिर धीरे धीरे दृष्टिगोचर होने लगा, खानो वायु में से कोई वस्तु उत्पन्न
हो रही हो ।
" देखिए मिस्टर स्विम व तो आपको पत्र में लिखी हुई हमारी सब बातों पर विश्वास हो गया होगा ?" जेम्स ने मुस्कराते हुए कहा ।
+
“हाँ, निस्सन्देह इतनी आशा मुझे श्राप लोगों से नहीं थी । रुपये क्या 'चेक' मैं यहीं लिख देता हूँ, चेक बुक मेरे पास है ।" स्विम ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया । स्विम ने चेक लिख दिया । "हमारे प्रत्येक कार्य की सूचना आपको मिलती रहेगी ।" राबर्ट ने बिदा करते हुए स्विम से कहा । स्विम और जेम्स चल दिये और कुछ ही काल के पश्चात् कार दोनों को लिये हुए उस सघन वन में से होकर गुज़रनेवाली सड़क पर घरररर करता दौड़ा
चला जा रहा था ।
भाषा भूषण भाव-भव, काव्य रसिक सरताज । कालिदास कवि क्यों न हो, विश्ववन्द्य तू ग्राज || ३ || भाव भव्य रचना रुचिर, नव कल्पना विशाल । कवि भारवि भारवि सदृश, बेधे हृदय रसाल ||४||
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धारावाहिक उपन्यास
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शनि की दशा
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अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालन-पोषण हा था। किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषत: मामा की अनुपस्थिति में । एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, वह मामी से तिरस्कृत होकर अपने पडोस के दत्त-पारवार में शाश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना-चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त-परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने उसे अपनी पुत्र-वधू बनाने का विचार किया। अन्त में यथासमय अपने इस विचार को उन्होंने कार्यरूप में भी परिणत कर दिया। परन्तु राधामाधव बाबू के पुत्र सन्तोषकुमार की अासक्ति सुषुमा नामक कलकत्ते के एक बैरिस्टर की कन्या के प्रति थी. अतएव इस विवाह से उसे बड़ी विरक्ति हुई और उसने यह स्थिर कर लिया कि मैं इस स्त्री से किसी प्रकार का
सम्पर्क न रक्तूंगा । फलतः विवाह के बाद हो वह कलकत्ते चला आया।
सातवाँ परिच्छेद
निर्जन कारागार में उसने अपने आपको कैद कर लिया। मित्र का समाचार
इससे उसे बहुत कुछ शान्ति मिली। सन्तोष को कलकत्ता पाये प्रायः एक अव सन्तोष रात-दिन बेकार ही बैठा रहता। इससे SPROUD मास हो गया। इस एक मास में भी उसकी तबीअत बहुत घबराती। किसी तरह समय हो
वह कालेज भी नहीं गया, घूमने नहीं व्यतीत होता था। अब वह यह समझने लगा कि के लिए भी नहीं निकला। वह यदि मैं इसी प्रकार और कुछ दिनों तक रहा ता शीघ्र ही सदा ही घर के भीतर बैठा रहता। पागल हो जाऊँगा। परन्तु वह करता क्या ? कोई उपाय
किसी के आने पर वह ठीक ठीक तो था नहीं ! उसका मन उसे वहीं कैद कर रखना मिलता भी नहीं था, बातचीत भी नहीं किया करता था। चाहता था । बाहर का कोलाहल उसे श्रमह्य मालूम धीरे धीरे इस प्रकार के व्यवहार से उसके सभी मित्र उससे पड़ता था। न जाने कैसी एक प्रकार की व्याकुलता, असन्तुष्ट हो गये। उन लोगों ने करीब-करीब उसके पास एक प्रकार की अतृप्ति, एक प्रकार की वेदना मानो आना-जाना भी बन्द कर दिया। इससे सन्तोष को प्रसन्नता सदा ही उसके हृदय को दग्ध करती रहती थी, मन हो हुई है। उसने सोचा कि चलो, झंझट दूर हुया। में एक प्रकार की खिन्नता उत्पन्न किये रहती थी, हृदय भीड़-भाड़ और कोलाहल से अपने को अलग रख कर उस मानो वेदना से अवसन्न हो उठता था, उसे कुछ भी अच्छा
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सरस्वती
[भाग ३८
नहीं लगता था, किसी भी बात से उसे शान्ति नहीं कहने लगा-कहो भाई सन्तोष, बोलते क्यों नहीं हो ? मिलती थी।
गाँव से कब आये ? - सन्तोष रह रह कर यही बात सोचा करता था कि यदि कुछ देर के बाद कम्पित कण्ठ से सन्तोष ने कहाकभी सुषमा या उसके परिवार के लोगों से मुलाकात हो मुझे पाये प्रायः तीन मास हो गये।। गई. तो उनसे क्या कहूँगा। मैंने अवश्य ही नितान्त सन्तोष को यह बात सुनते ही कुछ अाश्चर्य में अनिच्छा से यह विवाह किया है, परन्तु क्या वे लोग इस आकर अनिल ने कहा-तुम्हें आये इतने दिन हो गये ! बात पर विश्वास कर सकेंगे ? या यह सब विवरण बतलाने मुझे तो कुछ मालूम ही नहीं हो सका। मेरे यहाँ क्यों नहीं से ही उन लोगों को क्या लाभ होगा? कभी कभी सन्तोष श्राये भाई ? यह भी सोचता था कि सुषमा वास्तव में मुझे प्यार करती सन्तोष उस समय बड़ी चिन्ता में पड़ गया था। थी या नहीं, मैंने उसके सम्बन्ध में भूल से तो यह बह सोचने लगा कि कौन-सा कारण बतलाऊँ। धारणा नहीं बना ली है।
वह कोई भी ऐसा उपाय नहीं सोच सका, जिसके द्वारा धीरे धीरे सन्ध्या का अन्धकार कलकत्ता महानगरी यह बतलाता कि तुम लोगों के साथ मेरे सारे सम्बन्धों को अाच्छादित कर रहा था। चारों ओर अगणित दीप- का ही अन्न हो गया है, वहाँ जाने का मार्ग मैंने अपने शिखायें प्रज्वलित हो उठीं। उस समय सन्तोष के मन में आप ही रुद्ध कर दिया है, क्या मुँह लेकर मैं तुम्हारे द्वार यह बात आई कि ज़रा-सा इधर-उधर घूम पाऊँ तो सम्भव पर फिर जाऊँ? है कि चिन्तायें बहुत कुछ कम हो जायँ। यह सोचकर सन्तोष को निरुत्तर देखकर अनिल ने व्यथित कण्ठ सन्ध्या के अन्धकार में वह घूमने के लिए निकला। से कहा-तेरी यह दशा कैसी हो गई है भाई ? तेरे विवाह
कुछ समय तक इधर-उधर घूमने-फिरने के बाद का समाचार पाकर हम लोग कितने प्रसन्न हुए थे । सेोचा सन्तोष हेदुअा तालाब के पास आया। यहाँ आने पर था कि तू हम लोगों को पत्र अवश्य लिखेगा। परन्तु भाई, उसने अत्यधिक क्लान्ति का अनुभव किया। इससे वह वहीं तुमने खबर तक न दी। यह क्यों भाई ? क्या तुम हम बैठ गया, सोचा कि ज़रा-सा विश्राम कर लूँ। वहाँ लोगों से नाराज़ हो ? बैठते ही अतीत की कितनी मधुमय स्मृतियाँ उदित होकर सन्तोष ने दृढ कण्ठ से कहा-क्या वह भी विवाह उसे अान्दालित करने लगी। चार मास पहले वह सुषमा जैसा विवाह था, जिसके लिए सबको सूचना देता ? पिता को लेकर उसके भाई के साथ प्रायः यहाँ घूमने पाया की अाज्ञा टाल नहीं सका, इससे विवाह कर लिया है । करता था। उस समय पूण अानन्द के साथ उसके दिन वह तो वास्तविक विवाह नहीं है। व्यतीत हो रहे थे। हाय ! कहाँ वह दिन और कहाँ अाज अनिल ने संशयपूण स्वर से पूछा-यह क्या? यह की दुर्दशा का दिन ! कितना अन्तर था ! यदि वह कैसी बात कहते हो भाई ? इस तरह की बात क्या तुम्हारे समय फिर लाटा सकता! अतीत की स्मृतियों ने चारों मँह से शोभा देती है ? विवाह भी कभी झट-मठ हो
ओर से घेरकर मानो उसे ज़ोर से पकड़ लिया। असह्य सकता है ? यन्त्रणा के मारे उसका दम-सा घुटने लगा, इतने में पीछे “सम्भव है कि मेरा यह कथन दूसरों के सम्बन्ध में से कोई बोल उठाये क्या सन्तोष बाबू हैं ? कब ग़लत हो, किनु मेरे सम्बन्ध में तो ठीक ही है।" श्राये भाई ?
“यह तुम पागलपन कर रहे हो सन्तोष।" सन्तोष ने जैसे ही मस्तक उठाकर देखा, अनिल असहिष्णु भाव से सन्ताप ने कहा-अनिल, यह खड़ा था। उसे देखते ही विस्मय के मारे वह स्तम्भित- पागलपन नहीं है। यह मेरे मन की पक्को बात है। सा हो उठा। दु:ख के आवेग के कारण उसके मुँह से बड़ी देर तक चुप रहकर अनिल ने कहा-क्या बात नहीं निकल रही थी।
हुआ है सन्तोष ? बतलाते क्यों नहीं? इस तरह की बाते अनिल ने सन्तोष के कन्धे पर हाथ रख दिया। वह क्यों कर रहे हो ?
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संख्या ४]
एक रूखी हँसी हँस कर सन्तोष ने कहा- बात किस तरह करता हूँ ? क्या तुम अब भी समझ रहे हो कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह मिथ्या है ?
अनिल ने दुःखमय स्वर में कहा- क्या मैं यही बात कह रहा हूँ? मेरा कहना तो यह है कि जब तुमने विवह ही कर लिया तब अब इस तरह की बातें क्यों कर रहे हो ?
शनि की दशा
रुँधे हुए कण्ठ से सन्तोष ने कहा - भूल -भूल ! भूल की है अनिल । मैंने जबरदस्त भूल की है। परन्तु जो कुछ हुआ वह तो हो गया। अब मैं उस पाप का प्रायश्चित्त करने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।
यह सुनकर अनिल सोचने लगा तो क्या सन्तोष ने सचमुच अपनी इच्छा के विरुद्ध ही विवाह किया है या यो हो निरर्थक बातें बना बना कर मुझे भुलावे में डाल रहा है ? परन्तु मुझे भुलावा देने से उसे क्या लाभ होगा? इससे तो कोई विशेष फल हो नहीं सकता। उसने जो कुछ कर डाला है वह अब लौटने को नहीं है । तब भला वह क्या करेगा? वह बेचारी निरपराध बालका क्या करेगी ? उच्च शिक्षा पाकर भी सन्तोष यह कैसा मुख का सा आचरण करने जा रहा है ? इसका परिणाम क्या होगा ? इसे यदि समझायें तो क्या यह सुनेगा ? उसके रंग-ढंग से तो ऐसी आशा पाई नहीं जाती । तो भला वह किस प्रकार इस संकल्प का परित्याग करने के लिए बाध्य किया जा सकेगा ? यह सब वह कुछ भी निश्चय नहीं कर सका ।
सन्ध्या समय की शीतल और मन्द मन्द वायु आकर उन दोनों के शरीर पर पंखा भल रही थी सन्तोष 1 सोच रहा था, ग्रहा ! मेरे शरीर के भीतर भी यदि यह हवा इसी तरह की शीतलता उत्पन्न कर सकती ! परन्तु कदाचित् यह ज्वाला शीतल होनेवाली नहीं है। शीतल कैसे हो? मैंने तो स्वयं अपने हाथ से ही कालकूट का भक्षण किया है। चिरदिन तक मुझे उस विप की ज्वाला से जर्जरित होना पड़ेगा। इससे मेरा छुटकारा नहीं है । यह संसार सहानुभूति से विहीन है । यह मेरा दुःख नहीं समझ सकेगा । अपने मन की बात यदि किसी से कहूँगा तो भी वह मेरे प्रति घृणा का ही भाव प्रकट करेगा, दया न प्रदशित करेगा ।
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सन्तोष इसी प्रकार की विचार धारा में तल्लीन था । एकाएक उसे वह समय याद आया जब उसने अपने मन में कहा था- यदि श्रावश्यकता पड़ी तो सुषमा के लिए मैं पिता के ऐश्वर्य तक का परित्याग करने से मुँह न मोडूंगा। यह बात मन में आते ही सन्तोष के दुःख की सीमा न रही। वह मन ही मन कहने लगा- श्राज मेरा वह अभिमान कहाँ है? उस दिन क्या मैं यह समझ सका था कि दपहारी एक दिन इस तरह से मेरा दर्प चूर्ण कर देंगे ?
दोनों की नीरवता भंग करके सन्तोष ने कहा- अनिल, रात हो गई है। चलो, अब घर चलें ।
गैस की जगमगाती हुई रोशनी में सन्तोष के उदासऔर सूखे हुए मुंह की ओर ताक कर अनिल ने कहासन्तोष, बतलाने में यदि तुम किसी प्रकार की हानि न समझो तो बतलाओ भाई कि तुम्हें किस बात का क्लेश है ।
रुँ हुए कण्ड से सन्तोष ने कहा- अनिल, किस तरह समझाऊँ भाई मुझे बड़ा कष्ट है। ?
अनिल उसके गले से लिपट गया। वह गम्भीर स्वर में कहने लगा- तुम पढ़े-लिखे हो, पुरुष हो । तुम्हें क्या इतनी ही सी बात में अधीर हो जाना चाहिए भाई ?
सन्तोष ने अनिल के कन्धे पर मस्तक रख दिया। श्रमुखों से हुए कएड से वह कहने लगा- यह जरासा कष्ट नहीं है अनिल में समझता हूँ कि इसकी
रुँधे
तुलना...।
एक लम्बी साँस लेकर अनिल ने कहा- छिः ! भाई, इस तरह की बात मन से निकाल दो। बाद का कहीं कोई अनर्थ न कर बैठा तुम्हें हुआ क्या है ? जरा बतलाओ तां ।
I
सन्तोष ने कम्पित कण्ठ से कहा- अनिल, मैंने तुम्हें उस दिन से बड़े भाई के ही समान
9
जिस दिन देखा है मानता आया हूँ । तुमसे कोई बात तुमसे कोई बात छिराऊँगा नहीं । छोटा भाई समझ कर मुझे क्षमा कर देना। परन्तु एक बात है अनिल तुम्हारी बहन को छोड़कर मेरी और कोई स्त्री नहीं है मेरे हृदय में सुषमा को छोड़कर और किसी के लिए भी स्थान नहीं है । सुनो अनिल, अपने आपको अपराधी समझकर अपने मन के साथ मैंने बहुत बुद्ध किया है, परन्तु उसे अपने वश में नहीं कर सका ।...... वह कुछ कह नहीं सका ।
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सरस्वती
[भाग ३८
आठवाँ परिच्छेद
विचारे दुर्दान्त मनोवृत्ति की प्रेरणा से ज्ञानहीन होकर बुआ जी का पत्र
पुत्र-वधू का मैंने किस प्रकार सर्वनाश कर दिया है, शायद राधामाधव बाबू के दिन जिस तरह बीत रहे थे, उसी मैं इसका प्रतीकार किसी प्रकार भी नहीं कर सकता हूँ। तरह बीतने लगे। उन्हें देखकर एकाएक यह कोई नहीं वासन्ती भी जहाँ तक हो सकता, अपनी मानसिक समझ पाता था कि उनके मन में किसी प्रकार की अशान्ति अवस्था को श्वशुर से छिपाये रखने का प्रयत्न किया करती का भाव है या उनमें किसी प्रकार का परिवतन हुअा है। थी। विवाह के समय वह निरा बच्ची तो थी नहीं। अवस्था प्रतिदिन सन्ध्या-पूजा से निवृत्त होने के बाद वे काम-काज में साथ हो साथ उसके ज्ञान में भी बराबर वृद्धि होती जा में लग जाते और सभी काम समाप्त किये बिना वे न रही थी और उसे अब यह समझना बाक़ी नहीं रह गया था उठते। दोपहर में वे अन्तःपुर में भोजन करने के लिए कि मेरी वास्तविक अवस्था क्या है। परन्तु उसके दुःख के जाते। वासन्ती को वे अपने पास बैठाकर भोजन कारण कहीं श्वशुर के हृदय पर श्राघात न लगे, इस कराया करते थे। एक दिन वासन्ती ने इस विषय में अाशङ्का से अपने मन का भाव उन पर वह किसी प्रकार श्राप त्ते की थी, इससे वे दुःखी हुए थे। तब से वासन्ती भी नहीं प्रकट होने देना चाहती थी। उसके पति का का भोजन करने का स्थान राधामाधव बाबू के समीप ही व्यवहार किस प्रकार हृदय-विदारक था, यह भला बुद्धिमती . हुआ करता था।
वासन्ती कैसे नहीं समझ सकती थी? बसु महोदय सभी कुछ चुपचाप सहन करते जा रहे विवाह के बाद बुबा जी जब इलाहाबाद के लिए थे। वे केवल उसी समय अत्यधिक दुःखी हुआ करते थे रवाना हुई तभी सन्तोष कलकत्ते चला गया था, वहाँ जब वेदना से पीड़ित दीन-हीन वासन्ती उनके दृष्टि-पथ से वह लौट कर आया नहीं। पु. के इस अनचित में अा पड़ती। उसे देखकर राधामाधव बाबू के हृदय आचरण से वसु महोदय बहुत ही मर्माहत हुए थे। परन्तु को इतनी अधिक यन्त्रणा होती कि उसके आवेग को सहन वे थे बहुत ही धीर पुरुष, इससे उनके हृदय की अशान्त करना असम्भव हो जाता। वे यह बात अच्छी तरह जानते का किसी को आभास तक नहीं मिल सका। उन्हें यह थे कि वासन्नी के सुख-दुःख का मैं ही एक-मात्र कारण किसी प्रकार भी सह्य नहीं था कि बाहर के लोग मेरे पुत्र हूँ। वे प्रायः सोचा करते कि उच्छङ्खलता के कारण मेरा के व्यवहार के सम्बन्ध में जैसी-तैसी आलोचना करते फिरें। पुत्र मेरे अधिकार से निकला जा रहा था, उसे ठिकाने परन्तु वे यह भी अनुभव किया करते थे कि पुत्र का यह पर लाने के लिए ही मैंने वासन्नी के साथ उसका विवाह अाचरण क्रमशः भाई-बिरादरी और नातेदार-रिश्तेदार किया है। परन्तु ऐसा करके मैंने वासन्ती को कैसी दुर्दशा लोगों को मालूम हुए बिना न रहेगा। यह सोच कर वे में डाल दिया है।
और भी दुखी हश्रा करते थे। बार बार सोचने पर भी ___वासन्ती जब कभी राधामाधव बाबू के दृष्टिपथ पर यह बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि इतनी सुन्दर श्राती, उसके मुख पर विवाद की छाया वर्तमान रहती। हाने पर भी वासन्ती सन्तोष को क्यों नहीं पसन्द आ सकी। नीले कमल के समान उसकी सुन्दर सुन्दर आँखों में तो क्या अनादि बाबू की कन्या वासन्ती की अपेक्षा अधिक कालिमा की रेखा उदित हो पाई थी। उसके मुआये सुन्दर है ? सम्भव है कि वह गुणवती हो, किन्तु वासन्ती हुए मुँह पर दृष्टि स्थिर करके वे गम्भीर चिन्ता में निमग्न किसी के प्यार करने के योग्य नहीं है, यह बात उनकी हो जाते। वे सोचते कि मामी के कठोर शासन में तरह- धारणा से परे थी। तरह के दुःख सहते रहने पर भी उस दिन दीपक के क्षीण वासन्ती कभी किसी तरह का ठाट-बाट नहीं बनाती अालेोक में वासन्ती का मुख इस तरह सूखा नहीं दिखाई थी। वह सदा बहुत सादी पोशाक में रहा करती थी। पड़ा, उसके चेहरे पर इतनी उदासी नहीं मालूम पड़ी। उसके मुखमण्डल पर किसी प्रकार का तेज नहीं रहता था । अनुताप से उनका हृदय परिपूर्ण हो उठता। उसी क्षण उसे इस प्रकार की मलिन अवस्था में देखते ही राधामाधव उनके हृदय में यह बात अाया करती कि बिना सोचे- बाबू यह सोचा करते थे कि अतुलित ऐश्वयं के बीच में
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संख्या ४]
शनि की दशा
अाकर भी वासन्ती सुखी न हो सकी। अपनी अक्षम्य भी देता। परन्तु ऐसी बात तो नहीं है। साला शराब निर्बुद्धिता को सहन बार धिक्कार देकर एक दिन वे हृदय- पीकर गली-गली मौज उड़ाता पि.रता है, और जब लगान विदारक व्यथा से अस्थिर हो उठे। उन्होंने सोचा कि देना होता है तब उसके पास पैसे ही नहीं रह जाते। .. वासन्ती क्या मेरे दृष्टि पथ पर आगई। यदि ऐसा न हुआ "वह तो श्राज कई साल से ऐसा ही कर रहा है।" होता तो उसका भाग्य किसी और ही मार्ग से प्रवाहित यह कह कर दीवान जी चले गये। होता । शायद वह सुखी हो सकती।
___ वसु महोदय एक एक करके चिट्ठियाँ पढ़ने लगे। उस दिन प्रातःकाल वसु महोदय बैठे हुए हुक्का पी अन्त में एक चिट्ठी खोल कर पढ़ते पढ़ते उनका मुँह लाल
। उनके पास ही बैठकर दीवान सदाशिव हो गया। वह पत्र हाथ में लेकर वे कुछ क्षण के लिए बातचीत कर रहे थे। थोड़ी-सी ज़मीन के बारे में चौधरी अन्यमनस्क हो गये । वह चिट्ठी इलाहाबाद से सन्तोष की परिवार से वसु महोदय का झगड़ा चल रहा था। उस बुया ने लिखी थी। सम्बन्ध में क्या करना चाहिए और किस तरह से अपना "श्रीचरणकमलेषु. पक्ष प्रबल बनाया जा सकता है, इसी बात का परामर्श भैया, मैं विशेष कारण से आपको पत्र लिख रही हूँ। हो रहा था। वसु महोदय ने कहा- देखो सदाशिव, मैने आशा करती हूँ कि मैं जो कुछ लिखूगी उससे श्राप दुःखी ही यह ज़मींदारी बनाई है। इधर लड़के की ऐसी न होंगे। वहाँ से आने पर कलकत्तं के एक प्रात्मीय का बुद्धि है कि इसकी रक्षा कर सकेगा, यह मुझे नहीं समझ मुझे एक पत्र मिला है। उस पत्र में सन्तोष के सम्बन्ध में पड़ता । इस सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है ? जो कुछ लिखा है उसके कारण मैं बहुत चिन्तत हो
दीवान ने कहा- मैं तो उसे छुटपन से देख रहा हूँ। उठी हूँ । मैं वहाँ जब तक रही हूँ तब तक यह बराबर इस समय उसके ऊपर आपको क्रोध आगया है, इसी लिए देखती रही कि उसकी चाल-ढाल अच्छी नहीं है। ऐसा कह रहे हैं । परन्तु हमारा सन्तू ऐसा लड़का नहीं है, सोहागरात के दिन मैंने उससे बहुत अनुनय-विनय की । बाद यह बाद को आपको मालूम होगा।
___ को मुझे बड़ा क्रोध आया और मैंने उसे बड़े ज़ोर से डाँटा। __ एक लम्बी साँस लेकर वसु महोदय ने कहा--यह कैसे तब वह किसी प्रकार भीतर सोने के लिए तैयार हुअा था। कहा जा सकता है सदाशिव ? उसका व्यवहार देखकर तो उसी रात को उसने मुझसे यह भी प्रतिज्ञा करवाई थी किसी प्रकार का भरोसा ही नहीं होता।।
कि भविष्य में मैं उससे इस विषय में अाग्रह न करूँ! सदाशिव ने कहा-अपने इस प्रकार के प्राचरण के "मुझे जहाँ तक विश्वास है, सन्तोष कलकत्ते से कारण वह क्या सुखी हुअा है ? इस बात को चाहे वह यदि हटाया गया तो बहू का भविष्य बहुत ख़राब हो अाज न समझे, किन्तु बाद को समझेगा। सम्भव है कि जायगा । परन्तु सन्तोष के ऊपर शासन करने का परिणाम उस समय वह पश्चात्ताप के मारे अापके पास क्षमा माँगने अच्छा न होगा। आप ज्ञानी हैं। आपको उपदेश देना मेरी के लिए दौड़ा पावे।
धृष्टता होगी। श्राप उसे बुलाकर ज़रा अच्छे ढंग से समझा "तब तक शायद मैं जीता ही न रहूँ !"
दीजिए कि ब्राह्म या विलायत से लौटे हुए अादमी की कन्या “यह तो दूसरी बात है।"
के साथ विवाह करना हमारे हिन्दू-धर्म के विरुद्ध है। मेरे इतने में दरबान अाया और बाबू के सामने चिट्ठी-पत्री अात्मीय ने लिखा है कि सन्तोष ने आज-कल कालेज रख कर चला गया। दीवान सदाशिव ने कहा-त. मैं एक जाना भी छोड़ रखा है। वह ता घर से निकलता भी नहीं। . बार उस ओर घूम ग्राऊँ। दीनू भोडल ने इधर चार-पाँच अापको इस समय वही काम करना चाहिए जिससे साल से लगान नहीं दिया। श्राज के लिए उसने वादा उसका हर प्रकार से मंगल हो। सन्तोष को किस प्रकार से किया है । काशीनाथ को उसके पास भेज पाऊँ । उन लोगों के सम्पक से पृथक रक्खा जा सकता है, इस ___ वन महोदय ने कहा-उस साले के ऊपर नालिश विषय में विशेष सावधानी से काम लेने की आवश्यकता क्यों नहीं कर देते । यदि वह असमर्थ होता तो मैं छोड़ है। वह अब भी बालक है, अपने भविष्य के सम्बन्ध में
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कुछ नहीं जानता । अन्त में क्या वह फिर से विवाह करके समाज के सामने आपका ऊँचा मस्तक नीचा कर देगा ? और अधिक क्या लिखूँ । आप और भाभी जी मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिएगा । बहू को मेरा स्नेहपूर्ण ग्राशीर्वाद कहिएगा । उसके लिए मैं बहुत उत्कण्ठित हूँ । इस विषय में अधिक लिखना निरर्थक है । बहू को कह दीजिएगा के उसकी चिट्ठी का उत्तर शीघ्र ही दूँगी । इति ।
आपकी स्नेहपात्री महामाया ।"
देवी उपा करती समाविष्कृत स्वमाया या रही, दिवि संभवा जग में प्रकट महिमा महा दिखला रही । द्रोही तमीचरभूत, अप्रिय अन्धकार भगा रही, कर गन्तृतम वन-पथ प्रकाशित चेतना फैला रही ॥ ऊषे ! जगे कल्याण हित हम आज हे महिमामयी ! सौभाग्य श्रीनिधि दो हमें हे देवि ! संतत नित नई | श्रद्भुत अतुल धन ग्रन्न -जन से नित हमारे गृह भरो, मानवहितैषिण ! यश हमारा विश्व में विश्रुत करो || प्रारम्भ जग में देवगण सम्बन्धित करती हुई,
अन्तरिक्ष समस्त निज आलोक से भरती हुई । अवलोकनीया श्री उषा की रश्मियाँ वे श्रा रहीं, देखा मरणा विविधवर्णा छवि चतुदिक छा रहीं ॥ जोते हुए स्यन्दन स्वयं प्रति दूर से आती हुई, श्रवलेोकती सर्वत्र ही मानव-चरित जाती हुई । स्वर्लोक- दुहिता श्री उषा रानी अखिल संसार की, है गई क्षण में ग्रहो सब पञ्च वसती पार की ॥
सरस्वती
[ भाग ३८
वसु महोदय बहन का पत्र पढ़कर चिन्ता में पड़ गये । क्या करना चाहिए, यह वे किसी प्रकार ठीक ही न कर सके । कुछ देर तक वे किंकत्तव्यविमूढ होकर बैठे रहे। बाद को उन्होंने निश्चय किया कि तार देकर सन्तोष को बुला लेना चाहिए। श्राने पर उसे समझाने का प्रयत्न किया जाय । देखें, वह क्या कहता है । उन्होंने अर्दली से तार का एक फ़ार्म मँगवाया और उस पर सन्तोष को घर आने को लिखकर उसे तारघर भेज दिया ।
उपा
लेखक, श्रीयुत रामेश्वरदयाल द्विवेदी
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श्रारूढ़ हो वर वाजिनी पर रवि-प्रिया यह श्रा रही, धन-धान्य भरती विश्व में वरदान सुख का ला रही । है क्षीण करती आयु प्रतिदिन प्राणियों की जा रही, ऋषि संस्तुतामा अमित है मेदनी में छा रही ॥ वे रङ्ग रञ्जित जगमगाते अश्व है दिखला रहे, देवी प्रभापूर्ण उषा को जो गगन में ला रहे । है शुभ्रवण चमचमाते स्वर्ण रथ पर या रही, यजमान जैन के अर्थ अति रमणीय धन है ला रही ॥ सत्या सुपूज्या धनवती देवी महामहिमामयी, है सत्य पूज्य वदान्य देवों के सहित यह आ गई । तमपूर्ण गोचर भूमि दुर्गम स्वप्रभा से भर रही, गोमण्डली भी है रंभाती देवि स्वागत कर रही ||
1
ऊषे हमें सुत-धन तथा अन्नाश्व-गो धन दान दो, जिससे हमारे यज्ञ को नरलोक में निन्दा न हो सन्तत शुभाशिष से हमारी देवि ! संरक्षा करो, ( मङ्गलमयी मङ्गल करों से मानवों के घर भरो) ॥** * ऋग्वेद की उषा-सम्बन्धी कुछ ऋचाओं का अनुवाद |
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[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस ६ की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा]
१-फिर निराशा क्यों ?-लेखक, श्रीयुत गुलाब- १-श्री अरविन्द और उनका योग-संपादक, राय एम० ए०, प्रकाशक, गंगा-पुस्तक-माला-कार्यालय, श्रीयुत लक्ष्मण नारायण गर्दे हैं। पता-श्री अरविन्दलखनऊ हैं । मूल्य ११) है।
ग्रन्थमाला, ४, हेयर स्ट्रीट, कलकत्ता । मूल्य |) है। २-भारतीय भेषजरत्नावली-लेखक, डाक्टर योगिवर अरविन्द घोष के योग का 'सम्यक तथा लक्ष्मीचरण वर्मा, एम० बी०, प्रकाशक, दि धनेश्वरी, प्रामाणिक ज्ञान' हिन्दी-भाषियो का कराने के उद्देश होमियो-फारमेसी, शिवगंज, अारा हैं । मृल्य १) है। से 'श्री अरांवन्द-ग्रन्थमाला' के प्रकाशन का आयोजन ____३-शुक-पिक (कविता)-लेखिका, श्रीमती तारा किया गया है। उस ग्रन्थमाला की यह प्रथम पुस्तक है। पांडे, प्रकाशक, विशाल भारत-बुक-डिपो. १९५१ हरिसन- इसमें श्री अरविन्द के योग तथा उनके अाध्यात्मिक रोड, कलकत्ता हैं । मूल्य |||) है।
विचारों पर प्रकाश डालनेवाले सात नियन्धों का अनुवाद ४-संगीत-सुधा ( गीत )-संकलनकर्त्ता--श्रीयुत है। ये निबन्ध उन विभिन्न व्यक्तियों के लिखे हुए हैं जो मुरारीलाल शर्मा, प्रकाशक, लीडर-प्रेस, इलाहाबाद हैं। उनके सम्पर्क में या उनके पाण्डेचेरी के आश्रम में रहे हैं । मूल्य II) है।
प्रारम्भ में श्री दिलीपकुमार राय द्वारा लिखित 'श्री अरविंद५-७–श्रीमती यशोदादेवी के वनिता-हितैषी- चरित्र' दिया गया है। अभीप्सा (आरोहणेच्छा), त्याग प्रेस. पा० बा० नं०४, कर्नलगंज, इलाहाबाद-द्वारा और अात्मसमपण के द्वारा चैतन्य-प्रभु को विज्ञान शाक्त प्रकाशित पुस्तके
का मन-बुद्धि, प्राण और शरीर में अवतरण करना, जड़े (१) पति के पत्र-मूल्य ||) है।
प्रकृति में दिव्य जीवन उत्पन्न कराना ही उनके योग का (२) पत्नी की मनोहर चिट्टियाँ मूल्य II) है। उद्देश इसमें बतलाया गया है। 'जीवनकला-योग' में (३) पातिव्रत धर्ममाला-मूल्य ||) है। 'हमारा योग हमारे लिए नहीं, प्रत्युत मनुष्य-जाति के
८--जीवन-ज्योति--लेखक, पंडित श्यामसुन्दर लिए है।' तथा 'हमारा योग मनुष्य जाति के लिए नहीं, द्विवेदी, प्रकाशक, श्रीबल देवदास मोहता, ३५ बाँसतल्ला बल्कि परमात्मा के लिए है।' देखने में इन दो परस्पर स्ट्रीट, बड़ा बाज़ार, कलकत्ता है। मल्य
विरोधी उक्तियों के सामजस्य की इस निबन्ध में चेष्टा की ५-जन-समुदाय की रामकहानी-लेखक, श्रीयुत गई है तथा उनका योग-रहस्य समझाया गया है। पुस्तक राधाकृष्ण तोषनीवाल, प्रकाशक, श्रीराजस्थान-हिन्दी-उपा- के अन्य निवन्ध भी ऐसे ही महत्त्व-पूण हैं। सना-म.न्दर, अजमेर हैं । मूल्य ।। है।
सम्पादक महोदय ने हिन्दी में इन विचार-पूर्ण १०–सप्त सरिता-लेखक, श्रीयुत काका कालेलकर, निवन्धों का प्रकाशन करके श्री अरविन्द की साधना और अनुवादक, श्रीयुत हृषीकेश शर्मा, प्रकाशक, सस्ता साहित्य- उनके प्राध्यामिक विचारों को हिन्दी-भाषा-भाषियों के. मण्डल, दिल्लो हैं । मूल्य ।) है । '
लिए सुलभ करने का जो प्रयत्न प्रारम्भ किया है वह सवथा ११-चंतावनी-समीक्षा-लेखक व प्रकाशक पंडित स्तुत्य है। आध्यात्मिक विचारों में रुचि रखनेवालों तथा हरदेव शर्मा त्रिवेदी, श्री मातण्ड-पंचांग-कार्यालय, कुलारी श्री अरविन्द के योग-रहस्य से परिचय प्राप्त करने की इच्छा (पजाब) हैं । मूल्य ३) है।
रखनेवालों के लिए यह ग्रन्थमाला सर्वथा संग्रहणीय है।
पुस्तक की छपाई भी सुन्दर है। अनुवाद तो प्राञ्जल है ही। ३८७
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३८८
सरस्वती
[भाग ३८
२-अम्बा-लेखक; श्रीयुत उदयशंकर भट्ट, पुरोहित के षडयन्त्र से कुछ बदमाशों से लड़ते-लड़ते प्रकाशक, मोतीलाल बनारसीदास, सैदमिट्ठा बाज़ार, उनकी मृत्यु हो जाती है । पितृ-हीन असहाय लता नदी में - लाहौर, हैं । मूल्य १) है।
दुबकर अात्म-हत्या करने जाती है । परन्तु ज़मींदार, यह एक नाटक है। इसकी रचना महाभारत की एक लोकनाथ का भावुक हृदय तथा दीनों से सहानुभाते कथा के आधार पर की गई है। भीष्म काशिराज की रखने वाला पुत्र- 'अरुण' उसको रक्षा करता है। अन्त में
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका नामक तीन पुत्रियों को लता और अरुण दोनों बहन और भाई के समान पवित्र • बलपूर्वक हरण करके ले आते हैं । इनमें से पिछली दो तो प्रेम से एक एक कुटिया में रहते और समाज-सुधार का विचित्रवीय नामक रोगी और अपाहज राजा से ब्याह दी काम करते हैं। एक दिन एक दृष्ट और सुधार की सीमा जाती हैं, और बड़ी कन्या अम्बा के सौभराज्य शल्व से से परे पहुँचे हुए ज़मींदार की हत्या अरुण कर डालता है पूर्व ही विवाह के लिए वचनबद्ध होने के कारण उनके और अंत में सत्य घटना का वर्णन करके फाँसी पाता है। पास जाने की अनुमति पाती है। परन्तु क्षत्रियत्व की लता उसके सुधार कार्य को चलाने का वचन देकर मिथ्या ठसक और मर्यादा के नाम पर शल्व उस प्रेम मयी लौट आती है। लता के पिता की मृत्यु कराने के बाद ही रमणी का अपमान करता है और उसे उच्छिष्ट कहकर पसली की अचानक पीड़ा से लोकनाथ मर जाते हैं और निकलवा देता है। अतएव वह प्र तहिसा की उग्र प्रतिमूर्ति अरुण की माता देवकी दीन और दरिद्रों की सेवा का व्रत बनकर भीष्म से बदला लेने के लिए निकलती है। अन्त लेती हैं । नाटक में रामनाथ नामक एक बौड़म मिडिल में शिव की कृपा से पर जन्म में वही अम्बा शिखण्डी के पास युवक भी अाता है, जो लता के पीछे पड़ जाता है रूप में भीष्म की मृत्यु का कारण बनती है। यही इस और अन्त में जिसे लता पागलखाने भिजवा देती है । नाटक का कथानक है।
यह साधारण कोट का नाटक है । चि:-पट की कहाभट्ट जी इसको रचना में सफल हुए हैं। चरित्रों का नियों के समान ही इसका प्लाट है। बीच-बीच में कवितायें चित्रण, भावों का घात प्रतघात तथा अपनी जोरदार और गाने हैं, जो अनेक स्थानों पर अस्वाभाविक है । रामनाथ भाषा के कारण एवं कला की दृष्टि से भी 'अम्बा' एक का चरित्र-चित्रण अस्वाभाविक तथा अनेक अशों में कथाउत्कृष्ट नाटक बन पड़ा है। क्राति की हूँकार और अव- वस्तु से असम्बद्ध है। नाटक के प्रधान पाः अरुण और मानित तथा सदा से नरत्व के द्वारा पददलित नारीत्व का लता के चरित्र साधारणतया अच्छे बन पड़े हैं। नाटक क्रोध इसमें बड़ी कुशलता से दिखाया गया है। नाटक की सबसे बड़ी त्रां यह है कि कथा वस्तु की चरम कोटि रंगमंच के लिए उपयोगी है । हिन्दी प्रमियों को इस उत्कृष्ट और विभिन्न अकी में बिखरे हुए दृश्य किसी एक मुख्य रचना का रसास्वादन करना चाहिए।
अश के पारपापक रूप में अंकित नहीं हो सके हैं। यों ३- लना-लेखक श्रीयुत रामचन्द्र सक्सेना.बी०ए० यह नाटक काफी मनोरञ्जक हे। समाज-सुधार के उद्देश हैं। मल्य ।। है। पता-सुकाव कार्यालय, फीलखाना, से लिखे जाने के कारण लेखक का प्रयास स्तुत्य है। कानपुर ।
-कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० ___यह एक सामाजिक नाटक है। लोकनाथ एक बड़े ४---श्री रामचंद्रोदय-काव्य-रचायता, श्रीयुत ज़मींदार हैं और अपने स्वार्थी तथा दुष्ट हृदय पुरो हत रामनाथ 'जोतिसी' राजकवि अयोध्या, प्रकाशक-हिन्दीकी मत्रणा से बड़ा-से-बड़ा अत्याचार करते हैं । उसी गाँव मंदिर, प्रयाग हैं । मूल्य २) में लता नामक एक सुशिक्षित कन्या के पिता समाज- यह ब्रजभाषा का एक नया काव्य है। इसमें श्री सुधारक के रूप में निधनता में जीवन काट रहे हैं। पुरोहित रामचन्द्र जी के अवतार-कारण से राज्यारोहण तक की की सलाह से धर्म की रक्षा के नाम पर एक दिन दिवाली कथा का वर्णन किया गया है। अंत में गोस्वामी जी की पर पुरस्कार देने के बहाने लता के पिता बुलाये जाते हैं रामायण के उत्तरकाड के अनुसार वेदात, ज्ञान, वैराग्य के और जब वे पुरस्कार लेकर घर लौटते हैं तब ज़मीदार और विचार भी लिपिबद्ध किये गये हैं। घनाक्षरी, सोरठा,
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संख्या ४
नई पुस्तकें
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छप्पय, चौपाई, दोहा, सवैया, वसंततिलका तथा दो-एक के एक विशेष अंग की पूर्ति होती है। इसमें लोक नीतिअन्य छंद पुस्तक में प्रयुक्त हुए हैं। बीच बीच में श्लोक संबन्धी प्रत्येक विषय पर महत्त्वपूर्ण दोहे लिखे गये हैं। भी दिये गये हैं।
पुस्तक के अंत में कवि ने अपना गौरवपूर्ण वश-वर्णन यह १६ कला में विभाजित है। लंका, राम-रावण भी किया है, जो प्राचीन काव्य-प्रणेतानों की परिपाटी युद्ध, वानर सेना अादि का वर्णन इसमें नहीं है। केवल के अनुकूल ही है। पुस्तक संग्रहणीय है। श्री रामचन्द्र जी-सम्बन्धी बातों की ही इस काव्य में ६--ब्रजभारती-लेखक-श्रीयुत उमाशंकर वाजप्रधानता है।
पेयी 'उमेश' एम० ए०, प्रकाशक, गंगा-ग्रंथागार, लखनऊ ___ इस पुस्तक के प्रणेता जोतिसी जी प्राचीन ढंग के हैं। मूल्य ||1) है। कवि हैं। अलंकार और रस पर भी अच्छा दखल रखते हैं। यह स्फुट कविताओं का संग्रह है। इसकी कवितायें इसलिए इनके इस काव्य की वर्णन-शैली अलंकारिक और दो खंडों में विभाजित हैं। पहले खंड में बाईस कवितायें रसात्मक है। स्थान-स्थान पर भाव और विचारों का हैं जो अपने ढंग की नई हैं। नये छंदों में नवीन भावों, सुन्दर सामंजस्य हुअा है। विभिन्न प्रकार के छन्दों के विचारों, कल्पनाओं का समावेश करते हुए ब्रजभाषा-शैली उपयोग. से इसके पढ़ने में अानन्द प्राप्त होता है। और उसके स्वरूप की रक्षा की गई है। नई शैली के इसका नखशिख, षटऋतु-वणन खूब सरस है। काव्य की संगीतमय छंद और ब्रजभाषा के माधुर्य से कवितायें काठनाइयों को दूर करने के लिए कहीं स्फुट नोट और आकर्षक और मनोरम हुई हैं। हमारी समझ में ब्रजभाषा टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। इस काव्य पर इसकी उत्कृष्टता के कवियों में उमेश जी का यह प्रयास नवीन, साथ ही के कारण इस वर्ष का 'देव-पुरस्कार' प्रदान किया गया सुन्दर है । 'अन्तर्वेदना', 'जीवन-फूल', 'स्वप्नन्दरी' और है। हिन्दो प्रेमियों को ब्रजभाषा के इस सुन्दर काव्य- 'भारती' बड़ी सुन्दर रचनायें हैं । 'कुसुमवतो' अतुकान्त ग्रंथ का अवलोकन करना चाहिए ।
कविता है। यह भी ब्रजभाषा में लिखी गई है, जो ५-सरस-नीति - सतसई-लेखक-साहित्य-रत्न ब्रजभाषा-प्रेमियों को नवीनता की ओर आकषित करनेपंडित शिवरत्न शुक्ल सिरस', प्रकाशक, श्री राघवेन्द्र दत्त वाली है। शुक्ल, बछरावा, गयबरेली हैं । मूल्य १||) है ।
द्वितीय खंड में छंदों के प्रयोग में ब्रजभाषा की हिन्दी में नीति काव्य की कमी है। आधुनिक काल प्राचीन परिपाटी का अनुसरण किया गया है। केवल में ब्रजभाषा में वियोगी हरि की 'वीर-सतसई प्रसिद्धि पा कवित्त और सवैया-छंद ही उपयोग में लाये गये हैं। विषय चुकी है। सिरस-नीति-सतसई' इस विषय का दूसरा ग्रंथ भी प्राचीन ढङ्ग के हैं । जैसे—'वंशीध्वनि', 'गजेन्द्रमोक्ष', है। इसमें नीति-विषयक सात सौ से अधिक दोहे हैं। 'मीठी फटकार' प्रादि । कवितायें प्रायः प्रोजदोहों का विभाजन सात शतकों में किया गया है। स्विनी और प्रवाह से पूर्ण हैं। भावों और विचारों में
भाव और विचार की दृष्टि से अधिकांश दोहे बड़े नयापन अवश्य है, किन्तु प्राचीनता की झलक यत्र-तत्र सुन्दर और बढ़िया हैं और उनके पढ़ने में आनंद अाता दिखाई देती है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और अनुप्रास है। मौलिकता का गुण भी अच्छी मात्रा में प्राप्त होता है। आदि का भी द्वितीय खण्ड की रचनाओं में अच्छा किन्नु "दृष्टान्तों की मौलिकता की दृष्टि से रहीम, वृन्द आदि समावेश है। को बहुत पीछे छोड़ दिया है", भामका लेखक गिरीश जी उमेश जी का यह ग्रन्थ सर्वथा सुन्दर और आकर्षक का यह कथन कुछ चिन्त्य त्य है । हाँ, दृष्टान्तों की मौलिकता में है। भाव, भाषा, शैली और विचारों का दिग्दर्शन इसकी कुछ विशेषताय अवश्य हैं । इसकी भाषा शुद्ध ब्रजभाषा नहीं, रचनाओं में सुन्दर रूप में मिलता है। बरन मिश्रित है। इससे दोहों में वह प्रवाह नहीं आ पाया ७-अनन्त के पथ पर-लेखक, श्रीयुत हरिकृष्ण है जो व्रजभाषा-काव्य का जीवन है । तो भी शुक्ल जी का प्रेमी', प्रकाशक, भारती-प्रिटिग-प्रस, लाहौर हैं। यह ग्रथ एक मौलिक रचना है और इसके द्वारा साहित्य मूल्य १) है।
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३९०
सरस्वती
[भाग ३८
श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' आधुनिक छायावादी कवियों बेलेपेट, बेंगलौर सिटी हैं। दाम १) सजिल्द, पृष्ठ-संख्या में अच्छा लिखते हैं। भाव, भाषा, विचार और छन्द की २६० है। दृष्टि से उनकी यह रचना शुद्ध छायावाद का एक उत्कृष्ट इसमें हिन्दी अक्षरों में उन शब्दों का अर्थ दिया गया काव्य है।
- है जो उर्दू, फारसी व अरबी याद भाषाओं के हैं और कवि के कथनानुसार 'यह पुस्तक प्रारम्भ से अंत उनमें से बहुतेरे हिन्दी-भाषा में भी प्रयोग में अाते हैं। तक एक ही कल्पना है। ससीम असीम को-या यों कहो सम्पादक ने अर्थ के सिवा यह भी दिखलाया है कि शब्द कि अात्मा ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रस्थान करती है। किस भाषा का है, स्त्रीलिङ्ग है अथवा पुनिङ्ग है या इसकी इसमें प्रात्मा की एक स्त्री के रूप में कल्पना की गई है। व्याकरण-विषयक यह बात है। प्रारम्भ में अरबी-व्याकरण वह एक कटी में बैठी हुई है। किसी के मक-श्राहान से के कुछ नियम, अरबी-फारसो के उपसर्ग व प्रत्यय का श्राकर्षित होकर वह वहां से चल पड़ती है। मार्ग में उसे सक्षिप्त विवरण दिया गया है। जिससे इस छोटे से कोष अनेक प्राकृतिक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। प्रभात के समय ।
कोष की मुख्य वह एक नाव लेकर सिंध में बह पड़ती है और उसे ज्ञात बात जो शब्द व अथ से सम्बन्ध रखनेवाली है, कहीं-कहीं होता है कि जिसकी खोज में वह चली थी वह दर त्रुटिपूर्ण अवश्य है। उदाहरणार्थ-मौज, मौजी, तजरवा नहीं है।
तजरबाकार, तजल्ली, तजम्मुल को ज़ से न होना चाहिए
और नगमा में ग़ होना चाहिए । - इस कथा की कल्पना में कवि के हृदय की सहृदयता
और ऊँची उड़ान का अच्छा दिग्दशन होता है। पाण्डत इस प्रकार की कुछ और त्रुटियाँ हैं, तथापि सम्पादक माखनलाल चतुर्वेदी, सुमन जी और मिलिन्द जी के महाशय का उद्योग सराहनीय है । लोगों को इससे लाभ कथनानुसार इसमें उप नषदों की झलक है। ऐसी दशा में हो सकता है । कोष की छपाई व काग़ज़ सन्तोषजनक है। यह मध्यम श्रेणी के काव्य-प्रामयों के रसास्वादन की चीज़
-महेशप्रसाद मौलवी आलिम फाजिल नहीं है। हाँ, दाशनिक विचारक ही इस ग्रन्थ की कीमत
९--डाबर-पञ्चाङ्ग–यह डाक्टर एस० के० बम्मन. श्राँक सकते हैं। पुस्तक में वह स्थल अधिक आकपक
कलकत्ता का सुन्दर पञ्चांग है। यह सचित्र पञ्चांग भी और कल्पनाप्रिय है जब स्त्री (आत्मा) रात्रि में कुटी को
प्रतिवर्ष की तरह बड़े सजधज से प्रकाशित हश्रा है और छोडकर पर्यटन करती है और उसे माग में नदी, तालाब, बिना मल्य वितरित किया जाता है। इसमें ग्रह, उपग्रह, उपवन, समाधि का दीपक श्रादि मिलते हैं।
राशिफल, वर्षफल इत्यादि सभी बातें दर्ज हैं । इसके सिवा अपने 'प्रवेश' में प्रेमी जी ने अपनी कुछ निजी बातें विविध और अत्युपयोगी अोपांधयों आदि का भी वणन भी लिखी हैं । एक स्थान पर लिखा है- "प्रेमी जी, है। इसमें राणा प्रताप के भिन्न भिन्न समय के तीन भव्य अापकी 'अनन्त के पथ पर' पुस्तक का जेल में गीता की चित्र हैं। यह पञ्चाङ्ग सभी के काम का है। ऐसे उपयोगी तरह पाठ होता है। यह उद्धरण पाण्डत हरिभाऊ उपा- पञ्चाङ्ग के अधिकाधिक प्रचार से 'जन-समाज का लाभ ध्याय के पत्र से लिया गया है। परन्तु हम इस रचना को ही है। 'गीतो' या 'उपनिषद' समझने में असमर्थ हैं। हम इतना
-सुन्दरलाल द्विवेदी ही कह सकते हैं कि यह एक सुन्दर काव्य-ग्रन्थ है।
१०-दी गार्डनर--यह अँगरेज़ी बाग-बगीचा-ज्योतःप्रसाद मिश्र निर्मल'
सम्बन्धी एक साचत्र त्रैमासिक पत्र है। फल-फूल व ८-उर्दू-हिन्दी-कोष-संपादक, श्रीयुत एम० वि० सब्ज़ी आदि के बीजों के विक्रेता मेसर्स पेस्टन जी० पी० जम्बुनाथन, एम० ए०, वि० एस-सी०, अध्यापक मैसूर पोचा एण्ड सन्स हैं। यही उसे प्रकाशित करते हैं । विश्वविद्यालय, प्रकाशक, एम० वि० शेषाद्रि एंड कम्पनी, इसका वाषिक मूल्य ११) है। 'गाडनर' अपने विषय का
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संख्या ४]
नई पुस्तके
.
.
.
३९१
एक उपयोगी पत्र हैं। बाग़-बगीचा के प्रेमियों को इसके . (२) बीमा और वाणिज्य-यह अपने विषय का द्वारा उपयोगी अनुभवों से काफ़ी अभिज्ञता हो सकती है। एक नया मा.सक है । सम्पादक श्रीयुत एम० आर० बंसल, अतएव उन्हें इससे लाभ उठाना चाहिए।
बी० एस सी० हैं। इंश्योरेंस एंड सोसाइटी, ४६ स्ट्राण्ड -ए० बी० सी० रोड, कलकत्ता से प्रकाशित होता है । वार्षिक मूल्य ११-१३-मराठी के ३ पत्र (१) आनन्द-यह मराठी का सचित्र मासक पत्र ३१ इसका प्रदर्शनी अंक हमारे सामने है। यह विशेष वर्ष से 'बाल-सखा' के साइज़ में निकल रहा है, जो बालक- रूप से सज-धज के साथ प्रकाशित :
रूप से सज-धज के साथ प्रकाशित हश्रा है। इसमें बीमाबालिकाओं के पढने योग्य अति उत्तम है। इसमें शिक्षा सम्बन्धी अनेक सन्दर लेखों का संग्रह किया गया है। प्रद लेखों के अतिरिक्त कुछ रंगीन तथा सादे चित्र भी दिये
बीमा-सम्बन्धी जानकारी के लिए यह पत्र विशेष उपरहते हैं । इसका वापिक मूल्य ३) है। यह छोटे श्राकार योगी है। में भी निकलता है, जिसका वापिक मूल्य २) है । पता
(३)-खत्री-हितैषी (मासिक पत्रिका)-सम्मादक, श्रानन्द कार्यालय, १९६।४६ सदाशिव पेठ, पूना।
श्रीयुत हरेकृष्ण धवन एडवोकेट, गौरीशंकर टंडन बी० ए० (२) महिला-यह स्त्रियोपयोगी पत्र तीन साल से
और प्रेमनारायण टंडन, प्रकाशक, मैनेजर, खत्री-हितैषी, निकल रहा है । इसके प्रायः सभी विषय चुने हुए और
कैसर मंज़िल, लखनऊ हैं और वाषिक मल्य || है। यह स्त्रियोपयोगी होते हैं। छपाई भी सुन्दर है। इसकी सम्पा
यद्यपि खत्री-जाति का एक जातीय पत्र है, तथापि यः दिका तथा प्रकाशका हैं श्रीमती माई वरेरकर । इसका
विविध विषय-विभूषित रहता है अतः इतर लोग भी इससे वापिक मूल्य २।।) है। पता-महिला श्राफ़िस, पाप्युलर
अपना काफ़ी मनोरञ्जन कर सकते हैं। प्रिटिग प्रेस, सूय महाल, गिरगाँव, मुंबई नं० ४ । (३) लोकशिक्षण—यह पत्रिका महाराष्ट्र-भाषा
-गंगासिंह भाषियों की सात साल से सेवा कर रही है। इसकी छपाई निम्नलिखित भाषण प्राप्त हुए । भेजनेवाले बहुत साफ़-सुथरो तथा चित्ताकर्षक है । यह एक शिक्षा- सजन को धन्यवादसम्बन्धी उपयोगी पत्र है। इसके सम्पादक हैं श्रीगणेश १-श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान का भाषण । गंगाधर जांभेकर और वाषिक मूल्य ४) है। पता- २–श्रीमती तोरनदेवी शुक्ल 'लली' का भाषण। व्यवस्थापक लोकशिक्षण कार्यालय, १९९/५ सदाशिव ३-पूज्य काका कालेलकर का दीक्षान्त भाषण । पेठ, पूना नं० २।
४-श्री सौदामिनी मेहता, बी० ए० का प्रारंम्भिक १४-१६-हिन्दी के ३ पत्र
भाषण। (१) किरण- यह एक मासिक पत्रिका है। इसके
५-श्री तारादेवी पांडे का भाषण । सम्पादक, श्रीयुत कप्तानसिंह हैं। इसका वाषिक मूल्य ३) है। ___इसका दूसरा और तीसरा अंक हमारे सामने है।
६-श्री शान्तादेवी श्रीवास्तव विदुषी, बी. ए. इसमें सचित्र तथा सादे लेखों का सुन्दर संग्रह किया गया का माषण। है। सभी लेख सुपाठ्य और उपयोगी हैं। सामयिक . ७--श्री भागीरथ जी कनोडिया का भाषण । अावश्यकताओं की पूत्ति के लिए यह एक सुन्दर पत्रिका ८-सौभाग्यवती रमारानी जैन का भाषण । है । हिन्दी प्र मयों को इससे अपनाना चाहिए । पता- उक्त सभी भाषण बिगत माघ में प्रयाग-महिलाकिरण कार्यालय, आगरा।
विद्यापीठ के वाषिक जलसे के समय पढ़े गये हैं।
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TAR
JALA
(Gaurav
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क्या आधुनिक स्त्रियाँ स्वरन्या हैं ?
श्री निराला जी की कविता
गत फरवरी मास की 'सरस्वती' में साहित्यरत्न प्रिय महोदय,
श्री शिवनारायण भारद्वाज नरेन्द्र' नामक एक सज्जन की इस मास की 'सरस्वती' में श्रीयुत सन्तराम जी का
एक छोटी टिप्पणी निकली है जिसमें उन्होंने जनवरी की 'क्या आधुनिक स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं ?' नामक लेख पढा।
'सरस्वती' के मुखपृष्ठ पर छपी 'निराला' जी की 'सम्राट इस लेख में बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो न्यायसंगत नहीं
अष्टम एडवर्ड के प्रति' शीर्षक कविता पर अपने विचार हैं। जो स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी के पद पर सुशोभित होती हैं
प्रकट किये हैं। उनके प्रश्नों के उत्तर में मेरा निवेदन हैउन्हें वासना की दासी कहना कितना न्यायसंगत है. यह
उस कविता से सबसाधारण का ज्ञान-वर्धन हो या न प्रत्येक पाठक सोच सकता है।
हो, पर 'सरस्वती' के पाठकों का अवश्य होगा जिनके __ लेखक का कहना है कि भारत का पुरुष-समाज परा
लिए वह लिखी गई है। स्मरण रहे कि 'सरस्वती' के धीन है, इसलिए स्त्रियों की स्वतन्त्रता का प्रश्न ही नहीं
पाठकों का स्टैंडर्ड' ऊचा है । फिरपैदा होता। याद अाप दूसरे को कैद में रखकर अपनी
मानव मानव से नहीं भिन्न, पराधीनता की बेड़ी को काटकर सुखी होना चाहते है तो
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा, क्या इसमें आपके हृदय की संकीणता की गन्ध नहीं है ?
वह नहीं क्लिन्न . दूसरी बात यापने स्त्रियों की शिक्षा के विरुद्ध कही ।
ऐसा सत्य सिद्धान्त जिसमें हो वह कविता अनुपयोगी कैसे है। वह भी न्यायसगत नहीं है । अाज जो बुराइयाँ आपका
* हो सकती है ? क्या नज़र श्रा रही है, क्या वे सब सह-शिक्षा के परिणाम
भेद कर पङ्क हैं ? यह कभी नहीं। अापका शिक्षा का श्रादर्श ही ग़लत
निकलता कमल जो मानव का है। क्या वे सब उच्छ खलतायें जो अन्य विश्वविद्यालयों में
वह निष्कलङ्क, उपस्थित हैं, ग्राप शान्ति-निकेतन जैसी सुप्रसिद्ध सस्था से .
__ हो कोई सर । थाशा कर सकते हैं ? वेचारी स्त्रियाँ शिक्षा का अन्य साधन से हमारा ज्ञानवर्द्धन सम्भव नहीं है? न पाकर ही तो आपके विश्व वद्यालयों पर धावा बोलती
काव्य-दृष्टि से प्रसाद का इसमें स्थान हो या न हो, हैं । इसमें भला इन लोगों का क्या दोष है ? श्राप लिखत पर माधर्य का अवश्य है। मझे तो ऐसा प्रतीत होता है हैं कि हमारे विश्वविद्यालय अाज सूखी, सड़ी, वडोल तथा कि यह कविता माधुर्य से पूर्णतः अोतप्रोत है। चश्माधारिणी तरुण स्त्रियों से भरते जा रहे हैं। अब मैं
सामयिक साहित्य साक्षर जनता को सहज सुलभ ज्ञानपूछना हूँ कि अापके युवक-सम्प्रदाय जो कॉलेजों में पुस्तक
प्रदायक हो तो निस्सन्देह बहुत अच्छी बात होगी। किन्तु के पन्न चाट रहे हैं, किस योग्य होकर वहाँ से निकलेंगे ?
१०४ पृष्ठों के सामयिक साहित्य में यदि दो-चार पृष्ठ क्या चश्माधारी युवक श्रापको विश्वविद्यालय में नहीं
क्लिष्ट सा हत्य के हों तो इससे हमारे साहित्य की कदापि मिलते हैं ?
हानि नहीं हो सकती. बल्कि इससे उसकी शोभा वृद्धि ही
होगी। प्रत्येक भाषा के लिए लिष्ट साहित्य किसी न किसी श्यामबिहारीसिंह, नालान्दा कालेज,
अंश में आवश्यक होता ही है। पटना
योगेन्द्र मिश्र, मुजफ्फरपुर
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(व्ययस्तरेखा-शब्द-पहेली
४५०)
३००) शुद्ध पूर्ति पर | न्यूनतम अशुद्धियों पर
नियम-(१) वर्ग नं०९ में निम्नलिखित पारि- भी एक ही लिफ़ाफ़ या पैकेट में भेजी जा सकती हैं। तोषिक दिये जायँगे । प्रथम पारितोषिक–सम्पूर्णतया शुद्ध मनीआर्डर व वर्ग-पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग-नम्बर ९, इंडियन पूर्ति पर ४५०) नकद । द्वितीय पारितोषिक-न्यूनतम प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से जानी चाहिए। अशुद्धियों पर ३००) नक़द । वर्गनिर्माता की पूर्ति से, लिफ़ाफ़े में वर्ग-पति के साथ मनीग्रार्डर की जो महर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र नत्थी होकर पाना अनिवार्य है। सही मानी जायगी।
रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र न होने पर वर्ग-पूर्ति की जाँच (२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए -
न की जायगी। लिफ़ाफ़े की दूसरी ओर अर्थात् पीठ पर जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत
मनीआर्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति-संख्या लिखनी अङ्क-परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से
आवश्यक है। श्रारम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है
(६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह और इस चिह्न (") के पहले समाप्त होता है। अङ्क-परिचय
जितनी पूर्ति-संख्याये मेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी ओर पढ़े जानेवाले
वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी शब्दों के अङ्क अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह
चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति का केवल एक ही पता चलेगा कि कौन शब्द किस ओर को पढ़ा जायगा ।। (३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय । पेंसिल
इनाम मिल सकता है। वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा
में नहीं लौटाई जायगी । इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें से की गई पूर्तियां स्वीकार न की जायँगी। अक्षर सुन्दर, सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए। जो
भाग नहीं ले सकेंगे।
(७) जो वर्ग-पूर्ति २४ अप्रैल तक नहीं पहुँचेगी, जाँच अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर
में नहीं शामिल की जायगी । स्थानीय पूर्तियाँ २४ ता० को दूसरी बार लिखा गया होगा वह अशुद्ध माना जायगा।।
(४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फीस पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दर के स्थानों वर्ग के ऊपर छपी है दाखिल करनी होगी। फीस मनी- (अर्थात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्ठी पहुँचने में आर्डर-द्वारा या सरस्वती-प्रतियोगिता के प्रवेश-शुल्क-पत्र
__२४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २ (Credlit voucher) द्वारा दाखिल की जा सकती है।
दिन बाद तक ली जायँगी। वर्ग-निर्माता का निर्णय सब इन प्रवेश-शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३) या
- प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा। शुद्ध वर्ग-पूर्ति
। ६) में ख़रीदी जा सकती हैं । ३) की किताब में आठ पाने की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले अङ्क में प्रकाशित मूल्य के और ६) की किताब में ११ मूल्य के ६ पत्र बँधे होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पर्ति हैं। एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पता- की शुद्धता अशुद्धता की जांच कर सके। ठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीआर्डर-द्वारा अपनी (८) इस वर्ग के बनाने में संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर' अपनी फीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियां और 'बाल-शब्दसागर' से सहायता ली गई है।
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आनन्द चाई बता ही है।
है कि नाश इसक
( ३९४ ) बायें से दाहिने अङ्क-परिचय .. ऊपर से नीचे १--मन का मोहनेवाला।
१--इसके सदुपयोग से कितनों ही की तृष्णा मिट ४-यह बिरले ही निष्काम होता है। ७-भौंरा। जाती है। ८-किसी काम का करनेवाला।
२-बच्चों के लिए मिठाई..... है। १०-लचकना में अन्तिम भाग उलट गया है।
३-यह भी सभ्यता का चिह्न है। १२-यानन्द चाहे किसी को इससे कभी मिलता हो, ४-जिसके खंड न हों।
५-यह अनुचर बिगड़कर बैठा है। १३-श्राम तौर से यही समझा जाता है कि नाश इसका ६-यह शब्द गम्भीर होता है।
फल है। १४–धरती। १६-बन्दर। ९-किसी के श्रृंगार का नख-शिख-वर्णन इसके बखान १८-यह नाल उलटी बनी है।
बिना अपूर्ण रहता है। २०-पहाड़। २१–मुश्किल ।
११-सिनेमा का अाधार इसी पर है। २३-इसका राज्य घर-घर है।
१३-यदि बड़ी हुई, तो कोई-कोई बच्चा रो उठता है। २४-एक प्रकार के लोग इससे भी लाभ उठाते हैं।
१५-रागिनी। २५-जंगल में यह शंका से खाली नहीं।
१७-तमाशा देखनेवाले को भीड़ में कभी-कभी.....'ही २७-किसी-किसी नव-वधू को सास का.... 'नहीं भाता। पड़ता है। ३१-इसका शब्द दूर तक होता है।
१९-हर एक के मन में संशय पैदा कर देने में यह बड़े ३२-लाल रंग का।
निपुण थे। ३३-भक्तों को इस पर केवल श्रद्धा ही नहीं रहती बल्कि २२-स्टेज (रंग मञ्च) पर किसी का यह कर्तव्य देखकर वे इसका पूजन भी करते हैं।
दर्शकों का ध्यान आकर्षित हो जाता है । ३४- अस्वा दष्ट होने पर भी इसे कभी न कभी स्वीकार २४-इसे स्त्रियाँ बनाती ख़ब हैं। करना ही पड़ता है।
२६ -यहाँ यूँघट उलटना पड़ेगा। २८-हरे रंग की। २९-दरार या भाव। ३०-रास्ता । नोट-रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा रहित और पूर्ण हैं
वर्ग नं०८ को शुद्ध पूर्ति - वर्ग नम्बर ८ को शुद्ध पूर्ति जो बद लिफ़ाफ़े में मुहर लगाकर रख दी गई थी, यहाँ दी जा रही है । पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं ।
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अपना याददाश्त क लिए वगं ६ की पतियों की नकल यहाँ पर कर लीजिए।
और इसे निर्णय प्रकाशन होने तक अपने पास रखिए ।
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( ३९५ ) . ७५०) में दो पारितोषिक ___ इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ ३९:: पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए और दो कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
वर्णन
कीस
वर्ग
फीस ॥
से काटिए
"" "चिन्दीदार कीर पर से काटिप ----
""चिन्दीदार शोर स से काटिए -
..चिन्दीदार सकीर
भाभ ....."विन्दीदार कौर पर से काटिए -
09
३३
३३
ग
'नारी
ग
| नारी (रिक कोहों के आलर मात्रा रहित और पूर्ण है)
मेकर का निर्णय एमे हर मकार स्वीकृत होगा। "पूरा नाम-------- -......................
(रिक कोहों के अक्षर यात्रा-रहित और पूर्ण है)
मैनेजर का निर्णय के हर प्रकार स्वीकृत होगा। 'पूरा नाम-----
पा
-...
........
म
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Jar".
au
म
.FEM
Eर ३०
- अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ९ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
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पारितोषिक विजेताओं की कुछ और चिट्ठियाँ
शब्द-सागर ने ६००)का पुरस्कार दिलाया में एक बार फिर अपनी ओर से तथा अपने छोटे भाई - आपका भेजा हा ६०० का प्रथम पुरस्कार प्राप्त की ओर से जिसका भी पुरस्कार मिला है. धन्यवाद हुआ। धन्यवाद। मुझे अत्यन्त हर्ष है और वास्तव में मैं दता हूं। बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि पहले ही प्रयत्न में मुझे सबसे
कमलादेवी बड़ा प्रथम पुरस्कार मिला। मेरा दृढ़ विचार है कि
२९ मारवाड़ी गली, लखनऊ सावधानी से वर्ग-चिह्नों के सहारे चलकर कोई भी मनोविनोद और शब्द-ज्ञान प्राप्ति के साथ विष्णु-प्रिया श्री महालक्ष्मी जी का भी कृपा-पात्र बन सकता है। परन्तु इस पुरस्कार प्राप्ति में मुझे आपका 'संक्षिप्त शब्द-सागर' आपका भेजा हुआ क्रेडिट वाउचर २२-२-३७ का बड़ा सहायक प्रतीत हुआ है।
पुरस्कार-रूप में उपलब्ध हुआ। इसके लिए धन्यवाद । कलावतीदेवी सेट
यद्यपि प्रथम प्रयास में पूर्ण सफलता न मिली, किन्तु / एन० सी० सेठ Esq., .
विजेताओं में अपना नाम पाने पर हर्ष अवश्य हुआ। अस्पताल-रोड, आगरा
इसका प्रचार कर 'सरस्वती' पत्रिका ने अत्यन्त उपकार हिन्दी-साहित्य का किया है और साथ ही काफ़ी विनोद भी इससे बढ़ता है। इसमें 'कौमन स्यन्स' से भी प्रत्येक मनुष्य
कल प्रयास से इनाम की लिस्ट में अपना नाम पा सकता मनोरञ्जन के साथ धन-प्राप्ति है। मैंने भाव की गंभीरता वा शब्दार्थ पर विशेष चमत्कार श्रापका कृपा-पत्र मिला और उसके लिए सहर्ष पाया । जैसे नं० ५ में किसी नवयुवक का......स्वाभाविक धन्यवाद । आपका पत्र पहुँचने के पूर्व मैंने 'सरस्वती' है । इसमें दो शब्द बनते थे-१ भटकना और २ अटपत्रिका से ही वर्ग नं. ७ का ३००) का प्रथम कना । स्वाभाविक शब्द पर ज़ोर था। वह अटकना ही से पुरस्कार-प्राप्ति की सूचना पा ली थी। सचमुच व्यत्यस्त- अर्थ रखता है, क्योंकि युवावस्था में प्रत्येक व्यक्ति का प्रेम रेखा-पहेलियाँ जो 'सरस्वती' में निकलती है, बड़ी सुन्दर, करना स्वाभाविक है। नं० १६ में ग्रीष्म ऋतु में सभी रोचक और अनोखी हैं और यद्यपि अनुकरण-स्वरूप गरीब-अमीर इसके ऋणी है । इसके पट और मट दो शब्द अन्य पत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा चल पड़ी है, तदपि बनते थे, किन्तु गरीब लोग पट से लाभ नहीं उठा सकते, 'सरस्वती' की पहेलियाँ अपने ढंग की अनूठी है। उनके इसलिए मट = घड़ा सभी गरीब व अमीर ले सकते हैं संकेतों पर जिनसे वैकल्पिक शब्दों का आभास होता है, और उसके ऋणी भी हैं । इसलिए मट शब्द ही ठीक यदि तुलनात्मक विचार किया जाय तो निर्दिष्ट शब्द का निकला। आदि बहुत-सी बातें थोड़े प्रयास से जानी खोज निकालना उतना कठिन नहीं जितना कि प्रत्यक्ष-रूप जाती है । आशा है, भविष्य में भी 'सरस्वती' इसका ख़ब से प्रकट होता है। साहित्यिक मनोरञ्जन के अतिरिक्त प्रचार करेगी । इसमें धन प्राप्ति की भी सम्भावना पर्याप्त है और मुझे
भवदीयविश्वास है कि वर्ग-निर्माता ने इन पहेलियों का निर्माण
तारकेश करके हिन्दी-संसार का बड़ा उपकार किया है।
देहरादून
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जाँच का फ़ार्म वर्ग नं०८ की शुद्ध पूर्ति और पारितोषिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं। यदि आपको यह संदेह हो कि आप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १) फीस के साथ निम्न फ़ार्म की खानापुरी करके १५ अप्रैल तक भेजें। अापकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे । यदि आपकी पूर्ति अापकी सूचना के अनुसार ठीक निकली तो पुरस्कारों में से जो आपकी पूर्ति के अनुसार होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फ़ीस लौटा दी जायगी। पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चुका है उन्हें इस फ़ार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
से साधि
"-."."पिन्दीदारकीररसे कादिए."
Follohe
........--विन्दावार काकोर
२८
नाग
(रिक कोहों के आलर पात्रा-रहित और पूर्ण ?)
मेयर का निर्णय पर मकार स्वीकृत होगा। | पूरा नाव-------..-......
वर्ग नं०८ (जाँच का फार्म) __ मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं०८ के आपके । उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
कोई अशुद्धि नहीं है। ..! एक अशुद्धि है।
-
नं०.........मर दो अशुद्धियाँ हैं।
..............
वर्ग.
बिन्दीदार लाइन पर काटिए
मेरी पूर्ति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त भेजिए। मैं १) जाँच की फ़ीस भेज रहा हूँ। हस्ताक्षर
से कादिष--------
पता '
.
...
----- "विन्दीदार समोर
से पाटिए
------चिन्दीदार सकौर
इसे काट कर लिफाफे पर चिपका दीजिए
202
21
| नारी
ग
(रिक कोठों के अक्षर माव-रहित और पूर्ण है। मेर का निर्णय एमे हर कार स्वीकृत होगा। "पूरा नाप---..........................
पति
मैनेजर वर्ग नं०६ इंडियन प्रेस, लि०,
इलाहाबाद
पवा-...-..
-
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सामने खोला जायगा। उस समय जो सज्जन चाहे स्वयं आवश्यक सूचनायें
उपस्थित होकर उसे देख सकते हैं । (१) स्थानीय प्रतियोगियों की सुविधा के लिए हमने (४) मनिबार्डर की रसीद जो रुपया मेजते समय प्रवेश-शुल्क-पत्र छाप दिये हैं जो हमारे कार्यालय से नकद डाकघर से मिलती है, पूर्ति के साथ, अवश्य भेजनी दाम देकर खरीदा जा सकता है। उस पत्र पर अपना नाम चाहिए। पूर्तियों की प्राप्ति की सूचना नहीं भेजी जायगी। स्वयं लिख कर पूर्ति के साथ नत्थी करना चाहिए। चिट्री के साथ टिकट किसी को नहीं भेजना चाहिए । मनि
(२) स्थानीय पूर्तियाँ सरस्वती-प्रतियोगिता बक्स में प्राडर से प्रवेश-शुल्क लिया जायगा। पतली निब से साफ़ जो कार्यालय के सामने रखा गया है, १० और पांच के बनाकर छपे वर्ग पर ही पूर्ति भेजनी चाहिए । वर्ग को काट बीच में डाली जा सकती हैं।
कर जो काग़ज़ पर चिपका देते हैं और अलग से भी लिख(३) वर्ग नम्बर का नतीजा जो बन्द लिफ़ाफ़े में मुहर कर भेजते हैं। ऐसी पूर्तियाँ प्रतियोगिता में नहीं ली लगा कर रख दिया गया है ता० २७ अप्रैल सन् १९३७ को जावेगी । लिफ़ाफ़ों में पूर्तियों को इस तरह रखना चाहिए सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे सर्वसाधारण के कि यहाँ खोलने में कपन फटे नहीं।
RESS
मूल्य
संक्षिप्त हिंदी-शब्दस्यगर
महिन हिंदी-इदागर
जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और वहुमूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्द. सागर का प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये।।
BCEO
हिन्दी-शरसा
माता
n
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हात-पारहास
कांग्रेस की प्रतिस्पर्धा में खड़े होकर हारने पर भी राष्ट्रपति पंडित जवाहरलाल नेहरू का चित्र करीब जिनकी ज़मानतें ज़ब्त नहीं हुई हैं, उनसे भी बढ़कर भाग्य- करीब रोज़ या हर हफ्ते में छापेंगे। महात्मा जी का भी शाली मैं हूँ; क्योंकि 'सरस्वती' के पाठकों से बहुत दिनों अदबदाकर कहीं छाप देंगे। कौंसिल की बैठकें शुरू हुई। के बाद होली के अवसर पर आज भेट हो रही है। होली बस श्रीसत्यमूर्ति, श्रीभूलाभाई और पंडित गोविन्दवल्लभ पन्त के ज़माने में बिछुड़े साथियों का मिलन बड़ा ही सुखद के ब्लाकों पर अाफ़त श्राई । अम्याँ, इन सबको तो हिन्दीप्रतीत होता है।
पाठक कई बार देख चुके हैं, नाहक जगह क्यों ख़राब xx
करते हो ? सम्पादकी करते हो या बला टालते हो ? होली में हिन्दी के अख़बार बे-नथे बैल हो जा जाते x x
x हैं। सम्पादक बन जाते हैं म्युनिसिपैलिटी के भैंसे । कल- गत महीनों में एक मासिक पत्र ने एक दैनिक के कत्ता में 'हिन्दी-वंगवासी' और बम्बई में 'श्रीवेङ्कटेश्वर- विषय में ठीक लिखा था--"दैनिकों में इसका वही स्थान समाचार' चालीस साल के पुराने चित्र और कार्टून निका- है जो भारत की संस्थानों में 'वर्णाश्रम-स्वराज्यसंघ' का । लेंगे। रङ्गीन रोशनाई का उपयोग बहुत लोग करेंगे, मगर यह प्रूफ़रीडिङ्ग का रिकार्ड है। हिन्दी-टाइप की उत्पत्ति पाठकों के सामने पुता हुआ चेहरा ही आवेगा। एक अक्षर से आज तक शायद ही कोई पत्र इतना अशुद्ध छपा हो।" भी साफ़ न रहने पावेगा।
किन्तु यह सार्टिफिकेट भी मौजीराम को राह पर न ला
सका । अब भी वही रफ्तार है। हिन्दी के दैनिक और साप्ताहिक प्रायः पर्व-त्योहार पर x
x x
x रङ्गीन छपाई किया करते हैं। कितने ही पाक्षिक और फ़रीडिङ्ग पर तो बहुत ही कम दैनिक और साप्ताहिक मासिक भी अपना चोला रँग लेते हैं। अगर अक्षरों की ध्यान देते हैं। बहुत-से मासिक भी इस कला का गला जान बच भी गई तो चित्र नहीं बच पाते। वे अच्छी तरह टीपते हैं। एक-एक पत्र के एक ही अंक में सैंकड़ों अशुद्धियाँ हलाल हो जाते हैं।
भरी रहती हैं । विज्ञापनों के प्रूफ़-सशोधन का तो नियेम ही x x
x नहीं है । हिन्दी-पाठक भी मक्खयों से भरी थाली चट बिना पर्व-त्योहार के भी कुछ लोग लाल-हरी रोशनाई कर जाने के आदी हो गये हैं । यह अघोर-पन्थ हिन्दी में में छपाई करके बुद्ध पाठकों पर जादू डालना चाहते हैं। बीभत्स-रस को मकरध्वज का पुट दे रहा है। मगर जादू उलट पडता है-सभी चित्र सिर्फ धब्बे बन जाते x x
x x हैं--पंक्तियों पर पुचारा पड़ जाता है- पाठक अपने फंसे भाषा का श्राद्ध करने का ठीका भी हमारे अख़बारों रुपयों को धिक्कारते हैं।
को ही मिला है। इने-गिने दैनिक और साप्ताहिक ही x x x x भाषा पर कुछ ध्यान रखते हैं, अधिकांश तो अन्धाधुन्ध ___पुते हुए चित्रों से कलेवर भरनेवाले बहुत-से अख़बार दौड़ लगाते हैं । नये सम्राट के लिए दर्जनों पत्रों ने 'षष्ठम हिन्दी में पैदा हो गये हैं। अनावश्यक चित्रों से खोगीर जाज' लिख मारा। अभी तक वे चेते नहीं हैं, वही लीक की भरती करके सचित्र कहलाने का हौसला पूरा करते हैं। पीट रहे हैं । खैर, 'षष्ठम' के लिए संस्कृतज्ञ होना आवश्यक तब भी घाटे का रोना रोने में टुक नहीं शरमाते। ... है, जो सब हिन्दी-सम्पादकों के लिए सम्भव नहीं माना जा
x सकता। पर 'छठवें जार्ज' लिखनेवालों को 'अंडमन'
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४०० .
सरस्वती ...
[ भाग ३८ :
भेजने में क्या हानि है ? उनके लिए 'काकोरी-केस' साहित्य पूर्ण' भी बेधड़क लिख डालते हैं। 'अफसोसजनक' तो में भी लाना पड़ेगा?
उनका रोज़मरे का अभ्यास है।
... जब कौंसिलों के चुनाव का दौरदौरा चला, झट कविताओं में तो आज-कल भाषा और भाव का गद्य 'चुनाई' शब्द साँचे में ढल गया। 'सम्राट् एडवर्ड ने गद्दी से भी अधिक मुंडन हो रहा है । सब लोग 'प्रसाद' और छोड़ी, तब तो 'राज्यगद्दी' और 'राज्यसिंहासन' शब्दों ने 'पन्त' ही बनना चाहते हैं । 'नवीन' और 'निराला' बनने अख़बारों को बेहोश कर दिया । 'षष्ठ' और 'छठे' को तरह की धुन में लोग इस कदर पिष्टपेषण कर रहे हैं कि 'वेदना' राजगद्दी' और 'राजसिंहासन' शब्द भी टुकुर टुकुर सम्पा- और 'आँसू' तो अब शीघ्र ही भारत छोड़ जानेवाले हैं। दकों का मुँह ताकते रह गये । इस निरंकुशता पर चाबुक 'सजनी' और 'प्रेयसी' के पीछे कवियों का काफ़ला वैसे ही चलानेवाला अब कोई धनीधोरी न रह गया। जो हैं भी वे चल रहा है जैसे लिपि-सुधार के पीछे गोविलजी और अपनी आबरू समेटे तमाशा देख रहे हैं। किसकी पगड़ी राहुलजी । अग्रगामी मासिक पत्रों के कुछ नवयुवक कवियों के नीचे खुजलाहट पैदा हो ?
का प्रतिभा-चमत्कार देखकर बहुत-से कवि दैनिकों और साप्ताहिकों के बल पर 'अनन्त की ओर' सरपट दौड़े जा रहे
हैं। वे एक ही कविता में 'हम' और 'मैं' तथा 'तुम' और छपाई का यह हाल है कि बहुत-से अखबारों की 'तू' को यथावकाश दबोचकर भवसागर पार हो जाते हैं। मात्रायें मशीनें चाट जाती हैं । पाठकों को ठूठे अक्षर ही यतिभङ्ग तो अब कोई दोष ही न रहा; क्योंकि कविताओं नसीब होते हैं । शब्दों के बीच के अक्षर और वाक्यों के को गाकर मात्राओं की त्रुटियों को सँभाल लेना एक फैशन बीच के शब्द तो अस्सी फ़ी सदी उड़ जाते हैं। ऐसे दैनिक हो गया है। कवि-स्वातंत्र्य का उषःकाल है यह-अभी
और साप्ताहिक 'रिजर्व बैंक' में रखने योग्य हैं- उस युग के मध्याह्नकाल आने दीजिए । देखिएगा रङ्ग। लिए जब हिन्दी की अगली अर्द्धशताब्दी बीत जाने पर इस समय के ज़िम्मेदार सम्पादकों के कौशल की प्रदर्शनी अाज 'खिलित उद्यान' लिखा जा रहा है, कल 'फूलित' होगी।
भी लिखा जाने लगेगा, क्योंकि 'जड़ित' लिखा ही जाता
x है। यहाँ तो चलन का सवाल है। जो चीज़ चल जाय यही .. एक महाशय ने लाला सीताराम जी के लिए शोक सिक्का, भले ही वह ठीकरा हो। ज़माना क्रान्ति का है। प्रकट करते हुए लिख मारा है कि "उन्होंने हिन्दी का हर बात में नवीनता ठूसना ही फैशन में दाखिल है। फोटो मस्तक (?) उज्ज्वल किया है।" 'मस्तक' की जगह 'कपाल' खिंचाने में भी अब भङ्गिमानों की आवश्यकता था पड़ती लिख डालते तो हम कपाल ठोक कर सब कर जाते। इस है। लेखकों और कवियों के फोटो में बड़े नखरे के साथ तरह हिन्दी का मुख उज्ज्वल करनेवाले अनेक हैं। उनके हाथ पर गाल नज़र आता है। कोई सिगरेट-केस हाथ में पीछे पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी परेशान हैं, बार बार लेकर सिगार सुलगाने में कला का चूडान्त देखता है, 'सुधा' के यूंट पीते हैं, फिर भी वह युग अमरत्व नहीं कोई जुल्फों में क्यारियाँ बनाकर मन्द मुस्कान के साथ पाता जो उनकी जवानी के समय था। उस युग के लेखक अपने गद्य-काव्य में जान डालता है। गद्यकाव्य भी ऐसा
और सम्पादक मथुरा का पेड़ा भी छीलछील कर खाते थे। वैसा नहीं, शब्दों और भावों का ऐसा जञ्जाल कि एक एक-एक शब्द के प्रयोग पर महाभारत मच जाता था; वाक्य भी सुभीते के साथ दिमाग़ हज़म न कर सके। पर अब तो गांडीव के बल से निर्भय होकर लोग 'अफ़सोस
-सदानन्द
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INDHRI
सामयिक साहित्य
अमरीका में महात्म गांधी के विरुद्ध प्रचार जनता की नज़रों में मेरी सारी साख मिट्टी में मिल सकती
अमरीका में महात्मा गांधी के विरुद्ध आज-कल है तो ऐसी साख का मल्य ही क्या है ? पर मैं तो फिर यह प्रचार किया जा रहा है कि वे हरिजनों का पशु कहंगा कि मेरी उपमा केवल निर्दोप ही नहीं बल्कि विलसमझते है । इसका उद्देश कदाचित् यह है कि जब कुल उपयुक्त भी है। इस उपमा की निदोपता तब फ़ौरन अमरीका की जनता को यह मालूम होगा कि हरि- समझ में आ जायगी जब कोई यह समझ ले कि हिन्दुजनों के बारे में महात्मा गांधी जैसे विश्व-वन्द्य स्तान में गाय किस अपूर्व श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि हिन्द के ऐसे भाव हैं तब उनको ईसाई बनाने के प्रयत्न से देखी जाती है और यु क्तसगत तो वह इसलिए है कि में पादरियों को उससे धन आदि से अधिक सहा- अपना धर्म छोड़कर ईसाई-धम ग्रहण करने की बात समझने यता मिलने लगेगी। इसके उत्तर में महात्मा गांधो से जहाँ तक सम्बन्ध है, उस गोमाता और हरिजन में कोई ने 'हरिजन' में एक मामिक लेख प्रकाशित कराया अन्तर नहीं होगा। यह बात छोड़ दीजिए कि मुर्ख-से मर्ख है। उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं।
हरिजन धीरे-धीरे इस योग्य बनाया जा सकता है कि हिन्दुस्तान में करोड़ों लोग गाय को श्रद्धा और भक्ति वह इसको समझ सके, वहाँ गाय कभी इसी योग्य नहीं की दृष्टि से देखते हैं। ख द मैं भी उनमें से हूँ। सेगाँव में बन सकती। क्योंकि उस समय सवाल तो उनकी वर्तमान मैंने गोशाला ठीक अपनी बैठक के सामने रखी है। स्थिति के विषय में था, न कि भावी संभावनायों के विषय इसलिए उसमें बंधी हुई गायें सदा मेरी नज़र के सामने में। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं इस उपाय को रहती हैं। कुछ रोज़ पहले मैं एक दिन भारी पैमाने पर ज़रा और वशद करके कहूँगा। मैं कहूँगा-- मेरा पाँच हारजना के धर्मान्तर के विषय में जब कुछ ईसाई मित्रों से वर्ष का नाती अथवा अड़सठ वष की वृद्धा पत्नी ईसाई धर्म बात कर रहा था, तब मैंने उनसे कहा था कि अगर सामने ग्रहण करने का प्रस्ताव समझने में उतने ही असमथ हैं खही हई इन गायों से आप ईसाई बनने के लिए कहें जितनी कि वह गाय. हालाँकि पत्नी और नाती ये दोनों तो ये क्या समझेगी? टीक इसी तरह अधिकांश हरिजन मुझे अत्यंत प्रिय हैं और मैं उनका ऐसा ध्यान रखता हूँ। भी अापकी धर्मान्तर-सम्बन्धी बातों को नहीं समझ सकते। यह सब रहने दीजिए। मैं अपने ही बारे में कहता हूँ न यह उपमा सुनकर मेरे ये मित्र तो अवाक रह गये। अाघात कि चीनी-वणमाला पढ़ने में मैं खुद अाज उतना ही अस
मर्थ हूँ जितनी कि वह पूजनीय ग माता ! हाँ, अगर कोई और अब अमरीका से मेर पास इस आशय की चिट्टियाँ हम दोनों का-मेरी गाय का और मुझे वह मुश्किल - पाने लगी हैं कि किस तरह वहां के लोग मुझे और वर्णमाला पढ़ाने लगे और क्षण भर मान ले कि वह ग़रीब मेरे इस दावे का कि मैं हारजनों की सेवा करना चाहता पूज्य गोमाता इस होड़ में भाग लेना कभी स्वीकार भी हूँ, बदनाम करने में दुरुपयोग कर रहे है । मालूम होता कर ले तो मैं बात-की-बात में उससे आगे निकल जाऊँगा। हे. टीकाकारों का यह कहना है कि जब आप हारजनों की पर इससे मेरे उस अन्तिम कथन की सचाई में ज़रा भी तुलना गाय जैसे पशु से कर रहे हैं तब इससे पता चलता फ़क नहीं पड़ सकता। पर इस तुलना को छोड़ दें तो भी है कि आपके दिल में उनके प्रात कितनी इज्ज़त है। मेरे टीकाकार और भोले-भाले मित्र मेरो एक बात निविवाद
पर इस तुलना पर तो मुझे ज़रा भी अफ़सोस नहीं है। रूप से मय जान ल। वह यह कि भोले-भाले हरजनों इस पहले और छोटे से श्राघात से ही अगर अमरीका की के हृदय में उनके प्रव-पुरूषों के धम के प्रात जी श्रद्धा है
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४०२
सरस्वती
[भाग ३८ -
उसे उखाड़कर जब कोई उन्हें किसी दूसरे धम में ईमान है। अगर कोई जाकर उसे यह बतावे कि उसमें क्या-क्या लाने के लिए कहता है-चाहे वह धम गुणों में उतना सुधार और मरम्मत करनी है तो इसमें ज़रा भी आश्चर्य ही अच्छा और समान हो जितना कि उनके पूर्वजों का की बात नहीं कि वह उनका स्वागत भी करे । पर अगर धर्म था- तो मैं कहूँगा कि यह धर्म की विडम्बना है। काई उस मकान को ही गिराने लगे जिसमें वह और उसके यद्यपि सभी जगहों की जमीन में न्यूनाधिक परिमाण में पूर्वज पीढियों से रहते पाये हैं तो वह ज़रूर ऐसा करनेवही गुण प्रधान रहता है, तो भी हम जानते हैं कि एक वालों का प्रतिकार करेगा। हाँ, उसे खुद ही यह विश्वास ही प्रकार के बीज सब जगह समान रूप से नहीं फूलते हो जाय कि मरम्मतों से काम नहीं चलेगा, वह आदमी के फलते। मेरे पास कुछ उत्तम प्रकार के देवकपास के बीज रहने लायक ही नहीं रहा, तो बात दूसरी है। सो अगर हैं। बंगाल के कुछ हिस्सों में वे खूब अच्छी तरह लगते हिन्दू-धम के विषय में ईसाई-संसार का यही मत है. तो
और फूलते-फलते हैं। पर बरोड़ा की ज़मीन में मीरा सर्वधर्म-परिषद् और अन्तर्राष्ट्रीय विश्वबन्धुत्व आदि सब बहन ने इन बीजों का जो प्रयोग किया उसमें उन्हें अभी निरर्थक बाते हैं। क्योंकि ये दोनों नाम समानता और तक सफलता नहीं मिली। पर इस पर से अगर कोई यह ममान उद्देशों को सूचित करते हैं। क्योंकि उच्च और नतीजा निकाले और उसका प्रतिपादन करने लगे कि नीच, बुद्धिमान् और अपढ़, गिरे हुए और नई ज़िन्दगी वरोड़ा की ज़मीन बंगाल की ज़मीन से हलकी है तो मैं की रोशनी पाये हुए, गरीब और उच्च कुल में पैदा होनेउससे सहमत नहीं हूँगा। पर मुझे एक भय है । यद्यपि वाले तथा सवर्णों और बहिष्कृतों का कभी समान उ श्राज-कल ईसाई मित्र अपने मह से तो यह नहीं कहते नहीं हो सकता। मेरी तुलना भले ही सदोष हो, शायद या स्वीकार नहीं करते कि हिन्दू-धम झूठा धम है, तो भी उसका उच्चारण भी अपमानजनक मालूम हो, मेरी ऐसा प्रतीत होता है कि उनके दिल में अब भी यही भाव युक्तियाँ भी चाहें निर्दोष न हों. पर मेरा पक्ष तो निःसन्देह जड़ जमाये हुए है कि हिन्दूधम सच्चा धर्म नहीं है और मज़बूत है। ईसाई-धर्म ही-जैसा कि उन्होंने उसे समझ रखा है-- एकमात्र सच्चा धर्म है। यह मनोवृत्ति उन उद्धरणों से प्रकट होती है जो मैंने कुछ समय पहले सी० एम० एस० की अपील में से 'हरिजन' में दिये थे। बगैर किसी ऐसी मनो
हमारे गाँव भूमिका के इस अपील की कद्र करना दूर, वह समझ में यह प्रसन्नता की बात है कि हमारा ध्यान गाँवों भी नहीं पा सकी । हाँ, हिन्दू समाज में बुसी हुई छुअा- की ओर आकर्षित होता जा रहा है और बहुत-से छत या ऐसी ही अन्य भलों पर अगर कोई प्रहार करे तो वह शिक्षित उत्साही नवयुवक गाँवों में बसकर जीविको. तो समझ में आ सकता है। अगर इन मानी हुई बुराइयों पार्जन और लोक-सेवा के नवीन माग को ग्रहण को दूर करने के हमारे धर्म को शुद्ध रूप देने में वे हमारी करने की सोच भी रहे हैं। ऐसे ही नवयुवकों के सहायता करें तो यह एक ऐसा रचनात्मक कार्य होगा लाभार्थ महात्मा गांधी ने उपयुक्त शीर्षक से जिसकी बड़ी ज़रूरत है और उसे हम कृतज्ञता-पूर्वक 'हरिजन' में एक लेख प्रकाशित कराया है जो इस स्वीकार भी करेंगे। पर आज जो प्रयास हो रहा है उससे प्रकार है-- तो यही दिखाई देता है कि यह तो हिन्दू-धर्म को जड़मल एक युवक ने जो एक गाँव में रहकर अपना निर्वाह से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर दूसरा धर्म कायम करने की कोशिश कर रहा है, मुझे एक दुःखजनक पत्र करने की तैयारी है। यह तो ऐसी बात है, मानो एक भेजा है। वह अँगरेज़ी ज़्यादा नहीं जानता । इसलिए पुराना मकान है, जिसमें मरम्मत की बड़ी ज़रूरत है; पर उसने जो पत्र भेजा है, उसे संक्षिप्त रूप में ही देता हूँ-- रहनेवाले को वह अच्छा और काम देने लायक मालूम १५ साल एक कस्बे में बिताकर, तीन साल पहले, होता है। फिर भी कोई उसे जमीन में मिला देना चाहता जब कि २० बरस का था, मैंने इस ग्राम-जीवन में प्रवेश
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संख्या ४]
सामयिक साहित्य
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किया। अपनी घरेलू परिस्थितियों के कारण मैं कालेज के लोगों पर ज़रूर असर पड़ता है। लेकिन इस नवयुवक की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सका । अतः आपने ग्राम पुनर्रचना के साथ कठिनाई शायद यह है कि वह किसी सेवा-माव. का जो काम शुरू किया उसने मुझे ग्राम-जीवन ग्रहण से नहीं, बल्कि सिर्फ अपने निर्वाह के लिए रोज़ी कमाने. करने के लिए प्रोत्साहन दिया। मेरे पास कुछ ज़मीन है। को गाँव में गया है । और जो सिर्फ़ कमाई के लिए ही कोई २५०० की मेरे गाँव में बस्ती है। लेकिन इस गाँव वहाँ जाते हैं उनके लिए ग्राम-जीवन में कोई अाकर्षण नहीं के निकट सम्पर्क में आने के बाद कोई तीन-चौथाई में है, यह मैं स्वीकार करता हूँ। सेवा-भाव के बगैर जो लोग भी ज्यादा लोगों में मुझे नीचे लिखी बातें मिलती हैं- गाँवों में जाते हैं उनके लिए तो उसकी नवीनता नष्ट होते
(१) दलबन्दी और लड़ाई-झगड़े, (२) ईर्ष्या द्वेष, ही ग्राम-जीवन नीरस हो जायगा। अतः गाँवों में जानेवाले (३) निरक्षरता, (४) शरारत, (५) फूट, (६) लापरवाही, किसी युवक को कठिनाइयों से घबराकर तो कभी अपना (७) बेढगापन, (८) पुरानी निरर्थक रूढ़ियों से चिपटे रहना, रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। सबके साथ प्रयत्न जारी रखा (९) बेरहमी।
जाय तो मालूम पड़ेगा कि गांववाले भी शहरवालों से यह स्थान दूर एक कोने में है, जहाँ आम तौर पर बहुत भिन्न नहीं हैं और उन पर दया करने व ध्यान देने से कोई आता-जाता नहीं। कोई बड़ा आदमी तो ऐसे दूर के वे भी साथ दंगे। यह निस्सन्देह सच है कि गाँवों में देश गाँवों में कभी नहीं गया। लेकिन उन्नति के लिए बड़े के बड़े श्रादमियों के सम्पर्क का अवसर नहीं मिलता। हाँ,
आदमियों की सगति आवश्यक है। इसलिए इस गाँव में ग्राम-मनोवृत्ति की वृद्धि होने पर नेताओं के लिए यह रहते हुए मैं डरता हूँ। तो क्या मैं इस गाँव को छोड़ दूँ ? ज़रूरी हो जायगा कि वे गाँवों में दौरा करके उनके साथ आप मझे क्या सलाह और प्रादेश देते हैं।"
जीवित सम्पर्क स्थापित करें। अतएव इस पत्रइसमें शक नहीं कि इस नवयुवक ने ग्राम-जीवन की प्रेपक जैसे नवयुवकों को मेरी सलाह है कि अपने जो तसवीर रवींची है वह अतिशयोक्तिपूण है, मगर उसने प्रयत्न को छोड़ न दें, बल्कि उसमें लगे रहें और जो कुछ कहा है वह आम तौर पर माना जा सकता है। अपनी उपस्थिति से गाँवों को अधिक प्रिय और यह बुरी हालत क्यों है, इसकी वजह मालूम करने के रहने योग्य बना दें। लेकिन ऐसा वे करेंगे ऐसी सेवा के ही लिए दूर जाने की जरूरत नहीं, क्योकि जिन्हें शिक्षा द्वारा जो गाँववालों के अनुकल हो। अपने ही परिश्रम से का सौभाग्य प्राम है उन्होंने गाँवों की बहुत उपेक्षा की गाँवों को अधिक साफ-सुथरा बनाकर और जितनी अपनी है। उन्होंने अपने लिए शहरी जीवन को चुना है। योग्यता हो उसके अनुसार गाँवों को निरक्षरता दूर करके ग्राम अान्दोलन तः इसी बात का एक प्रयत्न है कि जो हर एक व्यक्ति इसकी शुरुअात कर सकता है। और अगर लोग सेवा की भावना रखते है उन्हें गाँवों में बसकर ग्राम- उनके जीवन साफ़ सुघड और परिश्रमी हों तो इसमें कोई वासियों की सेवा में लग जाने के लिए प्ररित करके गाँवा शक नहीं कि जिन गांवों में वे काम कर रहे हेंगे उनमें भी के साथ स्वास्थ्यप्रद सम्पर्क स्थापित कराया जाय । पत्र- उसकी छत फैलेगी और गाँववाले भी साफ़ सुघड़ और प्रेपक युवक ने जो बुराइयाँ देवीं वे ग्राम-जीवन में बद्धमूल परिश्रमी बनंग। नहीं हैं। फिर, जो लोग सेवा-भाव से गाँवों में बसे हैं ये अपने सामने कठिनाइयों को देखकर हतोत्साह नहीं होते। वे तो इस बात को जानकर ही वहाँ जाते हैं कि अनेक कठिनाइयों में, यहाँ तक कि गाँववालों की उदासीनता के
अगले मई महीने में महायुद्ध होते हुए भी, उन्हें वहाँ काम करना है। जिन्हें अपने श्रीयुत चमनलाल नवयुवक भारतीय पत्रकार मिशन और ख़ुद अपने आपमें विश्वास है वही गांववालों हैं। पिछले दिनों जापान की राजनैतिक स्थिति पर की सेवा करके उनके जीवन पर कुछ असर डाल सकेंगे। महत्त्वपूर्ण लेख लिखकर वे बड़ी ख्याति प्राप्त कर सच्चा जीवन बिताना ख़ुद ऐसा सबक है जिसका अासपास चुके हैं। आज-कल वे फिर जापान गये हैं। वहाँ
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सरस्वत
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[भाग ३८
से उन्होंने भारतीय पत्रों में भावी युद्ध के सम्बन्ध में का साल सब मिलाकर हवाई शक्ति की उन्नति के विषय एक ज्ञातव्य लेख प्रकाशित कराया है। यहाँ हम में निराशाजनक रहा है। जब आप इस उसका कुछ अंश 'प्रताप' से उद्धृत करते हैं... करें कि कितने करोड़ रुपये ब्रिटेन के हवाई विभाग ने
“मई सन् १९३७ के युद्ध के लिए तैयार रहो," यह राजनीतिज्ञों के हुक्म के मुताबिक़ तमाम ऐसे हवाई जहाज़ों वाक्य इस वक्त एक लोकप्रिय नारा बन,गया है, यद्यपि के बनाने में नष्ट कर दिये हैं जो वास्तविक युद्ध के लिए इस समय युद्ध-सम्बन्धी उत्तेजना जो मैंने सन् १९३३ बिलकुल बेमतलब के हैं।" मिस्टर ग्रे कहते हैं-"सारे
और सन् १९३४ में देखी थो उसकी आधी भी नहीं है। राजनीतिक पागलपन की बात ब्रिटेन की हवाई शक्ति के इस वक्त वायुमण्डल कुछ बदला हुश्रा है। परन्तु चूंकि एक बहुत ही छोटे अफसर के उस कथन से जाहिर हो जापान ने अपना भाग्य जर्मनी के साथ संयुक्त कर लिया जाती है जिसमें उसने कहा है कि अगर ब्रिटेन को जर्मनी है. इसलिए उसे युद्ध में शामल होना ही है, यद्यपि से लड़ना है तो हमें जर्मन हवाई विभाग से ऐसा प्रबन्ध जनता का एक प्रभावशाली अंग युद्ध नहीं पसन्द करता। कर लेना चाहिए जिससे जर्मनी हमारे जहाजों के उतरने
राजनीति के भविष्यवक्ता लोग अगले योरपीय के लिए अपने यहाँ इजाज़त दे दे और वहाँ पहुँचने पर युद्ध या उसी तरह की कोई और घटना के शुरू होने का हमें पेट्रोल भी सप्लाई कर दे।। समय अगला मई महीना बतलाते हैं । जमनी आक्रमणकारी इसका अर्थ यह है कि ब्रिटेन के हवाई विभाग में बनेगा और अपनी पूर्वीय सीमा पर किसी न किसी प्रकार पिछले साल जो बम बरसानेवाले जहाज़ रहे हैं वे अ का सैनिक प्रदर्शन करेगा। भविष्यवाणी की यह बात कोई देश से ३०० मील बाहर जाकर बिना कहीं ठहरे ३०० नई नहीं है। हिटलर के हाथों में ताकत पाने के समय से मील वापस नहीं पा सकते। अगर वे लगातार ५०० मील ही यह भविष्यवाणी कई बार दुहराई जा चुकी है। इस तक उड़े तो वापस पाने के लिए उन्हें कहीं उतरकर समय सिर्फ उसकी अधिक निश्चित पुनरावृत्ति की गई है। फिर पेट्रोल भरना पड़ेगा। "हमारे कुछ हवाई अडडे ऐसे जमनी युद्ध छेड़ेगा, इस विश्वास का आधार यह है कि हैं जिन्हें हम लम्बी दौड़ तक बम वर्षा करनेवाले लोग समझते हैं कि जमनी की अान्तरिक हालत के ज्यादा हवाई जहाज़ों के अड्डे कहते हैं, परन्तु उनके हवाई ख़राब हो जाने की इतनी अधिक सम्भावना है कि हिटलर जहाज़ इतने धीमे हैं कि अगर उन्हें काफ़ी ज़ोरदार हवा को अपने देशवासियों का ध्यान देश के अन्दरूनी मामलों का सामना पड़ जाय तो वे बमों का काफ़ी बोझ लाद कर से हटाने के लिए किसी न किसी प्रकार का बाहरी खेल देश से बाहर ५०० मील तक जा और पा नहीं सकते।" खड़ा करना पड़ेगा।
मिस्टर ग्रे का कहना है कि यद्यपि ये बातें हवाई विभाग के जापान में रहनेवाले एक प्रमुख जमन ने अभी हाल प्रत्येक सदस्य को मालूम है, फिर भी "हवाई विभाग का में ही मुझसे कहा था कि “अगर हमारे उपनिवेश हमें मंत्रिमण्डल इस ढंग के निरर्थक हवाई जहाज़ बनवाता वापस न मिले तो हम लोग निश्चय ही युद्ध करेंगे । हम चला गया है, सिर्फ इस ख़याल से कि वह पालियामंट के युद्ध में कूदने से डरते नहीं, क्योंकि हमें इस युद्ध में कुंछ सामने कह सके कि संख्या में ब्रिटेन की शक्ति अधिक खोना नहीं है। दूसरा महायुद्ध अवश्यम्भावी है, क्योंकि मज़बूत है या कम से कम उतनी ही मज़बूत है जितनी कि ब्रिटेन जमनी को उपनिवेश नहीं देगा।
योरप के अन्य देशों की है।" "अच्छा होता यदि हमने ब्रिटेन जानता है कि युद्ध उन राष्ट्रों के बीच होना ये पुराने ढंग के जहाज़ों का बनाना बिलकुल बन्द कर अवश्यम्भावी है जिनके पास साम्राज्य है और जिनके पास दिया होता और अपनी फैक्टरियों का सुधार करके नये नहीं है। उसकी घबड़ाहट का रहस्य 'ऐरोप्लेन' के सम्पादक ढंग के हवाई जहाज़ बनवाये होते। परन्तु हम सन्तोष मिस्टर सी० जी० ग्रे के उस लेख से मालूम होता है जिसमें कर लेते हैं कि हमने बहुत-से हवाई उड़ाके शिक्षित कर उन्होंने ब्रिटेन की हवाई ताकत की कमी और कमज़ोरी लिये हैं।" की लानत-मलामत करते हुए कहा है कि "सन् १९३६ पिछले सप्ताह एक ब्रिटिश अख़बारनवीस ने मुझसे
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संख्या ४]
सामयिक साहित्य
कहा था कि "तैयार हों या न हों, हमें लड़ना पड़ेगा, हिन्दी । हिन्दी काई उनका सिखाता नहीं। केवल सुनते सुनते
और अधिकांश में हवाई शक्ति हमारे भाग्य का निणय सीख जाते हैं। ठीक इसी प्रकार साधारण बच्चा बोलना करेगी। हवाई शक्ति ने एबीसीनिया के भाग्य का निर्णय सीखता है। जो सुन नहीं सकते वे स्वयं कोई भाषा नहीं किया है, वह स्पेन में प्रयत्नशील है और वही योरप और बोल सकते । यही गंगेपन का कारण है। संसार के भाग्य का फैसला करेगी। ये विज्ञान के वरदान गंगों का बोलना सिखाया जा सकता है और शिक्षा : हैं, हम उनसे बच नहीं सकते।"
पाने पर वे ठीक ऐसा ही बोलते हैं जैसा हम ग्राप जैसे ___ जब सारा संसार, यहाँ तक कि स्याम ऐसे छोटे छोटे साधारण मनुष्य । 'मूक होइ बाचाल' अब तक जो असंभव की देश इस ससारव्यापी 'महासम्मेलन' के लिए तैयारी उपमा थी, वह सभव-कोटि में श्रागई है। इसकी प्रक्रिया इस कर रहे हैं, हम ३६ करोड़ भारतीय 'शान्त-शान्ति' के सिद्धांत पर अवलिम्बत है कि गंगों के जीभ कंड, तालु अादि मन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं । वे देवी शान्ति (अहिसा) इन्द्रियाँ तो होती हैं और वे कुछ अाय-बाय शब्द भी कह का व्रत लिये हुए हैं और अपने आपको असंख्य देवताों लेते हैं, केवल उनके शब्द साथक नहीं होते । हमारा जिलाकी दया पर छोड़ रक्खा है। मैं चाहता हूँ कि कितना संचालन नियमबद्ध प्रणाली से होता है। इसी कारण अच्छा हो कि अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस कमेटी के सब हमारी भाषा बुद्धगम्य होती है। भाषा केवल शब्दों का मेम्बरों के लिए सबसे पहले हवाई उड़ाका बनना अनिवार्य संग्रह हे और शब्द ध्वनियों के योग से बनते हैं। ध्वनियाँ कर दिया जाय। परन्तु हम लोग तो किस्मत पर विश्वास कंट, तालु, जिह्वा, मृधा तथा श्रोष्ठ के संचालन करते हैं, जब कि संसार कार्य में विश्वास करता है। होती है। यथा मुख खोलकर और जिह्वा का नीचे के
तालू में स्थिर रखकर यदि शब्द किया जाय तो 'अ' का उच्चारण होगा। गूंगा देखकर इसका अनुसरण कर
सकता है। थोड़ा मुँह और खोल दे तो 'या' का उच्चारण गूंगों को बोलना सिखाने में सफलता होगा । 'या' कहते समय यदि अोंठ थोड़ा गालाकार कर .
गूगां का बालना सिखाने के लिए प्रायः प्रत्येक दिया जाय तो 'यो' का उच्चारण होगा। थोड़ा और प्रान्त म स्कूल खुल गये हैं। बिहार में भी इस अभाव सिकोड़े जायँ तो 'उ' तथा 'ऊ' का शब्द होगा। इसी की पूति हो गई है। गूगों को बोलना कैसे सिखाया प्रकार सारे स्वरों का उच्चारण अनुकरण मात्र से कराया जाता है, इस सम्बन्ध में पटना र कविचार-विद्यालय जा सकता है। के प्रसिपल श्री गोरखनाथ पांडेय ने 'आज' में एक व्यजना के उच्चारण में कुछ कृत्रिम उपायों का लेख प्रकाशित कराया है। उस लेख का एक अंश प्रयोग किया जाता है । ध्यान करके देखिए कि अाप 'प' यह है
का उच्चारण कैसे करते हैं। यही न कि अोठ कुछ हवा के प्रायः लोगों की धारणा है कि गंगों के जिह्वा नहीं, हलके झोंके से खुलते हैं, पीछे उसमें 'अ' स्वर जोड़ देते होती, इसी कारण वे बोल नहीं सकते अथवा उनकी हैं। गंगा भी आपका अनुसरण करके ऐसा कर सकता है। जीभ किसी कारणवश तालू में सट जाती है, जिससे उसमें और स्वर जोड़ दी।जए बस 'पा', 'पो', 'पू' इत्यादि वे बोलने में असमथ रहते हैं। ये दोनों धारणायें निर्मूल उच्चारण सिद्ध हो जायेंगे। इसी प्रकार 'त्' का उच्चारण हैं । वास्त वक बात यह है कि गंगों के कान में दोप होता जिह्वा के अग्र-भाग का ऊपर के अगले दाँतों के पास है। वे बहरे होते हैं । बहरापन ही उनके गूगेपन का रखकर और भीतर से हलकी हवा के झोंक से खोलने से कारण है । गगापन स्वयं कोई रोग नहीं। इसका अनमान होता है। जब 'प' योर 'त' दोनों व्यजन ठीक हो जायँ इस प्रकार कर लेना चाहए कि हम जो भाषा सुनते आये तो कई शब्द सिखाये जा सकते हैं, जैसे---- 'पत्ता' 'तोता', हैं वही बोलते हैं। बनारस में रहनेवाले बंगाली बच्चे 'तोप', पोत', 'पपीता' ग्रादि शब्दों के अथ सहज में ही द्विभापिये होते हैं। घरों में बंगला बोलते हैं और बाहर बताये जा सकते हैं।
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गँगों को बोलना सिखाना बड़े पुण्य और महत्त्व का काम है । इससे गूँगे बालकों तथा बालिकाओं का जीवन सफल और सुखी हो जाता है। थोड़े ही दिनों में वे पशु से मनुष्य हो जाते हैं। अपने हृदय के भावों को वाणी द्वारा प्रकट करने लगते हैं और दूसरों की बात को केवल देखकर समझ जाते हैं । विशेषतः गँगी कन्यात्रों को तो
सरस्वती
वश्य बोलना सिखाना चाहिए, क्योंकि उनके ऊपर एक भावी परिवार का सुख-दुःख निर्भर होता है और स्वयं उनका भी भविष्य बहुत कुछ इसी पर अवलम्बित होता है।
प्रवासी भारतीयों पर और भी संकट दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों के साथ जो व्यवहार समय समय पर वहाँ को सरकार करती है वह प्राय: अपमानजनक और अन्याय- पूर्ण होता है। हाल में वहाँ की यूनियन - पालियामेंट में तीन बिल पेश किये गये हैं। उनका उद्देश भी यही है । इस पर एक सम्पादकीय नोट में 'भारत' लिखता
हाल में दक्षिण अफ्रीका की यूनियन - पालियामेंट में तीन बिल पेश किये गये हैं, जिनका उद्देश भारतीयों का अपमान करने तथा उन्हें हानि पहुँचाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । एक का उद्देश तो यह है कि योरपियों और एशियाटिक (अर्थात् भारतीयों) के बीच विवाहसम्बन्ध न हो सके, दूसरे बिल का अभिप्राय यह है कि एशियाटिक लोग अँगरेज़ों को अपने यहाँ नौकर न रख सकें और तीसरे बिल का उद्देश सम्भवतः यह है कि जो • योरपीय स्त्रियाँ एशियाटिकों से विवाह ट्रान्सवाल में सम्पत्ति की स्वामिनी न हो सकेंगी। दो विभिन्न जातियों के व्यक्तियों के बीच विवाह सम्बन्ध स्थापित होना अधिकांश लोगों की दृष्टि में वांछनीय नहीं होता । योरपीयों और भारतीयों के बीच होनेवाले विवाह जिस प्रकार अधिकांश योरपीयों को पसन्द नहीं हैं, उसी प्रकार अधिकांश भारतीयों को भी नापसन्द ही हैं । फिर भी ऐसे विवाहों को रोकनेवाले क़ानून का बनाया जाना भारतीयों के लिए अपमानजनक है, क्योंकि क़ानून के बनाने
कर लेंगी वे
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[ भाग ३८
वाले होंगे केवल गोरे लोग और वे जिस भावना से प्रेरित होकर कानून बनाना चाहते हैं वह केवल यही है कि काले भारतीय गोरे योरपीयों की तुलना में एक नीची जाति के हैं, इसलिए दोनों के बीच विवाह-सम्बन्ध न होना चाहिए । भारतीय योरपीयों को अपने यहाँ नौकर न रख सकें, इस आशय का बिल तो भारतीयों के लिए केवल अपमानजनक ही नहीं, उन्हें आर्थिक हानि पहुँचानेवाला भी होगा । बहुत से भारतीय व्यवसायियों तथा दुकानदारों के ग्राहकों में योरपीय भी हैं और अपने गोरे ग्राहकों की सुविधा के लिए वे अपने यहाँ गोरे पुरुषों या स्त्रियों को नौकर रख लेते हैं । इसके जो लोग क़ानून द्वारा रोकना चाहते हैं उनका अभिप्राय केवल यही नहीं है कि गोरों की कालों के यहाँ नौकरी करने के अपमान से रक्षा करें, उनका अभिप्राय यह भी है कि जब भारतीयों की दूकानों में योरपीय कर्मचारी न रहेंगे तब बहुत कुछ टूट जायेंगे, जिससे उनके व्यवसाय की हानि होकर उनके
योरपीय व्यवसायियों का लाभ होगा। तीसरे बिल के सम्बन्ध में कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह पहले बिल का ही एक रूपान्तर है ।
शायद पहला बिल तो आगे न बढ़ाया जायगा, परन्तु बाकी दो विल तो सेलेक्ट कमिटी के सुपुर्द हो गये हैं । भारतीय लोकमत यह आशा रखता है, और उसे यह शा रखने का अधिकार है कि भारत सरकार इस मौके पर कमज़ोरी न दिखायेगी और यूनियन सरकार तथा ब्रिटिश सरकार पर इस बात को ज़ोर के साथ ज़ाहिर कर देगी कि भारत इस प्रकार के कानूनों का बनना सहन करने को कदापि तैयार नहीं है
1
कुछ चेष्टा और कुछ कार्य !
'इंडियन टी मारकेट एकस्पेंसन बोर्ड' के भारतकमिश्नर ने हमारे पास एक पर्चा प्रकाशनार्थ भेजा है, जिसका एक अंश यह
है-
भारतीय चाय -- ये दो शब्द पारिवारिक सुख-सुवि धात्रों का कैसा सुन्दर चित्र आँखों के सामने स्वन्चित कर देते हैं ! चायदानी की सनसनाहट और प्यालों को मननाहट के बाद चाय से भरी हुई तश्तरी के साथ कमरे से सरल शान्ति का प्रवाह फूट पड़ता है ।
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संख्या ४].
- सामयिक साहित्य
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ज़रा गौर करें अाप व्यस्त दिन के दोपहर में अपने
मुसलमान तथा कांग्रेस दिमाग़ की हालत, अपने झरोखों तथा खिड़कियों के
___ गत १९ मार्च को दिल्ली में जो महत्त्वपूर्ण किवाड़ों पर बरसती हुई ज्वाला, लोगों पर आलस्य फैलाने
'राष्ट्रीय सम्मेलन' हुआ है उसके सभापति के आसन। वाली नमी से भरी हुई हवा का झंकारा एवं शुष्क सदी के से पं.डत जवाहरलाल नेहरू ने जो एक महत्त्वपर्ण • मौसम में गर्मी पाने की उत्कट इच्छा पर!
भाषण किया है उसका निर्वाचन के सम्बन्ध का क्या ऐसी दशा में भारतीय चाय का एक प्याला
एक अंश यह है-- इन असुविधाओं को दूर करने में सफल नहीं होगा ?
केवल मुस्लिम सीटों के सम्बन्ध में कांग्रेस को सफ-. ज़रूर, भारतीय चाय का केवल एक प्याला आपको इस
लता नहीं प्राप्त हुई। किन्तु इस अवसर पर हम लोगों की प्रकार तरोताज़ा बना देगा कि आप अपनी चारों तरफ़ की
असफलता ने यह प्रदशित कर दिया है कि सफलता बड़ी परिस्थिति से भली भाँति हिलमिल जायँगे। कोई परवा
- आसानी से हमारी पहुँच के अन्दर है और मुस्लिम जनता नहीं, चाहे कैसा ही दुःस्वदायी मौसम हो अथवा कैसा ही
अधिकाधिक संख्या में कांग्रेस की ओर झक रही है। हम व्यस्त समय। .
लोगों की असफलता इसलिए नहीं हुई कि हम लोगों ने __केवल आप ही नहीं-हज़ारों सीधे-सादे ग्राम-वासी
मुस्लिम जनता में काम करना छोड़ रखा था और हम भी जो मिट्टी के घरों और फूस के झोंपड़ों में रहते हैं,
उपयुक्त समय पर उसके पास नहीं पहुँच सके । किन्त धीरे-धीरे इस बात को आप लोगों की तरह महसूस करने
जहाँ पर हम लोग पहुँच, विशेष कर गाँवों में, वहां हम लगे हैं। सनसनाती चायदानी एवं मनमोहक प्याले और लोगों ने मसलमानों के हृदय में कांग्रेस के प्रति वही स्थान .
तरियाँ गो कि उन्हें नहीं मिल सकती तिस पर भी उन्हें और उनमें उसी साम्राज्य-विरोधी भावना को पाया जो हमें भली भौति विदित है कि मिट्टी के प्याले में भारतीय चाय
दूसरे लोगों में मिली थी। साम्प्रदायिक समस्या के सम्बन्ध रह उतनी ही स्वादिष्ट अँचेगी जितनी चीनी के प्याले में में हमें बहत-सी बातें सुनाई पड़ती है, किन्तु जिस समय ग्रापको। चाय पीने की पादत इन नव-दीक्षितों में वही हमने किसानों से--चाहे वे हिन्द हो, चाहे मुसलमान और मुख-सुविधा प्रकट करती है जिस ग्राप भारतीय चाय के
चाह सिख--- बात की हमने उनके बीच साम्प्रदायिक .. मेवन से प्राप्त करते हैं। .
समस्या पाई ही नहीं। मुसलमानों में हमें सफलता इस उनके सस्त जीवन को प्रात्साहित करने के लिए अथवा कारण से भी नहीं प्राप्त हो सकी कि मस्लिम निर्वाचकों उनक शारीरिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक कल्याण का की संख्या अपेक्षाकत बहत थोडी थी और उन्हें अधिकारी- . ऊपर उठाने के लिए बहुत कुछ किया गया है, किन्तु फिर गण तथा पंजीपति ग्रामानी से दवा सकते थे और उनको . भी कछ करने का बाकी है। क्योंकि भारत में चाय को अपने अनकल बना सकते थे। किन मुझे यह प्रण खपत नितान्त कम है, खासकर जब अाप यह सोचते हैं।
विश्वास है कि इस हालत में भी हमें अब की अपेक्षा कि छोटे महाद्वीप सरीखे इस भारत में यह हर श्रेणी के
कहीं अधिक सफलता प्राप्त हुई होती यदि हम लोगों ने लोगों के लिए एक उपादेय पेय है। किसी पूँजीपनि के
मुस्लिम जनता की अोर और अधिक ध्यान दिया होता। राजप्रासाद में या किसी गरीब के झोपड़े में, बाहर या
हम लोगों ने बहुत दिन से उनकी ओर कोई ध्यान नहीं भीतर, गर्मी में अथवा सर्दी में, एकान्त में या मित्रों की
दिया है और बहुत दिन से वे गलतफहमी में रक्खे गोष्ठी में चाहे कोई भी अवस्था हो, प्रत्येक दिन के प्रत्येक
गये हैं और अब अावश्यकता इस बात की है कि उनकी. समय पर केवल यही पेय है, जो सर्वप्रिय होने का स्थायी
ओर विशेष प्रकार से ध्यान दिया जाय । उनके भावी एव व्यापक दावा रखता है। इसलिए हर एक भारतीय को
य का सहयोग में काई सन्देह नहीं है, किन्तु शत यह है कि ' जो भारत के प्रति अपने हृदय में तनिक भी स्थान रखता
हम लोग ठीक तरीके से उनके पास पहुँचे । हो. यह चाहिए कि भारत की मिट्टी में उपजी हुई भारतीय चाय की उन्नति में सहाय
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सरस्वती
[भाग ३८
"यहाँ" नामक चित्रपट का एक दृश्य ही सफल अभिनय किया है। यहां हम उसी चित्रपट श्रीमती शान्ता आपटे और लीला देसाई ने इधर का एक दृश्य प्रकाशित करते हैं । यह ब्लाक हमें भारतीय चित्रपट में अच्छी ख्याति प्राप्त की है। विशम्भर पैलेस प्रयाग के श्रीहीरालाल भागव के "वहीं" नामक चित्रपट में इन दोनों युवतियों ने बड़ा सौजन्य से प्राप्त हुआ है।
शान्ता प्राप्टे और लीला देसाई "वहाँ' नामक चित्रपट में ।।
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सम्पादकीय नोट
अतिरिक्त एक लाख स्वयंसेवकों की सेना अलग तैयार रखनी पड़ती है । इससे यही बात प्रकट होती है कि योरप आज कितना अधिक सशस्त्र है। जब फ़िनलैंड जैसा एक नगण्य देश सामरिक दृष्टि से अपने को इतना अधिक तैयार रख सकता है तब उन राष्ट्रों के सम्बन्ध में क्या कहा जाय जो संघर्ष के स्थानों के समीप स्थित हैं । उनकी समर-सज्जा यहाँ तक बढ़ी चढ़ी है कि सारी स्थिति को कहीं अधिक भयप्रद बना दिया है। यहाँ तक जो ब्रिटेन शान्ति का हामी ही नहीं था, किन्तु शस्त्रास्त्र बढ़ाने के. भी विरुद्ध था, वही आज अभूतपूर्व सामरिक योजनाओं को कार्य का रूप देने में जुटा हुआ है । और उसकी देखादेखी अब फ्रांस भी आत्मरक्षा के नाम पर अभूतपूर्व सामरिक योजना के काम में लग गया है, यद्यपि वह पहले से ही ख़ूब तैयार है। ब्रिटेन के प्रधान राजनीतिज्ञों का कहना है कि ऐसा करने से ही संसार में शान्ति की स्थापना हो सकेगी। इसका एक प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ है कि जर्मनी और जापान भी अब शान्ति की बातें करने लग गये हैं । हाँ, इटली ज़रूर ब्रिटेन की सामरिक योजना से चिढ़ गया है, जिसका उसने प्रदर्शन भी किया है । यह तो स्पष्ट ही है कि संसार के सभी छोटे-बड़े राष्ट्र युद्ध-सज्जा से उत्तरोत्तर सज्जित हो जा रहे हैं। उन्हें इस बात की भी परवा नहीं है कि उनके ऐसे आयोजनों से प्राथिक अवस्था कितनी दयनीय हो जायगी । वे यह सब कुछ जानते हैं, परन्तु लाचार हैं। संसार में इस समय परस्पर ईर्ष्या द्वेष का ऐसा ही बोलबाला है । और योरप की महाशक्तियों की यह परिस्थिति देखकर उनके पड़ोस के छोटे छोटे राज्य भी आतंकित और शंकित हो उठे हैं। उन्हें डर है कि इस बार के लोकसंहारक युद्ध में वे भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जायँगे। इसी से वे सभी नख से शिखा तक युद्ध के आयोजनों से सज्जित होने में अपनी चौकात के बाहर ख़र्च करने में लगे हुए हैं ।
योरप की इस परिस्थिति का एशिया के मुसलमानी देशों
arry की भीषण स्थिति
योरप की समस्या सुलझती नहीं दिखाई दे रही है । स्पेन का युद्ध पूर्ववत् भीषण से भीतर होता जा रहा है । इसका कारण यह कि इस युद्ध में दोनों ओर से योरप के भिन्न भिन्न देशों के योद्धा एक बड़ी संख्या में युद्ध कर रहे हैं । इस आशंका से कि कहीं यह युद्ध अधिक व्यापकरूप धारण न कर जाय, ग्रेट ब्रिटेन के प्रयत्न से योरप के अन्य राष्ट्र भी इस बात पर राज़ी हो गये हैं कि अब इस युद्ध में कोई बाहरी देश किसी भी तरह का भाग न ले, साथ ही यह भी कि इसकी पूरी देख-रेख की जाय कि कोई राष्ट्र इस समझौते का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है । freeन्देह इस प्रयत्न का अच्छा प्रभाव पड़ा है और स्पेन के बाहर अन्य देशों में इस युद्ध को लेकर जो चञ्चलता उमड़ पड़ी थी वह अब बहुत कुछ दब गई है । तथापि यह नहीं कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था से योरप की समस्या सुलझती सी जान पड़ती है। इस अवस्था का कारण यह है कि योरप का कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र पर विश्वास नहीं करता और रूस और फ्रांस की सन्धि होने के बाद जर्मनी और जापान की जब से सन्धि हुई तब से तो योरप की समस्या और भी उलझ गई है। वास्तव में इन दोनों सन्धियों ने पहले के विश्वास को और भी अधिक मज़बूत ही नहीं कर दिया है, किन्तु उसके साथ ही उसकी अवस्था को और भी जटिल बना दिया है । इस सम्बन्ध में यहाँ फ़िनलैंड का उदाहरण देना अनुपयुक्त न होगा। स्वाधीन होने के पहले यह छोटा-सा देश रूस की अधीनता में था। अब यहाँ प्रजातंत्र शासन प्रचलित है । गत १८ वर्षों के भीतर फ़िनलैंड की बड़ी उन्नति हुई है । अनिवार्य शिक्षा-पद्धति के प्रचलन से वहाँ की निरक्षता दूर हो गई है और अब वहाँ साक्षरों की संख्या ९९ फ़ीसदी हो गई है । फ़िनलैंड के निवासी भी शान्त, क़ानून के पाबन्द और धार्मिक हैं । परन्तु रूस के डर से उस छोटे-से देश को भी राष्ट्रीय सेना के
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सरस्वती
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महाय
पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। उनमें जो स्वाधीन हैं वे ने रूस को एक अभिनव रूप देने का तादृश एकता के सूत्र में प्राबद्ध हो जाने में ही सफल-मनोरथ विकट प्रयास किया था, परन्तु गत नवम्बर में नहीं हए है, किन्तु इस बात का भी बृहत् आयोजन कर वहाँ जो नया शासन-विधान जारी किया गया है वह रहे हैं कि अगले प्रलयंकर युद्ध में वे २० लाख के लगभग लेनिन की कल्पनाओं से कितनी दूर हो गया है, इसकी शिक्षित योद्धा युद्ध-भमि में समवेत कर सकें। इनके . यहाँ चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है। उस सम्बन्ध में सिवा जो मुसलमानी देश पराधीन या अर्द्ध स्वतंत्र हैं वे केवल एक उदाहरण भर देना यहाँ उपयुक्त होगा । फ्रांस वर्तमान अव्यवस्था को देखकर स्वतंत्र हो जाने का उपक्रम में राज्यक्रान्ति के फलस्वरूप जैसी नास्तिकवाद की धूम कर रहे हैं । इस प्रकार एक ओर योरप जहाँ भविष्य के मचाई गई थी वैसी ही क्या, उससे भी अधिक रूस में भी
द्ध की तैयारी में संलग्न है, वहाँ दूसरी ओर संसार मचाई गई थी। परन्तु अाज उसका वहाँ कितना ज़ोर है के दूसरे राष्ट्र उस विषम परिस्थिति से अधिक से अधिक उसका विवरण लीजिएलाभ उठाने के लिए अभी से तैयार हा रहे हैं। और १९१७-१८ की क्रान्ति के बाद सोवियट सरकार के इस सम्बन्ध में मुसलमानी देश अधिक तत्पर दिखाई दे कायम हो जाने पर सारे चर्च बन्द कर दिये गये, पादरियों रहे हैं। इस भयानक परिस्थिति का भविष्य में क्या परि- पर तरह तरह के जुल्म ढाये गये। पुराने चचों की णाम निकलेगा, इसका तो अन्दाज़ नहीं किया जा सकता, जायदादें ज़ब्त हुई। धार्मिक प्रचार भी बन्द हो गया। पर यह स्पष्ट है कि इस समय संसार के देशों का धामिक स्कूल बन्द कर दिये गये। १८ साल से कम उम्र शासनसूत्र जिन लोगों के हाथ में है वे इस भयंकर परि- के बच्चों को धामिक शिक्षा देने की मनाही कर दी गई। स्थिति के सँभालने में यद्यपि बार-बार असफल हुए हैं, तो लेकिन फिर भी धामिक स्वतन्त्रता विद्यमान थो, अलबत्ता भी वे हार नहीं मानते और उसको वारण करने में वे अाज उसे अमल में लाना कठिन था। भी सोत्साह जुटे हुए हैं । नये लोका! और कच्चे माल के .मई १९२९ में 'मजूरों को अपनी आत्मा की आवाज़
के सम्बन्ध में समझौतों का जो नया आयोजन के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता देने के उद्देश से उन्होंने प्रारम्भ किया है उससे उनकी कुशल नीतिज्ञता चचं राज्य से और स्कूल चचों से पृथक कर ही प्रकट होती है। तथापि जैसे लक्षण हैं उनसे तो यही दिये गये। सब नागरिकों को धर्म के पक्ष या विपन में प्रकट होता है कि वे संसार को युद्ध की ज्वाला में दग्ध होने आन्दोलन करने की खुली छुट्टी दे दी गई। से नहीं बचा सकेंगे। यह निस्सन्देह बड़े दुःख की बात है १९३२ में एक बार फिर को सिल अाफ़. पीपल्स
और इसको देखते हुए यही कहना पड़ता है कि होनी कमिसरीज़ ने धम व ईश्वर के खिलाफ जिहाद बोली। होकर ही रहती है। अन्यथा पिछले महायुद्ध का लोकसंहार इसका उद्देश यह था कि रूस की सीमा में एक भी चर्च याद रखते हुए भी संसार के महान् राष्ट्र अाज इस तरह न रहे और लोगों के दिलों में से ईश्वर का विचारमात्र अगले दारुण लोकसंहार के लिए इस प्रकार विराट खत्म कर दिया जाय । श्रायोजन करते हुए न दिखाई देते।
मगर रूस की केन्द्रीय सरकार ने इस अान्दोलन का
न तो प्रोत्साहित किया और न अनुत्साहित ही किया। रूस का नया रूप
न केवल आँकड़ों से बल्कि गत वर्ष की सेनिक प्रश्नअतिशयता स्थायी वस्तु नहीं है। फ्रांस की राज्य- माला से भी यह साबित हो गया है कि रूस में धर्म और क्रान्ति के समय स्वाधीनता, समता और भ्रातृत्व के नाम ईश्वर-विरोधी आन्दोलन कम हो गया है। सैनिकों से पर जो जुल्म ढाये गये थे वे इतिहास में आज भी अंकित . पृछने पर पता चला था कि उनमें ७० प्रतिशत सैनिक हैं। परन्तु उन सिद्धान्तों के आधार पर जिस 'नूतन फ्रांस' ईश्वर पर विश्वास रखते हैं। अब एक सरकारी वक्तव्य का निर्माण हुअा था उसे स्थायी रूप कहाँ प्राप्त हो से मालूम हुआ है कि रूस में ईश्वर-विरोधी आन्दोलन सका ? इधर हमारे समय में रूस की बोल्शेविक क्रान्ति का अन्त हो चला है। १९३३ में ईश्वर-विरोधी-संघ के
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सख्या ४]
सम्पादकीय नोट
सदस्यों की संख्या ५० लाख और उसके बाद २० लाख
मिस्र का एक पाठ कम हो गई। कई धर्म-विरोधी संस्थायें टूट-फूट रही हैं। मिस्र को ब्रिटेन ने अभी हाल में स्वाधीनता प्रदान 'कमिसरियत आव एजुकेशन' ने कई प्रान्तों में ५ धर्म की है और इसी अल्पकाल में उसका रंग-ढंग कुछ विरोधी अजायबघर बन्द कर दिये हैं। इसी तरह कोमसो- का कुछ हो गया है। वहाँ राष्ट्र के संगठन का जो विराट मोल ने देश में धर्म-विरोधी प्रचार बन्द कर दिया है। आयोजन छेड़ दिया गया है वह तो है ही, इसके नये विधान में धार्मिक स्वतन्त्रता मिलने से चर्गों में नया सिवा वह एक स्वाधीन राष्ट्र के स्वाभिमान का परिचय युग आ गया है। नये शासन-विधान में भाषण, धर्म और भी देने लगा है। जहाँ उसके लिए यह गौरव की बात धर्म-विरोध करने, जलूस निकालने, प्रदर्शन करने आदि है. वहाँ उसने अपनी इस परिवर्तित स्थिति से एक यह की पूरी स्वतन्त्रता दी गई है।
नई बात प्रकट की है कि उसका अन्य देशों के साथ
व्यापार बढ़ गया है । मैंचेस्टर चेम्बर अाफ़ कामस की चीन की सौम्य नीति
१९३६ की जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई है उससे प्रकट होता चीन की 'कुओमिटङ्ग' नाम की राजनैतिक संस्था एक है कि मैंचेस्टर का व्यापार मिस्र में बढ़ गया है। रिपोर्ट में मुसंगठित संस्था है। अभी हाल में नानकिग में इसकी इस बात की अाशा प्रकट की गई है कि इस नई परिस्थिति केन्द्रीय कार्य-कारिणी समिति की एक प्रारम्भिक बैठक हुई से मिस्र में शान्ति और व्यवस्था कायम होगी जिससे दोनों थी। इसमें एक प्रस्ताव-द्वारा नानकिंग की राष्ट्रीय सरकार देशों के बीच का व्यापार और भी उन्नत हो जायगा। की इस नीति का समर्थन किया गया है कि जापान से संघर्ष तब तो यह बात उन प्रौद्योगिक राष्ट्रों को एक सबक देती न होने पावे और देश के बगवादी दवा दिये जायँ । इससे है जिनकी अधीनता में संसार के कतिपय राष्ट्र स्वाधीन , भी प्रकट होता है कि राष्ट्रीय सरकार के प्रधान चाँग--शेक होने के लिए यत्नवान है। क्या ही अच्छा होता यदि ऐसे की नीति का चीनौ-राष्ट्र पर अच्छा प्रभाव पड़ा है। अब राष्ट्र इस बात से कुछ शिक्षा ग्रहण करते और संसार की तक इन्होंने जापान के संघर्षों को बार-बार बचाया है, मुख-शान्ति के लिए पराधीन राष्ट्रों को मिस्र की भांति साथ ही विद्रोही वर्गवादियों तथा जापान के पि? उत्तर- स्वाधीन कर देते। पश्चिमी चीन के विद्रोही मंगोलों का भी दृढ़ता से सामना किया है। यह इन्दी का प्रयत्न रहा है कि जापान अपनी
निर्वाचन का परिणाम छीना-झपटी की नीति में उतनी सफलता नहीं प्राप्त कर नये सुधारों के अनुसार प्रांतीय असे-वलियों का हाल, सका और न चीन के विद्रोही राष्ट्रीय सरकार को ही पराभूत में जो निवाचन हुआ है वह अपने ढङ्ग का जैसा अभूतपूर्व कर सके। ऐसी दशा में यदि जापान भी जैसा कि उसके हुआ है, वैसी ही अभूतपूर्व विजय भी कांग्रेस को उसमें वैदेशिक मंत्री सैतो ने अभी हाल में कहा है, चीन के साथ मिली है। इस निर्वाचन में वोट देने का अधिकार तीन पड़ोसी का धम वर्तना शुरू करेगा तो चीन की राष्ट्रीय करोड़ आदमियों को था और उन्हें प्रान्तीय असेम्बलयों सरकार भी विद्रोही प्रांतों को सरलता से अपनी अधीनता के लिए कुल १५६१ सदस्य चुनने थे। इनके सिवा में ले आ सकेगी और उस दशा में विदेशी राष्ट्रों से उसके प्रान्तीय कौंसिलों के लिए २६० सदस्य अलग निर्वाचित " सम्मानपूर्ण समझौते भी हो जा सकेंगे। यदि चीन यह करने थे। इस प्रकार १८२१ सदस्यों का निर्वाचन था । स्थिति प्राप्त कर ले तो उससे चीन की प्रतिपत्ति बढ जाय इनके सिवा २४ सदस्य पिछड़ी जातियों के लिए और थे..
और उसे भी संसार के राष्ट्रों के बीच उचित स्थान प्राप्त जिन्हें सरकार नामज़द करेगी। वास्तव में यह निर्वाचन हो जाय। परन्तु चीन की वतमान सौम्य नीति क्या अपने ढंग का पहला था, इसी लिए इसमें कांग्रेस ने भी. साम्राज्यवादी राष्ट्रों के आगे कारगर हो सकेगी ? इसका बड़े उत्साह के साथ भाग लिया और उसने १५८५ स्थानों 'हाँ' में उत्तर देना कठिन है।
में से ८२५ स्थानों के लिए अपने उम्मेदवार खड़े किये थे, जिनमें से ७११ स्थान उसने जीत लिये । इनके सिवा
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४१२
सरस्वती.
रस्वती..
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[भाग ८३
कौंसिलों के भी ६४ स्थान उसके हाथ लग गये हैं। ये बैरिस्टर थे, परन्तु उद्योग-धन्धों की ओर अधिक
से ४८२ मुसलमानों के लिए और ४० झुकाव हो जाने से १८८९ में प्रैक्टिस छोड़कर तनस्त्रियों के लिए थे। इस विजय से देश पर कांग्रेस का प्रभाव मन से उद्योग-धन्धों में लग गये। इन्होंने सैकड़ों धन्धों और भी अधिक व्यापक हो गया है।
का संचालन किया, जिनमें करोड़ों की पूँजी लगी हुई थी। १. उक्त चुनाव के परिणाम स्वरूप ग्यारह प्रांतों में से छः बैंकों, मिलों, बीमा, बिजली, लकड़ी और रुई आदि के प्रांतों में कांग्रेस का बहुमत है। इन छः प्रांतों में कारखानों का जाल बिछा दिया और इन सबका वर्षों सयुक्त-प्रांत में २२८ सदस्यों में से १३३, मदरास में तक सफलतापूर्वक संचालन किया। परन्तु बाद को इनका २१५ में १५९. बम्बई में १७५ में ८८, बिहार में पीपल्स बैंक' फेल हो गया. जिसको ये न संभाल सके और १५२ में ९८ मध्य-प्रांत में ११२ में ७१ और उड़ीसा इनका सारा-का-सारा कारबार चौपट हो गया। फलतः ये में ६० में ३६ कांग्रेस के सदस्य चुने गये हैं। शेष पाँच दीवालिया घोषित कर दिये गये। यही नहीं, हाईकोर्ट का प्रांतों में सीमा-प्रात में ५० सदस्यों में कांग्रेस के १९ सदस्य अपमान करने के अपराध में ये अनिश्चित काल के लिए पहुँचे हैं, पर अन्य दलों के १० सदस्यों का सहयोग पा जब तक माफ़ी न माँगें तब तक के लिए जेल में डाल जाने से उसका उस प्रांत में भी बहुमत हो गया है । अब दिये गये। अन्त में जब हाईकोर्ट ने इनकी सजा पर रहे ४ प्रांत, उनमें बंगाल में उसके ५४ सदस्य हैं जो उसकी पुनविचार किया तब ये छः महीने और एक दिन की असेम्बली के किसी भी दल की सदस्य-सख्या से संख्या में कैद भुगत चुकने के बाद, कुछ महीने हुए, जेल से छोड़े अधिक हैं। यही हाल अासाम की असेम्बली का है। उसमें गये । तब से ये उपयुक्त मकान में रह रहे थे। भी उसके ३५ सदस्य हैं । हाँ, पञ्जाब और सिन्ध में कांग्रेस लाला हरकिशनलाल एक बहुत बड़े कारबारी व्यक्ति अल्पमत में है। पंजाब में केवल १८ और सिध में ही तो थे ही. वे अपने प्रान्त के सामजानक कार्यों से भी सदस्य पहुँच सके हैं। इन दोनों प्रांतों में, साथ ही बगाल विशेष अनुराग रखते थे। सन् १९१२ में वे औद्योगिक .. में भी मुसलमानों की ही प्रधानता है। इस प्रकार तीन कान्फरेंस के सभापति बनाये गये थे। इसके बाद वे । प्रांतों को छोड़कर शेष पाठ प्रांतों में काग्रेस का ही बोलबाला बैंकिग इन्कायरी-कमेटी के चेयरमैन बनाये गये थे। १९१०
रहेगा। काग्रेस की यह सफलता वास्तव में उसके अनुरूप की कांग्रेस की स्वागतकारिणी के वे सभापति मनोनीत - ही हुई है और वह इन प्रांतों में अपने इच्छानुकूल कार्य किये गये थे। फौजी-कानून के दिनों में वे भी विद्रोही कर सकेगी।
घोषित किये गये थे और उन्हें श्राजीवन देश-निकाले निर्वाचन के इस. परिणाम से यह बात भले प्रकार की सज़ा दी गई थी। परन्तु १९१९ के बड़े दिनों स्पष्ट हो गई है कि कम-से-कम सारा हिन्दू भारत कांग्रेस के में वे छोड़ दिये गये और उसके बाद ही पंजाब-सरकार के साथ है। यहाँ तक कि उसने अपने बड़े-बड़े माननीय मिनिस्टर बनाये गये थे। वे अपने प्रांत के ऐसे ही प्रख्यात व्यक्तियों तक की कांग्रस के आगे उपेक्षा की है । इस व्याक्त थे। वे एक बड़े भारी कारबारी ही नहीं थे. किन्तु
अनुपम सफलता के लिए काग्रेस के कायका सवथा वैसे ही राजनीतिज्ञ तथा देश-भक्त भी थे। यह कितने ' बधाई के पात्र हैं।
परिताप की बात है कि ऐसे महान् पुरुष का ऐसा महान्
दुःखद अन्त हुआ ! -- स्वर्गीय लाला हरकिशनलाल पंजाब के प्रौद्योगिक क्षेत्र के नेपोलियन लाला हर
- भारत-सरकार का बजट किशनलाल की १२ फरवरी की रात को एकाएक मृत्यु हो
भारत-सरकार का सन् १९३७-३८ का बजट प्रकाशित गई। इन दिनों इनकी श्राथिक दशा शोचनीय हो गई हो गया और बहत वाद-विवाद और विरोध के बाद पास थी और ये 'दयालांसह मैन सयम' में अपने दो नौकरों के भी हो गया। साथ अकेले रह रहे थे।
गत वर्ष सन् १९३६-३७ के बजट में८,५३६ लाख
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संख्या ४]
सम्पादकीय नोट
• रुपये की आय और ८,५३० लाख रुपये के व्यय का शक्कर के पनपते हुए धन्धे पर भी चुंगी बढ़ाना श्रेयस्कर अनुमान किया गया था। परन्तु अनुमान के विरुद्ध समझते हैं। ८,३५८ लाख की आमदनी और ८,५५५ लाख का खर्च नये विधान के जारी करने से सरकार के व्यय में वृद्धि अर्थात् १९७ लाख का घाटा हुअा। अगले साल के बजट हुई है और यह वृद्धि इसलिए सन्तोषप्रद नहीं है कि में ८.१८३ लाख की आय और ८.३४१ लाख के व्यय का सरकार ने उन प्रान्तों में भी नई शासन-व्यवस्था जारी अनुमान किया गया है, अर्थात् १५८ लाख के घाटे का करना उचित समझा है जो अपना व्यय-भार नहीं वहन अनुमान लगाया गया है। और इस घाटे का कारण बर्मा कर सकते। जब देश के कतिपय भाग नये शासन-विधान का पृथक्करण और नये शासन का कार्यान्वित करने का ख़र्च का सुख उपभोग करने से वञ्चित रक्खे ही गये हैं तब ये बतलाया गया है। चुंगी, इनकमटैक्स और संशोधित इनकम- प्रान्त भी उनके समर्थ होने तक उन्हीं की कोटि में रक्खे टैक्स से अगले साल क्रमशः २१ लाख, ९४० लाख और जा सकते थे। पर ऐसा नहीं किया गया और उनका व्यय२० लाख की ज्यादा प्राय होने का अनुमान किया गया है। भार दूसरे प्रान्तों के करदाताओं के सिर मढ़ दिया गया है। साथ ही अगले साल के घाटे की पूर्ति के लिए सरकार ने एक ज़माने से देश के व्यवमायी तथा अथशास्त्री कुछ चीज़ों पर टैक्स भी बढ़ा दिया है। शक्कर की चुंगी १ रु० सरकार से रुपये की विनमय दर के सम्बन्ध में अपनी ५ग्रा० से बढ़ाकर २ रुपये प्रति हन्डरवेट कर दी है। माँग उपस्थित किये हुए हैं, पर सरकार अपने ही निश्चय चाँदी की चुंगी २ थाना प्रतिऔंस से बढ़ाकर ३ अाना पर अटल है। रेल और डाक के विभागों में सरकार को प्रति औंस कर दी है। चालीस तोला तक के पासलों अाशा से अधिक लाभ हुअा है, पर वह रेलवे-भाड़े तथा पर ४ अाने का टिकट लगा करेगा । अभी तक काड आदि के मूल्य में कमी करने को तैयार नहीं है । २० तोले तक के पासलों पर २ पाने का ही टिकट गत वप बजट में ग्राम-सुधार के लिए दो करोड़ रुपये लगता था।
मंज़र किये गये थे। इस बप उसकी भी व्यवस्था नहीं की गई अाश्चर्य है कि मन्दी के पिछले वर्षों में तो बजट में है। अर्थात् इस सिलसिले में जो कुछ काम तथा धन व्यय बचत होती रही, परन्तु अब जब अथ-सदस्य के कथना- किया गया है वह सबका सब बेकार गया। भारतीय ग्रामों के नुसार आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है, बजट में घाटा हो लिए इससे अधिक दुर्भाग्य की क्या बात हो सकती है ? रहा है और इसके होते हुए भी सैनिक व्यय में वृद्धि की यह सच है कि जिस पैमाने पर सरकार में इस महत् कार्य : गई है । गत वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष २ करोड़ रुपया सैनिक को उठाया था उससे ग्रामों का, यदि वह दो-चार वप तक व्यय की मद में अधिक ख़च करने की व्यवस्था की गई है। जारी रहता ती, बहुत कुछ हित हो जाता । और चाहे जो यह कितने दुख की बात है कि भारत जैसा दरिद्र देश इस हो, इस साल का नया बजट जैसा चाहिए, न तो सन्तोषमद में अपनी आय का ६३ फीसदी व्यय करे जब कि प्रद है, न अाशावर्द्धक ही है। और यद्यपि इसका असेम्बली ब्रिटेन जैसा समृद्ध देश केवल १५ फ्री सदी व्यय करे ! में ज़ोरों से विरोध किया गया है, तथापि उसकी सुनयही नहीं, साम्राज्य के दूसरे देश जैसे कनाडा ९ फी सदी वाई नहीं हुई है।
और आस्ट्रेलिया ४ फी सदी इस मद में व्यय करते हैं ! इधर भारत की आथिक अवस्था का क्या कहना ! उदाह
भारतीय किसानों का ऋण-भार . रण के लिए एक इसी बात को लीजिए । ब्रिटेन में रुपया भारतीय किसानों की दरिद्रता की काई थाह नहीं है। जमा करनेवालों की कुल रकम १९३६ में ५,७५,००,००, एक युग से उनकी दरिद्रता की गाथा इस देश में गाई जा ००० रुपये के लगभग थी। इधर ब्रिटेन की अपेक्षा बहुत रही है, परन्तु तर्क-वितकों के माया-जाल के नीचे उसका अधिक अावादी के भारत में वही रकम कुल ६,७०,००, भेद बराबर दबा रहा। अब इधर कुछ समय से उसकी ००० रुपया थी। परन्तु हमारे उदाराशय अर्थमंत्री का जाँच-पड़ताल की ओर लोगों का ध्यान विशेष रूप से ध्यान इस ओर नहीं है और वे आय बढ़ाने के उद्देश से आकृष्ट हुआ है, अतएव सारी परिस्थिति पर समुचित
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' ४१४
. सरस्वती
[भाग ३८
कुर्ग
प्रकाश भी पड़ने लगा है। भारतीय बैंकिंग-जाँच-कमिटी में बेच डालते थे। पुलिस के हाथ ऐसे उड़ाये हुए १७० . की जो रिपोर्ट हाल में प्रकाशित हुई है उससे प्रकट होता है कि लड़के-लड़की लगे हैं, जिनमें से कई के माता-पिता तक भारतीय कृषक ऋणभार के नीचे कहाँ तक दबे हुए हैं। अभी ठीक-ठीक उन्हें नहीं पहचान पाये और न उनका उस ऋणभार का जो प्रान्तवार ब्योरा उसमें दिया गया है ठीक पता ही लग सका । जो लड़के मिले हैं, उनमें से वह केवल लिखे हुए ऋण का ब्योरा है। हथउधरा ऋण अधिकांश १५ वर्ष से या इससे ऊपर के हैं, जिन्हें उड़ाये का ब्योरा उसमें शामिल नहीं है। तथापि यह इतना भी हुए १० या इससे भी अधिक साल हो गये। कम त्रासजनक नहीं है। देखिए, किस प्रान्त के किसान सर्वप्रथम इन लड़कों के चुरानेवालों का पता डाबवाली कितना अधिक ऋण-ग्रस्त हैं
(जिला हिसार) में पुलिस को लगा था। इस मामले में प्रांत
रुपया लड़के चुरानेवालों का नेता लछमन भी अभियुक्त है, जिसे बम्बई
८१ करोड ७० साल तथा उसकी पत्नी को ४७ साल की सज़ा मिली मद्रास
१५० करोड़ है। एक दिन लछमन बाज़ार गया और वह तीन लड़कों बंगाल
१०० करोड़ को श्राम की डालियों को गाड़ी पर रखने और हर एक युक्तप्रान्त
१२४ करोड़ को दो-दो पैसे देने का लालच दिखा कर ले गया। इस पञ्चाब
१३५ करोड़ पर डाबवाली के थानेदार ने उसे पकड़ा और भेद खुलने मध्यप्रान्त
२६ करोड़ पर भिन्न-भिन्न स्थानों से १७० लड़के बरामद किये, जो
... १८ करोड़ बेच दिये गये थे। बिहार और उड़ीसा
१५५ करोड़ आशा है, इस मामले के शेप अभियुक्तों को भो अासाम
... २४ करोड़ समुचित दंड दिया जायगा।
... ५० करोड़ इस प्रकार किसानों पर कुल मिलाकर करीब ९ अरब
आचार्य द्विवेदी जी के घर विवाह रुपया कर्ज़ निकला है। इस भयंकर ऋण की चक्की में पूज्यपाद श्राचार्य द्विवेदी जी के भांजे पंडित कमलाभारतीय किसान बेतरह पिस रहे हैं। जब तक यह ऋण-भार किशोर त्रिपाठी की पुत्री का विवाह गत ६ मार्च को दौलतभारतीय किसानों पर है, वे किसी तरह पनप नहीं सकते। पुर में धूम-धाम के साथ होगया। इस विवाह के सर
की पूज्यपाद द्विवेदी जी की बड़ी इच्छा थी और कदाचित् बच्चे चुरानेवालों का मामला
इस लड़की के ही सौभाग्य से आप अपनी पिछली बीमारी पाठकों को याद होगा कि कुछ दिन हुए पंजाब में से बाल बाल बचे हैं। द्विवेदी जी श्री क बच्चों को चुरा ले जानेवालों का एक गिरोह पकड़ा गया उनकी दो बहनों की शादियों के अवसर पर भिन्न-भिन्न था और उनके पास १७० बच्चे पाये गये थे। उस सिल- प्रसंगों के सिलसिले में अपने कुछ पद्य बराबर पढ़ते रहे सिले में ६० श्रादमी पकड़े गये थे और उन पर मामला है। इस विवाहोत्सव पर भी वैसे प्रसंगों पर आपने अपनी चलाया गया था।
रचनाये सुनाई थीं। 'सरस्वती' के पाठकों के मनो- उस ममले की सुनवाई के लिए दो स्पेशल मजिस्ट्रेट . विनोदार्थ वे भिन्न-भिन्न रचनायें हम यहाँ दे रहे हैनियुक्त किये गये थे, जिनमें से एक ने २४ अभियुक्तो को प्रथम दिन भात के समय जो कविता श्रीमान द्विवेदी जी २ वर्ष से लेकर कालेपानी तक की विभिन्न सज़ायें दी हैं। ने सुनाई थी वह यह है४ प्रमुख अपराधियों को ६८ से ७३ वर्ष तक की सजा दी रीति-भौति मैं नहीं जानता, है, जो औसतन २० साल पड़ेगी। ये अभियुक्त मौका
नहीं जानता लोकाचार पाकर दिन और रात में छोटे-छोटे बच्चों को कोई न कोई
कुल, कुटुम्ब, सन्तति का भी है बहाना बना कर फुसला ले जाते तथा उन्हें दूर-दूर प्रान्तों
मुझे नहीं कुछ भी आधार ।
बर्मा
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संख्या ४ ]
इससे जो बन पड़ा बन्धुवर, प्रेम - समेत
परोसा
भोग लगावोगे इसका यत्र मुको यही भरोसा है ||
सम्पादकीय नोट
दूसरे दिन पहली बड़हार को यह कविता सुनाई थी— भक्त समर्पित करण भी खाकर सागपात खाकर निःस्वाद जन-वत्सल भगवान कृष्ण ने पाया था अतिशय श्रह्लाद । क्या आश्चर्य आपने जो यह रूखा-सूखा खाया अन्न भक्ति- प्रिय वस भक्ति देखते नहीं देखते अन्न- कदन्न ॥ ( २ )
प्रेम सहित कर लिया आपने नीरस भोजन का स्वीकार किस प्रकार निज भाग्य सराहूँ महा अधम मैं महा गवाँर । धन्य आपकी कृपा आपका यह उन्नत उदार व्यवहार मैं कृतकृत्य हो गया मेरा किया अपने अति उपकार ।।
तीसरे दिन दूसरी बड़हार के समय यह कविता सुनाई थी
( १ ) महाराज मुझ पर जो इतनी दया आपने दिखलाई उससे व्यक्त ही की है मनोमहत्ता हे भाई । महाजनों की रीति यही है करते छोटों का उपकार चने चाव कर भी कहते हैं --हा, किया बड़ा सत्कार || ( २ )
पूर्व जन्म के निज सुकृतों का फल मैंने पाया भरपूर पावन किया आपने मुझको दुरित कर दिये सारे दूर | योग्य आपके मुझसे प्रस्तुत नहीं हो सका भोजन-पान क्षमा कीजिएगा सब त्रुटियाँ हे दयालु हे क्षमानिधान ||
चौथे दिन विदाई के दिन मंडप के नीचे यह कविता सुनाई थी—
( १ ) आप सभी विध पूर्ण काम हैं विभव-धाम हैं आप यथार्थ किसी वस्तु की चाह नहीं, सब प्राप्त कान्त कमनीय पदार्थ । क्या दूँ मैं फिर भला आपको दीन विभूति-विहीन निका सुलभ एक ही वस्तु मुझे है ये दोनों कर जोड़ प्रणाम ||
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( २ )
दीपदान से क्या दिनकर की प्रभा पूर्णता पाती है। श्राचमनी भर जल से सुरसरि-धारा क्या बढ़ जाती है। भक्त तथापि यही करते हैं निज अनुरक्ति दिखाते हैं इष्टदेव की पूजा करके उस पर फूल चढ़ाते हैं |
३ )
४१५
(
देव अपने को, सेवक मुझे समझ शर्मा महराज, अपनाइए मुझे जैसे हो हाथ आपके मेरी लाज । सुमन- समान समर्पित ये जो पात्र और पट आदि असार कर लीजिए कृपा मुझ पर कर कृपानाथ, इनको स्वीकार ॥ ( ४ )
•
इस कन्या के पिता और जो हैं इसकी प्यारी माता अब तक सभी भाँति इसके थे एकमात्र वे ही त्राता । धर्म-पिता इस बेचारी के बनिये हे दीनों के नाथ सुता-सदृश पालन करने का काम श्रापही के हाथ ॥
( ५
ताधिक-वत्सलता से इस जन ने भी पाला है। देख इसे रोगार्त तनिक भी सही प्रति की ज्वाला है । आशा यही आप भी इसके सुख-दुख का रक्खेंगे ध्यान और क्या कहूँ क्षमा कीजिए मेरी त्रुटियाँ कृपानिधान ॥
श्रीमान् द्विवेदी जी का स्वास्थ्य पिछली बीमारी से गिर गया है और आप निर्बल हो गये हैं । इस दशा में आपका पुराना उन्निद्र रोग अधिक कष्ट दे रहा है अतएव यहाँ हमारी परमात्मा से प्रार्थना है कि वह आपको इस वृद्धावस्था में स्वस्थ और सुखी रखे ।
हरिऔध जी का सम्मान
इस वर्ष का 'मंगलाप्रसाद - पुरस्कार' हिन्दी के श्रेष्ठ कि पंडित अयोध्या सिह उपाध्याय 'हरिऔध' जी को उनके प्रसिद्ध महाकाव्य 'प्रियप्रवास' पर दिया गया है। हरिश्रौध जी हिन्दी के पुराने महारथियों में हैं और आपकी रचनाओं से हिन्दी साहित्य की काफ़ी गौरव वृद्धि हुई है। आपको साहित्य का यह प्रसिद्ध पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए
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४१६
सरस्वती
पण्डित अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिग्रोध'
था । तथापि हिन्दी प्रेमियों के लिए यह सन्तोष की बात
[ भाग ३८
होगी कि हरिऔध जी को उनकी वृद्धावस्था में यह सम्मान वर प्राप्त हो गया ।
स्वर्गीय डाक्टर त्रिलोकीनाथ वर्मा
खेद का विषय है कि गत फ़रवरी मास में हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक डाक्टर त्रिलोकीनाथ वर्मा का स्वगवास हो गया । मृत्यु के समय वे बिजनौर में सिविल सजन थे । वर्मा जी ने हिन्दी में 'हमारे शरीर की रचना' नामक पुस्तक लिखकर अच्छी ख्याति प्राप्त की थी 1 उनकी इस कृति पर सं० १९८३ वि० में १२००) रुपयों का 'मंगलाप्रसाद पुरस्कार' देकर वे पुरस्कृत किये गये थे 1 काशी - नागरी प्रचारिणी सभा से भी उनकी यह कृति सं० १९८० वि० में ही पुरस्कृत हो चुकी थी । परन्तु वर्मा जी के लिए इन पुरस्कारों से भी अधिक गौरव की बात थी उनकी इस कृति की लोकप्रियता । यह पुस्तक पहले-पहल सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी । तब से आज तक इसके पाँच संस्करण हो चुके हैं। छटा संस्करण प्रयाग के इंडियन प्रेस में छप रहा है । किन्तु इसके तैयार होने से पहले ही वर्मा जी का अकस्मात् स्वगवास हो गया । वर्मा जी के निधन के कारण हिन्दी का एक बहुत बड़ा सेवक उठ गया । अस्तु, हम दिवगत, आत्मा की सद्गति तथा कुटुम्बयों के शान्ति-लाभ के लिए भगवान् से प्रार्थी हैं ।
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वंश-ध्वनि
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[चित्रकार-श्रीयुत जाडीत दासandar.com
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बजा
सम्पादक .
পল্লি জুলাভৱ জঙ্গিলা
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह मई १९३७ }
भाग ३८, खंड १ संख्या ५, पूर्ण संख्या ४४९
वैशाख १६६४
.
भविष्य .
लेखक, ठाकुर गोपालशरणसिंह जीवन का संघर्ष जगत् से,
निज अतीत का दृश्य चित्त पर, बढ़ता ही जाता है।
अङ्कित ही रहता है। निठुर सत्य का रङ्ग चित्त पर,
हृदय न जाने क्यों सदैव ही, चढ़ता ही जाता है।
शङ्कित ही रहता है। अनायास ही अभिलाषायें,
अन्धकारमय ही भविष्य का, मिटती हैं बेचारी।
चित्र नजर आता है। आशा भी करती रहती है,
धीरे धीरे भाग्य-विभाकर, जाने की तैयारी।
अस्त हुआ जाता है।
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'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी'
लेखक, प्रोफेसर धर्मदेव शास्त्री
'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी' के सम्बन्ध में हम एक लेख गत अंक में छाप चुके हैं। उसी सिलसिले का यह दूसरा लेख है। लेखक महोदय ने इस प्रश्न का अपने इस लेख
__ में सुन्दर ढंग से विवेचन किया है।
REATEenaren रतीय साहित्य परिषद् के जन्म के अधिवेशन तक उनको 'हिन्दी' सीख लेनी चाहिए और Adhu साथ ही आज-कल राष्ट्र-भाषा के तब. कोई भी भाषण अँगरेज़ी में न हो। इस सम्बन्ध में -
लिए एक नये शब्द का प्रयोग उन्होंने अपने पत्र में एक प्रभाव-पूर्ण अग्रलेख भी लिखा 6 किया जाने लगा है, जिससे कुछ था, जिसका कांग्रेसवादियों पर प्रभाव पड़ा। इसी का
लोग घबरा उठे हैं, क्योंकि उन्होंने परिणाम है कि आज कांग्रेस के खुले अधिवेशन में हिन्दी'
आज तक इस शब्द को सुना ही में ही सभी मुख्य-मुख्य भाषण होते हैं । कांग्रेस-अधिवेशन नहीं था। वह शब्द है 'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी ।' अब के अवसर पर जो 'राष्ट्र-भाषा-सम्मेलन' आदि होते हैं उनमें तक राष्ट्र-भाषा के लिए 'हिन्दी' और 'हिन्दोस्तानी', इन भी इसी प्रकार के प्रस्ताव पास होते हैं। भारतीय साहित्यदोनों शब्दों का पृथक्-पृथक् भिन्न-भिन्न विचारकों की ओर से परिषद् के मन्त्री श्री काका साहब ने ही सर्वप्रथम प्रयोग होता रहा है। भारतीय साहित्य-परिषद् के ४ जुलाई हिन्दी को राष्ट्र-भाषा का रूप देने के लिए यह प्रयत्न १६३६ के कार्यकारी अधिवेशन में जो नियम-उद्देश प्रारम्भ किया कि समूचे राष्ट्र की सभी प्रान्तीय भाषाओं की अादि स्वीकृत हुए हैं उनमें एक स्थान पर लिखा है कि इस लिपि एक हो । इस सम्बन्ध में उन्होंने मुसलमानों से भी परिषद का सारा काम 'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी में होगा। विचार-विनिमय किया। परन्तु दुःख है कि वे मुसलमानों इसी प्रकार परिषद की ओर से प्रकाशित सदस्य के प्रतिज्ञा- को नागरी-लिपि स्वीकार करने के पक्ष में न कर सके। पत्र में भी सदस्य बननेवाले को जो प्रतिज्ञायें करनी यह बात उन्होंने कराची-कांग्रेस के अवसर पर होनेवाले होती हैं उनमें एक यह भी है कि मैं मानता हूँ कि 'भाषा राष्ट्र-भाषा-सम्मेलन के सभापति-पद से किये गये भाषण में की दृष्टि से यह एकता हिन्दी याने हिन्दोस्तानी-द्वारा ही स्पष्ट कर दी थी। उनका कहना था कि डाक्टर अन्सारी के दृढ़ हो सकती है।
समान राष्ट्रीय नेता भी उर्दू-लिपि को छोड़ने पर तैयार ___इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिन महानुभावों ने नहीं। शायद उसके बाद से उन्होंने इस प्रकार का विचार हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के सिंहासन पर बैठने का अधिकारी ही छोड़ दिया है । अब तो उनका विचार है कि राष्ट्र-भाषा माना है और सर्वप्रथम उसे ऐसा रूप दिया है, आज वे तो एक होगी, जिसे हम 'हिन्दी' कहें अथवा 'हिन्दोस्तानी', ही हिन्दी याने हिन्दोस्तानी' के जन्मदाता हैं। पूज्य अर्थात हिन्दी याने हिन्दोस्तानी, परन्तु लिखी जायगं महात्मा गान्धी, बाबू राजेन्द्रप्रसाद, काका कालेलकर वह दो लिपियों में-फारसी-लिपि और नागरी-लिपि में। श्रादि महानुभावों ने हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाने में और एकमात्र ऐसा मानने का कारण यही है कि मुसलमान उसे कांग्रेस जैसी प्रभावशाली राष्ट्रीय महासभा-द्वारा व्यावहा- अपनी लिपि को छोड़ना नहीं चाहते। रिक रूप दिलाने में मुख्य कार्य किया है।
वास्तव में आदर्श का रूप विशुद्ध तो तभी तक है • मुझे स्मरण है, जब कराची-कांग्रेस के अवसर पर जब तक उसे व्यावहारिक रूप नहीं मिलता। आदर्श के
पूज्य गान्धी जी ने अ-हिन्दी-भाषी कांग्रेस-नेतानों और प्रति रूप में तो यह ठीक है कि राष्ट्र-भाषा जिस प्रकार एक हो, निधियों से जोरदार शब्दों में अपील की थी कि अगले उसी प्रकार उसकी लिपि भी अनेक न हों । परन्तु व्यवहार
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संख्या ५)
'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी
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में यह बात हो सकेगी कि नहीं, ऐसा विचार कम लोग यह आश्वासन दिया कि हिन्दी से हमारा तात्पर्य बोलचाल किया करते हैं । यह ठोस सत्य है कि कुछ लोग भाषा और की भाषा है तब मुसलमानों ने यह समझा कि हिन्दी का लिपि का निर्माण नहीं कर सकते । उसका निर्माण तो कुछ अर्थ है 'हिन्दुस्तानी', यानी बोल-चाल की भाषा और ऐतिहासिक सत्य सिद्धान्तों के आधार पर ही होता है। उर्दू एक ही हों। अन्य प्रान्तीय लिपियों की एकता का प्रयत्न तो काका असल में हिन्दी राष्ट्र-भाषा इसी लिए कही जाती है साहब का चल रहा है और उसमें सफलता की अाशा भी कि वही हिन्दुस्तान के अधिक लोगों के व्यवहार में इस होने लगी है।
समय आ रही है, और देश-भाषाओं में आज इसी को नागपुर में होनेवाले भारतीय साहित्य-परिषद् के अन्तः प्रान्तीय महत्त्व प्राप्त है। इस अर्थ में हमारे विचार प्रथम अधिवेशन के अवसर पर स्वागताध्यक्ष-पद से से 'हिन्दुस्तानी-शब्द की अपेक्षा हिन्दी शब्द ही अधिक भाषण करते हए काका साहब ने स्वीकार किया है कि उपयुक्त है। क्योंकि जिन लोगों की यह जन्म-भाषा है उनके राष्ट्र-भाषा हिन्दी ही हो सकती है। वे कहते हैं
प्रान्त का नाम 'हिन्द-प्रान्त' है और यह शब्द है भी "हम हिन्दी का ही माध्यम स्वीकार करते हैं, इसके कई प्राचीन । हम इतना तो मानते ही हैं, और वह है भी सत्य
कारण हैं । पहला कारण तो यह है कि यह माध्यम कि व्यवहार में तो वही भाषा प्रयुक्त हो जो सबकी समझ स्वदेशी है। करोड़ों भारतवासियों की हिन्दी जन्म- में आसानी से आ जाय। उस भाषा में वे शब्द भी गिने भाषा ही है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रान्तों के जायँगे जो फारसी, अँगरेज़ी आदि भाषाओं से ले लिये गये सन्त कवियों ने सदियों से हिन्दी को अपनाया है। हैं । अब वे शब्द फ़ारसी आदि भाषाओं के ही न रह कर यात्रा के लिए जब लोग जाते हैं तब हिन्दी का ही हमारे भी हैं। ऐसे शब्द निकाले जा भी नहीं सकते। सहारा लेते हैं । परदेशी लोग जब भारत में भ्रमण फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्द केवल हिन्दी में ही नहींकरते हैं तब उन्होंने भी देख लिया है कि हिन्दी के महाराष्ट्र आदि प्रान्तीय भाषाओं में भी उनकी कमी नहीं है। सहारे ही वे इस देश को पहचान सकते हैं। असल हम अन्य भाषाओं के व्यवहृत शब्दों को निकाल फेंकने के में तो हिन्दी-भाषा है ही लचीली, तन्दुरुस्त बच्चों पक्ष में नहीं । भाषा के प्रकार अथवा आत्मा के सम्बन्ध में की तरह बढ़नेवाली, और इसकी सर्व-संग्राहक-शक्ति ही हमारा मतभेद है । इस बात का निश्चय हो जाना तथा समन्वय-शक्ति भी असीम है। जिस भाषा को चाहिए कि हमारी राष्ट्र-भाषा का आधार संस्कृत और अाज अपने तेरह उपविभाग सँभालने पड़ते हों उसको तद्भव भाषायें होगा, अथवा फ़ारसी और तद्भव भाषायें । राष्ट्र-भाषा की भूमिका धारण करने में कोई कठिनाई संस्कृत और उसकी प्राकृत भाषाओं में तथा फ़ारसी और न होगी।"
तत्प्राकृत-भाषाओं में आकाश-पाताल का भेद है। समास पाठक देखेंगे कि यहाँ सर्वत्र काका साहब ने उक्त आदि के नियमों में भी महान् अन्तर है । राष्ट्र-भाषा के लिए अर्थो में 'हिन्दी'-शब्द का ही प्रयोग किया है।
हिन्दी' शब्द का प्रयोग इस सन्देह को निवृत्त कर देता है। दुर्भाग्यवश हिन्दुस्तान में किसी ऊँची से ऊँची भी हिन्दी का अर्थ है संस्कृत और तन्मूलक भाषाओं के बात को साम्प्रदायिक रूप में देखने की प्रवृत्ति हो गई है। आधार पर बनाई गई भाषा। मेरा दावा है कि हिन्दू भारत के लोगों को अपने देश की अपेक्षा अपने सम्प्रदाय अथवा मुसलमान दोनों के व्यवहार में यही भाषा की रक्षा की अधिक चिन्ता है। यही बात हिन्दी के पाती है। और फिर मुसलमानों की भी बहुसंख्या सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। 'हिन्दो' राष्ट्र-भाषा तो गाँवों में रहती है और उसकी भाषा प्रान्तीय ही है। बनाई गई है, ऐसा जब मुसलमानों ने सुना तब उन्होंने विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग-अप्रयोग के कारण इसका यही अर्थ समझा कि अब कांग्रेस भी उर्दू-भाषा और भेद तो चित्र में रंग भरने के समान है, उससे 'आत्मा' उसकी लिपि को नष्ट करने पर तुल गई है, यद्यपि किसी में अन्तर नहीं हो जाता। भी कांग्रेस-नेता का ऐसा विचार नहीं था। जब नेताओं ने बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में भेद तो
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सरस्वती
[ भाग ३८
रहेगा ही। उसे कम करने का प्रयत्न अवश्य करना . यदि सरलता और सुगमता की दृष्टि से ही 'हिन्दी याने चाहिए, परन्तु वह रहेगा अवश्य । अतः साहित्यिक भाषा हिन्दोस्तानी' शब्द का प्रयोग किया जाता है तो इसकी भी में उर्दू और हिन्दी के प्रकार में भेद रहेगा। थोड़े दिन कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि हिन्दी की जो परिभाषा हुए लखनऊ में होनेवाले 'हिन्दुस्तानी-एकेडेमी' के पाँचवें की जाती है उसका भी अर्थ यही है । अर्थात् जिसे उत्तर'साहित्यिक-सम्मेलन' में बोलते हुए कानपुर के मौलवी भारत की जनता आसानी से समझती है। हाँ, यदि काका अब्दुल्ला साहब ने कहा है कि 'हम इस बात को भुला नहीं साहब का हिन्दी याने हिन्दोस्तानी से अर्थ यह हो कि सकते कि मामूली बोलचाल की भाषा साहित्य-विज्ञान इन दोनों शब्दों का अर्थ एक है, क्योंकि 'हिन्दी' और श्रादि सम्बन्धी विचार व्यक्त करने की भाषा से भिन्न होती 'हिन्दुस्तानी' शब्दों की जो व्याख्या की जाती है उसमें है। इसलिए बोलचाल की भाषा को अधिक सरल कोई महान् अन्तर नहीं तो इसमें हमें कोई विशेष अापत्ति बनाने का तो प्रयत्न किया जा सकता है, पर वैज्ञानिक तथा - नहीं । सम्भवतः परिषद् के उद्देश में आये हुए 'हिन्दी साहित्यिक भाषा के सम्बन्ध में हिन्दी-उर्दू में बहुत भेद याने हिन्दोस्तानी' शब्द का यही अर्थ होगा। काका साहब पड़ेगा। भाषा का यह भेद तो तब तक रहेगा ही जब तक के भाषण में निम्न वाक्यों से यही ध्वनित होता हैमुसलमान भारतीय भाषा और संस्कृति का अपना न समझेंगे। "राष्ट्रीय हिन्दी में समस्त भाषाओं के शब्दों को कुछ स्थान
यदि भारतीय साहित्य-परिषद् की ओर से एक ऐसे मिलेगा ही। हम किसी का बहिष्कार नहीं चाहते। कोश का निर्माण किया जाय, जिसमें सर्वनाम, अव्यय राष्ट्रीय शब्द किसी भी भाषा या बोली के हों, अधि
आदि क्रम से समस्त प्रान्तीय भाषाओं में एक ही अर्थ में कांश लोग जिन्हें समझ सके वे सब शब्द राष्ट्रीय हैं।' प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का संग्रह रहे तो सुगमता से करोड़ों भारतवासी जिस भाषा को आसानी से समझ राष्ट्र-भाषा के शब्दों का निर्णय हो सकता है। जो शब्द सकें ऐसी सुलभ सर्वसाधारण और स्वदेशी भाषा में हम समूचे राष्ट्र में एक अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है वही बोलेंगे।" राष्ट्र-भाषा का शब्द होगा। मेरा विचार है कि तब आज हमारा तो विश्वास है कि बोलचाल की भाषा और की भी अपेक्षा अधिक संस्कृत-शब्द राष्ट्र-भाषा के अंग साहित्यिक भाषा में अन्तर आवश्यक है, हेय भी नहीं । बनेंगे | बँगला आदि प्रान्तीय भाषाओं में संस्कृत-शब्दों इसमें कमी लाने का प्रयत्न करना चाहिए । इस समय तो की ही प्रचुरता है।
'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' दोनों के पक्षपातियों को विदेशी भाषा यद्यपि कांग्रेस ने 'हिन्दी' का राष्ट्र-भाषा का रूप दिया से युद्ध करना है, अतः इस समय इस झगड़े में पड़ने से है, तथापि जानबूझकर उसके अधिवेशनों में अधिक लाभ नहीं, हानि ही है। इस समय तो सबको देश-भाषा वक्ता कठिन फ़ारसी-शब्दों का ही प्रयोग करते हैं, जिसे में सभी हिन्दुस्तानियों को शिक्षित करने का सतत प्रयत्न अधिकतर लोग नहीं समझ सकते । केवल हीं, करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि जब हिन्दुस्तान के अधिकतर मुसलमान भी उसे नहीं समझ पाते। यह मुसलमान साम्प्रदायिकता से उठकर विचार करेंगे तब वे शिकायत हमें ही नहीं, स्वयं 'हिन्दी याने हिन्दोस्तानी' के देखेंगे कि हिन्दी ही राष्ट्र-भाषा होने के योग्य है। पक्षपाती काका साहब ही लिखते हैं
यदि 'हिन्दी याने हिन्दुस्तानी' शब्द हिन्दी-हिन्दु"कांग्रेस में जो भाषण हिन्दी में होते हैं उनमें फ़ारसी शब्दों स्तानी के झगड़े को कम करने में समर्थ हो जाय तो देश .. की इतनी भरमार होती है कि देहात से आनेवाले का कितना उपकार हो। परन्तु भय है कि यह इस अर्थ में प्रतिनिधियों को अँगरेज़ी और हिन्दी दोनों भाषायें तीसरा पर्याय न बने । आशा है, यह तीसरा शब्द विरोध एक-सी दुर्बोध प्रतीत होती हैं।"
को शान्त करके स्वयं भी उपरत हो जायगा।
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ईर्ष्या और प्रतिशोध की आग में जलने- वाले एक पहाड़ी युवक की कहानी
बदरी
लेखक, श्रीयुत उपेन्द्रनाथ 'अश्क', बी० ए०, एल-एल० बी०
स प्रकार वर्षा का पहला छींटा पड़ते आँसू छलक रहे थे; पति पत्नी से मुसकराता हुआ विदा ले ही पहाड़ी नालों में जीवन जाग रहा था, पर सीने पर पत्थर रखे हुए, और स्त्रियाँ रोती उठता है और वे उत्फुल्ल होकर थीं, तो भी प्रसन्न थीं कि उनके पुरुष उनके लिए ही सुख
बह निकलते हैं, उसी भाँति शिमला का सामान जुटाने जा रहे हैं। पहाड़ी युवतियों की आँखों g का मौसम शुरू होते ही पहाड़ी से आँसू प्रवाहित थे, पर दिल खुश थे कि यह कुछ दिनों
पगडंडियों में जान पड़ जाती है। की जुदाई स्थायी प्रसन्नता साथ लायेगी। उनके प्रेमी पहाड़ी लोग पुरानी पगडंडियों को उनका अस्तित्व वापस इतना धन जमा कर लेंगे कि उनके मा-बाप से उन्हें माँग देते, नई लीके निकालते, शिमला की आबादी बढ़ाने सके । बच्चों को भी इसी तरह का कुछ धैर्य था। मचलना लगते हैं। इन दिनों शिमले में यौवन श्रा जाता है; चाहते थे, रोने के लिए उतावले हो रहे थे, पर ओंठों को शिशिर के हिम से सिकुड़ा हुआ नगर अप्रैल-मई की सिये हुए चुपके से, क्योंकि यदि वे रोयेंगे तो उनके पिता जीवनदायिनी धूप से खिल उठता है । परन्तु जहाँ इस उनके लिए खिलौने न लायेंगे । जो भी रोयेगा, मिलाई मौसम में शिमले में उल्लास खेलता है, वहाँ पहाड़ी देहात और खिलौनों से वंचित रह जायगा। में उदासी छा जाती है। पहाड़ के युवक रोटी कमाने की शोली खाली हो रहा था। कल बिरजू गया, आज धुन में शिमले को चल पड़ते हैं, पिता-पुत्र, भाई-बहन, पिरथू गया। सब जा रहे थे। केवल वे ही घर पर थे जिनके प्रियतम-प्रेयसी एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं। देहात की शरीर में मेहनत-मजदूरी करने की शक्ति न रह गई थी रूह इनके साथ ही चली जाती है, शिमले का जीवन या वे जिनकी घर पर आवश्यकता थी। नहीं तो सब पहले इसकी मृत्यु बन जाता है।
पहले अच्छी जगह प्राप्त करने के विचार से भागे जा रहे अप्रैल का शुरू था। मैदान की गर्मियों से बचने के थे। केवल बदरी अभी तक पहाड़ी पगडण्डियों पर ही भटलिए शिमले की ठंडी और अनुरंजनकारी फ़िज़ा में पनाह कता दिखाई देता था। या नहीं गया था कांशी । वह भी लेनेवाले सरकारी दफ्तरों का आगमन प्रारम्भ हो गया अभी तक गाँव में ही मारा मारा फिर रहा था। था। चारों ओर जीवन के आसार दिखाई देने लगे थे, अपने रिश्तेदारों की नज़रों में वे दोनों बेकार घूम रहे मानो मृतक में फिर से जान पड़ गई हो।
थे। परंतु वे बेकार न थे, मुहब्बत के मैदान में घोड़े दौड़ा रहे शोली के गरीब पहाड़ी भी अपने सम्बन्धियों से जुदा थे । गत वर्ष बदरी बाज़ी ले गया था और अब की कांशी। होकर अागामी शीत के लिए कुछ धनोपार्जन करने जा रहे बदरी घायल साँप की भाँति कुंकार रहा था और थे, लेकिन अकेले शिमला में कुटुम्ब कहाँ साथ जा कांशी विजयी योद्धा की भाँति जामे में फूला न समाता सकता है ? वहाँ का किराया ही इस बात को इजाज़त नहीं था। एक की दुनिया
की नरक! देता। पुरुष तो खैर कहीं पड़कर ही काट लेंगे। पर स्त्रियाँ और बच्चे ! उनके लिए तो घर चाहिए। इसी लिए ऊँची ऊँची पहाड़ियों के दामन में नाला शोर करता सब भरे दिलों के साथ जुदा हो रहे थे। बाप अपने बच्चों हुआ बह रहा था, मानो अपने देवताओं के चरण धोकर को हँस हँसकर प्यार करता था, पर उसकी आँखों में जन्म सफल कर रहा हो । इधर-उधर फैली हुई झोंपड़ियाँ
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सरस्वती
खिड़कियों की आँखों से पानी की इस चंचल विनम्रता का नज़ारा कर रही थीं । सन्ध्या ने टेसू के रङ्ग का दुपट्टा ओढ़ लिया था और छोटी छोटी पहाड़ी गायें बस्तियों को लौट रही थीं। दूर किसी जगह कोई अल्पवयस्क लड़का अपनी बाँसुरी में इन पर्वतों की भाँति पहाड़ी युवती के वियोग का पुराना करुण राग अलाप रहा था । ऐ ब्रम्हण के लड़के शिमले न जा बेवफ़ा मेरी हसरतें खाक हो जाएँगी बेवफ़ा
शिमले न जा सुना के किनारे पत्थर पर बैठी थी । उसका सिर झुककर घुटनों से लग गया था । श्रन्यमनस्कता में वह छोटी छोटी कंकरियाँ नाले में फेंक रही थी । बाँसुरी की मधुर और करुण ध्वनि उसके हृदय को द्रवित किये देती थी । धीरे धीरे अपने दिल में वह दुहरा रही थी - शिमले न जा बेवफ़ा शिमले न जा ।
कांशी देर से झाड़ी में छिपा बैठा था, आज उसे भली भाँति देख लेना चाहता था, मुद्दत प्यासी अपनी आँखों की प्यास बुझा लेना चाहता था । वह उसे अपनी आँखों में बिठा लेना चाहता, अपने दिल में छिपा लेना चाहता था, चाहे इसके बाद दिल की धड़कन ही बन्द हो जाय, आँखों की ज्योति ही बुझ जाय । श्राज सुर्ज एक बार सिर उठाये तो वह उसे जी भर कर देख ले | जाने फिर यह मोहनी मूरत देखनी नसीब हो या नहीं, अभी दिल के अरमान निकाल ले, मन की साध पूरी कर ले। सुर्जू के सामने उसकी निगाहें झुक जाती थीं । स्वामी की उपस्थिति में चोरी कर भी कौन सकता है ? छुपकर लूट लेना भी सम्भव है ।
कितनी देर तक वह इसी प्रतीक्षा में बैठा रहा, लेकिन सुर्जू ने सिर न उठाया, कांशी की हसरत न निकली । छोटी छोटी कंकरियाँ नाले में गिरती थीं और किसी आवाज़ के बिना जल-प्रवाह में विलीन हो जाती थीं- उन शक्त मनुष्यों की भाँति जो किसी ध्वनि के बिना मृत्यु की बहिया में बहे चले जाते हैं ।
श्राख़िर वह धीरे धीरे आगे बढ़ा और धड़कते हुए दिल के साथ उसने झुककर अपना हाथ सुर्ज के कंधे पर रख दिया। दो बहते हुए झरने उसकी ओर उठे और उसकी अपनी आँखों से नदियाँ प्रवाहित हो गई ।
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[ भाग ३८
“तुम रो रही हो सुर्जू” !
'तुम रो रहे हो कांशी' !
और दोनों चुप हो गये, केवल एक-दूसरे को देखते रहे । दूर कमसिन लड़का गा उठा
ऐ म्हण के लड़के शिमले न जा बेवफ़ा
परदेश में जाकर तू मुझे भूल जायगा बेवफ़ा शिमले न जा
सुर्ज ने कांशी की ओर देखा, मानो वह इसका जवाब पूछ रही हो । बाँसुरीवाले ने अपनी ऊँची, मीठी आवाज़ से फिर गीत अलापा -
ऐ ब्राम्हण की लड़की घबरा मत मेरी जान
तुझे भूलना जी से गुज़र जाना है मेरी जान
घवरा मत
कांशी की आँखों में एक हलकी-सी जुंबिश हुई और सुर्ज के प्रश्न का उत्तर दे दिया गया ।
और फिर दोनों अनायास लिपट गये, जुदा हुए और फिर लिपट गये और इसके बाद छोटे-छोटे पौधों और झाड़ियों में उलझते पत्थरों से ढोकरें खाते चोटी पर बसे हुए गाँव की ओर रवाना हो गये ।
उस वक्त एक दूसरी झाड़ी से बदरी निकला-प्रतिशोध की साक्षात् मूर्ति । क्रोध के मारे उसकी आँखों में रक्त उबल श्राया था । वह, जिसे वह चिरकाल से अपने हृदय - मन्दिर में बिठाये पूजा करता था - वह, जिसे वह पा ही लेता यदि यह कांशी बीच में न कूद पड़ता - वह आज उससे छिन गई थी। वह कांशी की भाँति रूपवान् न सही, पर इतना कुरूप भी न था । कभी सुर्ज की प्रेमभरी दृष्टि उसकी ओर भी उठा करती थी । परन्तु उसमें कांशी का सा हौसला न था और प्रेम में साहस सफलता की पहली शर्त है । वह सुर्ज की मेहरबान निगाहों को देखता था, उसके हृदय में हलचल मच जाती थी, लेकिन वह चुप रहता था । फिर कांशी आया । सुर्ज ने उसे भी प्रेम से देखा । कांशी ने उन मुहब्बत भरी निगाहों का जवाब दिया और फिर आँखों ही आँखों में खींवाली
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संख्या ५]
बदरी
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को जीत लिया। अब कहीं कांशी रास्ते से हट जाय, पहाड़, पैरों में खौफ़नाक गहरा खड्ड। यही पगडंडी जो उस पर बिजली गिर पड़े, उसे मौत आ जाय, तो वह दूर से सुन्दर-सी लकीर प्रतीत होती थी, पास आने पर साहस से काम ले। वह सुर्ज को जता दे कि वह उससे मौत और ज़िन्दगी की हद दिखाई देती थी। इस खतरे किस हद तक प्रेम करता है, साबित कर दे कि वह उसके के बावजूद यात्रियों को इसी पर से होकर शिमला जाना लिए आकाश के तारे तोड़ ला सकता है, पाताल की गहरा- पड़ता था, दूसरे मार्ग से चार मील का अन्तर पड़ता था। इयों में गोता लगा सकता है।
कांशी के पीछे आनेवाले लड़के एक क्षण के लिए रुक लेकिन कांशी...कांशी..., उसने उन्मत्तों की भांति गये। उन्होंने एक बार उस सिकुड़ी-सिमिटी लकीर जैसी इधर-उधर देखा और दाँत पीसते हुए बढ़कर उस झाड़ी पगडंडी पर निगाह डाली और फिर खड्ड को देखा, जो मुँह को उखाड़ फेंका जिसके पीछे कांशी छिपा बैठा था और बाये इस तरह बैठा था, जैसे हर आनेवाले को निगल जायगा फिर अपने बलिष्ठ हाथों से उस पत्थर को धकेल कर नाले और पहाड़ जैसे मूर्तिमान् गर्व बना खड़ा था। उसे देखने में फेंकने का प्रयास करने लगा जो कुछ देर पहले उन पर खड्डु की दीनावस्था का पता चलता था। ऐसा महसूस दोनों का श्रासन था।
होता था, जैसे वह मुँह खोले दया की भीख मांग रहा हो ।
। इस बीच में कांशी जड़ी-बूटियों का सहारा लेता हुआ अभी सूरज उदय नहीं हुआ था, और सवेरे का पगडंडी पर कई कदम बढ़ गया था। साहस के साथ वे हलका अँधेरा समस्त विश्व को अपने दामन में छिपाये भी उसके पीछे हो लिये। हुए था। पूर्व में प्रकाश की किरनें इस प्रकार तारीकी सब पौधों को पकड़ पकड़ कर चलने लगे। अधिकांश में मिल रही थीं जिस तरह विष के प्याले में अमृत । मार्ग तय हो गया। कुछ ही पग रह गये थे। उस समय एक सबसे आगे कांशी जा रहा था, उसके पीछे एक लड़का भयानक ध्वनि सुनाई दी। कांशी के सिर पर एक बड़ा जोगू और फिर दस दस साल के दो कमसिन बच्चे थे। पत्थर लुढ़का पा रहा था। लड़के चीखकर पीछे हटने सब लम्बे लम्बे डग भरते जा रहे थे । आज शाम से पहले लगे । कांशी भी विद्यत्-वेग से पीछे हटा, परन्तु उसका उन्हें शिमला पहँच जाना है, इस विचार से सब पाँव फिसला और वह पौधे को पकड़े हुए खड्ड में लटक तड़के ही शोली से चल पड़े थे। अँधेरे ही अँधेरे में गया। एक चीख और पौधे की जड़ पत्थर की चोट से उन्होंने चार कोस की मंज़िल मार ली थी। पहाड़ी पगडंडी, टूट गई। कांशी कलाबाज़ियाँ खाता हुआ खड्ड में जाने लगा कभी खड्ड की गहराइयों में गुम हो जाती और कभी पहाड़ और उसके पीछे वह भयानक पत्थर, जिस तरह चूहे के की बुलन्दियों पर पहुँच जाती । कभी ऐसा प्रतीत होता जैसे पीछे बिल्ली । अाकाश से पाताल में फँस गये और कभी ऐसा दिखाई लड़के रो रहे थे और सावधानी से पीछे को हटते देता, जैसे पाताल से आकाश पर जा पहुँचे और फिर जा रहे थे। उन्होंने एक और बड़ा पत्थर देखा जो पहले अगणित मोड़े। जाते जाते सामने पहाड़ आ जाता और की सीध में लुढ़कता आ रहा था, परन्तु इस बार वे चीखे पगडंडी भी उसके साथ ही मुड़ जाती। लेकिन पहाड़ की नहीं। अब वे इसकी जद से बाहर थे। ज्यों-त्यों उन्होंने परिक्रमा के ख़त्म होते ही पहली पगडंडी साफ़ दिखाई देती वह मौत की पगडंडी समाप्त की और रोते हुए वापस
और मालूम हो जाता कि अभी कुछ ही ऊपर उठ पाये शोली की ओर भाग गये। उन्होंने वह कहकहा हैं, इतना चक्कर यों ही लगा, मुश्किल से चौथाई फलींग नहीं सुना जो पहाड़ के शिखर पर खड़े दीवाने बदरी ने फ़ासिला भी तय न किया होगा।
लगाया । उस समय यदि उसे कोई देखता तो डर से __ "सावधानी से'-कांशी ने अपने पीछे पीछे आने- काँप जाता । उसके बाल शुष्क और बिखरे हुए थे; उसकी वालों से कहा और उस पगडंडी पर हो लिया जो पहाड़ आँखें सुर्ख और डरावनी थीं, उसके ओंठ फड़क रहे थे
और खड्ड के दरम्यान टॅगी हुई मालूम होती थी। एक और उसके चेहरे पर रुद्रता बरस रही थी। उसने सुख व्यक्ति ही कठिनाई से उस पर गुज़र सकता था। सिर पर की सेज में खटकनेवाले काँटे को निकाल दिया था।
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४२४
सरस्वती
मुहब्बत के अखाड़े में वह बाज़ी जीत गया था और अपने प्रतिद्वन्द्वी को उसने चारों खाने चित गिरा दिया था ।
कल जब उसे मालूम हुआ था, कांशी प्रातः शिमले को चल पड़ेगा तब उसने अपनी चिरसंचित प्रतिज्ञा को पूरा करने का फैसला कर लिया था, जो उसने एक दिन पहले इसी पहाड़ी - शिखर पर की थी । उस दिन वह यहाँ मरने आया था । सुर्ज की अवहेलना ने उसे इस हद तक निराश कर दिया था कि अपना जीवन उसे सर्वथा शून्य दिखाई देता था - नीरस और विरस ! और वह श्राया इस शिखर से गिर कर अपने इस व्यर्थ की साँसों के कारा-. गार को फ़ना करने, इस शुष्क दुःखप्रद जीवन को नष्ट करने ! लेकिन अचानक उसके कानों में उसके पूर्वजों के कारनामे गूँज उठे थे। आख़िर क्या वह उन्हीं बलवान् पहाड़ियों की सन्तान न था जो मरना न जानते थे, मारना जानते थे, जिन्होंने बीसियों मुसाफ़िरों का सर्वस्व लूट कर उन्हें खड्ड की गहराइयों में सदैव के लिए गिरा दिया था । इस घाटी में एक बड़ा भारी जल प्रपात था । उसे देखने के लिए दर्शक दूर दूर से आया करते थे । उसके सामने आया कि किस प्रकार उसके पूर्वजों में से hard sta किसी मुसाफ़िर का पथ प्रदर्शक की हैसियत से जल प्रपात दिखाने लाया और किस प्रकार उसने उसकी पीठ में छुरा भोंक कर लूट लिया और उसकी मृतक देह को गहरे खड्ड में गिरा दिया। इस दृश्य के सामने आते ही उसका हाथ कमर पर गया। लेकिन वहाँ खंजर नहीं था । अँगरेज़ों ने इन भयानक डाकुत्रों को कायर और डरपोक पहाड़िये बना दिया था। इन खूँख्वार भेड़ियों को निरीह भेड़ों में परिणत कर दिया था । परन्तु उस दिन कहीं से बदरी में उसके पूर्वजों की निडर और उद्दंड रूह व्याप गई थी और उस दिन वह फिर भेड़ से भेड़िया बन गया था और उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह मरने के बदले मारेगा, स्वयं खड्ड में गिरने के बदले अपने रक़ीब को वहाँ गिराकर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास बुझायेगा । उस दिन वह जहाँ मरने श्राया था, वहाँ से मारने का प्रण करके लौटा था ।
रात भर वह सो न सका था। तड़के ही कांशी चल 1. पड़ेगा, इस ख़याल से वह निशीथ नीरवता में ही उठकर केवल एक चादर ओढ़कर हरिण की भाँति कुलाचें
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[ भाग ३८
भरता हुआ यहाँ आ पहुँचा था । रात तो भला चाँद का कुछ क्षीण-सा प्रकाश भी था, परन्तु यदि घटाटोप अँधेरा भी होता तो वह इस शिखर पर पहुँच जाता । प्रतिशोध की आँखें उसे अवश्य ही मार्ग सुझा देतीं ।
आज वह अपने उद्देश में सफल हो गया था, आज उसका प्रण पूरा हुआ था। वह वापस शोली का मुड़ा ताकि वह सुर्ज के दिल से कांशी की याद को निकाल कर फिर से अपनी मुहब्बत के बीज बोये । परन्तु कुछ दूर जाकर वह फिर शिमला को पलटा । उसने सोचा कांशी की मृत्यु का समाचार सुनकर सुर्ज उदास हो गई होगी और अपने इस दुःख में उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखेगी। वह शिमला जायगा । समय को सुर्जू के घायल दिल पर मरहम रखने की इजाज़त देगा और इस बीच में इतना रुपया इकट्टा कर लेगा कि वह सुर्ज पर उपहारों की वर्षा कर दे और उसे अपनी दौलत और मुहब्बत में इस भाँति जकड़ ले कि यदि कांशी फिर जीवित होकर भी आये तो उसे उससे न छीन सके ।
यह सोचते-सोचते उसकी पशुता गम्भीरता में बदल गई और वह चुपचाप शिमले की ओर चल पड़ा। ( ४ )
।
श्रप्रैल बीता, मई, जून, जुलाई, अगस्त बीते और सितम्बर बीतने का श्राया । शिमला का मौसम ख़त्म हो गया। सरकारी दफ़्तर भी देहली और लाहौर जाने लगे । मैदान की गर्मियों से तंग आकर शिमला की पनाह लेनेवाले शिमले की सर्दी के डर से फिर वापस मैदानों की ओर चले गये । बदरी ने इस अरसे में बड़े परिश्रम से काम लिया । वह कुछ देर बाद शिमला पहुँचा था और उस समय किसी स्थायी जगह का मिलना मुश्किल था । लेकिन उसने साहस नहीं छोड़ा। जहाँ भी कहीं मज़दूरों की आवश्यकता हुई वह वहाँ पहुँच गया और फिर इस दयानतदारी से उसने अपना काम किया कि उसे आशा से भी अधिक मज़दूरी मिली। कभी वह रिक्षाड्राइवर बना, कभी कमिटी का मज़दूर; कभी उसने स्वास्थ्यविभाग में काम किया तो कभी बिजली - कम्पनी में और जब कोई काम न मिला तब स्टेशन से बाहर जाकर खड़ा हो गया और आने-जानेवालों का सामान उठाकर अच्छे पैसे ले आया। उसके अंग ईसपात हो गये। कई बार
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संख्या ५]
.
.
बदरी बदरी
उसने इतना बोझ उठाया कि कश्मीर के हातो भी दंग उसका दुपट्टा लहरा रहा है। निश्चय ही वह वहाँ बैठी रह गये। थोड़ी-बहुत मात्रा में उसने व्यापार भी किया। हुई थी । उसका दिल धड़कने लगा। उसने पक्षों के बल लोयर बाज़ार से ग्राम माल लेकर नफ़े पर रुलदू भट्टा धीरे-धीरे चलना शुरू किया। परन्तु उससे चला न जाता सांकली और भराड़ी में बेच पाया। इस काम में उसे था, उसके पैरों में कम पैदा हो रहा था। वह पीछे से इतना लाभ हुया कि जब तक ग्रामों का बाहुल्य रहा वह जाकर उसकी आँखें बन्द कर लेगा। वह मचलेगी, यही काम करता रहा । जीवन में जिस स्फूर्ति की आवश्य- तड़पेगी और वह हाथ छोड़कर उसके सामने शीशा, कंघी, कता होती है वह उसके पास थी और वह दिन-रात रुमाल, इत्र की शीशी, बिजली का टॉर्च और दूसरे उपकाम करके भी न थकता था। उसने ख़र्च बड़ी सावधानी हारो का ढेर लगा देगा। उल्लास के मारे उसके पाँव न से किया और अब उसके पास लगभग तीन सौ रुपये उठते थे। इस तरह चलता हुअा वह झाड़ी के समीप मौजूद थे। इस रकम को देखकर उसका उत्साह दुगुना पहुँचा कि उसके कान में गाने की आवाज़ आई। वह हो जाता था। वह प्रतिदिन इस बढ़ती हुई संख्या को ठिठक गया । उसका सब नशा हिरन हो गया, उसमें अागे देखता था और प्रतिदिन उसकी अाशालता पल्लवित बढ़ने की शक्ति ही न रही। यह तो कांशी की आवाज़ थी, होती जाती थी। कभी जब रात को थक-हार कर वह यह तो वही गा रहा था। बदरी ने सुना, कांशी की अपने डेरे में धरती पर लेटता तब उसके स्वप्नों की दुनिया पुरानी परिचित स्वर-लहरी धीरे-धीरे वायुमंडल में बिखर सुनहरी हो जाती। इन स्वप्नों में वह सुर्ज से और सुर्ज़ रही थीउससे प्रेम करती। वह उसकी मुहब्बत को जीत लेता, बदरी ने एक-एक शब्द ध्यान से सुना। कांशी गा उसके दिल में कांशी की याद को भुला देता और अपने रहा था। हाँ वही गा रहा था--अपना पुराना परिचित उपहारों तथा उपकारों से उसे राजी कर लेता और फिर राग । बदरी के दिल की गहराइयों से दीर्घ निश्वास निकल कहीं से नींद की परी अाकर उसकी थकी हुई पलकों को गया। उसने उचक कर देखा। दोनों एक-दूसरे के सुला देती।
श्रालिंगन में बद्ध थे। - सितम्बर बीतने पर बदरी की उद्विग्नता इस हद तक सुर्ज बोली- “कांशी, यदि बदरी तुम्हें मिले तो बड़ी कि उसके लिए शिमले में आक्टोबर का महीना तुम उससे क्या सलूक करो ?" काटना अत्यन्त मुश्किल हो गया। श्राक्टोबर के पहले उसने मुझे पत्थर गिराकर मारने का प्रयास किया सप्ताह में ही उसने अपना जोड़ा-जत्था सँभाला, सुर्ज के था, खड्ड में लुढ़कते समय मैंने उसे पहाड़ की चोटी पर लिए विभिन्न उपहार ख़रीदे और उन नये वस्त्रों से सजकर कहाहा लगाते देखा था, परन्तु यदि तुम कहो सुज तो जो उसने सिलवाये थे, वह एक दिन शोली को चल पड़ा। मैं उसे क्षमा कर दूं।"
सन्ध्या का समय था। वह गाँव के समीप पहुँचा। "कदापि नहीं'। सुज ने कहा-'मेरा बस चले तो जल-प्रपात के पास जाकर वह रुक गया। नाले के किनारों में उसे जीवित इस जल-प्रपात में रिकवा दूं।" पर सुर्ज की गायें चर रही थीं। उसे यकीन था कि सुर्ज कांशो ने उसे अपनी भुजाओं में भींच लिया। भी वहीं पत्थर पर बैठी पानी से अठखेलियां कर रही उस समय बदरी का सिर चकराया और वह मस्तक होगी। उसने देखा, तनिक दूर एक बड़ी भाड़ी के पीछे थामकर खोया हुआ-सा वहीं बैठ गया ।
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सिन्ध का लॉइड बॅरेज और रुई की खेती
. लेखक, श्रीयुत मदनमोहन नानूराम जी व्यास
जनवरी १९३२ में 'लोइड बॅरेज' का उद्घाटन किया गया था। तब से गत पाँच वर्षों में सिन्ध में रुई को खेती में उसके कारण कितनी प्रगति हुई है, इसो की प्रामाणिक
समीक्षा इस लेख में की गई है।
RADITTER रत में रुई की खेती उतनी ही प्राचीन गई । पिछले वर्षों में इस कमिटी ने सिन्ध में अन्वेषण SPE E है, जितना कि इतिहास । पुराने और बीज-गुणन-क्रियात्रों के लिए प्रचुर धन दिया है। 9 भा ज़माने में यहाँ जितनी अच्छी रुई ब्रिटिश सिन्ध' का सम्पूर्ण क्षेत्रफल ५३,००० वर्ग
MA पैदा होती थी, उसका मुकाबिला मील है और १९३१ की मर्दुमशुमारी के अनुसार इस RE अाज किसी भी देश की उत्तमोत्तम प्रान्त को जन-संख्या ९३,००,००० है, जिसमें ७३ प्रति
रुई भी नहीं कर सकती। जिस शत मुसलमान हैं। रुई से ढाके की प्रसिद्ध मल मल बनाई जाती थी, समय के सिन्ध-प्रान्त के उपविभाग-इस समय सिन्ध-प्रान्त प्रवाह के साथ साथ या तो वह नष्ट हो चुकी है या उसका बम्बई प्रान्त से अलग कर दिया गया है और वह ग्राट जिलों हास हो गया है। भारत में वर्तमान समय में जो रुई पैदा में विभक्त है-१ हैदराबाद, २ थरपारकर, ३ नवाबशाह; होती है उसके अधिकांश का रेशा ४ इंच से कम है । यहाँ ये तीन जिले सिन्ध के बायें किनारे पर हैं और ये रुई की इस दिशा में उन्नति करने के लिए सबसे पहले ईस्ट खेती के प्रधान केन्द्र हैं । ४ लारकाना, ५ दादू ये दो जिले इण्डिया कंपनी ने सन् १८४० में प्रयत्न किया था। चावल की खेती के लिए उपयुक्त हैं। सिन्ध का वरेज
'इंडियन-काटन-कमिटी ने सन् १९१७-१९१९ की प्रदेश' इन पाँच ज़िलों का बनाया गया है. जिसकी सिंचाई अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि सिन्ध में उत्तम रुई की वरेज से निकाली गई नहरों से होती है । गैर-बॅरेज-प्रदेश में खेती की असफलता का एकमात्र कारण सिंचाई की बाकी तीन ज़िले हैं-६ सक्कर, ७ कराची, ८ उत्तर-सिन्धअसुविधा है। सिन्ध में लम्बे रेशेवाली रुई पैदा करने के सरहदी-ज़िला । इन जिलों की सिंचाई सिन्धु-नदी की सम्बन्ध में उसने स्पष्ट लिखा है- "यदि सिंचाई के लिए वार्षिक बाढ़ों पर निर्भर है। बारहों मास नियमित रूप से पर्याप्त जल प्राप्त होता रहे तो लॉइड बॅरेज और नहर-विभाग–भारत के भूतहमारा विश्वास है कि भारत का अन्य कोई भी प्रदेश पूर्व वाइसराय लार्ड विलिंग्डन ने १३ जनवरी १९३२ को लम्बे रेशेवाली रुई की सफलतापूर्वक खेती की जाने के 'लाइड बॅरेज' का उद्घाटन किया था। सिंचाई के उद्देश लिए इतने अधिक और प्राशाप्रद सु-अवसर नहीं रखता।" से निर्माण किये गये बांधों में यह बाँध दर्शनीय एवं महान्
आगे. मालूम होगा कि सिन्ध में 'लॉइड बॅरेज' के खुल है। यह बाँध सक्कर के दरें पर सिन्धु नदी के प्रार-पार जाने से कमिटी के उपर्युक्त कथन का पूर्णतया समर्थन हो बाँधा गया है और इसके निर्माण में करीब २१ करोड गया है।
रुपया खर्च हुअा है। बॅरेज में ६६ व्यास हैं। प्रत्येक उक्त कमिटी की विविध सूचनाओं के अनुसार मार्च व्यास ६० फुट का है। जल-प्रवाह का मर्यादित रखने के १९२१ में 'इण्डियन सेन्ट्रल कॉटन कमिटी' की नियुक्ति लिए प्रत्येक व्यास में बिजली से खुलने और बन्द होने. की गई थी। सन् १९२३ में 'कॉटन सेस एक्ट' के अनुसार वाले लोहे के दरवाज़े लगे हुए हैं। बांध के नीचे के उसे स्थायी संस्था का रूप दे दिया गया और रुई की खेती भाग में आने-जाने का एक पुल भी है। 'ब्रिटिश सिन्ध' और विकास के लिए धन की समुचित व्यवस्था भी कर दी की ५०,१३,००० एकड़ भूमि बॅरेज की व्यवस्था के पूर्ण
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संख्या ५ ]
..
हो जाने पर भली भाँति सींची जा सकेगी। बॅरेज बनने के पूर्व १८,५०,००० एकड़ की सिंचाई होती थी, जिसमें अत्र ३१,६३,००० की वृद्धि हुई है ।
बॅरेज से जो कतिपय नहरें निकाली गई हैं तथा जो भू-भाग उनसे सींचे जाते हैं, नीचे के काष्ठक से उनका परिचय प्राप्त होगा ।
सिन्धु का बायाँ किनारा
संख्या नहर का नाम * १ ईस्टर्न नारा कनाल *२ रोहरी-कॅनाल
३ ख़ैरपुर-फ़ीडर-ईस्ट ४ ख़ैरपुर- फ़ीडर-ईस्ट
सन्
सिन्ध का लॉइड बॅरेज और रुई की खेती
लम्बाई सींचा जानेवाला प्रदेश २२६ मील थरपारकर-ज़िला
२०८ मील नवा शाह और कुछ शों में हैदराबाद जिला
}
खैरपुर-राज्य
१९२२-१९३२ १९३२-१९३३
१९३३-१९३४ १९३४-१९३५ १९३५-१९३६
दस वर्षों का वार्षिक औसत
के वर्ष का
33 33
33
33 33 ""
33 33 93
33
"3
"
"
"
י
95
33
* सिन्ध में रुई की खेती का ९५ प्रतिशत भाग इन दो नहरों और इनकी विविध शाखाओं पर निर्भर है ।
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सिन्धु का दाना किनारा
५ राइस कनाल
८२ मील मध्य- सिन्ध के चावल की खेती करनेवाले प्रदेश १३१ मील दादू ज़िला
६ दादू-कॅनाल
७ नाथ वेस्टर्न कनाल ३६ मील लारकाना जिला बॅरेज की बदौलत रुई की खेती का कैसा विकास हुआ
है, व इसका ब्योरा लीजिए ।
बॅरेज के जनवरी १९३२ में खुल जाने के बाद सिंध में खेती का (विशेषकर रुई की खेती का ) बहुत शीघ्र विकास हुआ है । बॅरेज द्वारा बारहों मास के लिए - पाशी का सुप्रबन्ध हो जाने से रुई की खेती के विस्तार में और उसकी पैदावार में बहुत अच्छी तरक़्क़ी हुई है जैसा
कि निम्नलिखित अंकों से स्पष्ट होता है ।
विस्तार
(एकड़)
३,२०,८८६
३,४२,८६०
५,२०,९८६
६,२२,७१०
८,०४,१७०
पैदावार
४०० रतल की प्रतिगाँठ )
९५,६६० गाँठें
१,१३,५८० १,६९२१० २,५०,९६०,, ३,२३,०२०
"
४२७
"
विस्तार के अंकों से ज्ञात होता है कि १९३५-३६ में रुई की खेती का विस्तार बॅरेज के पूर्व के औसत से १५० प्रतिशत बढ़ गया है । पैदावार के भी अंक बतलाते हैं कि इस विस्तार के बढ़ने के साथ साथ प्रतिएकड़ से प्राप्त पैदावार में भी वृद्धि हुई है । बॅरेज निर्माण के पूर्व १० वर्षों मेंौस्त रूप से १२० रतल रुई प्रतिएकड़ से प्राप्त होती थी, जो पिछली दो फ़सलों में १६० रतल तक प्राप्त होने लगी है। इस विकास के तीन कारण कहे जा सकते हैं( १ ) बारहों मास के लिए सिंचाई की समुचित
व्यवस्था ।
(२) सुधरे और अधिक रुई उत्पन्न करनेवाले पौधों की इस प्रकार था - खेती का फैलाव |
(अ) सिंघ - देशी
(३) ज़मीन जोतने और तैयार करने के उत्तम साधनों का उपयोग ।
(ब) सिंध-अमेरिकन
(स) आयात की हुई 'इजिप्शियन'
और 'सी- इलेण्ड' जाति की २,५०० * यह नहर गर्मी के महीनों में बन्द रहती है ।
सिंचाई का सुप्रबन्ध हो जाने से लम्बे रेशेवाली 'सिंधअमेरकन' रुई को खेती का बहुत विकास हुआ है। बॅरेज के पूर्व १० वर्षों में श्रीसत रूप से २४,६४० एकड़ में इस रुई की खेती होती थी तथा १९३२-१९३६ के वर्षों में यह औसत १,९९, ४२५ एकड़ था, पर पिछली फ़सल में प्रान्त के प्राधे भाग में अमेरिकन रुई की ही खेती की गई है।
सिन्ध में कितने प्रकार की रुई उत्पन्न की जाती है, इसका पता नीचे के अंकों से लगेगा
सिन्ध प्रान्त के बॅरेज प्रदेश में तीन प्रकार की रुई की खेती होती है । १९३५-३६ की फ़सल में इनका विस्तार
४,२३,८०० एकड़ ३,८०,३००
""
""
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४२८
.
[भाग ३
3.11RA
सकेर जिला
Kारकाना जिला
1G
। बलूचिस्ता न
.
-
कोटरी
दराबाद
हैदराबाद
मदीन
१२ पा २ क २.
करा ची जिलो
।
का स्वतन्त्र बाज़ार है और अपने खुरखुरेपन के कारण यह मिस. जिला
ऊन में मिलाने के लिए बहुत उपयुक्त होती है। १९३५. ३६ की फसल में सिन्ध देशी रुई की फ़सल इस
प्रकार थीलाइडवरेज
(१) बायाँ किनारा
- एकड़ नवावशाह-ज़िला हैदराबाद-जिला .
१,१०,१०० थरपारकर-ज़िला
१,०७,६०० (२) दाहना किनारा
१४,४००
कुल ४,२३,८०० (ब) सिन्ध-अमेरिकन-यह रुई अमेरिका की 'अपलैण्ड ज्यार्जियन' जाति की है। इसके बीज यहाँ पजावप्रान्त से लाये गये थे। इसके प्रमुख उन्नत रेशे दो हैं(१) 'सिन्ध-सुधार', (२) 'सिन्ध ४ एफ'। 'पंजाब-अमेरिकन
२८९ एफ़' से कृषि विभाग द्वारा 'सिन्ध-सुधार' रेशा कराची
निकाला गया था। इसके रेशों की लम्बाई १ से ११ इञ्च है और जिनिंग प्रतिशत ३० है। साधारणतया यह पैदा
भी अधिक होती है और ऋतु-सम्बन्धी फेरफार सहने की कच्छ का ३
और बीमारियों को रोकने की शक्ति भी इसमें काफी होती
है । इस कारण इसकी खेती दूसरी उपयोगी अमेरिकन सिन्ध-प्रान्त
जातियों की अपेक्षा अधिक होती है । इसके ढोंढ़ ठीक अब इन रुइयों का ब्योरा लीजिए- .
तरह से खुलते होने के कारण इकट्री की गई रुई स्वच्छ (अ) सिन्ध-देशी-प्रान्त के कृपि-विभाग ने सिन्ध और पत्ती के टुकड़े से मुक्त होती है । बीमारियों से बचाने की असली देशी रुई की एक सुधरी जाति की 'सिन्ध एन०
तथा अधिक पैदावार के विचार से इसकी बोनी जल्दी श्रार०' नाम की रुई तैयार की है और यह प्रान्त की स्टैंडर्ड
(मार्च या अप्रेल में) की जाती है, किन्तु फ़सल कुछ देर देशी रुई बना दी गई है। यह रुई अधिक उपजती है,
से तैयार होती है। चमकीली, सफ़ेद और खुरखुरी होती है इससे इसकी प्रान्त
सिन्ध ४ एफ' रुई 'पञ्जाब-अमेरिकन ४ एफ' से में सबसे अधिक खेती होती है। इसका रेशा है इञ्च से
निकाली गई है और यह भी एक उन्नत जाति की रुई है। ३ इञ्च का होता है और इसकी जिनिंग प्रतिशत* ३८ है ।
यह रुई देर से बोई जाने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त इसको उपज पुरानी देशी रुई से करीब १५.२० टका
है और सिन्धु के दाहने किनारे पर इसकी उपज 'सिन्ध अधिक होती है और फसल भी जल्दी तैयार होती है। यह
. एन पार' की अपेक्षा ज़्यादा होने से इसकी खेती सफलता. रुई भिन्न भिन्न रोगों से टक्कर लेने में सफल होती है और
पूर्वक की गई है। इसके रेशों की लम्बाई १ से १५ इञ्च भमि तथा ऋतु के अन्तरों को भी सह लेती है। इस रुई
है और जिनिंग प्रतिशत ३३ है । यह भी ऋतु-दोषों और
बीमारियों से अपनी रक्षा कर सकती है। इसकी फ़सल ___* यदि १०० मन कपास में से जिनिंग याने अोटाई बहुत जल्दी तैयार होती है और यह बात बॅरेज-प्रदेश में करने पर ३८मन रुई और ६२ मन बीज निकले तो उस काफी महत्व रखती है। सन् १९३५-३६ की फसल में सिन्ध रूई की जिनिग प्रतिशत ३८ कही जायगी।
में अमेरिकन रुई की फसल इस प्रकार थी
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संख्या ५ ]
सिन्ध का लॉइड बॅरेज और रुई की खेती
४२९
(१) बायें किनारे
एकड़
जिनिंग तथा हाट-प्रणाली-लॉइड-बॅरेज के खुलने नवाबशाह-ज़िला
३१,७०० के पूर्व सिन्ध में जिनिंग-प्रेसिंग के ३७ कारखाने थे, हैदराबाद,
१,२२,१०० जिनकी संख्या इस समय ६६ है । बम्बई प्रान्तीय व्यवस्थाथरपारकर , २,१५,१०० .
पिका सभा ने सन् १९२५ के 'जिनिंग-प्रेसिंग-फेक्टरीज़ (२) दाहने किनारे . ११,४०० . एक्ट' के लिए एक संशोधन पास किया है, जिसके द्वारा
कुल ३८०३०० एकड़ रुई में मिश्रण करने की कुचालों पर नियंत्रण रक्खा गया (स) आयात की हुई 'इजिप्शियन' और 'सी- है। यह संशोधन १ सितम्बर १९३६ से सिन्ध में जारी आइलेंड' की जातियों की रुई-इन जातियों में से कर दिया गया है। निम्नलिखित दो मुख्य हैं-१ सिन्ध बॉस III २ सिन्ध- सिन्ध-प्रान्त में रुई के क्रय-विक्रय के लिए व्यवस्थित सी बाइलेंड । ये दोनों रुइयाँ क्रमशः मिस्रदेश और बाज़ार यानी मण्डियाँ नहीं हैं। प्रायः समूची पैदाअमेरिका से लाई गई हैं। ये दोनों उत्तम श्रेणी की हैं बार गांवों में ही बेच दी जाती है, जहाँ कृषक लोग कार. तथा इनके रेशों की लम्बाई ११ से १३ इंच है और जिनिंग खानेवालों और ख़रीदारों को अपना माल सीधा बेच देते प्रतिशत करीब ३० है। रुई की इन उन्नत जातियों की हैं। इस तरह के व्यापार में तरह-तरह के बटाव और खेती का विकास १९३४ से ही प्रारम्भ हुअा है। १९३४ भिन्न-भिन्न तोल-मापों का उपयोग होने से अज्ञानतावश में १५० एकड़ में उनकी खेती हुई थी। १९३५ में उसका कृषकों को नुकसान पहुँचता है। 'प्रान्तीय सिन्ध-कॉटनविस्तार २,५०० एकड़ तक हो गया था और यह धारणा कमिटी'-द्वारा व्यवस्थित बाज़ारों की स्थापना की जाने के है कि १९३६-३७ में करीब १५,००० एकड़ में उनकी लिए प्रयत्न किया जा रहा है और शायद 'सहयोगिनी खेती होगी।
विक्रय-संस्थायें भी स्थापित हो जायँ । 'सिन्ध एन० आर०' और 'सिन्ध-अमेरिकन' से भी ये भविष्य क्या होगा ?- इसमें आश्चर्य नहीं कि उत्कृष्ट है, अतएव ये विशेष ध्यान-पूर्वक और अच्छी भूमि कुछ ही वर्षों में सिन्ध-प्रांत १० लाख एकड़ में रुई की में बोई जाती हैं। ये ऋतु-परिवर्तन कम सहन करती हैं खेती करने लगेगा और करीव ५ लाख गाँठ की पैदावार
और शुरू में बीमारियों और पाले का असर जल्दी होने होगी। साथ में यह बात भी निश्चित है कि भविष्य में से इनकी पैदावार अन्य अमेरिकन और देशी जातियों की सिन्ध में रुई की खेती अधिक व्यवस्थित रूप में की अपेक्षा कम होती है। ये बहुत जल्दी अर्थात् माच में या जायगी। इसी लिए वहाँ के कृषि-विभाग ने १ से ११ अप्रैल के शुरू में बोई जाती हैं, किन्तु फ़सल देर से तैयार इंच तक की लम्बाई के रेशों वाली रुई की खेती के विकास होती है। सिन्ध-सी-प्राइलेंड जाति' सिन्ध-बॉस III से पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है, जिसके लिए प्रांत की अधिक सहिष्णु है. और इसकी खेती थरपारकर-ज़िले में भाम भी बहुत उपयुक्त है। इसके लिए यह भी उचित है ही होती है।
कि 'सिन्ध-देशी' रुई की पैदावार २.५०,००० या बॅरेज-प्रदेश में ऐसे कई तरह के कीड़े पाये जाते हैं २,७५,००० गाँठों से अधिक बढ़ने न दी जाय, क्योंकि जो रुई के पौधों की शक्ति का शोषण कर फ़सल को काफ़ी इससे अधिक पैदावार, मांग को कम करके, कृषकों को नुकसान पहुंचाते हैं । इन कीड़ों के विषय में अन्वेषण के घाटा पहुँचावेगी। 'इजिप्शियन' और 'सी-भाइलेंड' के लिए एक विभाग सकरन्द. में खोला जानेवाला है। विषय में कृषि विभाग का विचार है कि इनकी खेती उन किन्तु यदि कृषक-वर्ग खेती की व्यवस्था में सुधार और खास-खास जगहों में की जाय, जहाँ उनकी खेती अधिक भूमि की जुताई अधिक ध्यानपूर्वक करे तो उसकी फ़सल से अधिक किफ़ायत से की जा सके। कीड़े और बीमारियों से सहज में बचाई जा सकती है।
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मानव
लेखक, श्रीयुत भगवती चरण वर्मा
( १ ) जब कलिका को मादकता में हँस देने का वरदान मिला, जब सरिता की उन बेसुध - सी लहरों को कल-कल गान मिला, जब भूले से भरमाये से. भ्रमरों को रस का पान मिला,
हम मतों का हृदय मिला मर मिटने का अरमान मिला !
पत्थर-सी इन दो आँखों को जलधारा का उपहार मिला, सूनी-सी ठंडी श्वासों को फिर उच्छवासों का भार मिला, युग-युग की इस तनमयता को कल्पना मिली, संचार मिला, तब हम पागल से भूम पड़े जब रोम-रोम को प्यार मिला ! भूखण्ड मापनेवाले इन पैरों को गति का भान मिला, ले लेनेवाले हाथों को साहस बल का सम्मान मिला, नभ लूनेवाले मस्तक को निज गुरुता का अभिमान मिला, पर एक आप सा हाय हमें सहसा सुख दुख का ज्ञान मिला ! ( २ ) मरुको युग-युग की प्यास मिलीपर उसको मिला प्रभाव कहाँ ? पिक को पंचम की हूक मिलीमर उसको मिला दुराव कहाँ ? . दीपक को जलना जहाँ मिला पर उसको मिला लगाव कहाँ ?
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४३०
निर्भर को पीड़ा कहाँ मिली ? पत्थर के उर में घाव कहाँ ? वारिदमाला से ढँकने पर रवि ने समझा अपमान कहाँ ? नगपति के मस्तक पर चढ़कर हिम ने पाया सम्मान कहाँ ? मधुऋतु ने अपने रंगों पर करना सीखा अभिमान कहाँ ? कह सकता है कोई किससे कब कसका है अज्ञान कहाँ ?
बेड़ों को करके ग़र्क़ किया लहरों ने पश्चात्ताप कहाँ ? वृक्षों ने होकर नष्ट दिया तूफ़ानों को अभिशाप कहाँ ? पानी ने कत्र उल्लास किया पटों ने किया विलाप कहाँ ? बादल ने देखा पुण्य कहाँ ? दावा ने देखा पाप कहाँ ?
( ३ )
पर हम मिट्टी के पुतलों को जब स्पन्दन का अधिकार मिला, मस्तक पर गगन असीम मिला फिर तलवों पर संसार मिला, इन तत्त्वों के सम्राट बने जिनका हमको आधार मिला, पर हाय सहसा वहीं हमें यह मानवता का भार मिला !
जल उठी हम की ज्वाल वहीं जब कौतूहल- सा प्राण मिला, हम महानाश लेते आये जब हाथों को निर्माण मिला,
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संख्या ४] .
मानव .
बल के उन्मत्त पिशाचों को सुख-वैभव का कल्याण मिला, निर्बलता के कंकालों की
छाती पर फिर पाषाण मिला। हम लेने को देवत्व बढ़ेपशुता का हमें प्रमाद मिला, पर की तड़फन में, आँसू में हमको अपना आह्लाद मिला; निज गुरुता का उन्माद मिला, निज लघुता का अवसाद मिला, बस यहाँ मिटाने को हमको मिटने का आशीर्वाद मिला!
(४) जब हमने खोली आँख वहीं उठने की एक पुकार हुई; रवि-शशि उडु भय से सिहर उठे जब जीवन की हुंकार हुई; 'तुम हो समर्थ, तम स्वामी हो'जब तत्त्वों की अनुहार हुई, तब क्षित की धुंधली रेखा में
खिंच कर सीमा साकार हुई। जब एक निमिप में युग-युग की व्यापकता व्याप्त विलीन हुई, जब एक दृष्टि में दश-दिशि के बन्धन से छवि स्वाधीन हुई, जब एक श्वास में भावी की स्वप्निल छाया प्राचीन हुई, जब एक आह में मानव की गुरुता खिंच कर श्रीहीन हुई !
जब हम सबलों की शक्ति प्रबल निबल संमृति पर भार हुई, जब विजित, पददलित अणु-अणु से . मानव की जयजयकार हुई, जब जल में, थल में, अम्बर में अपनी सत्ता स्वीकार हुई तव हाय अभागे की अपने ही से हार हुई! .
नारी के द्यतमय अंगों की द्युत में मिल द्युतमय होने को पृथ्वी की छाती फाड़ लिया हमने चाँदी को, सेाने को। हमने उनको सम्मान दिया ' पल भर निज गुरुता खाने को पर हम निज बल भी दे बैठे, अपनी लघुता पर रोने को!
लोहे से असि निर्मित की थी अपने अभाव को भरने को, हिंसक पशुओं के तीव्र नखों से अपनी रक्षा करने को; हमने कृषि काटी थी उस दिन निज तीव्र क्षुधा के हरने को, पर हाय हमारी भूख ! कि हम
लाये असि खुद कट मरने को! मथ डाले हैं सागर-अम्बर हमने प्रसार दिखलाने को, विद्युत् को हमने निगल लिया मानव की गति बन जाने को; तेलों को हमने दाह दिया निशि में प्रकाश बरसाने को; पर आज हमारे खाद्य घिरे हैं वे हमको ही खाने को !
देखो वैभव से लदी हुई विस्तृत विशाल बाजार यहाँ ! देखा मरघट पर पड़े हुए भिखमंगों के अम्बार यहाँ ! देखो मदिरा के दौरों में नवयौवन का संचार यहाँ ! देखो तृष्णा की ज्वाला में
जीवन को होते क्षार यहाँ ! केवल मुटी भर अन्न-कहाँ है नारी में सम्मान यहाँ ?
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४३२
सरस्वती
[ भाग ३८
केवल मुट्ठी भर अन्न-कहाँ है पुरुषों में अभिमान यहाँ ? केवल मुट्ठी भर अन्न--कहाँ है भले-बुरे का ज्ञान यहाँ ? केवल मुट्ठी भर अन्न-यही है बस अपना ईमान यहाँ
अपने बोझ से दबे हुए मानव को नहीं विराम यहाँ, सुख-दुख की संकरी सीमा में अस्तित्व बना नाकाम यहाँ; बनने की इच्छा का हमने देखा मिटना परिणाम यहाँ; अभिलाषाओं की सुबह यहाँ, असफलताओं की शाम यहाँ !
अपनी निर्मित सीमाओं में हमको कितना विश्वास अरे ! यह किस अशान्ति का रुदन यहाँ किस पागलपन का हास अरे! किस सूनेपन में मिल जाते जीवन के विफल प्रयास अरे ! क्यों आज शक्ति की प्यास प्रबल बन गई रक्त की प्यास अरे !
अपने पन में लय होकर भी अपने से कितनी दूर अरे ! हम आज भिखारी बने हुए निज गुरुता से भरपूर अरे ! अपनी ही असफलताओं के बन्धन से हम मजबूर अरे ! अपनी दीवारों से दब कर
हम हो जाते हैं चूर अरे!. पथभ्रष्ट हमें कर चुकी आज . अपनी अनियन्त्रित चाल अरे !
डस रही व्याल बनकर हमको यह अपनी ही जयमाल अरे! हम प्रतिपल बुनते रहते हैं अपने विनाश का जाल अरे! बन गये कल के हम स्वामी है अब अपने ही काल अरे!
(८) अम्बर को नत करनेवाला अपना अभिमान मुका न सका, सागर को पी जानेवाला आँखों की प्यास बुझा न सका, व्यापक असीम रचनेवाला निज सीमा स्वयम मिटा न सका, अपनी भूलों की दुनिया में
सुख-दुख का ज्ञान भुला न सका! अपनी आहों में संसृत के क्रन्दन का स्वर तू भर न सका, अपने सुख की प्रतिछाया में जग को सुखमय तू कर न सका, यह है कैसा अभिशाप अरे
क्षमता रख कर तू तर न सका ? - तू जान न पाया-'जी न सका जो उसके पहले मर न सका !!
'है प्रेम-तत्त्व इस जीवन का !' यह तत्त्व न अब तक जान सका! तू दया-त्याग का मूल्य अरे अब तक न यहाँ अनुमान सका! तू अपने ही अधिकारों को अब तक न हाय पहचान सका! तू अपनी ही मानवता को अब तक हे मानव पा न सका !
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एक रोचक कहानी
सम्राट् का कुत्ता
लेखक, श्रीयुत कमलकुमार शर्मा anememजमहल से बादशाह का प्यारा कुत्ता खुला रह गया है, किसी प्रकार बाहर निकल आया है, ISLTA खो गया था। कुत्ता देखने में कुछ गाड़ी में चढ़ने का अभ्यस्त है।
खूबसूरत नहीं था, और न उसमें एक सिपाही अपनी ड्यूटी पर खड़ा था। मेहतर
कुछ ख़ास विशेषता ही। लेकिन उसके पास गया और सलाम कर एक तरफ़ खड़ा हो CREAD था तो अाखिर राजा का प्रिय गया। फिर धीरे-धीरे बोला- 'मैंने एक कुत्ता पकड़ा Ravaw कुत्ता। उसे कोई पहचान न सका। है, ज़रा उसको ........" वह अपनी ओर किसी को आकर्षित करने में सफल “देखू !” कहकर सिपाही मेहतर के पीछे-पीछे गाड़ी नहीं हुआ।
के पास आया। कुत्ते को भलीभाँति देखकर सिपाही ने ____ जब वह कुत्ता एक गन्दी और पतली गली में मटर- मेहतर को ज़ोर से एक घुसा मारा; और फिर गुस्से से गश्ती कर रहा था, एक सरकारी मेहतर की निगाह उस चिल्लाकर कहा-"अबे, अो गधे, तेरी अक्ल क्या घास पर पड़ी। कुत्ते के गले में पट्टा नहीं था, इसलिए उस चरने गई है ? ऐसे कुत्ते क्या कभी भले आदमी पालते ने सोचा कि अगर किसी भद्र पुरुष का यह कुत्ता हैं ? कितना दुबला-पतला है, हड्डियाँ निकल रही हैं । इस · होता तो इसके गले में पट्टा अथवा चेन ज़रूर रहती। शहर के सब भद्र आदमियों के कुत्तों को मैं अच्छी तरह लेकिन यहाँ तो दोनों चीजें नदारद थीं। राजाशा थी कि पहचानता हूँ। यह इस शहर का कुत्ता नहीं है।" यदि कोई भी कुत्ता रास्ते में चहलकदमी करता हुआ - सिपाही की बात सुनकर मेहतर ने सोचा-यह ठीक नज़र आये तो उसे पकड़कर सरकार के यहाँ जमा कर ही तो कहता है, मेरी ही भूल है। यह सोचकर वह अपने दे। यह कानून जारी था।
__ काम में लग गया। जाते वक्त परम श्रद्धा के साथ सिपाही जिस तरह शिकारी अपने शिकार पर टूटता है, उसी को सलाम न करने की धृष्टता न की। प्रकार वह भी उस कुत्ते पर टूटा और पकड़कर उसे हाथ- उसी वक्त एक मुटिया उधर से निकला । उसने कुत्तों गाड़ी में बन्द कर दिया। गिरफ्तारी के समय कुत्ते ने की गाड़ी में उस कुत्ते को देखकर बड़े ही भक्तिभाव से किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न की।
नमस्कार किया। उस गाड़ी में कई जाति के कुत्ते थे। वे स्वजाति के सिपाही ने आश्चर्य से कहा-“अबे मुटिया, क्या नवागन्तुक के लिए गाड़ी में जगह नहीं करना चाहते थे। तू पागल है ?" इसलिए कुत्ते के प्रवेश करते ही उन कुत्तों ने बड़ा गोल- मुटिया ने सरलता से पूछा--"क्यों सिपाही जी ?" . . माल मचाया। लेकिन उस नवागन्तुक ने प्रत्युत्तर न देने "कुत्ते को सलाम क्यों किया ?" में ही अपना कल्याण समझा। उसको चुप बैठे देख वे मुटिया ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया-"मैं पागल भी चुप हो गये।
क्यों ? यह काले और सफ़ेद रंग का कुत्ता हमारे महाराज __ मेहतर विस्मित हुअा, क्योंकि उसने आज तक ऐसा का है । क्या आपने नहीं पहचाना ?" . कुत्ता अपनी ज़िन्दगी में नहीं देखा था जो गाड़ी में बन्द सिपाही का सिर घूमने लगा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, करने पर भी चुपचाप रहे और एक दफ़े भी अपनी गिरफ़्तारी मानो उसके चारों ओर की पृथ्वी धूम रही है। अपने को का विरोध न करे। इसका कारण वह सोचने लगा कि सँभालकर रोब गाँठते हुए उसने मेहतर से कहा--"क्यों हो न हो यह किसी का पालतू कुत्ता है, असावधानी से बे धाँगड़ के बच्चे, तेरी इतनी हिमाकत कि हमारे शाहंशाह
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४३४
- सरस्वती
[भाग ३८
के कुत्ते को पकड़े। छोड़, अभी छोड़, वर्ना हड्डी-पसली ही कह रहा है। लेकिन अब क्या उपाय ? कुछ क्षण तक तोड़ दूंगा।"--यह कहकर उसने निर्दोष मेहतर का सत्कार निस्तब्धता-सी छाई रही। फिर उसने कहा-"अाप बजा भी लात-घूसे से कर दिया। आखिर था तो हरिजन, जो फ़रमाते हैं, ऐसा मालूम पड़ता है कि यह महाराज का ही सदियों से इस प्रकार के अत्याचार सहते-सहते मज़बूत हो प्रिय कुत्ता है।" गये हैं । इसलिए उसने इस अपमान को चुपचाप सह अब मेहतर को डाँटते हुए कहा-"अभी इसका लिया।
गाड़ी से नीचे उतारो। यह ऐसा-वैसा कुत्ता नहीं है। सिपाही ने कुत्ते को अपने पास बड़े आदर से बैठाते यह कितने यत्न से रक्खा जाता है, यह तुझे क्या हुए कहा-"तुम ज़रा आराम करो । मैं ड्यूटी ख़त्म होते मालूम । यह ऐसे-ऐसे पौष्टिक और स्वादिष्ठ पदार्थ खाता ही तुझे गाड़ी में बैठाकर राजमहल पहुँचा दूंगा।" है जो तुझे सात जन्म में भी नसीब न हों। तुम लोगों में ____ पीछे से एक हेड सिपाही ने उपर्युक्त कथन सुना। अक्ल नहीं है। अक्ल का दिवाला निकल गया है । यदि वह बिगड़कर बोला-"बड़ा लाट साहब का बच्चा है न, यह बात न होती तो फिर यह काम ही क्यों करते ?" जो इसको गाड़ी में बैठा कर ले जायगा । गधा कहीं का। भीड़ में से फिर कोई बोल उठा-"अापका कथन अक्षरशः रास्ते के कुत्ते से तेरा क्या सम्बन्ध ? पुलिसवालों का क्या सत्य है । है तो आखिरकार बेचारा मेहतर । इसमें इतनी कानून है, जानता नहीं अहमक !”
अक्ल कहाँ कि पहचान सके । लेकिन आप अक्ल के ठेकेदार सिपाही ने पीछे घूमकर देखा तो स्वयं जमादार होते हुए भी मेहतर से अधिक मुर्ख हैं।"
। मुख सूख गया, छाती की धड़कन सबने जिस ओर से आवाज़ आई थी, क्रोधभरी ज़ोरों से चलने लगी। बड़ी दीनता से बोला-"हुजूर .. दृष्टि से देखा । उसको लक्ष्य करके जमादार साहब ने क्रोध ..'यह....."महाराज......"
और तैश में आकर कहा-"तो तुम यह कहना चाहते जमादार साहब अट्टहास करते हुए बोले-"बेवकूफ़, हो कि यह साधारण कुत्ता है ?” महाराज का कुत्ता क्या कभी इतना दुबला-पतला होगा? भीड़ में से फिर किसी ने कहा-“साधारण क्या ? इसके अलावा वह अकेला रास्ते में क्यों निकलेगा ? ज़रा देखते नहीं, कुत्ते की एक-एक हड्डी तो निकल रही सोचो। साथ में नौकर-चाकर इत्यादि न होंगे ? फिर जिस है। वह देखो, उसकी दोनों आँखें अग्नि के समान कुत्ते का खाद्यपदार्थ दूध और मांस हो और जिसकी लाल हैं। दूसरे को मूर्ख बताते हो, लेकिन खुद इतनी सेवा की जाती हो, वह क्या इतना दुबला क्या हो ?" होगा?"
अब जमादार को अपनी भूल ज्ञात हुई । लेकिन इस ... जमादार की बात ख़त्म होते ही उस सिपाही ने कुत्ते ग़लती की ओर जिस ढंग से जमादार का ध्यान आकर्षित के ऐसी ज़ोर से लात मारी कि वह गाड़ी के पास जा गिरा। किया गया था, वह शिष्टता के विरुद्ध था-ऐसा जमादार कुत्ता फिर गाड़ी में बन्द कर दिया गया।
का ख़याल था । जमादार मेहतर की तरफ़ बढा, उसके ___गोलमाल देखकर वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गई। भीड़ में दो डंडे लगाये और हुक्म दिया-'ले जाओ, जल्दीसे एक दूकानदार ने कहा-"जमादार साहब, अाँख के जल्दी गाड़ी हाँको । आँखें फूट गई हैं ? यह पागल अन्धे तो नहीं हो, यह कुत्ता ऐसी-वैसी ख़राब जाति का कुत्ता है।" इसके बाद पहरेदार से कहा-“देखो, इस नहीं है । इसका चमड़ा कितना मुलायम है, इसकी देह मेहतर को तीन दिन कैद रक्खो । पागल कुत्ते को गाड़ी कितनी साफ़ है, क्या साधारण कुत्ते जो रास्ते में से छोड़ देने की सज़ा ज़रूर मिलनी चाहिए, वर्ना इन इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, उनका बदन कभी इतना लोगों का साहस बढ़ जायगा।" परिष्कृत होता है ?"
देखते-देखते कुत्ते की गाड़ी वहां से गायब हो जमादार के मन में संदेह उत्पन्न हुआ और उसको गई। इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया कि यह आदमी सच
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संख्या ५]
सम्राट् का कुत्ता
- एक घंटे के बाद उसी जगह कई पुलिस-कर्मचारी गई थी, उसी ओर बिना जवाब दिये चल दिया। पुलिस
आये। सबके चेहरे पर गंभीरता टपक रही थी, सभी कर्मचारियों ने भी उसका अनुसरण किया। चिन्ता-सागर में गोते लगा रहे थे, भावी अमंगल की
आशंका से कांप रहे थे । जमादार उस वक्त भी वहाँ मूंछों दो दिवस पश्चात् अख़बार में मोटे-मोटे टाईप में यह पर ताव देता हुआ चहलकदमी कर रहा था। उसे देख समाचार प्रकाशित हुआ था--"सिपाही और मेहतर को एक पुलिस-कर्मचारी ने पूछा- "श्रो जमादार, क्या तुमने तीन और छः मास का क्रमशः सपरिश्रम कारावास, जमामहाराज के कुत्ते को देखा है ?"
दार बर्खास्त, और नगरपाल के ऊपर पांच सौ मुद्रा का जमादार के मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसकी जुर्माना अन्यथा एक मास जेल ।"* जवान को मानो लकवा मार गया। क्या स्थिर न कर सका। फिर जल्दी से जिधर कुत्तों की गाड़ी * एक रूसी कहानी के आधार पर-लेखक ।
यह
-
मानव
लेखक, श्रीयुत महेन्द्रनारायणसिंह 'पथिक' हो तेरा यौवन अक्षय
हो अग्नि-पुंज का क्रूर-ज्वाल ओ मेरे मानव निर्भय !
तुम विश्व-राज्य का अग्रभाल तू आदि और तू अन्त, जगत
कौतुक हो, जग का विस्मय -के, गौरव गरिमा, अचल रूप,
ओ मेरे मानव निर्भय ! तू है अतीत औ वर्तमान
तुम अमर शक्ति, रचना विचित्र -के, चिर-बन्धन शृंखल अनूप ।
तुम देवलोक प्रतिमा पवित्र ।. लय होकर भी सदा अलय
· हो ज्ञान-कोष-कर्ता महान ओ मेरे मानव निर्भय !
सुख अभिलाषा का रूप म्लान। तुम विश्व-चमन के चारु चयन
नव भावों के नव किशलय तुम क्रान्ति-जननि के अरुण-नयन ।
ओ मेरे मानव निर्भय !
.
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ENAADIMAR
मिडेरा में बे-पहिये की गाड़ी
मडेरा
लेखक, प्रोफेसर सत्याचरण, एम० ए०
प्रोफेसर सत्याचरण जी के सम्बन्ध में हम दिसम्बर की सरस्वती में एक लेख छाप चुके हैं। आप दक्षिण अमरीका के प्रवासी भारतीयों में आर्य-संस्कृति के प्रचार के लिए गये थे। अब आप स्वदेश लौट आये हैं। यह लेख आप की वापसी यात्रा का है।
इसमें आपने मार्गगत सुन्दर मडेरा द्वीप का वर्णन किया है।
भारच
META रत से बिदाई लिये लगभग सोलह- विशेषतः अगस्त और सितम्बर मास में दक्षिण-अमे
- सत्रह मास से अधिक व्यतीत हो रिका के गोरे लोग योरप की यात्रा करते हैं। डच-गायना
चुके थे। पिता जी की अस्वस्थता से योरप के लिए डच और फ्रांसीसी-इन्हीं दो लाइनों को और मातृभूमि के दर्शन की उत्कण्टा जहाज़ मिलते हैं । फ्रांसीसी जहाज़ों की अपेक्षा इस लाइन ने स्वदेश लौटने के लिए विवश के डच-जहाज़ अधिक साफ़ और तेज़ रफार के होते हैं।
किया। जितने भी मास मेरे प्रवास- डच-जहाज़ वैसे तो लगभग ४-५ हजार टन के होते हैं, पर काल के दक्षिणी अमेरिका में कटे वे सांस्कृतिक प्रचार के अटलांटिक जैसे विशाल महासागर को पार करने में भी अतिरिक्त समाज-शास्त्र की दृष्टि से बड़े उपयोगी सिद्ध इनमें असुविधायें कम होती है। योरप से दक्षिण अमेरिका हुए । इच-गायना के जंगलों के बीच बहनेवाले नदी-नालों अाते समय 'कार्डिलेरा' नाम के जर्मन-जहाज़ से पाया से गुज़र कर कैसी विचित्र जंगली जातियों के अध्ययन था। यह डच-जहाज़ का लगभग दूना था और प्रत्येक का अवसर मिला, इसका उल्लेख पुनः कभी 'सरस्वती' दृष्टि से उत्कृष्ट भी। किन्तु योरप पाते समय डच-जहाज़ के पाठकों के सामने उपस्थित करूँगा।
का ही आश्रय लेना पड़ा। ४३६
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संख्या ५]
मदेशी
४३७
R
[मडेरा के समुद्र-तट पर जलक्रीड़ा]
१९३६ के १४ सितम्बर का मध्याह्न का समय था। के निम्न भाग से टकराकर फेनिल पर्वत का रूप धारण लगभग ४०० व्यक्ति पैरामारिबो शहर की जेटी पर बिदाई कर लेती थीं। समुद्र की नीरवता को भंग करनेवाली देने आये थे। दक्षिण-अमेरिका के प्रवासी भारतीयों के यदि कोई वस्तु थी तो वह वायु संघर्ष से
हायसंघर्ष से उत्पन्न हई ध्वनि बीच रहने के ये मेरे अन्तिम क्षण थे। कितने ही सहृदयों तथा जहाज़ के इंजन का संचालन । के नेत्र तरल थे। जहाज़ सुरीनाम नदी की दूसरी ओर डेक के एक कोने में बैठा हुआ मैं प्रकृति की नग्न खड़ा था, जहाँ पहुँचने के लिए यात्रियों को 'फेरी-बोट' सामुद्रिक शोभा को देख रहा था। पीछे से किसी के पाने से जाना पड़ता था। अतः ‘फेरी-बोट' में जा चढ़ा । मेरे की पदध्वनि सुनकर उधर मुड़ा तब एक दक्षिण-अमरीसाथ प्रोफेसर भास्करानन्द जी एम० ए०, बी० एल० तथा कन नवयुवक को अपनी ओर आते देखा। वह नवयुवक अन्य प्रेमीजन भी थे। थोड़ी देर में पैरामारिबो शहर के मुझे जानता था। बात यह थी कि उसने मेरे डच गायना भवनों का केवल धुंधला भर दृष्टिगत था। इसमें सन्देह के कई भाषणों को सुना था । पास आने पर बातचीत नहीं, उसका ऊँचा दीपस्तम्भ मकानों की पंक्तियों के बीच प्रारम्भ हुई। विजय-केतु-सा दिखलाई पड़ता था।
"श्राप कहाँ तक जायँगे" ? युवक ने साधारण अँगरेज़ी कुछ मिनटों में 'यारेज नसाऊ' नामक डच-जहाज़ में पूछा। के सामने हम लोग आ गये । मडेरा और योरप जाने के "वैसे तो मैं भारतवर्ष जा रहा हूँ, पर इस समय लिए बहुत-से यात्री उसमें भरे हुए थे। कुछ मास पहले एम्सटर्डम जाना है ।” मैंने कहा। मुझे इसी जहाज़ से डच-गायना से ट्रिनिडाड की यात्रा "मैं भी एम्सटर्डम तक जाऊँगा।” युवक ने कहा । करने का अवसर मिला था । दूसरी बार इसी से यात्रा करने "एम्सटर्डम में आप क्या करते हैं ?" में जहाज़ के कई पूर्व परिचित कर्मचारी मिले । ___ "मैं विद्यार्थी हूँ और हेग में पढ़ता हूँ। एम्सटर्डम से
आकाश निर्मल था। नक्षत्रों की ज्योति पूर्ण यौवना- कुछ घंटों में मैं हेग पहुँच जाऊँगा।" युवक ने उत्तर वस्था में थी। अटलांटिक महासागर को उत्तुङ्ग लहरें जहाज़ दिया।
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सरस्वती
[ भाग ३८
[मडेरा का समुद्र-तट, धूप-स्नान का दृश्य हेग हालैंड का प्रसिद्ध शहर है। इसी स्थान पर उसके हृदय में भारतीय धर्म और संस्कृति की जानकारी हालेंड की महारानी रहती हैं। एम्सटर्डम में केवल एक के लिए अनुराग उत्पन्न हो गया था। बार वर्ष भर में ग्राती है। हेग का महत्व अन्तराष्ट्रीय बातों के सिलमिले में उसे गीता यादि के सम्बन्ध में न्यायालय होने से श्रीर भी बढ़ गया है।
भी कुछ बतलाया और दूसरे दिन कुछ चुनी हुई भारतीय कुछ समय तक साधारण विषयों पर चर्चा होती रही। पुस्तकों के नाम नोट करा दिये। डच और जर्मन-भाषा युवक की बोल-चाल की भाषा इच थी। अँगरेजी में भले प्रकार जानने के कारण युवक को उन पुस्तकों के बोलने का अभ्यास न होने के कारण त्रुटि और स्खलन अनुवाद समझने में कठिनाई नहीं हो सकती थी। बातहोना स्वाभाविक था। उस युवक में एक विशेष बात देखने चीत करते अधिक समय व्यतीत हो गया था। अतः को मिली: वह थी उसका भारतीय दर्शन के प्रति प्रेम। हम लोग अपने केविन में विश्राम के लिए चले गये । पूछ-ताछ से ज्ञात हुया कि डच भाषा में अनूदित कुछ जहाज़ में प्रथम दिन इस प्रकार कटा। नित्य प्रति भारतीय पुस्तकों को देखने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुया कुछ व्यक्तियों से जिनमें वह नवयुवक भी था, वार्तालाप था। थियोसोफी का प्रचार हालेंड में अच्छा है। लीडेन में समय जाता । वस्तुतः जहाज़-यात्रा का अनुभव व्यापक इसका प्रमुख केन्द्र है। वहीं उस नवयुवक को कृष्णमूर्ति और मधुर होता है। के व्याख्यान सुनने का अवसर मिला था। उसी समय से संसार में अटलांटिक महासागर सबसे अधिक गहरा
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संख्या ५]
मडेरा
४३९
मद्देश में ज्वालामुखी पहाड़ तथा उनके बाहों में ग्राबादी है । जब नौ विद्या की अधिक उन्नति नहीं हुई थी तब ०-५१ बजे रात्रि को हम लोग मडेरा पहुँच जायँगे । सकड़े जहाज उसके विशाल कुन में विलीन हो गये थे। लगातार १० दिन तक समुद्र तल पर रहने के कारण सभी अब वह भय उस मात्रा में नहीं है. फिर भी अन्य सागरों को भूमि के दर्शन की उत्कण्ठा थी। हम लोगों ने अव की अपेक्षा अटलांटिक की गहराई की अामा मिल ही अटलांटिक महासागर के से अधिक भाग को पार कर जाती है। पैगमारियो से जहाज छुटने ही कुछ दूर तक लिया था । अफ्रीका का पश्चिमी तट कुछ ही मील शेष जल मटमैला मिला । पर ज्या ज्या जहाज़ आगे बढ़ता रह गया था। एकाएक डेक पर खड़े हुए यात्रियों में अजीय जाता था, जल की अवस्था भी बदलती जाती थी । हज़ारों प्रसन्नता छा उठी। लोग अपने अपने केविन को छोड़कर मील तक जहाज़ निकल पाया होगा, पर पृथ्वी-तल का डेक पर या इंटे। सबका ध्यान एक दूरस्थ क्षीग ज्योति कहीं दशन नहीं हुया।
की ग्रोर लगा था। वस्तुत: वह मडेरा के प्रकाश-स्तम्भ की पैगमावि सं चलते समय यह मालूम हो गया था ज्योति थी। कि २३ तारीख के पूर्व पृथ्वी का दर्शन होना कठिन है। जहाज़ प्राग बढ़ता चला जाता था, लाइट हाउस की समस्त अटलांटिक महासागर पार करने पर केवल मडेरा ज्योति भी निखरती जाती थी। लगभग १ घंटे के पश्चात् नाम का द्वीप रास्ते में मिलता है । २३ तारीख को सायं. हम लोग मडेरा पहुँच गये। रात्रि के दस बजे थे । सामने काल यह सूचना जहाज़ में दे दी गई थी कि लगभग मडेरा की राजधानी फन्चल नगर ज्योति-समूह से बालो.
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४४०
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सरस्वती
[भाग ३८
कित था। भारतवर्ष की अच्छी से अच्छी दीपावली का रात्रि के समय मडेरा का दृश्य देखने का अवसर दृश्य उसके सामने फीका प्रतीत होता था । बात यह है कि मिला ही था, पर प्रातःकाल उसकी कुछ और ही शोभा मडेरा एक पहाड़ी स्थान है । फन्चल नगर के पास पहाड़ थी। तट के किनारे सैकड़ों छोटी छोटी नौकाय थीं, जिनमें की उँचाई मजे की है। इसी पहाड़ को काटकर उक्त मडेरा के रहनेवाले व्यापारी लोग बैठे हुए हमारे जहाज़ नगर बसाया ग
या गया है। कई मंज़िले मकानों की तरह ऊपर की ओर पा रहे थे। तट पर जानेवाले जहाज़ क यात्री भी नीचे टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें निकाली गई हैं और इन्हीं सड़कों इन्हीं नावों से जाते थे। रात्रि के समय तो प्रकारा की के किनारे मकानों की पत्तियाँ बसो हुई हैं । इन मकानों पंक्तियाँ दीख पड़ती थी, किन्तु दिन में हरी-भरी लताना के विजली की रोशनी से पालोकित होते ही सारे फुन्चल और फूलों से लदा हुया मडेरा अत्यन्त नयनाभिराम जान नगर की पहाड़ी प्रकाश से जगमगा उठती है। थोड़ी दूर पड़ता था । पर खड़े हुए जहाज़ से यह सौन्दर्य और भी अाकर्षक जान पड़ता है। जिन लोगों को योरप जाते समय रात्रि में अदन में रुकने का अवसर मिला होगा वे इस दृश्य का अनुमान सरलता से कर सकते हैं।
डेक पर खड़ा अन्य यात्रियों के साथ फुन्चल की शोभा देख रहा था। सहसा मेरा हाथ काट की पाकेट में गया तब मालूम हुया कि ३ गिल्डर ग़ायब हैं । उसी पाकेट में मेरे ट्रंके की चाभियाँ भी पड़ी हुई थीं। सन्देह हुया कि कहीं और भी रुपये तो ग़ायब नहीं हुए। नीचे कमरे में जाकर जब ट्रक को खोला तव माथा ठनक उठा। मनीवेग गायब देखा । उसी समय मैंने घंटी बजाई और चीफ़ स्टुअार्ड को चोरी के सम्बन्ध में सूचना दी। उसने कैप्टेन का भी इत्तिला दे दी। मेरे कमरे के पास एक जर्मन युवक था। उसकी आकृति और चाल-ढाल से स्पष्ट मालूम होता था कि वह कोई घुटा हुअा चोर है। मेरा सन्देह भी उसी पर था। जहाज़ के कर्मचारियों की भी यही धारणा थी। पर केवल उसी की तलाशी नहीं ली जा सकती थी। __दूसरे दिन प्रातःकाल मेरे क्लास के लोगों को तट पर जाने के लिए मुमानियत कर दी गई। कुछ लोग मामले
मडेरा द्वीप के अन्वेपक ज़ारको की कब्र की असलियत को न जानने से घबराये हुए-से थे कि वे मडेरा स्पेन से दक्षिण-पश्चिम तथा अफ्रीका के उत्तरक्यों तट पर जाने से रोके गये। थोड़ी देर में जहाज़ के पश्चिमीय तट से पश्चिम की अोर एक छोटा-सा द्वीप है, जो तीन-चार अफ़सर आये। मेरे क्लास के सभी कमरों की पोर्चुगाल लोगों के आधिपत्य में है। अटलांटिक महासागर अच्छी तरह तलाशी ली गई । इसमें सन्देह नहीं कि उक्त के पूर्वीय भाग में इसकी स्थिति बड़ी महत्त्वपूर्ण है। योरप जर्मन के कमरे की तलाशी बड़ी सावधानी से ली गई, पर से दक्षिण अमेरिका जानेवाले जहाज़ प्रायः इसी द्वीप से कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई । अन्त में मुझे निराश होना गुज़रते हैं, अतः यह जहाज़ों का एक विशेष स्टेशन माना पड़ा और गई हुई चीज़ फिर मुश्किल से हाथ लगती है, जाता है। प्रत्येक वर्ष दक्षिण अमेरिका जानेवालों की यह सोचकर सन्तोष करना पड़ा। तलाशी हो जाने पर संख्या बढ़ती जाती है। हालेंड के रायल नेदरलैंड यात्रियों को तट पर उतरने की आज्ञा मिली।
लाइन ने सस्ते मूल्य पर यात्राओं का प्रबन्ध किया है।
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संख्या ५]
मडेरा
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इन यात्राओं में भोजन आदि की बड़ी सुविधा रहती है और जहाज़ की शायद ही कोई ऐसी महिला रही होगी जिसने यात्री भी सैर के भाव से अटलांटिक महासागर के द्वीपों फलों का एक गुलदस्ता न खरीदा। तथा दक्षिण-अमेरिका के अवलोकनार्थ बाहर निकलते जहाज़ के 'डाइनिङ्ग-हाल' में फूलों की खूब रौनक थी। हैं। मडेरा के पास एजोरेन-द्वीप-समूह है, जिसे देखने के फुन्चल शहर साफ़-सुथरा है। सडके प्रायः पतली लिए पोर्चुगीज़ जहाज़ मिलते हैं और दो-एक दिन के और पथरीली हैं। पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े लोगों के भीतर इन द्वीपों की सैर हो जाती है । मडेरा के तट से ही आने जाने से चिकने हो गये हैं। इन्हीं पर बेपहियों की 'पीको बारसेलास' की चोटी दिखाई देती है । यात्री इस गाड़ियाँ आसानी से चलती है । संसार में और कहीं मडेरा स्थान तक जाते हैं और यहाँ से उन्हें इस द्वीप का दक्षिणी की भाँति बैलों से जुती हुई बेपहियेदार गाड़ियाँ देखने में भाग भी देखने को मिलता है।
नहीं पाती। इन गाड़ियों के पेंदे के भाग में लोहे के पत्तर जड़े होते हैं, जो बराबर प्रयोग के कारण चिकने और साफ़ रहते हैं । बाहर से आनेवाले यात्री मडेरा में इस नवीन सवारी का आनन्द अवश्य उठाते हैं । जब यात्रियों की बड़ी भीड़ हो जाती है तब इन गाड़ीवालों की बन पाती है। वे मनमाना चार्ज करते हैं और लोगों को अपने कौतुक की शान्ति के लिए रुपये देने ही पड़ते हैं।
मडेरा-वासियों का जीवन प्रायः सादा है। इस द्वीप में निर्धनता भी प्रचुर रूप से है, पर भारत से उसकी कोई तुलना नहीं। जलवायु मादिल होने के कारण लोग कमीज़ और पैंट में आसानी से रह सकते हैं। वस्तुतः इसी पोशाक में यहाँ के अधिक संख्यक लोग अपने कारोबार में लगे रहते हैं । नंगे पैर भी बहुत-से लोग मिलेंगे। फेल्ट हैट और स्ट्राहैट में ही दो प्रकार के शिरोभूषण यहाँ प्रसिद्ध हैं । स्ट्राहैट का प्रचलन यहाँ अधिक है । साधारणतः मडेरा के रहनेवाले बहुत फुर्तीले और परिश्रमी नहीं होते। पोर्चुगल देश के ही श्रमजीवी यहाँ पहले लाकर बसाये गये
थे । कुछ शताब्दियों में इस द्वीप की अवस्था पूर्वापेक्षा [मडेरा का एक भीख माँगनेवाला)
सम्पन्न हुई, पर योरप और अमेरिका की भाँति समय और
परिश्रम का मूल्य समझनेवाले यहाँ बहुत कम हैं। यही मडेरा में रंग-बिरंगे फूल खूब होते हैं, इसी लिए इसे कारण है कि यहाँ की आर्थिक अवस्था उन्नत नहीं है । 'सुमन द्वीप' कहते हैं । जहाँ तक मेरा अनुमान है भारत से योरप अाते समय पोर्टसईद में भिखमङ्गों की इस द्वीप के अतिरिक्त योरप अथवा अमेरिका में किसी काफ़ी तादाद मिली। मडेरा में भी कुछ वैसी ही अवस्था अन्य स्थल पर इतने सस्ते मूल्य पर फूल नहीं मिलते। थी। जहाँ सड़कों पर जाइए, कहीं न कहीं किसी मंगन से हमारे जहाज़ के जितने साथी थे, सभी के हाथ में फूलों का भेट अवश्य हो जायगी। कभी कभी तो यात्रियों को बड़ा एक गुच्छा था। मडेरा द्वीप पर पैर रखते ही पोर्चुगीज़ धोखा होता है । भीख माँगनेवाले पोर्चुगीज़-भाषा में याचना कन्यायें फूलों की झपोलियाँ लेकर लोगों का स्वागत करती करते हैं। उनकी भाषा न समझने के कारण बाहर से हैं। फिर कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो कम से कम दो-चार आये हुए लोग यह भी नहीं समझ पाते कि वह भीख फूलों को न ख़रीदकर हृदय-हीनता दिखलावे ? हमारे माँगनेवाला है अथवा कोई निर्धन नागरिक ।
फा. ४
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सरस्वती
[ भाग ३८
A
Ana
BANDRED
कमारा दे लोबस में मछली मारनेवालों के घर तथा समुद्र तट
अटलांटिक महासागर के समस्त द्वीपों में मडेरा दोनों आमने-सामने बैठे थे। अापस में कुछ बात चीत शराब के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ अंगूर कसरत से प्रारंभ हुई। ज्यों-ज्यों सुरादेवी का मादक नृत्य यौवन को पैदा होता है। उसकी एक विशेष प्रकार की शराब तैयार प्राप्त होता जाता था, त्यों-त्यों इन फौजी महादयों की शिष्टता की जाती है, जिसे 'मडेरा-वाइन' कहते हैं। शराब पीनेवाले और लज्जा भी शरीर से खिसक रही थी। देखते ही देखते इसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। हमारे जहाज़ के बहुत-से छुरियों और काँटों के दूसरे ही रूप से उपयोग की नौबत लोग फन्चल के होटलों और शराब की दुकानों में सुरा- अापड़ी। इतने में ही स्टुअार्ड ने उन्हें शान्त करने की पान कर रहे थे । सस्ती शराब होने के कारण यात्रा के चेष्टा की, पर सफल न हुअा। तब चीफ स्टुअार्ड ने मामले लिए बोतलें भी खरीद रहे थे। मडेरा की शराब अन्य को शान्त किया। यह काण्ड इस बात के लिए पर्यास था देशों को भेजी जाती है।
कि ये दोनों सिपाही कप्तान के पास रिपोर्ट करने पर मुग्र___ मध्याह्न के समय एक छोटी-सी दुर्घटना हो गई। त्तल कर दिये जाते। पर दयालु हृदय कर्मचारियों ने हमारे जहाज़ में हालैंड जानेवाले दो फौजी सिपाही थे। आपस में ही मामले को दबाकर उनकी रक्षा की। दोनो ही डच थे और पैरामारिबो में ही नौकर थे। छुट्टी मडेरा का मुख्य व्यवसाय शराब, बालू और प्याज़ लेकर स्वदेश जा रहे थे। फौजी सिपाही यों ही शराब है। शराब के विषय में लिख ही चुका हूँ
तू और प्याज अधिक पीते हैं, फिर यदि कहीं सस्ती शराब मिल जाय तो की भी उत्पत्ति अच्छी मात्रा में होती है । पश्चिमीय द्वीपफिर क्या पूछना है। फुन्चल में इन लोगों ने मुरा से पुञ्ज और दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग में जहाँ-जहाँ अपनी पूरी ममता दिखलाई थी । कालान्तर में उसका मुझे जाने का अवसर मिला, मदेरा के ग्रालू और प्याज़ गुबार निकलना स्वाभाविक था। डाइनिङ्ग-हाल में ये मिले। इन देशों में बालू न होने के कारण योरप और
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. संख्या ५]
मडेरा
मडेरा अादि देशों से ही इसकी पूर्ति की जाती है। ब्दियों तक बोलबाला रहा है। उनकी विद्या और कला ट्रिनिडाड में रहते समय मडेरा के बालू से मुझे की अाज तक स्पेन पर छाप है, अतः यह अनुमान किया जा नफ़रत-सी हो गई थी। उसमें भारत के अालू जैसा स्वाद सकता है कि जारको के समय में मूरिश-कला का प्राधान्य नहीं था। पर वहाँ के लोग उसे बहुत प्यार से खाते थे। रहा है, जिसकी छाप स्वयं उसकी कब्र पर है। मडेरा की मि फल-फल के लिए उपजाऊ है। अंगर अटलांटिक महासागर में जितने द्वीपसमूह हैं वे के अतिरिक्त और भी फल होते हैं।
सभी जलक्रीड़ा के लिए अच्छे हैं । द्वीप के चारों ओर अन्य व्यवसायों में यहाँ की बेत की कुर्सियाँ प्रसिद्ध महासागर की लहरें आकर टकराती हैं। उनकी उत्तुङ्ग हैं । ये बेंत की कुर्सियां यहाँ से वनकर समीपवर्ती सभी लहरों में स्नान करने के लिए तट पर कई उपयुक्त स्थल देशों में जाती हैं । स्पेन और पोर्चुगाल तक में इनकी चुन लिये जाते हैं, जहाँ कुछ कृत्रिम उपकरण जुटा लेने से अच्छी खपत होती है। ये 'मडेरा चेयर्स' के नाम से स्थान की उपयोगिता बढ़ जाती है। जहाँ स्नान करने के प्रसिद्ध हैं । बैतों का जंगल मुझे स्वयं देखने का अवकाश लिए स्थान चुना जाता है, वहाँ तट पर छोटे-छोटे कमरे नहीं मिला, पर यूछने पर मालूम हुया कि द्वीप के अन्य बने होते हैं जिनमें लोग अपने कपड़े बदल कर जल में भागों में मीलो तक वेतों का जंगल चला गया है और इसी स्नान करते हैं और फिर जाकर कपड़े बदल लेते हैं । के साथ हज़ारों मडेरावासियों को जीविका लगी है। मडेरा में दो प्रकार के स्नानों के लिए सुविधा है; ____ मडेरा को खोज निकालनेवाले ज़ारको थे । जिस एक धूप स्नान और दूसरा जल-स्नान । धूप स्नान के लिए समय वे मडेरा में पहुंचे, वहाँ न सभ्यता का कोई चिह्न कई ऐसे स्थान चुने गये हैं जो समुद्र-तट की अोर चट्टानों था, न उस द्वीप से भविष्य में कुल अाशा ही से घिरे हैं और इन चट्टानों के पीछे थोड़ी सी समतल की जा सकती थी। पर पोचुगीज़ लोगों ने उसी द्वीप का भमि है। इस घासदार भमि को फूलों और अन्य वस्तुओं स्वर्गीय-सा बना दिया है । जारको की कन आज तक बनी से सजाकर एक सुन्दर उपवन का रूप दे दिया जाता है । हुई है, जिसे देखने को दर्शक लोग जाते रहते हैं । इस कन पुरुष और महिलायें अर्थ नमावस्था में होकर इन स्थानों के ऊपर महराय और दीवार की नक्काशी ध्यान देने योग्य पर लेटकर धूप-स्नान करती हैं । यहाँ सूर्य की किरणें है । इसे देखकर भारत के किसी मुग़लकालीन मकबरे प्रखर नहीं होतीं । समुद्र की लहरें तटवर्ती चट्टानों से का स्मरण हो पाता है। वास्तव में इसकी बनावट में टकराती हैं और उनसे मिले हुए वायु के झकोरे जलमरिश कला के चिह्न हैं । स्पेन में मूर लोगों का शता- शीकर से भरे रहते हैं । यही वायु धूप-स्नान करनेवालों
Vehe
wherana
[दिन में फुन्चल नगर की शोभा]
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४४४
सरस्वती
[फ़ुन्चल नगर की पुरानी बस्ती में दैनिक जीवन का एक दृश्य, पथरीली सड़कें ध्यान देने योग्य है । ]
के शरीरों को मन्द मन्द स्पर्श करती है। इसलिए एक ही समय धूप और आर्द्रता दोनों का ग्रानन्द अनुभव कर बड़ा सुख प्रतीत होता है ।
जल-क्रीड़ा के अन्यान्य साधन हैं। लोग उठती हुई लहरों में स्नान करते तथा तैरते हैं । कुछ लोग छोटीछोटी डोंगियों के द्वारा दूर तक निकल जाते हैं और ऊँचीऊँची लहरों पर भी खेने का अभ्यास करते हैं । पर मडेरा
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[ भाग ३८
एक
में विशेष बात देखने में ग्राई । यहाँ स्त्री-पुरुष एक विचित्र काढ के फट्टों से ही नौका का काम निकालते हैं । इस नौका का आकार और प्रकार अद्भुत है । काठ के दो लम्बे-लम्बे टुकड़ों पर तीन बेड़े टुकड़े लगे होते हैं । बीचवाले बेड़े तख़्ते पर बैठकर एक पतवार के सहारे लोग इसे समुद्र में चलाते हैं । समुद्र की लहरों के साथ यह उठता और गिरता है । इसके डूबने का ख़तरा नहीं होता और न नौकाओं की भाँति उलटने का । मडेरा के तट पर मैंने कई नर-नारियों को इस प्रकार जल क्रीड़ा करते देखा। सभी प्रसन्न और मस्ती में डूबे हुए थे ।
इस बात के कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी द्वीपों के किनारे मछली मारने के लिए अच्छे स्थान समझे जाते हैं । जहाँ तट ऊँचे-ऊँचे चट्टानों से घिरा रहता है, वहाँ मछली मारने में सुविधा नहीं होती, पर समतल तट पर यह व्यवसाय अच्छी तरह चलता है । कुन्चल नगर से थोड़ी दूर पश्चिम की ओर एक ऐसा ही स्थान है जिसका नाम 'कमारा दे लोबस' है । यहाँ पहाड़ी और समुद्र के बीच थोड़ी सी भूमि समतल मिलती है। पहाड़ी को काट-काट कर मकानों की श्रेणियाँ बनी हैं। इनमें मछुए लोग रहते हैं और अपना व्यापार चलाते हैं। तट पर सैकड़ों छोटीछोटी नौकायें पड़ी रहती है। इन्हीं में बैठकर बड़ी फुर्ती के साथ मछुए लोग समुद्र में चले जाते हैं और मछलियों का शिकार करते हैं ।
कमारा दे लोक्स में मछलियों के सुखाने और नमक लगा कर डिब्बे में भरने के कारखाने हैं । इन्हीं कारखानों से तैयार की हुई मछलियाँ मडेरा के अन्य भागों में तथा बाहर भेजी जाती हैं। भारत के लोग अपने मल्लाहों की अवस्था से यदि इन विदेशी मछुत्रों की तुलना करें तो उन्हें ज़मीन और आसमान का फर्क मालूम होगा। भारत के मल्लाह दीनता की मूर्ति हैं। ठीक इसके उलटे विदेशी मल्लाह सम्पन्न और खुशहाल होते हैं । उनके रहने के लिए, झोपड़ियाँ नहीं, बरन साफ़-सुथरे पक्के मकान होते हैं, जिनमें राम के सभी सामान मौजूद रहते हैं। दिन भर जल और धूप में शरीर को पीड़ित करने के बाद यदि भारत के मल्लाह को पेट भर अन्न मिल जाय तो बहुत है, पर विदेश के मल्लाहों के पास बँगले और मोटर हैं, जिनकी कल्पना यहाँ के कम लोग कर सकते हैं ।
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संख्या ५]
मडेरा
REAK
___ यह बतलाना आवश्यक है कि मडेरा में कई ज्वालामुखी पहाड़ हैं। इनमें से बहत-से बुझ गये हैं। अब भी किसी से लावा निकलता रहता है, इसे ठीक नहीं कह सकता। पर बुझे हुए ज्वालामुखी पहाड़ों के दो फल हुए हैं। एक तो पर्वत के फट जाने से पानी निकल पाया है। ऐसे. पानी से भरे हुए खंदक झील की तरह दिखलाई देते हैं । दूसरे ऐसे स्थान है, जहाँ पानी नहीं निकला है और वे पर्वतों के भीतर बसने योग्य हैं। ज्वालामुखी पर्वतों के इन बन्दकों में हज़ारों मनुष्य बसे हुए हैं और खेती करते हैं । ज्वालामुखी पर्वत के पाम की भमि अत्यन्त उपजाऊ होती है । इसी लिए कृपक ऐसे स्थानों से अधिक लाभ उठाते हैं । मडेरा में ऐसे स्थानों पर अालू और प्याज़ खुब बोये जाते हैं और उनकी पैदावार भी अच्छी होती है। ___ मडेरा को यदि हम अटलांटिक महासागर का फूल कहें तो इसमें कोई
अत्युक्ति नहीं। प्रकृति का दान तो इसे मिला ही है, पर मनुष्य ने भी इसकी कृत्रिम शोभा बढ़ाने में कोई कमी नहीं की है । सुन्दर मकानों और सड़कों से
फिन्चल नगर में फूलों का बाजार] द्वीप भरा हुआ है। यद्यपि धन यहाँ बहुत मात्रा में नहीं है, फिर भी यह द्वीप खुशहाल कहा लादना था वह पब लद चुका था। जहाज़ का पहला भौंपा जा सकता है। फन्चल अटलांटिक का एक व्यापारिक केन्द्र हुअा और यात्रियों को यह सूचना मिल गई कि अव थोड़ी है । योरप, अफ्रीका, जिब्राल्टर, पश्चिमीय द्वीपपुञ्ज तथा देर में जहाज़ छुटनेवाला है । कुछ समय पश्चात् जहाज़ दक्षिणी अमेरिका, इन सभी स्थानों से जहाज़ों का अाना- की नीचे लटकनेवाली सीढ़ियाँ खींच ली गइ और अन्तिम जाना लगा रहता है। यदि इन जहाज़ों का आना-जाना न भोपे के साथ जहाज़ में स्पन्दन या गया। अन्चल सूर्य की हो तो मडेरा दो दिन के भीतर एक अत्यन्त निर्धन द्वीप रोशनी से प्रकाशित था। देखते ही देखते लताओं और बन जाय । इसका सारा व्यापार और उद्योग निर्यात पर फूलों से श्रावृतान्चल के चमकीले भकान लुप्त हो गये ही निभर है।
___ और केवल विशाल उत्तुङ्ग काली पहाड़ी ही दूर से दिखजहाज़ का ठहरे बहुत देर हो चुकी थी। जो माल लाई देने लगी।
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शिक्षा और भारतवासी
लेखक, श्रीयुत चैतन्यदास
लीगढ़- विश्वविद्यालय' के अर्थ विभाग के प्रधान डाक्टर बी० एन० कौल का कहना है कि 'भारत जैसे देश में जहाँ इतने थोड़े शिक्षित हैं, शिक्षा को रोकना बुद्धि-विरुद्ध है' । अभी हाल में जापान के जगद्विख्यात कवि नगूची ने भी यही बात और ढङ्ग से कही थी ।
जापान में तो ग़रीब से गरीब आदमी अखबार पढ़ता है । जैमिनि मेहता ने हिन्दू विश्वविद्यालय के अपने पार - साल के भाषण में बतलाया था कि जापान ने ६० साल के अन्दर शिक्षा सम्बन्धी आशातीत उन्नति की है । सन् १६३१ में वहाँ १०० आदमियों में ९६ आदमी पढ़े-लिखे थे । हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट से पता चलता है कि यहाँ उसी समय १०० में सिर्फ ८ पढ़े-लिखे थे । जापान 'जो तरक्की की है वह भारतवासियों से छिपी नहीं है। भारत के व्यवसाय के क्षेत्र में उसका बोलबाला है।
शिक्षा का महत्त्व संसार के सभी राष्ट्र महसूस करने लग गये हैं । इस काम को सभी राष्ट्रों की सरकार दिन पर दिन अपने हाथों में ले रही है । क्यों न हो ? राष्ट्रों की उन्नति और शिक्षा का अभिन्न सम्बन्ध जो है । हम अपने देश में ही देखते हैं। ट्रावेनकोर रियासत बड़ी उन्नति पर है। वहाँ हर साल सरकारी खर्च का २३.२% शिक्षा विभाग पर खर्च किया जाता है जब कि ब्रिटिश भारत में सिर्फ़ ४% शिक्षा के लिए ख़र्च होता है ।
इस समय तो यहाँ लोगों को १८ यूनिवर्सिटियाँ हीं ज्यादा मालूम होती हैं। उधर जर्मनी में जिसकी आबादी ६ करोड़ ६० लाख के लगभग है, उनकी संख्या २३ है । इटली के ४ करोड़ १० लाख की जन-संख्या में २६ विश्वविद्यायल हैं और ब्रिटेन में उनकी संख्या १६ है जब कि उसकी आबादी ४ करोड़ २५ लाख के क़रीब है ।
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शिक्षित बेकारों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर देश के कतिपय शिक्षाप्रेमी लोग विश्वविद्यालयों के वर्तमान शिक्षाक्रम को रोक देना या कम कर देना चाहते हैं । लेखक महोदय ने प्रमाण देकर ऐसे लोगों की उस भावना का इस लेख में विरोध किया है।
उपर्युक्त योरपीय यूनिवर्सिटियों में कहीं कहीं २० हज़ार तक लड़के पढ़ते हैं ।
जब हम दूसरे उन्नतिशील देशों की तरफ़ नज़र करते हैं तब हम अपने को बहुत पीछे पाते हैं । हमारी प्रगति इतनी धीमी है कि जिस स्थान से हम बहुत दिन हुए चले थे अभी उसके पास ही हैं। अगर ब्रिटेन के ही उदाहरण को लें तो ग्राज भारत में १२८ यूनिवर्सिटियाँ होनी चाहिए । शिक्षा संस्थानों की कमी का ही यह कारण है कि
भी भारत में १०० में केवल ८ आदमी ही पढ़े-लिखे हैं । अँगरेज़ी पढ़े-लिखों की संख्या तो और भी कम है ।
इस हालत के होते हुए भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शिक्षा के सख्त ख़िलाफ़ हैं। वे यूनिवर्सिटियों को गिरा देना चाहते हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जिनका यह कहना है। कि हिन्दुस्तान की शिक्षा का तरीक़ा उसकी ज़रूरतों से मेल नहीं खाता श्रतएव यहाँ रोज़ी-रोज़गार सम्बन्धी शिक्षा आदि का भी प्रबन्ध होना चाहिए ।
ऐसे विचार का आधार देश के शिक्षित नवयुवकों की बेकारी है। इसमें शक नहीं कि बेकारी भारत की महामारी है। अपने मुल्क के होनहार लड़कों को बेकार घूमते देखकर किसके दिल में दर्द न पैदा होगा ?
से ३०
अब हमारे सामने दो प्रश्न हैं- ( १ ) क्या इन यूनिवर्सिटियों से देश का कुछ लाभ नहीं ? (२) क्या इन्होंने देश में बेकारी को बढ़ाया है ?
पहले प्रश्न के जवाब में हमारे तिलक, गांधी, टैगोर, मालवीय, नेहरू, रमन और बोस आदि हैं। ऐसे लोगों के नामों की सूची यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि देश का बच्चा बच्चा उससे वाक़िफ़ है। किसी अमेरिकन ने अभी हाल में कहा था कि संसार में कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ तीन तीन महापुरुष एक साथ विद्यमान हों। जर्मनी में सिर्फ़ हिटलर हैं, इटली में मुसोलिनी, लेकिन भारत में गाँधी, टैगोर और नेहरू हैं ।
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संख्या ५]
शिक्षा और भारतवासी
__ क्या ये भारतमाता के लाल अनपढ़ हैं ? पुराने ज़माने यूनिवर्सिटियों से जैसा हम देखते हैं, देश का फायदा के संस्कृत-पाठशालाओं के विद्यार्थी हैं ? कभी नहीं। ये तो है, हानि बिलकुल नहीं। शिक्षा का प्रचार दिन पर दिन अँगरेजी स्कूलों-कालेजों के ही पढ़े हुए हैं । यूनिवर्सिटियाँ बढ़ना चाहिए । इस गुरुतम कार्य का भार राजा और प्रजा तो हमें आगे बढ़ना ही सिखलाती हैं और हमारी गुलामी दोनों पर है। सरकार के ऊपर इसका विशेष भार है, यह की भावना को दूर करती हैं । कांग्रेस के पिछले आन्दोलन सभी मानते हैं । लेकिन भारत की अँगरेज़ी सरकार, मालूम से भी यह पता चलता है कि पढ़े-लिखों में ही स्वतन्त्रता होता है, हिन्दुस्तानियों के लिए शिक्षा की ज़रूरत नहीं पाने की विशेष अभिलाषा है।
समझती है। शिक्षा के लिए भारत-सरकार का खज़ाना पहले प्रश्न का हमने उत्तर दे दिया। अब हम दूसरे हमेशा खाली रहा है। प्रश्न पर विचार करेंगे।
इसी सरकार ने अपने देश में अगले ५ वर्षों के लिए शिक्षितों में बेकारी ज़रूर है, लेकिन कुछ लोग उसे बजट में यूनिवर्सिटियों के वास्ते करीब ४० लाख रुपया बढ़ाकर भी कहते हैं । अगर एक ग्रेजुएट पुलिस का सिपाही और मंजूर किया है । शिक्षा के लिए यहाँ भारत में फ्री होता है तो लोग हाहाकार करते हैं। क्या यारपीय देशों आदमी ४ आना ३ पैसा सरकारी कोष से प्रतिवर्ष खर्च में ग्रेजुएट पुलिस के सिपाही नहीं हैं ? ज़रूर हैं । इसके होता है, पर फ़ौज का खर्च हर एक आदमी पीछे १ लिए वहाँ लोग शिक्षा-संस्थाओं को कभी दोष नहीं देते हैं, रुपया ९ आना २ पैसा है। बल्कि उद्योग-धन्धों के बढ़ाने की कोशिश करते हैं और सरकार शिक्षा को जैसा चाहिए वैसा प्रोत्साहन नहीं श्रादमी के लिए उपयुक्त काम पैदा करते हैं । बी० ए०, · दे रही है, इसलिए यहाँ के धनी-मानी और दानी सज्जनों एम० ए० पासों की बात छोड़िए, कानपुर के सरकारी को आगे आना चाहिए । भारतवर्ष में अब भी काफ़ी पैसा टेकनिकल स्कूल के पड़े लड़के, डफरिन के शिक्षित केडेट, है, दानियों की भी कमी नहीं है। सिर्फ नदी के बहाव रुड़की के इंजीनियर, कृषिशास्त्र-विशेषज्ञ और डाक्टर को एक तरफ़ से रोक कर दूसरी तरफ़ ले जाना है। जो इत्यादि भी तो काफी संख्या में भारत में बेकार हैं-विदेशी धन मन्दिरों, तालाबों और साधु-सन्तों में खर्च होता है 'डिगरी होल्डर' भी यहाँ बेकार मिल जायेंगे। उसको अब स्कूलों, कालेजों और यूनिवर्सिटियों में खर्च
इससे साफ जाहिर है कि शिक्षा-संस्थानों का बेकारी करना है। इसकी अब सख्त ज़रूरत है। के सवाल से कोई सम्बन्ध नहीं है । बेकारी का सवाल तो अभी हाल में ब्रिटेन के लार्ड नूफ़ील्ड ने आक्सफ़ोर्ड तभी हल हो सकता है जब भारतवर्ष में उद्योग-धन्धों की विश्वविद्यालय को लगभग ३ करोड़ रुपया दान किया है। काफ़ी उन्नति होगी और नये नये कारखाने खुलेंगे, जिनमें वहाँ की जनता की विद्या की तरफ़ कैसी रुचि है, इससे हमारे पढ़े-लिखे नवयुवक अपने योग्यतानुसार काम पायँगे। भली भाँति प्रकट हो जाता है। जिन्होंने काशी-हिन्द
अर्थशास्त्र के प्राचार्य डाक्टर कौल का भी यही विश्वविद्यालय को देखा है वे यह सुनकर अवश्य आश्चर्य कहना है-- “पढ़े-लिखों को काम दिलाने के दो तरीके हैं। करेंगे कि यह सब करामात सिर्फ १३ करोड़ रुपये की है। पहला यह कि राष्ट्रीय आय का एक बड़ा भाग इस समाज उक्त विश्वविद्यालय की महत्ता को देखते हुए ११ करोड़ के हाथ आये और दूसरा यह कि राष्ट्रीय आय बढ़ाई की रकम बहुत थोड़ी मालूम पड़ती है । क्या भारत में जाय ।” चूंकि भारत की वर्तमान दशा में पहले तरीके से नफील्ड नहीं हैं ? क्या यहाँ का एक आदमी ३ करोड़ का कुछ फ़ायदा नहीं होने का, इसलिए दूसरे तरीके से काम दान नहीं कर सकता है ? इन सवालों का जवाब हमारे लेना चाहिए। दूसरे तरीके के माने हैं कृषि तथा व्यापार लक्ष्मीपति भाई ही देंगे। उनके जवाब पर देश का भविष्य की तरक्की ।
. - बहुत कुछ निर्भर करता है।
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भारतीय बीमा-व्यवसाय की प्रगति
लेखक, श्रीयुत अवनोन्द्रकुमार विद्यालंकार
बीमा का महत्व
शुरू किया। १८९७ में 'इण्डियन म्युच्युअल कम्पनी', a gs माज व राष्ट्र के आर्थिक व सामाजिक कलकत्ता, एम्पायर अाफ़ इण्डिया कम्पनी, बम्बई, की
जीवन में बीमा का क्या स्थान है, स्थापना हुई। इसके बाद लाहौर की भारत-बीमा-कम्पनी इसको भारतीय जनता ने अभी तक स्थापित हुई। १८७१-१९०६ तक बीमा-कम्पनियों की
ठीक प्रकार से हृदयंगम नहीं किया संख्या ५-६ से अधिक नहीं बढी। १९०६ के बाद स्वदेशी FASPAPER है। आन्तरिक और अन्तर्राष्ट्रीय आन्दोलन से अन्य व्यवसायों के समान इसका भी बल
व्यापार के लिए बीमा सबसे अधिक मिला। उस समय की मिली हुई उत्तेजना का ही यह आवश्यक है । कोई भी व्यवसायी अपना माल भेजने का फल है कि बीमा-व्यवसाय धीरे धीरे मगर स्थिरता के साहस न करेगा जब तक कोई बीमा कम्पनी उसकी सुरक्षा साथ तरक्की करता जा रहा है। की ज़िम्मेवारी अपने ऊपर न ले। कोई भी व्यवसायी १९२४ तक यह प्रगति बहुत धीमी थी। इस साल कोई नया कारखाना व स्टोर न खोलेगा जब तक उसका बीमा कम्पनियों की कुल संख्या केवल ५३ थी। १९३४ में बीमा न करा लेगा। बीमा केवल आग लगने के भय से यह बढ़कर १९४ होगई। ही नहीं, बल्कि आग लगने के फलस्वरूप होनेवाले नुक-. १९१२ व १९२८ के बीमा-कम्पनी-एक्ट के मुताबिक सानों के कारण भी आवश्यक है। इसी प्रकार कोई माल १९३४ के साल इस देश में बीमा का काम करनेवाली भारत से बाहर विदेश नहीं भेजा जा सकता जब तक कम्पनियाँ इस प्रकार थींउसका सामुद्रिक बीमा न हो गया हो। कोई भी व्यक्ति
हिन्दस्तान में केवल जीवन जीवन बीमा केवल दूसरे अपना मोटर बिना बीमा कराये सड़क पर चलाने का वर्ष कुल रजिस्टर्ड बीमा का काम व दूसरे काम बीमा करने
करनेवाली करनेवाली वाली साहस न करेगा। यह केवल इसीलिए नहीं कि सड़क
१९३२ ४१९ १६९ १२४ २९ १६ ख़राब होने से मोटर में पंचर हो जाने का अन्देशा है या
१९३३ ४४१ १९४ - १४५ ३४ १५ मोटर-दुर्घटना से क्षति पहुँचने का भय है, बल्कि इसलिए
१९३४ ४६६ २१७ १६५ ३६ भी कि कोई तीसरी पार्टी हर्जाने का दावा न कर दे।
१६ इसी प्रकार वैयक्तिक जीवन में दरदशी श्रादमी अपने २१७ भारतीय बीमा कम्पनियों का प्रान्तवार विवरण जीवन का बीमा कराते हैं. जिससे उनका परिवार उनके इस प्रकार हैपीछे निराश्रित न रहे। यही नहीं, इससे बाधित रूप से
बम्बई ६१ सिंध १४
बंगाल ४१ मितव्ययिता की आदत पड़ती है। जीवन-बीमा के रूप में
दिल्ली १० जमा रुपया राष्ट्र की एक सम्पत्ति होता है, जिससे नये नये
मदरास ३७ संयुक्त-प्रांत. १० उद्योग-धंधे चलते हैं और नये नये कारबार खुलते हैं।
पंजाब.
इतर प्रांत १५
२९ यद्यपि बीमा व्यवसाय हमारे देश में १८७१ से प्रारम्भ
१४९ विदेशी कम्पनियों में से १२५ के अतिरिक्त हुअा है, तथापि इसकी विशेष प्रगति पिछले पन्द्रह सालों अन्य जीवन बीमा के अलावा अन्य प्रकार का बीमा का में ही हुई है। मगर अब भी हमारे देश के जनसाधारण
__ भी कार्य करती हैं । विदेशी कम्पनियों का देश-विभाग इस
भा काय करता है । विदश की दृष्टि में जीवन-बीमा का महत्त्व नहीं चढा है।
प्रकार है. भारतीय बीमा-व्यवसाय की प्रगति ग्रेट ब्रिटेन
६९ अमरीका १६ १८७१ में पहले-पहल 'बाम्बे-म्युच्युअल कम्पनी' की ब्रिटिश साम्राज्य के इतर देश २० जापान ९. स्थापना हुई। १८७५ में 'अोरियण्टल कम्पनी' ने काम योरपीय देशों की २० जावा ५
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संख्या ५]
'भारतीय बीमा व्यवसाय की प्रगति
४४९
बीमा की वार्षिक उत्पन्न
(करोड़ रु.) (करोड़ रु.)
४.२५
१९३४ में २७ नई कम्पनियाँ खुली जिनका प्रान्तवार के चालू काम का नीचे दिया ब्योरा और अधिक स्पष्ट विवरण इस प्रकार है
करता हैबम्बई ५ पंजाब ७ मदरास ६
चालू काम पिछले पांच सालों में १०० नई बीमा-कम्पनियाँ खुली, मगर काम न मिलने के कारण १३ को अपना काम-काज बीमा-पत्रकों की संख्या रकम समेट लेना पड़ा। नवीन काम
भारतीय ५.५४ लाख १०२ देशी और विदेशी बीमा-कम्पनियाँ किस प्रकार और १२ विदेशी २.२० " ७६ कितना काम करती हैं. यह नीचे के कोष्ठक से मालूम होगा। १९३३ भारतीय ६.३६ " ११४ ५.३३ इससे यह भी मालूम होगा कि देशी कम्पनियों की अपेक्षा
(भारतीय ७°४२ " १३२ विदेशी कम्पनियाँ कितना आगे बढ़ी हुई हैं और किस १२ । विदेशी २.४५, ८४ ४५० प्रकार इस देश का रुपया विदेश ले जा रही है।
इसका अर्थ है कि प्रतिवर्ष ४ करोड ५० लाख और बीमा-पत्रकों की बीमा की सप्ताह का प्रत्येक पालिसी प्रतिमास ३७ लाख और प्रतिदिन सवा लाख रुपया इस रक्रम उत्पन्न की औसतन
देश से विदेशों को बीमा के रूप में जाता है। संख्या (करोड़ रु.) (करोड़ रु०) किस्त रुपये
पर हमने जीवन-बीमा के कार्य का उल्लेख किया १९३२
है । इतर बीमा के धंधों की प्रगति निम्न कोष्ठक से मालूम भारतीय कम्पनी
होगी१,१३,००० १९०६ १ १,६७४
(रुपये लाखों में) परदेशी कम्पनी
१९३२ १९३३ १६३४
भारतीय विदेशी भारतीय विदेशी भारतीय विदेशी कुल १,३९,००० २७६६ १६
आग का भारतीय कम्पनी
प्रीमियम २९ ९७ ३१ ९७ ३० १०५
दुघटना और १,५५,००५ २४००
१,५५५ विदेशी कम्पनी
विविध २८ ४८ ५८ ४७ १७ ५१ ३,१२६
सामुद्रिक ८ ३६ ९ ३५ ७ २,८०००
३७ ।।
योग सामान्य कुल १,८३,००० ३३.०० १७५
प्रीमियम ६५ १८१ ७२ १७९ ५४ १९३ १९३४ भारतीय कम्पनी
इससे स्पष्ट है कि भारतीय कम्पनियाँ इस दिशा में १,८३,००० २८०० १५०
विदेशी कम्पनियों से पीछे ही नहीं हैं, बल्कि उन्होंने १९३३ विदेशी कम्पनी
में प्राप्त किया बाज़ार भी १९३४ में खो दिया है । सब अोर - ३२,००० १७.०० ५० ३,२१३ देशी कम्पनियों की श्रामदनी घटी है। इसका अर्थ है कि कुल २,१५,००० ३८०० २.००
विदेशी कम्पनियों से मुकाबिला अभी बहुत ज़बर्दस्त है और ___ इससे स्पष्ट है कि इस व्यवसाय में भी बाज़ार विदेशी भारतीय कम्पनियों के पैर अभी जीवन-बीमा के समान कम्पनियों के अधीन है। मक्खन और मलाई विदेशी इधर जमे नहीं हैं। कम्पनियाँ ले जाती हैं, और भारतीय कम्पनियों को छाछ यह चित्र निराशाजनक मालूम होता है। मगर जब से ही सन्तोष करना पड़ता है । इस बात को बीमा-कम्पनियों हम पिछले २५ साल की प्रगति को देखते हैं तब कहना
१,५२८
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सरस्वती
[भाग ३८
वर्ष
१३५ " १४१ ,
ur ० UNU
१ 2
al
२२३
"
पड़ता है कि निराशा का कोई स्थान नहीं है। १९२१ के प्रतिवर्ष नया काम बढ़ा है, उसी के साथ निरन्तर प्रतिवर्ष असहयोग-अान्दोलन के स्थगित होने के बाद जब बहुत-से प्रीमियम तथा अन्य चीज़ों में भी वृद्धि होती रही है। देशभक्त जेलों से बाहर निकले और उन्होंने अपने पुराने . नीचे के कोष्ठक से मालूम होगा कि प्रीमियम और जीवनपेशों को करना पसन्द न किया तब राष्ट्रीय नेताओं का फंड में पिछले सालों में कैसी वृद्धि होती रही है.. ध्यान इस ओर गया और यह उन्हीं के उद्योग का फल
प्रीमियम से है कि १९२४ में जहाँ बीमा कम्पनियों की कुल संख्या ७५
आमदनी
कुल आमदनी जीवन-फंड थी, वहाँ १९३४ में २१७ हो गई। प्रगति का इतिहास .
१९१३ १०३ लाख १२७ लाख ५८३ लाख पिछले सालों में भारतीय बीमा-व्यवसाय ने कितनी
१९१४ १०९ "
१९१५ प्रगति की है, यह निम्न कोष्ठक से भले प्रकार ज्ञात
१०७ "
६७७ "
१९१६ होगा
१०७ "
१९१७ १११ " साल के बीच नया साल के अन्त में
१९१८ ११४ काम-काज
कुल काम १९१९ १२८
१६७ " ३२० लाख २२३ करें १९२० १४०
१९१ " २२४ "
२३ " - १९२१ १६० २१९ " ८६३ " १९१६ १७५
२२ " १९२२ १७४ " २३७ " ९३७ " १९१७
. २४ "
१९२३ १८६ " २४९ " १०३० - ५ १९१८ २८७
१९२४ २०५ " २९० "
१२५७ " १९२६ . २५३
१३७६ " १९२० ५१७
१९२७ २९२
४२६ "
१५७१ ॥ १९२१ ५४७
१९२८
१७१७ १९२२
१९२९
१८७३ १९२३ ५८५ १९३० ४३१
२०५३ १९२४ ६८९
१९३१ ४६८
२२४४ " १९३२
६८६ "
२५०८ १९२६ १०३५
१९३३ ५७७ " ८१६ " २८७२ " १९२७ १२७७
१९३४ ६५८ " ८३५ " ३१८७ " १९२८ १५४१
सरसरी दृष्टि से देखने पर यह प्रगति सन्तोषजनक १९२९ १७२९
मालूम होती है। नये काम, कुल चालू काम, प्रीमियम १९३०
सूद की आमदनी, जीवन-बीमा का जमाफंड आदि सब
ओर प्रगति ही नज़र आती है। मगर जब हम भारत की १९३२
बढ़ती हुई जन-संख्या और उसके जीवन-निर्वाह आदि २४८३ "
बातों को लक्ष में रखकर विचार करते हैं तब ये प्राकडे १९३४ २८९२ " १३७ "
प्रभावोत्पादक नहीं मालूम होते। योरपीय देशों और इससे स्पष्ट है कि १९२४ से इसमें झपाटे के साथ अमरीका के जीवन-बीमा की रकमों से जब हम अपनी __ उन्नति हुई है। इसमें उल्लेख योग्य बात यह है कि जहाँ तुलना करते हैं तब मालूम होता है कि इस दिशा
४५०
५६४
४६२ "
५८७ "
१९२५
८१५
५१८
१६५० १७७६
" "
११६
"
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संख्या ५ ]
में कितना व्यापक क्षेत्र कार्य करने के लिए खाली प्रतियोगिता एक प्रमुख कारण है । ऊपर हम बता चुके हैं पड़ा है—
डालर
कि किस प्रकार विदेशी कम्पनियों का भारतीय बाज़ार पर प्रभुत्व है 1 वे भारतीय कम्पनियों से जहाँ अधिक सक्षम हैं, १,०७,९४,८०,००,००० वहाँ उनको यहाँ व्यवसाय करने के लिए रियायतें भी बहुत२५,००,००,००,००० सी मिली हुई हैं । उनको भारत सरकार के पास कोई १२,६२,५०,००,००० पूँजी जमा नहीं करनी पड़ती। भारत में बीमे का जो ७,३९,३०,००,००० कुछ कारबार वे करती हैं उसको दिखाने के लिए वे बाध्य - नहीं हैं। इसलिए वे ग्राहक को फँसाने के लिए मनमाना खर्च कर सकती हैं। उन पर इसके लिए कोई बन्धन नहीं
४,५५,८०,००,०००
४,१६,२०,००,०००
५०,००,००,०००
५०,००,००,०००
१,७७,१०,००,००० है । 'यूनियन एंश्युरेंस सोसायटी' के मैनेजर मिस्टर डब्ल्यू० १,४०,००,००,००० एच० बाल्कर के कथनानुसार 'बीमा का जहाँ तक ताल्लुक १,११,००,००,००० है, भारत मुक्त वाणिज्यं द्वार का देश है। यहाँ कोई ७१,००,००,००० रक्कम जमा नहीं करनी पड़ती, और नाम मात्र को प्रतिबन्धक - क़ानून है । कर विशेषकर वास्तविक आमदनी पर इन्कमटैक्स भर है।' इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता ३१,००,००,००० है कि विदेशी और भारतीय कम्पनियाँ समान स्थिति में १२,३०,००,००० अपना कारवार नहीं कर रही हैं। इसके मुक़ाबिले में तुर्की, स्पेन, इटली, आस्ट्रेलिया, बैज़िल, चिली, उरुगुश्रा आदि देशों में या तो विदेशी कंम्पनियों के लिए दरवाज़ा एकदम बन्द है या इतने कड़े कानून हैं कि उनको काम नहीं मिलता । सन्तोष की बात इतनी है कि भारत सरकार प्रतिव्यक्ति बीमा ने देशी कम्पनियों की इस दैन्यावस्था को दूर करने का २,३००रु० निश्चय कर लिया है और इस बात को स्वीकार कर लिया १,८०० ११ है कि जिस देश में भारतीयों को बीमा का व्यवसाय करने की मनाही होगी उस देश की कम्पनी इस देश में काम-काज न कर सकेगी। इतना ही नहीं, उसने नये बिल में जो ७५० " ३ फ़रवरी १९३७ को असेम्बली में पेश हुआ है- विदेशी
१,००० "
६०० १
अमरीका
योरप
इंग्लैंड
कनाडा
जापान
जर्मनी
आस्ट्रेलिया
फ्रांस
इटली
दक्षिण अफ्रीका डेन्मार्क
•
दक्षिण अमरीका
भारत
न्यूज़ीलैंड
हमारा देश इस व्यवसाय में कितना पिछड़ा हुआ है, इसका अन्दाज़ा इसी से किया जा सकता है कि हमारे देश में प्रतिव्यक्ति बीमा की रकम ६ ) आती है, जब कि अन्य देशों में -
संयुक्त राज्य (अमरीका)
कनाडा
न्यूज़ीलेंड
स्ट्रेलिया
इंग्लेंड
स्वीडन
इटली
नार्वे
भारतीय बीमा व्यवसाय की प्रगति
जापान
नीदरलैंड
भारत
ܕܝ ܘܘܟ
४५० ११
४०० "
ܕܕ ܘܘܘ
३५० १ ६
33
मार्ग की बाधायें
भारत अन्य व्यवसायों के समान इसमें भी पिछड़ा हुआ है। इसके दो कारण हैं। एक बाह्य और दूसरा आन्तरिक । बाह्य कारणों में विदेशी कम्पनियों की तीव्र
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४५१
कम्पनियों के लिए भारत सरकार के पास पूँजी जमा कराना, और भारत में किये धन्धे का हिसाब अलग रखने और उसकी भारत सरकार के एक्युरेटर द्वारा जाँच कराने का भी विधान किया है। मगर इतना ही काफ़ी नहीं है ।
भारतीय बीमा कम्पनियाँ संरक्षण चाहती हैं। सरकार की तक की उदासीनता भारतीय बीमा व्यवसाय की उन्नति के मार्ग में बहुत बाधक रही है। सरकार अपना सब बीमा का काम व बीमे की रकम देशी कम्पनियों में जमा कराकर देशी व्यवसाय को प्रोत्साहन दे सकती है। इसी प्रकार रेलवे, कार्पोरेशन, ट्राम-कम्पनी, पोर्टट्रस्ट, म्युनिसि
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४५२
सरस्वती
. [भाग ३८
. पल बोर्ड श्रादि सरकारी व नीम सरकारी संस्थात्रों को अभाव में भी बहुत सी कम्पनियां खड़ी हो जाती हैं और बाधित कर सकती है कि वे बीमा की सब रकमें देशी पीछे काम न चलने पर बैठ जाती हैं। कुछ ने तो और कम्पनियों में जमा करें। देशी कम्पनियों का विदेशी कोई रोज़गार न देखकर बीमा कम्पनी खोलने का बीड़ा ले कम्पनियों के ऊपर वर्चस्व और श्रेष्ठता स्थापित करने के रक्खा है । इसका फल यह होता है कि ऐसे अनुत्तरदायी लिए यह भी आवश्यक है कि इस देश में बीमा का काम लोगों के उठाये काम के फेल हो जाने से सारे व्यवसाय करनेवाली विदेशी कम्पनियाँ अपना बीमा देशी कम्पनियों को धक्का लगता है । यद्यपि नये बिल में यह व्यवस्था की में करें। इसी प्रकार अन्य उपायों द्वारा सरकार देशी गई है कि जीवन बीमा का काम प्रारम्भ करने से पहले बीमा कम्पनियों को संरक्षण दे सकती है। यह कहना कम से कम दो लाख रुपया सरकार के पास जमा कराना कि देशी और विदेशी कम्पनियों की होड़ अनुचित और ५० हज़ार से काम चालू करना होगा। हम चाहते तरीके पर नहीं चल रही है, ठीक नहीं है। यह सम्भव हैं कि बीमा कम्पनी की पूँजी चार ताल के अन्दर दो है कि यह सच हो कि विदेशी कम्पनियाँ अनुचित लाख हो जानी चाहिए। ऐसी एक धारा बिल में जोड़ बगैर कानूनी साधनों, व उपायों का मुकाबिले में सहारा न दी जाय । कम्पनी के जीवन के स्थायित्व के लिए यह लेती हों। विदेशों की अपेक्षा यहाँ दर उन्होंने न गिराई आवश्यक है। जीवन-बीमा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से हो, एजेण्टों को भी वे देशी कम्पनियों की अपेक्षा अधिक व इसी जीवन से नहीं, अपितु एक परिवार और इस जीवन कमीशन न देती हों। मगर नये बिल के द्वारा एजेण्टों के बाद के जीवन से भी है। इसका सम्बन्ध वस्तुतः सारे के कमीशन की दर का निश्चित किया जाना इस बात राष्ट्रीय व सामाजिक जीवन से है। इसलिए यह जरूरी है। का सूचक है कि प्रतियोगिता अनुचित ढंग पर चल रही डिपाजिट की रकम दो लाख रखकर कम्पनी के जीवन है। यह सब न भी हो, तो भी यह मानना होगा कि दोनों को स्थायी बनाने का यत्न किया गया है और यह उचित समान स्थिति में नहीं हैं। उचित प्रतियोगिता उन्हीं के है। पूँजी थोड़ी होने की हालत में डिपाजिट की रकम बीच कही जा सकती है जो समान बल और समान स्थिति का ज़्यादा होना बीमा करानेवालों के लाभ की दृष्टि से के हों। इस दृष्टि से देखने पर मालूम होगा कि भारतीय उचित ही है। बीमा-कम्पनियाँ मासूम बच्चे हैं। इसके मुकाबिले में विदेशी नवीन कम्पनियाँ अधिक मात्रा में काम प्राप्त करने के कम्पनियों को यह व्यवसाय करते हुए बहुत साल हो गये लिए एजेण्टों को कमीशन भरपूर देती हैं । एजेण्ट भी हैं। उनका विश्वव्यापी संगठन है और विश्वव्यापी काम पाने के प्रलोभन में मित्रों, सम्बन्धियों, रिश्तेदारों तथा व्यापार है। इसके मुकाबिले में अधिकांश भारतीय बीमा- अन्य व्यक्तियों को बीमा कराने के लिए बाधित करने के कम्पनियों का व्यवसाय किसी प्रान्त की सीमा से भी आगे लिए उनको अपने कमीशन में से कुछ हिस्सा दे देते हैं, नहीं बढ़ा है। इसलिए देशी बीमा कम्पनियों को सरकार- और बहुत बार तो अपना हिस्सा कतई छोड़ देते हैं, द्वारा संरक्षण अवश्य मिलना चाहिए ।
और कई तो पहली बार का प्रीमियम तक अपने पास से आन्तरिक बाधायें
दे देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि बीमा करानेविदेशी कम्पनियों की तीव्र प्रतियोगिता के अतिरिक्त वाले कुछ साल के बाद प्रीमियम देना बन्द कर देते हैं । भारतीय बीमा-व्यवसाय की उन्नति में दूसरी रुकावट आन्त- १९२९ में ऐसे लोगों की संख्या ३० प्रतिशत और १९३२ रिक बाधाये हैं। भारतीय कम्पनियों की पूँजी थोड़ी है। में इनकी संख्या ४६ प्रतिशत थी । यह बढ़ती हुई संख्या इसी का परिणाम है कि पिछले दस वर्षों में स्थापित बहुत- बता रही है कि इसको रोकने के लिए कानून की आवश्यकता सी कम्पनियों के पाँव अभी जमे नहीं, कुछ एक ने मुनाफ़ा है। एजेण्टों के लिए लाइसेन्स की व्यवस्था करने और अभी नहीं बाँटा है, और पिछले पाँच वर्षों में स्थापित एजेण्टों के कमीशन और रिबेट की दर निर्धारित कर देने कम्पनियों में से कई ने अपना काम-धन्धा बन्द कर दिया से अाशा है, बिल इस बुराई को कम करने में सहायक है। इसका कारण यही है कि देखादेखी पर्याप्त पूँजी के होगा।
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संख्या ५].
भारतीय बीमा व्यवसाय की प्रगति
पूँजी का उपयोग
भारतीय बीमा कम्पनियों की इस समय ३५ करोड़ से ऊपर पूँजी सरकारी सिक्यूरिटीज़ में जमा है । यह पूँजी इस समय चल है और इसका उपयोग देश के व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों के बढ़ाने में कुछ नहीं हो रहा है । इसके मुकाबले में विदेशी कम्पनियों की पूँजी का विनियोग तद्देशीय उद्योग-धन्धों को बढ़ाने में होता है । यहाँ बहुत से कार्य पूँजी के अभाव में रुके पड़े हैं। कराची से बम्बई तक रेल बनाने का काम पूँजी के बिना रुका पड़ा है। दूसरी ओर सरकार के पास जमा कराने से सूद श्राज-कल कम होता जाता है । इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि बीमा कम्पनियों को अपनी पूँजी का कुछ भाग देश के उद्योग-धन्धों और व्यवसाय में लगाने की इजाज़त दी जाय । इससे जहाँ बीमा कम्पनियों को लाभ होगा, वहाँ देश के श्रार्थिक जीवन को भी बल मिलेगा । बीमा कम्पनियाँ म्युनिसिपैलिटियों के सहयोग से ग़रीब लोगों के लिए मकान बनाने का काम अपने हाथ में ले सकती हैं। दिल्ली की घनी बस्ती की समस्या सरकार को इस समय परेशान कर रही है। किरायेदार किराये की ऊँची रेट देखकर दङ्ग हैं। बीमा कम्पनियाँ इस कार्य में जनता और सरकार दोनों के लिए अपनी पूँजी से सहायक हो सकती हैं । दुःख है कि नये बिल में इसकी कोई व्यवस्था नहीं रखी गई है । आशा है, सिलेक्ट कमिटी इस अभाव को दूर कर देगी ।
युवकों के लिए
बीमा व्यवसाय अभी बचपन में है और शहरों तक
कवि बहुत गा चुके मधुर गीत, उन मधुर मिलन के, मधुर गीत अब हृदय तत्रि के तार छेड़ कवि गा दुखियों के आह गीत ।
वे मधुर गीत, ये ग्राह गीत कवि दोनां ही हैं देख गीत
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सीमित है । गाँवों की तो बात दूर रही, बड़े बड़े कस्बों तक भी नहीं पहुँचा है । इस व्यवसाय को गाँवों तक पहुँचाने के लिए यह ज़रूरी है कि यदि एक परिवार के दो या तीन व्यक्ति एक ही कम्पनी में बीमा करावें तो उन्हें प्रीमियम में कम से कम पाँच प्रतिशत छूट दी जाय। नवीन बिल इस विषय में सर्वथा चुप है । मगर व्यवसाय के विस्तार और लाभ की दृष्टि से यह आवश्यक है ।
कवि गा दुखियों के प्राह गोत लेखक, श्रीयुत मित्तल
यह व्यवसाय युवकों की बेकारी बहुत अंशों में दूर करने में सहायक हुआ है । यह तो एक प्रकट रहस्य है। कि १९२२ के बाद असहयोग आन्दोलन स्थगित होने पर बहुत-से वकीलों और नेताओं को इसी व्यवसाय ने अवलम्ब दिया है और जीविका से निश्चिन्त कर दिया है । कुछ को तो इस व्यवसाय ने अमीरों की श्रेणी में पहुँचा दिया है । यह व्यवसाय कितना लाभप्रद है, यह इसी से जाना जा सकता है कि भारत की बड़ी चार बीमा कम्पनियों ने अपने एजेण्टों को इस प्रकार कमीशन दिया हैरुपये
सन्
१९३०
१९३१
१९३२
४५३
२८,२६,१८०
२७,५१, ३७१
२८,९६,९९१
१९३३
३३,०४,१८४
इससे स्पष्ट है कि इस व्यवसाय में उत्साही, परिश्रमी, चतुर युवकों के लिए बहुत क्षेत्र खुला हुआ है । श्राशा है, बेरोजगारी के कारण इधर-उधर भटकनेवाले युवक अपने भाग्य की परीक्षा इस लाइन में भी करेंगे ।
उनसे भरता वैभव अपार इनसे बहते आँसू पुनीत ।
कवि गादुखियों के रुदन गीतजिनके नन्हें नन्हें बालकरोटी को उठते चीख, चीन कवि गा अब ऐसे आह गीत
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एकांकी नाटक
कलिंग युद्ध की एक रात
लेखक, श्रीयुत दुर्गादास भास्कर, एम० ए०, एल-एल० बी० पहला दृश्य
होंगे । पर मेरे भाग्य में वह सब चीजें कहाँ ? अपने
देश की सुरम्य भूमि को छोड़कर मैं अपने जीवन के मा लिंग-युद्ध के अन्तिम दिनों में चक्र
दिन इस सूखे बंजर मैदान में गुज़ार रहा हूँ। यह सब वर्ती सम्राट अशोक की सेनायें
क्यों ? क्योंकि हिन्दू-कुलपति महाराज कलिंग के दर. कि कलिंग की राजधानी स्वर्णपुर को
बार में कुछ बौद्ध भिक्षुत्रों का अपमान हुअा था, घेरे हुए हैं। वसन्त-ऋतु की तारों- इसलिए कलिंग-अधिपति को सम्राट अशोक की
भरी रात है। सम्राट की सेना के अधीनता स्वीकार करनी होगी। उनके अपमान के दो सिपाही युद्धजित और वसन्तकुमार एक तम्बू में बैठे प्रतिशोध के लिए मेरे ईश्वर ! अपने प्यारे देश को हैं। वसन्तकुमार दिये की रोशनी में कोई पुस्तक पढ़ रहा छोड़े हुए मुझे एक साल हो रहा है । ......लेकिन है। युद्ध जित रात के सन्नाटे में आकाश में टिमटिमाते
नहीं। इन बातों से क्या ? तकदीर में यही लिखा हुए तारों को देख रहा है । तम्बू के पीछे एक रक्षक टहल होगा । वसंतकुमार, सुन्दर चीज़ों के विचार-मात्र से रहा है।].
ही हृदय में कसक-सी क्यों उठने लगती है ? युद्धजित-श्राज मुझे अपनी जन्मभूमि की याद फिर वसंतकुमार-इसलिए कि सुन्दरता लोक-पूजित होने पर
तड़फा रही है। तारों के मध्यम प्रकाश में ये सफ़ेद भी स्थिर नहीं है। वह समय के बहाव में बहती सफ़ेद तम्बू कैसे भले मालूम देते हैं, ठीक उसी तरह चली जाती है । कोई चीज़ उसके प्रवाह को रोक नहीं जैसे वसन्त ऋतु की छिटकी हुई चाँदनी में नहाते सकती । हमारी सृष्टि की यही एक करुण कहानी है । हुए हमारे उपवनों के पेड़।
युद्धजित-इस युद्ध के खूनी पंजों में हमें फंसे हुए कितना इस समय हवा के मधुर झोंके मेरे घरवालों को समय बीत चुका है ! जन्मभूमि की किसी अदना थपकियाँ देकर मीठी नींद सुला रहे होंगे । हाँ, शायद । बस्ती की कोई गली भी याद आ जाती है तो हृदय वह मेरी याद में अभी जाग रही हो और इस भयंकर में एक हूक सी उठती है । वसंतकुमार, दिन-रात हम युद्ध से जहाँ क्रूर मृत्यु हर समय घात लगाये बैठी अपने विपक्षियों के खून से होली खेलते हैं, परन्तु है, मेरे बच निकलने की सम्भावना पर विचार कर हमारी नसों में बहनेवाले एक बिन्दु लहू में भी इन रही हो।
स्वर्णपुरनिवासियों के विरुद्ध जिनके खून से हमारे मेरी प्यारी जन्मभूमि जहाँ भीनी भीनी सुगन्धि, हाथ आठों पहर रँगे रहते हैं, ज़रा भी वैरभाव नहीं हवात्रों के कंधों पर लदी रहती है, प्रकृति ने जहाँ है। तुम्हें इस पर कभी हैरानी नहीं हुई ? अपनी निधि को लुटा दिया है, जहाँ फलों से लदे वसंतकुमार-हैरानी ! मुझे तो कोई हैरानी नहीं होती। वृक्ष खड़े हैं, अनन्त का गीत गानेवाले सुन्दर झरने - जो विनाशकारी मृत्यु के साथ रहकर आठों पहर हरी-भरी घाटियाँ, हिमालय की गगनचुम्बी चोटियाँ, उसके रौरव ताण्डव का तमाशा देख रहा हो, जो . यह सब मेरे लिए स्वप्न हो गये हैं । आह ! मेरे प्यारे अपने विपक्षियों पर किये गये एक एक वार के वेद. देश भू-स्वर्ग कश्मीर......वहाँ के काँटों की याद भी नामय अन्त को दिल में लिये फिरता हो, बताओ मुझे तड़फा देती है । शायद मेरे बचपन के नवयुवक उसके खन में वैरभाव कैसे रह सकता है ? और फिर साथी इस समय अपने घरों में अनाज के ढेर लगा हम मुर्दो से वैरभाव भला क्योंकर कर सकते हैं ? रहे होंगे......... । इन दिनों यहाँ कितने ही फल पके युद्धजित, जहाँ मौत विनाश का भयानक खेल खेल
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संख्या ५]
कलिंग युद्ध की एक रात
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रही हो, जैसा कि आज-कल यहाँ, तो समझ लो कि संसार से दूर रहना चाहिए, भरी जवानी में मैं अपने वहाँ 'तुम' और 'मैं' हमारे शत्रु और हमारे साथी दिल में कैसे स्थान हूँ ? और फिर मृत्यु के (पहरेदार गुज़रता है)
रहस्य को समझने के लिए भी तो आयु की प्रौढ़ता मुर्दो की तरह ही हैं, जिनकी आत्मायें किसी दूसरे चाहिए । पर इस बर्बरता के राज्य में हमारे सामने रहस्यमय संसार के छोर पर बिचर रही हो । उसका नग्न नृत्य दिन-रात कराया जा रहा है । वसंतयुद्धजित, अब हमारी वह अवस्था कहाँ है, कुमार, मैं अपने जीवन के पहले ढंग को तिलाञ्जलि जो हमारे दिलों की गहराइयों में शत्रुता, द्वेष-भाव, दे चुका हूँ। वे रंगीन स्वप्न और महत्त्वाकांक्षायें घृणा या इस प्रकार के दूसरे विकारों का प्रवेश हो विस्मृति के गढ़े में चली गई हैं, पर मुझे मेरी जन्मसके।......
भूमि की याद नहीं भूलती। मेरी बस्ती के फलों से हम उस अवस्था को पार कर चुके हैं। संसार लदे हुए पेड़, निर्मल जल की बहती हुई नदियाँ. के ये राजमुकुटधारी एक दूसरे से घृणा कर सकते हैं झरनों के श्राह्लादकारी गीत, हरी-भरी घाटियाँ और या धर्म के ठेकेदार नंगे सिरवाले ये भिक्षु जिनका विशाल पर्वत-शिखरों का चित्र मेरी आँखों के सामने अभिमान इन मुकटधारी राजाओं से भी बढ़कर है खिचा रहता है। साँझ का घर लौटते हुए ढोरों के
और जो शायद यह समझते हैं कि मनुष्यों की परस्पर गले की घंटियों की मीठी आवाज़ अब भी मेरे कानों सहानुभति उन्हें उनके उच्च पद से डिगा देगी वे एक- में सुनाई दे रही है । तुम्हीं बताओ, इन्हें मैं दिल से दुसरे के विरुद्ध ज़हर उगल सकते हैं या ईश्वर के कैसे निकाल दें। प्रतिनिधि ये भूदेव एक दूसरे के विरुद्ध घृणा का वसंतकुमार-युद्धजित, तुम ठीक कहते हो । जन्म-भूमि प्रचार कर सकते हैं । शत्रुता और वैर-भाव को अपने की छोटी छोटी प्यारी चीज़ों की मधुर स्मृति से हृदय दिलों में वही स्थान दे सकते हैं। हम तो केवल . अधीर होने लगता है। पाटलीपुत्र में मेरा घर ठीक इसलिए हैं कि इन मुकुटधारियों और धर्म के ठेके- पतितपावनी गङ्गा के किनारे है, जहाँ गङ्गाजल के दारों की क्रूर इच्छात्रों के इशारे पर मरें या दूसरों कणों से लदे हुए हवा के झोंके मेरे हर वक्त के को मारें।
साथी थे। दिन भर मैं माँझियों को माल से पुद्धजित—यह तो नहीं कि समय गुज़रने के साथ हमारा लदी हुई कश्तियों को खेते हुए देखा करता था।
उत्साह ठंडा पड़ गया है या यह कि दिल अपने उनकी सुरीली तानें अब भी मेरे कानों में गूंज रही हैं। कर्तव्य-परायणता के धर्म से उकताने लग गया हो। वहीं मैंने अपनी कुछ चुनी हुई कवितायें लिखी थीं। नहीं, हर्गिज़ नहीं । मैं इस समय भी चक्रवर्ती प्रियदर्शी युद्धजित—तुम्हारी सुन्दर कवितात्रों ने गंगा के किनारे सम्राट अशोक के लिए अपने प्राण न्योछावर कर पर जन्म लिया है। वहाँ कश्मीर में मैं भी मनोहर सकता हूँ। मृत्यु का समय तो नियत हो चुका है, स्वप्नों के संसार में रहा करता था। पर मेरे स्वप्न चाहे वह घड़ी अाज-इस रात को अभी पा जाय । पर तुम्हारी कविताओं का रूप धारण न कर सके । मेरा श्राह ! इस बात को मैं कैसे भूल जाऊँ कि मेरा यह स्वर्ण-स्वप्न एक आदर्श समाज की सृष्टि करना चाहता कौमार्य जिसमें जीवन की उमंगें भरी हैं, जो सैकड़ों था। मैं एक ऐसी संस्कृति और नीति को जन्म देना महत्त्वाकांक्षाओं को दिल में लिये है, जो गृहस्थ- चाहता था जो इस संसार के इतिहास में एक नई जीवन के सुखी बहाव में बहना चाहता है, जिसमें चीज़ होती। मैं इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाना चाहता प्रेम की हिलोरें लेने की उत्कट अाकांक्षा है, जो अमर था, जहाँ हर एक प्राणी स्वतन्त्र हो । मैं झोंपड़ियों यश का भूखा है, बताश्रो कुमारावस्था की इन . में भी राजमहलों का-सा सुख लाना चाहता था। उमंगों, आकांक्षाओं और उसके सुख-स्वप्नों को भूल- अनीति से दबे हुए हर प्राणी की आत्मा में मैं एक कर मौत के भयानक विचारों को जिन्हें कौमार्य के :- नया जीवन फूंक देता और उन्हें अटल विश्वास दिला
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सरस्वती
देता कि अपनी तकदीर के मालिक वे स्वयं हैं । परन्तु युद्ध भूमि की इस उड़ती हुई धूल से मेरे वे स्वर्ण-स्वप्न धुँधले पड़ गये हैं । अब यदि मेरे दिल में कोई इच्छा होती है तो रात को सोने की । ईश्वर
से मेरी एक ही प्राथना होती है - वह में विपक्षियों का सामना करने की उनकी ख़ूनी तलवार से आँखें । हाँ, तुम्हारे उन हाल है ? वसन्तकुमार—वे बहुत दिनों से मेरे हृदय में सोये पड़े हैं । शायद अवसर मिलने पर वे फिर हरे हो जायँ । युद्ध जित - और इधर मौत हर वक्त घात लगाये बैठी है । तुम्हारे हृदय के वे गीत जो भविष्य में मानव समाज की प्रसन्नता का उद्गम हो सकते थे, शायद वे तुम्हारी ज़बान पर आने से पहले ही तुम्हारे साथ ही इस मिट्टी में मिल जायँ और उनके स्थान पर सम्राट् अशोक के इस भयानक युद्ध और बौद्ध भिक्षुत्रों के लोमहर्षण प्रतिशोध की कहानी रह जाय । परन्तु इन दुःखद विचारों में पड़े रहने से क्या लाभ? ये विचार किसी विगत जीवन की भूली हुई स्मृतियों की तरह लौट लौटकर प्रेतात्माओं की तरह मुझे मेरे कर्त्तव्य से विमुख कर रहे हैं। समय हो गया है कि मैं स्वर्णपुर की प्राचीर पर किसी अभागे विपक्षी के शिकार के लिए छिपता हुआ पहुँचूँ । एक स्थान पर जहाँ मैंने तुम्हें एक टूटा हुआ पत्थर दिखाया था, कई रातों के लगातार परिश्रम से मैंने एक सूराख बनाकर पाँव रखने के लिए जगह बना ली है । उसमें पैर रखकर प्राचीर की छत पर चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होगी। वसन्तकुमार, अंधेरे में एकाएक किसी पर वार करके उसकी जान लेना भी एक खेल है । उसके घावों से बहता हुआ गर्म गर्म खून अभी बन्द होने भी नहीं पाता कि उसका शरीर मांस के लोथड़े को तरह ज़मीन पर गिर पड़ता है। और उसके सगेसम्बन्धी उसके शोक में उसी तरह दुःख से बिलखते हैं, जिस तरह मेरे मरने पर मेरे शोक सन्तप्त श्रात्मज करुण- क्रन्दन करेंगे । वसन्तकुमार, अब मुझे इन बातों से घिन होने लगी है । परन्तु अब तुम्हें सो
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मेरी भुजाओं शक्ति दे या
लिए सतर्क अब क्या
बचने के गीतों का
[ भाग ३
जाना चाहिए। रात बहुत बीत चुकी है और सवेरे तुम्हारा पहरा है ।
(अपने हथियार सँभालकर एक कम्बल प्रोढ़ता है ।) यह तुम क्या पढ़ रहे हो ? वसन्तकुमार-कुछ गीत हैं, जो मेरे देश के एक सुकवि ने रचे थे । इन गीतों में स्वदेश के गगनचुम्बी पर्वतों, विशाल नदियों, सुविस्तृत मैदानों और वनों में क्लाल करनेवाले पक्षियों के कलरव का वर्णन है । यदि समय ने साथ दिया तो मैं भी ऐसे ही अमर गीत बनाया करूँगा ।
युद्ध जित - ठीक है । तुम ऐसे ही गीत बनाया करोगे । (सुराही से थोड़ा पानी उँडेल कर पीता है) हाँ, यदि मुझे लौटने में देर हो जाय तो दिया बुझा कर सो जाना । लो मैं चला ।
वसन्तकुमार - जानो, ईश्वर तुम्हारा सहायक हो । युद्धजित — और नौकर से कहना, थोड़ा पानी भर रक्खे | जब मैं लौटूंगा तब मेरे हाथ किसी के खून से रँगे होंगे ।
( रात के निविड़ अन्धकार को एक बार देखता है और फिर बाहर निकल जाता है ।)
वसन्तकुमार कोई गीत गुनगुनाता है ।
( पर्दा गिरता है)
दूसरा दृश्य
कलिंग की राजधानी स्वर्णपुर के प्राचीर का एक बुर्ज । [ सुदक्ष एक नवयुवक सिपाही नीचे मैदान मेंजहाँ सम्राट् अशोक के असंख्य सैनिक तम्बुओंों में पड़े हैं, नज़र दौड़ाता है । वीरसेन उसका एक और समवयस्क साथी रीछ की खाल ओढ़े उसी की ओर आ रहा है । एक कोने में दीवट पर एक दिया जल रहा है । ] वीरसेन - तुम्हारा पहरा कब ख़त्म होता है ?
सुदक्ष - एक घड़ी तक जब रात आधी बीत जायगी । वीरसेन --नीचे मैदान में मगध-सेना के विस्तृत डेरों में कैसी
ख़ामोशी छाई हुई है ? मैं रात के अँधेरे में परछाई की तरह इनके बीच में जाकर अपनी जन्मभूमि के एक शत्रु की जीवनलीला समाप्त कर परछाई की तरह चुप-चाप वापस लौट ग्राऊँगा । सुदक्ष, इस छोटी आयु में ऐसे खूनी काम में यह निपुणता प्राप्त
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संख्या ५
कलिंग युद्ध की एक रात
कर लेना कैसी विचित्र बात है ? इन छः महीनों में मैं पूरे १०० नौजवानों के खून से होली खेल चुका हूँ, और केवल एक बार मेरा बार ख़ाली गया है । सुदक्ष, विचार करो । मेरे और तुम्हारे जैसे पूरे एक सौ जवान जिनके दिल में अपने सम्राट के लिए मर मिटने की प्रबल आकांक्षा और हृदय में निडरता का राज्य था, ऐसे पूरे एक सौ अशोक के सिपाहियों के मैं मौत की गोद सुला चुका हूँ। मेरे इन खूनी हाथों ने उनके सुन्दर शरीरों को सदा के लिए मिट्टी में मिला दिया है। सुदक्ष, तुम जानते हो मुझे सुन्दर चीज़ों से कितना अनुराग है । ग्राह ! यदि हिन्दू-कुलपति कलिंग नरेश का उनके अभिमानी सामन्त सम्राट् अशोक की भेजी हुई सन्धि की शर्तों को इस तरह ठुकराने का परामर्शन देते तो कलिंग की पवित्र भूमि में ये खून की नदियाँ न बहतीं ! जब मैं चारों ओर भूख से विलपते हुए स्वर्णपुर- निवासियों का करुण क्रन्दन सुनता हूँ तब मुझे इन अभिमानी सामन्तों पर अपार क्रोध आता है, दिल चाहता है कि एक एक को पकड़ कर छकड़ों में जोत दूँ । हाँ, सुदक्ष, तुम्हारी उन प्रतिमाओं का क्या हुआ ?
सुदक्ष - मित्र, तुम हमेशा यह बात पूछकर मुझे उदास कर देते हो। क्या बताऊँ ? बहुत दिन हुए मेरे हथियार निकम्मे हो गये। मेरी छैनियों को जंग लग गया है । हथौड़े टूट चुके हैं। वीरसेन, किसी समय मेरे हृदय में उन दिव्य मूर्तियों की सृष्टि होती रहती थी। कभी मैं 'उन सुडौल मूर्तियों को स्वर्णपुर में प्रतिष्ठित करता और 'सत्यं' 'शिवं 'सुन्दरम्' के भाव से अपने देश वासियों के हृदय श्रोत-प्रोत कर देता। मेरी उन दिव्य मूर्तियों पर लोग श्रद्धा के फूल चढ़ाते । ग्राह ! यदि मुझे इस अन्धेरगर्दी से छुट्टी मिल जाती तो यह सब कुछ अब भी हो सकता है । आज भी यदि यह खूनी होली बन्द हो जाय तो मैं अपनी इन दिव्य मूर्तियों से स्वर्णपुर को स्वर्गधाम बना दूँ ।
वीरसेन - श्राह ! क्या ही अच्छा हो यदि हमारे शासक हमसे वह सेवा लें जिसके लिए हम बनाये गये हैं । वह घड़ी भी कैसी शुभ होगी जब हमारे यहाँ 'सत्य' का राज्य होगा । जब एक ऐसे राज्य का निर्माण होगा जहाँ
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लोग एक-दूसरे से ईर्ष्या न करेंगे जहाँ मिथ्या अभि मान न होगा | सुदक्ष, सत्य का यह मार्ग कोई कठिन मार्ग नहीं है। भला बतायो, सम्राट् अशोक से हमारा क्या झगड़ा है । यही न कि कुछ भिक्षुओं का स्वर्णपुर निवासियों ने अपमान किया था और इस बात को भी हुए कई साल हो गये और हम सब भूल चुके हैं । परन्तु मिथ्या अभिमान और झूठे हठ के वश कोई भी पक्ष इस झगड़े का अन्त करने को तैयार नहीं है । कई बार जब मैं अपने विपक्षियों के खून से होली खेलते हुए मगध सेना के डेरों में जाता हूँ तब मेरे दिल में अनायास ही यह विचार उठता है कि 'जिस विपक्षी की मैंने अभी जान ली है उसने मेरा क्या बिगाड़ा था? शायद अवसर मिलने पर हम दोनों एक-दूसरे के मित्र बन जाते और इस राक्षसी कार्य की अपेक्षा हम मानव-जाति की भलाई में लग सकते थे'। मेरे अन्दर अपने प्रति एक विरोध भाव पैदा हो गया है, अपने आपसे घृणा-सी हो गई है। पर दूसरे ही दिन फिर उसी अमानुषिक कृत्य के लिए मैं कमर बाँध कर चल निकलता हूँ, जिससे देश सेवा का ज बीड़ा मैंने उठाया है उस पर हक़ न आये। यह देशसेवा की धुन भी दिमाग़ में लगे हुए एक कीड़े की तरह है जो हमारे अन्दर एक पागलपन-सा पैदा करता रहता सुदक्ष - कौन है ?
।
एक आवाज़ - स्वर्णपुर का दुर्जय खड्ग । मगध की मौत का सन्देश !
चले जाओ कह कर सुदक्ष बोला
वीरसेन, उधर नीचे देखो, कैसा सन्नाटा छाया हुआ है, आकाश में तारे किस तरह जगमगा रहे हैं। भाई सावधान रहना । मुझे इन तारों के प्रकाश से डर लगता है । मेरे कितने ही साथी मुझसे बिछुड़ चुके हैं और इनके चले जाने पर मुझे अपने बचे हुए साथियों से कुछ मोह-सा हो गया है। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। मुझे कुछ ऐसा वहम सा हो गया है कि ये टिमटिमाते हुए तारे तुम्हारे विरुद्ध कोई कुचक्र रचने के लिए कहीं आज ही रात को न चुन लें 1 मित्र, सावधान रहना ।
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वीरसेन - मैं मगध के इन डेरों से भले प्रकार परिचित हूँ पहरेदारों की खों में धूल झोंकता हुआ अपने शिकार के लिए परछाई की तरह फिरता रहता हूँ । विचार करो, पूरे एक सौ बार मैं ऐसा खेल खेल चुका हूँ ।
सुदक्ष - फिर भी मैं चाहता हूँ - ग्राह कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे साथ रह कर श्राज किसी ख़तरे में तुम्हारा हाथ बँटा सकूँ ।
सरस्वती
वीरसेन - नहीं, नहीं, इन वहमों में न पड़ो। इसमें केवल साहस का ही काम नहीं है । और अभी तो तुम्हारी छैनियों को उन दिव्य मूर्तियों में जान डालनी है, जिनसे हमारी राजधानी का सिर ऊँचा होना है । सुदक्ष - और तुम्हारे वे स्वप्न जिनसे देश में तुम एक नई राज्यव्यवस्था की नींव रखना चाहते हो, जिसमें हमारे शासक राजसत्ता का ठीक प्रयोग करें, जिसमें वह सच्चा अभिमान और स्वार्थपरायणता के लिए प्रजात्रों का उत्पीडित करने की अपेक्षा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझें | क्या जाने किसी समय अपने इन स्वर्गीय स्वप्नों को कार्य के रूप में परिणत करने का हमें अवसर प्राप्त हो जाय । हाँ, आज तुम कितनी देर में लौटोगे ?
वीरसेन -- तुम्हारा पहरा ख़त्म होने से पहले ही मैं लौट आऊँगा । जब मैं इसी स्थान पर वापस श्राकर ( सीटी बजाता है) इस तरह सीटी बजाऊँ तत्र तुम यह रस्सा नीचे लटका देना। (प्राचीर पर से लटकते हुए रस्से से नीचे उतरता है । ) मेरे लौटने तक भगवान् तुम्हारी रक्षा करे ।
सुदक्ष - सावधान रहना । ईश्वर तुम्हारा सहायक हो । ( वीरसेन - नीचे ज़मीन पर कूद पड़ता है । सुदक्ष रस्सा ऊपर खींच लेता है ।)
कुछ समय तक निस्तब्धता छाई रहती है । सुदक्ष इधर-उधर प्राचीर पर टहलता है। 'यह मगध और कलिंग' 'हिन्दू और बौध' ! इनका झगड़ा ही क्या है ? अब जब यहाँ हम सबके सिरों पर मौत मँडरा रही है, उस समय भी इन भेद-भावों को भुलाने में हम असमर्थ हैं । वसन्तऋतु की इन खिलती हुई कलियों के फूल बनने में शायद कोई सन्देह न हो, परन्तु इस भरी जवानी में हम यहाँ मृत्यु
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[ भाग ३८
की लपेट से एक क्षण भर भी सुरक्षित रह सकेंगे, यह कोई नहीं कह सकता । जहाँ चारों ओर मृत्यु मुँह बायें घूमती रहती है, वहाँ जीवन का क्या भरोसा ?' (प्राचीर पर किसी का हाथ सहारे के लिए टटोलता दिखाई देता है) युद्धजित इधर-उधर सावधानी से देखकर सुदक्ष के पीछे श्राकर खड़ा हो जाता है, परन्तु उसे इसका पता नहीं चलता । वह उसी प्रकार अपनी धुन में गुनगुनाता है। 'हमारे ऊपर कोई अदृश्य हाथ हर समय परछाई की तरह पीछे-पीछे लगा रहता है और जब वह हाथ अनजान में किसी नवयुवक पर वार करता है, (कोई आहट पाकर पीछे मुड़ता है ) कौन है ?
युद्ध जित - ( उस पर एकाएक वार करता हुआ ) सम्राट् अशोक का एक युद्ध-सेवक स्वर्णपुर-निवासियों का
काल ।
(सुदक्ष इस श्राघात को सहन नहीं कर सकता । युद्धजित उसके पेट में कटार भोंक देता है। सुदक्ष गिर कर वहीं ठंडा पड़ जाता है ।
युद्धजित कटार को बाहर निकालता है और अपने प्रतिद्वन्द्वी को लोथ देखकर काँप उठता है । फिर इधर-उधर देखकर जहाँ से वह प्राचीर पर चढ़ा था, उसी स्थान से नीचे उतर जाता है । )
पर्दा गिरता है । तीसरा दृश्य [ सम्राट् अशोक की सेना डेरे | वसन्तकुमार पुस्तक पढ़ने में तल्लीन है। नौकर पानी भर कर लौट जाता है ।
(पहरेदार गुज़रता है)
कुछ समय तक निस्तब्धता छाई रहती है । वसन्तकुमार पुस्तक का पन्ना उलटता है। तम्बू की आड़ में वीर सेन रीछ की खाल श्रोढ़े सतर्क होकर आगे बढ़ता है । और दबे पाँव तम्बू के अन्दर जाकर बिना हट किये अपनी कटार से वसन्तकुमार का हृदय विदीर्ण कर देता है और उसके मृत शरीर को उसकी शय्या पर लिटा देता है ।
(पहरेदार गुज़रता है) वीरसेन साँस रोके वहाँ खड़ा रहता है और फिर चुपके से जिधर से आया था, उधर हो लौट जाता है ।
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सख्या ५]
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कलिंग युद्ध की एक रात
कुछ समय गुज़र जाता है । अँधेरे में युद्धजित आता (पहली बार वसन्तकुमार को देखता है। अरे हुआ दिखाई देता है। (अपना कम्बल उतार कर हाथ - तुम सो रहे हो ? कपड़े भी नहीं उतारे। यह तो ठीक घोने लगता है।
नहीं। दिया भी जलता छोड दिया।) युद्ध जित–वसन्तकुमार, अभी तक तुम जाग रहे हो ? वे (ज़रा नज़दीक जाकर) वसन्त......मेरे प्यारे
क्या ही अच्छे गीत होंगे जो एक सिपाही को इतनी मित्र । रात तक सोने नहीं देते । वसन्तकुमार, वह भी
(पछाड़ खाकर गिरता है)......उफ़...मौत ! कितना दर्दनाक समय था । उस विचारे को एक शब्द ......वसन्त का यह अन्त ।......यह ईश्वर का भी कहने का अवसर न मिला । तारों के प्रकाश में - न्याय है—मेरी करनी का फल......... प्राचीर पर इस तरह टहल रहा था, जैसे कोई प्रेमी . और वहाँ ? स्वर्णपुर के प्राचीर पर मेरे जैसा . छिटकी हुई चाँदनी में किसी खिले हुए उपवन में ही कोई अभागा अायगा और............मेरे ईश्वर टहल रहा हो। शायद वह कोई गीत गुनगुना .........(पहरेदार गुज़रता है)। रहा था जब मृत्यु ने उसे अपनी गोद में ले लिया।
पर्दा गिरता है। इस ठंडे पानी से मेरे चित्त को कुछ शान्ति
__ चौथा दृश्य मिली है। अब मैं निश्चिन्त होकर सोऊँगा । वसन्त- (स्वर्णपुर के प्राचीर पर सुदक्ष का निर्जीव शरीर कुमार, नींद भी क्या प्यारी चीज़ है, जो सब ठण्डा पड़ा है। कुछ देर बाद वीरसेन अाकर सीटी चिन्ताओं को समेट लेती है ?
बजाता है...ज़रा रुक कर फिर सीटी बजाता है। चारों . (पहरेदार गुज़रता है) ओर निस्तब्धता का राज्य है ।* . अब यह दिया बुझा देना चाहिए । मुझे इसकी
पर्दा गिरता है । . . कोई आवश्यकता नहीं है और तुम्हें अब सो जाना चाहिए।
* जान ड्रिंकवाटर के एक नाटक के आधार पर। .
आँसू की माला
TT
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लेखक, श्रीयुत श्यामनारायण पाण्डेय साहित्यरत्न
संमृति में पग पग पर दुख है।
मृत्यु-अंक में सुख है। रजत-करों के झीने पट से अलमल अंग छिपाया।
वह विनाश-मुख के सम्मुख है। तारक-हार पिन्हा रजनी को रिमझिम रस बरसाया। मृत्यु-अंक में सुख है। निरिणी के निर्मल जल में धो धो बदन नहाया । कहाँ इन्दु वह राहु-विमुख है।
पहनाती सेवा-रत कमला नव मणियों की माला।
सरस्वती पोती आसव से भर प्याला पर प्याला । मृत्यु-अंक में सुख है॥ भीनी सुरभि उठी गुलाब की मधप हए मतवाले। स्वगे-चरण पर जननी के वैभव की यह मधुशाला। नवल पँखुरियों के स्वागत में नाच, गान, मधु प्याले । निधन और उसका भी रुख है। बेसुध रंगरलियाँ आये वन वन से मिलनेवाले। .. मृत्यु-अंक में सुख है।
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भाई परमानन्द और भूले हुए हिन्दू
लेखक, प्रोफेसर प्रेमनारायण माथुर, एम० ए०, बी० काम०
श्री भाई परमानन्द हिन्दू-महासभा के प्रमुख कर्णधारों भाई जी 'हिन्दू-महासभा' के प्रमुख सूत्रधार हैं। यह
या में हैं । इस नाते यदि भाई जी हिन्दू-संस्कृति और भी एक प्रकट बात है कि 'हिन्दु-महासभा' के विरोध सभ्यता की उन्नति के करने या उसकी अवनति के रोकने में 'मुसलिम लीग' की स्थापना हुई है और सो भी में विशेष दिलचस्पी लें तो कोई अाश्चर्य की बात नहीं। उसी के उसूलों पर । मुसलिम लीग को भी हमेशा इसी इस विषय में भाई जी का अपना एक विशेष दृष्टि-कोण है। बात का ख़तरा रहता है कि यदि किसी प्रकार देश में किन्तु भाई जी जिस राजनै तेक सूझ और देश-प्रेम का स्वराज्य' स्थापित हो गया तो हिन्दू मुसलमानों को हर प्रायः परिचय देते रहते हैं वह एक अजीब-सी वस्तु प्रकार से दबाने का प्रयत्न करेंगे और मुसलिम सभ्यता. मालूम पड़ती है।
और मुस्लिम हितों की सर्वथा अवहेलना की जायगी। भाई जी ने 'सरस्वती' के पिछले अंक के अपने अतः वे सदा इस बात का प्रयत्न करते रहते हैं कि इसके 'भले हए हिन्द' शीर्षक लेख में तीन प्रश्नों पर विचार पहले कि देश में स्वराज्य की स्थापना हो, जहाँ तक हो किया है- (१) कांग्रेस का देश में जागृति उत्पन्न करने सके और जिस प्रकार भी संभव हो, मुसलिम हितों की पूर्ण में कोई हाथ नहीं था और न है। "कांग्रेस का सत्याग्रह रूप से रक्षा कर ली जाय । जब तक या
आन्दोलन भारत में राजनैतिक जागृति का परिणाम इस बारे में उन्हें संतोष न हो तब त था, न कि उसका कारण"। भाई जी की राय में कि देश वर्तमान राजनैतिक और अार्थिक शोषण का शिकार देश की इस जागृति का एकमात्र कारण गत महायुद्ध भी बना रहे तो काई हानि नहीं। इस प्रकार देश में इन था। (२) कांग्रेस की करबानियों के बारे में भाई दलों में परस्पर संघर्ष चलता रहता है और हिन्द-मुसलिम जी का ख़याल है कि वे ग़लत रास्ते पर की गई करबा- प्रश्न का जो कुछ अस्तित्व है वह इन संस्थाओं की नीति नियाँ हैं और उनमें "असलियत के बजाय शोर बहुत का ही बहुत कुछ परिणाम है। जिस वातावरण के लिए ज्यादा है"। (३) भाई जों ने यह बतलाया है कि यदि हिन्दू-सभा और मुसलिम-लीग उत्तरदायी हैं वह हिन्दू-मुसनया विधान पहले से बुरा है जैसा कि कांग्रेस कहती है, लिम प्रश्न को हल करने की अपेक्षा उसको अधिक जटिल (और मेरे ख़याल से तो इस विषय में सम्भव है, भाई जी बनाने में ही सहायक हो सकता है। यहाँ एक बात और को कोई संदेह हो, अन्यथा सारा देश यह बात एक-स्वर विचारणीय है। जिन हितों की हिन्दू-सभा और मुसलिमसे कह चुका है) "तो उस हालत में कांग्रेस अपनी करबा- लीग रक्षा करना चाहती हैं वे वास्तव में उन्हीं उच्च और नियों पर काई गर्व नहीं कर सकती। और अगर यह मध्यम श्रेणी के हिन्दुओं और मुसलमानों से सम्बन्ध रखते विधान अच्छा है तो जैसा कि ऊपर कहा गया है, इसके हैं जिनको सरकारी नौकरियों, टाइटिलों और कौंसिलों तथा लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट ज़िम्मेदार है, क्योंकि ब्रिटिश गवर्न- असेम्बलियों की सीटों की ही विशेष चिन्ता रहती है। मेंट महायुद्ध की समाप्ति पर पार्लियामेंट में की गई अन्यथा आज तो प्रत्येक भारतवासी को रोटी का घोषणा के अनुसार भारत में एक प्रजासत्तात्मक विधान प्रश्न हल करने की सबसे बड़ी समस्या नज़र आती है प्रचलित करने के लिए बाध्य थी।"
और इस विषय में जाति और धर्म का भेद-भाव तो उठता ___इसके पहले कि हम भाई जी की इन धारणाओं को ही नहीं । आज एक हिन्दू किसान, मजदूर और व्यापारी ज़रा गौर से समझने की कोशिश करें, यह जान लेना अनु- भी उन्हीं आर्थिक कठिनाइयों का शिकार बना हुआ है चित न होगा कि भाई जी की विचारधाराओं के पं जिनका कि एक मुसलमान, सिख या पारसी। सबकी सी मनोवृत्ति कार्य करती रही है।
__ समस्या एक है, उसमें कोई विरोध देखना उस समस्या के
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संख्या ५]
भाई परमानन्द और भूले हुए हिन्दू
प्रति अपनी अज्ञता प्रकट करना है। इस प्रकार हिन्दू-सभा व्यक्ति से यह आशा करना अनुचित नहीं है कि वे इस या मुसलिम-लीग का यह दावा कि वे हिन्दुओं या मुसल- अन्तर को भले प्रकार समझे और उसमें कोई मौलिक और मानों के हित-चिन्तन में लगी हुई हैं, 'बिलकुल रद हो वास्तविक भेद न करें। जाता है। उनके तो हित एक हैं और उसकी रक्षा भी भाई जी का यह कहना भी ठीक ही है कि कांग्रेस भी वही संस्था कर सकती है जिसका द्वार सबके लिए खुला स्वयं उस वातावरण से प्रभावित हुई जैसा कि वह अाज हुआ हो और जो अपनी शक्ति के लिए सबकी शक्ति और भी होती है। यह तो प्रत्येक जीवित संस्था का लक्षण संगठन पर निर्भर रहती हो । परन्तु भाई जी यह सब जान- ही है । पर वास्तविक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि कर भी नहीं जानना चाहते और वे हिन्दू-सभा के दृष्टिकोण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय तथा शिक्षा और अनुभव के फलको ही सब बातों में आगे रखना उचित समझते हैं। स्वरूप जो चन्द लोग अपने अन्य भाइयों की अपेक्षा - अब भाई जी के उक्त लेख के विचारों की अोर श्राइए। अधिक लाभ उठा लेते हैं और उनसे अधिक जागृत हो भाई जी इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि आज देश में जाते हैं वे उस जागृति का किस प्रकार उपयोग करते हैं। राजनैतिक जागृति उत्पन्न हो चुकी है, किन्तु वे कांग्रेस को यदि वे लोग संगठित होकर एक संस्था के रूप में उस -इसका श्रेय नहीं देना चाहते। वे महात्मा गांधी का केवल जागृति का अन्य लोगों में भी प्रचार करते हैं और उनकी इस बात का 'क्रेडिट' देने को तैयार हैं कि उन्होंने भी विचार-धाराओं में परिवर्तन उत्पन्न करने में सफल हो "सत्याग्रह-आन्दोलन चलाने में इसे इस्तेमाल कर लिया जाते हैं तो हम उसी संस्था को इस जागृति के उत्पन्न करने
और कांग्रेस का नाम बढाया।" उनकी राय में देश में का श्रेय देते हैं। क्या कांग्रेस ने इस प्रकार देश में जागृति जो जागृति उत्पन्न हुई है वह केवल महायुद्ध के कारण | नहीं उत्पन्न की ? क्या उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं इसमें संदेह नहीं कि महायुद्ध का प्रभाव भारतवर्ष पर भी ने इस लम्बे-चौड़े मुल्क के गाँव गाँव में जाकर वहाँ की पड़ा जैसा कि संसार के अन्य देशों पर पड़ा, और भारत- सोती हुई जनता के कानों में जागृत और जीवित संसार वासियों में जागृति उत्पन्न हुई। किन्तु अाज की दुनिया की झनकार नहीं डाली ? क्या उन्होंने उन तक मुल्क के अन्दर जब एक देश का दूसरे देश से रेल, तार, डाक की आज़ादी और प्रात्म-विश्वास का सन्देश नहीं पहुँचाया ? आदि के द्वारा इतना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होगया है, क्या भाई जी का यह ख़याल है कि भारतवर्ष की ३५ करोड़ यह बात तो प्रतिदिन हमारे जीवन में घटती ही रहती है जनता में से प्रत्येक के अन्दर जो जागृति और देश-प्रेम कि हमारी विचारधाराओं पर न केवल हमारी शिक्षा, की मात्रा पाई जाती है वह उनके निजी अध्ययन, हमारे देश की परिस्थिति, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय बातों का भी अनुभव और संसार की परिस्थितियों को स्वयं समझ सकने प्रभाव पड़ता है, यद्यपि यह प्रभाव हम लोग प्रतिदिन न का परिणाम है ? जिस देश में ९२ फी सदी लोग गांवों तो अनुभव ही कर सकते हैं और न अपनी विचारधारात्रों में अशिक्षा का जीवन व्यतीत करते हों उनके विषय में का इस प्रकार विश्लेषण ही कर सकते हैं कि इसका कितना यह सोचना तो साफ़ भूल होगी। यह नहीं कहा जा सकता अंश और कौन-सा किस परिस्थिति का परिणाम है, और न है कि यह जागृति उन लोगों के द्वारा उत्पन्न की गई है इस प्रकार के विश्लेषण की कोई अावश्यकता ही जान जो स्वयं लड़ाई के मैदानों में अन्य देशों के लोगों के पड़ती है। केवल इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि वर्तमान सम्पर्क में आये और नवीन विचार-धारा लेकर अपने समय में मनुष्य की विचार-गति अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्रा-मुल्क को लौटे। इसलिए यह स्वीकार करना ही ष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम है। महायुद्ध के समय का पड़ेगा कि देश की वर्तमान जागृति के उत्पन्न करने में यह प्रभाव अधिक विकसित रूप में पड़ा और इस कारण अधिकांश में कांग्रेस का हाथ रहा है । हाँ, इसमें सन्देह इसका हमें शीघ्र अनुभव हो सका। किन्तु मूल में बात नहीं कि कांग्रेस स्वयं ऐसे लोगों की संस्था थी, जैसा कि वही है । उस समय जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव प्रत्येक देश पर वह आज भी है, जो अपने अन्य भाइयों से अधिक जागृत पड़ा था वह आज भी पड़ रहा है। भाई जी जैसे दूरदर्शी अवस्था में थे। ऐसी दशा में यह कह देना कि वर्तमान
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सरस्वती
जागृति केवल महायुद्ध का परिणाम है, केवल विचारविश्लेषण की शक्ति का प्रभाव प्रकट करना है । और सत्याग्रह - श्रान्दोलन जहाँ एक और राजनैतिक जागृति का परिणाम था ( और वह जागृति कांग्रेस द्वारा उत्पन्न की गई थी, वहाँ यह भी मानना पड़ेगा कि इससे श्रागे के लिए राजनैतिक जागृति में बहुत कुछ वृद्धि भी हुई है । केवल एकतरफ़ा बात कह डालना तो ठीक नहीं ।
दूसरा प्रश्न कांग्रेस की कुरबानियों के बारे में उठता है । भाई जी का यह कहना तो ठीक ही है कि "इस प्रकार के त्याग का लाभ तब ही हो सकता है जब सत्य मार्ग पर चल कर ठीक उद्देश (राइट कॉज़) के लिए क़ुरबानी की जाय” । परन्तु उनका यह ख़याल कि कांग्रेस ने जो कुरबानियाँ की हैं वे न सत्य मार्ग पर हैं, न ठीक उद्देश के लिए, समझ में ही नहीं आता । भाई जी का 'सत्य मार्ग' और 'ठीक उद्देश' से क्या अर्थ है, यह सब उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है। कांग्रेस का उद्देश तो संसारविदित है । वह तो पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कुरवानियाँ कर रही है कांग्रेस का मार्ग भी निश्चित है— सत्य और अहिंसा ।
भाई जी का ख़याल है कि कांग्रेस की मुसलमानों के प्रति जो सौदाबाज़ी की नीति रही है वह देश के लिए घातक सिद्ध हुई है । भाई जी का यह विचार उनके दृष्टिकोण के हिसाब से सर्वथा ठीक है, क्योंकि वे 'हिन्दु' और 'मुसलमानों' के हितों में विरोध मानते हैं और इस वास्ते उनमें सौदाबाजी का प्रश्न भी उठ सकता है । यही कारण है कि एक तरफ़ हिन्दू महासभा इस सौदाबाज़ी को अपने पक्ष में करना चाहती है तो दूसरी ओर मुसलिम लीग अपनी ओर ज़ोर लगाना चाहती है। फल वही होता है
साधना
लेखिका, श्रीमती दिनेशनन्दिनी चोरड्या
मैं चित्तवृत्तियों का निरोध करूँगी, बिखरी मन :शक्तियों को केन्द्रीभूत कर ध्यानावस्थित होऊँगी, संकल्प विकल्प से मुक्त पारदोज्ज्वल श्रात्मा में, मैं सूक्ष्म श्राकाश, चन्द्र और सूर्य ही नहीं देखूँगी, किन्तु श्रात्म-दर्शन भी कर सकूँगी, उस विचित्र दर्पण में भूत और भविष्य के
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[ भाग ३८
जो ऐसी परिस्थिति में सम्भव हो सकता है कि सौदा हो ही नहीं सकता ।
जैसा ऊपर लिखा जा चुका है, कांग्रेस की दृष्टि में तो हिन्दू और मुसलमानों का सवाल एक है। उनके हितों में विरोध नहीं और इस वास्ते वहाँ तो सौदाबाज़ी का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने जिन चीज़ों में मुसलमानों से सौदा करना चाहा ( नौकरियाँ और कौंसिलों की बैठकें ) उनका हिन्दु और मुसलमानों के हितों से कोई सम्बन्ध नहीं। मान लो, यदि हमारी धारासभात्रों के सब सदस्य मुसलमान जनता के सच्चे प्रतिनिधि हैं तो उनके लिए ऐसा क़ानून बनाना लाज़मी होगा जिससे मुसलमान किसानों और मुसलमान मज़दूरों और व्यापारियों को लाभ हो । पर उन क़ानूनों का लाभ मुसलमानों तक ही सीमित रह सकेगा? उनका लाभ तो हिन्दू किसानों और व्यापारियों को भी अवश्य ही मिलेगा। तात्पर्य यह है कि भाई जी की यह दलील भी ठीक नहीं मालूम होती । और यह कहना कि कांग्रेस में कुरबानियों के अतिरिक्त 'शोर' अधिक है, केवल अपने हाथ से अपनी आँखों पर बुर्का
ना है ।
अन्त में एक बात और रह जाती है और वह यह कि वर्तमान विधान में जो कुछ अच्छाइयाँ हैं वे सरकार की कृपा से । ठीक है, यदि भाई जी जैसे सज्जन ऐसा न कहेंगे तो और फिर कौन कहेगा ? वे यह भी इसके साथ कहते हैं। कि अगर नया विधान पहले से भी बुरा हैं तो वह कांग्रेस के कारण। यह भी ठीक है । जब बदनामी का दीका कांग्रेस के मत्थे लगाना ही है तब यह न कहा जायगा तो और क्या कहा जायगा ?
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चलचित्र ही नहीं देखूँगी, किन्तु मदान्ध और मोहान्ध प्राणियों को छोटी छोटी बातों के लिए मर मिटते देखकर आत्मग्लानि र अवज्ञा के मुख मोड़ लूँगी । मैं चित्तवृतियों का निरोध करूँगी !!!
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मलार में महेश्वर
लेखक, श्रीयुत कुमारेन्द्र चटर्जी, बी० ए०,
__एल-टी०, और श्रीयुत गणेशराम मिश्र
भारत का प्राचीन इतिहास उसके प्राचीन ध्वंसावशेषों में कितना अधिक छिपा हुआ है, यह बात दिन प्रतिदिन अधिकाधिक प्रकट होती जाती है। यह लेख उसका एक नया प्रमाण है। उस लेख में यह बतलाया गया है कि मलार गाँव के निवासियों ने अपने देवमन्दिर निर्माण की कामना से एक प्राचीन टेकरी को खोदकर मध्यकालीन इतिहास पर कितने महत्त्व का प्रकाश डाला है।
[महेश्वर के मन्दिर के भीतर की भूति]
main स परिवर्तनशील संसार में श्रादि- वे कीर्ति-प्रेमी बड़े दूरदर्शी थे, जिन्होंने अपने मनोगत PE काल से लेकर आज तक कितने भावों को एक ऐसे अमिट साधन-द्वारा व्यक्त किया जो
कितने परिवर्तन हुए, इसका पता कई सदियों के पंच-तत्त्वों के ग्राघातों को सहते हुए भी अपने is २ र लगाना कठिन है । लोगों ने अपने समय के प्रभुत्रों की कथा कहने के लिए निर्जीव होते हुए Ema को अजर और अमर समझा और भी जीवित बने हुए हैं।
अपना विस्तार बढ़ाया। मदोन्मत्त पुरातत्त्ववेत्ताओं ने अनेक स्थानों पर इन धराशायी सत्ताधीशों ने असहायों को ध्वंस किया और अपना प्रभुत्व कथाकारों द्वारा उनके प्रभुत्रों की सामाजिक, ऐतिहासिक जमाया । पृथ्वी पर वे अपने को अजेय समझकर अपना और सभ्यता-पूरित कथायें सुनने और समझने का प्रयत्न ताण्डव नृत्य करते रहे, पर अन्त में मेदिनी को 'मेरी’ 'मेरी' किया है और संसार के कोने कोने में उनका कीर्ति-ढिंढोरा कहते कहते काल के गाल में समा गये । परन्तु उन लोगों पीटा है । तथापि भारत के अनेकानेक स्थान अभी वे-देखेने कीर्ति-स्थापनार्थ नाना प्रकार के जो देवालय, प्राचीर, सुने' पड़े हुए हैं। भूगर्भ में अभी अनेक रहस्यमय स्थान कलागार, स्तूप, स्तम्भ इत्यादि स्थापित किये थे वे अब छिपे हुए हैं, जिनका पता समय ही दे सकेगा और तब भी भतल पर या भूगर्भ में पड़े पड़े उनके समय की भारत के शृंखलाबद्ध प्राचीन इतिहास का पूरा पता लग वस्तु-स्थिति की घोषणा और उनकी धर्मपरायणता का सकेगा। परिचय देने के लिए त्व बनाये हुए हैं । यदि प्राचीनता का पता देनेवाला एक ऐसा ही भूगर्भशायी
और सभ्यता की कथा स्थान 'महामाया' की कृपा से अपढ़ कृषकों द्वारा मध्य
पर केवल लेखनी-द्वारा प्रान्तगत विलासपुर-ज़िले में खोजा जा चुका है। इस नाव पर खुदाई दिन रहता । पर प्राचीन स्थान का नाम 'मलार' है। यह स्थान बिलासपुर
फा.७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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५६४
सरस्वती
के दक्षिण-पूर्व की ओर स्थित है। इसकी जन संख्या ३३ हज़ार है । बस्ती गढ़ के बाहर बसी हुई है। गढ़ गिरकर तालाब के पाल सरीखे वन गया है। किले के चारों तरफ़ जल से परिपूरित चौड़ी खाई बनी हुई है। वाई के उस पार और गाँव के बीच में एक टेकरी के ऊपर कुछ मास पहले महामाया का एक स्थान था. और पास ही विशाल वृक्ष उगे हुए थे। गांव के लोग कहते हैं कि वे महामाया को ४-६ पीढ़ी से देखते-सुनते चले आते हैं । महामाया की प्राण-प्रतिष्ठा कब हुई, किराने की और कराई, यह कोई नहीं जानता ।
मन्दिर का भीतरी स्थान १० x १०' के लगभग है । दो तरफ कुछ मूर्तियाँ समूची, कुछ टूटी-फूटी रखी हुई हैं । मन्दिर के चारों तरफ़ का हिस्सा भी बहुत अच्छा
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[महेश्वर के मन्दिर के दरवाजे पर महामाया की मूर्तियाँ ] बाहरी तरफ उसके किनारे हाथियों के खुदाब का काम
अन्य प्रकार की बेल भी खुदी हुई है। जो हिस्मा मन्दिर के चारों तरफ ठीक दिखता है उसकी ऊँचाई नींव से १० या १२ फुट तक है। इन दीवारों के ऊपर गाँव के एक ब्राह्मण ने जो ग्रव सर्वसम्मति से पुजारी बना दिया
कुछ मास हुए उक्त महामाया की प्रेरणा से या उनके पति भगर्भित महेश्वर की प्रेरणा से मलार के मालगुज़ार और ग्रामीण जनता के मन में मन्दिर बनाने की ग्राकांक्षा जाग उठी। लोगों ने दृढ़ संकल्प किया और कार्य भी प्रारम्भ कर दिया। पहले विशाल वृक्ष काटे गये। इसी
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[ भाग ३
समय एक दुर्घटना हो गई। एक उत्साही कृपक वृत्त के गिरने से दबकर मर गया। गाँव का प्रत्येक उत्साही स्त्रीपुरुष कुली बना और महामाया के मन्दिर की नींव खोड़ी जाने लगी। सब कृषक अपना अपना समय बचाकर काम करने लगे । केवल उन्हीं लोगों को मज़दूरी दी जाती थी जिनकी मजदूरी करना ही जीविका थी ।
नींव खोदने पर पत्थरों का सिलसिला तथा महेश्वर के मन्दिर की सीढ़ियाँ मिलने हो प्रेमी स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने धीरे धीरे अनेक देव मूर्तियाँ और महेश्वर का मन्दिर निकाला। इतनी खुदाई के बाद अब पता चला कि महामाया की दो मूर्तियाँ देवली के दोनों तरफ है और बीच में से 9 सीडियों के नांचे संगनसा की जलहरी के मध्य में त्रिकोणाकार महेश्वर विराजमान हैं। ऐसे त्रिकोणाकार शिवलिङ्ग भारत में अत्यन्त विरल है । यथार्थ में महामाया नामक दोनों गतियाँ दरवाज़े की चौखट के दोनों तरफ द्वारपाल-स्वरूप बनाई गई प्रतीत होती है।
[मलार के संग्र
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- संख्या ५]
मलार में महेश्वर
४६५
गया है, लकड़ी डाल कर छप्पर बना लिया है और अपने बैठने का स्थान।
..टेकड़ी के खोदे जाने पर अनेकानेक समूची (अखण्डित) और टूटी प्राचीन मूर्तियाँ निकली हैं। ये मूर्तियाँ कई प्रकार के महादेव, देवी, विष्णु, गणेश, भैरव, सर्प, महावीर, नंदी, नृसिंह, हाथी इत्यादि की निकली हैं। कुछ दिगम्बर मूर्तियाँ भी निकली हैं । ये मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं । कुछ तो बुद्ध की हैं और कुछ जैन तीर्थकरों की । कई मूर्तियाँ तत्कालीन राजाओं की-सी भी निकली हैं। मूर्तियों के अलावा बड़े मंदिर के बग़ल में एक छोटा मंदिर या चबूतरा-सा निकला है, जिसके मध्य में एक शिवलिंग है। और एक अोर राजाओं की मूर्तियाँ जो खंडित हैं, निकली
[मलार गाँव के तालाब के पास काले पत्थर की मूर्ति] हैं । राजाओं की मूर्तियों में डाढ़ी का बनाव दिखाया गया है, सिर पर मराठी ढंग की पगड़ी दिखती है। हाथ जोड़े और १३ फुट चौड़ा चबूतरा बनाकर रक्खी जाती तो हुए इनकी रचना की गई है । कई राजाओं की पगड़ी या अच्छा होता। अब भी ऐसा किया जा सकता है। प्रकाश के टोपी प्राचीन ढंग की बनाई गई हैं। हनूमान् का एक लिए चारों तरफ़ खिड़कियाँ बनवा देना भी अावश्यक है। सिर बहुत ही उत्तम भावपूर्ण मिला है। चेहरे पर चमड़े कई मूर्तियाँ बाहर पड़ी हैं । कई गाँव भर में फैली हुई की झुर्रियाँ भी बनाई गई हैं। इतनी बारीकी प्राचीन मूर्ति हैं। कई मूर्तियाँ जो संभवतः टेकड़ी के आस-पास से प्राप्त में कहीं भी देखने में नहीं आई थी। कई मर्तियाँ पहचान हुई होंगी, वर्षों से गाँववालों ने अपने घर के सामने और में नहीं आतीं । तो भी नागपुर-म्यूज़ियम के क्यूरेटर ने कई ने अपने घर की दीवारों पर चुनवा ली हैं। बहुत कुछ अनुमान भिड़ाकर उनके नामकरण किये हैं। एक दीवार में एक दिगम्बर खड़ी मूर्ति, ३ या ४ एक कुबेर की मूर्ति को वे बहुत प्राचीन बताते हैं। __ अश्लील मूर्तियाँ, बुद्ध की मूर्ति और देवी की मूर्तियाँ लगी
मूर्तियों के अतिरिक्त पानी भरने का एक टाँका मिला हैं । एक मकान के सामने दरवाजे के दोनों ओर २ घोड़े की है । एक समई दीपक जलाने की, चरण-पादुकायें और मूर्तियाँ रक्खी हैं । गाँव के मध्य में तिली या गन्ना पेरने का कुछ अश्लील मूर्तियाँ भी निकली हैं। मूर्तियाँ मालगुज़ार करीब ३ या ४ फुट ऊँचा एक कोल्हू रक्खा है। कोल्हू साहब ने एक कोठा बनवाकर दीवार के सहारे कतार में पर भी चारों तरफ़ मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। इससे प्राचीन रखवा दी हैं । यदि ये मूर्तियाँ चारों तरफ़ ३ फुट ऊँचा कलाप्रेमियों की प्रवृत्ति का ठीक ठीक पता चलता है।
ऐसा नहीं था कि वे अपने देवी-देवताओं को और उनके मंदिरों को ही कलापूर्ण बनाने का प्रयत्न करते थे, बरन वे जीवन के उपयोगी पदार्थों को भी भाव और कला पूर्ण बनाते थे। गाँव के बाहर दूसरी ओर दो मील की दूरी पर
एक तालाब के किनारे एक देवी का मंदिर है। मूर्ति काले RKARI
पापाण की है। उसके दोनों ओर कुछ अन्य मूर्तियाँ भी हैं । मदिर के चारों तरफ़ अनेक टूटी फूटी मूर्तियाँ पड़ी हैं, जिनमें से दो समूची अश्लील मूर्तियाँ भी हैं ।
मलार में पाई गई विभिन्न मूर्तियों से पता चलता है नींव पर खुदाई का काम कि इस प्राचीन स्थान
1. शैव और
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सरस्वती
[भाग ३८
तीन तामपत्रों में से पहला और तीसरा एक ही अोर लिखे गये हैं । और दूसरा दोनों ओर । यद्यपि सदियों से ये पत्र भूगर्भ में छिपे रहे, तो भी ज्यों के त्यों पढ़ने योग्य पाये गये हैं। नागपुर भेजे जाने पर वहाँ के संग्रहालय के क्यूरेटर श्री० एम० ए० सबूर ने उन्हें साफ़ कर लिया है और उनकी प्रतिलिपि भी छाप ली है।
ताम्र-लेख को नागपुर के मारिस-कालेज के प्रोफेसर श्री मिराशी और श्री लोचनप्रसाद जी पांडेय ने पढ़कर उसका सम्पादन किया है। उनका लेख 'एपीग्राफिया इंडिका' में शीघ्र छपेगा। श्री पांडेय जी ने ताम्रपत्रों की
प्रतिलिपि लेने की अनुमति दी थी, पर वे शीघ्र ही नागपुर [हनूमान् की मूर्ति
भेज दिये गये । हम लोग उन्हें देख भी न पाये। वाममार्गी और मराठे राजात्रों का राज्य रहा होगा। गाँव- ताम्रपत्रों पर संस्कृत के अक्षर जो पेटिका शीषक या सम्पुटवाले कहते हैं कि गढ़ के भीतर राजा लोगों के महल भी शिखा-लिपि के नाम से प्रख्यात हैं, खुदे हैं । यह लिपि 'वाकापहले रहे हैं, जिनका अब पता नहीं है। किले के चारों टक'-राजवंश के समय में ५०० ईसवी से ७०० ईसवी तक तरफ़ की चौड़ी खाई के अलावा पहले कई तालाब थे, पर मध्य भारत में प्रचलित थी। पत्रों पर लिपि अच्छे अक्षरों अब दो ही शेष है।
में और गहरी खुदी हुई है। लेख की भाषा संस्कृत है। यहाँ रूप भी बहुतायत से पाये जाते हैं। देखने में तीनों ताम्रपत्र ८४” लम्बे, ५” चौड़े और “१” मोटे बड़े भयंकर और अजगर जैसे मोटे हैं, पर किसी को सताते हैं। एक ही श्राकार के ये तीनों ताम्रपत्र एक गोल छल्लेनहीं। इनके मुख्य चार प्रकार हैं । इनसे गाँववाले बिल. द्वारा नत्थी किये हुए हैं। तीनों का वज़न १२३१ तोला कुल नहीं डरते। गाँव की पाठशाला के हेडमास्टर श्री है। गोलाकार मुहर ३५ व्यास की है । यह मुहर तीन कुमुदसिंह बतलाते थे कि खुदाई के समय बड़े बड़े नाग भागों में विभक्त है । ऊपरी भाग पर नन्दी बैल का उठावचारों प्रकार के निकले थे। गांववालों ने उन्हें पकड़- दार चित्र बना हुआ है। नन्दी के सामने त्रिशूल और कर दूध पिलाया था, उनकी पूजा की थी और छोड़ कमंडलु बना है। चित्र के नीचे कुछ खुदाव है और दो दिया था।
दाई के समय तीन ताम्र-पत्र जो एक कड़े या छल्ले से नत्थी थे, पाये गये हैं। साथ ही एक गोल मुहर भी मिली है। मुद्रा और ताम्रपत्र मलार के मालगुज़ार श्री सुधाराम जी द्वारा विलासपुर सेण्ट्रल बैंक के मैनेजर बाबू प्यारेलाल गुप्त के पास भेजे गये थे। गुप्त जी 'महाकासलइतिहास-समिति' के सहायक मन्त्री हैं।
गुप्त जी ने इन चीज़ों को पंडित लोचनप्रसाद पांडेय के पास भेजा। पांडेय जी उक्त समिति के मन्त्री हैं । आपने ताम्रपत्रों को पढ़ा और भापान्तर किया और फिर गुप्त जी के द्वारा विलासपुर के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर के० एन० नगरकट्टी के पास भेज दिया। ये सब चीजें _ [गाँव में एक मकान की दीवार में लगी हुई अब नागपुर-म्यूज़ियम में रक्खी गई हैं।
एक दिगम्बर मूर्ति
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संख्या ५ ]
समानान्तर रेखायें बनी हैं। इसके नीचे एक खिला हुग्रा कमल और उसके दोनों ओर दो बन्द कमल अंकित हैं । छल्ले का और मुहर का कुल वज़न ८२३ तोला है।
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पत्रों पर सब खुदाव २८ सतरों में है और हर तरफ़ सात सात सतरें लिखी हैं । ग्रक्षर " बड़े हैं । इनकी लिखावट महाशिव तीवरदेव के ताम्रपत्रों से मिलतीजुलती है, जो रायपुर - जिले के राजिम और बलोदा ( फुलझर - ज़मीदारी) में पाये गये थे ।
ये ताम्रपत्र चंद्रवंशी राजा हर्षदेव या हर्पगुप्त के पुत्र महाशिवगुप्त राजदेव द्वारा खुदवाये गये थे । राजा महाशिवगुत महेश्वर का बड़ा भक्त था, पर मलार की खुदाई में जो महेश्वर का मन्दिर मिला है वह किसके द्वारा वनवाया गया था, इसका पता नहीं लगता । यद्यपि ताम्रपत्र में कोई भी सन् या संवत् नहीं दिया गया है, तथापि लिपि और मूर्तियों की बनावट इत्यादि और राजाओं के
मलार में महेश्वर
[ सरस्वती की मूर्ति ]
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Juta
H
NJUNTA เมอเร
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[ ताम्रपत्र की मुहर ]
नामों पर से दान-पत्रों का रचनाकाल विशेषज्ञों ने सातवीं सदी का प्रथमार्द्ध ठहराया है ।
प्राचीन 'श्रीपुर ' जो ग्राज-काल रायपुर - जिले में 'सिरपुर' के नाम से प्रख्यात है, पहले महाकासल की राजधानी था । ६०० ई० में चीनी यात्री यूनच्चोंग संभवतः इसी श्रीपुर में श्राया था। सिरपुर के राजा चन्द्रवशी थे । वे अपने को पाण्डुवंशी कहते थे । वे वैष्णव थे, पर यालोच्य ताम्र पत्र या दान-पत्र के दाता महाशिव गुप्त ने अपने को 'परम माहेश्वर' लिखा है और उनकी नान्दीअंकित मुद्रा भी उनके महेश्वर भक्त होने का प्रमाण है । गुप्तराज ने तरडंशक भोग के अन्तर्गत कैलासपुर नामक ग्राम बौद्ध भिक्षु संघ को ग्रापाढ़ श्रमावास्या के दिन दान में दिया था और लिखित घोषणा की थी कि जो इस वंश में दान को क्षरण रक्खेगा वह ६०,००० वर्ष तक स्वर्ग भोग करेगा और जो इस दान को क्षुण्ण करेगा वह अनन्त नरक का भागी होगा। कथित ताम्र पत्र इसी दान के अवसर पर लिखकर दिये गये थे ।
मलार के आस-पास कैलासपुर नाम का कोई गाँव नहीं है । कालावधि से कैलासपुर का अपभ्रंश कलसा या
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४६८
सरस्वती
[भाग ३८
वैष्णव थे। ताम्र-पत्र की मुद्रा में गरुड़ की मूर्ति अंकित है। तीवरदेव का भतीजा हपगुप्त था। उसका विवाह, मगध ?) के मौखारी राजा ईशान वर्मा के पुत्र राजा सूर्य वर्मा की लड़की वासटा' से हुआ था। रानी वासटा और राजा हर्षगुप्त के सुपुत्र महाशिवगुप्त हुए, जो बालाजुन भी कहे जाते थे। वासटा रानी के भाई महा शिवगुप्त बालार्जुन के मामा भास्कर वर्मा (याने सूर्य वर्मा के पुत्र) बौद्धमतावलम्बी थे। उनकी सिफारिश से महाशिव
गुप्त ने बौद्ध भिक्षयों को कैलाशपुर दान में दिया [टेकरी की खुदाई का दृश्य]
था । तीवरदेव का समय अनुमानतः ५५५ ईसवी
है। इससे उनके भतीजे के लड़के का समय ६०० से ६३० केसला होना सम्भव है। और कलसा का कला हो जाना तक होना सम्भव है। मलार के पास जैतपुर नामक ग्राम भी सम्भव प्रतीत होता है। मलार से ८ मील दूर अाग्नेय सम्भवतः यहाँ के बौद्धों को ही दान में दिया गया हो और की अोर 'कला' नामक एक ग्राम है। सम्भव है, यहीं वहाँ कोई प्रख्यात चैत्य रहा हो । कभी कैलासपुर रहा हो।
दानपत्र के तथा कुछ मूतियों के भेजे जाने के बाद से उसी भाँति मलार से ११ मील दूर अकलतरा स्टेशन ही खुदाई का काम सरकार-द्वारा बन्द करा दिया गया है । से तीन मील तारोद नाम का एक गाँव है, जो सम्भवतः विशेषज्ञों का कहना है कि साधारण व्यक्तियों द्वारा खोदने तरडन्शक का अपभ्रंश हो। वहाँ कोई प्राचीन बौद्ध-मट के कारण भी कई मूर्तियाँ इत्यादि टूट-फूट गई होंगी, के खण्डहर हों तो निश्चित रूप से उसके 'तरडन्शक अतएव खुदाई-विभाग की देख-रेख में यह काम होना होने की संभावना है।
चाहिए। जब यह काम उक्त विभाग द्वारा होगा तब वैष्णव राजा अपने का परम भागवत, शैव राजा संभवतः और भी ऐतिहासिक रहस्य प्रकट हए बिना न अपने को परम माहेश्वर, बौद्ध राजा अपने को परम रहेगा। सौगत कहते थे ! सुगत या तथागत बुद्ध को कहते हैं। कथित दानपत्रों के मूल लेख की नकल हम नीचे दे ___ कन्नौज के राजा हर्षवर्धन एक दिन सूर्य की, दूसरे रहे हैं - दिन शिव की और तीसरे दिन बुद्ध की पूजा करते थे। इसी प्रकार उदारहृदय महाशिव गुप्त ने शैव होते हुए भी बौद्ध-भिन-संघ का कथित ग्राम कैलाशपुर ग्रहण के समय दान-पत्र लिखकर दिया था। __ज्योतिष-गणित से पता लगता है कि अापाढ़ महीने में सूर्य-ग्रहण ६०८, ६२७ अौर ६४६ ईसवी में अमावास्या तिथि को पड़ा था । अतः महाशिव गुप्त का दान ६०८ या ६२७ में दिया गया होगा। ६४६ इसका होना संभव नहीं हो सकता। ___ सिरपुर के एक प्रसिद्ध राजा तीवर देव हो गये है। उनके भी कई ताम्र-पत्र मिले हैं। वे
[गढ़ के चारों ओर जलपूर्ण खाई]
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संख्या ५ ]
मलार में महेश्वर
मल्लार ( जिला बिलासपुर, सी० पी० में प्राप्त महाशिवगुप्त बालार्जुन का ताम्र - लेख ।
मुद्रा -- त्रिशूलयुक्त समासीन वृषभ । लिपि -- सम्पुट शिखा ।
ॐ स्वस्त्य शिप क्षितीशविद्याभ्यासविशेषा सादितमहनीयविनय सम्पत सम्पादितसकलविजिगीषुगुणो गुणवत्समातरोर्यज्ञा प्रभाव संभावित महाभ्युदयः कार्तिकेय इव कृत्तिवाससो राज्ञः श्रीहर्षदेवस्य सूनुः सोमवंशसम्भवः परममाहेश्वर मातापितृपादानुध्यात श्रीमहाशिव गुप्तराजः कुशली । तरङन्शक भोगीय कैलासपुर ग्रामे ब्राह्मणान सम्पूज्य सप्रधानान् प्रतिवासिनो यथाकालाध्यासिनस्समाहर्तृसन्निधातृ सप्रमुखानार्धकारिणः सकरणानन्यश्चास्मत्पादोपजीविनः सर्वराजपुरुषान् समाज्ञापयति विदितमस्तु भवतां यथास्माभिरयं ग्रामः सनिधिः सेोपनिधिः सदृशापराधः सर्वकरसमेतः सर्वपीड़ावर्जितः प्रतिनिषिद्ध चाटभट
DARS
[ एक सुन्दर मूर्ति का सर ]
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[कुबेर की मूर्ति ]
प्रवेशतया । तरडन्शक प्रतिष्ठित कोरदेव भोम्पाल ककारित विहारिका निवासी चतुर्दशाय्यभिक्षुसंघाय श्री भास्करव मातुलविज्ञतया ताम्रशासनेन चन्द्रार्कसमकालं मातापित्रोरात्मनश्च पुण्याभिवृद्धये पाढामावास्या सूर्यग्रहोपरागे उदकपूर्व प्रतिपादित इत्यतश्च विधेयतया समुचितभोगभागादिकमुपनयद्भिर्भवद्भिः सुखं प्रतिवस्तव्यमिति । भाविनश्च भूमिपालानुद्दिश्येदमभिधीयते—
भूमिप्रदादिवि ललन्ति पतन्ति हन्त हृत्वा महीं नृपंनयो नरके नृशंसाः एतद्वयं परिकलय्य चलाञ्च लक्ष्मीमातुस्तथा कुरुत यद्भवतामभीष्टम श्रपि च ।
रक्षापालन यस्तावत् फले मुगतिदुर्गती । को नाम स्वर्गमुत्सृज्य नरकं प्रतिपद्यते ।। व्यासगीतांश्चात्र श्लोकानुदाहरन्तिअग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्ण
भूवैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः ।
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दत्तात्रयस्तेन भवन्ति लोका
यः काञ्चनं गां च महीञ्च दद्यात् ॥ षष्टिवर्षसहस्राणि स्वर्गे मोदति भूमिदः । श्राच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत् ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमि: तस्य तस्य तदा फलम् ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यत्नाद्रक्ष युधिष्ठिर ! महीं महिमतां श्रेष्ठ दानाच्छु योनुपालनम् ॥
सरस्वती
मुद्रा:
राज्ञः श्रीहर्षगुप्तस्य सूनोः सद्गुणशालिनः । शासनं शिवगुप्तस्य स्थित मासवनस्थिते: || नीचे हिन्दी अनुवाद दिया जाता हैस्वाथ्य सम्पन्न महाशिवगुप्त राजा सदा माता-पिता के चरणों का ध्यान किया करते हैं । वे महेश्वर- भक्त हैं । सोमवंशी हैं और हर्षगुप्त के पुत्र हैं । वे कृत्तिवासपुत्र कार्तिकेय के समान पराक्रमशाली और विजेता के सब गुण, बुद्धि और बलसम्पन्न हैं । तरडन्शक भोगस्थित कैलासपुर गाँव में ब्राह्मणों की पूजा करके प्रत्येक ग्राम वासी को, राजकर्मचारियों का अन्य राजामात्यों को और अपने पदाश्रित सब सेवकों को यह श्राज्ञा देते हैं कि तुम लोगों को विदित हो कि सब व्यक्त और गुप्त धन सम्पत्ति और समस्त कर समेत यह गाँव (कैलासपुर ) अपनी और पुरखों की महिमा और पुण्य बढ़ाने के हेतु इस ताम्र-पत्र पर जल छोड़कर श्राषाढ़ महीने की १५वीं तिथि ( श्रमावास्या) को सूर्य ग्रहण के समय तरडन्शक स्थित कारदेव की स्त्री अलका निर्मित (बौद्ध) भिक्षुसंघ के १४ आर्य भिक्षुओं को मामा जी श्री भास्कर वर्मा के अनुरोध से दान किया ।
जब तक चंद्र-सूर्य रहें तब तक यह भिक्षुसंघ इस गाँव
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[भाग ३८
की आमदनी भोग करे । इस गाँव में कोई राजकर्मचारी कर वसूल न कर सकेगा, न किसी प्रकार का अत्याचार कर सकेगा । कोई सैनिक या पुलिसवाला इस गाँव में प्रवेश नहीं कर सकेगा । ऐसा जान कर सब लोग गाँव की सब प्रकार की आमदनी श्रानन्दपूर्वक भिक्षुसंघ को दिया करें ।
भविष्य अधिकारियों को बताया जाता है कि जो भूमिदान करनेवाले इस दान को क़ायम रक्खेंगे वे इस लोक में प्रतिष्ठा और परलोक में स्वर्ग भोग करेंगे। जो इस दान को ज़ब्त करेंगे, हाय ऐसे नृशंस मनुष्य नरक में जायँगे । यह मनुष्य जीवन नश्वर है और लक्ष्मी चंचला है, ऐसा जानकर किस मार्ग से चलोगे, चुन लो ।
पिच भूमिदान सुख का कारण है और भूमिहरण दुःख का कारण है । स्वर्ग-सुख छोड़ करके कौन नरक भोगना चाहेगा ? इस सम्बन्ध में सुधीगण व्यास का यह श्लोक गाया करते हैं ।
यथा -- मि का प्रथम सन्तान सुवर्ण है । पृथ्वी विष्णु की कन्या है | गाय सूर्य से उत्पन्न हुई है । जो सुवर्ण, भूमि और गोदान करता है वह त्रिभुवन दान का फल लाभ करता है । भूमिदाता ६०,००० वर्ष तक स्वर्ग भोग करता है और जो दान की हुई भूमि को छीन लेता है या छीनने में सहायता करता है या सहमत होता है वह नरक में जाता है । सगर से आज तक बहुत-से राजाओं ने भूमिदान किया है । जब जो राजा भूम्यधिकारी होकर भूमि - दान कर गये हैं वे ही उसका फल पा गये हैं । हे युधिष्ठिर, स्वयं दी हुई या दूसरे की दी हुई भूमि की सदा यत्न-सहित रक्षा करते रहो । किसी की ज़मीन छीन कर दान करने की पेक्षा दान की हुई भूमि की रक्षा करना अधिक पुण्यजनक है।
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घारावाहिक उपन्यास
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शनि की दशा
छळळळळळळच्छwwwwwwwwww
अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र राधामाधव बाबू एक बहुत ही आस्तिक विचार के आदमी थे। सन्तोष उनका एक मात्र पुत्र था। कलकत्ते के मेडिकल कालेज में वह पढ़ता था। वहाँ एक बैरिस्टर की कन्या से उसकी घनिष्ठता हो गई। उसके साथ वह विवाह करने पर भी तैयार हो गया । परन्तु वह बैरिस्टर विलायत से लौटा हुआ था और राधामाधव बाबू की दृष्टि में वह धर्मभ्रष्ट था इसलिए उन्हें यह सह्य नहीं था कि उसकी कन्या के साथ उनके पुत्र का विवाह हो। वे उस बैरिस्टर की कन्या की ओर से पुत्र की श्रासक्ति दूर करने की चिन्ता में पड़े ही थे कि एकाएक वासन्ती नामक एक सुन्दरी किन्तु माता पिता से हीन कन्या की ओर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने उसी के -साथ सन्तोष का विवाह कर दिया। परन्तु सन्तोष को उस विवाह से सन्तोष नहीं हुआ। वह विरक्त होकर घर से कलकत्ते चला गया। इससे राधामाधव बाबू और भी चिन्तित हुए। वे सोचने लगे कि वासन्ती का जीवन किस प्रकार सुखमय बनाया जा सके।
नवाँ परिच्छेद
कहनी हैं । क्या इस समय तुम सुनोगे ?” सन्तोष ने मस्तक
हिला कर अपनी सहमति सूचित की। तब वसु महोदय ने उपदेश
वहीं पर उसे बैठने को कहा और स्वयं भी उसके पास ही TRENEReड़े ज़ोरों की गर्मी थी। दो पहर रात बैठ गये।
व्यतीत हो चुकी थी। वायु नाम सन्तोषकुमार पिता का तार पाकर गाँव पाया था।
तक को नहीं चल रही थी। पूर्व उसको आये जब दो दिन बीत गये तब सदाशिव से उसने 16 के आकाश में चन्द्रमा उदित हो. कहा-"पिता जी ने मुझे क्यों बुलाया है, यह बात अब भी
pass आये थे। उनकी किरणें चाँदी की उन्होंने मुझे नहीं बतलाई । कल ही मैं चला जाऊँगा।" our COM चद्दर-सी बिछाकर चारों दिशाओं सदाशिव ने वसु महोदय के पास जाकर यह बात कह को उज्ज्वल कर रही थीं। एक घर के बरामदे में एक दी। उन्हें जब मालूम हुआ कि सन्तोष कलकत्ता लौट युवा पुरुष खड़ा था। ज्योत्स्ना के प्रकाश में अनिमेष दृष्टि जानेवाला है तब वे उसे खोजने के लिए आये। सामने से वह यमुना की तरङ्गों का नर्तन देख रहा था। ही बरामदे में वह उन्हें मिल गया । वसु महोदय ने उसे
वह युवा सन्तोष था। चन्द्रमा के प्रकाश में उसने बैठने को कहा। पिता-पुत्र दोनों ही चुप रहे । सन्तोष देखा कि समीप ही पिता जी खड़े हैं । उस समय उसको अपने आप कुछ बोलेगा, यह आशा उन्हें दिखाई पड़ी। . चिन्ता का वेग इतना प्रबल था कि वह पिता के आगमन उनका सन्तोष अाज इतना पराया हो गया कि दो बातें की ग्राहट नहीं पा सका । ज़रा दूर आगे बढ़ते ही उसने करके भी उन्हें नहीं तृप्त करना चाहता ! उनकी आँखों में सुना कि पिता उसे बुला रहे हैं । उसके समीप आते ही आँसुत्रों की धारा इतने प्रबल वेग से उमड़ पड़ी कि वसु महोदय ने कहा-"सन्तोष, तुमसे थोड़ी-सी बातें उसका संवरण करना उनके लिए असम्भव हो गया। पुत्र
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४७२
..
सरस्वती
[ भाग ३८
के मुँह की ओर दृष्टि फेरकर उन्होंने कहा-सन्तू, क्या सन्तोष के मुँह की अोर दृष्टि स्थिर रखकर वसु महोतू कल चला जायगा ?
दय ने कहा--सन्तोष, तुझसे इस तरह का उत्तर पाऊँगा, कातर स्वर से सन्तोष ने कहा-इच्छा तो है। अधिक यह आशा मैंने कभी नहीं की। किसी भी कार्य के संबंध समय तक रुकने से पढ़ाई में हानि होगी।
में असमर्थता प्रकट करना क्या पुरुष के लिए लज्जा का वसु महोदय का वक्ष भेदकर एक व्यथित निःश्वास विषय नहीं है ? तू मूर्ख नहीं है, पढ़ा-लिखा है। तेरे मुँह वायु में मिल गया। उन्होंने रुद्धप्राय कण्ठ से कहा- मैं से यह बात शोभा नहीं देती । इसके सिवा, बेटा, तुझे छोड़चाहता हूँ कि तू अभी से ही ज़मींदारी का थोड़ा-बहुत काम कर मेरे और कोई है नहीं, यह भी तुझे मालूम है । इस वंश देख लिया कर। मैं वृद्ध हो चला हूँ, शरीर में बल भी की सारी मान-मर्यादा तेरे ही ऊपर निर्भर है। इस ओर नहीं रह गया है, अधिक समय तक जीवित रह सकूँगा, यह यदि तू ध्यान नहीं देता तो क्या पिता-पितामह की कीर्ति नहीं मालूम पड़ता। इसके सिवा तुझे तो डाक्टरी पढ़ने नष्ट कर देना चाहता है ? यह क्या तेरे लिए गौरव की की इतनी अधिक आवश्यकता भी नहीं है । तुझे आहार- बात होगी ? तू ही मेरा एकमात्र वंश-रक्षक है दूसरा कोई वस्त्र की तो काई चिन्ता है नहीं, अतएव यदि अभी से ही है नहीं, जिसके द्वारा इस अभाव की पूर्ति कर लूँ । बेटा, तू थोड़ा-बहुत काम-काज देखने लगे तो बाद को कोई अब भी समझ जा । मेरा सभी कुछ तेरे ही ऊपर निर्भर है। झंझट न मालूम पड़ेगा । इसी लिए तुझसे कहता हूँ कि तू अब लड़का नहीं है। पढ़ा-लिखा है, हर एक बात को अब पढने की आवश्यकता नहीं है।
सोच-समझ सकता है। इस समय तेरे जो विचार हैं वे पिता जी आज इस प्रकार विशेष स्नेह किस मतलब से कल्याणकारी नहीं हैं। प्रकट कर रहे हैं, यह बात सन्तोष से छिपी न रह सकी। "तो भला मैं क्या करूँ ? यह सब तो मैं बिलकुल ही पिता जी उसे अपने पास क्यों रखना चाहते हैं, यह भी नहीं समझता।" .. उसने समझ लिया। जो पिता बाल्य-काल से ही इस ओर ज़रा देर तक चुप रह कर करुण कंठ से उन्होंने फिर विशेष ध्यान रखता आया है कि कहीं पुत्र के पढ़ने-लिखने कहा-छिः ! बेटा, ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। यह सब में किसी प्रकार का विघ्न न होने पावे, वही आज उससे तू न देखेगा तो भला और कौन देखेगा ? दूसरी बात यह भी कह रहा है कि अब पढ़ने लिखने की कोई आवश्यकता है कि तू अब अकेला नहीं रह गया है। तूने विवाह कर ही नहीं है । सन्तोष ने सोचा कि यह सब कुछ नहीं लिया है। उसके प्रति भी तेरा कुछ कर्तव्य है ? तू मेरे है, सुषमा से मुझे दूर रखना ही उनका एकमात्र उद्देश है। ऊपर ऋद्ध हो सकता है, परन्तु उसने क्या किया है ?
पुत्र को मौन देखकर वसु महोदय ने कहा-क्या तुझे उसका तो कोई अपराध नहीं है। सन्तू , भैया मेरे, अब यह पसन्द नहीं है?
भी तू समझने की कोशिश कर । बुढ़ापे में मुझे सन्तोष ने दृढ़ कंठ से कहा-अब अधिक समय तो और-आगे उनके मुँह से और कोई शब्द न निकल लगेगा नहीं। थोड़े दिनों तक परिश्रम करके यदि पास कर सका। सकता हूँ तो उसे अधूरा क्यों रक्खू ?
___यह सुनकर सन्तोष ने रुद्धप्राय स्वर से कहा-“बाबू न महोदय ने कहा---जमींदारी का काम सीखना जी. मुझे क्षमा कीजिएगा। मैं आपकी समस्त प्राज्ञात्रों भी तो आवश्यक है। वह भी तो यों ही नहीं पा जायगा। का पालन करता आया हूँ, केवल......” सन्तोष का
"वह सब मुझसे किसी काल में भी नहीं हो सकेगा गला उँध गया। धीरे-धीरे उठ कर वह चला गया। बाबू जी। मैं उसे जीवन-पर्यन्त न समझ सकूँगा। आप वसु महोदय उसी तरह अकेले ही बैठे बैठे बड़ी देर तक हैं, दादाभाई हैं ।"
सोचते रहे । बालिका की भावी दुखमय अवस्था का अनुभव ___ दादाभाई से उसका तात्पर्य था दीवान सदाशिव से। करके अनुताप से उनका हृदय परिपूर्ण हो उठा। उस सन्तोष बाल्य-काल से ही उन्हें दादाभाई कहकर पुकारता रात को उन्हें फिर नींद नहीं आ सकी। श्राया है।
दूसरे दिन सन्तोषकुमार दोपहर को अन्तःपुर में गया।
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पुजारिनी
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[चित्रकार-श्रीयुत रामगोपाल विजयवर्गीय andar.com
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संख्या ५
शनि की दशा
उसे देखते ही ताई ने पूछा- तो क्या तू आज ही कलकत्ते है, वह क्या इस अवस्था के लोगों के सहने के योग्य है ? चला-जायगा?
भला बताओ तो! सन्तोष ने धीमी आवाज़ में उत्तर दिया-तुम्हें किसने सन्तोष ने कहा--जब किया है तब क्यों नहीं सोचा ? बतलाया ?
अब मैं क्यों इस तरह घसीटा जा रहा हूँ ? अपने कर्म ज़रा-सा मुस्कराकर ताई ने कहा--तुमने नहीं बतलाया का फल अपने आप भोग करो। बहू चाहते थे, बहू पा तो क्या मैं सुन ही नहीं सकती थी ? अभी कुल दो ही गये हो । अब क्या चाहिए ? मुझे क्या करना है ? मैं चाहूँ दिन तो तुझे यहाँ आये हुए। आज ही चलने को भी तो इसी क्षण यह सब छोड़कर चला जाऊँ। और मैं तैयार हो गया !
समझता हूँ कि शीघ्र ही मुझे ऐसा करना भी पड़ेगा। इस बात के उत्तर में सन्तोष ने कहा कि यहाँ रहने नहीं तो तुम लोगों के हाथ से छुटकारा न मिल पर मेरी तबीअत अच्छी नहीं रहती। इसके सिवा यहाँ सकेगा ? रहने में लाभ ही क्या है ? केवल झमेला ही तो लगा उत्तर की ज़रा भी प्रतीक्षा न करके सन्तोष तेज़ी से रहता है।
पैर बढ़ाता हुआ घर से बाहर निकल गया । देवर के लड़के - सन्तोष की यह बात ताई के हृदय में बहुत तेज़ बाण की यह दुर्बुद्धि देखकर ताई जी सन्नाटे में आ गई। बड़ी की तरह बिध गई । एक अाह भर कर उन्होंने कहा- यह देर तक वे उसी स्थान पर बैठी रहीं। कैसी बात कहता है सन्तू ? भला ऐसा भी कहीं हो सकता है ? दुर्भाग्यवश वासन्ती पासवाले कमरे में ही बैठी थी। : घर में रहने से कहीं तबीयत खराब हो जाती है ? बेचारी बहू वह चुपचाप बैठी बैठी पति तथा ताई की सारी बातें सुन
मुँह सुखाये बैठी रहती है। उसे उदास देखकर हम लोग रही थी। एक भी बात ऐसी नहीं हुई जो उसके कान तक . कितने दुःखी होते हैं, यह क्या तू समझ सकेगा ? राजरानी न पहुँच सकी हो । ताई के मुँह से उसने जब अपनी चर्चा होकर भी दुलारी हमारी सब कुछ त्याग कर बैठी है, क्या सुनी तब उसे बड़ी लज्जा आई । वह मन ही मन सोचने तू यह देखता है ? ऐसा करके और न जला सन्तू, मेरा लगी कि स्वामी की जो कुछ इच्छा हो, वे वही करें। ताई राजा भैया तो। एक बार अपने बाबू जी के चेहरे पर दृष्टि उनसे कोई बात क्यों कहती हैं ? वे यदि मुझे नहीं प्यार डालकर तो देख ! छिः ! छिः ! तू इस तरह का हो कैसे करते तो क्या कोई ज़बर्दस्ती प्यार करवा सकता है ? व्यर्थ गया ? तेरी तो बुद्धि ही जाती रही। जिस एक पराई लड़की में इस तरह की बातें कह कहकर उन्हें चिढ़ाने की क्या को तने गले से बाँध रक्खा है उसकी चिन्ता तो आवश्यकता है ? करनी ही चाहिए।
वासन्ती को यह नहीं मालूम था कि मेरे पतिदेव किसी ताई की बात काटकर सन्तोष ने कहा-इतनी बातें और स्त्री को प्यार करते हैं । उससे यह बात किसी ने बततो कह गई हो, लेकिन यह नहीं देखती हो कि दोष किसका लाई ही नहीं। इसलिए स्वामी के चरित्र के सम्बन्ध में है। मैंने तो पहले ही बतला दिया था। अब मुझसे यह उसे किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सका । स्वामी जो उसे सब कहने की क्या आवश्यकता है ? तुम सब लोग मिल प्यार नहीं करते, घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उसका कारण कर यदि मुझे इस तरह तङ्ग करते रहोगे तो भ . बतलाये वह कुछ और ही समझती थी। उसकी धारणा थी कि देता हूँ, मामला ठीक न होगा। अभी तो मैं घर आ भी मुझे ग़रीब की लड़की समझ कर ही वे इस प्रकार उपेक्षा जाया करता हूँ, किन्तु यदि इसी तरह की बाते जारी रहीं की दृष्टि से देखते हैं । वह मन ही मन कहने लगी-होगा। तो इस ओर देखूगा भी नहीं।
-
इसके लिए क्या शिकायत है ? वे यदि इसी में शान्ति पाते सन्तोष की यह बात सुनकर ताई जी डर गई। वे कहने हैं तो उनके हृदय में अशान्ति का भाव उत्पन्न करने की लगी-तू तो इतनी ही-सी बात पर क्रुद्ध हो गया। तुझे क्या आवश्यकता है ? तो लोगों के सामने मुख दिखाना नहीं पड़ता। तुझे क्या बतलाऊँ ? चारों श्रोर जो इस तरह का हँसी-ठट्टा हो रहा Shree Sudhragami Gyanbhandar-Umara, Surat
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४७४
- सरस्वती
[भाग ३८
दसवाँ परिच्छेद
अाँसुत्रों के आवेग से वासन्ती का कण्ठ उँध गया। विल
किसी प्रकार अपने को सँभाल कर उसने कहा-बाबू जी, _ पुत्र के प्रतिकूल अाचरण के कारण वसु महोदय का आप हमारे भविष्य की अोर ज़रा भी ध्यान नहीं देते। शरीर क्रमशः गिरने लगा। श्वशुर के शरीर की अवस्था आपके चले जाने पर हमारी क्या दशा होगी? और देखकर वासन्ती बहुत ही चिन्तित हो उठी। वसु महोदय वह कुछ कह न सकी। अाँसुयों ने उसका कण्ठ रुद्ध कर को अब खाने-पीने की भी इच्छा बहुत कम हुआ करती दिया। थी। इससे वासन्ती और दुखी होती। किसी किसी दिन वासन्ती को सान्त्वना देते हुए वसु महोदय ने कहातो वह बहुत ही अनुनय-विनय करती, रोती और खाने के क्या ज़रा-सा शरीर खराब हो जाने से ही काई श्रादमी मर लिए उनसे बहुत अाग्रह करती। पुत्रवधू का सन्तुष्ट रखने जाता है बिटिया ? तुम मेरे लिए चिन्ता मत करो। के लिए वे सदा ही सचेष्ट रहा करते थे, इसलिए जो परन्तु मुझे यह बहुत बड़ा दुःख रह ही गया कि बिटिया कुछ वह कहती, वे वही किया करते थे । परन्तु विधाता मैंने किया तो तुम्हें सुखी करने का प्रयत्न किन्तु कर दिया के विधान को अन्यथा करने की शक्ति तो किसी में है बहुत दुःखी। यह कष्ट मुझे साथ में लेकर ही जाना पड़ेगा। नहीं, वह होकर ही रहता है। दुश्चिन्ताओं के कारण वासन्ती ने स्निग्ध कराठ से कहा-श्राप यह बात उनका शरीर दिन दिन गिरने लगा।
क्यों कह रहे हैं बाबू जी ? आपके पास आकर मैं बहुत . एक दिन की बात है। दोपहर के समय वसु महोदय ही सुखी हुई हूँ। आपको उसके लिए दुःख क्यों हो भोजन करने के लिए बैठे थे। ताई जी थाली लगा रहा है ? रही थीं। पास बैठी वासन्ती पंखा झल रही थी। उस प्रसङ्ग को रोक देने के लिए वसु महोदय ने सन्तोषकुमार कलकत्ता लौट गया था, इससे वे उस पर कहा-चलो बिटिया, हम लोग थोड़े दिन तक कहीं हवा बहुत ही क्रुद्ध हो उठे थे। परन्तु अपना सारा क्रोध वे खा श्रावें और तुम अपने इस 'बच्चे' को मोटा कर मन ही मन लिये रहे, इस सम्बन्ध में किसी से कोई बात ले श्रायो। उन्होंने कही नहीं।
वासन्ती प्रसन्न हो गई। उसने कहा-बहुत अच्छी ___थोड़ी देर तक चुपचाप बैठी रहने के बाद वासन्ती . बात है बाबू जी। यह अापने अच्छा सोचा है। इससे ने कहा-बाबू जी, श्राप दिन दिन आहार छोड़ते जा आपकी तबीअत भी बहल जायगी और शरीर भी सुधर रहे हैं, इससे आपका शरीर और खराब होता जा रहा है। जायगा । यह कहकर उसने फिर पूछा-तो कहाँ चलने ___पुत्रवधू के उदास और सूखे हुए मुँह की श्रोर ताककर का विचार है ? वसु महोदय ने कहा-क्या सदा ही आदमी की खुराक “यह तो अभी नहीं ठीक किया बिटिया, लेकिन चलना वैसी की वैसी ही बनी रहती है बेटी ? बुढ़ाई का शरीर जल्द ही होगा। मुझे भी यह अनुभव हो रहा है कि ठहरा ! इसके सिवा, मेरे इनकार करने पर भी तो खिलाये आज-कल मेरी तबीअत कुछ ख़राब है। बिना तुम प्राण छोड़नेवाली नहीं हो!
ताई ने कहा-काशी या इसी प्रकार के अन्य - एक हलकी आह भर कर वासन्ती ने कहा-आप किसी स्थान में चला जाय तो क्या ठीक न होगा? शरीर की अोर ज़रा भी ध्यान नहीं देते बाबू जी, इसलिए . वसु महोदय ने कहा-अच्छा तो है। काशी हो चला अापका शरीर और भी खराब होता जा रहा है। आपकी जाय । अभी से ही थोड़ी-बहुत तैयारी कर लेनी चाहिए। इस अवस्था के कारण हमें बड़ा भय हो रहा है। इस बार का हिसाब-किताब तय करके निकल पड़ना
वसु महोदय ने कहा-इसमें डरने की कौन-सी बात चाहिए । है बिटिया ! मेरा शरीर जरा कुछ ख़राब रहना है, थोड़े भोजन से निवृत्त होने के बाद वसु महोदय बैठक में ही दिनों में ठीक हो जायगा। इसमें घबराने की कौन सी चले गये । वसन्ती वहीं पर बैठ कर चुपचाप अपने भाग्य बात है बिटिया ?
पर विचार करने लगी। वह सोचने लगी कि श्वशुर की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या ५]
शनि की दशा
• मृत्यु हो जाने पर मेरी क्या दशा होगी। जिसकी दया तक करने का अधिकार दे दिया। इस प्रकार उन्होंने से आज मैं राजराजेश्वरी बनी बैठी हूँ, उसी के अभाव पुत्रवधू को ही सारी सम्पत्ति की एकमात्र स्वामिनी बना में कदाचित् फिर मुझे अाश्रय के लिए भटकना पड़ेगा। दिया और यह भी लिख दिया कि इनकी अनुमति के यही चिन्ता उसे कई दिनों से उद्विग्न कर रही थी। बिना कोई कुछ भी न कर सकेगा, यदि कोई कुछ करेगा
सन्तोषकुमार अत्यधिक हठ के ही कारण कलकत्ते भी तो वह नियमित न माना जा सकेगा। चला गया । वसु महोदय ने उसे बहुत रोका था, परन्तु दानपत्र लिखकर वसु महोदय ने वृद्ध दीवान जी वह किसी प्रकार भी घर रहने को तैयार नहीं हुआ। तथा कलकत्ते से आये हुए चार महानुभावों को साक्षी उसके चले जाने पर वसु महोदय ने मन ही मन यह स्थिर बनाकर उस पर स्वयं हस्ताक्षर किया। रजिस्ट्री करवाने के किया कि यदि कहीं मेरी मृत्यु हो गई और वासन्ती सन्तोष लिए एटी को दे दिया। उन्होंने उससे यह भी कह के हाथ में पड़ गई तो उसकी बड़ी दुर्दशा होगी। सन्तोष दिया कि रजिस्ट्री करवा कर इसे तुम अपने ही पास रक्खे की यह दुर्मति जब तक दूर नहीं होती तब तक वासन्ती का रहो, मेरी मृत्यु होने पर जब श्राद्ध आदि हो जाय तब इसे भविष्य बहुत ही अन्धकारमय बना रहेगा। इसलिए यह वासन्ती को देना। इससे पहले हम लोगों को छोड़ कर . आवश्यक है कि मैं अपने जीवनकाल में ही उसके लिए और किसी के भी कान में यह बात न पड़ने पावे। दूसरे कोई पक्का प्रबन्ध कर दूं, अन्यथा बाद को सन्तोष कहीं दिन वह दानपत्र लेकर वे लोग चले गये। दीवान सदाउसे घर से बाहर न कर दे । जिसने विवाहिता पत्नी की शिव ने एक बार कहा था कि सन्तोष को सम्पत्ति से इस प्रकार की उपेक्षा कर रक्खी है उसके लिए असाध्य बिलकुल ही वञ्चित कर देना उचित न होगा । कुछ भी नहीं है । उसका हृदय आज भी अनादि बाबू इसके उत्तर में वसु महोदय ने कहा- हमारे पिता पितामह की कन्या के ही प्रति अाकर्षित है। बहत सम्भव है कि के पवित्र स्थान में कोई विलायत से लौटे हए- श्रादमी मेरी मृत्यु हो जाने पर वह उसके साथ विवाह भी कर ले। की कन्या पाकर इसे अपवित्र करे, यह मेरे लिए असह्य कदाचित वह मेरी मत्य की ही प्रतीक्षा में रुका भी है। है। यदि कहीं ऐसा हवा तो मेरी प्रात्मा को बड़ा क्लेश यह भी सम्भव है कि विवाह करके वह कलकत्ते में ही बस मिलेगा, स्वर्ग में जाकर भी मैं शान्ति न पा सकूँगा। जाय गाँव की ओर एक बार दृष्टि फेर कर देखे भी उसके अतिरिक्त सन्तोष मूर्ख भी नहीं है, वह पढ़ा-लिखा न । तब तो पूर्वजों का घर और राधावल्लभ का मन्दिर है, अपने निर्वाह के लिए बहुत कुछ कमा लेगा। यह श्रादि नष्ट ही हो जायगा ।
बात सुनते ही दीवान जी चुप हो गये, फिर उन्होंने इस तीन-चार दिन के बाद बसु महोदय के यहाँ विपिन बात की चर्चा नहीं की। बाबू तथा तीन-चार अन्य सजन आकर उपस्थित हुए। दान-पत्र तैयार हो जाने पर वसु महोदय मानो बहुत उन सबसे परामर्श करके उन्होंने एक दान-पत्र तैयार कुछ निश्चिन्त हो गये। इस दान-पत्र के सम्बन्ध में किया। उस दान-पत्र के द्वारा उन्होंने अपनी सारी ज़मी- उन्होंने भौजाई या वासन्ती को कोई भी बात नहीं बतलाई । दारी, कोठियाँ तथा अन्य प्रकार की स्थावर और जंगम वासन्ती वृद्ध की सेवा में तन-मन से लगी रहती, वृद्ध सम्पत्ति का वासन्ती को हो उत्तराधिकारी बना दिया। श्वशुर को सुखी करने के लिए असाध्य साधना करके भी सन्तोषकुमार के लिए उन्होंने उसमें कोई व्यवस्था नहीं वह तृप्ति का अनुभव नहीं करती थी। की। साधारण भत्ता भी नहीं नियत किया। ताई जी के . वासन्ती कभी किसी प्रकार का बनाव-शृङ्गार नहीं लिए यह व्यवस्था हुई कि उन्हें जीवनपर्यन्त दो सौ करती थी। वह सदा ही बहुत सादी पोशाक में रहती रुपये मासिक मिलते रहेंगे। घर में ही वे रहेंगी। तीर्थ- थी। साथ ही उसकी मुखाकृति पर प्रसन्नता की रेखा यात्रा, दान-पुण्य या अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए वे भी कभी नहीं दिखाई पड़ती थी। उसकी इस मलिन रियासत से स्वतन्त्र वृत्ति पावेगी। वसु महोदय ने उस छवि पर दृष्टि पड़ते ही वसु महोदय हृदय में अपार दान-पत्र के द्वारा वासन्ती को सम्पत्ति का दान तथा विक्रय वेदना का अनुभव करते थे। उन्होंने सोचा था कि
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सरस्वती
[भाग ३८
दो दिन के बाद ही सन्तोष को अपनी भूल मालूम हो रखने का प्रयत्न किया करती थी। वे दोनों ही श्वशुर जायगी और वह मन ही मन दुःखी होकर क्षमा माँगने और पुत्रवधू एक-दूसरे से अपनी अवस्था छिपा कर ही के लिए आवेगा। परन्तु इसका कोई लक्षण न दिखाई रखना चाहते थे । परन्तु वसु महोदय के हृदय में वासन्ती पड़ा। तब उन्होंने पुत्र को बुलाकर उपदेश किया, की हीन और मलिन मूर्ति बाण की तरह चुभा करती थी। समझाया-बुझाया, उसे डाँट-फटकार बतलाई। किन्तु लाख प्रयत्न करके भी वासन्ती उसे छिपा नहीं सकती इसका भी उस पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ा। अन्त थी। निर्मम और असह्य यन्त्रणा के कारण किसी किसी में वे निराश हो गये। अब वे यह अनुभव करने लगे कि दिन तो वसु महोदय के हृत्पिण्ड की क्रिया तो मानो बन्दमैंने वासन्ती के प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है। सी हो जाया करती थी, वे किसी प्रकार भी अपने को उन्होंने वासन्ती को बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण सँभाल नहीं पाते थे। ताई जी दिन दिन देवर के शरीर दिये थे, परन्तु उन्हें वह अनावश्यक समझती रही, कोई को इस तरह गिरते देखकर बहुत चिन्तित हो रही थीं।
उनका उपयोग नहीं करती थी। वह फटे-पुराने कपड़े वे छिपाकर कभी कभी सन्तोष को पत्र भी लिखा करती . पहनकर ही दिन काटा करती थी। वासन्ती की इस प्रकार थीं और हर एक पत्र में उससे यही आग्रह करतीं कि तुम की अशान्तिमय मानसिक अवस्था तथा मलिन वेश-भूषा घर चले आओ । परन्तु आना तो दूर रहा, वह किसी देखकर वसु महोदय भी बहुत दुःखी होते थे। उन्होंने दो- पत्र का उत्तर तक नहीं देता था। एक बार इस सम्बन्ध में वासन्ती से पूछा भी। इससे वह समय जिस तरह बीत रहा था, उसी तरह वह बीतता इधर थोड़े दिनों से श्वशुर को प्रसन्न करने के लिए उनके गया। उसने किसी की ओर ध्यान न दिया । श्वशुर के सामने जाते समय कुछ अच्छे कपड़े और दो-चार गहने शरीर की अवस्था देखकर वासन्ती पश्चिम की ओर जाने भी पहन लिया करती थी, किन्तु शायद संसार की अवस्था के लिए बहुत व्यग्र हो रही थी, किन्तु घर-गृहस्थी के से अनभिज्ञ वासन्ती यह नहीं जानती थी कि गुरुजनों से झंझटों तथा तरह तरह के बाधा-विघ्न के कारण यात्रा का सत्य छिपाया नहीं जा सकता।
दिन क्रमशः पीछे हटने लगा। अन्त में एक दिन वसु __वासन्ती को सुखी करने के लिए वसु महोदय अपनी महोदय ने कहला भेजा कि आसाढ़ मास की अमावास्या शक्ति भर कुछ उठा नहीं रखते थे । वासन्ती से भी जहाँ के आस-पास काशी-यात्रा का दिन स्थिर हुआ है। तक बन पड़ता, वह अपनी अवस्था उनसे छिपाये ही तब वासन्ती की दुश्चिन्ता बहुत कुछ दूर हो गई।
गीत
लेखिका, श्रीमती तारा पाण्डेय कौन. तू मुझको बुलाती ?
जननि जीवन आज मेरा, भूमि में, जल में, गगन में,
__ सफल होने को हुआ है। प्रलय सा तू क्यों मचाती ? सजनि यह मधु-मास आया,
मधुर मंजुल इस घड़ी में, निठुर हो मुझको रुलाती । संग प्रिय के मैं रहूँगी।
कौन तू मुझको बुलाती ? चिरव्यथा को भूल कर अब, आ रहा बचपन नया, तू देखने दे हास शिशु का ? प्रेम का ही गान -गाती। हो रही ममता निराली, आज तू मुझको न भाती। कौन तू मुझको बुलाती ?
कौन तू मुझको बुलाती ?
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उन्नति के पथ पर
लेखक, पण्डित मोहनलाल नेहरू
चासों वर्षों से नवयुवकों के दिमागों में यह बात बुरा समझता है । इसी से युवक उसे बुद्धिहीन कहने लगते
घूमा करती है कि हमारे बाप दादा यदि बेवकूफ़ हैं । जिसे देखो, तरक्की की दोहाई देता है। नहीं तो निरे बकवासी थे । यों तो कुछ न कुछ विचारों तरक्की है क्या ? वर्तमान स्थिति में परिवर्तन । कोई में और उनके प्रकट करने में समय समय पर भेद रहा हो भी किसी बात से सन्तुष्ट नहीं, शायद मौजूदा स्थिति से कभी है, मगर अब उन विचारों का बहाव इसी तरफ़ रहता कोई सन्तुष्ट नहीं रहा। परिवर्तन की या तरक्की की सदा है कि हमारे बाप-दादा निरे बकवासी थे और हम नौजवान चाहना रही है। काम करके दिखानेवालों में हैं।
थोड़े ही दिनों की बात है कि सामाजिक क्षेत्र में स्त्री - हम यह भूल जाते हैं कि बहुधा जो कुछ भी हम कर को किसी परिवर्तन की चाहना न थी। वह अपनी उस सकते हैं वह उसी 'बकवास' का नतीजा होता है या यों ज़माने की दशा से खुश थी और किसी परिवर्तन के पक्षकहिए कि बड़ेा के प्रताप का पुण्य होता है। श्राज-कल पाती को घृणा को दृष्टि से देखती थी। वह दशा अच्छी छुआछूत के खिलाफ बड़े ज़ोर लग रहे हैं। इसी का थी या बुरी, मुझे इससे इस वक्त मतलब नहीं। स्त्री-शिक्षा उदाहरण देना शायद बेजा नहीं। अाज से पचास या के, खासकर उस शिक्षा के जो आज-कल प्रचलित है, साठ वर्ष पहले ऐसे हिन्दू सज्जन हो चुके हैं जिन्होंने फैलाव से उसे अपने व्यक्तित्व का ख़याल पैदा हुआ और छुआछूत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। पहले वे उसने अपनी दशा के सुधार का आन्दोलन उठाया। नक्कू बने रहे, किन्तु अपनी रट लगाये रहे। उन्हें पश्चिमी देशों में उस आन्दोलन का विरोध हुआ। स्वयं किसी का छुआ खाने की हिम्मत न पड़ी। उनके पुरुषगण ने उसका ख़ासा विरोध किया और मार-पीट बाद की पीढ़ी ने कहा कि कहते तो आप हैं, मगर की नौबत पहुँची, परन्तु आखिर में उसको सफलता मिली। जब खुद न किया तो बकबक से क्या लाभ, हम तो कर यह तरक्की समझी गईं, किन्तु थोड़े ही दिनों में फिर दिखायेंगे। उन्होंने चोरी-छिपे होटलों में खाना-पीना शुरू उसका विरोध उठ खड़ा हुआ और जर्मनी इटली में स्त्री किया, यहाँ तक कि ऐसा करनेवाले एक-दूसरे से छिपकर फिर पुरानी दशा में ढकेल दी गई। उन विरोधियों की होटलों में खाते और पीते भी थे। उनको यह हिम्मत राय में यह तरबक्री हुई। न हुई कि स्वजाति के किसी व्यक्ति के सामने ऐसा पूर्वी देशों में स्त्री-आन्दोलन का विरोध नाममात्र करें। वहाँ तो वे भी बगुला-भगत हो बने रहते । लड़के- को भी नहीं हुआ। पुरुषों ने स्वयं उन्हें बहुत कुछ उसके बालों पर इसका यह असर हुआ कि वे एक कदम आगे लिए उत्साहित किया । भारतवर्ष स्वयं ही दासता में है, देने गये और चोरी-छिपे की रस्म उड़ा दी। यह बुरा हुआ या का सवाल ही क्या ? फिर भी जो कुछ वह दे सका था भला, इससे हमें मतलब नहीं । हमारा तो यह कहना है कि उसमें उसने संकोच नहीं किया । देने या न देने के वास्ते इन्होंने जो कुछ भी किया वह उसी 'बकवास' का नतीजा यह ज़रूरी है कि देनेवाले के पास वह वस्तु हो । यहाँ तो है जो उनके दादा-परदादा किया करते थे। सीढ़ी सीढ़ी आप मियाँ माँगतेवाला मसला है। जो कुछ भी आप देना ये लोग यहाँ तक पहुँचे, मगर स्वयं हर पीढ़ी एक ही चाहें या जो भी परिवर्तन करना हो उसके वास्ते अपने सीढ़ी चढ़ी। फिर यह कहना कि उन्होंने अपने बाप-दादों मालिकों से दरख्वास्त करनी होती है । और वहाँ विरोध से कोई बात ज़्यादा की, झूठा अभिमान है।
मिलता है जैसा कि हिन्दू पुत्री के सम्पत्त्यधिकार कानून . आदमी सदा ही तबदीली चाहता है, जिसे वह तरक्की और अन्तर्जातीय-विवाह कानून की दुर्दशा से साबित है। कहता है और वृद्ध होने पर दूसरों का उससे आगे बढ़ना स्त्री-शिक्षा की. मिसाल लीजिए। थोड़े ही दिन
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"सरस्वती
[ भाग ३८
हुए कि स्त्री को शिक्षा देना बिलकुल बुरा समझा आगे चल कर ये ढंग बदल गये। उस समय के जाता था । सुधारक पैदा हो गये और लेकचरबाज़ी काफ़ी नेताओं ने बधाई देनी छोड़ दी और साफ़ साफ़ शिकायत कर डाली। कुछ लोग उनकी बात मानकर लड़कियों करनी प्रारम्भ कर दी। अपने से पहले नेताओं का मज़ाक को पढ़ाने लगे। मगर उन सुधारकों की यह मंशा कभी उड़ाया। उनके बाद तीसरा दल आया जो गर्म कहलाने न थी कि लड़कियाँ उसी तरह की और उतनी ही शिक्षा लगा और सरकार के सामने माँगें पेश करने लगा। चौथे पावे, जैसी लड़के पाते हैं। उनमें से कोई तो इतनी शिक्षा ने असहयोग की धमकी दी और कर दिखाया। एक को देना चाहते थे कि स्त्री को घर के काम-काज में सुविधा दूसरा, दूसरे को तीसरा और तीसरे को चौथा डरपोक हो, कोई जो उनसे अधिक एक्ट्रीमिस्ट थे, केवल इतना बताया किये और यही कहा किये कि पहलेबाले बकबक चाहते थे कि उनकी लड़की अन्य पुरुषों से बातचीत कर के अतिरिक्त किसी मसरफ़ के नहीं थे। पुराने नेताओं सके और हो सके तो विदेशी भाषा में भी चटाख़-पटाख़ के अनुयायी अब तक उन्हीं शब्दों में याद किये जाते हैं । बोल सके। थोड़े से आदमी ऐसे भी थे जो उसे पुरुषों ज़रा गौर कीजिए और सोचिए कि बिना पहले के के बराबर शिक्षा देना चाहते थे। मगर वे भी यह नहीं शुरू किये और दबी ज़बान शिकायत किये चौथे तक सोचते थे कि वह पुरुष की बराबरी को तैयार हो जायगी। मामला पहुँचता हो कैसे ? बच्चा पैदा न हो तो कभी बड़ा ऐसे पुरुष मौजूद हैं जो यह कहते हैं कि स्त्री को पुरुषों के कैसे होगा ? वास्तव में कोई भी कायर न था, बिना कहे बराबर अधिकार होने चाहिए और ऐसी स्त्रियाँ भी हैं सुननेवाले कैसे सुनें और बिना सुने दूसरे कैसे जानें! जो यही बात कहती हैं। मगर शायद वे पुरुष और अगर हम कहें कि निरी बकवास भी इतनी बुरी चीज़ नहीं वे स्त्रियाँ यह बात ग़लत कहती हैं कि पुरुषों ने उनके जितना उसे कुछ लोग दिखाना चाहते हैं तो शायद ग़लत वास्ते कुछ नहीं किया। ऐसा कहनेवाले स्त्री-आन्दोलन न होगा। का इतिहास नहीं जानते।
अब राजनैतिक आन्दोलन ने फिर पलटा खाया है। ____ अगर किसी बुजुर्ग ने घरेलू शिक्षा देने की आवाज़ गर्म ही लोग एक-दूसरे को बुरा-भला कहने लगे हैं । न उठाई होती या यों कहें कि बकवास शुरू न की होती जो लोग मंत्रि-पद ग्रहण के विरोधी हैं वे उसके पक्षपातियों
और उनके बाद कुछ लोग और आगे न बढ़े होते तो को कमज़ोर और एक तरह से कायर समझने लगे हैं और अाज यह दशा न होती कि उन्हें इतना भी कहने का ये दोनों पुराने किस्म के लिबरल नेताओं को तो आरामसाहस होता । यह उन्हीं बकवासी लोगों . के पुण्य का फल कुर्सीवाले राजनीतिज्ञ समझते ही हैं। शायद यह ठीक है कि ऐसे लोग मौजूद हैं जो समानता की ध्वनि उठाये हुए भी है, क्योंकि वे सिवा गर्म लोगों को बुरा कहने के और हैं । उठावें, ज़रूर उठावें, ऐसा चाहिए भी, मगर उन लोगों ४०-५० वर्ष पहले के पुराने नेतानों की दोहाई देने के कुछ को जिन्होंने नींव डाली है, क्या बदनाम करना ज़रूरी है ? करते भी तो नहीं। वे यह भूले हुए हैं कि उस समय से जिन्होंने इतनी सहायता दी उनका दिल बेजा दुखाया पचास वर्ष अागे दुनिया जा चुकी है । मगर कांग्रेस के भीतरी, जाय, यह कहाँ का इन्साफ़ है ?
दोनों दलों में समानता होते हुए भी उनमें से एक दूसरे को गत पचास वर्ष का कांग्रेस का इतिहास देखा जाय, शुरू पिछड़ा हुअा दल समझता है जो उसकी राय में बोदा है। शुरू के नेताओं के व्याख्यान पढ़े जायँ, तो ठकुरसेाहाती की वास्तव में ऐसा नहीं है। अपने समय के प्रत्येक गंध उनमें अाती है । "सरकार ने किया तो बहुत कुछ और सुधारक-दल ने पूरा काम किया और अब भी कर हम इस पर उसे धन्यवाद देते हैं, किन्तु वह काफी नहीं है।" रहा है।
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मदरास का सम्मेलन
लेखक, श्रीयुत श्रीमन्नारायण अग्रवाल
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का अधिवेशन मदरास जैसे अाकर मोटर में ले गये। सेठ जमनालाल जी का डिब्बा
९ि अहिन्दी प्रान्त में होना कितना महत्त्वपूर्ण था, हमारे डिब्बे के पास ही था। मदरास-स्टेशन पर उनका इसका अन्दाज़ा तो सम्मेलन में उपस्थित हुए बिना नहीं खूब स्वागत किया गया। स्वयंसेवकों का भी अच्छा चल सकता था। महात्मा गांधी और सेठ जमनालाल जी प्रबन्ध था। हम लोग त्यागराय नगर में 'दक्षिण-भारतके कारण सम्मेलन ने वहाँ के. बहुत-से नेताओं और प्रति- हिन्दी-प्रचार-सभा' के नये भवनों में ठहराये गये। उसी ष्ठित सज्जनों तथा सन्नारियों को आकर्षित किया । हिन्दी- स्थान पर सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ। प्रचार और राष्ट्रीय भावना की दृष्टि से मदरास का यह शाम को थोड़ी ही देर बाद कनवोकेशन हुआ। अधिवेशन कुछ कम महत्त्व का न था। इसने राष्ट्रभाषा श्री पुरुषोत्तमदास टंडन ने दीक्षान्त-भाषण किया। महात्मा हिन्दी के सूत्र द्वारा उत्तर और दक्षिण को एक सूत्र में जी भी सभापति की हैसियत से उपस्थित थे। शहर के बाँधकर एक महान् राष्ट्र की पक्की नींव डाली है। जिस काम करीब करीब सभी प्रतिष्ठित लोग आये थे। महात्मा जी ने को महात्मा गांधी और सेठ जमनालाल जी करीब अठारह भी काफी देर तक भाषण किया और राष्ट्रीयता की दृष्टि वर्षों से कर रहे थे उसका दिग्दर्शन इस सम्मेलन से से हिन्दी-प्रचार का महत्त्व बतलाया। . मले प्रकार हुआ है।
x दूसरे दिन दोपहर को सम्मेलन का खुला अधिवेशन वर्धा से हम लोग २५ मार्च को रवाना हुए। मैं हुआ। श्रीमती लोकसुन्दरी रामन (सर सी० बी० रामन महात्मा जी के डिब्बे में ही था । महात्मा जी के साथ सफ़र की पत्नी) स्वागताध्यक्षा थीं। उन्होंने हिन्दी में अत्यन्त करने का मेरा यह पहला ही मौका था। उनके दर्शन के सुन्दर भाषण किया। हिन्दी बोलना तो उनको अभी अच्छी लिए प्रत्येक स्टेशन पर इतनी भीड़ इकट्ठी हो जाती है, तरह नहीं पाता, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनका इसकी मुझे कल्पना भी न थी। रात भर "महात्मा गांधी अगाध प्रेम देखकर सबको बड़ा आनन्द हुश्रा। की जय” कानों में पड़ती रही । सेोना तो बहुत मुश्किल हो सेठ जमनालाल जी का भाषण छोटा किन्तु सारगर्भित गया। लेकिन महात्मा जी तो इतना शोरगुल होने पर भी था। साहित्यकार होने का दावा तो उन्होंने कभी किया गहरी नींद लेने के आदी हैं। दिन में तो महात्मा जी ही नहीं, और इस सम्बन्ध में उन्होने बड़े सुन्दर ढंग से हरिजनों के लिए धन एकत्र करने में लग गये। ज्यों ही अपनी सफ़ाई भाषण के शुरू में ही दे दी। किन्तु हिन्दीस्टेशन आता, और भीड़ हमारे डिब्बे के सामने इकट्ठी हो प्रचार-कार्य में सेठ जी ने तन, मन, धन से सेवा की है, जाती, महात्मा जी "डब्यो ! डब्यो ::' कह कर अपना और उन्होंने प्रचार का कार्य बढ़ाने के लिए अपने हाथ बढ़ा देते थे। पहले तो मैं 'डब्बो' का अर्थ नहीं अनुभव और विचार सरल किन्तु स्वाभाविक भाषा में समझा। बाद में मालूम हुआ कि 'डब्बो' का अर्थ तेलगू हमारे सामने रक्खे। अपने भाषण में उन्होंने दक्षिण के में 'पैसा' है। महात्मा जी के दर्शनों के लिए ज़्यादातर नेताओं से हिन्दी सीखने के लिए ज़ोरदार अपील की गरीब लोग जिनके तन पर काफ़ी वस्त्र भी नहीं थे, जमा ता.क हमको अन्तर्मान्तीय कार्य में एक विदेशी भाषाहोते थे। उनसे हरिजनों की सेवा के लिए महात्मा जी अँगरेज़ी का सहारा न लेना पड़े। एक एक पैसा एकत्र करने में संतोष मानते हैं।
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उसी दिन शाम को महात्मा जी ने मदरास के करीब मदरास-स्टेशन पर भीड़ कम करने के लिए श्री करीब सभी कांग्रेस के नेताओं को बुलाया और 'हिन्दु. पजगोपालाचार्य महात्मा जी को एक स्टेशन पहले ही स्तानी' को कांग्रेस की कार्रवाई की भाषा बनाने के सम्बन्ध
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४८०
सरस्वती
[भाग ३८
[श्री सत्यनारायण जी और पं० हरिहर शर्मा] कता है, जिनके बिना हमारी नींव कभी पक्की नहीं हो सकती । अगर हम अँगरेज़ी के प्रचार की ओर अपनी नज़र डालें तो मालूम होगा कि अँगरेज़ी भाषा के शिक्षण के सिवा अँगरेज़ी शार्ट हेड (संकेत-लिपि) और टाइप राइटिंग की वजह से अँगरेज़ी का प्रचार देश के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत बढ़ा है, इसलिए जब तक हम हिन्दी टाइप राइटिंग और संकेत-लिपि जानने वालों को काफी संख्या में
तैयार नहीं करेंगे तब तक जनता से हिन्दी में ही कार्रवाई [सेठ जमनालाल बजाज़ सम्मेलन के सभापति
और पत्र-व्यवहार करने की अपील करना व्यर्थ ही समझना में करीब तीन घंटे तक चर्चा की। श्री राजगोपालाचार्य चाहिए। इस सम्बन्ध में इस बार सम्मेलन ने एक प्रस्ताव इस प्रस्ताव का हमेशा विरोध करते आये हैं, किन्तु भी स्वीकृत किया है। किन्तु इस काम को हमें प्रस्ताव पास महात्मा जी के बहुत कुछ समझाने पर उन्होंने बात मान करके ही नहीं छोड़ देना चाहिए। सम्मेलन ने प्रयाग में ली। दसरे दिन सम्मेलन के खुले अधिवेशन में 'हिन्दी- शार्टहेड और टाइप राइटिंग के वर्ग खोलने का जो निश्चय हिन्दुस्तानी को कांग्रेस के कार्य की भाषा बनाने का प्रस्ताव श्री राजगोपालाचार्य से ही पेश करवाया गया। उन्होंने अपना भाषण तामिल में किया, जिसका हिन्दी में भाषान्तर किया गया। सर्वश्री प्रकाशम्, शाम्बमूर्ति, और कालेश्वरराव ने अपने जीवन में पहले-पहल हिन्दी में भाषण कर अपने देश-प्रेम का परिचय दिया । इस सम्मेलन में अँगरेज़ी का बिलकुल उपयोग न होना कम महत्त्व की बात न थी। हिन्दी-प्रचार को मजबूत बनाने के लिए इसमें कई प्रस्ताव पास हुए।
हिन्दी-प्रचार को सफल बनाने के लिए, केवल प्रोपेगेन्डा से काम न चलेगा, कुछ ठोस साधनों की भी आवश्य
इस भवन में महात्मा जी ठहरे थे ।
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संख्या ५]
मदरास का सम्मेलन
४८१
किया है उसको शीघ्र ही कार्य का रूप देना चाहिए
और शिक्षण संस्थाओं को भी इस ओर ध्यान देना श्रावश्यक है।
आखिरी दिन श्री टंडन जी के हिन्दी-व्याकरणसम्बन्धी प्रस्ताव पर काफी देर तक बहस हुई। श्रीराजगोपालाचार्य तक ने वादविवाद में भाग लिया। ____ सम्मेलन के समाप्त होने के पहले श्रीमती रामन ने कुछ देर हिन्दी में और फिर अपने उद्गारों को अच्छी तरह व्यक्त करने के लिए तामिल में भाषण किया । उनके सुन्दर भावों, विचारों तथा राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी होगी। नम्रता तो [श्री सेठ जमनालाल बजाज़ और श्रीमती लोकसुन्दरी रमन] उनमें कूट कूट कर भरी हुई है। उनके भाषण का बहुत इन परिषदों को जीवित बनाने के लिए अधिक समय और प्रभाव हुआ। सेठ जमनालाल जी का भी अन्तिम भापण तैयारी होनी चाहिए। मर्मस्पर्शी तथ
भारतीय साहित्य-परिषद् भी साथ साथ होने से हर वर्ष की तरह सम्मेलन के अन्तर्गत भिन्न भिन्न सम्मेलन का कार्यक्रम इतना जकड़ गया था कि अधिकतर परिषदें भी हुई। किन्तु निर्वाचित अध्यक्षों के न आने से कार्य ठीक समय पर शुरू न हो सका। कार्यक्रम में अदलश्री टंडन जी को ही साहित्य और दर्शन-परिषदों की बदल भी कई बार की गई । इस प्रकार समय का अपमान अध्यक्षता का भार लेना पड़ा। ये दोनों परिषद एक साथ करना उचित नहीं मालूम पड़ता । अाशा है, भविष्य में ही कर दी गई। टंडन जी ने साहित्य और दर्शन के इस बात पर अधिक ध्यान दिया जायगा । पाठकों को यह पारस्परिक सम्बन्ध पर सुन्दर भाषण किया । विज्ञान-परिषद् जानकर ख़शी हुई होगी कि अागामी सम्मेलन शिमले में के निर्वाचित अध्यक्ष श्री रामनारायण जी मिश्र उपस्थित होना निश्चित हुआ है। थे। उनके ठोस और महत्त्वपूर्ण कार्य की सब लोगों ने प्रशंसा की। प्राचार्य नरेन्द्रदेव जी की अनुपस्थिति के दक्षिण-भारत हिन्दी प्रचार-सभा ने गत १८ वर्षों में कारण इतिहास-परिषद् का अध्यक्ष-पद इस बार फिर श्री अत्यन्त प्रशंसनीय काम किया है। इस सभा के प्रयत्न जयचन्द्र विद्यालंकार ने ग्रहण किया। कवि-सम्मेलन का का ही यह फल था कि उत्तर और दक्षिण भारत के लोग सभापतित्व श्री गांगेय नरोत्तम शास्त्री ने किया। राष्ट्रभाषा के द्वारा परस्पर विचार-विनिमय कर सके।
विभिन्न परिषदों का वर्तमान ढंग बिलकुल सन्तोषजनक जिस पौधे को महात्मा गांधी और सेठ जमनालाल जी नहीं मालूम पड़ता। इन परिषदों में स्वागताध्यक्ष और ने अठारह वर्ष पूर्व लगाया था उसको अाज एक पुष्पित अध्यक्ष का भाषण पढ़ा जाना ही काफी समझा जाने लगा वृक्ष के रूप में देखकर किस हिन्दी-भाषी को प्रसन्नता है। महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा होना ज़रूरी है। इसलिए न होगी ?
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एक भारतीय सैनिक की साहस-पूर्ण कहानी
O
विक्टोरिया क्रास
लेखक, श्रीयुत बेनीप्रसाद शुक्ल REEREYMल्ली से दस कोस दक्षिण यमुना के की ओर दौड़ी। भेड़ों की गोल में सिंहनी की तरह कलाPDATA किनारे किशनपुर नाम का एक छोटा- वती के आते ही बेचारी कंकड़ को गोटों को कलावती की F
सा गाँव है । जाटों की बस्ती है। दया पर छोड़कर सब लड़के चबूतरे से कूदकर गली में 9
मकान सब कच्चे हैं । गाँव के बीच खड़े हो गये। कलावती ने लात मारकर गोटों को नीचे MAASER में केवल सूबेदार घनश्यामसिंह के गिरा दिया, और हाँफती हुई गरज कर बोली- "ख़बरदार!
17 घर में पत्थर के खम्भे लगे हैं, और जो मेरे दरवाज़े पर कदम रक्खा । हाँ, कहे देतो हूँ । ' घर के आगे एक लम्बा-चौड़ा चबूतरा है जिसके किनारे "इतना नाराज़ क्यों होती है ? मेरी गोटें क्यों पर पत्थर जड़े हुए हैं। इन्हीं पत्थरों पर गाँव के कुछ फेंक दी ? गालियाँ क्यों देती है ?" लड़के इकट्ठे होकर चिकने पत्थर पर कंकड़ की गोटें बना- बाहर कलावती को ज़ोर से बोलते सुनकर कलावती कर खेल रहे थे । खेलनेनाले दो थे और दस-बारह लड़के की मा बाहर निकल आई और गरजकर बोली-"क्या घेर कर खेल देख रहे थे। सूर्यदेव अपनी तिरछी किरणों है री कलावती ?" से ऊँचे पेड़ों को सोने का मुकुट पहनाते और पके गेहूँ के "मा ! ये निकम्मे यहाँ जुश्रा खेलते हैं, झगड़ते हैं। खेतों पर सुनहरी चादर बिछाते अस्ताचल को जा रहे थे, मैंने अाकर मना किया तब यह चेता गाली देने लगा। लेकिन ये खिलाड़ी अपने काम में व्यस्त थे कि इनके खेल कहता है, कलावती के साथ ब्याह ......” इतना कहते में विघ्न पड़ गया। घर के भीतर से एक नवयुवती बाहर कहते कलावती का स्वर लज्जा से मध्यम पड़ गया और निकली और लड़के को देखकर द्वार पर खड़ी हो गई। वह माता की ओर देखने लगी। लड़की की आधी बात - लड़की का कद ऊँचा, रंग तपाये सोने की तरह सुनते ही माता की भौहें कमान की तरह तन गई। वह
और लम्बा मुख स्वास्थ्य की ललाई से दमक रहा था। आकर पत्थर पर खड़ी हो गई और दहाड़ कर बोलीकाले बालों का जूड़ा ऊँचा करके बाँध रक्खा था, जिससे "क्यों रे चेता! तेरी इतनी हिम्मत ! जानता नहीं वह और भी लम्बी मालूम होती थी। वह काली घाँधरी, कलावती सूबेदार की बेटी है। छोटे मुँह बड़ी बात कहता पीले रंग की अोढ़नी और पीले रंग की कमीज़ जिसमें हरे है। इसका बाप लाम पर गया है । नहीं तो तेरी ज़बान साटन के कफ लगे थे, पहने थी। पेट का जितना हिस्सा खींच लेता । जा, चला जा यहाँ से । बस ।”
ओढ़नी नहीं ढंक सकी थी, वहाँ जंजीरदार चाँदी के बटन शोरगुल सुनकर आस-पास के जाट स्त्री-पुरुष वहाँ दिखाई देते थे। नवयुवती के पैर का शब्द सुनकर सब एकत्र हो गये। चेतसिंह की माता भी अपने दरवाजे लड़के उधर देखने लगे। एक खिलाड़ी ने धीरे से पर खड़ी सब बातें सुन रही थी। लोगों ने चेतसिंह अपने साथी से कहा-"चेतसिंह ! उधर देख । कलावती को वहाँ से हटा दिया । चेतसिंह दुखी हृदय से घर आया। श्रागई।"
घर के द्वार पर क्रोध से भरी माता को खड़ी देखकर सन्न "मुझसे क्या कहता है ? भाई, मैं क्या करूँ?" हो गया। चेतसिंह को चुपचाप पत्थर की मूर्ति की तरह
नटखट लड़के ने हँसकर फिर कहा-“करना क्या निश्चल देखकर माता का क्रोध और भी बढ़ गया। लगी है ? कलावती से ब्याह कर ले।" इस बात पर सब लड़के चेतसिंह को डॉटनेठहाका मारकर हँस पड़े। लड़कों के हँसते ही कलावती "क्यों रे चेता ? तेरे लाज नहीं है। कुत्ते की तरह जो सब बातें सुन रही थी और क्रोध में भर रही थी, लड़को दुतकारा जाता है, लेकिन फिर वहीं जाता है। तेरे बाप से
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- संख्या ५]
विक्टोरिया क्रास
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उनसे वैर था। अब उनके दरवाज़े पर मत जाना। ऐसी और फिर गम्भीर स्वर में बोला-"वेल सूबेदार ! हम बात जबान पर मत लाना। वह सूबेदार की बेटी है। होल ब्रिगेड को फालेन का हक्म देता है।" अच्छा , चल । घर चल।"
हुक्म पाकर अर्दली सूबेदार ने बाहर आकर बिगुल चेतसिंह चुपचाप घर के भीतर पाया। क्रोध, क्षोभ बजाया. और जनरल साहब फिर गहन चिन्ता में लीन और अपमान से उसका हृदय लंका की तरह जल रहा हो गये। था। उसकी वृद्धा माता अब भी चुप नहीं होती थी. धीरे जनरल एलिस की चिन्ता का यह सबब था कि जर्मनधीरे बडबडाती जाती थी। चेतसिह अब नहीं सह सका. सेना ने दो महीने में बेलजियम का तहस-नहस कर उत्तरी घायल सिंह की तरह गरज कर बोला-"मा. बस कर। फ्रांस पर महाविकट हमला किया था। अँगरेजों की सेना हद हो गई । अच्छा तब नहीं तो अब कहता हूँ। मैं भी फ्रांस की सहायता न कर सके, इसी लिए जर्मन जनरल जाट का बेटा हूँ.तेरे चरणों की सौगंध खाता हूँ। अब में वान क्लक ने एकाएक तीन आर्मी कोर पश्चिम की अोर सूबेदार बनगा और तब कलावती से ब्याह करूँगा। नहीं मोड़कर इंग्लिश चेनेल' को घेर लेना चाहा। लेकिन इस गाँव में मुँह नहीं दिखाऊँगा।"
बेलजियम के जीतने में दो महीने की देर हो जाने से दूसरे दिन चेतसिंह को गाँव में किसी ने नहीं जनरल फ्रेंच के अधीन डेढ़ लाख अँगरेज़ी सेना और देखा।
जनरल सर जेम्स विलकाक्स के अधीन ६०,००० हिन्दु(२)
स्तानी सेना इंग्लिश चेनल को बचाने के लिए उत्तरी ___एक छोटे से डेरे में ब्रिगेडियर जनरल एलिस चुप- फ्रांस में पहुँच गई। चाप बैठे हैं। सामने छोटे टेबिल पर एक मोमबत्ती जल हिन्दुस्तानी सेना के पाँचों डिवीज़न ब्रिटिश सेना के . रही है, जिसके मन्द प्रकाश में जनरल के चेहरे पर चिन्ता दाहने बाज़ पर अारास नगर की रक्षा करने के लिए तैनात की रेखायें स्पष्ट दिखाई देती हैं। अर्धरात्रि का समय है. थे। ब्रिगेडियर जनरल राबर्ट तीन डिवीज़न (३६.०००) प्रचण्ड ठंडी वायु गरज गरजकर रुई की तरह बर्फ की सेना लिये अारास नगर से दस मील उत्तर एक पहाड़ी वर्षा से उत्तरी फ्रांस को ढक रही है। आकाश स्याही की पर (हिल नं०६०) खाइयाँ खोदकर जेनरल वान कुक तरह काला है और बर्फ की वर्षा से हाथ भर दूर की वस्तु की सेना को रोक रहे थे। पहली लाइन के दो मील भी नहीं दिखाई देती। इतने में डेरे का पर्दा हटकर एक पीछे जनरल एलिस के साथ दो डिवीज़न रिज़र्व सेना थी। भोर होगया. और एक सिख श्राफ़िसर जिसकी पगडी और इन दोनों सेनाओं के बीच में एक गहरा नाला था। पिछली
ओवरकोट पर बालू की तरह सफ़ेद बर्फ जमी थी, डेरे के रात में भीषण तूफ़ान और बर्फ में छिपकर ५०० जर्मन'अन्दर आया, और सीधे खड़े होकर साहब को फ़ौजी सिपाहियों ने नाले पर सन्तरियों को मारकर अधिकार कर सलाम किया । जनरल साहब ने सलाम का जवाब देते हुए लिया था और कटीले तार बाँधकर मेशीनगर्ने लगा दी प्रश्नसूचक दृष्टि से सिख आफिसर की ओर देखा। साहब थीं। यही चिन्ता जनरल एलिस को हैरान कर रही थी। का इशारा पाकर सिख सूबेदार ने फिर सलाम किया और सूबेदार सन्तसिंह के बाहर जाते ही जनरल एलिस कहा-“हुज़र, हम सिख स्काउट कंपनी नं० २ लेकर नाले अपने मन में कहने लगे कि 'यदि हमला करके नाले पर पर गये। हमको दुश्मन की मौजूदगी का ख़याल था, से जर्मन-सेना हटाई जायगी तो तोपों की गरज सुनकर इससे बर्फ में छिपते हुए गये। लेकिन दुश्मन होशियार कहीं जेनरल राबर्ट काई भयंकर भूल न कर बैठें। इसमें थे. इससे पूरी खबर लेने के लिए हमने हमला किया और तो कोई शक ही नहीं कि नाले पर जर्मन टुकड़ी की मदद नाले पर पहुँच गये। नाले में दुश्मन के पांच सौ जवान पर और भी जर्मन-सेना इधर-उधर छिपी होगी। इससे छिपे हए हैं। पचास जवानों का नुकसान उठाकर हमने जनरल राबर्ट का नाला पारकर दुश्मनों को मारते हुए कंपनी को लौटाया।"
पीछे हटकर हमारी रिज़र्व लाइन से मिल जाना चाहिए । - जनरल ने अधीर होकर सूबेदार को इशारे से रोका अगर जनरल राबर्ट को ख़बर न दी जायगी तो तीन
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सरस्वती
[भाग ३
डिवीज़न सेना घिर जायगी । श्रोह ! चाहे जैसे हो, जनरल की। चेतसिंह ने चिट्ठी सँभालकर जेब में रख ली, राबर्ट को ख़बर देना होगा। लेकिन कैसे ख़बर पहुँचाई उछलकर घोड़े पर सवार होगया और परमात्मा का नाम जाय ? सैनिक कबूतर इस भयंकर बर्फीले तूफान में बेकार लेकर घोड़े को ऍड़ लगा दी। हवा की तरह घोड़ा हैं। बेतार की ख़बर जर्मन पा जायँगे। चाहे जैसे हो, नाले की ओर बढ़ा और बर्फ में छिप गया। जनरल राबर्ट को खबर देनी ही पड़ेगी। क्या इंडियन मिनटों में घोड़ा तीर की तरह नाले के पास पहुँच सेना में ऐसा काई बहादुर सिपाही नहीं है, जो हमारा गया। बालू की तरह बर्फ से पृथ्वी ढंकी थी और धुनकी सांकेतिक पत्र नाला पारकर जनरल राबर्ट के पास पहुँचा रुई की तरह बर्फ का पर्दा पड़ा था, इससे नाला-स्थित दे । जनरल एलिस ने सिगार एक अोर फेंक दिया, और जर्मन-सेना ने न तो घोड़े की टाप का शब्द सुना और उठ खड़े हुए। अोवर कोट पहनकर और टोप लगाकर न उसे देखा ही। एकाएक नाले के पास अकेले सवार डेरे से बाहर निकल आये।
को देखकर जर्मन अकचका गये, लेकिन फिर सँभलकर बाहर मैदान में २४,००० सिपाही कतारों में दीवार धड़ाधड़ गोलियाँ बरसाने लगे। कितनी गोलियाँ वर्दी की तरह खड़े थे। अँगरेज़ और हिन्दुस्तानी आफ़िसर छूकर और कितनी कान के पास से सनसनाती हुई निकल अपनी अपनी जगह मूर्ति की तरह खड़े थे । इतने में अर्दली गई। चेतसिंह ने घोड़े को और तेज़ किया और कसकर सूबेदार सन्तसिंह ने कड़ककर साहब का हुक्म सुनाया- एँड़ लगाई। अच्छी नस्ल का घोड़ा छलाँग मारकर नाला "है कोई ऐसा बहादुर सिपाही जो जेनरल साहब का पार कर पलक मारते ही हवा की तरह अगरेज़ी कतार में पत्र लेकर नाला पारकर जेनरल राट के पास ले जाय ?" पहुँच गया। चेतसिंह कूद पड़ा। पीठ खाली होते ही सूबेदार की ललकार पर कुछ क्षण सेना में सन्नाटा छाया बहादुर घोड़ा गिरा, और गिरते ही मर गया। उसके रहा । फिर एक सिपाही अपनी कतार से बाहर आया और शरीर में ८० गोलियों के घाव थे। सूबेदार को फ़ौजी सलाम किया। सिपाही को लेकर सूबेदार जनरल राबर्ट खाई पर खड़े दूरबीन से अकेले सवार सन्तसिंह ने जनरल एलिस के सामने पेश किया। सिपाही का यह अद्भुत साहस देख रहे थे। बर्फ बड़े ज़ोर से गिर कुछ कदम आगे बढ़ा और जनरल साहब को सलाम कर रही थी, लेकिन अब अन्धकार कम हो चला था, धुंधला-सा सीधा खड़ा होगया।
प्रकाश फैल रहा था। चेतसिंह ने रोबदार चेहरे और वर्दी साहब ने नोटबुक निकालकर सिपाही को सिर से पैर से जनरल रावर्ट को पहचान कर फ़ौजी सलाम किया और तक देखकर कहा-"वेल ! तुम किस रेजिमेंट का सिपाही खत निकाल कर आगे बढ़ाया। जनरल राबर्ट खत लेकर है ? क्या नाम है ?"
उसी समय पढ़ने लगे और फिर कुछ विचार करते __ "नवी भूपाल इनफेंट्री, जाट-कम्पनी नं० ३, नाम हुए बोलेचेतसिंह ३३३ नं०।
"शाबाश बहादुर ! तुम्हारा नाम क्या है ?" ___ "वेल चेतसिंह ! हमारा ख़त ब्रिगेडियर जनरल राबर्ट __ "चेतसिंह नं ० ३३३, नवीं भूपाल इन्फेंट्री जाट कम्पनी के पास ले जा सकता है ? दुश्मन ने रात के तूफान में नं. ३।" नाले पर कब्जा कर लिया है। तुमको दुश्मन के बीच से "अच्छा चेतसिंह ! तुम्हारे काम से हम बहुत खुश : नाला पारकर जाना पड़ेगा । मुश्किल काम है। है। क्या इस ख़त का जवाब जनरल एलिस के पास ले जानता है ?"
जा सकता है ? तुम्हारा दर्जा बढ़ा दिया जायगा। तुमको ___ “हुज़र ! जानता हूँ। हमको अच्छा घोड़ा मिलना इनाम मिलेगा।" चाहिए । हम आपका ख़त पहुँचा देंगे।"
"हुजूर, बेशक ले जायगा। हमको अच्छा घोड़ा "अच्छा, अच्छा, शाबाश ! हम अपना खास घोड़ा मिलना चाहिए।" तुमको देगा।"
___ “वेल बहादुर ! हम अपना ख़ास घोड़ा देता है। जनरल एलिस ने चिट्ठी लिखकर चेतसिंह के हवाले. घोड़ा लाया गया और चेतसिंह जेनरल राबर्ट का
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विक्टोरिया क्रास
संख्या५]
पत्र लेकर घोड़े पर सवार हुआ और बर्फ में छिपता नाले की ओर बढ़ा। नाले के पास पहुँचकर चेतसिंह ने घोड़े को एक कड़ी ऍड़ लगाई। उसी विचित्र सवार को फिर केला देखकर जर्मन - सिपाही फ़ायर करने लगे, लेकिन गोलियों की भयानक वर्षा में भी घोड़ा नाला पारकर जनरल एलिस की सेना में पहुँच गया और जर्मन फ़ायर करते ही रह गये । जनरल एलिस के साथ सब अँगरेज़ और भारतीय फ़िसर चेतसिंह का अद्भुत कार्य देख रहे थे । अपनी लाइन में आकर चेतसिंह घोड़े पर से कूद पड़ा । उसके कूदते ही बेचारा घोड़ा जिसका शरीर गोलियों से चलनी हो गया था, गिरकर परमधाम को सिधार गया । चेतसिंह के पृथ्वी पर पैर रखते ही समस्त सेना ने हर्षनाद किया । जनरल एलिस ने आगे बढ़कर चादर के साथ चेतसिंह से हाथ मिलाया । चेतसिंह ने फ़ौजी सलाम कर जनरल राबर्ट का पत्र जनरल एलिस के हाथ में रख दिया और तीन क़दम पीछे हटकर खड़ा होगया । जनरल एलिस ने पत्र खोलकर पढ़ा और कुछ सोचते हुए गम्भीर स्वर से बोले - "वेल बहादुर ! भी काम पूरा नहीं हुआ
। एक बार तुमको हमारा ख़त जनरल राबर्ट के पास फिर ले जाना होगा । "
" हुज़ूर, हम ले जायगा । हमको अच्छा घोड़ा मिलना चाहिए ।"
कप्तान वाटसन का घोड़ा पहले से ही मौजूद था । चेतसिंह ख़त लेकर घोड़े पर सवार होगया । गरज कर घोड़े का ऍड लगाई और पूरे वेग से उसे छोड़ दिया । इस बार चेतसिंह ने पहला स्थान छोड़कर दूसरी जगह से
को पार करना चाहा। बर्फ और भी घनी होगई थी; हाथ से हाथ नहीं सूझता था। बर्फ में छिपता हुआ घोड़ा इस बार भी नाला पार कर गया। लेकिन इस बार मुहिम बड़ी कठिन थी, नाले के चारों ओर जर्मनों ने कटीले तार की तीन कतारें लगा दी थीं। उक्काब की तरह उछल उछल कर चेतसिंह का घोड़ा तारों को पार करता चला जा रहा था। क्रोध में श्राकर जर्मनों ने नाले में छिपी हुई जर्मनतोपों से ताक ताक कर सवार पर गोले बरसाना शुरू कर दिया । चेतसिंह के चारों ओर भयंकर शब्द कर गोले फटने लगे । घोड़ा तारों की क़तार डाक कर आगे बढ़
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गया था कि एक गोला भयंकर शब्द करके उसके पास गिरा । चेतसिंह बड़े ज़ोर से एक ओर गिर पड़ा, उसकी रान से घोड़ा निकल गया । रान में चोट श्रा जाने से चेतसिंह बेहोश - सा होगया ।
चेतसिंह ने समझा कि गोले का कोई टुकड़ा उसकी जाँघ में लग गया है, लेकिन होश सँभालने पर उसने देखा कि गोले की चोट से घोड़े के टुकड़े-टुकड़े उड़ गये हैं, केवल घोड़े की पसलियाँ और काठी रान में दबी रह गई है। कमर में लटकती हुई तलवार के बल गिरने से जाँघ में धमक गई थी, इसी से वह लँगड़ाने लगा और कोई चोट शरीर में नहीं आई थी। ईश्वर को धन्यवाद देकर चेतसिंह उठ खड़ा हुआ और लँगड़ाते लँगड़ाते अँगरेज़ी लाइन में पहुँच गया ।
जनरल राबर्ट बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे । चेतसिंह को देखते ही प्रसन्न होकर आगे बढ़े और जनरल एलिस का पत्र लेकर पढ़ने लगे । पत्र पढ़कर उन्होंने जेब के हवाले किया और घूम कर अपने पीछे खड़े हिन्दुस्तानी सिर से कहने लगे - " वेल सूबेदार घनश्यामसिंह ! हमने इस बहादुर का नाम नोट कर लिया है । तुम्हारी कंपनी में यह हवलदार बनाया जाता है । इसको आराम चाहिए ।"
यह कहकर जनरल राबर्ट चले गये और हवलदार चेतसिंह, सूबेदार घनश्याम सिंह के साथ ट्रेंच में घुसे ।
२५ फ़ुट गहरी और तीस फुट चौड़ी तीन या चार मील लम्बी एक नहर पहाड़ी के प्रभाग में खोद दी गई थी। इसी नहर में जनरल राबर्ट की सेना दुश्मन से युद्ध कर रही थी । इस नहर के पीछे स्थान स्थान पर दर क़तारें थीं। इन नहरी सड़कों में गाँठ भर कीचड़ भर गया था, जिसके तख़्ते डालकर पाटने का प्रयत्न किया जाता था । नहर के एक तरफ़ की दीवार पर मोर्चे बाँधकर तरह तरह की तोपें लगा दी गई थीं, और आधी सेनाआफ़िसर और सिपाही अपनी अपनी जगह पर लोहे की मूर्ति की तरह खड़े थे । श्राधी थकी सेना के विश्राम के. लिए नहर के दूसरी ओर शेरों की माँद की तरह दरवाज़े खोद कर भीतर बड़े बड़े कमरे खाद दिये गये थे, जिसमें सिपाही सोते थे और जिसमें अस्पताल भी था । गाँठ भर
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सरस्वती
[भाग ३८
बीले कीचड़ में डूबते हुए सूबेदार चेतसिंह को लिये एक नींद तब खुली जब तोपों की भीषण गरज उसकी गुफा माँद में प्रविष्ट हुए।
__ में भी आने लगी। वह तड़प कर उठकर बैठ गया । बीस क़दम जाने पर एक बड़ा गोल कमरा मिला। मोमबत्ती बुझ गई थी। भयानक अन्धकार और सन्नाटा यह भी पृथ्वी खोद कर बनाया गया था। दीवार से मिला था। बड़े बड़े चूहे उसके पैर से होकर दौड़ रहे थे और हुआ एक चबूतरा था, जिस पर सूखी घास पड़ी थी और पीठ पर चढ़ने का प्रयत्न करते थे । चेतसिंह वेग से उठ कतार की कतार कम्बल पड़े हुए थे जिन पर सिपाही पड़े से खड़ा हुआ । कम्बल फेंक दिया, साफा बांधा, और बन्दूक रहे थे। कुछ कम्बल ख़ाली भी थे। केवल एक मोमबत्ती उठाकर अँधेरे में टटोलता, दो-चार चूहों को कुचलता, अपनी क्षुद्र किरण से वहाँ के अभेद्य घने अन्धकार का भेद बाहर निकल आया। कर मनुष्य-जाति के कठोर क्रूर हिंसक कार्यों पर प्रकाश चेतसिंह ने बाहर आकर देखा। स्मशान को मात डाल रही थी। कुछ घायल सिपाही भी थे। मोमबत्ती करनेवाला दृश्य था। चेतसिंह समझ गया कि सरकारी के सामने बैठे जो तीन मनुष्य काम कर रहे थे वे सेना ने ट्रेंच छोड़ दिया है। बिजली की तरह उसके डाक्टर थे। सूबेदार घनश्यामसिंह चेतसिंह को डाक्टर मस्तिष्क में यह विचार आया कि उसने जान पर खेल कर , के सिपुर्द कर चलते बने। वे चेतसिंह से कहते गये कि जो समाचार जनरल राबर्ट को दिया था उसी से जनरल दो घंटे आराम करने के बाद तुमको अपनी नौकरी पर राबर्ट ने एक घंटे में मोर्चा छोड़ दिया है। गांठ भर हमारे पास बैटरी नं० १० पर हाज़िर होना है।
कीचड़ मझाता हुश्रा वह अपनी सेना के पद-चिह्नों पर ___ डाक्टर ने चेतसिंह को देखा। थकावट के कारण आगे बढ़ने लगा। भीषण सर्दी से उसके हाथ-पैर ठिठुरे वह खड़ा नहीं हो सकता था। भारतीय डाक्टर ने उसको जा रहे थे । बर्फ़ ने अन्धकार को चौगुना कर दिया था चाय इत्यादि देकर एक कम्बल पर सो जाने और दो लेकिन उसका ध्यान इधर नहीं था। उसका मन किसनपुर कम्बल ओढ़ने के लिए दिये और यह भी कह दिया कि की गलियों का चक्कर काट रहा था। "हाय भाग्य ! मेरे तुम ठीक दो घंटे में जगा लिये जानोगे | थकावट से ही काम से सेना ने घिर जाने से बचने के लिए ट्रेंच चेतसिंह की नस नस टूट रही थी। कम्बल ओढ़ते ही वह छोड़ी, और वही मुझे-केवल मुझी को यहाँ छोड़कर गहरी नींद में सो गया।
चली गई ! कलावती ! याद रखना । मैंने तेरे लिए गर्दन ___ सूबेदार घनश्याम को मोर्चे पर आते ही कप्तान हथेली पर रख दी, तो भी हवलदार ही रहा। इससे यह एटली का हुक्म मिला कि एक घंटे में तोपों के साथ पीछे न समझना कि मैं हवलदार ही रहूँगा। अभी लड़ाई बहुत हटना पड़ेगा। कप्तान एटली को जनरल राबर्ट के हुक्म दिन चलेगी। तुझ पर तिनके की तरह जान निछावर कर के मुताबिक पीछे नाला पार कर जनरल एलिस को सेना से दूंगा और सूबेदार ज़रूर बनूंगा।" मिल जाना है। रास्ते में शत्रु-सेना के छिपने की पूरी अपने विचारों में डूबा हुअा चेतसिंह ट्रेंच के बाहर
और सच्ची ख़बर मिल चुकी है, इससे लौटती हुई एडवान्स निकल आया और नाले की ओर बढ़ा । जनरल एलिस लाइन को युद्ध करते हुए शत्रु-सेना को साफ़ करते हुए का अनुमान सच निकला। जनरल राबर्ट का नाला पार जाना होगा। कुछ सेना पीछे छोड़ दी जायगी, जो बराबर करने में युद्ध करना पड़ा । जर्मनों की पांच रेजिमेंट नाले तोप चलाकर जनरल वान क्लक को धोखा देती रहेगी और में थीं। उन्होंने कप्तान एटली की सेना पर एक घंटे तक एक घंटे के बाद पीछे वह भी हटकर नाला पार कर प्रधान बड़ी भीषण आग बरसाई, लेकिन संगीनों से दुश्मनों को सेना से मिल जायगी । सूबेदार घनश्यामसिंह ने हुक्म पाते मारती हुई जनरल राबर्ट की सेना जनरल एलिस की ही १५ मिनट में ट्रेच का मोर्चा छोड़ दिया। उनको सेना से जाकर मिल गई । इस युद्ध में दो हज़ार जर्मनसिवा अपनी प्यारी कलदार तोपों के और किसी की भी लाशें मैदान में पड़ी रह गई, जिन्हें बर्फ़ ने समाधि दे दी। सुध नहीं रही।
जब जनरल वान क्लक को पता लगा कि हिन्दुस्तानी चेतसिंह थका होने से गहरी नींद सो गया था। उसकी सेना भारास की अोर हटकर बच गई। तब उन्होंने जल्दी ।
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विक्टोरिया क्रास
संख्या ५ ]
में जनरल राबर्ट का पीछा करना अच्छा नहीं समझा। जनरल वान लक ने हाविटज़र तोपों की क़तार लगाकर ब्रिटिश सेना और नगर को भँज डालना चाहा । गोलों के - फटने से धुएँ के बादल और लाल रंग की रोशनी चारों ओर फैल रही थी । सारी ब्रिटिश सेना धुएँ के बादलों में ढँकी थी । अन्धकार ऐसा था कि हाथ से हाथ नहीं . सूझता था। इस निविड़ अन्धकार में शत्रु का पता लगाने और निशाना मारने के लिए बड़े बड़े गोले आकाश में फेंके जाते थे और वहाँ से फटकर सूर्य की तरह प्रकाश करते हुए शत्रु सेना पर गिरते और गिरकर भी अपने प्रकाश से 'शत्रु का भेद खोल देते थे ।
इसी फ़ौजी आतिशबाज़ी की रोशनी का सहारा लेता हुआ चेतसिंह नाले की ओर चला जा रहा था। गोलों की लाल रोशनी से भी उसको सहायता मिल रही पी। धीरे धीरे वह उन झाड़ियों के पास पहुँचा जो नाले के
नारों पर उगी हुई थीं । यहाँ बहुत-सी लाशें उन जर्मन और भारतीय सिपाहियों की पड़ी थीं जिन्हें सेना उठा नहीं की थी । यहाँ की दशा देखकर चेतसिंह ने समझ लिया कि इन झाड़ियों में छिपे हुए जर्मनों को निकालने के लिए भारतीय सेना को संगीनों से काम लेना पड़ा है । घायल और मृतकों को बचाता हुआा चेतसिंह चला जा रहा था कि उसको एक ओर कराहने का शब्द सुनाई दिया । लाशों को बचाता हुआ जब वह उस शब्द की ओर बढ़ा तब उसने गोले की रोशनी में देखा कि कुछ सिपाही मरे पड़े हैं और उनके बीच में एक आदमी उठने का यत्न करता है, लेकिन कराह कर गिर जाता है ।
चेतसिंह लपक कर घायल सिपाही के पास पहुँचा । दियासलाई निकाल कर श्रोवरकोट की आड़ में जलाकर घायल को पहचान लिया, और अचानक उसके मुँह से निकल गया " सूबेदार घनश्यामसिंह ।” सूबेदार की वर्दी ख़ून से भीग गई थी, और पास ही उनका झब्बेदार साफ़ा पड़ा था | चेतसिंह ने उसी साफ़ से सूबेदार के घुटने का घाव बाँध दिया, और फिर उन्हें पीठ पर लादकर नाले में उतर कर पार हो गया । दो-चार क़दम अँधेरे में बढ़ने पर वह काँटेदार तारों से अड़ गया। तारों में ही बिजली का तीव्र प्रकाश उस पर ा पड़ा और सन्नाटे " को चीर कर शब्द हुआ, "हाल्ट !”
ते
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- ४५७
“हाल्ट ! हैंड्स अप ! कौन है ?" चेतसिंह ने कड़क कर आवाज़ दी - "इंडियन सोल्जर चेतसिंह | "
बिजली का प्रकाश मिट गया, और अन्धकार में दो काली शकलें चेतसिंह के सामने आकर खड़ी हो गई । चेतसिंह के सिर पर पिस्तौल तानकर लेफ्टिनेंट स्टेनली ने टार्च की रोशनी डाली और पूछा
" दूसरा घायल आदमी कौन है ?"
" सूबेदार घनश्यामसिंह चौथी जाट पल्टन ।” "हमारे साथ चले आओ ।"
आगे श्रागे लेफ्टिनेंट स्टेनली, उनके पीछे चेतसिंह सूबेदार को पीठ पर लादे, उनके पीछे सूबेदार सन्तसिंह ट्रेंच ( मोर्चों) को पार कर कैंप में श्राये । सूबेदार के घुटने को तोड़ती हुई दो गोलियाँ निकल गई थीं, इससे वे लाहौर इंडियन जेनरल हास्पिटल रूमान बेस में भेज दिये गये । और सन्तसिंह ने चेतसिंह को ब्रिगेडियर जनरल राबर्ट के सामने पेश कर दिया । उस समय जनरल राबर्ट बैटरियों के पीछे खड़े हुए ऊँचे श्राफ़िसरों से परामर्श कर रहे थे । सन्तसिंह ने चेतसिंह के साथ जाकर फ़ौजी सलाम किया । साहब ने घूमकर चेतसिंह को सिर से पैर तक देखा, और फिर अपनी नोटबुक निकालकर कुछ पन्ने उलटने के बाद मधुर स्वर से बोले - " सूबेदार साहब, इस जवान का नाम चेतसिंह है ? क्या यह वही सिपाही है जिसने अपनी बहादुरी से हमारी फ़ौज को बहुत बड़े ख़तरे से बचाया है । चेतसिंह कहाँ काम करता है ?" चेतसिंह ने कहा - ' - " हुज़ूर ने हमें फ़ोर्थ जाट रेजिमेंट में मेहरबानी करके हवलदार कर दिया था । उस दिन हमें दो घंटे का वक्त आराम करने को मिला था, लेकिन हमको अस..."
बात काट कर सन्तसिंह आगे बढ़ाये और फ़ौजी सलाम कर कड़क कर बोले - “हुज़ूर, इस सिपाही ने जर्मन-लाइन पारकर जो बहादुरी का काम किया है उसे सब आफ़िसर जानते हैं। लौटते हुए यह जवान मैदान में घायल पड़े हुए सूबेदार घनश्यामसिंह को भी उठाकर लाया है। इसकी बहादुरी इनाम के काबिल है ।"
साहब प्रसन्न होकर हँसने लगे और हँसते हँसते चेतसिंह की ओर देखकर बोले - " चेतसिंह, हम तुम्हारे काम.
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४८८
सरस्वती
[भाग ३८
से बहुत खुश हो गया है। हवलदारी तुम्हारे इनाम के क्रोरोफ़ार्म देकर डाक्टर कर्नल ब्राडफोर्ड ने डाक्टर लिए काफ़ी नहीं है। तुमको कमिशन दिया जाता है। कप्तान जोशी की सहायता से अपना कामकर पट्टी बाँध सूबेदार घनश्यामसिंह की जगह तुम फोर्थ जाट में सूबेदार दी। डाक्टर कर्नल बाडफ़ोर्ड सूबेदार के पलंग पर मुके किये गये । हम जागीर के.लिए गवर्नमेंट अाफ़ इंडिया हुए थे । सूबेदार के चेहरे पर से क्लोरोफ़ार्म का असर धीरे से सिफ़ारिश करेगा। चेतसिंह, तुमको सबसे ऊँचा मिलिटरी धीरे दूर हो रहा था। पहले उन्होंने आँखें खोलने का तमगा 'विक्टोरिया क्रास' दिया जाता है ।"
यत्न किया, और फिर बड़े यत्न से अपनी रक्तवर्ण आँखें चेतसिंह, सन्तसिंह के इशारे पर, साहब के सामने खोलकर चारों ओर देखने लगे। सूबेदार घनश्यामसिंह घुटने टेक कर बैठ गये । जनरल राबर्ट ने अपनी तलवार को होश में आया देख दयालु कर्नल ने बड़ी नर्मी से उनके म्यान से निकाल कर चेतसिंह के दोनों कन्धों पर क्रम से मस्तक पर हाथ रखते हुए हँस कर कहा-"वेल सूबेदार छ दिया। फिर चेतसिह को खड़े हो जाने का हुक्म दिया। साहब, पाल राइट। सब ठीक है। आप का सिर्फ एक जब चेतसिंह विनम्रभाव से खड़ा हो गया तब साहब ने पैर काट दिया गया है।"
आगे बढ़कर अपने हाथ से चेतसिंह के दोनों कन्धों पर साहब हः हः हः हः हँसते हुए डाक्टर जोशी के तीन तीन स्टार जड़कर छाती पर 'विक्टोरिया क्रास' का साथ चले गये । केवल एक योरपीय नर्स रह गई। सूबेदार तमगा लटका दिया।
ने पानी मांगा। नर्स ने शीशे के ग्लास में दूध भरकर ___ जनरल वान क्रक का प्रयत्न सफल नहीं हो सका। पिला दिया और फिर दो चम्मच पानी । दूध और पानी १५ दिन गोलों की प्रलयंकारी वर्षा में भी भारतीय सेना पीने से स्वस्थ होकर सूबेदार ने चेतसिंह की ओर देखा। एक पग पीछे नहीं हटी। हजारों वीर काम आ गये। उसके तमगों से विभूषित सुन्दर शरीर को वे निनिमेष १५ दिन ड्यूटी करने पर चेतसिंह को ७ दिन की छुट्टी नेत्रों से देखते रह गये। चेतसिंह आगे बढ़ और चरण मिली । झट मिलीटरी लारी पर सवार होकर चेतसिंह ३० छूकर सूबेदार को प्रणाम किया। घनश्यामसिंह गद्गद मील दूर रूथान की ओर चले आये। ८ बजने का समय हो गये, उनकी आँखों से दो बँद आँसू ढरक पड़े। था। तेज ठंडी हवा चल रही थी। लारी आरास नगर उन्होंने प्रेम से चेतसिंह के सिर पर हाथ रक्खा और गद्के भीतर से जा रही थी। आकाशयानों और बड़ी तोपों गद गिरा से बोले-"बेटा चेता, दूने अपनी हिम्मत और की मार से रमणीक श्रारास नगर स्मशान हो रहा था। जामर्दी से दर्जा पाया है। अब मेरा कोई ठीक नहीं। बड़ी बड़ी इमारतें गोलों के गिरने से हाँड़ी की तरह फूट मुझसे प्रण कर, मेरा लड़का बनकर मेरा घर-बार सँभाल।" गई थीं। नगर जन-शून्य था। भारतीय सिपाहियों, कुछ चेतसिंह सूबेदार का फिर चरण-स्पर्श कर कहने लगेरसद-सामान और एक चलते-फिरते अस्पताल के सिवा चाचा जी, आप फ़िक्र न करें। मुझे आप अपना बेटा ही वहाँ कुछ नहीं था।
समझे। आप जो आज्ञा देंगे मैं वही करूँगा।" सात दिन १ घंटे में चेतसिंह को लेकर लारी लाहौर इंडियन 'रुश्रानबेस' में रहकर चेतसिंह फ्रांट पर चले गये। जनरल अस्पताल के फाटक पर खड़ी हो गई। इस अस्प- सूबेदार घनश्यामसिंह अच्छे होने लगे, दो महीने में उनके ताल में ५,००० घायल और बीमार सिपाही कपड़े के डेरों कटे पैर में लकड़ी की नकली टाँग लगाकर वे बम्बई भेज में पड़े थे। लारी से कूदकर चेतसिंह सूबेदार घनश्याम दिये गये। वहाँ से पेंशन पाकर अपने घर चले गये। सिंह की तलाश में भीतर पहुँचे। सूबेदार की वर्दी देखकर दो बरस फ्रांस में काम करने के बाद चेतसिंह की बदली सब कर्मचारी श्रादर से पेश आये। इससे चेतसिंह को इजिप्ट को होगई। लंदन के वार-श्राफ़िस ने सब शक्ति सहज में मालूम हो गया कि सूबेदार का आपरेशन हो रहा लगाकर तुर्की को पराजित करना सबसे पहली नीति माना। है। झटपट चेतसिंह सर्जन-वार्ड के डेरे में गये। वहाँ जनरल एलेनबी इजिप्ट में पड़ी हुई भारतीय और ब्रिटिश डाक्टरों की भीड़ थी। चेतसिंह भी जाकर पीछे चुपचाप सेना के प्रधान फ़ील्ड मार्शल बनाये गये। जनरल एले. खड़े हो गये।
नबी ने तुर्की को पूर्णरूप से पराजित करने के लिए दो
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संख्या ५]
विक्टोरिया क्रास
लाख सवारों की मांग पेश की। इसलिए फ्रांस में भारतीय का कलरव घर लौटते हुए गो-वृन्द के गले की घंटियाँ, और रिसाले जो पैदल पल्टन का काम कर रहे थे, घोड़े-सहित मजदूरों की बेसुरी तान भंग कर रहा था। इन्हें काफ़ी न इजिप्ट लौटा दिये गये। चेतसिंह भी रिसाले के सवार समझकर गाँव के लड़कों ने अपने कोलाहल से गाँव की थे, इसलिए १५ जाट केवेलरी में रिसालदार होकर एजिप्ट शान्ति को कोसों दूर भगा दिया था। गाँव भर में दौड़कर आगये।
उन्होंने अपने स्वर से गाँव भर को हिला दिया था। सेना के एकत्र हो जाने पर जनरल एलेनबी ने ६०,००० वे चिल्ला रहे थे, "चेतसिंह आगये", "चेतसिंह श्रागये।" सवारों को जहाज़ों पर सवार कराकर तुर्की-सेना के उत्तर शोर सुनकर चेतसिंह की माता द्वार पर आकर खड़ी के पृष्ठ-भाग के समीप के बंदरगाह में उतार दिया, और होगई। चेतसिंह इक्के से कूद पड़े और माता के चरणों दक्षिण से १,४०,००० सवारों को लेकर दोनों ओर से पर सिर रखकर अश्रुजल से धो दिया। माता ने पाँच वर्ष बाज़ की तरह उस पर टूट पड़े। तुकों के १,६०,००० से बिछुड़े हुए पुत्र का हृदय से लगाकर आँचल से आँसू जवानों ने घिर कर अपने शस्त्र रख दिये। तुर्की के पूर्ण पोंछ दिये। चेतसिंह घर में गये, माता से बातें कर सूबेपराभव से भारतीय सिपाहियों का काम मेसोपोटामिया और दार के घर में आये और निःशंक भीतर चले गये। इजिप्ट में हलका पड़ गया। तीन बरस इजिप्ट में जनरल आँगन में एक बड़े पलंग पर लँगड़े सूबेदार घनश्यामएलेनबी के अधीन काम करने पर चेतसिंह ने ६ महीने की सिंह बैठे हुक्का पी रहे थे। पास ही एक मचिया पर बैठी छुट्टी पाई। महायुद्ध समाप्त होगया था। एप्रिल के सूबेदारिन पंखा झल रही थीं। चेतसिंह ने जाते ही दोनों प्रारम्भ में चेतसिंह स्वेज़ में जहाज़ पर बैठे। हज़ारों के चरण छुए । सूबेदार चेतसिंह को देखकर गद्गद होगये हिन्दुस्तानी सैनिक ५ वर्ष के बाद स्वदेश को लौट और चेतसिंह का हाथ पकड़कर अपने पास बैठाते हुए रहे थे।
कहा-"पाश्रो बेटा ।' फिर चेतसिंह की पीठ पर हाथ जहाज़ को अदन छोड़े सातवाँ दिन था। आठवें फेरते हुए सूबेदारिन की ओर देखकर कहा-"देख, कलादिन जब चेतसिंह डक पर आये उस समय पूर्व दिशा में वती की माँ, चेतसिंह ने लड़ाई में बड़ा नाम पाया है। - सूर्यदेव का रथ आ गया था। उनका सारथी अरुण मेरी जान बचाई है और अपनी बहादुरी से सूबेदार अंधकार को भगाता हुअा भगवान् के प्रखर तेज की सूचना होगया है ।" दे रहा था । अाकाश में लाल-लाल बादल घोड़े थे, सूबेदारिन ने हँसकर कहा-"चेता, तुझे तो मैंने जिनकी आभा बम्बई की ऊँची मीनारों पर पड़ रही थी। पहचाना ही नहीं। ५ बरस में इतना ऊँचा होगया है।
जहाज़ के बन्दरगाह में पहुँचते पहुँचते सूर्यदेव के भी कलावती पाँच बरस में मुझसे भी लंबी होगई है। मैं . *दर्शन होने लगे और उन्होंने बम्बई के ऊँचे ऊँचे मीनारों हैरान थी कि इसके लिए वर कहाँ मिलेगा ?"
को सुनहरे रङ्ग से रँग कर समुद्र की नीली छाती पर एक सूबेदार घनश्यामसिंह ज़ोर से हँस पड़े। उन्होंने सुनहरी रेखा खींच दी।
कहा-"हैरान क्यों होती है ? चेतसिंह से अच्छा वर कहाँ चेतसिंह ७ बजे सवेरे जहाज़ से उतरे। एक गाड़ी मिलेगा? चेतसिंह कलावती से भी लम्बा है। दोनों का करके माधवबाग़ आये। धर्मशाला में दिन भर विश्राम कर कैसा अच्छा जोड़ा है ! कलावती सूबेदार की बेटी है और रात्रि में बाम्बे-मेल से रवाना हो गये। वे दूसरे दिन अर्द्ध- चेतसिंह सूबेदार मेजर है।" रात्रि के समय देहली-स्टेशन पर आगये और वेटिंगरूम में सूबेदारिन ने हँसते हँसते कहा-“यही बात तो मैं सो गये । सवेरे इक्का करके अपने गाँव की ओर रवाना सदा से कहती आई हूँ।" इस पर सब हँसने लगे। हो गये। दिन भर चलकर इक्का जब गांव में पहुँचा, एक खम्भे की आड़ से कलावती झाँक रही थी, सूर्यास्त हो चुका था, लेकिन धुंधला-सा प्रकाश पके गेहूँ लेकिन उसका गोरा हृष्ट-पुष्ट एक हाथ दिखाई देता था। के खेतों पर पड़ रहा था। अपूर्व शान्ति थी, जिसे पक्षियों ब्याह में सूबेदार सन्तसिंह भी आये थे ।
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RAR
नई पुस्तके
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा
भारती-भण्डार, लीडर-प्रेस, इलाहाबाद से १-राष्ट्रसंघ और विश्व-शान्ति-लेखक, श्रीयुत प्रकाशित २ पुस्तकें
रामनारायण यादवेन्दु, बी० ए०, एल-एल० बी, प्रकाशक, १-कामायनी-लेखक, श्रीयुत जयशंकरप्रसाद, मानसरोवर-साहित्य-निकेतन, मुरादाबाद हैं । मू० ३।।) है। सजिल्द पुस्तक का मूल्य ३) है।
यद्यपि क्रमगति से भारतीय राजनीति का सम्बन्ध २-आधी रात-लेखक, श्रीयुत लक्ष्मीनारायण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से निकटतर होता जा रहा है, तथापि मिश्र, बी० ए०, मूल्य १) है।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की ओर हिन्दी-भाषा३--सहेली के पत्र-लेखिका. मिसेज़ सय्यद कासिम भाषी विद्वानों का अपेक्षाकृत कम ध्यान गया है । प्रस्तुत अली, साहित्यालंकार, प्रकाशक, नवलकिशोर-प्रेस, बुकडिपो, पुस्तक के लेखक ने इस गम्भीर पुस्तक-द्वारा हिन्दीवालों लखनऊ हैं । मूल्य ।) है।
का इस सम्बन्ध में निस्सन्देह उपकार किया है । ४-हज़रत मुहम्मद का जीवन-चरित-लेखक, पुस्तक के प्रथम भाग में राष्ट्र-संघ की उत्पत्ति और श्रीयुत पं० सुन्दरलाल, प्रकाशक, दक्षिण-भारत हिन्दी- विकास तथा उसके विधान व्यवस्था का विशद वर्णन प्रचार-सभा, मदरास हैं । मूल्य ।।) है ।
है। द्वितीय भाग में संघ द्वारा किये गये विभिन्न प्रयोग५-मीराबाई नाटक-लेखक, श्रीयुत मुकुन्दलाल प्रयत्नों का वर्णन है । इस भाग में निःशस्त्रीकरण, युद्ध वर्मा, बी० ए०, प्रकाशक, भार्गव-पुस्तकालय, गायघाट, का मूल-कारण और उसका निराकरण, फेसिज़्म और बनारस हैं । मूल्य ||-) है।
साम्यवाद आदि विषयों का पाण्डित्यपूर्ण विवेचन किया ६-मिश्रबन्धुप्रलाप-(प्रथम भाग) निर्माणकर्ता गया है । इसके अतिरिक्त परिशिष्ट में संघ का विधान, श्रीयुत नारायणप्रसाद 'बेताब', प्रकाशक, महामंत्री कवीन्द्र उसके सदस्य और उनका वार्षिक शुल्क आदि का ब्योरा 'राम', सम्पादक ब्राह्मण राय पत्रिका, पटियाला स्टेट हैं। दिया गया है। मूल्य ॥) है।
___ इस ग्रन्थ के पढ़ने से जान पड़ता है कि लेखक ने -गीत-लेखक व प्रकाशक, श्रीयुत बालकृष्ण विश्व-समस्यायों का गम्भीर अध्ययन किया है। उनके बलदुवा, बी० ए०, एल-एल० बी०, बेलदार फाटक लिखने की शैली भी सुन्दर है। लेखक के निर्णयात्मक चौरस्ता, ५७/१२३ सिरकी मुहाल, कानपुर हैं। व्यक्तिगत विचारों ने पुस्तक का पाठ अधिक मनोरंजक
८-प्रकाश के कुछ किरण-संकलयिता, श्रीयुत बना दिया है। श्रीरामरत्नदास 'तरुण', प्रकाशक, श्रीरामानन्द-मिशन, ऐसी पुस्तक में विषय-सूची, अनुक्रमणिका अादि का नासिक हैं । मूल्य -॥ है।
न रहना खटकता है। श्री सम्पूर्णानन्द की भूमिका का भी ९-चेचक या शीतला से बचने के उपाय- पता-ठिकाना नहीं। प्रकाशक ने छपाई-सफ़ाई की ओर लेखक, गोस्वामी सीताराम शर्मा वैद्य विशारद, श्रीमती सतर्कता से ध्यान नहीं दिया। तथापि पुस्तक उपयोगी
आनन्ददेवी-धर्मार्थ-अौषधालय, बरफ़ख़ाना, अलीगढ़ हैं। है और हिन्दी-प्रेमियों को इसे अपनाना चाहिए। बिना मूल्य वितरणार्थ।
२- हिटलर महान्-लेखक, श्रीयुत चन्द्रशेखर शास्त्री, प्रकाशक, भारती-साहित्य-मन्दिर, देहली हैं । मूल्य ३) है ।
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संख्या ५]
आज समस्त संसार की आँखें जर्मनी के उस भाग्य विधाता एडल्फ हिटलर की ओर लगी हुई हैं जिसने कल और आज के जर्मनी में आकाश-पाताल का अन्तर ला दिया है। हिटलर ने अपनी क्रान्तिकारी नीति से एक वर्ष के भीतर ही भीतर जर्मनी की जो काया पलट दी है उसका _ अध्ययन वास्तव में राजनीति का एक बड़ा मनोरंजक और साथ ही साथ मनोरम अध्ययन है । चाहे हम हिटलरिज्म के पक्ष में हों या विपक्ष में, संसार को वर्तमान राजनीति को समझने के लिए हिटलर के व्यक्तित्व का अध्ययन त्यन्तवश्यक है ।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने हिटलर के जीवन-चरित के अतिरिक्त जर्मनी में राष्ट्रीयता का विकास और महायुद्ध - सम्बन्धी उसकी नीति की भी काफ़ी सुन्दर विवेचना की है। वर्तमान जर्मनी का चित्रण तो लेखक ने अधिक सुन्दर किया ही है । भाषा के सम्बन्ध में लेखक कहीं-कहीं असावधान-सा देख पड़ते हैं । अँगरेज़ी - वाक्य विन्यास का इस प्रकार प्रयोग कि हिन्दी का मौलिक स्वरूप ही लुप्त हो जाय, सुन्दर नहीं लगता । तथापि शैली मनोरंजक और प्रभावशाली है । राजनीति के विद्यार्थियों के प्रति रिक्त साधारण वर्ग के पाठकों के लिए भी यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी ।
-कुसुमकुमार ३ - फूटा शीशा -- लेखक श्रीयुत सद्गुरुशरण अवस्थी एम० ए०, प्रकाशक, कृष्णकला- पुस्तकमाला, इलाहाबाद हैं । मूल्य २|| ) है |
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'फूटा शीशा' में लेखक की इसी शीर्षक की दस कहानियों का संग्रह है । लेखक योग्य, शिक्षक तथा साहित्य के विभिन्न अङ्गों के समालोचक हैं। ऐसी स्थिति में उनका साहित्य-सृजन की ओर अग्रसर होना अनुपयुक्त नहीं ।
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'फूटा शीशा' की सब कहानियाँ अपना एक ही शीर्षक रखने के कारण सम्भव है, अपने भीतर लेखक का क्षेत्र सीमित किये हों । लेखक कथानक के उपयुक्त शीर्षक रखने का निश्चय करके जैसा जीवन के स्टारों का निरीक्षण करता, अपने विचारों का उनमें उन्मेष करता, और अपनी अन्तष्ट किसी दूसरी सीमा की ओर बढ़ाता, न हुआ हो; किन्तु प्रस्तुत शीर्षक की कहानियाँ पाठक के मन पर ऐसा प्रभाव नहीं छोड़तीं । सब कहानियों का एक ही शीर्षक
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होने के कारण पाठक पहले से ही प्रत्येक कहानी को एक नवीन उत्सुकता से पढ़ना प्रारम्भ करता है । कहना न होगा कि इन कहानियों के संग यह एक सुन्दर बात हुई है । इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ सुन्दर हैं । भाषा का सुन्दर प्रवाह, वर्णन में सुरुचि और विचारों का अच्छा चयन इन कहानियों में मिलता है ।
आशा है, सुयोग्य लेखक की इस कृति का हिन्दी-प्रेमी अवश्य स्वागत करेंगे ।
:
वा० पा०
४ - तीन वर्ष (उपन्यास) – लेखक श्री भगवतीचरण वर्मा, प्रकाशक दि लिटरेरी सिंडिकेट, प्रयाग । मूल्य २) है । पृष्ठ संख्या ३४७ और छपाई, गेट अप आदि सुन्दर ।
प्रस्तुत पुस्तक 'तीन वर्ष' एक श्रेष्ठ उपन्यास है । इसका वातावरण ऊँची श्रेणी के धनी-मानी लोगों का है, जिसमें रमेशचन्द्र - एक बुद्धिमान्, किन्तु निर्धन व्यक्ति मिलता है । कुँवर अजितकुमार से क्लास में उसकी दोस्ती होती है और वह अपने दो साल उसी के साथ समृद्धि की हिलोरों में झूलता हुआ बिताता है। इसी बीच सर कृष्णकुमार की लड़की प्रभा से इन दोनों की दोस्ती हो जाती है । प्रभा रमेश को अपने प्रेम का खिलौना बना लेती है । पहला वर्ष तो रंग-रलियों में बीता। दूसरे वर्ष रमेश प्रभा के साथ 'ज्वाइंट स्टडी' करता है और एक लड़की के साथ ज्वाइंट स्टडी करने का जो परिणाम होना चाहिए, वही होता है । रमेश द्वितीय श्रेणी में पास हुआ, अजित प्रथम श्रेणी में ।
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तीसरा वर्ष प्रारम्भ हुआ । रमेश और प्रभा का प्रेम बढ़ता गया । श्रजित रमेश को प्रभा से अलग रखना चाहता था, किन्तु अन्धा रमेश न माना अजित के अनुरोध से रमेश प्रभा से विवाह का प्रस्ताव करता है । किन्तु प्रभा एक हज़ार रुपया माहवार चाहती है । निराश रमेश एक दिन जित पर टूट पड़ता है। किसी प्रकार अजित के प्राण बच जाते हैं । रमेश शराब पीना शुरू करता है । वह कानपुर भाग जाता है। सरोज नाम की एक वेश्या के यहाँ रहने लगता है । सरोज के हृदय था । वह रमेश से प्रेम करने लगी, किन्तु धोखा खाया हुत्रा रमेश उसे ठुकरा देता है। सरोज बीमार होकर मर जाती है और रमेश के नाम चार लाख छोड़ जाती है। इस रुपये का पाकर
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सरस्वती
[भाग ३८
रमेश फिर गम्भीर जीवन प्रारम्भ करता है। प्रभा अब एक बार शुरू करने पर पूरे उपन्यास को पड़कर ही भी विवाह का प्रस्ताव करती है, किन्तु रमेश इसे 'वेश्या- शांति मिलती है। घटना-क्रम पाठक की कौतूहल-प्रवृत्ति वृत्ति' कहकर ठुकरा देता है।
को सजग रखता है। सहृदय व्यक्तियों को उपन्यास में तीन वर्ष' ऐसे तो चरित्र-प्रधान उपन्यास है, किन्तु "स्त्री उसी प्रकार की संपत्ति है जिस प्रकार की संपत्ति हम उसमें अभिनयात्मक उपन्यास के तत्त्व भी मिलते हैं। गुलाम को, कुत्तों को अथवा अन्य जानवरों को कह सकते अजित यथार्थवादी है। वह सांसारिक वस्तुओं के स्थित हैं" (पृष्ठ १३६) आदि अप्रिय स्थल अवश्य ही खटकेंगे; रूप में ही विश्वास करता है। प्रेम उसके लिए कोरी किन्तु पूरे उपन्यास को पढ़कर वर्मा जी को बधाई दिये पार्थिव लेन-देन है और स्त्री एक आमोद-प्रमोद की वस्तु। बिना नहीं रहा जाता। रमेश श्रादर्शवादी है। वह स्त्री को देवी समझता है और
-सत्यप्रसाद थपलियाल प्रेम को आध्यात्मिकता के समकक्ष। वह धोखा खाकर ५-भवभूति- मूललेखक, महामहोपाध्याय स्वर्गीय ही अजित का अनुयायी होता है । प्रभा एक तितली है, सतीशचन्द्र विद्याभूषण, अनुवादक, पंडित ज्वालादत्त शर्मा पुरुषों को खुश करने के लिए समय समय पर रंग बदलती और प्रकाशक गङ्गा पुस्तकमाला कार्यालय लखनऊ हैं। है । सरोज आदर्श वेश्या है। वेश्या होते हुए भी हृदयहीन मूल्य सादी कापी का ) दस आने और सजिल्द का नहीं है । साथ ही ज़मींदार, रईस, वेश्यागामी, शराबी, १८) एक रुपया दो अाने है। रेलवे के टिकट एक्जामिनर आदि विभिन्न श्रेणी के लोगों यह पुस्तक संस्कृत के सुप्रसिद्ध नाटककार महाकवि का भी इस उपन्यास में सजीव और मनोरञ्जक चित्रण है। भवभूति का आलोचनात्मक परिचय है। विद्वान् लेखक ने
वर्मा जी जीवन को एक ढला हुआ सुसंगठित रूप उक्त महाकवि की जीवनी, वंश-परिचय तथा कवित्वशक्ति नहीं देते। उनके मत में "प्रत्येक व्यक्ति एक पहेली है पर प्रकाश डालने का समुचित रूप से प्रयत्न किया है।
और संस्कृति इन पहेलियों के एकत्रित समूह का दूसरा किन्तु इससे भी अधिक प्रयत्न किया है पाठकों को उक्त नाम है।" एक अदृश्य शक्ति मनुष्यों को पर्दे के पीछे से महाकवि की विचारधारा तथा उनके समय की सामाजिक नचाती-डुलाती रहती है। बुराई भलाई को ये "केवल अवस्था से परिचित कराने का। लेखक महोदय के मतानुसार तुलनात्मक व्यक्तिगत प्रश्न" समझते हैं। ये पाप और महाकवि भवभूति के तीनों ही नाटक-महावीरचरित, पुण्य को भी “मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा उत्तररामचरित तथा मालती-माधव---की रचना उस युग नाम" समझते हैं।
___ में हुई थी जब बौद्धधर्म अपने अभ्युदय की चरम सीमा इस उपन्यास में कौतूहल, रोमैन्स और घटनाक्रम पर पहुँच कर अवनति के पथ पर अग्रसर हो रहा था और बहुत ही उपयुक्त रक्खे गये हैं। सभी पात्र वांछित परिणाम वैदिक धर्म की दुन्दुभी फिर से बजनी प्रारम्भ हो गई थी। के लिए काम करते हैं। इसमें नायक कोई नहीं है। सभी महाकवि भवभूति ने अपनी उपयुक्त रचनाओं के द्वारा प्रमुख पात्र स्वतन्त्र हैं, किन्तु लेखक के दृष्टिकोणों का समर्थन वैदिक धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने की चेष्टा की करते हुए परिणाम की पुष्टि में योग देते हैं। प्रेम की थी। इस मत की पुष्टि के लिए विद्याभूषण जी ने इन विफलता दिखाने में उपन्यासकार सफल हुए हैं। घटना- तीनों ही नाटकों से बहुत-से प्रमाण उद्धृत किये हैं, जो क्रम इतना स्वाभाविक हो गया है कि उपन्यास उपन्यास सर्वथा मान्य हैं। नहीं मालूम पड़ता।
महाकवि भवभूति की रचनाओं पर उनके युग का ___सरोज से चरित्र-चित्रण में मानव जीवन की उपादेयता. कितना अधिक प्रभाव पड़ा है और उनकी रचनाओं में
और श्रेष्ठता की ध्वनि है। 'सेवा सदन' की सुमन प्रतिफल के इतिहास की कितनी अधिक और प्रामाणिक सामग्री बिखरी लिए व्याकुल होकर कुछ अस्वाभाविक-सी हो जाती है, किन्तु पड़ी है, इस बात की विवेचना विद्याभूषण महोदय ने सरोज एक शांतप्रेमिका के रूप में गालियाँ सुनती रहती है। महाकवि के द्वारा निर्मित नाटकों में आये हुए पात्रों के सरोज का चरित्र आदर्श है, किन्तु अस्वाभाविक नहीं है। पारस्परिक संलाप तथा क्रियाकलाप की आलोचना के
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संख्या ५]
नई पुस्तके
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राजधानी
सिलसिले में की है । भवभूति के द्वारा वर्णित स्थानों का एक अभाव की उत्तम ढंग से पूर्ति हो रही है । होमियोपैथी भी परिचय देने के लिए विद्याभषण महोदय ने यथेष्ट प्रयत्न चिकित्सा प्रणाली दिन प्रतिदिन इस देश में अधिकाधिक किया है। किन्त आधनिक भगोल के अनुसार उन स्थानों उपयोगी सिद्ध होती जा रही है। ऐसी दशा में इस विषय का परिचय देने में उन्हें कहाँ तक सफलता मिली है, यह के प्रामाणिक ग्रन्थों का हिन्दी में हो जाना अति आवश्यक बात विचारणीय है। उदाहरण के लिए भवभूति के है। प्रसन्नता की बात है कि अधिकारी विद्वानों का ध्यान महावीरचरित के चौथे तथा उत्तररामचरित के पहले इस अोर प्राकष्ट हो गया है। उपर्यक्त
युक्त ग्रन्थमाला एक अङ्क में शृङ्गवेरपुर का नाम पाया है। इसका परिचय ऐसा ही प्रयत्न है। चिकित्सा-प्रेमियों को इस माला के देते हुए विद्याभषण महोदय ने लिखा है---"निषादराज ग्राहक बनकर लाभ उठाना चाहिए । गुह से उसकी राजधानी शृङ्गवेरपुर में मिले थे। गुह की ७-ज्योति-सम्पादक, श्रीयुत मदनगोपाल मिश्र, का वर्तमान नाम चण्डालगढ या चुनारगढ है।" प्रकाश
प्रकाशक, मैनेजर ज्योति (मासिक पत्रिका) ज्योति-कार्यालय, यहाँ विद्याभषण जी का शृङ्गवेरपुर का मतलब है ईस्ट कान्यकब्ज-कालेज रोड, लखनऊ हैं। वार्षिक मूल्य स्वदेश इंडियन रेलवे के स्टेशन चुनार से, जो युक्तिसङ्गत भी नहीं में ३॥ और विदेश में ५) है। है । कहाँ प्रयाग से पश्चिम बीस-बाइस मील की दूरी पर यह विविध विषय विभूषित एक मासिक पत्रिका है। . अवस्थित शृङ्गवेरपुर और कहाँ मिर्जापुर से भी मीलों पूर्व लखनऊ के कान्यकब्ज-कालेज के तत्त्वावधान में इसका चुनार ! अयोध्या से चलकर चुनार के सामने गङ्गा पार प्रकाशन हो रहा है। अालोच्य अंक इसका द्वितीय अंक करनेवाला व्यक्ति इतना लम्बा रास्ता तय करने के बाद है। इसमें प्रकाशित सभी लेखों, कविताओं और कहानियां भी प्रयाग नहीं पहुँच सकता, क्योंकि उसे प्रयाग के समीप की संख्या २३ है । अनेक चित्रों का भी सुन्दर संग्रह किया भी प्राकर नौका की शरण लेनी पड़ेगी। अस्तु, इस पुस्तक गया है। छपाई साफ़ और सुन्दर है। यदि ज्योति का में भवभूति के सम्बन्ध में अध्ययन करने की काफ़ी सामग्री प्रकाशन इसी रूप में होता रहा तो इससे हिन्दी का हित प्रस्तुत की गई है। पुस्तक गम्भीर अध्ययन तथा बहुत होगा। हिन्दी-प्रेमियों को इस नई पत्रिका का स्वागत अधिक खोज के साथ लिखी गई है।
करना चाहिए।
-बिजली का साहित्य-अंक-सम्पादक, श्रीयुत -ठाकुरदत्त मिश्र
प्रफुल्लचन्द्र अोझा 'मुक्त', प्रकाशक, बिजली-कार्यालय, ६- स्त्री व बालरोग चिकित्सा--लेखक व प्रका- बाँकीपुर, पटना हैं । वार्षिक मूल्य ३) है। शक डाक्टर बाबा सी० सी० सरकार एच० एम० बी०, बिजली के सम्पादक श्रीयुत मुक्त जी का परिचय देने होमियोपैथिक मेडिकल कालेज, लखनऊ हैं। पृष्ठ-संख्या की ज़रूरत नहीं है। कविता और कहानी लिखने में वे । ४४३ और मूल्य २॥) है।
सिद्धहस्त है। बिजली का सुन्दर ढंग से सम्पादन कर अालोच्य पुस्तक होमियोपैथिक चारु चिकित्सा-माला उन्होंने इस क्षेत्र में भी सफलता प्राप्त की है। का दूसरा पुष्प है । इसमें स्त्रियों और बालकों के रोगों और बिजली का जो यह साहित्य-अंक आपने निकाला है उनकी चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इसके लेखक उसमें साहित्य-विषयक ४१ लेख, कवितायें और कहानियों डाक्टर सरकार इस चिकित्सा प्रणाली के अनुभवी चिकि- का संग्रह है। इसमें प्रकाशित चित्रों की संख्या २१ है । त्सक हैं, अतएव वे इस विषय के ग्रन्थ लिखने के सर्वथा इसके सभी लेख सुन्दर और सुपाठ्य हैं। अधिकारी हैं । हिन्दी में आपके द्वारा होमियोपैथिक चिकित्सा- आशा है, मुक्त जी 'बिजली' को बिहार की एक प्रणाली सम्बन्धी जो ग्रन्थ-रचना हो रही है उससे हिन्दी के आदर्श पत्रिका बनाने में सफल होंगे।
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चित्र-संग्रह
दिल्ली में पद-ग्रहण के प्रश्न पर विचार करने के लिए पिछले मार्च मास में नेताओं का एक सम्मेलन हुआ था। यह चित्र उसी अवसर का है। पंडित जवाहरलाल नेहरू, पहात्मा गांधी, खान अब्दुल ग़फ्फार खां आदि हरिजन बस्ती में जा रहे हैं।
पंहित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल पार श्रीमती सरोजनी नायडू (दिल्ली में कांग्रेस की एक महत्त्व पूर्ण बैठक Sheबाद) श्रीमती नायडू चित्र खिचाना नहीं चाहती थीं। चित्र में उनका यह अनिच्छाभाव स्पष्ट है rgyant
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जर्मन लोगों का स्वास्थ्य योरप में सबसे अच्छा समझा जाता है। इसका एक कारण भोजन में फलों का नियमित व्यवहार है। यह जर्मनी के एक फलोद्यान और फल इकटा करनेवालों का चित्र है।
राहकल काँगाड़ी के नये रहातक बीच में गांधी-डोपी लगाये श्री सत्यमूर्ति बैठे हैं, जिन्होंने इस वर्ष दीनात मावा किसa lcom
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हिन्दू-त्रियों के अपहरण के मूल-कारण वाक्यों में युवतियों को युवकों से न मिलने की सलाह भी
दी है। इस मर्यादा का स्वयं लेखक महोदय के घर में आदरणीय सम्पादक जी !
कहाँ तक पालन होता है, यह एक पड़ोसी की हैसियत से सादर वन्दे !
मुझे भली भाँति विदित है। किन्तु मैं इस विषय में कुछ सितम्बर की 'सरस्वती' में प्रकाशित श्री संतराम जी के 'हिन्दू-स्त्रियों के अपहरण के मूल कारण' शीर्षक लेख को
न कहना ही उचित समझती हूँ।
___ मैं स्वयं ऐसे वाद-विवाद को अनुचित समझती हूँ पढ़कर मेरे हृदय में जो विचार उठे उन्हें लेखबद्ध करके मैंने आपकी सेवा में प्रकाशनार्थ भेजा और वह
जिसमें वैयक्तिक आक्षेप की नौबत आ जाय। श्री संतराम जी
वयोवृद्ध और विचारवान् व्यक्ति हैं। भविष्य में इस ‘फरवरी' के अंक में प्रकाशित हुआ । लेख का उत्तर देना तो दूर रहा अपितु आपको पत्र लिखकर श्री संतराम जी ने
विषय में मेरा चुप रहना ही उनके लिए काफ़ी उत्तर है ।* वैयक्तिक रूप से मुझे अयोग्य तथा मूर्ख सिद्ध करने की
निवेदिका चेष्टा की है। उनकी समझ में मेरी उम्र की लड़कियाँ
-विश्वमोहिनी व्यास सांसारिक बातों से इतनी अनभिज्ञ होती हैं कि वे स्त्रियों पर
मार्च के अंक की कहानियाँ लगाये गये आक्षेपों को न तो समझ सकती हैं और न
'मतभेद' की उत्तमता में कदापि मतभेद नहीं हो सकता उनका उत्तर देने की योग्यता ही रखती हैं।
और वह अन्य दो कहानियों से भी उत्तम प्रतीत होती है। श्री संतराम जी को यह समझ लेना चाहिए कि प्रतिभा प्रोफ़सर अहमदअला एम
प्रोफ़ेसर अहमदअली एम० ए० की 'हमारी गली' उनकी किसी की विरासत नहीं है। मैं भी कछ न कळ लिख लेती अपनी गली है, उसमें प्रवेश करना ज़बर दस्ती होगी। हूँ और मेरा अपना छोटा-सा रेकार्ड भी है। मेर लेख में यदि सुदर्शन जी की 'कलयुग नहीं करयुग है यह !' कहानी
उन्हें नारी-दृदय का उच्छवास नहीं मिलता तो इसका यह में कदाचित् ही काई दोष निकाल सके। पर उक्त शीर्षक . अर्थ कदापि नहीं कि वह लेख मेरा नहीं है, अपितु उससे उन्होंने क्यों दिया, यह समझ में नहीं आता । 'मतभेद' में
यही प्रकट होता है कि लेखक महोदय को नारी-हृदय की रमेश और उषा के मतभेद का दर्शन सारी कहानी में होता ज़रा भी पहचान नहीं है। यह बात उनके पिछले लेख से है, जो उस के प्रादुर्भाव से लेकर पाठक को उसके अन्त भी स्पष्ट हो जाती है। श्री संतराम जी ने इस प्रकार का तक पहुँचने का अत्यन्त उत्सुक कर देता है। 'कल युग आक्षेप करके जिस मनोवृत्ति का परिचय दिया है वह नहीं' कह कर लेखक ने चाहे वर्तमान पाश्चात्य सभ्यता से कदाप क्षम्य नहीं। जब देश उन्नति की ओर अग्रसर हो प्रभावित नवयुवकों के सम्बन्ध में अपने विचार जाहिर किये रहा है और ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो नारी- हों, पर 'कर युग है यह' का काई भाव प्रदर्शित नहीं होता। जाति की जाग्रति में सहायक हों, इस ज़माने में इस प्रकार पूरी कहानी पढ़ जाइए, पर 'करयुग है यह' की याद तक के पीछे ले जानेवाले विचार कहाँ तक उचित हैं ? इसका नहीं पाती।
-सुमेरचन्द कौशल, बी० ए० निर्णय 'सरस्वती' के पाठक स्वयं कर सकते हैं।
*श्रीमती विश्वमोहिनी जी का यह पत्र इस विवाद का आगे चलकर आपने अपने विचारों को मनोवैज्ञानिक अन्तिम लेख है। आशा है, लेखक महानुभाव इस विवाद तथ्य कहने का साहस किया है, साथ ही कलापूर्ण का यहीं से अन्त समझेगे । -सम्पादक
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व्यत्यस्त रेखा शब्द पहेली CROSSWORD PUZZLE IN HINDI
शुद्ध पूर्तियों पर
२०) न्यूनतम सशुद्धियों पर
नियम-(१) वर्ग नं० १० में निम्नलिखित पारि- भी एक ही लिफ़ाफ़े या पैकेट में भेजी जा सकती हैं । तोषिक दिये जायेंगे। प्रथम पारितोषिक–सम्पूर्णतया शुद्ध मनीअार्डर व वर्ग-पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग-नम्बर १०, इंडियन पूर्ति पर ३००) नकद । द्वितीय पारितोषिक-न्यूनतम प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से पानी चाहिए। अशुद्धियों पर २००) नकद । वर्गनिर्माता की पूर्ति से, (क) लिफ़ाफ़े में वर्ग-पर्ति के साथ मनीआर्डर की जो मुहर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही
रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र नत्थी होकर श्राना अनिवार्य है। सही मानी जायगी।
रसीद या प्रवेश-शुल्क-पत्र न होने पर वर्ग-पूर्ति की जाँच (२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए
न की जायगी। लिफ़ाफ़े की दूसरी ओर अर्थात् पीठ पर जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत
मनीग्रार्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति संख्या लिखनी अङ्क-परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से
अावश्यक है। श्रारम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है -
(६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह और इस चिह्न (a) के पहले समाप्त होता है। अङ्क-परिचय
जितनी पूर्ति-संख्याये भेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी ओर पढ़े जानेवाले
__ वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी शब्दों के अङ्क अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह
चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति का केवल एक ही पता चलेगा कि कौन शब्द किस ओर को पढ़ा जायगा ।
इनाम मिल सकता है। वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा (३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय । पेंसिल से की गई पूर्तियां स्वीकार न की जायँगी । अक्षर सुन्दर,
में नहीं लौटाई जायगी । इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें 'सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए। जो ।
___ भाग नहीं ले सकेंगे।
(७) जो वर्ग-पूर्ति २४ मई तक नहीं पहुँचेगी, जाँच अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर दूसरी बार लिखा गया होगा वह अशुद्ध माना जायगा।
__ में नहीं शामिल की जायगी । स्थानीय पूर्तियाँ २४ ता० को (४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फ्रीस पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दूर के स्थानों वर्ग के ऊपर छपी है दाखिल करनी होगी। फीस मनी- (अथात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्ठी पहुँचने में श्रार्डर-द्वारा या सरस्वती-प्रतियोगिता के प्रवेश-शुल्क-पत्र ।
२४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २ (Credit voucher) द्वारा दाखिल की जा सकती है। दिन बाद तक ली जायगी। वर्ग-
निर्माता का निर्णय सब इन प्रवेश-शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३१ या प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा। शुद्ध वर्ग-पर्ति ६) में खरीदी जा सकती हैं। ३१ की किताब में ग्राटाने की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले अङ्क में प्रकाशित मूल्य के और ६) की किताब में ११ मुल्य के ६ पत्र बँधे होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पूर्ति हैं। एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पता. की शुद्धता अशुद्धता की जांच कर सके। ठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीबार्डर-द्वारा अपनी (5) इस वर्ग के बनाने में 'संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर' अपनी फीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियां और 'बाल-शब्दसागर' से सहायता ली गई है।
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१ - जगत के मालिक ।
५— ठीक ।
८- कठिनाइयाँ पड़ने पर कच्चे दिल के मनुष्य...... हो जाते हैं।
९ - इसके मुख पर एक विशेष चमक रहती है। ११ - अंगीकार ।
१६ - जिनकी मानसिक शक्तियाँ तीव्र होती हैं, वे बिना अभ्यास ही यह ठीक करते हैं ।
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग १० की पूर्तियों की नक़ल यहाँ पर कर लीजिए । और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए ।
१८ - हाथ ।
१९ - शहरों में कच्चा दूध प्रायः ऐसा ही मिलता है। २० - यहाँ धाक उलट गया है।
२१ - किसी अजनवी मनुष्य का रहन-सहन सबसे पहले इसी से मालूम पड़ता है।
२२ - इसकी दशा या अवस्था में परिवर्तन नहीं होता । २३ – यदि शहर न होता, तो यह भी दिखलाई न पड़ता । २४ - तराज़ू | २५-सज २६ - यह काम तोपों के द्वारा होता है।
२७- ऐसा मनुष्य यदि सर्वप्रिय होता है, तो बहुत समय के बाद। २९- अनुचित । ३० - यदि सदीं मामूली हो, तो इसमें मालूम नहीं पड़ती। ३१ - कमरे की दीवार पर प्रायः कील के सहारे लटकती हुई देखी गई है।
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१ – किसानों के किसी किसी कच्चे कुएँ की..ऐसी नीची और ढालू होती है, कि पास से निकलने वालों को कुएँ में फिसल जाने का भय रहता है। २ - कोई कोई बहुत सुरीला होता है। ३ - ग़रीबी ।
४-गुप्तभेद ।
५. इसका नाम दूर दूर तक प्रसिद्ध हो जाता है। ६- तसवीर बनाना ।
७ – उस प्रकार का । १०- राज महल में बढ़िया से बढ़िया का पाया जाना एक साधारण बात है ।
१२- प्रायः साहसी और परिश्रमी ही इससे आनन्द उठाते हैं।
१३- इस पर चलने से कठिनाइयाँ उठानी ही पड़ेंगी। १४ - वे माता-पिता बड़े ही कट्टर हैं, जो लड़कों की निरपराध...... को भी बुरा समझते हैं । १५-थके हुए घोड़े को इससे आराम पहुँचता है। १७ - दुखियों का काम प्रायः इसके बिना नहीं चलता । १९ - बेल का फिर से हरा होना।
२० - दिवाली का बना हुआ शुभ समझा जाता है । २१- शास्त्रों से प्रकट है कि सिद्धि प्रायः इसी के द्वारा २२- कंडों का ढेर । एक समय इसको अपने
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मिली है। २७ - तुच्छ होने पर भी धनी
महल में स्थान देते हैं । २८ -- लगातार वर्षा | नोट- रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा रहित और पूर्ण हैं
वर्ग नं० ६ की शुद्ध पूर्ति
वर्ग नम्बर ९ की शुद्ध
पूर्ति जो बंद लिफाफे में मुहर लगाकर रख दी गई थी, यहाँ दी जा रही है। पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं।
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वर्ग नं. १०
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जाँच का फ़ार्म वर्ग नं. ९ की शुद्ध पूर्ति और पारितोपिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं । यदि आपको यह संदेह हो कि अाप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १) फीस के साथ निम्न फ़ार्म की खानापुरी करके १५ मई तक भेजें। आपकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे। यदि आपकी पूर्ति आपकी सूचना के अनुसार टीक निकली तो पुरस्कारों में से जो श्रापकी पूर्ति के अनुसार होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फ़ीस लौटा दी जायगी। पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चुका है उन्हें इस फ़ार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
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चिन्दीदार कीर
-बिन्दीदार सकोर पर से काटिए---
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परिक कोष्ठों के मार मात्रा-रहित और पूर्ण है) मेनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकत होगा। पूरा नाम......... ----------
पूर्ति न०""
वर्ग नं० ६ (जाँच का फ़ार्म)
मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं० ९ के अापके : उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
इकाई अशुद्धि नहीं है। | एक अशुद्धि है।
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दो अशुद्धियाँ हैं।
वर्ग नं० १०
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बिन्दीदार लाइन पर काटिए
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मेरी पूर्ति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त भेजिए। मैं १) जाँच की फीस भेज रहा हूँ। हस्ताक्षर
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विदीदार कोर पर से कारिए -".....
....... -बिन्दीटार लकीर पर मे काटिए-.--
इसे काट कर लिफाफे पर चिपका दीजिए . .
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(रिक कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण है)
मेनजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाय"........................ - पना """"" . . .
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मैनेजर वर्ग नं० १०
इंडियन प्रेस, लि०,
- इलाहाबाद
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( ५०० ) प्रतियोगियों की शंकायें और बधाइयाँ
शुद्ध वर्गपूर्ति प्रकाशित होने पर प्रतियोगियों को की कृपा करेंगे कि आपके लिखे 'नगज', 'साकर' और अपनी भूल का पता चल जाता है। पर कुछ ऐसे 'बड़हन' किस भाषा के शब्द हैं - और कहाँ ज़्यादा भी लोग हैं जो अपनी दलील को छोड़ना नहीं चाहते बोले जाते हैं और इनका क्या अर्थ है ? और अपनी ही पूर्ति को ठीक समझते हैं। इस तरह
सौ० सरस्वतीदेवी शर्मा के एक पत्र का एक आवश्यक अंश हम यहाँ उद्धृत श्रीसरस्वती महिला पुस्तकालय जेनरलगंज, मथुरा करते हैं
आशा है, इस पत्र में की गई शंकाओं का भी (१) 'पामर' क्यों 'पातर' क्यों नहीं ? उत्तर वे प्रतियोगी देंगे जिन्होंने संकेतों को ठीक ठीक पिछले मास के वर्ग में नं० २५ वायें से दाहने श्रापने समझा है।
-सम्पादक 'पामर' शब्द निर्दिष्ट किया है और इसका संकेत था- (३) तीन वार में प्रथम पुरस्कार जीत लिया "इसका उद्देश्य ही नीच है"। किन्तु 'पामर' का उद्देश्य आपकी वर्ग-पूर्तियों में मेरा यह तृतीय प्रयत्न था। हो नीच नहीं होता, 'पामर' तो स्वयं नीच का पर्यायवाची प्रथम प्रयत्न में मुझे सन्तोष ही मात्र करना पड़ा। द्वितीय शब्द है और यदि इसकी जगह 'पातर' शब्द जो वेश्या प्रयत्न में १) का प्रवेश शुल्क-पत्र प्रात हुअा। इससे मेरा के अर्थ का है, होता तो विशेष शुद्ध व वैज्ञानिक होता। उत्साह बढ़ा। अब इस तृतीय प्रयत्न में-वर्ग नं. ५ की
और उसका उद्देश्य भी नीच होता है, यह अर्थ इसमें पूर्ति में-मुझे प्रथम पुरस्कार पाने का अवसर मिला है। फिट होता है। अाशा है, आप मेरे इस पत्र को छाप देंगे इन पहेलियों की पूर्ति में मन इतना व्यस्त हो जाता ताकि अन्य व्यक्ति भी इस पर अपनी सम्मति दें। है कि पूर्तिकार इसकी पूर्ति के समय दुनिया के अन्य ___ मिश्रीलाल शर्मा c/o डा० पृथ्वीनाथ चतुर्वेदी व्यवहार भूल-सा जाता है। . .
मदनमोहन फार्मेसी, धनकुटी, कानपुर मेरे नाम से वर्ग नम्बर ५ की पूर्ति में प्रथम पुरस्कार . . नोट-वर्गनिर्माता का कहना है कि "पामर" की घोषणा सुनकर यहाँ के अनेक व्यक्ति उत्साहित हुए शब्द ही ठीक है। पर वे चाहत हैं कि इसका उत्तर हैं, फलस्वरूप उन्होंने अग्रिम वर्ग नं०६ की पूर्तियाँ कोई प्रतियोगी ही जिसने इस शब्द को अपनी पूर्ति आपके पास भेजी भी हैं। में भरा हो, दे तो अच्छा होगा, क्योंकि पत्रलेखक
सुन्दरीदेवी c/o पण्डित रामचन्द्र जी महोदय भी यही चाहते हैं। उत्तर हमारे पास १५ साहित्याचार्य (गोल्ड मेडलिस्ट) मीठापुर, पटना मई तक आ जाना चाहिए। -सम्पादक (४) बधाई का एक और पत्र (२) किस भाषा के शब्द हैं ?
चि. सुधीरकुमार तथा चि० सुकुमारी बाला ने जो श्रीमान् जी, आपने जो वर्ग नं०७ की शुद्ध पूर्ति अपने वर्ग नं०५ की पूर्तियों भेजी थीं उनका इनाम टीक समय मार्च सन् १९३७ के अंक में प्रकाशित की है उसमें कुछ पर मिल गया। धन्यवाद। शब्द ऐसे दिखाई देते हैं जो न तो प्रचलित हैं और न अब बहुत-से लोगों ने अापकी नकल करनी शुरू किसी कोष में हैं और न उनका कोई अर्थ समझ में श्राता की है, किन्तु मेरा विश्वास है कि वे श्राप को नहीं पहुँच है-जैसे (१) नं० १० (ऊपर से नीचे)-'नगज' ? सकते-मूल्य में कमी तथा इस पहेली के कारण 'सरस्वती' (२) नं. ३ (बायें से दाहने)-'साकर' ? (३) नं० २४ की लोकप्रियता इतनी अधिक बढ़ गई है कि देखकर (ऊपर से नीचे)-'बड़हन' ? जो अर्थ इन नम्बरों का आश्चर्य होता है । दिया है उनसे 'नगर' 'सागर' 'बड़हल'- उत्तम सुशीलकुमारी मिश्रा c/o एच० एस० पाठक, डिप्टी और सार्थक शब्द बनते हैं। तब क्या आप यह बतलाने
कलक्टर, बिजनौर।
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( ५०१ )
००) में दो पारितोषिक
इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ ४९७ पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए और दो कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
बिन्दीदार लकोर पर से काटिए
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(रक्तकोष्ठों के अक्षर मात्रा रहित और पूर्ण है) मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम
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बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
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(रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण है) मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा । पूरा नाम
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बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग १० की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए ।
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( ५०२ ) आवश्यक सूचनायें सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे दिन में सर्वसाधारण (१) वर्ग नं०८ के जांच के फार्मों पर विचार होने के सामने खोला जायगा। उस समय जो सज्जन चाहें स्वयं से श्रीमती मनोरमादेवी. ८२ बैरहना इलाहाबाद का भी उपस्थित होकर उस दख सकत हा तृतीय पुरस्कार पाने का अधिकार सिद्ध हवा, अतः वह (४) नियमों में हमने स्पष्ट कर दिया है कि प्रवेशपुरस्कार फिर से बजाय १४ के १५ व्यक्तियों में बांटा गया . शुल्क मनिबार्डर द्वारा या हमारे कार्यालय से खरीदे गये और प्रत्येक को || मिला।
प्रवेश-शुल्क-पत्रों के रूप में ही पाना चाहिए; फिर भी ___(२) स्थानीय पूर्तियाँ 'सरस्वती-प्रतियोगिता-बक्स' में कुछ लोग डाक के टिकटों के रूप में प्रवेश-शुल्क भेज देते जो कार्यालय के सामने रखा गया है, दिन में दस और हैं। यहाँ हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि पांच के बीच में डाली जा सकती हैं।
इस प्रकार टिकटों के साथ आई हुई पूर्तियाँ अनियमित (३)वर्ग नम्बर १० का नतीजा जो बन्द लिफ़ाफ़े में मुहर समझी जाती हैं और इस प्रकार आये हुए टिकटों के भी लगा कर रख दिया गया है, ता. २७ मई सन् १९३७ को हम ज़िम्मेदार नहीं होंगे।
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संक्षिप्त हिंदी-शब्दस्यगर
मैजिम हिंनी एब्दसागर
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जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और बहुमूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्द. सागर की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये ।
SSSVEADOS
हिन्दी शब्दसागर
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बनाये जायँ । उन जगहों से अन्यत्र कोई सिगरेट आदि न पीने पावे और वहाँ लिखा रहे - ख़तरा ! धूम्र-पान का अड्डा ! यदि नवाब छतारी की मिनिस्ट्री कम से कम इतना भी कर दे तो समझेंगे कि वह बहुत सफल रही ।
हुक्का या सिगरेट पीने से पीनेवाले का ही स्वास्थ्य ख़राब हो सो बात नहीं है । इसका दुष्परिणाम उसके पड़ोसियों को भी भुगतना पड़ता है। जिन मज़दूरों या किसानों को चिलम पीने का शौक होता है उनमें कितने ही अपने पड़ोसियों की झोपड़ियाँ फूँक देने का श्रेय प्राप्त करते हैं । रेल की यात्रा जिन्हें थोड़ी-बहुत भी करनी पड़ी है वे जानते हैं कि चिलम पीनेवाले रेल के डिब्बों के अन्दर चिथड़े आदि जलाकर किस प्रकार दुर्गन्धि फैलाते हैं और मुसाफ़िरों को परेशान करते हैं। ऐसे लोग किस किस • प्रकार से हानि पहुँचा सकते हैं, इसकी गिनती नहीं है । अभी हाल में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के सिगरेट के शौक़ीन एक विद्यार्थी ने अपने एक साथी को काना बना दिया है। ये महाशय लापरवाही से मित्रों के साथ बैठे सिगरेट पी रहे थे । इत्तिफ़ाक से इनके सिगरेट की जलती हुई नोक इनके एक मित्र की ख में लग गई। उससे उस बेचारे की पुतली जल गई और वह लखनऊ के मेडिकल कालेज
में इलाज के लिए भेजा गया। एम० एस-सी० की परीक्षा • मे वह बैठनेवाला था, जो अब उसके लिए सम्भव नहीं रहा ।
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पञ्जाब में कांग्रेसी बहुमत का भय नहीं है । कदाचित् इसीलिए वहाँ की व्यवस्थापिका सभा जल्द बुलाई गई है । पहले दिन जब सदस्य राज-भक्ति की शपथ ले रहे थे, एक विचित्र घटना हुई। एक बुक़पोश सदस्य ने सभापति से शिष्टाचार के अनुसार हाथ मिलाने से इनकार कर दिया और कहा - " मैं मुसलमान स्त्री हूँ । इसलिए किसी अन्य मर्द से हाथ नहीं मिलाऊँगी।" यह तो ठीक है, पर बिना मुँह देखे लोग यह कैसे समझेंगे कि ये वही सदस्या हैं जो बाक़ायदे चुनी गई हैं। पता नहीं, ये महाशया. वोट माँगने कैसे गई थीं और वोटरों ने बिना मुँह देखे इन्हें वोट कैसे दे दिया
।
एक पंजाबी पत्र का कहना है कि इस्लामी आदेश के अनुसार स्त्री की आवाज़ भी परपुरुष के कानों में न पड़नी चाहिए। पता नहीं, इस श्रादेश का पालन ये देवी कैसे करेंगी । कुछ लोगो का अनुमान है कि संयुक्त प्रान्तीय कौंसिल की जब बैठक होगी तब उसमें भी दो-एक मियाने पहुँचेंगे। देखना है कि उन पर कैसी बीतती है ।
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संयुक्त-प्रान्त में कांग्रेस के मंत्रिपद अस्वीकार कर देने से नवा छतारी ने जी हुज़ूरों का मंत्रिमंडल बनाया है । उस दिन समाचार-पत्रों में हमने पढ़ा कि प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभा की बैठक तब बुलाई जायगी जब यह मंत्रिमंडल अपना कार्यक्रम तैयार कर लेगा । हमारा प्रस्ताव है कि यदि यह मंत्रिमंडल सत्र काम छोड़कर सिर्फ़ सिगरेट-पान को नियमित और नियन्त्रित करने का बीड़ा उठा तो बहुत जल्द लोकप्रिय हो जाय । स्कूलों में सिगरेट पीनेवाले लड़के एक तरफ़ और न पीनेवाले दूसरी तरफ़ बैठाले जायँ, रेलों में जैसे माने और मर्दाने डिब्बे रहते हैं, वैसे ही धूम्र-पानवाले और धूम्र-पानवाले डिब्बे लगाये जायँ, शहरों में जैसे इक्का, ताँगा, मोटर आदि खड़ा करने के अड्ड े रहते हैं, वैसे ही धूम्र-पान के श्रड्डे
उस दिन लश्कर ( ग्वालियर) में एक ब्राह्मण स्त्री अपनी ९ वर्षीया कन्या के साथ मकान की छत से पृथ्वी पर कूद पड़ी और मर गई । कारण यह बताया जाता है कि उसने एक वैश्य को अपना पति बनाने की भूल की थी । इत्तिफ़ाक़ की बात कि उस बेचारे वैश्य का इन्तकाल हो गया। उसकी इस ब्राह्मण स्त्री ने अपने पड़ोसियों से बहुतेरा कहा कि वे उसके पति की लाश को स्मशान पहुँचा दें। पर उसे हाथ कौन लगाता ? उसने जाति के बाहर शादी की थी ! सवेरे दस बजे से शाम को साढ़े
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पाँच बजे तक जब लाश पड़ी रह गई तब स्त्री ने हताश होकर उक्त प्रकार से अपने प्राण दे दिये। यह स्त्री शायद नरक में जायगी और जिन कुलीन (?) हिन्दुनों ने उसकी प्रार्थना नहीं सुनी उनके लिए शायद इन्द्र अपना श्रासन खाली कर रहे होंगे ।
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बिहारी सतसई के दोहों पर व्यङ्ग चित्र बनाने में श्री केदार शर्मा ने कमाल किया है। उनके बहुत से चित्र इस स्तम्भ में प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ हम एक और प्रकाशित कर रहे हैं । अर्थ स्पष्ट है ।
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संगति दोष लगै सबै कहे जु साँचे बैन । कि भ्रू गते, भये कुंटिल गति नैन ॥
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'नैनीताल के एक होटल के मैनेजर का रोना है कि इस वर्ष नैनीताल में भी भीषण अकाल पड़नेवाला है और यह ऐसी घटना है जो नैनीताल के इति
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[ भाग ३८
हास में पहली ही बार घटने जा रही है। बात यह है कि इस वर्ष युक्तप्रान्तीय सरकार ने लखनऊ में हो गर्मी बिताने का निश्चय किया । ऐसी दशा में नैनीताल की चहल-पहल का कम हो जाना अवश्यम्भावी है। गर्मी की फ़सल काटने के उद्देश से जो होटलवाले, सिनेमावाले, वैये और नर्तकियों आदि वहाँ जा डटी हैं उन्हें व खाली हाथ लौटना पड़ेगा। ये सब लोग वहाँ बैठे नवाब छतारी की मिनिस्ट्री को कोस रहे हैं और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि कांग्रेसवाले इस मिनिस्ट्री का जितनी • जल्दी खात्मा कर दें, उतना ही अच्छा। किसी ने ठीक ही कहा है- "सबै सहायक सबल के कोउ न निवल सहाय ।"
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हिन्दी की वर्णमाला में जितने अक्षर हैं वे सब 'पुंलिङ्ग' हैं । केवल तीन अक्षर इ, ई और ॠ स्त्रीलिङ्ग है । व्याकरण के उच्चारण-सम्बन्धी नियमों के ही बल पर ये अक्षर स्त्रीलिङ्ग हो सो बात नहीं, अपनी सुघड़ बनावट में भी ये अक्षर अपना स्त्रीपन व्यक्त करते हैं । इ और ई तो ऐसे दिखते हैं, मानो कोई परम सुन्दरी युवती नृत्य में तल्लीन हो । इन अक्षरों को निकाल देना हिन्दी-वर्ण- माला से स्त्री को निकाल देना है। पर सुने कौन ? कुछ लोग काका साहब की गिनती सन्तों में करते हैं और सन्तों का स्त्री से वैर स्वाभाविक है ।
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कांग्रेस- कमिटियों को
भी अपना सम्पर्क
गये हैं । आपने
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश किया है कि वे मुसलमानों से बढ़ावें । बाबू राजेन्द्रप्रसाद और नागे * एलान किया है - "कोई गाँव कांग्रेस के बिना न हो और - कोई कांग्रेस कमिटी मुसलमानों से रहित न हो।" अब मान लीजिए, किसी ऐसे गाँव में कांग्रेस कमिटी बनानी हो जहाँ एक भी मुसलमान न हो तो इस नियम का पालन कैसे होगा ? दो ही सूरतें हो सकती हैं। या तो वहाँ कुछ मुसलमान बसाये जायँ या वहाँ के कुछ हिन्दू मुसलमान हो जायँ । इस युग में इस देश का देवता मुसलमान है । बगैर उसको प्रसन्न किये देश का उद्धार सम्भव नहीं है ।
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प्रान्तीय स्वराज्य की स्थापना
प्रोफेसर कीथ का मत गत पहली अप्रेल से सन् १९३५ के गवर्नमेंट प्रोफेसर बेरीडेल कीथ ब्रिटेन के सबसे बड़े आफ इंडिया एक्ट के अनुसार भारतवर्ष में प्रान्तीय विधान-वेत्ता माने जाते हैं। उनका कहना है कि स्वराज्य की स्थापना हो गई है। परन्तु यह दुःख की उत्तरदायी शासन में गवर्नरों को विशेषाधिकार बात है कि इसका आरम्भ जिस उत्साह और होना ही न चाहिए । 'स्काट्समैन' में उन्होंने एक पत्र विश्वास के साथ होना चाहिए था, वह निगाहों से प्रकाशित कराया है। उसका आशय यह हैओझल-सा हो रहा है। जिन प्रान्तों की व्यवस्थापिका महात्मा गांधी ने और उनकी प्रेरणा से कांग्रेस ने सभाओं में कांग्रेस का बहुमत है, वहाँ निश्चय ही उत्तरदायी शासन के सिद्धान्तों का अध्ययन किया है और कांग्रेसी मंत्रियों की नियुक्ति होनी चाहए थी। यह समझ लिया है-जिसको सर सेमुएल होर कभी समझ कांग्रेस मंत्रि-पद ग्रहण करने के लिए तैयार थी और नहीं पाये-कि गवर्नरों को विशेषाधिकार देना उत्तरदायी प्रारम्भ में सरकार का रुख भी ऐसा था कि वह शासन के बिलकुल असंगत है। भारत-शासन-विधान में कांग्रेस के मार्ग में बाधक नहीं जान पड़ती थी। परन्तु प्रारम्भ से ही यह त्रुटि है कि उसने गवर्नरों को ख़ास कांग्रेस ने जब यह आश्वासन माँगा कि यदि मन्त्री ज़िम्मेदारी सौंपकर ज़िम्मेदारी नकली बना दी। विधान के अन्दर कार्य करेंगे तो गवर्नर उनके लार्ड असकिन (मदरास के गवर्नर) और लार्ड ब्राबोर्न कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तब गवर्नरों ने उसे (बम्बई के गवर्नर) का यह कहना बिलकुल निरर्थक है कि वे ऐसा आश्वासन देने से इनकार कर दिया। फलत: मन्त्रियों को सब तरह से सहायता, सहानुभूति और सहयोग कांग्रेस ने मन्त्रिपद नहीं ग्रहण किया। गवर्नरों का देंगे, क्योंकि उस विधान ने गवर्नरों पर ऐसा अधिकार कहना है कि नियमानुसार वे ऐसा आश्वासन नहीं और कर्तव्य डाल दिया है जो मन्त्रियों की ज़िम्मेदारी को दे सकते थे और कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि प्रहसन बना देता है । यह खेद की बात है कि गवर्नरों को वे दे सकते थे। इस प्रकार एक भीषण वैधानिक अधिक निश्चित प्रतिज्ञा करने का अधिकार नहीं दिया गया। समस्या उत्पन्न हो गई है और यदि समझौते की कोई अल्पमतवालों का मन्त्रिमण्डल बनाना ज़िम्मेदार सुरत न निकली तो इस विधान के अनसार सरकार को ही न मानना है। गवर्नर लोग सरकार का कदाचित् ही कार्य हो सके। इस सम्बन्ध में देश- काम अपने हाथ में जितना ही जल्द ले लें उतना ही विदेश के विद्वानों और कांग्रेस के नेताओं तथा अच्छा है। दायी शासन को विधान का भंग होना छिपाने सरकारी पक्ष के समर्थकों ने लम्बे वक्तव्य प्रकाशित के काम में न लाना चाहिए। किये हैं। 'सरस्वती' के पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ हम कुछ महत्त्वपूर्ण वक्तव्य प्रकाशित सर तेजबहादुर सपू का मत करते हैं।
राइट आनरेबुल सर तेजबहादुर सप्रू उन व्यक्तियों में हैं जिनके पांडित्य का भारतवर्ष और ५०५
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सरस्वती
[ भाग ३८
इंग्लैंड दोनों जगह मान है। उनका कहना है कि जा सकती; और दूसरी ओर यह बात है कि इतने बड़े बहुमत होते हुए कांग्रेस ने आश्वासन व्यर्थ माँगा। बहुमत में होकर भी कांग्रेसी लोग गवर्नरों से आश्वासन
और जब आश्वासन न मिलने पर उसने मंत्रि-पद मांगने के लिए उत्सुक हुए। मंत्रियों के पीछे जो भारी नहीं स्वीकार किया तब गवर्नरों ने जो किया उनके बहुमत था उसकी उपेक्षा कोई गवर्नर नहीं कर सकता लिए वही उचित था। अल्पसंख्यकों के मंत्रिमंडल था। अगर वह ऐसा करता भी तो उसकी दवा कांग्रेसी वे बना सकते थे। ऐसे मंत्रिमंडल बन भी चुके हैं। मंत्रियों के हाथ में थी। कांग्रेस ने आश्वासन की जो माँग उनके वक्तव्य के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
पेश की है उसके कारण उस पर यह दोष लगाया जा ____ मुझे इस बात में सन्देह नहीं है कि महात्मा गांधी ने सकता है कि उसने ज़िम्मेदारी को ग्रहण करने में आनाजो युक्ति निकाली थी वह सचाई और ईमानदारी से प्रेरित कानी की है और चुनाव की सरगर्मी में जो वादे वोटरों थी। किन्तु सवाल तो यह है कि क्या उनका प्रस्ताव से किये थे उनको पूर्ण रूप से पूरा करने में वह असमर्थ विधान के अनुकूल था या प्रतिकूल । इस सम्बन्ध में मैं है। अगर यह कहा जाय कि दायित्व बड़ा है और अधिकार यही कह सकता हूँ कि गवर्नरों ने जो कुछ किया है उसके सीमित है, तो भी मंत्रिपद के दायित्व को स्वीकार करने से सिवा उनके सामने और कोई रास्ता नहीं था। सब इनकार करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। चुनाव ' प्रान्तों के गवर्नरों ने एक-सा ही जवाब दिया है इससे यह की सफलता के बाद मंत्रिपद तो स्वाभाविक रूप से ग्रहण तर्क करना कि उच्च अधिकारियों का आदेश पाकर ही कर लेना था। उन्होंने अपनी नीति अख्तियार की है, अतः प्रान्तीय चूँकि बादशाह की सरकार जारी रहना ज़रूरी है, विधान एक मज़ाक है-द्वेष और पक्षपात से खाली नहीं इसलिए गवर्नर इस बात के लिए बाध्य हुए हैं कि है। अगर सबने एक-सा ही जवाब दिया है या जवाब अल्पसंख्यक दलों या समूहों को मत्रिमंडल बनाने के लिए
बुलावें । अल्पसंख्यकों का शासन गत १०० वर्षों के अन्दर कई बार कार्यान्वित हो चुका है। एक लेखक ने लिखा है कि १८३६ से १८४१ तक, १८४६ से १८५२ तक, १८५८ से १८५९ तक, १८६६ से १८६८ तक, १८८५ से १८८६ तक, १८८६ से १८९२ तक, १९१० से १९१५ तक, १९२४ में और फिर १९२६ से १६३१ तक अल्पसंख्यकों का शासन रहा है। किन्तु सर्वोत्तम परिस्थितियों में भी अल्पसंख्यकों के शासन में एकता, साहस तथा आवश्यक समर्थन का अभाव रहता है। अल्पसंख्यकों का शासन कानूनी और वैधानिक दृष्टि से उसी प्रकार शासन
कहा जा सकता है जैसा कि बहुमत का शासन है। उसमें [सर तेजबहादुर सपू]
त्रुटियाँ अवश्य हैं, उदाहरणार्थ वह कोई स्थायी नीति नहीं देने को उन्हें आदेश किया गया है तो इसका सबब यह अख्तियार कर सकता। अतः भारत के ६ प्रान्तों में है कि इसके सिवा और कोई जवाब ही नहीं था। अल्पसंख्यकों के जो मंत्रिमंडल बनने जा रहे हैं वे बहुत ___ जहाँ तक राजनैतिक पहलू का सम्बन्ध है, प्रारम्भ थोड़े ही दिनों तक चल सकेंगे, अधिक दिनों तक कायम अच्छा नहीं हुआ है । शत्रुता और तनातनी का वातावरण न रह सकेंगे। इस वास्ते ऐसे मत्रिमंडलों से किसी को उत्पन्न हो गया है। एक ओर यह बात स्पष्ट है कि कुछ प्रसन्नता नहीं हो सकती। आवश्यकता है दृढ़ और स्थायी प्रान्तों में कांग्रेस ने निर्वाचक-समुदाय का विश्वास इतनी मंत्रिमंडल की। जब ये मंत्रिमडल अपदस्थ कर दिये अधिक मात्रा में प्राप्त किया है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जायँगे, जिसका होना निकट भविष्य में अनिवार्य है तब
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संख्या ५]
सामयिक विचार प्रवाह
५०७ .
क्या होगा ? एसेम्बली को भंग करने का परिणाम यह श्री राजगोपालाचार्य का वक्तव्य होगा कि प्रत्येक प्रान्त में कांग्रेस की और भी अधिक श्री राजगोपालाचार्य मदरास के कांग्रेसदल के सफलता होगी। दूसरा रास्ता यह होगा कि गवर्नर शासन प्रधान नेता है और उनकी सूझ, प्रतिभा और विवेकके सब अधिकारों को अपने हाथ में ले लेंगे। किन्तु ऐसा बद्धि का बडे बडे विद्वान लोग लोहा मानते हैं। उन्होंने करना शायद गवर्नरों को भी अच्छा न मालूम होगा। कई वक्तव्य प्रकाशित कराये हैं और प्रत्येक में उन्होंने ___ कांग्रेसी नेताओं को शान्त चित्त से सम्पूर्ण स्थिति पर इस बात पर जोर दिया है कि यदि इच्छा होती तो विचार करना चाहिए। समस्या को सुलझाने के लिए सरकार की ओर से आश्वासन दिया जा सकता उन्हें तथा वायसराय और गवर्नरों को कुछ समझौता था। अपने एक वक्तव्य में वे कहते हैंकरना चाहिए। संरक्षणों के औचित्य पर मैं कुछ नहीं सर तेजबहादर सप्र के वक्तव्य के दो भाग किये जा कहूँगा उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनका में विरोध कर चुका सकते हैं-एक तो उन्होंने कठपुतले की तरह बने हुए हूँ। किन्तु मुझे यह अाशा नहीं है कि रोज़मर्रा के शासन मंत्रिमंडलों की पैरवी की है, और दूसरे गवनरों से जो में उनका उपयोग किया जायगा। अगर किसी गवनर में आश्वासन माँगा गया था उस पर उन्होंने टीका-टिप्पणी इतनी नासमझी हो कि मंत्रिमण्डल के पीछे जो बहुमत की है। का बल है उसकी उपेक्षा करे तो एक अव्वल दर्जे की उन्होंने ब्रिटेन के उन अल्पसंख्यक दल के मंत्रिवैधानिक समस्या उत्पन्न हो जायगी। उस समय मंत्रिमंडल मंडलों की सूची पेश की है जिनके द्वारा वहाँ भिन्न भिन्न का इस्तीफ़ा देना न्याय संगत होगा और बहुमत के द्वारा समयों पर शासन हुए हैं, पर ब्रिटेन में उन मंत्रि-मंडलों शासन चलाना गवर्नर के लिए कठिन हो जायगा। लोकमत ऐसे मंत्रिमंडल के पक्ष में होगा। गवर्नर को किसी प्रकार का नैतिक या राजनैतिक समर्थन न प्राप्त होगा। महात्मा गांधी पूछते हैं कि क्या सर सैमुएल होर तथा अन्य मन्त्रियों को मैंने यह कहते नहीं सुना कि गवर्नर साधारणतः हस्तक्षेप करने के अपने विस्तृत अधिकारों का उपयोग नहीं करेंगे। __ अगर कांग्रेस के प्रस्ताव में और कुछ नहीं मांगा गया है तो सम्मान के साथ यह पूछा जा सकता है कि आश्वासनों के पीछे वह क्यों पड़ी है। अपने बहुमत पर क्यों 'नहीं निर्भर करते जो आपकी अपनी शक्ति है। जब
[श्री राजगोपालाचार्य] निर्वाचक समुदाय का समर्थन प्राप्त है तब गवनर के ने जिन परिस्थितियों में शासन किया था, वे यहाँ की उस हस्तक्षेप से भय खाने की क्या ज़रूरत है ? मैं महात्मा परिस्थिति से बिलकुल भिन्न हैं जिसमें यहाँ के गवर्नरों ने गांधी के साथ अन्याय नहीं करना चाहता। किन्तु उनके मंत्रि-मंडल बनाये हैं, जिनकी सार्वजनिक रूप से निन्दा हो वक्तव्य के एक भाग को दूसरे भाग से संगत नहीं पाता। रही है। सर तेजबहादुर ने ब्रिटिश विधान की वर्तमान उस वक्तव्य में एक अच्छी बात यह है कि उसके अनुसार कार्य पद्धति की उपेक्षा की है, जिसका यह रूप है कि श्राम कांग्रेस अब भी मंत्रि-पद ग्रहण करने के सम्बन्ध में अपनी चुनाव के बाद पराजित दल के मंत्री तुरन्त इस्तीफा दे स्थिति पर पुनर्विचार कर सकती है। उसमें इसके लिए देते हैं, और वे पुराने समय की तरह ठहरते नहीं कि मार्ग अभी खुला है। जब मंत्रिपद ग्रहण कर लेंगे तब उनमें पार्लियामेंट की बैठक हो जाय तब वे इस्तीफ़ा दें। भारत
और विरोधी पक्ष में संपर्क हो जायगा और तभी पार्लिया- में नये विधान के अनुसार पुराने मंत्रि-मंडलों का ख़ात्मा मेंटरी शासन की विशेषता होगी।
हो जाता है, इसलिए यहाँ उनके इस्तीफे का प्रश्न नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
भाग ३८
है। इंग्लैंड में यह बात बहुत ही अनुचित समझी जायगी कायम करने की इच्छा होती तो कांग्रेस को आश्वासन
और वहाँ ऐसा होना असम्भव है कि उस दल के देने का एक से अधिक उपाय थे । हम स्वायत्त शासन तब नेता को मंत्रि-मंडल बनाने के लिए बुलाया जाय जिसके तक कभी नहीं प्राप्त कर सकते जब तक हम उसे कहीं विरुद्ध निर्वाचकों (वोटरों) ने निश्चित रूप से अपना से प्रारम्भ न करें । सर तेजबहादुर कहते हैं कि रीतियाँ निर्णय प्रकट किया है। पर यहाँ भारत में जिन प्रान्तों में अभ्यास से बढ़ी हैं, और इसके बाद वे गर्व के साथ कहते कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुअा है, वहाँ ऐसा ही हो रहा है। हैं कि अभ्यास का यह मतलब है कि काम किया जाय सर तेजबहादुर सत ने अपने वक्तव्य में जेनिंग की किताब और काम करने से इनकार न किया जाय। इससे कोई का हवाला दिया है। वह यहाँ बिलकुल नहीं लागू होता। इनकार नहीं करता, और सर तेजबहादुर यह बात कह यहाँ के प्रान्तों में काम चलाने के लिए जो मंत्रि-मंडल कर कुछ भी साबित नहीं कर रहे हैं। हम आश्वासन बनाये गये हैं उनसे उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है माँगते थे और अब भी मांगते हैं, ताकि हम मंत्रिपद इसलिए भारतीय प्रान्तों में जो मंत्रिमंडल बने हैं उनका स्वीकार करें और उस आश्वासन के अनुसार काम कर श्रीचित्य मौजूदा या पुराने ब्रिटिश कार्यों से सिद्ध नहीं हो सकें । पर हमने पद-ग्रहण करने से इनकार कर दिया, सकता । गवर्नमेंट अाफ़ इंडिया एक्ट के शब्दों की आड़ क्योंकि गवर्नर यह नहीं चाहते कि यह रीति कायम हो में इन विचित्र असम्भव कार्यों की पुष्टि की जा सकती है। या इसे शुरू भी किया जाय । गवर्नर चाहते हैं कि मंत्रियों गवर्नमेंट अाफ़ इंडिया एक्ट के भाव का आशय उसी का सदा उनके हस्तक्षेप का भय लगा रहे, और उन्हें यह सिद्धान्त के अनुसार बताया जा सकता है जिस पर वह आशा है कि हम कोई ऐसा काम न करें जिसमें उनका एक्ट निर्भर है और केवल शब्द-कोष देखकर उस एक्ट हस्तक्षेप हो । इस तरह से काम करना राजनीति नहीं है, का मतलब नहीं समझाया जा सकता।
और इससे कोई रीति कायम न होगी। सर तेजबहादुर सप्रू के वक्तव्य के दूसरे भाग पर अब विचार किया जाता है. जिसमें आप लिखते हैं कि कानुनी
महात्मा गांधी का वक्तव्य रूप से गवर्नरों के सामने हस्तक्षेप न करने का श्राश्वासन आश्वासन माँगने के सम्बन्ध में कांग्रेस ने दिल्ली देने की माँग नहीं पेश की जा सकती। सर सप्रू कहते हैं में जो प्रस्ताव पास किया था उसके एकमात्र प्रेरक कि कानूनी ज़िम्मेदारी के बाहर गवर्नर कुछ नहीं कर महात्मा गांधी थे। उनका कहना है कि इस सम्बन्ध • सकते । इसका उत्तर यह है कि उनसे ऐसा कराने के लिए में उन्होंने कानूनी पंडितों से परामर्श कर लिया था
कोई नहीं चाहता था। हम सिर्फ यही चाहते हैं कि हमें और उन्होंने कोई ऐसी कड़ी शर्त नहीं रक्खी थी तभी मंत्रिपद स्वीकार करना चाहिए जब गवर्नर यह जिसे गवर्नर लोग विधान के भीतर स्वीकार नहीं
आश्वासन दे दें कि वे हस्तक्षेप करने के कानूनी हकों से कर सकते थे। उन्होंने दुःख के साथ यह कहा है काम न लेंगे। यदि गवर्नर यह महसूस करें कि किसी कि अब कलम या बहुमत का नहीं, तलवार का मामले में मंत्रि-मंडल ग़लती पर है, और वह इतनी ग़लती शासन होगा। वे कहते हैंपर है कि उन्हें (गवर्नर को) अवश्य हस्तक्षेप करना कोई असम्भव शर्त लगाने की मेरी इच्छा नहीं थी। चाहिए तो ऐसी दशा में उन्हें एसेम्बली भंग कर देनी इसके विरुद्ध मैंने ऐसी शर्त लगानी चाही जिसे गवर्नर चाहिए या मन्त्री को निकाल देना चाहिए, यानी लोग आसानी से स्वीकार कर सकें। ऐसी शर्त लगाने का इसका यह मतलब है कि उन्हें प्रान्तीय शासन काई इरादा ही नहीं था जिसका मतलब विधान में कुछ के दायरे के भीतर यह समझना चाहिए कि हस्त- भी परिवर्तन कराना हो। कांग्रेसजन अच्छी तरह जानते थे क्षेप करने का मतलब मंत्रियों को बदलना है या पुनः कि वे ऐसे किसी संशोधन के लिए नहीं कह सकते और निर्वाचन के लिए निर्वाचकों से अपील करना है। न कहते ।
यदि वास्तव में प्रान्तीय स्वराज्य (स्वायत्त शासन) कांग्रेस की नीति कोई संशोधन कराना नहीं, बल्कि
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: संख्या ५]
सामयिक विचार-प्रवाह
विधान का बिलकुल अन्त करना है, जिसे कोई आदमी नहीं लोग अपने हस्तक्षेप-सम्बन्धी अत्यधिक अधिकारों का पसन्द करता। कांग्रेसजन यह भी जानते थे और जानते हैं प्रयोग नहीं करेंगे ? मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के उस प्रस्ताव कि वे शर्त के साथ पद ग्रहण करके भी उस विधान का में इससे अधिक कुछ नहीं मांगा गया था। ब्रिटिश सरकार अन्त नहीं कर सकते। कांग्रेस की जिस शाखा का विश्वास की ओर से कहा गया है कि यह विधान प्रान्तों को भीतरी पद ग्रहण करने में है उसका उद्देश यह था कि ऐसे स्वतंत्रता देता है। अगर ऐसा है तो गवर्नर लोग नहीं, उपायों द्वारा जो कांग्रेस के अहिंसात्मक ध्येय से असंगत बल्कि मन्त्री लोग अपनी अवधि तक अपने प्रान्तों के न हो, ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय जिससे सारा अधि- शासन समझदारी से करने के लिए ज़िम्मेदार हैं। ज़िम्मेकार जनता के हाथ में चला जाय। उसका उद्देश कांग्रेस का बल बढ़ाने का था, जिसने यह प्रकट कर दिया है कि वह जनता का प्रतिनिधित्व करती है।
मैंने सोचा कि यह उद्देश तब तक सिद्ध नहीं हो सकता जब तक गवनरों और कांग्रेस-मन्त्रियों में यह सजनोचित कौल करार न हो जाय कि गवर्नर लोग तब तक अपने विशेषाधिकारों-द्वारा हस्तक्षेप न करेंगे जब तक मन्त्री उस विधान के अन्दर काम करेंगे। ऐसा न करने से पदग्रहण के बाद शीव्र अडंगे लगाये जाने लगते। मैं समझता हूँ कि सचाई की दृष्टि से ऐसा कौल-करार उचित था । गवर्नरों को अपने विचार से काम करने का अधिकार है । निस्सन्देह उनका ऐसा कह देना विधान के विरुद्ध न होता
महात्मा गांधी कि वे मन्त्रियों के वैधानिक कामों के विरुद्ध अपनी इच्छा दार और कर्तव्यपरायण मन्त्री अपने नित्य के कर्तव्य में का प्रयोग नहीं करेंगे। याद रखना चाहिए कि यह कौल- हस्तक्षेप बरदाश्त नहीं कर सकता।
। उन बहत-से संरक्षणों को स्पर्श न करता इसलिए मझे तो ऐसा जान पड़ता है कि ब्रिटिश जिन पर गवर्नरों का अधिकार नहीं है। निर्वाचकों का सरकार ने फिर एक बार की हुई अपनी प्रतिज्ञा तोडी है-- सुविचारित सहारा प्राप्त किये हुए किसी प्रबल दल से यह वादाख़िलाफ़ी की है। कानों को जो वादा सुनाया था
आशा नहीं की जा सकती कि वह गवर्नरों के मनमाने तौर उसका अनुभव हृदय को नहीं कराया। इस बात में मुझे पर हस्तक्षेप करने की आशंका के रहते हुए अपने को सन्देह नहीं है कि वह हम लोगों पर अपनी इच्छा तब तक अनिश्चित अवस्था में डाले।
लाद सकती है और लादेगी जब तक उसका विरोध करने यह प्रश्न दूसरे रूप में भी किया जा सकता है। गवर्नर के लिए भीतर से अपना बल काफ़ी बढ़ा नहीं लेते। परन्तु लोगों को मन्त्रियों के प्रति सौजन्य का बर्ताव रखना चाहिए। . यह कार्यतः प्रान्तीय स्वतन्त्रता नहीं कही जा सकती। मेरी राय में जिन विषयों पर कानून से मन्त्रियों को पूरा सरकार के ही बनाये हुए नियम से कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त नियंत्रण दिया गया है और जिनमें हस्तक्षेप करने के लिए किया, मगर उसका तिरस्कार करके सरकार ने स्पष्ट शब्दों गवर्नर कानून से बाध्य नहीं हैं उनमें अगर वे हस्तक्षेप करें में उस स्वतन्त्रता का अन्त कर दिया जो विधान-द्वारा देने तो यह स्पष्टतः असौजन्य होगा। एक अात्मसम्मानी मन्त्री की दोहाई उनकी अोर से दी गई है। जिसे यह याद हो कि उसे अजेय बहुमत का सहारा है, इसलिए अब तलवार का शासन होगा, कलम का या हस्तक्षेप न करने का ऐसा वचन माँगे बिना रह नहीं निर्विवाद बहुमत का नहीं। सब तरह की सद्भावना रखते सकता । क्या मैंने सर सेमुएल होर और दूसरे मंत्रियों को हुए भी सरकार के काम का यही अर्थ सूझता है, क्योंकि बार बार यह कहते नहीं सुना है कि साधारणत: गवर्नर मुझे अपने सूत्र की सचाई पर सोलह आने विश्वास है और
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उसके स्वीकार करने से संकट रोका जा सकता था और उसके फल-स्वरूप अधिकार स्वभावतः नियम और शान्ति पूर्वक नौकरशाही के हाथ से सबसे बड़े और पूरे लोकतन्त्र के हाथ में सौंपा जा सकता था ।
भारत - सचिव लार्ड ज़ेटलेंड का वक्तव्य भारत-सचिव लार्ड ज़टलेंड का कहना है कि महात्मा गांधी ने कदाचित विधान को पढ़ा ही नहीं या पढ़ा है तो उन्हें हिदायतों का स्मरण ही नहीं रहा। चूँकि भारतवासी महात्मा जी की सभी बातों को सच मान लेते हैं इसलिए उन्होंने गलतफहमी दूर करने के उद्देश से एक लम्बा वक्तव्य निकाला है । उसका एक आवश्यक अंश यह है
ऐसी अवस्था में यह उचित है कि ग़लतफहमी को दूर करने के लिए मैं इस बात को स्पष्ट कर दूँ कि गवर्नरों के सामने जो माँग उपस्थित की गई थी वह ऐसी माँग
[ लार्ड ज़ेटलैंड ]
थी जिसे विधान में संशोधन हुए बिना गवर्नर पूरा नहीं कर सकते थे । यह बात एक उदाहरण देकर समझाई जा सकती है । ऐक्ट की दफ़ा २५२ ने गवर्नरों पर कुछ
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[ भाग ३८
ख़ास ज़िम्मेदारियाँ लाद दी हैं । अल्पसंख्यकों के वैध हितों की रक्षा करना उनमें से एक ज़िम्मेदारी है । जहाँ तक इस प्रकार की किसी ज़िम्मेदारी का सवाल उठता है, गवर्नर को अपनी व्यक्तिगत निर्णय बुद्धि से यह निश्चय करना चाहिए कि क्या कारवाई की जाय । मान लीजिए कि किसी ऐसे प्रान्त में जिसमें हिन्दुओं का बहुमत है अथवा मुसलमानों का बहुमत है, मंत्रिमंडल ने एक प्रस्ताव किया कि मुस्लिम स्कूलों अथवा हिन्दू-स्कूलों की संख्या कम कर दी जाय। ऐसा प्रस्ताव करना कानून की सीमा के अन्दर होगा, इसे वैधानिक कार्य नहीं कह सकते । विधान के अन्दर ऐसा करना सम्भव होगा, इसी कारण तो पार्लियामेंट ने संरक्षण की व्यवस्था की और गवर्नरों पर विशेष ज़िम्मेदारियाँ लादी हैं । इस मामले से यह स्पष्ट है कि अल्पसंख्यकों के वैध हितों की रक्षा का सवाल खड़ा होगा और गवर्नर अपनी व्यक्तिगत निर्णय-बुद्धि से काम लेगा । अगर गवर्नर आश्वासन दे देता तो वह इस मामले में गवर्नर अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकेगा । इससे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि विधान के अनुसार गवर्नर आश्वासन नहीं दे सकते थे । महात्मा गांधी का यह कथन कि गवर्नर श्राश्वासन दे सकते थे, ग़लत है।
ऐसे संरक्षणों की श्रावश्यकता और विस्तार के सम्बन्ध में मतभेद हो सकता है, किन्तु इस बात में सन्देह नहीं किया जा सकता कि भारत की अल्पसंख्यक जातियाँ इन संरक्षणों को बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान् समझती हैं । एक भारतीय पत्र ने लिखा है कि हस्तक्षेप न करने की कांग्रेस की मंशा ठीक वैसी है जैसी कि ग्राग लगानेवाले उपद्रवकारियों की यह माँग कि उनके द्वारा प्रज्वलित की जानेवाली आग के बुझाने के लिए दमकलों का उपयोग न किया जाय ।
दुख है कि बहुमतवाले दल ने ६ प्रान्तों में मंत्रिपद ग्रहण करने से इनकार कर दिया है । बंगाल, पंजाब, पश्चिमोत्तर - प्रान्त, सिन्ध तथा आसाम के प्रान्तों में जहाँ कांग्रेस का बहुमत नहीं है, मंत्रिमंडल बन गये हैं और वे अपना कार्य कर रहे हैं । उन प्रान्तों में जहाँ कांग्रेस का बहुमत है अल्पमतवाले मंत्रिमंडल बनाये गये हैं । इन मंत्रियों के साथ हमारी सद्भावना है और हम उनकी
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सामयिक विचार-प्रवाह
सराहना करते हैं कि इस कठिन काम को उन्होंने प्रतिनिधि वायसराय से भेंट करने की इच्छा प्रकट करे तो अपने हाथ में लिया है। कुछ लोगों का कथन है कि वायसराय समझौता करने के लिए उससे मिलने को ऐसे मंत्रिमंडलों को नियुक्त करना विधान के विरुद्ध है। खुशी से तैयार होंगे। किन्तु ब्रिटिश सरकार इस बात को मानने के लिए तैयार जहाँ तक भविष्य का सम्बन्ध है वह व्यवस्थापिका नहीं है । ऐक्ट में प्रान्तीय शासन को चलाने के लिए सभात्रों के रुख पर निर्भर करता है। ऐक्ट में लिखा है मंत्रिमडल की आवश्यकता अनिवार्य कर दी गई है। उसमें कि विधान के कार्यान्वित होने की तारीख से ६ महीने के . लिखा है कि गवर्नर को सलाह व सहायता देने के लिए अन्दर ही वे सभायें बुलायी जाय । हो सकता है कि मंत्रियों की एक परिषद् होगी। और उसमें यह भी लिखा अल्पमतवाले मंत्रिमंडलों की नीति को व्यवस्थापिका है कि जहाँ तक मंत्रियों को चुनने का सम्बन्ध है, गवर्नर सभायें स्वीकार कर लें । अगर ऐसा हुआ तो ठीक ही है । अपने स्वतंत्र इच्छानुसार काम करेगा। एक्ट का श्राशय अगर व्यवस्थापिकात्रों ने उनकी नीति को स्वीकार न यह ज़रूर है कि अगर सम्भव हो तो मंत्रियों का चुनाव किया तो उन्हें अधिकार होगा कि वे निर्धारित रूप से बहुमतवाले दल से करना चाहिए, क्योंकि ऐसा न होने अपनी अस्वीकृति प्रकट करें। फिर बहुमतवाले दल को से कोई मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका में अपने बिलों को नहीं उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की संसार-प्रचलित रीति के पास कर सकेगा और न ख़र्च की मांगों को स्वीकार करा अनुसार मंत्रिमंडल बनाने का और मंत्रियों को अपदस्थ सकेगा, इसीलिए हिदायतनामे के ७ वे पैरा में लिखा है करने का अधिकार होगा। कि ऐसे मंत्रियों को चुनने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए संरक्षित अधिकार विधान का एक अन्तर्गत अंग जो व्यवस्थापिका में बहुमत को अपने पक्ष में रख सकें। है । पार्लियामेंट के अतिरिक्त और कोई उसमें परिवर्तन नहीं किन्तु यह आदेश बहुत सख़्त और अपरिहार्य नहीं है। कर सकता। गवर्नर कांग्रेस को विधान की उन शर्तों से
अगर बहुमतवाले दल के प्रतिनिधि पद-ग्रहण करना जिनसे और सब दल बँधे हुए हैं, मुक्त नहीं समझ सकते। अस्वीकार कर देते हैं तो फिर गवर्नर को इस बात की मैं खुशी के साथ इस बात को जो सर सैमुएल होर तथा स्वतन्त्रता है कि वह अन्य व्यक्तियों को मंत्रिमंडल बनाने दूसरों के द्वारा कही गई है, फिर दुहराता हूँ कि कोई कारण के लिए निमंत्रित करे, क्योंकि सम्राट की सरकार का नहीं है कि गवर्नर के विशेषाधिकारों के उपयोग करने की जारी रहना आवश्यक है। अगर ऐसे लोगों ने गवर्नर आवश्यकता क्यों उत्पन्न हो । वे अपने विशेषाधिकारों का के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है तो ऐक्ट में ऐसी उपयोग करेंगे या नहीं, यह बात मंत्रियों की नीति और कोई बात नहीं है जो उनके या गवर्नर के काम को कार्य पर ही निर्भर करेगा। सहयोग और सहानुभूति ही गैर-कानूनी कर दे।
के आधार पर विधान संचालित हो सकेगा यह भी सलाह दी गई है कि वायसराय महात्मा गांधी को बुलावें और पदग्रहण के सम्बन्ध में अपने रुख में परिवर्तन करने को उन्हें राजी करें, क्योंकि उन्हीं के कहने से
कांग्रेस की विज्ञप्ति कांग्रेस ने यह रुख अख्तियार किया है। मैं नहीं समझता इस सम्बन्ध में भारतीय कांग्रेस कमिटी के दफ्तर कि ऐसा करने से कुछ लाभ होगा। कांग्रेस के लोगों ने से भी एक विज्ञप्ति निकली है, जिसका एक महत्त्वही पद-ग्रहण करने से इनकार किया है, अतः जब तक वे पूर्ण अंश इस प्रकार हैअपने रुख को बदलने के लिए तैयार न होंगे तब तक हमारे मित्र कहते हैं कि कांग्रेस उन थोड़े दिनों में इस सम्बन्ध में और कुछ कहना फ़ज़ल है। इसके विपरीत भी किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ न कुछ कर ही अगर गवर्नरों की वैधानिक स्थिति के सम्बन्ध में ग़लत- सकती। पर कांग्रेस को विश्वास है कि उतना तो छतारी, फहमी होने के कारण ही उन्होंने अपना निर्णय किया है राव और रेड्डी भी करेंगे। मंत्रिमण्डल बने या न बने, और अगर महात्मा गांधी या कांग्रेस का और कोई जनता का कुछ भला होगा ही और वह इस कारण कि
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सरस्वती
[भाग ३८
उसने कांग्रेसजनों को बड़ी संख्या में व्यवस्थापक-सभाओं एक ही चीज़ बच गई है और वह है गांधी जी के शब्दों में भेजा है।
में तलवार का शासन' । तब भी कहा जाता है कि कांग्रेस ने अपनी चाल चलने में ग़लती की है। उसने ग़लती की या नहीं, इसे समय ही सिद्ध करेगा। यह ठीक है कि कांग्रेस केवल
महात्माजी का दूसरा वक्तव्य चालबाजियों से होनेवाले लाभ में विश्वास नहीं करती। लाडे जेटलेंड के उत्तर में महात्मा जी ने एक उसे मालूम है कि वह साम्राज्यवाद जो भारतीयों को पीस वक्तव्य निकाला है जिसका एक आवश्यक अंश कर उनका जीवन-रस चूसता जा रहा है. केवल चालबाजियों यह हैसे नहीं हटाया जा सकता। अतः उसके प्रोग्राम में चाल में समझता हूँ कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के वक्तव्य बाज़ियाँ गौण स्थान रखती हैं।
" न्याय-रहित तथा पक्षपात और खुदमुख्त्यारी की भावना से - इसके सिवा यदि कांग्रेस अाधार केवल वैधानिक नीति युक्त हैं। इसलिए मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि मैंने जो होती तो वह भी दूसरे दलों की तरह इस मौके को न शर्त रक्खी थी उसका गवर्नर लोग पूरा कर सकते थे चूकती। व्यवस्थापक-सभात्रों का प्रवेश कांग्रेस के कार्यक्रम अथवा नहीं, इस बात पर विचार करने के लिए एक पंचाका एक बहुत छोटा-सा अंग है। उससे जितना लाभ यत बैठाई जाय, जिसमें एक प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार का उठाया जा सकता था-अर्थात् जनवर्गतक पहुँचना और हो, एक कांग्रेस का और तीसरा उक्त दोनों प्रतिनिधियों उसे जागृत करना-वह चुनाव के समय ही उठाया जा का सम्मत व्यक्त हो। चुका है। जो और कुछ किया जा सकता है उसे कांग्रेस
'वर्तमान मन्त्रियों को कानूनन मन्त्रि-पद ग्रहण करने के विरोधी स्वयं ही करेंगे, क्योंकि बहुमतरूपी तलवार
__ का अधिकार है या नहीं', इस विषय पर भी उक्त पंचायत उनके सिर पर बराबर लटक रही है। कांग्रेस इससे आगे ही विचार करे । पहले भी ऐसी पंचायतें बैठी हैं। यदि बढ़ती यदि ह्वाइट-हाल ने अपने गवर्नरों को उस आश्वासन
ब्रिटिश सरकार मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार कर ले तो मैं प्रदान की आज्ञा दी होती जिसकी माँग कांग्रेसवालों ने की कांग्रेस के। यही सलाह दूंगा कि वह भी इसके लिए तैयार थी। यह नहीं हश्रा, अतः स्वभावतः कांग्रेसवाले बिना रहे । मैं चाहता हूँ, सत्य की विजय हो। किसी प्रकार की परेशानी के अपने स्थान पर डटे हैं। कांग्रेसजनों के लिए मंत्रित्व ग्रहण करना स्वयमेव कोई
भविष्य लक्ष्य या साध्य नहीं था । कांग्रेस आज भी यह विश्वास. इस प्रकार अभी इन वक्तव्यों का अन्त नहीं हुआ करती है कि जनता के हाथों में वास्तविक शक्ति तभी है और कांग्रेस और सरकार दोनों अपनी अपनी आवेगी जब ज़ोर-ज़बर्दस्ती का मुकाबिला किया जायगा। जिद पर कायम हैं। दोनों के शुभचिन्तक इस प्रयत्न और उसका यह विश्वास तब तक रहेगा जब तक साम्राज्य- में हैं कि उनके बीच एक सम्मानजनक समझौता हो वाद स्वयं ही दूसरा रास्ता नहीं पकड़ता। वह दूसरा जाय और भारत के इतिहास में एक नया पृष्ठ रास्ता पकड़ना चाहता है या नहीं, इसकी परीक्षा के लिए आरम्भ हो । परन्तु तर्कों के कटु-प्रवाह ऐसे दिन को ही भारतीय कांग्रेस कमिटी ने अपने प्रस्ताव में आश्वासन- दूर किये हुए हैं और भविष्य कांग्रेस और सरकार वाली बात जोड़ दी थी। उसने उसे अस्वीकार कर दिया. के नवोन संघर्ष से व्याप्त जान पड़ता है। ऐसी और साथ साथ बहुमत-द्वारा शासन होने के वैधानिक स्थिति में परिणाम क्या होगा, यह अभी कहा नहीं खेल को भी अस्वीकार कर दिया। उसके लिए अब केवल जा सकता । यह तो समय ही बतायेगा।
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[श्रीनन्दकिशोर अग्रवाल के सौजन्य से लैला मजनू (एक प्राचीन चित्र)
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লক্সক্স আয়ি গুল্লিা ।
Johayo
rar
सम्पादक
देवीदत्त शुक्ल श्रीनाथसिंह
जून १९३७ }
भाग ३८, खंड १ ___ संख्या ६, पूर्ण संख्या ४५०
ज्येष्ठ १६६४
नियति
लेखक, ठाकुर गोपालशरणसिंह
आशाओं की मादकता
कुछ रङ्ग दिखानेवाली है। जीवन को अब कहाँ खींचकर __ वह पहुँचानेवाली है। अभिलाषाओं के उपवन में
मधुऋतु आनेवाली है। यही देखना है अपने को
क्या वह लानेवाली है।
जो दुनिया है बीत गई
वह कभी न आनेवाली है। पर जो दुनिया अब आई है
वह भी जानेवाली है। जीवन के सुख-दुख का निर्णय
नियति सुनानेवाली है। घोर घटा यह काली-काली
क्या बरसानेवाली है।
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समालोचना
जवाहरलाल नेहरू
लेखक, श्रीयुत ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' पण्डित जवाहरलाल नेहरूजी का व्यक्तिगत जीवन भारतवर्ष के राजनैतिक जीवन के साथ इतना अधिक घुल मिल गया है कि एक को दूसरे से अलग करना असम्भव है। इसीलिए उनको आत्मकथा को बहुत-से. लोग देश की कथा भी कहते हैं। उनकी इस आत्मकथा को बगैर पढ़े किसी भारतवासी का राजनैतिक ज्ञान पूर्ण नहीं समझा जा सकता है। इस लेख में योग्य लेखक ने
जवाहरलाल जी की इस आत्मकथा का संक्षेप में बड़े ही सुन्दर ढङ्ग से परिचय दिया है।
डित जवाहरलाल नेहरू देश के राष्ट्रीय विषय की यह एक श्रेष्ठ कृति है। विलायत तथा कर्णधारों में प्रधान हैं | वे राज- अंन्यान्य देशों के प्रमुख पत्रकारों ने इस ग्रंथ की विस्तृत नैतिक नेता और राजनीति के मर्मज्ञ आलोचनायें प्रकाशित की हैं और बीसवीं सदी का इसे तो हैं ही, एक उत्कृष्ट विद्वान् , महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बतलाया है । नेहरू जी ने इस पुस्तक में विचारशील लेखक और प्रवीण 'अपनी बात' कहते हुए नवीन विचारों से युक्त भारत के
अालोचक भी हैं। विदेशी राज- राष्ट्रीय इतिहास का क्रमिक विकास इतने सुन्दर ढंग से नीति और इतिहास की विद्वत्ता उनकी विशेषता है । जिस अंकित किया है कि इससे लगभग पन्द्रह वर्ष के भीतर की प्रकार उनकी वाणी में पोज, प्रवाह, वीरत्व, मौलिकता भारतीय समस्याओं पर पूर्ण प्रकाश पड़ जाता है। मेरी
और स्पष्टवादिता है, उसी प्रकार उनकी रचना में भी ये कहानी' क्या है, नेहरू जी ने स्वयं लिखा है. इसमें सारे गुण विद्यमान हैं। नेहरू जी की वाणी देश को पिछले कुछ वर्षों की खास ख़ास घटनायों का संग्रह नहीं; जाग्रत और उन्नति करने में जितनी सहायक हुई है, उतनी इसके लिखने का यह मकसद था भी नहीं। यह तो समय ही उनकी रचनायें भी सहायक हुई हैं। इस दृष्टि से इस समय पर मेरे अपने मन में उठनेवाले खयालात और सम्बन्ध में महात्मा गांधी के बाद नेहरू जी का ही स्थान है। जज़बात का और बाहरी वाक्यात का उन पर किस तरह नेहरू जी ने संसारव्यापी राजनैतिक समस्याओं को प्रोजस्वी और क्या असर पड़ा, उसका दिग्दर्शन-मात्र है। इसमें
और आकर्षक रूप में लिपिबद्ध करके राष्ट्रीय प्रगति को मैंने अपने मानसिक विकास को-अपने ख़यालात के व्यापक और स्थायी बनाने का सुन्दर उद्योग किया है। उतार-चढ़ाव को-सही चित्रित करने की कोशिश की
वे अँगरेज़ी-भाषा के उच्च कोटि के ज़बर्दस्त लेखक हैं। है ।.........खास बात यह नहीं कि मुझ पर क्या गुज़रा, . उनकी अँगरेज़ी की पुस्तकों का यथेष्ट प्रचार भी हुआ है। बल्कि यह है कि वह मुझे कैसा लगा और उसका मुझ प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी में भी उनकी रचनायें पर क्या असर हुआ। यही इस किताब को अच्छाई और अब सुलभ हो गई हैं और इनसे हिन्दी साहित्य के एक बुराई जानने की कसौटी है।" पुस्तक का नाम 'मेरी विशेष अंग की पूर्ति हुई है।
कहानी' सार्थक है। नेहरू जी ने इसमें अपनी कहानी ___ 'मेरी कहानी'-नेहरू जी ने यों तो कई महत्त्वपूर्ण लिखी है। प्रारम्भ में उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन, पुस्तकें लिखी हैं, किन्तु कुछ समय हुआ उनका 'मेरी बाल्यकाल और शिक्षा से सम्बन्ध रखनेवाली बातें लिखी कहानी' नाम का नवीन ग्रंथ प्रकाशित हुआ है। यह एक हैं। फिर सन् १९२० से लगभग वर्तमान काल तक की विशाल ग्रंथ है। राजनीति के विद्वानों का कथन है कि राजनैतिक घटनाओं का वर्णन किया है। इस बात को
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संख्या ६]
जवाहरलाल नेहरू
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इस प्रकार भी कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी कथा लिखने के बहाने 'देश की कथा' लिखी है। गत
आन्दोलनों में नेहरू जी का विशेष हाथ रहा है, इसलिए घटनात्रों के वर्णन में स्फूर्ति और सत्यता का सुन्दर परिचय मिलता है। महात्मा गांधी ने अपनी 'अात्मकथा' में वास्तविक रूप से अपनी ही कहानी लिखी है, किन्तु उनके लिखने का ढंग निराला है । महात्मा जी की 'अात्मकथा' एक दार्शनिक पहलू पर लिखी गई है, किन्तु नेहरू जी की 'मेरी कहानी' लिखने का ध्येय दूसरा ही है। उन्होंने इस ग्रंथ में अपने जीवन के अनुभवों के वर्णन के साथ-साथ, उस समय के आन्दोलनों से उनका मानसिक विकास कैसे हुश्रा और देशसेवा की ओर उनके विचारों की किस प्रकार पुष्टि होती गई, इसका प्रभावशाली वणन किया है। हम इसे एक प्रकार से देश के पिछले चौदह वर्षों में घटित होनेवाली घटनाओं की 'डायरी' भी कह सकते हैं। इस 'डायरी' या मेरी कहानी' में नेहरू जी ने भारत में राजनैतिक दृष्टि से क्या उथल पुथल हुए, किन किन आन्दोलनों से देश में जागृति हुई, कौन-कौन-सी घटनायों का प्रभाव भारतीय जन-समूह पर पड़ा, देश के किन किन नेताओं ने इसमें प्रमुख भाग लिया और भारत सरकार का रुख किस ओर रहा, यह सबका सब आपने बड़े अच्छे ढंग से इस पुस्तक में बताया है।
बंगाल के स्वर्गीय नेता सर रासविहारी घोष के सम्बन्ध . शैला और भाषा-ग्रंथ की रचना-शैली बड़ी मना- में एक स्थान पर उन्होंने लिखा है-"सर रासविहारी हर और रोचक है। पढ़ने में उपन्यास का-सा अानन्द घुटे हुए माडरेट माने जाते थे और खाप उन दिनों श्राता है । घटनाओं का वर्णन सिलसिलेवार होने के कारण प्रमुख तिलक-शिष्य माने जाते थे, यद्यपि पीछे जाकर वे वह एक राजनैतिक उपन्यास-सा जान पड़ता है। व्यक्तिगत कपोत की तरह कामल और माडरेटों के लिए भी अत्यधिक अनुभवों, समय समय पर होनेवाली साधारण से साधारण माडरेट हो गये।" (पृष्ठ ४७) इसके सिवा और भी घटनाओं का प्रभाव हृदय पर पड़े बिना नहीं रहता। पंक्तियाँ पठनीय हैंइससे शैली और भी आकर्षक और मनोरंजक हो गई है। मगर शौकतअली वहाँ मौजूद थे, जो अधकचरे विषय के वर्णन में विनोद, हास्य और व्यंग्य की पुट लोगों में जोश भरा करते थे।" (पृष्ठ ५९) नेहरू जी ने जगह जगह ऐसे ढंग से दी है कि रचना “अदालत में एक फटे हाल महाशय पेश किये गये सजीव हो उठी है। विनोद तो उनके संघर्षमय जीवन की जिन्होंने हलफ़िया बयान दिया कि दस्तख़त मोतीलाल जी जीवनी शक्ति है। उन्होंने स्वयं लिखा है-"......मगर के ही हैं।" (पृष्ठ १०९) ज़िन्दा रहना मेरे लिए तो प्रायः असह्य हो जाता, अगर “जिस तरह जादूगर के पिटारे में से अचानक कबूतर मेरी ज़िन्दगी में कुछ लोग हँसी मज़ाक की कुछ मात्रा न निकल पड़ते हैं, उसी तरह अाडिनेन्स वगैरह निकल डालते रहते ।" ('मेरी कहानी' पृष्ठ २५४)
पडते हैं।" (प्रथ २२६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
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......रामस्वामी (सर पी० सी० रामस्वामी अय्यर) विचार-स्वातंत्र्य नेहरू जी की रचना का प्रधान गुण है। चक्करदार जीनों को पार करते हुए गगन-चुम्बी मीनार तीव्र भाषा में खरी बात कहने या प्रकट करने में वे पूर्ण पर चढ़ते चढ़ते चोटी तक जा पहुँचे, जब कि मैं पृथ्वी पर स्वतंत्रता से काम लेते हैं । 'मेरी कहानी' में विचारों के ही पृथ्वी का साधारण प्राणी बना हा हूँ।" (पृष्ठ ७२६) प्रकट करने में पूर्ण स्वतंत्रता पाई जाती है। स्पष्टवादिता की
इसी प्रकार सारी पुस्तक में व्यंग्य-विनोद और मुहा- तो झलक सारे ग्रंथ में है ही। दिखावटी शिष्टाचार से युक्त वरों से भाषा का अोज व्यक्त होता है। यही नहीं, कहीं विचारों का सर्वथा अभाव है। ऐसी शैली पर पंडित जी को कहीं हेडिंग तक विनोदपूर्ण हैं-जैसे ब्रिटिश शासकों पूरा विश्वास भी है। वे स्वयं लिखते हैं-"......जो की हू हू', 'ब्रिटिश शासन का कच्चा चिट्ठा' और 'नाभा का लोग सार्वजनिक कामों में पड़ते हैं उन्हें आपस में एकनाटक' आदि। जहां एक ओर गद्यशैली में मनोरंजकता दूसरे के और जनता के साथ, जिसकी कि वे सेवा करना का ध्यान रक्खा गया है, वहीं दूसरी ओर कवित्व की भी चाहते हैं, स्पष्टवादिता से काम लेना चाहिए। दिखावटी झलक दिखाई पड़ती है। नेहरू जी ने लिखने में जहाँ शिष्टाचार और असमंजस और कभी कभी परेशानी में गम्भीरता धारण की है, वहाँ की भाषा प्रौढ़ और भावना- डालनेवाले प्रश्नों को टाल देने से न तो हम एक-दूसरे पूर्ण हो गई है। प्रत्येक 'चैप्टर' में संसार के दार्शनिकों, को अच्छी तरह समझ सकते हैं और न अपने सामने की कवियों की उत्कृष्ट रचनायें भी उद्धृत हैं। इससे भावु- समस्याओं का मर्म ही जान सकते हैं।" (प्रस्तावना कता और गम्भीरता का पूर्ण अाभास मिलता है। पृष्ठ १०) किन्तु स्पष्टवादिता और विचार-स्वातत्र्य के कारण कविताओं में ही नहीं, गद्य में भी स्थान स्थान पर उनकी कहीं भी विक्षोभ और कटुता का अनुभव नहीं होता, बरन भावुकता प्रकट होती है । महात्मा गांधी और पंडित मोती- पढ़ने पर अानन्द ही आता है । द्वेष या दुर्भावना लेशलाल नेहरू के मिलाप को उन्होंने इस प्रकार लिखा है- मात्र भी कहीं नहीं प्रकट होती । अपने पिता स्वर्गीय पंडित ____ "मनोविश्लेषण-शास्त्र की भाषा में कहें तो यह एक मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी तथा असहयोग और अन्तर्मुख का एक बहिर्मुख के साथ मिलाप था ।” सत्याग्रह में शामिल होनेवाले देशभक्तों की उन्होंने यथा(पृष्ठ ८१)
स्थान चर्चा करते हुए उनके कार्यों की तीव्र आलोचनायें "बरसों मैंने जेल में बिताये हैं ! अकेले बैठे हुए, की हैं, किन्तु ऐसे स्थल भी विनोद और शिष्टता से पूर्ण अपने विचारों में डबे हुए, कितनी ऋतुओं को मैंने एक- ही हैं । लिबरल पार्टी के कार्यों तथा उसके नेताओं की दूसरे के पीछे आते-जाते और अन्त में विस्मृति के गर्भ में टीका-टिप्पणी में भी विचार-स्वातंत्र्य को प्रधानता दी गई लोन होते देखा है ! कितने चन्द्रमाओं को मैंने पूर्ण है, और बड़ी सुन्दरता के साथ उनके वास्तविक विचारों, विकसित और क्षीण होते देखा है और कितने झिलमिल मनोभावों का चित्रण किया गया है, जो शालीनता से युक्त करते तारामंडल का अबाध और अनवरत गति और है। संभवतः ऐसे स्थल विचार-वैषम्य के कारण लिबरलों शान के साथ घूमते हुए देखा है ! मेरे यौवन के कितने को क्षुब्ध करनेवाले हो सकते हैं, किन्तु नरम-गरम का अतीत दिवसों की यहाँ चिता-भस्म हुई है और कभी विचार न करनेवाले पाठकों के लिए सारे ग्रंथ में विचारकभी मैं इन अतीत दिवसों की प्रेतात्माओं को उठते हुए, स्वतंत्रता और स्पष्टवादिता का प्रवाह एक-सा प्रवाहित अपनी दुःखद स्मृतियों को साथ लाते हुए, कान के पास होता ही मिलेगा। इसी प्रकार भारत तथा ब्रिटेन की आकर यह कहते हुए सुनता हूँ 'क्या यह करने योग्य शासन-पद्धतियों पर भी-जो घटनाओं से संबंध रखती हैंथा' ! और इसका जवाब देने में मुझे कोई झिझक नहीं अपना स्पष्ट मत प्रकट किया गया है। विचार-स्वातंत्र्य की है।” (पृष्ठ ७२८)
दृष्टि से इस पुस्तक की समता राजनीति-विषय की कोई यह अवतरण काव्यात्मक शैली का एक सुन्दर उदा- दूसरी पुस्तक नहीं कर सकती है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी इस ग्रंथ का कम महत्त्व विचार-स्वातंत्र्य और ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है । इसे हम सन् १९२० से सन् १९३४ तक का
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संख्या ६.]
जवाहरलाल नेहरू
Za
.५२५
पंडित जवाहरलाल नेहरू का एक अप्राप्य चित्र । इसे प्रयाग के प्रसिद्ध फोटोग्राफर श्री पी० एन० वर्मा ने ख़ास तौर से शरस्यती के लिए सीवा यथा । पहाडियाथी कोन्तिम गिरफ्तारी और श्री कमला जी की बीमारी के पूर्व का दिन है।
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सरस्वती
कांग्रेस का इतिहास कह सकते हैं । इन चौदह-पन्द्रह वर्षों में देश की जो उन्नति हुई और जन साधारण में जागृति का जो संचार हुआ है वह राष्ट्रीय दृष्टि से इतिहास की चीज़ है । नेहरू जी ने प्रधान रूप से इस ग्रंथ में 'असहयोग', 'साम्प्रदायिकता का दौर दौरा', 'साइमन कमीशन का आगमन', 'सविनय अवज्ञा', 'यरवदा की संधि-चर्चा', 'दिल्ली का समझौता', 'गोलमेज़ कान्फरेंस', 'डोमीनियन 'स्टेट्स' और 'आज़ादी', 'भूकम्प', 'पूरब और पश्चिम में लोकतंत्र' तथा देश के भिन्न भिन्न शहरों में होनेवाले कांग्रेस के अधिवेशनों का वर्णन तथा उसके गुण-दोषों का विवेचन भले प्रकार किया है। उक्त समस्यायें अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखती हैं। इसी लिए यह पुस्तक भी अपनी महत्ता रखती । एक ख़ास बात और है कि अभी तक राष्ट्रीय या कांग्रेस-संबंधी जो ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं उनमें प्रायः घटनाओं का क्रमपूर्वक वर्णन ही प्राप्त होता है, किन्तु 'मेरी कहानी' में घटनाओं के वर्णन के साथ ही साथ उनकी आंतरिक परिस्थितियों का अवसर के अनुसार व्यक्तिगत भी - जो चित्रण किया गया है वह बड़ा व्यापक है और वास्तविकता से परिचित कराने में सहायक होता है ।
वर्णन और आलोचना - यह पुस्तक अरसठ परिच्छेदों में समाप्त की गई है । प्रायः सभी परिच्छेदों के विषयों का प्रतिपादन वर्णनात्मक रीति से किया गया है। कुछ परिच्छेदों में विषयों का सुन्दर विवेचन भी हुआ है । ‘मज़हब क्या है', 'जेल में पशु-पक्षी', 'लिबरल दृष्टिकोण', 'डोमीनियन स्टेट्स और आज़ादी', 'अन्तर्जातीय विवाह और लिपि का प्रश्न', 'पूरब और पश्चिम में लोकतंत्र' आदि प्रकरण विवेचनात्मक ढंग से लिखे गये हैं । वर्णन और विवेचन में नेहरू जी ने ज़ोरदार भाषा में अपने विचारों को व्यक्त किया है। किसी भी विचार को घुमा-फिरा कर और विस्तार के साथ नहीं लिखा है, बरन चुस्त और दुरुस्त ढंग से वर्णन और विवेचन किया है। नेहरू जी को कई वर्षों तक आज़ादी के लिए जेलों में रहना पड़ा है, इसलिए जेल - संबंधी अपने विचारों को उन्होंने बड़ी सुन्दरता के साथ अंकित किया है साथ ही जेलों के सुधार के संबंध में कड़ी टीका टिप्पणी भी की है। 'मेरी कहानी' में विषयों और घटनाओं का वर्णन आलोचनात्मक रीति से
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[ भाग ३८
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हुआ है । यही आलोचना और टीका-टिप्पणी पुस्तक का जीवन है । इसके पढ़ने से लिबरल पार्टी, कांग्रेस-दल, कांग्रेस और सरकार का मतभेद, सरकारी रुख, साम्प्रदायिकता आदि के संबंध में बहुत-सी आन्तरिक बातों का ज्ञान हो जाता है। देश में बड़े बड़े नेता हैं । लिबरल दल के और कांग्रेस के नेताओं में मतभेद रहा है। मुस्लिम नेता भी समय समय पर अपनी नीति बदलते रहे हैं। कभी सम्प्रदायवादियों का बोलबाला हुआ, कभी अन्य दल के नेताओं का । धीरे धीरे आन्दोलनों का खात्मा होता गया और राजनैतिक क्षेत्र में नेताओं की नीति ने कठिन पहेली का रूप धारण कर लिया। पंडित जी ने 'मेरी कहानी' में राष्ट्र के ऐसे भिन्न भिन्न दलों और नेताओं की नीतियों का श्रालो. चनात्मक रूप में विश्लेषण किया है। इससे हमें उनकी नीतियों का हो पता नहीं चलता, बरन उन्हें व्यक्तिगत रूप से भी जानने का मौका मिलता है । नरम से नरम और गरम से गरम नेताओं के व्यक्तित्व का आकर्षक और निर्भीक चित्रण किया गया है ।
लिवरल नेताओं में श्री गोपाल कृष्ण गोखले के शान्त स्वभाव और सहनशीलता की नेहरू जी ने प्रशंसा की है। सर तेजबहादुर सप्रू, सर पी० सी० रामस्वामी अय्यर, भूपेन्द्रनाथ वसु, सर रासविहारी घोष और महामान्य श्रीनिवास शास्त्री के संबंध में अनेक घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कई मनोरंजक बातें लिखी है। मिस्टर गोखले से एक बार भूपेन्द्रनाथ वसु से रेल में भेंट हो गई । इस घटना का ज़िक्र करते हुए नेहरू जी ने लिखा है— "वसु महोदय गोखले के पास गये और बात-चीत में पूछने लगे कि क्या मैं आपके डिब्बे में सफ़र कर सकता हूँ। यह सुनकर पहले तो गांखले कुछ चौंके, क्योंकि बसु महाशय बड़े बातूनी थे, लेकिन फिर स्वभाववश वे राजी हो गये ।" (पृष्ठ ३६ )
माननीय श्रीनिवास शास्त्री की कई स्थलों पर चर्चा की गई है। मिसेज़ बेसेन्ट की नज़रबन्दी पर श्री शास्त्री जी की नीति का ज़िक्र करते हुए लिखा है
श्री
“मुझे याद है कि नज़रबन्दी के कुछ दिन पहले तक श्रीनिवास शास्त्री के वक्तृत्वपूर्ण भाषणों को पढ़कर हम लोगों के दिल हिल जाते थे । लेकिन नज़रबन्दी से ठीक पहले या उसके बाद से श्री शास्त्री चुप हो गये ।
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जब काम का वक्त आया तब वह हमें बिलकुल छोड़ गये...... उनकी चुप्पी पर हममें बहुत मायूसी और नाराज़गी फैली। तब से मेरे दिल में यह विश्वास घर कर गया है कि श्री शास्त्री कर्मवीर नहीं हैं और संकट काल उनकी प्रतिभा के अनुकूल नहीं पड़ता ।" (पृष्ठ ४१ )
एक स्थान पर तिलक के प्रमुख शिष्य श्री खापर्डे और माडरेट नेता सर रासविहारी घोष की बातचीत का प्रसंग है । वह इस प्रकार है
" खापर्डे कहने लगे कि गोखले ब्रिटिश सरकार के एजेन्ट थे । उन्होंने लन्दन में मेरे ऊपर भेदिये का काम किया ।...... सर रासविहारी बोले- गोखले पुरुषोत्तम थे I मैं किसी को उनके ख़िलाफ़ एक शब्द न बोलने दूंगा । तब खापर्डे श्रीनिवास शास्त्री की बुराई करने लगे । लेकिन उन्होंने कोई नाराज़गी नहीं दिखाई। इसके बाद श्री खापर्डे उनके मुक़ाबिले में तिलक की तारीफ़ करने लगे । बोले— 'तिलक निस्सन्देह महापुरुष, एक आश्चर्यजनक पुरुष, महात्मा हैं ।' सर रासबिहारी बोलेमहात्मा ! मैं ऐसे महात्मानों से नफ़रत करता हूँ ।"
इसी प्रकार लिबरल पार्टी की नीति और उसके नेताओं के बारे में अनेक प्रसंग आये हैं, जिनसे बड़ा मनोरंजन होता है तथा तत्कालीन लिवरल नेताओं के सम्बन्ध में जो कांग्रेस के भी कर्ताधर्ता थे- व्यक्तिगत बातें मालूम होती हैं। साथ ही इससे उनकी विचारप्रवृत्तियों का भी अनुमान लगाया जा सकता है ।
ख़िलाफ़त - ग्रान्दोलन, मुसलमान नेताओं और सम्प्रदायवादियों पर ऐसा जान पड़ता है कि नेहरू जी की प्रारम्भ से ही वक्रदृष्टि रही है । 'मेरी कहानी' में इनकी तीव्र आलोचना की गई है। मुसलमानों के नेता श्री मुहम्मद अली जिन्ना के व्यक्तित्व का चित्रण बड़ी ख़ूबी के साथ हुआ है । एक स्थान पर लिखा है—
जवाहरलाल नेहरू
" सरोजिनी नायडू ने उन्हें (मि० जिन्ना) 'हिन्दूमुसलिम एकता का दूत' कहा था. उस खद्दरधारी भम्भ में जो हिन्दुस्तानी में व्याख्यान देने का मतालबा करती थी, वह अपने को बिलकुल बेमेल पाते थे ।...... आगे जाकर एकता का यह पुराना एलची उन प्रतिगामी लोगों में मिल गया जो मुसलमानों में बहुत ही सम्प्रदायवादा थे ।"
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मौलाना मोहम्मद अली देश के बड़े मुसलिम नेताओं में थे, किन्तु 'कोकानडा की कांग्रेस और मुहम्मद अली' शीर्षक परिच्छेद को पढ़कर मौलाना साहब के विचारों का पूर्णतया बोध हो जाता है। पंडित जी ने अली भाइयों को उसी वक्त से सम्प्रदायवादी समझ रक्खा था जब वे ख़िलाफ़त आन्दोलन के कर्ताधर्ता थे और कांग्रेस के स्तम्भ थे। नेहरू जी के मत के अनुसार - "अली भाइयों ने भी, जो ख़ुद मज़हबी तबीयत के आदमी थे, इस सिलसिले Par (मौलवियों का प्रभाव बढ़ाने में) और ताक़त दी । " ली बन्धुत्रों के सम्बन्ध में दो अवतरण अधिक रोचक हैं
" मुहम्मद अली ने कहा- कोई भी कुरान को अपने दिमाग़ का दरवाज़ा खोलकर और एक जिज्ञासु की भावना से पढ़ेगा तो ज़रूर ही वह उसकी सचाई का कायल हो जायगा । उन्होंने यह भी कहा कि बापू (गांधी जी) ने उसे ग़ौर से पढ़ा है और वे ज़रूर इस्लाम की सचाई के क़ायल हो गये होगे । लेकिन उनके दिल की मग़रूरी उन्हें उसको ज़ाहिर करने से मना करती है ।" (पृष्ठ १४६ )
"लाहौर कांग्रेस के वक्त आखिरी दफ़ा, मैं उनसे मिला था ।...... उन्होंने मुझे गम्भीर चेतावनी दी - 'जवाहर ! मैं तुम्हें चेताये देता हूँ कि तुम्हारे आज के ये साथी-संगी सब तुमको अकेला छोड़ देंगे । जब कोई मुसीबत का और आन-बान का मौका श्रायेगा उसी वक्त ये तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। याद रखना खुद तुम्हारे कांग्रेसी ही तुम्हें फाँसी के तख़्तें पर भेज देंगे।' कैसी मनहूस भविष्यवाणी थी !” (पृष्ठ १४७)
कांग्रेस आन्दोलन और उसके नेतात्रों की नीति पर भी 'मेरी कहानी' में आलोचनात्मक दृष्टि डाली गई है। अपने पिता स्वर्गीय पंडित मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, पं० मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, देशबन्धु दास, जे० एम० सेन गुप्त, अब्दुल गफ्फार खाँ, डाक्टर अन्सारी, हकीम अजमल ख़ाँ आदि का भी प्रसंग के अनुसार ज़िक्र किया गया है। इनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में अनेक नई बातें मालूम होती हैं। अपने पिता . पंडित मोतीलाल नेहरू का चरित्र चित्रण बड़ी खूबी, सचाई और निष्पक्षता से किया है। पंडित मोतीलाल जी स्वभाव के उग्र, ज़िद्दी और कांधी थे। लेकिन इसके सिवा बुद्धिमान्, स्वाभिमानी और श्रान-बानवाले भी थे ।
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सपा
[भाग
पहले वे माडरेट थे, बाद को वे उग्र कांग्रेसी बन गये थे। यदाकदा मतभेद प्रकट करते हुए अपनी नीति का प्रतिअनेक स्थलों पर स्वर्गीय नेहरू जी के व्यक्तित्व पर सुन्दर पादन किया है। नेहरू जी एक युद्ध-प्रिय नेता हैं, संघर्ष प्रकाश पड़ता है। कुछ अवतरण इस प्रकार हैं- ही उनके जीवन की प्रधानता है। महात्मा जी ने जितने ___"लेकिन जहाँ मैं उनकी इज्जत करता था और उन्हें अान्दोलनों का संचालन किया, कुछ दिन बाद वे महात्मा बहुत ही चाहता था, वहाँ मैं उनसे डरता भी था। नौकर- जी की प्रेरणा या देश में मतभेद के कारण असफलता चाकर और दसरों पर बिगडते हए मैंने उन्हें देखा था। को प्राप्त हए, इस पर नेहरू जी ने अपनी स्पष्ट राय जाहिर उस समय वे बड़े भयंकर मालूम होते थे और मैं मारे डर की है । इस सम्बन्ध में महात्मा जी के कुछ विचारों से मतके कांपने लगता था।......उनका स्वभाव दर असल भेद भी जाहिर किया है। कुछ अवतरण इस प्रकार हैंभयंकर था और उनकी श्रायु के ढलते दिनों में भी "यों मजमों से मुझे परहेज़ न था, मगर उनका-सा गुस्सा मुझे किसी दूसरे में देखने को नहीं के साथ चलनेवालों का जैसा हाल होता है, यानी धक्के मिला। लेकिन खुशकिस्मती से उनमें हँसी-मज़ाक का खाना और अपने पैर कुचलवाना ये मुझे ललचाने को माद्दा बड़े ज़ोर का था और वे इरादे के बड़े पक्के थे। काफ़ी न थे।" (पृष्ठ १०)
“वे अकसर कहते थे कि 'दरिद्र नारायण' के लिए ___पंडित मोतीलाल जी 'स्वराज्य-पार्टी के लीडर थे। धन चाहिए ।...मुझे यह बात पसन्द नहीं थी। क्योंकि स्वराज्य-पार्टी ने असेम्बली में अपना बहुमत कायम कर मुझे तो दरिद्रता एक घृणित चीज़ मालूम होती थी, लिया था। इस सम्बन्ध में एक स्थान पर लिखा है- जिससे लड़कर उसे उखाड़ फेंकना चाहिए, न कि उसे ___"पिता जी असेम्बली के कामों में उसी तरह तैरने बढ़ावा देना चाहिए।" (पृष्ठ २३७) लगे जैसे बत्तख़ पानी में ।" (पृष्ठ १६०)
सत्याग्रह-अान्दोलन को महात्मा जी ने चौरीचौरास्वराज्य-पार्टी के साथ महामना मालवीय जी की कांड के बाद स्थगित कर दिया था। इस पर नेहरू जी नेश्नलिस्ट पार्टी का भी प्रसंग आया है। इस प्रसंग में ने अपनी दलीलों से यह ज़ाहिर किया है कि गांधी जी महामना मालवीयजी के सम्बन्ध में कई बातें लिखी हैं। ने यह गलती की थी और अपनी प्रोजस्विनी आलोचना कहीं कहीं मालवीय जी की नीति और देश-प्रेम की सुन्दर में अपना मत प्रकट किया है । इसी प्रकार अनेक स्थलों व्याख्या की गई है। कुछ अवतरण इस प्रकार है- पर महात्मा जी और उनके भक्तों की प्रशंसा भी की है।
"नई नेश्नलिस्ट पार्टी अधिक माडरेट या गरम दृष्टि- सरदार वल्लभभाई पटेल के लिए एक स्थान पर लिखा कोण की प्रतिनिधि थी। वह निश्चित रूप से स्वराज्य-पार्टी है-"सरदार वल्लभभाई से बढ़ कर हिन्दुस्तान में कोई से ज़्यादा सरकार की तरफ़ झुकी हुई थी।" पृष्ठ (१९३) दूसरा गांधी जी का भक्त नहीं है ।" नेहरू जी ने महात्मा
"पुराने ताल्लुकात की वजह से वे कांग्रेस में ज़रूर जी की आलोचना के साथ ही अनेक स्थलों पर उनकी बने हुए थे, लेकिन उनका (मालवीय जी) दिमागी दृष्टिकोण भूरि भूरि प्रशंसा की है। उनकी सचाई, आध्यात्मिकता, लिबरलों या माडरेटों के दृष्टिकोण से ज़्यादा भिन्न न था।" और चरित्र-बल के वे कायल हैं। उदाहरणार्थ(पृष्ठ १९३)
"असहयोग जनता का एक अान्दोलन था। उसका "उनकी आवाज़ की तरफ़ लोगों का ध्यान अब भी अगुश्रा था ऐसा दबंग शख्स जिसे हिन्दुस्तान के लोग जाता है, लेकिन वे जो भाषा बोलते हैं उसे अब बहुत- बड़े भक्ति-भाव से देखते थे।" (पृष्ठ ८५) से लोग न तो समझते ही हैं और न उसकी परवाह ही "गांधी जी का ज़ोर किसी किसी सवाल को बुद्धि से करते हैं।” (पृष्ठ १९५)
समझने पर कभी नहीं होता था, बल्कि चरित्र-बल और महात्मा गांधी की सत्यता, ईमानदारी, अहिंसा-सम्बन्धी पवित्रता पर होता था, और उन्हें हिन्दुस्तान के लोगों को उसूलों की भी प्रशंसा और कहीं कहीं अालोचना की है। दृढ़ता और चरित्र-बल देने में आश्चर्यजनक सफलता राजनैतिक क्षेत्र में नेहरू जी ने गांधी जी की राजनीति से मिली है।" (पृष्ठ ९३)
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"कुछ कुछ तो गांधी जी के शब्द मेरे कानों में खटकते थे जैसे 'राम-राज्य' जिसे फिर वे लाना चाहते थे। लेकिन मैं इसी ख़याल से तसल्ली कर लिया करता था कि गांधी जी ने उसका प्रयोग इसलिए किया है कि इन शब्दों को सब जानते हैं और जनता उन्हें समझ लेती है । उनमें जनता के हृदय तक पहुँच जाने की विलक्षण स्वाभाविक शक्ति थी ।" (पृष्ठ ९० )
पं० जवाहरलाल जी ने 'मेरी कहानी' में गांधी जी के लिए 'महात्मा' का शब्द दो ही एक स्थानों में प्रयोग किया है । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो दलील दी भी बड़े मार्के की है-
है वह
“मैंने इस पुस्तक में सब जगह महात्मा गांधी के जय गांधी जी लिखा है, क्योंकि वह खुद 'महात्मा गांधी' के बदले 'गांधी जी' कहा जाना पसन्द करते हैं । अँगरेज़ लेखकों के लेखों और पुस्तकों में मैंने इस 'जी' की विचित्र व्याख्यायें देखी हैं । कुछ ने कल्पना कर ली है कि वह प्यार का शब्द है, और गांधी जी के मानी हैं 'नन्हें से प्यारे गांधी' । यह बिलकुल वाहियात है ।” (पृष्ठ ३८)
देश में जितने आन्दोलन हुए वे प्रायः एक के बाद दूसरे असफल होते गये। ऐसा क्यों हुआ, इस पर भी नेहरू जी ने विहंगम दृष्टि डाली है । नेहरू जी ने यह साफ़ तौर से लिखा है कि सफलता की ज़िम्मेदारी कुछ तो कांग्रेस में घुस आनेवाले गैर-जिम्मेदार कार्यकर्ताओं पर और कुछ देश के वातावरण के परिवर्तन पर है। इनमें साम्प्रदायिक लोगों के सिवा सरकार के राजनैतिक दाँव-पेंचों का भी विशेष हाथ रहा है । 'कौंसिल प्रवेश', 'किसान - श्रान्दो लन', 'नमक सत्याग्रह' आदि की असफलताओं के रहस्यों का भी उद्घाटन ज़ोरदार दलीलों के साथ किया है । पुस्तक का तीन हिस्सा आलोचना और वर्णन से भरा हुआ है। जेल में अधिक रहने के कारण यद्यपि नेहरू जी को कहीं कहीं आन्दोलनों के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातों का विवरण नहीं मिल सका है— जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है - तो भी उपलब्ध सामग्री इतनी यथेष्ट है कि उसके वर्णन और आलोचनात्मक चित्रण में काफ़ी सजीवता श्रा गई है।
जवाहरलाल नेहरू
किसान और मजदूर - पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 'अपनी कहानी' में प्राय: मज़दूरों और किसानों की माँगों
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का, उनकी उन्नति और संगठन का पक्ष समर्थन किया है । उनके स्वार्थ में जो रुकावटें पड़ीं या पड़ रही हैं उनकी हर जगह मुख़ालिफ़्त की है। नेहरू जी में यह भावना विद्यार्थी जीवन से ही है । पुस्तक के प्रारंभिक अंशों और घटनाओं के पढ़ने से इस बात का परिचय प्राप्त होता है । विलायत में शिक्षा पाने के समय से ही उनके हृदय में इस भावना का उदय हो चुका था। भारत में जब वे प्राये और सार्वजनिक कामों में भाग लेने लगे तब 'अवध के किसान आन्दोलन' ने उनके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला । इन्हीं किसान-सभाओं के द्वारा नेहरू जी को भाषण करने की शक्ति प्राप्त हुई । 'किसानों में भ्रमण ' परिच्छेद में उन्होंने किसानों की दरिद्रता और संकट का अच्छा दिग्दर्शन कराया है । 'युक्तप्रांत में करबंदी', 'युक्त प्रांत में किसानोंसंबंधी दिक्कतें' और 'ट्रेडयूनियन कांग्रेस' के परिच्छेद इसी प्रकार के विचारों से श्रोत-प्रोत हैं। ग़रीबी की कठिनाइयों का नेहरू जी को अच्छा अनुभव है और उसे दूर करने में उनकी प्रेरणा है । उन्होंने अपने विचारों को निर्धन श्रेणी के विचारों के अनुरूप बना लिया है । यही कारण है कि वे इस समस्या को बड़ी ख़ूबी और विवेचनात्मक ढंग से अंकित करने में सफल हुए हैं। भारत में ही नहीं, जब जब नेहरू जी ने योरप की यात्रा की थी तब त वहाँ भी इसी समुदाय के विचारों का स्वागत किया और उसके अान्तरिक स्वरूप को समझने की चेष्टा की । 'ब्रूसेल्स में पीड़ितों की सभा' लेख में योरप के पीड़ितों तथा वहाँ के मज़दूरों की नीति और आन्दोलन का जीता जागता चित्र चित्रित किया है। भारत में मज़दूरों के समर्थक और नेता श्री एन० एम० जोशी की नेहरू जी
बड़ी प्रशंसा की है । नेहरू जी में समाजवाद की भावना बहुत कुछ इसी श्रेणी के लोगों के कारण प्राप्त हुई है और समाजवाद की व्याख्या भी उनके अनुरूप हुई है। समाजवादी नेता श्री एम० एन० राय से उनकी मुलाक़ात मास्को (रूस) में हुई थी। नेहरू जी ने स्वयं लिखा है – “एम० एन० राय के बुद्धि-वैभव का मुझ पर अच्छा असर पड़ा।” (पृष्ठ १९० ) इसी प्रकार सारी पुस्तक में प्रारंभ से अंत तक भारत के इस विशाल समुदाय का ज़िक्र प्रसंगवश हुआ है, जिससे नेहरू जी के हृदय की विशालता का परिचय मिलता है ।
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सरस्वती
विदेशी राजनीति — नेहरू जी ने पिछले वर्षो में दो-एक बार योरप की यात्रा की । जर्मनी, स्विटज़लैंड, फ़्रांस, इंग्लेंड और रूस आदि देशों में जाकर वहाँ के सार्वजनिक आन्दोलनों का अध्ययन किया । योरप की समस्याओं का वर्णन नेहरू जी ने 'योर में', 'आपसी मतभेद,' 'ब्रूसेल्स में पीड़ितों की सभा, ' शीर्षक स्तम्भों में भली भाँति किया है । इन परिच्छेदों में राजनैतिक विचारों को लिपिबद्ध करने के सिवा विदेशों में निर्वासित कई भारतीयों का भी ज़िक्र किया है। इन अंशों को पढ़कर निर्वासितों के संबंध में कई ज्ञातव्य बातें मालूम होती हैं । ऐसे स्थल मनोरंजक हैं । राजा महेन्द्रप्रताप, श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल, मौलवी उबैदुल्ला, मौलवी बरकतउल्ला, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, एम० एन. राय और चम्पक रमन पिल्ले के विचारों और उनके व्यक्तिगत जीवन की अनेक घटनाओं का विवरण प्राप्त होता है । सन् १९२७ में ब्रूसेल्स में होनेवाली पीड़ितों की कान्फरेंस में नेहरू जी शामिल हुए थे । इस कानफ़रेंस के सभापति ब्रिटेन के मज़दूर - नेता जार्ज लांसबरी थे । नेहरू जी ने जार्ज लांसबरी की राजनीति को बड़े विनोदात्मक ढंग से लिखा है। भारत की ही भाँति योरप में भी पूँजीवाद के विरुद्ध एक आन्दोलन हो रहा है । कम्यूनिस्टों का प्रचार कार्य बढ़ रहा है, इसका भी ज़िक्र किया है। इस स्तम्भ से योरप की राजनैतिक उथल-पुथल पर गहरा प्रकाश पड़ता है। रूस के भ्रमण ने तो नेहरू जी को "अध्ययन करने की एक बुनियाद दे दी ।"
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व्यक्तिगत बातें - अंत में हम नेहरू जी की व्यक्तिगत बातों और सौजन्य- पूर्ण विचारों का बिना उल्लेख किये नहीं रह सकते । नेहरू जी ने 'अपनी कहानी' में व्यक्तिगत बातें भी लिखी हैं। जहाँ उन्होंने श्रौरों के संबंध में स्पष्टवादिता से काम लिया है, वहाँ अपने लिए भी वही रुख अख्तियार किया है। वे मुसीबतों से घबरानेवाले नहीं । संघर्षमय जीवन के वे क़ायल हैं। अपने परिवार, मालीहालत का भी यथास्थान स्पष्टता के साथ लिखा है। कुछ स्थल तो बड़े हृदयविदारक हैं, मार्मिक भावना से भरे हैं। स्वर्गीय कमला नेहरू के संबंध में कुछ अवतरण इस प्रकार हैं
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[ भाग ३८
अपने परिवार में शान्ति और सान्त्वना मिली है । मैंने महसूस किया कि इस दिशा में मैं खुद कितना अपात्र निकला । यह सोचकर मुझे शर्म भी मालूम हुई । मैंने महसूस किया कि सन् १९२० से लेकर मेरी पत्नी ने जो उत्तम व्यवहार किया उसका मैं कितना ऋणी हूँ । स्वाभिमानी और मृदुल स्वभाव की होते हुए भी उसने न मेरी सनकों ही को बरदाश्त किया, बल्कि जब जब मुझे शान्ति और तसल्ली की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तब तब वह उसने मुझे दी ।” (पृष्ठ १३०)
श्रीमती कमला नेहरू के संबंध में कई स्थानों पर कुछ मार्मिक बातें लिखी गई हैं और वे करुणा से पूर्ण हैं । ऐसा जान पड़ता है कि नेहरू जी ने स्वयं ऐसे मार्मिक विषयों की उपेक्षा की है। ऐसे अवतरणों को पढ़ने से बेदना का अनुभव होता है ।
"मुझे पता लगा कि मेरे पिता जी और मेरे बारे में एक बहुत प्रचलित कहावत यह है कि हम हर हफ्ते अपने कपड़े पेरिस की किसी लांड्री में धुलने को भेजते थे । ... इससे ज्यादा जीव और वाहियात बात की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता। अगर कोई इतना मूर्ख हो कि वह ऐसे झूठे बड़प्पन के लिए इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची करे, तो मैं समझता हूँ कि वह अव्वल दर्जे का उल्लू ही समझा जायगा ।" (पृष्ठ २५२)
पं० जवाहरलाल जी ने अपने को व्यक्तिगत रूप से 'हिन्दू' और 'ब्राह्मण' घोषित किया है । यह एक मार्के की बात है । आज कल कांग्रेस के हिन्दू नेता प्रायः इस विचार के हैं कि वे अपने को 'हिन्दू' कहने और 'हिन्दूत्व' का समर्थन करने में लज्जा का अनुभव करते हैं। नेहरू जी ने 'हिन्दूत्व' की अत्यधिक प्रशंसा की है। कांग्रेस के एक नेता के लिए, फिर पंडित जवाहरलाल जी ऐसे व्यक्ति जो
" ज़बर्दस्त कशमकश और मुसीबतों के वक्त में मुझे एक कश्मीरी घराने में उत्पन्न हुए हैं और जिनका रहन
परिवार के लोगों में अपनी माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री विजयालक्ष्मी पंडित, श्रीमती कृष्णा नेहरू और श्री रनजीत पंडित का ज़िक्र भी किया है। अपनी आर्थिक स्थिति का दिग्दर्शन भी कराया है। लोगों को यह मालूम है कि पं० मोतीलाल जी फ्रांस से कपड़ा धुलवा कर मँगवाते थे । इस संबंध में नेहरू जी ने उत्तेजना- पूर्ण और स्पष्ट विचार प्रकट किये हैं
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संख्या ६ ]
सहन प्रारंभ में विलायती ढङ्ग का रहा है, बड़े गौरव का विषय है । उन्होंने हिन्दूधर्म की शालीनता और उदारता त्यधिक प्रशंसा की है। वे एक स्थान पर लिखते हैं" बहुत-से मुसलमानों के लिए तो यह शायद और भी मुश्किल हो, क्योंकि उनके यहाँ विचारों की आज़ादी मज़हबी तौर पर नहीं दी गई । विचारों की नज़र से देखा जाय तो उनका सीधा मगर तङ्ग रास्ता है और उसका अनुयायी ज़रा भी दाने - बायें नहीं जा सकता । हिन्दुत्रों की हालत इससे कुछ अलग है । व्यवहार में चाहे वे कट्टर हों, उनके यहाँ बहुत पुराने बुरे और घसीटने वाले रस्मवाज माने जाते हैं, फिर भी वे हमेशा धर्म के विषय में निहायत क्रांतिकारी और मौलिक विचारों की चर्चा करने के लिए भी हमेशा तैयार रहते हैं । ...... हिन्दू धर्म को साधारण अर्थ में मज़हब नहीं कह सकते । और फिर भी कितने गजब की दृढ़ता उसमें है ! अपने आपको ज़िन्दा रखने की कितनी ज़बर्दस्त ताक़त ! भले ही कोई अपने को नास्तिक कहता हो — जैसा कि चार्वाक था, फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि वह हिन्दू नहीं रहा । " (पृष्ठ १४५)
नेहरू जी को 'ब्राह्मणत्व' और 'पंडित' शब्द से नफ़रत नहीं है । वे स्वयं लिखते हैं- " मैं एक ब्राह्मण पैदा हुना था और मालूम होता है कि ब्राह्मण ही रहूँगा, फिर मैं धर्म और सामाजिक रस्म- रवाज के बारे में कुछ भी कहता और करता रहूँ । हिन्दुस्तानी दुनिया के लिए मैं पंडित ही हूँ ।" (पृष्ठ १४५)
जवाहरलाल नेहरू
इसी प्रकार के अनेक क्रांतिकारी विचार पंडित जी ने 'मेरी कहानी' में अंकित किये हैं । ' अन्तर्जातीय विवाह और लिपि का प्रश्न' स्तम्भ में उन्होंने वैवाहिक समस्या पर अच्छा प्रकाश डाला है । हिन्दी-भाषा और हिन्दुस्तानी-लिपि पर भी अपनी विशेष राय दी है । इसी प्रसंग में उन्होंने हिन्दी के अखबार नवीसों की भी थोड़ी सी ख़बर ली है। उन्होंने लिखा है – “हिन्दी के साहित्यिक और सम्पादक कितने ज़्यादा तुनुकमिजाज़ हैं" । “ग्रात्म आलोचना की हिन्दी में पूरी कमी है औरआलोचना का स्टैंडर्ड बहुत नीचा है ।" लेकिन “किसी दिन देश में हिन्दी के अख़बार एक जबर्दस्त ताक़त बन
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जायँगे, लेकिन जब तक हिन्दी के लेखक और पत्रकार पुरानी रूढ़ियों और बन्धनों से अपने आपको बाहर नहीं निकालेंगे और ग्राम जनता को साहस के साथ संबोधित करना न सीखेंगे तब तक उनकी अधिक उन्नति न हो सकेगी।” (पृष्ठ ५५ ३)
'मेरी कहानी' के अन्त में 'परिशिष्ट' में स्फुट पत्रव्यवहार प्रकाशित किया गया है । फिर 'निर्देशिका' दी गई है। अंतिम भाग में 'उपसंहार' का चैप्टर बड़ा ही भावपूर्ण और पं० जवाहरलाल जी के व्यक्तिगत या निजी भावना का एकीकरण है । यह स्तम्भ कुछ काव्यात्मक-सा हो गया है। इसमें उन्होंने अपने सिद्धान्तों, विचारों और नीति का थोड़े शब्दों में स्पष्ट प्रतिपादन किया है। उन्होंने अन्त में लिखा है—
"अगर अपने मौजूदा ज्ञान और अनुभव के साथ मुझे अपने जीवन को फिर से दुहराने का मौक़ा मिले तो इसमें शक नहीं कि मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेक तब्दीलियाँ करने की कोशिश करूँगा...... लेकिन सार्वजनिक विषयों में मेरे प्रमुख निर्णय ज्यों के त्यों बने रहेंगे क्योंकि वे मेरी अपेक्षा कहीं अधिक ज़बर्दस्त हैं......।” (पृष्ठ ७२८)
इस प्रकार 'मेरी कहानी' एक गौरवपूर्ण और सुन्दर ग्रन्थ है । इसे पढ़कर कितनी ही ज्ञातव्य बातें हृदय - पटल पर अंकित हो जाती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारतवर्ष के एक बड़े नेता के - जिसका घराना आज़ादी के युद्ध मेंढ़कर है, जिसके चेहरे पर हास्य, गम्भीरता और संघर्ष के चिह्न निरन्तर अमिट हो रहते हैं— मानसिक विचारों का यह सुन्दर लिपिबद्ध इतिहास हमें उन्नति के मार्ग में अग्रसर होने का संदेश देता है । मूल ग्रन्थ अँगरेजी भाषा में है । इसके हिन्दी सम्पादक पंडित हरिभाऊ उपाध्याय तथा 'सस्ता - साहित्य - मंडल' भी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने ऐसे सुन्दर ग्रन्थ को हिन्दी भाषियों के सामने उपस्थित किया है ।*
* 'मेरी कहानी' पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा | हिन्दी सम्पादक – श्री हरिभाऊ उपाध्याय । प्रकाशक -- सस्ता - साहित्य मंडल दिल्ली । श्राकार डिमाई अठ-पेजी, पृष्ठ संख्या लगभग ८०० | मूल्य ४) है |
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[महाराना कुम्भ का विजयस्तम्भ (चित्तौर) । ]
उदयपुर के सम्बन्ध में हिन्दी में काफी सचित्र लेख प्रकाशित हो चुके हैं। पर यह लेख उन सबसे भिन्न है । इसके लेखक नैपाल के एक सम्भ्रान्त व्यक्ति हैं और आपने एक विशेष दृष्टिकोण से उदयपुर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं । इस लेख के साथ जो चित्र हैं . वे भी सर्वथा नवीन हैं ।
वम्बर की रात थी जब मैं 'पंजाब - एक्सप्रेस' से पश्चिम की ओर जा रहा था। मेरे दिमाग़ में तरह तरह के ख़याल आ रहे थे कि वह देश कैसा होगा, लोग कैसे होंगे। मैंने सुन रक्खा था कि वह ऐसी जगह है, जहाँ ऊँचे पहाड़ हैं, जिन्होंने बहादुर राजपूतों को श्राश्रय दिया था । राजपूतों की इस वीर भूमि के बारे में मैंने जो कथायें पड़ी थीं उनसे नाना काल्पनिक चित्रों का मानस पटल में उदित होना स्वाभाविक था ।
उदयपुर- यात्रा
लेखक, श्रीयुत दि० नेपाली बी० ए०
जाड़ा शुरू ही हुआ था, तो भी गाड़ी जितना ही पश्चिम की ओर जा रही थी, सर्दी भी उतनी ही बढ़ती मालूम पड़ती थी । मैं इन्टर क्लास का यात्री था । गाड़ी में शोर-गुल इतना था कि नींद नहीं पड़ी ।
लिए वहीं उतर पड़े । देहली मेल के आने में ढाई घण्टे बाकी थे। मैंने अपने मित्र को जो फ़र्स्ट क्लास के पैसेञ्जर थे, वेटिंग रूम में विश्राम करने के लिए कहा। परन्तु वे राजी न हुए और हमने प्लेटफार्म पर ही अपना बिस्तरा लगाया। मुझे अब भी नींद नहीं थी। राजस्थान के ख़याल उसी तरह मेरे दिमाग़ में चक्कर काट रहे थे ।
कोई परिचित आदमी तो वहाँ था नहीं, जिससे मैं उदयपुर के बारे में बातें करता और अपने कल्पित चित्रों से उसकी तुलना करता । कुछ देर बाद मैंने भी वहीं व्हीलर के स्टाल पर अपना बिस्तरा लगा दिया। उसी समय एक रोचक घटना घटी, जो अब भी मुझे हँसा देती है। गाड़ी आने में देर थी और बहुत से मुसाफ़िर इधरउधर टहल रहे थे। इतने में एक सज्जन ने मुझे व्हीलर के स्टाल पर पड़ा देखकर मुझे व्हीलर का एजेन्ट समझ लिया। उन्होंने मेरी ओर छः श्राने पैसे बढ़ाकर कहा'सिनेमा - संसार' की एक प्रति दे दीजिए। मैंने उनसे पैसा
रात में एक बजे का समय था, जब गाड़ी मोगलसराय में पहुँची । हम लोगों को दूसरी गाड़ी बदलनी थी, इस
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संख्या ६ ]
उदयपुर-यात्रा
न लेकर कहा कि मैं भी आपकी ही तरह एक मुसाफिर हूँ, व्हीलर का एजेन्ट नहीं हूँ । वे सज्जन शर्मिन्दा होकर मुझसे माफ़ी माँग चले गये । सुबह होने पर जब मैंने अपने मित्र से यह कथा सुनाई तब वे भी बहुत हँसे और उदयपुर तक मुझे व्हीलर का एजेन्ट कहकर ही सम्बोधित करते रहे ।
दूसरे दिन ९ बजे हमारी गाड़ी आगरा पहुँची। बी० वी० सी० आई. रेलवे की गाड़ी में हम लोगों को यहाँ सवार होना था। ट्रेन में ९ घण्टे की देर थी, किन्तु उसके लिए क्या चिन्ता थी, जब हम ग्रागरा में मौजूद थे । जलपान कर हम लोग ताजमहल की ओर चल पड़े। रास्ते में आगरे के प्रसिद्ध किले को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। यह हिन्दू-मुस्लिम कला का एक सुन्दर नमूना 1
भीतर कितनी ही संगमरमर की इमारतें हैं । एक कोटरी ऐसी है जिसको बन्द कर देने पर भी उसके अर्धपार दर्शक पत्थरों द्वारा भीतर रोशनी आती रहती है । हमारे पथप्रदर्शक को तो मुग़ल साम्राज्य का सारा इतिहास मुखस्थसा था । उनको क़िला-सम्बन्धी अनेक किस्से याद थे और उन किस्मों को वे इस तरह कहते थे, मानो उन्होंने वे सारी घटनायें अपनी आँखों देखी । ऐतिहासिक घटनाओं
[ उदयपुर – जगन्नाथ मन्दिर और शहर के कुछ यश का दृश्य । ]
[ उदयपुर - बाज़ार । ]
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के बीच बीच में ये मज़ाकिया ढंग से मुग़ल बादशाहों की रासलीलाओं का भी वर्णन करते जाते थे ।
किला देखने के बाद हम लोग सीधे ताजमहल की ओर बढ़े। दुनिया की इस प्रसिद्ध इमारत को अभी तक मैंने तसवीरों में ही देखा था । उसे साक्षात् देखकर मेरी . खुशी का कोई ठिकाना न रहा । मैं बहुत देर तक टकटकी लगाये उसे देखता रहा । मैं सोच रहा था कि घर लौटने पर ताज के बारे में पूछने पर मेरा उत्तर क्या होगा । ताज की तारीफ़ आँखें ही कर सकती हैं- जवान नहीं । शाम को हम लोग गाड़ी पर सवार हो गये । रात होने के कारण रास्ते की चीजें नहीं देख सकते थे ।
हाँ, भरतपुर का दही बड़ा अभी तक याद है ! सुबह सात बजे ग्रांखें खुलीं । ग्रासमान में लाली छा रही थी। इस लाली में वृक्ष-रहित पर्वत भी लाल मालूम पड़ते थे । चारों तरफ जिस ओर नज़र दौड़ती, सूखी ज़मीन के सिवा और कुछ नहीं देख पड़ता था। हाँ, कहीं कहीं गेहूं की खेती नज़र याती श्री । धान राजपूताने में होता ही नहीं । उदयपुर में सुनने में थाया कि वहाँ धान की कुछ खेती होती है । किन्तु उपज इतनी कम है कि
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[ उदयपुर - "पेग्स फीडिङ्ग (सूरी को खाना देना) नामक स्थान से शहर का दृश्य । ]
हमारी गाड़ी कितने राज्यों की सीमाओं को पार करती हुई धक धक करती जा रही थी। राजघृताने में कितने ही ऐसे छोटे-छोटे राज्य हैं जिनका अधिकांश मरुभूमि ही है । अतः वहाँ के राजा लोग बहुत अमीरी ढाटवाट या शौकीनी रहन-सहन नहीं रख सकते। साधारण जनसमुदाय के विषय में तो
कहना ही क्या है।
वे तो हिन्दुस्तान
सरस्वती
सारी प्रजा को दीवाली के अवसर पर ही भात खाने को गढ़ पहुँची। यहीं मिलता है । पकड़नी थी ।
में सर्वत्र ही गरीब
हैं। पहाड़ों को
लाँघती हुई हमारी
गाड़ी इस मरुप्राय
देश में जा रही
थी। पहाड़ और
गाड़ी से मानो
बाज़ी लगी हुई
थी, किन्तु इसमें
पहाड़ी की ही जीत
जान पड़ती थी।
हमारी अधिक गई थीं । हिमालय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
[ भाग ३८
से परिचित मेरे नेत्र उस दीन प्रकृति को देखकर विरक्त से हो रहे थे। उस समय मैं सोचता था. क्या उदयपुर भी ऐसा ही होगा।
अजमेर के बाद जितने पहाड़ नज़र आये. प्रायः उन सर्वो पर मैंने किलेबन्दी देखी। किलों में मज़बूत पत्थर के मकान बने हुए थे । देखने में बहुत पुराने जान पड़ते थे । राजस्थान के बहादुर लड़ाके यहीं रात्रि में आश्रय लेते थे । उन दिनों किसी मुग़ल के लिए उन पहाड़ों का सामना करना आसान न था । मेरी ध्यानमुद्रा टूट गई जब मेरी गाड़ी चित्तौरसे बदलकर उदयपुर-स्टेट-रेलवे
गाड़ी पहले से ही खड़ी थी। सवार होने ही चन्द्रदेव के सहित पश्चिम का नीला नभ साथ ही चल रहा था। हम जल-पान करते हुए उस दिगन्त व्याप्त पर्वतप्राय मरुभूमि पर अपनी राय भी जाहिर करते जाते थे ।
हम लोग चित्तौरगढ़ से चार घंटे में उदयपुर पहुँच
[उदयपुर—“घनघोर वाट” जिसका फाटक पूर्वीय कला का जीता जागता नमूना है । ]
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संख्या ६ ]
गये। स्टेशन पर हम लोगों को लेने के लिए कुछ सज्जन आये हुए थे । कुछ समय तो जान-पहचान और कुशल प्रश्न में लगा। फिर मोटर में सवार होकर हम शहर में गये । गेस्टहाउस बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था । एक छोटी पहाड़ी पर महाराना का महल चमक रहा था। उस समय मुझे कोई भी छोटा मकान नज़र नहीं पड़ा । रात्रि के समय उस विद्युत्प्रकाश में मुझे यही मालूम होता था, मानो सारा उदयपुर जगमग कर रहा है ! मैंने अपने मित्र से कहा- हमें अब अपनी सुनी-सुनाई धारणा बदलनी पड़ेगी ।
उदयपुर-यात्रा
[ उदयपुर - "घनघोर नृत्य " - यह बड़े बड़े त्योहार और पर्व के अवसर पर महाराजा के सामने हुआ करता है । वहाँ पर दरबार के प्रतिष्ठित सज्जन लोग उपस्थित रहते हैं ।]
प्रातःकाल जब हम लोग उठे
तब सात बज चुके थे, किन्तु अभी अँधेरा ही था। उस समय कुछ वृष्टि भी हो रही थी, जिससे प्रकृति का सौन्दर्य कुछ निखर-सा ग्राया था । सघन वृक्षों से ढँके उस पहाड़ पर कुहरा-सा छाया हुआ था, जो शोभा में और भी वृद्धि
कर रहा था।
आठ बजे हम लोग बाहर निकलनेवाले थे, प्रोग्राम काफी लम्बा चौड़ा था, तो भी हम लोगों को रुकना ही पड़ा । किन्तु जल-पान करने के बाद भी पानी नहीं बन्द
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[ उदयपुर - जगनिवास - यह महाराना का श्रानन्द-भवन है । ]
हुआ। कुछ देर और रुके, किन्तु वहाँ कोई सुनवाई न थी । अन्त में हम लोगों को चलना ही पड़ा, क्योंकि उदयपुर में हम लोगों को गिने-चुने दिन ही बिताने थे, और उन्हीं दिनों में ही मुख्य मुख्य दर्शनीय स्थानों को देखना था । हम लोगों का मोटर शहर की एक मुख्य गली से गुज़र रहा था । इमारतें तो बड़ी बड़ी थीं, किन्तु सड़कें कहिए या गलियाँ हमें बिलकुल रद्दी मालूम पड़ती थीं । उस रोज़ पर्व का दिन था, बाज़ार में काफ़ी चहल-पहल
थी । राजपूत लोग बड़ी संख्या में राजमहल की ोर जा रहे थे । स्त्रियों की भी काफी भीड़ थी। इतने बड़े जन-समूह में मैंने बहुत कम लोगों को राजपूती बाने में देखा । अब न वह लम्बी दाढ़ी और मूछें हैं, न वह विराट शरीर और चौड़े सीने । उनके चेहरों पर कान्ति या तेज भी नहीं, और न वह गेहुँत्रा रङ्ग ही । नाक पिचकी और आँखें भीतर धँसी हुई देखकर मेरा चित्त प्रसन्न नहीं हुआ ।
हम लोग उदयपुर के महान्
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सरस्वती
[ भाग ३८
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जगह दी थी। शाहजहाँ ने इस जगह को बहुत पसन्द किया था। दूसरे ग़दर के दिनों में भयभीत अँगरेज़ों को यहीं अाश्रय मिला था। तत्कालीन महाराना ने ख़तरे का सामना करके इन लोगों को शरण दी थी।
दूसरे रोज़ हम लोगों का चक्कर कुछ देर तक हुअा। हम उदयपुर शहर से प्रायः ६० मील की दूरी पर 'जय-समन्दर' तक गये। 'जय-समन्दर' सचमुच ही एक समुद्र की तरह है।
इसका घेरा ९२ मील है। इसके भीतर उदयपुर-महाराना का पुराना राजमहल ।
कितने ही पहाड़ हैं, जिन पर बहुत-से
गाँव बसे हुए हैं और देखने में सरोवर के गन-गार-घाट पर पहुँचे । यहाँ से नाव द्वारा हम द्वीप-से मालूम पड़ते हैं। हम लोग कुछ दूर तक नाव लोग 'जगनिवास' की ओर चले। इसको महाराना के पूर्व पर गये। उस अगाध 'जय-समन्दर को देखकर वापस पुरुषों ने बनवाया था। ग्रीष्म ऋतु में जब सारा राजपूताना लौट आये। गरमी के मारे तड़पता है उस समय भी यहाँ ठंडा होने के महाराना का श्राराम
के पास ही है और कारण महाराना इस चित्रमय भवन में निवास करते थे। महल तक चला गया है। जादूघर में राज्य में मिली हुई महल तालाब के बीच में है। भीतर कितने ही फुहारे लगे पुरानी चीज़ों का संग्रह है। यहीं महाराना प्रताप की तलवार हैं । गर्मी मालूम पड़ने पर ये सब खोल दिये जाते हैं। है । इसी तरह की इसमें और भी कितनी ही भव्य स्मृतियाँ
उदयपुर के पास-पास कृत्रिम झीलें हैं। सिवा एक रक्खी हुई हैं, जो एक हिन्द्र के मन में वीर-रस का संचार तरफ के बाकी तीनों तरफ़ झील ही झील हैं । इन्हें उदय- करती हैं। पुर में 'सागर' कहते हैं। बहुत बड़ी झील को 'समन्दर' कहते हैं। ये सब झीले इस तरह एक-दूसरे से जुटी हुई हैं कि हर जगह किश्तियों से जाया जा सकता है। उदयपुर के कुछ अंश तो टापुत्रों की तरह इन झीलों के बीच-बीच में पड़े हैं। महाराना का लीलाभवन भी इनके बीच में ही है। देखने में ये सब छोटे छोटे टापू मालूम पड़ते हैं ।
कुछ दूर पर हमें एक भवन नज़र पड़ा। यह भवन दो बातों के लिए प्रसिद्ध है। एक तो पिता से बागी उदयपुर–नया राजमहल, जिसको महाराना ने पाश्चात्य शिल्पकला के हुए शाहजहाँ को महाराना ने यहीं
अनुसार बनवाया है।
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संख्या ६]
उदयपुर-यात्रा
उदयपुर की दर्शनीय सभी चीज़ मेरे मित्र ने मुझे दिखलाई। महाराना के महल से लेकर पब्लिक स्कूल तक को मैंने देखा । पब्लिक स्कूल की मनोवैज्ञानिक रसायन-शाला बहुत ही रोचक तथा उपयुक्त चीज़ मालूम पड़ी। बालकों को उनके चरित, प्रकृति और मन की प्रवृत्ति के अनुसार शिक्षा प्रदान की जाती है, जो एक नई संस्था है. जिन देखकर
[उदयपुर-झील से घिरा हुआ शहर ।] मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।
उदयपुर शहर के चारों तरफ़. चार टूटे हुए फाटक हैं, पत्थर का एक मन्दिर है। यह मन्दिर चित्तौर के पुराने जिन्हें 'चोल' कहत हैं । ये टूटे फाटक पुराने शहर की मंदिरों की भद्दी नक़ल है। लोग कहते हैं कि मीराबाई सीमा सूचित करते हैं। उदयपुर बहुत ही छोटा शहर है, ने जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) से भगवान् को बुलाकर यहाँ किन्तु यह फाटक बहुत बड़ा है। महाराना और उनके पधराया था, इसी लिए इसे जगन्नाथ मंदिर कहते हैं। कुछ रिश्तेदारों के महलो के सिवा और सब इमारतें शहर उदयपुर-राज्य राजपूताना में ही क्या, सारे भारतवर्ष के योग्य नहीं है। गलियाँ भी तङ्ग हैं। तो भी बिजली में प्रसिद्ध है। महाराना का राजवंश सातवीं शताब्दी से का प्रबन्ध है। महाराना का महल तो अाधुनिक ढङ्ग की राज्य करता आ रहा है। एक समय था जब चित्तौर इमारत का एक सुन्दर नमना है । सारे शहर में यदि कोई अपनी बहादुरी से मुग़लों को नाक में दम किये हुए था। देखने योग्य इमारत है तो महाराना का महल है। उदयपुर उसके बाद भी उदयपुर स्वतंत्र रहा। अाज भी उदयपुर महाराना प्रताप के पिता महागना उदयसिंह ने बसाया था। के सिक्कों में दोस्तेलंदन' लिखा जाता है। यहाँ के शहर के अन्दर नीन सौ वर्ष का पराना शानदार महारानानों में कोई भी ग्राज तक ब्रिटेन के बादशाह का
ए० डी० सी० नहीं बनाया गया है।
उदयपुर में एकसत्ताक राजतन्त्र है। महाराना जो कुछ चाहें, कर सकते हैं। वहाँ कोई प्रजा-परिषद् नहीं है और न कोई ऐसा स्वतंत्र समाचार-पत्र है जो प्रजा की इच्छा को प्रकाशित करे। प्रजा को सरकारी मामलों में राय प्रकट करने का
निषेध है । प्रजा ने कभी उदयपुर---फ़तेहसागर' जिसके किनारे महाराना ने बहुत बड़ा बाग़ बनाया है ।] ऐसा किया भी नहीं।
RA
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सरस्वती
[भाग ३८
ब्रिटिश के सिक्के के समान ही वज़नदार होते हुए भी मूल्य में कम हो गया है । उदयपुरी रुपया अँगरेज़ी दस आने के बराबर है। उदयपुर में पुराने ज़माने से ही अपना सिक्का है। यहाँ की एकन्नी चाँदी की होती है। यहाँ के अपने सिक्कों पर 'दोस्तेलंदन' शब्द लिखा होता है।
उदयपुर पहाड़ों के भीतर बसा है। राज्य की उपजाऊ ज़मीन बड़ेबड़े जागीरदारों में बँटी हुई है और
प्रत्येक जागीरदार अपनी अपनी [उदयपुर- 'जय-समन्दर' जिसका घेरा ९२ मील है ।।
जागीर का स्वतंत्र शासक है । प्रजा सारे राज्य का भार आठ-दस व्यक्तियों के हाथ में है। बहुत ग़रीब, अशिक्षित और बाहरी दुनिया से अपरिचित यही महाराना को सलाह देते हैं और उसके मुताबिक है। यहाँ के भीलों को जंगल के कन्द-मूल खाकर जीना सब काम होता है।
और फटे-पुराने लत्तों से अपनी लाज ढंकना पड़ता है। आधुनिक जगत् से उदयपुर बहुत पीछे है। कई भीलों की ऐसी दशा देखकर मैं बहुत दुखी हुआ। देशी राज्यों में निर्वाचन का अधिकार प्रजा को मिल हमने उदयपुर से लौटती बार चित्तौरगढ़ को भी चुका है और असली शक्ति न रहने पर भी जन-सभा देखा। रेलवे स्टेशन से सिर्फ तीन ही मील की दूरी पर राजकाज में अपना मत ज़ाहिर करती है । हम लोगों ने एक छोटी-सी पहाड़ी पर यह ऐतिहासिक गढ़ बना हुआ सुना कि यहाँ के अधिकारी राज्य में किसी प्रकार का है। चित्तौरगढ़ महाराना प्रताप और उनके पहले समय
आन्दोलन पसन्द नहीं करते। आर्यसमाज तक को भी में भी समस्त राजपूती शक्ति का एक प्रधान केन्द्र था। सँभल सँभल कर पैर रखना पड़ता है।
यहीं अलाउद्दीन खिलजी की अपार सेना से महीनों घिरे ____ हाल में उदयपुर-राज्य के भीतर 'नाथद्वारा' में कई रहने पर जब सफलता की अाशा न रह गई तब पद्मिनी ने सिक्के मिले हैं । इन सिक्कों में 'सिविजानपदा' शब्द लिखे अपने को अग्नि को अर्पण किया था। मीराबाई के हैं, जिससे मालूम पड़ता है कि पाँचवीं-छठी शताब्दी में पूजा-गृह का चिह्न अब भी मौजूद है, और उसका यहाँ प्रजातन्त्र राज्य था। उस समय इस बहादुर देश में जीर्णोद्धार किया जा रहा है । महाराना कुम्भ का विजयजनसत्ताक शासन था। हिन्दुस्तान में पहले ऐसे बहुत-से स्तम्भ भी उस ज़माने की एक शानदार स्मृति है। चित्तौर प्रजातन्त्र राज्य थे। उन्हीं में से शिवि का भी एक गणतंत्र के भीतर ऐसी ऐसी बहुत सामग्रियाँ हैं जो किसी भी था । उदयपुर की आर्थिक दशा असन्तोषजनक है। कुछ इतिहास-प्रेमी के लिए काफी हैं। चित्तौरगढ़ में वहाँ की ही वर्ष पहले अफीम की खेती से उदयपुर-राज्य को बहुत-सी पुरानी चीज़ों को एक बड़े मकान में रखकर काफ़ी आमदनी होती थी। अब इसके रुक जाने से एक म्युज़ियम का रूप दिया गया है। उदयपुर का निर्यात प्रायः बन्द हो गया है और काई चित्तौरगढ़ की चारों ओर पत्थर की मज़बूत दीवार चीज़ व्यापार के लिए बाहर नहीं जाती, बल्कि बाहर से है, जो दूर से ही बहुत डरावनी मालूम पड़ती है। गढ़ ही खाने-पीने से लेकर कपड़े-लत्ते तक सभी चीजें बहुत तक गाड़ियों की सड़क बनी हुई है और रास्ते के बीच परिमाण में राज्य में आती हैं। इसलिए वहाँ का सिक्का बीच में बड़े बड़े फाटक हैं जिनको पोल कहते हैं ।
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एकांकी नाटक
सारा
पाप की छाया
लेखक, प्रोफेसर रमाशंकर शुक्ल, एम० ए० ल्लुकेदार आनन्दमोहन की कोठी का कद के आदमी जान पड़ते हैं। गौर वर्ण हैं; किन्तु मूंछएक कमरा, जो वास्तव में उनकी दाढ़ी हमेशा साफ़ करते रहने से चेहरे पर श्यामता झलक एकान्त बैठक है। कमरे का ठाट- आई है । पोशाक सादी, किन्तु चुस्त है । सारा बाना खादी
सजावट का ढंग, पुराने रईसों की का है। सिर पर किश्तीनुमा खादी की टोपी लगाये हैं। KA रुचि का है। दीवारें हलके सब्ज़ आनन्दमोहन और चारुचन्द्र परस्पर बड़े विश्वस्त रंग की हैं और उनके ऊपरी छोरों पर खूबसूरत बेलों के मित्र हैं। अानन्दमोहन पुरानी ढब के विनोदी साहित्यिक रंग डाले गये हैं। दीवारों पर तीन अोर केवल तीन जीव हैं । किन्तु पुराने होने पर भी नवीनता से परहेज़ नहीं चित्र टँगे हैं, जिनमें से दो चित्रों पर हलके आसमानी करते । चारुचन्द्र की 'वसुधा' के वे संरक्षक हैं। चारु पर रंगवाले रेशम के प्रावरण पड़े हैं। खुला हुआ चित्र बड़ी कृपा रखते हैं और पारिवारिक अन्तरंग मामलों में ताल्लुकेदार साहब की युवा अवस्था का है। छत के चार प्रायः उनसे सलाह लिया करते हैं । आज भी किसी मसले कोनों पर चार रंग की शीशे की हंडियाँ टॅगी हैं और पर दोनों बैठे बातें कर रहे हैं ।] बीच में एक बहुत बड़ा शीशे का झाड़ लटक रहा है। आनन्द०-मुझे नहीं मालूम था कि दुनिया इतनी आगे फर्श पर कालीन बिछा है और दो बहुत बड़े और ऊँचे बढ़ गई होगी। एक विज्ञापन में ३१ चिट्ठियाँ और गद्दों पर हिमधवल चादरें बिछी हैं, जिनके सहारे करीने से १४ तसवीरें ! इन विज्ञापनवाली बहुंत्रों का अलबम कई बड़े तकिये लगाये गये हैं। दरवाजे से पायंदाज़ से पैर बनाऊँ या क्या? उठाते ही दो कोनों में आबनूसी काम की दो ऊँची, गोल, चारु०-नहीं साहब, विनोद के लिए इनमें से एक को और मोर की गर्दन पर सधी हुई टेबलों पर रंगीन महकते चुनना होगा और फिर वही तसवीर जीती-जागती हुए फूलों के गुलदस्ते रक्खे हैं, जो दोपहरी झेलकर मुरझा- आपके घर की शोभा बढ़ायेगी। से गये हैं । उत्तर की ओर रंगीन शीशोंवाली खिड़की है आनन्द०-अजी, ये सब इश्तहारी बहुएँ हैं । और इश्तऔर दरवाजे से दूर बाई ओर एक पुराने ढंग की टेबल हारी चीजें सब नुमायशी होती हैं। समझे ! और उसके तीन अोर ऊँची कुर्सियाँ पड़ी हैं। टेबल पर चारु०-आपने ये सभी पत्र पढ़े होंगे। इनमें अनेक परिलिखने-पढ़ने का सभी आवश्यक सामान सजा है।
वार अत्यन्त प्रतिष्ठित होंगे। सभी लोग अपनी ' गद्दे पर तकिये के सहारे आनन्दमोहन बैठे हैं। कन्याओं को सुयोग्य बनाना चाहते हैं और श्रेष्ठकुल शरीर अधिक स्थूल है। रंग गेहुँआँ और आँखें बड़ी पर से नाता जोड़ना चाहते हैं। फिर आपका परिवार चेहरे की मोटाई के कारण कुछ भीतर की ओर हो गई हैं। तो...... चश्मा लगाये हुए हैं । बदन पर बनियायन के ऊपर बढ़िया अानन्द०-यही तो बात है। देखते हो मेरी जायदाद ! चुन्नटदार मलमल का ढीला कुर्ता है, जिसमें शायद मुझे इसी की चिन्ता है। ये सब लड़कियाँ मोटर इतना इत्र मल दिया गया है कि सारा कमरा खुशबू से और पेट्रोल की भूखी हैं। इन्हें मोटर की हवा अच्छी भर गया है। ढीला पायजामा पहने हुए हैं। श्रास-पास । लगती है, अँगरेज़ी कम्पनियों और दूकानों में इनकी बहुत-से काग़ज़ात फैले हुए हैं।
प्रतिष्ठा बढ़ती है और सिनेमा-थियेटरों में इनका जी उनके सामने वसुधा-सम्पादक चारुचंद्र बैठे हैं। बहलता है। सच मानो सम्पादक जी, ये सब जलती इनकी अवस्था ३४ वर्ष की होगी। बैठे होने पर भी ऊँचे हुई दियासलाइयाँ हैं, जहाँ होंगी बाग लगायेगी।
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सरस्वती
चारु० -- परन्तु श्रापका विनोद भी तो उतना ही शिक्षित है । आप ही कहिए कि यूनीवर्सिटी की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त युवक के लिए आप कैसी जीवन संगिनी ढूँढ़ना चाहते हैं ।
श्रानन्द० – तुम नौजवानों में अभी समझ की गहराई नहीं है। मैं भी पढ़ा लिखा हूँ, मैंने भी दुनिया देखी है । मैं तुमसे पूछता हूँ कि मान लो (एक तसवीर उठाकर ), यह लड़की बी० ए० पास है । देखते हो इसकी सूरत ? आँखों पर चश्मा चढ़ा है और शरीर एक दम काड़तोड़ है । यह तो रंग-बिरंगी तितली है । तितलियाँ घर का बोझ नहीं सँभाल सकतीं। विनोद की मा जब तक जीवित रही, मैंने घर के प्रबन्ध में कभी चूँ नहीं की । न नौकरों का तूफ़ान था, न चीज़ों का नुक्सान | बीसियों श्राये गये बने रहते हैं, परन्तु स्वागत-सत्कार में कभी भूल नहीं हुई। फिर क्या वह पढ़ी-लिखी न थी ? जब कभी अवकाश मिलता, रामायण और ब्रजविलास का पाठ करती और सदा ही पूजा-पाठ और दानधर्म में लगी रहती थी ।
चारु० - इस योग्यता पर कोई कैसे कुछ कह सकता है । परन्तु यह तो आपको मानना पड़ेगा कि दम्पति में परस्पर विचार - साम्य की अत्यन्त आवश्यकता है । आज के शिक्षित युवकों के विचार आपकी कोटि के नहीं हैं।
आनंद० – मैं तो समझता हूँ, जितनी अधिक शिक्षा, उतना ज्यादा विचार - वैषम्य । एम० ए० पास पति और बी० ए० पास पत्नी दोनों ही मिलकर शेक्सपियर के नाटकों को एक रुचि से नहीं पढ़ सकते। फिर गृहस्थी न तो डिवेटिंग सोसायटी है और न उसका भार असेम्बली का बजट है। पति और पत्नी में विजय-पराजय का प्रश्न नहीं है जितना कि समझदारी के साथ झुकने और प्रभाव डालने का । ( एक पत्र उठाकर ) देखिए ( तसवीर पर अँगुली रखते हुए) ये कौन हैं (चश्मे के भीतर से आँखें गड़ा कर देखते हुए ) -- कुमारी प्रफुल्ल एम० ए० । लिखा है- फ़िलासफ़ी में एम० ए० हुई हैं। शिक्षण -शास्त्र का बढ़िया
शान है। इनके पिता, सुनते हो चारु, एक बहुत बड़े
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[ भाग ३८
सरकारी अफसर हैं । (कुछ सोचकर ) हाँ, इनके पिता बहुत बड़े अफ़सर हैं । हूँ । (कुछ सोचने लगते हैं) चारु० - और लड़की भी तो कुछ कम शिक्षित नहीं है— विनोद के मुकाबले की ही है।
आनंद ० - यह बात भी है, पर इनके पिता बहुत बड़े
हैं। मैं विनोद का विवाह ऐसे कुल में ज़रूर करना चाहता हूँ ।
चारु० - तो क्या लड़की आपको पसंद नहीं है ? उसका कुल ही पसंद है ?
आनंद० — लड़की ? हाँ, यह तो मैं क्षण भर के लिए भूल ही गया था ।
चारु० - जी हाँ, विवाहित होकर लड़की ही यहाँ श्रायगी, उसका कुल नहीं । आनंद० - यह लड़की.. .. ( कुछ ठहर कर ) क्यों चारु... ( फिर कुछ सोचकर ) कुछ मोटी और भद्दी जान पड़ती है । है न ? ( तसवीर दिखाता है) चारु० - शायद ऐसा हो सकता है ।
आनंद ० - लेकिन इतनी मोटी ताज़ी बहू भी किस काम की, जिसे .......
चारु० -- किसी को आप काड़ीतोड़ कहते हैं और किसी को मोटी - ताज़ी । मेरा ख़याल है कि यह लड़की बहुत स्वस्थ है ।
श्रानंद० - मेरे पिता जी कहा करते थे कि शादी के लिए
कुंडली का मेल मिलना चाहिए, लेकिन अब तो तसवीरों का मेल मिलने लगा है !
चारु० - कुंडली के अंकों के रहस्य से तो तसवीर की छाया
कहीं अधिक स्पष्ट है । विवाह कुंडली मिलने में नहीं है— मन मिलने में है ।
आनंद० - और आपका मन मिलना वैसा ही है, जैसे घी के साथ कोकोजम । तसवीर से मन नहीं मिलता- शकल मिलती है ।
चारु० - लेकिन जब स्वयंवर होते थे तब सिवा रूप-रंग और
धन-वैभव के किस बात का विचार किया जाता था ? श्रानंद० - मैं समझता हूँ कि एम० ए० पास हो जाना ही
समझदार गृहस्थ होने की निशानी नहीं है । मैं तो नहीं चाहता कि मेरी बहू-बेटी गवर्नर की दावतों में शामिल हो या......
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- संख्या ६]
पाप की छाया
चारु०-ताल्लुकेदार साहब, ज़रा ठहरिए। इस प्रश्न को विनोद-कहिए सम्पादक जी, अाज तो पूरा दफ्तर खोले
यहाँ छेड़कर आप किसी बात का फैसला नहीं कर बैठे हैं । (चिट्ठियों और तसवीरों को देखकर) यह सब सकते । सवाल विनोद के विवाह का है। 'वसुधा' क्या बला है ? (कुछ उत्सुकता के साथ) अच्छा, में विज्ञापन देने पर आपके पास ये सब पत्र-तसवीरें जान पड़ता है, महिला-संसार के स्तंभ के लिए ये
और संदेस आये हैं। लड़की पसंद करनी ही है । चित्र आपके पास आये हैं ? (चित्रों को हाथ में लेकर हाँ, आपका खयाल कहीं दूसरी ओर हो तो बात एक-एक करके देखता है और कुछ टीका-टिप्पणी भी निराली है।
करता जाता है) यह कौन हैं-कुमारी शीलवती । इनकी आनंद०--तब आपका क्या ख़याल है ?
योग्यता नहीं लिखी कि आप प्रथम म्युनिसिपल कमिचारु०-मैं आपकी मन मिलनेवाली बात ज़रूर पसंद भर हैं-हाँ, यह दूसरा चित्र किसका है ? कुमारी
करता हूँ, अगर आप सच्चे दिल से ऐसा कह रहे हैं। दुर्गारानी बी० ए० । इनकी योग्यता क्या है ? क्या आनंद.--.मैंने यों ही कह दिया है; क्योंकि मैं जानता हूँ, आपने लेडीज़ सिंगल्स में चैम्पियनशिप ली
हमारे समाज में 'मन' की पटरी पर चलनेवाला कोई है ? अच्छा, यह तीसरी कौन हैं—कुमारी प्रफुल्ल 'मेल' नहीं है।
एम० ए० । श्राप कौन हैं ? क्या महिला व्यायामचारु० (हँसते हुए)-किन्तु इस मामले में तो आप विनोद शाला की संचालिका हैं ! (खूब हँसता है) शरीर
को भी कोई आज़ादी नहीं देना चाहते, यद्यपि वह से तो बिलकुल 'डनलप टायर जान पड़ती है ! एम० ए० पास करने के बाद कानून का भी पंडित चारु०-जी नहीं 'वसुधा' के अागामी अङ्क में इनका परिहो चुका है।
चय इस प्रकार छपेगा-आपका विवाह श्री आनंद०-किन्तु आप यह भी तो भूल जाते हैं कि यह विनोदकुमार एम ए. एल-एल० बी० से हुआ ___ सवाल मेरी ख़ानदानी इज्ज़त का है।
है। नवदम्पति को बधाई ! चारु०-विनोद पर तो आपका अविश्वास नहीं है ? उसकी विनोद-तब तो उसके नीचे यह कविता भी छाप देना___ योग्यता ही आपके कुल की शोभा है। उसकी
सूछम रचना करि थकी, प्रसन्नता से आप कैसे इनकार कर सकते हैं ?
भहरि गिरी भव-कूप । अानंद०-इसी विश्वास पर तो मैं फूला हुआ हूँ। मुझे बिधिना की मोटी अकल . भरोसा है कि वह मेरे निर्णय को ग़लत नहीं साबित
कलि प्रगटी या रूप ! कर सकता । मैंने इसी लिए निश्चय कर लिया है चारु० (उछलकर)-वाह-वाह ! (खूब हँसता है) (तत्काल कि प्रफुल्ल के साथ विनोद का विवाह निश्चित कर गम्भीर बनकर) किन्तु विनोद, यह विनोद नहीं लिया जाय।
है। याद रखना, तुम्हारे लिए यह नियुक्ति हो [इसी समय नौकर अाकर सूचना देता है कि कोई चुकी हैं। सरकारी अफ़सर ताल्लुक़दार साहब से मिलने आया है। विनोद- यह क्यों नहीं कहते कि कानून की परीक्षा पास [सुनते ही आनंदमोहन तेज़ी से उठकर दीवानख़ाने की करने के बाद प्रैक्टिस करने का 'लायसेन्स' मिलनेओर जाते । सम्पादक जी अकेले रह जाते हैं]
वाला है । अच्छा, यह तो कहो, पिता जी जाते जाते
(विनोद का प्रवेश) अापसे क्या कह गये और (हाथ के चित्रों को एक [विनोद ऊँचे कद का बहुत सुंदर युवक है। चौड़ा ओर फेंक कर) यह सब क्या माजरा है ? ललाट और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें । स्वस्थ शरीर और चारु०-यह आपको सिंगल से डबल करने की तैयारी है। चेहरा हँसमुख । टेनिस खेलने की पोशाक में है। हाथ में , प्रफुल्ल के पिता ताल्लुकेदार साहब से मिल चुके हैं । एक बढ़िया रैकेट लिये है, जिसे वह चलते और बातें वे एक बहुत बड़े सरकारी अफ़सर हैं । तुम्हें एक करते हुए धुमाता जाता है]
साथ दो फायदे होंगे। एम० ए० पास बीबी मिलेगी
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और तुम एक साथ बहुत बड़े सरकारी अफ़सर के दामाद बन जाओगे !
विनोद - क्या यह सब सच है ?
सरस्वती
चारु० - हाँ, क्यों तुम्हें ख़ुशी होती है न ? विनोद – छिः छिः सम्पादक जी... ( कुछ सोच कर ) अच्छा देखा जायगा । अभी सुषमा और रेणुका टेनिस खेलने नहीं आई ?
1
चारु० - आती होंगी। मगर यह तो कहो कि तुम्हारी इस सम्बन्ध में क्या राय है । मैं शायद समझ लूँ तो तुम्हारी सहायता कर सकूँगा । साथ ही यह तो मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि तुम्हें कल्पना की लगाम खींचकर अनुभव के मार्ग पर चलना होगा । विनोद- इसका क्या अर्थ है ?
चारु०--मेरा संकेत सुषमा से है । (कुछ सोचकर ) शायद रेणुका से भी हो ।
विनोद - ( गम्भीर होकर ) यह किसी की सम्मति देने-नदेने का सवाल नहीं है ।
चारु० - ताल्लुकेदार साहब तो ऐसा नहीं समझते। उन्हें विवाह-सम्बन्ध करते समय कुल-मर्यादा का बड़ा ख़याल है । फिर प्रफुल्ल भी तो ख़ूब पढ़ी-लिखी है । विनोद - (एक ओर जाकर कुर्सी पर बैठता है) सम्पादक
जी, आपसे साफ़ साफ़ बातें कर लेने में कोई हर्ज नहीं । मैं अपने लिए सुषमा को चुन चुका हूँ । (आनन्दमोहन का प्रवेश । आते आते वे विनोद के अन्तिम शब्द सुन लेते हैं ।) आनन्द० - मैंने यह क्या सुना विनोद ?
1
( गद्दी पर तकिये के सहारे बैठ जाते हैं) [विनोद लज्जा से सिर नीचा कर लेता है ] क्यों सम्पादक जी, मैंने क्या यह ठीक सुना है कि विनोद ने सुषमा को अपने लिए चुन लिया है ?
चारु० - (विनोद की ओर देखते हुए) मैं समझता हूँ कि
वधू के चुनाव में वर की सम्मति उतनी ही श्रावश्यक है, जितनी वर के पिता तथा अन्य परिवारवालों की । (इसी समय विनोद उठकर जाना चाहता है)
- ( हाथ के संकेत से रोकते हुए ) ठहरो विनोद, अपने जीवन में मैं पहली बार इस प्रकार का अनुभव कर रहा हूँ । तुम मेरे पुत्र हो, परन्तु दुर्भाग्य से
श्रानन्द०- (
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[ भाग ३८
मातृहीन हो, अन्यथा मैं तुम्हारे विचार दूसरी तरह समझ सकता था । इसी लिए मैं...... ( .. ( कुछ रुककर ) हूँ... जो कुछ हो । मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूँ ।
1
विनोद - ( स्पष्टता और गम्भीरता से ) शायद अभी-अभी
आप मालूम कर चुके हैं ।
।
श्रानन्द० - यही न ! यही न ! वे दोनों नित्य यहाँ टेनिस खेलने आती हैं। मैं निरन्तर इस व्यसन को सशंक दृष्टि से देखता था । परन्तु आज तो मैं देखता हूँ, यह निर्लज्जता मेरे वंश की लज्जा से झूमना चाहती है । विनोद, रेणुका हो या सुषमा । तुम्हारे साथ दोनों पढ़ी हैं । परन्तु क्या शिक्षालयों के आदर्श तुम्हें इसी मार्ग पर ले जाना चाहते हैं ? रेणुका हो या सुषमा, इनकी कुल-मर्यादा क्या है ? अब से चारछः वर्ष पूर्व वे कहाँ थीं, यह कौन जानता है ? सुषमा एक वृद्ध नौकर और विधवा माता के साथ रहती है। हो सकता है, कुछ सम्पत्ति उसकी माता के पास और रेणुका, वह एक वृद्धा दासी के साथ उस बँगले में रहती है । वही बुड्ढा नौकर उसके यहाँ भी आता-जाता है। कौन जानता है कि रेणुका की कुल - मर्यादा क्या है ? तुम क्या इतना भी नहीं सोच सकते कि मेरे उच्च वंश के लिए किस प्रकार का सम्बन्धावश्यक है ?
I
विनोद - बाबू जी, प्रेम की मर्यादा तो सीमित नहीं है । आनन्द ० -- (आवेश में ) प्रेम-प्रेम- प्रेम ! तुम लोगों का हृदय
प्रेम का स्रोत है या निर्लज्ज वासना का ? चकाचौंध का नाम प्रेम है या समझदारी का ? विनोद - प्रेम न चकाचौंध है, न समझदारी, वह अनुभूति है । वह एक श्राश्रय है - हृदय वहीं ठहरता है । श्रानन्द० - अफ़सोस ! मैंने तुमसे बातचीत ही क्यों की ?
--
मैं लड़कों की नासमझी में क्यों पड़ गया ? (कुछ ठहर कर ) तो तुम्हारा निश्चय क्या यही है ? यदि यही तो तुम्हें उसे तुरन्त ही भूल जाना पड़ेगा ।
(इसी समय रेणुका कमरे के दरवाज़े तक कर ठहर जाती है । वह टेनिस खेलने की तैयारी से आई है। बाहर से ही श्रानन्दमोहन की आवाज़ सुनकर बैठक से
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संख्या ६]
पाप की छाया
सटे हुए ड्राइंगरूम में पहुँचकर कान लगाकर बातें रेणुका - प्रकाश का मार्ग अंधकार के ऊपर है ! हमारी सुनती हैं।)
मैत्री का वैभव क्या यही तुच्छ लालसा थी ? तुम विनोद-मैं सभी कुछ भूलने के लिए तैयार हूँ। पर एक जानते थे, मैं अनाथिनी हूँ, मैंने दूसरों के दान और
बात नहीं भूल सकता (बीच में ही अानन्दमोहन परोपकार पर जीवन-यापन किया है। फिर, तुमने किस तेज़ी से उठकर बाहर चले जाते हैं। रेणुका उन्हें अाशा से, किस मोह से, किस भ्रम से मेरी आँखों पर देख नहीं पड़ती)...(विनोद कहता ही रहता है) और पट्टी बाँधी ? विनोद, तुमने क्षण भर के लिए भी वह है-सुषमा।
न सोचा कि तुम्हारे वैभव का उन्माद मेरी दरिद्र (रेणुका तुरन्त प्रवेश करती है)
असमर्थता को नहीं कुचल सकता था। पाप की रेणुका०—क्या नहीं भूल सकते विनोद ? (सम्पादक जी अाँखें अंधी हुआ करती हैं ?
की ओर देखकर कुछ लज्जा और संकोच से आरक्त विनोद-यह क्यों भूलती हो रेनू कि आँखें बंद कर लेने मुख हो जाती है) क्या कहा विनोद ?
से ही क्षण भर के लिए बवंडर से बच सकती हो। (इसी समय नौकर का प्रवेश)
अच्छी दृष्टिवालों को भी तो आँधी में अंधा बनना नौकर-(सम्पादक जी की ओर देखकर) आपको बाबू पड़ता है !
साहब ने सब काग़ज़ों के साथ बुलाया है) (विनोद रेणुका यह सच है विनोद, तुमने अपने नाटक का. की अोर देखकर) चाय, हाज़िर करूँ?
पहला ही पर्दा मेरी आँखों के सामने फैलाया था ! यह (सम्पादक जी जाते हैं)
भी सच है कि तुम्हारे सुख की चाँदनी को मैंने ही विनोद---नहीं, अभी नहीं । (रेणुका से) तुमने क्या सुना पहली बार बदली बनकर उदास और म्लान बना रेनू ? तुम क्या समझीं ?
डाला। किन्तु ...किन्तु...(ठहरकर और अवरुद्ध रेणुका-कुछ सुना है और कुछ समझी हूँ । बाकी सुनना कंठ से) विनोद, तुमने यह न समझा कि छाया का और समझना चाहती हूँ।
अस्तित्व वस्तु से भिन्न नहीं हुआ करता। यह विनोद--उसमें सुनने और समझने जैसी बात ही कौन-सी भी समझ लो विनोद कि प्रकाश में ही छाया का बोध
है ? तुम यह तो जानती ही हो कि विवाह एक होता है। आज मैं अनुभव करती हूँ कि इस बवंडर व्यवस्था है ----विधान है। उसमें कुछ विचार से काम में मैं तिनके की तरह उड़ चुकी हूँ और तुम पत्थर लेना पड़ता है।
की तरह स्थिर हो। ...... रेणुका - इसका अर्थ यह है कि विवाह की बात एक (चक्कर आ जाता है)
अविचार है और विवाह वस्तुतः विचार है ! क्या विनोद-(उसे सँभालना चाहता है। इसी समय सुषमा तुम्हारी कानूनी योग्यता ऐसे ही तर्क का सहारा ले प्रवेश करती है। विनोद सकपका जाता है) सकती है?
सुषमा (विनोद की उपेक्षा करती हुई) रेनू, (रेनू को गश [इसी समय सुषमा भी आ पहुँचती है; किन्तु वह आगया है। वह रूमाल निकाल कर हवा करती है। एकाएक भीतर प्रवेश नहीं करती। संदेह के साथ बाहर विनोद सहायता देने के लिए फिर आगे बढ़ता है) दूर खड़े खड़े सुनती है।
रहो, (विनोद की अोर घृणा और क्रोध से देखती है) विनोद-पर मैंने तुमसे कब घृणा की है रेनू ?
मैंने इन्हीं कानों से सब कुछ सुना है। तुम्हारा पौरुषरेणुका-घृणा ! वह मैं सहन कर सकती थी। तुमने मुझसे तुम्हारा उन्माद स्त्रियों के हृदय के साथ यों खिलवाड़ __ घृणा नहीं की, पर मुझे घृणित बना डाला विनोद ! कर सकता है ! (रेणुका की ओर संकेत कर) ये विनोद-प्रवाह के विरुद्ध तैरनेवाले को कभी पानी की तुम्हारी ही आँखें हैं जिन्हें तुमने अंधा बनाया है
सतह के नीचे होकर जाना पड़ता है । हमारी लालसायें यह तुम्हारा ही हृदय है जिसे तुमने चूर चूर किया समाज के प्रवाह के विरुद्ध थीं। और कुछ नहीं। है-यह तुम्हारा ही पौरुष है जिसे तुमने इस तरह
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'सरस्वती
[भाग ३८
कलंकित किया है ! (क्रोध और आवेग का नाटय भी हूँ और तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा कि मैं पशुता करती है)
की सतह से ऊपर भी उठ सकता हूँ-उठ रहा हूँ। (रेणुका होश में आकर सुषमा की ओर देखती है- रेणुका-(घृणा और क्रोध से) कैसा अच्छा मनुष्यत्व है ! फिर विनोद की ओर देखती है--फिर एकाएक उछल कर पाप की पहली सिद्धि को वह पशुत्व कह सकता है खड़ी हो जाती है)
- और पाप की दूसरी सिद्धि को मनुष्यता । (क्षण भर रेणुका- तुम भी आगई सुघमा--मेरा अपमान करने के ठहर कर) अच्छा विनोद, ......(फिर कुछ सोच कर) - लिए !
खैर, अभी नहीं। अभी तो मुझे देखना है कि अंधी सुषमा-छिः! बहन, मैं तो तुम्हारे इस अपमान पर लज्जित . आँखें इस कलई को कब तक सोना समझती हैं ।
हूँ। और सबसे अधिक लज्जित हूँ इसलिए कि मैं अाह ! विनोद, तुमने मेरा तिरस्कार कर अच्छा ही भी आज एक स्त्री ही हूँ।
किया। श्राशाओं का एक एक तिनका चुनकर मैंने रेणुका-स्त्री-स्त्री-स्त्री हूँ-(विनोद से) क्या देखते हो जो नीड़ बनाया था उसे तुमने एक ही फूंक में उड़ा
विनोद ? इन्हीं आँखों से मुझे और सुषमा दोनों ही दिया। ठीक किया । (सुषमा की ओर देखकर) ' को एक साथ देख सकते हो ? एक ही दृष्टि में तुम मनुष्यता का तकाज़ा अब तुम्हारे साथ है, सुषमा ।
घृणा और प्रेम दोनों ही वहन कर सकते हो ? एक हो सकता है संसार में पुण्य भावनायें गंगाजल ही निगाह में मृत्यु और जीवन की झाँकी दिखा की तरह बह रही हों, यह भी हो सकता है कि पृथ्वी सकते हो ? पुरुष ! तुम्हारा पाप समाज में पुण्य के पर निर्मलता चाँदनी की तरह फैल रही हो और नाम से बिकता है तुम्हारी नारकीय वासनायें समाज कदाचित् प्रेम दुनिया की आँखों में बाल-सुलभ में कल्याण का प्रसार करती हैं।
मोहकता बनकर झलक रहा हो-परन्तु मैं इन सबकी विनोद-वासना का प्रतिदान धिक्कार है और असंयम का अपवाद ही हूँ। इसी लिए विधाता ने मुझे निराश्रित
पुरस्कार तिरस्कार है । रेनू, हम दोनों ही वासना के बनाया है, और मैं अभी इस अनंत आकाश में शिकार हैं, जिसे समाज दुर्बलता कहता है। पर मैं छोटी-सी बदली बनकर उड़ रही हूँ। पर मेरी यह मानता आया हूँ कि प्रेम का पहला उभार अत्यन्त इच्छा है कि मैं काली घटा बन कर वासना ही है।
इस पृथ्वी पर उम. संसार का समस्त पुण्य मेरे पाप सुषमा-(आवेश में) तब तो तुम निरे पशु हो, क्योंकि पशु के आवरण से ढंक जाय।
विकार ही जानते हैं और पशुओं का संयम उनकी (वेग के साथ बाहर चली जाती है । सुषमा उसके स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
पीछे 'रेनू रेनू' कहती हुई दौड़ती है। विनोद सिर नीचा विनोद (किञ्चित् क्षोभ से)-सुषमा, तुम कुछ न कहो। किये कुछ सोचता है) मैं पशु हूँ और पशुता कर सकता हूँ, किन्तु मैं मनुष्य
(पर्दा गिरता है)
POSE
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कब मिलेंगे! लेखक, श्रीयुत नरेन्द्र
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगेआज से दो प्रेम-योगी अब वियोगी ही रहेंगे!
___आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर धीर बाँधू, विश्व-पथ है, हम पथिक, पर कौन जाना, कहाँ जाना ? किन्तु कैसे व्यथे की आशा लिये यह योग साधू ? तीर भी धारा-सदृश गतिवान् , थिरता का बहाना ! जानता हूँ अब न हम-तुम मिल सकेंगे!
अन्त ? गति ही सत्य है, कैसे मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आयगा मधु-मास फिर भी, आयगी श्यामल घटा घिर, यदि मुझे उस पार के भी मिलन का विश्वास होता, आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर, सत्य कहता हूँ न मैं असहाय या निरुपाय होता,
प्राण तन से बिछुड़कर कैसे मिलेंगे! . व्यर्थ हैं वे स्वप्न- 'हम फिर भी मिलेंगे !' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
अब न रोना, व्यर्थ होगा हर घड़ी आँसू बहाना, आज से अपने वियोगी हृदय को हँसना-सिखाना
अब न हँसने के लिए हम तुम मिलेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आज तक किसका हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा? कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्य-रेखा ?
क्या कभी सम्भव कि हम फिर भी मिलेंगे? आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे, दूर होंगे पर सदा को जो नदी के दो किनारे-
सिन्धु-तट पर भी न जो दो मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे !
आह, अन्तिम रात वह ! बैठी रहीं तुम पास मेरेशीश कन्धे पर धरे घन कुन्तलों से गात घेरे! .
क्षीण स्वर में कहा था-'अब कब मिलेंगे ?' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
तट नदी के, भग्न उर के दो विभागों के सदृश हैं, 'कब मिलेंगे? पूछता मैं विश्व से जब विरह-कातर, चीर जिनको विश्व की गति बह रही है, वे विवश हैं, 'कब मिलेंगे?' गूंजते प्रतिध्वनि-निनादित व्योम-सागर,
एक अथ-इति पर न पथ में मिल सकेंगे! 'कब मिलेंगे?' प्रश्न, उत्तर 'कब मिलेंगे ?' आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे।
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१६३६ का देशी कम्पनी कानून
लेखक, श्रीयुत प्रोफेसर प्रेमचन्द मलहोत्र
का चलाने तथा
उनकी उन्नति करने के लिए पूँजी का संचय होना ति श्रावश्यक है। अधिक परिमाण की उत्पत्ति के लिए बड़ी पूँजी दरकार होती है । पूँजी कम्पनियों द्वारा मुगमता से एकत्र हो जाती है । श्राज-कल प्रायः मिश्रित पूँजीवाली कम्पनियों द्वारा ही उद्योगों तथा व्यवसायों के लिए पूँजी मिलती है । ये कम्पनियाँ परिमित ज़िम्मेदारी के सिद्धान्त पर स्थापित होती हैं। यदि इन कम्पनियों का प्रबन्ध स्वार्थियों और छलियों के हाथों में श्रा जाय तो लोगों का विश्वास कम्पनियों पर से हट जाय और तब धनोत्पत्ति तथा व्यवसाय के लिए पूँजी का एकत्र करना बहुत कठिन हो जाय और देश की बहुत हानि हो ।
भारत में मिश्रित पूँजीवाले बैंकों का श्रारम्भ १८६५ से हुआ है। इसी वर्ष इलाहाबाद बैंक स्थापित हुआ था । १८९४ में पंजाब नेशनल बैंक और १९०१ में पीपल्स बैंक खुले । पर मिश्रित पूँजीवाले बैंकों की वृद्धि १९०६ से ही हुई है । इसी समय स्वदेशी आन्दोलन बड़े ज़ोरों पर था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि बहुत से स्वदेशी बैंक भी खुलते । १९१३-१४ में ५५२ मिश्रित पूँजीवाले बैंक थे, जिनकी प्राप्त पूँजी ७,९१,५१, ४२० रुपया थी ।
१९१३ में बहुत-से बैंक टूट गये, क्योंकि कई बैंक शुरू से ही स्थिर थे। कई बैंकों के तो नाम बड़े और दर्शन थोड़े थे। जैसे कि सोलर बैंक ग्राफ़ लाहौर की - प्रामाणित पूँजी तो एक करोड़ रुपया थी और प्राप्त पूँजी केवल ८ हज़ार रुपया ! ऐसे अनेक बैंक थे। कई बैंकों ने अपने पास काफ़ी नकद रुपया न रखकर बहुत सा धन्धों या उद्योगों में लगा दिया था, जहाँ से ज़रूरत पर रुपया सुगमता से समेटा नहीं जा सकता था। इसके अतिरिक्त बैंकों का प्रबन्ध ऐसे पुरुषों के हाथ में था जो बैंक - कार्य से अनभिज्ञ थे। कई बैंकों ने बहुत-सा रुपया काल्पनिक व्यक्तियों के नाम पर उधार दे दिया था। कई बैंकों ने अपने हिस्सेदारों को लाभ-भाग मूलधन में से बाँटा । इन सब अनुचित व्यवहारों से बैंकों का टूटना स्वाभाविक था । १९१३ के कम्पनी कानून में कुछ ऐसे दोष थे जिनसे
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लाभ उठाकर बहुत-सी बेपेंदी की कम्पनियाँ खुल जाती थीं। इससे केवल लोगों के धन की ही हानि नहीं हुई, बरन लोग कम्पनियों में रुपया लगाने से संकोच करने लगे । तब सरकार ने यह अपना कर्तव्य समझा कि धन लगानेवालों के हितों की रक्षा की जाय । श्रतएव १९३६ के नये कम्पनी कानून में निम्नलिखित बातें रक्खी गई हैं(१) छली और जाली कम्पनियों पर प्रतिबन्ध लगाना । (२) कम्पनियों के सूचना-पत्र में विस्तार पूर्वक श्रावश्यक विज्ञापन का देना ।
-
(२) कम्पनियों के हिस्सेदारों की आय सम्बन्धी अवस्था का पूरे तौर पर परिचय कराना । (४) हिस्सेदारों के अधिकारों का बढ़ाना । (५) कम्पनियों के प्रबन्ध-सम्बन्धी प्रतिनिधियों के बारे में कानून को बदलना ।
(६) बैंकिंग की कम्पनियों के बारे में क़ानून का संशोधन
करना ।
१९२९ में सरकार ने भारतीय बैंकों के व्यवसाय की जाँच करने के लिए प्रांतीय और केन्द्रीय बैंकिंग कमिटियाँ बिठाई। बैंकों का जो नया कानून बनाया गया है वह इसी केन्द्रीय बैंकिंग कमिटी की सिफ़ारिशों के आधार पर बनाया गया है ।
इस क़ानून के अनुसार बैंकिंग कम्पनी उसको ठहराया है जिसका मुख्य धंधा चालू जमा अथवा और तरह रुपया लेना है और रुपये की वापसी चेक और हुंडी के द्वारा देना है। इसके अतिरिक्त बैंकिंग- कम्पनी निम्नलिखित कार्य भी कर सकती है
(१) ज़मानत या बिना ज़मानत के रुपया उधार देना । (२) हुंडी -पुर्जा, प्रोमिसरी नोट, सिक्युरिटीज़, जहाज़ी
माल का हुंडी-पर्चा अथवा प्रतिज्ञा पत्र का ख़रीदना, बेचना अथवा बट्टा काटना ।
(३) विदेशी विनिमय का ख़रीदना ।
(४) उधार के बीजक का देना अथवा स्वीकार करना । (५) बीमा करना ।
(६) चाँदी या सोने का बेचना अथवा खरीदना ।
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संख्या ६]
१९३६ का देशी कम्पनी-क़ानून
(७) ज़ेवर अथवा जोखिम के द्रव्य की रक्षा रखना। समय ऋण का १३ प्रतिशत और उसके अस्थिर (८) रुपये को वसूल करना और एक जगह से दूसरी ऋण का ५ प्रतिशत हो। -- जगह भेजना।
इस नये कानून से पहले अगर कोई बैंक लोगों के (९) किसी की जायदाद का प्रबन्ध करना अथवा ट्रस्टी माँगने पर उनका रुपया उन्हें पूरे तौर पर उनकी माँग बनना।
पर नहीं दे सकता था तो उस बैंक को अपना काम बंद (१०) बैंक के व्यवसाय के लिए रुपया उधार लेना। करना पड़ता था, चाहे उसकी असली हालत बिलकुल (११) माल-असबाब को गुदाम में रखने का काम करना। ठोस और श्राय स्थिर क्यों न हों। पर अब नये (१२) उधार का प्रबन्ध करना।
कानून के अनुसार बैंकिंग-कम्पनी कचहरी से प्रार्थना (१३) अपना रुपया वसूल करने के लिए जंगम सम्पत्ति कर सकती है कि उसे अपने डिपाज़िटरों को रुपया कुछ अथवा अचल सम्पत्ति का बेचना।
देर के बाद देने की आज्ञा मिल जायं और इस समय इस कानून में यह त्रुटि है कि जिस कम्पनी में दस में वह अपनी अल्पकालिक आय-सम्बन्धी कठिनाइयाँ मनुष्यों से कम व्यक्ति शामिल हों उस पर यह नया कानून ठीक कर सकें। इससे बैंक अपने को अनुचित दिवाले नहीं लग सकता। इसी तरह जिन कम्पनियों का मुख्य से बचा सकेंगे। परन्तु बैंक की प्रार्थना कचहरी तभी सुनेगी काम तिजारत करना हो वे इस कानून के बाहर हैं, चाहे जब उस प्रार्थना के साथ कम्पनियों के रजिस्ट्रार का भी वे लोगों से रुपया जमा करने को लें और चेक के द्वारा विज्ञापन हो । काम भी करें। इसमें यह भी दोष है कि तिजारत करने कम्पनी अपने हिस्से अपने आप नहीं खरीद सकती, - वाली कम्पनियाँ अपने बैंकिंग-विभाग से रुपया लेकर न वह किसी को अपने हिस्से ख़रीदने को रुपया उधार अपनी तिजारत में फंसा देती हैं।
दे सकती है। ___ जो भी बैंकिंग कम्पनी १५ जनवरी १९३७ के बाद स्थापित होगी वह अपने प्रबन्ध के लिए प्रबन्ध-प्रतिनिधि
नया कानून और अन्य कम्पनियाँ । नहीं नियुक्त कर सकती। इससे यह सुधार हुआ है कि (१) कम्पनियों के डायरेक्टरों का चुनाव प्रतिवर्ष होगा। बैंक का रुपया मैनेजिंग एजंट अपने धंधों में नहीं लगा (२) नई कम्पनियों में प्रबन्ध-प्रतिनिधि २० वर्ष से अधिक सकते और बैंक मैनेजिंग एजंट से मुक्त रहेंगे।
के लिए नियुक्त नहीं किये जायेंगे। ___ निम्नलिखित धारात्रों से बैंकों की आय-सम्बन्धी (३) मैनेजिंग एजंट को नियुक्त करना, उनको हटाना स्थिरता हो जायगी और बनावटी अथवा थोथी कम्पनियाँ और उनके पट्टे की शर्ते तय करना या बदलना, ये नहीं खुल सकेंगी।
सब बातें कम्पनी की ऐसी सभा में तय होंगी जिसमें (१) कोई बैंकिंग-कम्पनी जो १५ जनवरी १९३७ के बाद सब हिस्सेदार भाग ले सकेंगे।
स्थापित होगी, तब तक अपना काम नहीं शुरू (४) मैनेजिंग एजेठ का वेतन कम्पनी के स्वालिस मुनाफ़े कर सकती जब तक कम से कम ५०,००० रुपया पर प्रतिशत के हिसाब से होगा। अगर कम्पनी कम्पनी की क्रिया-सम्पत्ति (Working Capital) का खालिस मुनाफ़ा कम होगा तो उन्हें निश्चित न हो।
किया हुअा अत्यल्प वेतन और दफ़्तर चलाने का (२) जब तक स्थायी कोष प्राप्त पूँजी के तुल्य न हो तब ख़र्च मिलेगा।
तक कम्पनी के वार्षिक लाभ में से प्रतिशत स्थायी (५) कम्पनी की बड़ी मीटिंग साल में एक दफ़ा अवश्य कोष . में जमा किया जाय। स्थायी कोष सरकारी होगी। सिक्युरिटियों और ट्रस्ट-सिक्युरिटियों में ही लगाया (६) कोई भी कम्पनी अपने डायरेक्टरों को उधार रुपया जाय।
नहीं दे सकेगी और न उधार का जिम्मा ले सकेगी। (३) हर एक बैंकिंग-कम्पनी का नकद कोष उसके नियत वह उस कम्पनी को उधार दे सकती है जिस पर
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- सरस्वती
[भाग ३८
इस कम्पनी का डायरेक्टर उस कम्पनी का भी डाय- परन्तु अब नई कम्पनियों के हिस्सेदार भी कम्पनी के रेक्टर या हिस्सेदार हो।
प्रबन्ध में यथायोग्य भाग ले सकेंगे। यह सुधार नई कम्पनियों के लिए बहुत ही उपयोगी (८) कम्पनी की बड़ी मीटिंग में कम्पनी के हिसाब की होगा।
जांच करनेवाला अर्थात् आडीटर बुलाया जा सकेगा, (७) मैनेजिंग एजंट के डायरेक्टर कम्पनी के कुल डाय- और वह हिसाब की अपनी जांच का मीटिंग में रेक्टरों के तृतीयांश से अधिक न होंगे।
विवरण दे सकेगा। पहले तो बहुधा कम्पनियों का असली प्रबन्ध मैनेजिंग हिस्सेदारों के दृष्टिकोण से यह भी एक बहुत उपयोगी एजंट के अधिकार में था और हिस्सेदार केवल नाम-मात्र सुधार है । के लिए थे। हाँ, उन्हें मुनाफ़ा ज़रूर मिल जाता था।
PAN
दीपदान
लेखक, श्रीयुत द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण' अरे साहसी ! अरे वीर!
ढूँढ़ रहे हो जल - तल में कुछ तिनकों की नौका लेकर किसे खोजने चले धीर? तुम जहाँ-तहाँ बिखरे मोती ? आद्यन्तहीन सा जलमय पथ !
नीरव सरिता का वक्ष चीर ! दूर - दूर तक नीर • नीर!
स्वर्गङ्गा के स्नेह - हीन आस पास ये तम पिशाच
तारा-दीपक की अमर किरन ! हँस रहे खड़े धर तरु-शरीर।
अरे! करोगे स्पर्धा कैसे ... . . अगणित लहरेंचञ्चल-अधीर!
क्षण - भगुर स्नेही-जीवन ? कौन बात लग गई अचानक
बह उठे न जाने कब समीर ? ऊब गया जो जग से मन ? 'किस सुख की आशा से निकले
किसी एक अज्ञात शोध पर
कोमल प्राणों की बाजी ! तपश्चरण करने लघुतन ! तिल तिल जलते होती न पीर ?
पता नहीं, किस प्राप्ति-हेतु ..या बन्दी हो गये प्रणय के
इस कीमत पर तुम हो राजी। समा गया उर में संताप !
मेटोगे सोने की लकीर ? प्रेमानल की जलती ज्वाला
कौन कहे मर मिटने कीचले जा रहे हो चुपचाप!
तुमको ऐसी इच्छा क्यों है ? हो उदासीन, भाती न भीर ? “द्रवित हुए किस दुखिया को
कौन कहे, जीवन क्यों है ? लख सूने तट बैठी रोती ?
__ क्या जीवन ही है व्यथा-पीर ?
...
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'
ला हावर
लेखक, प्रोफेसर सत्याचरण, एम० ए० प्रोफेसर सत्याचरण जी का मडेरा शीर्षक लेख हम 'सरस्वती' के पिछले अंक में छाप चुके हैं। अमरीका से योरप आते हुए उनकी यात्रा का यह दूसरा लेख है।
जिस ब मडेरा द्वीप आँखों से बिलकुल सब यही जानना चाहते थे कि ये वायुयान किस राष्ट्र के
अोझल हो गया था। फिर अट- हैं। पर वे इतनी उँचाई पर थे कि जहाज़ के कर्मचारियों श्र लांटिक की नीलिमामय जलराशि तथा यात्रियों में कोई उनको पहचान नहीं सका. केवल
र के अतिरिक्त और कुछ दिखाई अनुमान से सभी उन्हें स्पेन के बतलाते थे। और वे स्पेनISLATKAI नहीं पड़ता था। आज लगभग सरकार के थे अथवा विद्रोहियों के थे, यह भी ठीक ठीक १० दिन समुद्रतल पर बीत चुके थे। एम्सटर्डम पहुँचने में कोई नहीं कह सकता था। अभी ६ दिन और शेष थे। इस बीच में प्लीमाउथ, ला हावर पोर्चुगल के तट से लगभग ४.५ मील की दूरी पर इन दोनों स्थानों पर जहाज़ को और रुकना था। मुझे हमारा जहाज़ जा रहा था। इतनी दूरी होने पर भी तट सबसे अधिक उत्सुकता ला हावर देखने की थी, क्योंकि अच्छी तरह दिखलाई पड़ता था। भरे पहाडी तट और ऐतिहासिक स्थान होने के साथ साथ इसका सामुद्रिक हमारे जहाज़ के बीच अथाह जल-राशि थी। कभी कभी महत्त्व भी है।
जहाज़ बीच में श्रा जाता था। अटलांटिक भिन्न स्पेन के गृह-युद्ध का वर्णन दक्षिणी अमेरिका के भिन्न प्रकार की मछलियों के लिए प्रसिद्ध है। कभी चाँदी पत्रों में भली भांति पढ चका था। यह भी पता लग गया की तरह चमकती हई उडनेवाली मछलियाँ जहाज से था कि वायुयान दुश्मनों के जल-पोतों की ताक में उड़ा थोड़ी दर पर चक्कर काटती थीं। कल तो जहाज़ के दे करते हैं और अवसर पाते ही उनका संहार कर देते हैं। तक पहुँचने की धृष्टता करती थीं। सबसे अधिक आनन्द इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग डच जहाज़ में थे, पर डालफ़िन मछली के देखने में आता था। डालफ़िन का हमेशा इस बात का भय था कि कहीं धोखे से हमारे जहाज़ कलेवर बड़ा और मांसल होता है । जल से इसके बाहर का सत्यानाश और हमारे जीवन की बलि न हो जाय। होते ही समुद्र में एक छोटी-सी चट्टान-सी प्रतीत होने कप्तान एक चतुर व्यक्ति था। उसने सभी कर्मचारियों को लगती थी। डेक पर बैठे हुए इन जलीय जन्तुओं के श्रावश्यकता से अधिक सतर्क रहने की प्राज्ञा दे दी थी। देखने के अतिरिक्त और मनोरञ्जन का सामान ही क्या हो जब तक जहाज़ पोर्चुगल और स्पेन के तट के पास से हो कर सकता है? गुज़र रहा था तब तक किसी कर्मचारी को चैन नहीं थी। मेरे साथ एक मुलाटा-जाति के सज्जन थे। इनकी ___ यह यात्रा कुछ अद्भुत थी। हृदय सशङ्क रहता और जन्म-भूमि डच-गायना थी और ये जावा में डच सरकार
से लोग देर तक डेक पर समय गजारते। जिस समय के मातहत शिक्षा विभाग के कर्मचारी थे। मलाटा. जिब्राल्टर के सीध में हमारा जहाज़ पहुँचा उस समय जाति के लोग भारत के एंग्लो-इण्डियन की भांति मिश्रित कितने ही जंगी और व्यापारी जहाज़ द्रुतगति से इधर- रक्त के होते हैं । इन सज्जन में डच और नीग्रो रक्त उधर प्रादे-जाते दिखलाई पड़े। जंगी जहाजों का आकार का संयोग था। अतः इनकी गणना गोरों में नहीं दसरी ही भाँति का होता है। उनकी रूप-रेखा देखते ही सकती थी। ऐसे लोगों के साथ सामाजिक अवसरों पर लोग उनके महत्व को समझ जाते हैं । जिब्राल्टर से उत्तर कालों जैसा ही व्यवहार किया जाता है। अमरीका में काले की अोर पोर्चुगल के किनारे पहुँचते ही कई वायुयान. और गोरों का भेद सर्वत्र दीख पड़ता है, अन्तर यही है उड़ते हुए दिखलाई दिये। जहाज़ में हड़कम्प मच गई। - कि कहीं कम और कहीं ज़्यादा।।
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सरस्वती
[भाग ३८
कि जहाज़ से उतरते समय स्टुअार्ड को एक एक लिफ़ाफ़ा दें और उस लिफ़ाफ़ा में यह पत्र लिख कर रक्खा हो कि जो व्यवहार-भेद हमारे साथ किया गया है उससे हम खिन्न हैं और टिप के स्थान पर यह पत्र है । मैंने इस राय की पुष्टि की। सोचा कि इस घटना से स्टुअार्ड महोदय को जन्म भर के लिए एक अच्छी शिक्षा मिल जायगी । पर यह बात जहाँ की तहाँ रह गई। स्टुअार्ड को इस बात की खबर मिल गई और उसने अनुनय-विनय
कर उस अँगरेज़ महिला से डाइनिंग-हाल में ही भोजन ला हावर नगर तथा समुद्र-तट]
करने का अनुरोध किया। दूसरे दिन जब लोग डाइनिंग
हाल में गये तब उक्त महिला को एक कुर्सी पर आसीन - इन्हें एक घटना बड़ी अप्रिय लगी, जिसका उल्लेख पाया। जिस बात के लिए उक्त संकल्प किया गया था करना आवश्यक समझता हूँ । जिस क्लास में ये महाशय उसका सहज ही निपटारा होते देख बात समाप्त कर यात्रा कर रहे थे उसी में एक अँगरेज़ महिला भी थी। दी गई। इसे छोड़ कर उस क्लास में और कोई पूर्ण श्वेताङ्ग नहीं था। बिस्के की खाड़ी में जहाज़ पहुँच चुका था। यह यह महिला मडेरा से ही जहाज़ में चढ़ी थी और प्लीमाउथ खाड़ी तूफ़ानों के लिए प्रसिद्ध है, पर सितम्बर का मास जा रही थी। इसके भोजन का ढंग कुछ विचित्र था, जो शान्त होता है। अतः किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। स्वाभिमानी यात्रियों के लिए अपमान की बात थी। बात हम लोग स्पेन के तट से दूर निकल आये थे। जो शङ्का यह थी कि उक्त महिला 'डाइनिंग-हाल' में सब यात्रियों रह रहकर यात्रियों को सता रही थी वह दूर हो गई। के साथ भोजन न कर 'स्मोकिंग रूम' में ही भोजन मँगा अब लोगों के हृदय में प्लीमाउथ पहुँचने की उत्सुकता थी। लेती थी। स्टुआर्ड भी इस पर कोई आपत्ति नहीं करता जिस समय हम लोग प्लीमाउथ पहुँचे उस समय था। आखिर वह भी तो था श्वेताङ्ग ही। यह भेद-भाव अपराह्न का समय था। तट से दूर ही जहाज़ लग गया सभी को खटकता था, पर कोई इस मामले को कैसे छेड़ता ? था। आलीशान मकान प्लीमाउथ की उत्कृष्टता की सूचना प्रबन्ध जहाज़ का था, उसमें हस्तक्षेप करने का किसी को दे रहे थे । बहुत-से यात्री यहीं उतर गये। इनके अधिकार नहीं था। पर एक बात यात्रियों के हाथ में थी, लिए कम्पनी का बोट तट पर ले जाने के लिए लगा था । वह थी टिप'।
दक्षिणी अमेरिका से यहाँ तक रेडियो के समाचार के भारत छोड़ते ही पश्चिमीय देशों में सभी जगह सेक्कों को टिप देने की प्रथा है। किसी होटल में चले जाइए । भोज्य पदार्थ का मूल्य तो देना ही पड़ेगा, पर सेवक को भी 'टिप' देना आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति टिप की रस्म अदा नहीं करता तो कर्मचारी उसे बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं और उसे किसी नीच कुल और समाज का समझते हैं। जहाजों में भी टिप का देना। श्रावश्यक समझा जाता है। मध्यम कोदि के लोग भी १ पौंड तक टिप दे देते हैं। ___ उक्त मुलाटा महाशय ने यह राय की कि जितने यात्री
इस व्यवहार-भेद से खिन्न हैं वे सभी इस बात का संकल्प करें ला हावर के ला रूथियर्स स्ट्रीट का एक दृश्य ।] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या ६]
ला हावर
५५१
अतिरिक्त किसी पत्र को देखने का सौभाग्य नहीं हुश्रा था । मडेरा में पार्चुगीज़ पत्र मिलते थे, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकता था। अतः टाइम्स की एक प्रति प्लीमाउथ में खरीदी । इसी पत्र-द्वारा प्रथम बार युक्तप्रान्त के भूतपूर्व शिक्षा-विभाग के डायरेक्टर मिस्टर मेकेन्जी की मृत्यु का समाचार मिला। ____ हमारा जहाज़ प्लीमाउथ में मुश्किल से २-२॥ घटे ठहरा । अब ला हावर की ओर चल पड़ा । हावर जानेवाले भी कई यात्री थे, जो प्रायः फ्रेंच थे । कुछ ऐसे भी थे, जो इटली और स्विट्ज़लैंड जानेवाले थे। इन लोगों
[ला हावर का गम्बेटा स्क्वायर ।] का विचार हावर उतरकर पेरिस होते हुए अपने अपने देशों का जाने का था। हावर के पश्चात् एम्सटर्डम ही फ्रांस देश के इस भाग के किनारे किनारे चलते कुछ जाकर जहाज़ को रुकना था। इसलिए यात्रियों की संख्या समय बीत चुका था । दूर से ही ला हावर की धुंधली रूपरेखा घटनी स्वाभाविक थी।
दिखलाई पड़ने लगी। जहाज़ जिस क्रम से आगे बढ़ता यदि योरप के नकशे में ला हावर की स्थिति को देखें था उसी क्रम से एक अाकाश को छूनेवाला ऊँचा-सा तो उत्तर-पश्चिम के सिरे पर उठे हुए एक भु-भाग का स्तम्भ दिखलाई पड़ता था। पूछने पर मालूम हुआ कि टुकड़ा दिखलाई देगा। यह भाग मीलों तक चला गया है। वह विश्व-विख्यात फ्रेंच जहाज़ नारमण्डी के टिकने की आगे चल कर तीन अोर से घिरा हुअा स्थान है जो हावर जगह है। फ्रांसीसियों ने विजय-गर्व के उल्लास में इस को एक उच्च कोटि के बन्दरगाह का रूप देता है। प्रातः- स्तम्भ की रचना की है। काल का समय था। जहाज़ इंग्लिश-चैनल को पार कर ला हावर फ्रांस का दूसरे नम्बर का बन्दरगाह इसी भू-खण्ड के पास होकर जा रहा था। तट पहाड़ी है। है। सर्वप्रथम मार्सेल है। उसकी स्थिति भूमध्य-सागर में इन ऊँचे स्थानों पर सैकड़ों मकान बने हुए हैं। जहाँ होने के कारण पूर्वी देशों से व्यापार आदि के लिए अधिक यह ऊँचा भाग प्रारम्भ होता है वहीं सिरे पर लाइट सुविधाजनक है । पर अटलांटिक महासागर के व्यापार के हाउस है। जो भी जहाज़ रात्रि के समय इंग्लिश चैनल से लिए ला हावर ही अधिक प्रसिद्ध है। अमरीका जानेवाले हावर की ओर बढ़ता है उसे पहले इसी का दर्शन होता है। जहाज़ यहीं लगे रहते हैं । नारमण्डी का फ़ांस और अमरीका
के बीच आना-जाना लगा रहता है। इसी से इस विशाल पोत की स्थिति यहीं रहती है। प्राकृतिक दृष्टि से हावर बहुत सुरक्षित बन्दरगाह है। इंग्लिश-चैनल में बराबर तूफ़ान उठा करते हैं । पर तीनों ओर से पृथ्वी से घिरा होने के कारण हावर के पास तूफ़ान की आशंका नहीं रहती।
जहाज़ के तट पर लगते ही हावर नगर देखने की योजना हुई। १०-१२ श्रादमियों की एक पार्टी बन गई । इनमें ३-४ बच्चे भी थे। २ टैक्सियाँ किराये पर कर ली गई और हम लोग शहर के भीतर दाखिल हुए।
जिस समय जहाज़ तट पर लगा था उस समय धूप [बालवाद दे स्त्रासबर्ग । फ्रांस और बेल्जियम हाथ । थी। पर मुश्किल से थोड़ी दूर शहर के भीतर गये होंगे कि मिला रहे हैं ।]
अाकाश मेघाच्छन्न हो गया और बूंदे पड़ने लगीं । फ्रांस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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५५२
सरस्वती
[भाग ३८
पंक्तियां लगी हुई हैं । बीच में मकानों की कतारें हैं । यदि इस प्रकार शहरों में भवन-निर्माण की व्यवस्था हो तो किसी का स्वास्थ्य असमय क्यों ख़राब हो ?
विदेशों के मकानों और सड़कों के विषय में अधिक कहना पिष्ट-पेषण मात्र है। भारत से उनकी तुलना ही नहीं हो सकती। नक्काल भारत में विदेशी सभ्यता की वस्तुएँ जुट रही हैं। वह भी अर्धावस्था में । यदि मोटर है तो ठीक सड़क नहीं । पश्चिमीय देशों में मोटर के साथ
अथवा उसके पहले लोगों ने सड़कों का मसला हल कर [ला हावर का थियेटर घर तथा नवीन उद्यान ।]
लिया था। भारत में प्रतिवर्ष मोटरों की संख्या वृद्धि हो
रही है, पर सड़कों की ओर कोई देखनेवाला नहीं। जब और इंग्लैंड में यह कोई नई बात नहीं है। क्षण क्षण किसी सड़क से मोटर निकलता है, गर्द के बादल नीचे से वायु-मण्डल में परिवर्तन हुआ करता है। एक क्षण धूप ऊपर तक अपना साम्राज्य जमा लेते हैं और अपने भक्तों है तो दूसरे क्षण वर्षा होने लगती है और तीसरे क्षण यदि को (या शिकारों को) राजयक्ष्मा का प्रसाद बाँटते चले अोले पड़ने लगे तो क्या अाश्चर्य ! पर लोगों का आना- जाते हैं। इसकी अोर न नगर-पिताअों का ध्यान जाता जाना बन्द नहीं होता। पुरुष और स्त्री दोनों ही बरसाती है और न हेल्थ-आफ़िसरों का। जिसे इस समस्या डाले अपने अपने काम में लगे रहते हैं।
की भयंकरता का अनुमान लगाना हो वे सरकार-द्वारा मकानों की दृष्टि से हावर के विषय में क्या कहना प्रकाशित राजयक्ष्मा से ग्रस्त रोगियों की क्रमशः संख्या है! पश्चिमीय योरप के सभी बड़े नगरों में सुन्दर विशाल वृद्धि की रिपोटो को देखें । विदेशों में ये बातें सहन नहीं मकान देखने में आते हैं । फ्रांसीसी लोग बड़े कलाप्रिय की जा सकती हैं। वहाँ तो दो ही विकल्प सामने हैं। होते हैं । हावर में उनकी इस परिष्कृत रुचि का पूर्ण या तो मोटरों का बहिष्कार अथवा सड़कों की ठीक परिचय मिलता है। सड़कें साफ़ और मज़बूत बनी हुई हैं। अवस्था । गर्द का कहीं नाम तक नहीं। दूकाने और रहने के मकान ला रू थियर्स स्ट्रीट देखने के पश्चात् 'बोलदोनों ही अच्छी तरह सजे हुए रहते हैं। फुट-पाथ पर वार्द दे स्त्रासबर्ग' की ओर बढ़े। लोगों ने जहाज़ में ही बराबर लोग आते-जाते रहते हैं। सबके मुख पर प्रसन्नता इस स्मारक की चर्चा की थी। गत योरपीय महायुद्ध के
और स्वाभिमान के भाव साफ़ साफ़ झलकते रहते हैं। पश्चात् प्रायः सभी पश्चिमीय योरपीय देशों में कुछ न ___साथ कई लोग थे और सबकी भिन्न आवश्यकतायें थीं। कई दूकानों में जाने का अवसर हुअा। लोगों ने मनचाही चीज़े खरीदीं।
इसके बाद हम लोग सबसे पहले ला रू थियर्स स्ट्रीट पर पहुँचे। इस सड़क का नाम प्रसिद्ध फ्रांसीसी प्रधान मन्त्री थियर्स के संस्मरणार्थ रक्खा गया है । उक्त प्रधान मन्त्री अपने समय में योरप के राजनैतिक आकाश का एक चमकता हुश्रा नक्षत्र था । इस सड़क के किनारे मकान मानों साँचे में ढले हुए बने हैं । बीच में ट्राम-वे और मोटर आदि के लिए विस्तृत सड़क है। सड़क के दोनों ओर चौड़े चौड़े
फुट-पाथ बने हुए हैं । इन्हीं फुट-पाथों पर वृक्षों की सुन्दर हावर नगर का 'पेरिस म्यूज़ियम' ।] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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लारू थियर्स स्ट्रीट पर
Mata
नय
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सख्या ६ ]
कुछ स्मारक बने हैं । आज तो उनका तात्कालिक महत्त्व जान पड़ता है, पर कालान्तर में वे ही ऐतिहासिक स्थान का रूप लेंगे । ऐसे ही स्थानों में बोलवाद दे स्त्रासबर्ग भी है। इसके साथ तीन देशों का इतिहास सम्बद्ध है, अर्थात् फ्रांस, जर्मनी और बेल्जियम का ।
जिन्होंने योरप के इतिहास का अध्ययन किया है उन्हें यह अच्छी तरह मालूम है कि फ्रांस और जर्मनी का वर्षों पूर्व से मनमुटाव चला आ रहा है । सन् १८७० में फ्रांस और जर्मनी में युद्ध हुआ । जर्मनी विजयी रहा और उसने फ्रांस के अलसस और लारेन नाम के दो प्रान्तों को अपने अधिकार में कर लिया । ये दोनों प्रान्त बड़े उपजाऊ और सघन रूप से आबाद हैं । फ्रांस को इससे बड़ी क्षति हुई, पर विजित फ्रांस कर ही क्या सकता था ? समय का फेर होता है ।
ला हावर
गत योरपीय महायुद्ध में पासा पलट गया । मदोन्मत्त जर्मनी का दर्प चूर हुआ और फ्रांस ने बर्सलाई की सन्धि के अनुसार जर्मनी का पक्षहीन पक्षी की भाँति योरप के भाग्याकाश में छोड़ दिया । इसी समय उसने लगभग ५० वर्षों से खाये हुए अपने अलसेस और लोरेन प्रान्तों को प्राप्त किया । इसी के स्मारक में बोलवार्द दे स्त्रासबर्ग में दो मूर्तियाँ हाथ मिलाती हुई निर्माण की गई । एक ओर तो बेल्जियम है और दूसरी ओर फ्रांस बेल्जियम ने इस युद्ध में फ्रांस की सहायता ही नहीं की, बरन अपने को मिटा दिया था। फ्रांस ने इस घटना के लिए उक्त स्मारक का निर्माण कर बेल्जियम के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है।
५५३
[हावर बन्दरगाह में नारमण्डी के प्रवेश का दृश्य । ]
I
हावर देखनेवालों के लिए एक और स्थान अत्यन्त दर्शनीय है । वह है 'गम्बेटा स्क्वायर' | इस स्थान का भी सम्बन्ध फ्रांस की ऐतिहासिक लड़ाई से है । यह बतलाया I जा चुका है कि सन् १८७० में जर्मनी और फ्रांस में लड़ाई हुई थी । इसी समय फ्रांस में एक प्रसिद्ध वीर था, जिसका नाम था गम्बेटा । जर्मन लोगों ने अपने अद्भुत पराक्रम से फ्रांस की सीमा को पार कर पेरिस को घेर लिया था । इस घेरे के कारण पेरिस से बाहर निकलकर दूसरे स्थानों पर जर्मनी के विरुद्ध फ्रांसीसी सिपाहियों को संचालन करनेवाला कोई व्यक्ति नहीं मिलता था। सारे फ्रांस में आतङ्क छाया हुआ था । नेपोलियन ( तीसरा ) भी जर्मनों का बन्दी बन चुका था । उस समय गम्बेटा बड़ी वीरता के साथ बैलून के सहारे पेरिस से उड़कर बोर्दो पहुँचा और सैन्य का संचालन किया। दुर्भाग्यवश गम्बेटा इस लड़ाई में कृतकार्य नहीं हुआ । पर वीरतापूर्ण मुकाबिले का यह फल अवश्य हुआ कि जर्मन लोगों ने पेरिस का छोड़ दिया । गम्बेटा स्कायर इसी घटना से सम्बद्ध है ।
उक्त स्क्वायर के मध्य में एक स्वर्गीय देवी की बहुत ही मनोहर मूर्ति है। मूर्ति से थोड़ी दूर पर फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं, जिनके किनारे रंग-बिरंगे पत्थरों से जड़े हैं। कितने ही फ़ौवारे हैं, जिनसे जल की क्षीण पर वेग-पूर्ण धारायें निकलती रहती हैं। कहा जाता है कि यह स्क्वायर प्रेमी और प्रेमिकाओं के मिलन के लिए प्रसिद्ध है ।
यों तो श्राज-कल सिनेमा का प्रचलन सभी सभ्य देशों
[ हावर के समुद्र-तट पर नारमण्डी के टिकने का स्थल ।] में है, पर यह निर्विवाद है कि फ्रांस से बढ़कर नृत्य और
फा. ५
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५५४
सरस्वती
[ भाग ३
रेज़ और फ्रांसीसियों की प्रकृति में अन्तर है । अँगरेज़ बिना परिचय कराये कठिनाई से किसी से मिलना-जुलना पसन्द करेंगे। मेरे पास समय तो नहीं था, फिर भी जो २.४ मिनट बातें हुई वे बड़ी कौतुक-पूर्ण थीं। उन्होंने भारतीयों के प्रति अपना विशेष प्रेम बतलाया, जिसके लिए मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। बातचीत के सिलसिले में मालूम हुआ कि गत महायुद्ध में उनका भारतीय सैनिकों के साथ सम्बन्ध हो गया था। उन्होंने दो वस्तुओं की प्रशंसा की ; एक तो भारतीयों की पगड़ी की और दूसरे
चपाती या रोटी की । उनकी दृष्टि में सर्द मुल्क के लिए हावर के समुद्र-तट पर जल और धूप-स्नान का स्थान ।] पगडी लाभदायक है । मालूम होता है, किसी सिक्ख सिपाही
ने इन्हें अपनी मीठी रोटी से खूब प्रसन्न किया था, जिससे सिनेमा प्रेमी कदाचित् ही कोई देश हो। अमरीका में वे अब तक उसका स्वाद भूल नहीं सके थे। इस दिशा में बड़ी उन्नति हुई है। वहाँ करोड़ों रुपये इन्हीं समय अधिक हो चुका था। टैक्सीवाले का जहाज़ की व्यवसायों में लगे हुए हैं, पर फ्रांसीसियों के रक्त में थियेटर अोर बढ़ने का आदेश दिया। इतने में हमारी पार्टी
और नृत्य का प्रेम भिना है। ला हावर में भी इसी प्रकार के एक सज्जन ने 'नारमण्डी' के टिकने के स्थान को का एक थियेटर है, जिसके साथ सुन्दर बाग़ लगा हुआ देखने की इच्छा प्रकट की। ड्राइवर से कहा गया कि है। सारे नगर में यह सबसे उत्तम थियेटर माना वह उसी ओर ले चले। जहाँ हमारा जहाज़ रुका था जाता है। थियेटर का भवन तीन मंज़िला है। इसमें वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर नारमण्डी के टिकने का स्थान सुरापान का भी प्रबन्ध है। उसके लिए भी स्थान था। थोड़ी देर में हम लोग वहाँ पहुँच गये। जिस बने हुए हैं। यह थियेटर अधिक रात्रि तक लोगों का समय हम लोग वहाँ पहुँचे, दुर्भाग्यवश नारमंडी
आमोद-प्रमोद करता है। दिन में तो वाटिका का ही अानन्द न्यूयार्क के लिए प्रस्थान कर चुका था। पर उसी स्थान लेने लोग आते हैं।
पर फ्रांस का दूसरे नम्बर का जहाज़ 'इल दे फ्रांस' था। ___ हावर का 'पेरिस-म्यूज़ियम' भी देखने योग्य है। यह लगभग ५५-५६ हज़ार टन का जहाज़ है। फ्रांस के मध्यकालीन फ्रांस की चित्रकारी और उद्योग धन्धों का यहाँ दूसरे नम्बर के बन्दरगाह पर दूसरे नम्बर का जहाज़ देखने अच्छा संग्रह है। साहित्यिकों के भी संस्मरण आदि हैं, का सौभाग्य हुा । अपने जीवन में 'इल दे फ्रांस' से बड़ा जो समय देने पर देखे जा सकते हैं। सच बात यह जहाज़ और दूसरा कोई नहीं देखा था। इसकी उँचाई है कि इन अजायबघरों के देखने के लिए विशेष समय' सौ फुट से अधिक थी। हज़ारों यात्रियों के लिए चाहिए। जहाज़ के यात्रियों के लिए परिमित समय में स्थान था। सब वस्तुओं का गौर से देखना कठिन है। फिर भी संग्रह के अब तक हावर के सम्बन्ध में एक बात नहीं बतला बहिरङ्ग को ही देखकर म्यूज़ियम की उत्तमता का अन्दाज़ा सका। वह है इसके समुद्रतट पर धूप और, जल-स्नान का लगाया जा सकता है।
प्रबन्ध । तट पर कई विशाल भवन बने हुए हैं, जहाँ सुख थियेटर के पास एक फ्रेंच सज्जन को अपनी ओर की सामग्रियाँ जुटी रहती हैं। इन्हीं भवनों के नीचे छोटेउत्सुकता-पूर्ण दृष्टि फेंकते हुए देखकर मैं कुछ क्षण के लिए छोटे कमरे बने होते हैं, जिनमें लोग अपने कपड़ों को बदलते रुक गया। वे भी आगे बढ़े और अँगरेज़ी में अभिवादन हैं। समुद्र का जल स्वभावतः ऐसे स्थानों पर छिछला के शब्दों का बोलते हुए उन्होंने हाथ बढ़ाया। ये सज्जन होता है। इसलिए लोगों को स्नान करने में भय नहीं बड़े बेतकल्लुफ़ और मिलनसार-से जान पड़े। यही अँग- मालूम होता। किनारे पर दूर तक बालुकामय भूमि होती
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संख्या ६]
ली हावर
है; इसी पर लेटकर लोगं धूप-स्नान करते हैं। धूप और बाकी थे । तब तक ला हावर की शोभा. देखते रहे। थोड़ी जल-स्नान का प्रबन्ध देखकर हृदय बड़ा प्रसन्न हुआ। देर में भूमि-खण्ड और जल-राशि घूमती-सी प्रतीत होने स्वास्थ्य के लिए समुद्र का जल-स्नान और वायु-सेवन से लगी। तट पर बड़े-बड़े मकान चक्र के समान घूमने बढ़कर और कोई प्राकृतिक वस्तु नहीं है। राजयक्ष्मा के लगे। फिर जिस भू-खण्ड के किनारे से होकर ला हावर रोगियों तक के लिए यदि कोई वस्तु अत्यन्त हितकर है तो पहुँचे थे उसी के किनारे से गुज़रने लगे। देखते ही देखते समुद्रतट का सेवन ।
वह भू-खण्ड भी अदृश्य हो गया। केवल इंग्लिश चैनल टैक्सीवाले से बिदाई ले हम लोग अपने जहाज़ में की उत्तुंग लहरें ही समुद्र को लपेटे दिखलाई पड़ श्रा धमके। १५-२० मिनट अभी जहाज़ खुलने में और रही थीं।
दूरागत सङ्गीत लेखक, श्रीयुत रामदुलारे गुप्त
दूर उस गहन शून्य से कौन रश्मि-सा आता रेखाकार; चन्द्रिका-स्नात व्योम-सा सौम्य, स्नेह-सा बरसाता रसधार ?
अलभ-जीक्न के गत सुख-चित्र मिटे-से, पुनः बनाता कौन, जगाता सुप्त मुकुल मृदु-भार उनींदे नयन शान्ति-से मौन ?
हृदय का प्रणयोत्पन्न अभाव घना हो उठता रह रह कर न जाने किस मधु-मदिरा में
और मैं चल देता बहकर । गूढ़ छायापथ के मृदु-भाव चमक जाते [थकर मिलकर, पवन के मृदुल स्पर्श से सिहर कुसुम ज्यों मुंद जाते खिलकर !
आज विस्मृति में जुगनू-से दमककर जगकर रह जाते वायु में टूटे तारों-से शुद्ध, सित, अस्थिर दिखलाते ।
स्वर्ग-रश्मियों के निर्माता, सृष्टा, दूरागत सङ्गीत ! हृदय-देश में अपर-लोक के भर दो संशय-स्वप्न पुनीत !
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एक करुण कहानी.
कहानी का अन्त लेखक, श्रीयुत पृथ्वीनाथ शर्मा
Presenझे उस दिन यहाँ के बड़े दफ़्तर चल दिया। कुछ ही क्षणों के बाद उसे साथ लेकर
में अपने एक मित्र के पास काम लौट आया।
से जाना पड़ा। मैं अभी वहाँ जाकर "देखो भई जगतराम, ये कहते हैं, तुम्हारे पास इस 26 बैठा ही था कि ज्योतिहीन परन्तु समय सोना हो ही नहीं सकता।"
चंचल आँखों से मुझे घूरता हश्रा "मेरे पास!" उसने अभिमान से मेरी श्रोर देखा। CON एक व्यक्ति मेरे पास से निकल और अपने कोट की भीतरी जेब में हाथ डालकर उसमें गया। बढ़ी हुई तथा मैली अधपकी दाढ़ी, अन्दर धंसे- से सोने के पाँच-छः बड़े बड़े टुकड़े निकाल कर उन्हें मेज़ हुए गाल, रेखांकित मस्तक, रूखे बाल, फटे हुए तथा मैले- पर फेंकता हुआ बोला-"यह लीजिए। जगत का स्वर्णकुचैले वस्त्र, पाँव नंगे, सिर नंगा। इतने बड़े सरकारी स्नेह झूठा नहीं है।" दफ्तर में मानवता का यह विचित्र नमूना क्या कर रहा है, कंचन के उस अद्भुत पुजारी की ओर मैंने ज़रा गौर मैं सोचने लगा। ज़रा कुतूहल से अपने मित्र से पूछा- से देखा और मुस्करा कर पूछा-"सोने को छोड़कर क्या "यह दरिद्रता की मूर्ति कौन है ?"
किसी और चीज़ से भी कभी आपने प्रेम किया है ?" __उसने मेरी अज्ञानता पर हँसकर जवाब दिया- "प्रेम !” सहसा उसके चेहरे पर एक अलौकिक "दरिद्रता की मूर्ति यह तो निरा सोना है सोना । इधर के मृदुलता खेल उठी। गम्भीर स्वर में बोला- "हाँ दफ्तरों में कौन है जो इसके व्यक्तित्व से अपरिचित हो। किया है।" डेढ़ सौ पाता है और एक सौ चालीस बचाता है।"
"किससे?" ___ “एक सौ चालीस ?" मैंने अाश्चर्य से उसकी अोर "पूछते हो किससे"। उसके चेहरे पर की मृदुलता देखा।
एक क्षण में ही लुप्त हो गई। अपने स्वर में एक तीखा ___ "हाँ । और यह सब सोने के टुकड़ों में इसके यहाँ व्यंग्य भर कर मेरे प्रश्न को कविता की भाषा में फँसाकर
मानो मुझे लौटाता हुअा कहने लगा--- "सर्दी में सुनहरी "सोने के टुकड़ों में ?" मुझे और भी आश्चर्य हुश्रा। धूप से, वसन्त में सुनहरे फूलों से और पतझड़ में पीले
"हाँ, स्वर्ण ही इसके जीवन का ध्येय है। सोने से पत्तों से।" कभी एक साँस के लिए भी अलग नहीं होता। दिन भर वह मेज़ पर पड़े हुए अपने सोने के टुकड़ों को उठाने अपने सोने के टुकड़ों की उधेड़-बुन में लगा रहता है। कभी लगा। उन्हें अपनी जेब में डालकर उसने मेरी ओर उनसे काल्पनिक महल गढ़ता है और कभी उनका माया- फिर देखा और सीधी भाषा में बोला- "बाबू जी प्रेम की जाल बुनकर अपने चारों ओर फैला लेता है। रात को कहानियाँ दिल में छिपी हुई ही शोभा पाती हैं। उन्हें अपने स्वप्नों-द्वारा सोने का एक संसार बसाकर उसी में छेड़कर जगाने से क्या लाभ ?" मग्न हो जाता है। मुझे विश्वास है कि इस समय भी यह कहकर मुझे विस्मित-सा छोड़कर वह चुपके से इसकी जेब में दो-चार सोने के टुकड़े अवश्य पड़े होंगे। वहाँ से चल दिया।
“सचमुच ?" .. उसने मेरे सन्देह का कुछ जवाब न दिया। और जिस उस स्वर्ण-दीवाने की प्रेम-कहानी जानने के लिए मेरे -- राह से वह अद्भुत व्यक्ति गया था उसी राह से तेज़ी से हृदय में कुतूहल तो अवश्य उठता रहा। पर न तो अधिक
मौजूद है"
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संख्या ६]
कहानी का अन्त
अवकाश ही मिलता था और न इस विषय को लेकर ठीक कर दें तो मैं अपना सारा स्वर्ण अापके चरणों में उसके सम्मुख जाने का साहस ही होता था। इसलिए दिन ला रक्खूगा। क्या आप अभी उसे देखने के लिए चल पर दिन बीतते गये और उनके साथ ही कुतूहल भी मन्द सकेंगे ?" पड़ता गया। यहाँ तक कि मैंने उससे मिलने का निश्चय "क्यों नहीं।" ही लगभग छोड़ दिया। किन्तु विधि के ढंग निराले होते हैं । मेरे अनावकाश तथा भय से ऊपर उठकर उसने . मैं उसके संग हो लिया। मेरा मोटर.अभी बाहर ही एक दिन सहसा उसे फिर मेरे सम्मुख ला खड़ा किया। खड़ा था। मोटर ने दस ही मिनिट में हमें उसकी बताई गली ___ मैं अभी अस्पताल से लौटा था, थककर चूर हो के बाहर ले जाकर खड़ा कर दिया। वह एक पतली-सी रहा था, इसलिए आराम की अाशा में अपने बैठने- टेढ़ी-मेढ़ी गली थी। उसी के मध्य में छोटा-सा तथा बहुत वाले कमरे के एक कोने में श्राराम-कुर्सी पर आँखें मूंद पुराना इधर-उधर के मकानों में फंसा और शायद उनके कर जा लेटा। मुझे यों पड़े पड़े अभी कठिनता से दस सहारे ही खड़ा एक मकान था। मुझे लेकर वह उसी में मिनिट ही गुज़रे थे कि मेरी घंटी ज़ोर से बज उठी और घुस गया। मकान में कूड़े-कर्कट से भरा एक छोटा-सा इसके साथ ही नौकर ने कमरे में प्रवेश किया।
आँगन था। उसके एक कोने में धूल से लथपथ दो-तीन "क्या बात है ?” मैने ज़रा खीझकर पूछा। बालक खेल रहे थे और उनसे कुछ दूरी पर बैठी एक
"एक मनुष्य आपसे मिलना चाहता है किसी रोगी अधेड़ अवस्था की मैली-कुचैली स्त्री उन पर खीझ रही के विषय में ।”
थी। आँगन के अन्त पर एक ऊबड़-खाबड़-सा जीना था। इच्छा तो बहुत हुई कि उसे जवाब दे दूँ । पर डाक्टर उसके द्वारा हम मकान की पहली छत पर जा पहुँचे । इसी को यह अधिकार कहाँ ? क्या जाने नवागन्तुक कौन-सी छत की दाहनी ओर रोगी का कमरा था। कमरे में घुसते दुःख-गाथा लेकर आया है । मेरी ज़रा-सी देर भी अनर्थ ही मैं दंग रह गया । वह इतना साफ़-सुथरा था कि अाँगन ढा सकती है। इसलिए नौकर को उसे अन्दर लाने का तथा जीने से उलझती आ रही आँखें उसे देखकर सचमुच आदेश देकर मैं उसी क्षण उठ खड़ा हुआ और रोगी चौंधिया गई । कमरे के मध्य में दूध की भाँति एक स्वच्छ देखनेवाले कमरे की ओर लपका। इतने में नौकर भी बिछौना बिछा था और उस पर पड़ा था मुरझाये उसे लेकर आ गया। अरे यह तो वही कंचन-प्रेमी था! कमल के फूल-सा एक आठ वर्षीय अबोध बालक । उसके अाज उसकी दाढ़ी और भी अधिक बढ़ी हुई थी, पर सिर चेहरे पर करुणा झलक रही थी, नेत्रों के कोनों से पर एक मैली-सी पगड़ी रक्खे था, पाँव में एक टूटा-सा वेदना झांक रही थी, पर होंठों पर अल्पस्फुटित जूता भी था, नेत्रों में चंचलता के स्थान पर घबराहट मुस्कराहट थी। थी, ललाट की रेखायें और भी गहरी हो उठी थीं। . चारपाई के निकट कुर्सी पर कोई लगभग साठ वर्ष
"तुम ?” मेरे मुख से अनायास निकल गया। की एक पतली-सी बूढ़ी औरत बैठी थी। उसकी साड़ी ___ "जी। क्या आप ही डाक्टर अविनाश राय हैं ?" हिम की भाँति श्वेत थी और रंग संगमरमर की तरह । उसने ज़रा आश्चर्य से पूछा। वह भी मुझे पहचान उसका चेहरा झुर्रियों से भरा था, पर आँखों में एक अद्भुत चुका था।
ज्योति थी, लावण्य था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे किसी "हाँ, कहिए क्या प्राज्ञा है ?"
· ने रातों-रात एक नवेली अप्सरा से छीनकर उन्हें, पुरानी "डाक्टर साहब, एक बड़ी आशा लेकर आपकी सेवा आँखों के बदले, उसके चेहरे पर जड़ दिया हो। मुझे में आया हूँ ।”
देखकर वह कुर्सी मेरे लिए छोड़ उठकर चारपाई पर जा "क्या कोई बीमार है ?"
बैठी । कुर्सी पर बैठते हुए मैंने बालक की कलाई हाथ में "जी । मेरा बच्चा।" उसने मेरी अोर सहानुभूत्याकांक्षी ली और जगतराम से पूछा---"इसे क्या कष्ट है ?" मुख से देखा और ज़रा घबरा कर बोला-"श्राप यदि उसे "डाक्टर साहब, क्या बताऊँ ?" उसने एक दीर्घ
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५५८
.. सरस्वती
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[भाग ३८
निःश्वास छोड़कर प्रारम्भ किया-"कभी तो दो दो चार "पहाड़ पर ?” बुढ़िया बीच में ही बोल उठी- “यह चार घंटे इसी भांति मुस्कराता रहता है, फिर सहसा पीड़ा असम्भव है !" से कराहने लगता है।"
"कुछ असम्भव नहीं।" जगतराम ने उसे रोक कर ___"कहाँ पीड़ा होती है ?"
ज़रा उत्तेजित स्वर में कहा- "मैं एक दो दिन में ही इसका "पेट में।"
प्रबन्ध कर दूंगा।" जिनके चारों ओर चिन्ता मँडरा रही थी ऐसे चार “तुम प्रबन्ध कर दोगे !” बुढ़िया चारपाई से उठ कर उत्सुक नेत्रों के निरीक्षण में मैंने परीक्षा प्रारम्भ कर दो। आँगन में टहलने लगी-"कब तक प्रबन्ध किये जानोगे ? दस ही मिनिट में मैने रोग ढूँढ लिया। उसे अंतड़ियों का अपने बच्चों का पेट काट कर कब तक अपने गाढ़े पसीने तपेदिक था और था भी काफी पुराना ।
की कमाई इधर बहाये जानोगे ? नहीं। कुछ भी हो अब "क्यों जी ?" धड़कते हुए दिल से जगतराम ने मुझसे इस अन्याय को रोकना ही होगा।" अँगरेज़ी में पूछा
"न्याय और अन्याय उचित और अनचित मैं तो ___ "मैं समझता हूँ इसे टी० बी० है।" मैंने भी अँगरेज़ी अाज तक इनके भेद को समझ नहीं पाया हूँ।" जगतराम में जवाब दिया। मेरा ख़याल था कि जादू के नेत्रोंवाली ने प्रारम्भ किया। वह बुढ़िया कुछ भी न समझ पायेगी, पर टी० बी० हमारी इतने में रोगी के कमरे से एक क्षीण आवाज़ आई
घरेलू बातचीत में इस आसानी से घुस चुका है कि उसे "अम्मा।" इसे सुनते ही बुढ़िया अन्दर भाग गई, पर , तो आज-कल अपढ़ भी समझ लेते हैं।
जगतराम कहता चला गया-“डाक्टर साहब जीवन की ... "टी० बी० !" बुढ़िया सहसा चिल्ला उठी। उसका नीरसता और कटुता ने मेरे हृदय को इतना मसला है हृदय वस्त्रों के बंधन तोड़कर धड़कता हुअा साफ़ दीखने कि कोमलता और मधुरता के दो-एक बिन्दुओं को छोड़ लगा । उसके करुणाजनक नेत्रों में आँसू छलकने कर वह इस समय पत्थर से भी कठोर हो चुका है और लगे-"तो यह अन्तिम किरण भी अब अस्त होने जा उन बिन्दुओं को वहाँ अंकित करनेवाली थी एक स्वर्गीय रही है।"
अप्सरा जो मेरी राह में पवन के झोंके की भाँति आई वह कराहती हुई कमरे से बाहर निकल गई और और चली गई। अाज जीवन की घड़ियाँ केवल उसी बाहर पड़ी चारपाई पर दोनों हाथों से मुँह ढाँप कर बैठ गई। की स्मृति के बल पर बिता रहा हूँ। यह रुग्ण बालक . मुझे अपनी भूल पर पछतावा तो बहुत हुअा, पर उसी देवी का स्मृति-चिह्न है। क्या इसकी देख-भाल श्राश्वासन देने के सिवा कर ही क्या सकता था। मैं करना मेरे लिए उचित नहीं ? आप ही बतायें इसमें कौनकमरे से बाहर निकल कर उसके पास जा पहुंचा। सा अन्याय है।"
"परन्तु घबराने की कोई बात नहीं ।” मैंने कहना यह कह कर वह सहसा रुक गया। उसने अाधा क्षण श्रारम्भ किया--"यदि ठीक राह पर चला जाय तो मुझे मेरी ओर देखा और बोला-"क्षमा कीजिएगा। जिह्वा लड़के के स्वस्थ होने की पूरी आशा है।"
की उतावली के कारण मैंने अपनी रामकहानी से यों ही ___"सचमुच ?" चेहरे पर पड़े हुए हाथों के पदों को श्रापका अमूल्य समय नष्ट कर दिया। हाँ, पहाड़ के अतिअपने नेत्रों से हटाकर अविश्वास-भरी दृष्टि से देखते हुए रिक्त और हमें क्या करना होगा ?" बुढ़िया बोली।
___ "मैं कुछ दवाइयाँ लिखे देता हूँ। उनका इसे निरन्तर "तो बतलाइए राह।" जगतराम जो अब तक बाहर सेवन करात्रो।" श्रा चुका था, बोला- "क्या बहुत कठिन है ?"
"बस ?" ___"कठिन तो नहीं पर महँगा बहुत है। पहले तो "और यदि हो सके तो एक अच्छी-सी नर्स भी ठीक जितनी जल्दी हो सके, रोगी को किसी पहाड़ पर ले जाना कर लो।" . होगा।"
"सब कुछ करूँगा और तब तक किये जाऊँगा जब
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संख्या ६]
कहानी का अन्त
तक धातु का एक टुकड़ा भी पास में रहेगा।" वह फिर खेलने का प्रयास किया, पर दो-चार अतिरंजना भरे चित्रों जोश में आ गया "पहाड़ कौन-सा ठीक होगा?" को अंकित करने के अतिरिक्त कुछ न कर सकी। कभी
"सोलन।" मैंने जवाब दिया और जेब से कलम मुझे वह जगतराम और उसकी नैसर्गिक प्रेमिका को फूलों और काग़ज़ निकाल कर नुसखा लिखने लगा। इतने में के अथाह सागर में जुगनुओं की झिलमिलाती ज्योति में बुढ़िया फिर बाहर आ गई । वह मुझसे कुछ पूछने के लिए एक-दूसरे से उलझते हुए दिखा देती। कभी चाँद की मुँह खोलने जा रही थी कि जगतराम बोल उठा-"मैंने चाँदनी में वे दोनों नदी के किनारे शिला-खण्ड पर बैठे सब बात समझ ली है। इन्हें अब अधिक कष्ट देने की हुए नदी की लहरों के गीत में अपने हृदय में उठती हुई कोई ज़रूरत नहीं।"
प्रेम-हिलोरों के संगीत को छोड़ते हुए झलका देती और ___मैं अब तक नुसखा लिख चुका था। उसे जगतराम कभी बहियाँ में बहियाँ डालकर सूरज की किरणों पर पृथ्वी के हाथ में देकर मैं उठ खड़ा हुआ।
और आकाश के मध्य में नृत्य करते हुए दृष्टि-गोचर करवा - "मैं परसों इसे पहाड़ पर ले जाऊँगा। क्या कल देती। फिर सहसा आकाश में बादल छा जाते, सूर्य छिप
आप फिर अाने का कष्ट न उठायेंगे ?” मेरे कोट की जेब जाता, किरणें सिमट जातीं और बेचारा जगतराम लुढ़कता में नोटों का एक छोटा-सा पुलिन्दा डालते हुए जगतराम हुआ पृथ्वी पर आ गिरता। पर उसकी प्रेमिका एक इन्द्रने पूछा।
धनुष के सहारे जो तब तक अाकाश में बन चुका होता . बहुत अच्छा ।” मैंने सीढ़ियाँ उतरते हुए जवाब था, अटकी रहती। इसके आगे कल्पना कहीं भी न दिया। मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी ?
पहुँच पाती थी। इसलिए जब एक दिन मुझे सोलन से
तार-द्वारा जगतराम का बुलावा आ पहुँचा तब मैंने फ़ौरन एक डाक्टर का अपने रोगियों के साथ वही निर्लेप वहाँ जाने का निश्चय कर लिया। यद्यपि यहाँ काम बहुत सम्बन्ध होता है जो कमल के पत्तों का जल से । जब तक था, फिर भी मैंने उसी दिन यात्रा की तैयारी कर दी। रोगी के पास रहते हैं तब तक सबसे निकट, पर रोगी-गृह शायद इस कवित्वमय वातावरण में जगतराम अपनी से बाहर निकलते ही उनके मस्तिष्क में उस ग़रीब के रोमांस' की कहानी उगल दे। लिए प्रायः ज़रा-सा स्थान भी नहीं रहता। आखिर इतने
(५) से मस्तिष्क में संसार भर की चिन्तात्रों को कैसे बाँधे बल खाती, हाँफती, दम लेती और यात्रियों को धुएँ फिरें ? परन्तु मनोविज्ञान के इस प्रसिद्ध सिद्धान्त को भी से व्याकुल करती हुई बच्चा-गाड़ी-सी वह रेलगाड़ी सोलन' अब की बार मुँह की खानी पड़ी। आज जगतराम और की ओर बढ़ी जा रही थी और मुझे लिये जा रही थी उन उसके नन्हें रोगी को पहाड़ पर गये एक मास के दुःखियों की विचित्र टोली में। दोनों ओर क्षितिज तक करीब हो चुका था, पर न मुझे उस बालक की वह फैले हुए पर्वत और घाटियाँ अपने मध्य में से गुज़रते हुए दुःख-भरी मुसकान भूली थी और न उस बुढ़िया की उस मानविक खिलौने को देखकर मुस्कराते-से प्रतीत होते चमकती हुई तड़फनेवाली अाँखें । पर मुझे सबसे अधिक थे। चारों ओर लगे हुए चीड़ के वृक्ष और कहीं कहीं से परेशान कर रहे थे जगतराम और अतीत के आँचल में सिर निकालते हुए जंगली पुष्पों के झुण्ड हवा के झोकों छिपी हुई उसकी प्रेम-कहानी। पता नहीं, वह कैसा अद्भुत के द्वारा भूम रहे थे । बादलों के श्वेत और श्याम टुकड़े प्रेम था, उसमें क्या जादू था। न मालूम मदन ने उन वृक्षों और फूलों के साथ टकराते हुए एक-दूसरे से किस रस से सने शरों से उन दोनों के हृदयों को बेधा उलझ रहे थे । कितनी मस्ती और अानन्द था उनकी था कि अाज माया-जाल का पुतला जगतराम भी उलझन में ! कहाँ वह प्रकृति का हृदय-हारी सुन्दर और इतना उग्र आदर्शवादी बन बैठा था। बात यहाँ पीड़ा-रहित जगत और कहाँ मनुष्य का दुःखों और तक बढ़ गई थी कि दोपहरी की तन्द्रा की आड़ में मेरी वेदनाओं से भरा संसार, जिसके कोने कोने में निराशा और कल्पना ने कई बार उस बीते हुए प्रेम-नाटक को चिन्ता घुसी बैठी है, जहाँ प्रसन्नता की आड़ में सदा कष्ट
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सरस्वती
[ भाग ३८
छिपा रहता है। क्या मनुष्य उड़ कर उस जगत् में रोगग्रस्त धरोहर को लाकर रक्खा था। हम दस ही नहीं पहुँच सकता था ? मनुष्य के साथ सृष्टिकर्ता मिनिट में वहाँ पहुँच गये। ने इतना अन्याय क्यों किया ? पर क्या सचमुच अन्याय मकान के बाहर बरामदे में कम्बल लपेटे एक आराम किया है ? कौन जाने. बादलों और फलों की भी अपनी कर्सी पर बढिया पडी थी। चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. चिन्तायें हों. वेदनायें हों। उनके प्रेम में भी विरह आँखें सूज रही थीं। मुझे देखकर बैठे बैठे हो निराशा हो । जी में तो अाता था कि इस तर्क को मानू , पर बादल भरे क्षीण स्वर में बोली- "श्राप आ गये। बड़ी कृपा के टुकड़ों की उस पागल बनानेवाली सींग सुन्दरता में की। आप भी लगा लीजिए ज़ोर ।" असुन्दरता सूझती ही न थी। मैं बहुत देर तक इस "श्राप घबराइए नहीं।” मैंने ढाढ़स देते हुए कहासमस्या में फँसा रहा । यहाँ तक कि वृक्षों और फूलों से “ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जायगा।" खेलनेवाली हवा के झोंकों ने मुझसे भी छेड़छाड़ "ठीक !” बुढ़िया ने मुझे ऐसे देखा मानो एक प्रारम्भ कर दी और उनमें छिपी हुई मादकता ने दो नौसिखिया बालक हूँ। फिर एक वेदना भरी झूठी मुस्कान ही क्षणों में मुझे परास्त कर दिया। मेरे लाख रोकने पर उसके होठों को छकर लुप्त हो गई। भी मेरी आँखें मूंद गई और मेरा सिर बेंच की पीठ पर बुढ़िया को वहीं छोड़कर बरामदा पार कर हम रोगी लुढ़क गया। कह नहीं सकता, कितनी देर तक मैं इस के कमरे में जा पहुँचे। दरवाज़े से ज़रा हटकर रोगी की अवस्था में पड़ा रहा, कितने स्टेशन आये और चले गये। चारपाई थी। उसी पर आँखें मूंदे और बेसुध वह बालक पर जब मेरी आँख खुली तब गाड़ी अपनी चाल धीमी पड़ा था। साँस तेज़ी से चल रही थी। उसके पास करती हुई सोलन पर ठहरने जा रही थी। मेरे आँखें ही एक कुर्सी पर बैठी नर्स अँगरेज़ी का एक उपन्यास मलते मलते वह ठहर भी गई। मैंने उठकर खिड़की से पढ़ने में निमग्न थी। शायद स्वर्गीय गार्विस महोदय की बाहर झाँका । मलिन मुख लिये एक घिसा हुआ सा कोई कृति थी। हमें देखकर वह झटपट उठ खड़ी हुई । कम्बल ओढ़े और अपने उत्सुक नेत्रों को गाड़ी पर किताब को बन्द कर कुर्सी पर रख दिया । गड़ाये जगतराम एक लैम्प के खम्भे से लगा खड़ा था। "ये लाहौर से डाक्टर आये हैं।" जगतराम ने मुझे देखकर वह मेरी ओर दौड़ा।
मेरा परिचय कराया। "क्यों । क्या कष्ट है उसे ?” मैंने चिन्ता भरे स्वर में "ज़रा चार्ट तो दिखलाना ।” मैंने पासवाली कुर्सी गाड़ी से उतरते हुए पूछा।
पर बैठते हुए कहा। "निमोनिया ।" उसने रुंधे हुए गले से जवाब दिया। उसने चार्ट मेरे हाथ में दे दिया, जिससे पता चला
"निमोनिया ?" यह तो अनर्थ हो गया। तपेदिक के कि लड़के को चौथे ही दिन से लगातार १०४ और १०५ रोगी के लिए यह प्रायः घातक ही सिद्ध होता है । पर एक डिग्री के करीब ज्वर पा रहा था और नाड़ी की गति भी डाक्टर इतना निराशवादी क्यों हो? शायद इसका बहुत तीव्र थी। बाक़ी बातें भी कुछ विशेष सन्तोष-जनक अाक्रमण इतना तीखा न हो। यत्न करने से शायद अब न थीं। मैंने चार्ट पृथ्वी पर रख दिया और स्वयं बच्चे की भी वह अभागा बालक बच जाय । "कब से है ?" परीक्षा करने लगा। जितनी मैं समझता था, उसकी अवस्था "अाज चौथा दिन है।"
उससे कहीं अधिक ख़राब थी। उसका शरीर गंगारे की "होश में तो है ?"
भाँति जल रहा था। निमोनिया डबल था। दोनों फेफड़े "नहीं।"
बहुत बुरी तरह से ग्रसित थे। उन्माद के चिह्न भी साफ़ इससे अधिक पूछना मैंने उचित न समझा। अपना दीख रहे थे। ऐसी अवस्था में तो उसका वह रात काटना सामान एक कुली के हवाले करके मैं जगतराम के साथ भी मुझे कठिन प्रतीत होता था। ... हो लिया। स्टेशन से कुछ ही दूरी पर चीड़ के वृक्षों से "ज़रा नुसखे तथा दवाइयाँ भी दिखाना ।” मैंने नर्स घिरे एक एकान्त और सुन्दर बँगले में जगतराम ने अपनी से फिर प्रार्थना की।
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संख्या ६]
उसने सब चीजें पास पड़ी हुई तिपाई पर मेरे सम्मुख रख दीं। मैंने सबको गौर से देखा । चिकित्सा ठीक रास्ते पर हो रही थी ।
देते भी न बनता था। मैं चुपके से वहाँ से खिसक गया और रोगी के उपचार में जा लगा। रोगी की अवस्था क्षण
प्रतिक्षण बिगड़ती जा रही थी। कोई एक घंटे के अनन्तर
"अभी यही दवाइयाँ दिये जाओ ।" मैंने कहा और स्थानीय डाक्टर महोदय भी आ गये। उनसे सलाह करके बाहर निकल आया । जगतराम मेरे पीछे था । हमने एक-आध इंजेक्शन भी दे दिया । परन्तु फल कुछ न “बचा लोगे न ?" जगतराम ने भरे हुए गले से निकला । हमारी सब की दौड़-धूप के बाबजूद भी उसी रात पूछा । इतनी व्यथा थी, इतनी याचना थी उसके स्वर में बालक ने उस बुढ़िया - अपनी नानी की गोद में सदा कि मेरे जैसे डाक्टर का कठोर हृदय भी विकल हो उठा । के लिए आँखें मूँद लीं । ऐसी करुणा - जनक और असामयिक मृत्यु को पछाड़ने के लिए तो डाक्टरों के पास संजीवनी बूटी जैसी कोई वस्तु अवश्य होनी चाहिए। मुझे अपने सीमित ज्ञान पर क्रोध तो बहुत आाया, पर कर क्या सकता था। अपने भावों को छिपाकर मैंने जवाब दिया- "हाँ यदि आज की रात निकल गई तो ।”
जगतराम इस हृदय विदारक दृश्य को देखने का साहस नहीं पकड़ सका था, इसलिए पिछले कोई बीस मिनिट से बरामदे में आकर बैठा सुत्रों द्वारा अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी को भिगो रहा था । मुझे बाहर निकलते देखकर वह उठ बैठा और हिचकी लेकर बोला - "चल दिया ?" "हाँ ।"
बुढ़िया हमसे कुछ ही अन्तर पर थी । मेरी आवाज़ सुनकर वह उठकर तीर की तरह खड़ी हो गई । कम्बल को उतारकर कुर्सी पर फेंक दिया और मेरी ओर बढ़ती हुई गरजी - "क्यों छिपा रहे हो ? साफ़ साफ़ क्यों नहीं बताते ! यह क्यों नहीं कहते कि आज की रात बीतने से पहले पहले वह पार हो जायगा ।" यह कहकर वह ज़ोर से रो पड़ी। मैंने कुछ न कहा । ऐसी अवस्था में तो श्राश्वासन
कहानी का अन्त
आकर्षणमय विश्व तुम्हारा ! मज्जित इस छवि के समुद्र मिलता नहीं
में किनारा |
गीत
लेखक, श्रीयुत कुँवर चन्द्रप्रकाशसिंह
जलद - वेश्म सुरधनु - आरंजित ऊपर नील- व्योम शशि-शोभित, क्रीड़ित सतत अनन्त अङ्क में किरण-कान्त
कल तारा ।
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जगतराम ने कोई श्रधा क्षण काले बादलों में से झाँकते हुए दो चार क्षीण ज्योतिवाले तारों की ओर शून्य दृष्टि से देखा । फिर उखड़े हुए स्वर में एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोला - " तो यह है मेरी प्रेम-कहानी का अन्त ।”
५६१
हाँ अन्त ! पर उस कहानी का आरम्भ क्या था, कथानक क्या था, यह उस समय उससे कौन पूछ सकता था ।
ऊर्मिल जलधि-केश उर्वी-उर लहराता तम-वास असित-तर, स्वन-विभोर निशीथ - शयन पर, वह सरि-धारा - हारा ।
मद-मन्द-मूर्च्छित कलि के दृग, बहता मलय मन्द गन्ध-स्रुग, ए रूप, चिर अभिनव तेरी रूपमयी यह कारा ।
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एज्युकेशन कोर्ट
लेखक, पंडित राजनाथ पाण्डेय, एम० ए० ।
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SAMRAT डे दिन" में जब कि लखनऊ प्रदSTAL शनी के दर्शकों के बीच “एज्युPR
केशन कोर्ट" की धूम थी, एक दिन रूमी दरवाजे से घुसते ही बाई ओर के विशाल “साँची-द्वार"
के नीचे एक अमेरिकन पर्यटक को मन्त्रमुग्ध-सा खड़ा उक्त द्वार का अवलोकन करते देखा। लखनऊ आने के पहले वे साँची हो पाये थे। उनका कहना था कि साँची-स्थित असली द्वार से भी यह द्वार
[ एज्युकेशन कोर्ट में गवर्नर का आगमन । ]
(बाई अोर से-मेजर ब्रेट, कोर्ट का एक गाइड, कई बातों में अधिक स्पष्ट और प्रभावोत्पादक है। वे अभी तक साँची-द्वार तक ही अटक रहे थे। अशोक की लाट ।
पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी, हिज़ ऐक्सलैन्सी सर हेरी हेग, का ज़िक्र करने पर वे उसे भी देखने गये और उसी श्रीयुत आर० टी० शिवदसानी, एक दर्शक ।) अन्वेषक दृष्टि से देखने लगे। उन्होंने उस पर की प्रति. अशोक की धार्मिक सेना धर्म-विजय के बाद साँची-स्तूप लिपि की नकल की । बोले-प्रयाग जाकर मिलान करूँगा। की परिक्रमा करने पा रही हो। प्राचीन वातावरण में केवल एज्युकेशन कोर्ट के बाह्य वातावरण में ही वे ऐसे वर्तमान समय की सूक्ष्म से सूक्ष्म देश-विदेश की शिक्षाविभोर हो गये थे कि उनकी सहधर्मिणी इस बीच नुमाइश प्रगति को रखकर दर्शकों के लिए तुलनात्मक दृष्टि से थोड़े ही के न जाने अन्य किस स्थल की ओर चली गई थीं इसका समय में अनेकानेक विषयों का अवलोकन और मनन उन्हें पता ही नहीं था। बाकी चीज़ों के लिए बोले-फिर करने का अवसर उपस्थित कर देना वैज्ञानिक सूझ थी।
आकर देखूगा। वास्तव में इस प्रकार का विस्मरण था भी कोर्ट के भीतर लगभग ३५० फीट लम्बी, ३० फीट स्वाभाविक । एज्युकेशन कोर्ट का बहिरङ्ग इतना कला- चौड़ी जगह में प्रायः दो फर्लाङ्ग लम्बी मेज़ों पर नाना पूर्ण और अतीत को पुनर्जीवित कर सामने रखनेवाला प्रकार की असंख्य चीज़ों का संग्रह किया गया था । जगह था कि पारखी ही नहीं साधारण आँखोंवाला व्यक्ति भी अपर्याप्त और संगृहीत सामग्री प्रचुर थी जिससे सारी जगह उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। शाम को एक ठोस चीज़ मालूम पड़ती थी। प्रत्येक वस्तु सुरुचि हुसेनाबाद हाई स्कूल के लड़के बैंड बजाते धीरे-धीरे साँची- पूर्वक समुचित श्रेणी में सजाई गई थी। संयोजक ने इतने द्वार के नीचे से गुज़रते एज्युकेशन कोर्ट में प्रवेश कर थोड़े समय में ही अनेक प्रदेशों और संस्थानों की सामग्रं रहे थे । उस समय ऐसा जान पड़ता था जैसे सदियों पूर्व एकत्रित कर ली थी।
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संख्या ६]
एज्युकेशन कोर्ट
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शिक्षा वास्तव में एक कला है और इसकी सफलता है इसकी लोकप्रियता। एज्युकेशन कोर्ट में प्रत्येक वय और रुचि के लोगों के लिए इतनी अधिक सामग्री एकत्रित थी कि किसी भी व्यक्ति को वहाँ से निराश लौटने का अवसर ही नहीं मिल सकता था। अपने जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली तथा अपने ज्ञान की परिधि की वस्तुयों से मिलतीजुलती चीजें ऐसे क्रम और सरल ढङ्ग से प्रदर्शित की
[चित्रशाला का एक भाग।] गई थी जिससे सबके लिए
(भारत की ऐतिहासिक इमारतों के चित्र ।) बोधगम्य थीं। मानवसमाज अाज ज्ञान और सभ्यता की जिस सीमा पर पहुँच उत्साह का संचार करना ही अन्य शिक्षा-सम्बन्धी कार्य रहा है उसकी एक स्पष्ट झाँ को देकर जनता में ज्ञान और की तरह एज्युकेशन कोर्ट का भी ध्येय था। इस कोर्ट की
अत्यधिक लोकप्रियता इस बात का प्रमाण थी कि इस कोर्ट को पाशातीत सफलता प्राप्त हुई।
वस्तुओं का निर्माण करने तथा नई नई चीज़ों के अवलोकन की उत्सुकता--- ये दो प्रवृत्तियाँ बालकों में प्रबल होती है। लड़के अपनी बनाई चीज़ों के प्रति एक विशेष ममता, गर्व तथा अपनत्व का भाव रखते हैं । एज्युकेशन कोर्ट में देश के भिन्न-भिन्न स्कूलों
के बालक-बालिकानों तथा [युक्तपत के बालकों के बनाये हुए लकड़ी के काम का प्रदर्शन।] अध्यापकों द्वारा बनाई हुई (पीछ दीवार में अध्यापकों के बनाये चित्रों का संग्रह है।)
चीज़ रखी गई थीं। लड़के
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सरस्वती
[ भाग ३८
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को वस्तु-निर्माण कला के उत्तरोत्तर विकास का दिग्दर्शन होता था। वहाँ 'माता-शिशु तथा 'कृषक देा अत्यन्त भव्य चित्र प्रदर्शित थे। शिक्षा के ऊपर पहले और अब का व्यय किया गया गबन मेंट का धन तथा स्कूलों की संख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि चाटी द्वारा दिखाई गई थी। द्वार से प्रवेश कर दर्शक पहले अाट गैलरी में पहुँचता था। वहाँ
शकवये इतवाल'' के अन्य देशों के विद्यार्थियों के काम का प्रदर्शन।
कुछ अंश चित्रों में (उसके नीचे युक्त प्रांत के विद्यार्थियों के बनाये हुए कपड़े का संग्रह है।)
प्रदर्शित किये गये थे।
"मई हैरत हूँ कि दुनिया तथा लड़कियां अपने स्कूलों की चीजें बड़े चाव से देखने क्या से क्या हो जायेगी" तो खूब ही बन पड़ा था। इस
श्राती थीं। उनके साथ उनके अभिभावकों का भी प्राना कार में अपने प्रान्त के स्कूलों तथा कालेजों के विद्यार्थियों होता था। पर हम जैसा पहले कह चुके हैं, एज्युकेशन और शिक्षकों की बनाई हुई कुछ तसवीर और चित्रकारियाँ कोर्ट बालक, युवा और वृद्ध सभी के लिए एकसा मनोरंजक और ज्ञानपूर्ण था। अवलोकन
और मनन के लिए यहाँ प्रचुर परिमाण में सामग्री मौजूद थी।
BE दर्शक साँचीद्वार से होकर, अशोक की लाट देखता. एज्युकेशन कोट के द्वार पर प्राता था। द्वार पर ही उसे प्राचीन तथा नवीन की तुलनास्मक झाँकी मिलती थी। दीवाल पर के एक विशाल 'चाट से भारत
[युक्तप्रांत के नार्मलस्कूलों का काम ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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संख्या ६]
एज्युकेशन कोटे
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बड़े ही ऊँचे दर्जे की थीं। इन्स्पेक्टर अाफ़ स्कूल्स की निगरानी में गोरखपुर के गवर्नमेंट जुबिली हाई स्कूल के विद्यार्थियों तथा ड्राइंग मास्टर द्वारा तैयार की गई प्राचीन भवनों की तसबीर बड़ी ही अच्छी थीं। इस कोष्ठ में लकड़ी के चिरे हुए चिकने तल पर केवल कोरों को उभाड़ या दवाकर निकाली हुई रवी बाबू तथा वृक्ष प्रादि की
आकृति उच्च श्रेणी की कारीगरी का नमूना थी।
(एज्युकेशन कोर्ट के पुस्तक-विभाग का एक अंश । श्री शम्भनाथ मिश्र तथा
(इण्डियन प्रेस, प्रयाग की पुस्तकों का प्रदशन) प्रयाग-महिला-विद्यापीठ की प्रधानाध्यापिका तथा छात्राओं के बनाये चित्र और प्रान्त के लगभग सभी ट्रेनिंग कालेजों से अनेक सामान आये अजन्ता की चित्रकारियों की प्रतिलिपियाँ बहुत ही उत्तम थे। प्रयाग के गवर्नमेंट ट्रेनिंग कालेज का भेजा हुआ दीवाल और सराहनीय थीं।
पर का लम्बा-चौड़ा चार्ट, जिसमें ईसा पूर्व २००० वर्ष पहले प्राचीन शिक्षा संस्थानों (संस्कृत पाठशाला तथा से लेकर वर्तमान काल तक का भारत का इतिहास प्रदर्शित अरबी मदरसों) ने अमूल्य हस्तलिखित पुस्तकें भेजी थीं। था, दर्शकों का विशेष ध्यान आकर्षित करता था। गवर्नमेंट बनारस के बिडला-संस्कृत-पाठशाला का भेजा हा चित्रों में प्रदर्शित छान्दोग्योपनिषद् बड़ा ही मुन्दर काम था।
[एज्युकेशन कोर्ट में इंग्लैंड के स्कूलों के वालक-बालिकानों के काम का प्र
(शिक्षासंबंधी पत्र और पत्रिकायें, राष्ट्रसंघ का साहित्य और बुद्धिमापक साहित्य तथा खेल के विभाग ।]
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सरस्वती
[भाग ३
[अँगरेजी स्कूलों से पाये हुए भौगोलिक और ऐतिहासिक 'माइल' ।।
युक्तप्रांत के अँगरेजी स्कूलों के विज्ञान के विद्यार्थियों के कार्य
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संख्या ६ ]
एज्युकेशन कोर्ट
FRET WORK ETC.
[ युक्तप्रांत के स्कूलों के विद्यार्थियों के बनाये हुए लकड़ी के काम का प्रदर्शन । ]
हाई स्कूल सीतापुर, गवर्नमेंट इंटर कालेज फ़ैज़ाबाद, दून स्कूल, देहरादून तथा थियोसोफिकल स्कूल बनारस की भेजी हुई लकड़ी की चीजें प्रशंसनीय थीं। देश के सुदूर प्रान्तों से भेजी हुई दरियाँ, टेबुल क्लॉथ, पदों तथा कालीनों की कारीगरी सराहनीय थी। नार्मल स्कूलों की भेजी हुई शैशव तथा प्रारम्भिक शिक्षा से सम्बन्ध रखनेवाली चीजें महत्त्वपूर्ण थीं। झाँसी नार्मल स्कूल की भेजी हुई भूगोल सम्बन्धी भिन्नभिन्न प्राकृतिक परिवर्तनों को पढ़ाने की सरल युक्तियाँ उल्लेखनीय थीं। पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी ने योरप, अमे रिका तथा जापान की लाई हुई शिक्षा सम्बन्धी अपनी तसवीरों का संग्रह भेजा था। उन तसवीरों से विदेशों के स्कूलों में विद्यार्थियों के जीवन का आभास मिल जाता था । जापानी स्कूलों की तसवीरों के देखने से मालूम
[ एज्युकेशन कोर्ट में चिकित्सा विभाग । ग्राँख के रोग और उसके साथ शीशियों में असाधारण बच्चे |]
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[ भारतीय पाठशाला का प्राचीनतम चित्र । ] ( यह, भारत स्तूप जो ईसा के पूर्व की तीसरी शताब्दी में निर्मित हुआ था, में खुदा हुआ पाया गया है । यह पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी के 'भारतीय शिक्षा के चित्रमय इतिहास' नामक संग्रह में प्रदर्शित किया गया था ।)
पड़ता था कि वहाँ के स्कूलों में बच्चों के खेल और विचरण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। चेकोस्लावेकिया के स्कूलों में लड़कों को वहाँ की प्रधान कारीगरी शीशे के कामों में दक्षता प्राप्त करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है । वे तसवीरें इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय थीं। शिक्षाविभाग के वर्तमान डाइरेक्टर की भेजी हुई इंग्लैंड के स्कूलों के छोटे-छोटे बच्चों की बनाई हुई वस्तुत्रों का विशाल संग्रह प्रशंसनीय था ।
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यूनिवर्सिटियों के भेजे हुए चार्ट महत्त्वपूर्ण थे । उनसे अनेक नवीन बातों की जानकारी हो सकती थी । लड़कियों
[ एज्युकेशन वीक में ड्रिल आदि की प्रतियोगितायें हो रही हैं ।]
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५६
सरस्वती
[भाग ३८
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[प्रथम शताब्दी का खिलौना।। (एक बालक खिलौने के घोड़े का टोरी से ग्वीच रहा है। कौन कह सकता है कि यह खिलौना ग्राज का नहीं किंतु प्रायः दो हज़ार वर्ष पहले का है। यह चित्र भी पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी के संग्रह से लिया गया है। यह नागा जुन काण्डा नामक स्थान के एक मंदिर में-जा प्रथम शताब्दी में बना था--पाया गया है।)
द्विार पर 'मातम्नेह और सरस्वती जी के चित्र
पर सर्वप्रथम दृष्टि पड़ती थी।
के कोष्ठ की सनावट तथा कारीगरी की असंख्य वस्तुएँ थीं। इस कोष्ट में सरहदी सूबे तक से लड़कियों ने अपनी मुन्दर सुन्दर चीज़ भेजी थीं। प्रारम्भिक और सेकंदरी वाक्युलर स्कूल के बच्चों और शिक्षकों की भेजी हुई ची मालिक और प्रशंसनीय थीं। (युकेशन कोट के संयोजक शिक्षा के इस अंग के स्वयं विशेषज्ञ हैं। उनके सकल के विद्यार्थियों और अध्यापकों पर उनके व्यक्तित्व और अनुभवों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। बाल-
एज्युकेशन वीक में लाठी के सामहिक खेल का प्रदर्शन।
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EDUCATION COURT
ऐज्युकेशनकोर्ट का सिंहद्वार
[पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी के सौजन्य से.com
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संख्या ६]
एज्युकेशन कोर्ट
कायों के विभाग में इन प्रान्त के बालिका विद्यालयों के काय का अनुपम प्रदशन था। उनके देखने से मालूम होना था कि हमारी कन्यायों में कितनी प्रतिभा है । इसी प्रकार बालक-बालिकानों की चित्रकला के नाने भी अपय थे और इस बान के प्रमाग थे कि हमारे बालकों में कलासम्बन्धी कितने ऊँचे दर्जे की प्रतिभा है। एज्युकेशन कोर्ट का अवलोकन समात कर बाहर पाने के कुछ [एज्युकेशन कोर्ट में युक्तप्रांत की बालिकाओं के हस्तकौशल का प्रदर्शन।। पहले तसवीरों को एक
(छत के नीचे काले चित्रों की माला देखने योग्य थी।) पंक्ति प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक की शिक्षा-प्रगति को प्रदर्शित करती थी। भारतीय शिक्षा के इस चित्रमय इतिहास का संग्रह
..
इतिहास-विभाग में अशोक के भारत और ब्रिटिश भारत का तुलनात्मक नक्शा ।]
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सरस्वती
[भाग ३८
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पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी ने प्रेषित किया था। इनमें अधिकांश तसवीर प्राचीन मूर्तियों की थीं। कुछ तसवीरें प्राचीन ग्रन्थो के उल्लेखों के अनुसार बनाई हुई थीं। इस गैलेरी में मुग़ल काल की चित्रकारियाँ तथा वर्तमान समय के क्लास की तसवीरें भी थीं। इन तसवीरों-द्वारा प्रदर्शित शिक्षा के इतिहास को एक पुस्तक की सामग्री समझिए। अस्तु । एज्युकेशन कोट की सारी वस्तुओं का थाड़े में वर्णन करना असम्भव है । वास्तव में वे चीजें तो देखिने से ही ताल्लुक रखती थीं। कम से कम ३.४ दिन में मोटे तौर पर वे देखी और समझी जा सकती थीं। मैंने यूनिवर्सिटी के एक विद्यार्थी को कई चाटों की
(देहातो स्कूलों के विद्यार्थियों के कार्य का प्रदर्शन ।]
[एक देहाती स्कूल की लाठी की टीम प्रतियोगिता के लिए तयार खड़ी है।
एज्युकेशन वीक में देहाती स्कूलों से आई हुई 'लेजिम' की एक 'टीम' ।
[एज्युकेशन वीक में एक देहाती स्कूल की टीम ड्रिल की प्रतियोगिता के लिए तयार खड़ी है।]
एज्युकेशन वीक में कालविन तालुकदार कालिज के विद्यार्थियों द्वारा ड्रिल का प्रदर्शन ।]
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संख्या ६]
नकल करते देखा । पूछने पर मालूम हुआ कि वे पिछले १५ दिनों से सन्ध्या का समय एज्युकेशन कोर्ट में बिताते हैं और जब तक यह कोर्ट रहेगा तब तक इसी प्रकार आते रहेंगे ।
ज्युकेशन
इस प्रकार एक के बाद एक असंख्य शिक्षाप्रद वस्तुओं का अवलोकन कर दर्शक कुछ अधिक शिक्षित हो बाहर निकलता था । बाहर श्राते समय, दर्वाज़े पर दर्शकों के लिए यदि लिखना चाहें तो अपनी राय लिखने के लिए जो रजिस्टर रखा था, उसे देखकर उसे प्रसन्नता होती होगी कि देश तथा विदेश के सभी वय और परिस्थिति के लोगों का एज्युकेशन कोर्ट के सम्बन्ध में वही विचार जो उसके । सभी लोगों का कहना था कि एज्युकेशन कोर्ट अत्यन्त शिक्षाप्रद, सुसज्जित और सारी नुमाइश में सर्वोत्कृष्ट कोर्ट था । यही कारण था कि देश के अनेक ज़िम्मेदार लोगों की राय थी कि इस कोर्ट को एक स्थायी शिक्षा-प्रदर्शनी का रूप दे दिया जाय ।
'एज्युकेशन कोर्ट' की ओर से एज्युकेशन सप्ताह मनाया गया था जिसमें प्रान्त भर के लगभग २५ हज़ार लड़कों ने
* “ We are over sixty years of age, but the saying live and learn" has never been more fully impressed upen us by practical experience than to-day."-Rao Raja, Raj Bahadur Pandit Shyam Bihari Misra and Pandit Sukhdeo Behari Misra.
"I am going back, after a visit to this Court, a better educated man."-Hon'ble Pandit P. N. Sapru.
+ "इस प्रदर्शनी के शिक्षा-भाग को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ और मुझे शिक्षा भी मिली। अपने मित्र चतुर्वेदी जी को उनकी इस सुन्दर कृति पर बधाई देता हूँ ।" - बाबू पुरुषोत्तमदास जी टंडन ।
"It is the best of its kind I have so far seen in this country. " - Mr. C. Y. Chintamani.
"There is nothing better, more instructive and more interesting that I have seen in the Exhibition than the Education Court.” - The Right Honourable Sir Tej Bahadur Sapru and Shriyut Sachchidanand Sinha.
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KETTRICO
पं७१
[ एज्युकेशन वीक में 'मार्च पास्ट' के लिए बैण्ड के साथ विद्यार्थी तयार खड़े हैं। इसमें एक हज़ार से अधिक विद्यार्थी सम्मिलित हुए थे । ]
भाग लिया था। इस सप्ताह के कार्यक्रम का स्थान था नुमाइश का विशाल “ग्रेहाउंड स्टैडियम" । केवल एज्युके - शन सप्ताह के जलसों में ही यह विशाल " स्टेडियम " आदमियों से ठसाठस भरा हुआ देखा गया । अपने अनेकानेक खेलों से लड़कों ने दर्शकों को मुग्ध कर लिया था। बच्चों का इतना बड़ा सामूहिक और संगठित उत्सव प्रत्येक के जीवन पर एक स्थायी और अमिट छाप छोड़नेवाला था । पारितोषिक वितरण का दृश्य और भी प्रभावान्वित करनेवाला था । इस दिन माननीय विशेश्वरनाथ जी श्रीवास्तव चीफ़ जज, श्रवध, सभापति थे और श्रीमती खरेघाट ने पारितोषिक वितरण किया था। चाँदी की १८ शील्ड और अनेक अन्य पारितोषिक दिये गये थे I चारों ओर नुमाइश भर में एज्युकेशन- सप्ताह की हो धूम थी 1
[ एज्युकेशन वीक के पारितोषिक वितरण में महिलाविद्यालय की लड़कियाँ मंगलाचरण कर रही हैं ।]
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सरस्वती
[भाग ३८
[एज्युकेशन वीक की अंतिम प्रतियोगिता देखने के ।
एज्युकेशन वीक में एक देहाती स्कूल के ड्रिल
का प्रदर्शन । लिए ग्रेहाउंड रेसिङ्ग स्टेडियम में दर्शकों की भीड़'।]
एज्युकेशन कोर्ट का ऊपरी प्रबन्ध अद्वितीय था। चीज़ों की सजावट सुरुचिपूर्ण और मनोवैज्ञानिक ढंग पर थी। दर्शकों के छूने और हटाने पर भी चीजें सजी हुई रहती थीं। गाइड उत्साह और नम्रता से दर्शकों को समझाते थे। वे सभी उत्साही और शिष्ट नवयुवक थे। इस कोर्ट के संयोजक भी हर समय सामने नज़र आते थे-- कभी स्वयं चीज़ों को साफ करते और ठीक स्थान पर सजाते, कभी दर्शकों को समझाते और कभी गाइडों को निर्देश करते हुए। इतने ठंढे दिनों में भी भीड़ की अधिकता से कभी कभी लोग मूच्छित हो जाते थे । ऐसी परिस्थिति के लिए 'फर्स्ट एड' का प्रबन्ध था। बाहर स्त्रियों के अलग बैठने तथा पुरुषों-स्त्रियों के पास पास बैठने की जगह का प्रबन्ध था। अगर लोग खेलना चाहें तो बैडमिंगटन का
[स्कूलों के बागों की उपज । प्रबन्ध भी था। सन्ध्या को सिनेमा-द्वारा शिक्षा-सम्बन्धी तसवीरें दिखाई जाती थीं। एज्युकेशन कोर्ट में दर्शकों की को देखकर इसके संयोजक पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी (एम० सुविधा और उनसे सद्भाव रखने का पूरा ध्यान दिया ए०, (लंदन), इन्स्पेक्टर अाफ़ स्कूल्स, फैज़ाबाद) की प्रतिभा, गया था। यही कारण था कि यह कोर्ट सारी नुमाइश भर सौजन्य और संगठन-शक्ति से विशेष प्रभावित होते थे। में सबसे अधिक लोक-प्रिय था और लोग एज्युकेशन कोर्ट वास्तव में इस कोर्ट की सफलता का सारा श्रेय उन्हीं को है ।
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हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो
लेखक, श्रीयुत सन्तराम, बी० ए०
'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' के सम्बन्ध में हम 'सरस्वती' के गत अंकों में दो लेख छाप चुके हैं। यह उसी विषय का तीसरा लेख है और इस लेख में विद्वान् लेखक ने अपने दृष्टिकोण को अधिक स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। आशा है, हिन्दी के अन्य विद्वान् भी इस विषय के विवेचन में प्रवृत्त होंगे,
__ क्योंकि यह विषय उपेक्षणीय नहीं है।
।
EENNEPen ड़े दिन से हिन्दुना में एक “हिन्दी-हिन्दुस्तानी शब्द का मैंने यहाँ इरादतन a ऐसी मंडली उत्पन्न होगई है जो प्रयोग किया है । .........'इन बरसों के दरम्यान उनकी
हिन्दी को राष्ट-भाषा बनाने के शैली में कितना अधिक अन्तर हो गया है। असल में यह
2G बहाने उसमें अरबी-फ़ारसी के मोटे- दृष्टि-परिवर्तन खुद-ब-खुद तभी से व्यक्त होने लगा ARTISRAE मोटे गला-घोंटू शब्द ढूंसने की था। ........वे समाज के मौजूदा तअस्सुबों पर कटाक्ष
चेष्टा कर रही है। जहाँ तक मुझे तो करते थे, पर उन पर कभी सीधा हमला नहीं ज्ञात है, इस मंडली के नेता श्रीयुत काका कालेलकर और करते थे।" इसके परम सहायक श्री हरिभाऊ उपाध्याय और श्री श्रीयुत हरिभाऊ उपाध्याय ने श्री जवाहरलाल जी वियोगी हरि जी हैं। काका जी के हिन्दी लेख देखने का की अँगरेज़ी में लिखी आत्म-कथा का हिन्दी में अनुवाद तो मुझे पहले कभी सुअवसर नहीं मिला, परन्तु वियोगी किया है। हिन्दी पुस्तक का नाम 'मेरी कहानी' है। हरि जी, 'हरिजन-सेवक' के संपादक बनकर इस मंडली में उसके आवरण पृष्ठ पर हमें लिखा मिलता हैसम्मिलित होने के पूर्व, जैसी सुन्दर और सरस हिन्दी “यह तो समय-समय पर मेरे अपने मन में उठनेवाले लिखते थे, उसे पढ़कर मन अानन्द-विभोर हो जाता था। ख़यालात और जज़बात का और बाहरी वाक्यात का उनकी पहली हिन्दी और उनकी आज-कल की हिन्दी का उन पर किस तरह और क्या असर पड़ा, इसका दिग्दर्शन एक-एक नमूना मैं यहाँ देता हूँ। इससे दोनों के अन्तर मात्र है।" का पता लग जायगा।
पिछले दिनों काका कालेलकर लाहौर आये थे । तब वियोगी हरि जी की पहले की भाषा--- "ब्रज-भाषा उनसे मिलने का मुझे अवसर मिला था। वे भारत में के साहित्य-सूर्य सूरदास के नाम से हम सभी परिचित हैं। एक राष्ट्र-भाषा और एक राष्ट्र-लिपि के प्रचार के उद्देश छोटे से रुनकता गाँव के इस व्रजवासी सन्त ने हिन्दी- से ही दौरा कर रहे थे। लाहौर में उन्होंने अनेक विद्वानों भाषियों के घर-घर में श्रद्धा-भक्तिपूर्ण एक अजर-अमर से इस विषय पर बात-चीत की थी। परन्तु जहाँ तक मुझे स्थान बना लिया है। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के इस ज्ञात है वे, कम-से-कम पंजाब के सम्बन्ध में, किसी निश्चय परम कृपा-पात्र ने 'अष्टछाप' का सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर पर नहीं पहुँच सके थे। इसके बाद 'राष्ट्र-भाषा हिन्दी का श्रीकृष्ण-भक्ति को हमारे हृदय में सदा के लिए बसा दिया प्रचार, किस लिए ?' शीर्षक उनका एक लेख मुझे कलहै । सूर-सागर के रत्न महोदधि के चौदह रत्नों से कहीं कत्ता के साप्ताहिक 'विश्वमित्र' में पढ़ने को मिला । उसके अधिक कान्तिमय और बहुमूल्य हैं। सूर के पद-रत्नों की पाठ से इस राष्ट्र-भाषा-प्रचारक-मंडली के विचारों का और श्राभा ही कुछ और है। सूर की सूक्ति-मणियों से भाषा- जिस प्रकार की वे हिन्दी चाहते हैं उसका बहुत कुछ पता साहित्य अलंकृत होकर विश्वसाहित्य में सदा गौरव लग गया। काका जी महाराष्ट्र हैं । संस्कृत के पण्डित, स्थानीय रहेगा, इसमें सन्देह नहीं।"
अँगरेज़ी के विद्वान् और मराठी एवं गुजराती के सुयोग्य 'हरिजन-सेवक' की हिन्दी का नमूना
लेखक हैं। उर्दू श्राप नहीं पढ़ सकते । परन्तु आपके
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सरस्वती
उपर्युक्त लेख में अँगरेज़ी, मराठी एवं गुजराती का तो कदाचित् एक भी शब्द नहीं, भरमार है केवल चरबी - फ़ारसी के शब्दों की । जैसे कि हरगिज़, नेस्तोनाबूद मदद, तसफ़िया, तंगदिली, फ़िरकापरस्ती, ज़रिए, अँगरेज़ीदाँ, ख़तरनाक, चुनांचे, ग्रामफ़हम, फ़ारसी रस्म ख़त, ख़ानदान, दरमियान, हरूफ़, अजीबो गरीब, हङ्गामा, बुज़ुर्ग । इससे विदित होता है कि हिन्दी का राष्ट्र-भाषा बनाने का एक मात्र साधन ये सज्जन उसमें अरबी और फ़ारसी के मोटे-मोटे शब्दों को घुसेड़ना ही समझते हैं । कदाचित् उनको आशा है कि इससे मुसलमान प्रसन्न होकर हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि को अपनायेंगे परन्तु मुझे तो उनकी यह श्राशा दुराशामात्र ही जान पड़ती है ।
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मैं दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने के विरुद्ध नहीं । इनसे हमारी भाषा का शब्द - भाण्डार बढ़ता है । परन्तु हमें केवल वही शब्द लेने चाहिए जिनके भाव को प्रकट करनेवाले शब्द हमारी भाषा में न हों । 'यदि' के रहते 'इफ' और 'अगर ' को लेना; 'विचारों, भावों औौर घटनात्रों' के रहते 'खयालात, जज़बात और वाकयात' लिखना, 'अक्षर, चित्र-विचित्र, और लिपि' को छोड़कर ' हरूफ, अजीबो गरीब और रस्म ख़त का प्रयोग करना सर्वथा अनावश्यक बरन हानिकारक है । यह हिन्दी पढ़नेवाले बच्चों पर अत्याचार है। मुझे यू० पी० का पता नहीं, परन्तु मैं निश्चय के साथ कह सकता हूँ कि पंजाब के स्कूलों की लड़कियाँ इन फ़ारसी अरबी शब्दों को बिलकुल नहीं समझतीं । इन अनावश्यक शब्दों को लेना भाषा के भाडार को रत्नों के स्थान में घास-फूस और कूड़ा-करकट से भरने की व्यर्थ चेष्टा करना है । मानव जीवन केवल बहुत-से शब्द सीखने के लिए ही नहीं। शब्द तो मानसिक विकास का साधन मात्र हैं ।
काका कालेलकर कहते हैं कि "राष्ट्र भाषा का नाम शिक्षा और संस्कृति से सम्बन्ध रखता है। इसका सम्बन्ध न तो किसी क़िस्म की राजनीति से है और न किसी धर्म या संप्रदाय से ।” काका जी की बात को मानकर भी
मैं पूछता हूँ कि इस प्रकार के विदेशी भाषाओं के शब्द घुसेड़ने से शिक्षा या संस्कृति को क्या लाभ पहुँचता है ? जज़बात की जगह यदि भावना लिख दिया जाय तो शिक्षा
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[ भांग ३८
में कौन कठिनाई आ जाती है ? बच्चे के मस्तिष्क में बहुत से विदेशी पर्यायवाची शब्द हँसने से उसके बौद्धिक विकास में क्या सहायता मिलती है ?
भाषा का संस्कृति के साथ सम्बन्ध मैं स्वीकार करता हूँ । इसी लिए मैं इन अनावश्यक शब्दों को लेने के पक्ष में नहीं । अरब की और फ़ारस की अपनी-अपनी संस्कृतियाँ हैं। उनकी भाषाओं के शब्द उन संस्कृतियों के भावों को प्रकट करते हैं। भारत की, विशेषतः यहाँ के हिन्दुत्रों की, अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है । उसके भाव संस्कृत और हमारी प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों में भरे हुए हैं । 'धर्म'
शब्द जिस भाव का द्योतक है, 'मज़हब' उसको नहीं दिखलाता । अरबी और फ़ारसी संस्कृति एवं भाषा की रक्षा अरब और फ़ारस कर रहा है । उनकी रक्षा की चिन्ता भारतीयों को नहीं होनी चाहिए। हमें तो अपने धर्म, पनी भाषा और अपनी संस्कृति की रक्षा की श्रावश्यकता है । सो हिन्दी का राष्ट्र-भाषा बनाने या भारत की सबकी समझ में आ जानेवाली भाषा बनाने के बहाने संस्कृतशब्दों को कठिन या पण्डिताऊ बताकर उनका जो बहिष्कार किया जा रहा है इससे संस्कृत भाषा और भारतीय सभ्यता की घोर हानि होने की आशंका है । इस समय भारत में कहीं भी संस्कृत नहीं बोली जाती । फिर भी यहाँ की सभी भाषायें अपना शब्द - भाण्डार संस्कृत से ही भरती हैं। संस्कृत सभी प्रान्तीय भाषाओं को एकता के सूत्र में बाँधनेवाला सूत्र है । यदि यह बात नहीं तो क्या कारण है कि एक हिन्दू के लिए संस्कृत सीखना जितना सुगम है, उतना एक अरब - निवासी के लिए नहीं ? संस्कृत शब्दों का प्रचार बंद हो जाने से हिन्दुत्रों के लिए भी संस्कृत ग्रंथों का पढ़ना उतना ही कठिन हो जायगा जितना कि अरबों या तुक के लिए है । ऐसी अवस्था में हमारे प्राचीन साहित्य, इतिहास, संस्कृति, धर्म और पूर्वजों से हमारा सम्बन्धविच्छेद हो जायगा, जैसे उर्दू-फारसी पढ़नेवाले भारतीय मुसलमानों का राम कृष्ण आदि महापुरुषों और आर्यसंस्कृति से हो चुका है । यदि भारत में भारतीय भाषा और संस्कृति की रक्षा न होगी तो फिर और कहाँ होगी ?
- काका कालेलकर कहते हैं- "हम अपने यहाँ कोई नई भाषा नहीं बनाने जा रहे हैं। जिस भाषा को उत्तर
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संख्या ६]
हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो
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हिन्दुस्तान के शहराती और देहाती लोग मिलकर बोलते नहीं। गांव में भी लोग नज़र सानी, अमर तंकीह, मुद्दई, हैं और जो सबों की समझ में बड़ी आसानी से आ सकती मुद्दा अलह श्रादि बोलने लगे हैं। यह क्यों ? केवल इसहै उसी को हम भारत की राष्ट्र-भाषा-हिन्दुस्तान की लिए कि उन पर ये शब्द ढूंसे गये हैं। पंजाब की कन्याकौमी ज़बान मानेंगे। हम अपनी राष्ट्र-भाषा को पण्डितों पाठशालाओं में, विशेषतः आर्य-समाज और सनातन-धर्म और मौलवियों की तरह संस्कृत या अरबी-फारसी के शब्दों की पुत्री-पाठशालाओं में, जो हिन्दी पढ़ाई जाती है वह शुद्ध से लादना नहीं चाहते ".........इस सम्बन्ध में मेरा संस्कृतानुगामिनी हिन्दी है। इसलिए उन पाठशालाओं निवेदन है कि यदि 'जज़बात, ख़यालात, वाकयात, की पढ़ी लड़कियों को "नेस्तोनाबूद, मयस्सर, लबालब, फिरकापरस्ती' आदि शब्दों को श्राप बुरा नहीं समझते इशतियाक, ख़ुद-ब-खुद' आदि शब्द ऐसे ही अपरिचित तो फिर मौलवी लोग और कौन-सी भाषा लिखते हैं ? जान पड़ते हैं, जैसे चीनी या जापानी शब्द । अरबी-फारसी को संस्कृत के बराबर का स्थान देना परन्तु राष्ट्र-भाषा के नाम पर यह कड़वा घूट उन्हें बड़ा भारी अन्याय है। संस्कृत का भारतीयों पर निगलना पड़ेगा। इसी प्रकार हैदराबाद (दक्षिण) विशेष अधिकार है। उसकी रक्षा और प्रचार हमारा की प्रायः नब्बे प्रति सैकड़ा जनता हिन्दू है। उसमें तेलगू, परम कर्तव्य है। यदि भारतीय उसकी रक्षा नहीं करेंगे तामिल, कनारी और मराठी बोलनेवाले हैं। उनके लिए तो और कौन करेगा ? इसका जितना अधिक प्रचार होगा, अरबी-फ़ारसी के शब्दों का शुद्धोच्चारण करना भी कठिन भारतीय भाषाओं में उतनी ही अधिक एकता स्थापित है। परन्तु निज़ाम साहब ने वहाँ की राजा-भाषा उर्दू होगी। यह कहना ठीक नहीं कि कोई नई भाषा नहीं बनाकर और उस्मानिया-विश्वविद्यालय स्थापित कर बनाई जा रही है । मैं कहता हूँ, बड़े यत्नपूर्वक बनाई जा वहाँ की भाषा ही बदल दी है । जो उर्दू हैदराबाद के रही है। आज से पच्चीस वर्ष पहले से लेकर आज तक हिन्दुत्रों के पूर्वजों के लिए चीनी या लातीनी के समान हिन्दी में जितनी पुस्तके या पत्रिकायें छपी हैं उनमें से अपरिचित थी वही अब राज्य के प्रचार से उनकी मातृकिसी की भी भाषा वैसी नहीं, जैसी आज काका कालेलकर भाषा-सी बनती जा रही है। सेो यह तो यत्न और प्रचार जी की मंडली बनाने जा रही है या जैसी 'मेरी कहानी' की बात है । इंग्लैंड में थैकरे आदि के समय में जनता एवं 'हरिजन-सेवक' में देखने को मिलती है। पंजाब में फ्रेंच और लातीनी शब्दों और वाक्यों का लिखना और सिख गुरुओं के समय में जैसी भाषा बोली जाती थी, बोलना एक बड़ी मान प्रतिष्ठा की बात समझती थी। उसका नमूना गुरुत्रों की वाणी में मिलता है। गुरु तेग. परन्तु तत्पश्चात् स्वदेश-प्रेमी अँगरेज़ लेखकों ने उन बहादुर का एक पद है
सब शब्दों और वाक्यों को दूध में से मक्खी की भाँति काहे रे वन खोजन जाई ।
निकाल कर बाहर फेंक दिया। सर्व-निवासी सदा अलोपा, तोहि संग समाई। जिस वस्तु को मनुष्य अपने लिए उपयोगी समझकर पुहुप मध्य जिमि बास बसत है, मुकुर माँहि जस छाई। स्वेच्छापूर्वक खाता है वह पचकर उसके शरीर का अंग तैसे ही हरि बसै निरन्तर, घर ही खोजहुँ जाई। बन जाती है और उससे उसकी देह पुष्ट होती है। इसके बाहर भीतर एकै जानहुँ, यह गुरु ज्ञान बताई। विपरीत जो वस्तु बलात् अनिच्छापूर्वक उसके भीतर दूँसी
जन नानक बिन अापे चीन्हें, मिटे न भ्रम की काई ।। जाती है वह विजातीय द्रव्य उसे. हानि करता है। नीरोग इससे सरल हिन्दी और क्या हो सकती है। परन्तु जब से शरीर पर जब रोग के विजातीय कीड़े अाक्रमण करते हैं पंजाब में अदालत की भाषा उर्दू हुई है और जब से तब शरीर उनको मार कर भगा देता है, वे उस पर पंजाब के सभी सरकारी स्कूलों में उर्दू ही शिक्षा का अधिकार नहीं पा सकते । परन्तु जब शरीर निर्बल हो जाता माध्यम बना दी गई है तब से गुरु-वाणी को समझने- है तब वे कीड़े उसमें घर बना लेते हैं और उसकी नाक, वालों का अभाव-सा हो गया है। अब पंजाब की कांग्रेसी मुँह आदि के मार्ग से वैसे के वैसे निकलने लगते स्त्रियाँ ‘इन्कलाब जिन्दाबाद' कहती हैं, 'क्रान्ति की जय ! हैं। यही दशा किसी जाति की है। बलवान् जाति तो
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सरस्वती
विदेशी भाषाओं में से नये और उपयोगी शब्द लेकर श्रात्मसात् कर लेती है । फिर उनका ऐसा रूपान्तर होता है कि पता ही नहीं लगता कि वे शब्द किसी विदेशी भाषा के हैं या स्वदेशी भाषा के । परन्तु पराधीन निर्बल जाति पर जब कोई सबल जाति प्रभुत्व जमाती है तब वह अपनी भाषा अपना रहन-सहन और अपना धर्म उसके गले में हँसने का यत्न करती है । निर्बल जाति कुछ काल तक तो विजेता के उस सांस्कृतिक और भाषासम्बन्धी' आक्रमण का प्रतिवाद करती है, परन्तु जब उसमें जीवट नहीं रह जाती तब चुपचाप हार मानकर उन दासता के चिह्नों का आभूषण समझकर धारण कर लेती है ।
यू० पी० में मुसलमानों का स्थिर राज्य देर तक रहा है। आगरा, लखनऊ, दिल्ली इस्लाम के केन्द्र रहे हैं । इसलिए यू० पी० ही उर्दू का गढ़ है । वहाँ हिन्दू परिवारों की स्त्रियाँ भी 'नमस्ते' के स्थान में 'दुत्रा - 'सलाम' कहती हैं । यू० पी० की अदालत की भाषा भी उर्दू है । यद्यपि हिन्दी को भी अदालतों में स्थान दिया गया है, तथापि कचित् ही कोई ऐसा नगर होगा, जहाँ अदालत की भाषा हिन्दी हो । काशी तक में सारा अदालती काम उर्दू में होता है । श्री मालवीय जी जैसे हिन्दी-प्रेमियों के उद्योग के रहते भी अभी यू ० पी० उर्दू - श्राक्रान्त ही है । उसी यू० पी० की भाषा को हिन्दी, हिन्दी - हिन्दुस्तानी और राष्ट्र भाषा कहकर दूसरे प्रान्तों पर लादा जा रहा है । फिर आश्चर्य की बात यह है कि जिस मार्ग पर हिन्दी स्वाभाविक रूप से चल रही है उसे उधर से हटाकर दलदल में फँसाया जा रहा है। पुस्तकों और पत्रिकाओं की हिन्दी तो कदाचित् यू० पी० में कहीं भी नहीं बोली जाती । वहाँ की भाषा तो अभी मुसलमानों की दासता से निकलने का यत्न ही कर रही थी कि यह राष्ट्रभाषा प्रचारक मण्डली 'जज़बात और वाक़यात' के गोले उस पर फेंकने लगी । मैं नहीं कह सकता, गोंडा, बस्ती एवं गोरखपुर के गाँवों में लोग 'जज़बात और वाकयात' जैसे शब्द समझते होंगे। फिर यह भाषा नगर और गाँव की कैसे हुई ? साहित्यिक भाषा बोल-चाल की भाषा से सदा अलग रहेगी । इतिहास और विज्ञान के लिए आपको नये नये शब्द गढ़ने ही पड़ेंगे। यदि आप उनक संस्कृत से न गढ़कर अरबी-फारसी से गढ़ेंगे तो
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[ भाग ३८
विदेशी
'घर से वैर अवर से नाता' की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए आप भारत की भाषा सम्बन्धी एकता साधित न करके अधिक पृथकत्व का ही कारण बनेंगे । अँगरेज़ी भाषा है । उसे सीखने में बरसों लग जाते हैं । परन्तु कितनी भी कठिन पुस्तक हो, कभी कोई भारतीय उसकी अँगरेज़ी के कठिन या दुर्बोध होने की शिकायत नहीं करता। इसके विपरीत संस्कृत का कोई छोटा-सा भी शब्द आ जाय तो भाषा की क्लिष्टता की शिकायत होने लगती है । इसका कारण कदाचित् यह है कि अँगरेज़ी से अनभिज्ञता प्रकट करना अपने को सभ्य समाज की दृष्टि में गिराना समझा जाता है, परन्तु हिन्दी की क्लिष्टता की शिकायत करना बड़प्पन और भाषा-तत्त्व का विशेषज्ञ होने का लक्षण है । यदि फ़ारसी अरबी के अनावश्यक और गला घोंटू शब्दों का रखना अतीव आवश्यक है तो अँगरेज़ी ने ऐसा कौन भारी अपराध किया है ? उसे अपनाने से तो सारे संसार के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । अरव और फ़ारस से अँगरेज़ सभ्य और शक्तिशाली भी अधिक हैं ।
बात वास्तव में यह है कि केवल कोरी युक्ति और तर्क के घोड़े दौड़ाने से कुछ नहीं बनता । संग असत्य भी संगठित सत्य को दबा लेता है । अन्याय पर होते हुए भी इटली अबीसीनिया को हड़प बैठा । संसार में कर्मयोगी की ही जीत है । दर्शन - शास्त्र के पुजारी हिन्दुत्रों की सौ सम्मतियाँ हैं । कोई कहता है, बँगला राष्ट्र-भाषा होनी चाहिए, कोई अँगरेज़ी के गुण गा रहा है, कोई हिन्दी के साथ व्यभिचार करके ऐसी भाषा तैयार करने की चेष्टा कर रहा है जो श्राधा तीतर और आधा बटेर है, कोई "मेरा फ़ादर - इन-ला मेरी वाइफ को बहुत बुरी तरह ट्रीट करता है" ऐसी भाषा का ही प्रेमी
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रहा है । सारांश यह है कि हिन्दुओं के जितने मुँह उतनी ही बातें हैं । वाग्वीरता बहुत है, कर्मण्यता कुछ भी नहीं । उधर मुसलमान काश्मीर से कन्या कुमारी तक एक स्वर से उर्दू के लिए पुकार कर रहे हैं। जिसका परिणाम यह है कि उन्हें सफलता हो रही है । बिहार जैसे प्रान्तों में भी उर्दू अदालत की भाषा हो गई है।
काका कालेलकर कहते हैं कि "हम राष्ट्र-भाषा में से संस्कृत और अरबी-फारसी शब्दों के निकाल डालने के
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पक्ष में नहीं हैं ।" मेरा निवेदन है कि अरबी-फारसी शब्द तो आप निकाल ही नहीं सकते । आपके ऐसी कोई चेष्टा करते ही देश का राजनैतिक वायुमण्डल बिगड़ जायगा, मुसलमान रूठ जायँगे । परन्तु संस्कृत के शब्दों का बहिष्कार तो आप न जानते हुए भी कर रहे हैं । 'समूल नाश' की जगह 'नेस्तनाबूद ' 'फूट' की जगह 'नाइत्तिफ़ाक़ी' और 'भयावह' की जगह 'ख़तरनाक' लिखना संस्कृत के शब्दों का बहिष्कार नहीं तो और क्या है। यदि आप कहें कि समझाने के लिए लिखा है तो 'अनी हिलेशन', 'iseयूनियन' और 'डेंजरस ' भी तो कहीं लिखा होता । मुसलमान से डरना और अँगरेज़ के सामने अकड़ना, यह है ?प मुसलमानी संस्कृति को तो गले लगाते हैं, परन्तु " पश्चिमी संस्कृति की प्रभुता को मज़बूत" नहीं बनने देना चाहते। क्यों ? इस्लामिक संस्कृति में ऐसे क्या सद्गुण हैं जो पश्चिमी संस्कृति में नहीं !
जो अरव और ईरानी भारत में आकर बस गये हैं अथवा जिन भारतीयों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया है, न्याय और देश-प्रेम चाहता है कि वे अरबी-फारसी को छोड़कर इस देश की भाषा को ही अपनायें । हमने ग्राज तक इंग्लैंड या जापान में बसनेवाले किसी अरव या ईरानी को अँगरेज़ों या जापानियों को अरबी-फारसी शब्द अपनी भाषा में घुसेड़ने का विवश करते नहीं सुना। फिर भारत का ही बाबा आदम क्यों निराला है ? राष्ट्र-भाषा के नाम पर जिस प्रकार की गँदली भाषा उपर्युक्त मण्डली लिखने लगी है, वैसी उर्दू या जिसे श्री कालेलकर जी फ़ारसी रस्म ख़त में हिन्दी कहते हैं, लिखते मैंने एक भी मुसलमान विद्वान् को नहीं देखा । जिस प्रकार कांग्रेस ने मुसलमानों की अनुचित माँगों के सामने सिर झुकाकर और ख़िलाफ़त जैसा श्रान्दोलन खड़ा करके राष्ट्रीय दृष्टि से बड़ी भारी भूल की थी और जिसका कटु फल देश को व चखना पड़ रहा है, मैं समझता हूँ, उपर्युक्त राष्ट्र-भाषा प्रचारक मण्डली की चेष्टायें भी वैसे ही दुष्परिणाम उत्पन्न करेगी। मुसलमान तो संस्कृत के शब्दों को अपनायेंगे नहीं, हाँ, तर्क-जीवी हिन्दू संस्कृत का परित्याग अवश्य कर देंगे ।
हमारी राष्ट्र-भाषा कैसी हो
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एक राष्ट्र-लिपि बनाने का विचार बड़ा शुभ है । परन्तु उसमें भी सबको प्रसन्न करने की नीति हानिकारक सिद्ध
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होगी । पंजाब में उर्दू, गुरुमुखी और हिन्दी - तीन लिपियाँ प्रचलित हैं । सिख और मुसलमान तो गुरुमुखी और उर्दूको छोड़ने का तैयार नहीं, हाँ, नपुंसक हिन्दुओं में किसी बात पर दृढ़ रहने की शक्ति नहीं, उनको हिन्दी से हटा कर - चाहे किसी ओर लगा दीजिए । नागरी लिपि की काट-छाँट में जितना समय और श्रम व्यय किया जा रहा है, यदि उतना हिन्दुत्रों में नागरी के प्रति प्रेम को दृढ़ करने में लगाया जाय तो अधिक उपकार की आशा है । हमारी नागरी लिपि जापान की लिपि से तो अधिक दोषपूर्ण नहीं | क्या जापान उसी लिपि को रखते हुए स्वतंत्र और एकता के सूत्र में श्राद्ध नहीं ? मैंने सुना है, जापानी-लिपि वर्णमाला नहीं, बरन उसका एक एक अक्षर एक एक शब्द या वाक्य का द्योतक है । उस ग्रक्षर का उच्चारण जापान और चीन के भिन्न भिन्न भागों में चाहे भिन्न भिन्न हो, परन्तु लिखा जाने पर उसका अर्थ सर्वत्र एक ही समझा जायगा । रूसी सोविएटों ने अपनी एकता को दृढ़ करने के लिए किसी नई लिपि का निर्माण नहीं किया, वरन एक पुरानी वर्णमाला का ही जीर्णोद्धार करके उसका प्रचार किया है। भारत की राष्ट्र-भाषा हिन्दी और राष्ट्र-लिपि नागरी होने से ही देश का कल्याण है, इस बात को स्वीकार कर हमें इनके प्रचार एवं उद्वार में दृढ़तापूर्वक लग जाना चाहिए | यापकी सफलता चौर शक्ति को देखकर दूसरे लोग, यदि उनमें देश-प्रेम की भावना है, स्वयमेव आपके साथ श्रा मिलेंगे । इस प्रकार मिन्नतें और चापलूसियाँ करने से कुछ लाभ न होगा । इससे हिन्दी - प्रेमियों का भी संगठन न रहेगा और दूसरे लोग भी श्राप से न मिलेंगे ।
श्रीयुत हरिभाऊ उपाध्याय 'मेरी कहानी' की भाषा के संबंध में कहते हैं कि यह अनुवाद बहुत कुछ श्री जवाहरलाल जी की भाषा में हुआ है । अर्थात् अगर मूल लेखक खुद हिन्दी में लिखते तो वह हिन्दी ऐसी ही होती । मेरी राय में ऐसी अटपटी भाषा लिखने के लिए यह कोई पर्याप्त कारण नहीं। श्री जवाहरलाल जी राजनैतिक विषयों में नेता और प्रमाण हो सकते हैं, परन्तु इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि वे प्रत्येक बात में नेता और प्रमाण हैं । विलायत से नवागत कोई अँगरेज़ अथवा श्री अणे, अथवा श्री सत्यमूर्त्ति या श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी
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सरस्वती
[भाग ३८
हिन्दी बोलते हैं, क्या आप उसी ऊट-पटाँग हिन्दी में . श्री हरिभाऊ जी कहते हैं- "यदि हमें सचमुच उनकी पुस्तकें लिखेंगे और उसका नाम 'राष्ट्र-भाषा यानी ही हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के योग्य बनाना है तो उसमें हिन्दी-हिन्दस्तानी रख कर सारे राष्ट्र को उसका अनुकरण हिन्दुस्तान में प्रचलित तमाम धर्मों और प्रान्तों की करने का उपदेश देंगे? मेरा विचार है, आप कभी भी भाषाओं के सुप्रचलित शब्दों का समावेश अवश्य करना वैसा दुस्साहस नहीं कर सकते । अाज तक किसी जर्मन होगा।" और कि "३५ करोड़ हिन्दुस्तानियों की भाषा देशभक्त ने अपनी 'श्रात्म-कथा' अँगरेज़ी में, किसी अँगरेज़ वही हो सकती है जिसको सब लोग आसानी से समझ सके ने फ्रेंच' में या किसी इटालियन ने 'फ़ारसी' में नहीं लिखी और बोल सकें।" अब देखना यह है कि 'मेरी कहानी' है। श्री जवाहरलाल जी ने खुद हिन्दी में न लिख कर में तेलगू, तामिल, मलयालम, कनाड़ी, पंजाबी, सिंधी, उसे विदेशी भाषा में लिखा है। इससे स्पष्ट है कि वे अपनी मुलतानी, और झंगी अादि भारतीय भाषाओं के कितने हिन्दी को साहित्यिक या अनुकरणीय नहीं समझते। पंडित शब्द हैं । मैं समझता हूँ, शायद ही कोई निकले। फिर महावीरप्रसाद जी द्विवेदी और बाब श्यामसुन्दरदास जी क्या "ख्वाहिशात, जज़बात और वाकयात" को सब कोई श्रादि सज्जन हिन्दी के प्रामाणिक लेखक माने जाते समझता है ? मैंने तो फ़ौजी गोरों को देखा है । साधारण हैं और साहित्यिक हिन्दी के लिए उनकी ही शैली का पढ़े-लिखे होने पर भी वे अँगरेज़ी की साहित्यिक पुस्तकों अनुकरण करना परम आवश्यक है। कल्पना कीजिए कि के बहुत-से शब्दों के अर्थ नहीं समझते । उनको उनके यदि श्री जवाहरलाल जी अपनी मूल अँगरेज़ी पुस्तक अर्थ समझाने पड़ते हैं। तो क्या घटना, भावना, लालसा आपकी हिन्दी जैसी 'विकास-शील' अँगरेज़ी में लिखते आदि शब्दों को यदि मुसलमान न समझे या समझने और उसमें चीनी, जापानी और हब्शी भाषाओं के बहुत- का यत्न करने में अपना अपमान समझे तो उनको प्रसन्न से शब्द ढूंस देते क्योंकि इंग्लैंड में बहुत-से हब्शी भी करने के लिए साहित्यिक हिन्दी का ही मूलोच्छेदनं कर बस गये हैं, तो उसकी कैसी मिट्टी ख़राब होती । महात्मा दिया जाय ? यह सबको प्रसन्न करने या मुसलमानों के गांधी जी के अँगरेज़ी लेखों और जवाहरलाल जी की पदलेहन की कुनीति देश को ले डबेगी। यह किसी बात 'मेरी कहानी' को अँगरेज़ों में कद्र होने का एक बड़ा को सत्य और उचित समझते हए भी उस पर कारण यह है कि वह परिमार्जित अँगरेज़ी में लिखी गई है। कटिबद्ध होकर डट जाने की शक्ति देशवासियों शुद्ध अँगरेज़ी के रोब से दब कर ही लोग उनके सामने में न छोड़ेगी। इस दासता-सूचक प्रवृत्ति को जितना सिर झुका देते हैं।
शीघ्र रोक दिया जाय उतना ही राष्ट्र का भला है।
सुबोध अदापाल लेखक, श्रीयुत द्विजेन्द्रनाथ मिश्र 'निर्गुण'
बालापन क्यों विस्मृत होता ? बादल ऊपर उठते, डरते, रोते, उनके आँसू बहते; आज हमारे नयनों से मतवालापन क्यों निसृत होता? इन्द्रधनुष को पाने उससे तीर चलाने हम उठ पड़ते; बालापन क्यों विस्मृत होता? पर अब भोली प्रकृति नटी से विज्ञानी मन विकृत होता
बालापन क्यों विस्मृत होता ? केवल दो साथी को लेकर एक नया संसार बसाता; माँ के अतुलित स्नेह-कणों को पाकर उसको प्यार किया था मिट्टी के लघु महलों का निर्माण ताज का शीश झुकाता; भाई बहनों की गोदी में चढ़कर उन्हें दुलार दिया था; पर क्यों अब मेरा गृह बढ़कर पूरे जग में विस्तृत होता? अब जग भरके सुख-दुख मेंपड़पूर्ण-स्नेह क्यों अपहृत होता बालापन क्यों विस्मृत होता?
बालापन क्यों विस्मृत होता ?
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कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट
लेखक, श्रीयुत श्यामनारायण कपूर, बी० एस-सी० E HATTET द्योगिक तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रान्त के तत्कालीन गवर्नर सर हारकोर्ट बटलर के नाम से
SNA और भारतीय उद्योग-धन्धों की सम्बद्ध करके टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट का कार्य प्रारम्भ Boyो उन्नति के लिए भारतीय जनता · हो गया। १९२१ के नवम्बर में गवर्नर महोदय ने
" विगत ५० वर्षों से बराबर अान्दो- इंस्टिट्यूट की इमारतों का शिलारोपण-संस्कार भी सम्पन्न ALS लन कर रही है। सन् १८८० में किया।
- भारतीयों की इस मांग के सम्बन्ध प्रान्तीय सरकार के इस निश्चय के पूर्व इस इंस्टिटयूट में एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट की रूप-रेखा सर्वथा भिन्न रखने का विचार किया जा रहा की अत्यन्त आवश्यक सिफ़ारिशों पर भी वर्षों तक कोई था। प्रारम्भ में इसका प्रमुख उद्देश शिक्षण संस्था जैसा कार्यवाही नहीं की गई। फिर भी जनता की प्रौद्योगिक न होकर प्रान्तीय उद्योग-धन्धों में सहायता पहुँचाने एवं शिक्षा की माँग बराबर बढ़ती गई और उसके लिए उन्हें उन्नत बनाने के लिए अन्वेषण-कार्य करना था।
आन्दोलन भी जारी रहा। युक्तप्रान्त की अधिकांश प्रौद्यो- इसी उद्देश को लेकर 'रिसर्च इंस्टिट्यूट' के नाम से इसका गिक शिक्षण संस्थानों एवं कानपुर के हारकोर्ट बटलर काम शुरू भी हो गया था। सन् १९२० में इस मसले की टेकनोलाजिकल इस्टिटयूट के स्थापित किये जाने का जाँच के लिए एक कमिटी नियुक्त की गई। इस कमिटी अधिकांश श्रेय इसी अान्दोलन को है।
ने सिफारिश की कि इंस्टिटयूट में अन्वेषण के साथ ही ___ सन् १९०७ में नैनीताल में प्रौद्योगिक कान्फरेंस का उच्च कोटि की श्रौद्योगिक शिक्षा का भी प्रबन्ध होना अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में युक्तप्रान्त में उच्च चाहिए। इसी कमिटी की सिफ़ारिशों के फल-स्वरूप कोटि की औद्योगिक शिक्षा देने के लिए टेकनोलाजिकल सरकार ने 'हारकोर्ट बटलर टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट' इंस्टिट्यूट स्थापित करने का निश्चय किया गया। इस की स्थापना का निश्चय किया। बात की सिफारिश की गई कि इस टेकनोलाजिकल १९२१ के सितम्बर में शिक्षण-कार्य प्रारम्भ हो इंस्टिट्यूट का रसायन-विभाग युक्तप्रान्त के प्रमुख गया। विद्यार्थियों के काम के लिए प्रारम्भ में प्रारजी श्रौद्योगिक नगर कानपुर में स्थापित किया जाय और तौर पर कुछ प्रयोगशालायें बनाई गई। इंजीनियरिंग इंजीनियरिंग विभाग रुड़की के इंजीनियरिंग कालेज में ही विभाग की शिक्षा का प्रबन्ध लखनऊ के सरकारी बना रहे । प्रस्ताव पास हो जाने के बाद फिर चुप्पी साध ली टेकनिकल स्कूल में किया गया। शुरू में सरकार ने गई और उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए कोई इंस्टिट्यूट की स्थापना के लिए जो स्कीम मंजूर की थी खास कोशिश नहीं की गई । सन् १९१६-१८ के इण्डियन उसके अनुसार इंस्टिट्यूट का उद्देश औद्योगिक रसायन इंडस्ट्रियल कमीशन ने एक बार फिर औद्योगिक शिक्षा की शिक्षा देना और उद्योग-धन्धों को सहायता पहुँचाने की आवश्यकता पर जोर दिया और पिछले ३०-३५ वर्षों से एवं उन्नत बनाने के लिए अन्वेषण-कार्य करना था। निरन्तर आन्दोलन किये जाने पर भी इस सम्बन्ध में कोई अस्तु इंस्टिट्यूट का पाठ्यक्रम भी इन्हीं उद्देशों को लेकर काम न किये जाने पर खेद प्रकट किया।
तैयार किया गया। भारतीय विश्वविद्यालयों से विज्ञान में ___ सन् १९०७ में टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट की स्थापना ग्रेजुएट होनेवाले विद्यार्थियों को इस्टिट्यूट में भर्ती करने का प्रस्ताव पास हो जाने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत का नियम बनाया गया। विद्यार्थियों को मौखिक और करने में पूरे १४ वर्ष लग गये। १७ फ़रवरी १९२१ का व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा देने का प्रबन्ध युक्तप्रान्तीय सरकार ने एक प्रस्ताव पास करके कानपुर किया गया। प्रत्येक विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त करने में 'टेकनोलाजिकल इंस्टिटयूट' की स्थापना की स्कीम को के लिए तीन साल का कोर्स रक्खा गया। प्रयोगशालाओं स्वीकार किया। इस निश्चय के अनुसार उसी वर्ष युक्त- के अतिरिक्त स्थानीय मिलों में भी काम करने की सुविधायें
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सरस्वती
[ भाग ३८
इंस्टिटयूट अाफ़ शुगर टेकनोलाजी' नामक स्वतन्त्र संस्था का रूप धारण कर लिया है।
शुरू के छः सात वर्ष तक इंस्टिट्यूट में शिक्षा प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत ही सीमित रक्खी गई थी। प्रत्येक विभाग में प्रतिवर्ष केवल ३ विद्यार्थी दाखिल किये जाते थे। प्रान्तीय सरकार प्रत्येक विद्यार्थी को. ४०) मासिक की छात्रवृत्ति देती थी। इनके अतिरिक्त इंस्टिटयूट के प्रिंसिपल को प्रत्येक विभाग में दो निःशुल्क विद्यार्थी दाखिल कर लेने का अधिकार था । युक्त प्रान्त के अतिरिक्त दूसरे प्रान्तों के विद्यार्थियों को भी यहाँ शिक्षा कीसुविधायें दी गई थीं, परन्तु उन्हें अथवा उनकी प्रान्तीय
सरकार को उनकी शिक्षा का पूरा ख़र्च देना पड़ता था। इस्टिट्यूट भवन ।]
१९२६ तक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डाक्टर ई० आर०
- वाटसन इस्टिटयूट के प्रथम प्रिंसिपल रहे | उनकी मृत्यु के प्राप्त की गई। युक्तप्रान्त में श्रौद्योगिक रसायन की शिक्षा बाद डाक्टर गिलबर्ट जे० फाउलर स्थायी रूप से प्रिंसिपल देने का यह प्रथम प्रयत्न था। उच्च कोटि की प्रौद्योगिक नियुक्त किये गये। १९२९ के अन्त में डाक्टर एच० डी० शिक्षा के लिए उन दिनों अान्दोलन अवश्य किया ड्रेन स्थायी रूप से प्रिंसिपल बनाये गये। पर वे भी तीन जाता था, परन्तु विद्यार्थियों में खास तौर पर विश्व- वर्ष से अधिक समय तक इस पद पर न रह सके। उनके विद्यालयों की शिक्षा समाप्त करनेवाले विद्यार्थियों में- इस बाद इंस्टिट्यूट के खर्च में कमी करने के खयाल से प्रिंसिपल प्रकार की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने की विशेष का स्वतंत्र पद तोड़ दिया गया। प्रान्त के उद्योग-विभाग के अभिरुचि न थी। अस्तु, विद्यार्थियों को इस प्रकार की डाइरेक्टर को एक्स आफिशियो के रूप से प्रिंसपल के पद शिक्षा के प्रति आकर्षित करने के लिए प्रान्तीय सरकार का भार सौंपा गया, परन्तु प्रबन्ध आदि के लिए इंस्टिट्यूट ने प्रथम वर्ष इंस्टिट्यूट में भर्ती होनेवाले सभी विद्यार्थियों के अधिकारियों में से एक सीनियर मेम्बर कार्यकारी को ७५) मासिक को छात्रवृत्ति देने का प्रबन्ध किया। प्रिंसिपल बना दिया जाता है । डाक्टर ड्रेन के बाद युक्तव्यावहारिक शिक्षा का ठीक ठीक प्रबन्ध करने के प्रान्तीय सरकार के तेल-विशेषज्ञ श्री जे० ए० हेयर ड्यूक उद्देश से विद्यार्थियों की संख्या बहुत ही सीमित रक्खी कई वर्ष तक इस पद पर कार्य करते रहे । अाज-कल तेलगई थी। प्रथम वर्ष केवल ३ विद्यार्थी भर्ती किये विज्ञान के सुप्रसिद्ध पण्डित श्रीयुत दत्तात्रय यशवंत आठगये । प्रथम वर्ष केवल प्रौद्योगिक रसायन की शिक्षा वले प्रिंसिपल का काम करते हैं। देने का प्रबन्ध किया गया । प्रौद्योगिक रसायन की शिक्षा अस्तु, १९२८ में सरकार ने इंस्टिट्यूट के पिछले के द्वारा विद्यार्थियों को बहुत-से व्यवसायों का साधारण सात वर्षों के कार्य की जाँच के लिए तथा इन सात व्यावहारिक ज्ञान करा दिया जाता था। अगले वर्ष वर्षों के कार्य से प्राप्त होनेवाले अनुभवों को दृष्टि में १९२२-२३ में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने पर तेल और रखते हुए उसे भविष्य में और अधिक उन्नत एवं उपयोगी चमड़े के विज्ञानों की शिक्षा देने के लिए और दो विभाग बनाने के सम्बन्ध में सिफ़ारिशें करने के लिए एक कमिटी खोले गये। १९२६ में शकर-विज्ञान की शिक्षा देने का नियुक्त की । इस कमिटी की सिफारिशों के अनुसार
आयोजन किया गया। शकर-विभाग की उन्नति के साथ- इंस्टिट्यूट में बी० एस-सी० के बजाय विज्ञान में इंटरसाथ इस विभाग की भी उन्नति हो गई और अब इस मीडिएट पास विद्यार्थी भी भर्ती किये जाने लगे। दाखिले के विभाग ने दस वर्ष के अन्दर उन्नति करके 'इम्पीरियल लिए प्रवेशिका-परीक्षा का प्रबन्ध किया गया। विद्यार्थियों
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संख्या ६]
कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट
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की संख्या तीन ही रक्खी गई । वज़ीफ़ा ४०) मासिक से घटा का कर दिया गया। वज़ीफ़ों की संख्या कम करके शकर और कर २५) मासिक कर दिया गया। दूसरे प्रान्तों के विद्या- तेल के विभागों में केवल दो-दो रक्खी गई। साधारण अनु. र्थियों से १५००) वार्पिक शुल्क लेना तय किया गया। सन्धान विभाग में केवल एक । इस कमिटी ने भी शिक्षा को इस्टिट्यूट की उपयोगिता देखकर कुछ दूसरी प्रान्तीय निःशुल्क ही रक्खा। दूसरे प्रान्तों के विद्यार्थियों से फीस लेने सरकारों ने भी अपने प्रान्त के विद्यार्थियों को इंस्टिट्यूट में का नियम पूर्ववत् बना रहा। दो वर्ष की शिक्षा के बाद शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्तियाँ देना प्रारम्भ कर इंस्टिट्यूट से डिप्लोमा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को दिया । यह क्रम अभी तक जारी है।
एशोसिएट ग्राफ हारकोट बटलर टेकनोलाजिकल इस्टयूट' १९८ के बाद १९३१ में शिक्षाविभाग के तत्कालीन (ए० एच० बी० टी० आई०) का टाइटिल तथा डिप्लोमा टाइरेक्टर श्रीयुत मे केन्जी की अध्यक्षता में फिर एक प्राप्त करने के बाद दो वर्ष तक अन्वेषण-कार्य करनेवाले जाँच-कमिटी नियुक्त की गई। इस कमिटी ने इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों को फेलो (एफ.० एच० बी० टी० आई०) का पिछले अनुभवों के अाधार पर कई एक महत्त्वपूर्ण सिफा- टाइटिल दिया जाने लगा। यह क्रम अभी तक जारी है । रिश की। इन सितारिशों के अनुसार इंस्टटयूट का चम- अब इंस्टिटयूट का शकर-विभाग इम्पीरियल कोसिल विभाग तोड़ दिया गया। बाद में इस विभाग के अन्तर्गत ग्राम एग्रिकलचरल रिसर्च (शाही कृ.प-अनुसन्धान. मेशीने एवं प्रयोगशाला यादि के यंत्र ग्रादि दयाल-बाग़ समिति) की सहायता से इमीरियल इस्टटयूट ग्राऊ शुगर की प्रौद्योगिक शिक्षण संस्था को भेज दिये गये। अब टेकनोलाजी नामक एक स्वतंत्र बृहत् संस्था में परिवर्तित चम-विज्ञान की शिक्षा भी दयाल बाग में ही दी जाती है। कर दिया गया है । यह संस्था भी हारकोर्ट बटलर टेकनोइंस्टटयूट में शिक्षण कार्य केवल शकर और तेल इन लाजिकल इंस्टिटयूट की ही इमारतों में स्थित है । गत ११ दो विभागों तक ही सीमित रक्खा गया। साधारण अनुसन्धानविभाग में शिक्षण कार्य बन्द कर दिया गया और केवल अनुसन्धान का प्रवन्ध रक्खा गया। इस कार्य के लिए प्रतिवर्ष दो विद्यार्थी लिये जाने लगे। शकर
और तेल के विभागों में दस-दस विद्यार्थियों की शिक्षा का प्रवन्ध किया गया । अाई. एससी० पास विद्यार्थियों का लिया जाना बन्द करके फिर से बी० एससी० पास विद्यार्थी लिये
[साइंटिफिक सोसाइटी के पदाधिकारी ।] जाने लगे। कोस तीन की
कास तान (बीच में इंस्टिट्यूट के वर्तमान स्थानापन्न प्रिंसिपल श्रीयुत पंडित दत्तात्रय यशवन्त अाठवले और चप से घटाकर दो वर्ष इम्पीरियल इंस्टिट्यूट अाफ़ शुगर टेकनोलाजी के डाइरेक्टर श्रीयुत पार० सी० श्रीवास्तव बैठे हैं।) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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I
मार्च १९३७ को वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल के सदस्य सर फ़ेंक नायस ने इसका उद्घाटन किया था ।. इस इंस्टिट्यूट में शकर - विज्ञान की सब प्रकार की शिक्षा का प्रबन्ध है । शिक्षण कार्य के साथ ही साथ यह संस्था शकर-व्यवसाय- सम्बन्धी अन्वेषण कार्य भी करती है। शकर - व्यवसाय को उन्नत बनाने के लिए यथासम्भव सब प्रकार की वैज्ञानिक सहायता देने का भी समुचित प्रबन्ध है । इम्पीरियल कौंसिल आफ एग्रिकल चरल रिसर्च के शकर - विज्ञान के विशेषज्ञ श्री आर० सी० श्रीवास्तव जो अब तक हारकोर्ट बटलर टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट के शकर - विभाग के भी अध्यक्ष थे, इस नवीन सस्था के डाइरेक्टर नियुक्त किये गये हैं । इस नवीन संस्था में शिक्षण कार्य के लिए आगामी जुलाई मास से तीन कोर्स नियत किये गये हैं, शुगरइंजीनियर, शुगर - केमिस्ट और शुगर ब्वायलर । ये तीनों कोर्स तीन तीन वर्ष के होंगे। तीनों में १२-१२ विद्यार्थी भर्ती किये जायँगे। शुगर इंजीनियर शकर - मिलों के इंजीनियर का काम करेंगे । इस कोर्स की शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों का इंजीनियरिंग में बी० एस-सी० पास होना आवश्यक होगा । केमिस्ट कोर्स के लिए साधा रण विज्ञान के बी० एस-सी० लिये जायँगे। पैन ब्वायलर कोर्स जो अब तक केवल साल भर का था, बढ़ाकर तीन वर्ष का कर दिया जायगा। अब तक इस कोर्स के लिए इन्ट्रेंस पास विद्यार्थी लिये जाया करते थे, अब विज्ञान लेकर इन्टरमीडिएट पास करनेवाले विद्यार्थी लिये जायँगे । दाखिले के लिए इम्पीरियल कौंसिल आफ एग्रिकलचरल रिसर्च को लिखना होगा। इन तीन वर्षों में प्रथम वर्ष तो इंस्टिट्यूट में पढ़ाई में लगेगा और बाकी दो वर्ष शकर के कारख़ाने में काम करना होगा । इस तरह तीन वर्ष बिताने के बाद सार्टिफिकेट प्रदान किया जायगा ।
टेकने | लाजिकल इंस्टिट्यूट में अब केवल तेल-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है। इस विभाग के कोर्स में भारतीय तेलहनों और उनसे तैयार होनेवाले समस्त तेलों का पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान, उनसे नवीनतम आधुनिक रीति से तेल तैयार करने एवं उन्हें शुद्धि करने की विभिन्न रीतियाँ, तेल-विज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले साबुन, रंग-रोगन आदि विज्ञानों की भी शिक्षा शामिल है। सैद्धान्तिक एवं व्याव
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[ भाग ३८
हारिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा देने का यहाँ प्रबन्ध है । वास्तव में तेल - विज्ञान की इतनी पूरी शिक्षा देने का आयोजन भारत में इस संस्था के अतिरिक्त और कहीं नहीं है । इस इंस्टिट्यूट को भी कृषि अनुसन्धान-समिति से आर्थिक सहायता मिलती है। इस सहायता के बदले में इंस्टिट्यूट में कृषि अनुसन्धान-समिति की सिफ़ारिश से युक्तप्रांत के अलावा दूसरे प्रान्तों के पाँच विद्यार्थी दाख़िल किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त पाँच विद्यार्थी युक्तप्रान्त के लिये जाते हैं । इन दस विद्यार्थियों के अतिरिक्त दूसरे प्रान्तों एवं रियासतों आदि के जो और विद्यार्थी इंस्टिट्यूट में शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं उनसे ५०) मासिक फ़ीस ली जाती है। नियमित रूप से डिप्लोमा की शिक्षा ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों के अलावा तेल - विज्ञान के विभिन्न अंगों, तेल, साबुन, रंग-रोगन आदि की शिक्षा के लिए छः से आठ मास तक के छोटे-छोटे कोर्सों में भी कुछ विद्यार्थी दाखिल किये जाते हैं। तेल - विज्ञान की साधारण शिक्षा समाप्त करने के बाद दो विद्यार्थियों को अनुसन्धान कार्य करने की भी सुविधा दी जाती है। इनमें से एक विद्यार्थी को प्रान्तीय सरकार दो वर्ष तक ६०) मासिक की छात्रवृत्ति देती है। तेल- विज्ञान के अतिरिक्त साधारण अनुसन्धानविभाग में भी दो विद्यार्थी प्रतिवर्ष लिये जाते हैं । इन विद्यार्थियों के लिए कोई विशेष पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं है । इन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण श्रौद्योगिक प्रश्नों का अनुसन्धानकार्य करना होता है ।
इस इंस्टिट्यूट के शिक्षण कार्य का प्रमुख उद्देश ऐसे विद्यार्थी तैयार करना है जो शिक्षा समाप्त करने के बाद उद्योग-धन्धों में सहायता पहुँचायें, उनका संगठन एवं संचालन करें, मौक़ा मिलने पर अपना कारोबार भी शुरू करें और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों की तरह बाबूगिरी के लिए मारे मारे न फिरें । इंस्टिट्यूट को अपने इस उद्देश में सफलता भी मिली है। इस उद्देश को ध्यान में रखते हुए इंस्टिट्यूट में श्रम तौर पर ऐसे ही विद्यार्थियों को भर्ती करते हैं। जिन्हें उद्योग व्यवसाय से विशेष अभिरुचि होती है या जो स्वयं पूँजी लगाकर अथवा उसका प्रबन्ध कर अपने निजी कारबार चलाने का प्रबन्ध कर सकते हैं अथवा शिक्षा समाप्त करने के बाद किसी निश्चित व्यवसाय में
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स्थान प्राप्त करने की आशा रखते हैं। फिर भी इंस्टिट्यूट के अधिकारी इंस्टिट्यूट से शिक्षा समाप्त करने
विद्यार्थियों को काम दिलाने अथवा अपना निजी कारवार शुरू करने पर यथासम्भव सब प्रकार की सहायता पहुँचाते हैं और उनसे बराबर सम्पर्क बनाये रखते हैं। शिक्षा समाप्त करने के वर्षों बाद भी वे अपने विद्यार्थियों की सहायता के लिए सदैव प्रस्तुत रहते हैं – साधारण कालेजों और विश्वविद्यालयों के समान शिक्षा समाप्त होते ही सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर देते । इसके फलस्वरूप इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों को काम मिलने में काफ़ी सुभीता होता है ।
कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट
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सभी प्रकार की आधुनिक प्रौद्योगिक शिक्षाओं का धारस्तम्भ रसायन है । रसायन विज्ञान के दो प्रमुख विभाग हैं— सैद्धान्तिक और व्यावहारिक । भारतीय विश्व विद्यालयों में आम तौर पर सैद्धान्तिक रसायन की शिक्षा एवं अन्वेषण कार्य ही पर अधिक ध्यान दिया जाता है । अब कुछ विश्वविद्यालयों ने औद्योगिक रसायन की शिक्षा का प्रबन्ध किया है । अब भी बहुत से विश्वविद्यालयों में औद्योगिक एवं व्यावहारिक रसायन की शिक्षा का उल्लेखनीय प्रबन्ध नहीं है। युक्तप्रान्त में सर्वप्रथम व्यावहारिक एवं औद्योगिक रसायन की शिक्षा का प्रबन्ध करने का श्रेय टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट को ही प्राप्त है । युक्तप्रान्त में
ही नहीं, समस्त भारत में श्रौद्योगिक एवं व्याव हारिक रसायन की शिक्षा देनेवाली समस्त संस्थाओं में बैंगलोर की 'इंडियन इंस्टिट्यूट आफ साइंस' के बाद इसी संस्था को प्रमुख स्थान प्राप्त है । प्रान्तीय सरकार के प्रबन्ध
से इस इंस्टिट्यूट को औद्योगिक शिक्षा देने की
समुचित सुविधायें भी
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प्राप्त हैं । व्यावहारिक एवं औद्योगिक रसायन की शिक्षा के लिए आम तौर पर तीन बातों की आवश्यकता पड़ती है । सैद्धान्तिक रसायन का समुचित ज्ञान एवं उसकी शिक्षा के लिए प्रयोगशालाओं की व्यवस्था, व्यावहारिक रसायन की शिक्षा के लिए उत्तम आधुनिक प्रयोगशालायें तथा मेकेनिकल एवं इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा का प्रबन्ध | टेक्नोलाजिकल इंस्टिट्यूट में इन तीनों ही बातों का समुचित प्रबन्ध है । इंस्टिट्यूट में भर्ती होनेवाले विद्यार्थी ग्राम तौर पर विश्वविद्यालयों के बी० एस-सी० और एम० एस. सी० होने के नाते सैद्धान्तिक रसायन का समुचित ज्ञान रखते हैं । व्यावहारिक रसायन एवं इंजीनियरिंग की शिक्षा का इंस्टिट्यूट में अच्छा प्रबन्ध है। आम तौर पर व्यावहारिक एवं औद्योगिक रसायन की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। एक चतुर एवं व्यवहारकुशल रसायनज्ञ का इंजीनियरिंग के जितने ज्ञान की ज़रूरत होती है, विद्यार्थियों का उतना ज्ञान करा देने का यहाँ समुचित प्रबन्ध है । वास्तव में एक व्यावहारिक रसायनज्ञ से इंजीनियर होने की आशा भी नहीं की जा सकती, परन्तु उसके लिए यह जरूरी है कि वह इंजीनियर की भाषा समझ सके और अपने विचारों को इंजीनियर को समझा सके । उसे ज़रूरत पड़ने पर अपनी विशेष मेशीनों का आविष्कार भी करना होता है । इसके लिए इंस्टिट्यूट में मेशीन डिज़ाइन
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[ प्रयोगशाला : ]
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एवं रचना की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया है। विदेशों में प्रत्येक विषय के लिए अलग अलग विशेषज्ञ होते हैं । किसी भी विषय पर थोड़े से खर्चे में विशेषज्ञों की सम्मति ग्रासानी से मिल जाती है। अतः वहाँ इंजीनियरिंग का ज्ञान न होने से भी काम चल जाता है । परन्तु भारत में विशेषज्ञों से कच्चे माल की ख़रीद से लेकर मेशीनों की ख़रीद, फिटिंग तथा मरम्मत के अतिरिक्त उत्पादन और विकी आदि की भी देख-भाल करनी पड़ती है । इन सभी बातों में पूर्णतया विज्ञ होना एक अत्यन्त कठिन कार्य है । परन्तु इंस्टिटयूट में उसे यथासाध्य सभी श्रावश्यक विषयों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने में सहायता दी जाती है। इंस्टिट्यूट में उत्तम ग्राधुनिक प्रयोगशालाओं के अतिरिक्त छोटे-छोटे माडेल कारखानों का भी प्रबन्ध है । प्रयोगशालाओं में काम करने के साथ ही विद्यार्थी इन फैक्टरियों व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। अपनी फ़ैक्टरियों में काम करने के अलावा प्रमुख प्रौद्योगिक केन्द्रों की ख़ास ख़ास फ़ैक्टरियों के देखने और उनमें काम करने की व्यवस्था की जाती है। फ़ैक्टरियों को देखने से बहुत-सा ज्ञान अनायास ही प्राप्त हो जाता है । इतनी शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान के बाद विद्यार्थी अपने पैरों खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं ।
[ मुख्य भवन -- पूर्वी मध्य भाग । ]
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[ भाग ३
विद्यार्थियों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने और कारखाना खोलने की पूरी जानकारी कराने के लिए इस्टि टयट की निजी फ़ैक्टरियों का अधिकांश काम विद्यार्थियों को सौंप दिया जाता है । इंस्टिट्यूट के अधिकारी उन्हें श्रावश्यक परामर्श देते रहते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं । इन फ़ैक्टरियों में तेल, साबुन, रंग-रोगन और शकर की फ़ैक्टरियों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन फ़ैक्टरियों का उद्देश व्यापारिक न होकर शिक्षणात्मक ही है । यहाँ विद्यार्थियों को व्यापारिक ढंग से उत्पादन की शिक्षा दी जाती है और उनमें कारखानों जैसे वातावरण में काम करने की योग्यता उत्पन्न की जाती है। इन्हीं कारखानों में इंस्टिट्यूट में होनेवाले अनुसन्धान कार्य के व्यावसायिक रूप की पूरी जाँच-पड़ताल की जाती है । इस अनुसन्धान के कार्य से केवल विद्यार्थियों को ही नहीं, वरन उद्योग-धन्धों के संचालकों को भी बड़ी सहायता मिलती है । स्वतन्त्र अनुसन्धान कार्य के अलावा इंस्टिट्यूट के अधिकारी उद्योगधन्धों के संचालकों की समस्याओं को सुलझाने के लिए भी बराबर प्रयत्नशील रहते हैं और उनसे बराबर सम्पर्क बनाये रखते हैं । स्वयं मिलों में जाकर मिलवालों की कठिनाइयों को समभकर उन्हें दूर करने के उपाय बतलाते हैं और कारखाने को उन्नत एवं लाभदायक बनाने के लिए परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं सुधार आदि के लिए वार परामर्श देते रहते हैं । साधारण अभिरुचि की प्रौद्योगिक समस्याओं पर कार्य करने के लिए इंस्टिट्यूट में किसी प्रकार की फीस नहीं ली जाती । उद्योग-धन्धों के संचालन, व्यवस्था एवं मेशीन यादि से सम्बन्ध रखनेवाले नाना प्रकार के प्रश्नों के उत्तर दिये जाते हैं। वास्तव में उत्तरी भारत में उद्योग-धन्धों के बारे में जानकारी प्राप्त
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करने और तत्सम्बन्धी अनुसन्धान कार्य करने के लिए यह इंस्टिट्यूट एक प्रामाणिक संस्था है ।
प्रयोगशालाओं के ही समान इंस्टिट्यूट का पुस्तका लय और वाचनालय भी बिलकुल अप टु डेट है। पुस्तका लय में विज्ञान, कलाकौशल, उद्योग, व्यवसाय एवं टेकनोलाजी-सम्बन्धी सहस्रों श्रेष्ठ पुस्तकें मौजूद हैं । यहाँ इण्डियन पेटेन्ट स्पेसिफिकेशन की पूरी फ़ाइल भी रक्खी जाती है । प्रतिवर्ष टेकनिकल विषयों
पर प्रकाशित होनेवाला
नवीन सामयिक साहित्य
भी बराबर श्राता रहता है । अँगरेज़ी के अतिरिक्त
जर्मन और फ्रेंच भाषा को उत्तम वैज्ञानिक पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकायें भी मँगाई जाती हैं । यहाँ
कानपुर का टेकनोलाजिकल इंस्टिट्यूट
यह कहना असंगत न होगा कि जर्मन भाषा का वैज्ञानिक साहित्य अँगरेज़ी से कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है और अधिकांश प्रामाकि वैज्ञानिक पुस्तकें जर्मन भाषा से अनुवादित की जाती है । इंस्टिट्यूट के पुस्तकालय से विद्यार्थियों के अतिरिक्त मिल मालिक और सर्वसाधारण भी लाभ उठा सकते हैं ।
इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों में वैज्ञानिक विषयों में अनुसन्धान की अभिरुचि उत्पन्न करने, वैज्ञानिक विषयों पर वाद-विवाद करने तथा उन्हें वैज्ञानिक लेख आदि लिखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए 'साइंटिफिक सोसाइटी' नामक विद्यार्थियों की एक निजी संस्था । इस संस्था की ओर से ‘जरनल ग्राफ़ टेकनोलाजी' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित की जाती है। इस पत्रिका ने भारत ही में नहीं, विदेशों में भी अच्छा सम्मान प्राप्त किया है। विद्यार्थियों-द्वारा होनेवाले अनुसन्धान कार्य का विवरण भी इसी पत्रिका में प्रकाशित होता है । इस पत्रिका के प्रति - रिक्त सरकारी तौर पर भी समय समय पर विभिन्न विषयों
फा. ९
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५८५
पर होनेवाले अनुसन्धान कार्य के विवरण बुलेटिनों के रूप में प्रकाशित होते रहते हैं । युक्त प्रान्त के उद्योग-धन्धों से सम्बन्ध रखनेवाले ऐसे ३०-३५ बुलेटिन अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश अँगरेजी में हैं ।
अन्त में इस इंस्टिट्यूट से पास होनेवाले विद्यार्थियों की कुछ बातें बतलाना भी यहाँ श्रावश्यक है । इंस्टिट्यूट के पूर्व विद्यार्थियों में ९० से ९५ प्रतिशत तक विद्यार्थी काम
[ पुस्तकालय - मुख्य भाग । ]
में लगे हुए हैं। तेल और शकर विभाग को अपने विद्याथियों को काम में लगाने में विशेष सफलता मिली है । भारतवर्ष में और युक्त प्रांत में ख़ास तौर पर तेल मिलों की अच्छी संख्या है । इन सबके संचालन के लिए विशेषज्ञों की सख्त जरूरत थी । इंस्टिट्यूट में शिक्षा पाये हुए विद्यार्थियों के सहयोग का मिल मालिकों ने पूरा लाभ उठाया और तेल - विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों की शीघ्र ही अच्छी माँग हो गई । तेल-मिलों के अतिरिक्त इनमें से कुछ को साबुन और रंग-रोगन के कारख़ानों में अच्छी जगहें मिलीं हैं। कुछ ने अपने निजी कारखाने खोल लिये हैं । १९३५ तक पास होनेवाले विद्यार्थियों में बहुत थोड़े विद्यार्थी ऐसे हैं जो अब तक किसी काम से नहीं लग सके हैं । इंस्टिट्यूट के अधिकारियों एवं विद्यार्थियों से युक्त प्रान्तीय तेल व्यवसाय को ही नहीं,
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५८६
सरस्वती
[भाग ३८
बरन भारतवर्ष के अन्य भागों के तेल, साबुन एवं रंग- साधारण अनुसन्धान विभाग से बहुत थोड़े विद्याथीं रोगन के कारखानों को समुचित लाभ पहुंचा है। वास्तव तैयार हुए हैं । इनमें से अधिकांश काम में लगे हुए हैं। में युक्त-प्रान्त की तेल-मिलों को सुव्यवस्थित रूप से इन्हें सभी प्रकार के रासायनिक उद्योग-धन्धों में जगहें मिली अाधुनिक ढंग पर चलाने का अधिकांश श्रेय इस इंस्टिट्यूट हैं। कुछ ने अोषधि बनाने के कारखाने खाले हैं । एक को ही प्राप्त है।
विद्यार्थी ने अपना काँच का कारखाना खोला है। कुछ ___ शकर-विभाग को अपने विद्यार्थियों को काम में को अोषधि-निर्माण करनेवाले कारखानों में जगहें मिल गई लगाने में पूर्ण सफलता मिली है। १९२६ के पहले जब हैं । इंस्टिट्यूट के पूर्व के छात्रों द्वारा अकेले कानपुर में इंस्टिट्यूट में शकर-विज्ञान की शिक्षा प्रारम्भ नहीं हुई कई कारखाने बहुत सफलता पूर्वक काम कर रहे हैं। इनमें थी, साधारण अनुसन्धान विभाग के विद्यार्थी शकर-मिलों मारबिल सोप वर्क्स, माथुर मंजूर लिमिटेड और पल्स में ले लिये जाया करते थे । शकर-विज्ञान के विशेषज्ञ तैयार प्राडक्ट्स लिमिटेड, के नाम विशेषतया उल्लेखनीय है । होने पर उनकी माँग और ज़्यादा बढ़ गई । इधर शकर- इन तीनों ने थोड़ी सी पूँजी से शुरू करके काफ़ी उन्नति व्यवसाय की उन्नति ने इन विद्यार्थियों को काम दिलाने की है। कानपुर के अलावा युक्त-प्रान्त के दूसरे शहरो में और भी अधिक सहायता पहुँचाई है । फलस्वरूप आज में भी इंस्टिटयूट के पूर्व के छात्रों ने अपने कई कारखाने भारत का बिरली ही कोई शकर-मिल ऐसी होगी, जहाँ खोले हैं । इस इंस्टिट्यूट से शिक्षा पाये हुए दो-एक केमिस्ट न हों।
सिद्धान्त लेखक, पण्डित रामचरित उपाध्याय
डरना किसी से नहीं, मरना स्वधर्म-हेतु, माँगिए किसी से नहीं किन्तु यदि माँगे बिना
कहना उसे ही जिसे करके दिखाना हो, काम न चले तो फिर माँगिए रमेश से. टलना प्रणों से नहीं, मिलना खलों से नहीं, क्लेश जो उठाना हो तो कीजिए किसी से प्रेम,
लिखना उसे ही जिसे सीखना-सिखाना हो। छोड़िए सभी को यदि छूटना हो क्लेश से चलना बड़ों की चाल, जलना किसी से नहीं, चिन्ता को हटाना हो तो कीजिए न रंच चाह,
रहना उसी के साथ जिसका ठिकाना हो, धर्म चाह हो तो हट जाओ लोभ-लेश से पड़ना प्रलोभ में न, गुरु से अकड़ना क्यों ? वेश को बनाना हो तो बनिए उमेश दास, · अडना वहाँ ही जहाँ शत्रु को भगाना हो ॥ नाता जोड़ना ही हो तो जोडिए स्वदेश से ।
MORE
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एक सुन्दर कहानी
मुन्नी
लेखक, श्रीयुत 'श्रीहर'
एक बिल्ली पाली है- एकदम सफ़ेद बर्फ जैसी । उसकी इसी सुन्दरता की ओर मैं खिंच गया था, जब उसे दशहरे की छुट्टी में गाँव के पूरबी टोले की एक गली में देखा था। छोटे छोटे पैर, गठासा बदन और बड़ी बड़ी गोल गोल पैनी आँखें । वह बहुत दिन की हो गई थी, तो भी बिल्लियों के दो वर्ष के बच्चों के साथ बच्ची-सी ही लगती थी । सफ़ाई पर इतना ध्यान कि मेरी चारपाई पर यदि धुली हुई चादर बिछी होती तो पाँव तक नहीं रखती थी। एक दिन उसने रामू का सारा दूध पी डाला। इस पर रामू ने उग्र रूप प्रकट किया। मा जी ने कहा- रामू, वह भी तो बची ही है। बड़े भैया कहते हैं, मुन्नी को दही खिलाया करो। वह घ से सारे चूहे भगा देगी, और तुम प्लेग से बची रहोगी ।
Far और चप्पल ढूँढ़ने लगा। भाभी ने कहा - बाबू जी, वह तो आपकी रानी की तोशक बनी है । देखा, मुन्नी उसी पर पैर फैलाये सो रही है । चप्पल लेना पड़ा, क्योंकि उस दिन नदी नहाने का विचार था। मैं खूँटी के घाट पहुँचा । वहाँ स्त्रियों का मेला था। फिर कैंत के सामने गया। वहाँ भैंसें धोई जा रही थीं। फिर पुल के पास गया । वहाँ दिल नहीं लगा । मुड़कर देखा, मुन्नी रानी पीछे थीं। खेलते खेलते हम दूर निकल गये - साधु की कुटी के र आगे । एकदम निर्जन स्थान था । श्रास - पास छोटी छोटी झाड़ियाँ और छिछले गहरे नाले थे । स्थान मेरे लिए बड़ा सुन्दर था । मैंने उसे अपना घाट मान लिया । धोती-तौलिया एक जगह पर रख दी। मुन्नी ने तौलिये पर श्रासन जमा दिया । मुँह धोया, नदी के किनारे जाकर गीत गाया, फिर नदी में बैठकर स्नान किया। जब स्नान कर किनारे या तब देखा, मुन्नी वहाँ नहीं है। समझा, वह नटखट है, किसी ओर निकल गई होगी, श्रा जायगी। धोती बदली । मुन्नी को आवाज़ दी - दो, तीन, चार -पचीसों बार | पर मुन्नी नहीं आई । मन में सोचा, क्या घर चली गई । किन्तु मुझे छोड़कर कैसे जा सकती है ? बहुत घबराया ।
मुन्नी मुझसे कभी कभी नाराज़ हो जाती है, और इतना अधिक कि कुछ समय तक मेरे सामने भी नहीं आती । एक दिन मैं कुछ रुपये गिन रहा था । ज्यों ही मैं उन्हें हाथ में लेता, वह पंजा मारकर गिरा देती । दो-तीन बार तक तो मैं उसके इस नटखटपने पर हँसता रहा, किन्तु जब उसने मुझे न गिनने देना ही तय कर लिया, मैंने बनावटी क्रोध में उसकी ओर आँखें बदल कर देखा । वह दूर हटकर गुर्राने लगी, और जब मैं इतने पर भी उसे उसी तरह देखता रहा, वह वहाँ से धीरे धीरे चली गई। फिर मैंने उसे बार बार बुलाया, वह नहीं आई। उसने समझ लिया था, मैं उस पर क्रुद्ध हूँ । पर मैं मुन्नी को उस अवस्था में नहीं छोड़ सकता था । मुझे स्वयं उसके पास जाकर उसको मानना पड़ा ।
मनुष्य कितना प्रेमी होता है ! मिट्टी का एक करण भी उसे बाँध सकता है । छोटी-सी बिल्ली का क्या महत्त्व ? किन्तु मैं उसके लिए परेशान था । उसकी खोज में आगे बढ़ चला | झाड़ियाँ हिलाई, नाले झाँके, पर वह कहीं न मिली। बढ़ता ही गया। जहाँ नदी उत्तर को मुड़ती है, वहीं एक गहरे नाले एक किनारे एक नाटे कद का आदमी दिखाई दिया। उसका रंग काला, बदन खुला हुआ था। वह केवल एक मैली तौलिया लपेटे बैठा था । उसका मुँह नदी की ओर, सिर के बाल बड़े बड़े, दाढ़ी कुछ बढ़ी हुई, जैसे वह कोई नया साधु हो। उसी के हाथों में मेरी मुन्नी थी। मैं पास के एक बबूल की चोट में हो गया। वह मेरी रानी को छाती से दबाये नदी की लहरों को देख रहा था । एकाएक वह मुन्नी को देखकर कहने लगा-
छुट्टियों में घर आने पर मैं उसके लिए तमाशा हो जाता हूँ और वह मेरे लिए खिलवाड़। मैं किसी के दरवाज़े जाता हूँ तो वह इश्तिहार का काम करती है । एक दिन सवेरे आठ बजे धोती और तौलिया कन्धे पर
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मैं
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सरस्वती
[ भाग ३८
- तुम ज्यों की त्यों वैसी ही छोटी बिल्ली बनी हुई हो। विचार नहीं। रूखी-सूखी रोटी पर उसको परतंत्रता स्वीकार तीन वर्ष के बाद भी वही चंचलता; वही घुड़दौड़ ! चूहे करनी पड़ी है । के साथ खेलती खेलती यहाँ अा गई। बड़े झटके से मैं एक अजीब दुनिया में जा पहुँचा था। विचारों में पकड़ा, नहीं तो तुम भाग ही जातीं। तुम्हारी आँखों में एक नई हलचल मच गई। जो में पाया, कह दूं, चलो अभी तक वही चमकता सौन्दर्य और तेज मौजूद है। सीता का अभी छुड़ाता हूँ, किन्तु साहस नहीं हुआ। शिथिल लेकिन तुमने मुझे नहीं पहचाना । जब आदमी नहीं पह- होकर बबूल के पेड़ के सहारे खड़ा रहा। देखा, वह धीरेचानते तब तुम कैसे पहचानतीं ? मेरी उम्र के साथी मुझसे धीरे मुन्नी की पीठ पर दाहना हाथ घुमा रहा था । चंचल दूर रहते हैं । नहीं देखतीं, मेरे कपड़े से बदबू आ रही मुन्नी चुपचाप उसकी ओर देख रही थी। उसे भाग जाने है । यह तौलिया वही है जिससे तुम खेलती थीं। दाँतों का मौका था, किन्तु वह उसी को देखती रही। वह बालों को में दबाकर इस झोपड़ी से उस झोपड़ी में जाया करती थीं। उठाते हुए कहने लगा-छोटी बिल्ली, तुम्हारे बाल कितने अब तो फूस का वह घर भी नहीं रहा । महान् परिवर्तन हो कोमल हैं । श्रानो, तुम्हें चूम लूँ । इससे एक मीठी सुगन्ध गया है। मेरी देह की तुम एक-एक हड्डी गिन सकती हो। अाती है । तुम्हारे नये मालिक ने तुम्हें साबुन से धोया ज़रा तेज़ भागती तो मैं तुम्हें पकड़ भी न पाता । सूर्य है। लेकिन बिल्ली, तुमका अब मैं छोड़ दूंगा। मेरी देह की धूप मुझसे डरती थी जब मैं हल लेकर खेत में सुबह- पर मैल की कई तहें जमी हुई हैं । तुम मेरी देह के स्पर्श शाम एक कर देता था। जवान बैल जब भागते थे, मिट्टी से गन्दी हो जाअोगी। सम्भव है, तुम्हारा मालिक तुमसे के बड़े बड़े ढेलों को चूर करता हुआ मैं उन्हें घेर लाता अप्रसन्न हो जाय । मैं तुमको कितना प्यार करता हूँ बिल्ली ! था। पर अब .........कुछ रुक कर वह फिर कहने तुमने कभी यह विचार किया है कि तुम्हारे मालिक पैसे लगा.........मैं जानता हूँ, बिल्ली, यदि अभी तुमको से साबुन ख़रीदकर तुम्हें धोते हैं और तुम्हारी विमली छोड़ दूँ, तुम भाग जाअोगी। कुछ दिन पहले जब तुम जो तुम्हें पानी से सदा साफ़ रखती थी, पैसे की कमी से मेरी गोद में होती और सीता आकर तुम्हें खींचने लगता, औषध बिना मर गई। कितना अनर्थ है बिल्ली ! तुमने तुम मुझसे और लिपट-सी जातीं । आज तो तुम अपनी मेरी ऊख की खेती देखी थी। वहाँ तुम मचान पर खूब विवशता दिखा रही हो। सीता को जानती हो? वही खेलती रहती थीं। कभी कभी कूदकर तितली पकड़ती जिसकी थाली में तुम उसके साथ दही-भात खाती थीं। और कभी उड़तो हुई पत्तियों के पीछे दौड़ती थीं। वह वह कहाँ है ? तुम क्या जानों जब गाँव के लोग ही नहीं खेत मैंने लगान पर लिया था। ऊख की कमाई अच्छी जानते हैं ? ज़मींदारों के वे लड़के जो बचपन में उसके तरह न हो पाई थी, क्योंकि मैं स्वयं कमला बाबू का साथ पास के बागीचे में कबड्डी खेलते थे, कभी भूलकर हलवाहा था । जब कभी उनके काम से छुट्टी मिलती, भी उसकी खोज नहीं करते। वह पासवाले गाँव में एक अपनी ऊख पर दौड़ जाता था। किन्तु फिर भी मौके की बाबू के यहाँ पेट की रोटियों पर नौकर है। वहाँ से मैंने गुड़ाई और सिंचाई की कमी से ऊख पतली ही रह गई । कर्ज लिया था। रुपया न दे सका। वह गिरवी रख साल के अन्त में जब ऊख पक कर तैयार हुई, मैं पासवाले लिया गया है । वह अब बड़ा हो गया है। हाथ-पाँव स्टेशन पर उसे मिल में देने के लिए सिर के बल रातोंकाफ़ी मज़बूत हो चुके हैं। केवल पचीस रुपये का क़र्ज़ रात ढोने लगा। बैलगाड़ी मिलती थी, किन्तु भाड़ा कहाँ था। जोड़-जाड़ कर वह अब तीन सौ तक पहुँच गया है। से आता ! सात सात दिन तक ऊख यों ही पड़ी रहती, सीता कहता है- बाबू जी, मुझे बाज़ार और पास के सूखकर काँटा हो जाती, फिर भी तीन-चार थाना मन मिल पजावे पर काम करने दीजिए। मैं कुछ ही दिनों में सारा जाता। उस समय से उसी से मैं अपने परिवार का पालन ऋण अदा कर दूंगा। लेकिन मालिक नहीं सुनते । कितना करता था, किन्तु लगान बाकी का बाक़ी ही रहता । ज़मीअन्याय है ! छः साल के अन्दर सीता ने अपने पौरुष से दार ने छप्पर से लगान वसूल किया। बिल्ली याद है जब सैकड़ों रुपये की आमदनी उनको कराई, किन्तु इसका कोई छप्पर उजाड़ा जा रहा था और सीता की मा एक अोर रो
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संख्या ६]
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मनी
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मुन्नी.
रही थी। उसने मुन्नी को सामने छोड़ दिया। वह उसी उसमें मैं अमरत्व पा सकता हूँ-अपने अधिकार की कौनकी ओर देखती रही।
सी बात–हम गरीबों में भी शक्ति है। कल सीता वहाँ ___फिर वह नदी की दौड़ती हुई लहरों को देखने लगा, नहीं रहेगा । वह प्रसन्न था। मैंने एक अाह ली । मुन्नी जैसे वह कोई कवि हो। वह कहने लगा- खूब दौड़ ने इधर देखा । मुझसे आँखें चार हुई। वह इधर ही बढ़ी। लो लहरो। तुम भी तनिक भी रुकतीं तो सीता की मा ऊपर मैं भी बढ़ा। वह उसे पकड़ने के लिए बढ़ा, किन्तु मुझे श्रा जाती । एक पर एक तुम अाती ही रहती हो। वह बढ़ते हुए देखकर उसने कहा---यह आपकी बिल्ली है बेगार में गई थी। तुम लोगों ने कैसे उसे पा लिया ? यह रमा बाबू ? भी एक रहस्य ही है। यही वह जगह है बिल्ली ! तुम खूब मैंने कहा-हाँ। आई । बिल्ली, मैं अब समझा। यह जीवन एक संग्राम है।
जीवन का गान लेखक, कुँवर सामोश्वर सिंह, बी० ए०, एल-एल० बी०
"दो दिन का यह वैभव है दो दिन की यह लाली है" गाती मेरे जीवन की गाथा यह मतवाली है।
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कलियों पर जाकर प्रतिदिन मधुकर मत मँडराया कर हो मस्त देख मेघों को तू मोर न इतराया कर।
पागल-सी चपल तरङ्गो, नाचो मत उछल उछल कर है चाँद तुम्हें ललचाता नाहक ही निकल निकल कर ।
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जल जल पतङ्ग दीपक पर
फूले मत फूल वृथा ही हसरत न मिटा दे अपनी
अपने इस लघु जीवन पर सपनों के पीछे प्रणयी
संसार चकित है सारा रातें न बिता दे अपनी ।
इस अनुपम भोलेपन पर। - "दो दिन का यह वैभव है दो दिन की यह लाली है" "दो दिन का यह वैभव है दो दिन की यह लाली है" ' गाती मेरे जीवन की गाथा यह मतवाली है। गाती मेरे जीवन की गाथा यह मंतवाली है।
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धारावाहिक उपन्यास
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७ ७७७७७७७७७७७७७७७७७८८८८८८८८८८
शनि की दशा
50000000७७७७७७७
अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र राधामाधव बाबू एक बहुत ही श्रास्तिक विचार के आदमी थे । सन्तोष उनका एक-मात्र पुत्र था। कलकत्ते के मेडिकल कालेज में वह पढ़ता था। वहाँ एक बैरिस्टर की कन्या से उसकी घनिष्ठता हो गई । उसके साथ वह विवाह करने को तैयार हो गया । परन्तु वह बैरिस्टर विलायत से लौटा हुआ था और राधामाधब बाबू की दृष्टि में वह धर्मभ्रष्ट था, इसलिए उन्हें यह सह्य नहीं था कि उसकी कन्या के साथ उनके पुत्र का विवाह हो । वे उस बैरिस्टर की कन्या की ओर से पुत्र की प्रासक्ति दूर करने की चिन्ता में पड़े ही थे कि एकाएक वासन्ती नामक एक सुन्दरी किन्तु माता-पिता से हीन कन्या की ओर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने उसी के साथ सन्तोष का विवाह कर दिया । परन्तु सन्तोष को उस विवाह से सन्तोष नहीं हुआ। वह विरक्त होकर घर से कलकत्ते चला गया। इससे राधामाधव बाबू और भी चिन्तित हुए । वे सोचने लगे कि वासन्ती का जीवन किस प्रकार सुखमय बनाया जा सके। एक दिन उन्होंने तार देकर सन्तोष को बुलाया और समझा-बुझाकर उसे ठीक रास्ते पर लाने की कोशिश की। परन्तु पुत्र पर जब राधामाधव बाबू की बातों का ज़रा भी प्रभाव न पड़ा तब वे बहुत निराश हुए। उन्होंने एक दानपत्र के द्वारा अपनी सारी सम्पत्ति वासन्ती के नाम लिख दी और इस बात की व्यवस्था कर दी कि इस दानपत्र
' का भेद उनकी मृत्यु से पहले न खुलने पावे।
ग्यारहवाँ परिच्छेद .
रास्ते में सन्तोष को देखते ही सुषमा ने मोटर खड़ी रास्ते में मुलाकात
कर दी थी। उसने उन्हें मोटर में बैठाल लिया और कहने साक दिन की बात है। कुछ अावश्यक चीज़-वस्तु लगी-कहिए सन्तोष भाई, आप यहाँ कैसे ?
खरीदने के लिए सन्तोष बाहर निकला था। बाज़ार सुषमा को सामने देखकर सन्तोष लज्जा के मारे गड़ा से निवृत्त होने पर वह धर्मतल्ला की मोड़ पर आकर खड़ा जा रहा था। उसके जी में आता था कि मैं इसी समय हो गया और ट्राम की राह देखने लगा। इतने में पीछे से मोटर पर से उतर जाऊँ, किन्तु पैर मानो उठना ही नहीं एक मोटर की अावाज़ सुनाई पड़ी। वह उतावली के चाहते थे। बहुत दिनों के बाद सुषमा को देखकर मानो साथ एक किनारे की अोर हट रहा था कि एकाएक आरोही उसका शरीर सामर्थ्यहीन होता जा रहा था, उसके मुँह से की अोर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने देखा, उस मोटर कोई शब्द नहीं निकल रहा था, जिह्वा सूखी जा रही थी। में सुषमा बैठी थी और वह मुस्कराती हुई उसी की ओर वह किसी प्रकार भी अपनी अवस्था को छिपा नहीं सकता ताक रही है। सुषमा की दृष्टि से दृष्टि मिलते ही सन्तोष था। सुषमा उसका अान्तरिक भाव बहुत कुछ ताड़ गई ने उसकी अोर से अपनी दृष्टि फेर ली। क्षण ही भर के और कहने लगी-कुछ बोलते क्यों नहीं हैं ? क्या हम बाद उसने फिर देखा तो सुषमा उसे बुला रही है। लोगों से रुष्ट हो गये हैं ?
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संख्या ६]
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शनि की दशा
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बड़ी देर के बाद किसी तरह अपने आपको सँभाल- "पता नहीं, क्यों ? कहीं जाना अच्छा ही नहीं लगता।" कर रुंधे हुए कण्ठ से सन्तोष ने कहा-क्या बोलूँ, कोई सुषमा ने.विस्मित भाव से कहा-अच्छा क्यों नहीं ऐसी बात तो है नहीं।
लगता भाई ? क्या विवाह हो जाने पर कोई दूसरों के यहाँ - सुषमा कुछ अाश्चर्य में श्रा गई। वह कहने लगी- का आना-जाना ही बन्द कर देता है ?" क्यों सन्तोष भाई, ऐसी कोई बात ही नहीं है जो कही कितनी वेदना सहकर सन्तोष ने पिता के गृह का जा सके?
परित्याग किया है! उसको इच्छा थी कि वह सारा हाल. सन्तोष ने कम्पित कण्ठ से कहा-नहीं, अब मेरे सुषमा को बतला दे। परन्तु बतलावे कैसे ? बार बार पास कहने को कुछ नहीं रह गया है, सब समाप्त हो सोचने पर भी उसे कोई ऐसा उपाय नहीं सूझ पड़ा। . चुका।
सन्तोष मन ही मन सोचने लगा कि मैं तो जल जलसुषमा ने मुस्कराहट के साथ कहा-वाह सन्तोष कर मर ही रहा हूँ, क्या अब सुषमा को भी मेरे साथ जलना भाई, यह कैसी बात है ? आपने विवाह कर लिया और पड़ेगा ? इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मैं दूर से ही हम लोगों को ज़रा सी ख़बर तक न दी। क्या हम लोग उसकी मूर्ति का ध्यान करते करते दिन काट दूं। क्या वह इतने पराये हो गये हैं ?
अभी तक परिस्थिति को समझ नहीं पाई ? सुषमा का ___सन्तोष को निरुत्तर देखकर सुषमा फिर बोली- भाव देखकर तो कोई ऐसी बात नहीं मालूम पड़ती कि ख़बर नहीं दी तो न सही, इससे कोई हानि नहीं है, किन्तु मेरे विवाह का समाचार पाकर वह दुःखी हुई है ! वह तो भाभी जी से एक बार मुलाकात तो करा दीजिए । मेरे अब भी आनन्द कर रही है। वेदना का कोई चिह्न ही हृदय में इस बात की अत्यन्त अभिलाषा है कि मैं उनसे उसके मुख-मण्डल पर नहीं उदित हुआ है। तो क्या मिलकर ज़रा-सा बातचीत करूँ।
सुषमा मुझसे प्रेम नहीं करती थी? क्या मैं इतने दिनों बड़ी देर के बाद सन्तोष ने कहा-ख़बर क्या देता तक अपने हृदय में एक मिथ्या श्राशा का पोषण करता सुषमा ?
आया हूँ ? न, यह हो ही नहीं सकता । मेरा मन तो इस ____ क्यों, क्या वहाँ हम लोगों के जाने से आपकी कोई समय भी यही कह रहा है कि सुषमा मुझसे प्रेम करती हानि होती ?"
है । परिस्थिति को अभी वह समझ नहीं रही है। "नहीं, यह बात नहीं थी।"
___ सन्तोष को चुप देखकर सुषमा ने कहा- क्या सोच "तो ?"
रहे हैं ? बात का उत्तर क्यों नहीं दे रहे हैं ? बतलाया सन्तोष ने दबी आवाज़ से कहा-यां ही इच्छा ही नहीं कि बहू कैसी मिली। आप इस तरह के कैसे हो गये ? नहीं हुई।
विस्मित भाव से सुषमा के मुँह की अोर ताक कर सुषमा ने विस्मित स्वर से कहा-इसका मतलब ? सन्तोष ने कहा--किस तरह का हो गया हूँ सुषमा ? ___ "मतलब क्या है ? वहाँ जाकर ही तुम क्या करती?" "और नहीं तो क्या ! ठीक से बोलते नहीं हैं, बहू के
सुषमा खिलखिला कर हँस पड़ी। उसने कहा-तब बारे में कुछ नहीं बतलाते हैं । न जाने कैसे उद्विग्न से की बात तो तय थी। अब आपसे बतलाने में ही क्या- दिखाई पड़ रहे हैं ! अापकी यह अवस्था कैसे हो गई ? लाभ है ? आइए, अब घर चलें। मा आपके लिए बहुत एक हलकी-सी आह भर कर सन्तोष ने कहा- मुझसे अधीर हो रही हैं । आप आज-कल आते क्यों नहीं ? - कुछ न पूछो सुषमा । तुम मुझे क्षमा कर दो।
सुषमा को देखते ही सन्तोष का दुःख नया हो पाया। "क्यों ? क्षमा किस बात के लिए ?" उसमें इतनी भी शक्ति न रह गई कि वह ठीक ठीक बात "न जाने क्यों, तुम्हारी एक भी बात का उत्तर मुझसे कर सके । भर्राई हुई आवाज़ से उसने कहा--अब मैं न नहीं दिया जाता । शायद तुम मुझसे रुष्ट हो गई हो।" चल सकूँगा सुषमा।
सुषमा ने एक रूखी हँसी हँसकर कहा- नहीं, नहीं, - "क्यों?"
रुष्ट क्यों होऊँगी ? मैं तो आप लोगों की तरह ज़रा ज़रा
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५९२
सरस्वती
सी बात में रुष्ट होनेवाली हूँ नहीं । अच्छा, आप सच सच बतलाइए कि भाभी आपको पसन्द आई या नहीं।
सन्तोष ने गम्भीर कण्ठ से कहा- मेरी पसन्द या पसन्द से क्या होना जाना है सुत्रमा ? बाबू जी ने विवाह किया है, वे ही समझेंगे | मैं कौन होता हूँ ?
सुषमा ने संशयपूर्ण कण्ठ से कहा - यह क्या कह रहे हैं भैया ? आपके मुँह से तो इस तरह की बात नहीं शोभा `देती । आप पढ़े-लिखे हैं । श्राप यदि मूर्खों के से काम करेंगे तो भला दस आदमी आपको क्या कहेंगे ? इस तरह की बात को मन में स्थान देकर क्या आप अन्याय नहीं कर रहे हैं ? वह बालिका है । उसका क्या अपराध १ उसे इस तरह उपेक्षामय अवस्था में रखना क्या उचित है ? जिस दिन वह अपनी इस अवस्था का अनुभव कर सकेगी, उस समय - उसका हृदय कितनी वेदना से परिपूर्ण हो उठेगा, यह भी आपने कभी सोचा है ? ज़रा सोचिए तो कि आपके इस तरह के व्यवहार से कितने लोग दुःखी हो रहे हैं । सम्भव है कि यह बात आपको बहुत ही साधारण-सी जान पड़ती हो, किन्तु वास्तव में यह इतनी साधारण नहीं है । आपके वृद्ध पिता आपके व्यवहार से कितना कष्ट पा रहे हैं, क्या आपने कभी इस पर विचार किया है ? उन्हें दुःखी करना क्या आपके लिए उचित है ? सन्तान चाहे कितने भी अपराध करे, वह सब माता-पिता नीरव भाव से सहन करते जाते हैं । सन्तान के अमङ्गल की श्राशङ्का से नेत्रों I का जल तक रोक रखने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु उनका हृदय कितनी वेदना से परिपूर्ण है, यह भी आपने किसी दिन सोचा है ? इस वेदना का फल अवश्य ही हम लोगों को किसी न किसी दिन भोगना पड़ेगा । कर्मफल का भोग किये बिना कोई रह नहीं सकता। आप भी न रह सकेंगे ।
•
क्षण भर चुप रहने के बाद सुषमा फिर बोली | वह कहने लगी---विवाहिता पत्नी के प्रति पुरुष का कर्त्तव्य क्या है, यह क्या आपको मालूम नहीं है ? उसकी उपेक्षा करके आप कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं ? इसे चाहे आप श्राज न भी समझ सकें, बाद को तो समझना ही पड़ेगा । उस समय आपको यह मालूम होगा कि अनुताप की पीड़ा कैसी होती है । अब भी मैं पसे कहे देती हूँ | बुरा मानने की बात नहीं है। जो कुछ
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[ भाग ३८
कर गये, वह कर गये, उसके लिए अब कोई उपाय नहीं है । अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। आप ज़रा-सा सावधान होकर विचार कीजिए। ईश्वर पर विश्वास रखिए, एक दिन वह आपको शान्ति देगा । स्त्री को सुखी करने का प्रयत्न कीजिए, मोह त्याग दीजिए । स्मरण रहे कि मनुष्य के लिए असाध्य कुछ भी नहीं है । और एक
सन्तोष इतनी देर तक मौन भाव से सुषमा की बातें सुन रहा था । उसके शान्त होते ही लड़खड़ाती हुई श्रावाज़ से उसने कहा- मुझसे कुछ मत कहो, मुझसे यह नहीं होने का । इससे अधिक वह कुछ भी नहीं कह सका, चुप होकर सुषमा के मुँह की ओर ताकने लगा । उसने देखा कि सुषमा के मुख-मण्डल पर क्रोध की रेखा उदित हो आई है।
क्षण भर के बाद सुषमा ने कहा - लीजिए, आपका मकान आ गया । अत्र श्राप उतर जाइए । मैं भी चलूँगी । विलम्ब हो गया है । मा मेरी राह देख रही होंगी । श्राप तो कभी ये ही नहीं ।
मोटर द्वार पर आकर खड़ी होगई । सन्तोष उस समय सोच रहा था, सुषमा को यह समझा दूँ कि मैं क्यों नहीं उसके यहाँ जा सका, कितने कष्ट से मैंने उसने परिवार से सारा सम्पर्क छोड़ रखा है । क्या यह सुषमा समझ सकती है ! वह यदि यह सब समझ पाती तो क्या इस तरह की बात कर सकती थी ?
सन्तोष की विचारधारा में व्याघात डालते हुए सुषमा ने कहा- घर आ गया है । उतरिए। इतना क्या सोच रहे हैं ?
मोटर पर से उतर कर सन्तोष खड़ा हो गया। सुषमा ने कहा - तो अब मैं चलती हूँ सन्तोष भाई । कह नहीं सकती कि कब तक मुलाक़ात होगी ।
सुषमा ने सोफर
घर चलने को कहा | मोटर चल पड़ी । अब सन्तोष के मन में यह बात आई कि सुषमा को ज़रा-सा रुक जाने को कहूँ। क्षण भर तक उसे और जी भर कर देख लूँ | क्या उससे फिर कभी मुलाक़ात हो सकेगी ? सम्भव है कि यही अन्तिम भेट हो ।
एकान्त में बैठ कर सन्तोष सुषमा के ही सम्बन्ध की तरह तरह की बातें सोचने लगा ।
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संख्या ६]
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शनि की दशा
बारहवाँ परिच्छेद
पाता। कमरे के भीतर एक दीपक टिमटिमा कर जल
रहा था। उसके क्षीण आलोक में बासन्ती का वेदना पिता का .वियोग
से मुझाया हुअा मुख और भी मलिन जान पड़ता था। । रात्रि का दूसरा प्रहर व्यतीत हो चुका था। कृष्णपक्ष पास ही एक दूसरे कमरे में दो-तीन डाक्टरों के साथ की चतुर्दशी के प्रगाढ़ अन्धकार से चारों दिशायें समा- वृद्ध दीवान जी बैठे हुए थे । आज प्रातःकाल से ही वसु च्छादित थीं । आकाश में उदित होकर तारों का समूह महोदय को एक प्रकार का हैज़ा-सा हो गया था। पहले क्षीण आलोक का वितरण कर रहा था। सारे गाँव में तो उन्होंने किसी को कुछ बतलाया नहीं, किन्तु क्रमशः निस्तब्धता थी। समस्त दिन जो जन-कोलाहल मचा जब उसका प्रकोप बढ़ गया तब वे उसे छिपा न सके । रहता था, उस समय उसका नाम तक न था। कहीं कहीं लोगों ने जब देखा कि नाड़ी की गति क्रमशः मन्द होती दो-एक पथिक अवश्य उस प्रगाढ़ अन्धकार को चीरते जा रही है तब सन्तोष का तार दे दिया. परन्तु अभी हुए अपना रास्ता तय करते हुए चले जा रहे थे। तक वह पाया नहीं था। ____सड़क के किनारे पर ही राधामाधव बाबू का सुविशाल टेबिल पर घड़ी रक्खी हुई थी। उसमें एक बज भवन बना हुआ था। उसके एक कमरे से उतनी रात गया। घड़ी का शब्द सुनकर वृद्ध ने आँखें खोल दीं। को भी अालोक की रेखा दृष्टिगोचर हो रही थी। सारे पास ही बैठी हुई बासन्ती की ओर देखकर उन्होंने कहागाँव में नीरवता होने पर भी वसु महोदय की अट्टालिका क्या तुम अभी तक साई नहीं हो ? भाभी कहाँ हैं ? पर से लोगों की बातचीत की अस्पष्ट ध्वनि मिल रही थी। वृद्ध की ओर ज़रा-सा झुककर ताई जी ने कहाकदाचित् उस समय भी उनके यहाँ के लोग सेाये नहीं कहो, कैसी तबीअत है ? मैं यहीं बैठी तो हूँ। थे। एकाएक देखने पर यह कोई भी समझ लेता कि वसु महोदय ने क्षीण कण्ठ से कहा-आप जाकर इन सभी लोगों के मुख पर एक प्रकार की उत्कण्ठा का विश्राम कीजिए, मेरी तबीअत अब कुछ अच्छी मालूम चिह्न वर्तमान है, मानों सभी लोग बहुत ही व्यस्त हैं। पड़ रही है। बाद को उन्होंने बहू की अोर दृष्टि फेरी और
मकान की दूसरी मंज़िल के ऊपर एक बैठक बनी हुई कहने लगे-बिटिया, सुनो, तुमसे मुझे कुछ बातें कहनी थी। उसी बैठक में एक पलँग पड़ा था। वसु महोदय हैं । अधीर न होना । संसार का यह नियम ही है। इससे उसी पर लेटे हुए थे। बुढ़ापे के कारण उनका शरीर काई बच नहीं सकता। एक न एक दिन सभी को जाना बहुत ही शिथिल हो गया था। रोग के कारण मुँह पीला पड़ेगा। यह क्या, रोती हो बिटिया ! छिः ! रोश्रो न । मैं पड़ गया था, उसके ऊपर मृत्यु का चिह्न स्पष्ट रूप से जो कहता हूँ वह सुनो। बेटी, मैं ही तुम्हें इस दुःख में उदित हो पाया था। सिरहाने के पास बासन्ती पंखा ले आया हूँ। उस समय मेरे हृदय में यह प्राशा थी कि लिये हुए बैठी थी । वृद्ध के मुख पर दृष्टि स्थिर रख कर तुम्हें सुखी कर सकूँगा। किन्तु तुम्हारी सुखमय अवस्था वह नीरव भाव से हवा कर रही थी। उसके मुख पर देखना मेरे भाग्य में नहीं था। आज मैं जा रहा हूँ। निराशा की रेखा विराजमान थी। बीच बीच में अञ्चल बेटी, मेरे हृदय को किसी प्रकार का भी क्लेश या दुःख के छोर से वह आँसू पोंछ लेती थी, परन्तु इस बात का नहीं है। केवल तुम्हें ही मैं अकेली छोड़े जा रहा हूँ, ध्यान रखती थी कि दूसरा कोई उसे आँसू पांछते देख तुम्हें देखनेवाला कोई नहीं रह गया, मुझे केवल यहीन सके । पास ही ताई जी भी बैठी थीं। वे वसु महोदय वे और कुछ न कह सके। बासन्ती के दोनों ही कपोलों के शरीर पर हाथ फेर रही थीं। अपने दोनों ही अत्यन्त पर से अाँसुओं की धारा बह चली। वसु महोदय ने ज़राशिथिल एवं रक्त-मांस से हीन हाथों को वक्ष पर रखकर सा अपने आपको सँभाल कर कहा-बेटी, मेरे जीवन
आँखें बन्द किये हुए वृद्ध सो रहे थे। बीच-बीच में काल में जो लोग मेरे अाश्रय में हैं, मेरी मृत्यु के बाद यन्त्रणा की अधिकता के कारण वे कराहने का प्रयत्न वे श्राश्रयहीन न होने पावें । उनके ऊपर तुम्हारी दृष्टि करते, किन्तु कराहने का भी शब्द स्पष्ट रूप से न निकल रहनी चाहिए। बेटी, देखो, तुम किसी दिन अभिमान में
फा. १० . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सरस्वती
[भाग ३८
श्राकर इस घर का परित्याग न करना । तुम बुद्धिमती हो, उसकी पीठ पर हाथ रखकर दीवान जी ने कहासभी समझ सकती हो। इस घर को छोड़ कर और कहीं अच्छी तरह हैं भाई । घबराते क्यों हो ? भी तुम्हारे लिए ठिकाना नहीं है, यह बात सदा स्मरण भर्राई हुई आवाज़ से सन्तोष ने कहा-मुझे उनके रखना । एक बात मैं तुमसे और कहना चाहता हूँ। क्या पास ले चलिए। तुम मेरी यह बात स्मरण रक्खोगी बेटी ? बासन्ती उच्छव- दीवान जी ने कहा- भाई धीरे धीरे चलो, एकाएक सित भाव से रो पड़ी।
तुम्हें देखने से उनकी साँस बन्द हो जाने की आशङ्का है। बड़ी देर के बाद बासन्ती को किसी प्रकार शान्त तुम अधिक उतावली मत करो। करके वसु महोदय ने फिर कहा-बेटी, सन्तोष यदि वे दोनों ही नीरव भाव से रोगी के कमरे के द्वार पर किसी दिन अपनी भूल समझ सके और तुम्हारे पास क्षमा उपस्थित हुए। कमरा खुला हुआ था। सन्तोष ने देखा, मांगने के लिए आवे तो उसे क्षमा कर देना बेटी, अभि- सामने ही उसके पिता सोये हुए हैं, सिरहाने के पास मान में आकर उसे लौटाल न देना । बोलो, बेटी, तुम यूँघट से मुँह का कुछ अंश ढंके हुए एक किशोरी बैठी उसे क्षमा कर दोगी न ।
है। सन्तोष ने समझ लिया कि यह और कोई नहीं है, आँसुत्रों से रुंधे हुए कण्ठ से बासन्ती ने कहा-- मेरी ही अनादृता पत्नी है। साथ ही साथ उसके मन में श्राप आशीर्वाद दीजिए बाबू जी ।
एक प्रकार का विद्वष का भी भाव विकसित हो पाया। वसु महोदय ने कहा- मैं आशीर्वाद देता हूँ कि वह सोच रहा था कि इसी के कारण आज मैं पिता के सन्तोष को क्षमा कर देने की शक्ति तुम्हें प्राप्त होगी। स्नेह से वंचित होकर घर से बहिष्कृत हो उठा हूँ। अतुल देखना, भाभी को किसी प्रकार का कष्ट न होने पावे। ऐश्वर का अधीश्वर होकर भी मैं आज यहाँ एक अतिथि अब एकमात्र वे ही तुम्हारी सहायक रह गई हैं। मात्र हूँ। अभिमान और क्षोभ के मारे सन्तोष का वक्ष ताई जी और बासन्ती दोनों ही रो पड़ी। वसु महोदय फटा जा रहा था। उसके मन में केवल यही बात आ रही के मुर्भाये हुए कपोलों पर आँसुत्रों की धारा बह थी कि इसके सामने ही पिता जी ने यदि कोई बात कह चली।
दी तो उस समय मुझे अपार लज्जा अावेगी, वह लज्जा दूसरे दिन प्रातःकाल वसु महोदय की नाड़ी की मैं कैसे सँभाल सकूँगा। अपने काँपते हुए दोनों पैरों को अवस्था बहुत ही ख़राब हो गई । यन्त्रणा के मारे वे किसी प्रकार खींचता हुआ वह कमरे में गया और पिता छटपटाने लगे। सांसारिक ज्ञान से शून्य बासन्ती अनिमेष के चरणों के नीचे मुँह छिपा कर वह चुपचाप आँसू दृष्टि से उनके मुख का भाव देख रही थी। उसके बहाने लगा। अन्तःकरण से रुदन का जो आवेग उठता था वह उसके सन्तोष को देखकर . बासन्ती ने किसी प्रकार की भी रोके नहीं रुकता था। आज वह अपने आपको नितान्त कुण्ठा का भाव नहीं व्यक्त होने दिया। वह जैसे बैठी थी, ही असहाय समझ रही थी। उसके मन में रह-रह कर वैसी ही बैठी रही। ताई जी पूजा-श्राह्निक के लिए उठ यही बात आती कि बाबू जी यदि न जीवित रह सके तो गई थीं। वह अकेली ही बैठी थी। समीप ही घड़ी रक्खी उनके अभाव में मैं किसके पास खड़ी हो सकँगी, यह हई थी. उसकी ओर देखकर बासन्ती ने उतावली के साथ अपरिमित दुःख सहन करती हुई मुझे और कितने दिनों पंखा रख दिया और टेबिल की ओर बढ़ी। वह पंखा तक जीवित रहना पड़ेगा।
उठाकर सन्तोष धीरे-धीरे झलने लगा। बासन्ती को दुःसह वेदना में सारा रास्ता काटकर प्रातःकाल उठती देखकर सदाशिव बाबू उसकी ओर अग्रसर हुए। सन्तोष घर आ पहुँचा । सीढ़ी से चढ़कर जैसे ही वह दूसरी बासन्ती ने मृदु कंठ से पूछा-कौन-सी दवा दूँ ? मंज़िल पर पहुँचा, सामने वृद्ध दीवान सदाशिव दिखाई टेबिल पर से एक शीशी उठाकर दीवान जी ने उसे पड़े। उन्हें देखते ही उसने भग्न कंठ से कहा-दादा भाई, दे दी। बासन्ती जब चलने को उद्यत हुई तब दीवान जी बाबू जी
ने मृदु-कंठ से कहा-यदि सोये हों तो जगाकर दवा
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संख्या ६]
शनि की दशा
देने की ज़रूरत नहीं है। यह बात कहकर वे चले आ रहा था । मुँह से कुछ भी न कह कर उसने स्वयं बायें गये।
__हाथ से पंखा झलना शुरू कर दिया। कुछ देर के बाद ___ बासन्ती हक्का-बक्का हो गई। वह कुछ सोच ही रही वसु महोदय को जब चेतना आई तब उन्होंने बहुत ही थी कि वसु महोदय ने क्षीण कंठ से पुकारा-बिटिया। भर्राई हुई आवाज़ से पुकारा--बहू !
बासन्ती उतावली के साथ चलकर शय्या के पास श्वशुर के मुँह के समीप झुककर उसने कहा--क्या पहुँच गई और उनके मुँह के सामने ज़रा-सा झुक कर है बाबू जी ? कहने लगी-बाबू जी, क्या मुझे बुला रहे हैं ?
वसु महोदय ने कहा-~-वह कहाँ गया ? वसु महोदय ने कहा-बड़ी प्यास लगी है।
बासन्ती काई भी उत्तर नहीं दे पाई थी। इतने में बासन्ती ने शीशी से थोड़ी-सी दवा एक कटोरी में ताई जी आ गई । सन्तोष को सामने देखते ही वे रोने उँडेलकर उनके "ह में डाल दी। वसु महोदय दवा लगी, मुँह से कुछ कह न सकीं। पी गये। तब उन्होंने क्षीण-कंठ से पुकारा-भाभी ? वसु महोदय ने कहा-सन्तू, पास आ जा। बासन्ती ने कहा-ताई जी पूजा करने गई हैं।
ज़रा-सा आगे बढ़कर सन्तोष जैसे ही पिता के समीप वसु महोदय ने कहा-मुझे पंखा कौन हाँक अाया, वे उसकी ओर ताक कर कहने लगे-सन्तू, बेटा, रहा है ?
आज मैं चल रहा हूँ। आज तुझसे एक बात कहूँगा। . बासन्ती इस प्रश्न का क्या उत्तर देती ? वह मस्तक मानेगा ? झुकाये हुए स्थिर भाव से खड़ी रही।
सन्तोष ने इस बात का कोई उत्तर न दिया। उसे उन्होंने फिर कहा-बहू, सदाशिव ? कोई भी उत्तर चुप देखकर वसु महोदय ने फिर कहा-मुझे कष्ट न दे। न पाकर उन्होंने कहा-सदाशिव, बोलते क्यों नहीं हो? इतने दिनों से कष्ट सहन करता आ रहा हूँ, आज तू 'नाही'
अब सन्तोष स्थिर न रह सका। उसने सँधे हुए कंठ मत करना । बोल बेटा, तू मेरी बहू को सुखी करेगा। से कहा-बाबू जी!
__ सन्तोष ने भर्राई हुई आवाज़ से कहा-बाबू-मुझे . वसु महोदय के शरीर से मानो बिजली का तार छु क्षमा करना, मैंगया और उससे आहत होकर वे चौंक पड़े। उन्होंने वसु महोदय ने असन्तोषमय स्वर से कहा-बेटा,
आँख खोल दी और सिरहाने के पास बैठे हुए पुत्र को अब भी तू नहीं समझ सका ! मृत्युकाल में भी मुझे देखकर क्षीण-कंठ से कहा--सन्तू, बेटा!
शांति से न मरने देगा ? किन्तु मैं कहे जाता हूँ, याद पिता के मस्तक पर हाथ रखकर सन्तोष रो पड़ा। रखना, एक दिन इसके लिए तुझे.... . कुछ क्षण के बाद बासन्ती ने अश्रुगद्गद स्वर से कहा- क्रमशः वसु महोदय के श्वास के लक्षण प्रकट होने बाबू जी कैसे होते जा रहे हैं ! मैं मस्तक पर जल छोड़ती लगे । डाक्टर ने आकर नाड़ी की परीक्षा की और कह दिया हूँ, तुम ज़रा ज़ोर से हवा करो।
कि अब समय नहीं है। सन्तोष रोने लगा । उसने पिता पहले सन्तोष समझ नहीं सका। बाद को जब उसके के वक्ष पर मस्तक रख कर आँसुत्रों से रुंधे हुए कंठ मस्तक पर ठंडक मालूम हुई तब उसने मस्तक उठाकर से कहा-बाबू, बाबू-सुने जाइए-यदि मुझसे हो देखा कि बासन्ती बरफ़ लेकर श्वशुर के मस्तक पर सका तो मैं श्रापकी ....। आहिस्ता-आहिस्ता रगड़ रही है । सन्तोष को तब तक इस बाद को उसे और कुछ कहने की आवश्यकता न बात का पता नहीं चल सका था कि पिता जी बेहोशी की पड़ी। वसु महोदय ने क्षीण स्वर से लड़खड़ाती हुई जिह्वा हालत में हैं। उसकी समझ में यह बात न आ सकी से किसी प्रकार कहा-बहू ! बाद को वे स्थिर हो कि उसे क्या करना चाहिए। इससे वह वहाँ से खिसक गये। शान्ति का अन्वेषण करने के लिए उनकी आत्मा कर एक बग़ल बैठ गया। बासन्ती को उस समय क्रोध शान्ति-धाम में चली गई।
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नई पलकें ।
[प्रतिमास प्राप्त होनेवाली नई पुस्तकों की सूची । परिचय यथासमय प्रकाशित होगा] .. १८-भार्गव-पुस्तकालय, गायघाट, बनारस नन्दन पंत, प्रकाशक, इन्द्रप्रिंटिंग वर्क्स, अलमोड़ा हैं । सिटी-द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
मूल्य 1) है। (१) धर्म और शिक्षा-संग्रह-कर्ता, श्रीयुत जगन्नाथ- १४--ए हैंड बुक श्रावग्वालियर (अँगरेज़ी)प्रसाद भार्गव और मूल्य १॥) है।
लेखक, श्रीयुत एम० बी० गर्दे, बी० ए०, प्रकाशक, (२) हिन्दी-अँगरेज़ी-मास्टर-मूल्य १।।) है। अालीजाह दरबार-प्रेस, ग्वालियर, हैं।
(३) वीर परशुराम-लेखक, श्रीयुत वेणीराम १५-१७-श्री विजयधर्म सूरि जैन ग्रन्थमाला, 'श्रीमाली' और मूल्य १॥) है।
छोटा सराफा, उज्जैन के द्वारा प्रकाशित तीन (४) भोजन-शास्त्र-लेखक, श्रीमती रुक्मिणी देवी पुस्तके-- और मूल्य १॥) है।
११) वक्ता बनो-अनुवादक, श्री हमीरलाल जी (५) समाज की खोपड़ी-लेखक, श्रीयुत रमाकान्त मूरडिया और मूल्य ।।) है । त्रिपाठी, 'प्रकाश' और मूल्य १||) है।
(२) श्रावकाचार-लेखक, श्री मुनिराज विद्या___ (६) नाज़ी जर्मनी-लेखक, श्रीयुत कन्हैयालाल विजय जी हैं । वर्मा, एम० ए०, और मूल्य १) है।
(३) अर्हत् प्रवचन-संग्राहक, श्री मुनिराज विद्या(७) मीराबाई नाटक-लेखक, श्रीयुत मुकुन्दीलाल विजय जी और मूल्य ।।) है। वर्मा, बी० ए० और मूल्य ||३) है।
१८-सन्त (विचित्र कथा)-अनुवादक, श्रीयुत (८) घरेलू सस्ती दवायें-लेखक, प्राचार्य स्वामी दीवान वंशधारीलाल, प्रकाशक, सन्त-कार्यालय, प्रयाग 'विश्वनाथ शास्त्री 'विश्वेश' राजवैद्य और मूल्य १।।) है। हैं। मूल्य ।।) है।
-गुप्त जी की काव्य-धारा-लेखक, श्रीयुत १६-जैनसिद्वान्त-दिग्दर्शन-लेखक, मुनिराज गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' बी० ए०, प्रकाशक, छात्र-हित- महाराज श्री न्याय विजय जी, प्रकाशक, भोगिलाल दगकारी पुस्तकमाला, दारागंज, प्रयाग हैं । मूल्य २) है। डुशा जैन, मालेगाम (नासिक), हैं । ___ १०-संध्या-रहस्य- लेखक, श्रीयुत विश्वनाथ २०-जवाहर का जौहर- रचयिता, श्रीयुत राजाविद्यालंकार, प्रकाशक, गुरुकुल-विश्वविद्यालय, कांगड़ी, राम श्रीवास्तव, प्रकाशक, पुनीत-आश्रम, टांडा, पो० हरद्वार हैं । मूल्य १) है।
बलुया, ज़िला बनारस हैं । मूल्य )।। है । ११-शैतान की आँख- लेखक, श्रीयुत राहुल - २१-स्वर्गीय पं० महावीर का परिचय-लेखक, - सांकृत्यायन, प्रकाशक, हिन्दी-कुटिया, पंटना हैं । मूल्य श्रीयुत जयदेव विद्यापति, प्रकाशक, श्रीयुत प्रेमी शर्मा, पो०
चौमू , जयपुर हैं। १२-- हंसयोग-प्रकाश-लेखक व प्रकाशक, २२-- कानून बेनुल मुमालिक के उसूल और श्रीयुत हंसरामसिंह, 'हंसयोग'-अाश्रम, सेड़िया, पो० श्रा० नजीर (उर्दू)-लेखक, श्रीयुत मुहम्मद हमीर उल्ला, 'पोखड़ा, गढ़वाल, हैं।
मिलने का पता, मकतब इब्राहीमिया हैदराबाद (दकन). १३-युगान्त (कविता)-लेखक, श्रीयुत सुमित्रा- हैं। मूल्य १।) है।
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. संख्या ६]
नई पुस्तकें
५९७
१--ब्वाय-स्काउटिंग-लेखक, श्रीयुत कृष्णनन्दन- के बालकों और नवयुवकों) को देशभक्ति, स्वावलम्ब, प्रसाद प्रकाशक, सेन्ट्रल बुकडिपो, प्रयाग हैं। पृष्ठ-संख्या सत्यप्रियता, कर्तव्यपरायणता, निर्भीकता आदि की शिक्षा ४५०७ मूल्य २॥) है।
मिलेगी। पुस्तक न केवल बालचरों के ही पढ़ने की है इस पुस्तक के लेखक बालचर्य शास्त्र के अच्छे विद्वान् प्रत्युत प्रत्येक बालक, युवक, अध्यापक और अभिभावक के हैं । उन्होने अपने कई वर्षों के अनुभव और अध्ययन के मनन करने की वस्तु है । फलस्वरूप इस विषय का इतना अच्छा ज्ञान प्राप्त कर
-बालकृष्ण राव लिया है कि वे इस पर एक ग्रन्थ लिख सकने के पूर्ण २-मिश्रबन्धु-प्रलाप (प्रथम भाग)--लेखक, पंडित अधिकारी हो गये हैं । यह हिन्दी का सौभाग्य है कि नारायणप्रसाद 'बेताब', प्रकाशक, आल इंडिया श्री भट्ट उन्होंने अपनी पुस्तक हिन्दी में लिखी । हिन्दी के भाण्डार ब्राह्मण महासभा के महामंत्री हैं । श्राकार छोटा, पृष्ठ १२८ को भरने में श्री कृष्णनन्दनप्रसाद जैसे उत्साही कर्मवीरों मूल्य ।।) है। का साहाय्य अमूल्य है । उनकी पुस्तक न केवल हिन्दी प्रस्तुत पुस्तक अाज एक चिरपरिचित मित्र से में अपने विषय की पहली पुस्तक है, न केवल वह अपने सम्मत्यर्थ प्राप्त हुई है। विचार था कि अन्य आवश्यक कार्य विषय की एक उच्च कोटि की पुस्तक है, बरन. वह ऐसी निबटा कर कुछ दिन बाद इसको पढूंगा। पर दो-चार पुस्तक है जिसका अन्य भाषाओं में अनुवाद कराने की पन्ने लौटते ही जी पूरी पुस्तक समाप्त किये बिना न माना। लोगों को आवश्यकता प्रतीत होगी और इससे हिन्दी का पुस्तक में बेताब जी का एक फोटो भी दिया हुआ -सम्मान होगा।
है । दुर्भाग्य से मुझे उनका साक्षात्कार नहीं हुआ है, पर ____ इस समय बालचर्य जैसे विषय पर इतनी महत्त्वपूर्ण फ़ोटो से बेताब जी आकृति में एक गम्भीर पछाही आर्यपुस्तक लिखना केवल बालचर्य की अथवा हिन्दी की ही समाजी मालूम पड़ते हैं। किन्तु पुस्तक की चुलबुली नहीं, बरन देश की सेवा करना है। हमारे नवयुवक जिस भाषा और लच्छेदार शैली देखते ही बनती है। छपाई, अल्पायु में बालचर बन जाते हैं उस समय उनके लिए शीर्षक देने का ढंग, भाषा, युक्तियाँ, उर्दू-फ़ारसी का पुट इसकी महत्ता, इसके वास्तविक रूप और उपयोगिता को सभी बातों से फ़िल्म-कहानी-लेखक 'बेताब' का परिचय पूर्णतया क्या, कुछ भी समझ सकना असम्भव होता है। अधिक मिलता है, 'बेताब' गम्भीर समालोचक का कम । फिर समय बीतते बीतते वे बालचर्य के सिद्धान्तों को रट बेताब जी पिछली पीढ़ी के समालोचकों में से एक हैं, कर, उसके बाह्य आडम्बरों से अाकर्षित होकर उसके रंग जिनमें दिवंगत पंडित पद्मसिंह शर्मा अग्रगण्य थे। बेताब में अवश्य रंग से जाते हैं, पर उसकी तह तक वे फिर भी जी शर्मा जी की ही तरह विपक्षी को शिकंजे में कसते हैं नहीं पहुँच पाते । इस विश्व-विस्तृत बाल-अान्दोलन की और अच्छी 'गति' बनाते हैं ।
आत्मा से उनका परिचय नहीं हो पाता, उनकी बालचर्य.. यह पुस्तक हिन्दी के सुविख्यात लेखक मिश्रबन्धुत्रों शिक्षा अपूर्ण रह जाती है।
की छीछालेदर करने के लिए लिखी गई है। श्री ब्रह्मभट्ट प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने बालचर्य के सिद्धान्तों को ब्राह्मण सभा मिश्र-बन्धुओं से इस कारण नाराज़ है कि सीधी-सादी किन्तु सजीव भाषा में समझाया है । बालचर्य उन्होंने हिन्दी-नवरत्न में लिखा है कि "कोई भाट अपने का इतिहास, स्काउट शब्द का अर्थ, स्काउटिंग का महत्त्व विषय में नहीं कह सकता कि वह द्विज है। भाट प्रायः आदि आदि विषयों पर उन्होंने केवल प्रकाश ही नहीं ब्राह्म भट्ट कहाते हैं ।" (पृ० २२२) डाला है, उन्हें सजीव बना दिया है, उनको एक प्रणाली एक गौण कारण यह भी है कि मिश्रबन्धुओं ने के रूप में नहीं, अपितु जीवन के एक आवश्यक अंग के सूरदास, भूषण, मतिराम और बिहारीलाल इन चार रत्नो रूप में दिखाया है।
को ब्राह्मण तो माना है, पर ब्राह्म भट्ट नहीं और बेताब जी . इस पुस्तक का जितना अधिक प्रचार हो उतना का कहना है कि ये महाकवि ब्रह्म भट्ट थे.और ब्राहाण । ही हमारे देश के भावी जीवन-नायकों (आज-कल । ब्रह्म भट्टों को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए बेताब जी
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सरस्वती
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भाग ३
ने तरह तरह के प्रमाणों का 'अम्बार' लगा दिया है, शिलालेख आदि में श्रालेख्याक्षर कैसे लिखे जाने चाहिए, जिनको पढ़कर मुझ जैसे साधारण पाठक को यह विश्वास मुद्राक्षर (मोनोग्राम) चित्रबन्ध (तुग़रा) नागरी अक्षरों हो जाता है कि ब्रह्म भट्ट लोग जन्म से ब्राह्मण हैं । विशे- से किस प्रकार बन सकते हैं, इत्यादि विषयों का उन्होंने षज्ञों की बात दूसरी है।
सरल तथा हृदयग्राहिणी शैली में वर्णन किया है । पुस्तक चन्द कवि को सभी भट्ट मानते हैं ही। सूरदास जी के अन्तिम भाग प्राकृति-खण्ड में वर्गकाष्ठों पर चार उनके ही वंशज हैं, इसलिए वे भी ब्रह्म भट्ट थे। भूषण प्रकार के आलेख्याक्षरों के बनाने की विधि प्रदर्शित की 'कनौज कुल' के ब्रह्म भट्ट थे न कि कनौजिया ब्राह्मण, और गई है, जिससे यह पुस्तक विद्यार्थियों, आलेख्याध्यापकों मतिराम उनके भाई थे अतएव वे भी ब्रह्म भट्ट थे। बिहारी- और शिलालेख तथा साइनबोर्ड लिखनेवालों के लिए
अत्यन्त उपयोगी हो गई है। प्रत्येक विद्यालय में जहाँ 'कवि' थे और 'केसव राय' के पुत्र । और 'राय' उपाधि हिन्दी-सुलेख तथा अक्षर-अालेख्य की शिक्षा दी जाती से प्रकट है कि वे ब्रह्म भट्ट थे । इस प्रकार यह सिद्ध होता है, इस पुस्तक का प्रचार होना चाहिए। पुस्तक बड़े है कि ये पांचों महाकवि ब्रह्म भट्ट थे।
परिश्रम से लिखी गई है और निर्विवाद रूप से हिन्दी. अपने को ऊँचे कल का ब्राह्मण मानकर ब्रह्म भट्टों लिपि-कला और अक्षर-विज्ञान पर एकमात्र प्रामाणिक पुस्तक को ब्राह्मण मानने से इनकार करनेवाले मिश्रबन्धुओं को है। इसका मल्य ।। है। यह पुस्तक पढ़कर कुढ़न होगी। पर किया क्या जाय ! (२) लिपि-कला का परिशिष्ट-हमारे प्रान्त में उन्होंने बुरे घर बायन दिया। मेरी तो उनसे विनीत प्रार्थना सभी स्कूलों में सुलेख की शिक्षा का प्रबन्ध है। उनमें है कि इस पुस्तक को पढ़कर वे इस महासभा को किसी प्रचलित, सोलह 'आदर्श लिपिमालाओं', लिपि पुस्तकों, प्रकार सन्तुष्ट कर दें, नहीं तो 'मिश्रबन्धु-प्रलाप' (दूसरा माडल कापियां आदि लिपि-कला सिखाने के उद्देश से भाग) और 'विनोद-परीक्षा' रूपी दो प्रहार और उपस्थित प्रकाशित लिपि-पुस्तकों की इस परिशिष्टाङ्क में भट्ट जी ने होनेवाले हैं !
सप्रमाण समालोचना करके हिन्दी-लिपि-कला की उपयुक्त भगवान् की असीम कृपा होगी जब यह जन्म-जाति- सेवा की है। उपर्युक्त लिपि-पुस्तकों के अादर्श-हीन, भ्रष्ट पाँति का मिथ्या अभिमान हम भारतीयों के मस्तिष्क से अक्षरों को उद्धृत कर उनके दोषों को उन्होंने वाणनिकलेगा। जाने, वह सुदिन कब आवेगा।
चिह्नों-द्वारा दिखलाया है और उन्हीं के सामने आदर्श बाबूराम सक्सेना, एम० ए०, डी० लि. अक्षर रखकर तथा 'विशेष सूचना' के स्तम्भ में उन दोषों ३-४-पंडित गौरीशंकर भट्ट, अक्षर-विज्ञान- की चटपटी समीक्षा की है। प्रचलित और पाठ्य-विधि कार्यालय, मसवानपुर, कानपुर, की दो पुस्तकें- में स्वीकृत लिपि-पुस्तकों के अक्षरों को उन्होंने
(१) लिपि-कला-पंडित गौरीशंकर भट्ट लिपि-कला (१) अवैज्ञानिक, (२) अस्वाभाविक, (३) लेखनी-विरुद्ध, के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने देवनागरी के अक्षरों को सुन्दर (४) अनुपात-हीन, (५) सौन्दर्य-हीन तथा (६) परस्पर और सुसंगठित करने में अपना सारा जीवन लगाया विभिन्नाकार इन षट् दोषों से युक्त सिद्ध किया है। है। खेद है कि हम हिन्दी-भाषी अब तक अपने इस इनके प्रकाशकां और पाठ्य-विधि-निर्माताओं को इस एक-निष्ठ कलाकार की कृतियों का समुचित आदर नहीं आलोचना की ओर ध्यान देना चाहिए। इससे हिन्दी कर सके । प्रस्तुत पुस्तक में भट्ट जी ने लिपि-कला और और अबोध बालकों का बड़ा उपकार होगा। सुलेखाअक्षर-विज्ञान की आवश्यकता और उपयोगिता का प्रति- ध्यापक और अपने बालकों को हिन्दी का सुलेख सिखाने पादन और उसकी आवश्यकता न समझनेवाले सुलेखा- के लिए इसमें सन्देह नहीं है कि भट्ट जी की 'श्रादर्श नागरी नभिज्ञ व्यक्तियों के भ्रान्त विचारों का उचित खण्डन लिपि-पुस्तक' (भाग १-६) हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ तथा एकमात्र किया है। सुन्दर और लिपि-विज्ञान के नियमों से अनु- वैज्ञानिक लिपि-पुस्तक है । इस 'परिशिष्ट' का भी मूल्य।) है। मोदित नागरी अक्षर कैसे लिखे जा सकते हैं, साइनबोर्ड,
कैलाशचन्द्र शास्त्री, एम० ए०
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संख्या ६]
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नई पुस्तकें
५९९
५-सौंदरनन्द-महाकाव्य-लेखक, अध्यापक राम- की सी नहीं जान पड़ती। अनुवादक महोदय ने सम्भवतः दीन पाण्डेय एम० ए०, बी० एड ० राँची कालेज (बिहार) इसे अपनी ओर से जोड़ दिया है, जो उचित नहीं है।
और प्रकाशक गङ्गा-पुस्तकमाला-कार्यालय, लखनऊ हैं। अश्वघोष को टक्कर के महाकवियों की रचनाओं को मूल्य सादी पुस्तक का ।।) अाठ पाने और सजिल्द का वास्तविक रूप में ही प्रकाशित करना साहित्य के लिए १) एक रुपया है।
हितकर है। अपनी मौलिक प्रतिभा की आभा तो स्वतन्त्र ___ यह पुस्तक महाकवि अश्वघोष के इसी नाम के संस्कृत ग्रन्थ लिखकर भी दिखलाई जा सकती है। काव्य का सारांश है। मूल पुस्तक संस्कृत के श्लोकों में
ठाकुरदत्त मिश्र है और अनुवाद हिन्दी-गद्य में किया गया है। इस काव्य के नायक सुन्दर जिनका दूसरा नाम नन्द भी था, बौद्ध- ६-११-'गीता-प्रेस', गोरखपुर की ६ पुस्तकें धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के छोटे भाई थे। बुद्ध जैसे किसी भी प्राणी या पदार्थ की उन्नति या प्रचार त्यागशील तथा विषय-वासना से परे थे, सुन्दर वैसे ही उद्योग से तो होते ही हैं, परन्तु साथ में भाग्य का प्राबल्य भोग-निरत । क्षण भर के लिए भी अपनी परम सुन्दरी और ईश्वर की सदिच्छा का सहारा भी काम करता है। पत्नी का वियोग उन्हें सह्य नहीं था। अन्त में बुद्ध के इस समय के साहित्यिक साधनों में उक्त काम के लिए सिद्धान्तों ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वे प्रबल प्रयत्न किये जाते हैं, किन्तु उन्नति या प्रचार में सांसारिक सुखों से सर्वथा विरक्त हो गये।
उपर्युक्त सहारा न हो तो सौ में दो सफल होते हैं। सौन्दरनन्द महाकाव्य अठारह सर्गों में समाप्त हुअा गीता-प्रेस' से प्रकाशित होनेवाले साहित्य की दिनोंदिन है। इसके द्वारा जहाँ हमें बहुत-सी ऐतिहासिक बातों की उन्नति होने में भी मैं तो उसी सहारे को मुख्य मानता हूँ। जानकारी प्राप्त होती है, वहीं काव्य का भी आनन्द कहा जा सकता है कि साहित्यिक सामग्री का वे लोग प्राप्त होता है। बौद्ध-धर्म के सिद्धान्तों का तो इसे सुचारु चुनाव करते हैं, परन्तु वह भी तो उसी हृद्गत ख़ज़ाना ही समझना चाहिए। इस पुस्तक में मनोवैज्ञानिक ईश्वर का ही प्रकाश है। अस्तु । 'गीता-प्रेस' की छः अध्ययन की यथेष्ट सामग्री है। बहुत ही नयनाभिराम तथा पुस्तकों मेंशरीर को सुसजित करनेवाले अनेक तरह के अंगरागों तथा (१) वर्तमान शिक्षा के लेखक हनूमानप्रसाद वस्त्राभरण से सुसज्जित प्राणाधिक प्रिया पत्नी से ज़रा देर जी पोद्दार हैं । इसमें आधुनिक शिक्षा प्रणाली के गँदले या के लिए अवकाश लेकर नन्द का गुरु की पूजा के लिए शुद्धतम पानी का बहाव कैसा और किस रुख का है, उसका जाना, लौटने में विलम्ब होने के कारण मन ही मन दुःखी सल्यस्वरूप स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है। वर्तमान शिक्षा होना तथा बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण करना और अन्त में से वर्तमान के बालक-बालिका या बड़े विद्यार्थी किस प्रेमाभिनय के तरह तरह के अप्रिय दृश्य देखकर सांसारिक सीमा तक अपने पुरुषाओं के आचार-विचार, चरित्र-रक्षा,
होना श्रादि किसी भी मनोविज्ञान के देश-प्रेम या आत्मज्ञान आदि का स्मरण रखते या बिगडतेविद्यार्थी के लिए बहुत रोचक प्रमाणित होंगे। सुधरते हैं आदि का संक्षेप में भी अच्छा दिग्दर्शन करा ___अनुवादक महोदय ने काव्य को संक्षिप्त कर दिया दिया है । इस अमूल्य शिक्षाप्रद ५० पृष्ठ की पुस्तिका का है। इससे अश्वघोष जैसे जगत्प्रसिद्ध कवि की रचना का मूल्य ) है। सौन्दर्य कहाँ तक सुरक्षित रह सका है, यह विचारणीय है। (२) शतपञ्च चौपाई-तुलसी-कृत रामायण के हाँ, कथा का सन्दर्भ अवश्य नहीं टूटने पाया । भाषा भी उत्तरकाण्ड में जो (११४ दोहा से १६ दोहों के अन्तर्गत सुन्दर है। किन्तु अनुवादक महोदय ने कदाचित् कहीं आई हुई हैं) १०५ चौपाइयाँ हैं और उनमें रामचरितमानस कहीं महाकवि की शब्दावली को बदल दिया है। यथा- के सम्पूर्ण विषयों का सारभूत अंश भलीभाँति भरा है ये वृक्ष 'अरेबियन नाइट' के भूगर्भस्थित उद्यान के वृक्षों उनके अमृतोपम श्राशय को 'भावप्रकाशिनी' टीका में को भी मात कर रहे थे । (पृ० ५०) यह उक्ति अश्वघोष प्रकाशित किया है । हर एक चौपाई के प्रत्येक शब्द का
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६००
सरस्वती
असली भाव हृद्गत कराने के लिए अनेक जगह के सुगन्धयुक्त सुमन-स्वरूप वाक्यों का अच्छा समावेश हुआ है। ज्ञान के प्यासे और रामचरित के भूखे भक्तों के लिए यह पुस्तक अवश्य ही हृदयंगम करने योग्य है । इसमें 'शतपञ्च चौपाई' शब्द के जुदे जुदे अर्थ और शंका-समाधान भी सब हैं । पृष्ठ ३।। सौ और मूल्य || ) है |
(३) भक्तियोग - इसमें नौ प्रकार की भक्ति के सभी अंग उपांगों का ज्ञान और विज्ञान दोनों दृष्टियों से विचार किया है और उन सबकी सोपपत्तिक व्याख्या की है। भक्ति-सम्बन्धी सम्पूर्ण विषयों का भलीभाँति ज्ञान कराने में यह पुस्तक एक विशेषज्ञ वक्ता का काम देती है । इसमें भक्त स्त्री हो या पुरुष दोनों के जानने के ७६ विषय हैं, जिनमें उनके मनन करने की सब बातें आ गई हैं । पुस्तक बहुत बड़ी (७ सौ पृष्ठ की) होने पर भी मूल्य १= )
(४) माण्डूक्योपनिषद् - – यह अथर्ववेदीय ब्राह्मण भाग के अन्तर्गत है । इस पर गौड़पादाचार्य की कारिका, भगवान् शंकर का भाष्य, मंत्रों का अर्थ और हिन्दी अनुवाद सामने है। वेदों के वैज्ञानिक अंशों का गूढ़तम श्राशय समझने के सरल साध्य साधनों में उपनिषद् और पुराण उत्तरोत्तर सरल हैं । त्रिकालदर्शी तत्त्वज्ञ महर्षियों ने संसार की भलाई के लिए इनमें सर्वहितकारी विषय अच्छी तरह भर दिये हैं । उपनिषदों की सम्पूर्ण संख्या सौ से अधिक है, उनमें अधिकांश उपनिषद् तो अकेले विज्ञान के ही भण्डार हैं । उनके सिवा ३२ प्रसिद्ध और १० अप्रसिद्ध हैं । 'माण्डुक्योपनिषद्' उन्हीं में एक है । इसमें (१) श्रागम, (२) वैतथ्य, (३) अद्वैत और (४) लात शान्ति के प्रकरणों में श्रात्मतत्त्व सृष्टिक्रम पदार्थ-ज्ञान,
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[ भाग ३८
सत्यत्वप्रतिपादन - जाग्रत आदि के भेदभाव और श्रात्मज्ञान के विविध उपाय आदि १४२ विषयों का समावेश हुआ है । लोकोत्तर ज्ञान की वृद्धि के लिए उपनिषद् ही सर्वोत्कृष्ट साधन हैं । इसका मूल्य १) और पृष्ठ ३ सौ हैं । (५) तैत्तिरीयोपनिषद् - — यह कृष्ण यजुर्वेदीय है । इसमें (१) शिक्षा, (२) ब्रह्मानन्द और (३) भृगु नाम की ३ वल्लियाँ हैं, जिनमें ओंकार आदि की उपासना हृदयाकाश आदि के वर्णन - अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्दमय कोशों आदि के विज्ञान पूर्ण विवेचन - इन सबका ब्रह्मत्व प्रतिपादन — और गृहागत अतिथि आदि के सेवाधर्म आदि ३८ विषयों का विशद वर्णन या विवेचन है । उनमें एक एक में भी ज्ञातव्य विषयों का श्रानन्दपूर्ण समावेश हुआ है । श्रात्मज्ञान के लिए यह एक प्रकार का महाप्रकाश है। पृ४ २५० और मूल्य ||| ) है ।
(६) "ऐतरेयोपनिषद्” – यह ऋग्वेदीय है । इसमें तीन अध्यायों के यथाक्रम ३ और १-१ खण्ड ३० विषय वर्णित हुए हैं । उनमें मुख्यतया सृष्टिक्रम, देव, मानव, मन और अनादि की उत्पत्ति या उनकी रचना का विचार, जन्मजन्मान्तर के विवेचन और प्रज्ञान तथा श्रात्मज्ञान आदि के कथनोपकथन हैं । पृष्ठ १०० और मूल्य 17). है । इस सम्बन्ध में मेरे जैसे अल्पज्ञ का यह निवेदन निरर्थक न हो तो मेरी सम्मति में आधुनिक मनुष्यों के यथेच्छ फललाभ में उत्तेजनापूर्ण उष्णतम उपायों की अपेक्षा वेदसम्मत ( या वेदार्थबोधक) उपनिषदों में बतलाये हुए विविधोपायों में से जितने भी रुचि के अनुकूल हों और
बन सकें, उनका अनुभव, अभ्यास या अनुशीलन करने के लिए उपनिषदों का अवलोकन करना ही कल्याणकारी है । - हनुमान शर्मा, चौमू
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व्यव्यस्त रेखा शब्द पहली
CROSSWORD PUZZLE IN HINDI
३०० (शुद्ध पुर्तियों पर
0
नियम – (१) वर्ग नं० ११ में निम्नलिखित पारितोषिक दिये जायँगे | प्रथम पारितोषिक – सम्पूर्णतया शुद्ध पूर्ति पर ३००) नक़द । द्वितीय पारितोषिक – न्यूनतम अशुद्धियों पर २००) नक़द । वर्गनिर्माता की पूर्ति से, जो मुहर बन्द करके रख दी गई है, जो पूर्ति मिलेगी वही सही मानी जायगी ।
(२) वर्ग के रिक्त कोष्ठों में ऐसे अक्षर लिखने चाहिए जिससे निर्दिष्ट शब्द बन जाय । उस निर्दिष्ट शब्द का संकेत -परिचय में दिया गया है। प्रत्येक शब्द उस घर से आरम्भ होता है जिस पर कोई न कोई अङ्क लगा हुआ है और इस चिह्न () के पहले समाप्त होता है । अङ्क-परिचय में ऊपर से नीचे और बायें से दाहनी ओर पढ़े जानेवाले शब्दों के अलग अलग कर दिये गये हैं, जिनसे यह पता चलेगा कि कौन शब्द किस ओर को पढ़ा जायगा ।
(३) प्रत्येक वर्ग की पूर्ति स्याही से की जाय। पेंसिल से की गई पूर्तियाँ स्वीकार न की जायँगी । अक्षर सुन्दर, सुडौल और छापे के सदृश स्पष्ट लिखने चाहिए। जो अक्षर पढ़ा न जा सकेगा अथवा बिगाड़ कर या काटकर दूसरी बार लिखा गया होगा वह श्रशुद्ध माना जायगा ।
या
(४) प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए जो फ़ीस वर्ग के ऊपर छपी है दाख़िल करनी होगी। फ़ीस मनी - आर्डर द्वारा या सरस्वती - प्रतियोगिता के प्रवेश शुल्क - पत्र (Credit voucher) द्वारा दाखिल की जा सकती है। इन प्रवेश शुल्क-पत्रों की किताबें हमारे कार्यालय से ३) ६) में ख़रीदी जा सकती हैं। ३) की किताब में आठ आने मूल्य के और ६) की किताब में १) मूल्य के ६ पत्र बँधे हैं। एक ही कुटुम्ब के अनेक व्यक्ति, जिनका पताठिकाना भी एक ही हो, एक ही मनीआर्डर द्वारा अपनी अपनी फ़ीस भेज सकते हैं और उनकी वर्ग-पूर्तियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
२००१ न्यूनतम् अशुद्धियों पर
भी एक ही लिफ़ाफ़ या पैकेट में भेजी जा सकती हैं। मनीआर्डर व वर्ग- पूर्तियाँ 'प्रबन्धक, वर्ग- नम्बर ११, इंडियन प्रेस, लि०, इलाहाबाद' के पते से आनी चाहिए ।
(५) लिफ़ाफ़ में वर्ग-पूर्ति के साथ मनीआर्डर की रसीद या प्रवेश शुल्क-पत्र नत्थी होकर श्राना अनिवार्य है । रसीद या प्रवेश शुल्क -पत्र न होने पर वर्ग-पूर्ति की जाँच न की जायगी। लिफ़ाफ़ की दूसरी ओर अर्थात् पीठ पर मनीर्डर भेजनेवाले का नाम और पूर्ति संख्या लिखनी श्रावश्यक है।
(६) किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह जितनी पूर्ति - संख्यायें भेजनी चाहे, भेजे । किन्तु प्रत्येक वर्गपूर्ति सरस्वती पत्रिका के ही छपे हुए फ़ार्म पर होनी चाहिए । इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति को केवल एक ही इनाम मिल सकता है । वर्गपूर्ति की फ़ीस किसी भी दशा में नहीं लौटाई जायगी। इंडियन प्रेस के कर्मचारी इसमें भाग नहीं ले सकेंगे ।
(७) जो वर्ग-पूर्ति २३ जून तक नहीं पहुँचेगी, जाँच में नहीं शामिल की जायगी । स्थानीय पूर्तियाँ २३ ता० का पाँच बजे तक बक्स में पड़ जानी चाहिए और दूर के स्थानों ( अर्थात् जहाँ से इलाहाबाद डाकगाड़ी से चिट्ठी पहुँचने में २४ घंटे या अधिक लगता है) से भेजनेवालों की पूर्तियाँ २ दिन बाद तक ली जायँगी। वर्ग-निर्माता का निर्णय सब प्रकार से और प्रत्येक दशा में मान्य होगा । शुद्ध वर्ग-पूर्ति की प्रतिलिपि सरस्वती पत्रिका के अगले श्रृङ्क में प्रकाशित होगी, जिससे पूर्ति करनेवाले सज्जन अपनी अपनी वर्ग-पूर्ति की शुद्धता अशुद्धता की जाँच कर सकें ।
(८) इस वर्ग के बनाने में 'संक्षिप्त हिन्दी - शब्दसागर' और 'बाल-शब्दसागर' से सहायता ली गई है।
६०१.
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१- ग़रीबों के मालिक ।
५ कायर मनुष्य इससे पहचाना जाता है
७ - सिलगना |
८- कोई कोई बात ऐसी ही होती है।
९ - वर्म या बक्तर |
१० - इससे सम्बन्ध रखनेवाले पृथ्वी पर बड़ा प्रभाव रखते हैं ।
११ - इसकी सहायता से स्त्रियाँ अपना लोक-परलोक दोनों सुधार सकती हैं ।
१२- हीरा ।
१४ - इसे श्राप स्थिर न पायेंगे ।
बायें से दाहिने
१६ - दूत ।
१७- दाल यही की गई थी। १८- दिन । १९ - इससे अधिक सर्वप्रिय कोई मुश्किल से मिलेगा । २४ - हठ - धर्मियों की मति यदि ऐसी निकले तो कोई श्राश्चर्य नहीं।
पास रखिए ।
तक अपने
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ११ की पूर्तियों की नक़ल यहाँ पर कर लीजिए ।
और इसे निर्णय प्रकाशित होने
१४ - इसकी शीतलता रसिक जनों के लिए भाव-प्रेरक होती है। १५ - कहा जाता है कि जिस घर में स्त्री पुरुष से वहाँ दुख की कमी नहीं !
१६- इसके वश होकर प्रायः नीचा देखना पड़ा है । १८- बहुत से ग़रीब ऐसे भी हैं जिनके लिए हर नया यह चिन्ता का प्रेरक होता है ।
२० --- इसके न मिलने पर प्राण तक चले जाते हैं । २१ – गर्मी में लू उतनी नहीं... जितनी कि बरसात की उमस । २२ - देहाती घरों की कच्ची दीवारें इसी से मिट्टी लेकर उठाई जाती हैं।
२८- इसकी चंचलता प्रसिद्ध है ।
२९- मिट्टी का वह छोटा बर्तन जिसमें किसी वस्तु को नोट-रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा -रहित और
२३ – एक तरह के काम की मज़दूरी । २५ - मैं का बहुवचन ।
सहज ही में घर उठा सकते हैं।
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वर्ग नं० १० को शुद्ध प्रति
२६ - प्रकृति इस रूप में सुन्दर भी है और भयानक भी। २७- सहारे से जल्द लगे है।
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१ - इसमें ज्योति न होते हुए भी मनुष्य के कार्य में कुछ बाधा नहीं पड़ती।
२
-एक तीर्थ का नाम, जो दक्षिण भारत में है। । १३- हिलता हुआ ।
४ - मकड़ी के जाले का यह देखकर प्रकृति की कारीगरी पर श्राश्चर्य होता है।
५ जादूगरनी । ६ - नाम रखने का संस्कार | ८ - यह कभी कभी ऐसी या पड़ती है कि कुछ बस नहीं चलता । १० - कितने ही मनुष्य इसे स्वाद लेकर खाते हैं । १३ - लज्जा से परिपूर्ण..... में आकर्षण की शक्ति प्रबल होती है।
वर्ग नम्बर १० की शुद्ध पूर्ति जो बंद लिफाफे में मुहर लगाकर रख दी गई थी, यहाँ दी जा रही है। पारितोषिक जीतनेवालों का नाम हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं।
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वर्ग नं०११
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( ६०३ )
जाँच का फार्म वर्ग नं० १० की शुद्ध पूर्ति और पारितोषिक पानेवालों के नाम अन्यत्र प्रकाशित किये गये हैं । यदि आपको यह संदेह हो कि श्राप भी इनाम पानेवालों में हैं, पर आपका नाम नहीं छपा है तो १) फ़ीस के साथ निम्न फ़ार्म की ख़ानापुरी करके १५ जून तक भेजें। आपकी पूर्ति की हम फिर से जाँच करेंगे। यदि आपकी पूर्ति आपकी सूचना के अनुसार ठीक निकली तो पुरस्कारों में से जो आपकी पूर्ति के अनुसार . होगा वह फिर से बाँटा जायगा और आपकी फ़ीस लौटा दो जायगी। पर यदि ठीक न निकली तो फ़ीस नहीं लौटाई जायगी। जिनका नाम छप चका है उन्हें इस फार्म के भेजने की ज़रूरत नहीं है।
"विन्दीदार लकीर पर से काटिय
विम्दीदार लकीर पर से काटिए
C
ती. र. (रिक्त कोष्ठों के अक्षर पात्रा-रहित और पूर्ण है।
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम..........
धान
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-
वर्ग नं. १० (जाँच का फ़ार्म)
मैंने सरस्वती में छपे वर्ग नं० १० के आपके उत्तर से अपना उत्तर मिलाया । मेरी पूर्ति
[ कोई अशुद्धि नहीं है।
एक अशुद्धि है। न..........में
दो अशुद्धियाँ हैं।
वर्ग नं. ११
। बिन्दीदार लाइन पर काटिए
मा
मेरी पूति पर जो पारितोषिक मिला हो उसे तुरन्त । भेजिए। मैं १) जाँच की फ़ीस भेज रहा हूँ।
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हस्ताक्षर
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पता
- बिन्दीदार लकीर पर से काटिए
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विस्टीटार लकीर पर
इसे काट कर लिफाफे पर चिपका दीजिए
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२
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३
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| (रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रा-रहित और पूर्ण हैं)
अनेनर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाम ...........
मैनेजर वर्ग नं० ११ इंडियन प्रेस, लि०,
इलाहाबाद
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( ६०४ ) . प्रतियोगियों की बातें
कुछ नई शङ्कायें
नीच नहीं होता। हाँ, अधिकांश नीच वृत्ति धारण कर १-बली क्यों, छलो क्यों नहीं ? लेती हैं। पर इससे यह नहीं कह सकते कि इनका उद्देश श्रीयुत सम्पादक जी।
ही नीच है। संकेत में जो 'ही' शब्द रक्खा हुआ है वह मार्च १९३७ की वर्ग-पहेली में बायें से दाहने नं० साफ़ बतलाता है कि उसका नीच उद्देश के सिवा उच्च -६ में बली एव छली दो शब्द बनते हैं। इसका संकेत उद्देश हो ही नहीं सकता। कई वेश्यायें अपना उद्देश 'कृष्ण को बहुतेरे ऐसा समझते हैं', यह दिया गया है। उच्च कोटि का रखती हैं तथा प्रत्येक मनुष्य पर उनकी अब हमें इस पर विचार करना है।
इज्ज़त का प्रभाव पड़ता है। ऐसी अवस्था में पातर हो कोई भी बलयुक्त शरीरी बली हो सकता है, न कि ही नहीं सकता। कृष्ण ही । साथ ही संस्कृत-काव्य-साहित्य में बली शब्द अब 'पामर' को लीजिए। पामर का पर्यायवाची कृष्ण के लिए प्रयुक्त नहीं किया गया है । इसके विपरीत शब्द 'नीच' होता है। नीच वही मनुष्य कहलाता है हिन्दी ही नहीं, संस्कृत-काव्य-साहित्य में भी कृष्ण को जो हमेशा ही नीच कार्य करता रहता और नीच बातें छलिया-छली कहकर अधिकांश में सम्बोधित किया गया है। ही सोचा करता है। नीच का उद्देश ही नीच होता है। फिर "कृष्ण को बहुतेरे ऐसा समझते हैं", इसके लिए यदि किसी मनुष्य का उद्देश नीच न हो तो वह नीच कभी बली शब्द प्रयुक्त करना संयोजक पहेली की नई सूझ है। नहीं कहा जा सकता । इसलिए इसका उद्देश ही नीच है',
-रमेशचन्द्र शर्मा देहली इस संकेत में 'पामर' ही ठीक जमता है, 'पातर' नहीं। २-स्त्रीलिङ्ग या पुंल्लिङ्ग
हरकिशनलाल अग्रवाल, हेड मास्टर, पचमढ़ी। श्रीमान् सम्पादक जी,
वर्ग नं० ९ के 'अटकन' शब्द को लीजिए । बाबू पामर' और 'पातर के कर्तव्यों और उद्देशों पर भी रामचन्द्र वर्मा जी उसे पुँल्लिङ्ग बनाये बैठे हैं, किन्तु संकेत विचार कर लेना चाहिए। 'पामर' अर्थात् नीच कैसा भी में है, "यदि बड़ी हुई तो कोई कोई बच्चा रो उठता है ।" कर्तव्य करे, उसका उद्देश सदा ही नीच रहेगा। पातर अब आप ही कहें. प्रतियोगीगण क्या करे ? या तो वे अर्थात वेश्या का कर्तव्य या कर्म अवश्य नीच होता है। कोश के सम्पादक को ग़लत करार दे या बंगनिमाता की परन्तु इसका उद्देश तो नहीं। वह किसी को धोखे में डाल भूल मान कर हानि उठाये ? अतः आपसे मेरी प्रार्थना कर हानि नहीं पहुँचती। है कि श्राप इस पत्र को अपनी सम्मानिता पत्रिका में स्थान के साथ ही शहा आपचलित तथा किसी देकर अन्य प्रतियोगियों को सम्मात लेकर निणय कर कोश में न मिलनेवाले शब्दों की है। ज्ञात होता है, शङ्का डालिए कि उपर्युक्त दोनों महोदयों में कौन सही है और
करनेवाली महोदया ने प्रतियोगिता की नियमावली जो कौन गलत ?
प्रतिमास प्रकाशित होती है, पढ़ने का कष्टं नहीं उठाया, सो० के० डी० तिवारी, बी० ए० था० रुधौली, बस्ती अन्यथा कोश का नाम और शब्दों का अर्थ न पूछतीं। नोट-बाशा है, प्रतियोगीगण इनका भी उत्तर देंगे।
आपको नियम नं०८ में दिये गये कोशों में ये सब शब्द पिरलो शङ्काओं के उत्तर मिल जायेंगे।
-कैलाशचन्द्र सेठ 'पातर' नहीं, 'पामर' ही ठीक था। 'पातर' का उद्देश
बाग मुजफ्फर खाँ अागरा
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५००) में दो पारितोषिक इनमें से एक आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं यह जानने के लिए पृष्ठ ६०१ पर दिये गये नियमों को ध्यान से पढ़ लीजिए। आप के लिए और दो कूपन यहाँ दिये जा रहे हैं।
वर्ग नं.११
फीस
वर्ग नं० ११
फीस 1)
2
दीनानाथ
नानाथ
मिना ।।।
थ
प
"बिन्दीदार लकीर र से काटिप ----
--- बिन्दीदार नकीर पर से काटिप
- - - - - - सिन्दीदार लकीर पर से काटिए
।
..
विन्दीदार लकीर पर से काटिप
-
-
ल
M
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In
(रिक्त कोष्ठों के असर मात्रा-रहित और पूर्ण है। मेनेजर का निर्णय मुके हर मकार स्वीकृत होगा। पूरा नाय - ..............
(रिक्त कोष्ठों के अक्षर मात्रारहित और पूर्ण हैं)
मैनेजर का निर्णय मुझे हर प्रकार स्वीकृत होगा। पूरा नाय ............................................
...
अपनी याददाश्त के लिए वर्ग ११ की पूर्तियों की नकल यहाँ कर लीजिए, और इसे निर्णय प्रकाशित होने तक अपने पास रखिए।
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आवश्यक सूचनायें
(१) स्थानीय प्रतियोगियों की सुविधा के लिए हमने प्रवेश शुल्क पत्र छान दिये हैं जो हमारे कार्यालय से नकद दाम देकर ख़रीदे जा सकते हैं । उन पत्रों पर अपना नाम स्वयं लिख कर पूर्ति के साथ नत्थी करना चाहिए |
(२) स्थानीय पूर्तियाँ 'सरस्वती - प्रतियोगिता बक्स' में जो कार्यालय के सामने रक्खा गया है, दिन में दस और पाँच के बीच में डाली जा सकती हैं।
(३) वर्ग नम्बर ११ का नतीजा जो बन्द लिफ़ाके में मुहर लगा कर रख दिया गया है, ता० २६ जून सन् १९३७ को
५.
( ६०६ )
मैतिम
हिंदी शब्दसागर
सरस्वती-सम्पादकीय विभाग में ११ बजे दिन में सर्वसाधारण के सामने खोला जायगा । उस समय जो सज्जन चाहें स्वयं उपस्थित होकर उसे देख सकते हैं ।
(४) नियमों में हमने स्पष्ट कर दिया है कि प्रवेशशुल्क निर्डर द्वारा या हमारे कार्यालय से ख़रीदे गये प्रवेश शुल्क-पत्रों के रूप में ही श्राना चाहिए; फिर भी कुछ लोग डाक के टिकटों के रूप में प्रवेश शुल्क भेज देते हैं । यहाँ हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि इस प्रकार टिकटों के साथ आई हुई पूर्तियाँ अनियमित समझी जाती हैं और इस प्रकार ग्राये हुए टिकटों के भी हम ज़िम्मेदार नहीं होंगे ।
संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर
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मूल्य ४
जो लोग शब्दसागर जैसा सुविस्तृत और बहुमूल्य ग्रन्थ खरीदने में असमर्थ हैं, उनकी सुविधा के लिए उसका यह संक्षिप्त संस्करण है। इसमें शब्दसागर की प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विशेषतायें सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है। मूल्य ४) चार रुपये ।
हिन्दी - शब्दसागर
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हा वाधार वाया link
कहते हैं, कवि अपने समय का गायक होता है, वह
मैं एक दया का पात्र अरे! निर्जीवों में जान डालता है, सोतों को जगाता है और
मैं नहीं रञ्च स्वाधीन प्रिये ! जाति को जीवन-युद्ध के लिए तैयार करता है। अच्छी . x कविता से चित्त में उत्साह, हृदय में अानन्द और मन में एक नवयुवक भारतीय की लेखनी से ऐसी निराशाशान्ति पैदा होती है। मैं जब कोई कविता पढ़ता हूँ तब पूर्ण पंक्तियाँ निकल सकती हैं, यह मैंने पहले नहीं सोचा मेरे सामने यह दृष्टिकोण बराबर रहता है।
था। मैंने 'विशाल भारत' जहाँ का तहाँ रख दिया और x x
माधुरी' उठाई। देखा, पहले पृष्ठ पर श्री कुँवर चन्द्रउस दिन एक पुस्तकालय में मुझे बड़ी देर तक एक प्रकाशसिंह जी रो रहे हैं- ... . मित्र की प्रतीक्षा में बैठना पड़ा। चित्त अशान्त और जीवन का प्रतिचरण मरण रे! उदास था, इसलिए सोचा कि हिन्दी की कुछ ताज़ी कवि- इतना सुन्दर नाम और इतनी निराशापूर्ण कविता । तायें पढ़कर अपने हृदय को आनन्द और उल्लास से मैंने इस कविता को आगे पढ़ना मुनासिब नहीं समझा। क्यों न भरूँ। मेज़ पर गत मास की प्रायः सभी मासिक पत्रिकायें पड़ी थीं। मैंने उन्हें एक एक करके उठाया और मेरी दृष्टि :सरस्वती' के ही समान अाकर्षक 'विश्वमित्र' प्रत्येक पत्रिका की प्रथम पृष्ठ पर छपी कविता पढ़ गया। पर गई । उसके प्रथम पृष्ठ पर श्री भगवतीप्रसाद वाजपेयी परन्तु पढ़ने के बाद मुझे घोर निराशा हुई।
की 'पनघट पर' शीर्षक कविता अङ्कित है। शीर्षक देखकर . x x x
मैंने सोचा इस कविता में अवश्य जीवन और उत्साह आज-कल 'सरस्वती' की बड़ी धूम है। सबसे पहले होगा । पर उसमें निम्न पंक्तियाँ पढ़कर मेरा हृदय मैंने यही पत्रिका उठाई। प्रथम पृष्ठ पर ठाकर गोपाल- बैठ गया- . शरणसिंह की कविता छपी है। उसकी अन्तिम पंक्तियाँ ___ मैं दैन्य दुर्दशा की तड़पन, इस प्रकार हैं
मैं दुर्बलता का नाश-काल ॥ .. अन्धकारमय ही भविष्य का चित्र नज़र आता है। • धीरे धीरे भाग्य-विभाकर अस्त हुअा जाता है। मुझे अपना दुःख भूल गया और मैं सोचने लगा कि — मैंने 'सरस्वती' बन्द कर दी। भारतीयों का भविष्य हिन्दी के कवियों में यह दीनता, निराशा और बन्धन का अन्धकारमय नहीं है। उनमें जागृति है। फिर ठाकुर इतना भाव क्यों है ? और यदि इन्हें समय और राष्ट्र साहब यह किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ?
का प्रतिनिधि कहें तो क्या यह राष्ट्र और समय का
स्वर है ? खैर, मैंने 'सरस्वती' बन्द कर दी और 'विशाल भारत' x उठाया। इस पत्रिका में पहले पृष्ठ पर कोई कविता न कुछ पत्रिकायें और पड़ी थीं। उन्हें खोलने की इच्छा पाकर मैंने कुछ पृष्ठ और उलटे। पहली कविता श्री ऊपर के अनुभवों से दब चुकी थी। पर मैं इन कवियों भगवतीचरण वर्मा की है । वर्मा जी नवयुवक और उत्साही. जैसा निराश नहीं। इसलिए मैंने एक और पत्रिका हैं । फिर भी आप लिखते हैं-
उठाई । यह 'सुधा' थी। इसके प्रथम पृष्ठ पर छपी कविता .
. . ६०७
x
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६०
सरस्वती
[भाग ३८
का शीर्षक था दिल के फफोले और लेखक थे श्री मैंने एक और रँगी-चुंगी पत्रिका उठाई। यह 'चाँद' अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'। शीर्षक से ही मैंने था। आवरण-पृष्ठ का मानचित्र आकाश को भी दीप समझ लिया था कि कवि को किसी से कुछ शिकायत है। दिखा रहा था। पर अन्दर कमारी सरला वर्मा ने एक कविता में हरिऔध जी ने कवि के दुखी मन को इस चित्र बनाकर पाठकों को कब की याद दिलाई थी और प्रकार सान्त्वना देने की चेष्टा की है--
श्री रामकुमार वर्मा ने गर्व के साथ लिखा थामतलबी दुनिया होती है, कराहें क्यों भर-भर आहे। यह टूटी-सी कब्र और टूटी-सी अभिलाषा मेरी ।
कब और वह भी टूटी। निराशा की हद हो गई ! मैंने एक और पत्रिका उठाई। उसके प्रथम पृष्ट पर यह माना कि भारत पराधीन है। बेकारी, गरीबी और श्री मैथिलीशरण गुप्त की असफल शीर्षक कविता छपी है। महामारी का चारों ओर दौरदौरा है। पर देश की अात्मा प्रथम पक्ति इस प्रकार है
___ इन सबके भीतर से वैसी ही उठ रही है जैसे वर्षा में - रहूँ अाज असफल मैं।
मिट्टी के भीतर से वनस्पतियों के नवांकुर उठते हैं । उस __इसमें सन्देह नहीं कि गुप्त जी ने सफलता का भी इस जीवन को हमारे कवि लोग क्यों नहीं देखते ? यह एक कविता में ब्राह्रान किया है। पर असफलता की याद उन्हें प्रश्न है जिस पर प्रत्येक हिन्दी-प्रेमी का विचार करने की एक मिनट भी नहीं भूलती। वे कहते हैं
श्रावश्यकता है। मरण ताकता है तू मुझको पर मैं क्यों देखू तुझको ?
'अखबार-कीट
व्यङ्गय-बिहारी चित्रकार, श्रीयुत केदार शमा जाम डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज, बेहाल । कंप किसोरी दरस ते, खरे लजाने लाल ।।
ANDA
NAUR
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चित्र-संग्रह
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सरस्वती
[भाग ३८
कुमारी दिनेशनन्दिनी चोरड्या । इनको 'शबनम' । नामक कृति पर इस वर्ष हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन की अोर । से ५००) का सेकस रिया-पारितोषिक मिला है।
पोलो के प्रसिद्ध खिलाड़ी जयपुर के महाराज।
श्रीयुत के० वी० सिनहा अपनी जापानी पत्नी और पुत्र के साथ । जापान में १३ वर्ष रहने के बाद श्राप हाल में इजीनियरिंग में दक्ष होकर भारत लौटे हैं।
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संख्या ६]
चित्र-संग्रह
एज्यूकेशन कोर्ट का सिंहद्वार । इसमें फाटक के चित्रों का विवरण देखिए । बीच में अशोक स्तम्भ की प्रतिलिपि है।
एज्यूकेशन कोर्ट के फाटक के मस्तक का विवरण। . ऊपर की आड़ी शहतीर में स्तूप की पूजा, बीच में छन्दक जातक की कथा और नीचे बोधिवृक्ष की
पूजा के दृश्य दिखलाये गये हैं। विशेष जानकारी के लिए देखिए पृष्ठ ५६२।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat
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HARTH
ARPLUITMENT
सामायक साहित्य
हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्द नहीं की। उसने पहले तो भारतीय संस्कृति का नाम हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू का झगड़ा अभी और निशान तक मिटा देना चाहा था; किन्तु इसमें उसे चला ही जा रहा है। हाल में इस सम्बन्ध में श्री सफलता न मिली। यह विदेशी संस्कृति असहयोग कर के राहुल सांकृत्यायन, प्रोफेसर अमरनाथ झा और अलग ही रहती तो उतनी कड़वाहट कभी न पैदा होती; पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचार प्रकट किन्तु उसका ध्येय तो हमेशा अपनी प्रतिद्वंद्वी संस्कृति पर किये हैं। श्री राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि प्रहार करने का रहा। जब भारतीय और अरबी संस्कृति यह दो संस्कृतियों का झगड़ा है और तब तक सम- का यही भाव गत सात सौ वर्षों से आज तक चला श्रा झौते की सूरत नहीं निकल सकती जब तक अरबी- रहा है तो किसी पारस्परिक समझौते की क्या अाशा हो फारसी के हिमायती भारतीय संस्कृति से सुलह सकती है ? । करने की इच्छा न करें। प्रोफेसर अमरनाथ झा उर्दू को शहरी और हिन्दी को जनता की भाषा कुछ भाई अपनी निष्पक्षता दिखलाने के लिए यह कहते हैं और हिन्दुस्तानी के रूप में दोनों का भी कहने लगे हैं कि हमें हिन्दी का न संस्कृत शब्दों से सम्मिलन उन्हें पसन्द नहीं है। पंडित जवाहरलाल भरना चाहिए और न अरबी शब्दों से । यह भी भारी भूल जी का कहना है कि भाषायें जबरदस्ती नहीं बनती। है। अरबी भारतीय भाषा नहीं है और न जिस भाषामक़ाबिला नहीं. सहयोग के भाव से हिन्दी-उर्द दोनों वंश से भारतीय भाषाओं का सम्बन्ध है उससे इसका की उन्नति हो सकती है। नीचे हम इन तीनों विद्वानों सम्बन्ध ही है। इसके विपरीत संस्कृत हिन्दी की जननी के वक्तव्यों के कुछ महत्त्व-पूर्ण अंश उद्धृत है । हिन्दी की विभरि
है। हिन्दी की विभक्तियाँ और क्रियापद तक संस्कृत पर करते हैं।
अवलम्बित हैं । इस प्रकार यदि विचार कर के देखा जाय श्री राहुल सांकृत्यायन के विचार तो संस्कृत का यह स्वाभाविक अधिकार है कि वह हिन्दी-उर्दू का झगड़ा बहुत पुराना है। बीच में हिन्दी-कोप को अपने शब्द-कोप से भरे । हाँ, इसमें यह लोग उसे भूल- से गये थे; लेकिन इस साल से फिर उसकी खयाल तो ज़रूर ही रखना पड़ेगा कि शब्द उतने ही परिआवाज़ सुनाई देने लगी है। कुछ लोग इसके लिए बहुत माण में लिये जायँ, जितने अासानी से हजम हो सके । कुछ लालायित हैं कि किसी तरह यह दूर किया जाय। यदि लोगों का कहना है कि हमें क्या अावश्यकता है शब्दों को हिन्दी-उर्दू का झगड़ा किसी प्रकार दूर हो जाय तो सब संस्कृत से लेने की ? हमें गाँवों की ओर चलना चाहिए । को प्रसन्नता होगी; किन्तु इस झगड़े के कारण को अच्छी यदि आप तनिक विचार करें तो यह बात भी हास्यास्पद तरह से जाने बिना इसे शान्त करने का प्रयास करना ही होगी। भला, गांवों से इस वैज्ञानिक युग के लिए 'नीम हकीम ख़तरए जान'-सा ही होगा । वास्तव में हिन्दी- अपेक्षित शब्द कहाँ से मिलेगे ? किसी समय इसी धुन में उर्दू के झगड़े का मूल कारण है दो संस्कृतियों का पार- मस्त एक पंजाबी सज्जन ने 'छात्रावास' का पर्याय 'पढ़ास्परिक झगड़ा। इनमें से एक भारतीय संस्कृति है, जो कुओं-कोट्ठा' बनाया था। वास्तविक बात तो यह है कि हिन्दी की हिमायती है और दूसरी विदेशी संस्कृति है, जिसने हमारे अाज के प्रयोग के लिए अपेक्षित वैज्ञानिक शब्दों अपने मूल रूप से बहुत-से अंशों में विकृत हो जाने पर की प्राप्ति के लिए ग्राम की साधारण जनता की बोलचाल भी, भारतीय संस्कृति से कभी सुलह करने की कोशिश की शरण लेना तो वैसा ही है, जैसे मोटर के हलों और
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सख्या ६]
.
सामयिक साहित्य .
बिजली की कलों की शक्ति को बाबा आदम से चले आये भी विशेषता है, उसका उद्गम शुद्ध संस्कृत से है, हलों में हूँढ़ना।
जिसके कारण हिन्दी का सम्बन्ध बँगला, मराठी, गुजराती, प्रोफेसर अमरनाथ झा का वक्तव्य तामिल, मलयालम, तेलगू, कर्नाटकी तथा भारतवर्ष की मैंने हिन्दी और उर्दू, दोनों भाषाओं को पढ़ा है, अन्य मुख्य भाषाओं से भी है। दक्षिण भारत की भाषायें मुझे दोनों के साहित्य से प्रेम है और यद्यपि मैं जानता हूँ यद्यपि जन्म से द्रविड़ हैं, किन्तु संस्कृत का उन पर इतना कि दोनों ही भाषात्रों का जन्म इसी देश में हुआ है; अधिक प्रभाव है और उन के शब्द-कोष में संस्कृत के किन्तु फिर भी दोनों का विकास दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में इतने सहस्र शब्द हैं कि मातृभाषा से भिन्नता होने पर भी हुआ है। दोनों की अपनी-अपनी परम्परायें और अपने- दक्षिण-भारत के निवासियों का हिन्दी के समझने में अधिक अपने आदर्श हैं, जिनका त्याग देने से उनकी अवनति ही कठिनाई नहीं मालूम होती। मदरास-प्रान्त और मैसूर में होगी। दोनों भाषाओं के पास अपना-अपना सम्पन्न साहित्य हिन्दी-प्रचार के कार्य की अाशातीत सफलता का कारण है, विशेषतः अपने कविता-साहित्य में तो उनके पास ऐसी केवल यही नहीं कि हिन्दी सीखने में सुगम है बल्कि यह निधियाँ हैं जो किसी भी भाषा के लिए गौरव की वस्तु हो भी है कि भारतवर्ष के अधिकांश भागों में समझी जा सकती हैं। दोनों भाषाओं के विकास के साथ उनकी सकनेवाली भाषा, हिन्दी को सीखना उपादेयता की भिन्न-भिन्न विशेषतायें पैदा हो गई हैं, जो हमारी राष्ट्रीय दृष्टि से भी अच्छा है। दोष रहित निस्सन्देह हिन्दी भी संस्कृति का स्थायी अंग बन गई है। एक भाषा के सृजन नहीं है । देहात की भाषा होने के कारण हिन्दी शहर की के उददेश से हिन्दस्तानी के अभिभावकों को बहुत-सी भाषा की भाँति मार्जित, सुकुमार और नागरिक नहीं है। बाधात्रों का सामना करना पड़ेगा, जिनमें से कुछ दुर्जेय किन्तु अपने इस दोष के कारण ही तो वह सजीव बनी रह भी होंगी। लिपि कि समस्या ही सबसे बड़ी समस्या नहीं सकी है, इसी कारण वह जरा-जीर्ण, निष्ण है-यद्यपि बड़ी समस्यायों में से यह भी एक है । समस्या नीरस होने से बच सकी है। वास्तव में यह है कि दोनों भाषाओं की पृथक्-पृथक् जब हम लोगों में इस कदर पारस्परिक अविश्वास साहित्यिक विशेषतायें हैं और दोनों की संस्कृतियाँ भी और सन्देह है तो फिर इस वक्त 'हिन्दी' और 'उर्दू' की . भिन्न-भिन्न हैं, साथ ही दोनों के अपने-अपने प्रेमी और जगह 'हिन्दुस्तानी' का नाम लेना उचित नहीं । जहाँ मैं अभिभावक हैं।
दोनों भाषाओं के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की बात कहता हूँ, उर्दू लगभग एक शताब्दी से उत्तरी भारत में शहरों वहाँ मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि युक्तप्रांत में की भाषा रही है, जहाँ मुस्लिम संस्कृति के केन्द्र होने के रहनेवालों का कर्तव्य है कि उन्हें हिन्दी और उर्दू, दोनों कारण मुस्लिम संस्कृति का अधिक प्रभाव रहा है। उस को ही सीखना और जानना चाहिए। एक समय था जब संस्कृति के प्रभुत्व के कारण उर्दू शाही दरबारों की नार्मल और हाई स्कूल में दोनों भाषाओं की जानकारी भाषा बन गई और जिन लोगों का दरबार अथवा अनिवार्य थी। शायद काग़ज़ पर तो यह नियम अब भी शासन से सम्पर्क रहा उन्होंने इस भाषा को अपना मौजूद है, लेकिन अावश्यकता इस बात की है कि यह लिया।
__ कार्यान्वित भी किया जाय । यदि शिक्षकवर्ग को कुछ हिन्दी का कई शताब्दियों का अपना अनवरुद्ध इति- उत्साह हो और शिक्षा विभाग की तरफ़ से कुछ सख्ती की हास है। हिन्दी कविता-साहित्य को--तुलसीदास और जाय तो उसका फल श्राश्चर्य-जनक होगा। यदि दोनों सूरदास की अमर निधियों को भी-गाँवों की जनता पढती भाषाओं का अध्ययन होने लगेगा तो उससे लाभ ही और समझती है। उत्तरी भारत में शायद ही कोई होगा। दोनों के साहित्य के ज्ञान से सहृदयता बढ़ेगी और ऐसा गाँव हो जहाँ शाम को पेड़ के नीचे अथवा वास्तविक साहित्य-प्रेम का प्रादुर्भाव होगा। मैं इसके पक्ष अलाव के पास आप ग्रामीणों की टोली में हिन्दी में नहीं कि आज तक के ऐतिहासिक विकास को भुलाकर कविता का पाठ होता हुआ न देखें। हिन्दी की एक और फिर सब कुछ नये सिरे से शुरू किया जाय । हिन्दी और
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सरस्वती
[भाग ३८
उर्दू दोनों को ही जीने का अधिकार प्राप्त है-यह अधि- हम एक बहुत खूबसूरत और बलवान् भाषा पैदा करेंगे, 'कार उन्हें अपने इतिहास से प्राप्त हुआ है।
जिसमें जवानी की ताक़त हो और जो दुनिया की भाषात्रों श्री जवाहरलाल नेहरू के विचार में एक माकूल भाषा हो । कुछ दिन से फिर हिन्दी और उर्दू की बहस उठी है, यह बात होते हुए भी हमें याद रखना है कि भाषायें और लोगों के दिलों में यह शक पैदा होता है कि हिन्दी- ज़बरदस्ती नहीं बनतीं या बढ़तीं। साहित्य फूल की तरह वाले उर्दू को दबा रहे हैं और उर्दूवाले हिन्दी को । बगैर खिलता है और उस पर दबाव डालने से मुर्भा जाता है। इस प्रश्न पर गौर किये जोशीले लेख लिखे जाते हैं और इसलिए अगर हिन्दी-उर्दू अभी कुछ दिन तक यह समझा जाता है कि जितना हम दूसरे पर हमला करें अलग-अलग झुके, तो हमको उस पर एतराज़ नहीं करना उतना ही हम अपनी प्रिय भाषा को लाभ पहुंचाते हैं। चाहिए । यह कोई शिकायत की बात नहीं। हमें दोनों को लेकिन अगर ज़रा भी विचार किया जाय तो यह बिल- समझने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि जितने अधिक कुल फ़िज़ल मालूम होता है। साहित्य ऐसे नहीं बढ़ा शब्द हमारी भाषा में हों उतना ही अच्छा। करते।
हिन्दी और हिन्दुस्तानी शब्दों पर बहुत बहस हुई है मेरा पूरा विश्वास है कि हिन्दी और उर्दू के मुक़ाबिले और ग़लत फ़हमियाँ फैली हैं। यह एक फ़िजूल की बहस से दोनों को हानि पहुँचती है। वह एक-दूसरे के सहयोग है। दोनों ही शब्द हम अपनी राष्ट्र-भाषा के लिए कह से ही बढ़ सकती है और एक के बढ़ने से दूसरे को भी सकते हैं, दोनों सुन्दर हैं और हमारे देश और जाति से फायदा पहुँचेगा। इसलिए उनका सम्बन्ध मुकाबिले का सम्बन्ध रखते हैं। लेकिन अच्छा हो, अगर इस बहस को नहीं होना चाहिए, चाहे वे कभी अलग-अलग रास्ते पर बन्द करने के लिए हम बोलने की भाषा को हिन्दुस्तानी क्यों न चले। दूसरे की तरक्की से ख़ुशी होनी चाहिए, कहें और लिपि को हिन्दी या उर्दू कहें । इससे साफ़-साफ़ क्योंकि उसका नतीजा अपनी तरक्की होगी। योरप में जब मालूम हो जायगा कि हम क्या कह रहे हैं । नये साहित्य (अँगरेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन) बढ़े तब सब साथ बढे, एक दूसरे को दबाकर और मुकाबिला
मुसोलिनी स्वस्थ क्यों है ? करके नहीं।
__मुसोलिनी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत अच्छा ___ हिन्दी और उर्दू का सम्बन्ध बहुत करीब का है, और है। इसका रहस्य क्या है ? इस सम्बन्ध में कुछ फिर भी कुछ दूर होता जा रहा है। इससे दोनों की हानि प्रश्नोत्तर 'प्रताप' में प्रकाशित हुए हैं, जो यहाँ होती है । एक शरीर पर दो सिर हैं और वे आपस में लड़ा उद्धृत किये जाते हैं। करते हैं। हमें दो बातें समझनी हैं और हालाँकि वह दो हाल में मुसोलिनी से कुछ प्रश्न किये गये थे बातें ऊपरी तौर से कुछ विरोधी मालूम होती हैं, फिर भी जिनका उत्तर देते हुए उन्होंने बतलाया है कि उनका उनमें काई असली विरोध नहीं है। एक तो यह कि हम स्वास्थ्य इतना अच्छा क्यों है। १९२५ से अब तक वे ऐसी भाषा हिन्दी और उर्दू में लिखे और बोलें जो कि एक दिन भी बीमार नहीं पड़े। उनसे प्रश्न किया गयाबीच की हो, और जिसमें संस्कृत या अरबी और फ़ारसी "क्या श्राप कोई नियमित भोजन किसी ख़ास मात्रा में ही के कठिन शब्द कम हों । इसी को आम तौर से हिन्दुस्तानी करते हैं ? यदि हाँ तो वह चीज़ क्या है ?" कहते हैं। कहा जाता है, और यह बात सही है कि ऐसी इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि मैं शराब को बीच की भाषा लिखने से दोनों तरफ़ की खराबियाँ पा स्वास्थ्य के लिए हानिकर समझता हूँ। मैं शराब कभी जाती हैं, एक दोग़ली भाषा पैदा होती है जो किसी को नहीं पीता । मैं सिर्फ बड़े भोजों के अवसर पर ही थोड़ी-सी भी पसन्द नहीं होती और जिसमें न सौन्दर्य होता है, न शराब पीता हूँ, किन्तु विगत महायुद्ध के बाद से तो मैंने शक्ति। यह बात सही होते हुए भी बहुत बुनियाद नहीं सिगरेट कभी नहीं पी। रखती और मेरा विचार है कि हिन्दी और उर्दू के मेल से प्रश्न-आप कौन-सा भोजन करना पसन्द करते हैं ?
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संख्या ६]
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सामयिक साहित्य
६१५
उत्तर--मैं सिर्फ़ सीधा सादा खाना खाता हूँ, वैसा साम्राज्यवाद है। साम्राज्यवाद-किसी रूप में भी खाना जैसा किसान खाते हैं । मैं फल बहुत खाता हूँ। क्यों न हो, संसार के लिए किसी हालत में भी हितकर
प्रश्न-क्या आप चाय कहवा अथवा ऐसी ही और नहीं हो सकता। साम्राज्यवाद चाहे लेोकतन्त्र-शासन के कोई चीज़ सेवन करते हैं ?
रूप में हो (जैसा कि पश्चिमी योरप में है) और चाहे वह उत्तर--मैं चाय अथवा-कहवा नहीं सेवन करता। फ़ासिस्ट तानाशाही के रूप में (जैसा कि मध्य-योरप के - प्रश्न -श्राप नित्य कितनी देर तक और कौन-सा . देशों में है) हम एक स्वातन्त्र्य-प्रेमी की हैसियत से उसकी व्यायाम करते हैं ?
कद्र नहीं कर सकते। , उत्तर-मैं ३०-४० मिनट तक नित्य व्यायाम करता हूँ तीसरी बात जिसे हमें कभी न भूलना चाहिए वह तथा सब प्रकार के खेलों का अभ्यास करता हूँ । गरमी के यह है कि हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता एक चीज़ है। यदि दिनों में मैं तैरना अधिक पसन्द करता हूँ और जाड़े के हम उन्नति करना चाहते हैं तो हमें याद रखना है कि दिनों में मैं स्काइंग (काठ के यंत्र पैरों में पहनकर बरफ़ पर हिन्दुस्तान के विभिन्न प्रान्तों और सम्प्रदायों को एक फिसलना) का मुझे बहुत शौक है । मैं प्रतिदिन घोड़े की झण्डे के नीचे अपनी ताकत संगठित करनी है। इसी से सवारी करता हूँ। मैं मशीनवाले सभी खेलों में दक्ष हमारा कल्याण हो सकता है। प्रान्तीय अथवा साम्प्रहूँ, जैसे साइकिल, मोटर साइकिल, मोटर और हवाई दायिक भेद-भाव का महत्त्व देना हमारे लिए बहुत ही जहाज़ चलाना।
घातक है। देशहितैषी का कर्तव्य है कि वह देश की प्रश्न-सोने के सम्बन्ध में आपकी आदते कैसी हैं ? सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को विस्तृत दृष्टिकोण
उत्तर-मैं नियम-पूर्वक रात को ७-८ घंटे सोता से विचार करें। हूँ। रात को लगभग १० बजे सो जाना और सवेरे ७ बजे चौथी बात हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम देश के तक उठ पड़ना मेरा नियम है । मैं दिन को कभी नहीं किसानों और मज़दूरों का संयुक्त मोर्चा बनाकर उन्हें सोता। अधिक खाना खाने से ही दिन में नींद आती है। साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में एकत्र करें। देश की सभी
साम्राज्यवाद-विरोधी शक्तियों को कांग्रेस के नेतृत्व में श्री सुभाषचन्द्र बोस की पाँच बातें श्राज़ादी की लड़ाई लड़नी चाहिए। यह प्रसन्नता की बात है कि सरकार ने श्री अन्तिम महत्त्वपूर्ण बात जिसे हमें कभी न भूलना सुभाषचन्द्र बोस को बिना किसी शर्त के छोड़ दिया चाहिए अहिंसा का सिद्धान्त है। है। छूटने के बाद ही कलकत्ता में उनका सार्वजनिक रूप से अच्छा स्वागत हुआ। उस अवसर पर हिन्दू-हित और नये मंत्रिमंडल भाषण करते समय उन्होंने भारतीयों को पाँच बातों कांग्रेस के मन्त्रि-पद न स्वीकार करने पर प्रान्तीय पर बराबर ध्यान रखने की सलाह दी। वे पाँच सरकारों ने अपने जो मंत्री नियुक्त किये हैं उनमें बातें इस प्रकार हैं
मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं की अपेक्षा बहुत पहली बात जिसे हमें कभी न भूलना चाहिए यह है अधिक है। इस पर कुछ समाचार-पत्रों ने जिनका कि संसार आज किधर जा रहा है। हिन्दुस्तान की तकदीर कांग्रेस से मत-भेद है, यह आन्दोलन प्रारम्भ किया दुनिया की तकदीर के साथ है। अतएव संसार की है कि कांग्रेस के पद न ग्रहण करने का एक परिणाम मौजूदा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही हमें यह हुआ है कि जिन प्रान्तों में हिन्दुओं का बहुमत हिन्दुस्तान के आन्दोलन के रुख को ठीक रखना है। है वहाँ भी मुसलमान प्रधान मंत्री हो गये हैं। इस कोई भी चाल चलने के पहले हमें अच्छी तरह सेाच प्रकार हिन्दुओं की हानि हुई है और आगे भी लेना चाहिए कि हमें आगे कौन चाल चलनी है। उनके हितों पर कुठाराघात होता रहेगा। इस भ्रम
दूसरी बात जिसका हमें सदा ख़याल रखना चाहिए पूर्ण उक्ति का सहयोगी 'आज' ने 'लीडर' के एक
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सरस्वती
लेख का उत्तर देते हुए बड़े सुन्दर ढङ्ग से खंडन किया है । वह लिखता है -
मुसलमान मन्त्रियों के कारण हिन्दुत्रों पर कौन-सी विपत्ति टूट पड़ेगी और मुसलमान जनता को कौन-सा बिहिश्त मिल जायगा, यह 'लीडर' ही समझता होगा । जिन्हें देखने को आँखें और समझने के जानते हैं कि नवाब, राजा और 'सर' की चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान, आर्थिक
चाहे
लिए बुद्धि है वे श्रेणी के लोग, तथा राजनैतिक एक ही हैं। इसी प्रकार किसान और मज़दूर, हिन्दू या मुसलमान, एक ही हैं । हम 'लीडर' से पूछते हैं कि देश के सामने मुख्य प्रश्न क्या है ? जनवर्ग की दरिद्रता, किसानों की तबाही, मज़दूरों की दुर्दशा, मध्यवर्ग का आर्थिक पतन या यह कि किस सम्प्रदाय के कितने लोग मन्त्रिमण्डल में वर्तमान हैं। सहयोगी को इतना समझने की बुद्धि तो होगी ही कि राजा और नवाब, चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान अपने किसानों की तबाही के लिए समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। मुसलमान नवाब क्या हिन्दू किसानों से अधिक लगान वसूल करेगा और मुसलमान असामियों का सारा बकाया और क़र्ज़ माफ़ कर देगा? यदि नहीं तो उनके मन्त्री बनने से मुसलमान जनता को कौन-सा राज्य मिल गया और कौन-सी विपत्ति हिन्दू जनता के सिर पर मँडरायेगी ? व्यर्थ में हिन्दू-मुसलिम प्रश्न को इस स्थान पर घुसेड़कर मुख्य प्रश्नों को पीछे ठेल देना कहाँ की देश सेवा है ? जनता ऐसी मूर्ख नहीं है जो किसी के बहकावे में आ जाय । वह देख रही है कि हिन्दू-हित के रक्षक ग्राज मन्त्री बनने के लिए उन्हीं मुसलिम मन्त्रिमण्डलों में सम्मिलित हो रहे हैं जिन पर 'लीडर' रो रहा है । तिरवा के राजा साहब किसी समय इस 1 प्रान्त की हिन्दू सभा के प्रधान थे । पर आज वे छतारी के नवाब की दरबारदारी कर रहे हैं । मन्त्रित्व मिलते देखकर उनका हिन्दू-प्रेम काफूर हो गया। सीमाप्रान्त की हिन्दू-सभा के प्रधान को मुसलिम प्रधान मन्त्री का हाथ बँटाने में कुछ भी संकोच नहीं हो रहा है। पंजाब के प्रायः सारे हिन्दू-हित-रक्षक मुसलमान प्रधान मन्त्री के सहयोगी बन गये हैं। 'लीडर' के हृदय में यदि वस्तुतः मुसलिम मंत्रिमण्डलों की स्थापना का दुःख है तो वह इन हिन्दू हित रक्षकों के नाम पर रोये जो श्राज उन मन्त्रिमण्डलों
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[ भाग ३८
की स्थापना के कारण तथा उनके अस्तित्व के समर्थक हो रहे हैं ।
चीन में अफ़ीमचियों को फाँसी
अफ़ीम ने चीनियों का बहुत अहित किया है । इस नशे ने एक प्रकार से उनका जीवन ही बरबाद कर दिया है। क्रीम से छुटकारा पाने के लिए वहाँ की सरकार ने अब कड़े नियम बनाये हैं । यहाँ तक कि जो अफ़ीम न छोड़े उसे फाँसी तक की सजा देने का क़ानून बन गया है । इस सम्बन्ध में 'भारत' हाल में एक ज्ञातव्य लेख प्रकाशित हुआ है । उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं
में
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने चीनवालों में अफीम को जो ज़बरन प्रचार किया था उसका मूल्य चीन को अपनी स्वाधीनता से देना पड़ा है। इतना ही नहीं, अब तक उसका अपने सैकड़ों निवासियों के प्राण देकर भी अभिशाप से छुटकारा नहीं मिल सका है ।
चीन की सरकार ने सन् १९३५ में चियांग काई- शेक की देख-रेख में अफ़ीम के विरुद्ध जिहाद खड़ा करने का निश्चय किया। सरकार ने इस विषय में कड़े नियम बनाये । पहली बार अपराध करनेवालों को गरम लोहे से 1 दागने की सज़ा दी जाने लगी और बार-बार अपराध करनेवालों को फाँसी की सज़ा का नियम बना दिया गया । इस नियम के अनुसार १९३५ में ९६५ व्यक्तियों को फाँसी दी गई। गत वर्ष इससे भी अधिक व्यक्तियों की जानें अफ़ीम के कारण गई। फिर भी इस सत्यानाशी नशे में कमी न हुई । इस वर्ष यह नियम बनाया गया है कि प्रत्येक अफीम खानेवाले को प्राणदंड दिया जायगा । इससे अवश्य उल्लेखनीय कमी हुई है। चीन की सरकार दण्ड देने के सिवा अफ़ीमचियों की आदत में सुधार करने का भी प्रयत्न करती है। इसके लिए देश भर में सेनेटोरियम जैसी संस्थायें खोल दी गई हैं, जिनमें लोगों का इलाज मुफ़्त किया जाता है। प्रदर्शन के लिए अफीम की होली भी सार्वजनिक स्थानों में जलाई जाती है । सन् १७७३ के पहले चीन में कोई अफ़ीम का नाम भी न जानता था । १७७६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने केन्टन के बन्दरगाह में अफ़ीम की १००० पेटियाँ उतारीं ।
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संख्या ६ ]
१७८० में ५००० और १८२० से १८३० के बीच १६,००० पेटियाँ वार्षिक के हिसाब से अफ़ीम इस अभागे देश में खप गई । सन् १८३६ में सम्राट् टाऊ क्वाना के "मंत्री ने उनसे इस बात की शिकायत की कि अँगरेज़ व्यापारियों का उद्देश चीनियों को अफ़ीम खिला खिला कर कमज़ोर बना है। कुछ समय बाद सम्राट के पुत्र की अधिक अफीम खाने के कारण मृत्यु भी हो गई । तब सम्राट ने ग्राशा निकाली कि चीन के किसी भी बन्दरगाह पर 'जंगली लोग' उतरने न पावें। एक दूसरी श्राज्ञा में कहा गया 'कितने ही जहाजों में छिपा कर अफीम की १०-१० हज़ार पेटियां लाई जा चुकी हैं। इस तरह की जितनी भी अफ़ीम मिले, सरकारी ख़ज़ाने में जमा कर दी • जाय ताकि वह नष्ट की जा और देश इस व्याधि से मुक्त किया जा सके। इस बात का वचन लिया जाय कि वे क्रीम न लावेंगे ।'
सके
विदेशियों से कभी इस देश में
सामयिक साहित्य
इस तरह ईस्ट इंडिया कम्पनी को अफीम की २०,२८३ पेटियों से हाथ धोना पड़ा । २ लाख पाउन्ड की यह अफ़ीम सम्राट् की आज्ञा से जला दी गई । परन्तु चीन की आपत्तियों का फिर भी अन्त न हुग्रा । १८३९ में इंग्लैंड के दो जंगी जहाजों का मुकाबिला चीन के समस्त जंगी बेड़े से हुआ, जिसमें १६ छोटे जहाज़ थे । एक घंटे के अन्दर चीनी जहाज़ों में से कुछ डुबा दिये गये, कुछ भाग गये और केन्टन का बन्दरगाह चारों तरफ़ से घेर लिया गया। इसके सिवा अन्य बन्दरगाहों पर भी ब्रिटिश जहाज़ों ने गोलाबारी की, यहाँ तक कि १८४२ तक चीन की सभी तरफ़ हार ही हार होती दिखाई पड़ने लगी । आखिर सम्राट् को सन्धि करनी पड़ी।
इस सन्धि के अनुसार अँगरेज़ों को व्यापार के लिए हाँगकाँग दिया गया। केन्टन, एमोय, क्रूचू, निंगपो और शांघाई में अँगरेज़ों का रहने का अधिकार दिया गया और उनके जान-माल की ज़िम्मेदारी ली गई । सम्राट् ने
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कम्पनी से छीनी हुई अफीम का दाम तथा युद्ध के ख़र्च की पूर्ति भी करने का वचन दिया। इस तरह चीन अफीम के कारण विदेशियों के चंगुल में फँसा ।
चीन की वर्तमान सरकार का अनुमान है कि वह सन् १९४० तक देश से अफीम की आदत छुड़ाने में सफल हो जायगी ।
गुरुकुल के नव-स्नातकों को खान अब्दुल गफ्फार खाँ का आशीर्वाद
इस वर्ष गुरुकुल- काङ्गड़ी के वार्षिक महोत्सव के अवसर पर खान अब्दुल गफ्फार खाँ भी उपस्थित थे । आपने नव- स्नातकों को आशीर्वाद देते हुए कहा
यहाँ आते हुए मैंने महात्मा जी को भी आप लोगों की तरफ़ से निमंत्रण दिया था, मगर वे न आ सके। उन्हों निम्न सन्देश श्राप लोगों के लिए भेजा है—
" गुरुकुल और ऐसे ही दूसरे मदरसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के गढ़ होने चाहिए ।"
मेरा भी आप लोगों को यही सन्देश है। स्टेशनों पर 'हिन्दू चाय ' ' हिन्दू पानी' तथा 'मुस्लिम चाय' मुस्लिम पानी' की आवाज़ को सुनकर मुझे बड़ा दुःख होता है । इसी लिए तो दूसरे मुल्कों के लोग हम पर हँसते हैं । हिन्दू-मुस्लिम एकता केवल बातें बनाने से न होगी । हमारे देश के युवकों को कुछ करके दिखाना चाहिए |
मैं अपने तजु की बिना पर कह सकता हूँ कि खुदाई ख़िदमतगारों ने सीमान्त के हिन्दू-मुसलमानों में भाई-भाई की भावना को पैदा करने में बहुत कुछ किया है । इसमें आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी धर्म और जाति का भेद किये मानव जाति की सेवा की शपथ लेनी होती है। नव-स्नातको ! मैं तुमसे आशा करता हूँ कि तुम लोग ख़ुदाई खिदमतगार बनोगे और हिन्दू-मुसलमानों में एकता स्थापित करोगे ।
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2 सपाङ्गीय नोट
LARITAMARHATTERIRANI
सम्राट जार्ज का राज्याभिषेक
सरकारी खरीतों में भी हुआ । इस लड़ाई के बाद ग्राम १२ मई को लन्दन में सम्राट जार्ज का राज्याभिषे- फिर बीमार होकर वापस आ गये। किन्तु अच्छे हो जाने . कोत्सव बड़े धूमधाम के साथ हो गया। इस अवसर पर पर हवाई सेना में भर्ती हो गये और सन् १९१८ के - लन्दन में साम्राज्यान्तर्गत देशों के प्रतिनिधियों के सिवा प्रारम्भ में कैनवेल के हवाई स्टेशन में नियुक्त हुए ।
संसार के भिन्न भिन्न देशों के राज-प्रतिनिधि भी एकत्र कुछ ही मास में आपने हवाई जहाज़ का संचालन सीख हए थे। इस महोत्सव के सिलसिले में ब्रिटिश साम्राज्य के लिया और उसी वर्ष अक्टूबर में आप हवाई बेड़े के साथ वैभव और सामर्थ्य का जो विराट प्रदर्शन हुअा था वह युद्ध क्षेत्र में भेज दिये गये। सन् १९१९ में श्राप हवाई वास्तव में असाधारण था।
विभाग में स्क्वाडरन-लीडर नियुक्त हुए और उसके दूसरे ___ सम्राट छठे जार्ज का पूरा नाम एलबर्ट फ्रेडरिक वर्ष विंग-कमान्डर बना दिये गये । बाद को आपने जलआर्थर जार्ज है । आप स्वर्गीय सम्राट जार्ज (पंचम) और सेना और हवाई सेना दोनों से त्यागपः दे दिया और राजमाता मेरी के द्वितीय पुत्र हैं। आपका जन्म १४ शान्तिमय नागरिक जीवन व्यतीत करने लगे। दिसम्बर सन् १८९५ का हश्रा था। श्राप इस समय ४१ इसके बाद श्रापके पिता ने श्रापको कैम्ब्रिज-विश्ववर्ष के हैं । बचपन में श्रापका नाम प्रिंस एलबर्ट था। विद्यालय के ट्रिनिटी कालेज में अध्ययन के लिए भेजा। १३ वर्ष की आयु तक आप राजमहल में शिक्षा पाते रहे। कालेज में आपने कोई डिग्री पाने के लिए बाकायदा इसके बाद आप श्रासबार्न के जहाज़ी शिक्षा के कालेज में अध्ययन नहीं किया, किन्तु श्राप स्वतन्त्र रूप से इतिहास, भर्ती हुए। आप यहाँ दो वर्ष तक रहे। फिर दो वर्ष अर्थ-शास्त्र और भौतिक विज्ञान का विशेष अध्ययन तक डार्टमाउथ में रहे । इन कालेजों में आपको साधारण करते रहे । शिक्षा के अतिरिक्त भौतिक विज्ञान, विद्युत् विज्ञान, २३ जून सन् १९२० में सम्राट के जन्म-दिवस के इंजीनियरी, जहाज़-संचालन तथा जल-सेना के इतिहास अवसर पर श्रापको ड्यूक अाफ़ यार्क का पद प्राप्त का अध्ययन करना पड़ता था। १७ वर्ष की आयु होने हुआ और उसी वर्ष अापने लार्ड-सभा में स्थान ग्रहण पर सन् १९१२ में आप कम्बरलैण्ड जहाज़ पर व्यावहारिक किया। आपको औद्योगिक प्रश्नों से विशेष दिलचस्पी है शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजे गये। तब श्राप कालिंगवुड और आपने छोटे तथा बड़े, उच्च और निम्न वर्गों को एकजहाज़ पर मिडशिपमैन बना कर भेजे गये। वहाँ अपने दूसरे के अधिक निकट लाने का प्रशंसनीय प्रयत्न किया है। अन्य साथियों के समान ही आपको भी अत्यन्त परिश्रमपूर्ण श्राप भी समय समय पर अन्य देशों के महान् अवसरों और सादगी का जीवन बिताना पड़ता था।
पर ब्रिटेन के राज परिवार की ओर से सम्मिलित होते रहे ___ इसी समय योरप में महायुद्ध छिड़ा और आप भी हैं । सन् १९२२ में श्राप यूगोस्लेविया के बादशाह और जहाज़ी सैनिक को हैसियत से उसमें भेजे गये । महायुद्ध रूमानिया के बादशाह की द्वितीय पुत्री के विवाह में सम्मिमें भाग लेते समय आप बीमार हुए और आपको छुट्टी. लित हुए थे। उसी वर्ष रूमानिया के नये बादशाह के लेकर स्वदेश लौटना पड़ा । जेटलेंड की महत्त्वपूर्ण राज्याभिषेक के अवसर पर आप अपने पिता के बदले समुद्री लड़ाई के पहले आप पूर्ण स्वस्थ होकर फिर अपने उपस्थित हुए थे। इन दोनों ही अवसरों पर उपस्थित काम पर पहुँच गये और आपने उस युद्ध में ऐसे धैर्य और व्यक्तियों पर श्राप के व्यक्तित्व और व्यवहार का बड़ा वीरता से भाग लिया कि आपका उल्लेख युद्ध-सम्बन्धी अच्छा प्रभाव पड़ा था।
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संख्या ६ ]
सम्पादकीय नोट
सम्राट् छठे जार्ज
में
सम्राज्ञी एलिजावेथ स्काटलैंड के एक अत्यन्त उच्च परिवार की कन्या हैं । विवाह के पूर्व आपका नाम लेडी एलिज़ाबेथ एंजेला माग्यूरिट बोजलिन था । आपका जन्म ४ अगस्त सन् १९०० को हार्टफोर्डशायर हुआ था। इस प्रकार ग्राप ३६ ॥ वर्ष की हैं। बचपन में आप बड़ी सुन्दर और सुकुमार थीं। आपकी मात काउन्टेस स्ट्रेंथमोर ने आपको प्रारम्भिक शिक्षा दी थी । आपका बचपन अधिकांश में स्काटलैंड के ग्लेमिस स्थान में बीता । योरपीय महायुद्ध का प्रारम्भ होने पर श्राप के चार बड़े भाई उसमें भाग लेने के लिए चले गये और आपने एक नये जीवन में प्रवेश किया।
आपके माता-पिता ने अपने ग्लेमिसवाले महल में युद्ध के घायलों के लिए अस्पताल खोल दिया और ग्राप भी घायल सैनिकों की सेवा में अपनी माता का हाथ बँटाने लगीं । श्रापका अधिकांश समय घायल सैनिकों की सेवा और उन्हें प्रसन्न तथा उत्साहित करने में बीतता था । सन्
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सम्राज्ञी एलिज़ाबेथ
१९२० में आपके माता-पिता लन्दन के बटन-स्ट्रीट में ग्राकर रहने लगे ।
सन् १९२१ में आपकी माता बीमार हुई और ग्लेमिस-महल में उनके चीरा लगाया गया। उसी बीच राजपरिवार के कुछ लोग ग्रापके यहाँ ग्राकर ठहरे, जिनमें ड्यूक ग्राफ़ यार्क और उनकी बहन मेरी भी थीं। माता के बीमार होने के कारण शाही मेहमानों के सत्कार का भार आप ही पर पड़ा और अपने भावी पति के साथ बातचीत और बैठने उठने का आपको बहुत काफ़ी अवसर मिला । धीरे-धीरे दोनों की घनिष्ठता बढ़ी और दोनों एकदूसरे पर अनुरक्त हो गये । सन् १९२२ के अन्त में ड्यूक ग्राफ यार्क के साथ ग्रापका विवाह होने की अफवाह फैलने लगी और जनवरी १९२३ में इसकी और भी पुष्टि हुई जब ज्यक ग्राफ़ यार्क आपके पिता के वेल्डनवरीवाले निवासस्थान में आपके साथ जाकर ठहरे। इन दोनों का प्रेम होना सम्राट और सम्राज्ञी को भी प्रिय था और
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सरस्वती
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थोड़े ही दिनों के बाद इन दोनों की सगाई की घोषणा हो गई। कुछ सप्ताहों के बाद ड्यूक ग्राफ़ यार्क आपको साथ लेकर सैंडिघम महल में अपने माता-पिता के पास आये । अन्त में उसी वर्ष २६ अप्रैल को वेस्ट - मिन्स्टर एबी में बड़ी शान शौकत के साथ ग्राप दोनों का विवाह हुआ ।
विवाह के बाद सन् १९२४ में ड्यूक ग्राफ़ यार्क अपनी पत्नी को साथ लेकर अफ्रीका की लम्बी यात्रा करने गये । इस यात्रा श्राप केनिया, युगेन्डा, नील नदी के तट के प्रदेश और खारत्म यादि में घूमते हुए पोर्टसूडान से वापस आये। हर जगह आप लोगों का खूब स्वागत हुआ। आप लोग २० अप्रैल १९२५ को लन्दन वापस आगये ।
सन् १९२६ के अप्रैल मास में डचैस ग्राफ़ यार्क ने अपने पिता के बटन स्ट्रीट के लन्दनवाले मकान में प्रिंसेस लीजवे को जन्म दिया। इसके बाद से श्राप लोग लन्दन के मोहल्ले में अपने अलग मकान में रहने लगे ।
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[सम्राट् और सम्राज्ञी अपनी दोनों पुत्रियों के साथ ]
[ भांग ३८.
इसी बीच आप लोगों ने आस्ट्रेलिया की यात्रा की । वहाँ नये गवर्नमेंटहाउस का उद्घाटन करना था। आस्ट्रेलिया के लिए आप दोनों 'रिनाउन' जहाज़द्वारा सन् १९२७ में रवाना हुए। पहले श्राप लोगों ने
न्यूज़ीलैंड की यात्रा की । वहाँ से रवाना होकर श्राप सिडनी - बन्दरगाह पहुँचे । सिडनी से ग्राप लोग कीन्सलैंड और फिर टस्मा - निया गये ।
आस्ट्रेलिया की यात्रा के
बाद आप लोग जब स्वदेश वापस ग्राये तब सम्राट् और सम्राज्ञी स्वयं आप लोगों के स्वागत के लिए विक्टोरिया स्टेशन पर पहुँचे । इस अतिरिक्त ब्रिटेन की जनता भी भारी तादाद में श्राप ले.. के स्वागत के लिए उपस्थित थी। रेलवे स्टेशन से लोग सीधे बकिंघम पैलेस गये, जहाँ प्रिंसेस एलीज़ बथ अपनी माता से मिलने के लिए उनकी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रही थी। इस यात्रा के सकुशल समाप्त होने पर लन्दनवासियों की ओर से गिल्डहाल में आप लोगों को सार्वजनिक रूप से बधाई दी गई।
धन
इस प्रकार आपने अपने साम्राज्य का भी काफ़ी परिचय प्राप्त किया है। इससे आप अपने वर्तमान परमोच्च पद का भार वहन करने में पूर्णरूप से सफल -मनो-. रथ होंगे । इस शुभ अवसर पर हमारी यह मंगल कामना है कि सम्राट दीर्घजीवी हों और ग्रापके शासनकाल में ब्रिटिश साम्राज्य और भी अधिक गौरव प्राप्त करे ।
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संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
आयलैंड का नया रूप
पद का कार्य प्रेसीडेंट करेगा, जो ७ वर्ष के लिए चुना. " _ आयलैंड मिस्टर डी वेलरा के शासन में विचित्र ढंग जायगा और जो राजनैतिक दलबन्दी से परे रहेगा। से अँगरेज़ी साम्राज्य से अलग-सा होता जा रहा है । सन् (२) पुरानी सीनेट सभा के स्थान पर ६० सदस्यों की एक १९२१ में अायलैंड के विद्रोही सिनफ़िन-दल के लोगों से नई सभा स्थापित की जायगी। इसके ११ सदस्य प्रधानअँगरेजी सरकार की जो सन्धि हुई थी उसके अनुसार उत्तरी मंत्री मनोनीत करेगा और शेष जनता-द्वारा चुने हुए श्रायलेंड को छोड़कर शेष अायलेंड का 'फ्री स्टेट' नाम का होंगे। (३) आयरिश-भाषा राज्य की सरकारी भाषा होगी एक नया राज्य बनाया गया था और उसे अात्म-शासन-प्राप्त और राष्ट्रीय झंडा हरा, सफ़ेद और नारजी' इन तीन रंगों राज्य का दर्जा दिया गया था । परन्तु डी वेलरा ने अपने का होगा । (४) तलाक के कानून में सुधार होगा जिससे शासन काल में फ्री स्टेट के शासन-विधान में ऐसे परिवतन तलाक़ दिया जाना कानून से सम्भव न होगा। (५) फ्री कर दिये हैं कि उसका अब दूसरा ही रूप हो गया है, स्टेट का नाम अायर (Eire) होगा। जिससे 'फ्री स्टेट' 'डोमिनियन' न रहकर बहुत कुछ इन बातों से यही प्रकट होता है कि डी वेलरा साम्राज्य 'प्रजातन्त्र-राज्य' बन गया है। और इधर जब से सम्राट के भीतर रहते हुए एक सर्वतंत्र स्वतन्त्र प्रजातंत्र की स्थापना अष्टम एडवर्ड ने सिंहासन का त्याग किया है तब से तो करने जा रहे हैं और वे यह सब काम दिन-दोपहर लन्दन फ्री स्टेट की सरकार की विलगता का भाव और भी स्पष्ट से कुछ ही अन्तर पर रहते हुए अँगरेज़ी साम्राज्य के हो गया है। सिंहासन-त्याग-सम्बन्धी कानून के ब्रिटिश सूत्रधारों की जानकारी में कर रहे हैं। उनके इस साहस पार्लियामेंट में पास करने के पहले उस सम्बन्ध में अन्य और सफलता का मूल कारण यह है कि उनके पीछे उनके डोमिनियनों की सरकारों के साथ श्रायरिश फ्री स्टेट की राष्ट्र का बल है। . सरकार से भी अँगरेजी सरकार ने सलाह ली थी। उस समय प्रधान मंत्री डी घेलरा ने यह उत्तर दिया था कि पूर्वी योरप का नया संगठन : हम अपने यहाँ अपनी डेल (पार्लियामेंट) की बैठक करने. इस समय योरप में जो कुछ हो रहा है उससे यह बात
जा रहे हैं, जिसमें उस सम्बन्ध में आवश्यक कानून पास पूर्णतया स्पष्ट हो गई है कि योरप में अब कोई किसी का करेंगे । फलतः उन्होंने हाल में दो कानून पास किये हैं। धनी-धोरी नहीं रहा। एक राष्ट्र-संघ था सो अबीसीनिया के प्रतिक के अनुसार फी स्टेट के भीतरी मामलों में अब बादशाह मामले ने उसका दिवाला निकाल दिया। यही कारण है
का नाम नहीं प्रयुक्त किया जाया करेगा, साथ ही गवर्नर- कि योरप के बड़े राष्ट्रों को छोड़कर और सभी राष्ट्र अपने जनरल का पद भी तोड़ दिया गया। भविष्य में गवर्नर- भविष्य की चिन्ता से अाकुल-व्याकुल हैं। यहाँ तक कि जनरल की जगह डेल के प्रेसीडेंट डेल की बैठक बुलाया जिस बेल्जियम की रक्षा की गारंटी फ्रांस और ब्रिटेन जैसे करेंगे तथा उसे स्थगित किया करेंगे। इसके सिवा बिलों महान् राष्ट्र दिये हुए थे उसने भी अपने उन संरक्षकों से पर भी वही हस्ताक्षर किया करेंगे । गवर्नर-जनरल का शेष नमस्कार कर लिया है और अपनी रक्षा के लिए वह कार्य कार्यकारिणी के प्रेसीडेंट किया करेंगे। दूसरे कानून अपने पैरों खड़ा होना मुनासिब समझता है। बेल्जियम के द्वारा बाहरी कार्यों के सम्बन्ध में यह व्यवस्था की गई की तरह स्वीज़लेंड, हालेंड, डेन्मार्क आदि राष्ट्र भी चिन्तित है कि कार्यकारिणी के परामर्श के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य तथा सतर्क है । परन्तु इनकी अपेक्षा विकट समस्या है के बादशाह अन्तर्राष्ट्रीय समझौते तथा राजदूतों आदि की पूर्वी योरप की, जहाँ के राष्ट्र अपने लिए एक पृथक् संघ नियुक्ति आदि का कार्य किया करेंगे। अब वहाँ की की रचना कर रहे हैं। वे इस बात से पहले से ही पार्लियामेंट का नया निर्वाचन होने जा रहा है। अतएव डर रहे हैं कि अगले युद्ध में जर्मनी का पैर पूर्वी योरप की प्रधान मंत्री डी वेलरा ने शासन-विधान में क्रान्तिकारी ओर ही बढ़ेगा, और उस दशा में आस्ट्रिया और हंगेरी भी परिवर्तन करने की घोषणा की है, जो इस प्रकार है-- अपनी-अपनी पहले की सीमायें प्राप्त करने के लिए उत्साहित (१) गवर्नर-जनरल का पद तोड़ दिया जायगा और उनके होंगे। यह एक स्पष्ट बात है और पूर्वी योरप के जो राज्य
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जर्मनी और श्रास्ट्रिया-हंगेरी की पुरानी सीमाओं के भंग होने पर नये नये अस्तित्व में आये हैं या उनके राज्य का विस्तार हुआ है वे योरप की वर्तमान स्थिति को देखते हुए कैसे चुप बैठे रह सकते हैं ? रूमानिया के नेतृत्व में पोलेंड, ज़ेन्चोस्लेवेकिया, जुगोस्लाविया, यूनान और तुर्की का जो नया संघ बन चुका है वह योरप की इस काल की एक महत्वपूर्ण घटना है। इन छः राज्यों के एकता के सूत्र में बद्ध हो जाने से योरप के इस अञ्चल में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति अस्तित्व में आगई है, जो एक ओर जर्मनी तथा इटली की तानाशाहियों से टक्कर ले सकेगी तो दूसरी ओर सोबियट रूस को जहाँ का तहाँ रोके रखने में समर्थ होगी। इन राज्यों का सम्मिलित सामरिक बल इस समय इस प्रकार है
सेना ३,२५,०००
रूमानिया
जुगोस्लाविया १,५०,०००
ज़े चोरले वेकिया. २,००,०००
पोलेंड
३,८०,०००
तुर्की
२,१२,०००
यूनान
ܘܘܘܨܘܘ
सरस्वती
जहाज़ वायुयान १०,०००
९,५००
१२,१९९
५३,७००
४०, ४५०
८००
६२०
५६६
७००
.३७०
११९
कुल
१३,३७,०००
१,२५, ७४९ ३, १७५
पूर्वी योरप का यह मित्रदल यदि कुछ काल तक ऐक्य . के सूत्र में श्राबद्ध रहा और इसने एकमत से काम किया तो • पश्चिम में न तो जर्मनी को, न पूर्वी भूमध्य सागर में इटली कोई दुस्साहस का कार्य करने की हिम्मत होगी । यही नहीं, योरप की क्या, संसार की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी इस बलशाली संघ का ख़ासा प्रभाव पड़ेगा । योरप में यह संघ एवं एशिया में मुसलमानी राज्यों का संघ ये दोनों भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपना असाधारण महत्त्व प्रकट करेंगे, यदि इनमें परस्पर एकता और सद्भाव श्राज जैसा ही बना रहा ।
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जापान की सफलता
जापानियों की राष्ट्रीय प्रगति एक प्रकार का संसार का एक नया चमत्कार है । सौ वर्ष के भीतर ही उन्होंने सभी दिशाओं में अपनी ऐसी उन्नति की है कि स्वयं उन्नत से
[ भाग ३८
उन्नत पाश्चात्य देश भी आश्चर्य चकित हो रहे हैं। महायुद्ध के बाद जब वायुयानों का येrप में अत्यधिक प्रचार हुआ तब जापान में उनके प्रति वैसा उत्साह नहीं दिखाई दिया, जिससे यहाँ तक कहा गया कि इस क्षेत्र में जापान येोरप की प्रतिद्वन्द्विता नहीं कर सकेगा, क्योंकि फेफड़ों के कमज़ोर होने के कारण जापानी लोग वायुयानों. का सञ्चालन जैसा चाहिए, नहीं कर सकेंगे । परन्तु व इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया है कि इस 'सूर्योदय के देश' ने वायुयानों के निर्माण तथा उनके सञ्चालन में आशातीत उन्नति की है। अभी हाल में जापानी उड़ाकों ने तोकियो से लन्दन की यात्रा ३ दिन २२ घंटे और १८ मिनट में पूरी की है । सन् १९२५ में जब जापानी उड़ाके लन्दन के लिए तोकियो से उड़े थे तब उन्हें उस यात्रा में एक महीना से अधिक समय लगा था । सन् १९२८ में फ्रेंच उड़ाकों ने यही यात्रा ६ दिन और २१ घंटे में पूरी की थी । पर वही यात्रा जापानी उड़ाकों ने अपने यहाँ के बने हुए वायुयान से उपर्युक्त समय में पूरी की है। उनकी सफलता के उपलक्ष्य में जापान में तीन दिन तक उत्सव मनाया गया । तोकियो और लन्दन का हवाई मार्ग १० हज़ार मील है । जापानी यान वाहक २०० मील फ्री घंटा के हिसाब से उड़े थे। सारी यात्रा में उसके सञ्चालक ने उबले 'हुए चावल के सिवा और कुछ नहीं खाया । औस यात्रा के ९४ घंटों में वे कुल १० घंटे सोये । यान सञ्च लक का नाम मसाकी इनूमा है । आज सारा जापान उसके लिए गर्व कर रहा है ।
प्रारम्भिक शिक्षा की रिपोर्ट
सन् १९३४-३५ की प्रारम्भिक शिक्षा की रिपोर्ट भारत सरकार के शिक्षा - कमिश्नर ने हाल में प्रकाशित की है । यह रिपोर्ट काफ़ी देर के बाद निकली है । तब ऐसी दशा ' में १९३५ : ३६ की रिपोर्ट के निकलने की इस वर्ष कैसे आशा की जा सकती है ? ख़ैर, इस रिपोर्ट से देश के शिक्षा प्रचार की वर्तमान अवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । इसमें बताया गया है कि स्कूलों में जा सकने - वाले लड़कों में कुल ५० फ़ीसदी ही लड़के स्कूलों में पढ़ने जाते हैं । अर्थात् शेष ५० फ़ीसदी लड़कों के उनके माता-पिता किन्हीं अनिवार्य कारणों से स्कूलों
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संख्या ६]
सम्पादकीय नोट
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में या तो खुद भी नहीं कराते हैं या उन्हें स्कूल ही बसोरा-घाटी में हो रहा है। विरोधी कबीलांवालों में सुलभ नहीं हैं। और जब लड़कों का यह हाल है तब तोरीखेल के लोग मुख्य हैं। इनका नेता इपी नाम के लड़कियों के सम्बन्ध में क्या कहा जाय ? उनका औसत स्थान का एक युवा फकीर है । यह तोरीखेल-जाति का है,
१६.५ फी सदी ही है। रिपोर्ट में यह भी लिखा गया जिस पर उसका पूरा प्रभाव है । यह अंगरेज़-सरकार के है कि चौथे दर्जे तक शिक्षा पा जाने पर ही कोई लड़का विरुद्ध स्वतन्त्र कबीलों में बहुत पहले से प्रचार करता था या लड़की साक्षर कहलाने का अधिकारी हो सकता है। रहा है । वज़ीरी, महसूद, मद्दाखेल अादि अन्य कबीलों परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि प्रारम्भिक शिक्षा में चौथे पर भी इसका काफी प्रभाव है। परन्तु सरकार की सौम्य दर्जे तक केवल २६ फ़ी सदी ही लड़के पहुँच पाते हैं। नीति के कारण ये कबीलेवाले फ़कीर के कहने में नहीं अर्थात् ५० फी सदी लड़कों में भी २४ फी सदी लड़के आये और शान्त बने रहे । यह फ़क़ीर इस समय चौथे दर्जे तक नहीं पहुँच पाते और बीच में ही पढ़ना खेसारा और शाकातू की घाटियों के बीच में एक कन्दरा छोड़ बैठते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि लड़के पहले में रहता है। इसकी उम्र ४२ वर्ष है। यह बन्नू से कोई या दूसरे दर्जे से ही स्कूल जाना छोड़ देते हैं। ऐसी दशा १२ मील पर स्थित इपी गाँव का निवासी है। बन्नू से में साक्षर लड़कों का औसत भारत में कुल २६ फी सदी मिलानी को जो सड़क गई है वह इपी होकर गई है। ही है। इसी तरह स्कूल जा सकनेवालो लड़कियों में कहते हैं कि किसी समय यह सरकार के मेकैनिकल इंजीनिय१०० में केवल १३ लड़कियाँ चौथे दर्जे तक पहुँच पाती रिंग डिपार्टमेंट में मेट था। कंट्रेक्टर से न पटने पर इसने हैं। इससे प्रकट होता है कि स्कूल जा सकनेवाली लड़- काम छोड़कर साधु का बाना धारण कर लिया और अपने कियों में साक्षर लड़कियों की कितनी कम संख्या है। तप के प्रभाव से कोई दस-बारह वर्ष के भीतर इसने यह अवस्था वास्तव में खेदजनक है। स्कूल में जाकर स्वतन्त्र कबीलों पर अपनी ऐसी सत्ता स्थापित कर ली है लड़कों का बीच में ही पढ़ना छोड़ बैठना शिक्षा-प्रचार कि अाज हज़ारों आदमी उसके कहने से जान देने को के मार्ग में एक बड़ा विघ्न है और जो अब स्थायी व्याधि तयार हैं । वह अपनी कन्दरा से बहुत कम बाहर आता है, का रूप धारण कर गया है। इसके प्रतीकार का समुचित अपनी ध्यान-धारणा में ही लगा रहता है। उसकी कन्दरा
पर होना चाहिए और उपाय एकमात्र यही है कि के द्वार पर पहरा रहता है । पहरेदारों की अनुभति के भारम्भिक शिक्षा बालकों और बालिकाओं दोनों की सारे बिना कोई भी अादमी फ़कीर से मिल नहीं सकता है। देश में अनिवार्य कर दी जाय । परन्तु वर्तमान आर्थिक इस बीच में फ़क़ीर को एक बहाना मिल गया । अस्तु बन्नू संकट-काल में यह सम्भव नहीं है, तो भी यह ज़रूर सम्भव में एक हिन्दू लड़की मुसलमान बना ली गई । इस पर वहाँ है कि शिक्षा-विभाग इस बात का समुचित प्रयत्न करे कि के हिन्दू बहुत असन्तुष्ट हो गये। यह देखकर सरकार ने स्कूल में जानेवाले लड़के सेंट पर सेंट चौथे दर्जे तक ज़रूर उस लड़की को हिरासत में लेकर उसके मा-बाप को सौंप पढ़े। अधिकारियों को व्यावहारिक प्रयत्नों की खोज करनी दिया। कहा जाता है कि बन्नू के मुसलमानों ने सरकार के चाहिए, जिसमें प्रारम्भिक शिक्षा पर खर्च होनेवाली इस व्यवहार की इपी के फ़कीर से फ़रियाद की। फकीर रकम सार्थक हो। यह सच है कि अधिकांश माता- मौके की खोज में था ही। इस बात के बहाने उसने लूटपिता शिक्षा के प्रति उपेक्षा भाव रखने या अपनी गरीबी मार करने का आदेश अपने अनुयायियों को दे दिया, के कारण अपने बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा भी नहीं देते। जिसके फल-स्वरूप सरकारी इलाके के कई गाँव व बाज़ार इस जानकारी से भी समुचित लाभ उठाना चाहिए। अब तक लूटे जा चुके हैं। इन हमलों में निरस्त्र प्रजा के
धन की ही नहीं, जन की भी हानि हुई है। यही नहीं, सीमा-प्रान्त का उपद्रव
अाक्रमणकारी कुछ प्रजाजनों को अपने साथ पकड़ भी सीमा-प्रान्त में इस समय सरकार से स्वतन्त्र क़बीले- ले गये हैं । इनकी संख्या २६ पहुंच गई है। इस लूट-मार सालों से युद्ध-सा हो रहा है। यह संघर्ष वजीरिस्तान की के काल में जब दो अँगरेज़ अफ़सर भी मारे गये और Shr u tarmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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________________ 624 सरस्वती [ भाग में * खासदारों की चौकियों पर भी उनके हमले शुरू हुए तब एक विचित्र रवाज सरकार का ग्रासन डिगा और उसने उपद्रवियों के केन्द्र- सिंध के एक अञ्चल में हिन्दू और मुसलमानों में स्थान खेसारा घाटी में अपनी सेना भेजकर उपद्रवियों का भी अन्तर्जातीय विवाह होता है, इसका पता पित दमन करना प्रारम्भ कर दिया। इधर अँगरेज़ी इलाके में - निर्वाचन के समय लगा है। सिन्ध में थर और पान सरकार निरस्त्र लोगों को सशस्त्र करने की योजना भी जिले में एक तालुके में राजपूतों की एक जाति रहती। काम में ला रही है ताकि क़बीलेवालों के अाक्रमण करने जो अपने पड़ोस के एक जाति के मुसलमानों को विवाह / पर वे उनसे अपनी रक्षा कर सकें। आशा है, इस बार अपनी लड़कियाँ देती है। ये मुसलमान अरबाव कहला सरकार ऐसी कोई स्थायी व्यवस्था ज़रूर कर डालेगी हैं और उन राजपूतों को छोड़कर और किसी के यहाँ / जिससे स्वतन्त्र कबीले भविष्य में फिर ऐसे उपद्रव न लड़कों का विवाह नहीं करते। विवाह कन्या के पिता के 4 करें और यदि कभी कर बैठे तो उस दशा में अँगरेज़ी में होता है और हिन्दू-प्रणाली से होता है / पर जब कन्य इलाने के प्रजाजन उनका पूरा मुक़ाबिला कर सकें। ससुराल जाती है तब वहाँ उसका मुसलमानी रीति से फिर विवाह होता है, पर कन्या न तो उस समय मुसलमान ___पंजाब-सरकार का एक सत्कार्य बनाई जाती है, न उसके बाद ही कभी। यही नहीं, वह गत 1 अप्रेल से भारत का शासन एक नये विधान के अपने पति के घर में स्वेच्छापूर्वक हिन्दू-धर्म के अनुसार अनुसार हो रहा है, परन्तु अभी तक इस बात का आभास अपना जीवन यापन करती है। वह हिन्द भोजन करती है. तक नहीं मिला है कि शासन-कार्य में कोई विशेष परिवर्तन अपने घर में तुलसी की पूजा करती है, व्रत आदि रहती हा है। कहा जाता है कि सभी प्रान्तों के मंत्रि-मण्डल है। उसी तरह उसका पति अपने धर्म के अनुसार अपना इस समय ऐसी क्रान्तिकारी योजनायें सोच रहे हैं जिनके जीवन-यापन करता है। पर इन बातों को लेकर उनमें कार्य में, परिणत होते ही इस अभागे देश की सारी आधि- कभी किसी तरह की खटपट नहीं होती। हाँ, उनके बच्चे व्याधि और दैन्य-दुःख अनायास ही दूर हो जायेंगे। मुसलमान ही होते हैं, जिनमें लड़कियाँ तो मुसलमानों को इसके लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं। अभी पंजाब ब्याही जाती हैं। और यह व्यवस्था उनमें एक युग से चली में वहाँ की सरकार ने जो व्यवस्था संकटग्रस्तों की अा रही है / ये दोनों भिन्न जातियाँ वहाँ परस्पर प्रेम सहायता करने के लिए की है वह अाशाजनक है। हाल अब तक रहती चली आई हैं। बाहर के लोगों की में मुलतान की कमिश्नरी में अोलों से वहाँ की फसल को पता भी न लगता. यदि गत निर्वाचन-काल भट्टरपन्थी। बड़ी हानि पहुँची थी। इसकी खबर पाते ही सभी उच्च मुसलमान अरबाब मुसलमान उम्मेदवारों का यह कहकर अधिकारियों ने मौके पर पहुँच कर हानि की जाँच की विरोध न करते कि वे हिन्दू पक्षीय मुसलमान हैं और कट्टर और उसकी सूचना सरकार को तार से दी / फलतः सरकार मुसलमानों को उन्हें वोट नहीं देना चाहिए। ने लगान में 18 लाख रुपये की छूट देने की और 5 लाख रुपये की तकाची बाँटने की आज्ञा दी। इसके सिवा विपद्ग्रस्तों की अावश्यक सहायता करने में एक लाख भूल-सुधार . . रुपया और खर्च किया गया / और यह सब काम कुल सरस्वती के इस अंक में 578 पृष्ठ पर 'सुबोध सरस्व 14 दिन के भीतर हो गया। इस तरह की सहायता अदापाल’-शीषक एक ऋविता श्रीयुत द्विजेन्द्रनाथ मिश्र पहुँचाने में पहले इतनी शीघ्रता से काम नहीं लिया जाता 'निर्गुण' के नाम से छपी हैं। दोनों बातें ग़लत छप गई। था। वास्तव में पंजाब की नई सरकार का यह श्री गणेश हैं / वास्तव मैं उस कविता रचयिता को नाम 'श्रीयुत / शुभ का सूचक है। अन्य प्रान्तों की सरकारों को पंजाबः सुबोध अदावाल है, और कविता का शीर्षक ?' है / सरकार की इस सजगता से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। पाठक सुधार कर पढ़ने की कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com