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________________ रस-समीक्षा : कुछ विचार मूलगुजराती लेखक, श्री काका साहब कालेलकर अनुवादक-श्री हृषीकेश शर्मा श्रीयुत काका साहब साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ हैं। इस लेख में उन्होंने यह बताया है कि यह जरूरी नहीं है कि पूर्वाचार्यों ने जिन नव रसों का विवेचन किया है, हम उनके वही नाम और उतनी ही संख्या मानें। रसों का संस्कार गर सोचें तो सहज में ही यह पता प्राणि-मात्र में स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे की तरफ़ लग जायगा कि साहित्य, संगीत श्राकर्षण होता है। सृष्टि ने इस खिंचाव को इतना अधिक और कला, इन तीनों के ही भावना- उन्मादकारी बनाया है कि इसके आगे मनुष्य की तमाम । क्षेत्र होने से इनके भीतर एक ही होशियारी, सारा सयानपन और संयम गायब हो जाता है। वस्तु समाई हुई है। इस वस्तु का ऐसे आकर्षण को उत्तेजन देना आवश्यक है या नहीं, हम 'रस' कहते हैं। प्राचीन इस प्रश्न को हम यहाँ छेड़ना नहीं चाहते। पर इस साहित्याचार्यों ने रस का विवेचन कई रीतियों से किया है। आकर्षण और प्रेम के बीच में जो सम्बन्ध है उसे हमें संगीत में राग और ताल के अनुसार रस बदलते हुए देखे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। स्त्री और पुरुष के गये हैं। चित्रकला में नव रसों के भिन्न-भिन्न प्रसंग तूलिका आपस के आकर्षण में यथार्थ में एक-दूसरे के प्रति प्रेम के सहारे चित्रित किये जाते हैं। रेखाओं-द्वारा तथा विविध होता है या यों ही वे अहं प्रेम को तृप्ति के साधनरूप एकरंगों के साहचर्य से रस व्यक्त किये जाते हैं । परन्तु साहित्य, दूसरे को देखते हैं, पहले इसका निश्चय करना चाहिए। संगीत और चित्रकला की सामूहिक दृष्टि से या जीवन-कला सृष्टि की रचना ही कुछ ऐसी है कि काम-वृत्ति का प्रारम्भ की समस्त सार्वभौमिक दृष्टि से रस का अब तक किसी ने अहं-प्रेम अर्थात वासना से होता है। लेकिन काम अगर विवेचन नहीं किया है। साहित्याचार्यों ने जो कुछ विवेचन धर्म के पथ से चले तो वह विशुद्ध प्रेम में परिणत हो किया है उसे ध्यान में रखकर और उसका संस्कार कर जाता है। विशुद्ध प्रेम में अात्म-विलोपन, सेवा और उसको और भी अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है। प्रात्म-बलिदान की ही प्रधानता रहती है। काम विकार ... यह ज़रूरी नहीं है कि पूर्वाचार्यों ने जिन नव रसों का है। प्रेम को कोई विकार नहीं कहता; क्योंकि उसके पीछे विवेचन किया है, हम उनके वही नाम और उतनी हृदय-धर्म की उदात्तता रहती है। यहाँ धर्म से रूढ़ि-धर्म ही संख्या मान लें। हमारे संस्कारी जीवन में कलात्मक या शास्त्र-धर्म से हमारा तात्पर्य नहीं है, किन्तु अात्मा के रस कौन-कौन-से हैं, अब इसकी स्वतंत्रतापूर्वक छानबीन स्वभावानुसार प्रकट हुए हृदय-धर्म से है। होनी चाहिए। __ शृंगार प्रारम्भ में भोग-प्रधान होता है। पर हृदयशृंगार और प्रेम धर्म की रासायनिक क्रिया से वह भावना-प्रधान बन जाता - हमारे यहाँ शृंगार-रस 'रसराज' की उपाधि से अलंकृत है। यह रसायन और परिणति ही काव्य और कला का किया गया है । वह सब रसों का सरताज माना गया है। विषय हो सकती है। प्राचीन नाट्यकारों ने जिस प्रकार पर बात वास्तव में ऐसी नहीं है। इसे सर्वश्रेष्ठ रस नहीं नाटक में रंग-मंच पर भोजन करने का दृश्य दिखलाने का कह सकते। निषेध किया है, उसी प्रकार उन्होंने भोग-प्रधान शृंगारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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