SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रस- समीक्षा : कुछ विचार संख्या २] नन्दिनी गौ के धर दबोचने के दुःख का वर्णन हमारे कवियों ने किया है। एक निषाद ने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को बाण से भेद डाला तो वाल्मीकि की शापवाणी ने सारी दुनिया के हृदय को भेदकर इस अन्याय की तरफ़ उसका ध्यान खींचा। इतना होते हुए भी पशुपक्षियों का या गाय-भैंस का सामुदायिक दुःख अभी तक किसी ने गाया है, ऐसा मन में विचार उठता भी नहीं है। मध्यम वर्ग के लोग विधवाओं के दुःखों का कुछ वर्णन करने लगे हैं; पर इसमें भवभूति का प्रोजगुण या वाल्मीकि का पुण्य - प्रकोप व्यक्त नहीं हुआ । करुण रस का सर जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ । श्रतएव हृदय की शिक्षा और हृदय धर्म की पहचान अपूर्ण ही रही है। और इसी से गांधी जी जैसा व्यक्ति अस्पृश्यता के • कारण अपने हृदय का क्षोभ प्रकट करता है, फिर भी समाज के हृदय पर उसका काफ़ी असर नहीं पड़ता; अधिकांश में वह अछूत ही रहता है । करुण रस में केवल हृदय का पिघलना ही पर्याप्त नहीं है; हृदय में आग लगनी चाहिए और उससे जीवन में आमूल क्रान्ति हो जानी चाहिए । जीवन के हर एक व्यवहार के लिए हृदय- धर्म मनुष्य को एक नई कसौटी तैयार करनी चाहिए । हास्य रस अगर यह कहें कि प्राचीन लोगों को हास्य रस की वास्तविक कल्पना तक नहीं थी तो इसमें कोई ज्यादा अतिशयोक्ति नहीं है । ऊँचे दर्जे का हास्य रस संस्कृतसाहित्य में बहुत ही कम पाया जाता है। उसमें जहाँतहाँ नरम वचन और सुन्दर चाटूक्तियाँ तो बिखरी पड़ी हैं; और यह अपनी संस्कृति की विशेषता है । हालाँकि अब हमारे साहित्य में भी हास्य रस के अनेक सफल प्रयोग होने लगे हैं, फिर भी यही कहना पड़ता है कि नाटकों में पाया जानेवाला हास्य रस अभी बहुत सस्ता ' और साधारण कोटि का है। हमारे व्यंग्य चित्रों में और प्रहसनों में पाया जानेवाला हास्य रस आज भी अधिकांश में निम्न श्रेणी का है । आज-कल प्रीति-सम्मेलनों में हास्य और वीर रस के ही प्रयोग अधिक किये जाते हैं; क्योंकि उनमें सफलता बगैर विशेष मेहनत के मिल जाती और अनायास ही उनकी तैयारी की जाती है। उन पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ११९ तालियाँ भी खूब पिट जाती हैं। इससे कला की प्रगति नहीं होती और प्रजा संस्कार-समर्थ भी नहीं बनती। अद्भुत का आविष्कार हमारे कलाकारों ने अद्भुत रस का विकास किस रीति से किया है, यह मुझे मालूम नहीं है । पर मेरे मत में अद्भुत रस की उत्पत्ति भव्यता में से होनी चाहिए । अन्यथा मनुष्य जितना अधिक ज्ञान में रहेगा हर एक चीज़ उतनी ही उसे अद्भुत मालूम होगी । अद्भुत का रूप हीं ऐसा होता है कि उसके श्रागे कला का साधारण व्याकरण स्तम्भित हो जाता है। विजयनगर की ग्रांसपास की पहाड़ियों में बड़ी-बड़ी शिलाओं के जो ढेर पड़े हुए हैं उनमें किसी तरह की व्यवस्था या समरूपता नहीं है, और वहाँ इसकी आवश्यकता भी नहीं दीखती । सरोवर का श्राकार, मेघों का विस्तार, नदी का प्रवाह - इनमें कौन किसी तरह की व्यवस्था की अपेक्षा रेख सकता है ? भव्य वस्तु अपनी भव्यता द्वारा ही सर्वाङ्गपूर्ण होती है। नहर का व्याकरण नदी के लिए लागू नहीं होता । उपवन का रचना - शास्त्र महान् सघन वन के लिए उपयोगी नहीं होता । जो कुछ भी भव्य, विशाल, विस्तीर्ण, उदास, उन्नत और गूढ़ है वह अनन्त का प्रतिरूप है, और इसी लिए यह अपनी सत्ता से अत्यन्त रमणीय है। महाकवि तुलसीदास ने कहा है कि 'समरथ को नहिं दोष गुसाई' वह यहाँ नये अर्थ में कला के सूत्र रूप में ही अधिक सुसंगत मालूम होता है । अद्भुत, रौद्र और भयानक अद्भुत, रौद्र और भयानक इन तीनों रसों का उद्गम एक ही जगह से है । हृदय की भिन्न-भिन्न प्रतिभूतियों के कारण ही उसके जुदे-जुदे नाम पड़े। जब शक्ति के श्राविर्भाव से हृदय दब जाता है, अपनी लज्जा खो बैठता है, तब भयानक रस का निर्माण होता है। सिर पर लटकती हुई एक ऊँची चट्टान के नीचे हम खड़े हों तो उस समय हमारे मन यह विश्वास तो रहता है कि यह शिलाराशि हमारे सिर पर गिरनेवाली नहीं है; उलटे, आँधी-तूफ़ान से ही हमारी रक्षा करेगी। इतना विश्वास होते हुए भी यदि वह कहीं गिर पड़े तो ! – इतना ख़याल मन में आते ही हम दब जाते हैं। यह एक शक्ति का ही आविर्भाव है। पहाड़ जैसी ऊँची-ऊँची लहरों पर तैरकर www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy