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संख्या ३]
रमेश सम्मानार्थ उठ खड़ा हुआ । प्रणाम - श्राशीर्वाद के बाद दोनों बैठ गये । विनोदचन्द्र ने मुस्कराकर कहा— रमेश ! तुमसे एक सीधा सा सवाल करना चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि ठीक ठीक जवाब दोगे !
" मैंने कभी आपसे कोई बात छिपाने की कोशिश नहीं की ।"
"मैं यह जानता हूँ और इस बात के लिए तुमसे बहुत खुश हूँ । इस समय जो कुछ जानना जाहता हूँ वह यह है । क्या आशा और तुम्हारे बीच झगड़ा हो गया है ?"
"क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप यह क्यों पूछ रहे हैं ?"
" मेरा हृदय पिता का हृदय है और मैं देखने वाली रखता हूँ । आशा ने तो मुझसे कुछ नहीं कहा, लेकिन मेरा ख़याल है कि तुम दोनों में ज़रूर झगड़ा हो गया है । उस दिन जब वह मेरे घर ढेरों असबाब लेकर पहुँची तभी मुझे सन्देह हुआ था । उसने मुझे बतलाया था कि वह स्थान - परिवर्तन के विचार से आई है, किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ था। मैंने और सवाल किये, लेकिन वह बात टालने की कोशिश करती रही । उसका चेहरा उतरा हुआ था और वह थकी हुई-सी मालूम होती थी । कई दिन बीत गये, लेकिन उसकी तन्दुरुस्ती नहीं सुधरी । तब मैंने अपने डाक्टर को बुला भेजा। उसकी परीक्षा करने के बाद डाक्टर ने मुझे बतलाया कि किसी मानसिक आघात के कारण उसे कोई स्नायु रोग हो गया है। तब से उसका इलाज हो रहा है, लेकिन कोई फ़ायदा दिखाई नहीं देता । उसका चेहरा मुझीया रहता है और वह बहुत दुबली हो गई है। दिन-रात वह अपने में ही खोई रहती है और किसी मित्र से मिलना-जुलना भी उसे पसंद नहीं है । किसी मनोरञ्जन के वह पास नहीं फटकती । इतने दिनों से वह मेरे यहाँ मौजूद है और तुम एक बार भी नहीं श्राये । तुम्हीं बतलाओ, इन बातों से क्या मालूम होता है ।"
तब रमेश ने उपर्युक्त दुःखद घटनायें बयान कर दीं। उसने कोई बात नहीं छिपाई । विनोदचन्द्र उट्ठाकर हँस पड़े ।
" रमेश ! अब तक मैं तुम्हें गम्भीर स्वभाव का व्यक्ति
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मतभद
समता आया हूँ, लेकिन श्राज यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई कि तुम बच्चों की तरह भी व्यवहार कर सकते हो । क्या तुम यह समझते हो कि श्राशा के बिना सुखी रह सकते हो ? अगर तुम्हारा यह ख़याल है, तुम भारी भ्रम में हो । जब तुम्हारी शादी के मामले में मैंने अपनी रजामंदी दी थी तब उसी समय मैंने तुम्हें खूब तोल लिया था। बेटा ! स्त्रियों के मामले में पुरुषों को बड़ी होशियारी से काम लेना पड़ता है। अपनी पत्नियों पर अधिकार जमाये रखने के लिए हमें कभी झुकना पड़ता है, कभी न जाना पड़ता है। किन्तु प्रत्येक दशा में उनकी मान-रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य होता है । हमसे इतने
की आशा करने का उन्हें पूरा अधिकार है । "
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“मैं यह मानता हूँ, पापा कि मुझ से बड़ी ग़लती
हुई । "
" भी बहुत हानि नहीं हुई है। अब तुम एक काम करो। फ़ौरन मेरे साथ चलो और उससे समझौता कर लो ।”
" लेकिन, पापा, क्या यह सचमुच उचित है कि ” "आगा-पीछा मत करो, बेटा । मैं तुम्हारा शुभचिन्तक हूँ और तुमसे अधिक अनुभवी हूँ। जो कहता हूँ, करो ।”
" बहुत अच्छा, पापा । "
तब दोनों उठकर चले गये ।
बाध घण्टे में रमेश ने आशा के कमरे में प्रवेश किया। एक बार उसकी ओर देखकर आशा ने सिर झुका लिया । रमेश झपटकर उसके समीप पहुँचा, उसके बग़ल में बैठ गया और उसे भुजाश्रों में कस लिया ।
" श्राशा ! प्यारी आशा ! मैं जानता हूँ कि मैंने तुम्हारे साथ जानवर का-सा बर्ताव किया है । मुझे क्षमा कर दो "मुझे क्षमा .....!"
"मुझसे भी बड़ी भूल हुई।" आशा ने अवरुद्ध कंठ से कहा । "मेरा अपराध भी कम नहीं है । स्वार्थ ने, मिथ्याभिमान ने मुझे मूर्ख बना दिया था, अंधी बना दिया था। मुझे समझना चाहिए था कि अपने प्रति भी तुम्हारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं ।”
"तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता । जीवन के
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