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________________ * ४५८ वीरसेन - मैं मगध के इन डेरों से भले प्रकार परिचित हूँ पहरेदारों की खों में धूल झोंकता हुआ अपने शिकार के लिए परछाई की तरह फिरता रहता हूँ । विचार करो, पूरे एक सौ बार मैं ऐसा खेल खेल चुका हूँ । सुदक्ष - फिर भी मैं चाहता हूँ - ग्राह कितना चाहता हूँ कि तुम्हारे साथ रह कर श्राज किसी ख़तरे में तुम्हारा हाथ बँटा सकूँ । सरस्वती वीरसेन - नहीं, नहीं, इन वहमों में न पड़ो। इसमें केवल साहस का ही काम नहीं है । और अभी तो तुम्हारी छैनियों को उन दिव्य मूर्तियों में जान डालनी है, जिनसे हमारी राजधानी का सिर ऊँचा होना है । सुदक्ष - और तुम्हारे वे स्वप्न जिनसे देश में तुम एक नई राज्यव्यवस्था की नींव रखना चाहते हो, जिसमें हमारे शासक राजसत्ता का ठीक प्रयोग करें, जिसमें वह सच्चा अभिमान और स्वार्थपरायणता के लिए प्रजात्रों का उत्पीडित करने की अपेक्षा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझें | क्या जाने किसी समय अपने इन स्वर्गीय स्वप्नों को कार्य के रूप में परिणत करने का हमें अवसर प्राप्त हो जाय । हाँ, आज तुम कितनी देर में लौटोगे ? वीरसेन -- तुम्हारा पहरा ख़त्म होने से पहले ही मैं लौट आऊँगा । जब मैं इसी स्थान पर वापस श्राकर ( सीटी बजाता है) इस तरह सीटी बजाऊँ तत्र तुम यह रस्सा नीचे लटका देना। (प्राचीर पर से लटकते हुए रस्से से नीचे उतरता है । ) मेरे लौटने तक भगवान् तुम्हारी रक्षा करे । सुदक्ष - सावधान रहना । ईश्वर तुम्हारा सहायक हो । ( वीरसेन - नीचे ज़मीन पर कूद पड़ता है । सुदक्ष रस्सा ऊपर खींच लेता है ।) कुछ समय तक निस्तब्धता छाई रहती है । सुदक्ष इधर-उधर प्राचीर पर टहलता है। 'यह मगध और कलिंग' 'हिन्दू और बौध' ! इनका झगड़ा ही क्या है ? अब जब यहाँ हम सबके सिरों पर मौत मँडरा रही है, उस समय भी इन भेद-भावों को भुलाने में हम असमर्थ हैं । वसन्तऋतु की इन खिलती हुई कलियों के फूल बनने में शायद कोई सन्देह न हो, परन्तु इस भरी जवानी में हम यहाँ मृत्यु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ की लपेट से एक क्षण भर भी सुरक्षित रह सकेंगे, यह कोई नहीं कह सकता । जहाँ चारों ओर मृत्यु मुँह बायें घूमती रहती है, वहाँ जीवन का क्या भरोसा ?' (प्राचीर पर किसी का हाथ सहारे के लिए टटोलता दिखाई देता है) युद्धजित इधर-उधर सावधानी से देखकर सुदक्ष के पीछे श्राकर खड़ा हो जाता है, परन्तु उसे इसका पता नहीं चलता । वह उसी प्रकार अपनी धुन में गुनगुनाता है। 'हमारे ऊपर कोई अदृश्य हाथ हर समय परछाई की तरह पीछे-पीछे लगा रहता है और जब वह हाथ अनजान में किसी नवयुवक पर वार करता है, (कोई आहट पाकर पीछे मुड़ता है ) कौन है ? युद्ध जित - ( उस पर एकाएक वार करता हुआ ) सम्राट् अशोक का एक युद्ध-सेवक स्वर्णपुर-निवासियों का काल । (सुदक्ष इस श्राघात को सहन नहीं कर सकता । युद्धजित उसके पेट में कटार भोंक देता है। सुदक्ष गिर कर वहीं ठंडा पड़ जाता है । युद्धजित कटार को बाहर निकालता है और अपने प्रतिद्वन्द्वी को लोथ देखकर काँप उठता है । फिर इधर-उधर देखकर जहाँ से वह प्राचीर पर चढ़ा था, उसी स्थान से नीचे उतर जाता है । ) पर्दा गिरता है । तीसरा दृश्य [ सम्राट् अशोक की सेना डेरे | वसन्तकुमार पुस्तक पढ़ने में तल्लीन है। नौकर पानी भर कर लौट जाता है । (पहरेदार गुज़रता है) कुछ समय तक निस्तब्धता छाई रहती है । वसन्तकुमार पुस्तक का पन्ना उलटता है। तम्बू की आड़ में वीर सेन रीछ की खाल श्रोढ़े सतर्क होकर आगे बढ़ता है । और दबे पाँव तम्बू के अन्दर जाकर बिना हट किये अपनी कटार से वसन्तकुमार का हृदय विदीर्ण कर देता है और उसके मृत शरीर को उसकी शय्या पर लिटा देता है । (पहरेदार गुज़रता है) वीरसेन साँस रोके वहाँ खड़ा रहता है और फिर चुपके से जिधर से आया था, उधर हो लौट जाता है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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