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________________ संख्या २] रस-समीक्षा : कुछ विचार चेष्टयों को भी खुल्लमखुल्ला बतलाने की रोक-थाम कर दी वीर-रस है। यह तो कोई नहीं कहता कि नाट्य-शास्त्रकारों को वीर-रस भी अपने शुद्ध रूप में आत्म-विकास को खाने-पीने आदि से घृणा थी। देह-धर्म के अनुसार इन सूचित करता है। सामान्य स्वस्थ स्थिति में रहनेवाला वस्तुओं के प्रति स्वाभाविक आकर्षण तो रहेगा ही, पर मनुष्य अपने अात्म-तत्त्व को प्रकट नहीं कर सकता, क्योंकि ये प्रसंग और ये आकर्षण कला के विषय नहीं हो सकते। यह शरीर के साथ एकरूप होकर रहता है। जब किसी कलाकृति में इन वस्तुओं के लिए काई स्थान नहीं है, असाधारण प्रसंग के कारण खरी कसौटी का समय आता है यह सिद्ध करने के लिए किसी तरह की वैराग्यवृत्ति की तब मनुष्य अपने शरीर के बन्धन से ऊँचा उठता है। ज़रूरत नहीं । हममें सिर्फ यथेष्ट संस्कारिता होनी चाहिए। इसी में वीर-रस की उत्पत्ति है। ..' मध्य-योरप के एक मित्र ने विगत महायुद्ध के बाद की वीर-रस में प्रतिपक्षी के प्रति द्वेष, क्रूरता, उसके गिरी हुई दशा का वर्णन करते हुए लिखा था कि अब सामने अहंकार का प्रदर्शन आदि आवश्यक नहीं है। वहाँ भोजन के अानन्द पर भी कवितायें बनने लगी लोक-व्यवहार में बहुत बार ये हीन भावनायें मौजूद रहती हैं। हमारे नाट्यशास्त्र में शृंगार-चेष्टात्रों के प्रति संयम हैं। कभी कभी शायद ये ज़रूरी भी हो पड़ती हैं; लेकिन रखने का जो इशारा है उसकी अब योरप के अच्छे से यह ज़रूरी नहीं है कि साहित्य में इनका स्थान हो ही। अच्छे कला-रसिक प्रशंसा करने लगे हैं। साहित्य कुछ वास्तविक जीवन का सम्पूर्ण फोटोग्राफ़ नहीं ____ हम प्रेम-रस का शुद्ध वर्णन भवभूति के 'उत्तर- होता । जितनी वस्तुओं की तरफ़ ध्यान खींचना आवश्यक रामचरित' में पाते हैं। 'शाकंतल' में प्रेम के प्राथमिक होता है, साहित्य में उन्हीं की चर्चा की जाती है । इष्ट शृंगार का स्वरूप भी है और अन्त का परिणत शुद्ध रूप वस्तु को आगे रखना और अनिष्ट वस्तु को दबाना साहित्य भी है । सच पूछो तो प्रेम को ही 'रसराज' को पदवी से तथा कला का ध्येय है। इस पुरस्कार और तिरस्कार के विभूषित करना चाहिए। शृंगार को तो केवल उसका बगैर कला का ठीक ठीक विकास नहीं होने पाता। आलम्बन-विभाव कह सकते हैं। शृंगार के वर्णन से साहित्य में वीर-रस को जिन चीज़ों से हानि पहुँचती हो मनुष्य की चित्तवृत्ति सहज में ही उद्दीपित की जा सकती उन्हें साहित्य में से निकाल डालना चाहिए। तभी वह है। इस सहलियत के कारण सभी देशों और सभी काल कलापूर्ण साहित्य होगा। में कलामात्र में शृंगार-रस की प्रधानता पाई जाती है। शौर्य और वीर्य जैसे ऋतुओं में वसंत, उसी तरह रसों में शृंगार उन्माद- लोक-व्यवहार में भी वीर-रस एक सीमा तक आर्यत्व कारी होता है । जिस तरह लोगों की या व्यक्ति की खुशामद की अपेक्षा तो रखता ही है। पशुओं में जोश होता है, करके बातचीत का रस बड़ी आसानी से निभाया जा पर वीर्य नहीं होता। जब जोश में आकर आपे से बाहर होते सकता है, उसी तरह शृंगार-रस को जागृत करके बहुत हैं, वे आपस में अंधाधंध लड़ पड़ते हैं। यही उनकी पशुता अोछी पूँजी के ऊपर अाकर्षण करनेवाली कृति का निर्माण है। पर कहीं ज़रा-सा भी भय का संचार उनमें हुअा कि किया जा सकता है। अपनी दुम दबाकर भागने में उन्हें देर नहीं लगती, और ___सच्चे प्रेम-रस में अपना व्यक्तित्व खोकर 'दूसरे के भय की लज्जा का भाव तो वे जानते ही नहीं। भय की साथ तादात्म्य भाव (सम्पूर्ण अभेद-भाव) का अनुभव लज्जा तो आत्मा का गुण है। जानवरों में इसका विकास नहीं करना होता है। इसी लिए उसमें आत्म-विलोपन और होता । आवेश हो या न हो; लेकिन तीव्र कर्तव्य-बुद्धि के सेवा की प्रधानता होती है। प्रेम तो आत्मा का गुण है। कारण अथवा आर्यत्व के विकसित होने से मनुष्य भय पर अतः देह के ऊपर उसकी हमेशा विजय होती है। प्रेम, विजय पा लेता है। आलस्य, सुखोपभोग, भय, स्वार्थही आत्मा है। अमर प्रेम से प्रात्मा कभी भिन्न नहीं है। इन सबका त्याग कर, देह-रक्षा की चिन्ता से निर्मुक्त हो, इस बात की सभी प्रेमियों, भक्तों और वेदान्ती दर्शनकारों जब मनुष्य अपना बलिदान करने के लिए तैयार हो जाता है ने स्पष्ट घोषणा की है। तभी वह जड़ के ऊपर अपनी देह पर विजय पाकर आत्मShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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