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संख्या ४ ]
हिन्दुस्तानी' वाली प्रवृत्ति जिसका उल्लेख इस संस्था के है, जिससे इस संस्था की उपादेयता में बाधा पड़ने की नियमों में स्पष्ट शब्दों में है । संभावना है। वास्तव में इस संस्था को 'हिन्दी-उर्दू ऐकेडेमी' ही रहना चाहिए ।
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इनके अतिरिक्त प्रगतिशील लेखक संघ (प्रोग्रेसिव राईटर्स असोसिएशन) जैसी छोटी छोटी संस्थायें तथा कुछ थोड़े-से स्वतंत्र व्यक्ति भी हैं । किन्तु इनका पृथक उल्लेख करना अनावश्यक है, क्योंकि इनको प्रोत्साहन किसी न किसी तरह उपर्युक्त चार मुख्य दिशाओं से ही मिलता है । अतः इन्हीं चारों पर एक दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है । साधारण विश्लेषण करने से एक अत्यंत मनोरंजक परिणाम निकलता है । वह यह है कि इन विरोधी शक्तियों में से पहले दो के पीछे सरकारी नीति है और अन्तिम दो के पीछे कांग्रेस महासभा की नीति । अपने देश के ये दो विरोधी दल साहित्यिक हिन्दी को बलिदान करने में संयोग से एक हो गये हैं, यह एक विचित्र किन्तु विचारणीय बात है ।
कांग्रेसवादियों में हिन्दी को हिन्दुस्तानी अथवा सरल उर्दू बनाने के उद्योग का मुख्य अभिप्राय मुसलमानों के साथ समझौता करना मात्र है। हिन्दी की जिन संस्थाओं में कांग्रेसवादियों का ज़ोर है, वहाँ कांग्रेस की इस नीति का प्रवेश होगया है । प्रारंभ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिन्दी - प्रांतों में करना प्रारंभ किया था। शीघ्र ही इस कार्य का नेतृत्व कांग्रेसी लोगों के हाथ में चला गया। इसका फल यह हो रहा है कि इस अन्तर्प्रान्तीय हिन्दी के नाम में तो परिवर्तन हो गया, इसके रूप में भी शीघ्र ही परिवर्तन होने की पूर्ण संभावना है। अभी कुछ ही दिन हुए साहित्य-सम्मेलन की एक कमिटी में यह प्रस्ताव पेश था कि सम्मेलन की 'राष्ट्र-भाषा' परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए उर्दू-लिपि की जानकारी भी अनिवार्य समझी जाय । यदि साहित्य सम्मेलन की बागडोर और कुछ दिनों कांग्रेसी लोगों के हाथ में रही तो यह प्रस्ताव तथा इसी प्रकार के अन्य प्रस्ताव निकट भविष्य में स्वीकृत हो जायँगे और समय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के साथ-साथ उर्दू भाषा और उसकी लिपि का प्रचार भी करने लगेगा। इंदौर का प्रस्ताव इस भावी नीति की प्रस्तावना थी ।
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प्रान्तीय सरकार का कहना है कि जब तक हिन्दी और उर्दू मिलकर एक भाषा का रूप धारण नहीं कर लेती तब तक प्रान्त की भाषा-सम्बन्धी समस्या हल नहीं हो सकती । कदाचित् 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी' । वास्तव में जिस दिन 'कामन लैंग्वेज़' वाली नीति प्रारंभ हुई थी, उसी दिन इसका पूर्ण शक्ति से विरोध होना चाहिए था । किन्तु हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं का दृष्टिकोण सार्वभौम तथा अखिलभारतवर्षीय रहता है, अतः हिन्दियों के नित्यप्रति के जीवन से सम्बन्ध रखनेवाली व्यावहारिक समस्याओं पर विचार करने में उन्हें संकुचित प्रान्तीय दृष्टिकोण की गंध आने लगती है। जो हो, इस उपेक्षावृत्ति का फल यह हुआ है कि आज हमारे बच्चों की शिक्षा का माध्यम न हिन्दी है, न उर्दू और न अँगरेज़ी । तीनों में से एक भी भाषा वे अच्छी तरह नहीं सीख पाते । एक तरह से हमारी वर्तमान संस्कृति सम्बन्धी अवस्था का यह सच्चा प्रतिविम्ब है ।
भारतीय साहित्य परिषद् का वर्धा में होना ही इस बात का द्योतक है कि यह संस्था कांग्रेस महासभा की देशसम्बन्धी साधारण नीति का साहित्यिक अंग है । अतः इसके नियमों में 'इस परिषद् का सारा काम हिन्दी याने हिन्दुस्तानी में होगा' का रहना ग्राश्चर्यजनक नहीं है । इस नियम के अनुसार तो हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नाम भी 'हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी साहित्य-सम्मेलन' हो सकता है । ऐसी अवस्था में 'हिन्दी-उर्दू यानी हिन्दुस्तानी ऐकेडेमी', 'हिन्दी यानी हिन्दुस्तानी साहित्य परिषद्', 'हिन्दुस्तानी यानी हिन्दी साहित्य सम्मेलन' और 'कामन लैंग्वेज' की नीति, ये चारों मिलकर एक एक ग्यारह की कहावत चरितार्थ कर सकते हैं।
भारत की जातीय भूमियों में केवल हिन्दी प्रदेश ही
साहित्यिक हिन्दी को नष्ट करने के उद्योग
हिन्दुस्तानी ऐकेडेमी की स्थापना प्रान्तीय सरकार ने हिन्दुस्तानी भाषा गढ़ने के उद्देश से नहीं की थी। यह बात इस संस्था के नियमों तथा श्राज तक के प्रकाशित ग्रन्थों को देखने से सिद्ध हो सकती है। किन्तु दुर्भाग्य से इस संस्था के नाम तथा कुछ प्रमुख संचालकों के व्यक्तिगत विचारों के कारण यह रोग इस संस्था के पीछे लग गया
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