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सरस्वती
[भाग ३८
सकता है, जो कुछ चाहे कर सकता है, और वह भी उलझ जाता जिससे वह दूर रहना चाहती थी। हृदयपूर्णतया स्वतन्त्र है । उसका प्रस्ताव स्वीकार करके अाशा संबंधी बातों में विवेक की एक नहीं चलती। रमेश के प्रति ने बड़ी बुद्धिमानी प्रदर्शित की। उसके पत्र में व्यंग्य उसका प्रेम उसके हृदय में इतनी दृढ़ता से जमा हुआ था अवश्य भरा है, किन्तु यह तो स्वाभाविक ही है। वे जिस कि उसे उखाड़ फेंकना आसान न था। मनुष्य अपनी कठिनाई में थे उसे हल करने का इससे अच्छा कोई सहायता करना चाहे और न कर सके-यह कितने दुःख उपाय न था। कितना अच्छा हुआ कि उसे ऐसा सुन्दर का विषय है ! आशा के आश्चर्य का, विवशता का, दुःख उपाय सूझ गया !
का वारापार न था।
__ और रमेश ? वह भी सुखी न था। सुविकसित पुष्प ___ पति से विलग हुए और पिता के घर पर निवास करते की भाँति जो घर सदा खिलखिलाता रहता था, सहसा हुए एक पक्ष बीत गया, किन्तु अाशा सुखी न थी। पग आकर्षणहीन हो गया था। पहले ही की तरह अब भी वह पग पर उसे रमेश की याद आती थी, और इस बात से साफ़-सुथरा रहता था, किन्तु हर समय उसमें अजीब उसे अपने ही ऊपर क्रोध अाता था। जो उसे नहीं चाहता सूनापन दिखाई देता था। उसके हृदय में भी विचित्र उसकी वह क्यों परवा करे ? वह एक विधवा स्त्री के सूनापन आ गया था। काम में भी उसका मन न लगता। समान है और उसे विधवा के समान जीवन व्यतीत करना लिखने की मनःस्थिति किसी समय उत्पन्न न होती। वह चाहिए। उसके भाग्य में यही लिखा था कि उसके ज़बर्दस्ती लिखता, किन्तु सन्तोषजनक ढंग से कुछ न जीवन के अन्तिम दिवस असीम दुख से व्यतीत हों। जो लिख पाता। उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। आशा कुछ उसके लिए नहीं है उसकी कामना करने का उसे से उसके लेखन-क्रिया का तो स्पष्टतः कुछ सम्बन्धन था। क्या अधिकार है ? मानव-जीवन मनुष्य को उतना ही तो उसके इस काम में तो वह बाधा ही उपस्थित करती थी। दे सकता है जितने का वह पात्र है।
इस सम्बन्ध में उसके विरोध की भावना के ही कारण तो ___रमेश ! प्रारम्भ में वह कितना सहृदय प्रतीत हुआ उन दोनों का सम्बन्ध विच्छेद हुआ था। उसकी अनुपथा, किन्तु अन्त में कितना हृदयहीन सिद्ध हुआ ! मनुष्य स्थिति से लेखन-शक्ति को प्रेरणा मिलनी चाहिए थी। का बाह्य स्वरूप उसके अन्तःकरण का द्योतक नहीं होता। फिर यह उलटी बात क्यों हुई ? बाह्य रूप के बहकावे में आ जाना भारी भूल है। किन्तु उसका क्या हाल है ? उसकी दिन-चर्या क्या है ? इस विषय में उसकी जैसी अनुभव-हीन नवयुवती के लिए किन्तु उसके लिए चिन्तित होने की उसे क्या आवश्यकता भूल करना स्वाभाविक ही है। यह कितने दुःख की बात है ? वह तो अब उसे नहीं चाहती । "तुम्हारे साथ विवाह है कि एक साधारण भूल समस्त जीवन के सुख को नष्ट करके मैंने भारी भूल की!"-उसके इन शब्दों का और कर देती है ! अपनी उस साधारण-सी भूल के लिए उसे क्या मतलब है ? विचित्र है स्त्री-चरित्र ! क्या अब भी वह कैसा भारी मूल्य चुकाना पड़ा! अब वह उसका कोई उससे प्रेम करता है ? नहीं करता। शायद करता है। नहीं, वह भी उसकी अब कोई नहीं। उसकी याद फिर भूल जाने का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए। भूल जाना उसे क्यों सताती है ? क्या अब भी वह उससे प्रेम करती सम्भव है ? शायद है। शायद नहीं है । तब क्या करना है ? नहीं करती। शायद करती है | यह कितनी अपमान- चाहिए ? समझौता ? नहीं, यह असम्भव है। वह उसके जनक बात है ! यदि उसका प्रेम लेश-मात्र भी उसके जीवन से बाहर जा चुकी है। उसकी इच्छा के विरुद्ध हृदय में विद्यमान है तो उसे निकाल फेंकना चाहिए, वह कैसे उसे पुनःप्रवेश का निमन्त्रण दे सकता है ? कैसी उसका विचार भी मन में न आने देना चाहिए । हाँ, विषम परिस्थिति है ! उसे ऐसा करना चाहिए, दृढ़ता के साथ, निर्दयता के दिन का तीसरा पहर था । रमेश समालोचनार्थ श्राई साथ। किन्तु इस सम्बन्ध में उसकी सारी प्रतिज्ञायें हुई एक पुस्तक पढने का प्रयत्न कर रहा था। सहसा निष्फल सिद्ध होतीं। बार बार उसका मन उसी बात में उसके श्वसुर विनोदचन्द्र ने कमरे में प्रवेश किया।
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