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सरस्वती
[भाग ३८
कर दिया था कि वह उसके बाद से कभी मेरे पास पुस्तके माँगने न पाया। यह साधारण-सी बात थी। मुझे एकदो बार इसका ध्यान अवश्य आया, परन्तु फिर यह समझ कर कि अब तक उसने अपनी पुस्तके मोल ले ली होंगी, चुप रह गया।
रात को दस बजे होंगे, मैं अपना कमरा अन्दर से बन्द किये पढ रहा था। इतने में द्वार पर शब्द हया। मैंने उठकर द्वार खोलकर देखा। नरेन्द्र खड़ा था। उसकी वेश-भूषा विचित्र हो रही थी। ऊँचे से पतलून के ऊपर बारीक मलमल का लम्बा कुर्ता था और उसके ऊपर गरम जरसी। मुझे उसकी यह वेश-भषा देखकर हसी आगई और वह भी कोई साधारण-सी नहीं जो होठों द्वारा चबाई जा सके । मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा। नरेन्द्र एक.
दम ताड़ गया। यह काई नई बात नहीं थी। छात्रावास में प्रायः रोज़ ही वह अपने ऊपर टीका-टिप्पणियाँ सुना करता था। परन्तु अपने मित्र से उसे ऐसी अाशा नहीं। थी। मानो उसने बड़ी भारी वेदना को पी लिया हो। उसका मुख पीला पड़ गया। मैं बात टालने के ढंग से अपनी हरकत पर आप पश्चात्ताप करता हुअा बोला
"रात को जब सब सो जाते हैं तब वह..."
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