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सरस्वती
[भाग ३८
शतपथ के उपशाता याज्ञवल्क्य तथा उसके उपनिबन्धक उनका वर्णन पुराणों के अतिरिक्त साधना से योगज प्रत्यक्षउनके किसी अज्ञातनामा शिष्य को माना है । लेखक के द्वारा वस्तु-तत्त्वों को प्रत्यक्ष दिखला देनेवाले योगशास्त्र में मत से शतपथ ब्राह्मण का प्रतिपाद्य विषय 'यज्ञ' है । ये भी मिलता है। लेखक यदि चाहें तो पातञ्जल योगदर्शन यज्ञ केवल मुख्यार्थ को सूचित करनेवाले 'रूपक' तथा के तृतीय पाद के २६वे सूत्र के व्यास-भाष्य को जिसे स्वामी नाटक-मात्र हैं; सब 'प्रतीक' हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, दयानन्द सरस्वती ने भी प्रामाणिक माना है, देख सकते वृष, श्राप तथा वरुण पद क्रमशः वीर्य, सन्तान, माता, हैं। इतना होते हुए भी लेखक ने अपने दृष्टिकोण को -भाग, स्त्री तथा राष्ट्रनियन्ता के अर्थों में इसमें स्वीकार जिस कौशल से उपस्थित करने का प्रयत्न किया है, वस्तुतः किये गये हैं । अपने विचारों की पुष्टि में लेखक ने ग्रन्थ दर्शनीय है । पुस्तक आर्यसमाजियों के लिए विशेष उपके उद्धरण देकर विषय को स्पष्ट किया है । ग्रन्थ की भाषा योगी है तथा सर्वसाधारण भी आश्रमों के महत्त्व की ज़ोरदार और विषय-प्रतिपादन की शैली प्रभावोत्पादक है। अनेक सुन्दर बातें इससे जान सकते हैं। लेखक के विचारों में पर्याप्त मौलिकता तथा विचारणीय (३) सोम- इस पुस्तक में 'सोम' शब्द पर विचार 'बातें हैं। कात्यायन तथा पतञ्जलि ने एवं सभी वैदिक किया गया है। सोम पद का प्रसिद्ध अर्थ सोम न करके 'विद्या सम्प्रदायों ने शतपथ आदि ब्राह्मण-ग्रन्थों को वेद माना समाप्त करनेवाला ब्रहाचारी' किया है। इसकी सिद्धि में है और लेखक के शब्दों में ऐसा करना 'दुःसाहस की जो. लेखक ने जड़ सोम में न घट सकनेवाले ऐसे विशेषणों की चरम सीमा है उसका परिचय दिया है । ऐसा क्यों किया और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है जो उनके मन्तव्य गया है या ऐसा करने में उनका क्या उद्देश था, इस को पूर्णरूप से परिपुष्ट करते हैं । स्थान स्थान पर आये हुए पर लेखक ने कुछ भी प्रकाश नहीं डाला । सम्पूर्ण यज्ञों 'द्रोण', कलश, धारा, बभ्र आदि पदों का अर्थ व्युत्पत्ति को केवल 'नाटक' या रूपक कहकर लेखक ने जैमिनि और कोशों की सहायता से क्रमशः रथ, व्याख्यानमण्डप, आदि कर्मकाण्डभक्तों के, यज्ञों से 'अपूर्वोत्पत्ति' द्वारा काम्य ऋत (ज्ञान) की धारा आदि किया है। व्याख्या से एक स्वर्ग आदि फलप्राप्ति के सिद्ध करने के सम्पूर्ण परिश्रम, नूतन दृष्टिकोण का पता चलता है, और इस दृष्टि से पुस्तक सिद्धान्तों और दार्शनिक गवेषणाओं की उपेक्षा कर दी उपयोगी है। " है । इन सब विषयों पर विचार न होने से ग्रन्थ का महत्त्व (४) अथ मरुत्सूक्तम्-मूल्य ।) कम हो जाता है । अाशा है, लेखक अपने प्रकाशित होने- इस पुस्तक में ऋग्वेद में आये हुए 'मरुत्' पद की वाले 'शतपथ-भाष्य' में इनका भी विवेचन करेंगे। मीमांसा की गई है । 'मरुत्' का अर्थ 'सैनिक' किया गया
(२) स्वर्ग-पृष्ठ-संख्या ८५ । मूल्य ।। है। ... है, 'वायु देवता' नहीं । व्याख्यान-शैली वही है जो उपर्युक्त . इस पुस्तक में स्वः और स्वर्ग इन दोनों पदों में व्युत्पत्ति- पुस्तकों की है । इस पुस्तक के अनुसार वैदिक सभ्यता में भी निमित्तक भेद मानकर 'स्वर्ग' का अर्थ सुख की ओर सेनाओं का दृढ़ संगठन तथा जन-संहारक बड़े से बड़े ' जानेवाला किया गया है। स्वः की ओर जानेवाले ये तीन भयंकर वैद्युतिक यंत्रों तथा शस्त्रास्त्रों का पता चलता है। मार्ग ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ बतलाकर लेखक पुस्तक खाज से लिखी गई है और लेखक ने अपने प्रतिने स्वः से संन्यासाश्रम का ग्रहण किया है। पुनः वैदिक पाद्य विषय को खूब स्पष्ट तथा मनोरञ्जक ढंग से उपस्थित मंत्रों के उद्धरण देकर विस्तार से इन आश्रमों का वर्णन किया है। किया है । इस प्रकार के व्याख्यान-कौशल से जो अर्थ किये (५) अथ ब्रह्मयज्ञ:--मूल्य ।।) है। हैं वे हमें किसी निश्चयात्मक परिणाम पर नहीं पहुँचाते। पञ्चमहायज्ञों में से ब्रह्मयज्ञ भी एक है । सन्ध्योपासन स्वर्ग-विषयक सभी अर्थ पौराणिक स्वर्ग में भी घट सकते द्विजातियों का दैनिक कर्त्तव्य कहा गया है । इस पुस्तक हैं । स्वर्गलोक देवलोक होने से विभिन्न देवताओं के लोकों में आर्यसमाज में प्रचलित सन्ध्या-मंत्रों की सुन्दर व्याख्या . के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त हो सकता है। इस प्रकार की गई है। मंत्रों में प्रत्येक पद कितना सारगर्भित है तथा . के लोकों की सत्ता, केवल पौराणिक कल्पना नहीं है, किन्तु उनके क्रम में कितना रहस्य भरा हुआ है, यह इस ग्रन्थ से स्पष्ट ..
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