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संख्या ३]
मतभेद
२८१
नहीं हूँ !"
सकता। उचित-अनुचित का विचार तुम्हें ज़रा भी नहीं क्या है ? कृपया इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करो। मैं रह गया है । ऐसे अपमानजनक शब्द सुनने के बाद शायद चाहता हूँ कि आज तीसरे पहर तुम मेरे साथ इस प्रस्ताव कोई स्वाभिमानी पति अपनी स्त्री से कोई सम्बन्ध रखना पर विचार करो। इस समय मैं बाहर जा रहा हूँ और एक पसन्द न करेगा। तुम अपने को क्या समझती हो—परी, बजे वापस आऊँगा। स्वतन्त्र रूप से गम्भीरतापूर्वक रानी या क्या ?"
विचार करने के लिए इतना समय शायद तुम्हारे लिए "चाहे मैं संसार की सबसे खराब स्त्री ही क्यों न काफ़ी होगा। होऊँ, लेकिन तुम्हारी धौंस सहने के लिए अब मैं तैयार
तुम्हारा,
रमेश" तीव्र वेग से उमड़ते हुए क्रोध को वश में रखना आशा क्रोध से काँपने लगी। पत्र फाड़कर उसने एक असम्भव जानकर रमेश उठकर तेज़ी से कमरे के बाहर ओर फेंक दिया। बात इस हद तक पहुँच गई ! जले पर निकल गया।
नमक ! वह अपने को क्या समझता है ? उसके साथ वाचनालय में जाकर वह एक आराम-कुर्सी पर लेट सम्बन्ध जोड़े रहने के लिए क्या वह मर रही है ? क्या गया। नौबत यहाँ तक पहुँच गई ! मामला इतना बिगड़ उसमें आत्म-सम्मान का अभाव है ? वह किसी की धौंस गया ! कोई व्यक्ति ऐसी स्त्री से कैसे सम्बन्ध बनाये रख सहनेवाली स्त्री नहीं है । उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए सकता है जो इतनी शान बघारती है, जिसे औचित्य-अनौ- वह अनुनय-विनय न करेगी-कदापि न करेगी। अपने चित्य का लेश-मात्र भी विचार नहीं रह गया है, समझाने- पिता के घर जाकर वह शेष जीवन शान्ति के साथ व्यतीत बुझाने का भी जिस पर कोई असर नहीं पड़ता ? विलग कर सकती है। इस कलहपूर्ण वातावरण में क्या होने का समय शायद आ गया है। जो लोग साथ साथ रक्खा है ? शान्ति के साथ नहीं रह सकते उन्हें अलग हो जाना ही तीसरे पहर जब रमेश मकान वापस आया तब उसे उचित है। हे ईश्वर ! अब क्या करना चाहिए ? पता चला कि सवेरे ही आशा अपने पिता के घर चली
दूसरे दिन प्रातःकाल अाशा को एक पत्र मिला । वह गई । वह मोटर पर सवार होकर गई और उसके आज्ञापत्र इस प्रकार था
नुसार उसका असबाब ठेले पर लदवाकर पहुंचा दिया "प्यारी अाशा,
गया। उसके लिए वह एक पत्र छोड़ गई थी। उस पत्र यह बात अत्यन्त खेदजनक है कि इधर हम दोनों में लिखा थाको एक-दूसरे की संगति में सुख प्राप्त नहीं हो रहा है। "......, सदैव की भाँति इस बार भी तुम्हारी राय वैवाहिक जीवन की सार्थकता सुख पर ही आधारित है। ठीक ही है। इस खेदजनक वातावरण का शीघ्रातिशीघ्र इसलिए उचित यही है कि जब कभी पति या पत्नी या अन्त हो जाना ही उचित है। मेरे प्रति तुम्हारी जो दोनों को उनके वैवाहिक जीवन से सुख प्राप्त न हो तो ज़िम्मेदारियाँ हैं उनसे मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ। मैं अपने उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय । वर्तमान कानून के पिता के घर जा रही हूँ। लेकिन यह तो मैं फ़िज़ल ही अनुसार हम लोगों का सम्बन्ध विच्छेद होना असम्भव है। लिख गई, क्योंकि इस बात से तुम्हें कोई सरोकार नहीं। किन्तु अपनी समस्या हल करने के लिए हमारे सामने जो भारी बोझ तुमसे उठाये नहीं उठता था वह आज एक मार्ग है । अनेक अलिखित कानून विद्यमान हैं और तुम्हारे सिर से उठ गया । आशा है कि अब तुम आराम उनके अनुसार कार्य करने के लिए लोग स्वतन्त्र हैं। और चैन से जीवन व्यतीत कर सकोगे ! बिना शोर-शराबा किये गुप्त-रूप से हम अपना सम्बन्ध तोड़ . सकते हैं और एक-दूसरे को एक-दूसरे के प्रति अपनी
अाशा।" ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने झगड़ा इतनी आसानी से ख़त्म हो गया ! यह अच्छा का अवसर दे सकते हैं । इस सम्बन्ध में तुम्हारे विचार ही हुआ । निर्विघ्न भाव से अब वह जिस तरह चाहे रह
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