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________________ ११६ सरस्वती गुणों का उत्कर्ष स्थापित करता है। ऐसा वीर-कर्म, ऐसी वीर-वृत्ति देखनेवाले या सुननेवाले के हृदय में वीरभाव को जागृत करती है, और इसी में वीर रस का आकर्षण और उसकी सफलता है । हमारे पास कोई रक्षक वीर पुरुष खड़ा है, इसलिए हम बेफ़िक्र हैं, सही-सलामत हैं, भय का कोई कारण नहीं; इस तरह की तसल्ली दुर्बलों और अबलाओं को 'होती है । इसे कुछ वीर रस का सर्वोच्च परिणाम नहीं कह सकते । जिस ज़माने में मनुष्य अपनी देह का मोह करनेवाला, फूँक-फूँक कर क़दम रखनेवाला और घरघुसा बन जाता है, उस ज़माने में वह वीरों का बखान कर और उन्हें बहादुरी की सबसे ऊँची चोटी 'एवरेस्ट पर चढ़ाकर उन्हीं के हाथों अपना त्राण मानता है । ऐसों के समाज में वीर रस की और वीर काव्य की जो चाहना होती है, जो प्रतिष्ठा होती है इस पर से यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि उस समाज में श्रार्यत्व का उत्कर्ष होने लगा । जब THE में लोकमान्य तिलक पर मुक़द्दमा चल रहा था तब वहाँ के सारे मिल-मजूर दंगा करने पर उतारू हो गये थे । • उनकी हलचल से घबराकर मध्यम वर्ग और व्यापारी वर्ग के कई लोग घरों के अंदर जा घुसे। जब उस हलचल का दमन करने के लिए सरकारी फ़ौज आई तब उसे देख वही लोग मारे ख़ुशी के हुर्रे - हुर्रे की जयध्वनि करने लगे और अपने हाथों के रूमाल उछालने लगे । उन्होंने उन सैनिकों का सहर्ष स्वागत किया और उस वक्त उनके मुख से जो 'वीर - गान' निकला उससे उस समाज में कुछ वीरत्व का भाव जागृत नहीं हुआ। यह हमारी खों देखी घटना है, और इसी लिए उसका असर हमारे दिल पर गहरी छाप डाल चुका है । वीर रस की क़द्र वीर करें, यह एक बात है और शरणागत जन करें, यह दूसरी बात है। जो वीर है वह वीर रस को हमेशा विशुद्ध और प्रायचित रखने की चेष्टा करता है । श्राश्रय-परायण व्यक्ति के अपनी प्राण-रक्षा के लिए आतुर होने के कारण उसमें श्रार्य-अनार्य-वृत्ति का विवेक नहीं रहता । अपने रक्षक के प्रति 'नाथनिष्ठा' रखकर उसके तमाम गुण-दोषों को समान भाव से उज्ज्वल ही देखता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३८ वीर-वृत्ति और वैर-वृत्ति दुःख की बात है कि वीर-वृत्ति में से कभी कभी वैरवृत्ति भी जागृत होती है। इसका कोई इलाज न देखकर आर्य धर्मकारों ने इसकी मर्यादा बाँध दी है- "मरणान्तानि वैराणि" । दुश्मन के मरने के बाद उसकी लाश को पैर से ठुकराना, उसके जिस्म के टुकड़े टुकड़े करवा डालना, उसके सगे-सम्बन्धियों या श्राश्रितों को दर-दर का भिखारी बनाना, उनकी दुर्दशा करना और उनकी नाथ स्त्रियों की बेइज्जती करना, यह सब एक आर्य वीर के लिए शोभावह नहीं है । इससे कुछ मृत शत्रु का अपमान नहीं होता; उलटे अपने वीरत्व को ही बट्टा लगता है । सच्चे वीर पुरुष यह बात भली भाँति जानते हैं । श्रार्यसाहित्याचार्यों, कवियों और कलाकारों ने पुकार का यही कहा है कि शत्रुता ही करो तो वह भी अपनी बराबरी के किसी शत्रु को खोज कर करो, और उसे हराने के बाद उसकी इज्ज़त करके उसकी प्रतिष्ठा बनाये रक्खो, और इस तरह अपना गौरव बढ़ायो । वीर-वृत्ति का परिचय मनुष्य के ही विरोध में नहीं दिया जाता, बल्कि सृष्टि के कुपित होने पर भी मनुष्य अपनी उस वृत्ति को विकसित कर सकता है । जब शत्रु सामने नंगी तलवार लिये खड़ा हुआ है तब अपने बचाव के लिए मुझे अपनी सारी ताक़त बटोर कर उसका मुक्काबिला करना ही होगा। इस मौके पर अगर मैं लड़ाकू वृत्ति न रक्खूँ तो जाऊँ कहाँ ? सिंहगढ़ की दीवार पर चढ़कर उदयभानु के साथ संग्राम करनेवाले तानाजी की सेना जब हिम्मत हारने लगी तब तानाजी के मामा सूर्याजी ने दीवार से नीचे उतरने की रस्सी तुरंत काट डाली थी । अमेरिका पहुँचने के बाद स्पेनिश वीर नैंडो कोर्टेज़ ने अपने जहाज़ जला दिये थे । इस प्रकार जब पीठ फेरना असंभव हो जाता है तब श्रात्मरक्षा की वृत्ति वीर-वृत्ति की सहायक बन जाती है। जिसे अपनी जान ज़्यादा प्यारी होती है वही इस मौके पर अधिक शूर बन जाता है । परन्तु जब कोई मनुष्य पानी में डब रहा हो अथवा जलते हुए घर के अन्दर से किसी असहाय बालक के चीखने की आवाज़ सुनाई पड़ रही हो, उस समय अपने बचाव की, जीवन के जोखिम की, ज़रा भी परवा न करते हुए कोई तेजस्वी पुरुष अपने हृदय धर्म का वफ़ादार बनकर पानी www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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