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________________ संख्या ४] रायबहादुर लाला सीताराम ३६९-. तारीफ़ करते थे। उन्होंने हिन्दी के कई 'महारथियों' का से बातें कर रहे थे। थोड़ी देर के बाद वे उठकर बोलेनाम लेकर मुझसे भी कहा था कि 'मैंने इन सब लोगों चलिए, रोशनी में चला जाय । हम लोग सहन के पूरब-" से अधिक हिन्दी की सेवा की है। मैंने हिन्दी एम० ए० वाले कमरे में आये। वहाँ उन्होंने वह पैकेट खोला। का कोस बना दिया है।' पर मुझे तो इन बातों में आत्म- उसमें बहुत-सी किताबें थीं जो कहीं से रिव्यू के लिए श्लाघा का भाव मिला नहीं, अपितु ये बातें तो ऐसी ही हैं, आई थीं। बाद में लाला जी ने बतलाया कि वे कहाँ से जैसे दिन भर कोई आपका काम करे और जब शाम को आई थीं। लगभग नित्य ही उनके पास उतनी किताबें अापके दरवाज़ पर से गुज़रे कि मज़दूरी चाहे श्राप दे या न आया करती थीं और उन्हें गवर्नमेंट के लिए उनकी रिव्यू दें, एक मुसकुराहट से उसका मन तो ज़रूर भर दें, तब आप लिखनी पड़ती थी। वे उन दिनों एक किताब भी लिख मुँह फेर ले और कहें जाओ तुमने काम ही क्या किया है। रहे थे*। पत्र-पत्रिकाओं में भी उनके रह गई हिन्दी के एम० ए० के कोर्स के बनाने की बात, सो थे। । इस अवस्था में इतना काम ! लाला जी सचमुच ही तो यह स्पष्ट ही है हिन्दी का एम० ए० सबसे पहले कल- एक बड़े योद्धा थे, जो अपने विचारों को लिये बड़ी धीरता, कत्तायूनिवसिटी में प्रारम्भ हुअा। सर आशुतोष मुकुर्जी ने और संयम से ग्रागे बढ़ते जा रहे थे। किताबों के उलटतेकोस बनाने का काम लाला जी को ही सौंपा था । लाला जी पलटते वे एक किताब से रुक गये । बोले--यह लीजिए। से कहा था कि सर आशुतोष उनसे आकर मिले यह मेरे एक मित्र की लिखी किताब है। मुझे मालूम था रस. में सर अाशुतोष के परिचित लोगों कि उन्होने एक किताब लिखी है, पर उन्होंने मेरे पास से उनके सम्बन्ध में जो कुछ सुना है उसके अनुसार सर नहीं भेजी थी। यह अपने आप ही आ गई। थोड़ी देर अाशुतोष जैसे महान् व्यक्ति का ऐसा करना कुछ के लिए उस किताब में डन गये। मैं उस दमियान यह आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात जो है वह सोच रहा था कि यदि इनके पास कई बार अाकर इनके यह कि लोग परिस्थितियों का विस्मरण कर लाला जी के संस्मरण लिख लिये जायँ तो एक बात हो । लाला जी ने कार्यों पर पर्दा डाल दें और उनकी उचित बातों को उनकी जब उस किताब से अाँख उठाई तब मैंने यह प्रस्ताव रख श्रात्मश्लाघा समझे । इसमें सन्देह नहीं कि लाला जी दिया । फिर इसी पर बातें होने लगीं। लाला जी ने उस . अपना कार्य कर चुके थे, पर जिस समय उन्होंने हिन्दी समय यह भी कहा था कि मैं इन दिनों रामबाग़ के पास को अपनाया था तब उनकी परिस्थिति के लोग हिन्दी में मन्दिर बनवा रहा हूँ। शाम को अक्सर वहीं रहता हूँ । कुछ लिखना अपमान समझते थे। उस समय वर्तमान उस समय एक छोटे बच्चे को उँगली से पकड़े एक सज्जन -साहित्य की नींव डाली जा रही थी। कुछ दिन उनके पास आये। लाला जी ने सिर्फ हाँ-नहीं में उनसे बाद लाला जी की गणना महान् स्तंभों में चाहे भले ही चन्द सेकेंड बात की। वे खड़े-खड़े चले गये। लाला जी ने न हुई हो, पर नींव की वे इटें जिन पर हिन्दी का भव्य भवन बतलाया कि वे उनके लड़के हैं। मालूम नहीं, मेरा अनुमान उठाया जा रहा है, अवश्य ही महत्त्वपूर्ण है। इस कहाँ तक ठीक है, पर ऐसा जान पड़ा कि लाला जी लड़कों सम्बन्ध में लाला जी का नाम चिरस्मरणीय रहेगा, इसमें से बहुत अधिक बातें करने के कायल नहीं थे। मुझे इस सन्देह नहीं । इतना ही नहीं, सच तो यह है कि हिन्दी पर कुछ आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि मेरी उम्र के तो उनके की वतमान गति भी लाला जी के विचारों के प्रतिकुल पुत्रों की सन्तान भी होंगी, पर मुझसे थोड़ी ही देर में वे. नहीं थी। जिन चन्द लोगों पर हिन्दी और उर्दू दोनों का ऐसे घुल-मिल गये थे, जैसे मेरी उनकी बहुत दिनों की समान विश्वास हो सकता है, लाला जी उनमें से एक जान-पहचान थी। थे । कहें तो कह सकते हैं कि लाला जी शुरू से अन्त तक ठीक पथ पर रहे और यह उनके साहित्यिक जीवन * संभवतः अयोध्या का इतिहास ।-लेखक । की एक विशेषता थी। अस्तु । + इलाहाबाद-यूनिवसिटी की मैगज़ीन में उनके लेख . उस अवस्था में भी वे कितने अथक उत्साह और सन उनकी मृत्यु के बाद भी छपे हैं।-लेखक। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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