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________________ . सरस्वती .. . . [भाग ३८ जाने चाहिए; परन्तु वीर-रस के क्रूर या जीवनद्रोही आदर्शों - करुण-रस ही रस-सम्राट है, और यह आवश्यक नहीं है में हम फिसल न जायें । अगर जीवन में से वीरता चली कि इस रस में शोक का भाव होना ही चाहिए । वात्सल्यगई तो वह उसी क्षण से सड़ने लगता है और अन्त में रस, शांत-रस और उदात्त-रस, ये करुण के ही जुदे जुदे उसमें एक भी सद्गुण नहीं टिकता, यह हमें नहीं भूलना पहलू हैं। बाकी अन्य सब रस, अन्त में जैसे सागर में चाहिए। नदियाँ समा जाती हैं वैसे ही, इस रस में लीन हो जाते हैं। ___ आधुनिक युग के कलाकारों के अग्रणी श्री रवीन्द्रनाथ एक मित्र ने इन सब रसों के लिए "समाहित रस" का ठाकुर को एक बार जापान में एक ऐसा स्थान दिखाया नाम सूचित किया, जो मुझे बहुत ठीक ऊँचा। पर इसमें गया था, जहाँ जापानी वीर कट मरे थे। उस स्थान और शक है कि भाषा में यह सिक्का चल सकेगा या नहीं। सच उस घटना पर अपनी प्रतिभा का प्रयोग करके कोई भाव- पूछा जाय तो सब रसों की परिणति योग में ही है। योग अर्थात् समाधि-समाधान--सर्वात्म एकता का भाव । था। विश्वकवि ने वहीं जो दो पंक्तियाँ लिखकर दे दी अन्त में कला में से यही वस्तु निकलेगी। यह योग ही थीं, जो भारतवर्ष के मिशन और मानव-जाति के भविष्य कला का साध्य और साधन है। दुर्भाग्य की बात है कि की शोभा बढ़ानेवाली थीं, उनका भाव यह है कि "दो योग का यह व्यापक अर्थ अाज-कल की भाषा में स्वीकार भाई गुस्से में आकर अपनी मनुष्यता को भूल गये और नहीं किया जाता। नाक पकड़कर, पलथी मारकर और उन्होंने भू-माता के वक्षःस्थल पर एक-दूसरे का खून देर तक नींद लेकर बैठे रहना और भूखों मरना ही लोगों बहाया । प्रकृति ने यह देखकर अोस के रूप में अपने आँसू की दृष्टि में 'योग' रह गया है।। बहाये और मनुष्य-जाति की इस रक्तरंजित हया को हरी हमारे साहित्यकारों ने करुण-रस का बहुत सुन्दर हरी दूब से ढाँक दिया।" शान्तिप्रिय, अहिंसापरायण, विकास किया है। कालिदास का 'अज-विलाप' अथवा सर्वोदयकारी, समन्वयप्रेमी संस्कृति का वीररस तो त्याग के भवभूति का उत्तररामचरित करुण-रस के उत्तम से उत्तम रूप में ही प्रकट होगा। आत्मविलोपन, आत्मदान ही नमूने माने जाते हैं। भवभूति जिस समय करुण-रस का जीवन की सच्ची वीरता है । इसके असंख्य भव्य प्रसंग कला राग छेड़ता है, उस समय पत्थर भी रोने लगता है और के वर्ण्य विषय हो सकते हैं। ये प्रसंग कला को उन्नत वज्र का हिया भी पिघलकर चूर चूर हो जाता है। करुणकरते हैं और प्रजा को जीवन-दीक्षा देते हैं। आज-कल के रस ही मनुष्य की मनुष्यता है। फिर भी यह ज़रूरी नहीं कलाकार जीवन के इस पहलू' को विशेष रूप से विकसित है कि करुण-रस का उपयोग सिर्फ स्त्री-पुरुष के पारस्परिक करते हैं या नहीं, इसकी जाँच मैं अब तक नहीं कर सका विरह-वर्णन में ही हो । माता का अपने बालक के हूँ, फिर भी मैं इतना तो जानता हूँ कि यदि भविष्य की लिए या किसी का अपने मित्र के लिए विलाप करनेकला इस दिशा की तरफ अग्रसर हुई तो निकट भविष्य में मात्र से भी करुण-रस का क्षेत्र संपूर्ण नहीं होता। अनन्तवह बहुत भारी तरक्की असाधारण उन्नति-कर सकेगी, काल से, हर एक युग में और हर एक देश में, प्रत्येक और समाज-सेवा भी इस के हाथों अपने आप होगी। समाज में किसी न किसी कारण से, महान् सामाजिक .. एको रसः करुण एव अन्याय होते आ रहे हैं। हज़ारों और लाखों लोग इस जब भवभूति ने 'रस एक ही है और वह करुणा है अन्याय के बलि हो रहे हैं। अज्ञान, दारिद्रय, उच्च-नीच और अनेक रूप धारण करता है' यह सिद्धान्त स्थिर किया भाव, असमानता, मात्सर्य और द्वेष इत्यादि अनेक कारणों तब उसने करुण, शब्द को उतना ही व्यापक बनाया जितना से और बिना कारण भी मनुष्य मनुष्य पर अत्याचार कर कि कला शब्द है । जहाँ हृदय कोमल हो, उन्नत हो, रहा है। उसे गुलाम बना रहा है, चूस रहा है और सूक्ष्मज्ञ हो या उदात्त हो, वहाँ कारुण्य की छटा आयेगी अपमानित कर रहा है। ये सभी प्रसंग करुण-रस के स्वाभाही। कारुण्य की समभावना या समवेदना सार्वभौम होती विक क्षेत्र हैं। है। इसके द्वारा हम विश्वात्मैक्य तक पहुँच सकते हैं। नल राजा के हंस को पकड़ने या एकाध सिंह के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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