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________________ संख्या १] वह रो रहा था "पाप भी खूब हैं जनाब | रात को दस बजे तशरीफ़ लाये "इधर कई दिनों से एक एक करके वह हमारी हैं । मैं तो सोने जा रहा था।" पुस्तके हमारे कमरों से उठा ले जाता है और दस-पन्द्रह "तब मैं जाता हूँ।" यह कहकर वह मुडा। मैंने दिन के बाद फिर रख जाता है। हम खोजते खोजते तंग लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा-"नहीं, थोड़ी आकर तब तक दूसरी ख़रीद लाते हैं। तुम्हीं बताओ देर बैठो। अब तो तुम बहत ही कम पाते हो।" वह चुप- उसे ऐसा करने का कौन अधिकार हैं। क्या हमें पढना चाप मेरी बात मानकर बैठ गया । इधर-उधर की बातें कर नहीं है ?" चुकने पर मैंने उससे पूछा- "कहो, पढ़ाई का क्या हाल मैंने कहा--नुमसे किसने ऐसा कह दिया ? नरेन्द्र है।" उसने हँसकर टाल दिया। मैंने फिर कहा-"अाज- कभी ऐसा नहीं कर सकता। कल कितने ही दिने से तुम्हारी सूरत तक नहीं दिखाई वह बोला--मैंने स्वयं दो-तीन रात जागकर देखा पड़ती । कहाँ ग़ायब रहते हो ?” उसने धीरे से कहा- "मैं है। रात को जब करीब करीब सब लड़के सो जाते हैं तब तो यहीं रहता हूँ।" वह यहाँ अाकर बत्ती जलाकर लिखता-पढता रहता है। ___उसकी मुख-मुद्रा को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए मैं मेरे नेत्रों के आगे अन्धकार छा गया, विश्वास बोला - 'तुम ग़लत कहते हो । यह बात ठीक नहीं नरेन्द्र ! नहीं हुआ। अब परीक्षा बहुत समीप है। पढ़ेागे नहीं तो कैसे काम उन लोगों ने कहा--विश्वास न हो तो आज रात चलेगा ?" को जाग कर स्वयं देख लो । परन्तु तुम उसको समझा ___"इन बातों की चिन्ता तुम व्यर्थ करते हो।" वह दो | इस तरह पुस्तके उड़ायेगा तो हम लोग उसे खूब गंभीरता से बोला। छकायेंगे। ___मैंने कहा-"और अब तो तुम कभी किताबें भी मैंने लड़कों को समझा-बुझाकर विदा किया। उस माँगने नहीं पाते।” समय केवल रात के नौ बजे थे। मेरा मन पढ़ने में बिल__“अावश्यकता नहीं है ।" उसने सिर हिलाते हुए कुल नहीं लगा । मैंने अपने मन में कहा, क्या वह इतना कहा। निर्धन है । बस, यही प्रश्न रह रह कर मेरे मस्तिष्क में ___इधर-उधर की और एक-दो बातें करके वह उठ खड़ा उलझन पैदा करने लगा। उसने मुझसे अपनी निर्धनता के हुआ। शुष्क गले से उसने कहा-"अब सो जाओ गुड विषय में कभी संकेत नहीं किया था। छात्रावास में बलिया नाइट ।” मैंने भी गुड नाइट किया । वह चला गया। के बहुत-से लड़के रहते हैं। एक से एक धन्नासेठ हैं। तीन-चार दिन तक मुझे फिर नरेन्द्र की सूरत देखने परन्तु वेशभूषा ऐसी कि देखते ही हँसी छुट पड़े। मुझे को नहीं मिली। मालूम नहीं, वह कहाँ रहता था, कब अब ज्ञात हुआ कि नरेन्द्र के कपड़ों का भी किताबों से ही श्राता, नहाता, खाता और सो जाता था। मिलता-जुलता कुछ रहस्य है। ____ एक दिन छात्रावास के पाँच-छः लड़के मेरे पास आये। मेरे कमरे से कुछ दूर नरेन्द्र का कमरा था। कहीं वैसे तो मेरे पास लड़के प्रायः अाया करते थे, परन्तु उस नरेन्द्र को मेरे जागते रहने की आहट न मिल जाय, इस समय उनके चेहरे बहुत गम्भीर बने हुए थे। मैंने हँसकर विचार से मैं कमरे की बत्ती बुझाकर चारपाई.पर पड़ गया। प्रश्न किया--"क्या वार्डन साहब से झगड़ा करके आये टन-टन करके ग्यारह बजे । इस समय तक सब जगह हो ?” उनमें से एक चट बोल पड़ा--"नहीं जनाब, की रोशनी बुझ चुकी थी, और नरेन्द्र के कमरे में प्रकाश झगड़ा अभी किसी से भी नहीं हुअा है। पर होते क्या हो रहा था। कुछ देर और प्रतीक्षा कर लेने के बाद मैं देर लगती है ? तुम यदि नरेन्द्र को नहीं रोकोगे तो देखना नंगे पैर नरेन्द्र के कमरे के समीप पहुँचा। द्वार भीतर से उसकी कैसी मरम्मत हम लोग करते हैं ।” मैंने अाश्चर्य बन्द था, परन्तु खिड़की भिड़ी थी। खिड़की के समीप ही से उन लोगों की ओर देखते हुए कहा-"अरे ! भाई, उसकी मेज़ थी। वह बैठा हुआ एक पुस्तक से कुछ नकल बात क्या है ? कुछ बताअो भी तो।" कर रहा था। उसका सिर झुका था और बीच बीच में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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