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________________ २४४ सरस्वती [भाग ३ है। स्त्री-धन को अपरिमित अर्थ में मानने को यह भी थीं। ऐसी पुत्रियों के बाद धीरे धीरे अन्य पुत्रियाँ भी तैयार नहीं है। बंगाल का मत भी इसी प्रकार का है। सम्पत्ति की अधिकारिणी होने लगी। मिताक्षरा की उक्त परिभाषा से कोई सहमत नहीं है। पुत्री के बाद माता उत्तराधिकारिणी मानी गई । इतना ही नहीं, अाज-कल की विचार-धारा भी उसके पक्ष माता का नाम आने का प्रधान कारण यह है कि वह में नहीं है। स्त्री-धन के कई मुकद्दमे हुए हैं और सभी में पुत्र से श्राद्ध-तर्पण आदि पाने की अधिकारिणी है। न्यायाधीशों का निर्णय मिताक्षरा के मत के विरुद्ध हुश्रा पुत्री और माता के बाद विधवा पत्नी का स्थान है। है। तथापि अनेक न्यायाधीश और कानून के ज्ञाता यद्यपि आज वह उन दोनों से गणना में ऊँची समझी मिताक्षरा से सहमत हैं और उसे ठीक समझते हैं। पर जाती है, फिर भी उसे अधिकार उनके बाद मिला है। देश-काल के प्राचार का इतना प्रबल प्रभाव है और प्राचीन काल से ही विधवा अपने पति के उत्तराधिकापरम्परा ऐसी बंध गई है कि परिवर्तन करने का किसी रियों से निर्वाह के लिए धन पाने की अधिकारिणी थी। को साहस नहीं होता। यदि कोई पुरुष निःसन्तान मर जाता या संन्यास धारण __अब हमें यह जानना है कि स्त्री की वह सम्पत्ति जो कर लेता था तो उसके भाई उसकी सम्पत्ति आपस में बाँट पारिभाषिक स्त्री-धन की परिधि के भीतर नहीं पाती, उसे लेते थे और उसकी विधवा को निर्वाह के लिए यथे कैसे मिली और उस पर उसके अधिकारों का विस्तार कैसे दे देते थे। हुआ। धीरे धीरे प्रवृत्ति यह होने लगी कि यदि मृत पुरुष की प्राचीन काल से हिन्दू-परिवार संयुक्त चला आता है। सम्पत्ति थोड़ी है तो वह सारी ही विधवा को उसके जीवन भोजन, पूजन और सम्पत्त्यधिकार ये सभी संयुक्त रहा करते भर के लिए दे दी जाय । इसी प्रथा के आधार पर श्रीकर थे और परिवार के पुरुषों को एक नियमित और निश्चित ने लिखा है कि केवल स्वल्प सम्पत्ति पर ही विधवा उत्तराक्रम से सम्पत्ति में भाग मिला करता था। स्त्रियों को धिकार प्राप्त कर सकती है। एक बार यह प्रथा निकल पारिवारिक सम्पत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता था और पड़ने के बाद यह कहना कठिन हो गया कि कौन सम्पत्ति उनका कुछ भी अधिकार नहीं था। धीरे धीरे संयुक्त परिवार छोटी है, कौन बड़ी है । पति के मरने के बाद विधवा दुःख टूटने लगे और पुरुषों में आपस में सम्पत्ति का बँटवारा में न पड़े और पति की श्राद्ध-क्रिया आदि समुचित रूप होने लगा। अब एक अड़चन पड़ने लगी । बँटवारा होने से कर सके, इसके लिए यह नियम चल पड़ा कि जब तक से सम्पत्ति की वह मद जिससे स्त्रियों का पालन-पोषण होता वह जीवित रहे तब तक सम्पत्ति चाहे छोटी हो या बड़ी उसी था, कई टुकड़ों में बँट जाने लगी। अब एक ही उपाय के हाथ में रहे। वह उस करे, किन्तु उसे था। या तो किसी एक विशेष हिस्सेदार को अधिक हिस्से बेचने या किसी को देने का अधिकार न हो और उसकी दे दिये जाय, जिससे वह स्त्रियों के भरण-पोषण का उत्तर. मृत्यु के बाद उसके पति का वास्तविक उत्तराधिकारी दायित्व उठा सके या उन्हीं को सम्पत्ति में से कुछ दिया उसे ले ले।। जाय जिससे वे अपना निर्वाह कर सकें। नियोग की प्रथा का भी इस पर बहुत कुछ प्रभाव इस प्रकार स्त्रियों का पारिवारिक सम्पत्ति में केवल पड़ा । गौतम के कथनानुसार जान पड़ता है, प्रारम्भ में हिस्सा ही नहीं रहा, किन्तु उन्हें उत्तराधिकार भी प्राप्त केवल वही विधवा सम्पत्ति में उत्तराधिकार पाती थी जो हो गया। फिर भी उनका सम्पत्ति का अधिकार निर्वाह के नियोग-द्वारा पति के नाम पर पुत्र उत्पन्न करती थी। किन्तु लिए केवल उसका उपभोग-मात्र था। वे उसकी यथार्थ काल-क्रम से यह प्रथा उठ गई। पति के पहले उत्तराधि. स्वामिनी नहीं हो पाई। कारी स्वभावतः यह नहीं चाहते थे कि स्त्री एक नया __ इस प्रकार की स्त्रियों में सर्वप्रथम स्थान 'पुत्री का उत्तराधिकारी उत्पन्न करके उन्हें सम्पत्ति से वञ्चित कर दे। है। प्रारम्भ में यह अधिकार केवल उन्हीं पुत्रियों को इसलिए पीछे यह शर्त लगा दी गई कि स्त्री को सम्पत्ति मिला जो अपने पिता के लिए नियोग से पुत्र उत्पन्न करती तभी मिलेगी जब वह पवित्रता से जीवन पालन करेगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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