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________________ २८० सरस्वती [भाग ३८ और वह अपने शयनागार में है। उसे कोई आश्चर्य “कम से कम वह घृणा का पात्र तो नहीं होता।" नहीं हुआ। यह तो वह जानता ही था कि उससे इसके “मैं उससे घृणा नहीं करती। हाँ, उसे नापसन्द विपरीत व्यवहार करने की आशा करना व्यर्थ है। उसे ज़रूर करती हूँ।" मनाने के विचार से वह शयनागार की ओर चला। किन्तु 'क्या यह वाञ्छनीय नहीं है कि स्त्री अपने पति की क्या आसानी से वह उसे मना पायेगा ? असम्भव। दुर्वलताओं को क्षमा करे ?" शयनागार का दरवाजा भिड़ा हुआ था, लेकिन उसकी "और, क्या यह भी वाञ्छनीय नहीं है कि पति अपनी सिटकिनी नहीं चढ़ी थी। धीरे से दरवाज़ा खालकर उसने स्त्री की उचित इच्छाओं की अवहेलना न करे ? लेकिन कमरे में प्रवेश किया । एक शाल ओढ़े हुए आशा अपने तुम्हें तो अगर किसी बात से मतलब है तो वह है लिखनाबिस्तरे पर लेटी हुई थी और उसकी आँखें बन्द थीं। पढ़ना । कम से कम मुझसे तो तुम कोई मतलब रखना वह बिस्तरे के समीप पहुँचा। ही नहीं चाहते।" "अाशा !" ___"यह ऐसा दोष है जिसे मैं कभी स्वीकार नहीं कर उसने कोई उत्तर नहीं दिया। तब बिस्तरे पर बैठकर सकता । अाज भी मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ, जितना उसने धीरे से उसे हिलाया। पहले चाहता था। तुम्हारी उचित इच्छायें मैं सदा मानने "मुझे तंग मत करो।" का प्रयत्न करता हूँ, यदि मानना असम्भव नहीं होता। "उठो, प्रिये । आत्म-विकास की आवश्यकता मुझे लिखने के लिए प्रेरित "क्यों उह् ?” करती है, और लिखना मेरे लिए उतना ही आवश्यक है "सोने का वक्त अभी नहीं हुआ है और तुमने जितना किसी दूसरे को कोई दूसरा काम करना। जब मैं भोजन भी नहीं किया है।" लिखता रहता हूँ तब कोई दूसरा काम करना असम्भव होता "मुझे भूख नहीं है और मैं सो रही हूँ।" है। इसलिए अगर आज शाम को मैं तुम्हारी बात नहीं ___ "नहीं, तुम जाग रही हो और मन में मुझे कोस रही मान सका तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है।" हो। मुझे बड़ा अफ़सोस है !" 'आज की ही बात नहीं है। बीसों बार तुम ऐसा कर "अफ़सोस करने की तुम्हें क्या ज़रूरत है ? तुमने चुके हो। साफ़ बात तो यह है निराशा के अतिरिक्त मैं कौन-सी ग़लती की है ? तुम तो कभी कोई ग़लती नहीं तुम से कुछ नहीं पा सकी !” । करते !" "निराशा की बात करती हो तो मुझे भी कहना __ "न-जाने क्यों आज-कल तुम मुझे समझने की कोशिश पड़ेगा कि तुम्हारे सम्बन्ध में मेरा भी यही विचार है। नहीं करतीं ?" फिर भी मैं तुम्हें प्यार करता हूँ-तुम्हारे गुणों-अवगुणों"मैं तुम्हें खूब समझती हूँ, तुमसे अधिक समझती सहित तुम्हें प्यार करता हूँ।" हूँ | मेरी इच्छात्रों की अवहेलना करने में तुम्हें बड़ा मज़ा . “जब तुम्हारे कार्य तुम्हारे शब्दों का समर्थन नहीं श्राता है । तुम्हारे अन्दर जो मसखरापन है वही सारे फ़साद करते तब मैं यह कैसे मान लूँ ?" की जड़ है।" ____ “तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ? श्राशा ! हम बच्चे ___"इस प्रशंसा के लिए धन्यवाद ! किन्तु मैं नहीं जानता नहीं हैं; हम समझदार हैं, जवान हैं । हमारा यह कर्त्तव्य कि इस प्रशंसा के योग्य हूँ या नहीं।" । है कि एक-दूसरे के दृष्टि-कोण को समझे और अपने मत__ "तुम मसख़रे हो और इससे तुम इनकार नहीं कर भेदों को दूर करें ।" __ "तुम्हारे साथ विवाह करके मैंने भारी भूल की। ___खैर, यही सही । लेकिन लोग कहते हैं कि मसख़रा अगर किसी मामूली भोंदू आदमी से भी शादी करती किसी को नुकसान नहीं पहुँचाता।" तो शायद आज से अधिक सुखी होती !" "यह मैं नहीं मानती।" "ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें मैं हर्गिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकते।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035249
Book TitleSaraswati 1937 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevidutta Shukla, Shreenath Sinh
PublisherIndian Press Limited
Publication Year1937
Total Pages640
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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