SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संख्या ३] शनि की दशा ૨૬૭ सन्तोष की ही कक्षा में पढ़ता था। सन्तोष से वह अर्थहीन दृष्टि से विनय के मुँह की अोर ताककर केवल एक वर्ष छोटा था। वसु महोदय के बहनोई उसने कहा-अभिभावक की इच्छा के ही अनुसार रमाकान्त बाबू नहीं पा सके। कार्य हुश्रा करते हैं। मेरी इच्छा या अनिच्छा से क्या जिसके विवाह के उपलक्ष्य में घर में श्रानन्द की होता जाता है ? बाढ़ आ रही थी उसका मन किसी के एक छोटे-से मँह के सन्तोष की यह बात सुनकर विनय पहले तो चौंक सामने मँडराता हुआ नाच रहा था। वह सोच रहा था कि उठा, बाद को उसने अपना भाव दबा लिया। उसने पिता जी जब जानबूझ कर मेरी इच्छा के विरुद्ध विवाह कहा-क्यों भैया, यह कैसी बात कह रहे हो ? कर रहे हैं तब उसके लिए सारा प्रबन्ध वे ही करेंगे, उसके सन्तोष ने विस्मित होकर कहा—कौन-सी बात ? साथ मेरा काई सम्पर्क न रहेगा। दरिद्र की कन्या है। यही सब जो निरर्थक बक रहे हो ?" उसे भोजन नहीं मिल रहा था। अब तो वह चिन्ता रहेगी यह सब निरर्थक नहीं है भाई । मैं जो कुछ कह रहा नहीं। इतने में ही वह सुखी हो जायगी। हूँ, वह सब अर्थ रखता है। इस समय विवाह करने की ___ सन्तोष का यही निश्चय रहा। पिता से वह कुछ कह मेरी बिलकुल ही इच्छा नहीं है।" नहीं सका। उसके क्रोध का सारा भार जाकर पड़ा बेचारी इतने में दीनू नामक नौकर ने आकर कहा–भैया बासन्ती पर जो सर्वथा निरपराध थी। जी, आपको बुबा जी बुला रही हैं। अन्तरात्मा की असह्य यन्त्रणा को ज़रा-सा शान्त सन्तोष ने कहा- कह दो कि श्राता हूँ। करके सन्तोष ने सोचा कि पिता जी यदि विलायत से लौटे यह सुनकर नौकर चला गया। हुए आदमी की कन्या के साथ मेरा विवाह करने के लिए तैयार नहीं हैं तो यह बात उन्होंने स्पष्ट क्यों नहीं कह छठा परिच्छेद दी। यदि ऐसी बात होती तो मैं आजीवन अविवाहित रह विवाह कर देश और समाज की सेवा में ही अपने जीवन का निर्दिष्ट लग्न में सन्तोषकुमार के साथ बासन्ती का उत्सर्ग कर देता। परन्तु उन्होंने यह क्या कर डाला ? विवाह हो गया। शुभ दृष्टि के समय लोगों के बहुत उन्होंने केवल मेरा ही सर्वनाश नहीं किया, बल्कि एक आग्रह करने पर भी वर-वधू में से किसी ने भी दूसरे के निरपराध बालिका को भी सदा के लिए सङ्कट में डाल प्रति नहीं देखा। इससे लोगों के दिल में ज़रा-सी खलबली दिया। मची थी अवश्य, किन्तु इस बात को किसी ने विशेष सन्तोप इसी उधेड़-बुन में पड़ा था कि एकाएक उसकी महत्त्व नहीं दिया। एक एक करके विवाह की सभी रस्में बुअा के लड़के विनय ने आकर उसकी इस विचार-धारा पूरी हो गई। दूसरे दिन बड़ी धूमधाम और हर्ष-ध्वनि के को रोक दिया। उसने कहा—भैया, इस तरह चुपचाप साथ बासन्ती मामा के घर से बिदा हो गई। हरिनाथ बाबू बैठे बैठे क्या सोच रहे हो ? चलो ज़रा-सा टहल आवें। ने हाथ पकड़कर उसे गाड़ी पर बिठा दिया। वह गाड़ी ____एक लम्बी साँस लेकर सन्तोष ने कहा-कहाँ चलें की बाज़ में मुँह छिपाकर सिसक सिसककर रोने लगी। भाई ? सोहागरात के दिन ताई ने बड़े अाग्रह के साथ सन्तोष __सन्तोष का मुरझाया हुश्रा और गम्भीर मुँह देखकर को घर में बुलाया। परन्तु उसने भीतर की ओर पैर तक विनय विस्मित हो उठा । ज़रा देर तक चुप रहने के बढ़ाने की इच्छा नहीं की। अन्त में निरुपाय होकर बाद उसने कहा-भैया, यदि नाराज़ न होनो तो एक उन्होंने सारा हाल अपनी ननद से कहा । सन्तोष की बुआ बात पूछू। इस सम्बन्ध में भाई से पहले ही बहुत कुछ सुन चुकी थीं। ___ "क्या पूछना चाहते हो भाई ? पूछते क्यों नहीं ? बाद को भौजाई के मुँह से भतीजे के इस प्रकार के अनुनाराज़ी तो इस समय मुझे छोड़कर भाग गई है।" चित आचरण का हाल सुनकर वे बहुत ही क्रुद्ध हो उठीं । "क्या आपको यह विवाह पसन्द नहीं है ?" घर में आये हुए अतिथियों तथा भाई-बन्धुत्रों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy