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कटे खेत
लेखक, श्रीयुत केसरी उजड़ा दयार या चमन कहूँ।
श्रो वसुंधरे ! इस परिवर्तन को निधन कहूँ या सृजन कहूँ। उजड़ा दयारकल लोट-पोट थी हरियाली तेरे आँगन में लहराती
गेहूँ के गोरे गालों पर रूपसी तितलियाँ बलखातीं। छवि का नीलम संसार सघन सौरभ का वह बाजार नया
रे कहाँ शून्य इन खेतों से मधुवन का वह गुलजार गया । बढ़ झौर-झौर मधु बौर-भरी सरसों मदमाती झूम रही . - अब कहाँ बैंगनी पीली कुसुम-कली को कोयल चूम रही। अब कहाँ बेल-बूटों-सी खेतों की कोरों पर इठलाती
साँवली सलोनी पुतली-सी अलसी विलसी पाँती-पाती। लुट गया आह! वैभव-सुहाग लुट गई आज वह फुलवारी
श्रो भूमि ! कहाँ खाई तूने निज चिर-संचित निधियाँ सारी ! "सुंदर थी मैं ओ पथिक ! आज मेरी सुंदरता बिखर गई
जग में सुंदरता भर कर तो मेरी सुंदरता निखर गई। मैं बनी अकिंचन आप और मुझसे गृह-गृह परिपूर हुआ
हूँ धन्य आज मम अंचल-धन जग की आँखों का नूर हुआ। कल थी सुहागिनी आज विश्व-हित हूँ तपस्विनी त्यागमयी,
मेरी सरसों वह आज देव-मंदिर का अमल चिराग़ हुई। बलि बलि जाती तुझ पर मेरे ओ ! कुसुमों की चंदनवाड़ी
जो रंग दी तूने कृषक-किशोरी की वह वासंती साड़ी। मेरे आँगन की हरियाली बन अमरलता फैली जग में ।
__परित्राण बनी दे नव संबल थकितों को कटु जीवन मग में । प्राणों के रस से सींच-सींच जो अंकुर मैंने पनपाये
क्षम सफल जगत का आँगन यदि उनकी छाया से सरसाये। चल जीवन का बस ध्येय यही शाश्वत जग का उपकार करूँ
प्रतिवर्ष दीन-मानव मंदिर में नवल नवल उपहार धरूँ। अर्चित तप के फल दे जग को मैं सिद्ध योगिनी-सी मन में
__संतुष्ट, ग्रीष्मपंचाग्नि बीच तपती रहती नित कण-कण में। फिर प्रेमवशी घनश्याम उमड़ जब सावन-भादों बरसाते
जग का कल्याण लिये मेरे उर नये-नये अंकुर आते।
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