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________________ 'संख्या २] रस-समीक्षा : कुछ विचार ११७. में या धधकती हुई आग में कूद पड़ता है तब वह अपनी .बीभत्स वीर-वृत्ति का परम उत्कर्ष प्रकट करता है। माफ़ी माँग योद्धा में लहू, मांस और शरीर के छिन्न-भिन्न अवयवों कर जीने की अपेक्षा फाँसी पर चढ़ जाना मनुष्य ज़्यादा को देखने की टेव होनी ही चाहिए । दुःख और वेदना पसंद करता है। करोड़ों रुपये की लालच के वश में न अपने हों या पराये, उन्हें सहन करने की शक्ति भी उसमें होकर केवल न्यायबुद्धि को जो मनुष्य पहचानता है वह भी होनी चाहिए । शस्त्र-क्रिया करनेवाले डाक्टरों में भी अपने अलौकिक वीरत्व का परिचय देता है। इस दुनिया इस शक्ति का रहना आवश्यक है। लोह की धार को का चाहे जो हो, पर अन्तरात्मा की आवाज़ को बे-वफ़ा देखकर कुछ लोगों को चक्कर क्यों आ जाता है, इसे मैं नहीं होने दूंगा, ऐसी वीर-धीर-वृत्ति जिस मनुष्य में स्वाभा- अब तक समझ नहीं सका हूँ। मुझे स्वयं मांस काटते या विक होती है वह वीरेश्वर है। शस्त्र-क्रिया करते देखकर किसी किस्म की बेचैनी नहीं - किसी बह-बेटी या स्त्री का अपहरण करते समय मालम होती। फिर भी वीर-रस के वर्णन के सिलसिले में भी कई एक बदमाश-गुण्डे विकार के वश होकर अपनी जब रणनदी के वर्णन बाँचता हूँ तब उसमें से जुगुप्सा को असाधारण बहादुरी व्यक्त करते हैं । बड़े बड़े डाकू भी अपनी छोड़कर दूसरा भाव पैदा ही नहीं होता। खून के कीचड़ जान हथेली पर रखकर घरों में सेंध लगाते हैं अथवा लूट- और उसमें उतराते हुए नर-रुण्डों के वर्णन से वीर-रस को मार मचाते हैं. और जब पकड़े जाते हैं. पुलिस भले ही किसी तरह पोषण मिलता है, यह अब तक मेरी समझ में उन्हें प्राणान्त कष्ट पहुँचावे, वे अपने षड्यंत्र का भेद नहीं आया है। युद्ध में जो प्रसंग अनिवार्य हैं उनमें से नहीं बतलाते। उनकी यह शक्ति हमें आश्चर्य-चकित मनुष्य भले ही गुज़रे; किन्तु जुगुप्सित घटनाओं का रसपूर्ण ज़रूर कर सकती है, पर शरीफ़ लोगों का धन-हरण वर्णन करके उसी में अानन्द मनानेवाले लोगों के या पर-स्त्री का अपहरण करने की नीचातिनीच वृत्ति से को तो विकृत ही कहना चाहिए । मनुष्य को खंभे से बाँधप्रेरित बहादुरी की कोई आर्य-पुरुष कद्र नहीं करता। कर, उसके ऊपर अलकतरा का अभिष कू लोग भारी से भारी डाके डालकर मिले हुए धन जला देनेवाले और उसकी प्राणान्त चीख सुनकर खुश का एक भाग अपने आस-पास के प्रदेश के गरीब लोगों होनेवाले बादशाह नीरो की बिरादरी में हम अपना शुमार में बाँट देते हैं और इस प्रकार लोकप्रिय बनकर अपने क्यों करायें ? पकड़नेवालों को हरा देते हैं । कभी कभी ऐसे डाकू और वीर कथायें कैसे पढ़ें? लुटेरे कुछ ख़ास ख़ास समाज-कंटक लोगों को नष्ट कर वीर-रस मनुष्य-द्वेषी नहीं है। वह परम कल्याणकारी, और उनका सर्वस्व लूटकर ग़रीबों को भयमुक्त भी समाज-हितकारी और धर्मपरायण आर्यवृत्ति का द्योतक है। कर देते हैं। इससे भी कृपण जनता ऐसे लोगों की दुष्टता उसका रूप यही होना चाहिए । वीर-रस के पोषण और को भूल कर उनके गुणों का बखान करने लगती है। यह संरक्षण का भार वीरों के ही हाथ में होना चाहिए । वीरकाम चाहे जितना स्वाभाविक क्यों न हो, फिर भी इससे वृत्ति को पहचाननेवाले कवि, चारण और शायर जुदे हैं, समाज की उन्नति होती है, ऐसा हम कभी नहीं कह सकते। और अपनी रक्षा की तलाश में रहनेवाले कायर और मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र जी की “पाल्या हि कृपणा आश्रित जुदे हैं । जनाः" यह उक्ति प्रजा के गौरव को नहीं बढ़ाती। जिससे . पुराने ज़माने की भली बुरी सब वीर-कथात्रों को हम लोक-हृदय उन्नत नहीं हो सकता, ऐसी कृति में से शुद्ध पढ़ें ज़रूर, उन्हें अादर के साथ बाँचें, किन्तु इनमें से हम 'वीर-रस का उद्गम होता हो, सेा भी नहीं कहा जा सकता। पुरानी प्रेरणा नहीं ले सकते । उन लोगों का वह प्राचीन अकेली हिम्मत और सरफ़रोशी वीर-रस नहीं है और शत्रु को संतोष हमें अपने लिए त्याज्य ही समझना चाहिए । जीवन . बेरहमी से अंग-भंग करने में, उसके आश्रित जनों की फ़ज़ीहत में वीरता के नये आदर्शों को स्वतंत्र रूप से विकसित करके, करने में वैर-वृत्ति की तृप्ति भले ही हो जाय; इसमें न तो शूरता और उनके लिए आवश्यक पोषक तत्त्व प्राचीन कथाओं में है, न वीरता है, न धीरता है और आर्यता तो होगी ही कहाँ से। से जितनी मात्रा में मिल सके उतने अवश्य ही प्राप्त किये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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