SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ सरस्वती भी वह माता के अभाव का अनुभव नहीं कर सका। अकेले पिता ही उसके माता-पिता दोनों थे । सन्तोष ने भी कभी पिता की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया । आज भी वह वैसा नहीं कर सका। इससे पहले भी ऐसे कितने अवसर आये हैं, जब पिता से उसका मतभेद हुआ था, परन्तु किसी दिन भी उसने अपना मत नहीं प्रकट किया। पहली बात तो यह थी कि पिता के धार्मिक सिद्धान्त उसे बिलकुल ही पसन्द नहीं थे। जब तक वह पिता के सामने रहता तब तक तो वह पिता के आदेश के ही अनुसार कार्य करता रहता, किन्तु उन सब कार्यों के करने में उसकी ज़रा भी रुचि नहीं रहती थी । बात यह थी कि उसकी प्रवृत्ति थी याधुनिक प्रथा की ओर । पिता की पुरानो रीति-नीति उसे कैसे पसन्द आती ? परन्तु पिता के रुष्ट होने के भय से उनके सामने वह कभी ऐसा काम नहीं करता था जिसे वे पसन्द नहीं करते थे । सन्तोष पिता के साथ गाँव चला आया । यहाँ श्राकर उसने अपने विवाह का हाल सुना । इससे उसके हृदय har बड़ा क्षोभ और वेदना हुई । किन्तु भीतर ही भीतर वह अपना क्रोध दबाये रहा, मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलने दिया । इस कारण उसकी वास्तविक अवस्था का पता किसी को भी नहीं चल सका । परन्तु सन्तोष के मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन हुए उन्हें उसकी ताई कुछ कुछ समझ सकी थीं। इसी लिए एक दिन अकेले में पाकर उन्होंने उसे छेड़ा । सन्तोष के मलिन और सूखे मुँह की ओर ताककर उन्होंने पूछा- सन्त्, विवाह करने की तेरी इच्छा नहीं है क्या बेटा ? ताई की उद्वेग से व्याकुल तथा जिज्ञासामयी दृष्टि से दृष्टि मिला कर सन्तोष ने कहा- मेरी इच्छा या अनिच्छा से होता ही क्या है ? जिसकी इच्छा से यह हो रहा है, बाद को वे ही समझ सकेंगे । ताई ने क्लिष्ट स्वर से कहा- छिः ! छिः ! इस तरह की बात मुँह से न निकालनी चाहिए । सुनती हूँ कि लड़की बड़ी सुन्दरी है । इसके अतिरिक्त उसके कोई है नहीं । सुनती हूँ, वह बेचारी बड़ा कष्ट पा रही थी, इसी लिए ... । ताई की बात काटकर सन्तोष ने कहा- वह कष्ट पा रही थी तो इससे हमारा क्या मतलब ? मुझे छोड़कर ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ दुनिया में क्या और कोई वर ही नहीं मिल सकता था ? मेरे सिर पर यह बला क्यों लादी जा रही है ? यह सुनकर ताई दुखी होगई । वे कहने लगीराम ! राम ! तुम्हें यह क्या हो गया है बेटा ? तेरी तो इस तरह की बुद्धि नहीं थी । यह सब क्या कहता है ? पिता तेरा विवाह कर रहे हैं । जहाँ उन्हें पसन्द होगा, वहीं तो करेंगे । इसमें तुझे क्यों आपत्ति होनी चाहिए ? इस तरह की बातें यदि उनके कानों तक पहुँच गई तो वे बहुत दुःखी होंगे । इसलिए इस तरह की बात अब और किसी के सामने मुँह से मत निकालना । एक लम्बी साँस लेकर सन्तोष ने कहा- यदि श्रावश्यकता समझो तो उन्हें सूचना दे दो। उन्हें यह जान लेना चाहिए कि यह विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं है । परन्तु मैंने आज तक उनके सामने कोई बात नहीं कही, आज भी नहीं कहना चाहता हूँ । तुम पूछ पड़ी हो, इसलिए तुमसे कह दिया। देख लेना, बाद को तुम्हीं लोगों को रोना पड़ेगा । इस घर में मेरा यही अन्तिम श्रागमन होगा | ताई ने उतावली के साथ हाथ लगाकर सन्तोष का मँह बन्द कर दिया । उन्होंने कहा- चुप चुप । इस तरह की बात मुँह से न निकालनी चाहिए सन्तु । कहीं कोई ऐसी बात भी कहता है ? तू भी पागल हुआ है। कलकत्ते जाकर तू एकदम से आवारा हो गया । हम लोग अब हैं कितने दिन के ? तेरी चीज़ तेरे ही पास रहेगी । मेरे सामने ऐसी बात और कभी न कहना बेटा । सन्तोष को इस तरह समझा-बुझा कर ताई अञ्चल से आँसू पोंछने लगीं। इधर सन्तोष ने एक रूखी हँसी हँसकर कहा- अच्छी बात है, यह सब बाद का मालूम हो जायगा । यह बात कहकर सन्तोष बाहर चला गया। ताई वहीं पर बैठी रहीं । परन्तु ये बातें उन्होंने देवर से नहीं कहीं । उन्हें तो यह भली भाँति मालूम था कि वे कितने हठी और क्रोधी हैं। क्रोध में आकर वे कितना अनर्थ कर सकते हैं, यह भी वे जानती थीं। घर में बड़े धूमधाम से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। इलाहाबाद से वसु महोदय की बहन अपने पुत्र तथा दोनों कन्याओं को लेकर आ गई। उनका पुत्र www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy