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________________ १६४ सरस्वती [भाग ३८ यह नृत्य के विषय का एक साधन-मात्र है । इसका प्रकट होती है । वेगपूर्ण अंग-संचालन भी काम में लाया मनमानी और बेमानी तरीके से केवल शरीर का तोड़ना- जाता है । सच तो यह है कि इस प्रकार का अंग-संचालन मरोड़ना नहीं समझना चाहिए। . एक पूर्ण नर्तक स्वाभाविक रूप से करने लगता है जब • लोच के साथ अंग-संचालन जब कायदे से किये जाते उसको बहादुरी के भाव-प्रदर्शन करने होते हैं । इससे यह . हैं तब वे नृत्य के लिए उतने ही ज़रूरी और कीमती होते प्रकट होगा कि यदि हमको वास्तव में प्राचीन नृत्यकला हैं जितना कि स्वर की शुद्धता संगीत के लिए और रंग को पुनरुजीवित करना है तो हमारे नर्तक को ध्यानपूर्वक मिलाना चित्र-कला के लिए । अंग-संचालन में धारा-प्रवाह भक्ति-पूर्ण दृष्टिकोण बनाना पड़ेगा। यही दृष्टिकोण नाच के लिए, एक बहुत ऊँची श्रेणी के कलाविंद् की आवश्य- की बुनियाद होनी चाहिए । नृत्य-कला में 'पैर का काम, कता होती है । एक सच्चे प्राचीन कला के नर्तक की यह लोच या लय और अभिनय का पूर्ण समन्वय होना पहचान है कि उसके नृत्य में प्रयत्न या.तनाव नहीं होना चाहिए । इसी ढंग पर जनता के नेत्र, मन और हृदय को चाहिए या यों कहिए कि उसे अपने को नृत्य में मग्न कर भी शिक्षित करना चाहिए जिससे सच्ची प्राचीन नृत्य-कला देना चाहिए। यह मानसिक शान्ति या समाधि ज़ोरों से के पल्लवित और ग्रथित होने के लिए अनुकूल वायुनृत्य करते समय नर्तक के चेहरे और अंग-संचालन से मंडल तैयार हो जाय। हिन्दी लेखक, श्रीयुत ज्वालाप्रसाद मिश्र, बी० एस-सी०, एल-एल० बी० कौन तुझे दीना कहता है ? मा ! आसेतु हिमाचल तेरा यशःसलिल निर्मल बहता है ।। हम लोगों के भव्य भाल की हिन्दी तू बिन्दी-सी है। उत्तर से दक्षिण तक तेरी पावन ज्योति जगी-सी है। तुझे समुद अपनाकर भारत कितना गुरु गौरव लहता है। नित्य नई है नित्य निराली नव-रस-मयी सृष्टि तेरी। शीतल करती है हृत्तल को सुन्दर भाववृष्टि तेरी। मतवाला मयूर-सा हा मन किसका नहीं नृत्य करता है। तुलसी सूर कबीर जायसी या रहीम रसखान सभी। तेरे भव्य भवन में आये भेद न कोई हुआ कभी। मिली तुझे उनसे उनको भी तुझसे अमरों की समता है ।। तेरे शत शत लाल चमककर अब भी रवि शशि तारों-से । सजा रहे हैं तेरा अंबर उज्ज्वल मणिमय हारों से । . मलयानिल सौरभ-सा जिसमें भावोच्छ्वास निहित रहता है। हिन्दू मुसलमान ईसाई तू तीनों की पूज्य बनी। चढ़ा रहे तेरे चरणों पर सब श्रद्धाञ्जलियाँ अपनी। . अपरों तक को अपनाने की तुझमें भरी हुई ममता है। वह विशुद्ध लेखन-पद्धति वह शब्दों की संहति तेरी। कितनी स्पष्ट सुबोध सरल है आकृति और प्रकृति तेरी। ...देवि ! राष्ट्रभाषा बनने की तुझमें ही सच्ची क्षमता है ।। कौन० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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