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________________ सरस्वती [ भाग ३ ज़रा-सा कट गया और खून बहने लगा। असह्य यन्त्रणा कन्या तया विधवा पत्नी के लिए न तो वे किसी प्रकार की के मारे उसके मह से निकल गया—हाय बाप रे! सम्पत्ति छोड़ गये थे और न किसी का सहारा हो कर गये बासन्ती की यह बात सुनकर क्रोध के मारे कांपते हुए थे। अतएव भाई के घर में श्राश्रय ग्रहण करने के अतिस्वर में मामी ने कहा-बाप को क्या पुकारती है रे रिक्त बासन्ती की मा के लिए कोई दूसरा मार्ग ही नहीं अभागिन ? बाप का तो तूने धरती पर गिरते ही खा लिया। था। परन्तु भौजाई का निष्ठुर तथा हृदयहीन व्यवहार थोड़े ही दिनों के बाद मा को भी खा लिया। इतने से अधिक समय तक सहन करना उसके भाग्य में नहीं बदा भी पेट नहीं भरा तब अब हम लोगों को खाने आई है। था। इसलिए उसकी अशान्त श्रात्मा शीघ्र ही शान्तिमय इतनी बड़ी लड़की के ऐसे ऐसे गुण ! इसके लक्षण देख- के चरणों के समीप चली गई। कर शरीर जल जाता है। निकल जा मेरे घर से। अब माता की मृत्यु के समय बासन्तो केवल चार वर्ष की यदि कभी घर के भीतर पैर रक्खा तो पीटते पीटते खाल थी। माता-पिता की गोद से बिछुड़ी हुई इस बालिका उधेड़ लूँगी। देखो न इस हरामज़ादी को! कटोरी तोड़ी का मामा ने बड़े ही यत्न से पालन-पोषण किया। है इसने, अपराध लगाती है दूसरे को । हट जा मेरे सामने उसके मामा हरिनाथ बाबू उसे बहुत ही प्यार करते तक तू उठी नहीं ? इस तरह की करतूत पर थे, परन्तु मामी को वह फूटी आँख भी नहीं सुहाती थी। तेरी जो दुर्दशा न हो वही थोड़ी है। जन्मकाल से ही दुर्भाग्य की गोद में पालन-पोषण प्राप्त ___ मामी ने बासन्ती का हाथ पकड़कर ज़ोर से खींचा, करनेवाली वह बालिका असाध्य साधना करके भी मामी गला पकड़कर दरवाज़े के बाहर सड़क पर कर दिया, और का स्नेह आकर्षित करने में समर्थ नहीं हो सकी। बालिका स्वयं द्वार बन्द कर भीतर चली गई। होकर भी वह बहुत ही बुद्धिमती थी। उसने अपने ___ सावन का महीना था। आकाश मेघ से आच्छादित दुर्भाग्य का अनुभव कर लिया था। यही कारण था कि था। पानी की बूंदें टप टप करके गिर रही थीं। अँधेरा वह सदा ही बहुत सावधान होकर रहा करती थी और क्रमशः घना होकर चारों दिशात्रों को ढंक रहा था। लाख कष्ट होने पर भी कभी मँह नहीं खोलती थी। परन्तु धूसरवर्ण की यवनिका संसार को अपने प्रावरण से छिपा जितना ही वह सावधान होकर रहती थी, उतनी ही उसकी रही थी। उसी अन्धकार से प्रायः समाच्छादित सड़क विपत्तियाँ बढ़ती जाती थीं। ग्यारह वर्ष की ही अवस्था पर अकेली ही बैठी बासन्ती रो रही थी। उसके ललाट में घर का सारा काम उसने अपने हाथ में ले लिया था। से उस समय भी रक्त की ज़रा ज़रा-सी बूंदें चू रही थीं। क्या छोटे, क्या बड़े गृहस्थी के किसी भी काम में दूसरे बीच बीच में वह अञ्चल के वस्त्र से चूता हुआ रक्त पोंछ को हाथ लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। परन्तु लिया करती थी । गाँव से दूर शृगालों का झुंड इतने पर भी उसे सदा मामी की झिड़कियाँ ही सहनी अपनी हुअा हुआ की ध्वनि से बस्ती की निस्तब्धता को पड़ती थीं। कभी भूल कर भी मामी शान्ति के साथ उससे भंग कर रहा था । भय से व्याकुल होकर बेचारी बासन्ती बात नहीं करती थी। सोच रही थी कि ऐसे अँधेरे में मैं कहाँ जाऊँ । मामा दरिद्र के घर में जन्म ग्रहण करने पर भी बासन्ती का तीन-चार दिन के लिए बाहर गये हैं। उन्हें छोड़कर रूप असाधारण था। उसके मस्तक के काले काले बाल और कौन ऐसा है जो आकर मुझे घर ले जाय । मामी घुटने के नीचे तक लटक पड़ते थे। उसके शरीर का रंग तो शायद भीतर पैर भी न रखने देगी। इसी तरह की चम्पे के फूल का-सा । मुँह की सुन्दरता के सम्बन्ध में कितनी चिन्तायें उसके छोटे-से हृदय में चक्कर काट रही थीं। फिर कहना ही क्या था? उसे एकाएक देखकर देवकन्या बहुत थोड़ी ही अवस्था में माता-पिता के स्नेह से का-सा भ्रम हो जाता था और अपने आप ही उसके प्रति वञ्चित होकर बासन्ती का मामा के घर में श्राश्रय ग्रहण स्नेह का भाव उदित हो पाता था। परन्तु इस प्रकार की करना पड़ा था। जय बह दस दिन की थी तभी उसके अतुलित रूपराशि लेकर जन्म ग्रहण करने पर भी दुर्भाग्य पिता इस संसार से विदा हो गये थे। अपनी एक-मात्र के हाथ से वह छुटकारा नहीं पा सकी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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