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संख्या ६ ]
सहन प्रारंभ में विलायती ढङ्ग का रहा है, बड़े गौरव का विषय है । उन्होंने हिन्दूधर्म की शालीनता और उदारता त्यधिक प्रशंसा की है। वे एक स्थान पर लिखते हैं" बहुत-से मुसलमानों के लिए तो यह शायद और भी मुश्किल हो, क्योंकि उनके यहाँ विचारों की आज़ादी मज़हबी तौर पर नहीं दी गई । विचारों की नज़र से देखा जाय तो उनका सीधा मगर तङ्ग रास्ता है और उसका अनुयायी ज़रा भी दाने - बायें नहीं जा सकता । हिन्दुत्रों की हालत इससे कुछ अलग है । व्यवहार में चाहे वे कट्टर हों, उनके यहाँ बहुत पुराने बुरे और घसीटने वाले रस्मवाज माने जाते हैं, फिर भी वे हमेशा धर्म के विषय में निहायत क्रांतिकारी और मौलिक विचारों की चर्चा करने के लिए भी हमेशा तैयार रहते हैं । ...... हिन्दू धर्म को साधारण अर्थ में मज़हब नहीं कह सकते । और फिर भी कितने गजब की दृढ़ता उसमें है ! अपने आपको ज़िन्दा रखने की कितनी ज़बर्दस्त ताक़त ! भले ही कोई अपने को नास्तिक कहता हो — जैसा कि चार्वाक था, फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि वह हिन्दू नहीं रहा । " (पृष्ठ १४५)
नेहरू जी को 'ब्राह्मणत्व' और 'पंडित' शब्द से नफ़रत नहीं है । वे स्वयं लिखते हैं- " मैं एक ब्राह्मण पैदा हुना था और मालूम होता है कि ब्राह्मण ही रहूँगा, फिर मैं धर्म और सामाजिक रस्म- रवाज के बारे में कुछ भी कहता और करता रहूँ । हिन्दुस्तानी दुनिया के लिए मैं पंडित ही हूँ ।" (पृष्ठ १४५)
जवाहरलाल नेहरू
इसी प्रकार के अनेक क्रांतिकारी विचार पंडित जी ने 'मेरी कहानी' में अंकित किये हैं । ' अन्तर्जातीय विवाह और लिपि का प्रश्न' स्तम्भ में उन्होंने वैवाहिक समस्या पर अच्छा प्रकाश डाला है । हिन्दी-भाषा और हिन्दुस्तानी-लिपि पर भी अपनी विशेष राय दी है । इसी प्रसंग में उन्होंने हिन्दी के अखबार नवीसों की भी थोड़ी सी ख़बर ली है। उन्होंने लिखा है – “हिन्दी के साहित्यिक और सम्पादक कितने ज़्यादा तुनुकमिजाज़ हैं" । “ग्रात्म आलोचना की हिन्दी में पूरी कमी है औरआलोचना का स्टैंडर्ड बहुत नीचा है ।" लेकिन “किसी दिन देश में हिन्दी के अख़बार एक जबर्दस्त ताक़त बन
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जायँगे, लेकिन जब तक हिन्दी के लेखक और पत्रकार पुरानी रूढ़ियों और बन्धनों से अपने आपको बाहर नहीं निकालेंगे और ग्राम जनता को साहस के साथ संबोधित करना न सीखेंगे तब तक उनकी अधिक उन्नति न हो सकेगी।” (पृष्ठ ५५ ३)
'मेरी कहानी' के अन्त में 'परिशिष्ट' में स्फुट पत्रव्यवहार प्रकाशित किया गया है । फिर 'निर्देशिका' दी गई है। अंतिम भाग में 'उपसंहार' का चैप्टर बड़ा ही भावपूर्ण और पं० जवाहरलाल जी के व्यक्तिगत या निजी भावना का एकीकरण है । यह स्तम्भ कुछ काव्यात्मक-सा हो गया है। इसमें उन्होंने अपने सिद्धान्तों, विचारों और नीति का थोड़े शब्दों में स्पष्ट प्रतिपादन किया है। उन्होंने अन्त में लिखा है—
"अगर अपने मौजूदा ज्ञान और अनुभव के साथ मुझे अपने जीवन को फिर से दुहराने का मौक़ा मिले तो इसमें शक नहीं कि मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेक तब्दीलियाँ करने की कोशिश करूँगा...... लेकिन सार्वजनिक विषयों में मेरे प्रमुख निर्णय ज्यों के त्यों बने रहेंगे क्योंकि वे मेरी अपेक्षा कहीं अधिक ज़बर्दस्त हैं......।” (पृष्ठ ७२८)
इस प्रकार 'मेरी कहानी' एक गौरवपूर्ण और सुन्दर ग्रन्थ है । इसे पढ़कर कितनी ही ज्ञातव्य बातें हृदय - पटल पर अंकित हो जाती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारतवर्ष के एक बड़े नेता के - जिसका घराना आज़ादी के युद्ध मेंढ़कर है, जिसके चेहरे पर हास्य, गम्भीरता और संघर्ष के चिह्न निरन्तर अमिट हो रहते हैं— मानसिक विचारों का यह सुन्दर लिपिबद्ध इतिहास हमें उन्नति के मार्ग में अग्रसर होने का संदेश देता है । मूल ग्रन्थ अँगरेजी भाषा में है । इसके हिन्दी सम्पादक पंडित हरिभाऊ उपाध्याय तथा 'सस्ता - साहित्य - मंडल' भी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने ऐसे सुन्दर ग्रन्थ को हिन्दी भाषियों के सामने उपस्थित किया है ।*
* 'मेरी कहानी' पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा | हिन्दी सम्पादक – श्री हरिभाऊ उपाध्याय । प्रकाशक -- सस्ता - साहित्य मंडल दिल्ली । श्राकार डिमाई अठ-पेजी, पृष्ठ संख्या लगभग ८०० | मूल्य ४) है |
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