________________
१८०
सरस्वती
. [भाग ३८
. दत्त-बहू कहने लगीं—बात क्या है। सवेरे तुम्हारी जिन वही करें, मैं यदि न कर सकें । और मुझे घर में रखना वसु महोदय से मुलाकात हुई थी वे एक बार फिर वासन्ती यदि तुम्हें भार मालूम पड़ता हो तो मुझे मेरे पिता को देखना चाहते हैं। उस समय वे गये नहीं। इससे विशू के यहाँ भेज दो। ने मुझे तुम्हारे पास इसलिए भेजा है कि वासन्ती को हरिनाथ बाबू कुछ कहने जा रहे थे कि दत्तज़रा-सा सजा रखने की ज़रूरत है । परन्तु बहू इस बात का ने उनके मुँह पर हाथ रखकर कहा-बहू और अनुभव नहीं करती। अभी थोड़ी ही देर में वे इसे देखने हरिनाथ, तुम लोग ज़रा-सा चुप रहो। वे भी एक भले आवेंगे।
श्रादमी हैं। कहीं आगये और तुम लोगों की इस तरह की .. हरिनाथ बाबू ने कहा-तो चाची जी, उनके जल- बातें सुन ली तो भला अपने मन में क्या कहेंगे ? मैं पान आदि का भी कुछ प्रबन्ध करना होगा, नहीं तो अच्छा अकेली ही सब कुछ कर लूँगी । अब भी इस बुढ़ापे में भी. न मालूम पड़ेगा।
मैं सात सात भोज पार कर सकती हूँ। हरिनाथ, तुमको मैं चाची जी ने कहा----कुछ तो करना ही पड़ेगा। जो कहती हैं वही करो। बाज़ार जाते समय विशू को और यह तो बहू भी कर सकती है। तुम बाज़ार से कुछ कहते जाना कि बहू मज़दूरिन को लेकर तुरन्त ही यहाँ फल और थोड़ी-सी मिठाई ला दो। बाकी चीजें घर में आ जाय, देरी न होने पावे । 'ही तैयार हो जायँगी।
___ ज़रा हो देर के बाद एक नवयौवना स्त्री मज़दूरिन को . हरिनाथ बाबू की स्त्री का चाची जी के साथ एक गुरुजन साथ लिये हरिनाथ बाबू के घर में पहुँच गई। दत्तका-सा सम्पर्क था। इस कारण उनके सामने वह बोलती नहीं बहू के पास जाकर उसने कहा-मा, क्या तुमने मुझे थी। परन्तु क्रोध के वश में श्रा जाने के कारण वह इस बात बुलाया है ? को भूल गई। एक तो वह पहले से ही हुँझलाई हुई थी, पुत्रवधू को देखकर उन्होंने कहा-बहू, तुम अागई बाद को यह बात सुनकर उसका पारा और चढ़ आया। हो । अच्छा, तुम झटपट वासन्ती के बाल सँभालकर बहुत ही कर्कश स्वर से उसने कहा-इन सब दुनिया भर बाँध दो। .बाद को मज़दूरिन से बर्तन साफ़ करने को के लोगों के लिए हाड़ तोड़ने का मैं नहीं तैयार हूँ। सवेरे कहकर वे स्वयं चूल्हा जलाने लगीं। परन्तु उन्हें ऐसा से ही मेरे मस्तक में पीड़ा हो रही है । मुझे बूंद भर पानी करते देखकर वासन्ती की मामी चुपचाप न रह सकी। देनेवाला भी कोई नहीं है। तिस पर ऐसी दोपहरी में दत्त-बह को बैठने को कहकर वह स्वयं सारा काम-काज चूल्हे के सामने बैठकर ऐसे गैर आदमियों के लिए , करने लगी। भोजन बनाने बैह् ? मुझे इतनी गरज़ नहीं है । जिसकी यथासमय राधामाधव बाबू वासन्ती को देख गये । गरज़ हो वह करे।
उसे तो वे पहले से ही पसन्द कर चुके थे, किन्तु जाते । यह सुनकर हरिनाथ बाबू ने रूखे स्वर में कहा- समय कह गये कि घर जाकर अपने निश्चय की सूचना गरज़ चाची जी को ही है।.ये ही सब करेगी। तुम्हें- दंगा । विपिन बाबू के साथ कलकत्ता जाने से पहले उन्होंने
उनकी बात समाप्त भी न होने पाई कि गृहिणी बोल हरिनाथ बाबू को पत्र लिखा कि मैं दो-एक दिन में उठी–मैं तो सदा से ही बुरी हूँ। जो लोग अच्छे हों वासन्ती को आशीर्वाद देने आऊँगा।
AME
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com