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धारावाहिक उपन्यास
शनि की दशा
अनुवादक, पण्डित ठाकुरदत्त मिश्र
वासन्ती माता-पिता से हीन एक परम सुन्दरी कन्या थी। निर्धन मामा की स्नेहमयी छाया में उसका पालन-पोषण हुआ था । किन्तु हृदयहीना मामी के अत्याचारों का शिकार उसे प्रायः होना पड़ता था, विशेषतः मामा की अनुपस्थिति में। एक दिन उसके मामा हरिनाथ बाबू जब कहीं बाहर गये थे, मामी से तिरस्कृत होकर अपने पड़ोस के दत्त-परिवार में आश्रय लेने के लिए बाध्य हुई। घटना चक्र से राधामाधव बाबू नामक एक धनिक सज्जन उसी दिन दत्त-परिवार के अतिथि हुए और वासन्ती की अवस्था पर दयार्द्र होकर उन्होंने उसे अपनी पुत्र वधू बनाने का विचार किया । राधामाधव बाबू का पुत्र सन्तोषकुमार कलकत्ते में मेडिकल कालेज में पढ़ता था । यहाँ उसकी अनादि बाबू नाम के एक वैरिस्टर के कुटुम्ब से घनिता हो गई, जिसका फल यह हुआ कि सन्तोष का उनकी पुत्री सुषमा से प्रेम हो गया। इसकी सूचना जब राधामाधव बाबू को मिली तब यह बात उन्हें बहुत बुरी मालूम हुई और उन्होंने उसका वासन्ती के साथ जल्दी से जल्दी विवाह कर डालने का प्रबन्ध किया |
पाँचवाँ परिच्छेद विवाह में असन्तोष
नुष्य जब दुराग्रह के वश में ग्राकर कोई काम कर बैठता है तब उसमें इस बात का अनुमान करने की शक्ति नहीं रहती कि इसके कारण भविष्य में कैसी कैसी विपत्तियाँ सहन करनी पड़ेंगी । पुत्र के जीवन की धारा परिवर्तित करने के विचार से राधामाधव बाबू ने जो इतनी बड़ी भूल कर डाली उसके दुष्परिणाम की ओर उनका ध्यान नहीं जा सका। कभी कभी जान बूझकर प्रियपात्र के गन्तव्य मार्ग में बाधा खड़ी करनी पड़ती है और उस बाधा के कारण बाधा पानेवाला व्यक्ति चाहे इतनी वेदना का अनुभव न करे, किन्तु बाधा डालनेवाले को कहीं अधिक मानसिक पीड़ा हुआ करती है । परन्तु फिर भी प्रियपात्र
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मङ्गल कामना से बहुधा उसके कार्य में बाधा डालनी पड़ती है, यही सनातन प्रथा है। भविष्य की आड़ में कैसी
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कैसी विपत्तियाँ छिपी रहती हैं, यह बात समझने की शक्ति दृष्टि- शक्तिहीन मनुष्य में कहाँ है ?
मनुष्य सोचता है कुछ और हो जाता है कुछ । सन्तोप के जीवन में भी यही बात घटित हुई थी। जिस समय वह भविष्य के सुख का चित्र अङ्कित करके मिलन - दिन की प्रतीक्षा में बैठा था, उसी समय बिना बादल की बिजली के समान उसने एक दिन सुना कि उसे विवाह करना पड़ेगा । उसे यह भी ज्ञात हुआ कि पिता जी कलकत्ता आ गये हैं, उनके साथ मुझे घर जाना पड़ेगा । उसके जी में आया कि मैं पिता जी से सारी बातें साफ़ साफ़ कह दूँ । किन्तु उसके बाद 'वह बहुत लज्जित हुआ । उसने सोचा कि इस तरह की बातें कहना ठीक नहीं है । यह सब सुनकर पिता जी अपने मन में क्या कहेंगे। अभी मुझे चुप ही रहना चाहिए। देखें, आगे चलकर क्या होता है ।
सन्तोष की माता थी नहीं, पिता ने ही अत्यधिक स्नेह तथा परिश्रम से उसका पालन-पोषण किया था । पिता का इतना अपरिसीम स्नेह उस पर था कि एक दिन www.umaragyanbhandar.com