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________________ . ३७४ सरस्वती [भाग ३८ ब्राह्मण का पत्रा और महाजन की बही हमेशा सच्ची कि माधो घर में रहकर अपनी उम्र बरबाद कर दे। अब ही मानो जाती है। इनमें झूठ की गुंजाइश ही नहीं वह कमाकर घर भर की परवरिश करने के लायक हो होती। अभी तक इस विचार में परिवर्तन की कोई ज़रूरत गया था। जब से बहू अाई थी और घर में खुशहाली थी, नहीं समझी गई। इनकी कद्र अाज भी उतनी ही है, वह अपने बच्चे और माधो के बीच कोई फर्क नहीं देखती जितनी आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व थी। रमई ने खिन्न भाव थी। मगर अब वह गैर था, नालायक और निकम्मा था। से कहा- "अच्छा साहु, गाय ले लो। सौ रुपये और वह चाहती थी कि माधो परदेश निकल जाय, मगर वह सही। कहीं से कर्ज काड़कर वह भी चुकाया जायगा। साफ़ साफ़ कह नहीं सकती थी, शायद सौतेलेपन के अब तो फँसे ही हैं।" लाञ्छन का डर था। वह खुद जलती थी और उसी अाग "तो क्या साठ लोगे?" में माधो को भी जलाती थी। “साहु, बड़ा जतन हुआ तब तैयार हुई है। साढ़े जिस दिन गुदरी साहु ने गाय ली उसके महीने सवा तीन सेर जब जी चाहे, दुह के देख लो।" महीने बाद माधो घर से गायब हो गया। ताख में रमई .. "भाई, हम तो पैंतिस से ज़्याद न देंगे। अाखिर के रक्खे हुए कुछ रुपये और बहू के कुछ ज़वर गायब थे। व्योहार किस दिन के लिए किया था ? गऊ इसी देहात में घर में तहलका मचा हुआ था, लेकिन रजनी चुप थी, एक से एक पड़ी हैं। मुझे गाय की ज़रूरत थी। रुपये मानो उससे कोई सरोकार ही न था या माधो उससे कह न थे। चाहता था, तुम्हीं से ले लूँ । खैर, तुम्हारी इच्छा कर गया था। नहीं है तो न दो, लेकिन रुपयों का इन्तज़ाम कर दो।मैं किसी दसरी जगह से मैंगा लूँगा और जो फँसने फँसाने की माधो चार वर्ष के बाद कमाकर घर लौटा। बात कहते हो तो कोई फंदा लेकर तुम्हारे घर नहीं गया साथ में एक सूटकेस और फलों की टोकरी थी। रमई उसे था। सौ मरतबे पैर पर गिरे तब भाई दे दिया। समझा था इस तरह देख रहा था, जैसे वह ख़दा के घर से पाया हो कि तुम एहसान न भूलोगे । उसका यह फल पाया ।" या कोई आसमानी फ़रिश्ता हो जो उसे कर्ज़ से मुक्ति देने __रमई गुदरी साहु के बाप के वक्त से दूध, दही, रस, आया हो। माधो अपनी कमाई की कथा सुना रहा था कटहल पहुँचाया करता था जब उसे पैसों की हाजत न कि किस तरह उसने ज़ेवर बेच कर गाय मोल ली और थी। वह कह सकता था कि साहु, मैंने भी व्योहार इसी पैसे बचाकर अपना कारोबार बढ़ाया। बातचीत करते लिए किया था कि समय-कुसमय पर हमारी मदद करोगे, समय उसने गुदरी साहु का नाम कई बार लिया! रजनी न कि कमज़ोर समझ कर उल्टा मेरी गर्दन दबाओगे। अन्दर से सुन रही थी। उसे लड़के की कमाई का लेकिन किसान एहसान जताना गुनाह समझता है। विश्वास होगया। उसने धीरे से माधो का नाम लेकर उसके नज़दीक एहसान की कोई कीमत नहीं । मालूम नहीं पुकारा । वह कई महीने से बीमार थी। यह उसका सीधापन और संकोच है या सदियों के कर्ज ने माधो घर में नहीं जाना चाहता था, लेकिन इनकार उसे इतना कायर बना दिया है। भी न कर सका । भीतर जाकर मा के पैर छुए और उसकी . रमई यह धमकी सुनकर डर गया और बोला- चारपाई पर बैठ गया। वह उसकी तरफ़ देखने लगा, मानो "अच्छा साहु, ले लो।" रमई ने गऊ-दान कर दिया। मा के हुक्म का इन्तज़ार कर रहा हो। इसे दान ही कहेंगे। साठ-सत्तर का माल केवल पैंतीस रजनी ने कहा- "बेटा, मैं तो बहुत बीमार हूँ। बचने रुपये पर ! किसान अपना माल कभी अच्छी कीमत पर की उम्मीद नहीं। अच्छा हुआ जो तुम अागये। लड़का नहीं बेच सकता। देखा. बह देखी, अब कुछ न चाहिए। तुम्हारे आगे गाय के बिकते ही माधो पर फिर फिटकार पड़ने मर जाती तो गति बन जाती।" लगी। सौतेली मा फिर चीखने-चिल्लाने लगी। इस माधो ने आँसू रोकते हुए मा की तरफ़ देखा। इतने परिवर्तन का एक गुप्त कारण था । वह नहीं चाहती थी में रजनी का लड़का हरखू आगया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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